Quantcast
Viewing all articles
Browse latest Browse all 1573

भूमंडलोत्तर कहानी – १२ : बहनापे और ईर्ष्या की सहज द्वंद्वात्मकता : राकेश बिहारी








भूमंडलोत्तर कहानी विवेचना क्रम में आपने अब तक निम्न कहानियों पर युवा आलोचक राकेश बिहारी की विवेचना पढ़ी - लापता नत्थू उर्फ दुनिया न माने (रवि बुले), शिफ्ट+ कंट्रोल+आल्ट = डिलीट(आकांक्षा पारे), नाकोहस (पुरुषोत्तम अग्रवाल), अँगुरी में डसले बिया नगिनिया (अनुज),  पानी (मनोज कुमार पांडेय), कायांतर (जयश्री राय), उत्तर प्रदेश की खिड़की (विमल चन्द्र पाण्डेय), नीला घर (अपर्णा मनोज),दादी,मुल्तान और टच एण्ड गो  (तरुण भटनागर), कउने खोतवा में लुकइलू (राकेश दुबे) और चौपड़े की चुड़ैलें  (पंकज सुबीर )

इस क्रम को आगे बढ़ाते हुए आज प्रस्तुत है सिनीवाली शर्मा  की  अतृप्त यौनिकता को केंद्र में रखकर लिखी गयी  कहानी  अधजलीपर राकेश बिहारी का  आलेख ‘बहनापे और ईर्ष्या की सहज द्वंद्वात्मकता’.


इस आलेख में राकेश ने अतृप्त यौनिक विकृतियों की मनो रचना और उसकी सामाजिकता को विस्तार से समझते हुए कहानी में  इसके नियोजन के निहितार्थों की भी गहरी विवेचना की है.



भूमंडलोत्तर कहानी १२

बहनापे और ईर्ष्या की सहज द्वंद्वात्मकता                            
(संदर्भ: सिनीवाली शर्मा की कहानी अधजली’)
राकेश बिहारी 



मानसिक अस्थिरता से पीड़ित स्त्रियोंपर केन्द्रित साहित्य न सिर्फ हिन्दी, बल्कि अँग्रेजी सहित दुनिया की अन्य भाषाओं में बहुत पहले से लिखा जाता रहा है. स्त्रियों में पाई जानेवाली हिंसक मानसिक अस्थिरता के मूल में उनके लैंगिक अनुभव, परिस्थितिजन्य भावनात्मकतायेँ, मनोवैज्ञानिक आघात, अवसाद आदि का हाथ होता है या यह मूलतः एक यौन-समस्या है, इस विषय पर भी दार्शनिकों, विमर्शकारों, मनोवैज्ञानिकों और चिकित्साशास्त्रियों के बीच बहसेंहोती रही हैं.विकृत व्यक्तित्व या कि दोयम दर्जे के नागरिक के रूप में स्त्रियों की नियोजित विनिर्मिति का भी एक सुदीर्घ वैश्विक इतिहास है, जिसे प्लेटो, अरस्तू, डेकार्ट्स आदि पाश्चात्य दार्शनिकों के सिद्धांतों से लेकर माया महाठगनीऔर त्रिया चरित्रकी भारतीय पितृसत्तात्मक अवधारणाओं तक में समान रूपसे देखा जा सकता है.

सुनियोजित लैंगिक अन्याय और पक्षपातपूर्ण दर्शन की उपस्थिति ने स्त्रियों की विक्षिप्तता को एक खास तरह के सांस्कृतिक संरचना के साँचे में ढालने का काम बखूबी किया है. इनपितृसत्तात्मक दार्शनिक सिद्धांतों को अस्वीकार करते हुये स्त्रीत्व की अवधारणा को प्रस्तावित कर स्त्री विमर्शकारों ने लैंगिक अस्मिता के संघर्ष का समानान्तर इतिहासरचा है. स्त्रियों की छवि को विरूपित और विखंडित करने की पितृसत्तात्मक साजिशतथा अस्मिता के लिए संधर्षरत स्त्री-आंदोलनों केदौरान  लैंगिकताकी बड़ी राजनैतिक अवधारणा को कभी सुनियोजित रूप से तो कभी अनजाने में यौनिकतामें परिसीमित करके भी देखा जाता रहा है. इस तरहके परिसीमन के बहाने स्त्रीवाद को उसके असली उद्देश्यों से विचलित करने में कुछ हद तक उग्र नारीवादियों की प्रतिक्रियात्मकताओं की भी भूमिका रही है.

स्त्री हिस्टीरियाकी शुरुआती अवधारणा जो इस तरह के मानसिक असंतुलन को गर्भाशय और शुद्ध रूप से यौन-अतृप्ति से जोड़ कर देखती थी, से लेकर आधुनिक और उत्तरआधुनिक समाज में स्त्री संबंधी मानसिक असुंतलन के विभिन्न कारणों की पड़ताल के लिए विकसित सैद्धांतिकियों केबीच मानसिक रोगियों की देखभाल और उन्हें सही इलाज की सुविधा प्राप्त कराने के लिए पिछले दिनों भारतीय संसद द्वारा पारित मेंटल हेल्थकेयर  बिल 2016’ के आलोक में इस विषय पर नए सिरे से बात किए जाने की जरूरत है. कथादेश (मई, 2017) में प्रकाशित युवा कथाकार सिनीवाली शर्मा की कहानी अधजलीअपनी  कथावस्तु और कहन की बहुपरतीयता के कारण इस विषय को इससे संबन्धित लगभग सभी कोणों, यथा- पितृसत्तात्मकता, स्त्रीवाद, मनोविज्ञान,चिकित्सा विज्ञान,कहानी-कला आदि, से समझने का एक समग्र अवसर प्रदान करती है.

अधजलीकहानी में तीन मुख्य पात्र हैं कुमकुम, शांति और महेंद्र. महेंद्र शांति का पति और कुमकुम का भाई है. भाई-भौजाई की सहमति से कुमकुम का जबरिया विवाह होता है, पर पति शादी के बाद जो गया लौट के नहीं आता. पति की अनुपस्थिति और सूख चुके अरमानों के बीच दैहिक अतृप्ति का दंश झेलती कुमकुम को अपने भैया-भाभी के साहचर्य से भावनात्मक आघात पहुंचता है और वह मानसिक विक्षिप्तता का शिकार हो जाती है. उसे गाहे बगाहे हिस्टीरीया के दौरे आने लगते हैं. बहन की इस दशा को देख महेंद्र गहरे अपराधबोध से ग्रस्त होकर पत्नी से विमुख हो जाता है. नतीजतन शांति को संतानसुख से वंचित रहना पड़ता है. एक तरफ अपूर्ण स्वप्न और अतृप्त शरीर का दंश झेलती कुमकुम, तो दूसरी तरफ पति की उपस्थिति के बावजूद परिस्थितियों की मारी संतानसुख से वंचित शांति और तीसरी तरफ दोनों के प्रति गहरे अपराधबोध से ग्रस्त महेंद्र! इन तीनों पात्रों के परस्पर व्यवहार, उनकी भावनात्मक प्रतिक्रियाएँ,परस्परहितों के टकराहट और कुमकुम तथा शांति के बीच पलनेवाले बहनापे और ईर्ष्या की सहज द्वंद्वात्मकता की अंतरंग, आत्मीय और प्रामाणिक लकीरें आपस में मिलकर इस कहानी का चेहरा मुकम्मल करती हैं.

इन पात्रों की बेचैनी, संत्रास और निरीहता के बीच व्यवस्था की विद्रूपतायें जिस विडम्बना को रचती हैं वही यहाँ एक भावप्रवण कहानी के रूप में स्थित है. यह कहानी किसी समाधान का संधान नहीं करती बस परिस्थिति की जटिलताओं से उत्पन्न तनावों को पाठकों के मन में रोप देती हैं. कहानी के प्रत्यक्ष पाठ के बाद पाठक के भीतर इस कहानी का जो पुनर्पाठ तैयार होता है, उसकी रोशनी में इस विषय कीसामाजिक, राजनैतिक और मनोवैज्ञानिक गांठों को खोला जा सकता है. इस कहानी की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह किसी खास चिंतन या दर्शन का अंधानुसरण नहीं करती बल्कि अलग-अलग विचार सरणियों, विमर्शों और स्कूलों से अपने लिए जरूरी उपकरण चुन लाती है और इस क्रम में किसी खास स्कूल से कुछ लेने और कुछ छोडने का विवेक हमेशा उसके साथ बना रहता  है.

मसलन सिनीवाली इस कहानी की रचना करते हुये फ्रायड के विम्ब विधान का तो बखूबी उपयोग करती हैं लेकिन उनके शिश्न-बोधके सिद्धान्त को कोई खास तरजीह नहीं देतीं. स्त्रीवादी उपकरणों का इस्तेमाल करते हुये वे सार्वभौमिक भगिनीवाद (ग्लोबल सिस्टरहुड) का खासा ख्याल रखती हैं, लेकिन उग्र नारीवाद (रेडिकल फेमिनिज़्म) के प्रतिक्रियावादी उपकरणों की तरफ भूल से भी नहीं देखतीं. कुमकुम के जबरिया विवाह की मजबूरी को रेखांकित करने के लिए जिस तरह यह कहानी  वैयक्तिक संपत्ति के प्रावधान को प्रश्नांकित करती है उसमें मार्क्सवादी स्त्रीवाद के उन सिद्धांतोंको भी रेखांकित किया जा सकता है जो कॉर्पोरेट पूँजीवाद और साम्राज्यवाद  की तरह उत्पादन के साधनों पर कुछ लोगों (मर्दों) के प्रभुत्व को ही पितृसत्तात्मकता का भी कारण मानता है. यहाँ इस बात पर भी  गौर किया जाना चाहिए कि कुमकुम और शांति दोनों अलग-अलग कारणों से यौन-अतृप्ति का शिकार हैं लेकिन हिस्टीरिया का दौरा सिर्फ कुमकुम को आता है. मतलब यह कि कहानी इस बात को भी रेखांकित करती है कि मानसिक विक्षिप्तता या हिस्टीरिया के दौरे यौन अतृप्ति की अनिवार्य परिणति नहीं है.

यहाँ इस बात पर भी गौर किया जाना चाहिए कि एक जैसी समस्या और अलग-अलग परिणतियों के बावजूद कुमकुम और शांति की मातृमूलक समवेदनाएं एक जैसी हैं. कुमकुम और शांति की मातृमूलक संवेदनाओं में मनोविश्लेषणात्मक स्त्रीवाद के उन सूत्रों को सहज ही महसूस किया जा सकता है जो किसी भी व्यक्ति के साथ स्त्रियों के जुड़ाव को एक खास तरह की संपूर्णता और प्रगाढ़ता में देखता है जो उसे किसी तरह के भावनात्मक स्खलन या विचलन का शिकार नहीं होने देता. मातृमूलक संवेदनाओं का यह साझापन दो या अधिक स्त्रियों के बीच बहनापे का संसार भी रचता है. हाँ, कई बार मातृमूलक संवेदनाओं का आधिक्य उनके स्वतंत्र विकास में बाधा का भी काम करता है. इतनी तकलीफ़ों और प्रतिकूलताओं के बावजूद कुमकुम और शांति का अपना व्यक्तित्व यदि कहानी में नहीं उभरता तो उसका कारण भी उनकी मातृमूलक संवेदनाओं में ही निहित है. सिनीवाली अपनी कहानी के पात्रों को यदि किसी अव्यावहारिक क्रांतिकी तरफ नहीं धकेलतीं तो इसका कारण उनका पिछड़ापन नहीं बल्कि अपने पात्रों की मनःस्थिति का उचित संज्ञान है.

इस कहानी पर बात करते हुये इस बात का उल्लेख भी जरूरी है कि इसी विषय पर हंस (अप्रैल, 2017) मेंगीताश्रीकी कहानी अन्हरिया रात बैरनिया हो राजाभी प्रकाशित हुई है. हालांकि एक जैसी विषयगत पृष्ठभूमि पर रचे होने के बावजूद कथ्य के निर्वाह  और कथन-शैली की भिन्नता के कारण दोनों कहानियों की नियतियां नितांत भिन्न हैं, तथापि विषय की समानता और एक ही समय में प्रकाशित होने के कारण सिनीवाली की कहानी पर केन्द्रित यह आलेख कुछ मुद्दों पर गीताश्री की कहानी के साथ तुलनात्मक विश्लेषण की मांग भी करता है.

अधजलीकी चर्चा करते हुये अन्हरिया रात बैरनिया हो राजाकी चर्चा इसलिए भी जरूरी है कि यह जाना जा सके कि विषय और विषयानुकूल कुछ दृश्यों, बिंबों की समानता के बावजूद कहानी के गंतव्य और मंतव्य का निर्धारण, विषय की राजनैतिक समझ और स्पष्ट लेखकीय दृष्टि एक जैसी दिखती कहानियों को कैसे एक दूसरे से बहुत अलग ला खड़ा करते हैं.  नाम से एक ही स्त्री को दो जगह दो नामों  (वीरपुरवालीऔर रजौलीवाली’)से संबोधित किए जाने की अतिसामान्य लेखकीय असावधानी को छोड दें तो अन्हरिया रात बैरनिया हो राजामें तीन मुख्य स्त्री पात्र हैं सरकार, कपरपुरावाली और रजौलीवाली/वीरपुरवाली.

कपरपुरावाली जहां सरकार की पतोहू है वहीं रजौलीवाली उसकी चचेरी गोतनी. कपरपुरावाली पर सरकार के अनुशासनों का शिकंजा है. सरकार यानी पितृसत्तात्मक मूल्यों से अनुकूलित एक स्त्री. अर्थोपार्जन के लिए घर से दूर रहने वाले पति की अनुपस्थिति कपरपुरावाली के भीतर दैहिक अतृप्ति का संसार रचती है. उसे पति का साथ चाहिए पर सास इस राह की सबसे बड़ी बाधा हैं. नतीजतन देवर के साथ उसका संबंध बनाता है और एक दिन वह उसी देवर के साथ घर छोड़ कर भाग जाती है. दुनिया की हर स्त्री के सुखों के  रंग चाहे एक दूसरे से जितना इतर हों उनके दुखों की तस्वीरें एक-सी होती हैं. स्त्री-स्त्री के बीच आदिम दुख का यही साझापन सार्वभौमिक भगिनीवाद की अवधारणा के मूल में हैं.

पितृसत्ता स्त्रियॉं के बीच पलनेवाली इसी साझेदारी को ध्वस्त करने के लिए नारी न मोहे नारी के रूपाऔर औरत ही औरतका  दुश्मन होती हैके झूठ को किसी सत्य की तरह प्रचारित करती रही है. ननद-भौजाई के पारंपरिक रिश्ते में व्याप्त तीखेपन को को मूर्त करते हुये भी सिनीवाली जहां कुमकुम और शांता के बीच पलने वाले उस बहनापे को पहचान पाती हैं वहीं गीताश्री अपनी कहानी में दो पीढ़ियों की तीन स्त्रियॉं के उपस्थिति के बावजूद उनके बीच बहनापे का कोई रिश्ता तो नहीं ही खोज पातीं बल्कि उन्हें बहुत हद तक एक दूसरे के सामने ला खड़ा करती हैं. विषय की राजनैतिक समझ के अभाव का ही यह नतीजा है कि प्रकटतः पितृसत्ता के प्रतिरोध में खड़ी होती दिखती यह कहानी स्त्रियॉं के खिलाफ पितृसत्ता द्वारा प्रचारित औरत ही औरत का दुश्मन होती हैके सबसे बड़े झूठ की ही पुष्टि कर जाती है. ऐसा नहीं है कि हितों की टकराहट की स्वाभाविकताओं के समानान्तर सरकार, कपरपुरावाली और रजौलीवाली के बीच बहनापे की गुंजाइश नहीं थी, बल्कि सच तो यह है कि इस बहनापे की संभावना के कई सूत्र कहानी में दिखाई पड़ते हैं, लेकिन कथाकार की दृष्टि उधर जाती ही नहीं, कारण बस वही- कहानी के मंतव्य और गंतव्य का निर्धारण.

यौन अतृप्ति का दंश झेलती कपरपूरावाली के लिए उसकी समस्या का येन केन प्रकारेण  समाधान खोज लेने की हडबड़ी जो कहानी में आद्योपांत दिखाई पड़ती है, कहानीकार को कहीं और देखने ही नहीं देती. कहानी के गंतव्य और मंतव्य का निर्धारण करतेहुए काश कहानीकार ने इस बात पर भी गौर किया होता कि कहानी का असली काम सवाल खड़े करना है, समाधान देना नहीं. जैसा ऊपर इस बात का उल्लेख है कि अपने स्त्री पात्रों कुमकुम और शांति की मानसिक बुनावट और उनकी मातृमूलक संवेदनाओं को ठीक-ठीक पहचानने के कारण सिनीवाली जहां उन्हें किसी अव्यावहारिक क्रान्ति का ध्वजवाहक बनाए बिना ही परिस्थितियों के पीछेछुपी हुई विडम्बना को सीधे पाठक मन से जोड़ देती हैं,वहीं गीताश्री अपनी कहानी के स्त्री पात्रों के असली पोटैन्शियल को ठीक-ठीक नहीं समझ सकने के कारण कहानी को एक असम्बद्ध और अबूझ अंत तक ले जाती हैं.

यदि कपरपुरावाली और राजौलीवाली के बीच बहनापे के उस सूत्र को जिसकी संभावना पूरी तरह कहानी में मौजूद है, को कहानीकार ने पहचाना होता तो कहानी का यही अंत उसे एक कलात्मक ऊंचाई तक ले जा सकता था. उग्र प्रतिक्रियावाद जो रेडिकल फेमिनिज़्म का अनिवार्य अवयव था और  जिसे बाद में खुद स्त्रीवादियों ने ही  अस्वीकार कर दिया, का प्रभाव इस कहानी के गंतव्य-निर्धारण  पर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है. हालांकि रेडिकल फेमिनिज़्म यौन व्यवहारों में विलिंगी साझीदार की अनिवार्यता को नकारते हुये आत्मतृप्ति या समलैंगिकता को ज्यादा अनुकूल समझता है. इस तरह प्रतिक्रियात्मक होने की हड़बड़ी में रेडिकल होने के बावजूद यह कहानी पूरी तरह  रेडिकल फेमिनिज़्म को भी आत्मसात नहीं करती है.

विषय की बहुआयामी समझ व रचनात्मक दृष्टि के अभाव तथा कहानी में निहित कुछेक संरचनात्मक-तथ्यात्मक झोल के कारण अन्हरिया रात बैरनिया हो राजामें चरित्रों का अपेक्षित विस्तार नहीं हो पाता है जबकि कहन और शैली की कुछ चूकों के बावजूद अधजलीस्पष्ट दृष्टि और राजनैतिक-मनोवैज्ञानिक समझ के कारण अपने सभी पात्रों के साथ न्याय करते हुये एक सुरुचिपूर्ण कथात्मक आस्वाद तक पाठक को ले जाने में सफल होती है.

प्रसंगवश आए अन्हरिया रात बैरनिया हो राजाके संदर्भ को यहीं छोडते हुये अब एक बार फिर अधजलीकी तरफ चलते हैं. गौरतलब है कि कुमकुम और शांति दोनों की त्रासदियों के लिए पितृसत्तात्मक  व्यवस्था ही ज़िम्मेवार हैं. कई बार स्त्री सरोकारों को लेकर लिखी गई कहानियाँ पितृसत्तात्मक व्यवस्था और पुरुषों को एक दूसरे का पर्याय मान लेती हैं. नतीजतन उन कहानियों में व्यवस्था के बजाय पुरुष ही अनिवार्यतः खल की भूमिका में आ खड़ा होता है. सिनीवाली इस कहानी में जिस सलाहियत के साथ महेंद्र के चरित्र को गढ़ती हैं, वह पुरुष होने के बावजूद महेंद्र को किसी खल की तरह नहीं प्रस्तावित करता बल्कि कहानी की संवेदनात्मक परिणतियों के बीच आकार लेती विवशताएँ और विडंबनाएं पितृसत्तात्मक व्यवस्था को कटघरे में ला खड़ा करती हैं. इन तमाम खूबियों के बावजूद अधजली एक निर्दोष कहानी नहीं है.


यह टिप्पणी अधूरी होगी यदि  कहन और शैली की उन चूकों पर बात न की जाय जिसकी तरफ मैंने ऊपर संकेत किया है. गौरतलब है कि यह कहानी अन्य पुरुष के नैरेशन के साथ शुरू होती है, जिसमें बारी-बारी से क्रमशः कुमकुम, शांति और महेंद्र का हस्तक्षेप होता है. बीच में कुछ जगहों पर कहानी को आगे बढ़ाने केलिए कथाकार ने कुछ संवादों का भी सहारा लिया है. लेकिन इस क्रम में नैरेटर कब अन्य पुरुष से प्रथम पुरुष में बदल जाता है, पता ही नहीं चलता. अन्य पुरुष वाले नैरेटर का प्रथम पुरुष (कभी कुमकुम तो कभी शांति तो कभी महेंद्र) में बदल जाना जाना पाठकों को खासा परेशान करता है. यह कोई शिल्पगत प्रयोग न होकर सीधे-सीधे लेखिका के हाथ से उसकी कथा-शैली का छूट जाना है. हर पात्र के अनुभव को अपने अनुभव की कसौटी पर कसने की प्रविधि का उपयोग करते हुये लेखिका कहानी को क्रमशः कुमकुम, शांति और महेंद्र के तीन स्वागत कथनों के शिल्प में लिख सकती थीं. इस कमी के बावजूद यह कहानी अपने कथ्य के विविध आयामों को पाठकों तक जिस दृष्टिसम्मत भावप्रवणता के साथ संप्रेषित करती है वह इसे उल्लेखनीय तो बनाता ही है. जाहिर है इस कहानी ने सिनीवाली की रचनात्मक जिम्मेवारियां बढ़ा दी हैं.
_______

Viewing all articles
Browse latest Browse all 1573

Trending Articles