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मंगलाचार : सुमीता ओझा


























समालोचन पर सुमीता पहली बार छप रही हैं. कविताएँ ध्यान खींचती हैं, रोकती टोकती हैं, सोचने पर विवश करती हैं. जो दुनिया हमने अपने लिए बनाई है वह अब जगह-जगह से चुभती है, बदकिस्मती से जिनका इसमें कोई हाथ नहीं है वे इसके अधिक शिकार हैं. कवि अधिक से अधिक आगाह ही तो कर सकता है.  


सुमीता ओझा  की पांच कविताएँ








         सुमीता ओझा  की  कविताएँ                              





बिलो द बेल्ट

दिलकश, फरेबी
जिंदगी के दराँतीदार जबड़े का
अगला ग्रास मैं थी.
उसने बेहिचक कौर भरा और
मेरी सीधी खड़ी रीढ़
कमर से अलग हो गई.
बेपनाह दर्द से बिलबिलाती
अब मैं अधकटे तेलचट्टे जैसी थी.
गायब हो चुका था मेरा सिर, आँखें और चेहरा
चेहरा गर होती हो पहचान तो
अब वह नहीं था मेरे पास
अधकटे जीवों की जमात में
अब शामिल थी मैं

यह बिलो द बेल्ट
बर्बर, स्याह संसार था
यहाँ की भाषा, संस्कार, रीति-रिवाज
खान-पान, चाल-चलन
और यहाँ तक कि
राज-काज भी बिलो द बेल्ट थे
यहाँ मुकुटों से ज्यादा सम्मानित थे बेल्ट
और जूते प्रदर्शन की सबसे ऊँची चीज.

आख़िरकार
मुझपर इल्ज़म यह लगा कि
मौत के बेरहम नुकीले पंजे
जब पिन्हा हो रहे थे
मेरे बचे-खुचे अस्तित्व में
मैं बिना चीखे मर गई.
ज़िन्दा होने का सबूत दिए बगैर
यूँ गुज़र जाने से
बहुत ख़फा है ज़िन्दगी
उसे बेतरह शिकायत है कि
फरेब हुआ उसके साथ
कि आत्मा के छीजकर समाप्त हो जाने तक
मुझे लिख देने चाहिए थे
उसकी प्रशस्ति में एक सौन्दर्यातीत
कालजयी कविता
कोई धड़कता विचार या
हर दिल अजीज कोई नारा ही
ताकि मेरे न होने पर भी
ज़िंदगी जब चाहे
खेल ले
विचार-विचार या नारा-नारा.




सूरज को नहीं होती आँखें

सहनशीलता बेहद टुच्ची शय है
जिसके सहन में
पीपल बीज सी पलती
उम्मीद है कि मरती नहीं.

उम्मीद है कि किसी दिन आ ही जाएगा वह दिन
जिसके लिए दुनिया भर के कवियों की
निर्दोष आँखें अपलक जागती हैं
रात-रात भर मंत्रविद्ध:
न स्वप्न, न सुषुप्ति
न जागृति, न मुक्ति
एक ऐंठन, एक मरोड़
एक चक्करदार बेचैनी
न आदि, न अन्त
न मात्रा, न सम
बेहिसाब प्रकाशवर्षों की परिधि पर
ऑटोमेटिकली चलते ही चले जाने की यान्त्रिक मजबूरी
खिंचे चले जाने से रुकते नहीं प्राण
किसी महाशक्तिशाली ब्लैकहोल की
असीम गुरुत्वीय शक्ति में.

दिन सबसे शक्तिशाली ब्लैकहोल
सूरज जिसके काले छेद की सीवन की कोशिश में
औंधे मुँह गुड़प जाता है
हर शाम महासमुद्र के खारे अँधियारे में.
क्योंकि सूरज को नहीं होती आँखें
उसके तेज को रोशन करने
जागती हैं कवियों की आँखें
रात-रात भर.

पैंतरेबाज अघोरी दिन की
मायाविनी भैरवी रात
जब दसों दिशाओं से उफनते हाहाकारी अंधकार के
मूसलों से कूटने लगती
सुकोमल क्षणों की छाती
उससे निर्भय छाती भिड़ा देने के लिए
कवियों की निःशंक, निराक्रांत, निष्पलक
जागती आँखें ही होती हैं मौजूद

जब ज्ञान, सत्य और अभिव्यक्ति की
कसती जा रही हो घेराबंदी
सभी शोध, सारे आविष्कार
रंगीन काँच की दीवारों वाली
पता नहीं किस व्यापारिक दुनिया में
कैद किए जा रहे हों
महामनीषी वैज्ञानिक उचार रहे हों
पृथ्वी का भविष्य
उसकी उम्र के दिनों की गणना
कर रहे हों अँगुलियों पर
ऐसे कठिनतम समय में
कवियों के जागती आँखों के
अग्निशरों की नोक पर ही
घूमती हुई बची रहेगी पृथ्वी.




(क्योंकि) इल्म से शायरी नहीं आती 

दर्द इतना था ज्यादा
कि छोटा पड़ने लगा
ब्रह्माण्ड समा सके जितना बड़ा दिल
तो मैंने विकराल दर्दों के
घनीभूत नैनो कणों से बना दी
स्फटिक सी सुच्ची,  गोल एक हरी-भरी पृथ्वी
ये उल्काएँ, आकाशगंगाएँ और मन्दाकिनियाँ
मेरे ही घनीभूत दर्द के कतरें हैं
जो छिटककर बिखरें हैं यहाँ-वहाँ
मेरे ही दर्द का धनीभूत पिण्ड है पृथ्वी.

क्लोन और क्लाउन के इस भ्रामक दौर में
शब्दसाजी भी जब हाइब्रिड हो
तब खरी संवेदनाओं के अर्थ तलाशना व्यर्थ है
मंगल और चाँद पर प्लॉट खरीदने की होड़ में
(वैसे विक्रेता कौन है भला???)
रोजी और रोटी के तर्क का
भला क्या अर्थ है?

भोर का तारा उदित हो
इससे पहले रोज़ ही
घनघना उठते हैं लाउडस्पीकर
प्रबल आस्था(?) के विषबुझे छर्रों के
वयुवेगी रेलों से सुन्न है चेतना
सुसाइडऔर बच्चाबम निर्माता
पोर्टेबल कारखाना बन गया है
आस्तिकता का दुर्दम्य दावेदार...

सन्न हैं पेड़-पौधे
एक चिड़िया चहचहा गई है
छत की मुंडेर पर
एक औरत गा रही है
लाउडस्पीकर पर
एक शिशु चिचिया रहा है
सड़क पर
कई औरतें सोहर गा रही हैं
जैसे रुदालियाँ हो मर्सिया मनाती.

अनुभव और अनुभूति के बीच की
सघन, बेराह, घुप्प जंगल सी तन्द्रा में
अनिवार परम सत्य-सा
अकेलापन फड़फड़ा रहा है चारों ओर
अधकच्ची नींद में
कानों में कुबोले कोरस घोलते
मच्छर सरीखा.

मैं इस धूर्त मच्छर को चुटकियों में
मसल देना चाहती हूँ.
मैं सोना चाहती हूँ
एक बेफिक्र गहरी नींद
बिना सपनों की मिलावट वाली.






उजलापन

मेरी डायरी के एक पन्ने भर की पृथ्वी
कि तर्जनी जब पहुँचती है इस्ताम्बुल
तब मध्यमा उज़्बेकिस्तान के उत्तर को छू रही होती है
हथेली में वैसे ही समा जाते हैं सभी देश
जैसे कि मेरा माउस
और छुअन भर ले आती है
सीमा रेखाओं के पार सौहार्द के मस्तूलों पर
मजबूती से पाँव टिकाए
उजली हँसियों के चंदोवे तानने में व्यस्त
दोस्तों के सभी हाल-चाल.

हँसी के उजलेपन में
धनक के सभी रँग ज़ज्ब हैं
निश्चित मात्रा, निश्चित अनुपात में
दर्द के रसायन से सींचे हुए...

यह उजलापन उतना ही आसान
जितना अपने माथे के ठीक बीचोबीच ठोके जाते कील पर
हथौड़े के हर प्रहार के साथ
क्षमा और दुआ को उठे खुद के हाथ...

दिलोदिमाग के बीहड़ माँगते हैं
अपरिसीम श्रम और सद्भाव के
रहस्यमयी औजार
कोई चकमक
कि चमचमाती-सी कोई लौ
छू जाए अस्ति-तत्व के किसी छोर से...

यह बीहड़ों का प्रशांत उजलापन ही तो है
कि अफ्रीकन जंगलों में
हाथी भी सफेद हो गए
और अंतरिक्ष के घटाटोप अँधियारे में
सैकड़ों सूरज खिल गए.
     



बदलते दौर में

यह सुनी-सुनाई बात ग़लत साबित होती दीख रही है
कि काटे जाने के लिए
सबसे पहले चुना जाता है
एकदम सीधा खड़ा पेड़.

मुहावरे भी बदल रहे हैं अपनी रूपछवियाँ
बदलते दौर में
औद्योगीकरण, सौन्दर्यीकरण,
हाई-फाई फोर लेन
हाईटेक फ्लाईओवर्स जैसे
आयातित, अभिजात्य उपादान
बदलते जा रहे हैं
अबतक के जीवन का पूरे-का-पूरा आख्यान.

अत्याधुनिक दिखने की गलाकाट रस्साकस्शी में
सीधे-टेढ़े की फिक्र करने जैसी बातें
एकदम से आउटडेटेड हैं.
धरती की खाल खोदकर
उसकी धमनी-शिराओं में धँसे
पेड़ों की जड़ों के दूधिया, मुलायम रेशे-रेशे तक
चुनकर साफ किए जा रहे हैं
एकदम साफ
कि भूतल के भीतर से
सरपट दौड़ सकें फर्राटा ट्रेनें...

जबकि सबसे सीधे खड़े पेड़
जैसे कि टीक यानी सागवान
सँभाले जा रहे हैं बड़े जतन से.

सीधे पेड़ के
चाहे जितने टुकड़े काटिए
वह सीधा ही होता है
जबकि टेढ़े से सीधा निकाल पाना
टेढ़ी खीर सा मुश्किल.

टेढ़े-मेढ़े सरकने वाले साँप जैसे
प्राणियों की पसन्द के नहीं होते सीधे पेड़.
सोचती हूँ कि सीधे, पतले, लम्बे पाइप-से रास्ते में
चलने की मजबूरी में
शायद मर ही जाते हों साँप.

और सीधा इन्सान!
किसी धूर्त्त से पूछकर देखिए
सीधे इन्सान को सबसे खतरनाक बताएगा वह

आत्मीय छाया की छोटी-सी ओट थामे
एक आश्वस्तिदाई भंगिमा के साथ सीधा इन्सान
इस सरल अपनेपन से मिलता है कि
चटकती प्यास में सूखे गले को तर करने को
कोई अजनवी भी झिझक छोड़ माँग ले पानी
या पूछ ले टाइम या
खोल दे मन का संशय, विषाद
या बेहिचक बता सके अपनी परेशानी का हाल...

धीरे-धीरे विलुप्त होती प्रजाति जिसकी
ऐसी सरल रेख-सा सीधा इन्सान ही
धुमैले बवंडरों के आगे खड़ा पर्वत हो जाता है
सीधा ही बन सकता है
तीर या त्रिशूल या चक्र भी

शिवेतर का क्षत करने के लिए.
________________

सुमीता ओझा
गणित विषय में गणित और हिन्दुस्तानी संगीत के अन्तर्सम्बन्धपर शोध. इस शोध पर आधारित पुस्तक जल्द ही प्रकाश्य. पत्रकारिता और जन-सम्पर्क में परास्नातक. मशहूर फिल्म पत्रिका स्टारडस्टमें कुछ समय तक एसोसिएट एडिटर के पद पर कार्यरत. बिहार (डुमरांव, बक्सर) के गवई इलाके में जमीनी स्तर पर जुड़ने के लिए कुछ समय तक समाधाननामक दीवार-पत्रिका का सम्पादन.

सम्प्रति अपने शोध से सम्बन्धित अनेकानेक विषयों पर विभिन्न संस्थानों और विश्वविद्यालयों के साथ कार्यशालाओं में भागीदारी और स्वतन्त्र लेखन. वाराणसी में निवास.

sumeetauo1@gmail.com

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