युवा कवि अविनाश मिश्र की कविताएँ ज़िद और जिरह की कविताएँ हैं, अपनी शर्तों पर जीने की ज़िद और तमाम शातिर, हिंसक, गुप्त दुरभिसंधियों से जिरह. उनका पहला कविता संग्रह ‘अज्ञातवास की कविताएँ’ साहित्य अकादेमी से अभी हाल ही में प्रकाशित हुआ है. इस संग्रह पर मीना बुद्धिराजा की समीक्षा.
आत्ममुग्धता के शोर में आत्मसजग ईमानदार कविता
मीना बुद्धिराजा
आततायियों को सदा यह यकीन दिलाते रहो
बहुत सारी आत्मस्वीकृतियाँ हैं
अपने आलोचनात्मक गद्य में अविनाश जी ने एक जगह स्वीकार भी किया है कि “रचना प्रक्रिया सरीखा धुंधला और कुछ भी नहीं होता एक रचनाकार के जीवन में’.” इसलिये अवसाद और अँधेरे की पुरजोर ताकतों के विरुद्ध अकेले व्यक्ति की गरिमा की दलील उनकी कविताओं में मिलती है. इस महत्वाकांक्षी और अवसरवादी,अमानवीय समय में उपेक्षित और छोड़ दी गई ईकाइयों के माध्यम से वे उस ज्यादा मूल्यवान सच की और ले जाती हैं जो कविता का मूल स्वभाव है. सैद्धांतिक रूप से यह कविता आत्मनिर्वासन, मृत्यु और पागलपन के खिलाफ नहीं है, पंरतु जो कुछ हमारे चारों ओर, भीतर और बाहर, समाज और हमारे ऐन बीचों-बीच हमारे खिलाफ जो भी घटित हो रहा है- वह उसके खिलाफ है. वास्तव में यह कविता भयावह हो रही रिक्तता और शून्यता के विरुद्ध है-
मैं इस तरह सोचा करता हूं कि
अविनाश मिश्र का पहला कविता संग्रह ‘अज्ञातवास की कविताएँ’अभी हाल ही में प्रतिष्ठत ‘साहित्य अकादमी’से प्रकाशित हुआ है जो समकालीन युवा कविता में एक सार्थक रचनात्मक हस्तक्षेप है. निश्चय ही यह पुस्तक हिंदी कविता की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है जो निरर्थक शोर और अंहकार से भरे आक्रामक समय में एक खामोशी, आत्मसजगता और संज़ीदगी को आत्मसात कर के मानवीय नियति के कुछ बुनियादी सवालों को उठाती है. इन कविताओं में आज की चिंताएँ भी शामिल हैं और निकट भविष्य में अस्तित्व से जुड़े प्रश्नों को देखने- समझने की खास ‘क्रिटिकल’दृष्टि भी जो समकालीन कविता में परंपरा और लीक से हटकर कवि की अपनी स्वंतत्र दिशा को भी विकसित करती है. हिंदी के प्रसिद्ध कवि ‘असद ज़ैदी’ने इस पुस्तक की भूमिका में लिखा है –
‘अविनाश मिश्र की कविता जहां से भी आती हो सीधे पाठक की तरफ आती है. कुछ ही कविताएँ पढ़कर पता चल जाता है कि वह एक अच्छे और टिकने वाले कवि हैं. कमनीय लगने की इच्छा से रहित. वह तिरछी निगाह से नहीं देखते, भाषिक सादगी और किफायत शुआरी से काम लेते हैं, नेपथ्य में मौजूद आवाज़ों का इस्तेमाल नहीं करते. कविता के एक कारीगर के बतौर वह स्वर-बहुलता और भाषिक वैभव के उपलब्ध संसाधनों की खोज भी नहीं करते. सच तो यह है कि अपनी तेज़-तर्रारी, सहज उम्दगी और आत्मविश्वास के बावजूद यह बहुत कम बोलने वाली और बहुत कम दावा पेश करने वाली कविता है. यह अपनी खामोश तबीअत को ढकने के लिये कहीं-कहीं वाचालता का भ्रम पैदा करती है. कभी आक्रामक भी लगती है, गौर से देखिये तो सोग मना रही होती है. पर इसमें भी वह हर क़दम पर अपनी पारदर्शिता और ईमानदारी को साबित करती चलती है. कुल मिलाकर अविनाश की कविता एक कठिन प्रतिज्ञा और अर्जन की कविता है.’
‘अज्ञातवास की कविताएँ’उन्हें समकालीन कविता में सक्रिय सृजनात्मक युवा प्रतिभा और अपनी पीढ़ी के प्रतिनिधि कवि के रूप में सामने लाती हैं. इन कविताओं में हमारा सजग वर्तमान है और हमारे समय की विडंबनाओं की गहरी पड़ताल है. सधी हुई भाषा और अपनी सुघड़ अभिव्यक्ति में कुछ बुनियादी सिद्धांतों में अटूट आस्था कवि के विद्रोह और समर्पण सभी रूपों में उसकी वैचारिक और संवेदनात्मक दुनिया का विस्तार करती है जो इन कविताओं को एक अलग पहचान देती है. हमारे समय में कविता और क्या हो सकती है,वह उस सीमा-रेखा की खोज है जिसके एक तरफ अर्थहीन शोर है तो दूसरी तरफ जड़ खामोशियां. अविनाश मिश्र की कविता इन दोनो स्थितियों के बीच तमाम विडबंनाओं और त्रासदियों से गुज़रते हुए सभी तरह की क्रूरताओं, धोखों, प्रपंचों और बदकारियों का सामना करते हुए भरोसे की कोई अंतिम चीज़ बन जाना चाह्ती है. वह इस पूरे बेरहम समय का एक निदान चाहती है लेकिन जाहिर है कि यह कोई आसान काम नहीं है. इसलिये जब अव्यवस्था असहनीय हो जाती है तब कविता व्यवस्था के लिये अंतिम प्रयास है-
आततायियों को सदा यह यकीन दिलाते रहो
कि तुम अब भी मूलत: कवि हो
भले ही वक्त के थपेड़ों ने
तुम्हें कविता में नालायक बनाकर छोड़ दिया है
बावजूद इसके तुम्हारा यह कहना
कि तुम अब भी कभी कभी कविताएँ लिखते हो
उन्हें कुछ कमजोर करेगा
ये कविताएँ उन तमाम तरह की विरोधाभासी स्थितियों की तहें खोलती हैं, जिनमें अवचेतन और अमूर्तता की दुरूहता नहीं, एक तीखा तार्किक दृष्टिकोण है जो नियति और अस्मिता के प्रश्नों के सरल समाधान में यकीन नहीं रखतीं-
समझदारियाँ इतनी खोखली और बुराईयाँ इतनी सामान्य क्यों है आजकल
जबकि महानुभाव सब कुछ हिंदी में समझाते आए हैं
कोई कुछ बदलने के लिये मतदान
और कोई कुछ बदलने के लिये जनसंहार क्यों करेगा
कुछ गलतफहमियाँ हैं आइए उन्हें दूर कर लें
चारों तरफ की अस्थिरताओं और संवेदनहीनता के बीच ये कविताएँ मानों जीवन की पुनर्रचना करती हैं. निजी परिस्थितियों से शुरु होकर एक निसंग तटस्थता के साथ वे तुरंत किसी सार्वजनिक सच तक पहुंच जाना चाहती हैं जिनमे भावनात्मक बहाव या आत्मसंलग्नता लगभग नहीं है. एक कविता के रूप में आज के अंतर्विरोधों और महानगरीय संस्कृति की दुशवारियों की तरफ वह सीधे सरल रूप में आती हैं और पाठक का ध्यान एक गहरे विडंबना बोध से खिंचता है –
बहुत सारी आत्मस्वीकृतियाँ हैं
बहुत सारी पीड़ाएं और सांत्वनाएँ
बहुत कम समय और बहुत सारी शुभकामनाएँ
हालाँकि सब परिचित पीछे छूट चुके हैं
मुझे अवसाद और नाउम्मीदियों से बचना है
ईर्ष्या और अधैर्य से भी
मुझे अभिनय नहीं सच के साथ जीना है
जबकि यह दिन-ब-दिन मुश्किल होता जाएगा
लेकिन घृणा नहीं सब कुछ में यक़ीन बचाए रखना है मुझे
स्थितियाँ अब भी संभावनाओं से खाली नहीं.
अपने आलोचनात्मक गद्य में अविनाश जी ने एक जगह स्वीकार भी किया है कि “रचना प्रक्रिया सरीखा धुंधला और कुछ भी नहीं होता एक रचनाकार के जीवन में’.” इसलिये अवसाद और अँधेरे की पुरजोर ताकतों के विरुद्ध अकेले व्यक्ति की गरिमा की दलील उनकी कविताओं में मिलती है. इस महत्वाकांक्षी और अवसरवादी,अमानवीय समय में उपेक्षित और छोड़ दी गई ईकाइयों के माध्यम से वे उस ज्यादा मूल्यवान सच की और ले जाती हैं जो कविता का मूल स्वभाव है. सैद्धांतिक रूप से यह कविता आत्मनिर्वासन, मृत्यु और पागलपन के खिलाफ नहीं है, पंरतु जो कुछ हमारे चारों ओर, भीतर और बाहर, समाज और हमारे ऐन बीचों-बीच हमारे खिलाफ जो भी घटित हो रहा है- वह उसके खिलाफ है. वास्तव में यह कविता भयावह हो रही रिक्तता और शून्यता के विरुद्ध है-
मैं कुछ नहीं बस एक संतुलन भर हूं
विक्षिप्तताओं और आत्महत्याओं के बीच
मैं जो साँस ले रहा हूं वह एक औसत यथार्थ की आदी है
इस साँस का क्या करूँ मैं
यह जहाँ होती है वहाँ वारदातें टल जाती हैं
इस तरह जीवन कायरताओं से एक लंबा प्रलाप था
और मैं बच गया यथार्थ समय के ‘अंतिम अरण्य’में
निश्चय ही यह हमारे समय के कवि की वह हताशा, तड़प तथा एकाकीपन है जिसने प्रचार परक उपभोगवादी जीवन की चमक- दमक के पीछे छिपे अँधेरे को देखा है. व्यैक्तिक स्वर होते हुए भी अविनाश जी की कविता अपनी प्रतिबद्धता और बुनियादी मानवीय सरोकारों को नहीं छोड़ती तथा इन गहरे सवालों के भीतर उतरने का नैतिक साहस रखती हैं.
समकालीन हिंदी कवि ‘कृष्ण कल्पित’ने कहा है- ‘आलोचक कवि हो यह जरूरी नहीं,लेकिन कवि का आलोचक होना अपरिहार्य है.’ इस दृष्टि से कवि के रूप में अविनाश मिश्र की अपनी एक अलग शैली है जो आंडबंर विहीन है और सत्ता-संरचनाओं के बड़े भारी-भरकम विमर्शों, सिद्धांतो और छ्द्म चेतनाओं की पंरपरा से अलग लीक पर चलते हुए अपनी नयी ज़मीन तैयार करती है. संवेदनाओं के जिस स्तर तक इस कविता की पहुंच है और सच्चाई को वह जिस तरह से जानती है वह तमाम बुद्धिजीवियों की उपलब्धियों से अधिक मौलिक और विश्वसनीय हो सकती है-
आपत्तियाँ केवल निर्लज्जों के पास बची हैं
और प्रतिरोध केवल उपेक्षितों के पास
बहुत सारे विभाजन प्रतीक्षा में हैं
स्त्रियों को स्त्रियों से अलगाते हुए
बलात्कारों को बलात्कारों से ही अलगाते हुए
अत्याचारियों को अत्याचारियों से ही अलगाते हुए
संकीर्णता इस कदर बढ़ी है कि संदेहास्पद हो गये हैं समूह
आज कविता को एक ‘उत्पाद’बनाने की कोशिश में बाज़ार की ताकतों में जो हलचलें पैदा हुई हैं वह भी कविता पर एक नये संकट का आरंभ है. जबकि वास्तव में कविता एक खास तरह के अंसतोष और भीतरी शून्य से जन्म लेती है. उस समय के विरुद्ध जब सभी सजीव चीज़ें निष्प्राण और विस्मृत की जा रही है, उस कठिनतम समय में भी कविता सीधे एक ईमानदार कविता के रूप में ही पाठक के सामने आना चाहती है. आज के परिदृश्य में कविता को जब केवल यश,पुरस्कार,लोकप्रियता, बाज़ार में सफलता और आलोचकीय मूल्यांकन से आगे नहीं देखा जा रहा और कविता आत्मकेंद्रित, महत्वांकाक्षी स्वरूप लेते हुए सरोकारों से दूर हो रही है. एक कवि के रूप में ‘अज्ञातवास की कविताएँ’अपनी रचनात्मक अस्मिता और मानसिक आज़ादी को बचाने का जोखिम उठाती हैं. जब न्याय और सच एक निषिद्ध क्षेत्र बन जाता है तब ये कविताएँ एक गहरे आत्मालोचन के साथ मनुष्य की पहचान को बचाती हैं-
मैं इस तरह सोचा करता हूं कि
एक कविता पर्याप्त होगी एक कवि के लिए
और कभी कभी कई कवियों के लिये
एक कविता भी बहुत अधिक होगी
मानवीयता के असंख्य नुमाईंदों
और उनकी कल्पनातीत नृशंसताओं के विरुद्ध
यह कविता कई अर्थों में उस नयी पीढ़ी की प्रतिनिधि कविता है जो लगातार अपने भौतिक और आत्मिक परिवेश से विस्थापित हुई है. जिसकी स्मृतियों में छूटी हुई चीज़ें भी हैं तो दूसरी ओर वह तेजी से बदलती हुई दुनिया में बेहद आक्रामक समय के सामने निहत्थी खड़ी है. इस सदी की बहुत सी असाधारण और विलक्षण कविता व्यैक्तिक स्वर और अनुभव से जुडे होने पर भी मनुष्य की सामूहिक नियति और त्रासद सवालों से जन्मी है. जहां जीवन निर्मम जटिल यथार्थ और असंख्य चुनौतियों के रूप में सामने फैला हुआ है. जहां सच्ची कविता और कवि या तो तिरस्कृत और निर्वासित कर दिये जाते हैं अथवा बिना कोई निशानी छोड़े अदृश्य हो जाते हैं. अज्ञातवास की कविताओं में मनुष्य की यातना, स्वप्नों और संघर्षों की वह आंच निरंतर जलती रहती है जो बाज़ार, पूंजी, अन्याय और असमानता के अँधेरे मे डूबती मानवता के लिये कविता के रूप में जरूरी है –
मैं बहुत दिनों से सीने में उठते दर्द को दबाए हुए हूँ
लेकिन वे चाहते हैं कि मैं उनके साथ ज़ोर ज़ोर से हसूं
स्वप्नों और आदर्शों के बाहर एक बोझिल, वास्तविक स्याह संसार फैला है लेकिन कवि द्वारा शब्दों पर भरोसा करना बंद नहीं किया जा सकता –
उन कविताओं के बारे में क्या कहूँ
वे ऐसे ही नहीं अभिहित हुई थीं
जैसे यह एक आत्मप्रलाप में विन्यस्त होती हुई
कहीं कोई विरोध नहीं
इस सहमत समय में
उन्हें खोकर ही उनसे बचा जा सकता था
लेकिन इस बदलाव ने मेरी मासूमियत मुझसे छीन ली है
इस स्वीकार को मै अस्वीकार करने की
मैं भरसक कोशिश करता हूं
लेकिन कर नहीं पाता
बस इतना ही सच हूँ
मैं स्थगित पंक्तियों का कवि
तुम्हें खोकर
यूँ होकर
एक हिसंक समय के बीचों- बीच लिखी गई ये कविताएँ जिनमें अस्मिता की बेचैनी,हताशा और विकलता के साथ नैतिक प्रतिरोध भी दर्ज़ है क्योंकि कविता में जीवन अभी भी बचा हुआ है. इनकी भाषिक सादगी में एक कसावट, सतर्कता और जीवंतता है जो पारंपरिक रूढ़िगत अविश्वसनीय प्रतिमानों से आगे बढ़कर पाठकों से सीधा स्पष्ट संवाद करती है. कविता को आत्मघाती सत्ता-केंद्रों की आत्ममुग्धता से बचाते हुए इनमें जो लेखकीय ईमानदारी दिखाई देती है,वह इन्हें फार्मूलाबद्ध शिल्प और सतही भावुकता से अलग आत्मसजग कविताओं का रूप देती है. ये कविताएँ वहां एक बौद्धिक, आत्मालोची और विचारशील सजग पाठकीय समाज का निर्माण करती हैं जहां बढ़ता हुआ वैमनस्य, असमानताएं और स्त्रियों के प्रति बढ़ती हिसंक वारदातें मानो सदी का शोक गीत बन गई हैं. यथार्थ और स्वप्न एक दूसरे के पूरक बनने की बजाय एक दूसरे से टकरा रहे हैं और स्वप्न टूट रहे हैं –
वह हर वर्ष एक नए फलसफे के साथ लौटता है अपने नगर में
आज से सात वर्ष पहले वह आश्चर्य लिए लौटा था
इसके बाद ढेर सारी किताबें
इसके बाद कुछ कविताएँ
इसके बाद यूटोपिया
इसके बाद मोह्भंग
इसके बाद अवसाद
और अब वह प्रेम लेकर लौटा है
‘अज्ञातवास की कविताएँ’एक युवा और नए स्वर की कविता के रूप में उस पूरी पंरपरा को खारिज करती हैं जो रूमानी ढ़ग से छद्म आस्था का मुखरगान करती है,शब्द बहुलता को, उपादानों को जुटाती है और भाषा को सजाती है. ये कविताएँ अपने अंत:करण और आत्मसंघर्ष के द्वारा हमारे समय और कविता के संबंधों को पुनर्पारिभाषित करती हैं. निर्ममता और आत्मग्लानि के इस समय में इन कविताओं के सादा स्वर को समझने और सुनने की जरूरत है. जहां चारों और इतनी कृत्रिमताओं और तथाकथित सता-केद्रों की बौद्धिक सुरक्षाओ” के आवरण में,आत्ममुग्ध,सुविधापरस्त रचनात्मकता निरंतर सक्रिय है,वहां उनसे बाहर ये कविताएँ उन्हें चुनौती देते हुए भी सहज- स्वाभाविक बनी रहती हैं. विचलनों से बचते हुए नैतिक- अनैतिक के आत्यंतिक विभाजन का आत्मविश्वास इन कविताओं की अंदरूनी शक्ति है.
इन कविताओं की बेचैनियाँ वास्तविक हैं,इनके सरोकार और सवाल हमारे समय से जुड़े हैं और इनमें एक नए ढ़ग का चैलेंज है जो बदलाव की गहरी माँग और आकांक्षा को सामने लाता है. हमारी नयी कविता के लिए नया रास्ता बनाते हुए ‘अज्ञातवास की कविताएँ’आज के समय और उसकी हकीकत की कसौटी पर खरी उतरती हैं.

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मीना बुद्धिराजा
हिंदी विभाग
अदिति कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
संपर्क- 9873806557