Quantcast
Channel: समालोचन
Viewing all 1573 articles
Browse latest View live

कथा- गाथा : खिरनी : मनीष वैद्य

$
0
0
(कृति : Miguel Guía)


साहित्य कुलमिलाकर आनंदजाल है, प्रसाद के शब्दों में कहूँ तो ‘इंद्रजाल’. इसका दिलचस्प होना पहली शर्त है. आप तमाम ज्ञान-विज्ञान-तथ्य-तर्क ठूंसकर साहित्य नहीं रच सकते. यह आनंद/यातना के अतिरेक से ही अंकुरित होता है. आपका विवेक/तथ्य आपको संभाले रहते हैं कि यह आवेग किसी कृति में बदल जाए.


कथा के मास्टर गैबरिएल गार्सिया मार्केज कहानी के पहले वाक्य को बहुत महत्व देते हैं. उनका मानना है कि इस पहले वाक्य से ही इसका स्वरूप निर्धारित हो जाता है.


समकालीन हिंदी कथाकार मनीष वैद्य की इस नई कहानी ‘खिरनी’ का पहला वाक्य ही आपका जकड़ लेता है. बिना पूरा पढ़े आप उठ नहीं सकते. इसे मैं किसी भी अच्छी कहानी का पहला आवश्यक गुण मानता हूँ. यह कहानी ३० साल बाद मिले एक लडके और लडकी की है जिनके बीच अधूरे प्रेम की हूक और समय की विद्रूपताए फैली हुई हैं. और एक अंदर से छीलती चुप्पी है.





कहानी

खिरनी                                                    


मनीष वैद्य



ड़का गली में खुलते किवाड़ से सटकर खड़ा था और लड़की आँगन में दीवाल के पास मिट्टी की छोटी-सी ओटली पर बैठी थी. आँगन उन दोनों के बीच था. लड़के ने गौर किया कि इतना वक्त गुजर जाने के बावजूद यह आँगन वैसा ही था. आँगन ही नहीं, कच्ची मिट्टी से बने इस घर के भूगोल में भी कोई ख़ास बदलाव नहीं हुआ था. हाँ, इधर के दिनों में कुछ नई और चमकीली वस्तुएँ ज़रूर इसी पुराने और बेढब घर में बेतरतीबी से ठूंस दी गई है. लगता था कि इस घर ने अभी उन्हें अपने में मर्ज नहीं किया है या अपनेपन से स्वीकार नहीं किया है. फिर भी नए चलन की वे वस्तुएँ अपनी पूरी ढिठाई और बेहयाई से वहाँ मौजूद थी.

जबकि थोड़ी देर पहले ही उसने महसूस किया था कि इधर का गाँव काफी हद तक बदल गया था, अब वहाँ पहले जैसा बहुत कम ही बचा था. ज्यादातर नया-नवेला और सुविधा संपन्न. कच्ची मिट्टी के घर, लिपे-पुते फर्श, दीवारों के मांडने, खपरैलों और फूस की छतें, घंटियाँ टुनटुनाते मवेशियों के झुंड, काँच की अंटिया, लट्टू और गिल्ली-डंडा खेलती टुल्लरें, पनघट, चौपाल और वैसी जीवंत गलियाँ अब वहाँ नहीं थीं. न गाँव पानीदार था और न लोग ही पानीदार बचे थे. उनके चेहरों का नूर खो गया था, उमंग और हंसी-ठठ्ठा भाप बनकर कहीं उड़ गए थे.



लड़के और लड़की के बीच जो आँगन फैला था, उसमें तीस बरस का वक्फा तैर रहा था. आँगन बहुत छोटा था और तीस बरस का वक्फा बहुत बड़ा था, लिहाजा वह उफन-उफन जाता था. लडकी की उजाड़ और सूनी आँखों में कहीं कोई हरापन नहीं था. हरापन तो दूर उनमें गीलापन भी नहीं था. उन थकी-थकी आँखों में पानी का कोई कतरा तक नहीं था. जैसे वह किसी अकाल के इलाके या रेगिस्तान से चली आई हो.

एक पल को उसकी आँखें लड़के को देखकर विस्मय से फैल गई, क्षणभर को मानो कोई बिजली-सी कौंधी और दूसरे ही पल फिर स्थायी बैराग फिर उन आँखों में समा गया. इस एक पल को लड़के ने अपनी आँखों में पकड़ लिया. लड़की ने लड़के की आँखों में झाँका. इस झाँकने में तीक्ष्णता थी और सूक्ष्मता भी. इसमें तीस साल की सहेजी हुई दृष्टि थी. लड़के की आँखों में बागों की ताजगी थी. झरने-सी उत्फुल्लता थी और वासंती बयारों का झौंका था. अपने पूरे सुदर्शन डील-डौल तथा शहरी अभिजात्य के साथ लड़का वहाँ मौजूद था.

तभी अनायास कहीं से एक क्षीण-सी आवाज़ कौंधी- 'कब आए?'

लड़के के लिए यह सवाल अप्रत्याशित था. वह ऐसे किसी सवाल के जवाब के लिए कतई तैयार नहीं था. वह हडबडा गया. फिर कुछ सँभलते हुए बोला- 'कल शाम...'

उसका वाक्य अधूरा ही रह गया. लड़का झेंप गया था. लड़की के सपाट चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान तैर गई. उसने अपनी मुस्कुराहट को होंठों के कोनों में दबाते हुए जाना कि लंबा वक्फा भी कुछ आदतें बदल नहीं पाता.

लड़की उस वक्फे के पार खड़ी थी. वह बहुत पीछे के वक्त में दाखिल हो चुकी थी, जहाँ लड़का उसके पीछे-पीछे जंगल में मीठी खिरनी के लालच में चला जा रहा था. उसे इस तरह जंगल में अकेले आने का अनुभव नहीं था. उसने जंगल के बारे में जो कुछ सुन रखा था, उससे उसे भीतर ही भीतर डर लग रहा था, लेकिन वह उसे लड़की के सामने प्रकट करना नहीं चाहता था. एक बार को उसकी इच्छा हुई कि वह पीछे से भाग निकले पर इतनी दूर आ गए थे कि अकेले लौटने में भटकने की आशंका थी. तभी न जाने कैसे लडकी ने जान लिया कि वह डर रहा है. लड़की ने लड़के का हाथ अपने हाथ में लेकर कहा- 'डरो मत, मैं यहाँ अक्सर आती हूँ, बस उस पहाड़ी के नीचे खिरनी के बड़े-बड़े पेड़ हैं. उनसे खूब पीली-पीली गलतान खिरनियाँ टपकती हैं. मैं तो पेड़ पर चढ़ जाती हूँ.'


लड़की के हाथ पकड़ लेने लड़के का डर कुछ कम हो गया था. उसने पूछा- 'गलतान...? यह क्या होता है. 'लड़की का हँस-हँस कर बुरा हाल था- 'बुद्धू, तुम्हें तो कुछ भी नहीं मालूम. गलतान मतलब खूब पका हुआ. डाल पर पके हुए खूब रसीले फलों को गलतान कहते हैं न. अब याद रखना.'


लड़की फिर हँसी-मैं भी तुमसे याद रखने को कह रही हूँ, तुम्हारे साथ रहते-रहते मैं भी कितनी बुद्धू हो गई हूँ. पता है कि तुम कभी कुछ याद नहीं रख सकते फिर भी तुमसे कह रही हूँ.'

लड़के को उसकी यही बात बुरी लगती है. हर बात में उसका मजाक उड़ाया करती है. लड़का चिढ गया.

'हाँहाँ, जानता हूँ तुम्हें भी, इतना ही याद रख लेती हो तो फिर स्कूल में हमेशा फिसड्डी क्यों रहती हो. वहाँ तो तेरह का पहाडा याद रखने में जान निकल जाती है.' लड़का गुस्से में पिनपिना रहा था.

लड़की ने अजीब-सा मुँह बिचकाया और हँसते हुए कहा- 'किताब में खिरनी का पेड़ और यह जंगल नहीं है न. ये होता तो तुम सब फेल हो जाते, मैं अव्वल आती... समझे.'

इतने में सामने खिरनी के पेड़ आ गए. पेड़ के नीचे की जमीन खिरनियों से पीली पड़ चुकी थी. खिरनियाँ बहुत मीठी थीं, लड़के का मुँह मिठास से भर गया. लड़की पकी हुई खिरनियों को बीन कर अपने फ्राक के घेर की खोली में इकट्ठा कर रही थी. लड़का भी पटापट अपने हाफपेंट की जेबें भर रहा था.

लड़के को लगा कि कुछ लडकियाँ खिरनी के पेड़ की तरह होती हैं. दुनिया के कडवेपन को वे मिठास में बदल देती हैं.

लड़की की तंद्रा टूटी तो ऐन सामने लड़के का सवाल था-'तुम कैसी हो?'


लड़की को यह सवाल अजीब-सा लगा. यह भी कोई पूछने की बात है भला. क्या किसी को देखकर ही नहीं मालूम होता कि वह कैसा है. फिर उसे यह पूछने की ज़रूरत क्यों पड़ी. लड़की ने आँखों में हल्की-सी चमक भरते हुए कहा-'अच्छी हूँ...'

लड़के को लगा कि लड़की ने यह सफ़ेद झूठ बोला है. वह अच्छी कैसे हो सकती है. उसे तो कोई अँधा भी देखकर कह सकता है कि वह ठीक नहीं है. कहाँ वह तीस साल पहले की उद्दंड, चुलबुली और बातूनी लड़की और कहाँ यह आज की घुन्नी, उदास, मेहँदी लगे बालों की उलझी लटों से घिरे रूखे और सपाट चेहरे पर सूनी आँखों वाली, मामूली साडी ओढ़े अपनी मरियल देह को ढोती हुई अधेड़-सी दिखती औरत.

लड़की को भी लगा कि उसका झूठ पकड़ लिया गया है, पर इसका जवाब भी तो यही हो सकता था न. लड़के को यह सवाल पूछना ही नहीं चाहिए था.

लड़की फिर लौट रही थी पीछे की ओर. बहुत पीछे छूट चुके समय में. वे दोनों देवी मन्दिर की सीढियों से छलाँग लगाते हुए नदी में कूद रहे थे. लड़की गंठा लगाकर नीचे तल तक जाती और वहाँ से मुट्ठी में कोई चिकना पत्थर या रेत लिए बाहर आती. लड़का किनारे पर ही तैरता रहता, उसे नदी की धार में जाने से डर लगता.लड़की बिजली की गति से इस पार से उस पार तक दौड़ी जाती. वह पानी की सतह पर चित लेटकर उल्टी तैरती तो कभी ऐसी डूबकी लगाती कि देर तक वह पानी में भीतर ही डूबी रहती और अक्सर अपनी जगह से दूर जाकर निकलती. चकित लड़का उसका दु: साहस देखता रहता.

मछलियाँ लड़की की दोस्त हुआ करती थी. वह हर मछली को पहचानती थी और उनकी खूब सारी बातें उसके पास हुआ करती थी.

नदी में नहाने के बाद वह झाड़ियों के पीछे अपने गीले कपड़ों को इतनी ज़ोर से निचोड़ती कि पानी की आखरी बूँद तक निचुड़ जाए. फिर उन्हें धूप में सूखाती और उनके सूखने तक वहीं खरगोश की तरह दुबककर बैठी रहती. इधर लड़का भी रेत की ढेरियों पर अपने कपड़े सूखाता. कुछ गीले भी होते तो बदन पर सूख जाते. कपड़े सूखने पर ही वे घर या स्कूल लौट सकते थे. कभी घर में पता चलने पर उनकी पिटाई भी हो जाती लेकिन छुपते-छुपाते नहाने और नदी के ठंडे पानी में घंटों पड़े रहने का अपना मज़ा था.

रिमझिम बारिश की एक दोपहर देवी मन्दिर के दालान से नीम की एक टहनी तोड़ते हुए उसने लड़के से पूछा था-'तुम्हें नीम की पत्तियाँ कैसी लगती है?'


लड़के ने तपाक से कहा-'यह भी कोई पूछने की बात है. नीम तो कडवा ही होता है. पत्तियाँ कडवी ही लगेंगी न.'


लड़की ने जीत की ख़ुशी में दमकते हुए कहा-

'तभी तो मैं तुम्हें बुद्धू कहती हूँ. नीम की पत्तियाँ हमेशा कडवी ही लगें. यह ज़रूरी नहीं. साँप काटे हुए को जब ये पत्तियाँ खिलाते हैं न तो उसे ये मीठी लगती है. शरीर में जहर हो तो कडवा भी मीठा लगने लगता है, समझे.'


लड़के ने कहा–  यह तो मेरे साथ चीटिंग है. बात साँप के काटे की थी ही नहीं...'

'आगे तो सुनो, मेरी दीदी कहती है जो कोई किसी से प्रेम करता है तो उसे भी नीम की पत्तियाँ मीठी लगने लगती है. तुम खाकर देखो.'- लड़की ने कहा.

लड़के ने बुरा-सा मुँह बनाते हुए एक पत्ती जीभ पर रखी ही थी कि उसके मुँह में कडवाहट भर गई, उसने तुरंत पत्ती थूक डाली.

लड़की ने लड़के की आँखों में देखा और दो-तीन पत्तियाँ चबाने लगी. लड़की पान के पत्ते की तरह उसे बाख़ुशी चबाती रही.

लड़की ने कहा-'यह तो मीठी हैं.'

लड़की को लगा कि लड़का उससे पूछेगा किक्या तुम्हें भी प्रेम है. किस से?

लेकिन लड़के ने कुछ नहीं पूछा. वह बार-बार अपना गला खंखार रहा था. जैसे कडवाहट उसके भीतर तक चली गई हो. न जाने क्यों लेकिन उसे लगा कि लड़के के मुँह में नीम की वह कडवाहट अब तक घुली है.

लड़की उस कडवाहट के बारे में पूछना चाहती थी लेकिन उसने पूछा-'तुम्हारे कितने बच्चे हैं?'


लड़के को लगा कि उसने जान-बूझकर शादी के बारे में नहीं पूछते हुए सीधे बच्चों के बारे में पूछा है. लड़के ने झिझकते हुए कहा-'दो...एक बेटा एक बेटी...दोनों वहीं पढ़ते हैं.


लड़की उसकी पत्नी के बारे में कुछ पूछना चाहती थी लेकिन क्या पूछे, यह सोचती रही फिर 'अच्छा'कहकर कुछ भी पूछने का विचार निरस्त कर दिया.

तब स्कूल में बच्चे कपड़े के झोले में अपना बस्ता लाते थे. लड़के के झोले पर उसकी माँ ने कढाई के रेशमी धागों से बहुत सुंदर हिरण बनाया था. भूरे धागों से उसका शरीर, काले धागों से उसके सिंग और पैर की टापें. हिरण की आँखों में दो मोती जड़े थे. हिरण इतना सजीव था कि उसकी तरफ़ देखते तो लगता कि वह अभी कुलाँचे मारते दौड़ पड़ेगा. उसकी आँखे झमझम हुआ करती. लड़की को वह हिरण बहुत पसंद था. लड़की उसके पेट पर हाथ घुमाती तो लगता असली हिरण का ही स्पर्श है. हिरण उसकी तरफ़ प्यार से देखने लगता. उसे भी हिरण बहुत भाने लगा था.


उसे हमेशा डर बना रहता कि कहीं यह हिरण किसी रात जंगल की तरफ़ लौट तो नहीं जाएगा. उसकी आँखों में खूब तेज़ दौड़ने का सपना वह देख चुकी थी. जमाने से उसकी होड़ थी. उसे आगे बढने का जूनून था, वह हर दौड़ जीत लेना चाहता था. हर बाज़ी उसके हक़ में करना चाहता था. दौड़ के लिए वह सब कुछ छोड़ सकता था. लड़की को अब यह हमेशा लगता कि कहीं वह उसे छोड़कर तो नहीं चला जाएगा.

एक रात वह हिरण बस्ते के झोले से निकल गया और सजीव होकर लड़के की आत्मा में उतर गया. तब से अब तक लड़का उसी की तरह चौकड़ियाँ भरता रहता है. उसने लड़की को छोड़ा, घर छोड़ा, अपनी मिट्टी छोड़ी, गाँव छोड़ा, नाते-रिश्ते छोड़े और सुनने में तो यहाँ तक आता है कि उसने अपनी आत्मा तक छोड़ दी है.

तभी गुलाबी फ्राक पहनी हुई एक लडकी दौडकर हाँफती हुई उसके पास आई और उसके गाल सहलाते हुए बोली- 'माँ देखो, मैं जंगल से कितनी गलतान खिरनियाँ लाई हूँ, तुम खाओगी. तुम्हें बहुत पसंद है न... खाओगी न माँ.'


लड़के ने कहा- 'तुम्हारी बेटी बड़ी क्यूट है.'आगे जोड़ना चाहता था 'तुम्हारी तरह' लेकिन हमेशा की तरह इस बार भी वह हडबडा गया.

लड़की प्रशंसा भाव से कभी बेटी की तरफ़ तो कभी लड़के की तरफ़ देखती रही.


उसी वक्त लड़के का मोबाइल बज उठा. उसने लड़की की ओर देखा, बाँया हाथ हिलाकर विदा ली और दाएँ हाथ से मोबाइल को कान पर सटाए तेज़ कदमों से गली की ओर बढ़ गया. लडकी उसे गली में गुम होते हुए देखती रही.
____________


मनीष वैद्य

16अगस्त 1970, धार (म.प्र.)


कहानी संग्रह : टुकड़े-टुकड़े धूप (2013), फुगाटी का जूता (2017)


पुरस्कार :  प्रेमचन्द सृजनपीठ उज्जैन से कहानी के लिए सम्मान, यशवंत अरगरे सकारात्मक पत्रकारिता सम्मान (2017), कहानी के लिए प्रतिलिपि सम्मान (2018)


पत्रकारिता और सामाजिक सरोकारों से जुडाव


11  , मुखर्जी नगर,पायोनियर स्कूल चौराहा देवास

(मप्र) पिन 455 001

manishvaidya1970@gmail.com


मोबाइल नं 98260 13806

मंगलाचार : पंडित जसराज के लिए :

$
0
0






















संगीत और कविता का पुराना नाता है. अक्सर ये दोनों एक दूसरे में इस तरह घुले मिले रहते हैं कि इन्हें अलगाना कठिन हो जाता है. कविताओं ने जहाँ निराकार संगीत को आकार दिया वहीँ संगीत ने कविताओं को सरस बना उन्हें अमरत्व प्रदान किया. तमाम कविताएँ (और ग़ज़लें आदि) लोक जीवन में इसी लिए बची हैं कि उन्हें गायन ने अपने लिए चुन लिया. भक्त कविओं की कविताओं के साथ उपयुक्त राग का भी साथ-साथ ज़िक्र रहता था.


रागों और संगीतकारों को लेकर भी कविताएँ लिखी जाती हैं. वरिष्ठ कवि मंगलेश डबराल के तो एक कविता संग्रह का नाम ही है –‘आवाज़ भी एक जगह है’ जिसमें अनेक संगीतकारों की कला से समाज के जटिल रिश्ते खुलते चलते हैं.


रंजनामिश्रा शास्त्रीय संगीत से लगाव रखती हैं और कविताएँ भी लिखती हैं. ये कविताएँ पंडितजसराजके गायन को केंद्र में रखकर लिखी गयी हैं. देखना यह है कि उस अनुभव को ये कविताएँ कहाँ तक व्यक्त कर सकी हैं.




पंडित जसराज केलिए                             

रंजना मिश्रा









(सा)

उजालेकेहोतेहैंनन्हेद्वीप
नन्हीकंदीलेंअपनेभीतरबसाए

क्याबसताहैतुम्हारेभीतर?






(रे)


यादहैमुझे
कईबरसपहलेभजगोविंदमसुनतेहुए
भीतरकहींकुछदरकगयाथा
रोशनीकीएककिरण
उसअंधेरीगुफातकजापहुँची
जहाँबैठाथा
ढेरसाराडर
कालेरंगकासंशय
औरगहराभूराअविश्वास
क्यावहदुखथापंडितजी?

अलगअलगमुखौटेलगाए
आत्माकेमुख्तलिफकोनोंमेंछिपा?

जीताजागता, साँसेलेता- तारसापरठहरादुख
जोनिऔरकोमलकीसीढ़ियाँउतरता
बहआयाथाआँखोंकेरास्ते
पिघलतेहैंविशालहिमखंडजैसे






( 


मैंबारबारलौटी
भटकतीरही
उनसुरोंकेइर्दगिर्द
अपनेदुखोंकामुआयनाकरती
जैसेभटकतेहैंहम
सूनेपवित्रखंडहरोंमें
जोअबरहनेलायकनहीं
नि, सानेसमझाया
दुखहीतोहै-
ठहरेगानहीदेरतक
किसीस्वरपर


चंचलप्रकृतिसिर्फ़लक्ष्मीकीनहींहोती
'
मेरोअल्लाहमेहरबान'केसाथ
मनदेरतकतिरतारहा
आश्वासनकीउंगलीथामे
औलियापीरपैगंबरध्यावे'केसाथसारेभ्रमरहगएपीछे


गोविंदमगोपालमसुनतेहुएजानाकि
मनतोआस्तिकहैनास्तिक
वहतरलहोताहै
औरढूंढताहैएकलय
जोउसेभरदे
अथाहसुखसे
मैदानोंमेंधीमीगतिसेबहतीनदियाँदेखीहैं?




()   

गोविंददामोदरमाधवेतिसुनतेहुए
कृष्णखड़ेहुएसामने
मैनेतोनहींदेखाकिसीमिथकीयकृष्णको
हीकोशिशकीउसकृष्णकोजाननेकी
जोप्रेमीसेयोद्धामेंबदलगया
परजबतुमगातेहो
तोप्रेमीकादुखऔरयोद्धाकीविवशता
मेरीकल्पनामेंएकाकारहोउठतेहैं

उसदिनजबआपनेगाया
पवित्रमपरमानंदम, त्वमवन्देपरवेश्वरम
तोमैंजानगई
अगरहोगाकहींपरमेश्वर
तोवहअपनीदुनियाआपकेसुरोंकेसहारेछोड़
आपकेसुरमंडलमेंडूबताउतराताहोगा
उठालीहोगीउसकीदुनियाआपकेसुरोंने
अपनेकाँधेपर


वैरागकारंगतोजोगियाहोताहैपंडितजी
वहकैसेसुरमेंगाताहै?




(प)  
आपकेस्वरकहतेहैं
सुखावसानमईदमएवसारम
दुखावसानमइदंएकध्येयम
सारेसुख, दुखकीयात्राकरतेहैं
औरसारेदुखलौटपड़तेहैं
सुखकेघर


येकैसासूत्रहैजो
मुझेमुक्तकरताहै
विशालऔरउदारकोइंगितकरताहै
ठीकतुम्हारेस्वरोंकीतरह?


कौनहैंआपपंडितजी
स्वर्गसेनिषकासितकोईगंधर्व
कोईसंतवैरागी
अपनेस्वरमेंउजालेबसाएजोघरघाटगाताफिरताहै
औरमनकोबारबार
पंचमकीस्थिरतातकलेआताहै


ठीकउसकृष्णकीतरहजिसनेयुद्धकेमैदानमेंअर्जुनकोगीतासमझाईथी.




( 

कौनसेदुखकीपोटलीछिपाएफिरतेहो?
कालिघाटकीप्रोतिमाक्याअबभीछुपीबैठीहैकहीं?
आपजानतेहैं
वेआपसेमिलनेआईथीं
विदानहींलेपाईं
बसचलीगईं
फिरलौटनहींपाईं


आपज़रूरजानतेहैं
पीड़ाकेकितनेसप्तककाफ़ीहोतेहैं
सुखकेएकक्षणकान्यासजीनेकेलिए
औरसुखअगरदेरतकठहरजाए
तोअनुवादीसेपहलेविवादीमेंक्योंबदलजाताहै


उसदिनजबदुखकेअतितारसेप्रोतिमाकाहाथथामकर
आपउन्हेंकीसाम्यावस्थातकलेआएथे
तोक्यावहउनकीनईयात्राकीशुरुआतथी?




(नि)


नहींजानतीआपकादुखमुझेखींचताहै
याउसकेपारजाकरस्वरोंमेंढूँढनाउसकासंधान


जानतीहूँतोबसइतनाही
जबतकरोशनीअपनासुरमंडललिए
बैठेगीमंचबीचोबीच
उज्ज्वलहोजाएगीयहधरती
सातोंआसमान
औरमेरामन


मैंआश्वस्तहूँ
किबारबारलौटूँगी
घनीभूतपीड़ाकेअंतहीनक्षणोंसे
तुम्हारेस्वरोंतक
अपनीहीराखसे
नयारूपधरकर.

_____________________

नोट: संगीतकीव्याकरणीयशब्दावलीकेकुछशब्दहैंइसकवितामें, वैसेवेहिन्दीकेशब्दहीहैंऔरउनकामतलबभीकमोबेशवहीरहताहैजैसे
सप्तक-सातस्वरोंकाएकसप्तकहोताहै.

अनुवादी - रागकीसुंदरताबढ़ानेकेलिएअल्पमात्रामेंप्रयुक्तस्वर

विवादी - रागमेंजिसस्वरकेप्रयोगसेविवादउत्पन्नहोजाए

न्यास - ठहराव, हररागमेंठहरनेकेकुछनिश्चितस्वरहोतेहैं, उन्हेंन्यासकेस्वरकहतेहैं.

तारसा - मध्यसप्तककीसा, जहाँसेक्रमशःस्वरऊँचेहोतेजातेहैं.
अतितार - तीसरेसप्तककीसा. अपनीजगहनहींछोड़ता, साकीतरह - इसलिएइन्हेंस्थिरस्वरकहतेहैं
______________________

रंजनामिश्रा

शिक्षावाणिज्यऔरशास्त्रीयसंगीतमें.

आकाशवाणी, पुणेसेसंबद्ध.


कथादेशमेंयात्रासंस्मरण, इंडियामैग, बिंदीबॉटम (अँग्रेज़ी) मेंनिबंध/रचनाएँप्रकाशित, प्रतिलिपिकवितासम्मान (समीक्षकोंकीपसंद) २०१७.  


ranjanamisra4@gmail.com

रंग- राग : मृणाल सेन के बहाने भुवन सोम : यादवेन्द्र

$
0
0














भुवन सोम (1969) को देखते हुए यह अहसास होता है कि रफ्तार और उन्नत तकनीक ने हिंदी सिनेमा को कहाँ-से-कहाँ पहुंचा दिया है. आज चेतना में धीरे–धीरे घुलती, सौन्दर्यबोध को समृद्ध करती और मनुष्यता का वृतांत रचती ऐसी फिल्में संभव नहीं है, आश्चर्य नहीं कि आज का दर्शक ‘भुवन सोम’ को डाक्यूमेंट्री समझ बैठे.


दादा साहब फालके सम्मान से सुशोभित मृणाल सेन (14 May 1923) 95 वर्ष के हो चले हैं. जब भी समानांतर सिनेमा की बात होती है कथाकार बनफूल के बांग्ला लघु उपन्यास भुवन सोम (प्रकाशन:1955-56) पर इसी नाम से बनी मृणाल सेन यह फ़िल्म सामने आ खड़ी होती है. इस फ़िल्म को उस समय सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म, सर्वश्रेष्ठ निर्देशन तथा सर्वश्रेष्ठ अभिनेता (उत्पल दत्त) के लिए राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कारों से विभूषित किया गया था.

यादवेन्द्र मृणाल सेन और भुवन सोम को फिर से देख परख रहे हैं.



मृणाल सेन के बहाने भुवन सोम               

यादवेन्द्र










बसे पहले एक बात स्पष्ट कर देना जरुरी है - बांग्ला भाषा के हिज्जे के अनुसार फ़िल्म का शीर्षक "भुवन शोम"है, अंग्रेजी में भी शोम कहते लिखते हैं पर वास्तविक फ़िल्म में सूत्रधार बने अमिताभ और नायिका सुहासिनी मुले बोलते "सोम"हैं इसलिए मैंने भी "भुवन सोम"लिखा "भुवन शोम"नहीं.

आज महीनों बाद एकबार फिर ऑंखें नम हुईं और इत्तेफ़ाक से घर पर अकेला होने के नाते मैंने उनको बह कर शुद्ध हो जाने से रोका नहीं - खुद के साथ यह आत्म साक्षात्कार मृणाल सेनकी पहली हिंदी फ़िल्म  "भुवन सोम"देखते हुए हुआ. अभी कुछ दिन पहले मृणाल सेन ने जीवन के 95 वर्ष पूरे किये हैं और तब से मेरी इच्छा उनकी दो फ़िल्मों "भुवन सोम"और "खंडहर"फिर से देखने की थी. वैसे तो अनेक फ़िल्म समीक्षक मृणाल दा को वामपंथी विचारधारा वाला राजनीतिक फ़िल्मकार मानते हैं पर मुझे उनकी राजनीतिक पृष्ठभूमि वाली चर्चित फ़िल्मों की फेहरिस्त में ये दो नितांत अराजनीतिक फ़िल्में खूब पसंद हैं - भारत के मध्यवर्ग में उपस्थित मानवीय संबंधों और संवेदनाओं  का नाटकीयता या अतिरेक में गए बिना जो रेशमी तानाबाना नितांत सहज रूप में ये फ़िल्में बुनती हैं हिंदी सिनेमा में उनका जोड़ मिलना दुर्लभ है.


1968 - 69  में बनी "भुवन सोम"  भारत के समानांतर सिनेमा आंदोलन की ध्वज वाहक मानी जाती है जिसके बारे में मैंने छात्र जीवन में अरविंद कुमार के सम्पादन में निकलने वाली प्रमुख फ़िल्म पत्रिका "माधुरी"में पढ़ा था - तब आज की तरह टीवी और इंटरनेट थे नहीं और भागलपुर जैसे बिहार के एक छोटे शहर में दिन में एक शो (वह भी मुश्किल से तीन चार दिन) में देखने के सिवा और कोई विकल्प नहीं था. यदि इम्तिहानों का समय हो तो माँ पिताजी द्वारा फ़िल्म देखने कीइजाज़तमिल जाए इसकी भी संभावना खत्म.


तब "माधुरी"ने समानांतर सिनेमा पर एक विशेषांक निकाला था जिसमें हिंदी सहित अन्य भारतीय भाषाओँ में बनी कलाप्रधान प्रयोगात्मक फ़िल्मों का सचित्र लेखा जोखा था,हमारी उम्र के स्कूल में पढ़ रहे किशोरों के लिए वह ज्ञान से भरपूर बाइबिल की तरह थी. और लगभग सभी फ़िल्में भारत सरकार  के प्रतिष्ठान नेशनल फ़िल्म डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन (एन. एफ. डी. सी)की वित्तीय मदद से बनी थीं. आज इन दोनों में से कोई भी जिंदा नहीं है पर भारतीय सिनेमा के विकास में ये मील के पत्थर साबित हुए. "भुवन सोम"का क्रेज हमारे मन में इसलिए भी ज्यादा था कि इस कहानी के लेखक का घर भागलपुर में हमारे स्कूल के पीछे था हाँलाकि बरसों पहले वे वहाँ से कोलकाता चले गए थे पर नगरवासियों के लिए बनफूल की कहानी पर फ़िल्म बनी है यह बड़ी गौरवपूर्ण व आह्लादकारी खबर थी. मैंने 1970 में मैट्रिक पास किया,फ़िल्म पहली बार उस  से साल भर पहले देखी थी .... सोचता बार-बार रहा पर दुबारा देखने का मौका कोई पचास साल बाद आया हाँलाकि बन्दूक का निशाना चूक जाने पर सुहासिनी मुले की खिलखिलाहट मानस पटल पर निरंतर जीवित रही.

 
इस फ़िल्म के साथ बहुत सारे प्रथम जुड़े हुए थे - बतौर निर्देशक मृणाल सेनपहली बार हिंदी समाज के सामने उपस्थित हुए थ,उत्पल दत्तभले ही जाने माने बांग्ला थियेटर ऐक्टर माने जाते थे पर हिंदी सिनेमा के लिए प्रथम थे और ऐसे ही सुहासिनी मुलेथीं. सुहासिनी का जन्म बिहार में हुआ था यह किशोर मन का अतिरिक्त आकर्षण था. आज के महानायक अमिताभ (बच्चन) फ़िल्म में कहीं दीखते तो नहीं पर उनकी खनकती हुई आवाज़ से हिंदी समाज पहली बार रु- ब- रु हुआ और जगह जगह यह चर्चा मिलती है कि अपनी आवाज़ के लिए अमिताभ को तब तीन सौ रु मिले थे.


सामानांतर सिनेमा को श्वेत श्याम छायांकन के जरिये काव्यात्मक ऊँचाई तक ले जाने वाले के. के. महाजन का भी यह पहला कदम ही था. 1996 में प्रकाशित अपने एक बहुचर्चित इंटरव्यू में महाजन ने विस्तार से "भुवन सोम"की लगभग पूरी शूटिंग कुदरती रोशनी में करने का वृत्तांत बताया और कमरे के अंदर के एकाध दृश्यों में सुहासिनी मुले के चेहरा दिखाई देता रहे इसके लिए छत से एक दो ईंटें हटा कर रोशनी का जुगाड़ करने के बारे में खुलासा किया. 

फ़िल्म ऊपरी तौर पर अंग्रेजों के जमाने के एक बेहद ईमानदार पर रूखे सूखे सख्त मिजाज रेलवे अफ़सर भुवन सोमके 25 साल की नौकरी से मन बदलने के लिए चिड़ियों के शिकार के लिए गुजरात के आदिवासी इलाके में निकलने की कथा है पर दो तीन दिनों का यह शिकार खूबसूरत प्राकृतिक परिवेश  और उनके बीच रहने वाली एक खूबसूरत व निश्छल युवा स्त्री के साथ रहने पर उसकी आंतरिक दुनिया कैसे बदल देता है इसका कवित्वपूर्ण विवरण है....वह बाबू शक्ल सूरत और नाम से भले वही लगे पर अंदर से उसकी शुष्कता और दूसरों के लिए हेठी भावनात्मक संवेगों की  ऊष्मा से मक्खन की तरह पिघल जाती है. यह अकारण नहीं है कि निर्देशक बड़े शहर से आये साहब के पतलून कमीज़ और हैट तक उतारने  और उसकी जगह ठेठ गंवई काठियावाड़ी परिधान और बड़ा सा पग्गड़ पहनाने की जिम्मेदारी उस स्त्री को सौंपता है जो अंततः उस रेतीले बियावान में हरा भरा पेड़ तक बना डालती है और यह काम सुहासिनी ने पहली फ़िल्म होते हुए भी बड़ी कुशलता से किया है. फ़िल्म और निर्देशन के लिए स्वर्ण कमलपुरस्कार जीतने के साथ साथ उत्पल दत्तने इंसानी भावान्तरण की लाजवाब अभिव्यक्ति प्रस्तुत की है, उन्हें भी वर्ष का सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार दिया गया. अभिनय की ताज़गी और परिवेश का सौंदर्य तो फ़िल्म की ताकत हैं ही,के. के. महाजन का कैमरा और विजय राघव राव का संगीत जादू रचने में बराबर की भूमिका निभाते हैं.


शिकार मारने में असफल उत्पल दत्त(सोम साहब) को देख कर सुहासिनी मुले(गौरी) का खिलखिलाकर हँसना 50 साल से मेरे मन में ज्यों का त्यों बसा हुआ था,आज फिर उस दृश्य को देखना मुझे अपनी मैट्रिक पूर्व की किशोरावस्था में ले गया - वैसी पारदर्शी हँसी मैंने न असल जीवन में कभी देखी है न किसी अन्य फ़िल्म में.फ़िल्म के अंत से पहले जब सोम साहब बन्दूक की गोलियों की गूँज से डरा हुआ पक्षी गौरी को सँभालने के लिए देने वापस गाँव आते हैं.... यह उनके शिकार के एडवेंचर का इकलौता हासिल और प्रमाण है और उसे अपने साथ ले जाते हुए अधरास्ते वे लौट आते हैं,बल्कि गौरी की पारदर्शी निश्छलता उन्हें उलटे पाँव खींच लाती है. अपने कामचोर बेटे तक को नौकरी से निकाल डालने वाले एकदम नीरस और खड़ूस माने जाने वाले सोम साहब इस निश्छल स्त्री की सरलता के रस में इतने डूब जाते हैं कि उन्हें लगता है प्रकृति से एकाकार होकर रहने वाली वह स्त्री पक्षी की परवरिश ज्यादा अच्छी तरह कर पाएगी,वे नहीं.

फ़िल्म बगैर बड़बोला हुए यह बड़े प्रभावी ढंग से रेखांकित करती है कि अच्छे मनुष्यों के सहज साथ का अपरिभाषित असर होता है और इसकी दरकार हर किसी को होती है चाहे वह ऊपर से कितना रूखा सूखा क्यों न दिखता हो...अपनेपन के शुद्ध ताप में सोम साहब का पिघलना फ़िल्म का ऐसा क्षण है जो किसी की संवेदनाओं को छुए बिना नहीं गुजर सकता. नाक पर मक्खी तक को न बैठने देने वाला इंसान अंदर से कितना नेक और सरल है यह देखते हुए आज इन पलों से एक बार गुजरा, दो बार ...तीन बार...चार बार ...और हर बार भावविभोर होकर खुद अपने जल से ही भीगता रहा.

बैलगाड़ी पर बिठा कर जो गाड़ीवान (सींगदाना) सोम साहब को शिकार के लिए ले जाता है उसका स्वनिर्मित शैली में 'चाहे कोई मुझे जंगली कहे'गाते गाते भैंसे से आमना सामना हो जाने वाला प्रसंग बहुत बढ़िया बन पड़ा है...और जिस भैंसे से डर कर गाड़ीवान और शिकार को निकली बंदूकधारी सवारी जान बचाते फिरते हैं आराम से उसको पकड़ कर पीठ पर बैठ जाने वाली गौरी स्त्री सशक्तिकरण का सार्थक प्रतीक है. इसी तरह नदी का रास्ता बताने के लिए एक गाँव वासी को पैसे पकड़ाने की कोशिश गाँव और शहर के बीच की भावनात्मक खाई को असरदार ढंग से रेखांकित करती है.एक तरफ़ जिस निश्छल स्त्री के चलते भुवन सोम का सब कुछ बदलता जाता है तो कथा के दूसरे छोर पर बैठा उसी स्त्री का पति बेईमान टिकट कलेक्टर साधु मेहरहै जो क्षमादान को बेहतर कमाई के अवसर के तौर पर लेता है - मानव व्यवहार की इस गुत्थी को बगैर छेड़छाड़ मृणाल सेन फ़िल्म में पिरोए रखते हैं - यह कथालेखक  का नजरिया है.


कुछ समीक्षक और सत्यजीत राय जैसे फिल्म निर्देशक इस मुद्दे पर मृणाल सेन को घेरते हैं - सत्यजीत राय ने इस बारे में बहुप्रचारित प्रतिक्रिया दी थी : "एक बुरा बड़ा हाकिम  जिसको गाँव की एक सुंदरी सुधार देती है."अपनी भिन्न शैलियों के लिए विख्यात दोनों फ़िल्मकारों के बीच विरोध हाँलाकि बहुत मुखर कभी नहीं हुआ पर दीपंकर मुखोपाध्याय ने अपनी किताब "मृणाल सेन : सिक्सटी ईयर्स इन सर्च ऑफ़ सिनेमा"में भुवन सोम सहित कुछ प्रसंगों का जिक्र किया है. सत्यजीत राय की टिप्पणी के जवाब में लिखा है कि भुवन सोम को जो लोग एक रूखे सूखे इंसान के मानवीकरण के आख्यान के तौर पर देखते हैं वे भ्रम में हैं ....  इसके उलट फ़िल्म बनाते समय हमारी कोशिश थी कि हम अंग्रेजों के ज़माने की विक्टोरियन मानसिकता वाले हाकिम के ईमान में सेंध लगा दें..... बेईमान (करप्ट)बना दें. ज़ाहिरहै यहाँ बेईमानी  एक रूपक की तरह प्रयोग में लाया गया है जो इंसानी परिस्थितियों का संज्ञान लेने वाली कम सख़्त नियम कानूनों की ओर इशारा करती है.
_________________ 


कथा - गाथा : बेदीन : शहादत ख़ान

$
0
0
(पेंटिग : Salman Toor : The Believer with Cap)

युवा कथाकार शहादत ख़ान की कहानियां मुस्लिम परिवेश में आकार लेती हैं और किसी न किसी जरूरी मसले को पकड़ने की कोशिश करती हैं. उनके पास प्रभावशाली भाषा है, किस्सागोई की कला भी आती है पर जहाँ मसला ज़रा अटकता है वह है कथा की तार्किक परिणति. अब इसी कहानी में ‘बे दीन’ अनीस जब मृत्यु के समाने खड़ा है वह एकाएक पाबंद हो जाता है पर फिर भी बचता नहीं. एक तार्किक और मिलनसार आदमी को आख़िरकार पराजित दिखाकर कथाकार क्या कहना चाहता है ?


इस कहानी में मदरसे और तब्लीग जमात वगैरह के ब्यौरे यह बताते हैं कि रौशन दिमाग को कुंद करने की ताकते हमारे आस पास किस कदर मौज़ूद हैं.




बेदीन                                   

शहादत  ख़ान





ल रात अनीस मर गया. उसकी मौत की खबर सुनकर लोगों को, उसमें से भी मनमुताबिक दीनदार लोगों को सुकून मिला. मानो उनके सिरों से एक बहुत भारी बोझ उतर गया हो. जिसकी चुभन से हर वक्त उनके सिरों में तकलीफ होती रहती थी. और अब उसकी मौत उनके लिए एक राहत की तरह आई थी.


अनीस बचपन से ही बेदीन था. उसे सारी ज़िंदगी कभी किसी ने मस्जिद जाते हुए नहीं देखा था. आम नमाज़ तो क्या वह जुमा भी नहीं पढ़ता था. उसने कभी ईद की नमाज़ भी नहीं पढ़ी थी. देखने में वह साँवले रंग का एक दरमियानी कद-काठी का आदमी था. जिसकी ऊँचाई मुश्किल से पाँच फुट तीन इंच होगी. बीड़ी पीने की वजह से उसके होंठ काले पड़ चुके थे और बहुत कम नहाने के कारण उसके बाल हमेशा खिचड़ी के चावलों की तरह आपस में चिपके और उलझे हुए रहते. उसकी तर्जनी उंगली का नाख़ून बढ़ा हुआ था. हिंदुओं की तरह वह अपने हाथ में लाल धागा बांधता और लोहे का कड़ा पहनता था.


अनीस अपने चार भाई बहनों में तीसरे नंबर का था. उससे बड़ी दो बहने और एक छोटा भाई था. बचपन में जब उसे मदरसे में पढ़ने के लिए बैठाया गया तो उसे वहां के मोलाना बिल्कुल भी पसंद नहीं आए. एक तो वह बात-बात पर बच्चों की पिटाई करते थे और दूसरा सबक सुनाने के दौरान यदि गलती से भी एक भी गलती निकल जाए तो सबक को वहीं रोक उसे दोबारा पूरा याद करके लाने के लिए कह देते. इससे बच्चा जिस सबक को दो दिन में पूरा कर सकता था उसमें उसे हफ्तों लग जाता. अनीस को उनका पढ़ाने का यह तरीका बिल्कुल पसंद नहीं था. वह बड़ी मेहनत से सबक याद करता. उससे कई-कई बार दोहराता. लेकिन जब सुनाने जाता तो ज़बर-जेर की गलती आते ही मोलाना उसे वापस कर देते. उनकी इस हरकत से वह इतना तंग आ गया कि उसने एक दिन गुस्से में अपने कायदे को मौलाना के ऊपर पूरी ताकत से गेंद की तरह फेंकते हुए चिल्लाकर कहा, मुझे नी पढ़नी ये सब बकवास की चीज़े. जब देखो बार बार याद करने के लिए कह देते हैं... जब याद नहीं होता तो हम क्या करे? हम क्यों दूसरों की ज़बान सीखने के लिए अपना सिर खपाएं.इसके बाद वह पैर पटकता हुआ उनके सामने से चला गया.


मोलाना ने उसके पीछे दो बच्चों को भेजा और उसे पकड़वा कर अपने पास बुलवा लिया. उन्होंने उसकी जमकर पिटाई की और साथ ही उसे मदरसे से भी निकाल दिया था. बाद में जब उसके वालिद साहब ने मोलाना की मिन्नत-समाजत की तो उन्होंने ना चाहते हुए भी उसे वापस मदरसे में रख लिया. पर इस बार वह उससे न तो पढ़ने के लिए कहते थे और न ही उसका सबक सुनते. बस, वह लगातार उसकी गतिविधियों पर ध्यान रखते कि कब मौका मिले और वह उसे मदरसे से निकाल बाहर करे. इसके लिए मोलाना को ज्यादा इंतज़ार भी नहीं करना पड़ा. एक रोज़ मदरसे से छुट्टी मिलने के बाद अनीस जब घर जा रहा था तो रास्ते में कूड़े के एक ढ़ेर पर उसे एक सूअरनी और उसके चार छोटे-छोटे बच्चें घूमते नज़र आए. उसने लपककर सूअरनी के एक बच्चे को यह कहते हुए अपनी गोद में उठाया लिया, कितना छोटा और गोरा है ये... खरगोश जैसे इसके कान... और मुँह तो देखा गोल प्याली की तली की तरह... इसे तो मैं पालूंगा.


लेकिन जब वह गोद में उठाए सूअर के बच्चे को लिए घर पहुँचा तो उसकी वालिदा के पैरों तले से ज़मीन सिखक गई. उन्होंने चिल्लाते हुए कहा, कुजात ये क्या उठा लाया?वापस छोड़के इसे... हराम के खान वाले... नापाक... बदजात कहीं के.साथ ही उन्होंने उसके चेहरे पर कई थप्पड़ और पीठ पर कई मुक्के मारे और धकियाते हुए घर से बाहर निकाल दिया. वह रोता हुआ वापस गया और उस सूअर के छोटे गोरे बच्चे को छोड़ आया. घर आने पर उसकी वालिदा ने उसे साबुन से मलमलकर नहलाया और उसके उन कपड़ों को जिन्हें वह पहने था, भंगन को दे दिया. लेकिन उसे घर में सूअर का बच्चा लाते और फिर रोते हुए उसे वापस छोड़ने जाते हुए मोहल्ले के कई लोगों ने देख लिया था. कुछ बच्चों ने यह खबर मोलाना तक भी पहुंचा दी. मोलाना के भाग से मानो छिंका छूटा. उन्होंने फौरन ही उसे मदरसे से बर्खास्त कर दिया.


मदरसे से निकाले जाने के बाद उसके वालिद ने उसे स्कूल भेजना शुरु किया. लेकिन वहां भी उसकी जमी नहीं. उसने कभी भी अपना होमवर्क पूरा नहीं किया और न ही कभी समय पर स्कूल ही पहुंचा. टीचर बार-बार उससे काम पूरा करके लाने के लिए कहते. उसके डायरी में नोट्स लिखते. 







उसके पैरेंट्स को खुद फोन करते. उनसे उसकी शिकायतें. इससे दुखयाए माँ-बाप ने टीचर्स को उसे मारने की पूरी छूट देते हुए उसे सुधारने के लिए कहा. इधर अनीस पर इन सब कार्रवाइयों का रत्ती भर भी असर नहीं होता. वह मार खा लेता. क्लास से बाहर जाकर खड़ा हो जाता. पर कभी वह नहीं करता जो उसके टीचर्स करने के लिए उसे कहते. वह स्कूल में बैठा सारा दिन अपनी कॉपी के खाली पन्नों पर फूल पत्तियां बनाता रहता था. उसकी इन हरकतों से परेशान होकर एक दिन टीचर ने उसकी जबरदस्त पिटाई कर दी. अपनी पिटाई पर अनीस को इतना गुस्सा आया कि उसने अपने खाने का टिफिन टीचर के सिर में दे मारा और स्कूल से भाग निकला. इसके बाद वह दोबारा लौटकर कभी स्कूल नहीं गया. न ही उसके वालिद ने उसे जाने के लिए कहा.  


पहले मदरसे और फिर स्कूल से निकालने जाने के बाद उसके वालिद साहब ने उसे पढ़ाने की बजाय काम सीखाने की सोची. उन्होंने उसे एक फर्नीचर वाले की दुकान पर काम सीखने के लिए छोड़ दिया. दुकान का मालिक एक दीनदार और परहेज़गार इंसान था. वह पाँचों वक्त की नमाज़ पढ़ता और हर उस बुरे चीज़े से बचता जिसे इस्लाम में मना किया गया था. वह अपनी दुकान में मेहनत से काम करता. अनीस को भी अपने साथ लगाए रखता. पर जब वह नमाज़ पढ़ने जाता तो अपने साथ अनीस से भी नमाज़ पढ़ने के लिए चलने को कहता. अनीस हर बार इंकार कर देता. एक बार जब उसने ज्यादा ज़ोर दिया तो अनीस ने गुस्से में आँख निकालते हुए कहा, तुम्हें पढ़नी है तो तुम पढ़ों... मुझसे ये बदंरों वाली हरकत नी होगी.


उसका ये जवाब सुनकर दुकान का मालिक गुस्सा से भर गया और उसने चीखते हुए कहा, निकल जा मेरी दुकान से... सूअर की औलाद. काफ़िर कहीं के.


इस बार दुकान से निकाले जाने की बात उसने अपने वालिद से नहीं कही और खुद ही एक ढाबे पर नौकरी पक्की कर ली. वह ढाबे पर जाने लगा. कुछ दिन तो उसे वहाँ का नया माहौल और नए लोग अच्छे लगे. लेकिन जल्दी ही उसका मन उस सबसे भी उक्ता गया और ढाबे के मालिक के साथ उसकी अनबन रहनी लगी. काम ज्यादा होने की वजह से मालिक उससे सुबह जल्दी आने और शाम को देर से जाने के लिए कहता. इसके बदले अनीस ने उससे ज्यादा भुगतान की माँग की. लेकिन ढाबे के मालिक ने उसकी तनख्वाह बढ़ाने से इंकार कर दिया. अनीस ने भी तय वक्त से ज्यादा काम न करने से इंकार कर दिया. इस पर ढाबे के मालिक ने उसकी कई हफ्तों की तनख्वाह रोक ली. वह उसे थोड़े-थोड़े रुपए देता और बाकी बचे रुपयों के लिए ज्यादा काम करने के लिए कहता. जब कई महीने इसी तरह बीत गए तो एक दिन उसने तंग आकर मालिक की गैरमौज़ूदगी में गल्ला साफ किया और वहां से फुर हो गया.


ढाबे पर चोरी करने के बाद वह वहां रुका नहीं. गाड़ी चलाना सीखने के लिए वह एक ट्रक ड्राईवर से मिला और उसके साथ गुवाहटी चला गया. गुवाहटी में तीन-चार साल रहकर जब वह लौटा तो उसके चेहरे पर दाढ़ी मूँछें उगने लगी थी. घर आकर उसने एक स्कूल में बात की और वहां बच्चों की गाड़ी चलाने लगा. गुवाहटी में रहने और गाड़ी चलाने के दौरान वह कुछ ऐसे लोगों के संपर्क में आया था जिनसे उसे जुआ खेलने, शराब पीने और खैनी खाने की लत लग गई.


बेटे के घर वापस आ जाने और स्कूल में गाड़ी चलाने के काम से उसके माँ-बाप बड़े खुश हुए. लेकिन साथ ही उन्हें अपने बेटे की सही तर्बियत न होने और उसके बुरे आदतों में पड़ जाने का दुख भी था. इससे भी ज्यादा दुख उन्हें इस बात का था कि वह दीन की तरफ बिल्कुल भी नहीं चलता था. लाख कहने के बाद भी वह नमाज़ पढ़ने नहीं जाता था. रोज़ा रखने की बात तो दूर रही.


दोस्त भी उसके सब गैर-मुस्लिम थें. उनमें एक भी मुस्लिम नहीं था. वह खाली समय में अपने दोस्तों के साथ रहता. उनके साथ घूमता-फिरता और खाता पीता. त्यौहार पर वह उनके घर होली खेलने जाता. दिवाली पर जश्न मनाता और नवरात्रों की पूजा में भी शामिल होता. वह किसी शुभ काम पर उनके यहाँ होने वाले हवन में भी जाता. इससे उसने अपने हाथ में लाल धागे बाँधना और लोहे का कड़ा पहनना भी शुरु कर दिया था. अपने दीन को तो जैसे वह बिल्कुल भूल ही गया था.


इसी दरमियान अनीस की शादी हो गई. बीवी भी उसे बहुत अच्छी मिली. वकीला नाम था उसका. गदराये बदन की खूबसूरत औरत. नेक और दीनदार. लेकिन अनीस पर अपनी खूबसूरत बीवी के दीनदार व्यवहार का भी कुछ असर नहीं हुआ. जब वह उससे नमाज़ पढ़ने के लिए कहती तो वह साफ़ इंकार कर देता. उसकी बेदीनी से दुखी होकर वह नमाज़ पढ़ती और उसके लिए अल्लाह से रो-रो कर दुआ माँगती. उसे सबसे ज्यादा परेशानी उसके शराब पीने से थी. अनीस जब अपनी बीवी को दुआ माँगते देखता तो कहता, 

चाहे तू सारी ज़िंदगी इसी तरह मुसल्ले पर सिर पटक-पटक कर और रोते हुए गुज़ार दे, तो भी मेरा कुछ नहीं होने वाला... समझी.


इधर शहर में तब्लीग का काम भी बड़े जोर-शोर से चल निकला था. जमात वाले घर-घर जाते और लोगो को दीन और नमाज़ के फायदे बताकर अल्लाह की ओर मुतवज्ज़े करने की कोशिश करते. वह अनीस के घर भी जाते. लेकिन उस पर उनकी बातों का भी कोई असर नहीं होता. जब जमात वाले उसे बताते, इंसान जब पाँच वक्त की नमाज़ पढ़ता है तो अल्लाह उसे पाँच इनाम देता है. पहला यह कि वह उसके रिज़्क की तंगी दूर कर देता है.


इस पर अनीस कहता,


अगर इंसान काम नहीं करेगा और हरदम नमाज़ पढ़ता रहेगा तो अल्लाह ही उसके यहां सबसे ज्यादा रिज़्क की तंगी पैदा कर देगा. ये सब झूठ है. बिना मेहनत मज़दूर किए किसी को कुछ नहीं मिलता.

जब वो उससे कहते कि पाँच वक्त की नमाज़ समय पर पढ़ने से चेहरे पर नूर आता है तो वह जवाब देता, 


चेहरे पर नूर तो खुद-ब-खुद ही आ जाएंगा जब इंसान दिन में पाँच बार अपना मुँह धोएंगा. ये जो लोग नमाज़ पढ़ते है ये किसी नूर से नहीं बल्कि मुँह धोने से गोरे होते है. अगर नमाज़ से पहले अपना मुँह धोना बंद कर दे तो इनकी शक्ल भट्टों पर काम करने वालों से भी ज्यादा बुरी हो जाएगी.

जमात वाले उसे जहन्नम के अज़ाब और जन्नत की ऐश वाली ज़िन्दगी के बारे में बताते. वो कहते,मरने के बाद दीनदार इंसान को जन्नत में सत्तर हूर मिलेगी. रहने के लिए सोने-चाँदी के महल मिलेंगे. वहां किसी को मौत नहीं आएगी. सब ज़िंदा रहेंगे और ऐश की ज़िंदगी जिएंगे.


उनकी इस बात की हँसी उड़ाते हुए अनीस जवाब देता, 


तो तुम लोग सिर्फ हूरों और सोने-चाँदी के महलों के लिए ही नमाज़ पढ़ते हो... अल्लाह के लिए नहीं. यानी तुम भी लालची हो... एय्याश. औरतों के लिए और ऐश की ज़िंदगी के लिए नमाज़ पढ़ना कौन सी अच्छी बात है. तुम्हारी ये बात मेरी इस बात को सच साबित करती है कि इंसान को अच्छी ज़िंदगी, खूबसूरत औरतों के लालच और जहन्नम के अजाब का डर दिखाकर गुलाम बनाया जा सकता है... बहुत अच्छे.

अनीस के इस तरह के जवाब को सुनकर वे धर्म के प्राचरक अल्लाह से माफी मांगते हुए ला-हौल-विला-कुव्वतपढ़ते और कहते, तौबा, तौबा.... तौबा करले मेरे भाई... तौबा करले. वरना बख्शीश भी नहीं होगी.


बख्शीश के लिए कहा ही किसने है?ये सब बेकार की बातें है. इंसान काम करता है तो ही उसे खाने के लिए मिलता है. अगर वह काम करना छोड़ दे तो तुम्हारा अल्लाह भी उसके मुँह पर हगेगा नहीं... समझे. काम करो मेरे भाई. कहां तुम इन बेकार के झमेलों में पड़ गए. इंसान के पास खाने के लिए रोटी और पहनने के लिए कपड़ा तो है नहीं और तुम हो कि उसे अंतहीन ज़िंदगी, सत्तर हूरों और सोने-चाँदी के महल के बारे में बताने चलो हो. शर्म करो.


अनीस की इस तरह की बाते सुनकर वह उससे इतना खफ़ा हो जाते कि उसे गालियां बकते हुए लौटा जाते. फिर वह हफ्तों तक उससे दूर ही रहते. लेकिन महीने भर बाद वो फिर उसके घर के दरवाज़े पर जा खड़े होते. उसे पहले सी सब दलीलें देते. वह भी उन्हें फिर पहले से ही जवाब सुना देता और फिर अपना-सा मुँह लेकर वापस आ जाते.


इसी तरह उसकी ज़िंदगी गुज़र रही थी साथ ही बढ़ रही थी उसके घर के सदस्यों की संख्या भी. शादी के कुछ सालों बाद ही उसके यहां पाँच बच्चे हुए. उनमें पहले चार बेटी और फिर सबसे आख़िर में कई सालों बाद पैदा हुआ घर का चिराग, वंश चलाने वाला इकलौता बेटा. उसने अपने किसी भी बच्चें को मस्जिद-मदरसे में पढ़ने नहीं भेजा. वे सब स्कूलों में पढ़ने जाते. दो बड़ी बेटियों को उसने बारहवीं तक पढ़या और उसके तुरंत बाद ही उनकी शादी कर दी. दामाद भी उसने अपने जैसे ही ढूँढ़े. मेहनती देहाती. नमाज़, रोज़े से दूर. बिल्कुल बेदीन.





उसने अपनी ज़िंदगी के दो हिस्से ऐसे ही बेदीनी और नास्तिकता में गुज़ार दिए. अब उसे किसी खास चीज़ से लगाव नहीं रहा था. बेटियों की शादी के बाद जैसे वह सब कामों से फारिग़ हो गया था. सुबह काम पर जाता और शाम को अपने दोस्तों के साथ ताश खेलने चला जाता. अब यही उसकी दिनचर्या थी. हाँ, उसे अपने बेटे अरमान से बहुत लगाव था. वह उसकी हर ख्वाहिश पूरा करता. उसने उसका एडमिशन भी शहर के सबसे अच्छे स्कूलों में से एक में कराया था. अरमान दस साल का हो चुका था और चौथी कक्षा में पढ़ता था. उसने अपने अब्बू जी से कहकर खुद के लिए एक साइकिल मँगवा ली थी. उसे वह शाम को घर की छत पर चलाया करता था.


वह इतवार का दिन था. अरमान शाम को ट्यूशन के बाद रोज़ की तरह छत पर साइकिल चला रहा था कि तभी साईकिल की चैन टूट गई और वह गिर पड़ा. पहले तो उसने खुद ही चैन लगाने की कोशिश की लेकिन जब कामयाबी नहीं मिली तो वह अपने अब्बू के पास चला गया. उसके अब्बू साईकिल को नीचे उतार लाए और बरमादे में बैठकर उसकी चैन ठीक करने लगे.


चैन ठीक करते-करते अनीस के हाथों ने काम करना बंद कर दिया. वह विपरीत दिशा में घूम गया. उसके मुँह से झाग निकलने लगे और वह बैठा का बैठा ही पीछे की ओर गिर पड़ा. उसकी यह हालत देखकर अरमान डर गया और चीख मारकर रोने लगा. अरमान के रोने की आवाज़ सुनकर उसकी अम्मी दौड़ी आई और उसने अपने सामने अनीस को ज़मीन पर औंधे मुंह बेहोश पड़ा देखा. उसके मुँह से अब भी झाग निकल रहे थे. उसने अपने सास-ससुर और देवर को आवाज़ दी. वे लोग दौड़ते हुए आए और उसे गाड़ी में डालकर अस्पताल ले गए.


अस्पताल में डॉक्टर ने बताया कि उसे मिर्गी का दौरा पड़ा है. शराब और बीड़ी-सिगरेट पीने से उसके दोनों फेफड़े खराब हो चुके है और उसे पहले स्तर का कैंसर है. हम उसे बचा तो नहीं सकते पर हाँ उसकी ज़िंदगी के दिनों में कुछ इज़ाफा ज़रूर करते सकते हैं. वह अभी कुछ दिन अस्पताल में ही रहेगा. कैंसर की बात सुनकर वकीला को तो मानो चक्कर ही आ गए. वह अपने पास रखी बैंच पर किसी टूटे हुए दरख्त की तरह ढह पड़ी और सुबक-सुबक कर रोने लगी. 


अस्पताल में हर रोज़ अनीस के यार-दोस्त, नाते-रिश्तेदार मिलने आते. वे सब उससे कैंसर से संबंधित बात करने से बचने की कोशिश करते. लेकिन अनीस को पता चल चुका था कि उसे मिर्गी का दौरा पड़ा था और वह अब कैंसर का मरीज़ है. वह पिछले एक हफ्ते से अस्पताल में है और अभी भी यहीं रहना है, पर पता नहीं कब तक. हर रोज़ घर का कोई एक सदस्य उसके पास रात में रहने के लिए रुकता. कभी उसके वालिद तो कभी उसका भाई. कभी वकीला तो कभी उसके दामाद.


दिसंबर महीना बीत चुका है और जनवरी के महीने ने अपनी हड्डियाँ कंपाने देने वाली ठंड, ठिठुरन और अंतहीन कोहरे के साथ दस्तक दी. शाम होते ही सारे शहर में कोहरा पड़ना शुरु हो जाता है. कोहरे की परत इतनी घनी होती है कि पास खड़ा इंसान भी दिखाई नहीं देता. सांस लेने के लिए मुँह खोलो तो हवा की जगह भाप निकलती है. मानो शरीर के अंदर भट्टी सुलग रही हो. लोग ठंड और कोहरे से बचने के लिए घरों से कम ही निकलते हैं. शाम को भी वो जल्दी ही अपने घरों में दुबक जाते है. सात बजते ही दुकाने बंद होने लगती है और बाज़ार खाली हो जाता है. दस बजते-बजते सब कुछ किसी अंधकारमय खामोशी में डूब जाता है. कुछ भी दिखाई या सुनाई नहीं देता. सड़के, गलियाँ सब सूनी. कहीं से कोई आवाज़ नहीं आती. हाँ, कभी कभी उस खामोशी को भंग करने के लिए कहीं दूर से कोहरे की परत को चीरती किसी कुत्ते के कुकराने, रोने और अपने कानों को फड़फड़ाने की आवाज़ आ जाती.


आधी रात बीत चुकी है. आज वकीला अनीस के पास ठहरी है. वह उसके सफेद चादर वाले लोहे के पलंद के बराबर में ही एक तिपाई पर रजाई ओढ़े लेटी है. वह ठंड से बचने के लिए बार बार करवटे बदलती है. बीच बीच में उठकर अनीस को देखती है कि वह जाग रहा है या सो गया है. उसे किसी चीज़ की ज़रूरत तो नहीं. जब उसे सब कुछ व्यवस्थित और ठीक ठाक लगता है तो वह फिर पीछे को लेट जाती और सोने के लिए ऊंघने लगती. वकीला की तरह  ही पूरा अस्पताल भी खामोशी में लिपटा हुआ सो रहा है. काफी लंबा वक्त गुज़र जाता है और तीन पहर रात बीत जाती है. अब ऊंघने और रजाई को खिंचने ओढ़ने से होने वाली सरसराहट की आवाज़ भी नहीं सुनाई पड़ती. सब चुप-चुप और खामोश है. तो भी इस खामोशी को कोई तोड़ रहा है. किसी के सिसकने की आवाज़ आ रही है. कोई धीरे से बुदबुदाता रहा है, रो रहा है और अपने हाथों से गालों पर बहते आँसूओं को साफ़ कर रहा है.


बिस्तर पर लेटा अनीस दूर आसमान में अपने नीड़ की ओर जाते पंछी के पंखों की तरह अपनी पलकों का फड़फड़ा रहा है. उसकी आँखों से आँसू पानी की तरह बह रहे है. वह उसके गालों और हाथ की उंगलियों से होता हुए तकिये के खोल को गीला कर रहे है. बहते पानी की धार के साथ वह कहता जा रहा है, 

या अल्लाह मुझे माफ कर दे... मुझे इस अजाब से बचा ले.... बेशक, मैं मानता हूँ कि सब कुछ करने वाली ज़ात तेरी ही है... तू जो चाहता है वही होता है. मैं जानता हूँ कि तू ही मुझे ठीक कर सकता है... ये डॉक्टर ये दवाएं सब झूठी है... जब तक तू नहीं चाहेगा तब तक ये कुछ असर न करेगी... या अल्लाह मुझे बचा ले. ऐ खुदा, मैंने अपनी सारी ज़िंदगी तेरे हुक्मों को तोड़कर गुज़ार दी... तेरी नाफरमानी करते हुए गंवा दी... मैं इसके लिए तुझसे माफी चाहता हूँ... मुझे माफ़ कर.... मैं वादा करता हूँ कि आज के बाद कोई गुनाह नहीं करुँगा. या अल्लाह मुझे माफ कर दे... मैं तुझे माफ़ी चाहता हूँ.



फिर अचानक ही अनीस के होठों के फड़कने के साथ ही उसके सिसकने की आवाज़ भी तेजी होती गई. फिर उसे एक हिचकी आई. उसने दो बार, पहले दाएं फिर बाएं करवट बदली और फिर सीधा होकर चुपचाप लेट गया. उसने अपनी आँखों बंद कर ली. मानो उसे नींद ने अचानक आ दबोचा हो.



सुबह में रोज़ की तरह अस्पताल में चहल पहल शुरु हो गई. वकीला भी सोकर उठ गई. सबसे पहले उसने अनीस को देखा. वह सीधा, खामोश लेटा था. ऐसे जैसे गहरी नींद में हो. सब कुछ ठीक-ठाक उसने सुकून की एक लंबी सांस. वह उसके सिरहाने गई. उसने उसकी रजाई हटाई. दवा देने के लिए उसे जगाना चाहा. पर जब उसने उसके ठंडे हाथ और माथें को छुआ तो वह सन्न रह गई. वह  डॉक्टर को बुलाने को दौड़ा. जबकि वह सूरज निकलने से पहले ही मर चुका था.

----------------------------
शहादत  ख़ान

रेख़्ता (ए उर्दू पोएट्री साइट) में कार्यरत, दिल्ली

7065710789. /786shahadatkhan@gmail.com 

भाष्य : जटायु (सितांशु यशश्चंद्र) : सदाशिव श्रोत्रिय

$
0
0
(राजा रवि वर्मा)













गुजराती भाषा के कवि पद्मश्री सितांशु यशश्चंद्र (जन्म: १८/८/१९४१-भुज) के तीसरे  काव्य संग्रह वखार (२००९) को २०१७ के सरस्वती सम्मान से अलंकृत करने की घोषणा हुई है. ‘अॉडिस्युसनुंं  हलेसुंं’उनका पहला कविता संग्रह है.१९८६ में प्रकाशित उनके दूसरे कविता संग्रह ‘जटायु’को १९८७ के साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था.


हिंदीभाषी पाठकों के लिए इस अवसर पर जटायु कविता का देवनागरी में मूल पाठ और श्री महावीरसिंह चौहान द्वारा किया गया उसका हिंदी अनुवाद दिया जा रहा है. साथ ही इस कविता पर सदाशिव श्रोत्रिय का भाष्य भी आपके लिए प्रस्तुत है.


जब ‘जटायु'कविता रेखांकित हो रही थी तब हिंदी का काव्य परिदृश्य क्या था, यह देखना भी दिलचस्प होगा ? १९८७ में हिंदी का साहित्य अकादेमी पुरस्कार श्रीकान्त वर्मा के   कविता संग्रह ‘मगध'को दिया गया था. इसके एक वर्ष बाद वरिष्ठ कवि शमशेर बहादुर सिंह का कविता संग्रह ‘काल तुझ से होड़ है मेरी' (१९८८) का प्रकाशन हुआ था.

महत्वपूर्ण कवि आलोकधन्वा की कविताएँ भागी हुई लडकियाँ (१९८८), ब्रूनो की बेटियाँ (१९८९) इसी के आस–पास प्रकाशित हुई थीं. चन्द्रकांत देवातले का कविता संग्रह आग हर चीज में बताई गयी थीका प्रकाशन वर्ष भी १९८७ है.  


इसी वर्ष (१९८७) विमल कुमार की कविता 'सपने में एक औरत से बातचीत'को भारतभूषण सम्मान मिला था. आदि 

आइए सितांशु यशश्चंद्र की ‘कविता’ जटायु पढ़ते हैं और फिर सदाशिव श्रोत्रिय की विवेचना.



जटायु                             
सितांशु यशश्चंद्र 


"मुझे यह जान बड़ी ख़ुशी हुई कि गुजराती के मूर्धन्य और बहुचर्चित कवि सितांशु यशश्चंद्र को इस बार बिड़ला फाउंडेशन के  प्रतिष्ठित सरस्वती सम्मान से नवाजा गया है.  मैं स्वयं उनके काव्य का प्रशंसक हूँ और कई वर्षों पहले पढी़ उनकी कविता जटाय  मुझे आज भी पठनीय लगती है.  मराठी और पंजाबी की ही तरह गुजराती भी हिन्दी की ही  भगिनीभाषा है अतः  थोड़ा प्रयत्न करने पर इस कविता के मूल पाठ  को समझना हम हिंदीभाषियों के लिए बहुत कठिन नहीं होगा." 
सदाशिव श्रोत्रिय   






(सितांशु यशश्चंद्र )



1
नगर अयोध्या उत्तरे, ने दक्खण नगरी लंक,

वच्चे सदसद्ज्योत विहोणुं वन पथरायुं रंक.


नगर अयोध्या उत्तर में,  दक्खिन में नगरी लंक,

सद् असद्  ज्योति विहीन मध्य में वन फैला है रंक.


धवल धर्मज्योति , अधर्मनो ज्योति रातोचोळ,

वनमां लीलो अंधकार ,वनवासी खांखांखोळ.


धवल धर्म-ज्योति,  अधर्म की ज्योति लालमलाल,

वन का हरा अंधेरा, वनवासी की अपनी चाल.


शबर वांदरा रींछ हंस वळी हरण साप खिसकोलां

शुक-पोपट ससलां शियाळ वरु मोर वाघ ने होलां.


शबर, हंस, बन्दर, भालू ,गज, हिरन, गिलहरी, मोर,

शुक, पड़कुल, खरगोश, बाघ, वृक, कइयों का कलशोर.


वननो लीलो अंधकार जेम कहे तेम सौ करे,

चरे,फरे , रति करे ,गर्भने धरे, अवतरे,मरे.


वन का हरा अंधेरा जो कुछ कहे वही सब करे,

चरें, फिरें,  रति करें, गर्भ को धरें ,अवतरें, मरें.



दर्पण सम जल होय तोय नव कोई जुए निज मुख ,

बस, तरस लागतां अनुभवे पाणी पीधानुं सुख.


दर्पण सा जल पड़ा, पर न कोई जा देखे निज मुख,

प्यास लगे तो पी ले, ले पानी पीने का सुख.



जेम आवे तेम जीव्या करे कैं वधु न जाणे रंक :

क्यां उपर अयोध्या उत्तरे , क्यां दूर दक्खणे लंक .


जैसे तैसे जी लेते, कुछ अधिक न जाने रंक,

कहाँ अयोध्या ऊपर उत्तर, कहाँ दक्षिण में लंक.







2.

वनमां विविध वनस्पति , एनी नोखी नोखी मजा ,

विविध रसों नी ल्हाण लो ,तो एमां नहीं पाप नहीं सजा .


वन में विविध वनस्पति,  सबके स्वाद अलग बहु खंड,

विविध रसों को चखे कोई तो नहीं पाप, नहीं दंड.



पोपट शोधे मरचीने, मध पतंगियानी गोत,

आंबो आपे केरी, देहनी डाळो फरती मोत.



उड़ें तोते मिरच  काज,  मधु काज भंवर ले गोत,

अम्बुआ डारे आम फले,  फले देह डाल पर मौत.



केरी चाखे कोकिला अने जई घटा संताय ,

मृत्युफळनां भोगी गीधो बपोरमां देखाय.



कोकिल आम्र चखे न चखे, आम्रघटा छिप जाय,

गीध, मृत्युफलभोगी, दोपहरी में प्रगट दिखाय.


जुओ तो जाणे वगरविचारे बेठां रहे बहु काळ,

जीवनमरण वच्चेनी रेखानी पकड़ीने डाळ.


यूं देखो तो बिन सोचे वो बैठ रहे बहु काल

पकड़े जीवन-मरण बीच की रेखा की इक डाल



डोक फरे डाबी, जमणी : पण एमनी एम ज काय ,

(जाणे) एक ने बीजी बाजु वच्चे भेद नहीं पकड़ाय.


गरदन दाएंबाएं करते, थिर ज्यों की त्यों काय,

मानों दोनों बीच असल में भेद न पकड़ा जाय.



जेमना भारेखम देहोने मांड ऊंचके वायु ,

एवां गीधोनी वच्चे एक गीध छे : नाम जटायु .



जिनकी  भारी भरकम देह को उठा न पाये वायु,

ऐसे गिद्धों बीच रहे एक गीध है नाम जटायु .





3.

आम तो बीजुं कंई नहीं, पण एने बहु ऊडवानी टेव,

पहोच चड्यो ना चड्यो जटायु चड्यो जुओ ततखेव.


यूं न ख़ास कोई बात थी,  बस उसे बहु उड़ने की आदत,

भोर फटा- ना - फटा, जटायु, समझो, चढ़ा फटाफट.



ऊंचे ऊंचे जाय ने आघे आघे जुए वनमां,

(त्यां) ऊना वायु वच्चे एने थया करे कंई मनमां.


ऊंचा ऊंचा उड़े,  देखता दूर दूर तक वन में,

तप्त पवन के बीच उसे कुछ हो उठता है मन में.



ऊनी ऊनी हवा ने जाणे हूंफाळी एकलता,

किशोर पंखी ए ऊड़े ने एने विचार आवे भलता .


उष्ण वायु है,  मानो ऊष्माभरा अकेलापन है,

किशोर खग उड़ता है, उड़ता जाता है, उन्मन है.



विचार आवे अवनवा, ए गोळ  गोळ मूंझाय ,

ने ऊनी ऊनी एकलतामां अध्धर चड़तो जाय.


अनजाने आते विचार, वो वर्तुल-वर्तुल फिरता,

उष्ण अकेलेपन में वो खग अधिक-अधिकतर चढ़ता.



जनमथी ज जे गीध छे एनी आमे झीणी आंख,

एमां पाछी उमेराई आ सतपत करती पांख .


जन्म से ही जो गीध है, पैनी है उसकी ऑंखें

ऊपर से पा गया बड़ी फुर्तीली सी दो पांखें.


माता पूछे बापने: आनुं शुंये थशे, तमे केव,

आम तो बीजुं कई नहीं पण आने बहु ऊड़वानी टेव.


माता पूछे बाप से : क्या होगा इसका हाल ?

यूं कोई ख़ास बात नहीं, पर बहु उड़ता है यह बाल.






4.

ऊड़ता ऊड़ता वर्षो वीत्यां अने हजी ऊड़े ए खग,

पण भोळुं छे ए पंखिड़ुं ने वन तो छे मोटो ठग !


उड़ते-उड़ते वर्ष गए, उड़ रहा अभी तक खग

बेचारा भोला पंखी है और वन तो है ठग.



(ज्यम) अधराधरमांजाय जटायु सहज भाव थी साव ,

(त्यम ) जुए तो नीचे वध्ये जाय छे वन नो पण घेराव .



ऊपर ज्यों-ज्यों उठे जटायु, सहज भाव से मात्र ,

नीचे त्यों-त्यों बढ़े जा रहे, देखत, वन के गात्र.



हाथवा ऊंचो ऊडे़ जटायु तो वांसवा ठेके वन ,

तुलसी तगर तमाल ताल तरु जोजननां  जोजन .


हाथ-माप खग उड़े, तो कूदे बांस-माप वो वन,

तुलस, तगर, तमाल, ताल तरु जोजन के जोजन.



ने एय ठीक छे, वन तो छे आ भोळियाभाईनी  मा :

लीलोछम अंधार जे  देखाड़े ते देखीए भा !



चलो ठीक है,  वन है आखिर इस भोले की माता.

देखो उतना, जितना हरा अँधेरा तुम्हें दिखाता.



हसीखुशीने  रहो ने भूली जता न पेली शरत ,

के वननां वासी , वनना छेड़ा पार देखना मत .



हँसी-खुशी से रहो,  मगर मत भूलो इसकी शरत

ओ वनवासी,  इस वन के उस पार देखना मत.





5.

एक वखत ,वर्षो पछी, प्रौढ़ जटायु ,मुखी ,

केवळ गजकेसरी शबनां भोजन जमनारो,सुखी .


बीते बरस बहोत, बन गया प्रौढ़ जटायु मुखिया

केवल गज केसरी-शवों को खाने वाला सुखिया.




वन वच्चे ,मध्याह्न नभे, कैं भक्ष्य शोधमां भमतोतो ,

खर बिडाल मृग शृगाल शब देखाय , तोय ना नमतोतो .


वन के बीच भरी दुपहर में भक्ष्य खोजने उड़ता था,

खर, बिडाल, मृग, शृगाल शव तो थे,  न किन्तु वह झुकता था.



तो भूख धकेल्यो ऊड्यो ऊंचे ने एणे जोयुं चोगरदम,

वन शियाळ-ससले भर्युंभादर्युं, पण एने लाग्युं खालीखम.


क्षुधा-क्षुब्ध वह उड़ा बहुत ऊंचे,  देखा हर ओर

खरहों-स्यारों भरा विपिन, फिर भी खालीपन घोर.




ए खालीपानी ढींक वागी , ए थथरी ऊठ्यो थरथर ,

वन ना-ना कहेतुं रह्युं , जटायु अवश ऊछळ्यो अध्धर .



उस खालीपन की ठेस लगी, तो काँप उठा वह थरथर

रहा रोकता वन, जटायु अवश उड़ पड़ा ऊपर.



त्यां ठेक्यां चारेकोरे तुलसी तगर तमाल ने ताल ,

सौ नानां नानां मरणभर्या एने लाग्या साव बेहाल .



तो कूद पड़े सब ओर फैलते तुलसी, ताल, तमाल

छोटी-छोटी मृत्यु मरे सब लगे उसे बेहाल.



अने ए ज असावध पळे एणे  लीधा कया हवाना केडा़ ,

के फकत एक ज वींझी पांख, हों ,ने जटायुए दीठा वन ना छेड़ा .



बस उसी असावध पल लेने किस पवन लहर का पंथ

एक बार वह घूमा तो उसने देखा वन का अंत.





6.

नगर अयोध्या उत्तरे ने दक्षिण नगरी लंक ,

बेय सामटां आव्यां, जोतो रह्यो जटायु रंक .


नगर अयोध्या उत्तर में, दक्षिण में नगरी लंक,

दोनों साथ दिखे,  देखता रहा जटायु रंक.




पण तो एणे कह्युं के जे-ते थयुं छे केवल ब्हार,

पण त्यां ज तो पींछे पींछे फूट्यो बेय नगरनो भार.



पल भर उसने सोचा, जो कुछ हुआ सो बाहर,कहीं,

पर आया भार दोनों नगरों का पंख पंख पर यहीं.



नमी पड्यो ए भार नीचे ने वनवासी ए रांक,

जाणी चूक्यो पोतानो एक नाम विनानो वांक .


झुक गई उस भार तले उसके तन की हर चूल

जान गया था वह अपनी एक नाम बिना की भूल.



दह्मुह भुवन भयंकर ,         त्रिभुवन-सुन्दरसीताराम,

-निर्बळ गीधने लाध्युं एनुं अशक्य जेवुं काम .


दह्मुह भुवनभयंकर, त्रिभुवनसुन्दर सीता-राम,

निर्बल गीध को मिला अचानक एक असंभव काम.




ऊंचा पवनो वच्चे उड़तो  हतो हांफळो हजी ,

त्यां तो सोनामृग, राघव , हे लक्ष्मण , रेखा ,स्वांगने सजी .


पवन मध्य ऊंचे नभ में उड़ चला अकेला जीव,

तब सोनामृग, राघव, हे लक्ष्मण, रेखा, स्वांग अजीब




रावण आव्यो, सीता ऊंचक्यां ,दोड्यो ने गीध तुरंत ,

एक युद्धे मच्यो , एक युद्धे मच्यो , एक युद्धे मच्यो ,   

हा हा ! हा हा ! हार्यो, जीवननो हवे ढूंकड़ो अंत .


सज आया रावण,  सीता ले चला, जटायु तुरंत

टूट पड़ा बस, युद्ध छिड़ गया, युद्ध छिड़ गया, युद्ध छिड़ गया,

हा हा हा हा हारा, जीवन का यह समीप अब अंत !






7.

दख्खणवाळो दूर अलोप , हे तू उत्तरवाळा आव ,

तुलसी तगर तमाल ताल वच्चे एकलो छुं साव.



दक्खनवाला दिगंत गत, हे तू उत्तरवाले आ,

तुलसी ,तगर, तमाल बीच मैं निरा अकेला यहाँ.




दया जाणी कैं  गीध आव्यां छे अंधाराने लई,

पण हुं शुं बोलुं छुं ते एमने नथी समजातुं कंई .


दया जान कुछ गिद्ध आ गए लिए चंचु अंधार

पर क्या कहता हूँ मैं, वो कुछ ना समझ सके, इस बार.



झट कर झट कर राघवा ! हवे मने मौननो केफ चडे़ ,

आ वाचा चाले एटलामां मारे तने कंई कहेवानुं छे .


झट कर, झट कर,  राघवा,  मुझे चढ़े मौन का मद,

जब तक बाती चले,तुझे कुछ कहने हैं दो सबद.



तुं तो समयनो स्वामी छे ,क्यारेक आववानो ए सही ,

पण हुं तो वनेचर मर्त्य छुं हवे झाझुं तकीश नहीं .



तू तो समय का स्वामी है, तू आएगा तो सही;

पर मैं तो वनचर मर्त्य हूँ, अब टिकनेवाला नहीं.



हवे तरणांय वागे छे तलवार थई मारा बहु दुःखे छे घा,

आ केड़ा विनाना वनथी केटलुं छेटुं हशे अयोध्या ?


तृण-तृण अब तलवार बने हर व्रण पीड़े  चकचूर,

बिन- पथ इस  वन से वह  अयोध्या होगी कितनी दूर.



आ अणसमजु वन वच्चे शुं मारे मरवानुं  छे आम ?

नथी दशानन दक्षिणे अने उत्तरमां नथी राम.


इस अबोध वन में यूं मरना, मेरा यही अंजाम ?


न तो दशानन दक्षिण में अब, न ही उत्तर में राम.






II जटायु : सितांशु यशश्चंद्र II

सदाशिव श्रोत्रिय 








स कविता के पाठक को शुरू में लगता है कि रामायण का मिथकीय पात्र जटायु ही इसमें वर्णित कथा का नायक है. कविता में राम, रावण, अयोध्या, लंका, लक्ष्मण, स्वर्णमृग, (लक्ष्मण-) रेखा आदि के उल्लेख से उसका यह विश्वास  और बढ़  जाता है.  पर एक सावधान पाठक के सामने बहुत जल्दी यह स्पष्ट  हो जाता है कि जिस आदिरूपात्मक (archetypal) जटायु की सृष्टि इस कवि ने की है वह रामायण के जटायु से कई मायनों में भिन्न है.  इस जटायु का कुछ-कुछ साम्य संभवतः बाइबिल कथा  के उस आदम में ढूँढा जा सकता है जिसे ज्ञान-वृक्ष का फल चखने के दंड-स्वरूप  ईडन उद्यान से निष्कासित कर दिया गया था.

जटायु जिस वन में रहता है उसके निवासी सद्असद्  के किसी  विचार से शून्य हैं. कवि यदि इस कविता में श्वेत रंग को अच्छाई तथा लाल को बुराई के प्रतीक के तौर पर  इस्तेमाल करता है तो इस वन का रंग इन दोनों से भिन्न गहरा हरा है:

नगर अयोध्या उत्तरे,  ने दक्खण नगरी लंक,
वच्चे सदसद्ज्योत विहोणुं वन पथरायुं रंक.

नगर अयोध्या उत्तर में , दक्खिन में नगरी लंक,
सद् असद्  ज्योति विहीन मध्य में वन फैला है रंक .

धवल धर्मज्योति, अधर्मनो ज्योति रातोचोळ ,
वनमां लीलो अंधकार, वनवासी खांखांखोळ .

धवल धर्म-ज्योति,  अधर्म की ज्योति लालमलाल ,
वन का हरा अंधेरा, वनवासी की अपनी चाल


कविता का प्रथम पद हमें इस बात का  आभास करवाता है कि इस वन में रहने वाले प्राणी  एक प्रकार का  सहजवृत्ति से संचालित जीवन जीते हैं -  कि उनका  जीवन केवल  इन्द्रिय-परायणता का सुख खोजने और अंततः उनकी जीवन लीला समाप्त कर देने  तक सीमित  है :

वननो लीलो अंधकार जेम कहे तेम सौ करे ,
चरे,फरे,  रति करे, गर्भने धरे, अवतरे, मरे.

वन का हरा अंधेरा जो कुछ कहे वही सब करे ,
चरें, फिरें,  रति करें, गर्भ को धरें, अवतरें, मरें

इन वनचरों के केवल भौतिक, पाशविक, अनुभवों तक सीमित रहने और  आत्मचिंतन जैसी किसी गतिविधि में सर्वथा असमर्थ  होने  का संकेत भी  यह कवि एक सशक्त बिम्ब द्वारा अपने  पाठकों को देता है  :

दर्पण सम जल होय तोय नव कोई जुए निज मुख,
बस, तरस लागतां अनुभवे पाणी पीधानुं सुख.

दर्पण सा जल पड़ा, पर न कोई जा देखे निज मुख,
प्यास लगे तो पी ले,    ले पानी पीने का सुख.

इसके निवासियों की अनुभव-सीमा को भी यह वन ही निर्धारित करता है.  उन्हें इस बात का कतई एहसास नहीं है कि उनके इस वन के उत्तर में अयोध्या स्थित  है(जिसका नाम  सद्  के, अच्छाई के,  धर्मपालन के प्रतीक राम से जुड़ा है) और इसके दक्षिण में लंका है (जहाँ  बुराई और अधर्म का  प्रतीक रावण निवास करता है).
ईडन उद्यान के  निवासियों  की तरह ही इन वनवासी प्राणियों  का जीवन भी बड़े मज़े से बीत रहा है :

वनमां विविध वनस्पति,  एनी नोखी नोखी मजा ,
विविध रसों नी ल्हाण लो, तो एमां नहीं पाप नहीं सजा .

वन में विविध वनस्पति,  सबके स्वाद अलग बहु खंड,
विविध रसों को चखे कोई तो नहीं पाप, नहीं दंड.


पोपट शोधे मरचीने, मध पतंगियानी गोत,
आंबो आपे केरी, देहनी डाळो फरती मोत.

उड़ें तोते मिरच  काज, मधु काज भंवर ले गोत ,
अम्बुआ डारे आम फले , फले देह डाल पर मौत .


केरी चाखे कोकिला अने जई घटा संताय,
मृत्युफळनां भोगी गीधो बपोरमां देखाय.

कोकिल आम्र चखे न चखे,  आम्रघटा छिप जाय,
गीध, मृत्युफलभोगी,  दोपहरी में प्रगट दिखाय .

बहरहाल जटायु नामक इस विशाल गृद्ध की शरीर-रचना और व्यवहार भी कवि की कल्पना को  कुछ अन्य विशिष्ट बिम्ब सुझाते हैं  :

जुओ तो जाणे वगरविचारे बेठां रहे बहु काळ,
जीवनमरण वच्चेनी रेखानी पकड़ीने डाळ.

यूं देखो तो बिन सोचे वो बैठ रहे बहु काल
पकड़े जीवन-मरण बीच की रेखा की इक डाल .


डोक फरे डाबी, जमणी : पण एमनी एम ज काय ,
(जाणे) एक ने बीजी बाजु वच्चे भेद नहीं पकड़ाय.

गरदन दाएं बाएं करते, थिर ज्यों की त्यों काय ,
मानों दोनों बीच असल में भेद न पकड़ा जाय .

कविता कहीं हमें इस बात का संकेत भी देती है कि इस वन में रहने वालों के लिए बाहरी दुनिया से संपर्क  वर्जित है :

हसी खुशी ने  रहो ने भूली जता न पेली शरत ,
के वननां वासी , वनना छेड़ा पार देखना मत .

हँसी-खुशी से रहो, मगर मत भूलो इसकी शरत
ओ वनवासी, इस वन के उस पार देखना मत .

आगे बढ़ने पर कविता हमें बतलाती है इस वन के वासी जटायु की प्रकृति में एक घातक दोष है जो आगे चल कर उसके लिए मुसीबत  का कारण बन जाता है :

आम तो बीजुं कंई नहीं, पण एने बहु ऊडवानी टेव,
पहोच चड्यो ना चड्यो जटायु चड्यो जुओ ततखेव.

यूं न ख़ास कोई बात थी, बस उसे बहु उड़ने की आदत ,
भोर फटा- ना - फटा, जटायु, समझो  ,चढ़ा फटाफट.

ऊंचे ऊंचे जाय ने आघे आघे जुए वनमां,
(त्यां) ऊना वायु वच्चे एने थया करे कंई मनमां .

ऊंचा ऊंचा उड़े, देखता दूर दूर तक वन में ,
तप्त पवन के बीच उसे कुछ हो उठता है मन में.

ऊनी ऊनी हवा ने जाणे हूंफाळी एकलता,
किशोर पंखी ए ऊड़े ने एने विचार आवे भलता .

उष्ण वायु है,  मानो ऊष्माभरा अकेलापन है ,
किशोर खग उड़ता है,  उड़ता जाता है, उन्मन है.


विचार आवे अवनवा, ए गोळ  गोळ मूंझाय ,
ने ऊनी ऊनी एकलतामां अध्धर चड़तो जाय.

अनजाने आते विचार,  वो वर्तुल-वर्तुल फिरता,
उष्ण अकेलेपन में वो खग अधिक-अधिकतर चढ़ता.

जनमथी ज जे गीध छे एनी आमे झीणी आंख,
एमां पाछी उमेराई आ सतपत करती पांख .

जन्म से ही जो गीध है , पैनी है उसकी ऑंखें
ऊपर से पा गया बड़ी फुर्तीली सी दो पांखें .


कविता के इस तीसरेपद की अंतिम पंक्तियाँ पाठक को बतलाती है कि जटायु की प्रकृति का बहुत ऊपर तक उड़ने की कोशिश का यह  घातक दोष उसके माता पिता की सतत उद्विग्नता का  कारण बना रहता है :

माता पूछे बापने: आनुं शुंये थशे, तमे केव,
आम तो बीजुं कई नहीं पण आने बहु ऊड़वानी टेव.

माता पूछे बाप से : क्या होगा इसका हाल ?
यूं कोई ख़ास बात नहीं, पर बहु उड़ता है यह बाल.

कविता हमें कहती है कि जटायु जैसे जैसे अधिक ऊपर की ओर उड़ता है वैसे वैसे ही वन को भी जैसे अधिक फैलने का मौका मिल जाता है :

ऊड़ता ऊड़ता वर्षो वीत्यां अने हजी ऊड़े ए खग,
पण भोळुं छे ए पंखिड़ुं ने वन तो छे मोटो ठग !

उड़ते-उड़ते वर्ष गए ,उड़ रहा अभी तक खग
बेचारा भोला पंखी है और वन तो है ठग .


(ज्यम) अधराधरमांजाय जटायु सहज भाव थी साव ,
(त्यम ) जुए तो नीचे वध्ये जाय छे वन नो पण घेराव .

ऊपर ज्यों-ज्यों उठे जटायु ,सहज भाव से मात्र ,
नीचे त्यों-त्यों बढ़े जा रहे ,देखत , वन के गात्र .


हाथवा ऊंचो ऊडे़ जटायु तो वांसवा ठेके वन,
तुलसी तगर तमाल ताल तरु जोजननां  जोजन .

हाथ-माप खग उड़े, तो कूदे बांस-माप वो वन,
तुलसी, तगर, तमाल,ताल तरु जोजन के जोजन .


कवि जब वन को ठग कहता है  तब लगता है कि जटायु की इस कहानी में उसकी भूमिका भी कुछ कुछ बाइबिल के शैतान जैसी है जो हव्वा के माध्यम से आदम को ज्ञान-वृक्ष का फल खाने के लिए उकसाता रहता है. वन की  इस ठगी  का कारण शायद स्वयं वन की अधिकाधिक फैलने की इच्छा है. जटायु के प्रति वन की नैतिक भूमिका शायद रक्षात्मक भी है जिसके बारे में सोच कर  जटायु के माता-पिता कुछ निश्चिन्त रहते हैं :

ने एय ठीक छे , वन तो छे आ भोळियाभाईनी  मा :
लीलोछम अंधार जे  देखाड़े ते देखीए भा !

चलो ठीक है,  वन है आखिर इस भोले की माता.
देखो उतना, जितना हरा अँधेरा तुम्हें दिखाता.

पर  आखिर एक दिन जटायु से वह भूल हो ही जाती है जिसका अंदेशा उसके मां-बाप को शुरू से रहा था.  इस समय तक जटायु प्रौढ़ हो चुका है, गिद्धों ने उसे अपना  मुखिया चुन लिया  है और वह अब किन्हीं अन्य छोटे-मोटे जानवरों के शवों के बजाय केवल गजकेसरी  शवों का ही भक्षण करता हैएक दुपहर, भोजन की तलाश में उड़ते हुए लगता है वह अहंकार की चपेट में आ जाता है और तब  वह मन ही मन अपने जीवन के प्रति  एक प्रकार के रिक्तता भाव से भर उठता है.  नीचे फैले तुलसी-तगर-तमाल-ताल वृक्ष और उनके बीच घूमते खरगोशसियार  उसे अत्यंत क्षुद्र व मर्त्य लगने लगते हैं और असावधानी के उस क्षण में एक तीव्र उड़ान से वह वन की सतत वर्जना के बावजूद उसकी सीमा  पार कर जाता  है : 

एक वखत ,वर्षो पछी, प्रौढ़ जटायु ,मुखी ,
केवळ गजकेसरी शबनां भोजन जमनारो,सुखी .

बीते बरस बहोत , बन गया प्रौढ़ जटायु मुखिया
केवल गज केसरी-शवों को खाने वाला सुखिया .

वन वच्चे,मध्याह्न नभे, कैं भक्ष्य शोधमां भमतोतो ,
खर बिडाल मृग शृगाल शब देखाय, तोय ना नमतोतो .

वन के बीच भरी दुपहर में भक्ष्य खोजने उड़ता था ,
खर,बिडाल,मृग,शृगाल शव तो थे, न किन्तु वह झुकता था.

तो भूख धकेल्यो ऊड्यो ऊंचे ने एणे जोयुं चोगरदम,
वन शियाळ-ससले भर्युंभादर्युं, पण एने लाग्युं खालीखम.

क्षुधा-क्षुब्ध वह उड़ा बहुत ऊंचे , देखा हर ओर
खरहों-स्यारों भरा विपिन , फिर भी खालीपन घोर.

ए खालीपानी ढींक वागी, ए थथरी ऊठ्यो थरथर ,
वन ना-ना कहेतुं रह्युं, जटायु अवश ऊछळ्यो अध्धर .

उस खालीपन की ठेस लगी,तो काँप उठा वह थरथर
रहा रोकता वन, जटायु अवश उड़ पड़ा ऊपर .

त्यां ठेक्यां चारेकोरे तुलसी तगर तमाल ने ताल ,
सौ नानां नानां मरणभर्या एने लाग्या साव बेहाल .

तो कूद पड़े सब ओर फैलते तुलसी,ताल,तमाल
छोटी-छोटी मृत्यु मरे सब लगे उसे बेहाल.


अने ए ज असावध पळे एणे  लीधा कया हवाना केडा़ ,
के फकत एक ज वींझी पांख, हों ,ने जटायुए दीठा वन ना छेड़ा .

बस उसी असावध पल लेने किस पवन लहर का पंथ
एक बार वह घूमा तो उसने देखा वन का अंत.

कविता के इस बिंदु पर  पाठक को एक अदिरूपात्मक मोड़ तब दिखाई देता है जब वन की सीमा पार करते ही जटायु न केवल अयोध्या और लंका को एक साथ देखने में समर्थ हो जाता है बल्कि वह यह महसूस करता है कि इस गतिविधि के परिणामस्वरूप उसके ऊपर एक नए किस्म का  भार  आ पड़ा है :

नगर अयोध्या उत्तरे ने दक्षिण नगरी लंक ,
बेय सामटां आव्यां, जोतो रह्यो जटायु रंक .

नगर अयोध्या उत्तर में,दक्षिण में नगरी लंक,
दोनों साथ दिखे , देखता रहा जटायु रंक.

पण तो एणे कह्युं के जे-ते थयुं छे केवल ब्हार,
पण त्यां ज तो पींछे पींछे फूट्यो बेय नगरनो भार.

पल भर उसने सोचा, जो कुछ हुआ सो बाहर,कहीं,
पर आया भार दोनों नगरों का पंख पंख पर यहीं .


नमी पड्यो ए भार नीचे ने वनवासी ए रांक,
जाणी चूक्यो पोतानो एक नाम विनानो वांक .

झुक गई उस भार तले उसके तन की हर चूल
जान गया था वह अपनी एक नाम बिना की भूल.


दह्मुह भुवन भयंकर ,         त्रिभुवन-सुन्दरसीताराम,
-निर्बळ गीधने लाध्युं एनुं अशक्य जेवुं काम .

दह्मुह भुवनभयंकर , त्रिभुवनसुन्दर सीता-राम ,
निर्बल गीध को मिला अचानक एक असंभव काम .

पल भर वह अपने आप को इस मुगालते में रखने की कोशिश करता है कि इस बदलाव से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है कि यह सब कहीं उससे बाहर घटित हुआ है पर शीघ्र ही उसे इस बात का आभास  हो जाता है कि  दो परस्पर विरोधी शक्तियों के ज्ञान के परिणामस्वरूप आई एक प्रकार की नैतिक ज़िम्मेदारी से अब वह बाख नहीं सकता कि इनमें से किसी एक के पक्ष में खड़ा होना उसके लिए अनिवार्य हो गया है .

रामायण में दशरथ और जटायु के संबंधों को याद करके पाठक स्वयं यह निर्णय कर सकता है कि जटायु के लिए केवल धर्म की, राम की  पक्षधरता ही संभव है जबकि उसकी वर्तमान परिस्थितियों में अधर्म की शक्ति अधिक बढ़ी हुई हैउसका मुकाबला स्वाभाविक रूप से सीता-हरण करते रावण से होता है और वह मरणान्तक रूप से घायल हो जाता है :

ऊंचा पवनो वच्चे उड़तो  हतो हांफळो हजी ,
त्यां तो सोनामृग, राघव , हे लक्ष्मण , रेखा ,स्वांगने सजी .

पवन मध्य ऊंचे नभ में उड़ चला अकेला जीव ,
तब सोनामृग, राघव , हे लक्ष्मण, रेखा,स्वांग अजीब

रावण आव्यो, सीता ऊंचक्यां ,दोड्यो ने गीध तुरंत ,
एक युद्धे मच्यो , एक युद्धे मच्यो , एक युद्धे मच्यो ,   
हा हा ! हा हा ! हार्यो, जीवननो हवे ढूंकड़ो अंत .

सज आया रावण, सीता ले चला,जटायु तुरंत
टूट पड़ा बस ,युद्ध छिड़ गया,युद्ध छिड़ गया ,युद्ध छिड़ गया ,
हा हा हा हा हारा ,जीवन का यह समीप अब अंत !


कविता का सातवाँ और अंतिम पद सर्वाधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि हमारे समय का संवेदनशील पाठक इसे पढ़ते समय इसके आदिरूपात्मक कथन को कहीं अपने ऊपर भी लागू होते हुए पाता है. व्यक्ति जब तक एक ही प्रकार के सोच से जुड़ा था तब उसके लिए कोई समस्या नहीं थी पर विश्व  आज जिस संक्रमण काल से गुजर रहा है उसमें उसकी मुठभेड़ जगह जगह  विरोधी प्रकार की विचारधाराओं से होती है. आस्थावान व्यक्ति  आज भी यह विश्वास करके चलता है कि विजय अंततः धर्म की होगी पर उसे क्षितिज पर राम अब भी कहीं दिखाई नहीं देते. उसके एकाधिक  विचारधाराओं  से  परिचित  होने के कारण उसकी बहुत सी बातें भी उन लोगों की समझ में नहीं आती जो दुनिया को अब भी परंपरागत ढंग से देखने के आदी हैं:

या जाणी कैं  गीध आव्यां छे अंधाराने लई,
पण हुं शुं बोलुं छुं ते एमने नथी समजातुं कंई .

दया जान कुछ गिद्ध आ गए लिए चंचु अंधार
पर क्या कहता हूँ मैं,वो कुछ ना समझ सके,इस बार.

इस कविता के उद्गम पर विचार करते हुए पाठक यह भी पूछ सकता है  कि क्या यह एक डायस्पोरा कविता है? क्या यह उन भारतीयों की मनस्थिति का चित्रण करती है जिन्होंने अपने देश की सीमाओं का उल्लंघन कर अन्य पश्चिमी  देशों में जाने का साहस किया और जो वहां भी कुछ समय इस मुगालते में रहे कि विदेश में विदेशियों से  अलग रहते हुएवे वहां भी अपनी भारतीय सांस्कृतिक पहचान बनाए रख सकेंगे ? उनकी  अगली पीढ़ियों के विदेशी संस्कृति में पूरी तरह रंग जाने  पर उनकी संतानों की छोटी छोटी हरकतें भी उनके लिए गहरे दुःख, पश्चाताप और मानसिक क्लेश का कारण बनने  लगीं :

हवे तरणांय वागे छे तलवार थई मारा बहु दुःखे छे घा,
आ केड़ा विनाना वनथी केटलुं छेटुं हशे अयोध्या ?

तृण-तृण अब तलवार बने हर व्रण पीड़े  चकचूर,
बिन- पथ इस  वन से वह  अयोध्या होगी कितनी दूर.

जटायु की निराशा एक आत्यंतिक रूप ले लेती है जब वह कहता है कि क्या अपने लोगों द्वारा न समझे जाने और राम को अपनी बात बतलाए  बिना इस संसार से कूच कर जाना ही उसकी नियति है :

आ अणसमजु वन वच्चे शुं मारे मरवानुं  छे आम ?
नथी दशानन दक्षिणे अने उत्तरमां नथी राम .

इस अबोध वन में यूं मरना,मेरा यही अंजाम ?
न तो दशानन दक्षिण में अब, न ही उत्तर में राम.

किसी आदिरूपात्मक बिम्ब  की विशेषता इस बात में भी निहित होती है कि उसे व्यक्ति,समय और परिस्तिथियों के अनुसार  एकाधिक प्रकार से व्याख्यायित किया जा सकता है. सितांशु जी द्वारा की गई जटायु की यह मिथकीय सृष्टि इस पैमाने पर भी खरी उतरती है. इसे पढ़ते समय किसी पाठक  के मन में महात्मा गाँधी का ख्याल भी आ सकता है . हमारे  जिन देशवासियों ने वैश्वीकरण, उदारीकरण, राजनीति, पूंजीवाद, सामाजिक क्रांति, तकनीकी विकास आदि के फलस्वरूप उन तमाम मूल्यों को धीरे धीरे नष्ट होते हुए देखा है जो पीढ़ी दर पीढ़ी इस देश के सांस्कृतिक मूल्य बन कर रहे थे वे भी  निश्चित रूप से इस कविता को पढ़ते समय कहीं न कहीं अपने आप को इस कविता के केन्द्रीय पात्र की जगह रख कर देखने में समर्थ होंगे. यह कविता तब  उनके उन जटिल मनोभावों को अभिव्यक्ति देती हुई लगेगी  जिन्हें वे स्वयं आसानी से अभिव्यक्त नहीं कर   सकते.

__________________________ 

sadashivshrotriya1941@gmail


सदाशिव श्रोत्रिय को क्लिक करके यहाँ पढ़ें.
_______________
४.राजेश जोशी (बिजली सुधारने वाले)
५.देवी प्रसाद मिश्र (सेवादार)                     

परख : सलीब पर सच (कविता संग्रह) : सुभाष राय

$
0
0






सलीब पर सच (कविता संग्रह)

कवि - सुभाष राय

संस्करण : २०१८

बोधि प्रकाशनजयपुर -302006






चार दशकों से पत्रकारिता करते हुए समसामयिक विषयों पर सुभाष राय के लिखे हजारों लेख लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में छपे हैं. फिलहाल लखनऊ से प्रकाशित ‘जनसंदेश टाइम्स’ में प्रधान संपादक हैं. ‘सलीब पर सच’उनका पहला कविता संग्रह है. इस संग्रह की समीक्षा कवि स्वप्निल श्रीवास्तव की कलम से.   







समय की ध्वनियाँ                           
स्वप्निल श्रीवास्तव





हिंदी में बहुतेरे कवि रहे है जो पत्रकारिता के पेशे में रहते हुये कवितायें लिखते रहे है. उन्होने कविता को नये शब्द दिये है. आजादी के पहले और बाद के कवियों में ऐसे अनेक कवि मिल जायेगे.  ऐसे कवि बेहद चेतनाशील होते हैं. उन्हें कविता लिखने के लिये किसी प्रशिक्षण की जरूरत नही है. खबरो की दुनिया में कविता के लिये बहुत कच्चा माल है. यह कवि का कमाल है कि वे खबरों को किस तरह कविता में तब्दील करता है. हिंदी कविता में अज्ञेय, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर और विष्णु खरे ऐसे कवि है जिन्होने अपनी कविता में पत्रकारिता के अनुभव का इस्तेमाल किया.


हम ऐसे वक्त में रह रहे है जिसमे राजनीति से बचना नामुमकिन है. सत्ता का चरित्र निरंतर क्रूर होता जा रहा है. हमारे शासक हमारे रहनुमा नही रह गये है. वे जनता को अपना गुलाम और ताबेदार समझते है. 21 वीं शताब्दी के उदय होते होते टेलीविजन मीडिया समूहो की भूमिका प्रमुख होने लगी थी. ये चैनल जनता के मुद्दों को सामने लाने की अपेक्षा शासक वर्ग की रक्षा ज्यादा करते है. प्रिंट मीडिया का उपयोग फेक न्यूज और पेड न्यूज के लिये किया जाने लगा. ऐसे समय में सच क्या है, यह जानना मुश्किल हो गया. ऐसे दौर में पत्रकारों की भूमिका संदेह के परे नही रह गयी है. सच का लिखा जाना क्रमश: कम होता गया और झूठ को सच के रूप में प्रचारित किया जाता रहा.

(सुभाष राय)

सुभाष राय के  कविता संग्रह सलीब पर सच की कवितायें  उस सच को खोजती हुई नजर आती है, जो हमारे समय के कोलाहल में गायब हो गया है. सुभाष राय लम्बे समय से पत्रकारिता की दुनिया के बाशिंदे है. वे मौजूदा समय मे अखबार  के जरिये साहित्य को बचाने की कोशिश कर रहे है. यह बात दावे से कही जा सकती है कि जिस समय दैनिक समाचार पत्रों से साहित्य अनुपस्थित हो रहा था, उस समय अखबार के माध्यम से उन्होने साहित्य के  प्रति पाठको को जागरूक बनाया.


सुभाष राय की कविताओं में समय की ध्वनियां दर्ज है. उनकी कतिपय कवितायें पाठको को उग्र लग सकती है  लेकिन क्या हमारे समय में सच को कोमलकांत शब्दावलियों में व्यक्त किया जा सकता हैआठवे दशक में कठिन समय का मुहावरा प्रचलित था. अब यह उसके आगे का समय है.  यह क्रूरता और फासिज्म का समय है, जब सारी तदबीरे उलट चुकी है. साहित्य और राजनीति के ककहरे बदल चुके हैं.  पक्ष विपक्ष  में कोई विभेद नही रह गया. दोनो का उद्देश्य कदाचार ही है. जनता के सामने एक दूसरे के दुश्मन दिखते है लेकिन नेपथ्य में गलबहियां मिलाते रहते है.


अपने संकलन के प्राक्कथन में सुभाष राय  कहते है कविता मेरे भीतर प्राण की तरह बसती है. वह भले शब्दों में न उतरे या बहुत कम उतरे लेकिन उससे मुक्त होना मेरे लिये संभव नही है. मै नही कहूंगा कि मैं कविता रचता हूं. कविता खुद को खुद ही रचती है.


उनके इस कथन से मंटो की याद आयी. मंटो ने लिखा  है कि अफसाना लिखने की लत मेरे लिये शराब की लत की तरह है. आगे वे कहते हैं  कि अगर वे अफसाना न लिखें  तो उन्हें  लगेगा कि उन्होने कपड़े नहीं  पहने हैं, गुस्ल नहीं  किया है, शराब नहीं  पी है.


यहां तुलना करना मेरा अभीष्ट नहीं  है. लेखक बड़ा हो या छोटा उसकी अपनी जगह है. बड़े लेखक हमे प्रेरित करते है. यह बात तय है कि बेचैनी लेखक या कवि का प्राथमिक भाव है. बिना बेचैन हुये लिखने का कोई अर्थ नहीं है.


वास्तव में कविता लिखने की यही प्रक्रिया है वह बलात  न लिखी जाय. सुभाष राय की इस आत्म स्वीकृति  को ध्यान में रख कर उनकी कवितायें पढ़ी जानी चाहिये.  उनके सम्बन्ध में यह याद रखना होगा कि उन्होने बिलम्ब से लिखना शुरू किया. यदि ऐसा न होता तो अब उनके कई संग्रह आ चुके होते. हिंदी कवियों में धैर्य का तत्व कम रह गया है. कविता लिखी नहीं  उत्पादित की जा रही है. हम सब इस  कुटेब के शिकार है. इस संग्रह की पहली कविता उनकी प्रतिबद्धता  को जाहिर करती है...


मेरा परिचय उन सबका परिचय है

जो सोये नही है जनम के बाद...

उनसे मुझे कुछ नहीं कहना

जो दीवारों  में चुने जाने से खुश है

जो मुर्दो की मानिंद घर से निकलते हैं

बाजार में खरीदारी करते है

और खुद खरीदे गये सामान में बदल जाते  हैं.


यह कविता  सत्ता और बाजार की भूमिका से हमें  अवगत कराती है. सत्ता और बाजार दोनों का काम मानवविरोधी है. उसके लिये आदमी बिकाऊ माल है. सत्ता और बाजार के लिये हम उपकरण के अलावा कुछ नहीं  है. दोनों में हमे  खरीदने और बरबाद करने की ताकत है.



कवि के पास भले ही स्वर्णिम संसार न हो लेकिन उसके पास सपने जरूर होते हैं. ये सपने उसे यथार्थ तक पहुंचाते हैं . कवि के सपने कविताओं में रूपांतरित होते हैं.  पाश को  याद करिये, जिसने कहा था – ‘सबसे ज्यादा खतरनाक होता है हमारे  सपनों  का मर जाना’. सुभाष राय के पास सपने हैं. वे कहते हैं 


जिनके पास सपने नहीं  होते

वहीं पांवों के निशान का पीछा करते हैं

वही ढ़ूढ़ते हैं आसान रास्ते

सचमुच वे कहीं नहीं पहुंचते.


सुभाष राय की  कवितायें सत्ताविरोध की कवितायें हैं. उन्हें पता है कि किस तरह सत्ता आम आदमी के जीवन के साथ व्यवहार करती है. किस तरह मतदाताओं को सपने दिखाती है. रघुवीर सहाय जैसे कवियों में जनतंत्र की विफलता को लेकर अनेक कवितायें लिखी हैं जो पहले से ज्यादा प्रासंगिक है. दरअसल जनतन्त्र की अवधारणा को पूंजी तंत्र खारिज कर चुका है. इस जनतंत्र को शासक नहीं कुछ चुने हुये कारपोरेट चला रहे हैं. अब यह बात सार्वजनिक हो चुकी है. विकास के अर्थ बदल गये हैं. वह अब एक नारा ह. अपनी इस बात को सुभाष राय सोनचिरैया के मिथक के माध्यम से हमारे सामने लाते हैं. यह देश कभी सोने की चिड़िया था यह पद हर व्यवस्था में भिन्न भिन्न ढंग से दोहराया जाता रहा है. इस तरह के मिथक जनता को दिग्भ्रमित करने के लिये उपयोग में लाये जाते हैं. जब वर्तमान में हमें अपनी समस्यायों का हल नहीं मिलता तब लोग अतीत की शरण में जाते हैं. सत्ता इन मिथकों का इस्तेमाल करना  जानती है.


जब से समझने लगा देश, जनता और विकास के अर्थ

पहचानने लगा दुश्मन और दोस्त के बीच का फर्क

जानने लगा अपने और देश के बीच का रिश्ता

तब से देख रहा हूं पंख फड़फड़ा रही है सोनचिरैया.


इस कविता में सोनचिरैया का प्रयोग दूसरे संदर्भ में किया गया है .



उनकी एक कविता देवदूत है जिसमें वे नया रूपक गढ़ते हैं. देवदूत धार्मिक दुनिया का एक मुहावरा है. समय समय पर उसके आने की भविष्यवाणी की जाती है. यह धर्म के धंधे का एक रूप है. उसके आने की भविष्यवाणी तब की जाती है, जब सत्ता  के सामने कोई गम्भीर संकट पैदा हो जाय. जब से राजनीति और धर्म का गठबंधन हुआ है, इस तरह के टोटके बढ़े हैं. नास्त्रेदमस ने कई सत्ताओं को संकट से बचाया है. हमारे समाज में चंद्रास्वामी जैसे लोग थे जिन्होंने  गणेश जी को दूध पिला कर समाज के हाथ में नया चमत्कार दे दिया था. आज की सत्ता इन्ही प्रतीकों  और मिथकों पर चल रही है जिसे सत्ता के एजेंट अपनी तरह से प्रचारित कर रहे हैं. देवदूत कविता की पंक्तियां देखें...


एक दिन वह निकलेगा सड़कों पर

और फूट पड़ेगी नदियां सुख और ऐश्वर्य की

डूब जायेंगी झुग्गी- झोपड़ियां उनकी वेगवती धार में

खेतों में खूब अनाज होगा, बागों में फूल खिलेंगे.


यह कविता देवदूत सत्ता पर व्यंग्य  है. हे राम सुनो तुम  में वे राम के राजनीतिक इस्तेमाल की बात करते हैं. इसी क्रम में  उनकी कविता नचिकेता पढ़ी जा सकती है. हिंदी कविता में मिथकों और आख्यानों का खूब प्रयोग हुआ है. सुभाष राय की कवितायें इसका अपवाद नहीं हैं.  लेकिन वे मिथकों का प्रयोग सावधानी से करते हैं. इन मिथकों  के जरिये वर्तमान समय को समझने की कोशिश करते हैं.


सुभाष राय अपनी कविताओं में निरंतर सवाल उठाते हैं  और लोगो को सावधान करते हुये कहते हैं   -


मौसम से सावधान रहना

हवायें कभी कुछ नही बताती.


यानी हमारे समाज में कभी कुछ भी आकस्मिक घट सकता है. जो कुछ ऊपर से दिखाई देता है, उसकी भूमिका नेपथ्य में पहले से तैयार की जाती है. सच को झूठ और झूठ को सच में बदलने की कवायद सत्ता का हिस्सा है, इसमे बचा हुआ सच छिप जाता है. सुभाष राय अपनी कविताओं में सच कहने की जगह खोज लेते हैं. वे इतिहास के अनसुलझे  प्रश्नों के जवाब खोजते हैं. उनकी कविता इतिहास के अनुत्तरित प्रश्न में बहुत से ऐसे स्थल हैं, जो हमे बेचैन करते हैं.


कवि के राजनीतिक जीवन के अलावा, उसका सामाजिक जीवन है जिसमें उसका परिवार रहता है. वहां उसके गांवों की दुनिया है. बहुत सी छूटी हुई स्मृतियां हैं, उसके दंश हैं, पछतावे हैं. यहां उसे भावुक होने की स्वतंत्रता मिलती है. हालांकि हमारे यहां अति क्रांतिकारी सोच का ऐसा तबका है- जो अतीत को जीवन का हिस्सा नहीं मानता  लेकिन क्या हम अतीत के बिना जीवन की कल्पना कर सकते हैं ? हम सब अतीत से कुछ न कुछ सीखते हैं और उसे मानने से इनकार कर देते हैं. यही हमारे वर्तमान को आगे नहीं बढ़ने देता. सुभाष  राय की कविता मेरा परिवार उनके यादों का एलबम है. इस कविता में माता पिता, भाई, पत्नी, बच्चे सब शामिल हैं


पिता के नाम लगाया है

मैंने अशोक हराभरा

उसके पत्तों के बीच

चिड़िया ने बनाया है घोंसला

मैं उसके बच्चों को उड़ते हुये देखना चाहता हूं

ताकि पिता को याद रख सकूं

हर उड़ान के दौरान.



इसी तरह उनकी कविता प्रेम प्रेम के बारे में नयी व्याख्या करती है. वह कहते हैं-


तुम प्रेम की परिभाषाये चाहे  जितनी अच्छी कर लो

पर प्रेम का अर्थ नहीं  कर सकते

प्रेम खुद को मार कर सबमें जी उठना है

प्रेम अपनी आंखों में सब का सपना है .


नागर विकास ने किस तरह गांवों के आस्तित्व को खतरे में डाल दिया है, उसे हम अपने जीवन में देख रहे हैं. किस तरह देश की राजधानी का विस्तार एन सी आर (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र) के रूप में हो रहा  है, यह तथ्य हमारी आंख के सामने है. नगर अपने विस्तार में गांवों को समाहित करते जा रहे हैं यह तो  लोकसंस्कृति का  संहार है. सुभाष राय की कविता गांव की तलाश  में  इन्ही त्रासद स्थितियों  का विवरण है.



कुल मिला कर इस संग्रह की कवितायें हमारे समय और समाज के अनेक व्योरे प्रस्तुत करती हैं. इन तफ्सीलों में कवि का अपना विजन दिखाई देता है. साथ ही साथ चीजों को बदलने की एक बेचैनी भी है. कविताओं में कवि का सत्ता के विरूद्ध प्रतिरोध मुख्य भाव है. वे कहीं-कहीं  आक्रामक हो उठते हैं. यह आक्रामकता  हमें अच्छी लगती है. क्योकि उसके  बिना न जीवन में काम चल सकता है न कविता में. 


शिष्टता का वक्त अब नहीं  बचा है. इसलिये मर्यादा में रहते हुये यह काम बुरा नहीं है. पहले संग्रह होते हुये उनकी कवितायें प्रौढ़ हैं. भाषा की सहजता के कारण वह पाठको को आसानी से समझ में आ जाती हैं.
______________


स्वप्निल श्रीवास्तव
510,अवधपुरी कालोनी, अमानीगंज

फैज़ाबाद : 224001

मोबाइल :09415332326


विनोद पदरज की कविताएँ

$
0
0





































साहित्य में यह ‘सीकरी’ का नहीं सीकर का समय है:

आज हिंदी कविता का बेहतरीन पारम्परिक साहित्यिक केन्द्रों से दूर लिखा जा रहा है. ‘सीकरी’ से नहीं सीकर से कविताएँ आ रही हैं. सवाई माधोपुर में इस समय हिंदी कविता के दो महत्वपूर्ण कवि रहते हैं – प्रभात और विनोद पदरज. विनोद पदरज को पढ़ना कविता की स्थानीयता को पढ़ना है. विनोद की कविताएँ अपने ‘लोकल’ का पता देती चलती हैं. विनोद की ये दस कविताएँ दस बार भी पढ़े तो लगता है कि अभी कुछ रह गया है जो पकड़ में नहीं आया. अच्छी कविताएँ आपको प्यासा रखती हैं जिससे बार-बार आप वहां लौटें. कवि के शब्दों में कहूँ तो ‘सुंदर’ और ‘मजबूत’ कविताएँ.




विनोद  पदरज  की  कविताएँ                              




पानी

आदमी ने अपनी सूरत

पानी में देखी होगी

पहली बार

फिर दौड़ा दौड़ा बुलाकर लाया होगा जोड़ीदार को

तब दोनों ने साथ साथ देखी होगी अपनी सूरत

पहली बार

और खुशी में पानी एक दूजे पर उछाल दिया होगा

प्रतिबिम्ब हिल गया होगा

दोनों को एकमेक करता


आदमी भूल गया

पर पानी को अभी तक याद है.




मरुधरा

छोटी बुंदकियों जैसी पत्तियाँ

या फिर मोटी गूदेदार

या फिर अनुपस्थित सिरे से

तना ही हरा कंटीला

वनस्पतियाँ जानती हैं मरुधरा को


ऊँट जानता है

चलना है कई कोस

धर मजलां धर कूचा चलना है अविराम

धंस जाएंगे पैर रेत में जल जाएंगे

पानी वहां मिलेगा जहां दिखाई देंगे पक्षी

ऊँट जानता है


स्त्रियां जानती हैं मरुधरा को

वे जोहड़ से झेगड़ भरकर लाती हैं

नहाती हैं खरेरी खाट पर

नीचे परात रखकर

फिर उस पानी में कपड़े धोती हैं

और बचे को

जांटी की जड़ों में डाल देती हैं

उन्हें पता है

पानी का पद यहाँ पुरूष से ऊँचा है

आना तुम भी जरूर आना मरुधरा में

पानी कहीं नहीं है

पर बानी में पानी बोलता है.




ऊँट की सवारी

ऊँट की सवारी आसान नहीं

खड़े ऊँट पर चढ़ नहीं सकते हम

बैठे पर चढ़ते हैं

पहले वह आगे के पैर उठाता है

हम पीछे खिसकते हैं

उसका कोहान थामे

फिर वह पीछे के पैर उठाता है

हम आगे खिसकते हैं

उसका कोहान थामे

फिर हुमच हुमच कर चलता है वह

हम थोड़ी दूर चलकर उतर जाते हैं


हिन्दी में केवल निराला थे

जो खड़े ऊँट पर चढ़ सकते थे

बिना काठी बिना रकाब

बिना कोहान थामे

और सीमांत तक दौड़ाते थे

ऊँट थक जाता था

पर निराला सांस नहीं खाते थे

पानी ऊँट के भीतर नहीं

निराला के भीतर था.




यात्रा

सुबह से चला हूं

थक गया हूं

सूर्य सिर पर आ गया है


सोचता हूं ऊँट को जैकार दूं

काठी खोल दूं चारा नीर दूं

दुपहरी कर लूं खुद भी

टांगे सीधी कर लूं थोड़ी देर

जांटी का एक गाछ दिख रहा है

अदृश्य कोयल कूक रही है


तीसरे पहर फिर चलूंगा

सूर्य शिथिल होने पर

शाम तक पहुंच जाऊँगा

वहां

जहां का ऊँट को भी इंतजार है

कि कोई चूड़ों वाली

उसे चारा नीरेगी पानी पिलाएगी थपथपाएगी

प्यार से.




बेटियां

पहली दो के नाम तो ठीक ठाक हैं

उगंती फोरंती

तीसरी का नाम मनभर है

चौथी का आचुकी

पांचवी का जाचुकी

छठी का नाराजी


तब जाकर बेटा हुआ

मनराज


गर शहर होता तो

आचुकी जाचुकी नाराजी मनभर

पैदा ही नहीं होतीं

मार दी जातीं गर्भ में ही

यह बात आचुकी जाचुकी नाराजी मनभर नहीं जानती

वे तो भाई को गोद में लिये

गौरैयों सी फुदक रही हैं

आंगन में.






मां

तीनों बेटे शहर में हैं

मां गांव में

बड़ा बेटा कहता है

मां का मन गांव में ही लगता है

मंझला बेटा कहता है

मां का मन गांव में ही लगता है

छोटा बेटा कहता है

मां का मन गांव में ही लगता है


एक बार गई थी हौंसी हौंसी,बड़े बेटे के यहां

और पन्द्रह दिन में लौट आई थी

एक बार गई थी हौंसी हौंसी, मंझले बेटे के यहां

और पांच दिन में लौट आई थी

एक बार गई थी हौंसी हौंसी,छोटे बेटे के यहां

और दो दिन में ही लौट आई थी


अब मां भी कहती है

उसका मन गांव में ही लगता है


यह दीगर बात है

कि हर महीने पेंशन मिलते ही

तीनों बेटे गांव आ जाते हैं

मां को संभाल जाते हैं.




स्त्री

मां बहन बुआ बेटी पत्नी को जानना

मां बहन बुआ बेटी पत्नी को जानना है

स्त्री को नहीं


स्त्री को जानने के लिए

स्त्री के पास स्त्री की तरह जाना होता है


और स्त्री के पास स्त्री की तरह

केवल स्त्री ही जाती है


जैसे मेरी बेटी

जब भी आती है

यकीनन एक बेटी मां के पास आती है

पर एक स्त्री भी

दूसरी स्त्री के पास आती है

दुख में डूबी हुई

आंसुओं में भीगी हुई

हंसी में खिली हुई


मैं जब भी किसी स्त्री के पास जाता हूं

अपना आधा अंश छोड़कर जाता हूं

तब जाकर स्त्री की हल्की सी झलक पाता हूं.




कौन

एक औरत अपने बच्चे को पीट रही है

बच्चा दहाड़ें मार कर रो रहा है

ज्यादा से ज्यादा क्या किया होगा उसने

दुग्ध पान के समय दांत गड़ा दिया होगा

पर ऐसे में कोई मां इस तरह नहीं पीटती

जिस तरह पीट रही है वह

जैसे मार ही डालेगी अपने कलेजे के टुकड़े को

और बच्चा

मार खाकर भी चिपटे जा रहा है मां से

आखिर पीटते पीटते थक जाती है

और बच्चे को छाती से भींच कर

दहाड़ें मारने लगती है इस कदर

जैसे धरती फट जायेगी


कौन है जो उसे पीटे जा रहा है लगातार

कौन है जिससे चिपटी जा रही है वह.




चाँद
 
कई लोग गए रहे वहाँ

पर वहाँ चाँद तो क्या चाँद की परछाई तक नहीं मिली

एक ऊबड़ खाबड़ भू भाग था

जलहीन वायुहीन

बुढ़िया अपना चरखा लेकर चंपत हो गई थी

थक हार कर वे पृथ्वी पर लौट आए

जहाँ से वह उतना ही प्यारा दिख रहा था

बुढ़िया अपना चरखा कात रही थी यथावत

औरतें उसे देखकर व्रत खोल रही थीं

ईद मनाई जा रही थी

खीर ठण्डी की जा रही थी चाँदनी में

सुई में धागा पिरोया जा रहा था

एक रोमान पसरा था पृथ्वी पर

अद्भुत शीतलता थी प्रौढ़ प्रेम की तरह

समुद्र उसे देखकर उमगा पड़ता था

माँ अपने बेटे को चाँद कह रही थी

प्रेमी अपनी प्रेमिका का चेहरा हाथों में लेकर चूमता था

और मेरा चाँद कहता था

यह चाँद

प्राणवायु से दीप्त सजल सुंदर सम्मोहक

प्यारा प्यारा चाँद था.




प्रिय बकुल के लिए

मैं प्लेट में चाय डालकर पीता हूं

पर प्लेट में नहीं

रकाबी में पीता हूं


घर से निकलता हूं

तो जूतों के फीते बांधता हूं

पर जूतों के फीते नहीं तस्मे बांधता हूं

बेल्ट नहीं

कमरपट्टा कसता हूं


मैं होटल में धर्मशाला में रुकता हूं

पर होटल धर्मशाला में नहीं

सराय में रुकता हूं


मुझे पसंद है आदाब

जर्रा नवाजी

बजा फरमाया

मैं धन्यवाद कहता हूं

पर धन्यवाद नहीं शुक्रिया कहता हूं


मुझे साढ़ू शब्द बिल्कुल पसंद नहीं

पर हमजुल्फ पर फिदा हूं


मुझे मौलवी से उतनी ही नफरत है

जितनी पण्डित से


बादशाह को अर्दब में लाना

मेरा मकसद है


मुझे हुस्न-ओ-इश्क की शायरी बकवास लगती है

यह भी क्या बात हुई

कि आदमी खुद को इश्क कहे

यानी कि रूह

और औरत को हुस्न कहे

यानी कि जिस्म


सालों तक किताबों के जिल्द बंधवाता रहा

पर उस दिन हैरत में डूब गया

जिस दिन एक हकीम ने मेरी त्वचा देखकर कहा

जिल्द देखकर आदमी की सेहत का पता लगता है

बस तभी से मैं औरतों से कहता हूं

जिल्द से सुंदर होती है किताब

आदमियों से कहता हूं

सुंदर और मजबूत जिल्द के भीतर जो किताब है


उसकी रूह को बांचा जाना ज्यादा जरूरी है.

_____________________ 


कृष्ण कल्पित की कविताएँ

$
0
0
























(फोटो द्वारा - शायक आलोक)

समकालीन हिंदी कविता का परिदृश्य बिना कृष्ण कल्पित के पूरा नहीं होगा. उनका पहला कविता संग्रह १९८० में ही आ गया था, अब लगभग चार दशकों में फैला उनका सृजन हमारे समक्ष है, आज भी वह नवोन्मेष और उर्जा से भरे हुए हैं. दुर्भाग्य से कुछ अप्रीतिकर विवादों को भी वह ‘युद्धम देही’ अंदाज़ में आमंत्रित करते रहते हैं.


कृष्ण कल्पित के पास उर्दू के सोहबत से अर्जित दिलफ़रेब भाषा है, उनकी कविताएँ अक्सर समय के धूल से उठती हैं और संदिग्ध महानता (तों) पर पसर जाती हैं, उनमें एक सूफियाना बेअदबी है. इतिहास के साथ उनकी कविताओं का रिश्ता मानीखेज़ है. 
आइए कृष्ण कल्पित को पढ़ते हैं.   



कृष्ण   कल्पित   की   कविताएँ                   








नमक की मंडी

वह १९८० की एक तपती हुई दोपहर थी
जब जयपुर के इंडियन कॉफी हॉउस का
जालीदार दरवाज़ा खोलकर
हुसेन अंदर दाख़िल हुये थे
नंगे पांव
कूचियों और कैमरे से लैस

हुसेन जब भी जयपुर आते
यहां ज़रूर आते
कॉफ़ी हॉउस उनका पुराना अड्डा था
और हमारा नया

आते ही हुसेन घिर गये
चित्रकारों कवियों पत्रकारों से
जैसे थम गया हो समय
जैसे पूर्ण हो गया हो चित्र
जैसे अपनी धुरी पर आ गयी हो पृथ्वी

राजपूताने के गहरे-गाढ़े रंग लुभाते थे हुसेन को
लाल रंग मिर्च की तरह तीखा
हरा अश्वत्थ के कोमल पत्तों की तरह शीतल
सुनहरा बालू रेत की तरह चमकता
सफ़ेद कैनवास की तरह कोरा
काला अमावस्या की रात की तरह गाढ़ा

वे आते थे राजस्थान रंगों की खोज में
जीवन की खोज में आकृतियों की खोज में
और उन मनुष्यों की खोज में
जो आधुनिकता के अंधड़ में
निरन्तर ग़ायब हो रहे थे कैनवास से

रेगिस्तान के बीचों-बीच बसा हुआ जैसलमेर
सत्यजित रे की तरह हुसेन का भी प्रिय नगर था
जहां जाते हुये और आते हुये
हुसेन आते थे गुलाबी नगर

जब कॉफी और गपशप का दौर ख़त्म हुआ
हुसेन उठे उन्हें जाना था चौड़ा रास्ता
अपने मित्र और बंगाल शैली के
पुराने चित्रकार रामगोपाल विजयवर्गीय से मिलने
मैं इस तरह हुसेन के साथ हो लिया था
रास्ता दिखाने को

लेकिन चौड़ा रस्ता से पहले ही वे मुड़ गये
किशनपोल बाज़ार की तरफ़
जहां दूर-दूर तक रंग-बिरंगे कपड़े सूखते थे
दीवारों और छतों पर
वे नमक की मंडी के पास मुड़ गये
रंगरेजों के मोहल्ले की ओर
जहां चूल्हे पर रखी हंडिया में
उबल रहा था गाढ़ा-पक्का रंग
ऐसा रंग जिसके बाद चढ़े न दूजो रंग

हुसेन वहीं एक चबूतरे पर बैठ गये
अपने मूवी कैमरे से खेलते हुये
गली के बच्चों ने जब घेर लिया हुसेन को
तब वे अपनी लम्बी कूची से
उन्हें हटाने लगे  भगाने लगे
तब तक मुझे नहीं पता था कि
कूची से छड़ी का काम भी लिया जा सकता है

इसके इतने बरसों बाद
जब भी गुज़रता हूँ नमक की मंडी से
मुझे हुसेन याद आते हैं
एक मुसाफ़िर एक मुसव्विर एक दरवेश
याद आता है एक रंगरेज
जिसे कालांतर में दे दिया गया देश-निकाला !







चेतना पारीक की याद

आऊंगा ज़रूर आऊंगा
मैं युद्ध के ख़त्म होने का इन्तिज़ार कर रहा हूँ, चेतना पारीक !

युद्ध अधिक दिन तक नहीं चलते
कोई कब तक पहने रख सकता है लोहे के जूते

३० अक्तूबर का टिकट है
तब तक बहाल हो जायेगी भारतीय रेल सेवा

तुम्हें याद होगा
हम कलकत्ता की एक ट्रॉम में मिले थे
जब एक दाढ़ी वाला बिहारी कवि तुम पर फ़िदा हो गया था !


२)

तुम पर कविता लिखकर एक कवि अमर हो गया
और तुम मर गई, चेतना पारीक !

मैं तुम्हें याद करता हूँ
तुम्हारी दुर्बल काया को
तुम्हारे चश्मे को
तुम्हारी कविता की कॉपी को
और उस क़स्बे की धूल को
जहाँ तुम कलकत्ते से चली आई थी

मैं तुम्हें अमर करता हूँ, चेतना पारीक !


३)

तुम उम्र में हमसे बड़ी थी

एक खोया हुआ प्यार
एक न लिया गया चुम्बन

कवि हम तब भी उससे बेहतर थे
जिसने तुम पर कविता लिखी, चेतना पारीक !


४)

एक कवि ने तुम पर कविता लिखी
एक कवि ने तुम से प्रेम किया
एक कवि ने तुमसे विवाह किया

कवियों को तुम से अधिक कौन जानता है, चेतना पारीक !


५)

हम पहली बार उस ट्रॉम में मिले थे
जिससे टकराकर
बांग्ला कवि जीबनानन्द दास मर गये थे

क्या तुम कवियों की मृत्यु हो, चेतना पारीक !






कल्पना लोक
(नज़्र-ए-इरफ़ान हबीब)

पहलू ख़ान काल्पनिक था
वे गायें काल्पनिक थीं जिन्हें वह जिस ट्रक में ले जा रहा था वह ट्रक काल्पनिक था

वे गौरक्षक काल्पनिक थे जिन्होंने पहलू ख़ान की अंतड़ियों में चाकू उतारा वह चाकू काल्पनिक था

पहलू ख़ान की हत्या एक कल्पना थी
उमर मोहम्मद काल्पनिक था

अलवर किसी शहर का नहीं एक किंवदंती का नाम था

फ़ासीवाद किसी कवि की कल्पना थी

पिछले बरसों में देश में जो साम्प्रदायिक दंगे हुये वह तुम्हारा एक दुःस्वप्न था

सड़कों पर जो ख़ून बिखरा हुआ था वह दरअस्ल एक महान कलाकृति थी

वह अग्निकुंड काल्पनिक था जिसमें कूदकर अनगिनत स्त्रियां भस्म हो गयी थीं

पद्मिनी एक कल्पना थी
और तुम्हारा इतिहास भी काल्पनिक था

यह दुनिया एक कल्पना-लोक थी और जिसे तुम अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवरसिटी कहते हो वह वास्तव में मजाज़ लखनवी की क़ब्रगाह है !











पद्मिनी एक कल्पना का नाम है

हम केवल कल्पना पर जान दे देते थे

पेड़ों से कहते थे अपने दुःख
भेड़ों से बातें करते थे गड़रिये
जितने भी बुतखाने थे वे हमारे ख़्वाबों की तामीर थे

हम रक्त से अभिषेक करते थे पत्थरों का
फिर बजाते थे नगाड़ा ढोल घण्टाल

मिथक हमारे बचपन के खिलौने थे

यहाँ का भगवान भी काल्पनिक था क्योंकि अंग्रेज़ इतिहासकारों को अयोध्या में उसके पोतड़े नहीं मिले

पद्मावती होगी किसी कवि की कल्पना

और पद्मिनी के साथ जो सौलह हज़ार स्त्रियाँ अग्निकुण्ड में कूद गईं थीं वे काल्पनिक थीं

आग में जलना क्या होता है तुम क्या जानो मृदभांड ढूंढने वालो

कभी जलती हुई सिगरेट का जलता हुआ सिरा अपनी हथेली से छुआ कर देखना

मूर्ख इतिहासकारो
कल्पना की जाने के बाद यथार्थ हो जाती है !





वरिष्ठ कवियो !

वे जो जिनकी कविताएँ दीवारों पर खुद चुकी हैं
वे जो पुरस्कार प्राप्त कर चुके हैं
वे जो अन्य भाषाओं में अनूदित हो चुके हैं
वे जो छात्रों की भाषा ख़राब कर चुके हैं
वे जो जिनकी प्रतिनिधि कविताएँ कबाड़ी ले जा चुके हैं
वे जो जिन्हें दफ़नाया जा चुका है अपनी क़ब्रों में

कितना लहू पिओगे
कितने युवा कवियों का कलेजा चबाओगे

वरिष्ठ कवियो, जाओ
सुसज्जित सभागारों में आपकी प्रतीक्षा हो रही है
फूलमालायें मुरझा रही हैं आपके इन्तिज़ार में

वे जो जिनकी भाषा एक अरसे से ठहरी हुई है विचार धुंधलाया हुआ है और कल्पनाशक्ति हर-रोज़ क्षीण हो रही है वे जिन्हें रोज़ कच्ची कोंपलें चबाने को चाहिये वे जो अपनी ख्याति के दलदल में धंसे हुये क़दमताल कर रहे हैं

वे जो जिनकी आँखों से लहू नहीं लालच टपकता रहता है हर-घड़ी वे जो किसी असम्भव प्रेम की आशा में अभी भी लिखे जा रहे हैं प्रेम-कविता

वरिष्ठ कवियो, थोड़ा हटो
रास्ता दो युवा कवियों को

एक जो एक मृत चित्रकार के पैसे से हर साल पेरिस में गर्मियाँ गुज़ारता है

एक जो अब भूलता जा रहा है कि जीवन में किन किन स्त्रियों का नमक खाया है

एक बरसों से अचेत है
उसे अचेतावस्था में ही किया गया सम्मानित

एक मुम्बई में घायल है
एक देहरादून के एक होटल में पस्त है

एक जयपुर में उपेक्षित है
एक पटना में सम्मानित है

एक लखनऊ में बांसुरी बजा रहा है
एक भोपाल में चित्रकारी कर रहा है

एक संगीत में डूबा हुआ है एक सिनेमा में
एक इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में स्कॉच पी रहा है और दूसरा लक्ष्मी नगर में ठर्रा

आदिवास का एक कवि किसी आदिवासी की हत्या से नहीं
किसी पेड़ से पत्ते झरने से व्यथित होता है

एक कवि कथाकारों की बस्ती में फ़रारी काट रहा है
एक को अभी-अभी निगमबोध घाट पर जला कर आ रहे हैं

एक जो किसी रामानन्द की लात  की प्रतीक्षा में
मणिकर्णिका घाट की सीढ़ियों पर लेटा हुआ है बरसों से

एक गठिया से परेशान है एक आंधासीसी का शिकार है
एक को नोबेल का शक पड़ गया है

एक ग़ालिब की आड़ में जिन्ना की भाषा बोलने लगा है
एक ने कब लिखी थी कविता उसे याद नहीं

जिसकी एक भी पंक्ति नहीं बची
उसके पास सर्वाधिक तमगे बचे हुये हैं

वरिष्ठ कवियो, जाओ
अपनी-अपनी क़ब्रों में अपने-अपने तमगों के साथ सो जाओ अब अधिक धूल मत उड़ाओ

कृपया जाओ
खिड़की से धूप आने दो
और मुझे खींचने दो चिल्ला !


_______________________

कृष्ण कल्पित
30-10-1957, फतेहपुर (राजस्‍थान)


समानांतर साहित्य उत्सव के संस्थापक संयोजक.

भीड़ से गुज़रते हुए (1980), बढ़ई का बेटा (1990), कोई अछूता सबद (2003), शराबी की सूक्तियाँ (2006), बाग़-ए-बेदिल (2012), कविता-रहस्य (2015)कविता संग्रह प्रकाशित


एक पेड़ की कहानी : ऋत्विक घटक के जीवन पर वृत्तचित्र का निर्माण

‘हिन्दनामा'और एक कविता-संग्रह 'राख उड़ने वाली दिशा में'शीघ्र प्रकाश्य

सरकारी सेवा से अवकाश के बाद स्वतंत्र लेखन


__
K-701, महिमा पैनोरमा
जगतपुरा

जयपुर 302017 / (म) 7289072959

तुम कहाँ गए थे लुकमान अली

$
0
0
(photo courtesy Tribhuvan Deo)


सौमित्र मोहन (१९३८- लाहौर) का लुकमान अली कभी-कभी अकविता के ज़िक्र में किसी लेख में दिख जाता पर पर इधर कई दशकों से सौमित्र मोहन कविता की दुनिया से निर्वासित थे.



बकौल केदारनाथ अग्रवाल ‘हिंदी कविता को मुक्तिबोध और राजकमल चौधरी के बाद सौमित्र मोहन (लुकमान अली  कविता) ने आगे ले जाने का काम किया’.वह सौमित्र मोहन कहाँ गुम कर दिए गए थे. जो दिल्ली साहित्य के तंत्र के लिए कुख्यात है, ऐन उसके दिल के पास रहते हुए भी उनपर किसी की नज़र नहीं पड़ी.  


जिस कवि ने कविता की एक धारा का प्रतिनिधित्व किया हो वह इतना उपेक्षित कैसे रह सकता है भला.


८० वर्षीय इस हिंदी के महत्वपूर्ण कवि का अंतिम संग्रह हापुड़ से प्रकाशित हुआ है. साहित्य अकादमी समेत तमाम संस्थाओं के समक्ष अब कम समय बचा है इस ‘उपेक्षा’ के अपराध से अपने को बरी करने का.


संग्रह ‘आधा दिखता वह आदमी’ की भूमिका  से कुछ अंश और उनकी आकार  में कुछ छोटी कविताएँ ख़ास आपके लिए.




आधा   दिखता   वह   आदमी  :  सौमित्र मोहन      





आरंभिक


१. इस किताब में मेरी कुल १४९ कविताएँ हैं. मैं चाहता हूँ कि लोग मुझे इन्हीं कविताओं से जानें – पहचानें. यही मेरी ‘सम्पूर्ण कविताएँ’ हैं हालांकि इनके श्रेष्ठ होने के बारे में मेरा कोई दावा नहीं है.


२. ऐसा नहीं है कि मेरी काव्य-रचना इतनी भर रही है. हर कवि की तरह मेरे पास भी अभ्यास- कविताओं का एक ज़खीरा था जिसे मैंने दिल कड़ा कर नष्ट कर दिया है. ऐसी कविताओं की संख्या लगभग ३०० रही होगी – १९५६ से अब तक की अवधि में. इसके लिए मुझे अपने घनिष्ठ मित्रों तक की मलामत सहनी पड़ी है. उनका कहना है कि इन कविताओं पर फिर से काम किया जा सकता था. पर मुझे इसका रत्ती भर संताप नहीं है.


३. मुझे अक्सर ‘अकविता’ के खाँचें में रख दिया जाता है लेकिन मेरी गति और नियति वही नहीं है. मैंने कविता को अपने ढंग से बरता है – इसमें अतियथार्थवादी बिम्बों, फैंटेसी और इरॉटिक सन्दर्भों का भरपूर प्रयोग हुआ है. अपनी दुनिया को समझने का यह मेरा तरीका है. जो बाहर है, वही भीतर है. मेरे लिए यथार्थ के दो अलग स्तर नहीं हैं.


४. मैं उस दौर का हिस्सा रहा हूँ. जिसने अपने से पहले की पीढ़ी को धकेल कर अपने लिए जगह बनाई थी. इस नई पीढ़ी ने कविता को एक नया ‘डिक्सन’ दिया था और मध्यवर्गीय सामाजिकता तथा भ्रष्ट शासन –तन्त्र पर खुल कर चोट की थी – अश्लील कहलाए जाने का जोखिम उठा कर.


५. १९६० के दशक में हुए लेखन को जोरदार आलोचक नहीं मिले अन्यथा इस पीढ़ी को ‘अराजक’ कहे जाने की शर्म नहीं उठानी पड़ती.

(२०१८)



___________________________


(रेखांकन : जय झरोटिया)




पहला प्यार
मैंने तुम्हें होठों पर चूमा.

तुमने घाटी पर फैली

            धूप को

आधा ढंक दिया.





गृहस्तिन
वह बातें करती है

और रोती है.

और चुप रहती है

और हंसती है

वह कुछ नहीं करती

और सभी कुछ सहती है.







दोपहर में विश्राम
टोकरे के पास रखा

       कटोरदान

धूप की मांस्पेशियाँ.






स्मृति भ्रम
ओह – तुम्हारी याद !

चांदनी में एक पक्षी

          उड़ गया.






बारहमासा -१
एक दीवार कच्ची पक्की.

कुछ पत्तियां

नीचे गिरी हैं.


हवा

उन्हें लिए जा रही है

उठाए उठाए.


यह मौसम नहीं

उसका नशा है,

चीज़ों को बिगाड़ते हुए

धीरे-धीरे


बारिश में

रंग

बदल रहे हैं

कितने.

इसके बावजूद

भले-भले






बारहमासा – २
घास के फूल
मानसून की चमकती बिजली में

खिले क्यों हैं ?






साक्ष्य
दीवार में काफी बड़ा सुराख़ बना हुआ था

एक बच्चा कूद कर

जब बाहर आता है तो

बाकी लड़के उस पर टूट पड़ते हैं

बच्चे के लिए बचने का उपाय

वही सुराख़ है जिसमें से वह इधर आया था.


इस घटना का साक्ष्य केवल काल है !








पश्चात् – संवेदन
मैं रंगों की वादी में धकेल दिया गया हूँ-

         कोई एक रंग चुनने के लिए :

लेकिन मुझसे

अमलतास के फूलों में डूबता

                सूर्यास्त

अलग नहीं किया जाता.






पूर्णिमा
एक कुहुकती हुई गंध

        आकाश की.

नदी में

बहता हुआ संगमरमरी दीया.






मई – जून
दर्पण की चौंध की तरह

ठहर गई है

        दोपहरी.






वय : संधि
एक हरी टहनी पर

    श्वेत फूल

धीरे से आ.!






ब्लैक आउट
भूरी बिल्ली का एक बच्चा

     चांदनी खुरच रहा है


दीवार से.






निंदा
एक पुरानी दीवार में से कीड़े

              चुनता हुआ

               कठफोड़वा

कहाँ ? कहाँ ?

___________
mohansoumitra@gmail.com

गुरप्रीत की कविताएँ (पंजाबी)

$
0
0




पंजाबी भाषा के चर्चित कवि गुरप्रीत की चौदह कविताओं का हिंदी अनुवाद रुस्तम सिंह ने कवि की मदद से किया है.

हिंदी के पाठकों के लिए इतर भाषाओँ के साहित्य का प्रमाणिक अनुवाद समालोचन प्रस्तुत करता रहा है, इसी सिलसिले में गुरप्रीत की ये कविताएँ हैं. विषय को कविताओं में बरतने का तरीका सधा हुआ है. ये कविताएँ बड़ी गहरी हैं और इनमें मनुष्यता की गर्माहट है. हिंदी में महाकवि ग़ालिब पर अच्छी–बुरी तमाम कविताएँ लिखी गयीं, पर इस कवि की ‘ग़ालिब की हवेली’ कविता बांध लेती है. एक कवि को दूसरे कवि से इसी तरह मिलना चाहिए.


गुरप्रीत की इन कविताओं के लिए कवि रुस्तम का आभार.   





गुरप्रीत  की  कविताएँ                             

(पंजाबी से अनुवाद : कवि और रुस्तम सिंह द्वारा)







रात की गाड़ी 

अभी-अभी गयी है

रात की गाड़ी 

मैं गाड़ी पर नहीं 

उसकी  कूक  पर चढ़ता हूँ

मेरे भीतर हैं 

असंख्य स्टेशन  

मैं कभी

किसी पर उतरता हूँ

कभी किसी पर








पत्थर 

एक दिन 

नदी किनारे पड़े पत्थर से 

पूछता हूँ 

बनना चाहोगे 

किसी कलाकार के हाथों 

एक कलाकृति

फिर तुझे  रखा जाएगा 

किसी आर्ट गैलरी में 

दूर-दूर से आयेंगे लोग तुझे देखने 

लिखे जायेंगे 

तेरे रंग रूप आकार पर असंख्य लेख

पत्थर हिलता है 

ना ना

मुझे पत्थर ही रहने दो

हि  ता  पत्थर

     ना   कोमल  

इतना तो मैंने कभी 

फूल भी नहीं देखा








ग़ालिब की हवेली 
मैं और मित्र कासिम गली में 

ग़ालिब की हवेली के सामने 

हवेली बन्द थी 

शायद चौकीदार का

मन नहीं होगा

हवेली को खोलने का  

चौकीदार, मन और ग़ालिब मिलकर 

ऐसा कुछ सहज ही कर सकते हैं 

हवेली के साथ वाले चुबारे से

उतरा  एक  आदमी और बोला ---

हवेली को उस जीने से देख लो  

उसने सीढ़ी की तरफ इशारा किया 

जिस से वो उतर कर आया था 


ग़ालिब की हवेली को देखने के लिए

सीढ़ियों पर चढ़ना कितना ज़रूरी है  


पूरे नौ वर्ष रहे ग़ालिब साहब यहाँ 

और पूरे नौ महीने वो अपनी माँ की कोख में  


बहुत से लोग इस हवेली को

देखने आते हैं  

थोड़े दिन पहले एक अफ्रीकन आया 

सीधा अफ्रीका से 

केवल ग़ालिब की हवेली  देखने

देखते-देखते रोने लगा

कितना समय रोता रहा 

और जाते समय

इस हवेली की मिट्टी अपने साथ ले गया  


चुबारे से उतरकर आया आदमी

बता रहा था  

एक साँस में सब कुछ


मैं देख रहा था उस अफ्रीकन के पैर  

उसके आंसुओं के शीशे में से अपना-आप 

कहाँ-कहाँ जाते हैं पैर 

पैर उन सभी जगह जाना चाहते हैं

जहाँ-जहाँ जाना चाहते हैं आंसू  


मुझे आंख से टपका हर आंसू

ग़ालिब की हवेली लगता है.







मार्च की एक सवेर 

तार पर लटक रहे हैं

अभी 

धोये 

कमीज़ 

आधी बाजू के

महीन पतले 

हल्के रंगों के

पास का वृक्ष

खुश होता है

सोचता है

मेरी तरह

किसी और शय पर भी

आते हैं पत्ते नये.







कामरेड
सबसे प्यारा शब्द कामरेड है

कभी-कभार 

कहता हूँ अपने-आप को 

कामरेड  

मेरे भीतर जागता है

एक छोटा सा कार्ल मार्क्स 

इस संसार को बदलना चाहता      

जेनी के लिए प्यार कविताएँ लिखता

आखिर के दिनों में बेचना पड़ा 

जेनी को अपना बिस्तर तक

फिर भी उसे धरती पर सोना 

किसी गलीचे से कम नहीं लगा 

लो ! मैं कहता हूँ  

अपने-आप को कामरेड

लांघता हूँ अपने-आप को

लिखता हूँ एक और कविता

जेनी को आदर देने के लिए... 

कविता  दर कविता 

सफर में हूँ मैं ... 








पक्षियों को पत्र

मैंने पक्षियों को पत्र लिखना है    

मैंने पक्षियों को पत्र लिखना है

मैंने पक्षियों को पत्र लिखना है

मैंने पक्षियों को पत्र लिखना है

मैंने पक्षियों को पत्र लिखना है

मैंने पक्षियों को पत्र लिखना है

मैंने पक्षियों को पत्र लिखना है

मैंने पक्षियों को पत्र लिखना है 

लाखों करोड़ों अरबों खरबों बार लिखकर भी

नहीं लिख होना मेरे से

पक्षियों को पत्र. 







प्यार
मैं कहीं भी जाऊँ

मेरे पैरों तले बिछी होती है

धरती

मैं धरती को प्यार करता हूँ

या धरती करती है मुझे

क्या इसी का नाम है प्यार

मैं कहीं भी जाऊँ

मेरे सर पर तना होता है

आकाश


मैं आकाश को प्यार करता हूँ

या आकाश करता है मुझे

प्यार धरती करती है आकाश को

आकाश धरती को

मैं इन दोनों के बीच

कौन हूँ

कहीं इन दोनों का

प्यार तो नहीं.






ख्याल
अभी तेरा ख्याल आया

मिल गयी तू

तू मिली

और कहने लगी

अभी तेरा ख्याल आया

और मिल गया तू

हँसते-हँसते

आया दोनों को ख्याल

अगर न होता ख्याल

तो इस संसार में

कोई कैसे मिलता

एक-दूसरे को...







नींद
क्या हाल है

हरनाम*आपका

थोड़ा समय पहले

मैं आपकी हथेली से

उठाकर ठहाका आपका

सब से बच-बचाकर

ले आया   

उस बच्चे के पास

जो गयी रात तक

साफ कर रहा है

अपने छोटे-छोटे हाथों से

बड़े-बड़े बर्तन

मुझे लगता है

इस तरह शायद

बच जाएँ उसके हाथ

घिस  जाने  से

यह जो नींद भटक रही है

ख़याल में

ज़रूर इस बच्चे की होगी 

क्या हाल है

हरनाम आपका ...

* पंजाबी का अनोखा कविजिसके मूड-स्केप अभी भी असमझे हैं. 







पिता
अपने-आप को बेच

शाम को वापस आता घर

पिता

होता सालम-साबुत  

हम सभी के बीच बैठा

शहर की कितनी ही इमारतों में

ईंट-ईंट हो चिने जाने के बावजूद

अजीब है

पिता के सब्र का दरिया  

कई बार उछल जाता है

छोटे-से कंकर से भी

और कई बार बहता रहता है

शांत 

तूफानी ऋतु में भी

हमारे लिए बहुत कुछ होता है

पिता की जेब में

हरी पत्तियों  जैसा

साँसों की तरह

घर आजकल

और भी बहुत कुछ लगता  है

पिता को

पिता तो पिता है

कोई अदाकार नहीं

हमारे सामने ज़ाहिर हो ही जाती है

यह बात 

कि बाज़ार में

घटती जा रही है

उसकी कीमत 

पिता को चिन्ता है

माँ के सपनों की

हमारी चाहतों की

और हमें चिन्ता है

पिता की 

दिनों-दिन कम होती

कीमत की...  









आदि काल से लिखी जाती कविता
बहुत पहले

किसी युग में

लगवाया था मेरे दादा जी ने

अपनी पसन्द का

एक खूबसूरत दरवाज़ा

फिर किसी युग में उखाड़ दिया था

मेरे पिता ने वो दरवाज़ा

लगवा लिया था

अपनी पसन्द का एक नया दरवाज़ा

घर के मुख्य-द्वार पर लगा

अब मुझे भी पसन्द नहीं

वो दरवाज़ा.

   






मकबूल फ़िदा हुसैन 

एक बच्चा फेंकता है 

मेरी ओर 

रंग-बिरंगी गेंद 

तीन टिप्पे खा 

वो गयी 

वो गयी

मैं हँसता हूँ अपने-आप पर 

गेंद को कैच करने के लिए 

बच्चा होना पड़ेगा 


नंगे पैरों का सफ़र 

ख़त्म नहीं होगा 

यह रहेगा हमेशा के लिए

लम्बे बुर्श का एक सिरा 

आकाश में चिमनियाँ टाँगता

दूसरा धरती को रँगता है

वो जब भी ऑंखें बन्द करता 

मिट्टी का तोता उड़ान भरता    

कागज़ पर पेंट की हुई लड़की

हँसने लगती


नंगे पैरों के सफ़र में

मिली होती धूल-मिट्टी की महक 

जलते  पैरों के तले

फैल जाती हरे रंग की छाया

सर्दी के दिनों में धूप हो जाती गलीचा

नंगे पैर नहीं डाले जा सकते

किसी पिंजरे में

नंगे पैरों का हर कदम

स्वतंत्र  लिपि का स्वतंत्र वरण

पढ़ने के लिए नंगा होना पड़ेगा

मैं डर जाता 


एक बार उसकी दोस्त ने 

तोहफे के तौर पर दिये दो जोड़ी बूट 

नर्म  लैदर

कहा उसने 

बाज़ार चलते हैं 

पहनो यह बूट

पहन लिया उसने

एक पैर में भूरा 

दूसरे में काला

कलाकार  की यात्रा  है यह


शुरूआत रंगो की थी 

और अन्त भी 

हो गये रंग 

रंगों पर कोई मुकदमा नहीं हो सकता 

हदों-सरहदों का क्या अर्थ  रंगों के लिए

संसार  के किसी कोने में 

बना रहा होगा कोई बच्चा सियाही

संसार के किसी कोने में

अभी बना रहा होगा

कोई बच्चा

अपने नन्हे हाथों से

नीले काले घुग्गू घोड़े

रंगों की कोई कब्र नहीं होती.




अन्त नहीं

मैं तितली पर लिखता हूँ एक कविता 

दूर पहाड़ों से

लुढ़कता पत्थर एक

मेरे पैरों के पास  टिका 

 मैं पत्थर पर लिखता हूँ एक कविता

बुलाती है महक मुझे 

देखता हूँ पीछे 

पंखुड़ी खोल गुलाब 

झूम रहा था टहनी के साथ 

मैं फूल पर लिखता हूँ एक कविता

उठाने लगा कदम 

कमीज़ की कन्नी में फँसे 

काँटों ने रोक लिया मुझे

टूट  जायें काँटे

बच-बचा कर निकालता हूँ

काँटों से बाहर

कुर्ता अपना 

मैं काँटों पर लिखता हूँ एक कविता

मेरे अन्दर से आती है एक आवाज़ 

कभी भी खत्म नहीं होगी धरती की कविता.







बिम्ब बनता मिटता

मैं चला जा रहा था

भीड़ भरे बाज़ार में

शायद कुछ खरीदने

शायद कुछ बेचने 

अचानक एक हाथ

मेरे कन्धे पर आ टिका

जैसे कोई बच्चा

फूल को छू रहा हो

वृक्ष एक हरा-भरा

हाथ मिलाने के लिए

निकालता है मेरी तरफ

अपना हाथ

मैं पहली बार महसूस कर रहा था

हाथ मिलाने की गर्माहट 

वो मेरा हाल-चाल पूछकर 

फिर मिलने का वचन दे 

चल दिया 

उसका घर कहाँ होगा

किसी नदी के किनारे 

खेत-खलिहान के बीच

किसी घने जंगल में

सब्जी का थैला 

कन्धे पर लटका 

घर की ओर चलते 

सोचता हूँ मैं

थोडा समय और बैठे रहना चाहिए था मुझे


स्टेशन की बेंच पर.

___________
गुरप्रीत (जन्म १९६८) इस समय के पंजाबी के महत्वपूर्ण कवि हैं. अब तक उनके चार कविता संग्रह प्रकाशित हुए हैं. अन्तिम संग्रह २०१६ में प्रकाशित हुआ. इसके इलावा उन्होंने दो पुस्तकों का सम्पादन भी किया है. उन्हें प्रोफेसर मोहन सिंह माहर कविता पुरस्कार (१९९६) और प्रोफेसर जोगा सिंह यादगारी कविता पुरस्कार (२०१३) प्राप्त हुए हैं. वे पंजाब के एक छोटे शहर मानसा में रहते हैं.



तुम कहाँ गए थे लुकमान अली

$
0
0
(photo courtesy Tribhuvan Deo)


सौमित्र मोहन (१९३८- लाहौर) का लुकमान अली कभी-कभी अकविता के ज़िक्र में किसी लेख में दिख जाता पर पर इधर कई दशकों से सौमित्र मोहन कविता की दुनिया से निर्वासित थे.



बकौल केदारनाथ अग्रवाल ‘हिंदी कविता को मुक्तिबोध और राजकमल चौधरी के बाद सौमित्र मोहन (लुकमान अली  कविता) ने आगे ले जाने का काम किया’.वह सौमित्र मोहन कहाँ गुम कर दिए गए थे. जो दिल्ली साहित्य के तंत्र के लिए कुख्यात है, ऐन उसके दिल के पास रहते हुए भी उनपर किसी की नज़र नहीं पड़ी.  


जिस कवि ने कविता की एक धारा का प्रतिनिधित्व किया हो वह इतना उपेक्षित कैसे रह सकता है भला.


८० वर्षीय इस हिंदी के महत्वपूर्ण कवि का अंतिम संग्रह 'हापुड़'से प्रकाशित हुआ है. साहित्य अकादमी समेत तमाम संस्थाओं के समक्ष अब कम समय बचा है इस ‘उपेक्षा’ के अपराध से अपने को बरी करने के लिए.

संग्रह ‘आधा दिखता वह आदमी’ की भूमिका  से कुछ अंश और उनकी आकार  में कुछ छोटी कविताएँ ख़ास आपके लिए.





आधा   दिखता   वह   आदमी  :  सौमित्र मोहन      





आरंभिक


१. इस किताब में मेरी कुल १४९ कविताएँ हैं. मैं चाहता हूँ कि लोग मुझे इन्हीं कविताओं से जानें – पहचानें. यही मेरी ‘सम्पूर्ण कविताएँ’ हैं हालांकि इनके श्रेष्ठ होने के बारे में मेरा कोई दावा नहीं है.

२. ऐसा नहीं है कि मेरी काव्य-रचना इतनी भर रही है. हर कवि की तरह मेरे पास भी अभ्यास- कविताओं का एक ज़खीरा था जिसे मैंने दिल कड़ा कर नष्ट कर दिया है. ऐसी कविताओं की संख्या लगभग ३०० रही होगी – १९५६ से अब तक की अवधि में. इसके लिए मुझे अपने घनिष्ठ मित्रों तक की मलामत सहनी पड़ी है. उनका कहना है कि इन कविताओं पर फिर से काम किया जा सकता था. पर मुझे इसका रत्ती भर संताप नहीं है.

३. मुझे अक्सर ‘अकविता’ के खाँचें में रख दिया जाता है लेकिन मेरी गति और नियति वही नहीं है. मैंने कविता को अपने ढंग से बरता है – इसमें अतियथार्थवादी बिम्बों, फैंटेसी और इरॉटिक सन्दर्भों का भरपूर प्रयोग हुआ है. अपनी दुनिया को समझने का यह मेरा तरीका है. जो बाहर है, वही भीतर है. मेरे लिए यथार्थ के दो अलग स्तर नहीं हैं.

४. मैं उस दौर का हिस्सा रहा हूँ. जिसने अपने से पहले की पीढ़ी को धकेल कर अपने लिए जगह बनाई थी. इस नई पीढ़ी ने कविता को एक नया ‘डिक्सन’ दिया था और मध्यवर्गीय सामाजिकता तथा भ्रष्ट शासन –तन्त्र पर खुल कर चोट की थी – अश्लील कहलाए जाने का जोखिम उठा कर.

५. १९६० के दशक में हुए लेखन को जोरदार आलोचक नहीं मिले अन्यथा इस पीढ़ी को ‘अराजक’ कहे जाने की शर्म नहीं उठानी पड़ती.
(२०१८)



___________________________


(रेखांकन : जय झरोटिया)




पहला प्यार
मैंने तुम्हें होठों पर चूमा.

तुमने घाटी पर फैली

            धूप को

आधा ढंक दिया.





गृहस्तिन
वह बातें करती है

और रोती है.

और चुप रहती है

और हंसती है

वह कुछ नहीं करती

और सभी कुछ सहती है.







दोपहर में विश्राम
टोकरे के पास रखा

       कटोरदान

धूप की मांस्पेशियाँ.






स्मृति भ्रम
ओह – तुम्हारी याद !

चांदनी में एक पक्षी

          उड़ गया.






बारहमासा -१
एक दीवार कच्ची पक्की.

कुछ पत्तियां

नीचे गिरी हैं.


हवा

उन्हें लिए जा रही है

उठाए उठाए.


यह मौसम नहीं

उसका नशा है,

चीज़ों को बिगाड़ते हुए

धीरे-धीरे


बारिश में

रंग

बदल रहे हैं

कितने.

इसके बावजूद

भले-भले






बारहमासा – २
घास के फूल
मानसून की चमकती बिजली में

खिले क्यों हैं ?






साक्ष्य
दीवार में काफी बड़ा सुराख़ बना हुआ था

एक बच्चा कूद कर

जब बाहर आता है तो

बाकी लड़के उस पर टूट पड़ते हैं

बच्चे के लिए बचने का उपाय

वही सुराख़ है जिसमें से वह इधर आया था.


इस घटना का साक्ष्य केवल काल है !








पश्चात् – संवेदन
मैं रंगों की वादी में धकेल दिया गया हूँ-

         कोई एक रंग चुनने के लिए :

लेकिन मुझसे

अमलतास के फूलों में डूबता

                सूर्यास्त

अलग नहीं किया जाता.






पूर्णिमा
एक कुहुकती हुई गंध

        आकाश की.

नदी में

बहता हुआ संगमरमरी दीया.






मई – जून
दर्पण की चौंध की तरह

ठहर गई है

        दोपहरी.






वय : संधि
एक हरी टहनी पर

    श्वेत फूल

धीरे से आ.!






ब्लैक आउट
भूरी बिल्ली का एक बच्चा

     चांदनी खुरच रहा है


दीवार से.






निंदा
एक पुरानी दीवार में से कीड़े

              चुनता हुआ

               कठफोड़वा

कहाँ ? कहाँ ?

___________
mohansoumitra@gmail.com




परख : नाच घर (प्रियंवद)

$
0
0


हिंदी के वरिष्ठ कथाकार प्रियंवद ने बच्चो के लिए एक उपन्यास लिखा है – नाचघर . नवनीत नीरव बता रहे हैं क्या है इसमें  ख़ास.


स्मृतियों  का  नाचघर                                         

नवनीत नीरव

(बचपन में एक क्षण ऐसा होता है जब एक द्वार खुलता है और भविष्य भीतर प्रवेश करता है. - ग्राहम ग्रीन)








म जिस समाज में रहते हैं वहाँ बच्चों की पढ़ाई को लेकर चिंताएं जगजाहिर हैं. माता-पिता, अभिभावक से लेकर शिक्षक तक सभी एक ही बात करते दिखते हैं कि उनके बच्चे पढ़ाई को लेकर गंभीर नहीं हैं. गंभीर नहीं होने का अर्थ उनकी चिंताओं/उम्मीदों के अनुसार बच्चा काम नहीं कर रहा. ‘पढ़ने’ का जहाँ अपना अर्थ है. यानि ‘बच्चों को पढ़ने के लिए’ कहने का मतलब हमेशा कुछ ‘सिखलाने से’ होता है. 


सामान्यतः कहानी-कविता या साहित्य का महत्व उस ‘सिखलाने वाली शिक्षा’ के अर्थों में कभी नहीं रहा. यानि उन सभी कामों से उसे भरसक दूर रखना जो उसे जीवन जीने के लिए सही अर्थों में तैयार करते हों. इसलिए साहित्य कभी भी अर्थपूर्ण काम के रूप में गिना ही नहीं गया. साहित्य एकांगी भी तो नहीं होता. खेलने-कूदने, गप्प हाँकने, चित्र बनाने, कहानी सुनने, दोस्तों के संग समय बिताने आदि बातें भी बच्चों की पंसद हैं. लेकिन इनके साथ मुश्किल ये है कि अर्थपूर्ण कामों के श्रेणी में गिने ही नहीं जाते. हकीकत तो यह है कि है बढ़ते बच्चों के रोजमर्रा के दुनयावी संघर्ष को न तो हम सही से पहचान पाते हैं न ही किसी प्रकार की सहायता कर पाने में सक्षम हैं. इसी तरह की आदत को लेकर हम जीते हैं. इसलिए यह कहीं भी सीखने की प्रक्रिया का भाग जान नहीं पड़ता.


जीविकोपार्जन और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भरता की सोच हमारे मानस पटल पर इतना हावी है कि बच्चों की शिक्षा के दूसरे विकल्प गौण लगते हैं. फ़िलहाल ये सोच उस पूरे समाज की है जहाँ हम रहते हैं. तभी तो हमारे नीति-निर्धारक भी हमसे एक कदम आगे सोचने लगे हैं. जहाँ गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा नयी शिक्षा की तकनीक, कला- साहित्य आदि के माध्यमों को सूदूर गाँवों तक सुनिश्चित करने की बात होनी चाहिए थी वहाँ ‘साईकिल पंचर बनाने’ जैसे विकल्प बड़ी संवेदनहीन तरीक़े से लागू कराए जाने की सिफ़ारिश हो रही है.


हम सभी पढ़े-लिखे समाज से आने का दावा करते हैं. देश-दुनिया की तमाम हलचलों पर हमारी नज़र रहती है. तकरीबन हर महीने हो रहे चुनाव हों, ट्रंप से लेकर जिपनिंग की जन्मपत्री हो या फिर ट्वेंटी-ट्वेंटी सब पर हमारी पहुँच है. अगर साहित्य में अभिरुचि हो तो क्लासिक कृतियों से लेकर बेस्टसेलर तक की बातें हफ़्ते-महीनों में कभी-कभार कर ही लेते हैं. महीने में दो-चार किताबें पढ़ते तो नहीं लेकिन पढ़ने के लिए खरीद जरूर लेटते हैं. या बात उससे थोड़ी आगे बढ़े तो सोशल मीडिया पर कुछ पंक्तियों में उसकी सचित्र चर्चा भी कर लेते हैं. इन सबसे कभी फुर्सत मिले तो अपनी यादाश्त पर जोर देते हुए सोचिएगा कि गत दो-तीन वर्षों में बाल साहित्य के नाम पर या फिर बच्चों के लिए कौन सी किताब आपने हिंदी में पढ़ी है? या फिर उसके प्रकाशन की चर्चा सुनी है. थोड़ा ज़ोर लगाकर अख़बारों, सोशल मीडिया की ख़बरों, किसी बुक स्टोर या फिर किसी समीक्षा-चर्चा आदि की स्मृतियों को स्कैन करने पर पायेंगे कि दो-एक किताबें तो आपको याद आ गईं. (ये भला हो कुछ साल भर की चर्चित पुस्तकों और बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले पुरस्कारों का कि जिनके बहाने बाल साहित्य के कुछ टाईटल न्यूज के साथ जेहन में दाख़िल हो जाते हैं) लेकिन या पूछने पर कि हमने उसे किसी बच्चे को पढ़ने लिए कभी दिया है तो शायद इसके जवाब की उम्मीद भी बेमानी ही होगी. संचार के साधनों का विकास और हिंदी में बाल साहित्य कालेखन कम होना एक कारण बताया जाता है.


“बच्चों में बाल साहित्य के प्रति रुझान कम हो ऐसा नहीं होता. हैरी पॉटर का उदाहरण हम सबके सामने है. बालसाहित्य की अच्छी किताबें बच्चों तक नहीं पहुँचती. उनके मातापिता को नहीं मालूम कि कहाँ मिलती हैं तो ये दिक्कत है. इन्टरनेट मोबाइल कम्प्यूटर थोड़ा फ़र्क डाल रहे हैं. लेकिन एक अच्छी सी पुस्तक बच्चे के सामने हो तो वह जरूर पढ़ेगा. जरूर देखेगा और अपने लिए एक नई दुनिया का रास्ता ख़ुद ढूँढेगा और तय करेगा. इसलिएबहुत अच्छा साहित्य लिखा जाना चाहिए और बच्चों तक पहुँचना चाहिए” (एक रेडियो कार्यक्रम में प्रियंवद)


बाल साहित्य की दृष्टि से इस साल को महत्वपूर्ण माना जाना चाहिए. महत्वपूर्ण इसलिए क्योंकि हिंदी के वरिष्ठ रचनाकारों ने इस बार बाल साहित्य का रुख किया है. वरिष्ठ रचनाकार विनोदकुमार शुक्ल का बाल उपन्यास एक चुप्पी जगह, कथाकार एवं इतिहासकार प्रियंवद की दो किताबें नाचघर (बाल उपन्यास) और मिट्टी की गाड़ी (कहानीसंग्रह) इस वर्ष इकतारा, भोपाल से प्रकाशित हुए हैं. इकतारा तक्षशिला एजुकेशनल सोसाईटी का बाल साहित्य एवं कला केंद्र है. ज्ञातव्य है कि ‘एक चुप्पी जगह’और ‘नाचघर’दोनों उपन्यास किस्तों में भोपाल से ही प्रकाशित होने वाली बाल पत्रिका ‘चकमक’में छप चुके हैं.



‘नाचघर’प्रियम्वद का पहला बाल उपन्यास है. यह उपन्यास पंद्रह अध्यायों में बाईस वर्षों के कथानक को समेटे हुए है. इसमें अतनु राय के चौदह ख़ूबसूरत इलस्ट्रेशन भी हैं, जोनब्बे के दशक की कहानी कहते उपन्यास को अनूठे कलेवर में प्रस्तुत करते हैं.

उपन्यास में लेखक के बारे में छपी एक संक्षिप्त टिप्पणी ;



“वे इतनी छोटी-छोटी चीजों से, वाकयों से इतना भर-पूरा ख़ूबसूरत उपन्यास बन देते हैं कि बया की याद आ जाती है. यानि जैसे बया को कहानी लिखना आता हो. सुबह पाँच बजे सिविल लाइंस के क़ब्रिस्तान में चहलकदमी करते वक्त उनके मन की कहानी पहली बार वहाँ सोए लोग सुनते हैं. भाषा का तिलिस्म कोई ऐसे ही तो खड़ा नहीं हो जाता. वे उपरी ब्यौरों के कायल नहीं हैं. वे छाँव का पता लगाने धूप का पीछा करते सूरज तक जाते हैं.”


उदारीकरण के बाद हमारे देश की सामाजिक संरचना के ढाँचे में परिवर्तन आया है. उसकी प्रतिष्ठा सकल घरेलू उत्पाद और प्रति व्यक्ति आय से अनुमानित की जाती है. इसने कला-संस्कृति को सबसे ज्यादा नुकसान पहुँचाया है. हमारे गाँवों में लोग धान के बीज को बड़े सुरक्षित तरीके से अगली फ़सलों के लिए बचाकर रखते थे. यह सिलसिला सदियों से चला आ रहा था. विगत दो दशकों में यह सिलसिला लगभग टूट सा गया है. हमने कुछ अतिरिक्त कामों से ख़ुद को आज़ादी दे दी. अबकुछ भी बचा ले जाने (संजो लेने/संरक्षित करने) की कोई चेष्टा नहीं है. बाजार ने हर चीज को हमारे घर तक उपलब्ध करा दिया है... रोटी...कपड़ा...मकान...मनोरंजन. बाजार ने हमें स्वकेंद्रित कर दिया है या हम ख़ुद होना चाहते थे? यह बात समझ में नहीं आती. हमने भरसक इसको पाँव पसारने में सहयोग ही किया.


उदारीकरण के बाद शहरों के नवीनीकरण की प्रक्रिया जैसे शुरू की गई थी. शहर के भीतर शहर बसने लगे थे... आधुनिक सुविधाओं से युक्त बहुमंजिला इमारतें, हाई टेक बाजार...और भी बहुत कुछ. कहने का मतलब जमीनों के दाम बेहिसाब महंगे हुए. रहन-सहन के तरीक़े तेजी से बदले. अब हर कोई व्यवसायी था. सबने कई मकान-प्लाट इसलिए खरीदे ताकि भविष्य में उनसे मुनाफ़ा कमाया जा सके. अपने निजी सम्पतियाँ इस सोच की बलि चढ़ीं फिर सार्वजनिक जगहें... हाट, खेल-मैदान, चारागाह, रंगशालाएं, होटल, पार्क, सिंगल स्क्रीन थियेटर और भी बहुत कुछ. धीरे-धीरे सब कुछ जैसे विलुप्त हो रहा है... कस्बों, शहरों और नगरों से. इस बात को लेकर हम भी अभ्यस्त होते जा रहे हैं. अब कुछ भी बचाने या फिर नई पीढ़ी को हस्तांतरित करने की कोई भावना नहीं. सबकुछ रेडीमेड व्यवस्था पर जैसे आश्रित होता जा रहा है. सामूहिकता जैसे शब्दकोश का एक विस्मृत शब्द बनकर रह गया है. उसी खोते हुए को बचा लेने की कहानी कहता है “नाचघर”.


‘वक्त के बीतने के साथ उसका खारापन कम होता रहता है. बेहद संघर्षों में निकला वक्त भी गुज़रकर नरम पड़ जाता है. और जब हम उसे याद करते हैं तो उसमें थोड़ी-बहुत मिठास आ ही जाती है. अगर यह बात बीत चुके सुदूर के वक्त की हो तब तो संघर्ष यादों में पड़े-पड़े मिठा ही जाते हैं.’

-सुशील शुक्ल (संपादक-चकमक, प्लूटो)


वर्तमान में लिखे जा रहे बाल साहित्य में गुजरे वक्त की मीठी यादों ही तो संजोयी गई हैं. बचपन के संघर्षों, भय, चिंताएं, अनुत्तरित सवालों और चुनौतियों की जगह सीमित है. जबकि वास्तव में यही हमारी और आने वाली पीढ़ी के लिए थाती हैं. ‘प्रियम्वद का नाचघर ’मीठी यादों को संजोने के साथ-साथ टीस की भी कहानी कहता है.


कानपुर शहर के पृष्ठभूमि में ‘नाचघर’ कहानी है दो किशोरों की- मोहसिन और दूर्वा. जो अपने परिवेश से बाहर कुछ तलाश रहे होते हैं .नाच घर उनका ठिकाना बनता है. जहाँ वे बाहर की दुनिया से संपृक्त हो अपने ख्यालों के पंख लगाकर उड़ने की कोशिश करते हैं. दोनों का किशोर वय निश्छल प्रेम है. उससे उपजा विस्मयऔर रोमांच भी. जो कहानी के साथ विविधरंगी होता जाता है. सधी-सरल भाषा में छोटे-छोटे वाक्य बतियाते से लगते हैं. मानों कोई सामने बैठा नाचघर की आँखों देखी कहानी सुना रहा हो. पात्र आपस में संवाद करते-करते सहसा पाठक से भी बातें करने लगते हैं. बातें भी वैसी कि बहुत सी व्यवहारिक-मानसिक-सामाजिक गिरहें खुल जाएँ. मसलन



अँधेरा अब बढ़ गया था. रोशनदान से अज़ान की आवाज़ फड़फड़ाती हुई अन्दर आई. मोहसिन उदास हो गया. मोहसिन उदास हो गया. उसकी अम्मी उसे ज़रूर ढूँढ रही होंगी. लड़की ने मोहसिन की उदासी देखी.


"एक काम करते हैं. तुम मुसलमान हो यह नाम से ही पता चलेगा. कोई मेरे घर से पूछे तो दूसरा नाम बता देना."

"क्या?"

"मोहन."

"ऐसे नहीं... तुम भी अपना नाम बदलो- तब."

"मैं क्यों?"

"कल तुम मेरे घर चलना. वहाँ भी सब काफिरों से मिलने से मना करते हैं."

"ठीक है..."लड़की हंसी. "क्या नाम रखोगे?"

मोहसिन ने लड़की को देखा. वह बहुत पास थी. मोहसिन ने नीला आकाश, चिमनियों के इर्द-गिर्द लाल बादलों के गुच्छे, शहतूत, दमपुख्त की केसर, आरती की लौ सब को एक साथ देखा.

"हुस्ना."वहा हंसा.


अन्य प्रमुख पात्रों में एक तरफ़ सगीर और उसकी लिल्ली घोड़ी हैं. सगीर एक तरफ़ वैद्यजी की रामलीला सीता की सहेली बनता है तो दूसरी और बारात में लिल्ली घोड़ी के साथ नाचते हुए ‘तू प्रेम नगर का राजा...जैसे गीत गाता है. वर्तमान में नाच के अप्रासंगिक होते जाने को लेकर मायूस है. एक कलाकार जो डूबती हसरतों के साथ दरगाह के समीप की दुकान पर चादर बेचता है.


दूसरी ओर पादरी हेबर, मेडलीनकी वसीयत और शहर काबड़ा बिल्डर काला बच्चा हैं.जिनके हाथों में नाचघर के भविष्य का फ़ैसला था. यानि शहर की सांस्कृतिक विरासत के बिकने के पीछे जिम्मेदार लोग. इसके साथ-साथ अन्य छोटे-छोटे लेकिन महत्वपूर्ण पात्र इस उपन्यास में रोचकता के साथ बुने गए हैं. जो पाठकों को कहानी की लय में शामिल कर लेते हैं.इस उपन्यास का केन्द्रीय पात्र है - “नाचघर”.


“दो सौ साल से ज्यादा पुरानी इमारत पर अब सब ओर से ताले लगे थे. इसके मालिक कहीं इंग्लैण्ड में रहते थे. तब यह शहर की सबसे खूबसूरत इमारत थी. शाम को जब इसकी रोशनियाँ जलतीं, सड़कों पर इत्रवाला पानी छिड़का जाता, बग्घी, पालकियों पर अंग्रेज औरतें आदमी आते, अंदर की बाजों की धुन पर थिरकते जोड़ों की आवाजें बाहर आतीं, तब लोग दूर झुण्ड बनाकर इसे देखा करते. यहाँ हमेशा तरह-तरह का नाच होता. इतना ज्यादा ‘नाच’ होता था कि लोगों ने इसका नाम नाचघर रख दिया था.(“नाचघर” का अंश)


उपन्यास में लिल्ली घोड़ी की उदासी, पियानो और बालों की लट,एक रुकी हुई सुबह, द लास्ट ग्लिम्पस, सोन ख़्वाब, केशों में केसर वन आदि जैसे अलग-अलग उप-शीर्षक हैं. इन्हीं शीर्षकों के साथ यह उपन्यास चकमक पत्रिका में धारावाहिक के रूप में छपा भी था.


इस उपन्यास में कई रेखाचित्र लेखक ने खींचे हैं. इन रेखाचित्रों से उपन्यास में सामान्य से सामान्य पात्र भी उभर आता है. जो या तो घटना विशेष को मुकम्मल करता है या फिर उनको विस्तार दे देता है. जैसे ‘लिल्लीघोड़ी की उदासी’ का सगीर,‘कन्फेशन बॉक्स’ में लड़की मेडलिन, ‘एक रुकी हुई सुबह’ में पचसुतिया पेड़ के नीचे बैठा हुआ आदमी, ‘लालमिर्च’ का काला बच्चा और नुजुमी आदि.यहाँ नुजुमी के बारे में उद्धृत एक अंश देखते हैं;


“सीढ़ियाँ चढ़कर काला बच्चा ने कोठरी के पुराने दरवाज़े पर दस्तक दी. यह लग तरह की दस्तक थी. उसे यह नुजुमी ने सिखाई थी. यह पूरे चाँद की रात में रोते हुए भेड़िए की आवाज़ जैसी थी. नुजूमी इससे पहचान जाता था कि कौन मिलने आया है. उसने हर मिलने वाले को अलग तरह से दस्तक देना सिखाया था. कोई कुएँ में बाल्टीडालने जैसी आवाज़ में थे, तो कोई खतरा देख कर चिल्लाने वाली गिलहरी की तरह थी. ज़ेबरे की धारियों की तरह उसने दस्तक की भी एक भाषा तैयार कर ली थी. दस्तक से नुजुमी पहचाना गया कि काला बच्चा है.”

(‘लालमिर्च’ काअंश)

नुजुमीके व्यक्तित्व की विशेषताओं को बड़ी साफ़गोई लेखक बयां करता है. पाठक उपन्यास खत्म होने के बावजूद भी इन छोटे-छोटे पात्रों को भूल नहीं पाता. इस तरह के कई पात्र हैं जिनका बेहद बारीकी से प्रभावशाली चित्रण करने में लेखक सफ़ल रहे हैं. जिनको लेकर बच्चों-किशोरों में कुतुहल बनी रहेगी.


लेखक ने उपन्यास में बच्चों की छोटी-छोटी बातों को लेकर अवलोकन,ख्यालों के तानेबाने को बखूबी दो निबंधों के माध्यम से व्यक्त किया है. घोड़े और सुबह शीर्षक से ये निबंध मोहसिन और दूर्वा के द्वारा एक प्रतियोगिता में लिखे गए हैं.


“घोड़े मनुष्य के सबसे पुराने दोस्त हैं. इंसानों ने जबसे धरती को जीतना शुरू किया है तब से घोड़े भी उनका साथ दे रहे हैं. ये घोड़े इंसानों को अपनी पीठ पर बैठाकर आल्प्स से गंगा और वोल्गा से अरब के रेगिस्तान के पार दौड़ते थे....” इसे मोहसिन ने लिखा था.


जबकि दूर्वा सुबह के बारे में लिखती है कि - “सुबह दो होती हैं. एक वह जिसमें रौशनी होती है. सूरज, चिड़िया, आसमान के रंग,स कूल जाने वाले बच्चे, सड़क पर झाडू लगाने वाले, मंदिरों की पूजा, नल का पानी होता है. इस सुबह के बारे में हम सभी जानते हैं. पर इस सुबह से पहले भी एक सुबह होती है. यह बहुत थोड़ी देर के लिए होती है. इसमें रौशनी नहीं होती. यह अँधेरा खत्म होने और रौशनी शुरू होने से पहलेवाले बीच के समय में होती है. या उषा या नसीम से थोड़ा पहले का समय होता है. असली सुबह यही है....”


राष्ट्रीय पाठ्यचर्या 2005(NCF2005) इतिहास शिक्षण के बारे में यह कहता है – “इतिहास को इस तरह से पढ़ाया जाना चाहिए कि उसके माध्यम से विद्यार्थियों में अपने विश्व की बेहतर समझ विकसित हो और वे अपनी उस पहचान को भी समझ सकें. जो समृद्ध तथा विविध अतीत का हिस्सा रही है. ऐसे प्रयास होने चाहिए कि इतिहास के विद्यार्थियों को विश्व में होते रहे बदलाओं व निरंतरताकी प्रक्रियाओं की खोज में सक्षम बना पाए और वेयह तुलना भी कर सकें कि सत्ता और नियंत्रण के तरीक़े क्या थे और आज क्या है?”


नाचघर में जीवंत शहर है. लोग हैं, उनके जीवन-यापन हैं. शहर का वर्तमान है. इतिहास भी है. अक्सर राजकीय विद्यालयों में इतिहास के शिक्षकों से पठन-पाठन पर बात करने का मौका मिलता है. एक सवाल बार- बार दुहराता हूँ- कक्षा में इतिहास का शिक्षण कैसे हो? हर बार जवाब जरूर आता है– “कहानी के रूप में”.लेकिन ऐतिहासिक संदर्भो को कहानी का भाग बनते और उसे सुनाते कम ही देखने-सुनने का मौका मिलता है. लेखक इतिहास के अध्येता रहे हैं. ‘भारत विभाजन की अन्तःकथा’इनके प्रसिद्ध  किताबों में से है. इस उपन्यास में ऐतिहासिक सन्दर्भ कहानी के साथ इस तरह आते हैं कि इतिहास बोध का कोई अतिरिक्त आग्रह पाठक को नहीं लगता.एक बानगी देखते हैं-


“सन 1600 की आख़िरी रात के कुछ आखरी घंटे बचे थे. उसी समय, जब नया साल धरती पर उतरने के लिए सज-सँवर रहा था और शेक्सपियर ‘हैमलेट’ लिख रहा था और आगरा के लाल किले में अकबर गहरी नींद में सो रहा था, रानी एलिज़ाबेथ ने सामने रखे कागज़ पर एक शाही मुहर मार दी थी. इसी के साथ इस मुल्क की किस्मत बदलने वाली ‘ईस्ट इंडिया’ कम्पनी का जन्म हो गया. लंदन के कुछ छोटे-मोटे व्यापारियों वाली इस कम्पनी ने, सिर्फ़ दो सौ सालों के अन्दर हिंदुस्तान ही नहीं, दुनिया के आबादी के पाँचवे हिस्से को अपने अधीन कर लिया.”

(कन्फेशन बॉक्स का अंश)

14 और 15 अगस्त 1947 की रात को जुड़वां बच्चों की तरह, दुनिया के नक़्शे पर दो नए देशों ने जन्म लिया. इनके नाम भारत और पाकिस्तान थे. दुनिया के देशों में बँटवारे होते रहे हैं,पर यह सबसे बड़ा और बुरा बंटवारा था. लाखों की मौत हुई और लाखों लोग बेखर हुए. हजारों अपने परिवारों से बिछड़ गए.”

(‘लालमिर्च’ काअंश)


इसी तरह पार्क का कुआँ जिसमें 1857 के ग़दर दौरानदो सौ बीस अंग्रेज औरतों, बच्चोंको मार करके उनकी लाशें फेंक दी गई थीं. जिसपर बनी हुई परी की आँखों से रात में दो सौ बीस आँसू निकलते थे.

या फिर  कानपुर में जूते बनाने के कारखाने की कहानी जो 20 अक्टूबर 1962 के चीन हमले से जुड़ती है.


इतिहास के सन्दर्भों का लेखक ने बहुत ही सुन्दर प्रयोग किया है. जिससेबाल पाठकों की रूचि इस उपन्यास के कथानक में बढ़ जाएगी.


उपन्यास बहुत ही रोचक तरीके से लिखा गया है. इसमें पठनीयता भी बहुत है. इसमें नाचघर एक सपने की तरह आया है,जिसे प्रियम्वद ने नयी पीढ़ी की आँखों में भरना चाहते हैं – वर्तमान निर्मम समय में लुप्त होती, नष्ट की जा रही शिथिल पड़ती विरासतों, संस्कृतियों और कलाओं को बचालेना. जैसे मोहसीन और दूर्वा ने नाचघर को बचा लिया और उसकी विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं. 


अंत में दो तीन बातें जो अगर इस उपन्यास में दुरुस्त कर ली गयी होती तो शायद यह उपन्यास और भी प्रभावी हो जाता. मसलन रानी एलिजाबेथ का एक ही सन्दर्भ दो बार हू-ब-हू प्रयुक्त हुआ है. जिसको पढ़ते हुए पाठक एक दुहराव महसूस करता है. सगीर और उसकी लिल्ली घोड़ी उपन्यास के शुरू में महत्वपूर्ण पात्र के रूप में उभरते हैं. उपन्यास पढ़ते हुए लगता है कि इन चरित्रों का विस्तार जरूरी था. साथ ही ‘हम होंगे कामयाब’ और ‘ऊपर चले रेल का पहिया, नीचे बहती गंगा मैया’ को पढ़ते हुए कहानी ठहर सी गई लगती है.



हाल-फ़िलहाल में ऐसे बाल उपन्यास हिंदी में नहीं आए हैं. प्रियम्वद का “नाचघर” बाल साहित्य में उनके एक योगदान के रूप में याद किया जाएगा. इसके लिए लेखक और उनके प्रकाशक ‘इकतारा, भोपाल’ का साधुवाद.



navnitnirav@gmail.com
_____________________________________ 
बाल उपन्यास : नाचघर  (प्रियम्वद)

संस्करण – २०१८
प्रकाशक- जुगनू प्रकाशन, इकतारा भोपाल. 

परख : गुल मकई (कविता संग्रह) : हेमंत देवलेकर

$
0
0





























हेमंत देवलेकर कवि के साथ-साथ समर्थ रंगकर्मी भी हैं. उनका दूसरा कविता संग्रह ‘गुल मकई’ बोधि प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है. आइये देखते हैं इस संग्रह के विषय में क्या राय है राजेश सक्सेना की.



गुल मकई :  साधारण का सौन्दर्य                  

राजेश सक्सेना





चार्य वामन ने कहा था 'सौन्दर्यमलंकार:"सौंदर्य ही अलंकार है,आभूषण है अतः काव्य में सुंदर बिम्ब,दृश्य, उपमाएँ यदि प्रयुक्त हुई हैं तो वह काव्य को अलंकार की आभा देता है, वामन का यह कथन  कविता के सन्दर्भ को सौंदर्य के प्रगाढ़ अर्थो के साथ ध्वनित करता है, कविता की यात्रा ने ध्वनि,  रस, वक्रोक्ति से लेकर अलंकार आदि तक की एक प्रौढ़ यात्रा तय की है.


वर्तमान समय में यदि हम समकालीन हिंदी कविता पर दृष्टि डाले तो अपने समय बोध   से अनुप्रेरित कविताओं में अनेक कवियों ने अपनी रचनाओं को आकारदिया है जिनमें उनकी कलादृष्टि, सम्वेदनाकल्पनाशीलता, और, सरोकारसमकालीन यथार्थ के साथ संपृक्त होकर वे एक भावपूर्ण प्रति संसार की रचनाकरते है, मुझे लगता है यह समय कविताओं की  प्रचुरता का समय है, और वर्तमानसन्दर्भों में कविता के निकष, उसकी लोकोत्तर उपादेयता से अधिक  लालित्य, लोच और कलाबोध की उपलब्धता पर ज्यादा विचार है ऐसे ही समय में हमारे बीचसाधारण और विस्मित करने वाले विषयों के साथ अपनी कविता को आकार देने वालेयुवा कवि हेमन्त देवलेकर अपने दूसरे कविता संग्रह "गुल मकई"लेकर आते हैंतो कौतूहल जाग जाता है, पड़ोसी देश की तरुणी मलाला यूसुफजई की हिम्मत औरहौंसले के प्रति श्रद्धावनत भाव के साथ स्त्री शिक्षा को समर्पित हो इस संग्रह में दुनियावी आतंकवाद से  नहीं डरने  वाली मलाला जिसे गुल मकईकहा गया है. यद्यपि हेमंत ने यह संग्रह मलाला को समर्पित नहीं किया है किंतु प्रथम पृष्ठ पर उसके जिक्र के साथ कविता दी है अतःयह संग्रह परोक्ष  रूप में मलाला को भी समर्पित हो ही जाता है.

(हेमंत देवलेकर)

वस्तुतः हेमन्त ऐसे कवि हैं जिन्हें हर घटना, वस्तु, जगह, सम्बन्ध, और व्यक्ति में छुपी हुई कविता की संभावनाओं को टटोलने और उसके साथ एक रागात्मकता जोड़ने की कला आती है, इसलिये वे जब ट्रेन से यात्रा करते है तो सार्वजिनक प्रसाधनों व जगहों पर लिखे मामूली विज्ञापन भी कविता के विषय के लिए बुलाते हैं और धातुरोग जैसी कविता की रचना आ जाती है.इस कविता के जरिये वे समाज से लुप्त हो रही धातुओं की चिंता करने लगते हैं दरअसल धातुएं कहीं गईं नहीं बल्कि वे अलग जगहों पर प्रकट हों रहीं है, अस्तु कवि इस तरफ ध्यान खींचते हैं यह बात भी उल्लेखनीय  है, कि कवि यात्रा के दौरान अपनी सृजनात्मक  चेतना को जागृत रखते हैं, वरिष्ठ कवि नरेंद्र जैनकहते हैं यात्राओं के नैरेशन होते हैं जिनके रस्ते, कविताएं जन्मती हैं.एक छोटी सी  कविता "एक देश है दिन"में एक बड़े सन्देश  के रूप में  देशप्रेम व राष्ट्रवाद को अभिनव दृष्टि से देखने का प्रयास है जहां सूर्य को राष्ट्र ध्वज दिन को देश और दिनभर अपने अपने काम में मसरूफ हर व्यक्ति के काम को राष्ट्र ध्वज को सलामी देने की क्रिया से रूपांकित किया गया है, लगता है वर्तमान समय में यह कविता और अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है जब राष्ट्रवाद की बहस नित नए आकारों में राजनैतिक फायदे के लिए ढाली जा रही
है :--

एक देश है दिन
सूरज उसका राष्ट्रीय ध्वज
हर एक जो
गूंथा हुआ काम में
सलामी दे रहा
फहराते झंडे को
हर आवाज
जो एक क्रिया से उपजी है
राष्ट्र गान है,

यह कविता अत्यंत महत्वपूर्ण है इसमें राष्ट्रीय ध्वज,राष्ट्रगान, व राष्ट्र को परिभाषित करतेलोग सर्वथा भिन्न रूप में प्रकट करते हैं, जिसमें हर व्यक्ति का राष्ट्रप्रेम उसके कार्य करने में है सन्निहित है,जो भी पुरुषार्थ के साथ अपने कर्म में रत है वह राष्ट्र के निर्माण पर है, यह इस कविता के उद्दात्त केंद्रीय भाव का प्राकट्य है, जो राष्टवाद के  संकुचित प्रचलित दायरों को तोड़कर उसे एक समर्पित राष्ट्रप्रेम तक ले जाती है, यहां मुझे 1970 के दशक में आई एक फ़िल्म मेरा गांव मेरा देशकी भी याद आती है डाकू समस्या से ग्रस्त फ़िल्म थी और उसमें खरतनाक डाकू के  खिलाफ समूचे गांव के लोग नायक की मदद करते हैं इस तरह वे एक गांव को ही अपना देश मानते हैं, सम्भवतः यह निश्छल प्रेम ही देश प्रेम है जो अधिक मानवीय है.

रेलवे मण्डलों की दिशाओं से पहचान बनाते संक्षेपी वर्णक्रम में वे अत्यंत रोचक कविता ढूंढ लेते हैं :-

परे मरे पूरे दरे
उरे उमरे पूमरे
भारे दमरे पूपरे
उदरे उपरे पुदरे

इस तरह की संक्षेपिका के साथ वे भारतीय रेलवे का गीत कविता रचते हैं,जिसमें एक लयात्मक छंद का विन्यास दिखाई देता है, रेलयात्रा में वे चौकस होकर देखते हैं और नूतन विषयों के चुनाव कर उन पर लिखते हैं.

हेमंत के पास प्रेम की दुनिया को पहचानने की एक भावुक दृष्टि है जिससे वे तितलियों के होठों में दुनिया के सबसे सुंदर प्रेम पत्रो को देख पाते हैं या फिर दो फूलों के बीच के समय को एक नए संसार के बनाव की कल्पना  रचने के रूप में देखते हैं.


तितलियों के होंठ में
दबे हैं दुनिया के
सबसे सुंदर  पत्र,
दो फूलों के बीच का समय
कल्पना है एक नए संसार की
तितली की तरह
सिरजने की उदात्तता
भी होनी  चाहिए
एक संवादिये में

इस कविता में हेमन्त ने दो फूलों के बीच तितली की आवाजाही के समय को एक नए संसार के सृजन के रूप में घटित होने की संकल्पना में समझा, और दो शब्दों को   जड़ सौंदर्य से लोक सौंदर्य में विखण्डित किया है एक-सृजन से सिरजने दो- संवादक से संवादिये इन दो शब्दों की टूटन ने तितलियों की भूमिका के प्रति प्रकृति के लिये श्रेष्ठ भाव दिए हैं. यदि कवि सिरजने की जगह सृजन भी लिखता तो भी कविता का निहितार्थ वही रहता, किन्तु उसकी ध्वनि और सौंदर्य आभिजात्य हो जाता अस्तु कवि ने सिरजने का प्रयोग किया जो लोक की और ले जाता है, एक देशज भाव विन्यास को प्रकट करता है यह कवि की कलात्मक खूबी और शिल्प की सूक्ष्म पकड़ के बारे में सूचित करता है.



घडी की दुकान कवितामें वे समय के पुर्जे पुर्जे हो जाने या समय मिलाने के भ्रामक स्थान की तरह देखते हैं कारण घड़ी की दुकानों में हर घड़ी अलग समय हो रहा है,  देखा जाए तो इस कविता में वर्तमान का  समय भी उकेरने की कोशिश है कारण, कवि बहुवर्णी अर्थों में इस समय के पुर्जों के बिखरे होने या भ्रामक समय की तरफ इशारा कर रहा है.

"भारत भवन में अगस्त"ऐसी कविता है जो स्थानिकता में सांस्कृतिक शिल्प और उसके स्थापत्य के स्तवन व रागात्मकता को लेकर पाठक तक आती है.

"मुंहासे"जैसे अत्यंत साधारण विषय पर लाक्षणिक सौन्दर्य के साथ बहुत सुतीक्ष्ण व्यंजना में हेमन्त ने छोटी सी कविता लिखी है -

गेंदे के कुछ फूल खिले हैं गुलाब की क्यारी में उनकी अवांछनीय नागरिकता पर गुलाब ने पूछा

तुम यहाँ  क्यों ?

ढीठ है फूल गेंदे के
सिर उठाकर जवाव देते हैं
वसन्त से पूछो.

इस पूरी कविता मे, वसन्त, रंग दृश्यात्मकता, उम्र, भाषा के साथ लक्षणा और व्यंजना का अनूठा विन्यास रचा गया है, गेंदे के फूल खिलने का समय वसन्त और उस ऋतु का रंग भी वासन्ती इसकी सममिति में उम्र के जिस आंगन में फूटते हैं मुंहासे वह भी उम्र का वसन्त ही अस्तु इसमें रंग के साथ गेंदे की उपमा का प्रयोग कवि की प्रकृति,ऋतु संज्ञान, पर सौन्दर्यपरक लाक्षणिक दृष्टि का परिचायक है.

"चार आने घण्टा"बचपन की स्मृति की वीणा के तारों को छूने के बहाने किराए की छोटी साईकिल जिसे अद्धा भी कहा जाता था, उसके साथ दोस्तों की संगत में बजाए गए जीवन के सबसे सुंदर राग की याद को जीवित करने की कोशिश इस कविता में है. यह कविता बाजारवादी समय की कठोर पीठ पर  सबसे उदात्त और मानवीय संवेदना को पछीटे जाने की और भी इशारा करती है ,जिसमें किराए की साईकिल सिखाने के लिए दोस्त आसपास दोनो तरफ सहारे के लिए साथ दौड़ते थे उसकी जगह अब साइकिल में दो छोटे सहायक पहिये लगा दिए गए हैं जो सीखने वालों को गिरने से बचाते हैं. यानी पहले जो काम दोस्त करते थे वह अब एक यांत्रिक प्रवधि करती है ऐसे समय मे दोस्तों की जरूरत  समाप्त हो गई है. इसीलिए कवि को यह पंक्ति लिखना पड़ा -

समय सबसे मंहगी धातु
दूसरों को गढ़ने में इसे गंवाना
एक आत्मघाती विचार.

यहाँ मुझे एक बात में जरूर विरोधाभास लगता है कि कवि धातुरोग जैसी कविता में धातुओं को ढूंढने की बात कर रहा है ,जबकि इस कविता में वह धातु के रूप में समय को बिम्बित कर रहा है अस्तु दोनो कविताओं में धातु पर विचार करते हुए कवि ने कहीं न कहीं एक जगह विरूपण किया है.

लगता है धातुरोग कविता विचार से अधिक बिम्ब और शब्द विन्यास की कविता है. एक और कविता "जुलाई"है जिसमें कवि ने ऋतु परिवर्तन के नैसर्गिक सौंदर्य के साथ आम, जामुन से लेकर बादल और बच्चों के स्कूलों के खुलने के सौंदर्यपूर्ण दृश्यों का भी जिक्र है. इस कविता में एक खास बात यह है कि कवि ने बरसात में चारों तरफ फैली हरियाली और हरी घांस के रंग को राष्ट्रीय रंग की उपमा दी है जो सचमुच सुंदर, सौन्दर्यपरक,  सच्ची औऱ नैसर्गिक लगती है.

युवा खून की तरह
बहता पानी
जुलाई की नसों में
हर्ष से विस्मित रोम हैं घांस
राष्ट्रीय रंग की तरह
पसरा हुआ है हरा.

इस कविता की अंतिम पंक्ति में जुलाई को बरसात का आवास कहा गया है मुझे लगता है आवास में एक स्थायित्व का बोध होता है जो यहाँ प्रयोग के लिए कदाचित उचित नहीं है क्योंकि न तो जुलाई और नही बारिश स्थाई है इसलिए यदि लिखा जाता कि "जुलाई  बरसात की अंशकालिक किराएदार है"तो शायद कुछ ठीक और अधिक कलात्मक होता.

इसी तरह एक कविता जिसका शीर्षक "दस्ताने"है उसमें कवि ने बहुत मौजू सवालों के साथ दस्तानों और उनकी उपयोगिता के बरक्स स्त्री विमर्श की और कविता के उत्कर्ष को ले जाने का उपक्रम किया है, कि जहां स्त्रियों के हाथ अधिकांश समय गृहस्थी के काम काज के लिए जल में डूबे रहते हों वहां उसके लिये दस्ताने पहनने का अवसर कहाँ है तो फिर सवाल यह कि क्या दस्ताने स्त्रियों के लिये बने ही नहीं इसी विचार के मर्म को स्पर्श करती हुई ये कविता ---

गृहस्थी के अथाह जल में
डूबे उसके हाथ
हर वक्त गीले रहते हैं
तो क्या गरम दस्ताने
स्त्रियों के हाथों के लिये
बने ही नहीं  ?

ये सवाल कवि की और से स्त्रियों के पक्ष में उठाया गया बहुत सार्थक सवाल है. "पहल"कविता को पढ़ता हूँ देवताले जी के कविता संग्रह "खुद पर निगरानी का वक़्त "सामने आ जाती है जिसमें कमोबेश वही भावबोध है जो हेमन्त अपनी पहल कविता रखते हैं, बिम्ब और भाषा चाहे अलग हो पर सभी आरोप,सभी संदेह, सभी झूठ का रुख हेमन्त अपनी तरफ रखकर कविता लिख रहे हैं क्योंकि जिस समय को वह कोस रहा है उसमें वह भी है. "रात "शीर्षक की कविता अवसाद और अकेलेपन की कविता है जिसके ऐंद्रिक लोक में कवि विचरते हुए एक दार्शनिक तत्व को गढ़ने की कोशिश करता है पर देह की विकलता और मन की गति इसे सफल नहीं होने देती.

हेमन्त में विषय चुनने की भी एक बैचेनी सी दिखाई देती है हर जगह उनका कवि मन जाग्रत चेतना के साथ सक्रिय रहता है यही कारण है कि वे हर चीज या हर जगह से नए प्रयोग करते हुए बिम्ब तलाश लेते हैं एक और कविता है "हारमोनियम"जिसके स्वर संधारकों को वे ज़ेब्रा क्रॉसिंग क़ी उपमा देते हैं और उस पर चलती उंगलियों को दोतरफा ट्रैफिक कहते हैं कोई वनवे यहाँ नहीं, लेकिन लगातार हार्न बजते हैं और कोई हरी बत्ती नहीं जलती. इस कविता में कवि ने ज़ेब्रा क्रॉसिंग पर पैदल चलने वाले लोगों की मासूम चहलकदमी के प्रति औदार्य व्यक्त करते हुए इसे उस संगीतात्मकता से जोड़ा है जो ठीक उसी तरह हारमोनियम के स्वर संधारको पर उंगलियों की मासूम चहलकदमी की तरह है यह एक अत्यंत सुंदर बिम्ब है कि जेब्रा क्रासिंग पर चलने वालों में मासूम बच्चे, बुजुर्ग, महिलाओं के सहित अनेक लोग चलते हैं वहां दोनों तरफ के ट्रैफिक में रुके वाहनो के हार्न उन्हें चौंकाते भी है और वे जल्दी से हरी बत्ती होने के पूर्व पार हो जाते हैं,लेकिन हारमोनियम में कोई हरी बत्ती नही जलती और एक संगीत का स्वर उतरता रहता है यह एक सुंदर स्थिति की निर्मिति करती कविता है जिसमें अंधाधुंध गतिशील त्वरण को एक संगीतमय कला यन्त्र के द्वारा रोकने के  रचाव का अनूठा बिम्ब हेमन्त ने अपनी कविता में गढा है. यह एक संकेत भी है कि जेब्रा क्रॉसिंग पर चहलकदमी करते लोग की गति अवरोधक नहीँ बल्कि गति की संगीतात्मकता के पक्षधर हैं वैसे ही मानव सभ्यता के विकास के हर आयाम में एक ज़ेब्रा क्रासिंग है जहाँ चहल कदमी करते लोग अवरोधक नहीं बल्कि जीवन की गतिशीलता में संगीतात्मकता और उसके मानवीय सरोकार के पक्षकार हैं मुझे लगता है यह कविता अपने सुंदर और कलात्मक बिम्ब के साथ जीवन विवेक के मानवीय सरोकार को भी उकेरती है. 

एक और अन्य कविता "पानी आजीन यात्री है"भी उल्लेखनीय कविता है जिसमें पानी अपने अनेकवर्णी रूपों में अस्तित्व बोध के साथ है,यूँ भी पानी,आग,पत्थर और कुत्ता मनुष्य के प्रागेतिहासिक मित्र और सहचर हैं यह कुछ ऐसे ही महत्व को रेखांकित करती कविता है.

बच्चों के प्रति अतिशय अनुराग हेमन्त की ह्रदयगत विशेषता है इसलिए वे झिमपुडा के लिये निवेदन ,बाल जिज्ञासा, तेरी गेंदमेले से लौटते बच्चों का गीतहड्डी वार्ड में बच्चा, समय और बचपन आदि कविताएं भी हमें स्पंदित करती हैं. 


तानपुरे पर संगत करती स्त्री, संगतकार को इशारा, छायागीत जैसी कविताएं उनकी कल्पना शक्ति में बसे रंगकर्मी की सूचना देती है. जुलाई, अगस्त,आषाढ़, पौष, मार्च, दिसम्बर,मार्च जैसी कविताओं में कवि का ऋतु प्रेम प्रकट होता है. 



इस तरह कहा जा सकता है कि अपने दूसरे कविता संग्रह तक आते आते हेमन्त ने दो  समयावधि के अंतरालों में   समकालीन दबावों के बावजूद पाठकों के समक्ष एक संवादिये की तरह इन कविताओं को सिरजने का कलापरक और सरोकार युक्त उपक्रम किया है, संग्रह की कविताओं की पठनीयता पाठक को सहज ही अपनी तरफ खींच लेती है.
________________

राजेश सक्सेना

48-हरिओम विहार

तारामंडल के पास 
उज्जैन(म.प्र.)/ 9425108734

तुम कहाँ गए थे लुकमान अली : (दो)

$
0
0





सौमित्र मोहन विष्णु खरे के शब्दों में ‘वह ऐसा देसी कवि है जो एलेन गिन्सबर्ग के पाए का है’ के साथ कुछ ऐसा हुआ कि उन्हें पिछले कई दशकों से साहित्य के तलघर में दफ़्न कर दिया गया. एक ‘कल्ट’ कवि और ‘लुकमान अली’ कविता से चर्चित/ प्रशंसित/ निंदित जो अब ८० वर्ष का है, पर क्या इधर कोई किसी ने उनपर आलेख लिखा है?  उनपर केन्द्रित किसी पत्रिका का कोई अंक प्रकाशित हुआ है ?  किसी विश्वविद्यालय में क्या उनपर कोई लघु शोध भी  पूरा कराया है? जब दिल्ली के ही संदिग्ध कवियों के पास उनके तथाकथित संग्रहों से अधिक तमगे हैं और जिनपर बे-हया कारोबारी ‘आलोचकों’ ने किताबे संपादित भी कर रखी हैं, और मतिमन्द शोध निर्देशकों ने कूड़ा शोध करा रखा है, सौमित्र मोहन के पास ‘सम्मान/पुरस्कार’ की भी जगह ख़ाली है.  


स्वदेश दीपक कहा करते थे कि ‘सौमित्र मोहन का लेखन अपने आपसे लड़ाई का दस्तावेज़ है.’  बाहर लड़ने के लिए पहले आत्म से लड़ना होता है, इसे ही मुक्तिबोध आत्मसंघर्ष कहते हैं. और यह भी कि ‘एक जनवादी – प्रगतिशील’ और मर्यादित माने जाने वाले केदारनाथ अग्रवाल ने लुकमान अली  लिए यह कहा है “फन्तासीकी यह कविता हिन्दी की पहली बेजोड़ दुःस्वप्न की सार्थक कविता है”.


विष्णु खरे ठीक ही कहते हैं “सौमित्र मोहन की कविताओं को पढ़ना,बर्दाश्त करना,समझ पाना आदि आज 60 वर्षों बाद भी आसान नहीं है.”


सौमित्र मोहन पर समालोचन के इस दूसरे अंक में आप उनकी पंसद की नौ कविताएँ, लुकमान अली के चार हिस्से और इस कविता पर केदारनाथ अग्रवाल का आलेख पढ़ेंगे.

________________


कवि   ता  एँ


पैटर्न

मेरे पहले आने के पहले वह आएगा।


सूखी घास पर रेंगते कीड़े का कोई अर्थ नहीं है

वह गीली भी हो सकती थी या नहीं भी हो सकती थी


कुर्सी पर बंद पड़ी पत्रिका में किसी की भी कविता हो;

चाय पीते हुए मौसम की याद आ जाए या रविवार या शुक्रवार की

[ट्राम बंद होने की खबर ही तो है]


दीवार पर बच्चों ने कितनी लकीरें खींच दी हैं

                                   उनकी गिनती नहीं है।

सारंगी भी नहीं है, हिरन भी नहीं है, पतंग भी नहीं है

एक दीवार हैउस पर लकीरें हैं : ख्एक कौवा अभी-

अभी उड़ कर गया था अलगनी पर टँगे कपड़ों के ऊपर,


एक पेड़ है; उसकी छाल दिन-ब-दिन उतरती जा रही है

कल कोई आएगा और उसके चिकने हिस्से पर अपना

                      नाम लिख चला जाएगा।

कोई किसी की आँखों में क्यों देखता है स्वीकृति के लिए...

[एक बिस्तर है जो यूँ ही पड़ा रहेगा बिना सलवटों के]


मेरा घरनिबंध पर ब्लेड रख मैं अभी बाहर गया हूँ

बिना उढ़का दरवाजा बिना उढ़का ही है

न उसका रंग उड़ा है, न वह पुराना हुआ है, न गणेश

                     की खुदी तस्वीर खंडित हुई है

एक दरवाज़ा है, एक निबंध है, एक ब्लेड है; है;

[अन्दर से निकल कर कोई बाहर गया है अन्दर आने के लिए]








भागते हुए 
देर तक चलने वाली बातचीत में

एक चुप्पी    घुल गई थी और

उसके चुंबनों में

आने वाले दिनों की उदासी थी।


वह तपते हुए

आलोक में भी   अकेली थी

                       और भविष्य की

अँधेरी सुरंग तक पहुँच कर रुक गई थी।


अपने चारों ओर की तेज़ आवाज़ों में

एक हल्की सरसराहट की तरह

वह आकर्षित कर गई थी।


उसका शरीर संयम-तरंगों पर

झूल रहा था।

स्पर्श की ऊष्मा में       वह

                         अस्थिर खड़ी थी।

निर्वसन होकर भी         वह स्वप्नों से

                              ढंकी हुई थी।


वह उजाले में भी निपट अँधेरा थी;

और लंबी चुप्पी में

          टिकटिकाती घड़ी की

                   सुई थी।


समय के साथ भागते हुए वह थक गई थी।







देशप्रेम-1


लोग बैंडबाजे की इंतज़ार में खिड़कियाँ खोलकर चुपचाप खड़े हैं।

कोई करतब नहीं हो रहा।

देश ठंडी हवा को सूँघ कर उबासियाँ ले रहा है।

भीतर ही भीतर कोई उतर कर खो जाता है कहीं।


हमारे लिए आने वाला कल घिसे हुए उस्तरे की तरह धूप में पड़ा है।

सफर शुरू नहीं होता, खत्म होता है।

एक कमीने आदमी की तलाश में नामों का क्रम बदलता

रहता है और दुखती आँखों में गंदगी भर जाती है।

सिर्फ़ एक अहसास बाकी रह जाता है छलाँग का... कपड़े बदलने

में तारीखें और वार, खरगोश और हिन्दी, पीढ़ी और ढोल

जगह बदलते हुए एक घपला बन जाते हैं। अश्लीलता

सिर्फ़ रह गई है परिवार नियोजन के पोस्टरों में या घरों से

जा कर घरों में घुसते हुए या दल बदलने के साहसपूर्ण कार्यों में।


खाली मनिआर्डर लेकर अवतार आकाश से उतर रहे हैं। उन्हें सेवाएँ

चाहिए सारे देश की। लोग हैं कि चुपचाप खड़े हैं बैंडबाजे की

इंतज़ार में खिड़कियाँ खोल कर।

जुलूस में शामिल होकर एक रेडक्रॉस-गाड़ी उठा रही है :

पत्थर

फटे हुए झंडे

छुटी हुई चप्पलें

और लाशें पिछवाड़े पड़ी हैं; मकानों के दरवाज़ों में दीमकें व्यस्त हैं।







देखना-2                  


एक बहुत लंबी सफेद दीवार के पीछे से आधा दिखता 

वह आदमी       अपनी उपस्थिति को

                                     बेपर्द कर रहा है

साँझ की ताँबई रोशनी में

कठफोड़वे की बेधक गवाही के साथ।


बाल्कनी से दिखता

कपड़े प्रेस करता हुआ धोबी     पत्ते की तरह

                                                   हिलता है।

कई छोटे बच्चे और आवारा कुत्ते

                                   मनकों की तरह यहाँ वहाँ

                                   बिखरे हैं

किसी फिल्म का एक चाक्षुष बिंब बनाते हुए।      


सूरजकुंड हस्तशिल्प मेले में

एक खड्डी मौन खड़ी है अपने परिवेश से

                                                   कट कर।

किसी ग्रुप हाउसिंग सोसाइटी की सीढ़ियाँ

                                                   चढ़ते/उतरते

                                                   दो औरतें

अपनी-अपनी एनजीओ  के बारे में सूचनाओं का  

आदान-प्रदान करते हुए सरकार को कोस रही हैं।


                                                   हिमालय पर छोड़े गए टनों कबाड़ के

इस ऐतिहासिक दौर में      कई दिनों से उदास रहे

                        एक पाठक ने

सज्जा-विहीन सादे कमरे में बैठ कर

कविता-पुस्तक का पन्ना

उँगली पर थूक लगा कर पलटा है।  

कुछ देर पहले तक

वह किलों के परकोटों के साए में

घूम रहा था     पीछे छूटी हुई जिंदगी को

           कोई तरतीब देने के लिए।


दीवार के पीछे से आधा दिखता आदमी

इस आश्चर्य को देख रहा है

कि भीड़ कैसे प्रतीक्षा को भर देती है!









चरागाह

एक सफेद घोड़ा दौड़ता हुआ नदी में कूदता है और पानी की

उछाल लेती झालर में छिप जाता है चरागाह और धोती

सुखाते हुए आदमी का पाँव।


जंगल जगह बदल रहा है। धीरे-धीरे2      पाँव हट रहे

हैं जमीन से। बंद मुँह से निकलती हुई आवाज़ में भाषा

बन रही है। आहिस्ता से आदमी घर में घुस रहा है।


नहीं, अभी नहीं बदलना है हमें!एक नारा

फटे हुए झंडे के बीच में से सरक जाता है बिना किसी गुल के।

डर के।


फिर वही दृश्य है। घोड़े के पीछे से दिखता हुआ आदमी है।

दृश्य नहीं है : आदमी है। और प्रेम से खुले

होंठों में मक्खियों की कतार है। शब्द हैं; जिसके लिए

किसी को फिक्र नहीं है।


पानी जगह बदल रहा है। धीरे-धीरे2      शरीर-धर्म

भूलता जा रहा है। आपे में नहीं कोई और केवल

एक सूँघ है जानवर के आसपास मँडराने की, जंगल

में खोए हुए आदमी के लिए तलाशी लिए जाने

की।


एक चरागाह और धोती में लिपटे पाँच इंच लंबे पाँव में

ठंड बस गई है।






 उर्फ़ की भाषा :

आज की ख़बरों पर ध्यान करें, न करें;

सेहत का ख्याल रखें : सिद्ध आसन


जब मैंने अपना हाथ परदे के पीछे छिपा लिया था तब

तुमने पान की बेगम मेज़ पर रख दी  थी  और उस

बात के लिए मुस्कराए थे जब हम दोनों कमरे

में हाथों का खेल खेलते रहे थे। आपने जामा

मस्जिद की वह गली नहीं देखी होगी जहाँ धूप

सबसे पहले बाँहों पर पड़ती है : यह अहसास

है। आप नाड़ा ढीला करें तो आपको भी होगा।

या आपको इस अँगूठी पर अभ्यास करना होगा

जिससे जमादार, छिड़काव, दरी का बिछना, दिल्ली

के मेयर का कुर्सी पर बैठना और आपकी पत्नी का

फालतू बाल साफ करते हुए दिखाना होता है।

हमारे लिए आसान है होना







षष्ठि पूर्ति

28मई 1968को दिल्ली में आयोजित

देवेंद्र सत्यार्थी की षष्ठि पूर्ति के अवसर पर



बासी    फल।। फल   में   कीड़ा।। कीड़े में चमक।।

चमक में घोड़ा।। घोड़े  पर  सवार।। सवार  पर  तोप।।

तोप पर सत्यार्थी।। सत्यार्थी का झोला।। झोले में कहानी।।

कहानी का नायक।। नायक की टाँग।। टाँग में जोड़।।

जोड़ में शतरंज।। शतरंज की चाल।। चाल में मात।।

मात में गुस्सा।। गुस्से में खून।। खून में पहलवान।।

पहलवान की चीख।। चीख में अँधेरा।। अँधेरे में गुम।।

बासी फल।।







झील

दिन बिल्कुल वैसा ही नहीं है

जैसाकि उसने सोचा था।

वह अपने बेचैन होने के सबब को

घंटों (हाँ, घंटों तक!) आलमारी में ढूँढ़ता रहा था।


क्या तुम उस दृश्य के साक्षी थे

जब पानी झील में बदल रहा था?


यह झील पौराणिक नहीं थी। बल्किनहीं है।

कविता के रूपक की सलाखें तोड़ी जा रही हैं

और मृत शब्दों की अर्थियाँ भारी होती जा रही हैं।


वह अपने दोस्त के आँसू पोंछने लगा है

और अपने पसीने की नमकीन हवा के साथ

कैमरे के सामने खड़ा हो गया है।

खटाखट फोटो उतर रहे हैंहवा के।

वह खुद कहाँ चला गया है?


वह वही है

जो कवि और कविता के दरवाज़ों पर

पहरेदार की तरह खड़ा है...






यथार्थवाद

मैंने सिर्फ देखा था।


एक गंध कई गज के घेरे में बसी हुई है।

तौलिया मुचड़ा हुआ है।

चादर अपने स्थान से हट कर

एक तरफ ज्यादा लटक गई है।

शिथिलता हवा को दबोचे है।


क्या अभी-अभी कोई

कमरे से बाहर गया है?


शायद!

मैंने तो सिर्फ देखा था।









देखने का जादू (अखिलेश ) : अभिषेक कश्यप

$
0
0















प्रसिद्ध चित्रकार और हिंदी के सुप्रसिद्ध लेखक अखिलेश की नयी किताब ‘देखने का जादू’ इस वर्ष अनन्य प्रकाशन से प्रकाशित हो रही है, इसकी सुंदर भूमिका अभिषेक कश्यप ने लिखी है. यह  भूमिका आपके लिए ख़ास तौर पर.





देखने  का  जादू                          


अभिषेक कश्यप








स किताब का विचार सुप्रसिद्घ चित्रकार जोगेन चौधरी पर लिखे अखिलेश के आलेख (जोगेन का जादू’) को पढ़ते हुए आया. जोगेन दा के जीवन और कला पर अपनी संपादित पुस्तक (जोगेन’) के लिए मैंने अखिलेश से एक आलेख देने का अनुरोध किया था और वे सहर्ष राजी हो गये. दरअसल एक महत्वपूर्ण चित्रकार के साथ-साथ अखिलेश के लेखक-रूप से भी मैं खूब परिचित था. ज़े स्वामीनाथन, मकबूल फिदा हुसेन, वी़ एस़ गायतोंडे, सैयद हैदर रज़ा, क़े जी़ सुब्रमण्यन, भूपेन खख्खर, प्रभाकर बर्वेसरीखे शीर्षस्थ कलाकारों पर समय-समय पर लिखे उनके आलेख मैं पढ़ चुका था. इन आलेखों में अखिलेश ने अलग-अलग मन-मिजाज के कलाकारों के चित्रों की गहराई में उतर कर जिस सहज ढंग से इनकी कला पर बात की, जिस सटीक अंदाज में व्याख्या/विश्लेषण किये थे, उससे मैं उनके कला-लेखन का कायल हो गया था. गोकि अखिलेश की कला-लेखों की 6और अनुवाद की 2यानी कुल जमा 8किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं लेकिन फिर भी वे बड़ी विनम्रता से कहते हैं-


‘‘यार, मैं लेखक तो हूं नहीं, कोई आग्रह करता है तो लिख देता हूं.’’


अखिलेश के कला-लेखन में कई खास बातें नज़र आती हैं. मसलन किसी कलाकार पर लिखते हुए वे न ही किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित होते हैं, न अपने व्यक्तिगत आग्रह-दुराग्रह को तरजीह देते हैं. यही नहीं, किसी कलाकार की कला को अब तक कला के दिग्गजों ने जिन नज़रियों से देखा/परखा है और जो लगभग सर्वमान्य रहे हैं, वे उसके प्रभाव में भी नहीं आते. मनजीत बावापर लिखे अपने लेख (धागा जो नहीं है’) के प्रारंभ में वे मनजीत की कला पर लिखे कई दिग्गजों, यहां तक कि मनजीत से उनकी कला पर हुई एक बातचीत का भी उद्घरण देते हैं और इसके बाद उनके चित्रों में हास्य विनोद/wit और अर्थ-विरोधाभास के नये कोण खोज निकालते हैं. फिर मनजीत के चित्र शेर, केले और चांदके जरिये इस अर्थ-विरोधाभास और हास्य विनोद पर विस्तार से चर्चा भी करते हैं-

चित्र में शेर, केले और चांद में सिफऱ् केले विस्तार से चित्रित हैं. शेर में फंतासी है. चांद चुप है. यह सब लयबद्घ है. यथार्थ से सम्बन्ध दूर-दूर तक नहीं है. इनका आपसी सम्बन्ध इस चित्र में ही उजागर होता है. अपने में असम्बद्घ इन कथानकों को एक चित्र-स्थिति में मनजीत चित्रित करते हैं. इनकी आपसी सम्बद्घता का अटपटापन करुण भी है, विचित्र भी और दर्शक के मन में हास्यबोध जगाता है.
पेंटिग : Heer (1993) by Manjit Bawa

यह मुश्किल काम है. हास्य धूपज को चित्र में ले आना, बग़ैर चित्रत्मकता को नष्ट किये या चित्र को काटरून कॉलम होने से बचाये रखते हुए मुश्किल है. ऐसा उदाहरण भी कम ही होगा और मनजीत सम्भवत: अकेले ही नज़र आयेंगे, जिन्होंने अपने मिथक के हास्य को गम्भीरता से चित्रों में जगह दी.




कई आलोचक मनजीत बावा और उनके दो समकालीन महत्वपूर्ण चित्रकारों-जोगेन चौधरी औरअमिताभ दास-पर लिखते हुए इन तीनों की कला में अजीबोगरीब ढंग से साम्यता ढूंढ़ लेते हैं या कहें जबरिया साम्यता स्थापित करने का प्रयास करते हैं, खास तौर से मनजीत बावा और जोगेन चौधरी के बीच. लेकिन मेरी पुस्तक के लिए जोगेन दा की कला पर लिखे छोटे-से आलेख में वे इन तीनों के कला-वैशिष्ट्य कुछ इस तरह रेखांकित करते हैं-


जोगेन को उनके दो समकालीन, मनजीत बावा और अमिताव दास के बरक्स रख कर देखें तो मनजीत अपने फूले हुए रूपाकारों में पारंपरिक विषयों को नए ढंग से परिभाषित कर रहे थे जबकि अमिताभ दास की आकृतियां चपटी और बिना किसी आयतन के हैं. इन तीन चित्रकारों ने आकृति के साथ अपनी तरह के संबंध बनाए और दर्शक को अजूबा जोगेन के चित्रों में इस तरह मिलता है कि वो ठीक-ठीक जान नहीं पाता किंतु उसे पता है कि यह रूप उसी के परिवेश का है.’’




फिर वे जोगेन के वैशिष्ट्य की चर्चा करते हुए पुन: इन तीनों के अलहदा चित्र-व्याकरण का संकेत देते हैं- 


(जोगेन चौधरी)


जोगेन यथार्थवादी शैली की जगह भाव को महत्व देते हैं. जोगेन के चित्र यथार्थवाद से कहीं टकराते नहीं हैं और ऐसा भी नहीं है कि जोगेन को यथार्थवाद से कोई संबंध तोड़ना है. वे उसके नजदीक न जाकर अपनी शैली विकसित करते हैं, जिसमें भाव प्रधान है. उनके चित्रों का विषय ही इतना प्रधान है कि शैली पर ध्यान बाद में जाता है.दूसरी जो बात जोगेन के चित्रों का मर्म है वो है, उनमें छिपा श्रृंगारिक (erotic) तत्व. इस पर बात किए बगैर या इसे जाने बगैर आप जोगेन के चित्रों को नहीं जान सकते हैं. यह श्रृंगारिकता भी उसी परिवेश की देन है जो जोगेन दा अपने आस-पास महसूस करते रहे. उनके चित्रों में यह उनके स्वभाव से प्रकट हो रहा है. वे किसी भी तरह का चित्र बनाएं, यह श्रृंगारिकता उसमें आ जाती है. इसके लिए मुङो नहीं लगता कि वे अतिरिक्त प्रयास करते होंग़े. य़ह विशेषता मनजीत या अमिताव के रूपाकारों में नहीं मिलेगी.




चूंकि अखिलेश चित्रकार हैं और कई वरिष्ठ व समकालीन चित्रकारों से उनके आत्मीय संबंध रहे हैं, इसलिए उनकी कला पर लिखते हुए कलाकारों की निजी जिंदगी से जुड़े प्रसंग, संस्मरण भी संभवत: अनायास ही उतर आते हैं. कई शीर्षस्थ कलाकारों से जुड़ी अपनी यादों, अनेक वाकयों की चर्चा करते हुए उनके प्रति अखिलेश की गहरी श्रद्घा भी साफ झलकती है लेकिन उनकी कला पर बात करते हुए वे तीक्ष्ण दृष्टि और तटस्थ मूल्यांकन का दामन कहीं छोड़ते नज़र नहीं आते.



सबसे खास बात यह कि ये सारे आलेख भारतीय चित्रकला परिदृश्य का मूल्यांकन करने की गरज से किसी योजनाबद्घ तरीके से नहीं लिखे गए बल्कि जब-तब पत्र-पत्रिकाओं के संपादकों के आग्रह पर लिखे गए हैं. बावजूद इसके किसी भी आलेख में कहीं यह आभास नहीं होता कि अखिलेश निपटाऊ अंदाज में कोई अखबारी लेखन कर रहे हैं. आग्रह पर लिखे गये या भदेस भाषा में कहें तो संपादकों की फरमाइश पूरी करने के लिए भी अखिलेश ने कलाकारों पर ऐसे लेख लिखे, जिनमें दृष्टि की व्यापकता है और इस वजह से इनका महत्व निश्चय ही लंबे समय तक बना रहेगा.



यह कहने में भी मुङो कोई गुरेज नहीं कि ज़े स्वामीनाथन, मकबूल फिदा हुसेन, वी़ एस़ गायतोंडे, सैयद हैदर रज़ा, अम्बादास, मनजीत बावाआदि पर लिखे और इस संकलन में शामिल ये आलेख इस पाये के हैं कि इन शीर्षस्थ कलाकारों पर अब कोई भी शोध-अध्ययन इन आलेखों के संदर्भ के बिना अधूरा ही रहेगा. 

अखिलेश देखनेको बहुत महत्व देते हैं और किसी भी कलाकार की कला से सीधा संवाद करने, उसमें पैठने में भरोसा रखते हैं.



चित्र से सीधा संवाद, उसमें पैठने के कौशल के ही जीवंत उदाहरण उनके ये कला-लेख हैं. यहां वे कलाकारों के बारे में कोई सतही या बायोडाटानुमा गैर-जरूरी विवरण नहीं देते, न ही दूर की कौड़ी लाने की फिराक में वे कोई हवाई किला बनाते हैं. वे भारी-भरकम शब्दावली ; लंबे,  अपठनीय वाक्य-विन्यासों के जरिये शब्दों के वाग्जाल में फंसाने की जुगत भी नहीं भिड़ाते, न ही उन्हें किसी निर्णय पर पहुंचने या कोई फैसला सुनाने की जल्दबाजी है. वे किसी प्रसंग विशेष की चर्चा से सहज ही अपनी बात शुरू करते हैं और फिर धीरे-धीरे कलाकार की कला-दृष्टि और रंग-युक्तियों की गहराई में उतरते चले जाते हैं. संभवत: चित्र की तरह लेखन में भी वे प्रतीक्षा और धीरज के महत्व को समझते हैं और किसी कलाकार के जटिल-से-जटिल कला-व्याकरण को अपने पाठ में परत-दर-परत खोल कर रख देते हैं. वह भी सरल, सहज, रसपूर्ण भाषा में.



अखिलेश के ये पाठ (आलेख) मूर्धन्य चित्रकारों के रंगलोक को नयी रोशनी में देखने को ही प्रेरित नहीं करते बल्कि किसी भी चित्र को अनेक दृष्टियों से देखने, अनेक पाठ रचने के लिए भी उकसाते हैं. 

ये पाठ देखने की अनेकानेक प्रविधियों से हमारा परिचय कराते हैं, देखने का जादू जगाते हैं.

       

हमारे यहां कला-आलोचना का दारिद्रय या साफ-साफ कहें तो कला-आलोचना की अनुपस्थिति जग जाहिर है. कई तथाकथित प्रतिष्ठित कला-आलोचक हैं, जिन्होंने बने-बनाये चलताऊ किस्म के वाक्य-विन्यास गढ़ रखे हैं, जिन्हें थोड़े हेर-फेर के साथ वे हर कलाकार के ऊपर चिपका देते हैं. दूसरी तरफ कई मूर्धन्य (?) आलोचक हैं, खास तौर से अंग्रेजी में लिखने वाले, उनमें से अधिकांश चित्र देखने, कला की अंतश्चेतना में पैठ कर कुछ कहने की बजाय अत्यंत अपठनीय भाषा में दूर की कौड़ी निकाल लाते हैं, जिनका चित्र के भाव बोध से कहीं कोई सरोकार नहीं होता.



ऐसे हालात में अखिलेश की यह किताब एक सविनय निवेदन है कि कला-आलोचना को गंभीरता से लिया जाये ; इसे गंभीर रचनात्मक कर्म माना और इसी भाव से बरता जाये.



कला के विद्यार्थियों, कला-रसिकों के लिए ही नहीं, निश्चय ही यह किताब कलाकारों और कला-अध्येताओं के लिए भी समान रूप से उपयोगी होगी.
_______
 

(10 अप्रैल, 2018, धनबाद)


मैं जब तक आयी बाहर (गगन गिल) : पांच कविताएँ

$
0
0
























गगन गिल का नया कविता संग्रह ‘मैं जब तक आयी बाहर’वाणी प्रकाशन से अभी-अभी प्रकाशित हुआ है. उनके प्रशंसकों को उनके नये कविता संग्रह की बहुत वर्षों से प्रतीक्षा थी. इस संग्रह से पांच कविताएँ ख़ास आपके लिए.








गगन गिल   की   पाँच   कविताएँ                









यही घूँट काफी है

यही घूँट काफी है


उतरती जाती है

बूँद सीढ़ियां

अंधेरी गली में


जाने कहाँ से चली यह

किस समुंदर

किस कुएं से


कभी बादल में गयी होगी

कभी पेड़ की जड़ में


कभी आँख में अटकी होगी

कभी प्रार्थना की अंजुली में


रोक दिया होगा इसने कभी

खाँसते मरीज़ की

सांस का रास्ता


अब यह उतरती जाती है

इस कण्ठ की 

सीलन में


यही घूँट काफी है


अभी खत्म नहीं हुआ 

इसका सफर


अभी इसे जाना है 

इस देह के रक्त में

सींचना है 

इसका अंतहीन 


फैलना है बन कर

अंधेरे में जीवन


कभी बनना है

इसके छोटे से दुख का भाप


कभी अटकना है

किसी दरार में

भर्राकर


यह देह भी नहीं

इसका अंतिम ठौर


इसके बाद 

कोई और मिट्टी

कोई और सूरज

कोई और धमनी


न यह इसका अंत

न शुरू


यही घूँट काफी है






कोई रख रहा है पटरियाँ


कोई बना रहा है तुम्हारी प्रतिमा

खींच रहा है रेखाएं

पीड़ा की  

तुम्हारे मांस में


थपथपा रहा है

गीली मिट्टी

तुम्हारे चेहरे पर


पटरियां ये अदृश्य

इन्हीं पर चलना है 

जीवन भर तुम्हें


मत करो गीला 

इस मिट्टी को

रोज़ रोज़ लौटते

किसी बादल से


कोई उकेर रहा है तुम्हारी हड्डी

लिख रहा है अपनी लिपि

तुम्हारे माथे पर


दर्ज कर रहा है 

तुम्हारा खाता

सफेद स्याह 


बार-बार उछलो मत

वेदन से


हथौड़ी लग गयी जो

उसकी उंगली पर?


सुखा रहा है  

तुम्हारी मिट्टी कोई

अंदर से बाहर तक

धूप में 

छाया में


सिर्फ उसी को पता है

कितनी गर्म होनी चाहिए 

तुम्हारी भट्ठी


कितना वह तपाये तुम्हें 

कितने समय तक

कि बर्तन से तुम्हारे फिर

न भाप रिसे 

न जल


एक दिन 

वह लिपि

निकलेगी

राख में से बाहर


अनजान कोई हाथ 

समेटेगा तुम्हारी अस्थियां

देखेगा 

वह लिखावट


मछलियां कुतरेंगी तुम्हें

सूरज चमकेगा

जल के ऊपर 


अभी तुम

न ऊपर 

न नीचे


सिहरो मत


करने दो उसे

अपना काम


देखने दो 

मूरत कोई 

अब भी 

बनी कि नहीं


गुज़र जाने दो 

मुख पर से अपने

काल का घोड़ा


हिलो मत


कोई रख रहा है 

रेल की पटरियाँ

तुम्हारे चेहरे पर







दिन के दुख अलग थे


दिन के दुख अलग थे

रात के अलग


दिन में उन्हें 

छिपाना पड़ता था

रात में उनसे छिपना


बाढ़ की तरह 

अचानक आ जाते वे

पूनम हो या अमावस


उसके बाद सिर्फ

एक ढेर कूड़े का

किनारे पर 

अनलिखी मैली पर्ची

देहरी पर


उसी से पता  चलता 

आज आये थे वे


खुशी होती

बच गए बाल- बाल आज


रातों के दुख मगर 

अलग थे

बचना उनसे आसान न था


उन्हें सब पता था

भाग कर कहाँ जायेगा

जायेगा भी तो 

यहीं मिलेगा 

बिस्तर पर 

सोया हुआ शिकार


न कहीं दलदल 

न धँसती जाती कोई आवाज़

नींद में


पता भी न चलता

किसने खींच लिया पाताल में 

सोया पैर


किसने सोख ली 

सारी सांस


कौन कुचल गया 

सोया हुआ दिल


दुख जो कोंचते थे 

दिन में

वे रात मेँ नहीं


जो रात को रुलाते

वे दिन में नहीं


इस तरह लगती थी घात

दिन रात

सीने पर 


पिघलती थी शिला एक


ढीला होता था

जबड़ा

पीड़ा में अकड़ा


दिन गया नहीं 

कि आ जाती थी रात


आ जाते थे 

शिकारी





मुझे यदि पता होता

मुझे यदि पता होता

क्या करना है 

इस दिन का


ये दिन

तुम्हारे न-होने का


अंधी आँख जैसा

सफेद दिन


मुझे यदि पता होता

कैसे रोकनी है यह घड़ी

रक्त में

करती टिकटिक


दही जमाती 

मेरे सिर में


मालूम होता यदि

कैसे मोड़नी है पत्तल 

सूखी देह की

इस पत्ती की


कहीं मिल जाता

यदि जल


पहुँच जाता

समय रहते

इसके पास


जल यदि टिका रहता

अपनी जगह

थोड़ी देर और


उतरता न जाता

नीचे और नीचे

धरती में


आत्मा सुन लेती

मेरी बात

यदि थोड़ी देर और


प्रार्थना ले आती

कहीं से

मामूली कोई शान्ति


नोंचती न मैं यदि

ये हृदय

अपने पंजों से


उछालती न इसे

कभी हवा

कभी समुंदर में


पहुँच पाती मैं यदि

किनारे तक


लहर के दबोचने 

रात घिरने से पहले


मुझे यदि 

पता होता

कैसे गुज़ारना है ये दिन


ये दिन तुम्हारे न-होने का





थोड़ी देर

तुम्हारे इस ठंडे पड़े दिल में

थोड़ी देर सो जाऊँ?


बाहर विलाप है

मूर्च्छा है

भीड़ का तमाशा है


मेरे कपड़ों में आग है


यहाँ अंधेरे किसी कोने में

थोड़ी देर छिप जाऊँ?


वे मुझे चीरेंगे, गोदेंगे

हवा में लहरायेंगे

धड़ कभी सिर


बिना बहाये रक्त एक बूँद

करेंगे मुझे कभी ज़िंदा

कभी मुर्दा


जादुई इस सन्दूक में

थोड़ी देर लेट जाऊँ?


तुम्हारे दिल की ठंडी इस ज़मीन पर

थोड़ी देर सो जाऊँ?


_____
गगन गिल

18 नवम्बर 1959 



कविता संग्रह : एक दिन लौटेगी लड़की (1989), अँधेरे में बुद्ध (1996), यह आकांक्षा समय नहीं (1998), थपक थपक दिल थपक (2003)


यात्रा वृत्तांत : अवाक


गद्य : दिल्ली में उनींदे


अनुवाद : साहित्य अकादेमी तथा नेशनल बुक ट्रस्ट आदि के लिए अब तक नौ पुस्तकों के अनुवाद प्रकाशित


संपादन :  प्रिय राम (प्रख्यात कथाकार निर्मल वर्मा द्वारा प्रख्यात चित्रकार-कथाकार रामकुमार को लिखे गए पत्रों का संकलन), ए जर्नी विदिन (वढेरा आर्ट गैलरी द्वारा प्रकाशित चित्रकार रामकुमार पर केंद्रित पुस्तक - 1996 ), न्यू वीमेन राइटिंग इन हिंदी (हार्पर कॉलिंस -  1995), लगभग ग्यारह साल तक टाइम्स ऑफ इंडिया ग्रुप और संडे आब्जर्वर में साहित्य संपादन


सम्मान

भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार (1984), संस्कृति पुरस्कार (1989), केदार सम्मान (2000), आयोवा इंटरनेशनल राइटिंग प्रोग्राम द्वारा आमंत्रित (1990), हारवर्ड यूनिवर्सिटी की नीमेन पत्रकार फैलो (1992-93), संस्कृति विभाग की सीनियर फैलो (1994-96), साहित्यकार सम्मान (हिंदी अकादमी - 2009), द्विजदेव सम्मान (2010)


ई-मेल : gagangill791@hotmail.com



परख : मुक्तिबोध : एक व्यक्तित्व सही की तलाश में लेखिका (कृष्णा सोबती)

$
0
0














‘एक जटिल कवि का पुनर्पाठ’,  मुक्तिबोध के इस ‘अनौपचारिक पाठ’ की लेखिका कृष्णा सोबती हैं जिसे चित्रकार मनीष पुष्कले ने आकर्षक ढंग से परिकल्पित किया है.


पढ़ते हैं क्या कहना है इस पुस्तक पर समीक्षक मीना बुद्धिराजा का.




एक  जटिल  कवि  का  पुनर्पाठ 
मीना बुद्धिराजा






उचटता ही रहता है दिल

नहीं ठहरता कहीं भी   

ज़रा भी

यही मेरी बुनियादी खराबी


पनी इस अवश्यंभावी बेचैनी के साथ कवि गजानन माधव मुक्तिबोधएक बार फिर नये रूप में उपस्थित हैं और पाठकों के बीच चर्चा के केंद्र में हैं. मुक्तिबोध हिंदी साहित्य के सबसे विवादास्पद और जरूरी कवि एवं लेखक रहे हैं. उनका काव्य हमेशा पाठकों और आलोचकों के सामने एक चुनौती बनकर आता रहा है. तमाम संवादों और विवादों के बीच मुक्तिबोध को किसी पंरपंरा, संगठन,वाद और विचारधारा विशेष से जोड़ने की कोशिशें भी चलती रहीं हैं जबकि इस बंधन में उन्हें कभी बांधा नहीं जा सकता. उनकी प्रेरणा हमेशा दूसरों की प्रेरणाओं से भिन्न रही. वास्तव में आज के समकालीन विमर्शों के दौर में भी उनकी कविताएँ मानवीय प्रतिबद्धता और वैचारिक आत्मालोचन का अकाट्य तर्क बनी हुई हैं. मुक्तिबोध का काव्य  उनके भीतर जमा किसी अवरूद्ध तनाव की विस्फोटक अभिव्यक्ति के रूप में सामने आता है.





युग कवि मुक्तिबोध की कविताओं और उनकी रचनाशीलता के  जरूरी और विविध आयामों को प्रस्तुत करते हुए हमारे समय की प्रख्यात और शीषर्स्थ कथाकार - लेखिका कृष्णा सोबतीद्वारा लिखित महत्वपूर्ण पुस्तक “मुक्तिबोध-एक व्यक्तित्व सही की तलाश में” शीर्षक से अभी हाल में राजकमल प्रकाशनसे प्रकाशित हुई है. कृष्णा सोबती जी एक रचनाकार के रूप में हिंदी की वरिष्ठतम उपस्थिति हैं. जिनकी आँखों ने लगभग एक सदी का इतिहास देखा और जो इस इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में अपने आसपास के परिवेश और समय से उतनी ही व्यथित हैं, जितनी अपने समय और समाज में निपट अकेलीबेचैन मुक्तिबोध की रूह रही होगी- मानवता के विराट और सर्वसमावेशी उज्ज्वल स्वप्न के लगातार दूर होते जाने से कातर और क्रुद्ध.


भारतीय इतिहास और साहित्य के दो समय यहां रू-ब-रू हैं. यह पुस्तक वस्तुत: पाठकीय दृष्टि से मुक्तिबोध का एक अनौपचारिक और गहन पाठ है जिसे कृष्णा सोबती जी ने अपने गहरे संवेदित मन से किया है. भारतीय साहित्य के परिदृश्य पर हिंदी की गरिमामय और विश्वसनीय उपस्थिति के साथ सोबती जी अपनी परिपक्व-संयमित रचनात्मक अभिव्यक्ति के जानी जाती हैं. प्रतिष्ठित ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित हमारे समय की वरिष्ठ  कथाकार द्वारा एक बड़े कवि की कविताओं के पाठ की दृष्टि से भी यह एक अद्वितीय पुस्तक है.


हिंदी के जिन कवियों को बार-बार परखने की कोशिश की गई,जिन्हें बार-बार पढ़ा गया और पढ़ा जा रहा है, उनमें मुक्तिबोध अग्रणी हैं. ऐसे में यह  पुस्तक हिंदी के सबसे विलक्षण इस बड़े कवि को फिर से नये संदर्भों में पढे जाने का अवसर देती है. एक कवि के रूप में मुक्तिबोध समय के साथ प्रासंगिक और समकालीन होते जा रहे हैं. अपने शिल्प- विन्यास में ही नहीं बल्कि विषय-वस्तु की दृष्टि से भी यह एक अनूठी पुस्तक है. यह एक अनौपचारिक तौर से पुस्तक के रूप में मुक्तिबोध की कविताओं के चुनिंदा अंशो पर सोबती जी का गहन पाठ है. यहां उनके काव्य बिंबों की विविधता है.  यह एक प्रकार से मुक्तिबोध को नये तरह से पढ‌ने का प्रयास है. यह पुस्तक एक मौलिक और अनौपचारिक कृति इसलिये भी है कि इसकि कोई विशेष रूप से भूमिका नहीं लिखी गई है और कोई अनुक्रमणिका नहीं है. मुक्तिबोध की  प्रमुख कविताओं के अंश और काव्य- पक्तियाँ हैं और उन पर लेखिका सोबती जी का  गंभीर भाष्य और सटीक टिप्पणियाँ हैं जो उनका एक नया पाठकीय रूझान भी कहा जा सकता है.


मुक्तिबोध  एक रचनाकार के रूप में हिंदी कविता की वह शीर्ष लेखनी रहे हैं जो अपने संपूर्ण काव्य में आत्मसमीक्षा और मानव जगत के गहन विवेचक तथा अपने प्रति कठोर प्रस्तावक  बने रहे. उन्होनें एक दुर्गम पथ की और संकेत किया था, जिससे होकर हमें अनुभव और अभिव्यक्ति की परिपूर्णता तक जाना था; क्या हम वहां जा सके ?यह पुस्तक इन्ही गंभीर प्रश्नों को केंद्र में रखकर पुनर्विचार और मुक्तिबोध के माध्यम से आज के समय से भी एक अनिवार्य संवाद स्थापित करती है.













पुस्तक- मुक्तिबोध : एक व्यक्तित्व सही की तलाश में

लेखिका- कृष्णा सोबती


प्रकाशक- राजकमल प्रकाशन,  नई दिल्ली

प्रथम संस्करण-2017


मूल्य- रू.- 495

एक कवि के रूप में मुक्तिबोध इस मायने में अद्वितीय हैं कि उनके द्वारा अभिव्यक्त सच्चाई, आज के उलझे और जटिल समय में अधिक सचअधिक भयावह और क्रूर होकर हमारे सामने है. क्या कविता में आत्मसंघर्ष कम हुआ है और वह जन प्रतिबद्धता से दूर हुई हैजैसा कि लेखिका कृष्णा सोबती जी ने एक जगह लिखा है- विचारधारा कोई भी हो,वह अपनी सजगता में अपने समय को देखने से कतराए नहीं.यह पुस्तक इन्हीं सवालों और कारणों की वज़ह से भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह हमारे समय में मुक्तिबोध की अनिवार्य उपस्थिति को रेखांकित करती है. हिंदी कविता ने अपने आधुनिक दौर में लेखकीय ईमानदारी में कभी अभिव्यक्ति के खतरेऔर जोखिम उतने नहीं उठाए जितने मुक्तिबोध ने अपनी कविता और वैचारिकी तथा जीवन सभी में उठाए -

      

देख

मुझे पहचान

मुझे जान

देखते नहीं हो

मेरी आग

मुझ में

जल रही

अब भी  !


पुस्तक के आरंभ में ये परिचयात्मक पंक्तियां मानों मुक्तिबोध की संपूर्ण काव्य- यात्रा में उनके अनथक व्यक्तित्व को अत्यंत मजबूती से स्थापित करती है जो आत्मसंघर्ष के रूप में उनकी काव्य चेतना का केंद्रीय शब्द और विचार बना हुआ है.उनकी कविताओं मे कोई तात्कालिक संभावनाएं  नहींअपितु दुख:, विषाद और बेचैनी का तीक्ष्ण, बीहड़ तथा गहन अँधेरा है जो मानवीय अस्मिता के अंतर्विरोधों और अंत:संघर्ष से उत्पन्न हुआ है. सोबती जी लिखती हैंमुक्तिबोध स्वंय अपनी सोच के अँधेरों से आतंकित होते हैं. फिर उजालों को अपनी रूह में भरते हैं. अपनी आत्मशक्ति की प्रखरता को जांचते हैं और मुक्तिबोध से आत्मबोधी बन जाते हैं.यह कथन मुक्तिबोध की समस्त काव्य चेतना और रचनाशीलता का केंद्र कह जा सकता है –

बशर्ते तय करो


किस और हो तुम, अब

सुनहले उधर्व आसन के

निपीड़क पक्ष में, अथवा

कहीं उससे लुटी,टूटी

अ‍ॅँधेरी निम्न कक्षा में तुम्हारा मन

अचानक आसमानी फासलों में से

चतुर संवाददाता चाँद ऐसे

मुस्कराता है.


पुस्तक में अलग-अलग टिप्पणियों और शीषर्कों के अंतर्गत एक कवि के साथ-साथ विभिन्न संदर्भों में उनका वैचारिक और बौद्धिक व्यक्तित्व भी उभर कर पाठकों के सामने आता है. इस रूप में कविता की मन:स्थितियों के अँधेरों -उजालों के बीचों बीच तैरता मुक्तिबोध का आक्रामक आत्मविश्वास इन काव्य पंक्तियों को कुछ ऐसे गतिमान करता है कि इनके जीवंत अक्स सीधे पाठक की अंतसचेतना को उद्वेलित करते हैं. यथार्थ की अनेक अँधेरी तहों को खोलते हुए वे जिस प्रखर सत्य को खोज निकालते हैं और अपने समय की जिस मनुष्य विरोधी शक्तियों और वृतियों की शिनाख्त उस समय करते हैं वे हमारे समय और समाज में भी अपनी पूरी भयावहता में सच होकर असहनीय रूप में उपस्थित हैं.


मुक्तिबोध यह सब किसी बँधे-बँधाए शिल्प और शैली में नहीं करते ,बल्कि अपनी स्वाभाविक भंगिमाओं की तर्ज में अपनी कविता के भाव और कथ्य को अंजाम देते हैं. उनकी कविता का वैशिष्टय उनका विचार पक्ष है जो व्यक्ति और समाज के ऐन बीचों बीच की जटिलताओं में से गुजरता है जहां उनकी रचनात्मक मानसिकता का अद्भुत विस्तार है-


बात अभी  कहाँ पूरी हुई है

आत्मा की एकता में दुई है

इसीलिए

स्वंय के अँधेरों के शब्द और

टूटी हुई पंक्तियाँ

व उभरे हुए चित्र

टटोलता हूँ उनमेकि

कोई उलझा, अटका हुआ सत्य

कहीं मिल जाए

उलझन में पड़ा हूँ

अपनी ही धड़कन गिनता हूँ


पुस्तक की अनेक टिप्पणियाँ और शीर्षक जैसे गतिमति और व्यक्तिमत्ता,पुनर्रचना, तह के नीचे,बूँद-बूँद, विचार-प्रवाह, मानव-मूल्य और पक्षधरत,संघर्ष जुड़े रहे हैं,जुड़ाव,समय से मुठभेड़, अंतर्विरोधों की पहचान,उन्हें टेरते हैं,रहस्यमय आलोक अनगिनत आयामों में मुक्तिबोध की रचनात्मक यथार्थ दृष्टि को प्रतिबिंबित करती हैं. भारतीय लोकतंत्र के जरूरी सवालों पर उनकी गहरी बेचैनी से उत्पन्नराजनीतिक सवाल उतने ही आज भी प्रासंगिक माने जा सकते हैं-


अपने लोकतंत्र में

हर आदमी उचककर चढ़ जाना

चाहता है

धक्का देते हुआ बढ़ जाना

चाहता है


लोकतंत्र में लेखकों, कलाकारों और बुद्धिजीवियों के नैतिक दायित्व के विषय मे उनकी दृष्टि स्पष्ट हैं.एक आत्मालोची कवि के रूप में मुक्तिबोध में मध्यवर्गीय महत्वाकांक्षाओं की दुविधा कभी नहीं रही. अपने आत्मसंशय,आत्मसंवाद और  आत्मिक बेचैनी को जिस जिम्मेदारीनिर्ममता और कठोरता से वे अभिव्यक्त करते हैं वह हिंदी कविता में दुर्लभ है-

  

अब तक क्या किया

जीवन क्या जिया

ज्यादा लिया और दिया कम

मर गया देश

अरे जीवित रह गए तुम.


मुक्तिबोध पहले ऐसे कवि हैं जो पाठक-समीक्षक को प्रश्न करने के लिये उकसाते हैं क्योंकि उनकी जनपक्षधरता और प्रतिबद्धता स्पष्ट है‌-


जीवन के प्रखर समर्थक से जब

प्रश्नचिन्ह बौखला उठे थे दुर्निवार


सोबती जी की एक महत्वपूर्ण टिप्पणी इस पुस्तक की समग्र चेतना और कथ्यको समग्रता में आत्मसात कर लेती है, जिसे आवरण पृष्ठ पर भी दिया गया है-


“उनकी कविता का आत्मिक मात्र कवि के गहन आन्तरिक संवेदन में से ही नहीं उभरता. शब्दों में गठित वह बाहर की बड़ी दुनिया से जुड़ी व्यक्तित्व चेतना का अंग भी बन जाता है.एक ओर मुक्तिबोध का सजग,सशक्त और किसी हद तक जिद्दी पक्ष है और दूसरी ओर उनकी रचनाशीलता को घेरे हुए इस धरती का बृहत्तर दृश्यव्य है.


आलोचक की ठंडी अंतर्दृष्टि से हटकर साहित्य का साधारण पाठक मुक्तिबोध की पंक्तियों में उस मानवीय ताप को भी महसूस करता है जो इनसानी नस्ल को हजारों-हजार साल से सालता रहा है. इनसान और इंसान के बीच बराबरी का वह महत्वाकांक्षी रोमांस जिसके साथ मानवता के संघर्ष जुड़े रहे हैं.”


पुस्तक के अंतिम पृष्ठों में हिंदी की प्रसिद्ध साहित्यिक-वैचारिक पत्रिका कल्पनाका भी विशेष रूप से उल्लेख किया गया है जिसमें मुक्तिबोध की कालजयी कविता अँधेरे मेंसबसे पहले प्रकाशित हुई. जिसने सदी के साहित्यिक विस्तार पर शिल्प और कथ्य के नए मुहावरे के साथ एक अमिट हस्ताक्षर के रूप में उन्हें स्थापित कर दिया. और अंत में मुक्तिबोध के जीवन के अंतिम दिनों और एम्स अस्पताल में उनकी मृत्यु  और उस अविस्मरणीय समय  का भी अत्यंत भावुक प्रसंग दिया गया है जो पाठक को अंतर्मन कों गहरे व्यथित कर देता है मानों कविताओं की तरह अँधेरा और तिलिस्मी खोह का धुंधलका यहां भी उनका चिरसाथी बन गया है.

(Courtesy : Phpotograph by VipinKumar/HT)


पुस्तक की भाषा पठनीय, प्रवाहमान और एक विलक्षण ताजगी से परिपूर्ण है.  यहां लेखिका सोबती जी के भाषा-संस्कार का घनत्व, समृद्ध जीवतंता और प्रांजलता के साथ संप्रेषणीयता का वही शिल्प और कौशल विद्यमान है जो उनकी  सघन लेखकीय अस्मिता की पहचान रही है. उनके अनुसार  मुक्तिबोध का लेखन समय को लांघ जाने वाला कालातीत लेखन है जो इस पुस्तक में जीवनके प्रति आस्थावान प्रत्येक व्यक्ति की तरह निष्पक्ष, निर्मल और निर्मम सत्य के रूप में पाठकों के लिये उजागर होता है. पुस्तक में कवि मुक्तिबोध के कुछ दुर्लभ छाया-चित्र भी दिये गये हैं जो हिंदी साहित्य की महत्वपूर्ण उपलब्धि के रूप में पुस्तक को संग्रहणीय बनाते है. पृष्ठ सज्जा की शैली भी नवीन और कलात्मक है और पंरपरा की लीक से हटकर अभिव्यक्ति के का नया स्वरूप प्रस्तुत करती है.



आज आधी सदी के बाद भी मुक्तिबोध की कविताएँ पाठकों के अंतर्मन को उद्वेलित करती हैं. क्योकि वे सभी त्रासदियों, संघर्षों और अंतर्द्वंद्वों के बीच जूझते मनुष्य की बात को स्पष्ट और दो टूक कहती हैं. यह ऐसी कला है  जिसमें  बाहर और भीतर के विभाजन आसान नहीं थे और रूप, शिल्प , वस्तु के अलग-अलग पैमाने नहीं थे. उनका यह आत्मसंघर्ष यथार्थ के साथ रहते हुए पंरपरागत सौंदर्यशास्त्र के मानकों का अतिक्रमण कर जाता है. उनकी कविताएँ अपने होने का इस हद तक जोखिम उठाती थीं कि पुराने सभी प्रतिमानों को ध्वस्त कर देती हैं. उनका काव्य राष्ट्र से संवाद करता दस्तावेज़ है. मुक्तिबोध जिसे लिख रहे थे वह भविष्य का यथार्थ था. आत्मग्लानि और अपराधबोध के समकालीन दौर  में ये कविताएँ पढने वाले पाठकों- आलोचकों को उद्विग्न व अशांत कर देती हैं. 

उनकी लँबी कविताएँ अभी भी हमारे धैर्य, एकाग्रता और वैचारिकता का निरंतर इम्तहान लेती हैं. यह कविताएँ अपने पाठकों से स्वंय में बहुत गंभीरता और पाठ के बाद कई पुनर्पाठ करनें के लिए उकसाती हैं. उनकी कविताएँ अभिजात रुचि संपन्न आलोचना, आत्ममुग्ध- रचनाशीलता,कलात्मक स्वप्न तंद्रा और हमारी गैर- द्वंद्वात्मक चेतना पर आघात करते हुए फिर से बेचैन कर देती हैं और चिंतकों-विचारकों के लिये समस्या उत्पन्न करती हैं. आत्मसंघर्षअभी भी उनके संपूर्ण लेखन और काव्य का केंद्रीय शब्द और विचार बना हुआ है. 

वास्तव में मुक्तिबोध स्वंय में एक प्रखर सत्य और परम अभिव्यक्ति आत्मसंभवा की खोज हैं जिसकी तलाश हम सभी को है. इस मायने में भी यह पुस्तक नये रूप से उनका एक गहन आलोचनात्मक पुनर्पाठ भी तैयार करती है.

______________
मीना बुद्धिराजा

प्राध्यापिका-हिंदी विभाग, अदिति कॉलेज , दिल्ली विश्वविद्यालय

संपर्क- 9873806557

मंगलाचार : ज्योति शोभा (कविताएँ)

$
0
0

























(फोटो आभार - rehahn )


ज्योति  शोभा की कविताएँ टूटे हुए प्रेम की राख से उठती हैं. ‘देख तो दिल कि जाँ से उठता है /ये धुआँ सा कहाँ से उठता है’बरबस मीर याद आते हैं. तीव्रता तो है पर इसे और सुगढ़ किया जाना चाहिए. उनकी आठ कविताएँ .




ज्योति  शोभा  की  कविताएँ                   









1)       
तुम्हारी शक्ल मुझसे मिलने लगी है कोलकाता

अपनी छोटी सी देह में

मैनें संभाल कर रखी है तुम्हारी नग्न उंगलियां

उनसे झरते शांत स्पर्श


देखो कोलकाता

तुम सुख नहीं दे सकते

मगर मैं नाप सकती हूँ तुम्हारे सभी दुःख

रोबी को दिया तुमने विराट भुवन

मुझे अपना घर

इसी छोटे से गुलदान में

मैंने सजा दी है अपनी वेदना


कविता की तरह

जादू होता है यहाँ रहते

तपने लगती है मेरी पिंडलियाँ

हंसों के रेले छपाके से उड़ते हैं मेरे कपोलों से

दिन, दिन से नहीं बीतते

उनसे आती है एक महीन जलतरंग


रात जमा होती है नाभि पर

एक पर गिरती एक और बूँद

इन्हीं अनगिन पोखरों को पार करते

मछुआरों की छोटी डोंगियों में मिलती है

मुझे तुम्हारी गर्म, तिड़कती सांस


याद आता है मुझे

मेरा प्रेयस बाजुओं की ठंडी जगह पर रखता था अपने लब


कोलकाता, तुम कितना प्यार करते हो

बगैर बारिश के भी रखते हो तर मुझे

मैं चाहती हूँ तुम ले लो अब

मेरे उस बिसरे प्रेमी की जगह.




२)
तुम्हें पता नहीं

कितने मौसम चाह रहे हैं

मुझे ध्वस्त करना

मुझे प्रेम करते हुए ध्वस्त करना

मैं मुस्कुराती हूँ

तुम्हारा शुक्रिया है

तुम ये कर चुके हो पहले ही.





३)
एक लम्बी , कत्थई ट्रेन जाती है यहाँ से

तुम्हारे शहर

मैं नहीं जा सकती


एक नाज़ुक पत्ती , टूट कर

उड़ जाती है तुम्हारी खिड़की की ओर


मैं रह जाती हूँ

मचलकर

ये सांझ , ये पुरवाई

सब लाती है

एक आदिम सी व्यथा

जाने कवि कैसे लिखते हैं इसे

शब्दों से

ढक कर.





४)
मैं चोरी कर लाती हूँ तुम्हारे लिए

अपने गाँव की नदी, महुए का पेड़ और चुप चलती

कच्ची पगडंडियां

तुम चाहते हो मेरी चटकती धूप

मैं तुम में छाँह चाहती हूँ

खोये हुए प्रेम में कलेश जैसा कुछ नहीं होता.







५)
तुम आओगे जब तक

ख़त्म हो जाएंगी नज़्में

फिर ये पत्ते जो उड़ उड़ कर

बिखरे हैं सहन में

किसे आवाज़ देंगे

तुमको कोई और भी पुकारता होगा

मेरे सिवा

एक बार कहो नज़्मों से मेरी

ज़िन्दगी तवील है

मोहब्बत के सिवा

कुछ और भी करें.





६)
समस्त नक्षत्रों की शय्या किये

जो सोया है निर्विघ्न

उसे नहीं गड़ते

मेरी ग्रीवा को चुभते हैं

कुश के कर्णफूल

चंपा के हार खरोंचते हैं मेरा हृदय

मेरे मन को क्षत करते हैं लोकाचार के मन्त्र

मुझ में इतना शोक रहा

कि आ गयी अपनी देह उठाये शमशान तक

कठोर हुए मेरे

शव को अब अग्नि चाहिए

पर कैसा प्रेमी है वो

समस्त अग्नि कंठ में धारे कहता है

आओ प्रिये

सोवो मेरी तरह

कचनार पुष्पों पर , बिल्व पत्रों पर

क्लान्त मेरे चर्म पर

विस्मित सुरभि हो कर.






७)
जब कोई तेज़ी से बजाता है तुरही

मैं जान जाती हूँ

कोई मांगलिक कार्य संपन्न होने वाला है

शायद लौट आने वाला है प्रेमी

शायद खुलने वाली है

अधरों की गिरह

युद्ध का ख्याल नहीं आता

कतई नहीं.








८)
ये कैसे मंदिर हैं
जो स्वप्न में निर्जन द्वीपों की तरह आते हैं

उनकी मूर्तियों पर सिर्फ पत्ते रह गए हैं

मेमनों के मुंह से छूटे हुए

नितम्बों पर लकीरें हैं

कमल नालों की

सिन्दूर की धार बनी पड़ी है स्तनों के मध्य

जिन पर साफ़ दिखाई देते हैं समूचे संसार के जल को ढो रहे

चींटों के झुण्ड

उठो तो , उठो

कौन कसेगा इनके लहंगों की नीवी

कौन बाँधेगा पुष्पों की मेखला कटि पे

कौन तो उँगलियों से सरकते पारिजात के कंगन थामेगा

इनके पुजारी को कौन जगायेगा

जो सो रहा है मद के नशे में चूर

इस मंदिर को किसी दिन खोज निकलेगा कोई पुरातत्वेता

जल्दी उठो

एक खंड गिर गया है देखो

जहाँ से संसार को दिख जायेगी उसकी प्रीति

क्या नहीं हो सकते तुम खड़े उस जगह

कैसे तो अनुरागी हो

अंकपाश के चिन्ह को ढकना नहीं जानते अंकपाश से.

______

ज्योति शोभा अंग्रेजी साहित्य में स्नातक हैं. 

"बिखरे किस्से"पहला कविता संग्रह है. कुछ कविताएं राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय संकलनों में भी प्रकाशित हो चुकी हैं.

jyotimodi1977@gmail.com


अम्बरीश की बारह कविताएँ (पंजाबी)

$
0
0


























हिंदी में अनूदित पंजाबी कविताओं की इस श्रृंखला में अपने गुरप्रीत, बिपनप्रीत और भूपिंदरप्रीत की कविताएँ समालोचन पर पढ़ी हैं.  इस क्रम में आज अम्बरीश की बारह कविताओं का अनुवाद आपके लिए प्रस्तुत है. मूल पंजाबी से इनका अनुवाद रुस्तम और तेजी ग्रोवर ने किया है.


इस श्रृंखला का व्यापक स्तर पर स्वगत हुआ है. अंग्रेजी के प्रतिष्ठित पत्र ‘The Hindu’ में Shafey Kidwaiने अपने चर्चित स्तम्भ में भूपिंदरप्रीत की कविताओं की चर्चा की है.








अम्बरीश  की  बारह  कविताएँ(पंजाबी)                         

मूल पंजाबी से अनुवाद : हिन्दी कवि रुस्तम और तेजी ग्रोवर





प्रेम में
हल्की पीली रोशनी में लिपटा
भरपूर खिला अमलतास हूँ
गुंजारता
हज़ारों भँवरों की
गुंजार से
महकता
मद्धिम मीठी
अमलतासी महक से
घने बाग में और वृक्षों में
घिरा भी, अकेला भी हूँ
शिखर बहार पे हूँ
पूरे रंग निखार में हूँ
प्रेम में हूँ.



यह आना भी क्या आना हुआ !
न आकाश मृदङ्ग जैसे बजा
न धरती अपनी धुरी पे डोली
न रात ही
बांध कर घुंघरू नाची
न फ़िज़ा में गूंजते
साधारण शब्दों ने
मन्त्र बन
माहौल को मुग्ध किया
न घर ही मेरा
सैंकड़ों दीपों वाला
बौद्ध-मन्दिर हुआ
यह आना भी तुम्हारा
क्या आना हुआ !





रोटी
तवे से ताज़ा उतरी गंदमी
गर्म, नर्म, गुनगुनी
मीठी महक वाली
छोटी गोल रोटी
रात्रि-नीले
आकाश में
पूरे चाँद से
सोने की डली से
हीरे की कणी से
दुनिया के सब से
सुन्दर फूल से
समस्त जनों के
समस्त पेटों की तृप्ति जितनी
लुभावनी  सुन्दर  मोहिनी
छोटी गोल रोटी.




चिन्ता
उमड़-उमड़ कर
घनी काली भरी भारी
घटा चढ़ी है
झम... झमाझम
झम... झमाझम
मेघ बरस रहा है
प्यास मिट्टी की मिट रही है
रंग पेड़ों के
निखर रहे हैं
और एक मैं हूँ कि
चिन्ता सूखे की
करने भी लगा हूँ.




घर तेरे बिना
तीखापन, ताज़गी नहीं
उड़द की दाल में
पके चावलों में
धरती की बास नहीं

फ्रिज में पड़ी चीज़ों से 
गन्ध की तरह उड़ता है ख़तरा
भभक कर जलता है
चूल्हा गैस का

रसोईघर में
कुछ बोलता नहीं नल
घण्टे भूल गए हैं अपनी चाल
घर कर्फ्यू में बंधा
कोई शहर लगता है
या बीच समुद्र में रुकी खड़ी
पाल वाली नाव
हवाओं के फिर चलने की
प्रतीक्षा करती है.




पत्नी के लिए कविता
पुरानी बासमती जिस तरह
जैसे-जैसे पुरानी होती है
पकने पर दाना-दाना खिल जाती है
खुशबू आँगन, मुंडेरें लांघ जाती है

समय के साथ जैसे
मीठे हो जाते हैं
और भी चावल
और खाते वक़्त
कौर मुँह में घुल जाता है

इसी तरह
साथ-साथ हम
पुराने हुए हैं.






अचार
मर्तबान में है भर रही
आम की
खट्टी रसीली
महकती फाँकें --
मेरी बीवी अचार डाल रही है
और पता नहीं क्यों
अच्छा लगता है मुझे
गहरे कहीं लगता है
कि ठीक-ठाक ही रहेगा
अगला बरस भी

चाहे पता है मुझे
कि गिरगिट होता है बिल्कुल
आने वाला कल
फिर भी अच्छा लगता है
यूँ देखना उसे --
जैसे सहेज-सम्भाल रही हो
अनदेखे समय को
और डली-डली, फाँक-फाँक
भर रही हो मर्तबानों में
स्वाद सुरक्षित और शान्त

अचार डाल रही है मेरी बीवी --
महफूज़ कर रही है
पूरा बरस एक.




बहार : कुछ शब्द-चित्र
यह जो कोंपलों में आग है
हौले-हौले मन्द पड़ जाएगी
बिछुड़ने के दुःख की तरह


*      
बूढ़ा बरगद
चुप्पी साधे देखता है
बालिश्त-भर सफेदा
रगड़कर बड़ा होता है
आकाश छूना चाहता है


*                          
सदियों से
हर बहार
वही प्रश्न
कलियाँ बन फूटते हैं


*        
हर सुबह कोई
एक और हरी तितली
नंगी भूरी शाख पे
बिठा जाता है


*            
पड़ोस के वृक्ष की टहनियों पे
पत्ते उग रहे हैं इन दिनों --
बहार की इस रात की
गहन निस्तब्धता में
धीमे-धीमे उभरते हैं
स्वर होरी के


*
कोई नाज़ुक हाथ
टहनियों पर
इकेबानासजाता है



खुली और खाली जगहें
फूल अच्छे लगते हैं मुझे
और खुली और खाली जगहें
धूप के मैदान और
विस्तार घनी छाहों वाले
और पक्षियों के गीतों से
गूंजती हुई सुबहें

यूँ चाहता हूँ मैं इस सब को
जैसे अति सुन्दर किसी देह को
लगता है तृष्णा कोई
अनबुझी चली आ रही है
कई जन्मों से

यह शहर तो
बहुत इधर की
बहुत बाद की बात है
पहले तो सिर्फ़
खुली और खाली जगहें थीं
घाटियाँ, मैदान थे
घने, सांवले दरख्तों के
झुण्ड
जंगल बियाबान थे

और उनमें
कूदता, दौड़ता उन्मुक्त
मैं





केले बेचती औरत
सुबह गुज़रा था यहाँ से
तो धूप गुलाबी अभी
पेड़ों की चोटियों पर
पहुँची ही थी
साये लम्बे थे अभी
और टोकरी में सजे
केलों का रंग सुनहरी था
और चित्ती उनकी अदृश्य थी

शाम फिर गुज़रता हूँ वहीं से
धरती अपनी धुरी के चौफेरे
आधा चक्कर घूम गयी है
और छिलकों पर चित्ती
कालिख़ बन चुकी है

और यह औरत है
कि अब भी
आधी भरी टोकरी के सामने
वैसे ही
उसी मुद्रा में बैठी है






बहनें
मेरे घर से उनके घर का
फासला बहुत है
कभी मैं खिड़की में से
देख रहा होता हूँ बाहर
तो दिख जाती हैं वे
अपने आँगन में चलतीं

छोटी सबसे लम्बी है
बड़ी छैल-छबीली
देखते ही बनती है उसकी चाल की मटक
कभी देखती नहीं वह किसी की तरफ़
निकल जाती है पास से अनजान बन
आँखें उसकी, चेहरा कहते :
पैरों में बिछी है सारी दुनिया !
इसी साल हुई है वह सोलह बरस की
इसी साल हुई है वह कालेज में दाखिल

बड़ी सबसे
छोड़ चुकी है कब से स्कूल
रोज़ करती है
भतीजे-भतीजियों को तैयार
रिक्शे में बिठाती है
फिर करने लगती है इंतज़ार
मुहँ-माथा, नक्श उसके
हो रहे है उसकी माँ सरीखे

मँझली के बाल
काले, बहुत घने हैं
वह भी घर के अन्दर-बाहर
करती ही होगी कुछ
नाक ज़रा लम्बी, तनिक मोटी है वह
पर सुन्दर बहुत है
बड़ी जँचती है उसकी नाक में नथिनी
यौवन की है चमक अभी
चेहरे पे उसके

खिड़की में खड़े मुझे
दिख जाता है बाबुल उनका
जो है नहीं किसी भी
महल का मालिक
सुन जाती है मँझली की
घुंघरुओं सी खनकती हँसी

दिख जाती है कभी
सब से छोटी की सिकन्दरिया चाल
दिख जाती है सब से बड़ी कभी
लटकी हुई घर के बाहरी दरवाज़े पर
मोटे पुराने ताले की तरह
जिसकी गुम हो चुकी हो चाभी

और वह सारे सफ़ेद घोड़े
जो पटक छोड़ आये होते
पता नहीं कहाँ
अपने पे सवार राजकुमार
आकर इकट्ठे होते हैं मेरे अन्दर
हिनहिनाते
ऊधम मचाते




घास
घास अच्छी लगती है मुझे
हर जगह उग आती है
और उन जगहों पर भी
उगता नहीं जहाँ कुछ भी और

उग आती है वह
फुटपाथों की कंक्रीट-पट्टियों के बीच से
अनगिनत पैरों के नीचे
कुचले जाने के बाद भी

पहले 
उन पट्टियों के चारों ओर
किनारियाँ बुनती है
धीरे-धीरे फिर
घेर लेती, लपेट लेती है उन्हें
और मिलते ही अवसर
छिपा लेती है
समो लेती है अपने भीतर
घास
कंक्रीट की पट्टियों को

सूरज तक पहुँचने की चाह में
सदा जिरह्बख्तर में से
कमज़ोर बिन्दु तलाशती
नमी के मात्र स्पर्श से
हरापन अपना
बरकरार रखती

होने
और होते रहने की
अमर अमिट
हरी लचकीली आदिम प्रवृत्ति वाली

घास
अच्छी लगती है मुझे
---------------------

अम्बरीश (जन्म १९५३) पंजाबी के वरिष्ठ और समकालीन परिदृश्य में अत्यंत महत्वपूर्ण कवि हैं. उनके छह कविता संग्रह और एक यात्रा वृत्तांत प्रकाशित हुए हैं. छठा संग्रह अभी हाल ही में २०१८ में आया है. वे अमृतसर में बच्चों के डॉक्टर हैं.


कथा - गाथा : हत्यारे (अर्नेस्ट हेमिंग्वे) : सुशांत सुप्रिय

$
0
0
  
1954 के साहित्य के लिए नोबल पुरस्कार से सम्मानित कथाकार अर्नेस्ट हेमिंग्वे (Ernest Miller emingway:July 21, 1899 – July 2, 1961)  की  1927 में प्रकाशित चर्चित कहानी The Killers का हिंदी अनुवाद सुशांत सुप्रिय ने ‘हत्यारे’ शीर्षक से किया है.

इस कहानी पर इसी नाम से 1946  में निर्देशक  Robert Siodmakने फ़िल्म का भी निर्माण किया था.






द किलर्स

हत्यारे                                                   

अर्नेस्ट हेमिंग्वे

अनुवाद : सुशांत सुप्रिय









हेनरी भोजनालय'का दरवाज़ा खुला और दो व्यक्ति भीतर आए. वे एक मेज़ के साथ लगी कुर्सियों पर बैठ गए.


"आप क्या लेंगे ?” जॉर्ज ने उनसे पूछा.

पता नहीं, ”उनमें से एक ने कहा.” अल, तुम क्या लेना चाहोगे ?"

"पता नहीं,” अल ने कहा. "मैं नहीं जानता, मैं क्या लूँगा."


बाहर अँधेरा होने लगा था. खिड़की के उस पार सड़क की बत्तियाँ जल गई थीं. भीतर बैठे दोनों व्यक्तियों ने मेनू-कार्ड पढ़ा. हॉल के दूसरी ओर से निक ऐडम्स उन्हें देख रहा था. जब वे दोनों भीतर आए, उस समय वह जॉर्ज से बातें कर रहा था.


"मैं सूअर का मुलायम भुना हुआ गोश्त, सेब की चटनी और आलू का भर्ता लूँगा,” पहले आदमी ने कहा.


"यह सब अभी तैयार नहीं है."

"तो फिर तुमने इसे मेनू-कार्ड में क्यों लिख रखा है?”

"यह रात का खाना है,”जॉर्ज ने बताया.”यह सब आपको छह बजे के बाद मिलेगा."


जॉर्ज ने पीछे लगी दीवार-घड़ी की ओर देखा.


अभी पाँच बजे हैं."

"लेकिन घड़ी में तो पाँच बज कर बीस मिनट हो रहे हैं,”दूसरे आदमी ने कहा.


"घड़ी बीस मिनट आगे चल रही है."

"भाड़ में जाए तुम्हारी घड़ी,” पहला आदमी बोला. "खाने के लिए क्या मिलेगा?"
"मैं आप को किसी भी तरह का सैंडविच दे सकता हूँ,” जॉर्ज ने कहा. ”मैं आप को सूअर का सूखा मांस और अंडे, या सूअर का नमकीन मांस और अंडे, या फिर टिक्का दे सकता हूँ."


"तुम मुझे मुर्ग़ का मांस, भुनी हुई मटर, क्रीम की सॉस और आलू का भर्ता दो."

"यह सब रात का खाना है."
"हमें जो भी चीज़ चाहिए, वह रात का ख़ाना हो जाता है ? तो ऐसी बात है !"
"मैं आप को सूअर का सूखा मांस और अंडे, सूअर का नमकीन मांस और अंडे, कलेजी--"
"मैं सूअर का सूखा मांस और अंडे लूँगा,” अल नाम के आदमी ने कहा. उसने एक टोपी और लम्बा कोट पहना हुआ था जिसके बटन उसकी छाती पर लगे हुए थे. उसका चेहरा छोटा और सफ़ेद था और उसके होंठ सख़्त थे. उसने रेशमी मफ़लर और दस्ताने पहन रखे थे.

"मेरे लिए सूअर का नमकीन मांस और अंडे ले आओ,” दूसरे आदमी ने कहा. क़द में वह भी अल जितना ही था. हालाँकि उनके चेहरे-मोहरे अलग थे पर दोनों ने एक जैसे कपड़े पहन रखे थे, जैसे वे जुड़वाँ भाई हों. दोनों ने बेहद चुस्त ओवरकोट पहना हुआ था और दोनों मेज़ पर अपनी कोहनियाँ टिकाए, आगे की ओर झुककर बैठे हुए थे.


"पीने के लिए क्या है ?” अल ने पूछा.

"कई तरह की बीयर है,” जॉर्ज ने कहा.



"मैं वाक़ई पीने के लिए कुछ माँग रहा हूँ.”

जो मैंने कहा, वही है.”

यह बड़ा गरम शहर है,” दूसरा आदमी बोला. "इस शहर का नाम क्या है ?”

सम्मिट."

क्या कभी यह नाम सुना है ?” अल ने अपने साथी से पूछा.

कभी नहीं.”

यहाँ रात में तुम लोग क्या करते हो ?” अल ने पूछा.

वे यहाँ आ कर रात का खाना खाते हैं,” उसके साथी ने कहा. ”वे सब यहाँ आ कर धूम-धाम से रात का खाना खाते हैं !”


हाँ, आपने ठीक कहा.” जॉर्ज बोला.

तो तुम्हें लगता है कि यह ठीक है ?” अल ने जार्ज से पूछा.

बेशक.”

तुम तो बेहद अक़्लमंद लड़के हो, नहीं ?”

बिल्कुल,” जॉर्ज ने कहा.

लेकिन तुम अक्लमंद नहीं हो, समझे ?” छोटे क़द के दूसरे आदमी ने कहा. ”तम क्या कहते हो अल ?”

यह बेवक़ूफ़ है,” अल बोला. फिर वह निक की ओर मुड़ा. ”तुम्हारा नाम क्या है ?”

ऐडम्स.”

एक और अक़्लमंद लड़का,” अल बोला. ”क्या यह अक़्लमंद नहीं है, मैक्स ?”

यह पूरा शहर ही अक़्लमंदों से भरा हुआ है,” मैक्स ने कहा.

जॉर्ज सारा खाना लेकर आया और उसे उनकी मेज़ पर रख दिया.

तुम्हारा कौन-सा है ?” अल ने पूछा.


"क्या तुम्हें याद नहीं?”

सूअर का सूखा मांस और अंडे.”

वाह, अक़्लमंद लड़के !”मैक्स बोला. वह आगे की ओर झुका और उसने अपना खाना ले लिया. दोनों बिना अपने दस्ताने उतारे ही खाना खाने लगे. जॉर्ज उन्हें खाते हुए देखता रहा.


तुम इधर क्या देख रहे हो ?” मैक्स ने जॉर्ज से पूछा.

कुछ नहीं.”

झूठे, तुम मुझे देख रहे थे.”

शायद लड़के ने मज़ाक़ में ऐसा किया होगा ,” अल ने कहा. जॉर्ज हँस दिया.

तुम्हें हँसने की इजाज़त नहीं. तुम्हें हँसने की इजाज़त बिल्कुल नहीं है, समझे ?”

ठीक है,” जॉर्ज बोला.

तो यह समझता है कि यह ठीक है,” मैक्स अल की ओर मुड़ा. "यह समझता है कि यह ठीक है. वाह, यह अच्छी सोच है !”

अरे, यह दार्शनिक है,” अल ने कहा. वे दोनों खाना खाते रहे.

उधर बैठे उस लड़के का क्या नाम है ?” अल ने मैक्स से पूछा.

"सुनो , अक़्लमंद लड़के,” मैक्स निक से बोला,” तुम अपने दोस्त के साथ उधर दूसरे कोने में चले जाओ.”

क्या मतलब ?”

कोई मतलब नहीं है.”

फ़ौरन उस ओर चले जाओ, अक़्लमंद लड़के,” अल बोला. निक ने वैसा ही किया जैसा उसे कहा गया था.

आप चाहते क्या हैं ?” जॉर्ज ने पूछा.

तुम अपने काम से काम रखो ,” अल बोला.” रसोई में कौन है ?”

हब्शी है.”


हब्शी से तुम्हारा क्या मतलब है ?”

हब्शी रसोइया.”

उसे यहाँ आने के लिए कहो.”

आप करना क्या चाहते हैं ?”

उसे यहाँ आने वाले के लिए कहो.”

आपको क्या लग रहा है, आप कहाँ हैं ?”


अबे स्साले, हमें अच्छी तरह पता है, हम कहाँ हैं,” मैक्स नाम के आदमी ने कहा.  "क्या हम बेवक़ूफ़ दिखते हैं ?”


तुम मूर्खतापूर्ण बातें कर रहे हो,” अल ने उससे कहा. तुम इस लड़के से बहस क्यों कर रहे हो ? सुनो ,” उसने जॉर्ज से कहा ,” हब्शी को यहाँ आने के लिए कहो.”

आप उसके साथ क्या करने वाले हैं ?”

कुछ नहीं. अपना दिमाग़ इस्तेमाल करो, अक़्लमंद लड़के. हम एक हब्शी के साथ क्या करेंगे?”


जॉर्ज ने हॉल और रसोई के बीच की खिड़की खोल ली.सैमउसने आवाज़ लगा , ”एक मिनट यहाँ आना.”

रसोई का दरवाज़ा खुला और अश्वेत रसोइया हॉल में दाख़िल हुआ.

क्या बात थी ?” उसने पूछा. वहाँ बैठे दोनों अजनबियों ने उस पर निगाह डाली.

ठीक है, हब्शी. तुम वहीं खड़े रहो ,” अल ने कहा. अपने पेट पर कपड़ा लपेटे हुए सैम नाम के उस अश्वेत रसोइये ने उन दोनों की ओर देखा.” जी श्रीमानवह बोला. अल अपनी कुर्सी से उठा.


मैं हब्शी और इस अक़्लमंद लड़के के साथ रसोई में जा रहा हूँ,”उसने कहा. ”चलो, वापस रसोई में चलो, हब्शी. अक़्लमंद लड़के, तुम भी उसके साथ जाओ.” अल उस लड़के और सैम नाम के हब्शी के पीछे-पीछे चलता हुआ रसोई में चला गया. बीच का दरवाज़ा बंद हो गया. मैक्स नाम का आदमी वहीं जॉर्ज के पास बैंठा रहा. वह जॉर्ज की ओर न देखकर पीछे दीवार पर लगे आदमकद आइने की ओर देखता रहा. 'हेनरी भोजनालय'पहले एक सैलून था , जिसे बाद में खाना खाने की जगह में बदल दिया गया था.


हाँ, अक़्लमंद लड़के ,”मैक्स ने आइने में देखते हुए कहा ,”तुम कुछ कहते क्यों नहीं ?”

आप लोग आख़िर चाहते क्या हैं ?”
"अरे, अल ,”मैक्स ने आवाज़ लगाई ,”यहाँ यह अक़्लमंद लड़का जानना चाहता है कि हम लोग आख़िर चाहते क्या हैं ?”
तो फिर तुम उसे बता क्यों नहीं देते,” अल की आवाज़ रसोई में से आई.
तुम्हें क्या लगता है, हम लोग क्या चाहते हैं ?”
मुझे नहीं पता.”
तुम्हारा ख़्याल क्या है ?”

बोलते हुए मैक्स सारा समय आइने में देखता रहा.


मैं नहीं कह सकता.”

अरे अल, यह अक़्लमंद लड़का कह रहा है कि यह नहीं कह सकता कि हम लोग क्या चाहते हैं.”

हाँ, मैं तुम्हें सुन सकता हूँ ,” अल ने रसोई में से कहा. उसने रसोई और हॉल के बीच की खिड़की खोल दी थी. "सुनो अक़्लमंद लड़के,” उसने रसोई में से जॉर्ज से कहा ,"तुम उस तरफ़ थोड़ी और दूरी पर खड़े हो जाओ. मैक्स , तुम थोड़ा बाईं ओर आ जाओ.”वह किसी समूह की फ़ोटो ले रहे फ़ोटोग्राफ़र जैसा लग रहा था.


मुझसे बात करो, अक़्लमंद लड़के,” मैक्स ने कहा ,”तुम्हें क्या लगता है, यहाँ क्या होने वाला है ?”


जॉर्ज ने कुछ नहीं कहा.


मैं तुम्हें बताता हूँ ,”मैक्स बोला.” हम एक स्वीडन-वासी की हत्या करने वाले हैं. क्या तुम उस विशालकाय स्वीडन-वासी ओल एंडरसन को जानते हो ?”

हाँ.”
वह हर रोज़ रात का खाना खाने यहीं आता है , है न ?”
हाँ , वह कभी-कभी यहाँ आता है.”
वह यहाँ शाम छह बजे आता है , है न ?”
हाँ, जब कभी वह आता है.”

वह सब हमें पता है अक़्लमंद लड़के ,” मैक्स बोला.  ”किसी और चीज़ के बारे में बात करो. क्या तुम कभी फ़िल्में देखने जाते हो ?”

कभी-क़भार.”
तुम्हें ज़्यादा फ़िल्में देखनी चाहिए. तुम्हारे जैसे अक़्लमंद लड़के के लिए फ़िल्में देखना अच्छा रहेगा.”
आप ओल एंडरसन की हत्या क्यों करना चाहते हैं ? उसने आपका क्या बिगाड़ा है ?”
उसे इसका मौक़ा ही नहीं मिला. उसने तो हमें देखा भी नहीं है.”
और वह हमें केवल एक बार ही देख पाएगा ,” रसोई में से अल ने कहा.
तो फिर तुम उसे जान से क्यों मारना चाहते हो ?” जॉर्ज ने पूछा.
हम एक मित्र के लिए उसकी हत्या करने जा रहे हैं. केवल एक मित्र पर अहसान करने के लिए, अक़्लमंद लड़के.”

चुप रहो,”अल ने रसोई में से कहा.”तुम स्साले बहुत बोलते हो.”

देखो, मुझे इस अक़्लमंद लड़के का दिल लगाए रखना है. है कि नहीं, अक़्लमंद लड़के ?”

तुम स्साले बहुत ज़्यादा बोलते हो,” अल ने कहा. ”यहाँ हब्शी और मेरे वाला अक़्लमंद लड़का ख़ुद से ही अपना दिल लगाए हुए हैं. मैंने इन दोनों को किसी धार्मिक मठ की दो सहेलियों की तरह पीठ के बल एक साथ बाँध दिया है.”


मुझे लगता है , तुम भी किसी धार्मिक मठ में काम करते थे.”

क्या पता.”
तुम ज़रूर यहूदियों के मठ में काम करते होगे. हाँ, वहीं.”

जॉर्ज ने घड़ी की ओर देखा.


अगर कोई खाना खाने यहाँ आए तो तुम उसे कहना कि रसोइया छुट्टी पर है. अगर वह फिर भी नहीं माने तो तो तुम उसे कहना कि तुम भीतर रसोई में जा कर उसके लिए बना कर कुछ ले आओगे. समझे , अक़्लमंद लड़के ?”


ठीक है ,”जॉर्ज ने कहा.”बाद में तुम लोग हमारे साथ क्या करोगे ?”

वह कई बातों पर निर्भर करेगा,” मैक्स बोला. ”यह उनमें से एक बात है जिसके बारे में तुम पहले से नहीं जान सकते.”

जॉर्ज ने घड़ी की ओर देखा. सवा छह बज चुके थे. तभी भोजनालय का बाहरी दरवाज़ा खुला. एक कार-चालक भीतर आया.


हलो , जॉर्ज ,”उसने कहा.”क्या मुझे खाना मिल जाएगा ?”


रसोइया सैम बाहर गया है ,”जॉर्ज बोला.”वह लगभग आधे घंटे में लौट आएगा.”

ओह, तब तो मुझे आगे किसी दूसरे भोजनालय में जाना चाहिए ,”कार-चालक ने कहा. जॉर्ज ने घड़ी की ओर देखा. छह बज कर बीस मिनट हो रहे थे.

यह तुमने अच्छा किया , अक़्लमंद लड़के , ”मैक्स बोला.”तुम तो बड़े सज्जन निकले.”

अरे, उसे पता था कि अगर वह कुछ और करता तो तो मैं उसकी खोपड़ी उड़ा देता,” रसोई में से अल ने कहा.
नहीं, नहीं,” मैक्स बोला. ”यह बात नहीं है. यह अक़्लमंद लड़का बढ़िया है. यह लड़का वाक़ई बढ़िया है. मुझे यह पसंद है.”

छह बज कर पचपन मिनट पर जॉर्ज ने कहा , ”ओल एंडरसन नहीं आएगा.”


तब तक भोजनालय में बाहर से दो और लोग आए थे. एक बार जॉर्ज रसोई में गया था और उसने सूअर के सूखे मांस और अंडे का सैंडविच बना कर उसे काग़ज़ में लपेटकर उस ग्राहक को दे दिया था जो खाना अपने साथ ले जाना चाहता था. रसोई में उसने टोपी पहने हुए अल को एक कुर्सी पर बैठे हुए देखा था. उसके बग़ल में उसकी पिस्तौल पड़ी हुई थी. निक और रसोइया सैम कोने में पीठ के बल आपस में बँधे हुए थे. दोनों के मुँह में कपड़ा ठूँस दिया गया था. जॉर्ज ने जल्दी से सैंडविच बनाया, उसे काग़ज़ में लपेटा, उसे एक थैले में डाला और बाहर हॉल में आ गया. ग्राहक ने पैसे दिए और खाने का सामान ले कर चला गया ?


मेरे वाला अक़्लमंद लड़का सब कुछ कर सकता है,” मैक्स बोला. ”वह खाना बनाने के अलावा भी बहुत कुछ कर सकता है. तुम किसी लड़की की बढ़िया बीवी बनोगे, अक़्लमंद लड़के !”


अच्छा ?”जॉर्ज ने कहा ,” आपका मित्र ओल एंडरसन अब नहीं आएगा.”

चलो, उसे दस मिनट और देते हैं ,” मैक्स बोला.

मैक्स आइने और घड़ी की ओर देखता रहा. घड़ी ने सात और फिर सात बज कर पाँच मिनट बजाए.


चलो अल ,” मैक्स ने कहा. ”हमें चलना चाहिए. वह नहीं आएगा.”

अरे, उसे पाँच मिनट और देते हैं,” अल ने रसोई में से कहा.

उन पाँच मिनटों में एक और व्यक्ति भोजनालय में आया और और जॉर्ज ने उसे बताया कि रसोइया बीमार हो गया था.


तो तुम दूसरे रसोइये का बंदोबस्त क्यों नहीं करते ?” उस आदमी ने नाराज़ हो कर कहा.”क्या तुम भोजनालय नहीं चला रहे ?” यह कह कर वह बाहर चला गया.


चलो अल, चलते हैं ,”मैक्स ने दोबारा कहा.

इन दो अक़्लमंद लड़कों और इस हब्शी का क्या करें ?”
इन्हें छोड़ दो.”
क्या तुम्हें ऐसा लगता है ?”
हाँ, अब हमें इससे कोई लेना-देना नहीं.”
मुझे यह पसंद नहीं ,”अल बोला.”यह बेढंगा तरीक़ा है. तुम बहुत बोलते हो.”
अबे, छोड़ यार. हमें अपना दिल भी तो लगाए रखना है, है कि नहीं ?”
कुछ भी हो, तुम बहुत बोलते हो,” अल ने कहा.

वह रसोई में से बाहर हॉल में आ गया. उसके चुस्त ओवरकोट की जेब में से उसकी पिस्तौल का उभार साफ़ नज़र आ रहा था. उसने अपने दस्ताने वाले हाथों से उस उभार को ठीक किया.


फिर मिलेंगे, अक़्लमंद लड़के ,”उसने जॉर्ज से कहा.”तुम बेहद किस्मतवाले हो.”

हाँ, यह सच्ची बात है ,”मैक्स बोला.”तुम्हें तो घुड-दौड़ पर पैसा लगाना चाहिए, अक़्लमंद लड़के.”

फिर दोनों भोजनालय के मुख्य द्वार से बाहर निकल गए. जॉर्ज उन्हें सड़क पार करते हुए देखता रहा. अपने चुस्त ओवरकोटों और टोपियों में वे दोनों किसी नाटक-कम्पनी के पात्रों जैसे लग रहे थे. जॉर्ज भीतर रसोई में गया और उसने निक और रसोइये सैम को बाँधने वाली रस्सी खोल दी.


अब मुझे इस सब से कोई लेना-देना नहीं ,” रसोइया सैम बोला.  ”मुझे इस सब से कोई लेना-देना नहीं.”


निक भी खड़ा हो गया. इससे पहले कभी भी उसके मुँह में कपड़ा नहीं ठूँसा गया था.


मैं कहता हूँ ,” वह बोला,” क्या बेहूदगी थी यह.”


वह शेखी बघार कर इस घटना के बुरे अनुभव से उबर जाना चाहता था.


वे ओल एंडरसन की हत्या करने वाले थे ,” जॉर्ज ने कहा. ”जब ओल खाना खाने यहाँ आते तो वे दोनों उन्हें गोली मार देते.”

ओल एंडरसन ?”
हाँ.”

रसोइया अपने अँगूठे से अपने मुँह के किनारों को महसूस कर रहा था.


वे दोनों चले गए ?” उसने पूछा.

हाँ ,”जॉर्ज बोला.”वे दोनों जा चुके हैं.”
मुझे यह बिल्कुल अच्छा नहीं लगा ,” रसोइये ने कहा. ”मुझे यह सब बिल्कुल अच्छा नहीं लगा.”
सुनो,” जॉर्ज ने निक से कहा,”तुम्हें जा कर ओल एंडरसन को यह सब बता देना चाहिए.”
ठीक है.”
लेकिन अगर तुम नहीं जाना चाहते, तो मत जाओ ,” जॉर्ज बोला.

इस लफड़े में पड़ने से तुम्हारा कोई फ़ायदा नहीं होगा,” रसोइये सैम ने कहा. ”तुम इस सब से अलग रहो.”


मैं जा कर उनसे मिलूँगा,” निक ने जॉर्ज से कहा.  "वे कहाँ रहते हैं ?”


रसोइया मुड़ गया.


किशोरों की उम्र में लड़के क्या करना चाहते हैं, उन्हें जैसे सब पता होता है. ”उसने कहा.


वे हर्श के मकान में रहते हैं,” जॉर्ज ने निक से कहा.

मैं वहाँ जाऊँगा.”

बाहर सड़क की बत्तियों की रोशनी पेड़ों की बिन पत्तियों वाली टहनियों के बीच से चमकती दिखाई दे रही थी. निक कारों के पहियों के निशान से भरी सड़क के किनारे-किनारे चलता रहा. अगली बत्ती के पास वह साथ वाली गली में मुड़ गया. तीन मकानों के बाद हर्श का मकान था. निक ने दो सीढ़ियाँ चढ़ कर दरवाज़े पर लगी घंटी बजाई. एक महिला ने दरवाज़ा खोला.


क्या ओल एंडरसन घर पर हैं ?”

क्या तुम उनसे मिलना चाहते हो ?”
हाँ, यदि वे भीतर हैं तो.”

निक उस महिला के पीछे-पीछे कुछ और सीढ़ियाँ चढ़ कर एक गलियारे के अंत में आ गया. महिला ने एक दरवाज़ा खटखटाया.


कौन है ?”

कोई आपसे मिलने आया है , श्री एंडरसन.”
मैं निक ऐडम्स हूँ.”
भीतर आ जाओ.”
(Ernest Hemingway with his son Gregory. USA. October, 1941)






दरवाज़ा खोलकर निक भीतर कमरे में चला गया. ओल एंडरसन बाहर जाने वाले कपड़े पहन कर बिस्तर पर लेटे हुए थे. वे अपने ज़माने में एक नामी मुक्केबाज़ थे और अब भी बिस्तर से ज़्यादा लम्बे-चौड़े थे. उन्होंने अपने सिर के नीचे दो तकिये लगा रखे थे. उन्होंने निक की ओर नहीं देखा.


क्या बात थी ?” उन्होंने पूछा.

मैं  'हेनरी भोजनालय'में था ,”निक ने कहा, ”और दो लोग वहाँ आए. उन्होंने मुझे और रसोइये को बाँध दिया , और वे आपकी हत्या कर देने वाले थे.”

निक को यह कहते समय अपनी बात मूर्खतापूर्ण लगी. ओल एंडरसन ने कुछ नहीं कहा.


उन्होंने हमें रसोई में ले जाकर बाँध दिया,” निक बोलता रहा. ”वे आपको तब मार देने वाले थे जब आप रात का खाना खाने वहाँ आते.”


ओल एंडरसन दीवार की ओर देखते रहे और चुप रहे.


जॉर्ज ने सोचा कि मुझे यहाँ आ कर आपको सब कुछ बता देना चाहिए.”

मैं इसके बारे में कुछ भी नहीं कर सकता,” ओल एंडरसन ने कहा.
मैं आपको उनका हुलिया बताता हूँ.”
मैं उनका हुलिया नहीं जानना चाहता,” ओल एंडरसन ने कहा. उन्होंने दीवार की ओर देखा.”यहाँ आ कर मुझे यह सब बताने के लिए शुक्रिया.”
ठीक है, श्रीमन्.”

निक ने उस लम्बे-चौड़े आदमी को बिस्तर पर लेटे हुए देखा.


क्या आप इसके बारे में जाकर पुलिस से नहीं मिलना चाहते ?”

नहीं,” ओल एंडरसन ने कहा. ”इससे कोई फ़ायदा नहीं होगा.”
क्या मैं इस बारे में किसी भी तरह से आपकी कोई मदद कर सकता हूँ ?”
नहीं. तुम मेरी कोई मदद नहीं कर सकते.”
शायद वे दोनों मज़ाक़ कर रहे थे.”
नहीं. वह कोई मज़ाक़ नहीं था.”

ओल एंडरसन ने दीवार की ओर करवट ले ली.


दरअसल बात यह है कि,"   उन्होंने दीवार की ओर मुँह किए हुए ही कहा, “मैं बाहर जाने के बारे में अपना मन नहीं बना पा रहा हूँ. आज मैं सारा दिन कमरे में ही रहा हूँ.”


क्या आप इस शहर से बाहर कहीं और नहीं जा सकते ?”

नहीं,” ओल एंडरसन ने कहा. अब मैं और नहीं भाग सकता. अब कुछ नहीं किया जा सकता.” उन्होंने दीवार की ओर देखा.
क्या आप अपने बचने का कोई उपाय नहीं कर सकते?”

नहीं. मैं ग़लत जगह पर फँस गया ,”वे उसी सपाट स्वर में बोल रहे थे.” अब कुंछ करने की ज़रूरत नहीं. थोड़ी देर बाद मैं बाहर जाने के बारे में अपना मन बना लूँगा.”


तब तो मुझे जॉर्ज के पास लौट जाना चाहिए,” निक ने कहा.

फिर मिलेंगे,” ओल एंडरसन ने कहा. उन्होंने निक की ओर नहीं देखा. यहाँ आने के लिए शुक्रिया.”

निक कमरे से बाहर निकल गया. दरवाज़ा बंद करते समय उसने बाहर जाने वाले कपड़े पहन कर बिस्तर पर लेटे हुए ओल एंडरसन को देखा जो दीवार को घूर रहे थे.


वे सारा दिन कमरे में ही रहे हैं,” सीढ़ियाँ उतरने पर मकान-मालकिन ने निक से कहा.”श्री एंडरसन, पतझड़ के इतने ख़ूबसूरत दिन आपको बाहर घूम कर आना चाहिए,”   मैंने उनसे कहा भी, लेकिन उनका बाहर जाने का मन ही नहीं था.


जी, हाँ. वे बाहर घूमने नहीं जाना चाहते.”

मुझे अफ़सोस है कि वे ठीक महसूस नहीं कर रहे,” महिला ने कहा. वे बहुत अच्छे आदमी हैं. क्या तुम जानते हो, वे पेशेवर मुक्केबाज़ थे.”

हाँ, मैं जानता हूँ.”

तुम यह बात नहीं जान पाओगे लेकिन उनके चेहरे से पता चल जाता है,” महिला ने कहा. वे दोनों मुख्य दरवाज़े के पास खड़े होकर बातें करते रहे.  "वे बेहद विनम्र हैं.”

ख़ैर, शुभ-रात्रि , श्रीमती हर्श,” निक ने कहा.

मैं श्रीमती हर्श नहीं हूँ,” महिला ने जवाब दिया.  "वे इस जगह की मालकिन हैं. मैं केवल उनके लिए इस जगह की देखभाल करती हूँ. मैं श्रीमती बेल् हूँ.”

ठीक है. शुभ-रात्रि , श्रीमती बेल्.”

शुभ-रात्रि,” महिला ने जवाब दिया.

निक अँधेरी गली को पार करके मुख्य सड़क की रोशनी में लौट आया. फिर वह कार के टायरों के निशानों के बग़ल में चलते हुए 'हेनरी भोजनालय'पहुँच गया. जॉर्ज भीतर वाले बड़े हॉल में मौजूद था.


क्या तुम ओल से मिले ?”

हाँ,” निक ने कहा. ”वे अपने कमरे में हैं और वे बाहर नहीं जाएँगे.”
निक की आवाज़ सुन कर रसोइये ने रसोई और हॉल के बीच की खिड़की खोली.
मैं तो इसके बारे में कुछ भी नहीं सुनूँगा,” उसने कहा और बीच की खिड़की बंद कर ली.
क्या तुमने उन्हें सारी बात बताई ?” जॉर्ज ने पूछा.
हाँ, मैंने उन्हें बताया लेकिन वे इसके बारे में पहले से ही जानते थे.”
अब वे क्या करेंगे ?”
कुछ नहीं.”
वे दोनों उन्हें मार देंगे.”
हाँ, शायद ऐसा ही होगा.”
ज़रूर उन्होंने शिकागो में किसी से दुश्मनी मोल ले ली होगी.”
हाँ, शायद यही बात रही होगी.”
यह बड़ी भयावह बात है.”
हाँ , यह वाक़ई भयावह  है,” निक ने कहा.

कुछ देर वे दोनों चुप रहे. जॉर्ज ने एक गीला कपड़ा ले कर पास की मेज़ को पोंछ दिया.


पता नहीं उन्होंने क्या किया होगा ?”

किसी को धोखा दिया होगा. वे लोग इसी के लिए हत्याएँ करते हैं.”
मैं यह शहर छोड़ कर कहीं बाहर चला जाऊँगा,” निक ने कहा.
ठीक है,” जॉर्ज ने कहा.” ऐसा करना ही ठीक होगा.”
मैं तो यह सोच कर ही काँप जाता हूँ कि कमरे में बिस्तर पर पड़े श्री ओल को सब पता है कि हत्यारे उनकी हत्या कर देंगे. यह एक भयानक जानकारी है.”
ख़ैर,” जॉर्ज बोला.”बेहतर होगा कि तुम इसके बारे में सोचो ही नहीं.”


  --------------------------------------------------------------


सुशांत सुप्रिय
कथाकार, कवि, अनुवादक


A-5001,  गौड़ ग्रीन सिटी,   वैभव खंडइंदिरापुरम,

ग़ाज़ियाबाद - 201010
8512070086/ई-मेल : sushant1968@gmail.com

Viewing all 1573 articles
Browse latest View live




Latest Images