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नवस्तुति : अविनाश मिश्र और वागीश शुक्ल












वरिष्ठ पीढ़ी में कुछ लेखक-आलोचक ही हैं जो समकालीन लेखन से बखूबी परिचित हैं, युवा लेखकों को न केवल पढ़ते हैं, लिख कर या फोन से अपनी सहमति-असहमति भी दर्ज़ करते हैं. विष्णु खरे अब नहीं रहे. नरेश सक्सेना और वागीश शुक्ल जैसे कुछ लेखक अभी भी यह जरूरी संवाद बनाये हुए हैं.

कथाकार चंदन पाण्डेय ने अभी कल ही वागीश शुक्ल का ज़िक्र किया था कि कैसे उनके इन्टरव्यू को देखकर उस पर वागीश जी ने देर तक उनसे बात की.

ऐसा ही सुखद संयोग कवि अविनाश मिश्र के साथ भी घटित हुआ जब ‘नवस्तुति’ श्रृंखला की कविताओं को पढ़कर वागीश जी ने यह सुचिंतित टिप्पणी लिखी.

प्रायोजित आलोचना (लेख/संपादित-किताब) के इस बेशर्म दौर में किसी ईमानदार कवि के लिए यह कितनी आश्वस्ति की बात है कि कोई उसे पढ़ रहा है और उस पर लिख भी रहा है.

वागीश शुक्ल की यह टिप्पणी और फिर अविनाश मिश्र की ये कविताएँ ख़ास आपके लिए.


कवि से बड़ी कविता
वागीश शुक्ल









अविनाश मिश्र की कविताओं का मैं उत्सुक पाठक हूँ और इस उत्सुकता की तफ़सील दर्ज़ करने के लिए कुछ समय से सोच रहा हूँ. इस इरादे को फ़िलहाल टालना ही ठीक लग रहा है किन्तु उनकी नवीनतम कविताओं जो नवदुर्गा को आश्रय मान कर लिखी गयी हैं, पर एक तात्कालिक टिप्पन करने का मन हो आया.

ये कविताएँ एक ठस अर्थ में भी `ताज़ा’ हैं क्योंकि ये बिलकुल अभी-अभी २५ मार्च २०२०—०२ अप्रैल २०२० के बीच लिखी गयीं जो विक्रमीय राज्यारोहण के २०७६ वर्ष पूरे हो चुकने पर प्रारम्भ होने वाले प्रमादी नामक संवत्सर के वासन्त नवरात्र का समय है. ये उस समय लिखी गयीं जब एक अभूतपूर्व संकट से निबटने के लिए हमारे देश ने एक अभूतपूर्व निर्णय लिया जिसको बताने के लिए खोजे गये अँग्रेज़ी शब्दों में social distancing और physical distancing के बीच चल रहे घमासान में हिन्दी के एक शब्द `संग-रोधने पैठने की जुर्अत की है.

इस देशकाल-कीर्तन का सन्दर्भ रचना से नहीं, रचना-कार से जोड़ना चाहिए. आचार्य अभिनव गुप्त ने (‘नाट्यशास्त्र’पर अपनी टीका में) देश और काल को काव्यास्वाद में विघ्न बताया था तथा सलाह दी थी कि प्रेक्षकों को नाट्यशाला में प्रवेश के पहले इनको बाहर ही छोड़ आना चाहिए. दूसरी ओर प्रत्येक अनुष्ठान के पहले हम घोषित करते हैं : मैं अमुक-वंशीय अमुक समय में अमुक स्थान पर.... मुझे इसमें कभी कोई सन्देह नहीं रहा है कि साहित्य-सर्जना एक सनातन-धर्मी अनुष्ठान है और मैं यहाँ इसे फिर एक बार स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि यह कैसे है.

अनुष्ठान में हम अपना देशकाल सूचित करते हैं और अन्त में `इदम् न मम (= यह मेरे लिए नहीं)’ कह कर पूरे कृत्य को देवता के लिए समर्पित कर देते हैं. जिस देवता के निमित्त यह समर्पण होता है वह हमारे द्वारा सूचित देश-काल के निर्देशाङ्कन से भी परे होता है और उसके अपने देश-काल का भी कोई निर्देशाङ्कन नहीं होता. उसी प्रकार जिस आस्वादक के लिए साहित्य रचा जाता है वह रचयिता के देशकालाङ्कन से भी परे होता है और उसका भी अपना कोई देशकालाङ्कन नहीं होता—इसी ओर अभिनव गुप्त ने इशारा किया है जब वे आस्वादक के लिए यह आवश्यक मानते हैं कि वह अपना देश-काल छोड़ कर कविता के पास जाये. इसके साथ ही रचयिता अपना देश-काल सूचित करता है किन्तु इस प्रतिश्रुति के साथ कि यह रचना मेरे लिए नहीं है, मुझसे (और फलतः जिस देश-काल से मैं निर्देशित होता हूँ उससे) स्वतन्त्र है.

हमारे समय में साहित्यरचना और साहित्यास्वादन दोनों ही देशकाल की बेड़ियों में जकड़े हुए हैं और इस प्रकार साहित्यकर्मी से विनम्रता का अधिकार छीन लिया गया है. वह पहले नियति के बनाये नियमों से स्वतन्त्र था अब वह मनुष्य के बनाये नियमों में कुछ जोड़ने-घटाने-सुधारने तक अपनी भूमिका को सीमित मानता है. उसके लिए साहित्य एक नक़ाब की हैसियत से अधिक महत्त्व नहीं रखता जिसके पीछे छिपा हुआ वह उसी हम्माम में घुस सके जिसमें समाज बनाने-चलाने की उम्मीदें पालने वाले मत-निर्माता (= opinion makers) घुसे हुए हैं.
मम्मट के शब्दों का सहारा लेते हुए मैंने ऊपर कहा था कि हमारे प्राचीन चिन्तन में कवि नियति के बनाये नियमों से स्वतन्त्र होता था. इसका तात्पर्य यह है कि उसे यह मालूम था कि ये नियम पारमार्थिक सत्य नहीं हैं, इनकी सत्ता केवल व्यावहारिक है जिसका अर्थ यह है कि इनके विकल्प सम्भव हैं. अतः वह उनसे जकड़ा नहीं था और संसृति की किसी भी निर्मिति को संशय से देख सकता था. उदाहरण के लिए उपनिषदों में कहीं लिखा है कि पहले जल हुआ फिर अग्नि आदि हुए, कहीं लिखा है कि पहले अग्नि हुई फिर जल आदि हुए. पढ़ने वाला घबड़ाता है कि क्या सच है. किन्तु आचार्यगण बताते हैं कि `सच’ दोनों में से कोई नहीं है क्योंकि सृष्टि स्वयं मिथ्या है इसका जो भी क्रम आपको समझ में आ जाय वही मान लीजिए क्योंकि उपनिषद् का प्रतिपाद्य सृष्टि का क्रम समझाना नहीं है. प्राचीन उदाहरण यह है कि जैसे ऐन्द्रजालिक जब रस्सी फेंक कर ऊपर चढ़ता है तब वह कभी पहले अपना सिर कट कर ज़मीन पर गिरता हुआ दिखा सकता है कभी पहले अपने हाथ, और यह बहस बेमानी है कि पहले क्या कट कर गिरता है. यदि इस उदाहरण से सन्तोष न हो तो यों समझ लीजिए कि यूक्लिद की ज्यामिति में समान्तर रेखाएँ कभी नहीं मिलतीं किन्तु उतनी ही गणितीय वैधता वाली ज्यामितियाँ भी हैं जिनमें समान्तर रेखाएँ मिलती हैं—कुछ ऐसी ही स्थिति हमारी ब्राह्माण्डिकी की है जिसे कोई चार विमाओं ( = dimensions) से समझाता है तो कोई दस से.

नियति से स्वतन्त्र होना यही है—चिन्तन और सर्जना को नियति-कृत किसी भी नियमावली के प्रति शंकालु होना चाहिए. इसलिए जब अविनाश मिश्र ने ‘सिद्धिदात्री’में लिखा :

मैं संशय से न देखूँ कविता को
कि कविता संशय से देखे संसार को

तो `संसारका मतलब किसी समय-विशेष में किसी देश-विशेष की राज्य-व्यवस्था तक महदूद रखना कविता को महदूद करना होता है.

`स्वातन्त्र्यएक शक्ति है जिसका अर्थ अभिनव गुप्त ने `परप्रकाश्यता की अनुपस्थिति’ बताया है घड़ा स्वतन्त्र नहीं है क्योंकि बिना दिये की रोशनी के वह दिखता नहीं. अब हम `स्वातन्त्र्य’ का अर्थ `लिबर्टी’ लेते हैं जो एक परतन्त्रता से परिभाषित होती है वह टामस पैन ( = Thomas Paine) की उस मसीहाई घोषणा के अधीन है जिसके अनुसार हमारे भीतर वह शक्ति है कि हम एक संविधान बना कर दुनिया बदल सकते हैं. इस `दुनिया बदलने’ के अनेक प्रयोगों की डोरियों में बंधी कठपुतली की तरह नाचने में अपना अहोभाग्य मानने वाली कविता को ही `प्रतिरोध की कविता’ कहा जाता है. ख़िरद और जुनूँ के नामों की विनिमेयता को करिश्मासाज़ी[1]समझने वाले साहित्यबोध के समय में जब अविनाश मिश्र ‘स्कंदमाता’में `कुलीनता की हिंसा’ को जानने में कवि होना पहचानते हैं और इसे दुनिया बदलने वाला कोई संविधान नहीं बताते क्योंकि `मुझसे पहले भी कवि’ यह जान चुके हैं तो यह अकुलीन हो पाने के साहस का रेखाङ्कन है— इसे ही मैंने ऊपर ‘विनम्रता का अधिकार’ कहा है.

कवि के विनम्र होने का क्या मतलब है जब कि उसका दावा नियति के नियमों से न बँधने का है? निःस्पन्द महाकाल के ऊपर आरूढ महाकाली को BDSMका एक `फोटो-आपमान कर जो नहीं रुकना चाहते वे उस समझ से समंजस हो सकेंगे कि यह स्पन्द का निःस्पन्दता पर अध्यारोप है. अध्यारोप का अर्थ है ‘अतद् ( = जो वह नहीं है)का ‘तद् (=जो वह है)पर आरूढ होना. इस प्रकार पारमार्थिक सत्ता निःस्पन्दता की है जिस पर स्पन्द की व्यावहारिक सत्ता आरूढ है. इस स्पन्द को ही शक्ति कहते हैं क्योंकि वह अभेद में भेद उभार सकता है, रस्सी में साँप दिखा सकता है पत्थर में मूर्ति उकेर सकता है— आवरण और विक्षेप की इन्हीं क्षमताओं के नाते उसे माया भी कहते हैं. इसी शक्ति का मूर्तन देवी के रूप में है और उसके आरोहण का स्वीकार ही विनम्रता है.

यह विनम्रता एक अस्त्रीकरण ( =weaponization) है. जो स्वयं शक्ति है उससे लड़ने का हथियार शक्ति कैसे हो सकता है? महाभारत’ में जब नारायणास्त्र चलता है तो उससे लड़ने के लिए जैसे-जैसे योद्धा उद्यत होते हैं वैसे-वैसे वह उग्र होता जाता है. अन्त में उसको शान्त करने का उपाय सबकी समझ में आता है और सब चुपचाप सिर झुकाए बैठ जाते हैं— यह सिर झुकाना ही उससे बचने का तरीक़ा है. शक्ति के स्पन्द को शान्त करने का एक ही तरीक़ा है—अपने में उसका या उसमें अपना विलोपन करना. यही विलोपन केवलाद्वैत में ‘अहं ब्रह्मास्मि’ के महावाक्य में नामीकृत और शाक्ताद्वैत में महाकाली के उस पुरुषायित में रूपीकृत होता है जिसकी चर्चा अभी आयी थी. यही व्यावहारिकता का पारमार्थिकता में विलोपन है जिसके बाद हमें अपनी प्रत्यभिज्ञा होती है. इस विलोपन को ही आराधना भी कहा जाता है.

जो कुछ भी दृश्य, बोध्य, वाच्य है इसी स्पन्द का चमत्कार है. इसलिए जब ‘स्कंदमाता’में अविनाश मिश्र कहते हैं :

मुझे अपनी मूढता में मग्न रहने दो देवि,
तथ्यों और सूचनाओं का निषेध करने दो
ज्ञान नहीं है वह
ज्ञान की तरह प्रस्तुत है बस

तो मैं इसे इसी विलोपन के एक संस्करण की तरह पढ़ता हूँ और कविता की आराधना मानता हूँ.

अज्ञान को
`ज्ञान की तरह प्रस्तुत’ जान पाने के नाते ही ‘चंद्रघंटा’में यह कहना सम्भव हो सका :

एक ही स्थापत्य में
कोई भवन देखता है कोई खँडहर
सत्यासत्य का भेद
दृष्टि-निर्भर है

`
कुलीनता की हिंसा’ भेद की यही दृष्टि-निर्भरता है जिसे साइब तबरेज़ी ने इस प्रकार पहचाना :

दिल+ए+तु चूँ गुल+ए+ रअना दुरंग उस्ताद० स्त
वगर्न० हुस्न+ए+ख़ज़ान+ओ+बहार यकदस्त स्त

[[ यह तुम्हारा दिल है जो गुल+ए+ रअना की तरह दो रंगों की उद्भावना करता है अन्यथा वसन्त और पतझड़ का सौन्दर्य एक ही है.
(
‘गुल+ए+ रअना’ का शाब्दिक अर्थ है `रूपगर्वित पुष्प’; यह भीतर से लाल और बाहर से पीला होता है.)]]

‘ब्रह्मचारिणी’के तप-अनुशासन और रोमांच से अपरिचित नागरिकों की ओर से शोक हरने की प्रार्थना, जिन लोगों ने सुन्दरता जानी ही नहीं उन्हें सुन्दर करने की‘महागौरी’से की गयी याचना, वस्तुतः उन तमाम लोगों की ओर से ‘कालरात्रि’के ध्यान का संकल्प है जो उन्हें भूल गये हैं, इस संकल्प का स्मरण ही‘शैलपुत्री’ का स्मरण है. प्रकाशन के मरण से पनाह चाहती हुई सृष्टि की ओर से अपने सर्जनाहास के लिए चुने हुए अन्धकार में पहुँचाने की कृपा आदिस्वरूपा ‘कूष्माण्डा’से माँगती हुई ये कविताएँ अपने स्थापत्य में प्रासादीय शिखरों की उत्तुंगता का दर्प नहीं दहाड़तीं, खुले आसमान के नीचे बनी पिन्डी में पुंजीभूत शक्ति-पीठ की ऊर्जा का वीणानुवाद करती हैं.

यों इन कविताओं में से प्रत्येक पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है किन्तु मैं इस लोभ का संवरण करता हूँ. इन कविताओं को परम्परा के सन्दर्भ में देखना .गलत नहीं है बशर्ते कि हम याद रखें कि `परम्परा’ व्याकरण की सुराग़रसाई से परे मानी गयी है और यह हमारी शब्द-सम्पदा में धातु और प्रत्यय से तराशे गये राजमार्ग से नहीं स्मरण की सुरंग से आयी है. स्मरण एक स्वाप्निक कर्तृत्व के विहार का उपवन है जिसमें छवियों का आकारग्रहण कर्मेन्द्रियों की पहुँच से दूर होता है और ज्ञानेन्द्रियों को उलटे पाँव चलने के लिए विवश होना पड़ता है. इसलिए ‘कात्यायनी’के रक्तवर्णी घोषणापत्र की विचारपूर्ण प्रस्तावनाओं का रंग भले ही काले नमक का हो चुका हो, जिन सांध्यकालीन बैठकों में उसे शराब के साथ सलाद पर बुरका गया, उन से उठता हुआ बेतरह धुआँ उस घोषणापत्र की अभय-घोषणा को मूक कर पाने में अपनी असमर्थता को शिरोधार्य करने की रहस्साधना में ही पहचान पाता है :


ख़ल्क़े अज़ दूद+ए+तअय्युन ब०-जुनूँ गश्त अलम
शमअ-हा गुल ब०-सर अज़ शोख़ी+ए+परचम बर- ख़ास्त

                                                 —मिर्ज़ा बेदिल

[[ पूरी सृष्टि विक्षिप्त हो कर अपनी स्थिति के धुएँ का झण्डा घुमा रही है. (इस महफ़िल से) सभी दिये अपनी बुझती हुई बत्तियों के ध्वजोत्तोलन की चंचलता (के मार्ग) से ही बाहर निकले.
(गुल ब०सर =सिर पर `गुल’ धारण किये हुए. यहाँ `गुल’ में श्लेष है एक तरफ़ तो `गुल’ का अर्थ `फूल’ है जिससे तात्पर्य हुआ `पुष्पसज्जित सिर वाला अर्थात् गौरवान्वित’ दूसरी ओर `गुल’ उस पुष्पाकृति बिखराव को कहते हैं जो बुझने के कगार पर आये दिये की बत्ती के सिरे पर आ जाता है और जिसे काट देने पर उसकी रोशनी तेज़ हो जाती है.) ]]

हमारे समय में कवि अपने को कविता का बाप समझते हैं और सारा साहित्य-चिन्तन इस पितृसत्तात्मकता के उद्धरणों की चिनाई से बनता है. नवरात्र का समय कन्या-पूजन के माध्यम से पितृसत्तात्मकता की आलोचना का होता है. मैं उम्मीद करता हूँ कि ये कविताएँ उस आलोचना के स्मरण का जगराता बन सकेंगी जिसमें कोई उद्धरण नहीं है (शैलपुत्री).

wagishs@yahoo.com



[1]ख़िरद का नाम जुनूँ पड़गया, जुनूँ का ख़िरद; जो चाहे आप का हुस्न+ए+ करिश्म०साज़करेहसरत मोहानी
___________________________________________________________________





नवस्तुति
अविनाश मिश्र




शैलपुत्री
_____

तुम्हारा स्मरण संकल्प का स्मरण है—
अनामंत्रण के प्रस्ताव और उसके प्रभाव का स्मरण

तुम्हारा स्मरण उस आलोचना का स्मरण है
जिसमें एक भी उद्धरण नहीं

रचना और पुनर्रचना के लिए
अपमान और व्यथा की अनिवार्यता का
स्मरण करता हूँ मैं
स्मरण करता हूँ
एकांत और बहिर्गमन के पार
ले चलने वाले विवेक का

मैं चाहता हूँ
एक असमाप्त स्मरण
चाहता हूँ
अनतिक्रमणीय चरण

चिरदरिद्र मैं माँगता हूँ
तुम्हारी शरण !





ब्रह्मचारिणी
________

तप का एक अखंड कांड हो तुम—
देह की सामर्थ्य का सफल अनुशासन

विध्वंस जब अस्तित्व पर व्योम-सा सवार है
तुम मनोकामना का रोमांच हो

तुम्हारे तप
तुम्हारे अनुशासन
तुम्हारे रोमांच से अपरिचित
नागरिकों की देह नहीं जानती सामर्थ्य
वह जानती है बस—
सारी गिनतियों से बाहर छूट जाना

वे उपवास में हैं
वे विलाप में हैं
मनोकामना के लिए तप में नहीं
ताप में हैं

तप करो माँ, परंतु
तप से नागरिक-शोक हरो माँ !




चंद्रघंटा
_____

ध्वनियाँ गूँजती हैं,
पुकारती हैं—

गूँजती हैं—दसों दिशाओं में—
पुकारती हैं—ध्वनियाँ

ध्वनियों से संकट को परास्त करने की
युक्ति लेकर आए हैं आततायी—
इस नवयुग में
व्याधि और भय के प्रसार में
क्या यह तुम्हारे ही चरित्र,
तुम्हारी ही प्रेरणा से संभव है

एक ही स्थापत्य में
कोई भवन देखता है कोई खँडहर
सत्यासत्य का भेद
दृष्टि-निर्भर है

दुरभिसंधियों की विचित्र दुर्गंध में
दया जया !



कूष्माण्डा
______

सृष्टि संभव हुई है तुम से
आदिकवयित्री हो तुम

तब जब तम ही तम था
तुम प्रकाशित थीं

अब जब इतना प्रकाशन है
प्रकाशित होते ही मरण है
तब कहाँ कौन-से तम में
किस सृष्टि के लिए
कैसे सृजन के लिए
हँस रही हो तुम

क्या जन उसी तरह मरेंगे
जैसे वे जीवित हैं
या बचेंगे
तुम्हारी अष्टभुजाओं से

कृपा
आदिस्वरूपा !




स्कंदमाता
_______

विपत्ति तथा मूर्खता में
एक साथ फँस चुका है समय

दोष और दायित्व दूसरों पर
मढ़ देने का समय है यह

शत्रु तो बहुत दूर है
मित्र ही शत्रु हुए जाते हैं
हृदय अवसाद से भर चुका है
समीप सड़न से
शासन पतन से—
धर्म को नष्ट कर रहा है वह

मुझे अपनी मूढ़ता में मग्न रहने दो देवि,
तथ्यों और सूचनाओं का निषेध करने दो
ज्ञान नहीं है वह
ज्ञान की तरह प्रस्तुत है बस

मुझसे पूर्व भी जान चुके हैं कवि—
कुलीनता की हिंसा !




कात्यायनी
_______

तुम्हारा स्मरण अत्यंत कल्याणकारी है,
लेकिन तुम स्वयं विघ्नों से घिरी हुई हो

मैं तुम्हें तब से जानता हूँ
जब तुम्हारे पास अपना कोई घोषणापत्र नहीं था

मुक्ति के लिए तुम्हारा संघर्ष
विचारपूर्ण प्रस्तावनाओं से युक्त था
वे लाल आवरण वाले उस घोषणापत्र से ली गई थीं
जो आने वाली बारिशों में काले नमक के रंग का हो गया
जिसे सांध्यकालीन बैठकों में शराब के साथ सलाद पर बुरका गया
बेतरह धुएँ से भरी इन बैठकों ने सब कुछ धुँधला कर दिया

तुम उनमें से नहीं हो
जिन्हें जब कुछ मिलता है, तब वे ठुकराते हैं
तुम ठोकर लगाओगी;
यह जानकर चीज़ें तुम तक आईं ही नहीं

तुम देर से आईं,
और जल्द पहचानी गईं !




कालरात्रि
______

ध्यान करता हूँ,
तुम्हारा ध्यान करता हूँ

तुम्हारी अनूठी कालिमा,
तुम्हारे मुक्त केशों का ध्यान करता हूँ

तुम्हारी चमकती आँखों का
ध्यान करता हूँ बार-बार
तुम्हारे तने हुए स्तनों का
जिनसे पाया आश्रय और आहार
ध्यान करता हूँ तुम्हारी सारी मुद्राओं का
जिनसे पाया निर्भय व्यवहार

ध्यान करता हूँ
तुम्हारा ध्यान करना
तुम्हारा ध्यान न करना
आपदा को आमंत्रित करना है

तुम्हें भूल गया,
इसलिए तुम्हारा ध्यान करता हूँ !





महागौरी
______

संकट सुदीर्घ हो या संकीर्ण,
एक रचनाकार प्रथमतः सौंदर्य-साधक होता है

संकट में सौंदर्य का अन्वेषण,
रचना की भौतिकी है

सब कुछ सौंदर्य है
क्लेश कुछ नहीं
कष्ट का कोई अर्थ नहीं
यह दुःख व्यर्थ है
केवल कोलाहल है,
अगर रूपांतरित न हो सके सौंदर्य में

हे महाशक्ति,
क्या तुम उनकी दीनता देख नहीं सकतीं
जिन्होंने जानी ही नहीं सुंदरता—
सदियों से वंचित

उन्हें वर दो,
सुंदर कर दो !




सिद्धिदात्री
______

जब सारी कविताएँ हो चुकीं
तब भी शेष है एक कविता

उसे भी कोई कहेगा
कि उसका अनुकरण हो सके

इस प्रकार कविता होती रहेगी
और अनुकरण भी
और सारी कविताओं का हो चुकना भी
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और एक कविता का शेष रहना भी
जिसे जब कोई नहीं रचेगा अम्बिके,
तब उसे रचूँगा मैं

यह सिद्धि दो मुझे
उसका अनुकरण कर सकूँ
कि उसका अनुकरण हो सके
अनिवार्य है यह कार्यभार

मैं संशय से न देखूँ कविता को
कि कविता संशय से देखे संसार को !
_____________________
darasaldelhi@gmail.com

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