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हमारे समय में धूमिल: ओम निश्‍चल


 


 

हमारे समय में धूमिल
(डायरियों, पत्रों, विचारों के आलोक में धूमिल का कवि-व्‍यक्‍तित्‍व)
ओम निश्‍चल

 

धूमिल की कविताओं पर अब तक बहुत बात हो चुकी है. धूमिल अपने समय के नाराज युवा कवि थे. उन्हें जीवन ने थोड़ा ही समय दिया किन्तु इस थोड़े से ही जीवन में उन्होंने कविता के इतिहास की सुई अपनी तरफ मोड़ दी तथा अकविता के अराजक संसार की कुहेलिका को चीरते हुए साठोत्‍तर कविता में अपनी जगह बनाई. धूमिल जितना अपनी कविताओं से जाने गए उससे ज्यादा वे अपने गीतों, डायरियों और अपने पत्राचार और स्‍फुट विचारों से खुलते हैं जो अब 'धूमिल समग्र'(सं. डॉ. रत्‍नशंकर पाण्‍डेय) में प्रकाशित हैं. धूमिल 9 नवंबर 1936 में जन्‍मे और 10 फरवरी 1975 को इहलोक से तिरोहित हो गए. केवल 38 साल 3 महीने  का जीवन; लेकिन इस अल्‍पजीवन में भी उन्होंने अपनी कविता से एक नई लकीर खींची और अपने समय की कविता का युग प्रवर्तन किया. साठोत्‍तर हिंदी कविता जिस मोहभंग से गुज़र रही थी और अकविता की पायदान पर ठिठकी खड़ी थी, उसे एक नई दिशा दी.

अपनी कवि-परंपरा से सुपरिचित धूमिल उस राह पर नहीं चलना चाहते थे जिस राह पर चल कर अज्ञेय ने प्रयोगवाद का परचम फहराया, नई कविता ने व्‍यक्‍तिवादी प्रवृत्तियों को अपने दुकूल में प्रश्रय दिया. वे उस राह पर बढ़ने वाले कवि थे जिस राह पर मुक्‍तिबोध चले, रघुवीर सहाय चले, नागार्जुन चले, लेकिन उनके पैरों की छाप पर अपने पांव रखते हुए नहीं, कविता को सर्वथा एक नया चेहरा देते हुए. अपने शुरुआती दौर में श्रीकांत वर्मा और कैलाश वाजपेयी का विक्षोभ भी एक संभावनाएं जगाता था लेकिन बाद के दिनों में श्रीकांत वर्मा सत्‍ता के अंगराग में घुलते मिलते गए और अंत में उसकी विफलता के गान में शामिल हुए. यह संभवत: उनके अंत:करण का प्रक्षालन था.

कैलाश वाजपेयी की शुरुआती कृतियों तीसरा अंधेरा, देहांत से हटकर व संक्रांत- में युगीन विक्षोभ तो था पर एक धुंधलका भी था कि सत्ता से इस कवि की कहीं न कहीं मैत्री है. वे सत्ता के करीबियों में रहे हालांकि उनकी भी एकाधिक कविताएं प्रतिबंधित हुईं जैसे कि राजधानी नामक कविता जिसमें उन्होंने प्रतीकात्मक रूप से लिखा कि मेरा आकाश छोटा हो गया हे. पर अंततः वे जिस राह पर चले वह अंतत: सत्‍ता, लोकतंत्र और राजनीति के अंतर्विरोधों से उस तरह नहीं टकराती थी जैसी धूमिल की कविता.

एक हद तक राजकमल चौधरी का विक्षोभ उनके निकट हो सकता था पर उसमें भी अंतत: कोई ऐसी कौंध न थी जिससे वह अपने समय का एक ज्वलंत क्रिटीक बन सके. राजकमल चौधरी की कविता की धार किस हद जाकर मंद पड़ जाती है,धूमिल ने अपनी डायरियों में इसका इज़हार किया है. वे कहते हैं, 'उनके यहां परिवेश तो समसामयिक है किन्तु उनका आवेग काफी रूमानी है.'नागार्जुन की कविता उन्हें शाब्दिक लगाव की कविता लगती है यानी हाथ ही हाथ है, चेहरा नहीं तो त्रिलोचन के बारे में उनका कहना था, ''त्रिलोचन को देख कर लगता है कि कविता आदमी को मार देती है और जिसमें आदम बच गया है, वह अच्छा कवि नहीं है. ठाठ, बाट और टाट- ये तीनों कविता के दुश्मन हैं.''

धूमिल के बारे में अभी तक जो भी लिखा जाता रहा है वह प्रायः उनके प्रकाशित संग्रहों- संसद से सड़क तक, कल सुनना मुझे और सुदामा पांडे का प्रजातंत्र- की कविताओं की अंतर्वस्‍तु के आधार पर. 1975 में उनके निधन के बाद यत्रतत्र पत्र-पत्रिकाओं में उनकी अप्रकाशित डायरी के अंश, कविताएं इत्यादि उनके पुत्र डॉ रत्‍नशंकर के प्रयासों से छपते रहे हैं पर वे उन्हें पूर्णतः समझने के लिए नाकाफी थे. धूमिल अंत तक कविता को सार्थक वक्तव्य मानते थे इसलिए अपने पहले संग्रह में उन्हें भूमिका या वक्तव्य देने की कोई जरूरत न महसूस हुई. हालांकि 'संसद से सड़क तक'  में उनकी बड़ी और बहुत महत्वपूर्ण कविताएं छप चुकी थीं तथा वह एक मात्र संग्रह उन्‍हें साहित्य में स्थापित करने के लिए पर्याप्त था किन्तु आगे चल कर दूसरा संग्रह 'कल सुनना मुझे' छपा जिसकी पांडुलिपि धूमिल के भाई कन्‍हैया पांडेय के प्रयासों से तैयार हुई. इस पर पहली बार उनके कवि मित्र राजशेखर ने एक लंबी भूमिका लिखी. मरणोत्‍तर धूमिल: एक कथा यात्रा.

धूमिल को जानने के लिए यह एक ऐसा प्रामाणिक और प्राथमिक दस्तावेज है जैसे मुक्‍तिबोध को समझने के लिए उनके पहले संग्रह पर शमशेर की भूमिका. राजशेखर को अफसोस था कि जो विचार वे धूमिल के जीवनकाल में उनकी कविता पर नहीं व्यक्त कर सके वह काम उनके अचानक अवसान के बाद उनके दूसरे संग्रह के संपादकीय के निमित्त करना पड़ रहा है.

 

व्‍यक्‍तित्‍व की वल्‍गा

धूमिल की कवि प्रतिभा उस वल्‍गा की तरह थी जो आसानी से किसी के रोके रुकने वाली न थी. राजशेखर ने इस संपादकीय को संपादक की गुरुता के बोध के साथ नहीं बल्कि एक समव्‍यथी और भावुक मित्र की हैसियत से लिखा है. धूमिल को, उनके परिवेश को, उनकी पारिवारिकता और सामाजिकता व क्रांतिकारिता को समझने के लिए यह प्रवेशिका है. इसे लिखने में राजशेखर ने उनकी तमाम कविताओं के अंशों का सहारा लिया है जिनसे धूमिक के व्‍यक्‍तित्‍व की छवियां दीखती हैं. खेवली जाते हुए छमहुआं घाट पर खड़े राजशेखर को एक ढली उम्र के पंचम की आवाज में धूमिल का असली चेहरा दीख पड़ता है जो कह रहा था,

''गरीबन क देवता गयल भइया, अब गांव में हमहन के खातिन लड़े वाला कोई नाहीं हउवै.''

यही उस कवि की कमाई थी. यही गांव में उसकी साख थी कि भले गांव में उन्हें कोई कवि के रूप में न जानता था किन्तु गरीबों के पक्ष में खड़े होने को सब जानते थे. किन्तु संसद से सड़क तक की ख्याति साहित्य के दिग्‍दिगंत तक व्याप्त हो चुकी थी. साहित्य में उनके असमय अवसान को शिद्दत से महसूस किया गया था. पग-पग पर कविताओं में मुहावरे और उद्धरणीयता ऐसी कि एक बार पढ़ते हुए कविता छोड़ी न जा सकती थी. ऐसे मुहावरे उनके लगभग समकालीन लीलाधर जगूड़ी के अलावा किसी और कवि में नहीं मिलते. खेवली कविता में उनके इस कहे में कितनी बेबाकी थी:

 

सब कुछ सदाचार की तरह सपाट
और ईमानदारी की तरह असफल है.

 

हालांकि कविता पर वे पहले ही छिटपुट लिख चुके थे पर रुग्‍ण शैय्या पर लेटे अपने आखिरी वक्‍त की कविता में जैसे वे अपनी पूरी कविता-यात्रा का भाष्‍य और भविष्‍य लिख रहे थे-

''शब्‍द किस तरह कविता बनते हैं
इसे देखो
अक्षरों में गिरे हुए आदमी को पढ़ो.''

उनकी कविता मनुष्यता को इसी आलोक में देखती परखती है. काशी हिंदी साहित्य का गढ रहा है. एक से एक दिग्‍गज कवि लेखकों की कर्मभूमि. कवि परंपरा के भारतेंदु हरिश्‍चंद्र से लेकर जयशंकर प्रसाद तक की समृद्ध काव्‍यभूमि के बावजूद प्रसाद से अब तक की काव्‍य यात्रा में धूमिल जैसा कवि कोई और न हुआ जिसमें कविता की यथास्‍थितिशीलता को बदल देने का जुनून और पैशन हो. धूमिल के समकालीनों में त्रिलोचन, काशीनाथ सिंह, जगूड़ी, नागानंद मुक्‍तिकंठ, वाचस्‍पति और अनेक युवतर लेखकों का समूह था किन्तु आज भी धूमिल से लेकर ज्ञानेन्‍द्रपति के बीच कविता में एक भारी सन्नाटा है.

जब जब धूमिल की डायरियों व पत्रों आदि का प्रकाशन हो चुका है, उनके भीतर की कविताई के आधार बिन्दुओं को समझने में तो मदद मिलती ही है, उनके समकालीनों के बारे में उनके विचार भी बेबाकी से पढ़ने को मिलते हैं. उनके भीतर असहमतियों का अंबार था. वे मोटी गर्दन वाले कम्‍युनिस्‍टों और बड़ी तोंद वाले व्यापरियों दोनों को असहमतियों की नोंक पर रखते थे. बल्कि वाम को लेकर तो यह भी कहते थे कि ''लगातार 'बाऍं' रहने की इस मूढ़मूल्‍यता का विरोध करता हूँ.''  वे अपने समय के ही नहीं, उस हर शख्स को आलोचना के दायरे में रखते थे जो किसी भी तरह सत्‍तानुकूलित हो, या अपने विचारों को समझौते के अयस्‍क में ढालने की चातुरी बरतता हो.

काशीनाथ सिंह ने उनकी आये दिन की बैठकी थी जिनके भीतर सच्चे अर्थों में समकालीन लेखन को लेकर वे चर्चाएं किया करते थे. लेकिन जिन अर्थों में आधुनिकता, समसामयिकता व समकालीनता के बीच घालमेल चल रहा था, धूमिल इसके मुखर आलोचक थे. वे महज 39 साल की अवस्था के भीतर साहित्य के भीतर- खास तौर कविता के भीतर एक युगीन परिवर्तन पर आमादा थे. अपने समय की हर प्रवृत्ति पर, छद्म मार्क्सवाद पर, वाम पंथियों व समाजवाद तथा समाजवादियों पर, कवियों, आलोचकों पर संगी साथियों पर उनके किये धरे पर उनकी तीखी निगाह रहती थी. शिष्टाचार वश सामने न कह पाते तो वे उसे अपनी डायरियों में लिखते थे-जैसे उन्हें पता हो, कि ये डायरियां हर बात की अंतत: गवाही होंगी कि जब सब परचम फहराने व प्रदर्शनकारी जुलूसों का हिस्सा बन रहे थे धूमिल लेखकों कवियों की मानवीय कमजोरियों से लेकर सत्‍ता, राजनीति, समाजवाद, लोकतंत्र, आजादी, स्वतंत्रता, लय, छंद, समसामयिकता-समकालीनता, संपादक- कवि-लेखक-आलोचक, वाद, आंदोलन, तोंदू और भोंदू के प्रतीकों का निहितार्थ टटोल रहे थे. कितनी विडंबना है कि गांव में पट्टीदारों के फर्जी मुकदमों के बीच भी वे कविता को लेकर लेखकीय नैतिकता को लेकर कितने संजीदा थे.

 

डायरियों में धूमिल की मुखरता

आइये देखते हैं धूमिल अपनी डायरियों,पत्रों व अन्य तहरीरों में किस बेबाकी से इन सारे सवालों का सामना करते हैं और कैसे बेबाकी से अपना पक्ष हर मुद्दे पर रखते हैं. वादों का पिछलगुआ होना उन्‍हें रास न आता था. यह सन साठ के आस पास का वह दौर था कि जितना साहित्‍य में लेखन पर ध्‍यान नही था उससे ज्‍यादा आंदोलनों पर था. वादों पर था. याद रहे जगदीश गुप्‍त ने नई कविता पर अपनी पुस्तक में ऐसे लगभग पचासों आंदोलनों की फेहरिश्‍त गिनाई है जो पैदा और अस्‍त हुए. उनकी कोई खास सार्थकता न सिद्ध हुई. धूमिल साहित्‍य में इस वाद-परस्‍ती पर टिप्‍पणी करते हुए कहते हैं:

''लेखक का किसी तत्कालीन वाद या बंदूक से बंध जाना उसके कवि कर्म का शिकार पहले करता है. वैसे वादों की यहां कोई कोताही कभी नहीं रही और एक साथ ढेरों रचनाकारों को निगल कर उसका मुंह किसी दैत्‍य कंदरा की तरह बंद हो गया है.'' 

धूमिल साठोत्‍तर क्रांतिधारा के कवि थे सो अज्ञेय और शमशेर जैसे कवियों से उनकी दूरी स्वाभाविक ही थी. वे कहते हैं अज्ञेय की कविता में जो घपलापन है, उसका कारण अंदर और बाहर, दोनों जगहों में थोड़ा-थोड़ा एकांतरमय संघटन बनाये रखने का लालच है. शमशेर के बाह्य जगत को वे सरल रंगीन सीढ़ियों से बना पाते हैं बेशक वे अपने अंतर्जगत को समेटते दिखते हैं. अज्ञेय और पंत को लेकर उनका यह मत ध्‍यातव्‍य है कि

''दूसरे के अनुभव की तराश एक रचनाकार को कभी अज्ञेय बनाती है और कभी पंत. दूसरे के अनुभव की नकल कभी-कभी घटिया नमूने भी पेश करती है जैसे दिनकर- रामधारी सिंह.''

पुराने कवियों के प्रति धूमिल की धारणा कोई बहुत अच्छी नहीं थी, चाहे वह पंत हो, प्रसाद या महादेवी. महादेवी वर्मा की बातों को वे किताबी मानते हैं तो शलभ श्रीराम सिंह को साधारण और सतही. पंत के बारे में एक जगह वे पूछते हैं,

''क्‍या पंत की कविताएं प्रकृति के साथ मानसिक मैथुन की कविताएं हैं? वे लिखते हैं, भाषा में शब्दों की ट्रिक कामयाब होने पर कविता और असफल होने पर चमत्कार बनती है. रघुवीर सहाय और श्री कांत वर्मा की अधिकांश कविताओं में ऐसा ही चमत्कार है.” 

रचनाकार की मौलिकता को लेकर धूमिल सजग दिखते हैं तथा कहते हैं,

''कुछ रचनाकार अपनी उबकाई खाकर पलते हैं. वे  नया कुछ नहीं देते हैं. खाने कमाने की धुन में युवा सामर्थ्य का पुनरुद्धार करने की कोशिश करते हैं.''

(धूमिल समग्र-3, पृष्‍ठ 124)

धूमिल मुक्तिबोध की भी यह कह कर आलोचना करते हैं कि वे दौड़ते हैं बहुत. लेकिन भागने का रास्ता एक ही है. जिससे पीछा करने वाले को भी उनकी भागने की टेक्‍निक का पता हो जाता है. वे क्षोभ प्रकट करते हैं कि

''मुक्‍तिबोध जिस व्‍यवस्‍था और प्रतिष्‍ठान के आजीवन विरोधी रहे, उनकी अंतिम कृति (श्रद्धांजलियां) उन्‍हीं जगहों से प्रकाशित हुई.''

(वही पृष्ठ 105)

एक जगह वे जनवाद और आलोचना में संघाधिपत्‍यवाद की खबर लेते हैं. सुधीश पचौरी की किसी नामसझी को लेकर धूमिल लिखते हैं,

''कामरेड सुधीश पचौरी. अपनी सुविधाजीवी संसदीय मंसूबेबाजी को मार्क्‍सवादी प्रतीत होने वाली दलीलों से ढकने की कोशिश करते हैं. धूमिल की कविताएं किसी 'खांटी जनसंघी की हैं'. शर्म कीजिए कामरेड सुधीश पचौरी. ऐसी मक्‍कारी केवल दिनमान के संपादक द्वय या गल्‍पभारती के त्रिकालदर्शी को ही शोभा देती हैं. पूरी कविता को न पढ़ने वाला अथवा न पढ़ सकने वाले लोग ही उसमें उग्रगामिता या संघवाद देख सकते हैं. '' 

(धूमिल समग्र-3, पृष्‍ठ 117)

साहित्‍य में एक विवशता रही है इस्तेमाल होना. वे इसे इस्तेमाल होने की लत मानते हैं. वे इस्तेमाल करते हैं मैं इस्तेमाल होता हूँ की धुन में बहने वाले धारा में बहना ही पसंद करते हैं. धूमिल यह तत्व डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी में देखते हैं कि कैसे उन्हें लगातार इस्तेमाल होते रहने की लत पड़ गयी थी. यानी जब लोगों से घिरे होते हैं तो बेहिसाब ठहाके लगा रहे होते हैं पर जब अकेले होते थे तो वे अजीब सी बेचैनी से भर जाते थे. इसी के विपरीत वे नामवर जी के इस्तेमाल न होने की बात करते हैं कि

''नामवर का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता. उनके बाप तक ने उनका इस्तेमाल कर पाने में अपने को असमर्थ पा लिया है. इस्तेमाल से बचते रहना नामवर की आदत नहीं, तरकीब का हिस्सा है.''

एक जगह वे मुक्‍तिबोध की अंधेरे में जैसी सशक्त कविता के बावजूद उनके मरणोपरांत आए संग्रह को चॉंद का मुंह टेढ़ा है जैसा नाम देने के पीछे का औचित्य पूछते हुए लिखते हैं,

''मुक्‍तिबोध का इस्‍तेमाल मसाले के रैपर की तरह किया जा रहा है.” उनकी कविता के बारे में लिखते हैं कि ''मुक्‍तिबोध की कविता टूटते परिवार  के एक जिम्मेदार जेठे भाई की पीड़ा का इजहार है.''

 

कविता के बारे में धूमिल बार-बार सचेत करते हैं. कविता जिसे वे सबसे पहले 'सार्थक वक्‍तव्‍य'मानते हैं, उसके सतहीपन से उन्हें जाहिर है,  चिढ़ थी. वे कवियों की इस प्रवृत्ति का नोटिस लेते हुए कहते हैं,

''इधर के कवियों में खास चीज ध्‍यान देने की है- और वह यह कि उन्‍हें चीजों का अनुभव कम है. मगर कविता चीजों का अनुभव है. इधर की अधिकांश कविताएं कविता के अनुभव की कविताएं हैं.''

धूमिल मानते थे कि 60 के पूर्व के कवियों ने अपनी पूरी रचनात्मकता को इस बात में केंद्रित किया कि वे कविता लिख रहे हैं... इस प्रकार उन्होंने खड़ी बोली में कविता की रचना की. लेकिन खड़ी बोली की कविता वह नहीं बन सकी. यही कारण है उन्होंने यह लिखा कि

''सन 60 से पहले की कविता भाषा की सफलता की कविता तो है, लेकिन भाषा की सार्थकता की कविता नहीं है.''

कहानी और उपन्यासों पर धूमिल अपनी राय कम ही फरमाते हैं हालांकि उन्होंने कहानियां भी लिखी हैं और उनके अनन्य मित्र काशीनाथ सिंह तो कथाकार थे ही. काशीनाथ सिंह की कहानी में भी भाषा के अंदाजे-बयां पर धूमिल लिखते हैं,

''काशी हमेशा जिन्दगी के तेवर से भाषा का नहीं, बल्कि भाषा के तेवर से जिन्दगी का सृजन करते रहे हैं.''

निराला को छंद मुक्त कविता का प्रवर्तक माना जाता है. उन्होंने सदियों से चली आती लय को तोड़ने का काम किया. पर देखा जाये तो निराला के यहां छंदों का वर्चस्व भी है और छंदमुक्‍ति की ओर जाती कविता की राह भी है. पर धूमिल नोट करते हैं कि छंद तोड़ने के संकल्प वहां हैं, लेकिन लय नहीं टूटी. बल्कि आगे बढ़ कर वे कहते हैं कि निराला में साहित्य को संगीत से जोड़कर रचने की लत थी. वे परंपरा में बहुत पहले के संस्कृत कवियों की रुचि के व्यक्ति थे. कविता में गति, ताल, लय-मात्रा के आग्रही कवि थे.''

धूमिल का मानना था कि

''कविता में लय का टूटना खडी बोली की प्रकृति के अनुरूप है. ... यह आश्चर्य की बात नहीं कि खड़ी बोली का एक पूरा वाक्य अपने उचित कारक पदों के साथ एक स्वस्थ कविता पंक्ति का रूप ग्रहण करता है.''

धूमिल समग्र के दूसरे खंड में सुकांत भट्टाचार्य की एक अनूदित कविता 'हे महाजीवन'छपी है. इस कविता को पढ़ कर लगता है वे अपने समय के यथार्थ को ठीक-ठीक अभिव्‍यक्‍ति देने के लिए कविता की गद्यमयता को अनिवार्य मानते थे और जैसे वे बतौर बांग्‍ला कवि इस तथ्‍य की गवाही पेश कर रहे हों. कविता देखें-

हे महाजीवन, यह कविता और नहीं,
अब कठिन, कठोर गद्य लाओ,
पद लालित्‍य झंकार मिट जाए
गद्य के सख्‍त हथोड़े से आज चोट करो!
कोमलता की जरूरत नहीं है कविता में-
कविता, तुझे आज छुट्टी दी,
भूख दुनिया के राज में दुनिया गद्यमय है:
पूर्णिमा का चांद मानो झुलसी हुई रोटी है.

(धूमिल समग्र, खंड 2, पृष्‍ठ342)

 

धूमिल किसानी संस्कारों के कवि थे, यह बात न केवल उनकी कविता की भाषा व मुहावरेदारी से पता चलता है बल्कि नामवर सिंह भी इसे स्वीकार करते हैं. वे एक साथ खेती किसानी के मोर्चे पर डटे थे तो दूसरी तरफ कविता व भाषा के मोर्चे पर भी. जैसे तुलसी ने पग-पग पर जीवन के मुहावरे मानस में दिए हैं,  धूमिल की कविता जनता में व्‍यवहृत मुहावरे को सीधे उठा कर या रच कर अपनी कविता के विन्यास में शामिल करती चलती है. वे जानते थे कि कविता भले ही समूह को संबोधित व समर्पित हो, भाषा के मोर्चे पर केवल कवि जूझता है. जहां घरेलू जंजाल उनकी पग बाधा भी बनते थे तो वहीं से वे अपनी कविता की देसी खुराक भी लेते थे. अनेक भदेस शब्‍द जिनका उत्‍स गांव गिरांव ही है, उन्‍हें इसी गंवई जनता के बीच ही मिले. आंधी पानी बरसात ओले में असमय भीग जाते खलिहान  और समय से लगान न दे पाने की विवशता को भी वे अपनी रचनात्मकता में ढाल लेते थे. वे उस दौर की उपज थे जब 65 के भारत चीन आक्रमण, 71 के पाक आक्रमण व बांग्‍लादेश के निर्माण व नेहरूवियन माडल के मोहभंग से देश गुजरा. वे अपने कार्यकाल में चुनाव प्रक्रिया का हिस्सा भी बने. इसलिए आम आदमी की चुनावी सहभागिता को लेकर उदासीनता व लोकतंत्र के प्रति अज्ञान कचोटता था. वे भले ही कम पढ़े लिखे थे किन्‍तु अपने अध्‍यवसाय से उन्‍होंने राजनीति की समझ व समाज के मनोविज्ञान पर पूरी पकड़ हासिल कर ली थी. मतदान को लेकर आम आदमी के रवैये को लेकर वे कहते हैं,

''आम आदमी मतदान केंद्र पर उसी तरह जाकर मतदान करके मुक्त होता है जैसे शौच के बाद उसका पेट खाली होता है.''

वे लोकतंत्र को प्रश्‍नांकित करते हैं आजादी, समाजवाद, मार्क्सवाद, जनता सबको प्रश्‍नांकित करते हैं. चुनावी हत्याओं के दौर से गुजरे थे इसीलिए वे यह कहने से नहीं चूके कि हत्याकांड खाद है जो चुनाव में मतदान की फसल का उत्पादन बढ़ाने के लिए इस्तेमाल की जा रही है. साहित्य में कोई न कोई व्‍यर्थ की बहस सदैव चल रही होती है जिसका कोई खास निष्‍कर्ष नहीं निकलता. भोथरे व अमूर्त किस्‍म के सवाल उन्‍हें परेशान करते हैं. ऊपर से समकालीन जीवन और भाषा का संकट और परिवेश और आधुनिक लेखन जैसे विषय- वे पूछते हैं यार ये शीर्षक कौन गढ़ता है. जनता को तो वे उस बरसीम घास की तरह मानते हैं जो पशुओं के लिए चारा होती है. ''रोज इनकी कटाई होती है, रोज इनकी तारीफ होती है, रोज ये बढ़ते हैं, ये पशुओं के चारे हैं.''

वे राजनेताओं के आचरण पर गहरी नजर रखते थे. जहां वे नेहरू पर कविता लिख सकते थे वहीं गांधी की तुलना चाणक्य से भी कर सकते थे. पर तुलना करते हुए वे यह लिखना नहीं भूले कि एक चंद्रगुप्‍त के राजप्रासाद को छोड़ कर कुटी में चला गया और दूसरा तत्कालीन  प्रशासकों की कार्यवाहियों में उपेक्षित एक कोने में पड़ा रहा और एक दिन एक मामूली आदमी द्वारा मार दिया गया. (वही, पृष्ठ 92)

वे धार्मिकता के आग्रही तो न थे पर गंगा में आस्था थी. परिवार को लेकर वे मंदिर आदि भी जाते रहे हैं जिसका संकेत उन्होंने अपनी डायरियों में किया है. एक बार मंदिर जाने पर पत्नी से पूछा कि क्या मांगा तुमने भगवान से तो मंदिर की सीढ़ियां उतर रही पत्नी बोली कि यही कि ऐसा ही घर भगवान उनका भी बनवा दे. उन्होंने लिखा इस बात पर मन हुआ कि पत्‍नी का माथा चूम लें. यह थी धूमिल जैसे कवि की सहृदयता. वे अपने को भीड़ में होते हुए भी अकेला पाते थे. उन्हें गंगा भी उनकी ही तरह अकेली लगती थी. वे लिखते हैं,

''गंगा की बगल में बैठ कर नहीं लगता कि मैं अकेला हूँ.''

 

धूमिल के लिए आलोचना

आलोचना को यद्यपि धूमिल रचना के समानांतर एक सृजन कर्म मानते हैं तथापि धूमिल अपने आलोचकों को बख्शते नहीं थे. अनेक जगह जहां उनकी कविता की आलोचनाएं की गयीं उन्होंने अपनी प्रतिक्रियाएं व्यक्त की हैं तथा कई लोगों की खबर ली है. उनके रहते उनके संग्रह पर अनेक समीक्षाएं लिखी गयीं. जहां तहां कुछ आलोचनाएं भी हुईं. अशोक वाजपेयी ने लिखा तो वेणु गोपाल ने भी. अक्षय उपाध्याय ने भी अपनी पत्रिका में उनके संग्रह पर समीक्षा छापी. अशोक वाजपेयी पर लिखते हुए उन्होंने वही बात चस्‍पा की कि

''वे आलेाचना लिखते हुए यह भूल ही पाते कि वे कवि हैं. उन्हें बराबर यह ध्यान रहता है कि आलोच्‍य कवि किसी तरह आलोचक से आगे साबित न होने पाए. रचनाकार उनके यहां प्रतिद्वंद्वी हो जाता है. शायद यह बात धूमिल ने उन पर लिखी अशोक वाजपेयी की आलोचना को लेकर क्षुब्धता में कही हो.  जबकि यहीं वे विष्‍णु खरे की इस लिए तारीफ करते हैं कि उनके यहां आलोच्‍य व्‍यक्‍ति अपने समूचे रचनाकर्म और रचना दायित्व के साथ आलोचना का हिस्सेदार होता है, पूरक या प्रतिद्वंद्वी नहीं.''

(वही, पृष्ठ 63)

किसी लेखक को लिखे पत्र में वे कहते हैं, कि

''आलोचक को एक सतर्क पाठक भी होना चाहिए वरना कविता की आलोचना की आलोचना कर आलोचना लिखना केवल 'परिमलियन गुटका'ही तैयार होगी जो अब बीते हुए वक्त की चीज बन चुका है.'' 

लोग उनके स्‍त्रीजन्‍य मुहावरों में उनके भदेस काव्‍य व्‍यवहार यथा, 'जिसकी पूँछ उठायी है उन्‍हें मादा पाया है'जैसी उक्‍तियों पर नाखुशी जाहिर करते हैं. पर 6 सितंबर 1970 की डायरी स्‍त्री को लेकर उनके प्रति हमारी राय को जैसे उलट देती है. छठ के अवसर पर लोलार्क कुंड में विवस्‍त्र स्‍नान करती स्‍त्रियों को देख वे कह उठते हैं,

"केवल आदर देकर ही उसका ऋण शोध किया जा सकता है. करुणा से नहीं, दया से भी नहीं और प्यार से भी नहीं. सोचा: क्‍या यह संभव है कि शारीरिक साझेदारी के बावजूद मर्द बैठे समूची निस्‍संगता से और नारी के पैर छुए?, कृतज्ञ हो कि उसने अपने साथ उसे शरीक करने योग्‍य बनाया.''

(धूमिल समग्र-3 पृष्‍ठ 59 )

यही नहीं, औरत को लेकर अकविता के रवैये से वे क्षुब्ध होकर यह लिखते भी हैं कि

''संसार भर के काव्य संसार में हिंदी की 'अकविता'स्‍त्री जाति के विरोध की असमर्थतम और अनर्गल उक्ति में अद्वितीय है.''

(वही, पृष्ठ 58)

 

कविता में शिल्‍प

धूमिल की कविता की आवेगधर्मिता और रेटारिकता पर बहुत बहसें हुई हैं. धूमिल खुद कविता में शिल्प को गौण मानते हैं. वे कहते हैं

''जब सवाल समूची कविता को बदलने का है वे महज शिल्‍प बदल देते हैं. गोया नींद में करवट बदल ली.''

लीलाधर जगूड़ी को लिखे अपने एक पत्र में वे शिल्‍पकेंद्रित कवियों पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं, कि

''शिल्‍प में, चाहे वे भारतेंदु हों, निराला या मुक्‍तिबोध हों,तुम देखो जरा पस्‍त होकर (यह नहीं कि तटस्‍थ होकर) देखो कि वे लोग कविता के शिल्‍प के स्‍तर पर चाहे जो कुछ तोड़ सके हों, लेकिन कविता नहीं तोड़ सके.''

अपने चिंतन में धूमिल गतानुगतिकता का रास्‍ता नहीं अपनाते. वे आमूलचूल बदलाव के लिए प्रतिश्रुत होते हैं. नई कविता जिन असंगत प्रतीकों, प्रयोगों के लिए अस्पष्ट और दुरूह बनती गयी है उसके विपरीत धूमिल नई कविता से आगे सोचने के लिए कहते हैं. उनके शबदों में,

''दलदल पर नये तख्ते रखने हैं ताकि नये भाव, नई आस्थाएं उसे पार कर सकें.''

शिल्‍प-मुक्‍ति पर लीलाधर जगूड़ी के एक सवाल पर वे उनसे कहते हैं,

"सबसे अलग होने की तमीज भी शिल्‍प ही है. हां, कविता से मुक्‍ति आदमी की शिल्‍प से मुक्‍ति है. जिस शिल्‍प, गद्य कविता व पद्य की चर्चा हम करते हैं क्‍या वह सब कविताई की चालाकी नहीं है? वे तमाम पदों की पारिभाषिकी और अर्थवत्‍ता पर सवाल उठाते हैं. जैसे समकालीनता को वे कालावधि से नहीं, उसकी मूल्‍यवत्‍ता से जोड़ कर देखते हैं. कहते हैं,

''समकालीन होने का मतलब है स्वतंत्र होने की समझदारी- पूंजीवाद के जुए से- श्रम की मुक्‍ति- समानता के उसूल को अमली तौर पर जिन्दगी से उतारने की पहलकदमी.''  

धूमिल कविता के लिए किसी वाद या दल से संबद्धता को व्यर्थ मानते थे. वाद-जनवाद-समाजवाद यानी किसी भी वाद को लेकर उनका मन संशयी था. यही वजह है कि प्रगतिशील तेवर के बावजूद वामपंथ की भी आलोचना से वे नहीं चूकते. वे उन वामपंथियों को आड़े हाथों लेते हैं जो वामपंथी बनने का रोब चापते रहते हैं और अपने बुर्जुआ आकांक्षाओं की तेल मालिश भी करते हैं. धूमिल को केवल चौदह पंद्रह वर्ष कविता के लिए मिल सके पर वे साइकिल से बनारस और खेवली के बीच का रास्‍ता नहीं नापते  रहे,अपने को कविता की बौद्धिकता और बौद्धिकता की कविता के लिए कच्‍चा माल भी आयत्त करते रहे. उनकी उक्‍तियां कहीं-कहीं दुस्‍साहसिक लग सकती हैं, क्योंकि किसी भी कवि या लेखक को उन्होंने बख्शा नहीं, निर्बंध सराहना नहीं की,  प्रत्युत खामियां ही गिनाईं. अपनी भाषा, उद्धरणीयता, जीवनानुभवों को नियमित रूप से शब्‍दबद्ध करते रहे. जैसे कोई शायर कोई मतला सूझते ही उसे डायरीबद्ध कर लेता है,

धूमिल जीवन जगत के कोलाहल से ऐसे मुहावरे उठा-उठा कर अपनी डायरी में टॉंकते रहते थे कि मौका लगने पर उनका निवेश वे कविता में कर सकेंगे. अनेक ऐसी पदावलियां किसी कविता के लिए आवश्यक रसद की तरह लगती हैं.

धूमिल अपने पत्राचार में बेबाक थे. वे अक्‍सर अपने आगे किसी को सेटते नहीं थे. लीलाधर जगूड़ी बताते हैं कि एक पत्रिका में प्रकाशित कविता 'बिल्कुल निजी संवाददाता द्वारा'पढ़ कर धूमिल प्रसन्नता से विचलित हो उठे थे और पहले तो जब तक उन्हें सदेह देख न लिया, यह संदेह करते रहे कि यह कविता संभवतः: त्रिलोचन ने ही जगूड़ी के नाम से लिखी होगी पर जगूड़ी से भेंट होने पर उन्‍हें अपार प्रसन्‍नता हुई कि उनकी ही तरह कविता का खोजी एक व्‍यक्‍ति उन्‍हें मिल गया है. कविताओं के मामले में उनके भीतर एक छात्रोचित प्रतिर्स्‍धा का भाव जाग उठता था ऐसा विनोद भारद्वाज के साथ हुए पत्राचार में ज्ञात होता है. अशोक वाजपेयी को लिखे पत्र में उन्होंने पटना सम्मेलन में मांसखोर लेखकों पर क्षोभ जाहिर किया है तथा उन्हें लिखा है कि उन्होंने इसकी शुद्धि के लिए पटना से लौट कर तीन दिन का उपवास कर अपने को शुद्ध किया. यह धूमिल का नैतिक पक्ष था जो किसी भी परिस्थिति में मनुष्यता के पक्ष में खड़ा मिलता है. जहां मनुष्यता की ओछी छवियां दिखती थीं, धूमिल के भीतर का गुस्‍सा एक नैतिक कार्रवाई में बदल उठता था.

धूमिल की डायरियों की बेबाक टिप्पणियों से यह जाहिर होता है कि वे असहमतियों का केंद्र बिन्‍दु थे. न तो उन्हें राजनीति का चेहरा रास आता था न लोकतंत्र का मौजूदा स्वरूप जहां रात दिन लूट खसोट चलती है. वे लोकतंत्र में आम मनुष्य की बुरी हालत से वाबस्‍ता थे. आजादी के बाद आजादी की व्यर्थता का अहसास भी पुख्‍ता होने लगा था. साठोत्‍तर मोड़ पर विक्षुब्‍धता के कवियों में यह स्‍वर आम तौर पर प्रभावी रहा है पर धूमिल न केवल व्‍यवस्‍था  के आलोचक थे बल्कि वे बुद्धिजीवियों के भी आलोचक थे. वे कविता में चल रही पस्‍ती और खिलखिलाती हुई फसलों और प्रायोजित बसंत के खिलाफ थे. वे जानते थे कि रघुवीर सहाय की कविता में राजनीतिक चेतना तो है पर वह कहीं न कहीं विक्षुब्‍धता की धुंध में विलीन हो जाती है. राजकमल चौधरी की आंच भी कविता में उस तरह नहीं दहकती जैसी आग जलनी चाहिए. निराला एक तरफ छंद तोड़ने का दावा भी करते हैं तथा इसे कविता की मुक्‍ति के रूप में देखते हैं किन्‍तु लय को अंतत: तोड़ नहीं पाते. कविता के मौजूदा कथ्‍य और शिल्‍प से असंतुष्ट धूमिल कविता को नई कविता और प्रयोगवाद की जड़ीभूत चेतना से मुक्त करते हुए उसे उस मोड़ पर लाना चाहते थे जहां पहुंच कर वह पूरी तरह अपनी अभिव्यक्ति में खुल सके. इस बारे में उनका कहना था: ‘सन साठ के बाद के कवि शब्‍दों को खोल कर रखते हैं’. हालांकि धूमिल की यह चेतना बाद के कवियों में अधिक प्रशस्त न हो सकी तथापि धूमिल ने कविता में चल रहे दृश्य का अचानक पट परिवर्तन किया बल्कि यथार्थ से कविता के रिश्ते को ज्यादा प्रगाढ़ता दी. वे कविता को अंत तक सार्थक वक्‍तव्‍य मानते रहे यद्यपि उनकी कविताओं- खास तौर पर दो महत्वपूर्ण कविताओं- 'पटकथा'और 'प्रौढ़ शिक्षा'  में रेटौरिकता की स्‍फीति की जॉंच पड़ताल भी चलती रही.

'फिलहाल'में अशोक वाजपेयी ने इसकी आलोचना करते हुए लिखा भी था कि चालू मुहावरे और रिटौरिक से अगर बच सके तो धूमिल की कविता हमारे समय की एक युवा की विश्‍वसनीय पहचान का दस्‍तावेज़ बन सकती है.

डायरियों में धूमिल का जो असहमत चेहरा दीखता है, कहीं-कहीं आक्रोश, मलाल व दुस्‍साहसिकता भरे कथन भी, उनके समग्र कवि-व्‍यक्‍तित्‍व के मूल्‍यांकन के समय इन बातों पर भी गौर किया जाना चाहिए क्योंकि असहमति और अवज्ञा के बावजूद धूमिल के महत्व को नजरंदाज नहीं किया जा सकता.

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धूमिल समग्र तीन खंडों में हाल ही में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है जिसका संकलन एवं संपादन उनके पुत्र  डॉ रत्‍नशंकर पांडेय ने किया है. इसका मूल्‍य रु. 999/- है.


ओम निश्‍चल हिंदी के सुधी कवि, समालोचक और भाषा मर्मज्ञ हैं. गए पांच दशकों की कविता का सुव्‍यवस्‍थित अध्‍ययन आकलन. साठोत्‍त्‍र कविता के वैचारिक स्‍थापत्‍य पर शोध सहित समकालीन कविता पर कई स्‍वतंत्र पुस्‍तकें -- शब्‍दों से गपशप: अज्ञेय से अष्‍टभुजा शुक्‍ल; कविता के वरिष्‍ठ नागरिक; समकालीन हिंदी कविता: ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्‍य ; कुंवर नारायण : कविता की सगुण इकाई एवं कैलाश वाजपेयी पर विनिबंध हिंदी कविता की उनकी क्‍लोज रीडिंग का साक्ष्‍य हैं. हिंदी के बहुविध लेखन पर गहरी नजर रखने वाले ओम निश्‍चल कई संस्‍थानों द्वारा पुरस्‍कृत एवं समादृत हैं.

संपर्क:
डॉ ओम निश्‍चल
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