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रवीन्द्र के. दास की कविताएँ

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Sculpturebyjesús Curiá.


रवीन्द्र के. दास का पहला कविता संग्रह, ‘मुखौटा जो चेहरे से चिपक गया है’ २०१५ में प्रकाशित हुआ था. उनके चार कविता संग्रह तथा संस्कृत के ‘मेघदूतम्’ का ‘सुनो मेघ तुम’ शीर्षक से हिंदी में अनुवाद आदि प्रकाशित हैं.


रवीन्द्र के दास की कुछ कविताएँ प्रस्तुत हैं. वे समकालीन मनुष्य की विवशता और विडम्बना को भाषिक अलंकरण से भरसक बचते हुए सृजित करते हैं.

रवीन्द्र के. दास की कविताएँ                                                 



१.
हमें नहीं सिखाया गया है दृश्य के पार देखना

एक औरत रो रही है बेबस और असहाय
उसकी ढाई साल की बेटी
माँ को रोता देख रो रही है मासूम
वहीं पड़ा है वह पुरुष ढेर हुआ
वहीं पड़ा है मटमैला अधफटा बैग

महानगर से बचकर जा रहा था कहीं
अपनी बीवी बच्ची को साथ लेकर
किसी नयी उम्मीद के साथ
कि महानगर में खत्म हो गई थी
उनके रहने की मियाद

यह हमारे समय का एक दृश्य है
जिसे बहुतों ने देखा, गौर से देखा

महानगर से भागा हुआ वह
सड़क से नहीं भाग पाया
एक गाड़ी की ठोकर नहीं सह पाया
हम यही देख पाए
कि मौत ही उसे खींच कर ले गई थी
उसे नहीं जाना चाहिए था ऐसे में
सरकार कर रही है प्रयास हर तरह से
सबके लिए हो ही जाता कुछ न कुछ
समझना चाहिए था उसे
उसने बहुत बड़ी गलती की

पर वह नहीं था महानगर का
उसने नहीं अपनाया था महानगर को
न महानगर ने अपनाया था उसे
कि वह तो आया कुछ दिन के लिए
आया था वह, जा रहा था
कि महानगर नहीं बचा अब रहने लायक
नहीं बचा था रहने का विश्वास

पर वह स्त्री?
वह नहीं आई थी महानगर
वह तो अपने पति के साथ थी
और उसकी बेटी उसके साथ
अब, वे दोनों कहाँ रहेंगे?
इस दृश्य में दिखती हुई जमीन
नहीं है उसकी

अभी कोई पुलिस वाला आया होगा
कहा होगा, तुम यहाँ नहीं ठहर सकते
तुम्हें जाना होगा
पर कहाँ? स्त्री की व्याकुल दृष्टि को
नहीं समझेगा पुलिस वाला
यह उसकी ड्यूटी का हिस्सा नहीं है
मुझे नहीं पता! तुम्हें यहां से जाना होगा

वह गई होगी कहीं न कहीं
अपनी बेटी के साथ

हमारे दृश्य में
उस आदमी की मौत तक ही है
हम वहीं तक की समीक्षा करेंगे
उसके आगे जो भी होगा
वह दृश्य से बाहर है
हम दृश्य से बाहर नहीं देखते
नहीं देख सकते
हमें नहीं सिखाया गया है दृश्य के पार देखना.





२.
अवरोहण

मैं रहूं या न रहूं
तुम रहो या न रहो
हमारा प्रेम रहेगा कायम
सिगरेट से निकले धुएं के प्रदूषण की तरह
जिसे महसूस करेंगी
आने वाली पीढ़ियां
शिद्दत से
प्रेम की पवित्रता विश्वसनीय नहीं लगती अब
न मनुष्यता या सदाचार
नरसंहार शगुन है
प्रेम है प्रदूषण
जो बढ़ता जाएगा, बढ़ता जाएगा
हर द्वार पर मौजूद होंगे चौकीदार
तुम रहो या न रहो
मैं रहूँ या न रहूँ
नफरत रहेगी कायम
दैवीय शक्ति की तरह, शुभ और करिश्माई
अगर कायम रहेगी दुनिया
प्रेम और नफरत
एक दूसरे का लिबास पहने
एक दूसरे का अभिनय करते
कायम रहेंगे बेशक.




३.
भाड़े के लोग

भाड़े के लोग
सिर्फ़ मेहनताने पर काम करते हों
ज़रूरी नहीं
बहुधा वे बिना बात भी उछलते हैं
ताकि आका एक नज़र देख ले
या उसके बराबर के लोग
सराहे उसे

राजाओं की संख्या बढती है प्रजातंत्र में
पर वे क्षत्रप
विनीत लोक सेवक की तरह
भाड़े के लोगों से
अपनी विनयशीलता के किस्से
दीवारों पे खुदवाते हैं
और उसके कार्य की प्रशंसा करते हैं

भाड़े के लोग
अक्सर भिड जाते हैं क्षत्रपों के निंदकों से
कि दुरुस्त करो अपनी समझ
जब तुम नहीं जानते सच्चाई
तो किस हैसिअत से
कहते हो चरित्रहीन उन्हें

भाड़े के लोग
इस दुनिया की तमाम कुत्साओं को
अपने अपने तर्क से कुतर्कों से
साबित करते रहते हैं
सुन्दर और सही
बस इस लिए कि राजाजी देख लें मेरी ओर
कृपादृष्टि से ... बस !




४.
शर्मिंदा

हमें लगा
रास्ता खो गया है
जबकि रौशनी भी थी और रास्ता भी था

ऐसा जब भी होता
तुम ख़ूब हँसतीं
भटकने का अर्थ
न जाने क्या था तुम्हारे लिए

बदकिस्मती से
इस बार भी मिल ही गया रास्ता
मैंने महसूस किया
तुम्हारे पैर उठ नहीं रहे थे
सही रास्ते पर चलते हुए

कैसे तुम्हें बताऊँ
कि अपनी इस लाचार समझदारी पर
मैं कितना शर्मिंदा हूँ.




५.
होते होते रह जाना

होते होते रह जाना भी
तृप्त करता है
कुछ न कुछ
भले ही अतृप्त अधिक करता है
बहुत बार

होते होते रह गया प्यार
आधे रास्ते से लौट आई यात्रा
कहते कहते रह गई बात
अद्भुत नतीजे देती है

कभी तुम थोड़ा हटकर देखना
प्यार को भी, यात्रा को भी
हो जाने के बाद
जो होता है उसमें
कितना कितना होता है
कैसा कैसा होता है.
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_______________________________

रवीन्द्र कुमार दास
अप्रैल 28, 1968, इजोत, मधुबनी (बिहार)

‘मुखौटा जो चेहरे से चिपक गया है’,‘हमारे समय की नायिका काम पर जा रही है’,प्रजा में कोई असंतोष नहीं है’, जब उठ जाता हूँ सतह से’कविता संग्रह आदि प्रकाशित.  

dasravindrak@gmail.com
08447545320 

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