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पेंटिग : Robert Rauschenberg |
कविता लघुतम दूरी तय करके भाषा के संभव उच्चतम स्तर तक पहुचने की कोशिश करती है. कवि जोसेफ ब्रादस्की कविता को कब्र पर लिखे कुतबे की संतान इसीलिए कहते हैं. कविता में सूत्रता रहती है. अविनाश मिश्र की कविताएँ अनुभव और अनुभूति को व्यक्त करने के इसी घनीभूत रास्ते पर हैं. इनमें से कुछ कविताएँ तो अक्षर और मात्राओं पर हैं. विद्रूप को उसकी भयावहता में व्यक्त करने के लिए वह अपनी शैली लाउड नहीं करते. कविता में भाषा का कौतुक सृजनात्मक है और उसका एक गहरा सामाजिक अर्थात भी है. ये तेरह कविताएँ खास आपके लिए.
एक अखबार : तेरह कविताएं
अविनाश मिश्र
कल और आज मैं उस दर्द के बारे में सोचता रहा
मूलतः कवि
आततायियों को सदा यह यकीन दिलाते रहो
कि तुम अब भी मूलतः कवि हो
भले ही वक्त के थपेड़ों ने
तुम्हें कविता में नालायक बनाकर छोड़ दिया है
बावजूद इसके तुम्हारा यह कहना
कि तुम अब भी कभी-कभी कविताएं लिखते हो
उन्हें कुछ कमजोर करेगा
*
विवश होकर
मैं महानगरीय संस्कृति को कुछ इस तर्ज पर पाना चाहता था
कि वहां बेरोजगारों का भी मन लगा रहे
और इसलिए मैं एक अवसाद पर एकाग्र होना चाहता था
लेकिन विवश होकर मुझे एक पत्रकार बनना पड़ा
बाद इसके सच को व्यक्त करने में ज्यादा समय लगता हैया झूठ को
यह सोचने का भी वक्त नहीं बचा मेरे पास
अब वह वक्त याद आता है जब वक्त था
और एक ऐसे घर की भी याद आती है
जो कहीं कभी था ही नहीं
और कभी-कभी वे स्थानीयताएं भी बेतरह याद आती हैं मुझको
जहां मैं एक पुनर्वास में बस गया था
इतने निर्दोष और बालसुलभ प्रश्न थे मेरे नजदीक
कि मैं उत्तरों पर नहीं केवल विकल्पों पर सोचा करता था
*
में
अखबार में चरित्र होना चाहिए
चरित्र में कविता
कविता में भाषा
और भाषा में अखबार
*
दो
माता ऐसी दो जैसी दूसरी न हो
पिता ऐसा दो जो सदा घर से बाहर हो
पत्नी ऐसी दो जो मनोरमा हो
पति ऐसा दो जो श्रवणशील हो
बहन ऐसी दो जो चरित्रचिंतणी हो
भाई ऐसा दो जो शुभाकांक्षी हो
विचार ऐसा दो कि कुछ विवाद हो
और अखबार ऐसा दो कि दिन बर्बाद हो
*
शोर का कारोबार
वहां बहुत शोर था और बहुत कारोबार
ऐसे में कविताएं रचने के लिए
मैं अतीत में जाना चाहता था
हालांकि गरीबी गर्वीली नहीं थी मेरे लिए
मुझे उससे भयंकर घृणा थी
ऐसे में कविताएं रचने के लिए
मैं अतीत में जाना चाहता था
हालांकि प्रेम पवित्र नहीं था मेरे लिए
मुझे उससे बस आनंद की गंध आती थी
ऐसे में कविताएं रचने के लिए
मैं अतीत में जाना चाहता था
इस कदर अतीत में कि
मुझे आग के लिए पत्थरों की जरूरत पड़ती
और शिश्न ढंकने के लिए पत्तों की
*
हिंदी से भरे हुए कुएं में
यह एक बहुत प्राचीन बात है
सब सत्तावंचित सत्ता से घृणा करते हैं
लेकिन भाषाएं हथियार नहीं होतीं
यह एक बहुत प्राचीन बात है
भाषाएं स्वार्थ को नष्ट करती हैं
और आदर्श लक्ष्य को
यह एक बहुत प्राचीन बात है
भाषाएं समावेशी और मार्गदर्शक होती हैं
लेकिन उदारताएं अंततः भ्रष्ट हो जाती हैं
यह एक बहुत प्राचीन बात है
सुख को सार्वभौमिक कर दो
और दुःख को सीमित
यह एक बहुत प्राचीन बात है
यह एक कुएं का जल कहता था
यह उस कुएं में मेंढकों के आगमन से पूर्व की बात है
*
अच्छी खबर
वे खबरें बहुत अच्छी होती हैं
जिनमें कोई हताहत नहीं होता
आग पर काबू पा लिया गया होता है
और सुरक्षा व बचावकर्मी मौके पर मौजूद होते हैं
वे खबरें बहुत अच्छी होती हैं
जिनमें तानाशाह हारते हैं
और जन साधारणता से ऊपर उठकर
असंभवता को स्पर्श करते हैं
वे खबरें बहुत अच्छी होती हैं
जिनमें मानसून ठीक जगहों पर
ठीक वक्त पर पहुंचता है
और फसलें बेहतर होती हैं
वे खबरें बहुत अच्छी होती हैं
जिनमें स्थितियों में सुधार की बात होती है
जनजीवन सामान्य हो चुका होता है
और बच्चे स्कूलों को लौट रहे होते हैं
वे खबरें बहुत अच्छी होती हैं
इतनी अच्छी कि शायद खबर नहीं होतीं
इसलिए उन्हें विस्तार से बताया नहीं जाता
लेकिन फिर भी वे फैल जाती हैं
*
उप संपादिका
वह अक्सर पूछती है :
अकसर में आधा ‘क’ होता है कि पूरा
मैं बिल्कुल भ्रमित हो जाता हूं
बिलकुल में आधा ‘ल’ होता है कि पूरा
अक्सर बिलकुल
बिल्कुल अकसर
*
समाचार संपादक
इराक में छोटी ‘इ’
और ईरान में बड़ी ‘ई’
कुछ मात्राएं शाश्वत होती हैं
कभी नहीं बदलतीं
जैसे
तबाही का मंजर
*
उ ऊ
करुणा बहुत बड़ा शब्द है
लेकिन मात्रा उसके ‘र’ में
छोटे ‘उ’ की ही लगती है
रूढ़ि बहुत घटिया शब्द है
लेकिन मात्रा उसके ‘र’ में
बड़े ‘ऊ’ की लगती है
जो जागरूक नहीं होते
वे जागरूक के ‘र’ में
छोटा ‘उ’ लगा देते हैं
लेकिन जागरूक होना बेहद जरूरी है
और इसकी शुरुआत होती है
जागरूक के ‘र’ में बड़ा ‘ऊ’ लगाने से
और अगर एक बार यह जरूरी शुरुआत हो गई
तब फिर शुरुआत के ‘र’ में
कोई बड़ा ‘ऊ’ नहीं लगाता
और न ही जरूरी के ‘र’ में छोटा ‘उ’
*
सांप्रदायिक वक्तव्य
‘सांप्रदायिक’ मैं हमेशा गलत लिखता हूं
और ‘वक्तव्य’ भी
सांप्रदायिक वक्तव्य मैं गलत लिखता हूं
मैं गलत लिखता हूं सांप्रदायिक वक्तव्य
*
मैंने कहा
मैंने कहा : साहस
उन्होंने कहा : अब तुम्हारे लायक यहां कोई काम नहीं
मैंने कहा : एक इस्तीफा भी रचनात्मक हो सकता है
उन्होंने कहा :‘रचनात्मकता’ वह तो कब की खत्म कर चुके हम
अब केवल इस्तीफा ही बचा है तुम्हारे पास
*
नहीं
कल और आज मैं उस दर्द के बारे में सोचता रहा
जो मेरे लिए नहीं बना
और इस अवधि में मैंने तय किया
बहुत जल्द मैं अपना बहुत कुछ निरस्त कर दूंगा
ऐसा मैं पहले भी करता आया हूं
शीर्षक नहीं पंक्तियों से प्यार है मुझे
कि मैं जिन्हें समझने के स्वगत में हूं
संभवत: मैं उन्हें उसी रूप में चाहता हूं
जिसमें स्वीकार नहीं
जिजीविषा की अंतिम कथा-सा
जिसे मैं शब्द न दे सका
वह भी यथार्थ था
पाप के बाद प्रायश्चित जितना निरर्थक
वह भी
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तस्वीर सौजन्य : Sushil Krishnet |
(इसमें से कुछ कविताएँ 'जलसा'में भी प्रकाशित हैं.)
अविनाश मिश्र :
darasaldelhi@gmail.com
उपसंपादक पाखी
अविनाश मिश्र :
darasaldelhi@gmail.com
उपसंपादक पाखी