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लेखक क्यों लौटा रहे हैं अपने साहित्य अकादेमी सम्मान ?

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'एक कवि और कर ही क्या सकता है
सही बने रहने की कोशिश के सिवा.'

-----------------------------------------------वीरेन डंगवाल



प्रभात
(प्रभात  ने साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित अपनीपुस्तक'अपनों में नहीं रह पाने का गीत'के प्रकाशन पर रॉयल्टी नहीं लेने और  2010 में प्राप्त'भारतेंदु हरिश्चंद्र'पुरस्कार लौटाने का निर्णय  लिया  है)


"मुझसे मिलने आए एक हितैषी को जब मेरे पुरस्कार लौटाने के निर्णय का पता चला तो उन्होंने कई तीखे सवाल उठाए. उन्होंने कहा- इससे क्या होगा, जिन्हें तुम पुरस्कार लौटा रहे हो, इन्होंने थोड़े ही तुम्हें पुरस्कार दिया है. ये तो यही कहेंगे कि बढि़या है लौटा दो, हम तो तुम्हें पुरस्कार के काबिल ही नहीं समझते.

उनका दूसरा सवाल था कि सत्ता में आकर वे जो कर रहे हैं उससे अब तुम्हें क्या परेशानी है. वे बहुमत पाकर आए हैं. उन्हें जनता ने अपनी विचाराधरा लागू करने के लिए चुनकर भेजा है. अब वे अपनी विचाराधारा को लागू कर रहे हैं तो इसमें गलत क्या कर रहे हैं? तुम्हारे प्रतिरोध का ये तरीका और ये समय गलत है. लोकतंत्र में प्रतिरोध का तरीका वोट होता है. तुम्हें वोट के समय प्रतिरोध करना चाहिए.

तीसरी बात उन्होंने कही-दादरी जैसी घटनाओं का विरोध करने से क्या होगा. वे तो चाहते ही हैं तुम जो भी ऐसी हिंसा के विरोधी हो, सामने आ जाओ. इससे तो उनके साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करने की प्रक्रिया को बल ही मिलेगा. क्योंकि बहुसंख्यक हिन्दू तो यही चाहता है कि अल्पसंख्यकों के खिलाफ जो हो रहा है ठीक हो रहा है.

मैंने कहा-एक लेखक को उसके घर में घुसकर मार दिया गया है. तत्काल इस हिंसा के प्रतिरोध का मेरे पास क्या तरीका है?’

वे बोले-इसके लिए लम्बा और जमीनी स्तर पर काम करने की जरूरत है?’

मैंने कहा- दाभोलकर और पनसारे जैसे लोग जो जमीनी स्तर पर काम कर रहे थे. उनको मार दिया है. असहिष्णु ताकतों ने जमीनी स्तर पर काम कर रहे लोगों को मारना शुरू कर दिया है.
मैंने उन्हें अपनी व्यथा बताते हुए कहा-सर मैं एक किसान परिवार से हूँ. मेरे बचपन में हमारे घर में चैबीस गायें, आठ बैल और दो भैंसे हुआ करती थी. और जितनी खेती हुआ करती थी, उससे परिवार को किसी आगे हाथ नहीं फैलाना पड़ता था. सरकारों की कापरपोरेट जगत को बढ़ावा देने वाली आर्थिक नीतियों ने सब कुछ छीन लिया है. अब गांव में हमारा घर भुतहा हो गया है. वहां एक भी पशु नहीं है. गौ-पालकों को आत्महत्या के कगार पर पहुँचा दिया है और अब गाय के नाम पर राजनीति की जा रही है.

उनका फोन आ गया और वे चले गए.

पिछले दिनों शिक्षकों के एक प्रशिक्षण में बाल साहित्य पर आधारित एक सत्र मुझे लेना था. मुझे एक कहानी सुनानी थी. मैंने बोलना शुरू किया-‘‘मैं जो कहानी सुनाने जा रहा हूँ, रूसी लेखक लियो टाल्सटाय की लिखी हुई है. इसका शीर्षक है-खुमिया.एक शिक्षक ने मुझे यह कहते हुए रोक दिया कि विदेशी लेखक की कहानी क्यों सुना रहे हो. हमारे देश में क्या लेखक नहीं है. हम विश्वगुरू रहे हैं. हमारे ऊपर विदेशी विचारधारा क्यों थोपी जा रही है?’ इस तरह मुझे टाल्सटाय की कहानी नहीं सुनाने दी गई. सत्र का माहौल न बिगड़े, मैंने भी बहुत आग्रह नहीं किया. उस दिन के बाद से यह घटना मुझे मथती रही. इस तरह तो दुनिया के कितने ही लेखकों को पढ़ने सराहने से वंचित हो जाना पड़ेगा. लगभग पैंतालीस से पचास शिक्षितों के समूह में कोई भी मेरा साथ देने के लिए यह कहने वाला वहाँ नहीं था कि दुनिया के एक महान लेखक की कहानी सुनाने से मुझे आखिर क्यों रोका जा रहा है?

क्या दुनिया के तमाम महान् विचारक, कलाकार और लेखकों की रचनाओं से हमें इसलिए वंचित होना होगा कि वे भारतवर्ष में नहीं जन्मे है."

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मृत्युंजय प्रभाकर

सेवा में
,
अध्यक्ष
साहित्य अकादेमी
नई दिल्ली

मैं आपको इस पत्र की मार्फ़त यह इतल्ला करना चाहता हूँ (जिसकी कॉपी अकादेमी को मेल कर चुका हूँ) कि मैं देश में आम लोगों की व्यक्ति स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और विचारों की स्वतंत्रता के दमन और श्री कलबुर्गी की नृशंस हत्या के बाद भी अकादेमी द्वारा उसकी कठोर निंदा न करने और लेखकों के विरोधस्वरुप अकादेमी पुरस्कार लौटाने के बाद बेहद ही लचर रूप में अपनी बात रखने के विरोध स्वरुप साहित्य अकादेमी द्वारा नवोदय श्रृंखला के अंतर्गत छापी गई मेरी पहली कविता पुस्तक 'जो मेरे भीतर हैं'को अकादेमी से वापस लेने की घोषणा करता हूँ.

एक ऐसे वक़्त में जब आधुनिक सभ्यता की नींव बनी तार्किकता और वैज्ञानिक सोच पर देश भर में संघ गिरोह और उसकी समर्थित सरकार के द्वारा जबरदस्त हमले हो रहे हों, देश के नागरिकों के फंडामेंटल राइट्स को नकारा जा रहा हो और देश भर में विष-वपन का खेल केंद्र सरकार की देख-रेख में निर्बाध रूप से जारी हो, ऐसे में जब लेखकों की सर्वोच्च संस्था लचर और लाचार नजर आए, जनता के हितों के पक्ष में आवाज न उठाए, तो उस संस्था से किसी भी तरह का संबंध रखना मुझ जैसे लेखक के लिए कहीं से भी तर्कसम्मत नजर नहीं आता.

उम्मीद है अकादेमी मेरी इस घोषणा के बाद मेरी पुस्तक 'जो मेरे भीतर हैं'के प्रकाशन और विपणन से खुद को अलग कर लेगी.

सधन्यवाद
मृत्युंजय प्रभाकर

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कुमार अंबुज



'साहित्य अकादमी पुरस्कार वापस करने का एक राजनीतिक अर्थ है' -कुमार अंबुज


लेखकों द्वारा सम्मान या पुरस्कार वापस करने संबंधी कुछ सवाल भी सामने आए हैं. इस संदर्भ में कुछ बातें, एक पाठक, लेखक और नागरिक के रूप में, कहना उचित प्रतीत हो रहा हैः

1.पुरस्कार वापस करने संबंधी तकनीकी दिक्कतें हो सकती हैं, यानी प्रदाता संस्था उसे वापस कैसे लेगी, प्रावधान क्या हैं, राशि किस मद में जमा होगी, इत्यादि. उसका जो भी रास्ता हो, वह खोजा जाए लेकिन समझने में कोई संशय नहीं होना चाहिए कि यह एक प्रतिरोध और प्रतिवाद की कार्यवाही है. तमाम तकनीकी कारणों से भले ही यह प्रतीकात्मक रह जाये किंतु इसके संकेत साफ हैं. यह एक सुस्पष्ट घोषणा है कि हम सत्ता की ताकत और आतंक से व्यंथित हैं. हम विचार, विवेक, बुद्धि के प्रति हिंसा के खिलाफ हैं. अभिव्यक्ति की असंदिग्ध स्वतंत्रता के पक्ष में हैं, सांप्रदायिकता और धार्मिक उन्माद की राजनीति के विरोध में हैं. लोकतांत्रिकता और बहुलतावाद को इस देश के लिए अनिवार्य मानते हैं. इसलिए सम्मान-पुरस्कार वापस किए जाने की यह मुहिम बिलकुल उचित है, इस समय की जरूरत है.

2.कहा जा रहा है कि सम्मान राशि को ब्याज सहित वापस किया जाना चाहिए. और उस यश को भी वापस करना चाहिए, जैसे प्रश्न उठाए गए हैं. लेखक को जो राशि सम्मान में दी गई थी वह किसी कर्ज के रूप में नहीं दी गई थी और न ही उसे ऋण की तरह लिया गया था. वह सम्मान में, सादर भेंट की गई थी. इसलिए उस पर ब्याज दिए जाने जैसी किसी बात का प्रश्न ही नहीं उठता. जब तक वह सम्मान लेखक ने अपने पास रखा, उसे ससम्मान रखा, उसके अधिकार की तरह रखा. वह उसकी प्रतिभा का रेखांकन और एक विशेष अर्थ में मूल्यांनकन था. वह किसी की दया या उपकार नहीं था. यश तो लेखक का पहले से ही था बल्कि अकसर ही सम्मान और पुरस्कार भी लेखकों से ही यश और गरिमा प्राप्त करते रहे हैं. इसलिए इन छुद्र, अनावश्यक बातों का कोई अर्थ नहीं है.

3.यदि इन सम्मानों को वापस करना राजनीति है तो निश्चित ही उसका एक राजनीतिक अर्थ भी है. लेकिन यह राजनीति वंचितों, अल्पसंख्यकों के पक्ष में है. यह राजनीति इस देश के संविधान, प्रतिज्ञाओं, पंरपरा और बौद्धिकता के पक्ष में है. यह राजनीति इस देश के लोकतांत्रिक स्वरूप को बनाए रखने के लिए, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, नागरिक अधिकारों के लिए है. राष्ट्रवाद के नाम पर देश को तोड़ने के खिलाफ है, इस देश में फासिज्म लाने के विरोध में है.

4. जो कह रहे हैं कि आपातकाल या 1984 के दंगों के समय ये सम्मान वापस क्यों नहीं किए गए, उन्हें याद रखना चाहिए कि तब देश में इस कदर दीर्घ वैचारिक तैयारी के साथ, इतने राजनैतिक समर्थन के साथ अल्पसंख्यकों और विचारकों की सुविचारित हत्याएँनहीं की गई थी. तब कहीं न कहीं यह भरोसा था कि चीजें दुरुस्त होंगी, अब यह भरोसा नहीं दिख रहा है. यह हिंसा अब राज्य द्वारा प्रायोजित और समर्थित है. पहले इस तरह की हिंसा का कोई दीर्घकालीन एजेण्डा नहीं था, अब वह एजेण्डा साफ नजर आ रहा है. पहले एक धर्म, एक विचार और एक संकीर्णता को थोपने की कोशिश नहीं थी, अब स्पष्ट है. जब विश्वामस खंडित हो जाता है और जीवन के मूल आधारों, अधिकारों पर ही खतरा दिखता है तब इस तरह की कार्यवाही स्वात:स्फूआर्त भी होने लगती है. लेखक एक संवेदनशील, प्रतिबद्ध और विचारवान वयक्ति होता है. उस बिरादरी के अनेक लोगों के ये कदम बताते हैं कि देश के सामने अब बड़ा सकंट है.

तो सामने फासिज्म का खतरा साकार है. एक साहित्यिक रुझान के व्यक्ति और नागरिक की तरह मैं इन सब लेखकों के साथ भावनात्मक रूप से ही नहीं, तार्किक रूप से खड़ा हूँ. और इसके अधिक व्यापक होने की कामना करता हूँ. (साभार- जनपक्ष)

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लेखकों - कलाकारों द्वारा पुरस्कार वापसी पर जन संस्कृति मंच का बयान

न संस्कृति मंच उन तमाम साहित्यकारों, कलाकारों और संस्कृतिकर्मियों का स्वागत करता है जिन्होंने देश में चल रहे साम्प्रदायिकता के नंगे नाच और उस पर सत्ता-प्रतिष्ठान की आपराधिक चुप्पी के खिलाफ साहित्य अकादमी और संगीत नाटक अकादमी के पुरस्कारों तथा पद्मश्री आदि अलंकरण लौटा दिए हैं. जन संस्कृति मंच साहित्य अकादमी की राष्ट्रीय परिषद् तथा अन्य पदों से इस्तीफा देनेवाले साहित्यकारों को भी बधाई द्देता है जिन्होंने वर्तमान मोदी सरकार के अधीन इस संस्था की कथित स्वायत्तताकी हकीकत का पर्दाफ़ाश कर दिया है. जिस संस्था के अध्यक्ष इस कदर लाचार हैं कि प्रो. कलबुर्गीजैसे महान साहित्य अकादमी विजेतालेखक की बर्बर ह्त्या के खिलाफ अगस्त माह से लेकर अबतक न बयान जारी कर पाए हैं और न ही दिल्ली में एक अदद शोक-सभा तक का आयोजन, उस संस्था की स्वायत्तताकितनी रह गयी है? आखिर किस का खौफ उन्हें यह करने से रोक रहा है? के. सच्चिदानंदन द्वारा उनको लिखा पत्र सबकुछ बयान कर देता है, जिसका उत्तर तक देना उन्हें गवारा न हुआ. सितम्बर के पहले हफ्ते में भी विभिन्न साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठनों के प्रतिनिधि अकादमी के अध्यक्ष से दिल्ली में मिले थे और उनसे आग्रह किया था कि प्रो.कलबुर्गीकी शोक-सभा बुलाएं. आज तक उन्होंने कुछ नहीं किया.

भारतीय इतिहास अनुसन्धान परिषद् हो या पुणे का फिल्म इंस्टिट्यूट, नेहरू मेमोरियल लाइब्रेरी हो या भारतीय विज्ञान परिषद्, आई.आई.एम और आई.आई.टी जैसे प्रतिष्ठित संस्थान हों अथवा तमाम केन्द्रीय विश्विद्यालयतथा राष्ट्रीय महत्त्व के ढेरों संस्थान शायद ही किसी की भी स्वायत्तता नाममात्र को भी साम्प्रदायिक विचारधारा और अधिनायकवाद के आखेट से बच सके. ऐसे में साहित्य अकादमी की स्वायत्तता की दुहाई देकर अकादमी पुरस्कार लौटानेवालों को नसीहत देना सच को पीठ दे देना ही है.

२०१४ के लोकसभा चुनाव के ठीक पहले मुज़फ्फरनगर में अल्पसंख्यकों के जनसंहार के बाद से लेकर अब तक हत्याओं का निर्बाध सिलसिला जारी है. पैशाचिक उल्लास के साथ हत्यारी टोलियाँ दादरी जिले के एक छोटे से गाँव में गोमांस खाने की अफवाह के बल पर एक निरपराध अधेड़ मुसलमान का क़त्ल करने से लेकर पुणे-धारवाड़-मुंबई-बंगलुरु जैसे महानगरों तक अल्पसंख्यकों, लेखकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का आखेट करती घूम रही हैं. बुद्धिजीवियों, कलाकारों, पत्रकारों के नाम पर डेथ वारंटजारी कर रही हैं. घटनाए इतनी हैं कि गिनाना भी मुश्किल है. इनके नुमाइंदे टी.वी. कार्यक्रमों में प्रतिपक्षी विचार रखनेवालों को बोलने नहीं दे रहे, खुलेआम धमकियां और गालियाँ दे रहे हैं. सोशल मीडिया पर इनके समर्थक किसी भी लोकतांत्रिक आवाज़ का गला घोंटने और साम्प्रदायिक घृणा का प्रचार करने में सारी सीमाएं लांघ गए हैं. कारपोरेट मीडिया का एक बड़ा हिस्सा इन कृत्यों को चंद हाशिए के सिरफिरे तत्वों का कारनामा बताकर सरकार की सहापराधिता पर पर्दा डालना चाहता है.

क्या इन कृत्यों का औचित्य स्थापन करनेवाले सांसद और मंत्री हाशिए के तत्व हैं? लेकिन छिपाने की सारी कोशिशों के बाद भी बहुत साफ़ है कि इतनी वृहद योजना के साथ पूरे देश में, कश्मीर से कन्याकुमारी तक, असम से गुजरात तक निरंतर चल रहे इस भयावह घटनाचक्र के पीछे सिर्फ चन्द सिरफिरे हाशिए के तत्वों का हाथ नहीं, बल्कि एक दक्ष सांगठनिक मशीनरी और दीर्घकालीन योजना है. उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में १६ मई, २०१४ के बाद से सैकड़ों छोटे बड़े दंगे प्रायोजित किए जा चुके हैं. खान-पान, रहन-सहन, प्रेम और मैत्री की आज़ादी पर प्रतिबन्ध लगाए जा रहे हैं. गुलाम अली के संगीत का कार्यक्रम आयोजित करना या पाकिस्तान के पूर्व विदेशमंत्री की पुस्तक का लोकार्पण आयोजित कराना भी अब खतरों से खेलना जैसा हो गया है. त्योहारों पर खुशी की जगह अब खौफ होता है कि न जाने कब, कहाँ क्या हो जाए. भारत एक भयानक अंधे दौर से गुज़र रहा है. अभिव्यक्ति ही नहीं, बल्कि जीने का अधिकार भी अब सुरक्षित नहीं.

आज़ाद भारत में पहली बार एक साथ इतनी तादाद में लेखकों-लेखिकाओं और कलाकारों ने सम्मान, पुरस्कार लौटा कर और पदों से इस्तीफा देकर सत्य से सत्ता के युद्धमें अपना पक्ष घोषित किया है. यह परिघटना ऐतिहासिक महत्त्व की है क्योंकि सम्मान वापस करनेवाले लेखक और कलाकार दिल्ली, केरल, कर्नाटक, गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब, उत्तराखंड, बंगाल, कश्मीर आदि तमाम प्रान्तों के हैं. वे कश्मीरी, हिन्दी, उर्दू, मलयालम, मराठी, कन्नड़, अंग्रेज़ी, बांगला आदि तमाम भारतीय भाषाओं के लेखक-लेखिकाएं हैं. उनका प्रतिवाद अखिल भारतीय है. उन्होंने अपने प्रतिवाद से एक बार फिर साबित किया है कि सांस्कृतिक बहुलता और सामाजिक समता और सदभाव, तर्कशीलता और विवेकवाद भारतीय साहित्य का प्राणतत्व है. रूढ़िवाद और यथास्थितिवाद का विरोध इसका अंग है. इन मूल्यों पर हमला भारतीयता की धारणा पर हमला है. हमारी आखों के सामने अगर एक पैशाचिक विनाशलीला चल रही है, तो उसका प्रतिरोध भी आकार ले रहा है. हमारे लेखक और कलाकार जिन्होंने यह कदम उठाया है, सिर्फ इन मूल्यों को बचाने की लड़ाई नहीं, बल्कि भविष्य के भारत और भारत के भविष्य की लड़ाई को छेड़ रहे हैं.

आइये , उनका साथ दें और इस मुहिम को तेज़ करें.
राजेन्द्र कुमार( अध्यक्ष जन संस्कृति मंच ) प्रणय कृष्ण,(महासचिव,जन संस्कृति मंच)



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साहित्य  अकादेमी  के  अध्यक्ष  विश्वनाथ प्रसाद  तिवारी की प्रेस विज्ञप्ति 

















अकादेमी सम्मान लौटने वाले लेखकों की सूची

1Uday Prakash -(Hindi writer)

2Nayantara Sahgal -Indian English writer
3Ashok Vajpeyi -Hindi poet
4Sarah Joseph -Malayalam novelist
5Ghulam Nabi Khayal-Kashmiri writer

6Rahman Abbas -Urdu novelist

7Waryam Sandhu -Punjabi writer
8Gurbachan Singh Bhullar -Punjabi writer
9Ajmer Singh Aulakh -Punjabi writer
10Atamjit Singh -Punjabi writer

11GN Ranganatha Rao -Kannada translator

12Mangalesh Dabral-Hindi writer
13Rajesh Joshi -Hindi writer
14Ganesh Devy -Gujarati writer
15Srinath DN -Kannada translator

16Kumbar Veerabhadrappa -Kannada novelist

17Rahmat Tarikere -Kannada writer
18Baldev Singh Sadaknama -Punjabi novelist
19Jaswinder -Punjabi poet
20Darshan Battar -Punjabi poet

21Surjit Patar -Punjabi poet

22Chaman LalPunjabi translator
23Homen Borgohain -Assamese journalist
24Mandakranta Sen-Bengali poet
25Keki N Daruwalla-Indian English poet  etc.
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अकादेमी के पदों को छोड़ने वाले लेखकों की सूची

1Shashi Deshpande -Kannada author
2K Satchidanandan-Malayalam poet
3PK Parakkadvu-Malayalam writer
4Aravind Malagatti -Kannada poet  etc

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