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जितेंद्र कुमार की कविताएं और उदयन वाजपेयी का आलेख

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(चित्र सौजन्य से निर्मला शर्मा)

 

कवि-कथाकार जितेन्द्र कुमार (1936-2006) को हम लोग लगभग भूल ही चुके हैं. उनका जीवन,कविताएँ और कथा-साहित्य सब लीक से हटकर थे. बीहड़ उनके जीवन और लेखन में अंत-अंत तक पसरा रहा.

उनका लेखन तीन खंडों में सूर्य प्रकाशन से छप कर आ रहा है- ‘ऐसे भी तो सम्भव है मृत्यु’ (कविताएँ), ‘वहीं से कथा’ (कहानियाँ) तथा ‘नृशंसता’ (उपन्यास).

जितेन्द्र कुमार की  दस कविताएँ और उनके कवि-मर्म पर उदयन वाजपेयी का यह सारगर्भित आलेख यहाँ प्रस्तुत है जो कवि की जीवन-यात्रा भी करता है.

जितेन्द्र कुमार के चित्र निर्मला शर्मा से प्राप्त हुए हैं समालोचन उनके प्रति आभार व्यक्त करता है.  

यह अंक प्रस्तुत है. 


ऐसे भी तो सम्भव है मृत्यु
जितेन्द्र कुमार की कविताएँ


१.

जब भी डूबने का मन किया

 

जब भी डूबने का मन किया

घर आये

सुबह का वक़्त हो

या शाम का झुटपुटा

घर आने का तो कोई वक़्त नहीं होता है

 

हमारी आँखों में एक आवाज़

परिवार सी घूम रही है

यह अलग बात है

कि उसमें कोई नहीं है

 

जब भी डूबने का मन किया

घर आये

आये और आकर

अपनी चटाई पर लेट गये

दीवार

हल्के से मुसकुरायी

खिड़की दरवाजे़ सब

चौंक कर खुल गये

फिर

सब मिलकर बोले

आख़िर तुम लौट आये

अच्छा किया

अभी थके हुए हो आराम करो

फिर अपनी कथा

ज़रा विस्तार से बतलाना. 

(1979)



२. 

कवि

 

सहने को ही तो यह संसार बना है

 

शुरू में ईश्वर एक अपढ़ आदमी हुआ करता था

किताबों की रचना भी उस वक़्त तक नहीं हुई थी

बोलना भी उसे नहीं आता था

अपनी भावनाएँ मिट्टी के रंग लेकर

वह प्रस्तर पर उकेरता

उस वक़्त उसके बनाये रास्तों पर डायनासौर

घूमा करते थे

 

अब इन पर आदमी चलते हैं

और सड़क हर साल तोड़कर नयी बनायी जाती है

वे सब के सब उस पर अपनी छाप छोड़ने की

ग़रज़ से

मुहावरा हुए जाते हैं

और वह

एक ऊबी हुई औरत के ऊपर रात-सा कूद पड़ता है

 

उस आदमी से बचो

वह सताया हुआ है इसीलिये सता रहा है

उसमें भाषा और विज्ञान दोनों की वृद्धि हुई है

अपने तर्क-सा बाज़ारों में घूमता

अपने विचारों और आदर्शों के साथ

गन्दे नालों में गिर पड़ता है

और एक टीन ठुकी मेज़ के सामने बैठ

अपनी राहत खोज रहा है

 

वह जो दीखता है सहज और शान्त

वैसा नहीं है

 

हृदय में उसके एक सलाख़ उतरी हुई है

वह हँसता है जब युवा सिद्धान्तवादी

अपने विचार और प्रेम उसके सामने

एक बिछावन-सा बिछा देते हैं

 

वह उनमें अपनी खोपड़ियों के स्वर ढूँढ रहा है

रूपवान चेहरों की आत्ममुग्ध मूर्खता

हालाँकि उसे यह भी पता है

कि युवा होने का तो यही एक तरीक़ा है

 

देखो

जब सारी दुनिया को इतनी ज़ोर की नींद आयी हुई है

वह घूम रहा है अपनी समझ अपने अनुभव

अपनी भावनाओं का भार कन्धों पर धरे हुए

 

एक पत्थर बारम्बार लुढ़क कर

तलहटी में जा पहुँचता है

उसके कन्धे छिले हुए हैं

उसके पैरों में घाव हैं

 

उस आदमी से बचो नहीं तो तुम्हारे पास भी

अपने होने पर हँसने के अलावा और कोई चारा

नहीं बचेगा

और तुम इन्हीं गलियों में

रात-रात अपना-सा मुंह लिए घूमोगे.

 

 

 

३. 

मृत्यु-सी निश्चित

 

जाओ

जाकर कहीं

रहने की जगह खोजो

 

जाओ अब दुनिया में

 

लौटकर जब आओगे

रात की

खुली बाँहों में

सपनों-सा ठहर जाना

 

मृत्यु-सी निश्चित

मैं तुम्हें

वहीं खड़ी मिलूँगी.

 

 


४.

संगीत

 

रातों को जब नींद नहीं आती

मैं अपनी सारी इच्छाएँ

सूत्रबद्ध करना चाहता हूँ

प्यास का एक सूखा संगीत

मुझे जीवित रखता है

 

जब बहुत प्यास लगती है

पानी के बर्तन में मुझे साँप नज़र आते हैं

पर जब साँपों से डरने लगता हूँ

और सपनों का अस्तित्व भूल जाता हूँ

प्यास का वह सूखा संगीत

एक भूले हुए गीत की धुन की तरह

मुझे याद आता रहता है।

 

 

 

5.

कथा

 

मैं इन्तज़ार करता हूँ

एक छोटा लड़का

दूध पीते-पीते मुझे कहानी सुनाता चलता है

बापू

एक शेर था

उसका सिर काटकर उन्होंने ठेले में डाल दिया

तो वह चिल्लाया हो ओ ओ

मैं अँधेरे में गया और पूछा

कौन

तो बिल्ली

 

वह हँसता रहा

फिर मेरे कन्धे चढ़ कर उसने कहा

बापू

मैं एक अच्छा लड़का बनूँगा

मैं बाहर ताकने लगा

मैंने सोचा

निरन्तर बारिश के इन दिनों में

 

मैं एक मकान ख़रीदूँगा

फिर उसे अपनी पत्नी और बेटे के नाम कर

छुट्टी पा जाऊँगा

उसके पिछले भाग को मैं

उस भंगन को दे दूँगा

 

पर मेरी पत्नी

मेरे चरित्र पर शक करती है

और मेरे बेटे की कहानी अधूरी है

 

बापू

एक शेर था

आदर्श से उतर मैं पटरी पर आ गया हूँ

उसका सिर काट

उन्होंने ठेले में डाल दिया.  



6. 

उसके शरीर से अधिक सुन्दर

 

उसके शरीर से भी अधिक सुन्दर था

उसका यूँ मेरे लिए

व्यस्त रहे आना

मैं एकटक उसकी ओर देखता रह गया

उसने मुझे देखा

और उस दृष्टि की कामुकता सहन करने को

आँखें नीची कर लीं

 

पर वह नहीं

उसके शरीर से भी अधिक सुन्दर था

अपने पूरे शरीर से

तब उसका

यूँ मेरे लिए प्रतीक्षित रहे आना.

 

 

7.  

महत्त्वपूर्ण लोग

 

मैं जब महत्त्वपूर्ण लोगों को देखता हूँ

तो बिल्कुल एक बच्चे-सा

चकित रह जाता हूँ

वे कैसे सदा

अपने को इतना महत्त्वपूर्ण बनाये रखते हैं

लोग ही तो होते हैं वे

 

लिखने से पहले

या उसके बाद

मुझे निराशा होती है

मैंने सब देर से किया

जैसे कहीं जाते वक़्त किसी और का

ख़याल आ जाये

पर कुछ लोग

इतने निश्चिन्त होते हैं

कि शुरू से ही

अपनी मंज़िल पर खड़े होते हैं.

 

 

8.

मैं

 

मैं एक इन्तहा बेवकूफ़ आदमी

फँसा हूँ

तो ख़ुद को गाली देने में

माहिर हुए जाता हूँ

 

एक अपरिमित क्षति का ज्ञान मुझे

फिर भी मैं

अपने बड़प्पन की मूर्खता पर

गर्व किये जाता हूँ

 

मैं एक इन्तहा दर्दमन्द आदमी

होने की क्रिया में

नष्ट हुए जाता हूँ.

 

 

9.

मैंने उनसे कहा

 

मैंने उनसे कहा

मैं थोड़ी शराब पीना चाहता हूँ

 

इस क़दर अविश्वास

मेरे अन्दर था

कि मैं हर बात साफ़ कहना चाहता था

 

वे सिगड़ी जलाये बैठे थे

जब मैंने उनसे कहा

 

भारी क़दमों से

सड़क की रोज़मर्रा बातचीत सुनता

मैं चल रहा था

और काँच की कमानी-सी

वहाँ लेटी थी झील

दूर आत्मा के प्रकाश-सी

उनकी सिगड़ी जल रही थी

 

जब मैंने उनसे कहा

मैं थोड़ी शराब पीना चाहता हूँ.

 


 

10.

ऐसे भी तो सम्भव है मृत्यु

 

रात के अँधेरे में एक दिन

जब मैं सहसा मर जाऊँगा

लोग घण्टियों की आवाजे़ं नहीं सुनेंगे

वे सो रहे होंगे

वे उदास चिन्तित व्यथित लोग भी

जिन्हें रात रात नींद नहीं आती

दिन का उजियारा होने के पहले ही

उन्हें एक झपकी आती है

फिर दिन भर उनकी आँखें जलती रहती हैं

 

मैं खुले आकाश के नीचे मरूँगा

उस दिन खुले आकाश में चाँद

बहुत छोटा होगा

तारे

अपनी सम्पूर्ण प्रतिभा से

चमक रहे होंगे

 

सहसा एक चिलकन

मेरे बायीं तरफ़ पैदा होगी

थोड़ी देर मैं मृत्यु से बचने के लिए

तड़पूँगा

फिर सब शान्त हो जायेगा

 

मेरी यह मृत्यु निश्चित है

 

पर शायद मरने के पहले

मैं उनमें से वह नक्षत्र खोजने की

कोशिश करूँ

जिसके बारे में मुझे कुछ भी पता नहीं है

 

फिर मैं मर जाऊँगा

हालाँकि नींद में मरना

आसान होता है

शायद कोई मेरी पत्नी को सूचना दे

शायद थोड़ी देर

या कभी बाद में

मेरे बेटे को

एक ख़ालीपन महसूस हो

जिसे उस वक़्त वह ठीक से समझ नहीं पायेगा

 

शायद कुछ लोग और भी हों

प्रेम या नफ़रत से भरे हुए

पर इन क्षेत्रों में भी

मैं भिखमंगा ही रहा हूँ

 

कुछ भी तो

ठीक से मैंने नहीं किया

इतने सालों में

 

जो कुछ भी कर सकने के लिए

काफ़ी थे

 

ना उतना अच्छा बना

जितना बचपन में सोचता था

ना उतना ओछा

जितना हो सकता था

 

कुछ भी तो नहीं हुआ

जैसा वह सम्भव था

 

अपनी मृत्यु के बारे में

इस तरह सोचना आत्मश्लाघा है

पर ऐसे

ऐसे भी तो सम्भव है मृत्यु. 



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(चित्र सौजन्य से निर्मला शर्मा)



जितेन्द्र कुमार: हाशिये का मर्म
उदयन वाजपेयी

 

‘जितेन्द्र की कहानियों की छाप एक अरसे से मन पर अंकित है. वह क्या है, इसे परिभाषित करना उतना ही कष्टदायी है, जितना उस कष्ट से छुटकारा पाना, जो वे खरोंच की तरह पीछे छोड़ जाती हैं. अंग्रेजी शब्द ‘डिप्रेशन’ का हिन्दी में शायद कोई सही पर्याय ढूँढ़ पाना कठिन है, किन्तु हिन्दुस्तान के शहरी रिश्तों के भीतर रिसती हुई किरकिराती-सी तपिश, इस तपिश को उछालने की विभिन्न और विचित्र भंगिमाएँ, इन भंगिमाओं के सहारे अपने भीतर की ईमानदारी खोजने की कोशिश, और स्वयं इस कोशिश की निरर्थक हताशा, मेरे लिए ये सब उस ‘डिप्रेशन’ के महीन धागे हैं, जिनसे जितेन्द्र अपनी दुनिया का तन्तुजाल बुनते हैं.

मुझे कुछ आश्चर्य होता है जब कुछ लेखक-आलोचक जितेन्द्र की कहानियों को ‘अश्लील’ या ‘अभद्र’ कहते हैं. मुझे भद्र-लोक की छद्म छिपावट और स्ट्रिपटीज़ के व्यावसायिक प्रदर्शन के बीच कोई नैतिक भेद नहीं जान पड़ता. इनसे अलग जब जितेन्द्र अपनी कहानियों में किसी को (ज़्यादातर अपने को ही) अनावृत्त करते हैं, तो वह मानो अपने ही भीतर किसी छिपे गवाह को (उसे आत्मा कहें, या कांशंस या आल्टर-इगो) दिखा रहे हों देखो, तुम कैसे नंगे हो रहे हो- और तब यह हरकत कुछ शहादत-भरी ज़रूर जान पड़े, उसमें कहीं आत्म-प्रदर्शन या आत्म दया नहीं दिखायी देती. एक विक्षोभ-सा ज़रूर उत्पन्न होता है- जो एक सीमा के बाद अखरने लगता है, किन्तु जहाँ जितेन्द्र उसे कलात्मक संयम में बाँध पाते है, वहाँ उनकी कहानियाँ आज की चालू कथाओं से नितान्त अलग एक अनूठा भयंकर और कभी-कभी असहनीय-सा अनुभव हमें दे जाती हैं.’

निर्मल वर्मा


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(उदयन वाजपेयी)



मारे साहित्यिक परिदृश्य की एक विशेषता यह भी है कि उसका हाशिया पर्याप्त समृद्ध है. उसमें ऐसे अनेक लेखकों की कृतियाँ हैं जो यदि हाशिये पर न रहकर मुख्य स्पेस में रही होतीं, हमारा साहित्य कहीं अधिक समृद्ध रहा होता. इन लेखकों की कृतियों को जिन मूल्यों के आधार पर हाशिये पर फेंका जाता रहा, वे मूल्य ध्यान से देखने पर अपरिभाषित बल्कि अपरिभाषेय और किसी हद तक अनर्गल जान पड़ते हैं. साठ और सत्तर के दशक में जैसे-जैसे सोवियत संघ की वैश्विक स्थिति कमज़ोर होती जा रही थी, वैसे-वैसे उन तमाम देशों के साहित्यिक परिदृश्यों में सोवियत संघ-सम्मत साहित्यिक मूल्यों की जकड़ मज़बूत होती गयी जो सोवियत संघ के निकट थे: भारत भी ऐसा ही देश रहा है. इसका यह अर्थ बिलकुल भी नहीं है कि यदि हम सोवियत संघ के स्थान पर अमरीका-सम्मत देश होते, जैसे कि हम आज हैं- तो कुछ बेहतर होता. दोनों ही स्थितियों में हमें उन साहित्यिक और कलात्मक मूल्यों को मूक करना ही पड़ता जो हमारी सभ्यता में सदियों की कल्पना और विचारशीलता के फलस्वरूप विकसित हुए थे. हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि भारत की आत्म छवि लम्बे समय तक एक राष्ट्र की नहीं, सभ्यता की रही है. आधुनिक संसार में प्रवेश करने पर सभ्यतागत मूल्यों की राष्ट्र के ढाँचे में स्थापना अत्यन्त पीड़ादायक प्रक्रिया रही है. इस स्थापना में अन्तर-निहित कठिनाईयों और खतरों को गाँधी के अलावा शायद ही किसी ने गहरायी से समझा और इसीलिए जैसे-जैसे गाँधी हमारे सार्वजनिक विमर्श से ओझल होते गये भारत के सभ्यतागत मूल्य भी ‘भारत राष्ट्र’ के सभी क्षेत्रों में तिरस्कृत होते चले गये. मानो हम अपने सभ्यतागत मूल्यों का तिरस्कार करके ही आधुनिक राष्ट्र बन सकते हों.

साहित्य और कलाएँ भी इसका अपवाद नहीं बन सकीं बल्कि यह कहना अधिक सही होगा कि आधुनिक साहित्य और चित्रकला के क्षेत्रों से भारतीय सभ्यता के साहित्यिक और कलात्मक मूल्यों लगभग पूरी तरह लुप्त होते चले गये. मार्गी संगीत और नृत्य में वे किसी हद तक निश्चय ही बचे रहे पर जैसे-जैसे यूरोप और अमरीका से संवादरत होने के स्थान पर वे उनके अनुकर्ता होते चले गये, वहाँ भी ये मूल्य बहुत हद तक भीतर से ही खोखले हो गये.

इस कारण जो साहित्यिक मूल्य हिन्दी समाज की व्यापक रुचि और समझ को किसी हद तक निर्धारित करते रहे थे, वे हिन्दी साहित्य के आलोचनात्मक मूल्यों से बिलकुल अलग हो गये. इसका नतीजा यह हुआ कि हिन्दी साहित्य से पाठकों का सम्बन्ध क्षीण होता चला गया. इसे और अधिक क्षीण करने में हमारे विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों का भी योगदान कम उल्लेखनीय नहीं रहा. हिन्दी साहित्य धीरे-धीरे हिन्दी समाज से अलग होता चला गया. इसके कई उत्कृष्ट अपवाद भी रहे हैं और हैं पर उनकी हैसियत अपवाद से अधिक कभी नहीं बन पायी. इस तरह हिन्दी साहित्य हिन्दी भाषी समाज से स्वायत्त ऐसी एक संस्था बन गयी जिसे लम्बे समय तक हिन्दी के शक्ति-सम्पन्न, विचारधारा से लैस आलोचक अपनी सरलीकृत दृष्टि के सहारे बिना किसी अवरोध के दिशा देते रह सकते थे.

आज जब हम हिन्दी समाज की दुर्दशा के कारणों में उसका हिन्दी साहित्य से दूर होना निरूपित करते हुए, उसका दोष सिर्फ़ हिन्दी भाषी समाज पर मढ़ते हुए नहीं थकते, हमें अपने साहित्य की गिरेबाँ में भी झाँककर देखने का प्रयास करना चाहिए.

(क्या यह आश्चर्यजनक नहीं है कि जिस रीतिकाल की कविता हमारे आलोचकों ने साहित्यिक विमर्श से लगभग तिरस्कृत कर रखी है, उसके पाठकों की संख्या आज भी बहुत कम नहीं हुई है. लेकिन उस श्रेष्ठ काव्य को हमारी तथाकथित रूप से समाजोन्मुखी आलोचना के मूल्य ‘गिरी हुई’ कविता से अधिक कुछ नहीं मान सके. इस कविता के साथ हम देवकीनन्दन खत्री के उपन्यासों को भी रख सकते हैं जो तिलिस्मी आख्यानों से प्रभावित थे और हिन्दी साहित्य में बिलकुल नये तरह के उपन्यासों की सम्भावना को उद्घाटित कर रहे थे. पर इस सम्भावना को भी हमारी पश्चिम से प्रभावित ‘यथार्थवादी’ आलोचना के मूल्यों ने चरितार्थ ही नहीं होने दिया.)

 

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(परिवार के साथ: चित्र सौजन्य से निर्मला शर्मा) 

इन तथाकथित यथार्थवादी मूल्यों की बलि अनेक अद्वितीय लेखक चढ़ गये. उन्हें साहित्यिक परिदृश्य के हाशिये पर फेंक दिया गया. इस दृश्य में परिवर्तन लाने का प्रयत्न ‘पूर्वग्रह’ जैसी पत्रिकाओं में पूरी शिद्दत से किया पर नक्कारखाने में तूती की आवाज़ कितने लोग सुन पाते. पूर्वग्रह ने जिन कुछ लेखकों को पूरे सम्मान से प्रकाशित किया उनमें ऐसे कई लेखक थे जिन्हें हम हाशिये पर फेंक दिया गया लेखक कह रहे हैं. इन लेखकों को ‘पूर्वग्रह’ का लेखक कहकर उन्हें उसी तरह हिन्दी साहित्य के परिदृश्य में अलग-थलग किया जाता रहा जैसे यूरोप में सदियों तक यहूदियों को किया जाता रहा है. अलगाने की इस युक्ति के सहारे ही साहित्य के उन मूल्यों को अक्षुण्ण रखा जा सकता था जो हमारे साहित्य के भीतर से अवमूल्यन और व्यापक समाज से कटने का कारण बने थे. अगर यह युक्ति कारगर न हुई होती तो निश्चय ही हाशिये के लेखकों से इन मूल्यों को टकराना पड़ता जिसके फलस्वरूप उनका रूपान्तरण हो पाता और साहित्य में कहीं अधिक खुलापन आ पाता. वह आया ज़रूर पर उसे आते-आते बहुत देर लग गयी. विडम्बना यह है कि रात-दिन द्वन्द्वात्मकता की दुहाई देने आलोचक और लेखक इस जीवन्त और सृजनात्मक द्वन्द्वात्मकता से अपने को बचाते रहे. 

मैं हाशिये के जिन लेखकों की ओर निरन्तर इशारा कर रहा हूँ, उनमें जितेन्द्र कुमार का स्थान बहुत ऊँचा है. वे बीहड़ व्यक्ति थे. यारबाश पर एकान्तिक. उनसे बहस का अन्त अमूमन ज़ोर-से बोलने में होता था. पर वह बहस हमेशा ही दिलचस्प होती. लम्बे समय तक वे केन्द्रीय विद्यालय में अंग्रेज़ी पढ़ाते रहे. उनकी पत्नी और सिरेमिक कलाकार निर्मला शर्मा भी उन्हीं के साथ केन्द्रीय विद्यालय में अध्यापन करती रहीं. जितेन्द्र ने सागर विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी में स्नातकोत्तर डिग्री हासिल की थी और साथ ही उसी विश्वविद्यालय में अपने खर्च के लिए क्लर्की भी की. विश्वविद्यालय में उनके शुरुआती मित्रों में कहानीकार प्रबोध कुमार (जिन्हें जितेन्द्र गुड्डू कहते थे), राजेन्द्र बहादुर, राजा दुबे और उनके छोटे भाई छोटेलाल दुबे ‘आग्नेय’, अशोक वाजपेयी, विजय चौहान, रमेश दत्त दुबे आदि थे. 

इन मित्रों में लगभग सभी या तो कवि थे या कहानीकार और इनमें से कोई भी विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग का छात्र नहीं था. ये सभी कवि-लेखक बहुत पढ़ाकू थे. हालाँकि जितेन्द्र कुमार अपने को जीवन के अन्त तक बिना पढ़ा-लिखा मानते रहे. जितेन्द्र की भारी और गहरी आवाज़ ने भी शायद उनके दोस्त और कहानीकार विजय चौहान को प्रेरित किया होगा कि वे उन्हें एक नाटक में अभिनेता के तौर पर लें. यह नाटक चेखव का लिखा एकांकी, ‘एनवर्सरी’ था जिसमें जितेन्द्र ने मुख्य भूमिका निभायी थी. अपने इसी भारी आवाज़ और उनके साथ अभ्यास के कारण जितेन्द्र कुमार का कविता पाठ सम्भवतः अज्ञेय के बाद सबसे अधिक प्रभावशाली था. युवा कवियों को उस पाठ से सीखने को बहुत है. 

उनके सागर के सभी मित्रों में सम्भवतः केवल राजेन्द्र बहादुर ऐसे थे जो केवल पढ़ते थे. उनके विषय में जितेन्द्र वर्षों बाद बताया करते थे कि राजेन्द्र बहादुर ने ही जितेन्द्र की शृंगारिक रचनाएँ पढ़ने की युवा इच्छा को पूरा करने उन्हें नैषध चरित जैसे संस्कृत ग्रन्थों को पढ़ने की सलाह दी थी. इस फेर में जितेन्द्र ने सागर विश्वविद्यालय के विराट पुस्तकालय में बैठकर कई संस्कृत पुस्तकों को पढ़ डाला था. इन कृतियों के खुलेपन और साहस का असर जितेन्द्र की कविताओं पर स्पष्ट नज़र आता है. शायद इसीलिए उनकी श्रंगारिक कविताएँ किसी भी तरह के विचारधारात्मक और राजनैतिक ‘करेक्टनैस’ के आग्रह से मुक्त है. आज आप उन्हें अपने तरह-तरह के विचारधारात्मक शिकंजों भले ही जकड़ लें पर उनकी तीखी सौन्दर्य और विशिष्ठ नैतिक दृष्टि से प्रभावित हुए बिना नहीं रहेंगे. 

सन् 1959 के क़रीब हिन्दी विभाग में अध्यापन के लिए नामवर सिंह आये. वे कुछ दिनों प्रबोध कुमार के घर के किसी हिस्से में ही रहते थे. जितेन्द्र का वहाँ लगभग नियमित आना-जाना था. जितेन्द्र के शब्दों में, ‘उन दिनों नामवर जी उस हद तक फड़बाज़ नहीं लगते थे जितने वे बाद में समझ आये.’ जितेन्द्र के संवादियों में इस तरह एक लेखक का इज़ाफा हो गया. उन्हीं दिनों सम्भवतः जितेन्द्र ने विश्वविद्यालय के अपने विभाग में अध्यक्ष पद का कोई चुनाव लड़ा था. चूँकि अध्यक्ष को अंग्रेज़ी में ‘प्रसिडेंट’ कहते हैं और देश के राष्ट्रपति को भी यही कहा जाता है इसलिए जितेन्द्र कुमार अपने कुछ मित्रों के लिए राष्ट्रपति हो गये. मुझे याद है कि नामवर सिंह जब भी जितेन्द्र का ज़िक्र करते थे (हालाँकि वे बहुत नहीं करते थे), वे हमेशा ही उन्हें ‘राष्ट्रपति’ कहकर बुलाते थे. इन्हीं दिनों विश्वविद्यालय के कोर्ट मेम्बर की हैसियत से मुक्तिबोध सागर आये थे और उन्होंने जितेन्द्र और उनके मित्रों के बीच ‘अंधेरे में’ (जिसका शीर्षक तब तक था ही नहीं) पढ़कर सुनायी थी. 

बाद के वर्षों में जितेन्द्र कुमार को केन्द्रीय विद्यालय में अंग्रेज़ी पढ़ाने का काम मिल गया. यह उनके जीवन की अकेली लम्बी नौकरी थी. इस दौरान वे विशाखापट्टनम्, पचमढ़ी, राउरकेला, चैन्नई, होशंगाबाद आदि शहरों में रहते हुए या तो अंग्रेज़ी पढ़ाते रहे या केन्द्रीय विद्यालय की प्राध्यापकी करते रहे. उनका विवाह निर्मला जी से हुआ और इन दोनों को देवाशीष नाम का बेटा हुआ. जितेन्द्र के जीवन में मैत्री के अलावा पुत्र प्रेम अत्यन्त मूल्यवान रहा. जिन दिनों जितेन्द्र फ़रीदाबाद में थे, वे अक्सर अपने मित्रों से मिलने दिल्ली आया करते थे. दिल्ली में वे कहानीकार और दैनिक हिन्दुस्तान के पत्रकार अशोक सेक्सरिया के साथ रुका करते थे. 

अशोक सेक्सरिया साहित्यिक पत्रिकाओं में गुणेन्द्र सिंह कम्पानी नाम से अपनी कहानियाँ प्रकाशित करते थे. उन दिनों के जितेन्द्र के मित्रों में प्रयाग शुक्ल, कमलेश आदि हुआ करते थे. इनके साथ जितेन्द्र निर्मल वर्मा जैसे लेखकों के पास जाया करते थे. निर्मल जी उन दिनों तक यूरोप से लौट आये थे और करोल बाग के अपने घर में रहते थे. इन्हीं लोगों के साथ या कई बार अकेले ही जितेन्द्र रघुवीर सहाय, श्रीकान्त वर्मा, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना आदि लेखकों से भी मिलते रहते थे. 

जितेन्द्र के साथ मैं इतने सारे लेखकों की आत्मीयता का ज़िक्र इसलिए कर रहा हूँ कि इन सबसे मिलकर, इन सबको पढ़कर भी जितेन्द्र के लेखन पर इनमें से किसी का भी प्रभाव रेखांकित नहीं किया जा सकता. ये सारे लेखक निश्चय ही जितेन्द्र के संवादी थे और शायद उनके लेखन के भी पर जितेन्द्र के लिखने का ढंग इन सबसे बिलकुल अलग था. यही नहीं हिन्दी का एक ऐसा लेखक भी नहीं है जिसके लेखन की तुलना जितेन्द्र कुमार के लेखन से की जा सके. जितेन्द्र अपनी रचनाओं में अत्यन्त आत्म सजग रहते हुए भी उसमें भाषा के बीहड़पन और अटपटेपन को बनाये रखते थे. उनकी कविताओं में उत्कृष्ट कोटि का भाषिक विवेक उन्हें रोज़मर्रा के भाषिक विन्यास में अनुकूलित होने से बचाये रखता था. शायद यह इसलिए था क्योंकि रोज़मर्रा के भाषिक विन्यास में फिसलते ही कविता की अर्थसम्पदा के संकुचित हो जाने का ख़तरा रहता है. 

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यहाँ यह नहीं कहा जा रहा कि जितेन्द्र अपनी कविताओं की भाषा को जानबूझकर रोज़मर्रा की साधारण भाषा से दूर बनाये रखते थे. यहाँ यह कहने की कोशिश हो रही है कि जितेन्द्र अपनी कविताओं में जो रचना चाहते थे वह रोज़मर्रा के भाषिक विन्यास के चलते रचा नहीं जा सकता था. हम जिसे जितेन्द्र की कविताओं का अटपटापन कह रहे हैं वह इसलिए वैसा लगता है क्योंकि इस तरह के भाषिक विन्यासों में लिखने का जोखिम कम ही लेखक उठा पाते हैं जिसे प्रथम दृष्टया कविता की तरह स्वीकार करना तक कठिन होता है. यही बात जितेन्द्र की कहानियों और उपन्यासों के लिए भी सही है. वे अटपटे पर अनूठे गद्य के अनुपम उदाहरण हैं. 

जितेन्द्र की कविताओं की रचना अत्यन्त चौकस है, उनमें एक भी शब्द अतिरिक्त या लापरवाही से लिखा हुआ नहीं मिलेगा. साथ ही उनमें कभी कोई अन्तिम वक्तव्य या उसके जैसी भंगिमा नहीं मिलती. शायद उनकी कविताओं को कवि के जगत और स्वयं को अनुभव करने की उबड़-खाबड़ प्रक्रिया का रेखांकन कहा जा सकता है. वह ऐसा रेखांकन है जिसमें पाठक अपने अनुभव की प्रक्रिया को प्रतिबिम्बित होते पा सकते हैं और इस रास्ते आत्म-शोधन और आत्म-प्रश्नांकन की दिशा में कुछ दूर तक चल सकते हैं. उनकी एक प्रसिद्ध कविता ‘ऐसे भी तो सम्भव है मृत्यु’ का शीर्षक ही बहुत कुछ कहता है : यहाँ मृत्यु की सम्भावित प्रक्रिया को उसके तमाम विवरणों और विडम्बनाओं में अंकित करने का प्रयास है. यह कविता उस सम्भावित मृत्यु-प्रक्रिया के सूक्ष्मतम सांसारिक विवरणों में जाकर मृत्यु को एक ऐसे दृष्टान्त में रूपान्तरित कर देती है जिसके सहारे हम अपने मृत्यु-पूर्व के जीवन को मानो एक क्षण में महसूस करने की सामर्थ पा जाते हैं. 

यहाँ यह याद रखना बेहतर होगा कि जितेन्द्र ने बहुत बड़ी संख्या में प्रेम कविताएँ लिखी हैं और उनमें भी जगह-जगह किन्हीं भी श्रेष्ठ प्रेम कविताओं की तरह ही मृत्यु की छाया दृष्टिगोचर होती है. प्रेम में विरह का चरम मृत्यु है और मृत्यु की सान्निध्य में ही प्रेम अपनी अर्थवत्ता ग्रहण करता है. जितेन्द्र की कविताएँ प्रेम और मृत्यु के आलोक में जीवन की भीतरी तहों को उद्घाटित करने का अनवरत प्रयास करती हैं और जिन कविताओं में वे इस उद्घाटन को अन्तहीन बना पाते हैं, उन कविताओं को हम सहज ही हिन्दी की श्रेष्ठ कविताओं में गिन सकते हैं.

कहानी और उपन्यास के अलावा जितेन्द्र कुमार ने बहुत कम गद्य लिखा है. पर कहानी और उपन्यास में उनका गद्य इसलिए अटपटा जान पड़ता है क्योंकि वे कहानी या उपन्यास को बनाने की कोशिश में वह गद्य नहीं लिखते. उनके गद्य की बुनावट और कहानी या उपन्यास के रूपाकार में एक गहरा तनाव हमेशा ही उपस्थित रहता है. इस अर्थ में उस गद्य का अपने रूपाकार से अवयव-अवयवी भाव का प्रत्याशित सम्बन्ध नहीं होता. 

उनकी कहानी या उपन्यास का हर वाक्य अपनी ही दिशा लिये होता है पर इन तमाम वाक्यों के सहकार से जब कथारूप या उपन्यास सामने आते हैं, पाठक के पास आश्चर्य करने के अलावा बहुत कुछ नहीं बचता. इस तनाव का एक कारण यह है कि जितेन्द्र पूरी तरह काल्पनिक घटना को, पूरी तरह स्वप्निल वाकये को इस तरह लिखते हैं मानो वे अपनी आँखों के सामने की घटना का वर्णन कर रहे हों. इसका आशय यह नहीं कि हम उनकी सभी कहानियों और उपन्यासों को इसी एक समझ में डालकर छुट्टी पा सकें. किसी भी श्रेष्ठ लेखक की तरह जितेन्द्र कुमार की कहानियाँ और विशेषकर उपन्यास कल्पना के धागों से बुने सपने और ठोस विवरणों के आधार पर तैयार वास्तविकता के बीच डोलते हैं, हमारे भीतर उस सीमा को लुप्त करते हुए जो इनके बीच खिंची जा सकती थी.

अपने जीवन के अन्तिम कुछ वर्षों में जितेन्द्र ने घर से बाहर निकलना छोड़ दिया था. उनके बेटे की युवा अवस्था में ही मृत्यु हो गयी थी. जितेन्द्र कहीं भीतर से बहुत टूट गये थे. वे आखिर तक बेटे के आकस्मिक अवसान को सह नहीं सके. उनकी पत्नी निर्मला जी ने इस दौरान जितेन्द्र को बाँधे रखने का अप्रतिम साहस दिखाया. वे जितेन्द्र के दुःख के समक्ष अपने दुःख को स्थगित किये उन्हें सम्हाले रहीं. इस दौर में भी जितेन्द्र ने कई कविताएँ लिखीं. इनमें दुःख, क्षोभ, अपने जीते रहने पर नाराज़गी आदि भावों ने कविता की शिल्प चेतना पर वरीयता प्राप्त कर ली. इनमें से अनेक कविताएँ बिखरी हुई जान पड़ सकती हैं, उनमें जितेन्द्र जैसे शिल्प सजग कवि की शिथिलता दीख सकती है. पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि शिल्प शिथिलता उसी कवि में नज़र आती है जिसने अपना तमाम कवि जीवन शिल्प को साधने में लगाया हो और जो कविता और गद्य को उन-उन जगहों पर ले गया हो जहाँ उसके शिल्प और भाषा को भीषण तनावों से होकर गुज़रना पड़ा था.

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उदयन वाजपेयी
udayanvajpeyi@gmail.com


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