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सबद भेद : विद्रोही की काव्य-संवेदना और भाषिक प्रतिरोध : संतोष अर्श

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कवि विद्रोही सालों तक अपनी कविता को ओढ़ते – बिछाते रहे. जिस तरह से उनके जीवन का कोई मध्यवर्गीय अनुशासन नहीं था उसी तरह से अपनी कविताओं को भी उन्होंने इस धरती और आकाश के बीच खुला और अकेला छोड़ दिया था. 

वह अक्सर अपनी कविताओं का खंडित पाठ किया करते थे जैसे वे इस अर्ध सामन्ती – अर्थ पूंजीवादी, ज्ञान और संवेदना से लगभग च्युत किसी भी तार्किकता के प्रति हिंसक समाज में रह रहे एक अकेले व्यक्ति का रूपक हों. उनके थोड़े से चाहने और सराहने वाले लोग थे, प्रबुद्ध माने जाने वाले विश्वविद्यालय जैसी जगह में भी उन्हें खदेड़ा ही जाता रहा. उनके होने को संदेह से देखा जाता था. उनकी कविताएँ और उनके विचारों से यह आसानी से समझा जा सकता है कि यह कवि राजनीतिक रूप से कितना चेतनशील था.

उनकी कविताओं का संकलन किया गया है जो ‘नयी खेतीके नाम से प्रकाशित है. उनकी कविताओं को समझने और मूल्यांकित करने के भी प्रयास हो रहे हैं. संतोष अर्श के इस आलेख को इसी क्रम में समझना चाहिए. विस्तार से विद्रोही की काव्य-संवेदना पर चर्चा की गयी है. ‘तगड़ा’ आलेख है.



ये विद्रोहीभी क्या तगड़ा कवि है !

    (रमाशंकर यादव विद्रोही : काव्य-संवेदना और भाषिक प्रतिरोध का विवेक)
    संतोष अर्श 

विद्रोही के व्यक्तित्व और उनकी कविताओं को चाहना शहराती और अपवर्डली मोबाइलसंवेदना के लोगों के लिए मुश्किल है. चाहे वे स्वयं साहित्य के सर्जक ही क्यों न हों. जब तक ऐसे लोग अपने भीतर झाँक कर अपनी आलोचना का रुख न अपनाएँ,विद्रोही से वे घृणा या हद से हद ईर्ष्या ही कर सकते हैं. दूसरी ओर हमने देखा कि पिछले साल पटना में जब विद्रोही गाँधी मैदान के इर्द-गिर्द चौराहों पर अपनी कविताएँ सुना चुके तो ठेले,खोमचे रखने वाले और दूसरे मेहनतकश जानना चाहते थे कि यह कवि कौन था,जो हमारी बातें कर रहा था.
-विद्रोही के संग्रह नयी खेतीकी भूमिका में प्रणय कृष्ण

रमाशंकर यादव विद्रोहीजिस वक़्त कविता रच और सुना रहे थे वह समय हिन्दी में कवियों की अधिकता और कविता की कमी का समय था. बहुत से अभिजात अफ़सर-प्रोफ़ेसर और मध्यमवर्गीय गिरोही,सांस्थानिक-अकादमिक,अघोषित-स्वघोषित,प्रचारित-प्रकाशित-स्थापित,पालित और जुगाड़ू कवियों से इतर विद्रोही अपनी भाषा की कविता में एलिएनेट होकर किनारे छूट गए (थे) या कर दिये गए.

जेएनयू कैंपस की पथरीली ज़मीन पर उगी झाड़ियों की सुरंग में किसी विक्षिप्त की भाँति रहने वाले विद्रोही से कविता का साथ नहीं छूट सका. हिंदी समाज ने उन्हें तीसरी दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय की चहारदीवारी के भीतर महदूद या क़ैद कर देने की पूरी कोशिश की लेकिन विद्रोही की आवाज़ बहुत बुलंद है. जिसने भी उनको कविता बाँचते सुना है,उसने इस बुलंदी को ज़रूर महसूस किया है. विद्रोहीको हिन्दी के दूसरे कवियों की तरह सामाजिक प्रतिष्ठा लखटकिया,दसलखटकिया इनामो-इकराम,तमगे आदि भले ही नहीं मिले लेकिन कविता के अपने समय में वे पढ़ने-लिखने वाले आंदोलनकारी युवाओं के सबसे प्रिय कवि बने और उनकी कविताएँ जिस उर्वर ज़मीन से अंकुरित हुईं थीं उसमें फूलने-फलने और पकने के बाद उन्हें हाथो-हाथ लिया गया,स्वीकारा गया और उनकी गूँज जनता की आवाज़ बन कर वर्चस्व की सत्ताओं तक पहुँची. इस तरह विद्रोही के कवि-कर्म ने उन्हें जनकवि बनाया और उनकी कविताओं की लोकप्रियता ने उन्हें लोक का कवि घोषित किया.            

जनकविरमाशंकर यादव विद्रोहीवर्तमान हिंदी कविता के समानान्तर एक बोहेमियन कवि साबित हुए. उनकी लोकप्रियता का पता हिंदी समाज को उनकी मृत्यु पर चला जब उनका नाम सोशल मीडिया के महत्त्वपूर्ण मंच फ़ेसबुक पर ट्रेंड कर रहा था. सिगरेट-चाय माँगकर पीने वाले अराजक कवि की यह लोकप्रियता देख कर दसियों संग्रहों में छपे और ज़बरदस्ती व्याख्यायित-आलोचित-शोधित सुकवि भौंचक्के रह गए. छपास रोग से मुक्त विद्रोहीवाचिक परंपरा के कवि थे,क्योंकि वे कविताएँ लिख कर पढ़ने के स्थान पर,खड़े होकर जबानी तैयार की गयी कविताओं का पाठ करते थे. इस कारण उनकी बहुत सी कविताएँ इधर-उधर बिखर गईं. किन्तु जन संस्कृति मंच ने उनकी बिखरी हुई तमाम कविताओं को एकत्र कर उनके एकमात्र संग्रह के रूप में प्रकाशित किया,जो नयी खेतीके नाम से प्रसिद्ध है.

नाम के अनुरूप विद्रोहीकी काव्य-संवेदना विद्रोही है जिसमें व्यवस्था और सत्ता के बने-बनाए ढाँचे का एक नकार है,जो अपनी ध्वन्यात्मकता और आवृत्ति से मजबूत प्रतिरोध उत्पन्न करती है. विद्रोही की कविता में चाल-पछोर कर निकाला गया गद्य का वह रूखा, रूपवादी आभिजात्य नहीं है जो इधर की हिंदी कविता पर कोहरे की भाँति छाया हुआ है. इसलिए इन कविताओं में मध्यवर्गीय रूपवादी शाब्दिक कलाभ्रम का अभाव है,जो वास्तव में वृद्ध पूँजीवाद की परछाई है. इनमें वर्तमान कवि-कर्म की वह सजगता भी नहीं है जो कवि को पुरस्कार-सम्मान और सामाजिक प्रतिष्ठा दिलाती है. इन सब के स्थान पर एक खाँटीपन है,एक बेपरवाही है जो इस बात का प्रमाण देती है कि विद्रोही ख़ालिस जनकवि हैं. विद्रोही की कविता उस अपवंचित जन की कविता है जो गाँव-कस्बों,खेत-खलिहानों,कारख़ानों में जुटा हुआ है. या जो महानगरों के फुटपाथों पर रात गुज़ार रहा है,कुलीगीरी कर रहा है,रिक्शा खींच रहा है या खोमचे लगा रहा है. इसलिए विचार के स्तर पर विद्रोही हिंदी में नागार्जुन और अदम गोंडवी की काव्य-संवेदना को आगे बढ़ाते हैं. उनकी परंपरा का विकास करते हैं.   

विद्रोही ने अपने कवि व्यक्तित्व को स्वयं गढ़ा है इसलिए कवि और कविता पर अभिव्यक्त हुए उनके विचार उनकी फक्कड़ छवि को कविताओं की संरचना तक खींच लाती है. जैसे अपने स्वयं के कवि के बारे में वे कहते हैं-

न तो मैं सबल हूँ
न तो मैं निर्बल हूँ
मैं कवि हूँ.
मैं ही अकबर हूँ,
मैं ही बीरबल हूँ. 

और कविता के बारे में विद्रोही अपनी एक कविता में कहते हैं-

तो क्या
आप मेरी कविता को सोंटा समझते हैं ?
मेरी कविता वस्तुतः
लाठी ही है,
इसे लो और भाँजो !
मगर ठहरो !
ये वो लाठी नहीं है जो
हर तरफ भंज जाती है
ये सिर्फ उस तरफ भंजती है
जिधर मैं इसे प्रेरित करता हूँ.  

विद्रोही कविता को लाठी की तरह भाँजना और इसे दूसरों के हाथ में भी देना चाहते हैं. यह लाठी वर्चस्व की सत्ताओं के विरुद्ध एक प्रतिरोध है जिसे विद्रोही का कवि अपने हाथ में लिए खड़ा है. यह लाठी कविता है. कविता को लाठी की तरह भाँजने के लिए भाँजनाआना चाहिए. भाँजने का एक गूढ़ भाषिक अर्थ है. इसलिए विद्रोही जब अपनी कविताओं में कहीं कविता की परिभाषा देते हैं तो कविता को अपने व्यक्तित्व के और भी नज़दीक खींचने की कोशिश करते हैं. यह कोशिश भी कविता से प्रतिरोध उत्पन्न करने की कोशिश जैसी लगती है. जैसे कविता के विषय में उनका एक काव्यात्मक विचार है:

कविता क्या है
खेती है
कवि के बेटा-बेटी है,
बाप का सूद है,माँ की रोटी है. 

कविता को बाप के सूद और माँ की रोटी से जोड़ने के पीछे कवि का वर्गीय दृष्टिकोण है. कवि या कलाकार अपने साहित्य में अपने वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है. विद्रोही का वर्ग निम्न मध्यवर्गीय किसान-मज़दूर वर्ग है. यह वर्ग वर्चस्व और पूँजी की सत्ताओं द्वारा शोषित है. न केवल शोषित है बल्कि उसकी आइडेंटिटी भी वैश्विक पूँजीवाद के घटाटोप में धुँधली हो गई है. विद्रोही की कविताएँ इन वर्चस्व की सत्ताओं के विरुद्ध एक प्रतिरोध रचती हैं.

चूँकि विद्रोही वाचक कवि हैं इसलिए उनकी कविताओं में भावावेग अधिक है. यह भावावेग उन्हें लोकानुरागी कवि बनाते हैं. भावाकुलता लोक-साहित्य की परंपरा का विशेष लक्षण है. बिना भावावेगों के साहित्य से लोक को जोड़ पाना जटिल है. इसीलिए विद्रोही की कविता में एक सरल बहाव है जो सामान्य-साधारण जन को भी अपनी ओर खींचता है. लोगों में स्वयं को घुलाकर यानी कवि द्वारा अपनी अस्मिता को अपने वर्ग की अस्मिता में मिलाकर काव्य रचना की गयी है. समूह के दु:ख और मुक्ति के नग्में कविता में आवेगों से ही स्थान बना पाते हैं. अतः विद्रोही की कविता का आवेगमय प्रवाह परिवर्तन और मुक्ति का प्रयोजन है. इकोनोमिक एंड पॉलिटिकल वीकली (EPW)में अपने लेख विद्रोही: एक बाग़ी वाचकमें विद्रोही की कविताओं पर टिप्पणी करते हुए धर्मराज कुमार ने लिखा है:

Those who have heard him reciting poetry know that his poetry recitation always appeared to be the true embodiment of ‘the spontaneous overflow of powerful feelings.’ Rather, it is not only ‘recollected in tranquility’, it is ‘recollected in turbulence’ as well. In the gap between every word lies love, affection and memory. His literariness is expressed through language bereft of pedantic diction. Reading his poetry is like celebrating the people’s revolt against all forms of religious bigotry, injustice and violence.
  
( Vidrohi: A rebel Reciter, Economic & Political weekly, voll- 10, March, 2017 )                        

धर्मराज कुमार के उपर्युक्त कथन का अभिप्राय यह है कि विद्रोही की कविता संवेदनात्मक आवेगों के सहज प्रवाह का मूर्तीकरण है. वर्ड्सवर्थ के प्रसिद्ध कथन की शांतचित्तताके स्थान पर उन्होंने विक्षोभरख दिया है. इस कथन का सत्व यह भी है कि विद्रोही अपने शब्द-विन्यास में जन-प्रेम के दु:ख और स्मृतियों को गूँथ कर कविता में एक उल्लास रचते हैं. प्रत्येक तरह की धर्मांधता,अन्याय और हिंसा के प्रति विद्रोह करते हैं.    

विद्रोही की कविताओं में प्रतिरोध मुखर है,संश्लिष्ट भी है. यह वर्गीय शोषकों के प्रति आक्रोश के रूप में है. धर्म,ईश्वर की सत्ता और उसकी कट्टरता,हिंसा के विरुद्ध है. स्त्री की ओर से उसके शोषकों और उन पितृसत्तात्मक सामाजिक ढर्रों के विरुद्ध है जो स्त्री-अस्मिता की चोरी करते हैं. जातीय विद्रूपताओं के बरक्स है,उन धारणाओं के विरुद्ध जो जाति आधारित शोषण की संस्कृति निर्मित करती हैं. विद्रोही का प्रतिरोध सभी तरह की शोषक सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक संरचनाओं के विरुद्ध है. उन्हें पूँजीवादी शोषण के समक्ष जनता की शक्ति पर यक़ीन है. और यह जन-आस्था आवेग बन कर विद्रोही की कविताओं में हिलोरें मारती है:

हम एक बित्ता कफ़न के लिए
तुम्हारे थानों के थान फूँक देंगे
और जिस दिन बाहों से बाहों को जोड़कर
हूमेगी ये जनता
तो तुम नाक से खून ढकेल दोगे मेरे दोस्त  

जनता के दु:खों का घड़ा जब भर जाएगा तब वह अपने दु:खों का हिसाब लेने के लिए खड़ी होगी ऐसा विश्वास कवि की कविताओं में अभिव्यंजित होता है. वस्तुतः सच्चा जनकवि वही है,जिसमें प्रगाढ़ जन-आस्था हो. विद्रोही जन-आस्था के कवि हैं. और यह जन-आस्था जन-प्रतिरोध बनकर उनकी कविताओं में अर्थ ग्रहण करती है:

जनता मारती जाती है और रोती जाती है
और जब मारती है तो
किसी की सुनती नहीं
क्योंकि सुनने के लिए उसके पास
अपने ही बड़े दु:ख होते हैं

जनप्रतिबद्धता विद्रोही की कविताओं का बीज भाव है. उनकी तमाम कविताओं में जन अपनी वर्गीय विषमताओं के साथ खड़ा होता है. उसे साधारण से विशिष्ट बनाने के लिए कवि भी कविता में उसके साथ खड़ा होता है. कवि उसके दु:खों का ऐतिहासिक कारण उसे बताता है,और उसे सहज करने के प्रयास कविता में करता है. जनप्रतिबद्धता विद्रोही की कविताओं में एक संकल्प की भाँति है:
मेरी पब्लिक ने मुझको हुक्म है दिया
कि चाँद तारों को मैं नोंच कर फेंक दूँ
या कि जिनके घरों में अगिन ही नहीं
रोटियाँ उनकी सूरज पर मैं सेंक दूँ    

विद्रोही जनता के सत्य को सरल बनाने और उसे प्रमाणित करने के लिए वैश्विक प्रसंगों को कविता में प्रस्तुत करते हैं. विद्रोही की यह वैश्विक दृष्टि विश्व राजनीति और उसकी भौगोलिक संस्कृति से निर्मित होती है. उनकी लंबी कविताओं में अब्राहम लिंकन से लेकर चे ग्वेरा,फिदेल कास्त्रो,बिल क्लिंटन,हेमिंग्वे,स्पार्टकस तक आते हैं. सवाना के जंगलों से लेकर बंगाल के मैदानों तक की वैश्विक भौगोलिकता भी उनकी कविताओं में रचाव ग्रहण करती है. प्राचीन सभ्यताओं- सिंधु,मोहनजोदड़ो,बेबीलोनिया,मेसोपोटामियाके उल्लेख से वे अपनी कविताओं को ऐतिहासिक और भौगोलिक विस्तार देते हैं. यह सभी लक्षण विद्रोही की सजग विश्वदृष्टि का परिचय देते हैं और उनकी कविताओं की सांद्रता में वृद्धि करते हैं.

विद्रोही की काव्य-संवेदना में आधुनिकता और उत्तर-आधुनिकता के रंग-ढंग एक साथ मिलते हैं. स्वयं पर बनी बायोग्राफिकल डाक्युमेंट्री फ़िल्म मैं तुम्हारा कवि हूँ (निर्देशक नितिन पमनानी) में वे एक स्थान पर आधुनिकता की स्वनिर्मित परिभाषा देते हुए पहले आधुनिकता पर रवीन्द्रनाथ टैगोर के विचार को उद्धृत करते हैं. वे कहते हैं कि टैगोर ने आधुनिकता की परिभाषा दी, True modernism is freedom of thought and independence of mind (सच्ची आधुनिकता विचार की स्वतन्त्रता और मस्तिष्क की स्वाधीनता है),लेकिन इसे मैं इस प्रकार कहता हूँ कि, true modernity is fearlessness of consciousness (सच्ची आधुनिकता चेतना की भयमुक्तता है).भारतीय समाज की वर्गीय और जातीय विषमता इस प्रकार की है कि उसके सत्य को कविताओं से प्रकट करने के लिए विद्रोही कहीं आधुनिक हैं और कहीं उत्तर आधुनिक हैं. अपनी एक कविता में वे स्वयं कह रहे हैं कि वे उत्तर आधुनिक हैं:

मैं फैंटास्टिक होने लगता हूँ
और सारा भूगोल
उस भूगोल का ग्लोब
मेरी हथेलियों पर नाचने लगता है.
और मैं महसूसने लगता हूँ
कि मैं खुद में एक प्रोफाउंड
उत्तर आधुनिक पुरुष पुरातन हूँ.
मैं कृष्ण भगवान हूँ
अंतर सिर्फ यह है कि
मेरे हाथों में चक्र की जगह
भूगोल है,उसका ग्लोब है.
मेरे विचार सचमुच में उत्तर आधुनिक हैं.
मैं सोचता हूँ कि इतिहास को
भूगोल के माध्यम से,एक कदम आगे ले जाऊँ
कि भूगोल की जगह
खगोल लिख दूँ.

आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता के ये भिन्न रंग विद्रोही की कविताओं में परिलक्षित होते हैं. हाशिए की अस्मिताओं की ओर से विद्रोही की कविताओं में जो प्रतिरोध है,निश्चय ही वह उत्तर-आधुनिक प्रभाव हैं. विद्रोही अपनी कविताओं में पुरुष नारीवादी हैं. इस नारीवाद को शार्प करने के लिए उन्होंने जो भाषा-शैली अपनाई है वह उनके समकाल के कवियों से भिन्न और उत्तर-आधुनिक प्रभावों वाली है. स्त्री को लेकर विद्रोही ने सुंदर कवितायें रची हैं,जो रचनात्मक,कलात्मक स्त्रीवाद का एक रूप हैं. वे स्त्री अस्मिता की तलाश में मोहनजोदड़ो के तालाब की अंतिम सीढ़ी तक जाते हैं,जहाँ एक औरत की जली हुई लाश पड़ी है:
मैं वहाँ से बोल रहा हूँ
जहाँ मोहनजोदड़ो के तालाब की आखिरी सीढ़ी है
जिस पर एक औरत की जली हुई लाश पड़ी है
और तालाब में इंसानों की हड्डियाँ बिखरी पड़ी हैं
इसी तरह एक औरत की जली हुई लाश
आपको बेबीलोनिया में भी मिल जाएगी  

विद्रोही के स्त्रीवाद में भावुक सरलता है. उसमें उलझाव और जटिलता नहीं है. विद्रोही के सत्य को सरलीकृत करने के मासूम प्रयास उनकी स्त्रीवादी कविताओं में और भी स्पष्ट दिखाई देते हैं: 

एक औरत जो माँ हो सकती है
बहिन हो सकती है
बेटी हो सकती है
मैं कहता हूँ
हट जाओ मेरे सामने से
मेरा ख़ून कलकला रहा है
मेरा कलेजा सुलग रहा है
मेरी देह जल रही है
मेरी माँ को,मेरी बहिन को,मेरी बीवी को
मेरी बेटी को मारा गया है
मेरी पुरखिनें आसमान में आर्तनाद कर रही हैं.
मैं इस औरत की जली हुई लाश पर
सिर पटक कर जान दे देता
अगर मेरी एक बेटी न होती तो...
और बेटी है कि कहती है
कि पापा तुम बेवजह ही
हम लड़कियों के बारे में इतने भावुक होते हो !
हम लड़कियाँ तो लकड़ियाँ होती हैं
जो बड़ी होने पर चूल्हे में लगा दी जाती हैं

भारतीय समाज में पितृसत्ता की खोज के लिए विद्रोही प्रचलित दंतकथाओं और मिथकों में भी सेंध लगाते हैं. उनमें पितृसत्ता के प्रारम्भ और उसकी स्थापना को ढूँढने की जो बेचैनी है,वह स्त्रीवाद की ओर से,या स्त्री-अस्मिता के साथ निष्ठा से खड़े होने के उद्देश्य के लिए है. वे पितृसत्ता की स्थापना को ढूँढ भी लेते हैं:

इतिहास में पहली स्त्री की हत्या
उसके बेटे ने उसके बाप के कहने पर की
जमदग्नि ने कहा कि ओ परशुराम
मैं तुमसे कहता हूँ कि अपनी माँ का वध कर दो
और परशुराम ने कर दिया.
इस तरह से पुत्र पिता का हुआ
और पितृसत्ता आई  

विद्रोही का स्त्रीवाद भारतीय समाज की अंतिम स्त्री तक पहुँचता है. वह केवल उस स्त्री तक सीमित नहीं है,जिसके समक्ष केवल देह और आर्थिक असमानता के प्रश्न हैं. विद्रोही का स्त्रीवाद गाँव-कस्बों की औरतों तक पहुँचता है. अपने समाज में स्त्रियों की स्थिति पर वे सिर्फ़ कारुणिक सहानुभूति प्रकट नहीं करते,बल्कि उसके साथ खड़े हो कर,उसके लिए संघर्ष करने के लिए तैयार हैं. इस संदर्भ में विद्रोही की औरतेंनाम की लंबी कविता समकालीन हिंदी कविता में विशेष आलोच्य है:

कुछ औरतों ने
अपनी इच्छा से
कुएँ में कूद कर जान दी थी
ऐसा पुलिस के रिकार्डों में दर्ज़ है.
और कुछ औरतें
चिता में जल कर मरी थीं
ऐसा धर्म की किताबों में लिखा है
....मैं एक दिन पुलिस और पुरोहित
दोनों को एक ही साथ
औरतों की अदालत में तलब कर दूँगा
और बीच की सारी अदालतों को
मंसूख कर दूँगा.   

विद्रोही की औरतेंकविता में स्त्री की वर्गीय स्थिति पर भी ज़ोर है. जैसे कि विद्रोही जानते हैं कि स्त्री की वर्गीय स्थितियाँ भिन्न होती हैं. वर्गीय स्थितियों के अनुसार स्त्री के साथ हो रहे अन्याय और अत्याचार भी भिन्न होते हैं. भारत जैसे समाज में जहाँ केवल लैंगिक असमानता ही नहीं है,वर्गीय और जातीय असमानताएँ भी हैं,वहाँ विद्रोही उस स्त्री के साथ अपनी कविता में पूरे विवेक साथ खड़े हैं,जो सबसे कमज़ोर स्थिति में,सबसे उपेक्षित स्थान पर खड़ी है:

मुझे महारानियों से ज़्यादा चिंता
नौकरानियों की होती है
जिनके पति जिंदा हैं
और बेचारे रो रहे हैं
कितना ख़राब लगता है एक औरत को
अपने रोते हुए पति को छोड़कर मरना
जबकि मर्दों को रोती हुई औरतों को मारना भी
ख़राब नहीं लगता.
औरतें रोती जाती हैं
मरद मारते जाते हैं
औरतें और ज़ोर से रोती हैं
मरद और ज़ोर से मारते हैं.
औरतें ख़ूब ज़ोर से रोती हैं
मरद इतने ज़ोर से मारते हैं कि
वे मर जाती हैं.

औरतेंकविता पुरुष कवि की मुखर और ठोस स्त्री-प्रतिरोध की रचना है. इसमें भारतीय पितृसत्ता के ऐतिहासिक स्वरूप की परतें खोली गईं हैं. पितृसत्ता को धर्म और ईश्वर के साथ-साथ राजनीतिक सत्ताओं का भी प्रश्रय मिलता रहा है. तभी पितृसत्ता ऐतिहासिक रूप से शक्तिशाली रही है और जिससे स्वतंत्र होने के लिए स्त्री अभी तक संघर्ष कर रही है. विद्रोही अपनी कविता में स्त्री के इसी ऐतिहासिक संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिए उसकी ओर से प्रतिरोध रचते हैं:

एक औरत की लाश
धरती माता की तरह होती है दोस्तों
जो खुले में फैल जाती है
थानों से अदालतों तक.
मैं देख रहा हूँ कि
ज़ुल्म के सारे सबूतों को मिटाया जा रहा है.
चन्दन चर्चित मस्तक को उठाए हुए पुरोहित
और तमगों से लैस सीनों को फुलाए हुए सैनिक
महाराज की जय बोल रहे हैं
वे महाराज जो मर चुके हैं
और महारानियाँ सती होने की तैयारियाँ कर रही हैं
और जब महारानियाँ नहीं रहेंगी
तो नौकरानियाँ क्या करेंगी ?
इसलिए वे भी तैयारियाँ कर रही हैं.

विद्रोही अपनी कविता में स्त्री के वक़ील बन जाते हैं और पीड़ित स्त्रियों की वकालत करते हैं. इस एडवोकेसी में उनके पास सही दलीलें और मजबूत साक्ष्य हैं,तर्क हैं. उनके पास स्त्री पर हुए ऐतिहासिक अत्याचारों के पुलिंदे हैं. वे दस्तावेज़ हैं जो पितृसत्ता को स्त्रियों के लिए बर्बर और अमानवीय सिद्ध करते हैं. विद्रोही ने स्त्री की वर्गीय स्थितियों को बड़े धैर्य से निहारा है. इस निहारने में स्नेह और करुणा की बीनाई इस्तेमाल होती है जो कविता की आँख में प्रस्फुटित होती है. इस निगाह से कवि स्त्री को सही तरह से जानने का दावा करता है:
मैं उन औरतों को
जो कुएँ में कूदकर या चिता में जल कर मरी हैं
फिर से जिंदा करूँगा
और उनके बयानात को
दुबारा कलमबंद करूँगा
कि कहीं कुछ छूट तो नहीं गया
कि कहीं कुछ बाक़ी तो नहीं रह गया
कि कहीं कोई भूल तो नहीं हुई
क्योंकि मैं उस औरत के बारे में जानता हूँ
जो अपने एक बित्ते के आँगन में
अपनी सात बित्ते की देह को ता-ज़िंदगी समोए रही और
कभी भूलकर बाहर की तरफ झाँका भी नहीं. 


विद्रोही की कविताओं की स्त्री संवेदना न केवल पितृसत्ता और स्त्री को उत्पीड़ित करने वाली सत्ताओं के विरुद्ध एक प्रतिरोध रचती है,वरन हमें मर्माहत करके भीतर तक झकझोर देती है. इन कविताओं में स्त्री का सामाजिक रूप चित्रित हुआ है. वह कहीं भी सौंदर्य के मांसल रूप में नहीं है,वह बहन,बेटी और दादी-नानी के रूप में है. मेहनतकश के रूप में है, वह वर्गीय स्थितियों के साथ है और विद्रोही का पुरुष उसके साथ है.

विद्रोही की कविताओं में धर्म और ईश्वर के प्रति भी एक प्रतिरोध है. यह प्रतिरोध धर्म और ईश्वर के बल पर होने वाले शोषण के बरक्स रचा गया है. विद्रोही वैज्ञानिक वैचारिकी के कवि हैं. वे ऐतिहासिक भौतिकवाद से प्राप्त सत्य को सरलीकृत करने का प्रयास अपनी कविताओं में करते हैं. इस सत्य में, मनुष्य-मनुष्य समान है,स्त्री-पुरुष समान हैं. उनमें भेद पैदा करने वाली शक्तियों के सामने ही उनकी कविता प्रतिरोध रचती है. मनुष्य का शोषण करने वाली किसी भी तरह की सत्ता उन्हें स्वीकार्य नहीं है. धर्म और ईश्वर की सत्ता वर्चस्ववादी है क्योंकि उससे जुड़ा हुआ आनुषंगिक दर्शन शोषण को सही ठहरा देता है. वे धर्म के राजनीतिक रूप को पहचानते हैं. धर्म का राजनीतिक रूप पूँजीवादी शोषण की राह आसान कर देता है. इसलिए विद्रोही अपनी धरमशीर्षक कविता में लिखते हैं:

धर्म आख़िर धर्म होता है
जो सूअरों को भगवान बना देता है
चढ़ा देता है नागों के फन पर
गायों का थन
धर्म की आज्ञा है कि लोग दबा रखें नाक
और महसूस करें कि भगवान गंदे में भी गमकता है
जिसने भी किया है संदेह
लग जाता है उसके पीछे जयंत वाला बाण
और एक समझौते के तहत
हर अदालत बंद कर लेती है दरवाज़ा

भारत में जाति आधारित शोषण धर्म के आनुषंगिक रूपों से जुड़ा रहा है. वर्ण-व्यवस्था जातीय आधार पर होने वाले भेद-भाव को भी धर्म से जोड़ देती थी और उसे न्यायसंगत ठहरा देती थी. जाति-भेद को एक धार्मिक अनुमति प्रदान रही है. धर्म के सहारे इसे स्वीकार्यता मिलती थी. विद्रोही अपनी कविता में इसे सोदाहरण प्रस्तुत करते हैं:

मर्यादा पुरुषोत्तमों के वंशज
उजाड़ कर फेंक देते हैं शंबूकों का गाँव
और जब नहीं चलता इससे भी काम
तो धर्म के मुताबिक़
काट लेते हैं एकलव्यों का अँगूठा
और बना देते हैं उनके ही खिलाफ़
तमाम झूठी दस्तख़तें. 

धर्माधारित जातीय श्रेष्ठता की भावना जातिभेद को जन्म देती है. जातीय श्रेष्ठता की भावना को स्थापित करने में शास्त्रों और धर्मग्रंथों का विशेष प्रयोग किया गया है. तमाम धर्मग्रंथों में वर्ण और जाति के आधार पर भारतीय समाज के लोगों को उच्च-हीन,हेय-श्रेष्ठ बताया गया है. जाति-भेद पूँजीवादी शोषण का मार्ग और भी समतल कर देता है. इस प्रकार समाज के कमज़ोर वर्गों के दोहरे शोषण की प्रक्रिया जन्म लेती है:

धरम देश से बड़ा है
उससे भी बड़ा है धरम का निर्माता
जिसके कमज़ोर बाजुओं की रक्षा में
तराशकर गिरा देते हैं
पुरानी पोथियों में लिखे हुए हथियार
तमाम चट्टान तोड़ती छोटी-छोटी बाहें
क्योंकि बाह्मन का बेटा
बूढ़े चमार के बलिदान पर जीता है.

धर्म से ही ईश्वर का जन्म होता है. धर्म ईश्वर को मनचाहा रूप दे देता है. विद्रोही ऐतिहासिक भौतिकवाद के अनुसार जड़-जगत को ही सत्य मानते हैं और जन के सिवाय किसी अन्य पारलौकिक सत्ता पर संदेह जताते हैं,उसे अस्वीकार करते हैं. इस एथिस्टिकल या अनीश्वरवादी एप्रोच से वर्चस्व की शोषणकारी सत्ताओं का प्रतिरोध करते हैं. वे ईश्वर को राजा यानी वर्चस्व या पूँजी की सत्ता का सहयोगी मानते हैं:

और ईश्वर तो ख़ैर राजा के घोड़ों की
घास ही छीलता रहा
बड़ा नेक था बेचारा ईश्वर
राजा का स्वामिभक्त
पर अफ़सोस है कि अब नहीं रहा
बहुत दिन हुए मर गया
और जब मरा तो राजा ने उसे क़फ़न भी नहीं दिया
दफ़न के लिए दो गज़ ज़मीन भी नहीं दी.
किसी को नहीं पता है कि ईश्वर को कहाँ दफ़नाया गया.
ख़ैर ईश्वर मरा अंततोगत्वा
और उसका मरना ऐतिहासिक सिद्ध हुआ
ऐसा इतिहासकारों का मत है
इतिहासकारों का मत ये भी है
कि राजा भी मरा
उसकी रानी भी मरी
और उसका बेटा भी मर गया
राजा लड़ाई में मर गया
रानी कढ़ाई में मर गयी
और बेटा,कहते हैं कि पढ़ाई में मर गया. 

उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में जर्मन दार्शनिक फ़्रेडरिक नीत्शे ने ईश्वर की मृत्यु की घोषणा कर दी थी. दुनिया के बड़े हिस्से में धर्म और ईश्वर पर आधारित अंधविश्वास व पाखण्ड भौतिकवादी जीवन के समक्ष अशक्त हो गया. विज्ञान के आविष्कारों और नवीन ज्ञान की प्रशाखाओं ने मनुष्य का जीवन पहले से अधिक सुलभ और सरल कर दिया. किन्तु भारत में धर्म और ईश्वर आधारित पाखण्ड,अंधविश्वास और शोषण बरकरार रहा. विशेष कर विद्रोही के वर्ग के समाज में,जहाँ ज्ञानोदय की किरणें अब तक अपने वास्तविक रूप में नहीं पहुँच सकीं. विद्रोही ईश्वर की झूठी घोषणाओं के प्रतिपक्ष में अपनी बात रखते हैं:        

ये ख़ुदा का हल्ला झूठा है
ये मेरा हाजी कहता है
लुकमे के लिए लुक़मान अली
अल्ला-अल्ला चिल्लाता है 

नयी खेतीशीर्षक कविता जिसके नाम पर उनके संग्रह का भी नाम है. ईश्वर के विरुद्ध एक घोषणा है. जनकवियों ने ईश्वर के विरुद्ध हमेशा एक प्रतिरोध रचा है क्योंकि वे ईश्वर के नाम पर होने वाले शोषण को वर्गीय दृष्टिकोण से देखते रहते थे. नागार्जुन ने कभीकल्पना के पुत्र हे भगवानजैसी कविता लिखी थी. विद्रोही की नई खेती कविता का किसान कहता है कि ईश्वर है नहीं,उसे उगाया गया है:

मैं किसान हूँ
आसमान में धान बो रहा हूँ
कुछ लोग कह रहे हैं
आसमान में धान नहीं जमता
मैं कहता हूँ कि
गेगले घोघले
अगर ज़मीन पर भगवान जम सकता है
तो आसमान में धान भी जम सकता है.

धर्म,क्षेत्र और जाति के अलगाव पर होने वाले सांप्रदायिक क्षेत्रीय दंगों की पड़ताल भी विद्रोही करते चलते हैं. उनकी कविताओं में मज़हबी दंगों के साथ-साथ अन्य तरह के सामाजिक विभेदों पर होने वाले रक्तपात और खूँरेज़ी पर गहरी चोट है. वे समझाते चलते हैं कि ये विभेद अपनी-अपनी राजनीति को चमकाने के लिए हैं. और इन विभेदों का सहयोगी नव-साम्राज्यवाद है:

यह हादसा है
यहाँ से वहाँ तक दंगे
जातीय दंगे
सांप्रदायिक दंगे
क्षेत्रीय दंगे भाषाई दंगे
यहाँ तक कि क़बीलाई दंगे
आदिवासियों और वनवासियों के बीच दंगे
यहाँ राजधानी दिल्ली तक होते हैं
और जो दंगों के व्यापारी हैं
वे यह भी नहीं सोचते कि इस तरह तो
यह जो जम्बूद्वीप है
शाल्मल द्वीप में बदल जाएगा
और यह जो भारत खंड है,अखंड नहीं रहेगा
खंड-खंड हो जाएगा

पूँजीवाद के उत्तर आधुनिक रूप ने अस्मिताओं की टकराहट बढ़ा दी है. उसने राजनीति को समाज-केंद्रितता से हटा कर व्यक्ति केन्द्रित किया है. सांस्कृतिक अतीतमोह और जातीय श्रेष्ठता की मिथ्या भावना का नव-संचार हमारे समय की राजनीति ने किया है. इसलिए अस्मिताओं का द्वंद्व बढ़ता जा रहा है. यह नव-साम्राज्यवाद का सहयोगी पक्ष है. जितना अधिक सामाजिक विभेद होगा,राजनीति और सत्ताएँ उतनी निरंकुश होती जाएंगी तथा शोषण की प्रक्रिया उतनी ही आसान होती जाएगी. अमरीकी संस्कृति के उपभोग ने भारत के सभी वर्गों में अस्मिता का संकट बढ़ाया है. यह खाते-पीते,क्रयक्षमतायुक्त मध्यवर्ग में अधिक है. राजनीति का रुख़ भी दिन प्रतिदिन ऐसा ही होता जा रहा है:

ये बदमाश लोग कुछ मान नहीं रहे हैं
न सामाजिक न्याय मान रहे हैं
न सामाजिक जनवाद की बात मान रहे हैं
एक मध्ययुगीन सांस्कृतिक तनाव के चलते
तनाव पैदा कर रहे हैं
टेंशन पैदा कर रहे हैं/
जो अमरीकी संस्कृति की विरासत है.
ऐसा हमने पढ़ा है
यह सब बातें मैंने मनगढ़ंत नहीं गढ़ी हैं
पढ़ा है और अब लिख रहा हूँ
कि दंगों का व्यापारी
मुल्ला के अधिकार की बात उठा रहे हैं
साहूकारों,सेठो,रजवाड़ों के अधिकार की बात उठा रहे हैं.

सांप्रदायिक राजनीति में पूँजीवाद के हित निहित होते हैं. सांप्रदायिकता को हवा देकर पूँजी अपने साम्राज्य का विस्तार करती है. फ़ासीवाद हमेशा पूँजी के रथ पर सवार हो कर आता है. विद्रोही की कवितायें इस उत्तर आधुनिक नव-साम्राज्यवाद को चिह्नित करती हैं. वे अत्याधुनिक साम्राज्यवाद की पहचान करने की दृष्टि देती हैं. विद्रोही साम्राज्यवाद के ऐतिहासिक लक्षणों को अपनी कविता में उद्धृत करते हैं और उसे अपने समय के साम्राज्यवाद से जोड़ते हैं. विद्रोही का यह इतिहासबोध उनके पाठक को उसके समय को जानने का अवकाश देता है. यह अवकाश प्रतिरोध की संवेदना को मुखर करता है:

साम्राज्य आख़िर साम्राज्य ही होता है
चाहे वो रोमन साम्राज्य हो
चाहे वो ब्रिटिश साम्राज्य हो
या अतिआधुनिक अमरीकी साम्राज्य.
जिसका एक ही काम है कि
पहाड़ों पर
पठारों पर
नदी किनारे
सागर तीरे
मैदानों में इन्सानों की हड्डियाँ बिखेर देना.
जो इतिहास को तीन वाक्यों में
पूरा करने का दावा पेश करता है
कि हमने धरती पर शोले भड़का दिए
कि हमने धरती में शरारे भर दिए
कि हमने धरती पर इन्सानों की हड्डियाँ बिखेर दीं.

विद्रोही की कवितायें ऐतिहासिक और कालिक साम्राज्यों के विरोध में हैं. ये साम्राज्यवादी नीतियों के सामने एक एक्टिविस्ट की भाँति खड़ी होने की व्यंजना से भरी हुई हैं. विद्रोही की काव्य-संवेदना भाषिक और ध्वन्यात्मक विन्यास से प्रतिरोध रचती है. नयी खेतीसंग्रह की लंबी कवितायें इस प्रतिरोधात्मक सम्प्रेषण को धारण किए हुए हैं. लंबी कविता के रचाव में जो तनाव होता है,वह विद्रोही की लंबी कविताओं में अभिव्यक्त हुआ है. यह तनाव प्रतिरोध का तनाव है. वाचक कवि जन-संवाद करने के लिए जिस जनभाषा का प्रयोग करते हैं विद्रोही की कवितायें उसी जन-भाषा से रची गयी हैं. विद्रोही इक्कीसवीं सदी की विसंगतियों के प्रतिरोधी कवि हैं. विद्रोही की कविताएँ सांस्कृतिक अवबोध की प्रतिरोधी कविताएँ हैं.

विद्रोही की कविताओं का शिल्प क़ाबिले-गौर है. इसमें कुछ बातें हिंदी की समकालिक कविता से बेहद ज़ुदा हैं. कुछ लंबी कविताएँ हैं जिनमें पंक्तियों का दोहराव है और जिन्हें विद्रोही साँसों के उतार-चढ़ाव के साथ पढ़ते थे. जिन्हें ये कविताएँ उनकी आवाज़ में सुनने को मिली हैं वे इस दोहराव का मूल्य समझ सकते हैं. यह लोक परंपरा का दोहराव है. इसमें अंत्यानुप्रासिक शब्द प्रयोग के साथ वाक्य का दोहराव भी है. जैसे कि एक कविता में-

राजा लड़ाई में मर गया
रानी कढ़ाई में मर गयी
और बेटा,कहते हैं कि
पढ़ाई में मर गया.

लड़ाई,कढ़ाई और पढ़ाई के काफ़िए से कविता में नाटकीयता पैदा होती है और वाचक के श्रोता को बाँधती है. इसी प्रकार यह प्रयोग हम औरतेंकविता में भी देखते हैं. यह नाटकीयता पैदा करने में सफल प्रयोग है: 
औरतें रोती जाती हैं
मरद मारते जाते हैं 
औरतें और ज़ोर से रोती हैं
मरद और ज़ोर से मारते हैं

व्यंग्य पैदा करने में ऐसे प्रयोग ख़ूब सफल हुए हैं. डार्विन सूत्रकविता एक ऐसी कविता है जिसमेंमनुष्य मनुष्य की समानता को बताने के लिए ऐसा ही प्रयोग किया गया है:

लेकिन मैं कहता हूँ कि
यही मज़ाक किसी दिन सुज़ाक हो जाएगा
क्योंकि जनता बहुत कज़्ज़ाक है.         

शिल्प में स्मृति और भौगोलिकता का प्रयोग भी अत्यंत बहाव के साथ लंबी कविताओं में देखा जा सकता है. स्मृति में दादी-नानी हैं. नानीकविता इस संदर्भ में महत्वपूर्ण है. नानी की स्मृति को भौगोलिकता और ऐतिहासिक आर्किटेक्चर से उपमा देकर उदात्त बनाने के प्रयास इस कविता में दीखते हैं. यह स्मृति को भौगोलिकता के विस्तार और वास्तु के अनूठेपन से प्रगाढ़ कर देती है.

और मेरी नानी की नाक,नाक नहीं पीसा की मीनार थी
और मेरी नानी की देह,देह नहीं आर्मीनिया की गाँठ थी
पमीर के पठार की तरह समतल पीठ वाली मेरी नानी
जब कोई चीज़ उठाने के लिए ज़मीन पर झुकती थी
तो लगता था
जैसे बाल्कन झील में काकेसस की पहाड़ी झुक गयी हो
बिलकुल एस्किमो बालक की तरह लगती थी मेरी नानी
और जब घर से निकलती थीं
तो लगता था जैसे,हिमालय से गंगा निकल रही हो... 

कहीं-कहीं उपमाएँ देने के इस प्रयोग में उत्प्रेक्षा का फलन है. और इन उपमाओं में त्वरा के साथ नयापन भी है. ऐसे बहुत प्रयोग हैं,जिनमें से कुछ देखने चाहिए-
और जब चीख कर डाँटती थी
तो ज़मीन इंजन की तरह हाँफने लगती थी....
और गला,द्वितीया के चंद्रमा की तरह
मेरी नानी का गला पता ही नहीं चलता था
कि हँसुली गले में फँसी है या गला हँसुली में फँसा है... 

ये उपमाएँ लोकजीवन के अनुपम सौंदर्य को धारण किए हुए हैं जो कवि के लोकजीवी मन की रसना उसकी कविताओं में घोल देता है. हँसुलीएक आभूषण है जो चंद्रमा की भाँति दिखता था और चाँदी का ही बनता था. लेकिन विद्रोही की नानी का गला ही द्वितीया के चंद्रमा जैसा है. अर्थालंकारों का अतिक्रमण करने के लिए विद्रोही ने एक सचमुच के अलंकार का प्रयोग किया है इस कविता में. लोकजीवन का प्रमुख भाग उसमें प्रचलित मुहावरे और वे दंतकथाएँ और किंवदंतियाँ भी हैं जिनमें लोक उलझता सुलझता रहता है. विद्रोही ने अपनी कविताओं में इन दंतकथाओं के पात्रों और घटनाक्रमों का काव्यात्मक प्रयोग किया है. इनसे जो व्यंग्य ध्वनित हुआ है उससे कविताओं को अर्थविस्तार की प्राप्ति हुई है. दंतकथाओं के पात्रों के नाम और उनके उद्धरण से कवि अपनी बात कहता है क्योंकि वह लोक की रुचियों से परिचित है. मर्यादा पुरुषोत्तमों के वंशज,उजाड़ कर फेंक देते हैं शंबूकों का गाँव’, ‘तू तो है सुकन्या,और तेरा नूर मियाँ है च्यवन ऋषि’, ‘हे राजा दक्ष की प्रजाओं ! अब तुम मुझ व्यास से सुनो वह कथा’, ‘और इधर साधू बनिया का जहाज,लतापत्र हो चुका है,कन्या कलावती हठधर्मिता कर रही हैजैसे लोकजीवन की कथाओं के उद्धरण और पात्रों के नामों को काव्यपंक्तियों में प्रयोग कर विद्रोही उन्हें डिकोड करते हैं. यह उनकी कविताओं के शिल्प का ही एक भाग है.

विद्रोही की भाषा पूर्वी अवधी की मिठास है जिस पर भोजपुरी का पतला वरक़ सा चमकता है. ग़ज़ल और शेर कहने के मश्क में उर्दू-अरबी की इज़ाफ़त भी उनकी भाषा तक पहुँची है. ग़ज़लों और नज़्मों में शहरे-मदीना,नूरे-ख़ुदा,सज़्दा-ए-नमाज़ी,दीदे-ग़म जैसी सामान्य इज़ाफ़त और नस्ल,वस्ल,महज़बीं,शमशीर जैसे शब्द हैं. अवधी गीतों में अवधी का निखरा हुआ रंग है तो खड़ी बोली की कविताओं में भी अवधी के आंजनजैसे बेहद पुराने शब्द मिलते हैं. अवधी के गीत अवध के किसान जीवन की श्रमसिक्त भाषा की मिट्टी से रचे गए हैं-

अमवा इमिलिया महुअवा की छइयाँ
जेठ बइसखवा बिरमइ दुपहरिया
धान कइ कटोरा मोरि अवध कइ जमिनिया
धरती अगोरइ मोरि बरख बदरिया   

शेर कहने की कोशिश विद्रोही की बड़ी मासूम है. इस नाकामी में वज़ह उनका रेटोरिक ही है. फिर भी उनके शेरी मिज़ाज की टोह लेने के लिए दो शेर देखे जा सकते हैं-

ना तो मैं रंगीन हूँ ना तो मैं ग़मगीन हूँ. 
दोस्तों मैं आपकी बंदूक की संगीन हूँ.. 
आग भड़काने के पीछे अपना ही घर फूँक डालें. 
सोचिएगा मत के ख़ाली शायरी करते हैं हम..  

विद्रोही की लंबी कविताएँ उनकी रचनात्मक क्षमता का पता देती हैं. इतनी लंबी कविताएँ ज़बानी याद रखना ही गैरमामूली रचनाशीलता है. विद्रोही की कविताओं में एक ख़ास तरह की बुज़ुर्गी के साथ जो नौजवानी है वह भारतीय ग्रामीण जीवन की शुद्धतम संवेदना से संपृक्त है. इसमें व्यंग्य मिश्रित ठिठोली भी है और द्रवीभूत कर देने वाली गहरी संवेदना भी. जो श्रोता और पाठक के अंतस्थ को भेद देती है. व्यंग्य मुँह बिराने जैसा नहीं है,बल्कि वेदना से परिहास कर उसे घनीभूत करने के लिए है. विद्रोही अपनी सामने वाली जेब में एक बाघ को सुलाने वाले कवि हैं. जब उनके सामने वाली जेब में एकाध बाघ पड़े हों,तो उन्हें कविता सुनाने में सुभीता रहता है. विद्रोही को अपनी कविता से,अपने बोहेमियन जीवन से प्रेम है. उनका यह प्रेम उनकी कविताओं में छलकता और बहता है.

विद्रोही की आंदोलनकारी छवि उनके शब्दों और काव्य-पंक्तियों में रह-रह कर उभरती है,जो यह बताती है कि एक्टिविस्ट कवि एक बड़ा कवि होता है और आठ-दस अच्छी कविताएँ लिख कर भी वह काव्य में आठ-दस संग्रहों जितना अवदान दे सकता है. विद्रोही को अपने कवि में कोई ओछापन नहीं दिखता यह जानते हुए भी कि वह हिंदी कविता की मुख्यधारा से बहिष्कृत हैं. जब भी उन्हें यह लगा उन्होंने एक अच्छी कविता लिख कर हिंदी कविता की दुनिया को चुनौती दी कि देखो तुम्हारे कवियों से कम अच्छी कविता मैं नहीं लिखता.

हिंदी के बड़े और अलग स्वाद के कवि केदारनाथ सिंह ने सन् 47 को याद करते हुएशीर्षक से विभाजन पर एक कविता लिखी है. जिसकी प्रतिस्पर्धा में विद्रोही ने हिंदी को एक अनमोल कविता नूर मियाँदी है. केदारनाथ सिंह की कविता के नूर मियाँ भी सुरमा बेचते थे और विद्रोही के नूर मियाँ भी. लेकिन विद्रोही के नूर मियाँ के सामने केदारनाथ सिंह के नूर मियाँ कहीं नहीं ठहरते. विद्रोही की इस कविता में एक कथानक है,जिसमें कवि की दादी को नूर मियाँ का सुरमा बेहद पसंद है. कवि की दादी नूर मियाँ का एक सींक सुरमा डालती है तो आँखें गंगा-जमुना की तरह भर्रा जाती हैं. भारत के बँटवारे में नूर मियाँ पाकिस्तान चले गए और कवि की दादी का देहांत हो गया. लेकिन इस कविता में उदात्त गंगा-जमुनी तहज़ीब का जो चित्र उभरा है,ऐसा हिंदी कविता की दुनिया में दुर्लभ है. बिना किसी अतिशयोक्ति और संदेह के विद्रोही की नूर मियाँहिंदी में विभाजन पर रची गई सर्वश्रेष्ठ रचना है. वे लोग अत्यंत भाग्यशाली होंगे जिन्होंने विद्रोही की खनकदार आवाज़ में ये कविता सुनी होगी. इस कविता का अंतिम पैरा बड़ा मार्मिक है. इतना कि पाठक-श्रोता को भिगो जाए. जिस नूर मियाँ का सुरमा आँखों में डाल कर कवि की दादी बिटौनी बनी फिरतीथीं और बुढ़ापे में भी सुई में डोरा डाल लेती थीं,वे नूर मियाँ विभाजन में पाकिस्तान चले गए. कवि कहता है:

और मेरा जी करे कहूँ
कि ओ रे बुढ़िया
तू तो है सुकन्या
और नूर मियाँ है तेरा च्यवन ऋषि
नूर मियाँ का सुरमा तेरी आँखों का च्यवनप्राश है

केदारनाथ सिंह के नूर मियाँ बस्ती छोड़ कर जाने कहाँ चले गए. पाकिस्तान ही गए होंगे. लेकिन केदारनाथ सिंह के नूर मियाँ का जाना उद्वेलित नहीं करता. सामान्य सी बात लगता है:

कि एक दिन अचानक तुम्हारी बस्ती को छोड़ कर
क्यों चले गए थे नूर मियाँ
क्या तुम्हें पता है
इस समय वे कहाँ हैं
ढाका या मुल्तान में
क्या तुम बता सकते हो
हर साल कितने पत्ते गिरते हैं पाकिस्तान में        
(सन् 47 को याद करते हुए,  केदारनाथ सिंह)
इस जाने में एक बेगानापन है. केदारनाथ सिंह के नूर मियाँ केवल केदारनाथ सिंह के हैं. स्लेट पर जोड़-घटाव करके वे नूर मियाँ का मुद्दा उलझा रहे हैं,नूर मियाँ के ग़म से बेगाना कर रहे हैं. विद्रोही के नूर मियाँ का जाना हृदय में टीस पैदा करता है. वे केवल उनके ही नूर मियाँ नहीं थे बल्कि उनकी सुकन्या दादी के च्यवन ऋषि भी थे. उनका जाना भारतीय लोकजीवन की तहज़ीबी रवायतों का मर जाना है:

और वही नूर मियाँ पाकिस्तान चले गए
क्यों चले गए पाकिस्तान नूर मियाँ ?
कहते हैं कि नूर मियाँ के कोई था नहीं
तब क्या हम कोई नहीं होते थे नूर मियाँ के ?
नूर मियाँ क्यों चले गए पाकिस्तान ?
बिना हमको बताए?
बिना हमारी दादी को बताए हुए
नूर मियाँ क्यों चले गए पाकिस्तान ? 

तब क्या हम कोई नहीं होते थे नूर मियाँ के ?यह प्रश्न जिस अदालत में खड़ा किया गया है उसमें विभाजन की त्रासदी का सन्नाटा पसरा हुआ है. नूर मियाँ का सुरमा च्यवनप्राश ही नहीं सिन्नी और मलीदा भी था. च्यवनप्राश के संग सिन्नी-मलीदा भारत की गंगा-जमुनी तहज़ीब के इतने बड़े प्रतीक हैं कि विद्रोही की यह कविता विभाजन पर हिंदी पट्टी की चुप्पी की भरपाई अकेले कर देती है. विभाजन पर जो भी साहित्य लिखा गया,हिंदी पट्टी के बाहर के लेखकों द्वारा लिखा गया. इस पर हिंदी पट्टी बहुत बुरी तरह से चुप रही थी. विद्रोही की इस कविता का अंत किसी महाआख्यान के अंत जैसा है. नूर मियाँ का बनाया हुआ,गाय के असली घी का सुरमा लगाने वाली दादी के अंतिम संस्कार के समय कवि नूर मियाँ को याद करता है,वे नूर मियाँ जो पाकिस्तान चले गए:

और अब न वे सुरमे रहे और न वो आँखें
मेरी दादी जिस घाट से आई थीं
उसी घाट गईं.
नदी पार से ब्याह कर आई थीं मेरी दादी
और नदी पार ही जाकर जलीं.
और जब मैं उनकी राख को
नदी में फेंक रहा था तो
मुझे लगा ये नदी,नदी नहीं
मेरी दादी की आँखें हैं
और ये राख,राख नहीं
नूर मियाँ का सुरमा है
जो मेरी दादी की आँखों में पड़ रहा है.
इस तरह मैंने अंतिम बार
अपनी दादी की आँखों में
नूर मियाँ का सुरमा लगाया.    

दादी और नूर मियाँ की पात्रता में विभाजन का जो आख्यान विद्रोही ने इस कविता में रचा है वह शब्दों की सृजनात्मक संभावनाओं को निचोड़ लेने की कविता की प्रवृत्ति से अवगत करा देता है. विद्रोही की काव्य प्रवृत्तियाँ कविता में सामान्य जन को रिझा लेने के रस से डब-डब भरी हुई हैं. विद्रोही कहीं ऐसे किसान हैं जो ईश्वर को धरती से उखाड़ने के लिए आसमान में धान बो रहे हैं और कहीं ऐसे अहीरहैं जो इस दुनिया को अपनी भैंस समझ कर दुहना चाहता है. यह किसान और पशुपालक अपनी कविता में ज़माने से ऊँची आवाज़ में पूछ लेता है कि चरवाहों और घसियारिनों के ख़ून में कितना ख़ून होता है और कितना पानी. विद्रोही की कविता में श्रमशील जनता की मुक्ति की जो आस है,वह अपनी भी मुक्ति के साथ है. मुक्तिबोध कहते थे कि मुक्ति कभी अकेले नहीं मिलती’,विद्रोही अकेले मुक्ति के चक्कर में नहीं थे. परिवर्तन की चाह ने उन्हें एक्टिविस्ट कवि बनाया. ऐसा कवि जिसे किसी तरह की उम्मीद नहीं थी. जो कहता था कि इंडियन सोसाइटी एक बास्टर्ड सोसाइटी है. जो न तो कवि को ईनाम देती है न उसे दंड देती है.कवि जो छात्र आंदोलनों में सत्ता की बैरिकेडिंग से अपना शोषित देह का सीना भिड़ा कर कविताएँ पढ़ता था. छात्र उनकी कविताओं पर हँसते-रोते-गाते थे. लड़ने की ऊर्जा पाते थे. विद्रोही बड़े-बड़े लोगों को मार कर मारना चाहते थे. लेकिन उनकी मृत्यु एक छात्र आंदोलन के दौरान ही हुई. पता नहीं उस समय दानों में दूधऔर आम में बौरआया था कि नहीं. क्योंकि इस विद्रोही कवि ने अपनी मृत्यु की योजना एक कविता में कुछ ऐसी बनाई थी-
फिर मैं मरूँ- आराम से
उधर चल कर बसंत ऋतु में
जब दानों में दूध और आम में बौर आ जाता है
या फिर तब जब महुआ चूने लगता है
या फिर तब जब वनबेला फूलती है
नदी किनारे मेरी चिता दहक कर महके
और मित्र सब करें दिल्लगी
कि ये विद्रोही भी क्या तगड़ा कवि था
कि सारे बड़े-बड़े लोगों को मार कर तब मरा.

सचमुच विद्रोही बहुत तगड़ा कवि है. और तगड़े कवि कभी मरते नहीं हैं,उनके शब्द वनबेला की तरह फूलते और महुए की भाँति चूते रहते हैं. 

________________                                 







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