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आता रहूंगा तुम्हारे पास : चंद्रभूषण की कविताएँ

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पूरा पत्रकार और अपने को आधा कवि ‘A journalist and half a poet’ मानने वाले चंद्रभूषण का पहला कविता संग्रह ‘इतनी रात गए’ २००१ में प्रकाशित हुआ था. सत्रह साल बाद दूसरे कविता संग्रह ‘आता रहूँगा तुम्हारे पास’ का प्रकाशन अभी-अभी ‘उद्भावना’ से हुआ है. इस संग्रह से दस कविताएँ और आशुतोष कुमार की भूमिका ख़ास आपके लिए.

चंद्रभूषण को अपने ‘कवि’ को गम्भीरता से लेना चाहिए. इधर कई वर्षो में प्रकशित तमाम कविता संग्रहों से यह संग्रह बेहतर और सार्थक है. 








कुछ साफ़ सुथरे पागल पन की तलाश             
आशुतोष कुमार





सो दूसरे नेक लोगों की तरह कवि भी अपनी दीवारें ऊंची कर
                                        लिए होते है 

कि लो जी, हम तो बाहर हैं, न रहा बांस, न बजी बांसुरी 
हम फूलों, चिड़ियों, दोस्तों और मां पर सोचते हैं,
उसपर ही लिखते है कि कविता बची रहे, आईना बचा रहे
जिसमें कभी कोई शर्मदार अपना चेहरा देखे और जार जार रोए” 



ये पंक्तियाँ चंद्रभूषण के पहले कविता-संग्रह इतनी रात गएमें संकलित एक कविता सबसे बड़ा अफसोससे ली गईं हैं. इसी कविता में आगे यह भी कहा गया है कि एक कवि के रूप में समकालीन कवि का सबसे बड़ा अफसोस यह है कि आने वाले समय में शायद उसकी कविता के बारे में यही कहा जाएगा कि घटिया जमाने के कवि भी घटिया थे..’ 


कहना न होगा कि यह एक पूरे काव्य समय की आलोचना थी. ख़ास तौर पर अस्सी के दशक में उभर कर आई उस समकालीन कविताके लिए, जिसमें बचाओ-बचाओका स्वर प्रमुख है. औद्योगिक पूंजीवादी सभ्यता की बढ़ती यांत्रिकता और बर्बरता के बर-अक्स मनुष्यता, सुन्दरता और कोमलता को बचाने की पुकार.


स्वाभाविक था कि फूल, चिड़िया, बच्चा और मां जैसे विषय इन कविताओं में प्रमुखता से आए. अकविता और वाम-कविता की अति-यर्थाथवादी मुखरता से घबराए हुए हिन्दी पाठकों-आलोचकों ने इस जीवनधर्मी नई वाम कविता को हाथो हाथ लिया. लेकिन नब्बे के बाद कारपोरेट पूंजी के भूमंडलीकरणने इस कोमलकलित कविता को अप्रासंगिक बना दिया. नई पीढी के कवियों के सामने यह बात उजागर होने लगी कि क्रूरता और विक्षिप्ति का सामना किए बगैर कोमलता की रक्षा नहीं की जा सकती. कविता को अब बची-खुची कोमलताओं और सुन्दरताओं में शरण ढूँढने की जगह बदलते हुए यथार्थ को गहराई से देखना-समझना होगा, चाहे वह कितना ही पागलपन से भरा हुआ और पागल कर देने वाला हो.  


चंद्रभूषण नब्बे बाद की इसी पीढी के कवि हैं. वे सुन्दरता और समरसता की खोज करने वाले नहीं, विकृति और विक्षिप्ति को समझने वाले कवि हैं. 


यों पागलपन भी एक सापेक्षिक पद है. एक समय का पागलपन किसी दूसरे समय में सामान्य प्रतीत हो सकता है. असामान्य के यों सामान्य हो जाने को आजकल न्यू नॉर्मलकहा जाता है. जैसी भारत में किसानों की आत्महत्या की खबर अब बेहद सामान्य हो चुकी है. सांख्यिकी की नजर से देखें तो आत्महत्याओं में बढ़ोत्तरी की भी एक दर निश्चित की जा सकती है, जिसे पुराने-नए आंकड़ों के हिसाब से सामान्य कहा जा सकता है. लेकिन मानवीय दृष्टि से हर एक आत्महत्या असामान्य है. हर एक हत्या, चाहे वो प्रत्यक्ष हो या परोक्ष, असामान्य है. कविता की दृष्टि में हर एक घटना और हर एक परिस्थिति जो जीवन के, सत्य के, न्याय के विरुद्ध है, असामान्य है. इस असामान्य को सामान्य की मान्यता मिल जाए, यह विक्षिप्ति है.


विक्षिप्ति को सामान्य मान लिया जाए यह और बड़ी विक्षिप्ति है. कभी ऐसा जबरन मनवा लिया जाता है तो कभी मानने के सिवा कोई चारा  नहीं होता. अरक्षितों के खिलाफ़ सत्ताओं के इस खेल में पागलपन की भी अनेक कोटियाँ और कई स्तर हो सकते हैं. आज के न्यू नॉर्मलसमय में प्रत्येक गंभीर कवि को पागलपन की इन सभी कोटियों को आँख गड़ाकर समझना पड़ेगा और ऐसी कविता रचनी पड़ेगी, जिसमें उन सब का बयान मुमकिन हो सके. इस कठिन चुनौती से मुंह चुराने वाले कवि प्रासंगिक नहीं रह जाएंगे.


लेकिन ऐसा करने के लिए एक दूसरे तरह का पागलपन चाहिए. पागलपने का समना करने के लिए भी पागलपन चाहिए. विक्षिप्ति के समय में जीने के लिए, ज़िन्दगी के पक्ष में लड़ने के लिए, विक्षिप्ति चाहिए. इस दूसरे  तरह की विक्षप्ति को शायद एक साफ़-सुथरा पागलपन कहा जा सकता है. आज के गंभीर कवि के लिए कविता चंहुओर छाए रक्तरंजित पागलपन के बीच एक साफ़-सुथरे पागलपन की तलाश भी है. कम से कम चन्द्र्भूष्ण के लिए तो है. तभी वे लिखते हैं:

भीतर इतनी खटर- पटर 
इतनी आमदरफ्त 
इतना शोर 
ऐसा कोई ठंढा पोशीदा कोना कहाँ है 
जहां उसे ठहराया जाए 
यह एक साफ़-सुथरे पागलपन की तलाश है 
मुझे भी ऐसा लगता है 
इस दर्द का इलाज मगर कहाँ से लाया जाए
(‘गुमचोटसे)


दर्द है, तीखा दर्द है. इलाज की बेचैनी भी है. लेकिन इलाज के लिए दर्द की सही शिनाख्त जरूरी है. यह आसान नहीं है, क्योंकि सभ्यता का सारा उपक्रम दर्द को छुपाने पर है. सारी चमक-दमक, सारी वीरता-मंडित घोषणाएं, विज्ञापनों का बहुआयामी मायाजाल सबकुछ इस दर्द को छुपाने के लिए है. आश्चर्य नहीं कि कवि इसे एक गुमचोट की तरह महसूस करता है. ऊपर से सभी कुछ ठीक-ठाक है, सामान्य  है, लेकिन भीतर कहीं कोई चीज लगातार पिराती रहती है. चन्द्रभूषण के लिए कविता इस गुमचोट की शिनाख्त का एक तरीक़ा भी है. 


बाहर की विक्षप्ति का सामना भी भीतर की इस गुमचोट को समझने का एक तरीक़ा है. चंद्रभूषण उन कवियों में से हैं, जिनके लिए कविता करना ज़िन्दगी करने का एक तरीक़ा है. वे किसी छायाकार पर्यटक की तरह कविता के कैमरे से देश-दुनिया की यादगार तस्वीरें खींचने नहीं निकले हैं. वे देश-दुनिया में  निकले हैं अपने भीतर के किसी दर्द को समझने, परखने और उससे निजात पाने का सलीका खोजने.


उनके हाथों में बस एक चिराग है, उस समझ का, जो कहती है कि भीतर के दर्द की जड़ें भीतर नहीं बाहर होती हैं. लेकिन भीतर दर्द न हो तो बाहर फ़ैली ये जड़ें दिखाई नहीं देतीं. छायाकार पर्यटक कवि को दुनिया में दर्द दिखाई भी दे जाए, वह उसकी पुरस्कार-जिताऊ तस्वीरें भी उतार ले, लेकिन उस दर्द की जड़ें दिखाई नहीं देंगी. 


चन्द्रभूषण उन कवियों के अंदाज़ में नहीं लिखते, जिन्हें लगता है कि उनका अवतार साहित्य के रिक्त भंडार को महानतम रचनाओं से भर देने के लिए हुआ  है. वे सबसे पहले अपने लिए लिखते हैं. अपने ही दर्द की दवा खोजते से. अपनी ही ज़िन्दगी को कविता से सहेजने की कोशिश करते से. किसी आत्मवक्तव्य में उन्होंने कहा भी है कि  कविता ऑक्सीजन की तरह उनके जीने की जरूरत है.वे इस बात की फिक्र करते नहीं लगते कि उनकी कवितायेँ महानतम कविताओं की श्रेणी में रखी जाएँगी या नहीं. हो सकता है उनकी कुछ कविताएँ क्राफ्ट और भाषा के लिहाज से बहुत  परिष्कृत और अद्यतन न लगें. ऐसा लगे, यह सोच उनकी रचना-प्रक्रिया में शामिल नहीं जान पडती. वे भीतर की जरूरत से उपजी हैं और जैसी हैं, वैसी हैं. लेकिन भीतर की जरूरत के मारे पाठकों को वे बेहद अपनी, बहु-अर्थ भरी और दृष्टि-निर्मात्री प्रतीत होंगी. 


भीतर से बाहर और फिर बाहर से भीतर की यह प्रक्रिया चंद्रभूषण की अनेक कविताओं में साफ़ दिखाई देती है. इसका एक विलक्षण उदाहरण अठारह साल का लड़काहै. यह अठारह साल का लडका आधी रात किसी जगमग नाइट क्लब के बाहर मिलता है, जिसे देखकर पहला ख़याल यह आता है कि

वह सिर्फ़ फुटकर किस्म का डॉन क्विगजॉट
ब्रेड पकौड़ों और पावर ब्रोकरों के शहर में
अंडे बेचकर एडीसन बनने आया है’,

लेकिन जैसे जैसे कविता उसे करीब से देखने लगती है, उसे उस लडके में अपना और ख़ुद में उस लड़के का अक्स दिखाई देने लगता है.  आखिरकार कविता जहां पहुँचती है, वहाँ से साफ़ दिखने लगता है कि इक्कीसवीं सदी की शहरी जगमगाहट ऐसे ही मासूम लडकेलडकियों के शिकार से पैदा हुई हैजो नाइट क्लब के बाहर और भीतर भी हो सकते हैं. यह इस बात पर निर्भर करता है कि सत्ताएं अपने खेलमें उसे कब,कहाँ और कैसे शामिल करती हैं.


सत्ताओं के इस जटिल खेलको चंद्रभूषण की कविता बहुत बारीकी से देखती है. इस खेल को समझना जरूरी है. आख़िर खेल क्यों? सत्ता को खेल की जरूरत क्यों पड़ती है? अरक्षित जन को वे सीधे क्यों गड़प नहीं कर जातीं? चूहे-बिल्ली का खेल क्यों खेलती हैं? बाज़ार से लेकर राजनीति तक, संस्कृति से लेकर रिश्तेदारियों तक इसी खेल का तो पसारा है. इसलिए कि सब कुछ के बावजूद इंसान आखिर हलवा  नहीं है. इंसान को सीधे गडप नहीं किया जा सकता. वो सोचता-समझता है, प्रतिक्रिया करता है, प्रतिरोध करता है. उसे सीधे नहीं किसी खेल में फंसाकर ही मारा जा सकता है. 


चंद्रभूषण की कविता खेलसत्ताओं  के इस खेल की छानबीन  भी करती है और ख़ुद को और, जाहिर है, पाठक को भी, इस खेल में मुकाबले की बाजी के लिए तैयार भी करती है. दुनिया में रहते हुए सत्ताओं के इस खेल में न पड़ने का विकल्प किसी के पास नहीं है. कविता बड़े अपनेपन से समझाइश देती है

“.. लिहाजा  खेलना है तो अपनी ताब अपनी सरकशी से खेलो 
वजह चाहे कुछ भी हो, किसी की बेकसी  से क्यों खेलो
और अगर तुम्हारा मुक़ाबला किसी राक्षस से हो 
जैसे किसी असाध्य रोग, अन्यायी व्यवस्था 
या समझ में न आने वाली अपनी ही किसी दुश्चिंता से 
तो छल- छद्म समेत हर संभव हथियार लेकर उससे लड़ो...” 


ऐसी पंक्तियाँ लिखने के लिए नैतिक साहस चाहिए. मैदान के खेल की नैतिकता जीवन के खेल में नहीं चल सकती. यहाँ तो जो जीते वही सिकन्दर है, वही नैतिकता की परिभाषा तय करने वाला है. साधारण जन के लिए इस खेल में जीत का मतलब शिकार हो जाने की नियति से बचना मात्र है. शिकार हो जाने के बाद कोई नैतिकता नहीं बचती. इसलिए इस खेल में छल छद्म समेत हर सम्भव हथियार लेकर खेलना जरूरी है. 


अब तक की चर्चा से किसी को लग सकता है कि चंद्रभूषण केवल राजनीतिक कवितायेँ लिखते होंगे. उनके नए संग्रह की कविता गेरुआ चाँदसे गुजरने वालों को ऐसा कोई भ्रम नहीं होगा.

इस संग्रह में राजनीतिक-सामाजिक कविताओं के अलावा प्रकृति, प्रेम और पारिवारिक जीवन की ढेर सारी कवितायेँ हैं. लेकिन उनके सबसे भाव-विगलित और सौन्दर्य-मर्मी कवितायेँ भी गहरे अर्थों में राजनीतिक हैं. वे उन अबोध प्रसन्न-चित्त कवियों में शामिल नहीं  हैं, जिन्हें जीवन में राजनीतिक और राजनीति-मुक्त जगहें अलग अलग मिल जाती हैं, और जिन्हें  राजनीति से बचने के लिए कविता की शरण मिल जाती है. चंद्रभूषण की कविता अमलतासके उस अजब पीले रंगको तो ध्यान से परखती ही है, ‘जो देखने वालों को किसी और दुनिया का छिपा हुआ रास्ता दिखाता है’,लेकिन इस अजब पीले रंग में भारतीय श्रम के  गौरवशाली पसीने  की खुशबू को भी डूब कर महसूस करती है. यह एक ऐसी कविता है जो भारत की श्रमशील संघर्षशील जनता से प्रेम करती है, उसी तरह भारत की ऋतुओं, फूलों और गीतों से भी. भारतप्रेम का यह रूप तथाकथित भारत-व्याकुल भक्तों में नहीं मिलेगा जो केवल धार्मिक प्रतीकों को पहचानते हैं, प्रकृति और मनुष्य को नहीं.


यह मानुष-प्रेम ही है जो चंद्रभूषण की कविता को तमाम विक्षिप्तियों का आमना-सामना करने के बाद भी निराशावादी नहीं होने देता. बाहर और भीतर के पागलपन का दूर तक पीछा करने के बाद भी निराशा के पागलपन का शिकार नहीं होने देता. संग्रह की पहली ही कविता कुछ न होगा तो भी कुछ होगाइस भरोसे की गहराइयों का पता देती है-

‘.. और चलते चलते जब इतने थक चुके होंगे कि
रास्ता रस्सी की तरह खु को लपेटता दिखेगा 
आगे बढना भी पीछे हटने जैसा हो जाएगा 
... तब कोई याद हमारे भीतर से उमड़ती हुई आएगी 
और खोई खामोशियों में गुनगुनाती हुई 
उंगली पकड़कर हमें मंजिल तक पहुंचा जाएगी .
ashuvandana@gmail.com
________________________ 







कुछ न होगा तो भी कुछ होगा

सूरज डूब जाएगा
तो कुछ ही देर में चांद निकल आएगा

और नहीं हुआ चांद
तो आसमान में तारे होंगे
अपनी दूधिया रोशनी बिखेरते हुए

और रात अंधियारी हुई बादलों भरी
तो भी हाथ-पैर की उंगलियों से टटोलते हुए
धीरे-धीरे हम रास्ता तलाश लेंगे

और टटोलने को कुछ न हुआ आसपास
तो आवाजों से एक-दूसरे की थाह लेते
एक ही दिशा में हम बढ़ते जाएंगे

और आवाज देने या सुनने वाला कोई न हुआ
तो अपने मन के मद्धिम उजास में चलेंगे
जो वापस फिर-फिर हमें राह पर लाएगा

और चलते-चलते जब इतने थक चुके होंगे कि
रास्ता रस्सी की तरह खुद को लपेटता दिखेगा-
आगे बढ़ना भी पीछे हटने जैसा हो जाएगा...

...तब कोई याद हमारे भीतर से उमड़ती हुई आएगी
और खोई खमोशियों में गुनगुनाती हुई
उंगली पकड़कर हमें मंजिल तक पहुंचा जाएगी.








क्या किया

क्या किया?

थोड़ा एनिमल फार्म पढ़ा
थोड़ा हैरी पॉटर
कुछ पार्टियां अटेंड कीं
बहुत सारा आईपीएल देखा

एक दिन अन्ना हजारे के अनशन में गया
पूरे दिन भूखा रहने की नीयत से
लेकिन रात में आंदोलन खत्म हो गया
तो खा लिया- बहुत सारा

एक गोष्ठी में सोशलिज्म पर बोलने गया
पता चला, सूफिज्म पर बोलना था
सब बोल रहे थे, मैं भी बोला
फिर एक गोष्ठी में ज्ञान पर बोला
और इसपर कि इतने बड़े बाजार में
ज्ञान के कंज्यूमर कैसे पहचाने जाएं

उसी दिन ज्ञान गर्व से मुफ्त की दारू पी
और उससे बीस दिन पहले भी
कामयाब रिश्तेदारों के बीच
नाचते-गाते हुए, खूब चहक कर पी

दारू वाली दोनों रातों के बीच
एक सीधी-सादी सूफियाना रात में
घर के पीछे हल्ला करने वालों पर सनक चढ़ी
जबरन पंगा लेकर पूरी बरात से झगड़ा किया
रात बारह बजे दरांती वाला चाकू लेकर
मां-बहन की गालियां देता दौड़ा
किसी को मार नहीं पाया, पकड़ा गया

बाद में कई दिन भीतर ही भीतर घुलता रहा
जैसे जिंदगी अभी खत्म होने वाली है
इस बीच, इसके आगे और इसके पीछे
जागते हुए, नींद में और सपने में भी
नौकरी की....नौकरी की....नौकरी की

लगातार सहज और सजग रहते हुए
पूरी बुद्धिमता और चतुराई के साथ
कि जैसे इस पतले रास्ते पर
पांव जरा भी हिला तो नीचे कोई ठौर नहीं

एक दिन मिज़ाज ठीक देख बेटे ने कहा,
पापा आप कभी-कभी पागल जैसे लगते हो
मैंने उसे डांट दिया
मगर नींद से पहले देर तक सोचता रहा-
इतना बड़ा तो कर्ज हो गया है
कहीं ऐसा सचमुच हो गया तो क्या होगा.





धीरे चलो

धीरे चलो
इसलिए नहीं कि बाकी सभी तेज-तेज चल रहे हैं
और धीरे चलकर तुम सबसे अलग दिखोगे
इसलिए तो और भी नहीं कि
भागते-भागते थक गए हो और थोड़ा सुस्ता लेना चाहते हो

धीरे चलो
इसलिए कि धीरे चलकर ही काम की जगहों तक पहुंच पाओगे
कई चीजें, कई जगहें तेज चलने पर दिखतीं ही नहीं
बहुत सारी मंजिलें पार कर जाने के बाद
लगता है कि जहां पहुंचना था, वह कहीं पीछे छूट चुका है

धीरे चलो
कि अभी तो यह तेज चलने से ज्यादा मुश्किल है
जरा सा कदम रोकते ही लुढ़क जाने जैसा एहसास होता है
पैरों तले कुचल जाना, अंधेरे में खो जाना, गुमनामी में सो जाना
इन सबमें उससे बुरा क्या है, जहां तेज चलकर तुम पहुंचने वाले हो?






कहीं दूर उसने कहा

तुम यहीं रहने लायक थे
यहीं, मेरे पास, ठीक इसी जगह
मुझे तुम्हें जाने नहीं देना चाहिए था.

जब-तब दुखी कर जाता है यह खयाल
कि तुम्हारा जाना मैंने कबूल क्यों किया.

लेकिन यह सिर्फ एक रोमांटिक खयाल है.

तुम यहां कैसे रह सकते थे?

प्रकृति के नियमों के खिलाफ होता यह
जिन पर सिर्फ गुस्सा किया जा सकता है,
जिन्हें बदला नहीं जा सकता.

तुम्हें नहीं पर मुझे पता था-
कीचड़ और कांटों से बना है आगे का रास्ता.

पहले कदम से आखिरी मुकाम तक
बारीकी से गुंथे हुए कीचड़ और कांटे
और जहां-तहां सिर्फ कीचड़ या सिर्फ कांटे.

(ये ही जगहें राहत की...
राहत के छोटे-छोटे मुकाम
जिन्हें मंजिल कहने का चलन है)

मेरी कोई सलाह तुम्हारे काम की नहीं
उपमा में नहीं, सच में हम दो अलग-अलग दुनियाओं में हैं.

कैसे कहूं,
मुझे डर लगता है, जब देखता हूं तुम्हें किसी मंजिल के करीब

क्या तुम कीचड़ में धंसते चले जाओगे?
गढ़ डालोगे इसका ही कोई सौंदर्यशास्त्र?

या कि कांटे छेद डालेंगे
शरीर के साथ-साथ तुम्हारी आत्मा भी?

मेरे पास कभी न आ सकोगे, यह दुख है
पर जानते हो, मेरा सुख क्या है?

बार-बार अपनी राहतों में तड़पते हुए
हर बार कहीं और चले जाने की चाह में
तुम्हें हुमकते हुए देखना.

नशेड़ी, पागल, बदहवास
किसी हत्यारे जैसे दिखते हो
न जाने किन तकलीफों में होते हो
पर इन्हीं वक्तों में दिखते हो वह,
जो तब थे, जब यहां थे तुम.





रास्ते पर तारा

ऊंची नीरंध्र अपारदर्शी दीवारों से घिरे ये रास्ते हैं
सीधे सुरक्षित चिकने सरल सपाट रास्ते
जो बार-बार एक ही जैसे चौराहों में खुलते हैं
उतने ही सुरक्षित उतने ही बंद चौराहों में

ये रास्ते कभी हिलते नहीं डगमगाते नहीं
दीमक इन्हें खाते नहीं चरचरा कर ये टूटते नहीं
आवाज तक कभी कोई इनसे आती नहीं
कि जैसे यों ही थे, रहेंगे यों ही सदा सर्वदा

ऊपर आकाश होता है और दृश्य अदृश्य तारे
जो धीरे धीरे बगैर किसी रास्ते के चलते हैं
रास्तों पर चलते लोग जब तब तारों को देखते हैं
जड़ाऊ बेलबूटों से ज्यादा अहमियत उन्हें नहीं देते

एक दिन एक तारा टूटा और रास्ते पर आ गिरा
कुछ लोगों ने उसे उठाया और देर तक समझाते रहे-
गनीमत समझो कि रास्ते पर आ गए

सितारे के लिए लेकिन मुश्किल ही रहा
इस समझाइश को समझना

आकाश...बाहर...वहां...खुला आकाश
बीच आकाश में ये पिंजड़े नुमा लकीरें कौन खींच गया ?
और लकीरें भी ऐसी कि हिल गईं कभी झटके से
तो सबकुछ लिए दिए मुरमुरे सी बिखर जाएंगी

बड़ी देर तक सितारा राह चलतों से
बाहर निकलने का रास्ता पूछता रहा
लोग हैरान होते रहे सुन सुन कर उसके सवाल

रास्तों की दुनिया में तो रास्ते ही होते हैं
रास्तों से बाहर भला हो भी क्या सकता है.






नई शुरुआत

ख़ामोशी
एक अलग तरह की ख़ामोशी
जो पहले करीब से गुजरी नहीं थी

और फिर बाईं तरफ से दर्द का रेला उठता है.

एक कुत्ते के भूंकने
एक गिद्ध के पंख फड़फड़ाने
दो अघाए कौओं के आपस में लड़ पड़ने के साथ
अचके में वापस लौटी एक नई जिंदगी की धड़कनें शुरू होती हैं.

किसी लाश के नीचे दबे हुए धड़ को बाहर खींचना
इस एहतियात के साथ कि कोई हिस्सा तुम्हारा वहीं न रह जाय
फिर सांस भर कर इस नतीजे पर पहुंचना
कि एक अकेली बांह के सहारे यह काम कितना मुश्किल था.

फिर सोचना कि ऐसे हाल में तुम्हारा हाल पूछने वाला कोई नहीं है
फिर थक कर पड़ जाना इस हतक में
कि सारे ओहदों और तमगों के बाद भी तुम एक सिपाही ही रहे
हुक्म पर लड़ने वाले और हुक्म पर हथियार झुका देने वाले.

पौ फट रही है और दूर कहीं नगाड़ों की आवाज आ रही है.

एक झीनी सी उम्मीद तुम्हारे मन में जागती है-
ये नगाड़े अगर तुम्हारी तरफ के हुए
तो मौत के ठंडे दायरों से हुई यह वापसी अकारथ नहीं जाएगी.

लेकिन नगाड़े बहुत दूर हैं
और तुम नहीं जानते कि वहां पहुंचने तक
जान और उम्मीद तुममें बची रही तो भी
वहां कोई उल्टा नतीजा दिख जाने का
सदमा तुम बर्दाश्त कर पाओगे या नहीं.

सुबह...
सिपाही, देखो सुबह हो रही है
जैसे किसी और दुनिया की शाम हो रही हो

इसी और दुनिया में तुम्हें अब जीना और खुश रहना है.

यहां से आगे तुम्हारी कोई फौज नहीं अफसर नहीं देश नहीं
कोई गौरव भी अब नहीं तुम्हारा, जिसका साझा करने आएंगे
हित-मित्र भाई-बंधु प्रेमी-कुटुंबजन.

बेहोशी और हताशा और आत्महीनता के गर्त से ऊपर उठो
कि कल तक जो तुम लड़ते रहे, वह किसी और का युद्ध था

तुम्हारा तो बस अभी शुरू हुआ है.





नफ़रत का नाश्ता

लगता है गलत चुना
पर चुनने को कुछ था नहीं

होता तो प्यार चुनता
नफरत क्यों चुनता
जो कोलतार की तरह
सदा चिपटी ही रह जाती है

कोई चांस नहीं था
जहां तक दिखा नफरत ही देखी
उसी का कुनबा उसी का गांव
उसी का देश और उसी की दुनिया

जहां वह कम दिखती थी
लोग उसे प्यार कहते थे
फिर खाली जगह को भर देते थे
उसी से जल्द अज जल्द

एक दिन पता चला
यह तो बड़े काम की चीज है

चुटकी भर मैंसिल और पोटाश
कागज पर बराबर से मिलाया
फिर बट्टे से ठोंका
तो लगा, छत सर पर आ जाएगी

इस तरह नफरत को नई धार मिली
और धीरे-धीरे खून में घुली
यह सपनीली समझ कि
एक दिन इससे सब बदल जाएगा

लेकिन एक मुश्किल थी
अपनी नींदों में जब हम अकेले होते थे
नफरत के लिए कोई निशाना नहीं होता था
तब वह हमीं पर चोट करती थी

स्वप्नहीन रतजगों में उठकर
खाली घड़े खखोरते हुए कई-कई बार
खुद से पूछते थे-
दुनिया जब तक नहीं बदलती
तब तक इस होने का हम क्या करें

क्या ग्रेनेड और बंदूक की तरह
नफरत को भी टांगने के लिए
दीवार में कोई खूंटी गाड़ दें

दरअसल, हमें पता नहीं था
खूंटियां तो गड़ चुकी थीं हमारे इर्दगिर्द

जिन-जिन चीजों को हम चाहते थे
जो लोग भी हमारे अजीज थे
उन्हीं पर ओवरकोट की तरह
हमारी नफरत टंगने लगी थी

लेकिन हर चीज का वक्त होता है
रूई में रखा ग्रेनेड भी सील जाता है
रोज साफ होने वाली बंदूक का घोड़ा भी
गोली पर टक करके रह जाता है एक रोज

तुम जान भी नहीं पाते
और नफ़रत तुम्हारी एक सुबह
बदहवासी में बदल गई होती है

परेड पर निकले फौजी के जूते में
चुभी लंबी साबुत धारदार कील

एक निश्चित ताल के साथ तुम
गुस्से से फनफना रहे होते हो
और लोग तुम्हें देख कर हंस रहे होते हैं

तुम उनसे छिपने की तरकीबें खोजते हो
कोई कैमॉफ्लॉग कि उन जैसे ही कूल दिखो
कुछ गालों पे डिंपल कुछ बालों में ब्रिलक्रीम
अडंड अंग्रेजी में अढ़ाई सेर ज्ञान
और कोई हिंट कि जेब में कुछ पैसे भी हैं

बट...ओ डियर, यू डोंट बिलांग हियर
बाकी सब मान भी लें तो
खुद को कैसे मनाओगे कि
इतना सब हो जाने के बाद भी
नफरत तुम्हारा नाश्ता नहीं कर पाई है?




अंगूठी

मुझे इसको निकाल कर आना था.

या फिर चुपचाप पिछली जेब में रख लेता
बैठने में जरा सा चुभती, और क्या होता.

किसी गंदी सी धातु के खांचे में खुंसे
लंबोतरे मूंगे वाली यह बेढब अंगूठी
हर जगह मेरी इज्जत उतार लेती है.

एक नास्तिक की उंगली में
अंगूठी का क्या काम
वह भी ऐसी कि आदमी से पहले
वही नजर आती है
जैसे ऊंट से पहले ऊंट का कूबड़.

अब किस-किस को समझाऊं कि
क्यों इसे पहना है
क्या इसका औचित्य है
और निकाल कर फेंक देने में
किस नुकसान का डर सता रहा है.

प्यारे भाई, और कुछ नहीं
यह मेरी लाचारगी की निशानी है.

एक आदमी के दिए इस भरोसे पर पहनी है
कि पिछले दो साल से इतनी खामोशी में
जो तूफान मुझे घेरे चल रहा है
वह अगले छह महीने में
मुझे अपने साथ लेकर जाने वाला था
लेकिन इसे पहने रहने पर
अपना काम पूरा किए बिना ही गुजर जाएगा.

इतने दिन तूफानों में मजे किए
आने और जाने के फलसफे को कभी घास नहीं डाली
लेकिन अब, जब खोने को ज्यादा कुछ बचा नहीं है
तब अंगूठी पहने घूम रहा हूं।

एक पुरानी ईसाई प्रार्थना है-
जिन चीजों पर मेरा कोई वश नहीं है,
ईश्वर मुझे उनको बर्दाश्त करने की शक्ति दे.

सवाल यह है कि
मेरे जैसे लोग, ईश्वर के दरबार में
जिनकी अर्जी ही नहीं लगती
वे यह शक्ति भला किससे मांगें.

जवाब- मूंगे की अंगूठी से.

प्यारे भाई,
तुम, जो न इस तूफान की आहट सुन सकते हो
न इसमें घिरे इंसान की चिल्लाहट-
अगर चाहो तो इस बेढब अंगूठी से जुड़े
हास्यास्पद दृश्यों के मजे ले सकते हो.

मुझे इससे कोई परेशानी नहीं है.

बस, इतनी सी खुन्नस जरूर है
कि इस मनोरंजन में मैं तुम्हारा साथ नहीं दे पा रहा हूं.



गुमचोट

सब ठीकठाक है
बस एक तकलीफ
जब-तब जीने नहीं देती

जानता नहीं कि यह क्या है

याद से जा चुकी
या किसी और जन्म में लगी
भीतर की कोई भोथरी गुमचोट

कोई अनुपस्थिति
कोई अभाव
कोई बेचारगी कि
हम अपने खयाल को सनम समझे थे

इस खयाल का कोई क्या करे

भीड़ भरी राहों में खोए
न जाने कितने
खयाली सनम
याद आते हैं

क्यूं न इक और बनाया जाए

भीतर इतनी खटर-पटर
इतनी आमदरफ्त
इतना शोर

ऐसा कोई ठंडा
पोशीदा कोना कहां है
जहां उसे ठहराया जाए

यह एक साफ-सुथरे
पागलपन की तलाश है
मुझे भी ऐसा लगता है

इस दर्द का इलाज मगर कहां से लाया जाए?


 पेंटिग : Ali Kazim



अट्ठारह साल का लड़का

सींग कटा कर कुलांचें भरने वालों की यह रंगारंग पार्टी
बस थोड़ी ही देर में अपने शबाब पर पहुंचने वाली है

ऐसे सुहाने, नाजुक मोड़ पर कौन यहां से हिलता है
फिर भी, फुरसत मिले तो जरा आस-पास घूम कर देखना
गंवईं सा दिखने वाला एक अट्ठारह साल का लड़का
अपना दिन का ठिकाना छोड़ कर यहीं कहीं टहल रहा होगा

लेकिन अभी, रात के बारह बजे
तुम कैसे उसे ढूंढोगे, कैसे पहचानोगे?

वह कुछ भी पहने हो सकता है,
जैसे काठ की खटपटिया पर पीली धोती और नीली टीशर्ट

उसकी चाल का चौकन्नापन गली के गुंडे जैसा
आंखों की तुर्शी झपट पड़ने को तैयार बनैले जानवर जैसी है,
हालांकि यह हुलिया न उसे मजाकिया बनाता है, न खौफनाक

वह सिर्फ एक फुटकर किस्म का डॉन क्विग्जॉट है,
ब्रेड पकौड़ों और पावर ब्रोकरों के शहर में
अंडे बेच कर एडीसन बनने आया है 

लेकिन एक अनजान लड़के की ऐसी बेढब बारीकियां
इस चौंध भरी शहराती रात में तुम्हें दिखेंगी कैसे ?





*
साढ़े पांच फुट का वह ढीला ढीठ गठीला छोकरा
मोटे काले फ्रेम वाला चश्मा भी अभी नहीं लगाता होगा
कि सामने से आ रही गाड़ियों की पलट रोशनी से ही
सड़क पर उसके होने का कुछ अंदाजा मिल सके

पढ़ते वक्त आंखों में दर्द की शिकायत करता है
पर चश्मा अभी उसकी नजर से पंद्रह-बीस दिन दूर है,
और उसकी दाईं आंख पर कटे का निशान भी अभी नहीं है

वह चोट तो उसे पांच साल बाद लगेगी, तेईस की उम्र में

यहां तुम उसे देर रात तक खुली किसी चाय की दुकान पर
पागल कर देने वाली बहसों में भी उलझा हुआ नहीं पाओगे
यह जानी-पहचानी चीज अभी उसकी पहुंच से काफी बाहर है

असल बात यह कि इस वक्त जहां हम-तुम बातें कर रहे हैं,
वह आजमगढ़ या  इलाहाबाद का कोई स्टुडेंट जोन नहीं
साउथ दिल्ली का एक भुतहा सा नाइट क्लब है...
दुनिया की सारी बहसें जहां पहुंचने के पहले ही हल हो चुकी होती हैं



उसे पहचानने के लिए शायद तुम्हें उससे कुछ सवाल करने पड़ें
जैसे यह कि इतने शातिरपने के साथ, फिर भी इतनी शाइस्तगी से
आंखें ऊपर किए बिना लड़कियां वह कैसे ताड़ लेता है,
और यह कि जिंदगी भर ताड़ता ही रहेगा या कभी आगे भी बढ़ेगा

लगता नहीं कि इन सवालों का तुम्हें कोई जवाब मिलेगा
लेकिन इस अटपटेपन के आकर्षण से कहीं तुम उसके दोस्त बन गए
तो बिना कुछ सोचे-समझे कलेजा निकालकर तुम्हारे हाथ पे धर देगा

उससे कहना कि कोशिश चाहे जितनी भी कर ले, कामयाब उसे नहीं होना
कि ग़मे-रोजगार का कोई भी चमकीला इलाज उसके लिए नहीं बना है
कि हालात चाहे जैसे भी हों, पर अभी की चिंताओं में इतना गर्क न हो
क्योंकि आगे और भी बड़ी चिंताओं का दरिया उसे डूब कर पार करना है

अकाल मौतों के तूफान झेलने हैं, दुनिया बदलने की राजनीति करनी है
फाके की मजबूरियों का मजा डेली अडवेंचर की तरह लेना है
बाड़ेबंदियों के पार जाकर एक पूरा और कुछ अधूरे इश्क करने हैं 
पुलिस की पिटाई खानी है, जेल को घर समझकर जीने का मन बनाना है

और यह सब करके एक दिन अचानक
गृहस्थी और स्वप्नभंग के झुटपुटे में
छोटी से छोटी नौकरी के लिए दफ्तर-दफ्तर भटकना है



*
तुम रेड वाइन का कड़वा घूंट भरते हो,
मुंह बिचकाते हो, कहते हो- लाइफ हैपंस
लेकिन इस पल्प फलसफे की बघार से तुम
मुझे बहलाने की कोशिश न करो

मुझे पता है कि सड़क पर पहली ही मुलाकात में
किसी को आने वाली जिंदगी के ऐसे करख्त ब्यौरे देना
अपने लिए बैठे-बिठाए जूते खाने की व्यवस्था करने जैसा है

इसलिए मैं तुम्हें एक आसान रास्ता बताता हूं-
इसी ऊंघती गंधाती हालत में, आंखें आधी मूंदे आधी खोले
तैरते हुए से तुम उस तक जाओ और भुलावा देकर उसे मेरे पास लाओ

उससे कहो कि शक्ल-सूरत में उससे बहुत मिलता-जुलता एक शख्स
जो इसी शहर में कहीं बारह से सात की रेगुलर नौकरी बजाता है,

नीची नजर से लड़कियां ताड़ने और हर हाल में मगन रहने का
अपना आजमाया हुआ हुनर बेध्यानी के बक्से में डाल कर
अट्ठारह साल के ही अपने बेटे के किसी राह लग जाने की फिक्र करता है,

अपनी चोटिल दाईं आंख ही नहीं, अपने वक्त के रिसते घावों को भी
तरह-तरह के चश्मों के पीछे छिपा कर रखने का हुनर
जिसने दुनिया की सबसे ऊंची युनिवर्सिटी में सीख रखा है-

आलवेज एटीनकी रंगारंग पार्टी में तहेदिल से शामिल होने के लिए
सिर्फ दो मील और बत्तीस साल की छोटी सी दूरी पर
बाहें फैलाए उसका इंतजार कर रहा है.

_____________________
चंद्रभूषण
(१८ मई १९६४, आजमगढ़ )

वर्षों तक राजनीतिक एक्टिविस्ट रहे हैं, साप्ताहिक समकालीन जनमत  से जुड़े थे.  विज्ञान, दर्शन, शिक्षा, राजनीतिक सिद्धांत आदि से सम्बन्धित विश्व प्रसिद्ध किताबों के तेरह अनुवाद अंग्रेजी से हिंदी में ग्रन्थ शिल्पी आदि ने प्रकाशित किये हैं. दो साल तक डिस्कवरी चैनल के लिए ट्रांसक्रिप्सन का काम किया है.

फिलहाल नवभारत टाइम्स में संपादकीय पृष्ठ प्रभारी हैं.
patrakarcb@gmail.com




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