Quantcast
Viewing all articles
Browse latest Browse all 1573

किसान आंदोलन: सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक आयाम : लाल बहादुर वर्मा, विनोद शाही, राकेश गुप्त एवं अक्षत शाही


 
 

किसी भी आंदोलन के क्रांतिकारी होने के लिए जरूरी है कि वह आमूल परिवर्तन उपस्थित करे, सामाजिक,आर्थिक,राजनीतिक और सांस्कृतिक बदलाव लाये. दिल्ली की सीमाओं पर किसानों का यह आंदोलन अनवरत है और अब अखिल भी. इसके क्रोड़ में क्या दहक रहा है, कैसी आकृतियाँ रूप ले रहीं हैं?यह जानने के लिए जरूरी है कि ऐन इसके बीच आप जाएँ

प्रसिद्ध इतिहासकार लाल बहादुर वर्मा, आलोचक-विचारक विनोद शाही,  अधिवक्ता और संस्कृति कर्मी राकेश गुप्त और आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ अक्षत शाही किसान आंदोलन पर इसी मार्च में यह बैठकी करते हैं.

यह संवाद इनके बीच इस आंदोलन को समझने की प्रक्रिया के अंतर्गत संभव हुआ है. मेरे देखे तो अपूर्व और ऐतिहासिक है. और उदाहरण बनने योग्य है.  समझ और सरोकार  से सींचता है कि मनुष्यता  फले फूले. 

समालोचन प्रस्तुत कर रहा है. 



किसान आंदोलन
सामाजिक,राजनीतिक,आर्थिक और सांस्कृतिक आयाम                          
लाल बहादुर वर्मा, विनोद शाही, राकेश गुप्त और अक्षत शाही  


Image may be NSFW.
Clik here to view.
विनोद शाही: १

लाल बहादुर वर्मा जी! आप कल भगवान सिंह जी के यहां से राकेश गुप्ता के साथ किसानों के बीच गाजीपुर बॉर्डर गए थे. वहां आपने क्या अनुभव किया?

मुझे लगता है कि इस किसान आंदोलन ने, जाटों और मुसलमानों के बीच मौजूद सांप्रदायिक तनाव को कम करने और दलित समाज के लिये सवर्णों में थोड़ा सद्भाव पैदा करने के लिहाज से, सकारात्मक भूमिका निभानी आरंभ कर दी है. यानी यह आंदोलन भारत के गांवों में सामाजिक एकजुटता के एक नए अध्याय को आरंभ करने की भूमिका बनाता प्रतीत हो रहा है. आंदोलन अपनी सीमित मांगों के संदर्भ में सफल होगा या नहीं यह कहना अभी मुमकिन नहीं है, परंतु सामाजिक संबंधों के धरातल पर इसकी वजह से अनेक स्वागत योग्य परिणाम अवश्य सामने आ रहे हैं.

यह परिवर्तन दूरगामी साबित होंगे या नहीं, कहा नहीं जा सकता. परंतु इस तबदीली का हमें स्वागत अवश्य करना चाहिए. आपने इस संदर्भ में जो अनुभव किया, उसे मैं आपसे जानने के लिए उत्सुक हूं.

 

लाल बहादुर वर्मा: २ 
Image may be NSFW.
Clik here to view.

आपने यह जो सवाल उठाए हैं सोचने लायक हैं. मैं भी किसान आंदोलन के ऐसे सकारात्मक प्रभाव की मौजूदगी को देख रहा हूं. आपको याद होगा उत्तर प्रदेश में मुजफ्फरपुर एक ऐसी जगह के रूप में उभर कर सामने आया था जहां जाटों और मुसलमानों के बीच हिंसक संघर्ष हुआ था. आप उससे परिचित ही होंगे. पर जब मैं कल गाजीपुर बॉर्डर गया तो वहां मैंने उस जिले के कुछ जाटों और मुसलमानों को एक दूसरे का हाथ पकड़ कर पास बैठे हुए यह कहते सुना कि भाई हम उस वक्त पता नहीं क्या हो गए थे. उनकी वह बातचीत एक तरह के प्रायश्चित के भाव से भरी थी कि हमने एक दूसरे के साथ क्या-क्या किया. तो मुझे लगा कि वे अब यह सोच रहे थे कि हम इस तरह की सांप्रदायिकता वाली सोच को किस तरह पीछे छोड़ कर आगे बढ़ सकते हैं. वहाँ मेरा एक विद्यार्थी पंकज मुझसे मिला जिसने मेरा एक इंटरव्यू किया. उस दौरान मैं देख रहा था कि मेरे ठीक सामने एक मुसलमान और एक हिंदू बेहद अंतरंगता के साथ बात कर रहे थे. मैंने यह तो नहीं सुना कि वे आपस में क्या बात कर रहे थे, पर लगभग एक घंटे तक, उस दौरान वे उसी प्रकार अंतरंगता की भंगिमा के साथ वहां बैठे रहे. 

Image may be NSFW.
Clik here to view.

राकेश गुप्त: 3

शाही जी! मैंने वहां बैठे उन दोनों किसानों की एक फोटो खींची थी. 


लाल बहादुर वर्मा: 4
Image may be NSFW.
Clik here to view.

इस चित्र को मैं एक प्रतीकात्मक बात की तरह देख रहा हूं. उनके बीच की बात महत्वपूर्ण नहीं है परंतु उनकी एक दूसरे के साथ जो निकटता है, वह बहुत कुछ कहती हुई मालूम पड़ रही है. फिर कुछ लोगों से यह बातें सुनी कि वे किस तरह एक दूसरे के साथ बैठकर लंगर खाते हैं. इसके अलावा मुझे आजमगढ़ के कुछ लोग मिले. उत्तर प्रदेश के उस जिले में कभी वामदल बहुत सक्रिय थे. वहां का एक किसान उस वक्त हमारे सामने आकर बैठ गया. इंटरव्यू चलती रही. जब वह खत्म हुई, तो मैंने उनसे पूछा कि आप कौन हैं? वह आजमगढ़ के वाम दल का एक सामान्य सदस्य निकला. मैं वहां के कई कम्युनिस्टों को जानता था. बात चली तो निकटता हो गई.

वह आदमी वहां एक झोला लेकर आया था और सात दिन से वहीं था. इस तरह इस बात को समझने का मौका मिला कि वहां हर तरह के लोग हैं. किसी को इस बात में कोई दिलचस्पी नहीं है कि कौन कहां से आया है, किस जाति का है, किस राजनीतिक दल से उसका संबंध है, या किस धर्म या मजहब से उसका कुछ लेना देना है. वे लोग बस वहां है, किसानों के रूप में या उनके हमदर्द लोगों के रूप में.

मुझे बताया गया कि कई गांवों में मनों लड्डू बन रहे हैं उसे कौन बना रहा है और उन्हें कौन खाएगा इस बात से किसी को कोई लेना देना नहीं है. ये बातें हमारे लिए बहुत हैरानी वाली इसलिए हैं, क्योंकि गांवों में साथ मिल बैठकर खाना या उसे कौन बना रहा है या कौन परोस रहा है, जैसी बातें बहुत अहम है. पर उससे जुड़ा वह जो पवित्रता का या छुआछूत का मामला है, उसका यहां कोई नामोनिशान दिखाई नहीं दिया.

लोग अनाम और जाने लोगों के लिए इतने प्रेम से खाने पीने रहने पहनने की व्यवस्था कर रहे हैं कि देखकर हैरानी होती है. इस तरह की कई और उदाहरण भी दिए जा सकते हैं. बहुत तरह के लोग आंदोलन में शामिल हैं और जो बात समझने की है वह यह है कि सभी यह अनुभव कर रहे हैं कि यह आंदोलन सकारात्मक है. क्यों है, अभी कुछ निश्चय से नहीं कहा जा सकता. परंतु इस बारे में कोई दुविधा नहीं है कि यह सकारात्मक है. मेरे दामाद हैं, दिगंबर. वे इस आंदोलन में काफी सक्रिय हैं. वह गाजीपुर बॉर्डर और सिंघु बॉर्डर पर किताबों की दुकान और पुस्तकालय चलाते हैं. मैंने उनसे और वहां मौजूद कई वामपंथी मित्रों से बात की. देखिए, जो मार्क्सवाद की क्लासिकल इंटरप्रिटेशन है वह तो यही है कि वह आंदोलन भूस्वामियों का आंदोलन है. बड़े किसान की इस आंदोलन में नुमांया भूमिका को देखते हुए अनेक नक्सलाइट समूह इस आंदोलन को खारिज कर रहे हैं. 

Image may be NSFW.
Clik here to view.
विनोद शाही:5

मेरी इस संबंध में डॉक्टर सेवा सिंह जी से विस्तार पूर्वक चर्चा हुई थी. वह भी यहां आप सब से मिलने के लिए कपूरथला से आने वाले थे, परंतु स्वास्थ्य संबंधी दिक्कतों के कारण नहीं आ सके. आरंभ में वह भी यही मान  रहे थे कि यह आंदोलन सामान्य जन, दलित और मजदूर से सीधा संबंध नहीं रखता है. बड़े किसान की नुमांया भूमिका के कारण इसे लेकर उनके मन में संशय दिखाई दिया. परंतु फिर मैंने उनसे विस्तार पूर्वक चर्चा की. कहा कि मेरी दृष्टि में यह आंदोलन छोटे किसान और मजदूर की बहुतायत वाला आंदोलन हो गया है.

बड़े किसान अपने आप में अब कोई भी स्वतंत्र निर्णय लेने की स्थिति में नहीं रह गए हैं. नेतृत्व भी किसी एक आदमी के हाथ में नहीं रहा है. छोटे किसान और मजदूर इस आंदोलन को इसलिए समर्थन दे रहे हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि बड़े किसान पर निर्भर जिस व्यवस्था के आधार पर उनकी रोजी-रोटी चल रही थी, वह व्यवस्था अब संकटपूर्ण हो गई है. लिहाजा उनके लिए भी रोजी रोटी का संकट खड़ा होने वाला है. इस वजह से आप यह बात केंद्र में आ गई है कि समाज के हाशिए पर खड़े लोगों की रोजी रोटी की व्यवस्था हो पाएगी या नहीं.

मुद्दे व्यापक हो रहे हैं और वह केवल बड़े किसान को लाभ पहुंचाने वाले मुद्दे नहीं रह गए हैं. सांस्कृतिक आधार भी यहां काफी गहराई में मौजूद दिखाई दे रहा है. ऐसा लगता है कि प्रकृति से मनुष्य के रिश्ते की बात भी अब पुनर्विचार की मांग कर सकती है. ऐसे में इस आंदोलन की बाबत क्लासिकल मार्क्सवादी तरीके से ही विचार करने की स्थितियां नहीं रह गई हैं. यह आंदोलन अपनी तरह का एक अलग आंदोलन है. इसलिए इसे रूस या किसी अन्य देश के उदाहरणों के आधार पर व्याख्यायित नहीं किया जा सकता. इस तरह की बातें साझा होने पर सेवा सिंह जी ने एक महत्वपूर्ण बात कही थी. वह कह रहे थे कि मुझे लगता है कि मध्यकाल में जो हालात दसवीं से 13वीं 14वीं शताब्दी के बीच बने थे, जिनमें संस्कृति का और सत्ता का दोनों का विकेंद्रीकरण हो रहा था, उस तरह के हालात अब प्रकट हो रहे हैं. किसान आंदोलन में सत्ता तथा संस्कृति दोनों के विकेंद्रीकरण के आसार इसे सकारात्मक बनाते हैं. आपने इस आंदोलन के सकारात्मक होने की बात उठाई है. इसकी हम बेशक अभी पूरी व्याख्या न कर पा रहे हों, पर इससे असहमत होना भी कठिन लग रहा है. 

Image may be NSFW.
Clik here to view.
लाल बहादुर वर्मा: 6

किसान आंदोलन को लेकर यह बात अपनी जगह ठीक लगती है, पर इसका एक और पहलू है. जहां तक इस आंदोलन के राजनीतिक परिणामों की बात है मैं उनसे बहुत उत्साहित नहीं हूं. सवाल यह है कि यदि इस आंदोलन में उठी हुई मांगो को सरकार मान लेती है तो क्या होगा? और नहीं मानती है तो क्या होगा? दोनों स्थितियों में वे जो इन मांगो तक सीमित सवाल हैं, उनके परिणाम बहुत दूरगामी नहीं होंगे. 


विनोद शाही:7 

यहां मुझे यह लगता है कि यदि ये मांगे मान ली गई, तो उलटे इस आंदोलन से जिन इंकलाबी संभावनाओं के गहराने की बात सामने आ रही है, वह रास्ता बंद हो जाएगा. मांगे न माने जाने की स्थिति में दूसरी तरफ इस आंदोलन की क्रांतिकारी भूमिका के और गहरे में उतरने के हालात सामने आ सकते हैं. 


लाल बहादुर वर्मा: 8 
Image may be NSFW.
Clik here to view.


मैं आपकी बात को इस तरह से देखता हूं कि यदि सरकार में कुछ दूरदर्शी लोग बैठे होते, तो वे देख पाते कि आंदोलन किधर जा रहा है और वे इन मांगो को फट से मान जाते. वह बात अंततः सरकार के पक्ष में चली जाती. एक दफा वे इस तरह का दिखावा कर सकते थे, क्योंकि सरकार के पास फिर भी यह विकल्प तो खुला ही रहता, कि वह अपनी बातों को किसी और रूप में जब चाहे फिर से वापस लागू करने की स्थिति में ले आते. जैसी यह सरकार है वह लोगों को बेवकूफ बनाने के तरीकों में वैसे ही सिद्धहस्त है. एक दफा आंदोलन खत्म हो जाता तो इसका दोबारा खड़े होना वैसे भी मुमकिन न हो पाता.

खैर हम इस आंदोलन के सकारात्मक पक्ष और संभावनाओं पर बात कर रहे थे. मुझे लगता है कि भारत का नवजागरण एक अरसे से रुका हुआ है. लोग सो गए से लगते हैं. एक तरह की पस्त हो जाने की स्थिति ने लोगों को घेर लिया है. उसे देखते हुए किसान आंदोलन में एक नई संभावना प्रकट होती नजर आ रही है. लोग जो खुद को थके हारे महसूस कर रहे थे, उनमें भी जैसे एक जान से लौट आई है. वह चाहे इस आंदोलन के पक्ष में हैं, या विरोध में, पर लोग किसी मुद्दे को लेकर अचानक जैसे नींद से जाग गए लगते हैं. किसी भी आंदोलन की शुरुआत तब होती है, जब लोगों में एक हिम्मत बंधती है. उस लिहाज से इस आंदोलन ने एक बड़ा काम किया है.

दूसरी बात जो अधिक महत्वपूर्ण है, वह यह है कि पूंजीवाद हमारे समाज को एक ऐसी जगह ले आया है, जहां अब शायद ही कोई बचा हो, जिसे उसने एलियनेट न किया हो. पर किसान आंदोलन के केंद्र बने दो बॉर्डर्स पर जहां में गया जाकर महसूस हुआ कि कम से कम वहां कोई व्यक्ति एलिएननेशन का जाहिरा तौर पर शिकार हुआ दिखाई नहीं दिया. कोई आंदोलन तभी सफल होता है, जब लोगों में एलिएशन की मात्रा कम होती है, तभी लोगों की हिम्मत बंधनी शुरू होती है.. 

Image may be NSFW.
Clik here to view.
विनोद शाही: 9

लेकिन वर्मा जी! यहां मैं थोड़ा अलग विचार रखता हूं. मुझे लगता है कि लोगों में एलियनेशन जितनी गहराती है, उतना ही उनमें संघर्ष करने का भाव अधिक जमीन पकड़ता है. यह अच्छा है कि सरकार की नीतियों ने पूंजीवाद के अंतर्विरोधों को और उग्र बना दिया है. और कोई नहीं बचा जो उस एलिएनेशन से स्वयं को ऊपर उठा हुआ महसूस करता हो. अभी कुछ देर पहले राकेश गुप्ता जी पूछ रहे थे कि यदि हालात इतने संगीन हैं, तो ऐसे में अब हमारे पास कुछ करने के लिए कहां और क्या रास्ता निकलता है?

तब मैं उनसे यही बात कह रहा था यह समय अजनबी करण के गहराने का है. अंतर्विरोध और अधिक उग्र हो रहे हैं. जब ऐसा हो रहा होता है, तब इंतजार करना पड़ता है कि वे अपने उस मुकाम तक पहुंच सकें, जहां से आगे उन्हें निरस्त करने और उनके भीतर से नए समन्वय के प्रकट होने की संभावना सामने आ सके.

द्वंद्वात्मक दर्शन से ताल्लुक रखने वाली इन धारणाओं की भाषा थोड़ी मुश्किल है. आधुनिक होने की वजह से यह अजनबी भी है. पर हम इसे आसानी से समझ सकते हैं. हमारे मध्य काल में पुराणों की एक ऐसी बात है जो इसी भाव को बहुत आसान लफ़्ज़ों में कहती है. वह कहा जाता है कि पाप का घड़ा जब तक भरता नहीं, तब तक उसका फूटना संभव नहीं होता. इसलिए वे अवतार जो पाप के युग का अंत करने के लिए धरती पर आते हैं, वे भी तब तक इंतजार करते हैं, जब तक अन्याय करने वाले के पाप का घड़ा भर नहीं जाता. तो आजकल के हालात में हम जो कर सकते हैं, वह यह है कि हम अपने समय के अंतर्विरोधों को और अधिक उग्र बनाने में और विकल्प की भूमिका बनाने में योगदान दे सकते हैं.

हर समय के अपने दायित्व होते हैं. किसान आंदोलन के संदर्भ में भी हमें इसी दृष्टिकोण से बात करनी चाहिए. हमें न केवल सरकार के, बल्कि अपने ग्रामीण समाज के अंतर्विरोधों पर भी नजर रखनी चाहिए और अगला दौर हम से क्या उम्मीद करता है उसके बारे में विचार करना चाहिए. पूंजीवादी व्यवस्था के बाद अगला दौर प्रकृति और पर्यावरण के सवालों पर केंद्रित होगा. ना हमारे समय की सरकार और न किसान ही इस संदर्भ में बहुत चिंतित नजर आ रहे हैं. पर किसान जमीन से सीधे जुड़े हैं, प्रकृति और पर्यावरण का सीधा प्रभाव उनके उत्पादन पर ही नहीं उनकी जीवनशैली और भविष्य पर भी पड़ता है. इसलिए किसानों के लामबंद होकर उस दिशा में अपनी मांगे उठाने के लिए आगे आने की संभावनाएं अधिक हो सकती हैं.

अगर हम इस पर अपना ध्यान केंद्रित कर सकें तो वह भारत के ही नहीं मानव जाति के भविष्य के लिए बेहतर परिणाम लाने वाला हो सकता है. अजनबीपन के गहराने पर विकल्प के बारे में सोचने की बात केंद्र में आ जाती है. इस समय किसान अपनी मांगों को लेकर हमारे सामने खड़े हैं. इनकी मांगे नहीं मानी जाती हैं, तो अजनबीपन गहरायेगा. फिर इनकी ही मांगे केंद्र में नहीं रह जाएंगी, दूसरे वर्ग अपनी मांगों के साथ इनके साथ जुड़ते जाएंगे. दूसरे वर्ग जिनकी आकांक्षाएं, जरूरतें और जीवन के हालात किसानों के करीब पड़ते हैं, जैसे युवा वर्ग है, उसके बेरोजगार होने का मामला सामने आएगा. छोटे किसान और मजदूर की रोजी रोटी के सवाल के साथ नौजवानों की बेरोजगारी की बात साथ आकर जुड़ सकती है. इसी तरह वे जो जंगलों में रहने वाले लोग हैं, बनवासी लोग, जिनके जंगल छीने जा रहे हैं, विकास के नाम पर, या नदियों पर बांध बनाकर जिनके गांव के गांव अधिग्रहण हेतु ले लिए जाते हैं और उन्हें विस्थापित कर दिया जाता है, वे लोग भी साथ जुड़ सकते हैं.

पानी का सवाल है, जल स्तर नीचे जा रहे हैं, तो देश की एक बड़ी आबादी इन सवालों से जुड़कर वैकल्पिक विकास की मांग लेकर सामने आ सकती है. होने को बहुत कुछ संभव है परंतु अभी एकदम से कुछ कह पाना मुमकिन नहीं होगा कि हालात किस ओर रुख करेंगे. लेकिन आखिरकार हमें जाना तो वही॔ पड़ेगा, जहां हम प्रकृति का दोहन शोषण करने वाले पूंजीवादी विकास मॉडल के विकल्प की तलाश के लिए व्यापक सामाजिक सामूहिक समर्थन पा सकने की स्थिति में आएंगे. अभी हम लोग बात कर रहे हैं कि किसान आंदोलन हिंदू-मुसलमान और सिख को एक दूसरे के करीब लाने में अपनी भूमिका निभा रहा है. कुछ हद तक बड़े किसान और दलितों के बीच की वह जो खाई है, उसके कुछ कम होने की उम्मीदें भी बंधनी आरंभ हो गई हैं.

अभी राकेश जी से बात हो रही थी. उन्हें चिंता थी कि राजनीति में सत्तापक्ष से जुड़े लोग एक इस तरह का माफिया खड़ा करने लग पड़े हैं. जो छीना झपटी करते लोगों की जमीनें तक उनसे किसी प्रकार हड़प लेने या चंदा वसूलने के नाम पर उनके कमाई के संसाधनों में सेंध लगाने के काम कर रहा है. ये तमाम चीजें हैं जो अजनबीपन को और अधिक उग्र बनाने में मदद करेंगी. इससे दूसरी तरफ सांप्रदायिकता और उच्च और निम्न वर्गों के बीच की खाई के कम होने से सामान्य जन की एकजुटता में भी वृद्धि होगी. तो यह सारे हालात मिलकर अगर एक बड़े रूपांतर की भूमिका बना सके, तो भारत यकीनन अपने विकास के अगले दौर में प्रवेश कर सकेगा. एक और बात जिसकी और राकेश जी ने इशारा किया था. वे एक वकील के तौर पर न्याय व्यवस्था से जुड़े हुए हैं.

न्याय व्यवस्था की जो हालत है, वह किसी से छिपी नहीं है. न्याय स्थगित ही नहीं हो रहा, वह सत्ता पक्ष के अन्याय को जायज ठहराने की हद तक भी अनेक दफा जाता हुआ दिखाई देने लग पड़ा है. इस तरह की और बहुत सी चीजें हैं, जो समाज में असंतोष को और एलियनेशन को और अधिक गहरा करने में अपना निश्चित योगदान देंगी. इन तमाम तबकों के लोग, जो असंतुष्ट हैं और एलियनेशन का शिकार हैं, वे सीधे आंदोलन धर्मी न भी हों, केवल आंदोलन के साथ सहानुभूति रखने वाले समुदाय में ही बन जाएं, तब भी बहुत बड़ी प्राप्ति हो जाएगी. 

लाल बहादुर वर्मा: 10
Image may be NSFW.
Clik here to view.

यकीनन आपकी यह बातें बहुत उम्मीद जगाने का काम कर रही हैं. मैं एक और बात की ओर आप लोगों का ध्यान खींचना चाहता हूं. मैंने वहां बॉर्डर पर जाकर देखा है और लोगों से बातें भी की हैं. खास तौर पर वामपंथियों से मेरे जो संवाद हुए हैं, उनसे लगता यह है कि मार्क्सवादी सोच रखने वाले लोग भी अब 'जार्गन'में बात नहीं कर रहे हैं. इसका मतलब है, आंदोलन के दौरान एक नई तरह की भाषा पैदा हो रही है. जैसे किसान आंदोलन के बहुत सारे नेता मार्क्सवादी पृष्ठभूमि से आए हैं, परंतु वह मार्क्सवाद की तकनीकी शब्दावली का बिल्कुल इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं.

वे उस जुबान में बात कर रहे हैं जो लोगों की समझ में आती है. मैं इसे एक बड़ी तब्दीली मानता हूं. विचार के लोगों तक पहुंचने के रास्ते खुल रहे हैं. वामपंथी लोग जिस तरह की भाषा में बोलने लगे थे और हर बात को वर्ग दृष्टि का सहारा लेकर अजनबी भाषा में व्याख्यायित कर रहे थे, उससे वे अप्रासंगिक होते जा रहे थे. वह बात अब यहां दिखाई नहीं देती. 

Image may be NSFW.
Clik here to view.
विनोद शाही: 11

आप एक महत्वपूर्ण बात कर रहे हैं. मैं इसी बात की गहराई में जाना चाहता हूं. मुझे लगता है कि वामपंथी नेतृत्व की किसान आंदोलन के संदर्भ में भाषा ही नहीं बदली है, उनका स्टैंड भी बदला है. भाषा और अंतर्वस्तु में गहरा रिश्ता होता है. वर्ग संबंधी उनकी सोच समझ और व्याख्या में यकीनन कुछ ऐसे परिवर्तन हुए लगते हैं, जो समय आने पर सामने आ जाएंगे. समाज को नए दृष्टिकोण से देखने के लिए यहां एक आधार भूमि बन रही है. भारत में वैसे भी सामाजिक संरचना इस तरह के वर्गों में सीधे-सीधे विभाजित नहीं है कि आप उनकी ऐसी व्याख्या कर सकें, जो गणित का कोई समीकरण प्रतीत हो. उस तरह की सोच तो यहां तक चली गई थी कि किसान इंकलाबी हो ही नहीं सकता. भारत का किसान कितना भी बड़ा हो, यूरोप के बड़े किसानों जैसा वह कतई नहीं है और उसकी छोटे किसान और खेत मजदूरों के साथ जो आपसदारी है वह भी इन दोनों को दो अलग वर्गों में विभाजित करने के रास्ते में अनेक तरह के प्रश्न चिन्ह खड़ा करती है. इसलिए किसान आंदोलन के वह नेता जो वामपंथी पृष्ठभूमि से आए हैं, किसान मजदूर गठबंधन की बाबत अलग तरह से अपना स्टैंड लेकर सामने आ रहे हैं. 

Image may be NSFW.
Clik here to view.
राकेश गुप्त: 12

अभी दिगंबर की बात हो रही थी. वह वाम का हिस्सा रहे हैं और समाजवादी क्रांति की लाइन को मानते हैं. ये लोग यही समझते रहे हैं कि कुलक (धनी  किसान) इंकलाबी नहीं हो सकते हैं. परंतु अब वह इस किसान आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे हैं. यह सबूत है कि वामपंथ से संबंध रखने वाले बुद्धिजीवियों का स्टैंड बदला है. 

Image may be NSFW.
Clik here to view.
विनोद शाही: 13

वामपंथी सोच रखने वाले लोगों में आई इस तब्दीली को मैं अपनी पंजाब की पृष्ठभूमि की वजह से एक अलग अर्थ में भी समझ पा रहा हूं. वह बात यहां इस किसान आंदोलन के दौरान भी उभर कर सामने आई थी. वामपंथ को बैकफुट पर धकेलने के लिए एक कारण यह रहा है कि वे लोग अल्पसंख्यकों के प्रति होने वाले अन्याय की बाबत आवाज उठाते हुए यह नहीं देख पा रहे थे कि इस तरह की बात, कब और कैसे सांप्रदायिक और राष्ट्र की एकता और अखंडता के विरोध में जाने वाली हो सकती है. जैसे इस किसान आंदोलन के दौरान हुआ. धर्मनिरपेक्ष  किसानों के पीछे, उनके हमदर्द बनकर, वे लोग भी दिखाई देने लगे, जो खालिस्तान समर्थक थे.

खालिस्तान के लिए वहां जो जगह बनती है, वह इस वजह से बनती रही है कि वामपंथ के लोग धर्म और सांप्रदायिकता के संदर्भ में अपनी वर्ग दृष्टि के माध्यम से जो सोच बनाकर बैठे रहे हैं, वह भारतीय यथार्थ में वास्तविकता के बहुत करीब नहीं है. जो लोग वास्तव में दलित हैं  शोषित हैं वर्जित हैं, उनमें सांप्रदायिकता के तत्व न के बराबर दिखाई देते हैं. तो किसान आंदोलन के दौरान यह लोग जब बड़ी संख्या में गांव से निकलकर इस आंदोलन में शामिल होने के लिए आए, तो उनकी धर्मनिरपेक्षता भी उनके साथ-साथ इस आंदोलन का हिस्सा होती हुई दिखाई देने लगी. ऐसे में बहुसंख्यक के धर्म और अल्पसंख्यक के धर्म वाला वह जो विभाजन था, वह अपने आप अप्रासंगिक होकर गिर गया.

किसान आंदोलन के नेताओं ने इस बात का खास ध्यान रखा कि वहां खालिस्तान समर्थक लोग इस आंदोलन को हाईजैक करके अपने साथ ना ले जा सकें. इससे यह बात साबित हुई कि सांप्रदायिकता का संबंध सत्ता में भागीदारी की महत्वाकांक्षा रखने वाले वर्गों के साथ है. जबकि सामान्य जन समाज उसके जहर से अपने आप को यथासंभव मुक्त रखने के लिए बेचैन दिखाई देता है. जहां तक धर्मनिरपेक्ष लोगों का सवाल है, वे सत्ता के विकेंद्रीकरण के साथ खड़े दिखाई दे रहे हैं. किसान आंदोलन भी बहुत सारे नेताओं की ऐसी ही आपसदारी का गवाह बनता जा रहा है, जहां कोई एक नेता केंद्र में नहीं है. सत्ता का केंद्रीकरण और सांप्रदायिकता का उभार एक दूसरे के साथ जुड़े हुए दिखाई देने लगे हैं और दूसरी तरफ लोग हैं, जो धर्मनिरपेक्ष दिखाई दे रहे हैं और उनकी चेतना सत्ता के संदर्भ में लोकतांत्रिक और विकेंद्रीकरण की ओर बढ़ती दिखाई दे रही है.

वामपंथी चिंतन में इस तरह की सोच के लिए अभी पूरी तरह जगह नहीं बनी है. परंतु बहुत कुछ ऐसा सामने आ रहा है जिस पर वामपंथियों को गहराई से विचार करना पड़ेगा. आप देखिए, कि वामपंथ जब अल्पसंख्यकों के नाम पर खालिस्तान समर्थक सांप्रदायिकता से खुद को अलग करने में समर्थ नहीं हो पा रहा था, तो उसका यह अंतर्विरोध अब इस किसान आंदोलन में उभर कर सामने आ गया है. इसका भरपूर फायदा भाजपा सरकार ने उठाया और कोशिश की कि इसी मुद्दे पर इस किसान आंदोलन को देश विरोधी आंदोलन साबित करके एक तरफ कर दिया जाए. सरकार सफल नहीं हुई, क्योंकि किसान आंदोलन भी सामान्य जन की नुमायाँ भूमिका वाले आंदोलन में बदल गया और उसका नेतृत्व केवल वामपंथ में  यकीन करने वाले लोगों तक सीमित नहीं रहा.

यह एक बड़ी तबदीली है, जिससे भारत के राजनीतिक परिदृश्य के भविष्य के कुछ नए रूप हमारे सामने प्रकट हो सकने की स्थिति में आ गए हैं. वामपंथी चिंतन में एक और सिद्धांत बहुत जोर शोर से सामने आया था- वह था राष्ट्रीयता का सवाल. रामविलास शर्मा इसी संदर्भ में हिंदी की राष्ट्रीयता की बात उठाते रहे. राष्ट्रीयता की यह जो बात थी उससे वामपंथी चिंतन यह मदद लेने की कोशिश कर रहा था कि वह अल्पसंख्यकों के उभार के द्वारा बहुसंख्यक समाज की सांप्रदायिकता को खंडित करने में भूमिका निभाएगा. परंतु हुआ क्या ?

अल्पसंख्यकों की सांप्रदायिकता, बहुसंख्यकों की सांप्रदायिकता के बरक्स ज्यों की त्यों खड़ी रही और सभी अपने-अपने तरीके से राजसत्ता में अपनी भागीदारी के लिए जगह बनाने लगे. तो राष्ट्रीयता और भाषा से जुड़ी अस्मिता के सवाल पर फिर से सोचना पड़ेगा कि उनका धर्म और सांप्रदायिकता के साथ जो सहज और सीधा  संबंध बनता है, उससे समाज को अलहदा कैसे रखा जा सकता है. अब किसान आंदोलन में इतने बड़े पैमाने पर लोगों की जो भागीदारी नजर आती है, उसमें सामान्य लोग अपनी भाषा, अपनी जाति और अपने मजहब के सवाल को पीछे छोड़ कर सामने आ रहे हैं. तो सवाल उठता है कि उनके संगठित होने में किस तरह की अस्मिता का अधिक महत्व है.

भाषा को धर्मनिरपेक्ष कोटि मानकर लोगों को संगठित करने के बाद भी, उसका यह पहलू, सांप्रदायिकता के उभार को रोकता दिखाई नहीं देता है. उसकी जगह वे मुद्दे अधिक प्रभावी लगते हैं, जो जीवन को सीधे प्रभावित करते हैं. जिनका संबंध लोगों की रोजी-रोटी से है और एक बेहतर भविष्य से है. भौतिकवाद चिंतन के प्रभाव की वजह से  हम जो सोचते थे कि मानव जाति का भविष्य आर्थिक सवालों  से बुनियादी रूप में बंधा हुआ है, वह बात अब अधिक ज़मीन पकड़ती दिखाई दे रही है. दूसरे, अस्मिताओं की राजनीति के खतरे इस बीच हमारे सामने उभर कर सामने आए हैं. राष्ट्रीयता और भाषा के सवाल भी सांप्रदायिक सवालों की तरह देश की एकता और अखंडता के विरोध में जाने वाले सवालों में बदले हैं. ऐसी स्थिति में भारतीय समाज की भारतीय समाज के रूप में व्याख्या करने के लिए कौन सी अस्मिताएं बुनियादी भूमिका निभाएंगी और वे किस तरह पूरे भारत में एक नए सांस्कृतिक आंदोलन की आधारभूमि बनेंगी, यह बातें अब नए सिरे से सोचनी पड़ेंगी. वाम चिंतन के जिन अंतर्विरोधों का संबंध इन अस्मिताओं से था, उनकी सीमाएं इस किसान आंदोलन के जरिए उभरकर सामने आ गई हैं.

इसीलिए वामपंथी नेतृत्व उन से बाहर निकलने के लिए लगातार कोशिश करता हुआ भी दिखाई देने लगा है. भारत के कम्युनिस्ट इतिहास के संदर्भ में यह एकदम नई बात है. 

Image may be NSFW.
Clik here to view.
राकेश गुप्त: 14

आपने वामपंथी दलों का यह जो विश्लेषण किया है, उससे मैं सहमत हूं. इस बात को मैं अपने तरीके से समझने की कोशिश कर रहा हूं. मेरे अनुभव में यह बात आई है कि वे लोग जो कि अपने आप को ऐसे कम्युनिस्ट पार्टी का या कम्युनिस्ट ग्रुप का सदस्य होने के नाते कम्युनिस्ट पहचान ओढ़े  हुए होते हैं, जब उनके सामने कोई दलित आता है तो स्वयं को स्वर्ण मानते हुए सवर्णों द्वारा दलितों के प्रति अत्याचार के अपराध बोध से ग्रस्त होकर व्यवहार करते हैं और जब कोई अल्पसंख्यक समुदाय का सदस्य सामने आता है तो अपने को बहुसंख्यक समुदाय का मानते हुए बहुसंख्यकों के द्वारा अल्पसंख्यकों के प्रति अत्याचार की जो काल्पनिक छवियाँ  उनके मन में बनी हुई है उनसे अपराध बोध से ग्रस्त होते हुए व्यवहार करने लगते हैं.  

यह दोनों ही स्थितियां सामान्य नहीं हैं और हमको सही तार्किक और न्यायसंगत तरीके से सोचने से विमुख करने वाली हैं |वे उस अस्मिता को ओढ़ लेते थे जो उनकी थी ही नहीं. उनके ऐसा करने से बहुत सारे गंभीर सवाल अचानक सिरे से नकार दिए जाने की स्थिति में आ गए दिखाई देने लग पड़ते थे. 

Image may be NSFW.
Clik here to view.
विनोद शाही: 15

आपकी बात में  मुझे अपनी अस्मिता संबंधी सोच और समझ के बारे में नए तरीके से विचार करने के लिए प्रेरित कर दिया है. मैं इस स्थिति को जिस रूप में समझ पा रहा हूं, वह कुछ इस तरह की है कि हमारे समाज का वह जो आम आदमी है उसके लिए अस्मिता का सवाल एक तरह के 'फ्लक्स'की स्थिति है. यानी वह एक तरल यथार्थ है. वहां कुछ भी ठोस नहीं है. सामाजिक पहचान के मामले में उसके पास ऐसा कुछ नहीं है, जिसकी जड़ें उसके अपने यथार्थ में हों, और जिसके साथ खड़ा होना उसे अपने साथ खड़े होने का पर्याय मालूम पड़ता हो. अस्मिता उसके लिए एक राजनीतिक विचारधारा या सामाजिक दृष्टि से महत्वपूर्ण होने के लिए अख्तियार की गई एक भंगिमा भर है. वह कुछ खास समाज राजनीतिक स्थितियों में जीने लायक बने रहने की सुविधा पाना चाहता है और अपनी अस्मिता का इस्तेमाल इस सुविधा को पाने की आधार भूमि की तरह करता है. ऐसा भी लग रहा है कि राजसत्ता जिसे अस्मिता की राजनीति या 'आईडेंटिटी पॉलिटिक्स'में बदलती है, वह भी हमारी चेतना की यथार्थ में जड़े जमाने वाली किसी बुनियादी चीज से जुड़ी हुई बात नहीं है. इसलिए आईडेंटिटी पॉलिटिक्स भी कोई गंभीर विचारधारा ना होकर सत्ता हासिल करने के लिए अपनाया गया एक सुविधा मूलक हथकंडा ही अधिक लगती है.

पहचान की राजनीति, जब अल्पसंख्यक पहचान की राजनीति में बदलती है और उसका फायदा उठाना चाहती है तो उसका वह जो समाज में आधार या बेस है, वह भी कुल बहुत तयशुदा और भरोसेमंद बेस मालूम नहीं पड़ता है. यह सब राजनीतिक लाभ उठाने के हथकंडो में बदल गई बात लगती है. इसलिए अल्पसंख्यक राजनीति का संबंध कई दफा टुकड़ा-चुकड़ा गैंग कहे जाने वाले लोगों से भी हो जाता है. वे उसका उसी तरह इस्तेमाल करना चाहते हैं, जिस तरह का इस्तेमाल हमारे राजनीतिक दल करते हैं.

मुझे लगता है कि 'सेपरेटिस्ट'या अलहदावादी होना भी कोई बहुत गंभीर बात ना होकर सत्ता में भागीदारी पानी के लिए अपनाया गया एक पहचान की राजनीति का विकृत रूप भर है. कोई भारत से अलहदा होना चाहता हो, ऐसा लगता नहीं है. सब को सत्ता में अपने लिए कुछ हिस्सा चाहिए, जिसके लिए इस तरह के खेल खेले जाते हैं. परंतु इसके नीचे वह जो जन समाज है, वह अस्मिता के मामले में अगर फ्लक्स की स्थिति में है तो वह कभी भी इधर से उधर जाने के लिए स्वतंत्र है. उसकी यह तरलता मुझे समाज के रूपांतर के लिए एक संभावना पूर्ण स्थिति मालूम पड़ रही है. क्योंकि अगर वह  यथार्थ में बद्धमूल किसी चेतना से पैदा हुई बात नहीं है, तो ज़मीनी सवालों के नुमायाँ होने पर  समाज उस से मुक्त भी हो सकता है. 

राकेश गुप्ता: 16
Image may be NSFW.
Clik here to view.

इस संदर्भ में मुझे एक घटना याद आ रही है. मैं इलाहाबाद हाईकोर्ट से विश्वविद्यालय पहुंचा तो ललित जोशी और श्रीप्रकाश मिश्र  मिल गए. ललित जोशी ने मुझसे एक सवाल किया कि क्या आपको नहीं लगता कि आईडेंटिटी पॉलिटिक्स में समाज का बहुत नुकसान किया है. मैंने कहा चलिए मान लेते हैं कि किया है, पर आप बताइए कि जाति व्यवस्था के कारण इस देश की तीन चौथाई से अधिक आबादी जो व्यक्तित्वहीनता की स्थिति में चली गई है उन्हें व्यक्तित्ववान  बनाने के लिए हमारे पास क्या  कार्यक्रम है?

उस दिन इस सवाल का जवाब नहीं मिला पर बाद में प्रोफेसर ललित जोशी जी ने वर्मा सर को फोन करके कहा कि जो व्यक्तित्वहीनता वाली बात है उसने मुझे काफी कुछ सोचने के लिए मजबूर किया है.  मुझे एक और घटना ने सोचने पर मजबूर किया. हमारे उधर ऐसे कई कुख्यात माफिया अपराधी किस्म के व्यक्ति हैं. तो कुछ लोग जो किसी गिनती में नहीं आते, जिनको मैंने उस दिन व्यक्तित्वविहीन कहा था, वे लोग कुछ दूसरी जगहों पर जाते हैं और कहते हैं कि हम फलां माफिया नेता के आदमी हैं, तो उन्हें जैसे एक व्यक्तित्व मिल जाता है.

आईडेंटिटी पॉलिटिक्स का यह जो माफियाकरण हुआ है, उसने ऐसे  नेताओं के इस तरह के राजनीतिकरण के नए रूप प्रकट किए हैं. सुविधा और सत्ता में भागीदारी की बात अब समाज में एक बीमारी की तरह भी फैल रही है. इसे आईडेंटिटी पॉलिटिक्स का कुरूप चेहरा कह सकते हैं. व्यक्तित्व पाने की चाह में माफिया के बहुत सारे रूप सामने आ गए हैं और उनकी समाज के हर वर्ग में घुसपैठ दिखाई देती है. जैसे हमारे वकीलों में भी अलग तरह के माफिया से जुड़े प्रसंग सामने आते हैं.

शिक्षकों में भी माफिया के द्वारा व्यक्तित्व संपन्न होने के अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं. न्याय व्यवस्था में अनेक जजों के द्वारा जब मनमानी करने के प्रसंग सामने आते हैं तो उसके पीछे उनकी जाति से जुड़े कुछ वकीलों के संगठनों या समूहों का बल रहता  है. पूर्वी उत्तर प्रदेश में अधिवक्ता संगठनों में अभी कतिपय उच्च जातियों का वर्चस्व है. उनसे जुड़ा कोई मुकदमा आता है तो उसे ऐसे समूहों की मदद से जैसे तैसे करके खारिज करवा दिया जाता है. पर अगर कोई दलित या मुसलमान या किसी और जाति के व्यक्ति से जुड़ा मुकद्दमा आ गया, तो अनेक तरह के उपद्रव शुरू हो जाते हैं. पर यहां एक सवाल उभर कर सामने आता है. वे लोग जो राजनीतिक, सामाजिक या आपराधिक माफिया के सहारे व्यक्तित्व संपन्न होने की कोशिश करते हैं, वे ऐसा करते हुए दरअसल अपने व्यक्तित्व को और अधिक खो देते हैं. वह किसी माफिया नेता के आदमी के नाम से जाने जाने लगते हैं, पर उनका अपना व्यक्तित्व एकदम खारिज हो जाता है. 

Image may be NSFW.
Clik here to view.
विनोद शाही: 17

क्या इससे आपको यह नहीं लगता कि भारत में जाति प्रथा का एक बेहद नकारात्मक रूप, जिसे विकृत रूप भी कह सकते हैं, अब उभर कर सामने आ रहा है. आजादी की लड़ाई के दौर में अस्पृश्यता को समाज के कोढ़ की तरह देखा गया था. पर यह जो जातिमूलक माफियाकरण सामने आ रहा है, वह समाज के लिए असाध्य कैंसर जैसा मालूम पड़ रहा है. परंतु सवाल उठता है कि इस कैंसर की बीमारी से कौन पीड़ित है?

मेरी समझ यह बनती है कि वह जो सामान्य आदमी है, वह व्यक्तित्वविहीन होने की वजह से इस बीमारी की चपेट में नहीं आता है. यह बीमारी उन्हीं को घेरती है, जो इसकी मदद से सामाजिक राजनीतिक या सांस्कृतिक वर्चस्व में आने की कोशिश कर रहे होते हैं. इस बीमारी के शिकार वे लोग हैं, जो किसी ना किसी तरह के वर्चस्व की स्थिति में है. समस्या तब पैदा होती है, जब सामान्य व्यक्ति जो व्यक्तित्व विहीन है, अपनी क्षतिपूर्ति के लिए उस माफिया कृत आइडेंटिटी को ओढ़ता है, जो सामाजिक कैंसर बन कर उसकी जान लेने को उतारू है. पर वह मारेगी उसे ही, जिसे कैंसर हुआ है. वह जो क्षति पूर्ति के लिए उसकी अस्थाई रूप में मदद ले रहे हैं, उनके लिए वह ओढ़ी हुई स्थिति है. वे इससे जब चाहे बाहर निकल सकते हैं. इसका क्या मतलब है?

मतलब यह है कि भारत का सामाजिक विकास अगर सही दिशा में हो रहा होता तो उससे स्वस्थ समाज- सांस्कृतिक और राजनीतिक अस्मिताएं पैदा होती. परंतु अगर उसकी बजाए लाइलाज कैंसर जैसी अस्मिताएं पैदा हो रही है, तो इसका मतलब है, हमारे सामाजिक विकास की प्रक्रिया रुक गई है. परंपरागत चेतना वाला समाज असाध्य बीमार समाज में बदल गया है. और जो सामान्य व्यक्ति है वह अस्मिता विहीन और व्यक्तित्व विहीन समाज में बदल गया है. होना क्या चाहिए?

होना यह चाहिए कि समाज परंपरागत सामाजिक चेतना के भीतर से नई अस्मिताओं को पैदा करे. ऐसी अस्मिताओं को पैदा करे, जो स्वस्थ होने की वजह से समाज को आगे ले जाएं. तो हम कहां आकर रुक गए हैं? हम वहां आ कर रुक गए हैं, जहां से आगे एक नई समाज-सांस्कृतिक क्रांति के लिए संभावना पैदा हो रही है. हमें ऐसे अर्थ तंत्र और ऐसी संस्कृति की जरूरत है जो हमारे व्यक्तित्व विहीन हो गए लोगों को व्यक्तित्व वाले बना सके. मुझे लगता है किसान आंदोलन में इस तरह की कुछ संभावना तो पैदा की है. वह लोग जिन्हें हम व्यक्तित्व को खो कर बैठ गए लोगों में शुमार करते थे, उन्हें इस आंदोलन में एक नई तरह का व्यक्तित्व दिया है. उसे एक नाम भी मिला है.

आंदोलनजीवी व्यक्तित्व. बेशक वह नाम उसे व्यंग्य के द्वारा प्रदान किया गया. परंतु वे इस व्यंग्यात्मक नकारात्मकता से मुक्त होकर, उसमें एक तरह की क्रांतिकारिता के तत्व खोज रहे हैं. हालांकि यह कहा जा सकता है कि आंदोलनजीवी होने की बात भी एक अस्थाई बात है. इससे आम आदमी को जो व्यक्तित्व मिला है उसकी कोई ठोस समाज-आर्थिक या सांस्कृतिक जमीन नहीं है. लेकिन वह इतिहास की निरंतरता के साथ अपना रिश्ता जोड़ता हुआ अवश्य दिखाई दे रहा है. मैंने ऐसे लोग देखे हैं जो फख्र से कहते हैं कि हम आंदोलनजीवी हैं, क्योंकि गांधी भी आंदोलनजीवी हैं, भगतसिंह भी आंदोलनजीवी थे.   और इतना ही नहीं हमारे प्रधानमंत्री के आदर्श सावरकर भी आंदोलनजीवी हैं. 

Image may be NSFW.
Clik here to view.
 

 राकेश गुप्ता: 18

 

किसानों के बीच वहां बॉर्डर पर हमने एक बोर्ड पर लिखा देखा: "हम श्रमजीवी तुम परजीवी". यह बात आपके इस विश्लेषण से मेल खाती है.

 

Image may be NSFW.
Clik here to view.
लाल बहादुर वर्मा: 19

यहां जिस अस्मिता और व्यक्तित्व की बात हो रही है, उसकी बाबत मेरी समझ है, यह बनती है कि उसका सार आत्मविश्वास में है. ऐसा लगता है कि हमारे समाज का आत्मविश्वास कहीं खो गया था. इस आंदोलन ने उसे उसका यह खोया आत्मविश्वास लौटाया है. इससे बड़ी और किस अस्मिता कि आप परिकल्पना कर सकते हैं. जिन्हें हम यहां अस्मिताएं कह रहे हैं. वे सब सामाजिक निर्मितियां हैं. उन्हें मैं 'क्रिएटिड आईडेंटिटीज'कहता हूं. चाहे वह जाति के नाम पर बनें, संप्रदाय के नाम पर बनें या भाषा के नाम पर बनें, उनकी बजाय मनुष्य की वास्तविक अस्मिता वह है, जो उसके अपने ऊपर उपजे फख्र से पैदा होती है. यानी वह जो किसी मनुष्य को मनुष्य बनाती है. 

Image may be NSFW.
Clik here to view.
विनोद शाही: 20

आप यहां मनुष्य की बुनियादी और कुदरती अस्मिता की बात कर रहे हैं. वह कहां से आती है? वह भी सांस्कृतिक निरंतरता में से ही मनुष्य को हासिल होती है. अब यहां किसान आंदोलन से जुड़े लोगों को देखिए. वे जिस मनुष्य होने की बात को जिस रूप में सामने रख रहे हैं उसके पीछे उनके कुछ सांस्कृतिक अनुभव बोलते हैं. वे बताते हैं कि हमारे गांव में मनुष्य ऐसा होता है, ऐसा व्यवहार करता है, इस तरह मिलजुल कर बैठता है, इस तरह एक दूसरे के साथ बैठकर भोजन करता है, वगैरह. तो ऐसी बातें करने वाले लोग अपनी परंपरा के भीतर से मिल बांट कर खाने की, लंगर की या कारसेवा की बातें लेकर वहां आ गए हैं. वे ऐसी बातें भी करते हैं कि हम अपने ग्राम देवताओं या देवियों की किस तरह मिलजुल कर उपासना करते रहे हैं. तो उसमें से एक अनगढ़ किस्म की सांस्कृतिक एकता और अखंडता की जमीन भी एक साथ आंदोलन के इस मंच पर नीचे से नितर कर सतह पर आ रही है.

वे अपनी बहुत सारी मानवीय बातों को लेकर वहां मुखर हो रहे हैं कि वे अपने पेड़ पौधों को किस रूप में देखते हैं, उनकी किस तरह पूजा करते रहे हैं, कि वह पशु पक्षियों को किस रूप में देखते हैं और उनके साथ सहजीवन का जो उनका अनुभव है, वह उन्हें किस तरह का मनुष्य बनाता है. ये सब बातें लेकर जब वे वहां आपस में संवाद करते हैं, तो एक ऐसे मनुष्य की बात सामने आती है जिसकी संगठित धर्म संप्रदायों या राजनीतिक दलों की विचारधाराओं ने अब तक लगभग उपेक्षा की है. मनुष्य के मनुष्य होने की बात को लेकर मुझे पहली दफा यह महसूस हो रहा है कि यह कोई अमूर्त बात नहीं है.

इसे मार्क्सवादी चिंतकों ने अमूर्त आदर्शवादी चिंतन कहकर अक्सर खारिज किया है. जबकि यह सांस्कृतिक यथार्थ की परंपरा से जुड़ी और एक खास तरह के इतिहास बोध से ताल्लुक रखने वाली वास्तविक चेतना से जुड़ी बात है.

 

Image may be NSFW.
Clik here to view.
लाल बहादुर वर्मा:  21

निश्चित ही यह जो हमारे मनुष्य होने की बात है वह हमारे 5000 बरस के परंपरा बोध के सार की तरह एक नई शक्ल में सामने आ रही है. इसे मैं अपने समय के यथार्थ सांस्कृतिक बोध की तरह देख रहा हूं.  


Image may be NSFW.
Clik here to view.
विनोद शाही: 22 

यह सांस्कृतिक बोध ही नहीं है, यह सभ्यतामूलक बात भी है.

 

Image may be NSFW.
Clik here to view.
लाल बहादुर वर्मा:23

मैं उस सांस्कृतिक बोध की बात कर रहा हूं, जो सभ्यता का निर्माण करता है. हम उस दौर में हैं, जब हमें पूंजीवादी सभ्यता के विकल्प के निर्माण की तरफ आगे बढ़ना है. पर अभी उसके लिए भूमिका बनाने का ही समय है. आपने एक बात कहीं. कि हमें पाप के घड़े के भरने की इंतजार करना है. यानी पूंजीवाद के अंतर्विरोधों को तीखा करने में मदद करने का समय है. यह बात पूंजीवाद के एक उत्तराधुनिक चिंतक ने अपने तरीके से उठाई है. वह कह रहा है कि पूंजीवाद जिस जगह पहुंच गया है, वह अपने अंतर्विरोधों की ताब न झेलता हुआ 'क्रैक'होने, यानी टूटने बिखरने के कगार पर पहुंच गया है.

पूंजीवाद ने इतनी ताकत बटोर ली है कि उसे तबाह करने का काम अब खुद उसी को करना पड़ेगा. मुझे यह बात समझदारी की लगती है कि अब चाहे दुनिया भर के समाजवादी इकट्ठे क्यों ना हो जाएं, वे मिलकर पूंजीवाद को गिरा देने की स्थिति में नहीं रह गए हैं. विकल्प जब भी पैदा होगा, वह अब पूंजीवाद के भीतर से आएगा.

 

Image may be NSFW.
Clik here to view.
विनोद शाही: 24

इस सवाल को आगे बढ़ाते हैं. प्रश्न उठ रहा है कि पूंजीवाद में क्रैक या दरार कहां से पैदा हो सकती है? कौन से अंतर्विरोध हैं, जिन्हें तीखा करने पर पूंजीवाद के बिखराब के आसार प्रकट हो सकते हैं? मुझे लगता है कि वह क्षेत्र प्रकृति और पर्यावरण से और उस के संदर्भ में प्रकट हुए संकटों के रूप में प्रस्तुत हो रहा है. यह ऐसा मसला है जिसे लेकर सारे पूंजीवादी मुल्क एक अजीब सी दुविधा में फंस गए हैं. पर्यावरण संबंधी सम्मेलनों में जो फैसले लिए जाते हैं, उन्हें लेकर वे दो कदम आगे बढ़ाते हैं तो एक कदम पीछे खींच लेने की कोशिश करते हैं. पर्यावरण का मसला जैसे सभी पूंजीवादी देशों के गले में फांस की तरह अटक गया है.

पूंजीवादी विकास मॉडल की स्थिति यह हो गई है कि अब पर्यावरण को और अधिक संकटग्रस्त बनाते हुए अधिक से अधिक उत्पादन करने वाली बात पर पुनर्विचार की जरूरत सामने आ गई है. परंतु कोई भी देश ऐसा नहीं है, जो तीव्र विकास की अपनी महत्वाकांक्षा को ताक पर रखकर पर्यावरण संरक्षण से जुड़े विकास मॉडल को अपनाएं. जैव खेती करे. जंगल बचाए. और उस तरह का नगर विकास करें कि पर्यावरण और उसके साथ-साथ इस पृथ्वी पर जीवन को बचाने की दिशा में आगे बढ़ा जा सके. विकास पर होने वाला चिंतन अब न केवल पर्यावरण वादी होने से ताल्लुक रखता है और ना उसके विरोध में खड़ा होने से. अब जब ये सवाल मानव जाति की चिंता का विषय हो रहे हैं, तो उसमें जो क्षेत्र सबसे अधिक संकटग्रस्त हो गया है, वह खेती बाड़ी का क्षेत्र है.

इस नुक्ते निगाह से मौजूदा किसान आंदोलन पर पुनर्विचार करेंगे, तो हम उसे व्यापक परिप्रेक्ष्य में रख कर देखने की स्थिति में आ सकेंगे. जहां तक जंगलों का सफाया करके विकास की गति को तेज करने से जुड़े विकास के मॉडल का संबंध है, तो उसका आधार दो तरह के विकास में है. एक है, खेती-बाड़ी, जिसके लिए जंगल साफ किए गए और दूसरा है नगरीकरण. वह भी प्राकृतिक परिवेश को नष्ट करके सामने आया है. अब हम ऐसे मुकाम पर आ गए हैं कि जो जंगल बच गए हैं, उनका तो हमें संरक्षण हर हाल में करना ही पड़ेगा. यानी अब ना खेती-बाड़ी के लायक और जमीन निकाली जा सकेगी और ना नगरीकरण का अंधाधुंध प्रसार करने के हालात बचे रह पाएंगे. तो अब विकास किस तरह का होगा या कौन सी दिशा पकड़ेगा?

अब आप जमीन पर यानी 'हॉरिजॉन्टल'रूप में खेती-बाड़ी और नगरीकरण का विकास नहीं कर पाएंगे. रास्ता बचा है, ऊपर आकाश की तरफ जाने का. पर आप आकाश में कितना ऊपर जाएंगे, उसकी भी एक सीमा है. आप गगनचुंबी इमारतों के संदर्भ में फिर भी आकाश का एक हद तक इस्तेमाल कर सकते हैं, परंतु खेती-बाड़ी का क्या करेंगे. उसे तो कोई ना कोई जमीन चाहिए. ज्यादा से ज्यादा आप इमारतों की छतों को खेती करने के लिए इस्तेमाल में लाने की बाबत सोच सकते हैं. पर यह सारी संभावनाएं पूंजीवाद के तीव्र विकास करने से संबंधित मॉडल के 'डेड एंड'के आ जाने की सूचक है.

तो अगर खेती-बाड़ी के लिए और ज़मीनें उपलब्ध नहीं है, तो जमीने आगे से आगे और छोटी होकर बंटती चली जाएंगी. फिर उनके औद्योगिकरण की बात भी अर्थहीन होती चली जाएगी. बड़ी जनसंख्या वाले देशों में, जैसा कि हमारा भारत है, वहां पहले से ऐसे हालात हो गए हैं कि जिसे औद्योगिक आधार वाली खेती कहते हैं, वह व्यावहारिक प्रतीत नहीं होती.

भारत जैसे देश में खेती-बाड़ी के क्षेत्र के विकास का एक ही रास्ता बचा है, वह है 25-30-40 गांव के समूह बना लिये जाएं. जैसे कि इधर खाप महापंचायतें हैं. उन सब की जमीन को इकट्ठा करके सहकारी खेती में बदल दिया जाए और उनका औद्योगिकरण कर लिया जाए. परंतु इसमें छोटे किसान के हित की रक्षा कैसे होगी और उसके लिए हमें कितने बड़े प्रबंधन को सुचारु रूप में चलाए रखने लायक बनाना पड़ेगा, जो कि यह कैसी चुनौती हो सकता है, जिसका कोई सम्यक समाधान दिखाई नहीं देता. इस संदर्भ में किसान आंदोलन पर पुनर्विचार करें. सरकार जो नीतियां लेकर आई है, जो नए कानून लागू किए गए हैं, वे कृषि क्षेत्र के सुधार को लागू करने करवाने से जुड़े हैं. सैद्धांतिक रूप में उनका स्वागत होना चाहिए. परंतु उनकी कोई व्यवहारिकता दिखाई नहीं दे रही है. किसान इस बात को समझ गए हैं, इसलिए वे इन कानूनों के साथ खड़े दिखाई नहीं देते. उन्हें लगता है कि यह सुधार के लिए नहीं उनके विनाश के लिए लाए गए कानून हैं. यहां पूंजीवादी विकास मॉडल के सिद्धांत रूप में सही होने के बावजूद, व्यावहारिक रूप में उनके जनविरोधी होने की ऐसी स्थिति सामने आई है, जो इससे पूर्व कभी इतने तीखे रूप में प्रकट नहीं हुई थी.

इसे हम पूंजीवादी विकास मॉडल के भीतर से प्रकट हुआ एक नया क्रैक या दरार कह सकते हैं. इस संदर्भ में मेरी अक्षत से बात हो रही थी. उसका कहना है. एक बीच का रास्ता हो सकता है. नई नीतियां लागू करते समय किसान के हितों की रक्षा के लिए सख्त रेगुलेटर लाए जाएं. लेकिन जैसे हालात हैं लगता हैं, बीच के रास्ते में किसी की कोई दिलचस्पी नहीं रह गई है. सरकार को तीव्र विकास चाहिए जो मुक्त बाजार के तर्क पर आधारित है और किसानों को अपने हितों की रक्षा चाहिए भले ही उसमें बाजार में खपत और मांग के बीच संतुलन संबंधी कोई विवेक हो या ना हो. इन दोनों पक्षों के बीच अविश्वास के गहराने की वजह यह है कि मामला अब बुनियादी विकास मॉडल के रूप के आसपास केंद्रित होने जा रहा है. इस वजह से दोनों की भाषाएं और सोचने के तरीके एक दूसरे के विरोध में चले गए मालूम पड़ रहे हैं.

अगर किसान को न्यूनतम खरीद मूल्य की गारंटी मिल भी जाती है, तब भी क्या किसान आंदोलन से जुड़े लोग यह बता पाने में समर्थ हैं कि भविष्य में खेती-बाड़ी के विकास की संभावनाएं उसके भीतर से कैसे निकलेंगी. पूरा आंदोलन आत्मरक्षा के आसपास केंद्रित हो गया है भाषा के विकास मूलक न रह जाने की वजह यह है कि पूंजीवादी विकास मॉडल के भीतर से किसी को कोई विश्वसनीय विकल्प निकलते दिखाई नहीं दे रहे हैं. इसलिए सभी अपने-अपने पक्ष को सही बनाने या साबित करने की जिद की स्थिति में आ गए हैं.

यह एक अलग तरह का 'डेड एंड'है. ना किसान के पास भविष्य की विकास की योजनाएं है, न बाजार के पास किसान के हित की रक्षा के लिए उचित प्रबंधन करने की नियत से जुड़ा दायित्व बोध है. उसका दारोमदार उस संबंध में किए जाने वाले बहुत व्यापक प्रबंधन से है, पर उतना सब करने  के लिए अब बाजार को तैयार करना कठिन है. निजी क्षेत्र मुनाफे पर केंद्रित होता है. उसके भीतर कल्याणकारी नैतिक दायित्व बोध के लिए गुंजाइश पैदा करना लगभग असंभव बात है.

मेरा मानना है कि यदि यह अलग तरह के 'डेड एंड'या 'क्रैक'के उपस्थित होने की स्थिति है, तो हमें इस अंतर्विरोध को और तीखा करने से जुड़ी चेतना के विकास के लिए काम करना चाहिए. यह अंतर्विरोध जितना उग्र होगा, परंपरागत विकास मॉडल और तीव्र विकास वाले पूंजीवादी विकास मॉडल दोनों की अपर्याप्तता को समझने में मदद मिलेगी. इस संदर्भ में मुझे नहीं लगता है कि हमें सरकार और उसकी नीतियों के विरोध में खड़े होने की बहुत जरूरत है. न ऐसा ही है कि हम किसान और उसकी जायज मांगों के पक्ष में खड़े न होने के लिए कोई दलील ढूंढ पाने की स्थिति में रह गए हैं. हमारी स्थिति यह है कि हम न परंपरागत विकास मॉडल को बचा पानी की स्थिति में है, ना मुक्त बाजार वाले पूंजीवादी विकास मॉडल से बेहतर भविष्य की कोई उम्मीद बांध पाने की स्थिति में रह गए हैं. हमें दोनों के अपर्याप्त होने की बात पर जोर देना चाहिए. हमारे सवाल सीधे होनी चाहिए. कि बताइए, वह विकास मॉडल कौन सा है, जो किसान और सरकार दोनों को स्वीकार्य हो सके? वह खेती-बाड़ी किस तरह की है, जो प्रकृति और पर्यावरण के संरक्षण के अनुकूल है? 

वह मुक्त बाजार कौन सा है जो पर्यावरण और प्रकृति को बचाते हुए मुनाफा कमाने की स्थिति में आ सकता है? ये बुनियादी सवाल हैं, जिनसे भविष्य के विकास मॉडल के प्रकट होने की संभावनाएं सामने आएंगी. ये सवाल जैसे ही व्यापक स्तर पर पूछे जाने लगेंगे, किसान का परंपरागत विकास मॉडल और सरकार समर्थित मुक्त बाजार वाला पूंजीवादी विकास मॉडल, दोनों कटघरे में खड़े दिखाई देने लगेंगे. अब दो रास्ते हैं. या तो हम ऐसे कठिन सवाल पूछने और उन पर सार्वजनिक बहस छेड़ने के लिए काम करें, या 'डेड एंड'पर आ गए दोनों पक्षों को एक दूसरे से लड़ने भिड़ने और एक दूसरे को नष्ट कर देने के हालात के साक्षी होकर हाथ पर हाथ धरे बैठे इंतजार करें, कि इनमें से कौन पराजित होता है. कि यह देखना चाहिए कि दोनों कब कमजोर होंगे और कब उनके भीतर से कोई और विकल्प निकलेगा. मुझे नहीं लगता कि यह दूसरा रास्ता सही है. हमारी सकारात्मक भूमिका, अब सही सार्थक और भविष्योन्मुख सवाल पूछने से जुड़ गई प्रतीत होती है. 

Image may be NSFW.
Clik here to view.
राकेश गुप्त: 25

आप जिस तरह का जनचेतना अभियान छेड़ने की बात कह रहे हैं, उस संदर्भ में मुझे लगता है कि इस वक्त उसके लिए बहुत अनुकूल समय उपस्थित है. वजह यह है कि इस समय न्यायपालिका कमजोर है प्रजातंत्र का स्तंभ मानी जाने वाली संस्थाएं ध्वस्त हो रही हैं. ऐसे में इस तरह के प्रश्न उठाने का महत्व और अधिक बढ़ जाता है. 

 

विनोद शाही: 26
Image may be NSFW.
Clik here to view.

देखिए, यह जो स्थिति आपने बताई है, वह मौजूदा हालात में उग्र हो रहे अंतर्विरोधों को हमारे सामने लाती है परंतु इन्हें देखते हुए हम जब चिंतित होते हैं, तो जैसे हालात हैं उनमें हमें सरकार के विरोध में जाकर या किसानों के पक्ष को दुरुस्त मानते हुए अपनी बात कहने की बजाय दूसरा रास्ता अपनाना होगा. ऐसा विरोध यदि एक पक्ष के विरुद्ध और दूसरे के पक्ष में जाने से जुड़ा होगा, तो उससे शक्ति बर्बाद होगी. हमारा ध्यान प्रजातंत्र को बचाने से जुड़े मुद्दे पर केंद्रित होना चाहिए. प्रश्न सरकार का नहीं है, प्रश्न प्रजातंत्र का है. और प्रश्न किसान का भी नहीं है, वह नए विकास मॉडल तक पहुंचने का है. प्रजातंत्र की खामियां भी हमारे सामने हैं. ऐसे में हमारे चिंतन की जमीन समाज के भविष्य पर केंद्रित होनी चाहिए. हमें कैसी समाज व्यवस्था चाहिए और भविष्य के लिए कैसा विकास मॉडल चाहिए, उसके लिए यदि प्रजातंत्र ही एकमात्र आधार भूमि है, तो जिस तरह का चुनावी प्रजातंत्र है उससे तो हमारा काम चलने वाला नहीं है. ऐसे में हमें प्रजातंत्र के वैकल्पिक मॉडल की बात करते हुए सामने आना होगा. हम मुद्दे पर केंद्रित होंगे तो उसमें एक तरह से सरकार की जनविरोधी नीतियों का विरोध अपने आप मुखर होकर सामने आ जाएगा और किसान मजदूर आदि जितने सामाजिक समुदाय अपने बेहतर भविष्य के लिए संघर्ष कर रहे हैं उनके बेहतर भविष्य की परिकल्पना का वैकल्पिक मॉडल भी उसी के भीतर से बहस के सार्वजनिक क्षेत्र में चला आएगा. जब तक हम वैचारिक स्तर पर इन बातों को लेकर स्पष्ट नहीं होंगे, तात्कालिक मुद्दों के पक्ष या विपक्ष में खड़े होकर अपनी शक्ति को गंवाते रहेंगे.  

Image may be NSFW.
Clik here to view.
लाल बहादुर वर्मा: 27

जहां तक व्यापक मुद्दों पर केंद्रित होने की बात है, तो अभी तक हमारे पास दो बड़े विकल्प थे, क्या पूंजीवादी व्यवस्था आएगी या समाजवाद आएगा. अब किसान की स्थिति यह हो गई है कि अगर पूंजीवाद का एकछत्र साम्राज्य होता है, तो भी किसानी खत्म होने के कगार पर है और समाजवाद आता है तो भी. यानी आज किसान की जो स्थिति है वह इस तरह की ऐतिहासिक नियति के लिहाज से आत्म विनाश की हालत में पहुंच गया है. ऐसे में अगर किसान को बचना है, अगर की भी इसमें कोई बात नहीं उससे बचना ही है, क्योंकि वह भारत के 60% लोगों का बचना है और इतना ही नहीं वह पूरी धरती का बचना भी है, तो अगर ऐसे किसान को बचना है तो इसका मतलब यह है कि हमें एक नए किसान की बात तक आना पड़ेगा.

पारंपरिक रूप में जो किसान है वह अब नहीं बचेगा, पर आप अभी किसानों के बीच जाकर यह बात नहीं कह सकते. तब हम क्या करें इस बात को हम किन लोगों के बीच जाकर कहें? यहां अगर आप विचार करके देखेंगे तो पाएंगे कि इस स्थिति के बीच से एक नई बात के लिए गुंजाइश पैदा हो रही है. वह ग्रीन पॉलिटिक्स यानी हरित राजनीति की बात है. हरित राजनीति के लिए जगह बनेगी, तो वह पूंजीवाद को भी आईना दिखाने की स्थिति में आ जाएगी कि देखिए आप क्या कर रहे हैं. 

Image may be NSFW.
Clik here to view.
विनोद शाही: 28

आपने यह बेहद महत्वपूर्ण बात उठाई है. आप देखिए कि इस तरह की हरित राजनीति के लिए हमारे पास गुंजाइश तो बननी आरंभ हो गई है, पर अभी वह बात केंद्र में नहीं आ पाई है. एक उदाहरण देता हूं. इन तीन कृषि कानूनों को लाने से पहले 2017 में भाजपा की यही सरकार पारंपरिक कृषि विकास योजना लेकर आई थी. उसका संबंध हरित क्रांति की ओर पारंपरिक कृषि को ले जाने से था. हम पूछ सकते हैं कि यह सरकार जो उस दिशा में 2017 में आगे बढ़ रही थी वह 2021 में उसके ठीक उलट ऐसे कानूनों को लेकर क्यों आ गई, जो हरित क्रांति के विरोध में जाते हैं?

हरित राजनीति को आधार बनाते ही हम इस मौजूदा सरकार के भीतर मौजूद उसके अपने अंतर्विरोध को एक बड़ा मुद्दा बना सकते हैं, जिसका सकारात्मक परिणाम संभव है. 

Image may be NSFW.
Clik here to view.
राकेश गुप्त: 29

वही नहीं, इस सरकार की एक और महत्वाकांक्षी योजना थी कौशल विकास से संबंधित. उसकी बाबत भी सवाल उठाए जा सकते हैं कि उसका क्या हुआ? उसमें पारंपरिक विकास मॉडल और भविष्य के विकास की संभावनाओं के बीच समन्वय के लिए एक जगह निकल रही थी. 

 

Image may be NSFW.
Clik here to view.

विनोद शाही: 30


वह भी एक मुद्दा है. परंतु हरित राजनीति वाली बात ज्यादा बड़ी है. वह बात किसान आंदोलन की वजह से अब बहस का मुद्दा बन सकती है. मुझे याद आ रहा है, अक्षत ने इस संबंध में एक कहानी लिखी थी. 'बिन्नो ताई'नाम से. उसमें एक महिला है, जो कृषि विकास संबंधी योजनाओं पर काम करती है. उस संबंध में बड़ी-बड़ी चर्चाओं में और बड़े अध्ययन कार्यक्रमों में हिस्सेदार होती है. परंतु मौलिक दृष्टि रखने की वजह से उसे कई तरह की ईर्ष्याओं का सार्वजनिक रूप में सामना करना पड़ता है. तो वह गांव मैं चली जाती है. सोचती है कि वह किसानों को बताऊंगी कि उन्हें किस तरह के कृषि विकास की जरूरत है. वह एक नए किसान की धारणा के साथ उनके बीच जाती है. पर किसानों को उसकी बातें समझ में नहीं आतीं. वे पारंपरिक तरीके से अपना काम चलाते रहना चाहते हैं. लेकिन बाद में जब किसान नई तरह के कृषि कानून आने से संकट की स्थिति में आते हैं, तब उन्हें बिन्नो ताई की कई बातें विचारणीय लगने लगती हैं. अंतर्विरोध गहराने पर ही वे उसकी मदद लेने के लिए तैयार होने की स्थिति में आते हैं.

मैं इस कहानी को एक प्रतीकात्मक स्थिति की तरह देख रहा हूं. विद्युत आई के लिए जगह एक छोटे से गांव में निकल सकी, उसे इस कहानी का कथ्य कह सकते हैं. परंतु हमें जैसे हालात हैं उसमें इस तरह के विचारों के लिए जगह बनाने की संदर्भ में संभवत है अभी काफी इंतजार करना पड़ेगा. अब मैं यह सोच रहा हूं की बौद्धिक लोग जिस हालत में पहुंच गए हैं, वह शहर के अकादमिक परिदृश्य में एलियनेट हो रहे हैं. कभी गांव में जाते हैं, तो वहां भी उनकी स्थिति अजनबी भाषा बोलने वाले बौद्धिक की बनी रहती है. परंतु यदि गांव में काम करते हुए वे अपने लिए कोई विश्वसनीय जगह खोज पाते हैं, तो वह एक उम्मीद की बात हो सकती है. 

Image may be NSFW.
Clik here to view.
लाल बहादुर वर्मा: 31

अब हम यह बात कर सकते हैं कि इतिहास ने हमें जो विकल्प दिए थे वह मौजूदा हालात में अपर्याप्त हो गए मालूम पड़ रहे हैं. इसलिए अब बात हो सकती है कि हमें नए विकल्प खोजने हैं और इस संबंध में हम सार्वजनिक रूप में समाज की उत्सुकता भी जगा सकते हैं. तो यदि वे विकल्प अपर्याप्त हैं, तो हम सोचें कि वे पर्याप्त कैसे होंगे? 

Image may be NSFW.
Clik here to view.
विनोद शाही: 32

मुझे लगता है कि इसकी बजाय हमें यह सोचना चाहिए कि हम उन विकल्पों की अपर्याप्तता को कैसे और अधिक अपर्याप्त बनाने में अपनी भूमिका निभाएं? उससे उन से ताल्लुक रखने वाले अंतर्विरोध और अधिक उग्र होंगे और वह खुद ही हमें विकल्पों की तलाश की ओर धकेल देंगे. आपने अभी हरित राजनीति की बात की. फिलहाल वह भी एक अपर्याप्त विकल्प ही है, पर हम इन तमाम अपर्याप्तताओं के साथ अपनी बात को बहस में लाने की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं. जिन्हें हमने जान लिया कि वे अपर्याप्त हैं, उन्हें छोड़ने की बात पर लोग राजी हो सकते हैं, क्योंकि अगर हमें सामने खुदी खाई नज़र आ रही हो, तो कौन ऐसा होगा, जो उसमें कूद कर जान देना चाहेगा. और तब जो भविष्य की अपर्याप्त संभावना है, उसे थोड़ा और विश्वसनीय बनाने के लिए काम कर सकते हैं. 

Image may be NSFW.
Clik here to view.
अक्षत शाही: 33

मैं आपकी बात को अर्थशास्त्र और बाजार की दुनिया का आदमी होने की वजह से कुछ अलग तरह से समझने की कोशिश कर रहा हूं. मुझे लगता है कि हम जिस दुनिया में हैं वहां पूंजीवाद हमारे काम का नहीं है. समाजवाद उसका सम्यक विकल्प नहीं है. यह दोनों इसलिए अपर्याप्त लगने लग पड़े हैं, क्योंकि यह दोनों मुनाफे के वितरण, डिस्ट्रीब्यूशन ऑफ इनकम की बात करते हैं. यह दोनों केवल  आय के  वितरण के मामले में एक दूसरे से कुछ अलहदा नजर आते हैं. जहां तक उत्पादन के आधार की बात है, दोनों एक ही तरह की उत्पादन पद्धति का इस्तेमाल करते हैं. यहां मुख्य समस्या वितरण के तरीके की है, जिसे थोड़ा कल्याणकारी बनाने की कोशिश होती है.

कोई समाजवाद के तरीके से तो कोई वेलफेयर स्टेट के तरीके से ऐसा करता है. यह जो आज कृषि कानूनों को लेकर इतना बड़ा आंदोलन हो रहा है. उससे ज्यादा बड़ा आंदोलन तब होना चाहिए था, जब पर्यावरण पर कानून आया था तब किसी ने उसकी तरफ ध्यान नहीं दिया. इसलिए लगता यह है कि अभी हरित राजनीति के लिए समाज में कोई जगह नहीं बनी है. हम अभी कुछ दूसरे मुद्दों को अधिक गंभीरता से ले रहे हैं. वह मुद्दे पूंजीवादी उत्पादन तंत्र के अंतर्विरोधों से ताल्लुक रखते हैं. जबकि भविष्य की उत्पादन पद्धति को प्रभावित करने की संभावना उस पर्यावरण दिल में थी, जो बेहद कमज़ोर बेल कहा जा सकता है. परंतु उस ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया और ना ही उसका अधिक विरोध हुआ.

उस कानून के आधार पर यह बात सार्वजनिक बहस में आनी चाहिए थी कि भारत में जल स्तर की क्या स्थिति है और घटते जलस्तर हमारी खेती-बाड़ी के वर्तमान रूप पर क्या असर डालते हैं. उस आधार पर यह बात बहस का मुद्दा बननी चाहिए थी कि कम जलस्तर वाले प्रदेशों में अधिक जल की खपत से संबंधित खेती का क्या विकल्प होना चाहिए. जो वाम के लोग हैं और समाजवाद की बात करते हैं, वह आर्थिक प्रश्नों की वजह उनके साथ ताल्लुक रखने वाले सामाजिक सवालों में ज्यादा दिलचस्पी रखते हैं, उनके लिए आर्थिक सवाल भी वर्ग के अंतर्विरोध के सवाल बन जाते हैं. बहुत से आर्थिक सवाल हैं, जिन्हें कभी सामाजिक समस्या बना दिया जाता है और कभी सांस्कृतिक समस्या.

दिल्ली के चावड़ी बाजार में जो लोग जय श्री राम का नारा लगा रहे हैं, उनका असल मकसद उन बनियों को सुरक्षा देना है, जो बहुत कम कीमत की पगड़ी देकर उन व्यावसायिक प्रतिष्ठानों पर कब्जा किए हुए हैं, जिनकी अब कीमत बहुत बड़ी है. यह सवाल धर्म का नहीं है कि उन प्रतिष्ठानों के ज्यादातर मालिक मुसलमान हैं. इस संबंध में नई आर्थिक नीतियों का निर्धारण होना चाहिए, परंतु उनके समाधान की जगह संस्कृति और धर्म की बात को बीच में लाकर मुख्य सवाल से ध्यान हटा दिया जाता है. 

Image may be NSFW.
Clik here to view.
लाल बहादुर वर्मा: 34

मुझे लगता है कि हमें समस्याओं को समस्याओं के रूप में लेना चाहिए. यह आधुनिकता के साथ आए बौद्धिक दृष्टि का संकट है कि उसने समस्याओं को आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक जैसी कोटियों में विभाजित कर दिया है. जबकि हर समस्या का एक आर्थिक पहलू होता है, एक सामाजिक, एक राजनीतिक, एक ऐतिहासिक अथवा एक सांस्कृतिक भी. हमें समस्याओं को समग्रता में देखने की स्थिति में लौटने की ज़रूरत है. 

Image may be NSFW.
Clik here to view.
विनोद शाही: 35

आपने जिस ओर इशारा किया है, मैं उससे आधुनिकता के विकास की प्रक्रियाओं की तरह देखता हूं. यह दो ऐतिहासिक चरणों की प्रक्रिया है. शुरू में जब पूंजीवाद आया, तो वह मूलतः एक अर्थ तंत्र से जुड़ी या उत्पादन पद्धति से जुड़ी बात थी. परंतु बड़ी जल्दी उसका राजनीतिकरण हो गया. औद्योगिक क्रांति के साथ ही साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद वाले चरण सामने आ गए. उससे, गोरों की नस्लवादी राजनीति ने, दुनिया के सभ्यता करण का बीड़ा अपने सिर पर उठा लिया. इसने एक आर्थिक सवाल को पहले राजनीतिक सवाल में बदला, फिर उसे सभ्यता मूलक सवाल बनाने की कोशिश की. फिर समाजवादी चिंतन वाला अगला चरण आया. उसने पूंजीवाद के इस राजनीतिकरण वाले चरण को दो फाड़ करके दुनिया का ध्रुवीकरण कर दिया. इसके लिए समाजवादी चिंतन ने समाज को आधार बनाया. वह सवाल जो मूलतः आर्थिक सवाल थे, उन्हें सामाजिक सवालों की तरह या वर्ग संघर्ष की तरह, किसी मुकाम तक ले जाने का प्रयास होने लगा.

इस तरह यह एक चरणबद्ध तरीके का अंतर-विकास है, जिसने यथार्थ और उससे जुड़ी समस्याओं को इन अलग-अलग कोटियों में विभाजित करने में अपनी भूमिका निभाई. परिणाम यह हुआ कि बुनियादी आर्थिक सवाल ज्यों के त्यों अनसुलझे पड़े रह गए. पूंजीवाद तीव्र विकास के मॉडल को लेकर आया था. परंतु दुनिया से गरीबी को दूर करने का उसका संकल्प आज भी पूर्ववत अधूरा पड़ा दिखाई देता है. बुनियादी आर्थिक सवाल, जमीन से जुड़े सवाल थे, इसलिए उनके साथ ज़मीन से उपजी परंपरागत सांस्कृतिक चेतना भी साथ ही जुड़ी हुई थी. परंतु आर्थिक सवालों के केंद्र में न रहने की वजह से, उन से ताल्लुक रखने वाली उनकी सांस्कृतिक अंतर्वस्तु को भी हाशिए पर धकेल दिया गया. इसका सबसे ज्यादा नुकसान संस्कृति के क्षेत्र को उठाना पड़ा. संस्कृति की अनेक विकृतियां इसी वजह से सामने आईं. पहले आतंकवाद के दौर के रूप में, फिर सूचना क्रांति के अप-संस्कृति वाले मौजूदा दौर की तरह, संस्कृति के उत्तरोत्तर बीमार होते जाने की सूचनाएं हमारे सामने आ रही हैं. इससे मनुष्य के आधुनिक मनुष्य होने की बात भी आगे नहीं बढ़ सकी.

आर्थिक मुद्दों की अपनी यह जमीन और उसका एक सांस्कृतिक पक्ष होता है, जो कुदरती तौर पर उसकी अंतर्वस्तु होता है. जमीन से जुड़े इस अर्थ तंत्र और उसकी कुदरती संस्कृति से उसके रिश्ते की बात को फिर से केंद्र में लाने की जरूरत है. यह होगा तो समस्याओं को समग्रता में ग्रहण करने के लिए जमीन खुद ब खुद तैयार हो जाएगी. 

Image may be NSFW.
Clik here to view.
लाल बहादुर वर्मा: 36

बिल्कुल. जब हम समग्रता की बात करते हैं, तो वह बौद्धिक बात उतनी नहीं होती, जितनी कि वह सांस्कृतिक बात होती है. वह मूलतः संस्कृति का ही सवाल है. फिर वह सभ्यता मूलक रूप लेती है. क्योंकि संस्कृति के केंद्र में आने के बाद कुछ नए मूल्य बनते हैं, नए संबंध बनते हैं, नई दृष्टियां चरितार्थ होती हैं और व्यवहार शैलियों में बदलती हैं.

गांधीवाद की आखिरी मंज़िल भी यही है कि हम जीएंगे कैसे? वह सवाल बुनियादी था. पर वही गौण रह गया. और बाकी तमाम जितने वाद आए, वह समस्याओं को टुकड़ों में बांट कर यथार्थ का अपने-अपने हित में इस्तेमाल करने का रास्ता निकालते चले गए. फायदा वर्चस्वी लोगों को मिलता रहा. जनसामान्य वैसा का वैसा बना रहा. हमें मार्क्सवाद से बहुत उम्मीद थी, पर अब तो हालात ऐसे हैं कि ज्यादातर वामपंथी एकदम जड़ किस्म की अकादमिक बातें कर रहे हैं. ऐसा लगता है जैसे वाम ने अपनी विचारधारा को कुरान शरीफ बना दिया हो. 

Image may be NSFW.
Clik here to view.
राकेश गुप्त: 37

अभी आपने हरित राजनीति की बात की और अक्षत ने पर्यावरण बिल संबंधी सवाल उठाया. मैं इससे जुड़े एक व्यावहारिक दृष्टांत को आपके सामने रखना चाहता हूं. मान लीजिए, कहीं पर पानी का एक ही स्रोत है. उस परिवार के पास एक ही बाल्टी है. वह उसी में नहा रहा है, उसी से टॉयलेट में पानी डाल रहा है, उसी में पीने के लिए पानी भरकर रखता है और उसी पानी से अपना खाना भी बनाता है, पूजा के बाद उसी से आचमन भी करता है. अब अगर इस आदमी को समझाया जाए कि इन तमाम तरह के कार्यों के लिए, एक ही जगह से लिए हुए पानी को अलग-अलग बर्तनों में रखना जरूरी है, तो उसे समझ में नहीं आएगा.

इसलिए जब हम बुनियादी बात की तरफ जाते हैं, या चीजों के स्रोत में लौटते हैं, तो वहां हमारे मसले खंड-खंड नहीं होते. जिसे आप समग्रता कहते हैं, वहां से सब की शुरुआत होती है. पर बाद में सब विभाजित हो जाते हैं. पर आप उसी स्थिति से बंधे नहीं रह सकते. बाद में आप जिस स्थिति में आते हैं, उन स्थितियों को अपनी सुविधा बना लेते हैं और विभाजित होकर जीने को समग्रता में जीने का पर्याय मान लेते हैं. पता भी नहीं चलता है कि आप समग्रता से टूट गए हैं.

जैसे किसान की स्थिति है. अब वह यह समझ नहीं पा रहा है कि जल स्तर नीचे चले जाने पर धान की खेती न करके, दूसरे विकल्पों पर जाना जरूरी हो गया है. या जिस स्थिति में वह है, वह न्यूनतम समर्थन मूल्य पर आकर अटक गया है. उससे जुड़ी जो दूसरी तमाम बातें हैं, उनकी और वह देखना भी नहीं चाहता. टुकड़ों में समस्याओं को देखने की आदत हो जाने पर हम उससे बाहर के उसके दूसरे पक्षों को देख पाने में असमर्थ हो जाते हैं. फिर बात संस्कृति की भी उठी है. यह भी मुझे लगता है कि लोग खाने को पैसा नहीं होता, पर कुंभ के मेले में अपनी कमाई का एक बड़ा हिस्सा दान-दक्षिणा में या चढ़ावे में खर्च कर आते हैं.

दलितों में मैंने ऐसे उदाहरण देखे हैं कि भूखों मरते हैं, अपने मां-बाप का ईलाज नहीं करवा पाते, पर जब कोई बुजुर्ग मरता है, तो उसके लिए उन्हें मजबूरी में ऐसा भोज करना पड़ता है, जिसमें गांव के सब लोग आकर खाना खाते हैं. इस तरह की संस्कृति, उनकी आर्थिक स्थिति की अंतर्वस्तु या कांटेंट कैसे है, मैं समझ नहीं पाता? 

Image may be NSFW.
Clik here to view.
विनोद शाही: 38

आपने जो उदाहरण दिए, वे जमीन से जुड़े अर्थतंत्र और उसकी कुदरती सांस्कृतिक अंतर्वस्तु की निरंतरता के एक दूसरे से टूट जाने से पैदा हुई स्थितियों के उदाहरण हैं. हुआ यह है कि जब सामाजिक वर्चस्व, राजनीतिक वर्चस्व या जातिगत वर्चस्व जैसे सवाल केंद्र में आ जाते हैं, तो वे संस्कृति का अपने-अपने तरीके से इस्तेमाल करने लगते हैं. वह संस्कृति का जड़ हुआ रूप है, कुदरती रूप नहीं. अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए संस्कृति के विविध रूपों का इस्तेमाल, संस्कृति को रूढ़ बनाता है और वह जब लोगों के शोषण और दमन का आधार हो जाता है, तो वह समाज की विकृति में तबदील हो जाता है. इस सब से ही तो निजात पाने की बात हम यहां कर रहे हैं.

मनुष्य के प्रकृति से सीधे रिश्तों की वजह से जिस उत्पादन पद्धति का विकास हो रहा होता है, वह अपने सांस्कृतिक सार को अपने भीतर से प्रकट करती है. वहां कुछ भी ओढ़ा हुआ नहीं होता. अब जब हम पर्यावरण के सवाल से जुड़कर और प्रकृति को बचाने की दृष्टि से उस में लौटते हुए किसी नई उत्पादन पद्धति की बाबत सोचना चाहते हैं, तो उसके भीतर से जो शक्ति आएगी वह संस्कृति की निरंतरता से अपना रिश्ता तो रखेगी परंतु अपने स्वरूप में एकदम नई भी होगी. जब समाज का स्वस्थ विकास हो रहा होता है, तो संस्कृति का भी रूढ़ या जड़ इस्तेमाल नहीं होता. तब हम हालात के मुताबिक संस्कृति में परिवर्तन करने के लिए सहज ही तैयार और राजी रहते हैं. तब संस्कृति संबंधी परिवर्तन किसी की धार्मिक भावनाओं को आहत करने वाली यह जो विकृत सोच है उसका शिकार नहीं होते.

संस्कृति का रूढ़ रूप मनुष्य के विरोध में चला गया रूप है. जबकि उसका स्वस्थ विकास हमेशा मनुष्य के पक्ष में होता है. इस कसौटी पर हम देख सकते हैं कि चीजें संस्कृति की सहज निरंतरता में से आई है, या वह एक रूढ़ि की तरह उस निरंतरता को  खंडित करके, उस पर आरोपित तरीके से एक परजीवी की तरह, अपना अस्तित्व बनाए हुए हैं. इस तरह की संस्कृति को संस्कृति कहना, संस्कृति के अर्थ को ना समझने वाली बात है संस्कृति का यह जड़ रूप है, जिसकी आप बात कर रहे हैं. वह संस्कृति नहीं है, सामाजिक रीति रिवाज के रूप में सामने आई उसकी निर्मिति है. उसने अपना सांस्कृतिक सार खो दिया है. वह सामाजिक व्यवहार की तरह लगातार दुहराई जाने वाली वस्तु बन गई है. इसलिए उसे संस्कृति के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करना उचित नहीं है. बहुत सारी बातों को पंडितों के कहने से या शास्त्रों के गलत उदाहरण पेश करने से, लोगों के द्वारा स्वीकार कर लिया जाता है. श्राद्ध के बाद शादी ब्याह में फेरों की बात या पूजा में मौली बांधने की बात अथवा इसी तरह की बहुत सारी बातें हैं, जिन्हें संस्कृति के रूप में देखा समझा जाता है परंतु जो लोग इस तरह के कर्मकांड करते हैं, उनमें से अधिकांश को पता ही नहीं होता कि उस कर्मकांड के पीछे का दर्शन क्या है, उसके पीछे की वह आधारभूमि क्या है, जहां से वह पैदा हुई.

शिवलिंग पर बेलपत्र चढ़ाना क्या अर्थ रखता है और वहां किसी अन्य पेड़ के पत्र क्यों नहीं चढ़ाया जाता? या वहां प्रतीकात्मक वस्त्र क्यों समर्पित किए जाते हैं, जबकि शिव तो अधिकांशतः दिगंबर थे? या अधिक से अधिक पशु के चमड़े को ओढ़कर काम चलाते थे. तो बहुत सारी चीजें हैं, जिन्होंने अपना अर्थ खो दिया है. परंतु उन्हें संस्कृति का पर्याय मान लिया जाता है और उनके आधार पर पंडित पुरोहित लोगों के धन का शोषण करते हैं, जिससे मैं सांस्कृतिक ठगी कहता हूं.

होना यह चाहिए कि जैसा जीवन आप जी रहे हैं, जिस तरह के उत्पादन पद्धति से आप जुड़े हैं, उसी के भीतर से सहज रूप में प्रकट होने वाली सांस्कृतिक चेतना को ही आप अपनी संस्कृति के रूप में देखने समझने लायक हो सकें. ऐसी संस्कृति में पर्याप्त विविधता हो सकती है. कभी भारत में ऐसा था. इसीलिए हजारों हजार देवता प्रकट हो सके. वह सांस्कृतिक स्वतंत्रता, बहुलता और विविधता के बीच से पैदा हुई प्रजातांत्रिक सांस्कृतिक चेतना से जुड़ी बात है. परंतु अब हम उस सब को खो चुके हैं. सब कुछ सांस्कृतिक प्रतीकों में बंध गया है सब कुछ किसी एक देवता या अवतार में केंद्रित होता जाता है और उसे भी आगे चलकर एक खास तरह के सत्ता विमर्श का पर्याय बना दिया गया है.

यह सब बातें ऐसे समाज में घटित होती हैं, जिसने सांस्कृतिक निरंतरता के भीतर से अपनी चेतना के विकास को और संस्कृति के निरंतर बदलते रह सकने और निरंतर जीवंत होने की बात को, जिसे संस्कृति का पुनर्नवा होना कहते हैं, ज़मीनी हकीकत बनाया था. हमने वह आधार खो दिया है. मनुष्य के मनुष्य होने की जो बात है, वह संस्कृति की निरंतरता के भीतर से सामने आती है. परंतु संस्कृति के आधारभूत अर्थ से, हमारे समय की प्रचलित रूढ़ियों, कर्मकांडों और धार्मिक व्यवहारों के रिश्तों का विच्छेद हो गया है. संस्कृति के सामाजिक कर्मकांड में बदल जाने का मतलब है, संस्कृति संबंधी हमारी स्मृति का खो जाना. यह बहुत घातक बात है. हमारी जातीय स्मृतियों में हमारे वे अनुभव थे, जो इस तरह के सांस्कृतिक व्यवहारों को जन्म देते थे परंतु अब वे स्मृतियां हमारे पास नहीं है. शास्त्रोक्त बातों को पंडितों के द्वारा दोहराया जा रहा है, परंतु उस सबका हमारी जातीय स्मृतियों से बहुत लेना-देना नहीं है. उसके पीछे छिपे हमारे जीवनानुभव, अब अतीत की वस्तु हो गए हैं. अब कोई सामाजिक कर्मकांड करते हुए हमें वैसा कोई सांस्कृतिक अनुभव नहीं होता, जिसके भीतर से वह कर्मकांड पैदा हुआ था.

Image may be NSFW.
Clik here to view.
अक्षत शाही: 39

मेरे मन में एक सवाल है. किसी अभिनेत्री ने किसी से इंटरव्यू में यह कहा था कि यदि किसी का तलाक हो जाता है और कोई दूसरी स्त्री किसी के साथ 'लिव इन'में रहती है तो इन दोनों स्थितियों में क्या फर्क है? क्या यह सामाजिक स्वीकृति का मामला है, या इसके पीछे संस्कृति की कोई भूमिका है?

Image may be NSFW.
Clik here to view.
 

विनोद शाही: 40

संस्कृति से रिश्ता होता तो विवाह के बहुत गहरे अर्थ हमारे अनुभव में आ रहे होते. पर अब बात क्यों की संस्कृति के सामाजिक कर्मकांड भर होकर रह जाने की हो गई है. इसलिए मामला सामाजिक स्वीकृति का होकर रह गया है. इससे हमारे संबंधों में भी बहुत उथलापन आ रहा है. विवाह में प्रेम और उसके द्वारा आत्मा और ईश्वर तक की खोज वाले जो सांस्कृतिक पक्ष हैं, हमारी स्मृतियों से बाहर हो रहे हैं. वे अब हमारे अनुभवों का हिस्सा होने की स्थिति में नहीं रह गए हैं. 

Image may be NSFW.
Clik here to view.
लाल बहादुर वर्मा: 41

आप यहां संस्कृति के रचनात्मक विकास की बात कर रहे हैं. मेरे मन में एक विचार पैदा हो रहा है. मैं सोचता हूं कि दुनिया में संस्कृति का जो अब तक का विकास है, उस में मुख्य भूमिका बहुत थोड़े से लोगों की रही है. समाज का एक बड़ा हिस्सा रचनात्मक होने से चूक गया है. या उसे इस तरह के कार्यकलापों से दूर रखा गया है. मेरे मन में यह बात आती है कि थोड़े सी लोगों के द्वारा किए गए काम की बदौलत दुनिया 5000 बरस में इतनी तरक्की कर गई है और यहां तक पहुंच गई है. तो अगर ऐसा समाज निर्मित हो जाए जिसमें हर मनुष्य के लिए रचनात्मक होने की संभावना पैदा हो सके, तो आप सोच कर देखिए कि मानव जाति कितनी तेजी से कहां तक आगे विकास कर सकती है. यह तो हुई संभावनाओं की बातें. अब आइए थोड़ा बैठकर इस पक्ष पर भी विचार करें कि मौजूदा हालात में अब हमें क्या करना चाहिए?

आपने कृषि संस्कृति के स्रोतों के संबंध में जो आलेख लिखा है वह एक तरह से हमारी इस सोच के लिए घोषणा पत्र का काम करेगा. परंतु जैसे कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो था, तो उसमें भी केवल एक स्थापना सामने आई थी कार्यक्रम की बात एक सवाल की तरह बाद में प्रकट हुई. अब हम इस पर विचार करें कि हम इस चेतना को गहराने के लिए क्या करें?

लक्ष्य और सरोकार स्पष्ट हैं, पर उस संबंध में लोगों में चेतना कैसे पैदा की जाए कि वह बात अधिक से अधिक लोगों की समझ में आए. वह हमारी भविष्य की चिंता में शुमार होना चाहिए. मुझे लगता है कि यह दौर प्रबोधन के लिए एक जरूरी दौड़ की तरह है. इस संदर्भ में मेरा पहला प्रस्ताव यह है कि हमें बहुत सी पुस्तिकाएं प्रकाशित करनी चाहिए.

दूसरी बात यह है कि हम उन पुस्तिकाओं को छापें ही नहीं, उन्हें ऑनलाइन भी अपने मित्रों से, जहां तक संभव हो साझा करें और उसे दूर तक ले जाने के लिए प्रयास करें.

तीसरी बात यह है कि कथा एक ऐसी विधा है, जो लोगों से सीधा संवाद करती है. मैंने खुद अपने कुछ प्रबोधन कार्यक्रम कथा शैली में किये हैं. जैसे एक दफा भगत सिंह की कथा की थी और दो तीन बार अंबेडकर की कथा कही थी, तो मेरा अनुभव यह है कि वह संदेश बहुत से लोगों तक पहुंचा. इसके लिए हम कुछ कार्यशालाओं का आयोजन भी कर सकते हैं. 

Image may be NSFW.
Clik here to view.
विनोद शाही: 42

हमारे यहां बहुत से धर्म प्रचारक कथा वाचन की शैली के द्वारा अपनी बात को बहुत बड़े जन समुदाय तक ले जाने में सफल हुए हैं. मैं समझता हूं कि यदि हम प्रचलित कथाओं को, जिनमें पौराणिक कथाएं भी हो सकती हैं नई शक्ल दे कर अपना संदेश प्रचारित करने के लिए इस्तेमाल में लाएं और उन्हें एक नया कंटेंट देकर लोगों के बीच जाएं, तो संभवतः वह बात अधिक प्रेषणीय हो सकेगी. 

लाल बहादुर वर्मा: 43
Image may be NSFW.
Clik here to view.

यहां मैं नारायण देसाई के प्रयासों को याद कर पा रहा हूं. वे महादेव देसाई के पुत्र हैं. मैं उनसे मिला भी हूं. उन्होंने गांधी की कथा को बहुत ही कलात्मक रूप में प्रस्तुत किया है. वे अक्सर कथा कहने के लिए दूर-दूर तक जाते रहे हैं. उस कथा में बीच-बीच में गीतों का प्रयोग भी हुआ है. वह बता रहे थे कि उन्होंने गांधी की जीवनी भी लिखी है जो लगभग 12 सौ पृष्ठ की है. परंतु उसे बहुत कम लोगों ने पढ़ा है. पर अब वे बता रहे थे कि जब से उन्होंने कथा कहने शुरू की है, तो उनके अगले 2 साल के कार्यक्रम अभी से बुक हैं.

उस शैली को अपनाकर मैंने जब भगत सिंह की कथा कही, तो मेरे सामने 7-8 सौ पुलिस वाले बैठे हुए थे. कथा के बाद हमने बाकायदा आरती भी करवाई. इससे वह इतने प्रभावित हुए कि वहां एक संस्था के लिए चंदा देने का प्रस्ताव हुआ, तो कथा के बाद उन्होंने लगभग 1300 रुपये उस संस्था के लिए जमा कर दिए.

इसी तरह हम अगर चाहें, तो रामलीला के फन का भी एक नए अर्थ में इस्तेमाल कर सकते हैं. अभी मेरी मुलाकात 'मीडिया विजन'के पंकज से हुई. वह मेरा छात्र भी है. तो ख्याल में यह बात आती है कि इस काम को मीडिया के जरिए भी आगे बढ़ाने के बाबत सोचा जा सकता है. जब आज हम यह सोचते हैं कि हमें नवजागरण के लिए एक भूमिका बनानी है, तो उसमें इन सारी बातों को शुमार किया जा सकता है.

राकेश गुप्त: 44
Image may be NSFW.
Clik here to view.

हमारे गांव में इस तरह के कथा वाचन के कार्यक्रम होते रहते हैं. जिसमें सारे गांव को न्योता दिया जाता है. आप ऐसा कुछ कार्यक्रम बनाइए. प्रकृति की कथा कहिए. पर्यावरण की कथा कहिए. नए किसान की, नई कृषि संस्कृति की कथा कहिए. आप आइए. हम लोग अपने पूरे गांव को इसके लिए न्योता देंगे. ऐसे आयोजन सप्ताह के लिए या 9 दिन के लिए होते हैं. आप 9 दिन के लिए आइए. 9 के 9 दिन पूरे गांव वाले उसमें शामिल  रहेंगे. 

Image may be NSFW.
Clik here to view.
लाल बहादुर वर्मा: 45

ठीक है, हम अपने तमाम हमख़याल मित्रों को इस परिवर्तन वेला में, इस तरह के प्रबोधन का हिस्सा होने के लिये खुला आमंत्रण देते हुए आज की इस परिचर्चा को यहीं विराम देते हैं. इसे आप मेरी एक अपील की तरह देख सकते हैं. इस संदर्भ में जिससे जो जो बन पड़े वह करे. अगर हम इसे एक सांस्कृतिक अभियान की शक्ल दे पाये, तभी कुछ बात बनेगी. हमारे साथ शामिल होइए.! जुड़िये और जोड़िये.

_____

संपर्क:

लाल बहादुर वर्मा ( 919454069645), विनोद शाही (98 14 658 098), राकेश गुप्त (09839448782 )


Viewing all articles
Browse latest Browse all 1573

Trending Articles