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माया संस्कृति की कविताएँ : यादवेन्द्र

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हुम्बरतो अकाबलग्वाटेमाला के प्रमुख कवि हैं जो करीब दस लाख लोगों द्वारा बोली जाने  माया मूल की किचे भाषा में लिखते हैं. उनकी कविताओं के अनुवाद अंग्रेजी, फ्रेंच ,जर्मन, इटालियन, स्पैनिश सहित विश्व की कई प्रमुख भाषाओँ में प्रकाशित किये गये है.

"गार्डनर ऑफ़ द वाटरफॉल"अंग्रेजी में अनूदित कविताओं का पुरस्कृत संकलन है. इसी में
से उनकी कुछ कविताओं का अनुवाद यादवेन्द्र ने किया है. 


माया संस्कृति की कविताएं                  






पीछे की ओर चलना

   
समय समय पर
मैं पीछे मुड़ कर चलता हूँ --
स्मृतियों को जगाने का मेरा यही ढंग है.
यदि मैं आगे ही आगे चलता जाऊंगा
तो मैं बता नहीं पाउँगा
कैसा होता है इतिहास से
विस्मृत हो जाना.




शिलाएं 

ऐसा बिलकुल नहीं है
कि शिलाएं गूंगी होती हैं
बात बस इतनी है
कि वे ख़ामोशी से अपना मुँह बंद रखती हैं.



मुझे मालूम नहीं 

मेरे गाँव ने देखा
चुपचाप मेरा वहाँ से निकल जाना
शहर अपने प्रपंचों में इतना फंसा रहा
कि उसको सुध नहीं
कौन आया कौन गया...
मैं किसान बने रहने से तो वंचित हुआ
और जाहिर था मजदूर बन गया.
मुझे मालूम नहीं इसको क्या कहेंगे
तरक्की...या पिछड़ जाना.



कवि

कवियों की जमात
पैदा तो होती है बुड्ढी
पर सालों साल के दरम्यान
हम खुद को बना लेते हैं
निहायत बच्चा.


 नृत्य 

हम सब नाच रहे होते  हैं
बिलकुल स्टेज  के हाशिये पर
गरीब-- अपनी गरीबी की वजह से 
लड़खड़ा देते हैं अपने कदम
और औंधे मुँह गिर पड़ते हैं नीचे...
और बाकी बचे लोग
गिरते हैं तो भी
गिरते हैं उपरली  सीढ़ी पर.



प्रार्थना 

चर्च के अंदर
आपको सुनाई देती  है सिर्फ प्रार्थना
वह भी उन दरख्तों की
जिन्हें काट कर बना दिया गया है
बेंच.



सुबह सुबह

रात के अंतिम  घंटों में
सितारे उतारते हैं अपने कपड़े
और नंग धडंग नहाते हैं नदी में.
उल्लुओं की लोलुप निगाहें उनपर होती हैं
और उनके सिर के ऊपर उगे हुए नन्हे नन्हे पंख
सितारों को ऐसी दशा में  देख के
उठ खड़े होते हैं.



आज़ादी

चील,बाज और कबूतर
उड़ते उड़ते बैठ कर सुस्ताते हैं
गिरिजा और महलों पर
बेखबर बेपरवाह
बिलकुल उसी तरह जैसे
वे बैठते हैं चट्टानों पर
वृक्षों ...या ऊँची दीवारों पर...
इतना ही नहीं उनपर गिराते हैं 
पूरी आजादी से अपनी बीट भी
उन्हें मालूम है
कि खुदा और इन्साफ दोनों का
ताल्लुक ऊपरी दिखावे से नहीं
दिल से है...



हँसी

लहरों की हँसी है
पानी के ऊपर तैरता
झाग.



उस दिन

उस दिन
वह ऐसे वेग से आयी
कि तहस नहस हो गया
मेरा अकेलापन।.


चन्द्रमा और पंख

चन्द्रमा ने थमा दिया
मेरे हाथ एक पंख
लगा मेरे हाथ
आ गया गाने जैसा कुछ
चन्द्रमा हँसा
फिर बोला :
पहले सीखो

कैसे गाते हैं गाना।.
_____________________


यादवेन्द्र
बिहार से स्कूली और इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करने के बाद 1980 से लगातार रुड़की के केन्द्रीय भवन अनुसन्धान संस्थान में वैज्ञानिक.

रविवार,दिनमान,जनसत्तानवभारत टाइम्स,हिन्दुस्तान,अमर उजाला,प्रभात खबर इत्यादि में विज्ञान सहित विभिन्न विषयों पर प्रचुर लेखन.

विदेशी समाजों की कविता कहानियों के अंग्रेजी से किये अनुवाद नया ज्ञानोदयहंस, कथादेश, वागर्थ, शुक्रवार, अहा जिंदगी जैसी पत्रिकाओं और अनुनाद, कबाड़खानालिखो यहाँ वहाँख़्वाब का दर जैसे साहित्यिक ब्लॉगों में प्रकाशित.


मार्च 2017 के स्त्री साहित्य पर केन्द्रित  "कथादेश" का अतिथि संपादन.  साहित्य के अलावा सैर सपाटा, सिनेमा और फ़ोटोग्राफ़ी  का शौक.
yapandey@gmail.com


हिंदी दिवस : आखिर हम कैसी हिंदी चाहते हैं? राहुल राजेश

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हिंदी भाषा को लेकर बार-बार दुहराए जाने वाली एक मांग यह भी है कि वह सहज सरल हो. यह ठीक है कि उसे जानबूझकर अबूझ न बनाया जाए. अनावश्यक रूप से उसमें संस्कृत न भर दी जाए, पर जटिल से जटिलतर होते समाज और ज्ञान को अभिव्यक्त करने की अपनी ज़िम्मेदारी से हिंदी कैसे मुंह मोड़ सकती है. एक सबल भाषा के रूप में उसका विकास तो होना ही है.

हिंदी दिवस के अवसर पर राहुल राजेश का यह जरूरी आलेख आपके लिए.  

आखिर हम कैसी हिंदी चाहते हैं?
राहुल राजेश



ब भी, जहाँ भी राजभाषा हिन्दी की चर्चा होती है तो सबकी एक ही शिकायत होती है- राजभाषा हिन्दी सरल-सहज नहीं है. वह बोलचाल की हिन्दी नहीं है. उनके कहने का मतलब यह होता है कि राजभाषा हिन्दी बहुत संस्कृतनिष्ठ है,बहुत क्लिष्ट है,इसलिए लोग इसे नहीं अपना रहे हैं. चाहे कार्यालय हो,चाहे विश्वविद्यालय हो,चाहे कोई सेमिनार हो या कोई संगोष्ठी,चाहे हिन्दी दिवस हो,या विश्व हिन्दी दिवस- छोटे-बड़े अधिकारी से लेकर क्लर्क तक,हिन्दी के लेखक-प्राध्यापक  से लेकर हिन्दी के पत्रकार तक- लोग ऐसा कोई अवसर,ऐसा कोई मंच नहीं छोड़ते जहाँ वे राजभाषा हिन्दी के कठिन,क्लिष्ट और संस्कृतनिष्ठ होने की शिकायत न करें.

विडम्बना यह है कि राजभाषा हिंदी में सहजता-सरलता की मांग तो खूब की जाती है पर यह जोर बस सरल-सहज शब्दावली तक सिमट कर रह जाती है. जबकि किसी भाषा में प्रवाह, सरलता, सहजता और बोधगम्यता तब आती है,जब उसमें इस्तेमाल किए जा रहे वाक्य लंबे-लंबे और लच्छेदार न होकर, छोटे-छोटे और सहज-सरल हों. लेकिन लोग वाक्यों और वाक्य-विन्यास में सरलता-सहजता की मांग करने की बजाय शब्दावली की सरलता-सहजता पर अटक जाते हैं. अगर वाक्य छोटे-छोटे और सहज-सरलहों तो उनमें पिरोए गए एकाध कठिन शब्द भी बोधगम्यता में बाधक नहीं होते हैं. जहाँ तक शब्दावली और शब्दों के कठिन होने का सवाल है तो यह उन शब्दों से परिचित या अपरिचित होने का मामला कहीं अधिक है, न कि उनके अर्थ समझने-समझाने का संकट.

जिस शब्द से आप पहले से परिचित हैं, जाहिर है, वह शब्द आपको आसान लगेगा. जिस शब्द से आप परिचित नहीं हैं, वह शब्द आपको कठिन लगेगा. और यह सिर्फ हिंदी के शब्दों के मामले में ही नहीं, अंग्रेजी के मामले में भी समान रूप से लागू होगा. इसे सिर्फ हिंदी के शब्दों तक सीमित रखना कूपमंडूकता है. क्या अंग्रेजी के शब्द कठिन नहीं होते? क्या अंग्रेजी के वाक्य कठिन नहीं होते? क्या अंग्रेजी में जारी सरकारी, कानूनी या तकनीकी दस्तावेज कठिन नहीं होते?

कोई शब्द यदि पहले सुना या पढ़ा हुआ नहीं है तो वह अटपटा या कठिन लग सकता है. पर हर नये शब्द को सिर्फ इसलिए कठिन नहीं कह दिया जाना चाहिए क्योंकि उसे पहली बार सुना या पढ़ा जा रहा है.भाषा विज्ञान का यह सर्वमान्य और सर्वविदित नियम है कि कोई भी शब्द चाहे वह कितना ही कठिन हो,लगातार इस्तेमाल में आने से आसान हो जाता है. कठिन से कठिन शब्द भी लगातार इस्तेमाल होने से आसान,परिचित और प्रचलित लगने लगते हैं. यानी इस्तेमाल होते रहने से कठिन से कठिन शब्द भी कठिन और अपरिचित नहीं रह जाते हैं. वहीं कोई भी शब्द चाहे वह उच्चारण और वर्तनी में कितना ही आसान हो,यदि इस्तेमाल नहीं हो रहा है तो वह पहली बार सुनने या पढ़ने में अटपटा,अपरिचित और कठिन लग सकता है. और यह बात सिर्फ हिन्दी पर ही नहीं,अंग्रेजी समेत किसी भी भाषा पर उतनी ही लागू होती है. 

इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि जो भाषा जितनी अधिक सरल-सहज होगी,वह उतनी ही अधिक जुबान पर चढ़ेगी. पर राजभाषा हिन्दी या किसी भी भाषा के मामले में हम सरलता-सहजता की मांग एक हद तक ही कर सकते हैं. क्या अंग्रेजी का शब्द ‘Correspondence’ बोलने-पढ़ने-लिखने में कठिन नहीं है?तो सुनने-बोलने-पढ़ने-लिखने की सहजता-सरलता के लिए क्यों न इस शब्द की जगह ‘Letters’का इस्तेमाल किया जाए?पर क्या ‘Letters’से वही आशय और अर्थ संप्रेषित होता है जो ‘Correspondence’ से होता है? क्या दोनों को एक-दूसरे का पर्यायवाची कहा जा सकता है?एक दूसरा उदाहरण लें. अंग्रेजी में लिखे ‘Please refer to your letter’ को हिन्दी में हम सीधे,सहज ढंग से लिखते हैं- कृपया अपना पत्र देखें.लेकिन अंग्रेजी वाले ‘referto’की जगह ‘see’ क्यों नहीं लिखते? (क्योंकि इससे अंग्रेजी में वो वजन नहीं रह जाएगा.)

पिछले साल 08 नवंबर, 2016 से हजार और पाँच सौ रुपए के पुराने बैंकनोट विधिमान्य बैंकनोट नहीं रह गए थे. तब बहुत से लोगों ने ‘Demonetization’शब्द पहली बार सुना था और इस शब्द को बोलने में अच्छे-अच्छे अंग्रेजीदां लोगों की भी जुबान लड़खड़ा जा रही थी. राजभाषा हिंदी में सहजता-सरलता की गुहार लगाने वाले लोग कहते हैं, ‘Demonetization’ के हिंदी पर्याय विमुद्रीकरणकी जगह अखबारों में प्रयुक्त सरल शब्द नोटबंदीका प्रयोग किया जाना चाहिए. लेकिन जरा गौर करें तो नोटबंदीशब्द दरअसल ‘NOTE-BAN’ के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है और इसलिए हम ‘Demonetization’के लिए नोटबंदीका इस्तेमाल नहीं कर सकते,क्योंकि तकनीकी और कानूनी रुप से ‘Demonetization’और ‘NOTE-BAN’स्पष्टतः दो अलग-अलग बातें हैं. और इसलिए नोटबंदीको विमुद्रीकरणका बिल्कुल सटीक-सही पर्याय नहीं माना जा सकता.

इसी तरह राजभाषा हिंदी और इसकी शब्दावली को और अधिक सरल-सहज बनाने के उपक्रम में हम ‘Correspondence’ के लिए प्रयुक्त हिंदी पर्याय पत्राचारकी जगह चिट्ठी-पत्रीनहीं लिख सकते. (जैसे अंग्रेजी वाले ‘referto’की जगह ‘see’नहीं लिखते.) ठीक इसी तरह हम नृत्य-नाटक प्रभागको नाच-नौटंकी प्रभागनहीं लिख सकते. हम डांस एंड म्यूजिक प्रोग्रामको नृत्य-संगीत कार्यक्रमकी जगह नाच-गाने का प्रोग्रामनहीं लिख सकते. यदि हम सरलता-सहजता और बोलचाल की हिंदी के नाम पर ऐसा करेंगे तो इसके संदर्भ और मायने कितने बदल जाएँगे, यह बताने की जरूरत नहीं है. कुछ लोग कहते हैं कि बैंकिंग लेन देन के संदर्भ में ‘Withdrawal’के लिए आहरणशब्द कठिन है. लेकिन वे लोग यह नहीं देखते कि आहरणकी जगह निकासीशब्द भी खूब धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा है और यह शब्द लोगों की जुबान पर चढ़ा हुआ है. वे यह नहीं देखते कि ‘Deposit’के लिए निक्षेपकी जगह जमाजैसे सरल शब्द का इस्तेमाल किया जा रहा है. वे तो यह भी नहीं देखते कि अंग्रेजी शब्द ‘Discrimination’ (डिस्क्रिमिनेशन)जैसे उच्चारण और लिखने में कठिन शब्द के लिए हिंदी में भेद-भावजैसा एकदम सरल-सहज शब्द है.

सरलता-सहजता की मांग करने वाले लोग यहाँ तक मांग कर रहे हैं कि किसी अंग्रेजी शब्द का हिन्दी पर्याय तनिक भी कठिन लगे तो अंग्रेजी शब्द को ही सीधे-सीधे देवनागरी में लिख दिया जाए. लेकिन जिन अंग्रेजी शब्दों के सही-सटीक-समर्थ हिन्दी पर्याय मौजूद हैं तो सीधे-सीधे अंग्रेजी शब्द लेने का हठधर्मितापूर्ण आग्रह क्यों किया जा रहा है?जब तक आप हिन्दी पर्यायों को अधिक से अधिक बरतेंगे नहीं,वे आपको कठिन ही लगेंगे.

अब तो असल चिंता की बात यह है कि सरलता-सहजता और दिखावे के आग्रह में बोलचाल की हिन्दी में जाने-अनजाने ऐसे सैकड़ों अंग्रेजी शब्द घर-दफ्तर में धड़ल्ले से इस्तेमाल होने लगे हैं, जिनके लिए मूल हिन्दी शब्द पहले से मौजूद हैं. हम आजकल अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में अनजाने से कहीं ज्यादा, जानबूझकर सैकड़ों अंग्रेजी शब्द घर-दफ्तर में बहुत तेजी से, बहुत धड़ल्ले से बोलने लगे हैं, जबकि इनके मूल और प्रचलित हिंदी शब्द पहले से ही चलन में मौजूद हैं.
जरा गौर करें कि हम अब रंगों के नाम, दिन-महीनों के नाम, फल-सब्जियों के नाम, रिश्तों के नाम, विषयों के नाम, धातुओं के नाम, अंक, संख्या, मोबाइल नंबर, घर-दफ्तर के पते आदि प्राय: अंग्रेजी में ही बोलने लगे हैं कि नहीं? क्या इनके लिए हिंदी शब्द मौजूद नहीं हैं? जरा याद करें, पोस्टमैन, मेकैनिक,इलेक्ट्रिशियन,कारपेंटर, प्लम्बर,टेलर,कुक, मेड,लेबर के लिए हमने डाकिया, मिस्त्री, बिजली मिस्त्री,बढ़ई (काठ मिस्त्री), पाइप मिस्त्री (नलसाज),दर्जी,रसोइया (बाबर्ची),कामवाली बाई (नौकरानी),मजदूर आखिरी बार कब बोला था? ग्रेवी,जूस,किचन के लिए झोर (झोल),रस,रसोईआखिरी बार कब बोला था? क्या हम इन प्रचलित हिन्दी शब्दों की जाने-अनजाने अनदेखी नहीं करते जा रहे हैं? और क्या इसका बुरा नतीजा यह नहीं हो रहा है कि ये हिंदी शब्द हमारी बोलचाल से ही नहीं, हमारी स्मृति और हमारे लोक से ही बाहर होते चले जा रहे हैं? 

मेरी यह चिंता और स्पष्ट हो जाएगी यदि मैं घर-दफ्तर में धड़ल्ले से बोले जा रहे ऐसे सैकड़ों अंग्रेजी शब्दों  की एक छोटी-सी सूची आपके सामने पेश करूँ. जैसे- टाइम,ऑफिस, सर्विस, लाइफ, वाइफ,फैमिली,मदर-फादर,मैरेज, मार्केट,कस्टमर,गिफ्ट,शॉपिंग,कैश, चेंज,फ्रेश, फ्री, फ्रीडम, ट्रेन,फ्लाइट, लगेज, अटेंडेंस,प्रेजेंट,एबसेंट, एक्शन, ट्रान्सफर,पोस्टिंग, ऑर्डर,गवर्नमेंट, डिपार्टमेंट,मिंस्ट्री, इलैक्शन,कमीशन,कमिटी, कॉमन, मैनेजमेंट, मिनिस्टर, ट्रेनिंग,इन्फॉर्मेशन,सेक्शन, ब्लॉक,डिस्ट्रिक्ट, ऑफिसर,स्टाफ, एम्प्लोई, हेड, सीनियर,जूनियर, इशू,मैटर,लेटर, ड्राफ्ट, रिप्लाई,यंग,ओल्ड, एज, बिल्डिंग,फ्लोर, टॉप,मिड्ल, टाउन,सिटी, रेज़िडेन्शियल, हॉस्पिटल, बेड,चेयर, गेम्स,ग्राउंड, टीम, थीम, लेट,गेट,वेट,डेट, रेट, हेट, सेट, पेयर, लव, लैंग्वेज, आर्ट, लिटरेचर,राइटर,हेल्थ, ग्रोथ, ब्लड, शुगर, प्रेसर, टेंशन, हार्ट, अटैक, हेडेक, फीवर, एग्जाम, इंटरव्यू, क्वेश्चन-आन्सर, क्लास, कोर्स, सबजेक्ट, सिलेबस, बुक, मैगजीन, न्यूज, यूज, स्टूडेंट,युनिवर्सिटी, टैलेंट,मेरिट, लिस्ट, अवार्ड, नॉलेज,बेस, वर्ड, पैरेंट्स,कजिंस, नेबरवुड,नेबर,टी,ब्रेकफ़ास्ट,लंच,डिनर,फ्रूट, जूस,एप्पल,बनाना, राइस, किचन,रेसिपी,वेज-नॉनवेज, राउंड,सर्कल, सीन, स्टेज,बैटिंग,बॉलिंग,वोटिंग,काउंटिंग आदि-आदि.

कुछ और उदाहरण देखिए- ज्यूलरी,मिरर, मेक-अप, लुक, फेस, बॉडी, स्कीन, प्रोडक्ट,सैंपल, एग्जाम्प्ल,टेस्ट,मेडिसिन,बॉटल,मेड (सर्वेंट),पोस्टमैन,मेकैनिक,इलेक्ट्रिशियन,लेबर,रेड,ग्रीन,ग्रे,पिंक,ब्लू,ब्लैक,व्हाइट,डार्क,लाइट,कलर,ज़ीरो,वन,टू,हनड्रेड,थाउजेंड,संडे,मंडे, मॉर्निंग,ईवनिंग,नाइट,म्यूजिक, पेन, पेपर,स्लिप, सोशल, नेचर, सिग्नेचर, नैचुरल, हर्बल, अकाउंट, बैलेंस, सेविंग्स, सैलरी,पेमेंट,ब्रांच,ड्रेस, मेंबर, बिजनेस, इंडस्ट्री, लैंड, ओनर, रेंट, कोर्ट, केस, क्राइम, पीटिशन, अरेस्ट,एप्लिकेशन, कम्प्लेंट, पब्लिक, प्राइवेट, अफेयर, डेली, मंथली, क्वार्टरली, ऐनुअल, स्टेटमेंट, इंस्टॉलमेंट, डिमांड, इंस्टीच्यूट, ऑर्गनाइजेशन, एंट्री, एग्जिट, 'डे, एनिवर्सरी, न्यू ईयर, फंक्शन, फूड, क्वालिटी, क्वांटिटी, केयर, लॉस, लेंथ, डेथ, पेशेंट, सर्टिफिकेट, व्यू,व्यूज, आइडिया, पर्सनल, प्रॉबलम, डायरेक्ट, रिलेशन, मीटिंग, वेलकम, टॉवेल, मेंटेन, सटिस्फायड, एडमिशन, रिजर्वेशन,सेफ, अनसेफ,लोकल, अब्रॉड,सेंटर, एडमिट कार्ड, रिजल्ट,जॉब,प्रोग्राम, फैन, फॉलो, मॉडर्न, लेटेस्ट, रिएक्ट, रिएक्शन, डायलॉग, एक्टिंग, कमेंट, स्टोरी, हिस्ट्री, डैमेज, सोर्स, सक्सेसफुल, पॉपुलर, कल्चर, सर्वे,लीडरशिप, रूल, सिस्टम, पार्टी,पॉलिटिक्स, कास्ट, कॉस्ट, केमिकल, प्लीज, एड्रेस, मेसेज, जज,जजमेंट आदि-आदि.

अब मैं इस बढ़ती ही जा रही सूची को सायास रोक रहा हूँ. मैं यहाँ यह बात एकदम साफ तौर पर बता देना चाहता हूँ कि हिंदी लिखने में मैं कुछ हद तक शुद्धतावादी होने का तर्कसंगत आग्रह भले करता हूँ पर बोलचाल की हिंदी में शुद्धतावादी होने का मेरा कोई आग्रह नहीं है. मेरी चिंता बस यह है कि हम हिंदी बोलने की जगह हिंग्रेजीया हिंगलिशबोलने से भरसक बचें. हम बोलचाल की हिंदी में इतनी अधिक अंग्रेजी न फेंट दें कि "मिलावट ही सजावट है"जैसा चालू जुमला भी शरमा जाए. और यह मिलावट हिंदी की सजावट न होकर, हिंदी के लिए सजा हो जाए. मेरी चिंता बस यह है कि यदि सरलता-सहजता के नाम पर लोग हिन्दी लिखने में भी ऐसे ही सीधे-सीधे अंग्रेजी शब्द लेने लगेंगे तो आने वाले दिनों में हिन्दी की क्या दुर्दशा होगी? यह सोचकर हीमेरा कलेजा कांप जाता है. यह हमें ही तय करना होगा कि आखिर हम कैसी हिंदी चाहते हैं??
_________

राहुल राजेश
बी-37, आरबीआई स्टाफ क्वार्टर्स,16/5, डोवर लेन, गड़ियाहाट, कोलकाता- 700029.

मो. 09429608159.  
ईमेल:  rahulrajesh2006@gmail.com

सहजि सहजि गुन रमैं : रुस्तम

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कृति : Gigi Scaria

कविता में कवि जब खुद की ओर मुडता है तब वह अस्तित्वगत प्रश्नों  की तरफ भी जाता है. आख़िरकार इस विश्व में वह क्यों कर है और है तो इस तरह क्यों है ? जैसी विराट व्याकुलताएं उसे सृजनात्मक रचाव  की तरफ ले जाती हैं.
हिंदी में आत्म के कवि कम हैं. इस आत्म के भी कई पक्ष हैं. कुछ कवि जहाँ इसे उदात्तता प्रदान करते हैं वहीं कुछ कवि आत्म के तलघर में निवास करते हैं.  रुस्तम आत्म के तलघर के दुर्लभ कवि हैं. उनके सृजन वृत्त में लगभग निर्थक होती जिंदगी की रूटीन की ऊब है. स्मृति पर वर्तमान का इतना दबाव है कि  स्मृतिहीनता को वह एक उपचार की तरह देखते हैं. अंत से उम्मीद की कामना में कवि अपने बिखरने, टूटने, विस्मृत कर दिए जाने को लिखता चलता है.
रुस्तम की बारह कविताएँ  ख़ास समालोचन के पाठकों के लिए.

रुस्तम की कविताएँ                    



आज फिर उठना है
आज फिर उठना है.
आज फिर हगना है.
आज फिर नहाना है.
आज फिर काम पर जाना है.
आज फिर किसी से मिलना है, किसी से बोलना है, किसी को सुनना है.
आज फिर किसी को देखना है, किसी द्वारा देखा जाना है.
किसी को गाली देना है, किसी से गाली खाना है.
आज फिर कई बार पानी पीना है, कई बार मूतना है,
कुछ खरीदना है, कुछ बेचना है.
आज फिर पीटना है, पिट कर आना है.
आज फिर लौटना है.
शायद दुबारा हगना है.
आज फिर सोना है. सोने से पहले फिर मूतना है.





आज मैं कुछ नहीं करुँगा

आज मैं कुछ नहीं करुँगा.
उठूँगा, नहाऊँगा,
कुछ खाऊँगा.
थोड़ी देर लेटूँगा,
अखबार को
हाथ भी नहीं लगाऊँगा.
फिर बाज़ार चला जाऊँगा,
लोगों को देखूँगा,
दुकानों में झाँकूँगा,
खरीदूँगा कुछ भी नहीं,
चाय-कॉफी पीऊँगा.
वहीँ कुछ खा लूँगा,
किसी रेस्तरां के बाहर,
किसी पेड़ के नीचे,
सुस्ता लूँगा.
शाम को घर लौटूँगा,
डिनर बनाने तक बस लेटूँगा, बस लेटूँगा.
कुछ सोचूँगा नहीं, कुछ महसूस नहीं करुँगा.
डिनर बनाऊँगा, खाऊँगा, सारा ध्यान उसी पर लगाऊँगा, सिर्फ उसी पर.
एक उद्देश्यहीन दिन बिताकर
सो जाऊँगा.
आज मैं कुछ नहीं करुँगा.



उस घर को मैं याद नहीं करुँगा
उस घर को मैं याद नहीं करुँगा.
उस नदी को मैं याद नहीं करुँगा.
उस वन को मैं याद नहीं करुँगा.
उस नगर को मैं भुला दूँगा.
उन सड़कों को मैं याद नहीं करुँगा.
उन गलियों को मैं याद नहीं करुँगा.
कुछ भी याद करके क्या मिलता है ?
क्या ?
अपनी स्मृति को मैं पोंछ दूँगा.
उसे साफ़ कर दूँगा.
मैं सब कुछ भुला दूँगा.





प्रतीक्षा करता हूँ
प्रतीक्षा करता हूँ
तुम्हारे जाने की.
प्रतीक्षा करता हूँ
कि तुम
जल्द ही
छोड़ दोगे मेरा पिण्ड.
प्रतीक्षा करता हूँ
कि कल
सूर्य नहीं निकलेगा,
या वह भिड़ जायेगा
किसी अन्य सूर्य से.
प्रतीक्षा करता हूँ
कि जब मैं जागूँगा
तो यहाँ
कुछ भी नहीं होगा
इस सुन्दर जीवन का.



पहले धीरे-धीरे टूटता है शरीर
पहले धीरे-धीरे टूटता है शरीर,
फिर टूटती है आत्मा.
या पहले धीरे-धीरे टूटती है आत्मा,
फिर शरीर
टूटता है.
आत्मा
छोड़ नहीं जाती है शरीर को.
उसी के भीतर
बिखर जाती है टुकड़ों में.
उसके बाद
बिखरता है
शरीर.





दर्पण तुम्हें नहीं पुकारता
दर्पण
तुम्हें नहीं पुकारता
न कभी पुकारेगा.
जो आवाज़ तुम सुनते हो
वह तुम्हारे ही
तुच्छ ह्रदय की पुकार है
दर्पण की दिशा में.
एक छिद्र है तुम्हारे ह्रदय में,
एक खाली जगह
जो बढ़ रही है.
बहुत जल्द ही
तुम सुन नहीं पाओगे
अपने ह्रदय की पुकार भी.




मृतक नहीं जानते
मृतक नहीं जानते
कि उनके मरने के बाद
यहाँ क्या हुआ.
ना किसी का दुःख,
ना किसी की खुशियाँ;
कौन हँसा,
कौन रोया;
किसने उनको याद रक्खा,
किसने
भुला दिया;
कौन तड़पा कि वे चले गये,
किसे जीवन ने तड़पा दिया ---
मृतक नहीं जानते.


तुम्हें भी भूल जाऊँगा
तुम्हें भी भूल जाऊँगा
या नहीं भूल जाऊँगा
जब मैं
अँधेरे में उतरूँगा
या रोशनी में चढूँगा.
वहाँ
अँधेरे और रोशनी में फ़र्क नहीं होगा.
वहाँ
भूलने
और याद रखने का
कोई अर्थ नहीं होगा.
मैं तुम्हारी कमी को महसूस नहीं करूँगा,
न उसे
कमी ही कहूँगा ----
वहाँ
भिन्न होगी भाषा,
वहाँ समझ का स्वरूप कुछ और ही होगा.
वहाँ कोई नहीं पूछेगा ----
बताओ तुम्हें
याद आती है किसी की ?
बताओ कोई
छूट गया है पीछे ?
वहाँ
कोई नहीं पूछेगा.


जब बिखर जाती है आत्मा
जब बिखर जाती है आत्मा,
तो क्या बचा रहता है ?
क्या ?
रुस्तम (सिंह) बिखर चुका है.
वह बिखर गया था
बहुत वर्ष पहले.
उसकी आत्मा के ज़र्रे
अब
अपनी-अपनी
दिशा में बढ़ते हैं.
कृति : Gigi Scaria

रात
रात सदा अँधेरी और काली नहीं होती. न यह ही सही है कि लोग केवल रात को ही सोते हैं. बिजली रात को भी कड़कती है, चाँद रात को भी उगता है : उसकी रोशनी में हर शय नहायी हुई लगती है.
कितनी अलग होती हैं, एक-दूसरे से, गावों और शहरों की रातें ! झोपड़ियों और इमारतों की रातें भी, आपस में, बहुत कम ही मेल खाती हैं.
एक ही रात में कोई सारी रात जागता है, कोई घोड़े बेचकर सोता है. कुत्ते गलियों में आवारा भूँकते हैं; उल्लू शिकार पर जाते हैं. तिलचट्टे रात-रात भर भोजन भाँजते हैं; चूहे उसे तलाशते हैं --- आप चाहें तो रसोई में उनकी खटर-पटर सुन पाते हैं.
कुछ लोग देर रात गए दफ्तरों से निकलते हैं. कुछ अन्य लोग रात ख़त्म होते ही फैक्ट्रियों में घुसते हैं : निश्चित ही ये बाद वाले लोग झोपड़-पट्टियों से आते हैं.
रईसों के लड़के-लड़कियाँ देर रात तक पबों में नाचते हैं : उनकी रात को रात कहना ठीक नहीं होगा. किसान रात भर खेत को पानी देता है : रात बहुत कम ही उसके अपने हाथ में होती है.
मैं रात को अक्सर दो या तीन बजे तक जागता हूँ. यही वह समय है जब मैं इस जैसे आलेख लिखता हूँ.

घर 
घर क्या है ? क्या वह केवल भावना है ? या वह वास्तव में कोई जगह होती है जो घर होती है, बस घर, जो घर ही होती है, और कुछ नहीं ?
मुझे पता नहीं.
पर मैंने तरह-तरह के घर देखे हैं, यानी वे ढांचे, वे जगहें जिन्हें लोग घर कहते हैं. उनमें से ज़्यादातर दीवारें लिए रहते हैं, उन पर छतें होती हैं. और वे विभिन्न रंगों से पुते होते हैं. इस तरह मैंने श्वेत, नीले, हरे, पीले, और बैंगनी भी घर देखे हैं.
कुछ ऐसे घर भी होते हैं जिनका कोई रंग नहीं होता, पर वे फिर भी कोई रंग लिए रहते हैं.
कुछ घरों की दीवारें नहीं होतीं, न छतें होती हैं; तब भी वे घर ही कहे जाते हैं, शायद वे घर ही होते हैं : वे घर जैसा ही सुकून देते हैं.
और मैंने कहाँ-कहाँ घर नहीं देखे !
अधिकतर घर आपस में जुड़े होते हैं. कुछ अन्य सबसे दूर हटकर अकेले में खड़े रहते हैं. (और जो घरों के बीच में से निकलती है, उसे गली कहते हैं.)
सभी घर मौसम और काल के थपेड़े सहते हैं. कुछ ध्वंस हो जाते हैं, कुछ ढहा दिए जाते हैं. परन्तु कुछ नये और कुछ पुराने घर भी होते हैं. और कुछ ऐसे भी जो बरसों तक खाली पड़े रहते हैं.
पर ये खाली पड़े घर, क्या ये भी किसी का घर होते हैं ?

छतें
छतें भी तरह-तरह की होती हैं. और वे तरह-तरह के काम आती हैं. पर कुछ छतें किसी काम नहीं आतीं. कुछ नीची होती हैं, कुछ ऊँची, कुछ ढलान जैसी और कुछ समतल. कुछ पक्की और मज़बूत होती हैं, कुछ कच्ची और बारिश में चूती हैं. कुछ छतों को देखकर लगता है कि वे अब गिरीं, तब गिरीं.
कुछ छतों के ऊपर पेड़ झूलते हैं, पक्षी चहचहाते हैं, गिलहरियाँ दौड़ती हैं, या थोड़ी देर रुककर कुछ खाती हैं. परन्तु कुछ छतों के आसपास एक भी पेड़ नहीं होता, और कुछ अन्य से दूर-दूर तक कोई पेड़ नज़र नहीं आता.
मुझे एक ऐसी छत की याद है जिस पर खड़े होकर  -- बहुत दूर -- ईंटों वाले भट्टे की चिमनी नज़र आती थी.
कुछ छतों की मुण्डेर नहीं होती, जैसे झोंपड़ियों की छतें. कुछ छतें इतनी जर्जर होती हैं कि हर बारिश में गिर जाती हैं. इस तरह की छतों पर आप चढ़ नहीं सकते, बैठ नहीं सकते, कुछ कर नहीं सकते.
खर-पतवार की छतें सबसे सुन्दर लगती हैं; वे हर वर्ष नयी खर-पतवार से बुनी जाती हैं.
बहुमंज़िला मकानों की छतें काली-काली टंकियों से पटी रहती हैं. कौन जाना चाहता है ऐसी  छतों पर ?
कवि कविता लिखता है अकेले छत पर बैठकर; किशोर लड़की घरवालों से बचकर मोबाइल पर बतियाती है ---तब उसके चेहरे पर कई किस्म के भाव आते हैं.

जब मैं अभी छोटा था तो मैंने "न्यूयार्क की छतें"नाम की फिल्म देखी थी. उसमें छतों पर होने वाली बहुत सी बातें थीं, जिनमें से एक यह भी थी कि एक युवा लड़का दूरबीन से दूसरी छतों को देखता था.
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कवि और दार्शनिक रुस्तम सिंह (जन्म : 16 मई 1955) "रुस्तम"नाम से कविताएँ लिखते हैं. अब तक उनके चार कविता संग्रह प्रकाशित हुए हैं. सबसे बाद वाला संग्रह "मेरी आत्मा काँपती है"सूर्य प्रकाशन मन्दिर, बीकानेर, से २०१५ में छपा था. एक अन्य संग्रह "रुस्तम की कविताएँ"वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, से २००३ में छपा था. "तेजी और रुस्तम की कविताएँ"नामक एक ही पुस्तक में तेजी ग्रोवर और रुस्तम दोनों के अलग-अलग संग्रह थे. यह पुस्तक हार्पर कॉलिंस इंडिया से २००९ में प्रकाशित हुई थी. अंग्रेज़ी में भी रुस्तम की तीन पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं. उनकी कवितायेँ अंग्रेज़ी, तेलुगु, मराठी, मलयाली, स्वीडी, नॉर्वीजी, एस्टोनि तथा फ्रांसीसीभाषाओँ में अनूदित हुई हैं.
उन्होंने नॉर्वे के विख्यात कवियों उलाव हाऊगेतथा लार्श आमुन्द वोगेकी कविताओं का हिन्दी में अनुवाद किया है. ये पुस्तकें "सात हवाएँ"तथा "शब्द के पीछे छाया है"शीर्षकों से वाणी प्रकाशन, दिल्ली, से प्रकाशित हुईं.
वे भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला, तथा विकासशील समाज अध्ययन केंद्र, दिल्ली, में फ़ेलो रहे हैं. वे "इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली",मुंबई, के सह-संपादक तथा श्री अशोक वाजपेयी के साथ महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा, की अंग्रेजी पत्रिका "हिन्दी : लैंग्वेज, डिस्कोर्स, राइटिंग"के संस्थापक संपादक रहे हैं. वे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नयी दिल्ली, में विजिटिंग फ़ेलो भी रहे हैं.
ईमेल : rustamsingh1@gmail.com  
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सबद भेद : देवी प्रसाद मिश्र : मीना बुद्धिराजा

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हमने कांग्रेस-जनसंघ-संसोपा-भाजपा-सपा-बसपा-अवामी लीग-लोकदल-राजद-हिंदू महासभा-जमायते इस्लामी

वगैरह वगैरह के लोंदों से जो बनाया

वह भारतीय मनुष्य का फौरी पुतला है

मुझे भूरी-काली मिट्टी का एक और मनुष्य चाहिए

मुझे एक वैकल्पिक मनुष्य चाहिए.
(कोई और/देवीप्रसाद मिश्र)


देवीप्रसाद मिश्र (जन्म : 18 अगस्त 1958) का फिलहाल एक कविता संग्रह ‘प्रार्थना के शिल्प में नहीं’प्रकाशित है. अपनी रचना प्रक्रिया पर एक जगह वह लिखते हैं  - ‘मेरे लिए कविता लिखने की प्रक्रिया फोर बी पेन्सिल के उपयोग जैसी है जहाँ खुद को बार-बार शार्पनर में डालना पड़ता है. यह नोक के खोजने की निरंतरता है.’
कहना न होगा कि उनकी कविता का यह नुकीलापन आज भी बरकरार है.  यह नोक सत्ता और सत्ता के आस पास एकत्र और निर्मित क्रूरता को निशाने पर लेती है. देवी उन कुछ विरले कवियों में हैं जिन्हें सत्ता प्रदूषित नहीं कर पायी है. उनकी विश्वसनीयता अटूट है.
युवा अध्येता मीना बुद्धिराजा ने देवी प्रसाद मिश्र पर बड़े ही लगाव से यह आलेख तैयार किया है.



देवी प्रसाद मिश्र का असमाप्त संघर्ष                        

मीना बुद्धिराजा




तीन दशक की रचनात्मक तल्लीनता और धारा के विरुद्ध अपनी जीवन राह बनाने वाले अप्रतिम कवि देवी प्रसाद मिश्र समकालीन हिंदी कविता के सशक्त हस्ताक्ष्रर हैं. वाद-विवाद-संवाद के वर्तमान परिदृश्य मे वे अविचलित सार्थक लेखन कर रहे हैं. कवि, कथाकार और फिल्म-निर्माता देवी प्रसाद मिश्र जी को रचनात्मक एकांत और स्वतंत्रता बहुत प्रिय है. हिंदी सहित्य मे वे एक दुर्लभ उदाहरण बन चुके हैं. पुरस्कार,सुविधा, सम्मान और सोशल मीडिया की चकाचौंध से दूर वह जो भी रच रहे हैं. वह बहुत मानीखेज और समसामयिक है. संगोष्ठियों और बहस-विमर्श की गहमागहमी से अलग  उनकी रचनाएँ गहरी सोच और विवेक पर केंद्रित है. लेखन के लिये अत्यंत गंभीर,सजग लेकिन प्रकाशन और प्रचार के मामले मे देवीजी बेहद अगंभीर हैं. उनका लेखन हमारे वर्तमान समय का जीता-जागता बयान है. हमारे समय के सबसे प्रयोगधर्मी कवि और सचके लिये प्रतिबद्ध रचनाकार जिन्हे दरकिनार करना असंभव है. उनका स्वयं मानना है-बहुत दु:ख की तुलना मे, बहुत सुख से खत्म होती है आत्मा’

बीसवीं सदी के महान दार्शनिक,राजनीतिक विचारक अंतोनियो ग्राम्शीका कथन है- “उस क्षण से जब एक पराधीन वर्ग वास्तव मे स्वतंत्र और शक्तिवान हो जाता है और एक नये प्रकार के राज्य की स्थापना पर बल देता है- तब आवश्यकता पैदा होती है, एक नई बौद्धिक और नैतिक व्यवस्था के वास्तविक निर्माण की, अर्थात एक नए तरह के समाज की,और इसीलिये आवश्यकता होती है अधिकतम सार्वकालिक अवधारणाओं के प्रतिपादन की,अधिकतम संवर्द्धित और निणार्यक वैचारिक अस्त्रों की ”

आत्मग्लानि और अपराध का यह दौर जो त्रासदी और प्रहसन के रूप मे लगभग समान रूप से ही गतिमान हो रहा है,उसमे समाज व्यवस्थाएं  और राज्य-तंत्र भी इस प्रक्रिया से अछूते नहीं हैं बल्कि उसमे सक्रियता से हिस्सा ले रहे हैं. इस स्मृतिविहीन समय मे सब कुछ खुले बाजार के नियमों से तय हो रहा है. एक चीज की स्थापना दूसरी चीज के विस्थापन का उपक्रम बनकर आती है. आज का यह समय कई अर्थों मे संकटग्रस्त है. ऐसा संकट जिसकी प्रकृति एकदम नई, अचानक होने वाले कोहराम की तरह है,जिसमे सभी नैतिक मूल्य,संस्कृति शब्द और साहित्य का अस्तित्व दांव पर लगे हैं. परंतु इतिहास मे ऐसा कोई काल-खंड नही रहा, जब सच्ची आलोचनात्मक स्मृति पूर्णतय: मिट गई हो,या विकल्प की चेतना और प्रतिरोध के स्वरों से खाली हो गई हो.

समकालीन कविता मे हमारे समय के कवि देवी प्रसाद मिश्रअमानवीयता और अन्याय के विरुद्ध सबसे प्रतिबद्ध, ईमानदार और प्रखर आवाज हैं. उनके लेखन मे सच कहने का साहस बडी उम्मीद जगाता है. जब देश और समाज मे सत्ता तथा पूंजी का कोई वास्तविक विकल्प न बचे तो कविता जीवन का अंतिम मोर्चा होती है. इस लड़ाई मे साधारण व्यक्ति की नियति को देवी प्रसादभयंकर अन्याय मानते हैं और अनवरत लड़  रहे हैं. लीक से अलग हटकर प्रयोगों का जोखिम उठाकर वे निरंतर रच रहे हैं. उनकी कविताएँ वर्तमान सेलगातार बहस है, जिसमे वह मनुष्य की त्रासदियों को बहुत निकट जा कर देखते हैं.

‘देवीप्रसाद’ जी की वैचारिक प्रतिबद्धता और मानवीय पक्षधरता स्पष्ट है. जनसामान्य को वह सारी सुविधाएँ और स्वतंत्रता हासिल हो, जो उनका बुनियादी हक है. उनके लेखन के सरोकार व्यापक समाज से जुडे हैं. दमन और बदलाव की शक्तियो के निर्णायक संघर्ष मे ऐसा वैकल्पिक चिंतन जो सत्य के करीब, तार्किक और स्थापित व्यवस्था के विरुद्ध असहमति के रूप मे उपस्थित हो. अपने एक वक्तव्य मे उन्होने लिखा है- कविता के मेरे स्रोत फिलहाल भारतीय पावर स्ट्र्क्चर की विसंगतियो और विद्रूपताओ को समझने मे है जो भारतीय संकट की मूल अंतर्वस्तु भी है.’

‘कविता लिखने की प्रक्रिया मेरे अंत:करण की दैनंदिनता है. यह प्रतिदिन की नैतिकता है.’वास्तव मे उनकी कविता उन शक्ति-संरचनाओ को समझने की एक निरंतर प्रक्रिया है जो सिर्फ राज्य-सत्ता तक ही सीमित नही हैं,बल्कि  प्रत्येक स्तर पर समाज से प्रत्यक्ष य परोक्ष रूप से संबद्ध है. यह ऐसा जटिल व्यूह है, जिस्के सभी संस्तरो को प्रकट करना और उसके प्रतिरोध का आलोचनात्मक विवेक विकसित करना ही उनकी कविताओ की केन्द्रिय चिंता है. लोकतंत्र मे साधारण नागरिको और हाशिये के लोगो से जुडे जरूरी सवालो पर चुप्पी और निष्क्रियता उनमे एक गहरी बेचैनी उत्पन्न  करती है. परंतु जटिल राजनीतिक सवालो का सामना करते हुए देवीजी वाचालता से बचते हैं. उनकी कविताएँ साधारण से लगते दिखायी देते उन बुनियादी प्रश्नो तक ले जाती है जिसका इतिहास और वर्तमान के पास कोई जवाब नही है-

जैसे भारतीय राजनीतिज्ञों जिनमे
पूंजीवादी, समाजवादी, उदारवादी,
हिंदुवादी , साम्यवादी,एकाधिकारवादी
मुस्लिमवादी वगैरह सारे शामिल हैं
को यह पता ही होगा कि
एक आदर्श राष्ट्र की संरचना के
क्या क्या घटक होते हैं
वे एक आदर्श राष्ट्र नहीं बना पा रहे
और मै एक आदर्श कविता.
(राष्ट्र निर्माण की राजनीति )

देवी जी का काव्यात्मक रेटरिक काफी बेचैनी भरा है लेकिन एक बौद्धिक आवेग उसे सयंत बनाये रखता है. उन्होने मनुष्य की निराशा और सादगी को जिस तरह से साधा है, उसमे अनौपचारिक सी लगती भंगिमा के बावजूद भाषा की आंतरिक तहों मे खास तरह की विकलताएं हैं. यह असंगति, महीन हयूमरके साथ बुनियादी प्रश्नो का ऐसा मेल है जो ताकत की दुनिया मे नैतिक प्रतिरोध का एक अनिवार्य हिस्सा लगता है. इस सादगी मे एक कसावट और सतर्कता है जो लंबे आत्मसंघर्ष व गहरे चिंतन से आयी है. इस समय जब कि कुछ भी सीधा और सरल नहीं रह गया है, ‘देवीजी की कविताएँ तल्ख किस्म की विडंबनाओं की और हमे ले जाती है.-

यहाँ कुछ बदलता था तो नागरिक
दलित मे,मनुष्य मुसलमान मे
विवेक पूंजी मे
फोन पर षडयंत्र सारे
लीक से  हटकर कहीं पर लोकतंत्र
(हर इबारत मे रहा बाकी)

उनकी कविताये खोये हुए गणतंत्र के साथ खोई हुई कविता की जगह की खोज का नैतिक उपद्रव भी बार-बार करती हैं. इतिहास की विडंबनाओ और सत्ता की कुटिलताओ के प्रति सतर्क ऐसे प्रश्नो से वे निरंतर टकराते हैं-
कह सकते हैं कि आदिवासी की बंदूक की तरह भरा हूं
लेकिन फिलहाल तो अपने राज्य और जाति और भाषा से डरा हूं
और विद्रोह के एन जी ओ से और इस समकालीन सांस्कृतिक खो-खो से
(भाषा)

उनके शब्द और वाक्य अपने मे हमेशा पूर्ण होते हैं, किसी घटना या बयान की तरह . इसके लिये वे सजग रहते हैं कि प्रतिरोध करते हुए उनकी भाषा या शिल्प कहीं खुद ही एकशक्ति संरचना मे ना बदलने लगे. भाषा को असाधारण बनाना उनके रचनात्मक-व्यवहार का अंग नही है. यहां कविता भाषा के नये आयामो एवं उपकरणो का प्रयोग करती है और रचना को वहां ले जाती है,जहां वह शब्दो से अधिक अभिप्रायों मे निवास करती है. जीवन के रोजमर्रा के द्रश्य व अनुभव  कविताओ मे विंडबनाओ तथा अंतर्विरोधो से टकराते हुए सामने आते हैं-

यह भाषा को ना बरत पाने की निराशा है
या मनुष्य को न बदल पाने की असंभाव्यता
नव उदार वाद को मैने ठुकरा रखा है
और विचारधारा की एक दुकान भी खोल रखी है
जिसमे नमक हल्दी तो है लेकिन बिकता हल्दी राम है.
एक भाषा मे क्यो हैं,इतनी अफवाहें
और क्यो है इतने सांमत और नौकरशाह
और इतने दुकानदार,इतने दलाल और सांस्कृतिक माफिया
एक भाषा मे क्यो नही बोल पाता पूरा सच
एक भाषा मे क्यों नही हो पाता मै असहमत
कविता मे क्यों है सत्ता सुख 
(भाषा)

व्यक्तित्व और कृतित्व का यह ऐक्य उनके समकालीनो मे दुर्लभ है. वर्तमान रचनाशीलता मे व्याप्त सरोकार विहीन, महत्वाकांक्षी,सुविधापरक और आत्ममुग्ध चुप्पी के विरोध मे कठिन और जोखिम भरे रास्ते पर चलना उनकी कविता का स्वभाव है. राष्ट्र की अमूर्त अवधारणा को देवीएक सामाजिक परिघटना के रूप मे देखते हैं. बाजार के चमकीले यथार्थ मे निहित हिंसाये, बर्बरताये तथा विडंबनाये आज भी एक दु:स्वप्न की तरह मनुष्य की नियति को निर्धारित कर रहे हैं. देवीजी जानते है कि समाज की चेतना के जड और गतिहीन होने का परिणाम भी सामान्य मानव को ही भुगतना होगा.वैचारिक द्वंद्व से रहित समाज मे शक्तिशाली प्रभुतासपन्न वर्ग और व्यवस्था की भूमिका पर वे स्पष्ट निर्भीक प्रतिक्रिया करते हैं-

तमाम लामबंदियो के खिलाफ मेरे पास एक गुलेल थी और नदियों की तरह शहरो और शिल्पों और वस्तुओ को छोड देने का वानप्रस्थ्. मेरे पास बहुत आदिम क्रोध था और सत्तावानो को घूर कर देखने का हुनर. मेरे पास यातनाये थी और खुशी मे मनहूस हो जाने का प्रतिकार, सलाहो और सत्ताओं का मुझ पर कम असर था.‘- (15 अगस्त के आस पास का अगस्त)

एक ऐसा समय जिसमे अत्याचार और अन्याय के तरीके और हथियार बिल्कुल नये हैं, संवेदंनशीलता लगभग अपराध है,एक ऐसा उन्माद और उभार जो मनुष्य को उपभोक्ता मे बदल रहा है,प्रतिरोध असहाय है. उसी परिदृश्य के बीच ‘सहने की जगह को कहने की जगह बनाते हुए’ ये कवितायें उम्मीद और प्रतिबद्धता से बंधी मूलभूत आवाज की तरह नये दुर्गम रास्ते पर निरंतर गतिशील है. सांस्कृतिक वर्चस्वके विरोध की बजाय एक यथास्थितिवाद जो आज पनप रहा है उसमे सत्ता के दुष्चक्र मे पिसते आम नागरिको के प्रति चिंताओ के साथ ही एक स्थायी, पारदर्शी मूलभूत जिद से भरी संरचना और विचारधारा उनकी कविताओ मे बनती नज़र आती है-

सत्य को पाने मे मुझे अपनी दुर्गति चाहिये
चे ग्वेरा का चेहरा और स्टीफन हाकिंग का शरीर
फासबिन्डर की आत्मा और ऋत्विक घटक का काला-सफेद
बचे समय मे मै अपने दु:स्साहस से काम चला लूंगा और असहमति से’-
(सत्य को पाने मे मुझे अपनी दुर्गति चाहिये)

उनकी  इधर हाल मे प्रकाशित बहुत सी कविताये जैसे-एक फासिस्ट को हम किस तरह देखें, यातना देने के काम आती है देह, एक कम क्रूर शहर की मांग, मै अंधेरे मे ही रहने की आदत डालूं या बदलूं- समसामयिक चिंताओ और सवालो से जुडी जरूरी कविताये हैं.

कविता की परंपरागत संरचना को तोडती, आक्रामक लेकिन सच के पूरी तरह करीब ये कविताएँ शिल्प ही नही, कथ्य और शीर्षक मे भी दुर्लभ हैं. स्वयं देवीजी के शब्दो मे- यहां अंतत: एक कैलेंडर बनता है जिसमे रोजमर्रा मे न्यस्त हिंसा और प्रतिरोध,अकेलापन और मदद, दुरभिमान और लोकतंत्र, नर्क और निर्वाण, दुविधा और इलहाम की कथाएं बनने लगती हैं. इस तरह शिल्पवस्तु का विस्तार कर देता है. विश्व विख्यात आलोचक बेलिंस्की भी मानते है कि-हमारे युग की कला न्याय की घोषणा और समाज का विश्लेषण है. यदि वह कोई सवाल या किसी सवाल का जवाब नहीं,तो वह कला निर्जीव है.’

युवा कवि-आलोचक अविनाश मिश्रको दिये एक साक्षात्कार मे देवी प्रसाद मिश्रने यह माना है कि-रचना के एक फ्रेम मे जितना अधिक प्रतिकार हो सकता है, एक ईमानदार प्रतिकार - मै वह करता हूं. लेकिन मै इसको किसी स्वांग मे नही बदल सकता. इससे वह अविश्वसनीय हो जायेगा.’ इस दृष्टि से मुक्तिबोध के बाद देवीहिंदी कविता मे ऐसे कवि हैं जिनमे युगीन कार्यभार को उठाने की बौद्धिक क्षमता और साहस है. मध्यवर्गीय महत्वाकाक्षांओ, दुविधा और दोहरेपन के विरुद्ध जीवन की सच्चाई और मासूमियत के खो जाने का दुख उनकी कविताओं मे स्पष्ट दिखाई देता है-

लौटते हुए, गुजरते हुए बगल से दरगाह के
मैने बहुत सारी मनौतियां मांगी, कि मेरा
राजनीतिक एकांत आंदोलन मे बदल जाये
वित्त मंत्री एक भूखे आदमी का
वृतांत बताते हुए रोने लग जाए.
मेरा बेटा घड़ा  बनाना सीख जाए
एक कवि का अकेलापन हिंदी की शर्म मे बदल जाये.
(निजामुद्दीन)

वस्तुत: देवी प्रसाद मिश्र की कविताए उस असमाप्त संघर्ष और मुक्ति का आख्यान है, जिसके विषय मे प्रसिद्ध कवि असद जैदी’ की कविता की पंक्ति के माध्यम से कहें तो- लड़ाइयां अधूरी रह जाती हैं अक्सर,बाद मे पूरी होने के लिये. अपनी सम्पूर्ण मानवीय प्रतिबद्धता, जनपक्ष से जुडी  सच्ची क्रांतिधर्मिता के साथ उनकी रचनाये तमाम तरह की विद्रूपताओं के बावजूद वैश्विक समाज के सर्वाधिक मूल्यवान शब्दउम्मीदको खोज कर सामने ला देती हैं जो हिंदी कविता में उन्हे एक मील का पत्थर बनाती हैं-

यथार्थ दबंग है तो कहना भी जंग है.
कितने ही मोर्चे हैं, और कितनी ही लडाइयां
कितने ही डर, और कितने ही समर
न्याय मुझको चाहिये हर रोज
चाय जैसे रोज, दो कप कम से कम
(हर इबारत मे रहा बाकी)
_________________

मीना बुद्धिराजा
अदिति कालेज (दिल्ली विश्वविद्यालय)
निराला के आलोचनात्मक निबंधपुस्तक प्रकाशित
कुछ आलोचनात्मक लेख,समीक्षा तथा कवितायें पत्र- पत्रिकाओं मे प्रकाशित

meenabudhiraja67@gmail.com

मेघ - दूत : उपवास करने वाला कलाकार : फ़्रैंज़ काफ़्का

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१९२२ में प्रकाशित फ़्रैंज़ काफ़्का की कहानी "A Hunger Artist"(German: "Ein Hungerkünstler")काफ़्का की कुछ बेहतरीन कहानियों में से है जिसमें उनका अपना काफ्काई करिश्मा मुखर होकर सामने आया है.

इस कहानी में यंत्रणा की लम्बी सुरंग से गुज़रता एक कलाकार है जो दरअसल बदले हुए समय और रुचियों में अपनी कला की प्रतिष्ठा के संघर्ष में मुब्तिला है.

अंग्रेजी से इसका हिंदी अनुवाद सुशांत सुप्रिय ने किया है. अनुवाद जटिल कार्य और श्रमसाध्य कला है. किसी भी कृति के तमाम अनुवाद संभव है. उम्मीद है यह अनुवाद आपको समुचित लगेगा.


 फ़्रैंज़ काफ़्का
उपवास करने वाला कलाकार                 
अनुवाद : सुशांत सुप्रिय




पिछले कुछ दशकों में उपवास करने वाले कलाकारों के प्रति लोगों की रुचि बहुत कम हो गई है. जबकि पहले के समय में प्रबंधकों द्वारा इस आयोजन से काफ़ी रुपये कमाए जाते थे, आजकल यह असम्भव है. वह ज़माना कुछ और ही था. उन दिनों उपवास करने वाला कलाकार पूरे शहर के ध्यान का केंद्र होता था. जब तक उसका उपवास जारी रहता, उसे देखने के लिए प्रतिदिन आम जनता की भीड़ बढ़ती जाती. हर आदमी उपवास करने वाले कलाकार को कम-से-कम एक बार प्रतिदिन देखना चाहता था. बाद के दिनों में शुल्क दे कर टिकट लेने वाले कुछ लोग सारा दिन उस छोटे से पिंजरे के सामने बैठे रहते. यहाँ तक कि रात में भी उपवास करने वाले कलाकार को देखने के लिए समय नियत किया जाता. टॉर्च की तेज रोशनी में उसका प्रभाव और बढ़ जाता.

अच्छे मौसम वाले दिनों में पिंजरे को घसीट कर बाहर निकाल लिया जाता था, और तब उपवास करने वाले कलाकार को प्रदर्शन के लिए सबके सामने, विशेष करके बच्चों के सामने रखा जाता. बड़े लोगों के लिए उपवास करने वाला कलाकार महज़ चुटकुलों का केंद्र था. वे इस कार्यक्रम में इसलिए भाग लेते थे क्योंकि यह प्रचलित था. किंतु खुले मुँह वाले बच्चे सुरक्षा के लिए एक-दूसरे का हाथ पकड़े आश्चर्यचकित हो कर उपवास करने वाले कलाकार को देखते थे. वह कुर्सी को ठुकरा कर बिखरे हुए पुआल पर बैठा रहता था. चुस्त काले कपड़े पहने हुए वह निस्तेज लग रहा होता था. उसकी पसलियाँ स्पष्ट रूप से बाहर निकली होती थीं. कभी-कभी वह शिष्टता से अपना सिर हिलाता था और प्रश्नों के उत्तर देते हुए ज़बर्दस्ती मुस्कराता भी था. अन्य अवसरों पर वह अपनी बाँह को पिंजरे की सलाखों में से बाहर निकाल कर लोगों को उसे छूने देता था ताकि लोग यह महसूस कर सकें कि वह कितना कृशकाय था. लेकिन फिर वह जैसे वापस खुद में ही डूब जाता था. तब वह किसी भी चीज़ पर ध्यान नहीं देता था. यहाँ तक कि घंटा बीतने पर घड़ी के बजने की उसके लिए महत्त्वपूर्ण घटना पर भी उसका ध्यान नहीं जाता था. पिंजरा केवल इसी एकमात्र चीज़ से सुसज्जित था. उपवास करने वाला कलाकार जब ऐसी अवस्था में होता तो वह अपनी लगभग बंद आँखें लिए सामने पिंजरे से बाहर देखता रहता. बीच-बीच में अपने होठ गीले करने के लिए वह एक छोटे-से गिलास से पानी की चुस्कियाँ लेता रहता.

वहाँ दर्शकों के लगातार बदलते समूहों के अलावा जनता द्वारा चुने हुए पर्यवेक्षक भी होते थे -- हैरानी की बात यह थी कि सामान्यतः वे कसाई होते थे -- जिन्हें हमेशा तीन की संख्या में उपवास करने वाले कलाकार पर रात-दिन निगाह रखने की ज़िम्मेदारी दी जाती थी, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि वह कलाकार गुप्त रूप से कुछ भी न खा सके. हालाँकि यह एक औपचारिकता मात्र थी, जिसे जनता को आश्वस्त करने के लिए रखा गया था. जो सारी बातें समझते थे वे अच्छी तरह जानते थे कि उपवास की अवधि में उपवास करने वाला कलाकार किसी भी हालत में अन्न का कण भी ग्रहण नहीं करेगा. यदि उसे खाने के लिए विवश किया जाए, तो भी वह ऐसा नहीं करेगा. उसकी कला की प्रतिष्ठा उसे कुछ भी खाने नहीं देगी. हालाँकि उस पर निगाह रखने वाले पर्यवेक्षक यह बात नहीं समझते थे.

कभी-कभी वहाँ पर्यवेक्षकों के रात्रिकालीन समूह मौजूद होते थे जो अपने पहरे में शिथिलता बरतते थे. वे जान-बूझ कर दूर-दराज़ के कोनों में बैठ जाते और अपना पूरा ध्यान पत्ते खेलने में लगा देते. उनका मक़सद यह होता था कि कलाकार थोड़ा-बहुत कुछ खा ले. उनका सोचना था कि कलाकार खाने-पीने की चीज़ों का गुप्त रूप से प्रबंध कर सकता था. उपवास करने वाले कलाकार के लिए ऐसेपर्यवेक्षकों से अधिक यंत्रणादायी और कोई नहीं होता था. वे उसे विषाद से भर देते थे. उनकी वजह से उसका उपवास बेहद मुश्किल हो जाता.

कभी-कभार वह अपनी कमज़ोरी से ऊपर उठ कर उस समय गीत गाता जब लोग उस पर नज़र रखे होते. जब तक सम्भव हो, वह तब तक गीत गाता रहता. यह उसे देख रहे लोगों को यह बताने का उसका तरीका था कि उसके प्रति उनकी शंकाएँ निर्मूल थीं. किंतु उससे कोई फ़ायदा नहीं होता, क्योंकि तब लोग इस बात पर हैरानी प्रकट करते कि उपवास करने वाला कलाकार गीत गाते हुए  भी गुप्त रूप से खाना खा सकने में कितना सक्षम था. वह उन प्रेक्षकों का साथ ज़्यादा पसंद करता जो उसके पिंजरे के ठीक सामने आ कर बैठ जाते और कमरे की मद्धिम रोशनी से असंतुष्ट हो कर उस पर तेज़ रोशनी डालते जिसका प्रबंध संचालक कर देता था. तेज़ रोशनी उसे ज़रा भी परेशान नहीं करती थी.

आम तौर पर वह बिल्कुल नहीं सो पाता था, हालाँकि रोशनी कितनी भी हो या कोई भी पहर हो, कभी-कभी उसे झपकी लग जाती थी. ऐसी झपकियाँ तो उसे शोर और भीड़ से भरे सभागार में भी लग जाती थीं. ऐसे पर्यवेक्षकों की मौजूदगी में वह खुशी-खुशी सारी रात बिना सोए गुज़ार देता था. वह कभी उन्हें चुटकुले सुनाता था, कभी अपने ख़ानाबदोश जीवन के क़िस्सों के बारे में बताता था. बदले में वह उनकी कहानियाँ भी सुनता था. वह यह सब उन्हें जगाए रखने के लिए करता था. ऐसा करके वह उन सभी पर्यवेक्षकों को दोबारा यह दिखा सकता था कि उसके पास पिंजरे में खाने के लिए कुछ भी नहीं था, और वह वाकई उपवास कर रहा था जो वे सब नहीं कर सकते थे.

उसे सब से ज़्यादा प्रसन्नता तब होती थी जब सुबह के समय सभी पर्यवेक्षकों के लिए प्रचुर मात्रा में नाश्ता लाया जाता था. इस नाश्ते की क़ीमत वह अदा करता था. सारी रात मेहनत करने और जगे रहने के बाद वे सब उस नाश्ते पर स्वस्थ, भूखे लोगों की तरह टूट पड़ते थे. हालाँकि यह सही है कि कुछ लोग इस नाश्ते को भी पर्यवेक्षकों को प्रभावित करने वाला अनुचित आयोजन बताते थे, लेकिन यह आरोप कुछ ज़्यादा ही अस्वाभाविक था. दूसरी ओर यदि उन लोगों से पूछा जाता कि क्या वे बिना सुबह का नाश्ता लिए पर्यवेक्षकों की रात्रिकालीन भूमिका निभाएँगे, तो वे इसके लिए साफ़ मना कर देते. जो भी हो, कलाकार के उपवास को लेकर वे अपनी शंकाएँ छोड़ने के लिए तैयार नहीं होते थे.

आम तौर पर ऐसी शंकाएँ कलाकार के साथ ऐसे जुड़ी होती थीं कि उनसे बचना असम्भव था. वास्तव में कोई भी व्यक्ति उपवास करने वाले कलाकार पर लगातार दिन-रात बिना व्यवधान के निगाह नहीं रख सकता था. इसलिए कोई भी आदमी अपने अवलोकन के आधार पर यह नहीं बता सकता था कि क्या यह मामला सचमुच बिना ऐब लगातार चलने वाले उपवास का था. केवल उपवास करने वाला कलाकार ही यह बात जानता था, और केवल वही ऐसा दर्शक था जो अपने उपवास से पूरी तरह संतुष्ट होने की क्षमता रखता था. किंतु उसके असंतोष का कारण कुछ और ही था.

कुछ लोग चाह कर भी उसका यह प्रदर्शन नहीं देख पाते थे क्योंकि वे उसे इस क्षीण अवस्था में देखना नहीं सह पाते थे. पर शायद उसकी यह अवस्था उपवास के कारण नहीं थी. दरअसल वह अपने प्रति असंतोष के भाव की वजह से ही इतना कृशकाय हो गया था क्योंकि केवल वही एक ऐसी बात जानता था जिसके बारे में दीक्षित लोगों को भी कोई जानकारी नहीं थी. वह बात यह थी -- उपवास करना कितना आसान काम था. यह दुनिया का सबसे आसान काम था. इसके बारे में वह चुप नहीं रहा, लेकिन लोग उसकी बात पर विश्वास नहीं करते थे. वे सोचते थे कि वह विनम्र बन रहा था. पर अधिकांश लोग उसे प्रसिद्धि की तलाश में लगा हुआ व्यक्ति या ठग मानते थे जिसके लिए उपवास करना एक आसान काम था. उनके अनुसार ऐसा इसलिए था क्योंकि वह जानता था कि उपवास करने को कैसे आसान बनाया जा सकता था, लेकिन फिर भी वह इसके आसान होने की बात को पूरा नहीं मान रहा था.

उसे यह सब स्वीकार करना पड़ता था. अब काफ़ी बरस बीत जाने के बाद उसे इस सब की आदत हो गई थी. लेकिन असंतोष का यह भाव उसे सारा समय भीतर से कचोटता रहता. उसे इस बात का श्रेय दिया जा सकता था कि आज तक वह कभी भी अपनी मर्ज़ी से उपवास ख़त्म करके उस पिंजरे से बाहर नहीं आया था. संचालक ने उपवास करने की सर्वाधिक अवधि चालीस दिनों की तय की थी. वह कलाकार के उपवास को कभी भी इस अवधि से अधिक दिनों के लिए नहीं होने देता था, यहाँ तक कि विश्व के महानगरों में भी नहीं. असल में उसके पास एक सही वजह थी. अनुभव से यह पता चला था कि किसी भी शहर के नागरिकों की रुचि को आप लगातार चालीस दिनों तक उत्तेजित अवस्था में रख सकते थे, किंतु उसके बाद जनता का जोश समाप्त हो जाता था. और उपवास की लोकप्रियता में आई भारी कमी को देखा जा सकता था. ज़ाहिर है, इस संदर्भ में विभिन्न शहरों और देशों में छोटी-छोटी भिन्नताएँ थीं, किंतु एक नियम के रूप में यह बात सच थी कि उपवास के लिए नियत सर्वाधिक अवधि चालीस दिनों की ही थी.

इसलिए फूलों से ढँके पिंजरे का दरवाज़ा चालीसवें दिन खोल दिया जाता था. जोश से भरी जनता जैसे रंगभूमि में दाख़िल हो जाती. सेना का एक बैंड सैनिक धुनें बजा रहा होता. दो डॉक्टर उपवास करने वाले कलाकार की जाँच करने के लिए पिंजरे में घुसते. एक भोंपू के माध्यम से नतीजों की घोषणा कर दी जाती. अंत में दो युवतियाँ वहाँ आतीं. वे इस तथ्य के कारण प्रसन्न होतीं कि उन्हें अभी-अभी लॉटरी की पर्ची निकालने के तरीके से चुना गया था. उन्हें उपवास करने वाले कलाकार को पिंजरे से बाहर कुछ क़दम ले कर आना होता, जहाँ एक छोटी-सी मेज पर ध्यान से चुना गया अस्पताल द्वारा निर्दिष्ट भोजन रखा होता.

ऐसे समय में उपवास करने वाला कलाकार हमेशा अड़ कर अपना विरोध दर्ज कराता. हालाँकि वह अपनी दुर्बल बाँहें उस पर झुकी उन युवतियों की मदद करने वाली आगे बढ़ी हथेलियों के हवाले कर देता, पर वह खड़ा होने से इंकार कर देता. चालीस दिनों तक चलने के बाद ठीक अभी इस उपवास को क्यों रोक दिया गया? वह अपना उपवास अभी एक असीमित समय के लिए जारी रख सकता था. उपवास को अभी रोकने का क्या मतलब था जब वह अपनी सर्वश्रेष्ठ दशा में आ भी नहीं पाया था. लोग उसे और अधिक समय तक उपवास करने की कीर्ति से क्यों वंचित करना चाहते थे? वह आदि-काल से अब तक का सर्वश्रेष्ठ उपवास करने वाला कलाकार बन सकता था. वास्तव में तो वह ऐसा था भी. किंतु यदि उसे मौक़ा दिया जाता तो वह किसी कल्पनातीत तरीके से खुद को भी मात दे कर और आगे बढ़ सकता था. उसे लगता था कि उपवास करने की उसकी क्षमता की कोई सीमा नहीं थी.

यह भीड़, जो उसे इतना चाहने का नाटक करती थी, उसमें और अधिक आस्था क्यों नहीं दिखाती थी? यदि वह और अधिक समय तक उपवास करना चाहता था तो ये लोग उसे क्यों बर्दाश्त नहीं करते थे? जब वह थका होता था तो उसे नीचे पुआल पर बैठना अच्छा लगता था. पर ऐसे समय में भी उससे उम्मीद की जाती थी कि वह तन कर सीधा खड़ा हो और जा कर कुछ खाए, जबकि कुछ खाने की कल्पना मात्र से उसे उल्टी जैसा महसूस होता था. उन दोनों युवतियों के सम्मान को मद्देनज़र रखते हुए उपवास करने वाले कलाकार ने बड़ी मुश्किल से खुद को यह बात कहने से रोका. 

उसने युवतियों की आँखों में देखा -- देखने में इतनी मित्रवत् किंतु वास्तव में इतनी क्रूर. उसने अपने दुर्बल गर्दन पर टिका अपना बहुत भारी सिर हिलाया. लेकिन तब वही हुआ जो अक्सर होता था. बिना एक शब्द कहे संचालक आगे आया. बजती हुई तेज़ धुनों की वजह से बातचीत कर पाना असम्भव था. उसने उपवास करने वाले कलाकार के ऊपर अपने हाथ उठाए, गोया वह स्वर्ग-लोक को पुआल पर किए गए उसके उपवास के काम का साक्षी बनने के लिए वहाँ बुला रहा हो . इस अभागे शहीद को देखिए -- उपवास करने वाला कलाकार वाकई वही था -- लेकिन ऐसा वह बिल्कुल अलग ही अर्थ में था.

संचालक ने उपवास करने वाले कलाकार को उसकी पतली कमर से पकड़ा, लेकिन इस प्रक्रिया में भी वह बढ़ा-चढ़ा कर सावधानी दिखा रहा था ताकि लोगों को यह विश्वास हो जाए कि वह एक बेहद दुर्बल व्यक्ति से पेश आ रहा था.

इस बीच उसने उपवास करने वाले कलाकार को गुप्त रूप से झकझोर भी दिया जिससे कि उसके पैर और उसकी देह का ऊपरी हिस्सा अनियंत्रित रूप से काँपने लगे. फिर संचालक ने उसे उन युवतियों के हवाले कर दिया, जिनके चेहरे मृत्यु-से ज़र्द हो गए थे.
(Jonathan Levin in A Hunger Artist. Photo by Kelly Stuart.)


इस समय उपवास करने वाला कलाकार सब कुछ सह रहा था. उसका सिर उसकी छाती पर पड़ा था. ऐसा लगता था जैसे उसका सिर बिना किसी स्पष्टीकरण के लुढ़क कर वहाँ जा कर रुक गया था. उसकी देह पीछे की ओर तनी हुई थी. अपने को बचाए रखने के लिए उसकी टाँगें जैसे आवेग के साथ घुटनों से मुड़ गई थीं , किंतु वे ज़मीन के साथ रगड़ खा रही थीं. उसकी देह का समूचा भार  -- जो कि बहुत कम ही था -- पूरी तरह एक युवती पर टिका हुआ था . वह युवती साँस फूल जाने की वजह से किसी को मदद के लिए बुला रही थी, क्योंकि उसने कल्पना भी नहीं की थी कि जिस सम्मान के लिए उसे चुना गया था, वहाँ यह भी करना पड़ेगा. इस बीच जहाँ तक सम्भव हुई, उसे अपनी गर्दन उतनी दूर करनी पड़ी ताकि वह उपवास करने वाले कलाकार की देह के सम्पर्क में आने से बच सके. किंतु जब वह उपवास करने वाले कलाकार को अकेले नहीं सँभाल सकी और उसकी अधिक भाग्यशाली सहयोगी उसकी मदद के लिए आगे नहीं आई बल्कि काँपी और उस कलाकार का केवल हाथ पकड़ कर खड़ी रही, तो पहली युवती रो पड़ी. यह देखकर पूरे सभागार में हँसी की ख़ुशनुमा लहर दौड़ गई. अंत में वहाँ कुछ देर से खड़े परिचारक ने उस युवती की मदद की और स्थिति को सँभाला.

फिर भोजन की बारी आई. संचालक ने थोड़ा-सा खाना उपवास करने वाले कलाकार के मुँह में रखा. कलाकार को झपकी आ रही थी जिसके कारण ऐसा लग रहा था जैसे वह बेहोश हो गया हो. उधर संचालक कलाकार की हालत पर से लोगों का ध्यान हटाने के लिए चहकते हुए कुछ-न-कुछ बोलता जा रहा था. फिर जनता के नाम एक जाम प्रस्तावित किया गया और माना गया कि यह बात उपवास करने वाले कलाकार ने ही संचालक के कान में कही थी. वहाँ मौजूद ऑर्केस्ट्रा ने धूम-धाम से धुनें बजा कर जैसे सारी कार्रवाई की पुष्टि की. फिर धीरे-धीरे लोग छँटने लगे और किसी के भी इस आयोजन से असंतुष्ट होने का सवाल ही नहीं था. किंतु उपवास करने वाला कलाकार इसका अपवाद था -- हर बार ऐसे आयोजन केवल उसे ही असंतुष्ट छोड़ जाते थे.

दरअसल उपवास करने वाला कलाकार बरसों तक इसी तरह जीता रहा था. हर थोड़े अंतराल के बाद वह फिर उपवास की ओर लौटता. वह फिर से लोक-प्रसिद्धि का केंद्र बन जाता. विश्व द्वारा सम्मानित किया जाता. किंतु इस सब के बावजूद विषाद उसे घेरे रहता. धीरे-धीरे यह विषाद और गहरा होता चला जाता, क्योंकि कोई यह नहीं समझ पाता कि इसे गम्भीरता से कैसे लिया जाए. पर उसे सांत्वना कैसे मिलनी थी? इच्छा करने के लिए अब बचा ही क्या था ? और यदि नेक स्वभाव का कोई आदमी, जो उसके प्रति अफ़सोस व्यक्त करता था, कभी उसे समझाना चाहता कि उसकी निराशा उपवास करने की वजह से ही उपजी है, तो यह सम्भव था कि चालीसवें दिन के उपवास के आस-पास वह कलाकार उसे गुस्से से आग-बबूला हो कर अपना प्रत्युत्तर देता. सम्भव था कि तब गुस्से के आलम में वह किसी बाड़े जैसे अपने पिंजरे को किसी ग़ुस्सैल जानवर की तरह ज़ोर-ज़ोर से हिला कर सबको डरा देता.

लेकिन संचालक ऐसे अवसर पर दंड देना जानता था, और वह ऐसा करके प्रसन्न होता था. वह एकत्र जनसमूह से उपवास करने वाले कलाकार की ओर से क्षमायाचना करता. वह कहता कि कलाकार बहुत दिनों तक उपवास करने की वजह से चिड़चिड़ा हो गया है. यह बात तीनों समय भोजन करने वाले लोग नहीं समझ सकते. इसलिए वह लोगों से निवेदन करता कि वे उपवास करने वाले कलाकार के बुरे व्यवहार के लिए उसे क्षमा कर दें. फिर वह चालाकी से उपवास करने वाले कलाकार के उस दावे पर आता जिसमें कलाकार ने कहा था कि वह चालीसवें दिन के बाद भी उपवास जारी रख सकता है. वह इस उदात्त उद्देश्य की सराहना करता, और इस सदिच्छा और आत्म-त्याग की महानता की भी प्रशंसा करता. किंतु इसके बाद वह विभिन्न प्रकार की तस्वीरें दिखा कर इस पूरे दावे का खंडन कर देता. ये तस्वीरें बिक्री के लिए उपलब्ध होतीं इनमें कलाकार के उपवास की चालीसवें दिन की तस्वीरें होतीं जिनमें उसे दुर्बलता की वजह से पुआल पर लगभग मरणासन्न स्थिति में पड़ा हुआ दिखाया जाता.

हालाँकि उपवास करने वाला कलाकार सत्य की इस विकृति से अवगत था, पर यह सब दोबारा देखने पर वह व्यग्र और अधीर हो उठता. समय से पहले उपवास बंद कर देने का जो नतीजा था, उसे अब लोग उपवास के कारण के रूप में प्रस्तावित कर रहे थे ! विश्व की इस नासमझी और ग़लतफ़हमी से लड़ना असम्भव था. सदाशयता की वजह से वह हमेशा पिंजरे की छड़ों को पकड़कर संचालक की बातों को उत्सुकता से सुनता था, पर तस्वीरों के दिखाए जाने पर हर बार वह पिंजरे की छड़ों को छोड़ कर आह भरता थ, और वापस नीचे पुआल पर जा बैठता था. तब आश्वस्त जनता फिर से पिंजरे के क़रीब आ कर उसे देख सकती थी.

जिन लोगों ने ऐसे दृश्य देखे थे, जब वे कुछ वर्षों के बाद उनके बारे में सोचते थे तो अक्सर वे खुद ही यह सब नहीं समझ पाते थे. ऐसा इसलिए होता क्योंकि इस बीच वह बदलाव आ चुका था जिसका ज़िक्र पहले किया गया था. यह बदलाव लगभग तत्काल हुआ था. इस बदलाव के और भी गम्भीर कारण हो सकते थे, पर वे कारण क्या थे, इसे जानने की भला कौन चिंता कर रहा था? कुछ भी हो , बहुत लाड़-प्यार से रखे जाने वाले उपवास करने वाले उस कलाकार का एक दिन दर्शकों की उस भीड़ ने परित्याग कर दिया जो नित दिन नए मज़े ढूँढ़ती रहती थी. लोग अब अन्य आकर्षणों की ओर जाने लगे. संचालक उपवास करने वाले कलाकार को लेकर एक बार और आधे यूरोप के दौरे पर गया ताकि लोगों में उसके प्रति दर्शकों की पुरानी रुचि को यहाँ-वहाँ फिर से जगाया जा सके. किंतु सब बेकार गया. ऐसा लग रहा था जैसे उपवास करने वाले कारनामे के विरुद्ध हर जगह कोई गुप्त समझौता हो गया था.

ज़ाहिर है, सच्चाई यह थी कि ऐसा अचानक इतनी तीव्र गति से नहीं हुआ होगा. बाद में लोगों ने मादक कामयाबी के उन दिनों की कुछ चीज़ों को याद किया जिन पर उन्होंने पूरा ध्यान नहीं दिया था. जैसे कुछ अपर्याप्त रूप से दबा दिए गए संकेत. किंतु अब उन्हें रोकने के लिए कुछ भी कर पाना असंभव था क्योंकि अब बहुत देर हो चुकी थी. यह निश्चित था कि उपवास की लोकप्रियता एक दिन वापस लौट आनी थी, किंतु जो लोग आज जीवित थे, यह सोच उन्हें सान्त्वना देने वाली नहीं थी.

उपवास करने वाला कलाकार अब क्या करता ? जिस व्यक्ति के कारनामों को हज़ारों लोगों ने सराहा था, वह अब छोटे-मोटे मेलों में प्रदर्शनी लगा कर नहीं बैठ सकता था. उपवास करने वाला कलाकार न केवल अब अपना पेशा बदलने के लिए बहुत बूढ़ा हो चुका था, बल्कि वह कुछ और करने की बजाए उपवास करने के प्रति कट्टरता से समर्पित था. इसलिए उसने संयोजक से विदा ली जो कि उसके जीवन की सड़क पर एक अतुलनीय साथी था, और उसने खुद को एक बड़े-से सर्कस को किराए पर दे दिया. अपनी भावनाओं की अनदेखी करते हुए उसने अनुबंध की शर्तों को भी नहीं पढ़ा.

एक बड़े सर्कस में बहुत ज़्यादा संख्या में लोग, जानवर और खेल-तमाशे होते हैं. इनमें से कुछ लगातार सर्कस छोड़ कर जा रहे होते हैं और उनकी जगह नए लोग आ रहे होते हैं. ऐसा सर्कस किसी का भी, यहाँ तक कि उपवास करने वाले कलाकार का भी इस्तेमाल कर सकता है. शर्त सिर्फ़ यह है कि उसकी माँग संतुलित होनी चाहिए.

हालाँकि इस मामले में न केवल उपवास करने वाले कलाकार की सेवा ली गई बल्कि किसी जमाने में लोकप्रिय रहे उसके नाम का भी इस्तेमाल किया गया. दरअसल उसकी कला की विशेषता उसकी बढ़ती हुई उम्र से बाधित नहीं हुई थी. कोई यह नहीं कह सकता था कि एक घिस चुका कलाकार, जो अब अपनी योग्यता की पराकाष्ठा पर नहीं था, किसी सर्कस के शांत माहौल में पलायन कर जाना चाहता था. इसके ठीक विपरीत उपवास करने वाले कलाकार ने यह घोषणा की कि वह उतनी ही शिद्दत से अब भी उपवास कर सकता था जैसे वह पहले किया करता था. यह वाकई एक विश्वसनीय बात थी. उसने तो यहाँ तक दावा किया कि यदि लोग उसे उसके मन की करने दें तो वह वाकई पहली बार पूरे विश्व को चकित कर देगा. दरअसल उसे इस बार भरोसा दिलाया गया कि इसमें कोई मुश्किल नहीं होगी. किंतु समय का मिज़ाज इसके विपरीत था और उपवास करने वाले कलाकार ने अपने उत्साह की वजह से इस तथ्य की अनदेखी कर दी थी. इसलिए उसके दावों की बात सुनकर विशेषज्ञों के चेहरों पर मुस्कान आ गई.

उपवास करने वाला कलाकार वास्तविकता को भूला नहीं था. इसलिए वह यह मानकर चला कि सर्कस में भी लोग उसके पिंजरे को मुख्य आकर्षण बना कर बीचोंबीच नहीं रखेंगे, बल्कि वे उसके पिंजरे को बाहर कहीं आसानी से पहुँच सकने वाले पशुओं के बाड़ों के क़रीब डाल देंगे. उसके पिंजरे के चारों ओर मौजूद चमकीले रंगों में रंगे सूचना-पट्ट इस बात की घोषणा कर रहे थे कि वहाँ क्या मौजूद था. मुख्य प्रदर्शन और और तमाशों के बीच हुए मध्यांतर के समय जब आम जनता पशुओं के बाड़े देखने के लिए बाहर निकलती, तो वह उपवास करने वाले कलाकार की अनदेखी नहीं कर सकती थी. वे वहाँ कुछ पल रुकते थे . शायद वे उसके पिंजरे के सामने कुछ पल और बिताते, पर उस तंग रास्ते में पीछे खड़े लोग आगे वालों को धकेलते रहते थे क्योंकि वे जानवरों के बाड़े देखना चाहते थे और उन्हें बीच में आई रुकावट के कारण के बारे नहीं पता था. पीछे वाले लोगों द्वारा आगे वाले लोगों को धकेलने की वजह से किसी के लिए भी उपवास करने वाले कलाकार को देर तक शांति से देख पाना सम्भव नहीं होता था. यही कारण था कि उपवास करने वाला कलाकार दर्शकों के आने के लिए तय किए गए घंटों के समय काँपने लगता था, हालाँकि अपने जीवन के मुख्य उद्देश्य के रूप में वह इन दर्शकों की प्रतीक्षा किया करता था.

शुरुआती दौर में वह अधीर हो कर मुख्य तमाशों के बीच हुए मध्यांतर का इंतज़ार करता था. वह बेहद प्रसन्नता से भीड़ के अपने पिंजरे के चारो ओर खड़े होने की प्रतीक्षा करता था. लेकिन बाद में जल्दी ही वह इस बात को समझ गया कि भीड़ में मौजूद लोग दरअसल पशुओं के बाड़ों को देखने के लिए आए थे. उनके इरादे से यह स्पष्ट था, और उपवास करने वाले कलाकार का अनुभव भी यही कहता था. वह अड़ियल हो कर जान-बूझ कर खुद को धोखे में नहीं रख सकता था, हालाँकि दर्शकों से घिरे उसके पिंजरे का यह दृश्य उसका सबसे सुखद पल होता था. 

जब वे उसके पिंजरे के बिलकुल पास आ जाते तो वह लगातार बढ़ते जाते दो समूहों के चीख़ने और गालियाँ देने के शोर को सुनने के लिए मजबूर हो जाता. एक समूह वह होता जो वहाँ रुक कर उपवास करने वाले कलाकार को थोड़ी देर और देखना चाहता. ऐसा वे लोग अपनी समझ की वजह से नहीं करते बल्कि केवल एक सनक या अवज्ञा भरी चुनौती के कारण करते थे. कलाकार के लिए जल्दी ही ऐसे लोग सिर-दर्द का कारण बन जाते. दूसरी ओर वह समूह था जिसकी एकमात्र माँग जल्दी-से-जल्दी जानवरों के बाड़ों तक पहुँच जाने की होती थी.

जब भारी भीड़ आगे चली जाती तो देर से आने वाले लोग पहुँचते. हालाँकि इन लोगों को वहाँ काफ़ी देर तक ठहरने से रोकने वाला कोई नहीं होता, पर वे बिना उस ओर देखे, लम्बे-लम्बे डग भरते हुए आगे निकल जाते क्योंकि उन्हें जानवरों के बाड़ों तक पहुँचने की जल्दी होती. उपवास करने वाले कलाकार के लिए यह अच्छी किस्मत की बात होती जब एक परिवार का पिता अपने बच्चों के साथ वहाँ पहुँचता. वह अपनी उँगली से बच्चों को उपवास करने वाला कलाकार दिखाता और यहाँ क्या हो रहा है, इसके बारे में उन्हें विस्तार से बताता. वह अपने बच्चों को उस पुराने समय की बात भी बताता जब वह स्वयं ऐसे ही किंतु इससे अधिक भव्य प्रदर्शनों के दौरान मौजूद था. तब बच्चे पिंजरे के पास इस तरह खड़े रहते जैसे उन्हें कुछ भी समझ नहीं आया हो. ऐसा इसलिए होता क्योंकि इन बच्चों को स्कूल और जीवन की जटिलताओं के लिए सही ढंग से तैयार नहीं किया गया होता. उनको भला उपवास से क्या लेना-देना होता ? किंतु उनकी कुछ ढूँढ़ती-सी आँखों में बसी चमक यह बताती थी कि नया और अच्छा समय आने वाला था.

उपवास करने वाला कलाकार कभी-कभी खुद से यह कहता था कि सब कुछ पहले से बेहतर हो जाता यदि उसका पिंजरा जानवरों के बाड़ों के इतने पास नहीं होता. तब लोगों को चयन करने में आसानी हो जाती. दरअसल उपवास करने वाला कलाकार बेहद परेशान और उदास था. जानवरों के बाड़ों से उठती दुर्गंध, रात में जानवरों द्वारा मचाया गया शोर, मांसाहारी जानवरों के लिए उसके पिंजरे के सामने से घसीट कर ले जाया जाता कच्चा मांस और खाना खाते हुए जानवरों की दहाड़ों की वजह से उसका जीना हराम हो गया था. किंतु उसने सर्कस के प्रबंधन के सामने इस मामले को उठाने की हिम्मत नहीं की. कुछ भी हो, उसे तो इन जानवरों का शुक्रगुज़ार होना चाहिए था क्योंकि उन्हें देखने आई भीड़ में से ही यदा-कदा कोई उसके पिंजरे को देखने में भी रुचि ले लेता था. और कौन जानता है, वे उसे किस उपेक्षित कोने में डाल देते यदि उसने उन्हें अपने अस्तित्व के बारे में कहा होता. देखा जाए तो वह भीड़ के जानवरों के बाड़ों की ओर जाने के मार्ग में एक बाधा ही था.

हालाँकि जानवरों के बाड़ों के पास उसकी उपस्थिति एक छोटी-सी बाधा ही थ. एक ऐसी बाधा जो नगण्य होती जा रही थी. लोगों को यह अजीब लगा कि आज के ज़माने में कोई उपवास करने वाले कलाकार पर भी अपना ध्यान केंद्रित करना चाहेगा. आदत की वजह से उपजी लोगों की इस जागरूकता ने जैसे उसके भविष्य के बारे में अपना निर्णय सुना दिया. वह जितनी अच्छी तरह चाहे, उपवास कर सकता था -- और वह ऐसा करता भी रहा -- किंतु अब कोई भी चीज़ उसे नहीं बचा सकती थी. लोग बिना उसकी ओर देखे उसके ठीक सामने से निकल जाते. आप किसी को उपवास करने की कला के बारे में बता कर तो देखें ! यदि कोई इस कला के महत्त्व को स्वयं महसूस नहीं कर सकता तो उसे कोई और इसके बारे में नहीं समझा सकता.

धीरे-धीरे पिंजरे के सामने टँगे सुंदर सूचना-पट्ट गंदे और अस्पष्ट होते चले गए. लोगों ने उन्हें तोड़-फाड़ दिया और किसी के ज़हन में नए सूचना-पट्ट लगाने का विचार नहीं आया. मेज पर उपवास के दिनों की संख्या बहुत दिनों से नहीं बदली गई थी. पहले प्रतिदिन यह संख्या बदली जाती थी. किंतु बाद में एक लम्बी अवधि तक इसकी उपेक्षा कर दी गई. दरअसल इसके लिए ज़िम्मेदार लोग शुरू के कुछ हफ़्तों के बाद अपने इस छोटे से काम से भी थक गए. इसलिए उपवास करने वाला वह कलाकार लगातार उपवास करता चला गया, जैसा उसने पहले चाहा था. कमाल की बात यह थी कि इतने अधिक दिनों तक उपवास करने के बारे में उसने पहले जो भविष्यवाणी की थी, उसे प्राप्त करने में उसे कोई कठिनाई नहीं हुई. लेकिन अब कोई भी उसके उपवास करने के दिनों की संख्या को नहीं गिन रहा था. यहाँ तक कि उपवास करने वाला कलाकार स्वयं भी यह नहीं जानता था कि इस समय तक उसकी प्राप्ति कितनी महान हो गई थी. इसलिए उसका मन अब भारी हो गया था.

कभी-कभार जब पिंजरे के सामने से टहल कर जाता हुआ कोई व्यक्ति उपवास के दिनों के धुँधले पड़ चुके आँकड़ों का मज़ाक उड़ाता और धोखे की बात करता तो वह दरअसल सबसे मूर्खतापूर्ण झूठ होता जो उपेक्षा और दुर्भावना गढ़ सकती थी. ऐसा इसलिए क्योंकि उपवास करने वाला कलाकार किसी को धोखा नहीं दे रहा था -- वह तो ईमानदारी से अपना काम कर रहा था, किंतु विश्व उसे उसका इनाम न दे कर उसे धोखा दे रहा था.

एक बार फिर बहुत से दिन बीत गए और इसका भी अंत हो गया. आख़िर एक निरीक्षक की निगाह उस पिंजरे पर पड़ी. उसने परिचारक से पूछा कि उन्होंने एक बढ़िया , उपयोगी पिंजरे को सड़ते हुए पुआल के साथ बिना उपयोग के वहाँ क्यों छोड़ दिया है ? किसी को इसके बारे में कोई जानकारी नहीं थी. जब एक आदमी ने मेज पर लिखी धुँधली संख्या देखी तो उसे उपवास करने वाले कलाकार की याद आई. जब उन्होंने डंडों से पुआल को उलट-पुल्टा कर देखा तो उन्हें उपवास करने वाला कलाकार वहाँ पड़ा मिला.

"क्या तुम अब भी उपवास कर रहे हो ?"निरीक्षक ने पूछा. "आख़िर तुम उपवास करना कब ख़त्म करोगे ?"
"इस सब के लिए मुझे क्षमा करें,"उपवास करने वाले कलाकार ने फुसफुसा कर कहा. केवल निरीक्षक उसकी बात समझ पाया क्योंकि उसने अपने कान पिंजरे से लगा रखे थे.
"बेशक,"निरीक्षक ने अपने माथे पर अपनी उँगली लगाते हुए कहा.
दरअसल वह अपने कर्मचारियों को उपवास करने वाले कलाकार की बुरी हालत के बारे में बताना चाहता था.
"हम तुम्हें माफ़ करते हैं."
"मैं हमेशा चाहता था कि आप लोग उपवास करने की मेरी क्षमता की प्रशंसा करें,"उपवास करने वाले कलाकार ने कहा.
"पर हम वाकई तुम्हारी इस क्षमता की प्रशंसा करते हैं ,"निरीक्षक ने कृपालु हो कर कहा.
"लेकिन आपको इसकी प्रशंसा नहीं करनी चाहिए ,"उपवास करने वाला कलाकार बोला.
"यदि ऐसी बात है तो हम इसकी प्रशंसा नहीं करते हैं ,"निरीक्षक ने कहा ,"लेकिन हम इसकी प्रशंसा क्यों नहीं करें ?"
"ऐसा इसलिए है क्योंकि कुछ भी हो, मुझे तो उपवास करना ही था. मुझे और कुछ करना नहीं आता. "
"अपने -आप को देखो,"निरीक्षक ने कहा. "तुम्हें कुछ और करना क्यों नहीं आता ?"
यह सुनकर उपवास करने वाले कलाकार ने अपना सिर थोड़ा उठाया, अपने होठों को इस तरह सिकोड़ा जैसे वह चुम्बन लेने जा रहा हो, और सीधा निरीक्षक के कान में यह कहा ताकि वह सारी बात सुन सके, "ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि मुझे खाने की वे चीज़ें नहीं मिलीं जो मुझे स्वादिष्ट लगती थीं. यदि मुझे स्वादिष्ट खाना मिल जाता तो तो यक़ीन कीजिए, मैं यूँ खुद का तमाशा नहीं बनाता. तब मैं आपकी और अन्य लोगों की तरह जी भर कर स्वादिष्ट भोजन खाता."ये उसके अंतिम शब्द थे. गर्वीला न सही, फिर भी उसकी आँखों की मंद पड़ रही ज्योति में अब भी यह दृढ़ विश्वास था कि वह अब तक लगातार उपवास करने में सफल रहा.

"ठीक है, यहाँ की गंदगी अब साफ़ कर दो,"निरीक्षक ने कहा. और उन्होंने उपवास करने वाले कलाकार को पुआल के साथ ही दफ़ना दिया. लेकिन उसके पिंजरे में उन्होंने एक युवा तेंदुए को डाल दिया. कोई मंदबुद्धि भी यह समझ सकता था कि पिंजरे में घूम रहे उस जंगली जानवर को देखना बड़ा स्फूर्तिदायक था क्योंकि वह पिंजरा बहुत समय से बड़ा नीरस था. अब वहाँ कोई कमी नहीं थी. बिना ज़्यादा सोचे पहरेदार तेंदुए के लिए खाना ले आए जिसका स्वाद उसे अच्छा लगा. उसे देखकर एक बार भी यह नहीं लगा जैसे वह अपनी खो गई आज़ादी का अभाव महसूस कर रहा हो. उसकी प्रभावशाली देह में जैसे सब कुछ फट पड़ने के कगार जितना मौजूद था. ऐसा लगता था जैसे उसकी देह आज़ादी को भी अपने साथ समेटे हुए थी. शायद यह आज़ादी उसके दाँतों में कहीं मौजूद थी. जीने की उसकी खुशी इतनी शिद्दत से उसके गले में से निकलती थी कि दर्शकों का उसे देर तक देखते रह पाना आसान नहीं था. लेकिन खुद को नियंत्रित करके वे सब उस पिंजरे के चारो ओर जुटे रहे और उन्हें वहाँ से आगे बढ़ जाने की कोई इच्छा नहीं हुई.
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सुशांत सुप्रिय
२८ मार्च १९६८

हत्यारे, हे राम , दलदल, पिता के नाम (कहानी संग्रह)
इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं, अयोध्या से गुजरात तक (कविता संग्रह)
विश्व की चर्चित कहानियाँ, विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ (अनुवाद) आदि प्रकाशित'

A-5001,गौड़ ग्रीन सिटी,
वैभव खंड,इंदिरापुरम,ग़ाज़ियाबाद, 201014 (उ. प्र.)
मो : 8512070086/ ई-मेल : sushant1968@gmail.com

सहजि सहजि गुन रमैं : प्रत्यूष पुष्कर

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Pablo Picasso, Guitar (1913).











संगीत से कविता का पुराना नाता है. संगीत ने कविता को स्थायित्व प्रदान किया है. जिन कविताओं को संगीत ने अपना सुर दिया वे अमर हो गयीं, जिन्हें हम ‘पारम्परिक’ कहते हैं दरअसल वे अनाम कवियों की जिंदा रचनाएँ हैं.
कविता ने भी संगीत का साथ दिया है. सुर को ध्यान में  रखकर  तमाम कविताएँ लिखी गयीं हैं. संगीत को विषय बनाकर भी कविताएँ लिखी जा रही हैं. बहुआयामी प्रतिभा के धनी प्रत्यूष पुष्कर तो अपना पहला कविता संग्रह ही ऐसी कविताओं से तैयार कर रहे हैं.
इन कविताओं में संगीत की समझ और उसका विस्तार तो है ही शिल्प और भाषा में भी ताज़गी है.

कुछ कविताएँ.

प्रत्यूष पुष्कर  की कविताएँ                                     







गन्धर्व (एक)
 
सम्पूर्ण मनुष्य नहीं है.
अर्ध-मानवीय है 
अर्ध-कलहंसी है
एक
जो पहले आलाप में दौड़ता है 

सभी हंसों के संग 
दूसरे आलाप  में 
स्वयं को  
सूर्य के  घोड़ों के समक्ष पाता  है 


उसका चेहरा ताप से निस्तेज हुआ जाता है 
उसकी छाती जलने लग जाती है



गन्धर्व(दो)
 
(सा)प्रमाण है, ईश का होना, 
होने के ईश के कोप का 
को-प-पश्चात 
ईश के पश्चाताप की 
विचित्र वेदना-पा

सर्प बंधन में जकड़ी 
मुक्ति की कोख से वो जो निर्गुण(सा)
'उड़ जाएगा हंस अकेला

 

पिकासो का गिटार


“मैं वह नहीं पेंट नहीं करता जो मुझे दीखता है,
मैं वह पेंट करता हूँ जो मुझे पता है कि वहां है”*


मुझे पता है कि वहां एक स्त्री है कम से कम
कम से कम एक पुरुष
कम से कम एक गिटार
कम से कम तीन लोग हैं

इन तीनों के बीच का सम्बन्ध
किसी अनसुलझे रुबिक क्यूब सा है
कम से कम एक बार एक गिटार बीच में है
कम से कम एक बार एक पुरुष बीच में है
कम से कम एक बार एक स्त्री को फैलाने पड़े हैं अपने पाँव

जब गिटार बीच में है तब
पुरुष का कूल्हा
गिटार की कमर सा लगता है
गिटार की कमर का वलय घटा
स्त्री कम से कम एक बार
अपनें नितम्ब भीतर धकेल देती है फ्रेम में
कम से कम एक बार पुरुष की ओर
कम से कम एक बार गिटार की ओर

स्त्री गिटार बजाना जानती है
पुरुष कम से कम एक बार नहीं जानता
पुरुष की कल्पनाओं में स्त्री ने देवीय रूप धारण किया है कम से कम एक बार
स्त्री ने देखा है पुरुष का प्रागैतिहास


कुछ तारें हैं
कुछ नहीं ये
गिटार 'अव्क्वार्ड'है पिकासो का
पता तो है कि है
छुआ भी नहीं है.
__
 *पिकासो



भैरवी

संगीत के अभाव में
गलत समझी गयी
जब संगीत से समझी गयी
इसकी प्रकृति चंचल,
पता चला अमावास नहीं है
सुबह का पहला प्रहर चपल


भैरवी का ‘धा’
संगीत में कोमल लगा
भैरवी को सुनते औंघाये
बच्चे सो गए.



वेस्टर्न-ईस्टर्न


एक परिवार तार-
सबसे ऊंची आवाज़ वायलिन की
संग खड़ी उसकी बहन विओला
मझला भाई चेलो(!)
और एक हार्प-
सामानांतर-
माता-पिता 


एक परिवार ब्रास
-
पिता ट्युबा
माँ त्रम्बोन
सबसे बड़ा बेटा हॉर्न
उससे छोटी
लड़की ‘ट्रम्पेट’

एक परिवार- वुडविंड
माँ बस्सुन
पिता कॉण्ट्रा बस्सून

बड़ी बेटी क्लेरीनेट
तीन और छोटे
सबसे सुखदायी बच्चे
ओबो, फ्लूट और पिकोलो

एक परिवार परकशन
दादाजी टिम्पानी
दादी जैलोफोन
बहनें ट्रायंगल और चाइम्स
भाई स्नेयर, बास और सिम्बल
पहली कजिन तम्बौरिन


सब मिलाकर-
एक वेस्टर्न ऑर्केस्ट्रा, जैसे
एक ईस्टर्न परिवार





 कॉम-रे’


कॉमरेड! मार्क्स के नेपथ्य में हौले हौले बजता है बीथोवन
कॉमरेड! चे ने सुना थ बीटल्स को, एक बार से कहीं ज्यादा
कॉमरेड! माया और नीना बहनें है
कॉमरेड! बधाई हो! हम रो सकते है अब भी संगीत को सुनकर
कॉमरेड! सच यह है कि हम धर्म को मार गिरा नहीं सकते
कॉमरेड! सच ये भी है कि हमें सभी अंदाज़े नहीं
कॉमरेड! संगीत को बक्श देना हमारी बेवकूफी होगी
कॉमरेड! लोग ये तो ना कहें कि हमने कोई बेवकूफी तक नहीं की

कॉमरेड! ‘रे’ का रंग लाल है/ हम ‘नि’षाद में सभी के संग है
कॉमरेड! हमने बाहों पर अभी काला ‘प’ बाँध रखा है
कॉमरेड! हमनें फूलों की बाट नहीं जोही, हम पत्तियों के हरे-सा के लिए लड़ते है

कामरेड! हमारे बजाये गानों में कम से कम हर पांचवा ब्लू है 
कॉमरेड! हमारा भविष्य एक सुनहला ‘गा’ है


कॉमरेड! प्लीज! गाओ ना कुछ!

(कॉमरेड! लिक्विड इन्टेक ज्यादा रखो, प्लीज़)




यमन कल्याण

अमोघ और आत्रेयी हैं जैसे
यमन और कल्याण
हु-ब-हू
लेकिन मिलकर बन जाते है
अमोघात्रेयी
जैसे यमन-कल्याणअमोघात्रेयी एक नया राग है
इसके अमोघ से जुड़ते है हिंदी पट्टी के अधेड़ मर्द
अनामिका के नाखून को तर्जनी से कुरेदते
गलती से कभी बना बारहसिंघा
पटक देते तेराई सापर
किलसते जब जब
धापर दोनों को संग पाते
बार बार किलसते
जब बार बार धापर दोनों को संग पाते
नि-रे प-ड़े  ले लेते गहरी सांस
आत्रेयी आरोह उठाती
सातों सुरों से सम्पूर्ण
हिंदी पट्टी की लड़कियां गाल पर हाथ ले
दांत से गाल को चिकोटी काटे
देखती आत्रेयी को
हिंदी पट्टी के लड़कियों के सुर ज्यादातर पक्के थे
सा रे ग, , , ध नि सा
नि पर आते आत्रेयी से जुड़ जाती वहां बैठी सभी लडकियाँ
गूँज से खिड़की से भीतर घुसी चली आती मधुमक्खियाँ
शहद है बहनों का संग गाना
अमोघ प्रतीक्षा करता आत्रेयी के आरोह  के चरम तक पहुँचने की
फिर वहां बिठा उसे स्वयं लेता अवरोह
ध-प से जुड़  जाते  मर्द सभी
तलहथियों से बना अपने चेहरे को घूरता एक सांप का फन
उसपर उतार लेते अमोघ को हौले हौले
नि रे ग रे, प रे, नि रे सा, पकड़
होता सभी का मिलन
पीछे  की पंक्ति से उठकर
एक हिजड़ा मर्द
बीच में आकर बैठ जाता





इस्पेखो
 
यह एक मरीचिकाओं का  शहर है,
यहाँ हम सब एक दूसरे के आयने हैं, ‘इस्पेखो'”
अल्हड़पन और मारकेज़!
मैं किताब ख़त्म कर भागकर सारा के पास पहुँचता
सुनो! मुझे पता चल गया है कि हमारा रिश्ता क्या है?”
इस्पेखो?”
हाँ! इस्पेखो! भूल ही जाता हूँ कि यह किताब तुम्ही ने दी.
मार्केज़ का घर तुम्हारे  घर के रास्ते में आता है.
(प्रेमी का नाम गुदवाना शरीर पर है जैसे
किसी गिटार के फ्रेट पर उसका नंबर मात्र उत्कीर्ण कर देना
सब कहते गिटार स्त्री-वत है
मैं समझता
गिटार बजाना)
ठीक उसी रात जब डिनर के बाद इस्पेखो से सटे
छोटे हाथ वाली कुर्सी के पाँव के पास बैठ
मैं गिटार बजा रहा होता
वो ठीक मेरे पीछे आकर खड़ी हो जाती
मेरी कलाई पर गुदे इस्पेखोको छूती
साराढूंढती
एस्पेखो आयाम में
एक छोटे से तालाब में
पानी के ऊपर
एक कमल के पत्ते पर
स्केल में भिनभिनाते
गोबरीले जमा होने लग जाते
पानी से ही एक मेढकी
लपलपाती अपनी जीभ.



ब्लूज़
 
अफ़्रीकी अमरीकी दास किसान कपास से खेतों में गाते
अपनी भाषा में गाते गाते कह देते अपनी सारी बात
बाँट लेते दुःख, खुशखबरियां छुपा लेते
गोरे हाकिमों को तब पता भी नहीं चलता जब
बन जाते थे ब्लूज़
जब इन्ही किसानों को जेल में डाला गया
वहां उन्होंने प्रिजन ब्लूजबनाये
जिसे गाते गाते कई दास कैदी
फरार हो गए
जिनकी लाश जेल के बाहर बहते छोटी नदी में आजतक
डबल बास के नोट्स को
तलाशती है
आज भी वेरा गाती है
डेथ हैव मर्सी
नीना कहती है
ब्रेक डाउन, लेट इट आल आउट
ब्लूज़! गला भर आता है!
बरनी सैंडर्ज़ ब्लूज़ सुनकर रो देता है
हिलेरी क्लिंटन बंद कर देती होगी टेप.




जलन! जलन!
 
बिन्तांग मनीरा इंडोनेशिया का सबसे गुस्सैल संगीतकार है
भारत आने पर उसने सभी भारतीयों से प्रेम से बात की?!
औरतें बिन्तांग के पास ऐसे जमा होती थी
जैसे डिजरेडू के आस पास थ्रोट चैन्टर्स
औरतें मेरे आस पास भी जमा होती थी
जहाँ भी संगीत बजता औरतें जमा हो जाती
पहले तीन साल मैंने औरतों को जमा करने के लिए संगीत बजाया
एक दिन मैं  चला गया
मुझे दूर से औरतों के गाने की आवाज़ आई
मैंने तुरंत हवा में एक गिटार बनाया और उनका कॉर्ड उठाने की कोशिश की
बार! बार! बार!
सामने से बिन्तांग टहलता हुआ आया
और सभी छ: स्ट्रिंग्स पर बार बनी लगी मेरी तर्जनी को हौले से हटाते हुए
मेरी तर्जनी प्यार से मोड़ दी
दा! फ्री कॉर्ड्स!
उस दिन मेरी समझ में आया कि इन औरतों और मेरे बीच संवाद का अभाव था
उस दिन के बाद से कुछ दिनों तक संवाद पक्का करने के लिए मैंने बिन्तांग के लिए संगीत बजाया
औरतें चली गयी
मैं और बिन्तांग छत की लोहे की रैली पर
इकताल सुलाते रहे
हौले हौले,
बिन्तांग फुसफुसाया,
अग्रेशन इज़ अस, दादा!
सामने आकाश में सूर्ख लाल दो तारे
जल्दबाजी में
चांदनी रंग की पैंटी पहनने लगे.



 ठुमरी
 
तिलक-कामोद, पीलू, जोगिया, काफी है
तू कब इसको छोडती है
उसमें चली जाती है
इतना सारा मेक अप लगाती है
तू कितना ड्रामा करती है
तुझपे बंदिश कितनी छोटी है
तू ठुमरी है
कि लड़की है?!


भैरवी

इसकी संभावनाएं अपार है
गाँव में खेत से गुजरे
किसी लड़की को गाता सुने

चेक करें,
कहीं वह भैरवी तो नहीं है
.

__________________
प्रत्यूष पुष्कर
लेखक/कवि/ कलाकार/ संगीतज्ञ.


शिक्षा : जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय
reachingpushkar@gmail.com

परख : उपसंहार (काशीनाथ सिंह) : विमलेश शर्मा

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उत्तर महाभारत की कृष्ण कथा को आधार बनाकर वरिष्ठ कथाकार काशीनाथ सिंह का उपन्यास ‘उपसंहार’ कृष्ण के मिथकीय अभिप्रायों की नवीन व्याख्याओं के कारण आज भी बहस में है. विमलेश शर्मा ने विस्तार से यहाँ इसकी चर्चा की है.



'उपसंहार' : कृष्ण की मनुज यात्रा का आख्यान                           
(कृष्ण की मनुज यात्राः ईश्वरत्व का'उपसंहार')
विमलेश शर्मा 



श्वर और भाषा मनुष्य के आविष्कार हैं,बाकि सभी क्रांतियाँ मानवता के विकास और ह्रास की विभिन्न स्थितियाँ हैं. हिन्दी में कुछ हस्ताक्षर अपनी शैली से एक चौंक पैदा करते हैं. इन्हीं में से एक लेखक हैं जो अपनी रचनाओं से नित नए कीर्तिमान खड़े  करते हैं. वे स्वयं ही अपनी किसी नयी रचना इस तरह सामने लाकर रख देते हैं कि पुरानी कुछ फीकी सी नजर आने लगती है. काशीनाथ सिंह सही मायने में ऐसे ही रचनाकार हैं जो अपनी हर रचना से हमें आकर्षित करते हैं.  वे रचना को शिल्प  और भाषा की अद्भुत कारीगरी से ऐसे रचते हैं कि रचना पाठक को अपनी तरफ खींचती हुई सी प्रतीत होती है. प्रेमचंद ने कहा है श्रेष्ठ रचनाकार वह होता है जो अपने स्थापित गढ़ खुद तोड़कर हर रचना के माध्यम से नए कीर्तिमान खुद खड़े करें और श्रेष्ठ रचनाएँ वे होती है जो आपको बैचेन करें ,मानस में एक गहरी हलचल पैदा कर दें.काशीनाथ की रचनाएँ इस संदर्भ में खरी उतरती हैं. आलोचक कहते रहे हैं कि काशीनाथ प्रेमचंद परम्परा के कथाकार हैं,यह संभवतः उनकी शैली के चलते ही कहा गया है, पर मैं जब काशी का अस्सी पढ़ती हूँ तो वहाँ वे इस वाद का प्रतिवाद करते नज़र आते हैं.

अपने उपन्यासों में वे कथानकों को  बहुत ही सहजता से अपने आस-पास से उठाते हैं और उन्हें इस अनूठे तरीके से स्थापित करते हैं कि बरबस ही हर पात्र आकर्षण का केन्द्र बन जाता है. वस्तुतः काशीनाथ अपनी हर रचना से चौंकाते हैं और इसी चौंक और उत्सुकता का आकर्षण उनके उपन्यास उपसंहारमें भी कायम हैं. काव्य से मिथक का घनिष्ठ संबंध रहा है , यह बात वैश्विक साहित्य पर भी भारतीय साहित्य की ही तरह लागू होती है. मिथक का सर्वमान्य अर्थ है , ऐसा आख्यान जो प्राचीन काल में सत्य माना जाता था, जिसमें धार्मिक मान्यताओं,विश्वासों एवं प्रकृति के रहस्यों के साथ वीर पुरुषों और देवताओं  का चित्रण था. इनमें किवंदती. वृत्त या पारंपरिक गाथा के रूप में कथा तत्त्व सदैव से उपस्थित रहा है. 

इस संदर्भ में अगर कुछ मतों को देखें तो हेनरी जे. मरे के अनुसार- मिथक किसी अनुमानित या विलक्षण घटना का बोधात्मक तथा नाटकीय स्थापना है.अन्सर्ट कैसिरार मिथक का दायरा बहुत व्यापक मानते हुए कहते हैं ,कि मानव जीवन का कोई भी क्रियाकलाप ऐसा नहीं जो मिथकीय ना हो.  परिभाषाओं के साथ ही देखें तो हिन्दी साहित्य में पहले पहल मिथक शब्द का प्रयोग हजारीप्रसाद द्विवेदी( मिथक-मीमांसा) करते दिखते हैं और फिर अन्य आलोचक इसे अन्यान्य संज्ञाओं से अभिहित करते हैं. मिथक को लेकर अनेक मत, परिभाषाएँ  और विचार मिलते हैं  जिनके निष्कर्ष में अगर जाएं तो मिथक कोरी कल्पना या इतिहास ना होकर, उसके ब्याज से अपने समय का सामाजिक यथार्थ प्रस्तुतिकरण भी होता है. प्रसाद की कामायनी हो या कुँवर नारयण की वाजश्रवा ,नरेन्द्र कोहली का महासमर हो, सभी इतिहास या पौराणिक आख्यानों की नींव पर अपने समय को ही परिभाषित करने का प्रयास करते हैं.


काशीनाथ सिंह का उपन्यासइस मिथक की भी सर्वथा नयी व्याख्या करता है, ठीक हरिऔध की ही तरह. यहाँ उदाहरण भले ही कविता के क्षेत्र का दिया जा रहा है पर चूँकि मिथकीय आधार एक ही है तो हरिऔध स्वतः ही मस्तिष्क में आकर खड़े हो जाते हैं. प्रियप्रवासमें हरिऔध रख लिया उंगली पर श्याम ने, कहकर गोवर्धन धारण प्रसंग के साथ-साथ कृष्ण को मानवीय भूमि पर खड़ा करने का साहस करते हैं तो काशीनाथ सिंह अपनी रचना में उस कृष्ण का चित्रण करते हैं जो महाभारत युद्ध के भीषण नरसंहार से व्यथित हैं. आत्मावलोकन के इन क्षणों में यह पौराणिक चरित्र निहत्था है, वहाँ कोई ईश्वरीय कवच नहीं है, वरन् वहाँ वह  सामान्य मानव हैं.

उपसंहार का अर्थ है अंतिम अंश,अंतिम कड़ी ; सारगर्भित किन्तु सब कुछ समेटता हुआ सा एक महत्वपूर्ण अंश, एक सिंहावलोकन! पहले-पहल नामकरण ही देंखें तो उपन्यास का यह नामकरण ऐतिहासिक और रचनात्मक दोनों ही दृष्टि से उपयुक्त है. नटवर नागर कृष्ण के जीवन पर यों तो अनेक रचनाएँ हिन्दी साहित्य में मिलती हैं परन्तु सभी में कृष्ण के लीलाकारी , संहारक और समाजसेवी रूप, योगीराज कृष्ण, महाभारत के कृष्ण आदि रूपों का वर्णन ही अधिक मिलता है. धार्मिक आख्यानों में महाभारत पश्चात् के कृष्ण को लगभग बिसरा दिया गया है. काशीनाथ सिंह ने उत्तर महाभारत की इस कथा के माध्यम से एक बार फिर कृष्ण को नायक के रूप में पर कुछ भिन्न तरीके से स्थापित करने का चुनौतीपूर्ण काम किया है और ठीक इसी उकेरन में काशी के अस्सी की ही तरह उनके प्रगतिशील विचार नज़र आने लगते हैं. 

वस्तुतः यह रचना ईश्वर के जीवन का उपसंहार है और उस विराट के जीवन का अंत, एक कौतुक के रुप में हर किसी के मन को अपनी तरफ़ खींचता है. इसका एक अन्य कारण कृष्ण के जीवन का वैपरीत्य भी है. कृष्ण के जीवन का एक ध्रुव उल्लास और प्रेम से पगा हुआ है तो दूसरा नितांत अकेला, हताशा और अवसाद में डूबा हुआ, बिलकुल डूबी हुई द्वारिका सा ही, समाधिस्थ. यहाँ अनेक प्रश्न हैं, तर्क हैं, शंकाएँ हैं और समाधान भी. ये शंकाएँ कब व्यक्ति चरित्र से समष्टि चरित्र बन जाती हैं आप पहचान नहीं पाते औऱ यही कारण कि अपने आकर्षण में यह रचना सदैव कोरी बनी रहती है, हर बार एक नया पाठ माँगती है.

कृष्ण यहाँ नारद पांचरात्र में उल्लिखित जीव की दशा के अनुरूप ही सभी उपाधियों से मुक्त हैं...सर्वोपाधि विनिर्मुक्तम्.(चै च मध्य 19/170) अपने फलागम में, उक्त साहित्यिक में वर्णित प्रश्न, संभावनाओं, शंकाओं का कृष्णभावनाभावित समाज के लिए भी विशेष अर्थ है और सामान्य सांसारिक मनुष्य के लिए भी. कथा के रूप मे यह साहित्यिक इंगित करता है कि यहाँ भागवत का कन्हैया जो नटखट, शेखचिल्ली  दिलफेंक और  स्वभाव से ही संतुष्ट (मथुरागमन पश्चात्) था, जिस की एक छवि पर हजारों गोपीजन प्राण न्यौछावर करने को तैयार रहते थे, वह अपने जीवन की सांध्यबेला में हताश और निस्तेज है. यह उपन्यास उस कृष्ण की कहानी है जो महाभारत युद्ध की विभिषिका के पश्चात् मानसिक यंत्रणा झेल रहे हैं. 

इसमें पौराणिक भक्ति ग्रंथों की तरह नंदलाल, कृष्ण कन्हैया, वासुदेव या ईश्वर के सद्कार्यों का बखान नहीं है वरन् यह उस द्वारकाधीश कृष्ण का उत्तरार्ध  है जिसे महाभारत युद्ध के पश्चात्, उस युद्ध की विभिषिका ने कहीं दूर नेपथ्य में धकेल दिया गया है. यहाँ वह नायक तो है पर घटनाक्रम का नियंत्रण अब उनके हाथ में नहीं. युद्ध के परिणाम तो हैं पर उनके मनोनुकूल नहीं. दरअसल, कृष्ण के हाथों बसी द्वारिका का कृष्ण के ही हाथों उजड़ना इस उपन्यास में एक कौतुहल की सृष्टि करता है. इस कौतुहल का कारण यही है कि कृष्ण के जीवन के अंतिम प्रहर का स्पष्ट शब्द चित्र अब तक किसी भी ग्रंथ में नहीं मिल पाया है. हालांकि यत्र-तत्र कुछ किवदंतियाँ हैं, लोक कथाएँ हैं, पर प्रामाणिक रूप से उल्लेख कहीं नहीं.

अगर कोई कृति उसके पाठ के प्रारम्भ में ही पाठक के मन में एक उत्सुकता और बैचेनी जगा दे तो उसकी सृजनात्मक विशिष्टता का आकलन सहज ही किया जा सकता है. कुछ ऐसी ही उत्सुकतापूर्ण शुरुआत है इस उपन्यास की. काशीनाथ ऐसे मंझे हुए रचनाकार है जो चाहकर भी बुरा तो क्या औसत भी नहीं लिख सकते. उपसंहार लोक एवं जनभाषा के चितेरे काशीनाथ की रचना यात्रा का नवीनतम एवं बेहद आकर्षक सांस्कृतिक मोड़ है. सच है, वे अपने मानक अपनी रचनाओं से स्वयं तय करते है और उपसंहार के माध्यम से हम एक सर्वथा नए काशीनाथ को पाते हैं. यहाँ वे कृष्ण के उस विराट रूप को योगी, प्रेमी, सखा, ईश्वर,विदूषक,योद्धा, खलनायक, असहाय पिता, व्याकुल द्वारकाधीश और एक कालदृष्टा  जैसी विभिन्न भूमिकाओं में रचते हैं.

जैसे कर्म में फल छिपा रहता है,
वैसे ही जीवन में मृत्यु छिपी रहती है

उपन्यास की इन पंक्तियों में ही सम्पूर्ण उपन्यास का सार समाहार है. महाभारत ुद्ध में कृष्ण धर्म युद्ध पर थे, नीति युद्ध पर थे पर उसकी परिणति इतनी वीभत्स होगी इस बात से वे ईश्वर होकर भी अनभिज्ञ थे. मननशील कृष्ण की उपस्थिति यहाँ कामायनी के मनु सी ही है. एक पुरूष भीगे नयनों से देख रहा था प्रलय प्रवाह” ..नायक मनु की ही तरह वे मानव मूल्यों के ध्वंस अवशेषों पर चिंतन करते हुए दिखाए गए हैं. अपने चांचल्य से दूर सम्पूर्ण उपन्यास में वे धीर, स्थितप्रज्ञ और शांत दिखाए गए हैं मानो  अपने व्यक्तित्व और घटनाओं के माध्यम से मनुष्यता को कोई शांतिपाठ पढ़ा रहे हों. वे बार-बार प्रश्न उठाते हैं कि युद्धों, हिंसा-प्रतिहिंसा और द्वेष जैसी भावनाओं का मूल कारण क्या है? क्यूँ हमारी प्रेरणाएँ, मान्यताएँ और जीवनमूल्य अर्धसत्य से संचालित होते हैं और क्यूँ इन मान्यताओँ के आगे ईश्वर भी ईश्वर नहीं रह पाता. उपसंहार का कथानक इन्हीं बिंदुओं से पौराणिक कथा को आधुनिक समस्याओँ से जोड़ता हुआ दिखाई देता है. ुद्ध ना तो विजेता के लिए शुभकारी होते हैं ना ही विजित के लिए,ना सत्ता के लिए ना ही जनता के लिए,कथानक के माध्यम से महाभारत पश्चात् की स्थितियाँ इसी समसामयिक पक्ष को उजागर करती हैं.

महाभारत युद्ध के अठारहवें दिन के पश्चात् से लेकर प्रभासतीर्थ में कृष्ण के मृत्यु (प्रकारान्तर से कृष्ण के ईश्वर रूप की मृत्यु) तक की यह कथा इतने चिंतन, मनन और आंतरिक उतार-चढ़ावों के साथ आगे बढ़ती है कि एक समूची सभ्यता का विमर्श उसके उत्कर्ष से लेकर अवसान तक पढ़ा जा सकता है. यहाँ यह सभ्यता द्वारिका की है जिसका निर्माण कृष्ण ने विश्वकर्मा जैसे शिल्पी से करवाया था. जो इन्द्रपुरी की ही तर्ज पर रची बसी गई थी और उसके स्थापत्य और भव्यता को देखकर, इन्द्र की अमरावती के टक्कर में ही कुछ लोग इसे द्वारकावती भी पुकारते थे. 

इसी द्वारका में वे एक ऐसे गणराज्य की स्थापना करना चाहते थे, जहाँ परस्पर प्रतिस्पर्धा न हो, जहाँ असमानता न हो, जहाँ विवेक, स्नेह और परस्पर प्रीती पलती हो. जो राजा लोकधर्म को नहीं जानता हो वह अपने राज्य को भी नहीं जान सकता है. इसी लीक पर चलते हुए वे लोगों के बीच रहकर उनकी इच्छाओं, ज़रूरतों और आकांक्षाओं से भली भाँति परिचित हुए और उनके इसी लोकहितकारी और समाजसेवी रूप ने द्वारिका को वैभवशाली बनाया, प्रतिष्ठा दिलाई और स्वयं उन्हें ईश्वर की उपाधि दी परंतु आज वही द्वारका रूग्ण हो गई थी उसकी सभ्यता की बुनियाद धर्म, नीति और प्रेम के जिन प्रस्तरों पर रखी गई थी, जर्जर हो गई थी.

इतिहास हर पल स्वयं को दोहराता है और समझदारी इसी में होती है कि इतिहास के उस दोहराव से पूर्व मनुष्य इतिहास की उन विभीषिकाओं से कुछ सीख ले ले. यही संदर्भ रचना में समसामयिकता का बीजारोपण कर देते हैं. युद्ध के दुष्परिणाम सम्पूर्ण सृष्टि को बांझ बना देते हैं. महाभारत युद्ध के बाद भी यही हुआ. कृष्ण की अक्षौहिणी सेना समाप्त प्रायः हो गई और जो बचे वे भी अंग-भंग. द्वारिका में धर्म और अर्थ का क्षय हुआ. धरती, वनस्पति, सरोवरों का क्षय हुआ और मानवता अंधेरी कंदराओं में छिप कर सांसे लेने लगी. कौरव पांडव युद्ध के पश्चात् जो स्थितियां उपजी वे वर्तमान पीढ़ी के समक्ष भी उत्पन्न हो सकती हैं. 

जब युद्ध का प्रतिफल क्षोभ और हताशा ही होता है, फिर उसे लड़ने वाला स्वयं ईश्वर ही क्यों न हो तो फिर मनुष्य की तो बिसात ही क्या. उपन्यास में बार-बार इस तथ्य को उठाया जाता है और उदाहरण दिया जाता है कृष्ण का, कि देखो ुद्ध ईश्वर को भी पुनर्विचार के लिए बाध्य करता है . साम्राज्य लिप्सा की भावना और अपने क्षुद्र स्वार्थ के लिए लड़े गए युद्ध का मूल्य एक पूरी की पूरी सभ्यता को चुकाना पड़ता है . इस ऐतिहासिक युद्ध में नीति की मर्यादाएँ पग-पग पर टूटी, विवेक हारा और धर्म बार-बार अधर्म से छला गया. उसी की परिणति है द्वारिका में पसरा यह श्मशान सा सन्नाटा!

यहाँ प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जब कृष्ण ईश्वर है, युद्ध के संचालनकर्ता है तो और यह सारा प्रपंच धर्म की स्थापना के लिए ही है तो फिर ऐसी स्थितियाँ उपजाने का क्या प्रयोजन जिससे ईश्वर को ही हताशा हाथ लगे. इसी प्रश्न का उत्तर काशीनाथ देते हुए कहते हैं कि प्रत्येक मनुष्य में ईश्वर छिपा होता है और ईश्वर मनुष्य का ही परिष्कृत रूप है. इसीलिए ईश्वर भी भूल कर सकता है और उस भूल के पश्चाताप पर व्यथित भी हो सकता है क्योकि आखिरकार वह भी तो मनुष्य ही है, अंश का ही अंशी रूप . 

कृष्ण अपने ईश्वरत्व पर कहते हैं, प्रत्येक मनुष्य कभी न कभी कुछ पलों या क्षणों के  लिए ही सही किसी न किसी का ईश्वर हुआ करता है. ऐसा एक नहीं कई बार हो सकता है. आखिर ईश्वर है क्या ? मनुष्य के श्रेष्ठत्व का प्रकाश ही तो और यह प्रकाश सब के भीतर होता है लेकिन फूटता तभी है जब किसी को कातर बेबस, निरूपाय और प्रताड़ित देखता है. मैं भी था ईश्वर, हाँ मेरी अवधि किन्हीं कारणों से थोड़ी लम्बी खिंच गई रही होगी.(उपसंहार-पृ.50) युद्ध के पश्चात् पराजित पक्ष की निराशा, कुंठा और हताशा तो स्वाभाविक होती है परन्तु विजेता का विश्वास और मान्यताएँ भी ध्वस्त हो सकती हैं, कृष्ण का चिंतन इसी तथ्य को उजागर करता है. कृष्ण वस्तुतः प्रत्येक मनुष्य में छिपे शुभत्व का प्रतीक है इसीलिए वे मानवता की इस भयावह क्षति के पश्चात् उपजे इस वातावरण से क्षुब्ध हैं. अनीति पर लड़े गए इस युद्ध में ऐसे-ऐसे योद्धा जो आर्यावर्त के गौरव थे , ऐसे-ऐसे महारथी जो सम्पूर्ण पृथ्वी या तारामंडल को कदम्ब के फूल की तरह अपने तीर की नोक पर उठाकर नचा सकते थे, वे निरर्थक मारे गए और वे जिस कुटिल रणनीति से मारे गए, वह युद्ध नहीं था वरन् हत्या थी. वह एक ऐसा नरसंहार था जिसके पीछे कोई तर्क नहीं था. दोनों ही पक्ष अपने स्वार्थों, अहंजन्य मानसिकता, ईर्ष्या, द्वेष को त्यागकर इस महायुद्ध को रोक सकते थे परन्तु ऐसा नहीं हुआ.

कृष्ण युद्ध पूर्व दुविधाग्रस्त थे, भयावह अंत के पश्चात् की स्थिति से किंचित् परिचित भी थे पर उन्हें तो धर्म की स्थापना करनी थी. वस्तुतः कृष्ण दोनों ही तरफ से युद्धरत थे. एक तरफ वे स्वयं थे, बिना अस्त्र- शस्त्र के तो दूसरी ओर थी उनकी एक अक्षौहिणी सेना. वे किसी भी पक्ष को असंतुष्ट नहीं रखना चाह रहे थे. वे जितने धर्म के साथ थे उतने ही अधर्म और अन्याय के साथ. एक उनके सिरहाने था तो एक पैताने. यह सब होते हुए भी कृष्ण की पीड़ा और उनकी मनःस्थिति को कृष्ण स्वयं ही समझ सकते थे इसीलिए काशीनाथ जी कहते हैं,इस बात को उनसे ज्यादा सही तरीके से कौन समझ सकता था कि मार भी वही रहे हैं और मर भी वही रहे हैं.(वही-पृ.41)

काशीनाथ उपसंहारके माध्यम से अनेक शाश्वत और प्रासंगिक तथ्यों को उठाते हैं-धृतराष्ट्र, युधिष्ठिर और कृष्ण के माध्यम से वे बताते है कि जब राजा अधर्म करता है तो उसकी प्रजा और भी अधिक अधर्म की ओर प्रवृत होने लगती है. इसीलिए दुविधाग्रस्त कृष्ण एक स्थान पर इतने नरसंहार के बावजूद भी युद्ध को सही ठहराते हुए नजर आते हैं,क्योंकि राजा अंधा था, बेटा- जो भावी नरेश होने का सपना पाले था- बहरा था और मंत्रिपरिषद् गूंगी थी, क्योंकि उसके पास जीभ थी तो खड्ग और गदा की. ऐसा राज्य तो जरासंध के मगध से भी बुरा होता. नहीं रोका,ठीक किया.(वही, पृ.-53) इसीलिए कृष्ण द्वारिकावासियों के पथभ्रष्ट होने, अपने पुत्रों के व्यभिचारी होने और सभी के असंतोष का कारण खुद को ही मानते हैं साथ ही बलराम के माध्यम से लेखक युधिष्ठर पर व्यंग्य भी कसते हैं कि जब प्रजा को सबसे अधिक अपने राजा की या कुशल प्रशासन की आवश्यकता होती है तभी वह भाग खड़ा होता है. 

वह राजा ही क्या जो अपने कर्तव्यों से चुक जाए. युधिष्ठर का यही आचरण उसकी जनता के कष्टों को और अधिक बढ़ा देता है. ये घटनाएं वर्तमान राजनीति के संदर्भ में पूर्णतः सटीक हैं. यह व्यंग्य है उन सत्तासीन युधिष्ठरों और दुर्योधनों पर जिनमें न तो विपरीत स्थितियों से जूझने का पौरूष है और न ही राष्ट्र के हित-अहित का विवेक . वे पौरूषहीन क्लीव तथा विवेकहीन राजा का आचरण कर एक ऐसी अंधी संस्कृति का नेतृत्व कर रहे हैं जो समूची मानव सभ्यता को अन्धी खोह में धकेल कर दिशाहीन बना देगी. इतिहा गवाह है कि ऐसी शोषक व्यवस्था ने निजी लाभ के लिए समय-समय पर नागरिक को अस्तित्वहीन बना दिया है और उसकी सभी आस्थाओं, मूल्य,मर्यादाओं को नष्ट कर उसे निरर्थक हताश और कुण्ठित मन से जीने को विवश कर दिया है.

महाभारत युद्ध के समय कृष्ण ने तथाकथित धर्म का साथ देने के लिए अनेक बार छल किए थे. धर्म की इमारत खड़ी करने के लिए उन्होंने उसमें अधर्म की नींव रखी थी. अश्वत्थामा, दुर्योधन, भीष्म, द्रोण, कर्ण सभी के साथ जो युद्ध रणभूमि में लड़ा गया था वह न्यायपरक नहीं था वरन् कृष्ण ने उन्होंने छल और कूट बुद्धि से परास्त किया. बलराम प्रस्तुत कृति में उनके ईश्वरत्व पर आक्षेप करते हुए कहते है कि इस युद्ध के बाद इतना ज़रूर हुआ कि जो पहले दबे स्वर में तुम्हें अवतारया ईश्वरकहते थे वे खुल कर स्तुतिगान करने लगे....तुम्हें भी अच्छा लगता था और मुझे भी खुशी होती थी चलो मेरा छोटा भाई ईश्वर हैं, मैं ईश्वर का बड़ा भाई हूँ. लेकिन एक प्रश्न मेरे मन में बराबर उठता है कि ईश्वर का काम केवल संहार करना है? निरर्थक, निरूद्देश्य, निःस्वार्थ, जनसंहार ?”(वही, पृ.64)उपसंहार में ईश्वर कृष्ण मनुष्यता के धरातल पर उतर आते हैं परन्तु साथ ही वे अपने ऊपर लगे आक्षेपों का भी प्रत्युतर देकर सिद्ध करते है कि उनका ईश्वर बनना क्यों आवश्यक था. 

जब चारों ओर पशुत्व हावी हो जाए तो मनुष्य को कुछ ऊपर बढ़कर ईश्वर बनना पड़ता है. वे वर्ण व्यवस्था तथा स्त्री स्वातंत्र्य जैसे विषयों पर प्रश्न उठाकर अपने ईश्वरत्व पर दंभ नहीं वरन् गर्व करते हैं. वे कहते हैं कि क्या मनुष्य का मनुष्य होना ही काफी नहीं है आखिर क्यूं उसे वर्णों में बांटा गया है. क्यों उसकी पहचान को क्षत्रिय, वैश्य, ब्राहम्ण या शूद्र की सीमाओं में बांध दिया जाता है.(वही,पृ.66)वे कहते हैं कि जिसे छल या अधर्म कहा जा रहा है वे रणनीति के ही अंग है. एक कुशल योद्धा जीतने के लिए ही युद्ध लड़ता है, मैने भी यही किया और रही बात ईश्वर की. तो मैं ईश्वर कहो या वासुदेव होना चाहता था. क्योंकि उसकी कोई जाति नहीं होती वर्ण नहीं होता, गोत्र नहीं होता. अकेला वही है जो वर्णाश्रमों के बंधनों से मुक्त हैं.मैं ईश्वर होना चाहता था क्योंकि यूँ अलग-अलग बँटना मेरा स्वभाव नहीं.(वही-पृ.67)पर इस ईश्वरत्व प्राप्त करने में उन्हें बहुत कुछ खोना पड़ा है. वे यमुना की लहरों की हिलोर और उन हिलोरों की कूकों को अब भी अवचेतन में सुनते हैं. राधा की स्मृतियाँ अब भी उन्हें भाव विह्वल कर देती है. वे अपनी इस यात्रा को जो उन्होंने ब्रज छोड़ने के बाद तय की थी और जिसमें वे निरन्तर उलझते गए थे; कई-कई जन्मों के रूप में देखते हैं. राधा के समर्पण को याद करते हुएवे कह उठते हैं, “देखो तो ये कब की बातें हैं? जैसे पिछले कई जन्मों की . कितना आसान है यह कहना कि आत्मा वही रहती है सिर्फ देह बदलती है. 

पुराने वस्त्र की तरह. यहाँ आत्मा भी बदलती गई और देह भी .(वही,पृ.76)वंशी से पांचजन्य तक का सफर, राधा के कुंजों से कुरूक्षेत्र के रणनीतिकार का सफर निःसन्देह उन्हें शिखर तक पहुंचाने वाला था. परन्तु शिखर के पश्चात् सिर्फ और सिर्फ ढलान बचती है और लेखक ने इस स्थिति को कृष्ण के जीवन के माध्यम से बड़े ही मार्मिक रूप से चित्रित किया है. प्रेमयोग की प्रथम दीक्षागुरू,  उनकी केलि सखि कनुप्रिया से विलग होकर कृष्ण वस्तुतः अस्मिताहीन हो गए हैं.

वे शिथिल हैं, असहाय है और वीभत्स वर्तमान में जीते हुए सुखद स्मृतियों को फ्लैश बैक के रूप में देख रहे हैं. वे आज सफल माने जा रहे हैं परन्तु चरम सफलता में निहित है एकाकीपन का अभिशापऔर इस अभिशाप के चलते अपने अंतिम  वर्षों में वे उत्तरोतर एकाकी होते गए. अपने ईश्वरत्व के केंचुल को उतारकर वे एक ऐसे रूप में वे नजर आते है जहां मनुष्यत्व हावी है. वे सामान्य मनुष्य की ही भांति असहाय हैं, भयग्रस्त हैं. मनुज रूप में ही वे दुर्वासा के  क्रोधित रूप से भयभीत होते हैं. उनके द्वारका आने पर वे उनके आदेशों की पालना में कोई कसर नहीं छोड़ते कि कहीं उन्हें उनके कोप का सामना नहीं करना पड़े. उन्हीं के आदेशों की पालना करते हुए वे रूकमणी के साथ निर्वस्त्र होकर पूरी द्वारिका में घूमते भी हैं. उनकी पत्नी रूकमणी उन्हीं की आँखों के सामने छकड़े में बैल की तरह जोती जाती है और कृष्ण असहाय, निरूपाय कभी अपराधी की तरह दौड़ते हैं, कभी हांफते है तो कभी चिंतित हो चलने लगते थे . 

यहाँ स्त्री विमर्श सर उठाए खड़ा नज़र आता है तो वहीं कृष्ण पौरूषहीन. दुर्वासा मुनि के आदेश से कृष्ण पूरे शरीर पर खीर लगाते है, खड़े रहने के कारण तलवों पर खीर नहीं लग पाती ओर उसी तलवे में तीर लगने से कृष्ण की मृत्यु होती है. वस्तुतः ये घटनाएँ ईश्वर में छिपे मानव की विवशता को दर्शाती हैं. काशीनाथ ने उपसंहार में दुर्वासा को शांत रूप में दर्शा कर शाप दिलवाया है यह सम्भवतः उनकी कल्पना है. श्रीकृष्ण का अंतिम समय जिस पर इतिहास खामोश है, इतिहास, पुराण, महाभारत, श्रुतियों में जिसका जिक्र भर है, काशीनाथ उस प्रसंग को उस ईश्वर के अंतिम दिनों के जीवन को, उत्तर महाभारत की कथा नाम देकर उपसंहारकी रचना करते है. इतिहास को लिखना वो भी उस इतिहास को जो कि जनता के हृदय में आज भी पूर्ण आस्था और विश्वास के साथ जीता जागता बैठा है, निःसन्देह चुनौतीपूर्ण है.

उपसंहारवर्तमान समय से साम्य रखता है. मनुष्य को पग-पग पर सावचेत करता है. नियति के कर्मचक्र के आगे मनुष्य बेबस है पर यह बताता है कि युद्ध से बचने के अनेक कारण हो सकते हैं. आवश्यकता होती है बस निजी स्वार्थों को भूलकर समष्टि स्तर पर सोचने की. उपसंहार युद्ध पश्चात् शांति, फिर  पुनः युद्ध और उसकी परिणति स्वरूप बदलते मूल्यों के उत्थान-पतन की कहानी है. यह उस वैराग्य की कहानी है जो महाभारत में विजेता घोषित होने के पश्चात् कृष्ण धारण करते हैं. यह क्रोध, ईर्ष्या और मानवीय मनोभावों के अतिरेक की कहानी हैं जहां भावावेश में व्यक्ति शापों के बाण चलाता है. 

उपसंहारमें कृष्ण आधुनिक परिप्रेक्ष्य में अवतरित हुए है. वे प्रतिशोध से परे हैं, अरथी है, मित्रपक्ष हो या शत्रुपक्ष सभी का उत्तरदायित्व स्वयं ओढ कर चलते हैं. वे ईश्वर हो या न हो, परात्पर ब्रहम हो या ना हों परन्तु एक नीतिज्ञ, चिंतक, इतिहास-पुरूष अवश्य हैं जो रूग्ण मानवता को देखकर विचलित हो उठते है. भागवतके कृष्ण दिग्विजयी है, सर्वशक्तिमान है परन्तु उपसंहारके कृष्ण की अपनी विवशताएँ हैं. उनका चिंतनशील, शांत और परिस्थितयों से जूझता हुआ मानवीय व्यक्त्वि उपसंहारकी विशेषता है.

काशीनाथ सिंह भाषा के नये मुहावरे गढ़ते हुए इस उपन्यास में नजर आते हैं. काशी का अस्सी’, ‘रेहन पर रग्घूऔर महुआचरित तीनों ही उपन्यास भाषा शिल्प में बिल्कुल अलग हैं और इन सबसे अलग है उपसंहारका शिल्प और उसकी भाषा का लालित्य. पौराणिक घटनाओं पर आधृत होने के कारण उनकी भाषा सांस्कृतिक आस्वाद से गुजरती है. सामासिक शब्दावली कथा को संक्षिप्तता प्रदान कर उसके विस्तृत अर्थ को उजागर करने का सामर्थ्य प्रदान करती है. सरल और सहज भावबोध युक्त भाषा इस उपन्यास की विशेषता है. 

कहीं कहीं लेखक फुटपाथ, अव्वल जैसे शब्दों का प्रयोग कर अपनी मौजूदा उपस्थिति दर्ज कराने का प्रयास भी करता है यथा -दोनों तरफ फुटपाथोंपर फूलों पत्तियों के गमले है और महल के परिसर में गाने बजाने और नाचने के स्वर गूँज रहे है.मुक्त छंद का प्रयोग उपसंहार को सरसता प्रदान करता है. तो कहीं परिनिष्ठित भाषा रूप, भावना प्रधान प्रसंगों को अभिव्यक्त करने के लिए प्रयुक्त हुए हैं. यहीं नही पात्रों के अनुरूप भाषा का प्रयोग उनके चरित्रों का रेखाचित्र बनाने में भी सहायक हुए हैं. पग पग पर समोवेशित काव्य पंक्तियां सम्पूर्ण उपन्यास का मूलाधार है. साथ ही इसका काव्य पक्ष इस उपन्यास को संक्षिप्तता प्रदान करने में भी सहायक हुआ है. अन्यथा उपसंहारभी महासमरकी भांति विस्तृत रूप में हमारे समक्ष होता. इस उपन्यास का अनूठा शिल्प और गतिशील तथा प्रवाहमयी भाषा प्रभावात्मकता पैदा करती है. तरल संवेदना , बिम्बात्मकता और सहज ग्राह्यता इस उपन्यास की अनन्य विशेषताएँ है. सूत्र वाक्य बीच-बीच में अमित अर्थ को समेटते हुए भाषायी व्यंजना को सुदृढ़ आधार  भी प्रदान करते हैं.

निःसंदेह रस इस काव्य की आत्मा है. कोई भी रचना रसत्व से विहीन नहीं होती. इस संदर्भ में उपसंहार भी रसपूर्ण रचना है, जिसमें शांत रस ही अंगी रस बनकर उभरकर आया है. महाभारत युद्ध के पश्चात कृष्ण चिंतित हैं, मननशील है, प्रकारान्तर से उनमें एक वैराग्य उदित हो गया है इसीलिए यहां शांत रस प्रधान रस बन कर उभरा है. परन्तु इसी के साथ अद्भुत और भक्ति रस अन्य गौण रस है जिनका इस कृति में वर्णन है. राधा और कृष्ण के संवादों में श्रृंगार रस उभर कर आया है. मुक्तछंद की अपनी एक लय होती है और उपन्यास में इनका प्रयोग एकरसता से बचने और प्रवाहात्मकता उत्पन्न करने के लिए किया गया है जिसमें काशीनाथ पूर्ण रूपेण सफल हुए है. प्रतीकात्मक शैली कृति को आधुनिकता से जोड़ती है.

उपसंहारमें इतिहास के माध्यम से आधुनिक युग की अनेक दुष्प्रवृतियों की ओर संकेत किया गया है. आत्मघाती अंधता, प्रतिशोघ की भावना, अवसरवाद और राजनीतिक ह्रास आधुनिक युग की प्रमुख समस्याऐं हैं. जिन पर लेखक ने कभी व्यंग्य और युद्ध के माध्यम से तो कहीं सीधे-सीधे कहकर ध्यान खींचने की चेष्टा की है. अगर हम यह कहें कि उपसंहारमें आधुनिक मानव की समस्याओं को प्रस्तुत करने के लिए ही उत्तर महाभारत की कथा को आधार बनाया गया है तो भी कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. वस्तुतः लेखक क्रान्तिदर्शी होता है, अतीत और अनागत का ज्ञाता होता है, अतीत के माध्यम से वर्तमान को सचेत करने का काम भी वह अपने लेखन से करता है अतः उसका सभी युगों में महत्व होता है. युद्धों की समस्या वर्ण भेद, शासन संचालन की समस्या, तटस्थता का अभाव आदि ऐसी समस्याएँ हैं जिनसे सारा विश्व अभिशप्त हैं और आधुनिक मनुष्य संशयग्रस्त और चिंताग्रस्त है. अमानुषिक और शक्तिशाली विज्ञान ने मानव के हाथ में अनेकानेक अस्त्र और शस्त्र तो थमा दिए है परन्तु उससे विवेक और सहिष्णुता छीन ली है. परिणामस्वरूप आज समूची मानवता को खतरा बना हुआ है.

कृष्ण के जीवन के अंतिम 36 वर्षों की यह कथा ईश्वर को मनुष्य सिद्ध करने का सार्थक प्रयास है. ईश्वर या प्रभु किसी अन्य लोक में नहीं विराजमान है वरन् उसका दर्शन यहीं किया जा सकता है, यदि सृष्टि चलायमान रहें, उसके सभी उपादान नियत गति करते रहें, नित्य नूतन सृजन होता रहे, मर्यादित आचरण होता रहे, साहस, दया, माया, ममता और प्रेम सर्वत्र चलता रहे तो यही साक्षात प्रभु का जीवन है इसके विपरीत अगर मूल्यों का ह्रास हो, मान्यताएँ खंडित हो और सद्प्रवत्तियों का लोप है तो यही उसका मरण है. ऐतिहासिक ध्वंसों पर नूतन निर्माण का संदेश उपसंहार देता है. लेखक का दृष्टिकोण है कि नव निर्माण अतीत की विसंगतियों को दूर करते हुए होना चाहिए. समग्र रूप में उपसंहार का उद्देश्य उन पौराणिक घटनाओं को उठाना है जिनकी अनदेखी पुरातन धार्मिक ग्रंथों में की गई है. 

कृष्ण के जीवन के अंतिम वर्ष, उस ईश्वर के जीवन के अंतिम वर्ष जिसके इशारों पर सम्पूर्ण पृथ्वी थिरकती है,जिसका रूप पूर्णिमा के चांद जैसा है और मुस्कान इन्द्रधनुष जैसी, के जीवन के अंतिम वर्षों की हताशा और अकेलेपन का चित्रण हर सह्रदय को उद्वेलित कर देता है. 

उपसंहार बताता है कि प्रेम की शाश्वत महिमा पूर्ण सत्य है जिसके अभाव में मनुष्य की अस्मिता का लोप हो जाता है.  उक्त संदर्भों में उपसंहारमानव मूल्यों को बचाए रखने की एक सार्थक पहल है और ईश्वर की मनुज यात्रा का एक सटीक आख्यान
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 विमलेश शर्मा
अजमेर, राजस्थान
9414777259/ vimlesh27@gmail.com

कथा - गाथा : इमरान भाई : शहादत ख़ान

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(कृति : stuart Amos) 








समाज में हो रहे अच्छे बुरे बदलावों को कला और साहित्य सबसे पहले देखते और दिखाते हैं. खासकर कहानियां जब सन्दर्भ में किसी घटना को रखती हैं तब उस पर ध्यान जाता ही नहीं टिकता भी है. लेखक की अपनी समझ और सोच का कोण भी ‘कथा’ को प्रभावित करता है. देखने वाली चीज यह है कि कहानी में कथा की तार्किक परिणति हुई है या नहीं. और कथा का प्रभाव पाठक में अंत तक रूचि बनाए रख पाता है कि नहीं.

शहादत  ख़ान को युवा कहने का मन होता है पर अभी वह ‘हिंदी’ के हिसाब से ‘युवा’ भी नहीं हुए हैं. महज़ २३ साल में वह मुस्लिम-हिन्दू के रिश्तों पर विचलित करने वाली कहानियाँ लिख रहे हैं. यह कहानी एक होनहार युवक के साम्प्रदायिक दुष्प्रभावों के शिकार की दारुण कथा है.

आप पढिये. उन्हें इस्लाह की भी जरूरत है और यह प्यारा लेखक इसका खैरमकदम ही करेगा.



इमरान भाई
शहादत  ख़ान


राज्य शिक्षा बोर्डो से अच्छे नंबरों के साथ इंटरमीडिएट की परीक्षा उतीर्ण करने के बाद अधिकांश छात्रों का सपना माल रोड यानी डीयू (दिल्ली विश्विद्यालय) पहुँचने का होता है. हालांकि राजधानी में इससे अलग दो ओर विश्वविद्यालय, जामिया और जेएनयू है. फिर भी छात्रों के बीच ग्रेजुएशन की डिग्री के लिए डीयू को लेकर एक अलग ही उत्साह होता है. उन्हें इसके नाम, प्रसिद्धि, एजुकेशन कल्चर और छात्र राजनीति भी अपनी ओर खींचती है. वैसा देखा जाए तो जामिया को जहां अल्पसंख्यकों की संस्था माना जाता है वहीं जेएनयू में अधिकांशतः मास्टर्स की पढ़ाई होती है. इस कारण भी छात्र डीयू को प्राथमिकता देते हैं.

और दे भी क्यों ना. डीयू है भी भारत का ऑक्सफोर्ड. यहां से निकले अधिकांश छात्रों ने अपने-अपने क्षेत्र में खूब नाम कमाया है. इनमें देश के किसी भी राज्य (उत्तर प्रदेश) की पहली महिला मुख्यमंत्री सुचेता कृपलानी, दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित, बुद्धिजीवी और राजनीतिज्ञ शशि थरूर, प्रशासनिक अधिकारी और मशहूर मानवाधिकार कार्यकर्ता मेघा पाटकर, प्रथम महिला आईपीएस अधिकारी किरण बेदी से लेकर म्यामांर की लोकतंत्र समर्थक नोबेल पुरुस्कार विजेता आंग सांग सू की तक और मशहूर साहित्यकार खुशवंत सिंह, अमिताव घोष, सदी के महानायक अमिताभ बच्चन, बॉलीवुड के किंग खान शाहरुख खान, मनोज वाजपेयी, कोणका सेन शर्मा, हुमा कुरेशी, कबीर बेदी, वकील और राजनीतिज्ञ अरुण जेटली, कांग्रेस के अग्रणी नेता और वकील कपिल सिब्बल, मशहूर कम्युनिस्ट और मार्क्सवादी पार्टी की महिला नेता वृंदा करात, जानी मानी टीवी एंकर बरखा दत्त, मोंटेका सिंह अहलूवालिया, अद्भुत फिल्म निर्माता और निर्देशक इम्तियाज अली, कबीर खान, अनुराग कश्यप और साथ ही क्रिकेटर गौतम गंभीर से लेकर नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री जे. पी. कोईराला तक शामिल है.
    
हर साल की तरह उस साल भी देश के विभिन्न राज्यों से हजारो छात्रों ने दिल्ली विश्वविद्यालय में दाखिला लिया था. यू. पी. बोर्ड से नब्बे प्रतिशत अंको के साथ इंटरमीडिएट उत्तीर्ण होने पर साजेब को भी दिल्ली विश्वविद्यालय के गुरु तेग बहादुर खालसा कॉलेज में एडमिशन मिल गया था. जब वह पहले दिन कॉलेज पहुँचा तो उसने वहां खुद को एक अलग ही दुनिया में पाया था. जहां अजनबी और अनजान चेहरों की भीड़ थी. किताबों का ढ़ेर था और आधुनिकता का बोलबाला. कॉलेज आने के बाद वह बहुत से नये और अपरिचित लोगो से मिला. इनमें सबसे पहले तो उसके क्लासमेट ही थें. जिनमें से कुछ तो जल्द ही उसके अच्छे और पक्के दोस्त बन गए. फिर वह अपने सीनियर्स से मिला जो अलग-अलग ग्रुपों में उनका परिचय लेने और अपना देने के लिए उसकी क्लास में आए थें. इसके बाद वह उन लोगों से मिला जो खेल, राजनीति या फिर पढ़ाई के लिए कॉलेज में चर्चित थें. इनमें से कई लोगों से तो वह व्यक्तिगत तौर पर मिला भी था. उसने मिलकर उसे अच्छा लगा था. इसलिए उसने आगे भी उन लोगों से मेल-मुलाकात रखी थी. लेकिन इन चर्चित लोगों की भीड़ में उसका ध्यान जिस इंसान ने सबसे ज्यादा अपनी ओर आकर्षित किया वह थे इमरान भाई.

गठीले स्वस्थ शरीर वाले इमरान भाई. सांवला रंग. खिचड़ी-नुमा छोटे-काले घुंघराले बाल. आंखे अद्भूत, काली-पनीली, उन पर बारीक फ्रेम का चश्मा चढ़ा हुआ. चौड़ा माथा, लंबी नाक, फूले हुए गाल और तिक्त मुस्कुराते होंठ.... वह बनारस, उत्तर प्रदेश के रहने वाले थे और दिल्ली में ज़ाकिर नगर में रहते थे. वह कॉलेज में अंग्रेजी साहित्य में स्नातक द्वितिय वर्ष के छात्र थे. उनकी चर्चा के दो मुख्य कारण थे. एक तो वह पढ़ाई में सबसे आगे थे. उन्होंने पिछले दोनों सेमेस्टर में यूनिवर्सिटी टॉप किया था. दूसरा वह एक बेहतरीन वक्ता थे. कॉलेज में एडमिशन लेने से लेकर आज तक उन्होंने यूनिवर्सिटी के किसी भी कॉलेज के किसी भी स्तर के वाद-विवाद को नहीं छोड़ा था. उन्होंने यूनिवर्सिटी के बहात्तर के बहात्तर कॉलेज में समय-समय पर हुई सभी वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में हिस्सा लिया था और संबंधित विषय पर अपने विचार रखे थे. वह कम्यूनिस्ट विचारधारा से प्रभावित थे इसलिए समाज और व्यक्ति से जुड़े विषयों पर उनके विचार इतने दमदार होते थे कि उनके बोलना शुरु करने से लेकर बंद करने तक पूरा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंजता रहता था. बोलने के इसी जादूई अंदाज के कारण वह हर प्रतियोगिता में प्रथम स्थान हासिल करते थे. यही कारण था कि उन्हें इस साल की फ्रेशर पार्टी में बेस्ट स्टूडेंट ऑफ द ईयरऔर बेस्ट डिबेटर ऑफ द यूनिवर्सिटीदोनो खिताब से नवाजा गया था.  

इमरान भाई से साजेब की अभी तक कोई मुलाकात नहीं हुई थी. बस उसने उन्हें कॉलेज में ही अखंड भारतः एक स्वप्न या हकीकतविषय पर हुई वाद-विवाद प्रतियोगिता में बोलते हुए सुना था. उस दिन उन्होंने नीली जिंस और महरुन रंग का कुर्ता पहन रखा था. वह एक चुस्त-दुस्त वक्ता की तरह मंच पर आए और बोलना शुरु किया, अखंड भारत एक स्वप्न तो कतई नहीं है और फिलवक्त हकीकत भी नहीं है. जैसा कि आप सभी जानते है कि सैंतालीस में विभाजन के बाद हमारा देश भारत टूटकर दो हिस्सों में बंट गया था और फिर आगे चलकर वह टूटा हिस्सा भी दो हिस्सो में बंट गया. लेकिन जब हम इतिहास में झांककर देखते हैं तो हमें भारत एक अखंड, अटूट, सशक्त और महान राष्ट्र के रूप में दिखाई देता है. जहां सद्भावना है, प्यार है, सम्मान है और है अपने राष्ट्र के प्रति असीम भक्ति-भावना. लेकिन इस नश्वर संसार में कोई भी चीज स्थायी नहीं होती. वक्त के साथ हर किसी में परिवर्तन होता है. और इस परिवर्तन का जिम्मेदार कोई ओर नहीं बल्कि खुद मनुष्य होता है. यही कारण है कि बीतते वक्त के साथ हमारे देश की अखंडता, अटूटता, सशक्ति और महानता छिन-भिन होती गई. जिसका परिणीति सैंतालीस में विभाजन के रूप में हुई. लेकिन इससे अगर हम यह मान ले कि अखंड भारत अब एक स्वप्न मात्र है तो शायद हम गलत है. गलत है हम क्योंकि हमने कभी उस स्वप्न को हकीकत में बदलने की सोची ही नहीं. मेरा मानना है कि अगर कोई इंसान पूरी ईमानदार, मेहनत और लगन से किसी स्वप्न को हकीकत में तब्दील करने में लग जाए तो कहा जाता है कि आसमान से फरिश्ते भी उसकी मदद के लिए जमीं पर उतर आते हैं. फिर यह तो सौ करोड़ लोगो का स्वप्न है. इसे तो हर हाल में पूरा होना चाहिए. आप सोचिए तो सही यदि पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी का एकीकरण हो सकता है.

फ्रांस और जर्मनी ईयू के तहत एक हो सकते है. अमेरिका और जापान दोस्त बन सकते है तो फिर भारत और पाकिस्तान एक क्यों नहीं हो सकते?सिर्फ इसलिए क्योंकि हमने उसके लिए कोई मेहनत नहीं की. और मेरे दोस्तों कोई भी स्वप्न मेहनत, साहस और कुर्बानियों के बिना वास्तविक नहीं हो सकता. अंत में मैं बस इतना कहना चाहूँगा कि भारत कल भी अखंड था और आने वाले कल में भी अखंड होगा. यह कोई भावनात्मक पहलू नहीं बल्कि हकीकत है. ये बेहतर भविष्य की माँग भी है और नियति का फैसला भी. जिसे हर हाल में पूरा होना ही होगा.

इमरान भाई ने अपने इन विचारों को मात्र तीन मिनट में व्यक्त किया था. उन्होंने अपनी बात को सशक्त तरीके से रखे थे कि जैसे ही उन्होंने बोलना बंद किया पूरा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा था. पूरे दो मिनट तक लोग ताली बजाते रहे थें. प्रोफेसर्स, प्रिंसिपल और मंचासीन अतिथियो को भी इमरान भाई के विचार अच्छे लगे थे. उन्होंने व्यक्तिगत रूप से इसकी तारीफ भी की थी. और हर प्रतियोगित की तरह इसमें भी उन्हे ही प्रथम पुरुस्कार मिला था.
कॉलेज आने के बाद एक रोज़ साजेब लाइब्रेरी में बैठा पढ़ रहा था जब इमरान भाई से उसकी बार मुलाकात हुई थी. इमरान भाई उसी किताब को ढूँढ रहे थे जिसे वह बैठा पढ़ रहा था. उन्होंने उससे पूछा, क्या तुम्हें इस किताब की ज़रुरत है?”

जी नहीं. मैं तो ऐसे ही पढ़ रहा था.
मुझे इसमें से कुछ नोट्स बनाने है. अगर तुमने पढ़ ली हो तो मैं इस इशु करा लूँ.
जी हाँ, करा लीजिए, यह कहकर साजेब ने किताब इमरान भाई के हाथों में थमा दी.
तुम इकॉनोमिक्स फर्स्ट ईयर में हो ना?”
जी हाँ.
क्या नाम है तुम्हारा?”
मोहम्मद साजेब.
कहां से?”
लखनऊ से.
पढ़ाई कैसी चल रही है?”
अच्छा चल रही है?”
नोट्स-वोट्स बनाए या पहले से ही है?”
नहीं. न तो अभी तक बनाए और न ही कहीं ओर से मिले है.
कोई नहीं... मेरा एक दोस्त है मैं तुम्हे उससे लेकर नोट्स दे दूँगा.
जी अच्छा.

इमरान भाई किताब लेकर चले गए थे लेकिन साजेब को यकीन नहीं हो रहा था कि उसने अभी इमरान भाई से बात की और वह उसे खुद नोट्स लाकर देंगे. क्योंकि उसके कई क्लासमेट्स महीने भर उन्हें किसी दोस्त से नोट्स दिलाने के लिए कह रहे थे. लेकिन उन्होंने एक बार भी उनकी इस मांग पर गौर नहीं किया था. अगले दिन वह तब हैरान रह गया जब क्लास में लेक्चर के लिए जाते वक्त रास्ते में वह इमरान भाई से टकरा गया और उन्होंने अपने बैग से नोट्स का बंडल निकालकर उसे थमाते हुए कहा, यह लो... इसकी फोटो करा लेना... और अपने क्लास के एक दो बच्चो को ओर दे देना. वो लोग काफी दिनों से मुझे नोट्स के लिए कह रहे थें.

जब साजेब के क्लासमेट्स को इस बार में पता चला कि इमरान भाई ने साजेब को नोट्स दिए है तो उन्होंने इमरान भाई पर आरोप लगाते हुए कहा, इमरान भाई ने साजेब को इसलिए नोट्स लाकर दिए है क्योंकि वह मुसलमान है.

लेकिन साजेब इससे बहुत खुश था. उसने इमरान भाई की इस पहल को उनकी और अपनी दोस्ती की एक अच्छी शुरुआत समझा. इसके बाद वह उनसे कुछ कुछ दिनों के अंतराल के बाद और फिर लगभग हर रोज़ मिलने लगा. कभी किसी किताब को लेकर तो कभी किसी और कॉलेज से संबंधित मुद्दे को लेकर. वह दिन में एक-दो बार तो जरुर उनसे मिलता था. इमरान भाई भी उसे तवज्जो देते थे. वह उसे पढ़ाई को लेकर मशवरा देते और कोर्स से अलग भी कुछ किताबें पढ़ने के लिए बताते रहते. उन्होंने उसे वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में बोलने के लिए भी कहा. उसने उनके सामने हाँ तो कर दी थी, पर उसने इससे पहले कभी मंच पर बोला नहीं था. वह डर रहा था. मंच पर खड़े होते ही उसके पैर कांपने लगते थे. उसकी आवाज़ गुम हो जाती थी. होंठ एक दूसरे से चिपक जाते और वह फटी फटी जिब्हा होते जानवर की तरह सामने बैठे लोगों को देखना लगता. उसे ठंडे पसीने आने लगते. दो तीन बार वह बिना बोले ही मंच पर से उतर आया था.

पर जब इमरान ने उससे कई बार बोलने और इस पर मेहनत करने के लिए कहा तो उसने भी हिम्मत से काम लेना शुरु कर दिया था और इस पर पूरी तुनदई से उस पर मेहनत करने लगा. कुछ ही दिनों में वह काफी अच्छा बोलने लगा था. लोग भी उसके तारीफ करने लगे और उसे मंचासीन अतिथियों द्वारा सराहा भी जाने लगा. लेकिन हद तो तब हो गई जब उसने इमरान भाई की गैर-मौजूदगी में कॉलेज में हुई एक वाद-विवाद प्रतियोगिता में प्रथम पुरुस्कार जीत लिया. फिर तो इमरान भाई भी उसे अपने साथ विभिन्न कॉलेजो में होने वाली वाद-विवाद प्रतियोगिता में ले जाने लगे. इससे अलग भी वह अधिकतर समय साजेब को अपने साथ ही रखते.

एक साल बीत गया. दोनो सेमेस्टर के एग्जाम भी खत्म हो गए. परिणाम भी उसके आशानुरूप ही आया था. साजेब खुश था. नए सेमेस्टर (तीसरा) की शुरुआत पर कॉलेज से बहुत से छात्रों की विदाई हुई तो उतने ही छात्रों का स्वागत भी किया गया. जल्दी ही कॉलेज में पुराने जैसा माहौल बन गया और नए छात्र पुराने लोगों से परिचित हो गई. बीते एक साल के दौरान इमरान भाई के साथ रहने के कारण साजेब भी कॉलेज में खासा चर्चित हो गया था. लोग उसके बारे में बाते करने लगे थें. नए छात्र तो हर वक्त उसके इर्द-गिर्द घूमते रहते. साजेब ने इस सबका श्रेय इमरान भाई को दिया तो उसके क्लासमेट्स ने फिर तंज करते हुए कहा, इमरान भाई तेरी हेल्प इसलिये करते है क्योंकि तू मुसलमान है.

साजेब को अपने क्लासमेट्स की ये बातें कभी अच्छी नहीं लगी. उसकी समझ नहीं आया कि आखिर क्यों हर बात को उसके धर्म से जोड़कर देखा जाता है? क्या उसका व्यवहार, उसकी सलाहियत, उसकी शिक्षा और बाकी दूसरी चीज़े कोई मायने नहीं रखती है?क्या धर्म के सिवा उसकी कोई पहचान नहीं है?वह सिर्फ एक मुस्लिम लड़के रूप में देखा जाएगा और किसी रूप में नहीं?वह यह सब सोचता. लेकिन उसने ये सवाल कभी अपने क्लासमेट्स या फिर किसी ओर से नहीं किए. उसे पता था कि अगर वह इस तरह के सवाल करेगा तो सिवाएं बहस और फसाद के कुछ नहीं होगा. और वह किसी किस्म की बहस या फसाद में नहीं पड़ना चाहता था. खासतौर से उनमें जिससे कोई फायदा न हो. इसलिए उसनेउनकी इस तरह की बातों का कोई जवाब नहीं दिया. वह अपने पढ़ाई में जुटा रहा और कॉलेज में होने वाली विभिन्न प्रतियोगिताओं में समारोह में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेता रहा.

उन्हीं दिनों राष्ट्रीय चुनाव की घोषणा हो गई और इसके साथ ही उत्तर-प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले में दंगे भड़क उठे. इमरान भाई कई सामाजिक संस्थाओं और उन संगठनों से जुड़े थे जिनका लोग कम्यूनिस्ट, छद्म सेक्युलरवादी और कट मुल्ले तक कहकर उनका मज़ाक उड़ाते हैं. वह दंगा पीड़ित लोगों की मदद के लिए गठित एक स्वयंसेवक दल में जुड़कर मुजफ्फरनगर चले गए. जाने से पहले उन्होंने साजेब से भी चलने के लिए कहा था लेकिन साजेब को कई प्रोजेक्ट्स बनाने थें और उनकी प्रजेंटेशन भी देनी थी इसलिए उसने माफी मांग ली.

इमरान भाई पंद्रह दिन बाद कॉलेज आए. जिस दिन वह कॉलेज आए उस दिन सौभाग्य से कॉलेज में भारत में मुसलमानों की स्थितिविषय पर वाद-विवाद प्रतियोगिता होने वाले थी. हमेशा की तरह इस बार भी इमरान भाई से पूछे बिना वक्ताओं की सूची में उनका नाम भी शामिल कर दिया गया. प्रतियोगिता शुरु होने से पहले ही हॉल खचाखच श्रोताओं से भर चुका था. जिन लोगों को बैठने के लिए कुर्सी नहीं मिली थी वह नीचे बैठ गए और जिन्हें नीचे भी बैठने के लिए जगह नहीं मिली वह एक दूसरे का साहरा लेकर चिपककर खड़े हो गए. बड़ा गहमा-गहमी का आलम था. लोग इमरान भाई को सुनने के लिए उतावले थे.

मंच पर प्रिंसिपल के साथ अतिथिगण आए. अतिथियों ने बारी बारी से अपना परिचय दिया. संबंधित विषय पर अपने कुछ विचार भी रखे. लोगों ने उन्हें अनमने भाव से सुना. प्रतियोगिता शुरु हुई और मंच पर एक-एक कर वक्ता आने लगे. सभी ने भारत में मुसलमानों की स्थिति पर अपने विचार रखे और चले गए. श्रोताओं ने भी उनके विचारों की वास्तविकता के अनुसार ताली बजाकर उनका उत्साह बढ़ाया. छः वक्ताओं के बाद जैसे ही इमरान भाई के नाम का ऐलान हुआ तो मानो हॉल में बिजली दौड़ गई. पूरा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा. प्रिंसिपल के चेहरे पर भी मुस्कुराहट तैर गई. अतिथिगण गर्दन इधर-उधर घुमाकर देखने लगे जैसे पूछ रहे हो, ये कौन है जिससे सुनने के लिए लोग इतने उतावले है और जिसके के लिए वह इतने उत्साह के साथ ताली बजा रहे हैं?इमरान भाई मंच पर आए. लेकिन उनका वह चिरपरिचित एक जोशीले वक्ता जैसा अंदाज़ गायब था. उनके चेहरे की चमक भी गायब थी और उस पर निराशा और हताशा के बादल तैर रहे थे. लेकिन श्रोताओं ने इस ओर ध्यान नहीं दिया और वह उत्साह में तब तक ताली बजाते रहे जब तक इमरान भाई ने बोलना शुरु कर नहीं कर दिया. सम्मानीय प्रधानाचार्य, अतिथिगण और मेरे प्यारे साथियो, उन्होंने बोलना शुरु किया जैसा कि आप सभी जानते है इस प्रतियोगिता का विषय- भारत में मुसलमानों की स्थिति है. यहां, इस पर इस विषय के पक्ष और विपक्ष, दोनों ओर के वक्ता है. लेकिन मेरा मानना है कि इस विषय पर किसी पक्ष या विपक्ष की ज़रुरत नहीं है. क्योंकि भारत में मुसलमानों की जो स्थिति है वह सब आपके सामने है.

मुझे लगता है वो यहां एक कुत्ते-बिल्ली से ज्यादा हैसियत नहीं रखते. बल्कि सच कहूं उनकी हालात इन जानवरों से भी बदतर है. यहां उनका कोई ख़ैर-ख़्वाह नहीं है. कोई उन्हें पूछने वाला या उनकी समस्याओं की ओर ध्यान देने वाला नहीं है. राजनेता उनके वोट तो लेते है पर उनकी बस्तियों में स्कूल या अस्पताल नहीं खोलते. वaउन्हें चुनाव के दौरान आरक्षण, नौकरी और न जाने क्या क्या देने की बात करते हैं, लेकिन चुनाव के बाद उन्हें इस तरह भुला दिया जाता है जैसे उनका कोई अस्तित्व ही न हो. और चुनाव से पहले ही वो उनके साथ क्या किया जाता है? अभी आपने मुजफ्फरनगर देखा. उससे पहले, कभी गुजरात में, कभी मध्य-प्रदेश तो कभी राजस्थान में, कभी अयोध्या में तो कभी दरभंगा उन्हें गाजर-मुली की तरह काट दिया जाता है. उनके घरों को फूस के ढेर की तरह जला दिया जाता है. उनकी बेटियों के साथ खिलौने के तरह खेला जाता है. उनके साथ बलात्कार किया जाता है. उनकी माँ-बहनों को बेआबरू किया जाता है. सिर्फ इसलिए कि वे मुसलमान हैं. मैं अभी मुजफ्फरनगर से लौटकर आया हूँ. मैंने वहां अपने घरों के लिए रोते लोगों को देखा है.

एक बूढ़े बाप को सिकुड़ी और लटकी खाल वाले कांपते हाथों से अपने जवान बेटे की लाश को दफनाते देखा है. उन लोगों को देखा है जिनकी बेटियों का पता नहीं कि वे कहां है?एक माँ को देखा है जो मर चुके अपने बच्चे के लिए रो रही थी. एक दूसरी औरत अपने शौहर की मौत के बाद कब्रिस्तान में बनी झोंपडी में इद्दत के लिए बैठी थी. छुपकर बैठी बलात्कारित लड़कियों को देखा है. मैं जब ये सब देख रहा तो एक छोटे से मासूम बच्चे ने मेरे कुर्ते का पल्लू का पकड़कर पूछा, मेरे अब्बू कहां है?’उसके अब्बू दंगे में मारे गए और अब वह अपनी विकलांग माँ और दो भाई बहनों के उस बदबू मारते शिविर में रह रहा है.

अब मुझे बताओ कि मैं उससे क्या कहूँ?क्या जवाब दूँ मैं उसे?क्या कहूं कि उसके अब्बू जी कहां है? या फिर उसे उनके लोगों के सामने लेकर जाकर खड़ा करुं जिन्होंने पड़ोसी होने के बावजूद उसके बाप को कत्ल कर दिया?उसे बताऊं कि उसके अब्बू सिर्फ इसलिए मार दिया गया कि उसका गुनाह ये था कि वह मुसलमान था? उसने एक मुसलमान के रूप में जन्म लेकर एक गंभीरता जुर्म किया था. और कि उसे मारने वाले महान हिंदू राष्ट्रवादी है?कि वह उन्हें सिर्फ इसलिए मार रहे हैं कि वह चुनावों में अपनी जीत सुनिश्चित कर सकें?इसलिए वह मारे जाएंगे?उनके घरों को जालाया जाएगा?उनकी माँ बहनों के साथ बलात्कार किया जाएगा?उनमें से हर एक कत्ल किया जाएगा?वो भी सिर्फ इसलिए कि वह मुसलमान है?यह कहते हुए रो पड़े.

पूरे हॉल में खामोशी छा गई. एक भयानक और हिला देनी वाली खामोशी. ऐसी खामोशी जिसमें वहां सैकड़ों लोगों की सांसों की आवाज़ें भी नहीं सुनाई दे रही थी. उन्होंने अपना चश्मा उतारा और हाथ से अपने आँसू साफ किए. उन्होंने फिर चश्मा पहना और एक लंबी साँस लेकर दोबारा कहना शुरु किया, माफ कीजिएगा, शायद में कुछ ज्यादा ही भावुक हो गया हूँ.वह रुकते है. फिर थोड़ा संभल कर दोबारा बोलना शुरु करते है, लेकिन मैं इस सब की शिकायत आपसे क्यों कर रहा हूँ?क्यों आपके सामने अपने दुखड़े सुना रहा हूँ?क्यों?आप भी तो उनमें से ही एक हैं. भले ही आप यहां बैठ कर खुद को बुद्धिजीवी, कम्यूनिस्ट, सोशलिस्ट, मानवतावादी या फिर कुछ कहते रहे, पर चुनावों के वक्त आप उन्हें ही वोट देंगे. उन्हें विधायक, सांसद, मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री बनाएंगे. उन हत्यारों को. क्यों नहीं... वह आपका महान हिंदू राष्ट्रवाद का वादा जो पूरा करेंगे. आप भले ही बाहर कुछ भी नज़र आते हो... पर आपकी अंदर की दबी इच्छा यही है.

इसीलिए तो तुम खामोश समर्थन करते हो उस आतंक का जो मुसलमान के खिलाफ बार बार किया जा सकता है. चुनाव में जीत के लिए. बहुतम के ध्रुवीकरण के लिए. उस वक्त इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा कि देश को कौन चला रहा है- एक हत्यारा या समझदार और नेक इंसान.वह चुप हो गए. कुछ पल रुके और फिर बोले, लेकिन मैं आपसे एक बात साफ-साफ कह देना चाहता हूँ कि हम, हम भारतीय मुस्लिम बांग्लादेशी हिंदू नहीं है, जो अफवाहों या फिर महज झूठी धमकियों से डरकर अपना मुल्क छोड़ दें... और न ही हम जर्मन यहूदी है जो चुपचाप मार खाते रहेंगे और कत्ल होते रहेंगे, सिर्फ इसलिए कि हम अल्पसंख्यक है और बहुसंख्यक को हमारे ऊपर जुल्म का करने जन्मसिद्ध अधिकार है.

हम हिंदुस्तानी मुसलमान है. यदि हम अपने देश की आन के लिए अपने सिर कलम करवा सकते हैं. दुनिया सबसे शक्तिशाली ब्रितानवी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंक सकते है.  1857 की क्रांति में लाखों सिर कलम करवा सकते हैं तो फिर आज हम अपनी सुरक्षा और सम्मान के लिए जंग-ए-बदर (इस्लामिक इसिहास की पहली लड़ाई. जिसमें महज 365 मुसलमानों ने हज़ारों सैनिकों की मक्कावासियों की फौज को करारी शिकस्त दी थी.) दोहरा सकते हैं.

इमरान भाई ने बोलना बंद किया. मंच उतरे और हॉल से बाहर निकल गए. कहीं कोई आवाज़ नहीं. तालियों की कोई गूंज नहीं. सब एकदम चुपचाप. ऐसा लगता था जैसे वहां कोई शोक सभा हो रही थी जिसमें बोलना वर्जित था. शायद यह इमरान भाई का पहला व्याख्यान था जिसके खत्म होने पर तालियों की गड़गड़ाहट नहीं हुई थी. और शायद ऐसी पहली प्रतियोगिता जिसमें उन्हें प्रथम पुरुस्कार नहीं मिला था.

उस प्रतियोगिता के बाद इमरान भाई को कॉलेज में बहुत कम देखा जाने लगा. वह कभी-कभी ही कॉलेज आते. जब कभी आते भी तो बस एक दो लेक्चर लेते या फिर लाइब्रेरी से किताबें बदल कर चले जाते. उन्होंने साजेब से भी मिलना छोड़ दिया था. लेकिन साजेब उनका इंतज़ार करता. कई बार वह उनसे मिला भी. लेकिन हर बार वह यह कहकर, मैं अभी जल्दी में हूँ... फिर मिलेंगे, निकल जाते. लेकिन वह फिर मिलते नहीं. साजेब उनका नंबर मिलाता तो वह ऑफ जाता.

इसी तरह दूसरा साल भी बीत गया और इमरान भाई ने कॉलेज को अलविदा कह दिया. विदाई समारोह से पहले साजेब ने सोचा था कि इमरान भाई फेरवेल पार्टी में शामिल होने आख़िरी बार तो कॉलेज आएंगे ही. तब उनसे ज़रूर मिलेगा. साथ ही उनका नया मोबाईल नंबर और घर का पता भी ले लेगा. समारोह हो गया. लेकिन इमरान भाई नहीं आए.

इमरान भाई के न आने से साजेब को बहुत बुरा लगा. साथ ही दुख भी हुआ. वह उदास हो गया. लेकिन जल्दी वह इस सब को भूल गया और आने वाले एग्जाम्स और उनसे संबंधित एसाइनमेंट्स में व्यस्त हो गया. उसने कभी अच्छे एसाइनमेंट्स बनाए. क्लास में लगभग सबसे बेहतर. एग्जाम भी उसके अच्छे ही हुए थे और वह बहुत अच्छे नंबरों से पास भी हो गया था. ग्रेजुएशन पूरी करने के बाद वह आगे पढ़ना चाहता था लेकिन घर हालात उसे इस बात की इजाज़त नहीं देते थे. इसलिए उसने आगे पढ़ने की बजाय एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी पकड़ ली.

हालांकि कॉलेज के आखिरी दिनों में और उसके उसके बाद नौकरी भाग-दौड़ के दरमियान भी बार बार उसका ध्यान इमरान की ओर चला जाता और वह उन्हें याद करके दुखी होता. कॉलेज के अपने आख़िरी दिनों कॉलेज आने वाले हर पास आउट से, जो भी इमरान भाई को जानता था वह उनके बारे पूछता. लेकिन हर कोई यह कहकर इंकार कर देता कि कॉलेज से निकलने के बाद उसका उनसे कोई संपर्क नहीं हुआ. नौकरी के दौरान भी वह किसी समारोह या फिर कहीं ओर भी मिलने वाले अपने और इमरान भाई के क्लासमेट्स, अन्य दोस्तों और जानने वालों से उनके बारे में पूछता, लेकिन हर कोई मना कर देता.   

वह इतवार का दिन था. उस दिन भी वह हर इतवार की तरह देर से सोकर उठा था. उठकर फ्रेश होने के बाद उसने चाय बनाई और फिर एक कप में लेकर बालकॉनी में जाकर बैठ गया. सामने सड़क पर देखते हुए उसने एक घूंट चाय पी और फिर उठकर अंदर कमरे में चला आया. उसने दरवाज़े के पास पड़ा अखबार उठाया और फिर से बालकॉनी में आकर कुर्सी पर बैठ गया. अब वह चाय पीता हुआ सामने सड़क पर देखने की बजाय अखबार में छपी खबरों पर सरसरी नज़रे दौड़ाता हुआ उसके पन्ने पलट रहा था. तभी उसकी नज़र एक खबर पर अटक गई. खबर का शीर्षक था, संदिग्ध सिमी आतंकी मुठभेड़ में ढ़ेर.इसके साथ ही एक क्षत-विक्षत शव की फोटो लगी थी. खबर का इंट्रो था, भारत-नेपाल बॉर्डर के पास शनिवार की रात सुरक्षाबलो ने एक संदिग्ध सिमी आतंकी को मुठभेड में मार गिराया है. आतंकी की पहचान इमरान खान के रूप में हुई है. इमरान खान दिल्ली विश्वविद्यालय का पूर्व छात्र रह चुका है.
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शहादत  ख़ान
(April 14, 1995)
रेख़्ता (ए उर्दू पोएट्री साइट) में कार्यरत, दिल्ली

7065710789. /786shahadatkhan@gmail.com

मैं कहता आँखिन देखी : निर्मला पुतुल

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निर्मला पुतुल से संतोष अर्श के इस संवाद में लेखन प्रक्रिया, वैचारिक संरचना और स्त्री की सामाजिकता (जेंडर) के कई स्तरों की चर्चा है.
एक आदिवासी स्त्री के तथाकथित मुख्य धारा से मुठभेड़ के अनुभव हैं.
तमाम स्त्रीवाद के बावज़ूद एक उदास और हतप्रभ करने वाला समय हमारे समक्ष अपनी नग्नता के साथ यहाँ मौज़ूद है.
यह एक रचनाकार का संघर्ष तो है ही एक आदि स्त्री के असमाप्त संघर्ष का भी एक नुमांया हिस्सा है.

युवा कवि और अध्येता संतोष अर्श ने निर्मला पुतुल से पूरी तैयारी के साथ यह बातचीत की है.
ख़ास आपके लिए.




इस ऊबड़-खाबड़ धरती पर रहते, कितनी सीधी हो बाहामुनी            
(निर्मला पुतुल से संतोष अर्श की बातचीत) 


संतोष अर्श : जोहार निर्मला जी !! सर्वप्रथम तो मैं यह चाहता हूँ,पाठकों तक यह बात पहुँचे कि,किन परिस्थितियों में आपने लिखना प्रारम्भ किया और पारिवारिक स्थितियाँ क्या थीं उस समय ?कैसे लेखन की ओर रुझान हुआ ?अपनी शुरुआती शिक्षा के बारे में भी कुछ बताएँ.
निर्मला पुतुल : हमारी शिक्षा तो रुक-रुक कर हुई है.जिस तरह तारतम्य के साथ पढ़ा जाता रहा है या पढ़ रहे हैं अभी विद्यार्थी,उस तरह से नहीं हो पायी.चूँकि पारिवारिक स्थिति बहुत दयनीय थी तो उस तरह से माता-पिता सक्षम नहीं थे पढ़ाने-लिखाने में.तो रुक-रुक कर पढ़ाई हुई.और साहित्य में रुझान तो अपने फील्डवर्क के दरम्यान,जो अनुभव सामने आए एनजीओ में काम करते-करते,जो हमने देखा-सुना-भोगा,उनसे पैदा हुआ.और इन्हीं अनुभवों से साहित्यिक रुचि में प्रगाढ़ता आई.ज़मीन में काम करने पर ही हमारी दृष्टि आदिवासी स्त्रियों पर केन्द्रित हो सकी,कि किस तरह से आदिवासी समाज की महिलाएँ संघर्ष कर रही हैं.और उनका यह संघर्ष हमने भी भोगा है,हम भी भुक्तभोगी रहे हैं.तो यह लगा कि इस सम्पूर्ण संघर्ष को डायरी लेखन के रूप में लिया जा सकता है,या लिखा जा सकता है.इस प्रकार हमने पहले डायरी लिखना शुरू किया.डायरी लिखते-लिखते ही कविता की ओर रुख होने लगा.जो हमारी पहली कविता आई बिटिया मुर्मू के लिएवो डायरी लेखन के जरिये ही आई.डायरी लिखते-लिखते ही हमारी कविता आगे बढ़ी.आज भी हमारा फील्डवर्क का अनुभव ही हमारे काम आता है.जिसको हमने देख-भोगा-जिया है,वही हमारी कविता बन गई है.

संतोष अर्श : शिक्षा-दीक्षा आपकी कहाँ से हुई ?
निर्मला पुतुल : मैट्रिक लेवल तक की पढ़ाई तो एक दुधानी मिशन स्कूल था उससे हुई.शेष पढ़ाई इग्नू के माध्यम से हुई.

संतोष अर्श : तो आपकी शिक्षा कहाँ तक हो पायी ?
निर्मला पुतुल : ग्रेजुएशन तक.फिर उसके बाद से पढ़ाई-लिखाई आगे नहीं बढ़ पायी.चाह कर भी हम नहीं पढ़ पाये.पारिवारिक बोझ था,इसलिए पढ़ाई उस तरह से नहीं हो पायी.

संतोष अर्श : निर्मला जी शुरुआती रचना-प्रक्रिया कैसी रही ?क्या भाषा की समस्या सामने आई ?क्या संथाली भाषी होने से कोई अवरोध उत्पन्न हुआ ?
निर्मला पुतुल : भाषा की कोई समस्या सामने नहीं आई.लोग कहते हैं कि वो आदिवासी है.लेकिन हमारी पढ़ाई का माध्यम तो हिन्दी ही है.जो भी एबीसीडी,क ख ग घ वर्णमाला आपने पढ़ी,वही हमने भी पढ़ी.संथाली हमारे घर पारिवार-समुदाय की भाषा है.हमारी मातृभाषा है,वह भी हमारे पाठ्य-क्रम में थी,लेकिन इस कारण हिन्दी में लिखने में कोई अवरोध उत्पन्न नहीं हुआ.

संतोष अर्श : आपने लिखना प्रारम्भ संथाली में किया या सीधे हिन्दी में ?
निर्मला पुतुल : संथाली में ही बातों को लिखना शुरू किया.उसके बाद डायरी-लेखन वगैरह तो हिन्दी में ही किया.

संतोष अर्श : साहित्यिक दुनिया में आपको पहचान संथाली कविताओं के माध्यम से मिली या हिन्दी कविताओं से ?

निर्मला पुतुल : संथाली कविताओं के माध्यम से.अभी इसी पर चर्चा भी हो रही थी कि किस प्रकार यह अदला-बदली हुई.पहले आप संथाली में लिखती थीं,फिर हिन्दी में लिखने लगीं.अनुवाद और रूपान्तरण की इसमें विशेष भूमिका रही.यही बात है.हमारे जो अनुवादक हैं उन्हें संथाली आती थी और हमें हिन्दी और संथाली दोनों आती थीं.इसलिए रूपान्तरण का कार्य बहुत अच्छे ढंग से हो सका.रूपान्तरण का संपादन भी हम स्वयं कर सकते थे.

संतोष अर्श : अच्छा तो संथाली से शुरू हुआ सफ़र हिन्दी की ओर बढ़ता गया.क्या संथाली की भी पत्र-पत्रिकाएँ वहाँ निकलती थीं ?
निर्मला पुतुल : हाँ संथाली की भी पत्र-पत्रिकाएँ हुआ करती थीं.एक-दो आदिवासी पत्रिकाएँ भी थीं.वहाँ लोकल में तो नहीं थीं,किंतु कोलकाता से छप कर आती थीं.चूँकि बहुत भारी-भरकम भाषा का इस्तेमाल नहीं करना था,सीधी-सरल भाषा में लिखना था,इसलिए कोई समस्या आड़े नहीं आई.वैसे तो हम हिन्दी और संथाली दोनों ही में सक्षम हैं.

संतोष अर्श : आपने लेखन डायरी से शुरू किया फिर कविताओं की ओर बढ़ीं.उस समय आपके सामने क्या चुनौतियाँ थीं ?आप क्या सोचती थीं कि आप हिन्दी कविता की दुनिया में एक दिन इतनी प्रसिद्ध होंगी ?या केवल स्वयं को अभिव्यक्त करने के लिए यह यात्रा शुरू हुई थी ?
निर्मला पुतुल : हमने कभी साहित्यकार बनने के लिए रचनाएँ लिखी ही नहीं.हम केवल इतना चाहते थे कि हमारी चीज़ें सामने आएँ.हम स्वयं को कैसे अभिव्यक्त कर पाएँ.यही सोचकर हम लिखते थे.हम अपने को साहित्यकार मान कर कभी नहीं लिख पाए.बाद में जब पाठकों के मध्य हमारी रचनाएँ पहुँची तो वे पसंद की गईं.लोग कहने लगे कि यह तो अच्छी रचनाएँ हैं और आदिवासी समाज की बहुत सी बातें सामने आ रही हैं.हमारी रचनाओं को साहित्य का दर्ज़ा पाठकों से मिला तो हमने भी मान लिया कि यह हमारा साहित्य है.

संतोष अर्श : आपका पहला संग्रह भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हुआ था.हिन्दी की साहित्यिक दुनिया ने आपको कैसे ग्रहण किया ?
निर्मला पुतुल : हमारा पहला संग्रह ज्ञानपीठ से प्रकाशित ज़रूर हुआ लेकिन इसके ठीक बाद रमणिका फाउंडेशन ने भी मेरी रचनाएँ छापीं.क्योंकि वही पाण्डुलिपि दोनों के पास जाती है.पहले प्रभाकर श्रोत्रिय जी ज्ञानपीठ में थे उन्होंने ऑफर किया था कि आप अपनी पाण्डुलिपि भेजिये हम उसको देखेंगे और पुस्तक रूप में प्रकाशित भी करेंगे.

संतोष अर्श : यानी भारतीय ज्ञानपीठ ने आपको स्वयं अवसर दिया ?
निर्मला पुतुल : जी बिलकुल ! भारतीय ज्ञानपीठ और प्रभाकर श्रोत्रिय ने मुझे पहले-पहल अवसर दिया.पाण्डुलिपि देने के बाद भी उन्होंने पुस्तक तुरंत नहीं छापी.उसको ढाई-तीन साल तक अपने पास रखा,उसे गहराई से देखा-जाँचा-पढ़ा गया,तब जाकर उसे पुस्तक का रूप मिला.उसके पहले रमणिका फाउंडेशन ने हमसे पाण्डुलिपि ले ली थी और उसे बहुत दिनों तक अपने पास रखा.लेकिन जब प्रभाकर श्रोत्रिय ने छापने की घोषणा कर दी तब उन्होंने भी छापने की जल्दी की. (मुस्कराते हुए) रमणिका जी को लगा होगा कि अरे! हम तो पीछे हो रहे हैं.उन्होंने भी उसी समय हड़बड़-हड़बड़ में पुस्तक छाप दी.इसलिए दोनों संग्रह आगे-पीछे ही प्रकाशित हुए.रमणिका फाउंडेशन से छपे संग्रह की ख़ासियत ये है कि उसमें अधिक कविताएँ हैं.हिन्दी संथाली दोनों में हैं,जबकि ज्ञानपीठ से छपे 'नगाड़े की तरह बजते शब्द'में कवितायें कम और केवल हिन्दी में हैं.यही अंतर है.

संतोष अर्श : निर्मला जी भारत का बहुत बड़ा जनसमूह हाशिए पर है.इसमें आदिवासी समुदाय तो ख़ैर है ही.दलित समाज है,पिछड़ा वर्ग है,अल्पसंख्यक हैं.मैं स्त्री को लेकर प्रश्न करना चाहता हूँ,आदिवासी स्त्री को लेकर.कथित मुख्यधारा की स्त्री और आदिवासी स्त्री में आप क्या अंतर महसूस करती हैं ?
निर्मला पुतुल : देखिए चाहे वे मुख्यधारा की स्त्रियाँ हो या हाशिए की स्त्रियाँ ! स्त्रियाँ तो स्त्रियाँ हैं.चाहे वे आदिवासी समाज की स्त्री हो या अन्य समाज की.फ़र्क जो है वह इतना है कि आदिवासी समाज की स्त्री सड़क पर पिटाती (पीटी जाती) है और मुख्यधारा की स्त्री बेडरूम में पिटाती है,घर में पिटाती है.प्रताड़ित दोनों होती हैं.केवल भीतर और बाहर का अंतर है.

संतोष अर्श : कथित मुख्यधारा की जो स्त्री है,मेरा ज़ोर सवर्ण स्त्री पर है.उसमें और आदिवासी स्त्री में क्या अंतर है ?सवर्ण स्त्री के बरक्स आप आदिवासी स्त्री को किस प्रकार प्रस्तुत करेंगी ?
निर्मला पुतुल : उनका रहन-सहन तो अलग ही है,जो सवर्ण स्त्रियाँ हैं.और जो आदिवासी स्त्रियाँ हैं उनका अपना अलग रहन-सहन है.इस चीज़ को हम फर्क करते हैं. (हँसते हुए) और हम जानते हैं कि इनका तालमेल कभी उस तरह से (रहन-सहन के स्तर पर) नहीं हो सकता.चूँकि हम जानते हैं कि उसके पास अपना बंधन है.आदिवासी स्त्री के पास किसी तरह का बंधन नहीं है.वह स्वतंत्र है.स्वतंत्र किस रूप में है ?वह बाहर जा सकती है.स्वयं कमा-खा सकती है.कमाकर बच्चों को खिला सकती है.अपनी हड़िया-ताड़ी का जुगाड़ भी कर सकती है और अपने पुरुषों के लिए भी.तो इस मायने में बहुत फ़र्क है.आदिवासी स्त्री बहुत स्वतंत्र है.उसके पास फ़्रीडम है.सवर्ण स्त्री का हाल सवर्णों जैसा है.स्त्री को लेकर सवर्ण दृष्टिकोण बहुत भिन्न है आदिवासी समाज की तुलना में.तो सवर्ण स्त्री और आदिवासी स्त्री का कोई ताल-मेल नहीं है.और यह कभी हो भी नहीं सकता.क्योंकि सवर्ण नज़रिया बदल नहीं सकता.यह बदलने वाला नहीं है.

संतोष अर्श : यानी आप ये मानती हैं कि स्त्रियों में भी जाति-वर्ग भेद मौज़ूद है.स्त्रियों में जो सार्वभौमिक बहनापे की एक बात होती है वह भारतीय स्त्रियों में नहीं है.
निर्मला पुतुल : बिलकुल नहीं है !!

संतोष अर्श : मेरा प्रश्न स्त्री की सामाजिक-आर्थिक स्थिति को लेकर भी था.नई सदी में जब भारत की आर्थिक परिस्थितियाँ बदलीं तो उससे भारत की जिन थोड़ी सी स्त्रियों को आर्थिक मुक्ति मिली वे सवर्ण स्त्रियाँ थीं.लाभ के अवसर भी सवर्ण स्त्री को ही अधिक मिले.आप इसको किस प्रकार देखती हैं ?
निर्मला पुतुल : लाभ के अवसरों की दृष्टि से यदि आप देखिएगा,तो वह सवर्ण स्त्री को ही मिले हैं.प्रत्येक तरह से.और दलित-आदिवासी स्त्रियाँ चीखती-चिल्लाती रहीं.उन्हें कुछ नहीं मिला.इसका एक पहलू यह है कि स्त्री के पक्ष में आवाज़ भी दलित-आदिवासी स्त्रियाँ अधिक उठाती हैं,भले ही उनको कुछ न मिले.सवर्ण स्त्री तो सवर्ण स्त्री है.यहाँ भेद-भाव हो जाता है.दलित-आदिवासी स्त्री की हक़तलबी होती है जिसका लाभ सवर्ण स्त्री को मिलता है.

संतोष अर्श : आप स्वीकारती हैं कि भारत की स्त्रियों में भी जातिगत और वर्गीय विषमताएँ,भिन्नताएँ हैं ?
निर्मला पुतुल : बिलकुल हैं !!

संतोष अर्श : निर्मला जी मेरा अगला प्रश्न हिन्दी की साहित्यिक दुनिया के स्त्री-विमर्श को लेकर है.जो हिन्दी साहित्य का स्त्री-विमर्श है अथवा भारतीय समाजविज्ञान का जो स्त्री-विमर्श है,उसमें दलित-आदिवासी,या अन्य कामगार-मज़दूर स्त्रियों को कहाँ तक स्थान मिल पा रहा है ?क्या इस संपूर्ण विमर्श में हाशिये की स्त्रियों के लिए स्थान निर्मित हो पाया ?
निर्मला पुतुल : देखिए ! (कुछ सोचकर) स्त्री-विमर्श का बड़ा हिस्सा मुख्यधारा की स्त्री के लिए है.उसमें दलित-आदिवासी स्त्री को स्थान नहीं मिल पाता.और यह मुख्यधारा की हाशिए वाली बात भी मनगढ़ंत लगती है.हाशिया उन्होंने अपनी रक्षा के लिए बनाया है.आदिवासी स्त्री की वर्गीय और सामुदायिक स्थिति भिन्न है इसलिए मुख्यधारा के स्त्री विमर्श में उसके लिए स्थान नहीं निर्मित हो पाता.स्त्री की सामुदायिक स्थितियों में अंतर है.इसलिए सपाट स्त्री विमर्श में दलित-आदिवासी स्त्री की चर्चा नहीं हो पाती.आदिवासी स्त्री जहाँ पर है यदि वहीं उसका शैक्षिक सामाजिक विकास हो जाए तब वह हाशिए की स्त्री कहाँ रहेगी ?नहीं न रहेगी !!

संतोष अर्श : निर्मला जी अब मैं आपकी कविताओं पर लौटूँगा.आपकी कविताओं में स्त्री का श्रमिक रूप बड़े सौष्ठव के साथ चित्रित हुआ है.यह चित्रण वैश्विक नेटिव साहित्य जैसा और अमेरिकन रेड इंडियन लेखिकाओं के स्तर का है.स्त्री के श्रम को इस प्रखर सौंदर्यबोध के साथ देखने की दृष्टि आपको कैसे मिली जो 'बाहामुनी'की पत्तल बनाने वाली स्त्री और 'पहाड़ी स्त्री'जैसी कविताओं में दिखती है.
निर्मला पुतुल : देखिए आदिवासी स्त्री मुख्यधारा की स्त्री या सवर्ण स्त्री की तरह कोमलांगी,फ़ैशनपरस्त या सुंदरता की पोटली बनाकर नहीं रखी जाती है.वह मर्दों की तरह खटती है और कभी-कभी तो मर्दों से भी अधिक श्रम करती है.तब जाकर वह अपना दाना-पानी जुटा पाती है.बड़ी मुश्किल से उसकी रोज़ी-रोटी का जुगाड़ हो पाता है.आदिवासी स्त्री बहुत श्रम करती है.उसके सपने सवर्ण स्त्री जैसे नहीं होते.उसे केवल दो जून का खाना चाहिए.इतने में ही वह ख़ुशहाल रहती है.मुझे आदिवासी स्त्री का यह श्रमिक जीवन अपने परिवेश से मिला है और वहीं से इसे मैंने ग्रहण किया है.मेरा अपना जीवन भी ऐसा ही है.तो यह दृष्टि तो मुझे अपने परिवेश से मिली हुई है.इसके लिए कुछ विशेष प्रयत्न नहीं करने पड़ते.

संतोष अर्श : आपने कभी ऐसा महसूस किया कि आदिवासी स्त्री कथित मुख्यधारा की स्त्री की तुलना में अधिक मुक्त है ?
निर्मला पुतुल : हाँ !!आदिवासी स्त्री अपना निर्णय लेने में अधिक स्वच्छंद है.वह अपने डिसीज़न स्वयं ले सकती है यद्यपि पुरुष और घर-परिवार का दबाव उस पर कुछ कम नहीं होता.कभी-कभी वह भी इन परिस्थितियों में पराजित होती है.किंतु अन्य मामलों में वह मुख्यधारा की स्त्री से अधिक स्वतंत्र है.श्रम में उसे कोई पराजित नहीं कर सकता.पुरुष भी नहीं ! वह पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर श्रम करती है.

संतोष अर्श : कविता के लिए आपको प्रेरणा कहाँ से मिलती है ?हिन्दी कविता में आपने काफ़ी कवियों को पढ़ा भी होगा.लिखने के लिए पढ़ना भी पड़ता है.हिन्दी के कौन-कौन से कवि आपने पढ़े ?कौन-कौन से आपको अच्छे लगे ?किनसे आपको प्रेरणा मिली ?
निर्मला पुतुल : सबसे पहले तो मैंने तस्लीमा नसरीन की कविताएँ पढ़ी थीं.जो बांग्ला से हिन्दी में अनूदित थीं.वे कविताएँ मुझे बहुत अच्छी लगीं.उन्हें मैंने बहुत बारीक़ी से पढ़ा.एक-एक चीज़ को ध्यान से समझा.अमृता प्रीतम को पढ़ा.अनामिका जी की कविताएँ भी मुझे पसंद हैं,उन्हें भी पढ़ा.पूरी तरह से तो नहीं,लेकिन थोड़ा-थोड़ा ज़रूर पढ़ा.

संतोष अर्श : और पुरुष कवियों में किन-किन को पढ़ा ?
निर्मला पुतुल : पवन करण की कविताएँ हमें अच्छी लगती हैं.विशेष कर उनका 'स्त्री मेरे भीतर'संग्रह अच्छा लगा था.इसका शीर्षक ही बहुत अच्छा है.इधर नीलोत्पल और बोधिसत्व  की भी कुछ कविताएँ पढ़ीं थीं.पुरुष कवियों की भी थोड़ी-बहुत कविताएँ हम पढ़ लेते हैं.

संतोष अर्श : कवयित्रियों में अनामिका के अलावा और किसी का भी ज़िक्र करना चाहेंगी?जिन्हें आपने इधर पढ़ा हो और उनकी कविताएँ आपको पसंद आई हों.जो आपकी दृष्टि में अच्छा लिख रही हों. 
निर्मला पुतुल : सिर्फ़ एक परिधि में ही सीमित होकर नहीं कि हम केवल कविता पर ही बात करें.मैत्रेयी पुष्पाजी का लेखन भी मुझे पसंद है.उनको हम बेहद मानते हैं.उनकी रचनाओं में वह सब मिलता है जो आम जीवन में घटित होता है.उनके लेखन से हमारा जुड़ाव है और उन्हें पढ़ना हमें पसंद है.उनसे हम मिले भी हैं और उनके घर-परिवार से भी जुड़ाव है.उन्होंने वही लिखा जो उनके जीवन में घटित हुआ.प्रायः हमने देखा है कि कुछ लोग लिख लेते हैं तो उन्हें लगता है वे बहुत बड़े लेखक हैं या मठाधीश हैं.उनमें ऐसी कोई बात नहीं है.वे बेहद सरल हैं.

संतोष अर्श : निर्मला जी हिन्दी साहित्य की दुनिया एक प्रकार से ब्राह्मणवाद से आतंकित और पुरुषवाद से अतिक्रमित रही है.आपने महसूस किया होगा कि कुछ मठाधीश हैं,कुछ मठ-गढ़ हैं,कुछ हिन्दी माफ़िया और उनके गिरोह-गुर्गे हैं, पंडे-पाखंडी हैं.एक स्त्री,विशेषकर एक आदिवासी स्त्री होते हुए हिन्दी की साहित्यिक दुनिया के आपके अनुभव कैसे रहे ?हिन्दी साहित्यकारों से आपके संबंध कैसे रहे ? 
निर्मला पुतुल : हिन्दी साहित्य की दुनिया में कुछ विशेष अनुभव रहे हैं.फील भी हुआ है.जैसे कभी विष्णु खरेसे मिलना हुआ या कभी विश्वनाथ त्रिपाठीवगैरह से मिलना हुआ.जैसे मैं दिल्ली आई कविता पाठ के लिए तो विश्वनाथ त्रिपाठीने कहा कि अरे निर्मला पुतुल आई है ज़रा देखते हैं कि आदिवासी स्त्री कैसी होती है ?उन्होंने सोचा होगा कि आदिवासी स्त्री है तो फिर थोड़ा अलग ही होगी.तो हम कहाँ अलग हैं ?हमने उनसे कहा कि सर हम तो बिलकुल आम स्त्री की तरह ही हैं.उन्होंने कहा, ‘तुम आम स्त्री की तरह ही हो लेकिन तुम्हारी नाक थोड़ी सी चपटी है.तो इसी में उन्होंने आदिवासी आँक लिया.मान लिया हमारी नाक चपटी है लेकिन औरों की तो नहीं भी चपटी हो सकती है न ?तो इस तरह की बहुत सी प्रतिक्रियाएँ मिलीं.

मठाधीशपन तो वहाँ के साहित्यकारों के सिर पर सवार ही रहता है.बड़े-बड़े लेखक हैं वहाँ पर,जो अपने को मठाधीश समझते हैं.लेकिन दूसरी तरफ राजेंद्र यादवजी जैसे लेखक भी थे.जो देखने में तो मठाधीश लगते थे लेकिन थे बहुत अलग.उनसे मिलने के बाद हमें लगा कि वे बहुत सरल हैं.कम बोलते थे किन्तु व्यवहार में बहुत सरल थे.इसी तरह बहुत सारे कवि भी थे जो स्वयं को न जाने क्या समझते थे.यहाँ पर उनका नाम नहीं लेंगे लेकिन उन्हें चिह्नित कर रखा है.कविता की दुनिया में तो मठाधीश भरे हुए हैं.कुछ वैचारिक हैं,कुछ चुप्पा हैं,कुछ बहुत बोलते हैं.कई बार हमने वक्तव्यों में मंच से भी मठाधीश शब्द का इस्तेमाल किया है जो कुछ लोगों को चुभ गया और कुछ लोगों ने हँस कर उड़ा दिया यह सोचकर कि,अभी नई-नई आई है बोलने दो इसे.लेकिन यह सब तो है ही.और परिवर्तन भी होते ही रहना है न !!

संतोष अर्श : अभी आपने मरहूम राजेन्द्र यादव जी का नाम लिया.हिन्दी साहित्य में विमर्शों को खड़ा करने में राजेंद्र यादव का बहुत बड़ा योगदान है.लेखिकाओं में वे बेहद लोकप्रिय रहे.राजेन्द्र जी के विषय में आपके अनुभव कैसे रहे ?यदि आप उनके विषय में कोई टिप्पणी करना चाहें तो आप क्या कहना कहेंगी ?
निर्मला पुतुल : हम तो ये टिप्पणी करेंगे कि स्त्री विमर्श का स्तम्भ खड़ा करने वाला कोई है तो वे राजेन्द्र यादवजी हैं.उनका बहुत बड़ा नाम रहा है हिन्दी साहित्य की दुनिया में और वे इसी कारण बदनाम भी बहुत हुए.स्त्री कवियों,लेखिकाओं को आगे बढ़ाने में वे बदनाम हुए.उनका कई स्त्रियों के साथ नाम भी जुड़ा लेकिन यह बहुत बड़ा योगदान है उनका कि आज इतनी लेखिकाएँ हमारे सामने आईं.उन्होंने पत्रिकाओं के माध्यम से हिन्दी साहित्य में स्त्रियों के लिए एक स्थान बनाया और स्त्रियों को आगे बढ़ाया.सामान्य जीवन में तो वे बहुत अच्छे और सरल व्यक्तित्व थे, (मुस्कराते हुए) यद्यपि देखने में मठाधीश लगते थे,किन्तु वैसे थे नहीं.  

संतोष अर्श : आपकी कविताओं की अंतर्वस्तु पर अगर बात करें,तो विषय-वस्तु आप कहाँ से ग्रहण करती हैं ?आपके प्रतीक और बिम्ब कहाँ से आते हैं ?क्या निजी अनुभव भी उनमें शामिल होते हैं ?जैसे आपकी एक बहुत प्रसिद्ध और सुंदर कविता है, ‘उतनी दूर मत ब्याहना बाबाक्या वह निजी अनुभवों से प्रेरित है ?क्या अपनी ही शादी-ब्याह को लेकर ऐसे ख़यालात आए थे मन में ?  
निर्मला पुतुल : हमारी कविताओं को अगर आप उठाकर देखिएगा तो उसमें हमारे निजी और व्यक्तिगत जीवन के अनुभव ही अधिक मिलेंगे.जब हमने आदिवासी स्त्री के लिए क़लम उठाई तो अपने परिवेश को सर्वप्रथम अभिव्यक्त करने की कोशिश की.वह इसलिए कि जो एक आदिवासी स्त्री के आस-पास घट रहा है वह क्या है,लोग इसे जानें.ऐसा इसलिए भी कि हमारे समाज के अनुभव वहाँ तक पहुँच सकें जिसे मुख्यधारा कहा जाता है.अतः जीवन के यथार्थ को शेयर करने की ज़रूरत अधिक थी.आदिवासी समाज क्या है,आदिवासी स्त्री क्या है,उसके यहाँ क्या घटित हो रहा है इसे बताने के लिए व्यक्तिगत जीवन के अनुभवों को कविता में लाना आवश्यक था.आदिवासी स्त्री किस तरह से अपने परिवेश की पुरुष सत्ता और राजसत्ता से एक साथ संघर्ष कर रही है इसको भी सामने लाने का प्रयास किया.कुल मिलाकर ये व्यक्तिगत और सामाजिक अनुभव दोनों ही हैं,जो हमारी कविता में आए हैं.

संतोष अर्श : यानी उतनी दूर मत ब्याहना बाबामें निर्मला पुतुल स्वयं ही अपने बाबा से यह कह रही हैं ?
निर्मला पुतुल : जी बिलकुल ! वो अपनी ही बात को अपनी ही कविता में अभिव्यक्त कर रही है. 

संतोष अर्श : हिन्दी साहित्य में विचारधारा का बहुत ज़ोर रहता है.यदि आपसे आपकी विचारधारा पूछिए जाए तो आप क्या कहेंगी ?आपकी वैचारिकी क्या है ?
निर्मला पुतुल : हमारी विचारधारा यह है कि लेखक का उसका अपना समय उसके लिए बहुत महत्वपूर्ण होता है.अपने समय को चिह्नित कर उसे साहित्य में अभिव्यक्त कर पाना लेखक के लिए ज़रूरी है.तो अभी जो चीज़ें सामने आ रही हैं,वे मेरे विचार-चिंतन में स्थान पाती हैं.विचार और निजी अनुभवों में ताल-मेल भी ज़रूरी है.बहुत से लेखक होते हैं जो बंद एसी कमरों में काल्पनिकता से ही सबकुछ तय कर लेते हैं,और उस कल्पनालोक से ही गाँव-जंगल का सब कुछ उठा लाते आते हैं.तो उनमें उस तरह की वास्तविकता नहीं आ पाती,जबकि विचारधारा तो उनके पास भी होती है.हमने ग्लोबलाइज़ेशन से हुए परिवर्तनों को महसूस किया और उन्हें अपने निजी अनुभवों के साथ मिलाकर देखा,तो इसका हमारे विचारों पर प्रभाव है.थोड़ा सा भटकाव भी होता है कभी-कभी.

संतोष अर्श : आदिवासी आंदोलनों का बहुत बड़ा भाग मार्क्सवादियों से प्रभावित रहा है.इसे आप किस तरह देखती हैं ?क्या आज भी आदिवासी साहित्य मार्क्सवाद से प्रभावित है ?
निर्मला पुतुल : पूरी तरह से तो नहीं ! लेकिन आज भी आदिवासी साहित्य का कुछ हिस्सा मार्क्सवाद से प्रभावित है.

संतोष अर्श : कविता में आप स्वयं को पूरी तरह से अभिव्यक्त कर पा रही हैं या आगे गद्य लेखन की भी कोई योजना है ?
निर्मला पुतुल : अभी तक जितना लेखन हम कर पाएँ हैं,उसमें तो नहीं लगता है कि अपने को पूरी तरह से अभिव्यक्त कर पाये हैं इसलिए आगे हम गद्य लेखन के लिए क़लम उठाना चाह रहे हैं और उसकी योजना बनाएँगे.

संतोष अर्श : आपकी कविताओं में एक विशेष बात और है.हिन्दी की पारंपरिक कवयित्रियों की तरह उसमें कोमलकान्त पदावली नहीं है.अधिकतर देखा जाता रहा है कि उनकी भाषा पर छायावादी प्रभाव है और शब्द-चयन सतर्कतापूर्ण है.यहाँ तक कि यह प्रभाव इस समय की भी कवयित्रियों में देखा जा सकता है.आप की कविताओं की भाषा हार्डकोर है.आपकी कविताओं की शब्द-समृद्धि की प्रशंसा होती रही है.यह बात कहाँ से आती है ?ऐसी भाषा आपको कैसे मिलती है ?
निर्मला पुतुल : हमारी भाषा तो बहुत सीधी-सरल है.उसमें किसी तरह की क्लिष्टता या कृत्रिमता आप नहीं पाएंगे.तो वह हार्ड तो हो ही नहीं सकती.दूसरी कविताओं से मेरी भाषा का मिलान करेंगे तो आप उसे बहुत सरल पाएंगे.हमारी हार्ड शब्दावली नहीं है.हाँ हमारा प्रेजेंटेशन थोड़ा अलग हो सकता है,क्योंकि उसमें भावावेग होते हैं.

संतोष अर्श : नहीं,नहीं !! मेरा कहना यह था कि छायावादी टाइप की सूफियाना या रहस्यमयी भाषा आपकी नहीं है,जिसमें प्रेम-अश्रु-अनंत-रागप्रभृति शब्दावली होती है.शब्द-चित्रों और पूँजीवादी रूपवाद का अतिरेक होता है.मैं उस तरह के प्रभावों से मुक्त होने के बारे में जानना चाहता था.    
निर्मला पुतुल : प्रेम कविताओं को लेकर भी यदि आप देखना चाहेंगे तो हमारी प्रेम कवितायें,प्रेम कविताओं जैसी नहीं लगतीं.जैसे कि स्पष्ट पहचाना जा सके कि यह प्रेम-कविता है.तो उस तरह से उसमें नहीं है जैसा कि अन्य कवि लिखते हैं. 
 
संतोष अर्श : यानी आदिवासी स्त्री का जीवन ही वैसा कोमल नहीं है कि उसमें कोमलकान्त पदावली आ सके?
निर्मला पुतुल : भाषा तो जीवन से गहरे जुड़ी होती है न ! आदिवासी स्त्री का संघर्षों भरा जीवन कोमल नहीं,कठोर है.तो उसमें कोमलकान्त पदावली कहाँ से आएगी ?आदिवासी ग़म भुलाने के लिए जो नाच-गाना करता है उसमें भले ही थोड़ी सी कोमलता आ जाये,बाक़ी जीवन तो उसका कठोर है.तो ये बातें हैं.

संतोष अर्श : आदिवासी के मुक्ति के सवाल पर आप क्या कहेंगी?आदिवासियों की मुक्ति कैसे हो सकती है?
निर्मला पुतुल : आदिवासी यदि मुक्ति चाहेंगे तो उनकी मुक्ति ज़रूर होगी.यदि नहीं चाहेंगे तो मुक्ति कैसे होगी ?जब तक वे अपने से नहीं आगे आएंगे तब तक मुक्ति संभव नहीं.मुक्ति चाहने से मुक्ति होगी,आदिवासी स्वयं को स्वयं ही मुक्त करेगा.

संतोष अर्श : कविता-लेखन के साथ-साथ क्या आप जनांदोलनों से भी जुड़ी रही हैं?
निर्मला पुतुल : गाँव स्तर पर जो छोटे-छोटे आंदोलन होते हैं,उनसे जुड़ जाते हैं.लेकिन हम  निरंतरता के साथ जनांदोलन कर रहे हों,ऐसी कोई बात नहीं है.जहाँ जब लगा कि उस आंदोलन से हमें जुड़ जाना चाहिए तो जुड़ जाते हैं,किन्तु यह परमानेंट नहीं है.

संतोष अर्श : निर्मला जी आपसे बहुत अच्छी बातचीत हुई.अंत में बस यह पूछना चाहता हूँ कि अपने पाठक/पाठिकाओं से क्या कहेंगी ?उनके लिए क्या संदेश है ?

निर्मला पुतुल : स्त्री-पाठकों से यही कहना चाहेंगे कि वे चकाचौंध और दुष्प्रचार से बचें.जो बातें स्त्री को हीन बनाती हों,उसके अधिकारों और आज़ादी के विरुद्ध हों- उनका विरोध ज़रूर करें.  स्त्री-जीवन से गहरे जुड़ें और उसे अनुभव करने की कोशिश करें.वे जिन चीजों से जुड़ना चाहती हैं उनसे ज़रूर जुड़ें और स्वयं को साबित करने का कोई भी मौका न खोएँ.वे अपनी मुक्ति के बारे में सोचती रहें.
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संतोष अर्श (1987बाराबंकीउत्तर- प्रदेश)
ग़ज़लों के तीन संग्रह फ़ासले से आगे, ‘क्या पता और अभी है आग सीने में प्रकाशित.
अवध के ऐतिहासिकसांस्कृतिक लेखन में भी रुचि
लोकसंघर्ष त्रैमासिक में लगातार राजनीतिकसामाजिक न्याय के मसलों पर लेखन.
2013 के लखनऊ लिट्रेचर कार्निवाल में बतौर युवा लेखक आमंत्रित.
फ़िलवक़्त गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय के हिन्दी भाषा एवं साहित्य केंद्र में शोधार्थी 
poetarshbbk@gmail.com 

कथा - गाथा : मन्नत टेलर्स : प्रज्ञा

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प्रज्ञा






साहित्य का मूल कार्य यह है कि वह तमाम अच्छे–बुरे बदलावों के बीच और उनके तीक्ष्ण–तिक्त प्रभावों के मध्य आम आदमी के पास  आता-जाता रहता है. उन्हें देखता, परखता, महसूस करता और लिखता रहता है. उनके साथ खड़ा रहता है. जिसे इतिहास बिसरा देता है उसे साहित्य अमर कर देता है.

इस  कथित आर्थिक उदारीकरण के अनुदार दौर में सबसे अधिक प्रभावित अगर कोई हुआ है तो वे कारीगर हैं जो अपने हुनर से अपनी  जीविका सम्मानजनक ढंग से चलाते रहे थे. उनमें से एक वर्ग टेलर मास्टर का है. रेडीमेट कपड़ों की सजावट ने उनकी खुद की सिलाई उधेड़ दी है.  आप अंतिम बार कब किसी टेलर के पास गए थे ? याद कीजिए .   

भूमंडलोत्तर कहानी क्रम में इस बार युवा कथाकार प्रज्ञा की कहानी मन्नत टेलर्सपर कथा आलोचक राकेश बिहारी का यह आलेख आप सबके लिए. राकेश बिहारी ने कथा की गहरी पड़ताल की है,हो रहे बदलावों के बीच ऐसी और भी कहनियाँ लिखी गयीं हैं. उनसे भी तुलना का एक उपक्रम यहाँ है.  




मन्नत टेलर्स                                  

प्रज्ञा




''यार! शिखा कहां हो? ये किस साइज़  कीशर्ट ले आई हो? सोचा था आज के खास प्रोग्राम में इसे पहनूंगा पर... अरे! अबक्या करुं?''सवाल की शक्ल में समीर की सारी झुंझलाहट शिखा के कानों केरास्ते रीढ़ की हड्डी के ऐन नीचे पहुंचकर थर्राहट पैदा करने लगी. उसे लगाअचानक शरीर के पोर-पोर में यह दर्द उठता रहा था और हर बार न वजह पुरानीपड़ती थी न ही तकलीफ. उसे हमेशा लगता ये आखिरी बार है पर नहीं.

इस दर्द कोशिखा से लगाव-सा हो गया था. समीर के रास्ते चला आने वाला यह मर्ज था उसकेलिए खरीदे गए रेडिमेड  कपड़े. परिवार के अन्य लोगों के लिए यहां कपड़ेखरीदना एक शौक या नशे से कम नहीं था वहां शिखा और समीर के लिए यहबवाल-ए-जान था. समीर की नुक्ताचीनीं से दुकानदारों के सब्र का बांध चकनाचूरहो जाता और उनकी बद्तमीजी का ज्वार सारे पाट तोड़कर मनचाही दिशा में भागनेलगता. उस ज्वार को भी समीर लगातार चुनौती देता. इसीलिए एक दुकान में उठाये ज्वार आगे के तमाम रास्ते बंद कर देता. कभी रंग, कभी कपड़े, कभी सिलाई, कभी मार्जिन को लेकर अच्छी-खासी झिकझिक से आजिज आ गई शिखा अब खुद ही यहजोखिम उठाने लगी थी. शर्ट खरीदने की राह तो शिखा की मेहनत से कुछ आसान होगई थी पर ट्राउज़ र्स का झंझट अजब बन चुका था. समीर को कोई न कोई नुक्सदिखाई दे ही जाता.

समझौता इस बात पर हुआ कि जींस खरीदकर ही काम चलाया जाए.थोड़ी ढीली या टाइट होने पर भी जींस कई ऐब छिपा लेती है ठीक कुर्ते पायजामेकी तरह. यहां तक कि शादी-ब्याह में भी समीर जींस ही पहनता. यों शहर मेंदर्जी भी थे पर दर्जियों के मानदंड समीर के लिए जरा ऊंचे थे. अच्छे दर्जीकी खोज, समय की कमी और कोफ्त का बढ़ता चला जाता ग्राफ-सबने धीरे-धीरे उसेरेडिमेड कपड़ों की ओर धकेल दिया. आज तक का रिकार्ड था कि वह कभी अपने लिएलाए गए कपड़ों से खुश न हुआ और जबसे शिखा ने जोखिम उठाना शुरु किया तबसेउसके हिस्से में दर्द के अतिरिक्त कुछ नहीं आया.

''
मैंनेकहा था ट्राई कर लो. कहीं कुछ गड़बड़ न हो, पर कोई सुने तब न?''जिस दिनशर्ट आई समीर को आसमानी रंग और सेल्फ में हल्की सफेद लकीरों का डिज़ाइन भागया. ऐसा भाया कि पैकिंग खोलकर वो कोई रिस्क नहीं लेना चाहता था मानोअंदेशा हो कि खोलते ही कोई धमाका होकर रहेगा. उस वक्त समीर ने शिखा की बातपर कोई ध्यान दिया ही कहां था. शर्ट पर बयालीस साइज़  देखकर ट्राई करने केझंझट से मुक्ति पा ली थी. वैसे उसकी देह में पेट का घेरा चालीस से अधिक औरबयालीस से कुछ कम साईज की शर्ट में राहत महसूस करता था पर आज शर्ट कीपड़ताल करते हुए उसने पाया बयालीस साइज़  के नीचे छोटे अक्षरों में लिखा था -स्लिम फिट.

अब शिखा पर भड़कने का कारण और पुख्ता हो गया.

''
उससमय नहीं देख सकती थीं तुम?''शिखा भी चुप न रहीं - ''रेगुलर फिट अब नहींचलता, ट्रेंड बदल रहा है... खुद ही ले आया करो तुम.''अपने ऊपर आफत आती देखगुस्से को विस्तार और विकराल रूप देते हुए वह शिखा की बजाय शर्टविक्रेताओं और निर्माण कंपनियों की खाल खींचने लगा- ''हर रोज़  नया फैशनबाज़ार में उतारने का पैंतरा है ये - स्लिम फिट. अरे! फिट ही होते तो अड़तीसपहनते न? अच्छी शोशेबाज़ी है... चालीस के आस-पास यहां कितने परसेंट आदमीहैं स्लिम फिट को पहनने वाले? इस भागदौड़ की जिंदगी में टी.वी. चैनल्स औरफिल्मों में ही सब फिट दिखते हैं और मैं उनमें नहीं हूं जो ये मान लें किशरीर कुछ नहीं कपड़ा ही सब कुछ है. शरीर के लिए कपड़ा है न कि कपड़े के लिएशरीर.''

शर्ट कंपनियों की खालका कुछ नहीं बिगड़ना था उसे तो हर दिन नया धमाका करके सेल को बढ़ाना था.उन्हें क्या परवाह कि कोई समीर उनसे इक कदर खफा है. वैसे भी हज़ारों तरह केब्रेंड उतरे हुए हैं बाज़ार में उनमें भी देसी कंपनियों पर विदेशी भारी.फास्ट लाइफ ने बाज़ार के पुराने चलन 'इंतज़ार'को कबका तोड़मरोड़ कर फेंकदिया था. अब कौन जाएं सिलवाने? ग्राहक की बेसब्री ने जहां अपनी आंखों परखुद ही पट्टी बांध ली वहीं कंटम्प्रेरी डिज़ाइन ने उनकी आंखें चुंधिया दींफिर ठप्पा ज़रा विदेशी वजन का हो तो गलती कंपनियों की कैसे हो सकती हैं? उसपर पुराने बाज़ार का एक और चलन कबका खत्म हुआ जहां दुकानदार ग्राहक को भगवानमानता था. ग्राहक के अधिकार और दुकानदार के कत्र्तव्य के छोर को थामे थीस्नेह और विश्वास की डोर.  पर नये की चकाचौंध में पुराने के लिए कोई जगहनहीं थी. नए बनते बाज़ार ने सबसे पहले पुराने उसूलों को उखाड़ फेंका औरकूड़े के ढेर के सुपुर्द किया. रही-सही कसर ऑनलाइन शॉपिंग ने पूरी कर दी.ग्राहक का रुतबा तो खत्म हो ही चला था अब उसकी शक्लोसूरत भी मिटा दी गई.दृश्य अब अदृश्य हो गया.

न मालिक, न सेल्समेन, न मोल-भाव बस एक क्लिक औरदुनिया भर का बाज़ार आपके घर. ऊपर से लगे कि ग्राहकों की सुविधा के मद्देनज़र सब किया जा रहा है पर उसकी आड़ में खरीदारी के लिए ज़ माने को बेसब्रबनाया जा रहा था. खरीददारी की खुजली के तुरंत समाधान के लिए दिन-रात केकिसी भी लम्हे में बस एक क्लिक. फैशन की अंधी दौड़ ने कपड़ों का अंबार लगादिया था घरों में. किसी समय घर भर के कपड़ों के लिए एक अलमारी हुआ करती थी.आज एक आदमी को एक अलमारी कम पड़ती है. इसका एक ही उपाय है अलमारी में जगहबनाने के लिए पुराने को जल्द फेंको और नए को उसमें भरो. मर्ज़ी और ज़रुरतदोनों के मायने बदल गए.

फिर दर्जियों को आसमान छूती सिलाई से मंहगाई केहर्फ को जोड़ने वालों को पता भी न चला कि दो कमीज़ों के कपड़े और सिलाई कीलागत में वे एक कमीज़  खरीदकर आसानी से ठगे जा रहे हैं. सभी बेपरवाह बाय वनगेट फोर के शोर में झूम रहे हैं. सेल का बोर्ड दिखा नहीं कि बांछे खिल जातीहैं जबकि किसी समय दिवालिया होने पर दुकानदार सेल का बोर्ड लगाकर धंधे मेंलगाई अपनी मूल पूंजी बचा लेता था पर आज क्या सब दिवालिया हो गए हैं?

समीरके परिवार के लोग खासतौर पर उसकी मां कहती थी - ''तू सभी आदतों मेंबिल्कुल अपने पापा की तरह है. शक्ल तो मिलती ही है सीरत भी उन्हीं पर.उसमें भी सारे गुण एक तरफ और कपड़ों के मामले में तू भी उन्हीं की तरहमीन-मेख निकालने वाला निकला. अंतर केवल यही है वो अडिय़ल किस्म के खब्ती थेतू उनसे थोड़ा कम है. नए ज़ माने के साथ चलना उन्हें कभी रास न आया.''समीरअच्छी तरह जानता था पापा की आदतों को. जब तक जिए, कपड़ों को लेकर बेहदसंजीदा रहे. अच्छे से अच्छे कपड़े सिलवाते पर नए चलन के फैशन पर जान नदेते. जो उन्हें भाया उनके लिए जीवन भर वही फैशन रहा. सस्ता और टिकाऊ-कपड़े के बारे में उनके यही दो पैमाने थे. कपड़ा खरीदते समय दोनों हाथों सेवह कपड़े को खींचकर देखते फिर ढीला छोड़ते और फिर खींचते.

कपड़ा फट-फट कीआवाज़  करता. यह आवाज़  जितनी ज़ोरदार होती पापा की मुस्कान उसी अनुपात मेंचेहरे पर फैलती जाती. कपड़े की मज़बूती जांचने का यह उनका अपना ही तरीकाथा. इसके बाद भी वह दुकानदार के कैंची छूने से पहले उसे पर्दे की तरह कपड़ाअपने हाथों की रॉड पर टांगने का आदेश देते ताकि किसी भी कमी को उनकी आंखपरख सकें. मजाल है इस सबके चलते कपड़े में कोई मामूली सांट भी उनसे छिपीनहीं रहती. रही बात कपड़े सिलवाने की तो सही साइज़, अच्छा-खासा मार्जिन औरमज़ बूत सिलाई ही उनकी शर्तें रहतीं. बरसों बाद जब कपड़ा फटता तो उसके भीतरकी सिलाई लोगों को दिखाते - ''देख लो! कपड़ा फट गया पर सिलाई नहीं उधड़ी.''ऐसा करके उन्हें न जाने कौन सी रुहानी खुशी मिला करती थी.

पापाकी मीठी- सी याद के बावजूद सुबह की इस घटना ने समीर का सारा मूड खराब करदिया. साथ ही शिखा के शर्ट को न बदलवाने के बारे में कहे मुंहफट शब्दों नेउसे और भी अधिक परेशानी में डाल दिया. आने वाली छुट्टी का पूरा दिन उसेशर्ट के झंझट में बर्बाद दिखाई देने लगा. शिखा की जान तो बच गई पर हुआ वहीजिसका समीर को अंदेशा था.
''
कोई ढंग का डिज़ाइन दिखाओ न?''

''
सभीढंग के हैं पर आपकी पसंद मेरी समझ से बाहर है सर.''काउंटर पर लगे डिब्बोंके ढेर, छुट्टी के दिन कस्टमर्स की आमदरफ्त और सामने से घूरते बॉस की नज़रों ने सेल्समेन का सारा धैर्य खत्म कर दिया था. माल बिकवाने की सारी कवायदउसने पहले ही कर डाली थी फिर अब शर्ट बदले न बदले उसकी बला से. नए किस्मके आक्रामक बाज़ार की क्रूरताओं का वह भी एक पुर्जा बन चुका था. उसके चेहरेपर उभरती कठोर रेखाएं समीर को बर्दाश्त न कर पाने के ठोस संकेत दे रही थींबावजूद इसके समीर पूरे साहस के साथ टिका रहा.

''
एकतो गलत चीज़  देते हो और बदले में कुछ अच्छा नहीं दिखाते. इतने बड़े ब्रैंडकिस काम के?''समीर को अपने समय और शर्ट के दो हज़ार रुपए का नुकसान बुरीतरह खटक रहा था. झगड़े और झंझट से बचने के लिए उसने मॉल के दूसरे काउंटर सेबिना किसी योजना के एक चादर खरीद ली. बाहर निकलकर उसने देखा कांक्रीट केदूर फैले इस रेगिस्तान में मॉल्स के अनगिन धोरे उठ खड़े हुए हैं. जहां देखोवहीं भव्य इमारतें. भव्य इमारतों में बढ़ते ग्राहक. ग्राहकों की भारीजेबों पर दुकानों की ललचाई नज़ र पर ग्राहक का सुख? वो रेगिस्तान में दफ्नहै या बिखरा पड़ा है चिंदी-चिंदी होकर कदमों के नीचे और हवा में उड़ रहीहैं देशी जेबें और चिंदी बराबर टैग पर सवार, उड़ते हुए सीमा पार पहुंच रहीहैं  भारी भरकम जेबें. समीर मॉल से बाहर आया और उसने स्कूटर स्टार्ट कियापर उसकी निगाह सड़क पर और मन कहीं और था.

अचानकसमीर को याद आया पुरानी बस्ती का अपना वह बाज़ार जो घर से कुछ ही दूर था.पर बचपन में वह ज़ रा सी दूरी मीलों की दूरी जान पड़ती थी. नन्हें कदम बाज़ारकी उस दूरी को तय करने में ही थकान से भर उठते थे. बाज़ार मतलब ज़ रूरत कीपंद्रह-बीस दुकानें जो घरों के नीचे सुविधा से खोल ली गईं थीं. हर मोहल्लेका छोटा-सा बाज़ार. जहां हर घर के बच्चे तक को दुकानदार जानता था और उधारीखाते खूब चला करते थे.

दुकानें जिनमें से कई आकार में आड़ी टेढ़ी थीं जैसेकपड़ें में कोई कान निकल आया हो, जैसे घर की अतिरिक्त जगह को दुकान के लिएनिकाल लिया गया हो. न आज सी कोई तड़क-भड़क, न तेज़  रौशनी और दुकानदार भीकैसे- मामूली के कपड़ों को ढीली-ढाली मुद्रा में एकदम निश्चित से. कोईदुकान में तख्त डाले अधलेटा-सा तो कोई बाहर ही अन्य दुकानदारों संग कुर्सीडाले गपिया रहा होता. गप्पों में आकंठ डूबा वह ग्राहक को हाथ के इशारे सेसमझा देता कि वो खुद ही सामान ले ले और पैसे गल्ले में डाल दे. और कोई-कोईतो ऐसा कि दुकान से घंटों के लिए नदारत.

दुकान अकेली छोड़ अंदर सोने ही चलागया है या कहीं किसी काम से बाहर. वो आज शहर के दुकानदारों से नहीं थे.उन्हें मालूम था छोटे-से मुहल्ले में चंद दुकानें हैं, माल बिकना ही है औरजब सब इतने परिचित हैं तो काहे का सजना-संवरना? पर उन्हें कहां मालूम था ज़माना करवट बदलेगा और मोहल्ले में दुकानें नहीं दुकानें ही मोहल्ला होजाएंगीं. दुकान से खुद को जबरदस्ती का खरीददार बनाकर, लुटा हुआ महसूस करतेही समीर को बचपन की बातें एक-एक करके याद आने लगीं. उसे लग रहा था ये यादेंआज मिले ताज़ा ज़ख्म पर फाये का काम करेंगी इसलिए उसने खुद को यादों की गलीमें सुपुर्द कर दिया.

उन्हींगलियों में जो चेहरा नमूदार हुआ वह चेहरा था रशीद भाई का. वे मोहल्ले मेंही कहीं रहते थे. गिनती के कुल चार ब्लॉक थे मोहल्ले में पर बचपन में मुझेवह किसी शहर जितना बड़ा ही लगता था. शहर के एक पुराने बाज़ार में मन्नतटेलर्स के नाम से मशहूर उनकी दुकान पर अक्सर आना जाना होता था पिताजी केसाथ मेरा. उम्र मेरी अधिक नहीं तो कम भी नहीं थी. समझता सब था औरमम्मी-पापा के खास खरीददारी के चक्कर में बाज़ ार के चप्पे-चप्पे से वाकिफहो गया था. वहां पूनम टेलर्स और आशियाना टेलर्स के होते हुए भी मन्नतटेलर्स की बात निराली थी. जैंट्स कपड़े सिए जाने की अव्वल नम्बर की दुकानथी मन्नत टेलर्स. पिताजी के लिए वो किसी मन्नत से यों बी कम नहीं थी. दुकानकी चौखट पर आकर कपड़ों की सिलाई को लेकर उनकी तमाम शिकायतें खत्म हो गईंथीं और दुकान के अंदर बिखरा था रशीद भाई के व्यवहार का नूर. मुझे उनकीदुकान में आती कपड़ों की खुशबू बहुत पसंद थी.

बाज़ार में मन्नत के दिनों-दिननिखरते हुस्न से घबराकर पूनम टेलर ने जैंट्स के साथ लेडीज़  और बच्चों केकपड़े भी सीना शुरू कर दिया था और आशियाना टेलर्स का फिरोज़  तो पूरीमार्किट स्ट्रैटिजी बनाकर लेडीज़  टेलर के रुप में ही बाज़ार में उतरा था.मम्मी उसके अलावा कहीं और न जाती थीं. लच्छेदार बातों की खाता था और काममें परफैक्ट था. पतले-लंबे जिस्म से निकलती उसकी मोटी-सी आवाज़ , रंग-बिरंगीशर्ट के कुछ खुले बटन और बालों पर हर समय अटका धूप का चश्मा उसके स्टाइलकी मिसाल बना इतराता. उस समय में भी बाज़ार होड़ के नियम पर चलते थे. परहोड़ लाभ-फायदे कमाने संग बेहतर काम करने की भी थी, भरोसे और गारंटी कोसुनिश्चित किए जाने की भी थी.

पापा बताते थे- ''कोई कुछ भी करे रशीद भाईबेपरवाह हैं. उनके ग्राहक को तोड़ना नामुमकिन है.''रशीद भाई कारीगर आदमीथे. हाथ किसी कपड़े को छू भर ले एक जादू-सा हो जाता. कुर्ते-पायजामे में वोसलीका उतार देते कि आदमी की चाल ही बदल जाती और साधारण से कपड़े को नयेचलन की बढिय़ा पेंट-शर्ट में बदल देते. कोट-पेंट तो कोई क्या खाकर उनकेजैसा सिल पाता. एक नहीं हज़ार जनम भी ले कोई तो रशीद भाई का हुनर कॉपी न करसके. किसी को छोटे पायंचे की पेंट पसंद है तो किसी को बेलबॉटम. किसी को हवामें झूलते बड़े-बड़े कॉलर की कमीज़  चाहिए तो किसी को गर्दन से चिपटा बंदगला. किसी को एकदम चुस्त कपड़ा चाहिए तो किसी को ढीला-ढाला-रशीद भाई सारीसेवाओं के लिए हाजिर. उनके हाथ का सिला कपड़ा ग्राहक के शरीर से लगता तोसंतोष और खुशी के मिलेजुले रंग माहौल में घुल-से जाते.

उस समय आज की तरहबच्चे, जवान और बूढ़े आदमी के लिए एक-सा फैशन नहीं था. पहनने वाले की पसंदपहले हुआ करती थी न कि किसी कंपनी की जबरन थोपी गई पसंद को अपनाने कीमजबूरी. रसीद भाई की छोटी-सी दुकान में दीवार से लगी अलमारियों के कांच केपल्लों के भीतर अमिताभ बच्चन, धर्मेन्द्र आदि की दिलकश पोशाकों वाली तस्वीरपर बस रसीद भाई के हाथ रखने की देर थी और ग्राहक के स्वीकृति में सिरहिलाने की हरकत, चमत्कार अलमारी से निकलकर नौजवानों के बदन पर फब जाता.जिसको जैसा रुचता. रशीद भाई ने 'खाओ मनभाता पहनो जगभाता'वाली कहावत को बदलदिया था, उनके शब्द थे - 'खाओ भी मनभाता, पहनो भी भनभाता.'बस इन्हींशब्दों पर पापा का मन उनसे और मिल गया था.

जगभाते को पापा उतनी तवज्जोंदेते जिसमें जगहंसाई न हो. पापा के हरेक शब्द पर मेरे कान रहते थे और उनअनेक शब्दों में रशीद भाई के मामले में दोहराए-तिहराए गए शब्द मेरे दिमागमें डेरा बना चुके थे. हर दोहराव-तिहराव में वही प्रशंसा और हुनरमंदी कीतारीफ. वरना उस बाज़ार में यू.पी. के दूर-दराज इलाके से आए कितने ही रशीदघूम रहे थे.

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आज शाम तैयार रहना समीर. रशीद के यहां जाना है कपड़े डालने.''

उसदिन पापा के कहे शब्द मन में कितना उत्साह भर गए थे. बात उस समय की है जबबाज़ार जाना और नए कपड़े सिलवाना किसी नवाबी शान से कम न था. पर मम्मी नेकपड़ा तो दिखाया नहीं? ''मम्मी! वो कपड़े तो दिखाना जो आज शाम मेरे लिएडलवाने हैं. कब गईं बाज़ार, कब लाई कपड़ा?''ज़माना किफायत का था जिसे आज कीभाषा में कंजूसी नहीं समझा जाता था और मेरा घर ज़ माने की किफायत केनक्शेकदम पर था. ''तेरे भइया की एक और पापा की दो पैंटें निकाली हैं.सिलवाने डाल आ.''मेरे सवाल का जवाब मिल गया था और मैं खेल में मगन हो गया.शाम को पापा के साथ जाते हुए मैंने तीनों पैंटों पर गौर किया. पिताजी कीपैंटों से मेरी पैंट निकल जाने में मुझे संदेह न था पर भाई की पैंट? खुले-खुले पांयचे की नीचे से घिस गई पेंट से कैसे बनेगी मेरी पैंट? मैंबड़ा हो रहा था कोई बच्चा नहीं था अब. पर किससे बांटता अपनी चिंता को?

मुझेयाद है उस दिन बाज़ार में पहुंचकर मेरी चिंता उन गलियों में कुछ देर को नजाने कहां गायब हो गयी. कितने दृश्यों से भरा था वो संसार. हमेशा की तरहमैं उसमें खो जाने को बेताब था. कितने तरह के काम एक साथ चल रहे थे. रशीदभाई की दुकान जिस गली में थी क्या रौनक थी उसकी. सड़क से कुछ पहले कीदुकानें भी देखने लायक थीं. कितनी तरह की कढ़ाई के काम वहां चलते थे. सड़ककी शुरुआत से ही दोनों तरफ कहीं हाथ की कढ़ाई का भारी काम, कहीं गोटा, कांचऔर सलमा-सितारे का काम, कहीं काज-बटन का काम,कहीं मकैश की कढ़ाई और ज़ रीका बारीक काम. मैं बहुत देर तक उन कामों को देखता रहता. गली में घुसने परइन कामों का हुस्न जगमगाने लगता.

कोई पक्का कारीगर सुई में सितारे पिरोकरआकाश सजा रहा होता तो कोई कपड़े पर उभरी लकीरों की बेल बनाता हुआ पूराबागीचा उस पर उतार देता. ये काम मुझे बहुत भाता. गली के शोर की धुन परकारीगर के हाथ धीरे-धीरे अपनी मंज़िल तक पहुंचने को उठते. मेरी नज़र कभीभरवां कढ़ाई पर जाती तो कभी पैडल मशीन पर मैं दर्जियों के पैरों की गतिदेखता. इतना ही क्यों कपड़े के रंग में मिलती रील निकालते ही कारीगर का शटलमें धागा भरना मुझे बड़ा अच्छा लगता. धारदार कैंची से कपड़े पर लगी नीलीस्याही पर फिरते हुए लंबाई या गोलाई में फटाफट काट देना मुझे हैरत में डालदेता. कटे हुए नापों को कतरनों की सुतली से बांधकर दुकान के आलों में ठूंसदेना मुझे परेशान करता. कैसे पहचान होती होगी कि कौनसा कपड़ा किसका है? सारी गली भरी पड़ी थी इन्हीं सब कामों से. छोटे-छोटे से दिखने वाले कामोंकी दुकानें मुझे कभी खाली न दिखती. कितना काम था वहां, सिर उठाने की फुर्सतनहीं. हर किसी की इच्छा को कपड़ों में उतारने का काम जोरों पर था.

एक कामसे जुड़ा दूसरा काम और उससे जुड़ी थीं कितनों की रोजी-रोटी. हाथ कम पड़सकते थे पर काम नहीं. कारण कुछ मैं जान पाता था और कुछ पापा के जरिए जानलेता था. शहरों में इन हुनरमंदों की बढ़ती मांग के चलते गांव-देहात में बसेइनके रिश्तेदारों को भी एक ही जगह काम मिल जाता था. यहां काम भी था और दामभी. कितनी ही दुकानों में नाते-रिश्तेदारें का पूरा कुनबा जुटा था. खानदानके खानदान और खानदानी काम. इन दुकानों के साथ ही साथ रील, गोटा, बटन, कतरनों, बुकरम, तमाम तरह के धागों, इंचीटेप, कढ़ाई ठीक होने आती रहीं. उनकेबड़े छोटे कलपुर्जों से भरी थी वो दुकान. किसी की मशीन बिगड़ जाती थी तोकहीं और भागना पड़ता. बाज़ार छोटे-छोटे उद्योगों में सिलाई के बड़े उद्योगको समर्पित था.

मैं बड़े मजे से सब कामों को निहारता चलता. पापा रशीद भाईके काम निबटवातेया दुनिया-जहान की बतियाते और मैं गली में खोया रहता. उससमय आज की तरह लोगों का बेसब्र रेला बाज़ारों में नहीं भागता था कि किसी कोआस-पास के संसार को निहारने की फुर्सत ही न हो. मैं इन सबमें तब तक खोयारहता जब तक पापा की मुझे पुकारती आवाज़  न आती.

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रशीदभाई! दो महीने बाद घर में शादी है. सोच रहा हूं अब लड़कों के सफारी सूट हीसिलवा लूं इस बार. मामला मंहगा होगा पर शादी की बात ठहरी.''हाथ मेरे नापपर और ध्यान पिताजी की बात पर दिए वे बोले- ''ऐसा कीजिए मास्साब! अलग-अलगपीस की बजाय एक थान ले लीजिए गुप्ताजी की दुकान से... मेरा नाम लेकर.''अचकचाकर उन्हें देखते हुए पिताजी बोले - ''यार हंसी उड़वाआगे हमारी? लोगशादी को सिर्फ एक थान के परिवार की वजह से याद रखेंगे.''पिताजी का मायूसचेहरा देखकर मुझे बड़ी दया आई.

उस वक्त रशीद भाई ने मायूसी के बादल छांटतेहुए कहा - ''इत्मीनान रखें आप! एक थान आपको सस्ता पड़ेगा और मैं ऐसा बनादूंगा कि कोई बता न पाएगा कि कपड़ा एक है... और दुकनदार को पैसा देने कीजल्दी न कीजिएगा. शादी का मामला ठहरा, सौ खर्च होंगे घर के, मैं बात करलूंगा.''अगली बार पिताजी मुझे, थान और भाइयों को लेकर वहां पहुंचे. मेरादिल धड़क रहा था पिछली बार दी गई भैया की पैंट मेरे पहनने लायक होगी यानहीं? दोस्तों के बीच मज़ाक न बन जाए कहीं और ये क्या उसे देखते ही मेरा मनउस पर आ गया.

वो एकदम नई पैंट लग रही थी. गली से निकलते ही मेन बाज़ार था.वहां कपड़ों की अनगिनत दुकानें थीं. हमारे शहर की मशहूर कपड़ा मिल की चलतीदुकान के साथ देश भर की अधिकांश नामी-गिरामी मिलों का कपड़ा बाज़ार मेंमौजूद था. इन नामी-गिरामी मिलों को मैं रेडियो और टेलीविजन के विज्ञापनोंऔर अखबारों के जरिए खूब पहचानने लगा था. टी.वी. तब नया ही आया था घर मेंइसलिए कोई सूचना, कोई कार्यक्रम चूक जाना गुनाह-ए-अज़ीम था फिर कपड़ों केविज्ञापन में अपने पसंदीदा क्रिकेट खिलाडिय़ों का होना मेरे लिए काफी था.यों नायिकाओं की देह से आकाश की ओर मीलों उड़ती थान नुमा साड़ी भी मुझे कमरुचिकर नहीं थी. उसका आसमान छूना मेरे लिए कम चमत्कारी नहीं था.

घरकी उस शादी में मैंने पहली बार रशीद भाई को परिवार के साथ शामिल होतेदेखा. उनकी पत्नी तो नहीं पर उनके दोनों लड़के और छोटी-सी लड़की आए थे. इसीके नाम पर ही उनकी दुकान का नाम था- मन्नत. उनके लड़के परवेज़  और असलम तोउसी सरकारी स्कूल में पढ़ते थे जिसमें हम भाई पढ़ा करते थे और रशीद भाईकभी-कभार उन्हें पापा से कुछ पढे-समझने के लिए भेज भी दिया करते थे. उनसेजान-पहचान थी ही. मैंने देखा, उस दिन रशीद भाई की आंखें खुशी के इस पल मेंअपनी कारीगरी की दाद देती हुई कुछ ज़्यादा ही चमक रही थीं. पापा और हम सबभाईयों से लोगों की नज़ र नहीं हट रही थी. सबकी एकटक आंखों की प्रशंसा रशीदभाई की आंखों में समा गई थी.

सफारी की चुस्त फिटिंग, हर सूट में सिलाई काजुदा ढंग और उसमें निखरते हम सब. पहली बार सफारी सूट पहनकर मैं खुद कोबारात का दूल्हा मानकर इतरा रहा था. यों सभी भाईयों ने और पापा ने उसी थानसे सफारी बनवाए थे पर मजाल है जो कोई भी इस राज को फाश कर देता. रशीद भाईने अपने यहां बनने आए सफारी सूट के कपड़ों के बचे हुए छोटे-मोटे पीस से हरसूट में कोई नया रंग खिला दिया था. दो अलग रंगों का मैच बनाकर, कहींताना-बाबा बदलकर उन्होंनें सदी का सबसे बड़ा चमत्कार हमारे नाम लिख दिया.उस पर हर बार की तरह पापा को इज्ज़ त बख्शते हुए उन्हों सिलाई भी कम ली थी.

पापा के पढ़े-लिखे होने और शिक्षक होने की कद्र उनकी आंखों में हमेशा दिखाईदेती. हमारे मोहल्ले के तिमंजिले मकान वाले मालदार कपूर साहब की वो इतनीइज्ज़ त नहीं करते थे जितनी हमारे पापा की. छुट्टी के दिन या शाम को अक्सरदुकान पर बैठे तुरपाई करते अपने बच्चों से वे हमारे सामने ही कहते -''पढ़-लिख जाओ ढंग से तो मास्साब की तरह बन जाआगे. इज्ज़ त की रोटी कमाना, इंसान बनना.''और मुझसे भी कितनी ही दफा उन्होंने कहा - ''बेटा अपने अब्बाजैसे बनना.''पापा ने बताया था कि कॉलेज में दाखिला मिलने पर भी रशीद भाईअपने अब्बू के गुजरने के बाद पढ़ाई जारी न रख सके थे और जिम्मेदारियों कीगिरफ्त में अपना पुश्तैनी कारोबार संभालने लगे. सब कुछ होते हुए भी पढ़ाईके लिए उनकी खलिश न मिट सकी. न जाने उनकी दुआओं का ही असर था कि मैं भीपापा की तरह सरकारी स्कूल में टीचर लग गया. पर इस सच को रशीद भाई कहांजानते थे? उन्हें पता चलता तो कितने खुश होते. उन्नीस-बीस साल बीत गए थेहमें वो मोहल्ला छोड़े.

मैंसोचने लगा रशीद भाई वाकई पढ़ाई-लिखाई को कितनी तरजीह देते थे पर उनके बेटे? आखिर क्या बना होगा उनका? बड़ा परवेज़  तो कहीं क्लर्क-व्लर्क लग भी गया होशायद पर छोटा असलम? वो तो एकदम निखट्टू था. उसके भविष्य की सूरत भांपकर हीरशीद भाई छुट्टियों में उसे तुरपाई, बखिया से लेकर कटाई का काम सिखाते थे.दूर की आंख थी उनकी. वे अपने हुनर को असलम में उतार देना चाहते थे पर उसकादीदा न पढ़ाई में लगता न सिलाई में. वे कहते थे - ''दो पैसे का काम सीखलेगा, भीख तो नहीं मांगनी पड़ेगी.''रशीद भाई जैसा काबिल हो पाना सबके बसकी बात नहीं? फिर इन लोगों के यहां बच्चे पढ़ते-लिखते हैं ही कहां? इनमेंपढ़ा-लिखा तबका है ही बेहद कम इसीलिए तो इतने कट्टर... नहीं रशीद भाई ऐसेनहीं थे.

रशीद भाई तो अपनी तरह के एक ही इंसान थे, निकलता है कोई-कोई इनकेयहां भी. इस तरह के एक-आध लोग मुश्किल से पर मिल जाते हैं इनमें. आज मेरामन बार-बार रशीद भाई की चिंता में घुला जा रहा था. वैसे तो बच्चों का फर्ज़  होता है मां-बाप की सेवा करना पर उन दोनों से क्या बना होगा? फिर रशीद भाईकी कमाई पूंजी तो मन्नत के निकाह में लग गई होगी, मैंने अनुमान लगायामन्नत जवान हो चुकी होगी. शादी के लायक उम्र की. इसीलिए उसकी शादी के बादजो रकम बाकी बची होगी उससे दो लड़कों औैर रशीद भाई की अपनी गाड़ी घिसट रहीहोगी जैसे-तैसे. जुड़ा पैसा कोई कुबेर का खजाना तो है नहीं. और मन्नत? अच्छी सूरत और ढंग की पढ़ाई न हो तो लड़की की जल्दी शादी कर देना ही भला.सीरत-वीरत को कौन पूछता है आज के समय में.

मुझे अचानक मन्नत का सांवलापनयाद हो आया. उसके नैन-नक्श कैसे थे बहुत दिमाग मारने पर भी यादों के रास्तेकुछ जाहिर न हो सका. कहां तक पढ़ी होगी? मदरसे में कुछ पढ़ा हो तो होउसने. पर वहां कहां पढ़ाई-लिखाई? तालीम के नाम पर कुरान पढ़ना ही सिखायाजाता है बस. दीन के साथ दुनिया की तालीम कहां? यहीं तो उनमें और हममें फर्कआ जाता है. पापा बताते थे उनके घर की औरतों ने कभी स्कूल का मुंह नहींदेखा था.

मैं बाज़ार से घर लौटआया पर मेरी चिंता बराबर बनी रही - अब कैसे गुजारा होता होगा रशीद भाई का? क्या आज भी उनके वही ठाठ बरकरार होंगे? अब उतना काम तो नहीं कर पाते होंगे? ढलते शरीर ने काम का दामन कबका छोड़ दिया होगा. नौकरीपेशा आदमी की भी यहउम्र तो रिटायर होकर आराम फरमाने की है.

सरकारी नौकरी के आराम के बीच अचानकरशीद भाई के बच्चों का ध्यान आते ही मैं शंका में पड़ गया कि अब भी बाज़ारमें उनकी दुकान का सिक्का चलता होगा? हाथ के कितने काम अब खत्म हो चुके हैंफिर कहां बचीं अब वो कपड़ा मिलें? शहर की जानी-मानी मिल तो कबकी बंद हुई.बरसों शहर की उस मिल की खाली पड़ी जमीन पर अब ग्रुप हाउसिंग सोसायटी खड़ीहोने की खबरें आम हैं. अब बाज़ारों में कहां रहीं वे कपड़ों की पुरानीदुकानें. मेरा मन सवाल करता क्या बाज़ार की वो रौनक अब भी बरकरार होगी? लेडीज़  टेलर्स तो फिर भी किसी तरह बचे हुए हैं पर कितने जैंट्स टेलर्स कोमैंने खुद बेकार होते देखा है. हमारे नए मोहल्ले में चल रही जेंट्स टेलर्सकी दुकानों को मैंने घिसटते और बंद होते अपनी आंखों से देखा.

आस-पास केमोहल्लों के चार-पांच बाज़ारों में एक भी जेंट्स टेलर्स की दुकान नहीं हैं.रशीद भाई का चेहरा फिर से दिमाग में उभरा तो सोचने लगा, बिना पैंशन पानेवाले पिता की रही सही मिट्टी पलीद करती हैं संतानें. बुढ़ापे में कितनाबेइज्जत होना पड़ता है अपने ही जायों से. रशीद भाई भी हो रहे होंगे. शुक्रहै हम भाई नहीं बहे इस बेदर्द हवा के संग पर हम जैसे हैं ही कितने?
''
मम्मी! रशीद भाई याद हैं?''उस दिन रशीद भाई मेरे दिलोदिमाग पर हावी हो चले थे.
''
तुझे आज कैसे याद आ गई?''मां के सवाल के जवाब में 'बस ऐसे ही'के अंदाज में मैं हल्का - सा मुस्कुराया.

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पुरानाघर क्या छोड़ा रशीद भाई ही छूट गए. तेरे पापा बाद तक भी जाया करते थे उनसेमिलने पर काम-धंधे में बरकत वैसी नमी रही थी. धीरे-धीरे आना-जाना छूट गयाऔर फिर तेरे पापा भी...''मैं उनके शब्दों की मी पर गौर ही कर रहा था किवे बोलीं - ''पता नहीं ज़िंदा भी हैं या... किस हाल में होंगे ईश्वरजानें?''

मम्मी की बात सेअचानक फिर मेरी रुह कांपी. वो तो नहीं पर मैं समझ रहा था ये समय फिर सेरशीद भाई जैसों की अग्निपरीक्षा का समय है. धारा उनके अनुकूल कहां? जात केकारीगर, धर्म के मुसलमान ऊपर से गरीब. उन जैसों की किस्मत तो बद से बदतर होरही है. मन में चरम आवेग के बाद लहरें जब थमतीं तो मैं फिर रशीद भाई केसाथ खुद को पाता- ''कितने अलग तरह के इंसान थे. अपने सभी हिंदू ग्राहकों कीकितनी इज्जत करते थे. यों ही पापा उनकी प्रशंसा करते थे क्या?''मेरेअनुमान फिर से एक शक्ल गढ़ते और ज़ माने के चलन में रशीद भाई का चेहरा अधिकदयनीय मुद्रा में साकार होता. अनुमान में तराशे उनके चेहरे पर बेचारेपन केअलावा मुझे कुछ न दिखाई देता. दिल-दिमाग पर हावी होते जा रहे रशीद भाई केख्याल को मैंने बड़ी मुश्किल से कुछ देर के लिए झटका.

अगलेदिन का हाल न ही पूछिए तो बेहतर. मैं रोज़  की तरह स्कूटर पर स्कूल की तरफजा रहा था. चौराहे पर रेड लाइट ने कुछ पल आस-पास देखने की मोहलत दी. नज़रघुमाई ही थी कि ये क्या? मेरा दिल धक्क रह गया. दिमाग की सारी नसें अचानकही मुझे बेहद तनी हुई और गर्म महसूस हुई. स्कूटर के हैंडल पर मेरे हाथों कादबाव अचानक पिघलकर गायब-सा होने लगा. मुझे अपने दोनों हाथ सुन्न से महसूसहुए. दाहिनीं ओर कुछ आगे की भीड़ में एक ऑटो के पीछे लिखे शब्दों ने मुझेहिलाकर रख दिया.

''
चले जिंदगी की गाड़ी, इज्ज़त की रोटी
अल्लाह करम हो, तेरे बंदे रशीद पर''

'
इज्ज़तकी रोटी और रशीद'इन शब्दों ने मेरी सारी इंद्रियों को सचेत कर दिया. अतीतसामने खड़ा हो गया. रशीद भाई के शब्द स्मृतियों के खाने से सिर उठाने लगेपर ग्रीन लाइट में तीस सेकेंड का बाकी समय, ऑटो की दूरी और अपने स्कूटर कोअकेले छोड़कर जाने के ख्याल ने सभी आफतों को एक साथ मुझ पर लाद दिया. मैंनेसीट पर ही तिरछा होकर ऑटोरिक्शा वाले को नज़र के दायरे में लाने का भरसकप्रयास किया पर सब व्यर्थ. मन की आंखों से मुझे साफ दिख रहा था कि हो न होये रशीद भाई ही हैं. तेजी से चौपट हो रहे सिलाई के धंधे को न संभाल पाने औरअपनी गिरती ज़िंदगी को पार लगाने का ये रास्ता चुना उन्होंने. सिग्नल मिलतेही मेरे स्कूटर ने रफ्तार पकड़ ली जैसे मेरे मन में लगातार 'इज्ज़त की रोटीऔर बंदा रशीद'की धुन दुगुने-तिगुन से बजने लगी.

मैं ऑटो की दिशा मेंभागने लगा. भागते हुए मेरी आंखें ऑटोवाले की वर्दी के भीतर रशीद भाई कोबेचैनी से खोज रही थीं. उसके पीठ, कंधे और बालों का रशीद भाई की काठी औरहुलिये से मिलान करता मेरा दिल जोरों से धड़क रहा था. मैली कुचैली वर्दीमें ऑटोरिक्शा वाले को जब मैंने नज़ दीक से देखा तब जाना शब्द इसके भी रशीदभाई जैसे हैं पर ये रशीद भाई नहीं. दो घड़ी का समय लगा मन को स्थिर होनेमें. स्थिर होते ही मन ने कहा शब्द इसके भी कहां होंगे? वो तो किसी पेंटरके ही होंगे. मिलते ज़रूर हैं रशीद भाई के फलसफे से पर कौन जाने पेंटर कौनहै? हिंदू भी हो सकता है. पर रशीद भाई? उन्होंने भी तो कहीं कोई ऐसा हीकाम?... हो भी सकता है. ज़ रूरी तो नहीं परवेज़  क्लर्क ही लगा हो खरादिया भीतो हो सकता है न? और असलम वो भाग गया होगा पाकिस्तान अपने किसी चाचा-ताऊके यहां. एक आते तो थे कई बार उनके घर.

अक्सर उन्हीं के साथ घूमता दिखाईदेता था असलम. हमारी मकान-मालकिन जिन्हें हम चाची कहते थे कितना डर गईं थींउन्हें मोहल्ले में देखकर. आज भी उनके शब्द कानों में उस दिन की तरह जिंदाहैं - ''कैसी डरावनी तो आंखें हैं... अभी चेहरे से निकलकर खून कर दें किसीका.''मुझे याद है पापा कितना नाराज़  हुए थे उनसे. पर उस दिन के बाद जब भीमुझे अफज़ल के चाचा दिखते मैं डर जाता. उनके चेहरे के संग चाची के शब्दकिसी चेतावनी से चस्पां हो गए थे. पता नहीं उसके चचा रहते कहां थे? कहींरशीद भाई शहर छोड़कर चले तो नहीं गए उनके पास? ...आखिर कैसे जी रहे होंगेरशीद भाई? मेरे मन में अचानक रशीद भाई के लिए दया का सैलाब उमड़ने लगा.

''
इसमेंइतना भी क्या परेशान होना? चले जाओ किसी दिन अपने पुराने मोहल्ले या उनकीदुकान पर. यहां बैठे सोचते रहने से क्या हासिल होगा भला?''शिखा मेरी चिंताभांपते हुए बोली.
''
और मिलने पर क्या कहूंगा... क्यों आया हूं?''मैंने सवाल दाग दिया.

''
कह देना मिलने और क्या?''

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इतनेसालों में कोई खोज-खबर ली नहीं और अब अचानक...''शिखा सहज थी पर मैंदुविधा में फंस गया. ''तो कहना कपड़े सिलवाने के लिए और क्या?''शिखा नेबिना देर लगाए कहा. मैं जितना उलझा हुआ वो उतनी ही सुलझी हुई. उसकी बात सेजैसे मुझे सुकून और सही राह दोनों साथ मिल गए. इधर ज़रा-सा इत्मीनान हाथ आयाही था कि एक भारी ग्लानि भी उसी राह चली आई. रशीद भाई की चिंता में शामिलअपना कुसूर भी मुझे साफ दिखाई देने लगा. जब मैं पिताजी के नक्शेकदम पर थाऔर रेडिमेड कपड़े मेरे लिए आफत हो रहे थे तब क्यों मैंने रशीद भाई को अब तकनहीं ढूंढा? क्यों मैंने अपने संतोष की बलि चढने दी.

क्यों नहीं पापा कीही तरह अपनी पसंद को तरजीह दे पाया और क्यों मैंने नए जमाने के नए चलने कीतेज़  आंधी में सब उड़ जाने दिया? अचानक मेरी आत्मा पर पिछले कई बरसों मेंउजड़ गए दर्जियों और ठप्प पड़ गए उनके काम-धंधों में अपना किया कुसूर बहुतनागवार गुजरने लगा. मुझ जैसे कसूरवारों ने ही रशीद भाई जैसों की हालत बदतरबना दी. कल तक मैं भव्य ब्रांड के रेगिस्तानी धोरों को कोस रहा था तो आज उनरेतीली इमारतों की ऊंचाई पर मैंने खुद को खड़ा पाया. उस ऊंचाई से जब मैंनेनीचे की ओर देखा तो दर्जियों के बंद होते धंधे और मोहल्ले में सिलाई मशीनलेकर पुराने कपड़ों को दुरुस्त करते एक-आध बेचारे-से कारीगर ही दिखाई दिए.हालत ये हो गई है कि अब घरों में भी सिलाई मशीन रखने का चलन खत्म हो गया.यूज़  एंड थ्रो के चलन ने पुरानी चीज़ों के साथ हर पुराने चलन को भी लातमारकर फेंक दिया. पुराने काम-धंधों और हुनर की ऐसी बेइज्जती से मेरा मनकांप गया.

मैंने प्रण किया चाहे कुछ हो कल मुझे हर हालत में रशीद भाई केबारे में पता करना ही है. मन का एक कोना ये भी समझ रहा था कि पुराने सब कुछको उड़ाती तेज़  आंधी में मेरे भावुकतापूर्ण विचार कितनी देर टिक पाएंगे? पर मन कहता कि चाहे कुछ हो डर के मारे हर बार शुतुर्मुर्ग बनकर जीने सेक्या हासिल? और फिर कौन सोचेगा इनके बारे में? मैं खुद को दिलासा देता तमामभयों पर फतह पाने के किसी पोशीदा राज में खो गया.

रात भर मैं बाज़ार कापुराना नक्शा दिमाग में बनाता रहा. घूमता रहा उन गलियों में और खोया रहाअपनी चिंताओं में. आज पापा भी बहुत याद आ रहे थे. कितने जीवट वाले इंसानथे. अपने निर्णयों को सम्मान से जीने वाले थे, ये आज गहराई से समझ आ रहाथा. जगभाता नहीं मनभाता करने वाले. उनके खब्ती स्वभाव की कद्र आज उसकी नज़रमें बढ़ती ही जा रही थी. उस स्वभाव की जिसका उनके बच्चों और पत्नी दोनों नेखूब मज़ाक उड़ाया था. मां कितनी बार कहती- ''क्या तुम हमेशा बाज़ार-बाज़ारकरते रहते हो. बाज़ार ऐसा हो गया. बाज़ार ने ये कर दिया.''खुद मुझे भी तोकितनी ही बार ऐसा ही लगता... पर आज उनके उसूलों का अर्थ कुछ अलग तरह से समझआ गया है. नए मकान में जब तक जिए घर में राशन रौनक स्टोर्स से ही आया.जीवन भर छोटे दुकानदारों से उनका प्यार-मोहब्बत, भाईचारे का रिश्ता बनारहा.

अगले दिन मैंने अपनास्कूटर उठाया और चल पड़ा अपने रशीद भाई को ढूंढने. कई साल पहले मौसेरी बहनकी शादी में जो शर्ट-पैंट का जोड़ा मुझे मिला था उसे एक थैले में डालकरशिखा ने मुझे दे दिया. बरसों  से वो जोड़ा इसी थैले में कैद था. यों भी अबशादी-ब्याह पर हम जैसे लोगों के परिवारों में ही इस तरह के जोड़े भेंट किएजाते थे. पुरानी रस्म की तरह यह भी रस्म अदायगी ही थी. जोड़े के साथ मैंनेअपने सारे सवालों और ख्यालों को भी उस थैले में डाला और मंजिल की ओर निकलपड़ा. ज्यों-ज्यों दूरी तय होती जा रही थी मेरी धुन को भी पंख लगते जा रहेथे. नॉस्टैल्जिया दिमाग से मेरी आंखों में उतरकर बाज़ार को साकार कर रहा थाऔर जिंदा हो रहा था दृश्यों का वह संसार जिसकी हरकतों पर मैं जान देता था.

''.एकबार मिल जाएं रशीद भाई फिर अपने सभी दोस्तों, परिचितों को भी उनकी दुकानकी राह दिखाऊंगा. बरसों से ठप्प उनका धंधा फिर आबाद होगा. रशीद भाई कासिक्का फिर से जम जाएगा.''मेरा उत्साह बढ़ता ही जा रहा था. ये उत्साहबरसों की दूरी को पाटता आनंद की लहर में था. अपनी ठीक-ठाक याददाश्त केसहारे मैं बाज़ार में पहुंचा तो उसकी सूरत बिल्कुल बदल चुकी थी. मैंने बचपनमें उसे जिस रूप में देखा था उसका कोई निशान आज बाकी न था. अतीत के जादूमें घिरे होने के कारण मेरे लिए बाज़ार बिल्कुल वैसा रहा जैसा मेरा बचपन.जैसे वहीं ठहर गई मेरी वो उम्र. पर इस समय वास्तविकता से टकराते ही मुझेदिखाई देने लगा मेरी दोनों उम्रों के बीच का फासला. इस फासले पर ध्यान जातेही जादू टूटने लगा. ये बाज़ार भी तमाम दूसरे बाज़ारों में बदल गया जोमोहल्लों और मॉल्स के बीच मोहल्लों के बाज़ारों को पीछे छोड़ते मॉल्स कीबराबरी करने में लगे थे. मुझे दिखने लगीं चमचमाती भव्य दुकानें, चुस्तसेल्समैन और मोटा ग्राहक. गाडिय़ों से पटे रास्ते और धक्का-मुक्की करताग्राहकों का रेला. मॉल्स जितनी जगह तो यहां असंभव थी पर उनकी बराबरी की धुनमें हर दुकान अपनी भव्यता में निराली दिख रही थी.

मेन सड़क पर कढ़ाई-सिलाईऔर कपड़ों की उन दुकानों का नामोनिशान तक न था जो मेरे जेहन में आज तकजीतीं थीं. वहां थीं तिमंजिला दुकानें, आलीशान दुकानें, रौनकदार दुकानें औरमैं पॉलीथिन बैग में कपड़ा लिए उनसे गुजरता हुआ जा पहुंचा उस गली के द्वारपर जहां से अंदर कुछ चालीस-पचास कदम पर ही थी मन्नत टेलर्स की दुकान.मैंने गौर किया बाज़ार की तरह गली भी बेहद बदल गयी थी. हाथ के कारीगरों केधंधे वहां से उठ चुके थे. कहां चले गए होंगे वो खानदान? क्या हुआ होगा उनकेखानदानी हुनर का? कैसे कमा-खा रहे होंगे अब? शहरों में तो उनकी मांग खत्महुई. शायद धंसे होंगे नमालूम सी कस्बाई गलियों में कहीं. कुछ को बड़ेडिज़ायनर्स और कंपनियों ने मामूली वेतन पर रख लिया होगा. कुछ देश के अनेकहिस्सों में सस्ते श्रम और बिना किसी बुनियादी सुविधाओं के विदेशी कंपनियोंके टेलर होकर रह गए होंगे. यानी कपड़ा हमारा, मज़ दूर हमारा और मुनाफाटैगधारी कंपनी का. इनके अलावा शहर में जो बाकी बचे भी होंगे वो अपने भीतरके कलाकार को मारकर ऑलट्रेशन जैसे मामूली कामों से पेट पाल रहे होंगे.

जाने कैसे? मेरे लिए रशीद भाई की खोज आज केवल एक इंसान की खोज नहीं रह गई.आज कई सूरतें उसमें उभकर आने लगीं. वो सवाल सर उठाने लगे जिनके बारे मेंमैंने कभी इस तरह सोचा ही नहीं था. सब मेरे लिए भी 'चलता है'जैसा ही तोथा. अपने सभी सवालों के साथ दिमाग में यहां आने का मकसद एक बार फिर कौंधा.रशीद भाई को तो ढूं्ढना ही था. कदम आगे बढ़े तो मैंने देखा गली के दोनों ओरकुछ गोदाम- से बन गए थे. अंदर के मकान काफी स्टाइल में बने खड़े थे जबकिपहले कोने का खन्ना जी का 'खन्ना निवास'का बोर्ड लगा मकान ही भव्य दिखाईदेता था. उसने आज शानदार शोरुम का रूप ले लिया था. पर ये क्या? अतीत की गलीको वर्तमान से तौलते जब मैं मन्नत टेलर्स पर पहुंचा वहां चाय की छोटी-सीदुकान थी. मैंने ध्यान से देखा अवशेष के रूप में 'मन्नत टेलर्स'का बोर्डभी नदारद था. मेरी उम्मीद पल भर में आकाश से धरती पर पटक दी गई जैसे औरउम्मीद की पसलियां दर्द से कराहने लगीं.

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भई!यहां मन्नत टेलर की दुकान थी पहले.''चायवाले से सवाल पर मैंने पीड़ा सेकराहती चित उम्मीद को जैसे-तैसे खड़ा करने की कोशिश की.

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होतीहोगी बाऊजी, पर मैं तो तीन-चार साल पहले ही आया हूं. मैं नहीं जानता. साराइलाका बदल गया है. न पुराने दुकानदार रहे, न मकान मालिक.''चायवाले केशब्दों से मिली निराशा में मैं जैसे ही पलटा वह बोला - ''कोने की जो दुकानहै न बाऊजी वो पुराने दुकानदार हैं. शायद कुछ जानते हों. थोड़ी - बहुतदुकानें मार्किट के सबसे पिछले हिस्से में चली गई हैं. यहां तो बड़ी-बड़ीदुकानें हैं बस. मेन रोड है न.''मेरे पस्त हौसले ने फीकी-सी हंसी में उसकाधन्यवाद दिया, जो दिया न दिया बराबर था.

रशीद भाई को खोजने की मेरी आग परठंडा पानी पड़ गया था. पॉलीथिन बैग पर मेरी मजबूत पकड़ भी ढीली पड़ गई. एकआखिरी उम्मीद में, मार्किट के पिछले हिस्से की ओर जाने से पहले मैं उस कोनेकी दुकान की तरफ बढ़ चला कि कुछ पता चल सके रशीद भाई का. इनफिनिटी नाम कीतिमंजिली दुकान के हर फ्लोर पर रंग-बिरंगे कपड़े जगमगा रहे थे. बाहर सेमेरे संग आया गर्मी का पारा एसी की ठंडक में उतरने लगा. कानों में किसीतेज़  गाने की धुन समाने लगी, उसके संग चला आ रहा था ग्राहकों का तेज़  शोर.दुकान में दाखिल होकर मैंने मालिक को पूछा तो बेहद व्यस्त सेल्समेन नेएस्केलेटर की दिशा में तीसरी मंजिल की ओर इशारा किया. मेरा मन भले ही उदासथा पर नज़र हर फ्लोर पर बच्चों, औरतों और आदमियों के कपड़ों, ग्राहकों कीभीड़ और व्यस्त काउंटर्स की अनदेखी न कर सका. तीसरी मंजिल के दो हिस्सोंमें एक तरफ शानदार ऑफिस था तो दूसरी ओर कपड़ों का सेक्शन. ऑफिस की शान थादीवार में जड़ा शीशे का बड़ा-सा पैनल जिससे नीचे के बाज़ार की रौनक भीतरदाखिल होती जान पड़ती थी.

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जी?''डेस्कटॉप पर हिसाब में उलझे मालिक ने मुझे एक झलक देखकर अपनी आंखों कोदुबारा डेस्कटॉप पर केंद्रित किया. उसका 'जी'काफी वजनी महसूस हुआ मुझे.उसकी ठसक और स्टाइल से भरी उपेक्षा के बावजूद मैंने अपनी बात कही –

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कुछ जानना था आपसे.''

मेरीबात को कोई महत्व नहीं दिया गया है, ये जानकार भी मैंने पूरी बेशर्मी केसाथ कुछ रुककर कहा - ''यहां मन्नत टेलर्स की एक दुकान हुआ करती थी. रशीदभाई की... उन्हीं के बारे में पता करना है... किसी ने बताया आप काफी पुरानेबसे हैं इस जगह''.  अचानक मालिक ने खुद को डेस्कटाप से मुक्त किया और मेरेचेहरे की ओर एकटक देखने लगा. मुझे बड़ा अजीब-सा महसूस हो रहा था... पतानहीं यह क्यों घूर रहा है? एक जानकारी के बदले में उसका इस तरह घूरना मुझेकुछ अच्छा नहीं लग रहा था. शायद मेरे आने से उसके काम में कोई भारी रुकावट आगई थी.

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आप समीर हैं न? मास्साब के बेटे?''उसके इन दो सवालों से थैला मेरे हाथों में जकड़ा रह गयाऔर मेरी आंखें अचरज की आखिरी सीमा तक फैल गईं.

इससेपहले कि मैं कुछ कहता मालिक बोला - ''आज कैसे रास्ता भूल गए आप? इतनेसालों बाद?''मेरा दिमाग सौ गुना रफ्तार से अतीत को खंगालकर इस आदमी कोपहचानने की कोशिश करने लगा. मेरी पेशानी पर पड़ी सिलवटों के साथ ही मेरीआंखें पहले फैलीं और अब सिकुड़कर दूरबीन बन गईं. मैं उसके लैंस को घुमातामालिक के चेहरे को अपने एकदम करीब ले आया. क्लोज़  अप में चहरे की रेखाएं औरनसें सब उभरने लगीं.

कहां देखा है इसे? कौन है ये? - के सवालों से मैं जूझही रहा था कि वो अपनी कुर्सी से उठकर मेरे पास आया.

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मेराहुलिया काफी बदल गया है पर आपका चेहरा बिल्कुल वही है... मैं असलम... समीरभाई! पहचाना?''असलम के शब्द गर्मजोशी से मुझे छू रहे थे. उसे अचानक पासआया देख मैं कुछ कहता कि उसने मुझे अपनी बाहों में ले लिया. उसके हाथों कीपकड़ किसी गहरी दोस्ती- सी मुझे सहला रही थी और मैं खुद को उसके हवाले किएदे रहा था. अगले क्षण उसने मुझे थामकर अपने सामने वाली कुर्सी पर बिठाया.

''
अब्बाआज तलक याद करते हैं आप लोगों को. मास्साब का जिक्र चलता रहता है घर में.यकीन जानिए वो दौर कबका बीता पर आप जैसे कितने लोग हमारे दिलों में बसेरहे. देखते-देखते पुराना काम बंद हुआ. बाज़ार इतना तेजरफ्तार हुआ कि हाथ सेकाम करने वाले बुरी तरह पिछड़ गए. एक-एक करके कई दुकानें बंद हुईं फिर बिकगईं और कुछ सिमट गईं बाज़ार में एकदम पीछे. अब्बू कई साल संभालते रहेजैसे-तैसे. लडख़ड़ाते हुए गिरे भी कई बार. बड़ा बुरा दौर था हमारा. अब्बाके लाख चाहने पर भी हम दोनों भाईयों में सिलाई का खानदानी हुनर न उतर सकापर भाईजान और मैं आपके वालिद की समझाइश पर बढ़ते रहे. मेरी हालत तो आपजानते ही थे... पर मैंने पढ़ाई नहीं छोड़ी.

भाईजान तो शुरू से ही अच्छे थेपढ़ाई में अब बाहर ही सेटल हो गए और मैं एम.बी.ए. के बाद अब्बू के साथ.कपड़े का कारोबार अब्बू की जान है. उन्होंने अपने वालिद का साथ दिया औरमैंने उनके साथ खड़े होना मुनासिब समझा. आखिर औलाद का वालदेन का भी हक है? भाईजान भी पूरी मदद करते हैं हमारी. बस अब्बू और उनकी मदद से हीधीरे-धीरे इस इनफिनिटी ने शक्ल पाई. बाकी जो है सो आप देख ही रहे हैं. हमदोनों ने अब्बू को काम से एकदम फारिंग कर दिया है पर त्यौहार पर शौक से आजभी कैंची उठा लेते हैं.''उसकी मुस्कुराहट मुझसे छिपी न रह सकी. अतीत से आजतक का पुल बनाते असलम के शब्दों की ताज़ गी मेरी मुर्दनी पर भारी थी.

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और आप सुनाओ? क्या चल रहा है?''


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स्कूल में पढ़ाता हूं.''चार शब्दों को बेहद ठहर-ठहरकर मैं बोल पाया. न मालूम वो किस गहरी खोह से निकल रहे थे.

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आपभी मास्साब...''असलम के शब्द सहज थे पर वजनी हथौड़े से मेरे सीने परपड़े. मुझे महसूस हुआ उसकी कुर्सी और मेरी कुर्सी के बीच कोई टेबल नहींविशालकाय समुद्र लहरा रहा था. कुछ भी न कर पाने की हालत में मैं पॉलीथिनबैग को छिपाने की दिलो-जान से कोशिश करने लगा. मैं उसे जितना छिपाता वोअपनी चर्रमचूं से उतना अधिक उजागर हो रहा था.

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थैला मेज पर रख दीजिए न...इत्मीनान से बैठिए आप.''

उसकेशब्दों से फिर मेरी जान सूखने लगी. मेज पर रखते ही थैला कपड़ों सहित साराराज़  फाश कर देगा और जाहिर ये होगा कि मैं आज उनकी अपने मुताबिक सोची'गिरती हालत'पर रहम करने आया हूं. धड़कते दिल से मैं दुआएं मांगने लगा येधरती फट जाए और थैला उसमें समा जाए या फिर ऐसा अंधड़ चले कि असलम की आंखेंधूल से भर जाएं. ये थैला उड़कर मुझसे मीलों दूर चला जाए और वो उसे देख नपाए. मुझे खुद पर और थैले पर बेहद तरस आ रहा था. मैंने अपनी गोद में हाथोंकी ओट बनाकर छिपा लिया. बाकी की कसर असलम और मेरे बीच की मेज ने पूरी करदी. ओट और आड़ दोनों ने थैले को काफी ढांप दिया. हाथों को बिना हिलाए मैंनेउसकी चर्रम-चूं का रास्ता भी बंद कर दिया.
''
अभीकुछ देर में अब्बा भी आते होंगे. कभी-कभार आते हैं दुकान पर. मन नहीं लगतान घर पर और फिर इस जगह से पुराना याराना जो ठहरा उनका.''

असलमकी इस बात से मुझे और धक्कापहुंचा. उससे मिलकर जितना मैंने जाना था उतनेभर से ही मैं वहां से भागने का रास्ता खोज रहा था पर अब सारी दिशाएं मुझ परबंद थीं. सुबह तक जिन रशीद भाई से मिलने के लिए मैं मरा जा रहा था अब उनसेबचने का मौका तलाशने लगा. पर मौका मिलना नामुमकिन था. इससे पहले की मेरादिमाग कोई बहाना गढ़ता या वक्त मुझे संभलने की मोहलत देता, असलम बोला
''देखिए अब्बू आ गए.''

असलमके शब्दों और इशारे की दिशा में जब मैंने शीशे के पैनल से नीचे झांका तोएक गाड़ी दिखाई दी. ड्राइवर ने दरवाज़ा खोला और बड़े अदब से रशीद भाई कोउतारा. रशीद भाई जितने इत्मीनान से ऊपर आ रहे थे उनकी धज की हल्की-सी झलकमिलने से मैं उससे चौगुनी गति से किसी तूफान से घिरता जा रहा था. मन कियामैं भी किसी अदृश्य शक्ति से अपने थैले में छिप जाऊं, कहीं गायब हो जाऊं.उन्हें सामने जो देखा, देखता ही रह गया. उनकी उम्र ज़रूर बढ़ी थी पर उससेज़्यादा बढ़े थे उनके ठाठ. बालों को उन्होंने किसी खिजाब का रंग नहीं दियाथा. अपनी सफेदी में उनके बाल सुंदर लग रहे थे. चेहरा एकदम सफाचट और उस परगजब की लाली और तेज़ . शरीर पहले से अधिक भारी हो गया था और उसी अनुपात मेंचेहरा भी भरा-भरा लग रहा था. उनके जिस्म के कपड़ों और हर चीज़  से नफासत बहरही थी और मैं उस ठाठ की बाढ़ में डूबता चला जा रहा था. परिचय के बाद माहौलमें एक बुजुर्ग का अपनापन दाखिल हो गया. मुझसे मिलते ही उनके चेहरे सेबयां होती खुशी और उत्तेजना की कंपकपी को मैंने महसूस किया. पापा की मौत काउन्हें बेहद अफसोस था. कुछ देर की चुप्पी के बाद ऑफिस में फैले दुख कीचादर को उन्होंने अपने शब्दों से समेटा - ''बेटा! ये तो उम्र भर का दुख है.जाने वाले की यादें रह जाती हैं बस.''बाद में उन्होंने मेरे काम-धाम केबारे में पूछा तो उनकी खुशी का ठिकाना न रहा –

''
मैंजानता था तुम भी अपने वालिद जैसे ही बनोगे. दिखते भी उन्हीं की तरह हो.चाहते तो हम भी थे बेटा! कि हमारा कोई बच्चा भी पढ़ाए... पढ़े तो तीनों खूबपर पढ़ाने वाल कोई न निकला.''उनके भरोसे की मोहर के नीचे मैं अब भी अपनीतमाम अटकलों में एक अदना-सा इंसान लग रहा था. कहां वे और कहा मैं? उनकीखुशी का जवाब मैंने एक फीकी-सी हंसी से दिया. अगले ही क्षण मेरे अंदर केवहम एक बार फिर मज़ बूती से उठ खड़े हुए.

''
मन्नत कैसी है अंकल? अब तो वो भी घर-गृहस्थी वाली हो गई होगी?''मेरे सवाल पर रशीद भाई मुस्कुराए.

''
अरे!याद है तुमको उसकी? भई! मन की मालिक है वो. हमारी आन और शान. बानो डॉक्टरहो गईं हैं. हार्ट स्पेशलिस्ट. पहले कहती थीं निकाह अपनी पसंद से करेंगी.हम भी इंतज़ ार करते रहे. अब कहती हैं निकाह के लिए अभी वक्त मुफीद नहीं.बरखुरदार आजकल तुम्हारे जैसे होनहार बच्चे खूब जानते हैं अपना भला-बुरा.हमने तो सब उन पर छोड़ रखा है.''

रशीद भाई ने मेरे वहम को ज़रा सी मोहलत न दी. उन्हें ज़रा तरस न आया मुझ पर... मन्नत भी?

मेरेलाख मना करने पर भी रशीद भाई ने चाय-नाश्ता मंगाकर घर के आदमी जैसी इज्जतमुझे दी. पूरे आग्रह से मुझे खिलाया. पापा के ज़िक्र ने उस माहौल में पुरानेदिनों को लौटा दिया. उनके पास पापा से जुड़े कई किस्से थे. उनकी बातचीत औरमेरे परिवार के प्रति उनके स्नेह ने मुझे हर तरह की शर्मिंदगी से उबारलिया.

''
आपके वालिद के इंतकालके समय मैं बाहर था... परवेज के पास. बेटा! आज उन्हीं के फज़ल से मेरे तीनोंबच्चे अपने पैरों पर खड़े हैं.''मेरे मन में रशीद भाई के लिए आदर और गहराहुआ. चलते समय जब मैं उनके पैर छूने को झुका तो आगे बढ़कर उन्होंने मुझेसीने से लगा लिया और नम आवाज़  में कहा –

''
भाभी को मेरा सलाम कहना और आते रहना बेटा! आज तुमसे मिलकर दिली खुशी मिली है मुझे.''


रशीदभाई का प्यार लिए मेरे कदम दुकान से निकल रहे थे. चेहरे पर असलम की हंसीके जवाब में एक मुस्कुराहट थी. मैं खुश था कि रशीद भाई खुश हैं, उनकापरिवार खुशहाल है पर दिमाग के दूसरे कोने में जारी हलचलें मुझे अशांत कररही थीं - क्या सब रशीद इतने खुशकिस्मत हैं? अचानक मेरे हाथ में दबा हुआथैला मुझे बहुत भारी लगने लगा.
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प्रज्ञा
जन्म : 28 अप्रैल 1971, दिल्ली
तक़्सीम (कहानी संग्रह), जनता के बीच जनता की बात (नुक्कड़ नाटक-संग्रह), नुक्कड़ नाटक, रचना और प्रस्तुति, नाटक से संवाद (नाट्यालोचना), तारा की अलवर यात्रा (बाल साहित्य), आईने के सामने आदि
pragya3k@gmail.com
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आलेख : यहाँ पढ़ें बाज़ार की जरूरत और उसके साइड इफ़ेक्ट्स

भूमंडलोत्तर कहानी (१४) : मन्नत टेलर्स ( प्रज्ञा) : राकेश बिहारी

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राकेश बिहारी









साहित्य का मूल कार्य यह है कि वह तमाम अच्छे–बुरे बदलावों के बीच और उनके तीक्ष्ण–तिक्त प्रभावों के मध्य आम आदमी के पास  आता-जाता रहता है. उन्हें देखता, परखता, महसूस करता और लिखता रहता है. उनके साथ खड़ा रहता है. जिसे इतिहास बिसरा देता है उसे साहित्य अमर कर देता है.

इस  कथित आर्थिक उदारीकरण के अनुदार दौर में सबसे अधिक प्रभावित अगर कोई हुआ है तो वे कारीगर हैं जो अपने हुनर से अपनी  जीविका सम्मानजनक ढंग से चलाते रहे थे. उनमें से एक वर्ग टेलर मास्टर का है. रेडीमेट कपड़ों की सजावट ने उनकी खुद की सिलाई उधेड़ दी है.  आप अंतिम बार कब किसी टेलर के पास गए थे ? याद कीजिए .   

भूमंडलोत्तर कहानी क्रम में इस बार युवा कथाकार प्रज्ञा की कहानी मन्नत टेलर्सपर कथा आलोचक राकेश बिहारी का यह आलेख आप सबके लिए. राकेश बिहारी ने कथा की गहरी पड़ताल की है,हो रहे बदलावों के बीच ऐसी और भी कहनियाँ लिखी गयीं हैं. उनसे भी तुलना का एक उपक्रम यहाँ है. 


भूमंडलोत्तर कहानी – 1४
बाज़ार की जरूरत और उसके साइड इफ़ेक्ट्स           
(संदर्भ: प्रज्ञा की कहानी मन्नत टेलर्स)






‘गति’ और ‘सूचना’ भूमंडलोत्तर समय की विशेषताओं को व्याख्यायित करने के लिए दो सबसे ज्यादा अपरिहार्य शब्द हैं. इन दोनों शब्दों की सबसे बड़ी खासियत यह है कि हमारे समय की सबसे बड़ी खूबी और त्रासदी दोनों का रास्ता इनसे ही हो कर गुजरता है. भूमंडलोत्तर समय में गति अमूमन प्रगति का पर्याय होकर हमारे बीच उपस्थित होती है तो सूचना ज्ञान का. गति अपने नए अर्थ के वैभव को बरकरार रख सके इसके लिए उसे सूचना-तकनीकी के साथ की जरूरत होती है. गति और सूचना-तकनीकी के सहमेल से तैयार नए यथार्थ को पल्लवित-पुष्पित करने के लिए बाज़ार जरूरी उपकरण मुहैया कराने का काम करता है. भूमंडलीकरण की शुरुआत के बाद की स्थितियों पर जारी विमर्शों की शब्दावली में बाज़ार सामान्यतया किसी अवरोधक दैत्य की विकट उपस्थिति का अहसास-सा कराता है. सभ्यता के विकास में बाज़ार की जरूरत की अहमियत को रेखांकित किए बिना बाजारवाद की आड़ में बाज़ार को ही नकारने की प्रवृत्ति भी हिन्दी में खूब दिखाई देती है. बाज़ार और बाजारवाद के नाम पर जारी इन विमर्शों को रचनात्मक साहित्य के एजेंडे में भी खूब जगह मिली है. इसलिए फैशन की शक्ल ले चुके विमर्श के इस भूमंडलोत्तर परिवेश में बाज़ार की जरूरतों को रेखांकित करना कई बार बहुत जोखिम का काम होता है. यही कारण है कि बाज़ारवाद के ‘साइड इफ़ेक्ट्स’ पर बात करने के क्रम में बाज़ार की विशेषताओं को रेखांकित करते हुये एक रचनात्मक संतुलन कायम करने की जरूरत मुझे हमेशा महसूस होती है.

भूमंडलोत्तर कथा परिसर की सुपरिचित सदस्य प्रज्ञा की कहानियों ने गतिमान सूचना समय में बाज़ार के विभिन्न रूपों और प्रभावों को रेखांकित करते हुये ही अपनी जगह बनाई है. पहल’(106,जनवरी 2017) में प्रकाशित ‘मन्नत टेलर्स’उनकी एक ऐसी ही कहानी है. विकसित हो रहे ‘गारमेंट उद्योग’और संकुचित हो रहे पारंपरिक टेलरिंग व्यवसाय के आर्थिक-सामाजिक यथार्थों की बुनावट को दिखाने के बहाने भूमंडलोत्तर समय की जटिलताओं के बीच विकास के सूचकांकों में उलझे मनुष्य के भीतर पल रहे वर्गीय अंतर्विरोधों को यह कहानी जिस खूबसूरती से जाहिर करती है वह इसे इनकी अन्य कहानियों से तो अलग करता ही है,समकालीन हिन्दी कहानी में व्याप्त बाज़ार संबंधी विमर्श को समझने के लिए एक अलग परिप्रेक्ष्य की रचना भी करता है.

भारत के आर्थिक विकास में वस्त्र उद्योग की हमेशा से महत्वपूर्ण भूमिका रही है. सकल घरेलू उत्पाद में वस्त्र उद्योग की हिस्सेदारी लगभग चार से पाँच प्रतिशत है. पिछले कुछ वर्षों में खासकर उदारीकरण की शुरुआत के बाद वस्त्र उद्योग में रेडीमेड कपड़ों की हिस्सेदारी उल्लेखनीय रूप से बढ़ी है.चीन के बाद भारत विश्व का सबसे बड़ा गारमेंट निर्माता है. उल्लेखनीय है कि भारत में रेडीमेड कपड़ों का बाज़ार लगभग 3 लाख करोड़ रुपये से भी ज्यादा का है.  जिसमें पुरुषों के कपड़ों की हिस्सेदारी लगभग 36 और स्त्रियॉं के कपड़ों की हिस्सेदारी लगभग 32 प्रतिशत है. इस बात को भी रेखांकित किया जाना चाहिए कि पिछले कुछ वर्षों में भारतीय समाज के फैशन-बोध में गुणात्मक बदलाव आया है. लिहाजा रेडीमेड कपड़ों का बाज़ार तेज गति से बढ़ रहा है. हालांकि रेडीमेड कपड़ों के निर्माण का एक महत्वपूर्ण हिस्सा विदेशी बाज़ार में निर्यात हो जाता है,लेकिन इनका घरेलू बाज़ार भी लगातार बढ़ रहा है. गौर किया जाना चाहिए कि कुछ वर्ष पूर्व तक यह क्षेत्र सिर्फ लघु उद्योग के लिए सुरक्षित था लेकिन बदलते आर्थिक परिवेश में इसे बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए भी खोल दिया गया है. परिणामतः सस्ते श्रम और अपेक्षाकृत कम लागत मूल्य के कारण भारतीय रेडीमेड कपड़े घरेलू ही नहीं विश्व बाजार तक में अपनी उल्लेखनीय उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं.

सस्ते लागत के नाम पर बांग्लादेश और श्रीलंका जैसे पड़ोसी देशों के साथ इस क्षेत्र में व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा भी खूब है. इस उद्योगमें संगठित क्षेत्रों की उपस्थितिऔर तमाम उत्साहवर्धक सरकारी आंकड़ों के बावजूद कम लागत का टार्गेट पूरा करने के लिए बड़े पैमाने पर संविदा और उपसंविदा श्रमिकों की भागीदारी के कारण यह क्षेत्र मानव संसाधन के लिहाज से चिंता का विषय है.गोकि रेडीमेड वस्त्र निर्माण उद्योग ने रोजगार के बहुत से अवसर उपलब्ध कराये हैं तथापि इसका प्रतिकूल असर टेलरिंग के व्यवसाय में लगे लोगों के जीवन पर प्रत्यक्षतः हुआ है. ‘मन्नत टेलर्स’ में रशीद की स्मृति के बहाने प्रज्ञा टेलरिंग व्यवसाय में लगे उन पारंपरिक कारीगरों की बदहाली पर बात करना चाहती हैं जो रेडीमेड वस्त्रों के बढ़ते चलन के कारण बेरोजगारी की मार झेल रहे हैं.

प्रज्ञा की इस कहानी को पढ़ते हुये ख्यात ई पत्रिका समालोचनपर हाल ही में प्रकाशित वरिष्ठ कथाकार सुभाष पंतकी कहानी ‘अ स्टिच इन टाइम’की याद आना स्वाभाविक है. ‘मन्नत टेलर्स’ पर बात करते हुये ‘अ स्टिच इन टाइम’को याद करने का कारण सिर्फ इन कहानियों के विषय का साम्य ही है,वरना कुछेक  विषयगत समानताओं के बावजूद कहन,कथानक और ट्रीटमेंट के स्तर पर ये दोनों कहानियाँ एक दूसरे से भिन्न हैं. हाँ,दोनों कहानियों की शुरुआत संयोगवश जरूर एक जैसे दृश्यों से होती है. ‘मन्नत टेलर्स’ का समीर जहां पत्नी शिखा द्वारा लाये रेडीमेड शर्ट की फिटिंग ठीक न होने के कारण परेशान होकर अपने बचपन के दिनों को याद करता हुआ मन्नत टेलर्स वाले रशीद भाई तक पहुँच जाता है,तो वहीं ‘अ स्टिच इन टाइम’ का कथानायक ‘मैं’अपने जन्मदिन पर बेटी के द्वारा उपहार में दी गई रेडीमेड शर्ट को पहनने में खुद को असहज पाते हुये अमन टेलर्स के नजर अहमद के जीवन की समस्याओं के बारे में सोचता हुआ खुद को ही वर्तमान समय में अनफ़िट महसूस करने की विडम्बना को प्राप्त होता है.

इन कहानियों के प्रस्थान एक जैसे दिखने के बावजूद एक जैसे हैं नहीं. उल्लेखनीय है की ‘अ स्टिच इन टाइम’ का कथानायक मैं’,जिसकी चिंता के केंद्र में संकुचित होता टेलरिंग व्यवसाय और उससे जुड़े कारीगरों के जीवन की समस्याएँ हैं,पहले से ही रेडीमेड शर्ट पहनने के खिलाफ है. जबकि ‘मन्नत टेलर्सके समीर को रशीद भाई की स्मृतियों के बहाने बाज़ार के षड्यंत्र और दिनानुदिन समाप्त हो रहे टेलरिंग व्यवसाय में लगे कारीगरों की चिंता तब होती है जब उसे पत्नी द्वारा लाये गए शर्ट की फिटिंग पसंद नहीं आती. सवाल यह है कि यदि उसे उस शर्ट की फिटिंग पसंद आ जाती तो?जाहिर है तब उसकी चिंताओं के केंद्र में न तो रशीद भाई होते न समाप्त हो रहा टेलरिंग व्यवसाय. यानी सबकुछ हस्बेमामूल चलता रहता. यह भी गौर किया जाना चाहिए कि जिन कारणों से लोग रेडीमेड कपड़े पहनना पसंद करते हैं,अच्छी फिटिंग भी उन में से एक है. ऐसे में रेडीमेड शर्ट की फिटिंग ठीक न होने के बाद टेलर द्वारा सिले हुये कपड़े की याद आना भी बहुत युक्तिसंगत नहीं लगता.

कहानी के प्रस्थान से जुड़ी इन दो बातों कों देखते हुये लगता है कि कहानी की नाल सही जगह पर नहीं गड़ी है. बावजूद इसके यदि यह कहानी उल्लेखनीय बन पड़ी है तो उसके दो कारण हैं- एक,समीर के वर्गीय चरित्र के विरोधाभासों का प्रभावशाली अंकन और दूसरा मन्नत टेलर्सकी स्मृतियों के बहाने पाठक की स्मृतियों तक कथाकार की सीधी पहुँच. रेडीमेड शर्ट की फिटिंग ठीक न आने के बाद परेशान समीर अपने बचपन की वीथियों से गुजरता हुआ जिस तन्मयता से मन्नत टेलर्स और रशीद भाई से जुड़ी एक-एक बात को याद करता है वह इतना आत्मीय है कि उसकी उंगली पकड़े आप कब कैसे उन टेलर्स की दुकानों तक हो आते हैं जिनके सिले कपड़ों के साथ जाने आपकी कितनी स्मृतियाँ जुड़ी होती हैं,पता ही नहींचलता. ये दृश्य कितने जीवंत और प्रभावी हैं इसका अंदाजा आप इस बात से भी लगा सकते हैं कि  न सिर्फ इस कहानी को पढ़ते हुये बल्कि इस वक्त इस कहानी पर यह टिप्पणी लिखते हुये भी अपने बचपन से लेकर कॉलेज दिनों तक के कई टेलर्स,यथा– शिवहर का टॉप टेलर्स,सीतामढ़ी का डायमंड टेलर्स और मोतीझील मुजफ्फरपुर का  वेरायटी टेलर्स कितनी मीठी स्मृतियों के साथ मेरी पुतलियों में जीवंत हो उठे हैं.

पिछले महीने की सीतामढ़ी यात्रा के दौरान लखनदेई पुल से गुजरते हुये मुझे मन्नत टेलर्सकी याद आई थी और वहाँ डायमंड टेलर्स का बोर्ड नहीं देख कर एक अजीब सा शोक मेरे भीतर फैल गया था. नहीं जानता कि डायमंड टेलर्स बंद हो चुका है या लखनदेई पुल जैसे शहर के मुख्य स्थान से विस्थापित होकर किसी गली-कूचे के मकान में चला गया है,पर उसकी स्मृतियाँ मेरे गले में किसी फांस की तरह अटकी पड़ीं हैं. किसी कहानी का ऐसा प्रभाव बहुत कम होता है. मैं इसे मन्नत टेलर्सकी सबसे बड़ी सफलता मानता हूँ. इसके अतिरिक्त जिस दूसरी बात के कारण यह कहानी मुझेमहत्वपूर्ण लगी वह है – समीर के वर्गीय चरित्र के विरोधाभास का अंकन. गौरतलब है कि इस कहानी में मन्नत टेलर्स के रशीद भाई का जिक्र तीन स्तरों पर हुआ है. एक- बचपन की सुखद स्मृतियों के बहाने जहां रशीद भाई महज एक टेलर मास्टर नहीं बल्कि समीर के पिता के मित्र की तरह हैं. हाँ,दूसरे स्तर पर रशीद का जिक्र तब होता है जब समीर उन्हें खोजने जा रहा है. बेशक रशीद भाई की यह छवि  समीर के बचपन  की स्मृतियों के सहारे ही गढ़ी गई है लेकिन उनकी बदहाली की आशंकाओं और उनके प्रति समर के मन में उपजने वाली सहानुभूति उसकी वर्गीय पृष्ठभूमि से भी संचालित है.

रशीद भाई की तीसरी  छवि वर्तमान की है जहां एम बीए की पढ़ाई करने के बाद उनके बेटे असलम की व्यावसायिक सूझबूझ से उनका जीवन खुशहाल और समृद्ध हो गया है. उल्लेखनीय है कि  इन अलग-अलग स्थितियों में समीर का व्यवहार एक जैसा नहीं है. लेखक पर बाज़ार के विनाशकारी रूप संबंधी आम धारणा का दबाव हो या कि अपकेक्षाकृत कम पढे लिखे सिलाई कारीगर परिवार के बारे में  सोचते हुये अध्यापक पिता की संतान समीर के भीतर आकार ग्रहण करता  श्रेष्ठता बोध,समीर पल भर को भी रशीद भाई के खुशहाल जीवन की कल्पना तक नहीं कर पाता.  लेकिन अपनी तमाम आशंकाओं के विपरीत रशीद भाई और उसके बेटे की समृद्धि को देखते हुये उसके भीतर हीन भावना घर कर जाती है. अपने  से बेहतर और कमतर व्यक्ति के आगे एक ही व्यक्ति के अलग-अलग व्यवहारों के बीच पसरा फासला किस तरह के विडंबनाओं को जन्म देता है उसे इस कहानी में  बहुत शिद्दत से महसूस किया जा सकता है. संवेदनात्मक कलात्मकता की दृष्टि से मन्नत टेलर्स का यह हिस्सा सबसे ज्यादा प्रभावशाली है. मेरी राय में कहानी के वर्तमान तानेबाने में इसे ही कहानी का नाभि केंद्र होना चाहिये था. मेरी दृष्टि में तब यह कहानी ज्यादा मारक और असरदार होती.  लेकिन प्रज्ञा भिन्न परिस्थितियों में समर के भिन्न वर्गीय व्यवहार के अंतर्विरोधों से उत्पन्न विडम्बना को कहानी के मर्म की तरह नहीं स्थापित होने देती हैं और कहानी की अंतिम दो पंक्तियों में सिलाई कारीगरों की बदहाली को ही कहानी की केंद्रीय चिंता के रूप में रेखांकित करने का सायास जतन करती हैं –

रशीद भाई का प्यार लिए मेरे कदम दुकान से निकल रहे थे. चेहरे पर असलम की हंसी के जवाब में एक मुस्कुराहट थी. मैं खुश था कि रशीद भाई खुश हैं, उनका परिवार खुशहाल है पर दिमाग के दूसरे कोने में जारी हलचलें मुझे अशांत कररही थीं- क्या सब रशीद इतने खुशकिस्मत हैं? अचानक मेरे हाथ में दबा हुआथैला मुझे बहुत भारी लगने लगा.”

अपने पूर्वनिर्धारित और कहानी की शुरुआत में सायास प्रस्तावित निष्कर्षों तक पहुँचने के दबाव में प्रज्ञा यहाँ कहानी में मौजूद उसकी स्वाभाविक क्षमताओं और संभावनाओं की अनदेखी कर जाती हैं. जाहिर है कहानीकार ने कहानी की नाल जहां गाड़ी थी उसके निर्वाह के लिएही उसे ऐसा करना पड़ा है,जिस कारण  अलग-अलग दृश्यों में मौजूद मजबूत प्राभावोत्पादकता के बावजूद मेरी दृष्टि में कहानी का समग्र प्रभाव बाधित हुआ है. मेरे कहने का यह अर्थ  कदापि नहीं कि एक रचनाकार और संवेदनशील मनुष्य के रूप में व्यवस्था का शिकार हो रहे रशीदों की चिंता नहीं की जानी चाहिए,बल्कि मेरा अभिप्राय यह है कि यदि कहानी को सच्चे अर्थों में उन रशीदों की चिंता थी तो यहाँ उसके लिए कुछ और ठोस उपकरण जुटाये जाने चाहिए थे. 



भूमंडलोत्तर कहानी क्रम में आपने अब तक निम्न कहानियों पर युवा आलोचक राकेश बिहारी की विवेचना पढ़ी है. 1-लापता नत्थू उर्फ दुनिया न माने (रवि बुले), 2-शिफ्ट+ कंट्रोल+आल्ट = डिलीट (आकांक्षा पारे), 3-नाकोहस (पुरुषोत्तम अग्रवाल), 4-अँगुरी में डसले बिया नगिनिया (अनुज)5-पानी (मनोज कुमार पांडेय), 6-कायांतर (जयश्री राय), 7-उत्तर प्रदेश की खिड़की (विमल चन्द्र पाण्डेय), 8-नीला घर (अपर्णा मनोज), 9-दादी, मुल्तान और टच एण्ड गो(तरुण भटनागर), 10-कउने खोतवा में लुकइलू (राकेश दुबे),11-चौपड़े की चुड़ैलें (पंकज सुबीर) 12-अधजली(सिनीवाली शर्मा, १३-जस्ट डांस (कैलाश वानखेड़े).


महज आशंकाओं और सहानुभूति के आधार पर इन ररशीदों की चिंता कैसे की जा सकती है? यहाँ यह भी  गौर किया जाना चाहिए कि मन्नत टेलर्स और  ‘अ स्टिच इन टाइम’ दोनों कहानियों के मुख्य पात्र पुरुष हैं और इनमें शर्ट  के बहाने परंपरागत टेलरिंग व्यवसाय के संकुचन की समस्या पर बात की गई है.  गौरतलब है कि रेडीमेड कपड़ों के व्यवसाय में पुरुषों और स्त्रियॉं के  के कपड़ों की हिस्सेदारी के प्रतिशत में ज्यादा अंतर नहीं है.  जिस तरह  स्त्रियॉं के रेडीमेड वस्त्रों का व्यवसाय भी लगातार बढ़ रहा है,घरेलू स्त्रियॉं द्वारा संचालित सिलाई का व्यवसाय उससे खासा प्रभावित हुआ है. हालांकि किसी कथाकार से यह मांग करना कि वह किसी खास  कोण से ही कहानी लिखे कुछ हद तक उनके साथ ज्यादती हो सकती है,लेकिन जब किसी कहानी के केंद्र में कोई खास समस्या हो तो उस के विविध आयामों को परखा जाना बहुत जरूरी है. क्या ही अच्छा होता कि प्रज्ञा स्त्री होने के अपने विशेष अनुभवों के साथ यहाँ इस समस्या के स्त्री आयाम को भी संबोधित करतीं.

पाठक और कहानी के पात्रों के बीच एक मजबूत तादात्म्य कायम हो सके इसके लिए लेखक का अपने पात्रों में रच बस जाना जितना जरूरी है,कहानी के बहुकोणीय और बहुपरतीय विस्तार के लिए उसकी तटस्थता भी उतनी ही जरूरी है. तटस्थ तन्मयता और तन्मय तटस्थता का यह संतुलन आसान नहीं,बल्कि एक कथाकार की रचनात्मक निरंतरता कुछ अर्थों में  इसी संतुलन को प्राप्त करने का एक चैतन्य अभ्यास है. उल्लेखनीय है कि  इनफिनिटी नाम की तिमंजिली दुकान के रूप में रशीद भाई और उनके बेटे असलम की समृद्धि को देख समीर इस कदर अपनी हीन भावना में हो आता है कि उसे कुछ और दिखता ही नहीं. मेरे भीतर सांस लेते पाठक की आँखें  उस तिमंजिली दुकान में कार्यरत उन लोगों के चेहरों को भी देखना देखना चाहती हैं जिसे असलम की इनफिनिटी ने नई ज़िंदगी और रोजगार दी होगी.

मेरा पाठक रेडीमेड कपड़ों के वितरण के लिए जरूरी दूसरे लघु उद्योगों के उद्भव और विकास की भी अनदेखी नहीं करना चाहता. लेकिन ऐसा नहीं है कि यह कहते हुये मैं उन बाजारवादी शक्तियों  की अनदेखी करना चाहता हूँ जो मनुष्य को उपभोक्ता और मजदूर में परिसीमित कर देने की लगातार साजिशें कर रही हैं,जिसकी चिंता सुभाष पंत अपनी कहानी ‘अ स्टिच इन टाइम’ में लगातार करते हैं. पर यह भी  सच है कि भूमंडलीकृत बाज़ार के विस्तार को रोक पाना आज व्यावहारिक रूप से संभव नहीं है. कुछ अर्थों में यह प्रगति और विकास विरोधी भी हो सकता है. इसलिए परंपरागत टेलरिंग व्यवसाय या इस तरह के अन्य उद्यमों में लगे छोटे छोटे उद्यमियों का श्रमिक हो जाना आज के समय का बड़ा यथार्थ है.  लेकिन एक खास तरह की रूमानियत में बह कर इसका सामना नहीं किया जा सकता.

दिन प्रति दिन  संकुचित हो रहे उन परंपरागत  दुकानों को फिर से आबाद किया जाना संभव नहीं. असंगठित क्षेत्र में पल रहे उन परंपरागत उद्यमियों के भविष्य की अनिश्चितताओं  को देखते हुये इसकी जरूरतों पर भी एक अलग तरह की बहस हो सकती है. लेकिन लगातार विस्तृत हो रहे  बाज़ार में इन नए श्रमिकों के अधिकार कैसे सुरक्षित होंगे इस बात की चिंता जरूर की जानी चाहिए. इसलिए मेरी आँखें  इनफिनिटी  में कार्यरत लोगों को देख भर के आश्वस्त नहीं हो जाना चाहतीं बल्कि इनफिनिटी  जैसे नए संस्थानों में व्याप्त व्यावसायिक संस्कृति का ऑडिट भी करना चाहती हैं  ताकि बाज़ार के फ़लक पर खड़े हो रहे नए श्रमिकों के कल्याण,अधिकार और भविष्य की सुरक्षा तय की जा सके. अपने बचपन और युवा दिनों की स्मृति में गहरे धँसने को विवश करने वाली कहानी  मन्नत टेलर्सको इस दृष्टि से भी पढ़ा जाना चाहिए.
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राकेश बिहारी
संपर्क: एन एच 3 / सी 76, एनटीपीसी विंध्यनगर, जिला- सिंगरौली 486 885 (म. प्र.)
मोबाईल- 09425823033 ईमेल –brakesh1110@gmail.com

सहजि सहजि गुन रमैं : तेजी ग्रोवर

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(कृति : vipul prajapati)

तेजी की कविताओं पर फौरी तौर पर कुछ कहना उस अनुभव को तबाह कर देना है जो इन कविताओं को पढ़ते हुए आप पर तारी होता हैं.

इयुजेनियो मोंताले (१८९६-१९८१इटली) ने ठीक ही कहा है – “महान कविता का जन्म अक्सर ऐसे निजी संकट से होता है जिसका भान कई बार कवि को भी नहीं होता, यह संकट से अधिक कई बार एक ख़ास तरह के असंतोष से होता एक भीतरी शून्य से होता है जिसे कविता अस्थायी तौर पर भर देती है. यही वह इलाका है जहाँ से हर महान कविता जन्म लेती है.’

यह असंतोष है, संकट है या शून्य- चाहे जो भी हो. है बहुत सम्मोहक. उनकी एक साथ बीस नई कविताएँ आपके लिए ख़ास तौर पर.





तेजी ग्रोवर की कविताएँ                                                

कविता की प्रतीक्षा में सूखते हुए कुछ दिन
(पारुल पुखराज और जॉर्ज सेफ़ेरिस के फूलों से)




--- पेरिस में अपने विद्यार्थी दोनों में मैं एक बार अपने एक मित्र के साथ वायलिन की गज़ बनाने वाले एक आदमी के घर गया. गार डू नॉर्द के मोहल्ले में एक घर की सबसे ऊपरी मंज़िल पर. जैसे ही मैं घुसा, दाहिने हाथ कटी लकड़ी की एक ढेरी. “इस सबसे,” मैंने पूछा, “क्या आप गजें  बनाएँगे?” “मैं नहीं,” वे बोले. “इस लकड़ी से मेरा बेटा बनायेगा गजें, लकड़ी अभी सूखी नहीं है.” मैं नैरन्तर्य को लेकर उसकी चेतना से बहुत प्रभावित हुआ. कितने लोग जानते हैं लकड़ी के सूखने की प्रतीक्षा करना! (जॉर्ज सेफ़ेरिस की “कवि की डायरी” से)

--- “और कभी-कभी, तेजी, सूख चुकी लकड़ी में दो-तीन साल बाद फिर नमी आने लगती है.” (अनिरुद्ध उमट)
प्रे
एक भारी पत्थर छाती पर
कागज पर

भारहीन शब्द  (पारुल पुखराज)








१.

क्या
मालूम है
तुम्हें

पर्दे के पीछे
बेतरह
रूठ गयी है
वह 

उसकी 
     मात्राएँ
          झांकती हैं
अथाह हरे की सलों में

उसके शब्द
हृदय          की रेत पर
तड़पते से कुछ जीव हैं अक्स में

उसके अर्थ
तुम्हारे अंगों में
            खून की तरह
            श्वेत और मौन हैं

बहुरंगी मेघों से
       अश्रुबिंद
         बरस
 जाते हैं
      स्वरों की मुंडेर पर


तब भी    नहीं आती वह
          नहीं आती
                 तब भी

नहीं आती वह
      आती नहीं वह





२.

नीईईईईल---मणि----मुख
पोखर में खड़ा सूर्य

             झलक गया अभी से
                         बिम्ब भी
                           साँझ की आमद का

चन्द्रमा
      खींच लिये चलता है अपना चित्र

                पानी से बहुत दूर     दूर वहाँ
                 और
                 अनिद्रा में डूबे हुए वे श्वेत से कुछ पंख

उस ओर शायद प्रतीक्षा करती बैठी हो
कागज़ की

वह, रसभरी !





३.

जिस भी सेमल की छीम्बी से उडती है वह
जिस भी दूर्वा की ओसभरी लोच में नम
जिस भी हरे साँप के नीचे से रेंग जाती है घास में
जिस भी दुधमुँहे दांत से काट लेती है कुचाग्र को
जिस भी ईश्वर में घुलनशील है अनास्था की केंचुल में
जिस भी पत्ती से क्षमा मांगती है कि आत्माएँ मर्त्य हैं
जिस भी गर्भ में सुनती है व्यूह में प्रवेश की
जिस भी नक्षत्र पर सवार वह निहारती है पितरों के श्वेत को

वह रहे !

अपने व्योम में स्वच्छ
              और पारभासी

आये न आये यहाँ


वह रहे !





४.

भाषा के साथ खेल सकते हो
                     (खेले भी हो ज़ार-ज़ार उसकी ध्वनियों और नुक्तों से)

क्या खेलोगे उससे भी---?

उस परछाईयों के बुने नृत्य से
साँसों की उस अन्यमनस्क माला से
सुगन्ध से बहके हुए उस झोंके से
                      जिसे सहेज नहीं सकती तुम्हारी पलकें

मालती के वे फीके गुलाबी फूल
नारंगी ग्रीवा से मुरझाते हुए वे पारिजात
जासोन के वे सुर्ख घने बिम्ब जो तुम्हे चूमकर डूब जाते हैं साँझ में
वह मत्स्या जो कन्या के भेस में तुम्हारे ममत्व को टंकार जाती है
वह देही जो तुम्हारी देह में किसी मर्त्य गीत को गुनगुनाती है

क्या खेलोगे उससे भी जिसे कभी-कभी कविता कह देते हो तुम?

भाषा से खेल सकते हो





५.

तुमने एक फूल को देख लिया है तालाब की इन्द्रियों में गुलाबी रिसते
भैंस की कालिख़ से सुबहो-शाम खून पीते हुए जीव
और वह साँप जिसे पहली बार मानुष की आँख ने देखा है
कोई सच है जिसकी पुतलियों में सूर्य के साथ बाँस के बिम्ब
एक शिशु जानता है कि एक चाँद निकलता है उसकी प्याली से
तुम नहीं जानते उस मोम के मर्म को जो जलती है तुम्हारी मेज़ पर ---

यह पृथ्वी जो एक हस्तलिखित पंक्ति है
                                  पृथ्वी की डूबती हुई सतह पर





६.

पूरा हो चुका चाँद
झर चुकी सेमल और टेसू की सुर्ख़ी
कनक की पकती हुई लोच में

महुआ की तीक सी वह कभी-कभी दिख भी जाती है
लम्बे कश में बदल देती हुई इस दृश्य के ऐश्वर्य को

फिर दिख जाती है कोई जुएँ बीनती हुई माँ
नीले घर के उघड़े हुए काँधे की ओट में

और लो
वो गयी वह नंग-धड़ंग भोर में उड़ती-पड़ती
सूखे बालों के अनमने गोदुए में
अण्डों से लबालब भरी हुई





७.
अभी टिमटिमाते थे
अब मुँहा-मुँही आग पकड़ते हैं
टेसू के फूल

इच्छा से
अनिच्छा से
जलती है वह
     जो देह है आत्मा की

कभी-कभी
सेमल के सुर्ख में अटक कर
भ्रम होने लगता है ---

वह जो अग्नि है
कहाँ-कहाँ टहल आती है
        देह की तलाश में




८.

क्या यही मिला है

हम भूल जाएँ उसे
और प्रतीक्षा करें

बस यही

गिलहरी आये
ख़ाली आँखों में तांक-झाँक
फिर भाग जाए आम के फूलों में

बहुत दिनों से दिखा भी नहीं
प्रेम के पाश में बीच गली पड़ा हुआ
वह एक जोड़ा गिरगिट का

श्वेताम्बरी बकरी वह
जो चाँदनी के फूलों के नीचे
देह उठाये खड़ी है

वह तरुण
जिसकी आँखों के शिशु में
आन ही पहुंची है वह इच्छा का रूप धरे

भूल जाएँ उसे
और प्रतीक्षा करें





९.

कभी वह उतरती है बिम्ब में
कभी कोरे किसी शब्द में
शव के लिए सहेज दिए गये कपड़े सी

आस्था-
अनास्था के बे-अन्त जाल बुनती हुई
वनस्पतियों के घनत्व में

क्या यह सच है कि भूख के शब्द में मनुष्य ही का बिम्ब है
कि प्यास के शब्द में

वे माटी और कंकरों को उबाल कर पीते हैं
वे हड्डियों के आटे की रोटी बेलते हैं
वे पेड़ में पड़े कीड़े और जल को सुडक लेते हैं चोंच से
वे मुँह बाये गोदुए में प्रतीक्षा करते पंखहीन शिशुओं को

पूरी पृथ्वी को ढाँप देने कोई एक चादर बुनता है

और प्रतीक्षा करता है ---

(कोई नहीं जानता
किसी को नहीं पता इस फ़न का

किसी ने
कभी
कुछ भी सीखा नहीं)








१०.

बेतरह आँख पोंछता है
इस क्षण का ईश्वर

(आँसू
प्याज़ के?)

ऐश्वर्य में
उसे भी नहीं मालूम
वह भी नहीं जानता

प्रतीक्षा है वह
जिसकी प्रतीक्षा
होना अभी शेष है

शेष है
अभी इस नक्षत्र पर


फोटो : MASOOD HUSSAIN







११.

उसका [कवि का] कान उससे बात करता है
                                 --- पॉल वालेरी

मीलों-मील बंधी हुई धूप में
                    पूसे अनाज के

कान सुनता है
    एकटक
    कनक और टेसू के रंग
    सेमल के फूल की हवा में

और मंजते हुए सुबह के बासन कहीं

वह कहीं इस दृश्य की भंगुरता में अलसायी
               हँस रही है काँच की हँसी






१२.

सरक आती है कान की प्याली में ---
                 सुबह की स्नेह सरीखी धूप

जब कोई बासी-मुँह सोया पड़ा है अभी उनींदी रात के बहाने

सुबह के पाखी देर तक कूकते हैं आम की महक में
बताओ मुझे—
        कहाँ है वह रेखा पानी की
        खींच सकते हो जिसे
        उस और इस पार के बीच?







१३.

ऊँघतीं हैं
     दोपहर की कच्ची डगार से
           मुनगे की सूख चुकी फलियाँ  


सींच जाती है
         उड़ती कोई चिड़िया
              दूबरी
          परछाईं से








१४.

नाव को खेते, तैरते, बादल और धूप. आज मैं कुछ नहीं होना चाहता; कल देखेंगे.
                                                           --- जॉर्ज सेफ़ेरिस

बहुरंगी छींट की खाल में रुई का भेड़िया. बड़ा है हांड-मांस के आकार से. छोटे-छोटे दांत निपोरे भागा आता है सीढ़ी-दर-सीढ़ी आँगन के पार से. लपकता है मुझपर रुई की पूरी लोच से. फिर तुम पर भागा आता है सीढ़ी के छोर से.

मैं मुस्कराते हुए उठ बैठती हूँ स्वप्न से

पहली बार जीवन में.






१५.

तब तो, उसकी प्रतीक्षा करते हुए मैं खो बैठूंगा उसे.
                                       --- काफ़्का

पर्वतों के नील से किसक रही है बर्फ की धूप नदी के मुख में. “मात्सुशिमा/ आह मात्सुशिमा/ मात्सुशिमा!” लुन्स्दाल से हलकी कूक के साथ आर्कटिक की सफ़ेद रात में टहल आती हैं ट्रेन की खिड़कियाँ. बौनों का और से और रूप धरते हैं उत्तर की ओर धीमे-धीमे भागते हुए पेड़. ध्रुवों के पानी होते श्वेत में अपनी भूख को लिये-लिये फिरते हैं बर्फ के चौपाये.

हो सकता है क्या इतने क़रीब से छूकर भी मैंने खो दिया हो उसे?




१६.

मालूम नहीं
      इच्छा होती है जब
                  कि आये वह

क्या वह रूठ गयी होती है 
               खेत-हार में सूख रहे
                         पूसों के बीच

दिन-दहाड़े
छब्बीस मार्च के दिन

जब कोई शक नहीं कि दहक रहे हैं तीन-तीन पेड़ों के फूल

हलके स्पर्श में चित्र-सरीखी बैठी हुई बकरियाँ
हलके बुखार में तप रही हैं

स्मृति
जब सिर्फ़ और सिर्फ़ एक आगोश है
दिशाओं में लरज़ती हुई





१७.

रात आयी
और अदृश्य में डूब गये
मीलों-मील फैले हुए
मार्च के सुनहले और सुर्ख 

एक नक्षत्र अपनी धुरी पर घूमता है 
उन्हें दृश्य में लाने

धनतहिया कोई दो बीघे का यूं ही परती में डाल दिया गया है

शून्य के लम्बे-लम्बे कश खींच रही है पृथ्वी

बस धनकुट्टे कुछ मखमली अब रेंगते रहेंगे यहाँ-वहाँ
गहरी सोच में डूबे हुए




1८.

अपने फूलों की दहक से
वह भी तो तुम्हारी उँगलियों को छूने की प्रतीक्षा करती है

कोई एकतरफ़ा प्रेम है यह
कि नैराश्य में मिटी जा रही है तुम्हारी आँखें!

नहीं है ---
कि त्वचा तुम्हारी महक को बरज दे मार्च के माह में

नहीं यह भी नहीं
यह भी सब झूठ ही गुनते हो तुम गूदा-गादी की गर्ज़ से

तुम प्रेम करते हो उससे
कि जीवन में यही एक प्रेम किया है तुमने
कि इसी प्रेम की ख़ातिर 
           तुमने पृथ्वी के असह्य सौन्दर्य से क्षमा मांगी है कई बार

उन दुखों से और प्यास के पहाड़ों से भी क्षमा माँगी है
जो तुम्हे ध्वस्त किये भी तुम्हारी पंक्तियों में नहीं आते

माँगी है क्षमा पाखियों और मनुष्य के शिशुओं से
कई नर-मादा सर्पों से जिनकी सभ्यताएँ छीन ली गयी हैं

फिर भी प्यास लगी आती है तुम्हारे शब्दों की देह को
जब शब्दों और अर्थों के बीच
तुम्हारे हृदय की धड़कन
और मेज़ पर बेवजह धरे पन्नों के बीच
एक अलंघ्य दूरी है

क्षमा माँगो कि क्षमा भी एक व्यर्थ का कर्म है, मित्र
जो बचा ले जाता है तुम्हें एक मुक्ताकाश में

वह भी तो तुम्हारी उँगलियों को छूने के प्रतीक्षा करती है
अपने फूलों की दहक से ---

प्रतीक्षा
समय की बनी हुई नहीं है 





1९.

क्षण के उस नामालूम अंश में
जब तुम्हारे मोह में धोखे से पड़ ही जाती है वह
क्या वह डर रही होती है कि उसकी पलकों के कम्पन से मुग्ध
तुम किन्हीं और पलकों के कम्पन से
               तबाह कर लेना चाहोगे ख़ुद को?

दूर से आती है या कहीं बहुत पास से
पुरखों के रोने की दिशा से आती है वह
उस नख्लिस्तान से जिसे रोया है उनके चेहरों ने

उस सुख की आंधी सी उड़ी आती है वह
जो माँ के सफ़ेद फूलों से हर रोज़ बिखरता है
उसी के नूर में काँपती तुम्हारी आँखों के नीचे
जब बही आयेंगीं तितलियाँ पीली आम की वातास में
वह चली जाएगी छोड़कर तुम्हें विस्मृति की धूल में

रोओ, सर पटक कर ज़ार-ज़ार रोओ तुम
गिरा दो अपनी जेबों में काले पड़ते चाँदी के सिक्के
वे छुआरे और मीठे चने बचपन के
जिन्हें बीनते थे तुम शवयात्राओं के बीच से भागते हुए आठ के आकार में

तज दो दारिद्र्य अपना
तज दो ऐश्वर्य भी

उठाओ अपनी भवें शून्य के गलियारे में

नदी से
बहुत दूर

बहुत बहुत
दूर
रेवा के तट से

बहुत    बहुत
दूर तुम !!





२०.
प्रतीक्षा करो
या न करो
कोई फ़र्क पड़ता है भला
वह रात के रहस्य में आती है तुम्हारे पास
तुम्हारी चादर की सल में अपनी पाँखुड़ी को धीरे-धीरे खोल देती हुई
तुम्हारे कानों की प्याली से अपनी ही गर्म सांस को पीती हुई ---
वह थक भी जाती है तुमसे
तुम्हारे बिम्बों और अक्सों और ध्वनियों से
किन्हीं और उँगलियों को अपने फूलों की दहक से छूना चाहती है वह
जो कोई और ही रूप देती हैं उसे
आह रूप !
जो चहों ओर तुम्हारा ही लिखा हुआ जान पड़ता है तम्हें
कहीं भी
किसी भी छाती में बिंधा हुआ तीर
दिशाओं में लरज़ रहा है तुम्हे टंकार देता हुआ
तुम उतने ही दारिद्रय में हो
उतने ही ऐश्वर्य में
जितना तुम दे सकते हो स्वयं को ---
वह तुमसे थक कर भी
तुम्हारे ही पास लौट आती है.


_______

तेजी ग्रोवर,जन्म १९५५. कवि, कथाकार, चित्रकार, अनुवादक. पाँच कविता संग्रह, एक कहानी संग्रह, एक उपन्यास, एक निबंध संग्रह और इसी वर्ष (२०१७) लोक कथाओं के घरेलू और बाह्य संसार पर एक विवेचनात्मक पुस्तक के अलावा आधुनिक नोर्वीजी, स्वीडी, फ़्रांसीसी, लात्वी साहित्य से तेजी के तेरह पुस्तकाकार अनुवाद मुख्यतः वाणी प्रकाशन, दिल्ली,द्वारा प्रकाशित हैं. भारत भूषण अग्रवाल कविता पुरस्कार, रज़ा अवार्ड, और वरिष्ठ कलाकारों हेतु राष्ट्रीय सांस्कृतिक फ़ेलोशिप. १९९५-९७ के दौरान प्रेमचंद सृजनपीठ, उज्जैन,की अध्यक्षता. तेजी की कविताएँ देश-विदेश की तेरह भाषाओँ में, और नीलाशीर्षक से एक उपन्यास और कई कहानियाँ पोलिश और अंग्रेजी में अनूदित हैं. उनकी अधिकांश किताबें वाणी प्रकाशन से छपी हैं.

अस्सी के दशक में तेजी ने ग्रामीण संस्था किशोर भारती से जुड़कर बाल-केन्द्रित शिक्षा के एक प्रयोग-धर्मी कार्यक्रम की परिकल्पना कर उसका संयोजन किया और इस सन्दर्भ में कई वर्ष जिला होशंगाबाद के बनखेड़ी ब्लाक के गांवों में काम किया. इस दौरान शिक्षा सम्बन्धी विश्व-प्रसिद्ध कृतियों के अनुवादों की एक श्रंखला का संपादन भी किया जो आगामी वर्षों में क्रमशः प्रकाशित होती रही. इससे पहले वे चंडीगढ़ शहर के एक कॉलेज में अंग्रेजी की प्राध्यापिका थीं और १९९० में मध्य प्रदेश से लौटकर २००३ तक वापिस उसी कॉलेज में कार्यरत रहीं. वर्ष २००४ से नौकरी छोड़ मध्य प्रदेश में होशंगाबाद और इन दिनों भोपाल में आवास.

बाल-साहित्य के क्षेत्र में लगातार सक्रिय और एकलव्य, भोपाल, के लिए तेजी ने कई बाल-पुस्तकें भी तैयार की हैं.

२०१६-१७ के दौरान Institute of Advanced Study, Nantes, France, में फ़ेलोशिप पे रहीं जिसके तहत कविता और चित्रकला के अंतर्संबंध पर अध्ययन और लेखन. प्राकृतिक पदार्थों से चित्र बनाने में विशेष काम, और वानस्पतिक रंग बनाने की विभिन्न विधियों का दस्तावेजीकरण. अभी तक चित्रों की सात एकल और तीन समूह 
प्रदर्शनियां देश-विदेश में हो चुकी हैं.


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मीमांसा : फ्रिट्ज लैंग का सिनेमा : प्रचण्ड प्रवीर

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सिनेमा और नाट्य शास्त्र के अन्त:सम्बन्धों पर युवा लेखक प्रचण्ड प्रवीर शोध और गम्भीर विवेचना  का कार्य कर रहे हैं. इस विषय पर उनकी एक किताब भी प्रकाशित है-  ‘अभिनव सिनेमा : रस सिद्धांत के आलोक में विश्व सिनेमा का परिचय.

प्रस्तुत आलेख आई. आई. टी. दिल्ली में दिए उनके व्याख्यान पर आधारित है. आस्ट्रियाई-जर्मन निर्देशक फ्रिट्ज लैंग(1890-1976) की सिनेमाई कृतियों को केंद्र में रखकर नाट्य शास्त्र की अवधारणा को सामने रखा गया है. 

ख़ास आपके लिए.   


फ्रिट्ज लैंग का सिनेमा : अभिनव सिनेमा                           
प्रचण्ड प्रवीर 




पिछले दिनों मुझे मातृसंस्था भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान दिल्ली में स्नातक विद्यार्थियों के दर्शनशास्त्र की कक्षा में मेरी पुस्तक ‘अभिनव सिनेमा : रस सिद्धांत के आलोक में विश्व सिनेमा का परिचयपर व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया गया. विषय को रुचिकर बनाने के लिए मैंने रस सिद्धांत को प्रख्यात आस्ट्रियाई-जर्मन निर्देशक फ्रिट्ज लैंग (1890-1976) की सिनेमाई कृतियों के संदर्भ में रखा. व्याख्यान का संक्षिप्त हिन्दी रूपांतर इस आलेख में हैं.

   



प्रस्तावना
इस परिचर्चा में यह आवश्यक है कि कुछ मूलभूत बातों को परिचित हुआ जाय. सर्वप्रथम फ्रिट्ज लैंग के बारे में - आस्ट्रियाई जर्मन निर्देशक सिनेमा के सर्वकालिक महान निर्देशकों में गिने जाते हैं. इन्होंने सिनेमा के इतिहास के तीन महत्त्वपूर्ण दौर -मूक फ़िल्म, बोलती श्वेत-श्याम फ़िल्म और रंगीन फ़िल्म में अपना अविस्मरणीय योगदान दिया. इन्हें नुआर फ़िल्मों का जनक माना जाता है. इनकी महत्त्वपूर्ण फ़िल्में हैं-  मेट्रोपोलिस (1927), एम (1931), द टेस्टामेंट आफ डा. माबुस (1933) आदि. इनकी फ़िल्म द टेस्टामेंट आफ डा. माबुसको नाज़ी पार्टी ने प्रतिबंधित कर दिया था, जिसके बाद वे जर्मनी से भाग कर अमरीका चले गए. हालीवुड में इन्होंने थ्रिलर नुआर फ़िल्में बनायी. द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद ये वापस जर्मनी गए और वहाँ फ्रांस और इटली प्रशंसकों की मदद से आखिरी तीन फ़िल्में बनायी.


सिनेमा और नाट्यक्या भारतीय दर्शन परम्परा से हम सिनेमा कला और उस के सौन्दर्य को समझ सकते हैं? फ्रांसिसी निर्देशक गोदार और राबर्ट ब्रेसों सिनेमा को चलती फिरती तस्वीरों वाली मूवीज़और फिल्माये गए ड्रामा से अलग कर के देखते हैं. उनके अनुसार सिनेमा कुछ हद तक यथार्थ के करीब है, कुछ हद तक कला की तरह. भारतीय दर्शन परम्परा में नाटक और नाट्य पर गहन चिंतन हुआ है. नाट्यशास्त्र, जिसे पंचम वेद कहते हैं, करीब ढ़ाई हज़ार साल पुराना माना जाता है. मेरी प्रस्तावना है कि सिनेमा और नाट्य में साम्य है. सिनेमा कुछ और नहीं बल्कि तकनीक के साथ उभरा हुआ नाट्य ही है.


नाट्यशास्त्र  - कवियों और नटों के लिए बना यह शास्त्र एक सफल नाटक के मंचन के लिए ३६ अध्यायों में हैं. इसके रचियता भरतमुनि माने जाते हैं. इस पर दसवीं सदी के शैव दार्शनिक आचार्य अभिनवगुप्त की टीका अभिनवभारतीमहत्त्वपूर्ण है. भरतमुनि के नाट्यशास्त्र और अभिनवभारती ने सम्पूर्ण भारतीय नाट्यपरम्परा, संगीत, गायन आदि को बड़े पैमाने पर प्रभावित किया.


हमारे समक्ष प्रश्न

1.क्या सिनेमा केवल मनोरंजन का माध्यम है? हम मनोरंजन से क्या समझते हैं?
2. हमारे पास सब प्रचुर मात्रा में विश्व का बेहतरीन सिनेमा बिना किसी विशेष मूल्य के उपलब्ध है, फिर भी हम खराब और बहुप्रचारित फ़िल्में क्यों देखते हैं?
3.क्या सिनेमा के अध्ययन से हम बेहतर सिनेमा के अध्येता, दर्शक और बेहतर मनुष्य बन सकते हैं?
4.सिनेमा कला पर समाज का और समाज का सिनेमा पर प्रभाव में निर्देशक की भूमिका क्या है?
5.क्या नाट्य की अवधारणा सिनेमा पर लागू हो सकती है? क्या हर सिनेमा रस से सम्बन्धित होता है


नाट्यशास्त्र- नाट्य को मोटे तौर पर नृत्य, गीत और वाद्य का समूह समझा जाता है. हालांकि नाट्यशास्त्र में नाटक की उत्पत्ति के विषय में कथा है कि जिसमें इन्द्र ब्रह्मा से कहते हैं कि वह क्रीड़ा के लिए कुछ ऐसा चाहते हैं जो दृश्य और श्रव्य हो. यही क्रीड़ायोग्य दृश्य-श्रव्य वस्तु ही नाट्य है. नाट्य शब्द नट् धातु से बना है, जिसे नृत, नृत्य और नाट्य बनते हैं.

नृत - नृत का अर्थ अंगों को संचालन, जिसे हम आम तौर पर बालीवुड फ़िल्मों में दर्शाये गये नाच में देखते हैं. बहुधा इनमें कोई विशेष अर्थ नहीं होता है.
नृत्य - वहीं शास्त्रीय नृत्यों में विभिन्न मुद्राओं से कुछ अर्थ संप्रेषित किए जाते हैं. आपने देखा होगा कि भरतनाट्यं में नर्तकी हाथों से फूल, राजा और तरह तरह के अर्थों को अभिनय के माध्यम से बताती है.
नाट्य - नट के द्वारा प्रस्तुत अभिनय के प्रभाव से प्रत्यक्ष के समान प्रतीत होने वाला, एकाग्र मन की निश्चलता के कारण अनुभव किए जाने वाला और नाटक एवं काव्यविशेष से प्रकाशित अर्थ 'नाट्य'कहा जाता है.नाट्य में अर्थ को रस से संप्रेषित किया जाता है, जिसमें सभी तरह के कलाएँ अंतर्निहित हो जाती हैं.
नाट्यके ग्यारह अंग होते हैं रस, भाव, अभिनय, धर्मी, वृत्ति, प्रवृत्ति, सिद्धि, स्वर, आतोद्य, गान और रंग. चूँकि रस एक अद्वितीय दार्शनिक अवधारणा है, हम इसकी चर्चा करेंगे. 


सिनेमा के महत्त्वपूर्ण निर्देशक 

सिनेमा का अध्ययन इसके महत्त्वपूर्ण कृतियों से ही हो सकता है. हर विषय की तरह इसका भी अध्ययन इसके क्रमिक विकास से समझना चाहिए. कुछ सर्वकालिक महान फ़िल्म निर्देशकों को इस तरह देख सकते हैं:- 

पहली पीढ़ी (मूक फ़िल्में, श्वेत श्याम फ़िल्में और रंगीन फ़िल्में)डेविड ग्रिफिथ (David W. Griffith: 1875-1948) एफ. डब्ल्यू. मुर्नाउ ( F. W. Murnau:1888-1931),चार्ली चैप्लिन(Charlie Chaplin:1889-1977),कार्ल ड्रेयर(Carl Dreyer:1889-1968), फ्रिट्ज लैंग(Fritz Lang :1890-1976), अर्नस्ट लुबिच (Ernst Lubitsch: 1892- 1947), जॉन फोर्ड(John Ford: 1894-1973), ज्याँ रेन्वां ( Jean Renoir: 1894- 1979), अलेक्संदर डॉवज़ेन्को ( Alexander Dovzhenko:1894- 1956), हावर्ड हॉक्स (Howard Hawks: 1896- 1977), सर्गेइ आइजेंसन्टिन( Sergei Eisenstein:1898-1948), केंजी मिजोगुजी (Kenji Mizoguchi: 1898- 1956), अल्फ्रेड हिचकॉक (Alfred Hitchcock: 1899-1980), लुईस बुनुएल(Luis Buñuel:1900-1983), विलिअम वाइलर( William Wyler: 1902-1981), यासुजिरो ओजु (Yasijuro Ozu:1903-1963)

(नोट:  मुर्नाउ ने केवल मूक फ़िल्में ही बनायीं. ग्रिफिथ ने केवल एक बोलती फ़िल्म बनायी थी. कार्ल ड्रेयर ने रंगीन फ़िल्में नहीं बनायीं.)

दूसरी पीढ़ी (श्वेत श्याम और रंगीन फ़िल्में) जार्ज कुकोर (George Cukor: 1899-1983), राबर्ट ब्रेसों(Robert Bresson: 1900-1999), विट्टोरियो डे सिका (Vittorio De Sica: 1901- 1974), मैक्स ओफुल्स(Max Ophüls: 1902-1957), बिली वाइल्डर(Billy Wilder: 1906-2002), जाक ताती (Jacques Tati: 1907-1982), डेविड लीन (David Lean: 1908-1991), अकिरा कुरोसावा (Akira Kurosawa: 1910-1998), माइकलएंजेलो अंतोनियोनी(Michelangelo Antonioni: 1912- 2007), ओर्सन वेल्ज (Orson Welles:1915-1985), इंगमार बर्गमैन(Ingmar Bergman: 1918-2007), फेडेरिको फेलिनी(Federico Fellini: 1920-1993), पाइर पाओलो पसोलिनी (Pier Paolo Pasolini: 1922-1975)

तीसरी पीढ़ी (दूसरे विश्वयुद्ध के पश्चात श्वेत श्याम और रंगीन फ़िल्में) सत्यजित राय (Satyajit Ray: 1921-1992), सर्गेइ पाराजनोव(Sergei Parajanov: 1924-1990), स्टैनले कूब्रिक (Stanley Kubrick:1928- 1999),  ज्यां लुक गोदार (Jean Luc Godard: b. 1930), आंद्रेइ तारकोवस्की (Andrei Tarkovsky: 1932- 1986), क्रिजिस्तोफ किओस्लोवस्की (Krzysztof Kieślowski :1941 – 1996) आदि.
यह विचित्र संयोग है कि पहली पीढ़ी के मास्टरों ने पहले मूक से बोलती फ़िल्मों में जाने से अनिच्छुक रहे, बाद में शानदार बोलती फ़िल्में बनायी. इसी तरह वे रंगीन फ़िल्मों से भी परहेज करते रहे, लेकिन जब रंगीन फ़िल्में बनायी तो महान रंगीन फ़िल्में उनके नाम कही जा सकती हैं. ऐसा करने वालों मे प्रमुख थे चार्ली चैप्लिन, जापानी निर्देशक यासुजिरो ओजु, अमरीकी जॉन फोर्ड और फ्रिट्ज लैंग.

हम देख सकते हैं कि फ्रिट्ज लैंग सिनेमा विधा के शुरुआती मास्टरों में से एक हैं, जिन्होंने सन 1916से सन 1963तक सिनेमा में अपना योगदान दिया. इनकी मूक फ़िल्म डेस्टिनी(Der müde Tod: ein deutsches volkslied in 6 versen/ Weary Death: A German Folk Story in Six Verses- 1921) ने सिनेमा के महत्त्वपूर्ण मास्टरों- लुईस बुनुएल, अल्फ्रेड हिचकॉक, कार्ल ड्रेयर व माइकल पावेलको गहरे तौर पर प्रभावित किया.

यह दिलचस्प बात है कि जर्मन निर्देशक अर्न्स्ट लुबिच, आस्ट्रेयाई फ्रिट्ज लैंग और अंग्रेज अल्फ्रेड हिचकॉक तीनों ही अपने देश को छोड़ कर हॉलीवुड गए और वहाँ जा कर कामयाब फ़िल्में बनायीं. हालीवुड को सँवारने का श्रेय इन तीन महान निर्देशकों को दिया अक्सर दिया जाता है.

फ्रिट्ज लैंग की कृतियों का सिनेमा जगत पर प्रभाव -

किसी व्यक्ति को उसके काम के लिए याद किया जाता है. किसी व्यक्ति की महत्ता इस बात से समझी जा सकती है कि उसके काम से कितने लोग प्रभावित हुए.


डेस्टिनी(Destiny -1921) -  जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है कि सावित्री-सत्यवान की पौराणिक कथा जैसी लगने वाली इस फ़िल्म में यमराज/ मृत्यु के चित्रण ने कई महत्त्वपूर्ण निर्देशकों को प्रभावित किया.

मेट्रोपोलिस (Metropolis -1927) -सन 2026में स्थित महनगर में,आने वाले सौ साल केभविष्य की परिकल्पना में तत्कालीन साम्यवादी आंदोलन, मशीन और मानव श्रम के बीच समझौता, महत्त्वाकांक्षी सनकी वैज्ञानिक और उसकी आविष्कार महिला रॉबोट को दर्शातीइस कहानी को अक्सर महानतम मूक फ़िल्मों में गिना जाता है. स्टैनले कूब्रिक के फ़िल्म डॉ. स्ट्रेंजलव (Dr. Strangelove or: How I Learned to Stop Worrying and Love the Bomb - 1964) में सनकी वैज्ञानिक के दाहिने हाथ पर काला दस्ताना इस फ़िल्म से प्रेरित था.

वुमैन इन द मून (Woman in the Moon -1929) –यह जान कर आश्चर्य होगा रॉकेट लौंच पर उल्टी गिनती का श्रेय फ्रिट्ज लैंग को जाता है. स्टैनले कूब्रिक की ‘2001: अ स्पेस ओडिसी (1968)’ से चालीस साल पहले सिनेमा के परदे पर रॉकेट प्रक्षेपण और कुछ वैज्ञानिकों का चांद पर जाना दर्शाया गया. इसके उस समय के अग्रणी वैज्ञानिकों की मदद ली गयी थी.

एम(M- 1931) –बच्चियों के मनोरोगी हत्यारे को पकड़ने के लिए न केवल पुलिस परेशान है बल्कि अपने धंधे को चौपट होने से बचाने के लिए शहर के अपराधियों का गुट भी. अपनी पहली बोलती फ़िल्म में फ्रिट्ज लैंग ने ध्वनि का विभावों और अनुभावों में बेहतरीन प्रयोग किया, जो बाद की फ़िल्मों के लिए मार्गदर्शक बनी. यह फ़िल्म अक्सर दुनिया की महानतम फ़िल्मों में गिनी जाती है.  

द टेस्टामेंट आफ डॉ. माबुस (The Testament of Dr. Mabuse -1933)–जिन्होंने भी द डार्क नाइट (2008) देखी हों, उन्हें जान कर आश्चर्य होगा कि नोलन बंधुओं ने खलनायक जोकर के किरदार के लिए, अफरातफरी के दृश्यों की परिकल्पना के लिए यह क्राइम थ्रिलर का आभार प्रकट किया है. इस फ़िल्म से आतंकित हो कर इसे समाज के लिए खतरा बताते हुए नाज़ी पार्टी ने इसे जर्मनी में बैन कर दिया गया. इसके बाद शीर्ष नाजी अधिकारियों ने फ्रिट्ज लैंग से प्रोपेगैंडा फ़िल्में बनाने के लिए अनुरोध किया, जिससे बचते हुए फ्रिट्ज लैंग जर्मनी छोड़ कर चले गए.

फ्यूरी (Fury -1936) – हॉलीवुड में बनाई पहली फ़िल्म में फ्रिट्ज लैंग ने भीड़ तंत्र द्वारा न्याय देने की अवधारणा पर गहरा प्रहार किया.एक निर्दोष आदमी को भीड़ द्वारा मारने के प्रयास और बचने के बाद उस इंसान के बदले की प्रक्रिया को दर्शाने के क्रम में पहली बार कोर्ट में रिकार्ड की गयी फ़िल्म बतौर सबूत इस्तेमाल किया गया. 

द वूमैन इन द विंडो (The Woman in the Window -1944) – इस क्राइम थ्रिलर को जब फ्रांस में प्रदर्शित किया गया, तब उस आलोचकों ने उसी समय प्रदर्शित अन्य थ्रिलर फ़िल्में जैसे द माल्टीज फैल्कन (The Maltese Falcon: 1941), डबल इनडेम्निटी (Double Indemnity: 1944) और लौरा (Laura: 1944) के साथ फ़िल्म नुआरशब्द का प्रयोग किया. इस फ़िल्म को अक्सर नुआर फ़िल्मों में अग्रणी और श्रेष्ठ माना जाता है.

मूनफ्लीट (Moonfleet -1955) – वेस्टर्न फ़िल्मवेस्टर्न यूनियन (Western Union -1941) की तरह यह भी एक खूबसूरत रंगीन फ़िल्म है जो बच्चों के लिए मशहूर हमनाम उपन्यास पर बनी थी. यह फ़िल्म अमरीका में बहुत कामयाब नहीं हुयी पर फ्रांस में जॉक रिवेटऔर गोदारसरीखे आलोचकों और निर्देशकों ने इसे बहुत सराहा. यूरोपी देशों में यह फ्रिट्ज लैंग की सबसे महत्त्वपूर्ण फ़िल्म मानी जाती है.


यह भी विचित्र है कि जहाँ अमरीकी आलोचक फ्रिट्ज लैंग को उनके शुरुआती मूक फ़िल्मों के लिए याद करते हैं, वहीं यूरोपी आलोचक उनकी नुआर फ़िल्में और हॉलीवुड फ़िल्मों के लिए सराहते हैं. अल्फ्रेड हिचकॉक से कहीं पहले फ्रिट्ज लैंग अपराधी जीवन और उनकी मानसिकता पर महत्त्वपूर्ण फ़िल्म बनाते थे, और यही उनकी नुआर फ़िल्मों में उभर कर आया. यह फ्रिट्ज लैंग ही थे जो बेकार स्क्रिप्ट से शानदार थ्रिलर बनाने का माद्दा रखते थे. इसलिए मामूली उपन्यासों, समाचार पत्रों की कतरनों से बने कथानक से बनी उनकी फ़िल्में द बिग हीट’ (The Big Heat- 1953), ‘व्हाइल द सिटी स्लीप्स’ (While The City Sleeps - 1956) और बेयोंड अ रिजनेबल डाउट’ (Beyond a Reasonable Doubt - 1956) यूरोपी आलोचकों में बहुप्रशंसित है. आर्सन वेल्ज ने ठीक ऐसा ही अपनी फ़िल्म टच आफ इविल’ (Touch of Evil -1958) के लिए किया था, जब उन्होंने चुनौती के तौर बैज आफ इविल (Badge of Evil) जैसे रद्दी उपन्यास से शानदार फ़िल्म बनायी.

चार्ली चैप्लिन की द ग्रेट डिक्टेटर’ (The Great Dictator - 1940),अल्फ्रेड हिचकॉक की फोरेन कोरोस्पौंडेन्ट’ (Foreign Correspondent - 1940)और अर्नस्ट लुबिच की टू बी और नॉट टू बी’ (To Be or Not to Be - 1942) की तरह फ्रिट्ज लैंग ने नाज़ियों के विरोध में चार थ्रिलर फ़िल्में बनायी. इसमें लैंग की तरह ही जर्मनी से भागे प्रसिद्ध कवि और नाटककार बर्तोल्त ब्रेख्त की एकमात्र फ़िल्म पटकथा वाली हैंगमैन आल्सो डाय (Hangmen Also Die! - 1943) में तीखा राजनैतिक स्वर है, जिसमें नाजी पार्टी के अत्याचारों की भर्त्सना की गयी है.

दूरदर्शिता और समाज के प्रति प्रतिबद्धता के अतिरिक्त फ्रिट्ज लैंग ने सिनेमा कला के बहुत से नवोन्मेष के लिए याद किये और सराहे जाते हैं. क्लोज-अप, कैमरे के विशिष्ट कोण, छाया का कथानक के साथ सम्बन्ध, दृष्टिकोण की महत्ता, सिनेमाई आकाश, प्रेक्षक की परिकल्पना के लिए महत्त्वपूर्ण बिंदुओं में इनका योगदान सिनेमा के अध्ययन में महत्ता से देखा जाता है.


भरतमुनि का रस सूत्र
यह हम सबों ने अनुभव किया होगा किनाट्य या सिनेमा के प्रेक्षण के दौरान कभी-कभी बहुत आनंद का अनुभव होता है. हम खुशी से हँसने लगते हैं, आँखों में आँसू आ जाते हैं, बहुत शोक का अनुभव होता है, कभी चित्त उत्साह से भर आता है. इस अलौकिक आनंद का हम आस्वाद लेते हैं, इसलिए इसे रस कहते हैं. इसे अलौकिक इसलिए कहते हैं क्योंकि यह निजी सुख दु:ख से सम्बन्धित नहीं है. नाटक में दर्शाया दृश्य न तो सत्य है, न ही असत्य, इसलिए अलौकिक है.

अभिनेता अपने अभिनय (इसका शाब्दिक आशय है अर्थ को समीप लाना) से रस का आस्वादन कराते हैं, इसलिए उन्हें पात्र कहते हैं. भरतमुनि के अनुसार रस आठ हैं, जो आठ प्रमुख मनोभाव (स्थायीभाव) से पहचाने जाते हैं:

श्रृंगार रस रति
हास्य रस हास
करुण रस शोक 
रौद्र रस - क्रोध
वीर रस उत्साह
भयानक रस - भय 
वीभत्स रस जुगुप्सा
अद्भुत रस - विस्मय

हर मनुष्य के चित्त में हमेशा कोई न कोई भाव रहते हैं. नाटक का उद्देश्य कवि द्वारा प्रयोजित अर्थ नट के द्वारा मंचित हो कर सौन्दर्ययुक्त हो कर प्रेक्षक तक पहुँचना है. इस भावन व्यापार को समझने के लिए भाव तीन तरह के माने गए हैं:-

स्थायीभाव उपरोक्त आठ प्रमुख मनोभाव स्थायीभाव कहे जाते हैं जो सभी सामाजिकों के चित्त में विद्यमान रहते हैं. इन्हीं से सम्बद्ध रसों की पहचान की जाती है.

व्यभिचारीभाव या संचारीभाव -  कुछ मनोभाव ऐसे होते हैं जो स्थायीभाव को पुष्ट करते हैं जैसे श्रम, ईर्ष्या, उद्वेग आदि. इनकी संख्या ३३ मानी जाती है, पर इन संख्या या सूची को विशेष महत्त्व देने की आवश्यकता नहीं है.

सात्त्विकभावमन:शारीरिक संयोग से उत्पन्न होने वाले आठ भाव सात्त्विकभाव कहलाते हैं जैसे आँसू आ जाना, चेहरे का रंग उड़ जाना, आवाज़ का रूंध जाना, काँपना, जड़वत हो जाना, रोमांच आ जाना, पसीना आ जाना आदि.

भरतमुनि का रस सूत्र है - विभाव, अनुभाव औरव्यभिचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है. विभाव का अर्थ उन कारणों से है, जो भाव के समीप लाए. अनुभाव स्थायीभाव के साथ होने वाले उत्पन्न क्रियाएँ/ चेष्टाएँ हैं. नाटक में संयोजितविभाव, अभिनेताओं के द्वारा प्रदर्शित अनुभाव और विभिन्न नटों के द्वारा प्रदर्शित व्यभिचारीभाव हमें आश्रय के स्थायीभाव के पास ले जाते हैं. रस निष्पत्ति के दौरानस्थायीभाव से ही सम्बन्धित रस की पहचान की जाती है.

इन सबों को हम फ्रिट्ज लैंग के सिनेमा के उदाहरणों से समझेंगे. यह ध्यान देने योग्य है कि किस तरह कैमरे की दृष्टि, कैमरे की गति, क्लोज-अप, दृश्यों का संपादन विभाव, अनुभाव और व्यभिचारीभावों को अनोखे तरीकों से दिखाती हैं, जो कैमरे के आविष्कार से पहले सम्भव नहीं थे.

अभिनवगुप्त द्वारा रस सिद्धांत की व्याख्या - सिनेमा और नाटक में दृश्यात्मक एवं श्रवणात्मक साम्य है. दोनों में सौन्दर्य का कारण शब्द, रूप और नाद की समवेत अभिव्यक्ति है.सिनेमा में भी अनन्त विभाव हैं, पर यहाँ अनुभाव विशेष अर्थों में निहित है. भरतमुनि के रस सूत्र की विशद व्याख्या हुयी और सदियों तक कई मत खण्डित मण्डित होते रहे. दसवी सदी के अंत में अभिनवभारती में वर्णित आचार्य अभिनवगुप्त का मत कई सदियों तक प्रभावी रहा. कालांतर में यह ग्रंथ लुप्त हो गया था और बीसवीं सदी के शुरुआत में यह केरल में पाया गया. उनका रस विवेचन पूर्ववर्ती कई दार्शनिकों के विचारों का समन्वय के साथ उनके मत की स्थापना है: -

रस का आस्वाद लिया जाता है जब कि कोई भाव (जो अर्थ हृदय को अभिभूत करने वाला हो, वह सूखे काठ में अग्नि के समान व्याप्त होने की क्षमता रखता हो)

किसी नाटक में विशिष्ट अर्थ व्यंग्य (सुझाव) द्वारा अतिशय सौन्दर्य को प्राप्त कर
विभाव, अनुभाव तथा व्यभिचारीभाव के संयोग से किसी आश्रय में
किसी प्रेक्षक द्वारा अबाधित रूप में अनुव्यवसाय सहित प्रेक्षण किए जाने पर भाव का हृदय संवाद होने से
निर्मल प्रतिभा से सम्पन्न सहृदय (कवि के जैसा हृदय रखने वाला) प्रेक्षक ही रस का अधिकारी होता है.
तन्मयीभाव से लिप्त प्रेक्षक
काव्य-वस्तु में निबद्ध और काव्य में निहित देश, काल और प्रमाता आदि नियामकहेतु के परस्पर प्रतिबन्ध के बल से (पारस्परिक सम्बन्ध से) अत्यन्त दूर हो जाने के कारणविभावों का साधारणीकरण हो जाने से
अपने चित्त में स्थित अनादि वासना का स्वाद लेते हुए अपूर्व अर्थ का बोध करता है
अनादि वासना से चित्रित चित्त वाले समस्त सामाजिक में समान रस की प्रतीति होती है.
विघ्नरहित अलौकिक प्रतीति आनंदपूर्वक रसनात्मकता का स्वाद उठाते हुए अर्थ क्रिया कारित्वसमेत  (हर्ष, पुलक, अश्रु, रोमांच आदि)
यह प्रतीति आनन्दरूप चमत्कार है, जो पूर्ण रूप से तृप्त भोगावेश है.
चमत्कृत मानस की साक्षत्कारात्मक अनुभूति मानस अध्यव्यवसाय, संकल्प या स्मृति के रूप में स्फुरित होती है .


फ्रिट्ज लैंग और थिया हार्बू की कुछ चुनिंदा फ़िल्मों से उद्धरण

रस सिद्धांत की व्याख्या के लिए मैं जिन पाँच फ़िल्मों की क्लिप का इस्तेमाल किया है, उन सारी फ़िल्मों की पटकथा फ्रिट्ज लैंग ने अपनी पत्नी थिया फौन हार्बू (Thea von Harbou: 1888- 1954) के साथ मिल कर लिखी थी. थिया नाजी पार्टी समर्थक थी और फ्रिट्ज लैंग के जर्मनी छोड़ने के बाद जर्मनी में ही रह गयीं. बाद में दोनों का तलाक हो गया, जिसके पश्चात थिया ने एक भारतीय आई तेंदुलकर के साथ गुप्त दाम्पत्य जीवन बिताया. इन पाँच फ़िल्मों में से चार यादगार मूक फ़िल्में हैं.


फ़िल्म की क्लिपों से रस का नाम ढूँढना बहुत ठीक नहीं होगा, क्योंकि इस छोटे टुकड़े में कई विभाव और अनुभाव पूरी तरह नहीं होंगे. रस की प्रक्रिया थोड़ी जटिलता लिए हुए है, इसलिए इनमें हम विभाव, अनुभाव, सात्त्विक भाव, व्यभिचारीभाव, स्थायीभाव और अभिनय सम्बन्धी चर्चा करेंगे.



डेस्टिनी (1921)

यह क्लिप इसलिए महत्त्वपूर्ण है क्योंकि बहुप्रशंसित स्पेनी निर्देशक लुईस बुनुएल ने इस फ़िल्म के संदर्भ में कहा था: - जब मैंने डेस्टिनीदेखी, मैं अचानक समझ गया कि मैं फ़िल्में बनाना चाहता हूँ. ये वो तीन नैतिक कहानियाँ नहीं थे जिन्होंने मुझे झकझोर दिया, बल्कि मुख्य घटनाक्रम - जब काला हैट पहने आदमी गाँव में आता है, जिसे मैंने फौरन मृत्यु के रूप पहचान लिया, और फिर कब्रिस्तान का दृश्य. इस फ़िल्म में कुछ ऐसा था जिसने मुझे अंदर तक कुछ बात कही जिससे मुझे मेरी ज़िन्दगी का मकसद और संसार के प्रति मेरी दृष्टि मिली.

पहले विश्वयुद्ध से मौत की विभीषिका जूझ रहे विश्व समुदाय पर यह फ़िल्म रुई के फाहे सी लगती है, जो मरहम की तरह असर करती है.


देखें : नीचे दिए गए लिंक में 7:00से 11:00तक मशहूर कब्रिस्तान का दृश्य
https://www.youtube.com/watch?v=LkfnJuB6DLk

इस चार मिनट की क्लिप में आप अभिनय के विभिन्न प्रकार को देख सकते हैं. मृत्यु के अभिनय कर रहे अभिनेता के चेहरे पर सात्त्विक अभिनय, उसकी वेश-भूषा जो आहार्य अभिनय का अंग है, उसका आंगिक अभिनय - मुखचेष्टाकठोर चेहरे से कहना कि इस अभेद्य दीवार का रास्ता मैं जानता हूँ, आप लोग व्यर्थ में कोशिश कर रहे हैं. 
इसके अलावा यमदूत कुछ ऐसे चिह्न बनाता है, जो ईसाई लोग के लिए समुचित विभाव का काम करते हैं, संस्कृतिजन्य होने के कारण साधारणीकृत हो जाते हैं. इसके अलावा अभेद्य सी दिखनी वाली दीवार भी भय के स्थायीभाव तक लाने में सहायक होती है. 

डॉ. माबुस, द गैम्बलर(1922)

डॉ. माबुसनाम के उपन्यास पर बनी यह साढ़े चार घंटे लम्बी फिल्म दो भागों में थी. डॉ. माबुस आपराधिक प्रवृत्ति का मनोविज्ञान का अध्येता है, सम्मोहन और वशीकरण का उस्ताद है, बर्लिन में नकली नोट का धंधा करता है, जुआघर चलाता है, अपने तरकीबों से शेयर बाजार में घपला करता है, भेस बदलने में माहिर है. भीड़ को उकसाने में, लोग को अपने वश करने इसके बायें हाथ का खेल है. न भूली जा सकने वाली यह मूक फ़िल्म कालांतर में जेम्स बॉण्ड के फ़िल्मों के शक्तिशाली खलनायकों का प्रेरणास्रोत बना. सन 1933में बनी द टेस्टामेंट आफ डॉ. माबुसइस फ़िल्म का सीक्वेल (दूसरा भाग) थी.

देखें : नीचे दिए गए लिंक में 1:26:00से 1:28:30तक
https://www.youtube.com/watch?v=K8jzGGazHEc

इस ढ़ाई मिनट की क्लिप में आप देख सकते हैं कि किस तरह डॉ. माबुस की वेश भूषा, कैमरे की सहायता से विशिष्ट छायांकन सम्मोहन और वशीकरण के दृश्य को प्रभावशाली बना देता है. यही प्रभावशाली अर्थ रस आस्वादन में सहायक होते हैं.


मेट्रोपोलिस (1927)

किसी भी सिने-प्रेमी के लिए मेट्रोपोलिसकिसी परिचय की आकांक्षा नहीं रखता. भविष्य के महानगर में रोबोट का प्रयोग, धनी कारोबारी का लालच, श्रमिक जीवन की दारूण गाथा, गरीब बच्चों की दुर्दशा, नायक का ईसा मसीह की सलीब की तरह घड़ी की सुईयों से संघर्ष करना जैसे अविस्मरणीय दृश्य इसे सिनेमा की पाठ्यपुस्तक बना देते हैं. अपने जमाने की सबसे मंहगी फ़िल्म बनाने में फ्रिट्ज लैंग वैचारिक आदर्श को पाने की कोशिश में अभिनेताओं से बड़ी क्रूरता से पेश आए थे. ऐसा ही उन्होंने एम (1931) में मुख्य अभिनेता के साथ भी किया था.

बहरहाल, हम वह दृश्य देखते हैं जहाँ सनकी वैज्ञानिक अपने धनी मालिक और दोस्त को पहली बार अपना आविष्कार महिला रोबोट दिखाता है. 

देखें: नीचे दिए गए लिंक में 41:25से 44:00तक
https://www.youtube.com/watch?v=8ZmFsxWrnz0

गौरतलब बात है कि सौ साल बाद भी वैज्ञानिक अभी तक रोबोट में इंसानी चाल पैदा नहीं कर पाए हैं. इस दृश्य में मुखौटे के पीछे नायिका ने ही रोबोट का अभिनय किया है. इस विस्मय स्थायीभाव लाने के लिए कैसे कैसे व्यभिचारी भाव, जैसे उद्वेग, उत्सुकुता, उत्साह का प्रयोग किया गया है. दृश्य में रोशनी का संयोजन और रोबोट के पीछे सितारे का शैतानी चिह्न ये सब विभाव हैं. कुछ संस्कृति के कारण आसानी से ग्रहण कर लिए जाते हैं. पार्श्व संगीत जन्य अनुभाव और विभाव काफी हद तक सार्वभौमिक होते हैं. कई बार रस संयोजन आसानी से पकड़ में नहीं आते. सिनेमा के बारीकी से अध्ययन करने में अध्येता जाने अनजाने विभाव, अनुभाव, व्यभिचारीभाव की बात करते हैं. और यह अविस्मरणीय दृश्य तो साफ तौर पर अद्भुत रस से सम्बन्धित है.


वूमेन इन द मून (1929)

अब देखते हैं सिनेमा में मशहूर रॉकेट प्रक्षेपण के समय उल्टी गिनती का दृश्य. फ़िल्म में यह परिकल्पना है कि चंद्रमा के दूसरे हिस्से में (जो हम धरती से दूरबीन की सहायता से भी नहीं देख सकते) सोने के पर्वत हैं. वहाँ साँस लेने योग्य हवा भी है. एक वैज्ञानिक चंद्रमा पर जाने की पूरी योजना बनाता है, पर अपराधियों का गुट उन्हें अपने साथ चंद्रमा ले जाने के लिए मजबूर करता है. नवविवाहित प्रेमी युगल, युवा वैज्ञानिक, कॉमिक्स पढ़ने वाला नन्हा अमरीकी बच्चा और बदमाश ये सभी चांद की यात्रा पर निकलते हैं. उस समय के अग्रणी वैज्ञानिकों नेजो सुझाया वह बहुत दिनों तक, शीत युद्ध के दौरान भी रॉकेट प्रक्षेपण में प्रयोग किया गया जैसे कि

रॉकेट कहीं और बनाना फिर घसीट कर प्रक्षेपण के लिए लाना
प्रक्षेपण के बाद निकली ऊर्जा को सोखने के लिए रॉकेट को पानी भरे गड्ढे से छोड़ना
प्रक्षेपण के दौरान रॉकेट का विभिन्न चरणों में टूटना
उड़ान के दौरान यात्रियों का क्षैतिज हो कर लेटना
शून्य गुरुत्वाकर्षण से बचने के लिए फर्श पर पट्टियों में पैर फँसाना
प्रक्षेपण के समय उल्टी गिनती का प्रयोग

देखें : नीचे दिए गए लिंक में 01:31:00 se 01:34:15
https://www.youtube.com/watch?v=aHcazI9PgNg

सर्वथा नयी अवधारणा होने से यह दृश्य विस्मय स्थायीभाव और अद्भुत रस की ओर ले जाता है.


एम (1931)
एम का मतलब है मर्डरर या हत्यारा. यह नाम इसलिए रखा गया है क्योंकि बच्चियों के हत्यारे को अकेले पकड़ना मुश्किल था, इसलिए पहचानने वाले ने अपनी हथेली में खल्ली से एम (M) लिख कर उसके कोट पर हाथ मार देता है. इसके फलस्वरूप एम केबने निशान के कारण हत्यारे को भीड़ में भी पकड़ना आसान हो जाता है. फ्रिट्ज लैंग ने फ़िल्म के प्रचार के लिए अखबार में इसका कामचलाउ नाम छपवाया गया था हत्यारा हमारे बीच में हैं. नाज़ी पार्टी ने इसे अपने ऊपर आरोप समझ कर इसकी शूटिंग होनी मुश्किल करवा दी थी. बाद में फ़िल्म का नाम एम (M) रखा गया.


जिस तरह चार्ली चैप्लिन की पहली पूरी तरह बोलती फ़िल्म द ग्रेट डिक्टेटर’ (1940) ध्वनि के सुंदर प्रयोगों के लिए विख्यात है, यह फ़िल्म भी ध्वनि के विभाव, अनुभाव और व्यभिचारीभाव के प्रयोगों के लिए पहली मानक फ़िल्म है. एक महान निर्देशक कई आयामों में अनुपम होता है. न वह केवल दृश्य संयोजन, सिनेमेटोग्राफी, अभिनय, पटकथा पर पकड़ रखता है, बल्कि गीत, संगीत, नृत्य, दर्शन, राजनीति पर गहरी सजग दृष्टि रखता है.
इस फ़िल्म के अंतिम दृश्य को सबसे महत्त्वपूर्ण दृश्य समझना चाहिए. जब अपराधियों का समूह हत्यारे को पकड़ कर सजा-ए-मौत सुनाने जा रहा होता है तब पहली बार हत्यारा अपना पक्ष रखता है.

वह भीड़ तंत्र, न्याय के लिए आम बुद्धि पर प्रश्न करता है, अपने पक्ष में दलीलें देता है. इसके लिए उसका सात्त्विक अभिनय बहुचर्चित और प्रशंसनीय है. अपराधियों का उत्तर जो अनुभाव का काम करते हैं, सुन कर लगता है आज भी हम करीब-करीब वैसे ही समाज में जी रहे हैं जिस तरह के समाज में ऐसी फ़िल्में बनी.

देखें : नीचे दिए गए लिंक में पूरा क्लिप
https://www.youtube.com/watch?v=E-QKd37uFug

फ्रिट्ज लैंग पर चर्चा बहुत लम्बी और विशद हो सकती है. यह कई पुस्तकों में भी कही जा सकती है. फिलहाल व्याख्यान की सीमा को देखते हुए हम इसे यहाँ समाप्त कर सकते हैं.

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प्रचण्ड प्रवीर  बिहार के मुंगेर जिले में जन्मे और पले बढ़े हैं. इन्होंने सन् २००५ में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान दिल्ली से रासायनिक अभियांत्रिकी में प्रौद्योगिकी स्नातक की उपाधि ग्रहण की. सन् २०१० में प्रकाशित इनके पहले उपन्यास 'अल्पाहारी गृहत्यागी: आई आई टी से पहलेने कई युवा हिन्दी लेखकों को प्रेरित किया. सन् २०१६ में प्रकाशित इनकी दूसरी पुस्तक, 'अभिनव सिनेमा: रस सिद्धांत के आलोक में विश्व सिनेमा का परिचय'हिन्दी के वरिष्ठ आलोचकों द्वारा बेहद सराही गई. सन् २०१६ में ही इनका पहला कथा संग्रह'जाना नहीं दिल से दूरप्रकाशित हुआ. इनका पहला अंग्रेजी कहानी संग्रह Bhootnath Meets Bhairavi (भूतनाथ मीट्स भैरवी )सन् २०१७ में प्रकाशित हुआ. इन दिनों प्रचण्ड प्रवीर गुड़गाँव में एक वित्त प्रौद्योगिकी संस्थान में काम करते हैं .
prachand@gmail.com

सबद - भेद : प्रेमचंद : अरुण माहेश्वरी

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प्रेमचंद (३१ जुलाई १८८०८ अक्टूबर १९३६) गुलाम भारत में पैदा हुए और गुलाम भारत में है मर गए पर उनका लेखन आज़ाद था. हर तरह की आज़ादी के लिए उन्होंने संघर्ष किया.

परतंत्र भारत में प्रेमचंद ने साम्प्रदायिकता के ज़हर के दुष्प्रभावों को समझ लिया था. अंतत: यह महादेश  टुकड़ों में बटा. युग पुरुष गांधी की हत्या हुई. और न जाने अभी और क्या-क्या होना है.


प्रेमचन्द को स्मरण करते हुए अरुण माहेश्वरी का यह आलेख. 


ll स्मरण ll
समय जैसा है, उसे ही लिखा जाए                   
(प्रेमचंद की तत्वमीमांसा और लेखक के पुनर्संदर्भीकरण की ज्ञान मीमांसा)


अरुण माहेश्वरी




उपन्यास सम्राट प्रेमचंद : 1880में जन्म ; 20वीं सदी के प्रारंभ के साथ लेखन का प्रारंभ ; और 1936में मृत्यु की लगभग आखिरी घड़ी तक लेखन का एक अविराम सिलसिला. हिंदी के उपन्यास सम्राट.

उपन्यास विधा : अनुभव और यथार्थ का एक दीर्घ और रोचक आख्यान.

प्रेमचंद लिखते हैं : उपन्यास लेखक को यथासाध्य नये-नये दृश्यों को देखने और नये-नये अनुभवों को प्राप्त करने का कोई भी अवसर हाथ से न जाने देना चाहिए.और साथ ही यह भी कि जब साहित्य की रचना किसी सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक मत के प्रचार के लिये की जाती है, तो वह ऊंचे पद से गिर जाती है, इसमें संदेह नहीं.

अर्थात उपन्यास के लिये जो जरूरी है - वह है दृश्य, चित्र. जीवन जैसा हैके नाना रूपों और मानव चरित्रों के चित्र.

फिर भी, प्रेमचंद आदर्शवाद की बात भी करते हैं. उन्हें लगता है कि चूंकि संसार में बुराई का ही आधिक्य है, इसलिये कोरा यथार्थ-चित्रण आदमी को कमजोर बनायेगा, उसे निराशा से भरेगा. आदमी को कमजोर करना उनका अभीष्ट नहीं हो सकता, इसीलिये वे यथार्थवाद के साथ ही आदर्शवाद को भी जरूरी मानते हैं.

मत का प्रचार न हो, फिर भी आदर्श जरूर हो !

प्रेमचंद की शब्दावली में, यथार्थवाद अंधेरी कोठरी है और अंधेरी कोठरी में काम करते-करते थक चुके आदमी को आदर्शवाद ही स्वच्छ वायु का आनंद देता है. जबकि मतवाद - सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक मत का प्रचार - साहित्य के दर्जे को गिरा देता है.

यह उस समय की बात है जब आदर्शवाद और मतवाद में ज्यादा भेद नहीं किया जाता था. स्वतंत्रता और राष्ट्रीयता, समाजवाद और क्रांति, धर्म-निरपेक्षता और भाईचारा - इनमें कौन आदर्शवाद है और कौन कोरा मतवाद - कहना मुश्किल था. फिर भी प्रेमचंद में कोई दुविधा तो थी ही, जिसके चलते उन्होंने आदर्श को जरूरी माना, लेकिन मत के प्रचार को नहीं.

प्रेमचंद के लिखे पाठ को तो कोई बदल नहीं सकता. लेकिन समय बदल जाता है तो पाठक बदल जाता है. बीत रहा हर पल इतिहास में तब्दील होकर नये इतिहास-बोध, पाठ के नये अर्थ को तैयार करता है. मतऔर आदर्शको लेकर प्रेमचंद में दुविधा थी, लेकिन आज के पाठक के मन में शायद वैसी दुविधा नहीं है. मतवाद और आदर्शवाद पर्याय दिखाई देते हैं. आदर्शवाद की ओट में चला आरहा मतवादी दुराग्रह अब  और भी साफ है.

ऐसे मेंपुन: उपन्यास के मूल धर्म - समाज जैसा है - उसे बिना किसी मुलम्मे के चित्रित करने की बात की जानी चाहिए. पूंजीवादी आदर्श और पूंजीवाद जैसा है’, समाजवादी आदर्श और समाजवादी समाज जैसा रहा है’, क्रांतिकारी आदर्श और क्रांतिकारी पार्टियां जैसी है’, जनतंत्र और जनतांत्रिक व्यवस्था जैसी है’ - इनके बीच चयन में जैसा हैको चुनने में अब किसी दुविधा का स्थान नहीं हो सकता. इस जैसा हैके चित्रण के कारण ही तो सारी दुनिया में हर प्रकार की तानाशाही, आततायी सरकारें लेखकों-कलाकारों को जुल्मों का शिकार बनाती है. यही सच इस बात का भी प्रमाण है कि लेखक का इससे बड़ा शायद दूसरा कोई आदर्श नहीं हो सकता.

सचमुच, यह समय मतऔर आदर्शके बारे में प्रेमचंद की दुविधा से मुक्ति का समय है.

इस पूरे विषय को ज्ञान और सत्य के बीच के एक सनातन तनाव के विषय के तौर पर भी देखा जा सकता है. एक आदमी सत्य की ओट में झूठ बोल सकता है. यह उसका दुराग्रह होता है जब वह तथ्यात्मक रूप से कही गई एक सही बात में अपनी कामनाओं या वासनाओं को छिपा रहा होता है. इसके विपरीत, दूसरा आदमी किसी उन्माद में, या भूलवश, अपनी इच्छा के विरुद्ध ही, झूठ कहता हुआ भी सच बोल जाता है. यह असल में तथ्यात्मक वस्तुनिष्ठता और आत्मनिष्ठ सत्य का द्वंद्व है. वास्तविकता यह है कि हर कथन में, हर बयान में कुछ खामोश संकेत छिपे होते हैं, जिन्हें आम तौर पर पंक्तियों के बीच के अंतराल और मौन कहा जाता है.

जब तक इन मौन संकेतों की रिक्तताओं को पकड़ा नहीं जाता है, पाठ के झूठ और सच का पूरी तरह से पता नहीं लग सकता है. और, इन्हें पकड़ने का एकमात्र तरीका है कि पाठ को ठोस, वास्तविक जीवन के संदर्भ में स्थापित किया जाए. पाठ में लेखक का सोच ही सब कुछ नहीं होता, जरूरी होता है उस सोच को ऐसे सकारात्मक और नकारात्मक संकेतों की श्रृंखला में उतारना जो इन मौन संकेतों के वास्तविक संदेश का वहन कर सके, पाठकों तक उन्हें सही ढंग से प्रेषित कर सके.

इसीलिये, जब भी आप जैसा है वैसाबयान करेंगे, वह कोरा प्रकृतिवाद नहीं होगा. वह सच स्वत: नहीं, आपके जरिये व्यक्त हो रहा है. उससे आप वास्तव में एक ऐसा पूरा परिप्रेक्ष्य पेश कर रहे होते हैं, ताकि आपकी अपनी बातों के मौन संकेतों को भी पढ़ा जा सके. इसके अलावा, जो सच आपके सामने है, वह आपके मार्फत कैसे अभिव्यक्त होता है, उसी से यह भी जाहिर हो जाता है कि खुद आपने उस सच को कैसे ग्रहण किया है. पिछले दिनों अशोक वाजपेयी के बारे में अपने एक लेख में, आश्विच के वद्यस्थल पर खड़े कवि के भावों की अभिव्यक्ति से हमने जितना आश्विच को नहीं देखा, उससे बहुत ज्यादा खुद लेखक के सत्य को देखा था.

ऐसी ढेरों बातें होती हैं, जिन्हें हम अपनी कल्पना में महसूस करके ही उसे सच मानने लगते हैं. इनमें वास्तव में जीवन का वस्तु-सत्य नहीं, हमारी अपनी इच्छा-अनिच्छा बोल रहे होते हैं. इससे उचित-अनुचित का हमारा बोध भी व्याहत होता है. यह बात, सिर्फ लेखक पर नहीं, पाठक पर भी, हर व्यक्ति पर लागू होती है. ऐसे में, आम बाजारू लेखक, जब वह पाठ के जरिये अपने पाठक के रूबरू होता है, अक्सर वह किंचित निरपेक्ष होकर अपने लिये एक न्यायाधीश की भूमिका अपना लेता है. वह पाठक का मन टटोल कर उसके हित-अहित के बारे में न्याय सुनाने लगता है. यह पाठक के मनोविज्ञान में बैठ कर न्याय-निर्णय देने वाला एक प्रकार का खोजी नजरिया है जो आम तौर पर बाजार में काफी सफल साबित होता है.

तमाम बाजारू लेखन का यह एक मूल सूत्र है. लेकिन सवाल है कि क्या यह नजरिया पाठक का उसके जीवन के सच से साक्षात्कार कराने वाला नजरिया है ? भले यह पाठक का सामयिक तौर पर हित साधे, उसे लुभाये, उसका मनोरंजन भी करें, लेकिन यह उसे उसके सच से परिचित नहीं कराता. यह अन्तत: एक झूठ ही है, किसी झूठे आश्वासन की तरह का झूठ. इसमें पाठक के अपने विचार के अधिकार तक को छीन लिया जाता है. लेखक उसके लिये उसकी पसंद का एक भला-भला सा संसार रच देता है.

इसके विपरीत, पाठ में वस्तुनिष्ठता का दूसरा रास्ता है स्पष्टवादिता का, साहस के साथ सच को कहने का. बात को जीवन के ठोस संदर्भ के साथ स्थापित करने का. जब पाठक सच को जानने पर भी उसे स्वीकारने से इंकार कर रहा होता है, तब पूरी ताकत के साथ सच को रखने की जरूरत होती है. जब कोई जीवन का मजा भी लेगा, लेकिन भान ऐसा करेगा मानो वह यह मजा अपनी मर्जी से नहीं ले रहा, तो ऐसे में जीवन की ठोस सचाई के बयान से उसके छद्म नैतिक-मूल्यों के जंजाल को खत्म करने की जरूरत रहती है.

तथापि, लेखक के लिये, यह स्पष्टवादिता वाला रवैया ही अंतिम नहीं हो सकता है. पाठ का विश्लेषणात्मक विमर्श यदि कभी किसी छल-छद्म पर निर्भर नहीं करता, तो वह किसी भी प्रकार के बल पर भी आश्रित नहीं हो सकता है, भले वह तर्क का बल हो या न्याय-नैतिकता का बल. सबसे बड़ी सचाई यह है कि भाषा के अपने सारे मौन-मुखर संकेत अंतत: खुद में जीवित तर्क होते हैं. भाषा का प्रयोग ही तो किसी बात को रखने के लिये, किसी बात से इंकार करने या किसी बात को मनवाने के लिये किया जाता है. हर बात के अपने दो पहलू होते हैं. एक पक्ष होता है, दूसरा विपक्ष. हर बात को दूसरी बात से काटा जा सकता है. इस प्रकार, कहा जा सकता है कि अनिर्णय एक सर्व-व्यापी सच है.

प्रश्न यही है कि क्या ऐसे में, किसी भी एक धागे में, कथित तौर पर किसी विचारधारा के धागे में पिरो कर सारे विचारों को किसी प्रकार की स्थिरता प्रदान करने की क्या कोई जरूरत है ? जब विचार पहले से ही स्थिर है, एक निश्चित अर्थ का वहन करते हैं, वे खोखर नहीं होते कि उनमें कुछ भी डाला जा सके. तब फिर उन्हें और ज्यादा बांधने की, एक सूत्र में पिरोने की, एक चादर के तले लाने की क्या जरूरत है ? यहीं से शब्द और विचार की शक्ति के बारे में हम एक नये अभिज्ञान को अर्जित कर सकते हैं.

मूल बात यह है कि जो साफ तौर पर गलत है उसके भूल-भुलैय्ये में और ज्यादा भटकने की जरूरत नहीं है. वह हमारे जीवन में अप्रासंगिक है. कोई इसे किसी भी बहाने से, नैतिक या दूसरे कारणों से स्वीकारे या न स्वीकारे. बाबा रामदेव कैंसर का इलाज कर सकता है या योग में सारे ब्रह्मांड का ज्ञान समाया हुआ है, यह झूठ है. ऐसे झूठ को कोई किसी भी बहाने से कितनी बार भी क्यों न कहा जाए, उनकी जांच के भी चक्कर में पड़ने की जरूरत नहीं है. सच कहने के अलावा लेखक के पास दूसरा कोई रास्ता नहीं है, वह किसी को अच्छा लगे, या बुरा लगे; किसी को दुखी करे या सुखी करे. आदमी पाप के बोझ को लाद कर चले ताकि धर्म से उनका उद्धार किया जा सके, यह धर्माधिकारियों के हित का हो सकता है. लेखक का काम इसके ठीक विपरीत है. भले ऐसा करते हुए वह नितांत अलग-थलग और असामाजिक किस्म का किसी भूत जैसा ही क्यों न दिखाई देने लगे. रिल्के ने कहा था कि सुंदरता तो पैशाचिकता का अंतिम आवरण है. हर नई चीज डरावनी प्रतीत होती है.

इस समझ के साथ आगे बढ़ने पर ही, कहना न होगा, लेखक की अपनी भूमिका, पाठक के साथ उसके संबंध के सारे सवाल एक नई अर्थवत्ता ग्रहण करने लगेंगे. तभी हम, यह संसार जैसा है, वैसा ही उसे पेश करने के रास्ते की श्रेष्ठता को और भी अच्छी तरह से समझ सकेंगे. प्रेमचंद का लेखन इसी प्रकार पूरी उत्कटता से सच को कहने वाला लेखन है .

'ज़िद्दी धुन'वेबसाइट पर इस प्रेमचंद जयंती (31जुलाई 2017) पर मनमोहन के एक पुराने लेख को प्रसारित किया गया था . इस लेख में प्रेमचंद की यथार्थ दृष्टि के जरिये नवजागरण की एक समग्र प्रक्रिया में कथित हिंदी नवजागरण की अपनी खास असंगतियों पर सही ढंग से उँगली रखी गई थी. यह मूलत: एक विकासमान यथार्थवादी रचना दृष्टि की सफलता थी. काशी की पारंपरिक शास्त्रीयता से मुक्त दृष्टि की सफलता. लेकिन विचार का एक बड़ा सवाल अब भी असमाधित रह जाता है कि ऐसा क्या था कि अन्यों में यह उत्तरण संभव नहीं हुआ ? कथित सनातनी परंपरा की बेड़ियों को वे काट नहीं पायें जैसा प्रेमचंद में दिखाई पड़ता है.

यह सवाल इसलिये बनता है क्योंकि हमारे सामने पूरी तरह से औपनिषदिक सोच की ज़मीन से पैदा हुए रवीन्द्रनाथ की भी एक समग्र तस्वीर है .

सर विलियम जोन्स, एशियाटिक सोसाइटी और भारतीय पौर्वात्यवाद की पूरी मुहिम भी इसी बंगाल से शुरू हुई थी जिसने 11वीं सदी के बाद से 18वीं सदी तक के काल को भारत का अंधकारपूर्ण मध्ययुग बताया था. विलियम जोन्सने अपनी इस स्थापना से ब्रिटिश शासन की प्रगतिशीलता की जहाँ एक पृष्ठभूमि तैयार की, वहीं उसने इन सात सौ सालों में संस्कृत के बरक्स विकसित हुई सभी भारतीय भाषाओं को भी नकारने का काम किया. कबीर, रैदास से लेकर दादू, नानक - सिद्धों-नाथोंके कामों को भी औघड़ों का काम घोषित कर दिया. यहाँ तक कि अभिनवगुप्तके स्तर की दार्शनिक, भाषाशास्त्री, धर्मशास्त्री, कवि और धर्मगुरु तक को विस्मृत करके शैवागमों की पूरी स्वतंत्र परंपरा को वेदान्ती परंपरा से खारिज कर दिया गया. एस.एन.दासगुप्त और देवी प्रसाद चटर्जी के स्तर के भारतीय दर्शन के इतिहासकारों में भी यह कमी दिखाई देती है.

मनमोहन के इस लेख में बिल्कुल सही भक्ति आंदोलन को अन्य कईयों से एक अलग स्थान पर रखा गया है. दरअसल, कबीर यदि भक्ति साहित्य में अलग दिखाई देते हैं तो उसके मूल में अपभ्रंश की मध्यस्थता से तैयार हो रही उनकी खड़ी बोली की भाषा की भी एक भूमिका है .

रवीन्द्रनाथ भारत के बारे में अंग्रेज़ों के सांस्कृतिक इतिहास के विश्लेषण से काफी पहले ही मुक्त हो गये थे. इसीलिये शास्त्र-ज्ञान उनकी बेड़ी नहीं बना, बल्कि और ऊँची उड़ान का हेतु बन कर सामने आया. हिंदी के काशी के पंडित उसमें फँस कर रह गये . और प्रेमचंद का सौभाग्य था कि वे उस ज़मीन से उठे ही नहीं थे .

भारतीय नवजागरण और हिंदी नवजागरण के तमाम सांस्कृतिक संदर्भों में प्रेमचंद की यथार्थवादी रचना दृष्टि के अपने तात्विक विकास के इस आख्यान में हिंदी साहित्य के अपने इतिहास से जुड़ा एक और, ज्यादा समसामयिक प्रश्न भी अविवेचित रह गया है कि आख़िर क्यों प्रेमचंद को खास तौर पर आजादी के बाद हिंदी में पुराना पड़ गया माना जाने लगा था और फिर वे कैसे यकबयक सबको बिल्कुल नवीन और ताज़ातरीन दिखाई देने लगे ?

इस सवाल का जवाब हमें प्रेमचंद के अंदर से जितना नहीं मिलेगा, उससे बहुत ज्यादा उनके बाहर से, जीवन के नये संदर्भों से मिलेगा. आजादी और बँटवारे ने गांधी जी के अनुयायी, स्वतंत्रता सेनानी प्रेमचंद के युग का अंत कर दिया था. न सिर्फ अंग्रेज़ चले गये, बल्कि बँटवारे से उनके काल की विकराल हिंदू-मुस्लिम समस्या का एक समाधान हो गया था. यही टिपिकल उत्तर-औपनिवेशिक काल था. ज़मींदारी उन्मूलन और पंचवर्षीय योजनाओं ने प्रेमचंद के समय के कृषि क्षेत्र के भी पुराने अंतर्विरोधों को पीछे धकेल दिया था.

यह तो इतिहास का एक नया चक्र था जिसमें आजादी के लगभग दो दशक बाद, सन् '67में राजनीतिक मोहभंग की पहली अभिव्यक्ति हुई, भूमि सुधार के नये संघर्ष, सन् '75के आंतरिक आपातकाल, जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी के उभार से सांप्रदायिकता की नई चुनौती और सन् '80के पहले से ही शुरू हो चुके ढाँचागत समायोजन के दौर ने सन् '80में प्रेमचंद की जन्मशताब्दी के मौक़े पर उन्हें नये संदर्भों में पुनर्जीवित कर दिया.

यह एक नये राजनीतिक-सामाजिक इतिहास के अंदर से  प्रेमचंद का पुनरोदय था. जिन्होंने उन्हें पुराना मान कर कबाड़खाने में डाल देना चाहा था, वे भी उनके इस नये जन्म से लगभग सकते में थे. साहित्य के नये जनवादी उभार के लिये तो प्रेमचंद उसके संघर्षों की मशाल बन गये, लेकिन प्रयोगवादियों, आधुनिकतावादियों के लिये भी वे कबाड़ख़ाने की चीज नहीं, बल्कि साहित्य के अति मूल्यवान सहेज कर रखने लायक एंटीक बन गये. देखते-देखते प्रेमचंद के सारे पात्रों की फ़ौज भी समाज में चारों ओर दिखाई देने लगी . जिन्हें व्यतीत मान कर आगे की सुध लेने की कल्पनाएँ की जा रही थी, वे साक्षात अपनी मुक्ति की माँग के साथ सामने दिखाई देने लगे और आपको पीछे घसीटने लगे. सन् '36में ही धरती से रुखसत कर चुके प्रेमचंद इतिहास के इस नये फेरे में नये भारत की लड़ाई के लेखक प्रेमचंद बन गये.

लेखकों के मूल्याँकन में उनके इस प्रकार के पुनर्संदर्भीकरण की कितनी बड़ी भूमिका होती है, इसे बंगाल में रवीन्द्रनाथ के शताब्दी वर्ष में देखा गया था. कम्युनिस्टों द्वारा कभी बुर्जुआ कवि के रूप में तिरस्कृत रवीन्द्रनाथ का तब प्रगतिशील साहित्य और विचार के सर्वकालिक श्रेष्ठतम प्रतीक के रूप में  पुनर्जन्म हुआ था.

इसीलिये, इधर मुक्तिबोध शताब्दी के मौक़े पर, जब उनकी जीवन दृष्टि और रचना-विधान को लेकर कई पुराने सवालों को नये सिरे से उठाया जा रहा है, तब सिर्फ उनका झंडा लहराने से शायद ही कुछ हासिल होगा. इतिहास के वर्तमान चरण में उनका पुनर्संदर्भीकरण करने की ज़रूरत है. लेखक की तात्विकता नये जीवन संदर्भों में, वह ज्ञान मीमांसा का नया संदर्भ भी हो सकता है, कई नये अर्थ देने लगती है और समय के साथ उसे समान रूप से जीवित बनाये रखती है, बशर्ते हम इन नये संदर्भों के फ्रेम में उसे उतार सके. इसमें इतिहासबोध और इतिहासीकृत अध्ययन की बड़ी भूमिका होती है.(इस सन्दर्भ में 'लहक'पत्रिका में प्रकाशित अरुण माहेश्वरी का लेख देखा जा सकता है.)   


मेरे अनुसार मुक्तिबोध का पुनर्संदर्भीकरण (recontextualisation) वैसे तो सन् '90 के काफी पहले की ही, लेकिन खास तौर पर '90 के बाद की समाजवादोत्तर मार्क्सवादी ज्ञान मीमांसा के नये संदर्भों में ही किया जा सकता है. मुक्तिबोध साहित्य और उसकी समीक्षा के मानदंडों की जिन समस्याओं से जूझते रहे थे, वे इसी संदर्भ में आज बेहद समीचीन और जीवंत दिखाई पड़ते हैं. अन्यथा, तमाम सदीच्छाओं के बावजूद, हम ही उन्हें विस्मृतियों के ढेर में दफ़ना देने के दोषी बनेंगे. राम नाम का जाप करते हुए उनकी शवयात्रा में शामिल हो जायेंगे.
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arunmaheshwari1951@gmail.

बाज़ार और टेलर मास्टर : नवनीत नीरव

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प्रज्ञा की कहानी मन्नत टेलर्सको केंद्र में रखकर कथा - आलोचक राकेश बिहारी की विवेचना ‘बाज़ार की जरूरत और उसके साइड इफ़ेक्ट्स’ पर नवनीत नीरव की यह टिप्पणी. 


बाज़ार और टेलर मास्टर                                                
सन्दर्भ : बाज़ार की जरूरत और उसके साइड इफ़ेक्ट्स 
(भूमंडलोत्तर कहानी  1४ - राकेश बिहारी; प्रज्ञा की कहानी मन्नत टेलर्स)

नवनीत नीरव




प्रज्ञा

"सभ्यता के विकास में बाज़ार की जरूरत की अहमियत को रेखांकित किए बिना बाजारवाद की आड़ में बाज़ार को ही नकारने की प्रवृत्ति भी हिन्दी में खूब दिखाई देती है."इन पंक्तियों के माध्यम से राकेश जी ने 'मन्नत टेलर्स' समेत बाजार को केंद्र में रखकर लिखी जा रही वर्तमान हिंदी कहानियों के वृष्टिछाया वाले पक्ष को सामने रख दिया है. जहाँ बाजार और विकास के तादात्मय को सिरे से नज़र अंदाज कर कहानी को सिर्फ़ और सिर्फ़ बाजार विरोधी तथ्यों के आधार पर जबरन खड़ा करने की कोशिश की जाती है. राकेश जी के इस लेख को पढ़ने के बाद ही 'मन्नत टेलर्स' कहानी को मैंने पढ़ा. कहानी की बारीकियों को समेटते हुए राकेश जी ने बहुत संतुलित तरीक़े से इस आलेख को निभाया है. फिर भी मैंने अपने तरीके से कुछ लिखने की कोशिश की है. परंपरागत दुकानों,श्रमिक और शिल्पियों के अधिकारों समेट असंगठित क्षेत्र की तमाम विसंगतियों को आपने अपने इस आलेख में भरसक रेखांकित करने का प्रयास किया है जिनकी कहानी के माध्यम से कहे जाने की तमाम संभावनाएं थीं.एक अच्छे आलेख के लिए राकेश बिहारी जी का साधुवाद. प्रज्ञा जी को कहानी के निर्वाहन के लिए बधाई.

असंगठित क्षेत्रों में भूमंडलीकरण की मार तो पड़ी ही है क्योंकि सरकार द्वारा बाजार को बाहरी कंपनियों के लिए खोलने पर बड़ी प्रतिस्पर्द्धा ने सबसे पहले छोटे श्रमिकों और शिल्पकारों का खात्मा ही कर दिया. साथ ही उनमें से कुछ कुशल शिल्पियों को सस्ते किन्तु नियमित श्रम के आधार पर नौकरी देकर उनकी स्वायत्ता को समाप्त करने की मुहिम शुरू कर दी. सस्ते श्रम के साथ-साथ गुणवत्ता के मानक भी ऊंचे हुए. गुणवता के रिसर्च, मार्केटिंग और तकनीक का प्रभाव बढ़ा. जहाँ सरकारी नियमों ने बाजार को प्रवेश दिया वहाँ उसके हिसाब से शिल्पियों की क्षमता संवर्द्धन और क्षमता विकास पर काम नहीं किया. सुनियोजित तरीके से न ही बाजार उपलब्ध कराया. फलस्वरूप यह सेक्टर बड़ी कंपनियों और स्थानीय लेवल पर उनके प्रोडक्शन सेंटरों के हाथों में चला गया. हैंड मेड प्रोडक्ट की मांग बढ़ी है लेकिन सामान्य शिल्पियों को उस अनुरूप रोजगार और मेहनताना नहीं मिला. सरकार की स्किल डेवलपमेंट स्कीम फर्जीवाड़े के अलावा कुछ नहीं करती. केवल artisan card और health card जैसी स्कीमें इनके खाते में आईं.

टेलरिंग मास्टर सूरत और लुधियाना की कंपनियों में अपनी स्वायत्तता को छोड़ मास्टर ट्रेनर जैसे काम करने लगे हैं. जिसके नफ़े-नुकसान दोनों हैं. कुछ लोगों ने व्यवसाय ही बदल दिया है. छोटे और असंगठित क्षेत्र के कामों बाजार और उसकी विसंगतियों के बाद किसी चीज की सबसे ज्यादा मार पड़ी है तो वह है ‘मनरेगा'. जिसने कुशल शिल्पकारों को अकुशल मजदूरों की श्रेणी में साथ लाकर खड़ा कर दिया है. कहानी को पढ़ते वक्त उपरोक्त विचार स्वतः ही आ रहे थे. जिनकी तलाश पूरे कहानी भर रही. राकेश जी ने कहानी के केंद्र को लेकर लिखा है कि कहानी का नाल सही जगह नहीं गड़ पाया है. जिससे मेरी भी सहमति है. निम्न मध्यम वर्ग और असंगठित क्षेत्रों के कामगारों को लेकर कहानी में बहुत सारे अंतर्विरोधों दिखाई पड़ते हैं. बावजूद इसके कहानीकार ने अपनी बात रखने की सफ़ल कोशिश की है.

कुछ और बातें जिन्हें मैं यहाँ उद्धृत करना चाहूँगा जो कहानी में यदि आती तो इसका फलक व्यापक हो जाता.

मन्नत टेलर कहानी की शुरुआत धीमी है. मन्नत टेलर तक आते-आते कहानी का एक तिहाई हिस्सा निकल जाता है. उन बातों के आधार पर कहानी आगे कैसे बढ़ेगी और इसका अंत क्या होगा इसका अनुमान आसानी से लग जाता है. अंत सुखद है. परन्तु वह परिवार विशेष और पूँजीवाद के विजय की कहानी बनकर रह जाता है. जो इस व्यवसाय या कहें तो इस असंगठित सेक्टर की समस्या का मूल है. इस तरह के अन्य छोटे और घरेलू उद्योगों अन्य समस्याएं भी हैं. जिनकी ओर प्रज्ञा जी ने इस कहानी के माध्यम से लगभग इशारा करने की कोशिश की है. लेकिन वह वास्तविक समस्याओं और उनके विमर्श से दूर ही रह जाता है.

कहानी की शुरुआत में आया समीर का ज्वारकपड़ों की तरफ़ उसकी असंतुष्टि को लेकर था या स्वभावतः ही वह ऐसा ही है. इस बात को कहानी स्पष्ट नहीं कर पाती. क्योंकि जिस समय रेडीमेड कपड़े चलन में कम थे यानि कपड़े सिलाने के जमाने में लोग पाँच-पाँच घंटे खुदरा कपड़े की दूकानों पर अलग-अलग रंगों और डिज़ाइनों जी थान को देखने में बिता देते थे. जींस चलन में आने के बावजूद भी कभी फॉर्मल ट्राउजर का विकल्प नहीं बन सका. समीर जैसे फैशनपरस्त या यूँ कहें तो जिनके मानक सामान्य कपड़ों से ऊपर होते हैं. वे बाजारपोषी  तो हो सकते हैं, परन्तु मन्नत टेलर के हितकारी तो कतई नहीं. इसी जगह कहानी का अतिवादी पक्ष उपस्थित होता है. जहाँ कहानी में जबरन किसी टेलर की जरूरत महसूस कराने की कोशिश की जाती है. पसंद-नापसंद हर व्यक्ति बेहद निजी फैसला होता है. रेडीमेड कपड़ों की दुकान हो या थान वाले की दुकान शहरों के फैशनपरस्त कभी संतुष्ट नहीं हुए और भविष्य में उनके संतुष्ट होने की सम्भावना भी कम ही है. जो कि बाजार के लिए अनुकूल स्थति है.

आज भी बाजार के हर स्वरुप ने ग्राहकों को अपनी जरूरत महसूस कराई है और कमोबेश उसे संतुष्ट करने की कोशिश भी कर रहा है. सेल एक मार्केटिंग का तरीका है. इस तरह के कई हथकंडे विज्ञापनों समेत बाजार उपभोक्ताओं के लिए आजमाता रहता है. कहानी समीर के माध्यम से कहीं यह बात तो नहीं कहना चाहती कि बाजार भी पितृसत्तात्मक मूल्यों का पोषक बन गया है जिसमें महिलाएं एक साधन मात्र हैं और वे पुरुषों के हितों/इच्छाओं की पूर्ति करने की कोशिश में हैं. अगर ऐसा है तो कहानी के इस बिंदु पर दुबारा चिन्तन की जरूरत है. कपड़े की मजबूती के हमारे मानक हमेशा ही बहुत दोयम दर्जें के रहे हैं. जैसा कि कहानी में समीर के पिता का बोध बताया गया है.

उदारीकरण के बाद के बाज़ार ने इन्हीं मानकों को ध्वस्त करके नए मानक गढ़े हैं. जिसमें न तो परम्परागत उपभोक्ता फिट बैठते हैं और ना ही बाज़ार. उपभोक्ता को अपग्रेड करने के लिए बाजार ने मॉल संस्कृति, फिल्म धारावाहिक, सेल समेत विज्ञापनों का सहारा लिया. सुन्दर और सजीले दिखने के लोलुप निम्न मध्यम वर्गीय और मध्यमवर्गीय परिवार तो उत्पादों के अनुसार अपग्रेड हो गए या होने की कोशिश में हैं लेकिन परम्परागत उत्पादक, कुटीर उद्योग और स्थानीय बाजार वे इस दौड़ में आर्थिक, तकनीकी और समुचित प्रशिक्षण के आभाव में पिछड़ गए. इसके लिए शोध और विकास को भी जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए. अब वे ग्राहक भी नहीं रहे जो टेलर मास्टर के यहाँ अमिताभ बच्चन के सूट की तस्वीर को देखकर सिलाना तय करें.

राकेश बिहारी

कहानी जैसे-जैसे आगे बढ़ती है उसकी पकड़ बढ़ती जाती है. शिल्पियों के बच्चे सामान्यतः पढ़े-लिखे कम ही होते हैं. लेकिन यहाँ एक सवाल उठना लाजिमी है कि हम शिक्षा से क्या समझते हैं? सिर्फ़ मैट्रिक, इंटर या फिर स्नातक (10+2+3) पास होना या कुछ और...? अगर एक शिल्पी परिवार का बच्चा इतना ही समय उस हुनर को सीखने में बिताता है और उच्च कोटि का प्रोडक्ट बनाकर अपना जीवन-यापन करने की स्थिति में है, तो क्यों उसकी इस हुनर की शिक्षा को मान्यता समाज या सरकारी शिक्षण व्यवस्था नहीं देती है?कहानी इस मुद्दे पर बात न कर परंपरागत शिक्षा व्यवस्था के पक्ष में सगर्व खड़ी दिखाई देती है. असलम को एम०बी०ए० बता देना व्यवसाय के ढंग से चला सकने का पर्याय बताने की कोशिश भी हुई है. जबकि इनफिनिटी जैसी चमक-दमक वाली दुकानें वास्तव में बड़ी कम्पनियों की या तो सब्सिडयरी कम्पनियाँ (प्रोडक्शन सेंटर) बन कर खड़ी हुई हैं या फिर मिडिल मैन की भूमिका में हैं. शोषक और शोषित दोनों वर्गों का प्रतिनिधित्व करती हुईं.

कहानी एक सामान्य टेलर मास्टर की तरफ़ खड़ी है या फिर मॉल कल्चर की तरफ़ यह भी स्पष्ट नहीं है. कुछ भावुक संवादों के जरियेस्टैंड समान्य टेलर की तरफ़ रखने की कोशिश भी की गयी है. लेकिन इतने से बात नहीं बनती. मसलन असलम का कहना कि ....पर त्यौहार पर शौक से आज भी कैंची उठा लेते हैं.  या फिर रशीद भाई के मुंह से.... ''बेटा! ये तो उम्र भर का दुख है. जाने वाले की यादें रह जाती हैं बस.''

आज कि वर्तमान परिस्थिति जहाँ एक भी सामान्य शिल्पकार अपनी स्वायतता नहीं बचा पा रहा तो इसमें भी सामूहिक जिम्मेदारी समाज की ही है. लेकिन यह भी स्वीकारना चाहिए कि उनमें से कुछ लोगों के पास पहले की अपेक्षा बेहतर मौके और सुविधाएं भी हैं. क्या होता है कि सब कुछ बह जाने के बाद भी हम ख्याली पुल बनाते चलते हैं. जैसा कि समीर सोच कर मन्नत टेलर्स की खोज में जाता है. यह भावुकता हमें कुछ करने या सोचने नहीं देती. बहुत सी चीजें धीरे-धीरे हमारे हाथों से लगभग फिसल रही हैं. पलायन हर जगह है. हम अब भी अपनी सुखद यादों (नॉस्टेल्जिया) मानक मानकर उन्हें संजोने में यकीन करते हैं. जिनके स्वरुप के बिगड़ जाने का एक भय भी हमेशा हमारे साथ रहता है. सब कुछ बदल जाए. यादों और ख्यालों का विकास हमें कतई पसंद नहीं. गाँवों के स्वरुप के बिगड़ने की दलील इसी वजह से दी जाती है. यह अंतर्विरोध आजकल निम्न माध्यम और माध्यम वर्ग में एक सामान्य लक्षण के रूप में परिलक्षित होने लगा है. जो कि समीर के स्वभाव में भी दिखता है.

कहानी में टेलर मास्टर के बहाने हस्तशिल्प और लघु उद्योगों के अनेक उपक्रमों एवं कलाओं को केंद्र में रखकर उनके शिल्पियों के संघर्ष एवं बाजारवाद की वजह से पैदा हुए संकटों को बखूबी दिखाया जा सकता था. लेकिन कहानी यहाँ चूक जाती है.
 
एक बार पुनः प्रज्ञा जी और राकेश बिहारी जी को बधाई.


नवनीत नीरव
navnitnirav@gmail.com


मैं कहता आँखिन देखी : प्रो राधावल्लभ त्रिपाठी

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संस्कृत भाषा का नाम लेते ही हमारे सामने एक शास्त्रीय पर पुरातनपंथी भाषा आ खड़ी होती है जिससे अब केवल धार्मिक अनुष्ठान भर सम्पन्न होते हैं. हम भूल चुके हैं कि इसमें चार्वाक और अश्वघोष (वज्र-सूची) जैसे विद्रोही विचारक भी हो चुके हैं.

आज भी अगर भारत के विचार को समझना है तो आपको संस्कृत समझना चाहिए.

संस्कृत के प्रख्यात साहित्यकार और आधुनिक विचारक प्रो. राधावल्लभ त्रिपाठी से यह संवाद मूल संस्कृत में प्रवीण पंड्या ने संभव किया है, और फिर संस्कृत से इसका हिंदी अनुवाद भी उन्होंने ख़ास समालोचन के लिए किया है.

यह संवाद बहुत अर्थगर्भित है. यह केवल दर्शन और साहित्य पर ही नहीं है यह हिन्दू, वर्ण, जाति, साम्प्रदायिकता आदि तमाम समकालीन प्रश्नों से भी  गम्भीर मुठभेड़ करता है. जो लोग हर प्रगतिशील अवधारणा को पश्चिम से आयातित कह उसकी अवहेलना करते हैं दरअसल उन्हें अपनी परम्परा का भी ज्ञान नहीं है.

इस शानदार संवाद के लिए प्रणव पांड्या और उपलब्ध कराने के किये बलराम शुक्ल का हृदय से आभार.





संस्कृति और सृजन के संकट                       
(चिन्तक अध्येता एवं प्रख्यात संस्कृत कवि आचार्य राधावल्लभ त्रिपाठी से प्रवीण पंड्या से संवाद)



(आचार्यराधावल्लभत्रिपाठीभारतीयमेधाकेप्रतिनिधिरचनाकारोंएवंआलोचकोंमेंगिनेजातेहैं.संस्कृतकीरचनाएवंउसकेशास्त्रदोनोंमेंइन्होंनेउल्लेखनीययोगदानदियाहै.संस्कृतमेंछहकाव्यसंग्रहों, तीनउपन्यासोंसहितअनकेकृतियाँदेनेवालेत्रिपाठीजीनेहिन्दीमेंभीप्रभूत, औरगौरकरनेयोग्यसाहित्यसर्जनकियाहै.ज्ञानपीठसेप्रकाशितइनकाहिंदीउपन्यासविक्रमादित्यकथाआचार्यहजारीप्रसादद्विवेदीकीपरम्पराकोआगेबढ़ाताहै.सबसेमहत्त्वपूर्णतोअभिनवकाव्यालंकारसूत्रम्नामककाव्यशास्त्रकीरचनाहै, जिसमेंवहकाव्यालोचनकोऐतरेयमहीदासआचार्यभरतकीआर्षदृष्टिसेजोड़तेहुएपश्चिमकीसर्वभक्षीएकाधिपत्यवादीएकांगीदृष्टियोंकेबरक्ससमग्रता, पूर्णताएवंवैकल्पिकताकेमानदण्डदेतेहैं.


कविक्रान्तद्रष्टाहोताहैकिन्तुउसकाअध्येताहोनाआवश्यकनहींहै.राधावल्लभत्रिपाठीगंभीरअधीतीहैं.साहित्यइससंसारकेभीतरहीभीतरचलनेवालासंवादभीहै, जिसमेंआमनेसामनेउपस्थितहुएबिनासैंकडों (जोकिअन्तत: अनन्तहोजातेहैं) लोगशामिलहोतेहैं.बस, इसीकेबलपरवहकुछजोड़ताहैऔरकुछनिरस्तकरताहै.मेरेपूर्वत: चिन्तित, निश्चितप्रश्रोंकाउत्तरदेतेहुएत्रिपाठीजीजिसव्यापकएवंउदात्तदृष्टिकोलेकरउपस्थितहोतेहैं, वहउपयुक्तधारणाकोपुष्टकरताहै) प्रवीणपंड्या

 १.जन्म बन्धन है, यह वैदिक दृष्टि या उसके बाद में उपजी हमारी धारणा है.  क्या यह शून्यवाद की वह नींव नही हैं, जिसके सहारे श्रमण व वैष्णव --इन दो तटों वाली हिन्दुदृष्टि अब वर्तमान है.

जन्म बन्धन है, यह दृष्टि वैदिक तो किसी भी तरह नहीं है. यह जीवन बन्धन है और इससे मुक्ति पानी चहिए, यह विचार वेदों में मूलत: नहीं है. धर्म, अर्थ, काम ये तीन पुरुषार्थ हैं. चौथे मोक्ष को तो त्रयी में जग़ह ही नहीं मिली. उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्इस मन्त्र में जिस बंधन का संकेत है, वहाँ भी जीवन के बन्धन होने का तो भाव नहीं है. मौत का डर ही बंधन है, जीवन तो अमृतमय है, यहीं ऋषियों को आशय प्रतीत होता है. संन्यास नामक चौथे आश्रम की व्यवस्था भी बाद में जाकर शुरू हुई. वैदिक ऋषि तो संन्यासी ही  नहीं होते थे. उपनिषदों के ऋषि वानप्रस्थ हैं, संन्यास की तो वहाँ कथा ही शुरू नहीं हुई.

चौथे वेद अथर्ववेद में वेदान्तदर्शन निरूपित हुआ है, वहाँ भी बन्ध मोक्ष का उस तरह से विचार नहीं है, जिस तरह परवर्ती वैष्णवादि मतों में हुआ है. अत: जन्म बंधन है, यह विचार वैदिक तो नहीं है. वैदिक संस्कृति की समवर्ती/ समकालीन किसी संस्कृति में ऐसा विचार था, यह संभावना की जा सकती है. वैदिक संस्कृति के समानान्तर चलने वाली कुछ संस्कृतियाँ थीं. वैदिक व्रत, आचार, यज्ञादि में श्रद्धा न रखने वाले व्रात्य थे. वैदिक मन्त्रों में ही व्रात्यों की बड़ी महिमा की गई है.

अर्थववेद में बहुत से सूक्त व्रात्यमाहाम्त्य का मण्डन करने वाले हैं. यह एक व्रात्य संस्कृति है, जो वैदिक संस्कृति से बाहर है. श्रमण संस्कृतियाँ, आर्येतर लोगों की संस्कृतियाँ, और भी संस्कृतियाँ इस देश में प्रचलित थीं. वहाँ यदि जीवन बन्धन है, यह सिद्धान्त के तौर पर माना गया हो, तो उस बारे में मैं ठीक से नहीं जानता और न साधिकार बोल सकता हूँ. यह अवश्य साधिकार कहता हूँ कि भारतीय दृष्टि एक दृष्टि, एक संस्कृति नहीं है, वह अनेक संस्कृतियों का समुच्चय है. सर्वदृष्टि स्वीकार या सर्वदृष्टिस्वातन्त्र्य से हमारी दृष्टि बनती है. इस तरह सभी संस्कृतियों के स्वीकार या सभी संस्कृतियों के निषेध के साहस में भारतीय संस्कृति प्रतिष्ठित है.

भारतीय चिन्तनधारा के दो प्रवाह आनन्दवाद और दु:खवाद विद्वानों ने माने हैं. पहले प्रवाह के प्रतिनिधि इन्द्र हैं और दूसरे के वरुण, यह मत जयशंकर प्रसाद ने व्यक्त किया है.

वैदिक परम्परा में जो दर्शन या शास्त्र विकसित हुए हैं, उनमें भी मनुष्य तो स्वतंत्र है किन्तु वह अपने को बद्ध सा मानता हैयही विचार आता है. तस्मान्न बध्यतेऽद्धा न मुच्यते न वा संसरति कश्चित्. बध्यते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृति:यह सांख्यकारिकाकार ने कहा है. बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन ने तो निवार्ण ही संसार है एवं संसार ही निर्वाण हैका उद्घोष किया ही.


२.भारतदेश तो जम्बूद्वीप का भाग ही है न. संस्कृतधारा तो शक, प्लक्ष आदि द्वीपान्तरों में व्याप्त हुई है. हम संस्कृताश्रित संस्कृतिको भारतीय संस्कृतिकैसे कह सकते हैं? भारत शब्द सप्तद्वीपा वसन्धुराका वाचक तो नहीं है.

यह प्रश्र भ्रान्ति पैदा करता है. संस्कृताश्रित संस्कृति या संस्कृतधारा क्या है, यह जब  तक स्पष्ट नहीं किया जाता, तब तक स्पष्ट उत्तर नहीं दिया जा सकता. केवल, कोई एक संस्कृति संस्कृत के आश्रित रही, यह नहीं कहा जा सकता. और न कोई एक ही धारा संस्कृत से प्रवाहित हुई. संस्कृत अति विशाल क्षेत्र है, जिसमें नाना संस्कृतिधाराएँ प्रवाहित हुईं और हो रही हैं. यदि वैदिक संस्कृति ही संस्कृताश्रिता संस्कृति है, यह माना है तो वह ठीक नहीं है. क्योंकि संस्कृत में वैदिकतेर परम्पराओं से संबद्ध बौद्ध, जैनों, चार्वकों, मुसलमानों और ईसाइयों का प्रचुर साहित्य है. संस्कृत की कोई एक संस्कृति नहीं है, एक धारा भी नहीं. संस्कृतिवैविध्य और प्रवाहवैविध्य है. वहाँ जनं बिभ्रती बहुधा विवाचसं नानाधर्माणं पृथिवी यथौकसम्मानते हुए ऋषियों ने बहुत पहले इसकी पृष्टि कर दी थी.

संस्कृताश्रित संस्कृति की कुछ धाराएँ भारत से बाहर भी फैलीं और इन धाराओं ने उन उन देशों की धाराओं के साथ संगम रचाया. संस्कृतधारा तो शक प्लक्ष आदि द्वीपान्तरव्यापिनी हैयह जो कहा गया, इसमें मेरी दो तरह की आपत्तियाँ हैं. पहली तो यह कि कोई एक धारा नहीं है जो भारतेतर देशों में व्याप्त हुई. वहाँ नाना धाराएँ व्याप्त हुई थीं. और दूसरी यह कि आपकी अवधारणा के अनुसार यह संस्कृतधारा अथवा मेरी अवधारणा के अनुसार बहुत सी संस्कृताश्रित संस्कृति की धाराओं ने ही भारतेतर देशों की संस्कृति को बनाया, यह भी मैं नही मानता. उन उन देशों की संस्कृतियों ने संस्कृताश्रित संस्कृतियों या उनके प्रवाहों के कुछ तत्त्वों को अंगीकार किया तथा संस्कृतधाराओं ने भी उन उन देशों को संस्कृतप्रवाहों के संगम से अपना विकास किया.

बर्मा, थाईलैंड, मलयेशिया, जापान, इण्डोनिशिया, वियतनाम, लाओस आदि देशों की संस्कृतियाँ केवल संस्कृतमात्र या भारतीय संस्कृति मात्र की उपजीविनी नहीं हैं. उन देशों की अपनी स्थानीय परम्पराएँ, अपनेआख्यान और अपनी जीवनपद्धतियाँ हैं. इन परम्पराओं, इन आख्यानों अथवा इन जीवनपद्धतियों ने संस्कृताश्रित परम्पराओं से संगम कर उन उन देशों की संस्कृति को बनाया तो प्रत्येक देश की एक भिन्न, विशिष्ट संस्कृति बन गई. यह संस्कृति विभिन्न संस्कृतियों के पारस्परिक आदान-प्रदान से विकसित हुई, जिनमें संस्कृत से निःसृत संस्कृतियाँ भी थीं और इतर संस्कृतियाँ भी. संस्कृत भाषा, संस्कृत साहित्य परम्परा, संस्कृताश्रिता संस्कृति या संस्कृतियों ने जम्बूद्वीप के मध्य गणनीय भारतेतर देशों अथवा जम्बूद्वीपेतर देशों की संस्कृतियों के निर्माण में बहुत बडा योगदान किया है, इसमें कोई संशय नहीं है.

यहाँ यह समझने की बात है कि भारत देश या एशियामहाद्वीप या संस्कृत की एक संस्कृति नहीं है, क्योकि उसमें अनके संस्कृतियाँ गुँथी हुई हैं. तथापि जाति में एक वचन के विधान के अनुसार लाघवार्थ संस्कृताश्रित संस्कृति या भारतीय संस्कृति संज्ञा के प्रयोग का अनुमोदन किया जा सकता है. एशिया महाद्वीप की एक विशिष्ट संस्कृति है. उसके निर्माण, विकास और समुल्लास में संस्कृताश्रित भारतीय संस्कृति का भी अवदान है. वह ईसाई सम्प्रदाय का आधार लेकर प्रवर्तित योरोपीय संस्कृति से अलग पड़ती है, तथापि यह संस्कृति, केवल संस्कृताश्रिता है, ऐसा कहना उचित नहीं है.

संस्कृताश्रित संस्कृति का भारतेतर देशों में भी प्रसार होने पर हम उसे भारतीय संस्कृति कैसे कह सकते है, इस प्रश्र में आपका आशय यह प्रतीत होता है कि संस्कृताश्रित संस्कृति भारतीय संस्कृति से व्यापकतर है. इसके उलट कर मैं तो यह कहता हूँ कि भारतीय संस्कृति ही संस्कृताश्रित संस्कृति की अपेक्षा अधिक व्यापक है. भारतीय संस्कृति के निर्माण, विकास एवं समुल्लास में आदिम जनजातियों, वैदिकेतर परम्पराओं, तमिलादि भाषाओं पर अवलम्बित संस्कृतियों, इस्लामपरम्पराओं, ईसाईपरम्पराओं का भी बहुत बड़ा और महत्त्वपूर्ण अवदान है. जैसे वेद, पुराण, रामायण, महाभारत, कपिल-कणाद गौतम आदि दर्शनिक, बुद्धमहावीर आदि महापुरुष, कालिदासादि महाकवि उसके निर्माता हैं, वैसे ही सीलप्पकादिरम् या  तोलकाप्यम् के काव्यकार, तुलसी, गालिब, सुब्रह्मण्य भारती आदि सुकवि भी उसके निर्माता हैं.

यदि भाषा आश्रय, अधिकरण या अधिष्ठान है तो वह आश्रित या आधेय से भिन्न है. संस्कृत संस्कृतियों का आश्रय है, वह संस्कृतियों से पृथक् है. भाषा व्यापक होती है और संस्कृति व्याप्य. पृथ्वी या देश अनेक भाषाओं का आश्रय स्थान है, अत: पृथ्वी या देश भाषा से व्यापक है और भाषा उससे व्याप्य है. भारतीय संस्कृतियाँ संस्कृताश्रित संस्कृतियों अतिरिक्त भी हैं, यह कह सकता हूँ.


३.संस्कृत  कैसे परम्परा से जुड़ी हुई है? क्या  वह बीते हुए घटनाचक्र का इतिवृत्त मात्र है अथवा उसके सहित या उसके बिना, उसके विशेष से विमुक्त कोई चिन्तन है ? और संस्कृति यदि परम्परा का अनुवचन ही है तो सर्जक का सर्जन क्या रहा ?

कोई एक परम्परा संस्कृत से जुड़ी हुई नहीं है. नाना परम्पराएँ अनुस्यूत हैं. केवल प्राचीन इतिवृत्त में संस्कृत का परम्पराबाहुल्य कैसे खप सकता है? वहाँ राम भी है, कृष्ण भी, बुद्ध भी, तथा मोनालिसा भी. योरोपभ्रमण की अनुभूतियाँ हैं, वहाँ  भावान्तराणि जननान्तरसौहृदानिभी समुल्लसित है, बुद्ध के भिक्षापात्र में डूबकी लगता अणुबम्ब से जला हुआ शहर है, वहाँ विषुवियस की लपटें और वेनिस नगर की कुल्याएं भी हैं.

४.बीत चुकी वर्णाश्रमसभ्यता स्मृतिबल से संस्कृत सर्जक व सर्जन के सामने खडी है और हम युग की वर्तमान सभ्यता को जी रहे है. इस सभ्यता को पाश्चात्य कहें या पाश्चात्यप्रभाव से प्रभावित, किन्तु उसी को जीते हुए हमारी सात पीढियाँ बीत चुकी हैं. अत: क्या सर्जक के लिए क्या मार्ग है?

यह प्रश्र काफी जटिल है. वर्णव्यवस्था से क्या आशय है, यह पहले बतलाना चाहिए. जो वर्णव्यवस्था का समर्थन करते हैं, वे प्रच्छन्नरूप से जातिवाद का समर्थन करते हैं. वे बड़ी ऊँची किन्तु खोखली बातें करते हैं, वे कहते हैं: जाति, जन्म से नहीं होती है. चातुर्वर्ण्य तो भगवान ने गुणकर्मविभागश: सिरजा है. जो ज्ञानगरिमा से सम्पन्न हैं, वे ब्राह्मण हैं. जो रक्षाकर्म कुशल हैं, वे क्षत्रिय हैं, जो शिल्प व कला में कुशल हैं, वे शूद्र हैं. इस तरह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्रादि जन्म से नहीं होते हैं. दूसरे वर्णव्यवस्था की उससे भी गूढ गंभीर व्याख्या करते हैं. वे कहते हैं- देखिये, कितनी सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक दृष्टि यहाँ पर भारतीय चिन्तकों की है. मनुष्य की चार प्रकार की प्रवृत्तियाँ होती हैं-- ज्ञान, रक्षण, व्यवसाय और कला, उस अनुसार उसका वर्ण होता है. ये वचन कितने मनोरम प्रतीत होते हैं. परन्तु जो इन बातों को कहते हैं, वे व्यवहार में प्राय: जन्म से ही जाति का पोषण करते हैं. फलत: ये वचन सिद्धान्त में ही रह जाते हैं, व्यवहार में तो ब्राह्मणों के बेटे ब्राह्मण ही होते हैं और क्षत्रियों के बेटे क्षत्रिय. हमारे जीवन में सिद्धान्त व्यवहार का जैसा द्वैध है, वैसा शायद ही अन्यत्र हो. वर्णाश्रम व्यवस्था जातिवाद से जुड़ गई. अति प्राचीन काल में ही जातियों में सांकर्य उत्पन्न हो गया था. जातिगत शुद्धता का आग्रह मिथ्या हो गया. महाभारत के जातिरत्र महासर्पइत्यादि वचनों से इसकी पृष्टि होती है. स्मृतिकारों ने वर्णाश्रमव्यवस्था की जैसी अवधारणा की है, वर्तमान में वैसी अभ्यास या व्यवहार में नही है. व्यवहार में वर्णव्यवस्था धूल चाट रही है, व्यवहार में जातियाँ उखड़ चुकी हैं. हमारे संस्कारों में जातिवाद का दुराग्रह जरूर मुँह फैलाये खड़ा है.

संस्कृत साहित्यकारों के  समाज में वर्णाश्रमव्यवस्था और जातिवाद के संस्कार जागरित हैंसाहित्य रचते समय तो सरस्वती जागती है, वही अवांछित संस्कारों को उखाड़ फैंकती है और सर्जनोत्प्रेरक भावों या संस्कारों को उन्मीलित करती है. साहित्य रचना के लिए सारे पूर्वाग्रह, आग्रह, धारणाएँ, पूर्वनिर्मित विचार प्रत्यवाय ही हैं. उनको उपेक्षित करके ही साहित्यसाम्राज्य में स्थित होना चाहिए, वहाँ अन्य का आदेश नहीं हो.


५.पद पद पर पार्थिव मूर्ति की स्तुति करने वाले यत् किञ्चित् संस्कृतसाहित्य का सम्प्रदायगत विधि से विवश होने के कारण मुस्लिम जन निषेध क्यों कर न करें ?

प्रश्न में सारे मुस्लिम समाज का जो साधारणीकरण किया गया है, उसमें मेरी आपत्ति है. वहाँ सभी लोग मूर्तिभंजक नहीं होते हैं. उनमें सभी मूर्तिभंजक सम्प्रदाय से संबद्ध नहीं होते हैं. रहीम आदि मुसलमानों ने संस्कृत में, रसखान, नज़ीर आदि ने ब्रज या उर्दू में भक्तिभाव से तन्मय होकर कृष्णभक्ति परक अत्यन्त रमणीय काव्य रचे हैं. उससे उनका मुस्लिमत्व नष्ट नहीं हो गया. पाँच बार निष्ठा के साथ नमाज पढ़ेगें और कीर्तन में भी सम्मलित होंगे ऐसे लोग भी उस समाज में हैं.

राजस्थान में जहाँ आप हैं, मुस्लिम समाज के कुछ पारंपरिक  कलाकार कई पीढियों से केवल रामायण गायन का काम करते रहे हैं. हमारा सांस्कृतिक वैभव और वैविध्य ऐसे लोगों की निष्ठा और खुली दृष्टि से बना है. दूसरी बात यह कि पार्थिवमूर्ति के स्तुतिपरक संस्कृत काव्यों को वर्जित करने वाले लोग मुसलमानों में ही हैं, ऐसा नहीं है. देवताओं के पार्थिव विग्रह को मन में रख यदि उनकी स्तुति में कोई कवि कविता करता है तो वहाँ सबका समान रूप से रसास्वाद नहीं हो सकेगा. ऐसे स्तुति काव्य उनके लिए समान रूप से रसनीय नहीं रह जाते जिनकी स्तुत्य देवों में आस्था नहीं है. कभी कभी भावसौन्दर्य के कारण उन काव्यों के अनुशीलन में अनास्थाशील की भी रुचि हो जाती है यह बात अलग है. अनास्थाशील होते हुए भी मैंने सौन्दर्यलहरी, स्तुतिकुसुमाञ्जलि आदि के पाठ से सौन्दर्यधारा से आप्लवित भावों साक्षात् किया है. फिर भी धार्मिक सम्प्रदायविशेष के भीतर रचे जाने वाले काव्य या साहित्य की सबके लिए समान रसनीयता नहीं हो सकती. वहाँ न तो पूर्ण साधारणीकरण होता है और न तादात्म्य.

रसास्वाद की यह भी एक कोटि है. इस कोटि में अवस्थित होकर जो काव्यानुशीलन करते हैं, वे अरसिक होते हैं, यह भी नहीं मानना चाहिए. वे रसिकोत्तम हो सकते हैं. क्योंकि वे अपने विवेक को विसर्जित कर काव्यास्वादन नहीं करते हैं. यदि विवेकविसर्जन पूर्वक साहित्य का रसास्वादन किया जाता है तो सतृणाभ्यवहारिता हो जाती है अत: पुराने पण्डितों ने ठीक ही भक्ति का रसत्व अस्वीकार किया. जिसकी श्रीकृष्ण में भक्ति नहीं है, उसके लिए गौडीय भक्ति संप्रदाय के अनुगामी कवियों द्वारा रचे गए काव्य कदाचित् वैरस्यजनक हो सकते हैं. सारे श्रोता या पाठक हमारे काव्य के रसास्वाद हेतु कृष्णभक्त हों, जो नहीं होते है, वे निन्दनीय है, साहित्य में ऐसा अनुशासन कोई नहीं चला सकता, भले ही वह महाकवि हो या महान् समीक्षक .

हमारी संस्कृति में तो जो पार्थिवमूर्तिपूजा को धिक्कारते हैं, उन दयानन्द आदि, चार्वाकों आदि का भी महनीय स्थान है. संस्कृतपरम्पराओं में, हमारी चिन्तनधाराओं में और संस्कृत साहित्य में मुसलमानों की जग़ह कैसे हो सकती है, इसके विरुद्ध में मैं कुछ अन्य कहना चाहता हूँ. जो जडबुद्धि संस्कृत परम्पराओं में मुसलमानों के लिए जग़ह नहीं है, ऐसा विचार भी मन में लाते हैं, वे वस्तुत: असंस्कृत हैं, भले ही वे कितने बड़े विद्वान् बुद्धिजीवी पण्डित या विषयविशेष के विशेषज्ञ शास्त्रज्ञ क्यों न हो. इन मन्दबुद्धियों की दुष्टता से सरस्वती क्षीण होती हैं, मुस्लिम-ईसाई मतावलम्बी संस्कृत को सम्प्रदायविशेष की भाषा मानते हुए उसके अध्ययन से विमुख हो जाते हैं. फिर भी आज भी उनमें भी अल्बेरूनी, अब्दुलरहीम खानखाना और दाराशिकोह सदृश लोग हैं ही.

शुक्रस्मृति में बत्तीस विद्याएँ गिनाई गई  हैं. उन बत्तीस विद्याओं में एक विद्या के रूप में यवनदर्शन भी गिना गया है. नवमी शताब्दी में तुर्कों, मुसलमानों का भारत में आक्रान्ता के रूप में आगमन नहीं हुआ था. परन्तु इस्लाम की उस काल में संस्कृत विद्याओं में जग़ह है. ताजिक विद्या का अध्यययन करने के लिए उसी काल में नीलकण्ठ काश्मीर गए थे.

धर्म के नाम पर आतंक पुष्ट किया जाता है. उस के कारण इस तरह की विडम्बना खड़ी हो जाती है. साहित्य तो इस प्रकार के आंतकवाद का प्रतिरोधी है.

६.सहस्राब्दियों पहले रचे गए,चाहे वह लैटिन का हो या यहूदी का अथवा संस्कृत का, साहित्य का इस युग के सर्जकों के  कैसा संबंध हो सकता है? उन युगों का तात्कालिक और इस युग का एतत्कालिक समाज समाकारिता कैसे हो सकती है? यह सही है तो फिर कैसी संस्कृतिसंरक्षा संस्कृत लेखन से अथवा तो तदानीन्तन युगदृष्टि की पृष्टि अधुनातन सर्जन से क्यों कर होगी.


ग्रीक लैटिन आदि भाषाओं के प्राचीन साहित्य से आजकल के योरोपीय साहित्यकारों का कदाचित् दृढ संबंध नहीं है. परन्तु संस्कृत के पुरातन साहित्य से वर्तमान संस्कृत सर्जकों का गहरा संबंध है. कहीं कहीं तो आवश्यकता से भी ज्यादा संबंध है, यह हम देखते हैं. इसका खास कारण है. ग्रीक लैटिन आदि भाषाओं का जो प्राचीन स्वरूप था, वह अब बदल चुका है. उन भाषाओं का पुरातन साहित्य आधुनिक काल के साहित्य सर्जन से नहीं जुड़ेगा. संस्कृतभाषा पाणिनि से लगाकर आज तक अपने स्वरूप में मौजूद है. उसका साहित्य अधुनातन संस्कृत सर्जकों के मानस के साथ संशिष्ट हो जाता है. इस संश्लेष के नाना रूप हैं. वाल्मीकि कालिदास आदि के काव्य अब भी हमारे लिए सहज बोधगम्य हैं, किन्तु उनका अनुसरण करते हुए या उनके अनुरूप संस्कृत में नयी रचना करनी चाहिए, ऐसी बात नहीं है. उनका अतिक्रमण करके अथवा उनसे आगे जाकर हम रच सकते हैं, यह संभावना बनती है.

७.हिन्दुत्व के साथ संस्कृत की अन्विति कितनी है? है अथवा नहीं  हैउसका हिन्दुत्व से भिन्न स्वरूप हैसमकालिक रचनाओं से क्या तथ्य प्रकट होता है?

जिस संस्कृत भाषा में मैं काव्य करता हूँ या रचता हूँजिस संस्कृतभाषा के साहित्य को पढ़ कर मैं परितोष प्राप्त करता हूँ, उस संस्कृत भाषा और उसके साहित्य का हिन्दुत्व के साथ कोई संबंध नहीं है. वहाँ तो सब कुछ हिन्दुत्व से व्यतिरिक्त ही है. वेदों से लेकर, व्यास-वाल्मीकि से लेकर, पुराणों से लेकर, कालिदास से लेकर, भवभूति से लेकर, राधावल्लभ से लेकर आज तक के संस्कृत साहित्य में तथाकथित हिन्दुत्व भावना से हिन्दू शब्द का ही प्रयोग नहीं है. हिन्दू शब्द ही संस्कृत शब्द नहीं है. संस्कृत साहित्य में उसके प्रयोग  का अवकाश या कारण भी नहीं था, अत: उसका प्रयोग नहीं है. अरबदेशीयों या विदेशियों ने सिन्धुतट प्रदेशों में निवास के कारण भारतीयों के लिए ये हिन्दू हैंऐसा निरादर पूर्वक हिन्दू शब्द का प्रयोग किया था. उन विदेशियों द्वारा जूठे के रूप में उगले हुए हिन्दू शब्द को हमने अङ्गीकृत कर लिया. बाद में योरोपीय संस्कृतिविदों, जिन्होनें संस्कृत साहित्य का अनुशीलन किया, संस्कृत साहित्य को प्राय: हिन्दूसाहित्य कह कर निर्दिष्ट किया. यह कैसी दुरभिन्सन्धि या मतिमान्द्य है कि वात्स्यायन के कामसूत्र को भी ए हिन्दू बुक आफ सेक्सकहा जाता है. सभी मानव इस शास्त्र का अभ्यास कर सुखी हों, इस बुद्धि से यह शास्त्र रचा गया था. जिसने इस शास्त्र का प्रणयन किया, वह तो हिन्दू इस नाम को भी नहीं जानता था.

यह हिन्दू शब्द नानाविध अभिप्रायों से नाना अर्थों में आजकल प्रयुक्त होता है. इसका अतिव्याप्ति, अव्याप्ति, असम्भव-- इन तीन दोषों से रहित लक्षण भी सभव नहीं है. मुस्लिम, ईसाई, यहूदी आदि शब्दों में वैसा नहीं है. उनका लक्षण किया जा सकता है. जो कुरान और मोहम्मद साहब के पैगम्बरत्व में विश्वास करता है, वह मुसलमान है. जो बाईबिल और ईसामसीह के ईश्वरपुत्र होने में आस्था रखता है, वह ईसाई है, ऐसा सुगमलक्षण हो सकता है. इस तरह यहूदी आदि शब्दों में भी है. परन्तु हिन्दू कौन, इस प्रश्न का क्या उत्तर है? कहा जाय कि जो वेद में श्रद्धा रखता है, वहतो किस वेद में? वेद तो विविध हैं. शैवागम भी वेद हैं. यदि जो भारत में रहता है वह हिन्दू है तो भारत में रहने वाला भारतीय है, ऐसा सीधा कहिए, इतना घुमा फिर क्यों कहा जाए. भारत को हमारे संविधान में परिभाषित किया गया है, वह सुविदित ही है. भारत को हमारे पुराणकार ऋषियों ने परिभाषित किया है, वह भी सब जानते हैं.

इस प्रकार विदेशियों में कुछ ने अनादर भावना से और दूसरे कुछ ने दुरभिसन्धि, दुष्टतापूर्ण मूर्खता या विशुद्ध मूर्खता से हिन्दू संज्ञा का प्रयोग हम भारतीयों के लिये किया. इस शब्द को हमने अपने जात्यभिमान के साथ स्वीकार और महिमा मण्डित किया. यह हमारी विवशता हो सकती है. क्योंकि मुसलमानों, तुर्कों, ईसाईयों के समाज में सांगठनिक रूप से रिलीजन अर्थ में जैसा धर्म था, वैसा कोई एक धर्म भारतीय समाज में नहीं था. हमारे समाज में तो अनेक वेद, अनेक स्मृतियाँ, बौद्ध, जैन, चार्वाक आदि अनेक मत, वैष्णव शैव, शाक्त आदि सैकड़ों संप्रदाय थे.

एक पैगम्बर, एक मसीहा हमारे समाज में नहीं था. हमारे तो सैकड़ों पैगम्बर, हजारों मसीहा होगें. यह विविधता, यह बहुलता और सर्वस्वीकार ही हमारी संस्कृति का प्राणतत्त्व और धर्मपरम्पराओं का वैशिष्ट्य था. परन्तु मुस्लिमों, यहूदियों या ईसाइयों द्वारा तुम्हारा धर्म क्या है’, यह पूछने पर क्या कहेंकी ऊहापोह में हिन्दू धर्म’  ऐसा सरल समाधान हम ने स्वीकार लिया. हिन्दुत्व उपाधि को हमने स्वयं आरोपित किया, यह हमारा सहज धर्म नहीं है. एक तो करैला, और नीम चढ़ा, इस तर्ज पर इस आरोपित उपाधि को राजनैतिक प्रपञ्च/ पचड़े में संकीर्णबुद्धियों द्वारा बहुत बड़ा वितण्डावाद खड़ा करने हेतु बार बार दोहराया जाता है. अज्ञानता और विदेशियों के अन्धानुकरण करते हुए हम हमारी उदार और प्रातिस्विक परम्पराओं को भूल रहे हैं, यह विडम्बना है.

मैं ऋषियों के कुल में जन्मा हूँ. मैंने भी तप तपा है. विदेशियों के जूठे को मैं कैसे अकारण निगल जाऊँ? मैं हिन्दुस्थान में नहीं रहता हूँ. हिन्दुस्थान मेरा देश है, ऐसा उपदेश किसी भारतीय ऋषि, दार्शनिक या तत्त्वचिन्तक ने मुझे नहीं दिया. मैं भारत देश में रहता हूँ और उस कारण भारतीय हूँ. यही उपदेश भी मेरे ऋषियों ने बार बार मुझे दिया है

उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्.
वर्षं तद् भारतं नाम भारती तत्र सन्तति:.., ऐसा कहते हुए.

मेरी रचनाओं में कोई हिन्दुत्वभाव स्फूर्त नहीं होता है, वहाँ भारतीयता का भाव प्रकट होता है, यह मैं साहित्यकार के स्वभाव से कह सकता हूँ. अन्य साहित्यकार भी परास्वादन इच्छा से विरत होकर अपने स्वभाव का अनुशीलन करें.

८.वेदों से लेकर अब तक संस्कृत रचनाकारों का विचारगत कोई परिवर्तन क्रम है अथवा नहीं.

परिर्वतन तो नियति का विधान है. वेदों या उपनिषदों में ही परिवर्तमान संसार स्फूर्त  हेता है. ऋग्वेद के दसवें मंडल में विचारकोश अलग पड़ता है, जीवनदर्शन में बदलाव आता है. मेरे अपने साहित्य में परिवर्तन दिखलायी पडता है. साहित्य यात्रा के कितने कितने पथ परिवर्त नहीं हुए, तथापि कोई सनातनता यहाँ अनुस्यूत है. वैदिकों ने इसे ऋतनाम से कहा है. प्रकारान्तर से ऋतकी भावना हम सबके अच्छे साहित्य में चली आ रही है. बाहरी  दूनियाँ मे जो बदलाव होते हैं, उनसे हमारी रचनाएँ अछूती नहीं रह पाती हैं.


९.तथाकथित सवर्णों से भिन्न संस्कृत लेखकों को गिनाया जा सकता है?

आधुनिक संस्कृत साहित्य में ये सवर्ण और ये असवर्णऐसा भेद दिखलायी नहीं पड़ता है. यह उचित भी है. मैं तो उन पण्डितों और महाकवियों को जानता हूँ और बहुत मानता हूँ जिन्होनें वर्णव्यवस्था की तीखी निन्दा की है, उसे धिक्कारा है. छात्रपतिसाम्राज्य जैसे सर्वांग रमणीय महाकाव्य के लेखक, काशी के पण्डित, उमाशंकरशर्मा त्रिपाठी का काव्य अस्पृश्यान्तर्निवेदितम्को देखिए. वहाँ किस तरह अंगारों-से भमभते और वेदना से सने शब्दों के माध्यम से वर्णव्यवस्था को धिक्कारा गया है. साहित्यकार जब साहित्य रचता है तो वह उस समय सवर्ण या असवर्ण नहीं होता है. वह विश्वजनीन कारुण्य में डूबता है. संस्कृत में असवर्ण साहित्यकार अब हैं या नहीं, इसका मैंने नोटिस नहीं लिया. कदाचित् न भी हों. प्राय: जाति या जन्म से संस्कृत साहित्यकार ब्राह्मण होते हैं. उनमें जो विप्रकुल में नहीं जन्मे हैं, वे भी संस्कृत जानने के अभिमान से अपने को ब्राह्मण घोषित कर देतें हैं तथा ब्राह्मणवाद का पोषण करते हैं. जबकि दूसरी तरफ़ उमाशंकर शर्मा, राधावल्लभ, महाराजदीन पाण्डेय आदि विप्रकुल में जन्म लेकर भी साहित्य में दलितों, असवर्णों, अन्त्यजों की व्यथा प्रकट करते हैं.

वैदिक ऋषियों  में ऐतरेय ब्राह्मण के रचयिता ऐतरेय महीदास इतरा नामक दासी के बेटे थे. जबाला  दासी का बेटा सत्यकाम जाबाल ऋषि हुआ था. इसी तरह कवष, ऐलूष आदि, और अन्य भी अन्त्यजकुल में जन्मे ऋषि और कवि  तब हुए थे. राजा श्रीहर्ष के दरबार में धावक धोबी जाति और मातंग दिवाकर चाण्डाल कुल में जन्मे थे. ये दोनों महाकवि थे. हमारे पाँच हजार वर्षों के इतिहास में ये चार या पाँच उदाहरण अन्त्यज ऋषियों या कवियों के हैं. आधुनिक संस्कृत साहित्य में भी बाद में अध्ययन करने पर उल्लेखार्ह चार या पाँच उदाहरण मिल ही जायेंगे.

१०.धर्मशास्त्र अपने युग का नियामक होता है. प्रत्येक युग अपना धर्मशास्त्र संविधान उस समय की प्रतिष्ठित भाषा में रचता है, जैसा कि इस समय हम भारतीयों का धर्मशास्त्र अँगरेजी में लिखा हुआ है. संविधान व काव्य एक दूसरे को प्रभावित करते हैं, किन्तु उतने ही एक दूसरे के आमने सामने भी होते हैं. संस्कृत में लिखे गए धर्मशास्त्र संविधानों का तत्कालीन या उत्तरवर्ती काल में काव्य द्वारा प्रतिरोध कोई परम्परा दिखाई देती है.

भवभूति प्रतिष्ठित मीमांसक कुल में जन्मे. नाटकादि की रचना में लगे होने से धर्मशास्त्रियों ने उनकी उपेक्षा करने पर आक्रोश में भर कर उन्होंने ʻये नाम केचिददिह न: प्रथयन्त्वज्ञाम्ʼयह श्लोक लिखा, यह तत्त्वप्रदीपकार के प्रामाण्य से कह सकते हैं. शंकराचार्य को धर्मशास्त्रानुरोध से अपनी माँ का और्ध्वदैहिक कर्म करने से रोका गया, परन्तु उन्होनें धर्मशास्त्रावलम्बी ब्राह्मणों के मत का अनादर करके स्वेच्छानुसार अपनी माँ का अन्तिम संस्कार किया. धर्मशास्त्रों में कहीं पर दी गई विधवा विवाह, समुद्र यात्रादि के निषेध इत्यादि अनेक व्यवस्थाओं का विरोध आधुनिक संस्कृत साहित्य में हुआ है.

ईश्वरचंद विद्यासागर ने विधवाविवाह के समर्थन में संस्कृत में निबन्ध लिखा और छपाया. भट्ट मथुरानाथ शास्त्री आदि साहित्यकारों ने विधवा जीवन के बारे में उपन्यास, कहानियों की रचना की है. वहाँ भी प्रकारान्तर से परोक्ष रूप से संकीर्ण धर्मशास्त्रियों का विरोध है ही. महिलाओं में संस्कृत विदुषी पण्डिता रमा देवी ने मनुस्मृति का प्रखर विरोध किया. क्षमा देवी के साहित्य में विरोध के स्वर गुंजायमान हैं.

११.संस्कृत समाज के लिए आधुनिकता, युगीनता क्या संरचना के क्षेत्र में नवोत्कर्ष ही हैं कि विधाप्रवर्तक भट्ट मथुरानाथ शास्त्री को जो संमान दिया, वह विचारप्रवर्तक क्षमा देवी राव को नहीं मिल सका. हर्षदेव माधव की वैचारिकता की अपेक्षा उनके तान्का, हाइकु आदि की चर्चा अधिक की जाती है?

संस्कृत पण्डितों के समाज में जितना श्रम शास्त्रों में किया जाता है, उतना चिन्तन का प्रकर्ष साधने में नहीं. और नयी विचारधाराओं का अवबोध-अभ्यास भी नहीं होता है. अत एव कवि की रीति, शैली या उसके द्वारा स्वीकृत विधा की जैसी चर्चा होती है, वैसी चर्चा उसकी वैचारिकी की नहीं हो पाती है. तथापि आशा के लिए अवकाश है. मैं संस्कृत में बहुत से उदीयमान विद्वानों और विदुषियों को देख रहा हूँ जो संरचनावाद को एक तरफ कर तत्त्वदृष्टि से साहित्यानुशीलन के लिए जुटे हुए हैं.

१२. आपके अन्यच्चऔर ताण्डवम्दोनों उपन्यासों में वस्तुतत्त्व विगतकालिक है. लहरीदशक की वसन्त, निदाघ आदि लहरियों में वर्तमान अप्रकृत है. विद्यमान देश और काल आपके साहित्य में सुदृढ गृहीत होने के बावजूद अप्रस्तुत है. अप्रकृत-अप्रस्तुत में सुरसामुख-से विस्तीर्ण देश-काल को निक्षिप्त कर रचना करना क्या प्रत्यक्ष से आमने-सामने की टकराहट से पलायन तो नहीं है?

प्रस्तुत, प्रकृत और वर्तमान का साक्षात् ग्रहण भी मैंने किया है. मेरे पहले काव्यसंग्रह सन्धानम्की धर्माचार्य:’ , ‘कविगोष्ठीइत्यादि कविताओं का उदाहरण दिया जा सकता है. स्मितरेखामें संकलित मेरी समस्त कहानियाँ सीधे वर्तमान को विषय बनाती है. इसी तरह प्रेक्षणकसप्तकम्में संकलित सभी रूपक भी. उपाख्यानमालिका और अभिनवशुकसारिका में तो पुराकाल और सांप्रतकाल --दोनों को एकसाथ उभारा गया है. आपका जानकीजीवनमहाकाव्य विषयक लेख मैंने पढ़ा है. सीता के चरित्र के उपस्थान में अभिराज राजेंद्र मिश्र ने महान् साहस और क्रान्तदर्शित्व प्रदर्शित कया, यह उसे पढ़ कर ही जाना. रामायण को आधार बना कर लिखे काव्य में यदि पलायन नहीं माना जाता है तो अन्यच्च, ताण्डवम् आदि के बारे में भी उस दृष्टि से विचार कीजिए. कश्मीर में जो दुःखद स्थिति  आज दिखलायी पड़ती है, उसके स्पष्ट संकेत दोनों उपन्यासों में हैं.

वस्तुत: ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को लेकर  इन उपन्यासों की रचना का मेरे लिए एक कारण यह भी था कि आज की विसंगतियों का बोध मर्म को छूने वाला हो. भवभूति ने उत्तररामचरित, भारवि ने किरातार्जुनीय और विशाखदत्त ने मुद्राराक्षस में पुराकालिक वस्तु को लेकर भी अपने देश-काल के जो संकेत किये हैं, वे मर्म को अधिक छूते हैं.

कहीं  वर्तमान से, अथवा टी. एस. इलियट् के अनुसार अपने अन्त:पुरुष से पलायन करके और ज्यादा साहसिक कटाक्ष वर्तमान पर किया जा सकता है. फिर भी यह प्रश्र विचारणीय है. सांप्रतिक संस्कृत साहित्य में कितना सांप्रतिकत्व है और कितना रामायणादि की वस्तु के बहाने पलायन, यह गवेषणा करनी चाहिए. आपके जैसे युवा अधीती इस काम को करें.
Pro.Radhavallbh Tripathi
Address: 21, Land mark city,
(Near Bhel Sangam Society
Bhopal-462 026
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डॉ. प्रवीण पंड्या
शास्त्रीनगर सांचौर
जिला जालौर राज 343041
मो 9414943821

@ 75 : अमिताभ बच्चन : सुशील कृष्ण गोरे

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हिंदी सिनेमा के सदी के नायक अमिताभ बच्चन (जन्म-११ अक्टूबर, १९४२)आज ७५ साल के हो गए हैं. उनके चाहने वालों की संख्यां में कोई कमी नहीं आई है. उनका तिलिस्म अभी बरकरार है. उनपर कई भाषाओँ में अनगिनत किताबें लिखी गयीं हैं.

सुशील कृष्ण गोरे का यह आलेख.

हैप्पी बर्थडे अमिताभ.




@ 75 : अमिताभ आज भी एक किंवदंती            

डॉ. सुशील कृष्ण गोरे







मिताभ बच्चन अब भी एक किंवदंती हैं.  पांच दशकों की एक अंतहीन पटकथा हैं. उनके फिल्मी करिश्मे और उनकी अद्भुत क्षमताओं से निर्मित व्यक्तित्व का मिश्रित गुरुत्वाकर्षण आज भी लाखों-करोड़ों को खींच लेता है. एक अनुमान लगाया जाए तो अमिताभ अपने 75वें साल में लगभग पूरी एक अर्द्धशती के हिंदी सिनेमा का पर्याय बन चुके हैं. सात हिंदुस्तानी से शुरू उनका सफ़र आज भी बदस्तूर जारी है. उनकी जिजीविषा और जीवटता कमाल की है. जीवन के 75 बसंत देख चुके अमिताभ की अब कोई समीक्षा नहीं करता. अब वे श्रद्धा और आदर से हिंदी सिनेमा का बुज़ुर्ग पितामह (grand old patriarch) कहे जाने लगे हैं.

हिंदी के कवि और अंग्रेजी के प्रोफेसर डॉ. हरिवंश राय बच्चनके सुपुत्र अमिताभ साइंस के विद्यार्थी रहे. दिल्ली के किरोड़ीमल कॉलेज से उन्होंने बी.एस.सी. करने के बाद उन्होंने कोलकाता में नौकरी की. ऑल इंडिया रेडियो के ऑडिशन में छाँट दिए गए. लेकिन, पुरुष्य भाग्य उसे उसके असली किरदार की तरफ़ मोड़ ही देता है. अमिताभ किसी नौकरी के लिए नहीं बने थे. आखिरकार उन्होंने साल 1969 में मृणाल सेन की फिल्म भुवन सोमके नैरेटर के रूप में अपने लिए एक जगह तलाश ली. संयोग से इसी साल ख्वाजा अहमद अब्बास के निर्देशन में बनने वाली फिल्म सात हिंदुस्तानी में उन्हें पहली बार कैमरे के सामने आने का मौका मिला. यह भी एक ध्यान देने की बात है कि इस पहली फिल्म में अमिताभ ने बिहार के एक कवि अनवर अली के किरदार को अपने अभिनय कौशल से जिस प्रकार जीवंत किया, उसके लिए उन्हें उस वर्ष के बेस्ट-कमर फिल्म फेयर अवार्ड के लिए चुना गया.

अभी तक के कैरियर में उन्हें 4 बार बेस्ट ऐक्टर का नेशनल फिल्म अवार्ड तथा कुल 15 बार फिल्म फेयर अवार्ड मिल चुका है. उन्हें वर्ष 2007 में फ्रांस के सर्वोच्च नागरिक सम्मान लेजन दि ऑनरर 2015 में भारत सरकार के पद्म विभूषणसे भी सम्मानित किया गया. अभी तक 190 से ज्यादा फिल्मों में काम कर चुके बॉलीवुड के शंहशाह के लिए कोई पुरस्कार और कोई खिताब अब बहुत मायने नहीं रखता.  

वर्ष 1973 में जंजीरऔर 1975 में दीवारकी जबरदस्त सफलता ने अमिताभ की धारा को बदल दिया. मिली, अभिमान, सौदागर  का एक बेहद सीधा-साधा और शर्मीला अमिताभ एक एंग्री यंगमैन में बदल गया था. बहुत दिनों तक उन पर यह भी आरोप लगाया जाता रहा कि हिंदी सिनेमा में उन्होंने मारधाड़ और हिंसा को पॉपुलराइज किया.

अगर दिलीप कुमार, राज कपूर, देव आनंद, राजकुमार, राजेंद्र कुमारके समय को हिंदी के कालखंडों के हिसाब से रीतिकाल कहा जाए तो अमिताभ का ठीक पूर्ववर्ती समय सिनेमा का छायावाद था. अमिताभ का पदार्पण हिंदी सिनेमा के छायावादी उत्सव में एक यथार्थवादी हस्तक्षेप था. हालांकि, इस हस्तक्षेप में भी एक रूमान था. कई शोधकर्ताओं और समीक्षकों की राय है कि अमिताभ का सिनेमा एक अनिवार्यता थी. उनके बहाने सिनेमा जैसे सशक्त माध्यम में पहली बार सीधी पहल की अभिव्यक्ति दिखी थी. भले ही, उनके एंग्री यंगमैन के भी तंत्र से टकराने के तौर-तरीके बाद में बहुत अतियथार्थवादी लगने लगे थे. लेकिन, इससे एक दिशा बनी- सिस्टम और व्यवस्था पहली बार सिनेमा के शिल्प में शामिल हुई. पुलिस की नाकामी, स्मगलरों से उनकी साँठगाँठ, पैसे और बिजनेस के अनैतिक खेल, संगठित अपराध और उसके राजनीतिक संरक्षण के खिलाफ़ एक आवाज अमिताभ की शुरूआती फिल्मों में सुनाई देती है.

अमिताभ में कुछ तो ऐसा था जो 70-80 के दशक में उभरते मध्यवर्ग के जीवन में गहराती दुश्चिंता एवं निराशा को व्यक्त कर रहा था. उनका गुस्सा व्यवस्था के खिलाफ़ था, लेकिन वे खुद कई बार जिन मूल्यों के लिए पर्दे पर युद्ध करते हैं, उनका ही वे विखंडन भी करते हैं. चरमराते तंत्र से उपजे क्षोभ को वे किसी निर्णायक मोड़ तक नहीं पहुँचा पाते. बस, वे अपने समय के विरोधाभासों और अंतर्द्वंद्व पर सवालों से परेशान दर्शकों को महज़ 3 घंटे की एक सिनेमैटिक रिलीफ दे देते थे. लोग-बाग गुंडों के सिंडीकेट पर अकेले और निहत्थे टूट पड़ने वाले अपने एंग्री यंगमैन में वे परिवर्तन की आशा देखने लगे थे. अपने गुस्से को आंखों और आवाज से बता देने की उनकी स्टाईल उनके चाहने वालों के बीच में उन्हें वास्तविक अमिताभ में बदल रही थी – यह लगाव इतना गहरा था कि उन्हें लगता था कि उनका महानायक एक दिन पर्दे से बाहर आएगा. हताशा और दमन की मानसिकता रियल को अतिक्रांत कर फंतासी में अपना शरण तलाशती है. अमिताभ के नायकत्व ने इस फंतासी को खूब गढ़ा.

अपने जिस किरदार में अमिताभ आज भी सबसे ज्यादा याद किए जाते हैं, उस एंग्री यंगमैन से कहीं ज्यादा बड़ी उनकी प्रतिभा प्रेम और हास्य को व्यक्त करने में दिखाई पड़ी थी. जनता के बहुत बड़े वर्ग ने एक्शन वाले अमिताभ से अधिक मिली, अभिमान, कभी-कभी, सिलसिला, चुपके-चुपके, अमर अकबर एंथनी, शराबीवाले अमिताभ को पसंद किया. अमिताभ ने अपने सक्रिय जीवन के कई क्षेत्रों में अपनी अद्भुत क्षमताओं का लोहा मनवाया है. चाहे वह सिनेमा हो, राजनीति हो, कला या फिर केबीसी ही क्यों न हो.

वर्ष 2005 में रिलीज हुई ब्लैकने उनके फिल्मी कैरियर में तीसरे पुनर्जागरण का सूत्रपात किया. उसके बाद हर चार-पांच साल के अंतर से अमिताभ को एक साथ बेस्ट एक्टर का नेशनल फिल्म अवार्ड और फिल्म फेयर अवार्ड दोनों मिले. इस प्रकार उनके कैरियर का यह तीसरा चरण उनके लिए एक साथ पहले से कहीं ज्यादा भाग्यशाली और चुनौतीपूर्ण दोनों रहा. ब्लैकके बाद क्रमिक रूप से पाऔर पीकूमें अपनी परिपक्व अभिनय क्षमता प्रदर्शित कर अमिताभ ने साबित कर दिखाया कि उनमें कॉमर्शियल के अलावा कलात्मक वैभव के भी शिखर हैं. पिछले वर्ष 2016 में अनिरुद्ध रॉय चौधुरी के निर्देशन में बनी फिल्म पिंकमें अमिताभ ने लॉयर दीपक सहगल का सशक्त किरदार निभा कर एक बार फिर बिग-बी का अपना परचम लहरा दिया है. इस फिल्म के कोर्ट दृश्य में अमिताभ का आक्रोश और चिंता से उद्विग्न चेहरे की मुद्रा देखने लायक है.

उनकी दांत पीसती आवाज से पूरे कोर्ट में सन्नाटा छा जाता है. स्त्री अधिकारों के जबरदस्त प्रवक्ता के रूप में उन्होंने एक यादगार भूमिका निभायी है. ये सारी फिल्में मुद्दों और आज के जटिल जीवन के सोशल फ्रेमवर्क से जुड़े तमाम ज्वलंत प्रश्नों पर केंद्रित हैं – जिनमें फंतासी या यूटोपिया नहीं है. बल्कि, उनमें नई सामाजिक परिघटनाओं और विराट महानगरीय सभ्यता से छीजती संवेदनाओं एवं मानवीयता को सिनेमा के सार्थक मुहावरों में ढालने की एक नई प्रयोगधर्मिता दिखती है.

हमने देखा कि अमिताभ का एक पक्ष है जो सिनेमा से उनको मिला है. एक दूसरा जबरदस्त पक्ष खुद उनका निजी व्यक्तित्व भी है. इस व्यक्तित्व की आधारशिला इलाहाबाद है, डॉ. बच्चन हैं, मधुशाला है, दशद्वार है, अवधी है, हिंदी है. हिंदी की ज़मीन उनकी एक ऐसी खूबी है जिसने उन्हें पैंतालिस-पचास वर्षों में इतने बड़े देश का एक ऐसा चहेता सितारा बना दिया है जिसकी चमक घटने की बजाय दिनों-दिन बढ़ती ही जाती है. उसकी शख्सियत में न जाने क्या है जो उनसे जुड़े विरोधों, विवादों और आरोपों को भी नेस्तनाब़ूत कर देता है. इसका एक प्रमाण फिल्म कुलीकी दुर्घटना के वक्त दिखाई दिया था और आज एक बार फिर केबीसी के समय में भी दिख रहा है.

आज फिर एक बार देश के अधिकांश भागों में रात 9 बजे के बाद घरों की खिड़की और बालकनी से –नमस्कार, देवियों और सज्जनों  की गूँज सुनाई देने लगी है. क्या समझते हैं – लोग इस शो में सिर्फ़ 3 लाख 20 हजार रुपए जीतने के लिए आते हैं. अधिकांश महानायक को करीब से देखने, उनको छूने, उनसे बात करने की हसरत से आते हैं. उनके साथ एक सेल्फी उनके लिए 1 करोड़ की बन जाती है. इसमें कोई हैरत की बात नहीं कि आज के भारत में अमिताभ को चाहने वाली तीन पीढ़ियों के लोग मौजूद हैं जो उनकी हर कृति और हर करिश्मे पर नज़र रखते हैं. वे कई बार अपने में उनका और उनमें अपना अक्श आज भी ढूँढ़ते हैं. यह श्रेय इतनी विह्वलता में इतने समय तक आज तक किसी के लिए नहीं संभव हुई.

अमिताभ की प्रासंगिकता उनका अपने समय, उसके मौजू सवालों और मुद्दों से प्रतिक्रिया करने तथा खुद को सिनेमा की बदलती अपेक्षाओं के हिसाब से समायोजित करने में निहित है. 

अपनी इसी अनुकूलन क्षमता के चलते अमिताभ हमेशा समकालीन हैं और युगीन हैं. यही रहस्य है कि अमिताभ आज 75 वर्ष के हो गए; लेकिन युवा हैं. 
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सुशील कृष्ण गोरे
sushil.krishna24@gmail.com

काज़ुओ इशिगुरो : एक अभिनव किस्सागो : श्रीकांत दुबे

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2017 के नोबल पुरस्कार से सम्मानित 62 वर्षीय ब्रिटिश लेखक काज़ुओ इशिगुरो (Kazuo-Ishiguro)के 'द रिमेन्स ऑफ़ द डे'और 'नेवर लेट मी गो'पर आधारित दो फिल्में भी बनी हैं. उनकी कृतियों का 40 से अधिक  भाषाओं में अनुवाद हुआ है. 1989 में उन्हें 'द रिमेन्स ऑफ द डे'के लिए बुकर पुरस्कार भी दिया गया था.

उनकी कृतियों और उनकी कथा शैली की चर्चा कर रहे हैं युवा कथाकार श्रीकांत दुबे.


काज़ुओ इशिगुरो : एक अभिनव किस्‍सागो                              

श्रीकांत दुबे




(1982)


रेक सफल गद्यकार मूलत: कवि होता है. लेकिन हरेक गद्यकार कविता-कर्म भी करे, यह अनिवार्य नहीं. रचे हुए गद्य के स्‍वभाव का निर्धारण रचनाकार के भीतर के कवि की प्रवृत्ति से होता है. भीतर के कवि को प्रत्‍यक्ष रूप से अभिव्‍यक्‍त होने देने से कविता बनती चली जाती है, लेकिन उसका उपयोग एक प्रेरक साधन के तौर पर करने से रचनाकार का गद्य अभिनव होता चला जाता है. इस तरह से रचा हुआ गद्य एक मकान की तरह होता है. कथ्‍य, पात्र तथा घटनाएं उसमें रहने वाले सदस्‍यों तथा दैनंदिन की जरूरी चीजों के रूप में समायोजित हो उसे घर बना देते हैं. एक आगंतुक के रूप में वह घर आप(पाठक) को कितना आकर्षित करेगा, यह उसका निर्माण करने वाले (लेखक) के भीतर प्रवाहमान कविता से तय होता है. वर्ष 2017 के लिए साहित्‍य का नोबेल पाने वाले जापानी मूल के अंग्रेजी लेखक काज़ुओ इशिगुरोके बनाए ज्‍यादातर घर, मुझे ही नहीं बल्कि दुनिया के करोड़ों आगंतुकों (पाठकों) को, ऐसे ही अपनी ओर खींचते रहे हैं. दीगर है कि काज़ुओ इशिगुरो ने कभी कविता नहीं लिखी.

(1986)
किसी लेखक या कलाकार को पुरस्‍कार मिलने के आधार क्‍या होते हैं, स्‍थानीय या फिर अंतर्राष्‍ट्रीय स्‍तर पर पुरस्‍कारों की नीति-राजनीति क्‍या होती है, इन चीजों से मैं अकिंचन अनजान ही हूँ. यूँ ऐसे किसी खेल की बारीकियां जानने में मेरी दिलचस्‍पी भी नहीं. हर वर्ष सितंबर-अक्‍तूबर में घोषित होने वाले विभिन्‍न क्षेत्रों के नोबेल पुरस्‍कार, सं‍बंधित क्षेत्रों में होने वाले नए अन्‍वेषणों तथा कुछ जुनूनी लोगों के नाम मेरे सामने लाकर रख देते हैं. ऑस्‍कर पुरस्‍कारों की घोषणा होने पर भी मेरे साथ ऐसा ही होता है जब अनेक वर्गों को मिलाकर फिल्‍मों की एक ठीक-ठाक फेहरिश्‍त मुझे देखे जाने के लिए मिल जाती है. कुछेक अपवादों को छोड़ दें, तो इन पुरस्‍कारों की घोषणा ने लगभग हर बार मेरे भीतर सुखद कौतूहल का ही संचार किया है. लेकिन इस वर्ष के साहित्‍य के नोबेल का मामला इन सबसे हटकर रहा, क्‍योंकि इसे पाने वाले लेखक की अधिकतम रचनाओं को मैं पहले ही से पढ़ रखा था. आगे इस विषय पर मैं जो भी कहने जा रहा हूँ, वह विश्‍व साहित्‍य के महासागर की चंद लहरों मात्र से परिचित एक पाठक मात्र का कहा हुआ माना जाय.

(1989)


काज़ुओ इशिगुरोका जन्‍म जापान के नागासाकी में सन् 1954 में, नागासाकी पर अमेरिका द्वारा किए परमाणु हमले के नौ वर्ष बाद हुआ.लेकिन अपने समुद्र विज्ञानी पिता को मिलने वाली एक शोध परियोजना के चलते महज पांच वर्ष की आयु में उन्‍हें जापान छोड़कर इंग्‍लैंड चले जाना पड़ा. उनकी शेष शिक्षा इंग्‍लैंड में ही पूरी हुई जहां वे अंग्रेजी तथा दर्शन में स्‍नातक एवं रचनात्‍मक लेखन में परास्‍नातक की उपाधि अर्जित किए. इशिगुरो परिवार का सपरिवार इंग्‍लैंड आना आरंभ में अल्‍पकालिक प्रवास की योजना के तहत हुआ, लेकिन आगे चलकर वापस जापान जाने की योजना बार-बार मुल्‍तवी होती गई. अपनी जापानी संस्‍कृति से प्‍यार के सिवाय इस द्विविधा के चलते भी पिता शिजुओ इशिगुरो ने बच्‍चों को जापानी भाषा तथा परंपरा वाली परवरिश देने में कोई कोताही नहीं की. यूं काज़ुओ इशिगुरो सन् 1989 तक भौतिक रूप में जापान को नहीं देख पाए, लेकिन मां-पिता के साहचर्य के चलते उनकी कल्‍पनाओं में रचे-बसे जापान से उनका जुड़ाव कतई कमतर नहीं रहा. यही वजह थी कि काज़ुओ इशिगुरो के शुरूआती दो उपन्‍यासों का वितान उनकी कल्‍पनाओं वाले जापान में ही विकसित हुआ.

अपने वैज्ञानिक पिता की वृत्ति से दूर, काफी कम उम्र में ही इशिगुरो की अभिरुचि साहित्‍य लेखन की ओर मुड़ गई. इसी का नतीजा था कि ‘रचनात्‍मक लेखन’ में परास्‍नातक की उपाधि के लिए तैयार किया गया प्रबंध-कार्य (थीसिस) ही उनके पहले उपन्‍यास ‘अ पेल व्‍यू ऑफ हिल्‍स’के रूप में सन् 1982 में प्रकाशित हुआ और पाठकों द्वारा सराहा गया. उस वक्‍त इशिगुरो की उम्र मात्र 28 वर्ष थी.

(1995)
इशिगुरो के अब तक के अंतिम उपन्‍यास ‘द बरीड जाइंट’को अपवाद मानें तो उनके शेष सभी उपन्‍यासों का कथावाचक उत्‍तम पुरुष (‘मैं’) होता है. इशिगुरो के शुरुआती तीन उपन्‍यासों में स्‍मृति को मूल विषय बनाया गया है. पहले उपन्‍यास ‘अ पेल व्‍यू ऑफ हिल्‍स’में वर्तमान तथा अतीत की स्‍मृतियों के जरिए पश्‍चाताप तथा अपराधबोध की जटिल एक जटिल दुनिया रची गई है. उपन्‍यास की कथा इंग्‍लैंड में बसी जापानी मूल की महिला इत्‍सुको द्वारा अपनी बेटी निकि से संवाद के साथ शुरू होती है, जो आत्‍महत्‍या कर चुकी अपनी दूसरी बेटी को याद करती रहती है.

इशिगुरो का दूसरा उपन्‍यास सन् 1986 में ‘ऐन आर्टिस्‍ट ऑफ द फ्लोटिंग वर्ल्‍ड’नाम से प्रकाशित हुआ. यह उपन्‍यास भी, पुन:, एक बुजुर्ग चित्रकार की स्‍मृति के सहारे द्वितीय विश्‍व युद्ध के दौर में जाकर युद्ध में उसके द्वारा खुद की भूमिका के औचित्‍य स्‍थापित करने के प्रयास का बयान करता है, जिसे लेकर उसकी भावी पीढ़ी कतई नाखुश है. अपने इस दूसरे ही उपन्‍यास में इशिगुरो ने बतौर लेखक वह परिपक्‍वता अर्जित कर ली, कि उनकी इस किताब को मैन बुकर पुरस्‍कार के लिए शार्टलिस्‍ट किया गया.

(2000)
सन् 1989 में उनके तीसरे उपन्‍यास ‘द रिमेंस ऑफ द डे’के प्रकाशन ने इशिगुरो को वैश्विक फलक पर एक अनिवार्य कथा लेखक के तौर पर स्‍थापित कर दिया. इस पुस्‍तक के लिए उन्‍हें मूलत: अंग्रेजी में लिखित तथा इंग्‍लैंड से प्रकाशित उस वर्ष की सर्वश्रेष्‍ठ किताब को मिलने वाले मैन बुकर पुरस्‍कारसे नवाजा गया. ‘द रिमेंस ऑफ द डे’लंबे वक्‍त तक व्‍यापक जिम्‍मेदारियों का बोझ लिए रहने वाले एक नौकर के दायित्‍वों तथा इच्‍छाओं के, हासिल तथा अप्राप्‍त के अंतर्विरोधों की दास्‍तान है. इशिगुरो का अगला उपन्‍यास सन् 1995 में ‘दि अनडिस्‍क्‍लोज्‍ड’नाम से प्रकाशित हुआ. यह राइडरनामक एक क्‍लासिकल पियानो वादक की कथा है जो स्‍मृतिलोप से जूझता हुआ अपनी पहचान की तलाश करता फिर रहा है. उनका पांचवां उपन्‍यास पुन: पांच वर्षों के अंतराल पर सन् 2000 में ‘ह्वेन वी वर ऑर्फन्‍स’ के नाम से हुआ. यहां इशिगुरो द्वारा फिर से एक बार स्‍मृति के आधार पर पूरी कथा की संरचना की गई दिखाई देती है, जिसमें पेशे से जासूस रहा कथावाचक क्रिस्‍टोफर अपने ही अतीत में घुसकर अपने मां-पिता की गुमशुदगी की गुत्‍थी सुलझाता है. हालांकि इशिगुरो की इस किताब को भी वर्ष 2000 के मैन बुकर पुरस्‍कारके लिए शार्टलिस्‍ट किया गया था, लेकिन समीक्षकों के बीच इसे उनकी अन्‍य पुस्‍तकों से कमतर ही माना गया, जिसकी तस्‍दीक खुद काज़ुओ इशिगुरो ने भी की थी.

(2005)
पुन: पांच ही वर्ष के अंतराल पर इशिगुरो की छठी पुस्‍तक ‘नेवर लेट मी गो’का प्रकाशन हुआ. वैश्विक स्‍तर पर पाठकों-समीक्षकों के बीच इस पुस्‍तक को उनकी श्रेष्‍ठतम रचना के रूप में स्‍वीकृति मिली. यही कारण है कि वर्ष 2010 में इस पुस्‍तक को आधार बना इसी नाम से एक फिल्‍म भी बनी. यह उपन्‍यास सरकार द्वारा संचालित एक योजना के तहत क्‍लोनिंग के माध्‍यम से बच्‍चों को पैदाकर उनका इस्‍तेमाल रसूखदार और पूंजीपतियों के लिए अंगदान करने वालों के रूप में किए जाने की काल्‍पनिक थीम पर डेवेलप किया हुआ है. यह उपन्‍यास जिन भावनात्‍मक अंतर्विरोधों को उजागर करता है, वे इस बात का प्रमाण बनते हैं कि सभ्‍यता तथाकथित विकास के साथ-साथ सहारे किस प्रकार मनुष्‍य के भीतर ढेर सारी अ-मनुष्‍यता घर करती जा रही है.
(2015)




औपन्‍यासिक रचना के रूप में अब तक की उनकी अंतिम किताब ‘द बरीड जाइंट’है जिसका प्रकाशन सन् 2015 में हुआ गया. इस उपन्‍यास में लेखक पुन: एक बार गल्‍प की रचना के लिए अतीत की यात्रा करता है. लंबे अतीत, यानी हजार वर्ष से भी अधिक पुराने यूरोप की कथाभूमि पर दो विरोधी समुदायों के बीच के संघर्ष, शांति तथा पुन: संघर्ष कहानी. संघर्ष और संघर्ष के बीच की शांति किसी कारण से दोनों समुदायों के लोगों की स्‍मृति का लोप होता है. उस स्‍मृति के वापस आते ही पुन: उनके बीच का संघर्ष शुरू हो जाता है.

इशिगुरो के इस उपन्‍यास को उनकी पुरानी किसी भी रचना की तुलना में अधिक लोकप्रियता मिली, लेकिन उनके गंभीर पाठक-समीक्षक लगभग इसी अनुपात में उनसे निराश भी हुए, क्‍योंकि, खासतौर पर यूरोप के, समकालीन फिक्‍शन लेखन में प्रतीक के सहारे कथा-रचना को एक पुराना हथियार माना जाने लगा है.

(2009)


औपन्‍यासिक विधान के साथ-साथ काज़ुओ इशिगुरो समय-समय पर कहानियां भी लिखते रहे, लेकिन एक ही संकलन में पुस्‍तकाकार पांच कहानियों का उनका पहला संग्रह सन् 2009 में ‘नॉक्‍टर्न्स’टाइटल से प्रकाशित हुआ. इन कहानियों में परिवेश से साथ-साथ कथावस्‍तु और किरदारों तक के तार एक दूसरे से इस कदर जुड़ते चले जाते हैं कि प्रकाशक ने इस पुस्‍तक को ‘स्‍टोरी सायकल’ (कथा-चक्र) की संज्ञा दे दी. चक्र इस तरह, कि पहली कहानी ‘क्रूनर’ के पात्र अंतिम कहानी ‘सेलिस्‍ट्स’ में दुबारा सामने आ पड़ते हैं. क्रूनर एक प्रसिद्ध अमेरिकी संगीतकार की कहानी है जो वेनिस आकर अपने 27 वर्षों के वैवाहिक जीवन के विच्‍छेद की पूर्वसंध्‍या पर अपनी पत्‍नी की खिड़की के नीचे प्रेमगीत (सेरनेड) गाता है. यह सेरनेड विवाह-विच्‍छेद से पहले गाया जाता है, यह बात कथा के अंत में खुलती है. ऐसे ही शेष चारों कथाओं की पृष्‍ठभूमि में संगीत होता है. नाक्‍टर्न्स संग्रह को उसके पूरेपन में एक उपन्‍यास की तरह भी पढ़ा जा सकता है. उपन्‍यास तथा कहानी की विधाओं के साथ-साथ काज़ुओ इशिगुरो ने कुछ फिल्‍मों के लिए स्‍क्रीन प्‍ले तथा गीत भी लिखे हैं.


काज़ुओ इशिगुरो की लगभग सभी पुस्‍तकों में जो एक चीज सबसे अधिक उल्‍लेखनीय रही है, वह किसी भी कथावाचक द्वारा बरती गई ईमानदारी है, जो अपनी कमियों तथा ग़लतियों को भी उतने ही स्‍पष्‍ट और विस्‍तृत तरीके से बयां करता है, जैसे किसी भी अन्‍य बात को करता हो. 

इशिगुरो का रचना कर्म अभी भी बदस्‍तूर जारी है और बतौर पाठक हम उम्‍मीद कर सकते हैं नोबेल पुरस्‍कार उनके इस सिलसिले का पटाक्षेप नहीं साबित होगा तथा वे गाब्रिएल गार्सिया मार्केस अथवा जेईएम कोएट्जी जैसे दिग्‍गज लेखकों की ही मानिंद नोबेल से नवाजे जाने के बावजूद लेखन के प्रति अपनी प्रतिबद्धता से च्‍युत न होकर हम पाठकों को समय-समय पर चौंकाते रहेंगे. उन्‍हें शुभकामनाएं.


_________________
श्रीकांत दुबे
(१ जनवरी १९८८, गोरखपुर, उत्तर प्रदेश)

कहानी संग्रह : पूर्वज
कविताएँ प्रकाशित
गजानन माधव मुक्तिबोध युवा कविता सम्मान
ई-मेल- shrikant.gkp@gmail.com

प्रेमशंकर शुक्ल : राग अनुराग

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मानव सभ्यता ने जीवन को सुगम बनाने के लिए भाषाओं का निर्माण किया. भाषा ने कविता लिखी. प्रेम, मृत्यु, भय, सूर्य, नदी, पहाड़, प्रकृति, ईश्वर ये सब कविता में आकर संस्कृति बन गए. मनुष्य अभी भी कविताएँ लिख रहा है, वह भाषा और मनुष्यता बचा रहा है.  

प्रेम आरम्भ है जीवन का और सृजन का भी. यह पूरी धरती से और उसके सबकुछ से लगाव का सबसे रचनात्मक और सशक्त प्रगटीकरण है. स्त्री- पुरुष का प्रेम किसी निर्वात में घटित नहीं होता है. इस प्रेम में इस सृष्टि का अधिकांश शामिल है.

प्रेमशंकर शुक्ल प्रेम के इस अधिकांश के कवि हैं. वह प्रेम को स्वाभाविक ऊंचाई देते हैं. एक उदात्तता जो मनुष्य होने की गरिमा का बोध कराती है. यह प्रेम घटित और पुष्पित तो देह के बीच होता है पर इसकी  सुगंध की व्याप्ति दिगंत तक है. वह अनूठे और अनछुए बिम्ब लाते हैं, ये घर, जंगल और गुफा से उठाये गए हैं जो  प्रेम की ही तरह मुलायम और मादक हैं.   

प्रेमशंकर शुक्ल के शीघ्र प्रकाश्य  प्रेम कविताओं के संचयन ‘राग-अनुराग’ से १४ कविताएँ आपके लिए.
  

प्रेमशंकर शुक्ल की प्रेम कविताएँ                      

     


     







अनावरण
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तुम मुझे चूमती हो
और मेरी प्रतिमा का अनावरण हो जाता है
देह में आत्मा झूलती है
और आत्मा में देह
चढ़ता-उतरता पालना
सुख है. नाभि के अँधेरे में
आनन्द का अतिरेक छलकता है.
तुम मुझे बरजती हो लाज से
लालित्य से मोह लेती हो
देह के जल से आत्मा भीज जाती है
आत्मा की आँच से देह
प्यार और पानी साथ ही आए हैं
पृथ्वी पर
आलोड़न, उमंग, तरंग तभी है दोनों में समतुल्य
हम भीगकर आए हैं जिससे थोड़ी देर पहले
पता नहीं धरती पर यह किस पीढ़ी की बारिश है
प्यार की भी पीढ़ियाँ होती हैं
हो सकता है किसी जन्म का छूटा हमारा प्यार
पूरे आवेग में उमड़ आया है अभी
और अपनी युगीन प्रतीक्षा को कर रहा है फलीभूत
प्रेम देह में
प्राण-प्रतिष्ठा है
प्यार की आवाजाही में हम
परस्पर का पुल रच रहे हैं
आत्मा और देह का कोरस
सुख के गीत में
नये रस
भरता चला जा रहा है!!


स्पिनोजा : नीतिशास्त्र - १ - (अनुवाद : प्रत्यूष पुष्कर, प्रचण्ड प्रवीर)

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महान दार्शनिक स्पिनोजा (Baruch De Spinoza : २४ नवम्बर १६३२-२१ फ़रवरी १६७७) की विश्वप्रसिद्ध कृति ‘नीतिशास्त्र’ (Ethics : १६७७) का हिंदी में समुचित अनुवाद उपलब्ध नहीं है. यह मात्र एक तथ्य नहीं है. यह हमारी वैचारिक दरिद्रता और हिंदी के के नाम पर चल रहे तमाम संस्थानों की काहिलीयत का प्रमाण भी है.  

इसका अनुवाद हो. यह बहुत बड़ी चुनौती है. इसके लिए ऐसे सुयोग्य की जरूरत थी जिसकी पकड़ दोनों भाषाओँ पर हो और वह दर्शन की बारीकियों को भी समझता हो.

कवि-कलाकार प्रत्यूष पुष्कर दर्शन शास्त्र के अध्येता हैं. संस्कृत और दर्शन के अच्छे ज्ञाता प्रचण्ड प्रवीर आईआईटी दिल्ली से प्रौद्योगिकी स्नातक हैं और शानदार कथाकार भी.
दोनों ने मिलकर यह बीड़ा उठाया है. ज़ाहिर है यह एक ऐतिहासिक कार्य होगा. और समालोचन पर होगा.

एथिक्स के पहले भाग का एक हिस्सा आपके समक्ष है. आप से अनुरोध है कि कृपया इसे ध्यान से पढ़ें. सुझाव दें और प्रोत्साहन भी. 


स्पिनोजा :  नीतिशास्त्र (१)
अनुवाद
प्रत्यूष पुष्कर, प्रचण्ड प्रवीर





Part I.
Concerning God.

भाग – १
ईश के बारे में


Definitions

परिभाषाएँ
D I.By that which is self-caused, I mean that of which the essence involves existence, or that of which the nature is only conceivable as existent.

परिभाषा १:  वह जो स्व-कृत (स्वयंभू) है, उससे मेरा मतलब वह है जिसका सार अस्तित्व से समावेशित है, और वह जिसकी प्रकृति सत्  से बोधगम्य है.
अंग्रेजी शब्दों के समानार्थक हिन्दी शब्द
Essence = सार, परमार्थसत्
Existence = अस्तित्व, सत्ता, व्यवहारसत्

अनुवादक की टिप्पणी –
१.      ‘सार’ का अर्थ और उसकी उपयोगिता से सम्बन्धित चर्चा छांदोग्य उपनिषद् के छठे अध्याय में आरुणि-श्वेतकेतु संवाद से समझी जा सकती है.


२.     आरुणि अपने चौबीस साल के पुत्र के विद्यालय से बारह वर्ष के विद्योपार्जन कर के लौटने पर प्रश्न पूछते हैं कि वह क्या उसे जानता है जिसे जान लेने पर अश्रुत श्रुत हो जाता है, नहीं समझी हुयी चीज समझ में आ जाती है और अविज्ञात विज्ञात हो जाता है? इसी क्रम में आरुणि कहते हैं कि मिट्टी से ही मिट्टी के बर्तन, मूर्ति आदि बनती है, केवल नामरूप का फर्क होता है. जिस तरह सोने के तरह-तरह के आभूषणों में सोने के गुण होते हैं; उसी तरह लोहे से बना नाखून काटने के यंत्र को भली भांति से जान लेने से लोहे से सभी बनी वस्तु को जाना जा सकता है.

दूसरे शब्दों में सार का अर्थ किसी भी वस्तु के अस्तित्व का निर्धारण करने के लिए पर्याप्त विचार से लेना चाहिए. हम यह अपेक्षा कर सकते हैं कि वस्तु के सार में वस्तु के विधायी तत्व के सभी गुण होने चाहिए.इन्हीं गुणों के समुच्चयों को स्पिनोज़ा के सार के संदर्भ में समझ सकते हैं.

३.     सार का एक अर्थ ‘real’ (वास्तविक)और‘परमार्थ’ से भी लिया जाता है, जो कि व्यवहार से कहीं ‘अधिक’ हो.

४.    अस्तित्व या सत्  - जिसकी सत्ता है.किसी सत्ता का स्वरूप उसके प्रत्ययात्मक (विचाररूप) या बाह्यतया स्थित वस्तुरूप में समझा जाता है. भिन्न-भिन्न दार्शनिक सम्प्रदायों में इसेविशिष्टरूप में समझा जाता है. जैसे,बौद्ध दर्शन की महायान शाखा में (लंकावतार सूत्र) सभी पदार्थों को आकाशकुसुम, शशविषाण (खरगोश के सींग), वन्ध्यापुत्र (बांझ औरत की संतान) विशेषण दे कर असत् कहता है. इन विशेषणों के बाह्यतया स्थित वाच्य न होने के कारण कई दर्शनों में यह असत् का पर्याय हैं और वहीं काश्मीर शिवाद्वय दर्शन में इन्हें ज्ञान का विषय का होने के कारण सत् (यानी जिसकी सत्ता है) समझा जाता है.


स्पिनोज़ा के ‘अस्तित्व’ को व्यवहारसत् (
empirical reality) शब्दसे भी समझा जाता है.


५.    स्व-कृत- स्वकृत का उद्घोष मानव बुद्धि के केन्द्रीय सिद्धांत‘कारण-कार्यवाद’ से जुड़ा है.

स्पिनोजा के विपरीत बौद्ध आचार्य नागार्जुन ने अपने ग्रन्थ ‘मूलमाध्यमिक कारिका’ का आरम्भ अजातिवाद के उद्घोष से किया है – कोई भी पदार्थ कभी, कहीं और कथमपि उत्पन्न नहीं हो सकता; कोई पदार्थ न अपने आप उत्पन्न हो सकता है, न दूसरे के कारण, न अपने और दूसरे के कारण और न बिना कारण उत्पन्न हो सकता है.


न स्वतो नापि परतो न द्वभ्यां नाप्यहेतुत:.
उत्पन्ना जातु विद्यन्ते भावा: क्वचन केचन ॥ मूलमाध्यमिककारिका १.१


हमें ध्यान रखना चाहिए कि इस तरह अलग परिभाषाएँ एवं स्वयंसिद्ध, नितांत भिन्न दार्शनिक प्रणाली बनाते हैं. जिस तरह शून्यवाद और शैव चिंतन अपनी परिभाषाओं एवं स्वयंसिद्धों से अलग तरह के प्रस्तावनाओं को प्रतिपादित करता है.


D II. A thing is called finite after its kind, when it can be limited by another thing of the same nature; for instance, a body is called finite because we always conceive another greater body. So, also, a thought is limited by another thought, but a body is not limited by thought, nor a thought by body.


परिभाषा २: किसी चीज़ को परिमित तब कहा जाता है जब वह अपने ही प्रकृति के किसी दूसरी चीज़ (‘वस्तु’ या ‘विचार’)के द्वारा सीमित कर दिया जाता है, एक देहको परिमित इसीलिए कहा जाता है क्योंकि हम हमेशा एक दूसरे महत्तर देह की कल्पना कर लेते हैं. ऐसे ही एक विचार दूसरे विचार के द्वारा परिमित है, लेकिन एक देह विचारों से या एक विचार देह से परिमित नहीं है.

अंग्रेजी शब्दों के समानार्थक हिन्दी शब्द
finite = परिमित

{अनुवादक की टिप्पणी –  इस परिभाषा में ही पहली बार स्पिनोज़ा व्यवहार रूप में विचार (thought) और देह (body) में स्पष्ट भेद करते हैं. इस प्रत्यय को हम आगे के सिद्धांतों में देखेंगे.}


D III. By substance, I mean that which is in itself, and is conceived through itself: in other words, that of which a conception can be formed independently of any other conception.

परिभाषा ३: सत्त्व से मेरा अर्थ, उससे है जो स्वयं से है, स्वयं से अवधारित है, अलग शब्दों में, जिसका अवधारण किसी भी दूसरी अवधारणा से मुक्त है.
अंग्रेजी शब्दों के समानार्थक हिन्दी शब्द
substance = सत्त्व
{अनुवादक की टिप्पणी – अन्य अवधारणा से मुक्त होने को स्थूल रूप में इस तरह से समझ सकते हैं, जैसे गणित में बिन्दु की अवधारणा. बिन्दु की सम्बन्धित अवधारणा (constructive conception) के लिए हमें किसी अन्य अवधारणा की, जैसे कोण या त्रिभुज की, आवश्यकता नहीं पड़ती. वहीं रेखा की परिभाषा के लिए हमें बिन्दु की अवधारणा की भी जरूरत पड़ती है. मोटे तौर पर, अन्य उदाहरण गंध या स्वाद के हैं, जो हमें सूँघने या चखने से समझना पड़ता है; किसी विशिष्ट गंध या स्वाद को हम शब्दों से नहीं समझा सकते हैं, यह इन्द्रियों के अनुभव का क्षेत्र हैं. }


D IV. By attribute, I mean that which the intellect perceives as constituting the essence of substance.


परिभाषा ४: गुण से मेरा मतलब, उससे है जिससे मति सत्त्व का सार-निर्माण अवधारित करती है.
अंग्रेजी शब्दों के समानार्थक हिन्दी शब्द
attribute = गुण-धर्म
intellect=मति या बुद्ध

{अनुवादक की टिप्पणी –  सार को व्यवहार जगत में गुण-धर्म से समझा जा सकता है. बुद्धि गुण-धर्म को जिस तरह से ग्रहण करती है वह ज्ञानमीमांसा का विषय है. बहुत से दर्शन पद्धतियों में गुण-धर्म ज्ञानेन्द्रियों से (देखना, सुनना, सूँघना, स्पर्श करना, चखना) या अनुमान से या आगम (या शब्द) प्रमाण से ग्रहण करती है.
आचार्य नागार्जुन अपने ग्रन्थ मूलमाध्यमिककारिका में यह तर्क देते हैं कि सभी धर्म स्वभावशून्य हैं. इसे इस अर्थ में लिया जा सकता है कि किसी भी सार का गुण निर्धारण करते समय उसके लक्षण किसी अन्य मानदण्डों पर निर्धारित होंगे. उदाहरण के तौर पर आम का रस मीठा कहा जाता है. यहाँ रस का मीठा होना अन्य मीठे पदार्थों के सदृश होने से ही समझा जा सकता है.


यहाँ ध्यान देना होगा कि ‘अस्तित्व’ की अवधारणा इस दार्शनिक पद्धति में वस्तु के गुण-धर्म के रूप में नहीं विचारी जा रही, जैसा कुछ अन्य दर्शनों में किया गया है. यहाँ अस्तित्वहोने पर ही गुण-धर्म की परिकल्पना की जा सकती है.}

D V. By mode, I mean the modifications[“Affectiones”] of substance, or that which exists in, and is conceived through, something other than itself.


परिभाषा ५: प्रणाली से मेरा तात्पर्य सत्त्व केउपांतर, या वो जिससे सत्त्व स्व से इतर सारगर्भित या अवधारित होता है.
अंग्रेजी शब्दों के समानार्थक हिन्दी शब्द

modifications / Affectiones/ Affectio (in Latin) =  व्युत्पत्ति/ उपातंरण
{अनुवादक की टिप्पणी –  प्रणाली का अर्थस्पिनोज़ा का अर्थ यहाँ किसी क्रमबद्ध या नियमबद्ध उपांतरों से हैं, जो कि कालबद्ध हो यह जरूरी नहीं.


स्पिनोजा अपने इस ग्रंथ में उपांतर (
Affectiones/ Affectio) और प्रभाव (Affectus) की विशद चर्चा करते हैं जो कई बार अनुवाद की गलतियों का शिकार हो जाती है.


स्पिनोजा विचार और प्रभाव में गहरा भेद करते हैं, जिसके लिए हमें यहाँ सावधानी से प्रणाली की परिभाषा में उपांतर का अर्थ समझना होगा. विचार से स्पिनोजा का तात्पर्य ऐसा चिन्तन है जिसमें किसी चीज का प्रतिनिधित्व या निरूपण किया जा रहा हो. जैसे त्रिभुज का विचार, कुरसी का विचार, घर का विचार. हम अपनी भाषा से उस विचार को प्रतिनिधि के रूप में प्रकट कर सकते हैं और विचार विनिमय कर सकते हैं. प्रभावजन्य विचार या स्पिनोजा के शब्दों में ‘प्रभाव’ वैसे चिन्तन को कहते हैं जहाँ किसी चीज का बाह्य रूप में प्रतिनिधित्व नहीं हो सकता. जैसे आशा, प्रेम, घृणा – ये सभी चिन्तन किसी प्रभाव से उत्पन्न होते हैं पर बाह्य रूप में निरूपित नहीं किए जा सकते.

उपांतर एक तरह का विचार है, प्रभावजन्य विचार या ‘प्रभाव’ नहीं. उपांतर एक पिण्ड की वह अवस्था है जो किसी अन्य पिण्ड का कर्म का अधिकरण है, सरल शब्दों में किसी दूसरे पदार्थ के क्रिया की होने की जगह. उदाहरण के तौर पर जब सूरज की रौशनी हम पर पड़ती है तो हमारे शरीर पर क्या उपांतर आते हैं?इस तरह स्पिनोजा दो पिण्डों के मेल-जोल से प्रभावित पिण्ड के उपांतर को प्रणाली कहते हैं.


इस तरह हम उपांतर को निरूपित कर सकते हैं.  उदाहरण के तौर लोहे की छड़ गरम कर देने पर विभिन्न आकार में ढ़ाली जा सकती है. खुरपी, हल, हथौड़ा – सभी लोहे के अस्तित्व की विभिन्न प्रणाली है. सोने की अँगूठी, सोने का हार, सोने का कर्णफूल – सभी सोने के अस्तित्व की विभिन्न प्रणाली है जिसे हम नामरूप की उपाधियों से समझते हैं.
यह अनुवादकों का मत है कि इस तरह की नामरूप की भिन्नता ही स्पिनोजा की प्रणाली है.

D VI. By God, I mean a being absolutely infinite—that is, a substance consisting in infinite attributes, of which each expresses eternal and infinite essentiality.
Explanation—I say absolutely infinite, not infinite after its kind: for, of a thing infinite only after its kind, infinite attributes may be denied; but that which is absolutely infinite, contains in its essence whatever expresses reality, and involves no negation.

परिभाषा ६: ईश से मेरा अर्थ, उस सत्ता से है जो पूर्णतया अपरिमित है, एक सत्त्व, जिसके असीमित गुण है, और हरेक सनातन अनंत तात्त्विकता को प्रेषित करताहै.
व्याख्या – मैं कहता हूँ पूर्णतया अपरिमित, अपने प्रकार से नहीं केवल, या अपने प्रकार में नहीं केवल, अनंत गुण नकारे जा सकते है, लेकिन वह जो समग्रता में अपरिमित है, जिसके सार में सारगर्भित है, वह जो वास्तविकता को अभिव्यक्त करता है, जिसमें कोई प्रतिवाद नहीं है.
अंग्रेजी शब्दों के समानार्थक हिन्दी शब्द

God = ईश

eternal = अनंत
{अनुवादक की टिप्पणी –  ईश की परिभाषा स्पिनोज़ा अनंत से करते हैं जो कि अनंत गुण-धर्म या अनंत वस्तुओं के प्रकार या किसी एक वस्तुके अनंत आरूपसे न हो कर, समस्त वास्तविकता को समेटे हुए और अविरोधी होने से है.}


D VII. That thing is called free, which exists solely by the necessity of its own nature, and of which the action is determined by itself alone. On the other hand, that thing is necessary, or rather constrained, which is determined by something external to itself to a fixed and definite method of existence or action.


परिभाषा ७: उस चीज़ को स्वतंत्रकहा जा सकता है, जो केवल, अपने प्रकृति के आवश्यकताओं से अस्तित्व में है, जिसके कार्य केवल उसी के द्वारा निर्धारित किये जाते हैं. इसके ठीक विपरीत, वह चीज़ आवश्यक या विवश हैं, जिनका निर्धारण स्वयं से इतर बाह्य कारकों के द्वारा होता है , जो एक नियतव निश्चित प्रक्रिया द्वारा अस्तित्व में आता है और कार्य करता है.

अंग्रेजी शब्दों के समानार्थक हिन्दी शब्द

Free = स्वतंत्र


{अनुवादक की टिप्पणी –  काश्मीर शिवाद्वयवाद में स्वातन्त्र्य की अवधारणा अपने विचार से च्युत हुए बिना ‘गति-सामर्थ्य’ की ओर इंगित करता है (देखें अभिनवगुप्त की ईश्वरप्रत्यभिज्ञाविवर्तिविमर्शनी). इस परिभाषा की दूसरी पंक्ति में परतंत्र की अपेक्षा वस्तु या पुरुष की विवशता को आवश्यक कह कर उसे नियमों से बंधा हुआ बता कर स्पिनोज़ा स्वातन्त्र्य पर गहरी दृष्टि रखते हैं. इसे हम आगे देखेंगे. }


D VIII. By eternity, I mean existence itself, in so far as it is conceived necessarily to follow solely from the definition of that which is eternal.
Explanation—Existence of this kind is conceived as an eternal truth, like the essence of a thing, and, therefore, cannot be explained by means of continuance or time, though continuance may be conceived without a beginning or end.

परिभाषा८:शाश्वत से मेरा अर्थ स्वयं अस्तित्व (सत्ता) से है, तबतक जबतक कि वह केवल : शाश्वत क्या है, इसकी परिभाषा से अनुगमन से अवधारित होती है.
व्याख्या:इस प्रकार काअस्तित्व (सत्ता) एक शाश्वत सत्य के रूप में कल्पित है, जैसे, किसी चीज़ का सार, और इसलिए, इसकी व्याख्या निरंतरता और समय के साधनों से नहीं की जा सकती, हालाँकि निरंतरता की कल्पना बिना किसी शुरुआत या अंत के की जा सकती है.
अंग्रेजी शब्दों के समानार्थक हिन्दी शब्द
Eternity = शाश्वत
Existence = अस्तित्व, सत्ता, व्यवहारसत् 
{अनुवादक की टिप्पणी –  शाश्वतिकता अस्तित्व (सत्ता) से ही परिभाषित की जा सकती है, जिसके लिए काल की अवधारणा आवश्यक नहीं. इस पर विशेष टिप्पणी आगे के प्रस्तावनाओं में देखेंगे.}


Axioms
स्वयं सिद्ध
--------------
I.                     Everything which exists, exists either in itself or in something else.

स्वयंसिद्ध १:वह जो अस्तित्व में हैं या तो स्वयं में हैं या अन्य में है.


{अनुवादक की टिप्पणी –  जैसा कि हम देख चुके है, एक सत्त्वस्वयं में हैं, और एक प्रणाली अन्य में है.}
II.That which cannot be conceived through anything else must be conceived through itself.
स्वयंसिद्ध २: वह जो किसी दूसरे से माध्यम से अवधारणा में नहीं लाया जा सकता, स्वयं से अवधारित है.


III. From a given definite cause an effect necessarily follows; and, on the other hand, if no definite cause be granted, it is impossible that an effect can follow.


स्वयंसिद्ध ३:एक दिए गए निर्धारित कारण से कार्य अनिवार्यत: अनुगमन करता है, और ठीक इसके विपरीत, अगर कोई निर्धारित कारण न हो तो कोई कार्य होना असम्भव है.


{अनुवादक की टिप्पणी –  effect’ का अनुवाद यहाँ ‘प्रभाव’ के अपेक्षा कार्य करना ठीक है, क्योंकि इससे अन्य दार्शनिक चर्चाओं से संगति बैठती है, तथा अर्थ में कोई अवरोध नहीं उत्पन्न होता है. दूसरा कारण यह है कि हम प्रभाव शब्द का प्रयोग ‘affectus’ के अनुवाद के लिए कर रहे हैं.}
IV.                The knowledge of an effect depends on and involves the knowledge of a cause.



स्वयंसिद्ध ४: किसी कार्यका ज्ञान उसके कारण पर और उस कारण के ज्ञानपर निर्भर करता है.

V.                  Things which have nothing in common cannot be understood, the one by means of the other; the conception of one does not involve the conception of the other.


स्वयंसिद्ध ५:अगर दो चीज़ों के बीच कुछ भी उभयनिष्ठ (सामान्य)न हो तो उन्हें एक दूसरे के माध्यम से नहीं समझा जा सकता- मतलब एक की अवधारणा दूसरे की अवधारणा से मुक्त होती है.
VI.                A true idea must correspond with its ideate or object.


स्वयंसिद्ध ६:एक सत्य विचार अपने प्रयोजन या विषय वस्तु से सहमति में होना चाहिए.


{अनुवादक की टिप्पणी –  स्पिनोजा यहाँ विचार का अर्थ बाह्य निरूपित होने वाले वस्तु से ले रहे हैं. इसे हम आगे के प्रस्तावनाओं में पाएँगे. }

VII.              If a thing can be conceived as non-existing, its essence does not involve existence.

स्वयंसिद्ध७:अगर किसी चीज़ की अवधारणाउसके न होने से है तो उसका सार अस्तित्व (सत्ता) से नहीं है.

{अनुवादक की टिप्पणी –  चूँकि स्पिनोजा सत्य विचार को बाह्य वस्तु के निरूपण से लेते हैं इसलिए यह कहा जा सकता है कि वे महायान बौद्धों की तरह आकाशकुसुम, शशविषाण, वन्ध्यापुत्र को असत् ही मानेंगे. देश काल में स्थित सफेद झूठ (तथ्यों के विपरीत भाषण) तो असत् है ही. }



Propositions

प्रस्ताव
Prop. I.Substance is by nature prior to its modifications.

प्रस्ताव १. सत्त्व अपने प्रकृतिनुसार अपने अवस्थाओं और उपान्तरों (प्रणाली) से पहले है.
Proof.—This is clear from Deff. iii.and v.
प्रमाण- यह परिभाषा ३और परिभाषा ५से स्पष्ट हो जाता है.
Prop. II.Two substances, whose attributes are different, have nothing in common.
प्रस्ताव 2 : दो सत्त्व जिनके गुण भिन्न हो,उनके बीच कुछ भी उभयनिष्ठ (सामान्य) नहीं होता.

Proof.—Also evident from Def. iii.For each must exist in itself, and be conceived through itself ; in other words, the conception of one does not imply the conception of the other.

 प्रमाण-यह परिभाषा ३से स्पष्ट हो जाता है. प्रत्येक सत्त्व का स्वयं में और स्वयं के द्वारा कल्पनीय होना, अर्थात एक सत्त्व की संकल्पना (अवधारणा) में किसी दूसरे सत्त्व की संकल्पना (अवधारणा) का समावेशित न होना.

Prop. III.Things which have nothing in common cannot be one the cause of the other.

प्रस्ताव 3.अगर दो चीज़ों के बीच कुछ भी उभयनिष्ठ (सामान्य)न हो, तो वो एक दूसरे का कारण नहीं हो सकती.

Proof.—If they have nothing in common, it follows that one cannot be apprehended by means of the other (Ax. v.), and, therefore, one cannot be the cause of the other (Ax. iv.). Q.E.D.

प्रमाण  - अगर उनमें परस्पर कुछ भी उभयनिष्ठ (सामान्य)न हो तो उन्हें एक दूसरे के माध्यम से नहीं समझा जा सकता, और वो एक दूसरे का कारण भी नहीं हो सकती. (स्वयंसिद्ध ४-५)

Prop. IV.Two or more distinct things are distinguished one from the other, either by the difference of the attributes of the substances, or by the difference of their modifications.

प्रस्ताव ४.दो या अधिक चीजें एक दूसरे से अलग या तो सत्त्व के गुण-धर्मों के अंतर के कारण या फिर अपने उपातंरों (प्रणाली) में भेद के कारण पहचानी जाती हैं.
Proof.—Everything which exists, exists either in itself or in something else (Ax. i.),—that is (by Deff. iii.and v.), nothing is granted in addition to the understanding, except substance and its modifications. Nothing is, therefore, given besides the understanding, by which several things may be distinguished one from the other, except the substances, or, in other words (see Ax. iv.), their attributes and modifications. Q.E.D.


प्रमाण
- जो भी अस्तित्व में है, वह या तो स्वयं से है या अन्य से (स्वयंसिद्ध १), जिसका अर्थ (परिभाषा ३ और ५ से) यह है कि हमारे बोध के लिए सत्त्व और उनकी अवस्थाओं के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है. हमारे बोध के अलावा कुछ भी नहीं जिससे बहुत सी चीजें एक दूसरे अलग पहचानी जाए, सिवा सत्त्व या दूससे शब्दों में (स्वयंसिद्ध ४) उसके गुण और उपांतरों के. 


{अनुवादक की टिप्पणी:‘भेद’ की अवधारणा भारतीय दर्शन में सर्वाधिक चर्चित रही है. द्वैत, अद्वैत, शुद्धाद्वैत, द्वैताद्वैत, विशिष्टाद्वैत, काश्मीर शिवाद्वय और बौद्धों में इस पर गहरा विचार हुआ है.

दार्शनिक चर्चा में भेद को तीन अर्थों में लिया जाता है – १. अन्योन्याभाव २. वैधर्म्य ३. वस्तु का स्वरूप. शिवाद्वयवादी दार्शनिक अन्योन्याभाव (स्तम्भ में कुम्भ का अभाव, कुम्भ में स्तम्भ का अभाव), वैधर्म्य (गुण-धर्मों की विषमता) और वस्तु के स्वरूप – तीनों को ही भेद के लिए अपर्याप्त मानते हैं. क्षेमराज के शिष्य महेश्वरानन्द अपने ग्रंथ‘महार्थमंजरी परिमल’ में यह घोषित करते हैं कि स्तम्भ से कुम्भ भिन्न है और कुम्भ से स्तम्भ भिन्न है, इत्यादि रूप ही भेद-व्यवहार है और इस भेद की सिद्धि प्रमाता में विश्रान्त होने पर शान्त होती है.


यहाँ यह नोट करने योग्य है कि स्पिनोजा भेद को व्यवहारिक वैधर्म्य स्वरूप में ले रहे हैं और साथ ही भेद को प्रमाता की बुद्धि में स्थित भी मान कर व्याख्या कर रहे हैं. इसका कारण यह है कि स्पिनोज़ा भेद को कार्य के रूप में ले कर उसका कारण स्व-कृत सत्त्व को लेते हैं.}


Prop. V.There cannot exist in the universe two or more substances having the same nature or attribute.
प्रस्ताव ५. प्रकृति में दो या दो से ज्यादा सत्त्व एक ही गुण या प्रकृति के नहीं हो सकते.
Proof.—If several distinct substances be granted, they must be distinguished one from the other, either by the difference of their attributes, or by the difference of their modifications (Prop. iv.). If only by the difference of their attributes, it will be granted that there cannot be more than one with an identical attribute. If by the difference of their modifications—as substance is naturally prior to its modifications (Prop. i.),—it follows that setting the modifications aside, and considering substance in itself, that is truly, (Deff. iii.and vi.), there cannot be conceived one substance different from another,—that is (by Prop. iv.), there cannot be granted several substances, but one substance only. Q.E.D.

प्रमाण- अगर बहुत से सत्त्व मान लिए जाएँ, तो वे एक दूसरे से वैधर्म्य या एक दूसरे के उपांतरों (प्रणालियों) के अंतर से पहचाने जा सकेंगे (प्रस्ताव ४). अगर केवल वैधर्म्य को माना जाए, तो यह मानना पड़ेगा कि एक से अधिक सत्त्व नहीं हो सकते, जिनमें सारे समान धर्म मौजूद हों. अगर केवल उपांतरों का भेद माना जाय – जैसा कि सत्त्व अपने उपांतरों (प्रणाली) से पहले है (प्रस्ताव १) – यह प्रतिपादित होता है कि उपांतरों को अलग रख कर, सत्त्व अपने आप में, यह सत्य है (परिभाषा ३ और परिभाषा ६ से), एक दूसरे से अलग सत्त्व नहीं हो सकते, अत: (प्रस्ताव ४) वहाँ एक से अधिक सत्त्व नहीं माने जा सकते, केवल एक ही सत्त्व होगा.


{ अनुवादक की टिप्पणी: यहाँ स्पिनोजा अपना ‘अद्वैतवाद’ प्रतिपादित करते हैं. हम आगे देखेंगे कि स्पिनोजा किस तरह बाह्य वस्तु की सत्ता को सत् मान कर और चेतना को भी सत् मान कर अपना सिद्धांत स्थापित करते हैं. यहाँ यह उद्धृत करना उपयोगी है कि अद्धैत वेदांत में बाह्य वस्तु की सत्ता को प्रातिभासिक माना गया है और वहाँ अद्वैत का अर्थ जीव और ब्रह्म की एकता से है, न कि वस्तु और चेतना की एकता से, जो इस दर्शन में सत्त्व की प्रणाली से परिभाषित है. }

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