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(कृति - Saks Afridi) |
समकालीन महत्वपूर्ण हिंदी कवि देवी प्रसाद मिश्र की कविता ‘सेवादार’ की सदाशिव श्रोत्रिय द्वारा की गयी व्याख्या पिछले दिनों से बहस मे है. विष्णु खरे का मानना था
“जब आप एक उम्दा कवि के रूप में स्वीकृत-प्रतिष्ठित हो चुके होते हैं तो अचानक आपकी ज़िम्मेदारियाँ कठिन,जटिल और जानलेवा होती जाती हैं. यह आप ही करते हैं. आपके पाठक आपसे एक न्यूनतम उत्कृष्टता की माँग और उम्मीद करने लगते हैं. हर कला, हुनर और स्पोर्ट आदि में यह विचित्र 'demand and supply'का दुर्निवार नियम अपने-आप आयद हो जाता है. आपके चाहने-न चाहने से फिर कुछ नहीं होगा.”
देवी प्रसाद मिश्र का मानना है – “कई बार काव्य मूल्य को आयत्त करने के लिए काव्य गुण का परित्याग करना पड़ता है. -"कविता, भाष्य, टिप्पणियाँ और देवीप्रसाद मिश्र का यह सुचिंतित प्रतिपक्ष यहाँ आप पढ़ें.
‘गर नहीं हैं मिरे अशआ'र में मा'नी न सही’
ख़ राब कविता का अंत:करण
देवी प्रसाद मिश्र
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मेरी कविता सेवादार का भाष्य हो, ऐसा मैंने नहीं चाहा था. बिल्कुल नहीं चाहा था, मेरे भाई. इसे एक बुरी कविता के तौर पर छोड़े रखना चाहिए था. सदाशिव जी को और उसके बाद बहसकर्ताओं को भी. जब अच्छे को अच्छा कहने की परंपरा इतना क्षीण है तो बुरे को बुरा कहने के लिये काहे इतनी मशक्कत. लेकिन दिक्कत यह है कि उसकी निहंग निंदा ही नहीं हुई, हिंदी के इस समय के बेहद समर्थ कथाकार योगेंद्र आहूजा ने इसे पसंद भी किया.
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मेरी कविता सेवादार का भाष्य हो, ऐसा मैंने नहीं चाहा था. बिल्कुल नहीं चाहा था, मेरे भाई. इसे एक बुरी कविता के तौर पर छोड़े रखना चाहिए था. सदाशिव जी को और उसके बाद बहसकर्ताओं को भी. जब अच्छे को अच्छा कहने की परंपरा इतना क्षीण है तो बुरे को बुरा कहने के लिये काहे इतनी मशक्कत. लेकिन दिक्कत यह है कि उसकी निहंग निंदा ही नहीं हुई, हिंदी के इस समय के बेहद समर्थ कथाकार योगेंद्र आहूजा ने इसे पसंद भी किया.
निरंतर ब़ड़े हस्तक्षेप के तैयार कवयित्री निर्मला गर्ग और अवांगार्दी तबीयत के कवि अजेय को इसकी प्रासंगिकता से इंकार नहीं था. लेकिन यह बात एकाधिकारवादी और लानतवादी कोहराम के जटिल तंत्र और आधिपत्यमूलक दबंग वकीली जिरह के संजाल में खो गई. समालोचन के समर्थ एडिटर ने किसी समझदारी के तहत ही कहा होगा कि एनजीओ के धंधों को लेकर सेवादार एक अकेली सी ही कविता है. जब यह कविता जलसा में अन्य कविताओं के साथ आई ही थी तो ज्ञान जी ने इस कविता का नोटिस लिया था. असद जैदी जैसे समर्थ कवि और संपादक ने इसे छापा. तो यह कविता उतनी छतहीन, बेसहारा, बिराऊ सी नहीं थी जितना दिखाने या बताने की कोशिशें की गई है.
लेकिन फैसलाकुन होना एक तबीयत है, विमर्श हीन होना एक विकल्प और मंतव्य को छिपाने के लिये छद्म भाषिक तंत्र का कांस्ट्रक्ट एक चातुर्य. कविता की अंतर्वस्तु पर विचार किये बिना जिन्होंने इसे ख़राब कविता कहा है वह रचना से कवि व्यक्तित्व के निरसन और संरचना पर ज़ोर देने का काफी मार्मिक उदाहरण है जो रचनात्मक मीमांसा में मंतव्यवाद के संदेह को हरा भरा रखाता है और नव संरचनावाद की वापसी की भूमि तैयार करता है. और मैं कब कह रहा कि यह महान कविता है या कि अच्छी ही कविता. यह एक बेहद साधारण कविता है जो हमारे समय की असाधारण लूट, असमान वितरण तंत्र, बिचौलिया संस्कृति, देह को माल में बदलने की होशियारी, सेवा सेक्टर में अंग्रेज़ी तंत्र के वर्चस्व और पौरुषेय आधिपत्य का वृत्तांत बनने की कोशिश करती है. वैसे यह भी कह दूँ कि महान और अच्छी कविताओं ने महान और अच्छे लोगों की तरह समाज और साहित्य का आत्यंतिक नुकसान किया है. मुझे सबवर्सिव पोएट्री ही ठीक लगती है- साधारण सी दिखने वाली, पलीता लगाने वाली, टेढ़ी मेढ़ी, नीली पीली, बाज़ दफा यह कहने के लिये मजबूर करने वाली कि इसमें कविता कहाँ है.
मेरा कहना है कि काफी दिनों से काम करते कवियों की रचनाओं को उनकी एकांतिकता में नहीं किसी अवधारणात्मक विस्तार में भी देखना चाहिए. लेकिन जनाब, मैं किसी रियायत की माँग नहीं कर रहा. कुछ सूत्र दे रहा हूँ और ले भी रहा हूँ जो यहाँ नहीं भी तो कहीं और काम आ सकते हैं. यह तो तय है कि यह प्योर पोएट्री नहीं है. शुद्ध कविता का परमौदात्य यहाँ नहीं है. आह्वान में काँपती इबारत नहीं है तो नहीं है. यह हमारे समाज के निरंतर गैरजिम्मेदार होते जाने का लगभग एंटी पोएट्री आख्यान है जिसे जानबूझकर शैली के चलताऊ ऊबड़खाबड़पन के सहारे बयां करने की कोशिश की गई.
मेरा कहना है कि काफी दिनों से काम करते कवियों की रचनाओं को उनकी एकांतिकता में नहीं किसी अवधारणात्मक विस्तार में भी देखना चाहिए. लेकिन जनाब, मैं किसी रियायत की माँग नहीं कर रहा. कुछ सूत्र दे रहा हूँ और ले भी रहा हूँ जो यहाँ नहीं भी तो कहीं और काम आ सकते हैं. यह तो तय है कि यह प्योर पोएट्री नहीं है. शुद्ध कविता का परमौदात्य यहाँ नहीं है. आह्वान में काँपती इबारत नहीं है तो नहीं है. यह हमारे समाज के निरंतर गैरजिम्मेदार होते जाने का लगभग एंटी पोएट्री आख्यान है जिसे जानबूझकर शैली के चलताऊ ऊबड़खाबड़पन के सहारे बयां करने की कोशिश की गई.
एक खड़खड़ करती भाषा में हमारे समय की अकथ क्रूरता के गहरे इशारे यहाँ ज़रूर हैं. एक ओर खरिआर की 13 नये पैसे रोज़ कमाती औरतें हैं तो दूसरी ओर संजीवनी सूरी है जिसे लगभग रोज़ 2200 रु मिलते हैं. यह खरिआर और जीकेटू के बीच का सामाजिक, सांस्कृतिक और संसाधनीय तनाव ह. संजीवनी का मायने होता है जीवनदायिनी लेकिन सोचकर रखा गया संजीवनी नाम महानगराधृत खाऊ तंत्र का अनिवार्य हिस्सा है. तो यहाँ पंडित राम चंद्र शुक्ल के विरुद्धों का सामंजस्य नहीं है-होना भी नहीं चाहिए. जो विरुद्ध है वह एकमेक नहीं हो सकता. लेकिन विकट वैपरीत्य संजीवनी और खरिआरकी औरतों के बीच का ही नहीं है. संजीवनी अपने बॉस की सेक्सिस्ट घेरेबंदी (और प्राउलिंग)से बच नहीं सकती.
संजीवनी की देह उसकी शक्ति संरचना और विपत्ति और उसके निरंतर आहतव्य होने का स्त्रोत है. पुरुष की दमक और धमक वाले बाज़ार में यह स्त्री की आस्तित्विक दुविधा है. तो यह रिश्तों का ऐंद्रजालीय पावर स्ट्रक्चर है जिसको समझने के लिये जिसकी दरकार हुआ करती है उसे ऐतिहासिक अवस्थिति की समझ के नाम से भी जाना जाता है. understanding of historical situation.एक बात और:कविता में आसपास एक जर्मन नस्ल का जानवर भी घूम रहा है जो भारतीय मानस में घूमते अनिर्वचनीय नस्लवाद की, आदिवासी और नागर जीवन की, काले और गोरे की, मैं और वह की, आर्य और अनार्य के विभाजन की न मिटती ऐतिहासिक वैश्वीयस्मृति है. चाहिएवाद का लंबा पहाड़ा पढानेवालों को पुनर्स्मरण कराना चाहता हूं कि कविता को जांचने का बुनियादी प्रतिमान यह भी होता है कि उसमें हमारे समय की केंद्रीय अंतर्वस्तु का कोई सिरा है या नहीं.
संजीवनी की देह उसकी शक्ति संरचना और विपत्ति और उसके निरंतर आहतव्य होने का स्त्रोत है. पुरुष की दमक और धमक वाले बाज़ार में यह स्त्री की आस्तित्विक दुविधा है. तो यह रिश्तों का ऐंद्रजालीय पावर स्ट्रक्चर है जिसको समझने के लिये जिसकी दरकार हुआ करती है उसे ऐतिहासिक अवस्थिति की समझ के नाम से भी जाना जाता है. understanding of historical situation.एक बात और:कविता में आसपास एक जर्मन नस्ल का जानवर भी घूम रहा है जो भारतीय मानस में घूमते अनिर्वचनीय नस्लवाद की, आदिवासी और नागर जीवन की, काले और गोरे की, मैं और वह की, आर्य और अनार्य के विभाजन की न मिटती ऐतिहासिक वैश्वीयस्मृति है. चाहिएवाद का लंबा पहाड़ा पढानेवालों को पुनर्स्मरण कराना चाहता हूं कि कविता को जांचने का बुनियादी प्रतिमान यह भी होता है कि उसमें हमारे समय की केंद्रीय अंतर्वस्तु का कोई सिरा है या नहीं.
हो सकता है कि यह विषमतावर्णन किसी निबंध का विषय हो लेकिन इस तरह के निबंध हिंदी में बहुत होते तो भरोसा कीजिए मैं यह कविता न लिखता. मेरे यार,मुझे एक विकट नैतिक चुगली कर लेने दो फिर कविता बने या न बने.
यह कविता अमरता विमर्श से हलकान कवि की कविता नहीं है. काव्य गुण खोकर भी कुछ कहने की ज़रूरत से न तो मायकव्स्की का इंकार था और न नज़ीर अकबराबादी और न मुक्तिबोध का और न कबीर का. यह मत सोचिएगा कि इन महान कवियों के समकक्ष मैं खुद को रखने की कोशिश कर रहा हूँ. मैं न हुआ इतना गुस्ताख़. लेकिन काव्य गुण को बीच बीच में खोना रचना धर्म के लिए काफी ज़रूरी प्रक्रिया है. कई बार काव्य मूल्य को आयत्त करने के लिए काव्य गुण का परित्याग करना पड़ता है. कविता को जांचने के लिए इस प्रतिमान बिराऊ प्रतिमान की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती .
और अंत में.....जो लोग इस कविता में प्रयुक्त अंग्रेज़ी को लेकर विपत्तिग्रस्त हैं वे पहचान के संकट से आलोड़ित हैं और निरर्थ मिली ताकत से भ्रमित.
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d.pm@hotmail.com
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