Quantcast
Channel: समालोचन
Viewing all 1573 articles
Browse latest View live

फेसबुक (कहानी ) जयश्री रॉय

$
0
0


सोशल मीडिया आभासी है पर यथार्थ में वास्तविक हस्तक्षेप करता है. कहानी की गीतिका जीवन के तमाम कटु-तिक्त अनुभवों से होती हुई प्रौढ़ता की दहलीज पर फेसबुक पर एक अकांउट खोलती है. यह एक नया संसार तो है पर यह उसके अपने संसार को तहस-नहस कर देता है.

जयश्री रॉय की यह नई कहानी समालोचन पर खास आपके लिए. यह कहानी न जाने कितनी दमित वंचित स्त्रियों की कहानी है पर छल यह है कि यह माध्यम भी उन्हें सबल नहीं करके अकेला छोड़ देता है.


बहुत निपुणता से जयश्री रॉय ने गीतिका का निर्मित किया है. पर कहानी अभी बाकी है. ‘स्क्रीन के बुझ’ जाने के बाद अभी जीवन तो नहीं बुझा है.  


कहानी  
फेसबुक                      
जयश्री रॉय




नोटिफ़िकेशन की घंटी बजी थी,साथ ही मोबाइल का स्क्रीन चमक उठा था. गीतिका की नींद से तंद्रिल होती पलकें अनायास खुल गई थीं- कहीं यह संवेग का मैसेज ना हो! इस सोच के साथ ही उसका दिल धडक उठा था. उसने आहिस्ता से उठ कर अपने बगल में सो रहे बेटे को देखा था- दिन भर का थका-हारा वह गहरी नींद में था. साइड टेबल पर रखे मोबाइल को उठाने से पहले उसने आश्वस्त होने के लिए एक बार दरवाजे की ओर भी देखा था,स्टडी की रोशनी जल रही थी. यानी अनिमेष जग रहा था. एक पल के लिए ठिठक कर उसने धीरे से मोबाइल उठा कर मेसेंजर चेक किया था- संवेग का ही मैसेज था- कैसी हो गुल्लू?

यह सम्बोधन पढ़ते ही उसे जाने क्या होता है. धमनियों में बहता रक्त यकायक उष्ण हो उठता है. लगता है एक ही पल में वह उम्र के अनगिनत बरस फांद कर वही सोलह साल की गीत बन गई है जिसे जमील के लिखे प्रेम पत्र पढ़ते हुये अक्सर बुखार चढ़ आता था! स्कूल यूनिफ़ोर्म की जेब में छिपा वह प्रेम पत्र जैसे कोई बम होता था जो किसी भी क्षण फट सकता था. जब तक किसी सुरक्षित स्थान में उसे छिपा नहीं देती थी,दिल गले में अटका रहता था! उन दिनों उसे पक्का यकीन होता था,जमील का नाम उसके चेहरे पर लिखा हुआ है और सारा शहर जानता है,वह जमील से प्यार करती है.

जमील-संवेग... बीच में रोज-रोज पसरती समय की कितनी बड़ी खाई है! पूरे तीस साल की! अब वह छयालीस साल की है. मेनोपाज से जूझती हुई एक प्रौढ़ा! एक 12 साल के बच्चे की माँ... वह बाथरूम में जा कर चेहरे पर पानी छपक कर खुद को आईने में देखती रही थी. दोनों गाल जल रहे हैं. उत्तेजना में तप कर गहरा सांवला चेहरा बैजनी-सा हो उठा है. तो अब भी ऐसा होता है! वह तो समझती थी वह कब की शुष्क,ऊसर हो गई है. शिराओं में अब खून नहीं दौड़ता,भीतर बहती इच्छाओं की अल्हड़ नदी रेत की ढूहों में बदल गई है ... रात के इस गहन नीरव में कहीं बहुत भीतर रह-रह कर अनायास कूक उठती कोयल को सुनते हुये उसकी पलकें जलने लगती हैं- तो मैं जिंदा हूँ! देह की अमराई एकदम से ठूँठ-बंजर नहीं हो गई है! मगर अनिमेष तो कहता है... अनिमेष का ख्याल आते ही उसकी गीली आँखें पत्थर के बेजान,सख्त टुकड़े में बदल गई थीं- नहीं उसकी कोई बात नहीं! अब एक पल भी उसके नाम बर्बाद नहीं करना...

शायद किन्हीं अर्थों में बेहतर मगर अंततः एक आम भारतीय औरत की-सी ही गीतिका की कहानी है. अब सोचती है तो ऐसा ही लगता है. घर से भाग कर सबकी मर्जी के खिलाफ अंतर्जातीय शादी की तो लगा,बहुत बड़ी क्रान्ति कर रहें! दुनिया बदल कर रख देंगे! शुरू-शुरू में ऐसा होता प्रतीत भी हुआ. उनकी जोड़ी अनोखी थी. साथ चलते रास्ते पर तो लोग मुड़ कर देखते. वो गहरी साँवली,लंबी-चौड़ी,स्थूल;अनिमेष गोरा-चिट्टा,छरहरा. लोग देख कर समझ जाते,अनिमेष उससे उम्र में छोटा है. एक-दो साल से नहीं,पूरे पाँच साल से! ऐसा अमूमन भारतीय समाज में नहीं होता. लोग तरह-तरह की अटकलें लगाते- किसी सेठ की बेटी होगी. दहेज से खरीद लिया होगा वरना कहाँ यह लड़की और कहाँ...

उन दिनों यह बातें उस तक पहुँच कर भी नहीं पहुँचती थीं. बीच में खड़ा अनिमेष सब कुछ खुद पर ले लेता था. उससे कहता था- तुम सुंदर हो! बहुत सुंदर हो! मेरी आँखों से खुद को देखो.वह आईने में प्रतिबिम्बित दोनों के चेहरे से अपनी नजरें फेर लेती- तुम्हारे चाँद-से गोरे-उजले व्यक्तित्व पर मैं चन्द्र गहन-सी लगती हूँ... अनिमेष उसे खींच कर अपने से लगा लेता- सुनो,सुन रही हो! ऐसा मत कहो,मेरे लिए प्रेम का रंग सांवला है,यह दुनिया का सबसे सुंदर रंग है!
वह उसके गाढ़े स्वर की चासनी में लिपटी देर तक पड़ी रहती. बिलकुल सुध-बुध खोई. जैसे नशे में हो. लगता,अनिमेष से लगी-लगी वह भी उजली हो आई है. अंगों में अशर्फियाँ-सी भर गई हैं. वह दमक रही है सर से पाँव तक. ठीक जैसे राधिका अपने श्यामल कृष्ण के स्पर्श से साँवली हो उठती थी! प्रेम का रंग कितना गाढ़ा चढ़ा था उन दिनों! जीवन का हर क्षण ओर-छोर रंग गया था.

जमील हर तरह से उसे प्रताड़ित कर एक दिन अनायास चला गया था. जाते हुये एक बार मुड़ कर भी नहीं देखा था. दिशाहारा-से उन पलों में गहरे आतंक के साथ उसने अनुभव किया था,प्रेम के नाम पर उसने उसके दिल से ही नहीं खेला था,जीवन ही तहस-नहस नहीं किया था,बल्कि जाते-जाते उसकी देह में जहर का बीज भी बो गया था. वह बीज अब हर बीतते दिन के साथ अंकुरित हो रहा था,कोंपलों में फूट रहा था,आकार ले रहा था...

वह दिन गहरी उलझन,अवसाद और भय के थे. अपना शरीर ही अबूझ पहेली बन गया था. तल पेट दुखता रहता,मन कच्चा-कच्चा होता,देह घुलाती रहती. पढ़ाई के टेबल से उठ कर दस बार उबकाई रोकते हुये बाथरूम की ओर भागना पड़ता,स्कूल ना जाने के दस बहाने गढ़ने पड़ते. आते-जाते आईने के पास ठिठक कर खुद को हर कोने से देखती,बिना किसी बात पेट के आगे ओढ़नी खींचती रहती.  अचानक से उसकी दुनिया उलट-पुलट गई थी. वह तो गनीमत थी कि माँ के गुजरने के बाद कोई औरत नहीं थी घर में उस पर नजर रखने के लिए. पिता रिटायर कर गए थे और बड़े भैया नौकरी और अपनी नई मंगेतर को ले कर मशगूल थे.

मगर इन सारी घटनाओं का मूक साक्षी एक मात्र अनिमेषथा. अनिमेष जमील का दोस्त था. उसके साथ ही पहले-पहल उसके घर आया था. तब उनकी बेमेल दोस्ती उसे कहीं से खटकी भी थी. बीस साल का जमील अपने चाचा के गराज में मैकेनिक था जबकि अनिमेष आठवीं का छात्र. टाइफाइड तथा कुछ और कारणों से उसके भी तीन साल बर्बाद हो गए थे और उस समय वह दसवीं में पढ़ती थी. जमील के प्रेम में गले-गले तक डूबी उन दिनों उसने उसे ठीक से देखा भी नहीं था. वह जमील का प्रेम पत्र उस तक पहुंचाता और उसके संदेश जमील तक. जब दोनों घर के एकांत में मिलते,वह बाहर रुक कर आने-जाने वालों पर नजर रखता और उन्हें आने वाले किसी संभावित खतरे से आगाह करता.

जमील के चले जाने के बाद गीतिका ने अनिमेष के हाथों ही उसे कई बार संदेश भेजे थे. यह जानकारी भी कि वह प्रेग्नेंट है. जमील नहीं आया था. बस कहला भेजा था कि वह अपना बच्चा गिरा ले. इसके बाद उसके आग्रह पर अनिमेष ही केमिष्ट से दवाई खरीद लाया था.

उन दिनों जब वह ग्लानि,शर्म और दुख से भर कर रोती थी,अनिमेष उसका हाथ पकड़ कर बिना कुछ कहे चुपचाप बैठा रहता था. कहने के लिए उसके पास कुछ था भी नहीं. अपने दोस्त की करतूत से वह क्षुब्ध भी था और कहीं से शर्मिंदा भी. दुख के इन पलों में उसके साथ बने रहना ही उसके लिए उसका साथ देना था और वह यही कर रहा था. जमील को हर तरह से समझा कर और अंत में लताड़ कर उसने उससे बात करना बंद कर दिया था.

रोती हुई अक्सर गीतिका उसकी गोद में ढह पड़ती थी. ऐसे में वह धीरे-धीरे उसके बाल सहलाता या पीठ पर हाथ फेरता रहता. उन नितांत विह्वल क्षणों में भी गीतिका की देह उन आत्मीयता से भरे उष्ण स्पर्शों को अदेखा नहीं कर पाई थी और जल्द दोनों ने समझा था,सहानुभूति से शुरू हुए संबंध की दिशा साहचर्य,आंतरिकता और अनुराग की ओर मुड़ गई है. गीतिका आज नहीं जानती जो कुछ भी उन दोनों के बीच उन दिनों पनपा,वह प्रेम था या कुछ और. वह अकेली थी,गहरे तक आहत और अवसाद ग्रस्त. अनिमेष युवा था और किसी साथ की तलाश में. उन दिनों मन से ज्यादा देह अधिक मुखर थी. इच्छाओं में ज्वार भाटे का समय था. साधारण नाक-नक्श वाली गहरी साँवली और दुबली-पतली गीतिका आकर्षक ना सही,एक किशोर लड़की थी जिसके पास शरीर के नाम पर वह सब कुछ था जिसकी कामना उसे भीतर ही भीतर सता रही थी. इस तरह अपने-अपने अभाव के साथ दोनों मिले थे और अंजाने ही एक-दूसरे के पूरक बन गए थे.

प्यार सिर्फ हौसला ही नहीं देता. बल्कि इसके ठीक उलट तोड़ता और झुकाता भी है. कभी-कभी यह एक शर्मनाक अनुभव हो सकता है. खास कर तब जब दूसरे की नियत में बाल निकल आए. जमील के साथ मन के साथ-साथ शरीर का भी संबंध था मगर तब प्यार में सब कुछ सही लगता था. जिसे मन दे दिया उसे देह दे देना कौन-सी बात थी! प्यार में कुछ गलत नहीं होता...

एक लंबे समय तक बिना यकीन के वह जीती रही थी. एकदम डांवाडोल! सब झूठ,सब दिखावा! प्यार नहीं होता. होती है बस जिस्म की भूख,हबस! उसे लगता,उसकी कोख एक कभी ना भरने वाली खोह में तब्दील हो गई है. रातों को अपने बिस्तर पर हाथ-पाँव सिकोड़ कर पड़ी-पड़ी वह भीतर गूँजते सन्नाटे को सुनती रहती. कोई खंडहर है जिसमें छटपटाती हवा दीवारों से सर टकरा रोती फिरती है. कई बार उसे लगता था,रात के अंतिम प्रहर उसके भीतर कहीं बहुत गहरे कोई बच्चा धीरे-धीरे सुबक रहा है! उसने देखा नहीं था उस बच्चे को कभी मगर पहचानती हमेशा से थी. वह उसका हिस्सा था,उसके प्यार का साकार चेहरा!

एक लंबे समय तक वह उसके अंदर सांसें लेता रहा था,हिलता-डुलता रहा था. इस तरह उसके साथ पल-प्रतिपल जीना वास्तव में उसके अभाव में जीना था और यह बहुत त्रासद अनुभव था. अनिमेष ना होता तो जाने ऐसे में उसका क्या होता! सोच कर अब भी शरीर में झुरझुरी-सी दौड़ती है.

अनिमेष ने उसे बताया था,मरने से पहले कोई मौत नहीं होती. पहला प्यार हो सकता है,मगर आखिरी प्यार जैसा कुछ नहीं होता. जीवन की शुरुआत ठीक वहीं से होती है,जहां से हम चाहें... तो उसका हाथ पकड़ वह फिर कदम-कदम चलना सीखी थी;सीखी थी फिर से यकीन करना- खुद पर और दूसरों पर भी. लगा था,नहीं,यहाँ सब कुछ इतना गलत भी नहीं. यहाँ प्यार भी है,यकीन भी...

मन सूरजमुखी-सा होता है,हमेशा रोशनी की ओर ही बढ़ना चाहता है. अंधकार एक समय तक के लिए छा सकता है,ओर-छोर पसर कर सब कुछ ढाँप भी सकता है,मगरस्थायी नहीं हो सकता. उसे छंटना ही होता है,आज नहीं तो कल... जाने कितने समय बाद सहमे-ठिठके कदमों से सही,वह भी बाहर निकली थी,चली थी अनिमेष के साथ एक नए रास्ते पर,पहले झिझक,संकोच और संशय के साथ,फिर मजबूत कदमों से. धीरे-धीरे सूरत बदली थी,हालात बेहतर हुए थे,जीवन ऊंची-नीची पगडंडियों से उतर कर सम पर आया था.

उन दिनों वे स्कूल से लौटते हुये दूर तक चलते हुये आते थे. कितनी बातें होती थीं उस बीच. जाने क्या-क्या... अब गीतिका याद भी करना चाहती है तो याद नहीं आता. बहुत पहले की बात है यह सब,शायद पिछले किसी जनम की... अब उन में दिनों कोई बात नहीं होती. सारी बातें खत्म हो चुकी है. अब कुछ बची है तो ढेर-सी शिकायतें और कड़वाहट! वह अक्सर सोचने की कोशिश करती है,कहाँ क्या गलत हो गया! सब कुछ ठीक तो था...

अनिमेष के पास भी इस सवाल का कोई जवाब नहीं. वह भी भीतर ही भीतर हैरान होता रहता है. जान-बुझ कर तो सायास उसने कुछ भी नहीं किया! जिसे वह हाल तक प्यार समझता रहा था,क्या वाकई वह प्यार था?अब वह नहीं जानता. एक बात वह भूल गया था,चैरिटी में मदद,दया,करुणा दी जा सकती है,प्रेम नहीं! जमील से ठुकराई हुई गीतिका एक बेहद असहाय,कातर लड़की थी. घोंसले से गिरे किसी चिड़िया के बच्चे की तरह उसके शरण आई थी. वह उसे कैसे लौटा देता! आज सोचता है तो लगता है,वह प्यार नहीं,उसका पुरुष अहम होगा. वह अहम जो किसी पीड़ित स्त्री की उपस्थिति में जाग उठता है कि कोई उसके शरण में आया है,उससे दया की अपेक्षा रखता है. कृतज्ञता में छलछलाती गीतिका की आँखें उसे बड़प्पन का एहसास दिलाती थी. उसका आश्रय बनते हुये उसने अपनी जरूरतों को भुला दिया,भुला दिया कि उसे क्या चाहिए... उन दिनों किसी मुसीबत में पड़ी औरत का सहारा बनने का नशा उस पर हावी रहा. बाकी बातें गौण हो गईं.

जमील ने एक बार उसके सवाल के जवाब में कंधे उचका कर कहा था,सुंदर लड़कियों को पटाने में बहुत मेहनत लगती है. बदसूरत लड़कियां आसानी से दाना चुग लेती है. तो यही समझ... तब यह बात सुन कर उसे बुरा लगा था मगर अब जब मुड़ कर गुजरे समय के पार देखता है,एक डर-सा उसे घेर लेता है- कहीं यही बात उसके भी अवचेतन में तो नहीं थी! थोड़ी-सी सहानुभूति और साथ के ऐवज में किस आसानी से गीतिका उसके पास खींची चली आई थी!

सालों वह एक भ्रम में जीता रहा. भ्रम कि गीतिका के साथ उसका जो कुछ भी है वह प्रेम है. कोई दूसरा नाम इस समाज और उससे रचा उसका व्यक्तित्व सहज स्वीकार नहीं कर सकता था. जिस्म की भूख और मन के अभाव को यहाँ समाज की स्वीकारोक्त्ति हासिल नहीं. जबकि प्रेम एक वैध शब्द है.  बहुत आसानी से प्रेम के नाम पर यहाँ मन की अराजक इच्छाओं को चलाया जा सकता है और शायद यही उसके साथ भी हुआ था. अपनी भूख और अहम को उसने पहचानने से अजाने ही इंकार कर दिया था और उसे एक सुंदर और जायज नाम दिया था- प्रेम!शायद ग्लानि के दु:सह्य भार से मुक्त होने के लिए या सबके साथ खुद को भी बहलाने के लिए...अब वह तय नहीं कर पाता,ठगा कौन गया,गीतिका या वह खुद!

खुद को छलने की सजा वह सालों से पाता रहा है,यह किसको बताए! आज वह बयालीस साल का है. एक भरा-पूरा मर्द! वह सुदर्शन है यह वह भी जानता है. वर्षों पहले एक छोटे-से कस्बे का दुबला-पतला किशोर नहीं जो संशय और संकोच से हर पल घिरा रहता था. अब वह एक मल्टी नेशनल में ऊंचेपद पर काम करने वाला अफसर है. आत्म विश्वास और अपने विशिष्ट होने की आश्वस्ति से भरा हुआ. आफिसर्स क्लब की पार्टियों में वह सब के आकर्षण के केंद्र में होता है. खास कर महिलाओं के. गीतिका और उसे साथ देख लोगों की नजरों में हैरत तैर आती है, वह देख सकता था. कई बार वह खुद ग्लानिबोध से भर आया है जब अपने ही अजाने गीतिका के साथ चलते हुये वह दो कदम आगे बढ़ जाता था.

गीतिका आम भारतीय लड़कियों से इतर देह संबंधी बर्जनाओं से पूरी तरह मुक्त थी. बिस्तर पर जंगली बिल्ली जैसी आक्रामक तेवर रखा करती थी. संबंध में शरीर के वर्चस्व के दिनों में यह सब कुछ खासा उत्तेजक हुआ करता था उसके लिए. सालों इन्हीं बातों में उलझा रहा,मगर अब लगता है,प्रेम इससे भी आगे की कोई चीज होता है. क्या,वह सोच नहीं पाता. बस एक अभाव जो भीतर गहरे कहीं रात-दिन बना रहता है. रह-रह कर उसे अनमन करता है. लगता है,अब देह से बाहर निकलने का समय है. देह से बाहर निकलना यानी गीतिका से परे हो जाना होगा, उसने कब सोचा था...

अब एक कस्बाई जीवन के संकीर्ण घेरे से बाहर निकल वह देख सकता है, गीतिका में सौंदर्यबोध का नितांत अभाव है. खुद गहरी साँवली हो कर चटक रंगों के प्रति उस में अजीब रुझान है. यह कोई मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रिया होगी. विपरीत चीजें एक-दूसरे को आकर्षित करती है. हमेशा लाल,पीले,हरे कपड़ों में होती है. साथ ही भड़कीले मेकअप! उसे लगता है लिपस्टिक सिर्फ लाल रंग की ही होती है. फल,हरी सब्जी से तो मानो जन्म का बैर है. सिर्फ आलू खा-खा कर आलू की-सी ही गोल-मटोल होती जा रही है. उसके बनाए खाने पर तेल की कम से कम इंच भर मोती परत तैरती होती है. अनिमेष को अब सोच कर हैरत होती है,कभी इसी औरत से उसने प्यार किया था!

लोग कहते हैं,प्यार कभी नहीं मरता मगर वह अब जानता है,हर चीज की तरह प्यार भी मर सकता है. जिंदा रहने के लिए जिस हवा,धूप,पानी की जरूरत होती है उनके निरंतर अभाव में बेहद हरा-भरा,सजीला पौधा भी एक दिन ठूंठ में तब्दील हो सकता है. अपने भीतर रात-दिन सुगबुहगाती अभाव की प्रतीति को अदेखा कर वह एक खुशफहमी में जिये जा रहा था. खुशफहमी प्रेम में होने की,होते चले जाने की... मगर एक दिन अचानक सच्चाई सामने आ खड़ी हुई थी,अपनी पूरी कौंध के साथ और उसने पाया था,अब तक उसके भीतर जिस प्रेम के होने का विश्वास था,वह देह से उतर गई केचुल के सिवा कुछ भी नहीं था! खोखले सीप-शंख,सुंदर मगर एकदम रिक्त...उनसे आती समुद्र की लहरों की आवाज एक भ्रम के सिवा कुछ भी नहीं! इस अनुभव के साथ वह उतरे समुद्र के पीछे रह गई रेत की ढूंहों के बीच अवाक खड़ा रह गया था.

दैनंदिन जीवन की सामान्य घटनाओं के बीच कब एक-एक कर प्रेम की नियामतें खत्म हो गई,वह समझ नहीं पाया. साथ-साथ खाने-पीने,सोने के बीच उसके अंदर शनैः-शनैः कुछ कम हो रहा है,बीतता समय अपने साथ उसका बहुत कीमती कुछ चुपचाप बहा ले जा रहा है,उसे पता भी ना चला. एक सफल जीवन के गुमान में वह मगन रहा. वाकई शादी एक आदत की बात है और आदत भले ही सहज ना छुटे,ऊब और एकरसता तो पैदा कर ही सकती है...

बेहद भावुक और सहृदय अनिमेष को गीतिका ने धीरे-धीरे बदलते देखा था. शुरू में उसने देख कर भी नहीं देखा था. यह निश्चिंतता सालों के निष्कलंक साहचर्य और समर्पण से आया था. सुरक्षा कवच के इस सुदृढ़ घेरे से निकलना इतना सहज नहीं था. मगर धीरे-धीरे कुहासा छटा था और सारा परिदृश्य स्पष्ट हुआ था. एक दिन स्तब्ध हो कर उसने महसूस किया था,अनिमेष बदल गया है!

हमेशा ऊष्मा और उत्साह से भरा रहने वाला अनिमेष देखते ही देखते एक बेजान शीला खंड में बदल गया था. पहले बहुत धीरे-धीरे और फिर एकदम से उसने खुद को पूरी तरह समेट लिया था. कुछ इस तरह कि हजार कोशिश कर भी उसे कहीं से उस तक पहुँचने का कोई सिरा नहीं मिल पाया था. खुद तक पहुँचने के सारे कपाट बंद कर वह निर्लिप्त हो गया था. ओह! कैसे यातना भरे दिन थे वे! वह सुबह-शाम,हर दिन,हर पल उस तक पहुँचने की कोशिश में उसके बंद दरवाजे पर दस्तक देती रहती थी. इतना कि उसके दोनों बाजू टूट गए,उँगलियाँ झर गईं,हौसले चूर-चूर हो कर बिखर गए...

वह जानना चाहती थी उसका क्या कसूर है. सबसे बड़ा जुल्म यह था कि अनिमेष कुछ बोलता भी नहीं था. उसकी चुप्पी उसे पागल किए दे रही थी. वह सिर्फ उसका व्यवहार देख रही थी जो सिरे से बदल गया था. पढ़ने-लिखने के नाम पर उसने स्टडी में सोना शुरू कर दिया था. रात-रात भर स्टडी की रोशनी जलती रहती मगर बार-बार नॉक करने पर भी दरवाजा नहीं खुलता. जब भी वह करीब जाने की कोशिश करती,उसे कोई जरुरी काम याद आ जाता या नींद,थकान घेर लेती. अब उनके खाने का प्लेट भी अलग हो गया था. पहले सालों वे एक ही प्लेट से खाते आए थे.

क्लब में जाते तो वह उससे दूर अलग-थलग बैठता. उन दिनों अनिमेष हर सुंदर औरत को बहुत ध्यान से देखने लगा था. वह कुछ कहने जाती तो चिढ़ कर उसके हजार नुश्ख निकालने लगता- तो क्या तुम्हें देखूँ! कुछ सलीका सीखो इनसे. अब तक साड़ी बांधना नहीं आया...

शुरू-शुरू में उसे यकीन नहीं आता था कि अनिमेष उससे इस तरह से बातें कर रहा है. वह आईने के सामने खड़ी हो कर खुद को देखती और रोती. ओह! यह वही थी! इन कुछ सालों में कितना बदल गई थी वह- चर्बी से ठसाठस भरा मोटा थूल-थूल शरीर,झर-झर कर पतले हो गये बाल,झाई पड़े गाल,फुंसी,मुहासों से भरा चेहरा...  वह भी जानती है,सुंदर तो वह कभी नहीं थी मगर अब बीमारी और उम्र ने उसे एक हद तक विकर्षक भी बना दिया था. एक समय के बाद उसने आईने के सामने खड़ी होना ही छोड़ दिया था. अपना आप ही जैसे असहनीय हो उठा था उसके लिए.

अनिमेष को अब उस में ऐब ही ऐब नजर आते थे. खाने में तेल,ज्यादा नमक... अनगिनत शिकायतें! सबसे ज्यादा जो दुखता था वह था दूसरों से तुलना- मिसेज शुक्ला को देखो,कितने सलीके से सजती-संबरती हैं,उमा जी का ड्रेसिंग सेंस भी कमाल का,और एक तुम हो! कुछ भी डाल लेती हो! और कुछ नहीं तो अपनी ढलती उम्र का तो ख्याल करो! साथ निकलते शर्म आती है...

गीतिका अनिमेष को देखती है. इन दिनों सजने-संबरने में वह काफी दिलचस्पी लेने लगा है. तरह-तरह के आफ्टर सेव,कोलोन,सर्ट्स,कुर्ते की ऑन लाइन शॉपिंग... सालों का लड़कानुमा दुबला-पतला चेहरा परिपक्व हो कर निखरा है. वातानुकूलित कमरे में बैठे-बैठे धूप से संबलाया रंग भी अधिक गोरा हो आया है. लाल कुर्ते में दमकते उसके चेहरे की ओर देखते हुये उसका दिल बैठने लगता है- कहीं कोई इश्क-विश्क का तो चक्कर नहीं! आजकल जिस तरह से अपना मोबाइल सम्हालता फिरता है! बाथरूम में भी मोबाइल...

जो वह नहीं करती थी कभी अब वही करने लगी है- दिन में दस बार अनिमेष को फोन करके टोह लेने की कोशिश करती है कि वह कहाँ है;वह जब बाथरूम में होता है,उसके जेब की तलाशी लेती है,कपड़े सूंघ कर देखती है,लांड्री में देने से पहले उन्हें ध्यान से देखती है... असुरक्षा ने उसे कितनी कुंठित,कितनी शक्की बना दिया है!

आजकल फेसबुक एक नया शगल हुआ है. जब देखो फेसबुक में! ऐसा क्या है फेसबुक में! उसे फेसबुक आदि के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं. हाल ही में नया स्मार्ट फोन लिया है. वह भी बेटे की जिद्द पर कि ममा सबके पास होता है,ले लो! फिलहाल उलट-पुलट कर ही देख रही. वह अपने घर-गृहस्थी में उलझी रही और जमाना जाने कहाँ से कहाँ चला गया! रातों को बिस्तर में पड़ी-पड़ी वह तकिये में मुंह छिपा कर रोती रहती. सब कहते थे,गीत तू बड़ी किस्मत वाली,तुझे अनिमेष-सा नेक,सजीला दूल्हा मिला है... उसके सौभाग्य को किसकी नजर लग गई!

उस दिन बेटे के कराटे क्लास के बाहर मिसेज कक्कर ने उसे फेस बुक दिखाया था- आप फेसबुक में नहीं हैं?आपके श्रीमान तो हर वक्त फेसबुक पर ही रहते हैं. देखिये,अभी भी ऑन लाइन हैं... कमाल का कमेन्ट करते हैं... उसने देखे थे उसके कमेन्ट महिलाओं की तस्वीरों पर-अप्रतिम’,‘अद्भुत’,‘अद्वितीयअपनी सबसे सुंदर फोटो उसने प्रोफ़ाइल पर लगायी हुई थी. उस पर कमेन्ट की भरमार थी,खास कर औरतों की! आफिसर्स क्लब में उसे आँखों ही आँखों में निगलने वाली तमाम मिसेज कुलकर्णी,बालिया,मजूमदार यहाँ भी टूटी पड़ रही थीं. देख कर उसका खून देर तक खौलता रहा था.


उस दिन घर लौट कर उसने अनिमेष से अपना फेसबुक अकाउंट खुलवाया था. अनिमेष ने बिना कोई सवाल के कौतुक से मुस्कराते हुये उसका अकाउंट खोल दिया था. प्रोफाइल पिक्चर चुनते हुये तंज करने से नहीं चुका था- कोई भी लगा लो,क्या फर्क पड़ता है! अकाउंट खोल कर एक मुद्दत बाद वह दिनों तक रोमांच का अनुभव करती रही थी. पहले-पहल तो फेसबुक पर आने का एक मात्र उद्देश्य अनिमेष की गतिविधियों पर नजर ही रखना था मगर धीरे-धीरे उसने अनुभव किया था,फेसबुक इसके अलावा भी और बहुत कुछ है. शुरू-शुरू में कॉलोनी की दो-चार परिचित ही लाइक,कमेन्ट करते. प्रोफ़ाइल पर चार लाइक पड़े थे. देख कर अनिमेष मुस्कराया था- अरे वाह! चार लाइक्स! तुम तो छा गई यार गीत! वह भीतर ही भीतर कट कर रह गई थी. अनिमेष के नए प्रोफ़ाइल पर चार सौ लाइक,तीन सौ कमेन्ट आए थे,उसने देखा हुआ था. उसके बार-बार कहने पर भी अनिमेष ने दिनों तक उसका फ्रेंड रिकवेस्ट स्वीकार नहीं किया था. मित्र बनने के बाद भी उसके पोस्ट्स पर एक बार भी नहीं आया. शिकायत करने पर करवट बदल कर लेट जाता- कहीं तो पीछा छोड़ो!

बेटे ने प्रोफ़ाइल पिक देख कर मुंह बनाया- ऊँह ममा! फेसबुक पर कोई ऐसी तस्वीर लगाता है. यह तो आधार कार्ड में लगाने लायकहै! सुन कर उसका चेहरा उतर गया था- तो अच्छी तस्वीर कहाँ से लाऊं! जैसी सूरत,वैसी ही ना आएगी! उसकी बात पर उसका बारह साल का बेटा ऐसे हंसा था जैसे उसने कोई निहायत बचकानी बात कर दी हो- ओहो! फॉटोशॉप के जमाने में सूरत की क्या चिंता करती हो. बताओ,तुम्हें क्या बनना है?प्रियंका चोपड़ा,श्रद्धा कपूर या तुम्हारी वही- रेखा...बेटे ने धड़ाधड़ कई ऐप डाउन लोड कर दिये थे- यह लो,ब्युटि प्लस,स्नैपसीड,रेटरिका... जो बनना है बन जाओ- गोरी,दुबली,लंबी...

वह अपने बेटे का चेहरा देखती रह गई थी. अब तक नाक पकड़ कर दूध पीने वाला और बात-बात पर रोने वाला उसका गोलू इतना सब कुछ कैसे जानता है! उसकी बहनें ठीक ही कहती हैं,वह अब तक सोई ही रही...

इसके बाद इंटरनेट ने एक नई दुनिया ही खोल दी थी उसके सामने. पहले संकोच से,फिर उत्साह के साथ वह आगे बढ़ी थी. अब तक बहुत छोटी-सी थी उसकी दुनिया जिसके केंद्र में अनिमेष और उसका बेटा ही था. उनके इर्द-गिर्द वह किसी उपग्रह की तरह चक्कर लगाती रहती थी. उन्हीं से जीवन,वही जीवन का उद्देश्य भी. अपना कुछ नहीं. रोशनी,ऊर्जा सब उधार की... बेटे ने फोटो एडिट करके दिया तो वह खुद को पहचान ही नहीं पाई. एकदम गोरी-गुलाबी,चमकती हुई. वह चाह कर भी तस्वीर का गोरापन कम नहीं कर पाई. बचपन से अपनी गहली साँवली त्वचा के लिए उसने कम उपहास-अवहेलना नहीं झेली थी. पहले-पहल तो चटक रंग कपड़े पहनने में भी संकोच होता था. गली के बच्चे काली मैयाकह कर चिढ़ाते थे. उसके जन्म के समय तो सुना था दादी आँख पर आँचल धर रोने ही बैठ गई थी कि एक तो तीसरी बेटी ऊपर से इतनी काली! कवि मामा ने ढांढस बँधाया था,आषाढ़ में आई है बिटिया,श्यामल मेघ-सी साँवली,कृष्णा...सुन कर दादी चिढ़ गई थी- तुम्हारी कविता से दुनिया नहीं चलती,समझे!

धड़कते दिल से प्रोफ़ाइल बदला और फिर हैरत से देखा,दो घंटे में सौ लाइक्स. कमेंट्स उससे भी ज्यादा- ब्यूटीफूल,सुंदर,अनुपम... यह सब उसके लिए था! उसे यकीन नहीं आ रहा था. अनिमेष को दिखाया तो वह बिना कुछ बोले ऑफिस के लिए निकल गया. उसकी चुप्पी में उसे कहीं कुछ जलने की बू आई.दिनों बाद मन को ठंडक पहुंची. वह दिन उसके जीवन की एक नई शुरुआत का दिन था.

इसके बाद फ्रेंड रिक्वेस्टकी झड़ी लग गई. देखते ही देखते मित्र संख्या पाँच हजार की सीमा छूने लगी. इनबॉक्स में सैकड़ों संदेश- गुड मॉर्निंग,गुड नाइट से ले कर पिक्चर्स और शेर ओ शायरी,कविता आदि. यह एक अजीब किस्म का नशा था. कल तक वह एक अधेढ़ होती उपेक्षित हाउस वाइफ़ थी जिसके लिए किसी के पास समय नहीं था और आज जैसे अचानक से कोई सेलीब्रिटी हो गई थी. जाने कितने लोगों के आकर्षण के केंद्र में हो आई थी वह! सब चैट करने,फोन नंबर लेने के लिए आतुर! पचास को छूती-छूती उम्र के अवसाद के साथ अनिमेष की जानलेवा उदासीनता तो थी ही,साथ ही बुझने से पहले एक बार पूरी कौंध से जल उठने की कोई छिपी अभिलाषा भी शायद रही होगी. एक औरत होने की हैसियत से अब भी अपनी क्षमता और प्रभाव आजमाने का दुर्वार लोभ,लंबी अवधि से बार-बार आहत हो रहे अहम को दुरुस्त करने की जरूरत... वह बांध टूटी नदी की तरह अपना कूल-किनारा तोड़ कर अबाध्य बह चली थी,बिना इस बात की परवाह किए कि वह किस दिशा में जा रही है;इस उद्दाम प्लावन की परिणति क्या होगी!

गहरे नशे की-सी अवस्था में उसे लग रहा था,कैशोर्य के वे सुनहरे दिन लौट आए हैं जब उठती उम्र का लावण्य उसके साधारण शक्ल-सूरत पर भी हल्दी के उबटन की तरह चढ़ा था. चलते हुये कुछ लोग उसे मुड़ कर देखने लगे थे,पत्थर में लिपटे खत भी आँगन में गिरते थे,सर्दी की धूप में छत पर कभी बैठी तो पड़ोसियों के घर कई आईने एक साथ चमक उठते थे. स्कूल में भी किताबों में छिप कर कुछ प्रेम पत्र उस तक आए थे. उन्हीं दिनों तो जमील उसके जीवन में आया था! वह भी क्या दिन थे! लोगों की नजरों ने उसे कुछ खास होने का एहसास करवाया था. उसे लगता था,वह यकायक कुछ हो गई है. बार-बार आईने के सामने खड़ी हो कर खुद को देखती थी,घर से निकलने के पहले बनती-संबरती थी. एक बार उसके लिए उसके स्कूल के दो लड़कों के बीच मारपीट भी हो गई थी. यह सब किसी के भी अहम के लिए बहुत आश्वस्ति भरा अनुभव हो सकता था...

जिस्मानी तौर पर उसका जीवन कुछ अर्थों में बेहतर हो कर भी चार दीवारी के भीतर कैद एक आम भारतीय स्त्री का जीवन ही था जिसकी दुनिया घर की जिम्मेदारियों के इर्द-गिर्द एकरस निरंतता के साथ बरसों-बरस किसी चक्र की तरह घूमती रही थी. निजता के क्षण बस उतने ही जो हर तरह के घरेलू काम के बाद बच जाते थे. अपनी सोच के दायरे में भी उसका स्व सबसे आखिरी में होता था. भुलता हुआ-सा! तरजीह की फेहरिस्त में दाल,चाबल,आटा पहले आता था,उसके सपने बहुत बाद में. याद गली का हर चेहरा धुंधला पड़ने लगा था गुजरते वक्त के साथ.

मगर अब जैसे संभावनाओं की एक पूरी दुनिया खुल गई थी उसके जीवन में फेसबुक के साथ. जाने कब के बिछड़े परिचित,बचपन की सहेलियाँ,संबंधी एक-एक कर आ जुड़े थे फ्रेंड लिस्ट में! देखते ही देखते कुनबा बढ़ा था आभासी दुनिया का. हर पल नोटिफिकेशन की घंटी बजती रहती,मेसेज बॉक्स,फ्रेंड रिकवेस्ट आदि की भीड़ लगी रहती. उसने धीरे-धीरे फोटो डालना,टैग करना आदि सीखा था. इन नए तजुर्बों में गज़ब का रोमांच था. पाँच इंच का वह छोटा-सा फोन जैसे पूरी दुनिया पर खुलने वाली एक जादुई खिड़की था जिस पर बैठी वह हर क्षण इधर-उधर झाँकने को लालायित रहती थी. सुबह उठते ही सबसे पहले फोन उठा कर मैसेज देखना,सबके गुड मॉर्निंग का जवाब देना,फेसबुक का जायजा लेना उसके रूटीन में शामिल हो गया था. दिन भर काम के बीच भी मन मोबाइल पर ही अटका रहता. हर पाँच-दस मिनट में मोबाइल उठा कर चेक करना एक तरह की बाध्यता.

इनके पीछे कभी दाल जल रही थी तो कभी बेटा टिफिन में जैम-ब्रेड ले कर ही स्कूल जा रहा था. अनिमेष लंच ब्रेक में घर आता तो अक्सर खाना तैयार नहीं मिलता. पूछने पर वह डिफेंसिव हो उठती और झगड़ने लगती. फेसबुक ने गीतिका को एक नए आत्म विश्वास से भर दिया था. शादी के बाद हर तरफ से कट कर इस नई जगह के अजनबी परिवेश में वह जिस तरह से खुद को अकेली और असहाय पाती थी वह एकदम से चला गया था. फेसबुक के हजारों दोस्तों,क्ंप्लीमेंट्स,मेसेज,फोन,चैट से घिरी उसे लगता,वह अकेली नहीं है. उसके भी कई अपने हैं जो उसे सराहते हैं,उसकी बात सुनते हैं और साथ भी देते हैं. रात के किसी भी प्रहर उसके एक आह्वान पर दस लोग निकल आते हैं,मदद के लिए हाथ बढ़ाते हैं!

तो अब बात-बात पर वह फेसबुक की ओर दौड़ती है,हजारों लोगों से दिल की बात इस तरह शेयर करती है जैसे वे अदेखे,अजाने लोग उसके बचपन की सहेलियाँ हो. रात को नींद नहीं आ रही,तबीयत खराब है,यह पका रही,वह खा रही... साथ ही हर रोज आठ-दस सेल्फी,खुद के उठाए फोटो... उसकी आत्मीय बातें,खुलापन,भावुकता आभासी दुनिया की भीड़ को खूब भा रही थी. कोई प्रगतिशीलता तो कोई स्त्रीवाद के नाम पर उसे ऊपर और ऊपर चढ़ाये जा रहे थे. लोगों की शह पा कर उसके भीतर लंबे समय से दबा पड़ा लावा फूट पड़ा था और वह स्त्री समस्याओं पर जम कर लिखने लगी थी. देखते ही देखते दमित और कुंठाग्रस्त औरतों की एक बहुत बड़ी संख्या उसके आसपास इकट्ठी हो गई थी. 

स्कूल के दिनों में डायरी में छिप-छिप कर कवितायें लिखा करती थी. एक दिन हिम्मत करके उनमें से एक एफबी पर डाल दिया अपनी सोती हुई तस्वीर के साथ. दिन भर में दो सौ कमेन्ट आ गए. साथ ही किसी पत्रिका के संपादक का उसे अपनी पत्रिका में छापने का ऐलान! इससे हौसला बढ़ा तो डायरी,कविता आदि नियमित लिखने लगी और जल्द ही फेसबुक की चर्चित लेखिका बन गई! ऊपर से  रूप की प्रशंसा! इसके जादू से बाहर आना तो एकदम कठिन था. जो कमप्लीमेंट उम्र के सोलहवें साल पर नहीं मिल पाये थे वह सैतालीस साल की उम्र में मिल रहे थे.

रात के एकांत में ऑन लाइन हो कर उसे प्रतीत होता वह कोई सुंदर सेलीब्रेटी है. रह-रह कर बज उठती मैसेंजर की घंटी और स्क्रीन पर चमक उठते रोमांटिक संदेश उसे किसी फिल्म से निकले ड्रीम सीक्वेंस जैसे लगते- हाई ब्यूटीफूल! हैलो बेबी! मुझसे दोस्ती करोगी?क्या कर रही हो... अब अनिमेष की उपेक्षा,अपना एकाकीपन उसे नहीं चुभता. भांड में जाये वह और उसका प्यार. वह अकेली नहीं ना उसे चाहने वालों की कमी है. हालांकि इन मैसेजों का जवाब देने की उसकी हिम्मत नहीं होती मगर वह उन्हें स्वप्न भरी आँखों से बार-बार पढ़ती रहती.

मगर बहुत दिनों तक इसके आकर्षण से बाहर रहना उसके लिए संभव नहीं रह गया. खास कर उस गहरे साँवले लड़के के आकर्षण से जिसका नाम संवेगथा. कैसी उदास आँखें थीं उसकी... बातें भी औरों से हट कर. जैसे शब्द-शब्द कविता! बहुत दिनों तक वह उससे निर्लिप्त रह नहीं पाई और धड़कते दिल से उसके साथ चैट करने लगी,पहले कभी-कभार फिर नियमित. संवेग की बातों से लगता था वह निहायत अकेला है और जीवन से विरक्त भी. पहले दिन से ही वह उसे बताने लगा था कि ना जाने क्यों,उसकी तस्वीर देखते ही उसे उससे प्यार हो गया है. उसकी इस हद तक बेलाग बातों ने जहां गीतिका को स्तंभित कर दिया था वही उसकी निर्भीकता और स्पष्टवादिता ने प्रभावित भी किया था. एक अर्से से प्रेम और साहचर्य के अभाव में मरुभूमि बन चुकी गीतिका के लिए यह शब्द बारिश की बूंदों की तरह सुखद थे जिन्हें पढ़ते हुये अपने ही अजाने वह भीतर ही भीतर हरिया उठी थी.

वह खुद क्या चाहती थी उसे पता नहीं मगर कुछ था जो उसे हवा में तिनके की तरह उड़ाए ले जा रहा था. ना चाहते हुये भी वह उसके आमंत्रण पर चैट पर बैठ जाती. उसके दिलफरेब बातों पर सिहरती हुई हाँ हूँ में जवाब देती रहती. रात-दिन,सुबह शाम... अब हर वक्त उसे भी संवेग के मैसेज का इंतज़ार रहता. कोई उसके रूप पर मोहित है,उसे दीवानों की तरह चाहता हैहर तरह से शुष्क उसके जीवन में यह सब मौसम की पहली बारिश-सा सरस,सुंदर था. इनसे बूंद-बूंद तर हो कर वह मिट्टी की तरह सौंधी महक से भर उठी.

उसे उसकी कई बातें अनिमेष की याद दिलाती थी. कभी वह भी इसी तरह की बातें किया करता था.इस एहसास ने उसे कहीं से शंकित भी कर दिया था. उसके लिए यह जानना जरूरी था कि संवेग एक हकीकत है,कोई आभासी दुनिया का छ्ली नहीं. निश्चिंत होने के लिए उसने उसे तरह-तरह से परखा था. उससे फोन पर बात करने की जिद्द की थी. संवेग ने बात की थी. फिर उसने उससे कहा था जब अनिमेष उसके सामने हो तब उसे मैसेज करे. संवेग ने मैसेज किया था. अब गीतिका हर तरह से आश्वस्त हो गई थी संवेग के बारे में कि वह ना अनिमेष है ना कोई बहुरूपिया. इस विश्वास के साथ ही उसकी हर तरह की वर्जनाएं टूट गई थीं. वह संवेग के साथ पूरी तरह खुल गई थी. हर सुबह बेटे और अनिमेष के घर से निकलते ही वह चैट करने बैठ जाती. शाम बेटे को कराटे स्कूल छोड़ पार्क में बैठी-बैठी भी वह फोन,चैट में मगन रहती. रात देर तक चैट कर सुबह उठ नहीं पाती और सर दर्द,तबीयत खराब होने का बहाना बना पड़ी रहती. रस भीनी,मन की निसिद्ध इच्छाओं की बातें,कविताओं का आदान-प्रदान,तस्वीरें...देह की बातें करते हुये गीतिका वही सोलह साल की लड़की हो जाया करती थी जिसके लिए स्पर्श की कल्पना रोमांच के साथ एक कौतुक मिश्रित भय भी जगाया करती है. संवेग उसे ऐसी-ऐसी उत्तेजक तस्वीरें भेजता था जिन्हें देख कर वह रात भर सो नहीं पाती थी. धीरे-धीरे उसने भी अपनी निजी तस्वीरें,अंतर्वस्त्रों के साइज,कामनाओं का लेखा-जोखा उसे सौंप दिये थे.

अनिमेष कुछ हैरत,कुछ कौतूहल के साथ गीतिका में आए परिवर्तन देख रहा था. जाने इन दिनों उसका ध्यान किधर था. अपने में खोई-खोई रहती,घर की ओर भी उदासीन. तबीयत की बात कर दिन चढ़े तक सोई रहती है. आए दिन ऑफिस जाने से पहले उसे गोलू को भी स्कूल के लिए तैयार करना पड़ता है. लंच ब्रेक पर आ कर कई बार लांच नहीं मिलता. कुछ कहने जाओ तो काटने को दौड़ती है. कई बार ऑफिस में उसके खिलाफ शिकायत करने की भी धमकी दे चुकी है. बात-बात पर नारी अस्मिता और नारी के अधिकार पर भाषण शुरू कर देती है. कुछ समय से अपने रख-रखाव पर विशेष ध्यान देने लगी है. जन्म की आलसी शाम गिरने तक कई किलोमीटर चल आती है. फैशन का भी वही आलम. जब देखो किसी ना किसी ऑन लाइन स्टोर का कूरियर बॉय दरवाजे पर खड़ा है. हर दूसरे दिन फोन रिचार्ज करने का निर्देश भी!

ऑफिस में सब दबी जुबान बात करते. उसके फेसबुक पोस्ट्स उसके लिए खासा सर दर्द बन गए थे. खास कर सेल्फीस. नित नई मुद्रा और परिधान में. फॉटोशॉप की महिमा से एकदम स्नो व्हाइट! फिर वह हृदय विदारक विलाप,गीत,शेर,कवितायें... लोगचेहरे पर गंभीरता ओढ़ कर पूछते,अनिमेष बाबू! घर पर सब ठीक है ना?वह क्या जवाब देता. बस सब से बचता फिरता.

और एक दिन वह मेल आया था! देख कर वह सन्न रह गया था. गीतिका का किसी संवेग से हॉट चैट! पन्ना-पन्ना. साथ ही अंतरंग मुद्राओं और वस्त्रों में तस्वीरें! अपनी आँखों से देख कर भी वह विश्वास नहीं करना चाहता था मगर उनके निहायत निजी जीवन की बातें,तस्वीरें,विवरण उसे यकीन करने पर बाध्य कर रहा था. उसने उसी दिन गीतिका से सीधे-सीधे पूछा था. सुनते ही घर में बंद पड़ गई बिल्ली की तरह वह आक्रामक हो उठी थी. घबराहट और गुस्से में जाने क्या-क्या अनर्गल बोलती चली गई थी- उसका अकाउंट हैक किया गया है,यह उसे बदनाम करने के लिए किसी की चाल है आदि-आदि और अंत में चांटे से तिलमिला कर- अगर वह उसकी जिस्मानी जरूरतों को पूरी नहीं कर सकता तो उसे पूरा हक है कि वह किसी और से संबंध बनाए! सुनते हुये अनिमेष का धैर्य जवाब दे गया था और उसने उसे कई चांटे जड़ कर उसके माँ-बाप को फोन लगाया था.

अब गीतिका नर्म पड़ी थी और रोते हुये माफी मांगना शुरू कर दिया था कि उससे भूल हो गई. वह उसे एक मौका दे. आगे से ऐसा कभी नहीं होगा. स्कूल से लौट कर बेटा भी माँ को रोते हुये देख कर रोने लगा था. दोनों को इस तरह रोते देख अनिमेष वहाँ से चला गया था.

इसके बाद दिनों तक गीतिका चुप पड़ी रही थी. इस बीच अनिमेष अपने मोबाइल में उसका फेसबुक अकाउंट खोले उसकी गतिविधियों पर नजर रखने लगा था,उसे उसका पासवर्ड पता था ही. साथ ही वह उसका कॉल लॉग भी चेक करता. गीतिका का टेक्नॉलॉजी ज्ञान शुरू से शून्य था. हर बात के लिए वह अनिमेष या मुंबई में रहने वाली अपनी बहन पर ही निर्भर करती थी. अनिमेष देख रहा था कि अब वह कॉल लॉग,चैट मिटाने लगी थी और थोड़े ही दिनों बाद अपना फेसबुक पासवर्ड भी बदल लिया था. शायद अपने किसी फेस बुक शुभचिंतक या बहन के परामर्श से. मगर अनिमेष के फोन पर उसका फेसबुक खुला ही रह गया है इस बात का उसे एहसास नहीं था.

अनिमेष ने कहा था,अब अगर उसने एक भी गलत हरकत की,वह सभी को सच्चाई बताने पर बाध्य हो जाएगा. इस बात ने गीतिका को सहमा दिया था. अपने निजी जीवन में अब तक उसकी छवि एक सीधी-सादी घरेलू औरत की थी. जहां अनिमेष के उजले रंग,आकर्षक चेहरे और स्मार्टनेस के कारण लोग उसे तेज-तर्रार और अग्रेसिव समझते थे वहीं उसके साधारण रूप-रंग और स्थूल काया के लिए उसे घरेलू और सीधी-सरल. वह सबके स्नेह और सहानुभूति की पात्र थी- गीतिका जैसी सादा औरतें कभी कुछ गलत कर नहीं सकती! चालाक तो उसका पति है. देखते नहीं उसकी कंजी- भूरी आँखें,लच्छेदार बातें...

हाल ही में पायी हुई आजादी का स्वाद,शोहरत,तारीफ और रोमांस उससे भुल नहीं पा रहा था. वास्तविक जीवन में बस अकेलापन और उदासी थी,आभासी दुनिया में सब कुछ परीकथाओं-सा सुंदर,स्वप्निल! घर की दहलीज के भीतर वह एक माँ,हाउस वाइफ़,नेट के विंडों के पार एक सुंदर,सबके आकर्षण की केंद्र नायिका! अब रोटी पकाने,स्वेटर बुनने में उसका दिल नहीं लगता. अब वह जानती है,घर की चार दीवारी के बाहर हवा,धूप और रोशनी है. जिस वक्त वह बेटे को थपक कर सुलाने की कोशिश करती,उसका बेलगाम मन अपने काल्पनिक रेशमी बाल खोले अपने किसी प्रेमी के साथ तेज बारिश के बीच लंबी ड्राइव पर निकल जाता. बिस्तर पर पड़ी-पड़ी उसे संवेग के शब्द याद आते. गहरे विषाद के साथ जिस्म के रोएँ थियरा उठते. जाने उसने किस जन्म का बैर निभाया था! उससे चैट के दिनों में लगता था वह प्रेम में है. अब जानती है,वह बस भूख थी. जीवन के अकाल से उपजी सर्वग्रासी भूख!

सालों देह-मन की क्षुधा,अभाव के बीच वह किसी तरह जीती रही थी मगर संवेग ने इस तरह आ कर एक सूखे जंगल में आग लगा दी थी और अब यह आग दावानल बन गई थी. दिन-रात देह में कुछ धू-धू जलता है,मन भीगी लकड़ी-सा धुआँता रहता है. अपनी हताशा में वह रात-दिन फेस बुक पर रोती रहती. इसके पीछे उसके भीतर का अभाव तो था ही,साथ ही कहीं से एक डिफेंस मेकानिज़्म भी था-अनिमेष के किसी भी तरह के हमले के विरुद्ध अपनी सीधी-सादी और अच्छी औरत होने केछवि निर्माण की स्ट्रेटेजी!

दूसरी तरफ मैसेज बॉक्स में लुभावने निमंत्रणों के अंबार लगे रहते. अपनी बहन आदि से पूछ कर जब वह इस बात के लिए पूरी तरह आश्वस्त हो गई कि पासवर्ड बदलने के बाद अब उसका फेस बुक सुरक्षित है,वह फिर अपनी पुरानी दिनचर्या में लौट गई थी. सारी वर्जनाओं को तोड़ कर. वह जीना चाहती है और जीने के लिए कोई भी कोशिश नाजायज नहीं हो सकती!

विडम्बना यह कि इस बार उसे एक साथ दो लोगों से प्रेम हो गया! एक तेज तर्रार जर्नलिस्ट और दूसरा एक रेडियो जॉकि! जर्नलिस्ट की हिम्मत भरी बातों की वह दीवानी थी तो रेडियो जॉकि के जादू भरी आवाज की. दोनों फेस बुक पर चमकने वाली उसकी तस्वीरों पर फिदा थे. आवाज भी उसकी भारी और सांद्र थी. गीतिका की औरत को उनकी मर्दानगी आकर्षित करता था.

दोनों ने शुरू-शुरू के चैट में ही उससे शब्दों के माध्यम से जिस्मानी ताल्लुक स्थापित कर लिए थे. उनके सामने वह बिलकुल दुर्बल पड़ जाती. वे आते और उससे अपनी मनमानी कर चल देते. फोन पर भी वही सब. फोन रख कर उसे प्रतीत होता,वह हर तरह से रुँद्ध गई है. रेडियो जॉकि अपनी नशीली आवाज में जब कहता गुड नाईटी’,नाईटी के भीतर उसकी देह पिघलने लगती. जर्नलिस्ट से वह अपनी दुख भरी कहानी सुनाती और वह उसे एक दिन सारी तकलीफों से निजात दिलाने का वादा करता. अड़तालीस छूते-छूते एक बार फिर वह अपने कैशोर्य में लौट गई थी. कभी जर्नलिस्ट के वाल पर उसकी दूसरी प्रशंसिकाओं के साथ होड़ लेती तो कभी रेडियो जॉकि के साथ भीगी,सांद्र आवाज में देर तक बातें करती. मान-मनुहार,रूठना-मनाना...
सोलह साल की मुग्धा की तरह अभिसार में डरना,सिहरना,खुद को तुम्हारी पगलू दोस्तकहना... जर्नलिस्ट भावुक हो कर कहता,मुझे लग रहा है मैं तुम्हें अनिमेष से छिन रहा हूँ या मैं तो मर ही जाऊंगा अगर किसी दिन तुम कहो,रवीश,तुम भी देह से आगे बढ़ ना सके! जॉकि कहता,सब कुछ छोड़ कर मेरे पास आ जाओ...

वह बार-बार उनसे पूछती रहती,उनके चैट कहीं अनिमेष पकड़ तो नहीं पाएगा और दोनों उसकी मासूमियत पर मुस्करा पड़ते. उन दोनों की बातों से और फेस बुक के सैकड़ों लाइक्स,कमेंट्स से वह एक बार फिर खुद को मजबूत महसूस करने लगी थी. वह अकेली नहीं,कमजोर नहीं,सब उसके साथ है!

अनिमेष किसी तरह अपने गुस्से पर काबू रख कर गीतिका की हरकतों पर नजर रख रहा था. उसके सब्र की अब इंतिहां होने लगी थी. गीतिका से उसका मन फिर गया था मगर आज भी वह उसके बच्चे की माँ और उसका परिवार थी. हजार प्रलोभनों के बावजूद उसने कहीं और जा कर अपनी जरूरतों को पूरी करने की कोशिश नहीं की थी. गीतिका के प्रति सारे दायित्त्वों का निर्वहन भी उसने आज तक किया था. सामाजिक प्रतिष्ठा और बेटे की खातिर उसने गीतिका को उसकी पहली गलती के लिए माफ कर आगे बढ़ने का निर्णय लिया था. मगर गीतिका...!

रात के एक बजे अनिमेष के सामने गीतिका का फेसबुक खुला हुआ था. गीतिका अपने कमरे में बंद हो कर एक साथ अपने दो प्रेमियों के साथ हॉट चैट पर थी. एक उससे अपनी गोद पर बैठने के लिए इसरार कर रहा था तो दूसरा कहीं मिलने की योजना बना रहा था. पढ़ते हुये अचानक अनिमेष के भीतर एक विस्फोट-सा हुआ था और वह अपना सुध-बुध खो बैठा था. काँपते हुये उसने गीतिका के दरवाजे पर धीरे-से दस्तक दिया था और जैसे ही थोड़ा रूक कर उसने दरवाजा खोला था,उसे खींचते हुये ड्राइंग रूम के सोफ़े पर गिराया था और कई चांटे एक साथ तरातर जड़ दिये थे. इस आकस्मिक घटना से गीतिका सन्न रह गई थी और पूरा माँजरा समझ आते ही डर से पीली पड़ गई थी. मोबाइल अब भी उसके हाथ में था और चश्मा टूट कर दूर जा गिरा था.

इसके बाद वह रो-रो कर माफी मांगती रही थी मगर अनिमेष पर तो जैसे भूत सवार था. उसने एक-एक कर उसके सारे रिशतेदारों को,दोस्तों को फोन कर उसके बारे में बताया था और फिर उसे घर से बाहर धकेल कर पीछे से दरवाजा बंद कर लिया था. सीढ़ी पर बैठ रोते-रोते अचानक गीतिका की सांस रूक-सी गई थी. उसने विस्फारित आँखों से देखा था,बाहर चारों तरफ गहरा अंधकार था और तेज बारिश हो रही थी. दूर कहीं सियार की हूक सुनाई दे रही थी. अपने तमाम दोस्त,लाइक्स,कमेंट्स,इमोजी,स्माइली और फूल-पत्ते समेट कर जगमगाती आभासी दुनिया यकायक अन्तरिक्ष के असीम अंधकार में अंतर्ध्यान हो चुकी थी और पीछे बची रह गई थी वह- अकेली और असहाय! हाथ में मोबाइल पकड़े जिसका स्क्रीन बुझ कर काला पड़ चुका था.
12/10/2017)
_______

जयश्री रॉय
18 मई, हजारीबाग (बिहार)
एम. ए. हिन्दी (गोल्ड मेडलिस्ट), गोवा विश्वविद्यालय

अनकही, तुम्हें छू लूं जरा, खारा पानी, कायांतर, फ़ुरा के आंसू और पिघला हुआ इन्द्रधनुष, गौरतलब कहानियाँ (कहानी-संग्रह) औरत जो नदी है, साथ चलते हुये, इक़बाल, दर्दजा (उपन्यास), तुम्हारे लिये (कविता संग्रह) हमन हैं इश्क मस्ताना (सम्पादन - कहानी-संग्रह)

युवा कथा सम्मान (सोनभद्र), 2012, स्पंदन कथा सम्मान, 2017      
संपर्क : तीन माड, मायना, शिवोली, गोवा - 403 517
09822581137 / jaishreeroykathakar@rediffmail.com

रंग- राग : मौलिकता का आग्रह : अखिलेश

$
0
0

























प्रसिद्ध चित्रकार अखिलेश  हिंदी के अनूठे लेखक हैं. कलाओं पर उनका विशद लेखन हैं. अभी इसी वर्ष राजकमल प्रकाशन से ‘देखना’ शीर्षक से लेखकों और कलाओं पर उनकी टिप्पणियों की किताब प्रकाशित हुई है.  

मौलिकता क्या है ? अक्सर  इस पर एक उलझाव की स्थिति रहती है. कहा तो यह भी जाता है कि अब कुछ नया कहने को बचा नहीं है जिसे कहा नहीं जा चुका है.

ख़ासकर चित्रकला की दुनिया में मौलिकता के क्या मायने हैं ? और किस तरह से कला की तमाम पीढ़ियों ने अपने लिए इसे समझा और बरता है ? इस अर्थगर्भित आलेख में पीढ़ियों के तमाम अंतर्द्वंद्व भी सामने आते हैं.

यह लेख समालोचन के लिए है और यहीं प्रकाशित हो रहा है.  





मौलिकता का आग्रह                         

अखिलेश 

मौलिकता का आग्रह कलाओं मेंइन दिनों महत्वपूर्ण माना जाने लगा है. मैं अक्सर ये सोचता रहा हूँ कि मौलिकता क्या है? भरत नाट्यशास्त्र में कहा गया है सभी कलाएं अनुकृति हैं. याने  किसी के मौजूद होने की कल्पना पहले से है और अब ये जो सामने प्रस्तुत है ये उसकी नक़ल है. यदि ये सब कलाएं एक बड़े अर्थ में अनुकृति हैं तब इस अनुकृतियों में मौलिकता का स्थान क्या है? ये कलाएं किस तरह से अपने अनूठेपन को सम्बोधित हैं? वह क्या है जो मौलिक है?

कलाकृति जिसकी अनुकृति है उस पर थोड़ी देर ठहरे, यहाँ मैं अपने को सिर्फ चित्रकला पर केन्द्रित रखूँगा, किसी भी चित्र की कल्पना ही उसकी उत्पत्ति का कारण है. चित्र बनाने से पहले एक चित्रकार उसकी कल्पना में डूबा रहता है. यह कल्पना ही उस चित्र का मूल है और उसकी अनुकृति अक्सर उससे बहुत भिन्न होती है. यह भिन्न होना कल्पना और उसके सम्पादन का फर्क है.कल्पना का लगातार बदलते रहना एक कलाकार की मुश्किल है. कल्पना निष्पादन एक स्थूल क्रिया है जिसमें शारीरिक क्षमता शामिल है. विचार और क्रिया का मेल कभी नहीं हो सकता सभी कलाएं इसका प्रमाण हैं.

चित्रकला मेंअपनी तरह से चित्र बनाना कलाकार की मौलिकता की तरह देखा जा सकता है. एक लम्बे समय में जब वह इस लायक होता है कि अपने चित्र बनाने की प्रक्रिया को वह समझ सके, उसका चित्र बनाने की प्रक्रिया से तादात्म्य बन चुका है, अब प्रक्रिया उसका अंग बन चुकी है,तब तक शारारिक रूप से इतना थक चुका होता है कि उसी लीक पर चलते हुए अपना प्राण त्याग देता है.

यह लीक क्या है? उसके इतने सालों के काम को किस तरह देखा जाये क्या वह इस बात पर विचार भी कर सका कि उसे करना क्या है?क्या वह सिर्फ अनुकृति बनाने में संलग्न था?अधिकांशतः ऐसा नहीं पाया जाता है. चित्र में मौलिकता के प्रमाण के बरक्स यह दिखताहै कि चित्रकार पर किस चित्रकार का प्रभाव है.यह प्रभाव साथ में रह रहे दो कलाकारों का एक दूसरे पर भी हो सकता है. किसी प्रसिद्ध कलाकार का हो सकता है. परम्परा से चले आ रहे किसी वाद या शैली का हो सकता है.उसके शिक्षक का प्रभाव भी हो सकता है.इस तरह के सभी प्रभाव को नक़ल कह दिया जाता है.

चित्रकार एक संवेदनशील प्राणी है और वह खुलकर देखता है. अपने पूर्ववर्ती के कामों से प्रभावित होकर प्रेरणा पाता है. चूँकि वह अतिरिक्त रूप से संवेदनशील है तो शायद उस पर अपने देखने  का प्रभाव भी गहरा पड़ता है. जाने-अनजाने देखे गए रूपाकार उसके काम में उतर आते हैं और वह  उसे ही अपनी सर्जना मानने लगता है. उसके आस-पास ऐसे लोग भी नहीं होते कि वे इस तरफ इशारा कर सके. अक्सर उन लोगो से घिरा रहता है जिनका कला से कोई वास्ता नहीं होता. यदि किसी ने नक़ल कह दिया तब वह उसके दुश्मन से कम नहीं होता. वह एक छद्म  आवरण अपने इर्द-गिर्द कस लेता है और इस नक़ल में सुरक्षित महसूस करते हुए उसका चित्रकारीय जीवन समाप्त हो जाता है.

इसे मैं कई तरह से देखता हूँ. मुझे ये सुअवसर मिला कि मैं चित्रकला की पिछली तीन पीढ़ी के साथ सीधा सम्बन्ध बना पाया जिसमें मेरी सबसे बड़ी सहायता मेरी प्रवृति ने की.इन सभी  पीढ़ी के साथ मेरे सम्बन्ध एक भटके हुए युवा चित्रकार के रहे और इनसे कभी मैंने किसी तरह का कोई लाभ उठाने की कोशिश नहीं की सम्भवतः इसीलिए इन सबसे जीवन्त सम्बन्ध बन सका.विषयांतर जरूरी लगता है सो मैं किये जा रहा हूँ,एक युवा चित्रकार की तरह मैं इनसे सहमत होने के बजाय असहमत ज्यादा रहा किन्तु अपनी सीमा का अतिक्रमण कभी नहीं किया. स्वामीनाथनके साथ बारह साल काम किया और अब पलट कर देखता हूँ तब पाता हूँ कि हमेशा मैंने उनसे एक चित्रकार की तरह ही बात की न कि उनके निदेशक होने को तवज्जो दी. हुसैन, रज़ा से हमेशा ये बहस चलती रही कि सूजाका भारतीय चित्रकला में कोई योगदान नहीं है जिससे वे दोनों असहमत रहते थे और अपनी तरह से मुझे समझाने की कोशिश करते रहे.किन्तु मेरी बातों का कोई जवाब भी नहीं होता था उनके पास.इस मौलिकता के आग्रह पर सूजा से बढ़िया उदाहरण और कोई न होगा. सूजा जो अपने शुरूआती दिनों से अत्यंत विद्रोही स्वभाव के कारण हर पारम्परिकता को प्रश्नांकित कर स्वीकार अस्वीकार करते रहे. हर चलन को अस्वीकार करने का आक्रामक ढंग हुसैन और रज़ा के लिए आकर्षण का बड़ा कारण रहा. ये दोनों उस वक़्त के मध्यप्रदेश से आये थे और इन दोनों का ही आधुनिक साहित्य और विचारधारा में वैसी गति न थी जैसी सूजा की रही.

सूजा उस वक़्त के आदर्श के रूप में इन दोनों के सामने था बल्कि और भी कलाकार जो उससे मिलता प्रभावित हुए बगैर नहीं रहता. सूजा ने गुप्तकालीन शिल्पाकृति को चित्रों में जगह देने सेअपनी शुरुआत की और शायद पचास के दशक में यूरोप चले जाना ही सूजा के अंत का प्रारम्भ था. वहाँ पिकासो के चित्र देखने के बाद सूजा सूजा नहीं रहा.सूजा जो जीवन भर पिकासो की नक़ल करता रहा शायद इसी कारण बड़ा योगदान करने से वंचित रहा आया.वह क्या बात थी जिसने सूजा को अपनी मौलिकता तक नहीं पहुँचने दिया?

सूजा का उदहारण इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि उनकी तरह का कोई चित्रकार नहीं हुआ जो अपने साथी कलाकारों को उत्प्रेरित करे और उस वक़्त,आजाद हिन्दुस्तान के युवा चित्रकारों में जोश और उत्साह जगा सके कि वे इस आजादी के मूल्य को समझकर आजाद मुल्क में अपना योगदान दे सके. सूजा की तरह का बौद्धिक रूप से हस्तक्षेप करने वाला दूसरा कोई नहीं है. सूजा की यह ताकत ही पहले उसकी कमजोरी बनी बाद में कुण्ठा. सूजा के जगाये अलख का लाभ हुसैन और रज़ा को मिला जिन्होंने इस बात को समझा और अपनी तरह से उस राह पर चल दिए जो उन्हें उनके स्वभाव तक ले गया और इसी कारण आज़ादी के पचास साल बाद जब सूजा को यह दिखता है, जो इतना समझदार तो था कि अपने अच्छे बुरे को समझ सके, कि  संवेदनशील होने के कारण कभी पिकासो के योगदान को अपने चित्रों से बाहर नहीं निकाल पाया. ऐसा नहीं था कि हुसैन,रज़ा पर कोई प्रभाव नहीं था वे भी शुरूआती दौर में इन सबसे गुजरे और अपनी राह में आने वाले हर प्रभाव से मुक्त होते चले, कि इन दोनों से ज्यादा बौद्धिक और कर्मयोगी होने के बावजूद भी उसका कोई प्रभाव भारतीय चित्रकला संसार पर नहीं छूटा तब उसने उन बचकाने बयानों का सहारा लियाजिसमें हिन्दुस्तान के दस महान कलाकारों की सूची घोषित करता है और एक से दस तक सूजा का ही नाम रहता है. जिससेउन्हें कोई फ़ायदा नहीं हुआ.

कुछ अज्ञानतावश या कुछ कृतज्ञता के चलते सूजा को योगदानी के रूप में हम स्वीकार करते रहेंगे किन्तु भीतर कहीं दूर ये भी पता रहता है कि उन्होंने बहुत कुछ किया फिर भी हो न सका. सूजा अपने होने में एक उदहारण की तरह थे किन्तु चित्रकार के रूप में पिकासो की सस्ती नक़ल तक रहने के कारण उनके योगदान की कोई जगह नहीं बन सकी. सूजा के सृजन में इसे क्या मौलिकता की कमी की तरह देखे? सूजा का चित्र बनाने में भी आवेश का समावेश था और वो दिखता था.अक्सर उनकी आकृतियाँ उस गुप्तकालीन शिल्पों के सौन्दर्य को समेटे रही जिनकी लालसा सूजा की प्रेरणा थी. गुप्तकालीन आकृतियाँ भी पिकासो के गड्डे में जाकर ही लुप्त होती रही.

सूजा के चित्रों में जिस मौलिकता की तरफ इशारा है उसका कुछ हल्का सा प्रमाण पचास के दशक के प्रारम्भ की कलाकृतियों में दीखता है, दिखता है सूजा उससे दूर जाते हुए. सूजा के चित्र में जो नहीं दिखता है वोapproachहै.चित्रकार का स्वभाव उसके स्पर्श से प्रकट होता है. वो रंग को कैसे छूता है, ब्रश को किस तरह बरतता है, रंग को कैनवास पर कैसे उतारता है?दो रंग किस तरह पास पास लगाता है उसमें कौन सा सम्बन्ध बिठाता है.ये जो पहुँचहै ये उसके स्वभाव से संचालित होती है.ये स्वभाव उसके अनुभव को बटोरे हुए है. ये अनुभव उसके देखने का प्रमाण है.अब यदि कोई चित्रकार अपने स्वभाव को समझने के रास्ते बन्द कर दे और पूर्ववर्ती की तरह रंग लगाने की कोशिश करे तब जान देकर भी नहीं सीख सकता.उसे अनुभव नहीं होगा वो दृश्य जो उसका देखना है जिसमें उसकी कल्पना साँस ले रही है.सूजा अपने मौलिक स्वभाव के कारण ज्यादा जाने गए. उनका मताग्रही होना उन्हें अपने समकालीनो से अलग करता है किन्तु ये अनूठापन उनके चित्रों में आने से बच  गया. एक तरफ सूजा बेहद सजग, असम्मत, विद्रोही स्वभाव के हैं दूसरी तरफ उन्होंनेपिकासो के चित्रों के सामने घुटने टेकदिए.

किसी भी कलाकार की मौलिकता उसके देखने में है वो किस तरह संसार को देखता है और उसका क्या रूप उसके चित्र में बन रहा है. वह उसमें परम्परा को, साभ्यतिक समझ को, सांस्कृतिक परिवेश को, अपनी आधुनिक समझ से पुनर्परिभाषित करता है. ये परिभाषा उसके स्पर्श से बन रही है. उसका देखना उसे ही अचम्भे में डाल देता है. इसी देखने को सम्बोधित हैं सभी कलाकार और पिकासो जैसे कुछ विलक्षण कलाकार अपने देखने को लोगों के इतना पास ले आते हैं कि उनका देखना बन जाता है. सभी दृश्य अचम्भे से भरे हैं इसीलिए चित्रकला में दोहराव की जगह सम्मानीय नहीं है फिर अनेक चित्रकार इस दोहराव में अचम्भा भरने का दम रखते हैं ये उनके देखने की विशेषता है.      

वापस लौटें, हुसैन, रज़ा, बाल छाबड़ा, पारितोष सेन वाली पीढ़ी उसके बाद स्वामीनाथन, अम्बादास, एरिक बोवेन, ज्योति भट्ट, जेराम पटेल वाली पीढ़ी बाद में मनजीत बावा, लक्ष्मा गौड़, बिकास भट्टाचार्य, प्रभाकर कोल्ते, प्रभाकर बर्वे वाली पीढ़ी. इन सबमें बहुत अन्तर था.ये सब मौलिक हैं और इन सबने एक लम्बा समय गुजारा समकालीन कला का रूप सँवारने में. हुसैन वाली पीढ़ी बहुत ही जिन्दादिल और एकाग्र और एक दूसरे के कामों की सख्त आलोचक. आपस में लड़ना झगड़ना और अपनी बात साफ़ साफ़ रखने के अलावा जो सबसे खूबसूरत बात इन सबमें थी वो एक दूसरे की चिन्ता करना, ध्यान रखना, समय आने पर बिना बताये मदद करना. मान अपमान से परे अपने सम्बन्धो को बरतते थे और कभी एक दूसरे से नाराज ज्यादा दिनों तक नहीं रह पाते थे. सभी मौलिक हुए भरपूर प्रभावों के साथ अपना अस्तित्व बनाये रखा.इन सभी का देखना अद्वितीय है.

मैं यहाँ इस बात पर भी विचार कर रहा हूँ कि कलाकारों के बीच का आपसी संवाद उनके रचनात्मक संसार मेंएक बड़ी भूमिका निभाता है. स्वामीनाथन वाली पीढ़ी भी कमोबेश इसी तरह की थी जिसमें उनके बीच संवाद लगातार और आपसी लेन-देन येन प्रकारेण होता रहा. इनके सभी के बीच कुछ समय का साथ रहा किन्तु ये सब वे लोग थे जिनका संसार आज़ादी के बाद का है और ये सभी चित्र बनाने के साथ साथ किसी न किसी नौकरी में भी अपना समय गवां रहे थे. विद्रोही उतने ही जितने इनकी पहली पीढ़ी के लोग.किन्तु इनके विद्रोह में ठहराव भी था.स्वामीनाथन इस दौर के बौद्धिक-केन्द्र रहे और उन्होंने अपनी तरह उस भारतीयता को नकारा जिसका आग्रह उनकी पिछली पीढ़ी का रहा.स्वामी के लिए भारतीयता नाम की कोई चीज न थी जिसे चित्रों में पाने कि कोशिश करनी है. उनके लिए खुद की तरह चित्र बनाना ही भारतीय होना है. इन लोगो में भी बहुत से प्रभाव और आपसी लेन देन चलता रहा किन्तु धीरे धीरे सभी अपनी राह पर चलें. इन सबके कामों में भारतीय चित्रकला का नया रूप नज़र आता है जिसमें परम्परा से लेकर आधुनिकता तक सभी अंगो को लेकर मुक्त विचार और सम्बन्ध दिखाई देता है. ये लोग भी एक दूसरे के प्रति उत्सुक और सहानुभूति भरे थे. एक दूसरे का ख्याल करना, सम्बन्धो में वैचारिक मतभेद के बाद भी टूटन न आने देना और आलोचना करना आदि सभी उस जीवन्त स्तर पर न रहा जैसी इनके पहली पीढ़ी में था, किन्तु खूब था.

इसके बाद वाली पीढ़ी अपने काम में मस्त और अब उन सभी विवादों, कला सम्बन्धी प्रश्नों से मुक्त रही जो इनके पहले वाली पीढ़ी की समस्या रही. ये सभी कलाकार वैयक्तिक रूप से बेहद प्रतिभावान और कर्मठ रहे. अपने स्टूडियो में बैठकर पूरी दुनिया से कटे इनका सृजन सभी को आकर्षित करता रहा और इन सबने अपने काम से भारतीय चित्रकला में वैयक्तिकता की तरफ़ ध्यान केन्द्रित किया. सभी चाक-चौबंद अपने संसार में डूबे यदा-कदा कभी कहीं मिलने पर खुलूस से मिलना और उस शाम को एक यादगार शाम में बदलना इन सबका गुण रहा. किन्तु यहाँ एक बात और लक्ष्य करने की है कि ये सब अपने साथी कलाकार के काम के बारे चुप्पी धारण किये रहे. शायद ही किसी ने कभी किसी दूसरे के काम पर कोई टिपण्णी की. यदि हुई भी है तो वो नगण्य सी है.एक दूसरे के कामों की आलोचना बहुत दूर की बात थी.यहाँ से भारतीय कला का का एक नया रूप शुरू होता दिखाई देता है इसमें कलाकार अपने साथी कलाकार के काम के बारे में चुप हैं. इनके बीच झगड़े का कारण चित्रकला नहीं रहा. कुछ जगह तो इर्ष्या की आग भी जलती  दिखाई देती है. एक दूसरे का ध्यान औचक ढंग से रखा जाने लगा. सम्बन्ध उतने जीवन्त नहीं हैं. ये सब आजाद हिन्दुस्तान में पैदा हुए हैं और आज़ादी का नया रूप कला में प्रकट हो रहा है जिसमें उतना भाईचारा नहीं दीखता जितने की जरूरत है. इन सभी के सरोकार सिर्फ कला रही और उसके तत्व जहाँ भी इन्हें अपने उपयुक्त लगे उठा लिए. परम्परा से गहरा नाता और उसे आज के समय में पुनर्परिभाषित करने का माद्दा भी इन लोगो में रहा. सभी कला के इस मौलिक अनूठेपन से अनजाने प्रभावित, संचालित रहे.

विष्णुधर्मोत्तरपुराण में लिखा है कि सभी कलाओं में चित्रकला सर्वश्रेष्ठ है. ये बात मुझे नागवार इसलिए लगी कि भारतीय मिथकों में कभी उच्चावचन देखने को नहीं मिला और यहाँ पहली बार किसी एक कला को सर्वश्रेष्ठ बताया जा रहा है. मेरे लिए हमेशा संगीत ऐसी विधा रही जिसे मैं इन कारणों से श्रेष्ठ मानता रहा कि ये नैसर्गिक है और इसमें किसी तरह की बाहरी बाध्यता नहीं दिखायी देती. गला है आप गा सकते हैं और कान है सुन सकते हैं, बाकि सभी कलाओं के लिए बाहरी साधन की दरकार है तब चित्रकला सर्वश्रेष्ठ कैसे? उसका कोई कारण भी नहीं दिया. उन्होंने आपके लिए विचार करने को एक सूत्र दे दिया.इस विचार करने पर मुझे कई कारण मिले जो इस बात के पक्ष में खड़े दिखते हैं.एक कारण मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित करता है वह चित्रकार का एक ही समय में सर्जकऔर दर्शकहोना है.जब वह पूरी तरह से विषयी है ठीक उसी वक़्त वो उससे बाहर है. यह सुविधा अन्य कलाओं में सम्भव ही नहीं है. नर्तक अपने को नृत्य करते कभी नहीं देख सकता. चित्रकला में यह सुविधा है कि जिस वक़्त आप अन्दर हैं उसी वक़्त बाहर भी. objectiveऔर subjectiveएक साथ होना दुर्लभ है. इस विषयी होने और न होने को महसूस करना सम्भव नहीं है. आज के अधिकांश कलाकार इस पर विचार इसलिए नहीं कर पाते कि उनका कला कर्म कर्ता भाव का है.वे बाहर ही हैं.  

मैं देखता हूँ और कई युवा कलाकारों से लगातार मिलता भी रहता हूँ कि उनमें इस देखनेका, objective होने का माद्दा ही नहीं है. उन्हें खुद पता नहीं होता कि उनका कौन सा चित्र अच्छा है. वे सिर्फ रंग लगाने का काम कर रहे हैं.बिना विचारे रंग का इस्तेमाल भी उन रंगों में रंगीनियत नहीं ला पाता. ऐसा नहीं है कि सभी के साथ यही होता है कुछ हैं जो इस बात को नहीं समझते किन्तु अपने चित्र के साथ सम्बन्ध बनाये रखते हैं. इस तरह वो यहाँ तक पहुँचने का द्वार खुला रखे हैं. यह देखनाचित्रकला में महत्वपूर्ण इसलिए भी है कि चित्र बनाते वक़्त भी देख रहे होते हैं. इस देखने में ही उसका गुण प्रकट होगा. दूसरे के चित्रों को देखकर भी पता लगता है कि इस रास्ते नहीं जाना है.

विष्णुधर्मोत्तर पुराण के सन्दर्भ में दूसरी बात जो मुझे सूझी वो यह है कि चित्रकला का कोई व्याकरण नहीं है. अन्य सभी कलाएं व्याकरण जानने पर ही साधी जा सकती हैं. यह एक ऐसा पक्ष है जो कलाओं के स्वभाव से मेल खाता है. कलाएं भविष्योन्मुखी हैं उनका सन्दर्भ भूतकाल नहीं भविष्यकाल है, ‘कैसा थाकि जगह कैसा होगाइस पर जोर रहता है. इस तरह चित्रकला का गंतव्य हमेशा भविष्य ही रहा. नए चित्रकार के लिए ये समझ पाना जरा मुश्किल होता है. चित्रकला अपने पुराने स्वरुप को भी कुछ इस तरह प्रस्तुत करती है कि देखना अनुभव बन जाता है. चूँकि इसका कोई व्याकरण नहीं है अतः चित्रकार पर दोहरी जिम्मेदारी इस बात की आ जाती है कि भले ही वो आरम्भ कहीं से भी करें उसे अपना व्याकरण बनाना ही होगा. उसके लिए ये समझना मुश्किल होता है और ज्यादातर यही होता आया है कि किसी दूसरे चित्रकार के अधूरे व्याकरण की समझ से चित्र बनाते हुए वह परलोक सिधार जाता है और उसे पता नहीं लगता कि उसका ये जीवन व्यर्थ गया. इसे एक उदहारण से समझना ज्यादा आसान रहेगा हुसैन का व्याकरण के.सी.एस. पणिक्कर के लिए किसी काम का नहीं है.’उसमें किया गया सारा काम हुसैन की नक़ल ही कहलायेगा जिस तरह सूजा के जीवन भर का काम पिकासो के नाम समर्पित रहा आया. सूजा का स्फूर्त चित्रण, उर्जा, वैचारिक प्रतिबद्धता, नए का आग्रह, बदलाव की कोशिश आदि सभी पिकासो के व्याकरण की भेंट चढ़ गया. सूजा अपनी बौद्धिकता के चलते वह  सबकुछ कह गए जो एक चित्रकार के सन्दर्भ में अब व्यर्थ है और जो रचना था, जिस व्याकरण की तरफ उन्हें जाना था वही रह गया.

एक चित्रकार जब अपना जीवन शुरू करता है तब उसके पहले का चित्रित संसार उसके सामने मौजूद है कि इस राह पर विद्वतजन चल चुके हैं और इनका बनाया व्याकरण भी सामने है इस उदहारण कि तरह कि इस राह पर चलने के ख़तरे नक़ल भरे हैं फिर वो क्या बात है जो उसे उकसाती है इस तथ्य को नज़रन्दाज करने को? ‘अक्षमतासबसे पहले तो यही ख्याल आता है.यह अक्षमता इस बात की भी है कि वह चित्रकला को भावाभिव्यक्ति का साधन मान रहा है. चित्रकला को साधन मान कर बरतना उसे उसके स्वभाव के विरुद्ध देखना है. उसका स्वभाव ही उसे साधन होने नहीं देता. चित्र कल्पना से उपजाते हैं और कल्पना में नक़ल की जगह नहीं हो सकती. कल्पना अक्सर उन्ही वस्तुओं, जगहों, हालातों, छवियों की होगी जो अप्राप्य हैं जिन्हें पाया नहीं जा सकता जिन्हें उसी कल्पना में खोया जा सकता है.कल्पना भी उसी की है जो अजूबा है.चित्र उस अजूबे को पकड़ने की कोशिश है अप्राप्य को पाने की बल्कि उस असम्भव को सम्भव करने की जिसमें चित्रकार अक्सर निष्फल ही रहने वाला है. यह निष्फलता उसका नैरन्तर्य है.

यहाँ अन्य कलाओं की तरह अपने उस्ताद को उदहारण की तरह नहीं बरतना है न ही उसे आशामानना है. अपने चित्रों में उसका निषेध ही सही राह और सही शिक्षा है. एक ख़राब शिक्षक के छात्र उसकी नक़ल करेंगे और वह कभी नहीं बता पायेगा कि इस राह नहीं जाना है. एक ख़राब चित्रकार, अब मैं उसे ख़राब किस आधार पर कहूँ, एक चित्रकार जानता है कि उसे क्या करना है, जो चित्रकार नहीं है वो नक़ल का रास्ता चुनता है जिस पर चलना व्याकरण बनाने के परिश्रम से कहीं ज्यादा आसान काम है. इस तरह वो कभी उस मौलिक स्वभाव का रस नहीं चख पाता जो सृजन के श्रम से उत्पन्न हो रहा है.यहाँ सूजा को याद किया जाना जरूरी है कि सूजा सक्षम था वैचारिक रूप से और समझने समझाने के लिए फिर भी ये न हो पाया. बौद्धिक रूप से मजबूत सूजा भी संवेदनशील होने के कारण अपने ऊपर आये प्रभाव से जीवन भर मुक्त नहीं हो सका. भारतीय कला संसार का एक और दुर्भाग्य यह कि उसमें कला आलोचक नहीं हैं. कला समीक्षक भी नहीं हैं. कुछ कला सूचना देने वाले हैं कुछ अंग्रेजी भाषा का ज्ञान प्रकट करने वाले और कुछ अहंकारी हैं दावा करने वाले,किन्तु कोई नहीं है जो कला पर लिख सकने की क्षमता रखता हो,इन सबमें वो समर्पण नहीं दिखता जो एक बड़ी भूमिका निभाने के लिए उन्हें उकसाता हो. आनन्द कुमार स्वामी या मुल्कराज आनन्द जैसे समर्पित,तीक्ष्ण नज़र रखने वाले, मताग्रही,रूचि रखने वाले विद्वान इस आजाद मुल्क में आजाद हो गए और अबकेट्लौग या एक लेख लिखने तक सीमित रह गए.जिसमें भी अंतर्दृष्टि नहीं दिखाई देती. इस तथ्य से मैं भी उस मौलिकता का बखान नहीं कर सकता जिसका आग्रह चित्रकला का प्रथम लक्षण है.

मौलिकता के तत्व उसी परम्परा में हैं जिससे कला का प्रादुर्भाव हुआ. यदि हमें अपने सांस्कृतिक सन्दर्भों में रेखांकन की मौजूदगी को  लक्ष करना है तब भीमबैठिका काउदहारण हमारे सामने है. अंजता का उदहारण इस बात का भी है कि फ़लक के चुनाव में कोताही नहीं की जा सकती. विषय की गम्भीरता और विशालता के अनुरूप उसका फैलाव और उसकी निरन्तरता के लिए तैयार की गई गुफाओं में किया गया चित्रणदेखते बनता है. लघु-चित्रों के प्रमाण इस संसार के विराट स्वरुप को असम्भव रूप से दर्शनीय बनाने का भी है. ये सभी उदहारण अनुभव के उदहारण हैं.चित्रकार के देखने के उदहारण हैं. कल्पना और उसके प्रकटन के उदहारण हैं. असम्भव को सम्भव करने के उदहारण हैं.इनमें दर्शक बिला जाता है उसके सामने अद्भुत कल्पना का असीमित अनुभव संसार प्रस्तुत होता है जिसमें उसका अस्तित्व महसूस नहीं होता.वह रस के उस सागर में गोता लगा रहा होता है जो विस्मय और आकस्मिकता से परिपूर्ण है.भारतीय चित्रकला के इन विभिन्न रूपाकारों में संस्कार और मौलिकता के अनेक ऐसे बिंदु हैं जो किसी भी कलाकार के लिए प्रेरणा हो सकते हैं.

इसी मौलिकता तक पहुँचने का प्रयास शायद हर चित्रकार का होता होगा.  

____________________

बोली हमरी पूरबी : रुद्र मुहम्मद शहीदुल्लाह : (अनुवाद : सुलोचना वर्मा और शिव किशोर तिवारी )

$
0
0





हमारे आस –पास हमारी अपनी भाषाओँ में कितना कुछ लिखा जा रहा है, हिंदी को सबकी खोज खबर रखनी चाहिए. शिव किशोर तिवारी लगातार प्रमाणिक रूप से बांग्ला, असमिया आदि भाषाओँ से हिंदी में अनुवाद कार्य कर रहे हैं. आप समालोचन पर ही शंख घोष, समीर तांती आदि की कविताओं के उनके अनुवाद पढ़ चुके हैं. 

आज खास आपके लिए रुद्र मुहम्मद शहीदुल्लाह की दस कविताओं का अनुवाद प्रस्तुत है. बांग्ला से सुलोचना वर्मा और शिव किशोर तिवारी ने इन्हें हिंदी में अनूदित किया है. 






"16 अक्तूबर को बांग्लादेशी कवि रुद्र मुहम्मद शहीदुल्लाह (1956-1991) का जन्मदिन था. हिंदी में अनूदित ये कविताएँ उसी दिन प्रकाशित होनी चाहिए थीं पर मेरे आलस्य और प्रमाद के कारण विलंब हो गया. मेरी सह अनुवादक सुलोचना वर्मा ने अपने हिस्से का काम समय से पूरा कर लिया पर मैं न कर पाया.

शहीदुल्लाह ने 1970 के दशक में लिखना शुरू किया. अस्सी के दशक में उनके बराबर लोकप्रिय कवि बांग्लादेश में दूसरा नहीं था. मुख्यत: उन्होंने क्रान्ति और प्रेम को अपना विषय बनाया. चयनित कविताओं में प्रेम कविताएँ भी हैं, विद्रोह की कविताएँ भी. उनकी सर्वाधिक प्रसिद्ध प्रेम कविता ‘आमार भितरे बाहिरे अन्तरे अन्तरे’(1991) है जिसका अनुवाद यहाँ दिया गया है. यह कविता कदाचित् तसलीमा नसरीन को संबोधित है जो 1982 और 1986 के बीच उनकी पत्नी थीं. विद्रोही कविताओं में यहाँ अनूदित ‘बातासे लाशेर गन्ध’ कविता बड़ी लोकप्रिय है.

34 वर्ष की अल्प आयु में शहीदुल्लाह ने बहुत लिखा. उनके सात प्रकाशित काव्य-संग्रह ये हैं –

1.          उपद्रुत उपकूल (क्षुब्ध तट)
2.         फिरे चाइ स्वर्णग्राम (स्वर्ण ग्राम वापस चाहिए)
3.         मानुषेर मानचित्र (मानव का मानचित्र)
4.          छोबल (दंश)
5.          गल्प (कहानी)
6.          दियेछिले सकल आकाश (दिया था तुमने सारा आकाश)
7.          मौलिक मुखोश (असली मुखौटा)

रुद्र मुहम्मद शहीदुल्लाह ने आजीवन क्रांतिकारी आंदोलनों में हिस्सा लिया. वे जनतंत्र, समता और धर्म-निरपेक्षता के पक्ष में सदा सक्रिय रूप में लड़ते रहे. कवि के जन्मस्थान ब’रिशाल में प्रत्येक वर्ष उनके जन्मदिन पर एक राष्ट्रीय समारोह ‘रुद्रमेला’ आयोजित होता है."

शिव किशोर तिवारी 




रुद्र मुहम्मद शहीदुल्लाह                            






(सुलोचना वर्मा द्वारा अनूदित)


१. दूर हो दूर

नहीं छू पाया तुम्हें, तुम्हारी तुम्हें 
उष्ण देह गूँथ-गूँथ कर इकठ्ठा किया सुख 
परस्पर खनन कर-करके ढूँढ ली घनिष्ठता,
तुम्हारे तुम को मैं छू नहीं पाया.

जिस प्रकार सीप खोलकर मोती ढूँढते हैं लोग
मुझे खोलते ही तुमने पायी बीमारी
पायी तुमने किनारा हीन आग की नदी.

शरीर के तीव्रतम गहरे उल्लास में
तुम्हारी आँखों की भाषा पढ़ी है सविस्मय
तुम्हारे तुम को मैं छू नहीं पाया.
जीवन के ऊपर रखा विश्वास का हाथ
कब शिथिल होकर तूफ़ान में उड़ गया पत्ते सा.
कब हृदय फेंककर हृदयपिंड को छूकर
बैठा हूँ उदासीन आनन्द के मेले में

नहीं छू पाया तुम्हें, मेरी तुम्हें,
पागल गिरहबाज कबूतर जैसे नीली पृष्ठभूमि
तहस-नहस कर गया शांत आकाश का.
अविराम बारिश में मैंने भिगोया है हिया

तुम्हारे तुम को मैं नहीं छू पाया .




२. एक गिलास अंधकार हाथ में

एक गिलास अंधकार हाथ में लिए बैठा हूँ.
शून्यता की ओर कर आँख, शून्यता आँखों के भीतर भी
एक गिलास अंधकार हाथ में लिए बैठा हूँ.
विलुप्त वनस्पति की छाया, विलुप्त हिरण.
प्रवासी पक्षियों का झुण्ड पंखों के अन्तराल में
तुषार का गहन सौरभ ढोकर नहीं लाता अब.

दृश्यमान प्रौद्योगिकी की जटाओं में अवरूध्द काल,
पूर्णिमा के चाँद से झड़कर गिरती सोने सी बीमारी .
पुकार सुन देखता हूँ पीछे - नहीं है कोई.
एक गिलास अंधकार हाथ में लिए बैठा हूँ अकेला....
समकालीन सुन्दरीगण उठकर जा रही हैं अतिद्रुत
कुलीन शयनकक्ष में,
मूल्यवान असबाब की तरह निर्विकार.
सभ्यता देख रही है उसके अंतर्गत क्षय
और प्रशंसित विकृति की ओर.

उज्जवलता की ओर कर आँख, देख रहा हूँ-
डीप फ्रीज में हिमायित कष्ट के पास ही प्रलोभन,
अतृप्त शरीर ढूँढ ले रहे हैं चोरदरवाज़ा - सेक्सड्रेन.

रुग्णता के काँधे पर रख हाथ सांत्वना बाँट रहा है अपशिष्ट-
मायावी प्रकाश के नीचे गजब का शोरगुल, नीला रक्त, नीली छवि

जग उठता है एक खंड धारदार चमचमाता इस्पात,
खोपड़ी के अंदर उसकी हलचल महसूस कर पाता हूँ सिर्फ.

इसी बीच कॉकटेल से बिखरा परिचय, संपर्क, पदवी -
उज्जवलता के भीतर उठाता है फन एक अलग अंधकार.
भरा गिलास अंधकार उलट देता हूँ इस अंधकार में.





३. बतास में लाश की गंध

आज भी मैं पाता हूँ बतास में लाश की गंध
आज भी मैं देखता हूँ माटी में मृत्यु का नग्ननृत्य,
बलात्कृता की कातर चीत्कार सुनता हूँ आज भी तन्द्रा के भीतर....
यह देश क्या भूल गया वह दुस्वप्न की रात, वह रक्ताक्त समय ?
बतास में तैरती है लाश की गंध
माटी में लगा हुआ है रक्त का दाग.
इस रक्तरंजित माटी के ललाट को छूकर एकदिन जिन लोगों ने बाँधी थी उम्मीद
जीर्ण जीवन के मवाद में वो ढूँढ लेते हैं निषिद्ध अन्धकार,
आज वो प्रकाश विहीन पिंजड़े के प्रेम में जगे रहते हैं रात्रि की गुहा में.
मानो जैसे नष्ट जन्म की लज्जा से जड़ कुँवारी जननी
स्वाधीनता - क्या यह जन्म होगा नष्ट ?
यह क्या तब पिताहीन जननी की लज्जा की है फसल ?

जाति की पताका को आज पंजों में जकड़ लिया है पुराने गिद्ध ने.

बतास में है लाश की गंध
निऑन प्रकाश में फिर भी नर्तकी की देह में मचता है मांस का तूफ़ान.
माटी में है रक्त का दाग -
चावल के गोदाम में फिर भी होती है जमा अनाहारी मनुष्य की अस्थियाँ
इन आँखों में नींद नहीं आती. पूरी रात मुझे नींद नहीं आती -
तन्द्रा में मैं सुनता हूँ बलात्कृता की करुण चीत्कार,
नदी में कुम्भी की तरह तैरती रहती है इंसान की सड़ी हुई लाश
मुंडहीन बालिका का कुत्तों द्वारा खाया हुआ वीभत्स शरीर 
तैर उठता है आँखों के भीतर . मैं नहीं सो पाता, मैं नहीं सो पाता....
रक्त के कफ़न में मुड़ा - कुत्ते ने खाया है जिसे , गिद्ध ने खाया है जिसे
वह मेरा भाई है, वह मेरी माँ है, वह हैं मेरे प्रियतम पिता.
स्वाधीनता, वह मेरी स्वजन, खोकर मिली एकमात्र स्वजन -
स्वाधीनता - मेरे प्रिय मनुष्यों के रक्त से खरीदी गयी अमूल्य फसल .
बलात्कृता बहन की साड़ी ही है मेरी रक्ताक्त जाति की पताका.




४.खतियान

हाथ पसारते ही मुठ्ठी भर जाती है ऋण से
जबकि मेरे खेत में भरा है अनाज.
धूप ढूँढे नहीं मिलती है कभी दिन में,
प्रकाश में बहाती है रात की वसुंधरा.
हल्के से झाड़ते ही झड़ता है सड़ी हुई ऊँगली का घाम,
ध्वस्त होता है तब दिमाग का मस्तूल 
नाविक लोग भूलते हैं अपना पुकारनाम
आँखों में खिलता है रक्तजवा का फूल .
पुकार उठो यदि स्मृति सिक्त फीके स्वर में,
उड़ाओ नीरव में गोपनीय रुमाल को
पंछी लौटेंगे पथ चीन्ह चीन्ह कर घर में
मेरा ही केवल नहीं रहेगा चीन्हा हुआ पथ -
हल्के से झाड़ते ही झड़ जाएगी पुरानी धूल
आँखों के किनारे जमा एक बूँद जल.
कपास फटकर बतास में तैरेगी रुई
नहीं रहेगा सिर्फ निवेदित तरुतल
नहीं जागेगा वनभूमि के सिरहाने चाँद
रेत के शरीर पर सफेद झाग की छुअन
नहीं आएगा याद अमीमांसित जाल
अविकल रह जाएगा, रहता आया है जैसे लेटना
हाथ पसारते ही मुठ्ठी भर जाता है प्रेम से
जबकि मेरी विरहभूमि है व्यापक
भाग जाना चाहता हूँ - पथ थम जाता है पाँव में
ढक दो आँखें ऊँगली के नख से तुम.




५. यह कैसी भ्रान्ति मेरी

यह कैसी भ्रान्ति मेरी !
आती हो तो लगता है दूर हो गई हो, बहुत दूर,
दूरत्व की परिधि क्रमशः बढ़ा जा रहा है आकाश.
आती हो तो अलग तरह की लगती है आबोहवा, प्रकृति,
अन्य भूगोल, विषुवत रेखा सब अन्य अर्थ-वाहक
तुम आती हो तो लगता है आकाश में है जल का घ्राण.

हाथ रखती हो तो लगता है स्पर्शहीन करतल रखा है बालों में,
स्नेह- पलातक बेहद कठोर उँगलियाँ.
देखती हो तो लगता है देख रही हो विपरीत आँखों को,
लौट रहा है समर्पण नंगे पैरों से एकाकी विषाद - क्लांत होकर
करुण छाया की तरह छाया से प्रतिछाया में.
आती हो तो लगता है तुम कभी आ ही नहीं पायीं ...

कुशल क्षेम पूछती हो तो लगता है तुम नहीं आयीं
पास बैठती हो, तो भी लगता है तुम नहीं आयीं.
दस्तक सुनकर लगता है कि तुम आयी हो,
दरवाजा खोलते ही लगता है तुम नहीं आयीं.
आओगी जानकर समझता हूँ अग्रिम विपदवार्ता,
आबोहवा संकेत, आठ, नौ , अवसाद, उत्तर, पश्चिम
आती हो तो लगता है तुम कभी आ ही नहीं पायी.

चली जाती हो तो लगता है तुम आयी थीं,
चली जाती हो तो लगता है तुम हो पूरी पृथ्वी पर  







(शिव किशोर तिवारी द्वारा अनूदित)



६.                  मेरे बाहर, भीतर,अंतर के कोने-कोने में

मेरे बाहर,भीतर,अंतर के कोने-कोने में
ब्यापकर हृदय को
तुम्हारी उपस्थिति.
फूल की पंखुड़ी के परदे में
सोती हुई फ़सल-सा
कलेजे के निगूढ़ राजमार्ग पर
पदचारण तुम्हारा.
सीप के आवरण में पलती
मुक्ता के आनंद जैसा
भीतर के नील तट पर
तुम्हारा गहन स्पर्श.
सकुशल हूँ, सकुशल रहो तुम भी,
पत्र लिखना आकाश के पते पर,
दे देना अपनी माला
जोगी इस मन को.



७.                 अफ़ीम फिर भी ठीक है, धर्म तो हेमलाक विष है

जैसे ख़ून में जनमती है पीली बीमारी
और बाद में फूट पड़ता है त्वचा और मांस का बीभत्स क्षरण,
राष्ट्र के बदन में आज वैसे ही देखो एक असाध्य रोग
धर्मांध पिशाचों और परलोक बेचनेवालों की शक़्ल में,
धीरे-धीरे प्रकट हो गया है क्षयरोग,
जो धर्म कभी अँधेरे में रोशनी लाया था,
इस रोग से ग्रसित आज उसका कंकाल और सड़ा मांस
बेचते फिर रहे हैं स्वार्थपरायण बेईमान लोग –
सृष्टि के अज्ञात अंश को गप्पों से पूरते हुए.
अफ़ीम फिर भी ठीक है,धर्म तो हेमलॉक विष है.
धर्मांध के पास धर्म नहीं है, लोभ है, घिनौनी चतुराई है,
आदमी की धरती को सौ हिस्सों में बाँट रखा है
इन्होंने,क़ायम रखा है वर्गभेद
ईश्वर के नाम पर.
ईश्वर के नाम पर
दुराचार को जायज़ बना दिया है.
हाय री अंधता !हाय री मूर्खता!
कितनी दूर, कहाँ है ईश्वर!
अज्ञात शक्ति के नाम पर कितने नरमेध,
कितना रक्तपात,
कितने निर्मम तूफ़ान आये हज़ार सालों में.

कौन हैं वे बहिश्त की हूरें, कैसी जन्नत की शराब और
कैसा अंतहीन यौनाचार में निमग्न अनंत काल
जिनके लोभ में आदमी जानवर से बदतर हो जाय?
और कौन सा नरक है इससे अधिक भयावह,
भूख की आग सातवें नरक की आग से कुछ कम है?
वह रौरव की ज्वाला से कम आँचवाली, कम कठोर है?
इहकाल को छोड़कर जो परकाल के नशे में चूर हैं
उनका सब कुछ उस पार बहिश्त में चला जाय,
हम रहेंगे इस पृथ्वी की मिट्टी, पानी और आकाश में,
द्वंद्वात्मक सभ्यता के गतिमान स्रोत की धारा में,
भविष्य के स्वप्न में मुग्ध, समता के बीज बोते जायेंगे.
 




 ८.                 असमय शंखध्वनि

इतने हृदय की ज़रूरत नहीं,
कुछ शरीर, कुछ मांसलता की बहार भी चाहिए.
इतना स्वीकार, इतनी प्रशंसा का काम नहीं,
थोड़ा आघात, थोड़ी बेरुख़ी भी चाहिए, कुछ अस्वीकार.
साहस उकसाता है मुझे,
जीवन कुछ यातना की शिक्षा देता है,
भूख और सूखे के इस असमय में
इतने फूलों का काम नहीं.

सीने में घिन लिये नीलिमा की बात
उपास के मारे आदमी की मुश्किलात
किसी काम के नहीं, नहीं किसी काम के
करुणाकातर विनीतबाहुओ, घर लौट जाओ.

पथभ्रष्ट युवक, भुलावों-भरे अंधकार में रोओ कुछ दिन
कुछ दिन विषाक्त द्विविधा की आग में जलाओ अपने आप को,
अन्यथा धरती का मोह सुडौल नहीं हो पायेगा,
अन्यथा अंधकार की धार में बहोगे और कुछ दिन.

इतने प्रेम की ज़रूरत नहीं है
बेज़ुबान मुँह निरीह जीवन
नहीं चाहिए, नहीं चाहिए.

थोड़ा हिंस्र विद्रोह चाहिए थोड़ा आघात
ख़ून में कुछ गर्मी चाहिए कुछ उबाल,
चाहिए कुछ लाल तेज़ आग.



९.                  माधवी की अविश्वसनीय स्मृति

माधवी कल चली जायेगी.
उसके हाथ में फूलों को थमाकर बोला,
‘तुम भी फूल की तरह झड़ जाओगी?’
वह चुप, उदासीन.
कौए के पंख की तरह काले उसके नयन
क्षण भर में भर आये
पलकें काँपीं हौले से.

नये ख़रीदे ज्योमेट्री बाक्स के
चकमक कवर की तरह
उसकी आँखें आँसुओं से झिलमिलाने लगीं,
लाल किनारी वाली साड़ी जैसे उसके होठ,
बात करती तो लगता कोई गा रहा है
चिरपरिचित कंठ-स्वर में
सभा के अनुरोध पर.

उसके होठ काँपे
हलके हलके
ज़रा ज़रा
सिनेमा के मख़मली परदे की तरह.
मुझे जकड़ लिया उसने,
बच्चों की तरह रोई वो.
उसके लाल होठ बार-बार काँपे
वो बोली ‘तुझे कभी नहीं भूलूँगी’

लेकिन यही माधवी कहती थी
अकसर कहती,
स्मृति नाम की किसी चीज़ में
मुझे यक़ीन नहीं है.



१०.               चले जाने का मतलब छोड़ जाना नहीं है


चले जाने का मतलब छोड़ जाना नहीं है- न  कट जाना,
चले जाने का मतलब नहीं है बंधन तोड़ देने वाली भीगी रात,
चले जाने के बाद मुझसे बड़ा कुछ रह जायेगा
मेरे न होने से जुड़ा.
जानता हूँ चरम सत्य के सामने झुकना पड़ता है सबको,
जीवन सुंदर है,
आकाश-वातास,पहाड़-समुद्र
हरे वन से घिरी प्रकृति सुंदर है,
और सबसे सुंदर है जीवित रहना,
तब भी हमेशा जीवित रहना कहीं संभव है!
विदा की शहनाई बजी,
ले जाने को पालकी आकर खड़ी हुई द्वारे,
सुंदरी पृथ्वी को छोड़,
ये जो बचा हुआ था मैं,
दीर्घ नि:श्वास के साथ जाना होगा,
सभी को जाना होता है.
गंतव्य का पता नहीं,
सहसा बोल पड़ता है अज्ञातनामा पक्षी
एकदम चौंक उठता हूँ
जीवन समाप्त हुआ क्या?
सभी इसी तरह जायेंगे, जाना होगा.
_______________________________________

सहजि सहजि गुन रमैं : अनिल गंगल

$
0
0





























G.R Iranna/ RED EARTH


बीसवीं सदी के अंतिम दशक में जो कवि प्रमुखता से सामने आए उनमें अनिल गंगल का नाम महत्वपूर्ण है, उनके चार- कविता संग्रह प्रकाशित हैं.

अनिल की कविताएँ पूरे वाक्यों की कविताएँ हैं.  विवरण और ब्यौरे के साथ उनकी कविताएँ  मन्तव्य की स्पष्टता के लिए भी जानी जाती हैं. कविताएँ गहरा असर रखती हैं और समय की विद्रूपता पर चोट करती हैं.

उनकी छह नई कविताएँ आपके लिए.   



 अनिल गंगल की कविताएँ                      




काला

एक काला अपनी कालिमा में सदा मगन रहता हुआ
और ज़्यादा काला हो जाने का सपना देखता है
कहता अपने सौभाग्य को शुक्रिया
सोचता-
कि अच्छा ही हुआ
इस बदलाव की आँधी में सफ़ेद न हुआ

एक थोड़ा और ज़्यादा काला
थोड़े उन्नीस काले से कालेपन में थोड़ा इक्कीस साबित होता
रहता अपनी कथित श्रेष्ठता के ग़रूर में ग़र्क़
मुँह से हरदम दोमुँही जीभ लपलपाता

जो सबसे ज़्यादा काला है कालेपन की इस नुमाइश में
उसे अफ़सोस है
कि पार कर आ चुका है वह आख़िरी हद तक
अब वह चाहे
तो इससे ज़्यादा और चाहे जितना कलौंच में लिबड़ जाए
पर इससे ज़्यादा काला होना
अब असंभव है उसके लिए

फिर भी कुछ काले हैं
जो जितने काले हैं, उसी में आत्मतुष्ट हैं
कि दोनों हाथों से अगर उलीचें वे ज़माने पर यह कालिख
तो माशा-रत्ती भर भी कम न होगी यह
करती हुई न जाने और कितनों को कालेपन से सराबोर.




ईश्वर की मृत्यु

ईश्वर मर चुका है
अट्ठारहवीं सदी में कभी कहा था तुमने
ओ नीत्शे !

कैसे मरा ?
कब मरा ?
किस न्यूज़ चैनल पर चस्पाँ हुई यह ब्रेकिंग न्यूज़
कौन से पत्रकार ने बयान की
रोमांच में बदलते हुए मृत्यु की यह ख़बर
किस देश के कौन से शहर की
किस बस्ती के कौन से पुलिस स्टेशन में दर्ज़ है
ईश्वर की मृत्यु की प्राथमिकी

हत्या की गयी
या आत्महत्या की उसने ?

कौन से अख़बार में छपी है उसकी पोस्टमार्टम रपट
क्या देखी किसी शख़्स ने
झाड़ियों के पीछे रहस्यमय हालत में पड़ी
ख़ून से लथपथ ईश्वर की लाश

उसकी मृत्यु से संबंधित
अभी तक कोई सबूत मिला क्या ?
किसी संदिग्ध पर टेढ़ी हुई क्या पुलिस की आँखें ?
ईश्वर के आसपास बिखरे ख़ून के नमूनों की जाँच में
क्या पाया गया ?

क्या हाथ लग सका अभी तक कोई ऐसा हथियार
जिससे पहुँचाया गया हो ईश्वर को यमराज के द्वार ?
खोजी दस्तों के शिकारी कुत्तों की नाक
क्या पा सकी शातिर अपराधी का कोई सूराग ?

हो सकता है
कि यह ख़बर सिरे से ही ग़लत हो
हो सकता है कि ख़ुद को धुंध के परदे में छिपाए रखने के लिए
फैलाई गयी हो ख़ुद ईश्वर के द्वारा ही
अपनी मौत की ख़बर

कुछ भी हो सकता है
कि ईश्वर मरा हो ख़ुद अपनी ही स्वाभाविक मौत
मगर ज़्यादा संभावना यही है
कि उसकी हत्या की गयी हो

किन्तु असल सवाल यह है
कि जो अजन्मा, अमर और अविनाशी है
उसे मारने में प्रयुक्त हथियार में काम आया लोहा
गलाया गया होगा दुनिया की किस धमनभट्टी में.





मेरे जाने के बाद

जब मैं पंचमहाभूतों के रूप में नहीं रहूंगा
तब संभव है
कि तुम्हारे आसपास मैं एक अदृश्य उपस्थिति के रूप में रहूँ

एक जर्जर फ्रेम के बीच झाँकता होगा मेरा प्रसन्नमुख चेहरा
हालाँकि सूख कर झरने लगे बासी फूलों की माला के बीच मैं
दसों दिशाओं में चल रहे खण्ड खण्ड पाखण्ड पर्वोंका
मूक साक्षी रहूंगा

यही होगा कि मेरे जाने के बाद
मेरे मौन को ही आसपास घट रहे अपराधों के प्रति
मेरी मूक सहमति मान लिया जाएगा

जो भी सिर झुके होंगे श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए
संभव है कि व मेरे सम्मान में नहीं
किसी अज्ञात भय से झुके हों
संभव है कि नतमस्तक कंधों में सिर्फ़ एक ही कंधा हो
मेरे आगे झुका हुआ
जिन्हें थपथपा सकती हों सान्त्वना में
तस्वीर के फ्रेम से बाहर निकली मेरी मृत हथेलियाँ

दुनिया से जाने के बाद हो सकता है
पल भर के लिए रुक जाए मेरे वक़्त की घड़ी
मगर तय है यह
कि बदस्तूर ज़ारी रहेगी तमाम यह भागमभाग और आपाधापी

इस बीच हो सकता है
कि ख़ूनख़राबे में आपादमस्तक डूबे ख़ूनालूदा चेहरों को दी जाए
हमारे वक़्त की सबसे महान ईजाद की संज्ञा
संभव है कि ग़ायब हो जाएँ सौन्दर्यशास्त्र के पन्नों से
सौन्दर्य की सभी सुपरिचित परिभाषाएँ

जहाँ-जहाँ धोंकनी की तरह धड़कता था मेरा हृदय
मेरी साँसों की गर्माहट से भरे रहते थे घर के जो-जो कोने
जानता हूँ कि मेरे जाने के बाद
वहाँ-वहाँ चिन दिए जाएंगे भाँति-भाँति के कबाड़ के अटंबर

फिर-फिर जाना चाहूंगा इस जीवन की चारदीवारी के बाहर
जब दीवार पर सूख चुके फूलों से ढँकी मेरी तस्वीर
घर के सौन्दर्य पर कुरूप धब्बे की तरह लगेगी
और लोहे, प्लास्टिक और पुराने पड़ चुके अख़बारों की मानिंद
कबाड़ में फेंक दी जाएगी.
______

(स्मृतिशेष कवि मणि मधुकर की एक लंबी कविता का शीर्षक)





कविता-पाठ

वे नाक तक अघाए हुए विशिष्ट जन हैं
जो गाव-तकियों के सहारे ख़ुद को किसी तरह संभाले हुए हैं
उनके पाँवों के आसपास खिसकती जाती है मिट्टी थोड़ी – थोड़ी
मगर वे सब एक ठोस ज़मीन पर खड़े होने के मुग़ालते में शरीक़ हैं

वे जानते हैं
कि उन्हें कैसे करना है श्रोताओं के आगे कविता-पाठ
कहाँ-कहाँ किन-किन जुमलों पर फेंकने हैं हाथ और पाँव
कहाँ करनी है उन्हें अपनी आवाज़ इतनी मद्धम
सुरों को रहस्यमय अँधेरों में धकेलते हुए
कि लगे आ रही है धरती फोड़ किसी पाताल-तोड़ कुएँ से आवाज़
कब पंखों को तौल कर आसमान में भरना है परवाज़
कब आवाज़ में कड़कदार बिजलियाँ चमकाते हुए
पड़ौसी देश को देनी हैं धमकियाँ
कब कविता के ज़ंग लगे हथियारों से सिखाना है
दुश्मन को नानी-दादी याद कराने का पाठ

उनकी पृष्ठभूमि में सोने और चाँदी की चम्मचें हैं
गहन अंधकार के बीच मोमबत्तियों के झीने-झीने प्रकाश में होते डिनर
और देशी दारू की गंध सुड़पती हुई लंबी नाकें हैं
जिनके बीच खरपतवार की तरह उगी हुई कविताएँ हैं


विशिष्ट जनों की पंक्ति में से एक कवि उठता है
कवियों जैसा दिखाई देने के लिए
किसी मसखरे जैसी टोपी सिर पर धरे हुए
जिससे बाहर निकले सुनहरी आभा बिखेरते बाल लहराते हैं
उसने गले में डाला हुआ है मफ़लर
जिसमें जानबूझ कर लापरवाह दिखने की कोशिश है
किसी चोरबाज़ार से ख़रीदी गयी जैकेट पहने हुए
वह लगता है ज़्बेगेन्यू हेबेर्त्ते की कोटि का कोई विदेशी कवि जैसा

उसकी आवाज़ जैसे किसी खाली घड़े से लौट कर आती दिखती है
अद्भुत है उसका शब्दजाल, वाक्य-विन्यास, लय और तुक
जो श्रोताओं को किसी अद्भुत ध्वनि-लोक के अंतरिक्ष में
उतराते छोड़ देती हैं
जहाँ साँस लेने के लिए न हवा है, न ऑक्सीजन

एक लंबे अंतराल के बाद समाप्त होती है ज्यों ही कविता
एक कविता के पीछे चलती बहुत सी कविताएँ
आ खड़ी होती हैं मंच पर
कसते हुए श्रोताओं के चारों ओर बाँहों का शिकंजा
कि अँधेरा छँटने के बजाय गहरा
और गहरा होता जाता है

एक सनाका खिंचा रहता है श्रोताओं के चेहरों पर
निष्प्रभ और उदास
जैसे लौटे हों वे अभी-अभी श्मशान में किसी प्रियजन को मिट्टी देकर.







ब्लैक-होल

जो दौड़े जा रहे हैं बगटुट किसी अज्ञात अनंत की ओर
नहीं पढ़ी हो उन्होंने शायद बचपन में
आसमान के धरती पर गिरने की कथा
फिर भी भागे जा रहे हैं वे
पता नहीं किसे पीछे छोड़ते हुए
और किससे आगे निकलने के लिए

क़यास है उनका
कि बस गिरने ही वाला है आसमान उनके सिरों पर

हालाँकि उनके मत से
हो चुका है सृष्टि के कोनों-अंतरों में पसरे विचारों का अंत
फिर भी भयभीत हैं वे
कि दिमाग़ की भूलभुलैयों में वयस्क हो रहे
ईर्ष्या, द्वेश ,हिंसा, प्रतिहिंसा और रक्तपात पर
बस गिरने ही वाला है आसमान

डर है उन्हें
कि बचा रहेगा पृथ्वी पर अगर एक भी सकारात्मक विचार
तो कैसे चल पाएगी उनकी अपराधों से अँटी दुकान

उन्हें देख
भागे जा रहे हैं दुनिया की आपाधापी में फँसे जन
अपने घर-मढ़ैयों, ज़मीनों, दुकानों को पीछे छोड़ते
और आखिर में कहीं अंतरिक्ष में खोए
किसी सुदूर ग्रह से सुनाई देती एक मासूम पुकार को
आसमान के तले दबी चीख़ के नीचे
दफ़्न होने से बचाने के वास्ते

बहुतेरे अजनबी चेहरे हैं इस भागमभाग में
जो नहीं जानते
कि क्यों दौड़े जा रहे हैं वे दुनिया के निर्वात में निरुद्देश्य
बस, दौड़े जा रहे हैं वे एक ही और अंतिम लक्ष्य के साथ
कहीं भी न पहुँचने के लिए
ठीक वैसे ही
जैसे इस दौड़ में अपनी धुरी पर घूम रहे हैं धरती और ग्रह-नक्षत्र
ब्लैक-होल की तरफ़ लुढ़कते हुए.







हक़

मुझे हक़ दो कि अपने हक़ माँग सकूँ
मुझे मेरे हक़ चाहिए

मुझे अपने और सिर्फ़ अपने हक़ चाहिए
इतने बरस सोता रहा मैं कुंभकर्णी नींद
उम्र के इतने बरस मैं भूला रहा अपने हक़
अब जागा हूँ
तो मुझे मेरे हक़ चाहिए

आपने मुझे गालियाँ दीं
मैं सोता रहा
आपने मुझे ठोकरें मारीं
मैं चुप रहा
आपने मुझे बेघर किया
मैं कुछ नहीं बोला
आपने मेरी लंगोटी छीन कर मुझे नंगा कर दिया
मैं और गाढ़ी नींद की सुरंग में गुम हो गया

अच्छा किया
जो आपने मुझे दशाश्वमेध की दिशा में ले जाने वाली
युगों लंबी नींद से जगा दिया

अब पूरी तरह जाग चुका हूँ मैं
और माँगता हूँ आपसे अपने हक़

मगर मैं नहीं चाहता
कि मेरे पड़ौसी को भी उसका हक़ मिले
मैं नहीं चाहता
कि मेरी देखादेखी पड़ौसी भी हक़ के मामले में ख़ुदमुख़्तार हो
किसी भी हक़ से नहीं बनता पड़ौसी का कोई हक़
कि वह भी अपने हक़ की माँग करे
दावे से कह सकता हूँ मैं
कि मेरा लोकतंत्र सिर्फ़ मेरे लिए है
जिसमें पड़ौसी की हक़ की माँग एकदम नाजायज़ है

आसाराम, राम-रहीम, फलाहारी
आप जिसकी चाहें उसकी क़सम मुझसे ले लें
कि सिर्फ़ मेरा अपने हक़ की माँग करना ही
इस नाजायज़ दुनिया में जायज़ है

भले ही पड़ौसी का हक़ न आता हो मेरे हक़ के रास्ते में
फिर भी यही सही है
कि मैं पूरी शिद्दत के साथ पड़ौसी का विरोध करूँ

वैसे पड़ौसी से मेरा कोई ज़ाती बैर नहीं
मगर विरोध के लिए विरोध करना तो
मुझे मिले लोकतंत्र का तक़ाज़ा है

गंगापुत्र की तरह दोनों हाथ आकाश की ओर उठा कर
ऐलान करता हूँ मैं-
अपने लिए हक़ को छीन लेना
मगर दूसरों के द्वारा उसी हक़ की माँग पर उंगूठा दिखा देना ही
सच्चा लोकतंत्र है.
 

_______________________
अनिल गंगल (November 2, 1954 खुर्जा –बुलंदशहर, उ0प्र0)

1989 में पहला कविता-संग्रह भविष्य के लिएप्रकाशित. 2000 में दूसरे कविता-संकलन स्वाद’ पर राजस्थान साहित्य अकादमी का सुधीन्द्र पुरस्कारतथा राजस्थान जनवादी लेखक संघ का अंतरीप सम्मानप्राप्त. 2001 में तीसरा संकलन एक टिटिहरी की चीख़’प्रकाशित. 2008 में चौथा संकलन घट-अघटप्रकाशित.

कुछ कहानियाँ भी इधर-उधर प्रकाशित. कुछ विदेशी कवियों और कथाकारों की रचनाओं के अंग्रेज़ी से हिंदी में अनुवाद प्रकाशित.


कविता-संग्रह कोई क्षमा नहीं’, बैंड का आखिरी वादक’प्रकाशनाधीन.
संप्रति : केन्द्रीय विद्यालय संगठन से उप-प्राचार्य के रूप में सेवानिवृत्ति
130, रामकिशन कॉलोनी
काला कुआँ
अलवर-301001(राजस्थान)
मो0 8233809053 /gangalanil@yahoo.co.in 

सबद - भेद : भारतेंदु और भाषा की जड़ें : बटरोही

$
0
0
















राजनीतिक युद्ध पहले विचारों  के रणक्षेत्र में लड़े जाते हैं और यह लड़ाई भाषा से शुरू होती है. 

औपनिवेशिक भारत में खासकर आज के हिंदी भाषी क्षेत्रों में भाषा और शिक्षा को लेकर चेतना और प्रतिरोध की जो शुरुआत हुई थी उसके (सु/कु)परिणाम आज हमारे सामने हैं.

हिंदी के पितामह भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने भाषा और शिक्षा को केंद्र में रखकर स्थापित हंटर कमीशन (१८८२) के प्रश्नों के प्रतिउत्तर में जो विचार व्यक्त किये थे वे स्थाई महत्व के हैं. वरिष्ठ लेखक बटरोही ने  भाषाई जड़ो की तलाश में उस समय की भाषा सक्रियता को गम्भीरता से समझा  परखा है. आज १३५ साल बाद इन्हें देखना दिलचस्प और विचारोत्तेजक है.


कहाँ हैं हिंदी लेखक की स्थानीय जड़ें
भाषा शब्दों से नहीं, आशय से बनती है                       

बटरोही


पिछले तीन-चार दशकों में हिंदी समाज के पढ़े-लिखे मध्य-वर्ग में एक खास बात देखने में आई है कि संसार की तमाम समृद्ध भाषाओँ के साहित्य के प्रति उसकी जितनी रुचि बढ़ी है, अपने समाज और भाषाओँ के प्रति उतनी ही उदासीनता दिखाई देती है. मुझे यह उदासीनता कभी-कभी उसकी जड़ों से कटे होने के कारण महसूस होती है.मगर बार-बार यह हिंदी समाज जिस तरह अपनी स्मृतियों की ओर छलांग लगाने के बाद खाली हाथ उदास चेहरे के साथ अपने वर्तमान में लौट-लौट आता है, उसकी आँखों के आगे मुझे फिर-से वही अनुत्तरित सवाल टंगा दिखाई देता है कि कहाँ हैं हम हिंदी लेखकों की जड़ें?... हमारी स्मृतियाँ और जड़ें क्या एक-दूसरे के सामने टंगे हुए मांस के निर्जीव लोथड़ों की तरह हमारे अतीत के परस्पर विरोधी दो टुकड़े मात्र हैं?...

विचार की भाषा के रूप में औपनिवेशिक भारत और उसके महान अतीत की समृद्ध कलाएँ; हजारों वर्षों की साधना से निर्मित जीवन की अतल गहराइयों में डूबी हुई... जिनकी समझ का संस्कार न होते हुए भी मन करता है कि सारी जिंदगी उसको समर्पित करते हुए उसकी गोद में बैठकर यों ही उम्र बिता दी जाए...

नहीं. मैं उलाहना नहीं दे रहा हूँ, न ईर्ष्या है यह... उलाहना देने या ईर्ष्या करने के लिए जो पात्रता चाहिए, मेरे पास वह है भी नहीं, तब भला मैं किस अधिकार से ऐसी इच्छा पाल सकता हूँ!...

पिछले कुछ वर्षों में हमारे हिंदी समाज में सामने आए दर्जनों कला-रूपों; फिल्मों. शिल्पकारों और चित्रकारों की कलाकृतियों,  डिजिटल माध्यमों से उभरी अभिव्यक्तियों के बीच से गुजरते हुए एक अजीब-सी अवसादमय अनुभूति होती रही है; ऐसी अनुभूति जिसे व्यक्त करने के लिए मेरे पास शब्द ही नहीं हैं!... तो क्या  अहसास और अनुभूति को व्यक्त करने के लिए शब्द जरूरी नहीं है?... तब स्मृतियों और अनुभूतियों की जो लम्बी शृंखला हमें सुदूर अतीत के साथ जोड़े हुए है, क्या है वह...

क्या है वह अहसास जो स्मृतियों में टंगे हुए समूची मानवता के असंख्य आत्मीय चेहरों के बीच खोया हुआ अपना चेहरा तलाश रहा है और थका-हारा खाली हाथ लौट-लौट आता है; इस अनुत्तरित सवाल के साथ कि कहाँ हैं मेरे स्थानीय परिजनों के चेहरे... जो मानो बार-बार मुझसे सवाल पूछते हैं, कहाँ बिसरा दिया है तुमने हमें?...

कुछ वक़्त पहले तक तो मुझे उन सवालों से जुड़ी आवाजें सुनाई देती थीं, मगर अब आवाज गायब हो गयी है; अब तो उनकी वो भौंचक आँखें भी नहीं दिखाई देतीं, जो सहारे की तलाश में लम्बे समय तक मेरे इर्द-गिर्द मंडराती रहती थी... संभव है, वो आँखें आज भी मुझे खोज रही हों, वो अब भी मेरे इर्द-गिर्द मौजूद हों... या हो सकता है, मैं ही अब बूढ़ा और कुंठित हो गया हूँ, लाचार, क्रूर, स्वार्थी या अवसादग्रस्त...



(एक)
जिस प्रसंग का मैं जिक्र करने जा रहा हूँ, हालाँकि उसका वक़्त बताना जरूरी नहीं है... एक सप्ताह, एक महीने, एक वर्ष या कुछ वर्ष पुरानी बात हो सकती है वह बात; मगर इससे कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है...

किस्सा नंबर एक
तल्लीताल से राजभवन की ओर अपने स्कूल जाते हुए छठी कक्षा में पढ़ने वाले उस कुमाउनी बच्चे से मैंने उसका नाम पूछा था तो हिंदी में पूछे गए मेरे सवाल का उसने अंगरेजी में जवाब दिया. थोड़ा नाराजी भरे अंदाज में जब मैंने उससे कहा कि क्या उसे हिंदी नहीं आती, उसने बिना किसी झिझक के, पुराने विश्वास के साथ फिर से अंगरेजी में बताया कि हाँ, हिंदी उसे नहीं आती. ‘स्कूल में टीचर चाहते हैं कि मैं इंग्लिश में बोलूँ और घर में पेरेंट्स चाहते हैं कुमाउनी सीखूं. हिंदी मैं क्यों बोलूँ?’


किस्सा नबर दो
1994 में कवयित्री महादेवी वर्माके घर ‘मीरा कुटीर’ को संग्रहालय का रूप देने के बाद उसके उद्घाटन के लिए उस वक़्त के सर्वाधिक चर्चित कथाकार निर्मल वर्मा और कवि अशोक वाजपेयी को बुलाने का निर्णय लिया गया. संग्रहालय के रख-रखाव के लिए जो समिति बनाई गई थी, उसके अध्यक्ष नैनीताल के जिलाधिकारी थे और मैं सचिव.

मेरे लिए यह एक विचित्र अनुभव था कि मेरे दोनों अतिथि जिलाधिकारी के साथ अंगरेजी में बातें करते थे. संयोग से उस वक़्त मेरे सहपाठी रहे (स्व) रघुनन्दन सिंह टोलिया कुमाऊँ कमिश्नर और उत्तर प्रदेश प्रशासन अकादमी के निदेशक थे और उन्होंने ही अतिथियों के स्वागत और आतिथ्य की व्यवस्था की थी. शुरू-शुरू में मेरे अतिथि टोलिया जी से भी अंगरेजी में ही बातें करते थे, मगर बाद में उनके द्वारा हिंदी में जवाब देने पर कुछ असहज-से दिखाई देते हुए हिंदी में बोलने लगे थे. बाद में जब मैंने टोलिया जी से इस बाबत चर्चा की तो उन्होंने सहज ढंग से कहा, ‘हाँ, आईएएस ऑफिसर खुद को अंग्रेजी में ज्यादा सहज महसूस करते हैं.’




(दो)    
अपने मंतव्य को स्पष्ट करने के लिए मैं आपको सुदूर अतीत में आधुनिक हिंदी के अपने पहले पुरखे भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्रके पास लिए चलता हूँ.

प्रसिद्ध इतिहासकार रामगोपाल (1925) की 1964 में एक किताब प्रकाशित हुई थी, ‘स्वतंत्रता-पूर्व हिंदी के संघर्ष का इतिहास’.हिंदी साहित्य सम्मलेन, प्रयाग द्वारा प्रकाशित इस पुस्तिका की शुरुआत 1882 ईस्वी में तत्कालीन ब्रिटिश सरकार के द्वारा गठित शिक्षा आयोग को सौंपी गई भारतेंदु हरिश्चंद्र की एक लम्बी रिपोर्ट से की गई है. रिपोर्ट में भारत में लागू किये जाने वाले शिक्षा के ढाँचे तथा विद्यार्थियों की माध्यम-भाषा को लेकर सुझाव आमंत्रित किये गए हैं. तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड मेयोने प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री विलियम हंटरकी अध्यक्षता में भारतीयों के लिए शिक्षा से जुड़े इस आयोग का गठन किया था. आयोग ने भारत के हिंदी क्षेत्र से जुड़े अनेक प्रतिष्ठित बुद्धिजीवियों को 66 प्रश्नों की सूची भेजी (वीरभारत तलवार के अनुसार 70) ताकि उन उत्तरों के जरिये वे अपनी रिपोर्ट को अंतिम रूप दे सकें. प्रश्नावली में इस बात पर खास जोर दिया गया था कि उस दौर में नए सरकारी स्कूलों के स्थान पर शिक्षा प्रदान करने के लिए जो देसी स्कूल प्रचलन में थे, वो किस तरह की और किस भाषा में शिक्षा देते थे और भारतीय लोग कैसी और किस भाषा में शिक्षा ग्रहण करना चाहते थे.

किताब की शुरुआत करते हुए रामगोपाल लिखते हैं :

मेरे अध्ययन, खोज और अनुसंधान का विशेष विषय राजनीतिक इतिहास रहा है. मेरी अधिकांश पुस्तकें भारतीय इतिहास के अंगरेजी काल पर हैं. जब मैं अपनी एक पुस्तक के लिए सामग्री की खोज कर रहा था, तब मुझे एक सरकारी प्रतिवेदन में भारतेंदु हरिश्चंद्र का एक ‘वृहत्’वक्तव्य देखने को मिला. सन 1882 ईस्वी में भारत सरकार ने एक शिक्षा आयोग नियुक्त किया था, जिसके अध्यक्ष प्रसिद्ध इतिहासकार विलियम हंटर थे. वह उस समय एक सरकारी अफसर थे. आयोग ने विभिन्न प्रान्तों में जाकर शिक्षा की स्थिति की जाँच की और उस समय के सार्वजनिक जीवन के गणमान्य व्यक्तियों तथा शासन से सम्बन्धित अफसरों की राय प्राप्त की. उसने एक प्रश्नावली भी प्रकाशित की, और जनता के उत्तर आमंत्रित किये. उत्तर प्रदेश (यह प्रदेश उस समय पश्चिमोत्तर प्रान्त कहलाता था) के जिन लोगों ने प्रश्नावली के उत्तर दिए, उनमें भारतेंदु भी थे. (प्रत्येक उत्तरावली को प्रतिवेदन में ‘वक्तव्य’ की संज्ञा दी गई है.) यह सब वक्तव्य अंगरेजी में हैं. जब मैं प्रतिवेदन के पन्ने पलट रहा था, तब मेरी दृष्टि ‘बाबू हरिश्चंद्र’ – यही शब्द शीर्षक में दिए हुए हैं – के नाम पर पड़ी. मेरे मन में असाधारण उत्सुकता पैदा हुई. एक तो भारतेंदु के प्रति मेरी श्रद्धा अत्यधिक रही है, दूसरे  यह वक्तव्य अंगरेजी में था; इससे पहले मैंने कभी उनका कोई अंगरेजी भाषा का लेख नहीं पढ़ा था. मैंने उसे आदि से अंत तक पढ़ा. प्रतिवेदन में जितने वक्तव्य प्रकाशित हैं, उनमें शायद यह सबसे बड़ा है. इसमें उस समय की शिक्षा-सम्बन्धी समस्याओं का विस्तृत वर्णन है. भारतेंदु के विचारों से हिंदी के पाठक साधारणतया अनभिज्ञ नहीं हैं, परन्तु उनका यह ‘वक्तव्य’ पढ़ने के बाद मुझे लगा कि यही एक ऐसी कृति है, जिसमें उनके विचार एक स्थान पर विस्तार के साथ दिए हुए हैं...

मैंने उनकी कृतियों के संकलन तथा उनसे सम्बन्धित साहित्य का पुनः अवलोकन किया; परन्तु किसी में मुझे यह ‘वक्तव्य’ नहीं मिला. इसलिए मैंने निश्चय किया कि प्रतिवेदन से वक्तव्य की नक़ल ले ली जाये और उसका हिंदी अनुवाद हिंदी जगत के सामने प्रस्तुत किया जाये. यूँ तो भारतेंदु द्वारा लिखित कोई चीज भी अमूल्य है, परन्तु इस वक्तव्य की विशेषता यह है कि इसको पढ़ने के बाद पाठक को लगता है, मानो उसमें आज (1964-बटरोही) की समस्याओं के उत्तर दिए गए हैं. (ये समस्याएं 2017 में आज भी प्रासंगिक हैं.) इतिहास की दृष्टि से यह उत्तरावली उस समय के हिंदी संघर्ष के इतिहास के अति महत्वपूर्ण पृष्ठ हैं; अतः मैं उसका अनुवाद प्रस्तुत पुस्तक के साथ परिशिष्ट के रूप में दे रहा हूँ.” (पृष्ठ 7-8)
(मैं यहाँ पर इस प्रसंग को लेकर 2002 में प्रकाशित वीरभारत तलवार की बहुचर्चित किताब ‘रस्साकशी’ पर जानबूझकर बातें नहीं कर रहा हूँ, क्योंकि उसमें इतने विवादास्पद और पूर्वाग्रहग्रस्त विचार हैं कि मेरी बहस भटक जाएगी.) 

लेखक रामगोपाल के अनुसार, ‘प्रस्तुत पुस्तक की कहानी जिस काल से आरंभ होती है, वह भारतेंदु से बहुत पहले का है. 19वीं सदी के तीसरे दशक में भारत की विभिन्न प्रांतीय भाषाओँ ने फारसी का – जो उस समय अदालतों की भाषा थी – स्थान लेना आरंभ कर दिया था; पर उत्तर प्रदेश में फारसी का स्थान हिंदी के बजाय उर्दू को दिया गया. इस घटना से पहले ही हिंदी भाषा और नागरी लिपि की लोकप्रियता तथा उत्तमता का अंगरेज लेखकों तक ने पक्ष लेना आरंभ कर दिया था. उन लेखकों की सम्मतियाँ हिंदी के संघर्ष के प्रथम चरण माने जाते हैं... इन सम्मतियों को पढ़ने के बाद मन में यह विचार पैदा होना स्वाभाविक है कि हिंदी को अदालती भाषा या राजकीय भाषा बनाने की माँग भारत के लोगों द्वारा उठनी चाहिए थी; उन्हें इसके लिए संघर्ष करना चाहिए था. इसका उत्तर कहीं नहीं मिलता. शायद कोई संघर्ष हुआ ही नहीं. वह युग घोर साम्राज्यवाद और घोर सामंतवाद का युग था जिसका प्रभाव चिरकाल तक रहा. परिणाम यह हुआ कि जनता ने भाषा के प्रति हुए अपमान को भी वैसे ही स्वीकार कर लिया जैसे पराधीनता को किया था. सन 1857 के 15-20 वर्ष बाद जब अंगरेजी सत्ता दृढ़ हो गई और शासकगण प्रजा की बात सुनना अपना कर्तव्य समझने लगे, तब हिंदी का प्रश्न कुछ साहस के साथ उठाया जाने लगा. यही साहस-प्रदर्शन हिंदी के संघर्ष का इतिहास है... अदालत की भाषा हिंदी भाषा होनी चाहिए, यह एक ऐसी माँग थी, जिसकी स्वीकृति से अंगरेजी सत्ता को प्रत्यक्षतः कोई हानि नहीं पहुँच सकती थी. तो तर्क यह उठता है कि अंगरेज सरकार ने इसको स्वीकार क्यों नहीं किया, या स्वीकार किया तो अंशतः ही क्यों किया.’

इस पहेली के पीछे छिपे आशय को खुद ही स्पष्ट करते हुए रामगोपाल लिखते हैं, ‘सन 1873 में बिहार सरकार द्वारा यह माँग स्वीकार कर ली गई थी कि उस प्रान्त की अदालतों में फारसी अक्षरों के बजाय नागरी का प्रयोग किया जाय, इस आदेश के कार्यान्वयन में लगभग 8 वर्ष लग गए. इसी प्रकार की माँग का उत्तरप्रदेश में कोई फल क्यों नहीं निकला? इसका स्पष्ट उत्तर कहीं देखने को नहीं मिलता; अतः अप्रत्यक्ष उत्तर का सहारा लेना पड़ता है. 19वी सदी के सातवे दशक के आरम्भ में वर्षों तक भारत के एक भाग में, जिसमें बंगाल और बिहार उल्लेखनीय हैं, बहावी आन्दोलन का जोर था. बहावी फिरके के मुसलमान हिंसात्मक क्रांति द्वारा अंगरेजी शासन का अंत करके मुस्लिम सत्ता पुनः ज़माने के लिए क्रियाशील थे. बिहार के विषय में अंग्रेजों के मन में यह धारणा बन गई थी कि वहाँ का प्रत्येक मुसलमान बागी है. इस तर्क से यह निष्कर्ष निकलना स्वाभाविक लगता है कि वहाँ अंगरेजी सरकार को यह अंदेशा नहीं था कि फारसी अक्षर का स्थान नागरी को दे देने से मुसलमान क्रुद्ध हो जायेंगे; वे तो क्रुद्ध थे ही. यद्यपि उस समय मुसलमानों की ओर सहानुभूतिपूर्ण बर्ताव करने की नीति का आरम्भ हो गया था, परन्तु फिर भी हिन्दुओं के प्रति सरकार अधिक उदारता बरतती थी और हिंदी हिन्दुओं की भाषा मानी जाती थी...

‘उत्तर प्रदेश में स्थिति भिन्न थी. वहाँ बहावी आन्दोलन का प्रभाव बहुत कम था. जब कि बंगाल और बिहार में मुसलमानों को सरकारी नौकरी से यथासंभव दूर रखा जाता था, उत्तर प्रदेश में मुसलमान जहाँ-तहाँ सरकारी पदों पर नियुक्त थे; और वे उर्दू के माध्यम से अपना काम करते थे.’



(तीन)


मेरे लिए ये विचार इसलिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि ये आधुनिक हिंदी साहित्य के निर्विवाद निर्माता भारतेंदु हरिश्चंद्रके विचार हैं. भारतेंदु ने यह रिपोर्ट अंग्रेजी में लिखी है, जिसका खुद के द्वारा किया गया अनुवाद मूल के साथ रामगोपाल ने यथावत अपनी इस किताब में संकलित किया है.
इस पुस्तक में पहला ही सवाल भारतेंदु से (जिन्हें प्रतिवेदन में ‘बाबू हरिश्चंद्र’ लिखा गया है) पूछा गया है : ‘यह बताने की कृपा करें कि भारत में प्रचलित शिक्षा के विषय में आपका मंतव्य किन अनुभवों पर आधारित है. और वे अनुभव आपको किस प्रान्त में प्राप्त हुए हैं?’
भारतेंदु जी ने उत्तर दिया है, ‘शिक्षा में सदैव ही मेरी अभिरुचि रही है. मैं संस्कृत, हिंदी और उर्दू का कवि हूँ और पद्य और गद्य में मैंने बहुत-सी पुस्तकों की रचना की है. मैंने ‘कवि वचन सुधा’ नामक एक हिंदी पत्रिका भी आरम्भ की थी, जो अब भी चल रही है. अपने देश-वासियों के शैक्षिक स्तर को ऊँचा उठाना, इस प्रान्त की भाषा में सुधार करना, तथा इस भाषा में साहित्य-वृद्धि करना सदैव से मेरा ध्येय रहा है. अपने देशवासियों की शैक्षिक उन्नति से मुझे सदैव हर्ष प्राप्त होता है. प्राथमिक शिक्षा के लिए मैंने बनारस में एक पाठशाला स्थापित की है. मैं बनारस शिक्षा समिति का सदस्य भी था, अतः मुझे शिक्षा विभाग से सम्बन्धित व्यक्तियों तथा अन्य विद्वानों के संपर्क में आने के बहुत अवसर मिलते रहे हैं. विद्योन्नति के उद्देश्य से मैंने सरकारी स्कूलों और कालिजों के विद्यार्थियों तथा विद्याव्यसनियों को पुरस्कार भी दिए हैं.
‘मैं पश्चिमोत्तर प्रान्त (वर्तमान उत्तर प्रदेश के अलावा दिल्ली, जबलपुर, सागर तथा अजमेर डिविजन - रामगोपाल) का निवासी हूँ. मेरा अनुभव इस प्रान्त तक सीमित है.’ 

दूसरे सवाल में जब उनसे पूछा गया कि मौजूदा शिक्षा व्यवस्था क्या सुदृढ़ नींव पर आधारित है और क्या पाठ्यक्रम में सुधार के लिए वो कोई सुझाव देना चाहेंगे, उन्होंने बहुत विश्वास के साथ कहा कि हमारे प्रदेश की प्राथमिक शिक्षा एक सुदृढ़ नींव पर स्थापित हो गई है और अगर इसमें मामूली से संशोधन कर दिए जाएँ तो वह जनता की जरूरतों के हिसाब से आदर्श रूप ले सकती है.

सुझाव देने से पहले भारतेंदु उनके समय में प्रचलित 7 प्रकार के विद्यालयों का जिक्र करते हैं :
1. चटसाल,जो पहाड़े, जबानी हिसाब, गणित के चार नियम तथा नागरी, कैथी या महाजनी लिपि की शिक्षा देते हैं;
2. संस्कृत पाठशालाएँजो संस्कृत द्वारा विभिन्न विषयों की शिक्षा देते हैं, जैसे गणित, ज्योतिष, खगोल विद्या, तर्कशास्त्र, दर्शनशास्त्र, साहित्य, व्याकरण और न्यायशास्त्र.
3. धार्मिक स्कूल,जो वेद और वेदों के विभिन्न भाष्यों (मीमांसा, वेदांत आदि)की शिक्षा देते हैं,
4. व्यवहार गणित स्कूल, जिनका सञ्चालन मुनीम लोग करते हैं;
5. मकतब,अर्थात वे स्कूल, जो फारसी साहित्य की शिक्षा देते हैं;
6. अरबी स्कूल,जो अरबी साहित्य, व्याकरण और तर्कशास्त्र की शिक्षा देते हैं (कहीं-कहीं दर्शन शास्त्र, औषधि शास्त्र, ईश्वरीय ज्ञान शास्त्र जैसे विषय भी मुसलमान लड़कों को मुफ्त में पढाये जाते हैं) और
7. कुरान स्कूल,जब कोई संपन्न मुसलमान मस्जिद बनवाता है तो कुरान का पाठ और प्रार्थना वाचन के लिए एक मुल्ला की नियुक्ति कर देता है, जिसमें किसी लड़के को सारी कुरान रटा दी जाती है और उसे हाफिज की उपाधि दी जाती है.
शायद यही कारण था कि भारतेंदु ने हंटर आयोग को पहला सुझाव शिक्षा समितियों के पुनर्गठन का दिया. उनके अनुसार,

‘शिक्षा समितियों के द्वारा स्कूलों के प्रबंध-संचालन की वर्तमान पद्धति आपत्तिजनक है. समितियों के सरकारी सदस्यों को इतना समय नहीं मिलता कि वे दूर देहात में स्थापित स्कूलों की देख-रेख कर सकें. गैर-सरकारी सदस्य ही बहुत संख्या में समिति की बैठकों में उपस्थित होते हैं. उनकी उपस्थिति का कारण यह नहीं है कि उनमें देश की शिक्षा के प्रति प्रेम या थोड़ा-सा भी चाव है, वरन यह है कि वे इन समितियों की सदस्यता को गौरव मात्र समझते हैं, और इनके द्वारा उन्हें जिलाधीश के सम्मुख आसन ग्रहण करने का अवसर मिल जाता है.

शिक्षा समितियों के बहुत-से सदस्यों से मैं परिचित हूँ. उन्हें अपने प्रान्त की भाषा तक का ज्ञान नहीं है. कुलीन जनों में उनकी गणना होने के कारण उन्हें सदस्य बना दिया गया है. कुछ तो ऐसे हैं जिन्हें कुलीन भी नहीं कहा जा सकता. कौन ऐसा व्यक्ति है जो अपने जिले के छोर पर स्थापित स्कूल का निरीक्षण करने के लिए यात्रा करेगा, और केवल इस उद्देश्य से कि वहाँ जाकर वह ग्रामीणों को यह उपदेश देगा कि बच्चों को पाठशाला भेजना उनके लिए हितकर होगा या वहाँ जाकर वह मालूम करेगा कि चार रूपए की सूक्ष्म धनराशि जो समिति ने मरम्मत के लिए स्वीकृत की थी, वास्तव में व्यय की गई है या नहीं, और अध्यापक अपने कर्तव्य का पालन करता है या नहीं. हो सकता है कि कहीं कोई व्यक्ति जनहित से प्रेरित होकर अपना समय और धन, बल्कि जीवन तक अर्पण करने के लिए निकल आये; परन्तु उसके प्रयत्न का मूल्य उतना ही होगा, जितना वर्षा की एक बूँद का समुद्र के लिए होता है. 

मेरा मत है कि देश की शिक्षा संचालन के लिए एक पृथक विभाग होना चाहिए, वैसे ही जैसे पुलिस, माल, न्याय, डाक-तार आदि के संचालन के लिए अलग-अलग विभाग हैं. यदि कोई जन-हितैषी व्यक्ति शिक्षा विभाग की सहायता करना चाहता है तो अच्छा यह होगा कि उसे स्कूलों का अवैतनिक इन्स्पेक्टर या संयुक्त इन्स्पेक्टर नियुक्त कर दिया जाय जिससे कि विभाग के प्रबंध में उसका भी हाथ हो जाय. शिक्षा बोर्ड की नाममात्र सदस्यता की अपेक्षा यह युक्ति अधिक उत्तम होगी...

‘शिक्षा समितियों का जितना मुझे ज्ञान है उसके आधार पर मैं कह सकता हूँ कि वे व्यर्थ की संस्थाएं हैं. मैं कुछ ऐसे सदस्यों को जानता हूँ जिन्हें यह तक मालूम नहीं है कि उनके अधिकार क्षेत्र में कितने स्कूल हैं, या तहसीली स्कूल और हल्काबंदी स्कूल में क्या अंतर है.’
अपनी बात को अधिक विस्तार से समझाते हुए भारतेंदु लिखते हैं, ‘यह तो सच है कि शिक्षा अधिकारियों को जनता में पर्याप्त आदर नहीं मिलता, परन्तु इसके लिए विभाग दोषी नहीं है. इसका कारण यह है कि उसका कार्य अर्थात स्कूलों का निरीक्षण और परीक्षण मूक प्रकृति का है, सरकार के अन्य विभागों से भिन्न. भारत में हुकूमत से आदर प्राप्त होता है. शिक्षा विभाग के अफसर न तो किसी व्यक्ति को हवालात में डाल सकते हैं, न उस पर जुर्माना कर सकते हैं, और न उससे रूपया ऐंठ सकते हैं. उनकी तुलना केवल धर्म-प्रचारकों से की जा सकती है. अज्ञात व्यक्ति की घृणा की परवाह किये बिना वे शुभ कार्य में लगे रहते हैं. इसके विपरीत माल और पुलिस विभाग के नाम से लोगों में भय और प्रतिष्ठा की भावना पैदा होती है. यही कारण है कि माननीय सैयद अहमद खां बहादुरने अपनी गवाही में यह सुझाव दिया है कि शिक्षा विभाग के लिए अतिरिक्त डिप्टी कलक्टर नियुक्त कर दिए जाएँ. इस दोष को दूर करने का सर्वोत्तम उपचार यह होगा कि इंग्लैंड और अन्य यूरोपीय देशों की भांति भारत में भी प्राथमिक शिक्षा अनिवार्य कर दी जाय और जन-भाषा भाषी को अदालती भाषा बना दिया जाय. तथा अदालत के कागज उस लिपि में लिखे जाएँ, जिसे जनता के अधिकतम लोग पढ़ लेते हैं...

इस प्रान्त की प्राथमिक पाठशालाओं में हिंदी भाषा की लिपि का प्रयोग प्रायः पूर्णतया किया जाता है. परन्तु अदालतों और दफ्तरों में फारसी भाषा की लिपि का प्रयोग होता है; अतः उस प्राथमिक शिक्षा का जो एक ग्रामीण लड़का अपने गाँव में प्राप्त करता है, कोई मूल्य नहीं है, कोई फल नहीं है. उसमें कोई आकर्षण ही नहीं रह जाता. वर्षों तक एक ग्राम पाठशाला में पढ़ने के बाद जब एक जमींदार का लड़का अदालत में जाता है तो उसे पता चलता है कि उसका सब परिश्रम व्यर्थ गया, अपने पूर्वजों की भांति वह भी बिलकुल अज्ञानी है, तथा वह उस घसीट लिपि (उर्दू) को पढ़ने में बिलकुल असमर्थ है जो अदालत का अमला प्रयोग में लाता है. यदि एक निर्धन व्यक्ति के पुत्र को अपने (हिंदी) ज्ञान के भरोसे पर जीविका साधन प्राप्त करने की अभिलाषा है तो उसे शिक्षा विभाग का द्वार खटखटाना पड़ेगा, अन्य विभाग उसे अशिक्षित कहकर वापस कर देंगे.’

  
(चार)

1882 ईस्वी में भारतेंदु ने अपनी गवाही में जो आशंकाएं व्यक्त की थी, आजादी के बाद ही नहीं, उनके जीवन काल से ही भारतीय शिक्षा-नियोजक उन्हीं गलतियों को दुहरा रहे हैं. राजनीतिक शक्तियों का हमारे देश में इतना महिमा-मंडन किया जाता रहा है कि आम लोगों के भावनात्मक निर्णय तक इन नेताओं और प्रशासकों के द्वारा मनमाने ढंग से उन पर लादे जाते रहे. आम लोगों के बारे में निर्णय लेते हुए न तो यह देखा गया कि उन समस्याओं की जड़ें कहाँ हैं और जो लोग निर्णय ले रहे होते हैं, समस्या से जुड़े परिवेश की न तो उन्हें जानकारी होती, और न उनके अस्तित्व के साथ समस्या जुड़ी होती! यही कारण है कि भारत जैसे बहु-सांस्कृतिक और बहुभाषी देश के बारे में वे लोग ऐसे निर्णय लेते रहे जैसे राज्यों और रियासतों का बंटवारा कर रहे हों...

कितने और कैसे सांस्कृतिक समन्वय के दबावों की देन थी अनेक अपभ्रंश और प्राकृत भाषाएँ, हिन्दवी, रेख्ता, कैथी, दक्खिनी, उर्दू आदि भाषाएँ, लेकिन कितनी कुटिलता और निजी सनक की वजह से इन भाषाओँ का मजहबीकरण और सरलीकरण कर दिया गया. अगर आप विगत दो शताब्दियों के हिंदी भाषा के संघर्ष पर नजर डालें तो साफ दिखाई देगा कि इस कूटनीतिक समझौतावाद और तुष्टीकरण की परिणति ही ‘हिन्दुस्तानी’ या ‘हिंगरेजी’ जैसी नपुंसक भाषाओँ के रूप में हुई जिसका अगला कदम अपनी जातीय भाषा-अस्मिता की हत्या ही हो सकता था. ‘भाषा समस्या’ को ‘भाषा की राजनीति’ बना दिए जाने के पीछे सिर्फ सियासतदानों का हाथ नहीं था, भारत जैसे धर्म और क्षेत्र को लेकर नाजुक-स्वार्थी नजरिया रखने वाले सामंती सोच वाले बुद्धिजीवियों का भी हाथ था, बल्कि उनका अधिक ही था. शायद यही कारण है कि सुदूर अतीत से आरम्भ हुई भारतीय कला-परम्परा की यह यात्रा आजाद भारत की सांस्कृतिक परंपरा का हिस्सा नहीं बन पाई. ऐसा कहकर मैं नए भारत और नई दुनिया के नियोजकों की मंशा पर कोई सवाल नहीं उठा रहा, सिर्फ यह कहना चाहता हूँ कि अगर वे लोग अपने ही इतिहास से सबक ले सके होते तो निश्चय ही स्थिति फर्क होती. 

माना कि हमारे तत्काल अतीत के वे लोग शासक के रूप में बाहर से आए थे, मगर उनके  रोजमर्रा के सरोकारों का सम्बन्ध तो इसी धरती के साथ था. पहले भी ऐसे लोग थे, मगर अंगरेज प्रशासक तो खुद इतने जानकार थे कि खुद ही नीति तय कर सकते थे, मगर उन्होंने जनता से जुड़ा प्रत्येक निर्णय लेने से पहले संसार की यथासंभव श्रेष्ठ प्रतिभा को आमंत्रित किया. 

भारतीय शिक्षा और भाषा के मामलों में नीति तैयार करने के लिए ब्रिटिश हुकूमत ने अपने वक़्त के आधिकारिक विद्वानों : लार्ड मेकॉले (इंग्लिश एजुकेशन एक्ट, 1835) और विलियम हंटर (कमीशन ऑफ़ इंडियन एजुकेशन, 1882) को विशेष रूप से आमंत्रित किया और भारतीय जनता आज तक उनके योगदान को याद करती है. क्या यह अनायास है कि आजादी से डेढ़ सौ वर्ष पहले भारतीय भाषा और शिक्षा व्यवस्था के बारे में दी गई मेकॉले और हंटर की संस्तुतियाँ लगभग उसी रूप में हमारे देश में आजादी की आधी सदी के बाद भी लागू हैं. 

हमारी स्थानीय जड़ों की जो व्याख्या वे हमें सौंप गए थे, उनका विस्तार करना तो दूर, हमने अपनी जड़ें उनमें उलझाकर अपना वजूद ही मानो नष्ट कर दिया है. एक आत्महंता का वरण किया है मानो हमने. आम मध्यवर्गीय लोगों के बीच जिस मैकॉले को विगत दो सौ वर्षों में हमने ‘प्राण’ और ‘केएन सिंह’-नुमा बौलीवुडी खलनायकों की तरह अपने दिल में बसाए रखा है (परदे में जिनसे नफरत करते हैं और वास्तविक जिंदगी में प्यार) हममें से ज्यादातर लोगों ने कभी यह जानने की कोशिश नहीं की कि मेकॉले की वास्तव में मंशा क्या थी.
सन 1835 में मेकॉले ने, जो उस समय गवर्नर जनरल की शासन समिति के एक प्रमुख सदस्य थे, अंगरेजी शिक्षा का प्रचार करने के प्रश्न को एक नए उदार ढंग से सरकार तथा अंगरेजी जनता के सामने रखा. उन्होंने अपनी स्मृति टिप्पणी में इस प्रकार के उद्गार व्यक्त किये :
हो सकता है कि योरोपीय शिक्षा-दीक्षा के ग्रहण करने से भारतीय जनता का मस्तिष्क इतना विकसित हो जाए कि वह वर्तमान शासन पद्धति से उकता उठे और वह योरोपीय शासन पद्धति की राजनीतिक संस्थाओं की माँग करने लगे. यह तो मैं नहीं कह सकता कि वह दिन कभी आएगा या नहीं; परन्तु यदि वह आया तो अवश्य ही वह अंगरेजों के इतिहास में अति गर्व का दिन होगा... हो सकता है कि राजदंड हमारे हाथ से निकल जाय... परन्तु क्या ही अच्छी वह विजय है जिसमें दूसरी ओर पराजय होती ही नहीं.” (रामगोपाल : स्वतंत्रता-पूर्व हिंदी के संघर्ष का इतिहास, पृष्ठ 10)
रामगोपाल आगे टिप्पणी करते हैं, ‘एक बार पुनः गवर्नर जनरल की समिति में अंग्रेजी शिक्षा पद्धति को प्रोत्साहन देने के प्रस्ताव का विरोध हुआ. स्वयं गवर्नर जनरल विलियम बेन्टिंग ने कहा – ‘संभव है भारत की देशी शिक्षा पद्धति में हस्तक्षेप करने से लाभ की तुलना में हानि अधिक हो, मैं यह बात अनुभव के आधार पर कह रहा हूँ; अन्य भारतीय संस्थाओं में हस्तक्षेप करने का फल अच्छा नहीं निकला है.’महीनों तक मेकॉले की टिप्पणी विवाद का विषय बनी रही, परन्तु अंत में समिति ने बहुमत से मेकॉले के प्रस्ताव को स्वीकार किया कि ‘भारत के लोगों में योरोपीय साहित्य तथा विज्ञान का प्रसार करना अंग्रेजी सरकार का महान ध्येय होना चाहिए; अतः शिक्षा सम्बन्धी अनुदान की सम्पूर्ण धनराशि का उपभोग केवल अंग्रेजी शिक्षा प्रदान करने के लिए किया जाय.’

हिंदी, जो कि निश्चय ही समूचे उत्तर भारत की सुपरिचित भाषा थी (स्पष्ट ही अपनी उप-भाषाओँ और बोलियों के कारण), की राष्ट्रीय छवि को अवरुद्ध करने में अंग्रेज प्रशासकों की अपेक्षा क्षेत्रीय और मजहबी सोच के लोगों और देसी संगठनों का भी योगदान है. इनमें से कुछ लोग एक दूसरे के विचारों का प्रतिवाद करते हुए भी दिखाई देते हैं किन्तु साफ दिखाई देता है कि इनका उद्देश्य जन-सामान्य की समस्याओं को सुलझाने के बजाय दिमागी कसरत और भाषा सम्बन्धी अपनी जानकारी का प्रदर्शन है. आर्य समाज, धर्म समाज, वगैरह हिन्दू संगठनों के हाशियों और मिशनरियों के प्रयासों पर बातें बाद में करेंगे, पहले हिंदी क्षेत्र के बुद्धिजीवी पक्ष पर बातें.

उदाहरण के लिए ही बिहार में तैनात शिक्षा विभाग से जुड़े तीन अधिकारी,
1. मुंगेर के ज्वाइंट मजिस्ट्रेट डॉ. ग्रियर्सन,
2. मुंगेर के ही एक अन्य अधिकारी जॉन क्राइस्ट और
3. भागलपुर डिविजन के शिक्षा इन्स्पेक्टर राधिका प्रसन्न मुकर्जी.

तीनों ने हंटर शिक्षा आयोग में अपने विचार व्यक्त किये मगर उनमें जन-भावनाओं का वह स्वर नहीं है जो भारतेंदु के प्रतिवेदन में है. ग्रियर्सन ने 1882 में ही ‘कलकत्ता रिव्यू’में प्रकाशित अपने लेख में लिखा, (आयोग को अपना वक्तव्य सौंपने वाले दूसरे अनेक लोगों का जिक्र विस्तार के भय से यहाँ नहीं कर पा रहा हूँ, हालाँकि उनमें से अनेक लोगों का योगदान भारतेंदु के बराबर ही था)

‘जो भाषा हिंदी कहलाती है वह बिहार के नव्वे प्रतिशत लोगों की भाषा नहीं है... किताबी हिंदी तो सरकार के आदेश पर बनाई गयी थी, जब 60 या 70 वर्ष पहले ‘प्रेम सागर’ लिखा गया था, यह बनावटी भाषा है; यह तो सच है कि इसका प्रयोग वे हिन्दू करते हैं जिनकी मातृभाषाएं अलग-अलग हैं; क्योंकि हिंदी कोई भाषा नहीं है, और क्योंकि यह सरकार के आदेश पर 60 या 70 वर्ष पूर्व बनाई गयी थी; इसलिए इसे किसी भी हालत में अदालत या स्कूल के लिए न अपनाया जाये... बिहार में शिक्षा विभाग ने हिंदी को मान्यता देकर गलती की है. तुलसीदास की ब्रजभाषा, जो बिहार में कुछ कक्षाओं में पढाई जाती है, बिहार के लिए गैर भाषा है.’ ग्रियर्सन ने ये भी कहा कि ‘हिंदी में ऐसे शब्दों का प्रयोग किया जाता है, जिसे मुसलमान नहीं समझते.’ आदि-आदि.

इसके उलट जॉन क्राइस्ट ने कहा, ‘नागरी हिन्दुओं की सम्मानित लिपि है (जैसा कि इसके नाम से ही प्रकट है) और मैं कह सकता हूँ कि मानव के मस्तिष्क से निकली हुई वर्णमालाओं में यह सबसे अधिक पूर्ण वर्णमाला है; परन्तु यह उतनी तेजी के साथ नहीं लिखी जा सकती जितनी तेजी से कैथी लिखी जा सकती है... रोमन लिपि एक विदेशी वर्णमाला है. इसे लोग पसंद नहीं करेंगे. फारसी लिपि दरिद्र है और अदालती कम के लिए उपयुक्त नहीं है. कैथी ही एक ऐसी लिपि है जो सर्वत्र प्रचलित है. इसका लिखना आसन है; अतः अदालतों में इसी का प्रयोग होना चाहिए.’

राधिका प्रसन्न मुकर्जीने भी ग्रियर्सन के तर्कों का कड़ा प्रतिवाद किया

‘यह कहना गलत है कि ‘प्रेम सागर’ से पहले हिंदी थी ही नहीं... सदियों  से बंगाली और हिंदी में काव्य साहित्य के खाने मौजूद हैं. यदि वर्तमान काल में हिंदी ने बंगाली के बराबर उन्नति नहीं की है तो इसका कारण यह है कि चालीस वर्ष से अधिक हुए बंगाली, फारसी से छुटकारा पाकर कचहरियों की भाषा मान ली गयी, परन्तु हिंदी सरकार के बारम्बार प्रयत्न के बावजूद भी कचहरी से बाहर है...’

एक अन्य रोचक ‘विद्वत्ततापूर्ण’ तर्क देते हुए मुकर्जी लिखते हैं, ‘यदि हिंदी साधारण बोलचाल की भाषा से भिन्न है, तो इसमें अचम्भे की क्या बात है? मैं अधिकृत रूप से कह सकता हूँ कि जर्मन, अंग्रेजी तथा इटैलियन भाषाओँ के विषय में भी यही बात कही जा सकती है... फिर बिहार के हिन्दुओं की बनारस तथा लखनऊ के इर्द-गिर्द के प्रदेश की भाषा तथा संस्कृति के प्रति श्रद्धा है.’
(सर सैय्यद अहमद खान)

सबसे रोचक तर्क सर सैयद अहमद खान का है जिन्होंने उर्दू को सभ्यों की और हिंदी (खड़ी बोली) को असभ्यों की भाषा तक कह डाला. इस पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए भारतेंदुने लिखा, ‘मुझे यह जानकर बहुत खेद हुआ कि माननीय अहमद खां बहादुर, सी. एस. आई., ने आयोग के सामने अपनी गवाही में कहा है कि सुसभ्य वर्ग की भाषा उर्दू है और असभ्य ग्रामीणों की हिंदी है. यह कथन गलत तो है ही, हिन्दुओं के प्रति अन्यायपूर्ण भी है. इसका अर्थ यह हुआ कि कुछ कायस्थों को छोड़कर, अन्य सब अर्थात् क्षेत्रीय महाजन, जमींदार, यहाँ तक कि आदरणीय ब्राह्मण भी, जो हिंदी बोलते हैं, असभ्य ग्रामीण हैं.’ (पृष्ठ 38)

अपनी गवाही में भारतेंदु ने पूरे विश्वास के साथ जन-भावनाओं का प्रतिनिधित्व करते हुए लिखा, ‘सभी सभी देशों की अदालतों में उनके नागरिकों की बोली और लिपि का प्रयोग किया जाता है. यही ऐसा देश है जहाँ अदालती भाषा न तो शासकों की मातृभाषा है और न प्रजा की. यदि आप दो सार्वजनिक नोटिस, एक उर्दू में, तथा एक हिंदी में, लिखकर भेज दें तो आपको आसानी से मालूम हो जाएगा कि प्रत्येक नोटिस को समझने वाले लोगों का अनुपात क्या है. जो सम्मान जिलाधीशों द्वारा जारी किये जाते हैं उनमें हिंदी का प्रयोग होने से रैयत और जमींदार को हार्दिक प्रसन्नता प्राप्त हुई है. साहूकार और व्यापारी अपना हिसाब-किताब हिंदी में रखते हैं. स्त्रियाँ हिंदी लिपि का प्रयोग करती हैं. पटवारी के कागजात हिंदी में लिखे जाते हैं और ग्रामों के अधिकतर स्कूल हिंदी में शिक्षा देते हैं.’ (वही)      

भारतेंदु अपने दृष्टिकोण में अपने समकालीनों की अपेक्षा इसलिए भी अलग और विशिष्ट हैं क्योंकि वह जन-भावनाओं की सीढ़ी अभिव्यक्ति हैं. स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान भारतीयों के द्वारा भाषा और शिक्षा को लेकर जो भी आवाज उठाई गई, उसमें एक शुद्धतावादी स्वर बहुत साफ दिखाई देता है. जनता के द्वारा गांधीजी को दिए गए विभिन्न प्रतिवेदनों को छोड़ दें तो सीधे सरकार के विरुद्ध पहली आवाज के रूप में श्यामसुंदर दासऔर मदन मोहन मालवीयके नेतृत्व में आन्दोलन उभरा, हालाँकि यह आन्दोलन अपनी प्रकृति में शांत और शुद्धतावादी था. इस सन्दर्भ में भी रामगोपाल इसी की पुष्टि करते दिखाई देते हैं. उनके अनुसार, “सन 1893 की दो घटनाएँ उल्लेखनीय हैं. 

उस वर्ष काशी में नागरी प्रचारिणी सभाकी स्थापना हुई. उसी वर्ष रोमन लिपि को भारतीय भाषाओँ के लिए अपनाने का प्रस्ताव पुनः उठाया गया. दो-तीन वर्ष तक उस प्रस्ताव की चर्चा मात्र होती रही. परन्तु 1896 में यह बात दृढ़ता के साथ फैलने लगी कि पश्चिमोत्तर प्रदेश की सरकार अदालतों तथा अन्य दफ्तरों में फारसी अक्षरों के स्थान पर रोमन लिपि को प्रचलित करना चाहती है. उस समय नागरी लिपि का कोई सरकारी अस्तित्व नहीं था; रोमन की स्वीकृति से जिस भाषा या लिपि को तुरंत हानि पहुँचने का भय था, वह थी, उर्दू. परन्तु इस प्रस्ताव से उन अनेक लोगों की आकांक्षा पर भी पानी फिर जाता जिन्हें यह आशा थी कि वे हिंदी भाषा और नागरी लिपि को सरकारी दफ्तरों में प्रविष्ट कराकर ही चैन लेंगे. जैसा कि श्री श्याम सुन्दर दास ने लिखा है, ‘यदि एक बार रोमन अक्षरों का प्रचार हो गया तो फिर देवनागरी अक्षरों के प्रचार की आशा करना व्यर्थ होगा.’

इसी वक़्त नागरी प्रचारिणी सभा ने इस प्रस्ताव के विरुद्ध आवाज उठाते हुए धन एकत्र किया और 1896 में ‘नागरी करेक्टर’ (The Nagri Character) शीर्षक से एक पुस्तिका प्रकाशित की. इस विरोध ने कोई आन्दोलन का रूप तो नहीं लिया, परन्तु सरकार के लिए यह जानकारी काफी थी कि जनता में रोमन के प्रति व्यापक विरोध भावना है. सरकार ने इसके लिए एक समिति नियुक्त की जिससे कहा गया कि विवाद का निरीक्षण करके उचित सिफारिश प्रस्तुत करे. समिति ने रोमन के पक्ष में अपनी सहमति दी परन्तु प्रश्न यह था कि सरकार सार्वजनिक भावना को अकारण क्यों ठुकरा दे. अतः उसने समिति की सिफारिश अस्वीकृत कर दी, और 27 जुलाई, 1896 को अपने निर्णय की घोषणा करते हुए कहा कि ‘रोमन के प्रचार से सरकारी अफसर देश की भाषा के प्रति उदासीन हो जायेंगे.’

हिंदी सम्बन्धी आन्दोलन की बागडोर अब पंडित मदन मोहन मालवीयके हाथों में थी. उनके शुद्धतावादी प्रलोभन भी बहुत अनुकूल असर नहीं पड़ा. गवर्नर ने 2 मार्च, 1898 को अपने पत्र में उत्तर दिया, ‘इन प्रान्तों में चार करोड़ सत्तर लाख लोग बसते हैं, और जो अनुसन्धान प्रसिद्ध भाषाविद डॉक्टर ग्रियर्सन प्रत्येक जिले की भाषाओँ की जाँच के सम्बन्ध में कह रहे हैं, उससे यह प्रकट होता है कि इन चार करोड़ सत्तर लाख मनुष्यों में से चार करोड़ पचास लाख मनुष्य हिंदी या उसकी कोई बोली बोलते हैं. अब यदि चार करोड़ पचास लाख मनुष्य उस भाषा को लिख भी सकते जिसे वे बोलते हैं तो निःसंदेह फारसी के स्थान पर नागरी के अक्षरों को प्रचलित किया जाना अत्यंत आवश्यक होता. इन चार करोड़ पचास लाख लोगों में से तीन लाख से कुछ कम लिख और पढ़ सकते हैं और इन शिक्षित लोगों में एक अच्छा अंश मुसलमानों का है जो उर्दू बोलते हैं और फारसी अक्षरों का व्यवहार करना पसंद करते हैं. इससे आप लोग समझ सकते हैं कि यद्यपि मैं नागरी अक्षरों के विशेष प्रचार के पक्ष में हूँ, पर मैं यह बात कह देना उचित समझता हूँ कि जितनी आप लोग समझते हैं उससे अधिक आपत्तियां इसके पूर्ण प्रचार की अवरोधक हैं... मुसलमान लोग, जैसा कि आप लोग अनुमान करते हैं, इस परिवर्तन का विरोध करेंगे..’
इसके बावजूद सर एंटोनी ने यह बात स्वीकार की कि ‘यह उचित नहीं है कि ऐसा पुरुष जो नागरी लिख सकता हो, सरकार के पास भेजने के लिए अपने आवेदन पत्र या मेमोरियल को फारसी भाषा में लिखवाने का कष्ट सहन करे. यह भी अनुचित लगता है कि एक सरकारी आज्ञा जो ऐसे गाँवों के लिए निकाली जाय जहाँ के वासी हिंदी बोलते हों, फारसी अक्षरों में लिखी हो, जिसे उस गाँव में कोई भी न पढ़ सके.’ गवर्नर ने कोई निर्णय नहीं लिया और हिंदी-उर्दू प्रश्न एक राजनीतिक प्रश्न बनकर रह गया.

इस सन्दर्भ में भी भारतेंदु के विचार बहुत स्पष्ट और व्यावहारिक हैं. आज यह बात साफ महसूस होती है कि अगर 1882 में उनके भाषा सम्बन्धी विचारों को अपनाया गया होता तो सामान्य जन के मन में हिंदी की स्थिति कुछ और होती. कम-से-कम हमारा समाज आम जनता का पक्ष ले रहा होता.

हंटर कमीशन ने अपने छठे सवाल में भारतेंदु से पूछा, ‘ग्रामीण क्षेत्रों में प्रारंभिक शिक्षा का प्रसार करने के लिए सरकार किस हद तक सहायता प्राप्त या सहायता रहित निजी जन-प्रयत्न पर निर्भर रह सकती है?

इसके उत्तर में भारतेंदु ने दो टूक शब्दों में कहा, “अभी वह समय नहीं आया है, जब ग्रामीण क्षेत्रों में प्राम्भिक शिक्षा के प्रसार के लिए सरकार निजी प्रयत्नों पर निर्भर रह सके. यदि अप्रत्यक्ष रूप से भी सरकार शिक्षा क्षेत्र से हट जाएगी तो शिक्षा कार्य नष्ट हो जाएगा. चिरकाल से इस देश के निवासी हिन्दू राजाओं और मुसलमान बादशाहों के निरंकुश शासन के अधीन रहे हैं, इसलिए उनमें निर्भरता तथा दासता की आदत पड़ गयी है. या आदत उनके स्वभाव में समा गई है. उनके स्वभाव को स्वाधीनता के मुक्त विचारों से प्रेरित करने में अंग्रेजी सरकार के दयालु शासन को बहुत दीर्घ समय लगेगा. 

भारत में, जहाँ अभी सभ्यता का प्रभात ही है, ऐसा कदम अभी असामयिक होगा. हमें यह न भूल जाना चाहिए कि इंग्लैण्ड तथा अन्य यूरोपीय देशों में, जो सभ्यता से सम्बंधित सभी बातों में हमसे बहुत आगे हैं, प्राथमिक शिक्षा अनिवार्य है. यदि हम शिक्षा विभाग के परिलेखों पर दृष्टि डालें तो हम देख सकेंगे कि सरकारी प्रयत्न द्वारा इस देश में शिक्षा ने कितनी प्रगति की है. यद्यपि इस देश के लोग प्राथमिक शिक्षा के लिए स्थानीय टैक्स देते हैं परन्तु उन्हें इस बात की कोई खास परवाह नहीं है कि उनके गाँव में कोई स्कूल खोला जा रहा है या बंद किया जा रहा है. वे शिक्षा कर का भुगतान यह समझ कर करते हैं कि यह सरकारी कर है. उनमें यह विचार पैदा नहीं होता कि इसके साथ उनका हित भी सम्बद्ध है. सीधे सरकारी हस्तक्षेप से ही यह देश समृद्धि की और अग्रसर हो सकता है.” (पृष्ठ 92)
Sir William Wilson Hunter

अंग्रेज प्रशासकों ने धर्म के आधार पर हिंदी-उर्दू विवाद खड़ा करके भाषा के मामले को कुछ हद तक लटकाने का माहौल जरूर बनाया था, मगर भाषा एक बौद्धिक उपक्रम है, इसलिए उन्होंने इसे तत्कालीन कांग्रेसियों की अपेक्षा अधिक व्यावहारिक रूप में सुलझाया. देखा जाये तो ब्रिटिश सरकार की अपेक्षा गाँधी जी का नजरिया अधिक इकतरफा लगता है. गाँधी ही नहीं, आर्य समाज, धर्म समाज, देवनागरी प्रचारिणी सभा, मेरठ आदि तमाम संस्थाओं से जुड़े कार्यकर्ताओं  का उद्देश्य भाषा, साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में रचनात्मक योगदान न देकर संख्या-आधारित जनमत एकत्र करना था. उनके दिमाग में भाषा-नीति का कोई खाका न होकर एक ही बात थी कि अंग्रेजों की भाषा अंग्रेजी के स्थान पर हिन्दुओं की भाषा हिंदी को लाना है जो अपने-आप में अधिक सांप्रदायिक सोच था. उनके पास अपना कोई सोच तो था नहीं, इसलिए गाँधी जी जो निर्णय लेते थे, कार्यकर्ता आँख बंद कर उस पर पिल पड़ते थे. एक बहुभाषी और सांस्कृतिक विविधताओं में फैले इस देश को भाषा के मामले में एक ही लाठी से तो नहीं हांका जा सकता था. शायद यही कारण है कि हिंदी से जुड़ा समूचा भाषा आन्दोलन कुछ हद तक मजहबी आन्दोलन की छवि देने लगा था.


(पांच)
संभव है कि ब्रिटिश शासकों का भी मामले को मजहबी रूप देने में हाथ रहा हो, मगर हंटर कमीशन के अधिकतर सवाल मामले की गहराई में जाकर वास्तविकता जानने के प्रयास लगते हैं. उदाहरण के लिए कमीशन ने भारतेंदु से पूछा था. ‘जो देशी भाषा मान्यता प्राप्त है और स्कूलों में पढ़ाई जाती है, क्या वही लोगों की बोली है? यदि नहीं, तो क्या इस कमी के कारण वह कम उपयोगी और कम जनप्रिय है?’
भारतेंदु जी ने इस सवाल के उत्तर में अपना जो पक्ष रखा है, उसी में आज की उस उहापोह का समाधान भी शामिल है जिसका मैंने इस लेख के आरम्भ में जिक्र किया है. भारतेंदु ने लिखा, “वास्तव में हमारी बोली क्या है, इस प्रश्न का उत्तर देना कुछ कठिन है. भारत में यह कहावत प्रसिद्ध है – बल्कि यह प्रमाणित सत्य है कि प्रत्येक योजन (आठ मील) के बाद बोली बदल जाती है. अकेले उत्तर पश्चिमी प्रान्त में कई बोलियाँ हैं. इस प्रान्त की भाषा एक गहन चीज है, उसके बहुत से रूप हैं. और इसलिए उसे कई उप-शीर्षकों में विभाजित किया जा सकता है; परन्तु इसके मुख्य रूप चार हैं : 1. पूर्वी, जिस रूप में वह बनारस तथा उसके पड़ौस के जिलों में बोली जाती है; 2. कन्नौजी, जो कानपुर तथा उसके आसपास के जिलों में बोली जाती है; 3. ब्रजभाषा, जो आगरा तथा उसकी सीमा के क्षेत्रों में बोली जाती है; 4. कय्यान या खड़ी बोली जिस रूप में वह सहारनपुर, मेरठ तथा उसके इर्द-गिर्द के जिलों में बोली जाती है...

“इन चार रूपों में से केवल दो ऐसे हैं जिनकी और ध्यान आकृष्ट होता है – ब्रजभाषा और खड़ी बोली. ब्रजभाषा का प्रयोग हिंदी की पद्य रचना में किया जाता है, और खड़ी बोली दो विभिन्न रूपों में सारे प्रान्त में बोली जाती है. जब उसमें फारसी शब्दों का प्रचुर प्रयोग किया जाता है और वह फारसी शब्दों की लिपि में लिखी जाती है, तो वह उर्दू कहलाती है, जब वह बाह्य मिश्रण से अछूती होती है, और नागरी लिपि में लिखी जाती है, तब वह हिंदी कहलाती है; अतः हम इस निष्कर्ष में पहुँचते हैं कि उर्दू-हिंदी में कोई वास्तविक भेद नहीं है...
“अंग्रेजी राज में उर्दू को जो मान प्राप्त है वह इसलिए है कि उर्दू अदालती भाषा है. मुसलमानों की जबान तीक्ष्ण और रसीली तो होती ही है, वे अति उग्र और हठी भी होते हैं. यही कारण है कि वे अन्य लोगों को दबा लेते हैं...

“हमारी सरकार का तर्कसिद्ध और न्यायोचित सिद्धांत यह है कि वह प्रजा के बहुसंख्यक लोगों की इच्छा के अनुसार काम करती है. फिर यह क्यों नहीं देखा जाता कि हिंदी पढ़ने वाली जनता की तुलना में उर्दू पढ़ने वालों का क्या अनुपात है. मैं अनुरोध करके आयोग का ध्यान 1873-74 के आलेख की ओर आकृष्ट करना चाहता हूँ...

“बनारस जिले में जिसका मैं निवासी हूँ, चालू वर्ष में देशी भाषा के स्कूल 103 हैं. इनमें से केवल 8 में उर्दू और हिंदी दोनों पढ़ाई जाती है, शेष में केवल हिंदी की शिक्षा दी जाती है...”

स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में हिंदी भाषा और शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए केवल दो लोगों का उल्लेख किया जाता है, प्राथमिक शिक्षा में गाँधी और उच्च शिक्षा में मालवीय जी का. ऐसी छवि प्रस्तुत की गयी है कि इन दोनों ने चंदा करके भारत के हिंदी क्षेत्र में शिक्षा की ज्योति जगाई.  इस सन्दर्भ में भी आयोग द्वारा भारतेंदु से पूछे गए इक्कीसवें प्रश्न का उनके द्वारा दिया गया उत्तर प्रस्तुत कर रहा हूँ.

भारतेंदु ने लिखा, “कुछ अति निम्न जातियों को छोड़कर सभी जातियों के लोग सरकारी कालिजों और सहायता-प्राप्त स्कूलों की सेवाओं का उपभोग करते हैं. मुसलमान इन संस्थाओं का उपभोग कम करते हैं. वे अंग्रेजी शिक्षा के विरुद्ध हैं. वे सरकारी स्कूलों में प्राप्य भाषाएँ सीखने के भी विरुद्ध हैं. उनकी धार्मिक प्रवृत्तियां भली भांति विदित हैं, इसका कारण खोजने की आवश्यकता नहीं है...

मेरे ख्याल में यह बात कि धनी वर्ग के लोग शिक्षा के लिए पर्याप्त धन-सहायता नहीं देते, बिलकुल निराधार है. यदि हम इस प्रान्त के कालिजों और स्कूलों के इतिहास पर दृष्टि डालें तो हमें पता चलेगा कि इस देश के सभी व्यक्तियों ने किस उदारता से शिक्षा के लिए धन सहायता दी है.कुछ व्यक्ति यह भी कह सकते हैं कि इन धनियों ने केवल आंग्ल-भारतीय अफसरों को खुश करने के अभिप्राय से सहायता दी है, परन्तु इस बात से तो यही सिद्ध होगा कि जनता में दासता की प्रवृत्ति है और यह प्रकट होगा कि बड़े काम सरकारी हस्तक्षेप द्वारा आसानी से पूरे किये जा सकते हैं.’

इसके बाद भारतेंदु ने जन-सहयोग से निर्मित इन शिक्षा-संस्थाओं की सूची प्रस्तुत की है : 1. आगरा कालिज (डेढ़ लाख रूपये की रोकड़ के ब्याज से 1823 में पंडित गंगाधर द्वारा) जिसमें आगरा, अलीगढ़ और मथुरा जिलों के कई गाँवों का लगान जमा होता था, ग्वालियर, भरतपुर के दरबारों से छात्रवृत्तियाँ और बीस हजार की अतिरिक्त छात्रवृत्ति राशि; 2. बनारस कालिज, जिसमें जनता के चंदे से एक लाख तीस हजार से भवन निर्माण के अलावा छोटे-छोटे दान-कोशों से पैतीस हजार पांच सौ रुपये; म्यूर कॉलेज, इलाहाबाद, जिसमें लोगों ने डेढ़ लाख भवन निर्माण के लिए और बासठ हजार छात्रवृत्तियों के लिए एकत्र किया; मुरादाबाद जिला स्कूल, मिर्जापुर जिला स्कूल, बाँदा जिला स्कूल, बदायूं स्कूल, कानपुर का आंग्ल-देशी भाषा स्कूल, इटावा हाई स्कूल के अलावा फर्रूखाबाद, मथुरा, शाहजहाँपुर, एटा, बिजनौर, फतेहपुर, गोरखपुर, हमीरपुर, झाँसी, ललितपुर, मेरठ, मुजफ्फरनगर, सहारनपुर के स्कूलों का भी विवरण दिया है.

भारत के शिक्षा नियोजन के सन्दर्भ में जन-भागीदारी से जुड़े भारतेंदु के इन विचारों को विशेष रूप में ध्यान में रखा जाना चाहिए. स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद शिक्षा क्षेत्र में आम आदमी के सरोकारों और उससे जुड़ी भाषा-अभिव्यक्ति की बातें तो खूब की गईं मगर सारा नियोजन औपनिवेशिक मानसिकता के इर्द-गिर्द सिमटा रहकर सामान्य व्यक्ति से लगतार कटता चला गया.
अंत में मैं 1918 में हिंदी साहित्य सम्मलेन के इंदौर अधिवेशन में हिंदी को लेकर प्रस्तुत किये गए गाँधी जी के विचारों के सापेक्ष उससे 36 वर्ष पूर्व 1882 में हंटर कमीशन को लिखे गए भारतेंदु के विचार प्रस्तुत करना चाहता हूँ. दोनों ने ही अपने दौर में प्रचलित जन-सामान्य की भाषा के दो रूपों – हिंदी और उर्दू – की तुलना करते हुए अपनी जातीय भाषा का पक्ष रखा है. दोनों का आशय एक ही है. मगर गाँधी जी की तुलना में सहज ही मजहब की तौल निर्णायक बन जाती दिखाई देती है जब कि भारतेंदु की तुला में दोनों पल्लों पर हिंदी क्षेत्र का आम-आदमी बैठा हुआ साफ पहचाना जा सकता है... संस्कारों और संस्कृति से भरा-पूरा, मगर अभावग्रस्त एक भारतीय.

अपने भाषण में गाँधी जी कहते हैं:

जो मधुरता मुझे ग्राम की हिंदी में मिलती है वह न तो लखनऊ के मुसलमानों की बोली में है, और न प्रयाग के हिन्दुओं की. भाषा की नदी का उद्गम जनता के हिमालय में है. हिमालय से निकली हुई गंगा हमेशा बहती रहेगी, इसी प्रकार ग्राम की हिंदी हमेशा बहती रहेगी जब कि संस्कृतमय तथा फारसीमय हिंदी छोटी नदी की भांति जो छोटी-सी पहाड़ी से निकलती है, सूख जाएगी और लोप हो जाएगी. हिंदी और उर्दू का सद्संगम उतना ही सुन्दर होगा जितना गंगा और यमुना का, और वह सदैव रहेगा.”

और भारतीय सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में गाँधी जी के आगमन से ठीक 36 वर्ष पूर्व आधुनिक हिंदी साहित्य के प्रथम पुरुष भारतेंदु हरिश्चंद्र लिखते हैं:

हिंदी रचना से सम्पूर्ण फारसी शब्दों को निकालने का आग्रह करना भूल है. हम निम्न प्रकार की हिंदी भी नहीं चाहते: “नभोमंडल घनघटाच्छन्न होने लगा. विविध वट बाहुल्य से इस्ततः कुज्झिटिका निपात द्वारा रसातल तपोमय हो गया.” और न निम्न शैली की उर्दू चाहते हैं: “चूँकि दावा-ए-मुद्दई बिल्कुल बईद-अज-अक्ल व गुजिश्ता-अज-हद्दे-समआत व खिलाफ अज-कानून-ए-मुरव्विजा-ए-मुल्क-ए-महरूसा-ए सरकार है.”हम विशुद्ध सरल भाषा चाहते हैं, जिसे जनता समझती है और जो बहुसंख्य लोगों की लिपि में लिखी जाती है. विज्ञान की पुस्तकों में हमें प्राविधिक शब्दों का प्रयोग अवश्य करना पड़ता है क्योंकि उनके लिए हमारी भाषा में समानार्थक शब्द नहीं हैं. परन्तु हम चाहते हैं कि बच्चों की स्कूली पुस्तकों के लिए, अदालती कागजों में, समाचार पत्रों में सार्वजनिक भाषणों में सरल और सामान्य वार्तालाप की भाषा का प्रयोग हो, उसे ही हम सच्चे और सही अर्थों में अपनी मातृभाषा कह सकते हैं.”          

____________________
बटरोही 
जन्म : 25  अप्रैल, 1946  अल्मोड़ा (उत्तराखंड) का एक गाँव

पहली कहानी 1960के दशक के आखिरी वर्षों में प्रकाशित
हाल में अपने शहर के बहाने एक समूची सभ्यता के उपनिवेश बन जाने की त्रासदी पर केन्द्रित आत्मकथात्मक उपन्यास 'गर्भगृह में नैनीताल'प्रकाशित
अब तक चार कहानी संग्रह, पांच उपन्यास. तीन आलोचना पुस्तकें और कुछ बच्चों के लिए किताबें प्रकाशित.


इन दिनों नैनीताल में रहना. मोबाइल : 9412084322

कथा- गाथा : मुस्कराती औरतें : मैत्रेयी पुष्पा

$
0
0









मानसिक, शारीरिक और अनुकूलित हिंसा के ये तीनों रूप आपको परिवार रूपी संस्था में स्त्री के प्रति एक साथ देखने को मिलते हैं. इसमें सबसे खतरनाक है हिंसा का अनुकूलित रूप जिसमें पीड़िता यह खुद स्वीकार करने लग जाती है कि यह उसके ‘हित’ के लिए है.

घरेलू हिंसा और परिवार-समाज में स्त्री की स्थिति को लेकर कहानियाँ लिखी गयी हैं पर जब मैत्रेयी पुष्पा जैसी सिद्धहस्त कथाकार इस विषय को उठाती हैं तब यह अपने पूरे हिस्र और बनैले रूप में हमारे समाने एक दारुण यथार्थ बनकर समक्ष हो जाता है, जिसे हम आर्थिक स्वतन्त्रता कहते हैं वह भी अंतत:  यातना का सबब बन जाता है.


मैत्रेयी पुष्पा की कहानी मुस्कराती औरतें.



कहानी
मुस्कराती औरतें                          
मैत्रेयी पुष्पा




‘बेपरवाह यौवन’
ऐसे शीर्षक के साथ हमारी तसवीर अखबार में छपी है. अखबार गांव में आया. प्रधान के चबूतरे पर लोग देख रहे हैं. कह रहे हैं स्वर में स्वर मिलाकर- आवारा लड़कियां.मेरे सामने बरसों पुराना यह दृश्य है.

आवारा लड़कियों की ले-दे हो रही थी. आवारा लड़कियों को पता न था कि आवारा कैसे हुआ जाता है? मुरली ने अपनी मां से पूछ लिया कि हम आवारा कैसे हुए. मां ने मुंह से नहीं, मुरली की चोटी को झटके दे-देकर बताया था और बीच-बीच में थप्पड़ मारे थे, कहा था - भीगकर तसवीर खिचाने वाली लड़कियां आवारा नहीं हुईं तो क्या सती सावित्री हुईं?

मुरली जरा ढीठ किस्म की लड़की थी क्योंकि अक्सर ऐसा कुछ कर जाती, जिसकी सजा पिटाई के रूप से कम न होती. अपनी धृष्टता को बरकरार रखते हुए बोली- “न भीगते तो हम सती सावित्री हो जाते. तुम हमें मुरली न कहतीं, सती या सावित्री कहतीं?

“जवाब देती है, चोरी और सीनाजोरी” कहते हुए मां ने अबकी बार मुरली को अपनी जूती से पीटा क्योंकि उनके हाथों में चोट आ गई थी. मुरली के सिर से किसी के हाथ टकराएं और जख्मी न हों, ऐसा कैसे हो सकता है?

“अम्मां, सलौनी और चंदा भी तो भीगी थीं. बरसात हो तो गांव में कौन नहीं भीग जाता? सबके पास तो छाता होता नहीं है. फिर लड़कियों को तो छाता मिलता भी नहीं.” मुरली मार खाकर रोई नहीं, बहस करने लगी.

मां ने अबकी बार अपने माथे पर हथेली मारी, विलाप के स्वर में बोली-“करमजली, तू भइया का छाता ले लेती. बहुत होता मेरा लाल भीगता चला आता. ज्यादा से ज्यादा होता तो उसे जुकाम हो जाता, बुखार आ जाता पर तेरी बदनामी तो अखबार के जरिए दुनिया-जहान में जाएगी. भीगकर फोटू खिचाई, बाप की मूंछों को आग लगा दी. हाय, जिसकी बेटी बदफैल हो जाए, उससे ज्यादा अभागा कौन?” अम्मां ने मुंह पर पल्ला डाल लिया और मुरली अपने खींचे गए बेतरतीब बालों को खोलकर कंघी से सुलझाने लगी.

सामने भइया आ गया, तेरह साल की मुरली अपनी तंदुरुस्ती में भइया की पंद्रहवर्षीय अवस्था से ज्यादा विकसित, ज्यादा मजबूत और ज्यादा उठान शरीर की थी. भाई से बोली-“तू भीगता, तेरी फोटू कोई खींच लेता, अखबार में छाप देता, तू आवारा न हो जाता. छाता इसीलिए साथ रखता है.”

भइया माता-पिता के अपमान को अपनी तौहीन समझ रहा है, मुरली को पता न था. जब उसने कहा-“मैं लड़का हूं सो मर्द हूं. मेरी फोटू कोई कैसे खींचता? खींचकर करता भी क्या? कोई उसे क्यों देखता? सब लोग तेरी और रेनू की फोटू देख रहे थे आंखें फाड़-फाड़कर और फिर आवारा कहकर एक दूसरे को आंख मार रहे थे. मुझसे सहन नहीं हुआ, मैं भाग आया.”
मैंने, यानी रेनू ने एक अलबम बनाई थी उन्हीं दिनों.

मेरी अलबम में मैं हूं और मुरली है. तसवीर में हम दोनों भीगे हुए हैं. उस दिन वर्षा हो रही थी और हम घर से निकल पड़े थे. पेड़ों के नीचे छिपते फिरे. लेकिन पेड़ तो खुद ही भीग रहे थे. वे चिडि़यों तक को वर्षा से नहीं बचा पा रहे थे. गिलहरियां न जाने कहां छिप गई थीं, देखने पर भी नहीं दिखीं. एकमुश्त आकाश था, हमको नहलाता हुआ. दूर सामने चंदो कुम्हार का खच्चर था ध्यानावस्था में भीगता हुआ. हां, तालाब में बगुलों की पांतें थीं, भीगे पंखों से किलोलें करती हुईं. बारिश में उजागर दुनिया यही थी, हमारे साथ.

अचानक एक छाताधारी आता दिखाई दिया. अपने जूते भिगोता हुआ चर्रमर्र की आवाज करता हुआ चला आ रहा था. हमारे पास चला आ रहा है, मैं और मुरली अपने शरीरों से भीगे हुए चिपके कपड़ों से बेखबर उसे टकटकी बांधकर देख रहे थे.

उसने अपना कैमरा खोला और हमारी तसवीर खींच ली. हम कैमरे को देखकर नहीं, छाते वाले बाबू को देखकर हंस पड़े. हमारे हंसने का मकसद क्या था, हम भी नहीं जानते थे, मगर वह मुस्कराया, जैसे सब कुछ समझ रहा हो. उसने एक तसवीर और खींची.

जब हमें थप्पड़ और बाल खिचाई के बीच अखबार दिखाया गया तो हम उसमें खिलखिलाकर हंस रहे थे.

उसके बाद---मैं कई दिन तक डरी रही. बारिश भी कई दिनों तक बंद रही. मेरा दिल ऐसे ही सूख गया था, जैसे बादल सूखे-सूखे---मुरली भी अपने भीतर पनपते रूखे-सूखेपन को बर्दाश्त नहीं कर पा रही थी. वह अकसर ही मुझसे कहती-“ चल, बाहर चलते हैं. देखना हम हंसेंगे तो बादल बरसेंगे. बादल बरसेंगे तो छातेवाला आएगा. वह आएगा तो हमारी तसवीर खींचेगा. तसवीर खींचेगा तो अखबार में छापेगा. हम अखबार में होंगे तो दूर दुनिया तक जाएंगे.”

“यह तुझसे किसने कहा मुरली?
“उसी ने, जो फोटू खींच रहा था.”
“उससे तू मिलती है?
“मैं नहीं मिलती, वही मिल जाता है. ताल में नहाती चिडि़यों की तसवीर खींचता है. अखबार में छापता है, तब कोई नाराज क्यों नहीं होता? चिडि़यां भी तो लड़कियां ही होती हैं.”
“हाँ, होती हैं. मगर वे उड़ सकती हैं, हम कैसे उड़ें?” ऐसी बातें करते- सोचते हम बड़े होने लगे.

मुरली मुझसे बिछुड़ गई.

उसका ब्याह हो गया मेरी अलबम में. ब्याह के बाद एक तसवीर मुझे मुरली के भाई से मिली. मुरली उसमें आधा घूंघट किए गेहूं की रास की उड़ाई कर रही है. बांहें ऊपर उठी हुई हैं क्योंकि डलिया हाथ में है. फोटो के पीछे लिखा था-‘आर्थिक गुलामी की शिकार औरत
मेरा जी धक् से रह गया. मुरली और आर्थिक गुलामी- नहीं-नहीं---वह तो आवारा थी.

मैंने मुरली की यह तसवीर अपनी अलबम में लगा ली. समाजसेवी संस्था की सदस्य का दिया शीर्षक काट दिया. उसके नीचे लिख दिया-‘आवारा औरत’-क्योंकि मुझे दासी, गुलाम और सेविका से आवारा औरतशब्द ज्यादा ताकतवर लगता है.

इसके बाद, अलबम के तीन पृष्ठ खाली छोड़ दिए, मुरली के लिए. मगर बहुत दिनों तक कोई तसवीर मिल नहीं पाई. हां, खबर मिलती रही कि मुरली अपने घर है. लड़ाई-झगड़ा करती है, सो भइया भी उसकी ससुराल नहीं जाता. पिता जब भी बुलाए जाते हैं, मुरली से अपनी इज्जत रखने का कौल देकर आते हैं. मुरली मेहनत करती है, खेत-खलिहान उसी के दम पर आबाद हैं, यही माता-पिता का सहारा है और ऐसी कल्पनाओं से मायके वाले आश्वस्त रहते हैं.

मेरी मां कहती हैं-“गाँव की औरत गुलामी और मुक्ति का अंतर क्या जाने? अज्ञान और चेतनाहीन होती हैं. अपने श्रम को मुफ्त लुटाती रहती हैं, आर्थिक पराधीनता से जोड़कर देख नहीं पातीं. अनाज-गल्ले को खलिहान में देखकर खुश हो जाती हैं, बस.”
मुरली क्या करती होगी? मैंने एक पन्ने पर सवालिया निशान (?) लगा दिया है.

अगले पन्ने पर तसवीरें लगी हैं, मेरे साथियों, सहपाठियों की. उनके ब्याहों की---इसके बाद की तसवीर में मेरा ब्याह हो गया है. शादी की प्रमुख फोटो में मेरे साथ वर है और मां है. दूसरी तसवीर में मां के साथ महिला मंडल की वे स्त्रियां हैं, जो सामाजिक स्तर पर अपनी आधुनिक पहचान के साथ हैं. मां ने इन तसवीरों को मेरी अलबम में खास तौर पर क्यों लगवाया? ये सामाजिक कार्यकर्ता और अफसर औरतें ससुराल तक मेरे साथ अलबम के जरिए आई हैं, मां का क्या मकसद है? क्या इसलिए कि मैं गंवार मुरली के खयालों में न खोई रहूं? उसके उजड्ड-से व्यवहार को भूल जाऊं. उसकी आवारा प्रवृत्तियां मेरी शिष्टता का नाश करती हैं. अतः मुझे पढ़ी-लिखी भद्र महिलाओं, जिन्होंने अपने लिए प्रगति-पथ चुने हैं, उनसे आधुनिकता की ऊर्जा प्राप्त करके पुनर्नवा होना है. मेरी मां ममता और लाड़ का ऐसा खजाना नहीं कि मुझे कैसे भी खुश रखने की सोचे और मेरे लिए अन्य मांओं जैसा अधिक से अधिक दुलार उमड़ता आए ब्याह के बाद.

तसवीर वाली मेरी मां की आंखों में वह चुनौती रहती है, जिसे उन्होंने मेरे लिए खास तौर से रख छोड़ा है. जब भी फोटो देखती हूं, वे कहती नजर आती हैं-“गौर से देख, ये औरतें वे हैं, जो अपने पांवों खड़ी हैं. ये स्त्रियां पढ़- लिखकर घर से निकलीं, नौकरी कीं. आर्थिक स्वतंत्रता पैदा कर लीं. स्त्रियों के लिए आर्थिक पराधीनता बेडि़यों का काम करती है. तू समझ रही है न? कि अब भी तुझ पर मुरली सवार है? अनपढ़ लड़की---बेशर्म जात.”

हां, मैं मुरली की तरह ही अपने घर में हूं. कॉलेज की कई लड़कियों की तरह मैंने ब्याह को ब्याह के रूप में सुरक्षा कवच माना है. मां के हिसाब से मैंने ब्याह के किले में खुद को बंद कर लिया है. गृहस्थिन की तरह चारदीवारी में गुम होकर रह गई हूं. अगर मैंने नौकरी नहीं की तो निरंतर प्रताडि़त (?) होती रहूंगी. पराधीन की तरह मेरा शोषण किया जाता रहेगा.

क्या मैं यहां से निकलने का निर्णय भी ले सकती हूं? मैं अपने बूते रहने- खाने की सुविधा-साधन जुटा सकती हूं? मैं निरी गुलाम औरत, मां का वह मंत्र नहीं माना, जिसके चलते स्त्री कुछ कमाकर आत्मनिर्भर होती है. अपनी आजादी का बिगुल बजा सकती है. साथ में मर्यादा और शील का पालन करती है.

“आपका मंत्र अचूक नहीं है मां.” यह बात मैं आज तक इसलिए नहीं कह पाई क्योंकि नौकरीपेशा न होकर आश्रितों में शुमार की जाती हूं. बिना मुझसे
पूछे ही आश्रितकी चिप्पी मेरे वजूद पर मां ने चिपका दी है. बिना यह समझे कि मेरे घर में मेरी हैसियत क्या है, समझ लिया है कि मेरी आर्थिक पराधीनता ही मेरे दासत्व भरे गुणों की खान है.
मां ने कहा था-“उन औरतों को देख जो कामकाजी महिला होने के लिए, नौकरीपेशा बनने के लिए विवाह-बंधन तोड़ गईं. या उन्हें देख, जिन्होंने अपना कैरियर पहले अर्जित किया उसके बाद विवाह.”

मैं जानती हूं कि मां को ब्याह के पक्ष में लिया गया मेरा फैसला रास नहीं आया था. क्या मैं आर्थिक रूप से स्वतंत्र होती तो उनकी विवाह वाली राय में कोई अंतर आता? जबकि आर्थिक रूप से आज मेरा उन पर कोई वजन नहीं. सोच-विचार में डूबी थी, अनायास ही अलबम का पन्ना पलट गया.
अरे!

फूलकली मैडम-विकास खंड मोंठ की सहायक विकास अधिकारी (महिला) यानी कि ए- डी- ओ- (डब्ल्यू). इनकी उम्र अट्ठाइस से ज्यादा नहीं. फोटोजैनिक चेहरा ही नहीं, वे खासी लावण्यमयी स्त्री हैं. अच्छी लंबाई उन्हें और भी आकर्षक बनाती है. साड़ी पहनें या सलवार-कमीज, उन पर सब फबता है.

इनके बारे में मां ने ही बताया था-एम. ए. करने के बाद ट्रेनिंग के लिए चुनी गईं. नियुक्त हुईं बबीना ब्लॉक में और तबादला होकर आईं मोंठ ब्लॉक. योग्यता के बल पर पद नहीं मिलता तो योग्यता किस काम की? मां ऐसा मानती हैं. पद का आधार ही है कि ब्लॉक के रिहाइशी क्वार्टरों में शानदार घर मिला है. फूलकलीमैडम को. साथ में एक अर्दली भी. ग्रामीण इलाकों में दौरा करना होता है तो जीप भी मिलती है. मां, फूलकली मैडम को आजाद भारत की आदर्श स्त्री के रूप में देखती हैं. आदर्श रूप में खास बात यह भी है कि फूलकली मैडम किसी मजबूरी के कारण घर से नहीं निकलीं और न लड़की की नस्ल में पैदा हुई लड़की की तरह उन्होंने ब्याह किया. कैरियर सबसे पहले. आर्थिक आत्मनिर्भरता जन्मसिद्ध अधिकार की तरह हासिल की. ब्याह का क्या, ब्याह भी कर लिया अपनी सुविधा को देखते हुए एक ग्रामसेवक (वी. एल. डब्लू.) से. मेरी मां ने उनका यह निर्णय भी जी भरकर सराहा. पुरुष हमीं को अब कमजोर मानकर प्रताडि़त नहीं करेगा. ऊंचे स्तर पर न सही, बराबरी से सम्मान देगा. ऐसे फैसलों को देखकर ही तो मां मुझसे और भी खफा हो जाती हैं क्योंकि मैंने अपने लिए उनके बताए वरों को नजरअंदाज किया क्योंकि वे मुझे अयोग्य लगे.

मां खफा हो जाए, तब क्या वह मां नहीं रहती? मैं उनकी बेटी समय- समय पर खुद ही उनके पास पहुंच जाती हूं. माना कि नौकरी के कारण उन्हें मेरे पास बैठने का पर्याप्त समय नहीं मिलता, मगर मैं चाय बनाने और उनके लिए खाना तैयार करने को ही अपना मां-बेटी का निकटतम संबंध मानकर वहां बनी रहती. कपड़े धोना, रसोई की सार-संभाल करके क्वार्टर को घर बना देना, मेरी कला का नमूना मां के सामने पेश होता, मां चिढ़ जातीं.

मुझे नहीं पता था बिटिया कि मैंने तुझे पलोथन पीटने (रोटी बनाने) को ही पढ़ाया था. तू महाराजिन और कहारिन से ज्यादा क्या है? मुरली की संगत का असर देख लो कि पढ़ी-लिखी लड़की की योग्यता पर काली रंगत चढ़ी है.”
फूलकली मैडम मां से मिलने आईं.

हे भगवान्, करेला और नीम चढ़ा. मां मुझे मैडम के नाम की नसीहत दे- देकर हलकान कर देगी. कहीं मां ने उन्हें खास तौर पर मेरे रहते तो नहीं बुलाया? वे ही मुझे समझाएं, मैं अपने पांवों खड़ी हो जाऊं. यहीं ज्वाइन कर लूं, अनट्रेंड की तरह. ट्रेनिंग अगले साल हो जाएगी. बच्ची गोद में है तो क्या हुआ, नौकरी वाली औरतों के बच्चे क्या पलते नहीं?

फूलकली मैडम-मां ने उन्हें किन उम्मीद भरी नजरों से देखा है, मैं समझ गई और दहलने लगी. बच्ची को पालने से गोदी में उठा लिया.
खाना-पीना क्या कि दावत का शानदार नजारा, मां ने दिल खोल दिया और बेडरूम में उनके लिए नई चादर बिछाकर तकिया लगाकर आराम का बंदोबस्त किया.
अधलेटी मुद्रा में फूलकली मैडम मां से बतियाने लगीं-कुसुम बहन, मैं आज यहां आई इसलिए कि झांसी आई थी. इलाइट सिनेमा हॉल में बहुत पुरानी फिल्म लगी है, उसी को देखने आई.
मैंने पूछ लिया-“कौन सी पुरानी फिल्म?
“साधना.”
“यह कौन सी पिक्चर है?
“है, बड़ी अच्छी है. मुझे यह फिल्म अपने हस्बेंड को दिखानी थी खास तौर पर.”
“दिखाई?
“हाँ, दिखाई.”
“कैसी लगी उन्हें?
फूलकली मैडम चुप थीं. कुछ ही क्षणों में वे उदास हो गईं और फिर धीरे-धीरे अधिक से अधिक उदास---
मैडम गुनगुना रही थीं-

औरत ने जनम दिया मरदों को
मरदों ने उसे बाजार दिया
जब जी चाहा, मसला-कुचला
जब जी चाहा, दुतकार दिया---

गला भर आया था. आगे की लाइन गातीं, तब तक आंखें डबडबा आईं. “मैडम, यह बहुत रोने वाली पिक्चर है क्या? अपने हस्बेंड के साथ क्यों देखीं?” फूलकली मैडम अपनी आंखों को रूमाल से दबाए हुए---मगर रुलाई ने ऐसा रूप धारण किया कि उन्होंने अपना मुंह घुटनों में गाड़ लिया. दमा के रोगी की तरह उसांसें भरने लगीं. पीठ फफक रही थी.
मां ने उनकी पीठ पर हाथ रखा. मैं अनकहे भय से आक्रांत---

पूरे क्वार्टर में मौन शोकगीत-सा बजने लगा. मां कभी कमरे के बाहर जाएं कभी कमरे के भीतर आएं, मगर कहीं भी रुककर खड़ी न हो पाएं. उनका विश्वास, आश्वस्ति और भरोसेमंदी भूचाल के-से झटके झेल रहे हैं, यह चेहरे से जाहिर हो रहा था. क्या मां फूलकली मैडम का दुःख जानती हैं? या एकदम नहीं जानतीं? झटके-से क्यों खा रही हैं?

बीच-बीच में अब सुबकी आ रही थी, फिर भी मैडम ने मुझसे पूछा, “बड़े शहरों  में नौकरीपेशा स्त्रियों की दशा कैसी है?

मेरा खाली-खाली चेहरा, रीती-रीती नजर,---फिर कहा-“मैडम, नौकरीपेशा औरतों का दर्जा हमसे हर हाल में ऊंचा होगा. वे जब बाहर निकलती हैं, शानदार कपड़ों की ही नहीं, शाही चाल की भी मालकिन होती हैं. हम जैसियों से बातें ही कहां करती हैं कि हमें उनकी थाह हो. हमें ऐसे देखती हैं, जैसे हम ठलुआ हों. पति की पगार पर पैरासाइट की तरह जीने वाले पति की सेवा करते हुए जीवन बिताते हैं और वे बराबरी की भागीदारी करती साथिन.”

फूलकली के चेहरे के भाव मैं कैसे पढ़ूं? फिर भी लगा उनकी आंखों में विचित्र सी दुनिया फैली है. नजरों में आंधी-सी उठती है, जिसके झोंकों से खुद ही हिल जाती हैं और टूटी हुई डाल-सी तकिए पर गिर जाती हैं.

मां ने मेरे लिए धरती पर चटाई डाल दी, बच्ची के शू-शू, पॉटी का डर था. खुद भी पटरा डालकर बैठ गईं क्योंकि फूलकली मैडम ने उन्हें हाथ पकड़कर अपने पास बिठाना चाहा था.
चुप्पी के गहरे सन्नाटे के बाद वे नाक सिनकने बाहर नाली पर गईं. पानी से मुंह धोकर तरोताजा-सी हुईं.

मां से कहने लगीं“कुसुम बहन, मुझे नहीं पता था कि शादी की शर्तें पत्थर पर खुदी लकीरों की तरह होती हैं. उन लकीरों को कौन मिटा सकता है, जबकि अपना भविष्य ही पत्थर हो गया हो. कुसुम बहन, यह तो ब्याह के बाद ही पता चलता है कि पति को जीवनसाथी कहना कितना बड़ा झूठ है. शादी के बाद किसी भी लड़की को नया जन्म मिलता है, जीवन उसको अपनी तरह नहीं, दूसरों की इच्छा से ढालना होता है.”

“आप ऐसा कह रही हैं तो फिर आम औरत?” मां ने पूछा.
“आम औरत, जो पति पर आर्थिक रूप से निर्भर है, कम से कम अपनी खुद्दारी का भ्रम तो नहीं पालती. वह सहयोग चाहे न चाहे, सेवा करती जाती है. इसी काम को अपना जीवन मानती है.”

मैडम की बात पर मुझे मुरली याद आई. मुरली केवल पति-सेवा करके रोटी, कपड़ा और सिर पर छत पा गई होगी, इसी में संतुष्ट---मां ऐसे जीवन को धिक्कार की नजर से देखती हैं और मुझे भी, जबकि मैं पति को साधनाफिल्म विशेष रूप से दिखाने कभी नहीं लाई. हो सकता है अज्ञान ही हमारा कवच हो.

फूलकली मैडम कह रही थीं-“नौ’करी करके रुपए कमाने और धन को घर लाने का यह मतलब नहीं कुसुम बहन कि पति तुम्हें गैरमर्दों से मिलने- जुलने की सहमति दे देगा. उनके साथ मीटिंग में जाने देगा या रूरल टूरों पर जाने से पहले हंगामा न करेगा. एक चौकन्नी निगाह का घेरा मेरे इर्द-गिर्द रहता है और जब मैं दूर से थकी-हारी लौटती हूं तो पति की आंखों में फांकें पड़ी होती हैं. भाषा में व्यंग्य, गालियां और कटीले ताने-फ्किस यार के संग रात बिताई?

“क्या कह रहे हो? ऐसा बोलते हुए शर्म नहीं आती?
“शर्म! हा हा हा---रंडी होकर हमें शर्म सिखा रही है.”
“एक रात अकेले क्या रहे, दिमाग खराब हो गया?


“तेरी छिनाल की, साली जुबान लड़ाती है. चार पैसे क्या ले आई, कायदा भूल गई.” 


कहकर कमर की बेल्ट खोलने लगे. ऐसी मारपीट कि चेहरे पर नीले-काले निशानों को लेकर ऑफिस कैसे जाऊं? जाऊं तो अपनी चोटों को कैसे छिपाऊं! नहीं छिपें तो उनके बारे में क्या बताऊं? कटी ठोड़ी, सूजी हुई नाक, खून में लिपटे दांत---कुसुम बहन ये सजाएं मेरे रूरल टूरों पर उतरती हैं, जिनका ब्योरा मैं किसी को क्या दूं?

एक बार कह दिया-अगर ज्यादा परेशान करोगे तो यहां के लोग ही
तुम्हें---फिर क्या था, कहर टूटने लगा.
“कौन लोग हैं यहां के? बता कौन से आशिक तेरे, आए कोई साला, टांग पर टांग धरकर चीर दूंगा.”
मैं चुप रही. मैं फिर ऑफिस के लिए चल दी.
“कहाँ जा रही है?” बांह पकड़कर ऐसा झटका दिया, लगा कि कंधा ही उखड़ जाएगा.
एक क्षण को सोचा, क्यों नहीं लड़कियों के स्कूल में नौकरी कर ली?

और तभी उसने बांह पकड़कर ऐसे खींचा कि मैं गिरते-गिरते बची और खुद को साधते-साधते गिर ही गई. वह टांग पकड़कर घसीटने लगा. बाहर तक खिचेड़ता चला गया. कैंपस के भीतर सड़क पर---साड़ी कहां गई? पेटीकोट बचा था, खिचड़ते हुए वह भी फटने लगा. तार-तार चीर-चीर---लोग तमाशा भी नहीं देख पा रहे, अपने बरामदों में कहीं कोने या आड़ में छिपकर खड़े हैं. जो सामने पड़ गया, उसने आंखें मीच लीं. चेहरा घुमा लिया. विकास ऑफिस के इर्द-गिर्द एक खामोश भगदड़-सी---क्या सब चुप हैं? सब डर रहे हैं या पति के किए पर किसी को कुछ भी कहने का अधिकार नहीं? औरतें भी नहीं रोक रहीं मेरी फजीहत को---इन औरतों के लिए मैं काम करती हूं.

अब मैं तकलीफों के बीच अकेली, अपने अंगों की रगड़ खाने वाली आवाज मुझे सुनाई देने लगी. पति के हाथ में इस समय मेरी टांग है, मुझे बेइज्जत करने के नाना तरीके हैं. मैं लुढ़कती हुई मर्दाने फूत्कारों से घिरी हूं.

कोई कह रहा है-आदमी है इसका, कोई और नहीं. बीच में पड़ेगा जो, उसी को इलजाम लगा देगा.
उफ, यह इलजाम नाम की माला लेकर क्यों रहते हैं पति लोग? जब भी कुछ मन मुताबिक न हो, इस हथियार को दे मारते हैं, पत्नी के सिर पर. मेरी हड्डियां ताबड़तोड़ चटकने लगीं. मांस छिलते-छिलते सुन्न हो गया.

दूर खड़े लोगों के घेरे भयभीत हो रहे हैं क्योंकि मेरे शरीर से बहता खून धूप में चिलक रहा है. देखते ही देखते टांगों और जांघों के बाल झड़ गए.
“बस बस बस,” मां ने फूलकली मैडम का हाथ पकड़ लिया. उन्हें अपने कंधे से सटा लिया. मैडम फूट-फूटकर रोने लगीं जैसे वे अभी, इसी समय कुचली-मसली गई हों और बाजार में नुमाइश के लिए रख दी गई हों.
अंतिम वाक्य कराह-कराहकर निकला-मैं चारों दिशाओं में गरदन मोड़-

मोड़कर देख रही थी. जमीन की रेत को ही टटोल रही थी कि धरती ही मुझे सहारा देकर उठाए.
“मैडम, पति से पूछा नहीं कि वे आखिर ऐसा कसाईपना क्यों करते हैं? इलजाम लगाकर बेरहमी से छूट क्यों ले लेते हैं, क्या आनंद आता है इसमें?” जो शिकायत है, साफ-साफ कहें तो फिर उसका निपटारा भी हो. कोर्ट-कचहरी किसलिए है?” मां ने अपना हृदय उड़ेल दिया.

फूलकली मैडम की आंखों का खालीपन आंसुओं से लबरेज था, बमुश्किल रुंधे गले से बोलीं-कहते हैं, मैं तुम्हें इतना प्यार करता हूं कि किसी के साथ तुम्हें बांट नहीं सकता. यहां तक कि इस महिला मंगल योजना के साथ भी नहीं. तुम्हारी कमाई पर अपनी मर्दानगी नहीं बेच सकता. हरगिज नहीं. तुम कल नौकरी छोड़ दो.”

मां अब नीचा मुंह किए बैठी थीं और फूलकलीमैडम की उघड़ी बांहों पर पड़े निशानों से उनकी नजर गुजर रही थी. मुझे बराबर मुरली याद आ रही थी, जो अब तक मां के हिसाब से मेरे खाते में अप्रिय निशानी---न जाने मेरे सामने कभी किस रूप में प्रकट होगी वह आर्थिक रूप से पराधीन लड़की.

मां ने अपनी पूरी हमदर्दी दिखाते हुए मैडम को सलाह दी-‘आप सबको छोडो, सीधा रिजनल डायरेक्टर मैडम मनीषा चौहान से मिलो. कमाल है. महिला मंडल की महिलाओं पर ऐसे भयानक अत्याचार- वे जरूर कुछ न कुछ उपाय सोचेंगी. बड़ी से बड़ी महिला संस्था के सामने आपकी बात रखेंगी. हम सब आपस में ही एक-दूसरे के दुःख-दर्दों के सहभागी हैं.

फूलकली मैडम असहाय बकरी-सी जिसे अपने खात्मे के लिए गंड़ासे वाला कसाई सामने दिख रहा हो. मौत के सिवा अब कुछ नहीं.
“कुसुम बहन, छोड़ो सब कुछ, अच्छा हो हम मर जाएं. आत्महत्या कर लें. बेशर्मी की भी हद होती है. कभी न कभी हया आकर खुद ब खुद लिपट जाती है. बहुत कुछ सहने का माद्दा पैदा कर लिया, लेकिन कभी न कभी कुछ धारदार नेजे की तरह कलेजे में घुप जाता है. आखिर इंसान हैं हम भी.”

फूलकली मैडम अब देर से चुप हैं. मैं और मां उनके चेहरे पर मामूली सी हरकत की तलाश में हैं, मगर कहीं कुछ नहीं.
मां ने अपना साहस बटोरा और उनका हाथ थाम लिया. पूरे आत्मविश्वास के साथ बोलीं-“चिंता मत करो आप. मैं जाऊंगी मनीषा मैडम के पास. जरूर जाऊंगी.”
“मनीषा मैडम के पास,” वे बुदबुदाईं.
“हाँ, मैडम, हां. जाना जरूरी है. कुछ करें आपके लिए. औरत ही औरत को समझेगी.”
“कुसुम बहन, नहीं जाना वहां. क्या करेंगी वहां जाकर?” बेहद कमजोर- सी आवाज ने हमारे कान खोल दिए.
“बता तो दिया, क्या करूंगी? क्या कहूंगी?
“हमारी मैडम मनीषा चौहान, रिजनल डायरेक्टर महिला विकास संस्थान तो बेशक हैं, मगर हैं तो वे औरत ही---” कहकर चुप्पी में फिर से गायब हो गईं फूलकली मैडम.
सब चुप थे. अपने भीतर गुम. कहीं अपनी ही परतें चाहते हुए---मैं उन परतों से मुरली को खोज रही थी. वह भी ऐसे ही पिट-कुट रही होगी?

मैं अपनी अलबम के पन्ने जल्दी-जल्दी पलटने लगती हूं. एक पृष्ठ पर मुरली अपने दो बच्चों के साथ खड़ी है. छोटे बच्चों के कंधों पर नन्हे-नन्हे स्कूल-बैग हैं. इस फोटो को देते हुए उसके भाई ने मुझसे कहा था-“मुरली ने खास तौर पर तसवीर तुम्हारे लिए भेजी है. कहा है कि रेनू शहर में ब्याही है, अच्छी तरह रहती होगी. मैं भी यहां खेती-किसानी में रमी हूं, नदी-तालाब और बाग से अभी भी ऐसा ही नाता है, जैसा बचपन में था. हवा और बादलों की तासीर और रुख पहचानना और ज्यादा आ गया है.”

मेरा ध्यान अचानक टूटा क्योंकि फूलकली मैडम भयानक-सी हंसी हंस रही हैं. क्या मेरा और मुरली का मौन-वार्तालाप सुन लिया मैडम ने? मुरली के ज्ञानरूपी अज्ञान पर हंस रही हैं? शायद उसके आवारा खयालों पर हंसी आ गई हो मैडम को.

फूलकली मैडम, आपकी हंसी का दुःख आपके होंठों पर फैल रहा है. अरे, धीरे-धीरे यह दुःख बढ़ता ही जा रहा है---पूरा चेहरा अपनी गिरफ्रत में ले लिया. नीला-नीला अवसाद आंखों से झरता हुआ---कुछ बोलना चाहती है? संताप मुखर नहीं होने देता?

वे प्रयत्नपूर्वक अपनी आवाज को सम करके बोलीं-कुसुम बहन, अपनी रिजनल डायरेक्टर मनीषा चौहान साधारण औरत नहीं. वे सौ सतियों की सती, पति से लड़ने-भिड़ने की सोच भी नहीं पातीं. पति ने उनके बाहर आने-जाने (शहर से बाहर टूर) पर जब कभी एतराज किया, उन्होंने छुट्टी ले ली. जाना जरूरी हुआ और पति ने रायफल का मुंह उनकी ओर ताना, वे खड़ी की खड़ी रह गईं. रायफल का फायर पति ने दीवार पर किया, सामने छेद बन गया. ऐसे कई-कई छेद---. अपनी रिजनल डायरेक्टर योग्यता प्राप्त और क्षमतावान कुशल औरत हैं. जब-जब वे घर से बाहर निकलती हैं, चैस्टिटी बेल्ट (लोहे का योनि कवच जिसमें ताला लगाने का प्रावधान रहता है) पहनकर ही निकलती हैं. बेल्ट की चाबी पति को थमाकर आगे बढ़ती हैं. वे जानती हैं, आर्थिक स्वतंत्रता की कीमत.”

मां हतप्रभ-सी उन्हें देख रही थीं. मैंने अलबम एक ओर सरका दिया. चैस्टिटी बेल्ट मेरा वजूद कसने लगी हो जैसे, मैं बेचैन, विकल---

फूलकली मैडम का सर्वांग थरथरा रहा था. मां ने दहशत के मारे मेरी बांह कसकर पकड़ ली. मैडम अब भयानक रूप में अपना सिर हिला रही थीं, उनके बाल चारों ओर बिखर चुके थे. बिलकुल ऐसे जैसे उन पर किसी चुडै़ल का साया उतर आया हो या हाथ-पांवों में देवी भर आई हों, वे अपनी छाती में बेशुमार मुक्के मारने लगीं और फिर प्रलाप-

“नहीं जाऊंगी इस कमीने को पिक्चर दिखाने. नहीं जाऊंगी महिला आयोगों के चक्कर लगाने. नहीं खाऊंगी अपने अक्षत शील की कसम. फिर कभी नहीं धरूंगी अपनी हथेलियों पर अंगारे”
इतने जोशो-खरोश के बाद फिर जैसे सारी ताकत चुक गई हो, धीरे-धीरे निढाल होने लगीं फूलकलीमैडम. आंखें खुद ब खुद बंद हो गईं. बंद पलकों की झिरी कहां खुली कि पतनाले बहने लगे.

“सब कुछ फेल हो गया कुसुम बहन---सब कुछ बेकार-व्यर्थ,” कहते हुए सारे शब्द आंसुओं में भीग गए.

धीरे-धीरे फुसफुसा रही थीं मैडम“कुसुम बहन, अपनी रिजनल डायरेक्टर लोहे की चैस्टिटी बेल्ट पहने रहती हैं, हमें वह हद से ज्यादा कमजोर औरत लगी, हमसे भी ज्यादा---मगर क्यों लगी वह कमजोर? हम सबके सब चैस्टिटी बेल्ट पहने रहते हैं कुसुम बहन. लोहे से भी ज्यादा मजबूत निगाहों की बेल्ट के घेरे में बंधे रहते हैं. मैं, तुम और यह रेनू---सबके सब. इसमें कुंआरी, ब्याही और विधवा के लिए कोई मोहलत-रियायत नहीं. यहां सारी औरतों को एक ही नियम के नीचे जीवन-निर्वाह करना पड़ता है. तुम्हारा पति नहीं है कुसुम बहन, तो परिवार और समाज निगरानी रखता है. रेनू के पति को यहां का राह-रत्ती पता रहता होगा. वह जहां-जहां जाएगी, मालिक की आंखें पीछा करेंगी.”

मां अब झुंझला गई थीं. लग रहा था वे जल्दी ही उनसे पीछा छुड़ाना चाहती हैं. फंदा काटने के लिए कह दिया-फिर  तो आप तलाक ले लो.”
मैडम ने गौर से देखा मां को.
क्या कह रही हो, तलाक?” फिर हंसने लगीं मैडम.


“तलाक से हमारा मसला हल हो जाएगा? अरे कुसुम बहन, ‘तलाकशुदाशब्द दूसरा सांप है, जो खुद नहीं डसता, लोगों की निगाहों से विष चढ़ाता जाता है कि औरत नीली पड़ती चली जाए. डायवोर्सीएक गाली है कि घबराकर औरत फिर किसी मर्द की खोज में हलकान होने लगती है और शादी उसे जरूरी कवच लगने लगता है. विद्यावती शुक्ला की हालत देखी थी न? तलाक क्या लिया, मुजरिम हो गईं. चरित्रहीन मानी गईं. अपमान के कोड़ों का दर्द पति की पिटाई से ज्यादा सालता था उन्हें क्योंकि घर-बाहर के सामाजिक समारोहों में वे जहरीली सर्पिणी और राक्षसिनी के सिवा कुछ नहीं थीं. यदि कुछ थीं तो विमला के इस-उस मर्द से फंसी हुई---

“कुसुम बहन, हम सोशल वर्कर नहीं, सेक्स वर्कर की तरह देखे जाते हैं. हम जहां भी जाते हैं, सेक्स के पैमाने से मापे जाते हैं. बैंक हो, अस्पताल हो, प्रशासनिक विभाग हो---यही नहीं, घर-आंगन हो, नातेदारी-रिश्तेदारी हो.” मैं क्या देख रही हूं? ‘ईश्वर की सुंदरतम कलाकृतितुम्हारा हाल क्या है? वही, जैसी पुरानी औरतें, पराधीन स्त्रियां---पुरुषों की काम्या और रमणीया के रूप में अपनी सार्थकता सिद्ध करती थीं. उफ! मैडम का अपना मूल्यांकन भविष्य की आशंकाओं से जकड़ा हुआ है.

मां के पास घबराहट की पूंजी के सिवा कुछ नहीं. और मैडम की आंखों में खामोश लपटों के जलजले---चिनगारी-सी छिटकी.
“ऐसे क्या देख रही हो कुसुम बहन? फैसला तो कुछ न कुछ लेना ही होगा. क्यों? चैस्टिटी बेल्ट या तलाक? है न?

अब फूलकली मैडम की आवाज में बेकली से ज्यादा बेकसी थी. और फिर दोनों शब्द चैस्टिटी बेल्ट या तलाकउनके कंठ की लय में समा गए. वे बुदबुदा रही थीं या गा रही थीं. आंखों में अश्लील आतंक-सा घिर आया. पुतलियों के आसपास तरलता में तैरते लाल-नीले डोरे और छाती में घुमड़ती सांसें हिलोरों में हिलने लगीं. इस सबके बावजूद चेहरे पर पीला-सा साहस उभरने लगा.

“मैं तुम्हें बेहद प्यार करता हूंवह कहता है. क्या वह अलग रहने के नाम पर मरने-मारने को उतारू न हो जाएगा? शायद उसे अपनी तकलीफों का अभी अहसास नहीं, या इतना हृदयहीन हो गया है कि खुद को भी---” बुदबुदाने वाली मैडम ठंडी-सी पड़ने लगीं. लगा कि वे अपने सामान्य व्यवहार में लौट आई हैं.

“मैं भी उसे अपने साथ कहीं चाहती हूं क्या? नहीं तो उसकी कड़ी से कड़ी इच्छा को अपने ऊपर क्यों छोड़ देती हूं? मैं अपनी वफा की परीक्षा देती हूं. देती हूं न?
मां रसोई में पानी लेने चली गई थीं, मैडम की हालत खराब जो हो रही थी. हो सकता है शरबत बनाकर लाएं.

मैडम मुझसे मुखातिब थीं- "रेनू, मैं जानती थी कि मेरे शरीर के हर हिस्से पर पति का अधिकार है. वह जब चाहे---जैसे चाहे मुझे प्यार कर सकता है. मैं आंख से आंख मिलाकर देखने की हकदार नहीं,--- फिर मैंने नौकरी छोड़ क्यों नहीं दी?” अपनी बातों, अपने सवालों पर प्रतिक्रिया देने वाली भी फूलकलीमैडम खुद ही थीं क्योंकि उनकी हालत पर कुछ कहने के लिए मेरे पास असमंजस के सिवा कुछ न था.

“क्या मैंने खुद से एक पोस्ट नीचे पद वाला पति इसलिए खोजा था कि वह मेरी दिनचर्या पर सवाल न करे. लेकिन रेनू पति कोई पदवी नहीं होता, एक संस्कार होता है, किसी भी पद-पदवी से बहुत बड़ा संस्कार---जड़ और मजबूत. तभी तो आज्ञा-पालन में कोताही होते ही संगीन से संगीन सजा देता है. रेनू, मैंने तो यही माना कि समाज को व्यवस्थित रखने का सेहरा पति के सिर है, तभी वह पहले दिन औरत के पास सेहरा बांधकर आता है.” कहकर फूलकलीमैडम हंस दीं. हंसी जंजीरों से जकड़ी हुई पालतू ढंग की थी.


वे फिर खटिया पर तनकर बैठ गईं, लेकिन रीढ़ सीधी कर लेने में किसी विरोध का आभास न था. फिर भी कुछ बोलने के पहले होठों में बांकपन आया-रेनू, हम भी क्या करें? बड़ा अच्छा लगता है, जब घर से बाहर निकलते हैं. लगता है सारे ठप्पे मोहरें फेंककर खुले में आ गए हैं. बंद फाटक का दरवाजा हमने ही तोड़ा है और हमारी असली शक्ल निकल आई है. जिन लोगों के साथ हम काम करते हैं, उठते-बैठते हैं, खाते-पीते हैं, वे मित्र हैं, पति नहीं, यही सोचकर मुक्त हो जाते हैं. लेकिन वह क्या है कि हम तब भी पति की छाया अपने आसपास महसूस करते हैं. क्या हम इस मुक्ति को चाहते नहीं? सोचने लगते हैं, दिन भर की दुनिया नकली थी. असल संसार पति का है, जो हमारे ऊपर शासन करता है क्योंकि वही हमारी चिंता करता है. सावधान करता है तब हम मान लेते हैं, वही हमें बचाएगा भी. यह सब भावना हो या भ्रम, हम समर्पित होते जाते हैं. जितनी निष्ठा से गुलामी करते हैं, उतने ही खुद को सुरक्षित समझते हैं.

मगर फिर क्या हो जाता है मुझे कि मैं अपनी आस्था से डिगती हूं. लोगों के बीच आजादी के खुशगवार मौसम से गुजरती हूं. आज बाहर क्या-क्या हुआ, इसका ब्योरा उसे नहीं देती. लेकिन यह सब भी मेरे लिए असहनीय-सा---कि मैं पति के सामने अपराधिनी की तरह पेश आती हूं. उनकी तुनकमिजाजी, क्रूरता और नफरत के लिए खुद को हाजिर कर देती हूं. क्या मैं यह भी मान लेती हूं कि मेरे पुरुष के पास दिव्यदृष्टि है, उसने सब कुछ देख लिया है. मेरे पापों का अनुमान लगा लेता है वह---सच रेनू, मैं अपने अपराधबोध पर संगीन से संगीन सजा पाती हूं, जैसे घर के बाहर जाने वाले इस तन-मन का इलाज ताड़ना- प्रताड़ना ही हो. कहने वाली मैडम गहरे श्वासों से गुजर गईं.

“फिर भी---मैं अपना फैसला लूंगी. औरत कमाए और काम आएहर हाल में पति का फैसला यही होगा तो मेरा निर्णय क्या होगा?
थकावट ने उनकी आंखों को ढक लिया. वे लेट गईं. सुस्त और ढीला शरीर था. धीरे-धीरे बेहरकत-सा---नस-नस में कोई नशा उतर गया हो जैसे. मां ने अभी शरबत पिलाया था, नशीली गोली साथ ही दे दी क्या?

लेकिन मां कह रही थीं-“इनको सोने दें तो अच्छा है. अपने दुःख-दर्दों से बेहाल हो गईं, सो बेहोश-सी---. होश में होती हैं, क्या-क्या करने की नहीं कहतीं. तड़पती ऐसी हैं, जैसे ज्वालामुखी पर बैठी हों. पर रेनू, ज्वालामुखी भी ठंडा हो ही जाता है न?

मैडम एक घंटे बाद उठीं. उठकर अपने सलवार-कमीज ठीक किए. दुपट्टा करीने से ओढ़ा. मुंह धोया, बाल संवारे. तांबिया चेहरा पाउडर से जरा उजला किया. वे ऊबड़-खाबड़ रास्ता पार करके आई हिरनी-सी, नरम घास वाले मैदान पर उतर गई हैं, भटकने की भीषण दशा में विश्रांति-सी थी.

वे हलके से मुस्कराईं, बड़ी खूबसूरत लगीं मुझे. फिर वे मुझे समझाने लगीं-“असल में हमारी तमन्नाएं हमें तबाह कर डालती हैं. सपने हैं कि जाल-जंजाल की तरह चिपट जाते हैं और हम पति की दुनिया को भूलने लगते हैं. बस बेवफा दिखाई देते हैं. छूटों की भी एक हद होती है न? आज के लिए माफ करना रेनू, पूरा दिन खराब हो गया.”

मैं चकित-सी---क्या मैडम अपनी छोटी-छोटी आजादियों के लिए पश्चात्ताप कर रही हैं? पति से मिली यातना जायज लग रही है, सो खुद को अपराधिनी मानकर प्रायश्चित्त पर आ गईं. मां की रोल मॉडल फूलकलीमैडम और रिजनल डायरेक्टर मनीषा चौहान चेतनासंपन्न और आत्मनिर्भर औरतों की मिसालों की तरह अपूर्व रही हैं. मगर आज ये शारीरिक और मानसिक अपमान को सहने वाली औरत की पारंपरिक छवि की पुतली हैं, नहीं तो फूलकलीमैडम क्यों कहतीं-पति अपनी बेरहम सूरत और कट्टर स्वभाव के साथ हमसे पेश न आए तो उसे पौरुषपूर्ण पुरुष कौन मानेगा? ऑफिस के मर्द ही हमें निगल जाएंगे. कुसुम बहन, मर्द, मर्द से ही खौफ खाता है.

मेरी अलबम, जिसका नामकरण शुरुआत में ही मैंने अपनी सखी के नाम पर मुरलीकिया था और इसी नाम की सार्थकता में मैंने इसे ऐसी स्त्री-छवियों का खजाना बनाना चाहा था, जो स्वतंत्र व्यक्तित्व और मुक्ति की चाहना करने वाली हों. मां ने भी कर्मठ, संघर्षशील और खुद्दार औरतों की तसवीरें मेरी अलबम के लिए जुटा दी थीं.

आज सोचती हूं विधायक, सांसद और मंत्री, इनके अलावा सिविल सेवा, पुलिस प्रशासन तथा एथलीट, निशानेबाजी, तैराकी, कला, साहित्य और समाजकर्मी स्त्रियों की सिरमौर छवियां, जो मेरी अलबम में समाहित हैं, इनमें से कितनी मुरली के साहस, उसकी गतिशीलता भरी हठ से समानता रखती हैं? और कितनी अपने स्व को मारकर सामंती समाज में प्रचलित स्त्री के लिए यातना को पति के हक का हिस्सा मानती हैं? मुझे इसकी गहराई में जाकर पड़ताल करनी होगी, नहीं तो मां समझेंगी कि मैं उनके विभाग की स्त्रियों का मखौल उड़ा रही हूं.

मां ने मेरी अलबम को घूरा और फिर कहने लगीं-“क्यों लगी रहती है यहां-वहां से तसवीरें इकट्ठी करने में? न तुझे ईश्वर से कोई वास्ता, न देवी-देवताओं की मूर्तियों से. तेरी अलबम में गांधी जी और जवाहरलाल जैसे महापुरुषों की तसवीरें नहीं. इंदिरा गांधी की फोटो लगाती तो हम भी समझते कि तू---कहां-कहां की औरतें जोड़ ली हैं.”

मां चिढ़ रही हैं. क्यों चिढ़ रही हैं? फूलकलीमैडम ने मां के भीतर अपनी स्वतंत्र छवि का ढांचा तोड़ दिया. मनीषा चौहान रिजनल डायरेक्टर की मूर्ति खंडित हो गई. ऊपर से मैंने यह कह दिया कि तसवीरें इकट्ठी करने का नहीं, विशेष छवियों से अलबम सजाने का चस्का मुझे उसी दिन लग गया था जब मैंने पहले-पहल बारिश में भीगते हुए मुरली के साथ फोटो खिचाई थी. तसवीर अखबार में आई थी. तसवीर के ऊपर लिखा था-बेपरवाह यौवन-सच हमें उसी दिन से बेपरवाह होना रास आ गया. हालांकि मुरली को मुरली की अम्मां ने उसके भाई के साथ मिलकर बुरी तरह पीटा था, लेकिन उस सजा के बाद ही फोटोग्राफर से जान-पहचान गाढ़ी होने लगी. दूसरी बार जब मैं फोटो खिचाने के लिए तैयार नहीं थी और मैंने कह दिया था-मुरली, ऐसी बातों की हमें छूट नहीं देगा कोई.”

मुरली ने मेरा हाथ कसकर पकड़ लिया और दृढ़ता से बोली-फ्कोई हमें छूट नहीं देगा तो क्या हम छूट लेंगे भी नहीं?

गांव में मुरली बेहाथ होती लड़की मानी गई. और मेरी अलबम में उसी बेहाथ आवारा लड़की की लोमहर्षक, रोमांचित कर देने वाली तसवीर पहले पन्ने पर लगी है. फूलकलीमैडम जैसी औरतों की जिंदगी---मुरली क्या कहती?

मैं अपने आप में डूबती-उतराती अपनी अलबम को मजबूत बनाने की धुन में थी. अखबारों और टेलीविजन में, इंटरनेट की वेबसाइट पर औरतों के कितने- कितने कीमती नाम---मगर वे कीमती औरतें कितनी साहसी होंगी? उनमें कितनी सलाहियत होगी? मैं भटक-भटक जाती हूं.
दुविधा भरे दिन, असमंजस की घडि़यां---कागज पलटते हुए एक कविता हाथ लग गई. किसने लिखी? किसी स्त्री ने? आं---यह कविता मेजर सरोज कुमारी (निशानेबाज) शूटर के नाम-कवि पवन करण की यह रचना-

जैसे ही खबर बताई गई तुमने जीत लिया है सोना
भीतर सुलगता यकायक ईर्ष्या से धधक उठा था वह
तुमसे दूर अपनी शिराओं में तुम्हारी उपस्थिति
महसूस करते हुए जुट गया था वह करने उत्पात
सफलता पर तुम्हारी नाचने की खुशी में
उतर आया नष्ट करने वह स्मृतियां
सरोज कुमारी तुम्हारी बातों से लगता है
तुम मंगलसूत्र और गोल्ड मेडल एक साथ पहने रहना चाहती हो
और गोल्ड मेडल है कि बार-बार ढक लेता है मंगलसूत्र को
वही नहीं होता उससे सहन
क्योंकि गोल्ड मेडल तुमने खुद जीता है
और मंगलसूत्र तुम्हें पहनाया गया है
मैं तुमसे कहता हूं मैलबर्न से लौटो
तो तुम्हारा निशाना अब वह सवर्ण छाती हो
जो कहलाती है पुरुष
तुम ऐसा कर सकती हो तुम्हें निशाना भी आता है साधना
तुम्हारे हाथ में पिस्टल भी है
और गले में झूलता हुआ गोल्ड मेडल

मेरा अलबम - किसी तसवीर की जगह यह कविता होगी, तुम्हारे भीतर. समर्पित होगी उन औरतों को, जो नहीं जानतीं पिस्टल क्या होती है, लक्ष्य क्या होता है?
_______________

मैत्रेयी पुष्पा
30नवम्बर 1944 (सिकुर्रा) अलीगढ़

उपन्यास
बेतवा बहती रहीइदन्नममचाकझूला नटअल्मा कबूतरी,अगनपाखीविज़नत्रियाहठकही ईसुरी फाग
कहानी संग्रह
चिन्हारगोमा हंसती हैललमनियांपियरी का सपनाप्रतिनिधि कहानियां
आत्मकथा
कस्तूरी कुंडल बसेगुड़िया भीतर गुड़िया
कथा रिपोर्ताज
फायटर की डायरीचर्चा हमाराखुली खिडकियॉंसुनो मालिक सुनो
सम्मान
सार्क लिटरेरी अवार्डद हंगर प्रोजेक्ट का सरोजिनी नायडू पुरस्कारप्रेमचंद सम्मानवीर सिंह जूदेव कथा सम्मान,साहित्यिक कृति सम्‍मानकथा पुरस्‍कारकथाक्रम सम्‍मानसाहित्‍यकार सम्‍माननंजना गड्डू तिरूवालम्‍बा पुरस्‍कार,सुधा साहित्‍य सम्‍मान

संपर्क
सी - 8सेक्टर 19नोएडाउ.प्र.

कथा - गाथा : सरबजीत गरचा

$
0
0
सरबजीत गरचा हिंदी और अंग्रेजी में कविताएँ लिखते हैं. मराठी से हिंदी और अंग्रेजी में उनके किये अनुवाद सराहे गए हैं. यहाँ उनकी पांच कविताएँ प्रस्तुत हैं.

इन कविताओं में सादगी है. इधर की हिंदी कविताओं में वक्रोक्ति का जो अतिवाद फैला हुआ है, और जिसकी अपनी एक रीति निर्मित हो गयी है और जो अब उबाने भी लगी है.

इन कविताओं की सहजता में ताज़गी है, सच्चाई है. इस काव्यांश की तरह

“आत्मा होगी
तो शर्म भी आएगी
झूठ का क्या है
आज नहीं तो कल
उघड़ ही जाएगा ” 


 सरबजीत गरचा की कविताएं             





ख़ुश रहो

दीवारों पर पलस्तर पूरा हो गया है साहब
अब हम चलते हैं
आप पानी मारते रहना
पानी जितना रिसेगा
उतनी ही मजबूत होगी दीवार
यह कहकर उस राजमिस्त्री ने
उस दिन की मज़दूरी के लिए
अपना हाथ आगे बढ़ाया
पिता ने पैसे थमाए और
धीरे से बंद कर दी मिस्त्री की मुट्ठी
मानो कह रहे हों इस घर की याद
अब तुम्हारे हाथ में है
इसे बड़े जतन से रखना

ताज़े पलस्तर की गंध से
पूरा घर महक रहा था
ठंडी दीवारों को बार-बार
हाथ लगाने और उनसे सटकर
खड़े रहने का मन करता था

छूने पर लगता जैसे
दीवार के ठीक पीछे खड़ा है मिस्त्री
मैं उससे कुछ कहना चाह रहा हूं
लेकिन वह मुझे सुन नहीं पा रहा है 
दूसरी तरफ़ जाने का भी कोई फ़ायदा नहीं
जब तक मैं वहां पहुंचूंगा वह जा चुका होगा  

सालों बाद अब उभरने लगी हैं
घर में दरारें
ख़ुश रहो कहना जो भूल गया था मिस्त्री को
और वह भी शायद किसी छोटी सी बात पर
नाहक गुस्सा होने से बच नहीं पाया होगा

उसने ज़ोर से भींची होगी अपनी मुट्ठी
तभी तिड़क गई होगी
उसके हाथों में संजोई
मेरे घर की स्मृति

अब मैं किसी को ख़ुश रहो
कहना नहीं भूलता




घर

जब लूंगा आख़री सांस
तब किस किताब का
कौन-सा पन्ना होगा खुला
आंखों के सामने?

किस कविता की किस पंक्ति पर
लगी होगी अंतिम टकटकी?

शायद एक ही विचार करेगा
दिल में रतजगा
निर्दोष पंक्तियों के सदोष रचेता को
क्यों न लगा पाया भींचकर गले

ढूंढता रहा सपनों के लिए जगह
शब्दों के लिए वजह
जो कुछ पाया
पुतलियों ने पिघलाया

यही तो थी वह जगह
जहां सपने बन जाते हैं
बिना पते वाली चिट्ठियां

था कोई डाकिया जो आता था
पीछे वाले दरवाज़े से
कभी दिखाई नहीं दिया वह

मैं भी कैसे कर सकता था दावा
कि जो चिट्ठियां मुझे मिलीं
वो मेरी ही थीं

दिन में जिनसे बात न कर सका
वही दोस्त मुझे दिखते रहे सपने में
एक धीमी नदी में छोड़ी
उनकी काग़ज़ की कश्तियां
मुझे रह-रहकर मिलती रहीं
मेरी भी मिली होंगी
कुछ और दोस्तों को
जिन्हें मैं किनारे बैठकर
देख नहीं सका था

पानी स्याही को मिटा नहीं पाया
शायद उसे भी कोई
लिखा हुआ संदेश भा गया था

संवाद नहीं हुआ
फिर भी कुछ पतों पर होता रहा
बातों का लेनदेन हमेशा

वही नदी न भी आई हो
सभी दोस्तों के सपने में
फिर भी सब ने दी
उस अदृश्य डाकिये को दुआ
जिसने बनाए हमारे घर
बिना पते वाली चिठ्ठियों के गंतव्य

बाक़ी घरों से मन ही मन जुड़ा हर घर
बन गया कवि का घर




अंतराल के बाद

लंबाई चौड़ाई गहराई
और इन्हें सुई की तरह बेधता समय
मिलकर बनते हैं चार आयाम
जिन्हें भौतिकीविद काल-अंतराल कहते हैं

इस काल-अंतराल में पनपते हैं सारे दु:स्वप्न
जो बार-बार हमसे टकराते हैं
नींद उन्हें बांधने में हमेशा नाकाम रहती है
दु:स्वप्न घूमते रहते हैं बेपरवाह
घुलते जाते हैं तेज़ी से बढ़ रही भीड़ में
डालते हैं एक विशाल काला परदा
दुनिया के सारे सुंदर दृश्यों पर

हमारी चेतना के रेशों से बुना धागा
सुई के छेद में एक ही तरफ़ से डाला जा सकता है
उस पर हमारी मर्ज़ी नहीं थोपी जा सकती
उसकी यात्रा की दिशा हमेशा
भूत से भविष्य की ओर रहती है
फिर भी दु:स्वप्न उससे जुड़े रहते हैं

हमारा अस्तित्व सुई के छेद के आकार
और गहराई में क़ैद है
उस महीन खिड़की में
वर्तमान सिर्फ़ एक इंतज़ार है

धागा हमें छूकर गुज़रता है
और उस पर लगी कालिमा को हम
काजल मानकर लगा लेते हैं अपनी आंखों में
लेकिन हम उस पर सवार होकर
या उसके सहारे झूलकर
किसी भी दिशा में नहीं जा सकते

इसके बावजूद दूर भविष्य में
हवा चाहे जितनी ख़ुश्क हो जाए
धागे में जगह-जगह समाई नमी को
सुखा नहीं पाएगी
धागे को आंखें मूंदकर छूने वाले हर प्रेमी को
एक दिन दिखाई देगी
सुई के छेद से छनकर आती स्वछ निर्मल रोशनी
जो कर देगी पृथ्वी पर पानी की
प्रत्येक बूंद को इतना प्रज्ज्वलित
कि बूंद-बूंद में झलकने लगेंगे एक के बाद एक
खिड़की के उस पार के समय में समाए वो सारे क्षण
जिनमें उसके अनगिनत अपनों ने बहाए थे आंसू
और किया था रोशनी को
दु:स्वप्नों की कालिमा से मुक्त




सलेटी धुआं

मेरे दादाजी 30नंबर ब्रैंड की बीड़ी पिया करते थे
पर कहते उसे एक नंबरी थे
बीड़ी के बंडल पर एक तस्वीर छपी होती थी
जिसमें एक जवान मर्द का दमकता चेहरा होता था

बेदाग़ माथा
सर के बाल पीछे काढ़े हुए
पैनी निगाह
और ज़बरदस्त अंदाज़
ये सब 30नंबर बीड़ी से ही मिलेगा
गोया यही उस तस्वीर का आदमी
अपने बंद होंठों से कहता था
हांलाकि उसके चेहरे की आकृति के इर्द-गिर्द
धुंए का नामो-निशान नहीं दिखता था
मुझे शक़ होता था कि वह
सचमुच बीड़ी पीता भी है या नहीं

ईंट की छोटी-सी दीवार को ही
बेंच बनाकर उस पर बैठा एक छैल-छबीला
गर्दन को थोड़ा टेढ़ा करके
बीती हुई शाम और धीरे-धीरे आती हुई
रात की ट्यूबलाइट वाली रोशनी में
अपनी बड़ी-बड़ी आंखों से
बीड़ी पीते बुज़ुर्ग और
उसके पोते-पोतियों की रेलपेल को
घंटों देखने-सुनने की क़ाबिलियत रखता था
रबर के खिलौनों को 
ऊबने की सहूलियत जो नहीं होती

वह दबाने पर आवाज़ करने वाला गुड्डा था
पर उसकी दीवार की बुनियाद में लगी सीटी
ख़राब हो चुकी थी
दादाजी उसी सीटी के रास्ते
गुड्डे के शरीर में 
अपने मुंह से बीड़ी का सलेटी धुंआ
भर दिया करते और 
खिलौने को ब्लो हॉर्न की तरह दबा-दबाकर
पूरे कमरे में उस धुंए की पिचकारियां छोड़ते

कहीं आसपास ही रखे बीड़ी के बंडल पर 
छपी तस्वीर का आदमी भी
अब अपने ही कारखाने में
सूखे पत्ते में लपेटे गए तंबाकू के
धुंए से अनछुआ नहीं रह पाता था
और अब तक मैं भी अनछुआ नहीं रह पाया
नींद के सन्नाटे से जगाकर
मुझे सपनों की चहल-पहल में ठेलती
दादा की माचिस की तीली से
आती आवाज़ से

और एक तीली रोशनी से
जो दिल के बहुत पास वाली
किसी दूर की दुनिया को
जगमगाती है.


बिना कलई

आत्मा होगी
तो शर्म भी आएगी
झूठ का क्या है
आज नहीं तो कल
उघड़ ही जाएगा

कवि कभी कलई पर
आश्रित नहीं होता
बार-बार आंखों में
नौसादर झोंकने से
आंखें तो बंद हो जाएंगी
लेकिन बिना कलई वाली
आत्मा की दमक का
क्या करोगे

अस्तित्ववान हैं आज भी ऐसे धातु
जिनके लिए आग भी एक घर है
जिसमें वो सिर्फ़ धधकते हैं
दबकते कभी नहीं.
________________________

सरबजीत गरचा
कवि, अनुवादक, संपादक एवं प्रकाशक. अंग्रेज़ी में दो एवं हिंदी में एक कविता संग्रह और अनुवाद की दो पुस्तकें प्रकाशित. संस्कृति मंत्रालय की ओर से कनिष्ठ कलाकारों हेतु राष्ट्रीय फ़ेलोशिपप्राप्त. कॉपर कॉइन पब्लिशिंग के निदेशक एवं प्रमुख संपादक.

हिंदी-अंग्रेज़ी परस्पर अनुवाद और मराठी कविता के हिंदी एवं अंग्रेज़ी अनुवाद के लिए चर्चित. अंग्रेज़ी में अगला कविता संग्रह, अ क्लॉक इन द फ़ार पास्ट,शीघ्र प्रकाश्य. 
sarabjeetgarcha@gmail.com

निज घर : देह पर युद्ध : गरिमा श्रीवास्तव

$
0
0





पुरुष युद्ध पैदा करते हैं , यातना दी जाती है औरतों को. युद्धों और दंगों में रक्तरंजित स्त्रियों की विचलित करने वाले कहानियों से इतिहास भरा पड़ा है. घृणा, विस्तारवाद और प्रभुत्व की मजहबी और अंधराष्ट्रवादी लिप्सा की यही परिणति है.

संयुक्त युगोस्लाविया के टूटने के बाद क्रोएशियन और बोस्निया नागरिकों के खिलाफ सर्बिया ने युद्ध छेड़ दिया था. यह युद्ध स्त्रियों की देह पर लड़ा गया.


गरिमा श्रीवास्तव क्रोएशिया के अपने प्रवास में शरणार्थी कैम्पों में गयीं , पीड़ित स्त्रियों से मिलीं. यह प्रवास डायरी ‘देह ही देश’ राजपाल एंड संस से प्रकाशित हो रही है. उस डायरी का एक हिस्सा.  


देह पर युद्ध                     
गरिमा श्रीवास्तव



सबद - भेद : अपने साक्षात्कारों में नागार्जुन : श्रीधरम

$
0
0








‘जनता मुझसे पूछ रही है क्या बतलाऊँ,
जनकवि हूँ मैं साफ़ कहूँगा क्यों हकलाऊँ.'

हिंदी, मैथिली, संस्कृत, और बांग्ला में रचने वाले जन कवि नागार्जुन (३० जून १९११-५ नवंबर १९९८) की आज पुण्यतिथि है.  रचनाकार अपने समय और समाज के साथ किस तरह खड़ा होता है यह देखना हो तो नागार्जुन को पढना चाहिए. चाहे साम्राज्यवाद हो, वैचारिक अधिनायकवाद हो, या तानाशाही वह सत्ता के ख़िलाफ खड़े रहे.
नागार्जुन सतत विपक्ष के कवि हैं.


उनके  साक्षात्कारों पर आधारित इस आलेख में युवा रचनाकार श्रीधरम ने नागर्जुन को मूर्त कर दिया है. अपने पूरे धज और त्वरा के साथ वह यहाँ उपस्थित हैं. 


हमने तो रगड़ा है, इनको भी, उनको भी                          
(अपने साक्षात्कारों में नागार्जुन)
श्रीधरम


नागार्जुन की रचनात्मक ताकत उनके व्यक्तित्व के दोटूकपन से आती है. वे हिंदी के उन बिरले रचनाकारों में से हैं जिनके व्यक्तित्व और कृतित्व में कोई फांक नजर नहीं आता. अमूमन अपने साक्षात्कार में रचनाकार लाभ-हानि को ध्यान में रखकर जवाब देता है पर नागार्जुन इसके अपवाद हैं. वे जितनी प्रखरता से दूसरों पर टिप्पणी करते हैं उतनी ही तटस्थता से अपने अंतर्विरोधों पर भी बात करते हैं. यही कारण है कि नागार्जुन से साक्षात्कार लेने वाला कभी उन पर हावी नहीं हो सकता या उनको अपने प्रश्नों के घेरे में उलझा सकता. वे अपनी रचनाओं में जितनी प्रखरता से सांप्रदायिक राजनीति पर प्रहार करते हैं उतनी ही तीक्ष्णता से कम्युनिष्ट चीन की भी. वे जयप्रकाश के साथ भी होते हैं और विरोध में भी जाते हैं और मंडल कमीशन लागू होने के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के लिए चुनाव प्रचार भी करते हैं. नागार्जुन के साक्षात्कारों की पुस्तक के संपादक और बाबा के ज्येष्ठ पुत्र शोभाकांत ने ठीक ही लिखा है कि
जिस तरह नागार्जुन अपनी रचनाओं में साफ दिख जाते हैं, उसी तरह वे अपने साक्षात्कारों में भी. ...यह तो संभव ही नहीं कि उनके मुंह से आप अपने मतलब की बात निकलवा लें. वे वही कुछ कहेंगे जो उनको कहना है या जिसे वे ठीक समझते हैं.”1
खुद नागार्जुन ने इंटरव्यू के संदर्भ में कहा है,
लोग इंटरव्यू में हवाई बातें या बड़ी-बड़ी बातें पूछते हैं. मेरी रुचि छोटी-छोटी बातों में भी है. जब मैं देखता हूं कि रिक्शाचालक की बनियान फटी हुई है तो मुझे अजीब लगता है. सोचता हूं कि चालीस वर्षों की आजादी से इन्हें क्या मिला? संगीत-समारोह के लिए जो शामियाने गाड़े जाते हैं, उसके खूंटे ठोकने वाले मजदूर क्या कभी संगीत समझ पाएंगे?
नागार्जुन की दृष्टि को आज के पूंजीवादी माहौल में स्वयं समझने और दूसरों को भी समझाने की जरूरत है और इस संदर्भ में उनके साक्षात्कार हमारे लिए मददगार सिद्ध हो सकते हैं.

अमूमन अपने साक्षात्कार में लेखक-कवि अपने लिए ‘नास्टेल्जिक’ होता है. वह अपने अभाव का रोना रोता है और अपने महान संघर्ष का बखान करता है. पर नागार्जुन अपने जीवन अनुभवों के तटस्थ भोक्ता बनकर परत दर परत खोलते चले जाते हैं. क्योंकि नागार्जुन में बुद्धिजीवीपन का आडंबर नहीं है. कृष्णा सोबती के शब्दों में कहें तो “नागार्जुन विशिष्ट महफिलों का चेहरा नहीं है, वह भीड़ का चेहरा है, और भीड़ में ही उभरता-चमकता है.“2यही कारण है कि नागार्जुन किसी पार्टी के चाकर बनकर नहीं रह सकते “सर्वहारा से हमारी सहानुभूति स्पष्ट है; हमारे लेखन का मंतव्य स्पष्ट है. तमगा-बिल्ला, वह सब हमें अभीष्ट नहीं”3लेखक अपनी रचना के साथ अपने व्यक्तिगत जीवन को जोड़ने  से बचता है, खासकर प्रेम और अवैध संबंधों के संदर्भ में. लेकिन नागार्जुन इस बात को स्वीकारने में जरा भी नहीं हिचकिचाते कि ‘रतिनाथ की चाची’ बालक नागार्जुन की चाची है और पिता ने उनकी मां को बहुत सताया इसीलिए वह अपने व्यवहार और लेखन से अपने पिता को सताएंगे. मनोहर श्याम जोशी से वह कहते हैं
“वितृष्णा होती थी हमको, समझ गए न? चाची हमारी माता के लिए दो पैसा की दवा नहीं करने देती थीं. हमको बराबर लगा कि पिता चाची के इशारे पर माता की उपेक्षा करते हैं.“ 

वे अपने पिता को ‘रसिकबाज’ और ‘विधवाओं के शिकारी’ कहने से भी नहीं हिचकते हैं.

बुद्धिजीवियों द्वारा नागार्जुन पर पाला बदलने का आरोप लगता रहा. उन्हें अंतर्विरोधों से ग्रस्त कहा गया पर उन्होंने कभी दूसरों की नहीं सुनी सिर्फ अपने मन की सुनी. एक प्रश्न के उत्तर में वे कहते हैं
“जी हां! मैं अंतर्विरोधों से ग्रस्त रहूंगा और हर भला आदमी अपने अंतर्विरोधों से ग्रस्त रहता है. साथ ही मैं यह भी मानता हूं कि अंतर्विरोधों पर हावी होकर आगे की राह निकालना भी अनिवार्य है.”  

1962में चीन के आक्रमण के बाद नागार्जुन ने कई वाम विरोधी कविताएं लिखी थीं जिसके करण वामपंथी बुद्धिजीवियों के एक बड़े वर्ग ने उनके विरोध में मोर्चा खोल दिया और उन्हें अमेरिका का दलाल, सिरफिरा न जाने क्या-क्या नहीं साबित करने की कोशिश की थी. पर नागार्जुन तमाम आलोचनाओं से परे अपनी बात पर अडिग़ रहे. 1968में दिए एक इंटरव्यू में वे कहते हैं,
“मुझे प्रगतिशील समझो, कम्युनिस्ट नहीं... यदि कहीं तुम्हें वचन में यांत्रिकता दिखाई पड़े और आचरण अंतर्विरोधों से गुंथे हुए नजर आए तो मेरे बारे में नए सिरे से सोचना.”

दरअसल नागार्जुन की दृष्टि को समझने के लिए जिस तटस्थ ईमानदारी की जरूरत थी वह बहुत कम लोगों में थी. आग उगलने वाले साथीविभिन्न अकादेमियों और विश्व-विद्यालयों की खोह में बैठकर अपने गाल चिकनेकरते रहे. नागार्जुन जिस प्रकार सच को सच और झूठ को झूठ कहने का साहस कर रहे थे उसे पचाना बहुतों के लिए मुश्किल था. नंदकिशोर नवल और खगेंद्र ठाकुर से एक बातचीत में वह स्पष्ट स्वीकारते हैं कि
“जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में चलने वाले आंदोलन के वर्ग-चरित्र को मैं अंध कांग्रेस विरोध के प्रभाव में रहने के कारण नहीं समझ पाया. संपूर्ण क्रांतिकी असलियत मैंने जेल में समझी.”
वे आगे यहां तक कहते हैं कि
अब मुझे लगता है कि मैं वेश्याओं और भड़ुओं की गली से लौट आया हूं.”4
अगर नागार्जुन चाहते तो कुछ दिन चुप रहकर जनता पार्टी के शासन में राज्यसभा के सदस्य बन सकते थे लेकिन नागार्जुन को भला कौन सा लोभ डिगा सकता है. उन्होंने जनता पार्टी के शासन में चंद्रशेखर द्वारा दिए गए राज्यसभा के प्रस्ताव को ठुकराने में देरी नहीं की. क्यों?
“इसलिए कि हमने जे.पी. की संपूर्ण क्रांति को ‘भ्रांति विलास’ कहा. उस वक्त हमसे कई लोगों ने कहा कि बाबा कुछ दिन मौन रहो! लेकिन हम विनोबा थोड़े हैं. हमने कहा चुप रहेंगे तो दिमाग में जाने कितना धुआं भर जाएगा. और इसीलिए हमने साफ-साफ कहाहम उन मसखरों के बीच बैठकर अपना उपहास कराना नहीं चाहते, इसीलिए....”
कर्ण सिंह चौहान, वाचस्पति और मंगलेश डबराल को 1986में दिए अपने एक साक्षात्कार में वह इसी बात को और स्पष्ट करते हुए कहते हैं,
‘‘जब जेल से छूटकर आए तो हमने जयप्रकाश के खिलाफ वक्तव्य दिया. बड़ा हल्ला हुआ. जे.पी. ने अपना आदमी भेजा कि आप सिर्फ दो लाइन का वक्तव्य दे दें कि आपके नाम से जो कुछ छप रहा है, वह आपका नहीं. हमने कहा कि यह छिनाली राजनीति वाले करते हैं.

हम साहित्य वाले राजनीति से ऊपर हैं. हमसे कहा गया कि अरे, चार-छह-आठ महीने बाद इलेक्शन होने वाला है, आप तो पार्लियामेंट के मेंबर हो जाएंगे. हमने कहा कि यह सब तो होगा लेकिन हमारे दिमाग में दस मन गोबर इकट्ठा हो जाएगा. और जब हम छूटे तो सी.पी.आई. में हमारी खोज हुई कि अब इनका मोहभंग हुआ है तो इनका इलेक्शन में इस्तेमाल करें. हम चुपचाप दिल्ली में आकर बैठ गए. न इनके हाथ खेलना है न उनके हाथ.”5 

स्पष्ट है कि नागार्जुन किसी के हाथ खेलने वाले नहीं थे बल्कि सभी को रगडने वाले रचनाकार थे, तभी उन्होंने कविता लिखी थी – ‘हमने तो रगड़ा है, इनको भी, उनको भी.’

नागार्जुन की आस्था मार्क्सवाद में थी, पर वे जड़ीभूत सिद्धांत के विरोधी थे. वे स्पष्ट कहते हैं कि “मैं स्थानीय घटनाओं से निर्लिप्त होकर मार्क्सवादी नहीं रहना चाहता.” यही कारण है कि वह माओ के प्रशंसक रहते हुए भी उसकी साम्राज्यवादी नीति का विरोध करते हैं, उन्हीं के शब्दों में 1962में माओ-त्से-तुंग को घरेलू संबंधों के चलते गाली दी, पर बापपन से इनकार नहीं किया. बाप रंडीबाज हो जाए तो क्या कहा जाएगा उसे?नागार्जुन इस मायने में प्रेमचंद के सच्चे वारिस हैं कि साहित्यकारों को हमेशा मशाल लेकर राजनीति के आगे चलना चाहिए न कि उसका पिछलग्गू होना चाहिए. इस संदर्भ में वह लेनिन और गोर्की का उदाहरण देते हैं, 1917की क्रांति में गोर्की खिलाफ थे, पर लेनिन ने उन्हें दुश्मन घोषित नहीं किया. अपने यहां स्थिति और है.’’दरअसल नागार्जुन अपने अंतर्विरोधों से सीख लेकर आगे की राह बनाते हैं. जो सिद्धांत द्वंद्व पर टिका है उसे जड़ीभूत बना दिया गया और उसका प्रतिफल हम भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टियों की वर्तमान स्थिति में देख सकते हैं. अगर वे नागार्जुन की बातों को अपना लें तो उन्हें आज भी संजीवनी मिल सकती है. आलोचक डॉ. बच्चन सिंह द्वारा पूछे गए वाम विरोध के सवाल पर वे अपनी बेवाक राय प्रकट करते हैं
अंतर्विरोध किसमें नहीं होते? केवल जड़ जीवों में नहीं दिखाई देते. हर सोचने-विचारने वाला आदमी अपने को बदलता रहता है. हारिल की तरह किसी जड़ीभूत सिद्धांत की लकड़ी पकड़ने वाले लोग सुखी रहते हैं. मैं वैसा सुखी अब नहीं हूं.” 

असल में नागार्जुन छद्म और जड़ मार्क्सवाद के विरोधी थे. और ऐसा इसीलिए हैं क्योंकि वे इस जनवादी दर्शन में सर्वहारा की मुक्ति का स्वप्न देखते थे, जबकि सच यही है कि छद्मवादी हर जगह सफलता और सम्मृद्धि को प्राप्त करते हैं.

नागार्जुन इन चीजों से निर्लिप्त थे और सच्चे अर्थों में प्रगतिवादी भी, इसीलिए यह बात वे बड़े दुख और आक्रोश के साथ कहते हैं कि
“मार्क्सवादी होने का दावा करने वाले लोग कितने मार्क्सवादी हैं इसे मुझसे बेहतर कोई नहीं जानता. घर में कुछ, मंच पर कुछ, चौका की बात और, चौकी की बात और. अगर थोड़े-से लोग भी जाति-पांति, भाई-बिरादरीवाद से ऊपर उठ जाते तो देश का भारी कल्याण होता... मैं ऐसा लकीर का फकीर नहीं हूं कि पार्टी की नीतियों से हर क्षण-पल निर्देशित होता रहूं. ...मैं धृतराष्ट्र की तरह अंधा नहीं हूं और न ही पातिव्रत्य के नाम पर गांधारी की तरह आंख पर पट्टी बांधने का कायल हूं. जो जन-जन में ऊर्जा भर दे, मैं उद्गाता हूं उस रवि का.”

नागार्जुन का स्पष्ट मानना है कि कोई कॉमरेड मात्र बन जाने से ही प्रगतिशील, आधुनिक और सच्चा जनता का सेवक नहीं हो सकता जब तक कि वह अपने आचरण से इसे सिद्ध न करे. अगर ब्राह्मणवादी कर्मकांड त्याज्य है तो मार्क्सवादी कर्मकांड भी, चंदन लगाने वाला भी हमारे लिए प्रगतिशील हो सकता है, अगर वह संघर्ष का समर्थन करता है और कोई कॉमरेड घर का मालिक हो और छोटे भाई या बेटे के लिए दहेज मांगे तो हम वहां उसके नंबर काट लेंगे और उस पंडित को नंबर ज्यादा देंगे जो चंदन-चुटिया के बावजूद दहेज नहीं मांग रहा है.”समकालीन भारतीय साहित्य के अक्तूबर-दिसंबर, 1995में छपे अपने एक और इंटरव्यू में वह कहते हैं, “ऐसे मित्र भी हैं जो बाहर में तो प्रगतिशील हैं, लेकिन घर में मैली जनेऊ पहनते हैं : देह पर गंगाजल छिडक़ते हैं.” 1968में विमल हर्ष तथा विद्याधर शुक्ल से बातचीत के क्रम में वह कहते हैं, ‘‘मैं कभी-कभी अपने अंदर-ही-अंदर चकित और विस्मित होता हूं कि वामपंथी विचारों से लैस जिस लडक़े ने मुझे गत वर्ष कितना अभिभूत कर दिया था, वही बीस हजार रुपए दहेज में गिनवाकर एक प्रतिष्ठित भू-स्वामी की लडक़ी का दूल्हा बन गया.”

जो लोग सत्तर के दशक में नागार्जुन पर हर तरह से प्रहार कर रहे थे उनमें से कितने लोग अपनी रचनाओं और वक्तव्यों के लिए जेल गए और सत्ता द्वारा प्रताडि़त किए या फिर जेल गए भी तो लौटकर कितने सत्ता-विरोधी रह पाए यह शोध का विषय है. पर नागार्जुन अंत-अंत तक अपने स्टैंड पार कायम रहे. 1997में सापेक्ष के संपादक महावीर अग्रवाल को दिए एक साक्षात्कार में वह इसी बात को दुहराते हैं, ‘‘मार्क्सवाद में हमारी आस्था तब भी थी और आज भी है. हमें कठमुल्लापन पसंद नहीं है. ये वामपंथी नेता चाहते हैं कि हम उनके निर्देशों के अनुसार चलें. हम किसी के गुलाम नहीं हैं. सच बात तो यह है कि हमें किसी का नियंत्रण स्वीकार नहीं. हमें अपने विवेक पर पूरा भरोसा है.”6 स्पष्ट है कि नागार्जुन साहित्य को राजनीति से हमेशा ऊपर देखते थे, इसका प्रमाण है उनकी राजनीतिक कविताएं. उन्होंने पुष्ट मात्रा में राजनीतिक कविताएं लिखीं पर न कभी उन्होंने उन कविताओं के राजनीतिक फायदे लिए और न ही राजनीति के शिकार हुए. इस संदर्भ में सुभाष चंद्र यादव से एक बातचीत में उनकी टिप्पणी गौरतलब है, ‘‘राजनीतिक कविता ऐसी हो, जिससे खुद को संतुष्टि मिले. पार्टी वालों की तरह यह नहीं कि फायदा उठा लिया और छोड़ दिया, जैसे गन्ना खाकर सिट्ठी फेंक देते हैं. समझदार आदमी इससे निराश नहीं होता.”

नागार्जुन का मानना था कि जब तक बहुसंख्यक दलित-पिछड़ी जातियां समाज और राजनीति की मुख्यधारा में शामिल नहीं होंगी तब तक असली साम्यवाद इस देश में नहीं आ सकता. वह वामपंथ का भविष्य भी दलित नेतृत्व में देखते थे. 1979में विजय बहादुर सिंह से उन्होंने कहा, हम तो इस प्रतीक्षा में हैं कि कोई ऐसी पार्टी निकले जो इन तमाम वामपंथियों से अलग हो और जिसका नेतृत्व शोषित वर्ग से उभरे.”7 साथ ही वे दलित होने और दलित चेतना से लैस होने को भी विलगाते हैं. कर्पूरी ठाकुर और जगजीवन राम के नेतृत्व के सवाल पर वह स्पष्ट करते हैं, “नहीं भाई! गरीब ब्राह्मण भी हो सकता है. विधवा हो. जन्म से सिर्फ रविदास कुल का न हो. रैदास हो भी. जगजीवन राम हरिजनों के नेता बनते हैं. नेता तो अंबेडकर थे. इनका चूतियापा लोग कैसे बर्दास्त करते हैं. (हम तो साहब साठ पार कर गए हैं, गाली भी बक सकते हैं).’’

वामपंथी पार्टियों की असफलता के पीछे भी नागार्जुन ने इस बड़ी भूल को रेखांकित किया है. उनका स्पष्ट मानना है कि जब तक वामपंथी पार्टियों के ऊंचे पदों पर ऊंची जातियों के लोग बैठे रहेंगे तब तक इस देश से सामंतवादी व्यवस्था नहीं हटेगीयह बहुत बड़ी बीमारी है. वामपंथी पार्टियां भी इसकी शिकार हैं. सभी ऊंचे पदों पर ब्राह्मण बैठे हैं. या तो छोटे-छोटे टुकड़ों में कभी भारत बंटे और गृहयुद्ध में ये चीजें जल जाएं.” दिनमान के 15मार्च, 1988अंक में महेश दर्पण को दिए एक साक्षात्कार में उन्होंने भारतीय जातिवादी व्यवस्था की तुलना दक्षिण अफ्रीका की नस्लभेदी व्यवस्था से की है उन्हीं के शब्दों में, “मुझे तो (बहुत ही गुस्से में) यह कहना पड़ता है कि हमारे देश में भी दक्षिण अफ्रीका वाला वातावरण मौजूद है. हमारे प्रशासकों में भी अनेकानेक बोथा मौजूद हैं. दलित जातियों के प्रति हमारा जो आचरण है वह क्या है...?

फिर भी नागार्जुन निराशावादी नहीं हैं. उन्हें विश्वास है कि भविष्य में नई पीढ़ी इन बुराइयों के खिलाफ मोर्चा लेगी. कृष्णा सोबती से बातचीत में वे कहते हैं, “इतिहास साक्षी है कि हमारे समाज में वर्णवाद, जातिवाद संप्रदाय और वर्ग की गंदी नालियां बराबर बहती रही हैं. ...ब्राह्मण अब्राह्मण, सवर्ण-अछूत जैसे पचड़ों ने ही एक सेहतमंद व्यापक भारतीय दृष्टि को पनपने नहीं दिया. अपनी नई पीढ़ी से हम यह उम्मीद करते हैं कि वह डटकर इन बुराइयों से लड़ेगी.”

दलित और स्त्री को नागार्जुन समान रूप से शोषित मानते हैं. उनकी स्त्री संवेदना को इस बात से समझा जा सकता है कि उन्होंने अपने प्रारंभिक मैथिली गद्य-एवं पद्य लेखन स्त्री समस्या पर केंद्रित की. हिंदी में उन्होंने रतिनाथ की चाची, नई पौध, कुंभीपाक, उग्रतारा जैसे उपन्यास स्त्री-समस्या पर लिखे. एक साक्षात्कार में उन्होंने एक बार स्त्री के रूप में जन्म लेने की कामना की है, “अगर विधाता हो तो सात या नौ वर्ष के लिए मांग लेंगे कि हमको स्त्री बनाओ. मुझे लगता है कि सबसे बड़ी हरिजन जो हैं, वो महिलाएं हैं, इनका दलितपना कब समाप्त होगा, ये हमको नजर नहीं आ रहा है.”8 

इसी प्रकार विजय बहादुर सिंह से एक साक्षात्कार (1986) में नागार्जुन ने स्त्री बनकर अवैध गर्भ धारण करने की कामना की है. उन्हीं के शब्दों में, “हमने अपनी भाभी से एक बार कहा, पांच साल के लिए मैं महिला होना चाहता हूं... पहला काम तो मैं यह करूंगा कि मैं मां बनूंगा, तो मातृत्व के जो आंसू होते हैं न, वो मरदों के रुलाई के जो विषाक्त आंसू होते हैं, उससे अलग होते हैं, मैं निकट से उसका अनुभव करूंगा. दूसरी बात यह कि मुझे-जो मेरा पति है, मारता-पीटता रहेगा... फिर छोड़ देगा (चुनौतीपूर्ण अंदाज और आवाज में) तो मेरी तृष्णाएं हैं कि मैं अवैध-रूप से गर्भ धारण करूं और फिर हमारे घर में कोई ऐसा निकले - कहे कि नहीं - अवैध नहीं, यह वैध है.”अपनी मृत्यु से कुछ दिन पूर्व तारानंद वियोगी से बातचीत के क्रम में भी वे विवाह संस्था के बदले अविवाहित मातृत्व की वकालत करते हैं, “अविवाहित मातृत्व को पकडि़ए इसे अपना समर्थन दीजिए. इस पर लिखिए. इसे लोकप्रिय बनाने का अभियान चलाइए.”9 प्रश्नकर्ता द्वारा इसके खतरे की ओर इशारा करने पर वे उत्तेजित हो जाते हैं, “अविवाहित मातृत्व के खतरे हैं, ...लेकिन यह भी तो देखिए विवाहित मातृत्व से कम खतरे हैं या ज्यादा. मुझे तो लगता है कि कम खतरे. ...वैवाहिक व्यवस्था आपको सुरक्षित और गैर खतरनाक क्यों लगती है? इसीलिए न कि आपने इसे स्वीकार कर लिया है और बंधन में बंध गए हैं.” स्पष्ट है कि नागार्जुन की रचनाओं में जो स्त्री-जीवन आया है वह उनके विचार से संपृक्त है.

नागार्जुन लेखन को बहुत जोखिम-भरा कर्ममानते हैं. उनका मानना है कि “कविता की महत्ता मानवीय सरोकार के संदर्भ में ही मूल्यवान होती है.” पर उनकी बड़ी चिंता है कि ‘‘सुविधा का लोभ संघर्ष की चेतना को सुला देता है. जनता के हित की बात करने वाले लेखक का चरित्र भी गिरगिट की तरह रंग बदलने वाले नेता जैसा होता जा रहा है.’’ नागार्जुन के लिए “भूख कविता का स्थायी भाव है. और जब तक यह है, तब तक मुंह कैसे फेरा जा सकता है (1979).”वे आम जनता के कवि हैं और उनकी दृष्टि में “आम जनता से मेरा मतलब बौद्धिक स्तर पर दर्जा चार तक पढ़ी हुई जनता से है. आर्थिक स्तर पर जो दो जून की रोटी खा लेती हो, उसके लिए किया गया कवि-कर्म.”वे कविता में कथ्य और कथन-पद्धति दोनों को महत्त्वपूर्ण मानते हैं. वे मानते हैं कि उन्होंने फार्म के प्रति जागरूकता तुलसीदास से सीखी है पर कथ्य का चयन कबीर से. इसीलिए वे स्पष्ट रूप से घोषणा करते हैं, “भारतेंदु के बाद हिंदी कविता को जनता के बीच खड़ी करने की कोशिश मैंने की.10 अगले पचास वर्षों बाद जब हिंदी कविता की जीवंतता के प्रमाण खोजे जाएंगे तो हमारी वे पंक्तियां उद्धृत की जाएंगी जो चलताऊ ढंग से आंदोलनों को लक्ष्य करके लिखी गई हैं.”11

राधामोहन गोकुल जी तथा निराला को अपना प्रिय लेखक मानने वाले नागार्जुन की चिंता यह भी है कि प्रतीकों के चयन में प्रगतिशील कवि सिकुड़ते जा रहे हैं.उनकी चिंता कवि-सम्मेलनों के गिरते हुए स्तरों को लेकर है. 1997में महावीर अग्रवाल से बातचीत के क्रम में इस संदर्भ में जो उनकी टिप्पणी है वह आज के चारणवादी माहौल में बिलकुल सटीक बैठती है जहां मंचीय तुक्काड़ कवि ही हिंदी साहित्य के प्रतिनिधि कवि माने जाने लगे हैं. “चुटकुलेबाजी और फूहड़ता ने मंचों पर पैर जमा लिए हैं. चार-छह कविताओं के सैट में कवि पूरे हिंदुस्तान के मंचों पर घूमता रहता है. अब स्थिति यह है कि अच्छे कवि कवि सम्मेलनमें जम नहीं सकते. तुक्कड़ और नकलची कवियों ने कविता और कवि सम्मेलन दोनों की प्रतिष्ठा कम की है. ...जरूरत है जनता साहित्य सुने और कवि-सम्मेलन कविता के संस्कार विकसित करे. अब तो अच्छे कवि, कवि सम्मेलनों में जाते ही नहीं, उन्हें जाना चाहिए. जनता के बीच भी उसका स्तर, उसकी समझ और उसके काव्य स्तर को परिमार्जित करने का दायित्व सभीका है.”

आलोचकों ने कई बार नागार्जुन के उपन्यास को उनका तात्कालिक लेखन या आर्थिक उपार्जन हेतु किया गया लेखन कहकर दरकिनार करने के अथक प्रयास किए. ये अलग बात है कि उनके उपन्यासों पर अब आलोचकों की कलम भी चलने लगी है. नागार्जुन अपने औपन्यासिक पात्रों से किस प्रकार संपृक्त थे वह उनके साक्षात्कारों के एक-दो प्रसंगों से समझा जा सकता है.

सारिका, जुलाई, 1972में छपे एक साक्षात्कार में शलभ श्रीराम सिंह द्वारा यह पूछे जाने पर कि आपका बलचनमा इन दिनों कहां है? क्या कर रहा है?’ उनका मार्मिक जवाब भारतीय वामपंथी राजनीति के पतनगाथा का प्रमाण है. वे कहते हैं, “सुना है, कई वर्षों तक इस बीच वह ग्राम पंचायत का मुखिया रहा है. मार्क्सवादियों और नक्सलियों को गाली देता है और केंद्रीय सरकार की मौजूदा नीतियों का शतमुख समर्थन देता है. उसका लडक़ा औसत खेतिहर है. लेकिन बालचंद की तीसरी पीढ़ी ने वर्ग-संघर्ष की अगली कड़ी थाम ली है.”
वह रोते हुए अपने इस पात्र के चारित्रिक क्षरण पर कहते हैं, ‘‘यह पात्र बहुत मार्मिक है, शलभ! उसकी यह परिणति... (बाबा फिर रोने लगते हैं) पिछले बीस वर्षों के अंदर भारतीय वामपंथी राजनीति में इतनी तेजी से मिलावट आई! राजनीति में पुरानी पीढ़ी कितनी पंगु हो गई है, बलचनमा उसी का नमूना है.”उपन्यास : कथा बीजशीर्षक से विजय बहादुर सिंह द्वारा लिया गया साक्षात्कार इस संदर्भ में महत्त्वपूर्ण है जिसमें नागार्जुन ने अपने औपन्यासिक पात्रों और उनके विकास पर विस्तार से चर्चा की है. उपन्यास में यथार्थ और कल्पना के संबंध पर वह कहते हैं,
‘‘हमें लगता है कि यथार्थ भी कल्पना के परिपाक की प्रक्रिया में ढलता हुआ आगे बढ़ता है, यानी कल्पना भी यथार्थ में अनुस्यूत होती है और कल्पना और यथार्थ का जो चोली-दामन का रिश्ता है वह असल कला की उत्पत्ति है, चाहे गद्य में हो या पद्य में.’’12

नागार्जुन मानते हैं कि पुरस्कार की राजनीति में फंसकर रचनाकार समाप्त हो जाता है, “जब माइंड पुरस्कार ओरिएंटेड हो जाएगा तो साहित्य का मूल बिंदु छूट जाएगा.” उनके अनुसार राजनीतिक ताकत जिसके हाथ में है, वह साहित्य को बंधुआ गुलाम मानता है. नागार्जुन ने इंदिरा गांधी के विरोध में दर्जनों कविताएं लिखीं. लेकिन 18मई, 1983को उन्होंने उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का 15हजार राशि का पुरस्कार इंदिरा गांधी के हाथों लिया जिसकी काफी आलोचना भी हुई. 18मई, 1983को अजय सिंह से बातचीत में उन्होंने कहा कि
“पुरस्कार पाने के बाद मैं चारण बन जाऊं और मेरी कविता की धारा या दिशा बदल जाए, तब तो जरूर खतरा है. इंदिरा गांधी सरकार पर, जन-विरोधी सत्ता पर चोट करते हुए मैंने बराबर कविताएं लिखी हैं और आगे भी लिखता रहूंगा. उसमें कोई परिवर्तन नहीं.”

नागार्जुन आलोचना की उपेक्षा से दुखी अवश्य थे पर हताश नहीं, “हम आलोचकों को अब पढ़ते नहीं हैं. यह सब हिंदी के अध्यापक करते हैं उनका काम है साजिश करना हम इन अध्यापकों से परिचालित नहीं हैं. मान्यता दें या न दें क्या फर्क पड़ता, क्योंकि जनता जनार्दन हमें मान्यता देती है.”13साहित्य में पनप रहे मठवाद पर नागार्जुन ने जमकर प्रहार किया है. वे स्पष्ट कहते हैं कि “साहित्यिक महंतों की छाया में युवा साहित्यकारों की पीढ़ी छोटी बहुओं की भांति घुट रही है. ...हम घुटे हुए पुराने पापी साहित्य का राज-मार्ग (जनपथ भी कह लीजिए) न केवल छेके हुए हैं, उसे हग-हगकर खराब कर रहे हैं.”14

स्कूलों और विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम निर्माण में जो राजनीति की जाती है उससे हम भलीभांति परिचित हैं. पाठ्यक्रम में उन्हीं साहित्यकारों की रचनाएं शामिल की जाती हैं जिनकी पहुंच हो अथवा उस सरकार के मतानुकूल हो. विरोध और विद्रोह की चेतना संपन्न रचनाएं जितनी असुविधाजनक अंगे्रजों के लिए थीं उतनी ही हमारी सरकारों के लिए भी हैं. नागार्जुन ने 1986में दिए एक इंटरव्यू में ठीक ही कहा है कि “हमारे यहां संपूर्ण भारतीय साहित्य में खीरपंथ चल गया है. जो खीर खाते हैं, वे प्रामाणिक विद्वान माने जाते हैं. एक साहब को मैंने चिट्ठी लिखी थी कि हमारी जो प्राथमिक शिक्षा है उसके पाठ्यक्रम में अंडा-मीट वगैरह का समावेश होना चाहिए.”फिर भी नागार्जुन का मानना है कि जो रचना स्लेबस में शामिल हो जाती है वह सुहागिन हो जाती है, अर्थात् आर्थिक साधन बन जाती है. लेकिन विश्वविद्यालयों में तिकड़म से जिस प्रकार का माहौल बनता जा रहा है नागार्जुन उस पर भी बेबाक टिप्पणी करते हैं. डॉ. बच्चन सिंह से बातचीत में वे कहते हैं, “आप दिल्ली जा रहे हैं. कोई मौखिकी होगी, सेमिनार होगा, सरकारी कमेटी की बैठक होगी या दूतावासों का बुलावा होगा या विदेश यात्रा का तिकड़म.” आगे वे कहते हैं, “पहले अपने गिरेबां में झांककर देखें कि आप खुद क्या हैं?कुछ रटंत नुस्खों के आधार पर आप जनता को डराते रहते हैं. मुक्तिबोध ने ऐसे ही लोगों को ब्रह्मराक्षस कहा है.”

नागार्जुन के मित्रों की संख्या बहुत बड़ी थी, वे युवा-वर्ग से बहुत जल्दी घुलमिल जाते थे. अपने जिन मित्रों के घर वे जाते थे, उनके घर के सदस्य पहली भेंट में ही उनके प्रशंसक बन जाते थे और बदले में उन्हें स्वादिष्ट खाना मिल जाता. केदारनाथ अग्रवाल, शमशेर बहादुर सिंह, त्रिलोचन, जैसे समकालीन मित्रों से उनकी दोस्ती जगजाहिर है. अपने मित्रों पर वह कितना अधिकार समझते थे वह शमशेर के प्रति उनकी इस उक्ति से समझी जा सकती है, “मित्रों की कई श्रेणियां होती हैं. ...हम ऐसे लोगों में हैं कि आप पीठ खुजलाते हो तो हम उघाडक़र देखेंगे कि कहीं घाव तो नहीं. हम तथाकथितभद्र मित्र नहीं हैं. ...हमारे लिए तुम्हारा जीवन ज्यादा मूल्यवान है, तुम्हारी भद्रता का कोई मूल्य नहीं.” लेकिन नागार्जुन कभी भी मित्रता की बेदी पर सत्यकी बलि नहीं चढ़ाते- “रामविलास डिप्लोमेट हैं. आलोचक हैं तो डिप्लोमेट भी हैं. पर केदार कवि हैं, केवल.” वह अज्ञेय की कविता के आलोचक हैं माजो माजो और माजोलेकिन वह प्रशंसा भी करते हैं, अज्ञेय का सटायर जो है, बहुत सूक्ष्म होता था.”

अदम्य जिजीविषा के रचनाकार नागार्जुन जीवन के अंत-अंत तक सक्रिय रहे, साथ ही अपनी हस्तक्षेपी भूमिका पर कायम भी. वे कभी जीवन से निराश नहीं हुए. अनवर जमाल द्वारा बनाई गई फिल्म में उन्होंने कहा है, कि लोग बुढ़ापा का रोना रोते रहते हैं. लेकिन मैं ऐसा नहीं मानता हूं.”1995में सुभाष चंद्र यादव ने उनसे पूछा बाबा मृत्यु से डर लगता है.उन्होंने कहा, “नहीं, बिल्कुल नहीं. जैसे लोग कहते हैं वो यमराज आया!मुझसे तो यमराज दस कदम दूर ही रहता है.”15

नि:संदेह बाबा के साक्षात्कारों से गुजरने का अर्थ एक पूरी सदी के इतिहास से गुजरना है. सत्य की आंच से गुजरना है. अदम्य जिजीविषा से भरे जीवन और संघर्ष के खुरदरेपन को अपने भीतर महसूस करने जैसा है. राजनीति को कविता की आंच से तपाने वाले कवि के भीतर झाँकने जैसा है.  और सबसे बढक़र अपने प्यारे बाबा की दाढ़ी सहलाते हुए उनकी घुच्ची आंखोंमें झांकने जैसा है. सच में बाबा आज के माहौल में आपकी  बहुत याद आती है .   
_____________________
संदर्भ:
१.        मेरे साक्षात्कार : नागार्जुन, संपादक-शोभाकांत, किताबघर प्रकाशन, सं.-1994की भूमिका
२.        मेरे साक्षात्कार, पृ. 134
३.        मेरे साक्षात्कार, पृ. 182
४.        मेरे साक्षात्कार, पृ. 99
५.        जनसत्ता, 20जून, 1986
६.        सापेक्ष, 1997
७.        नागार्जुन और उनका रचना संसार, विजय बहादुर सिंह, संभावना प्रकाशन, हापुड़, 1982, पृ. 95
८.        मेरे साक्षात्कार, उपरोक्त, पृ.-237
९.        तुमि चिर सारथि : तारानंद वियोगी, पहल पुस्तिका, अप्रैल-मई 2006, पृ. 76
१०.       सापेक्ष-34, नागार्जुन अंक, 279
११.       मेरे साक्षात्कार, उपरोक्त, पृ. 119
१२.       उपरोक्त, पृ. 103
१३.       उपरोक्त, पृ. 51
१४.       उपरोक्त, 79
१५.       उपरोक्त, 40

__________________
संपर्क :
बी-277-ए,
वसंतकुंज एन्क्लेव

नई दिल्ली-110070

कथा-गाथा : कफन रिमिक्स : पंकज मित्र

$
0
0







कथा-सम्राट प्रेमचंद की कालजयी कहानी ‘कफन’ उनकी अंतिम कहानी भी है. यह मूल रूप में उर्दू में लिखी गयी थी. जामिया मिल्लिया इस्लामियाकी पत्रिका जामियाके दिसम्बर, १९३५ के अंक में यह प्रकाशित हुई, इसका हिंदी रूप ‘चाँद’ के अप्रैल, १९३६ में प्रकाशित हुआ था. यह हिंदी की कुछ बेहतरीन कहानियों में से  एक है.

इस कहानी की पुनर्रचना का विचार ही ज़ोखिम भरा है और ऊँचे दर्जे की कहानी- कला और सामाजिक संरचनाओं में आये बदलावों की गहरी समझ की मांग करता है. 

कथाकार पंकज मित्र ने यह साहस दिखाया है. ‘कफन रिमिक्स’ समकालीन घीसू माधव की कथा कहने का दावा  करती है. ८२ साल बाद क्या ‘घीसू’ ‘माधव’ की संताने इसी तरह विकसित हो रही हैं ? आदि आदि.

समालोचन में कथा–आलोचक राकेश बिहारी का स्तम्भ ‘भूमंडलोत्तर कहानी’ पिछले लगभग तीन वर्षो से नियमित प्रकाशित हो रहा है जिसमें अब तक १४ कहानियों की विवेचना आप पढ़ चुके हैं. यह अब पुस्तकाकार शीघ्र प्रकाश्य है.

कहानी आपके समक्ष है. विवेचना साथ में है. पहले आप कहानी पढ़ें, गुनें, विचारें. फिर विवेचना पढ़ें. देखें कथाकार ने कहानी को कहाँ तक आगे बढ़ाया है? और विवेचना में कथा की कैसी पड़ताल की गयी है.

समालोचन यह समझता रहा है कि जब तक पाठक का पाठ सामने नहीं आता पाठ पूरा नहीं होता.




कफन रिमिक्स                  
(बाबा -ए- अफसाना प्रेमचंद से क्षमायाचना सहित)


पंकज मित्र



शा
यद घीसू ही रहा हो या गनेशी या गोविन्द- नाम से फर्क भी क्या पड़ना था. एक चीज एकदम नहीं भूलते थे दोनों बाप-बेटे नाम के साथ ‘रामलगानाबल्कि माधो या मोहन जो भी नाम रहा होएकदम छोटा करके बतलाता था- एमराम. बाप का नाम? - जीराम. पीठ पीछे गरियाते थे लोग-ऊँह! काम न धामनाम एमराम. सामने हिम्मत नहीं होती थी क्योंकि जमाना ‘इनलोगों’ का था या कम से कम ऐसा समझा जाता था. तो जनाब एमराम अभी तुरंत गाँव के एकमात्र पी.एच.सीमतलब प्राथमिक सेवा केन्द्र जिसे बोलचाल में छोटका अस्पताल कहा जाता था उसके बेरंग बंद दरवाजों पर कई लातें जमाकर लौटा था जिससे उसकी टाँगो में दर्द हो रहा था. भला हो जीराम का जो शाम को दो प्लास्टिक ले आया था और भला हो जमाने का भी जो हर गाँव में यह बहुतायत में उपलब्ध था.

जीराम उवाचे थे- हम तो पहले ही बोले थे बंद होगा. रात में तो वहां सियार बोलता है. नर्सिया एगो होली-दशहरा आती है बस.

एम
राम - एही से हम बोलते है टौन में चलके रहिए. आदमी कम से कम घर में एड़ी घिस के तो नहीं मरेगा.

जी
राम- देख न फोन-उन करकेकिसी का गाड़ी-उड़ी भेंटा जाय.

एम
राम - साला नेटवर्कवा रहे तब न. इ झमाझम पानी में गाड़ीवाला हजार रूपया मांगेगा.

जी
राम - अरे तो अबरी जोजनवा (योजना) में कुआँ मिल जायेगा तो कमाई तो हो जायेगा न.

एम
राम - हाँ! साँढ़वाला गिरेगा तो ललका फल मिलेगा.

जी
राम - गुस्सा काहे रहा है बेटा! ले एक घूँट ले ले. मन ठंढा जायेगा.

एम
राम - यहाँ बुधवंती के जिनगी ठंढा रहा हैआपको भी न - अच्छा लाइये पप्पा. कलेजा जल गया. कोन घटिया चीज ले आये.

जी
राम - हमरा एकरे से संतोष होता है. कोलवरी (कोलियरी) के टैम से आदत पड़ गया है. खाना भेंटाबे चाहे नहीं इ तो जरूर चाहिये. बहू को कुछ हो गया तो खाना पर भी आफत है. न रे?

एम
राम - दुर! इ अंधड़-पानी में नेटवर्क कहाँ मिलेगानर्सिया का नंबर तो है लेकिन आयेगी कैसे?

जी
राम - रोजगार बाबू (रोजगार सेवक) को फोन करके देख नकुछ उपाय करे.

एम
राम - पीके सुतल होगा. होश में होगा तब न. एक बार देख के आओ न बुधवंती के हाल पप्पा.

जी
राम - हमरा कुछ बुझायेगा. तुमरा जनानी हैतुम पूछ आओ हाल.

एम
राम - हमरा देखल नहीं जाता है. कटल बकरा ऐसन छटपटा रही है.

जी
राम - तो हमसे कैसे देखा जायेगा. अच्छा बाबू! परसौती (प्रसूति) के लिए भी तो कुछ जोजना आता है न ब्लाक मे. सुनते है अच्छे पैसा मिल जाता है. 

एम
राम - एकदम आखरी कमीना हो तुम भी पप्पा. हरदम पैसे सूझता है. यहाँ आदमी मर रहा है.

जी
राम - अरे बाबू! पैसा देखले हैं न. कोलवरी में नोट पर नोट. एक बार घुसो - काला घुप्प अंधरिया मेंनोट लेके निकलो. डेली मीट-भात और अंगरेजी दारू. लेकिन तब भी हमरा लास्ट में प्लास्टिक जरूर चाहिए.

एम
राम - तो आ गए काहे इ गाँव में सड़ने.

जी
राम - अपना मर्जी से थोड़े आये. कोन तो साला फुसक दिया कि कुछ आदमी दूसरा के नाम पर कोलवरी में मजूरी कर रहा है. हो गया इंस्पेक्शनजिसके नाम पर हम थेउसका नौकरी चल जाता न. तो घंटी बजने पर भी हम निकले नहीं. बस गाड़ी आयाऊपर से एक बोझा कोयला ढार दिया. हम तो मरिये गये थे समझो. लेकिन खाली हाथे भर काटना पड़ा. जान बच गया.

एम
राम - तो कोलवरी से मुआवजा मिला नहीं कुछ?

जी
राम - कोनो हम नौकरी पर थोड़े न थे. कोय कागज-पत्तर था हमराकोलवरी हस्पताल में इलाज हो गया यही बहुत है. देख तो बाबू! अब जादे गोंगिया रहीं है बुधवंती. हे भगवान!

एमराम दौड़कर कमरे में घुसते है. थोड़ी लड़खड़ाहट भी है चाल में. मोबाइल निरंतर सटा है कानों से. बुधवंती अस्त व्यस्त हालत में है. चेहरें की ऐंठन बता रही है कि असह्य यंत्रणा है. एमराम भावुक हो उठते हैं. साल भर ही तो हुए हैं. कितनी अपनी लगने लगी थी. धीरे-धीरे आवारा घर पालतू बन रहा था. दिन भर ढबढियाने (इधर-उधर घूमने) के बाद घर आने पर पेट भर खाना और आँख भर नींद. बुधवंती से शादी से पहले तो बाप कहीं से पेट भर के आ रहा है तो बेटा कहीं से. सिर्फ एक ही बात तय होती थी. दोनों ढक होके लौटते थे. जिन आँखों की झाल ने एमराम को जीवन का स्वाद बताया था उन्हीं आँखों को बंद देखकर एमराम का जी बैठा जाता था. कमरे से घबराकर बाहर निकल गया.

एम
राम - पप्पा! देखो न बुधवंती का आँख बंद है. अब छटपटा भी नहीं रही है. कहीं कुछ हो तो नहीं गया?

जी
राम गिलास हाथ में पकड़े मुस्करा रहा था. अपने में लीन संत हो जैसे. कह रहा हो - बच्चू! सब माया-मोह का बंधन है. इन्हीं आँखों के सामने सात-आठ (गिनती भी ठीक से याद नहीं) बच्चों को जाते देखा. तुम्हारी अम्मा को भी बिना दवा-दारू के .....

यहाँ तक कि बिना जाने किस बीमारी से गई. जानकर होता भी क्या. अभी तो कम से कम छोटका हस्पताल के उजाड़
बेरंग बंद दरवाजा में लात मारने का भी उपाय है. तब तो वह भी नहीं था. एमराम इस अंतर-केश-दाहक मुस्कान पर सुलग उठे. इसी वजह से कई बार उन्होंने जीराम को जी भरकर कूटा भी था. कूटते तो बुधवंती को भी थे गाहे-बगाहे. लेकिन यह कूटना क्रोध की अवस्था में प्रेम प्रदर्शन का अनोखा तरीका था उनका. पर अभी इन सबका वक्त नहीं था.

एम
राम - देखते हैं किसी का बाइक-उइक भेंटा गया तो ब्लाक तक चल जायेंगे.

जी
राम मुस्कराते रहे. जैसे कह रहे हो- क्या होगा वहां जाकर. डाक्टर.एन.एमआशा दीदी सब तो तीन बजते ही ...... एमराम निकल पड़े थे इस हिदायत के साथ - देखते रहिएगा. जीराम मुस्कराते रहे. पीट-पीटकर पानी बरसता रहा.

आधे घंटे में एम
राम पानी से लथपथ लौटे - कोय साला मदद करने वाला नहीं. महतो जी का छौड़वा बोल रहा था - चले हमहम मना कर दिये. उसका नजर ठीक नहीं है. बहाना खोजता रहता है. इन सारी बातों का जवाब जीराम के खर्राटो ने दिया. एमराम कमरे में दौड़ते गए और उसी गति से बाहर आये. बुधवंती ठंडी पड़ी थी. मुँह पर मक्खियाँ भिनक रही थी. चोरी से जलाए गये बल्ब की रोशनी में देखा. बाहर आकर जीराम की कमर पर एक लात जमाई. बिलबिला कर उठे जीराम.

एम
राम - यहाँ बहू मरी पड़ी है और इ पी के सुत रहा है. पापी! इसके बाद गालियों की एक लड़ी जो उसे बचपन से अबतक पहनाई गयी थीजीराम को वापस पहना दी. हकबकाकर उठते ही पूछा - बच्चा हो गया क्या?

एम
राम - पप्पा ! बुधवंती चल गई - बोलते-बोलते आवाज भर्रा गई. जीराम निश्चित हुए फिर रोने लगे.

जी
राम - बड़ी गुणवंती थी रे बुधवंती. हम तो बर्बाद हो गये. रोटी का ठौर तो था. कल ही तो बियाह करके लाया था रे तू.

एमराम इस अनवरत विलाप के बीच शांत होकर बुधवंती का चेहरा देखे जा रहे थे. उसी तरह जब पहली बार देखा था और आँखें की ओर देखते हुए पूरी मिर्च चबा ली थी मुख्यमंत्री दाल-भात योजना के दुकान पर. सी-सी कर उठने पर बुधवंती ने पानी दिया था. तय नहीं कर पाये थे एमराम कि बुधवंती की आँखों में झाल ज्यादा थी या हरी मिर्ची में. उन दिनों शहर में रिक्शा चला रहे थे एमराम. दोनों टाइम उसी दुकान पर  खाना खाने लगे चाहे उनके रैनबसेरे से लाख दूरी हो. बुधवंती उस दुकान में खाना बनाने का काम करती थी. अब रैनबसेरा तो रिक्शेवालों का था और बुधवंती वहां जा नहीं सकती थी. कम-से-कम रात में तो वहाँ रूकना एकदम असंभव था. एमराम के मन में एक आदिम इच्छा ने जन्म लिया और रिक्शा मालिक के पास रिक्शा जमा करके बचाये हुए पैसे और बुधवंती को लेकर गाँव आ गए. रास्ते में कालीमंदिर में दैवी सम्मति भी ले ली. जब वे पहुँचे तो जीराम मरणासन्न अवस्था में पड़े थे. सिर्फ आसपास कई प्लास्टिक पाउच पड़े थे. लगता था कई दिनों से भोजन के बदले इसी अमृत का सेवन कर रहे थे. आते ही बुधवंती ने घर का मोर्चा संभाल लिया - साफ-सफाईचौका-बरतनखाना-पीना. दोनों जीराम को टाँग कर चापाकल पर ले गये. नहलाया-धुलायाकपड़े बदलेखाना खिलाया. भर पेट भात का नशा अलग होता है. जीराम घंटों सोते रहे.

रात में नीमरोशनी में जब एमराम ने बुधवंती के नग्न पीठ पर उत्तप्त हाथ फेरा तो उभरे निशानों का अनुभव कर काँप गए. जोर डालकर पूछा तो बुधवंती ने पूरी कहानी बयान की कि कैसे उसके गाँव की एक दलालिन ने नौकरी दिलाने के नाम पर दिल्ली ले जाकर बेच डाला था जहाँ मालिक मालकिन उसे बेतों से मारते थे. कोठी के अंदर बंद करके रखते. बाहर जाने नहीं देते.

आगे एमराम सुन नहीं पाये और उस अदृश्य मालिक के प्रति गालियों की बौछार करके बुधवंती से प्रेम करने लगे (बाबा-ए अफसाना प्रेमचंद से फिर क्षमायाचना क्योंकि कहानी में इस तरह के दृश्य को अप्रूव नहीं करते वे)
सुबह जीराम मुस्कराते हुए उठे. बहुत दिनों के बाद भोर इतनी उजली हुई थी. सुबह-सुबह काली चाय मिली थी. एमराम को चाय की आदत पड़ गयी थी शहर में कुछ दिन रहने से.

एम
राम-तब पप्पा ! काम-धाम कुछ?

जी
राम - का काम होगा बाबू! कोय काम देता नहीं कहता है कामचोर. इधर नहर पर कुछ दिन हुआ था मिट्टी काटने का. बदन तोड़ने वाला काम है. पैसा भी आधा.
एमराम. - और झूरी महतो के यहाँ खेत में?

जी
राम - अरे! झूरी महतों का मालूम नहीं हैउ तो झूल गया न बुढ़वा पाकड़ पर. एक दिन भोरे गए तो देखे भीड़ लगल हैझूरी झूल रहा है. दोनों बैलवा उसका पैर चाटले है नीचे खड़ा-खड़ा. सब बोला कि कर्जा ले लिया था बहुत और इस बार फसल मार खा गया न. बस हमरा भी काम खतम.

एम
राम - ठीक हैदेखते हैं. रोजगार सेवक कौन है?

जी
राम- एक बार नाम-धाम लिख के तो ले गया था. काम मिला भी था एक बार बस दू-तीन दिन. बहू का भी लिखवा देना नाम.

एम
राम - एतना आसानी से थोड़े लिख लेगा. आजकल ग्राम सभा वाला चक्कर हो गया है. मीटिंग होगा तभिये लिखायेगा.

जी
राम - अरे हमारा तो लिखले है न. सब हैआधार कार्डवोटर कार्ड सब. बड़ा झमेला है - कहता है मजूरी खाता में जायेगा. हम गये थे तो सब हँस दिया. एक हाथ वाला लूल्हा का काम करेगा. सुना दिये हम भी - दुगो हाथे से कौन पहाड़ ढा दिये तुम लोग. एगो अंगूठा तो है न ठप्पा देने. तुमलोग भी तो वही करता है न. बाकी काम तो मशीने से न होता है.

जिस दिन का यह वाकया है सभी पशोपेश में पड़ गये थे. रोजगार सेवक ने सबको शांत करवाया -भाईयों! शांति रहिएशांति रहिए. बैठक को भरस्ट मत कीजिए. पाँच घर ही तो मात्र दलित है गाँव मे. सबको लेके चलना है साथ. सब ठप्पा लगाइये.
जीराम!
पुकार पर जीराम ने उठाया अपना एक मात्र हाथ-हाजिर मालिक.
-आइये ठप्पा लगाइये. यहाँ पर. सबका नाम प्रखण्ड में भेजा जायेगा. बी.डी.साहेब जाँच करेंगे फिर जिला जायेगा.
-पैसवा कब तक मिल जायेगा मालिक - जीराम व्यग्र थे.
-अरेअभी देर लगेगा. सवधानी रखना पड़ता है. रोजगार सेवक ने धीरज की गोली खिलाई. आजकल बहुत झोल-झाल है. आरटीआईसोशल आडिट.

महतो जी हँसते हुए बोले-
 अरे! सब तीर-तलवार लौट जायेगा रोजगार बाबू. खाली इन लोग पाँच परिवार का नाम शुरू में ही लिख दीजियेगा. एकदम सौलिड कवच-कुंडल.

रोजगार बाबू सार्वजनिक रूप से हँसना तो दूर कभी मुस्कराते भी नहीं थे तो फाइलें समेटने लगे. पद का नाम रोजगार सेवक था और यह उसी तरह के सेवक थे जैसे मंत्री जनता के सेवक होते हैंप्रधानमंत्री प्रधान सेवक होते हैं. दरअसल मजा यह था कि जनता कोई दिखनेवाली चीज तो थी नहीं. ईश्वर की तरह एक अमूर्त कल्पना थी तो सीधे-सीधे ऐसा नहीं होता था कि जनता नाम का प्राणी आया और उसकी टाँगे दबाने बिठा दिया गया या मालिश या चम्पी करनी पड़ गयी. जनता उस न दिखनेवाली गर्द की तरह थी जो जब जरूरत हुई विरोधी पक्ष की आँखों में झोंकने के काम आती थी. तो रोजगार सेवक भी मन ही मन में गा रे मन रे गा करते हुए जनता के लिए सौ दिन या एक सौ बीस दिन का रोजगार सुनिश्चित करके चले गये. दूसरे-तीसरे दिन से जीराम ओर इसी तरह के प्राणी प्रखण्ड के चक्कर लगाने लगे. बैंक में जाकर दरबान से पूछते - बाबू. पैसवा आया? गाँव के बरगद के नीचे ताश खेलते लड़के आपस मे बात करते - पैसवा आया तुम्हारा? काम शुरू नहीं हुआ तो पैसा कोन बात कापोखरा खोदायेगा यहाँ पर. जनता पोखर में पानी और खाते में रूपया देखने का भान करने लगी.

बाबू! खाना खा लो -
 कितना मीठा बोलती है बहू. इ सरवा मेरा बेटवा कहाँ से सीख के आया. पप्पा. पहले बप्पा बोलता था. जब से टौन रहके आया है तभी से.

हाँदे दो!
 - खुश थे जीराम.
खुश थे एमराम भी. रोजगार बाबू ने एमराम को ठीक पहचान लिया था. लिख लिया था नाम भी
नाम एमरामजाति -
नाम बुधवंती देवीजाति -

एम
राम खुश थे कि उनलोगों का नाम खातें मे इतनी जल्दी चढ़ गया. रोजगार बाबू खुश थे कि उनका उसूल कायम रह गया साथ ही कोटा भी पूरा हो गया. एमराम की समझदारी ने उनके उसूल को बचा लिया. टाउन में रहकर आदमी समझदार हो ही जाता है. देहाती होने से पचास सवाल करता-क्योंकिस वास्तेप्रसन्न मन से सूची लेकर प्रखंड पहुँचे. वहाँ पहुँचते ही अपशगुन दिखा- तब रोजगार सेवक जीसुनने में आया है कि सूची में एट्टी परसेंट फर्जी नाम है. दिखाइये.

देखिए! सरकारी दस्तावेज है. दिखा नहीं सकते.

दस रूपया लगा के पूछेंगे तब तो दिखाइयेगा.

सवाली जी दरअसल उस नई उग आयी बिरादरी के सदस्य थे जो अंधेरे कोने अतरे में अचानक सवालिया टार्च की रोशनी फेककर अस्त व्यस्त हालत में देख लेते थे. फिर कुछ दे दिलाकर सवालों के टार्च बुझाने की मिन्नत की जाती थी. प्रखण्डजिलाराजधानी में इन सवाली लोगों की संख्या बढ़ती जा रही थी. दस रूपया लगायालाखों का सवाल पूछ डाला. कभी-कभी दाँव लग गया तो एकाध महीने का खर्चा निकल गया. कभी-कभी दाँव उल्टा भी पड़ जाता था – ‘इसके पाँच सौ पन्ने हैं. फोटोकापी के पाँच सौ जमा करा दें तो फाइलों की प्रति उपलब्ध कराई जा सकती हैं.दुर साला! अब पाँच सौ कौन लगायेइसमें हर तरह के सवाल होते थे-मसलन सूची में अनुसूचित जाति के कितने लोग हैं से लेकर अमरीकी आर्थिक नीति से कटमसांडी प्रखण्ड के कितने लोगों का जीवन सीधे-सीधे प्रभावित हुआ तक.

बुधवंती की देह को छूकर देखा एमराम ने. ठंढी पड़ रही थी देह धीरे-धीरे. जीराम दरवाजे के पास धीमे सुर में विलाप करते हुए कनखियों से एमराम की गतिविधियों पर नजर रख रहे थे. एमराम बारबार भावुक हो रहे थे. भिनक रही थीमक्खियाँउड़ा रहे थे. आजकल बरसात के दिन थे तो मक्खियाँ कभी भी कहीं भी भिनकती रहती थी. दिन-रात का खयाल किये बिना. जीराम ने मन को स्थिर किया. सवालिया निगाह बेटे पर डाली.

जी
राम - तब बाबू! अब तो किरिया-करम भी तो करना होगा न.

एम
राम - भोर होगा तब नअब तो

जी
राम - हाँलेकिन बुधवंती के मट्टी को तो नीचे लाना होगा न खाट पर से.

एम
राम उठकर हाथ लगाने लगे तो जीराम भी साथ आ गए. दोनों ने मिलकर बुधवंती को खाट पर से नीचे उतारा. एक फटी चटाई पर रखा.

जी
राम - उत्तर-दक्खिन सुलाओ. का करोगे बाबू! सोचोएतने दिन का साथ था. विधि का विधान. पास में पैसा है नकफन-लकड़ी सब........

एम
राम - सब इंतजाम किया जायेगा. एतना दिन सुख-दुख में साथ दी तो करना पड़ेगा न.

जी
राम- उ तो करना ही पड़ेगा. मतलब हम कह रहे थे कि उधर रोजगार बाबू के सेवा में भी तो निकल गया न.

बड़े लाड़ से जी
राम एक प्लास्टिक पाउच फाड़कर दो गिलासों में ढाल रहे थे. एक अपनेपन से बेटे की ओर बढ़ाया - ले ले बाबू! तकलीफ घटेगा. एमराम ने सिर नीचा किए ही गिलास हाथ में ले लिया.

जी
राम - जोजनवा वाला कुआँ पास हो जाता न. सब दुख-दलिद्दर दूर हो जाता.

एम
राम ने गटगटाकर एक ही सांस में गिलास खाली कर दिया.

जी
राम ने अनुभव बाँटा - धीरे बाबू धीरे. कलेजा जल जायेगा.

एम
राम - कलेजा तो पानी हो गया पप्पाहमरी वैफ (वाइफ) चल गई. उ तो सरग जायगी न पप्पा?

जी
राम - एकरा में कोय शक है बाबू. एकदम पतिवरता थी. तुमको छोड़के किसी के तरफ देखी भी नहीं.

एम
राम - लैफ (लाइफ) बरबाद हो गया पप्पा.

बोलते-बोलते आधा नशा
आधी थकान से सिर एक ओर लुढ़क गया. दरवाजे से सटकर जीराम भी ऊँघने लगे थे. पानी लगातार बरसे जा रहा था. एमराम का फोन लगातार बजे जा रहा था. जीराम ने झकझोर कर एमराम को जगाया.

ऐं!
फोन!

-अरे! इ रात को रोजगार बाबू काहे फोन कर रहा है. रात-बेरात फोन करने का आदत है इसको.

बधाई हो राम जी!

कोन ची का सर?

-बुधवंती देवी तोरे वाइफ का नाम है नजोजना वाला कुआँ पास हो गया उसके नाम से. हम बोले थे न वाइफ के नाम से दरखास दो. एक तो महिलाउपर से दलित. एकदम ब्रह्मास्त्र. साला पास कैसे नहीं होता.

अभी रात में पास हुआ सर?

अरे नहीं रे बुड़बक! अभी हमरा मतलब शाम में तुम जानबे करते हो. तनी सा-हमरा तो फिक्स है न. तो अभी नींद खुला तो सोचे तुमको खुशखबरी दें दें.

एम
राम - सर! उ बुधवंती तो-

जी
राम ने फोन छीन लिया - मैके चल गई है. बच्चा होने वाला था न तो.

-अरे कोय बात नहींखाता में न पैसा जायेगा. खाली हमरा सही टाइम पर जल्दी ही.........

जी
राम - एकदम मालिक!
एमराम अपने बाप को फटी आँखों से देखे जा रहा था. जीराम का नशा हिरन हो चुका था.

जी
राम - अब बाबू! जल्दी सोच का करना होगा.

एम
राम - मतलब.

जी
राम - देख कितना पतिबरता थी बुधवंती. जाते-जाते भी हमलोग का लंबा जोगाड़ कर गयी. भगवान! उसको एकदम सरग के गद्दी पर बैठाना. केतना मिलता है बाबू कुआँ का.

एम
राम - एक लाख उनासी हजार. उसमें बड़ा हिस्सा उ रोजगार बाबू खा लेगा.
जीराम - अरे तो कोनो हमलोग का पूंजी लगा हैजो मिलेगा सब फायदे न है. कुआँ खनवाने में कहीं एतना पैसा लगता है. धन्य है बहू!

एम
राम - लेकिन इ बुधवंती!

जी
राम - वहीं तो! सुन! ध्यान से सुन! किसी को कानोंकान खबर नहीं हो. कुछ इंतजाम करना होगा. भगवान भी हमलोग का भला चाहते हैं तभी इ छप्पर फाड़ बारिश..........

सहन के किनारे रखी कुदाल उठा लाये अपने एक मात्र हाथ मे. सिर पर बोरे का घोघे (छाते की तरह) डाल दिया
जैसे रणभूमि में जाने के लिए तैयार सिपाही हो.
एमराम बाप का बाना देखकर थोड़े परेशान है मगर धीरे-धीरे समझ में आ रही है बात.

एम
राम - लेकिन पप्पाबुधवंती की मट्टी खराब हो जायेगी. इ सरग कैसे जायेगी.

जी
राम - कोय लौट के बताया है कि सरग गया कि कहाँ गया.

एम
राम - लेकिन हमरा से पूछेगी कि हमरा किरिया-करम भी नहीं किए तो हम का जवाब देंगे?

जी
राम - किरिया-करम तो होगा बस थोड़ा दूसरा तरीका से. देख. माटी का शरीर माटी में मिलना है. चाहे जैसे मिले. गफूरवा का बाप मरा था तो सरग गया होगा कि नहीं. एतना एकबाली आदमी था.

जीराम पूरे दार्शनिक हो चुके थे. दर्शन को कर्तव्य में भी ढालने को सन्नद्ध भी. एमराम भी भावकुता के खोल से धीरे-धीरे बाहर आ रहे थ. एक चमक सी आँखों में लौट रही थी. कुदाल बाप के हाथ से ले ली. घर के पिछवाड़े टाँड़ जमीन थी. आज उन्हें अपने रहने के ठिकाने पर गर्व हुआ कि गाँव के एक किनारे रहने के भी अपने फायदे हैं. एमराम गड्ढा खोदते जाते. जीराम एक मात्र हाथ से मिट्टी निकाल-निकाल कर फेंकते जा रहे थे. बोरे का घोघो फिंका चुका था. दोनों कीचड़ में लथपथ किसी दूसरे ग्रह के प्राणी लग रहे थे जो किसी गुप्त खजाने की तलाश कर रहे हों. साढ़े तीन हाथ लंबा और चार हाथ गहरा गड्ढा खुद जाने तक दोनों रूके नहीं. कौन कहता था वे कामचोर थे.

कीचड़ से लथपथ
थकान से चूर वे घर लौटे तो पौ फट रही थी. चापाकल पर दोनों ने रगड़-रगड़कर नहाया. पानी बरसना भी बंद हो चुका था.
नींद से भारी आँखों को थोड़ा खोलते हुए पूछा

एम
राम ने - पप्पा! बुधवंती को हमलोग कफन तो दिए नहीं. बिना कफन के ही सरग जायेगी?

जी
राम ने जम्हाई लेकर जवाब दिया - धरती ही कफन है उसका. सो जा. दस बजे प्रखंड आफिस भी जाना है न रोजगार बाबू से मिलने.
________________________
पंकज मित्र

भूमंडलोत्तर कहानी – १५ (कफन रिमिक्स - पंकज मित्र) : राकेश बिहारी)

$
0
0




कथा-सम्राट प्रेमचंद की कालजयी कहानी ‘कफन’ उनकी अंतिम कहानी भी है. यह मूल रूप में उर्दू में लिखी गयी थी. जामिया मिल्लिया इस्लामियाकी पत्रिका जामियाके दिसम्बर, १९३५ के अंक में यह प्रकाशित हुई, इसका हिंदी रूप ‘चाँद’ के अप्रैल, १९३६ में प्रकाशित हुआ था. यह हिंदी की कुछ बेहतरीन कहानियों में से  एक है.

इस कहानी की पुनर्रचना का विचार ही ज़ोखिम भरा है और ऊँचे दर्जे की कहानी- कला और सामाजिक संरचनाओं में आये बदलावों की गहरी समझ की मांग करता है. 

कथाकार पंकज मित्र ने यह साहस दिखाया है. ‘कफन रिमिक्स’ समकालीन घीसू माधव की कथा कहने का दावा  करती है. ८२ साल बाद क्या ‘घीसू’ ‘माधव’ की संताने इसी तरह विकसित हो रही हैं ? आदि आदि.

समालोचन में कथा–आलोचक राकेश बिहारी का स्तम्भ ‘भूमंडलोत्तर कहानी’ पिछले लगभग तीन वर्षो से नियमित प्रकाशित हो रहा है जिसमें अब तक १४ कहानियों की विवेचना आप पढ़ चुके हैं. यह अब पुस्तकाकार शीघ्र प्रकाश्य है.

कहानी आपके समक्ष है. विवेचना साथ में है. पहले आप कहानी पढ़ें, गुनें, विचारें. फिर विवेचना पढ़ें. देखें कथाकार ने कहानी को कहाँ तक आगे बढ़ाया है? और विवेचना में कथा की कैसी पड़ताल की गयी है.

समालोचन यह समझता रहा है कि जब तक पाठक का पाठ सामने नहीं आता पाठ पूरा नहीं होता.




भूमंडलोत्तर कहानी – 1५
घीसू-माधव के प्रतिरोध का विस्तार                
(संदर्भ: पंकज मित्र की कहानी कफन रिमिक्स’)

राकेश बिहारी 



चना समय के कहानी विशेषांक (२०१६) की परिकल्पना करते हुये कुछ कालजयी हिन्दी कहानियों का पुनर्लेखन करवाने की बात भी मेरे दिमाग में थी. मैंने इस बावत कुछ कथाकार मित्रों से चर्चा भी की. पर कुछ तो सैद्धान्तिक रूप से इस पुनर्लेखन की योजना से सहमत न होने के कारण तो कुछ अन्य कारणों से, उनमें से कोई इसके लिए तैयार नहीं हुआ. इतिहास में दर्ज हो चुकी बड़ी कहानियों के साथ उनकी आभा किसी साये की तरह चलती है जिससे मुक्त होकर उनका पुनर्लेखन सचमुच एक मुश्किल कार्य है. अतः मैंने भी मान लिया था कि उक्त विशेषांक में यह संभव नहीं हो पाएगा. लेकिन पंकज मित्र ने जब उस अंक के लिए मेरे आग्रह पर कहानी भेजी तो सबसे पहले उसके शीर्षक ने मुझे चौंकाया. कहानी के आरंभिक दृश्य ने ही यह जता दिया कि कफन रिमिक्समें पंकज मित्र ने प्रेमचंद की सर्वाधिक चर्चित और विवादित कहानियों में से एक कफनकी पुनर्रचना की है. समकालीन संदर्भों के बीच कफनकी इस पुनर्रचना के प्रथम पाठ का प्रभाव मुझपर इतना गहरा था कि कुछ हिस्सों से गुजरते हुये आँखें भी नम हो आईं. इस तरह अनजाने में ही इस कहानी ने पुनर्लेखन वाली मेरी परिकल्पना को भी साकार कर दिया था. तब से आजतक इस कहानी को कई बार पढ़ चुका हूँ. इस कहानी को कफनसे मुक्त होकर नहीं पढ़ा जा सकता लिहाजा इस टिप्पणी तक पहुंचने के पहले कफनसे भी फिर-फिर गुजरना पड़ा.

यूं तो मोटे तौर पर कफनऔर कफन रिमिक्सदोनों ही कहानियाँ एक जैसी हैं एक जैसे बाप-बेटे, प्रसव वेदना से कराहती एक जैसी स्त्रियाँ, प्रसव से पहले उसी तरह उनका मर जाना और उनकी अंतिम क्रिया के लिए कफन का न मिलना.... बावजूद इन मोटी समानताओं के जो चीजें कफनऔर कफन रिमिक्सको एक दूसरे से अलग करती हैं, वे भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं. गौर किया जाना चाहिए कि घीसूऔर माधवयहाँ क्रमशः जी रामऔर एम रामहो चुके हैं तो बुधियाबुधवंती में बदल चुकी है. हाँ, मृतक यानी बुधिया और बुधवंती के स्वर्गारोहण की चिंता दोनों कहानियों के बाप-बेटे को है-

घीसू तेज हो गया – ‘मैं कहता हूँ उसे कफन मिलेगा. तू मानता क्यों नहीं?’
कौन देगा बताते क्यों नहीं?’
वही लोग देंगे जिन्होने अबकी दिया. हाँ वो रुपये हमारे हाथ न आएंगे.‘”
(‘कफनकहानी से)

एम. राम “लेकिन हमरा से पूछेगी कि हमारा किरिया-करम भी नहीं किए तो हम का जवाब देंगे?
जी. राम “किरिया-करम तो होगा बस थोड़ा दूसरा तरीका से. देख, माटी का शरीर माटी में मिलना है. चाहे जैसे मिले. गफ़ूरवा का बाप मरा था तो सरग गया होगा कि नहीं. एतना एकबाली आदमी था.
(‘कफन रिमिक्सकहानी से)

गौरतलब है कि दोनों ही कहानियों के अंत में बाप-बेटे दार्शनिक मुद्रा में आ जाते हैं. लेकिन अपनी तमाम दार्शनिकताओं के बीच बैकुंठ और स्वर्ग की बात करने के बावजूद कफ़नके घीसू-माधव जहाँ कफन के अनिवार्य कर्मकांड से बाहर नहीं आ पाते वहीं जी राम और एम राम कफन की सामाजिक घेरेबंदी को पीछे छोड़ जाते हैं. आर्थिक अभाव और शोषण की अंतहीन श्रृंखलाओं ने घीसू और माधव को कामचोर और अमानवीय बनाया था वहीं बुधवंती के नाम कुआं के आवंटन में प्राप्त होने वाली संभावित सरकारी धनराशि का लोभ अर्थाभाव का दंश झेल रहे जी राम और एम राम को चैतन्य और भविष्योन्मुखी तो बनाता ही है मजबूरी में ही सही कर्मकांड और रूढ़ियों के जंजाल से भी एक बार मुक्त कर देता है. यानी तमाम प्रगतिशीलता के बावजूद जहाँ प्रेमचंद के पात्र कफन के अनिवार्य कर्मकांड में उलझ कर रह जाते हैं, वहीं पंकज मित्र के पात्र संभावना से भरे अगले पल की आस में क्रिया कर्म की वैकल्पिक व्यवस्था का हवाला देते हुये कफन की अनिवार्यता से ही मुक्त हो जाते हैं. घीसू-माधव का प्रतिरोध कफन खरीदने के लिए इकट्ठा सहायता राशि को उड़ाने तक ही सीमित है. कहानी के समकाल को देखते हुये तब यह भी कम नहीं था, बल्कि उस पर यथार्थ से विलग होने के आरोप भी लगते रहे हैं. आवंटन राशि की उम्मीद में बुधवंती के शव को दफनाने का दृश्य रचकर पंकज मित्र जी राम और एम राम के चरित्र में घीसू-माधव के प्रतिरोध का ही विस्तार रचते हैं. 

चाहे वह पात्रों के नाम का अंतर हो या उनकी दार्शनिक नियतियों के बीच का फासला या फिर कफन रिमिक्समें नाम मात्र को ही सही, एक अस्पताल का होना... ये बातें सिर्फ दोनों कहानियों को एक दूसरे से अलग भर नहीं करतीं बल्कि इनके बीच पसरे लगभग  अस्सी वर्ष लंबे समयान्तराल के बीच खड़े भारतीय समाज के जातिगत ढांचे में आए में बदलाव और ठहराव दोनों को एक साथ रेखांकित करती हैं. कफनका प्रकाशन जहां 1936में हुआ था वहीं कफन रिमिक्स’ 2016में प्रकाशित हुई है. दोनों ही कहानियों के प्रथम दृश्य में बुधिया और बुधवंती अपने कमरे में दर्दे-ज़ह से पछाड़ें खा रही हैं और उसका पति और ससुर बाहर देशी शराब पी रहे हैं. लेकिन कफनमें घीसू-माधव बुधिया के कमरे के बाहर जैसे उसके मरने की प्रतीक्षा में ही बैठे हैं वहीं कफन रिमिक्समें एम राम गांव के एकमात्र प्राथमिक सेवा केंद्र के बेरंग और बंद दरवाजे पर कई लातें जमा कर लौटा है. आज़ादी हासिल हुये लगभग सत्तर वर्ष बीत गए. इस बीच हमारा देश सामंती मूल्यों के बरक्स सरकार और शासन की व्यवस्था में हुये बदलावों का गवाह रहा है. कहने की जरूरत नहीं की सामंती मूल्यों द्वारा संचालित व्यवस्था और राष्ट्र राज्य की अवधारणा के तहत दी गई शासन व्यवस्था के बीच का अन्तर ही इन दोनों कहानियों के बीच के अंतर का बड़ा कारण है. 

व्यवस्था और उसके अनुरूप प्रतिरोध की चेतना में आए अंतर को समझने के लिए कफन रिमिक्समें जी राम के शब्दों पर गौर किया जाना चाहिए अभी तो कम से कम छोटका हस्पताल के उजाड़, बेरंग बंद दरवाजा में लात मारनेका भी उपाय है. तब तो वह भी नहीं था. निःसन्देह तब और अब के बीच उल्लेखनीय अंतर हुआ है, लेकिन सवाल यह है कि अस्सी बरस के बीच आया यह बदलाव पर्याप्त है? पंकज मित्र इस प्रश्न का जवाब अपनी कहानी की शुरुआत में ही कुछ इस तरह देते हैं-

शायद घीसू ही रहा हो या गनेशी या गोविंद- नाम से फर्क भी क्या पड़ना था. एक चीज एकदम नहीं भूलते थे दोनों बाप-बेटे नाम के साथरामलगाना, बल्कि माधो या मोहन जो भी नाम रहा हो, एकदम छोटा करके बतलाता था- एम राम. बाप का नाम?- जी राम. पीठ पीछे  गरियाते थे लोग ऊँह! काम न धाम, नाम एम राम! सामने हिम्मत नहीं होती थी क्योंकि जमाना इनलोगों; का था या कम से कम ऐसा समझा जाता था. किसी खास वर्ग के लोगों का समय होना या ऐसा समझा जाना के बीच चाहे जितना बड़ा अंतर हो इसने इतना तो किया ही है कि अब किसी के सामने आप उसकी जाति के नाम पर गालियां नहीं दे सकते हैं.

कहानी की शुरुआत में ही अपने नाम के आभिजात्यीकरण के प्रति एम राम का  विशेष आग्रह हो कि बंद पड़े अस्पताल के दरवाजे पर लातें जमाना, सदियों से समाज के हाशिये पर जीने को मजबूर दलित वंचित समूह के लोगोंके भीतर धधक रही प्रतिरोध की आग को ही दिखाता है. और हाँ, कहानी का पहला वाक्य – ‘शायद घीसू ही रहा हो या गनेशी या गोविंद- नाम से फर्क भी क्या पड़ना था.कहानीकार की इस मंशा को भी स्पष्ट कर जाता है कि वह किसी चरित्र विशेष की कहानी नहीं कहने जा रहा बल्कि उसका उद्देश्य वर्ग विशेष के चरित्र को केंद्र में रखना है.

प्रेमचंद कफनमें जहां बिना हिचक चमारों का कुनबा कह जाते हैं, या शोषण की प्रतिक्रिया में घीसू-माधव को कामचोर तक दिखा जाते हैं वहीं पंकज मित्र का रचना-कौशल लगातार चैतन्य और युगीन सामाजिक बोध से संचालित होता दिखता है. यह उसी का नतीजा है कि जाति की सूचना के अवसर पर वे मौन या अप्रकट की तकनीक का सहारा लेते हैं तथा जी राम और एम राम कामचोर नहीं बल्कि बेकार हैं. स्पष्ट है कि पंकज मित्र न सिर्फ दलितों-वंचितों के अस्मिताबोध के प्रति जागरूक और चैतन्य हैं बल्कि कफनकहानी के दलित-पाठ से भी पूरी तरह वाकिफ हैं. गौर किया जाना चाहिए कि कफनमें चमारों का कुनबाऔर घीसू-माधव के  कामचोर होने की बात सीधे नैरेटर के हवाले से कहानी में दाखिल होती है. यही कारण है कि तमाम सदाशयताओं के बावजूद दलित चिंतकों और विमर्शकारों ने कफनकहानी के दलित विरोधी होने की बात की है. इसके विपरीत कफन रिमिक्समें पीठ पीछे लोगों का काम न धाम, नाम एम रामकहना हो या फिर जी राम का यह कहना कोय काम देता नहीं कहता है कामचोरकुछ ऐसी गवाहियाँ हैं जो वर्चस्ववादी वर्णव्यवस्था की लीक पर चलने वाले लोगों की कुंठा और उच्चताबोध को पुष्ट करती हैं. मुझे यकीन है कि कफन रिमिक्सको आज यदि ओमप्रकाश बाल्मीकिपढ़ते तो इसे कफनकी तरह सनातनी मूल्यों का ध्वजवाहक नहीं कह पाते.

कफनकहानी जहां पूरी तरह सामंती मूल्यों के प्रति दलित-प्रतिरोध की कहानी है वहीं कफन रिमिक्सदलित चेतना और प्रतिरोध को रेखांकित करने के साथ-साथ सरकारी शासन-व्यवस्था में व्याप्त संगठित लूट के समानान्तर तंत्र को भी बेपरदा करती चलती है. आज़ादी प्राप्त होने के बाद न सिर्फ देश में सदियों से फलफूल रही सामंती व्यवस्था की चूलें हिलीं बल्कि दलितो-दमितों की प्रतिरोधी राजनैतिक चेतना का उल्लेखनीय विकास भी हुआ. पर इस दौरान सरकारी तंत्र के साये में एक ऐसी व्यवस्था ने अपनी जड़ें जमाईं,जिसका मुख्य चरित्र मूल्यहीनता ही है. परिणामतः चोरी-बेईमानी एक व्यवस्थाजनित मूल्य की तरह स्थापित होता गया. राष्ट्र राज्य की कल्याणकारी योजनाओं के तहत सरकार ने योजनाएँ तो खूब बनाईं लेकिन उनका अनुपालन सुनिश्चित नहीं किया जा सका. परिणामतः बेईमानी, कामचोरी और भ्रष्टाचार  इस नई व्यवस्था के अपरिहार्य उपोत्पाद की तरह फलने-फूलने लगे. न्यूनतम मजदूरी की गारंटी का कानून वास्तविकता के धरातल पर सरकारी खजाने के न्यूनतम बंदरबाट का सूचकांक हो कर रह गया तो सूचना का अधिकार ब्लैकमेलिंग व्यवसाय का पर्याय बन गया और मनरेगा जैसी लोककल्याणकारी योजनायें लूट-महोत्सव में थिरकने के लिए गा रे मन गाकी धुन तैयार करने का जरिया बन गया और इन सब के बीच विकास की आड़ में ठहराव या ऋणात्मक विकास की कहानियाँ रची जाने लगीं.

जी राम और एम राम के अस्मितामूलक प्रतिरोध के समानान्तर सरकारी विकास की यह प्रतिकथा जिसमें व्यवस्था किस तरह एक आम नागरिक को भ्रष्ट और बेईमान बनाने पर मजबूर करती है, भी जारी रहती है. मर चुकी बुधवंती को जल्दी में दफना कर उसके नाम आवंटित कुआँ के लिए मिलने वाली धन राशि को जी राम और एम राम द्वारा हड़प लेने की चालाकी उसी का नतीजा है.
कफनहो या कि कफन रिमिक्सये दोनों ही कहानियाँ जाति और समाज की तमाम चिंताओं के बीच बुधिया और बुधवंती की कोई खास चिंता करती नहीं दिखतीं. उन दोनों की उपयोगिता मर कर भी अपने परिवारजन के लिए चंद रुपयों का जुगाड़ करवा जाने से ज्यादा की नहीं है. इस बात पर अलग से विचार किया जाना चाहिए कि अस्सी वर्षों के लंबे अंतराल के बावजूद कफन रिमिक्सकी बुधवन्ती के जीवन की छवियाँ बुधिया के जीवन की छवियों से कुछ खास अलग क्यों नहीं दिखतीं? जबकि एक जैसी स्थितियों के बावजूद जी राम और एम राम  घीसू-माधव  से बहुत अलग हैं.

ऊपर के अनुच्छेद में मैंने इस बात की चर्चा की है कि कफन कहानी के दलित पाठ और दलित प्रतिरोध के युगीन आलोक में पंकज मित्र का कथाकार दलित अस्मिता के प्रति एक अतिरिक्त सतर्कताबोध से युक्त रचनात्मक कौशल अर्जित करता है. स्त्री अस्मिता के प्रति उस तरह की चैतन्यता के अभाव का कारण कहीं कफनकहानी के उतने ही प्रखर स्त्री-पाठ का न होना तो नहीं? प्रश्न तो यह भी उठता है कि क्या कफनया कफन रिमिक्सको प्रेमचंद या पंकज मित्र के बदले किसी स्त्री कथाकार ने लिखा होता तो इन कहानियों में बुधिया और बुधवंतीका चरित्र कैसा होता? यह एक ऐसा विंदु है जहां से इन कहानियोंकों समझने की एक नई अर्गला खुल सकती है. कफनकहानी के एक और पुनर्लेखन के लिए मेरे आँखें अपनी समकालीन स्त्री कथाकारों की तरफ संभावना से देख रही हैं.  
______________
संपर्क:
एन एच 3 / सी 76, एनटीपीसी विंध्यनगर, जिला- सिंगरौली 486 885 (म. प्र.)
मोबाईल- 09425823033
ईमेल –brakesh1110@gmail.com
______

ललद्यद : योगिता यादव

$
0
0
















कश्मीर की चौदहवीं सदी की संत कवयित्री ललद्यद अर्थात लल्लेश्वरी के जीवन के विषय में तमाम तरह की किंवदन्तियाँ प्रचलित हैं. वेद राही ने ललद्यद नाम से उपन्यास लिखा है, जिसकी चर्चा कर रही हैं कथाकार योगिता यादव


एक रहस्यमयी कवयित्री का लौकिक संसार                      
योगिता यादव


वेद राही शिल्प के जादूगर हैं.  यह रात फिर न आएगी, पवित्र पापी, संन्यासी, बेईमान, कठपुतली, पराया धन, चरस और पहचान जैसी फिल्मों के पटकथा लेखक रहे वेद राही जी के पास पटकथा लेखन का लंबा अनुभव है. इधर वे कहानियों और उपन्यास में भी लगातार सक्रिय रहें हैं. 'चुप्प रैहिये प्रार्थना कर’जैसा कविता संग्रह देकर उन्होंने अपने भीतर मौजूद आध्यात्मिक अनुभूतियों का भी परिचय दिया है.

इस समय मेरे हाथ में जो पुस्तक है वह वेद राही को एक लेखक के तौर पर पटकथा लेखन के शिल्प, स्मृति कथाओं को सहेजने और अध्यात्म में डुबकियां लगाने का मौका एक साथ देती है. शैव दर्शन की आदि भक्त कवयित्री ललद्यद के जीवन पर लिखे गए इस उपन्यास की भूमिका में वे स्वयं कहते हैं, 'कश्मीरी भाषा की आदि कवयित्री ललद्दय की कविता में जो गहराई और उत्कर्ष है, वहां तक पहुंचने के लिए आज भी कश्मीरी के बड़े-बड़े कवि तरसते हैं. उस शिखर तक लपकते तो सब हैं, परंतु वहां तक पहुंचने का सपना अभी किसी का पूरा नहीं हुआ है.
संभवत: यही उत्कर्ष और गहराई ही इस उपन्यास की भी सीमा बन गई है. जहां वेद राही का पटकथा लेखक पूरी प्रखरता से उभर कर आता है, वहीं लल की वाख की मार्फत जब बाहर से भीतर की ओर दाखिल होने की बात होती है तो लेखक कामिल और पागल के बीच का भेद नहीं बतला पाता. समग्रता में यह एक उत्कृष्ट रचना है. कवि के इतने शेड्स होते हैं कि वह स्वयं भी अपने सब शेड्स की माप नहीं कर पाता. फिर यह तो रहस्यवाद और शैव दर्शन की आदि कवयित्री ललद्यद हैं. जो अपनी वाख में निराकार की ओर बढ़ते रहने का निनाद करती हैं. उन्हें उपन्यास के आकार में बांध पाना निश्चित ही जटिल कार्य रहा होगा. लेखक की मानें तो उन्हें इस उपन्यास की रचना प्रक्रिया में आठ वर्ष का लंबा समय लगा. मूलत: यह उपन्यास डोगरी में लिखा गया, जिसका बाद में स्वयं लेखक ने उर्दू और हिंदी में अनुवाद किया. इसके अलावा सिंधी और उड़िया  सहित कई अन्य भाषाओं में भी इस उपन्यास का अनुवाद हुआ है. पाठकों को भक्ति काव्य में कबीर और मीरा से भी पहले के भक्ति स्वर को सुनने के लिए भी इस उपन्यास को पढ़ा जाना चाहिए.

सदियों से चले आ रहे स्मृति इतिहास के ही आधार पर कहा जाता है कि लल का जन्म 1320में कश्मीर के पांद्रेठन गांव में हुआ, जो श्रीनगर से दक्षिण पूर्व में लगभग साढ़े चार मील की दूरी पर स्थित है. यह वह दौर था जिसे यूरोप में 'रिनैसांके नाम से अर्थात पुनर्जागरण काल के रूप में याद किया जाता है. जब पुरानी सभ्यताएं ढह रहीं थी और नई सभ्यताओं का विकास हो रहा था. यह सांस्कृतिक इतिहास और बौद्धिक आंदोलन का काल है. इस काल को जब हम लिखित इतिहास में पढ़ते हैं तो पाते हैं कि पुनर्जागरण काल की शुरूआत इटली से हुई, वहां प्रसिद्ध कवि दांते हैं. रिनैसां शिक्षा का उद्देश्य पूर्ण मानव मात्र को प्रस्तुत करना था और माना जाता है कि सबसे पहले यह भाव दांते की कविताओं में नजर आए. दांते ने रोमन कवि वर्जिल को अपना गुरू माना, किंतु साहित्य सृजन के लिए लेटिन की बजाए इटालियन भाषा को चुनकर उसे साहित्यिक भाषा के रूप में स्थापित करने की कवायद की. इसी समय में कश्मीर के पांद्रेठन गांव के एक साधारण परिवार की लल्लेश्वरी संस्कृत ग्रंथ पढ़ते हुए बड़ी होती है. गीता को वह कई बार पढ़ती है, अपने गुरू सिद्धमौल से बहुत प्रभावित है. उनसे बार-बार मिलने की अनुनय करती है, ताकि वे जब भी आएं उसके लिए कुछ और संस्कृत ग्रंथ ले आएं, जिनका वह पाठ कर सके. इसके बावजूद कविता रचने के लिए वह अपनी मातृ भाषा कश्मीरी का चयन करती है.

उस दौर में जब कश्मीर संस्कृत साहित्य का गढ़ माना जाता था. उस दौर में जब अभिनव गुप्त, क्षेमेंद्र, उत्पल देव जैसे सिद्ध कवि-लेखक संस्कृत में रचना कर रहे थे वह अपनी आम जन द्वारा बोली जाने वाली भाषा कश्मीरी में रचना करती हैं. आज वही रचनाएं कश्मीरी साहित्य का आधार स्तंभ मानी जाती हैं.
ललद्यद अर्थात लल्लेश्वरी चौदहवीं सदी की संत कवयित्री  हैं. लिखित इतिहास के समानांतर मौखिक अथवा स्मृतियों के इतिहास ने उन्हें जन मन में द्यद अर्थात बड़ी बहन का स्थान दिया है. एक तरह से कश्मीरी साहित्य को दिशा देने वाली वह बड़ी बहन जा सकती हैं. शेख नूरूद्दीन नूरानीकी दूध मां भी इन्हें कहा जाता है. इसलिए हिन्दू समाज में ही नहीं, बल्कि मुस्लिम समाज में भी लला को बहुत सम्मान से दिया गया है. आज भी वे अपनी बेटियों की प्रशंसा में जब बहुत कुछ कहना चाहते हैं, तो कहते हैं ये बिल्कुल ललद्यद सी है. रूपा भवानी, हब्बा खातून, अरण्यमालसहित कश्मीरी में कई कवयित्रियां हुईं हैं, लेकिन किसी की भी रचना लल के वाख की गहराई और ऊंचाई तक नहीं पहुंच पाती.

‘वाख’
कश्मीरी भाषा का एक छंद है, जिसमें चार पंक्तियों में कवि अपनी बात कहता है. लल अपनी एक वाख में कहती हैं, 'मैंने अपने गुरू से सिर्फ एक ही पाठ सीखा है, कि बाहर से भीतर की ओर देखो. आत्म साक्षात्कार का पाठ.उनके सभी वाख आत्म साक्षात्कार के मार्ग पर अग्रसर होने को प्रेरित करते हैं. ऐसी महान संत कवयित्री के जीवन को उपन्यास में बांध पाना निश्चित ही एक चुनौतीपूर्ण कार्य रहा होगा. इस उपन्यास के माध्यम से लेखक ने जैसे स्मृतियों को आकार देने का काम किया है. उन्होंने सुनी हुई कहानियों में मौजूद समाज को इतिहास में वर्णित देश काल में गूंथते हुए एक नए अद्भुत संसार की कल्पना की है. जीवनी परक उपन्यास लिखते हुए कई चुनौतियों का लेखक को सामना करना पड़ता है. स्वभाविक है लल्लेश्वरी को चुनना तो और भी चुनौतीपूर्ण रहा होगा. उनके बारे में जानने के स्रोत के तौर पर लेखक के पास सिर्फ वे वाख ही हैं, जिन्हें कवयित्री ने कहा है, लिखा नहीं है. संभवत: कालांतर में इनके मूल रूप में बदलाव भी आया होगा. लला से बात करना सहज नहीं हैं. वह कवयित्री जिसने तत्कालीन समाज के किसी भी बंधन को स्वीकार न किया हो, वह किस तरह के संवाद बोलती होगी, इस गुत्थी को सुलझाने के लिए लेखक ने लल के वाखों का ही सहारा लिया है. वाख के रूप में मौजूद इन चंद टुकड़ों को जोड़ते हुए ही इस उपन्यास की पूरी कथा बुनी गई है.

उपन्यास गुरु सिद्धमौल के जंगल से पांद्रेठन गांव पहुंचने से शुरू होता है. उस दौरान पूरे कश्मीर में भयंकर उथल पुथल मची हुई है. आम जन इस सत्ता परिवर्तन से खुश हैं, परंतु गुरु सिद्धमौल इस परिवर्तन में अनिष्ट की आशंका को महसूस कर रहे हैं. उन्हें तकलीफ दे रहा है वीर सम्राज्ञी कोटा रानी का आत्महत्या कर लेना. वे इस पूरे माहौल से खिन्न हैं और कश्मीर छोड़कर काशी चले जाना चाहते हैं. अपनी इसी उद्विग्नता को वे मल्लाह से भी कहते हैं और यंद्राबट से भी. यंद्राबट से बात करते हुए उन्हें लल की याद आती है. और तब मालूम होता है कि वह कुछ अजीब सी बातें करती हैं. उसके इसी आचरण को लेकर उसके माता-पिता बहुत परेशान हैं और वे जल्दी ही उसका ब्याह कर देना चाहते हैं. सिद्धमौल उन्हें ऐसा करने से मना करते हैं. वे कहते हैं कि लल कोई साधारण बालिका नहीं है, उसके भाव और व्यवहार असाधारण हैं. उनके पास इतना भी समय नहीं है कि वह लल के घर लौटने की प्रतीक्षा करें और स्वयं ही उसे खोजते हुए मंदिर की ओर चल पड़ते हैं. इसके बाद कथा कश्मीर की उथल पुथल से अलग होकर पूरी तरह लल और उसके व्यवहार पर केंद्रित हो जाती है. लल अपने गुरु के इस तरह जल्दी लौट जाने पर रुष्ट हैं, किंतु वह कुछ और किताबें पढा चाहती है. इसी बातचीत में मालूम होता है कि लल ने कई वेद और शास्त्र पढ़ लिए हैं. अब वह कुछ और किताबें पढा चाहती है. उसे लोगों से ज्यादा किताबें ही अपनी लगती हैं. गुरु सिद्धमौल कुछ और किताबें भिजवाने का वादा कर काशी के लिए निकल पड़ते हैं. और इधर लला का ब्याह पद्मपुर अर्थात पंपोर के एक युवक से कर दिया जाता है. ब्याह के बाद शुरू होता है लल की यंत्रणाओं का सफर. इन यातनाओं को लेखक लल की रहस्यमयी बातों से सहारा देते हुए जस्टिफाई करने की कोशिश करते हैं. लल पर न केवल गृहस्थी का बोझ डाल दिया जाता है, बल्कि व्यसनों में डूबे पति के अत्याचार भी लला को सहन करने पड़ते हैं. उस पर सास के अनेक ताने-उलाहने भी. इन तमाम यातनाओं के बीच भी लल अपनी ज्ञान की प्यास बनाए रखती है. उसके भीतर और बाहर की दुनिया उसे लगातार कष्ट पहुंचाती है. पर वह इस कष्ट, इस यातना को भी शिव का प्रसाद समझकर उसे पाने की राह पर आगे बढ़ती रहती है. उसका केवल एक ही लक्ष्य है अपने गुरू, अपने शिव महाराज जिन्हें उसने अपना सर्वस्व सौंप दिया है, को स्वयं को समर्पित कर देना. तभी वह स्वयं को आदि कुंवारी कहती है और खुद को शिव को समर्पित करना चाहती है.

जम्मू-कश्मीर के लोक समाज में लल को लेकर कई मिथक हैं. किसी की बेटी बहुत अच्छी हो तो कहते हैं कि बिल्कुल ललद्यद जैसी है और किसी की सास बहुत बुरी हो तो भी कहते हैं कि ललद्यद जैसी है. थाली में कम भोजन हो तो कहेंगे कि लल की थाल है और पश्मीना बहुत महीन कता हो तो भी मानते हैं कि जैसे लल ने काता है. इनमें से अधिकांश को लेखक ने बहुत खूबसूरती से कथा में बुना है. परंतु कहीं-कहीं उनका पटकथा लेखक उन पर हावी हो जाता है. इस नाटकीयता में लल का पति सुरा-सुंदरी का पान करने वाला एक व्यसनी खलनायक सा जान पड़ता है. लेखक का मूल डोगरी भाषी होना भी कश्मीरी समाज का डोगरीकरण सा प्रतीत होता है. 

मान्यताओं के द्वंद्व भी लगातार लेखक के सामने खड़े हैं. वे उनके बीच भी साम्य स्थापित करते चलते हैं. कश्मीरी हिन्दू परंपराओं के मुताबिक नुंद ऋषि जिन्हें मुसलमान शेख नूरूद्दीन नूरानी कहते हैं, लला को उनकी दूध मां कहा जाता है. मुस्लिम मान्यता है कि वह असाधारण तेज वाला बालक अपने जन्म के कई दिनों बाद तक भी मां का दूध नहीं पी रहा था, तब ललद्यद ने उन्हें अपना दूध पिलाया था. जबकि हिंदू मान्यता है कि दूध केवल प्रतीक है. लल ने अपनी सांस्कृतिक विरासत नुंद ऋषि को सौंपी थी. इन दोनों ही मान्यताओं को लेखक ने अपनी कथा में सम्मानजनक स्थान दिया है. एक और उद्धरण है जिस पर विवाद होता है कि लल निर्वस्त्र रहती थीं और जब शाह हमदानी आ रहे थे तो वे उन्हें देखकर तंदूर के पीछे छिप गईं. विवाद में पढे की बजाए लेखक ने इसे कथा को आगे बढ़ाने के माध्यम के रूप में चुना है. लल की रहस्यमयिता के प्रति पाठक का कौतुहल बना रहे इस उद्देश्य वे लगातार चमत्कार करवाते चलते हैं. लौकिक-अलौकिक-पारलौकिक संसार को एकमेव करते हुए वे उपन्यास का अंत में एक चमत्कार की तरह लल के शून्य में विलीन हो जाने पर करते हैं.
भले ही प्रस्तुत उपन्यास में कश्मीरी समाज उस तरह परिलक्षित नहीं हो पाता, किंतु फिर भी कश्मीरी की आदि कवयित्री ललद्यद की जीवन कथा को पीर पंजाल की पहाडिां पार करवाने का श्रेय वेद राही को ही जाता है. सरस कथा, खूबसूरत संवाद और तनिक नाटकीयता पाठक को अपने साथ बांधे रखती है. फिर भी जैसा मैंने पहले भी कहा कि यह उपन्यास उस गहराई तक नहीं पहुंच पाया, जिस गहराई में लल की वाख उतरती हैं. आप स्वयं पद्मपुर की पद्मावती, नुंद ऋषि की लला आरिफा, कश्मीरी साहित्य की लल दिद्दा और हम सब की लल्लेश्वरी के कुछ वाख का रसास्वादन करें - 

लल बो द्रायस कपसि पोशचि सेत्चेय.
कॉडय ते दून्य केरनम यचय लथ.
तेयि येलि खॉरनम जॉविजॅ तेये.
वोवेर्य वाने गयेम अलान्जेय लथ..

मैं लला कपास के फूल की तरह एक शाख पर उगी थी. पर माली ने मुझे तोड़ा और मुझे इस बेदर्दी से झाड़ा कि कपास पर लगी सारी गर्त झड़ गई. उस स्त्री ने अपने चरखे की महीन सूईं में पिरोकर मेरी आत्मा को तब तक काता जब तक वह महीन धागे में न बदल गई. और धागा उठाकर बुनकर ले चला अपने करघे की ओर. जिस पर चढ़ा कर उसने यह कपड़ा तैयार किया है.

दोब्य येलि छॉवनस दोब्य कनि प्यठेय.
सज ते साबन मेछनम येचेय.
सेच्य यलि फिरनम हनि हनि कॉचेय.
अदे ललि म्य प्रॉवेम परमे गथ..

मुझ पर साबुन लगा कर धोबी ने घाट के पत्थर पर बहुत बेदर्दी से पटका. दर्जी ने पहले मुझे अपनी कैंची से टुकड़े-टुकड़े कर दिया और फिर तीखी सूईं से मेरे टुकड़ों को अपनी मर्जी से सी दिया. ये सब मैं चुपचाप देखती रही, भोगती रही और अपने अंतिम पड़ाव पर पहुंच गई हूं. अब मैं अपने परमेश्वर में पूरी तरह विलीन हो रही हूं.

सरस सैत्य्य सोदाह कोरूम.
हरस केरेम गोढ सीवय.
शेरस प्येठ किन्य नचान डयूंठुम.
गछान डयूंठु आयम पछ़..

मैंने उससे सौदा किया है कि मैं पूरे मनोयोग से, अपनी भावनाओं की पराकाष्ठा तक उसकी सेवा करूंगी. मैं महसूस कर रही हूं कि ईश्वर मेरे मस्तिष्क के शून्य चक्र में नृत्य कर रहे हैं. किसी भी भक्त के लिए इससे बड़ी प्राप्ति क्या होगी.


(हिंदी कीबोर्ड में कुछ कश्‍मीरी स्‍वर नहीं मिल पाते, जिनके लिए वाख में ऐ की मात्रा का प्रयोग किया गया है.) 
____________
योगिता यादव
कहानी संग्रह : क्लीन चिट,
उपन्यास : ख्वाहिशों के खांडववन
भारतीय ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार, हंस कथा सम्‍मान

संपर्क
911, सुभाष नगर, जम्मू

स्पिनोजा : नीतिशास्त्र - २ - (अनुवाद : प्रत्यूष पुष्कर, प्रचण्ड प्रवीर)

$
0
0
Add caption









महान दार्शनिक स्पिनोज़ा (Baruch De Spinoza : २४ नवम्बर १६३२-२१ फ़रवरी १६७७) की प्रसिद्ध कृति ‘नीतिशास्त्र’ (Ethics : १६७७) के हिंदी अनुवाद का गुरुतर दायित्व दो युवा लेखकों प्रचंड प्रवीर और प्रत्यूष पुष्कर ने उठाया है. इसका पहला हिस्सा आपने समालोचन पर पढ़ा, अब दूसरा हिस्सा.

इस अनुवाद और टिप्पणियों आदि को देखते हुए यह अहसास बना रहता है कि यह एक जटिल कार्य है. दार्शनिक अवधारणाओं को उसकी गम्भीरता के साथ प्रस्तुत करना भी एक चुनौती है.  इसके लिए लेखक द्वय की जितनी भी सराहना की जाए कम है.


स्पिनोजा :  नीतिशास्त्र (२)
अनुवाद
प्रत्यूष पुष्कर, प्रचण्ड प्रवीर

Part I.
Concerning God.

भाग
ईश के बारे में

(दूसरा हिस्सा) 





Prop. VI. One substance cannot be produced by another substance.
प्रस्ताव ६
-----------

“एक सत्त्व का निर्माण दूसरे सत्त्व से नहीं किया जा सकता.”



Proof— It is impossible that there should be in the universe two substances with an identical attribute, i.e. which have anything common to them both (Prop. ii.), and, therefore (Prop. iii.), one cannot be the cause of the other, neither can one be produced by the other. Q.E.D.

प्रमाण– यह असम्भव है कि ब्रह्माण्ड में दो सत्त्व समान गुण-धर्म वाले हो, मतलब दोनों में कुछ उभयनिष्ठ (सामान्य) हो (देखें प्रस्ताव २), इसीलिए (प्रस्ताव ३ से), पहला दूसरे का कारण नहीं हो सकता, न ही पहले से दूसरे के निर्माण हो सकता है.

Corollary—Hence it follows that a substance cannot be produced by anything external to itself. For in the universe nothing is granted, save substances and their modifications (as appears from Ax. i. and Deff. iii. and v.). Now (by the last Prop.) substance cannot be produced by another substance, therefore it cannot be produced by anything external to itself. Q.E.D. This is shown still more readily by the absurdity of the contradictory. For, if substance be produced by an external cause, the knowledge of it would depend on the knowledge of its cause (Ax. iv.), and (by Def. iii.) it would itself not be substance.

अंग्रेजी शब्दों के समानार्थक हिन्दी शब्द
granted = अनुदत्त
absurdity = अनर्थकता
contradictory = विरोधाभास

उप-प्रमेय -  एक सत्त्व स्वयं से इतर किसी से निर्मित नहीं है. इस ब्रह्माण्ड में कुछ भी अनुदत्त नहीं, न सत्त्व न उनकी प्रणालियाँ (स्वयं सिद्ध १ और परिभाषा ३ और ५). अब (आखिरी प्रस्ताव से) सत्त्व का निर्माण किसी दूसरे सत्त्व से नहीं हो सकता, अत: स्वयं से इतर किसी से भी निर्मित नहीं हो सकता. यह अनर्थकता विरोधाभास से भी दर्शायी जा सकती है.अगर सत्त्व का निर्माण किसी बाह्य कारण से हुआ हो तो सत्त्व का ज्ञान उस कारण के ज्ञान पर निर्भर होगा (स्वयंसिद्ध ४), और (परिभाषा ३से), यह सत्त्व नहीं होगा.



Prop. VII.Existence belongs to the nature of substances.
प्रस्ताव

------------

“अस्तित्व या सत्ता, सत्त्व की प्रकृति में हैं.”

Proof—Substance cannot be produced by anything external (Corollary, Prop vi.), it must, therefore, be its own cause—that is, its essence necessarily involves existence, or existence belongs to its nature.

प्रमाण:सत्त्व स्वयं से बाह्य किसी करक से निर्मित नहीं है (उप-प्रमेय-प्रस्ताव
), इसीलिए सत्त्व स्वयं ही अपना कारण है, जिसका सार उसके अस्तित्वया सत्ता में है, और अस्तित्व या सत्ता इसकी प्रकृति में.




Prop. VIII.Every substance is necessarily infinite.
प्रस्ताव
------------

“सभी सत्त्व अनिवार्यतः अपरिमित/अनंत हैं.”

Proof—There can only be one substance with an identical attribute, and existence follows from its nature (Prop. vii.) ; its nature, therefore, involves existence, either as finite or infinite. It does not exist as finite, for (by Def. ii.) it would then be limited by something else of the same kind, which would also necessarily exist (Prop. vii.) ; and there would be two substances with an identical attribute, which is absurd (Prop. v.). It therefore exists as infinite. Q.E.D.

प्रमाण:केवल एक ही सत्त्व हो सकता है, एक विशेष गुणधर्म लिए, और अस्तित्व या सत्ता इसके प्रकृति से अनुसरित है (प्रस्ताव ७); इसकी प्रकृति इसीलिए अस्तित्व या सत्ता हैं, परिमित या अपरिमित. और यह परिमित रूप से अस्तित्व में नहीं है क्योंकि (परिभाषा
) से फिर यह अपने प्रकार के किसी और चीज़ से सीमित कर दिया जाएगा, जो चीज़ फिर से अस्तित्व में होगी क्यूंकि अस्तित्व या सत्ता सत्त्व की प्रकृति है (प्रस्ताव से); फिर दो सत्त्व होंगे, जिनकी प्रकृति और गुणधर्म एक सामान होंगे, जो प्रस्ताव से असंगत है. इसीलिए यह अपिरिमित रूप से अस्तित्व में हैं.

Note I—As finite existence involves a partial negation, and infinite existence is the absolute affirmation of the given nature, it follows (solely from Prop. vii.) that every substance is necessarily infinite.

अंग्रेजी शब्दों के समानार्थक हिन्दी शब्द

absolute =सम्पूर्ण
affirmation = पुष्टि

नोट १– जैसा कि परिमित अस्तित्व आंशिक निषेध में निहित है और अपरिमित अस्तित्व अपनी प्रकृति की सम्पूर्ण पुष्टि करता है, (प्रस्ताव ६ से) यह समझ सकते हैं कि हर सत्त्व अवश्य ही अपरिमित है.
Note II—No doubt it will be difficult for those who think about things loosely, and have not been accustomed to know them by their primary causes, to comprehend the demonstration of Prop. vii. : for such persons make no distinction between the modifications of substances and the substances themselves, and are ignorant of the manner in which things are produced; hence they may attribute to substances the beginning which they observe in natural objects. Those who are ignorant of true causes, make complete confusion—think that trees might talk just as well as men—that men might be formed from stones as well as from seed; and imagine that any form might be changed into any other. So, also, those who confuse the two natures, divine and human, readily attribute human passions to the deity, especially so long as they do not know how passions originate in the mind. But, if people would consider the nature of substance, they would have no doubt about the truth of Prop. vii. In fact, this proposition would be a universal axiom, and accounted a truism. For, by substance, would be understood that which is in itself, and is conceived through itself—that is, something of which the conception requires not the conception of anything else; whereas modifications exist in something external to themselves, and a conception of them is formed by means of a conception of the thing in which they exist. Therefore, we may have true ideas of non-existent modifications; for, although they may have no actual existence apart from the conceiving intellect, yet their essence is so involved in something external to themselves that they may through it be conceived. Whereas the only truth substances can have, external to the intellect, must consist in their existence, because they are conceived through themselves. Therefore, for a person to say that he has a clear and distinct—that is, a true—idea of a substance, but that he is not sure whether such substance exists, would be the same as if he said that he had a true idea, but was not sure whether or no it was false (a little consideration will make this plain) ; or if anyone affirmed that substance is created, it would be the same as saying that a false idea was true—in short, the height of absurdity. It must, then, necessarily be admitted that the existence of substance as its essence is an eternal truth. And we can hence conclude by another process of reasoning—that there is but one such substance. I think that this may profitably be done at once ; and, in order to proceed regularly with the demonstration, we must premise :—
1. The true definition of a thing neither involves nor expresses anything beyond the nature of the thing defined. From this it follows that—
2. No definition implies or expresses a certain number of individuals, inasmuch as it expresses nothing beyond the nature of the thing defined. For instance, the definition of a triangle expresses nothing beyond the actual nature of a triangle : it does not imply any fixed number of triangles.
3. There is necessarily for each individual existent thing a cause why it should exist.
4. This cause of existence must either be contained in the nature and definition of the thing defined, or must be postulated apart from such definition.
It therefore follows that, if a given number of individual things exist in nature, there must be some cause for the existence of exactly that number, neither more nor less. For example, if twenty men exist in the universe (for simplicity's sake, I will suppose them existing simultaneously, and to have had no predecessors), and we want to account for the existence of these twenty men, it will not be enough to show the cause of human existence in general ; we must also show why there are exactly twenty men, neither more nor less : for a cause must be assigned for the existence of each individual. Now this cause cannot be contained in the actual nature of man, for the true definition of man does not involve any consideration of the number twenty. Consequently, the cause for the existence of these twenty men, and, consequently, of each of them, must necessarily be sought externally to each individual. Hence we may lay down the absolute rule, that everything which may consist of several individuals must have an external cause. And, as it has been shown already that existence appertains to the nature of substance, existence must necessarily be included in its definition ; and from its definition alone existence must be deducible. But from its definition (as we have shown, notes ii., iii.), we cannot infer the existence of several substances ; therefore it follows that there is only one substance of the same nature. Q.E.D.


अंग्रेजी शब्दों के समानार्थक हिन्दी शब्द
passion = भावावेश
distinct = पृथक
premise = प्रतिज्ञा
express =अभिव्यक्ति
Individual - व्यष्टि
universe = ब्रह्माण्ड
height of absurdity = अनर्थकता की पराकाष्ठा

नोट २ - इसमें कोई शंका नहीं है कि यह उन लोग के लिए मुश्किल है जो चीज़ों के विषय में चलताउ ढंग से सोचते हैं और अभी तक उन्हें उनकी उत्पत्ति के मूलभूत कारणों के माध्यम से  जानने के लिए तैयार नहीं हो पाए
, उसे समझने के लिए भीजैसा कि प्रस्ताव ७ में दिखाया गया है:  ऐसे लोग सत्त्व के उपांतरों और सत्त्व में कोई अंतर नहीं, और वे चीजों के उत्पत्ति के तरीके से अनभिज्ञ है; अत: वे प्रकृति में पायी जानी वाली वस्तुओं को ही सत्त्व समझने लगेंगे. जो सत्य कारणों से अनभिज्ञ हैं, वे इस तरह भ्रमित हो जाते हैं - जैसे कि यह सोचना कि पेड़ भी आदमियों की तरह बातें कर सकते हैं- और मनुष्य भी पत्थरों और बीजों से बना हो; और यह भी कल्पना कर सकते हैं कि कोई भी रूप दूसरे रूप में बदल सकता है. अत:, यह भी कि जो दैवी और मानवीय प्रकृति में भ्रमित हो जाते हैं, वे देवताओं में मानवीय भावावेश आरोपित करते हैं, विशेषतया कि जब वे ये नहीं जानते है कि भावावेश मानस में कैसे उदित होते हैं. पर, यदि लोग सत्त्व की प्रकृति को विचारें, उनहें प्रस्ताव ६ की सत्यता पर कोई संदेह नहीं रहेगा. यही मायने में यह प्रस्ताव सार्वभौमिक स्वयंसिद्ध होगा और सत्य की तरह माना जाएगा. क्योंकि सत्त्व, अपने आप से समझा जाता है और अपने आप से ही अवधारित होता है - वह यह कि, जिसकी अवधारणा के लिए किसी और अवधारणा की आवश्यकता नहीं ; वहीं उपांतर अपने आप से इतर अस्तित्व में है, ओर इसकी अवधारणा और उनकी अवधारणा किसी चीज की अवधारणा में है जो अस्तित्व में है. इसलिए, हमारे पास असत् उपांतरों के सत्य विचार हो सकते हैं; क्योंकि यद्यपि उनका प्रमाता के बुद्धि के अतिरिक्त अपना कोई अस्तित्व नहीं है, तब भी उनका सार अपने से इतर किसी चीज़ में इतना निहित है कि वे अवधारित किए जा सकते हैं. वही सत्त्व के बारे में केवल एक सत्य है, जो बुद्धि से इतरअपने अस्तित्व में अवश्य ही युक्त है क्योंकि वह अपने आप से निर्धारित की जा रही है. इसलिए, किसी का कहना कि उसके पास एक स्पष्ट और पृथक - मतलब - सत्त्व का एक सत्य विचार है, मगर वह इस पर पूरी तरह निशंक नहीं कि ऐसा कोई सत्त्व अस्तित्व में है या नहीं, ठीक वैसा ही कहना होगा जैसे कि वो कहे कि उसके पास एक सच्चा विचार है पर वह इस पर निसंदेह नहीं है कि यह गलत भी हो सकता है, या अगर कोई यह माने कि सत्त्व की सृष्टि हो सकती है, यह भी ठीक वैसा ही कहना होगा कि गलत विचार सच है - जो कि संक्षेप में अनर्थकता की पराकाष्ठा है. तब, यह अनिवार्य है कि यह आवश्यक रूप में स्वीकार किया जाय कि सत्त्व का अस्तित्व अपने सार में ही शाश्वत सत्य है. और हम यह दूसरे तर्क के तरीके से भी निष्कर्ष निकाल सकते है कि केवल एक ही सत्त्व है. मेरा मानना है कि यह लाभ के लिए यह तुरंत ही कर दिया जाय, और इसके निस्पादन के लिए  हमें यह प्रतिज्ञाएँ अनिवार्य रूप से करनी चाहिएँ -
१.किसी भी चीज की सही परिभाषा अपने प्रकृति की सीमाओं के परे न तो कुछ समावेशित करती है न ही बताती है. इससे यह कहा जा सकता है-
२.कोई परिभाषा न तो अंतर्निहित रूप से न ही प्रकट रूप से कुछ विशिष्ट उद्धरणों तक सीमित है यद्यपि यह परिभाषित चीज के प्रकृति की सीमाओं के बाहर कुछ भी नहीं बताती. जैसे कि उदाहरण के लिए, त्रिभुज की परिभाषा त्रिभुज की प्रकृति की सीमाओं के परे कुछ भी नहीं बताती: यह कुछ संख्याओं के त्रिभुज तक खुद को अंतर्निहित नहीं करती.
३.प्रत्येक व्यष्टिके अस्तित्व के लिए एक कारण होना आवश्यक है कि वह क्यों अस्तित्व में विद्यमान रहे.
४.अस्तित्व का कारण अनिवार्य रूप से प्रकृति में निहित होना चाहिये या परिभाषित वस्तु की परिभाषा में निहित होना चाहिये या फिर इस तरह की परिभाषा से अभिधारित हो सके.

इसलिए यहाँ पर समझा जा सकता है कि अगर कुछ तय संख्या के विशिष्ट चीजें अस्तित्व में है
, तब निश्चित रूप से ठीक उतनी संख्या के अस्तित्व का कारण हो, न तो कम न ही ज्यादा. उदाहरण के लिए, यदि ब्रह्माण्ड में बीस लोग अस्तित्व में है (सरलता के लिए मैं मानता हूँ कि वे सभी एक ही साथ अस्तित्व में है और उनके कोई पूर्वज नहीं है) और हमें उन सबों के अस्तित्व का कारण जानना चाहते है, यह मानवता के अस्तित्व के बारे में आमतौर पर पर्याप्त नहीं होगा; हमें यह भी दिखाना है कि क्यों यही बीस आदमी, न कम न ज्यादा, अस्तित्व में है: प्रत्येक के अस्तित्व का कारण हमें ढूँढना होगा. अब यह कारण आदमी की असली प्रकृति में नहीं निहित हो सकता है ,क्योंकि आदमी की परिभाषा में उसके बीस की संख्या होने के लिए कुछ निर्धारित नहीं किया गया है. परिणामस्वरूप, इन बीस आदमियों के प्रत्येक के अस्तित्व के लिए और फलत: प्रत्येक आदमी के उसका कारण उसके बाहर ढूँढना होगा. अत: हम एक निरपेक्ष नियम बना सकते हैं कि जिस किसी में भी कुछ लोग है, उन सबका कारण कहीं बाहर होगा. और, जैसा कि हमने पहले दिखा दिया है कि अस्तित्व सत्त्व की प्रकृति से सम्बन्धित है, अस्तित्व इसकी परिभाधा में अवश्य होना चाहिए; और इस परिभाषा से अस्तित्व को समझना चाहिए. लेकिन यह परिभाषा (जैसा कि हमने ऊपर नोट में दिखाया), हम बहुत से सत्त्व के अस्तित्व का अनुमान नहीं लगा सकते. अत: यह सिद्ध
होता है कि समान प्रकृति का केवल एक ही सत्त्व है.

{ अनुवादक की टिप्पणी :स्वयंसिद्ध ७ की टिप्पणी में हमने अनुमान किया था कि स्पिनोजा आकाशकुसुम, शशविषाण और वंध्यापुत्र को असत् मानेंगे. हम ऊपर स्पिनोज़ा की इस टिप्पणी में देख सकते हैं कि -हमारे पास असत् उपांतरों के सत्य विचार हो सकते हैं
; क्योंकि यद्यपि उनका प्रमाता के बुद्धि के अतिरिक्त अपना कोई अस्तित्व नहीं है, तब भी उनका सार अपने से इतर किसी चीज़ में इतना निहित है कि वे अवधारित किए जा सकते हैं.
स्पिनोजा के शब्दों में आकाशकुसुम, शशविषाण और वंध्यापुत्र असत् उपांतर हैं के सत्य विचार हैं, पर चूँकि वह अवधारित किए जा सकते हैं इस अर्थ में उनका अस्तित्व सम्बन्धी विचार महायान बौद्धों की तुलना में काश्मीर शिवाद्वयवाद के अधिक नजदीक है.}


Prop. IX.The more reality or being a thing has, the greater the number of its attributes (Def. iv.).
प्रस्ताव
---------
“जिसकी जितनी वास्तविकता या सत्ता होगी, उसके उतने ही गुणधर्म होंगे. (परिभाषा ).









Prop. X.Each particular attribute of the one substance must be conceived through itself.
प्रस्ताव  १०
_________
“किसी सत्त्व का प्रत्येक गुणधर्म, उसके स्वंय के द्वारा अवधारित हो ”

Proof—An attribute is that which the intellect perceives of substance, as constituting its essence (Def. iv.), and, therefore, must be conceived through itself (Def. iii.). Q.E.D.

प्रमाण:
गुणधर्म वह है जिससे मति सत्त्व का अनुभव करती है और सत्त्व के सार का गठन करती है (परिभाषा ४), और इसीलिए, गुणधर्म स्वयं से अवधारित है(परिभाषा ३)
Note—It is thus evident that, though two attributes are, in fact, conceived as distinct—that is, one without the help of the other—yet we cannot, therefore, conclude that they constitute two entities, or two different substances. For it is the nature of substance that each of its attributes is conceived through itself, inasmuch as all the attributes it has have always existed simultaneously in it, and none could be produced by any other ; but each expresses the reality or being of substance. It is, then, far from an absurdity to ascribe several attributes to one substance: for nothing in nature is more clear than that each and every entity must be conceived under some attribute, and that its reality or being is in proportion to the number of its attributes expressing necessity or eternity and infinity. Consequently it is abundantly clear, that an absolutely infinite being must necessarily be defined as consisting in infinite attributes, each of which expresses a certain eternal and infinite essence.
If anyone now ask, by what sign shall he be able to distinguish different substances, let him read the following propositions, which show that there is but one substance in the universe, and that it is absolutely infinite, wherefore such a sign would be sought in vain.


नोट –अत: यह स्पष्ट है कि भले ही दो गुणधर्म, वास्तव में, पृथक अवधारित होते हैं – मतलब, एक दूसरे की सहायता के बिना – तब भी हम यह नहीं नतीजा नहीं निकाल सकते कि वे दोनों दो अलग तत्व है या दो भिन्न सत्त्व. क्योंकि यह सत्त्व की प्रकृति है कि इसका प्रत्येक गुणधर्म अपने आप से निर्धारित होता है, यद्यपि सभी गुणधर्म इसमें एक साथ मौजूद रहते हैं और कोई भी किसी दूसरे से नहीं पैदा हो सकता, पर प्रत्येक सत्त्व की वास्तविकता या अवस्था को प्रकट करता है. तब, निरर्थक रूप से एक सत्त्व के बहुत से गुणधर्म का श्रेय देने के बजाय, क्योंकि प्रकृति में इससे ज्यादा कुछ स्पष्ट नहीं है किप्रत्येक तत्त्व की अवधारणा कुछ गुणधर्मों से की जाय और इसकी वास्तविकता या अवस्था उसके प्रकट गुणधर्मों के अनुपात में समझी जाय जो शाश्वत और अनंत हैं. फलत: यह सुस्पष्ट है कि एक अनिवार्य अनंत सत्ता अपने अनंत गुणधर्मों मे परिभाषित की जाय, जहाँ प्रत्येक एक शाश्वत और अनंत सार को व्यक्त करता है.

अब अगर कोई यह पूछता है कि किसी चिह्न वह विभिन्न सत्त्वों में अंतर करेगा, तो उसे आगामी प्रस्तावों को पढ़ना चाहिए, जिससे यह सिद्ध होता है कि ब्रह्माण्ड में केवल एक ही सत्त्व है और वह अनिवार्य अनंत है, जहाँ ऐसा चिह्न ढूँढना ही बेकार है.







Prop. XI.God, or substance, consisting of infinite attributes, of which each expresses eternal and infinite essentiality, necessarily exists.


प्रस्ताव
११
----------


“ईश या सत्त्व जिसके गुणधर्म अनंत हो, जिसमें से प्रत्येक, शाश्वत और अनंत अनिवार्यता अभिव्यक्त करते हो, निश्चितरूप से अस्तित्व या सत्ता में है.”

Proof—If this be denied, conceive, if possible, that God does not exist : then his essence does not involve existence. But this (Prop. vii.) is absurd. Therefore God necessarily exists.

प्रमाण. – अगर इसे अस्वीकार किया गया, अवधारित किया गया कि ईश अस्तित्व में नहीं है, फिर उसका सार अस्तित्व या सत्ता में नहीं है. जो (प्रस्ताव ७से) असंगत है. इसीलिए ईश अस्तित्व में है.
Another proof—Of everything whatsoever a cause or reason must be assigned, either for its existence, or for its non-existence—e.g. if a triangle exist, a reason or cause must be granted for its existence ; if, on the contrary, it does not exist, a cause must also be granted, which prevents it from existing, or annuls its existence. This reason or cause must either be contained in the nature of the thing in question, or be external to it. For instance, the reason for the non-existence of a square circle is indicated in its nature, namely, because it would involve a contradiction. On the other hand, the existence of substance follows also solely from its nature, inasmuch as its nature involves existence. (See Prop. vii.)
But the reason for the existence of a triangle or a circle does not follow from the nature of those figures, but from the order of universal nature in extension. From the latter it must follow, either that a triangle necessarily exists, or that it is impossible that it should exist. So much is self-evident. It follows therefrom that a thing necessarily exists, if no cause or reason be granted which prevents its existence.
If, then, no cause or reason can be given, which prevents the existence of God, or which destroys his existence, we must certainly conclude that he necessarily does exist. If such a reason or cause should be given, it must either be drawn from the very nature of God, or be external to him—that is, drawn from another substance of another nature. For if it were of the same nature, God, by that very fact, would be admitted to exist. But substance of another nature could have nothing in common with God (by Prop. ii.), and therefore would be unable either to cause or to destroy his existence.
As, then, a reason or cause which would annul the divine existence cannot be drawn from anything external to the divine nature, such cause must perforce, if God does not exist, be drawn from God's own nature, which would involve a contradiction. To make such an affirmation about a being absolutely infinite and supremely perfect is absurd; therefore, neither in the nature of God, nor externally to his nature, can a cause or reason be assigned which would annul his existence. Therefore, God necessarily exists. Q.E.D.

अंग्रेजी शब्दों के समानार्थक हिन्दी शब्द

non-existence = अनस्तित्व
reason = प्रयोजन
perforce = विवश करना
affirmation= अभिपुष्टि
absolutely infinite = अनिवार्य (पूर्ण) अनंत
supremely perfect = अत्यधिक उत्कृष्ट
annul = प्रतिबंध
अन्य प्रमाण - सभी के अस्तित्व या अनस्तित्व का, चाहे कोई भी कारण या प्रयोजन हो, अनिवार्य रूप से स्थापित होना चाहिए - जैसे कि अगर एक त्रिभुज अस्तित्व में है, तो उसके होने के लिए एक प्रयोजन या कारण होना चाहिए, अगर, इसके विपरीत यह अस्तित्व में नहीं है तो इसका भी कारण होना चाहिए जो उसके होने से रोकती है या निषेध करती है. यह प्रयोजनऔर कारण अनिवार्यतया उस विचारित चीज की प्रकृति में ही ही या उसके इतर अंतर्निहित हो. जैसे कि, एक वर्गनुमा वृत्त के अनस्तित्व का कारण उसकी प्रकृति में ही निहित है, वह यह है कि क्योंकि ऐसा होने में एक अंतर्विरोध होगा. दूसरी तरफ, सत्त्व का अस्तित्व केवल उसकी प्रकृति से निर्धारित होता है, यद्यपि उसकी प्रकृति में अस्तित्व संयुक्त है (देखें प्रस्ताव ७).
पर एक त्रिभुज या वृत्त के अस्तित्व का प्रयोजन उन आकृतियों के प्रकृति से नहीं होता, बल्कि विस्तार के सकल प्रकृति के प्रबंध से होता है. दूसरे से यह अनुसरित होता है कि या तो एक त्रिभुज अवश्य ही अस्तित्व में है, या फिर उसकी सत्ता असम्भव है. अत: यह सुस्पष्ट है.  इससे यह समझा सकता है कि एक वस्तु अनिवार्य रूप से अस्तित्व में है, यदि कोई कारण या प्रयोजन उसके अस्तित्व के प्रतिबंध के लिए नहीं निर्धारित हो.
अगर, तब, कोई कारण या प्रयोजन नहीं दिया जा सकता कि जिससे कि ईश के अस्तित्व पर प्रतिबंध लगे, या उसके अस्तित्व का विनाश कर दे, हम अनिवार्य रूप से निगमित कर सकते है कि वह अवश्य ही अस्तित्व में है. यदि ऐसा कोई प्रयोजन या कारण दिया जाता है, तो वो निश्चय ही ईश की प्रकृति से या उसके इतर होना चाहिए - मतलब किसी भिन्न प्रकृति के दूसरे सत्त्व से. तो यदि वह समान प्रकृति का हो, ईश, केवल इस तथ्य से अस्तित्व में होने के लिए मान लिया जाएगा पर दूसरी प्रकृति के सत्त्व का ईश में कुछ भी उभयनिष्ठ (सामान्य) नहीं होगा (प्रस्ताव २ से), और इसलिए यह उसके अस्तित्व के  उत्पत्ति या विनाश का कारण होने में असमर्थ होगा.
जैसा कि, तब, एक प्रयोजन या कारण जो कि दैवी अस्तित्व का निषेध करती हो, उस दैवी प्रकृति से बाहर नहीं निगमित की जा सकता, ऐसा कारण अनिवार्य रूप से विवश कर देती है, अगर ईश का अस्तित्व नहीं तो यह ईश के अपनी प्रकृति से निर्धारित होगा, जिसके लिए एक अंतर्विरोध उत्पन्न हो जाएगा. एक अनिवार्य अनंत और श्रेष्ठ परिपूर्ण तत्त्व के बारे में ऐसी अभिपुष्टि अनर्थक है; अत:, न तो यह ईश की प्रकृति में है न ही यह उसकी प्रकृति के इतर, कोई कारण या प्रयोजन निर्धारित किया जा सकता है जो उसकी सत्ता को प्रतिबंधित करे. अत: ईश अनिवार्य रूप से अस्तित्व में हैं.
Another proof—The potentiality of non-existence is a negation of power, and contrariwise the potentiality of existence is a power, as is obvious. If, then, that which necessarily exists is nothing but finite beings, such finite beings are more powerful than a being absolutely infinite, which is obviously absurd ; therefore, either nothing exists, or else a being absolutely infinite necessarily exists also. Now we exist either in ourselves, or in something else which necessarily exists (see Axiom. i. and Prop. vii.). Therefore a being absolutely infinite-in other words, God (Def. vi.)—necessarily exists. Q.E.D.
अंग्रेजी शब्दों के समानार्थक हिन्दी शब्द

potentiality = अंत:शक्ति (सम्भाव्यता)


अन्य प्रमाण– अनस्तित्व की अंत:शक्ति (सम्भाव्यता) शक्ति का एक निषेध है और इसके विपरीत अस्तित्व की अंत:शक्ति (सम्भाव्यता) एक शक्ति है, जो स्पष्ट है. यदि, तब, वह जो अनिवार्य रूप से अस्तित्व में है कुछ और नहीं बल्कि परिमित तत्त्व हैं और ऐसे परिमित तत्त्व किसी पूर्ण अनंत से शक्तिशाली होंगे, जो कि स्पष्ट रूप से निरर्थक है; अत: या तो कुछ भी अस्तित्व में नहीं है या फिर एक पूर्ण अनंत तत्त्व निश्चित रूप से सत्ता में भी है. अब हम अपने आप में अस्तित्व में हैं या फिर इतर में है जो कि अनिवार्य रूप से अस्तित्व में है (देखें स्वयंसिद्ध १ और प्रस्ताव ७). अत: एक पूर्ण अनंत, दूसरे शब्दों में ईश्वर (परिभाषा ६) – अनिवार्यतया सत्ता में है.
Note—In this last proof, I have purposely shown God's existence à posteriori, so that the proof might be more easily followed, not because, from the same premises, God's existence does not follow à priori. For, as the potentiality of existence is a power, it follows that, in proportion as reality increases in the nature of a thing, so also will it increase its strength for existence. Therefore a being absolutely infinite, such as God, has from himself an absolutely infinite power of existence, and hence he does absolutely exist. Perhaps there will be many who will be unable to see the force of this proof, inasmuch as they are accustomed only to consider those things which flow from external causes. Of such things, they see that those which quickly come to pass-that is, quickly come into existence—quickly also disappear ; whereas they regard as more difficult of accomplishment—that is, not so easily brought into existence—those things which they conceive as more complicated.
However, to do away with this misconception, I need not here show the measure of truth in the proverb, "What comes quickly, goes quickly," nor discuss whether, from the point of view of universal nature, all things are equally easy, or otherwise : I need only remark that I am not here speaking of things, which come to pass through causes external to themselves, but only of substances which (by Prop. vi.) cannot be produced by any external cause. Things which are produced by external causes, whether they consist of many parts or few, owe whatsoever perfection or reality they possess solely to the efficacy of their external cause ; and therefore their existence arises solely from the perfection of their external cause, not from their own. Contrariwise, whatsoever perfection is possessed by substance is due to no external cause; wherefore the existence of substance must arise solely from its own nature, which is nothing else but its essence. Thus, the perfection of a thing does not annul its existence, but, on the contrary, asserts it. Imperfection, on the other hand, does annul it ; therefore we cannot be more certain of the existence of anything, than of the existence of a being absolutely infinite or perfect—that is, of God. For inasmuch as his essence excludes all imperfection, and involves absolute perfection, all cause for doubt concerning his existence is done away, and the utmost certainty on the question is given. This, I think, will be evident to every moderately attentive reader.
अंग्रेजी शब्दों के समानार्थक हिन्दी शब्द
à posteriori = बाद में सैद्धांतिक रूप से निगमित करना
à priori = पूर्व में विद्यमान होना
accomplishment = उपलब्धि
perfection = उत्कृष्टता, पूर्णता, निष्कलंकता
imperfection = त्रुटि, अपरिपूर्णता

नोट- पिछले प्रमाण में मैंने ईश का अस्तित्व समझ बूझ कर सैद्धांतिक रूप से निगमित किया है
, जिससे कि प्रमाण आसानी से समझ आ जाय, इसलिए नहीं कि उन्हीं प्रतिज्ञा से, ईश का अस्तित्व सिद्धांत के पूर्व विद्यमान नहीं है. क्योंकि, अस्तित्व की अंत:शक्ति (सम्भाव्यता) एक शक्ति है, इससे यह समझा जा सकता है कि जैसे किसी चीज में वास्तविकता बढ़ती जाती है तब उसके अस्तित्व की शक्ति भी बढ़ती जाती है. इसलिए एक पूर्ण अनंत तत्त्व, जैसा कि ईश हैं, उनके पास स्वयं से ही अस्तित्व के लिए एक पूर्ण अनंत शक्ति है, अत: वे अनिवार्य रूप से अस्तित्व में हैं. शायद बहुत से ऐसे लोग होंगे जो इस प्रमाण का बल नहीं देख पाएँगे, यद्यपि वे उन्हीं चीजों को ध्यान में रखने के आदि है जो कि इतर कारणों से अस्तित्व में आते हैं. ऐसे चीजें, वे देखते हैं कि जो बड़ी आसानी से अस्तित्व में आते हैं, बड़ी आसानी से गायब भी हो जाते हैंवहीं उनके लिए यह कठिन उपलब्धि है कि जो आसानी से अस्तित्व में नहीं आते - वे चीजें उन्हें अवधारित करने में अधिक क्लिष्ट लगती हैं.
हालांकि, भ्रम को हटाने के लिए मैं इस मुहावरे की सत्यता दिखाना नहीं चाहता कि (जो आसानी से मिलता है, आसानी से चला भी जाता है), न ही यह चर्चा करना चाहता हूँ कि सकल प्रकृति की दृष्टि से सभी चीजें समान रूप से आसान या अन्यथा मैं केवल यह टिप्पणी करना चाहता हूँ कि मैं उन चीजों की बात नहीं कर रहा जो कि अपने से इतर कारणों से निर्मित होते हैं, बल्कि केवल सत्त्व की (प्रस्ताव ६ से) जो किसी भी बाह्य कारण से निर्मित नहीं किए जा सकते. चीजें जो किसी बाह्य कारण से निर्मित होती हैं, वे या बहुत से हिस्सों में या कुछ में, कुछ न कुछ वास्तविकता या उत्कृष्टता लिए रहती हैं जो कि उनके बाह्य कारण के प्रभावोत्पादकता के कारण है; और इसलिए उनका अस्तित्व केवल बाह्य कारणों की उत्कृष्टता के कारण होता है, उनके स्वयं के कारण नहीं. इसके विपरीत, जो भी उत्कृष्टता सत्त्व में हैं वह किसी बाह्य कारण से नहीं है, वहीं सत्त्व का अस्तित्व केवल अपनी प्रकृति से ही अनिवार्यतया निर्धारित है, जो कुछ और नहीं उसका सार है. इसलिए, किसी चीज की उत्कृष्टता उसके अस्तित्व का निषेध नहीं करती, बल्कि उसके उल्टे उसे अभिव्यक्त करती है. अपूर्णता (त्रुटि) वहीं दूसरी तरफ इसका निषेध करती है, इसलिए हम कभी किसी भी चीज के अस्तित्व के लिए इससे अधिक निश्चित नहीं हो सकते कि एक ऐसा तत्त्व अस्तित्व में है जो पूर्ण अनंत या उत्कृष्ट है - वह ईश का है. क्योंकि यद्यपि उनका सार सारी त्रुटियों के बिना है और पूर्ण उत्कृष्टता से युक्त है, इस तरह उनके अस्तित्व के सभी शंका के कारण का निवारण हो गया है और प्रश्न का पूरे विश्वास के साथ उत्तर दे दिया गया है. यह, मैं समझता हूँ कि हर संयमित सचेत पाठक के लिए यह स्पष्ट होगा.




Prop. XII.No attribute of substance can be conceived from which it would follow that substance can be divided.
प्रस्ताव
१२


-----------
“किसी भी सत्त्व के गुणधर्म उससे अवधारित नहीं हो सकते जिससे सत्त्व का भाज्य होना अनुसरित हो.”


अंग्रेजी शब्दों के समानार्थक हिन्दी शब्द
divided = विभाजित होना, भाज्य होना

Proof—The parts into which substance as thus conceived would be divided either will retain the nature of substance, or they will not. If the former, then (by Prop. viii.) each part will necessarily be infinite, and (by Prop. vi.) self-caused, and (by Prop. v.) will perforce consist of a different attribute, so that, in that case, several substances could be formed out of one substance, which (by Prop. vi.) is absurd. Moreover, the parts (by Prop. ii.) would have nothing in common with their whole, and the whole (by Def. iv. and Prop. x.) could both exist and be conceived without its parts, which everyone will admit to be absurd. If we adopt the second alternative—namely, that the parts will not retain the nature of substance—then, if the whole substance were divided into equal parts, it would lose the nature of substance, and would cease to exist, which (by Prop. vii.) is absurd.

अंग्रेजी शब्दों के समानार्थक हिन्दी शब्द
absurd = असंगत, अनर्थक

प्रमाण-

सत्त्व के विभाजन के बाद जो भाग मिलेंगे, उनमें या तो सत्त्व की प्रकृति होगी या नहीं. अगर होंगे तो (प्रस्ताव
) से सभी भाग निश्चितरूप से अपरिमित होंगे, और (प्रस्ताव से) स्व-कृत या स्वयंभू होंगे, और (प्रस्ताव से) अलग गुणधर्म वाले होंगे, जिससे, एक सत्त्व से कई अलग अलग सत्वों का निर्माण संभव हो जो (प्रस्ताव से) असंगत है. जिसके कारण फिर, इन भागों और इनके मूलसत्त्व के बीच कुछ भी उभयनिष्ठ(सामान्य) नहीं होगा, और फिर (परिभाषा ४ और प्रस्ताव १० से),मूल सत्त्व सत्ता में नहीं होगा, या अपने भागों से अवधारित नहीं हो सकेगा जो अनर्थक है.
अगर हम दूसरा विकल्प चुनते हैं – वह यह कि, वे भाग सत्त्व की प्रकृति को नहीं धारण करते, तब, यदि पूर्ण सत्त्व बराबर भागों में बाँटा गया हो, तो वे सत्त्व की प्रकृति खो देंगे, और इस तरह अपनी सत्ता खो देंगे, जो कि (प्रस्ताव ७) से अनर्थक है.





Prop. XIII.Substance absolutely infinite is indivisible
प्रस्ताव १३


--------------
“सत्त्व जो अनंत है/ अपरिमित है, अविभाज्य है.


Proof—If it could be divided, the parts into which it was divided would either retain the nature of absolutely infinite substance, or they would not. If the former, we should have several substances of the same nature, which (by
Prop. v.) is absurd. If the latter, then (by Prop. vii.) substance absolutely infinite could cease to exist, which (by Prop. xi.) is also absurd.

प्रमाण-
अगर यह भाज्य है, तो जिन भागों में यह विभाजित है, वो या तो इस नितांत अपरिमित सत्त्व के गुणधर्म वाले हैं या नहीं है. अगर वो है, तो हमारे पास कई ऐसे सत्त्व होंगे जो एक ही प्रकृति और गुणधर्म के होंगे, जिनका होना (प्रस्ताव
) से असंगत है. अगर वो समान गुणधर्म वाले नहीं है, फिर (प्रस्ताव ) से यह नितांत अपरिमित सत्त्व नहीं है, जिसका न होना (प्रस्ताव ११ से) असंगत है.
Corollary—It follows, that no substance, and consequently no extended substance, in so far as it is substance, is divisible.


उप-प्रमेय– इसका अर्थ यह भी है कोई भी सत्त्व या
विस्तारित सत्त्व, जब तक सत्त्व है, भाज्य नहीं है.
Note—The indivisibility of substance may be more easily understood as follows. The nature of substance can only be conceived as infinite, and by a part of substance, nothing else can be understood than finite substance, which (by Prop. viii) involves a manifest contradiction.
नोट – सत्त्व की अविभाज्यता इस तरह से भी आसानी से समझी जा सकती है, सत्त्व की प्रकृति केवल अनंत में अवधारित की जा सकती है और सत्त्व के एक भाग से, कुछ और नहीं बल्कि परिमित सत्त्व को समझा जा सकता है जो कि (प्रस्ताव ८ से) एक विरोधाभास को अभिव्यक्त करेगा.






Prop. XIV.Besides God no substance can be granted or conceived.
प्रस्ताव १४
------------

“ईश के अतिरिक्त कोई भी सत्त्व अनुदत्त या अवधारित नहीं है.”


अंग्रेजी शब्दों के समानार्थक हिन्दी शब्द
granted = अनुदत्त

Proof.—As God is a being absolutely infinite, of whom no attribute that expresses the essence of substance can be denied (by Def. vi.), and he necessarily exists (by Prop. xi.) ; if any substance besides God were granted, it would have to be explained by some attribute of God, and thus two substances with the same attribute would exist, which (by Prop. v.) is absurd ; therefore, besides God no substance can be granted, or, consequently, be conceived. If it could be conceived, it would necessarily have to be conceived as existent; but this (by the first part of this proof) is absurd. Therefore, besides God no substance can be granted or conceived. Q.E.D.

प्रमाण. –

(परिभाषा ६ से) ईश नितांत असीमित है, जिसके किसी भी गुण-धर्म को जो सत्त्व के सार को अभिव्यक्त करता है, अस्वीकार नहीं किया जा सकता, और जो निश्चित रूप से अस्तित्व (सत्ता) में हैं (प्रस्ताव ११ से
); ईश के अलावा अगर कोई भी सत्त्व अनुदत्त हुआ तो, तो वह ईश के किसी न किसी गुण-धर्म से प्रतिपादित होगा, और इसीलिए दो सत्त्व जो सामान गुणधर्म के हो, उनका होना असंगत होगा (प्रस्ताव ५ से); अत: ईश के अतिरिक्त कोई सत्त्व नहीं अनुदत्त है या फलस्वरूप, न ही अवधारित है. यदि अवधारित किया सकता, तो यह निश्चित तौर पर अस्तित्व में समझा जाता; पर यह (प्रमाण के पहले भाग से) से अनर्थक है. इसलिए, ईश के अतिरिक्त कोई भी सत्त्व न तो अनुदत्त है न ही अवधारित है.
Corollary I—Clearly, therefore : 1. God is one, that is (by Def. vi.) only one substance can be granted in the universe, and that substance is absolutely infinite, as we have already indicated (in the note to Prop. x.).

उप-प्रमेय १ - स्पष्टत: १. ईश एक है, और (परिभाषा ६) से एकमात्र सत्त्व है जो ब्रह्माण्ड में अनुदत्त है, और यह सत्त्व अपरिमित है (प्रस्ताव १० से)
Corollary II—It follows: 2. That extension and thought are either attributes of God or (by Ax. i.) accidents (affectiones) of the attributes of God.


उप-प्रमेय २– २. विस्तार और विचार या तो ईश के गुणधर्म हैं (स्वयंसिद्ध १ से), या ईश के गुणधर्म के रूपांतर या व्युत्पत्ति हैं.



Prop. XV.Whatsoever is, is in God, and without God nothing can be, or be conceived.
प्रस्ताव १५
--------------
“जो कुछ भी है, वह ईश में है, और ईश के बिना, कुछ भी ना ही हो सकता है, या ना ही उसकी संकल्पना की जा सकती है.”


Proof—Besides God, no substance is granted or can be conceived (by Prop. xiv.), that is (by Def. iii.) nothing which is in itself and is conceived through itself. But modes (by Def. v.) can neither be, nor be conceived without substance ; wherefore they can only be in the divine nature, and can only through it be conceived. But substances and modes form the sum total of existence (by Ax. i.), therefore, without God nothing can be, or be conceived. Q.E.D.

प्रमाण- ईश के बिना कोई भी सत्त्व अनुदत्त नहीं है ना ही अवधारित है (प्रस्ताव
१५ से), (परिभाषा ३ से)ईश के बिना कुछ भी नहीं है जो स्वयंभू है और स्वयं से अवधारित है. लेकिन प्रणाली (परिभाषा से) ना सत्त्व के बिना हो सकते है, ना उनकी संकल्पना ही की जा सकती है; तो वो केवल प्रकृति से ईश्वरीय ही हो सकते है, और ईश के विदित अवधारित. लेकिन सत्त्व और प्रणाली (उपान्तर) मिलकर अस्तित्व या सत्ता का संगठन करते है (स्वयंसिद्ध १), इसीलिए बिना ईश के कुछ भी नहीं है, ना ही संकल्पित भी है.
Note —Some assert that God, like a man, consists of body and mind, and is susceptible of passions. How far such persons have strayed from the truth is sufficiently evident from what has been said. But these I pass over. For all who have in anywise reflected on the divine nature deny that God has a body. Of this they find excellent proof in the fact that we understand by body a definite quantity, so long, so broad, so deep, bounded by a certain shape, and it is the height of absurdity to predicate such a thing of God, a being absolutely infinite. But meanwhile by other reasons with which they try to prove their point, they show that they think corporeal or extended substance wholly apart from the divine nature, and say it was created by God. Wherefrom the divine nature can have been created, they are wholly ignorant ; thus they clearly show, that they do not know the meaning of their own words. I myself have proved sufficiently clearly, at any rate in my own judgment (Coroll. Prop. vi., and note 2, Prop. viii.), that no substance can be produced or created by anything other than itself. Further, I showed (in Prop. xiv.), that besides God no substance can be granted or conceived. Hence we drew the conclusion that extended substance is one of the infinite attributes of God. However, in order to explain more fully, I will refute the arguments of my adversaries, which all start from the following points :—
Extended substance, in so far as it is substance, consists, as they think, in parts, wherefore they deny that it can be infinite, or consequently, that it can appertain to God. This they illustrate with many examples, of which I will take one or two. If extended substance, they say, is infinite, let it be conceived to be divided into two parts ; each part will then be either finite or infinite. If the former, then infinite substance is composed of two finite parts, which is absurd. If the latter, then one infinite will be twice as large as another infinite, which is also absurd.
Further, if an infinite line be measured out in foot lengths, it will consist of an infinite number of such parts ; it would equally consist of an infinite number of parts, if each part measured only an inch : therefore, one infinity would be twelve times as great as the other.
Lastly, if from a single point there be conceived to be drawn two diverging lines which at first are at a definite distance apart, but are produced to infinity, it is certain that the distance between the two lines will be continually increased, until at length it changes from definite to indefinable. As these absurdities follow, it is said, from considering quantity as infinite, the conclusion is drawn, that extended substance must necessarily be finite, and, consequently, cannot appertain to the nature of God.
The second argument is also drawn from God's supreme perfection. God, it is said, inasmuch as he is a supremely perfect being, cannot be passive ; but extended substance, insofar as it is divisible, is passive. It follows, therefore, that extended substance does not appertain to the essence of God.
Such are the arguments I find on the subject in writers, who by them try to prove that extended substance is unworthy of the divine nature, and cannot possibly appertain thereto. However, I think an attentive reader will see that I have already answered their propositions ; for all their arguments are founded on the hypothesis that extended substance is composed of parts, and such a hypothesis I have shown (Prop. xii., and Coroll. Prop. xiii.) to be absurd. Moreover, anyone who reflects will see that all these absurdities (if absurdities they be, which I am not now discussing), from which it is sought to extract the conclusion that extended substance is finite, do not at all follow from the notion of an infinite quantity, but merely from the notion that an infinite quantity is measurable, and composed of finite parts : therefore, the only fair conclusion to be drawn is that infinite quantity is not measurable, and cannot be composed of finite parts. This is exactly what we have already proved (in Prop. xii.). Wherefore the weapon which they aimed at us has in reality recoiled upon themselves. If, from this absurdity of theirs, they persist in drawing the conclusion that extended substance must be finite, they will in good sooth be acting like a man who asserts that circles have the properties of squares, and, finding himself thereby landed in absurdities, proceeds to deny that circles have any center, from which all lines drawn to the circumference are equal. For, taking extended substance, which can only be conceived as infinite, one, and indivisible (Props. viii., v., xii.) they assert, in order to prove that it is finite, that it is composed of finite parts, and that it can be multiplied and divided.
So, also, others, after asserting that a line is composed of points, can produce many arguments to prove that a line cannot be infinitely divided. Assuredly it is not less absurd to assert that extended substance is made up of bodies or parts, than it would be to assert that a solid is made up of surfaces, a surface of lines, and a line of points. This must be admitted by all who know clear reason to be infallible, and most of all by those who deny the possibility of a vacuum. For if extended substance could be so divided that its parts were really separate, why should not one part admit of being destroyed, the others remaining joined together as before? And why should all be so fitted into one another as to leave no vacuum? Surely in the case of things, which are really distinct one from the other, one can exist without the other, and can remain in its original condition. As, then, there does not exist a vacuum in nature (of which anon), but all parts are bound to come together to prevent it, it follows from this that the parts cannot really be distinguished, and that extended substance in so far as it is substance cannot be divided.
If anyone asks me the further question, Why are we naturally so prone to divide quantity? I answer, that quantity is conceived by us in two ways ; in the abstract and superficially, as we imagine it ; or as substance, as we conceive it solely by the intellect. If, then, we regard quantity as it is represented in our imagination, which we often and more easily do, we shall find that it is finite, divisible, and compounded of parts ; but if we regard it as it is represented in our intellect, and conceive it as substance, which it is very difficult to do, we shall then, as I have sufficiently proved, find that it is infinite, one, and indivisible. This will be plain enough to all who make a distinction between the intellect and the imagination, especially if it be remembered, that matter is everywhere the same, that its parts are not distinguishable, except in so far as we conceive matter as diversely modified, whence its parts are distinguished, not really, but modally. For instance, water, in so far as it is water, we conceive to be divided, and its parts to be separated one from the other ; but not in so far as it is extended substance ; from this point of view it is neither separated nor divisible. Further, water, in so far as it is water, is produced and corrupted ; but, in so far as it is substance, it is neither produced nor corrupted.
I think I have now answered the second argument ; it is, in fact, founded on the same assumption as the first-namely, that matter, in so far as it is substance, is divisible, and composed of parts. Even if it were so, I do not know why it should be considered unworthy of the divine nature, inasmuch as besides God (by Prop. xiv.) no substance can be granted, wherefrom it could receive its modifications. All things, I repeat, are in God, and all things which come to pass, come to pass solely through the laws of the infinite nature of God, and follow (as I will shortly show) from the necessity of his essence. Wherefore it can in nowise be said, that God is passive in respect to anything other than himself, or that extended substance is unworthy of the Divine nature, even if it be supposed divisible, so long as it is granted to be infinite and eternal. But enough of this for the present.

अंग्रेजी शब्दों के समानार्थक हिन्दी शब्द
corporeal = भौतिक
hypothesis = आधार, अनुमान
vacuum =शून्यक,निर्वात
anon = अज्ञात
prone = इच्छुक, प्रवृत


नोट :किन्हीं का कहना है कि ईश
, मनुष्य की तरह, शरीर और मानस युक्त हैं और भावावेश के लिए संवेदनशील हैं. ऐसे लोग सच से बहुत दूर हैं जैसा कि जो अब तक कहा जा चुका है उससे स्पष्ट है. पर इन सबको छोड़ मैं आगे बढ़ता हूँ. वे सभी जो किसी तरह से दैवी प्रकृति के बारे में चिंतन कर चुक हैं, इस ईश का शरीर होने को नकारते हैं. इसके लिए उनके पास एक बहुत ही अच्छा प्रमाण इस तथ्य में पाते हैं कि हम शरीर (देह) से एक परिमित मात्रा समझते हैं जिसकी लंबाई, चौड़ाई, गहराई, किसी आरूप की सीमा तक नियत होगी, और यह तो अनर्थकता की पराकाष्ठा होगी अगर हम ईश को, जो नितांत  अनंत है, इसका विधेय मानें. पर वहीं दूसरे प्रयोजनों से वे यह बिंदु सिद्ध करना चाहते हैं, वे ये दिखाते हैं कि वे समझते हैं कि भौतिक या विस्तारित सत्त्व अपने दैवी प्रकृति से कहीं दूर है और यह ईश द्वारा निर्मित है. वहीं जब कि दैवी प्रकृति बनायी जा सकती, इसके बारे में वह पूरी तरह अनभिज्ञ हैं; अत: वे यह स्पष्ट रूप से दिखलाते हैं कि वे अपने शब्दों का अर्थ स्वयं नहीं समझते. मैं खुद ही समुचित स्पष्टता के साथ यह सिद्ध किया है कि किसी भी तरह मेरा निष्कर्ष (उपप्रमेय प्रस्ताव ६ और नोट २, प्रस्ताव ८ से) कि कोई सत्त्व न तो निर्मित किया जा सकता है न ही अपने से इतर किसी तरह से उसकी उत्पत्ति हो सकती है. इस तरह मैंने दिखाया है (प्रस्ताव १४ में), कि ईश के सिवा कोई सत्त्व न तो अनुदत्त है न ही अवधारित है. अत: हम यह इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि विस्तारित सत्त्व ईश के अनंत गुणधर्मों में से एक है. हालांकि, अधिक व्याख्या के प्रबंध के लिए मैं अपने प्रतिवादियों के तर्कों का खण्डन करूँगा जो निम्न बिंदुओं में हैं :-
विस्तारित सत्त्व, जब तक यह सत्त्व है, जैसा वे विचारते हैं, भागों में युक्त है, वहीं वे यह भी नकारते हैं कि यह अनंत, या फलस्वरूप, ईश से जुड़े हैं. इसे वे बहुत से उदाहरणों से दिखाते हैं, उनमें से मैं एक या दो लूँगा. यदि विस्तारित सत्त्व, जैसा कि उनका कहना है, अनंत है, फिर उसे दो भागों में बँटा सोचा जाय, हर भाग या तो सीमित होंगे या असीमित होंगे. यदि पहला माना जाय, तो अनंत सत्त्व दो सीमित सत्त्वों से बना मानना होगा, जो कि अनर्थक है. अगर दूसरा माने तो एक अनंत दूसरे अनंत का दुगुना मानना पड़ेगा, यह भी अनर्थक है.
आगे, यदि एक अनंत रेखा कुछ लम्बाई की इकाई (फुट) में नापी जाती है, यह अनंत संख्या के छोटे हिस्सों से युक्त होगी, अगर हर एक हिस्सा और भी छोटी ईकाई में (इंच) नापा जाय, तो भी अनंत संख्या ही होगी: अत: एक अंत दूसरे अनंत से कुछ गुना (बारह गुना) बड़ा माना जाएगा.
अंत में, यदि एक बिंदु से दो भिन्न दिशाओं मे जाने वाली रेखाएँ अवधारित की जाती हैं जो कि पहले पहल कुछ निश्चित दूरी पर होती हैं, पर अगर अनंत तक ले जायी जाएँ तो यह दो रेखाओं के बीच की यह दूरी धीरे धीरे बढ़ती ही जाएँगी, जब तक लंबाई निश्चित से अनिश्चेय न हो जाय. जब इस तरह की अनर्थकता अनुसरित होती है, ऐसा कहा जा सकता है कि मात्रा के अनंत होने के कारण, यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि विस्तारित सत्त्व निश्चित रूप से सीमित है, और, फलस्वरूप, ईश की  प्रकृति से  युक्त नहीं हो सकता.
दूसरा तर्क भी ईश की अत्यधिक उत्कृष्टता से निकाला जाता है. ईश, जैसा कि कहा गया है, यद्यपि वे एक अधिष्ठित उत्कृष्ट तत्त्व हैं, कभी भी निष्क्रिय नहीं हो सकते, पर विस्तारित सत्त्व, जब तक कि यह विभाज्य है, निष्क्रिय है. इससे यह अनुसरित होता है कि विस्तारित सत्त्व ईश के सार  से संयुक्त नहीं है.
ऐसे तर्क मुझे लेखकों के विषयों में मिलते हैं, जो इसकी सहायता से यह प्रमाणित करना चाहते हैं कि विस्तारित सत्त्व दैवी प्रकृति के योग्य नहीं है और किसी तरह से उसमें युक्त होने की सम्भावना नहीं है. हालांकि, मेरे विचार से एक सतर्क पाठक यह देख सकता है कि मैंने उन प्रतिवादों का पहले ही उत्तर दे दिया है; क्योंकि उनके सारे तर्क इस आधार पर हैं कि विस्तारित सत्त्व कुछ भागों से बना है, और मैंने इस आधार को (प्रस्ताव १२ और उप प्रमेय १३ में) अनर्थक सिद्ध कर दिया है. इसके अलावा, यदि कोई विचारेगा तो देख सकेगा कि यह सभी अनर्थकताएँ (यदि वे अनर्थक हैं, जिनकी चर्चा मैं अभी नहीं कर रहा), जिस बात से निष्कर्ष में लायी जा रही हैं कि विस्तारित सत्त्व परिमित है, वे असीमित (अनंत) मात्रा के प्रत्यय (विचार) का अनुसरण नहीं करते बल्कि केवल यह इस प्रत्यय से कि अनंत मात्रा मापी जा सकती है और कुछ सीमित भागों से मिल कर बनी है : अत: एक सही निष्कर्ष यही है अनंत मात्रा नहीं मापी जा सकती है और वे सीमित पात्रों से मिल कर नहीं बनी है. यह हमने सिद्ध कर रखा है (प्रस्ताव १२ में). वहीं शस्त्र से हम पर निशाना साध रहे थे, वास्तव में उन पर उलटा पड़ा है. यदि वे अपनी अनर्थकता में यह निष्कर्ष निकालने में जुटे रहना चाहते हैं कि विस्तारित सत्त्व अनिवार्यत: सीमित है, वे ठीक वैसे ही स्वांग रचा रहे हैं कि जो कहते हैं वृत्त में वर्ग के गुणधर्म हैं और स्वयं को अनर्थकता के बीच पा कर यह भी नकारने में लग जाते हैं कि वृत्त का कोई केन्द्र भी है. क्योंकि, विस्तारित सत्त्व, जो कि केवल अनंत ही अवधारित हो सकता है, और एक, और अविभाज्य (प्रस्ताव ८, , १२ में) वे सीमित कहने के प्रबंध में यह मानते हैं कि यह निश्चित भागों से बना है और यह गुणित या विभाजित हो सकता है.
इसलिए भी, वे, यह व्यक्त करने के बाद कि एक रेखा बहुत से बिंदुओं से बनी है, और बहुत से तर्क दिए जा सकते हैं इस बात को सिद्ध करने के लिए कि एक रेखा को अनंत टुकड़ों में नहीं बाँटा जा सकता. निश्चय ही यह कहना कम अनर्थक नहीं है कि एक विस्तारित सत्त्व बहुत से देहों या टुकड़ों से बना है, बनिस्पत कि यह कहा जाय कि ठोस केवल परतों से बना है, परत रेखाओं से और रेखा बिंदु से. यह उन्हें अनिवार्यत: स्वीकार करना पड़ेगा कि स्पष्ट तर्क को अपरिहार्य मानते हैं, और उन सबों से सब से ज्यादा जो किसी भी तरह के शून्य की सम्भावना को नकारते हैं. क्योंकि यदि विस्तारित सत्त्व अपने टुकड़ों में ही विभाजित किया जा सकता कि उसके भाग वास्तविक रूप से पृथक होते, फिर एक भाग विनाशित मान लिया जाय और शेष भाग पहले जैसे जुड़ जाएँ? और सभी एक दूसरे से इस तरह वापस जुड़ जाएँ कि उनके बीच कोई शून्यक न होऐसा उन सभी चीजों के साथ हो सकता है जो सच में एक दूसरे से पृथक है, एक दूसरे के बिना सत्ता में हो सकता है और अपनी मूलभूत अवस्था को बना सकता है. जैसा कि, तब, वहाँ (अज्ञात की) प्रकृति में कोई ऐसा शून्यक नहीं है, बल्कि सभी भाग एक साथ आकर निषेध करते हैं, यह अनुसरित होता है कि ये भाग वास्तविक रूप में कभी एक पृथक तौर पर नहीं पहचाने जा सकते और विस्तारित सत्त्व जब तक कि वह सत्त्व है अविभाज्य है.

कोई मुझसे यदि आगे प्रश्न पूछता है कि हम स्वाभाविक रूप से हर मात्रा को विभाजित करने के लिए इच्छुक रहते हैं
? मेरा उत्तर है कि मात्रा हम दो तरह से अवधारित करते हैं; गूढ़ और सतही तौर पर, जैसा हम संकल्पित करते हैं; या सत्त्व के रूप में जब हम केवल मति (बुद्धि) द्वारा इसे अवधारित करते हैं. यदि तब हम मात्रा को जैसा हमारी कल्पना में विरूपित होता है, तब हम बहुत और अधिक आसानी से इसे सीमित, विभाज्य और टुकड़ों मे बना हुआ समझते हैं; वही यदि हम इसे अपनी मति में विरूपित होने पर और इसे सत्त्व की तरह अवधारित करते हैं, तब यह बहुत कठिन हो जाता है, हम तब इसे, जैसा कि मैंने पर्याप्त रूप में सिद्ध कर दिया है कि यह असीमित, एक और अविभाज्य है. इस तरह साधारणतया उन सबों के लिए काफी है जो बुद्धि (मति) और कल्पना में भेद करते हैं, विशेष तौर पर यदि यह याद रखा जाय कि हर जगह द्रव्य समान ही है और उसके टुकड़े आपस में पृथक नहीं पहचाने जाते जब तक कि हम द्रव्य को बहुरूपी प्रणाली में न अवधारित करें. उदाहरण के तौर पर पानी, जब तक यह पानी हम इसे विभाजित, एक भाग दूसरे से अलग समझते हैं, लकिन तब नहीं जब तक यह विस्तारित सत्त्व है: इस दृष्टि से यह न पृथक है और न विभाज्य है. आगे, पानी, जब तक कि पानी है निर्मित और दूषित किया जा सकता है, लेकिन जब यह सत्त्व है, यह न तो निर्मित किया जा सकता है न ही दूषित किया जा सकता है.
मेरे विचार से मैंने अब दूसरे तर्क का भी उत्तर दे दिया है; यह, तथ्य है कि, पहले वाले के ही समान अवधारणा से कि द्रव्य, जब तक कि यह सत्त्व है, विभाज्य है और भागों से बना है. तब भी, यदि ऐसा है, ऐसा क्यों माना जाय कि यह (विभाज्यता)दैवी प्रकृति के योग्य नहीं है, जैसा कि हम जानते हैं (प्रस्ताव १४ से) ईश के बिना कुछ भी अनुदत्त नहीं है इससे उसके उपांतर आ सकें. सब कुछ, मैं दोहराता हूँ, ईश में हैं, और सभी कुछ जो आते हैं, वे केवल ईश के अनंत गुणधर्मों के नियमों से ही आते हैं और ईश के सार की आवश्यकता अनुसरित होते हैं (मैं जल्दी ही आगे बताउँगा).  जहाँ कहीं यह बिल्कुल नहीं कहा गया है कि कि ईश अपने अलावा किसी और तरीके में निष्क्रिय हैं या फिर विस्तारित सत्त्व दैवी प्रकृति के योग्य नहीं है, अगर उसे विभाज्य भी सोचा जाय -जब तक ईश शाश्वत और अनंत है. पर अभी के लिए इतना ही.


{अनुवादक की टिप्पणी: यहाँ हमें ध्यान देने की आवश्यकता है कि स्पिनोज़ा यहाँ दर्शन की एक बहुत पुरानी समस्या को इंगित कर रहें हैं जिसे हम ‘जेनो’ नामक यूनानी दार्शनिक (490 से 430 ईसा पूर्व के लगभग) के पैराडॉक्स (paradox या ‘असत्याभास’) के नाम से भी जानते हैं. ये तीन प्रकार के पैराडॉक्स हैं . जैसा कि सुप्रसिद्ध यूनानी दार्शनिक अरस्तू (Aristotle : 384 – 322 ईसा पूर्व)ने अपनी पुस्तक भौतिकी (physics) में इन समस्याओं को उद्धृत किया है : -


पहला:अकिलीज़ और कछुआ पैराडॉक्स - किसी भी रेस में जो तीव्रतम धावक है, जो पीछा कर रहा है,  वह सबसे सुस्त धावक (जिसका पीछा किया जा रहा है ) से आगे नहीं हो सक सकता , क्योंकि रेस शुरू होने से पहले सभी धावकों को एक प्रस्थान बिंदु तआकर मिलना होगा, जिससे यह बात सुनिश्चित होगी कि जो सुस्त धावक था, उसके पास हमेशा बढ़त थी.

दूसरा: द्विभाजन पैराडॉक्स (डिकोटोमी पैराडॉक्स) - वह जो गतिमान है, उसे लक्ष्य तक पहुँचने से पहले सर्वदा लक्ष्य की आधी दूरी तय करनी होगी;

तीसरा:एरो या तीर पैराडॉक्स - जब कोई चीज़ एक समान स्थान घेरती है तो विश्राम में होती है, और  वह जो सर्वदा गतिमान है, अपने गति के हर क्षण कोई ना कोई स्थान घेरती हैं इसीलिए वह गति में ना होकर स्थिर है.

यह ग़ौरतलब है कि पहले दो पैराडॉक्स में जेनो दूरी को अनंत हिस्सों में बाँटते है, और तीसरे में समय को. स्पिनोजा के इस तर्क से प्रभावित हो कर जर्मन गणितज्ञ और दार्शनिक गाटफ्रीड विलहेल्म लाइबनिज (
Gottfried Wilhelm Leibniz: 1646-1716) नेपाइथागोरस द्वारा कल्पितमोनाड (Monad) की अवधारणा विकसित की, जिसकी सहायता से उन्होंने कैलकुलस का अपना सिद्धांत न्यूटन से स्वतंत्र प्रतिपादित किया. लाइबनिज द्वारा कैलकुलस (Calculus) के विकास की दिशा में जो शोध किये गये वे मील के पत्थर साबित हुए. उसने अवकलन (Differentiation) तथा समाकलन (Integration) संबंधी जो संकेत शुरु किये उनका उपयोग आज तक किया जा रहा है.

यहाँ यह कह देना आवश्यक है कि आधुनिक गणितज्ञ ‘जेनो’ के उपरोक्त असत्याभासों के गणितीय समाधान करने की दावा करते हैँ. यह भी स्वीकार किया जा चुका है कि अवकलन (
Differentiation) तथा समाकलन (Integration) सम्बन्धी मूलभूत अवधारणाएँ लाइबनिज के मोनाड के सिद्धांत से कहीँ आगे बढ़ चुकी है.}
____________
पहला हिस्सा यहाँ पढ़े 
reachingpushkar@gmail.com
prachand@gmail.com



सहजि सहजि गुन रमैं : अंकिता आनंद (३)

$
0
0













अंकिता आनंद की सक्रियता का दायरा विस्तृत है.  नाटकों ने उनके अंदर के कवि को समुचित किया है. उनकी कविताओं में पाठ का सुख है, शब्दों के महत्व को समझती हैं, उन्हें व्यर्थ नहीं खर्च करतीं.

कविताओ में भी सचेत स्त्री की अनके भंगिमाएं हैं.  यहाँ चलन से अलग कुछ भी करने से बद- चलन  का ज़ोखिम बना रहता है.  एक कविता में वह कहती  हैं कि प्रतिउत्तर में वह पति का दांत इसलिए नहीं तोड़ती कि

“फिर वो कैसे खाया करेगा, चबाया करेगा,
खाने में मिली हुई पिसी काँच?"

यह पीसी हुई काँच क्या है ? यह वही बराबरी और खुदमुख्तारी है जिसे कभी कानों में पिघलाकर डाल दिया जाता था.

अंकिता की आठ नई कविताएँ आपके लिए.



अंकिता आनंद की कविताएँ            



आगे रास्ता बंद है
चढ़ाई आने पर 
रिक्शेवाला पेडल मारना छोड़ 
अपनी सीट से नीचे उतर आता है. 
दोनों हाथों से हमारा वज़न खींच 
हमें ले जाता है 
जहाँ हम पहुँचना चाहते हैं.
एक दिन 
सड़क के उस मोड़ पर 
सीट से उतर कर 
शायद वो अकेला चलता चले 
हमें पीछे छोड़,
गुस्से, नफ़रत या प्रतिशोध की भावना से नहीं 
पर क्योंकि 
उस पल में 
हम उसके लिए अदृश्य हो चुके होंगे,
जैसे वो हो गया था 
हमारे लिए 
सदियों पहले.
उस पल में 
उसने फ़ैसला कर लिया होगा 
उसे कोई फ़र्क नहीं पड़ता.


आवरण 
मैं ठीक नहीं समझती 
तुम्हें ज़्यादा कुछ मालूम पड़े 
इस बारे में कि तुमसे मुझे कहाँ, कैसे और कितनी 
चोट लग सकती है.  

बस डबडबाई आँखों से तुम्हें देखूँगी 
जब मेरे होठ जल जाएँ,
तुमसे खिन्न सवाल करूँगी,
"क्यों इतना गर्म प्याला मुझे थमा दिया,
जब तुम्हें पता है मैं चाय ठंडी पीती हूँ?"



दीर्घविराम 
राजकुमार थक गया है 
(उसका घोड़ा भी)
एक के बाद एक 
लम्बे सफर पर जा कर,
जिनके खत्म होने तक 
वो राजकुमारियाँ बचा चुकी होती हैं 
अपने-आप को,
जिन्होंने उसे बुलाया भी नहीं था.
एक मौका दो उसे 
खुद को बचाने का,
एक लम्बी, गहरी, शांत नींद में 
आराम करने दो उसे.
जागने पर शायद कोई राजकुमारी 
उसे प्यार से चूम लेगी,
अगर दोनों को ठीक लगे तो.


नेपथ्य
गाँव में होता है नाटक
फिर चर्चा, सवाल-जवाब. 

लोग कहते सुनाई देते हैं
"नाटक अच्छा था,
जानकारी भी मिली. 
कोई नाच-गाना भी दिखला दो."

हमारी सकुचाई टोली कहती है,
"वो तो नहीं है हमारे पास."
फिर आवाज़ आती है,
"यहाँ पानी की बहुत दिक्कत है."

वो जानते हैं हम सरकार-संस्था नहीं,
लेकिन जैसे हम जाते हैं गाँव 
ये सोचकर कि शायद वहाँ रह जाए 
हमारी कोई बात,

वो हमें विदा करते हैं 
आशा करते हुए 
कि शायद पहुँच जाए शहर तक 
उनकी कोई बात. 



धोखा
शुरूआतसेही. . . आजतकभी 
मैंकृपया पीलीलाईन केपीछेऔर 
लालरेखा केभीतररहनेवालीरहीहूँ. 
ईस्टमैनकलरवालेझिलमिलघेरेमुझेअंदरबुलाएँ 
ऐसीबुरीलड़की नहींबनसकी. 

पीलीलाईनऔरलालरेखाकेअंदररहतेहुए 
मैंरंगोलियाँबनानेसेमनाकर 
कमरपरहाथडाले, पाँवफैलाएठुड्डीनिकाले 
खड़ीरहतीहूँ
इसलिएअच्छीलड़की नहींमानी जासकती. 

आहतआवाज़ोंकोकईबारमुझेधोखाबुलातेसुनाहै. 


जीव शरद: शतम्
सपाट चेहरा लिए बैठी रही वो 
उसकी सहेली बेतहाशा बोलती रही 
उसके टूटे दाँत के बारे में,
जैसे महज़ एक दाँत के खत्म होने से 
रिश्ता भी खत्म हो जाता हो.
हो जाती है कभी दो बात, दो लोगों के बीच,
पर आप शादी को खेल नहीं बना देते 
मतभेद होते हैं,
और सुलझ भी जाते हैं.
सहेली दिल की अच्छी सही, पूरी पागल थी,
गुस्सा इतना तेज़, कहती जवाब में उसे भी 
पति का दाँत तोड़ डालना चाहिए था. 
ये भी कोई बात हुई? उसने सुना नहीं क्या,
आँख के बदले आँख पूरी दुनिया को अंधा बना डालेगी?
अपने पति के साथ वो ऐसा क्यों करना चाहेगी
अपनी मुश्किलें और क्यों बढ़ाना चाहेगी?
फिर वो कैसे खाया करेगा, चबाया करेगा,
खाने में मिली हुई पिसी काँच?


विमार्ग
तुम्हारा नाम दिल में आते ही 
दिल बैठने लग जाता है 
हर एक उस हर्फ के वज़न से 
जो तुम्हें बनाते हैं.
मैं जल्दी से उन्हें उतार नीचे रख देती हूँ,
और तरीके ढूँढ़ती हूँ 
बिना तुमसे नज़रें मिलाए 
तुम्हें पुकारने के,
पन्नों, स्क्रीन और ट्रैफिक के बीच
नाहक कुछ ढूँढ़ते हुए. 
क्योंकि इरादा कर लिया है 
कि तुम मुझे न देख पाओ 
तुम्हें देखने की मशक्कत करते हुए. 
पेचीदा मसला है ये, तुम्हारा नाम लेना. 
इसमें खतरा है, कहीं पूरी तरह पलट कर 
तुम रूबरू न आ जाओ,
तुम्हें जगह और वक्त न मिल जाए 
मेरी हड़बड़ाई आँखों में देख 
उन सब ख्वाहिशों से वाकिफ होने का 
जिन्हें मैंने आवाज़ दी थी 
जब तुम्हें अपने पास बुलाया था. 


अंधकक्ष 
डिजिटलदुनियामेंसुशोभितहैंअनेकों 
कर्मठ
समाजसेवी, संवेदनशीलकलाकार, निडरलेखक, भावुकशिक्षक,
ज्ञान
सेलैस, प्रेरणादेते, इंसानियतपरभरोसाकायमरखते,
सब
एकसेएकअनूठे.
फिरइनमेंसेकुछपधारतेहैंइनबौक्समें,
दिखने
लगतीहैंधीरे-धीरेसमानताएँइनकी 
एक
बक्समें 
बंद
एकसेचूहेनज़रआतेहैंये,
जिस
गुलडब्बेमेंबनेछोटेछेदोंसे 
रोशनी
पहुँचतीहैउनतक 
उजागर
करतीहैउनकीसोच 
उस
छेदकेमापकी.
कुछअँधेरेकमरे 
नेगेटिव
कोउभारनहींपाते 
पौज़िटिव
में,
पर
दिखलादेतेहैं 
उनकी
एकसाफ़झलक.


अंकिता आनंद आतिशनाट्य समिति और पीपल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्सकी सदस्य हैं. इससे पहले उनका जुड़ाव सूचना के अधिकार के राष्ट्रीय अभियान, पेंगुइन बुक्स और समन्वय: भारतीय भाषा महोत्सवसे था. यत्र तत्र कविताएँ प्रकाशित हैं.

anandankita2@gmail.com

मंगलाचार : अखिल ईश की कविताएँ

$
0
0
courtesy : tumblr









चित्रकार-लेखक 'अखिलेश'और कथाकार–संपादक 'अखिलेश'से हम सब परिचित हैं. जब एक तीसरे 'अखिलेश'नें मुझे कविताएँ भेजी तो मैं संशयग्रस्त हो गया. कविताएँ पहली बार पढ़ रहा रहा था. कविताएँ मजबूत हैं. और लगता है कि तैयारी पहले से है.
मैंने अखिलेश को पहले तो 'अखिल ईश'किया. जो उन्हें पसंद भी आया. बाद में पता चला कि उनका सम्बन्ध सर्वेश्वरदयाल सक्सेना के परिवार से है.

स्वागत है अखिल ईश का और उनकी कविताएँ आपके लिए.



अखिल ईश की कविताएँ                            



कविता

एक वक्रोक्ति ने
टेढ़ी कर दी है सत्ता की जुबान
एक बिम्ब ने नंगा कर दिया है राजा को !

ढ़ोल नगाड़ो और चाक चौबंद
सैनिकों के आगे दर्प से चलते राजदंड़ को
एक हलन्त ने लंगड़ी मार कर
घूल घूसरित कर दिया है !

अलंकार उतार कर फेक दिये गये है
कसे गये है वीणा के तार
तांड़व की तैयारी में 
ये जो दूध की बारिश हुई है सड़कों पर
वो राग भैरवी के कारण है
मल्हार तो पसीना निकाल लेता है
और एक बूंद तक नहीं देता पानी की !

शिल्प ने राजनीति के चेहरे पर कालिख पोत दी है
सामंती आंखो में खून उतर आया है
उससे बहते विकास के परनाले
दरिद्रता का कीचड़ पैदा कर रहे है सड़कों पर
रपट कर गिर रहे है, छटपटा रहे है,
मुक्ति मुक्ति चिल्ला रहे है अन्नदाता
एक सूखे श़जर के नीच अन्नपूर्णा
पांच मीटर लंबा कपास बट रही है !

कई चौधरियों की हड्डियां गड़ रही है
चौराहों पर
खूंटा बनकर
लार टपकाते कूकूर भोज समझ कर
इकट्ठा हो रहे है .

एक रूपक ने रामराज्य के सदरियों को
धोबी कहा हैं
बहुत दिनों के बाद एक कविता
नक्कारखानें में तूती बन गई  है !




कायर

शेरवानी में दमकते सुपुत्र को पिता ने गले लगाया
सेहरा पहने बेटे की माँ ने ली बलैया
घुडचडी के पहले
मंत्रोच्चार के बीच पंडित जी ने
खानदानी तलवार
छोटे ठाकुर के कमर में बाँध दी

एक घर के सामने से गुजरी बारात
तो छत्रपति मिला नहीं पाये
छत पर खड़ी
एक लड़की से आंख

ठाकुर के बेटे को
आज फिर
एक चमार की बिटिया ने
कायर कहा .

वस्त्र :

मेरे गांधी बनने मेरे तमाम अडचने हैं
फिर भी चाहता हूँ कि तुम खादी बन जाओ
मैं तुम्हें तमाम उम्र कमर के नीचे
बाँध  कर रखना चाहता हूँ
और इस तरह कर लेता हूँ खुद को स्वतंत्र
घूमता हूँ सभ्यता का पहरूआ बनकर !

जबतक तुम बंधी हो
मैं उन्मुक्त हूँ
गर कभी आजाद हो
झंड़ा बन फहराने लगी
तो मै फिर नंगा हो जाऊँगा !

चरखे का चलना
समय का अतीत हो जाना है
अपनी बुनावट मे अतीत समेटे तुम
टूटे तंतुओ से जुड़ते जुड़ते थान बन जाती हो
सभ्यताओ पर चादर जैसी बिछती हो
और उसे बदल देती हो संस्कृति में
जैसे कोई जादूगर रूमाल से बदल देता है
पत्थर को फूल में !

इस खादी के झिर्री से देखो तो
तो एक बंदर, पुरुष में बदलता दिखता हैं
वस्त्र लेकर भागा है अरगनी से
बंदर के हाथ अदरक है
चखता है और थूक देता है .




गिल्लू गिलहरी :

जब झुरमुट तक नहीं होगा
और पानी वितरित होगा सिर्फ़
पहचान पत्र देखकर
बरगद,पीपल सब मृत घोषित कर दिये जायेगें
प्रकाश-संश्लेषण पर कालिख पोतते हुए
सागर सुखा दिया जायेगा
क्योंकि वो मृदुता से असहमत हैं
तो कविताओं में तुम
नीर भरी दुख की बदली
कहाँ से लाओगी महादेवी ?

जब जल विष बन जायेगा
और हर कंठ शंकर
अनुबंध पर ले लिए जायेगे सभी फेफडे
अमीर चिमनीयो के धुआं संशोधन हेतु
चींटियाँ  अचेत हो जायेंगी कतारों  में
चुटकी भर आटे के लिए
और तुम व्यस्त रहना
निबंधों में खूब अनाज बाँटना महादेवी !

अब मैं एक घूँट पानी नहीं पिऊँगी
न खाऊँगी एक भी काजू
जब तक तुम नदी,जंगल, जमीन
के लिए नीर नही बहाओगी !

फिक्रमंद गिल्लू गिलहरी ने
महादेवी से कहा !




घास

पाँवो तले रौदें जाने की आदत यूँ हैं
कि छूटती ही नहीं
किसी फार्म हाऊस के लान में भी उगा दिया जाँऊ
तो मन मचल ही जाता है
मालिक के जूती देख कर !

इस आदत के पार्श्व में एक पूरी यात्रा हैं
पूर्व एशिया से लेकर उत्तर यूरोप तक की
जिसे तय किया है मैने
कुछ चील कौवों के मदद से
मैं चील के चोंच से उतना नहीं डरता
जितना आदम के एक आहट से डरता हूँ
मैंने आजतक बिना दंराती लिये हुये आदमी नहीं देखा !

शेर भले रहते हो खोंहो में
पर बयां,मैना,कबूतर के घर मैंने बनाये हैं
मैंने ही पाला उन सबको
जिनके पास रीढ़ नहीं थी
मसलन सांप,बिच्छू और गोजर !

मैंने कभी नहीं चाहा
कि इतना ऊपर उठूं जितना ऊंचा है चीड़
या जड़े इतनी गहरी जमा लूं
ज्यो जमाता हैं शीशम
धरती को ताप से जितना मैंने बचाया हैं
उतना दावा देवदार के जंगल भी नहीं कर सकते
जिन्होंने छिका रखी हैं चौथाई दुनिया की जमीन !

मैं उन सब का भोजन हूँ
जिनकी गरदन लंबी नहीं हैं !

मैं उग सकता हूँ
साइबेरिया से लेकर अफ्रीका तक
मैं जितनी तेजी से फैल सकता हूँ
उससे कई गुना तेजी से
काटा और उखाड़ा जा रहा हूँ .

मैं सबसे पहला अंत हूँ
किसी भी शुरुआत का !

मैं कटने पर चीखता तक नहीं
जैसे पीपल,सागौन और दूसरे चीखते हैं
मेरे पास प्रतिरोध की वह भाषा नहीं हैं
जिसे आदमी समझता हो
जबकि उसे मालूम हैं कि मुझे बस
सूरज से हाथ मिलाने भर की देर हैं
ऐसा कोई जंगल नहीं
जो राख न कर सकूं !

मुझे काटा जा रहा है चीन में
मैं मिट रहा हूँ रूस में
रौंदा जा रहा हूँ
यूरोप से लेकर अफ्रीका तक
पर मेरे उगने के ताकत
और डटे रहने की जिजीविषा का अंदाजा नहीं है तुमको !

मैं मिलूंगा तुम्हें चांद पर
धब्बा बनकर
और हां
मंगल का रंग भी लाल हैं !
_______________

अखिलेश 
14•02•1980
गोरखपुर
केमिकल इंजीनियरिंग में स्नातक
सम्प्रति : मुख्य प्रबंधक
निवास :भरूच गुजरात
9687694020

मति का धीर : कुँवर नारायण : प्रचण्ड प्रवीर

$
0
0























“कुछ इस तरह भी पढ़ी जा सकती है
एक जीवन – दृष्टि
कि उसमें विनम्र अभिलाषाएं हों
बर्बर महत्वाकांक्षाएँ नहीं”

बीसवीं सदी के हिंदी के अग्र-गण्य कवि कुँवर नारायण (19-सितम्बर-1927 : 15–नवम्बर–2017) की अनुपस्थिति ने साहित्य और कला की दुनिया को मायूस कर दिया है. बर्बर महत्वाकांक्षाओं के इस दौर में ऐसी विनम्र अभिलाषा विरल है. उन्हीं के शब्दों में –
“तपश्चर्या नहीं
सम्पन्न दिनचर्या हो
जीवन की पूजा का अर्थ”

सम्पन्न दिनचर्या के कवि कुँवर नारायण को दिल से याद कर रहे हैं युवा लेखक – अध्येता प्रचण्ड प्रवीर.  




अंतिम वक्तव्य                     

प्रचण्ड प्रवीर



कुंवर जी नहीं रहे.

मृत्यु इस पृथ्वी पर
जीव का अंतिम वक्तव्य नहीं है
किसी अन्य मिथक में प्रवेश करती
स्मृतियों अनुमानों और प्रमाणों का
लेखागार हैं हमारे जीवाश्म.


एक लम्बा और समृद्ध जीवन जीने के उपरांत उन्होंने जो समाज को दिया है, वह अमूल्य है. निजी सम्बन्ध न होने से और कुछ अनभिज्ञता से मैं उनके समृद्ध जीवन का अनुमान करता हूँ, जो कि निश्चय ही आर्थिक अर्थ में न हो कर उनके वैचारिक और कवित्व प्रतिभा से है.

कुंवर जी पर लिखना और वह भी जल्दी में लिखना, मैं इसका अधिकारी नहीं हूँ. पहला कारण तो यह है कि समग्रता में मैंने उनका अध्ययन नहीं किया है. किंतु मैंने उनकी जितनी भी कविताएँ पढ़ी है, उसके कारण उनके प्रति मेरा सम्मान कहीं गहरा है. 


दूसरा कारण यह है कि मेरी कविता की समझ कुछ कम है. बहुधा कविताएँ मुझे आकर्षित नहीं करती और अनगिन कवियों और उनकी असंख्य छंद रहित कविताओं और उसके विमर्शो से बच कर चलना ही श्रेष्ठ मार्ग लगता है. इसके लिए मैं समकालीन कवियों व उनकी कृतियों को नहीं वरन खुद को अयोग्य मानता हूँ, क्योंकि महाकवि भवभूति ने ‘मालतीमाधव’ में स्पष्ट कहा है –

ये नाम केचिदिह न प्रथयन्त्यवज्ञांजानन्ति ते किमपि तान् प्रति नैष यत्नः।
उत्पत्स्यते तु मम कोऽपि समानधर्माकालो ह्मयं निरवधिः विपुला च पृथ्वी।।



जो मेरे कृति का नाम नहीं लेते या उसमें दोष देख कर अवज्ञा करते हैं, उन्हें जानना चाहिए कि यह प्रयत्न उनके लिए नहीं है. कोई मेरे जैसा समानधर्मा तो होगा (जो मुझे समझ सकेगा) क्योंकि पृथ्वी विपुल है और काल अंतहीन है.


बहरहाल कुंवर जी के बारे में कुछ आलोचकों का कहना है कि वह मध्यमवर्गीय जीवन का प्रतिनिधित्व करते थे, संभवतया इसलिए भी बहुत से पाठकों को वह सहजता से पसंद आते रहे. इस अर्थ में उनके प्रशंसक उनके समानधर्मा थे. 



सवाल यह उठता है कि हम अपने परिवेश को छोड़ कर कहाँ जाएँ? हमारी परिस्थितियाँ हमारी भावयत्री प्रतिभा को संपुष्ट करती है. फिर भी कुंवर जी की कविताओं के साथ तादात्म्य होना इस अर्थ में अनोखा है, क्योंकि वे आजादी के बाद के सभी कवियों में मुझे सबसे अधिक प्रभावित करते हैं. इसी नाते में मैं यह बड़ी जल्दी में लिख देना चाहता हूँ कि वह मुझे क्यों पसंद आते हैं. बरबस उनकी यह पंक्तियाँ ठिठका देती हैं - 



जल्दी में

प्रियजन

मैं बहुत जल्दी में लिख रहा हूं
क्योंकि मैं बहुत जल्दी में हूं लिखने की
जिसे आप भी अगर
समझने की उतनी ही बड़ी जल्दी में नहीं हैं
तो जल्दी समझ नहीं पायेंगे
कि मैं क्यों जल्दी में हूं.
जल्दी का जमाना है
सब जल्दी में हैं
कोई कहीं पहुंचने की जल्दी में
तो कोई कहीं लौटने की …
हर बड़ी जल्दी को
और बड़ी जल्दी में बदलने की
लाखों जल्दबाज मशीनों का
हम रोज आविष्कार कर रहे हैं
ताकि दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती हुई
हमारी जल्दियां हमें जल्दी से जल्दी
किसी ऐसी जगह पर पहुंचा दें
जहां हम हर घड़ी
जल्दी से जल्दी पहुंचने की जल्दी में हैं .
मगर….कहां ?
यह सवाल हमें चौंकाता है
यह अचानक सवाल इस जल्दी के जमाने में
हमें पुराने जमाने की याद दिलाता है.
किसी जल्दबाज आदमी की सोचिए
जब वह बहुत तेजी से चला जा रहा हो
-
एक व्यापार की तरह-
उसे बीच में ही रोक कर पूछिए,
            ‘
क्या होगा अगर तुम
           
रोक दिये गये इसी तरह
            
बीच ही में एक दिन
            
अचानक….?’
वह रुकना नहीं चाहेगा
इस अचानक बाधा पर उसकी झुंझलाहट
आपको चकित कर देगी.

उसे जब भी धैर्य से सोचने पर बाध्य किया जायेगा
वह अधैर्य से बड़बड़ायेगा.
अचानक’ को ‘जल्दी’ का दुश्मन मान
रोके जाने से घबड़ायेगा. यद्यपि
आपको आश्चर्य होगा
कि इस तरह रोके जाने के खिलाफ
उसके पास कोई तैयारी नहीं….


हमारे आरामतलब समाज में इस कविता का जो विपरीत अर्थ निकाला जा सकता है उसकी कल्पना की जा सकती है. उसमें जाने के बजाय हम इस विचार पर कर सकते हैं कि ‘गति’ की स्तुति ने हमें क्या दिया है? हम वस्तुत: क्या चाहते थे और क्या हासिल हुआ है? हासिल होना क्या हमारे प्रयत्न से सम्बन्धित है? यदि है तो उसमें जल्दी करने की कितनी भूमिका रही. आशा के विपरीत होने और न होने के बीच हम अपने स्वभाव में ‘जल्दी से’ कर देने के प्रभाव का कितना समावेश कर चुके हैं, तथापि उसके क्या नुकसान हैं.



यह कविता किसे अच्छी लगेगी? उसे शायद अच्छी न लगे जो पहले से ही व्यवस्थित हो. जो इस तरह की जल्दी में न हो. शायद उसे भी जिसे किसी और के जल्दी से होने वाले नुकसान से कोई सहानुभूति न हो. जिसे अपने स्वभावगत दोषों में चिंतन करना भी श्रेयस्कर न लगे. पर कविता इस तरह के विचार-विमर्श से कहीं पहले एक सदाशयता पूर्वक सम्बन्ध स्थापित कर लेती है. जो विचार-विमर्श हम दर्शन में कर सकते हैं, वह कविता में भी कर सकते हैं. दार्शनिक चर्चा शुष्क होती हैं और वहीं कविताओं में रस की आशा की जाती है.



कमरे में धूप
हवा और दरवाज़ों में बहस होती रही,
दीवारें सुनती रहीं.
धूप चुपचाप एक कुरसी पर बैठी
किरणों के ऊन का स्वेटर बुनती रही.
सहसा किसी बात पर बिगड़ कर
हवा ने दरवाज़े को तड़ से
एक थप्पड़ जड़ दिया !
खिड़कियाँ गरज उठीं,
अख़बार उठ कर खड़ा हो गया
,
किताबें मुँह बाये देखती रहीं
,
पानी से भरी सुराही फर्श पर टूट पड़ी
,
मेज़ के हाथ से क़लम छूट पड़ी.
धूप उठी और बिना कुछ कहे
कमरे से बाहर चली गई.
शाम को लौटी तो देखा
एक कुहराम के बाद घर में ख़ामोशी थी.
अँगड़ाई लेकर पलँग पर पड़ गई
,
पड़े-पड़े कुछ सोचती रही
,
सोचते-सोचते न जाने कब सो गई
,
आँख खुली तो देखा सुबह हो गई.

हमारे काव्यशास्त्रों में कविता का एक लक्ष्य ‘कान्तासम्मित उपदेश’माना जाता है. वह बात जिसे आपकी प्रियतमा आपको समझाए और आप बुरा न माने. (तीन प्रकार के उपदेश इस तरह से हैं – ‘प्रभुसम्मित’,‘सुहृत् सम्मित’ और ‘कान्तासम्मित’ हैं.) उपरोक्त कविता बिना कुछ कहे एक जीवंत दृश्य चित्रित करती है. कमरे की धूप का मानवीकरण क्यों प्रिय है, यह कहना कठिन है. क्या इसलिए कि हम सबने अपने घरों में ऐसा कुहराम और उसके बाद की ख़ामोशी देखी या फिर इसलिए कि कमरे की धूप के लिए चाहे-अनचाहे हम तरसते रहे?

हम कवि को या सिनेमा को या चित्रकार को एकांगी हो कर कभी नहीं देखते. देख भी नहीं पाते. परिचय की गांठ लगने पर, धीरे-धीरे हमारा मूल्यांकन बदलने लगता है. कभी वह प्रिय न रह कर अप्रिय हो जाते हैं, कभी हमारे आत्मीय बन जाते हैं. इन अर्थों में कुंवर जी हमारे दयालु पितामह की तरह लगते हैं. उनकी नसीहतें भी बुरी नहीं लगती, क्योंकि उन्होंने हमें शायद टॉफियाँ ही खिलायीं, मिठाइयाँ ही दीं और हमेशा सर्वप्रशंसित ‘अजातशत्रु’ बने रहे.


बात सीधी थी पर
बात सीधी थी पर एक बार
भाषा के चक्कर में
ज़रा टेढ़ी फँस गई .
उसे पाने की कोशिश में
भाषा को उलटा पलटा
तोड़ा मरोड़ा
घुमाया फिराया
कि बात या तो बने
या फिर भाषा से बाहर आये-
लेकिन इससे भाषा के साथ साथ
बात और भी पेचीदा होती चली गई .
सारी मुश्किल को धैर्य से समझे बिना
मैं पेंच को खोलने के बजाय
उसे बेतरह कसता चला जा रहा था
क्यों कि इस करतब पर मुझे
साफ़ सुनायी दे रही थी
तमाशाबीनों की शाबाशी और वाह वाह .
आख़िरकार वही हुआ जिसका मुझे डर था –
ज़ोर ज़बरदस्ती से
बात की चूड़ी मर गई
और वह भाषा में बेकार घूमने लगी .
हार कर मैंने उसे कील की तरह
उसी जगह ठोंक दिया .
ऊपर से ठीकठाक
पर अन्दर से
न तो उसमें कसाव था
न ताक़त .
बात ने, जो एक शरारती बच्चे की तरह
मुझसे खेल रही थी
,
मुझे पसीना पोंछती देख कर पूछा –
क्या तुमने भाषा को
सहूलियत से बरतना कभी नहीं सीखा
?”


यह विचारणीय है कि हममें कितनी हिंसा भरी है. किसी के खिलाफ बुरा सोचना, बुरा बोलना, बुरा चाहना – हम इनसे अछूते नहीं है. सोशल मीडिया इसका ज्वलंत प्रमाण हैं. किन्तु इस हिंसा का उद्गम क्या है? मैं दावा करता हूँ इसका उद्गम हमारी शिक्षा व्यवस्था में कूट-कूट कर भरा है. विद्यालयों में और परीक्षाओं में हम ऐसे ही प्रश्न पूछते हैं और ऐसे ही पेश आते हैं कि परीक्षार्थी सर्वज्ञ हैं. हालांकि भले ही ध्येय उनको सुशिक्षित करना हो, परंतु छात्रों में अपराधबोध भर देना ही शिक्षण प्रणाली का पहला पहचानने योग्य अवगुण है. इसी अपराधबोध से भय, फिर उसके बदले प्रतिहिंसा उत्पन्न होती है. वहीं मन, वचन और कर्म में दिखेंगी. यही कारण है कि हम विमर्शों में कील ठोकते रहे हैं और उसमें न कोई कसाव होता है न ताक़त.

इतना कुछ था दुनिया में

लड़ने झगड़ने को
पर ऐसा मन मिला
कि ज़रा-से प्यार में डूबा रहा
और जीवन बीत गया

कभी-कभी कोई कविता गहरे चोट करती है. संगीत और कला से तृप्ति तो बहुत स्वीकृत है. रागी मन जो ज़रा से प्यार में डूबने को तैयार रहे और जीवन के बीतने पर तृप्त रहे, जो लड़ने-झगड़ने की व्यर्थता बतलाए, मुझे लगता है कि कुंवर जी की कविताओं पर विष्णु खरे जी की समीक्षा - ब्रह्मांड और धरती के अनन्‍त वैविध्‍य को लेकर कुछ अहसास कुंवर नारायण में दिखाई पड़ता है, लेकिन वह रोमांचक, औत्‍सुक्‍यपूर्ण, चिंतनशील(स्‍पेकुलेटिव) या अपनी प्रतिबद्धता में ठोस कम, ‘हिंदू’ आध्‍यात्मिक अधिक लगता है. – को  एक नये संदर्भ में देखने की आवश्यकता है. जहाँ तक मेरी समझ है, विष्णु जी कुंवर नारायण को इन्हीं अर्थों में आध्यात्मिक कह रहे हैं.

शैव दर्शन के तत्त्व चिंतन में ‘राग’, ‘कला’, ‘काल’, ‘नियति’ और ‘विद्या’ माया के कुंचक शक्तियाँ मानी जाती हैं. मेरे हिसाब से ‘अनालिटिक फिलॉसफी’ या ‘कन्टिनेन्टल फिलॉसफी’ में इनकी कोई जगह नहीं है. न तो वह नियति मानते हैं, न ही राग या विद्या की हिन्दू अर्थों में देखते हैं. जिन्हें ‘हिन्दू’ शब्द से धर्मनिरपेक्षता का ख़तरा है, वे ग़ैर अब्राहमिक और ग़ैर वस्तुवादी शब्दयुग्मों का प्रयोग कर सकते हैं.

जैसा कि मैंने ऊपर इशारा किया है कि कविता के विचार विमर्श का कोई स्वतंत्र विधान बनाने से रसास्वादन पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा, किन्तु सत्य की खोज में काव्य के विचार दर्शन के चिंताओं से बाहर नहीं हैं. बिना दार्शनिक संगति के कोई कवि श्रेष्ठ नहीं हो सकता. मैं यह कहना चाहूँगा कि यदि बिना ऐसी संगति के वह कवि होने का दावा करता है तो वह झूठा है या दोयम दर्जे का है. दार्शनिक अवधारणा और संगतियाँ जीवन पर्यन्त बनती हैं और सँवरती हैं. कालिदास की श्रेष्ठता उनकी राजनीति, व्याकरण, दर्शन आदि पर होने के साथ है. वहीं भारवि ‘किरातार्जुनीयम्’में व्याकरण और छंद ले कर रचना पर हावी हो जाते हैं. भारवि की प्रतिभा राजनीति और वीर-रस के चित्रण में मुखर होती है, वहीं कालिदास जीवन के हर आयामों पर दृष्टि रखते हैं. यही कारण है कि अनुवाद के उपरांत भी वह छुपा हुआ सत्य हमें प्रेरित करता है. वह सत्य जो कई आयामों में है.

कुंवर जी ‘कठोपनिषद’ के संदर्भ में ‘वाजश्रवा के बहाने’ में लिखते हैं

पिता से गले मिलते

आश्वस्त होता नचिकेता कि
उनका संसार अभी जीवित है.

उसे अच्छे लगते वे घर
जिनमें एक आंगन हो
वे दीवारें अच्छी लगतीं
जिन पर गुदे हों
किसी बच्चे की तुतलाते हस्ताक्षर,
यह अनुभूति अच्छी लगती
कि मां केवल एक शब्द नहीं,
एक सम्पूर्ण भाषा है,

अच्छा लगता
बार-बार कहीं दूर से लौटना
अपनों के पास,

उसकी इच्छा होती
कि यात्राओं के लिए
असंख्य जगहें और अनन्त समय हो
और लौटने के लिए
हर समय हर जगह अपना एक घर


वह सत्य है – आत्मविश्रांति. चित्त चंचल होने के बाद कहीं से भी वापस लौट कर विश्राम करना चाहता है. वह विश्राम भी अपने आप में – वह अपना कहाँ है – अपने घर में – माँ-पिता के पास. वे घर जिनमें एक आंगन हो, वे दीवारें जिनमें बच्चों के हस्ताक्षर हो. मैं कठोपनिषद का संदर्भ याद दिलाना चाहूँगा कि नचिकेता को यह सब तब अच्छा लग रहा है जब वह यमराज के पास से वापस लौट कर आता है.

यमराज यानी मृत्यु!

दुनिया की चिन्ता
छोटी सी दुनिया
बड़े-बड़े इलाके
हर इलाके के
बड़े-बड़े लड़ाके
हर लड़ाके की
बड़ी-बड़ी बन्दूकें
हर बन्दूक के बड़े-बड़े धड़ाके
सबको दुनिया की चिन्ता
सबसे दुनिया को चिन्ता .


छोटे में बड़े का समाना कैसे होता है? देखो तो यह धरती कितनी विशाल नजर आती है. कभी-कभी यात्राओं में अनुभव होता है कि यह दुनिया कितनी छोटी है. हमारा जीवन कितना छोटा है. मीर तक़ी मीर के शब्दों में - हस्ती अपनी हबाब की सी है, ये सारी नुमाइश सराब की सी है.  फिर भी हम कितनी गम्भीरता से चीजों को लेते हैं कि बन्दूकें थाम लेते हैं. जैसे ही हमने ही इस धरती के इतिहास, भूगोल और भविष्य का ठेका ले रखा है. जैसे हम सच में बहुत कुछ बन्दूक के दम पर बदल लेंगे.शायद इसलिए क्रांतिकारी विचारधारा के लिए कुंवर जी की प्रतिबद्धता कम ठोस और अधिक आध्यात्मिक लगती है.

बौद्धों की दृष्टि से देखें तो सारा इतिहास केवल अनुमान है. सारा जीवन क्षणिक है. लेकिन हमारी चिन्ताएँ वास्तविक है. किन अर्थों में? हमारी स्वयं की मूर्खता और समुदाय का सर्वनाश के आसन्न खतरों से.


दुनिया के घटनाक्रम की चिन्ता से पहले अपने और अपने घर की चिन्ता कर लें. अधिकांश क्रांतिकारी निजी जीवन में क्रूर और पाखण्डी होते हैं. उनके पारिवारिक जीवन जटिल और निंदनीय आचरणों की गाथा होते हैं. वे भूल जाते हैं कि मनुष्य होने की पहले शर्त प्रेम है. जब प्रेम हमें शब्दों में, लय में, गीत में, रूप में, रंग में, काम में अर्थों में मिलता है तो हम आसानी से पहचानते हैं. यह विडम्बना है कि यही प्रेम जब चिन्ता में, खयाल रखने में उभर कर आता है तो हमें बंधन लगता है. हम उसे अनावश्यक समझ कर दूर भागते हैं. यही न पहचानना, हमारे समाज की दिशा-दशा तय करता है.


क्या फिर वही होगा

जिसका हमें डर है ?
क्या वह नहीं होगा
जिसकी हमें आशा थी?

क्या हम उसी तरह बिकते रहेंगे
बाजारों में
अपनी मूर्खताओं के गुलाम?

क्या वे खरीद ले जायेंगे
हमारे बच्चों को दूर देशों में
अपना भविष्य बनवाने के लिए ?

क्या वे फिर हमसे उसी तरह
लूट ले जायेंगे हमारा सोना
हमें दिखाकर कांच के चमकते टुकडे?

और हम क्या इसी तरह
पीढी-दर-पीढी
उन्हें गर्व से दिखाते रहेंगे
अपनी प्राचीनताओं के खण्डहर
अपने मंदिर मस्जिद गुरुद्वारे?


क्या वजह होती है कि अपना देश और अपनी भाषा, अपने पर्व-त्योहार और अपनी पकवान छोड़ कर दूर देशों में हमेशा के लिये बस जाते हैं? ग़ुलामी के बाद भीषण दरिद्रता से निकल आया भारतीय समाज मानसिक रूप से अभी भी भीषण दरिद्र ही है. वरना क्या कारण है कि आइ.आइ.टी. से पढ़े तथाकथित होनहार लड़कों को टेक्नोलॉजी के बजाय आइ.आइ.एम. के बाजारू कोर्स कर के साबुन-तेल बेचने में ज्यादा रुचि है? क्या कारण है कि हम में से कई मौका मिलते ही अमरीका में बस जाने को लालायित हैं? क्या कारण है कि हमारे प्राचीनताओं के तो खण्डहर भी हैं, आधुनिकता के नाम पर हम फिसड्डी हैं. भारत में बीसवीं सदी में बना कोई स्थापत्य, कोई मूर्ति, कोई विश्वविद्यालय, वैश्विक स्तर पर कुछ भी नहीं है. और क्यों होगा, जब हमने व्यवस्था ही दोयम दर्जे की स्थापित की है.

मेरे हिसाब से इन सब का कारण आत्महीनता का दंश और स्वाभिमान की कमी है.


अजीब वक्त है

अजीब वक्त है -

बिना लड़े ही एक देश- का देश
स्वीकार करता चला जाता
अपनी ही तुच्छताओं के अधीनता !

कुछ तो फर्क बचता
धर्मयुद्ध और कीट युद्ध में -
कोई तो हार जीत के नियमों में
स्वाभिमान के अर्थ को फिर से ईजाद करता.


इसी संदर्भ में भारवि के ‘किरातार्जुनीयम्’ के दो श्लोक को उद्धृत करना श्रेयस्कर है :-

ज्वलितं न हिरण्यरेतसं चयमास्कन्दति भस्मनां जन:।
अभिभूतिभयादसूनत: सुखमुञ्झन्ति न धाम मानिन: ।। २.२०।।




सम्मान सभी प्रकार से रक्षणीय है. इसकी रक्षा सर्वोपरि है. इसकी रक्षा हेतु स्वाभिमानी पुरुष सुखपूर्वक अपने प्राणों का भी परित्याग कर देते हैं पर तिरस्कारयुक्त जीवन नहीं जीते. जलती अग्नि पर कोई पैर रखने का साहस नहीं करता, वहीं उष्णा रहित भस्म को सभी पाँव से कुचल देते हैं. इसी तरह तेजस्वी व्यक्तियों को कोई भी अभिभूत करने की कामना नहीं करता.

किमपेक्ष्य फलं पयोधरान् ध्वनत: प्रार्थयेत मृगाधिप:।
प्रकृति: खलु सा महीयस: सहे नान्यसमुन्नतिं यथा ।।२.२१।।



स्वाभिमानी पुरुष दूसरों की समुन्नति को भी नहीं सहन करते. यथा जलद का गर्जन सिंह के लिए असह्य होता है और प्रतिक्रिया के रूप में स्वयं गर्जन करके वह अपने तेज को प्रकट करता है.


इसी निर्लज्ज समय में कुंवर जी की अंतिम यात्रा में कम भीड़ की अशोभनीय अफवाह उड़ायी गयी. उसी समय कुछ हिन्दी लेखक-पाठक चिल्ला रहे थे कि हिन्दी का अंतिम कवि चला गया. कविता ख़त्म हो गयी. मैं समझता हूँ कि कुंवर जी उन नासमझ रुदालियों को इन्हीं पंक्तियों से समझाते –


एक बार ख़बर उड़ी
कि कविता अब कविता नहीं रही
और यूँ फैली
कि कविता अब नहीं रही !

यक़ीन करनेवालों ने यक़ीन कर लिया
कि कविता मर गई,
लेकिन शक़ करने वालों ने शक़ किया
कि ऐसा हो ही नहीं सकता
और इस तरह बच गई कविता की जान

ऐसा पहली बार नहीं हुआ
कि यक़ीनों की जल्दबाज़ी से
महज़ एक शक़ ने बचा लिया हो
किसी बेगुनाह को.



स्वाध्यायी के लिये यह काम शेष बच जाता है कि कुंवर जी की रचनाओं का सम्यक अध्ययन करे. उनमें वह सत्य ढूँढे जो मानव को मानवीय और करुणामय बनाते हैं. जो जीवन के वृहद अर्थों में आनन्द और कर्तव्य को अंतर्दृष्टि के अर्थों में समाहित करते हैं. जो सुबह की पहली कोमल किरण की तरह हमारे पितामह के दुलार की याद दिलाते हैं.

सज्जन कवि कुंवर जी को असंख्य पाठकों की ओर से अश्रुपूरित श्रद्धांजलि.

__________
 
प्रचण्ड प्रवीर बिहार के मुंगेर जिले में ​​जन्मे और पले बढ़े हैं . इन्होंने सन् २००५ में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान दिल्ली से रासायनिक अभियांत्रिकी में प्रौद्योगिकी स्नातक की उपाधि ग्रहण की . सन् २०१० में प्रकाशित इनके पहले उपन्यास अल्पाहारी गृहत्यागी: आई आई टी से पहले ने कई युवा हिन्दी लेखकों को प्रेरित किया . सिनेमा अध्ययन और ​हिन्दी के वरिष्ठ आलोचकों ने सन् २०१६ में प्रकाशित इनकी कथेतर पुस्तकअभिनव सिनेमा: रस सिद्धांत के आलोक में विश्व सिनेमा का परिचय कीनई अध्ययन-दिशा देने के लिए प्रशंसा की . सन् २०१६ में ही इनका पहला कथा संग्रह जाना नहीं दिल से दूर प्रकाशित हुआजिसे हिन्दी कहानी-कला में एक नये चरण को प्रारम्भ करने का श्रेय दिया जाता है . इनका पहला अंग्रेजी कहानी संग्रह भूतनाथ मीट्स भैरवी सन् २०१७ में प्रकाशित हुआ .
prachand@gmail.com

अजेय की कुछ नई कविताएँ

$
0
0


















अजेय की कविताओं की उत्सुकता से प्रतीक्षा रहती है. वह जीवन की आपा-धापी  और विकास की विकृतियों  के बीच अंतिम आदमी के धूप- छाँव के कवि हैं. वह आदमी किसी दौड़ में शामिल नहीं है.  वह झेंपता हुआ, हकलाता हुआ, खिसियाता हुआ किसी संकटग्रस्त प्रजाति की तरह अस्तित्वगत गरिमा की तलाश में है.  वहाँ गर उम्मीद है तो प्रकृति से है.


अजेय की कुछ नई कविताएँ.



अजेय  की कविताएँ                    




आखिरी कविता

जिस दिन मैंने लिखा
‘प्रेम’ 
लोग मुझे घेर कर खड़े हो गए
मैं  खतरनाक आदमी बन गया था.

(17.01.2016)



मैं भी कविता लिक्खूँगा

सोचा मैं भी एक कविता लिक्खूँ
पर मैं इशारों में
डरते हुए
शरमाते  और हकलाते हुए नहीं लिख सका
फिर तय किया कि चलो
एक स्यूसाईड नोट ही लिख  लेता  हूँ.

(मई 2017)



कृत्कृत्य

ईश्वर ,
शुक्रिया
तुमने मुझे
प्रसन्न  किया.

(मई 1, 2013)



धूप

धूप आ गई है
उसे बैठाया  जाए टेरेस पर
वहाँ पत्तियाँ झूल रही देवदार की
हवा की ठंडक में
उसे चाय के लिए पूछा जाए
आज उस ने  अच्छी सुबह खिलाई  है.


(कसौली 18.01.2015)



ऊब

कभी कुछ बिखरा हुआ भी रहने दिया जाए
जीवन को 
मसलन
चप्पलों में से एक को छोड़ दिया जाए
औंधा
या साबुन के टुकड़े  को
बाथरूम के फर्श पर पड़ा हुआ
और नल को 
टपकता हुआ
दिन भर  ....

क्या है कि 
अनुशासन से
हम जल्दी ही  ऊब जाते हैं.

(चम्बाघाट 09.02.2015)





अनुभव 

मैं मौसम हूँ
महसूसो
अनुमान मत लगाओ.
(मई 3, 2013)






काई

पत्थर ने कहा
ले लो मुझ से
यह छोटा सा हरा
और जब भर जाएं जेबें
और मुट्ठियाँ
इसे बाँटना
आगे से आगे.
(20 मई 2013)




कविता

काँपती  रहती हूँ
झेंपती 
खिसियाती रहती हूँ ...
..........
पहुँच पाती हूँ कभी कभी ही
अपने कवि के पास.
(अगस्त 30 2013)



तापना

तुम एक अच्छी आग हो
तुम्हें तापना है रात भर
चोरों की तरह

भले ही सुबह हो जाए
और मैं पकड़ा जाऊँ !

(सोलन 24.07.2015)



उथली झील के लिए

उतार लिया जाए
बोझ
गुस्सा
और नशा
तितली बना जाए
कुछ पल को
उड़ा  जाए तुम्हारी चमकती सतह  के आस पास
तैर लिया जाए तुम में
मछली बना जाए
देख ली जाए तेरी तासीर
ओ उथली झील !

पता लगाया जाए
क्या तुम गहराई से ऊब कर ऐसी हुई हो ?




चौथी जमात में

सुन लड़की
चौथी जमात में
मेरे बस्ते से
पाँच खूबसूरत कंकरों के साथ
एक गुलाबी रिबन
और दो भूरी आँखें गुम हो गईं थीं
कहीं गलती से तेरी जेब में तो नहीं आ गईं थीं  ?
(17.08.2015)

_______________________
अजेय
१८ मार्च १९६५ (सुमनम, लाहुल-स्पिति, हिमाचल प्रदेश)

पहल, तद्भव ,ज्ञानोदय, वसुधा, अकार, कथन, अन्यथा, उन्नयन, कृतिओर, सर्वनाम, सूत्र , आकण्ठ, उद्भावना ,पब्लिक अजेण्डा , जनसत्ता, प्रभातखबर, आदि पत्र - पत्रिकाओं मे रचनाएं प्रकाशित. कई भाषाओँ में कविताओं का अनुवाद. 
कविता संग्रह - इन सपनों को कौन गायेगा (दखल प्रकाशन)


ई पता : ajeyklg@gmail.com

सबद - भेद : साहित्य और राजसत्ता : बजरंग बिहारी तिवारी

$
0
0










आलोचना की २१ वीं सदी की जो पहचान हिंदी में निर्मित हुई है, उसमें शामिल युवा आलोचकों में बजरंग बिहारी तिवारी का नाम प्रमुखता से उभर कर सामने आया है. भक्ति साहित्य के वह गंभीर अध्येता तो हैं हीं भारतीय भाषाओँ में दलित साहित्य की जिस तरह से उन्होंने पड़ताल की है वह भी स्थायी महत्व का है.

‘संत’ और ‘सीकरी’ के रिश्ते बहुत पुराने हैं. कवियों ने तरह-तरह से शासन की सत्ता को अनुशासित किया है. बजरंग बिहारी तिवारी का यह लेख इसी आधारभूमि पर है.





साहित्य का स्व-भाव और राजसत्ता               

बजरंग बिहारी तिवारी



भारतीय मानस धर्मप्राण है इसलिए भारतीय साहित्य अपने स्वभाव में अध्यात्मवादी, रहस्यवादी है; यह धारणा औपनिवेशिक दौर में बनी. राजनीति में साहित्य की दिलचस्पी आधुनिक काल में शुरू होती है; इस बेबुनियाद मान्यता की निर्मिति भी अंगरेजी शासन की देन है. वास्तविकता यह है कि भारतीय साहित्यकारों ने प्राचीनकाल से ही राजसत्ता में गहरी रूचि ली और और उसे अपनी सर्जना का विषय बनाया.

मुद्राराक्षसजैसा शुद्ध राजनीतिक नाटक साहित्य में मजबूत राजनीतिक विचार-परंपरा के बगैर नहीं लिखा जा सकता था. विशाखदत्त रचित पांचवीं शताब्दी के इस नाटक में न कोई योद्धा नायक है और न ही श्रृंगार भाव पैदा करने वाली नायिका. है तो गंभीर राजनय. जिन साहित्य-रसिकों और आलोचकों को लगता है कि साहित्य विवेचन में राजनीति, अर्थनीति आदि विषयों से जुड़े मुद्दों को लाकर साहित्य की स्वायत्तता बिगाड़ दी जाती है और उसे अन्य ज्ञानानुशासनों का उपनिवेश बना दिया जाता है उन्हें नवीं शताब्दी के राजशेखर को पढ़ना चाहिए. ‘काव्यमीमांसामें राजशेखर ने लिखा है कि परंपरया चार मुख्य विद्याएँ हैं- त्रयी, वार्ता, आन्वीक्षकी और दण्डनीति.इन्हें क्रमशः धार्मिक वांगमय, कृषि एवं वाणिज्य, तर्कशास्त्र तथा राजनीतिशास्त्र कह सकते हैं. साहित्य पांचवीं विद्या है और वह शेष सभी विद्याओं का निस्यंद’ –टिकने का स्थान है. नाटककार तथा काव्यशास्त्री होने के साथ राजशेखर खुद भूगोलवेत्ता थे और उन्होंने इस विषय पर भुवनकोशनामक ग्रंथ भी लिखा था.  वे कन्नौज के राजा महेन्द्रपाल के गुरु थे.

प्राचीनकाल से कवियों का एक ठिकाना राजसभा भी रही है. राजसभा में जाने का अर्थ यह नहीं था कि कवि राजा का चरित लिखेगा, उसकी प्रशस्ति करेगा और उसके अपकर्मों का औचित्य जुटाएगा. जो ऐसा करते थे उनके लिए एक भिन्न कोटि बनाई गई. इन्हें चारण, भाट, विरुदावलीगायक, चाटुकारआदि कहा गया.  भाटों का लिखा हुआ उत्तम कोटि के साहित्य में कभी नहीं गिना गया.  काव्य विवेचन के प्रसंग में काव्यशास्त्रियों ने विरुदगायकों की रचनाओं को उद्धृत करने से परहेज किया.  इस मत पर भी पुराने कवियों में आम सहमति-सी रही कि वे आश्रयदाता राजाओं पर नहीं लिखेंगे.  

सातवीं शताब्दी के गद्यकार बाणभट्टने हर्षचरितलिखकर यह लकीर तोड़ी. लेकिन, उल्लेखनीय यह है कि बाण ने इस किताब के शुरू के तीन अध्यायों में आत्मचरित लिखा. समूची किताब में उन्होंने कहीं भी कवि को राजा से कमतर नहीं रखा. सम्राट हर्ष से पहली ही मुलाकात में उन्होंने उन्हें जिस तरह कड़ा प्रत्युत्तर दिया वह भारतीय साहित्य के इतिहास का बड़ा गर्वोन्नत प्रसंग है.  इस मुलाक़ात में हर्ष ने बाण पर यह प्रतिकूल टिप्पणी की- महानयो भुजंग:’ –यह बड़ा भारी भुजंग (लंपट/गुंडा) है.  बाण ने तत्काल प्रश्नवाचक उत्तर दिया- का मे भुजंगता’? –मुझमें कौन-सा भुजंगपना है?

कादम्बरीमें बाण ने लिखा कि राजदरबार और वेश्यालय इस अर्थ में समान होते हैं कि वहाँ लोगों के चेहरे देखकर उनके बारे में कुछ भी अनुमान नहीं किया जा सकता. ‘शुकनासोपदेशमें राजमद की जैसी मीमांसा की गई है वह चकित कर देने वाली है. यह प्रसंग समूचे वांगमय में असाधारण महत्त्व का है. कवि और राजा की बराबरी के संबंध में बाण के परवर्ती राजशेखर का कहना था कि जितनी जरूरत कवि को राजा की होती है उतनी ही जरूरत राजा को कवि की. दोनों अन्योन्याश्रित होते हैं- ख्याता नराधिपतयः कविसंश्रयेण राजाश्रयेण च गताः कवयः प्रसिद्धिं.’काव्यादर्शकार दंडी तो राजा की गरज को पहले रखते हैं! यशाकांक्षी राजा कवि का मुखापेक्षी होता है- आदिराजयशोबिम्बमादर्शं प्राप्य वाङ्मयम्. तेषामसंनिधानेऽपि न स्वयं पश्य नश्यति.’

राजसत्ता और राजा से निकटता लेखनी को प्रभावित न करे, कविगण इस संदर्भ में बहुत सजग रहे हैं. कर्तव्यविरत और राजमद में डूबे नरेशों को फटकारने में भी वे नहीं चूके हैं. चंदबरदाई ने पृथ्वीराज से कहा था- गोरी रत्तउ तुव धरा, तूं गोरी अनुरत्त.’- मोहम्मद गोरी तुम्हारी धरती पर नज़र गड़ाए हुए है और तू अपनी गोरी (संयोगिता) में अनुरक्त है!नरपति नाल्ह ने राजा बीसलदेव के बड़बोलेपन, अस्थिरचित्त को बखूबी उभारा. नवबधू राजमहिषी राजमती के जरिए कवि ने राजमहल में व्याप्त घुटन को वाणी दी

जनता के पक्ष में खड़े होकर राजसत्ता की जैसी परख तुलसीदास ने की है वैसी शायद ही किसी दूसरे कवि ने की हो. वे देवेन्द्र और नरेन्द्र दोनों को एक ही कोटि में रखते हैं और बिना लाग-लपेट के उनकी जनविरोधी प्रकृति का खुलासा करते हैं. खल वंदना के प्रसंग में इन्द्र के बारे में उन्होंने लिखा- बहुरि सक्र सम बिनवहुं तेहीं. संतत सुरानीक हित जेहीं.’लोग हमेशा नशे में रहें या युद्ध का माहौल बना रहे- इन्द्र का हित इसी से सधता है.  

इन्द्र को बेशर्म बताते हुए उन्होंने एक जगह कहा कि उसकी दशा उस कुत्ते की भांति है जो मृगराज को अपनी तरफ आते देख इस आशंका से सूखी हड्डी लेकर भागता है कि कहीं वह छीन न ले जाए. अन्यत्र उन्होंने कहा कि ऊंचे रहने वालों की करतूत उतनी ही नीची होती है. वे दूसरों को सुखी नहीं देख सकते. चित्रकूट प्रकरण में इन्द्र को कपट और कुचाल का सीमांत बताते उन्होंने कहा कि वह इतना मलिन मति है कि मरणासन्न लोगों को मारकर मंगलकामना करता है- मघवा महा मलीन, मुए मारि मंगल चहत.’रामकथा कह चुकने के बाद तुलसी ने कहा कि रावण जब था, तब था. आज का रावण तो मंहगाई और दरिद्रता है. रामवत वही है दरिद्रता के खिलाफ खड़ा हो. राम ने ऐसा ही किया था- उन्होंने मणि-माणिक्य अर्थात विलासिता की चीजें मंहगी कर दी थीं और पशुओं का चारा, पानी तथा अनाज सस्ता कर दिया था- मनि मानिक मंहगे किये संहगे तृन जल नाज.’

 स्वघोषित रामभक्तों के बारे में तुलसी विशेष रूप से सावधान करते हैं- बंचक भगत कहाय राम के. किंकर कंचन कोह काम के.’ –(खुद को) रामभक्त कहने वाले ठग हैं. वे (असल में) दौलत, हिंसा और कामवासना के दास हैं. जब राजा धनाड्यों के पक्ष में काम करता है तब जनता दुखी होती है. जिस राज्य की जनता दुखी है वहाँ का राजा राजपद लायक नहीं रह जाता. ऐसा राजा नरक भेजे जाने के योग्य होता है- जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी. सो नृप अवसि नरक अधिकारी.’अब, राजा अपने आप तो नरक जाना नहीं चाहेगा. यह जिम्मेदारी दुखी लोगों की है कि वे ऐसे राजा को नरक का रास्ता दिखाएं. क्या तुलसी विप्लव का संकेत कर रहे हैं? शायद हाँ, क्योंकि उनके पूर्ववर्ती ऐसी राह बना चुके थे.

डेढ़ हज़ार साल पहले तमिल महाकाव्य सिलप्पदिकारमआया. इसके रचनाकार इलंगो अडिहलस्वयं राजघराने के थे, वीतरागी राजकुमार. महाकाव्य की कहानी चेर, चोल और पांड्य राज्यों को समेटती है. चोलवासी दम्पत्ति कोवलन और कण्णही आजीविका की तलाश में पांड्य राजधानी मदुरै गए. वहाँ कोवलन पत्नी कण्णही का पायल बेचने शाही स्वर्णकार की दुकान पहुँचा. परदेसी देखकर सुनार ने कोवलन पर रानी का पायल चुराने का आरोप लगाया और उसे सिपाहियों को सौंप दिया. आनन-फानन में सिपाहियों ने कोवलन को सूली पर लटका दिया. अन्यायी राज्य में राजा से न्याय माँगने कण्णही राजमहल गई. उसके संताप ने राजा-रानी दोनों की जान ले ली. मदुरै में आग लग गई. अन्याय की कीमत इस तरह चुकता हुई.

करीब दो हज़ार वर्ष पूर्व लिखित संस्कृत नाटक मृच्छकटिकभी प्रजापीड़क राजा की परिणति प्रस्तुत करता है. उज्जयिनी का राजा पालक अपने नाम के ठीक उल्टा है. शासन में राजा के साले स्थानक या शकार का बोलबाला है. शकार घोर मूर्ख है मगर अपने पांडित्यका प्रदर्शन करता रहता है.  दुर्योधन को कुन्तीपुत्र बताने वाला शकार खुद को राष्ट्रीय सालाकहता है क्योंकि राष्ट्र तो उसके जीजाजी का है! राज्य की न्याय-व्यवस्था ऐसी जैसे वह हिंसा का समुद्र हो- नीतिक्षुण्णतटं च राजकरणं हिंस्रैः समुद्रायते.’न्यायउस राजकरण (कचहरी) से मिलता है जिसका रिश्ता नीति (नियम-कानून) से टूट गया है.

अपने प्रेम-प्रस्ताव को अस्वीकारने वाली वसंतसेना की हत्या खुद शकार करता है और आरोप चारुदत्त पर लगा देता है. न्यायाधीश यथार्थ जानते हैं मगर राजा का कोपभाजन नहीं बनना चाहते. चारुदत्त को फाँसी की सजा सुना दी जाती है. इधर त्रस्त प्रजा के बीच से क्षुब्द्ध हुंकार उठती है. नेतृत्व गोप-कुल का एक युवा आर्यक संभालता है. आर्यक को इसलिए कैद कर लिया गया था कि वह निर्भय होकर उज्जयिनी में रहता है. निडर और प्रसन्नचित्त व्यक्तियों से दमनकारी राजसत्ता हमेशा डरती रही है. दर्दुरक, शर्विलकजैसे हिम्मती युवक आर्यक के सहायक हैं. राज्य में क्रांति होती है. यज्ञमंडप में राजा ठीक उस वक्त मारा जाता है जब चारुदत्त को फाँसी देने चौराहे पर ले जाया जा रहा है. नाटककार शूद्रक प्रजापीड़क राजा का वध आवश्यक ठहराते हैं.

छठी शताब्दी के गद्यकार दंडी के दशकुमारचरितका कथानक कुछ-कुछ मृच्छकटिकजैसा है. मालवनरेश मानसार से पराजित मगध का राजा राजहंस अपने मंत्रियों-परिजनों के साथ विंध्य के जंगल में शरण पाता है. यहाँ उसका पुत्र राजवाहन अपने समवयस्क अन्य नौ कुमारों के संग गुरु वामदेव से शिक्षा लेता है. फिर सभी कुमार अलग-अलग दिशाओं में दिग्विजय हेतु निकलते हैं. वहाँ से लौटकर सभी कुमार राजवाहन को अपनी आपबीती सुनाते हैं. इस क्रम में युगीन यथार्थ प्रगट होता है. समाज में फैली अनीति, अनाचार और अव्यवस्था का दंडी ने खुलकर वर्णन किया है.  जनसामान्य को अपने सरोकार के केंद्र में न रखने के कारण दशकुमारचरितमें व्यक्त यथार्थ परिवर्तन की किसी दिशा का संकेत नहीं कर पाता. समाज के अधःपतन को दर्शाना ही दशकुमारचरितकार का उद्देश्य प्रतीत होता है.

कालिदासकी छवि यों तो सत्ता विरोधी कवि की नहीं है मगर अवसर आने पर उन्होंने जनकल्याण की दृष्टि से अपना मत प्रस्तुत किया है और सत्ता का प्रतिपक्ष रचा है. ‘रघुवंशमें कर-संग्रह के मुद्दे पर राजा का आदर्श बताते हुए लिखा गया है कि प्रजा की भलाई के लिए ही राजा दिलीप उनसे शुल्क लेता था- प्रजानामेव भूत्यर्थं स ताभ्यो बलिमग्रहीत. ‘शाकुंतलके पांचवें अंक में राजा दुष्यंत से कण्व के शिष्य शांर्गरव का कहना है- मूर्च्छन्त्यमी विकाराः प्रायेणैश्वर्यमत्तानाम्.’ ऐश्वर्य का उन्माद ऐसे विकार प्रायः उत्पन्न कर ही देता है. शांर्गरव को दुष्यंत की जनाकीर्ण राजधानी जलती हुई प्रतीत होती है. न पहचानने वाले राजा (दुष्यंत) को धिक्कारती हुई शकुंतला कहती है कि तुम घासफूस से ढंके कुएं की तरह अपनी वास्तविकता छिपाए हुए हो. यही तुम्हारा धर्म है. भरी राजसभा में शांर्गरव सत्ता के विद्रूप को अनावृत्त करता हुआ कहता है कि जिस (शकुंतला) ने जीवन में छल-कपट सीखा ही नहीं उसकी बात अप्रामाणिक है और जिन्होंने विद्या के रूप में दूसरे को ठगने का अभ्यास किया वे लोग आज आप्त वक्ता हैं.

साहित्य में जनता की चित्तवृत्ति का प्रतिबिंबन होता है. इसके साथ साहित्य चित्तवृत्ति के निर्माण का दायित्व भी संभालता है. मध्यकालीन साहित्य में सत्ता के विरुद्ध उठे स्वरों की बहुलता मात्र जनता की चित्तवृत्ति का रूपायन नहीं है अपितु उस चित्तवृत्ति को बनाया भी गया है और उन चित्तवृत्तियों के आधार पर समुदायों (सम्प्रदायों, पंथों) का निर्माण हुआ है. जिन्हें संतकहा जाता है वे वस्तुतः अपने समय के सार्वजनिक बुद्धिजीवी थे. संत रविदास, कबीरदास, दादू, सूर, जायसी और तुलसीआदि कवियों को (आवयविक) बुद्धिजीवी मानने के बाद ही उनकी भूमिका को ठीक से समझा जा सकता है.


आम जनता में आधुनिक बुद्धिजीवियों से कहीं ज्यादा पहुँच और प्रतिष्ठा इन बुद्धिजीवियों की थी. इस बात को संभवतः सबसे पहलेगांधीजीने समझा था. उन्होंने लिखा था कि जनता पर प्रभाव के मामले में कबीर नानकआदि के सामने राममोहन और तिलक कुछ भी नहीं हैं’.  असम के संत शंकरदेव ने अकेले जो कर दिखाया वह अंगरेजी जानने वालों की सारी फौज भी नहीं कर सकती.’तमाम दबावों, प्रलोभनों और बाध्यकारी परिस्थितियों की लंबी अवधि के बावजूद अगर भारत में धर्मतंत्रीय राज्य स्थापित नहीं हो सका तो इसका मुख्य कारण इन संतों या सार्वजनिक बुद्धिजीवियों की वाणी और जनता पर उसका प्रभाव मानना चाहिए. संत रविदास ने जिस राज्य या शासनतंत्र की परिकल्पना प्रस्तुत की उसे ही बाद में धर्म/पंथ निरपेक्ष राज्य (सेकुलर स्टेट) कहा गया- ऐसा चाहूं राज मैं, मिले सबन को अन्न. छोट बड़ो सब सम बसैं, रैदास रहै प्रसन्न..”छोटे-बड़े के बीच समता स्थापित करने वाले राज्य की कामना करना, राज्य से अन्न की उपलब्धता सुनिश्चित करवाने की मांग करना खतरे से खाली नहीं हैं.  निःशंक-निर्भय हुए बगैर ऐसी बात नहीं की जा सकती.

कबीर की साखी है- सतगंठी कौपीन दै, साधु न मानै संक. राम अमलि लाता रहै, गनै इंद्र को रंक..” साधु अर्थात बुद्धिजीवी वही है जो (इंद्र) राजा की परवाह किए बिना अपनी राह पर चले. सत्ता-संपत्ति की कामना बुद्धिजीवी की निडरता समाप्त कर देती है. निःशंक रहना है तो सात गाँठों वाली लंगोटी का जीवन अपनाने के लिए तैयार रहना होगा. सिकंदर लोदी ने कबीर को यातनाएं दीं, मारना चाहा मगर वे अपने सच से डिगे नहीं और डंके की चोट पर अनभै साँचाकहते रहे. इंद्र की सत्ता को धूल-धूसरित करते हुए सूरदास ने बालक कृष्ण से कहलवाया- कहा इंद्र बपुरो किहिं लायक. गिरि देवता सबहिं के नायक.”बेचारा इंद्र किस लायक है? सबके नायक (तो) गोवर्धनपर्वत देव हैं. ब्रजवासियों पर कुपित जिस इंद्र ने कहा था- मेरे मारत कौन राखिहैं. अहिरनि के मन इहै काखिहैं..”देखता हूँ कि मेरे मारने, सबक सिखाने पर इन चीखते-कराहते अहीरों की कौन रक्षा करता है? उस सत्तांध इंद्र की यह परिणति सूर ने दर्शाई- सुरगन सहित इंद्र ब्रज आवत. धवल बरन ऐरावत देख्यो उतरि गगन तें धरनि धँसावति.”

तत्कालीन साहित्य में देवसत्ता तथा राजसत्ता पर इस बहुकोणीय आक्रमण के निहितार्थों और परिणामों पर विचार करना आवश्यक है. सामान्य जनता को भयमुक्त करने-रखने का श्रेय उस समय के सार्वजनिक बुद्धिजीवियों को जाता है.   तुलसीदास ने संत (या बुद्धिजीवी) के लक्षण बताते हुए कहा कि उसका चित्त समतावादी होता है, वह किसी का शत्रु-मित्र नहीं होता, हित-अनहित (स्वार्थ) के वशीभूत होकर कुछ नहीं कहता, वह उस फूल की तरह होता है जो अपने संपर्क में आने वाले और तोड़ने वाले दोनों का कल्याण करता है, उन्हें सुगंध प्रदान करता है- बंदहुँ संत समान चित, हित अनहित नहिं कोइ. अंजलि गत सुभ सुमन जिमि, सम सुगंध कर दोइ..” स्वतंत्रता संग्राम के दौरान और स्वतंत्र भारत के भारतीय बुद्धिजीवियों की पर्याप्त ऊर्जा साम्प्रदायिकता की समस्या को समझने और उसे सुलझाने में लगी है.

पूर्वऔपनिवेशिक युग के बुद्धिजीवियों ने यह दायित्व अच्छे से निभाया था. संत रविदास, कबीर से लेकर परवर्ती संत रज्जब अली (1567-1689), महामति प्राणनाथ (1618-1694) तक सभी संतों ने हिंदुओं और मुसलमानों को उनके अतिवादों के बारे में लगातार सावधान किया. ‘निरपषि मधि’ (निर्पख मध्यम मार्ग) का अनुगमन साम्प्रदायिक/मजहबी टकराओं के शमन का समयसिद्ध फार्मूला है. धार्मिक संकीर्णता से उबरने के लिए रज्जब का यह प्रस्ताव कितना बढ़िया है- रज्जब बसुधा बेद सब, कुलि आलम सु कुरान. पंडित काजी वै बड़े, दुनिया दफ्तर जान.”अगर पंडित और काजी समूची वसुधा को वेद और समूची दुनिया को कुरान मानकर पढ़ें तो धार्मिक संघर्ष का अंत हो जाए! महामति ने जोर देकर कहा कि जो कुछ कुरान में है वही वेद में. सब एक साहब के बंदे हैं, आपस में लड़ते हुए उन्होंने यह भेद-भाव पैदा किया है- जो कछु कह्या कतेब में, सोई कह्या बेद. दोऊ बन्दे इक साहब के, पर लड़त पाए भेद..

भक्ति आंदोलन की विफलता या संत मत के अवसान की चर्चा में अक्सर परवर्ती संतों की उपस्थिति का, उनकी सक्रियता का, उनके प्रभाव-क्षेत्र का और उनकी  बानियों का संज्ञान नहीं लिया जाता. रज्जब, सुन्दरदास, और महामति जैसे संतों का संदर्भ अवसानके मुद्दे पर पुनर्विचार की आवश्यकता महसूस कराता है. जिस युग में कवियों का एक बड़ा वर्ग शाहेवक्त की सराहना में संलग्न था- सुकबि कुकबि निज मति अनुहारी. नृपहिं सराहत सब नर नारी.” (तुलसीदास)

उस दौर में संत कवियों ने सत्ता-प्रतिष्ठानों की परवाह किए बिना निर्भीकता से अपनी बात रखी. उन्होंने यथावसर सत्ता केन्द्रों से संवाद करने की पहल भी की थी. श्रीमद्भागवत और कुरान को समान आदर देने वाले महामति ने शाहेवक्त औरंगजेब से संवाद कायम करने की विफल कोशिश की थी. वे राजा छत्रसाल के प्रशंसक थे. उन्होंने अपने बारह शिष्यों को जिनमें हिंदू और मुसलमान दोनों थे, बादशाह औरंगजेब से सलाह-मशविरा करने और मार्गदर्शन हेतु भेजा था. धर्माधिकारियों और दरबारियों ने यह मुलाकात मुमकिन न होने दी.

जनता के पक्ष से साहित्य ने प्रायः सभी युगों में सकारात्मक भूमिका का निर्वाह किया है. काव्यप्रयोजनों को गिनाते हुए मम्मटने जब शिवेतरक्षतयेको एक प्रयोजन माना तो उसका आशय स्पष्ट था- जो कल्याणेतर है, अकल्याणकारी है उसकी क्षति के लिए भी साहित्य रचा जाता है. अगर राजकार्य में, राजनीति में रचनाकार की रुचि और गति नहीं होगी तो वह कल्याणकारी-अकल्याणकारी नीतियों की पहचान ही नहीं कर सकता. अगर रचनाकार जन सामान्य की जिंदगी से अपरिचित है तो वह सत्ता-प्रतिष्ठान के अशिवत्व को समझ ही नहीं सकता. अर्थ और यश की चाहत से लिखने वाले शिवेतरक्षतयेके प्रयोजन से नहीं लिखेंगे. अर्थ और यश की कामना रचनाकार को सुरक्षित दायरेमें परिसीमित कर देती है. ऐसा रचनाकार बहुधा चाटुकार बन जाता है. सत्रहवीं सदी के संस्कृत कवि नीलकंठ दीक्षित ने खासे रोचक तरीके से चाटुकार कवियों का चित्र खींचा है-

कातर्यं दुर्विनीतत्वं कार्पण्यमविवेकिताम्l
सर्वं मार्जन्ति कवयः शालीनां मुष्टिकिंकराःll
न कारणमपेक्षन्ते कवयः स्तोतुमुद्यताःl
किंचिदस्तुवतां तेषां जिह्वा फुरफुरायते  ll


मुट्ठी भर धन के गुलाम बन कर कवि लोग आश्रयदाता की कायरता, ढिठाई, कंजूसी, मूर्खता इन सबकी सफाई कर देते हैं- अर्थात केवल उसकी प्रशंसा ही करते हैं. स्तुति करने को उद्यत कवियों को स्तुति के कारण की आवश्यकता नहीं होती. कुछ देर बिना स्तुति किए रह जाएं तो किसी की स्तुति के लिए इनकी जीभ खुजाने लगती है.
_________


बजरंग बिहारी तिवारी
(1 मार्च 1972, नियावां, जिला गोंडा) 

वर्ष 2004से दिल्ली से प्रकाशित हिंदी मासिक कथादेशमें दलित प्रश्न शीर्षक स्तंभ लेखन.

पुस्तकें-
जाति और जनतंत्र : दलित उत्पीड़न पर केंद्रित (2015)
दलित साहित्य : एक अंतर्यात्रा (2015)
भारतीय दलित साहित्य : आंदोलन और चिंतन(2015)
बांग्ला दलित साहित्य : सम्यक अनुशीलन(2016)

संपादित पुस्तकें-
(सह-संपादन)
भारतीय साहित्य : एक परिचय (2005),
यथास्थिति से टकराते हुए: दलित स्त्री से जुड़ी कहानियां(2012),
यथास्थिति से टकराते हुए: दलित स्त्री जीवन से जुड़ी कविताएं (2013)
यथास्थिति से टकराते हुए: दलित स्त्री जीवन से जुड़ी आलोचना (2015).

दिल्ली के देशबंधु महाविद्यालय में अध्यापन.
संपर्क: फ्लैट नं. 204, दूसरी मंजिल, मकान नं. टी-134/1, बेगमपुर, नई दिल्ली- 110017.
ईमेल- bajrangbihari@gmail.com

कथा- गाथा : चोर - सिपाही : मो. आरिफ

$
0
0










युवा कथा आलोचक राकेश बिहारी के स्तम्भ ‘भूमंडलोत्तर कहानी विमर्श’ के अंतर्गत आपने  
1.लापता नत्थू उर्फ दुनिया न माने’ (रवि बुले)
2.            शिफ्ट+ कंट्रोल+आल्ट = डिलीट’ (आकांक्षा पारे)
3.            नाकोहस’(पुरुषोत्तम अग्रवाल)
4.            अँगुरी में डसले बिया नगिनिया’ (अनुज)
5.            पानी’ (मनोज कुमार पांडेय)
6.            कायांतर’ (जयश्री राय)
7.            उत्तर प्रदेश की खिड़की’(विमल चन्द्र पाण्डेय)
8.            नीला घर’ (अपर्णा मनोज)
9.            दादी,मुल्तान और टच एण्ड गो’ (तरुण भटनागर)
10.           कउने खोतवा में लुकइलू’ (राकेश दुबे)
11.           ‘चौपड़े की चुड़ैलें’ (पंकज सुबीर)
12.          अधजली (सिनीवाली शर्मा)
13.          ‘जस्ट डांस’ (कैलाश वानखेड़े)
14.           'मन्नत टेलर्स’ (प्रज्ञा)
15.           ‘कफन रिमिक्स’  (पंकज मित्र)

कहानियों की विवेचना पढ़ी. आज इस क्रम में प्रस्तुत है मो. आरिफ की चर्चित कहानी ‘चोर- सिपाही’ की विवेचना.


साम्प्रदायिकता चाहे बहुसंख्यक की हो या अल्पसंख्यक की दोनों भयावह और बुरे हैं और दोनों एक दूसरे के लिए खाद-पानी का काम करते हैं. मो. आरिफ की कहानी ‘चोर- सिपाही’ में दोनों मौजूद हैं और इसे वह एक बच्चे की निगाह से लिखते हैं. राकेश बिहारी ने इस कहानी की आलोचना में पत्र- शैली का प्रयोग किया है. कृति को परखने की यह रचनात्मक उपक्रम आपको पसंद आएगा.




चोर सिपाही
मो. आरिफ

पहले डायरी के बारे में दो शब्द मेरी ओर से, फिर तारीख-ब-तारीख डायरी. सलीम से जो डायरी मुझे मिली थी उसे मैंने ज्यों की त्यों नहीं छपवाया. सलीम की ऐसी कोई शर्त भी नहीं थी. पहले तो वह इसे मेरे हवाले ही नहीं करना चाहता था, क्योंकि उसका मानना था कि यह डायरी, और देखा जाए तो कोई भी डायरी, व्यक्तिगत और गोपनीय दस्तावेज होती है. लेकिन पूरी डायरी देखने के बाद मुझे लगा था कि इस लड़के की डायरी में ऐसे विवरण हैं... सारे नहीं, कुछेक... जो व्यक्तिगत और गोपनीय का बड़ी आसानी से अतिक्रमण करते हैं. उन्हें पब्लिक डोमेन में लाना ही मेरी मंशा थी. मैंने उसे समझाया तो वह मान गया. दरअसल वह पूरी तरह समझा नहीं, बस मान गया. अपना लिखा हुआ छप रहा है... इस उत्कंठा में उसने डायरी मुझे सौंप दी, यह कहते हुए कि आप लेखक हैं... डायरी में जो अच्छा लगे छपवा दें, यानी जो हिस्से लोगों के सामने लाने हैं उन्हें अपनी शैली में, अर्थात एक लेखक की शैली में, एक लेखक की भाषा में, परिवर्तित करके प्रकाशित कर दें. बाकी के हिस्से में तो बस रोजमर्रा की जिंदगी है, उसके अहमदाबाद प्रवास की दिनचर्या है. वह भी उन सात आठ दिनों की दिनचर्या जब उसके मामू के मुहल्ले में कर्फ्यू जैसे हालात थे और वह एक दिन एक घंटे एक पल के लिए भी घर से बाहर नहीं निकल पाया. घर में पड़े पड़े कोई क्या करेगा. सलीम की डायरी ऐसे माहौल और मानसिकता में रोज-ब-रोज लिखी गई थी जिसमें बहुत सारे ब्योरे थे. इन इंदिराजों को पूरा का पूरा लोगों के सामने परोसने का कोई अर्थ नहीं था. मेरी रुचि तो कुछ विशेष प्रसंगों और संदर्भों में ही थी.

लेकिन यहाँ एक समस्या थी. जैसा कि आप आगे देखेंगे, डायरी सिलसिलेवार ढंग से लिखी गई थी. दस अप्रैल से शुरू हो कर, यानी जिस दिन वह अहमदाबाद अपने मामू के यहाँ पहुँचता है, 18 अप्रैल तक जिस दिन वह अपने मामू से कहता है, अब मेरा मन यहाँ नहीं लग रहा है घर भिजवा दें. 19 और 20 अप्रैल वाले पेज भी भरे हुए थे, लेकिन उनमें कुछ मेरे काम की सामग्री नहीं थी सिवा इसके कि इस्माईल मामू की बड़ी याद आ रही है, गुलनाज अप्पी ने मेरी पतंगों का पता नहीं क्या किया होगा, नानी शायद अगली बार आने तक नहीं बचेंगी और मुमानी जान मेरे पहुँचते ही तुमको ये पका कर खिलाएँगे, तुमको वो पका कर खिलाएँगे का खूब राग अलापीं, लेकिन उसके बाद माहौल ऐसा बना कि उन्हें अपनी पाक कला का प्रदर्शन करने का मौका ही नहीं मिला. तो बतौर लेखक मेरी समस्या यह थी कि जो ब्योरे मुझे सार्थक लगे थे उन्हें अगर मैं बीच-बीच में से उठा कर उपयोग में लाता तो बात न बनती. उनका संदर्भ और उनका निहितार्थ आगे-पीछे की तारीखों में थे जिन्हें सलीम रोजमर्रा के ब्योरे या बोरिंग दिनचर्या कह रहाथा. तो मैंने उन्हें भी बिना कोई छेड़छाड़ किए उसी तरह ले लिया. वैसे भी सलीम की दिनचर्या मुझे इतनी उबाऊ नहीं लगी. कुछ ब्यौरे तो बड़े मजेदार लगे. लेकिन आगे बढ़ने से पहले मुझे सलीम से कुछ और बिंदुओं पर सफाई चाहिए थी. पहले तो भाषा को ले कर. जब पहली बार मैंने डायरी पढ़ी तो लगा इसमें किसी तरह की छेड़छाड़ या कत रब्यौंत करना उचित नहीं होगा जबकि काँट छाँट की गुंजाइश बनती थी. जब मैंने डायरी दूसरी बार पढ़ी तो मैंने नोट किया कि विवरणों में उर्दू के शब्द बहुधा से भी अधिक ही आ रहे थे और कुछ तो ऐसे शब्द थे, जिनके लिए हिंदी के या फिर आमफहम उर्दू के शब्द हम हिंदुस्तानी भी कह सकते हैं, प्रयोग करना आवश्यक लगा. मुमानी की जगह मामी, सितम की जगह जुल्म, सितमगर की जगह जालिम, अस्मत की जगह इज्जत मुझे ज्यादा मौजूँ लगा. 15 अप्रैल को सलीम ने अपनी मामी के हवाले से यह दर्ज किया है - मामी आसमान की ओर हाथ उठा कर बोलीं...ऐ अल्लाह, रहम करना, मौला हिफाजत... जानमाल की और हमारी अस्मतों की. उन्होंने बहुत सितम ढाहे हैं हम पर... सितमगर हैं ये लोग. तो जहाँ जरूरी लगा मैंने शब्द बदल दिए, यह मानते हुए कि सलीम ने इतनी छूट मुझे दे दी है. इसी प्रकार कहीं-कहीं हिंदी के ऐसे क्लिष्ट और पुरान शब्दों का प्रयोग किया है जो अब चलन में नहीं रहे. फर्ज कीजिए कोई कहे म्लेच्छ बाहर से आ कर.... ऐसे वाक्यों से अप्रचलित शब्दों को सुविधापूर्वक हटा दिया है. लेकिन कई बार ऐसा नहीं भी कर सका हूँ. ऐसा जल्दबाजी में हुआ लगता है. सलीम की ननिहाल के कुछ सदस्य विशेषकर उसके छोटे मामू हिंदुओं के लिए काफिर, आतंकवाद के लिए दहशतगर्दी, फासिस्ट के लिए मोदी जैसे शब्दों का इस्तेमाल करते हैं. सलीम से पूछ कर ऐसे शब्दों को मैंने हटा दिया है. तथ्यों को ले कर भी मैंने कुछ लिबर्टी ली है. ऐसे विवरण जिनसे पता चलता है कि दंगों या धमाकों के समय अल्पसंख्यक समुदाय के लोग बहुसंख्यकों के बारे में, अपने नेताओं के बारे में, यहाँ तक कि गांधी और नेहरू के बारे में, और यह भी कि अपने देश हिंदुस्तान के बारे में कैसी घटिया-घटिया बातें करते हैं, गुस्से में क्या-क्या बोल जाते हैं, उन्हें मैंने सेंसर कर दिया है. आगे जब डायरी शुरू होगी तो ऐसे कई आपत्तिजनक स्थल हैं जिनमें मैंने जानबूझकर काफी शालीन शब्दों का प्रयोग किया है, जब कि सलीम का कहना था कि मैं उन्हें वैसा ही रहने दूँ. हाँ, 18 अप्रैल के पेज पर जो कुछ भी दर्ज है, वह हूबहू सलीम की डायरी से उतारा गया है, सिर्फ एक अपवाद है. भीड़ जब मामू के घर पहुँचती है तो लोग भगवा गमछा पहने रहते हैं. सलीम ने इसका बड़ा सजीव और अगर सच कहें तो आतंकित कर देने वाला चित्रण किया है. मैंने इसे छाँट दियाहै. बाकी इस तारीख में, मैंने कहीं कलम नहीं चलाई है. पराग मेहता से जुड़े कुछ प्रसंग मेरे द्वारा संपादित किए गए हैं लेकिन सिर्फ शब्दों के स्तर पर. सलीम के अहमदाबाद से लौट आने के लगभग डेढ़ महीने बाद गुलनाज अप्पी ने उसे एक पत्र लिखा. डायरी के अंत में उस पत्र को उसके मूल रूप में ही दे दिया गया है.

अब दो-तीन ऐसी बातें जो या तो मुझे ऊलजलूल लगीं या पूरी तरह गैरजरूरी. सलीम ने इन्हें बहुत चाव से लिखा था. जब मैंने उन ब्यौरों और तथ्यों को छोड़ देने की बात उसे फोन पर बताई तो पहले तो वह चौंका, कुछ असमंजस में पड़ गया, फिर बोला, ठीक है भाईजान, कोई बात नहीं. मैंने सारी बातें ईमानदारी से दर्ज की हैं. आपकी मर्जी क्या लेते हैं, क्या छोड़ते हैं. मैंने डायरी आपको सौंप दी है.

एक जगह उसने लिखा है - संभवतः सलीम ने स्वप्न में ऐसी बातें देखी थीं या फिर उसकी अतिशय कल्पना की उपज हो सकती हैं, 'उधर से शोर उठा... ईंट पत्थर आने लगे. सब लोग ईंट पत्थर रोड़ा ढेला बरसा रहे थे... आग लगा रहे थे. दुकान और मकान जला रहे थे. यहाँ तक कि उधर के जानवर और पक्षी कुत्ते बिल्ली गधे घोड़े खच्चर बंदर कौव्वे कबूतर सुग्गे गौरैया सभी पत्थर बरसाने में शामिल थे. इधर के पुरुष और पशु पक्षियों ने कुछ देर तक उनका मुकाबला किया लेकिन जल्दी ही पस्त हो कर घरों में छुप गए. खाली पेड़ पालो ही अपनी जगह से नहीं हिले. न हमारी तरफ से न उनकी तरफ से. भविष्य में शायद पेड़ पालो भी इसमें शामिल हो जाएँ.'मुझे यह सब कपोल कल्पित लगा और मैंने इसे पूर्ण रूपेण संपादित कर दिया. एक दूसरे स्थल पर उसने नानी के हवाले से दर्ज किया है, 'गोधरा के समय जब उन लोगों ने तुम्हारे नाना और मझले मामू को गांधी चौक पर आग लगा के जलाया तो मझले मामू 'अम्मा बचाओ अम्मा बचाओ'और नाना 'हिंदुस्तान हमारा है हिंदुस्तान हमारा है'बोल कर चिल्लाते रहे... जब तक कि जल कर राख नहीं हो गए. सलीम ने आगे लिखा है, 'मामूवाली बात सच मालूम पड़ती है, नानावाली नहीं. नानी सठिया गई हैं, गढ़ती हैं.'मैंने इसे भी डायरी से खारिज कर दिया है.
अपने मामू और किन्हीं मानसुख पटेल की दोस्ती, उनके बीच हुए वार्तालाप और उनकी अप्रासंगिक कहानियों के भी डायरी में कई इंदिराज हैं. वह लिखता है, 'दोनों के बीच दाँतकटी रोटी का संबंध है. आज मामू ने एक फोटो दिखाई जिसमें वह और मानसुख पटेल एक ही आइसक्रीम से मुँह लगा कर खा रहे हैं... यह नैनीताल की फोटो है जब वर्षों पहले वे लोग वहाँ भ्रमण पर गए थे. मामू ने एक-दूसरेके यहाँ की दावतों के बारे में भी बताया. मानसुख के घर पर कढ़ी, खिचड़ी और ढोकला, मामू के यहाँ मीट पुलाव और बिरियानी. नवरात्र दशहरा में साथ-साथ गर्बा और ईद में दिन भर ताश के पत्ते और शाम को सिनेमा. और सबसे मजेदार बात जो मामू ने बताई, वह यह कि कैसे उन्होंने मानसुख को बड़े का गोश्त विशेषकर कबाब और निहारी की आदत डाली और कैसे मानसुख पटेल ने उन्हें शराब पीना सिखाया.'वगैरह-वगैरह.... मैंने इसे गैर जरूरी डिटेल समझ कर डायरी की सीमा से परे रखा है.

और अंत में इस डायरी के नामकरण के बारे में. डायरी के सारे इंदिराजों को पढ़ कर लगता है जैसे यह कोई क्रमबद्ध आख्यान हो. इसी आख्यान का नाम 'चोर सिपाही'रखा गया है. जैसा कि सलीम ने बताया कि कर्फ्यू में वह, उसकी गुलनाज अप्पी और कुछ दूसरे बच्चे समय काटने के लिए घर में चोर सिपाही का खेल खेलते थे. बचपन में हम सभी ने यह खेल खेला है. मेरा अपना यह प्रिय खेल था. जब घर से बाहर निकलने में रिस्क हो, फुटबाल, क्रिकेट और आवारागर्दी पर रोकहो, तो बच्चे क्या खेलें? चोर सिपाही. जान भी बची रहे, मनोरंजन भी हो जाए. सलीम ने अपनी डायरी में संभवतः 16 या फिर 17 अप्रैल वाले विवरण में इस खेलका खूब मनोयोग से वर्णन किया है. इस खेल को जैसा मैं समझता हूँ और सलीम ने जैसा वर्णन किया है, दोनों में बस थोड़ा ही फर्क है. इसमें मैंने बिना कोई फेरबदल किए ज्यों का त्यों रख दिया है. आप खुद देखेंगे. अंत में एक बारदुहरा देने में कोई हर्ज नहीं कि डायरी में जहाँ भी लेखकीय फेरबदल किए गए हैं वे भाषा को ले कर मात्र उर्दू और क्लिष्ट हिंदी के शब्दों के स्तर परहैं. वाक्य रचना सलीम की अपनी है. मैंने उन्हें उनके मूल रूप में ही रहने दिया है.


10अप्रैल
कल साबरमती एक्सप्रेस से रात दस बजे अहमदाबाद पहुँचा. इस्माइल मामू स्टेशनपर लेने आए थे. उनकी कार बहुत अच्छी है, नई खरीदी है. स्टेशन से घर पहुँचने में सिर्फ बीस मिनट लगे. रास्ते में मामू शहर के बारे में बताते जा रहे थे. हम लोग पटेल मार्ग से गांधी चौक पहुँच रहे हैं. बाईं ओर अटलांटिस मॉल है और सामने अहमदाबाद का सौ साल पुराना ब्रिज दिखाई पड़ रहा है. हरीबत्ती जलते ही हम ठीक उसी के नीचे से पास होंगे. ऊपर से रेलगाड़ी जा रही थी. कुछ दूर और चलने पर मामू ने सड़क के दाहिने हाथ पर इशारा करते हुए बताया कि यह उनका स्कूल है. यह बताते हुए वह खुश हो गए. सलीम मियाँ, हम यहीं पढ़े हैं. मुझे हैरत हुई कि बड़े लोग अपने स्कूल को याद रखते हैं. बोर्ड परीक्षाओं के बाद तो मेरा अपने स्कूल की ओर देखने का मन भी नहीं कर रहा था. रास्ते में मामू का फोन दो बार बजा. एक बार मामी का आया. एक बार किन्हीं मानसुख पटेल का. मामी से तो उन्होंने हाँ...हूँ में बातें कीं लेकिन मानसुख से खूब हँस-हँस कर. घर पर सबसे पहले मामी मिलीं, फिर नानी. नानी मुझे लिपटा कर रोने लगीं, अम्मी के बारे में पूछा और बैठ गईं. गुलनाज अप्पी दौड़ी-दौड़ी आईं और मुझसे लिपट पड़ीं. गुलनाज अप्पी पहले छोटी-सीथीं. छोटे मामू को नहीं देखा. मामी ने कई तरह का खाना बनाया था. पर मुझे स्वाद नहीं आया. वह समझ गईं, बोलीं, आज तो पहला दिन है, कल से तुम्हारी पसंद की चीजें बनाऊँगी. अब सोता हूँ... बहुत थकावट लग रही है. कल अम्मी कोफोन करके बता दूँगा कि अच्छे से पहुँच गया हूँ और नानी खैरियत से हैं. मामूमामी गुलनाज अप्पी सभी खैरियत से हैं. दरवाजे पर दस्तक हो रही है. छोटेमामू भी आ गए हैं. लेकिन मैं सोता हूँ... उनसे कल मिलूँगा.


11अप्रैल
साढ़े आठ बजे सो कर उठा. छोटे मामू, मेरे जगने से पहले ही चले गए थे. दसबजे तक नानी के पास बैठा रहा. अम्मी के बारे में बात करना नानी को बहुत अच्छा लगता है. मामी ने नाश्ते में दूध से बनी खीर जैसी कोई चीज दी जो मुझे बहुत अच्छी लगी. गुलनाज अप्पी ने पढ़ाई और एक्जाम के बारे में बातें कीं.बोलीं, पास हो जाओगे बच्चू, लेकिन मुझसे ज्यादा परसेंटेज लाओ तो जानूँ. मैंने पूछा, आपके कितने आए थे अप्पी? उन्होंने कहा, एट्टी. फिर उनके मोबाइलपर किसी का फोन आ गया. वह कोने में चली गईं.
दो बजे दोपहर का खाना खाया फिर सो गया. साढ़े चार बजे उठा. छत पर गया. चारों तरफ का नजारा अच्छा लगा. सुना था अहमदाबाद में लोग पतंग बड़े शौक से उड़ाते हैं. देखा तो बात सच निकली. आसमान में पतंग ही पतंग. इसका मतलब मैं भी पतंग उड़ा सकता हूँ. मामू के घर से थोड़ी दूर पर मस्जिद है. उसकी मीनार से लाउडस्पीकर बँधा है. उस पर अकसर चिड़ियाँ बैठी रहती हैं. मामू की छत से अहमदाबाद का सौ साल पुराना ब्रिज साफ दिखाई पड़ता है. उसके ऊपर से जाती रेलगाड़ी भी. अप्पी भागती हुई छत पर आईं और बोलीं...लो, चाचू जान से बात करलो. छोटे मामू बोले, अमाँ यार, हमेशा सोते रहते हो. रात में जगे रहना.सलाम दुआ तो कर लें. गुलनाज अप्पी का मोबाइल फिर बजने लगा. वह कोने की ओरभागीं. बगल की आंटी लोग मिलने आईं. वह अम्मी को जानती थीं.
इस्माइल मामू फैक्ट्री से पाँच बजे तक आ जाते हैं. पौने छह बजे तक नहीं आए तो नानी चिंतित होने लगीं. मामी मोबाइल ले कर बैठ गईं. मामू का फोन बिजी जा रहा था. मैंने गेस किया कि मामू मानसुख पटेल से ही बात कर रहे होंगे.
शाम को साढ़े छह बजे होंगे. नानी टीवी के सामने बैठे-बैठे बोलीं, दुल्हन, देखो तो कुछ हुआ है... कुछ ऐसी-वैसी खबर आ रही है... आओ भाई जरा देखो तो...गांधी चौक की तरफ कुछ हुआ है. नानी की आवाज में घबराहट थी, कँपकँपी भी. देखो तो दुल्हन, देखो तो दुल्हन, वह रुक-रुक कर दुहरा रही थीं.
मैं मामी के साथ किचन में खड़ा था. मामी ने गुलनाज अप्पी से कहा... तुम मुर्गा देखती रहो... नमक डाल देना... अम्मा क्यों हड़बड़ाई हैं. वह टीवी रूम की ओर लपकीं. मैं उनके पीछे-पीछे.
टीवी पर अहमदाबाद में अभी-अभी हुए एक के बाद एक बम धमाकों की ब्रेकिंग न्यूज आ रही थी. नानी के मुँह से निकला, अल्लाह खैर करे... यह क्या हुआ, किसने किया. मामी ने भी देखा और जैसे ही पूरा माजरा उनकी समझ में आया वह गेट की ओर भागीं. मैं भी दौड़ा. उन्होंने इधर-उधर देखा, गेट में ताला लगाया और वापस टीवी रूम में. ब्रेकिंग न्यूज का सिलसिला जारी था. मामी मोबाइल में कोई नंबर सर्च करते-करते चिल्लाईँ, गुलनाज, किचन का काम छोड़ो... जल्दी पीछे वाले गेट में ताला मारो. अप्पी भी छोटे मामू को फोन मिलाने लगीं. मामी की भी कोशिश जारी थी. फोन ट्राई करते-करते मामी खिड़की के पर्दे गिराती जा रही थीं. जैसे तूफानी हलचल मच गई. घर से अम्मी का फोन आया. टीवी देख कर डिस्टर्ब हो गई थीं. इसके बाद के हालात सिलसिलेवार ढंग से संक्षेप में लिखता हूँ –

1. इस्माइल मामू बखैर घर पहुँच गए. बताया कि बाहर कुछ तनाव है. नानी और मामी सन्न थीं. अप्पी फोन पर फोन किए जा रही थीं.
2. जहाँ-जहाँ धमाके हुए उनमें मुसलमानों का एक भी रिहायशी इलाका शामिल नहीं था. मेरे मुँह से निकला... चलो यह तो अच्छा हुआ, बच गए. सभी ने मुझे चुप करा दिया, यही तो अच्छा नहीं हुआ. चैनल बदलने का काम अप्पी कर रही थीं... लेकिन एक बार भी सिनेमा और सीरियल पर नहीं ले गईं .
3. बड़े मामू कई बार छत पर गए. नीचे आए. फिर छत पर गए. कुछ देर बाद नीचे आए और गेट की तरफ गए, ताले को हाथ लगाया, इधर-उधर देखा, वापस टीवी रूम में आ गए.
4. छोटे मामू आए. उनके लिए पीछे का गेट खोला गया. वह गुमसुम टीवी के सामने बैठ गए.
5. धमाकों में मरनेवालों की संख्या बढ़ती जा रही थी और साथ में नानी, मामू और मामी के दिलों की धड़कनें भी. मामी तस्बीह पढ़ रही थीं और हाथ उठा कर दुआ कर रही थीं - अल्लाह करे ये हरकत मुसलमानों की न हो. अल्लाह करे....नानी नमाज पढ़ने लगीं.
6. पड़ोस के रशीद मियाँ और शुजाउद्दीन अंसारी सपरिवार टेंपो पर बैठ कर कहीं निकल गए. बाकी लोग तैयारी में थे. किसी सेफ जगह पर जाने की. ऐसे में किसी हिंदू इलाके में जगह मिल जाए!
7. इस बीच मामू ने मानसुख पटेल से दो बार बात की. खाली बात... कोई हँसी-मजाक नहीं. इंस्पेक्टर खान का फोन आउट ऑफ रेंज बता रहा था.
8. गुलनाज अप्पी किचन और टीवी रूम में आ-जा रही थीं. कुकर में धीरे-धीरे मुर्गा पक रहा था. एकदम मरियल आँच पर. जिस समय उनके मोबाइल पर 'हमराज'पिक्चर की तुम अगर साथ देने का वादा करो...वाली धुन बजी, अप्पीटीवी रूम में थीं. मैंने उनका मोबाइल उठा लिया. स्क्रीन पर लिखा था, फातिमा कॉलिंग.... पर मेरे कुछ बोलने से पहले ही उधर से एक पुरुष की आवाज आई, गुलू, तुम लोगों की तरफ गड़बड़ हो सकती है. हमारी कम्युनिटी के लोग ही मारे गए हैं... टेंशन बढ़ रहा है... मैं फिर फोन करूँगा. टेक केयर.
9. अप्पी ने टीवी रूम में खाना लगाया. इस बीच बड़े-बड़े नेताओं द्वारा शांति बनाए रखने की अपील टीवी पर की जा रही थी. नानी ने कहा, खाने का मन नहीं. मामू ने कहा, तबियत ठीक नहीं लग रही. मामी ने कहा, अब मैं अकेले क्या खाऊँ... गुलनाज और सलीम, तुम लोग खा लो. अप्पी के पेट में दर्द होने लगा.खाली मैंने खाया. मैंने कहीं सुन रखा था कि जिस दिन घर में कोई खाना नहीं खाता है वह बड़ा मनहूस दिन होता है, जैसे घर में किसी का इंतकाल हो गया हो.
मैं सोने चला आया हूँ. सब लोग अभी भी टीवी रूम में हैं. रात के साढ़े बारह बजे हैं. मरने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है. आतंकवादियों ने अस्पताल तक को नहीं बख्शा. पूरा मुहल्ला सायँ-सायँ कर रहा है. छोटे मामू बहुत गुस्से में लग रहे थे. बोले, यह तो होना ही था, जैसा करोगे वैसा भरोगे. जबसे आया हूँ, छोटे मामू कुछ अजीब-से लग रहे हैं.... अच्छा अब गुडनाइट.

12अप्रैल प्रातः चार बजे
आज सुबह चार बजे ही आँख खुल गई. एक बजे सो कर चार बजे उठ गया. दोनों मामू, मामी, अप्पी और नानी बैठे-बैठे, अधलेटे हो कर टीवी देख रहे थे. खाना उसीतरह पड़ा था. शायद रात में वे लोग सोए नहीं. धमाकों में मरनेवालों का मातममना रहे थे क्या? जी नहीं, कभी नहीं. उन्हें तो अपनी पड़ी थी. अपनी जान कीफिकर घेरे थी उनको, अपने माल-असबाब के बारे में चिंतित थे वे. फिकर मेरीजान की भी थी उनको. बाथरूम जाते वक्त मैंने नानी को सुना, कहाँ से चला आयायह लड़का. दूसरे की औलाद! पेशाब करके मैं बिस्तर पर वापस चला आया. सभी नेएक-एक करके वजू बनाए और नमाज अदा की. दुवाएँ माँगी. नानी ने मुझ पर फूँकछोड़ा. फिर धीरे से बुदबदाईं, मौला रहम कर. इस बच्चे को अपनी हिफाजत मेंरख. रहम कर मालिक, रहम... कहते हुए वह टीवी रूम में चली गईं. फिर सबकीसलामती की दुआएँ कीं. नानी जब छोटे मामू के पास पहुँचीं तो उन्होंने मुँहबनाते हुए कुछ कहा जिसे मैं नहीं सुन सका.
मैं सोचता हूँ कि मेरे बारे में सारे लोग इतने फिकरमंद क्यों हो गए. बमब्लास्ट से अकेले आखिर मुझे क्या खतरा? नानी और मामी बात का बतंगड़ बना रहीहैं. लेकिन कुछ बात तो है जिसे ले कर बड़े लोग इतना परेशान हैं. कुछ-कुछमेरी समझ में भी ये बातें आ रही हैं. जब मैं बात को समझ गया तो मुझे नींदआने लगी. मैं सो गया. सपने में अपनी बोर्ड परीक्षा की सारी उत्तरपुस्तिकाओं को हिंदी, इंगलिश, गणित, विज्ञान, इतिहास, भूगोल, नागरिकशास्त्रऔर अपनी चित्रकला की सारी उत्तर पुस्तिकाओं को मैंने देखा. उनमें मेरेद्वारा लिखे सारे उत्तर भाप बन कर उड़ रहे थे. मेरी आँखों के सामने ही मेरेउत्तर मेरी कापियों से नदारद हो गए. कितने सही और सटीक उत्तर थे मेरे. सालभर कितनी मेहनत से रटे थे मैंने. अशोक महान और अकबर महान वाले प्रश्न, पाइथागोरस का सिद्धांत, मेरा देश : भारतवर्ष पर लिखा मेरा निबंध, चित्रकलामें बनाया मेरा फूलों का गुलदस्ता... सब भाप बन कर उड़े जा रहे थे. लगता हैफेल हो जाऊँगा.



12अप्रैल 10बजे से 2बजे दिन
देर से सो कर उठा. मामी ने फरमान सुनाया, गेट के बाहर और छत के ऊपर नहींजाना है किसी भी हालत में. इसका मतलब कि बस घर के अंदर दुबके रहो या बड़ेलोगों की तरह टीवी देखते रहो. आज मामू अपना रिवाल्वर साफ कर रहे थे. कहतेहैं गोधरा के बाद इसे खरीदा. कितनी मशक्कत कितनी भागदौड़ करनी पड़ी इसकेलिए. एक का तीन खर्च करना पड़ा. तब कहीं जा कर लाइसेंस मिला. इतने नजदीक सेरिवाल्वर मैंने पहली बार देखा था.
इस्माइल मामू अपने इलाके के नेता जैसे हैं. सुबह से कितने लोग उनसे मिलनेआए. मामू ने सबको समझाया कि मुहल्ला छोड़ कर कोई कहीं न जाए. हिम्मत से डटेरहें. जो होगा देखा जाएगा. घर में मामू अब हर वक्त अपना रिवाल्वर शर्ट केअंदर छुपाए रहते हैं. यहाँ तक कि मस्जिद जाते समय भी मामू रिवाल्वर को अंदरटाँगे रहते हैं. आज नमाज के बाद इमाम साहब मामू के साथ घर आए. वे मुहल्लेमें एक-एक कर सबके घर जा रहे हैं. इमाम साहब ने कहा, सभी नमाज का दामनपकड़े रहें, यह मुश्किल घड़ी है. लेकिन कट जाएगी. इमाम साहब को कहीं से खबरलगी थी कि पटेल मार्ग पर अपने एक आदमी को चाकू से मार दिया गया है. पूराअहमदाबाद एक बार फिर मुसलमानों से खफा है. और उनका गुस्सा बढ़ता ही जा रहाहै....बोलते हुए इमाम साहब की आवाज भर आई... बैठे लोगों के चेहरों परहवाइयाँ उड़ने लगीं. पूरा अहमदाबाद अगर फिर से मुसलमानों से नाराज हो जाएगातो हम कैसे बचेंगे. कहाँ जाएँगे.... लगा, इमाम साहब रो पड़ेंगे... सभीबैठे हुए लोग रो पड़ेंगे... मामू रो पड़ेंगे... मैं भी रो पड़ूँगा.

अफवाह! अफवाह और सच्चाई में कितना कम फर्क रह जाता है ऐसे मौकों पर! अफवाहसच्चाई से ज्यादा विश्वसनीय लगने लगती है, ज्यादा अच्छी लगने लगती है...कभी-कभी तो उसमें ज्यादा मजा भी आने लगता है. अफवाह न उड़े तो कमरों मेंबैठे लोग क्या करें, किस विषय पर बात करें, किस डर से विचित्र- विचित्रयोजनाएँ बनाएँ. अफवाहों पर बात करते-करते समय उड़ने लगता है, रात-दिन तेजीसे कटने लगते हैं, सिगरेट पर सिगरेट, चाय पर चाय चलने लगती है. लोगएक-दूसरे से सटे-चिपके बैठे रहते हैं... बच्चे बड़ों की बातें सुन कर कभीहँसते हैं तो कभी रोने लगते हैं. लेकिन मैं एक बार भी नहीं रोया. जैसे.अफवाह उड़ी कि दरियापुर मंडी के पास हमला हुआ है, इमाम साहब पिछले दरवाजेसे मस्जिद की ओर भागे. उनकी फैमिली मस्जिद के नजदीक रहती है. बाकी पड़ोसीबैठे रहे. मामू ने कहा, आप लोग घबराइए मत. जो होगा पहले मुझे होगा. यह सबसुन कर मुझे बहुत अच्छा लगा. किसी ने पूछा, यह लड़का कौन है. 

मामू ने कहा, मेरा भांजा है. यहाँ घूमने आया है. फिर मामू मेरी ओर देख कर मुस्कुराए. मैंसमझ गया. मेरे बड़े मामू मुझसे कह रहे हैं, सीढ़ी तक घूमो, पिछले दरवाजेतक घूमो, टीवी रूम में घूमो, सीढ़ी पर घूमो, लेकिन अगर बाहरवाले गेट तक याछत पर घूमने गए तो देख रहे हो, शूट कर दूँगा. इस्माइल मामू देखने में खूबलंबे-चौड़े हैं, हट्टे-कट्टे हैं, खूबसूरत हैं एकदम नाना की तरह. रिवाल्वरउन पर खूब फब रहा है. अगर कुछ हुआ तो वे पूरे मुहल्ले को बचा लेंगे. वहहमेशा कुछ-कुछ सोचते रहते हैं. जाने क्या-क्या सोचते रहते हैं इस्माइलमामू. छोटे मामू को सुबह से नहीं देखा. नानी और मामी टीवी रूम में बैठीरहीं. अप्पी का मूड आज थोड़ा ठीक है. खाना बनानेवाली दाई दो दिन से नहीं आरही थी तो उन्हें ही चाय बनानी पड़ती थी. तो उनका मूड ठीक कैसे रहता . दाईआज आई है. आते ही उसने मुखबिरी की - लड्डन मियाँ और निजाम साहब आजसुबह-सुबह कहीं निकल गए. उनके घरों में ताला लगा है.


12अप्रैल पाँच बजे
पुलिस जीप से कुछ घोषणा की जा रही है. अप्पी मुझे ले कर खिड़की से झाँकनेलगीं सुनने के लिए. आप अपने घरों को छोड़ कर कहीं और न जाएँ... भागें नहीं.अपने घर-मुहल्ले में ही रहें. जीप हमारे घर के ठीक सामने रुक गई, ठीकहमारी खिड़की के सामने जिसके पीछे हम और अप्पी छिपे खड़े थे. तीन-चारसिपाही नीचे उतर कर इधर-उधर ताक रहे थे. वे सब खाकी में थे. उनके कंधों सेलंबी काली बंदूकें लटकी थीं. घर में सभी बात कर रहे थे कि ऐसे माहौल मेंइनसे बचके रहना चाहिए. खिड़की से देखने पर वे थोड़ा डरावने लग रहे थे.जिसके हाथ में हैंडमाइक था वह माइक के मुँह को घरों की छतों और खिड़कियोंकी ओर घुमा-घुमा कर चिल्ला रहा था. इस बार सरकार ने पूरा बंदोबस्त किया है.कुछ भी नहीं होगा. आप लोगों को डरने की जरूरत नहीं है... इस बार कुछ भीनहीं होगा... घर छोड़ कर भागें नहीं.... जीप आगे बढ़ गई. सिपाही वहींचहलकदमी करते रहे... बंदूकें टाँगे. मामू, नानी और मामी टीवी रूम में बैठेहैं - न एक-दूसरे की तरफ देख रहे हैं, न ही बात कर रहे हैं. पुलिसवाले वहाँसे आगे बढ़ जाएँ तो शायद उन्हें इत्मीनान हो.




13अप्रैल
आज तो खाली फोन फोन फोन. पहले अम्मी का फोन घर से. रो रही थीं. रोते-रोतेनानी से कह रही थीं, सलीम को कहीं बाहर न निकलने दीजिएगा. दिल बहुत घबरारहा है. फिर मानसुख पटेल का फोन मामू के पास. घबराना नहीं, भाई. कुछ शरारतीलोगों का काम है यह. बहुत लोग मरे हैं. चुन-चुन के रखे थे सालों ने. लेकिनइस बार अहमदाबाद के मुस्लिम भाइयों को डरने की जरूरत नहीं है. मौका मिलतेही आऊँगा. इस्माइल मामू ने धीरे से कहा, मानसुख, अम्मा बहुत डरी हुई हैं.आस-पड़ोस के लोग भी. बस एक बार तुम आ जाओ तो यकीन हो जाएगा. मानसुख पटेल नेभरोसा दिलाया कि वे जल्द आएँगे. फिर फातिमा कॉलिंग.... गुलनाज अप्पी कोनातलाश करने लगीं. जिस कोने में वह पहुँचीं उसके बगल में मैं पहले से खड़ाथा. वह बोले जा रही थी, पराग, शहर का हाल बुरा है... तुम अपना खयाल रखना.इतने सारे लोग मारे गए... कोई रिएक्शन तो नहीं होगा न! अच्छा सुनो... कलसाढ़े दस बजे रात को इंतजार करूँगी... आओगे? हमारी तरफ तो कर्फ्यू का आलमहै. मस्जिद की तरफ से मत आना.

फिर पुलिस स्टेशन से फोन, मामी लैंडलाइन के रिसीवर पर हाथ रख करफुसफुसाईं, आपसे बात करना चाहते हैं. मामू ने हाथ से इशारा किया, कह दोनहीं हैं... क्या बात है. वे छोटे मामू के बारे में पूछ रहे थे. घर में सभीके हाथ-पाँव फूल गए.... आज अब आगे लिखने का मन नहीं हो रहा. डायरी में पेजभी कम बचे हैं. अब बस एक बात सोचना चाहता हूँ. पराग और गुलनाज अप्पी कलकैसे मिलेंगे.


14अप्रैल
मुहल्ले की सारी दुकानें बंद हैं. एक भी नहीं खुली हैं. सिर्फ गली केअंदरवाली कल्लू की चाय की दुकान छोड़ कर. लेकिन यहाँ भी लोगों का जमघट नहींलग रहा. बिजली उसी दिन से कटी है. जेनरेटर चलाना मना है. हम लोग बैटरी परटीवी देख लेते हैं... पर सबके पास बैटरी नहीं है. लालटेन और मोमबत्ती सेकिसी तरह काम चल रहा है. नगरपालिकावाले कर्मचारी इस तरफ बिल्कुल नहीं आ रहेहैं. पहले भी कहाँ आते थे. गलियाँ गंधा रही हैं. नालियाँ बजबजारही हैं.जो लोग कहते हैं मुसलमानों का खाना-पैखाना साथ-साथ होता है तो सही कहतेहैं. ये मुहल्ले नगरपालिका के लिए अछूत होते हैं. लेकिन फिलहाल तो धमाकोंकी वजह से ऐसा हुआ है. देख लो भाई. तुम बम फोड़ो और सजा सबको मिले. एक-दोइधर भी फोड़ देते तो हमारी ये हालत न होती. हम तो जैसे गुनहगार सजायाफ्ताकौम हैं. पर तुम सुधर जाओ तो अच्छा होगा. क्यों हम लोगों को शर्मशार करतेहो. मामू मानसुख पटेल से आँख कैसे मिलाएँगे. लेकिन पहले मानसुख पटेल आएँतो. वे तो अपने एनजीओ के साथ घायलों की देखभाल में लगे हैं.

आज नानी बहुत दुखी थीं. कहने लगीं, कोई मुझे यहाँ से हटा दे... जहाँ पानका पत्ता तक नसीब नहीं. दरअसल उनका हिंदू पानवाला तीन दिन से नहीं आ रहाहै. नानी का दम घुटता है. उन्हें खुली हवा चाहिए. आज छोटे मामू पूछताछ केलिए पुलिस स्टेशन बुलाए गए थे. लौटे तो सहमे हुए थे. पुलिस उनसे बाहर से आएकुछ लोगों के बारे में जानकारी चाह रही थी. छोटे मामू को देख कर नानी रोनेलगीं. फूट- फूट कर रो रही थीं नानी. किसी बूढ़े व्यक्ति को बच्चों की तरहरोते मैंने पहली बार देखा था. मैं सोचता हूँ कि नाना और मझले मामू के मरनेपर नानी इसी तरह रोई होंगी. लेकिन तब मैं यहाँ नहीं था. तो मैं नानी कोरोते कैसे देखता. मैंने अम्मी को रोते देखा था. लेकिन मुझे पूरा याद नहीं.मैं छोटा था और अम्मी बूढ़ी नहीं थीं. छोटे मामू आज बहुत गुस्से में थे.गिलास को टेबल पर पटकते हुए बोले, सालों को अगर बम फोड़ना ही था तो... केसर पर फोड़ देते. मासूमों निर्दोषों को मारने से आखिर क्या मिला. सिर्फपूरी कौम को जिल्लत और परेशानी. और क्या मिला. हमारे ऊपर कभी भी हमला बोलसकते हैं उधर के लोग. इससे अच्छा तो हम हिंदू होते. या फिर दादा पाकिस्तान जा रहे थे तो चले ही गए होते.

नींद आ रही है. डायरी लिखने का मन नहीं. क्या करूँ वही बातें लिख करबार-बार. पर न लिखूँ तो क्या करूँ. एक बात मुझे बराबर साल रही है. युगों-युगों से एक साथ रहते चले आने के बाद भी हम एक-दूसरे से अचानक नफरत क्यों करने लगते हैं? क्यों एक दूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं? क्योंभेड़िए बन जाते हैं हम साल में दो-तीन बार. जिस डोर से हम बँधे हैं वह इतनीकमजोर कैसे है? अगर कमजोर है तो फिर हम बंधे कैसे हैं? वह नफरत की ही डोरहै क्या? अच्छा तो इस्माइल मामू और मानसुख पटेल किस डोर से बँधे हैं.... औरगुलनाज अप्पी और पराग के बीच भी कोई डोर है क्या. मैं अभी छोटा हूँ, इसलिए मुझे ऐसी बातें शायद नहीं सोचनी चाहिए. लेकिन सच तो यह है कि जब से आयाहूँ यही सोच रहा हूँ. यही देख रहा हूँ. धमाके उधर हुए हैं, लेकिन खौफ केबादल इधर छाए हैं. इधर लोगों ने भरपेट खाना नहीं खाया है. इस तरफ के बच्चे खेल कूद से दूर कर दिए गए हैं. इस तरफ की दुकानें सोई पड़ी हैं और अड्डेगुमसुम हो गए हैं. गलियों में सन्नाटे की धुन बज रही है. कुत्ते आवारगीछोड़ लस्त पड़ गए हैं. कौव्वे मुँडेरों पर खामोश बैठे हैं. कबूतरों ने अपनेसर परों के अंदर छुपा रखे हैं. कर्फ्यू नहीं लगा है, लेकिन जैसे कर्फ्यूलगा है. उस तरफ से नारे उठ रहे हैं... जो सीधे इस तरफ पहुँच रहे हैं. इसतरफ का चाँद कितना मद्धम है, हवा कितनी गरम बह रही है. 

मैं सुन रहा हूँ, दो-तीन गाड़ियाँ मामू के घर के पास स्लो हुई हैं. जरूर पुलिस की होंगी. वेदेखने आए होंगे कि अँधेरे का फायदा उठा कर मुहल्ले के लोग अपना ठौर-ठिकाना कहीं और तो नहीं ले जा रहे हैं. इससे सरकार की बदनामी हो सकती है. वे किसीसे बात कर रहे हैं... किसी को मना कर रहे हैं... समझा-बुझा रहे हैं. मैंखिड़की से देख सकता हूँ मोहतशीम साहब हैं, मामू के दोस्त, दो मकान आगे रहतेहैं. अपने बीवी-बच्चों के साथ खड़े हैं, उनके बूढ़े माँ-बाप हैं... दोटेंपो सामने खड़े हैं... वहीं अँधेरे में. मैं जानता हूँ कि पुलिसवालेउन्हें मना लेंगे. नहीं तो डर-धमका कर उन्हें वापस भेज देंगे.... अब सोजाता हूँ. सुबह उठूँगा तो छत पर जरूर जाऊँगा. मैं पतंग उड़ाना चाहता हूँ.कल मैं अप्पी या नानी से कहूँगा मुझे पतंगें मँगवा दें... रंग बिरंगी ढेर सारी पतंगें ताकि मैं छत पर खड़े होकर उन्हें उड़ा सकूँ. उधर के लोगसमझेंगे इधर सब ठीकठाक है. अच्छा अब गुड नाइट.


15अप्रैल सुबह
सुबह देर से सो कर उठा और सीधे छत पर गया. रात में ठान कर सोया था कि सुबहछत पर सैर करूँगा. इधर-उधर देखूँगा और मस्ती मारूँगा. मस्ती मारे हुए तोजैसे महीनों बीत गए. परीक्षा में भी इससे ज्यादा ही मस्ती मार लेता था.पिछले पाँच दिनों से जैसे जेल में बंद हूँ. छोटे मामू फिर कहीं गए हैं.इस्माइल मामू की फैक्ट्री बंद है. जब तक हालात मामूल पर न आ जाएँ मामीउन्हें घर के गेट की ओर मुँह भी न करने देंगीं. सुबह-सुबह ही बेकरीवालेमिलने आए मामू से. वे लोग भी उ.प्र. के हैं. कहने लगे उन्हें स्टेशन तकछोड़ दें या छोड़वा दें. कल उनके दो हॉकर गांधी चौक की तरफ बुरी तरह पिट गएथे. बड़ी मुश्किल से जान बची. मामू के बहुत समझाने-बुझाने पर भी जब वेनहीं माने तो मामू ने रिवाल्वर अंदर खोंसा और मामी के लाख मना करने केबावजूद अपनी गाड़ी से उन्हें स्टेशन छोड़ने निकल गए. दो घंटे बाद लौटे तोमामू का मुँह उतरा हुआ था और चाल बेढंगी थी. भीड़ से किसी तरह बच कर आए थे.भीड़ से बचना कोई हँसी-खेल नहीं. जो कभी बचे हैं वही समझ सकते हैं. उसकेबाद इस्माइल मामू जो अंदर वाले कमरे में घुसे तो शाम तक बाहर नहीं निकले.जुमे की नमाज भी मिस कर गए. लेकिन मैंने जुमे की नमाज पढ़ी. मुझे तो बाहरकी हवा लेनी थी. यही मौका था. यही एक अकाट्य तर्क था. पर जुमे की नमाजछोड़नेवाले एक मामू ही नहीं थे. मस्जिद का सिर्फ आधा पेट भरा था. तमामलोगों को घर में कैद रहना ज्यादा फायदे का सौदा लगा. था भी.


15अप्रैल 2:30बजे
आज छत पर बैठ कर गुलनाज अप्पी से बड़ी मजेदार बातें हुईं. लेकिन पहले नानीकी बात. मेरे नमाज से लौटने के बाद मामी ने खाना लगाया और नानी को जगानेलगीं. नानी तो जगी थीं लेकिन उन्हें खाने की परवाह कहाँ. आज नाना और मामूयाद हो आए थे उन्हें. इतने दिनों से जज्ब किए बैठी थीं. उनकी आँखों सेटपाटप पानी गिर रहा था लेकिन रो नहीं रही थीं. सँभलीं तो नाना और मझले मामूके मारे जाने की पूरी कहानी बताने लगीं. नाना और मामू गोधरा के दंगों मेंकैसे मारे गए. कैसे भीड़ में फँस गए थे. कैसे वे चिल्लाते रहे. कैसे भीड़ने उन्हें जला दिया. कहानी खत्म हुई तो मुझसे बोलीं, जाओ देखो तो इस्माइलकहाँ हैं. कहीं फिर बाहर तो नहीं निकले.

नानी जब सो गईं तो मैं गुलनाज अप्पी के पास चला गया. मेरे पहुँचते ही उनका मोबाइल बजा, तुम अगर साथ देने का वादा करो, मैं यूँ ही ... वाली धुन. वह बोलीं, तुम बहुत लकी हो मेरे लिए, देखो तुम्हारे आते ही फातिमा का कॉल आ गया. बोलते हुए वह कोना तलाश करने लगीं. लेकिन वहाँ कोईकोना नहीं मिला. छत पर कोना कहाँ होता है. छोटी-सी छत. मरता क्या न करता.मोबाइल पर हथेली का आड़ बना कर बात करने लगीं. वहीं मेरे सामने. करीब दसमिनट तक... कभी धीमे-धीमे तो कभी बहुत धीमे-धीमे बतियाती रहीं. फ्री हुईंतो मैंने पूछ लिया, ये पराग कौन हैं, अप्पी?
वह मुझे चौंक कर देखने लगीं जैसे छोटी-सी चोरी पकड़ी गई हो. मैंने अपना प्रश्न दुहरा दिया.

तुमने कहाँ सुना, किसने ये नाम लिया?
जी, मैं जानता हूँ... आप ही के मुँह से सुना है.
तुम क्या समझते हो वह कौन है?
आपके दोस्त होंगे.
नहीं, उससे भी बढ़ कर. वह बोल कर कुछ-कुछ हँसते हुए मुझे देखने लगीं कि उनके इस वाक्य का मेरे ऊपर क्या प्रभाव पड़ता है.
तब आपके प्रेमी होंगे.
आयँ! वह जैसे सोते से जगीं... चौंकते हुए... हड़बड़ाते हुए. फिर शरमा गईं.चेहरा खिल आया अप्पी का. मुस्कुराने लगीं. उन्हें विश्वास नहीं था मैं ऐसाबोल जाऊँगा. मैं बस बिना किसी प्रतिक्रिया के उन्हें देखे जा रहा था.
फिर कहो तो सलीम... क्या कहा तुमने, मेरे क्या होंगे.
आपके प्रेमी. मैंने दुहरा दिया. आपके लवर....
वह बेसाख्ता खिलखिलाने लगीं. उनके दोनों गालों में डिंपल पड़ गए. अप्पीसुंदर लग रही थीं. उनके चेहरे से हया टपक रही थी. खिलखिलाहट रुकी तो बोलीं, उसका पूरा नाम पराग मेहता है, गांधी चौक में रहता है.
पराग मेहता आपके प्रेमी हैं न?
सलीम, प्रेमी का मतलब समझते हो? वह हँसते-हँसते बोलीं.
लड़के आपस में दोस्त होते हैं. लेकिन एक लड़का एक लड़की का प्रेमी होता है, उसका लवर होता है.
अच्छा! वह आँख चमकाते हुए बोलीं. बड़े जानकार हो तुम. अच्छा बताओ, क्या तुम भी किसी के प्रेमी हो?
मुझे एक लड़की अच्छी लगती है. मैंने साफ-साफ बता दिया.
क्या तुम उससे प्रेम करते हो?
वह मुझे अच्छी लगती है.
उसका नाम क्या है?
नीलम.
सुन कर अप्पी खामोश हो गईं. फिर इधर-उधर की बातें करती रहीं. नीलम के बारेमें कुछ नहीं पूछा. कुछ भी नहीं कि कहाँ रहती है, कहाँ पढ़ती है, कैसीलगती है. कब से जानते हो... अभी तो तुम बहुत छोटे हो इन बातों के लिए.उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं कहा.
जब मैं सोच रहा था कि अप्पी सचमुच अब नीलम के बारे में कुछ नहीं पूछेंगीतो वे धीरे से बोलीं, किसी अच्छी-सी मुसलमान लड़की से दोस्ती कर लो, सलीम.
शायद गुलनाज अप्पी मुझे चिढ़ा रही थीं. पर अपनी बात बोल कर हँस नहीं रहीथीं वह. मजाक में कुछ बोल कर आदमी हँसने लगता है. अप्पी तो खामोश बनी रहींएकदम गंभीर.

क्यों अप्पी, ऐसा क्यों कहती हैं आप? मैंने पूछा. उन्होंने सर उठा कर मुझेदेखा... देखती रहीं. उनके चेहरे पर भाव बदलने लगे. फिर शरारतपूर्ण लहजेमें बोलीं, क्योंकि सलीम के साथ अनारकली की जोड़ी होनी चाहिए.

और गुलनाज के साथ? मैंने बिना एक पल गँवाये कहा. नहले पे दहला सुन करअप्पी मुझे घूरीं और फिर चुप्पी साध ली. कोई जवाब न सूझा उन्हें. बोलीं, अच्छा कोई दूसरी बात करो. मैंने कहा, नहीं अप्पी, मेरी बात का जवाब दीजिए.मैंने अपना प्रश्न फिर दुहराया तो बोलीं, तुम्हारी बात का मेरे पास कोईजवाब नहीं है. इस प्रश्न का आखिर क्या जवाब हो सकता है? और फिर वे लगभग चहकपड़ीं - और बच्चू सुन लो, तुम्हारी बात का जवाब तुम्हारे हाथ में नहीं, मेरी बात का जवाब मेरे हाथ में नहीं. और सुनो, यह तुम्हारा शहर नहीं है किछत पर बैठ कर खुली हवा में बैठ कर मुश्किल प्रश्नों के हल ढूँढ़ें. मुझे तोमार्केट की ओर से हंगामाखेज आवाजें आती सुनाई पड़ रही हैं. चलो नीचे.
अप्पी उठीं, अपना दुपट्टा ठीक किया और हवाई चप्पल चट-चट बजाते हुए तेजी से नीचे उतर गईं. उनके पीछे मैं भी.
मेरी बातों से अप्पी अपसेट हो गईं हैं. मैं कल उन्हें मनाऊँगा... उनसेटेढ़े-मेढ़े सवाल नहीं करूँगा. आज इतना ही... अब बत्ती बुझा कर सोने औरसपने की बारी. मुझे तो नीलम ही अच्छी लगती है. गुड नाइट नीलम. गुड नाइटअप्पी. गुड नाइट पराग मेहता.


16अप्रैल सुबह
आज अहमदाबाद आए छठा दिन है. लग रहा है छह महीने से यहीं हूँ. आज परागमेहता को देखा, उनसे बात भी की. लेकिन पहले दिन भर के ब्योरे जिनमें कुछ तोबहुत मजेदार हैं. आज पटेल मार्केट में पीस कमिटी की मीटिंग हुई. इस्माइल मामू ने बताया कि मीटिंग में मानसुख पटेल भी थे, पुलिस विभाग के अधिकारी भीथे. मीटिंग अच्छे वातावरण में हुई. इंस्पेक्टर खान ने मामू को अकेले मेंबताया कि सिचुएशन पूरी तरह कंट्रोल में नहीं है. स्थिति कभी भी बिगड़ सकतीहै. सावधानी बराबर बरतने की आवश्यकता है. सब लोग बात कर रहे थे, खान साहबअपने आदमी हैं. उधर की बात इधर बता देते हैं. मामू ने कहा, मानसुख पटेलजल्द ही स्थानीय नेताओं के साथ इधर आएँगे. छोटे मामू ने कटाक्ष किया, मानसुख पटेल को अभी फुरसत कहाँ? इस्माइल भाई से दोस्ती जरूर है, लेकिन वेहैं मोदी के पक्के भक्त. पिछले दंगों में वह दूसरे पढ़े-लिखे लोगों को लेकर खुद भी लूटपाट में शामिल थे. यह किसी से छुपा नहीं है. अब्बा और मझलेभाई को तो लोगों ने उनके घर के पास ही जलाया था. इस पर इस्माइल मामू तमकगए, अच्छा अब चुप रहो छोटे. लूज टाक मत करो. जिन जालिमों ने हमारे अब्बा औरभाई को मारा उनसे मानसुख का कोई लेना-देना नहीं. शुरू से मैं देख रहा हूँतुम मानसुख के बारे में उलटी-सीधी बातें करते रहते हो. अगर उस दिन मानसुखअपने घर होते तो भीड़ में कूद कर अपनी जान दे देते, लेकिन अब्बा और भाई को जरूर बचा लेते. छोटे मामू ने फिर हिट किया, वे घर पर क्यों होते. वे तोअपनी टोली लेकर मुसलमानों की दुकानें लूट रहे थे, उनके घर जला रहे थे. आईकांट बिलीव, आई कांट बिलीव, कहते हुए इस्माइल मामू खिड़की पर खड़े हो गए औरबाहर की आहट लेने लगे. घर के पास पुलिस की जीप स्लो हुई थी.



16अप्रैल 2बजे
छत पर फिर से मैं और अप्पी. मैंने अप्पी से कहा, अप्पी, पतंग उड़ाने का मनकर रहा है, जा कर ले आऊँ क्या? अप्पी बहुत अच्छी हैं. उन्होंने झट फातिमा कॉलिंग को फोन मिलाया और मेरे सामने ही उन्हें डाँट पिलाई कि पिछली रातवादा करके आए क्यों नहीं. आज जरूर आना. सुनो, इधर तो सारी दुकानें बंद हैं, अपनी तरफ से कुछ पतंगें लेते आना... इलाहाबाद से मेरा फुफेरा भाई आयाहै... बिचारा यहाँ फँस गया है... एक हफ्ते से घर में बंद है... दो दिन सेतो हम लोग छत पर आना शुरू किए हैं... वह पतंग उड़ाना चाहता है. और सुनो...इधर भी टेंशन है... अपराधियों को पकड़ने के लिए पुलिस के छापे पड़ रहे हैं... बच-बचा के आना. रीगल के पास पहुँचना तो मिस्ड काल दे देना... मैं पीछेवाले गेट पर रहूँगी. इसके बाद अप्पी के मुँह से निकला, धत्‌... आओ तोबताती हूँ.



16अप्रैल 3बजे, चोर सिपाही का खेल

मामी के भाई-भाभी अपने बच्चों के साथ मिलने आए. वहीं पास में रहते हैं. फोन से मामी डेली बात करती थीं उन लोगों से. उनकी बेटी फरजाना मुझसे एकक्लास सीनियर, बेटा शेरू एकदम छोटा क्लास थ्री में. बहुत अच्छा लगा कि बाहरसे लोग घर में आए. दो-चार मिनट में ही घुलमिल गए. क्या किया जाए... क्याकिया जाए... आज तो कुछ करते हैं, इतने दिनों से सड़ रहे हैं. कुछ खेलतेहैं. इतने में मामी, नानी लोग छत पर आ गईं और हुक्म हुआ कि बच्चे नीचे जाकर खेलें. अप्पी के नेतृत्व में हम लोग नीचे आ गए. नीचे क्या खेलें... क्याखेलें... अप्पी ने कहा, चोर सिपाही खेलते हैं... इस समय इस खेल से अच्छा कुछ नहीं. हींग लगे न फिटकरी, रंग चोखा का चोखा. फरजाना ने हँसते हुए कहा, हाँ अप्पी, यही खेल ठीक रहेगा. छुपने की प्रैक्टिस भी हो जाएगी... शेरू भी छिपना सीख जाएगा... क्यों शेरू? अगर वे हमला करने आए तो हमें ढूँढ़ नहींपाएँगे. अप्पी ने फरजाना के गाल पर एक चपत लगाते हुए उसे इंटेलिजेंट गर्लकह कर शाबाशी दी. फिर बोलीं, इस घर में छिपने की सबसे अच्छी जगह कौन सी है, पता है? हम सब ने एक स्वर में कहा, बताइए, अप्पी बताइए. पिछली बार जब प्राब्लम हुई थी तो आप कहाँ छिपी थीं... तब तो आप छोटी थीं. अप्पी ने कहा, रोज मैं अलग-अलग जगह छिपती थी. एक दिन तो अब्बू ने ऊपर पानी की टंकी में हीडाल दिया था उसमें थोड़ा-सा पानी था... और सुनो, उसमें मेढक भी थे...लेकिन उन्होंने मुझे नहीं काटा. शेरू बोला... छी छी अब मैं टंकी का पानीनहीं पियूँगा. अप्पी ने शेरू को चुटकी काटते हुए कहा, तुम चुप करो, तुम तोफ्रिज में या छोटी आलमारी में समा जाओगे. शेरू चुप करने वाला बच्चा नहीं था... बोला, तब तो मजा आ जाएगा... मैं फ्रिज में रखी सारी मिठाइयाँ और अंडेखा जाऊँगा. फरजाना बोली, गुलनाज अप्पी, शेरू को एक झोले में रख कर किचनमें टाँग देंगे... वे लोग समझेंगे ढेर सारी सब्जी टँगी है और शेरू बचजाएगा. सब लोग हँसने लगे, शेरू भी. अप्पी ने कहा, देखो बच्चो, इसके लिएजरूरी है कि सभी बच्चों को अपने घर के कोने-कोने की जानकारी होनी चाहिए.

अप्पी ने पूरे घर की सैर करा दी और हर उस जगह... हर उस कोने को दिखाया...जहाँ छिपा जा सकता था. छिपने के हिसाब से मामू का घर शानदार था. बच्चों केछिपने की जगह अलग और बड़ों के छिपने की जगह अलग. हमला बोलने वालों को भनक तकन लगे कि घर के लोग कहाँ गायब हो गए. मामू के घर में मुझे जो सबसे अच्छी जगह लगी वह थी स्टोर रूम में एक बहुत बड़े टीन के बक्से के पीछे की जगह जिसके दोनों ओर टूटी-फूटी रिजेक्टेड चीजों का अंबार था. देखनेवाले को ऐसालगे कि उसके पीछे तो बस चूहे-बिल्ली ही रहते होंगे. वे आएँगे और टीन केबक्से पर लोहे की रॉड से दो-चार वार करेंगे और लौट जाएँगे. आप उनको मुँहचिढ़ाते छुपे बैठे रहिए.

अप्पी कभी-कभी बहुत मस्ती करती हैं. बोलीं, सलीम मियाँ, उस जगह को ललचाई नजरों से मत ताकिए, वह जगह पहले से ही आपकी नानी के लिए रिजर्व है. इधरभीड़ का अंदेशा हुआ कि अब्बू और अम्मी उन्हें उठा कर सीधे बक्से के पीछे रखदेंगे. शेरू बोला, और नानी के पास थोड़ी मिठाई रख देंगे अगर उन लोगों नेनानी को देख लिया तो नानी उन्हें मिठाई दे कर बच जाएँगी. नहीं देखा तो नानी खुद खा लेंगी. फिर हम लोगों ने गर्दन मोड़ कर बक्से के पीछे देखा कि यहाँजब नानी बैठेंगी तो कैसी दिखाई देंगी. सोच-सोच कर हमें खूब हँसी आई. हमनेवहाँ से कुछ फालतू सामान हटा दिया कि खुदा न खास्ता अगर ऐसी नौबत आ ही गईतो किसी को भी वहाँ छिपने में सुविधा हो. अप्पी ने फरजाना की ओर मुखातिब होते हुए कहा कि ऐसे में लड़कियों को घर के अंदर नहीं छिपना चाहिए. घर में सेफ नहीं रहता. सबसे अच्छा है कि गैरेज में या फिर बाहर कूड़ेदान के पीछे छिपें. फरजाना ने कहा, अप्पी, मैं जानती हूँ, अम्मी बता चुकी हैं. फिर उसनेउसी टीन के बक्से को देखते हुए कहा, भई सब लोग देख लो... कभी भी खालीबक्से में नहीं छिपना चाहिए... यह बहुत खतरनाक होता है. पिछली दफा के दंगों में मेरे पड़ोस के रशीद अंकल और आंटी छत पर जा छुपे और उनके दोनों बच्चेघर में खाली पड़े बक्से में घुस गए. दूसरे दिन जब वे लोग छत से उतरे तोबच्चों को ढूँढ़ने लगे. दोनों बच्चे बक्से के अंदर मरे मिले... क्योंकिउनके अंदर जाते ही बक्से का ढक्कन नीचे गिरा और कुंडी लग गई. शेरू बड़े गौरसे सुन रहा था... बोला, फरजाना अप्पी, छोटे बच्चों को तब कहाँ छुपना चाहिए? गुलनाज अप्पी समझ गईं कि शेरू डर गया है और यह भी कि शायद छोटे बच्चों के सामने इस तरह की बातें नहीं करनी चाहिए. वह धीरे से बोलीं, शेरूभैया, तुम्हें छिपने की जरूरत नहीं... वे छोटे बच्चों को बिल्कुल नहीं मारते. इतना कहते ही जैसे उन्हें हँसी आ गई... उन्हें कुछ शरारत भी सूझी...बोलीं, खाली जोर से कान उमेठ कर छोड़ देते हैं. शेरू अपना कान छूते हुएगुस्से से बोला, अगर वे मुझे मारेंगे या मेरा कान उमेठेंगे तो हम भी उनको मारेंगे लोहे की रॉड से. फिर वह अपनी फरजाना अप्पी से चिपक गया.

उसके बाद हमने देर तक चोर सिपाही खेला और उन-उन जगहों में छिपे जिन्हें हमने अपने लिए पहले से तय कर रखा था. और उन कोनों में भी छिपे जिन्हें अपनेही घर में हमने पहले कभी नहीं देखा था. उस दिन छुपने और ढूँढ़ने की खूब अच्छी प्रैक्टिस हुई और अंततः छुपनेवालों की जीत हुई. एक बात और... इससे हमारा अपने घर के कोने-कोने से परिचय हो गया... कोने-कोने से दोस्ती हो गई.खूब अच्छा टाइम पास हुआ, खूब मजा आया.


16अप्रैल पाँच बजे
मामी के रिश्तेदार चले गए तो मामी और नानी नीचे आ गईं. यहाँ की काम करने वाली बाई बड़ी वाचाल महिला है. कयामत आ जाए लेकिन चुप नहीं रहेगी. पिछले दंगों से जुड़ी ऐसी-ऐसी कहानियाँ सुनाती है कि बस सुनते रहिए. कुछ सचकुछ झूठ. लेकिन बताने की स्टाइल ऐसी कि जैसे टीवी सीरियल चल रहा हो. मैंऔर अप्पी बगलवाले कमरे में थे. नानी, मामी और दाई किचन में. हवा ऐसी बह रहीहै कि बड़े लोग कोई भी बात करें घूम-फिर कर दंगे-फसाद पर ही आ जाती है.मामी बोलीं, पिछले दंगों में कितनी औरतों की इज्जत से खेला दंगाइयों ने. जालिमों ने छोटी उम्र की लड़कियों तक को नहीं छोड़ा. मामी इतना ही बोली थींकि मेरे कान खड़े हो गए. मुझे आगे सुनने की जिज्ञासा हुई. और शायद अप्पीको भी... क्योंकि उन्होंने टीवी का वाल्यूम कम कर दिया. मैं टीवी देख रहाथा पर कान उधर ही कर लिए. अप्पी कुछ लिखने का नाटक करने लगी थीं. नानी नेबात आगे बढ़ाई, नामुरादों ने उन्हें भी नहीं छोड़ा जो बीमार थीं, उन्हें भीनहीं छोड़ा जो मरने को थीं और उन्हें तक नहीं बख्शा जिनके पैर भारी थे...सातवाँ-आठवाँ महीना चल रहा था. बस कुछ को छोड़ा, दाई ने नानी को लगभग काटतेहुए कहा. किन्हें? नानी और मामी की आवाज एक साथ आई. फिर कुछ रुक कर दाई कीआवाज : अम्मा, सुन लो... अब जिन्होंने चिल्ला कर कहा... गिड़गिड़ा कर कहाकि मुझे छोड़ दो... भैया मुझे न छुओ... महीने से हूँ... मासिक धरम हो रहाहै. सुन कर वे गुस्से से दाँत पीसते हुए, चाकू लहराते हुए, तलवार भाँजतेहुए आगे बढ़ जाते थे. अम्मा, हमारे मुहल्ले में दुकानें लुटीं, घर जले, लोगमरे, लेकिन अस्मत बची रही. बड़ी मामी ने ठिठोली की, हाय रे तुम्हारा मुहल्ला... क्या एक ही टैम में सबकी सब महीने से होती थीं... और वे इतनेभोले थे कि मुओं को शक तक न हुआ. दाई सिलबट्टे को छोड़ कर उनके पास सरक आई.शक हुआ, बाजी, क्यों नहीं हुआ. जिन पर शक हुआ उनको उठा कर ले गए. 

बस उसीके बाद से मुहल्ले की सारी औरतों ने लत्ते ठूँस लिए कि अगर.... वाक्य पूराभी न हुआ था कि तीनों औरतें ठट्ठा मार कर हँसने लगीं. गुलनाज अप्पी जो साँस बाँधे सुनती जा रही थीं, दाँतों के बीच पेंसिल दबाए खिलखिला पड़ीं. पर बातअभी खत्म नहीं हुई थी. मेरी मामी बड़ी ढीठ हैं - बद्तमीजी की हद तक.खुर्राट स्वर में बोलीं, दो-चार पैकेट अभी मँगवा कर रख लेती हूँ... उधर कोईशोर हुआ और धुआँ उठा, इधर हम झट तैयार हुए. और सुनो, ए रहीमन, जरा दुहराओतो तुम लोग कैसे गिड़गिड़ाई थीं. जरा हम भी रिहर्सल कर लें. और एक साथनानी, मामी और दाई की हँसी का फौव्वारा फूट पड़ा. मैंने सोचा, चलो अच्छा हुआ, पिछले पाँच दिनों में पहली बार इस घर में हँसी गूँजी है. लेकिन गुलनाजअप्पी खिसिया गईं. उन्हें पता था मैंने भी सुना है. मुझसे आँख छिपाते हुएबोलीं, अम्मी भी... बस ले कर बैठ गईं उलटी-सीधी. फिर वह मुँह पर किताब रखकर सोने का ढोंग करने लगीं.

शाम को गली में कुछ दुकानें खुलीं. अप्पी ने मामी से जिद की कि खट्टेसमोसे खाएँगी. मामी के किचन में कई चीजों की किल्लत चल रही थी उन्होंने एकलिस्ट नानी को थमाते हुए मुझसे उनके साथ दुकान तक जाने को कहा. मामी कीलिस्ट : केयरफ्री (दो बार अंडरलाइन), गरम मसाला, धनिया पाउडर, नमक, पापड़, चीनी, चाय की पत्ती, अरहर की दाल और बर्तन धोनेवाला विम बार.


16अप्रैल 10बजे रात
फातिमा कॉलिंग... मिस्ड कॉल. गुलनाज अप्पी ने फोन पर हौले से कहा, पीछे वाले गेट के पास आ जाओ. आज अप्पी ने सुंदर-सा फूलदार कुर्ता पहन रखाथा. कुर्ते में एक जेब थी. अप्पी ने इधर-उधर देखा, चुपके से हाथ जेब मेंडाला और लिपस्टिक जैसी कोई चीज निकाल कर जल्दी से अपने होंठों पर चढ़ालिया. फिर दुनिया में जितनी दिशाएँ होती हैं उतनी दिशाओं में अपने होंठोंको घुमा कर चुपचाप खड़ी हो गईं. करीब दस मिनट बाद पराग मेहता आए. सच कहूँ... मुझे बहुत अच्छे लगे पराग मेहता. गोरे, स्मार्ट लेकिन ज्यादा लंबे नहीं. उनके हाथ में कुछ पतंगें थीं अलग-अलग रंग की. उन्होंने मुझसे हाथ मिलाया और पतंगें मेरी ओर बढ़ा दीं. फिर अप्पी से बोले, स्कूटर रोड के किनारे खड़ा है... कुछ लोग उधर ग्रुप में बैठे हैं... आना अच्छा नहीं लगरहा था, वे मुझे घूर रहे थे. कैसी हो... सब कैसे हैं... टेंशन तो है लेकिन कुछ नहीं होगा. मेरा एक दोस्त भी धमाकों में मारा गया है.... पराग मेहता लौटने के लिए बेताब थे. अप्पी ने उन्हें गेट की ओट में खींचते हुए कहा...रुको तो... इतने दिनों बाद देख रही हूँ तुम्हें. वह उनकी ऊपरवाली बटन खोल, बंद करने में लगी थीं. फिर पीछे मुड़ कर मुझसे बोलीं, जाओ अपनी पतंगें सीढ़ी के नीचे रख दो... देख लेना सब क्या कर रहे हैं. सीढ़ी वाला दरवाजा बंदकर देना और लौट आना. मैं लौटा तो देखा गुलनाज अप्पी पराग मेहता से लिपटीहुई हैं. मुझे झिझक हुई. अप्पी ने उनके गाल को, उनके माथे को, उनकी नाक को... और नाक के नीचे भी... चूमा. और फिर उनकी पीठ पर एक मुक्का जमाते हुए बोलीं, जाओ भागो डरपोक कहीं के. इतने कम टाइम के लिए आते हो. फिर वे एक पलके लिए रुकीं और पराग मेहता की हथेलियों को अपने गालों तक ले गईं... वहीं सटाए रहीं... सटाए रहीं... फिर धीरे से बोलीं, अच्छा जाओ.... वह दस कदम गएहोंगे कि अप्पी को कुछ खयाल आया. वह दबी जबान से चिल्लाईं... लगभग हाँफतेहुए... सुनो, उधर मस्जिद की तरफ से मत जाना... आजकल उधर ठीक नहीं है, उधरगोल चौक की तरफ से निकल जाना... पहुँच कर मिस्ड कॉल कर देना. पराग मेहता नेबिना मुड़े अपने दाहिने हाथ को ऊपर उठा कर उँगलियों को हिला दिया जिसका अर्थ था कि हाँ, हाँ, मैं समझ रहा हूँ... गोल चौक की तरफ से ही जाऊँगा.

इसके बाद सब लोगों ने खाना खाया. आज घर का माहौल हलका लग रहा था. पीस कमिटी की मीटिंग से आने के बाद अब जा कर मामू नार्मल थे. छोटे मामू के बारेमें पुलिस ने दुबारा फोन नहीं किया था इसलिए उनका भी मूड ठीक था. नानी और मामी का मूड तो दाई की बतकही से ही ठीक हो गया था. गुलनाज अप्पी दौड़-दौड़कर सबके सामने फुलके रख रही थीं. इतने दिनों में पहली बार उन्हें गुन गुनाते सुना था. गुनगुनाए जा रही थीं, गुनगुनाए जा रही थीं. मुझे रंगबिरंगी पतंगों का सोच कर रोमांच हो रहा था. कल दिन भर छत पर खड़े होकर पतंग उड़ाऊँगा.
आज की डायरी काफी लंबी हो गई. सोचता हूँ सो जाऊँ, बाकी जो कुछ आज हुआ उसेकल दर्ज करूँगा. लेकिन नींद नहीं आ रही है. बड़ी बेचैनी है. घर में कोई भी नहीं सो रहा है. जो खुशी और चैन अब तक नसीब हुआ था, वह ठीक बेडटाइम से पहले काफूर हो गया.


16अप्रैल रात साढ़े ग्यारह बजे
खाना-पीना खत्म करने के बाद मामू ग्यारह बजे की हेडलाइंस सुन रहे थे किदरवाजे पर दस्तक हुई. बाहर से मिलीजुली आवाजें आ रही थीं. अजीब-सी हरकत होरही थी. मामू ने बगलवाली खिड़की की दरार में आँखें गड़ा कर देखा और दरवाजे की ओर बढ़ गए. करीब पंद्रह-बीस लोग रहे होंगे. मुहल्ले की मस्जिद के पासरहनेवाले थे वे सब. उन्होंने पराग मेहता को कस कर पकड़ रखा था. दरवाजा खुलते ही वे लोग पराग मेहता को खींचते हुए पोर्टिको में ले आए. अब तक नानी, मामी, छोटे मामू और गुलनाज अप्पी भी दरवाजे पर आ गए थे. पोर्टिको की लाइटमें हम साफ देख सकते थे कि पराग मेहता की जम कर पिटाई हुई है. उनके बालछितर-बितर हो गए थे. कमीज फट गई थी. नाक से खून की लकीर निकल कर सूख गई थी.मुँह बुरी तरह सूज गया था. पैंट आधा कीचड़ से सना था. एक पैर की चप्पल नदारद थी. उनका सर झुका हुआ था. उन्हें दो लोगों ने दबोच रखा था. बाकी के लोग उन्हें घेर कर खड़े थे. उन लोगों का कहना था कि ये हिंदू लड़का बड़े संदेहास्पद ढंग से मस्जिद के आसपास घूम रहा था. इसकी मंशा सही नहीं लगती. विश्व हिंदू परिषद का मेंबर है. बुलाने पर भागने लगा. रुक जाता तो हम लोग इसकी ये हालत न बनाते. जब हमने इसे घेर कर पकड़ा तो कहने लगा, इस्माइल साहबके यहाँ गया था, कुछ काम था. हम जानते हैं कि साला झूठ बोल रहा है, फिर भीपूछने चले आए.

मामू कुछ देर तक पहचानने की कोशिश करते रहे, लेकिन नहीं पहचान सके. शायदउन्होंने पराग मेहता को कभी सामने से नहीं देखा था. नानी और मामी ने भी आँखपर जोर डाल डाल कर देखा, लेकिन पराग मेहता को पहचान न सकीं. मामी ने बगलमें खड़ी गुलनाज अप्पी से धीरे से पूछा, तूने कभी देखा है इसे? गुलनाज अप्पी की आँखें पराग मेहता के ऊपर चिपकी हुई थीं. लगा अब रोईं कि तब. मामी ने दुबारा पूछा तो वह बोलीं, नहीं अम्मी... नहीं देखा इसे कभी... लेकिन इन लोगों ने इसे मारा क्यों? अब्बू से कहिए इसे बचा लें. ये लोग इसे मार डालेंगे. अम्मी, आप अब्बू से कहिए... अम्मी प्लीज... अम्मी.... मामू ने यहबात सुन ली और उन लोगों को समझाते हुए बोले, देखिए अब इसे आप लोग बिल्कुल न मारें-पीटें. इससे बिला वजह गलतफहमी पैदा होगी और तनाव बढ़ेगा. मैं इंस्पेक्टर खान से बात कर लेता हूँ, वे पूछताछ कर लेंगे. सीधे इसे थाने लेजाइए. लेकर जाइए. वे लोग पराग मेहता को खींचते हुए अँधेरे में गायब हो गए.
मुझे लगता है कि इसके बाद पराग मेहता की और प्रताड़ना नहीं हुई होगी और इंस्पेक्टर खान ने उनसे पूछ ताछ करके उन्हें छोड़ दिया होगा. लेकिन एक बातहै. मैं गुलनाज अप्पी से बहुत नाराज हूँ. मैं उनसे सचमुच बहुत नाराज हूँ.


17 अप्रैल
आज फिर से सन्नाटा पसर गया है पूरे घर में. मेरा पतंग उड़ाने का मन नहींहुआ. सब लोग रातवाली घटना के बारे में सोच रहे हैं, लेकिन बात कोई नहीं कररहा है. सब कोई अलग-थलग कमरों में पड़े हुए हैं. जैसे किसी बहुत बड़ीविपत्ति की आशंका से ग्रस्त हों या किसी अनिष्ट का अंदेशा हो. शायद उधर सेइस घटना की प्रतिक्रिया गंभीर हो. कुछ लोगों की नासमझी से पूरे मुहल्ले कीजान साँसत में पड़ गई है. मैं अप्पी से नजर नहीं मिला पा रहा हूँ. अप्पीमुझसे बच रही हैं. सुबह से दोपहर हो गई और दोपहर से शाम. अप्पी से बात नहींहुई. फिर शाम को मैंने उन्हें किचन में पकड़ा, कल आपने झूठ क्यों बोलाअप्पी? क्यों पराग मेहता को पहचानने से इनकार कर दिया आपने? वह चुपचाप आलूकाटती खड़ी रहीं. न मेरी ओर देखीं न मेरी बात का जवाब दिया. मुझे उन परगुस्सा आ गया. मैंने उनकी बाँह पकड़ कर उन्हें झिंझोड़ दिया, क्यों नहीं बोलीं आप कि पराग मेहता आपके प्रेमी हैं? अप्पी ने मेरी ओर कातर दृष्टि सेदेखा... और देखती चली गईं. 

उनकी आँखों में जाने क्या था कि... सच कहताहूँ... मैं विचलित हो गया. कुछ देर तक उसी तरह देखते रहने के बाद वह फिर सेआलू काटने लगीं नजरें नीची करके. पर मैं बेचैन था. मैंने कहा, अगर आप कहदेतीं कि आप उन्हें पहचानती हैं तो उनके लिए कितना अच्छा होता. अप्पी खामोशरहीं. अपने ऊपर नियंत्रण करने की कोशिश में उनका चेहरा अजीब-सा हो रहा था.फिर मैंने देखा कि आलू के टुकड़े भीग रहे हैं. टप टप टप आँसू. फिरसिसकियाँ. फिर अप्पी जोर-जोर रोने लगीं जैसे कोई बच्ची... जैसे कोई छोटी-सीलड़की. अप्पी रोए जा रही थीं. लेकिन पूरा घर चुप था. अप्पी रो रही थीं.मैं चुप था. मामू चुप थे. नानी चुप थीं. मामी चुप थीं. छोटे मामू चुप थे.मानसुख पटेल चुप थे. इंस्पेक्टर खान चुप थे. इधर के सारे लोग चुप थे. इधरके कुत्ते बिल्ली बंदर कबूतर गली कूचे चौक चौराहे नुक्कड़ तिकोने मस्जिदमजार तारे सितारे चाँद सूरज सभी चुप थे. उधर के भी कुत्ते बिल्ली बंदरकबूतर गली कूचे चौक चौराहे नुक्कड़ तिकोने मंदिर शिवालय तारे सितारे चाँदसूरज सभी चुप थे. लेकिन उधर से भी एक रोने की आवाज आ रही थी. यह साधारणरोने की आवाज नहीं थी. यह विलाप था... यह एक हृदयविदारक क्रंदन था... यहमर्मांतक पीड़ा से उपजा एक पुरुष का रुदन था... जो समस्त ब्रह्मांड कीचुप्पी को पार करता हुआ हमारे बड़े मामू के किचन तक पहुँच रहा था.


17अप्रैल, सात बजे शाम
घर में सभी बीमार जैसे लग रहे हैं. कहाँ तो मैं अहमदाबाद घूमने आया थाकहाँ इन चक्करों में पड़ गया. मुझे ऐसी चुप्पी, ऐसी खामोशी से नफरत हो गईहै. उस चुप्पी के पीछे के षड्यंत्र और इसके पीछे की कायरता को मैं पूरी तरहनहीं समझ पा रहा हूँ. शायद मेरी उम्र आड़े आ रही है. शाम लगभग सात बजेमामू ने अपनी चुप्पी तोड़ी, फोन मिलाया अपने दोस्त मानसुख पटेल को. मामू नेबताया कि मानसुख पटेल नाराज हैं कलवाली घटना को लेकर. कह रहे थे, तुम्हारेरहते हुए उस तरफ ऐसी घटना कैसे घटी? तुम्हें आगे बढ़ कर बचाना चाहिए था.तुम्हारे होते ऐसा कैसे हो गया? पराग मेहता बीजेपी सांसद वीरशाह मेहता काभांजा है. इधर लोग बहुत उत्तेजित हैं... बहुत गुस्से में हैं. लोगों कोकैसे समझाऊँ कैसे रोकूँ, मेरे बस में नहीं है.

पहली बार मैंने मामू को मानसुख पटेल से दोस्त की तरह बात करते हुए नहींसुना. मामू की आवाज में विचलन थी, कमजोरी थी... मिन्नत थी और गिड़गिड़ाहटथी. वे दबे हुए थे. वे मानसुख पटेल को 'तुम'नहीं, बल्कि 'आप'कह करसंबोधित कर रहे थे. आप चाहेंगे तो कुछ नहीं होगा. आप चाहेंगे तो लोग मानजाएँगे. आप उन्हें रोक लीजिए... आप समझा लीजिए.

मानसुख पटेल से बात करके मामू काफी हताश थे. माथे पर हाथ रख कर टीवी केसामने अधलेटे पड़े थे. आज फिर खाना धरा का धरा रह गया. मामी ने इधर-उधर फोनमिलाया. नानी लगातार सजदे में थीं. गुलनाज अप्पी अभी भी गुमसुम. न टीवी नखाना-पीना न बोलना-बतियाना. मुझसे भी नहीं. मामू बार- बार खिड़की से बाहरझाँकते... आहट लेते... वापस टीवी के सामने लस्त बैठ जाते. नमाज के बाद नानीने सबके ऊपर फूँक छोड़ी - हम सभी के लिए उनका रक्षा कवच. नानी ने आज बड़ीहिम्मत की बात की. टीवी रूम में खड़े-खड़े बड़बड़ाने लगीं, कुछ नहींहोगा... देखती हूँ कौन आता है.... मैं आगे रहूँगी... देखती हूँ आज मैं...वे लोग कोई पत्थर के नहीं बने हैं. नानी की बात सुन कर मेरी बड़ी हिम्मतहुई. मैं समझ गया कि अगर वे आते हैं तो नानी मुझे अवश्य बचा लेंगी.



17अप्रैल 11बजे रात
और वे आए. वे एक हादसे की शक्ल में आए.
अगर मैं लेखक या पत्रकार होता तो इस मंजर का बयान अपनी डायरी में बड़ेड्रामाई अंदाज में कर सकता. लेकिन मैं ठहरा कक्षा दस का विद्यार्थी और भाषापर मेरी पकड़ कुछ खास है नहीं. इस रात की बात को सीधे-सीधे शब्दों मेंसमेट कर जितनी जल्दी हो सके सोना चाहता हूँ. कल मामू से कहना है कि मेरीवापसी का टिकट करवा दें... मुझे अम्मी-अब्बू की याद आ रही है. मैं यहाँ औररहा तो बिना मारे ही मर जाऊँगा. यहाँ इतना डर है कि क्या बताऊँ.

बिना किसी नाटकीयता के लिखूँ तो यह लिखूँगा. दंगे और नरसंहार कीप्रस्तावना दरअसल वास्तविक दंगे और नरसंहार से कम डरावनी और कम दुखदायीनहीं होती. इसे कोई तभी समझ सकता है जब वह उससे गुजरा हो. डायरी लिख कर यापढ़ कर उसे नहीं जाना जा सकता. प्रस्तावना में यह होता है कि... रात होतीहै... और रात गहरी काली होती है. एक पूरा मुहल्ला होता है जिसमें कई घरहोते हैं. घरों में मद्धम रोशनी होती है या फिर नहीं होती है. इन्हीं घरोंके अंदर हाड़-माँस के बने लोग साँस अंदर-बाहर करते हुए...बैठे...खड़े एकउग्र राक्षसी भीड़ की प्रतीक्षा करते होते हैं. अंदर से वे दोस्तों, शुभचिंतकों, रिश्तेदारों और पुलिस अधिकारियों को फोन करते रहते हैं, लेकिनउनके फोन बंद मिलते हैं. उनमें से कुछ लोग छत पर तो कुछ अपनेदरवाजों-खिड़कियों की दरारों पर आँखें और कान गड़ाए कहीं दूर उठ रहे शोर औरनारों को सुनने की कोशिश कर रहे होते हैं. फिर क्या होता है कि... पहलेबहुत दूर कहीं सन्नाटे को चीरती एक चिल्लाहट उभरती है... फिर अँधेरी सुनसानसड़क पर कुछ कुत्ते भौंकते हुए भाग रहे होते हैं. फिर किसी खौफजदा मनुष्यका सरपट भागते हुए आना. धप...धप...धप...धप करते पैरों की आवाज सहसा नजदीकसे नजदीकतर होती हुई... लगेगा आपके तकिए को छूता कोई व्यक्ति जान हथेली पररख कर निकला! और फिर पड़ोस में या सड़क के उस पार ठीक आपकी खिड़की के सामनेएक दरवाजे के खुलने और भड़ाम से बंद होने की आवाज! रात के अँधेरे में आपकोकुछ नहीं दिखाई देगा. खाली आवाज. फिर छोटे-छोटे समूहों में जान बचा करभागते लोग... बिना बोले... बिना चिल्लाए... रात के सन्नाटे में... गलियोंकी ओर, घरों की ओर बेतहाशा... बदहवास भागते लोग! और धड़ाधड़ खुलते-बंद होतेदरवाजे! यह उनके आमद की पक्की निशानी है. यह अँधेरी रात में भाले-बरछे औरकिरासन तेल के गैलन से लैस हमलावर भीड़ के आ पहुँचने की निशानी है. वे आ गएहैं. न शोर मचा रहे हैं... न नारे लगा रहे हैं. उनकी हिंसक और हार्ट फेलकर देनेवाली उपस्थिति में एक अलग तरह का शोर है, एक अलग तरह का नारा है जोदरवाजों और खिड़कियों की ओट में छिपे लोग सुन रहे हैं और जिससे अगले ही पलउनका साबका पड़नेवाला है.

लाल लाल आँखें किए हुए, हाथों में मार डालने के औजार लिए हुए वे हमारीड्योढ़ी पर खड़े हैं. अगर दरवाजा न खोला गया तो वे उसे तोड़ देंगे और पूरेघर में आग लगा देंगे, और बाहर निकलने के सारे रास्ते बंद कर देंगे. दरवाजेपर भड़...भड़...भड़.
मामी और गुलनाज अप्पी ने रहीमन दाई के बताए नुस्खे के अनुसार झट बाथरूममें घुस कर अपनी तैयारी की. बड़े मामू और मामी ने गुलनाज अप्पी की बाँहपकड़ कर उन्हें टीनवाले बक्से के पीछे... कबाड़ के बीच में... घुसा दिया.फिर मामू ने जल्दी से अपना रिवाल्वर खोंसा, छोटे मामू और मामी को अपनी-अपनी जगह छुपने का इशारा करते हुए छत पर चले गए.

तब नानी ने दरवाजा खोला. मैं नानी के पीछे खड़ा था. नानी ने पूछा, क्याबात है... कौन हैं आप लोग... क्या चाहते हैं? भीड़ में कोई नेता नहीं होता.काली टीशर्ट और नीली जींस पहने एक नौजवान ने पूछा, पराग मेहता की ऐसी हालतकिसने की? कल रात वह किसी काम से इधर आया था... वह अस्पताल में बेहोश पड़ाहै... उसकी हड्डियाँ टूट गई हैं, मुँह और नाक से खून बंद नहीं हो रहाहै... वह मरनेवाला है. नानी ने कहा, देखो, तुम नाहक हमारे ऊपर गुस्सा कररहे हो. कौन पराग मेहता... उसके साथ क्या हुआ हम नहीं जानते... वह इधर किसीसे मिलने नहीं आया था. मैं नानी के बगल में खड़ा था. मैंने अचानक उन्हेंचिकोटी काट ली, क्यों झूठ बोलती हो नानी... वह आए तो थे गुलनाज अप्पी सेमिलने,तुमने नहीं देखा तो क्या. पर मैं चुप रहा. नानी को मेरी चिकोटी काअसर भी नहीं हुआ. नानी का स्वर थरथरा रहा था. उनके पैर काँप रहे थे. भीड़से दो-चार युवक हॉकी और लोहे की छड़ें और करौलियाँ लहराते हुए अंदर चले आए.लेकिन उन लोगों ने घर को कोई विशेष क्षति नहीं पहुँचाई. हॉकी से टेबुल पररखे फूलदान को तोड़ दिया, लोहे की छड़ को सोफे में घुसेड़ दिया, करौली सेकिचन में रखे कद्दू को टुकड़े-टुकड़े कर दिया हाथों और पैरों से पोर्टिकोमें रखे गमलों को गिरा दिया. 

लेकिन पराग मेहता की लाई मेरी पतंगें बच गईं.फिर वे भद्दी-भद्दी बातें बोलते हुए बाहर निकल गए. जाते-जाते भीड़ की नजरमामू की नई कार पर पड़ी. वे उसे ढकेलते हुए बाहर तक ले गए और उसमें आग लगादी. कार धू-धू करके जलने लगी. एक मिनट में गहरी अँधेरी रात पीली हो गई.काला धुआँ चारों ओर फैलने लगा. वहाँ से कूच करने के पहले भीड़ में से एक नेचिल्ला कर कहा, अगर उसे कुछ हो गया तो हम फिर आएँगे... समझ लो. एक के बदलेसौ को मारेंगे.

भीड़ के दूर चले जाने के बाद पड़ोस में और गली के उस पार कुछ खिड़कियाँखुलीं... कुछ दरवाजे चरमराए. लेकिन जलती कार से उठती पीली लपटों का माजरासमझ में आते ही वे बंद हो गए.


18अप्रैल साढ़े बारह बजे रात
रात के साढ़े बारह बजे हैं. यह अहमदाबाद में मेरी अंतिम रात है. आज जो हुआ... उसके बाद रात खैरियत से बीत गई और सुबह कोई हंगामा न बरपा हुआ तो इंशा अल्लाह मैं आठ बजे अहमदाबाद मेल पर सवार हो जाऊँगा. लेकिन सबसे पहले वह दर्ज कर लूँ जो कुछ आज घटित हुआ. आज पहली बार मानसुख पटेल को देखा. वहघर पर आए थे. इस्माइल मामू से उनकी मुलाकात का वह क्षण... वह दृश्य मैं कभी न भूल पाऊँगा. यह मैं किसी भावना में बह कर नहीं लिख रहा. यह सच है. अंग्रेजी में जिसे 'मोमेंट ऑफ ट्रुथ'कहते हैं सत्य का वह क्षण, वह पल जो बस कभी-कभी पकड़ में आता है और जो इसी तरह सच प्रतीत होने वाले बाकी दूसरे क्षणों को हमारे अवचेतन से विस्थापित कर देता है. मैं किचन में बिलखती गुलनाज अप्पी को समय के साथ भूल सकता हूँ, मैं सर झुकाए, घायल पराग मेहताको कुछ दिनों बाद विस्मृत कर दूँगा, हो सकता है अहमदाबाद प्रवास के दौरान हुए मेरे सारे अनुभव एक-एक कर भविष्य में होनेवाले दूसरे अनुभवों से पराजित हो कर विस्मरण के गर्त में समा जाएँ, लेकिन मानसुख पटेल और इस्माइल मामूका एक-दूसरे से रूबरू होने का वह मंजर, वह दृश्य... और उससे उपजे इनसानीरिश्तों के आदिम आख्यान को मैं कभी नहीं विस्मृत कर पाऊँगा.

बीती रात की घटनाओं से घर के सारे सदस्य हिल गए थे. घर से थोड़ी ही दूर परसड़क के किनारे मामू की नई गाड़ी का ढाँचा पड़ा था. मामू ने फैसला किया किआज शाम तक सारे लोग मामी के भाई के यहाँ शिफ्ट हो जाएँगे. यहाँ अब बिल्कुल सेफ नहीं है. यह भी कि घर का कोई सदस्य न बाहर निकले न छत पर जाए और न हीकिसी के बुलाने पर गेट या अंदर का दरवाजा खोले. मामू ने इंस्पेक्टर खान को कई बार फोन किया, पर उधर से कोई जवाब नहीं मिला. मानसुख पटेल को मामू नेजानबूझ कर फिर से फोन नहीं किया. अब तक उन्हें पूरा यकीन हो गया था किमानसुख पटेल बदल गए हैं. इधर पराग मेहता के बारे में कोई सूचना नहीं थी किवह जिंदा हैं या अस्पताल में दम तोड़ चुका. ऐसी ही उधेड़बुन चल रही थी किअफवाह आई कि एक भीड़ हमारी तरफ बढ़ी आ रही है. फिर कुछ देर बाद छोटे मामूने पक्की जानकारी दी कि मानसुख पटेल एक भीड़ को लीड करते हुए बढ़े चले आ रहे हैं. पराग मेहता के साथ जो कुछ हुआ वे उसका हिसाब माँगने आ रहे हैं.

मानसुख पटेल सचमुच आ रहे थे. मानसुख पटेल के साथ कई और लोग आ रहे थे. पूरी भीड़. मामू ने छत से जायजा लिया... लेते रहे... नीचे आए...फिर ऊपर गए, फिरड्राइंग रूम में सोफे पर बैठ गए... फिर गेट तक जाने को हुए, लेकिन आधे रास्ते से ही वापस आ गए. उनकी बेचैनी कम नहीं हो रही थी. रिवाल्वर को निकालते, पोछते, अंदर खोंसते और फिर निकाल लेते. जब आभास हो गया कि भीड़ एकदम पास आ गई है तो उन्होंने एक बार फिर रिवाल्वर निकाला, गोलियाँ चेक कीं और कमीज में छिपा लिया. और जैसे ही दरवाजे पर दस्तक हुई, मामू को मैंने पसीने से तर होते देखा. उन्होंने मामी को डाँटते हुए कहा, गुलनाज को छिपाओ... खुदा के लिए तुम भी छिप जाओ. जल्दी करो... सलीम से कहो छत पर चलाजाए.

मामू डर गए थे. वह भयभीत हो गए थे. मामू अपने दोस्त मानसुख पटेल से डर गए थे. सचमुच, मानसुख पटेल की उपस्थिति भयभीत कर देनेवाली थी.

मानसुख पटेल अपने लोगों को पोर्टिको में ही रुकने का इशारा करते हुए अंदरदाखिल हो गए. अंदर आने के लिए न उन्होंने किसी से पूछा और न ही उन्हें किसीने मना किया. कमरे में नानी थीं, मैं था और अब मानसुख पटेल थे. मैं और नानी खड़े थे. मानसुख पटेल भी कुछ देर तक खड़े रहे... जैसे कमरे का मुवायना कर रहे हों. और फिर वे साइड सोफे पर बैठ गए. मानसुख पटेल को मैं पहली बार देख रहा था. लेकिन मुझे उनसे कोई डर नहीं लगा. वह मेरे मामू जैसे हीहट्टे-कट्टे और सुंदर थे. उनके चेहरे पर हलकी- हलकी दाढ़ी थी. नानी ने मुझे डाइनिंग टेबल की कुर्सी पर बैठने का इशारा किया और खुद भी एक कुर्सी खींचकर बैठ गईं. मानसुख पटेल ने चुप्पी तोड़ी, कितने लोग थे कल रात? किसी को पहचाना? कार के अलावा तो किसी और चीज को नुकसान नहीं पहुँचाया? पराग मेहता को इतनी बुरी तरह से किन लोगों ने मारा और क्यों? अब तक हमारे पड़ोसी खलील अंसारी और रहीमन दाई भी ड्राइंग रूम में आ गए थे. नानी चुप थीं. खलील मियाँ और दाई अपनी अपनी तरह से उनके सवालों का जवाब देते रहे और उनसे अपने सवाल पूछते रहे. मानसुख पटेल ने बताया कि सारे बम हिंदू इलाकों में ही फटे हैंऔर दो सौ से ज्यादा लोग मारे गए हैं. अब स्थिति नियंत्रण में है. पुलिस इसबार पूरी तरह मुस्तैद है. सीएम स्वयं स्थिति पर नजर रखे हुए हैं. फिर भीतनाव तो है ही, बात ही ऐसी हो गई है कि लोगों में नाराजगी होना स्वाभाविक है. इस पर खलील मियाँ बोले, लेकिन कल रात तो 2002 वाली बात होते-होते रह गई. एक बार तो लगा था कि इस मुहल्ले के लोग सुबह का सूरज नहीं देख पाएँगे.लेकिन खुदा का लाख-लाख शुक्र है कि उन्होंने सब कुछ किया, लेकिन किसी कीजान नहीं ली.

मानसुख पटेल ने इधर-उधर देखा और कुछ चौंकते हुए बोले, अरे इस्सू नहींदिखाई पड़ रहे हैं, कहाँ हैं... बुलाइए उनको... कहिए कि मैं आया हूँ. कुछदेर फिर धमाकों, पराग मेहता और मामू की कार पर बात करने के बाद उन्होंने इस्माइल मामू के बारे में पूछा. नानी चुप रहीं, लेकिन खलील मियाँ ने मुझसे कहा, कहाँ हैं इस्माइल भाई... बुला दो अपने मामू को. मानसुख पटेल ने फिर अचरज से पूछा, अरे ये गुलू नहीं दिखाई पड़ रही है और भाभी कहाँ हैं? तीनों कहीं बाहर गए हैं क्या? फिर वह हँसने लगे, कहीं पिकनिक- विकनिक मनाने क्या? नानी सन्न बैठी थीं और मैं मानसुख पटेल के दोनों हाथों की उँगलियों कोदेखे जा रहा था जिनमें उन्होंने नगदार सोने की अँगूठियाँ पहन रखी थीं. उन्होंने मेरी तरफ इशारा किया, कहाँ हैं इस्माइल? मेरे जवाब को सुने बगैरही वह उठे और कहाँ हो भाई इस्सू, कहाँ हो'कहते हुए अंदरवाले कमरे की ओरबढ़ चले. जिस बेतकल्लुफी के साथ वह अंदर जा रहे थे उससे मैं निश्चिंत होगया कि घर के अंदरूनी हिस्सों में जाने के लिए उन्हें किसी औपचारिकता कीआवश्यकता नहीं है. मैं उनके पीछे-पीछे सरकने लगा.

इस्माइल मामू जहाँ थे, मानसुख पटेल वहीं आ कर खड़े हो गए... लेकिन मेरा पूरा विश्वास है कि यह बात उनकी कल्पना में भी न आई होगी कि अपने बचपन के दोस्त इस्माइल शेख से वे इस प्रकार मिलने को अभिशप्त होंगे. मैं उसी मुलाकात को शब्दों का जामा पहनाने की कोशिश करता हूँ.

उन्होंने फिर आवाज दी, कहाँ हो भाई इस्माइल... अरे भाई देखो मैं आयाहूँ.... उनकी नजरें सामने दीवार पर ठहर गईं. सामने बेड था और बेड के ऊपरदीवार पर एक फोटो टँगी थी. फोटो में इस्माइल शेख और मानसुख पटेल थे. मान सुखपटेल के हाथ में एक आइसक्रीम थी और दोनों उसे चाट रहे थे. मानसुख पटेल कीहोंठों की हरकत से साफ था, फोटो देख कर वे धीमे से मुस्कुरा उठे थे.

मेरे इस्माइल मामू उसी बेड के नीचे छिपे हुए थे. चोर सिपाही के खेल मेंकुछ ऐसा होता है... असल में ऐसा हो ही जाता है कि छुपनेवाला, जिसे चोर कहते हैं, कुछ सुराग छोड़ देता है जिससे वह पकड़ा जाता है. चोर का कोई अंग याउसका कपड़ा या फिर जूता या बाल या ऐसी ही कोई चीज बाहर झाँकती रहती है...और वह इसी बिना पर पकड़ा जाता है. मामू का एक पैर बेड के निचले पट से सटाहुआ थोड़ा-सा बाहर झाँक रहा था. पूरी कोशिश करके इस्माइल मामू जितना अंदरजा सके थे चले गए थे, लेकिन एक पैर पूरा अंदर नहीं जा सका था. मानसुख पटेलकी नहीं जानता, लेकिन मैंने मामू के उस पैर को देख लिया.

मामू ने अपने शरीर को सिकोड़ कर अर्धचंद्राकार जैसा कर लिया था. लगता हैमामू जल्दी में घुसे होंगे, इसलिए खुद को पूरा नहीं सिकोड़ पाए थे और उनकी अर्धचंद्रा कार वाली स्थिति दरअसल दयनीय कम हास्यास्पद अधिक लग रही थी. औरइसी कशमकश में रिवाल्वर अंदर से सरक कर नीचे फर्श पर पड़ा हुआ था. मेरी हिम्मत नहीं पड़ रही थी कि मैं दुबारा झाँक कर देखूँ. किसी बड़े आदमी...जैसे कि मेरे अपने अब्बू या मेरे सामने खड़े मानसुख पटेल जैसे आदमी को उसदशा में लेटे हुए कैसे देखता. इस्माइल मामू को मैं बड़ा बहादुर समझता था.हट्टे-कट्टे, ऊँचे-लंबे थे मामू. उन्हें वैसा देख कर एक पल के लिए मन कियाकि गुलनाज अप्पी को बुलाऊँ और दिखा दूँ कि अरे, देखो देखो मामू कैसे छिपे हैं मेरे रिवाल्वर वाले डरपोक मामू! और अप्पी के साथ मिल कर खूब हँसूँ. लेकिन मैं एक बार फिर झुका... झुका रहा... जैसे मुझे काठ मार गया हो. मामू मेरी तरफ नहीं देख रहे थे. उनकी आँखें बंद थीं और वह बहुत धीरे-धीरे साँसले रहे थे. अचानक उनकी आँख खुली... मुझ पर पड़ी... और वह बड़े धीरे सेबोले, बेटा, वे लोग हैं या गए? मैंने उनकी बात का जवाब नहीं दिया... मेरी आँखें उनके लावारिस पड़े रिवाल्वर पर टँगी थीं. मामू को अभी भी आभास नहींथा कि मानसुख पटेल मेरे पास ही खड़े हैं... और अब नीचे झुकनेवाले हैं.

मानसुख पटेल हिचक रहे थे, यह तो साफ था. फिर भी वे बेड के पास बैठे... और धीरे-धीरे अपनी गर्दन को नीचे ले गए. मैंने कुछ सुना... जब कि असल मेंमैंने कुछ नहीं सुना था. मानसुख पटेल के बगल ही में मैं भी बैठा था, उनकी धड़कन सुन रहा था... लेकिन अगर उन्होंने इस्सू या इस्माइल जैसा कुछ कहा तोमैंने नहीं सुना था. इस्माइल मामू उसी तरह दुबके हुए थे. रिवाल्वर उसी तरह पड़ा हुआ था. मैं सीधे-सीधे मानसुख पटेल को नहीं देख रहा था... खाली उन्हें सुन रहा था... और उनके चेहरे को सुन रहा था. मैंने महसूस किया कि मानसुख पटेल बड़े मामू को उस दशा में देख कर अचंभे, अविश्वास, पीड़ा और लाज से तरहो गए. जैसे उनके शरीर में जान नहीं, उनके शरीर का पूरा सत्व निचुड़ गया है. लगा, वे गिर जाएँगे बैठे-बैठे. अब गिरे कि तब. मामू उन्हें देखे जा रहेथे...डरे-सहमे कोने में दुबके टकटकी बाँधे मानसुख पटेल को देखे जा रहे थे मामू. जैसे कोई चोर जो चारों ओर से घिर गया हो और बच निकलने के रास्ते बंद हों. जैसे कोई भयभीत मे मना. लेकिन मानसुख न सिपाही लग रहे थे, न शेर न भेड़िया. खाली उनका चेहरा बेरंग हो गया था, गर्दन के ऊपर खून का प्रवाह नहीं हो रहा था. जैसे समय ठहर गया था, जैसे वह क्षण बर्फ की सिल्ली में जमगया था, जैसे कालचक्र अब कभी आगे नहीं बढ़ेगा. उस रुके हुए पल में जिस शर्मिंदगी ओर बेबसी से मानसुख पटेल गुजरते जा रहे थे उसे डायरी में पूरी सच्चाई के साथ नहीं उतार पा रहा हूँ. वह चाह रहे थे मामू की नजरों से अपनी नजरें हटा लें. लेकिन वे तो वहीं फँस गई थीं. मानसुख पटेल के मुँह सेबमुश्किल मामू का नाम फिसला, इस्...मा...इल. मामू बुदबुदाए मान...सुख. फिरमामू ने धीरे-धीरे आँखें खोल दीं. एक बार फिर बुदबुदाए, मानसुख... मैं बाहरनिकल सकता हूँ... कुछ करोगे तो नहीं? मामू जैसे याचना कर रहे हों.

मानसुख पटेल ने नहीं सुना. मानसुख पटेल कुछ नहीं सुन रहे थे. वह कुछ भी नहीं सुन पाए. अच्छा हुआ नहीं सुना. यह सुनने के लिए मानसुख पटेल इस दुनिया में नहीं आए थे. लेकिन कौन कह सकता है कि उन्होंने नहीं सुना? नहीं सुनातो आखिर उन्हें चक्कर क्यों आया? दरअसल उनकी जड़ता कुछ देर बाद टूटी... जब कालचक्र फिर से गतिमान हो गया. बेड पर हाथ की पकड़ ढीली हुई... संतुलन थोड़ा बिगड़ा और वे वहीं जमीन पर लुढ़कने लगे... जैसे मूर्छा आई हो. पहले मुझे लगा मेरे ऊपर ही गिरेंगे, लेकिन वे गिरे दूसरी ओर. वे पूरा गिरें...इससे पहले मेरा दाहिना हाथ उन तक पहुँच गया. मैंने सहारा भर देदिया और हौले-हौले वे अपनी दाहिनी ओर लुढ़कते चले गए.


18जून
अहमदाबाद से लौटने के बाद कई दिनों तक मैं अवसाद से घिरा रहा. किसी काम में मन नहीं लगता था. मामू, मामी, नानी और गुलनाज अप्पी की याद हमेशा आती. बावजूद इसके कि मैं अहमदाबाद नहीं घूमा, वह जगह मुझे अच्छी लगी. किसी शहर को ले कर मैं कभी भी इतना भावुक नहीं हुआ. वैसे मैंने अधिक शहर नहीं देखे हैं - सिर्फ दो-चार. आखिर अहमदाबाद में ऐसा क्या है जो मुझे खींचता है, जो मुझे बुलाता है.... अहमदाबाद में मेरे मामू का घर है, उनकी छत है, उनका किचन है... और हमारी गुलनाज अप्पी हैं, बुढ़िया नानी हैं, गुस्सैल छोटे मामू हैं, डरपोक बड़े मामू हैं और ढीठ-खुर्राट नेक दिल मामी हैं. दो जन औरहैं - मेरे बड़े मामू के दोस्त मानसुख पटेल और मेरी गुलनाज अप्पी के प्रेमी पराग मेहता जिन्होंने मुझ से हाथ मिलाया था, जो मेरे लिए रात में पतंगें लेकर आए थे. जब इन सबके बारे में सोचता हूँ तो लगता है एक बार अहमदाबाद हो आऊँ. लेकिन अम्मी को कौन समझाए! कहती हैं, अब सपने में भी अहमदाबाद के बारेमें मत सोचना. कभी न जाने दूँगी. अब उन्हें क्या मालूम अहमदाबाद मेरे सपनेमें डेली आता है. कभी मामू की छत पर पतंग उड़ा रहा होता हूँ तो कभी मामूकी जली हुई कार धू-धू करती दिखाई पड़ती है. कभी खीर और ढोकला खा रहा होताहूँ तो कभी बेड के नीचे छुपे मामू दिखाई पड़ते हैं. एक बार तो गजब ही हो गया. इस्माइल मामू और मानसुख पटेल को साथ-साथ देखा. दोनों एक ही आइसक्रीम को चाट रहे हैं. एक बार उससे भी गजब हो गया. देखा, पराग मेहता दूल्हा बने हैं और गुलनाज अप्पी दुल्हन. पराग मेहता गुजराती परिधान में खूब जम रहेहैं. मैंने गुलनाज अप्पी के कान में कहा, हलो... फातिमा कॉलिंग.... अप्पी बोलीं, धत्‌. अच्छा गुड नाइट, अब सोता हूँ. शायद आज फिर अहमदाबाद सपने में आए.


29जून
आज अहमदाबाद से चिट्ठी आई है मेरे नाम. गुलनाज अप्पी की है. लिखती हैं : प्यारे सलीम भैया, जब से गए हो न कभी फोन किया न खत लिखा. तुम्हारे जाने के बाद यहाँ किसी का मन नहीं लगता था, अम्मी अब्बू दादी सभी तुम्हारे बारेमें बात करते रहते थे. तुम्हारी खूब याद आती थी. अभी भी आती है. सबको यही मलाल है कि तुम अहमदाबाद नहीं घूम पाए. खैर.... अब्बू की तबियत नहीं ठीक रहती है. उसी दिन से जो खामोश हुए तो बस अपने में ही खोए रहते हैं. मानसुखअंकल से भी मिलने नहीं गए. न वही मिलने आए. दोनों एक-दूसरे को फोन भी नहींकरते हैं. हमारे एक खालू कनाडा में रहते हैं. वह अब्बू को बुला रहे हैं. अब्बू कहते हैं, सब कुछ बेच कर वहीं चला जाऊँगा. अम्मी भी तैयार लगती हैं, वीजा के चक्कर में हैं. अगले महीने तक जाना हो सकता है. जाने से पहले अम्मीअब्बू फूफीजान से मिलने इलाहाबाद जाएँगे. 

मैं तो नहीं आ पाऊँगी. हाँ, कनाडा पहुँच कर तुम्हें वहाँ की तस्वीरें भेजूँगी. खालू जान बता रहे थे, वहाँ खूब बरफ पड़ती है, कश्मीर से भी ज्यादा. पीएम के बारे में तो तुम्हें नहीं पता होगा. एक महीने तक अस्पताल में पड़े रहने के बाद 18 मई को उनकी डेथ हो गई. हमें डर था कि इसके बाद भारी हंगामा होगा. लेकिन खुदा का शुक्रहै कि ऐसा कुछ नहीं हुआ. उनकी सिस्टर मुझसे मिलने आई थी. मुझसे लिपट करबहुत रो रही थी. तुम्हारी पतंगें पड़ी हैं... अम्मी अब्बू जाएँगे तो भेज दूँगी. खूब पढ़ना और अपना खयाल रखना. अप्पी, अहमदाबाद, गुजरात.

___

भूमंडलोत्तर कहानी – १६ ( चोर - सिपाही : मो. आरिफ ) : राकेश बिहारी)

$
0
0





युवा कथा आलोचक राकेश बिहारी के स्तम्भ ‘भूमंडलोत्तर कहानी विमर्श’ के अंतर्गत आपने  
1.लापता नत्थू उर्फ दुनिया न माने’ (रवि बुले)
2.            शिफ्ट+ कंट्रोल+आल्ट = डिलीट’ (आकांक्षा पारे)
3.            नाकोहस’(पुरुषोत्तम अग्रवाल)
4.            अँगुरी में डसले बिया नगिनिया’ (अनुज)
5.            पानी’ (मनोज कुमार पांडेय)
6.            कायांतर’ (जयश्री राय)
7.            उत्तर प्रदेश की खिड़की’(विमल चन्द्र पाण्डेय)
8.            नीला घर’ (अपर्णा मनोज)
9.            दादी,मुल्तान और टच एण्ड गो’ (तरुण भटनागर)
10.           कउने खोतवा में लुकइलू’ (राकेश दुबे)
11.           ‘चौपड़े की चुड़ैलें’ (पंकज सुबीर)
12.          अधजली (सिनीवाली शर्मा)
13.          ‘जस्ट डांस’ (कैलाश वानखेड़े)
14.           'मन्नत टेलर्स’ (प्रज्ञा)
15.           ‘कफन रिमिक्स’  (पंकज मित्र)

कहानियों की विवेचना पढ़ी. आज इस क्रम में प्रस्तुत है मो. आरिफ की चर्चित कहानी ‘चोर- सिपाही’ की विवेचना.


साम्प्रदायिकता चाहे बहुसंख्यक की हो या अल्पसंख्यक की दोनों भयावह और बुरे हैं और दोनों एक दूसरे के लिए खाद-पानी का काम करते हैं. मो. आरिफ की कहानी ‘चोर- सिपाही’ में दोनों मौजूद हैं और इसे वह एक बच्चे की निगाह से लिखते हैं. राकेश बिहारी ने इस कहानी की आलोचना में पत्र- शैली का प्रयोग किया है. कृति को परखने की यह रचनात्मक उपक्रम आपको पसंद आएगा.

_________________
भूमंडलोत्तर कहानी – १६
सलीम का खत गुलनाज के नाम   
(संदर्भ: मोहम्मद आरिफ़ की कहानी चोर सिपाही)

राकेश बिहारी

प्यारी अप्पी,

मैं, सलीम! याद है न आपको, आपका फूफेरा भाई! जानता हूँ आप नाराज होंगी. आपको इस नाराजागी का पूरा हक भी है. अहमदाबाद से आए आज नौ साल से भी ज्यादा हो गए, मैंने आपको न कोई फोन किया न खत ही लिखा. और तो और आपने जो खत लिखा था उसका जवाब भी नहीं दिया. पर यकीन मानिए अप्पी, इस बीच मैंने एक पल के लिए भी आप सब को नहीं भुलाया. तब से आज तक कोई भी ऐसा दिन नहीं बीता जब मैंने आपका वह खत न पढ़ा हो. आपको हर रोज खत लिखना चाहता था पर हिम्मत नहीं हुई. आपके खत की आखिरी पंक्तियाँ, जो अब मेरी डायरी के साथ तद्भव नाम की एक पत्रिका में छप चुकी है, औरों को चाहे जितनी ठंडी लगती हों पर उनसे गुजरते हुये हर रोज मेरा सीना चाक हो जाता है पी एम के बारे में तो तुम्हें नहीं पता होगा. एक महीने तक अस्पताल में पड़े रहने के बाद 18 मई को उनकी डेथ हो गई. हमें डर था कि इसके बाद भारी हंगामा होगा लेकिन खुदा का शुक्र है कि ऐसा कुछ नहीं हुआ. उनकी सिस्टर मुझसे मिलने आई थीं. मुझसे लिपट कर बहुत रो रही थीं.

मैं नहीं जानता था कि पी एम यानी पराग मेहता की सिस्टर आपको जानती थीं. उन्होने अपना भाई खोया और आपने अपना प्रेमी. कभी लगता है मैं आप दोनों का गुनाहगार हूँ. काश! मैंने उस दिन आपसे यह नहीं कहा होता कि मेरा मन पतंग उड़ाने का कर रहा है... काश! आपने उस दिन पराग मेहता को फोन करके यह न कहा होता कि आपका फुफेरा भाई इलाहाबाद से आया हुआ है और वह उसके लिए अपनीतरफ से पतंगें लेता आए... काश! पी एम उस दिन हमारेतरफ न आए होते... आ भी गए तो काश! मस्जिद की तरफ से न गए होते... आपने कहा भी तो था उनसे... काश! आपने उस दिन झूठ न बोला होता कि आप उन्हें नहीं पहचानतीं... काश! काश! काश! जानती हैं, उस दिन मन ही मन मैं आपसे बहुत नाराज़ था. मेरा बालमन इस बात को नहीं समझ पाया था कि आपने ऐसा क्यों किया. आपको झूठ नहीं कहना चाहिए था या कि आपने झूठ क्यों कहा यह सोचते हुये सारी रात मैं सो भी नहीं सका था. आज नौ साल से ज्यादा हो गए उस रात को बीते पर वह दृश्य जैसे मेरी आँखों में ठहर सा गया है. वैसे यह तो आज भी लगता है कि आपको झूठ नहीं बोलना चाहिए था लेकिन आपकी विवशता अब समझ में आने लगी है. उस दिन पराग मेहता के ऊपर चिपकी आपकी आँखें जिस भय, और व्याकुलता से भरी थीं अब भी मेरी पुतलियों में ताज़ा हैं. मामी के दुबारा पूछने पर कि क्या आपने कहीं उसे देखा है आपने जो उत्तर दिया था और वह उत्तर देते हुये आपकी आँखों में खून और आँसू के मेल से जो रंग उतर आया था मुझे अब भी उसी तरह याद है-  नहीं अम्मी, नहीं देखा इसे कभी... लेकिन इन  लोगों ने इसे मारा क्यों? अब्बू से कहिए इसे बचा लें. ये लोग इसे मार डालेंगे. अम्मी आप अब्बू से कहिए... अम्मी प्लीज... अम्मी...

भय और दर्द में डूबी आपकी वह कातर आवाज़ अब भी मेरे कानों में गूज़ रही है अप्पी! जाने मुझे बार-बार क्यों लगता है कि आप उस दिन यह भी कहना चाहती थीं कि अम्मी यह वही पराग मेहता है...  मैं इससे ही प्यार करती हूँ... प्लीज अब्बू से कहिए इसे बचा लें... पर तब आपके भय ने आपको  जकड़ रखा था. मैं आपकी मजबूरी समझ सकता हूँ अप्पी, लेकिन फिर भी मन कचोटता है मेरा... यह भय कब तक टंगा रहेगा हमारे मन की खूंटियों पर...? बड़े मामू जो अपनी जान पर भी खेल कर लोगों की मदद करना जानते हैं, उस रात पराग मेहता के बचाव में खुलकर नहीं आ पाये थे. बस कुछ औपचारिक सी समझाइस के साथ उन्हें जाने दिया था. मामू ने भले ही ऊपर से कुछ जाहिर न होने दिया हो, पर अब मुझे लगता है कि उनका वह व्यवहार इसलिए ऐसा था क्योंकि उन्होने आपकी वह कातर आवाज़ सुन ली थी... आपने जो सच उस वक्त अपनी जुबान से बाहर नहीं आने दिया, पर जिसे आपकी मेमने सी आँखें और डरी हुई आवाज़ में आसानी से पढ़ा जा सकता था, ने कहीं उनके भीतर के खालिश पिता को तो नहीं जगा दिया था, जो अपनी तमाम प्रगतिशीलताओं के बावजूद भीतर के किसी कोने में अब भी एक मुसलमान ही था- थोड़ा बंद तो थोड़ा डरा हुआ भी... 

मामू के हाथ जो पतंगें आपने भिजवाई थीं, अब भी मेरे कमरे में महफूज हैं. इन्हें मैंने एक दिन भी नहीं उड़ाया. इन पतंगों में मुझे पी एम का चेहरा दिखता है... इनके रंगों की आभा में मुझे आपका वह फूलदार कुर्ता नज़र आता है जिसे उस दिन आपने खास पहन रखा था... आपकी हाँफती आवाज़ सुनाई पड़ती  है- सुनो-सुनो उधर मस्जिद की तरफ से मत जाना... आजकल उधर ठीक नहीं है... उधर गोल चौक की तरफ से निकल जाना... पहुँच कर मिस कॉल देना...मैं जब भी इन पतंगों को देखता हूँ मेरे जेहन में आपकी मोबाइल की स्क्रीन पर फातिमा कॉलिंग की चमकती हुई इबारत कौंध जाती है और उसके बाद आपका फोन लिए कोई कोना तलाशना बरबस याद आ जाता है... तब उस तरह कोने तलाशती आपको देख मैं मन ही मन किसी शरारती मुस्कुराहट से भीग जाता था पर अब तो उस बात की स्मृतियाँ भी मेरी साँसों में खौफ और उदासी का तीखा खारापन घोल जाती हैं... और अब तो इन पतंगों में आपकी और पी एम के सिस्टर की समवेत रुलाई भी शामिल हो गई है... कभी सोचता हूँ, हमारा इलाहाबाद भी किसी दिन अहमदाबाद हो जाये... मंदिर वाले किसी इलाके में मैं भी वैसे ही पकड़ा जाऊँ और खुदा न खासता किसी अस्पताल में मेरी भी उसी तरह डेथ हो जाये तो नीलम पर क्या बीतेगी? वह तो मेरी लाश तक को न देख पाएगी. आपने भले नीलम को  न देखा हो, आप भले उसे उस तरह नहीं जानती हों जैसे कि पी एम की सिस्टर आपको जानती थीं. लेकिन आप यह तो जानती हैं न कि वह मेरी सबसे अछी दोस्त है और मुझे अच्छी भी लगती है... मैं उसका नंबर दे रहा हूँ, कभी कुछ ऐसा हो गया तो उसे एक फोन जरूर कर लीजिएगा... और हाँ, आपको याद है, उस दिन जब आपके पूछने पर मैंने आपको यह बताया था कि नीलम मुझे अच्छी लगती है, आपने क्या कहा था?  तब भले न समझ आया हो कि आप ने उस दिन वैसा क्यों कहा था पर इस बीच आपका यह फुफेरा भाई पहले से बहुत समझदार हो गया है और इस बात को खूब समझता है कि अपने अनुभवों से उपजे उस सच को भला आप कैसे भूल सकती हैं जो जो एक छोटी से खामोशी के बाद आपकी जुबान तक आ गया था –‘किसी अच्छी-सी मुसलमान लड़की सेदोस्ती कर लो सलीम.

आपकी उस चुप्पी और समझाइस को आज मैं भले डिकोड कर पा रहा हूँ पर यह सवाल तो अब भी मेरे लिए पहेली ही बना हुआ है कि हम इंसान प्यार जैसे पाक अहसास को भी हिन्दू-मुसलमान में क्यो तब्दील कर देते हैं? हमने एजुकेशनल इन्स्टीच्यूशन के नाम पर बड़ी-बड़ी इमारतें तो बनवा लीं, आई आई टी, एम्स, आई आई एम जैसे न जाने कितने नामी संस्थान खोल लिए लेकिन अहसासों का मजहब तय करने का सिलसिला लगातार जारी है... और तो और, अब तो कुछ रहनुमाओं ने मोहब्बत की निशानी ताजको भी मुसलमान होने के खाते में डाल दिया है. बावजूद इसके मैंने अब भी उम्मीद नहीं छोड़ी है. जब कभी देश के किसी हिस्से से ऐसी खबरें आती हैं, मैं अपनी मोबाइल पर उस फोटो को निकाल कर देखता हूँ जिसमें मामू और उनके दोस्त मानसुख पटेल एक ही आइसक्रीम से मुंह लगा कर खा रहे हैं. नैनीताल की यह फोटो एक दिन मामू ने मुझे दिखाई थी. यह तस्वीर मुझे इतनी अच्छी लगी थी कि मैंने आते हुये उसे अपनी मोबाइल में कैद कर लिया था. तब मुझे कहाँ पता था कि यह तस्वीर कठिन दिनों में मेरे साथ सुकून की तरह रहेगी. जब से ताजको मुसलमान मान लेने की बात चर्चा में हैं मैंने उसी तस्वीर को अपनी फेसबुक और व्हाट्सऐप  का प्रोफ़ाइल पिक बना लिया है. मामू और मानसुख पटेल की यह तस्वीर मेरे पास न होती तो जाने मैं कैसे उस रात की घटना से उबर पाता. कई साल तक वह दृश्य पीछा करता रहा था मेरा. अब भी दंगे, तनाव, आगजनी, झड़प की खबर सुन कर वह दृश्य आँखों के आगे तैर जाता है...  बेड के नीचे दहशत से छुपे मामू, उनकी कमर से फिसल कर फर्श पर पड़ी वह रिवाल्वर जिसका लाइसेन्स लेने में कितनी परेशानियाँ झेलनी पड़ी थीं उन्हें... उन्हें इस कदर देख शर्मिंदगी में डूबे मानसुख पटेल का बमुश्किल उन्हें पुकार पाना और इन सबके बीच मामू की भय से निचुड़ी वह आवाज़ –‘मानसुख... मैं बाहर निकल सकता हूँ... कुछ करोगे तो नहीं?बचपन में एक ही आइसक्रीम से मुंह लगा कर खानेवाले दो दोस्तों को इस तरह आमने-सामने देख मेरे कोमल मन पर उस दिन भय और दहशत की जो छाया पड़ी थी उससे मुक्त होना बहुत मुश्किल है.

उन दिनों किस कदर डरे हुये थे न हम... चोर-सिपाही के खेल के दौरान छुपने को ईजाद किए गए कोने घर के एक-एक सदस्य की डर से सहमी साँसों को थामे चुप पड़े थे... आखिर वह कौन सी ऐसी हवा है जो बचपन में रोपे गए परस्पर आदर और भरोसे के उस पौधे को भी उस दिन आंधी बन उखाड़ ले गई थी? मैंने तो सोचा था यह सब कुछ दिनों की बात होगी. पर आपके उस छोटे से खत के वे शब्द मुझे कभी चैन से नहीं रहने देते –‘अब्बू की तबीयत नहीं ठीक रहती है. उसी दिन से जो खामोश हुये तो बस अपने में ही खोये रहते हैं. मानसुख अंकल से भी मिलने नहीं गए. न वही मिलने आए. दोनों एक दूसरे को फोन भी नहीं करते.अप्पी! आपके खत की इन पंक्तियों को मैंने काली स्याही से काट रखा है, पर उसकी इबारत जो मेरे मन पर छप गई है उसका क्या करूँ? दफ्तर की व्यस्तता और ज़िंदगी के झमेलों के बीच पांचों वक्त का नमाज तो नहीं अता कर पाता, पर हाँ, जुम्मे की नवाज मैं कभी नहीं भूलता. एच आर डिपार्टमेन्ट से खास इजाजत लेकर मैंने जुम्मे के दिन अपना लंच टाइम बदलवा लिया है. नमाज के वक्त दुआ में हाथ उठाते हुये मुझे मामू और मानसुख पटेल की वह आइसक्रीम वाली तस्वीर जरूर याद आती है. उनकी वह दोस्ती फिर से वापस लौट आए इसकी दुआ सालों से कर रहा हूँ... क्या अब उनके बीच बातचीत होती है? बचपन से सुनता आया हूँ कि सच्चे मन से की गई हर दुआ कबूल होती है. जाने मेरी दुआ ऊपरवाला कब कुबूल करेगा? छोटे मामू कहाँ हैं आजकल? क्या कर रहे हैं? क्या उनकी कोई खबर है? अम्मी बता रही थीं कि उन दिनों उन पर कुछ लोगों को सबक सिखाने का जैसे भूत सवार था और वे आपलोगों के साथ कनाडा नहीं जाना चाहते थे. रिवाल्वर का लाइसेन्स तो बड़े मामू ने लिया था लेकिन उनसे मुझे कभी डर नहीं लगा. पर छोटे मामू का संदेहास्पद तरीके से घर से निकल जाना, उनकी तलाश में बार-बार थाने से फोन आना... मानसुख पटेल मामू के खिलाफ उनकी आक्रोश भरी बातें... सब आँखों के आगे घूमते रहते हैं. तब तो इस बात का इल्म नहीं था पर जाने क्यों अब कभी-कभी लगता है कि उनकी संगत ठीक नहीं थी. वैसी संगति में जानेवालों की खबरें देख-सुन कर मन उनके लिए बेचैन हो उठता है. अल्लाह न करे ऐसा हो, पर मेरी यह आशंका सच हुई और कभी नानी को यह पता चला तो उन्हें कितना बुरा लगेगा. खुदा उन्हें महफूज रखे और सही रास्ते पर चलने की सलाहियत अता करे. 

छोटे मामू ने बताया था कि मानसुख पटेल का संपर्क हिन्दू नेताओं से था और पराग मेहता तो बीजेपी सांसद वीरशाह मेहता का खास भांजा था... हम कितने डरे हुये थे उनके बैकग्राउंड को जानकर!  लेकिन खुदा का रहम था कि हमारी सारी आशंकायें झूठी साबित हुई. तब हमारे भीतर जो भय फैल चुका था उसके वीभत्सतम स्वरूप ने उस दिन मानसुख पटेल को शर्मिंदा कर दिया था और उसकी शर्मिंदगी देख हम अपने  भयभीत होने पर पर शर्मिंदा थे. बावजूद इसके जाने क्या घटित होता जा रहा है फिज़ाओं में कि इन्सानों के बीच दूरियाँ लगातार बढ़ती जा रही हैं? मानसुख पटेल और वीरशाह जैसे नेताओं को उनकी पार्टी ने ही जैसे चुप करा दिया है. टेलीवीजन और यू ट्यूब पर आग उगलते लोगों के चेहरे देख कर अहमदाबाद के वे नौ दिन फिर से मेरी नसों में जिंदा हो जाते हैं. जितना ही उन्हें भूलने की कोशिश करूँ उनकी याद और तेज-तेज आने लगती है.

पिछले दिनों समालोचन डॉट कॉमपर मैंने एक कहानी पढ़ीकोई है. लेखक हैं रिजवानुल हक. इस कहानी को ओरिजनली उन्होने उर्दू में लिखा था. उस कहानी का यह हिन्दी तर्जुमा उन्होंने खुद ही किया है. किसी मुमकिन हमले से बचने के लिए तालिब और उसकी बीवी सालिहा उस कहानी में घर के सबसे महफूज कोने में छिप जाते हैं. घर को उजाड़ और वीरान दिखाने के लिए एक बत्ती भी नहीं जलाते हैं, यहाँ तक कि भरी शाम को एक माचिस की तीली तक रौशन करने का जोखिम नहीं लेते हैं. इन दृश्यों से गुजरते हुये मुझे अहमदाबाद प्रवास के वे पल खूब याद आए जब घर में कैद हम सब समय बिताने को चोर सिपाही खेलते हुये घर के उन कोनों की तलाश कर रहे थे जहां हमले के दौरान छुपा जा सके. खेल के बहाने छुपने का वह अभ्यास कितना खेल था और कितना किसी बड़े खेल का क्रूर नतीजा जो बच्चों के खेल तक से उसकी मासूमियत छीन लेता है, अब खूब समझ में आने लगा है. चोर सिपाही का यह खेल आखिर कब खत्म होगा अप्पी? क्या हम सब मिलकर इसके लिए कोई और उपाय नहीं कर सकते हैं? पर आप तो मामू के साथ कनाडा चली गईं. आप सब के भीतर  फैले भय और दहशत को बखूबी समझता हूँ मैं, बल्कि खुद उसका हिस्सा भी बना आप सब के साथ फिर भी क्या आपंको नहीं लगता कि आप सब को अपना देश छोड़ कर नहीं जाना चाहिए था? आप तो जानती ही हैं कि अमेरिका में भी कोई ट्रम्प आ गया है. आखिर इनसे भाग कर हम कहाँ-कहाँ जाएंगे? बड़े मामू को कहिएगा कि मानसुख पटेल मामू को फोन करें. और हो सके तो उन्हें भारत लौटने को भी राजी कीजिएगा. यहाँ बड़े मामू और मानसुख पटेल जैसे लोगों की दोस्ती की बहुत जरूरत है.

खत कुछ ज्यादा ही लंबा हो गया. जाने क्या-क्या लिखता गया पर एक बार आपकी खैरियत तक नहीं पूछी मैंने. उम्मीद करता हूँ आप ठीक होंगी. मैंने जो अपना नंबर दिया है उस पर व्हाट्सऐप भी चलता है. याद है न, आपको वहाँ की तस्वीरे भी भेजनी हैं. अपना ख्याल रखिएगा. अम्मीआप सब को बहुत याद करती हैं. घर में सब को मेरा आदाब कहिएगा.

आपका प्यारा भैया
सलीम

पुनश्च: हिन्दी के मशहूर अफसानानिगार आरिफ़ साहब जो समस्तीपुर (बिहार) में रहते हैं किसी प्रोग्राम के सिलसिले में कुछ वर्ष पहले इलाहाबाद आए थे. मैंने अपनी अहमदाबाद वाली डायरी उन्हें ही छपवाने के लिए दे दी थी. डायरी छपे 6 साल हो गए. पर मैंने आजतक उन्हें भी कोई खत नहीं लिखा, जाने क्या सोच रहे होंगे मेरे बारे में. आज उन्हें भी खत लिखूंगा. हाँ, उस प्रकाशित डायरी की फोटो कॉपी भी इस खत के साथ आपके लिए भेज रहा हूँ.

आदरणीय आरिफ़ साहब,
तद्भव का अंक समय से मिल गया था. इतने दिनों तक आपको खत नहीं लिख पाने के कारण शर्मिंदा हूँ. उम्मीद है आप माफ करेंगे.
सबसे पहले तो मैं आपका तहे दिल से शुक्रगुजार हूँ कि आपने मेरी अनगढ़ डायरी के पन्नों को अपनी लेखकीय छुअन से एक संवेदनशील रचना में बदल दिया है.
कहने की जरूरत नहीं कि गुजरात के दंगों ने भारतीय राजनीति को सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही तरीके से गहरे प्रभावित किया है. अतः छपवाने के लिए आपको अपनी डायरी देते हुये जिस एक बात का सबसे बड़ा डर मेरे जेहन में था और जिसका जिक्र मैंने तब आपसे नहीं किया था वह यह कि कहीं एक लेखक के हाथ से गुजरने के बाद दसवीं क्लास में पढ़ने वाले एक बच्चे के वे मासूम अनुभव किसी विशेष राजनैतिक दल के मुखपत्र में न तब्दील हो जाये. मुझे इस बात की खुशी है कि आपने न सिर्फ मेरी डायरी को राजनीति के दलदल के अहाते में नहीं जाने दिया बल्कि मेरे भीतर पल रहे उस बच्चे की मासूमियत को भी महफूज रखा है, जिसने इस पूरे मुद्दे को सिर्फ और सिर्फ इंसानियत के धरातल पर देखा और महसूस किया था. पर हाँ, मेरे डायरी को छपने लायक बनाने के क्रम में जो सम्पादन या काँट-छाँट आपने किया है उसके बारे में अपनी दो-एक आपत्तियों या प्रतिक्रियाओं से आपको अवगत कराना जरूरी समझता हूँ. उम्मीद है इसे आप अन्यथा नहीं लेंगे. 

अव्वल तो यह कि डायरी शुरू करने के पहले जो आपने लेखकीय वक्तव्य या प्रस्तावना जैसा कुछ लिखा है, वह कुछ ज्यादा लंबा हो गया है. क्या ही अच्छा होता कि सफाइयाँ पेश करने के बजाय कुछ अपरिहार्य लेकिन संक्षिप्त जानकारियों के साथ आपने सीधे-सीधे उस डायरी को पाठकों के हवाले कर दिया होता.

मेरी डायरी में मेरे द्वारा प्रयुक्त कुछ कठिन उर्दू-हिन्दी के शब्दों के बदले आसान शब्दों का प्रयोग कर के तो आपने बहुत अच्छा किया है लेकिन अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक सांप्रदायिकता की उत्तेजनाओं से भरे कुछ दृश्यों को सेंसर करना मुझे उचित नहीं लगा. हालांकि अपनी भूमिका में उसका उल्लेख करके आपने उनकी तरफ इशारा तो जरूर कर दिया है लेकिन मुझे लगता है सीधे-सेधे उन दृश्यों को आगे कर देने से मुद्दे की भयावहता ज्यादा प्रभावी तौर पर संप्रेषित हो पातीं.  हालांकि आपने भूमिका में कहा है कि आपने मेरे वाकई रचना में कोई छेड़छाड़ नहीं की है. पर डायरी के कुछ हिस्सों से गुरते हुये लगा कि मेरे लिख के साथ आपके भीतर का लेकजाक उसका विश्लेषण भी साथ-साथ करता चल रहा है. उदाहरण के तौर पर पराग मेहता को जानबूझकर न पहचानने के बाद गुलनाज अप्पी के रोने के दृश्य का वर्णन करने के बाद उस असाधारण रुलाई का जिक्र जो आपके शब्दों में –‘एक हृदय विदारक क्रंदन था... यह मर्मांतक पीड़ा से उपजा एक पुरुष का रुदन थ...  जो समस्त ब्रह्मांड की चुप्पी को पार करता हुआ बड़े मामू के किचन रूम तक पहुँच रहा था...आपका यह विश्लेषण अछा है पर मैंने अपनी डायरी में तो इसे नहीं लिखा था न!

इस डायरी के जिस हिस्से पर मुझे ज्यादा आपत्ति है, वह है - 16 अप्रैल (पाँच बजे) वाला हिस्सा. हाँ, दाई ने नानी को बिलकुल ऐसा ही कहा था कि पिछले फसाद में दंगाइयों ने सिर्फ उन्हीं महिलाओं को हाथ नहीं लगाया जो महीने से थीं. तब उनकी आवाज़ और बनावटी हंसी में तकलीफ और बेबसी के जो कतरे मौजूद थे आप उसे नहीं समझ पाये. आपने जिस हंसी-मज़ाक और ठिठोली का रूप उसे दे दिया है वह मैंने गुलनाज अप्पी, नानी और दाई सहित उन स्त्रियॉं मे से किसी के चेहरे पर नहीं देखा था. महीने से होने वाली महिलाओं को न छूने की आड़ में धर्म भ्रष्ट होने की पितृसत्तात्मक अवधारणा को जो चेहरा दिखाई पड़ता है, आगे के ये वर्णन उसकी विडंबनाओं को कुछ हद तक क्षतिग्रस्त कर जाते हैं. बावजूद इसके आपने जिस न्यूनतम  लेखकीय हस्तक्षेप के साथ मेरी डायरी को प्रकाशित करवाया है उसके लिए हम आपके हृदय से आभारी हैं. तद्भव के सम्पादक जी को मेरा नमस्कार कहिएगा और उचित समझें तो मेरा यह खत उन्हें भी दिखाइएगा.
गुलनाज अप्पी का जो खत मैंने आपको दिया था और जिसे मेरी डायरी के साथ आपने प्रकाशित भी करवाया है, उसका जवाब एक लम्बे अंतराल के बाद मैंने अप्पी को आज ही भेजा है. उसकी एक कॉपी आपको भी भेज रहा हूँ.
आशा है कुशल होंगे.
आपका
Viewing all 1573 articles
Browse latest View live


<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>