दिक्कत यह है कि मनुष्य अपने को इस धरती का सर्वश्रेष्ठ प्राणी समझता है, उसके धर्म भी उसे यही मिथ्या विश्वास देते रहते हैं. प्रकृति के लिए मनुष्य और किसी कीड़े में कोई फ़र्क नहीं है. जन्म, प्रजनन और मृत्यु. सबके लिए यही प्रक्रिया नियत है. प्रकृति बार-बार मनुष्य को इसका एहसास भी कराती है.
संस्कृति और सभ्यता के नाम पर यह सब जो खुद अपने पीठ पर लाद लिया है यह उसका ही बोझ है. और यह सब मनुष्य-इतर अस्तित्व की कीमत पर हुआ है.
कोरोना संकट के पैदा होने और इसके विस्तार का कारण मनुष्य ही है और कहना न होगा कि उसका शिकार भी. इस बीमारी का सबसे बड़ा कारण मनुष्य का विस्तार है. कहीं न कहीं उसकी इस ‘सभ्यता’ में बहुत बड़ा ‘डिफाल्ट’ है. उसे समझने की जरूरत है. विश्व के वैज्ञानिक,दार्शनिक, लेखक बुद्धिजीवी इसे समझने की कोशिश कर रहें हैं.
एक डर यह भी है कि भविष्य में इस तरह की बीमारियों के बचाव के नाम पर कहीं हम और क्रूर और ज़हरीले रासायनिक युग में न प्रवेश कर जाएँ.
सुशील कृष्ण गोरे. कम लिखते हैं. उन्हें लिखते रहना चाहिए. इस संकट पर यह वैचारिक आलेख आपके लिए.
कोरोना : मैं और मेरी तनहाई अक्सर ये बातें करते हैं
सुशील कृष्ण गोरे