Quantcast
Channel: समालोचन
Viewing all articles
Browse latest Browse all 1573

सबद भेद : सिनेमा और कश्मीर : नीतू तिवारी

$
0
0



















फिल्में केवल मनोरजंन का साधन नहीं हैं, वे एक तरह से जिंदा इतिहास भी हैं.सवाल यह है कि   बरतने वाला कितने वस्तुनिष्ठ ढंग से इसे निर्मित कर रहा है.फिल्मों पर गम्भीर और शोधपरक ढंग से लिखने वाले युवा समीक्षकों में नीतू तिवारी ने इधर ध्यान खींचा है.कश्मीर को फिल्मों और डाक्यूमेंट्री में जिस तरह चित्रित और प्रस्तुत किया जा रहा है, उसकी तीक्ष्ण विवेचना आप यहाँ पायेंगे.


जेहलम-जेहलम ढूँढे किनारा                                
नीतू तिवारी  



काँग्रेस ने राजनीतिक स्वतन्त्रता जीती है,लेकिन अभी भी आर्थिक,सामाजिक और नैतिक स्वतन्त्रता को जीतना बाकी है....इन आज़ादियों को पाना राजनीतिक स्वतन्त्रता अर्जित करने से कहीं अधिक कठिन होगा.”
(गाँधी जी का कथन,फ़्रोम राज टु स्वराज – बी.डी.गर्ग,पेंगुइन बुक्स,पहला संस्कारण,2007,नई दिल्ली,पृ-134)

आज़ादी की बड़ी वाली तस्वीर के भीतर सिमटती इन छोटी-छोटी आज़ादियों का अस्तित्व एक परेशान कर देने वाली उपस्थिती है. जिसकी ओर गाँधी के इंगित किए जाने के बावजूद अभी तक पूरक सफलता मिल पाई हो,ऐसा नहीं है. तो अनिश्चितताओं से घिरे राजनीतिक समय की अभिव्यक्ति सिनेमा किस प्रकार कर रहा है?क्या नए बनते राष्ट्र ने ऐसी आधिकारिक रियायतें दीं जिनसे सिने-माध्यमों ने सत्यकी विराट और व्यापक परिधि को समो लेने वाली पटकथाएँ रचीं?और एक से अधिक विधाओं में मौजूद भारतीय सिनेमा के अनेक सत्यवाली कहानियाँ कितनी निष्पक्ष और राज्यसत्ता समर्थित बनीं? ‘अनेकता में एकताजैसी राष्ट्रीय भावना से टकराने वाली घटनाओं का, अन्य पहचानोंका कितना नोटिस हमारे सिनेमा में लिया जाता है? यह सभी प्रश्न अपनी खुदबुदाहट में इस पर्चे का रूप ले पाये हैं. सिनेमा की प्रचलित चौहद्दियों के बाहर विचलनके सिनेमा और मुख्यधारा के अलावा दूसरी सबसे पारंपरिक सिने-पहचान के रूप में डॉक्युमेंट्री फ़िल्मों का एक ही विषय पर किया गया संक्षिप्त अध्ययन है.

किस तरफ हैं आप?”
याद है वो सवाल जो हैदर में उठा था?
गज़ाला के इस सवाल पर पलटकर डॉ. मीर का जवाब आता है “ज़िंदगी की.(तरफ)
यह एक दंपति के बीच उठे सवाल-जवाब हैं.

Image credit:  Red Ant FIlms

किसी भी सामान्य से घर में मौजूद होने वाला आपसी वार्तालाप. लेकिन देशकाल और आबोहवा इस साधारण से लगने वाले संवाद को अपना व्यापक अर्थ देती हैं. जो जाकर सीधा जुड़ जाता है हर उस व्यक्ति से जिसे अपना पक्ष तय करना अभी बाक़ी है. जिसको अभी वो सबकुछ तय करना बाक़ी है जिसे लेकर देश का मीडिया,बुद्धिजीवी और तमाम लोग अपना पक्ष रख रहे हैं. लेकिन लोकतंत्र की सबसे बुनियादी नींव को नहीं पता कि प्राइम टाइम के बाद वो राष्ट्रीयता का टैक्स्ट कहाँ से ढूँढे? 40 से 50 मिनट की बैठक और बहस में कौन गलत कौन सही का फैसला होकर देश की राज्यसत्ता के प्रति वफ़ादारी साबित हो सकती है. लेकिन इन बहसों में जो साबित नहीं हो सकता या जो दो जमा दो का हासिल नहीं है. उसे कैसे समझा जाये?अपने आपको दुनिया का सबसे बड़ा और पुराना सिनेमाई देश मानने वाले हम,अपने विवादित हिस्सों की कहानी कितने अंदरूनी दर्द से बुन सकते हैं ? कश्मीर के हालात को समझने के लिए जब हम स्त्रोत ढूँढते हैं तो वे किताबें,लेख,पत्रिकाएँ,व्याख्यान आदि के रूप में बिखरे पड़े हैं. पर सिनेमा को अपना प्राथमिक स्त्रोत मानने वाले विद्यार्थियों के सामने यह एक कठिन चुनौती है. जो वास्तविक स्थितियों को समझने के लिए सिनेमाई कहानियों में सूत्र खोजते हैं या कम से कम सौ साल पुराने इतिहास में से राष्ट्रीय स्तर पर संवेदनशील मुद्दों के दस्तावेजीकरण की उम्मीद रखते हैं.

हम सिनेमा को इतिहास की समझ बनाने वाले दस्तावेज़ के रूप में नहीं बल्कि मनोरंजन और कला-माध्यम तक उसे सीमित करने वाले समाज हैं. जिनमें अभी तक फ़िल्मों के बारे में राय हल्के-फुल्के ढ़ंग से बना ली जाती है. लेकिन चाक्षुष माध्यम होने के कारण इसके प्रभाव दर्शक को जिस भावानुभूति और अनुभव से जोड़ते हैं,वह भोगे हुए का पर्याय बन सकता है. इस तरह सीमित अर्थ में ही सही पर यह अनुभवजनित सूचनाएँ मिलकर किसी विषय पर हमारी पक्षधरता का आधार हो सकती हैं. यह एक तरह का फिल्म-जर्नलिज़्म हुआ. जो फिल्में अनदेखे-अनसुने को ठीक आपके बगल में बिठा कर आपको बेचैन कर सकती हैं. यूँ तो  विश्व-सिनेमा में दूसरे ग्रहों से पृथ्वी की सुरक्षा करते कई काल्पनिक आख्यान रचे गए हैं. लेकिन उन फिल्मों का भी एक बड़ा हिस्सा है जो मानवीय इतिहास के सबसे बड़े नरसंहार,भीषण विश्व-युद्ध और जर्मन होलोकास्ट जैसे रक्त सने चित्रों को भी विभिन्न दृष्टियों से फिल्माते हैं. लेकिन इस तर्ज़ पर भारत में घटी लगभग सभी संवेदनशील घटनाएँ भारतीय सिनेमा से नदारद हैं,प्रतिबंधित हैं. कश्मीर और उस जैसे विवादित/नाज़ुक प्रान्तों जैसे कि उत्तर-पूर्वी प्रदेश या नक्सलवाद के प्रभाव वाले इलाकों की कहानियाँ या तो हमारे सिनेमा में हैं नहीं. अगर हैं भी तो वहाँ की ज़मीनी ज़िम्मेदारी से मुक्त हैं. इसलिए सिनेमा की हिस्ट्री रीडिंगके लिए हमारा पहला सवाल होना चाहिए कि सिनेमा अपनी कहानियों में खोजता क्या है?जुड़ाव या ज़िम्मेदारी.

हिन्दुस्तानी सिनेमा में ऐतिहासिक संदर्भों की खोजबीन या उस नज़र से फ़िल्मों का अध्ययन करने से पहले अपनी इस समझदारी को साफ करना होगा कि बहुलतावादी समाज में इतिहास-सजग फिल्में और इतिहास-विमुख फिल्में दोनों का पाया जाना संभव है. कोई भी पीरियड ड्रामा यानी ऐतिहासिक फिल्म केवल अपने कथानक,परिवेश,संवाद और पहनावे से किसी गुजरे जमाने का आभास देकर दर्शकों को यह भ्रम दे सकती है कि वह एक इतिहास-सजग फिल्म है. पटकथा,संवाद या वेशभूषा निहायत सामान्य और आज के वक़्त की होते हुए भी अगर वह फिल्म संदेश और स्वभाव में इतिहास के प्रति जुड़ाव रखती है तो एक संवाद को जन्म देगी. ऐतिहासिक संदर्भ से वर्तमान का संवाद स्थापित कर सकने की कुशलता इतिहास-सजग फ़िल्मों में मिलती है. वहीं इतिहास-विमुख सिनेमा वह है जो किसी भी काल-विशेष का केवल स्वांग रचता है,मूलकथा सपाट ढ़ंग की बॉलीवुडिया प्रेम-कहानी ही निकलती है. इसका सीधा-साफ बँटवारा आप उन फ़िल्मों में देख सकते हैं जो कश्मीर के इर्द-गिर्द बुनी गईं लेकिन जिनमें कश्मीर के केवल भूगोल का परिचय मिलता है,वहाँ की राजनीतिक हलचलों का कोई ब्यौरा नहीं मिलता. वहाँ की सिविल सोसायटी की उम्मीदों,खूनी होलियों के अवसाद से भरी गलियाँ-चौराहे या राज्यसत्ता और जनांदोलनों के बीच वहाँ लगातार संघर्ष का पुराना इतिहास जो साँसें लेता है – इस सबकी गैरमौजूदगी. इसे ही इतिहास से विमुखता का व्यवहार कहा जा सकता है.

जब-जब फूल खिले,कश्मीर की कली,आरज़ू,हिना,नूरी,द हीरो,पत्थर के सनम,फ़ना,लक्ष्य,रॉकस्टार,ये जवानी है दीवानी और अन्य फ़िल्में उस तरफ से अपनी कहानी कहती हैं जिधर से किसी नाज़ुक कश्मीरी बहस का सिरा दर्शकों तक नहीं पहुँचता. यह भारतीय मुख्यधारा मीडिया और सिनेमा की कहानियाँ हैं. पर देश का एक हिस्सा जो बहुत लंबे वक़्त से अपनी बेचैनियों में घिरा हुआ है जब उसकी कहानी कही जाएगी तो कैसी होगी ?क्या वो कहानी सपाट ढ़ंग से वैसी ही पारिवारिक और प्रेम-कहानियों का झुरमुट होगी जैसा समूचे उत्तर-भारत में नज़र आता है. कश्मीर को लेकर बात करना केवल एक राजनीतिक विषय नहीं बल्कि उसकी उपस्थिति का हमारे सिनेमा में होना इंसानी रिश्तों की उलझनों से दो-चार होना है. सिनेमा में हम मानवीय सम्बन्धों को कैसे दर्शाते हैं. सिनेमाई भाषा का सम्मान करते हुए हम कितना नजदीक से उसे अनुभव कर सकते हैं. क्या एक फिल्म हमें बता सकती है कि इंसानी रिश्तों की कितनी परतें हो सकती हैं?

यहाँ से जिस नई तरह की सिने-परिभाषा को गढ़ने का चलन शुरू हुआ उसमें कहानियाँ दूसरे पक्ष को सामने लाने की कोशिश करती नज़र आती हैं. वह है कश्मीरी लोगों का पक्ष. मेनस्ट्रीम ख़बरों और बहसों के दूसरी तरफ अलग-थलग पड़े कथित भारतीय नागरिकों का आख्यान बुनने वाली फ़िल्मों को खोजें तो पक्ष-विपक्ष दोनों खुलते हैं-दोनों सिकुड़ते हैं. तब अधिक स्पष्टता से सिनेमा की राजनीति पर देश की राजनीति का असर दिखाई देता है. नए ढब की परिभाषाओं और उस पर अमल करती फ़िल्मों का ज़िक्र शुरू होता है तो कश्मीर की परिस्थिति को समझने के लिए हालिया देखी गई दो फ़िल्मों का रेफ्रेंस पिछली दस फ़िल्मों के अनुभव पर भारी पड़ा. इन दो फ़िल्मों के नाम हैं – विशाल भारद्वाज द्वारा निर्देशित “हैदर” और संजय काक द्वारा निर्देशित “जश्न ए आज़ादी”. यह दोनों फ़िल्में कश्मीर समस्या के भीतर फँसी ज़िंदगियों की कहानियाँ हैं. क्रमशः एक फ़िक्शन है और दूसरी डॉक्युमेंट्री. जनमत के उल्टे चलते हुए इन दोनों ही फिल्मों का नेरेटिव आखिरी सिरे से अपनी कहानी कहना शुरू करता है.



मैं रहूँ के मैं नहीं
1995 के सेट अप में हैदर की कहानी बुनी गई है. फ़िल्म रंगों के गाढ़ेपन का बहुतायत इस्तेमाल करती है. लाल,नीले,सफ़ेद और गाढ़े काईदार रंग. रंग जोकि भावनात्मक वातावरण बनाने में सहायक तत्व हैं,उनका गाढ़ा पन भावनाओं की सघनता की ओर भी इशारा करता है. गाढ़े नीले रँग की दीवारों के बीच फिल्म की शुरुआत किसी रहस्यमयी क़िस्से की शुरुआत लगती है. पहले पहल हुए संवाद से पता चलता है कि घाटी में लोग गोलियों के अलावा इलाज के अभाव में भी मरने को मजबूर हैं. लेकिन कोई सिरफिरा सा पात्र तभी उन ज़िंदगियों को बचाने उभर आता है- डॉ. हिलाल मीर जिनकी इस कोशिश पर खुद उनकी पत्नी गज़ाला शर्म,खुन्नस,ड़र और अविश्वास के लिजलिजेपन में चारों ओर से घिरी नज़र आती है. गज़ाला फिल्म में अपने परिचय दृश्य में खुद बतौर स्कूली टीचर क्लास के बच्चों के बीच सामूहिक स्वर में पूछती और बताती हैं कि "वॉट इज़ ए होम?".एन.सी.आर.टी. के पाठ्यक्रम में छठवीं कक्षा के बच्चों को पढ़ाई जाने वाली यह कविता फिल्म के भीतर केवल एक दृश्य नहीं बल्कि आगे चलकर वही पाठ उनके परिवार का त्रासद और केन्द्रीय प्रश्न बनकर गूँज उठता है. इस तरह के महीन रेफरेंस हमें बताते हैं कि किसी भी फिल्म में मौजूद छोटे-छोटे संदर्भों को खोलने से फ़िल्मकार की विचारधारा के साथ जुड़ा जा सकता है. यह सिनेमा पारिवारिक सरंचना को मॉडल मानकर बुना गया है. हिन्दी फिल्में देखने वाले पारंपरिक दर्शक-वर्ग के लिए राष्ट्र का सरलीकृत प्रतिबिंब है. देखा जाए तो,इसी तर्ज़ पर हैदर अपनी पारिवारिक (सामुदायिक) पहचानों से वफ़ादारी के नक़्शे पर उस राष्ट्रवादकी अवधारणा को साकार करने की कोशिशों का हिस्सा हो जाती है जिसके भीतर एक ओर सुदृढ़ राष्ट्रकी कल्पना है और दूसरी तरफ निजी पहचानों की स्वीकार्यता का प्रश्न.

हैदर के ज़्यादातर कैरक्टर रिएक्टिव हैं,पैसिव नहीं. मसलन हैदर से शुरुआत की जाए तो वह अलीगढ़ विश्वविद्यालयमें ब्रिटिश इंडिया के रेवोल्यूशनरी पोएट्स पर पीएच.डी. करने वाला एक शोध छात्र है. जिसे उसके परिवार ने घर से दूर दूसरी दुनिया देखने भेजा था. जहाँ ना दिन पे पहरे और ना रात पे ताले हैंयानी कश्मीर के बाहर की दुनिया. लौटते वक़्त चेकिंग करने वाले सुरक्षा अधिकारियों के सामने जानबूझकर अनंतनाग को उसके दूसरे नाम यानी इस्लामाबादकहकर पुकारना एक मांगा हुआ जोखिम है और यह मांग उठती है यातना भरी प्रक्रिया से गुजर कर. इस यातना का सबसे पीड़ादायी पक्ष यह है कि इसमें समूचे देश के लोग एक विशेष प्रांत की ओर आपसी अपनापे की बजाए कटाव,संत्रास और संदेह के साथ व्यवहार करते हैं. फिर इस दुर्व्यवहार को राष्ट्रहितबताकर जायज़ और ज़रूरी साबित कर दिया जाता है.

इस पुष्टीकरण से जिस मान्यता को बल मिलता है वह यह कि कश्मीरी जनता प्रायः देशद्रोही या कम से कम संदेहास्पद लोग हैं. लगातार इस प्रकार के नतीजों के सामने खड़े वे लोग फिर जानबूझकर अतिवादी प्रतिक्रियाएँ देने लगते हैं और अंततः दोषी साबित होते हैं. हालाँकि यह दोषारोपण हम अपने सिने-नायकों पर नहीं करते. वो तो सत्तर-अस्सी के दशक में सलीम-जावेद के गढ़े हुए नायाब फ़ोर्मूले से जन्मा एंग्री यंगमैन है. जिसका गुस्सा सिर्फ अपने साथ हुई ज़्यादतियों के कारण नहीं है. बल्कि यूनिवर्सल है और जावेद साहब के शब्दों में, फ़िल्मी हीरो एक ऐसा आदमी होता था जो मुसीबतें उठाता है और उस मुसलसल तकलीफ में ही वो अपने को हीरो समझता है.(सिनेमा के बारे में,जावेद अख़्तर से नसरीन मुन्नी कबीर की बातचीत,राजकमल प्रकाशन,पेपरबैक्स में पहली आवृत्ती-2011,पृ-74)ऐसी अपील देता है जो अविश्वास के दौर में भी एक हिम्मत दे सके.

गज़ाला या अर्शी के किरदार भी परिस्थितियों से निर्देशित होते हुए अपने रास्ते बनाते नज़र आते हैं. क्रिया-प्रतिक्रिया के सिलसिले की तरह तमाम घटनाएँ उनके जीवन में घटती जाती हैं. इनमें उनका अपना कोई हिस्सा शामिल नहीं है. इस तरह वे न सिर्फ अपने बल्कि उन असंख्य कश्मीरी दिशाहीन लोगों के अक्स को फिल्मी पर्दे पर उतार लाती हैं. जो अनचाहे ही सही पर तीन ओर से घिरे क्रूर समुदायों के बीच जीवन तलाश रहे हैं. हैदर जब कहता है कि, “कश्मीर में ऊपर ख़ुदा है और नीचे फ़ौज/ फ़ौज का जंतर है – आफ़स्पा” या “पूरा कश्मीर क़ैदख़ाना है मेरे दोस्त”तो वो एक-साथ आफ़्सपा का दंश झेल रहे उन सभी राज्यों की तकलीफ अपनी आवाज़ में घोल लेता है. वो बताता है कि कश्मीर और उत्तर-पूर्वी इलाकों में आफ़्सपा की शक्ल में एक संवैधानिक अभिशाप को झेलने के लिए अभिशप्त जनता भारतीय क़ानून को उसी शक़ के साथ देखती है जैसे देश की बहुसंख्यक जनता उन्हे. संवादों से इतर दीवारों,बैनर और बोर्ड पर लिखे को पढ़ना भी ज़रूरी है. उन से कुछ बेहद तीखे सच उभरते हैं,जैसे मिलिटरी कैंप में हल्की सी झलक एक साइन बोर्ड की नज़र आती है जिस पर लिखा है – ‘Catch them by their balls. Their hearts & minds will follow.’ ये लिखावटें अनैतिक-अमानुषिक व्यवहार की वो कड़ियाँ हैं जो अप्रत्यक्ष तरीके से दबाव को कसती जाती हैं.

जहाँ तहाँ शहर भर में लिखा है we want freedom, Indian army go backइत्यादि. ये नारे आज की प्रतिक्रियाओं का हिस्सा नहीं हैं. 2007 में आई दस्तावेज़ी फ़िल्म “जश्न ए आज़ादी” में भी नज़र आते हैं. इसकी फुटेज साल दर साल 1991 से 2005 तक बिखरी हुई हैं. यानि लंबे समय से ऐतिहासिक परिवर्तन द्वारा भारतीय राज्यसत्ता से आज़ादी और अलगाव की इच्छा घाटी में तैर रही है. मनहूसियत और गुस्से से फुट पड़ने के पहले वाला सन्नाटा हर घर में नज़र आता है. इस चुप्पी को तोड़ने और गुस्से को पिघलाने के लिए बिना केन्द्रीय राज्यसत्ता या अंधराष्ट्रभक्ति की ओर झुके एक संतुलित समाधान की ओर इशारा करती यह फ़िल्म इंतकाम से आज़ादी की बात करती है. फ़िल्म का केन्द्रीय भाव है कि “इंतकाम से इंतकाम ही पैदा होता है. जब तक हम अपने इंतकाम से आज़ाद नहीं होते,कोई आज़ादी हमें आज़ाद नहीं कर सकती.”



जनमत के उल्टे चलना
जश्न ए आज़ादीजैसी फिल्में चेताती हैं कि समय विशेष को चित्रित करने वाली फ़िल्में किसी भी विधा में होते हुए समकालीन परिस्थितियों की ओर भरपूर इशारा कर सकती है. मुद्दा यहाँ सिनेमाई विधा की चौहद्दियों के पार अपनी बात रखने का साहस और उसकी निष्पक्षता का है. अब यहाँ साथ-साथ बिल निकोल्स का एक महत्वपूर्ण तर्क दस्तावेज़ी सिनेमा के बारे में भी समझा जाना चाहिए. बिल निकोल्स डॉक्युमेंट्री फ़िल्मों पर गंभीर और शोधपरक लेखन के लिए जाने जाते हैं. वे कहते हैं कि,फ़िक्शन फ़िल्में ऐसे आख्यान रचती हैं जिनमें घटनाओं के होने का हम कभी पूर्वानुमान लगाते हैं,तो कभी उनके घटित हो जाने पर भी संदेह करते रहते हैं. जबकि डॉक्युमेंट्री फिल्म में किसी संदर्भ का आना उस अतीत पर पुनः दावेदारी करने जैसा है.” (21)

आगे इसे विश्लेषित करते हुए वे तुलनात्मक रूप से दोनों प्रकार के सिनेमा का अंतर स्पष्ट करते हैं, “दस्तावेज़ी सिनेमा में भी कथात्मक फ़िल्मों की ही तरह पटकथा,चरित्र,घटनाएँ,और परिस्थितियाँ बुनी जाती हैं. इस तरह एक पाठ के तौर पर डॉक्युमेंट्री सिनेमा फ़िक्शन से सरंचना के स्तर पर बिलकुल भी अलग नहीं है. बल्कि वे अर्थछवियाँ भिन्न ठहरती हैं जिन्हे वे निर्मित करते हैं. डॉक्युमेंट्री सिनेमा अपने हृदयस्थल से एक कहानी कम और एक तर्क अधिक है,वह कोई काल्पनिक संसार ना होकर ऐतिहासिक विश्व की घटनाओं का संज्ञान होता है.(रिप्रसेंटिंग रिऐलिटि,बिल निकोल्स,इंडियाना यूनिवर्सिटी प्रैस, 1991,यू.एस.ए.,पृ-111)
तो कुलमिलाकर ना केवल फिल्म-निर्माण से जुड़े लोगों के लिए बल्कि डोक्यू-सिनेमा के दर्शकों के लिए भी यह अधिक जोख़िम और ज़िम्मेदारी भरा सिनेमाई अनुभव है.

फिल्म की चर्चा पर लौटते हुए, तनावग्रस्त कश्मीर को आज समझने के लिए कश्मीर के कल से गुज़रना पहली ज़रूरत है. डॉक्युमेंट्री का नैरेशन खुद फ़िल्म के लेखक और निर्देशक संजय काक की आवाज़ में है. भांड़ों के नाटकीय प्रस्तुतीकरण के पैरेलल वे कश्मीर के इतिहास को सामने रखते हैं. क्रूर शासकवर्ग से संघर्ष का लंबा अनुभव वहाँ की जनता को है,इसके प्रमाण देते हैं. इसके अलावा जो खास बात जश्न ए आज़ादीको अन्य कश्मीर संबंधित वृतचित्रों से अलग करती है,वह यह कि इस डॉक्युमेंट्री में उस ज़मीन की लगभग हर इकाई से जुडने की कोशिश की गई है. बनी-बनाई वैचारिक पक्षधरता की बजाए अन्यहोते जा रहे अपने ही देशवासियों से पुनः संवाद स्थापित करने का प्रयास यहाँ दिखता है. फिल्म का एक दृश्य है जहाँ कुछ नौजवान लाशों को दफनाने का काम किया करते हैं. मरे हुए लोग सिविलियन,मिलिटेंट,इनफोरमर कोई भी हो सकते हैं,इसकी जानकारी उन युवकों को नहीं रहती.

वे केवल उन्हे दफनाने का इस्लामी फर्ज़ पूरा करने वाले लोग हैं. अपनी बाइट में वह बताते हैं कि "दस साल से इस काम को कर रहे हैं. शुरुआती दिनों में धड़ से अलग डैड बॉडी देखकर उल्टी आती थी-रोना आता था. पर अब हम भी पत्थर हो गए हैं,मन से कठोर हो गए हैं,अब फर्क नहीं पड़ता."दुनिया के सबसे नौजवान देश की युवा पीढ़ी का एक बड़ा हिस्सा ज़िंदगी से कट रहा है और इस सारे मसले का शोर केवल राजनीतिक स्तर की बातचीत तक सिमट जा रहा है. छोटी-छोटी उपलब्धियों और हताशाओं के बीच जीये जाने वाले इंसानी जज़्बातों के क़ब्र में सोते जाने के किस्से हमारे सिनेमा में,हमारे मीडिया कवरेज में और इन सूचना तंत्रों से बनी हमारी स्मृति में कहीं नहीं हैं. कब्रगाहों में लाशों की बढ़ती गिनती किसी भी राष्ट्र-राज्य की नेशन थ्योरी को पुनःपरिभाषित करने की मांग है.

क्रिस्टोफर नोलानकी बड़ी मज़ेदार और अद्भुत फिल्म है इनसेप्शन.फिल्म की मूल कथा स्वप्न और यथार्थ के विचारों के बीच की पहचान करने के विवेक की कहानी है. यहाँ एक स्वप्न के भीतर दूसरा,दूसरे के भीतर तीसरा और चौथा और ना जाने कितने सपने गूँथे रहते हैं. फिल्म का मूलविचार अपने सच की एक तलाश है. क्या कश्मीर को लेकर हम भी किसी नींद में हैं? जहाँ तहों के भीतर कई सपने सच बनकर मौजूद हैं. कश्मीर को जन्नत बताने वाले सैलानियों की आवाज़ें क्या कोई सपना हैं?कश्मीर की आवाम का भारत से आज़ादी की चाह और गुस्सा क्या कोई सपना है?क्या हज़ारों सैनिकों की शहादत और लाखों बेघर कश्मीरी पण्डितों का दुख कोई सपना है?और फिर सच क्या है?


साल 1991 से लेकर 2005 तक सेपरेटिस्ट रैली,यासीन मलिक,इख्वानी,मिलिटेंटों के परिवार,एनकाउंटर और क्रैकडाउन के दृश्य आदि को पहली बार दर्शकों के सामने लाकर जश्न ए आज़ादीका कैमरा किसी प्रकार की सहानुभूति की उम्मीद को जन्म नहीं देता. बल्कि कश्मीर के हर तीसरे घर में सुलग रहे गुस्से का नोटिस है. मास कन्सेंसस के बनने और उस को दबाए जाने की प्रक्रिया का दस्तावेजीकरण है. अनदेखे दुश्मन के तौर पर पूरे राज्य में मौजूद पोपुलर सेंटिमेंट से औज़ारों की लड़ाई का सिनेमाई प्रस्तुतीकरण है. इस डॉक्युमेंट्री में आँकड़ों, साक्ष्यों और तथ्यों का जो ब्यौरा मिलता है वह घाटी में हो रहे भारी नरसंहार का पता देता है. जिसका छटाँक भर भी मुख्यधारा सिनेमा में कहीं मौजूद नहीं है. और ऐसा पहली बार नहीं है जब वृत्तचित्र बनाम व्यावसायिक सिनेमा की बहस में अपनी प्रामाणिकता को डॉक्युमेंट्री अधिक सत्यता से स्थापित करती है. फिर भी भारतीय करावासों में हो रहे अमानवीय व्यवहार का रेफरेंस आते ही 'हैदर'का बॉयकाट करते हेशटैग सोशल मीडिया में तैरने लगते हैं. जबकि 2007 में 'जश्न ए आज़ादी'उन सभी संदर्भों को दर्ज कर चुकी है और इसकी जनमानस में तुलनात्मक रूप से कोई तीखी प्रतिक्रिया नहीं मिलती. प्रसिद्ध सिने-अध्येता रवि वासुदेवनइसका सीधा कारण डॉक्युमेंट्री को माइनॉरिटी मीडियम का होना मानते हैं. जिसके मुख्यधारा सिनेमा के बनिस्पत जन-संवाद की संभावनाएँ सीमित हैं. (दि मेलोड्रामेटिक पब्लिक, रवि वासुदेवन, परमानेंट ब्लैक,पहली आवृत्ति 2015(पेपरबेक), रानीखेत,पृ-239)

मुद्दे के यथासंभव हर दृष्टिकोण को दिखाना/बताना मीडिया और सिने-माध्यम की नैतिक ज़िम्मेदारी है. शासकवर्ग के बरक्स जो भी आंदोलन है उसके अस्तित्व का नोटिस लेना,उसका पक्षधर या सिंपेथाईज़र होना नहीं है. सेना और सरकार का पक्ष ही अंतिम नहीं है बल्कि नीतिगत फैसलों पर अमल किए जाने के लिए ये एक दूसरे के पर्याय हैं. वहाँ की जनता के नज़दीक उनकी कहानियाँ,उनके हिस्से का सच सुनना और फिर उसे फॉरवर्ड करना लोकतंत्र की धूमिल पड़ती परिभाषा में आस्था का लौट आना है. यही चुप न बैठने की सोच,आज की सोच है. जिसका आकादमिक ज्ञान,सिनेमाई अनुभव और मीडिया जनित स्मृति में होना प्रायोजित राष्ट्रवादकी क्लास के बाहर खड़े होना है. इस सिलसिले में कुछ और महत्वपूर्ण फ़िल्में हैं जिनका होना, ‘जश्न ए आज़ादीकी कड़ियों में एक लंबी बहस को जोड़ते जाना है. अजय रैना की फिल्म - टेल देम दी ट्री दे हैड प्लांटेड हैस नाओ ग्रौन, इफ़्फ़त फातिमा की फ़िल्में – व्हेयर हैव यू हिडन माइ न्यू मून क्रेसेंट और ख़ून दी बराव,आश्विन कुमार निर्देशित - इनशाल्लाह फूटबालजैसी दस्तावेजी फ़िल्मों के साथ अन्य कई ज़रूरी प्रयास कश्मीर की दूसरे सिरे से की गई व्याख्याएँ हैं.


जेहलम-जेहलम ढूँढे किनारा
कश्मीरियत और इंसानियत के साथ पॉपुलर सेंटिमेंट्स के उल्टे खड़े होने की हिम्मत के बाद भी ये दोनों फिल्में पूरी तरह निर्दोष ही हैं,यह भी एक सवाल है और इस सवाल का बने रहना इसलिए भी ज़रूरी है कि हम फिर वही गलती न दोहराएँ जो सरकारी परिभाषाओं को रटते समय हम करते हैं. हैदरअपनी तमाम बोल्डनेस के बावजूद अंत में केवल पारिवारिक कलह के निपटान की कथा पर आ सिमटती है. आमने-सामने की लड़ाई में डॉ. हिलाल मीर जैसे तटस्थ कश्मीरी लोगों पर हो रहे  टोर्चर का संज्ञान यह तो बताता है कि वहाँ सैन्य बल एक क़िस्म के ऊपरी दबाव से चालित और किसी मिशन के तहत बड़े मशीनी तरीके से काम कर रहे हैं. उनके जाते ही कश्मीर की समस्या फिर अनुत्तरित रह जाती है. फ़िल्म का क्लाइमैक्स अंततः व्यावसायिक दबाव के चलते आदर्शवाद के झुरमुट में ओट पा लेता है. इस तरह कश्मीरी ज़मीन पर हो रहे  दमन को डि-पोलिटिसाइज़ कर दिया जाता है.

हिन्दी सिनेमा के इतिहास में अंदाज़न हर दो दशक के बाद फ़िल्म-निर्माण की शैली और वस्तुकथा में बदलाव दिखाई देता है. चौथे दशक से लेकर दसवें दशक तक फ़िल्में देश में हो रही बड़ी हलचलों का ज़िक्र करती नज़र आती है और कई बार अपनी पूर्ववर्ती व्याख्याओं को उलटती-पलटती भी हैं. इसका मज़ेदार नमूना है 1992 में आई मणिरत्नम द्वारा निर्देशित रोज़ा और उसके दो दशक बाद विशाल भारद्वाज की फ़िल्म हैदर. कश्मीर के उग्रवादी संगठनों में शामिल लोगों और भारतीय सेना और सुरक्षा-बलों का निहायत अलग सच बताती ये दोनों फ़िल्में एक-दूसरे का धुर विलोम हैं और पर्याय भी. पर्याय इसलिए कि आख़िर तक पहुँचते हुए हैदर भी जीये गए अविश्वास के बरक्स विरासत में मिली नैतिकता से हार कर सामूहिक फैंटासियों को  प्रतिबिम्बित करता है. जिनमें हीरो का नायकत्व गरिमामयी होना ज़रूरी है. जो दर्शकों को ये फील दे सके कि अब से सबकुछ भला होने वाला है,असमंजस के बदले जो ठहराव और अविश्वास का प्रतिउत्तर भरोसे से दे सके. इस क़िस्म के यक़ीन को बनाने की जल्दबाज़ी विशाल भारद्वाज की पटकथा में भी नज़र आती है. इंतकाम से आज़ादी का मॉरल नारा लगाकर फिल्म अपने अंत की ओर बढ़ जाती है और पूरी फिल्म में पूछे गए अनगिनत राजनीतिक प्रश्नों को नैतिकता की ओट से उत्तर देती है. फिल्म पटकथा के स्तर पर,संवादों की सहायता से लगभग एक निर्दोष सा वातावरण बनाना चाहती है.

जश्न ए आज़ादीमें यह बनी-बनाई मासूमियत नहीं है. यह फिल्म ख़ालिस पोलराईज्ड पेंटिंग सी लगती है. जिसकी एडिटिंग,कैमरा और निर्देशन अपनी पॉलिटिक्स को लेकर काफी मुखर है. इस मुखरता के फेर में फिल्म कश्मीरी इतिहास से कुछ ज़रूरी हिस्सों की तरफ मुँह मोड लेती है. कश्मीरी पंडितों की चुप्पी कुछ ऐसा ही आक्षेप है. इस बिन्दु पर फिल्म की आलोचना की जा सकती है. फिर यह समझना भी ज़रूरी है कि इस डॉक्युमेंट्री से वे तमाम आवाज़ें गायब क्यूँ हैं जो किसी भी प्रकार के ध्रुवीकरण की सहभागी नहीं हैं. उन तबकों की रायशुमारी मिसिंग है. फ़िल्म भारतीय राज्यसत्ता के उत्सव से भारतीय नागरिकों की गैर-मौजूदगी में खोखले होते जा रहे जनतंत्र की ओर तो इशारा है लेकिन ये इशारा इतना ज़्यादा क्लियरकट है कि इसकी छाँव से वे सभी असहमतियाँ गायब हैं जो कोई दूसरी विचारधारा रखती हों. इसके अलावा कश्मीरी नौजवानों की ओर से हिंसात्मक कार्यवाहियों का सरलीकरण करना थोड़ा असहज करता है.

हिन्दुस्तानी झंडे की सलामी के लिए उठे सारे फ़ौजी हाथों पर बंधे कलावे प्रमुखता से फिल्माए गए हैं. जो फ़िल्मकार के किसी खास इशारे की तरफ ध्यान तो खींचते हैं लेकिन साथ ही एक भ्रम भी पैदा करते हैं. यह दृश्य हिन्दुकृत होती जा रही सैन्य-भावनाओं का प्रतिबिम्बन व साम्प्रदायिक राष्ट्रवादका प्रतिकीकरण तो करता है. लेकिन यह इखवानी और मिलिटेंट गुटों के मुस्लिम प्रतिनिधित्व के सामने एक काउंटर तर्क-सा लगता है जोकि भारत की सेक्युलर राष्ट्र की छवि का नकार है. असल बात स्वीकार और नकार की भी नहीं,असल बात यह है कि ऐसी आभासी तुलनात्मक निर्मिति पर इतना ज़ोर क्यूँ?और ऐसा करते हुए भी यह दोनों तस्वीरें पूरी तरह प्रामाणिक और सच हैं क्या? कश्मीर का राजनीतिक धुन्धलका अपने गहरेपन में यहाँ नज़र आता है. यह तमाम असहमतियाँ फ़िल्मकार के दृष्टिकोण और उनकी पक्षधरता को रेखांकित भी करती हैं और उस पर सवाल भी उठाती हैं. यहाँ मुझे शुद्धब्रत सेनगुप्ताका कथन याद आ रहा है जो संजय काक की दस्तावेजी फिल्मों को लोकवृत्त में विमर्श को जन्म देने वाली फिल्में बताते हुए आलोचनात्मक टिप्पणी करते हैं,एक परिपूर्ण फिल्म या काम कोई डराने की वस्तु हो सकती है. वह केवल अपनी संपूर्णता के वेग में उन सभी असहमतियों को दबा सकती है जो उसकी और इशारा करेंगी. यह तो सिर्फ दोषपूर्ण फिल्म है जो हमें असंतुष्ट, उत्कंठा से भरा हुआ और गतिमान अवस्था में छोड़ जाती है. जहाँ से हम फ़िल्मकार के साथ हजारों तर्क-वितर्क करने के लिए प्रस्थान करते हैं. ताकि वर्तमान में स्थित विसंगतियों को अनुकूलित करके जीवनानुकूल बनाया जा सके.” (ए फ़्लाइ इन द करी, के.पी. जयसंकर व अंजली मोंटेरो,सेज़ पब्लिकेशन,पहला संस्करण 2016,नई दिल्ली,पृ-59)

लेकिन इन हल्के-फुल्के असहमत क्षणों की उपस्थिती उस ज़रूरी सवाल को गैरवाजिब नहीं कह सकती जिसे हर कश्मीरी की निगाह पूछ रही है. शिकायतों और असहमतियों का बने रहना हर स्तर पर तरक्की के लिए ज़रूरी है और शिकायतें अक्सर उन्ही से होती हैं जो काम करते हैं. बस फ़ाल्स-जैकेटिंग के दौर में अपने हिस्से का सच हर माध्यम से हमको खोजना है. सिनेमा माध्यम होने के साथ-साथ तकनीक भी है और ऐसी गजब की तकनीक जो राष्ट्र-निर्माण की छवि गढ़ने में सहायक 'टूल'भी है. इस बात को हिटलर जैसे तानशाह ने भी अपने दौर में  समझा था और तभी अपनी सेना के महिमगान के लिए उसने प्रोपेगेंडा फिल्मों का निर्माण करवाया था. आज़ादी के बाद से लेकर लगभग साठ तक के दशक में ऐसी तमाम फिल्में हमारे मेनस्ट्रीम सिनेमा में भी बनीं जो गांधी,नेहरू या शास्त्री जी के भारतको व्याख्यायित करती थीं. पी.साईनाथजैसे विचारक इसीलिए फिल्म लेखन को पत्रकारिता की तुलना में अधिक कलात्मक और चुनौती भरा मानते हैं. उनका कहना है कि,भारत विभिन्न वास्तविकताओं वाला देश है.....जहाँ सबसे महत्वपूर्ण हैं लेखकों का चयन,कि वे किस पक्ष की कहानी कहना चाहते हैं और उनका लेखन केवल त्रासदियों की रिपोर्टिंग नहीं होगी बल्कि वह उस घटनाक्रम को सामने लाएगी जिसके तहत सामाजिक विचलन आते हैं.”(व्याख्यान:इंडियन स्क्रीनराइटर्स कोन्फ्रेंस,यूट्यूब से उद्धृत, 03.08.2016,लिंक यहाँ से देखें-
https://m.youtube.com/watch?v=sQjLj-suogQ )

तुष्टिकरण की राजनीति की कोशिशों के बीच एक समाज अपनी अस्मिता के लिए निरंतर संघर्षरत है. समझौता परस्ती के युग में सर कटाने और सर झुकाने के बीच का जोश और होश अपना अनुपात अभी निश्चित नहीं कर पाया है. इसलिए उनके संशय और उनकी दुविधाओं में कान देकर उनको सुनने का हौसला हमें अपने तईं रखना होगा. एक नई पहल के लिए आपसी सहयोग और सद्भाव का होना ज़रूरी है. फ़िलहाल इतना समझने में यह दोनों फ़िल्में बेशक बेहद मददगार कोशिशें हैं. जिनका होना सिनेमा के समय-सापेक्ष होने की गवाही है और मनोरंजन प्रधान माध्यम के बरक्स सिने माध्यम की दूसरी परिभाषा भी है. 

इन मायनों में इस तरह की फिल्में हिंसा के इतिहास से हमारे दर्शक-मन का साक्षात्कार हैं, ऑडियो-विजुअल माध्यम के रूप में फ़िल्मकार और उक्त विषय के बीच से गुजरते हुए एक नए अदब के बनने की यात्रा का सहभागी होना है.

____________
नीतू तिवारी
डॉक्युमेंट्री सिनेमापर दिल्ली विश्वविद्यालय से पीएच.डी. कर रही हैं.
सिनेमा पर लिखती हैं.
मो - 9999054384/ ई-मेल:neeroop@hotmail.com

Viewing all articles
Browse latest Browse all 1573

Trending Articles



<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>