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अखिलेश का रंग-रहस्य तथा कविताएँ : राकेश श्रीमाल


प्रसिद्ध चित्रकार अखिलेश (जन्म : २८ अगस्त, १९५६) हिंदी के समर्थ लेखक और अनुवादक भी हैं. मक़बूल फ़िदा हुसैन की जीवनी, मार्क शगाल की आत्मकथा का अनुवाद, तथा ‘अचम्भे का रोना’,‘दरसपोथी’,‘शीर्षक नहीं’ और ‘देखना’ आदि उनकी प्रसिद्ध गद्य कृतियाँ हैं. 
  
उनके जन्म दिन पर कला समीक्षक और कवि राकेश श्रीमाल का उनके चित्रों पर आधारित यह आलेख प्रस्तुत है. साथ में अखिलेश के चित्र भी दिए जा रहें हैं और राकेश की प्रेम कविताएँ भी.

अखिलेश को समालोचन की तरफ से जन्म दिन की बहुत बहुत बधाई.




आकाश, रंग-रहस्य और अखिलेश                            
राकेश श्रीमाल



‘क्षिति के साथ, क्षिति के ऊपर गुजारा गया जीवन, किस वक़्त तक उन रंगों से भरा है जो वहीं दिखते हैं और वहीं रह जाते हैं, यह कहना मुश्किल नहीं जान पड़ता. लेकिन इस रंग अनुभूति को समेटना थोड़ा मुश्किल है.’
अखिलेश

अखिलेश के चित्रों की प्राकृतिक अवस्था उनके विराम में निहित है. लेकिन यह उनका पूर्ण विराम नहीं है. थोड़ा सा ठहरकर अन्यत्र कहीं जाने की इच्छा इन्हें देखने में अनुभूत होती है. इसलिए यह सहज है कि अखिलेश पर लिखते हुए और कहीं भी चहलकदमी की जा सकती है. इस पाठ का मानचित्र ऐसी ही कई गलियों, समय में ठिठक कर गुम हो गए मोहल्लों और बेतरतीब पथ-संरचना से भरा हो सकता है. 
        
जब तक मैंने इंदौर नहीं छोड़ा था, तब तक अखिलेश का भोपाल से इंदौर आने का अर्थ हमारी मित्र-मंडली के लिए चपलता भरे रात-दिन के आने जैसा ही होता था. अब्दुल कादिर, अनीस नियाजी, प्रकाश घाटोले और मेरा अधिकतर वक़्त अखिलेश के साथ इधर-उधर लगभग मटरगश्ती करते बीतता था. प्रायः रोज शाम को कहीं-न-कहीं बैठक भी जमती. न मालूम कहाँ-किधर की बातें होती. एजेंडा तत्काल ही बनता और तुरत-फुरत निर्णय भी हो जाता. यह दीगर बात होती कि उस निर्णय का कोई व्यावहारिक पहलू कभी सामने नहीं आता. वह एक दूसरी दुनिया थी. 

कला और साहित्य की अंतहीन बहसों में उलझकर अपने आप को तलाशती दुनिया. वह दिन-रात स्वप्न-लोक में उड़ते, तैरते हुए जमीन पर आ जाने का मौसम होता. रात एक-दो बजे किसी होटल में लजीज खाने के बाद तीन बजे के आसपास एक-दूसरे से विदा ली जाती. तब जो नींद आती, वह भी अवचेतन मन में दूसरे दिन के मिलने की उत्सुकता के इर्दगिर्द देह को आराम करने देती. अब वह दिनचर्या सोचकर ही हैरानी होती है. यह भी शिद्दत से महसूस होता है कि जीवन का ढर्रा हमेशा एक जैसा नहीं होता. किशोरी अमोनकर को सुनना हमेशा एक जैसा श्रुति-रस नहीं देता. चित्र में लगा रंग बार-बार देखने पर हमेशा एक ही रंग-अनुभव नहीं देता. फिर वह क्या है जो हमारी स्मृतियों में से रह-रहकर उभरता है और जिद करता है कि कम से कम शब्दों के जरिए ही उसे पुनः सृजित कर थोड़ा समय विगत के साथ गुजारा जाए.              

जिन वर्षो के दौरान मैं 'कलावार्ता'का सम्पादन करने भोपाल रहता था, तब अखिलेश से शाम को मिलने का मतलब आधी रात हो जाने से होता था. न मालूम कितनी मर्तबा किसी भी चलताऊ फ़िल्म का आखिरी शो देखने उसके स्कूटर पर हम जाया करते थे. उसे देखने का हमारा सबब यही होता था कि उसके घटियापन पर शो के बाद एक-दो घन्टे बतकही की जाए. उस समय हमें यह नहीं मालूम था कि हम ऐसा क्यों करते थे और आज भी यह लिखते हुए वह सब करने का कारण तर्क की परिधि से बाहर ही है. शायद वह सिरफिरापन ही था, जो अन्य स्वरूपों में आज भी थोड़ा-बहुत तो बचा ही हुआ है.            

भोपाल से जुड़ी कई यादें हैं. वह समय मेरे लिए जीवन की उच्च शिक्षा प्राप्त करने का समय रहा. हालांकि इसका पाठ्यक्रम बिना अबोधता के पढ़ा नहीं जा सकता. मित्रों के साथ विशिष्ट किस्म के नियोजित हुड़दंग करने और खुद को भुला देने का दौर भी वही था. उन दिनों अखिलेश और मेरी सामान्य बातचीत कब कला पर केंद्रित हो जाती और कब कला पर चर्चा सहज जीवन-चर्या पर ठहर जाती, इसका पता नहीं चलता. उस वक़्त भविष्य के चित्रकार के रूप में नहीं, वर्तमान के कलाकार मित्र की तरह अखिलेश का कुल जमा व्यवहार था. कोई भी काम हड़बड़ी से करने की आदत अखिलेश को उस समय भी नहीं थी और आज भी नहीं है. हड़बड़ी में भागते-दौड़ते समय को भी उसने धैर्य से देखा-जिया है. उन दिनों हरचन्दन भट्टी, देवीलाल पाटीदार, अतुल पटेल, जावेद जैदी, हेमन्त, अशोक साठे इत्यादि मित्र अक्सर मिला करते और उस नए शहर में अपना-अपना अकेलापन बाँटते रहते.          

फिर मैं कुछ नया जीने-करने के लिए मुंबई चला गया. अखिलेश से पत्र-व्यवहार चलता रहा. मुंबई आने पर वह मेरे साथ ही रुकता. लोअर परेल वाले घर में एक बार अखिलेश ने मेरे बिस्तर की चादर, शाल, तकिए का कवर निकाला और मेरे ही साथ लाँड्री में जाकर देते हुए मुझे कहा कि रहने का भी एक ढंग होना चाहिए. उस वक़्त मैं सिंगल था और घर का मतलब मेरे लिए नींद निकालकर तैयार हो निकल जाना था. अखिलेश के साथ ही मैं मुंबई में रजा, राजीव सेठी, योगेश रावल, प्रभाकर बर्वे इत्यादि से मिला. मुंबई में उसके साथ जहांगीर आर्ट गैलरी के बाहर बटाटा बड़ा खाना और इस पदार्थ के नाम को लयबद्ध तरीके से गाना हमारी आदत में शुमार हो गया था. लोकल ट्रेन में सीट नहीं मिलने पर भीड़ की धक्कम-पेली में उन दृश्यों पर किसी शार्ट फ़िल्म के कथानक की काल्पनिक चर्चा करना पूरे सफर का विषय होता. उस फिल्म के सम्वाद में बने दृश्यों में अतियथार्थवाद का होना जरूरी होता. कभी उस चलती ट्रेन की भीड़ के सारे पात्रों को निवस्त्र कर दृश्य को रचा जाता.          

हेबरमास ने देरिदा के दर्शन के कलाकरण की जो विश्लेषणात्मक आलोचना की थी, उसके जवाब में देरिदा ने एक साक्षात्कार में कहा था-  
"सभी पाठ अलग होते हैं. एक ही निकष पर उन्हें कसने की कोशिश कभी नहीं करना चाहिए और न ही एक ही तरीके से उन्हें पढ़ने का प्रयास. कहा जा सकता है कि प्रत्येक पाठ एक अलग 'आँख'की मांग करता है. कुछ दुर्लभ पाठों के लिए यह कहा जा सकता है कि लेखन एक ऐसी आँख की सरंचना और बनावट की तलाश भी करने लगता है, जो अभी अस्तित्व में है ही नहीं."

अखिलेश के लिए कला और जीवन एक ऐसे ही दुर्लभ पाठ की तरह है, जिसे उन्हें खुद ही पढ़ना है और अपने में ही वे उस आँख की खोज करते रहते हैं, जिससे पढ़ा जा सके. यह अच्छा ही है कि उनका यह पढ़ना उनकी पूरी दिनचर्या में अभी तक शामिल है.            

दार्शनिक अंकिसमन्द्रोस ने गगन को संसार का मूल रचना तत्व माना है. किर्क तो यहाँ तक कहते हैं कि- 
"जल तत्व एक है, पर जल अनेक हैं. इसी तरह यह बिलकुल सम्भव है कि आकाश तत्व एक हो, लेकिन हर घड़े के अंदर उसका अपना और हर मनुष्य के भीतर उसका अपना आकाश हो."

वहीं अखिलेश अपने चित्रों में आए नीले रंग के बारे में कहते हैं- 
"नीले आकाश का गहरा प्रभाव हम सभी पर होगा, ऐसा मुझे लगता रहा है. बचपन से लेकर आज तक जब भी ऊपर देखा, एक अंतहीन नीला दिखाई देता है, कई रंगों में अपने को प्रकट करता, कई नीले रंग को दिखलाता. इतना अधिक कोई और रंग शायद ही देखा जाता हो. इसका विस्तार मन में फैला है. यह मन का विस्तार भी है."             

कई सदियों तक यूनान और यूरोप में केवल चार तत्वों की बात ही कही जाती रही. आकाश को शून्य मानने में उसे तत्व रूप में स्वीकारना वहाँ कठिन था. लेकिन अखिलेश उसे तत्व ही मानते रहे हैं. 'नीला रंग'और उसके भी कई सारे 'नीले'उनके लिए रहस्य का विषय हैं. हालांकि वे आकाश के नीले को साफ और खुला ही पाते हैं. छान्दोग्य में कहा गया है-  
"आकाश तेज से बढ़कर है. सूर्य, चन्द्रमा, विद्युत, नक्षत्र, अग्नि उसी में है. आकाश से प्राणी उत्पन्न होते हैं, आकाश से हम बोलते और सुनते हैं. समस्त भूत आकाश से उत्पन्न होते हैं, उसी में उनका अवसान होता है. वह सबसे बढ़कर है और वह अनन्त है."

अपने चित्रों में अखिलेश आकाश और उसके 'नीले'के कई सारे रंगों को अपनी अलग दृष्टि से देखते हैं और अपनी स्थापना को चित्र-भाषा में प्रतिष्ठित करते हैं. वे अपने चित्रों में 'नीला'उसकी गहराई से देख पाते हैं, उसके चित्र विस्तार से नहीं. उनके चित्रों में आया नीला असल में विस्तार का नीला नहीं है. वे रंगों के जल-तत्व को, उनकी सौम्य आर्द्रता के मध्य, विशेषकर नीले में संतुष्टि से महसूस कर पाते हैं. वे नीले के जल का स्पर्श मात्र करते हैं और वह चित्र का स्थायी भाव बन जाता है. रंग-जल की एक अदृश्य नदी उनके चित्रों की पृथ्वी पर उद्गम हो बहने लगती है और न मालूम किस या किन रंगों में जाकर विलीन हो जाती है. यह अखिलेश के चित्रों का बनाया हुआ जल है. यह अखिलेश का जल है.  
          
अखिलेश की अमूर्त संरचनाएँ वर्तीय पथ पर चलते हुए सीधे मार्ग का अनुसरण करती दिखती तो है, लेकिन वह उनका विषम होने का समवेत विसर्जन भी होती है. इस अमूर्त में वायु के थपेड़े भी हैं, जल की शोर मचाती उछाल भी, अग्नि की प्रज्वलित ऊष्मा भी है और धरा व गगन की अपनी-अपनी दूरियों पर स्थित उपस्थिति भी. अपनी रचना-प्रक्रिया में अखिलेश इन सब तत्वों की निर्बाध परिक्रमा करते रहते हैं. उनके चित्रों का वर्त इसी परिक्रमा में रंग-जल से उत्पन्न होता है और रचना-कर्म के उत्तर-जीवन के रूप में इसी परिक्रमा को व्यापक गति देता रहता है. उनके चित्रों में पाए जाने वाले और अक्सर अपने को दोहराते आकार किस आकाश में और रंगों के किस काल में पृथ्वी की गोल कक्षाओं में विचरण करते हैं, इसका अवलोकन और आकलन जटिल है. इन चित्रों की अप्रत्यक्ष गतिविधियों का विश्लेषण करने के लिए समीक्षात्मक चित्र-गणित को विकसित करना होगा. फिलहाल तो इन चित्रों का आंशिक अर्थ निकाला जा सकता है और इनके 'होने'को हमारी समझ की सीमाओं में 'अर्थवान'भी किया जा सकता है, लेकिन यह सब अनन्त प्रक्रिया का शुरुआती अंश ही रहेगा. अखिलेश के चित्र अपनी अवधारणा में अनन्त की ओर ही अपनी यात्रा कर रहे हैं.              

अखिलेश के चित्र-धरातल पर जो दृष्टिगोचर होता है, केवल वही उस चित्र की सीमा नही होती. वह एक संकेत है, जिसकी दिशा में दर्शक को ही जाना होता है. यह संकेत भी अदृश्य ही होता है. अखिलेश के चित्र सुषुप्तावस्था के चित्र हैं. न वे वैसे जाग्रत हैं, जैसे हम मनुष्य को जाग्रत अवस्था में पाते हैं, और न ही वे स्वप्नावस्था में हैं.

वरहदारण्यक में मन या चेतना की तीन अवस्था बताई गई हैं.
जागृत अवस्था में मनुष्य सूर्य की ज्योति से सारे काम करता है. सूर्य के अभाव में चन्द्रमा या अग्नि के प्रकाश में काम करता है.
स्वप्नावस्था में मनुष्य आत्मा की ज्योति से काम करता है,

लेकिन सुषुप्तावस्था में इंद्रियां और मन काम नहीं करते. दृष्टा रूप में केवल अद्धेत आत्मा रह जाती है. यही अखिलेश के चित्रों की दृश्य-गति हैं. ये दृश्य ही रंग-उत्सव हैं और यही उनका रहस्यमय घटाटोप है.
             
लेकिन अपने जीवन और व्यवहार में अखिलेश पारदर्शी हैं. कई किस्म की असहमतियों के वाबजूद उनसे मित्रता बनी रह सकती है. वे स्मृतियों को धुंधला नहीं होने देते और मित्रता को भी. वह अपने परिचितों से रचनात्मक अपेक्षा रखने से परहेज नहीं करते. अखिलेश युवतर चित्रकारों की जिज्ञासाओं और उनके अनिर्णय की स्थिति में उनके साथ रहते हैं. उनकी पसन्द-नापसंद पर आरोप भी लगते रहे हैं. कला के युद्ध की व्यूह रचना से वे वाकिफ हैं. लेकिन उन्हें बिना किसी हंगामे के चुपचाप अपना काम करना पसंद है. उम्र की पैसठवीं बरसात में उनके सामीप्य और उनके चित्रों की दृश्य स्मृति में भीगना सुखद है. इस तरलीय मौसम में उनके अमूर्त चित्रों के बहाने मेरी लिखी इन दस प्रेम कविताओं के वायवीय परिवेश में टहल लिया जाएं.





II अ मूर्त पर दस कविताएं II
राकेश श्रीमाल

                


अमूर्त : एक
मैं नीला सोचता हूँ
सफेद का अवकाश पाता हूँ

हरा अभी भी है इर्दगिर्द
पीली नीरवता को अपने में समेटे हुए
तुम धूसर मुस्कुराहट में
करती रहती हो आमंत्रित मुझे

मैं बेलौस स्याह शाम में
सोचता हूँ
कहीं नहीं ले जाता अमूर्त मुझे
सिवाए तुम्हारे पास


                 
अमूर्त : दो
सब से अधिक अमूर्त हैं
प्रेम में कहे गए शब्द

इस वायुमंडल में
किसी अवकाश सा भरते
अपने को और अमूर्त करते


                 
अमूर्त : तीन
बाकी है अभी
उसका अमूर्त बन जाना

बाकी है अभी
उसका प्रेम करना

             
     
अमूर्त : चार
उसका दूर होना
उसका होना है
उसे अपने में बसा लेना
उसका अमूर्त होना


                     
अमूर्त : पाँच
उसके न होने से
धीरे-धीरे ही पता चलता है
वह जब थी
कितनी अमूर्त थी

            
         
अमूर्त : छह
जब दो देह पिघलती है
साथ साथ
तब ही पहचाना जा सकता है
सुख को
अचरज से भरे अमूर्त की तरह

          
            
अमूर्त : सात
आँख भी तलाश लेती है अमूर्त
एकटक
दूसरी आँख को देखती हुई
वही अमूर्त उसे देती हुई

  
                   
अमूर्त : आठ
कभी बहुप्रतीक्षित रहा
चिर-परिचित स्पर्श
अमूर्त की तरह अवाक बस जाता है
हमारी ही शिराओं के भीतर

                    


अमूर्त : नौ
यह वही है
लगभग अपरिचित
असँख्य तारों के पीछे से
हाथ टटोलकर कुछ खोजना

कुछ पाने से पहले ही
अमूर्त में बदल जाना

                    


अमूर्त : दस
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कोई सा भी लगा लो रंग
कैसी भी रेखाओं के साथ
किसी भी रूप
किसी भी आकार में

अनावर्त ही रहती है हमेशा
फलक की आदिम देह.
_______________________________________
राकेश श्रीमाल पढाई की रस्मी-अदायगी के साथ ही पत्रकारिता में शामिल हो गए थे. इंदौर के नवभारत से उन्होंने शुरुआत की. फिर एकाधिक साप्ताहिक और सांध्य दैनिक में काम करते हुए मध्यप्रदेश कला परिषद की पत्रिका 'कलावार्ताके सम्पादक बने. इसी बीच कला-संगीत-रंगमंच के कई आयोजन भी मित्रों के साथ युवा उत्साह में किए. प्रथम विश्व कविता समारोहभारत भवनकथक नृत्यांगना दमयंती जोशीनिर्मल वर्माखजुराहो नृत्य महोत्सव और कला और साम्प्रदायिकता पर कलावार्ता के विशेषांक निकाले. फिर मुंबई जनसत्ता में दस वर्ष काम करने के पश्चात महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय से  'पुस्तक-वार्ताके संस्थापक सम्पादक के रूप में जुड़े. मुंबई में रहते हुए उन्होंने 'थिएटर इन होमनाट्य ग्रुप की स्थापना की. वे कुछ वर्ष ललित कला अकादमीनई दिल्ली के कार्य परिषद सदस्य और उसके प्रकाशन परामर्श मंडल में रहे. दिल्ली में रहते हुए एक कला पत्रिका 'की शुरुआत की. उनके दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. फिलहाल कोलकाता में इसी विश्वविद्यालय के क्षेत्रीय केंद्र से 'ताना-बानापत्रिका का सम्पादन कर रहे हैं.
9674965276

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