महाकवि निराला ने कविताओं के साथ-साथ कहानियाँ और उपन्यास भी लिखे हैं, उनके साहित्य को समग्रता में देखते हुए रजनी दिसोदिया ने निराला की स्त्री-चेतना की पड़ताल की है
देखें आप.
निराला
चेतना का स्त्री-पक्ष
रजनी दिसोदिया
Image may be NSFW. Clik here to view. ![]() |
यह सर्वविदित है कि निराला अपना जन्मदिन बसंत पंचमी के दिन मनाते थे. यद्यपि यह उन्हें भी प्रमाणिक रूप से ज्ञात नहीं था कि उनका जन्म बसंत पंचमी के दिन हुआ था पर इसके आस पास होने का अंदाज उन्हें मिला होगा. निराला का बसंत से कुछ गहरा नाता था. मुझे यह तो ज्ञात नहीं कि उन्होंने अपना जन्मदिन कब से बसंत पंचमी को मनाना शुरू किया पर मेरा अनुमान है कि पत्नी मनोरमा देवी के आगमन के बाद उन्होंने ऐसा किया होगा. हम सब जानते हैं कि कवियों और लोक जीवन ने बसंत को धरती का यौवन, उसका शृंगार, उसका उल्लास भरा सौन्दर्य माना है.
निराला का विवाह तेरह वर्ष की अवस्था में हुआ और पत्नी मनोरमा देवी का गौना सोलह वर्ष की अवस्था में हुआ. विवाह के तीन वर्ष पश्चात. पती-पत्नी दोनों अपने जीवन के बसंत के उल्लास में मिले. और क्या भरपूर मिले. स्त्री,पत्नी के रूप में अपनी तमाम संभावनाओं, क्षमताओं और खूबसूरती के साथ उनके जीवन में आई और उनके जीवन को भरपूर रससिक्त कर गई. निराला पर पत्नी मनोरमा देवी के व्यक्तित्व का गहरा प्रभाव पड़ा. उनसे भिन्न और दृढ़ इच्छाशक्ति की धनी उनकी पत्नी ने पुरुष निराला को पत्नी-प्रिया,स्त्री के स्वाभिमान और शक्ति, सौन्दर्य और प्रेम की अंतत संभावनाओं से परिचित करवाया. रामविलास शर्मा ‘निराला की साहित्य साधना’में लिखते हैं कि
“मनोरमा देवी सुंदर थीं, पर कलाकार के मन को प्रसन्न करने वाले हावभाव, शृंगार, प्रसाधन सरस वार्तालाप- यह सब उनके पास कुछ न था. इसके अलावा मनोरमा देवी भी अपने माँ-बाप की इकलौती बेटी थीं. आत्मसम्मान की भावना उनमें काफ़ी थी. महिषादल के बैंसवाड़े के परिवार मानते थे कि निराला कुछ हैं; यह बड़प्पन मनोरमा देवी ने स्वीकार नहीं किया. निराला को अपनी छवि पर गर्व था; मनोरमा देवी ने अपने संगीत से उनका गर्व चूर कर दिया. पुरुष हारा, स्त्री जीती, पुरुष उससे आँखें न मिला पाता, लजाता है. अपने को कमजोर पाता है. ”
अर्थात् निराला को पत्नी के रूप में ऐसी स्त्री मिली जिसकी आत्मा में स्वाभिमान था. जो स्वतंत्र थी. जिसे पुरुष की अधीनता और आतंक छू भी न गया था. दबने और सिमटने का जिसे अभ्यास नहीं था. यह स्त्री का सहज स्वाभाविक रूप था.
मनोरमा देवी दाम्पत्य जीवन के सात साल ही साथ बिता पाईं और असमय काल-कवलित हो गईं. निराला की आयु उस समय मात्र २३ वर्ष ही थी. उनके पास जीवन में दूसरा ही नहीं तीसरा और चौथा विवाह करने के अवसर भी मौजूद थे. ‘सरोज स्मृति’ से पता चलता है कि स्वयं सास उनका दूसरा विवाह करवाना चाहती थीं. पर निराला मनोरमा देवी को नहीं भूल सकते थे. मनोरमा देवी उनकी पूरी चेतना पूरे व्यक्तित्व और कृतित्व पर छा गईं थीं. और उनका यह असर निराला को शिव की तरह अर्धनारीश्वर में परिणत कर गया और निराला पुरुष हृदय में नारी की पीड़ा को धारण करने वाले, नारी सौन्दर्य और प्रेम का सम्मान करने वाले, नारी के सामर्थ्य को समझने और उसे स्वीकृति दिलाने वाले कवि बन गए.
शिव भी सती के शव को लेकर पूरी पृथ्वी पर का चक्कर काटते रहे. सती के अंग-प्रत्यंग पूरे भारत में जगह जगह शक्ति के प्रतिष्ठान बन कर उभरे. निराला की कविताओं में उनकी प्रिया धरा के संपूर्ण सौन्दर्य वसंत के रूप में प्रतिष्ठित हुईं. यूँ ही नहीं उनकी प्रिय ऋतु बसंत रही. उनकी कविताओं में प्रकृति स्त्री रूप में अपने रूप और यौवन से सबका मन मोह लेती है. यह सम्मोहन पागल बना देने वाला पथभ्रष्ट करने वाला नहीं है बल्कि यह तो लोक कल्याणकारी है. उनकी ‘संध्या सुन्दरी’नामक प्रसिद्ध कविता इसका बहुत सटीक उदाहरण है. जहाँ वह संसार के थके हारे जीवों को अपने अंक में सुलाकर उन्हें विस्मृति का सुख प्रदान करती है. यह ‘विस्मृति’‘भुलावा’नहीं है. यह विस्मृति अपने लक्ष्यों,को अपने कर्मों को भुलाना नहीं है. यह विस्मृति घाव पर लगा वह मलहम है जो उस चोट, उस घाव की टीस को मिटाकर भीतर ही भीतर उसका इलाज करता है.
मदिरा की वह नदी बहाती आती,
थके हुए जीवों को वह सस्नेह,
प्याला एक पिलाती
सुलाती उन्हें अंक पर अपने
दिखलाती फिर विस्मृति के वह कितने मीठे सपने.
अर्द्ध रात्रि की निश्चलता में हो जाती वह लीन.
यूँ तो छायावाद के सभी कवियों ने प्रकृति के आश्रय से अपनी सौन्दर्य और प्रेममयी भावनाओं को अभिव्यक्ति प्रदान की है पर निराला के यहाँ यह काव्यमय कलात्मक अनुभूति जितनी ऐन्द्रिक होकर उभरी है उतनी अन्य कवियों के यहाँ नहीं है. यह अलग बात है कि निराला की ‘जूही की कली’नामक कविताओं को महावीर प्रसाद द्विवेदी ने अश्लील करार कर रद्दी की टोकरी में डाल दिया था. पर निराला के मन का भाव नहीं बदला;क्यूँ क्योंकि निराला के लिए स्त्री, अपने सम्पूर्ण दैहिक सौन्दर्य (यथार्थ) के साथ किसी तरह की कुंठा का कारण नहीं रही. निराला ने नैतिकतावादियों की तरह स्त्री को माया के रूप में राह भटकाने वाली, कामान्ध बनाने वाली के रूप में नहीं देखा था. इसी कारण निराला का स्त्री देह को लेकर कोई अपराधबोध नहीं था. वह स्त्री की देह में यौवन के विलास को बहुत सहज और स्वाभाविक रूप में स्वीकारते हैं.
आँखें अलियों- सी
किस मधु की गलियों में फंसी,
बंद कर पाँखें
पी रही हैं मधु मौन
या सोयी कमल-कोरकों में—
बंद हो रहा गुंजार---
जागो फिर एक बार!
....
निर्दय उस नायक ने
निपट निठुराई की
कि झोंकों की झड़ियों से
सुन्दर सुकुमार देह सारी झकझोर डाली,
मसल दिये गोरे कपोल गोल;
चौंक पड़ी युवती—
चकित चितवन निज चारों ओर फेर.....
प्रकृति के भीतर जैसे समय आने पर वर्षा होती है, काली घटाएँ छाती हैं, फूलों के पौधों में कलियाँ खिलकर चटखती हैं वैसे ही स्त्री के शरीर में यौवन फूटता है. फिर वह स्त्री कवि की अपनी बेटी ही क्यों न हो. हिन्दी साहित्य के इतिहास में शायद निराला ऐसे अकेले कवि हैं जिन्होंने अपनी पुत्री के यौवन का चित्रण अपनी कविता में किया. इसके लिए अपने मन के भीतर बहुत प्रकाश, दृढ़ता और साहस चाहिए. ‘सरोज स्मृति’ निराला ने अपनी प्रिय पुत्री की स्मृति में लिखी. कवि के हाथ इसलिए ही नहीं काँपे क्योंकि प्रिया पत्नी ने कवि पुरुष का साक्षात्कार हमारे भीतर मौजूद प्रकृति के संगीत से कराया था.
परिचय–परिचय पर खिला सकल-
नभ, पृथ्वी, द्रुम, कलि, किसलय–दल.
क्या दृष्टि! अतल की सिक्त धार
ज्यों भोगावती उठी अपार,
उमड़ता ऊर्ध्व को कल सलील
जल टलतल करता नील – नील,
पर बँधा देह के दिव्य बाँध,
छलकता दृगों से साध – साध.
फूटा कैसा प्रिय कंठ-स्वर
माँ की मधुरिमा व्यंजना भर.
हर पिता-कंठ की दृप्त-धार
उल्कलित रागिनी की बहार!
निराला हमेशा पुरुष होकर प्रकृति (स्त्री) की ओर नहीं जाते बल्कि स्त्री होकर प्रकृति की ओर से पुरुष के पास आते हैं उसे पुकारते हैं. उसका आह्वान करते हैं. ‘जागो फिर एक बार’कविता में वे प्रकृति स्त्री की ओर से पुरुष को जगा रहे हैं—
“प्यारे जगाते हुए हारे सब तारे तुम्हें........
पिव-रव पपीहे प्रिय बोल रहे,सेज पर विरह-विदग्धा वधू
याद कर बीती बातें, रातें मन-मिलन की
मूँद रही पलकें चारू
कब से मैं रही पुकार---- जागों फिर एक बार!”
यह सब कैसे संभव हुआ. कैसे कवि निराला को स्त्री मन की उस तड़प का,कसक का भान हो सका जब उसका प्रिय उससे दूर हो गया हो. इसका पता चलने के लिए ‘कुलीभाट’ का वह अंश जानना बहुत जरूरी है जब कुल्ली जो कि लेखक का सखा भी है के पूछने पर निराला ने जवाब दिया.
आपने दूसरी शादी नहीं की?
करने की आवश्यकता नहीं मालूम दी.
पूछा– रहते किस तरह हैं?
उत्तर दिया– एक विधवा जिस तरह रहती है.
कुल्ली- विधवाएँ तो तरह तरह के व्यभिचार करती हैं.
मैं- तो मैं भी करता हूँगा.
निराला का जीवन,उनकी कविताएँ एक पुरुष का विरह है जो उनकी प्रिया के असमय चले जाने के बाद शुरू हुआ. वे रह रह कर अपनी कविताओं में अपनी प्रिया को पुकारते हैं. रात के सन्नाटे में जब सारा संसार सुख की नींद सो जाता है तो कवि के कमनीय कंठ से विहाग निकल पड़ता है. ‘कुल्ली’ ने कह तो दिया कि विधवाएँ तो तरह-तरह के व्यभिचार करती हैं. पर क्यों करती हैं?क्यों उन्हें व्यभिचारिणी बनना पड़ता है? इसका जवाब निराला ने अपनी कहानियों और उपन्यासों में खोजा है.
उनके कई उपन्यासों के केन्द्रीय चरित्र विधवा हैं. निराला जिस ब्राह्मण समाज के सदस्य थे उस ब्राह्मण समाज ने जाति व्यवस्था को अटूट बनाए रखने के लिए न केवल विधवा-विवाह निषेध जैसी कुरीतियाँ इज़ाद की बल्कि बाल विवाह भी उनके उन कलुषित विचारों की देन है. बाबा साहेब बी आर अंबेडकर ने अपने प्रसिद्ध निबंध ‘भारत में जाति प्रथा’ के अन्तर्गत यह समझाया है कि कैसे ब्राह्मणों ने भारत में जाति व्यवस्था को कायम रखने के लिए इन कुप्रथाओं को स्त्री पर थोपा. बाबा साहेब कहते हैं कि जाति व्यवस्था के बने रहने के लिए जरूरी है कि सजातीय (अपनी ही जाति में) विवाह किया जाए. सजातीय विवाह के लिए जरूरी है कि जाति में विवाह योग्य स्त्री पुरुष की संख्या समान हो. किसी विवाहित जोड़े में से किसी एक की मृत्यु हो जाने पर दूसरे की भी मृत्यु यदि प्राकृतिक रूप से हो जाती तो कोई दिक्कत नहीं थी पर क्योंकि विवाह और जाति दोनों प्राकृतिक नहीं सामाजिक व्यवस्था है अत: प्रकृति ऐसा करने में असमर्थ है. ऐसे में किसी जाति में स्त्री पुरुषों की जनसंख्या को बराबर बनाए रखने के लिए स्त्री के संदर्भ में अप्राकृतिक व अमानवीय प्रथाएँ जन्म लेने लगी जैसे मृत पति के साथ उसकी पत्नी को भी जला डालना और यदि ऐसा संभव न हो तो उस पर आजीवन वैधव्य थोप देना जिससे न तो वह अन्य जाति के पुरुष से विवाह करके जाति की संरचना को नुकसान पहुँचाए न ही अपनी ही जाति के पुरुष से विवाह करके अपनी जाति में स्त्री पुरुष अनुपात को बिगाड़े. किंतु इससे भी जैसा कि बाबासाहेब ने कहा कि अनैतिकता के रास्ते खुलते हैं इसलिए विधवा को ऐसी हालत में रखने व रहने का प्रचलन बढ़ा कि जिससे उसमें आकर्षण लेशमात्र भी न बचे जैसे उसका सिर मुंडवा देना, नया रंगीन वस्त्र तथा आभूषण न धारण करने देना, किसी सामाजिक व मांगलिक कार्य में भाग न लेने देना, रूखा-सूखा खाकर सांसारिकता से परे अपने बचे दिन बिताना इत्यादि.
निराला जिस समाज थे उसे अपनी जाति की श्रेष्ठता पर बड़ा अभिमान था. उस पर कान्यकुब्ज ब्राह्मण; वहाँ जाति की श्रेष्ठता और तथाकथित पवित्रता को बनाए रखने के लिए विधवा पर कठोर नियंत्रण रखा जाता था. दूसरी ओर पुरुष के तो तीसरे चौथे विवाह को भी संभव बनाने के लिए छोटी छोटी उम्र की लड़कियों की शादी प्रौढ़ और उम्रदराज पुरुषों से कर दी जाती थी. बचपन में ही विधवा हो गई उन युवतियों पर क्या बीतती होगी जब उनके जीवन में बसंत रूपी यौवन हिलोरें मारता होगा. एक विधवा की तरह जीवन यापन करते निराला के लिए यह समझना बहुत आसान था. कवि तो अपनी पीड़ा अपनी कविता में ढ़ालकर कह लेता है. प्रकृति के भीतर अपनी भावनाओं को व्यक्त हुआ पाता है. पर विधवा स्त्री क्या करे. उसे तो व्यभिचारिणी का तमगा लेना ही पड़ता है. क्योंकि विधवा को पुनर्विवाह का अधिकार देने वाली जातियाँ तो नीच मानी गई हैं. और शायद निराला उन जातियों की प्रगतिशीलता को समझ कर ही उनकी ओर झुकते चले गए होंगे. निराला की प्रसिद्ध कविता ‘भारत की विधवा’ जहाँ उनके समाज में स्त्री की कारुणिक स्थिति का बयान है वहीं अपने उपन्यासों और कहानियों में निराला अपने समाज की उन कुरीतियों और स्त्री पर थोपी गई नैतिकताओं पर प्रहार करते हैं.
उनकी एक कहानी ‘ज्योतिर्मयी’ की पात्र ज्योतिर्मयी अपनी बहन के देवर से जो अंग्रेजी में एम.ए. है पर विधवा के लिए यही मानता है कि
“नहीं पतिव्रता पत्नी तमाम जीवन तपस्या करने के पश्चात परिलोक में अपने पति से मिलती है.”को जवाब देती है—
“अच्छा बतलाइए तो, यदि पहले ब्याही स्त्री इसी तरह स्वर्ग में अपने पूज्यपाद पति-देवता की प्रतीक्षा करती हो और पति देव क्रमश: दूसरी, तीसरी, चौथी पत्नियों को मार मारकर प्रतीक्षार्थ स्वर्ग भेजते रहें तो खुद मरकर किसके पास पहुँचेंगे?”
निराला के लगभग सभी उपन्यासों के केन्द्र में स्त्रियाँ हैं. बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में जब शिष्ट समाज की स्त्रियाँ कॉलेज जाने लगीं थीं. नए और आधुनिक विचारों के संपर्क में आकर कहीं उनकी सभ्य सुसंस्कृत स्त्रियाँ पथभ्रष्ट न हो जाएँ इस आशंका से जूझते खूब पढ़े-लिखे पुरुषों का चित्रण किया है.
निराला का एक उपन्यास है ‘अप्सरा’. उपन्यास तवायफ़ के पेशे पर है. पर उपन्यास में निराला ने उन्हें गंधर्व कुमार कहकर संबोधित किया है. निराला ने इस पेशे को संगीत, नृत्य और अभिनय के पेशे के रूप में देखने का प्रयास किया है. निराला की यह दृष्टि अपने समकालीन साहित्यकारों से भिन्न थी. वे इस पेशे को वेश्यावृति न मानकर कला की आराधना मानते थे. उपन्यास की नायिका कनक की माँ बेटी को अपने पेशे का धर्म समझाती हुई कहती है.
“... हम लोक में वैसी ही विभूति वैसा ही ऐश्वर्य, वैसा ही सम्मान अपनी कला के प्रदर्शन से प्राप्त कर सकती हैं; साथ ही जिस आत्मा को और लोग अपने सर्वस्व का त्यागकर प्राप्त करते हैं उसे भी हम लोग अपनी कला के उत्कर्ष द्वारा उसी में प्राप्त करती हैं. उसी में लीन होना हमारी मुक्ति है. ”
पर इसके लिए वह मानती है उन्हें किसी व्यक्ति के प्रेम में नहीं पड़ना है. गृहस्थी के साथ यह साधना नहीं हो सकती.
बल्कि उनका कथन यहाँ इस संभावना को दिखाता है कि निराला इस बात को स्वीकार करते हैं कि विवाह और दाम्पत्य में स्त्री की स्वतंत्रता समाप्त हो जाती है शायद इसीलिए इन कलाओं की साधना करने वाली स्त्रियों ने अपने लिए देवता को (शिव) अपना परमेश्वर मान लिया.
“... हमारे प्रेम पर, हमारे कौशल के शिव का ही एकाधिकार है. जब हम लोग अपने इस धर्म के गर्व से मौखरिये की रागिनी सुन मुग्ध हुई नागिन की तरह निकल पड़ती हैं, तब हमारे महत्व के प्रति भी हमें कलंकित कर अहल्या की तरह शाप से बाँध, पतित कर चले जाते हैं. हम अपनी स्वतंत्रता के सुखमय विहार को छोड़ मौखरिये की संकीर्ण टोकरी में बंद हो जाती हैं. फिर वही हमें इच्छानुसार नचाता, अपनी स्वतंत्र इच्छा के वश में हमें गुलाम बना लेता है.”
इस प्रकार निराला ने महिलाओं के एकाधिकार वाले इस पेशे को अपने समकालीनों से अधिक तार्किक दृष्टि से देखने का प्रयास किया.
स्त्री के श्रम और उसके संघर्ष को पहचान दिलाती ‘तोड़ती पत्थर’ कविता श्रमिक वर्ग की स्त्री को देखने की नई ही दृष्टि प्रदान करती है. प्राय: विपरित स्थितियों में जी तोड़ मेहनत करने वाले वर्ग के प्रति, उनकी दयनीय स्थिति के प्रति दया और करुणा से भरे रचना संसार में यह अनोखी कविता है जो उनके जबरदस्त जीवट को सलाम करती है. इलाहाबाद जहाँ निराला की रिहाइश थी. जहाँ यूँ प्रतिदिन सड़क पर काम करती स्त्रियाँ दिख कर भी किसी को नहीं दिखती थीं. जैसा कि ऊपर लिख आई हूँ कि निराला ने पुरुष हृदय में स्त्री मन को धारण किया था.
वे अर्धनारीश्वर थे इसलिए उनकी चेतना में स्त्री के प्रति पूरी संवेदना व्याप्त थी और चूंकि वे स्त्री की क्षमता,उसके स्वाभिमान और शक्ति से परिचित हो चुके थे इसलिए इस संवेदना का स्वरूप ऐसा था कि स्त्री का आत्मसम्मान कहीं आहत न होने पाए. बड़े से बड़े संकट के बीच से गुजरती स्त्री के उस जीवट को, साहस को और संघर्ष को उनकी रचनाएँ बड़ी खूबसूरत से बयां करती है. निराला अत्यंत सजग और ईमानदार रहते हैं कि ऐसे स्त्री चरित्रों को खोलते और उनके बारे में लिखते हुए गलती से भी अपने आप को विशेष समझने की भूल न कर बैठें.
निराला बड़े कवि इसीलिए है क्योंकि वे बहुत नेक और सरल मनुष्य थे. उनकी ‘देवी’ कहानी की प्रमुख पात्र जिस होटल में वे लंबे समय तक ठहरे थे,उसके बाहर फुटपाथ पर रहने वाली एक पगली थी. अपनी दुनिया और जंजालों में व्यस्त और मस्त रहने वाली दुनिया को उस बीस- पच्चीस बरस की पगली औरत और उसके डेढ़ दो साल के बच्चे से बस इतना ही वास्ता था कि वह उनकी बची रोटियों से अपना और अपने बेटे का पेट भरती थी. पर निराला यह देख पाते थे कि वह एक माँ है जो गूँगी बहरी होने के बावजूद अपने बच्चे का अपनी सामर्थ्य भर ख्याल रखती थी. वह अपनी मूक भाषा में बच्चे को वह सबकुछ समझाती थी जो हम भाषा के जानकार भाषा में लिख कर बता भी नहीं सकते.
“यहाँ माँ-बेटे के मनोभाव कितनी सूक्ष्म व्यंजना से संचारित होते थे, क्या लिखूँ! डेढ़-दो साल के कमजोर बच्चे को माँ मूक भाषा सिखा रही थी- आप जानते हैं, वह गूँगी थी. बच्चा माँ को कुछ कहकर न पुकारता था, केवल एक नजर देखता था, जिसके भाव में वह माँ को क्या कहता आप समझिए; उसकी माँ समझती थी; तो क्या वह पगली और गूँगी थी?”
निश्चित ही निराला के लिए वह औरत पगली नहीं थी बल्कि वह समाज अपनी सुध बुध खो बैठा था जिसे उस औरत को उस स्थिति में देखकर कोई परेशानी नहीं होती थी.
निश्चित ही निराला स्त्रियों के प्रति, मानव मात्र के प्रति समाज के संवेदनहीन व्यवहार से कराह उठते थे. समाज के हरेक छल-छद्म को जानने, पहचाने वाली और उसी के बीच से अपने लिए रास्ता बनाने वाली औरत के जीवट को वे आगे बढ़कर सलाम करते हैं. “बाँधो न नाव इस ठाँव बंधु” कविता में एक ऐसी ही स्त्री की स्थिति का बयान है. वह स्त्री जिसने अपनी हद अपने आप तय की है. जो अपनी सीमाएँ पहचानती है और उसी में से अपने लिए रास्ता बनाती है. कवि भी उसके मान-सम्मान का ध्यान रख अपनी सीमाएँ कभी नहीं लाँघता. इस प्रकार एक गजब का रिश्ता बाँधा है निराला ने स्त्री के साथ जो अपनी प्रकृति में भी निराला ही है.
______
रजनी दिसोदिया
कहानी संग्रह ‘चारपाई’ और आलोचना पुस्तक ‘साहित्य और समाज: कुछ बदलते सवाल’ आदि पुस्तकें प्रकाशित.
एसोशियेट प्रोफ़ेसर
हिन्दी विभाग, मिरांडा हाउस/दिल्ली विश्वविद्यालय
9910019108