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परख : अपनों में नहीं रह पाने का गीत (प्रभात) : प्रमोद कुमार तिवारी

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समकालीन हिंदी आलोचना में प्रभात की कविताओं को लेकर उत्साह है, हालाँकि अभी उनका एक ही काव्य-संग्रह ‘अपनों में नहीं रह पाने का गीत’ प्रकाशित है. कविताओं के अतरिक्त आदिवासी लोक साहित्य पर भी  उनका कार्य है और बच्चों की रचनात्मक दुनिया में भी उनकी उपस्थिति है. प्रमोद कुमार तिवारी ने  कवि प्रभात की ‘निजता’ और ‘विशिष्टता’ को विस्तार से देखा-परखा है.   
  

दु:ख! क्‍या सच में मुक्ति देता है?              
प्रमोद कुमार तिवारी



क ऐसे दौर में जब साहित्‍य के नाम पर सबसे ज्‍यादा कविताएं मौजूद हों,जब पुराने-नये सभी जन माध्‍यमों में कविताओं की लगभग बाढ़ सी आयी हो और ज्‍यादातर लोगों के पास समय का अभाव हो तो सामान्‍य सा सवाल उठता है कि कोई कविता क्‍यों पढ़े? और शीघ्र ही यह सवाल इस रूप में सामने आ जाता है कि कविता की जरूरत ही क्‍या है? कथा,उपन्‍यास,सिनेमा आदि से साहित्‍य का काम पूरा हो रहा है अलग से कविता को क्‍यों महत्‍व दिया जाय?

कविताओं से लगभग ऊब के इस समय में प्रभात की कविताएं अचानक फूटे शोक के किसी सोते की तरह लगती हैं. ऐसा लगता ही नहीं कि ये कविताएं छपाने,सुनाने या किसी को बताने के लिए लिखी गई हैं बल्कि ये लगभग आत्‍मालाप की तरह हैं जिसमें कवि अपने दुख को खुद से ही कह - कह कर अपना मन हल्‍का कर रहा है. ये कविताएं अनायास ही पाठक को जीवन के उस धरातल पर पहुंचा देती हैं जहां आत्‍म और पर के बीच का,होने और न होने के बीच का फर्क मिटता सा नजर आता है. लेकिन इन बातों से यह अर्थ बिलकुल न निकाला जाय कि ये कविताएं आध्‍यात्मिक या पराभौतिक हैं. इनमें बिलकुल सामने का ठेठ जीवन है. घनघोर सांसारिकता से भरा पूरा. इसके बावजूद ये कविताएं वर्तमान समय की विमर्श केंद्रित कविताओं से बिलकुल अलग खड़ी हैं.

जब साहित्‍य अकादेमीसे प्रकाशित प्रभातका कविता संग्रह हाथ में आया तो इसका नाम अपनों में नहीं रह पाने का गीतकुछ अटपटा सा लगा. खास तौर से तब जब कि इस संग्रह में अपनों केनहीं रह पानेके ढेर सारे गीत मौजूद हैं,परंतु यहीं से प्रभात का प्रभातपनखुलना शुरू होता है. प्रभात का अनुभव संसार,निरीक्षण शैली,यूं कहें कि प्रभात की नजर कुछ भिन्‍न प्रकार की है,बातों को ये प्रचलित ढंग से नहीं उठाते. न सुख को सुखकी तरह देखते हैं और न दुख को दुखकी तरह. इस संग्रह की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि सुख के भीतर दुख पैठा है और दुख भी खालिश दुख नहीं,उसमें सुख की छुवन है.

शबे हिज्र थी यूं तो मगर पिछली रात को
वो दर्द उठा फिराक़ कि मैं मुस्‍कुरा दिया

काव्‍यशास्‍त्रीय व्‍याख्‍याओं के अनुसार जब सामाजिक के चित्‍त में विकास और विस्‍तार होता है तो उसे सुख मिलता है और क्षोभ और विक्षेप होता है तो दुख. परंतु क्‍या दुख विस्‍तार नहीं करता है? साहित्‍य से उत्‍पन्‍न होनेवाले क्षोभ क्‍या लौकिक या सांसारिक क्षोभ जैसे ही होते हैं? या फिर,क्‍या दुख आनंददायक भी हो सकता है? बहुत पहले रस के स्‍वरूप की व्‍याख्‍या करते समय रामचंद्र गुणचंद्रने सुख दुखात्‍मो रस:कहा था. यानी जीवन की तरह कविता भी इन दोनों के बीच खड़ी है बल्कि दुख की ओर थोड़ा ज्‍यादा झुकी हुई. बुद्ध ने भी जीवन को दुखों का सागर कहा था और दुनिया के ज्‍यादातर (और भारत के भी रामायण और महाभारत दोनों) महाकाव्‍य दुखांत हैं. एको रस: करूण: कहकर भवभूति ने भी दुख की निरंतरता को स्‍थापित किया है. प्रभात के संग्रह से गुजरते समय ये सारे संदर्भ अनायास ही दिमाग में चले आते हैं क्‍योंकि यह संग्रह दुख की ओर झुका हुआ है और लगभग एक शोकगीत की तरह है. परंतु यह दुख वेदना या पीड़ा नहीं है,ठीक वैसे ही जैसे कि सुख आनंद नहीं है.


प्रभात एक संक्रांति का निर्माण करते हैं- सुख और दुख की संक्रांति,रोने और हंसने की संक्रांति,संलिप्‍तता और निर्लिप्‍तता की संक्रांति,संबंधों में प्रगाढ़ता और मुक्ति की संक्रांति या यूं कहें कि वे जीवन जैसा जीवनकविता में रचने की कोशिश करते हैं. इस प्रयास में कई बार सार्थकता और निरर्थकता की सीमाओं को तोड़ कर एक तरह का एब्‍स्‍ट्रेक्‍ट रचते हैं,लगभग पेंटिंग की तरह. बस कुछ है,एक स्‍पेस है,उसमें अर्थ की खोज करना एक खास तरह की निर्ममता जैसी लगती है. जैसे किसी बच्‍चे के नॉनसेंस को तर्क की कसौटी पर कसना नॉनसेंस से कई गुना बड़ा नॉनसेंस,लगभग सेंसलेस,लगता है. क्‍या कविता से पेंटिंग या खयाल गायकी के उस स्‍तर तक पहुंचा जा सकता है जहां शब्‍द नहीं बस रंगों या स्‍वरों की अनुगूंज शेष रह जाए. कुछ महसूस हो,ऐसा जो आपकी मानसिक भावभूमि को एक ऊंचाई प्रदान करे,जहां अच्‍छा है या बुरा है यह बेमानी हो जाए बस होना शेष रहे. लेकिन स्‍वरों के इस उठान के लिए बड़ी साधना की दरकार होती है.

कब सपाटबयानी का विवादी स्‍वर पूरी लय को बिगाड़ देगा,कब आत्‍मकेंद्रिकता का वर्जित स्‍वर सुर के पूरे महल को धराशायी कर देगा कहना मुश्किल है. प्रभात की विशिष्‍टता इसी बात में है कि ढेर सारी सुर लहरियों के बावजूद कहीं बेसुरापन नहीं आने देते. इन्‍हें पढ़ते हुए लगता है मानो आप एक विशालकाय लहर पर सवार हों जो कभी भीतर डुबोती है,कभी सतह पर फेंकती है,कभी हिचकोले लगाती है तो कभी तली में बैठा देती है,ऐसी तली जहां अपनी ही धड़कन कानों में बजने लगे. ऐसी तली जहां शोक,श्‍लोक और आनंद एक ही धरातल पर उतर आएं. जहां सत्‍ता के दुष्‍चक्र हास्‍यास्‍पद से लगने लगें. जहां हजारों बार की देखी-सुनी,जानी-पहचानी झाड़ू अचानक मनुष्‍यता और सभ्‍यता के प्रतीक चिह्न में तब्‍दील हो जाए.       

जहां झाड़ू के बुहारने,सफाई करने,स्‍वच्‍छ बनाने आदि का ऐसा अपूर्व उदात्‍तीकरण हो जाए कि निराला के कुकुरमुत्‍ता की तरह झाड़ू झाड़ूमात्र न रहकर कुछ और बन जाए. सामान्‍य सी झाड़ू इतनी अभौतिक,इतनी अशरीरी हो जाए कि उसे आत्‍मा से लेकर सपनों तक पर फेरा जा सके,जिस पर सवार होकर दुनिया के किसी भी विषय की यात्रा की जा सके. जिसका होना मनुष्‍यता के होने,जिंदा होने यहां तक कि न होने के होनेकी भी पहचान बन जाए. न होने का होनाक्‍या है इसे छोटी सी कविता श्‍मशानमें देखा जा सकता है-

यह निवास है उन प्राणियों का
जिनकी सांस की लय टूट गई
जिनके स्‍वरूप का कोई स्‍वरूप नहीं रह गया
जो होने से विहीन हो गए.......
अस्थियों की राख की बस्‍ती
डेरा है नश्‍वरों का
इसमें जाया जाएगा
लेकिन जाया नहीं जा सकता   

प्रभात की कविताएं पिछले 10-15 वर्षों के दौरान लिखी गई कविताएं हैं सो उनमें वर्तमान समय की स्‍पष्‍ट आहट महसूस की जा सकती है,स्‍त्री,पर्यावरण,उपेक्षित आदि के विमर्श और प्रतिरोध को भी देखा जा सकता है. परंतु प्रतिरोध इतना शांत,इतना थिराया हुआ और इतना निर्लिप्‍त भी हो सकता है ये प्रभात बताते हैं. विमर्शों के राजनीतिक शोर से बहुत दूर एक प्रकार का हाहाकार इन पंक्तियों में बंद है. उदाहरण के लिए 85 कविताओं के इस संग्रह में स्‍त्री से संबंधित,स्‍त्री को संबोधित अनेक कविताएं हैं- मृत फूफा के साथ पूरे गांव में अकेली बुआ,फांसी लगा फंदे से झूल गयी बहन,तीन बच्‍चों को श्‍मशान पहुंचाने के बाद खुद वहां पहुंचनेवाली मां,कभी नहीं मरनेवाली बुढिया सईदन चाची,सती बनाई जाती शकुंतला आदि आदि. और इनके अलावे लोकगीत गाती स्त्रियां,ऊंटगाड़ी में बैठी स्त्रियां,समारोह में मिलीं स्त्रियां,पानी ढोती स्त्रियां. यानी स्त्रियों के अनेक चित्र है पर अपारंपरिक से,कुछ अनूठापन लिए हुए. यहां स्‍त्री की पीड़ा है,तंत्र द्वारा निर्मित कुचक्र हैं,स्‍पष्‍ट पक्षधरता है,स्‍त्री के साथ हो रहे अन्‍याय पर चित्‍कार कर रहा संवेदनशील पुरुष भी है परंतु विमर्श का एकांगी या कहें लगभग पुरुषविरोधी शोर नहीं है. लगभग मरणासन्‍न स्‍त्री और पुरुष एक दूसरे से लिपट कर जीवन के चरम संघर्ष को अपने प्रेम से जीतते हैं-

कैसे टला आत्‍महत्‍या का संगीन प्रसंग
कैसे एक भूखा आदमी/ एक भूखी औरत से लिपटा
अन्‍न जल जैसी असंभाव्‍य वस्‍तुएं पाता रहा
उसकी आश्रय-भरी बातों से.

हालांकि कवि जानता है कि घनघोर श्रम के बावजूद स्त्रियों के लिए सुख का ठौर नहीं है. सुख के शहर तक पहुंचने के लिए वह रेल में बैठती है,नये नये स्‍थान का सफर करती है और हर बार पहले से घना दुख पाती है. ऐसा क्‍यों है कि संग्रह में जब स्त्रियां आती हैं तो अक्‍सर उनके साथ मृत्‍यु और रूदन के प्रसंग खींचे चले आते हैं? क्‍या इसे पलट कर देखने की जरूरत है,कि मनुष्‍य के संदर्भ में स्‍त्री के  प्रसंग सबसे ज्‍यादा जीवन के प्रसंग हैं और कवि इस जीवन को मरण से जोड़कर स्त्रियों से जुड़ी सामाजिक विडंबना को चित्रित कर रहा है. स्‍त्री जीवन के दुर्भिक्ष के गिद्धोंको बेनकाब करने का कहीं यह सायास प्रयास तो नहीं है. जबरन सती बनाई जाती शकुंतलाकविता में ऐतिहासिक नाम और सदियों पुरानी परंपरा की दुहाई देता कवि स्‍पष्‍ट कहता है -

राजपुताने में तुझ अकेली का नहीं फूटा है भाग....
तू यहां नहीं/ किसी खपरैल में जन्‍मी होती
कालबेलियों में नहीं नगर में जन्‍मी होती...
समुद्र के इस पार नहीं/ उस पार जन्‍मी होती
ब्राह्मण से ब्राह्मण/ दलित से दलित / सभी वर्णों में होती
तू भाइयों की मां जायी दासी
घर को खा जाने वाली बैरन ननद. 

किसी कवि की महत्‍ता का प्रमाण इस बात से मिलता है कि वह जीवन तत्‍त्‍व को कितना पकड़ पाया है. जिस प्रकार मनुष्‍य के संदर्भ में स्‍त्री का प्रसंग जीवन से जुड़ता है उसी प्रकार जैविक संदर्भ में यह जीवन सबसे ज्‍यादा पानी से जुड़ता है. जीवन तत्‍त्‍व को जल तत्‍त्‍व भी कहा जा सकता है. प्रभात के यहां जल के बिंब बार बार आते हैं,बिलकुल भिन्‍न संदर्भों में. पानी की तरह कम तुम,जोहड़,पानी की बस्‍ती,पानी की इच्‍छाएं,पानी की बेल,तालाब,नदीजैसी पानी को नये आयाम देती हुई ढेर सारी कविताएं हैं और मजे की बात यह कि पानी की शिकायत खुद पानी से ही करता हुआ पानीदार कवि भी है-

मैं तुम्‍हें मेरे लिए पानी की तरह कम होते देख रहा हूं
मेरे गेहूं की जड़ों के लिए तुम्‍हारा कम पड़ जाना
मेरी चिडि़यों के नहाने के लिए तुम्‍हारा कम पड़ जाना...
मेरी आटा गूंदती स्‍त्री के घड़े में तुम्‍हारा नीचे सरक जाना
तुम्‍हारे व्‍यवहार में मैं यह सब होते देख रहा हूं 

और जिन कविताओं में पानी सीधे-सीधे नहीं आ रहा है वहां भी वह आ जाता है मसलन एक दुर्लभ कविता है धरोहरजिसमें पानी के संकट पर अखबार में लिखे जाने पर खुद्दारी से भरा वृद्ध किसान अफसोस से भर जाता है और कहता है कि कोई पढ़ेगा तो क्‍या कहेगा/ कैसा अभागा गांव है वह जिसमें पानी नहीं है.

इस अफसोस का,खराब से खराब परिस्थिति में भी अपने गांव,अपने घर,अपने लोगों की खराब छवि न बर्दाश्‍त कर पाने की आदत का गहरा रिश्‍ता उस संपृक्ति  बोध से जुड़ता है जिसे लंबे अनुभव के बाद लोक ने अर्जित किया था. संभव है,आज के तेज भागते,उपलब्धियां बटोरते महानगरीय परिवेश में ऐसे पात्रों का रचा जाना ही नहीं कुछ समय बाद समझा जाना भी मुश्किल हो जाए. अपनों में नहीं रह पाने का गीतजैसी रचनाएं सिर्फ वैज्ञानिक विकास से सफलता मापती दुनिया में संभव नहीं हो सकती हैं. यह अनायास नहीं है कि इस संग्रह में किसानों के अनेक चित्र आते हैं  – किसानगायब होते किसान... हार मानते किसानमजदूर बनते किसानढहते-गिरते पस्‍त होते,गायब होते किसान... और इन किसानों के पक्ष में खड़ा कवि. ध्‍यान दें किसानों के इन चित्रों में हुलास नहीं है,लगातार पलायन करते,आत्‍महत्‍या करते किसानों की छवि इन पस्‍त चित्रों में देखी जा सकती है. तमाम चीजों की तरह किसान शब्‍द भी लगातार सीमित होता गया है,किसान खेतों में काम करनेवाला मात्र एक श्रमिक नहीं है. किसान का मामला केवल अन्‍न उत्‍पादन और आर्थिक समृद्धि से जुड़ा मामला नहीं है. किसानी केवल इसलिए महत्‍वपूर्ण नहीं है कि वह भारत की लगभग 65.7 फीसदी आ‍बादी का पेट पालती है. किसानी एक संस्‍कृति है. इस संस्‍कृति का संबंध प्रकृति,भाषा,त्‍योहार,जीवन संगीत,आत्‍मनिर्भरता आदि विविध जीवन-पक्षों से जुड़ता है.

इन सब के बीच एक लय बिठाता है किसान. यह यूं ही नहीं है,कि नकदी फसलों और लाभ के गणित से संचालित तुलनात्‍मक रूप से सक्षम किसान बिहार के गरीब किसानों की तुलना में ज्‍यादा हताशा (कई बार आत्‍महत्‍या की सीमा तक) महसूस करते हैं क्‍योकि पूंजी के दबाव में जीवन संगीत से उनकी लय टूट रही होती है. कवि अन्‍न उत्‍पादक किसानों तक सीमित नहीं है,उसकी बड़ी चिंता टूटते संबंध,बिखरते गांव और किसानी से जुड़ी मनुष्‍यता के लगातार क्षरित होने की है. ये कविताएं नास्‍ट्रेल्जिया से कोसों दूर हैं और गांवों के भीतर की कुरूपता,वहां के घात-प्रतिघात को भी बयां करती हैं -

जिस गांव की सुखद स्‍मृतियां सपनों में आती हैं
उसी गांव में जाते अब डर लगता है 

शहर या दूर के लोगों से कैसी शिकायत,जो अपने थे उनकी भयावह दूरी असहनीय हो जाती है. सवाल शहर-गांव,उद्योग या किसानी का है ही नहीं,सवाल मनुष्‍य,प्रकृति और जमीन से उस रिश्‍ते का है जो लगातार छीजता जा रहा है-  

अभी-अभी तक जो सहचर थे सुख-दुख के
पढ़-लिखकर दूर के हो गए वे
हुजूर और गुलाम का रिश्‍ता हो गया उनसे...
भरी पंचायत में ललकार सकते थे जिन्‍हें
कंधा पकड़कर नीचे बैठा सकते थे अनीति करने पर
प्राण हलक को आ जाते हैं थाने अस्‍पताल कोर्ट कचहरी में
भूल से कहीं उनसे टकरा जाने पर

इस संग्रह में जो एक दुख की टेक है उसके मूल में प्रकृति सहचर किसानों की दुर्दशा भी है. और इस दुर्दशा की करूण गाथा कहते कवि की स्‍पष्‍ट पक्षधरता भी है. निश्चित रूप से प्रभात इस करुणा और विडंबना से गहरे व्‍यंग्‍य का सृजन करने में सफल होते हैं. यह व्‍यंग्‍य अखबारों और मंचीय कविताओं में दिखनेवाला व्‍यंग्‍य नहीं है,बहुत ही खामोश और नीरव व्‍यंग्‍य,समाज की चूलों को हिलाता हुआ . एक उदाहरण देखा जा सकता है

जब-जब भी मैं हारता हूं
मुझे स्त्रियों की याद आती है
और ताकत मिलती है
वे सदा हारी हुई परिस्थितियों में ही / काम करती हैं...
वे काम के बदले नाम से/ गहराई तक मुक्‍त दिखलाई पड़ती हैं
असल में वे निचुड़ने की हद तक/ थक जाने के बाद भी
इसी कारण से हँस पाती हैं/ कि वे हारी हुई हैं
विजय-सरीखी तुच्‍छ लालसाओं पर उन्‍हें/ ऐतिहासिक विजय हासिल है.

असल में वह किसान पर हो या स्‍त्री पर,इस संग्रह की ज्‍यादातर कविताएं व्‍यंग्‍य कविताएं हैं. वह व्‍यंग्‍य नहीं जो सपाट सा विपक्ष रचता है,जो किसी को हास्‍य और किसी को क्षोभ या गुस्‍सा देता है. यहां ऐसा व्‍यंग्‍य है जो इन दोनों से दूर उस त्रासदी तक ले जाता है जहां आप अपने भीतर कुछ चिनकता सा,कुछ टूटता सा महसूस करते हैं. एक शोक की भावभूमि जहां एक ही बात शेष रह जाती है कि ऐसा नहीं होता तो कितना अच्‍छा होता. कुछ ऐसा जैसा प्रेमचंद होरीकी मृत्‍यु से निर्मित करते हैं. ऐसी स्थिति जहां सारी भौतिक उपलब्धियां पाया हुआ अहं से भरा,गांव से निकल बड़ा अधिकारी बन चुका व्‍यक्ति अपने निरर्थकता बोध से इस सीमा तक संतप्‍त हो जाता है कि खुद को मृत्‍यु का छोड़ा हुआमहसूस करने लगता है –

उसे लगा मैं घर में घरवालों का
बाहर,बाहर वालों का छोड़ा हुआ हूं
अच्‍छा और बुरा लगने का छोड़ा हुआ हूं
सार्थकताओं और निरर्थकताओं का छोड़ा हुआ हूं
उसे लगा जीवन नहीं हूं मैं एक
मृत्‍यु का छोड़ा हुआ हूं महज

यहां नकार या आक्रामकता नहीं है,बल्कि इनके होने से व्‍यंग्‍य कमजोर होता है. सामनवाले के मारने पर वह चोट कभी नहीं लगती जो आपके भीतरवाले के मारने से लगती है.

एक साधारण सा सवाल मन में आता है कि प्रभात में इतना मृत्‍यु बोध क्‍यों है,बार बार कविताओं में मृत्‍यु क्‍यों आती है? इसका एक खिलंदड़ा सा उत्‍तर हो सकता है कि जिन परिस्थितियों में गांवों में किसान,स्त्रियां,बेरोजगार रह रहे हैं उनमें भला और कौन-सा बोध आएगा. परंतु प्रभात इतने सरल कवि नहीं हैं,अपनी तमाम सहजताओं के बावजूद वे किसी भी विषय का सरलीकरण नहीं करते. वह चाहे कैसा भी विषय हो लाउडनेस नहीं आने देते. असल में हर बड़ी कविता मृत्‍यु से टकराती है. ट्रीटमेंट का अंतर हो सकता है परंतु इस कठोर सच्‍चाई का सामना तो करना ही पड़ता है खास तौर से तब,जब आप विज्ञान और पूंजी के बनाए सुद्दोधन महलमें सिद्धार्थ की तरह न रहकर बुद्धकी तरह रहना चाहते हों. तब मृत्‍यु से टकराए बगैर आपका काम नहीं चल सकता. प्रभात की कविताओं में मृत्‍यु के अनेक शेड्स हैं,सुख दुख से परे किसी और भूमि पर टिके हुए. मृत्‍यु के दिन क्‍या होगा/ कुछ खास न होगा/ और दिनों-सा गुजर जाएगा/ और यह रात गर्भ-सी होगी/ दिन का चूज़ा कुनमुनाएगा. 

मृत्‍यु भी कैसी?केवल इंसानों की नहीं,परिंदे,कीड़े,कुर्ते,धोती,अंगोछे,पेड़ जाने किस-किस की. और सबके शोक में कवि शामिल है. शामिल होना भी चाहिए वरना कवि क्‍या हुआ फिर.  क्‍या कविता शोक के भारी वजन को उठाने के लिए अड़ी हुई कंधे की तरह है. जहां कोई दुखी दिखा वहां पहुंच जाती है उसके कंधे पर हाथ रखने. हाथ रखने के अलावे भला वह और कर भी क्‍या सकती है? परंतु क्‍या यह हाथ रखना मामूली काम है?   

इसमें दो राय नहीं कि प्रभात कवि परंपरा के नैसर्गिक वारिस हैं,इसके कई प्रमाण इस संग्रह में मिलते हैं. एक रचनाकार सबसे पहले और सबसे ज्‍यादा सौंदर्य प्रेमी होता है या कहें जिस अनुपात में सौंदर्यप्रेमी होता है उसी अनुपात में कुरूपता विरोधी भी होता है.

विशाल हवा का झाड़ू चाहिए ही
पृथ्‍वी पर फैली असुंदरताओं को बुहारने के लिए  

प्रभात का सौंदर्यबोध थोड़े भिन्‍न किस्‍म का है जो उनके विषयों के चयन में भी नजर आता है. विषयों का यह अलहदापन कहां से आता है,इतने नवीन विषय कहां से लाते हैं प्रभात? असल में यह विषयों का नयापन नहीं दृष्टि का नयापन है,बोध का नयापन है. विषय तो वही हैं,देखने का और प्रस्‍तुतिकरण का ढंग नया है. प्रभात ने साधारण के भीतर की असाधारणता को उकेरने का ढंग निकाल लिया है. विचारों को बहुत ही सरल ढंग से दैनिक जीवन के नामालूम से प्रसंगों से जोड़ देने का सलीका निकाल लिया है. प्रभात ढेर सारे ऐसे संदर्भ   रचते हैं जहां एक बड़ी बात इतनी सादगी से कह दी जाती है कि सहसा यकीन ही नहीं होता कि इसे इतनी सरलता से भी कहा जा सकता है. तीन पंक्तियों की एक कविता है सुख-दुख

उनकी अपनी किस्‍म की अराजकता है मेरे भीतर
सिर्फ दुखों की नहीं है
सुखों की भी है

या फिर धाड़ैती पर भी कविता लिखी जा सकती है और इस विषय को इतना तरल बनाया जा सकता है. या विरक्ति को अकेले आदमी की बस्‍तीके रूप में भी देखा जा सकता है. किसी बस्‍ती में अकेला आदमी हो तो वह कैसी बस्‍ती होगी,उसके भीतर कितनी असहायता और घुटन होगी? विरक्‍त व्‍यक्ति किन मजबूरियों में ऐसा होने का निर्णय करता होगा? इन सब के बावजूद उम्‍मीद है,कवि निराश नहीं है,एक कवि निराश होता भी नहीं है. आधी से अधिक रात के बीत जाने पर भी अपराध जगत के गलियारों  और षड्यंत्रों में बेचैन राजनेताओं के बंगलों से बहुत दूर,दुनिया पर हावी होना चाहने वाले जगत से दूर एक कमरे की लाइट का जलना,विचारमग्‍न युवक का होना एक बड़ी उम्‍मीद है. सारी साजिशों,सारी कुरुपताओं के बरक्‍स किसी का खड़ा होना आशा का संचार करता है. इसी संग्रह में कोई भी चीज लंबी नहीं चलतीजैसी कविता भी है.

कोई भी चीज इतनी लंबी नहीं चलती
न खामोशी लंबी चलती है/ न आंसुओं की झड़ी
न अट्टहास/ न हँसी/ न उम्‍मीद न बेबसी...
और-और तरीकों से
पूँजी के बिना भी जीते हैं लोग
गाते हुए गीत और लोरियाँ .

प्रतिरोध का ऐसा सरल रूप... दिमाग में फैज का हम देखेंगेऔर ब्रेख्‍त का जनरल तुम्‍हारा टैंक बहुत मजबूत हैजैसी कविताएं अनायास चली आती हैं.  सारी साजिशों के विपक्ष में लोरियों का खड़ा होना कितने लंबी और बड़ी उम्‍मीद की ओर संकेत करता है,इसे सहज ही समझा जा सकता है. बिना किसी तेवर के अत्‍यंत महीन संकेत में, नंगे पांव कच्‍ची पगडंडियों से पक्‍की सड़क की ओर जाते बच्‍चों के बहाने,कवि कहता है-

इनके फूल से तलुवों को
ठंड की आंच में सिंकते देखते हुए
मैं इतना ही कह रहा था
गांव में फूल नहीं खिलते
आग खिलती है

प्रभात सहज कवि हैं परंतु बहुत सचेत कवि भी हैं. बिना ऐसी सचेतनता के झाड़ू जैसी कविता संभव ही नहीं हो सकती. 16 पृष्‍ठों में विभाजित झाड़ूको हिन्‍दी कविता की उपलब्धि कहने का मन होता है. सूचना क्रांति द्वारा निर्मित कृत्रिम विराटता के भीतर से झांकती एक खास तरह की लघुता के इस दौर में,जहां हर चीज का सामान्‍यीकरण किया जा रहा हो,जब केवल दूरी और समय को ही नहीं हर चीज को रिड्यूस करने को,उसे एकरूप-एकांगी बना देने को एक उपलब्धि मान लिया जा रहा हो,जिसमें संबंध,प्रकृति,राजनीति,विमर्श सब कुछ धीरे-धीरे शामिल होता जा रहा हो,ऐसे समय में एक नामालूम सी वस्‍तु झाड़ूको विराट बना देना उल्‍लेखनीय लगता है. किसी भी चीज को प्रतीक बनाया जा सकता है,महत्‍वपूर्ण यह है कि वह प्रतीक हमारी चेतना को कितना विस्‍तार देता है. झाड़ू नाम लेते ही तमाम राजनेता,दल,सफाई आदि की छवि मानस में तैर जाती है,लेकिन यह छवि एकांगी है लगभग एक रूढि़ की तरह,प्रभात अपने झाड़ू से इस रूढि को तोड़ देते हैं. उसे विस्‍तार देते हैं,उसे सभ्‍यता और श्रम का अभिन्‍न अंग बना देते हैं.  21 खंडों में विभाजित यह कविता एक ही अंत:सूत्र में गुंथी हुई है. इतनी गझिन,इतनी गठी हुई कि इसके बीच से होकर निकलने में पाठक को अच्‍छा खासा समय लग सकता है. जाने कितने प्रकार की झाड़ू,सिंक की,खजूर की,दूब की,शब्‍द की,लोहे की,बारिश की,जीभ की,हवा की,रोशनी की झाड़ू. एक महाकाव्‍यात्‍मक औदात्‍य की कविता रचने में सफल हुए हैं प्रभात.

दुनिया के सभी झाड़ू
दुनिया के हाथों के छोटे भाई हैं
जब झाड़ू नहीं थे
हाथ झाड़ू का काम करते थे
इकलौते नहीं कहे जा सकते अब हाथ
इंसान के हाथ में झाड़ू आ जाने के बाद.

झाड़ू को प्रभात ने भी प्रतीक बनाया है पर एक की जगह अनेक का प्रतीक बनाकर उसे किसी खास घेरे में बंधने से बचा लिया है. पर निराकार भी नहीं होने दिया है,आकार और पक्ष स्‍पष्‍ट है-

झाड़ू की तरह पड़े रहते हैं लोग
दुनिया के ओनों-कोनों में
लेकिन सुबह होते ही
दुनिया को उनकी जरूरत पड़ती है...
जैसे ही पुल बन जाते हैं
जैसे ही बांध बन जाते हैं
उन्‍हीं ओनों-कोनों में फेंक दिया जाता है लोगों को
जहां से खदेड़कर लाया गया था...
एक दिन ऊब जाते हैं लोग इन क्रूरताओं से
इंकार कर देते हैं इनमें रहने-सहने से
इन लोगों की सांसे इकट्ठी होकर
धरती पर एक विशाल हवा को खड़ा करती हैं

और फिर उस विशाल हवा के झाड़ू से बुहार दिए जाते हैं बड़े से बड़े मठ,बड़ी से बड़ी सत्‍ताएं,यह कहने से कवि खुद को बचा लेता है.यह सचेतनता महत्‍वपूर्ण है. एक बिंदु पर कितनी देर टिका जा सकता है,इसके लिए कितनी एकाग्रता जरूरी होती है,झाड़ू कितने दिनों तक कवि मन में चली होगी,यह टिकाव बहुत महत्‍वपूर्ण है.

प्रभात के यहां शब्‍द और भाषा का खिलवाड़ जबरदस्‍त है परंतु सिर्फ खेल के लिए नहीं,इस खिलंदड़ेपन में सार्थकता का छोर कभी छूटने नहीं पाता. वाक्‍यों का क्रम भंग,अपरंपरागत ढंग से उनका टूटना,परसर्गों का बेहतरीन इस्‍तेमाल. विरोधाभास (उनके लहंगों का वजन/ उनकी सूखी जंघाओं से कहीं अधिक था/ उनकी पीली ओढ़नियां भड़कीली थीं/ मगर उनसे ढंके उनके झुर्री पड़े चेहरे/ बुझी राख थे)  के माध्‍यम से ढेर सारी बातें कम शब्‍दों में समेट लेने की अदा. ऐसी अनेक कविताएं हैं जिन्‍हें पढ़ के कवि के उर्दू शायरी की परंपरा से जुड़े होने का पता चलता है. मृत्‍यु के बाद जाने कहांचले जाने पर एक छोटी सी टिप्‍पणी-

जाना भी कहां वह गया जहां
वह कुछ भी कहां कि जाया जा सके वहां

बिलकुल नये बिंब,नयी वाक्‍य संरचनाओं से लबरेज इन कविताओं की सबसे खास बात यह है कि इनमें टुकड़ों में चमकती पंक्तियां नहीं हैं,कविता अपने पूरे वितान में मौजूद है.

यह संग्रह इसलिए महत्‍वपूर्ण है कि कवि जी-जान से लगा हुआ है सुंदरता की तलाश में,अथाह प्रेम भरा हुआ है इसमें. ढेर सारी कविताओं में यह प्रेम बाहर छलक पड़ता है और जिनमें सतह पर नहीं दिखता उनमें भी थोड़ा कुरेदने पर उसे महसूसा जा सकता है. इतने विकट समय में वह प्रेम ही है जो उर्जा दे रहा है. जो पेड़ तक को प्रेमिका बनाए दे रहा है.

प्रभात का प्रभातपन इस बात में निहित है कि यह कवि अपनी उम्र और ज्ञान को खुद से परे

रख पाने में सफलता हासिल कर लेता है. करुणा की जिस भाव भूमि पर ये कविताएं स्थित हैं वह बिना मैंको छोड़े तैयार ही नहीं हो सकती. चमकदार,चर्चित साहित्यिक दुनिया में प्रभात के अल्‍पज्ञात होने में भी इस मैंके विलोप की भूमिका हो सकती है. यह कवि सार्थकता की बौद्धिक मांगों की निरर्थकताको समझता हैऔर एक बड़े समूह द्वारा निरर्थक मान लिए गए प्रसंगों की मनुष्‍य और मनुष्‍यतर संबंधों में सार्थकता को न केवल समझता है बल्कि उसे बेहतर ढंग से प्रस्‍तुत करने की क्षमता भी रखता है.

प्रभात में लगभग शिशु की तरह चीजों को पहली-पहली बार अपनी तरह से देखने की क्षमता है. इसीलिए वे प्रचलित मुहावरों और रूढ़ भाषा से मुक्‍त रह पाते हैं. इस संग्रह की सार्थकता इस बात में है कि यहां कवि नहीं है,कवि की जगह एक कैमरा है जिसे बहुत ही उपयुक्‍त जगहों पर फिट कर दिया गया है. वह कैमरा कभी पूरे गांव में अकेली बची स्‍त्री को दिखा रहा होता है,कभी दिमाग में चल रहे उथल-पुथल को पकड़ रहा होता है, कभी मुआवजा के बदले आंसू गैस देते,बुलडोजर चलाते तंत्र को पकड़ रहा होता है तो कभी अंतिम सांसे गिन रहे बबूल के पेड़ पर फोकस हो जाता है. कैमरा जैसा निर्लिप्‍त होता है,जैसा होना चाहिए वह इन कविताओं में है. पर कैमरे को कहां रखना है,उससे क्‍या और किसे दिखाना है,इसे लेकर कोई दुविधा नहीं है. कवि की वैचारिकता,उसकी पक्षधरता एकदम स्‍पष्‍ट है. शायद इन कविताओं के अलहदेपन के मूल में यही सपक्ष निर्लिप्‍तताहै. कवि की निगाह कहां है इसका पता एक छोटी सी कविता देती है जिसमें गांव से दो घर (एक घर प्रेम के कारण और दूसरा गरीबी के कारण) उजड़ जाते हैं परंतु कवि उनके उजड़ने की बात से उदास नहीं होता जितनी इस बात से कि

क्‍यों उजड़ गए गांव से दो घर
किसी ने नहीं पूछा किसी से

समाज से पूछा गया पृथ्‍वी सा भारी यह क्‍योंमहत्‍वपूर्ण है और प्रभातपन की पहचान भी. इस संग्रह की सीमाएं मुझे नजर नहीं आयीं इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि सीमाएं नहीं हैं, जितना मैंने प्रभात को समझा है,दावा कर सकता हूं कि उन्‍हें अपनी सीमाओं का भरपूर अहसास है. लबों पे ये दुआ आ रही है कि आगे भी रहे. उन्‍होंने ही कहा है कि

बरते जाने से घिसती हैं झाड़ू की सीकें
समय की रगड़ से टूटती हैं कविताएं


इन कविताओं के द्वारा उन्‍होंने कविता की जमीन तोड़ी है, उम्‍मीद करता हूं कि अपने अगले संग्रह में इस जमीन को भी तोड़ेंगे.
___________
(राकेश बिहारी द्वरा संपादित अकार  के अंक में प्रकाशित आलेख का संवर्धित रूप)

प्रमोद कुमार तिवारी
गुजरात केन्‍द्रीय विश्‍वविद्यालय
गांधीनगर- 382030
pramodktiwari@gmail.com/मो. 09228213554



हस्तक्षेप : तुम्हें किसका भरोसा है राम ! : सारंग उपाध्याय

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सारंग का यह आलेख महानगरों के जीवन की आपाधापी में लगभग अदृश्य हो गए चेहेरों की पहचान का एक उपक्रम है, ये चेहरे अपनी उभरी हुई श्रम रेखाओं से अपनी कथा कहते हैं. रिक्शाचालक रामभरोस यहाँ एकवचन नहीं है वह इस दौर में पीछे रह गए, पीछे धकेल दिए गए   तमाम आमजन का रूपक है. 
इस युवा लेखक ने क्या खूब लिखा है ?    




तुम्‍हें किसका भरोसा है राम..!                                          

सारंग उपाध्‍याय




दिन रात लोग मारे जाते हैं
दिन रात बचता हूँ
बचते-बचते थक गया हूँ

न मार सकता हूँ
न किसी लिए भी मर सकता हूँ
विकल्‍प नहीं हूँ
दौर का कचरा हूँ

हत्‍या का विचार
होती हुई हत्‍या देखने की लालसा में छिपा है
मरने का डर सुरक्षित है
चाल-ढाल में उतर गया है

यह मेरी अहिंसा है बापू!
आप कहेंगे
इससे अच्‍छा है कि मार दो
या मारे जाओ.

किसे मार दूँ
मारा किस से जाऊँ
आह! जीवन बचे रहने की कला है.(नवीन सागर) 

नवीन सागर के कविता संग्रह 'नींद से लंबी रात'की यह कविता 'बचते-बचते थक गया'सालों पहले पढ़ी थी. यह कविता  अक्‍सर याद आती है, और उस 'अक्‍सर'में हमेशा इसकी अंतिम लाइन 'आह! जीवन बचे रहने की कला है', जरूर दोहराता हूं. दरअसल, इन शब्‍दों को दोहराना किसी मुसीबत के गुजर जाने के बाद भगवान का नाम लेने की तरह ही लगता है क्‍योंकि मुसीबत और जिंदगी अक्‍सर साथ-साथ ही चलती रही हैं.

वैसे जिंदगी में जो कुछ भी 'अक्‍सर'होता है, वह एक तरह से कई चीजों और कई घटनाओं के साथ घटने वाला हिस्‍सा ही होता है. कई लोगों के 'अक्‍सर'अच्‍छे होते हैं, और कुछ लोगों के साथ अच्‍छे 'अक्‍सर'कभी-कभार होते हैं. अब ऐसे में यदि आप अपने 'अक्‍सर'में जीवन को बचे रहने की कला मानते हैं, तो इस बात पर यकीं करना होता है कि आप जीवन बचे रहने के लिए जी रहे हैं या अपने अस्तित्‍व को बचाने के लिए. 

खैर, मेरे 'अक्‍सर'में विस्‍थापन है, निर्वासन है, भटकाव है, बेरोजगारी है, मुसीबत है और इन सबके बीच आवारगी हैलिहाजा ऐसे 'अक्‍सर'में घटित समाज, समय, घर, परिवार, रिश्‍ते, पूरा परिवेश और उसके लोग, जीवन को बचाने वाले कलाकार के तौर पर ही नजर आते हैं और कई बार मैं मन ही मन यह भी बुदबुदा लेता हूं कि दिन रात बचता हूं/ बचते-बचते थक गया हूं. 

देखा जाए तो जीवन को बचाने की कला में थकना जायज ही है. खासकर इस समय में और इस समाज में. लेकिन मेरे अपने 'अक्‍सर'में और जीवन में, बचने और जीवन को बचाने दोनों की कला कभी आसान नजर नहीं आई. मेरे पास ही क्‍योंबहुतों के पास भी. अब जीवन को बचाने की कला में माहिर होना आसान तो होता नहीं. कुछ ही हैं जो इस कला को जानते हैं. हर कोई नहीं जानता. बेफिक्री में कई दफे देखा कि जीवन को बचाने में कई दिन-रात खुट रहे हैं, तो आवारगी में देखा की कइयों को जीवन खुद ही खुटा रहा है. मुफलिसी में समझ आया कि कई यहां ऐसे हैं, जो जिंदगी को बचाने में बेहद सक्षम हैं और वे बेहरीन और महान कलाकार हैं. वे जीवन जीने और उसे बचाने दोनों की कला जानते हैं. उनके हथियार कभी जंग नहीं खाते. 

जब-जब किराये का कमरा खाली किया तब-तब महसूस हुआ कि कुछ लोग ऐसे हैं, जिनके पास जीवन केवल बचा भर हैऔर वे केवल मौजूद भर हैं, बाकी उनके जीवन के होने का अहसास उन्‍हें नहीं, दूसरों को होता है. शहर बदले, तो लगा कि ऐसे लोग इस संसार में केवल दृश्‍य भर हैं और कभी दर्शक भी नहीं बन पाए. भीड़ से भी दूर, हाशिये के उस पार. इस तरह उनका कोई अस्तित्‍व नहीं है, उनके कोई सरोकार नहीं हैं और उनके होने से फर्क उन्‍हें ही नहीं है, तो परिवार, आस पड़ोस और प्रियजनों, व परिजनों को क्‍या होगा

इधर, जब नये शहर में, नई जगह पर रोजगार ढूंढा, तो लगा कि जीवन से प्‍यारा और बड़ा अस्तित्‍वहोता है. सामाजिक जीवन की ऊपज अस्तित्‍व. ऊपज तो प्‍यारी होती ही है. जीवन को खुटा कर, गला कर और इस बाजार में खर्च कर ही तो जीवन की ब्रैंडिंग होती है और बनता है अस्तित्‍व. बनती है पहचान. लोग इस कला में भी माहिर हैं. 

जब नये शहर में, नई नौकरी लगी तो पता लगा कि वाकई में अस्तित्‍व है भी बड़ी प्‍यारी चीज, जिसे सब बचाना चाहते हैं, क्‍योंकि वह तो जीवन से भी प्‍यारा और कीमती है. नई नौकरी के छह माह में पता लगा कि इन दिनों हमारे आसपास कितने सारे अस्तित्‍व हैं, सामाजिक अस्तित्‍व, राजनीतिक अस्तित्‍व, कलाकारों का अस्तित्‍व, मजदूरों का अस्तित्‍व, इसका अस्तित्‍व, उसका अस्तित्‍व, फलाना अस्तित्‍व और ढिमका अस्तित्‍व. गजब की चीज है अस्तित्‍व, उसे बचाने के लिए हमारा भौतिक अस्तित्‍व 'जीवन'भी सुली पर चढ़ जाता है. धर्म के नाम पर, संप्रदाय के नाम पर, संस्‍कृतिपरंपरा, रिवाजों के नाम पर, आरक्षण के नाम पर कई लोग और कई समाज अपने अस्तित्‍व के लिए दिन-रात एक किए जा रहे हैं. कई जीवन दांव पर लगा रहे हैं. 

अब जब कई शहर छूट गए और कई नौकरियां भी, तो सोचता हूं जीवनबड़ा है कि अस्तित्‍व. जीवन के कारण अस्त‍ित्‍व है कि अस्तित्‍व है इसलिए जीवन? देखा तो अब तक यही है कि शान के खिलाफ, वजूद के विरोध में और अपने कुछ खास होने के गुमान में खून की नदियां बह गई हैं और उसमे कई जिंदगियां बह गई हैं? कोई ऐसा नहीं मिला, जिन्‍होंने कहा कि मैं जीवित हूं, और जीवन से भरपूर हूं और बस यही मेरे पास है. मैं ना कलाकार हूं, न अधिकारी हूं, न राजनेता हूं न मंत्री हूं और न ही उद्योगपति, व्‍यापारी और न कोई लेखक, ना कलाकार, ना बुद्धिजीवी न पत्रकार न ब्‍ला... ब्‍ला.. और न एक्‍स वाई जेड मेरा अस्तित्‍व है. 




ऊफ.! जीवन सभ्‍यता के लिए है या सभ्‍यता के लिए जीवन

वह मिली जब और वह हंसी, तब तो पता लगा कि कितनी खूबसूरत चीज है जीवन. हल्‍की-फुल्‍की जिंदगी. रुई के फाहे से मन में उछलती-कूदती, गाती-गुनगुनाती. सागर किनारे अल्‍हड़ सी घूमती. उसके हाथों में हाथ डाले, दिन गुजारती और रातों में बतियाती. उसने बताया कि जीवन किसी बंधन में नहीं हो तो ही ठीक है. खुद उसका भी नहीं. फिर जीवन तो जीवन है, उसमें बंधन न उसका होगा, न मेरा. उठापटक के बीच ये समझ आया की जीवन किसी तरह के सामाजिक, राजनीतिक और ब्‍ला...ब्‍ला.. अस्तित्‍व में डूबा नहीं होना चाहिए. जीवन जीने की चीज है और अस्तित्‍व बचाने की. अस्तित्‍व बोझ है और जीवन नदी, इंद्रधनुष, बादल, आवारगी, किताब, खत, बांसुरी और पेटिंग और एक प्‍यारा सा चुंबन. ठंडी हवा के साथ माथे पर दिया हुआ. 



वह चली गई और मैं लौट आया..! 

उसके जाने के बाद पता लगा कि जीवन हो और बिना किसी अस्तित्‍व का हो, ऐसा होता कहां है? मेरे लौटने के बाद और उसके जाने के बाद. वह मेरे भीतर है और मैं उसके. हमारे पास जीवन भी है और अस्तित्‍व भी और एक दुनिया भी, जिसमें आग है, पानी है, हवा है, आसमान है, धरती है, भूख है, प्‍यास है, नींद है और बचे रहने के जंग खाए चंद हथियार. 

वह चली गई. शहर छूट गया. नौकरी चली गई. घर आसमान निगल गया और मुझे जमीन. जीवन इस व्‍यवस्‍था में उग आए, या उगाए गए कांटों से लहुलुहान होने लगा. वो मेरे अक्‍सरमें शामिल हो गया. उस दिन जब कर्जा लिया, तो जीवन ने समझाया कि तुम्‍हें मुझे जीना नहीं है, बचाना है, इसलिए मेरे अक्‍सर में जीवन को बचाने वाले रहते हैं, वो अस्तित्‍व नहीं बचाते, क्‍योंकि अस्तित्‍व होता कहां है? मेरे और मेरे अक्‍सर में जीवन ही बचता है जबकि कहीं ओर दूसरे छोर पर दरअसल, जीवन नहीं, अस्तित्‍व बचाया जाता है. वहां अस्तित्‍व ही जीवन होता है. बाकी सभी जीवन को अस्तित्‍व मानते हैं. 

मेरी और मेरे अक्‍सर की दुनिया छोटी है, जिसमें वे चंद दिन थे, जब दुनिया खिलाफ हो गई थी. वह चमचमाते लाइटों से सजे सड़कों पर भूखा छोड़ गई. उसमें बिना तारों का आसमान था और केवल धड़ देखने वाली भीड़ थी. वहां केवल बचना था और इस तरह बचे रहने के चक्‍कर में, या बचाए रखने की जद्दोजहद में मैं और मेरी अक्‍सर की दुनिया जीवन जीना ही भूल गए. उस दुनिया में जिंदगी गाती नहीं, डरती है, गमकती और उछलती नहीं, भय से सिकुड़े, दबे, सहमे और घबराए मन में बस बची रहती है और खैर मनाती रहती है कि वह बची हुई है. फिर उस दिन पता चला कि जीवन तो जीवन है, तुम्‍हारी थ्‍योरी बासी है. बदलो इसे. चार्जर नोकिया का रखते हो और दुनिया सैंमसंग की है. मेरे अक्‍सर में एक खिड़की खुली उस दिन और अंधेरे में एक रौशनी आई, जिसमें पता चला कि सब 'अस्तित्‍व'का चक्‍कर है. नोन तेल लकड़ी की चिंता में जिंदगी एक अस्तित्‍व है और उसके साथ चिपकी है उसे बचाने की चिंता. महानगर, शहर सुबह से अस्तित्‍व बचाने निकलते हैं और शाम को घर लौटते- लौटते खुश होते हैं कि आज का जीवन बचा गया. 

मैं और मेरा अक्‍सर. मेरे अक्‍सर में मैं, मेरी दुनिया और उसके लोग, हम मरे नहीं जबकि हम सब मृत्‍यु से बचते हुए उसी की ओर जा रहे हैं, लेकिन...



लेकिन गजब का आदमी है रामभरोस...! 

मेरे अक्‍सरमें शामिल हुआ एक नया सदस्‍य. जीवनऔर अस्तित्‍वसब बराबर हैं उसके लिए. जो मिली गुजार दी, जो बची है काट रहे हैं,  हां इच्‍छा यह है कि चोला बदलना चाहते हैं. चलिए अस्तित्‍व और जीवन की बात चली है, तो रामभरोस की कहानी सुनते हैं.



कहानी रामभरोस की बनाम जीवन और अस्तित्‍व
वह सेक्‍टर 16से फिल्‍म सिटी की ओर जाने वाली सड़क पर करीने से लगे रिक्‍शों की लाइन में सबसे पीछे कोने में चुपचाप अकेला खड़ा था. उसका चेहरा सपाट था और आंखे शून्‍य के पार कहीं थी. अस्तित्‍व से भी पार. शरीर और जिंदगी दोनों किसी बेहतरीन हमदर्द की तरह थे. किसी ने किसी को मात नहीं दी थी. न तो शरीर जिंदगी से शिकस्‍त खाया हुआ था और न ही जिंदगी में शरीर से ऊब दिखाई देती थी. वह अपने तीन पहिये वाले रिक्‍शे से टिककर खड़ा था, जो उसका अस्तित्‍व था. मैं उसके पास गया और पूछा फिल्‍म सिटी चलोगे. वह बिना कुछ बोले रिक्‍शे पर चढ़ गया और मैं रिक्‍शे पर बैठ गया. 

मन की बात कहूं! मैं किसी भी तरह के वाहन से चलना पसंद नहीं करता. न कभी बाइक का शौक रहा और कार तो अब तक सपना है. खंडवा, इंदौर, मुंबई, नागपुर, औरंगाबाद, भोपालऔर इस समय दिल्‍ली, कई शहरों की खाक छानते हुए वहां की सड़कों पर पैदल ही तपती दोपहरों में, और गहराती देर रातों को आवारगी काटी. इंदौर और मुंबई में तो सबसे ज्‍यादा. वाहन नसीब नहीं था और रिक्‍शे का इस्‍तेमाल मैंने ना चाहते हुए बेहद संकट के समय किया. यानी की जब तक कि कोई जल्‍दबाजी न हो, किसी से मिलना न हो या फिर कोई दूसरी मजबूरी न आन पड़े तब तक अपनी 11नंबर की बस ही जिंदाबाद रहती. 8 से 10 किलोमीटर पैदल आसानी से चल लेता हूं. सच कहूं तो पैसे बचाता हूं और खाए हुए समोसे की चर्बी घटा देता हूं. किलोमीटर में लंबा चलना मुंबई ने सबसे ज्‍यादा सिखाया, सो दिल्‍ली क्‍या? अब तो किसी भी शहर में किसी तरह की दूरी कुछ लगती ही नहीं. 

खैर, तो इतनी बात इसलिए कि अमूमन इस तरह के हाथ रिक्‍शा में बैठते हुए बड़ी शर्मिंदगी महसूस होती है. सबसे पहली बार नागपुर में बैठा तो अंदर तक हिल गया था क्‍योंकि वह दुबला था और बेहद कमजोर हुआ जा रहा था. लेकिन स्‍टेशन के पास पीछे ही पड़ गया, सो चढ़ा भी, लेकिन उसके बाद जब तक नागपुर रहा किसी हाथ रिक्‍शे में बैठा नहीं. इधरदिल्‍ली 2005से ही आना-जाना होता रहा, लेकिन साल 2009में जब इस तरह के रिक्‍शे में पहली बैठा तो फिर बड़ा अजीब सा फील हुआ. नागपुर याद आ गया. चार-पांच साल मुंबई में गुजार चुके आदमी को, जहां आदमी, उसका टाइम और उसके श्रम दोनों ही सिर आंखों पर रखे जाते हैं. ऐसे में वहां का आदमी देश की राजधानी दिल्‍ली आकर एक रिक्‍शे में महज 20से 30रुपये में बैठ जाए तो कैसा लगेगा?  

खैर, पहली बार जब बैठा तो लगा मानों किसी पर अत्‍याचार कर रहा हूं. मेरे शहर हरदा में सालों पहले तांगे चला करते थे, सो तांगे में आगे बैठकर घोड़े की आंखों पर लगे काले पट्टों को देखता और की गर्दन हिलते हुएदेखकर उसके पैरों की आवाजें सुनता था, घोड़े का श्रम ही मुझे द्रवित करता था. यहां तो आदमी, आदमी को खींचे जा रहा था. इसे देखकर तो आज भी अंदर तक संवेदना के तंतु खड़-खड़ करने लगते हैं. वैसे, इस समय तो आदत हो गई है कि रिक्‍शा करूं तो कम से कम जेब से दो पैसे इन लोगों के पास चले जाएं. सो जब मजबूरी होती है, तो कोशिश इनकी मदद की होती है. 

हां तो मैं कह रहा था कि मैं उसके रिक्‍शे में था. धीमी और मंथर गति से सुबह चेहरे पर ठंडक का हाथ फेर रही थी. वह वैसे ही रिक्‍शा चला रहा था, जैसे शून्‍य के पार जा रहा हो. जितनी खामोशी उसके भीतर थी, उतनी ही शरीर में थी. हां, वह चढ़ाव के दौरान उतर गया था. थकान के चलते उससे रिक्‍शे के पैडल नहीं पड़ रहे थे. कुछ दूर चलने के बाद हांफ रहा था और मुझे लगा कि उसका शरीर जिंदगी से शिकस्‍त खा रहा है.  



मेरे भीतर फिर 'अस्तित्‍व'और 'जीवन'का चिंतन घुलने लगा.

सच..! श्रम कितनी खूबसूरत चीज होती है. शारारिक श्रम से सुंदर कौन सी चीज होती होगी? हम कंप्‍यूटर पर बैठते हैं और क्लिक करते हैं. हम फाइल में सुंदर कलम से अपने अहम अधिकार के हस्‍ताक्षर करते हैं. हम बोलते हैं और शब्‍दों के फूल झड़ते हैं, हम लिखते हैं और रंगीन सपने रचते हैं. हम जो रचते हैं, रचाते हैं, रचवाते हैं, करवाते हैं, बोलते हैं और बुलवाते हैं, लिखते हैं और लिखवाते हैं और इस तरह पैसा कमाते हैं. हम पैसा कमाते हैं और 'अस्तित्‍व'बचाते हैं, यानी की एक तरह से 'जीवन'बचाते हैं. हम बड़े ही महान अस्तित्‍व के लोग हैं क्‍योंकि हमारा 'अस्तित्‍व'बुद्धि की महान अभिव्‍यक्ति है.

अंदर एक प्रश्‍न उठता है, क्‍या जैसा हम काम करते हैं वैसा ही हमारा 'अस्तित्‍व'बनता है? हां दुनिया में अभी तक तो यही समझ आया. डॉक्‍टर बड़ा आदमी है वह जीवन बचाता है, उसका 'अस्तित्‍व'बड़ा है, इंजीनियर बिल्डिंगें, पुल और सड़कें बनाता है, कंप्‍यूटर सॉफ्टवेयर बनाता है, पायलट हवाई जहाज चलाता है, ड्राइवर, रेल, बस, गाड़ी चलाता है, लेखक लिखता है, चिंतक चिंतन करता है, बाबा उपदेश देते हैं, सामाजिक कार्यकर्ता समाज सेवा करते हैं, पत्रकार अ‍खबार निकालते हैंराजनेता देश और दुनिया चलाते हैं और भी कई सारे लोग कुछ न कुछ करते हैं इसलिए सबके 'अस्तित्‍व'महान हैं. 'अस्तित्‍व'महान है इसका मतलब है कि इन्‍होंने जीवन को ज्‍यादा तरीके से बचाया है और जीवन को बचाने के ये लोग बेहतरीन कलाकार हैं. 




मैं रामभरोस को रिक्‍शा चलाते हुए देखता हूं. उसे पसीना आ रहा है और मुझे कबीर याद आ रहे हैं. 

कबीर जुलाहे थे, उन्‍होंने अपना 'अस्तित्‍व'बचाने के लिए रेमंड का कपड़ा बनाने की कोशिश की थी क्‍या? और हां रैदास तो जूता सिलते थे, लेकिन उन्‍होंने अपना 'अस्तित्‍व'बचाने के लिए रिबॉक का शूज बनाने के बारे में सोचा था क्‍या? नहीं ऐसा तो कहीं है नहीं.



ओह..! तो वे जीवन जी रहे थे, उसे बचा नहीं रहे थे यानी की उनका अस्तित्‍व था ही नहीं

मैंने रामभरोस को फिर देखा, वह रिक्‍शे पर बैठ गया था और अपने चारों ओर बड़ी-बड़ी बिल्डिंगें देखीं. मैंने सोचा कबीर और रैदास दोनों का 'अस्तित्‍व'था ही नहीं, वे लोग एक तरह से मजदूर थे और मजदूरों का भला कहीं अस्तित्‍व होता हैउनके पास 'जीवन'बचाने के लिए नहीं, बल्कि 'जीने'के लिए होता है.     

मुझे समझ आया कि यह दुनिया तो मजदूरों ने बनाई है. उनका कहां अस्तित्‍व? वे जीवन जीते हैं उसे बचाते नहीं. मैंने रामभरोस से पूछा-- 


आपकी उम्र कितनी है
66 साल. 
मैं चौंक गया. 
दो बार क्रॉस चेक किया, फिर वही जवाब मिला. 
कब से हैं दिल्‍ली में
40साल हो गए. 40साल से रिक्‍शा चला रहा हूं.  
मैं थोड़ा आगे की ओर झुका. 
कितने बच्‍चे हैं आपके?
चार लड़कियां, और एक लड़का. 
आप इतनी उम्र में भी रिक्‍शा चला रहे हैं, बेटा कमाता नहीं क्‍या
कमाता है, लेकिन उतना नहीं. 
बीमार हो जाएंगे काका, अब बंद कर दीजिए ये काम. 
वह कुछ बोला नहीं. फिर बोला क्‍या करेंगे अब. बंद और चालू करके.  
क्‍यों? मैं आश्‍चर्य में पड़ गया. 
हां अब चोला बदलना है. जीने की इच्‍छा नहीं रही. 
मेरे भीतर एक उदासी छा गई, जो चेहरे पर शिकन के रूप में बाहर आई. 
उनसे हुई बाकी बातें मेरे अंदर एक अजीब सा खालीपन भरती गई. 
मैंने आसमान की ओर देखा, और गहरी सांस छोड़ी. आसमान में सुबह की लालिमा थी. सूरज की रौशनी नीले आसमान में फैल रही थी.  
लेकिन मेरे अंदर अंधेरा हो फैल रहा था. 
मैं इसलिए रिक्‍शे में नहीं बैठता..!   

ऊफ..! दिल्‍ली की चमचमाती सड़कों पर पिछले 40साल से रिक्‍शा चलाने वाले 66साल के रामभरोस पासवान चोला बदलना चाहते हैं. न जीवन के प्रति कोई आस है और न अस्तित्‍व के प्रति कोई मोह रह गया है. खुदके होने की उन्‍हें कोई खुशी नहीं और न इस समाज और व्‍यवस्‍था के. पूछने पर कहते हैं- नाती पोते सब देख लिए. चार लड़कियां और एक लड़का है. पोते को बीए कराने तक रिक्‍शा खींच रहे हैं. अब जीना नहीं चाहते. बैठते हैं तो दम फूलता है और रिक्‍शा चलाते हैं, तो सांसें लय में चलती है. विश्राम के भीतर से 'राम'गायब है और रिक्‍शे की थकान में सांसों को 'विश्राम'मिलता है. 

सोचने लगा, बिहार के सीतामढ़ी जिले से दिल्‍ली आए रामभरोस को क्‍या किसी 'पासवान'का भरोसा नहीं मिला कि वे खुदको पापी मानते हैं. वे रिक्‍शा चलाने को मजबूर हैं. उनके साथ वाले 50-55में ही व्‍यवस्‍था से 'जीवन'और 'अस्तित्‍व'दोनों हार गए. उनका जीवन शिकस्‍त खाता गया और निराशा के बादल गहराकर एक दिन बरसे और गल चुकी देह व्‍यवस्‍था के किसी कोने में बह गई. 



ओह.! रामभरोस अच्‍छे कलाकार नहीं हैं. वेजीवन नहीं बचा पाए. 

रिक्‍शे से उतरकर 30की जगह 50दिए और एक तस्‍वीर खींची. उस जिंदगी को कैद कर लिया, जो देह से आजाद होना चाहती है. चोला बदलना चाहती है. मन में सवाल उठा, क्‍या देश के किसान चोला तो नहीं ही बदल रहे...? ये मृत्‍य का वरण देह की आजादी की इच्‍छा है, या निराशा के गहरे अंधकार में मन से जीवन जीने की इच्‍छा के बुझ जाने का संकेत. 

वे नये चोले की आस में पुराना चोला बदलना चाहते हैं इसलिए मृत्‍यु चाहते हैं. लेकिन आत्‍महत्‍याएं भूमिकाएं बनाती हैं और प्रस्‍तावनाएं गढ़ती हैं. हरे-भरे किसान फसल से ज्‍यादा सूख गए और खाली हो गए. खाली आदमी खुद से एक खुशी चुनता है, जिसमें न अस्तित्‍व होता है न जीवन. व्‍यवस्‍था निचोड़ती है, फिर जीवन को बचाने पर मजबूर करती है और एक दिन अस्तित्‍व को लेकर मोहभंग कर देती है. क्‍या आत्‍महत्‍या होती हैं, या करवाई जाती है, इसलिए हत्‍या होती है, क्‍या उसका कोई वरण नहीं होता

ऊफ! आपाधापी और संघर्ष के बीच जिंदगी शिकस्‍त हो रही है. शिकस्‍त जीवन पर निराशा के बादल साथ लाती है. नोन तेल लकड़ी की चिंता, अंतिम चिंता से ज्‍यादा खतरनाक है. उसमें जलते आदमी का कोई समाज नहीं होता और होता है, तो उसे उसके उस समाज में होने का कोई अहसास नहीं होता.

'जीवन'से ज्‍यादा 'अस्तित्‍व'को बचाने की कला ज्‍यादा बड़ी है क्‍योंकि उसमें आत्‍मा और मन का र्इंधन बहुत लगता है. सांसे जितनी ली नहीं जाती, उतनी खर्च होती रहती है और एक दिन भीतर सबकुछ खाली हो जाता है. यहां न तो ज्‍यादा कमाई है और न ही कोई उसकी कोई आस. 



ऊफ..! मेरे चोला माटी के राम. 

तो क्‍या मृत्‍यु नये जीवन की आस का वरण है?रामभरोस तुम्‍हारे जीवन के अंधेरे में आत्‍महत्‍या सवेरा कर रही है.


रामभरोस 50का नोट लेकर कुछ नहीं बोलता. 20 रुपये लौटाता है, मैं मना कर देता हूं. वह आगे बढ़ जाता है. पैदल-पैदल अपनी उम्‍मीद खींचते हुए. देह से अलग, जीवन से पृथक.

मैं राम भरोस के 'चोले'को दूर तक जाता देखता हूं. और खुद से ही बुदबुदाता हूं.

रामभरोस तुम्‍हारे राम कौन हैं? तुम्‍हें किस राम का भरोसा है
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सारंग उपाध्याय
उप समाचार संपादक
 Network18khabar.ibnlive.in.com,New Delhi

रंग राग : सत्यजित राय का इतिहास बोध : पुरुषोत्तम अग्रवाल

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वरिष्ठ लेखक-आलोचक प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल२५ अगस्त २०१५ को अपने सक्रिय जीवन के साठ साल पूरे कर रहे हैं. इस अवसर पर उनकी तीन किताबें लोकार्पित हो रही हैं - किया अनकिया (प्रतिनिधि संकलन), स्कोलेरिस की छाँव में (निबन्ध- संकलन),और बदली सूरत वक़्त की, बदली मूरत वक़्त की (फिल्म एवं धारावाहिक समीक्षाएँ).

प्रस्तुत आलेख ‘बदली सूरत वक़्त की, बदली मूरत वक़्त की’ में शामिल है, इस आलेख पर श्याम बेनेगल की टिप्पणी भी आप पढ़ सकते हैं.

समालोचन की ओर से बधाई और शुभकामनाएं.



सत्यजित राय का इतिहास बोध                   
पुरुषोत्तम अग्रवाल 

त्यजीत राय की फ़िल्मों में भी पाथेर पंचाली के अप्पू और दुर्गा सहजता के देहधारी रूप हैं तो शतरंज के खिलाड़ी का कलुआ एक बेचैन सवाल कि कोई लड़ता ही नहींकोई बन्दूक नहीं चलाता. लेकिन यहाँ शाखा प्रशाखा’ का अंतिम दृश्य याद करेंवह वृद्ध जिसने परिश्रम और ईमानदारी से सम्पन्नता और प्रतिष्ठा अर्जित की हैजिसका सेंस ऑफ एचीवमेंटस सिर्फ अपने आप तक सीमित नहीं है बल्कि जो समाज के साथ जुड़ाव महसूस करता हैऐसा वृद्ध अपने बच्चों से दूर होता चला जा रहा है. उन बच्चों से जिनकी कामयाबी के पैमाने बदल गए हैं. इस बदलाव के सामने उस वृद्ध को सबसे निर्मम ढंग से लाता है एक बच्चाजो अच्छाई या निष्पाप अबोधता का नहीं,ठेठ व्यावहारिक और दुनियादारी का प्रवक्ता है जो दादा की कमअक्ली पर तरस खाता हुआ उसे दो नम्बर के पैसे का मतलब समझाता है. इस तेज  रफ्तार वक़्त में मेहनतनिष्ठा और सामाजिक सरोकार की संगति बैठती है पागलपन सेप्रतिष्ठा और उपलब्धि का मेल बैठता है विशुद्ध स्वार्थ लिप्सा सेदुनियादारी जिसका दूसरा नाम है. इस दुनियादारी से आतंकित  शाखा-प्रशाखा का वृद्ध अपने उस बेटे से निकटता महसूस कर पाता है जो कि अर्द्धविक्षिप्त है.

शाखा प्रशाखा से उभरने वाला यह वक्तव्य बहुत भीषण हैलेकिन क्या आत्यंतिक और अप्रासंगिक भी हैइतिहासबोध की चर्चा नितान्त समकालीन अनुभव पर कशमकश से शुरू करना इसलिए जरूरी है क्यों कि इतिहासबोध का स्वरूप जीवन- दृष्टि और सरोकारों के स्वरूप पर निर्भर करता है. अकादेमिक अनुशासन के रूप में भी इतिहास का अर्थ सिर्फ अतीत के  आख्यान तक सीमित नहीं होता; और अतीत का आख्यान करने वाले अनुशासन के रूप में भी इतिहास समकालीन दबावों से और आग्रहों से पूरी तरह मुक्त भला कहाँ हो पता हैइस संदर्भ में जरा उस उलझन को याद करें जो कलाकर्मी को विचार या वाद-विशेष में रिडयूस करने को उतावले अध्येताओं के सामने राय की फ़िल्में लगातार पेश करती रही हैं.

राय की जीवन दृष्टि किस विचारधारा से परिभाषित होती हैयह सवाल बड़ी गम्भीरता से किया जाता है. इस संदर्भ में बेतुके सवाल बड़ी गम्भीरता से पूछे जाते हैं. प्रबोधन और नवजागरण के संस्कारराय  में  सब बहुत गहरे हैं. लेकिन क्या राय मनुष्य को सृष्टि का भोक्ता या स्वामी मानने वाले सीमित बल्कि भ्रामक अर्थ  में मानवतावादीहैंनहीं, उनके मानवतावाद में टैगोर के निकट संपर्क से आया, भारतीय चिंतन-परंपरा का सार निहित है, जो सबार उपरि मानुष सत्यमानने के कारण ही, सारी सृष्टि के प्रति मनुष्य के विशेष दायित्व-बोध को कभी नहीं भूलता. मानव का यह बोध उपभोक्तावाद की ओर नहीं बल्कि प्राकृतिक और सामाजिक पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता की दिशा में जाता है.

इसी तरह,  समकालीन अनुभव की विकृतियों कीआधुनिकता-- की तीक्ष्ण आलोचना जब सत्यजित राय करते हैं तो क्या वे परम्परावादी हैंपरम्पराओं के प्रति सरलीकृत मोह से मुक्त होने के कारण क्या उन्हें आधुनिकतावादीकहना उचित नहीं?  क्या वे लगभग कम्युनिस्ट या कम से कम मोटे तौर पर वामपंथी हैइनमें से किसी भी शब्द को यदि राय की जीवन दृष्टि का विशेषण बनाया जा सके तो उनके कलाकर्म में निहित इतिहासबोध को समझने की कुंजी भी मिल ही गई समझ लो. सौभाग्य से राय के अपने शब्दों में, “सरलीकृत लक्ष्यों में उनकी दिलचस्पी कभी नहीं रही. इसीलिए स्वाभाविक रूप से उनकी कला भी सरलीकृत विचारवाद के लिए उलझनें ही पैदा करती है. लेकिन फिर भी कला को विचार में रिड्यूस कर देने के इस उतावलेपन का अपना तर्क तो है ही और  इस तर्क को समझना जरुरी है. यह तर्क असल में इस लोकप्रिय धारणा पर आधारित है कि कोई भी कला जीवन से अपने बलबूते टकरा ही नहीं सकती है. वह किसी न किसी विचारधारा या वाद का भावानुवाद भर हो सकती है. दूसरे शब्दों में

ब्रह्म निरूपण आचार्यों का काम है, कवियों का काम इस निरुपित ब्रह्म को भावगम्य बनाने तक सीमित है. जो कवि या कलाकार ब्रह्म को खुद  अपनी  आँखों से देखने की गुस्ताखी करेवह उद्दंड हैधृष्ट हैअनधिकार चेष्टा का अपराधी है. मजेदार बात यह है कि  सार्थक कला यह  उद्दंड अपराध बराबर करती है. आचार्यों द्वारा निरूपित ब्रह्म को ही निरूपित करने के आदेश की उपेक्षा औकर विरोध करने वाले भक्त कवियों से लेकर शाखा-प्रशाखानामक फ़िल्म तक. यह फिल्म अघोषित लेकिन गहरे ढंग से मनुष्य की अनवरत प्रगति की उस धारणा पर ही चोट कर जाती है,जिस पर हमारा सारा इतिहासबोध टिका हुआ है. कला का खास काम यही है कि  वह ज्ञान के विभिन्न अनुशासनों और विचार की विविध पद्धतियों के घरों में अनधिकृत घुसपैठ करके उनकी सुपरिभाषित दुनिया को झकझोरे. कला का सरोकार मनुष्य की समग्रता से है. इसी सरोकार से जरिए कला प्रदत्तबोध और संरचना को चुनौती देती है. मौजूदा सवालों के नये उत्तरों का ही नहीं, वह नये सवालों का भी प्रस्ताव करती है. कला की सार्थकता जिज्ञासा में हैसिर्फ खुद तक सीमित जिज्ञासा में नहीं बल्कि मनुष्य की नियति के प्रति जिज्ञासा.

राय की विश्व दृष्टि और उनके इतिहासबोध की सबसे बड़ी खूबी यही जिज्ञासा है. किसी अनुभव को दूसरे कोण से भी परखने की कोशिश इसी जिज्ञासु दृष्टि से पैदा होती है.


इसका यह अर्थ नहीं कि राय की कला विचारों से विदाई का कोई रूपक पेश करती है. हाँ वह इतनी आत्मसजग अवश्य है कि किसी साफ-सुथरेकटे-छटे वैचारिक वाद का अनुवाद करने से इन्कार कर दे. इसलिए उसमें निहित इतिहास बोध को अपने पसंदीदा लेबल में रिड्यूस करने के बजाय बेहतर यह होगा कि उसके अपने आग्रहों तथा सरोकारों को समझने की कोशिश की जाए. मनुष्य की अखण्ड अच्छाई में राय की आस्था को तरह-तरह से रेखांकित किया गया है. लेकिन यह आस्था इतिहास-निरपेक्ष नहीं है और चूंकि इतिहास-निरपेक्ष नहीं है इसलिए इस आस्था में व्यक्ति और समाज दोनों ही के धरातल पर विडंबनाओं से टकराने का उत्साह है. विडंबना का यह अहसास रायद्वारा विषयों के चुनाव और उनकी ट्रीटमेंट में धीरे-धीरे बढ़ता गया है.


यह केवल संयोग नहीं है कि प्रेमचंद के लेखन से राय ने पहले शतरंज के खिलाड़ी चुनी और फिर सद्गति’ . यह चुनाव अपने आप में राय के सरोकारों का रेखांकन करता है . इस लिहाज से ‘प्रतिद्वंदी को उनकी कला का वाटर शेड ठीक ही कहा गया है. वह वक्त थाप्रतिद्वंदी’ बनाने के समय का वक्तयह वक्त था जो राय के अपने शब्दों में रोजमर्रा के जीवन स्तर के अनुभव पर बहुत तेजी से बदल रहा था.  इस बदलाव का नोटिस लिए बगैर निस्तार नहींथा. प्रतिद्वंदी का मुहावरा  राय की पूर्ववर्ती और परवर्ती फ़िल्मों से अलग है. बहरहालहम यह  देखें कि विषय वस्तु के स्तर पर प्रतिद्वंदी’ है- समय. समकालीन सच्चाइयों से परिभाषित समय जिसमें सवाल यह है कि हमारे वक्त की सबसे बड़ी घटना क्या है. उत्तर इस बात पर निर्भर करता है कि आपके जीवन दृष्टि के सरोकार क्या हैचांद पर मनुष्य का पैर पड़ना- था तो मानवीय क्षमताओं का चमत्कार ही,  लेकिन जैसा कि उस अत्यन्त सघन दृश्य में सिद्धार्थ कहता है कि वियतनाम युद्ध में जन साधारण  और किसानों की प्रतिरोध में इतना दमखम होनायह सिर्फ टेक्नोलॉजी  का मामला नहीं हैयह तो इन्सान की हिम्मत है. ऐसी हिम्मत जिसे देखकर आप सकते में आ जाते हैं और इसलिए प्रतिद्वंदी के नायक के लिए, उसके समय की सबसे बड़ी घटना चांद पर मनुष्य का पैर पड़ना नहीं है  बल्कि वियतनाम का युद्ध है. दरअसल विडम्बनाओं के बोध के कारण और अपने समय से गहरे में जुड़ाव के कारण राय बार-बारइतिहास की ओर  लौटते हैं. अतीत के किसी कालखण्ड को विषय बनाने वाली उनकी फ़िल्मों को लेकर खासे विवाद हुए हैं. आमतौर से ( राय के बारे में ) यह बात कही  गई  है कि उनकी वर्ग सहानुभूतियाँ गड़बड़ हैं. 

जलसा घरके संदर्भ में यह बात कही गईशतरंज के खिलाड़ी के संदर्भ में राष्ट्रीयता और भारतीयता के प्रेमियों को भी घोर आपत्ति हुईक्योंकि उसमें अंग्रेज उतने स्याह नहीं हैजितने उन्हें होना चाहिए. हिंदुस्तानी उतने महान और शानदारनहीं हैं, जितने कि उन्हें होना चाहिएलेकिन शतरंज के खिलाड़ी  की अगर हम चर्चा करें तो हम देख सकते हैं कि राय शतरंज के  खिलाड़ी में एक गहरा प्रतिवाद कर रहे हैंवह प्रतिवाद यह है कि प्रेमचंद की कहानी के मीर और मिर्जा विलासी भले ही रहे होंलेकिन उनमें व्यक्तिगत वीरता के गुणों का अभाव नहीं था. स्वाभाविक है कि कहानी के मीर और मिर्जा में बकायदा चुनौती देकर तलवारों से द्वंद युद्ध हो जाते हैं, जबकि फ़िल्म के मीर और मिर्जा का हथियार तलवार नहीं तमंचा है और वो भी क्षणिक आवेश में,  बिना इरादे के चल जाता है. फ़िल्म में निहित इतिहास बोध की टिप्पणी सिर्फ इन दो पात्रों के व्यक्तिगत गुणों के पुनर्मूल्यांकन तक सीमित नहीं है. 

वाजिद अली शाह की वह शानदार आत्म-दया जिसकी परिणति बिना लड़े हार जाने में हो जाती हैउसका विस्तृत रेखांकन 19 वीं सदी के सामंत वर्ग के प्रति राय का विशेष दृष्टिकोण सूचित करता है. यह केवल डिटेल्स का मामला नहीं था कि राय ने शतरंज के खिलाड़ी फ़िल्म में एक समानान्तर कहानी ही उस खेल की रच डालीजो उस समय के सामंत वर्ग और औपनिवेशक सत्ता के बीच चल रहा था. इस दृष्टिकोण में व्यक्ति की मानवीय उपस्थिति के प्रति पूरी सहानभूति के बावजूद उसके वर्ग से जोड़े जाने वाले गुणोंव्यक्तिगत वीरतामहानताउदारता आदि के भावुक महिमा-मंडन की कम से कम राय की कला में कोई गुंजाइश नहीं है. उल्टे इस वर्ग की ऐतहासिक भूमिका का गहरा बोध फ़िल्म के अंतिम दृश्य से व्यक्त होता हैजहां वह अकेला छूटा देहाती बच्चा फटी-फटी आँखों में अंग्रेजी फ़ौज को आते और वापस जाते देखता है और बेचैनी से कहता है,’ कोई लड़ता ही नहीं.

जहां तक सरकारों काअर्थात मीर और मिर्जा का सवाल है, वे अब अंग्रेजी चालों की बाजी सजा रहे हैं और मीर का वाक्य नेरेटर की आवाज में घुलमिल जाता है, ‘अब आप हटिए बादशाह सलामतमलिका-ए-आलिया तशरीफ़ ला रही हैं. खेल वही हैखिलाड़ी वही  हैसिर्फ खेल के कायदे बदल गए हैं. बादशाह सलामत की जगह मलिका ने ली है और इस अर्थ में शतरंज के खिलाड़ी एक रूपक कथा बन जाती है. राय का इतिहास बोध उनकी पूरी की पूरी जीवन दृष्टि से जुड़ा हुआ है. उसका मूल तत्व है जिज्ञासा और जिज्ञासा की स्वाभाविक परिणति कला में होती हैअपने आप पर सवाल करने की सामर्थ्य: हम सभी जानते हैं कि राय पर रेनेसाँ के संस्कारों का गहरा असर था,बल्कि निःसंकोच यह कहा जा सकता है कि राय संभवतः हमारे समय के समकालीन भारतीय कला-दृश्य के अंतिम रेनेसां मैंन थे. रेनेसां मैंनमैं एक पारिभाषिक अर्थ में कह रहा हूँ. दरअसल मैं व्यक्तिगत रूप से ऐसा सोचता हूँ कि राय की कला एक गहरे अर्थ में समाज के आलोचनात्मक विवेक को तीक्ष्ण करने का काम करती है और यह आलोचनात्मक विवेक समाज के व्यापक धरातल से लेकर, खुद कला-कर्म के, खुद कलाकार के अपने आग्रहों तक व्याप्त है. जब राय सद्गति कहानी का चुनाव करते हैं और उसमें यह महत्त्वपूर्ण है कि बिना कोई खास फेरबदल किये, लगभग कहानी को जस का तस फिल्मा देते हैं, थोड़ी बहुत डिटेल्स बढ़ाकर, जो माध्यम की मांग है, राय जो कि अपने विषयों के साथ छूट लेने  लिए बदनाम रहे हैं, लेखकों और साहित्यकारों के बीच में काफी बेचैनी पैदा करते रहे हैं, वे राय सद्गतिको लगभग जैसा का तैसा फिल्मा देते हैं और यह भी संयोग नहीं है कि सद्गति का चुनाव, सद्गति’ का निर्माण, सद्गति का दिखाया जाना, कुछ लोगों को खटकता है. वह इसलिए खटकता है और स्वाभाविक रूप से खटकता है कि जो धारणाएँ हमारे अपने समाज के बारे में हम बनाते हैं, राय की कला उन पर सवाल उठाती है. हम जैसे भी हैं, जो कुछ भी है, महान है और संभवतः हमें किसी आलोचनात्मक आत्म-निरीक्षण की जरूरत नहीं हैं. राय की कला आलोचनात्मक आत्म-निरीक्षण की जरूरत को बहुत ही प्रचंड रूप से रेखांकित करती है.

जलसा घर’ से लेकर शतरंज के खिलाड़ी तक और यहाँ मैं घरे बाइरे को नहीं भूल सकता, जिसकी पुनः बड़ी कठोर आलोचना हुई थी. क्योंकि एक ऐसा आंदोलन, जिसको कुल मिलाकर एक बहुत ही शुभ घटना के रूप में हम जानते हैं लेकिन शुभ घटना के भीतर भी कुछ बेचैन करने वाली चीजे थीं, उस शुभ घटना के भीतर भी पाखंड का तत्त्व था. उस शुभ घटना के भीतर भी एक प्रकार से सामाजिक खाइयों को बढ़ाने वाली चीज़ें थीं. . उनको अपने वक़्त में रवीन्द्रनाथ ने नोट किया और स्वाभाविक है कि गालियाँ खाई. क्योंकि कला का काम ही यह है कि जब विचार, कोई भी विचार एक डॉगमा का रूप लेने लगे, जब किसी भी विचार को यह खुशफ़हमी होने लगे कि उसके पास जीवन की समस्त समस्याओं के निराकरण मौजूद हैं, तो  विचार की तानाशाही के विरुद्ध, विचार के बनने की इस प्रक्रिया के विरुद्ध दुनिया भर की सार्थक कला हस्तक्षेप  करती है और इसका प्रतिवाद करती है और यह प्रतिवाद बिना गहरे इतिहास-बोध के संभव नहीं है. इतिहास-बोध इतिहास को अतीत तक सीमित मानने में, इतिहास को केवल अतीत की पुनर्व्याख्या मानने  तक में सीमित नहीं होता बल्कि यह खुद अपने समय की विडम्बनाओं से टकराने में व्यक्त होता है और जो कला इस तरह अपने समय की विडम्बनाओं से टकराती है , उसे हम कह सकते हैं कि वह एक बहुत गहरा और जरुरी सामाजिक कर्म संपन्न करती है बिना पेंफलेट बने, बिना नारा बने और वो सामाजिक कर्म है आलोचनात्मक विवेक का विकास, जिसका कि कम से कम हमारे समाज में दुर्भाग्य से घोर अभाव रहा है.  

अज्ञेय ने यह बात वर्षों पहले नोट की थी कि सांस्कृतिक धरातल पर हमारी सबसे बड़ी विफलता यह रही  कि हम एक आलोचनात्मक राष्ट्र नहीं बना सके. राय की फ़िल्में समाज में उस आलोचनात्मक विवेक का विकास करने में, मुझे लगता है, कि गहरी मदद करती हैं और मेरे नजदीक यह उनकी सबसे बड़ी प्रासंगिकता है, सबसे बड़ी साथर्कता है और इस साथर्कता का मूल कारण यही है कि वह बिना किसी विचार से आतंकित हुए और साथ ही विचार से मुक्ति का पाखंड किये बगैर, इतिहास की विडम्बनाओं से कला के अपने मुहावरे में, कला की अपनी भाषा में टकराने का प्रयत्न करते हैं और इस तरह देखने वाले के स्तर पर, सोचने वाले के स्तर पर एक सामाजिक और सांस्कृतिक दायित्व सम्पन्न करते हैं.

(यह आलेख, म.प्र. फिल्म विकास निगम द्वारा सत्यजित राय के सिनेमा पर आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में पढ़ा गया था, 18 मार्च 1993 को पटकथा में प्रकाशित)

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श्याम बेनेगल:                     

पुरुषोत्तम के विचार मुझे काफी रोचक लगे. उन्होंने बहुत से पहलूओं पर बातें की. राय की नैतिकता पर, एक ऐसे इन्सान के तौर पर जो कहानी कहने की अपनी नीतिकथा की शैली के द्वारा नैतिकता का समावेश करता है.  इसके साथ ही राय इस बात का ध्यान रखते हैं कि उन्हें मताग्रही न समझा जाये इसीलिए वे स्पष्ट शब्दों में अपनी पात्रों को रचते हैं या जब आप कहानी कहते हैं तो आप इस तरफ या उस तरफ अपना वजन नहीं रखते. मेरी समझ में यह उनकी बहुत बड़ी चिंता भी थी. वास्तव में मैं उनकी तकनीकी चिंता कहना चाहूँगा उनके पटकथा-लेखन के तरीके की वजह से. 

किसी एक तरफ अधिक वजन मत रखोउन्हें उसी तरह उभरने दो जो स्वाभाविक हैतभी आप स्पष्टता से उन्हें देख सकेंगे. दूसरे शब्दों में आपके अपने किसी एक पात्र के चरित्र के प्रति अत्यधिक अनुराग नहीं होना चाहिए क्यों कि यदि ऐसा हुआ तो आप-पात्रों के चरित्र-चित्रण से भेदभावपूर्ण दखल देंगे और दूसरे पात्रों के चरित्र-चित्रण में पूर्वाग्रह से काम लेंगे. उनकी अधिकांश फ़िल्मों में इस समदर्शिता का अद्भुत ध्यान रखा गया था. आखिरी तीन फ़िल्मों को अपवाद मानना चाहिए. जब मैं राय से पिछले साल मिला था तो मैंने इस बिंदु का जिक्र किया था कि वे निर्णायक नहीं होते हैं. व्यक्तियों या परिस्थितियों के निर्णायक होने का अर्थ कई अर्थों में यथार्थ को नकारना भी है.  यथार्थ को नकारने का यह भाव  उस प्रक्रिया में ही निहित है. मैं समझता हूँ, यह वह उल्लेखनीय विचार था जिस पर उनकी फ़िल्में केंद्रित रहीं. अनिवार्य दूरी बनाये रखने का निरंतर आग्रह. 

हम परिवर्तन चाहते हैं पर हम अतीत की अच्छाई को विस्मृत नहीं करना चाहते.  पर ऐसा होना अपरिहार्य प्रतीत होता है कि अच्छाई भी बुराई के साथ विस्मृत होगी. यह भी एक पक्ष है जो उनकी फ़िल्मों, खासकर ‘जलसा घर में उभरता है . शतरंज के खिलाड़ी तक आते-जाते राय अधिक उभयभावी हो जाते हैं. पर यह एक समस्या है. अतीत को याद करते समय हम अतीत की पुनर्रचना करने लगते हैं. यद्यपि  हम कहते हैं कि वे दिन कितने भयानक थे, हम उनकी याद भले ही पुरानेबुरे दिनों के रूप में करते हैं. हम उन्हें वास्तव में बुरे दिन मानने को तैयार ही नहीं होते.  हम उन दिनों को भलेपुराने बुरे दिनों के रूप में याद करना चाहते हैं क्योंकि अतीत में हमेशा कुछ न कुछ ऐसा होता है जिसे आप संजोकर रखना चाहें और चूंकि आप ऐसा नहीं कर सकते इसलिए आपको खो देने का अहसास  होता है.  समाज के स्तर विन्यास पर दृष्टिपात करते हुए यह खो देने का अहसास राय की फ़िल्मों में बराबर मौजूद रहता है. ऐसा सिर्फ राय के साथ ही नहीं होता, ऐसा उन अधिकांश फ़िल्मकारों के साथ होता है जो किसी निश्चित स्थिति से निर्णय देने को अस्वीकार करते हैं. यह कोई चेतन प्रक्रिया नहीं है. यह अर्थ हमेशा सोचकर फ़िल्मों में नहीं रखा जाता है. यह अर्थ तो फ़िल्मों में से निकलता है. पुरुषोत्तम ने मुद्दे को इतने विस्तार से स्पष्ट किया है कि इस विषय में कहने को कुछ अधिक रह नहीं  जाता.  

राय को आशंकित करता है सिर्फ कालसमय.  मेरे ख्याल से उनकी अस्वस्थता के दौरान बनी फ़िल्में गणशत्रु और शाखा प्रशाखा में वे अधिक निर्णायक हो जाते हैं, वे पक्ष लेते हैं. जब राय पक्ष लेते हैं तो गमगीन नहीं होते,बल्कि आक्रोश से भर जाते हैं. उनकी पहले की फ़िल्मों में क्रोध  के बनिस्बत विडम्बना पर अधिक बल है.

परख : कैनवास पर प्रेम (उपन्यास) : विमलेश त्रिपाठी

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पुस्तक समीक्षा
मद्धिम पीड़ा की आंच पर पके प्रेम का रोचक आख्यान                          
डॉ. राकेश कुमार सिंह


पीड़ा जैसा भाव चाहे जिस स्रोत से अपना आकार ग्रहण करे उससे पड़ने वाला प्रभाव उससे जुड़े स्रोतगत संदर्भों में संलिप्त रहने वाले व्यक्ति की अनुभव क्षमता के अनुरूप पड़ता है. कुछ ऐसा ही विमलेश त्रिपाठी के उपन्यास कैनवास पर प्रेमको पढ़ने के दौरान महसूस होता है. यह उपन्यास अपने अंदर एक चिर-परिचित विषय लिये हुए हैं; जिसे हम प्रेमके नाम से जानते हैं. प्रेम की पीड़ा में डूबते-उतराते कथा चरित्रों और खुद कथाकार का जीवन जिन जीवनगत सदर्भों से जुड़ा हुआ है;वो भी काफी हद तक जाने-पहचाने से हैं. चूंकि इनके जीवनगत संदर्भ अलग-अलग हैं; (कुछ एक मामलों में समान होते हुए भी) इस वजह से इनकी प्रेमगत पीड़ा का स्वरूप भी अलग-अलग होगा; चाहे वो कथानायक सत्यदेव शर्मा के प्रेम की पीड़ा हो या उसके दोस्त सैफू की पीड़ा, उनकी प्रेमिकाएं मयना, रिंकी सेन की पीड़ा हो या खुद कथाकार की.

इस प्रकार के खाए, पिए और पचाए विषय के वावजूद भी, ध्यान देने वाली बात यह है कि यह उपन्यास पाठक को रीडिंग सीट को बिना एक बार में पढ़े छोड़ने की इजाजत नहीं देगा. इस अध्ययनगत अनुभव को मैंने काफी सजींदगी के साथ महसूस किया है और इसकी वजह भी जो मेरे मस्तिष्क में स्पष्ट आकार ग्रहण करती है; वह है- विषय का रोचक प्रस्तुतीकरण. विषय का प्रस्तुतीकरण तभी रोचक और सशक्त होगा जब रचनाकार के पास अनूठा शिल्प रचने की क्षमता हो.

उपन्यास को टुकड़े-टुकड़े में मुख्य रूप से सत्यदेव शर्मा और कथाकार के निजी जीवन की सर्जनात्मक दास्तान के रूप में देखा जा सकता है. कथाकार द्वारा इस उपन्यास में कथागत चरित्रों के समानान्तर अपनी निजी दास्ता को रोचक तरीके से बयान करना ही उपन्यास के विशिष्ट और अनूठे शिल्प के एक महत्वपूर्ण आयाम के तौर पर देखा जा सकता है.

उपन्यासकार जब भी अपनी मुख्य कथा की तरफ मुड़ता है या उससे निकलकर अपने निजी जीवन कथा की तरफ मुड़ता हैउस कथागत मोड पर एक जिंदगी से दूसरी जिंदगी में प्रवेश की प्रक्रिया पूर्व दीप्ति (फ्लैश बैक) प्रक्रिया के तहत निर्मित होती है. इस शिल्पगत प्रक्रिया को कथाकार ने काफी रोचक और अनूठे ढंग से अंजाम दिया है. मेरी दृष्टि में यह शिल्पगत प्रक्रिया पाठक के अंदर मार्मिक तनाव में तब्दील होने की पर्याप्त क्षमता रखती है;और यह मार्मिक तनाव पाठक को कथा में इनवाल्वकरने की दृष्टि से काफी नजर आता है.

अगर ध्यान से देखा जाए तो उपन्यासकार अपने निजी वृत्तांत में भी उपन्यास की मूल कथा की संवेदना को समाहित किए हुए हैं. उपन्यास के अंदर ही कथाकार एक सहयोगी के रूप में इस बात का स्पष्ट संकेत  करता दिखाई देता है – मैं डर के बारे में सोचना बंद कर देता हूं. जब डर लगे तो डर के बारे में सोचना बंद कर दो. किसी कविता के बारे में सोचो या किसी कहानी के पात्र के बारे में, बहुत समय पहले की कहीं पढ़ी हुई यह बात याद आ जाती है. मुझे लगता है कि कोई है जो मेरे साथ चल रहा है मेरी हर गतिविधि को ध्यान से देखता हुआ.(पृ.24)
उपन्यासकार उपरोक्त तरह के बहुत सारे स्पष्ट संकेत निर्मित करता चलता है, जिनसे उपन्यास की रचनात्मकता को समझा जा सकता है. ये रचनात्मक संकेत कथा की रोचकता बढ़ाने के साथ-साथ इसके प्रवाह को संतुलित गति देते हैं. इन्हें रचनात्मकता के अनूठे प्रयोग के तौर पर देखा जा सकता है. इन अनूठे रचनात्मक शिल्पगता प्रयोगों में से एक है – महत्वपूर्ण गजलों गीतों और कविताओं का उपन्यास में मौलिक प्रयोग. उपन्यास में जगह-जगह हुए इस तरह के मौलिक प्रयोग उसे रोचक बनाने के साथ-साथ कथा की मूल प्रवृत्ति को सुरक्षित रखते हुए उसे विस्तार देते हैं. उदाहरण के तौर पर एक महत्वपूर्ण गजल की पंक्तियों के मौलिक प्रयोग को कथा के ढांचे को विस्तार देने के क्रम में देखा जा सकता है – तुम्हें याद हो कि न याद हो –/गा रही है आबिदा परवीन/इतिहास से आती हुई उसकी आवाज/वर्तमान को छेदती लगातार गूंज रही है/मरे हुए समय में/सिरफ गीत ही जिन्दा लगते हैं/मुझे क्यों बार-बार सुनाई पड़ता है वह रुदन/जो मेरे दोस्त की आखिरी चिट्ठी में दर्ज थे/क्यों याद आता है/उस रात के बाद का मौन/जब उसके शब्द चुक गये थे/खड़े थेपराजित मेरे सामने शर्मसार/ओ जो हममें-तुममें करार था-/गा रही है आबिदा परवीना....2(पृ.14)जानी मानी गजल की इन पंक्तियों को कथा के मूल सदंर्भ से जोड़ते हुए इस तरह से मौलिक काव्यात्मक विस्तार देना कथाकार की रचनात्मक क्षमता को उजागर करता है. यह काव्यात्मक विस्तार कथा के अंदर के महत्वपूर्ण तथ्यों और उनसे जुड़े मार्मिक तनावों की तरफ संकेत करता है. इस प्रकार का शिल्पगत प्रयोग उपन्यास की कथा में कई महत्वपूर्ण मोड़ों पर किया गया है. 

इस उपन्यास में काव्यात्मकता यहीं तक सीमित नहीं बल्कि यह समग्र उपन्यास की काव्य भाषा के स्वभाव और स्वरूप में संलिप्त नजर आती है. एक प्रकार से यह पूरे उपन्यास की अहम विशिष्टता है. इससे उपन्यास इस तर्क पर भी खरा उतरता है कि कविता गद्य की कसौटी होती है. एक प्रकार से उपन्यासकार ने अपने समग्र औपन्यासिक गद्य में काव्य की रंगत मिलाकर अपनी कथा संरचना को सार्थकता प्रदान की है. चूंकि इस उपन्यास के केंद्र में एक चित्रकार के प्रेम को विषय बनाया गया है; जिसके जीवन के विविध रंगों को कथा के कैनवास पर उतारना बिना इस किस्म की भाषा के संभव नहीं है. भाषा को उपन्यासकार ने सिर्फ कोरे माध्यम के रूप में नहीं बल्कि विषय में निहित उद्देश्य की पूर्ति के रूप में इस्तेमाल किया है. उदाहरण के तौर पर इस पूरे उपन्यास को देखा जा सकता है; जिसकी कथा-भाषा प्रेम की मद्धिम पीड़ा को अपने अंदर काव्यात्मकता के साथ समाहित किये हुए हैं. फिर भी अपने तर्क की पुष्टि के लिए एक उदाहरण देना जरूरी समझता हूं. कथा के इस अंश  को देखिए-एक तितली अकेली उड़ती थक गयी है. एक हाथ अकेले हिलते-हिलते थक गये हैं. एक सांस रुक-रुक कर चलना शुरू करती है. खेत में सरसों के सारे फूल गुम हो गये हैं. चांपा नल में पानी नहीं आता. झोले से लेमनचूस गायब हो जाते हैं. पहाड़े की जगह कानों में एक धुन बजती है,जिसका अर्थ समझ में नहीं आता. एक चिड़िया आकर पेड़ पर बैठती है और एक हूक जैसी अवाज निकालती फूर्र हो जाती है. काजल के रंग काले नहीं, पता नहीं उनका रंग कैसा हो गया है. सपने में घोड़े पर सवार एक राजकुमार आता है, जिसके पीछे बहुत सारे मुखालिफ हैं. मैं उसे बचाने दौड़ती हूं कि सब अचानक गायब हो जाते हैं. मुझे लगता है कि मुझे एक पिंजरे में कैद कर दिया गया है. वह पिंजरा एक अंधेरे कुंए के भीतर पाताल में है, जहां से मेरी आवाजें बाहर की दुनिया को सुनाई नहीं पड़ती. मैं मौन हूं. मेरे शब्द गुम गए हैं. क्या तुम मुझे मेरे शब्द वापस करने आओगे ?. (पृ.42) मयना के खत में प्रेम की पीड़ा को बयान करती इन पंक्तियों में काव्यात्मकता का रंग गाढ़े रूप से उभरा है. इसमें उसकी बिखरी उम्मीदों को कथाकार ने गहन काव्य संवेदना युक्त है. कथा भाषा में तराश कर कथा के कैनवास पर चित्रित किया है.

इस उपन्यास की संरचना बहुत कुछ मुक्तिबोध के एक साहित्यिक की डायरीकी याद दिलाती है. हालांकि विधा और विचार के स्तर पर इन दोनों में पर्याप्त अंतर है. लेकिन शिल्प के स्तर पर काफी कुछ मिलता जुलता है. वहां मुक्तिबोध अपने मैंको अपने दोस्त का सहयात्री बनाकर संवाद करते हैं;यहां उपन्यासकार अपने अंदर के लेखक को कथानायक का सहयात्री बनाकर संवाद करता है. इस उपन्यास की समग्र संरचना मेरी दृष्टि में इन संदर्भों के आधार पर काफी सशक्त बन पड़ी है;जिसमें सत्यदेव शर्मा का प्रेम मद्धिम पीड़ा की धीमी आंच पर पकता दिखाई देता है. जिसका आस्वाद इस उपन्यास का अध्ययन करके ही लिया जा सकता है.  
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 डॉ. राकेश कुमार सिंह
हिंदी विभाग, केरल केंद्रीय विश्वविद्यालय/कासरगोड, केरल
singhhcu@gmail.com

सबद - भेद : मुक्तिबोध की नई प्रवृत्तियाँ : नंद भारद्वाज

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कवि –आलोचक नंद भारद्वाज सघन उपचार के बाद घर लौटे हैं, मुक्तिबोध पर लिखी दूधनाथ की आलोचना पुस्तक –‘साहित्य में नई प्रवृत्तियाँ' पर आलेख  पूरा किया है. यह आलेख संवाद है मुक्तिबोध और मुक्तिबोध पर विचार करने वाले उनके विवेचकों से. मुक्तिबोध का गद्य महत्वपूर्ण है, ऐसे में यह अनिवार्य ही है कि मुक्तिबोध को मुकम्मिल तौर से पढ़ा जाए तभी उनकी कुछ ‘नई प्रवृत्तियां’’ अनावृत हो सकती हैं.

नंद जी के स्वास्थ्य लाभ की कामना के साथ यह आलेख आपके लिए.




‘पिस गया वह, भीतरी औ बाहरी दो कठिन पाटों बीच’                    
(मुक्तिबोध पर दूधनाथ सिंह की नयी पुस्तक पर विचार के बहाने)

नंद भारद्वाज 


मुक्तिबोध की जन्‍म-शताब्‍दी से तीन वर्ष पहले और उनके देहावसान की पचासवीं पुण्‍य-तिथि पर उन्‍हें याद करने के बहाने इधर हिन्‍दी की पत्र-पत्रिकाओं और संस्‍थानों में मुक्तिबोध के साहित्य-सृजन पर शोध,  अध्‍ययन और विवेचन की जो सक्रियता बढ़ी है, वह इस कालजयी रचनाकार के समग्र मूल्‍यांकन की दृष्टि से निश्‍चय ही स्‍वागतयोग्‍य है. 
         
हिन्‍दी में मुक्तिबोध की छवि एक प्रगतिशील और संघर्षशील संश्लिष्‍ट कवि के रूप में अधिक प्रचलित रही है, जबकि उनके रचनात्‍मक विधाओं में लेखन के अनुरूप कथाकार, आलोचक और साहित्यिक डायरी लेखक के साथ-साथ सम-सामयिक राजनीतिक विष्‍यों पर टिप्‍पणी करने वाले एक सजग विचारक की छवि भी उतनी ही महत्‍वपूर्ण रही है. हिन्‍दी में मुक्तिबोध के रचनात्‍मक साहित्‍य पर अब तक जो आलोचनात्‍मक काम हुआ है, वह उनकी कविताओं‍ पर अधिक केन्द्रित रहा है, उनके कथा-साहित्‍य, डायरी लेखन या आलोचनात्‍मक गद्य के भीतर उतरकर उसका विवेचन करने का साहस कम ही लोग दिखा पाए हैं. हिन्‍दी के समकालीन रचना परिदृश्‍य में एक कवि, कथाकार और नाटककार के रूप में अपनी विशिष्‍ट पहचान रखने वाले संजीदा रचनाकार दूधनाथसिंह हिन्‍दी आलोचना के क्षेत्र में भी अपने उल्‍लेखनीय योगदान के लिए याद किये जाते हैं, खास तौर से निराला, महादेवी और समकालीन रचनाकर्म पर अपने संजीदा विवेचन के लिए. अपने आलोचनात्‍मक अध्‍ययन की निरन्‍तरता में उनकी नयी आलोचना कृति ‘मुक्तिबोध साहित्‍य में नई प्रवृत्तियां’ ने अनायास ही हिन्‍दी के संजीदा पाठकों का ध्‍यान आकर्षित किया है. यह पुस्‍तक उन्‍होंने भारतीय उच्‍च अध्‍ययन संस्‍थान, शिमला के सहयोग से मुक्तिबोध के साहित्‍य पर एकाग्र रहकर तैयार की है.      

वरिष्‍ठ लेखक दूधनाथ सिंहने अपने अध्‍ययन का नाम बेशक ‘मुक्तिबोध साहित्‍य की नई प्रवृत्तियां’दिया हो लेकिन यह जानकर आश्‍चर्य हुआ कि 144 पृष्‍ठ के इस विवेचन में मुक्तिबोध के काव्‍येतर साहित्‍य को वे आंशिक तौर पर ही स्‍पर्श कर पाए हैं. यानी पुस्‍तक के 12 अध्‍यायों में मात्र 11 पृष्‍ठ का एक अध्‍याय है - ‘ब्रह्मराक्षस की तीसरी पीढ़ी’, जो उनकी कुछेक कहानियों की अन्‍तर्वस्तु और उनके विलक्षण शिल्‍प की ओर इंगित भर कर पाया है. डायरी लेखन के मामले में मुक्तिकबोध उस दौर में अकेले ऐसे जीनियस लेखक के रूप उभर कर सामने आए थे, जिनके माध्‍यम से रचना-प्रक्रिया के अन्‍तसूत्रों को समझने और रचनात्‍मक आलोचना का एक नया स्‍वरूप सामने आया था, लेकिन दूधनाथ जी के विवेचन में इस आलोचनात्‍मक गद्य के हवाले महज उनकी कविताओं के विवेचन में प्रसंगवश ही आ पाए हैं, उन पर अलग से कोई स्‍वतंत्र विश्‍लेषण यहां नहीं दिखाई देता.
        
अपने अध्‍ययन के प्रारंभ में मुक्तिबोध का संक्षिप्‍त जीवन-परिचय देते हुए वे लिखते हैं कि “वे (मुक्तिबोध) वस्‍तु और शिल्‍प के एक बिलकुल नए आविष्‍कारक हैं. वे सिर्फ कवि ही नहीं, अपने समय के बड़े आलोचक भी हैं. रचना-प्रक्रिया को लेकर उन्‍होंने तीसरा क्षण नाम से एक नया सिद्धान्‍त प्रस्‍तुत किया, जो समस्‍त भारतीय काव्‍य-शास्‍त्र और पश्चिमी आलोचना सिद्धान्‍त के लिए एक चुनौती है."याकि उनके वैचारिक-संघर्ष के बारे में महज इतनी-सी बात कि  “मुक्तिबोध का लेखन-संघर्ष कई स्‍तरों पर है. दखिणपंथियों और परम्‍परावादियों से एक ओर, कठमुल्‍ला मार्क्‍सवादियों से दूसरी ओर, अपने लाभ-लोभ के लिए खेमा बदल लेने वाले वामपंथियों से तीसरी ओर और अन्‍तत: स्‍वयं अपनी कला-साधना के संशयों से चौथी ओर."  
     
अपने इस संजीदा अध्‍ययन में दूधनाथ सिंह ने मुक्तिबोध की कविताओं पर काफी  विस्‍तार से अपना विवेचन प्रस्‍तुत किया है, जिसमें उनकी प्रारंभिक कविताओं, तार सप्‍तक की कविताओं और उनकी प्रेम कविताओं का जैसा बारीक और सटीक विवेचन प्रस्‍तुत किया है, वह पहली बार उनके लेखन के कई अनछुए पक्षों को उजागर करता है. ‘तार सप्‍तक’ में मुक्तिबोध के कवि-व्‍यक्तित्‍व और उनकी कविताओं को लेकर अज्ञेय ने एक विचित्र-सी धारणा व्‍यक्‍त की थी कि ‘’वह एक खरे और तेजस्‍वी चिन्‍तक तो रहे हैं और उनमें बराबर सही ढंग से सोचने की छटपटाहट भी दीखती है, लेकिन अन्‍त तक वह समर्थ कवि नहीं बन पाए, उनकी एकाध को छोड़कर कोई भी पूरी कविता नहीं हुई."दूधनाथ सिंह ने अज्ञेय जी की इस धारणा का सटीक और तार्किक खंडन करते हुए यह स्‍पष्‍ट किया है कि “मुक्तिबोध की कविताई के बारे में यह गलत वक्‍तव्‍य है. कविता के जो मान अज्ञेय तैयार करते हैं, उनके आधार पर भी यह कथन अनुचित और अतिरेक का शिकार है. खरा चिन्‍तन और सामाजिक चिन्‍ता ही मुक्तिबोध को एक ‘समर्थ कवि’ और हिन्‍दी कविता के इतिहास में एक अलग तरह का कवि बनाती है. --- ‘तार सप्‍तक’ उनकी काव्‍य-रचना की पहली सीढ़ी है, जिसमें वे अपने एक निजी शिल्‍प, एक निजी भाषिक दायित्‍व और कथ्‍य की खोज करते हैं."‘तार सप्‍तक’ में ही छपी मुक्तिबोध की कविता ‘पूंजीवादी समाज के प्रति’ का हवाला देते हुए वे कहते हैं कि “यह एक ऐसी कविता है, जिसकी झंकृति उनके काव्‍य–विकास में अन्‍त तक बनी रही. --- मुक्तिबोध इसे अपने वक्‍तव्‍य में और स्‍पष्‍ट करते हुए कहते हैं कि “इससे मेरा झुकाव मार्क्‍सवाद की ओर तीव्र हुआ. अधिक वैज्ञानिक, अधिक मूर्त और अधिक तेजस्‍वी दृष्टिकोण मुझे प्राप्‍त हुआ.“ जो लोग मुक्तिबोध की राजनीतिक सोच और प्रतिरोधी स्‍वर वाले कवि के रूप में उनकी प्रेम कविताओ को अनदेखा करते हैं, दूधनाथ सिंह ने अपने विवेचन में उन लोगों की इस धारणा का भी सप्रमाण खंडन किया है. उनकी लंबी कविता ‘मालव निर्झर की झर-झर कंचन रेखा’ और अन्‍य प्रेम कविताओं का  विवेचन करते हुए वे लिखते हैं कि “मुक्तिबोध केवल वैचारिक श्रृंखला के चितेरे ही नहीं, प्रेमानुभव के भी कवि हैं. हालांकि कविताओं के विशाल ढेर में ऐसी कविताएं कम हैं और सामान्‍यतौर पर उतनी महत्‍वपूर्ण भी नहीं."
      
उनके इस विवेचन का सर्वाधिक महत्‍वपूर्ण पक्ष मुक्तिबोध की वे लंबी और महत्‍वाकांक्षी राजनीतिक कविताएं हैं, जिन पर (‘अंधेरे में’ को छोड़कर) कविता के आलोचक अब तक कुछ भी ठीक से कहने से बचते रहे हैं. ऐसी कविताओं में जमाने का चेहरा, अन्‍त:करण का आयतन, दिमागी गुहान्‍धकार का औरांग-ओटांग, काव्‍यात्‍मन् फणिधर, ब्रह्मराक्षस, एक अरूप शून्‍य के प्रति, भूल-ग़लती, लकड़ी का रावण, चांद का मुंह‍ टेढ़ा है, एक अन्‍तर्कथा, चम्‍बल की घाटी आदि प्रमुख हैं, जिन्‍हें हिन्‍दी के आलोचक मुक्तिबोध के संदर्भ में महत्‍वपूर्ण तो मानते हैं, लेकिन उनकी काव्‍य–संरचना और उनके भीतर व्‍यक्‍त कवि के आत्‍म-संघर्ष को विश्‍लेषित करने का जोखिम कम ही उठा पाए हैं. इस‍ मामले में दूधनाथसिंह की अंतर्दृष्टि, जीवन-विवेक और अध्‍यवसाय निश्‍चय ही वरेण्‍य है कि उन्‍होंने इन अधिकांश लंबी कविताओं की विषय-वस्‍तु और उनकी काव्‍य-संरचना को समकालीन जीवन-यथार्थ के वृहत्‍तर संदर्भों के साथ जोड़कर उनकी विस्‍तृत व्‍याख्‍या प्रस्‍तुत की है, जो इन कविताओं‍ के ऐतिहासिक महत्‍व और मुक्तिबोध के आत्‍मसंघर्ष के मर्म को ठीक तरह से उजागर करती हैं. ‘जमाने का चेहरा’ जैसी वृहद महत्‍वाकांक्षी कविता के ऐतिहासिक महत्‍व को रेखांकित करते हुए उन्‍होंने जो विश्‍लेषण प्रस्‍तुत किया है, वह वाकई उनकी काव्‍य-जिजीविषा का जीवंत प्रमाण है. वे लिखते हैं “हिन्‍दी में लिखी गई द्वितीय महायुद्ध पर संभवत:‘जमाने का चेहरा’ सबसे लंबी और सबसे महत्‍वपूर्ण कविता है. कई-कई अन्‍तर्कथाएं, घटनाएं, सामान्‍य लोक-मिथकों और आत्‍म के वैचारिक संश्‍लेषण से यह कविता तैयार की गई है. इसकी उठान और इसके भीतर आए वृतान्‍त एक संक्षिप्‍त महाकाव्‍य का रूप लेते जान पड़ते हैं. मुक्तिबोध की सारी राजनीतिक कविताओं से यह कविता थोड़ी अलग है, क्‍योंकि इसका आधार बाकायदा इतिहास की एक परिघटना (द्वितीय विश्‍वयुद्ध) है.“ (पृ 50)
       
इसी कविता के हवाले से वे मुक्तिबोध की काव्‍य-प्रकृति, उनके काव्‍य–शिल्‍प और काव्‍य-रंग की विशेषताओं को उजागर करते हुए कहते हैं कि मुक्तिबोध की सारी कविताएं जमाने के इसी चेहरे का विशद चित्रण हैं. इस चेहरे को वे तरह-तरह से उकेरते-आंकते हैं. तरह–तरह की फंतासियों, तरह-तरह के स्‍वप्‍न-चित्रों का निर्माण करते हैं. जमाने का यह जो विशद चेहरा है, उसे पूरी तरह सामने लाने के लिए कविता का अब तक का पारंपरित ढंग पूरा नहीं पड़ रहा है, अत:मुक्तिबोध नई-नई बोध-कथाओं, स्‍वरचित मिथकों को गढ़ते हुए कविता का ताना-बाना फैलाते हैं और जमाने के इस विशाल, राक्षसी चेहरे को अंकित करते हैं. इस तरह मुक्तिबोध का काव्‍य-रंग हिन्‍दी में (और संभवत:संपूर्ण भारतीय काव्‍य में) अनूठा है.“और इसी सदंर्भ में वे हिन्‍दी की काव्‍य-परम्‍परा और अन्‍य समकालीन कवियों से मुक्तिबोध को अलग करते हुए एक और महत्‍वपूर्ण बात जोड़ते हैं कि जहां हिन्‍दी कविता में सभी कवियों के लिए एक आधार है, वहीं मुक्तिबोध के लिए ऐसा कोई आधार या मॉडल नहीं है. वे न किसी पूर्व परम्‍परा का अनुगमन करते दीखते हैं और न उनकी कविता की अपनी कोई परम्‍परा आगे जाती दीखती.   इस संदर्भ में वे दो तरह के कवियों और उनकी काव्‍य-परम्‍परा का हवाला देते हुए कहते है, “महान् कवि दो तरह के होते हैं. एक – जिसकी एक परम्‍परा निर्मित हो और दो – जिसकी कोई‍ परम्‍परा न बन सके. अज्ञेय पहली कोटि में आते हैं और मुक्तिबोध दूसरी कोटि के उदाहरण हैं. उनका काव्‍य-कर्म हिन्‍दी कविता की परम्‍परा में आगे-पीछे किधर से भी नहीं अंटता. इसीलिए उनकी सारी प्रसिद्धि और बौद्धिक वर्ग में लोकप्रियता होने के बावजूद, अपने अन्‍तर्कथ्‍य में वर्ग-संघर्ष का सबसे पुष्‍ट उदाहरण होने के बावजूद उनकी कविता का एकान्‍तीकरण हुआ है." 
     
‘जमाने का चेहरा’ कविता पर केन्द्रित अपने इस विवेचन के साथ ही दूधनाथ सिंह ने इस पुस्‍तक के अगले पांच अध्‍यायों में मुक्तिबोध की इन्‍हीं लंबी कविताओं की विशद व्‍याख्‍या की है और इसमें सबसे महत्‍वपूर्ण है ‘अंधेरे में’कविता की पुनर्व्‍याख्‍या. यह बात दोहराने की आवश्‍यकता नहीं है कि ‘अंधेरे में’ मुक्तिबोध की सबसे महत्‍वपूर्ण और महत्‍वाकांक्षी एपिक कविता है, जिसे नामवरसिंह सहित हिन्‍दी के अनेक वरिष्‍ठ आलोचकों ने अपने ढंग से व्‍याख्‍यायित किया है. नामवर सिंह ने जहां इस कविता को ‘अस्मिता की खोज’ के रूप में व्‍याख्‍यायित किया है, वहीं दूधनाथसिंह का विवेचन उससे थोड़ा अलग है. वे इसके लिए मुक्तिबोध द्वारा इसी कविता में ही अपनाए गये प्रतीकों और शब्‍द-प्रयोगों का उपयोग करते हुए कहते हैं, कि अंधेरे में’ आजादी के बाद के भारतीय जीवन के कुहरे में एक ‘रक्‍तालोक स्‍नात पुरुष’ की खोज की कविता है. ऐसा व्‍यक्तित्‍व जो भारतीय जीवन और समाज और राजनीति के अन्‍तर्विरोधों को सही और सकारात्‍मक दिशा में मोड़ सके. वह व्‍यक्ति हम सब के भीतर है. वह बार-बार तरह-तरह से हमारे सामने प्रकट होता है और हमारी अपनी ही भीतरी कमजोरियों की वजह से ओझल हो जाता है. उसी की खोज इस कविता का लक्ष्‍य है. कवि मुक्तिबोध के लिए यह खोज उनकी ‘परम अनिवार आत्‍म–संभवा अभिव्‍यक्ति की खोज भी है.“और इस अर्थ में यह विवेचन पूर्ववर्ती विवेचनों से अधिक मूर्त और वस्‍तुपरक है. हालांकि एक जमाने में महाकाव्‍यों का अपना महत्‍व माना जाता था, और एक तरह से वही उस युग विशेष के समाज के सांस्‍कृतिक दस्‍तावेज भी माने गये, लेकिन आधुनिक युग में जब से उपन्‍यास जैसी विधा का प्रच‍लन बढ़ा है, महाकाव्‍यों की सर्जना में स्‍वयं कवियों की दिलचस्‍पी बहुत कम रह गई थी. उस अर्थ में प्रसाद की कामायनीको अंतिम महाकाव्‍य माना जाता है. नयी कविता के शिल्‍प में महाकाव्‍य की यह संज्ञा सिर्फ मुक्तिबोध की लंबी कविता ‘अंधेरे में’के लिए ही सटीक मानी जाती है. शायद इसी निकष की ओर संकेत करते हुए दूधनाथ सिंह को अपने विवेचन के अंत में यह लिखना जरूरी लगा कि “अंधरे में’ कुल आठ खंडों में लिखी गई कविता है. यह ठीक वैसे ही जैसे किसी उपन्‍यास के आठ अध्‍याय या किसी महाकाव्‍य के आठ सर्ग. अपने आप में यह कविता आधुनिक जीवन का संक्षिप्‍त तम महाकाव्‍य है."   
     
मुक्तिबोध के वैचारिक संवाद से निकले एक बहु-प्रचारित सूत्र - ‘पार्टनर, तुम्‍हारी पॉलिटिक्‍स क्‍या है’की पृष्‍ठभूमि और उसके इर्द-गिर्द की खरपतवार की सफाई करते हुए दूधनाथ सिंह ने उनके आत्‍म-संघर्ष की बहुत सटीक व्‍याख्‍या की है. वे मुक्तिबोध के इस प्रश्‍न का आशय स्‍पष्‍ट करते हुए कहते हैं, “जब भी वे ‘पार्टनर, तुम्‍हारी पॉलिटिक्‍स क्‍या है’ का प्रश्‍न उठाते हैं तो अपने पक्ष को दृढ़, सत्‍य का पक्षधर और निस्‍संदेह साबित करने के लिए. ज्ञानात्‍मक बहस में तलवार नहीं चलती, तर्क चलता है. --- लेकिन इस पूरी बहस में मुक्तिबोध हम देखते हैं कि चारों ओर से घिरे हुए हैं. दक्षिणपंथियों और स्‍वायत्‍ततावादियों से एक ओर, कठमुल्‍ला मार्क्‍सवादियों से दूसरी ओर और लाभ-लोभ की समझदार दीखनेवाले, अपना रास्‍ता छोड़कर स्‍वायत्‍ततावादी लेखकों के खेमे में शामिल हो जाने वाले प्रगतिशीलों से तीसरी ओर, और जीवन की घनघोर विपत्तियों से चौथी ओर. यही चौतरफा घेरेबंदी – वैचारिक और जैविक – उन्‍हें धीरे-धीरे त्रस्‍त-ध्‍वस्‍त करती है. इन्‍हीं के बीच अपनी वैचारिक व्‍यूह-रचना बनाता हुआ कवि भारतीय मनुष्‍य की त्रासदियों के चित्रण के लिए अनेक प्रकार की बिम्‍ब–रचनाएं करता है."
        
दूधनाथ सिंह ने मुक्तिबोध के साहित्‍य पर केन्द्रित अपने इस अध्‍ययन में कहने के लिए भले उनकी कहानियों, डायरी और आलोचनात्‍मक निबंधों का प्रसंगानुरूप हवाला दे दिया हो,  एक छोटा-सा अध्‍याय कहानियों पर अलग से लिखा भी हो, लेकिन उसमें लेखक की सभी प्रमुख कहानियों, उनकी कथा-संवेदना, रचना-शिल्‍प और उस दौर की कहानियों के बीच मुक्तिबोध की कहानियां किस मायने में अलग और महत्‍वपूर्ण रहीं, उस पर बहुत गहराई से विचार करने का प्रयत्‍न यहां नहीं दीखता. इस संदर्भ में उनके विवेचन की यही पंक्तियां जरूर ध्‍यान आकर्षित करती है, जिसमें उन्‍होंने मुक्तिबोध की दो कहानियों के हवाले से उन्‍हें एक अलग दर्जे का कथाकार साबित करने का प्रयास किया है. वे लिखते हैं – “मुक्तिबोध की दो कहानियां ऐसी हैं, जो लिखे जाने के लगभग पचास वर्ष बाद और ज्‍यादा ‘वैलिड’ और ज्‍यादा प्रामाणिक हो गई हैं. ये हैं – ‘पक्षी और दीमक’और ‘क्‍लॉड ईथरली’. --- ‘क्‍लॉड ईथरली’ तो आज की पूरी भगवाधारी राजनीति और अमरीकी साम्राज्‍यवाद की पोषक राजनीति का आईना बनकर और अधिक गहराई से अपनी अर्थवत्‍ता को प्रमाणित करती-सी लगती है.“विचारणीय बात यह है कि ‘मुक्तिबोध रचनावली’ के 400 पृष्‍ठ के तीसरे खंड में उनकी 23 कहानियां, एक लघु उपन्‍यास ‘विपात्र’ और लगभग सौ पृष्‍ठों में उनकी अधूरी कहानियां संकलित हैं, जिनमें ‘क्‍लॉड ईथरली’ और ‘पक्षी और दीमक’ के अलावा ‘काठ का सपना’, ‘सतह से उठता आदमी’, ‘ब्रह्मराक्षस का शिष्‍य’, जि़न्‍दगी की कतरन, समझौता आदि कितनी ही ऐसी कहानियां हैं, जिन पर अब तक बहुत कुछ लिखा जा चुका है. अभिव्‍यक्ति की जिस बेचैनी से मुक्तिबोध सर्वाधिक पीड़ित थे, ‘ब्रह्मराक्षस का शिष्‍य’ उसी की कहानी है, जो लेखक की कला-अवधारणा को जानने-समझने की दृष्टि से एक बेजोड़ कहानी मानी जाती है. इसी कहानी के बारे में श्रीकान्‍त वर्मा का कहना था कि “चेखव की ‘घोड़ा’ यदि साधारण आदमी के दर्द की अभिव्‍यक्ति की सबसे उम्‍दा कहानी है तो ‘ब्रह्मराक्षस का शिष्‍य’ कलाकार की अभिव्‍यक्ति की बेचैनी की सबसे अर्थगर्भित कहानी है.“ दूधनाथ सिंह स्‍वयं उनकी कहानियों और आलोचनात्‍मक अवदान के लिए इस बात को तो स्‍वीकार करते हैं कि “उनकी जिन कहानियों पर चर्चा होनी चाहिए, वे है – ‘ब्रह्मराक्षस का शिष्‍य‘, ‘समझौता’, ‘पक्षी और दीमक’, ‘क्‍लॉड ईथरली’ और ‘काठ का सपना’. मुक्तिबोध संपूर्ण सृजन-क्रम को ही ज्ञानात्‍मक संवेदन से उत्‍पन्‍न एक फैंटेसी मानते हैं. आत्‍मपरकता में निर्वैयक्तिकता और निर्वैयक्कितकता में आत्‍मपरकता – उनको समझने का मूल-मंत्र यही है." (पृ 120) लेकिन स्‍वयं उस उत्‍तरदायित्‍व से यहां किनारा करते-से नजर आते हैं.  
   

मुक्तिबोध की कविताओं और कथा-साहित्‍य के समानान्‍तर उनका डायरी लेखन, वैचारिक गद्य और साहित्यिक आलोचना उनके रचनात्‍मक साहित्‍य के मुकाबले कहीं कम महत्‍वपूर्ण नहीं है. अगर कोई अध्‍येता मुक्तिबोध साहित्‍य में नई प्रवृत्तियों पर अपना विवेचन प्रस्‍तुत करता है और उनके आलोचनात्‍मक और वैचारिक गद्य पर महज कुछ सूत्रों में मूल्‍य-निर्णय देकर अपने काम की इतिश्री समझ लेता है तो न वह मुक्तिबोध के साथ न्‍याय कर पाता है और न उनके अध्‍येताओं के साथ. ऐसे में उस विलक्षण कवि की वह अन्‍तपीड़ा रह-रहकर मन को कचोटती रहती है - “पिस गया वह, भीतरी /औ बाहरी /दो कठिन पाटों बीच /ऐसी ट्रेजेडी ही नीच.“  
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नंद भारद्वाज : 
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विष्णु खरे : यह भी क्या कोई जीवनी होगी !

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यह जानते हुए भी कि अज़हर की भूमिका में इमरान हाशमी हैं, हिन्दुस्तानी क्रिकेटर मुहम्मद अज़हरुद्दीन के जीवन पर आधारित फ़िल्म ‘अज़हर’ आप किन कारणों से देखना चाहेंगे?  क्या अज़हरुद्दीन का जीवन सच में ऐसा नाटकीय है कि उन पर हिंदी की कोई मनोरंजक फ़िल्म बनाई जा सकती है? जबकि खेलों की दुनिया में ही कई ऐसे चरित्र हैं जिनका जीवन-संघर्ष आज भी रोचक और प्रेरणादायक बना हुआ है.

विष्णु खरे का आलेख.

यह भी क्या कोई जीवनी होगी !                      
विष्णु खरे  


दूसरे समझें न समझें, हर इन्सान को हक़ है कि अपनी ज़िंदगी को सार्थक और लाज़िम माने.ऐसा न होता तो यह दुनिया सिर्फ़ फकीरी और ख़ुदकुशी के लायक़ होती.विडंबना यह है कि हम ऐसे समाज में जीते हैं जहाँ आपके जीवन पर परायों और अपनों द्वारा मुसल्सल निगरानी और राय और उसमें वाजिब या बीमार दिलबस्तगी रखी जाती है.बाज़ औकात लगता है कि हमारे बजाए दूसरे हमारी ज़िन्दगी ज़्यादा जीते और गढ़ते हैं.हम कोई भी हों,अपनी आत्मकथा अलग रचते चलते हैं,समाज,जिसमें आपका घर-परिवार-प्रियजन सभी शामिल हैं,आपकी जीवनी, जैसी भी हो, अलग दर्ज़ करता रहता है.क्या हमें याद है कि हमें दिन में कितनी बार कहना-सोचना पड़ा है कि हमें फिर ग़लत समझा गया ? तुफ़ैल यह है कि आदमी किसी भी वजह से जितना भी मशहूर या बदनाम होता जाए,ज़माना उसकी निजी और समाजी ज़िन्दगी के बारे में उतना ही जानना,पढ़ना,देखना चाहता है.उस पर ख़बरें छपती हैं,इश्तहार आते हैं,किताबें लिखी जाती हैं,नाटक खेले जाते हैं,फ़िल्में बनती हैं.वह,सही या ग़लत, चाहे-अनचाहे,जाने-अनजाने एक बाज़ारी,मुफ़ीद ‘ब्रैंड’,’कमोडिटी’,’फ्रैंचाइज़’,‘पब्लिक प्रॉपर्टी’ बन जाता है.

अपने देश में भगतसिंह,चंद्रशेखर आज़ाद,नेताजी,गाँधीजी,नेहरू,सरदार पटेल,बाबासाहेब आम्बेडकरआदि पर सीरियल/फ़िल्में बनें इसमें क्या आश्चर्य – मुझ जैसे करोड़ों उत्सुकों को तो परेश रावलद्वारा पिछले वर्ष घोषित प्रधानमंत्री-भाजपा-अध्यक्ष वाली फिल्म के मुहूर्त की विकल प्रतीक्षा है – लेकिन हाल के वर्षों में जब से पानसिंह तोमर,मेरी कोम,मिल्खासिंह आदि ज्ञात-अज्ञात खिलाड़ियों पर फ़िल्में सफल हुई और रुस्तमे-ज़माँ गामा पहलवान तथा हॉकी-सम्राट ध्यानचंद आदि पर पिक्चर बनाने के ऐलान हुए हैं,युवा निर्माता-निदेशकों में खेलों-खिलाड़ियों को पर्दे पर उतारने का एक छोटा-मोटा टूर्नामेंट छिड़ गया लगता है.लेकिन यह एक विचित्र विडंबना है कि चंद खेलों को छोड़ दें तो सवा अरब आबादीवाला सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा  अभी विश्व-मैदान में फ़िसड्डी से कुछ-ही ज्यादा है और हम बुलबुलें तो क्या, शोरबे-लायक पिद्दियाँ भी नहीं हैं.उसके खिलाड़ी अपनी ऊलजलूल ‘नैशनल ड्रैसों’ वाली  उद्घाटन-समापन परेडों,डेरों और तम्बुओं में ज्यादा नज़र आते हैं,ट्रैकों,स्टेडियमों और पूलों में कम और विक्ट्री-स्टैंडों पर सबसे कम.मुझे इसमें कोई शक़ नहीं कि इसके लिए सारे मैडल हमारी भ्रष्ट केंद्र और राज्य सरकारों और सड़ी हुई खेल संस्थाओं के गँधाते हुए पदाधिकारियों और नालायक कोचों को दिए जाने चाहिए.स्कूलों,कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में स्पोर्ट्स का अकल्पनीय पतन हुआ है.अधिकांश के पास तो टेबिल-टेनिस के भी लायक कोना नहीं है,हॉल,पूल,बैडमिंटन-टेनिस कोर्ट,मैदान और स्टेडियम की चर्चा ही बेकार है.

खिलाड़ियों पर जो फ़िल्में हिट हुई हैं वह एक निर्वात में हुई हैं, उनके पीछे महज़  सस्पैन्स,उत्तेजना,विजय-गर्व,देशभक्ति और हीरो(इन)-वर्शिप की भावनाएँ हैं.फिर उन खिलाड़ियों का और उनके खेलों का  राष्ट्रीय स्तर पर परिचित होना या हो पाना भी अनिवार्य है.चुन्नी गोस्वामी,रामनाथन कृष्णन,नंदू नाटेकर,डॉली नाज़िर,ब्रजेन दास,मिहिर सेन,आरती साहा,हवा सिंह आदि बीसियों ऐसे नाम हैं जिन पर फ़िल्में बन सकती हैं लेकिन वह भुला दिए गए हैं.खेल जब  हमारे लोकप्रिय साहित्य में ही कोई हैसियत नहीं रखते तो ‘’गंभीर’’ साहित्य में कैसे पदार्पण कर सकते हैं ? हैरत इस बात की है कि क्रिकेट,जो हमारे यहाँ एक धर्म का दर्ज़ा रखता है,सीरियल या फ़िल्म के अवतार में हमारे छोटे और बड़े पर्दे से भी नदारद है.

इसलिए जब खबर आती है कि पिछले एक भारतीय क्रिकेट कप्तान पर जीवनचित्र (बायोपिक) बनने जा रहा है तो मुझ सरीखे क्रिकेट-प्रेमी को बहुत खुशी होती है लेकिन वह तुरंत दिग्भ्रम,तरद्दुद और आशंका में बदल जाती है जब मालूम होता है कि वह मुहम्मदअज़हरुद्दीनपर है.मैंने 1950 से गली-मैदान,स्कूल और यूनिवर्सिटी स्तर पर कुछ बरसों तक क्रिकेट खेला है,तब ओबेरॉय स्पोर्ट्स नागपुर से एक बैट भी लिया था, लेकिन कभी उल्लेखनीय बल्लेबाज़ी नहीं की, हालाँकि कॉलेज की कप्तानी की है,अंतर्ज़िला टूर्नामेंटों में स्कोरिंग और अंपायरिंग भी करता था,बाद में क्रिकेट पर लिखा भी,पत्रकार की हैसियत से एक बार दिल्ली में कप्तान अज़हरुद्दीन से मिल भी चुका हूँ  - लुब्बेलुबाब यह कि क्रिकेट और अज़हर पर कुछ टिप्पणी करना मेरे लिए उतनी अनधिकार चेष्टा भी नहीं.

क्रिकेट संयोग का ही नहीं,व्यक्तित्वों का खेल भी है.इसमें एक बेहतरीन मशीन की तरह रनों और सेंचुरियों का अम्बार लगा देना ही काफ़ी नहीं,पैवीलियन से निकलने और लौटने सहित मैदान पर आपके शरीर और चेहरे की एक-एक भंगिमा, अदा और हरकत का भी महत्व होता है.आप पर क्रिकेट-संसार के करोड़ों आँख-कान लगे रहते हैं. पिच से परे भी आपके कुछ भी बोलने-लिखने को वैसे ही सुना-पढ़ा जाता है. बड़े खिलाड़ी होते ही पहली बार अपना विकेट खोने से बहुत पहले आप अपने निजी जीवन से क्लीन बोल्ड, कॉट,एल बी डब्ल्यू या रन-आउट हो जाते हैं.

हमारे यहाँ सबसे नीरस क्रिकेट-जीवन सचिन तेंडुलकर ने जिया है.उससे कुछ कम फीका सुनील गावस्करका रहा है.यह दोनों पारम्परीण बूर्ज्वा मराठी ब्राह्मण परिवार से रहे हैं और अपने क्रिकेट-जीवन को इन्होने अपने जनेऊ की तरह कान से उतार कर ज्यूँ-का-त्यूँ अष्टविनायक  के सामने रख दिया है.लेकिन बतौर खिलाड़ी यह अजहर से बहुत बड़े रहे हैं,रनों,सलाहियत और उपलब्धियों में.किसी तरह के आपराधिक स्कैंडल में दोनों का नाम अब तक नहीं आया है जबकि सटोरियों के साथ मिलीभगत से कमाई करने के बीसीसीआइ के निष्कासन-निर्णय  ने,जिसे बाद में अदालत ने खारिज़ भले ही कर दिया,अज़हर के कई क्रिकेट-वर्ष खारिज़ कर दिए और उनकी वापिसी बेमानी और नामुमकिन कर दी.उधर उनकी दो शादियों और ख़ासकर दूसरी बीवी संगीता बिजलानीसे उनके तलाक़ ने भी उनकी मुश्किलें आसान नहीं कीं. 

ज्वाला गुत्ताजैसी दबंग खिलाड़ी महिला वाला प्रसंग भी कुछ मदद न कर सका.सियासत में दाख़िल होने के पहले अज़हर इतने कुख्यात हो चुके थे कि 2009 में लोकसभा के लिए जीत जाने के बावजूद लोग सोचते रहे कि ऐसे आदमी को काँग्रेस ने टिकट दिया कैसे ? और 2014 तक आते-आते आलम यह हो गया कि आज कोई ज़िक्र तक करने को तैयार नहीं कि पिछले बरस काँग्रेसी प्रत्याशी मुहम्मद अज़हरुद्दीन को  टोंक-सवाईमाधोपुर लोकसभा सीट से भाजपा के सुखबीरसिंह जौनपुरिया ने एक लाख 34 हज़ार वोटों से पैवी- लियन दिखा दिया था.आज अजहर की जीवनी में ऐसा कुछ भी नहीं रह गया है कि उस पर बनी कोई फिल्म मनोरंजन ही कर सके – मानव-नियति या ट्रैजडी का तो वह मार्मिक या सार्थक आख्यान है ही नहीं.उनके युवा बेटे की दुखद मृत्यु अवश्य हुई,लेकिन वह  एक ‘स्वतंत्र’ त्रासदी है,किसी बड़े नैरेटिव का हिस्सा नहीं.सवाल यह है कि अजहर की जीवनी को बनाया क्या जाएगा,क्रिकेट और शादियों से वह  चल नहीं सकती,ग्रीक ट्रैजिक हीरो की बतौर अजहर उर्फ़ इरफ़ान हाशमी को,जो कहीं से भी अज़हर नहीं लगते, कोई छूना नहीं चाहेगा.शक होता है कि कहीं यह फिल्म किसी फ़िक्सिंग का परिणाम तो नहीं ?

यदि क्रिकेट के हालिया  व्यक्तित्वों पर कोई फिल्म बनानी ही है तो मैं सचिन तेंदुलकर – विनोद  काम्बली की तनाव-भरी दोस्ती पर बनाने की सलाह दूँगा,जिसके कई आयाम निकल सकते हैं.लेकिन भारत में एक-से-एक बहुरंगी क्रिकेटर हुए हैं – रणजीतसिंहजी,दलीपसिंहजी,बी.बी. निम्बालकर,महाराजकुमार विजयनगरम्,मुश्ताक़ अली,विजय सैमुएल हजारे,पॉली उम्रीगर,दत्तू फडकर,विनू मांकड़,सी के नायुडु,विजय मर्चेंट,सुभाष ‘’फर्जी’’ गुप्ते और,सबसे ऊपर, मोहिंदर-सुरिंदर के बाऊजी लाला अमरनाथ दि ग्रेट.लेकिन ‘’एक खुदा दो शादी और मैच-फ़िक्सिंग’’ के जाहिलों को यह कौन बताए.

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(विष्णु खरे का कॉलम. नवभारत टाइम्स मुंबई में आज प्रकाशित, संपादक और लेखक के प्रति आभार के साथ.अविकल 
vishnukhare@gmail.com / 9833256060

सहजि सहजि गुन रमैं : विपिन चौधरी

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विपिन चौधरी की कुछ कविताएँ                                




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अभिसारिका

ढेरों सात्विक अंलकारों को थामें 
हवा रोशनी ध्वनि की गति से भी तेज़ 
भागते मन को थाम  
होगी  धीरोचित नायक से मिल
तन-मन की सारी गतियां   स्थगित 

निर्विकार चित में प्रेम 
शीशे में पडे  बाल समान 
देहरी छूटी 
आँगन में सोये माँ पिता छूटे 

सूरजमुखी से खिले फूल सी 
जाती मिलन स्थल की ओर   
ऊपर पूरा चाँद
नीचें सांप, बिच्छुओं, तूफ़ान, डाकू, लुटेरों, अंधेरों को त्वरित लांघती हुयी 
एक दुनिया से दूसरी दुनिया में रंग भरने  

नायक यथास्थान न मिला
अब  
लौटती उन्हीं पांवों से
क्या तुम्हारी निर्भीकता को दायें हाथ से थामा था किसी ने  ?

क्या तुम भी अकेले ही  वरण करती अपने हौंसले के स्याह परिणाम 
आज सी बोल्ड बालाओं की तरह 
कहती हुयी अनायास "इट्स माई लाइफ ".





समझौता 

उसके अपराध में वह न  दरवाज़े की ओर देखती है 
न भौहें टेडी करती हैं 
न मंगलसूत्र  उतार कर फेंकती हैं 
बस अश्रुयुक्त नयनों से दो मासूमों की तरफ  देखती है.






मेज़ पर नमकदान 

इतना सहज 
रिश्ता 
मेज़ पर नमकदान सा  

नमक ही 
हमारे बीच ठहरा रहा 
नमक ही जीवन  को गलाने  से बचाता  रहा 
लकड़ी के बीच सावधान खड़ा
नमक 
आंसुओं को धार देता
नमक .




बुद्ध के बाद की दुनिया 

पश्चिमी तट से गंगा के मैदानी इलाकों को जोड़ते साँची स्तूप में
तुम्हारा समूचा आभास

तुम्हारी देह  ने नहीं धरा ध्यान इधर 
अवशेषों के साथ ही आ ठहरे इस ठौर 

आज भी  निराकार  सो रहे  शाश्वत
बाहर की पीड़ा चिंता भय को बिसरा 

स्तूप भीतर कितनी तरंगें
एक दूसरे को काटती सी
बाहर इसके सारी  तरंगें बिना एक दूसरे को छू,
लोप होती 

एक लामा सारे बंधनों को काटने
गया  स्तूप के भीतर

बाहर निकलते ही गुम हुआ
मोबाइल में

बुद्ध ने इस जीवन को सही ही  दुःख माना था. 




अभ्यास

पहले उसे अच्छे से गोदी में लेने
का अभ्यास करती

उसे रगड़ कर सफ़ा करती 
आँखों में अंजन लगाती
फिर
नज़र ना लगे इस डर से एक टीका माथे पर या कान के पीछे लगा देती
पाउडर लगा कर अच्छे से साफ़ सुथरे कपडे पहना देती
फिर उसे लगातार अपनी भीतर उतरते हुए देखती

इस तरह

मृत्य को अपने गर्भ में जगह देती तुम.  

मति का धीर : अवधनारायण मुदगल

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अवधनारायण मुदगल केवल सारिका के संपादक ही नहीं, एक उम्दा लेखक और बेहतरीन इंसान भी थे. खट्टे-मीठे अनुभवों को समेटे राजकुमार गौतम का स्मृति-लेख.


की गल है? .... मुदगल है!                                             

राजकुमार गौतम 





ल (17जून, 2015) श्रीमती चित्रा मुदगलको फोन किया. अवधनारायण मुदगल को `दादा` और चित्राजी को भाभी सम्बोधित करते आए हैं हम. पिछले दिनों दादा का निधन हो गया. तब मैं सिंगापुर में था. फेसबुक पर खबरें आयीं. कुछ लोगों ने तुरत-फुरत में स्वयं की आत्मीयता को उनके साथ मिलाकर स्मरण किया. मुझे अफ़सोस रहा कि दादा के अंतिम दर्शन न हुए, और अन्यान्य उपस्थितियों में भी मौजूद नहीं रहा. इस अफ़सोस का ज़िक्र चित्राजी से किया. देखिये, मौक़ा लगा तो एक बार उनके घर जाऊंगा भी.

अवधनारायण मुदगलधीरे-धीरे समझ में आनेवाले व्यक्तित्व थे. संभवतः अक्टूबर, 1977में मैं अपने एक मित्र के साथ मुंबई (तब की बंबई) गया था. आकर्षण का केंद्र मात्र `सारिका` का कार्यालय था जहां कुछ ही समय पहले रमेश बतराऔर सुरेश उनियालसम्पादकीय विभाग में नियुक्त होकर गए थे. अवधजी का नाम सम्पादकीय टीम में छपता था और यदा-कदा उनके द्वारा लिखी गयी सामग्री भी. सुदर्शन थे अवधजी. औसत से लम्बा कद, गौरवर्ण और उन दिनों, फ्रेंचकट दाढ़ी भी. `सारिका` में जाकर देखा तो रमेश और सुरेश को उनसे एकदम दोस्ती की मुद्रा में पाया. नहीं, पहले दिन यह सब मैं इसलिए नहीं देख पाया था कि अवधजी उस दिन दफ्तर नहीं आये थे. ऑफिस के बाद हम लोग उनके फ्लैट पर पहुंचे तो वहां ताला लगा पाया. टेलीफोन संपर्कों का तो वह समय था ही नहीं. रमेश बतरा ने एक पर्ची पर लिखा--`की गल है?`औरउस पर्ची को ताले में अटका दिया. अगली दोपहर जब हम `सारिका` कार्यालय पहुंचे थे तो वही पर्ची सुरेश-रमेश की मेज़ पर आ-जा रही थी, जिसमे `की गल है?` के नीचे तुक जोड़ते हुए अवधजी ने लिखा था-- `मुदगल है!` सुरेश तब भी दाढ़ी रखते थे. सोचिये कि क्या दृश्य रहा होगा कि एक तरफ फोन पर सुरेश ठहाका लगाते और दो मेज़ पार, फोन पर ही अवध का प्रत्युत्तर भी ठहाका ही होता. क्या मस्ती और उन्माद था, मामू!

दिल्ली लायी जाकर `सारिका` कन्हैयालाल नंदनजीके हवाले हो गयी. 10, दरियागंज , नई दिल्ली में वह एक उपेक्षित-सा कोना था, जहां पहले-पहल यह स्टाफ बैठा करता था. आनंद प्रताप सिंहदुसरे नंबर पर थे. बाद में अवधजी नंबर दो बने. कुछ दिनों बाद जब बलरामने `सारिका` में ज्वाइन किया तो मेरा ऑफिस में जाना-आना पर्याप्त हो गया. जगदीश चंद्रिकेश के एक कमरे के फ्लैट में मुदगल जी अन्य मित्रों के साथ रहते थे. चित्राजी का प्रथम कहानी -संग्रह `ज़हर ठहरा हुआ` पर चंद्रिकेशजी की संस्था `समग्र` द्वारा कनॉट प्लेस के राजस्थान सूचना केंद्र में विचार-गोष्ठी हुई, जिसमें पुस्तक पर आधारित एक आलेख मैंने भी पढ़ा था.

बाद के दिनों में आमने-सामने का निकट संपर्क `दादा` से तब बना जब वह स्वतंत्र रूप से सारिका के संपादक नियुक्त हुए. पुस्तक-समीक्षा आदि का जो भी प्रस्ताव मैं उनके पास लेकर जाता, वह तुरंत मंजूर कर लेते. कन्हैयालाल नंदन, हिमांशु जोशी और लक्ष्मीध मालवीयके साथ किये गए साक्षात्कारों का प्रकाशन, श्रीकान्त वर्माके उपन्यास (शायद `साथ`) के सार- संक्षेप का प्रकाशन, अमृतलाल नागरसाहित्य की सात संकलित एवं एक साथ प्रकाशित पुस्तकों पर एकाग्र समीक्षात्मक लेख आदि उनके कार्यकाल में किये गए मेरे उल्लेखनीय कार्य हैं. इसके अलावा बहुत-सा छिटपुट काम भी हम `सारिका` के लिए करते थे.

एक काम था- -बॉक्स मैटर तैयार करना. लेखकों के संस्मरणों और आत्मकथाओं-जीवनियों आदि से ऐसे अंश उठाना जो प्रायः व्यक्तित्व के वैपरीत्य को दर्शाते अथवा मार्मिक और रोचक होते और स्वतंत्र अर्थाशय के भी. तो वैसी सामग्री मैं जुटाता. यह सिलसिला नंदनजी के जमाने से  जारी था और दादा ने भी इसे न नहीं कहा था. एक दिन मैं उनके चैंबर मेँ वैसा ही मैटर दिखाने गया तो वह हाथ-के-हाथ पढ़ने ही बैठ गए. एक किसी बॉक्स-मैटर को पढ़कर उनकी हंसी छूटी तो थमे ही नहीं. किलकारी को दबाने के भरसक प्रयास में उस हंसी ने उनकी आँखों में आंसू ला दिए. वह बॉक्स-मैटर प्रेमचंद सम्बन्धी संस्मरण का था. कोई सज्जन प्रेमचंद से उलझ रहे थे कि एक जाहिल सड़क किनारे पेशाब करने लगे तो उससे कैसे निपटा जाए. प्रेमचंद ने कहा कि उसे समझाकर वहां से हटा देना चाहिए. यदि वह फिर भी नहीं माने तो? पूछा गया. तो फिर से उसे हटाना चाहिए; प्रेमचंद का जवाब था. सवाल फिर से आया कि यदि फिर भी वह करता ही जाए तो...? इस पर प्रेमचंद ने कहा कि अमां यार, उसने कोई मशक थोड़े ही बाँध रखी है कि करता ही जायेगा!...दादा उन दिनों सफारी सूट पहनते थे प्रायः जी भरकर हँसते थे. यूं मैंने उन्हें नाराज और क्रोधित होते भी देखा है और `दिस इज़ नॉट फिश मार्किट!` कहते हुए स्टाफ को खामोश करते हुए भी.

माननीय लक्ष्मीधर मालवीयका साक्षात्कार और उनकी नई कहानी `सारिका` में छपी थी. मालवीयजी दिल्ली में ही थे उन दिनों. मुझे लगा कि यदि उन रचनाओं का पारिश्रमिक उन्हें मिल जाए तो अच्छा रहे. सामान्यतः पेमेंट आने में दो-तीन माह का समय लगता था. मेरा कहना था कि मुदगलजी इस काम में जुट गए. लेखा विभाग को पत्र भेजा गया और फोन से भी पीछा किया गया. यह भुगतान टाइम्स ऑफ़ इण्डियाकी नई बिल्डिंग -- बहादुरशाह ज़फ़र मार्ग से होना था. उन्होंने चैन न लिया जब तक कि हम दोनों को नकद भुगतान करवा न दिया. दादा के सम्पादनकाल के दौरान ही `सारिका` ने भारतीय ज्ञानपीठ के साथ मिलकर, अंतरराष्ट्रीय युवा वर्ष के अवसर पर वरिष्ठ और युवा कथाकारों का एक संवाद कराया था. अमृतलाल नागर, इस्मत चुगताईऔर भी कई वरिष्ठ तथा प्रियंवद, संजीव आदि के साथ मुझे भी चुना गया था इस संवाद में भागीदारी के लिए. काफी सार्थक और सफल आयोजन रहा था. आयोजन पश्चात दादा हम सभी के साथ अशोक यात्री निवास (आज का रमादा होटल) के रूम में थे. एक भागीदार ने पूछा था कि होटल में कब तक रुका जा सकता है. दादा का जवाब था, कल दोपहर तक. `उसके बाद?` भागीदार शायद ज्यादा समय रुकना चाहते थे. `मेरा घर.`दादा का कहना था. यह उनका बड़प्पन नहीं, स्वभाव था.

ह्रदय की बाई-पास सर्जरी. गोविन्द मिश्रदिल्ली आए हुए थे. मैं उनके साथ था. पता लगा कि दादा आज ही हॉस्पिटल से लौटनेवाले हैं. समय था इसलिए हम मयूर विहार के लिए निकले. संयोग यह कि उनकी और हमारी कारें एक साथ पहुंची. घर में हम सब इकठ्ठा ही घुसे. बिटिया ने अगरबत्ती सुलगी अर्चना की थाली से स्वागत किया अवधजी का. बिस्तर पर लेटते-न-लेटते उन्होंने सुरेश उनियाल से `सारिका` के नये अंक के प्रकाशन की जानकारी प्राप्त करना शुरू कर दी. गोविंदजी से पूछा, `कोई अच्छी कहानी लिखी ?` `अभी तक?` गोविंदजी ने चुहल की. बोझिल और बीमार वातावरण क्षण भर में सूखे पत्ते की तरह हल्का हो गया.

 `सारिका`उनके कार्यकाल में जीवन-मरण के प्रश्नों और नियति से गुजरी. प्रसार-संख्या बढ़ाने के दबाव में उन्होंने विवादास्पद कुछेक अंक भी निकले, मगर `सारिका` की जान जाने से बच न सकी! उसके बाद कंपनी के साथ कानूनी आदि की प्रक्रिया में दादा उलझे रहे मगर सकारात्मक चीजें हाथ न आईं. `छाया मयूर`के प्रकाशन का सिलसिला हुआ मगर एक अंक के बाद वह योजना भी सिधार गई. फिर बीमारी ने ऐसा थामा दादा को कि साथ ही लेकर गयी. हालांकि 79वर्ष (1936--2015) की आयु को अल्प तो नहीँ तो कहा जा सकता मगर फिर भी उनकी स्मृति सुरक्षित थी और पठन-पाठन की जिज्ञासा भी. शिमला, अलवर, हापुड़आदि के कई कथा- आयोजनों में उनके साथ भरपूर समय गुजारा है. मुझे वह हमेशा अभिभावक और वरिष्ठ मित्र की एकमेक छवि में दिखते रहे. उनकी समग्र रचनाएं महेश दर्पण ने एकत्र कीं और किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली ने प्रकाशित की हैं.

इस संकलन (दो खण्ड) पर रशियन सेंटर, दिल्ली में गोष्ठी होनी थी और चित्रा भाभीने फोन पर मुझे कहा कि अवध चाहते हैं कि गोष्ठी का संचालन मैं करूं. संगोष्ठी कार्यदिवस में थी और मुझे ठीक-ठीक पता नहीं था कि मैं दफ़्तर से छूट पाऊंगा या नहीं! किताबों को एक बार देख लेने का समय भी शेष नहीँ था. मैंने भाभी को विवशता बताई. हालाँकि यह अलग बात है कि मैं उस आयोजन में जा सका. आज भी मुझे अफ़सोस है, दादा ने मेरी इतनी बातें मानी और मैं उस बार उनकी बात का मान नहीं रख पाया! चित्राजी को उनके उपन्यास `आंवा`पर व्यास सम्मानमिला तो उत्सव स्थल पर मुदगल जी परिवार के साथ चाय-नाश्ता ले रहे थे. मैंने पूछा, `दादा, आपको कोई पुरस्कार नहीं, और भाभी को यह सम्मान. कैसा लग रहा है?` `मुझे बहुत अच्छा लग रहा है.` दादा के उत्तर में गहनता, गंभीरता थी.

कल ऐसी ही बातें चित्रा भाभी के साथ होतीं रही फोन पर. शारीरिक सीमाओं के चलते, वर्षों से उनकी सेवा में रत भाभी किस कदर `खाली` हो गयी होंगी, इसका अंदाज़ा कोई भी लगा सकता है. जीवन के लगभग पांच दशक जिंदगी जीने और लेखक, साहित्यकार होने की जद्दोजहद में कैसे बीतते हैं, कोई इस युगल से पूछे. सीमाओं, दुर्बलताओं या अक्षमताओं से तो मानव जीवन में भला कौन बच सका है मगर मूर्धन्य और महान होने की वंचनाओं को झेलना भी क्या कोई आसान काम है? ताउम्र जिंदगी लोरी गाकर सुलाती रहे, ऐसा सौभाग्य तो भला किसे मिलता है, मगर एक सच्चा और खरा व्यक्तित्व जब वरेण्य होते-होते रह जाता है तो दुःख होना स्वाभाविक है.

दादा के पास वाग्जाल की वह सामर्थ्य न थी, जो आज चाहिए होती है. इसीलिए उनसे संबंधित व्यापक वृत्तांत शीघ्र ही अनुपलब्ध हो जानेवाले हैं. कुछ नामों या कार्यों की धूम , गौण हो जाया करती है-- वैसा ही इस मामले में हुआ है, होगा. पिछले दिनों अवधजी की मृत्योपरांत जो भी स्मिृतिलेख पढ़े, अधिकांश शोशा ही लगे. मृतक के बहाने अपने व्यक्तित्व की देखरेख और साहित्य में आश्रय तथा आश्रम पानेवालों की दौड़ रहा करती है. अभी भी वैसा ही हुआ है. अपने पचासों वर्ष के सहवास पर चित्राजी यदि यथार्थ रूप में लिख पावें तो बेहतर हो. यह उनके अपने लेखन का भी चरमफल हो सकता है. आखिरकार, साहित्यकार भी एक लोकसेवक ही होता है. समाज के लिए सतत सविनय अवज्ञा करनेवाला एक प्राणी. रचना के हुनर के साथ जीवन के हेलमेल के क्या समीकरण हैं, या हो सकते हैं-- इस पर अवधनारायण मुदगल के जीवन के बहाने बातें की जा सकती हैं. संपादक एक सम्बोधन मात्र है या कि पूरे साहित्य जगत का होनहार नक्शा, आइए अगले दिनों में मुदगलजी के बहाने इस बिंदु पर चर्चा करें.

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राजकुमार गौतम
बी- 55, पॉकेट- 4,
केंद्रीय विहार- 2, सैक्टर- 82, नोयडा- 201304
मोबा: 09313636195

raakugau@yahoo.com                  

हस्तक्षेप : विवेक के हक़ में

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विवेक के हक़ में (IN DEFENCE OF RATIONALITY)        
प्रो. एम एम कल्बुर्गी को याद करते हुए
(5,सितम्बर 2015, जंतर-मंतर.3 से ७ बजे शाम तक)
ताकि लोकतन्त्र बचा रहे...

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र्म और तर्क का रिश्ता हमेशा दुश्मनाना रहा है. जब चार्वाकों ने पुरोहितों के कर्मकांडों पर सवाल उठाए तो उन्हें इतिहास से ही मिटा दिया गया, ब्रूनोने जब खगोल शास्त्रीय अध्ययन के आधार पर बाइबिल में लिखी बातों को ग़लत साबित किया तो उसे ज़िंदा जला दिया गया, अनलहक़ का नारा देने वाले मंसूर अल हजाजको फाँसी दे दी गई और इतिहास ऐसी तमाम घटनाओं से भरा पड़ा है जहाँ आस्था की तलवार ने तर्क की गर्दन उड़ाने की हर संभव कोशिश की है.

आधुनिकता के आगमन के साथ दुनिया भर में जो तर्क और विवेक के पक्ष में लड़ाइयाँ लड़ी गईं, उनके चलते ही राजे महाराजों के शासन का अंत हुआ और लोकतन्त्र की स्थापना हुई. लोकतन्त्र केवल एक शासन पद्धति नहीं है बल्कि सीधे सीधे मनुष्य की स्वतंत्र सोच और अभिव्यक्ति की आज़ादी सुनिश्चित कराने वाली जीवन पद्धति भी है. हमारे देश में भी औपनिवेशिक शासन से मुक्ति पाने के बाद लोकतन्त्र अपनाया गया और धार्मिक कट्टरपन तथा पोंगापंथ के खिलाफ लेखकों, संस्कृतिकर्मियों और कलाकारों ने लगातार तीखा संघर्ष किया. लेकिन पिछले एक दशक से ऐसा लग रहा है जैसे बर्बर युग की वापसी हो रही हो. नब्बे के दशक से ही धार्मिक कट्टरपंथ का जिस तरह से उदय हुआ है उसमें असहिष्णुता तेज़ी से बढ़ती गई है. तर्क का जवाब तर्क से देने और असहमतियों को स्थान देने की जगह भावनाएं सभी तर्कों से बड़ी होती जा रही हैं और उनको आहत करने के जुर्म में वे किसी को भी सज़ा ए मौत दे सकते हैं. हालात ऐसे बने हैं कि बांग्लादेश में मुक्त मनके नाम से सामूहिक ब्लागचलाने वाले नौजवानों को खुलेआम मार दिये जाने और कठमुल्लों के दबाव में तसलीमा नसरीन के निर्वासन की निंदा करने वाले एम एफ हुसैनको देश छोडने पर मजबूर कर देते हैं, अनंतमूर्तितथा मीना कंडासामीपर हमले करते हैं, मुरूगन को खुद को मृत घोषित करने पर विवश करते हैं, किताबें जलाते हैं और अपने देश में अंधविश्वास का आजीवन विरोध करने वाले नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे और धार्मिक मान्यताओं को चुनौती देने वाले प्रोफेसर एम एम कल्बुर्गी की दिन दहाड़े हत्या कर देते हैं. 

इन पर हमला असल में हमारी लोकतान्त्रिक परम्पराओं पर हमला है. केंद्र में एक साम्प्रदायिक दक्षिणपंथी सरकार के आने के बाद से इन ताक़तों का मनोबल बहुत बढ़ा हुआ है. जिस देश में मध्य काल में कबीर जैसे लेखक पर कभी हमला नहीं हुआ, वहाँ आज स्थिति ऐसी हो गई है कि कल्बुर्गी की हत्या के बाद बजरंग दल का एक पदाधिकारी ट्वीट करके लिखता है कि अगली बारी प्रोफेसर भगवान की है. अनंतमूर्ति की मृत्यु के बाद ऐसे ही संगठनों ने मिठाइयाँ बाँट कर उत्सव मनाया था. ऐसी घटनाएँ समाज के निरंतर क्रूर, अमानवीय और असहिष्णु होते जाने की परिचायक हैं, दुखद यह कि ऐसा करने वाले उस हिन्दू धर्म की ठेकेदारी का दावा करते हैं जो स्वयं को सबसे सहिष्णु धर्म बताता रहा है.

28नवंबर 1938को तत्कालीन बाम्बे प्रेसीडेंसी के यरगाल गाँव मे जन्मे प्रोफेसर कलबुर्गी ने धारवाड़ से कन्नड़ भाषा में स्नातकोत्तर किया और 1962से ही कर्नाटक विश्वविद्यालय से सम्बद्ध रहे. हम्पी के कन्नड़ विश्वविद्यालय के कुलपति रहे प्रोफेसर कल्बुर्गी जाने माने साहित्यकार और शोधकर्ता थे. अपने लंबे अकादमिक जीवन में उन्होने 103किताबें लिखीं और 400से अधिक शोध आलेख लिखे. पुराने अभिलेखों के विशेषज्ञ कल्बुर्गी को साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था. उन्होने अपनी किताबों में लगातार मूर्तिपूजा का विरोध किया. इसी वजह से वे हिन्दू कट्टरपंथी संगठनों के निशाने पर आ गए थे. 1989में उनकी लिखी एक पुस्तक में लिंगायत मत के संस्थापक संत बसवेश्वर (जिन्होंने स्वयं अंधश्रद्धा, जाति-प्रथा, साम्प्रदायिक और लैंगिक भेद-भाव के विरुद्ध 12वीं सदी में ही युद्ध छेड़ा था) के जीवन-प्रसंग से सम्बंधित दो अध्यायों को उन्हें कट्टरपंथियों के दबाव में वापस लेना पड़ा था. इस घटना पर व्यथित होकर उन्होंने कहा था कि मैंने अपने परिवार की सुरक्षा के लिए यह किया, लेकिन इसी दिन मेरी बौद्धिक मृत्यु हो गयी.सन 2014में कर्नाटक में अंधश्रद्धा विरोधी विधेयकपर बहस में भाग लेते हुए श्री कलबुर्गी द्वारा मूर्ति-पूजा के विरोध में कही गयी बातों के खिलाफ उन्हें विश्व हिन्दू परिषद और बजरंग दल ने धमकियां दी थीं. अनंतमूर्ति पर जब हमले हो रहे थे तब भी कल्बुर्गी उन लेखकों में शामिल थे जिन्होंने मुखर होकर उनका पक्ष लिया. कुछ समय तक उन्हें पुलिस सुरक्षा भी सरकार ने उपलब्ध कराई थी. लेकिन लगातार धमकियों के बावजूद यह सुरक्षा हटा ली गई और इसके तुरत बाद पिछले रविवार को सुबह सुबह उनके घर के दरवाजे पर दो युवकों ने उनके सर में गोली मारकर उनकी हत्या कर दी. ज़ाहिर है, देश में एक तरफ दुनिया भर से पूंजी आ रही है, नई नई तकनीक आ रही है, हर चीज़ डिजिटल हुई जा रही है, वहीं दूसरी तरफ असहिष्णुता बढ़ती चली जा रही है और तर्क तथा विज्ञान के प्रति अवज्ञा इस स्तर की है कि वैचारिक असहमति का जवाब लिखकर देने की जगह गोली से दिया जा रहा है. 1962के फ्रांस के प्रसिद्ध छात्र आंदोलन को याद कीजिये जब वहाँ के तत्कालीन राष्ट्रपति के सामने आंदोलनों में बेहद सक्रिय सार्त्र की गिरफ्तारी का प्रस्ताव रखा गया तो उन्होंने कहा, “नहीं, सार्त्र फ्रांस की चेतना है, उसे गिरफ्तार नहीं किया जा सकता.’’इसके उलट आज हमारे देश में जब सबसे उन्नत मेधाओं की चुन चुन के हत्या हो रही है तो उस काले भविष्य की कल्पना मुश्किल नहीं जो अगले दरवाजे पर प्रतीक्षारत है.

हम हिन्दी के लेखक, कलाकार, संस्कृतिकर्मी और आम पाठक डा एम. एम. कलबुर्गी की नृशंस हत्या पर गहरा शोक प्रकट करते हैं और सरकार से हत्यारों तथा साजिशकर्ताओं की शीघ्र गिरफ्तारी और सज़ा की मांग करने के साथ साथ यह भी उम्मीद करते हैं कि देश में सांप्रदायिक सद्भाव और अभिव्यक्ति की आज़ादी की रक्षा के लिए हर संभव उपाय किए जाएँ. इन्हीं मांगों के समर्थन और डा कलबुर्गी को श्रद्धांजलि देने के लिए आगामी 5 दितम्बर को जंतर मंतर पर एक सभा का आयोजन भी किया जा रहा है. आप सबसे अपील है कि लोकतन्त्र की रक्षा की इस लड़ाई में सहभागी बनें.
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(दिल्ली में होने वाले प्रतिरोध आयोजन हेतु 21संगठनों के साझा मोर्चे द्वारा ज़ारी पर्चा.)  

परिप्रेक्ष्य : पुरुषोत्तम @ 60

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साठ  के पुरुषोत्तम अग्रवाल- एक पड़ाव...   पिक्चर अभी बाकी है...  
तृप्ति वामा 








मय और समाज की वर्तमान स्थिति और हृदय हीनता के कारण आज का आदमी प्रसन्नता के अवबोध से वंचित है, कि किसी भी सम्वेदनशील मनुष्य के लिए वर्तमान परिस्थितियों में खुश हो पाना लगभग असम्भव-सा हो गया है, कि आज से 60 बरस पहले की पीढ़ी ने सुन्दर भविष्य के जो सपने देखे थे वे कैसे चकनाचूर हो रहे हैं, कि उस नाराज आदमीकी आंखों के सामने अन्धेरा कितना घना होता जा रहा ! ये शब्द और सम्वेदनाएं प्रोफेसर पुरुषोत्तम अग्रवालके हैं जो उन्होंने अपनी साठवीं वर्षगांठ के उपलक्ष्य में आयोजित समारोह को सम्बोधित करते हुए अभिव्यक्त किए. छात्रों और मित्रों द्वारा बीती 25 अगस्त को इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में आयोजित पुरुषोत्तम@60अपनी तरह का अनूठा और सफल कार्यक्रम रहा.

कार्यक्रम की शुरुआत केक और चाय के साथ-साथ प्रसिद्ध गायक मदनगोपाल सिंहऔर साथियों के गायन से हुई. नामवर जीकी अस्वस्थता और अनुपस्थिति खली पर साथ ही अशोक वाजपेयी, मृदुला गर्ग, ओम थानवी, दिलीप सीमियन, लीलाधर मंडलोई, अली जावेद, रामचन्द्र और फ्रेंचेस्का ओरसिनी जैसे वक्ताओं की उपस्थिति ने अवसर को पूर्णता प्रदान की. इस अवसर पर ओम थानवी और आनन्द पांडेद्वारा सम्पादित पुरुषोत्तम अग्रवाल के लेखन के प्रतिनिधि संकलन किया अनकिया’,पुरुषोत्तम अग्रवाल के निबंधों का संकलन स्कोलेरिस की छांव मेंऔर उनके फिल्म संबंधी लेखन बदलती सूरत वक्त की बदलती मूरत वक्त कीका लोकार्पण भी हुआ.

अशोक गहलौतकेदारनाथ सिंह, कृष्ण कुमारआशुतोष, देवी प्रसाद त्रिपाठी, शिवानंद तिवारीप्रो.भगवान सिंह, राजेन्द्र सिंहनरेश सक्सेनाशीन काफ़ निज़ामप्रो. रामप्रसाद सेनगुप्ता, गुरुदीप सप्पल, रमाशंकर सिंह, संदीप दीक्षित, विष्णु नागर, गिरीश निकम, नीलांजन मुखोपाध्याय,निर्मला जैन,  सुधीरचंद, मृणाल पांडे,  डी.पी. अग्रवाल, अल्का सिरोही, अनामिका, अपूर्वानंद, मनीष पुष्कले, राजीव शुक्ल, लक्ष्मीकांत वाजपेयी, गीतांजलि श्री, अजीतअंजुमदिबांग,  नग़माप्रियदर्शनविनोद भारद्वाजआरफ़ा ख़ानमइकबाल अहमद, इरफ़ान, अमर कंवरविलियम टाइलररविन्द्र त्रिपाठीप्रो गोपेश्वर सिंहगीता श्री, मदन कश्यप,अजय पटनायकजमाल किदवई, समीर नंदी, गीता गैरोला, रविकांतशैलेन्द्र तिवारीराकेश अचल,आलोक श्रीवास्तव, समीर नन्दी, कमल जोशी आदि कई लोग कार्यक्रम में अंत तक उपस्थित रहे और महौल उत्साहपूर्ण और रोमांचक बना रहा.      


साठे पर पाठे होने और सठियाने जैसे जुमलों से इतर किसी बुद्धिजीवी के साठ वर्ष का होने के क्या मायने हो सकते हैं, मौका उन्ही मायनों की तलाश का था. कार्यक्रम में अनेक लोग बोले और उन्होंने प्रोफेसर अग्रवाल के व्यक्तित्व के कई पहलुओं पर प्रकाश डाला. कार्यक्रम की शुरुआत डॉ. रामचन्द्रके वक्तव्य से हुआ. अपने अनुभव साझा करते हुए उन्होंने बताया कि  अग्रवाल जी के लिए अध्यापक-छात्र सम्बन्ध औपचारिकता के घेरे से आगे निकल तक आत्मीय और अनौपचारिक होते थे कि उनका जुड़ाव न केवल अपने छात्र के अकादमिक जीवन तक होता था बल्कि वे उनके व्यक्तिगत जीवन की भी उतनी ही सुध लेते थे.अली जावेदने जे.एन.यू. में पुरुषोत्तम अग्रवाल के आरम्भिक दिनों की चर्चा की और अपनी दोस्ती को सुदामा-कृष्णकी मित्रता के विशेषण से नवाजा. दिल्ली के सिख दंगों के विरोध में साम्प्रदायिकता के खिलाफ शुरु हुए आन्दोलन और रामजस कॉलेज में भीष्म साहनी के भाषण सम्बन्धी घटनाओं को याद करते हुए दिलीप सीमियनने प्रोफेसर अग्रवालकी निर्भीकता और प्रतिबद्धता की चर्चा की. कवि लीलाधर मंडलोईने पुरुषोत्तम अग्रवाल की कविता अश्वमेधका पाठ किया और उनके कवि व्यक्तित्व के साथ ही फ़िल्म और सीरीयल की समीक्षाओं पर भी प्रकाश डाला. एक बार फिर ध्यान दें बदलती सूरत वक्त की बदलती मूरत वक्त की’  ई-बुक है और फिल्म तथा सीरियल की समीक्षा से सम्बन्धित है.  

चर्चित पुस्तक अकथ कहानी प्रेम की: कबीर की कविता और उनका समयपर बोलते हुए फ्रेंचेस्का ओरसिनीने प्रोफेसर अग्रवाल के अकादमिक योगदान का महत्त्व उद्घाटित किया और देशज आधुनिकताजैसी क्रांतिकारी अवधारणाओं की चर्चा की. किया अनकियाके संपादक  ओम थानवीने बताया कि पुरुषोत्तमजी ने लगभग हर विधा पर कलम चलाया है, पर महात्मा गांधी और उनकी अहिंसा की अवधारणा को मजबूती से जोड़ना बहुत महत्त्वपूर्ण है, जिस पर गौर किया जाना चाहिए.

मृदुला गर्गने अग्रवालजी के सर्जक व्यक्तित्व, खासतौर पर उनके कहानीकार पर प्रकाश डाला. चर्चित कहानी नाकोहसको नाराज आदमीकी कहानी की संज्ञा देते हुए मृदुला जी ने इस बात को रखांकित किया कि नाराज आदमी की कहानियों से शुरु कर पान पत्ते की गोठतक आते-आते पुरुषोत्तम अग्रवाल का सर्जक व्यक्तित्व करूणा की संवेदना में डूब जाता है जबकि चौराहे पर पुतलाजैसी कहानियों में वे किस प्रकार बुद्धिजीवी समाज के पाखंड पर चुटकी लेना नहीं भूलते.इस प्रकार कार्यक्रम की सबसे बड़ी उपलब्धि एक प्रखर आलोचक, कुशल प्रशासक और समाजकर्मी के सर्जक व्यक्तित्व से संवाद स्थापित करना और यह अनुभूत करना रहा कि एक बुद्धिजीवी का रोष कवि एवं कहानीकार का व्यक्तित्व धारण करते ही कैसे करूणा के धरातल पर घनीभूत हो, लोक की पीड़ा से तादात्म्य स्थापित कर लेता है. 
  

अंत में वरिष्ठ कवि और कलाप्रेमी अशोक वाजपेयीने अपनी पीढी के बुद्धिजीवियों का प्रतिनिधित्व करते हुए बहुत मार्मिक बात कही कि आने वाले आएंगे पर हम जाएंगे नहींभले ही वर्षगांठ साठवीं हो या सौवीं ! इस प्रकार अपनी अदम्य जिजीविषा और उत्तरदायित्व के बोध के बल पर समय और काल की गति बदल देने और अपनी सम्वेदनाओं तथा सशक्त हस्तक्षेप के माध्यम से बुद्धिजीवियों की इस पीढी के कालातीत हो जाने का दृढ़ विश्वास प्रकट किया. उन्होंने पुरुषोत्तम जी के पब्लिक इंटेलेक्चुअलहोने के साथ-साथ श्रेष्ठ शोधकर्ता होने को रेखांकित किया और कबीर पर आधारित अकथ कहानी प्रेम की को हिन्दी का क्लासिकबतलाया. वक्ताओं और आगंतुकों को धन्यवाद ज्ञापित करते हुए प्रोफेसर पुरुषोत्तम अग्रवाल ने कहा कि अपनी साठवीं वर्षगांठ के अवसर पर वे सबके आभारी और कृतज्ञ तो हैं पर समय और समाज की वर्तमान स्थिति और हृदय हीनता के कारण प्रसन्नता के किसी भी अवबोध से वंचित है !

कार्यक्रम का संचालन सईद अय्यूबने किया. नोट करने योग्य एक बात यह रही कि इस कार्यक्रम में युवाओं की उपस्थिति और उनका उत्साह देखते ही बना. यह कार्यक्रम किसी संस्था ने नहीं, बल्कि उनके छात्र-छात्राओं और प्रशंसकों ने मिल कर आयोजित किया था.

इस प्रकार पुरुषोत्तम अग्रवाल की साठवीं वर्षगांठ के बहाने यह अवसर नाराज आदमीकी उस पूरी पीढ़ी से मुखामुखम और संवाद के रूप में बदल गया जिसने मंडल और कमंडल की राजनीति देखी, बाजारों की बढ़ती भीड और चमक के साथ-साथ झुग्गियों की बढ़ती संड़ांध देखी, जिसने पेजर से वाइबर तक बदलती दुनिया भी देखी, पर जिसके लिए यह देखना संजय की तरह तटस्थ रहते हुए महाभारत देखने जैसा कतई नहीं रहा. अपने समय और समाज के द्वन्द्व और यथार्थ को भोगते हुए करूण आभा से युक्त इस पीढी ने उसे सही दिशा देने के लिए हर सम्भव प्रयास किए.
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डॉ. तृप्ति वामा
jnu.tripti@gmail.com

सहजि सहजि गुन रमैं : हरे प्रकाश उपाध्याय

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सोशल मीडिया से आज आप इंकार नहीं कर सकते, फेसबुक-वाट्सअप आदि से मध्यवर्ग का अब लगभग रोज का सम्बन्ध है. इस पर बनती-बिगडती मित्रताओं से भी सभी परिचित हैं. साहित्य में इसे लेकर कविताएँ- कहानियाँ लिखीं जा रही हैं.  
यहाँ तीन कवितायेँ इस से सम्बन्धित हैं. शेष चार कवितायेँ इस डिजिटल लोकवृत्त के बाहर घटित होती हैं. जहाँ दूसरे तरह की यातना है. भूख, नींद और सपने हैं. 
दोनों में अंतर है तो समानताएं भी. आखिरकार आभासी भी किसी वास्तविकता का ही आभास देता है. 


हरे प्रकाश उपाध्याय  की कवितायेँ                               





फेसबुक

दोस्त चार हज़ार नौ सौ सतासी थे
पर अकेलापन भी कम न था
वहीं खड़ा था साथ में
दोस्त दूर थे
शायद बहुत दूर थे
ऐसा कि रोने-हँसने पर
अकेलापन ही पूछता था क्या हुआ
दोस्त दूर से हलो, हाय करते थे
बस स्माइली भेजते थे....







अमित्रता

आज कुछ मित्रों को अमित्र बनाया
यह काम पूरी मेहनत व समझदारी से किया
ज़रूरी काम की तरह
ज़िंदगी में ज़रूरी है मित्रताएं
तो अमित्रता भी गैरज़रूरी नहीं

जो अमित्र हुए
हो सकता है वे मित्रों से बेहतर हों
मेरी शुभकामना है कि वे और थोड़ा सा बेहतर हों
किसी मित्र के काम आएं
इतना कि अगली बार जब कोई उन्हें अमित्र बनाने की सोचे
तो उसकी आत्मा उनकी रक्षा करे

तब तक मेरी यह प्रार्थना है
अमित्रों का दिल
उनके दल से मेरी रक्षा करे

अमित्र उन संभावनाओं की तरह हैं
जिन्हें अभी पकना है
जिनका मित्र मुझे फिर से बनना है






आत्मीयता

दिल्ली भोपाल लखनऊ पटना धनबाद से बुलाते हैं दोस्त
फोन पर बार-बार
अरे यार आओ तो कभी एक बार
जमेगी महफ़िल रात भर
सुबह तान कर सोएंगे
शाम घूमेंगे शहर तुम्हारे साथ
सिगरेट के छल्ले बनाएंगे
आओ तो यार आओ तो यार

बार-बार का इसरार
बार-बार लुभाता है
दफ़्तर घर पड़ोस अपने शहर अपने परिवार को झटक कर
बड़े गुमान से सुनाता हूँ
टिकट कटाता हूँ
दोस्तों के शहर में पहुँचकर फोन मिलाता हूँ

दोस्त व्यस्त है
ज़रूरी आ गया है काम
कहता है होटल में रूको या घर आ जाओ
खाओ पीओ मौज़ मनाओ
मुझे तो निपटाने हैं काम अर्ज़ेंट बहुत
अगली बार आओ तो धूम मचाते हैं
सारी कोर-कसर निभाते हैं

लौटकर वापस फेसबुक पर लिखता हूँ शिकायत
कुछ दोस्त उसे लाइक कर देते हैं
कुछ स्माइली बना देते हैं
कुछ देते हैं प्रतिक्रिया- हाहाहा...





रंग

कई बार चीज़ों को हम
उनके रंगों से याद रखते हैं
रंगों को कई बार हम
रंग की तरह नहीं फूल, चिड़िया या स्त्री की तरह देखते हैं

रंगों की दुनिया इतनी विविध
इतनी विशाल, इतनी रोचक
कि कई बार हमें लगा है
कि हम आदमी से नहीं रंगों से करते हैं प्यार
रंगों से ही नफ़रत
कुछ रंग इतने प्यारे
कि हम हम उन्हें पोशाक की तरह पहनना चाहते हैं
कुछ लोगों की कुछ रंगों से नफ़रत भी ऐसी ही

हम हर रंग को फूल की तरह देखें
अपने पसंदीदा फूल की तरह
तो कम हो कुछ रंग भेद- मुझे ऐसा लगता है
कि रंग को हम सि़र्फ फूल की तरह देखें
तो हर रंग से हो जाए धीरे-धीरे प्यार
ढेर सारे रंगों से कर-करके प्यार
बनाया जाये एक विविधवर्णी संसार...






भ्रम

देर रात टीसता है दर्द कहीं
आप बेचैन हो उठते हैं
रात इतनी गयी
कौन मिलेगा
कैसे आराम मिलेगा

आप विवश हैं ताला मारकर चला गया है मुहल्ले का दवा वाला
करवट बदलते आहें भरते बीतती है रात
पहर भर भोर के पहले आती है नींद
नींद में सपने में जूता पहनकर निकल लेते हैं आप

सारी दुकानें खुली हैं
दवा वाला कर रहा है आपका इंतज़ार
आपका हो जाता है काम
सुबह नींद टूटती है
आपको लगता है पहले से कुछ आराम...

जबकि दर्द अभी कुनमुना रहा है...





खयाली पुलाव

न बर्तन है न ईंधन है
न राशन न पानी
आओ खयाली पुलाव पकाते हैं...

खयाली पुलाव से पेट कैसे भरेगा?

न भरेगा पेट न सही
कम-से-कम दिल तो बहल जाएगा...





सपना

नींद आएगी, तो सपने आएंगे
कहा माँ ने बच्चे से
पता नहीं माँ ने ऐसा क्या सोचकर कहा
पर कहा माँ ने ऐसा
तो बच्चे को अच्छा लगा

बच्चा नींद से पहले सपने के बारे में सोचता रहा
सपने में एक गेंद होती
या एक गुलाब ही होता तो कितना अच्छा होता
बच्चे ने सोचा

बच्चे ने गेंद के बारे में सोचते हुए
उस दु:ख के बारे में सोचा
जो गेंद न होने की वजह से उसे सहना पड़ता है
बच्चा दु:ख के बारे में सोचते हुए
स्कूल चला गया
स्कूल में गुलाब का फूल खिला था
बच्चा गुलाब के बारे में सोचते हुए
मुस्कराया
बच्चे ने गुलाब का फूल तोड़ लिया
और माली से मार खाया

बच्चा मार खाने से नहीं
मारे खाने के बारे में सोचने से उदास हो गया
वह उदासी में अवसाद में नींद में समा गया
पता नहीं नींद में उसने क्या सोचा
क्या देखा
सपना देखा कि क्या देखा...।


परख : पिछड़ा वर्ग और साहित्य

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पिछड़ा वर्ग  और साहित्य                
अमलेश प्रसाद

बसे ज्‍यादा मतदाता हैं, लेकिन राष्‍ट्रीय मुद्दों में हस्‍तक्षेप न के बराबर है.सबसे ज्‍यादा आबादी है, लेकिन सबसे ज्‍यादा असंगठित समाज यही है.सबसे ज्‍यादा कामगार इसी वर्ग के हैं, लेकिन अधिकांश बेराजगार हैं.सबसे ज्‍यादा कारीगर भी इस समाज के हैं, लेकिन कलाकारी में कहीं नामो-निशान नहीं है.सबसे ज्‍यादा किसान भी यही हैं, लेकिन अभी अधिकांश भूखे-नंगे हैं.

चाहे साहित्‍य हो, चाहे राजनीति हो, चाहे धर्म हो, चाहे अध्‍यात्‍म हो, चाहे कला हो, चाहे खेती-बागवानी हो,हर क्षेत्र में सबसे ज्‍यादा पसीना बहानेवाला यही समाज रहा है. कितनी विडंबना है कि वेद की चंद ऋचाएं रटने वाले को योग्‍य माना जाता है, लेकिन मनुष्‍य की दैनिक जरूरत की चीजों का प्रकृति के साथ-साथ सृजन करनेवाले को अयोग्‍य कहा जाता है. पिछड़ा वर्ग के पिछड़ेपन का मुख्‍य कारण कूटनीति है.पिछड़ा वर्ग उतना कूटनीतिज्ञ नहीं है, जितना सवर्ण समाज.हर विधा में सक्षम होने के बावजूद कूटनीति के अभाव के चलते पिछड़ा वर्ग अपंग बना हुआ है.इतिहास गवाह है कि आज का पिछड़ा कभी अगड़ा रहा है.जीवन के हर क्षेत्र की कारीगरी एवं कलाकारी में इसे महारत हासिल है, लेकिन इसे कूटनीति से हराकर बंधुआ मजदूरी करायी जा रही है. जन्‍म से लेकर मृत्‍यु तक मनुष्‍य को जितनी चीजों की जरूरत होती है, उन सबका पालक, उत्‍पादक और निर्माता पिछड़ा वर्ग ही है. लेकिन दुर्भाग्‍य है कि आज पिछड़े वर्ग पर साहित्‍य और राजनीति दोनों मौन धारण कर बैठे हुए हैं.

अब कुछ लोग पिछड़े समाज को लेकर साहित्‍य और राजनीति में कुछ-कुछ कर रहे हैं.लेकिन आबादी के हिसाब से यह प्रयास न के बराबर है.इसी कमी को पूरा करने के लिए युद्धरत आम आदमी का पिछड़ा वर्ग विशेषांक उल्‍लेखनीय है.इस अंक के अतिथि संपादक संजीव खुदशाह ने पिछड़ा वर्ग साहित्‍य आंदोलन खड़ा करेगासंपादक रमणिका गुप्‍ता ने अभी लम्‍बा सफर तय करना है पिछड़ा वर्ग कोऔर कार्यकारी संपादक पंकज चौधरी ने साम्‍प्रदायिक नहीं हैं पिछड़ी जातियांआंदोलित करने वाला संपादकिय लेख लिखे हैं. इस विशेषांक में पिछड़े वर्ग के तमाम पहलुओं को शामिल करने की कोशिश की गई है. इस अंक को मुख्‍य रूप से निम्‍न खंडों में विभाजित किया गया है-दस्‍तावेज, इतिहास आन्‍दोलन संस्‍कृति स्‍त्री, समाज राजनीति नेतृत्‍व, मीडिया, पसमांदा मुसलमान, अति पिछड़ी जातियां, एकता/अन्‍य, आरक्षण, साक्षात्‍कार, पुस्‍तक अंश और पुस्‍तक वार्ता.

संपादकीय के बाद पहले खंड दस्‍तावेजमें जाति प्रथा नाश- क्‍यों और कैसेडॉ. राममनोहर लोहिया का लेख है. लोहिया ने जाति की जड़ खोदने के साथ-साथ अपने समय को भी कैनवास पर उतारा है, यथा- ‘ंची जातियां सुसंस्‍कृत पर कपटी हैं, छोटी जातियां थमी हुई और बेजान हैं.इतिहास आन्‍दोलन संस्‍कृति स्‍त्रीखंडमें प्रेमकुमार मणि का भारतीय समाज में वर्चस्‍व व प्रतिरोध’, बजरंग बिहारी तिवारी का केरल का नवजागरण और एसएनडीपी योगम्, बृजेन्‍द्र कुमार लोधी का वर्ण व्‍यवस्‍था एवं जाति प्रथा : मिथक तथा भ्रांतियांऔर सीए विष्णु दत्‍त बघेल का पराधीनता व आत्‍मग्‍लानि का बोझलेख शामिल हैं. इस खण्‍ड में उत्‍तर से दक्षिण और प्राचीन से आधुनिक भारत के जातीय इतिहास को मथा गया है.  

समाज राजनीति नेतृत्‍वखंड में अनिल चमड़िया, पंकज चौधरी, के.एस.तूफान और रामशिवमूर्ति यादव का क्रमश: ‘नमो को पिछड़ा बनाने के निहितार्थ’, ‘उत्‍तर का राजनीतिक नवजागरण’, राजनीति सत्‍ता और पिछड़ा वर्गऔर नेतृत्‍वविहीन है पिछड़ा वर्गआलेख को स्‍थान दिया गया है. यहां पिछड़ा वर्ग के राजनीति उतार-चढ़ाव को रेखांकित किया गया है. ‘मीडियाखण्‍डमेंउर्मिलेश और संजय कुमार के दो लेख हैं.इनके शीर्षक हैं क्रमश: ‘भारतीय मीडिया और शूद्रतथाहाशिए का समाज मीडिया में भी हाशिए पर’. 

पिछड़े वर्ग की पीड़ा और प्रताड़ना से पसमांदा मुसलमान भी पीड़ित हैं. पसमांदा मुसलमानखण्‍ड में अली अनवर, कौशलेन्‍द्र प्रताप यादव, ईश कुमार गंगानिया और प्रो. मो. सईद आलम के लेख क्रमश: ‘पसमांदा ही भागाएंगे साम्‍प्रदायिकता के भूत को’, ‘कौन समझेगा पसमांदा मुसलमानों का दर्द’, ‘पसमांदा मुस्‍लिम की अस्‍मिता के प्रश्‍न’, और पसमांदा मुसलमानों को आम्‍बेडकर की तलाशलेखों से यह स्‍पष्‍ट होता है कि पसमांदा मुसलमान भी अब धार्मिक कठमुल्‍लेपन को छोड़कर अपने आत्‍मसम्‍मान, अस्‍मिता, सामाजिक, आर्थिक पिछड़ेपन के मुद्दे उठाने के लिए निकल पड़ा है. इस पिछड़ा वर्ग विशेषांक में अति पिछड़ों का भी पूरा ख्‍याल रखा गया है. ‘अति पिछड़ी जातियांखण्‍डमेंडॉ. राम बहादुर वर्मा, डॉ. पीए राम प्रजापति, महेन्‍द्र मधुप का क्रमश: ‘यूपी में अति पिछड़ी जातियों की दशा-दिशा’, ‘बदलते आर्थिक परिवेश में अति पिछड़ा वर्ग का विकास एवं चुनौतियां’, ‘अति पिछड़ों को ठगने का काम राजनैतिक दल छोड़ेंआदि महत्‍वपूर्ण लेखशामिल हैं.

दलित समाज की सभा/सम्‍मेलनों में पिछड़ों को भाई कहा जाता है और पिछड़े समाज की सभा/सम्‍मेलनों में दलितों को भाई कहा जाता हैएकता खण्‍डमें दलित-पिछड़ों की इसी एकता पर गंभीर चर्चा की गई है.इसमें मूल चंद सोनकर ने आम्‍बेडकर ही एकमात्र विकल्‍प’, केशव शरण नेपिछड़ा वर्ग और उनकी दशा-दिशा’, डॉ. धर्मचन्‍द्र विद्यालंकर ने दलित पिछड़ा भाई-भाई, तभी होगी केन्‍द्र पर चढ़ाई’, डॉ. हरपाल सिंह पंवार ने क्‍या पिछड़ी जातियां भी शूद्र हैं’, रमेश प्रजापति ने ब्राहमणवाद के जुए को उतार फेंके पिछड़ा वर्ग’, इला प्रसाद ने चित्रगुप्‍त के वंशजतथा यशवंत ने हक न पा सकने वाली नस्‍ललेख लिखा है. अब तक आरक्षण को लेकर मानवता को शर्मसार करनेवाली कितनी ओछी राजनीति होती रही है.यह आरक्षणखण्‍ड कोपढ़ने से ज्ञात होता है.इस खण्‍ड में महेश प्रसाद अहिरवार ने लिखा हैपिछड़ों को आरक्षण मा. कांशीराम की देन’.राम सूरत भारद्वाज ने पिछड़ों को आरक्षण : काका कालेलकर से मण्‍डल कमीशन तककी चर्चा की है. वहीं जवाहर लाल कौल ने ओबीसी आरक्षण : एक विवेचनमें शोधपरक विवेचना की है. ‘साक्षात्‍कारखण्‍ड में कांचा इलैया, राजेन्‍द्र यादव, मुद्राराक्षस, मस्‍तराम कपूर, चौथी राम यादव, डॉ. शम्‍सुल इस्‍लाम, असगर वजाहत, आयवन कोस्‍का,दिलीप मंडल और रमाशंकर आर्या के साक्षात्‍कार शामिल हैं.साक्षात्‍कार में कुछ महत्‍वपूर्ण प्रश्‍न सभी लोगों से पूछे गये हैं.यहां प्रश्‍नों के दोहराव से बचना चाहिए था

पुस्‍तक अंशखण्‍डमें रामेश्‍वर पवन कीद्विजवर्णीय नहीं हैं कायस्‍थ’,गणेश प्रसाद की गरीबों का हमदर्द कर्पूरी ठाकुर’, संजीव खुदशाह की आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्गऔर अभय मौर्य के उपन्‍यास त्रासदीके अंश हैं. ‘पुस्‍तक वार्त्‍ताखण्‍ड में आरएल चंदापुरी की पुस्‍तक भारत में ब्राहमणराज और पिछड़ा वर्ग आन्‍दोलनतथा संजीव खुदशाह की आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्गकी समीक्षा शामिल है.  

वर्तमान में दक्षिण और उत्‍तर भारत के कई राज्‍यों में पिछड़ों की सरकार है. यहां तक कि भाजपा नेता नरेंद्र मोदी पिछड़ी जाति का प्रमाण-पत्र लेने के बाद ही प्रधानमंत्री बन पाए. पर, इस अंक में पिछड़े वर्ग के एक भी नेता को शामिल नहीं किया गया है.इस विशेषांक के बहाने पिछड़े वर्ग की राजनीति करने वाले नेताओं का मुंह भी खुलवाना चाहिए था कि वे साम्‍प्रदायिकता, जातीय व धार्मिक कट्टरता के विरूद्ध सामाजिक परिवर्तन और पिछड़ों के अस्‍मिता, अस्‍तित्‍व व आत्‍मसम्‍मान के किस पाले में हैं?वैसे पिछड़े वर्ग पर साहित्‍य की अभी बहुत कमी है. बहरहाल विशेष प्रयास से युद्धरत आम आदमी का निकला यह विशेषांक हाथ में आते ही एक बार उलटने-पलटने और पढ़ने के लिए विवश कर देता है.
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अमलेश प्रसाद
204, डीए9, एनके हाउस, शकरपुर, लक्ष्‍मी नगर, दिल्‍ली- 92
मोबाइल : 9716314047 / amalesh.article@gmail.com

विष्णु खरे : आख़िर इस मर्ज़की दवा क्या है

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आख़िर इस मर्ज़की दवा क्या है                       
विष्णु खरे 




पने भारत महान में तथाकथित ‘अमव्य’ (‘अति महत्वपूर्ण व्यक्ति’,’वी आइ पी’– मुझे इस शब्द से उबकाई आती है -) को कोई भी दावत देना बड़े जोखिम का काम है.लोग इंतज़ार करते-करते पत्थर हो जाते हैं,वो वादा करके भूल गए,किसी बहाने या असली वजह से ग़नीमत है कि सिर्फ़ दो घंटे बाद आए,या बिगड़ैल माशूक़ की मानिंद आए ही नहीं.स्थिति ‘जबरा मारे और रोने भी न दे’ की हो जाती है.क्या उन्हें दुबारा नहीं बुलाना है ?

भोपाली विश्व हिंदी सम्मेलन के कल निपटे समापन समारोह में आख़िरी ख़ुत्बे के लिए स्वयं प्रधान मंत्री ने अभिनय-सम्राट अमिताभ बच्चन को चुना था.देश-विदेश में करोड़ों शब्दों में यह ख़बर छपी,रेडियो टीवी पर आती रही,करोड़ों रुपयों के पोस्टर और विज्ञापन छपे,यात्रा,  ठहरने और सुरक्षा  के बंदोबस्त हुए,जया के मायके भोपाल की जनता अपने कँवर साहब को देखने पलक-पाँवड़े बिछाने लगी,सुषमा स्वराज और राजनाथ सिंह ने अलग-अलग विशेष फेशिअल को सुनिश्चित किया होगा.प्रधान मंत्री ने साउथ ब्लॉक में सीधे प्रसारण वाली ओबी वैन खड़ी करवाई होगी.

किन्तु हाय रे बेदर्दी दाँत के निगोड़े दर्द,तुझे अभी ही अमिताभजी को होना था? वह भी इतना सीरियस कि कुछ घंटों के लिए लोकल अनेस्थेटिक से सुन्न न हो सके,उखाड़ने की नौबत आ जाए ? कौन है वह नामाक़ूल डेंटिस्ट,जो वक़्त रहते यह समझ न सका ? कुछ जाने-पहचाने,कुंठित,अनामंत्रित शरारती लेखक-पत्रकारों ने उनके हिंदी सम्मेंलन में बुलाए  जाने के औचित्य पर सवाल ज़रूर उठाए थे,लेकिन उसके लिए अमिताभ प्रधानमंत्री और देश को निराश कर डिप्लोमैटिक डेंटल इलनेस का इतना यथार्थ अभिनय तो करेंगे नहीं.यह तो दिलीप कुमार के भी बूते के बाहर है.

इसमें कोई शक़ नहीं कि आज अमिताभ दक्षिण एशिया के सबसे बड़े सक्रिय अभिनेता हैं,सबसे ज़्यादा और अच्छी हिंदी जानते-बोलते-लिखते हैं,उन्हें बांग्ला का ज्ञान है और  उर्दू तथा अंग्रेज़ी के उच्चारण भी निर्दोष हैं.मधुशाला’के अमर गायक और अत्यंत पठनीय आत्म-कथा खंड ‘क्या भूलूँ क्या याद करूँ’ के रचयिता,इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के अंग्रेज़ी के प्राध्यापक-अनुवादक,जवाहरलाल नेहरू परिवार के मित्र  दि. हरिवंशराय बच्चन के बेटे होने के कारण उन्हें साहित्य-संगीत-कलाएँ विरासत में मिली हैं और पत्नी जया के रूप में एक सुसंस्कृत,बड़ी,पतिव्रता-गृहिणी अभिनेत्री.उन्होंने ज़ीरो पर आउट होने और पिच को दोष देने  से पहले एक अत्यंत विस्मरणीय राजनीतिक पारी भी खेली है.वह अपनी प्रतिभा के बल पर ही उपरोक्त यूसुफ़ भाई  के बाद सबसे बड़े एक्टर बने हैं लेकिन हिंदी भाषा और साहित्य को उनका निजी योगदान नगण्य है.पिता की स्मृति को थोड़ा बनाए रखने के अलावा उन्होंने दोनों के लिए कुछ नहीं किया है.

लेकिन हमारे देश में विश्वसुलभ सनी लिओने और मसखरे सिद्धूजैसों को ब्रह्माण्ड के हर विषय पर एक्सपर्ट मानने की मीडिया प्रथा है.अमिताभ बच्चन तो उनसे सैकड़ों गुना सुपात्र हैं.लेकिन व्यावहारिक हिंदी और उसे युवा पीढ़ी में लोकप्रिय बनाने के लिए उनमें कोई अनुशासनबद्ध,सुचितित,अर्ध-अकादमिक योग्यता नहीं है.उनकी कंपनी एबीसीएल आत्मनाशक सिद्ध हुई यानी वह बिज़नेस में काम आनेवाली हिंदी भी सिखा नहीं सकते. हिंदी तो पहले से ही दीवालिया है.

नरेंद्र मोदी के कई अभिनेता-परिवारों के साथ बहुत प्रसन्न फ़ोटो देखे गए हैं,पता नहीं उन पर परेश रावल की बहुघोषित फ़िल्म का क्या हुआ,लेकिन हिंदी भाषा की इतनी क़द्र करनेवाले हमारे प्रधानमंत्री को क्या फिल्मों में हिंदी की हक़ीक़त का कोई इल्म है ? क्या वह हिंदी फ़िल्में देखते हैं,यदि हाँ,तो किस तरह की ? जिस भाषा से सिनेमा अब तक खरबों रूपए कमा चुका है और कमाता रहेगा,क्या नरेनभाई उसी माध्यम में उसकी बाँदी-लौंडी जैसी,यूज़-एंड-थ्रो दुर्दशा से परिचित हैं ?क्या अमिताभ को भी इसका कोई शर्मिंदा एहसास है या वह सिर्फ़ अपना रोकड़ा वसूल कर पतली गली से उस तरफ़ कट लेते हैं जहां लॉकरों को उनकी ‘प्रतीक्षा’ है ?

एक युग था जब कुछ फिल्म-निर्माता,निदेशक,कहानी- तथा संवाद-लेखक,संगीतकार और कवि-शायर तथा स्वयं अभिनेता-अभिनेत्री भी स्तरीय,सार्थक.उपयुक्त और प्रासंगिक  भाषा पर अनिवार्य जोर देते थे क्योंकि उसके बिना बेहतर सिनेमा मुमकिन  ही नहीं है.अच्छी, सही, अभिव्यक्तिशील भाषा के बिना मानवीय गतिविधि का कुछ भी श्रेयस्कर संभव नहीं हो पाएगा.औचित्य हो तो नितांत ‘’आपत्तिजनक’’ या ‘’संकर’’ भाषा भी कला के लिए लाज़िमी हो जाती है और एक भयावह सौन्दर्य जन्म लेता है.लेकिन हमारी फिल्मों की  भाषा निरंतर सिर्फ़ फूहड़,चालू और बाजारू होती जा रही है.आज जितने अधकचरे, अनपढ़, बर्बर  और प्रतिभाशून्य निर्माता,निदेशक,कहानीकार,गीतकार और अभिनेता फिल्मों में घुस आए हैं उतने पहले कभी न थे.हम जानते ही हैं कि यह हिंदी,उर्दू और अंग्रेज़ी बोलना-पढ़ना-लिखना नहीं जानते.’होमो हाइडेलबेर्गेन्सिस’ का आइक्यू इनसे ज़्यादा रहा होगा.

सरकारें कलाओं को दिशा-निर्देश नहीं दे सकतीं,ख़ासकर हमारे देश की सरकारें.हमारे अधिकांश अफसर,मंत्रालय,कला-संस्थान,नेता और स्वयं घटिया कलाकार कला और संस्कृति के जानी दुश्मन हैं.जिस भारतीय जनता को कलाएँ संबोधित हैं वह भी एक सीमा के बाद न कलाओं को समझती है न उनके प्रति चिंतित होती है.वह एक स्तर तक गुणवत्ता को जानती है, उसके बाद वह उसके लिए कठिन हो जाती है जो उसके मन में आक्रोश और ‘’भाड़ में जाए’’ की क्रुद्ध उदासीनता को जगाती है.वह कलाओं का इस्तेमाल अफीम की तरह कर लेती है,बुद्धि और मस्तिष्क को विकसित करने वाली किसी औषधि की तरह नहीं क्योंकि वह कुछ पथ्य की माँग करता है.सबसे पहले एक स्वस्थ भाषा की.

पहले तो ख़ुद प्रधानमंत्री और अमिताभ बच्चन जैसों को बैठ कर समझना होगा कि क्या हमारी फ़िल्में किसी मर्ज़ की शिकार हैं,हाँ तो उसका निदान क्या है.आज सिनेमा इतना जटिल,वैविध्यपूर्ण  माध्यम हो चुका है कि उस पर विचार करने के लिए सिर्फ फिल्म-बिरादरी,प्रौढ़ तथा युवा साहित्यकार,पत्रकार और सिने-समीक्षक काफ़ी नहीं, बल्कि ऐसे विमर्श मेंसभी स्तरों के शिक्षक,कलाविद्,समाजशास्त्री,राजनेता,प्रशासक,पुलिसकर्मी,धर्मगुरु,नारी-संगठन,दलित-प्रतिनिधि आदि सबकी भागीदारी अनिवार्य होगी.इसमें हिंदी सिनेमा के विदेशी अध्येता भी निमंत्रित किए जा सकते हैं.ऐसा सिने-सम्मेलन सरकार की प्रबुद्ध सहायता और हिस्सेदारी  के बिना संभव नहीं है.


यदि प्रधानमंत्री हिंदी को लेकर वाक़ई गंभीर हैं तो बम्बइया सिनेमा पर,विशेषतः उसकी भाषा पर,उन्हें ऐसा सम्मेलन,जिसमें कोई भी दाँव-पेंच वर्जित न हो, गजेंद्रहीन पुणे फिल्म-संस्थान,सूचना एवं प्रसारण,मानव संसाधन तथा संस्कृति मंत्रालयों,राष्ट्रीय नाट्य संस्थान तथा साहित्य और संगीत नाटक अकादेमियों को साथ लेकर शीघ्रातिशीघ्र बुलाना चाहिए.इसमें वह भाजपा-गैर-भाजपा का वह जातिभेद न करें जिसके कारण वह विश्व हिंदी सम्मेलन से हिंदी साहित्य को निर्वासित करने पर विवश हो गए क्योंकि भाजपा के पास स्तरीय लेखकों का भयानक टोटा है.उन्हें समझ लेना चाहिए कि आज की वैश्वीकृत दुनिया में अक्ल की बात भले ही वामपंथियों की बपौती न हो,प्रबुद्ध आधुनिकतावादियों के बगैर भी वह संभव नहीं है.सच बात तो यह है कि अमेरिका के रिपब्लिकन और ब्रिटेन के कंज़र्वेटिव भी बहुत दूर तक वामपंथियों जैसी प्रगतिकामी बात करने पर मजबूर हैं.वह आधुनिकतावादी मानवता की lingua francaबन चुकी है.दकियानूसी इस्लाम के साथ-साथ इसे भाजपा,रा.स्व.सं. और अन्य हिन्दुत्ववादियों को भी तुरंत समझना होगा.उसके बिना कोई भाषा विश्व-भाषा नहीं बन सकती और वैसी ही भाषा सारे भारत और हिंदी सिनेमा को भी चाहिए.क्या उसमें नरेंद्र मोदी, अमिताभ बच्चन और हिंदी फिल्म-जगत  की दिलचस्पी है या प्रधानमंत्री को वक़्त-ज़रूरत सिर्फ महँगे शो-पीस आइटम बॉयज़ एंड गर्ल्स की सप्लाइ ही चाहिए ?
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(विष्णु खरे का कॉलम. नवभारत टाइम्स मुंबई में आज प्रकाशित, संपादक और लेखक के प्रति आभार के साथ.अविकल 
vishnukhare@gmail.com / 9833256060

हिंदी में कामकाज : राहुल राजेश

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हिंदी केवल साहित्य की भाषा नहीं है वह कामकाज की भी भाषा है, हिंदी के समक्ष जब हम चुनौतियों की चिंता करें तब हिंदी की इस भूमिका को भी गम्भीरता से देखना चाहिए. राहुल राजेश ने विस्तार से हिंदी की इस भूमिका पर प्रकाश डाला है.


हिंदी में कामकाज                        
राहुलराजेश                                                                       



गभग दो सौ वर्षोँ के लंबे ब्रिटिश शासन से मुक्ति पाने के बाद स्वाधीन भारत की संविधान सभा ने 14 सितंबर, 1949 को निर्णय लिया कि संघ के राजकाज की आधिकारिक भाषा यानी राजभाषा हिंदी होगी. यह तय किया गया कि 15 वर्षों तक देश में हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी भी चलती रहेगी. इसके पीछे यह मासूम अवधारणा थी कि इस 15 वर्ष की पर्याप्त अवधि में शासन-प्रशासन का समस्त कामकाज राजभाषा हिंदी में होने लगेगा. लेकिन अनेक अवांछित कारणों और कटु कारकों के चलते इस निर्धारित अवधि में यह संभव नहीं हो सका. परिणामत: सन् 1963 में राजभाषा अधिनियम बनाया गया ताकि संघ के राजकाज में राजभाषा हिंदी के प्रयोग को अमल में लाया जा सके. राजभाषा अधिनियम, 1963 की धारा 3(3) में यह आदेशपूर्वक निर्दिष्ट किया गया कि सर्वसाधारण को लक्ष्य कर तैयार किए जाने वाले सभी दस्तावेज, नामत: आदेश, ज्ञापन, परिपत्र, सूचना, अधिसूचना, विज्ञापन, निविदा, संविदा, अनुज्ञप्ति, करार, संसद के दोनों सदनों में पेश किए जाने वाले प्रशासनिक और अन्य प्रतिवेदन आदि अंग्रेजी के साथ-साथ अनिवार्यत: हिंदी में भी जारी किए जाएँ. अर्थात् ये सभी सरकारी दस्तावेज अनिवार्यत: द्विभाषी रूप में ही जारी किए जाएँ और इसका दृढ़तापूर्वक पालन किया जाए. इसका उल्लंघन होने पर इन दस्तावेजों पर अंतिम रूप से हस्ताक्षर करने वाले अधिकारी को जिम्मेदार ठहराया जाएगा.


हिंदी स्टाफ और हिंदी की स्थिति         
संघ की राजभाषा नीति के सतत क्रियान्वयन में यह एक महत्वपूर्ण पड़ाव था. और यहीं से सरकारी कार्यालयों में हिंदी अनुवादकों और राजभाषा अधिकारियों की भूमिका महत्वपूर्ण हो गई और सरकार को संसद के दोनों सदनों समेत सभी मंत्रालयों, विभागों, कार्यालयों, अधीनस्थ कार्यालयों, निगमों, उपक्रमों, बैंकों और सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों आदि में हिंदी अनुवादकों और राजभाषा अधिकारियों की पूर्णकालिक और स्थायी नियुक्ति, और वह भी पर्याप्त संख्या में नियुक्ति की तत्काल आवश्यकता बेहद शिद्दत से महसूस हुई. यों तो विशेष प्रकार के अनुवादों यथा नियमों, कोडों, मैन्युअलों, तकनीकी व विधिक साहित्य, शोध, अनुसंधान आदि जैसे दस्तावेजों के केंद्रीकृत अनुवाद के लिए विधि मंत्रालय के साथ-साथ केंद्रीय अनुवाद ब्यूरो भी सक्रिय था. लेकिन सांविधिक, विधिक और तकनीकी अनुवादों के अलावा सामान्य अनुवादों के लिए भी भारत सरकार के हरेक मंत्रालय, विभाग, कार्यालय, संगठन, बैंक, उपक्रम आदि में हिंदी अनुवादकों की भर्ती शुरू हुई और राजभाषा नीति के व्यापक कार्यान्वयन और राजभाषा अधिनियम, 1963, राजभाषा संकल्प, 1968 तथा राजभाषा नियम, 1976 के अनुपालन की निगरानी के लिए राजभाषा अधिकारियों एवं राजभाषा संवर्ग के अधिकारियों यथा सहायक निदेशक (राजभाषा), निदेशक (राजभाषा) इत्यादि की नियुक्तियों को गति मिली. फलस्वरूप, हरेक मंत्रालय, विभाग, अधीनस्थ कार्यालय, संगठन, बैंक इत्यादि में उनकी कुल स्टाफ संख्या के एक निश्चित अनुपात के रूप में न केवल हिंदी टंककों, हिंदी आशुलिपिकों की, वरन् कनिष्ठ हिंदी अनुवादकों, वरिष्ठ हिंदी अनुवादकों और राजभाषा अधिकारियों, सहायक निदेशकों, निदेशकों आदि के पदों का पर्याप्त संख्या में सृजन भी किया गया. लेकिन ये सृजित पद कभी भी पूरे के पूरे नहीं भरे गए!

          
हाँ, नीतिगत तौर पर हिंदी टंककों, हिंदी आशुलिपिकों समेत हिंदी अनुवादकों, हिंदी अधिकारियों एवं राजभाषा संवर्ग के अधिकारियों आदि की नियमित नियुक्तियों की शुरूआत से संघ की राजभाषा नीति की अपेक्षाओं की आंशिक पूर्ति तो अवश्य हुई. कार्यालयों में रोजमर्रे के कामकाज और नेमी किस्म के पत्राचार, टिप्पण, प्रविष्टि आदि हिंदी में करने का दबाव भी बढ़ा और कार्यालयों के नाम, नामपट्ट, सूचनापट्ट, मोहर, सील, पत्रशीर्ष, लिफाफे आदि ही नहीं बल्कि नेमी किस्म के प्रपत्रों, फॉर्मों, पर्चियों आदि समेत रेलवेज, एयरवेज आदि के आरक्षण-फॉर्म, टिकट, बैंकों की निकासी व जमा पर्चियाँ, चेकबुक, पासबुक इत्यादि भी हिंदी में प्रदर्शित, प्रकाशित और मुद्रित होने लगे. इतना ही नहीं, सरकारी सेवाओं के लिए ली जाने वाली समस्त भर्ती परीक्षाओं के प्रश्नपत्र भी अंग्रेजी के साथ-साथ हिंदी में भी अनिवार्यत: तैयार किए जाने लगे और इन भर्तियों के लिए आयोजित होने वाले साक्षात्कारों में भी हिंदी में उत्तर देने का प्रावधान किया गया. इनके अलावा मंत्रालयों, विभागों, कार्यालयों, संगठनों, बैंकों, उपक्रमों, इकाइयों आदि की वार्षिक रिपोर्टें भी अंग्रेजी के साथ-साथ हिंदी में भी तैयार की जाने लगीं और सभी प्रदर्शित, प्रकाशित व मुद्रित दस्तावेजों व नामपट्ट, पत्रशीर्ष, मोहर इत्यादि में हिंदी को वरीयता प्रदान की गई, अर्थात् पहले हिंदी और फिर अंग्रेजी. जहाँ तीन भाषाएँ हैं, वहाँ सर्वप्रथम प्रांतीय भाषा, फिर हिंदी और अंत में अंग्रेजी. यहाँ विशेष रूप से यह भी निर्दिष्ट किया गया कि तीनों भाषाओं के अक्षर के आकार एक समान हों, रंग एक समान हों और उनमें प्रयुक्त सामग्री (यथा धातु) अनिवार्यत: एक हों. आशय यह कि प्रांतीय भाषा को ताँबे में, हिंदी को पीतल में और अंग्रेजी को सोने के अक्षरों में नहीं दर्शाएँ.

               
यदि आप इन प्रावधानों की बारीकियों पर गौर करें तो आप सहज ही समझ जाएँगे कि संघ की राजभाषा नीति बेहद संवेदनशील एवं सर्वसमावेशी है और यहाँ किसी भी भाषा को कमतर या बेहतर नहीं बताया गया है. संविधान के 17वें भाग में अनुच्छेद 351 में यह स्पष्ट कहा गया है कि "संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिंदी भाषा का प्रसार बढ़ाएउसका विकास करे जिससे वह भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके और उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिंदुस्थानी में और आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट भारत की अन्य भाषाओं में प्रयुक्त रूपशैली और पदों को आत्मसात करते हुए और जहां आवश्यक या वांछनीय हो वहाँउसके शब्दभंडार के लिए मुख्यत: संस्कृत से और गौणत: अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करे."यदि आप थोड़ा और गौर करें तो आप पाएँगे कि सभी सरकारी मंत्रालयों, विभागों, कार्यालयों, बैंकों, सार्वजनिक उपक्रमों, इकाइयों आदि में, सरकारी कामकाज में, नामपट्टों, मोहरों, साइनबोर्डोँ, पत्रशीर्षों, लिफाफों आदि से लेकर सरकारी सूचनाओं, विज्ञापनों, परीक्षा के प्रश्नपत्रों, नेमी फॉर्मों, टिकटों, बैंक की आहरण व निकासी पर्चियों आदि में अंग्रेजी के अलावा जो प्रचुर हिंदी या थोड़ी-बहुत हिंदी दिखती है, वह संघ की इसी राजभाषा नीति के बूते और बदौलत है!



हिंदी की हाल--हकीकत          
यहाँ तक देखें तो संघ के राजकाज में हिंदी की स्थिति और संघ की राजभाषा नीति के कार्यान्वयन में हुई प्रगति संतोषजनक ही नहीं बल्कि पर्याप्त उत्साहजनक प्रतीत होती है. लेकिन सरकारी कामकाज में राजभाषा हिंदी के प्रयोग की स्थिति न तो संतोषजनक है और न ही उत्साहवर्धक. इसके साथ-साथ, मंत्रालयों, विभागों, कार्यालयों, बैंकों, उपक्रमों, इकाइयों आदि में  राजभाषा नीति के कार्यान्वयन को गति देने के मूलभूत उद्देश्य से सुगमकर्ता के रूप में नियुक्त किए हिंदी अनुवादकों, राजभाषा अधिकारियों की स्थिति भी संतोषजनक नहीं है. कार्यालयों में उनके सृजित पद पर्याप्त संख्या में या तो भरे ही नहीं गए हैं या फिर उन पदों पर स्थायी नियुक्तियाँ लंबे समय से अवरूद्ध हैं. जो अनुवादक या राजभाषा अधिकारी नियुक्त किए भी गए हैं, उन्हें अपने बैठने और तल्लीनता से कामकाज करने के वास्ते समुचित स्थान पाने तक के लिए जद्दोजहद करना पड़ रहा है. उनके करियर, पदोन्नति आदि के मार्ग अत्यंत हताशाजनक रूप से सुस्त और अवरूद्ध हैं. कार्यालयों में स्टाफ की कमी के कारण या जानबूझकर उन्हें उनके मूल काम की बजाय कार्यालय के अन्य कामों में लगा दिया जा रहा है. संघ की राजभाषा नीति के कार्यान्वयन से जुड़े राजभाषा कर्मियों के साथ ऐसे प्रतिकूल व्यवहार और ऐसे प्रतिकूल माहौल को देखकर संसदीय राजभाषा समिति को अपनी हालिया रिपोर्टों तक में यह सख्ती से कहना पड़ा है कि राजभाषा हिंदी से जुड़े कर्मियों को उनके बैठने, कामकाज करने हेतु समुचित और सम्मानजनक स्थान और साजो-सामान मुहैया कराया जाए. उन्हें समुचित और समयबद्ध पदोन्नति प्रदान की जाए और जहाँ उनके अपने संवर्ग में अवसर नहीं हो तो ऐसी स्थिति में उन्हें सामान्य संवर्ग में पदोन्नति देने की व्यवस्था की जाए ताकि उनका करियर बाधित नहीं हो और वे हताशा और उपेक्षा के शिकार नहीं होने पाएँ.

            
लेकिन इन सबके बावजूद, सरकारी कामकाज में राजभाषा हिंदी को अपनाने और इसे समुचित बढ़ावा देने के प्रति वांछित उत्साह प्राय: देखने को नहीं मिलता है. वरिष्ठ प्रबंधन से लेकर निचले पायदान तक हिंदी में काम करने की मानसिकता पर्याप्त रूप से अबतक नहीं बन पाई है. इस कंप्यूटर युग में "कट-कॉपी-पेस्ट कल्चर"के हावी हो जाने के कारण अब यह और भी कठिन हो गया है! कार्यालयों में सामान्यत: यह सीधे-सीधे मान लिया जाता है कि हिंदी में काम का मतलब हिंदी अधिकारी का काम! अब उन्हें कौन समझाए कि अगर किसी कार्यालय में कुल कर्मचारियों और अधिकारियों की औसत संख्या तीन सौ है तो उनके द्वारा प्रतिदिन किया गया सारा कामकाज हिंदी के नाम पर वहाँ नियुक्त मात्र दो या तीन हिंदी आधिकारियों को नहीं सौंपा जा सकता है! यदि मान लें कि तीन सौ स्टाफ में से एक सौ स्टाफ भी प्रतिदिन अंग्रेजी में एक-एक पृष्ठ के एक सौ पत्र तैयार करते हैं तो दो-तीन राजभाषा अधिकारी को प्रतिदिन एक सौ पृष्ठ हिंदीं में अनुवाद करने होंगे! ह न सिर्फ संघ की राजभाषा नीति की मूल भावना के विपरीत है, बल्कि यह संघ की राजभाषा नीति, राजभाषा अधिनियम, 1963, राजभाषा नियम, 1976 और भारत सरकार द्वारा राजभाषा हिंदी के प्रगामी प्रयोग के लिए हर वर्ष जारी किए जाने वाले वार्षिक कार्यक्रम का सरासर उल्लंघन भी है!इस वार्षिक कार्यक्रम के अनुसार भाषायी आबादी के आधार पर विभाजित '', ''और ''क्षेत्र में स्थित कार्यालयों को क्रमश: 100 प्रतिशत, 90 प्रतिशत और 55 प्रतिशत मूल पत्राचार हिंदी में करना है.लेकिन इस आँकड़े को जैसे-तैसे हासिल करने के लिए हर बार पहले अंग्रेजी में तैयार पत्रों का हिंदी में अनुवाद करा लेने और इससे भी बदतर कि इसी की आड़ में राजभाषा अधिकारी को बार-बार हिंदी टाइपिस्ट में 'रिडिक्यूलसली रिड्यूस'कर देने का रिवाज बना लिया गया है! ऐसे में व्यावहारिक रूप में मूल पत्राचार हिंदी में होता ही नहीं है क्योंकि सभी पत्र सीधे हिंदी में नहीं बल्कि पहले अंग्रेजी में सृजित किए जाते हैं! जो कुछ हिंदी में तैरता है, वह मूल हिंदी पत्राचार नहीं, बल्कि हिंदी अनुवाद है!

            
यहाँ गौर करने वाली बात यह है कि कार्यालयों में इस प्रकार हिंदी में जो कुछ भी कामकाज होता या आँकड़ों में दर्शाया जाता है, वह दरअसल पूरे कार्यालय के सभी स्टाफ द्वारा किया गया न होकर, महज हिंदी अधिकारियों द्वारा ही किया गया होता है! ऐसे में विभागों को हिंदी में सर्वाधिक कामकाज के लिए मिलने वाले राजभाषा शील्ड या हिंदी में अधिकाधिक कामकाज करने के लिए कर्मचारियों को मिलने वाले प्रशंसा-पत्र और नकद प्रोत्साहन पुरस्कारों के असली हकदार तो राजभाषा अधिकारी ही हैं क्योंकि हिंदी में जो कुछ भी हुआ, वह बस उन्होंने ही तो किया है! लेकिन ऐसा कहाँ होता है? हाँ, अगर हिंदी में कामकाज के प्रतिशत में तनिक भी गिरावट दर्ज हुई तो फौरन उन्हें ही जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है! जबकि सच्चाई यह है कि हिंदी में कामकाज का यह प्रतिशत विभाग के कर्मचारियों-अधिकारियों द्वारा हिंदी में किए गए कामकाज का पैमाना है, न कि राजभाषा अधिकारियों द्वारा हिंदी में किए गए काम का पैमाना! और इस प्रतिशत में जो भी घट-बढ़ होती है, वह विभागों में हिंदी में कामकाज किए-न किए जाने से सीधे-सीधे जुड़ा है, न कि राजभाषा अधिकारियों के काम करने, न करने से!

           
लेकिन जैसा कि पहले भी इंगित किया गया है, दफ्तर में हिंदी का काम मतलब अमूमन हिंदी अधिकारी का काम ही मान लिया जाता है. ऐसे में संघ की राजभाषा नीति के सतत कार्यान्वयन को गति देने की गरज से भारत सरकार द्वारा चलाई जा रही तमाम प्रशिक्षण योजनाओं और प्रोत्साहन योजनाओं यथा; हिंदी शिक्षण योजना के तहत प्राज्ञ, प्रवीण, प्रबोध परीक्षाएँ, प्रशंसा पत्र, नकद प्रोत्साहन पुरस्कार, राजभाषा शील्ड आदि-आदिका मूल उद्देश्य ही भंग हो जाता है क्योंकि ये योजनाएँ राजभाषा अधिकारियों के लिए नहीं बल्कि विभागों के समस्त कर्मचारियों-अधिकारियों को हिंदी में कामकाज करने में सक्षम बनाने और इस दिशा में उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए ही चलाई जाती हैं. लेकिन व्यावहारिक रूप में इन योजनाओं का नकदी पक्ष ही एकमात्र आकर्षण बन जाता है, हिंदी में कामकाज का पक्ष सर्वथा और सर्वत्र गौण ही हो जाता है! हाँ, इतना अवश्य है कि आम धारणा के उलट, हिंदी भाषाभाषी लोगों की तुलना में अहिंदी भाषाभाषी और विशेषकर दक्षिण भारतीय लोगों में हिंदी सीखने और हिंदी में कामकाज करने को लेकर कहीं अपेक्षाकृत ज्यादा उत्साह और समर्पण हर जगह देखने को मिलता है और हिंदी जानने वाले लोगों की तुलना में वे हिंदी में कामकाज नहीं करने के तर्क कम गढ़ते पाए गए हैं! यह स्थिति सुखद तो है ही!



अनुवाद की स्थिति और अनुवाद की चुनौतियाँ           
सरकारी दायरे के बाहर देखें तो हिंदी को न तो बाजार से चुनौती है और न ही अंग्रेजी से कोई खतरा. बाजार हिंदी को हाथों-हाथ ले रहा है और अपने कारोबार दिन दुनी, रात चौगुनी बढ़ाता जा रहा है. फिल्म, मनोरंजन और विज्ञापन की दुनिया से लेकर बिजनेसिया अखबारों, बिजनेस चैनलों और स्पोर्ट्स चैनलों आदि तक में अब हिंदी की ही धूम है. लेकिन सरकारी दायरे में देखें तो संघ की राजभाषा नीति के सतत कार्यान्वयन की दिशा में हुई तमाम सकारात्मक प्रगतियों व उपलब्धियों और स्वयं प्रधानमंत्री माननीय नरेंद्र मोदी जी द्वारा हिंदी को भरपूर तरजीह दिए जाने के वाबजूद, इस पूरे मामले में तमाम चुनौतियाँ अब भी हमारे सामने खड़ी हैं. अव्वल तो हिंदी में काम करने की सुदृढ़ मानसिकता का अभाव अब भी बना ही हुआ है. फलस्वरूप, कार्यालयों में कमोबेश सारा का सारा या कहें सारा का सारा महत्वपूर्ण कामकाज अब भी मूलत: अंग्रेजी में ही किया जा रहा है. हम जानते हैं कि सरकारी तंत्र में राजभाषा नीति और राजभाषा हिंदी के निरंतर और व्यापक प्रचार-प्रसार के दो पक्ष हैं. पहला,राजभाषा नीति के कार्यान्वयन का व्यावहारिक पक्ष.और दूसरा,अनुवाद का पक्ष.कहने की आवश्यकता नहीं कि ये दोनों ही पक्ष बेहद चुनौतीपूर्ण हैं और ये दोनों ही पक्ष विशेषकर हम राजभाषा अधिकारियों से बेहद मुस्तैदी, चुस्ती-फुर्ती, गति, चपलता, दक्षता, संप्रेषणीयता, प्रवीणता और प्रवाह की माँग करते हैं. न केवल हमारे व्यक्तित्व और हमारे व्यवहार में बल्कि हमारी भाषा, हमारे अनुवाद में भी सहजता और सरलता की माँग करते हैं!

            
यों तो विदेशों के मुकाबले हमारे देश में अनुवाद कर्म को शिक्षा तंत्र तो क्या साहित्य जगत में भी प्राय: पर्याप्त महत्व नहीं दिया जाता है और न ही इसे गंभीर अनुशासन माना जाता है. जबकि साहित्य और अनुवाद किसी मनुष्य के बिल्कुल दो हाथों की तरह ही होते हैं, जो परस्पर मिलकर जीवन और समाज को श्रम और ज्ञान से निरंतर समृद्ध करते रहते हैं. अनुवाद केवल साहित्य को ही समृद्ध नहीं करता बल्कि मनुष्य के विचारों, संस्कारों, व्यवहारों इत्यादि से लेकर उसकी प्रकृति, संस्कृति और सभ्यता तक को परिमार्जित भी करता है. अनुवाद केवल समाज को ही नहीं, बाजार को भी बल देता है. इसलिए केवल देश में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी और विशेषकर प्रकाशन जगत में अच्छे अनुवादकों की माँग हमेशा बनी रहती है. लेकिन यहाँ यह रेखांकित करना लगभग हास्यास्पद लगता है कि सरकारी व्यवस्था में अपवादों को छोड़कर अमूमन अनुवाद कर्म तो क्या अनुवाद कार्य को भी दोयम दर्जे का ही नहीं, अतिरिक्त या लगभग फालतू काम मान लिया जाता है!कार्यालयीन व्यवस्था में अनुवाद को किस हद तक तुच्छ और कितने हल्के में लिया जाता है, यह इस बात से ही समझा जा सकता है कि कोई व्यक्ति यदि ईमेल से किसी अनुवादक या राजभाषा अधिकारी के पास अनुवाद हेतु कोई सामग्री भेजता है तो ईमेल पहुँचने से पहले ही उस व्यक्ति का फोन आ जाता है- अनुवाद हो गया क्या? मानो अनुवादक या राजभाषा अधिकारी मानव न होकर जेरॉक्स मशीन हो! इधर कागज रखा नहीं कि उधर फटाक से फोटोकॉपी निकल गई! अरे भाई, यदि अनुवाद का काम इतना ही आसान है तो आप खुद क्यों नहीं कर लेते? अनुवाद का काम इतना ही आसान है तो अनुवादक या राजभाषा अधिकारी की जरूरत ही क्या है? और जिस पत्र को अंग्रेजी में तैयार करने में आपने पूरा दिन लगाया है, उसको हिंदी में रूपांतरित करने में थोड़ा वक्त तो हमें भी लगेगा! आप तो Please refer to your letter so and so dated so and so on the captioned subject जैसे मामूली अंग्रेजी वाक्यों वाले पत्रों का भी अनुवाद हमीं से कराने को आमादा रहते हैं! या तो आप इतनी सी भी हिंदी नहीं जानते हैं या फिर आप हमें 'हिंदी टाइपिस्ट'से अधिक कुछ और नहीं समझ रहे, जो हस्यास्पद ही नहीं, वरन् अपमानजनक भी है!

             
दरअसल, अनुवाद के प्रति इसी नजरिए के कारण अनुवाद में निहित श्रम, अनुवाद में लगने वाले अथाह समय और अनुवाद को अंतिम रूप देने में अनुवाद के अलावा अन्य अनिवार्यत: महत्वपूर्ण अनुषंगी कार्यों नामत: अनुवाद के पुनरीक्षण/संपादन (Vetting/Editing), अनूदित सामग्री के टंकण और अनूदित सामग्रियों के मुद्रण/प्रकाशन से पहले प्रूफ-रीडिंग आदि जैसे श्रमसाध्य व समयसाध्य कार्यों को प्राय: संज्ञान में ही नहीं लिया जाता है, अनुवाद को समुचित महत्व देने की तो बात ही छोड़िए!परिणामत: यह सीधे-सीधे मान लिया जाता है कि जो अनुवाद करेगा, वही टाइप भी करेगा, वही वेटिंग भी करेगा, वही प्रूफ-रीडिंग भी करेगा! और तो और वह चार आदमियों के काम को अकेले अंजाम देने के लिए अतिरिक्त समय तो क्या, अनिवार्यत: वांछित पर्याप्त समय की माँग भी नहीं करेगा! ऐसी स्थिति में, समयबद्ध और सटीक अनुवाद के लिए पर्याप्त संख्या में अनुवादकों या राजभाषा अधिकारियों की उपलब्धता और इस महती कार्य के लिए उनकी समुचित तैनाती की आवश्यकता और माँग पर विवेकपूवर्क विचार ही नहीं किया जाता है.जबकि थोक मात्रा में प्रतिदिन अनुवाद, अनुदित पाठों के टंकण, पुनरीक्षण/संपादन और प्रूफ-रीडिंग के लिए इक्का-दुक्का-तिक्का अनुवादकों या राजभाषा अधिकारियों की नहीं वरन् एक पूरी की पूरी टीम की जरूरत होती है जिसमें अनुवादकों के साथ पुनरीक्षक/संपादक, टंकक और प्रूफ रीडर भी अनिवार्यत: शामिल हों ताकि हरेक व्यक्ति अपना कार्य समय पर और शुद्धता व गुणवत्ता के साथ कर पाए. लेकिन अमूमन वास्तविक स्थिति ठीक इसके विपरीत होती है और एक-दो राजभाषा अधिकारी ही अनुवाद से लेकर टंकण, पुनरीक्षण/संपादन और प्रूफ-रीडिंग के काम बेताल की तरह करते रहते हैं!ऊपर से कभी कोई पचास पन्नों का अनुवाद आधे घंटे में माँग लेगा तो कोई दो सौ पेज का शोधपत्र एक दिन में अनुवाद करने को कह देगा! फलत: अनुवाद से लेकर मुद्रण की गुणवत्ता व शुद्धता पर न चाहते हुए भी प्रतिकूल असर पड़ता ही पड़ता है.

            
कार्यालयीन परिदृश्य में यह स्थिति और यह नजरिया नकारात्मक ही नहीं, घनघोर घातक भी है. हम हिंदी के लोगों को हलके में लेने की छूट आप भले ले लें, लेकिन अनुवाद के काम को हलके में लेने की भूल कतई न करें. टाइपिस्ट और ट्रांसलेटर में ठीक वही फर्क है जो मैकैनिक और इंजिनियर में है. हर कोई टाइपिंग कर सकता है, हर कोई ट्रांसलेट नहीं कर सकता. यकीन न हो तो कभी अपनी लिखी अंग्रेजी पर ही हाथ आजमा के देखिए! इसे यूँ भी समझिए कि कोई कविता रचना जितना कठिन नहीं है, कहीं उससे अधिक कठिन उस कविता का अनुवाद करना है! इसलिए अनुवाद को एक गंभीर अनुशासन माना गया है और बिल्कुल मेडिकल साइंस की तरह ही इसके सैद्धांतिक और व्यवहारिक दोनों ही पक्षों का सौ फीसदी एक समान महत्व है. इसलिए अनुवाद में स्नातक या स्तानकतोत्तर, डिप्लोमा या डिग्री का सामान्य बी.. या एम.. से कहीं ज्यादा महत्व और माँग है. यह ठीक उसी तरह है जैसे कहाँ सामान्य बीएससी या एमएससी की डिग्री और कहाँ बीटेक या एमबीबीएस की डिग्री! इसलिए विदेशों में बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों में भी अनुवाद को एक अत्यंत जिम्मेदारीपूर्ण और गंभीर अनुशासन के रूप में पढ़ाया जाता है. लेकिन कार्यालयीन परिदृश्य में Please refer to your letter so and so dated so and so on the captioned subject जैसे मामूली अंग्रेजी वाक्यों वाले पत्रों के अनुवाद कार्य को ही अनुवाद का सार और दायरा मान लिया जाता है. जबकि हिंदी कार्यशालाओं में प्रशिक्षण पा लेने के बाद, हिंदी शिक्षण योजना में प्राज्ञ, प्रवीण, प्रबोध परीक्षाएँ उत्तीर्ण कर लेने के बाद, प्रशंसा पत्र और नकद प्रोत्साहन पुरस्कार आदि प्राप्त कर लेने के बाद, माध्यमिक स्तर तक हिंदी की/में पढ़ाई कर लेने के बाद अथवा हिंदी जानने तथा हिंदी में काम करने में सक्षम होने की ऐच्छिक घोषणा करने के बाद, राजभाषा नीति के अंतर्गत आपसे नियमत: यह अपेक्षा की जाती है कि आप कम से कम साधारण, सामान्य और नेमी पत्राचार, टिप्पण, प्रारूपण आदि सीधे हिंदी में करें और कहीं कठिनाई हो तो सवर्त्र सुलभ-उपलब्ध शब्दकोश या प्रशासनिक/बैंकिंग शब्दावली देखें या राजभाषा अधिकारी से मदद लें.

            
नियमत: कार्यालयों में अनुवाद की आवश्यकता वहाँ पड़ती है जहाँ भाषायी, तकनीकी, कानूनी आदि जैसी जटिलताओं, पेंचों, कोणों से लबरेज दस्तावेज, शोधपत्र, अनुसंधान, वार्षिक रिपोर्ट, आदेश, परिपत्र, विनियमावली, अधिसूचना, अधिनियम इत्यादि जैसे कागजात पहले अंग्रेजी में तैयार किए गए होते हैं. यहीं से अनुवादक और राजभाषा अधिकारी की वास्तविक भूमिका आरंभ होती है. इसलिए ही सन् 1960 में तत्कालीन राष्ट्रपति महोदय के आदेश पर ऐसे महत्वपूर्ण दस्तावेजों के अंग्रेजी से हिंदी में विधिवत अनुवाद के लिए अनुवादकों की स्थायी नियुक्ति शुरू की गई थी. आप यहाँ सवाल कर सकते हैं कि यह सब बताने, दुहराने की जरूरत क्या है? सीधे मुद्दे पर बात की जाए. जी हाँ, मैं मुद्दे पर ही बार कर रहा हूँ. यदि समस्या और चुनौतियाँ बड़ी हों तो इनकी पड़ताल और चीरफाड़ भी पूरे विस्तार से करनी होगी. इनके प्रति कोई 'शॉर्टकट'या'कैप्सूल अप्रोच'नहीं बल्कि 'माइक्रोस्कोपिक अप्रोच'अपनाना होगा. समस्या और चुनौतियाँ- दोनों का ही एक्सरे, एमआरआई, एनाटॉमीकरनी पड़ेगी. तभी हम इस समस्या के असली कारणों की शिनाख्त कर पाएँगे और चुनौतियों का मजबूती से सामना कर पाएँगे.



अनुवाद-कर्म यानी 'नॉलेज ऑन्ट्रेप्रेन्योरशिप'          
सबसे पहले तो हमें अनुवाद कर्म को गंभीरता से लेना होगा. इसे एक गंभीर और अत्यंत बौद्धिक अनुशासन मानना होगा. इसे यहाँ भी वह इज्जत देनी ही होगी, जिसकी यह हकदार है. जब हम कहते हैं कि हम 'नॉलेज इंस्टीट्यूशन'हैं, तो यहाँ अनुवाद को भी 'नॉलेज-बेस्ड एक्टिविटी'माननी होगी, 'प्रोडक्टिव एनडेवर'मानना होगा, 'नॉलेज ऑन्ट्रेप्रेन्योरशिप'मानना होगा, जो वास्तव में यह है. जब हम अनुवाद कर्म को यह अनिवार्य सम्मान और स्थान दे देंगे, तभी हम कार्यालय में अनुवाद की समस्याओं और चुनौतियों का सार्थक ढंग से सामना कर पाएँगे. कार्यालयों में अकसर कहा जाता है कि किसी पत्र-परिपत्र आदि का हिंदी अनुवाद तो पढ़ने लायक ही नहीं होता है. पहली बात तो यह कि अकसर हिंदी पाठ पढ़े बिना ही ऐसे आरोप मढ़ दिए जाते हैं. और यह आरोप यदि अंशत: सच भी हो तो इसके लिए अनुवादक पूर्णत: जिम्मेदार कतई नहीं है. इसके लिए मूल अंग्रेजी पाठ भी जिम्मेदार है, जिसमें पुच्छले जोड़-जोड़कर वाक्यों को सर्पाकार, लच्छेदार, घुमावदार, उलझावदार, पेंचदार और न जाने क्या-क्या और कैसा-कैसा बना दिया जाता है! ऐसे में हिंदी पाठ भी न चाहते हुए भी थोड़ा बहुत जटिल हो ही जाता है क्योंकि अनुवादक ऐसे मामलों में चाहकर भी ज्यादा छूट नहीं ले पाता है.और किसी ने ले भी लिया तो उसे फौरन लाईन हाजिर कर दिया जाता है- भाई, अंग्रेजी में तो यह एक सेंटेंस है, हिंदी में तीन सेंटेंसेज कैसे हो गए? लेकिन मेरा यकीन करें, ऐसी स्थिति में भी यदि किसी जटिल और भारी-भरकम अंग्रेजी पाठ का भी सटीक-सहज अनुवाद किया जाता है तो इसका हिंदी पाठ अपने मूल अंग्रेजी पाठ से कहीं ज्यादा जल्दी समझ में आ जाता है और इसमें भाषा का प्रवाह, सहजता और संप्रेषणीयता अंग्रेजी के मुकाबले कहीं अधिक बेहतर होती है. जब कोई हिंदी पाठ पढ़ने की जहमत ही नहीं उठाएगा तो उसे क्या खाक समझ में आएगा कि "जो बात हिंदी में है, वह किसी और में कहाँ?"स्टार क्रिकेट चैनल में कपिलदेव भी तो यही कहते हैं!





लद्धड़ अंग्रेजी बनाम स्मार्ट हिंदी        
दरअसल, हमारी कार्यालयी अंग्रेजी अभी भी क्वीन्स इंगलिश, विक्टोरियन इंगलिश, ब्रिटिश इंगलिशके अतीतानुरागी प्रभाव यानी 'नॉस्टेल्जिया'से बाहर नहीं निकल पाई है या हम ही उसे बाहर नहीं निकाल रहे ताकि अंग्रेजी की थोथी धौंस बनी रहे! परिणामत: यह पुरानी अंग्रेजी अब भी जबरन ढोए जा रहे लैटिन, ग्रीक, फ्रेंच, डच मुहावरों, आयतित जारगनों समेत तमाम तरह के दुहरावों, अवांछित उलझावों आदि-आदि से बुरी तरह ग्रस्त है और इसलिए भी वह स्वयं त्रस्त है. अब इस अंग्रेजी को बाजार की अंग्रेजी की तरह "क्रिस्पी, क्रंची, शॉर्ट एंड स्ट्रेट और टू दी प्वाईंट"होने की जरूरत है! संतोष की बात यह है कि भारत सरकार के शीर्ष स्तरों पर यानी मंत्रालयों आदि के वरिष्ठ अधिकारियों आदि के पत्राचार आदि में अब चुस्त-दुरूस्त अंग्रेजी देखने को मिलने लगी है. हालाँकि अब बतौर भाषा अंग्रेजी को भी यह समझ में आ गया है कि यदि शासन-तंत्र और बाजार में आ रहे बदलावों के डिजिटल दौर में अपने पाँव टिकाए रखना है तो उसे भी लंबे-लंबे वाक्यों, लैटिन-फ्रेंच-ग्रीक पदावलियों-शब्दावलियों और लच्छेदार, घुमावदार, पेंचदार, मगजमार बुनावट-बनावट से बाहर आना ही होगा, खुद को छोटे-छोटे, सहज-सरल वाक्यों और "मॉडर्न-क्रिस्पी-क्रंची-स्ट्रेट इंगलिश"के शब्दों-पदों से लैस करना होगा और दुहराव-तिहरावग्रस्त शब्दों, वाक्यों और विन्यासों से खुद को मुक्त करना होगा!

            
जहाँ तक राजभाषा हिंदी का सवाल है तो इस मामले में यानी अपने को चुस्त-दुरूस्त, सरल-सहज-पठनीय बनाने में राजभाषा हिंदी यानी सरकारी हिंदी सरकारी अंग्रेजी से बहुत आगे निकल गई है और वह बोलचाल की हिंदी के बहुत करीब आ गई है. जो लोग राजभाषा हिंदी पर क्लिष्ट, संस्कृतनिष्ट और दुरूह होने का लांछन लगाते हैं, उनसे मैं बहुत विनम्रतापूर्वक कहना चाहता हूँ कि सरलता-सहजता के नाम पर सरकारी कामकाज में हम 'letter'को 'पत्र'की जगह 'पाती'लिखें, 'Correspondence'को 'पत्राचार'की जगह 'चिट्ठी-पतरी'लिखें, 'Dance & Music'को 'नृत्य-संगीत'की जगह 'नाच-गाना'लिखें, 'Dance & Drama'को 'नृत्य एवं नाटक'की जगह 'नाच-नौटंकी'लिखें, 'Order'को 'आदेश'की जगह 'फरमान'लिखें या इसी तर्ज पर सबकुछ तो बोलचाल की हिंदी के नाम पर यह न केवल राजभाषा का मजाक बनाना होगा बल्कि एक सुपरिभाषित कार्यपद्धति और प्रणाली का भी अपमान होगा क्योंकि हरेक 'सिस्टम'का एक 'डेकोरम'होता है और हरेक क्षेत्र-विशेष (यथा, बैंकिंग, प्रशासन, विज्ञान, विधि, अनुसंधान, उड्डयन, प्रौद्यगिकी, चिकित्सा आदि-आदि) में प्रयुक्त होने वाली भाषा की अपनी एक विशिष्ट शब्दावली और पदावली होती है, उसका अपना एक 'डिक्शन'होता है, अपना एक 'लिंग्विस्टिक-रजिस्टर' (विशिष्ट शब्द-चयन एवं लेखन-शैली) होता है.मतलब यह कि आप राजभाषा हिंदी में सोलह आने सहजता-सरलता की अपेक्षा नहीं कर सकते क्योंकि यहाँ भी आदेश, ज्ञापन, निर्णय, नियम, उप-नियम, विनियम, अधिनियम, कानून, विधि, प्रावधान, राजपत्र, परिपत्र, शुद्धिपत्र, प्रतिवेदन, विज्ञप्ति, अनुज्ञप्ति, निविदा, संविदा, समझौते, करार, प्रणालियाँ, पद्धतियाँ, प्रक्रियाएँ, संहिताएँ, कार्रवाई, सिद्धांत, सूचना, अधिसूचना, प्रतिसूचना, संकल्पनाएँ, विधान-संविधान इत्यादि-इत्यादि होते हैं! ये सब के सब तथ्य और कथ्य में गूढ़-गंभीर ही नहीं, बल्कि तकनीकी और कानूनी निहितार्थों से आदि से अंत तक लैस होते हैं! तो इसकी हिंदी भी न चाहते हुए भी कुछ तो जटिल होगी ही! बावजूद इसके मैं यह दावे से कह सकता हूँ कि यदि इस तरह के दस्तावेजों को लद्धड़ अंग्रेजी से मुक्त कर दी जाए तो इनके हिंदी पाठ भी समतल-सपाट हो जाएँगे! लेकिन इससे भी सुंदर बात तब होगी जब इन दस्तावेजों को सीधे हिंदी में तैयार की जाए और जैसा हम सोचते हैं, जो हम कहना चाहते हैं, वही जस का तस कहा जाए. तभी राजभाषा नीति का वास्तविक अमलीकरण हो पाएगा.





बैंकिंग साहित्य का अनुवाद            
जहाँ तक बैंकिंग साहित्य के अनुवाद का मामला है तो मुझे यह कहने में तनिक भी हिचक नहीं कि बैंकिंग और आर्थिक जगत में नित नई अवधारणाएँ बन-बिगड़ रही हैं, रोज नए सिद्धांत गढ़े-तोड़े जा रहे हैं. रोज नई पद्धतियाँ-प्रणालियाँ लगाई-हटाई जा रही हैं. ऐसे में इन पर अंग्रेजी में लिखने वाले लोग स्वयं भी थोड़े अकबकाए-से लग रहे हैं. इसलिए उनकी अंग्रेजी में भी अकबकाहट-गड़बड़ाहट दिख रही है! कई बार जो वे लिख रहे होते हैं, वह खुद उन्हें भी पूरा-पूरा समझ में नहीं आ पाता है या फिर पूछने पर वे हमें नहीं समझा पाते हैं. इसमें न उनका दोष है, न हमारी कमी. दरअसल, इस वैश्विक दौर में बैंकिंग और आर्थिक सैद्धातिंकी में अधिकांश सिद्धांत व अवधारणाएँ विदेशों में गढ़ी जा रही हैं और उनके संदर्भ भी भारतीय नहीं, पाश्चात्य होते हैं. ऐसे में उनको भारतीय संदर्भों में अभिव्यक्त करना स्वयं चुनौतीपूर्ण होता है. हम विदेशी संदर्भों में प्रयुक्त शब्दों, पदों, मुहावरों, जारगनों, अभिव्यक्तियों आदि को सीधे-सीधे उठा लेते हैं और अपनी अंग्रेजी में रख देते हैं. इस स्थिति में जब खुद अंग्रेजी का भारतीय संस्करण तैयार नहीं हो पाता है तो इनका हिंदी संस्करण तैयार करना कठिन तो होगा ही! तब भी यदि हम अंग्रेजी पाठ को पढ़ने के अतिरिक्त आग्रह से बचते हुए यदि इनके हिंदी अनुवाद पढ़ें तो आपको कई बार लगेगा कि हिंदी पाठ सिर्फ बेहतर ही नहीं, बल्कि बेहद पठनीय भी है और अनुवादकों ने बहुत संजीदगी से भारतीय संदर्भ को संज्ञान में लेते हुए इनका अनुवाद किया है.

             
इसलिए बैंकिंग साहित्य के हिंदी अनुवाद में भाषा की रवानियत, सहजता, सरलता, पठनीयता और संप्रेषणीयता बनाए रखने के लिए यह आवश्यक है कि इनके अनुवाद करने वाले अनुवादकों और राजभाषा आधिकारियों को स्वयं को सतत अपडेट करना होगा, इनको ध्यान में रखकर डिजाईन की गई अनुवाद कार्यशालाओं में नियमित भाग लेते रहना होगा, निरंतर स्वाध्याय, संवाद, अध्ययन और अभ्यास में बने रहना होगा क्योंकि अनुवाद सतत अभ्यास, सतत परिमार्जन, सतत संशोधन और अंतत: सतत सीखने की प्रक्रिया है. लेकिन इन सब बातों से पहले अनुवादकों और राजभाषा अधिकारियों को संबंधित बैंकिंग विभागों की मुख्यधारा में साग्रह शामिल करना होगा. इसके अलावा विभागों को भी बैंकिंग साहित्य और नियमित प्रकाशनों के सुचारू पठनीय अनुवाद के लिए हमें पर्याप्त समय देना होगा क्योंकि यह अनुवाद सामान्य अनुवाद की श्रेणी में नहीं बल्कि तकनीकी अनुवाद की श्रेणी में आता है. अनुवाद में लगने वाले श्रम, समय, मनोयोग, एकाग्रता इत्यादि को ध्यान में रखते हुए गृह मंत्रालय, भारत सरकार के राजभाषा विभाग ने तो इन दो श्रेणियों के लिए अनुवादकों द्वारा प्रतिदिन अनुवाद किए जाने की शब्द-सीमा भी तय कर दी है ताकि अनुवाद का स्तर खराब न हो और उसकी पठनीयता-संप्रेषणीयता बनी रहे. उनके परिपत्र के मुताबिक, सामान्य अनुवादकी शब्द-सीमा1750 (लगभग दो हजार) शब्द प्रतिदिनऔर तकनीकी अनुवादकी शब्द-सीमा1350 (लगभग डेढ़ हजार)शब्द प्रतिदिनहै, जिसे अब भी इतना ही रखा गया है.कहने का आशय यह कि अनुवाद कर्म को हल्के में नहीं बल्कि पर्याप्त गंभीरता से लिए जाने की जरूरत है और जहाँ नियमित प्रकाशनों के समयबद्ध और सटीक अनुवाद चाहिए, वहाँ अनुवाद के लिए पर्याप्त समय और पर्याप्त संख्या में अनुवादक, टंकक और पुनरीक्षक (vetters) तैनात करने की आवश्यकता है.संसद के लोकसभा सचिवालयऔर राज्यसभा सचिवालयमें नियमित और समयबद्ध अनुवाद की समुचित व्यवस्था है और सरकारी तंत्र में अनुवाद व्यवस्था का यह अत्यंत सफल उदाहरण है, जहाँ अनुवाद कार्य के लिए "Translation and Editorial Services"के नाम से एक पूरा का पूरा महकमा ही है.

            
कुछ ऐसी ही व्यवस्था हमें उन सभी विभागों में भी करनी होगी जहाँ थोक मात्रा में प्रतिदिन अनुवाद करने की आवश्यकता है. वहाँ इक्का, दुक्का या तिक्का अनुवादकों या राजभाषा अधिकारियों से काम नहीं चलेगा. अन्यथा अनुवाद की गुणवत्ता पर न चाहकर भी प्रतिकूल असर पड़ेगा, क्योंकि वहाँ अनुवाद के अलावा, अनूदित सामग्री का पुनरीक्षण, संपादन, टंकण, प्रूफ-रीडिंग जैसे अनिवार्यत: अनुषंगी और समयबद्ध कार्य शामिल होते हैं जिन्हें 'रियल टाइम'में अंजाम तक पहुँचाना होता है. इसके अलावा जैसे अन्य विभागों के अधिकारियों को बैंकिंग व आर्थिक जगत में नित हो रहे बदलावों और घटनाक्रमों से अवगत कराने के लिए प्रशिक्षण, सम्मेलन, कार्यशाला इत्यादि में नियमित रूप से भेजा जाता है, ठीक वैसे ही सभी राजभाषा अधिकारियों को नियमित अनुवाद-प्रशिक्षण देना होगा. उनका नियमित उन्मुखीकरण करना होगा. तभी उनकी दक्षता, प्रवीणता और क्षिप्रता में दिनोंदिन बढ़ोतरी होगी, उनकी समझ निखरेगी और तब जाकर उनका अनुवाद निखरेगा. तभी जाकर हर कोई कह पाएगा कि "देखो, यह हिंदी पाठ तो इसके अंग्रेजी पाठ से भी बढ़िया है!"
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राहुल राजेश
सहायक प्रबंधक (राजभाषा), भारतीय रिज़र्व बैंक, गाँधी पुल के पास, आश्रम रोड, अहमदाबाद-380014 (गुजरात). मो.: 09429608159
ईमेलrahulrajesh2006@gmail.com

परिप्रेक्ष्य : आओ, हिंदी- हिंदी खेलें : राजीव रंजन गिरि

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आओ, हिन्दी-हिन्दी खेलें                                                 
राजीव रंजन गिरि


सितम्बर में हिंदी के बारे में जरा जोर से शोर सुनायी पड़ता है. जिधर जाएँ ज्यादातर सरकारी और कुछ गैर सरकारी संस्थाओं में हिंदी सप्ताह या हिंदी पखवाड़ा का बैनर दिखेगा. 14सितम्बर को हिन्दी दिवसहोने की वजह से उस दिन रस्म अदायगी की जाती है. विद्वान वक्ताओं को बुलाया जाता है और हिन्दी की मौजूदा स्थिति और भविष्य पर विचार किया जाता है. इस तरह की रस्म अदायगी के कार्यक्रमों में हिंदी की दारुण स्थिति के लिए खूब मर्सिया पढ़ा जाता है. ऐसे विद्वान वक्ताओं की बात पर गौर करें तो पाएंगे कि इनकी बातों में एक किस्म का फांक है. पता नहीं, वे लोग इन फांक पर क्यों नहीं नजर डालते. मसलन, हिंदी को लेकर होने वाले इन सेमिनारों में हिंदी की बढ़ती व्याप्ति और इसके प्रसार का जिक्र अभिमानपूर्वक किया जाता है. भाषा के तौर पर हिंदी का तेज रफ्तार से हो रहे विस्तार पर अभिमान करना स्वाभाविक भी है. परंतु हिंदी की बिगड़ती प्रकृति का जब मर्सिया पढ़ा जाता है तब थोड़ी देर पहले प्रकट किए अभिमान के वास्तविक कारकों को भूला दिया जाता है. कहने का आशय यह है कि हिंदी भाषा की बढ़ती व्याप्ति का एक बड़ा कारक बाजार, मीडिया और फिल्म उद्योग है. इन सबने हिंदी का ज्यादा प्रचार-प्रसार किया है. उन लोगों की बनिस्पत जो हिंदी का सिर्फ खेल खेलते हैं. और यह भय फैलाते रहते हैं कि वह दिन दूर नहीं जब हिंदी बिल्कुल बिगड़ जाएगी. ऐसे भयाक्रांत लोगों की बातों से दबे रूप में यह भी प्रगट होता है कि क्या पता हिंदी समाप्त ही न हो जाए! जिस फांक की चर्चा थोड़ी देर पहले की गयी है वह यह है कि जिन कारकों पर हिंदी को बिगाड़ने के लिए रोष प्रगट किया जाता है, असल में वे ही कारक हिंदी की व्याप्ति पर अभिमान प्रगट करने का अवसर भी प्रदान करते हैं.

हिंदी के बिगड़ने का मर्सिया पढ़ने वाले ज्यादातर लोगों के परेशानी का सबब यह है कि इनके लिए आज भी हिंदी एकवचन के तौर पर ही है. जबकि मौजूदा दौर में हिंदी एकवचन न रहकर बहुवचनका रूप धारण कर चुकी है. यानी अब हिंदीनहीं हिंदियोंकी बात करनी होगी. जब भी किसी खास माध्यम की हिंदी को ही निर्धारक मानकर-बताकर शेष हिंदियोंको उस परखा जाएगा, निश्चित तौर पर गलत नतीजा निकलेगा. साहित्य की विभिन्न विधाओं की हिंदी को कसौटी बनाकर दूसरे माध्यमों मसलन प्रिंट-इलेक्ट्रानिक मीडिया या फिल्म की हिंदी का जब-जब मूल्यांकन किया जाएगा, तब-तब मर्सिया गाने के अलावा दूसरा रास्ता नहीं दिखेगा. क्या इस बात की पड़ताल करने की जरुरत नहीं है कि ऐसे मर्सिया गानेवाले लोगों को इस सवाल का अध्ययन करना चाहिए कि हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार में किसकी भूमिका ज्यादा है? हालाँकि हिंदी के प्रचार-प्रसार में जिन माध्यमों की भूमिका कमतर दिखेगी, उनका महत्व इससे कम नहीं हो जाएगा. फिर भी यह जानना जरुरी होगा कि प्रचार-प्रसार में किसकी भूमिका कितनी है. ऐसा करने पर हिंदी की मर्सिया पढ़नेवालों का ध्यान हिंदी के विविध रूपों पर जाएगा. यानी कई तरह की हिन्दियांदिखेगी. और सबके अलग-अलग महत्व का भी अहसास होगा.
         
बहरहाल, इतिहास गवाह है कि खड़ी बोलीसे आधुनिक हिंदी के रुपांतरण की प्रक्रिया में बाजार की एक बड़ी भूमिका रही है. इसी बाजार ने इसका व्यापक प्रचार-प्रसार भी किया है. जाहिर है इसकी अपनी शर्त और इसका अपना खास मकसद भी रहा है. यह कहकर भाषा को गढ़ने और इसके स्वरूप का निर्धारण करने वाले दूसरे कारकों को न तो भुलाया जा रहा है न ही इनके महत्व को कम करने की कोशिश की जा रही है. भाषा का निर्धारण बाजार के अलावा समाज और विभिन्न संस्थान भी करते हैं. इसके निर्धारण के पीछे इन सबका अपना-अपना मकसद भी होता है. अपने-अपने मकसद के मुताबिक सभी अपनी भाषा गढ़ते और प्रयोग करते हैं. कुछ जगह यह प्रक्रिया सचेतन तो कुछ जगह अचेतन रूप से चलती रहती है.
         
जब इन मुद्दों पर विचार किया जाता है तब इसी से जुड़ा एक और सवाल उभरकर सामने आता है. वह सवाल है कि अच्छी हिंदी कौन है?’ आखिरकार अच्छी हिंदी किसे माना जाए? इस अच्छाई के निर्धारण की कसौटी क्या होगी? साथ ही यह भी कि जिसे हम अच्छी हिंदी मान लेंगे, क्या उसे मानक का दर्जा देकर सबपर लादना उचित होगा?  यहाँ  उचित-अनुचित के सवाल को अगर थोड़ी देर के लिए छोड़ दें तो भी क्या यह मानक हिंदी इस भाषा के विस्तार के लिए मददगार होगी? लिहाजा हम हिंदी के किसी एक रूप को मानक घोषित कर इसकी अच्छाई के पक्ष में भले ही जितना तर्क दे दें और संभव है वे तर्क बिल्कुल जायज भी हों, लेकिन उससे हिंदी का प्रचार-प्रसार और विस्तार बाधित होगा.
         
दरअसल हिंदी का लचीलापन ही इसकी सबसे बड़ी खूबी है. अपनी इसी तरह की खूबियों के कारण इस भाषा की व्याप्ति बढ़ती जा रही है. लिहाजा अनेक हिंदियोंको किसी एक हिंदीमें फिक्स करने से उसके प्रसार पर बुरा असर पडे़गा. फिलहाल थोड़ी देर के लिए अखबार, इलेक्ट्रॅानिक चैनल और फिल्म में प्रयोग की जाने वाली हिंदी भाषा को नजरअंदाज कर दें, क्योंकि मर्सिया पढ़ने वाला जमात बिगड़ती हिंदी का उदाहरण यहीं से देता है और हिंदी को बिगाड़ने के लिए खास तौर से इन्हें ही जिम्मेवार मानता है. साथ ही साहित्य के सिर्फ एक विधा उपन्यास के मद्देनजर गौर करें तो किस हिंदी को अच्छी हिंदी मानेंगे? अच्छी हिंदी के निर्धारण में रोजमर्रा की जिंदगी में रच-बस गये अंग्रेजी शब्दों के लिए छूट और लोकभाषाओं के शब्दों के पुट के लिए जगह होगी या नहीं? हालाँकि आजकल अंग्रेजी के शब्दों के प्रयोग के साथ ही नाक-भौं ज्यादा सिकोड़ा जाता है. फिर भी यह पूछना जरूरी है लोकभाषाओं के विभिन्न शब्दों के लिए अच्छी हिंदीमें कितनी जगह होगी? अगर इनके लिए भी जगह नहीं होगी तो फणीश्वर नाथ रेणु (मैला आंचल), कृष्णा सोबती (जिंदगीनामा), अब्दुल्ल बिस्मिल्लाह (झीनीं-झीनीं बीनी चदरिया), एस. आर. हारनोट (हिडिंब) के उपन्यासों की हिंदी भी अच्छी हिंदीकी श्रेणी में नहीं आएगी. जबकि इन चारों महत्वपूर्ण रचनाकारों ने लोकभाषाओं के पुट से अपनी हिंदी की प्रकृति को बेहतरीन बनाया है. इसी के साथ यह सवाल भी जुड़ा है कि अंग्रेजी या विभिन्न लोकभाषाओं के शब्दों के उपयोग का अनुपात क्या होगा? इस अनुपात को तय करने की कसौटी क्या होगी? बहरहाल जीवन में, बोलचाल में जो शब्द रच-बस गये हैं उनसे नाक-भौं सिकोड़ना कहाँ तक उचित है? क्या बोलने और लिखने की भाषा में फर्क होना चाहिए? यहाँ हिंदी के प्रसिद्ध कवि भवानी प्रसाद मिश्र की चर्चित पंक्ति को याद करें तो शायद नाक-भौं का सिकोड़ना कम हो जाए.

‘‘जिस तरह तू बोलता है
उस तरह तू लिख और उसके बाद भी
सबसे अलग तू दिख.’’
         
पिछले करीब डेढ़ दशक में जबसे आर्थिक भूमंडलीकरण की प्रक्रिया तेज हुई है, हिंदी का विस्तार भी हुआ है. इसके साथ ही विभिन्न नये तकनीकों के प्रचार-प्रसार से भी हिंदी का एक नया रूप बनता दिख रहा है. विज्ञापन और विभिन्न माध्यमों के जरिये भी हिंदी का एक नया रूप विकसित हुआ है. हिंदी में नित्य बदलती परिस्थितियों के साथ अपना रिश्ता बनाया है और अपना विस्तार किया है. दरअसल नई परिस्थितियों के साथ बन रही हिंदीका रूप ही मर्सिया पढ़ने वाले जमात को परेशान कर रहा है. इसलिए हिंदी खुद भी विमर्श का विषय बनती जा रही है. जरूरी है, किसी एक तरह की हिंदी का कट्टर समर्थन करने की बजाए इसके बहुवचन रूप यानी अनेक हिंदियोंके अस्तित्व को उदार मन से स्वीकार किया जाए. इसी के जरिये हमारी हिंदी का विस्तार भी होगा और संरक्षण भी. लेकिन हिंदी-हिंदी खेलने वाले लोगों का ध्यान इस पहलू पर नहीं है.
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पताः बी-5/302, यमुना विहार,दिल्ली-110053,मोबाईलः 9868175601

हस्तक्षेप : विकल्प की पत्रकारिता : संजय जोठे

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भारत में हिंसक-साम्प्रदायिक शक्तियों  के बेखौफ होने का यह (कु) समय है. विचारकों – साहित्यकारों की हत्याएं हो रहीं हैं. संस्थाओं पर जाहिल-कुंदजहन सरदारों की ताजपोशी हो गयी है. प्रगतिशील पत्रकारों को धमकाया डराया जा रहा है. भारत की साहित्य और पत्रकारिता अपने आरम्भ से ही एक उदार मानवतावादी प्रगतिशील दृष्टिकोण के साथ आगे बढ़ी थी पर आज वह क्यों बेबस नजर आ रही है?

संजय जोठे का विचारोत्तेजक आलेख जो विरोध के साथ-साथ विकल्प की भी आवश्यकता को रेखांकित करता है.


विकल्प की पत्रकारिता की जरूरत : संजय जोठे                                   



भारत के प्रगतिशील साहित्यकार और पत्रकारों के साथ क्या हो रहा है यह अब चिंता और चिंतन का विषय बन गया है. रवीश कुमार के साथ या अन्य किसी भी प्रगतिशील साहित्यकार के साथ जो हो रहा है उसे गौर से देखने और समझने की जरुरत है. प्रगतिशील साहित्यकारों, ब्लागरों और चिंतकों सहित सार्वजनिक जीवन में सक्रीय प्रगतिशीलों पर हमले बढ़ गये हैं. हालत ये है कि अब फेसबुक पर सक्रिय प्रगतिशीलों के साथ भी गुंडागर्दी होने लगी है. ये भारत को पाकिस्तान या अफगानिस्तानबनाने का विराट षड्यंत्र है जिसे दुर्भाग्य से इस देश का बहुसंख्यक वर्ग अनजाने ही समर्थन दे रहा है. याद कीजिये जब पाकिस्तान या अफगानिस्तान की संस्कृति बर्बादी के कगार पर खडी थी या बर्बाद की जाने वाली थी तब भी धर्म और संस्कृति को हथियार बनाकर ही लोगों को सम्मोहित किया गया था. अभी भी वे मुल्क अगर उस दलदल से बाहर नहीं निकल पाए हैं तो इसका कारण यही है कि धर्म और संस्कृति का सम्मोहन टूट ही नहीं रहा है. यह सम्मोहन बरकरार रहे इसके लिए उन देशों में न सिर्फ मुख्य धारा के समाज में धर्म के सबसे पिछड़े और आक्रामक स्वरुप को चर्चा और प्रचार में ज़िंदा रखा जा रहा है बल्कि उसके समर्थन में आतंकवादी संगठन और अतिवादी सांस्कृतिक संगठन भी सक्रिय हो गए हैं. ये दशकों पुरानी बीमारी है. इसका परिणाम क्या है ये हम देख रहे हैं.

दुर्भाग्य से यह भारत में भी शुरू हो गया है. इस बात के लिए संस्कृति और धर्म के ठेकेदारों को दोष देने का या उनकी निंदा करने का कोई अर्थ नहीं है. वे इसीलिये बने हैं और वे ऐसा करेंगे ही. उनके व्यवहार और आचरण से आश्चर्य और दुःख होने का सवाल ही नहीं है. आश्चर्य और दुःख इस बात का है कि भारत के प्रगतिशील वर्ग में भी एक आत्मघाती या नकारात्मक प्रवृत्ति बहुत लंबे समय से बनी हुई है. वो प्रवृत्ति है आलोचना ही करते रहने की प्रवृत्ति” , साहित्य एक अर्थ में पत्रकारिता भर बन चुका है. कम से कम प्रचलित साहित्य इसी अर्थ में है. यह बहुत भयानक निर्वात की स्थिति है. इसका सीधा सीधा अथे ये है कि पुराने धर्म के ठेकेदारों का सम्मोहन इतना अधिक है कि साहित्यकार वर्ग भी उनसे आजाद नहीं है. साहित्यकार भी पुराने धर्म की निंदा या आलोचना करके उस धर्म या संस्कृति से ही जुडा रहना चाहता है. पुराने धर्म से या किसी भी अन्य बात से जुड़े रहने के दो तरीके होते हैं या तो आप उनकी प्रशंसा करें या निंदा करें. दोनों अर्थ में आप उनसे जुड़े होते है. उस धर्म या संस्कृति से मुक्त होने के भी दो मार्ग हैं. पहला - उसकी उपेक्षा या दूसरा - नए धर्म और संस्कृति की प्रशंसा, स्थापना और प्रचार. सीधी बात ये है कि आप जिस चीज को बदलना चाहते हैं उसका विकल्प तो लाइए. बिना विकल्प लाये अगर पुराने की ही निंदा करते जायेंगे तो पुराने का सम्मोहन बढेगा कम नहीं होगा. ये बात पूरे साहित्यिक वर्ग को पत्रकारों को और प्रगतिशीलों को समझनी चाहिए.

हिदी का या अन्य भाषा के साहित्य का भी अधिकाँश हिस्सा और पत्रकारों की बिरादरी का बड़ा हिस्सा इस तरह की आलोचना और निंदा से भरा हुआ है. इसे देखकर आश्चर्य और दुःख होता है. ये सभी लोग मनोविज्ञान के एक सामान्य से नियम का सम्मान नहीं कर पा रहे हैं. नियम ये है कि निकृष्ट की निंदा से निकृष्ट का प्रचार ही होता है. इसकी बजाय करना ये चाहिए कि श्रेष्ठ का प्रचार किया जाए. समाज में जो श्रेष्ठ विचार है, कृत्य हैं, श्रेष्ठ उदाहरण हैं और सकारात्मक काम हो रहा है उसका प्रचार करें. लेकिन यहाँ एक बहुत भयानक सवाल उठता है. ये सवाल पूरे साहित्यिक और पत्रकार जगत को कटघरे में खड़ा करता है. कई मित्रों को ये बात बुरी लग सकती है लेकिन इस पर चर्चा का समय अब आ गया है.

अक्सर ही यह माना जाता है कि छिद्रान्वेषण, और आलोचना ही साहित्य और पत्रकारिता है. साहित्य के सिद्धांतों या  पत्रकारिता के सिद्धांतों में भले ही ये बात अस्वीकार की जाती हो लेकिन प्रचलित साहित्य और अखबार व टीवी की पत्रकारिता को देखकर तो यही लगता है कि साहित्य और पत्रकारिता का एकमात्र मतलब है आलोचना और निंदा. अब सवाल ये उठता है कि आपकी आलोचना या निंदा से समाज में होता क्या है? हमारे साहित्यकार और पत्रकार ये मानकर चलते हैं कि उनकी आलोचना बड़ी महान चीज है. एक अर्थ में है भी क्योंकि यह व्यवस्था की कमी को उजागर करती है. लेकिन कमी उजागर करने के बाद उस कमी को दूर करने की जिम्मेदारी किसकी है? ये बहुत भयानक सवाल है और इसका उत्तर निराश करने वाला है. आपकी सब निंदाओं आलोचनाओं के बाद क्या आप त्रुटिसुधार और नवनिर्माण के लिए कोई संगठित या सुविचारित मंच या आन्दोलन या तंत्र बना पाते हैं? या सिर्फ उसी धर्म और उसी सरकार के भरोसे बैठे रहते हैं? ये बड़ा सवाल है.

इस सवाल को दुसरे ढंग से समझिये. आपकी निंदा और आलोचना से जो निर्वात निर्मित होता है उसे भरने के लिए या नवनिर्माण को साधने के लिए आपकी निर्भरता किस पर है? और इससे भी बड़ा सवाल ये कि ऐसे किसी भी नवनिर्माण का नक्शा आपके पास है भी या नहीं है? दूसरा सवाल पहले से भी बड़ा है. असल में दूसरा सवाल पहले सवाल का उत्तर है. अगर गौर से देखा जाए तो समझ में आता है कि जो साहित्यकार और पत्रकार पुराने धर्म की किसी प्रवृत्ति का विरोध कर रहे हैं या पुराने ढंग के राजनीतिक सामाजिक दर्शन की या सरकार के ढर्रे की आलोचना कर रहे हैं, उन लोगों में नये धर्म या नास्तिकता या नए समाज/राजनीतिक दर्शन के बारे में क्या और कितना पता है? सिद्धांत में नहीं बल्कि उसके व्यावहारिक और सफल प्रयोग के बारे में कितना पता है? वैसे समाजवाद, मार्क्सवाद नास्तिकता या बौद्ध धर्म या जैन धर्म के बारे में सैद्धांतिक ज्ञान रखने वाले बहुत लोग मिल जायेंगे लेकिन इनका कहाँ किस तरह सफल प्रयोग हुआ है और उस सफलता का वृहत्तर समाज के लिए क्या उपयोग या संभावनाएं हैं ये वे नहीं जानते.

इसका क्या अर्थ हुआ? एक अर्थ ये है कि वे ऐसी केस स्टडीज को नहीं जानते. दूसरा और भयानक अर्थ ये है कि वे असल में बदलाव चाहते ही नहीं हैं. वे नयी स्थापना की बजाय पुरानी व्यवस्था की निंदा में ही अपनी शक्ति लगाए रखते हैं. ये सब सहज ही नहीं हो रहा है यह एक बड़ा षड्यंत्र है जो प्रगतिशीलता के नाम पर चल रहा है. इसीलिये तथाकथित प्रगतिशीलों, वामपंथियों और नास्तिकों की फ़ौज इस देश में होने के बावजूद सत्ता और व्यवस्था पर पुराने धर्म और संस्कृति का ही रंग चढा हुआ है, और मजबूत हुआ जा रहा है. जनता ने प्रगतिशीलों की नहीं सुनी और पिछले चुनाव में जनता ने इस प्रगतिशीलता की पूरी पोल खोलकर रख दी है. इस बात पर भी प्रगतिशीलों लेखकों और पत्रकाओं में कोई भूचाल नहीं आया. वे मजे से अपना एकांगी निंदा कर्म चलाए जा रहे हैं. असल में ऐसा करना उनकी मजबूरी बन चुका है. शायद ये मजबूरी भी नहीं है उनका सुविधापूर्ण चुनाव है.

कल्पना कीजिये कि कोई एक डाक्टर है वह केंसर स्पेशलिस्ट है. अब उसका धंधा कैसे चलेगा? अगर वो कैंसर की निंदा करें, कैंसर का आधा अधूरा इलाज करे और समाज में कैंसर को बनाए रखे तभी उस डाक्टर का धंधा बना रहेगा. इस दृष्टि से भारतीय साहित्य और पत्रकारिता को देखिये. वे पुरानी परम्परा की निंदा करते हैं, उसके बुरे परिणामों को उजागर करते हैं उसके बारे में भय पैदा करते हैं लेकिन नए धर्म, नई संस्कृति और नई जीवन व्यवस्था के उदाहरण सामने नहीं लाते. वे सब उसी पुरानी सडांध की चर्चा में देश की जनता को उलझाए रखते हैं.

पत्रकारिता तो खैर बहुत अर्थ में बाजार की गुलाम बन गयी है. वहां टीआरपी और पैसे की गुलामी ही सबसे बड़ी चीज है. रवीश कुमार जैसे दो चार लोगों को छोड़कर किसी से कोई उम्मीद भी नहीं की जा सकती. उनसे ये अपेक्षा रखना कि वे निंदा की बजाय नये विकल्पों की प्रशंसा में ऊर्जा और समय लगायेंगे ये अपेक्षा कुछ ज्यादा हो जायेगी. लेकिन फिर भी सुझाव दिया जा सकता है. पत्रकार बिरादरी अच्छे उदाहरणों को केस स्टडी की तरह पेश क्यों नहीं करती? किसी गाँव में अंधविश्वास के कारण किसी स्त्री को डायन बताकर मार दिया ये बात बहुत तेजी से दिखाई और फैलाई जाती है. लेकिन किसी दूसरी जगह कोई महिला सरपंच या नर्स या डाक्टर या टीचर बहुत अच्छा काम करके समाज बदल रही है ये कोई नहीं दिखाता. इसका क्या अर्थ हुआ
 
इसका सीधा अर्थ ये है कि पत्रकार वर्ग असल में डायन और उसको पैदा करने वाले धर्म और समाज में ही जनता को उलझाए रखना चाहता है. वो भी इसलिए क्योंकि उन्हें उनके शिक्षकों ने डायन, जातिवाद, भेदभाव, गरीबी इत्यादी ही पढ़ाया है. और चूंकी बाजार में भी यही बिकता है इसलिए सारे चेनल डायन को बेचते हैं वे एक कर्मठ महिला सरपंच, टीचर डाक्टर या अधिकारी की केस स्टडी सामने लाकर महिलाओं का सम्मान बढाने से बचते हैं. अगर वे महिलाओं को इस अर्थ में सम्मानित करेंगे तो उनका धंधा बंद हो जाएगा. सोचिये अगर सभी चेनल ये दिखाने लगें कि किसी गाँव में दलित और मुसलमान साथ में बैठकर खा रहे हैं या महिलायें घूँघट और पर्दा छोड़कर अधिकारी और लेखक, वैज्ञानिक आदि बन रही हैं तो क्या होगा ? यह बात पत्रकारिता जगत में ठेकेदार बनकर बैठे लोगों के लिए बहुत खतरनाक साबित होगी.

ख़तरनाक क्यों होगी ? वो इसलिए कि प्रगतिशील महिला को या प्रगतिशील समाज को जनमानस में स्थापित करने के बाद आपको भी अपना होमवर्क नये सिरे से करना होगा. डायन से वैज्ञानिक तक आ चुकी महिला को भविष्य में देने के लिए आपके पास क्या है ? यही सबसे बड़ी बात है. डायन की हत्या और गरीबी की बहस करते रहने के लिए चलताऊ किस्म के बुद्धिजीवियों और पत्रकारों सहित सभी मीडिया समूहों के पास बहुत मसाला होता है. असल में उनके पास बहुत मसाला है यही समस्या बन गयी है. जैसे किसी दूकान में कोई चीज जरूरत से ज्यादा हो तो वो उसी को बेचे जाते हैं उसी का प्रचार करते हैं. इसी तरह हमारी पत्रकारिता ने शोषण गरीबी और भेदभाव में इतना निवेश कर रखा है कि वे चाहते ही नहीं है कि बहस की दिशा बदल जाए. इसीलिये वे पुराने धर्म और पुरानी संस्कृति और समाज व्यवस्था की निंदा भर करते हैं लेकिन नयी व्यवस्था और नये विकल्पों की बात करने में घबराते हैं. और जब वे ऐसा करते हैं तो पुराने धर्म और संस्कृति के ठेकेदार भी उपर उपर से नाराज होते हैं कि हमारी निंदा हो रही है. लेकिन अंदर ही अंदर वे आश्वस्त भी रहते हैं कि वे लोग कम से कम अभी भी पुराने में ही उलझे हुए हैं, भले ही निंदा और विरोध के रिश्ते से जुड़े हैं लेकिन जुड़े हुए तो हैं. इसीलिये भारत के पोंगा पंडितों को पिछले साथ साल के साहित्य और पत्रकारिता ने लाभ ही पहुँचाया है. इस बार बहुमत से जो सरकार बनी है और उसके बाद जिस तरह के बदलाव समाज पर थोपे जा रहे हैं वे साफ़ बतला रहे हैं कि पत्रकार और साहित्यकार पूरी तरह नाकाम रहे हैं.

पत्रकारों की गुलामी समझ में आती है लेकिन साहित्यकारों और प्रगतिशीलों की क्या समस्या है? आइये अब इसपर विचार करें. सभी तर्कशील और प्रगतिशील साहित्यकार नए समाज के जिस दर्शन से अधिकतम प्रभावित होते पाए जाते हैं वह मार्क्स का दर्शन है. पुराने धर्म दर्शन या समाजदर्शन के विरोध में उन्होंने जो एकमात्र विकल्प चुना है वह है मार्क्स का नास्तिकवादी दर्शन.इसका चुनाव करते हुए या इसका प्रचार करते हुए यह मान ही लिया जाता है कि यही एकमात्र विकल्प है. साथ ही नास्तिकता और धर्म मात्र की निंदा करना सिखाया जाता है. क्या यह भारत की अधिकाँश जनसंख्या के लिए कोई विकल्प हो सकता है? क्या आप भारत की अनपढ़ गरीब और अन्धविश्वासी या धार्मिक जनता से नास्तिक होने की उम्मीद कर रहे हैं? एकसौ पच्चीस करोड़ लोग जिनमे से अधिकाँश दलित और आधे से अधिक महिलायें हैं आप उनसे नास्तिक होने की उम्मीद लगाए बैठे हैं? क्या ये समझदारी है ? यह बहुत भयानक प्रश्न है. इसका उत्तर देने से बचने वाला साहित्यिक व प्रगतिशील वर्ग अब कटघरे में खड़ा किया जाना चाहिए. जैसे भारत की गुलामी भारतीय धर्म की नपुंसकता का सबसे बड़ा सबूत है उसी तरह समाज में पोंगापंडितों के प्रकोप का पिछले बीस सालों में बढ़ते जाना भार में मार्क्सवादी प्रगतिशीलता की हार का सबसे बड़ा सबूत है.

लेकिन भारतीय साहित्यकार और मार्क्सवादी प्रगतिशील इतने लाचार और दिशाहीन क्यों हैं? क्या ये उनकी लाचारी से उपजी कोई समस्या है या वे उस समस्या को जानबूझकर अपनाकर लाचार बने रहने में आनंद लेते है? ये एक अन्य भयानक सवाल है. इसे दुसरे ढंग से रखते हैं. क्या भारत में मार्क्सवादी प्रगतिशीलों के पास वास्तव में ही आम जनता के लिए कोई विकल्प है? क्या उनके पास पुराने धर्म या समाज व्यवस्था के विकल्प के रूप में कोई नया धर्मदर्शन नयी जीवन व्यवस्था और नइ संस्कृति है? क्या आस्तिक अर्थ के अंधविश्वास और नास्तिक अर्थ की अराजकता के आलावा उनके पास विशुद्ध भारतीय मन के लिए कोई तीसरा विकल्प है ? इसका उत्तर है नहीं. इसीलिये भारतीय प्रगतिशील पुराने धर्म की निंदा करते चले जायेंगे लेकिन नए धर्म की संभावना का द्वार नहीं खुलने देंगे. वे शायद मानकर ही चलते हैं कि धर्म का मतलब अनिवार्य रूप से ईश्वरवाद और आस्तिकता ही होती है. उन्हें इस बात पर विचार करना चाहिए कि इसी देश में बौद्ध और जैन भी रहते हैं जो ईश्वर को नहीं मानते. इसके बावजूद वे एक धर्म हैं.

इस बिदु पर आकर तमाम प्रगतिशील एकदम विरोध करने लगेंगे, वे कहेंगे कि बौद्धों और जैनोंमें भी अंधविश्वास और विभाजन हैं. कुछ हद तक ये बात सही है. लेकिन आप बुद्ध और महावीर को गौर से देखिये वे बहुत बुनियादी ढंग से ब्राह्मणी पाखण्ड को उखाड़ रहे थे. भारत में प्रगति या क्रांति का यही एकमात्र रास्ता है जो बुद्ध और महावीर ने चुना था. मार्क्स कभी भी भारतीयों के लिए स्थायी विकल्प नहीं हो सकते. कई मित्र कहेंगे कि बौद्ध धर्म और जैन धर्म जैसे निरीश्वरवादी धर्म से भी भारत में क्या लाभ हुआ है? आखिर उन्हें भी तो मिटा दिया गया है. ये बात सही है कि बौद्ध धर्म को मिटा दिया गया है और जैन धर्म अपनी मौलिकता खोकर समझौते करके जैसे तैसे ज़िंदा है लेकिन यहाँ एक बात समझनी चाहिए कि इसके बावजूद भारत में जो थोड़ी प्रगतिशीलता और नास्तिकता या भौतिकता के प्रति थोड़ा सम्मान बचा हुआ है तो यह बौद्ध और जैन धर्म के कारण है. बुद्ध से प्रभावित नाथ, सिद्ध, भक्तिकाल के संत आदि ने जो साहित्य लिखा है वह हम सब जानते ही हैं. भक्तिकालीन क्रांतिकारी संत जो जाती और वर्ण के खिलाफ खड़े हैं वे मार्क्स के चेले नहीं हैं, वे बुद्ध और महावीर के चेले हैं. उस समय तो मार्क्स हुए भी न थे. क्या कबीर या रविदास या नामदेव को मार्क्स की जरूरत है? हाँ आर्थिक प्रणालियों और प्रक्रियाओं में समानता लाने के लिए जरुर कबीर को मार्क्स से कुछ सीखना पड़ेगा लेकिन भारतीय जनसँख्या के लिए भारती जनमानस के लिए नए धर्म और नयी संस्कृति का क्या नक्शा होगा ये तो मार्क्स को कबीर से सीखना होगा,बुद्ध महावीर से या गोरख से सीखना होगा.

यहाँ भी वही मजबूरी है जो पत्रकारिता पर छाई हुई है. भारत के साहित्य में भी यहाँ तक कि मार्क्सवादी व वामपंथी तबकों में ब्राह्मणवाद ही चल रहा है. वे ब्राह्मणवाद की निंदा जरुर करेंगे लेकिन उसके विकल्प सहित बुद्ध, महावीर, कबीर या वाल्मीकि को कभी खडा नहीं होने देंगे. असल में यह एक अन्य गुप्त खेल है. अगर वे बुद्ध महावीर को खडा करेंगे तो उन्हें भारतीय धर्मों को भारतीय नास्तिक या भौतिकवादी परम्पराओं को समझना पड़ेगा. और इन परम्पराओं के सामने मार्क्स बहुत चमत्कारिक मालूम नहीं होते. यह एक समस्या है. दुसरे समस्या ये कि ब्राह्मणी धर्म की निंदा करने के विशेषज्ञ के रूप में जिन लोगों ने अपनी पहचान या पीठ बना ली है अब उन्हें नए सिरे से नए धर्म की सृजनात्मक भूमिका का प्रचार करना सीखना होगा. मतलब ये कि केंसर के स्पेशलिस्ट को केंसर की बजाय किसी अन्य बीमारी का इलाज करना सीखना होगा. और वे यह सीखना नहीं चाहते. इसीलिये वे केंसर को गाली देते हैं लेकिन उसे ख़त्म करना नहीं चाहते. वे सनातन केंसर के रोगी को बुद्ध महावीर कबीर और नानक की दवाई नहीं खाने देते. और यही यह बात है जिसको अब खुलकर सामने लाना चाहिए. भारतीय पत्रकारिता सफल केस स्टडीज को सामने नहीं लाती? और भारतीय साहित्य या चिन्तक नए धर्म और संस्कृति सहित नये समाज दर्शन का विकल्प क्यों नहीं लाते ? ये दो बड़े सवाल हैं जो इन दोनों समुदायों से रोज रोज पूछने चाहिए.
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संजयजोठे  university of sussex से अंतराष्ट्रीय विकास में स्नातक हैं. संप्रति टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंस से पीएचडी कर रहे हैं.
sanjayjothe@gmail.com

सहजि सहजि गुन रमैं : विष्णु खरे

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टर्की के पास डूबे सीरियाई बच्चे ‘आलैन’ की तस्वीर ने पूरी दुनिया को विचलित किया है. इस दुर्घटना में उसका भाई ग़ालिब और माँ रेहाना की भी मृत्यु हो गयी थी. हिंसा और युद्ध के सबसे पहले शिकार मासूम ही होते हैं. धार्मिक कट्टरता के भी सबसे पहले शिकार वे ही होते हैं. पूरे विश्व में ‘आलैन’ के लिए शोक सभाएं की गयीं,  मार्मिक चित्र बनाये गए और कविताएँ लिखीं गयीं.

हिंदी के वरिष्ठ कवि विष्णु खरे ने ‘आलैन’ के लिए एक कविता लिखी है. कविता मार्मिक है और बेचैन करती है.




आलैन                                                
विष्णु खरे 





हमने कितने प्यार से नहलाया था तुझे
कितने अच्छे साफ़ कपड़े पहनाए थे
तेरे घने काले बाल सँवारे थे
तेरे नन्हें पैरों को चूमने के बाद
जूतों के तस्मे मैंने ही कसे थे
गालिब ने सताने के लिए तेरे गालों पर गीला प्यार किया था
जिसे तूने हमेशा की तरह पोंछ दिया था

और अब तू यहाँ आकर इस गीली रेत पर सो गया

दूसरे किनारे की तरफ़ देखते हुए तेरी आँख लग गई होगी
जो बहुत दूर नहीं था
जहाँ कहा गया था तेरे बहुत सारे नए दोस्त तेरा इन्तिज़ार कर रहे हैं
उनका तसव्वुर करते हुए ही तुझे नींद आ गई होगी

क़िश्ती में कितने खुश थे तू और गालिब 
अपने बाबा को उसे चलाते देख कर
और अम्मी के डर पर तुम तीनों हँसते थे
तुम जानते थे नाव और दरिया से मुझे कितनी दहशत थी

तू हाथ नीचे डालकर लहरों को थपकी दे रहा था

और अब तू यहाँ आकर इस गीली रेत पर सो गया
तुझे देख कर कोई भी तरद्दुद में पड़ जाएगा कि इतना ख़ूबरू बच्चा
ज़मीं पर पेशानी टिकाए हुए यह कौन से सिजदे में है
अपने लिए हौले-हौले लोरी गाती और तुझे थपकियाँ देती
उन्हीं लहरों को देखते हुए तेरी आँखें मुँदी होंगी
तू अभी-भी मुस्कराता-सा दीखता है

हम दोनों तुझे खोजते हुए लौट आए हैं
एक टुक सिरहाने बैठेंगे तेरे
नींद में तू कितना प्यारा लग रहा है
तुझे जगाने का दिल नहीं करता

तू ख्वाब देखता होगा कई दूसरे साहिलों के
तेरे नए-नए दोस्तों के
तेरी फ़ूफ़ी तीमा के

लेकिन तू है कि लौट कर इस गीली रेत पर सो गया
तुझे क्या इतनी याद आई यहाँ की
कि तेरे लिए हमें भी आना पड़ा

चल अब उठ छोड़ इस रेत की ठंढक को
छोड़ इन लहरों की लोरियों और थपकियों को  
नहीं तो शाम को वह तुझे अपनी आग़ोश में ले जाएँगी
मिलें तो मिलने दे फ़ूफ़ी और बाबा को रोते हुए कहीं बहुत दूर
अपन तीनों तो यहीं साथ हैं न
छोड़ दे ख्वाब नए अजनबीदोस्तों और नामालूम किनारों के
देख गालिब मेरा दायाँ हाथ थामे हुए है तू यह दूसरा थाम
उठ हमें उनींदी हैरत और ख़ुशी से पहचान
हम दोनों को लगाने दे गले से तुझे  
आ तेरे जूतों से रेत निकाल दूँ
चाहे तो देख ले एक बार पलट कर इस साहिल उस दूर जाते उफ़क को
जहाँ हम फ़िर नहीं लौटेंगे
चल हमारा इन्तिज़ार कर रहा है अब इसी ख़ाक का दामन.
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विष्णु खरे  
(9 फरवरी, 1940, छिंदवाड़ा मध्य प्रदेश)

कविता संग्रह
1. विष्णु खरे की बीस कविताएं : पहचान सीरीज : संपादक : अशोक वाजपेयी : 1970-71
2. खुद अपनी आंख से : जयश्री प्रकाशन,दिल्ली : 1978
3. सबकी आवाज के परदे में : राधाकृष्ण प्रकाशनदिल्ली : 1994, 2000
4. पिछला बाकी : राधाकृष्ण प्रकाशनदिल्ली : 1998
5. काल और अवधि के दरमियान : वाणी प्रकाशन : 2003
6. विष्णु खरे – चुनी हुई कविताएं : कवि ने कहा सीरीज : किताबघरदिल्ली : 2008
7. लालटेन जलाना (कात्यायनी द्वारा चयनित कविताएं) : परिकल्पना प्रकाशनलखनऊ : 2008
8. पाठांतर : परिकल्पना प्रकाशनलखनऊ : 2008  आदि
vishnukhare@gmail.com 
9833256060

भूमंडलोत्तर कहानी (९) : दादी, मुल्तान और टच एंड गो (तरुण भटनागर) : राकेश बिहारी

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भूमंडलोत्तर कहानी विमर्श के अंतर्गत प्रस्तुत है तरुण भटनागर की कहानी – ‘दादी, मुल्तान और टच एंड गो’ पर आलोचक राकेश बिहारी का आलेख – ‘आरोपित विस्मरण के विरुद्ध स्मृतियों का जीवनराग’.  भारत-विभाजन भारतीय महाद्वीप का लम्बा और कारुणिक शोक- गीतहै. हालाँकि इस पर हिंदी साहित्य में पर्याप्त रचनाएँ नहीं मिलती पर यह सिलसिला अभी रुका नहीं है. विस्थापन को लेकर अभी भी लिखा जा रहा है. तरुण भटनागर की उक्त कहानी इस सिलसिले की नवीनतम कड़ी है. कहानी जितनी संवेदनशील है राकेश बिहारी का आलेख भी उतना ही हृदय-स्पर्शी है. विस्थापन पर लिखी प्रसिद्ध कहनियों के साथ उन्होंने इस कहानी को रखकर देखा परखा है. आप यहाँ कहानी भी पढ़िए और यह आलेख भी.  


आरोपित विस्मरण के विरुद्ध स्मृतियों का जीवनराग 
                   
(संदर्भ: तरुण भटनागर की कहानी दादी, मुल्तान और टच एंड गो)
राकेश बिहारी 


स्त्रीदुनिया की सबसे पहली और बड़ी विस्थापित प्रजाति हैविस्थापन का दर्द आजन्म उसकेवज़ूद का हिस्सा होता हैस्त्रियों की हर छोटी-बड़ी उदासीउनका सुख-दुःख,उमंग-उत्साहनेह-छोह कहीं न कहीं जड़ों से उनके गहरे जुड़ाव को रेखांकित करते हैं.उन्हें उनकी जड़ों से अलग करने की एक सुनियोजित कोशिश भी समय और समाज के हर मोर्चे पर होती रही हैनतीजतन लोक में प्रचलित पर्व-त्योहार हों कि रस्म-रिवाज,उनके यादों मे बसी मायके की गलियां हों या ससुराल की दहलीजेंपोते-पोतियों से भरा-पूरा उनका घर हो या फिर अकेलेपन से जूझते हुये  सन्नाटों के शोर से गूँजता उनके जीवन का उत्तरार्धअपनी जड़ों से बेदखल किए जाने का दंश उनके मन-प्राण का जैसे स्थाई हिस्सा होता हैसच पूछिए तो स्त्रियॉं का जीवन विस्थापनों की एक लंबी श्रंखला होती हैमाता-पिता के घर से विस्थापनपति के घर से विस्थापनबेटों के घर से विस्थापन... स्त्रियों के जीवन में घटित होनेवाले विस्थापनों का यह सिलसिला अमूमन उनके दुनिया से विस्थापित होने तक यूं ही अनवरत चलता रहता हैविस्थापन का दर्द तो यूं ही बहुत मारक होता है ऊपर से उसके साथ किसी तरह की लड़ाई या हिंसा की घटना भी जुड़ जाये तो तकलीफ कई गुणा बढ़ कर पीढ़ियों तक संवहित होती चली जाती है.

सुपरिचित कथाकार तरुण भटनागर की कहानी दादी, मुल्तान और टच एण्ड गो स्त्रियों के विस्थापन के उसी शाश्वत संदर्भ को एक बेधक संवेदनशीलता के साथ उकेरती हैचूंकि इस विस्थापन की पृष्ठभूमि में यहाँ भारत-पाक विभाजन की घटना हैइसका महत्व दुहरा हो जाता है.

किसी खास भूखंड से उखड़ने या कि उखाड़ दिये जाने के बाद स्त्रियाँ जिस नए भूखंड की निवासी बनती हैंउत्तरदायित्वों के निर्वहन के लिहाज से उस नई जगह को भी वे उतना ही अपना मानती हैं जितना कि पहली जगह कोलेकिन अपना होने का यह भावबोध स्त्रियॉं के मामले में हमेशा ही एकतरफा होता हैपरिणामतःदूसरा पक्ष बिना उस अपनेपन की परवाह किए स्त्रियॉं के लिए एक और नए विस्थापन के मार्ग का सतत निर्माण करता रहता हैस्त्री-विस्थापन की इस पीड़ा को प्रस्तुत कहानी की दादी कुछ इस तरह अभिव्यक्त करती हैं – “औरत को हर छत छोड़नी पड़ती है. ऐसी हर छत जिसे वह अपना कह देती है. ऐसी हर छतजिसे अपना कहने का उसका मन करता है. या वह हँसकर या रोकर उसे अपना कह देती है. दादी रुआँसी होकर कहती कि यह औरत का दुस्साहस हैकि फिर भी वह किसी शहर या घर को अपना कहती है.” अपनी जमीन से बार-बार बेदखल किए जाने के बावजूद हर नई जमीन को अपना कह कर अपनाने का जो दुस्साहस स्त्रियाँ करती रही हैंवह पितृसत्ता को हमेशा से प्रीतिकर रहा हैलेकिन स्त्री मन की पीड़ा और पितृसत्ता की इस सहज व्यवस्था के बीच द्वंद्व का कारण यह है कि स्त्रियाँ जमीन पर कर दी गई उस बेदखली को कभी अपने मन के भूगोल पर स्वीकार नहीं कर पातींनई जमीन को अपनाने का अर्थ उनके लिए पुराने जमीन का विस्मरण नहीं होताबल्कि इसके विपरीत पितृसता यह चाहती है कि वह हर विस्थापन के साथ न सिर्फ नई जमीन को अपना समझ कर उसकी सेवा-सुश्रुषा करे बल्कि खुद को पिछली जमीन की बेदखली के दंश की स्मृतियों तक से भी मुक्त कर लेभावना और संवेदना के स्तर पर भीविस्थापन के दंश के बहाने अपनी तमाम स्मृतियों और परम्पराओं को सँजोये रखने की स्त्रीसुलभ संवेदना और हर जमीन से बेदखल कर स्त्रियॉं को उनकी जड़ों और स्मृतियों तक से मुक्त कर देने के पितृसत्तात्मक नियोजन की अभिसंधि पर ही इस कहानी की संवेदनाएं सांसें लेती हैंस्त्रियॉं को पहले उसकी जमीन से और फिर उसके स्मृतिबोध से बेदखल कर देना अपने असली अर्थों में भविष्य को इतिहास से मुक्त कर देने की एक चरणबद्ध कोशिश हैजो भूमंडलोत्तर समय की एक बड़ी अभिक्रिया- यूज एंड थ्रो का सुनियोजित उपोत्पाद और इस व्यवस्था का गंतव्य दोनों ही है.

स्मृतियाँ वर्तमान का आधार और भविष्य की भूमिका होती हैंअतीत और स्मृति से विलग वर्तमान क्षणभंगुर क्रियाओं का लोथड़ा भर होता है जो संचय के विरुद्ध उपभोग के आत्मघाती दर्शन की प्रस्तावना करता हैस्मृतियों की साँसों पर पहरा बिठाकर नव उदारवादी आर्थिक व्यवस्था हमें सर्जक होने से रोक कर सिर्फ और सिर्फ एक पोटैन्शियल कस्टमर में तब्दील कर देना चाहती है.इस कहानी में दादी के द्वारा स्मृतियों को सहेजने की आद्योपांत अकुलाहट मनुष्य के सर्जक रूप को ग्राहक और उपभोक्ता में तब्दील कर दिये जाने की उसी सुनियोजित प्रस्तावना का प्रतिरोध है.  

जैसा कि ऊपर उल्लिखित हैइस कहानी की पृष्ठभूमि में विभाजन की त्रासदी है,  अतः इसे पढ़ते हुये विभाजन पर लिखी गई कुछ यादगार कहानियों का स्मृति-पटल पर कौंधना स्वाभाविक हैकहने की जरूरत नहीं कि विभाजन स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय और उसके बाद देश में घटित होने वाले सबसे बड़े और लोमहर्षक विस्थापन का कारण हैइतनी बड़ी त्रासदी के बावजूद संख्या की दृष्टि से इस विषय-संदर्भ की बहुत ज्यादा कहानियाँ हिन्दी में क्यों नहीं लिखी गईं या इस विषय पर उर्दू और पंजाबी में अपेक्षाकृत ज्यादा कहानियाँ क्यों मिलती हैं यह एक अलग शोध का विषय हो सकता हैलेकिन अपनी सघन संवेदना और विरल प्रभावोत्पादकता के कारण तरुण भटनागर की यह कहानी अमृतसर आ गया है’ (भीष्म साहनी), ‘मलबे का मालिक’ (मोहन राकेश) तथा ‘पानी और पुल’ (महीप सिंह) जैसी बड़ी कहानियों की श्रंखला की अगली कड़ी के रूप में शुमार किए जाने लायक हैगौर किया जाना चाहिए कि अमृतसर आ गया है के कथानाक का काल-संदर्भ जहां विभाजन के आसपास का ही है वहींमलबे का मालिक तथा पानी और पुल के कथानक का काल-संदर्भ विभाजन के क्रमश: साढ़े सात और चौदह साल के बाद का हैइसी क्रम में यह उल्लेख भी जरूरी है कि दादी, मुल्तान और टच एण्ड गो का कथानक विभाजान के लगभग 51 वर्षों के बाद का है. विभाजन और इन कहानियों में घटित घटनाओं के बीच की ये दूरियाँ किस तरह तात्कालिक प्रतिक्रिया, संवेदनात्मक अनुभूति, स्मृतिसुलभ लगाव और परिस्थितियों के तटस्थ मूल्यांकन के समानान्तर अतीत के चीरे का रफू कर उन्हें नए सिरे से गढ़ने और बचाने के पहल की अलग-अलग अर्थ छवियों का निर्माण करती हैं, उन्हें इन कहानियों में भिन्न-भिन्न स्तरों पर देखा जा सकता है.घटनाओं के साम्य, कुछ पात्रों के मनोजगेत की एकरूपता और स्मृतियों के बहाने सबकुछ सँजो कर रख लेने की एक जैसी विकलता के बावजूद जिस तरह ये कहानियाँ आपस में एक दूसरे से भिन्न और कुछ जगहों पर एक दूसरे का विस्तार हो पाई हैं तो उसका एक बड़ा कारण विभाजन और इन कहानियों के रचना काल के बीच की यह दूरी ही है.

पाकिस्तान से अमृतसर आया गनी मियां (मलबे का मालिक) हो या सराई स्टेशन पर रात के घने अंधेरे में भी अपने गाँव को देखने की ललक लिए जागती मूल सिंह की बीवी (पानी और पुल), इन दोनों की संवेदनाओं का बहुकोणीय विस्तार तरुण भटनागर की कहानी दादी, मुल्तान और टच एंड गो की दादी में देखा जा सकता है. गौर किया जाना चाहिए कि गनी मियां और मूल सिंह की बीवी उस स्थान पर खड़े हैं जहां उनकी जड़ें और उनका अतीत परस्पर नाभिनालबद्ध हैं. लेकिन दादी अपने उस शहर से दूर की जा चुकी हैं. उनका शहर उनकी स्मृतियों में बसता है, और उनकी स्मृतियाँ उन छोटी-छोटी चीजों में जिन्हें वे विस्थापन के वक्त अपने कलेजे से लगाकर सहेज लाई थीं- बहुत पुरानी उर्दू की स्कूल की एक किताबपेंसिल से बिंदु मिलाकर चौखट्टे बनाने वाला अधूरा छूटा खेलअखरोट की लकड़ी की टूटी-फूटी पिटारीदो पुरानी तस्वीरेंपीतल का छोटा-सा ताला,पाँचवी दर्जे की स्कूल की मार्कशीटपुराने रंग खो चुके गोटेसलमा-सितारेचटके कांच वाला दादी की माँ का चश्माकुछ पुरानी चिट्ठियाँएक पुराना मुड़ा-तुड़ा पीतल का हार और इसी तरह की कुछ अन्य चीज़ें जिसे कथाकार एक गहरी पीड़ा से आबद्ध हो कर अल्लम-टल्लम कहता हैनहीं! ये चीज़ें अल्लम-टल्लम नहींअतीत और वर्तमान को परस्पर आबद्ध रखनेवाला वह सूत्र हैं जिनके भीतर स्मृतियों का अनूठा और आत्मीय रेशमी अंतर्जाल छुपा है.

विगत कुछ वर्षों में हमारे आसपास कुछ ऐसी शक्तियों का बसेरा हो चला है जो इस अनूठे और आत्मीय रेशमी अंतरजालों को तहस-नहस कर हमें अपने अतीत से काट देना चाहती हैंइन छोटी-छोटी चीजों में दादी का वह शहर सांसें लेता है जिसमें उनकी विनिर्मिति के ईंट-गारे का इतिहास लयबद्ध हैदादी इन छोटी-छोटी चीजों के सहारे अपने उस अतीत को बचा लेने का जतन करती हैं,कारण कि उन्हें पता है कि अतीत से मुक्त वर्तमान डाल से गिरे पत्ते सा इधर-उधर डोलता हुआ कब  और कहाँ विलीन हो जाता है पता ही नहीं चलतालेकिन अतीत से आबद्ध अपनी जड़ों को बचा लेना इतना आसान है क्याइसके लिए इसके समानान्तर सक्रिय उन ताकतों से लड़ना होता है जो हर हाल में हमें हमारी जड़ों से दूर रखने को कटिबद्ध हैंतरुण भटनागर इस कहानी में दादी और पोते के बीच संवेदनाओं की अर्थपूर्ण आवाजाही का पुल विनिर्मित कर उन्हीं ताकतों को बौना और असफल साबित करना चाहते हैंबच्चे के कम्पास में पाया जानेवाला टच एंड गो जो किसी भी तरह की लकीरें मिटा सकता है और जिसके सहारे दादी का पोता रेडक्लिफ लाइन को हमेशा-हमेशा के लिए मिटा देना चाहता हैकी उपस्थिति उसी पुल की विनिर्मिति का मासूम सपना है.लेकिन यह एक बच्चे की मासूमियत भर नहीं उसकी वह दूधिया विकलता है जो इस दुनिया को नए सिरे से सिरजना चाहती हैदुनिया को नए सिरे से सिरजने की यही मासूम अकुलाहट इस कहानी को तमाम एकरूपताओं के बाद अपनी परंपरा की अन्य कहानियों से अलग ला खड़ा करता हैयही वह विशिष्टता है जो एक लंबे समयान्तराल के बीत जाने के कारण एक खास तरह की तटस्थ तन्मयता से युक्त हो कर एक जैसी त्रासदी का शिकार होने के बावजूद दादी को गनी मियां और मूल सिंह की बीवी से अलग ला खड़ा करता है.

आज़ादी के बाद हमारे देश में प्रतिक्रियावादी ताकतों की एक ऐसी पौध विकसित हुई है जो स्मृतियों में संचित भाव-संवेगों की सभी सकारात्मकताओं को तहस-नहस कर देना चाहती हैनफरत और दहशत की खेती करनेवाली ये शक्तियाँ वक्त की स्लेट से इतिहास की इबारतों को पोंछ कर हमें जड़विहीन करने पर आमादा हैंयह कहानी उन प्रगतिविरोधी कारकों को भली भांति पहचानती है.स्त्रियाँ स्मृतियों की सबसे बड़ी वाहिका होती हैंजबतक उनके स्मृति कोष का आखेट न कर लिया जाये वर्तमान की चेतना को कुंद नहीं किया जा सकतायही कारण है कि समाज और आनेवाली संततियों को जड़ और स्मृतिविहीन बनाने के लिए स्त्रियॉं को ही सबसे पहला निशाना बनाया जाता हैयह कहानी न सिर्फ उन स्मृतिविरोधी शक्तियों का शिनाख्त करती है बल्कि दादी और भावी पीढ़ी के बीच स्मृतियों के हस्तांतरण के बहाने नवांकुरों की जिम्मेवारी को भी रेखांकित करती है.यह कोई मासूम या रूमानी कल्पना नहींस्मृति की सत्ता के सुयोग्य उत्तराधिकारी के तलाश की बेचैनी और सुगबुगाहट है
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यह कहानी यहाँ क्लिक कर पढ़ें - दादी, मुल्तान और टच एंड गो (तरुण भटनागर) 
राकेश बिहारी9425823033/  biharirakesh@rediffmail.com

विष्णु खरे : ख़ूनी राष्ट्र-प्रसव से उपजी विवादित महाफ़िल्म

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’दि बर्थ ऑफ़ ए नेशन’’ अपनी सिनेमाई-कला में अद्भुत कृति है पर अपनी बनावट में  समस्यामूलक भी. 1915 की इस मूक फ़िल्म को देखना सच में किसी महाकाव्य को पढने जैसा है.

मीमांसक और कवि विष्णु खरे जिस तरह से इस फ़िल्म के बहाने भारतीय महाद्वीप से उपजे तीन राष्ट्रों में इस तरह की किसी सिनेमाई कृति की कमी की ओर ध्यान खींचते हैं, वह गौरतलब ही नहीं मानीखेज भी है. खरे आज अनुभव और अध्यवसाय के जिस पड़ाव पर हैं उनसे किसी भी महानतम के घटित होने की उम्मीद की जा सकती है.  बेहतरीन आलेख.


ख़ूनी राष्ट्र-प्रसव से उपजी विवादित महाफ़िल्म                                      
विष्णु खरे


संसार के शायद किसी भी राष्ट्र का निर्माण शांतिपूर्ण साधनों से नहीं हुआ.हम भारत को ऋग्वेदके बाद ‘’बना’’ मानें या ‘’महाभारत’’ के बाद,स्पष्ट है कि वह कई युद्धों के बाद एक देश की विकासमान,परिवर्तनशील अवधारणा और आकृति पा सका.उसी ‘’भारत’’ से 1947 में दो हिंसक ‘’राष्ट्र’’ जन्मे और फिर 1971 में दोबारा ख़ून-ख़राबे के बीच एक तीसरा देश पैदा हुआ.

भारत जगद्गुरु है और हिंदुत्व ब्रह्माण्ड का महानतम धर्म है’’इससे आगे हमें विश्व-इतिहास का न ज्ञान है,न जानने की इच्छा हैं,न साहस.हम यूरोप और अमेरिका,विशेषतः उनके अंग्रेज़ीभाषी हिस्सों, के मानसदास हैं लेकिन उनकी तारीख़ और तहजीब को लेकर सफ़ाचट हैं.’’अमेरिका’’शब्द का,जो अब हमारी सुविधानुसार रूढ़ हो चुका है,  हमारा इस्तेमाल भी ग़लत है,वह मूल शब्द यू.एस.’’या ‘’यूनाइटेड स्टेट्स (ऑफ़ अमेरिका)’’ का संक्षिप्त हिन्दीकरण है.यदि हम पूरा,सही अनुवाद करें – ‘’अमेरिकी संयुक्त-राज्य’’या ‘’संयुक्त-राज्य अमेरिका’’– तो विचारशील दिमाग़ में सवाल उठेगा कि यह राज्य कौन-से हैं जो क्या कभी संयुक्त नहीं थे और एक-दूसरे से अलग होना-रहना चाहते थे? यह इतिहास बेहद पेंचीदा है और शायद यहाँ हमारे पूरे जानने-लायक़ भी नहीं है.

1857 में अंग्रेज़ों द्वारा हिन्दू-मुस्लिम साझा स्वातंत्र्य-संग्राम को नाकाम करने के बाद जब नामालूम कौन सी दफ़ा भारत फिर एक ‘’नया’’ देश बनने जा रहा था,अमेरिका में 1861 से 1865 के बीच एक रक्तरंजित गृहयुद्ध हुआ.कारण कई थे : उत्तरी और दक्षिणी राज्यों के बीच आर्थिक और सामाजिक फ़र्क़ थे,राज्यों और संघीय सरकारों के अधिकारों को लेकर मतभेद थे,राष्ट्रपति के रूप में 1860 में अब्राहम लिंकनका चुनाव विवादग्रस्त था, लेकिन दो अन्य बेहद विस्फोटक कारण थे कालों को गुलाम बनाना चाहने और न चाहने वाले राज्यों के बीच जंग और इसी के साथ-साथ गुलाम बनाने की रवायत को मिटा देने के आन्दोलन का लोकप्रिय विस्तार,जिसमें हैरिअट बीचर स्टोवके अमर उपन्यास ‘’अंकल टॉम्स कैबिन’’की,जिसका मामला  अलग है, अहम सकारात्मक भूमिका रही. 1860 के पहले ही सात राज्य साउथ कैरोलाइना,मिसीसिपी,फ्लोरिडा,अलाबामा,जॉर्जिया,लुइज़िआना और टैक्सस संघीय राज्य से टूटने का एलान कर चुके थे.चार राज्य इनमें और आ मिले.बाक़ी 22 बहुमत में उनसे अलग और विपक्ष में रहे.

उस समय काले गुलामों की संख्या 35 लाख थी.उनके पलायन,हुक्मउदूली या विद्रोह को कुचलने के लिए गोरे अमेरिकन नागरिकों ने ‘’कू क्लक्स क्लैन’’नामक भयानक सफ़ेद नक़ाबपोश गुप्त संस्था बनाई थी जो रात को कालों की बस्तियों पर हमला कर उन्हें फाँसी देती थी या घर-परिवार समेत उन्हें जला डालती थी.यह अब भी कहीं-कहीं मौजूद है.उधर  गृह-युद्ध में मैदान,जेल और अस्पताल में मारे जानेवालों की तादाद 6 लाख 33 हज़ार रही. इतने अमरीकी सैनिक उसके बाद के किसी भी एक युद्ध में अब तक नहीं मरे हैं.आज भी गोरे अमेरिकी मानस का एक हिस्सा भावनात्मक तौर पर इसे और रंग तथा नस्ल को लेकर उत्तर-दक्षिण में विभाजित है.गुलामी को मिटा दिया गया है लेकिन अश्वेतों के भेद-भाव-भरे,अन्याय-अपमानपूर्ण कड़वे यथार्थ का हिंस्र सवाल अपनी जगह बना हुआ है.

इस जटिल,संवेदनशील इतिहास पर आज से सौ वर्ष पहले अमेरिकी निदेशक डी.डब्ल्यू.ग्रिफ़िथने ‘’दि क्लैंसमैन’’नामक नाटक पर आधारित तीन घंटे लम्बी फिल्म ‘’दि बर्थ ऑफ़ ए नेशन’’बनाई जो अपने सन्देश और रुझान के कारण आज भी जितनी विवादास्पद है,फिल्म-कला को लेकर उतनी ही महाकृति मानी जाती है.कहा गया है कि इसे देखना किसी संगीत रचना के प्रारंभ को,चाक के पहले प्रयोग को,भाषा-वैदग्ध्य के प्रादुर्भाव को,किसी कला के जन्म को देखने की तरह है.एक यह भी मत है कि इस फिल्म को दरकिनार तो नहीं कर सकते लेकिन समीक्षकों के लिए भारी समस्या यह है इसके निस्संकोच नस्लवाद का क्या करें.बेशक इसने सिने-कला पर अपना स्थायी प्रभाव छोड़ा है लेकिन इसके बावजूद कि अब वह सार्वजनिक संपत्ति है और उसे इन्टरनैट पर इसी वक़्त  मुफ्त देखा जा सकता है,उसे कितने दर्शक देखते हैं और उसका नैतिक-सामाजिक मूल्यांकन क्या होता है ? उसके युद्ध-दृश्यों और यथार्थ-चित्रण की बहुत प्रशंसा हुई है जिन्हें आज की पीढी के लिए सपने में गृह-युद्ध देख पाने के बराबर माना गया है.

ओर्ज़न वेल्सकी ‘सिटीज़न केन’से 25 वर्ष पहले बनाई गयी यह फिल्म,जो तकनीक के स्तर पर वेल्स की टक्कर की है, ग्रिफ़िथ के अपने गहरे,लगभग फाशिस्ट,दक्षिणी राज्यों के एक गोरे नागरिक के  पूर्वग्रहों और अपने ज़माने के प्रतिक्रियावादी मानसिक रुझानों का दर्पण है.वह अपने उन रुझानों को लेकर शर्मिंदा नहीं है क्योंकि बीसवीं सदी के उस ज़माने में वह इतने स्वाभाविक थे कि उनका एहसास भी नहीं होता था.कई भारतीय दर्शकों को भी  इस फिल्म में शायद ही कुछ बहुत आपत्तिजनक लगे.यदि यह दिखाया जा रहा है कि कू क्लक्स क्लैनवाले कालों पर जानलेवा हमला कर रहे हैं तो शायद वह उस पर तालियाँ बजा दें.हमारे यहाँ आज भी आपको आस-पड़ोस में और यात्राओं आदि  में ऐसे बीसों बहुत क़ाबिल,इज्ज़तदार,’सुसंस्कृत’ शख्स मिलते हैं जो अल्पसंख्यकों,दलितों,स्त्रियों,ग़रीबों आदि को लेकर भयावहतम विचार रखते हैं.

ग्रिफ़िथके ज़माने में सिनेमा गूँगा था और उसके होठों की हरकत से ही लगता था कि वह तुतलाने की कोशिश कर रहा है.ग्रिफ़िथ उसे सवाक् तो नहीं कर पाए,लेकिन पहली बार क्रॉस-कटिंग,इन्टर-कटिंग आदि के ज़रिये उन्होंने दर्शकों को चौंकाया और सिनेमा देखने के नए तरीक़े आज से सौ वर्ष पहले सिखाए.ग्रिफ़िथ से पहले सैट्स पर कोई ध्यान नहीं देता था.पैनोरैमिक शॉट्स की तमीज नहीं थी और युद्ध या भारी भीड़ को कैसे फिल्माया जाए इसकी दृष्टि का नितांत अभाव था.ग्रिफ़िथ ने अपनी अद्भुत कटिंग से दर्शकों को शिक्षित किया कि कैसे एक बड़े दृश्य के तुरंत बाद एक क्लोज़-अप या खुर्दबीनी ब्यौरा भी  देखा जा सकता है.

भारतीय दर्शक की हैसियत से आज जब हम अमेरिकी राष्ट्र के खूनी,पूर्वग्रहग्रस्त जन्म की यह फिल्म देखते हैं तो बेशक़ हमें हिटलरकी समकालीन,उसकी प्रशंसक फिल्म-निर्मात्री रेमी रीफ़ेन्श्टाल की नात्सी प्रचार-फ़िल्में याद आती हैं लेकिन ग्रिफ़िथअपनी इस फिल्म में नस्लवादियों की पराजय के 50 वर्ष बाद अपने सपनों और पूर्वग्रहों को लेकर एक मर्सिया पढ़ता है.’’दि बर्थ ऑफ़ ए नेशन’’हमारे सामने एक प्राचीन किन्तु  कठिन कलात्मक-नैतिक समस्या रखती है.हर समाज और धर्म के पास ऐसी कृतियाँ,किताबें,आस्थाएँ या रवायतें हैं जो मानव-द्रोह और घृणा से भरी हुई हैं और आज की भाषा में उनके कई विचारों को सिर्फ़ नात्सी या फ़ाशिस्ट कहा जा सकता है.उनमें से मानवीय-अमानवीय को कैसे अलगाया जाए ? ग्रिफ़िथ के जीवन-काल में ही उसकी कटु आलोचना हुई थी जिसका उत्तर उसने ‘’इन्टॉलरेंस’’ (‘’असहिष्णुता’’ ) शीर्षक फिल्म बनाकर दिया था.वह भी एक बड़ी कृति मानी जाती है.फिर उसने एक कोशिश ‘’दि बर्थ ऑफ़ ए नेशन’’से कू क्लक्स क्लैन समर्थक और कालों पर अमानवीय अत्याचार के कुछ दृश्यों को निकाल देने से की.लेकिन वह वाइरस इतना गहरा घर कर चुका था कि आमूल जा न सका.ग्रिफ़िथ की इस फ़िल्म पर आज भी वाद-विवाद होते रहते हैं.

यहाँ यह जानने की उत्सुकता होती है कि पाकिस्तान में बँटवारे को या पिछले भारत-पाक युद्धों को लेकर क्या कोई फ़िल्में बनी हैं ? भारत के बहुसंख्यकों को लेकर पाकिस्तानी सिनेमा का रवैया क्या रहा है ? अब तक भारत,पाकिस्तान और बांग्लादेश की  जन्म-प्रक्रिया  पर – मैं दंगों और हत्याओं की बात नहीं कर रहा –  इन तीनों राष्ट्रों में कोई ग्रिफ़िथ-जैसी ही फिल्म क्यों नहीं बनी ? क्या 1947 और 1971 में जो कुछ घटा, और किसी-न-किसी रूप में निरंतर घटता रहेगा, एक निर्मम सिनेमाई जाँच-परख का अधिकारी नहीं ?
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vishnukhare@gmail.com / 9833256060
(विष्णु खरे का स्तम्भनवभारत टाइम्स मुंबई में आज प्रकाशित, संपादक और लेखक के प्रति आभार के साथ.अविकल 

स्मरण : वीरेन डंगवाल : विष्णु खरे

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रात नही कटती? लम्बी यह बेहद लम्बी लगती है ?
इसी रात में दस-दस बारी मरना है जीना है
इसी रात में खोना-पाना-सोना-सीना है.
ज़ख्म इसी में फिर-फिर कितने खुलते जाने हैं
कभी मिलें थे औचक जो सुख वे भी तो पाने हैं

पिता डरें मत, डरें नहीं, वरना मैं भी डर जाउँगा
तीन दवाइयाँ, दो इंजेक्शन अभी मुझे लाने हैं.   
(रुग्ण पिताजी : वीरेन डंगवाल)






हमारे ज़माने का एक अद्वितीय बड़ा कवि                           

विष्णु खरे




वीरेन डंगवाल (5.8.1947,कीर्ति नगर,टिहरी गढ़वाल – 27.9.2015, बरेली,उ.प्र.)हिंदी कवियों की उस पीढ़ी के अद्वितीय, शीर्षस्थ हस्ताक्षर माने जाएँगे  जो द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जन्मी और सुमित्रानंदन पन्त के बाद ‘’पहाड़’’ या उत्तरांचल के सबसे बड़े आधुनिक कवि. वीरेन की कई कविताएँ इसकी गवाह हैं कि समसामयिक भाषा और शैली का कवि होते हुए छंद और प्रास पर भी उनका असाधारण, अनायास अधिकार था और वह जब चाहते तब उम्दा, मंचीय गीत लिख सकते थे.  इसमें वह अपने प्रशंसकों को नागार्जुन की याद दिलाते थे, जिनसे उन्होंने दोनों तरह की कविताओं में बहुत कुछ सीखा. वह स्वयं अपने को निराला, मुक्तिबोध, त्रिलोचन, शमशेर बहादुर सिंह, केदारनाथ अग्रवाल,नाजिम हिकमत, मार्क्स, ब्रेख्त, वान गोग, चंद्रकांत देवताले, ग़ालिब, जयशंकर प्रसाद, मंगलेश डबराल, शंकर शैलेन्द्र, सुकांत भट्टाचार्य, भगवत रावत, मनोहर नायक, आलोकधन्वा, भीमसेन जोशी, मोहन थपलियाल, अजय सिंह, गिरधर राठी, नीलाभ, रामेन्द्र त्रिपाठी, केदारनाथ सिंह,पंकज चतुर्वेदी, डॉ नीरज, लीलाधर जगूड़ी, सुंदरचंद ठाकुर तथा हरिवंशराय बच्चनआदि की काव्यसंगीत  तथा मैत्री की राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय परम्परा से सचेतन, निस्संकोच रूप से जोड़ते थे. इन सब के नाम बाक़ायदा उनकी रचनाओं में किसी-न-किसी तरह आते हैं. वीरेन की कविता का वैविध्य तरद्दुद में डालता है.

लेकिन इससे बड़ी ग़लती कोई नहीं हो सकती कि हम वीरेन डंगवाल को सिर्फ कवियों, कलाकारों और मित्रों का अन्तरंग कवि मान लें. उनके तीन संग्रहों ‘’इसी दुनिया में’’ (1991),’’दुश्चक्र में स्रष्टा’’(2002, साहित्य अकादेमी पुरस्कार 2004) तथा ‘’स्याही ताल’’ (2009) की 188कविताएँ, जिनमें से दस को भी कमज़ोर कहना कठिन है, सम्पूर्ण भारतीय जीवन से भरी हुई हैं जिसके केंद्र में बेशक़ संघर्षरत, वंचित, उत्पीड़ित हिन्दुस्तानी मर्द-औरत-बच्चे तो हैं ही,एक लघु-विश्वकोष की तरह अंडज-पिंडज-स्वेदज-जरायुज,स्थावर-जंगम भी हैं. हाथी, मल्लाह, गाय, गौरैया, मक्खी, मकड़ी, ऊँट, पपीता, समोसे, इमली, पेड़, चूना, रातरानी, कुए, सूअर का बच्चा, नीबू, जलेबी, तोता, आम, पिद्दी, पोदीना, घोड़े, बिल्ली, चप्पल, भात, रद्दीवाला, फ्यूँली का फूल,   पान, आलू, कद्दू, बुरुंस, केले यह शब्द सिर्फ़ उनकी रचनाओं में नहीं आए हैं बल्कि उनकी कविताओं के विषय हैं. निराला, नागार्जुन और त्रिलोचन  से सीखते हुए वीरेन अपने इन तीनों गुरुओं से आगे जाते प्रतीत होते हैं.

कहने को तो वीरेन डंगवाल हिंदी के एम.ए.पीएच.डी और लोकप्रिय, बढ़िया प्राध्यापक थे, एक बड़े दैनिक के सम्पादक भी रहे, लेकिन इस सब से जो एक चश्मुट छद्म-गंभीर छवि उभरती है उससे वह अपने जीवन और कृतित्व में कोसों दूर थे. उनकी कविता की एक अद्भुत विशेषता यह है कि मंचीय मूर्ख हास्य-कवियों से नितांत अलग वह बिना सस्ती या फूहड़ हुए इतने ‘’आधुनिक’’ खिलंदड़ेपन, हास-परिहास, भाषायी क्रीडा और कौतुक से भरी हुई हैं कि प्रबुद्धतम श्रोताओं को दुहरा कर देती थी. इसमें भी वह हिंदी के लगभग एकमात्र कवि दिखाई देते हैं और लोकप्रियता तथा सार्थकता के बीच की दीवार तोड़ देते हैं.

वीरेन की जितनी दृष्टि व्यष्टि पर थी, उतनी ही समष्टि पर भी थी. वह न सिर्फ प्रतिबद्ध थे बल्कि वाम-चिन्तक और सक्रियतावादी भी थे. अपने इन आख़िरी दिनों में भी उन्हें जनमंचों पर सजग हिस्सेदारी करते और अपनी रचनाएँ पढ़ते देखा जा सकता था. पिछले कई वर्षों का गंभीर कैंसर भी उनके मनोबल, जिजीविषा और सृजनशीलता को तोड़ न सका बल्कि हाल की उनकी कविताओं, मसलन दिल्ली मेट्रो पर लिखी गई रचनाओं ने उनके प्रशंसकों और समीक्षकों को चमत्कृत किया था क्योंकि उनमें दैन्य और पलायन तो था ही नहीं, उलटे एक नयी भाषा, आविष्कारशीलता, जीवन्तता और अन्य सारे कवियों को चुनौतियाँ थीं. जब डॉक्टरों ने उनसे स्पष्ट कह दिया कि दिल्ली का इलाज छोड़ कर बरेली लौट जाना ही ठीक है तो उन्होंने हँसते हुए कहा था कि ठीक है, अब मैं निश्चिन्त होकर अपनी आख़िरी कविताएँ लिखूँगा शायद लिखीं भी. पिछले छः वर्षों से उनका कोई संग्रह नहीं आया था, अब तो दुर्भाग्यवश सम्पूर्ण कविताएँ आ सकती हैं. लेकिन वीरेन का जाना नियति का अन्याय ही कहा जाएगा. मुक्तिबोध, रामकृष्ण श्रीवास्तव, केशनी प्रसाद चौरसिया, सतीश चौबे, धूमिल, रघुवीर सहाय, मलयज और नवीन सागर की असामयिक मृत्यु के बाद वीरेन के निधन ने हिंदी और भारतीय कविता का अकूत नुकसान किया है.

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vishnukhare@gmail.com / 9833256060
(नवभारत टाइम्स के सभी संस्करणों  में आज प्रकाशित, संपादक और लेखक के प्रति आभार के साथ.
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