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मैं और मेरी कविताएँ (चौदह): विनोद पदरज


 


 

 


मैं और मेरी कविताएँ
विनोद पदरज

 

पहली कवितानुमा रचना जो स्मृति में है वह यशपाल की एक कहानी का पद्यानुवाद जैसा कुछ था,एक बचकानी हरकत,तब उम्र थी यही कोई बारह वर्ष. पढ़ने की ललक आठ नौ साल की उम्र से लगी. जो भी उपलब्ध हुआ पढ़ा- किस्सा हातिमताई,तोता मैना,आल्हा ऊदल के सारे खंड,बड़े विद्यार्थियों के कोर्स में चलने वाली कहानियां कविताएं,नाना की रामचरितमानस,राधेश्याम रामायण,बातां री फुलवारी,नंदन, पराग, चंदामामा, लोक-संस्कृति जैसी पत्रिकाएं.

ननिहाल में बचपन बीता जो पचास घरों का गांव था,सब खेतिहर केवल नाना ही रिटायर्ड थे.मेले ठेले,कउ तापना,हेला ख्याल की तैयारी,शादी ब्याह में पूरे गांव का जुटना,भागवत कथा,तमाशे,बहरूपिये,बिसाती,कस्बे से वैद्य का आना,रात-रात भर बातें सुनना,सारंगी पर आल्हा-ऊदल का गान.

न जाने कितनी स्मृतियाँ हैं,अमिट स्मृतियाँ. पर ऐसी तो औरों की भी हैं फिर मैं लिखने की ओर कैसे गया ?

आठवीं में पिता के पास आ गया,पिता अध्यापक थे और खूब पढ़ते थे. शायद वे भी कवि बनना चाहते थे,उनके एक सर्टिफिकेट में लिखा है- एग्ज़म्पलरी इन इंग्लिश एंड कवि दरबार. उनकी अंग्रेजी की कीट्स बायरन शेली टेनिसन की किताबें आज तक मेरे पास हैं,हो सकता है यह भी एक कारक हो.

खैर,वे उपन्यास नाटक पढ़ते,साप्ताहिक हिंदुस्तान, धर्मयुग पढ़ते और बीबीसी सुनते. उनकी लाई किताबें मैं भी पढ़ता. शरत के उपन्यास- बिराज बहू और शुभदा का दर्द आज भी मेरे भीतर जमा है पर मैं विज्ञान का विद्यार्थी था और खूब मेहनत करता था खूब पढ़ता था. यह तो ग्यारहवीं की बात है जब हमारे स्कूल में एक अध्यापक आये-

कम उम्र के,प्रतिभाशाली, कुशल वक़्ता,अविवाहित थे तो अकेले रहते,बहुत अच्छी बांसुरी बजाते,जंगलों खंडहरों में घूमते और मैं उनके साथ होता. जगह भी प्राकृतिक रूप से बहुत समृद्ध थी. उनमें एक खूबी और थी कि वे कविताएं लिखते थे. उनकी डायरी में ढेरों कविताएं थीं जो मैंने उनसे लेकर पढ़ीं. मुझे लगा मैं भी लिख सकता हूँ और शायद भीतर कुछ अंकुरित हुआ. मैं लिखने लगा,अंट शंट लिखता और ख़ुश होता. उसी समय मैंने पंत, महादेवी, निराला पढ़े,कुछ समझा कुछ नहीं समझा पर सिलसिला चल निकला और मैं अपने मुंह मियां मिठ्ठू.

यह तो 1979की बात है जब मेरे कॉलेज से मैं विश्वविद्यालय में एक कविता प्रतियोगिता में भाग लेने गया और सौभाग्य से वहां मेरी मुलाकात कृष्ण कल्पित,डॉ. सत्यनारायण,मनु शर्मा,अजंता देव,संजीव मिश्र,कृष्ण गोपाल शर्मा से हुई.

ये लोग हर शनिवार हिंदी विभाग में जुटते थे,मैं इस समूह में शामिल हो गया. यहीं पर अशोक शास्त्री, सीमन्तिनी रांगेय राघव,रामानंद राठी लवलीन,राजेंद्र बोहरा,आर डी सैनी,अंजू ढड्ढा जैसे कई नायाब मित्र मिले.

जैसा कि ऊपर लिख चुका हूँ कि मैं विज्ञान का विद्यार्थी था और अपने मुंह मियां मिट्ठू पर यहाँ आकर औकात पता लगी,अहसास हुआ कि रास्ता कठिन है और बहुत श्रम करना होगा जीवन समर्पित करना होगा.

पर यह अच्छा हुआ. उन दिनों मैं लगभग अराजक जीवन जी रहा था अवसाद में था कुंठित था और कहीं भी किसी भी ओर जा सकता था इस समूह से जुड़कर बच गया. मेरे मित्र मेरी आगे की यात्रा के साक्षी हैं लेकिन यह तो मेरा आत्म वृतांत है इसमें कविता की बात कहाँ है?

हम में  से कोई भी कविता के बारे में कुछ नहीं जानता है. उसकी रचना प्रक्रिया क्या है,वह किस तरीके से लिखी जाती है,कैसे आती है,हर कवि  इसके बारे में अपनी समझ से थोड़ा बहुत लिख सकता है पर वह कोई मुकम्मल बयान नहीं होगा.

जहाँ तक मेरी बात है तो कहना चाहता हूँ कि मुझे आत्मा की गहराई से बोले हुए संवाद याद रहते हैं चाहे वे मेरे साथ के हों या दूसरों के आपसी संवाद हों.

मुझे लोगों की आँखों के भाव याद रह जाते हैं,मेरे भीतर खुब जाते हैं,जहाँ भी जीवन धड़कता है मेरी निगाह (अतीत से लेकर वर्तमान तक )उधर चली जाती है. मुझे अनेक सुबहें शामें दोपहरिया याद हैं- हवा सूर्य निविड़ता सब कुछ. मेरी कल्पना बेलगाम है घोड़े दौड़ाती है.

मुझे प्रकृति अत्यंत प्रिय है पर जन समूह में घुल मिल जाना और अकेले बने रहना भी प्रिय है पढ़ना प्रिय है. लिखने में श्रम करना आवश्यक मानता हूँ,कोई भी महानता एक दिन में घटित नहीं होती निरंतर अध्यवसाय और चेतना ज़रूरी है ऐसा मैंने पढ़ा है.

विषयों की कमी नहीं पर कविता में अपने ढंग से बात कह सकूं जटिल को भी इतने बोधगम्य ढंग से कह सकूं कि उसे मेरे जनपद के लोग पढ़ सकें पहचान सकें मुझे अपना मान सकें,मैं उनके सामने कविता पढ़ते हुए यह न सोचूं कि कि इस के पल्ले कुछ पड़ेगा कि नहीं क्योंकि वह मुझसे अच्छी भाषा बोलता है मुझसे अच्छी कविता कहता है जिसे मुझे पाना शेष है

अगर स्थूल ढंग से न लिया जाये तो कहना चाहता हूँ कि कविता में संवेदना विचार और पक्षधरता ज़रूरी है और अपनी भाषा अर्जित करने की उत्कट इच्छा और श्रम.

इति

 

 

विनोद पदरज की कविताएँ

 

 

 


१. 

कवि

 

कवि जिद्दी थे और मानते नहीं थे

 

जैसे पक्षी विज्ञानी कहते थे

कि कोयल नहीं कोकिल बोलता है- कुहू कुहू

तो मर्दाना भारी आवाज से

वे इसकी संगति नहीं बिठा पाते थे

और कहते थे- कोयल बोल रही है

 

जैसे पक्षी विज्ञानी कहते थे

कि चकवा चकवी रात्रि को भोजन की तलाश में पृथक पृथक रहते हैं

तो कवि, जिन्होंने उनकी गाड़ी के पहियों जैसी आवाज सुनकर उन्हें चक्रवाक कहा था

यह मानने को तैयार नहीं थे

वे उन्हें शापित बताते थे

उनकी निगाह में प्रेमियों का रात्रि मिलन

स्वर्ग से बढ़कर आनंदकारी था

और बिछोह जान लेवा

 

जैसे पक्षी विज्ञानी चातक की पुकार को

पी क हॉ  पी क हॉ कहते थे

कवि उसमें पी कहां पी कहां सुनते थे

वैज्ञानिक कहते थे कि उन्हें प्यास कम लगती है

पर कवि जिद करते थे

कि चातक स्वाति बूँद की प्रतीक्षा करते हैं

मोरों की मेव आ मेव आ ध्वनि को

उन्होंने मेह आ मेह आ की करुण पुकार में बदल दिया था

 

टिटहरियों के लिए तो उन्होंने

और भी अजीब कल्पना की थी

कि वे टाँगें ऊपर करके सोती हैं

ताकि गर आकाश गिरे

तो वे उसे थाम लें

जबकि पक्षी विज्ञानी इसे सिरे से नकारते थे

वे उनकी इस बात को भी सिरे से नकारते थे

कि चिड़ी जब धूल में नहाती है

बरसात आती है

 

पर पक्षी विज्ञानी भी कवियों से प्रभावित थे

जैसे वे कबूतरों के लिए कहते थे

कि नर कबूतर अपने क्षेत्र में रहता है

और कोई मादा उसके क्षेत्र में आती है

तो अपना प्रणय गान सुन्दर हूँ सबल हूँ

गुटर गूं गुटर गूं

शुरू कर देता है

फिर अपना इंद्रधनुषी कंठ फुलाकर

अपनी पूँछ को फैलाकर और नीचे दबाकर

बार बार नमन करते हुए

उसके चारों ओर प्रणय नृत्य करता है

ऐसी सुंदर कविता से भी

कवि संतुष्ट नहीं थे

वे यह और जोड़ते थे कि कबूतर बहुत सीधा होता है

और बिल्ली के सामने आँखें मूँद लेता है

 

दरअसल कवियों का यह विचार था कि

वे सूरज चाँद सितारों नदियों पहाड़ों समुद्रों

पेड़ पौधों कीट पतंगों और पशु पक्षियों

सब की भाषा समझते हैं

इसलिए वे जिद्दी थे और किसी की बात नहीं मानते थे

किंतु आश्चर्य

कि लोग उनकी बात मानते थे.

 

 

२. 

मिलना

 

खाकी कमीज, सफेद धोती मूँगिया पगड़ी पहने

आँखों पर मोटा चश्मा चढ़ाये

कंधे पर कपड़े लत्तों का थैला लटकाये

एक सत्तासी वर्षीय बूढा

दांए हाथ में छड़ी लिए

घर से डगमगाता निकलता है

 

बड़ी मुश्किल से बस स्टेंड पहुंचता है

बस में चढ़ता है किसी का सहारा लेकर

किसी का सहारा लेकर शहर में बस स्टेंड पर उतरता है

जहां से ऑटो पकड़कर स्टेशन पहुँचता है मुश्किल से

मुश्किल से टिकट खरीदता है

और रेल में चढ़ता है किसी का सहारा लेकर

सहारा लेकर रेल से उतरता है अपने स्टेशन पर

फिर वहाँ से ऑटो लेकर बस स्टेंड

फिर किसी का सहारा लेकर बस में चढ़ता है मुश्किल से

और सुबह का निकला तीसरे पहर बाद वहां पहुँचता है

जहां के लिए चला था

और किसी का सहारा लेकर उतर जाता है

कुछ देर सुस्ताता है बस स्टेंड पर

और डगमगाता लड़खड़ाता बीच बीच में बैठता सांस खाता

आखिरकार पहुँच जाता है

अपने नाना मामाओं के घर

जो उसके गांव से तीन सौ किलोमीटर दूर है

 

उसके बेटे पोते मना करते हैं डांटते हैं कहते हैं

कोई जरूरत नहीं कहीं जाने की बहुत हो गया मिलना मिलाना

घर में ही रहा करो

कहीं मर मरा गये तो पता भी नहीं चलेगा

 

पर वह नहीं मानता

हर साल दो साल में जिद करता है नानेरे जाने की मिल के आने की

और कभी कभी तो बिन बताये ही रवाना हो जाता है

 

ज्यादा नहीं,दो चार दिन रुकेगा यहां

सबके पास बैठेगा बोलेगा बतियायेगा

फिर जैसे आया था वैसे ही

सहारा लेता दुख पाता डगमगाता लड़खड़ाता वापस गांव चला जायेगा

सोचता हुआ

गर जिंदा रहा तो फिर मिलने आयेगा.

 

 

३. 

एक आँख कौंधती है

 

जब मैं खांसकर

भीतर घुसा घर में

लालटेन जल रही थी

आदमी खाट पर बैठा हुक्का पीता था

औरत दूध ओटाती थी चूल्हे पर

मुझे देखकर उसने घूंघट ले लिया था

मैं भी खाट पर बैठकर बतियाता रहा हुक्का पीता रहा

बाहर बहुत ठंड थी ओस गिरती थी रात गहराती थी

इस बीच औरत ने चाय बनाई दो बार

आदमी ने मुझसे खाने की पूछी तो मैने जान बूझ कर मना किया

यह जानते हुए कि रात बहुत हो गई है और वे ब्याळू कर चुके हैं

पर जब चलने को हुआ

औरत ने आदमी को हाथ के इशारे से बुलाया

फुसफुसाकर कहा- इनसे कहो भूखे न जायें

अभी रोटी सेंक देती हूँ सब्जी रखी है दस मिंट लगेंगे बस

मैने देखा,चूल्हे के पास बैठी औरत का चेहरा सामने की ओर था और दाईं आँख मुझे देख रही थी घूँघट की ओट से

 

जाहिर है वह औरत मेरी माँ नहीं थी दादी नानी मौसी बहन पत्नी प्रेमिका

कुछ भी नहीं थी

पर वह आँख आज भी मेरे ज़ेहन में कौंधती है

कोई कान में फुसफुसाता है

रोटी सेंक देती हूँ

भूखे मत जाओ.

 

 

४ 

गड़रिये

 

वह कमीज

जो पीपल के पत्तों की तरह फरफराती थी नई नई

अब कचकड़े की हो गई है

मैल के धारुओं से भरी हुई

और जूतियां

जैसे जूतियों के कंकाल

गर पांवों में न होतीं तो आप पहचान भी न पाते कि वे जूतियां हैं

और उनमें यात्राएं इतनी

कि वे सीधे चलते तो क्षितिज तक पहुँच जाते

और ऊर्ध्वगामी होते तो चाँद तक

 

वॉन गोग भारत में होते तो इनका ही चित्र बनाते

पर कितनी मुश्किल होती उन्हें

जब ये केनवास से चलती हुईं गायब हो जातीं

 

वे रुकते भी हैं

सड़क किनारे, किसी खाली खेत में

सुबह खेत मींगणियों से भरा होता है

और एक कोने में राख

और कुछ पांवों के खोज

और थोड़ा गीला उस जगह

जहाँ उन्होनें एक ऊँची उठाऊ टिकटी बनाकर

पानी का कलश रखा होगा

 

उनके पास बैठना मुश्किल है

उनमें से भेड़ों और ऊंटों की गंध आती है

उनके पास गड़रिये ही बैठते हैं

और वे स्त्रियां जो सद्यजात मेमनो को गोदी में उठाये

पीछे पीछे आ रही है

वे उन्हें प्यार करती हैं.

 

 


5.

लंबा सफर

 

वे अजमेर शरीफ से आ रहे थे

कुल दस बारह लोग थे

कुछ उम्रदराज कुछ युवा

ऊँचा पजामा कमीज पहने जालीदार टोपी लगाये दाढ़ी बढ़ाये

 

उन्हें भी हमारी तरह लम्बा सफर तय करना था

 

बीच बीच में बहस चलती

महंगाई पेट्रोल गैस

एन आर सी, सी ए ए, पाकिस्तान, देशद्रोह

बालाकोट पुलवामा सरजिकल स्ट्राइक कश्मीर तीन सौ सत्तर

जेएनयू जामिया मिलिया एएमयू सुप्रीम कोर्ट

मीडिया राम मंदिर

टुकड़े टुकड़े गैंग अवार्ड वापसी अर्बन नक्सली

मोदी राहुल शाह

कभी कभी बेहद गर्म और तुर्श

वे जैसे इसे सुनते नहीं थे

या उन्हें कुछ भी सुनाई नहीं देता था

वे अबोध और नासमझ बच्चों की तरह हमारे आस पास से गुजरते शौचालय जाते

स्टेशनों पर उतरते खाने पीने का सामान लाते

और निगाहें मिलने पर खिसियानी हँसी हँसते

वे आपस में धीमे धीमे बतियाते थे

मामू खालाजान अब्बू बड़े भाईजान अम्मी शादी अल्लाह ताला

जैसे शब्द कभी कभी सुनाई देते थे

पर बहस का शोर बढ़ने पर वे चुप हो जाते थे

सहम जाते थे

 

कई बार बहस में कुछ युवा उत्तेजना में

विपक्षी के सामने मुठ्ठियां लहराते थे

और उनकी ओर देखकर नारा लगाते थे

तब वे बाहर देखने लगते या सोने का बहाना करते

 

वैसे ट्रेन में पूरी शांति थी सफर लम्बा था

और उन्हें हमारे साथ अंत तक जाना था.

 

 

 

६.  

गायें घर नहीं जातीं

 

आँखों में अब भी करुणा है

थनों में दूध

पर गायें अब घर नहीं जातीं

 

जब उन्हें सूनी छोड़ा गया होगा पहले पहल

इधर उधर मुंह मारकर लौट आई होंगी वे

पर किसी ने भीतर नहीं लिया होगा नौहरे में

रोटी नहीं डाली होगी

पानी की भी नहीं पूछी होगी

वे बाहर ही बैठी रही होंगी चैंतरे के पास

तब भी वे कई दिनों तक लौटती रही होंगी

आँखें फिरी देखकर भी

ताड़ना पाकर भी

 

अब वे स्त्रियां तो हैं नहीं कि भूखी प्यासी मार खाती

जाती रहें जाती ही रहें

उन्होनें जाना छोड़ दिया

 

अब वे सड़कों पर रहती हैं

गऊचरे तो फाड़ लिए लोगों ने

कागज पत्तर पन्नियां उच्छिष्ट खाती हैं

कभी कभी खेतों में भी घुसती हैं

हरे के लिए

पर इस गांव के लोग उधर दौड़ाते हैं

लाठियां लेकर

उस गांव के लोग इधर दौड़ाते हैं

लाठियां लेकर

 

उन्हें वे दिन याद आते हैं

जब पहली रोटी उनके नाम की सिकती थी

और धराणी उन्हें हाथ से रोटी खिलाती थी

चारा नीरती थी

पानी पिलाती थी पुचकारती हुई

धणी हाथ फेरता था नहलाता था

सींग रंगता था छापे लगाता था

कौड़ियों की कंठी पहनाता था

घंटी लटकाता था

और वे आत्मदर्प से भरी घर लौटती थीं ग्वाल बालों के साथ

घंटी टुनटुनाती हुईं

 

कभी कभी वे भटक जाती थीं

कैसा शोर मच जाता था -

अरे शाम हो गई गाय नहीं आई

घटा घिर रही है

देखो देखो कहां रह गई

किसी ने बांध तो नहीं लिया

अरे बछड़ा रंभाये जा रहा है

 

भरे मन से याद करती हैं वे

पर घर नहीं जातीं

कैसा घर किसका घर सोचती हुईं

सड़कों पर बैठी रहती हैं जान जोखिम में डाले

 

और आर्यावर्त में मारकाट मची है उनके नाम पर

उनका राजनीतिक महत्व बढ़ गया है.

 

 

 

७. 

अठारह घर

 

हमारी गली में कुल अठारह घर हैं

दो यूपी के हैं

जिन्हें हम भैयन कहते हैं

जो बदमाश का पर्याय है

एक क्रिश्चियन है, जाने क्या तो नाम है

कहीं केरल वेरल का है

उसे हम मिशनरी कहते हैं जो धर्म परिवर्तन कराने आया है

दो एस सी हैं

दो एस टी

जिनके अगल बगल के मकान खाली पड़े हैं

कई बरस से

लेने वाला दस बार सोचता है

एक सरदार जी हैं, सदैव हँसते रहते हैं

फिर भी उन्हें हम पीठ पीछे खालिस्तानी कहते हैं

और उन पर चुटकुले सुनते सुनाते हैं

बाकी छः घर हमारे हैं

ब्राह्मण बनिए राजपूतों के

जिनके द्वार पर

जय परशुराम, जय अग्रसेन, जय माता की लिखा है

वैसे लेन अच्छी है

सब हिलमिल कर रहते हैं

और इस बात से खुश हैं

कि गली में कोई मुसलमान नहीं है.

 

 

 

८. 

तीसरा पहर बीत गया

 

तीसरा पहर बीत गया

धूप कम हो गई

चैंतरे पर छाया आ गई होगी

यही सोचकर वह बूढ़ा

बाड़े से निकलकर

धीरे धीरे लाठी टेकता

आ बैठता है नंगे बदन

 

उसे देखकर कुछ और बूढ़े

आस पास की गुवाड़ियों से निकलकर

आ बैठते हैं वहां

 

उनके बीच न्यूनतम संवाद हैं

वे आते जातों को अपनी धुंधली निगाहों से देखते हैं

कभी कभी कोई कुछ कहता है क्षीण अस्फुट स्वर में

तो सब उसकी ओर मुंह उठाकर देखते हैं चुपचाप

 

उनकी भाषा के पंख झड़ गए हैं

 

वे यहां बैठेंगे अँधेरा घिरने तक

फिर धीरे धीरे लाठी टेकते

अपने अपने घरों के उपेक्षित कोनों में चले जायेंगे

 

जहां किसी को मान से

किसी को अपमान से मिलेगी रोटी

कोई कोई भूखा भी रह जायेगा

सोचता हुआ

कि इस घर का मालिक हुआ करता था वह.

 

 

९. 

बया

 

प्रणय के लिए सबसे ज्यादा श्रम नर बया करता है

 

सबसे पहले सुरक्षित जगह तलाशता है

फिर ऐसे तिनके बटोरता है जो चुभे नहीं

मुलायम हों

गर रुक्ष हैं तो उन्हें कोमल मुलायम बनाता है चोंच से

फिर इनसे घर बनाता है

हवा पानी से महफूज

अपनी जान में सबसे सुंदर घर बनाता है

फिर मादा से प्रणय निवेदन करता है

देखो कितना सुखद आरामदायक और सुन्दर घर बनाया है मैंने

क्या तुम इसमें मेरे साथ रहना पसंद करोगी

 

यूँ तो सभी स्त्रियां मानिनी होती हैं कमोबेश

उस पर मादा बया- स्वाधीन विवेकी स्वयंवरा होती है

वह आसानी से मानती नहीं

घर देखकर बाहर आ जाती है

फिर बहुत सारे घर देखती है

 

वह घोर व्यवहारिक है

वह नर का नहीं घर का चुनाव करती है

वह घर देखकर ही जान जाती है

कि नर उससे कितना प्यार करेगा

कि बनाने वाले ने अपने प्राण उंडेल दिये हैं इसमें

 

वह ऐसे घर के भीतर

नर को चूम लेती है

कहती है- मैं इस घर में रहना पसंद करूँगी

मैं इस घर में तुम्हारे बच्चों की मां बनना पसंद करूँगी.

 

 

 १०.  
 

शुरुआत

 

सड़क दूर से दिखाई देती थी

और आती हुई मोटर

और माथे पर पोटलियां धरे लोग

फिर घर्र घर्र रुकती थी कुछ देर

फिर जाती हुई दिखाई देती थी

दूर तक दिखाई देती सड़क पर

 

वह षोड़शी नवेली

रोजाना आती हुई मोटर देखती थी

रुकती हुई

लोगों को चढ़ते उतरते देखती थी

फिर जाती हुई मोटर देखती थी

ओझल होने तक

फिर झूंपे में लौट जाती थी

आंसू पौंछती हुई

 

तीज निकल गई थी

राखी नजीक आ रही थी

उसकी सभी भायलियां

पीहर आ गईं थी

और वह गैबी

जाने नहीं दे रहा था उसे

 

उसे कहां मालूम था

कि यह तो शुरुआत थी

गैबी के मर्द होने की

उसके औरत होने की.

 

 

 

११. 

भींव जी का ऊंट

 

वह ऊंट नहीं

भींव जी का बेटा है

 

दिन भर उनके साथ आता हुआ जाता हुआ दिखाई देता है

झक्क दुपहरी में बळबळती रेत पर

गृहस्थी का बोझ उठाये

पर यह तो दिनचर्या है रोजमर्रा का काम

 

वाकये तो और हैं

 

कई बार भींव जी ने उसे गलत रस्ते पर डाल दिया

रेत की भुलावण में

रस्ते में शिकारी मिले एक बार तस्कर भी

बंदूकें लिए फौजी कई बार

 

कई बार भींव जी खुद काठी पर सो गए

अम्मल की पिनक में

पर वह सावचेत रहा

और उन्हें हर बार घर ले आया

 

बाद में जब पत्नी को ये बातें सुनाकर

भींव जी हँसते थे

तो दूर बैठा बोगाळता रहता था वह

मन ही मन हँसता हुआ

 

पर एक वाकया भारी गुजरा है उस पर

कि अब भी आँखों की कोरें भीग जाती हैं

 

रात दस के आस पास

भींव जी के बड़े बेटे ने चुपके से रास खोली उसकी

और

तीन कोस दूर एक गांव में ले गया

जहां उसे जैकार दिया एक पेड़ के नीचे

फिर खुद एक मेड़ी में घुस गया

पर लौटा नहीं

 

लाश लौटी

जिसे उन्होंने काठी से बांधकर हाँक दिया था उसे

 

यह सबसे भारी बोझ था जो उसने उठाया

यह सबसे लम्बा रास्ता था जो उसने तय किया

पांव कहीं धरता था पांव कहीं जाता था

जैसे बर्फ पर चल रहा हो

पर सुबह होते न होते घर पहुंच गया था

कोहराम मच गया था

 

फिर भूखा प्यासा पड़ा रहा था कई दिन

आखिर भींव जी ने ही उसे खिलाया पिलाया था

पीठ पर हाथ फेरते हुए रोते हुए

 

भींव जी कभी कभी उसकी पीठ पर लोद भी फटकारते हैं

जब वह एक जांटी के नीचे पांव रोप देता है

आगे नहीं बढ़ता है उन्मत्त हो जाता है

सूंघता है चारों ओर नथुने उठाये

चक्कर लगाता है

 

वह उन्हें कैसे बताये कि एक दिन

इसी जांटी के नीचे वह किसी से मिला था.

 


१२.   

पहला प्रसव

 

यह उसका पहला प्रसव था

पूरे दिन चल रहे थे उसके

और वह सुरक्षित ठाँव ढूढ़ रही थी

 

आखिर

एक निर्जन मकान की सीढ़ियों के नीचे

चली गई वह

 

एक दिन मैं गया उधर, सुबह सुबह

तो ऐसे भौंकी जैसे काट खायेगी

जबकि कितनी ही बार रोटी डाली थी उसे

 

मैंने देखा

उसके घेरे में छह बच्चे आँखें मूंदे पड़े थे निश्चिन्त

और वह चैकन्नी, बीच बीच में हिंसक ढंग से गुर्राती थी

 

मोहल्ले की स्त्रियां जचगी को जानती थीं

जानती थीं कि वह कुछ दिन बाहर नहीं निकलेगी

वे यह भी जानती थीं कि

कुछ अंग नहीं लगेगा तो दूध कहाँ से उतरेगा

और उन्होंने उसके लिए दलिया रखा सुबह शाम

 

जब बच्चों ने आँखें खोली

तो खुद पहले की तरह आने लगी

रोटी के लिए

 

एक दिन बारिश आई

तिरछी बौछार सीधी पड़ती थी सौरी पर

वह एक एक बच्चे को मुंह में दबाकर

निरापद जगह ले गई

 

अब वह बच्चों के साथ दिखती है

जहाँ जहाँ जाती है

बच्चे गुर गुर जाते हैं

लेटती है तो हुमच हुमच कर दूध पीते हैं

मोहल्ले की स्त्रियां उसे देखती हैं देर तक

 

यह उसका पहला प्रसव था

कहाँ से सीखी वह यह सब

 

मैं आश्चर्य करता हूँ

पत्नी हँसती है मुझे देखकर.

 

 

 

१३. 

कुईं और बबूल

 

कस्बे के रस्ते के लगभग अधबीच पर

एक कुईं

जिस पर दचकी मुचकी एक बाल्टी ,रस्सी से बंधी हुई

दूसरी ओर टेढ़ा बबूल

 

राहगीर आते जाते

कुईं का ठंडा मीठा पानी पीते

बबूल के नीचे बैठते बतियाते चिलम सुलगाते

स्त्रियां बच्चों को दूध पिलातीं पसीना सुखातीं

स्कूली बच्चे भी इसी कुईं पर

अपनी प्यास बुझाते

बबूल के कंधों पर चढ़ जाते उधम मचाते

फिर सब अपने अपने गंतव्य को जाते

 

अब वे दोनों स्तब्ध हैं

अब इस राह से सबने आना जाना छोड़ दिया है

सब दूर बनी सड़क से आते जाते हैं -वाहनों पर

 

कभी कभी कुईं

बबूल से ऐसी बातें कहती है-

रात मुझे ऐसा लगा

जैसे बच्चे आ गये हैं

और किसी ने मेरे भीतर बाल्टी परास दी है

जो छपाक से गिरी पानी पर

फिर खींचा उन्होनें लदर फदर

पानी छलक छलक कर मेरे ऊपर गिरता रहा

फिर मैं उन्हें देर तक

ओक से पानी पीते देखती रही

उनकी कोहनियों से पानी ढरक रहा था

उनके नेकर कमीज भीग रहे थे

फिर वे तुम्हारे ऊपर चढ़ गये और खेलते रहे

फिर मुझे तंबाखू की गंध आई

और लोगों के बतियाने की और एक बच्चे के रोने की आवाज

सुनाई दी

फिर मेरी नींद खुल गई

 

बबूल उसकी बातें सुनता है चुपचाप

और उदास आँखों से उसे देखता रहता है

उसकी उम्र हो गई है

जो उसे रोने से रोकती है.

 

  

१४.  

बसंत

 

धरती ने असंख्य फूलों की ओढ़नी ओढ़ी है

मधुमक्खियों की गुनगुन और तेलिया गंध है हवाओं में

मैं इसे देखता हूँ

कितना देती है धरती मां

फिर मां को देखता हूँ

 

जब ब्याही आई थी

क्या नहीं था उसके पास

खुंगाली गले में, हाथों में कड़ियां

दो दो सेर के कड़े पांवों में

और अब दाँतों में चूंप बची है

 

और मेरा छोटा भाई

कितना कहा था पिता ने

ठंड बहुत पड़ती है रात में ओस झरती है

पछेवड़ा ओढ़े रहना पाणत के समय

और पानी से बाहर मत निकलना यकायक

निकलते ही आग जला लेना ताप लेना

पर वह बिजली जाने पर निकला बाहर

और बबूल से टिक कर बैठ गया इंतजार में

कि अभी बिजली आ जायेगी

और बैठा ही रह गया

अकड़ गया बैठे बैठे ही

 

अब फिर बसंत है सरसों लहरा रही है चैफेर

सरकार कह रही है इस बरस बंपर पैदावार होगी

गांव में भी सब कह रहे हैं एस फसल जोरां है

और ऐसी आशा ऐसी उम्मीद पहली बार नहीं

 

घर की दीवार पर एक केलेण्डर फड़फड़ा रहा है

जिसमे खिली सरसों के बीच

किसान का रूप धरे एक अभिनेता

खिलखिला रहा है

 

और नंगी बूची मां सामने है

और छोटे भाई की बहू

जिसके मुंह की तरफ देखा भी नहीं जाता.

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