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कथा - गाथा : सिंगिंग बेल : सुभाष पंत

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वरिष्ठ कथाकार सुभाष पंत की समालोचन में प्रकाशित कहानी ‘अ स्टिच इन टाइम’ को पाठकों द्वारा खूब पसंद किया गया है और उनकी दूसरी कहानियों को भी पढ़ने की इच्छा व्यक्त की गयी है. ‘सिंगिंग  बेल’ अकेली स्त्री के जीवट की कथा तो है ही यह अनुपस्थित प्रेमी की स्मृतियों में डूबी उसकी प्रेयसी के बीच घटित प्रेम कथा भी है.
इस प्रभावशाली कहानी के प्रभाव से जल्दी उबरना आसान नहीं है.


सिंगिंग   बेल 
सुभाष पंत



मारिया डिसूजा ने आँखें उठाकर हिलक्वीन की खिड़की से बाहर झांका. काली, गहरी, नम धुंध फैली हुई थी. एक भूरा-काला सैलाब, जिसमें पहाड़ के शिखर, घाटी, पेड़, सड़के और मकान और गिरजाघर सब डूब गए थे.

एकाएक उसके भीतर जैसे कुछ टूट गया. उसने गले में लटकते क्रॉस को उंगलियों से टटोला. हर बार उसने मौसम में छाए कोहरे को देखा था, लेकिन उसमें गिरजाघर पूरी तरह खो गया हो, ऐसा कभी नहीं हुआ.

कोहरा बेआवाज़ शीशों पर नमी की परत की तरह फैल रहा था और एक बेचैन सी आवाज़ के साथ टिन की छत से बूँदों में टपक रहा था.
और बर्फ़ पड़ने का कोई आसार नहीं.

बर्फ़ गिरने से पहले वह उसका गिरना जान लेती है. उसके पैर के तलुवों में गुदगुदी होने लगती है, जैसे उन्हें कोई नाजुक उंगलियों से सहला रहा हो. मौसम कभी चोरी छुपे नहीं आता. वह एक खुली किताब है, जिसके हर पन्ने पर उसका बयान लिखा होता है. बर्फ़ की चादर फैलाता ठंडा कोहरा नसों मे बरस रहा था, लेकिन बर्फ़बारी का कोई आसार नहीं था.

वह उदास हो गई. आदमी ही नहीं, मौसम भी बेईमान हो गए. अनायास उसके मुँह से आह निकली, और वह भाप बनकर हवा में थरथराती रही.

उसने गले में स्कार्फ बांधा और फिरन पहन लिया, जो अब उसके बदन पर तंग था. उसका लाल रंग अपनी आभा खो चुका था. कॉलर और आस्तीनों की सफेद कढ़ाई मटमैली पड़ गई थी और कपड़ा कई जगह से इतना झिरक गया था कि उसकी मरम्मत नहीं हो सकती थी. वह उसे बहुत एतिहात से पहनती, ताकि अपनी अंतिम साँस तक उसे पहनती रह सके. वह उसे अपनी अंतिम साँस तक पहनना चाहती थी....

इसे डेविड काश्मीर से उसके लिए लाया था. चालीस बरस पहले. वह उसे पहन कर निकलती तो बर्फ में आग लग जाती. तब वह बीस साल की खूबसूरत लड़की थी.

उसने चर्च में प्रार्थना खत्म की ही थी कि फ़ादर ने इशारे से उसे अपने पास बुला लिया. वे आत्म-स्वीकार करने वाले मंच के समीप खड़े थे. उनका हाथ खिड़की की जाली पर था, जिसके पीछे गुनहगार अपने गुनाहों पर पश्चात्ताप करते और बाहर अपराध स्वीकार किए जाते. मिसेज मारिया,’’ उन्होंने कहा और उनकी आवाज़ काँप रही थी, ‘ईशू के लिए, आगे ये फिरन पहनकर चर्च में मत आना. मैंने देखा, किसी का भी ध्यान प्रार्थना की पुस्तक पर नहीं था. सब तुम्हें देख रहे थे.’’

यह वक्त की बात है. तब चर्च ने उससे रियायत चाही थी....

वह काठ की सीढ़ियाँ उतरने लगी. कभी खट खट का संगीत हवा में बिखर जाता था, जब वो पैड़ियों से उतरती थी, और अब एक धपधप की आवाज़ हो रही थी. घुन लगा काठ जैसे साँस भर रहा हो....

नीचे उतरते ही अबूझे सन्नाटे ने उसे घेर लिया. कोई आत्मीय जैसे सहसा अनुपस्थित हो गया हो. वह यह जानने के लिए ठिठकी और अगले ही क्षण बेचैन हो गई. निरन्तर बजती लय खामोश थी. उसने निगाह उठा कर देखा. हिलक्वीन की भीतरी दीवारों पर बाहर के कोहरे से अलग दूसरी तरह का कोहरा फैला हुआ था. जंगखाई आत्मा-सा सबकुछ बेआब उदासी में डूबा हुआ और दीवालघड़ी का पैडुलम ठहरा हुआ. उसे अहसास हुआ मानो जीवन की सारी गतियाँ ही ठहर गई हैं. हुकम से यह ग़लती कैसे हुई. वह तो घड़ी में चाबी देना कभी नहीं भूलता था. इस बार कैसे भूल गया?


वह अपना घ्यान बटाने के लिए डस्टर निकालकर कुर्सियाँ और मेजें साफ करने लगी. पिछले दिनों से कोई ग्राहक नहीं आया था, उन पर गर्द नहीं थी, सिवा नमी की एक महीन-सी परत के, जो पता नहीं कहाँ से पसीजकर वहाँ फैली हुई थी. मौसम के हाथों में ठंडे नश्तर थे. और हड्डियाँ काँप रही थीं. एक वक्त था जब वह जानती ही नहीं थी कि ठंड क्या होती है? वह शमीज के ऊपर एक हल्का-सा पुलओवर पहन कर बेलचे से दरवाज़े के बाहर फैली बर्फ हटाकर रास्ता बना देती. तब उसके सुडौल उराजों में अंडे को चूजे में बदल सकने की तपिश थी और मौसम, मौसम था. इतनी बर्फ पड़ती कि जहाँ तक नज़र जाती वहाँ तक के पहाड़ सफेद हो जाते. बर्फबारी के बाद आसमान झक नीला हो जाता और तब वहीं नहीं, बर्फ के हर कतरे में सूरज चमकने लगते.

फ़र्नीचर से नमी साफ करते हुए वह लगातार बहादुर के बारे में सोचती रहीं. आज सुबह लौट आने का वायदा करके वह कल अपने बीमार पिता को देखने गाँव गया था. ऐसे कोहरे में जिसमें चर्च, गुम्बद और गुम्बद पर लटका क्रॉस डूब गया हो, वह गाँव से कैसे आ सकता है, जिसकी पगडंडिया सॅकरी हैं और वे जंगल और खाइयों से गुजरती हैं. एक मन करता वह अभी न आए. कोहरे में खो जाएगा. दूसरा मन चाहता, वह कैसे भी हो, आ जाए. उससे दीवार घड़ी की खामोशी बर्दाश्त नहीं हो रही थी....जो उसकी पहुँच के बाहर की ऊँचाई पर टंगी थी. बहादुर ही मेज पर कुर्सी रखकर उस तक पहुँच सकता था.

ज्यादा समय नहीं बीता कि घंटी घनघनाने लगी. कोहरे की चादर में लिपटा बहादुर था.


तू इतनी सुबह कैसे चला आया. ठंड और कोहरे में, जिसमें हाथ को हाथ दिखाई नहीं देता. किसी खाई-खंदक में गिर पड़ता....मैं तेरे घरवालों को क्या जवाब देती?’’ उसने मीठी फटकार लगाई.

बहादुर ने कोहरे से नीली पड़ गई उंगलियों को आपस में रगड़ा. अपनी छोटी-छोटी आँखें मिचमिचाईं जो ठंड से सिकुड़कर और छोटी हो गई थीं. जवाब में वह सिर्फ एक भोली-सी हँसी हँसा.

ठंड से कैसे काँप रहा है कम्बख्त,’’ मारया ने कहा, “और वो कोट! कोट कहाँ गया?’’

अपराधबोध से हुकम की गर्दन झुक गई.

मारया समझ गई अपने पिता को दे आया है.

वे बूढ़े हैं न! ठंड सहन नहीं कर सकते. मैं जवान हूँ.’’ ठंड से लटपटाती आवाज़ में हुकम ने कहा.

अच्छा, अच्छा, ज्यादा चालाक मत बन. भोटिया बाजार से तेरे लिए दूसरा कोट खरीद दूँगी. और तेरा बाप अब कैसा है?’’
ओझा कहता है ओपरे के असर में है. नरसिंग भगवान की बड़ी पूजा देनी पड़ेगी. ठीक हो जाएगा.’’
अपने बाप को यहाँ ले आ. बिमारी देवता नहीं, डाक्टर ठीक करते हैं, लाटे. कम्युनिटी अस्पताल का बड़ा डाक्टर मेरी जान-पहचान का है. मैं कराउँगी उसका इलाज.’’
हुकम को मेमसाब का नरसिंग महाराज पर विश्वास न किया जाना बुरा लगा. ईसाई हैं. दया तो बहुत है उनके मन में पर वे हमारे भगवानों की ताकत नहीं समझ सकतीं. लेकिन उसने कोई तर्क न करने की जगह पूछा, ‘’चाह बना दूँ मेमसाब आपने पी नहीं होगी.’’
वाकई मारया ने चाय नहीं पी थी. चाय हुकम ही बनाता. वह न हो तो इच्छा के बावजूद वह टाल जाती. क्या झंझट करना. अकेले चाय पीना उसे अच्छा ही नहीं लगता. पी नहीं, तेरा इंतजार कर रही थी. पर तू चाय बाद में बनना पहले घड़ी को चालू का दे, बंद पड़ी है. चाबी देना कैसे भूल गया?’’

चाबी तो दी थी, भगवान कसम. यकीन न हो तो फिर दे देता हूँ.’’ हुकम ने कहा और मेज पर कुर्सी रख कर संतुलन बनाते हुए उस पर चढ़ गया. घड़ी की बगल में कील पर लटकी चाबी निकाली और घड़ी में चाबी भरने लगा. चाबी सरकी ही नहीं. उसने शीशा हटाकर पैंडुलम को हिलाया तो वह कुछ क्षणतक दोलन करने के बाद रुक गया. घड़ी की सुइयाँ हिली तक नहीं. उसने निराशा में सिर हिलाया, “खराब हो गई शैद.’’ और कुर्सी से नीचे कूदकर अपराधी की तरह खड़ा हो गया.
घड़ी की टिकटिकाहट शुरु नहीं हुई लेकिन मारया के भीतर कुछ टिकटिकाने लगा.
बीमार घड़ियों के अस्पताल से इसकी मरम्मत करवा लाना. करनैल होशियार कारीगर है. उसके हाथ का जादू बिगड़ी से बिगड़ी घड़ी को ठीक कर देता है.’’
घड़ीसाज तो दुकान बंद करके मैदान चला गया. ठंड खतम होने पर लौटेगा. मेमसाब आप दूसरी घड़ी क्यों नहीं ले लेतीं. अब सैलवाली घड़ियाँ चलती हैं. चाबी भरने की कोई जरूरत ही नहीं. टैम भी सही बताती हैं. यह तो वैसेई सुस्त चलती है. हर दूसरे दिन कांटा सरकाकर टैम ठीक करना पड़ता है.’’

ज्यादा बकबक मत कर. तुझे जो कहा जाता है....’’ मारया ने उसे झिड़क दिया. वक्त तो वह मसजिद की अजान, गुरूद्वारे की अरदास, मंदिर के घंटों और गिरजाघर की प्रार्थना से भी जान लेती है. लेकिन उसके जीवन की गतियाँ बस हिलक्वीन की जंगखाई दीवार पर टंगी यह घड़ी ही नियंत्रित करती हैं, चाहे सुस्त चले या तेज चले....इसे डेविड लाया था. वह चला गया लेकिन उसे वह हर समय इसमें धड़कते हुए महसूस करती है....

मेमसाब तो उसकी बड़ी गलतियाँ तक नज़रअंदाज़ कर देती थी. आज उन्हें क्या हुआ? और यह तो कोई गलती भी नहीं थी. हुकम को अजीब लगा, बहुत ही अजीब. वह सिर झुकाए चाय बनाने चला गया.

उसने बहुत मनोयोग से मेमसाब की पसंद की चाय तैयार की. ठंड से लड़नेवाली गुड़, अदरख, काली मिर्च की पहाड़ी चाय. काश! तुलसी की पत्ती और ताजा दूध भी होता. तुलसी सर्दियों में सूख जाती है और दूधिए पहाड़ छोड़कर मैदानों में उतर जाते हैं. पाउडर का दूध. उसमें वह मजा कहाँ? लेकिन क्या किया जा सकता है. मौसम; मैदानों में सिर्फ पोशाकें बदलता है, पर पहाड़ तो मौसम के साथ पूरी तरह बदल जाता है.

मारया चाय सिप करने लगी. इतने धीमें धीमें मानों वह चाय नहीं पी रही, चाय उसे पी रही है.

चाय खत्म करके उसने गिलास रखा और अपने सूजे पपोटे उठाकर इस उम्मीद से खिड़की के शीशों से बाहर देखा कि कोहरा छंट रहा होगा. शीशे अंधे हो गए थे. बाहर कुछ भी दिखाई नहीं दिया. सूरज निकल चुका था. उसे भी कोहरे ने निगल लिया था.

मेमसाब ठंडे से आपकी आँखें सूज गई. बोरिक से सेंकने के लिए पानी नमाया कर देता हूँ.’’ हुकम ने कहा.

अचानक अतीत का एक टुकड़ा छिटक कर मारया की सूजी आँखों में जाग गया. डेविड उससे पूछता और अक्सर पूछता, ‘’मालूम है, तेरी क्या चीज सबसे खूबसूरत है?’’

वह मुसकुराते हुए जवाब देती, और अक्सर यही जवाब देती, “एक जवान लड़की की हर चीज खूबसूरत होती है, खासकर उस लड़की की, जो प्यार करना जानती है....’’

वह हँसने लगता, एक ही तरह से हँसता और हर बार लगता और ही तरह से हँस रहा है,
सारी खूबसूरती में भी कुछ ज्यादा खूबसूरत होता है....’’   

वह जानती होती, डेविड क्या कहेगा, फिर भी सुनना चाहती, महाआख्यान की तरह जिनकी सर्वविदित कहानियाँ हर बार ऐसे उत्साह और रोमांच से सुनी जाती हैं जैसे पहली बार सुनी जा रही हों. वह चुप हो जाती और इंतजार करने लगती.

तेरी काली आँखें मारया, जिनके पास जुबान है जो हर वक्त बोलती रहती हैं, जो शोले भी हैं और शबनम भी. झुकती हैं तो आसमान नीचे झुक जाता है और उठती हैं तो धरती ऊपर उठ जाती है.’’

मारया ने अपनी सूजी आँखों में ममता भरते हुए हुकम की ओर देखा, “लगता है, आँख का पानी जमकर बरफ की परत बन गया. इस समय नहीं, रात को याद से कर देना.’’

मेमसाब की आवाज़ से सहसा हुकम छीज गया. उसने झुककर गिलास उठाया और ठिठककर उनके चेहरे की झुर्रियाँ पढ़ता रहा. कोई ऐसी जगह नहीं उस चेहरे में जहाँ से ममता न टपकती हो. फिर उसने अफ़सोस के साथ कहा, ‘’कई दिन से कोई गाहक नहीं आ रहा....’’ और रुक कर फिर मारया के चेहरे को देखने लगा. दरअसल वह जानना चाहता था कि काम जोड़ना होगा या नहीं.

“गाहक और मौत का कोई भरोसा नहीं हुकम. दोनों में कौन कब टपक जाए कोई नहीं जानता. सर्दियों में काम वैसे ही मंदा रहता है. बर्फ पड़ जाती तो गाहकों की भरमार हो जाती. यह होटल का धरम है कि वह तब भी स्वागत में तैनात रहे जब गाहक आने की उम्मीद बहुत कम हो. हिलक्वीन की शाख पर बट्टा नहीं लगना चाहिए. पैसा नहीं, इज्जत बड़ी चीज है. कमस्कम तीन-चार आदमियों का खाना तो तैयार कर ही लेना चाहिए. तू शुरु कर मैं आती हूँ.’’


दोनों ने मिलकर तीन-चार घंटे में सारी व्यवस्थाएँ करलीं. सफाई से लेकर खाना बनाने का काम निबट गया. तीन घंटे कैसे गुजर गए, पता ही नहीं चला गया.

हिलक्वीन आँखें पसारे दस दिन के पहले ग्राहक की प्रतीक्षा करने लगा.

कोहरा छंट गया था. सूरज ने खिड़कियों के शीशों पर फैली नमी की परत को सोख लिया था. और अब उनसे आसमान, शिखर, सड़क और हिलक्वीन के कैम्पस के डहेलिया दिखाई दे रहे थे.

मिसेज मारया काउंटर पर बैठी यह सब देख रही थी. अगरबत्ती स्टैंड में सिलाप की बदबू खत्म करने के लिए कई अगरबत्तियाँ जल रही थी जिनसे निकलती सुगंधित घुएँ की पतली रेखाएँ हवा में बल खा रही थीं. वह हर आहट पर चौंकती और फिर निराश हो जाती. सड़क सुनसान थी. कभी कभी इक्का-दुक्का आदमी चेहरे पर मफलर लपेटे ऐसे गुमसुम गुजरते दिखाई पड़ते जैसे खुद अपने से डरे हुए हों.

मानो यहाँ हमला हुआ है. आदमी या तो कहीं भाग गए या छुप गए.’’ मारया बड़बड़ाई. उसने आदत के मुताबिक टाइम देखने के लिए दीवालघड़ी की ओर देखा. उसके सीने में टकटक कुछ बजने लगा. “देखना कोई और घड़ीसाज हो....करनैल के लौटने तक इंतजार नहीं किया जा सकता.’’

ठीक मेमसाब,’’ हुकम ने मारया को आश्वस्त किया.
पता नहीं कितना टाइम हो गया. स्कूल भी बंद हैं, वरना उसकी घंटियों से टाइम का पता चल जाता.’’
टैम तो भौत हो गया.’’ हुकम ने कहा. उसे बहुत जोर की भूख लगी थी. वह समय को भूख से मापता था.

हो सकता है कि कोई भूला-भटका गाहक आ ही जाए. वैसे तेरा क्या खयाल है, इस सीजन में बर्फ गिरेगी?’’

जरूर गिरेगी मेमसाब. कई बार बरफ देर से गिरती है.’’

जिस दिन भी बर्फ गिरे तू अपने लिए भोटिया मार्केट से कोट खरीद लाना.’’

हुकम जानता था कि बर्फ गिरे या न गिरे कोट उसके लिए खरीदा ही जाएगा. कुछ कहे बगैर वह चुपचाप खिड़की से बाहर देखने लगा. सहसा खुश होते हुए उसने कहा, “मेमसाब कोई आदमी है. गाहक हो सकता है. हाँ, गाहक ही है. वह सड़क से इस तरफ ही घूम गया है.’’

मारया के दिल की धड़कन तेज हो गई. अगरबत्तियाँ बुझ गई थीं. उसने शीघ्रता से दोबारा नई अगरबत्तियाँ जलाई और उत्तेजना में उसके हाथ काँपने लगे. ओवरकोट पहने, सिर गोल ऊनी टोपी से ढके और हाथ में ब्रीफकेस लिए एक आदमी तेज़ क़दमों से इस ओर ही आ रहा था. आगन्तुक ने सिर उठाकर होटल के साइनबोर्ड को देखा. आश्वस्त होने के बाद कि वह ठीक जगह पहुँच गया है, उसने डोरमेट पर जूते के तले रगडे़ और कंधे उचकाते हुए भीतर दाखिल हो गया. उसके भीतर आते ही दरवाजे की चौखट पर लटकी सौभाग्य सूचक जापानी सिंगिंग बेल बजने लगी.

मारया उसके स्वागत में खड़ी हो गई. आगंतुक ने अपना ब्रीफकेस मेज पर रखते हुए उसकी  ओर निगाह उठाकर देखा और बोला, “अगर मैं गलत नहीं हूँ तो आप मिसेज मारया हैं.’’

हाँ, मैं ही...मारया ने कहा और अपनी स्मृतियों को खंगालने लगी. कुछ याद नहीं आया तो उसने कातर दयनीयता से कहा, “अफसोस है, मैं आपको पहचान नहीं रही.’’

आगंतुक हँसा और कुर्सी पर बैठते हुए बोला, “चश्मा नहीं लगाए हैं न, इस वजह से....मुझे भी आपको पहचानने में दिक्कत हुई. खैर, आप मुझे जान जाएँगी और एक शुभचिंतक से मिलकर खुश भी होंगी.’’

चश्मा टूट गया था. नया अभी बनकर नही आया. बिना चश्में के वाकई आदमी की शकल बदल जाती है, उसकी पहचानने की ताकत भी....’’
‘’आप ठीक कह रही हैं. वैसे आपकी सेहत तो ठीक है मिसेज मारया?’’
‘’बस वैसे ही हैं जैसे इस उम्र में किसी की होने चहिए. उम्र किसी का भी लिहाज नहीं करती.’’

यह भी आपने ठीक कहा. आपका होटल तो तो ठीक चल रहा है न?’’
हाँ, ठीक ही चल रहा है.’’
‘’लेकिन इस समय यहाँ बहुत सूनापन है. कोई गाहक भी दिखाई नहीं दे रहा. जैसे किसी गाहक को आए अरसा गुजर गया हो.’’
‘’जाड़ों में छोटे हिल-स्टेशनों के होटलों में मंदी रहती है. ज्यादातर होटल तो सीजन आने तक बंद रहते हैं. मैं नुकसान सहकर भी इसे ऑफ सीजन में खुला रखती हूँ.’’

‘’वाकई आप हिम्मतवाली महिला हैं. ऐसा न करतीं तो आपको ढूँढने में मुझे दिक्कत होती और आपको ढूँढना मेरे लिए बहुत जरूरी था....’’ आगंतुक ने कहा.

मारया ऊबने लगी थी. यह हैरानी की बात थी कि कोई ग्राहक खाने का आदेश देने की जगह उसके बारे में निजी सवाल पूछे. लेकिन दस दिन के इंतजार के बाद आया ग्राहक किसी मेहमान की तरह था. उसे झेलना उसकी व्यवसायिक और नैतिक मजबूरी थी.

हुकम मेज पर पानी रख गया.

‘’इतनी ठंड में पानी! नही, मिसेज मारया मुझे पानी की जरूरत नहीं है. क्या आप चाहती हैं कि मुझे निमोनिया हो जाए.’’ आगन्तुक ने परिहास किया.

पानी तो जीवन की पहली जरूरत है. रोटी से भी पहली.’’ मारया ने तत्परता से जवाब दिया.

यह तो आपने ठीक कहा. फिर भी इतनी ठंड में....’’ आगंतुक ने कहा और हिलक्वीन की दीवालों को भेदती दृष्टि से देखने लगा और फिर सहसा उसका स्वर बदल गया, “लेकिन आप अपने होटल के बारे में काफी लापरवाह हैं. लगता है बरसों से दीवालों, खिड़की-दरवाजों पर रंग-रोगन नहीं हुआ.’’
होटल रिनोवेट किया जाना है.’’ मारया ने सहजभाव से बताया.
रिनोवेट! यह तो बहुत अच्छी खबर है. पर मैंने तो सुना कि हिलक्वीन की प्रॉपर्टी पर कोई मुकदमा चल रहा है.’’

मारया ने भेदती नजर से उसे देखा और फिर मजबूती से कहा, “आपने ठीक सुना. उन्होंने हिलक्वीन की कुछ जमीन पर कब्जा कर लिया. लेकिन फैसला मेरे हक़ में होगा. मैं एक सच्ची और ईमानदार औरत हूँ.’’

वह हँसने लगा. अच्छी बात है आप आशावादी हैं. वैसे सच्चाई और ईमानदारी मुकदमा जीत जाने की कोई शर्त नहीं है. फिर दीवानी के मुकदमें सालोंसाल चलते हैं. और हमारी न्याय-व्यवस्था की चाल कछुवे की है और इतनी खर्चीली भी कि आदमी के घर के बर्तन तक बिक जाते हैं और जब फै़सला आता है तबतक वह इतना निरीह हो जाता है कि उसे फ़ैसले की ज़रूरत ही नहीं रह जाती. नसीब सिंह शराब का ठेकेदार है और मेरा ख़याल है कि उसके पास पैसों की कमी नहीं हैं.

क्या मतलब? मैं यह मुकदमा नहीं लड़ सकती.’’ मारया ने तुर्शी से कहा.

जरूर लड़ सकती है.’’ आगंतुक ने उपहास उड़ाती निगाह से मारया को देखा. लेकिन मेरे पास कुछ पुख्ता जानकारियाँ है. क्या आप उन्हें सुनना चाहेंगी? मेरे ख़याल से आपको उन्हें सुन ही लेना चाहिए.’’

मारया पशोपेश में फँस गई. आखिर इस आदमी का इरादा क्या है. वह निर्णय नहीं कर सकी कि उसे फिजूल की बातें सुननी चाहिए या नहीं.

तभी उस आदमी ने कहना शुरु कर दिया, “बुरा मत मानिए मिसेज मारया लेकिन यह सच है कि भट्ट आप्टेशियनके यहाँ आपका चश्मा बने बारह दिन हो गए. आप उसे नहीं ला रहीं, क्योंकि उसे छुड़ाने के लिए चार सौ रुपए आपके पास नहीं हैं. इसके अलावा गुप्ता प्रोविजन में राशन का कुछ पैसा भी आपके सिर उधार है. मेरे पूछने पर उसके मालिक ने उधार की रकम बताने से इनकार कर दिया. बस इतना कहा कि अगर आप मिसेज मारया से मिलें तो मेरा सलाम कह दें. बनिए के सलाम का मतलब तो आप समझती हैं न?’’

मारया ने अपना धीरज खोए बिना सहजता से कहा, “बिजनेस में ऊँच-नीच चलती रहती है. बर्फ़ पड़ जाती तो ऐसी नौबत न आती, फिर दो-चार महीने के बाद तो सीज़न शुरु होने ही वाला है.’’
लेकिन जब आपने अपने सोने के कंगन ज्वैलर झब्बालाल एड सन्जको बेचे तब सीज़न पीक पर था.’’

मारया का चेहरा पीला पड़ गया. मानों सरेआम नंगी हो गई हो. कंगन बेचते हुए उसे महसूस हुआ था, उनके साथ उनमें समाई अपने हाथों की गंध भी वह बेच रही है, जिस पर सिर्फ डेविड का अधिकार था....जैसे उसने डेविड को धोखा दिया था. वह इस लज्जाभरे प्रसंग को भूल जाना चाहती थी. इस आदमी ने उसकी दुखती रग को दबा दिया, जो भीतर ही भीतर कहीं अतल गहराई में चुपचाप कसक रही थी. वह आवेग में, जिसे नियंत्रित करना उसके काबू में नहीं रहा था, चीखी, “आपकी मंशा क्या है, क्यों कर रहे मेरी जासूसी? बोलिए क्यों कर रहे?’’

मैं आपको असलियत बताना चाहता हूँ. वह यह है कि न आपका होटल ठीक चल रहा है और न आप मुकदमा लड़ सकती हैं.’’

मेरी निजी जिंदगी के बारे में टांग अड़ानेवाले आप कौन होते हैं?’’ मारया ने सख्ती से कहा.

एक हमदर्द जो आपकी मदद करना चाहता है.’’

ओह! तो आप मेरे हमदर्द हैं. एक अनजान और ऐसा हममदर्द जिसे मैंने कभी चाहा ही नहीं कि वह मेरा हमदर्द हो.’’ उसने व्यंग्य किया, “तो फरमाइए जनाब आप मेरी क्या मदद करना चाहते हैं.’’

आगंतुक ने दस्ताने उतारकर ब्रीफकेस खोला और नोटों का एक पुलिंदा निकाला. करारे, झिलमिलाते और अपनी ताकत के गरूर से भरे हज़ार-हज़ार रुपए के नोट. उन्हें मारया की ओर सरकाते हुए उसने कहा, “यह बयाना है. अब आपको सिर्फ दो काग़ज़ों पर दस्तख़त करने हैं.....’’

तो आप दलाल हैं....’’ मारया ने लिजलिजी घृणा से कहा, “और मैं दलालों से नफरत करती हूँ.’’

आगंतुक हँसने लगा, “लेकिन यह वक्त दलालों का वक्त है. खैर, आपको दलाल शब्द से ऐतराज है तो एजेंट कह लीजिए. और फिर मैं तो मुश्किल वक्त में एक हमदर्द की तरह आपकी मदद करने आया हूँ.
आश्चर्य की बात है. हमदर्द दलाल.’’

मैं आपकी हिलक्वीन उतनी कीमत पर बिकवा रहा हूँ, जितने की आप उम्मीद नहीं कर सकतीं. और फिर मैं आपसे कमीशन भी नहीं लूँगा हालांकि उस समय आप काफी अमीर होंगी जब आपका होटल बिक जाएगा. फिर भी मैंने ठेकेदार को राजी कर लिया कि दोनों तरफ का कमीशन वही अदा करे. और वह इसके लिए राजी है.’’
हूँ, तो खरीदार नसीब सिंह है और आप उसके गुर्गे हैं....वह कमीना मुझे इतना परेशान कर रहा है कि मैं तंग आकर हिलक्वीन उसे बेच दूँ. आप उसे बता दें, मैं हिलक्वीन नहीं बेचूँगी.’’

‘’अगर नसीब सिंह इसे खरीदना तय कर चुका है तो आप इसका बिकना कैसे रोक सकती हैं मिसेज मारिया. आप उसकी ताक़त नहीं जानती और अपने बारे में भी गलतफहमी में हैं.’’

‘’आप मुझे धमका रहे हैं.’’ मारया ने तल्खी से कहा.

नहीं, बिल्कुल भी नहीं. मेरे पास कोई हथियार नहीं है. रुपए हैं.’’

‘’रुपया सबसे घातक हथियार है मिस्टर दलाल. आप यह बात नहीं जानते. शायद जान भी नहीं सकते. आखिर एक दलाल इस बात को कैसे जान सकता है...’’

दलाल अश्लील हँसी हँसा, “और आपको इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है. आपके हक़ में यही मुनासिब है कि आप मेरे प्रस्ताव को ठुकराएँ नहीं.’’ फिर उसका चेहरा बदल कर सख्त हो गया  और आवाज बर्फ में दबे छुरे की तरह ठंडी और घातक हो गई, “समझ लीजिए आप एकदम अकेली हैं और वक्त बहुत खराब है....’’

मारया इस चेतावनी से भीतर तक दहल गई लेकिन अपने भय को जज्ब करते हुए बोली,   “अब मैं आपको और बर्दाश्त नहीं कर सकती. इससे पहले कि मैं आपको बेइज्जत करूँ, आप यहाँ से चले जाइए. जैसा कि आप समझ रहे हैं, मैं अकेली भी नहीं हूँ.’’

‘’जाता हूँ मिसेज मारिया.’’ दलाल ने नोटों की गड्डी ब्रीफकेस में वापिस रखते हुए कहा, “मैं  फिर आपकी सेवा में हाजिर होऊँगा. माफ कीजिए, मेरा तो यह काम ही है.’’ वह खड़ा हो गया. बाहर निकलने से पहले उसने सूराख करती नजरों से मारया को देखा जिसका चेहरा ठंड और भय से पीला पड़ा हुआ था. मिसेज मारया, आपको यकीन है कि....अच्छा छोड़िए...मैं आपको नाराज़ नहीं करना चाहता. हमें एक दूसरे की जरूरत है.’’


दलाल की चेतावनी ने उसे भीतर तक दहला दिया. कच्ची डोर से बंधा छुरा जैसे कि सीने पर लटका हुआ.... वह सो ही नहीं पाई. पहली बार उसने महसूस किया कि रात इतनी लम्बी होती है और त्रासद भी. कि सन्नाटे की भी आवाज़ होती है और अंधेरा भी आकृतियाँ गढ़ता है....और सर्दियों की ठंड़ी रात में कुत्ते ऐसे भौकते हैं जैसे रुदन कर रहे हों....कि रात में हवा से हिलक्वीन की छत रहस्यमय ढँग से खड़खड़ाती है और छाती में कुछ बजने लगता है....

शहर अब वैसा नहीं रहा जैसा वह उसे जानती थी. उसके बचपन में पीटरसन साहब के पानी का मीटर चुरा लिया गया था. यह इतनी बड़ी घटना थी कि सारा टाउनशिप उद्वेलित हो गया था. स्थानीय अखबारों ने इसे लीड स्टोरी की तरह छापा. प्रशासन हिल गया था और पुलिस महकमें में हड़कम्प मच गया था. गली, चौराहों, पान के खोखों और चायघरों में यह अपराध कई महीनों तक चर्चा का विषय बना रहा. अब सबकुछ बदल गया है. हवाएँ बदल गई, आदमी और उनके व्यवहार बदल गए. अच्छे-भले आदमी हाशिए में खिसक गए और अपराधी मुख्यधारा में शामिल हो गए. हत्या और बलात्कार लोगों को उद्वेलित नहीं करते और ऐसे समाचार शौर्यगाथाओं की तरह पढ़े जाते हैं.

पहली बार उसे अपने अकेलेपन का अहसास हुआ.

वह अकेली है और उसके खिलाफ ठेकेदार नसीब सिंह है.... वह उससे हिलक्वीन छीनना चाहता है. हिलक्वीन....जो डेविड और उसके साझे श्रम का संगीत है. डेविड चला गया लेकिन उसका संगीत उसमें जिन्दा है.

और वह उस संगीत को मरने नहीं देना चाहती....


यह प्रार्थना का दिन था.

कोहरा छंट गया था. हवा में ठंडक थी लेकिन धुली नील दी और झटककर फैलाई चादर की तरह निर्दोष आसमान में उसके खिलाफ लड़ता सूरज चमक रहा था.

चर्च की सलेटी मीनार अपनी बाँहें फैलाए करुणा और दया का संदेश दे रही थी.

मारया ने फिरन पहना. उसे न पहनने के लिए कभी चर्च ने उससे रियायत चाही थी. वह उसे पहनकर तबतक प्रार्थना में शामिल नहीं हुई थी, जब तक फिरन में चमक रही और उसमें बर्फ में आग लगाने की ताब थी. फिरन की चमक फीकी पड़ चुकी थी. उसकी भी. और अब वह चर्च से सहायता चाहती थी. प्रार्थना के लिए निकलने से पहले उसने सिर पर गरम टोपी, पैरों में घुटनां तक के ऊनी मोजे और गले में मफलर बांधकर ठंड के खिलाफ एक दुर्ग बना लिया. पर बाहर निकलते ही वह काँपने लगी. ठंड ने उसके बनाए दुर्ग को ध्वस्त कर दिया था.

कोई भी दुर्ग अजेय नहीं होता चाहे उसे कितना ही मजबूत बना लिया जाए.....अजेय सिर्फ वक्त है....जिसे पढ़ने में वह नाकाम हो रही है....

इक्का-दुक्का दुकानें जो सर्दियों में खुली रहती थीं, वे भी अभी नहीं खुली थीं. बंद दुकानें मनहूस उदासी बिखेर रहीं थी और पूरा बाजार उसमें डूबा हुआ था. वे सड़कें जो सीज़न में रंगबिरंगी मछलियों से भरी नदियाँ होतीं, अजगरों की तरह पसरी हुई थीं. भयावह उदास और इतनी लम्बी कि जैसे वे पार ही नहीं की जा सकतीं. वह मना रही थी कमस्कम मनभर की दुकान खुली हो, जहाँ से वह मोमबत्ती खरीदती थी. उसने चर्च में जितनी प्रार्थनाएँ की थी, जब से होश संभाला, प्रभु के लिए उतनी ही मोमबत्तियाँ जलाई थीं, जिसने खुद वह सलीब ढोया जिस पर वह लटकाया गया, इसलिए कि फिर कभी कोई और किसी सलीब पर न चढ़ाया जाए.....

वह उस मोड़ पर पहुँची जहाँ से मनभर की दुकान दिखाई देती थी. आशंका की धुंध छंट गई. दुकान खुली थी. उसके इंतजार में कन्टोप और मिलिटरी का खारिज ओवरकोट पहने मनभर थड़े पर बैठा ठिठुर रहा था. मारया को देखकर उसकी बुझी आँखें चमकने लगी. मोमबत्ती निकालते हुए उसने कहा, “आपके लिए ही मेमसाब...कितनी ही ठंड हो....बर्फ ही क्यों न गिरे, मैं प्रार्थना के दिन दुकान जरूर खोलता हूँ.’’

मारया ने मुसकराते हुए आभार प्रकट किया, “वाकई तुम्हारी दुकान खुली न होती तो मुझे अफसोस होता. मेरी प्रार्थना अधूरी रह जाती...’’

लेकिन...’’ मनभर ने हकलाते हुए कहा, “आप प्रार्थना के लिए आखरी मोमबत्ती खरीद रही हैं न.’’

क्या मतलब?’’ मारया चौंकी.

सुना कि आपने ठेकेदार नसीब सिंह को अपना होटल बेच दिया है, और आप यह शहर छोड़कर अपने बेटे के पास जा रही हैं....’’

मारया को लगा जैसे उसके सिर पर कोई कील ठोक दी गई हो. उसके हाथ की वह मोमबत्ती काँपने लगी जो उसने प्रार्थना के लिए खरीदी थी. किसने कहा?’’ उसने लड़खड़ाते स्वर में पूछा.

सभी कह रहे. हर जगह यही चर्चा है.’’

उसने बेचैनी में मोमबत्ती को मजबूती से थाम लिया जिसका मोम ठंड से सख्त पड़ गया था और धागा जिसे लौ बनना था गर्व से तना हुआ था. सर्दियों में अमूमन बंद रहने वाले खिड़की और दरवाजो़ का आधारहीन चर्चा में मशगूल होना किसी भी तरह मामूली बात नहीं है. उसने सोचा. यह एक फंदा है जो उसे मानसिक रूप से तोड़ने के लिए फैलाया जा चुका है. वह एक उपेक्षित हँसी हँसी, “अफवाह है बल्कुल अफवाह. मैंने अपना होटल नहीं बेचा और मैं इसे बेचूँगी भी नहीं.’’

मनभर ने बेचैन हमदर्दी में अपना सिर उठाया, “एक बात है मेमसाब. बुरा मत मानिए. नसीब सिंह अगर आपका होटल खरीदना चाहता है तो आप उसे बेच ही दें. इसी में चैन है. वह एक खतरनाक आदमी है.’’

मारया का मन भारी हो गया. उसकी समझ में नहीं आया, मनभर से क्या कहे. वह उसका एक भोला हममदर्द था. उसने कोई जवाब नहीं और तेज़ी से उस सॅकरी सड़क की और मुड़ गई जो कुछ दूरी के बाद उन सीढ़ियों में बदल जाती थी, जो गिरजाघर के परिसर में पहुँचाती थी.


कैम्पस की घास पाले से जल कर बेजान हो गई थी. पेड़ों की छालें तिड़क रही थीं और उनके पीले होते पत्ते पतझर का इंतजार कर रहे थे. लेकिन ऐसे उजाड़ में भी मौसम की बेरहमी के खिलाफ एक शालीन अवज्ञा में गिरजाघर की क्यारियों में गुलदाउदी, बोगेनवेलिया और डहेलिया के फूल खिले हुए थे, पैंजी, डॉग, डैंठस और बटर फ्लाई की कलियाँ महकने की तैयारी कर रहीं थी. औरतें और मर्द रंग-बिरंगे लिबासों में फूलों के गुलदस्तों की तरह फैले हुए थे और बच्चे तितलियों की तरह मंडरा रहे थे. नरम और नाजुक धूप फैली हुई थी जिसमें फूल, जूते, वस्त्र और टाइयाँ चमक रही थी. 

यह ईशू का प्रार्थना समय था जो पवित्र गिरजाघर की भित्ती में क्रॅास पर लटका हुआ था.

मारया ने परिसर में कदम रखा और वह अवसन्न रह गई. सारी निग़ाहें उस पर टिकी थीं. सब असहनीय किस्म की मुस्कान मुस्कुरा रहे थे और एक दूसरे के कान में फुसफुसा रहे थे. धीमी सी फुसफुसाहट, जो उससे आगे नहीं जाती जिसके कान में कही गई है....लेकिन हर फुसफुसाहट परिसर के आख़री छोर पर खड़ी और सीढ़ियाँ चढ़ने से थकी और हाँफती मारया के कानों में चिंघाड़ रही थी. शराब के ठेकेदार को....

उसे लगा वह निहत्थी है और दगती हुई गोलियों के बीच खड़ी है और हिलक्वीन खो चुकी है....उसने अपने को ऐसे अपराधबोध से धिरा पाया जो उसने किया ही नहीं और जिसकी सफाई देना भी उसके वश में नहीं है. आखि़र किस किस को तो सफाई दे. वह सिर झुकाए चुपचाप प्रार्थना कक्ष में चली गई और एक निरीह कोने में खड़ी हो गई, जहाँ लोगों की आँखों से बची रह सके. फ़ादर अभी नहीं आए थे और प्रार्थना करनेवाले भी. प्रार्थना कक्ष में सिर्फ प्रभु थे और वह थी और दोनों सलीब पर लटके हुए थे...

प्रार्थना के बाद वह चुपचाप गिरजाघर के पिछवाड़े चली गई और सूनी बेंच पर बैठ गई.

बयालीस साल पहले भी वह इसी तरह भीड़ से छिटक कर गिरजाघर के पिछवाड़े आई थी और इसी बेंच पर बैठ गई थी. तब सर्दियाँ नहीं थीं. मौसम सुहावना था. हवाएँ जीवन स्पंदनो से भरी हुई थी और सामने की घाटी फूलों से महक रही थी. उसकी आँखों में छवियाँ थीं. कोमल सपने थे. और मोहक-आकुल प्रतीक्षा थी. और फिर सचमुच डेविड आया था और इसी बेंच पर उसने प्रपोज किया था.

बयालीस साल बाद वह फिर उसी बेंच पर बैठी है. हवा चल रही है और वह हड्डियों को कँपा देनेवाली ठंडक से भरी हुई है.

मिसेज मारया तुम यहाँ अकेली और इतनी सर्दी में....’’

उसने सिर उठाकर देखा. फ़ादर उसे विस्मय से देख रहे थे.

उसने हड़बड़ाकर बैंच से खड़े होते हुए कहा, “मैं अकेले में आपसे कुछ कहना चाहती हूँ. भीड़ छटने का इंतजार कर रही थी.’’

हाँ, क्यों नहीं...’’ फ़ादर ने कहा, “पर क्या तुम आज प्रभु के लिए मोमबत्ती जलाना भूल गईं?’’

मारया ने चौंक कर देखा. वह अपने हाथ में मजबूती से उस मोमबत्ती को थामें थी जिसे वह प्रभु के लिए मनभर की दुकान से खरीद कर लाई थी. हताशा में उसका चेहरा पीला पड़ गया. उसने छाती पर सलीब बनाया, “ऐसा कैसे हो गया...’’

‘’कोई बात नहीं. मोमबत्ती तुम अब भी जला सकती हो. चर्च के दरवाजे हर समय खुले रहते हैं. मैं तुम्हे फिर से प्रार्थना भी करवा सकता हूँ. वैसे इसकी जरूरत नहीं है, प्रार्थना तुम कर चुकी हो.’’

वह, होंठों ही होंठों में बुदबुदाते हुए कि प्रभु उसे उस गलती के लिए क्षमा करें जिसे उसने करना नहीं चाहा लेकिन जो अनायास हो गई, फ़ादर के पीछे चलने लगी. वे एक लम्बे और शांत गलियारे से गुजर रहे थे और हवा उनके जूतों की आवाज से हड़बड़ा रही थी. प्रार्थना कक्ष में पहुँच कर उसने श्रद्धा से मोमबत्ती जलाई और फिर फ़ादर की ओर देखा.

वे घूम कर अपराध स्वीकार करने की बेदी के पास गए और उसकी जाली पर हाथ रखते हुए बोले, “क्या तुम आत्म स्वीकार की बेदी पर जाओगी?’’

उन्होंने तेज़ आवाज़ में नहीं पूछा था, लेकिन जनविहीन प्रार्थना कक्ष के सन्नाटे में वह एक गूँज में बदल गई. हो सकता है कि ऐसा न भी हुआ हो, वह सिर्फ मारया के भीतर ही गूँजी हो. इस उम्र में जब वह युवा औरत की असीम शक्ति गंवा कर अशक्त बूढ़ी औरत में बदल गई है, ऐसा प्र्रश्न पूछा जाना बेतुका ही नहीं, अपमानजनक भी था. उसका चेहरा रुआँसा गया. ऐसी बात नहीं,’’ उसने विनम्र प्रतिरोध किया, मैंने कोई पाप नहीं किया जिसके लिए प्रायश्चित करूँ. अफ़सोस है, औरतों के चरित्र के प्रति समाज की सोच से चर्च भी मुक्त नहीं है.’’

मैंने वैसे ही सोचा जैसे किसी पादरी को उस औरत के बारे में सोचना चाहिए जो चर्च में उससे मिलने के लिए भीड़ छंटजाने का इंतजार करती है....’’

‘’दरअसल मुझे आपसे एक मदद चाहिए. आप की मदद का मतलब होगा सारा ईसाई समाज मेरे साथ है.’’

‘’उसका तो मैं पहले ही वायदा कर चुका हूँ मिसेज मारया डिसूजा...’’
वायदा कर चुके है...’’ मारया असमंजस में पड़ गई.
हिलक्वीन का मामला है न?’’ फादर ने कहा और उसे ऐसे देखा जैसे उस बच्चे को देखा जाता है जो वह लौलीपाप मांग रहा हो, जो उसे दिया जा चुका है.
हाँ...उसी मामले में...लेकिन अजीब बात है अभी तो मैंने इस सिलसिले में आपसे कोई बात की ही नहीं.’’
‘’तुमने नहीं की पर ठेकेदार के आदमी आए थे. प्रार्थना करने लगे कि यह एक ईसाई औरत की प्रॉपर्टी का मामला है. रजिस्ट्री के समय मैं एक गवाह के रूप में मौजूद रहूँ, जिससे कल यह आरोप न लगाया जा सके कि प्रापर्टी बेचने के लिए उस पर दबाव डाला गया. किसी धर्मगुरु को ऐसे मामले में नहीं पड़ना चाहिए. लेकिन मैं मान गया कि एक ईसाई के साथ अन्याय न हो और उसे उसकी प्रापर्टी की वाजिब क़ीमत मिल सके.’’

मारया सन्न रह गई. लगा कि उसकी धमनियों में बहता रक्त जम गया है और आँखें अपनी धुरियों पर ठिठक गई हैं. हवा रुक गई है और उसकी साँस भी. लेकिन हवा चल रही थी, जिससे पेड़ों के पत्ते खड़क रहे थे और साँस भी.... उसने अपनी आवाज़ को यथा संभव संतुलित करने की कोशिश की लेकिन वह भर्राई हुई आवाज़ थी, “मैंने हिलक्वीन बेचने का कोई वायदा नहीं किया फ़ादर.’’

फ़ादर ने उसकी ओर देखा. उनकी आँखों में गहरा अविश्वास था. तुमने वायदा नहीं किया तो फिर वकील रजिस्ट्री की कार्यवाई क्यों कर रहा है और मुझ से गवाह के रूप में पेश होने की दरख़्वास्त क्यों की गई....’’

मैं नहीं जानती फ़ादर.’’

चीजें हवा में नहीं होती मिसेज डिसूजा....’’

पर यहाँ तो सबकुछ हवा में है. ठेकेदार का दलाल प्रस्ताव लेकर जरूर आया था जिसे मैंने अस्वीकार कर दिया. उसने मुझे धमकाया कि मैं अकेली हूँ. पर मुझे विश्वास था कि बेटे के बाहर होने के बावजूद मैं अकेली नहीं हूँ. प्रभु मेरे साथ है, आप और चर्च और पूरा ईसाई समाज मेरे साथ है. कोई मुझे वो करने को विवश नहीं कर सकता जो मैं नहीं करना चाहती. हिलक्वीन मेरी आत्मा का हिस्सा है फ़ादर.’’

ईशू हमेशा सच्चे ईसाई के साथ होता है. लेकिन तुम भूल रही हो मिसेज मारया. उस समय तुमने दलाल का प्रस्ताव नहीं ठुकराया. जहाँ तक मैं समझता हूँ, तुम्हारा मन बाद में बदल गया. शायद तुम्हारे पास इससे बड़ा ऑफ़र आया हो या तुम्हे उम्मीद रही हो कि शायद कोई और बड़ा ऑफ़र आएगा. एक सच्चे ईसाई को अपने वायदे से नहीं मुकरना चाहिए.’’

मेरी बात का यकीन करिए फ़ादर....क्या एक सच्ची ईसाई औरत ईशू की प्रतिमा के समाने झूठ बोलेगी?’’

‘’लेकिन पूरे ईसाई समाज में यह चर्चा है. असेम्बली से पहले सब यही बात कर रहे थे....जहाँ तक मैं समझता हूँ सारे टाउनशिप में भी....’’
अफ़वाह! और वह एक ही तरीके से सब जगह फैल गई. मुझे हैरानी है, ऐसा कैसे हुआ?’’
फ़ादर सोच में पड़ गए. कमर के पीछे हाथ बाँधे, वे कुछ देर मौन रहे. फिर उन्होंने काँपती आवाज़ में कहा, “ये वे ही लोग हैं जो उन पादरियों को जिन्दा जलाते हैं और ननों के साथ बलात्कार करते हैं, जो ईशू की करुणा लेकर उन इलाकों में सेवा करते हैं जहाँ कोई नहीं पहुँचता. हमें सचेत हो जाना चाहिए. यह अफ़वाह बिना वजह नहीं फैलाई गई. उन्हें बहाना चाहिए....मेरी सलाह है मारया इससे पहले कि यहाँ वैसी घटना घटे जैसी नहीं घटनी चाहिए तुम ठेकेदार को हिलक्वीन बेच दो.’’

मारया ने चौंक कर फ़ादर को देखा. उनका चेहरा हताश भय में डूबा हुआ था. आप डर गए फ़ादर,’’ उसने पूछा.

क्योंकि हम हाथ में हथियार नहीं, बाइबल लेकर चलते हैं.’’
अगर हम पहले ही हार गए....बिना लड़े...उनके हौंसले और नहीं बढ़ेंगे....’’
शायद तुम खतरे को नहीं देख रही़ जबकि तुम अपने बेटे के पास जा सकती हो.’’
माँ बेटे के घर में सिर्फ एक मेहमान होती है. मेहमान कभी बहुत दिन बर्दाश्त नहीं किया जाता. और फिर जब मैं खुद कमा सकती हूँ.
मैं एक बार फिर तुम्हें वही सलाह देना चाहूँगा.’’
मैंने और डेविड़ ने एक एक ईंट जोड़ कर इसे बनाया फ़ादर. डेविड नहीं रहा पर मैं उसे हिलक्वीन में धड़कता महसूस करती हूँ.’’
‘’आदमी सारी जिंदगी स्मृति में नहीं जी सकता. कभी तो उसका मोह छोड़ना ही होता है.’’

चर्च भी तो ईशू की स्मृति है और सारे ईसाई उसी स्मृति में जी रहे हैं. हिलक्वीन भी मेरे लिए चर्च की तरह पवित्र है. उसने ही तब मुझे टूटने से बचाया जब मैं टूट सकती थी और एक सम्मानभरी जिन्दगी दी. मैं उसे नहीं बेच सकती जैसे चर्च नहीं बेची जा सकती.’’ मारया ने कहा और इससे पहले कि फ़ादर कुछ कहें वह उन्हें भय और असमंजस में छोड़ कर बाहर निकल गई.


चर्च की सीढ़ियाँ उतरते हुए वह आत्मिक उर्जा से भरी हुई थी. अगर उसकी हत्या भी कर दी जाती है, जो मुमकिन है, क्योंकि उनके लिए हत्या करना एक दिलचस्प खेल है, तो यह एक शानदार मौत होगी और ताबूत में उसका सिर शर्म से झुका नहीं रहेगा. लेकिन वह अपने को उन आँखों का सामना करने में अक्षम पा रही थी जिनमें उसके प्रति मरी मछली की तरह अविश्वास चिपका होगा. जब वह वहाँ पहुँची जहाँ से मनभर की दुकान दिखाई देती थी, तो उसने राहत की साँस ली. दुकान बंद थी. उसे आश्चर्य हुआ क्या मनभर ने एक मोमबत्ती बेचने के लिए अपनी दुकान खोली थी....

इक्का-दुक्का दुकानें खुली हुई थी और दुकानदार आकस्मिक ग्राहकों की प्रतीक्षा में थड़ो पर बैठे सर्दियों की धूप सेंक रहे थे. उसने किसी से भी नज़र नहीं मिलाई और सिर झुकाए चुपचाप चलती रही. उसे डर लग रहा था कि जिससे भी नज़र मिलाएगी, वहाँ एक ही सवाल होगा. पहाड़ी जगह सब एक दूसरे को जानते हैं. वे अपने बारे में कम, दूसरों के बारे में ज्यादा दिलचस्पी लेते हैं. ईसाइयों के बारे में तो उनमें विशेष-रूप से रहस्यमयी जिज्ञासा रहती है और उनकी आँखें खुर्दबीन में बदल जाती हैं. उसके भीतर कुछ था जो फटने के लिए धपधपा रहा था....वह जल्दी से सड़क को पार कर लेना चाहती थी लेकिन सर्दियों में पहाड़ की सड़के लम्बी हो जाती हैं जिन पर चलता आदमी चढ़ान चढ़ रहा होता हैं या ढ़लान उतर रहा होता है. उसकी साँस फूल गई और ठीक उस जगह जहाँ उसके होटल की आखरी चढ़ान आरम्भ होती थी वह पूरी तरह पस्त हो गई और सुस्ताने के लिए एक बड़े गोल पत्थर पर बैठ गई जिस पर हिलक्वीन का मार्ग संकेत चिन्ह तीर बना हुआ था.

बैठते ही उसे धूप ने अपने सम्मोहन में ले लिया जो पहाड़ की सर्दियों में जादू बिखेर रही थी. उसे झपकी आ गई और शायद कुछ लम्बी ही. टूटी तो सामने एक कांस्टेबल खड़ा था जो रुटीन गश्त के लिए निकला था और उसे सड़क पर बैठे देखकर हैरान था.

कैसी हैं मिसेज मारिया?‘’ उसके आँख खोलते ही उसने पूछा, “मैं गश्त के लिए निकला था. आपको बैठे देखा तो रुक गया. तबीयत तो ठीक है न! मेरी किसी मदद की जरूरत हो तो....’’

धन्यवाद कांस्टेबल. तबीयत ठीक है. चर्च से लौट रही थी. थकान लगी. बस थोड़ा सुस्ता रही थी.‘’ मारया ने फीकी-सी मुस्कान के साथ कहा.

कांस्टेबल ओवरकोट की जेब में कुछ टटोलने लगा. जाहिर था उसका इरादा गश्त पर जाने की जगह उससे बात करने का था. यह परेशानी की बात थी. वह किसी से भी बात करने से बचना चाहती थी. लेकिन उसके उठने से पहले कांस्टेबल कोट की जेब से एक मुड़ी-तुड़ी बीड़ी निकाल चुका था, जो साबित कर रही थी कि वह मौसम की वजह से अपनी आर्थिकी के चिंताजनक स्तर पर था. सुट्टा मार कर लापरवाही से धुआँ उड़ाते हुए उसने कहा, “अच्छा किया आपने मुकदमा वापस ले लिया. आप बहौत परेशान थी. मुकदमा तो अच्छे-अच्छों का चैंन लूट लेता है. लोग दाँतों तले उंगली दबाते थे कि आपने ठेकेदार नसीब सिंह के खिलाफ मुकदमा दायर करने की हिम्मत की. लेकिन सबका यही विश्वास था कि एक दिन आप इसे वापिस ले लेंगी....और फिर वही हुआ....’’ 

मारया इस नई अफ़वाह से बौखला गई. यह बकवास है. अजीब बात है, मुझे ही नहीं मालूम और तुम्हे मालूम है कि मैंने मुकदमा वापिस ले लिया.’’

कैसी बात करती हैं मिसेज मारया? यह बात तो सभी जानते हैं. ठेकेदार की बेटी के जन्मदिन की पार्टी में खुद आपके वकील ने बताया कि वह मुकदमा वापिस लेने के काग़ज़ तैयार कर रहा है. उस पार्टी में थाना, तहसील के अलावा यहाँ के सभी गणमान्य मौजूद थे.’’

आपने जो भी सुना हो कांस्टेबल लेकिन जान लो मैं मुकदमा वापिस नहीं ले रही. वकील अगर ऐसी अफ़वाह फैला रहा है तो मैं उसकी जगह दूसरा वकील खड़ा करूँगी.’’

फिर होटल कैसे बेचेंगी?’’

मैं होटल भी नहीं बेच रही हूँ.’’

कांस्टेबल हँसने लगा. सिर उठाकर अपने होटल का साइनबोर्ड तो देखो मिसेज मारया.’’

साइनबोर्ड पर हिलक्वीन में आपका स्वागत हैके नीचे होटल बिक रहा है और आगामी सूचना तक यह बंद है--प्रोपराइटर श्रीमती मारया डिसूजालिखा हुआ था.

साइनबोर्ड के नीचे लिखी इबारत पढ़ते ही मारया को लगा जैसे एक डूबते जहाज में उसका सबकुछ डूब रहा हो और वह उसे बचाने के लिए पागलों की तरह उफनते हुए समुद्र के किनारे दौड़ रही हो. उसने उछलकर साइनबोर्ड के अक्षरों तक पहुँचना चाहा. कई बार कोशिश करने पर भी वह उस तक नहीं पहुँच सकी.

बेकार है,’’ कांस्टेबल ने कहा, “आप वहाँ तक नहीं पहुँच सकती. अगर पहुँच भी गई तो इबारत को नहीं मिटा सकती. वह सफेदे से लिखी हुई है.’’

मारया फिर से पत्थर पर बैठ गई. उसने हाँफते हुए कहा, “मेरी बात सुनों कांस्टेबल. चाहो तो यहाँ भी सुन सकते हो और मैं अपनी बात कहने के लिए थाने भी जा सकती हूँ. मेरा होटल छीनने की साजिश की जा रही है.”

कांस्टेबल बीड़ी फेंक कर उसके पास ही पत्थर पर बैठ गया. उसने शक्ति के प्रतीक अपने डंडे को घुटनों के बीच फँसाया और बोलने की दिक्कत से बचने के लिए ओवरकोट के ऊपरी दो बटन खोले और खंखारकर बोला, “पंद्रह साल पहले जब मैं यहाँ पहली पोस्टिंग पर आया था और जब तक मेरे खाने का पुख्ता इंतजाम नहीं हुआ था, मैं अकसर हिलक्वीन में खाना खाता था. तब आज के मुकाबले परतनपुर एक छोटी-सी पहाड़ी जगह थी और यहाँ नए भर्ती पुलिसवाले के लिए पैसे कमाने की गुंजाइश नहीं के बराबर थी. कई मर्तबा ऐसा होता कि मेरी जेब खाली रहती, तब मैं उधार खाना खा लेता. चूंकि आप उधार का हिसाब किसी रजिस्टर में नहीं लिखती थी और जैसी कि पुलिसवालों की आदत होती है, मैं उधार अदा करना भूल जाता था. आपने भी उधार का कभी तगादा नहीं किया. शायद आप एक व्यापारी औरत की जगह माँ ज्यादा थी. इस तरह मैंने आपका नमक खाया है और इस नाते मैं आपकी मदद करना चाहता हूँ.’’

थैंक यू कांस्टेबल,’’ मारया ने आभार प्रकट करते हुए कहा, बात यह है कि ठेकेदार नसीब सिंह अकेली जानकर हिलक्वीन मुझसे छीनना चाहता है, जिसके लिए वह मुझे कई तरह से परेशान कर रहा है. पहले उसने हिलक्वीन की कुछ जगह हथियाई, जिसका मुकदमा चल रहा है. फिर उसने दलाल भेजकर मुझे धमकाया. वह अफवाएँ फैला रहा है और अफवाएं कितनी घातक होती हैं, इसे वही जान सकता है जिसके खिलाफ उन्हें फैलाया जाता है....और अब होटल का साइनबोर्ड तो तुम देख ही रहे हो, बल्कि इसके बारे में तो तुमने ही मुझे बताया. यही वजह है कि मेरे होटल में गाहक नहीं आ रहे. वरना ऐसा कभी नहीं हुआ कि होटल में कभी कोई गाहक न आया हो, मौसम चाहे कैसा भी रहा हो....बता नहीं सकती कि मैं कितनी दहशत में हूँ....’’

वक्त की बात है मिसेज मारिया.’’ कांस्टेबल ने कहा,

तब आपके होटल का परतनपुर में नाम था. घरेलु होटल, जहाँ अपनेपन से पहाड़ी खाना खिलाया जाता. वाह! क्या खाना होता था. आप यहां की एक सम्मानित महिला थीं, जिसे यहाँ का हर आदमी सलाम करता था. उन दिनों नसीब सिंह छोटे स्तर पर शराब की तस्करी करता था. वह शातिर और चालाक बदमाश था. उसने  थाने की नींद उड़ रखी थी. कमबख्त माल के साथ पकड़ में ही नहीं आता था. लेकिन बिल्ली के राज में चूहा कब तक खैर मना सकता है. मैं झूठी शान नहीं बघार रहा. इस बात के साक्ष्य मौजूद हैं. यह लोकल पेपरों में छपा था, जिन की कटिंगें अब तक मेरी फाइल में हैं, आप चाहें तो उन्हें देख सकती हैं. मुखबिर की सूचना पर वह पकड़ ही लिया गया. जनाब उसे आपके इस सेवक ने ही पकड़ा था. और फिर मैंने उसकी इतनी धुनाई की कि उसका गरम पैजामा गीला हो गया, जो उसने कबाड़ी बाजार से खरीदा था. मेरा ख़याल है इसी डंडे से जो इस बखत मेरे हाथ में है.’’

कांस्टेबल ने कहा और अभिमान से अपना डंडा हवा में लहराया और उसकी तेल पिलाई सतह धूप में चमकने लगी.

मरया डिसूजा ने राहत की साँस ली. चलो, कोई तो है जो नसीब सिंह की असलियत जानता है....वह भी एक पुलिसवाला जिसके जिम्मे व्यवस्था बनाए रखना है.’’

हाँ, लेकिन यह पंद्रह साल पहले की बात है.’’ कांस्टेबल ने कहा. उसने बीड़ी ढूँढने के लिए एक बार फिर अपनी जेब टटोली. शायद निराशाजनक समय होने की वजह से जेब में कोई बीड़ी नहीं थी या यह भी हो सकता है कि मारिया डिसूजा की एकदम बगल में बैठे होने की वजह से उनके सम्मान में, उसने बिड़ी पीने का इरादा बदल दिया हो.

क्या मतलब?’ डिसूजा ने कहा और उसके डंडे की ओर देखा. वह एकदम निर्विकार था जैसे उसे कभी मार-पीट के लिए इस्तेमाल ही न किया हो. सहसा उसे लगा कि संभवतः अपनी सार्वभौम निरपेक्षता के लिए यह पुलिस को पहले हथियार के रूप में दिया जाता है.

‘’दो साल यहाँ रहने के बाद मेरी बदली हो गई. दस साल बाद मैं फिर परतनपुर के इसी थाने में अपनी पुराने पद पर लौट आया. मुझे उम्मीद है कि मैं जल्दी ही दीवान या हैड कास्टेबल बना दिया जाऊँगा. मेरा रिकार्ड अच्छा है और चरित्र बेदाग़ है, जैसा अमूमन हर कांस्टेबल का नहीं होता. इसके अलावा मेरी गोपनीय रिपोर्ट में यह दर्ज है कि मैंने दारू के तस्कर को पकड़ा था, जो पकड़ा नहीं जाता था. हाँ, तो यहाँ आने के बाद एक बार फिर मुझे हथियार के रूप में वही डंडा मिल गया, जिसे मैं यहाँ से जाते हुए माल गोदाम में जमा कर गया था, जो इस बखत मेरे हाथ में है और जिससे मैंने कभी नसीब सिंह की ऐसी कुटम्मस की थी कि उसका पैजामा गीला हो गया था.’’ कांस्टेबल से कहा और उसने मूँछां पर ताव देते हुए डंडे को जमीन पर खटखटाया.

मैं ईशू से दुआ करूँगी कि तुम जल्द से जल्द हैड कांस्टेबल बन जाओ और इस डंडे का न्याय पूर्वक इस्तेमाल कर सको.’’ मारया ने दुआ के लिए हवा में अपना हाथ उठाया.

वही तो मैं आपको बताने जा रहा हूँ. डंडे के न्याय पूर्वक इस्तेमाल की बात. दस साल बाद लौटने पर मैंने पाया कि परतनपुर पूरी तरह बदल गया है. नसीब सिंह शराब ठेकेदार हो गया. परतनपुर का सबसे ताकतवर और सम्मानित. ‘हिन्दू उद्धार संध’ का प्रमुख ध्वजाधारक और महान आर्य संस्कृति का पोषक. यह डंडा, जिसने कभी....अब उसकी हिफाजत के लिए है. यह तो आप जानती ही होंगी कि पुलिस का काम अपराधियों को पकड़ने के साथ सम्मानित लोगों की हिफाजत करना भी है.’’

तो यह है तुम्हारे पतन की कहानी.’’ मारया का चेहरा घृणा से तिड़क गया.

पतन की!’’, कांस्टेबल हँसा, “यह ताकत का सम्मान है. जानती हैं? वह थाने को हर महीने बंधी रकम और बोतलें देता है. बस, हमें समझ में आ गया कि शराब की तस्करी, जिसे अब वह नहीं उसके आदमी करते हैं, एक सेवाभाव है. अगर मैं कुछ गलत कह रहा होऊँ तो आप मेरा कान पकड़ सकती हैं. कृपया अपने दिल पर हाथ रख कर मेरी बात पर गौर करें. पहाड़ी आदमी रोटी के बिना रह सकता है, दारू के बिना नहीं रह सकता. उन तक दारू पहुँचाना जो ठेके पर नहीं आ सकते अपराध माना जाएगा या पुण्य का काम माना जाएगा. फैसला मैं आप पर छोड़ता हूँ.’’

तुम एक बिके हुए आदमी हो कांस्टेबल लेकिन मैं फिर भी तुम्हारे लिए ईशू से प्रार्थना करूँगी की वह तुम्हे माफ करे...’’ मारया ने कहा और उठने के लिए घुटने पर हाथ रखे.

ठहरिए मिसेज मारया. गश्त पर होने के बावजूद मैं रुक कर आपसे बातें कर रहा हूँ तो इसका मतलब है कि मैं आपको तफसील से कुछ ऐसा बताना चाहता हूँ जो आपके काम आ सके.’’

मारया उठते उठते फिर बैठ गई. उसने एक बार साइनबोर्ड पर निगाह डाली और फिर कांस्टेबल के डंडे को देखने लगी.

और इस बीच आपका कारोबार मंदा हो गया. आप बदले वक्त को नहीं समझ सकीं. वक्त बदल रहा था और वक्त के साथ लोगों की खान-पान की रुचियाँ बदल रही थी. आप पहाड़ी की पहाड़ी ही रही और आपका होटल वही पहाड़ी खाना परोसता रहा. और फिर मुकदमा. उसने आपको इतना गरीब बना दिया कि गहने तक....और हाल ही में जब आप अपनी खिड़की से गिरजाघर देख रही थी और अपने होटल के भविष्य के बारे में इतनी बेचैन थीं कि उस बेचैनी में नाक से फिसलकर चश्मा गिरा और टूट गया.’’

और मैं उसे बनवा नहीं सकी...’’ मारया ने हँसते हुए कहा, “अच्छी जासूसी कर लेते हो....मुझे लगता है कि परतनपुर का हर आदमी ठेकेदार का जासूस है. लेकिन तुम्हारी जासूसी फेल हो गई....चश्म ऐसे नहीं टूटा था.’’

कांस्टेबल हड़बड़ा गया. खैर,’’ उसने सड़क पर डंडा खटखटाते हुए कहा, ‘असली मुद्दा यह है कि ठेकेदार आपके होटल के दाएँ और बाएँ बाजू की ज़मीन खरीद चुका है. मालिक जमीन नहीं  बेचना चाहते थे, लेकिन उन्होंने बेच दी. मगरमच्छ से तो बैर नहीं कि जा सकता, जब नदी के किनारे रहना हो. वह यहाँ एक थ्री स्टार होटल खोलना चाहता है. जाहिर है थ्री स्टार होटल से परतनपुर का चेहरा बदल जाए. नगर के सभी गणमान्यों का उसे समर्थन है और हुकूमत उसका साथ दे रही है. लेकिन बीच में आपका होटल...’’

उसने अपना दलाल मेरे पास भेजा था.’’

यह उसका बड़प्पन है कि उसने दलाल आपके पास भेजा वरना उसके पास तो और भी बहुत से रास्ते थे.’’

कौन से रास्ते? क्या वह होटल छीनने के लिए....’’

मुमकिन है...’’ कांस्टेबल ने सहजभाव से सिर हिलाया.

सुनो कांस्टेबल और गौर से सुनों. मैंने बयाना नहीं लिया और होटल बेचने से इनकार कर दिया.’’

क्या कह रही मिसेज मारया? बयाना तो आप ले चुकी हैं.’’

’’क्या कहा? बयाना ले चुकी. वाह!’’

“आपने दलाल से कहा, जमाना खराब है. इतनी रकम नगद लेना ठीक नहीं रहेगा. वह इसे आपके बैंक के खाते में जमा करा दे और उसने यह रकम वहाँ जमा करादी है. परतनपुर में सब जगह यही चर्चा है कि बयाना लेने के बाद आप होटल बेचने से मुकर गई. आपके कारण सारा ईसाई समाज डरा हुआ है और उसकी गरदन शर्म से झुक गई है. मैंने सुना तो मेरी आत्मा को बहुत क्लेश हुआ मिसेज मारया. मैं सचमुच आपकी बहुत इज्जत करता हूँ.’’

मारया का चेहरा भय से पीला पड़ गया. उसने कुछ कहना चाहा लेकिन उसे लगा कि उसके होंठों में शब्द जम गए हैं और वह शब्दहीन हो गई है.

कांस्टेबल खड़ा हो गया और सम्मान से सिर झुकाते हुए बोला, “यकीन मानिए जब मैं वर्दी में नहीं होता तो मेरे पास एक दूसरी आत्मा होती है और वह आपके लिए बहुत छटपटाती है. आप समझती हैं न बिना वर्दी के पुलिसवाले के पास कोई ताकत नहीं होती और तब अगर आप किसी मुसीबत में हैं तो मैं आपकी मदद नहीं कर सकता.’’

चलो, कोई तो है जिसकी आत्मा में मेरे लिए दर्द है, भले ही वह मेरी कोई सहायता न कर सके. अगर तुम्हारी बात सच हुई तो मैं जालसाजी के मामाले में बैंक को भी अदालत में खड़ा करूँगी.’’

लेकिन, माफ करिए मिसेज मारया आप अपने बेटे विक्टर को किस अदालत में खड़ा करेंगी? जहाँ तक मेरी जानकारी है, दलाल उससे बात कर चुका है. वह भी चाहता है कि आप होटल बेच दें. और चाहेगा क्यो नहीं जब जमाना ही ऐसा है कि हर आदमी ऐश की जिन्दग़ी जीना चाहता है. वह कार में क्यों नहीं घूमना चाहेगा? मुमकिन है उसकी सलाह पर ही दलाल ने....वह अगले महीने आ रहा है और तब तक यहीं रह कर आप पर दबाव डालेगा जब तक रजिस्ट्री नहीं हो जाती. मेरा सुझाव है कि....अच्छा छोड़िए....बस इतना याद रखिए कि मेरी हमदर्दी सदा आपके साथ है.’’उसने हाथ हिलाया और सड़क पर डंडा खटखटाते हुए गश्त पर निकल गया.

मारया हिलक्वीन के साइनबोर्ड के नीचे पत्थर पर चुपचाप बैठी कांस्टेबल के डंडे की खटखटाहट सुनती रही जो पहाड़ की निर्दोंष शांत को काठ के कीड़े की तरह कुतर रही थी. आवाज़ विलीन होने के बहुत देर बाद भी वह उसके कानों में गूँजती रही. सहसा उसे दलाल के शब्द याद आए--क्या आप सचमुच सोचती हैं कि अकेली नहीं हैं? तब वह उसके आशय को समझी ही नहीं थी. अब समझ रही है. दलाल विक्टर से बात कर चुका होगा और उसकी सहमति के बाद ही उसने उसे बयाना देने और धमकाने की हिम्मत की. एकाएक उसकी समझ में नहीं आया कि उसका सबसे बड़ा दुश्मन कौन है, ठेकेदार या उसका बेटा विक्टर और उससे हिलक्वीन कौन छीनना चाता है?

विक्टर चार साल का था जब डेविड दुनिया से चला गया था. हिलक्वीन ने ही तब पिता बनकर उसकी परवरिश की और इस योग्य बनाया कि वह इस दुनिया में अपने पैरों पर खड़ा हो सके. बाज़ार की चकाचौध क्या सबकुछ को अंधा कर देती है. उसने अपनी छाती पर सलीब बनाया, “प्रभु मैं विक्टर को माफ नहीं कर सकती. लेकिन तू उसे माफ़ करना.’’

वह घुटनों पर हाथ रखकर उठी.

उसकी आँखों के सामने वह छोटी-सी चढ़ाई थी, जिसे हिलक्वीन तक पहुँचने के लिए पार करना था. एक बारगी उसे लगा कि वह अंतिम बिंदु तक टूट गई है और वह इस चढ़ाई को कभी पार नहीं कर सकेगी और दूसरे ही क्षण उसने महसूस किया कि सारे भरोसे टूट जाने के बाद वह एक अबूझ शक्ति से भी गई है और वह कैसी भी दुर्गम चढ़ाइयों को दौड़ते हुए पार कर सकती है.


बहादुर हिलक्वीन के दरवाज़े पर खड़ा उसका इंतजार कर रहा था. मारया के लौटने में देर होने के कारण आशंका का बादल उसके चेहरे पर फैला हुआ था. उसे देखते ही वह बादल छंटा और उसके होंठों पर एक भोली मुस्कान बिखर गई. घुप्प अंधेरी रात में अनायास प्रकाश की किरण की तरह.

और जैसे ही मारया ने हिलक्वीन के भीतर क़दम रखा वैसे ही दरवाज़े के ऊपर टंगी सिंगिंग बेल बजने लगी....
_________




सहजि सहजि गुन रमैं : चंद्रेश्वर

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चंद्रेश्वर का दूसरा कविता संग्रह ‘सामने से मेरे’ अभी प्रकाशित हुआ है. ये कविताएँ बुनावट में सरल लग सकती हैं पर वर्तमान की जटिलता को ये समझती हैं और व्यक्त भी करती हैं. इनका अपना एक प्रतिपक्ष है और प्रतिरोध का साहस भी. 

चंद्रेश्वर की कुछ कविताएँ आपके लिए.



चंद्रेश्वर की कविताएँ                      



सरलहोनाकठिन

सरलहोनाकिसीअपराधी, माफियाऔरडॉनकेआगे
बिछजानानहीं
सरलहोनाअपनाआत्मसम्मान
गिरवीरखदेनानहीं
सरलहोनागंदेनालेयागटरकेपानीकेसाथ
बहनानहीं

सरलहोनाअगरधूर्तहोनेकीछूटनहींदेता
तोबेवकूफ़भीनहींबननेदेता
सरलहोनामानवीयहोनाहै
कुछज्यादा

सरलहोनाउतनाहीकठिनहै
जितनाखींचनाकोईसरलरेखा

सरलताओढ़ीनहींजाती
जैसेमहानता!
   
         




आलोचनाकाएककोना

बचाहीरहताहैएकअददकोना
आलोचनाकासदा
अपनेबेहदक़रीबीरिश्तोंकेबीचभी

होनाइसकोनेकागवाहीहैहमारी
ज़िंदादिलीका

हज़ारबातोंकेबादभीरहतीहैबची
थोड़ी-सीबात
जोकरतीहैपैदाउम्मीद
अगलीमुलाक़ात  केलिए

जैसेहमलिखतेथेपहले
चाहेजितनीभीचिट्ठियाँ
परहरअगलीचिट्ठीमेंरहजाताथा
यहीएकअधूरावाक्यकि
शेषफिरकभी-----!
         




कालिख

माँरोज़माँजती
चिकनीराखऔरपानीसे
शामकोशीशा
लालटेनका

रातभरजलतीलालटेन

हमसुबहउठतेसोकर
देखतेकिजमगईहै
कालिखफिर
लालटेनकेशीशेमें

माँरुकीकभी
कालिखहीथमी
कभी!
   



तुम्हाराडर

एकहाथीजितनीजगहछेंकताहै
उसमेंअसंख्यचीटिंयाँरहलेंगीं

एकराजाकीबड़ीहवेलीकेनीचे
जोढँकीहैपृथ्वी
उतनीपृथ्वीपरतोबसाईजासकतीहै
ज़रूरतमंदइंसानोंकीएकपूरीबस्ती

तुमइतनेबड़ेक्योंबने
कितुम्हाराडरभीबनतागयाबड़ा

छोटेआदमीकाडरहोताहोगा
निश्चयहीछोटा !
          


ज़्यादा-ज़्यादा

ज़्यादा-ज़्यादाकबाब, ज़्यादा-ज़्यादाशबाब
ज़्यादा-ज़्यादाब्रेड, ज़्यादा-ज़्यादामक्खन
ज़्यादा-ज़्यादामुर्गा, ज़्यादा-ज़्यादामटन
छौंक-बघारज़्यादा-ज़्यादा, ज़्यादा-ज़्यादाचिक्कन
ज़्यादा-ज़्यादादारू, ज़्यादा-ज़्यादाचिक्खन

बड़ी-बड़ीगाड़ीकिबड़ा-बड़ामकान
बड़ा-बड़ाप्लाटऔरदुनियाजहान

शब्दज़्यादाकिविचारकम
खाँचीभरअनुभवकिसंवेदनाकम
सियासतज़्यादाऔरनतीजाकम

सबलाखड़ाकरतेहैं
ख़िलाफआपको
धर्म, ज़िन्दगीऔरअंततः
इन्सानियतके!
   
          


घूरेकीराख

कभी-कभीदिखजातीहै
कोईमरियल-सीचिनगारी
घूरेकीराखमेंभी

अगरमौसमहोवसंतका
फागुनीबयारका
तोकहनाहीकिया
देरनहींलगतीउसे
लपटबनते!
  
     



हरियालीकासफ़र

जिसजगहसे
उखड़करजाताहैपौधा
जिसजगहको
दूसरी-तीसरी
चौथीयापाँचवींबार
हरबारकुछमिट्टी
बचीरहजातीहै
 उन-उनजगहोंकी
उसकीजड़ोंमें
जिन-जिनजगहोंसे
उखड़ताहैवह

इसतरहपौधेकेसाथ -साथ
सफ़रकरतीरहतीहै
मिट्टीभी

मिट्टीसेमिट्टीका
यहमहामिलनही
साखी  है
हरियालीका !

                      





होसामनाघटावसे

मैंनेप्यारकियाहै
तोघृणाकौनझेलेगा
चुनेख़ूबसूरतफूलमैंने
तोउलझेगागमछाकिसका
काँटोंसे
बनायेअगरमित्रमैंने
तोशत्रुकहाँजायेँगे
सुखनेसींचाहैमुझे
तोतोडाहै
बार-बारदुःखने
मेरेजीवनमेंशामिलहैसोहर
तोमर्सियाभी
ऐसेकैसेहोगाकि
जोड़ताचलाजाऊँ
होसामनाघटावसे
लियाहैजन्म
तोकैसाडरमृत्युसे!
                 
            



सामनेसेमेरे

मेरेसामनेपारकरतेदिखा
चौराहा
एकघायलसांड
उसकादाहिनापैरजंघेकेपासथा
लहूलुहानबुरीतरहसे
उसनेबमुश्किलपार.कियाचौराहा
कुछदेरकेलिएरूकेरहेवाहन
हरतरफ़से
कुछदेरबादवहाँसेगुजरीएकगाय
आटाभरापॉलिथीनमुँहमेंलटकाए
सरकारीअध्यादेशकीउड़ातेहुएधज्जियाँ
उसकेपीछेकुत्तेलगेहुएथे
एकनन्हेअंतरालकेबाददिखाजाता
एकझुण्डसूअरोंका
थूथनउठाएगुस्सेमें
एक-दोभिखारीटाइपदिखेबूढ़ेभी
जिनमेंशेषथीउम्मीदअभीजीवनकी
ठेलेपरकेलेथेबिकनेकोतैयार
सड़कधोयीजारहीथी
नगरपालिकाकीपानीवालीगाड़ीसे
पहलादिनथाचैत्रनवरात्रका
आख़िरमेंनिकलाजुलूस
माँकेभक्तोंका
होकरचौराहेसे
गाताभजन
लगातानारे
पट्टियाँबाँधेमाथेपर
जयमाताकी!
   
      




मैंऔरतुम

तुममुझेवोट  दो, मैंतुम्हेंदेशभक्तिकाप्रमाणपत्रदूँगा
तुममुझसेसहमतरहो, मैंतुम्हारीहिफाज़तकरूँगा
तुमचुपरहो, मैंतुम्हारीपीठपरअपनाहाथरखदूँगा
तुमलिखनाबंदकरदो, मैंतुम्हेंपुरस्कृतकरदूँगा
तुमसोचनाबंदकरदो, मैंतुम्हेंदेवताबनादूँगा
तुमगऊबनजाओ, मैंतुम्हेंमाताबनालूँगा|
                         
                              [


कवितानहींडकार
(आलोचकडॉ०मैनेजरपाण्डेयकेप्रति)

आपकीआलोचना-भाषामें
नहींमिलेगादुचित्तापन
वहमुक्तहैहकलाहटसे
आपबोलतेयालिखतेवक्त
देतेजातेनयातेवर
विवेकीस्पर्शभाषाको

सचमुचएकधारदारहथियारहै
आपकीआलोचना
साफहोताजाताझाड़-झंखाड़ 
हमारेदिमागका

आपकीनिगाहसबसेपहलेपहुँचतीवहां
जहाँविकसितहोतीरहती
संस्कृतिप्रतिरोधकी

आपकीभाषामेंक्रियायोंकीहलचल
बेचैनीसंज्ञाओंकी

आपकोपढ़तेहुए
होताजातारोशनदिमाग
आपबनातेएकसंतुलन
पोथीऔरजगकेबीच
आपकामाननासाफकि
कवितानहींडकार
अघाएआदमीकी

आपइतिहासदृष्टि, विचारधाराऔर
यथार्थवादकेकायल
आपनेकिसीअच्छीरचनाको
कभीकियानहींघायल

हिंदीआलोचनाकोदियाआपने
अँधेरेसमयमेंभीएकनयामान
उसेमिलीएकनयीपहचान

आपकीआलोचनामेंऐसीभाषा
जिसेपढ़तेख़त्महोतीधुँध
पैदाहोतीआशा!
        





कॉमरेडज़माखान

सत्तरवर्षीयकॉमरेडज़माख़ानको
अबभीयक़ीनहैकि
बदलेगीयेदुनिया
इंसानऔरइंसानकेबीच
नहींहोगीकिसीक़िस्मकी
कोईदीवार

कॉमरेडज़माखानहैं
नगरसचिवअपनीपार्टीके
वेकहींभीखड़ेहों
किसीचौराहेपरयासैलूनकेपास
ख़ालीबेंचपर
यासड़ककेकिनारे
किसीफलवालेठेलेकेपास
कभीचुपनहींरहते
वेबोलतेहीरहतेहैंलगातार
हरतरहकेज़ुल्मकेख़िलाफ़
वेबोलतेहैंताकिज़िंदारहसकें

पूरेनगरमेंदोहीजनहैंबचे
जोबोलतेहीरहतेहैंलगातार
एकतोवोपागलहै
पहनेबोरेकीकमीज़
दूसरेअपनेकॉमरेडज़माखानहैं
पागलसूरजकीओरमुँहबाये
बड़बड़ातारहताहै
कॉमरेडखानपूँजीपतियोंकेख़िलाफ़बोलतेहैं

कॉमरेडखानपहलेचद्दरबेचतेथे
घूम -घूम  गाँव -गाँव
अबबेटेकमानेलगेतो
होलटाइमरहैंपार्टीके
उनकेसाथकेकईलोगोंनेपार्टीछोड़दी
कुछतोविधायकऔरमंत्रीभीबने
परकॉमरेडज़माखान
अपनीसियासीज़मीनपरखड़ारहे

वेबोलतेहैंतोगर्वीलेलगतेहैं
गोयाकबीरहों
जो'जस -कीतसचदरिया'रखचलदेंगे
कॉमरेडखानकोअपनीसियासतपरगर्वहै
वेहरकिसीकेसवालकाज़वाबदेतेहैं
संजीदाहोकर
गोयाहरसवालका
सटीकजवाबहोउनकेपास

कॉमरेडज़माखानकीमिमिक्रीकरतेहैं
शहरकेठेले-खोंमचेवाले
सैलूनकेनाई
वेमज़ाकमेंकियेसवालपरभीबोलतेहैं
संजीदाहोकर

कॉमरेडखानकीपार्टीकामहासचिव
भलेहीहोडाँवाडोल
क्रांतिकोलेकर
परकॉमरेडखानकेमनमें
नहींउपजीशंकाकभी
पलभरकेलिए
क्याकभीनगरमेंकिसीने
उदासहोतेनहींदेखा
कॉमरेडजमाखानको?

           
___________________________

चंद्रेश्वर
30 मार्च 1960 कोबिहारकेबक्सरजनपदकेएकगाँवआशापड़रीमेंजन्म.

कविता-संग्रह : 'अबभी'(२०१०), ‘सामनेसेमेरे'(२०१८) प्रकाशित
भारतमेंजननाट्यआन्दोलन'(1994), 'इप्टाआन्दोलन: कुछसाक्षात्कार'(१९९८)तथा 'बातपरबातऔरमेराबलरामपुर' (संस्मरण)प्रकाशित.
हिंदीकीअधिकांशसाहित्यिकपत्र-पत्रिकाओंमेंकविताओंऔरआलोचनात्मकलेखोंकाप्रकाशन।

संपर्क
631/58 ज्ञानविहारकॉलोनी,कमता,
चिनहट, लखनऊ,उत्तरप्रदेश
पिनकोड - 226028
मोबाइलनम्बर- 07355644658

आता रहूंगा तुम्हारे पास : चंद्रभूषण की कविताएँ

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पूरा पत्रकार और अपने को आधा कवि ‘A journalist and half a poet’ मानने वाले चंद्रभूषण का पहला कविता संग्रह ‘इतनी रात गए’ २००१ में प्रकाशित हुआ था. सत्रह साल बाद दूसरे कविता संग्रह ‘आता रहूँगा तुम्हारे पास’ का प्रकाशन अभी-अभी ‘उद्भावना’ से हुआ है. इस संग्रह से दस कविताएँ और आशुतोष कुमार की भूमिका ख़ास आपके लिए.

चंद्रभूषण को अपने ‘कवि’ को गम्भीरता से लेना चाहिए. इधर कई वर्षो में प्रकशित तमाम कविता संग्रहों से यह संग्रह बेहतर और सार्थक है. 








कुछ साफ़ सुथरे पागल पन की तलाश             
आशुतोष कुमार





सो दूसरे नेक लोगों की तरह कवि भी अपनी दीवारें ऊंची कर
                                        लिए होते है 

कि लो जी, हम तो बाहर हैं, न रहा बांस, न बजी बांसुरी 
हम फूलों, चिड़ियों, दोस्तों और मां पर सोचते हैं,
उसपर ही लिखते है कि कविता बची रहे, आईना बचा रहे
जिसमें कभी कोई शर्मदार अपना चेहरा देखे और जार जार रोए” 



ये पंक्तियाँ चंद्रभूषण के पहले कविता-संग्रह इतनी रात गएमें संकलित एक कविता सबसे बड़ा अफसोससे ली गईं हैं. इसी कविता में आगे यह भी कहा गया है कि एक कवि के रूप में समकालीन कवि का सबसे बड़ा अफसोस यह है कि आने वाले समय में शायद उसकी कविता के बारे में यही कहा जाएगा कि घटिया जमाने के कवि भी घटिया थे..’ 


कहना न होगा कि यह एक पूरे काव्य समय की आलोचना थी. ख़ास तौर पर अस्सी के दशक में उभर कर आई उस समकालीन कविताके लिए, जिसमें बचाओ-बचाओका स्वर प्रमुख है. औद्योगिक पूंजीवादी सभ्यता की बढ़ती यांत्रिकता और बर्बरता के बर-अक्स मनुष्यता, सुन्दरता और कोमलता को बचाने की पुकार.


स्वाभाविक था कि फूल, चिड़िया, बच्चा और मां जैसे विषय इन कविताओं में प्रमुखता से आए. अकविता और वाम-कविता की अति-यर्थाथवादी मुखरता से घबराए हुए हिन्दी पाठकों-आलोचकों ने इस जीवनधर्मी नई वाम कविता को हाथो हाथ लिया. लेकिन नब्बे के बाद कारपोरेट पूंजी के भूमंडलीकरणने इस कोमलकलित कविता को अप्रासंगिक बना दिया. नई पीढी के कवियों के सामने यह बात उजागर होने लगी कि क्रूरता और विक्षिप्ति का सामना किए बगैर कोमलता की रक्षा नहीं की जा सकती. कविता को अब बची-खुची कोमलताओं और सुन्दरताओं में शरण ढूँढने की जगह बदलते हुए यथार्थ को गहराई से देखना-समझना होगा, चाहे वह कितना ही पागलपन से भरा हुआ और पागल कर देने वाला हो.  


चंद्रभूषण नब्बे बाद की इसी पीढी के कवि हैं. वे सुन्दरता और समरसता की खोज करने वाले नहीं, विकृति और विक्षिप्ति को समझने वाले कवि हैं. 


यों पागलपन भी एक सापेक्षिक पद है. एक समय का पागलपन किसी दूसरे समय में सामान्य प्रतीत हो सकता है. असामान्य के यों सामान्य हो जाने को आजकल न्यू नॉर्मलकहा जाता है. जैसी भारत में किसानों की आत्महत्या की खबर अब बेहद सामान्य हो चुकी है. सांख्यिकी की नजर से देखें तो आत्महत्याओं में बढ़ोत्तरी की भी एक दर निश्चित की जा सकती है, जिसे पुराने-नए आंकड़ों के हिसाब से सामान्य कहा जा सकता है. लेकिन मानवीय दृष्टि से हर एक आत्महत्या असामान्य है. हर एक हत्या, चाहे वो प्रत्यक्ष हो या परोक्ष, असामान्य है. कविता की दृष्टि में हर एक घटना और हर एक परिस्थिति जो जीवन के, सत्य के, न्याय के विरुद्ध है, असामान्य है. इस असामान्य को सामान्य की मान्यता मिल जाए, यह विक्षिप्ति है.


विक्षिप्ति को सामान्य मान लिया जाए यह और बड़ी विक्षिप्ति है. कभी ऐसा जबरन मनवा लिया जाता है तो कभी मानने के सिवा कोई चारा  नहीं होता. अरक्षितों के खिलाफ़ सत्ताओं के इस खेल में पागलपन की भी अनेक कोटियाँ और कई स्तर हो सकते हैं. आज के न्यू नॉर्मलसमय में प्रत्येक गंभीर कवि को पागलपन की इन सभी कोटियों को आँख गड़ाकर समझना पड़ेगा और ऐसी कविता रचनी पड़ेगी, जिसमें उन सब का बयान मुमकिन हो सके. इस कठिन चुनौती से मुंह चुराने वाले कवि प्रासंगिक नहीं रह जाएंगे.


लेकिन ऐसा करने के लिए एक दूसरे तरह का पागलपन चाहिए. पागलपने का समना करने के लिए भी पागलपन चाहिए. विक्षिप्ति के समय में जीने के लिए, ज़िन्दगी के पक्ष में लड़ने के लिए, विक्षिप्ति चाहिए. इस दूसरे  तरह की विक्षप्ति को शायद एक साफ़-सुथरा पागलपन कहा जा सकता है. आज के गंभीर कवि के लिए कविता चंहुओर छाए रक्तरंजित पागलपन के बीच एक साफ़-सुथरे पागलपन की तलाश भी है. कम से कम चन्द्र्भूष्ण के लिए तो है. तभी वे लिखते हैं:

भीतर इतनी खटर- पटर 
इतनी आमदरफ्त 
इतना शोर 
ऐसा कोई ठंढा पोशीदा कोना कहाँ है 
जहां उसे ठहराया जाए 
यह एक साफ़-सुथरे पागलपन की तलाश है 
मुझे भी ऐसा लगता है 
इस दर्द का इलाज मगर कहाँ से लाया जाए
(‘गुमचोटसे)


दर्द है, तीखा दर्द है. इलाज की बेचैनी भी है. लेकिन इलाज के लिए दर्द की सही शिनाख्त जरूरी है. यह आसान नहीं है, क्योंकि सभ्यता का सारा उपक्रम दर्द को छुपाने पर है. सारी चमक-दमक, सारी वीरता-मंडित घोषणाएं, विज्ञापनों का बहुआयामी मायाजाल सबकुछ इस दर्द को छुपाने के लिए है. आश्चर्य नहीं कि कवि इसे एक गुमचोट की तरह महसूस करता है. ऊपर से सभी कुछ ठीक-ठाक है, सामान्य  है, लेकिन भीतर कहीं कोई चीज लगातार पिराती रहती है. चन्द्रभूषण के लिए कविता इस गुमचोट की शिनाख्त का एक तरीक़ा भी है. 


बाहर की विक्षप्ति का सामना भी भीतर की इस गुमचोट को समझने का एक तरीक़ा है. चंद्रभूषण उन कवियों में से हैं, जिनके लिए कविता करना ज़िन्दगी करने का एक तरीक़ा है. वे किसी छायाकार पर्यटक की तरह कविता के कैमरे से देश-दुनिया की यादगार तस्वीरें खींचने नहीं निकले हैं. वे देश-दुनिया में  निकले हैं अपने भीतर के किसी दर्द को समझने, परखने और उससे निजात पाने का सलीका खोजने.


उनके हाथों में बस एक चिराग है, उस समझ का, जो कहती है कि भीतर के दर्द की जड़ें भीतर नहीं बाहर होती हैं. लेकिन भीतर दर्द न हो तो बाहर फ़ैली ये जड़ें दिखाई नहीं देतीं. छायाकार पर्यटक कवि को दुनिया में दर्द दिखाई भी दे जाए, वह उसकी पुरस्कार-जिताऊ तस्वीरें भी उतार ले, लेकिन उस दर्द की जड़ें दिखाई नहीं देंगी. 


चन्द्रभूषण उन कवियों के अंदाज़ में नहीं लिखते, जिन्हें लगता है कि उनका अवतार साहित्य के रिक्त भंडार को महानतम रचनाओं से भर देने के लिए हुआ  है. वे सबसे पहले अपने लिए लिखते हैं. अपने ही दर्द की दवा खोजते से. अपनी ही ज़िन्दगी को कविता से सहेजने की कोशिश करते से. किसी आत्मवक्तव्य में उन्होंने कहा भी है कि  कविता ऑक्सीजन की तरह उनके जीने की जरूरत है.वे इस बात की फिक्र करते नहीं लगते कि उनकी कवितायेँ महानतम कविताओं की श्रेणी में रखी जाएँगी या नहीं. हो सकता है उनकी कुछ कविताएँ क्राफ्ट और भाषा के लिहाज से बहुत  परिष्कृत और अद्यतन न लगें. ऐसा लगे, यह सोच उनकी रचना-प्रक्रिया में शामिल नहीं जान पडती. वे भीतर की जरूरत से उपजी हैं और जैसी हैं, वैसी हैं. लेकिन भीतर की जरूरत के मारे पाठकों को वे बेहद अपनी, बहु-अर्थ भरी और दृष्टि-निर्मात्री प्रतीत होंगी. 


भीतर से बाहर और फिर बाहर से भीतर की यह प्रक्रिया चंद्रभूषण की अनेक कविताओं में साफ़ दिखाई देती है. इसका एक विलक्षण उदाहरण अठारह साल का लड़काहै. यह अठारह साल का लडका आधी रात किसी जगमग नाइट क्लब के बाहर मिलता है, जिसे देखकर पहला ख़याल यह आता है कि

वह सिर्फ़ फुटकर किस्म का डॉन क्विगजॉट
ब्रेड पकौड़ों और पावर ब्रोकरों के शहर में
अंडे बेचकर एडीसन बनने आया है’,

लेकिन जैसे जैसे कविता उसे करीब से देखने लगती है, उसे उस लडके में अपना और ख़ुद में उस लड़के का अक्स दिखाई देने लगता है.  आखिरकार कविता जहां पहुँचती है, वहाँ से साफ़ दिखने लगता है कि इक्कीसवीं सदी की शहरी जगमगाहट ऐसे ही मासूम लडकेलडकियों के शिकार से पैदा हुई हैजो नाइट क्लब के बाहर और भीतर भी हो सकते हैं. यह इस बात पर निर्भर करता है कि सत्ताएं अपने खेलमें उसे कब,कहाँ और कैसे शामिल करती हैं.


सत्ताओं के इस जटिल खेलको चंद्रभूषण की कविता बहुत बारीकी से देखती है. इस खेल को समझना जरूरी है. आख़िर खेल क्यों? सत्ता को खेल की जरूरत क्यों पड़ती है? अरक्षित जन को वे सीधे क्यों गड़प नहीं कर जातीं? चूहे-बिल्ली का खेल क्यों खेलती हैं? बाज़ार से लेकर राजनीति तक, संस्कृति से लेकर रिश्तेदारियों तक इसी खेल का तो पसारा है. इसलिए कि सब कुछ के बावजूद इंसान आखिर हलवा  नहीं है. इंसान को सीधे गडप नहीं किया जा सकता. वो सोचता-समझता है, प्रतिक्रिया करता है, प्रतिरोध करता है. उसे सीधे नहीं किसी खेल में फंसाकर ही मारा जा सकता है. 


चंद्रभूषण की कविता खेलसत्ताओं  के इस खेल की छानबीन  भी करती है और ख़ुद को और, जाहिर है, पाठक को भी, इस खेल में मुकाबले की बाजी के लिए तैयार भी करती है. दुनिया में रहते हुए सत्ताओं के इस खेल में न पड़ने का विकल्प किसी के पास नहीं है. कविता बड़े अपनेपन से समझाइश देती है

“.. लिहाजा  खेलना है तो अपनी ताब अपनी सरकशी से खेलो 
वजह चाहे कुछ भी हो, किसी की बेकसी  से क्यों खेलो
और अगर तुम्हारा मुक़ाबला किसी राक्षस से हो 
जैसे किसी असाध्य रोग, अन्यायी व्यवस्था 
या समझ में न आने वाली अपनी ही किसी दुश्चिंता से 
तो छल- छद्म समेत हर संभव हथियार लेकर उससे लड़ो...” 


ऐसी पंक्तियाँ लिखने के लिए नैतिक साहस चाहिए. मैदान के खेल की नैतिकता जीवन के खेल में नहीं चल सकती. यहाँ तो जो जीते वही सिकन्दर है, वही नैतिकता की परिभाषा तय करने वाला है. साधारण जन के लिए इस खेल में जीत का मतलब शिकार हो जाने की नियति से बचना मात्र है. शिकार हो जाने के बाद कोई नैतिकता नहीं बचती. इसलिए इस खेल में छल छद्म समेत हर सम्भव हथियार लेकर खेलना जरूरी है. 


अब तक की चर्चा से किसी को लग सकता है कि चंद्रभूषण केवल राजनीतिक कवितायेँ लिखते होंगे. उनके नए संग्रह की कविता गेरुआ चाँदसे गुजरने वालों को ऐसा कोई भ्रम नहीं होगा.

इस संग्रह में राजनीतिक-सामाजिक कविताओं के अलावा प्रकृति, प्रेम और पारिवारिक जीवन की ढेर सारी कवितायेँ हैं. लेकिन उनके सबसे भाव-विगलित और सौन्दर्य-मर्मी कवितायेँ भी गहरे अर्थों में राजनीतिक हैं. वे उन अबोध प्रसन्न-चित्त कवियों में शामिल नहीं  हैं, जिन्हें जीवन में राजनीतिक और राजनीति-मुक्त जगहें अलग अलग मिल जाती हैं, और जिन्हें  राजनीति से बचने के लिए कविता की शरण मिल जाती है. चंद्रभूषण की कविता अमलतासके उस अजब पीले रंगको तो ध्यान से परखती ही है, ‘जो देखने वालों को किसी और दुनिया का छिपा हुआ रास्ता दिखाता है’,लेकिन इस अजब पीले रंग में भारतीय श्रम के  गौरवशाली पसीने  की खुशबू को भी डूब कर महसूस करती है. यह एक ऐसी कविता है जो भारत की श्रमशील संघर्षशील जनता से प्रेम करती है, उसी तरह भारत की ऋतुओं, फूलों और गीतों से भी. भारतप्रेम का यह रूप तथाकथित भारत-व्याकुल भक्तों में नहीं मिलेगा जो केवल धार्मिक प्रतीकों को पहचानते हैं, प्रकृति और मनुष्य को नहीं.


यह मानुष-प्रेम ही है जो चंद्रभूषण की कविता को तमाम विक्षिप्तियों का आमना-सामना करने के बाद भी निराशावादी नहीं होने देता. बाहर और भीतर के पागलपन का दूर तक पीछा करने के बाद भी निराशा के पागलपन का शिकार नहीं होने देता. संग्रह की पहली ही कविता कुछ न होगा तो भी कुछ होगाइस भरोसे की गहराइयों का पता देती है-

‘.. और चलते चलते जब इतने थक चुके होंगे कि
रास्ता रस्सी की तरह खु को लपेटता दिखेगा 
आगे बढना भी पीछे हटने जैसा हो जाएगा 
... तब कोई याद हमारे भीतर से उमड़ती हुई आएगी 
और खोई खामोशियों में गुनगुनाती हुई 
उंगली पकड़कर हमें मंजिल तक पहुंचा जाएगी .
ashuvandana@gmail.com
________________________ 







कुछ न होगा तो भी कुछ होगा

सूरज डूब जाएगा
तो कुछ ही देर में चांद निकल आएगा

और नहीं हुआ चांद
तो आसमान में तारे होंगे
अपनी दूधिया रोशनी बिखेरते हुए

और रात अंधियारी हुई बादलों भरी
तो भी हाथ-पैर की उंगलियों से टटोलते हुए
धीरे-धीरे हम रास्ता तलाश लेंगे

और टटोलने को कुछ न हुआ आसपास
तो आवाजों से एक-दूसरे की थाह लेते
एक ही दिशा में हम बढ़ते जाएंगे

और आवाज देने या सुनने वाला कोई न हुआ
तो अपने मन के मद्धिम उजास में चलेंगे
जो वापस फिर-फिर हमें राह पर लाएगा

और चलते-चलते जब इतने थक चुके होंगे कि
रास्ता रस्सी की तरह खुद को लपेटता दिखेगा-
आगे बढ़ना भी पीछे हटने जैसा हो जाएगा...

...तब कोई याद हमारे भीतर से उमड़ती हुई आएगी
और खोई खमोशियों में गुनगुनाती हुई
उंगली पकड़कर हमें मंजिल तक पहुंचा जाएगी.








क्या किया

क्या किया?

थोड़ा एनिमल फार्म पढ़ा
थोड़ा हैरी पॉटर
कुछ पार्टियां अटेंड कीं
बहुत सारा आईपीएल देखा

एक दिन अन्ना हजारे के अनशन में गया
पूरे दिन भूखा रहने की नीयत से
लेकिन रात में आंदोलन खत्म हो गया
तो खा लिया- बहुत सारा

एक गोष्ठी में सोशलिज्म पर बोलने गया
पता चला, सूफिज्म पर बोलना था
सब बोल रहे थे, मैं भी बोला
फिर एक गोष्ठी में ज्ञान पर बोला
और इसपर कि इतने बड़े बाजार में
ज्ञान के कंज्यूमर कैसे पहचाने जाएं

उसी दिन ज्ञान गर्व से मुफ्त की दारू पी
और उससे बीस दिन पहले भी
कामयाब रिश्तेदारों के बीच
नाचते-गाते हुए, खूब चहक कर पी

दारू वाली दोनों रातों के बीच
एक सीधी-सादी सूफियाना रात में
घर के पीछे हल्ला करने वालों पर सनक चढ़ी
जबरन पंगा लेकर पूरी बरात से झगड़ा किया
रात बारह बजे दरांती वाला चाकू लेकर
मां-बहन की गालियां देता दौड़ा
किसी को मार नहीं पाया, पकड़ा गया

बाद में कई दिन भीतर ही भीतर घुलता रहा
जैसे जिंदगी अभी खत्म होने वाली है
इस बीच, इसके आगे और इसके पीछे
जागते हुए, नींद में और सपने में भी
नौकरी की....नौकरी की....नौकरी की

लगातार सहज और सजग रहते हुए
पूरी बुद्धिमता और चतुराई के साथ
कि जैसे इस पतले रास्ते पर
पांव जरा भी हिला तो नीचे कोई ठौर नहीं

एक दिन मिज़ाज ठीक देख बेटे ने कहा,
पापा आप कभी-कभी पागल जैसे लगते हो
मैंने उसे डांट दिया
मगर नींद से पहले देर तक सोचता रहा-
इतना बड़ा तो कर्ज हो गया है
कहीं ऐसा सचमुच हो गया तो क्या होगा.





धीरे चलो

धीरे चलो
इसलिए नहीं कि बाकी सभी तेज-तेज चल रहे हैं
और धीरे चलकर तुम सबसे अलग दिखोगे
इसलिए तो और भी नहीं कि
भागते-भागते थक गए हो और थोड़ा सुस्ता लेना चाहते हो

धीरे चलो
इसलिए कि धीरे चलकर ही काम की जगहों तक पहुंच पाओगे
कई चीजें, कई जगहें तेज चलने पर दिखतीं ही नहीं
बहुत सारी मंजिलें पार कर जाने के बाद
लगता है कि जहां पहुंचना था, वह कहीं पीछे छूट चुका है

धीरे चलो
कि अभी तो यह तेज चलने से ज्यादा मुश्किल है
जरा सा कदम रोकते ही लुढ़क जाने जैसा एहसास होता है
पैरों तले कुचल जाना, अंधेरे में खो जाना, गुमनामी में सो जाना
इन सबमें उससे बुरा क्या है, जहां तेज चलकर तुम पहुंचने वाले हो?






कहीं दूर उसने कहा

तुम यहीं रहने लायक थे
यहीं, मेरे पास, ठीक इसी जगह
मुझे तुम्हें जाने नहीं देना चाहिए था.

जब-तब दुखी कर जाता है यह खयाल
कि तुम्हारा जाना मैंने कबूल क्यों किया.

लेकिन यह सिर्फ एक रोमांटिक खयाल है.

तुम यहां कैसे रह सकते थे?

प्रकृति के नियमों के खिलाफ होता यह
जिन पर सिर्फ गुस्सा किया जा सकता है,
जिन्हें बदला नहीं जा सकता.

तुम्हें नहीं पर मुझे पता था-
कीचड़ और कांटों से बना है आगे का रास्ता.

पहले कदम से आखिरी मुकाम तक
बारीकी से गुंथे हुए कीचड़ और कांटे
और जहां-तहां सिर्फ कीचड़ या सिर्फ कांटे.

(ये ही जगहें राहत की...
राहत के छोटे-छोटे मुकाम
जिन्हें मंजिल कहने का चलन है)

मेरी कोई सलाह तुम्हारे काम की नहीं
उपमा में नहीं, सच में हम दो अलग-अलग दुनियाओं में हैं.

कैसे कहूं,
मुझे डर लगता है, जब देखता हूं तुम्हें किसी मंजिल के करीब

क्या तुम कीचड़ में धंसते चले जाओगे?
गढ़ डालोगे इसका ही कोई सौंदर्यशास्त्र?

या कि कांटे छेद डालेंगे
शरीर के साथ-साथ तुम्हारी आत्मा भी?

मेरे पास कभी न आ सकोगे, यह दुख है
पर जानते हो, मेरा सुख क्या है?

बार-बार अपनी राहतों में तड़पते हुए
हर बार कहीं और चले जाने की चाह में
तुम्हें हुमकते हुए देखना.

नशेड़ी, पागल, बदहवास
किसी हत्यारे जैसे दिखते हो
न जाने किन तकलीफों में होते हो
पर इन्हीं वक्तों में दिखते हो वह,
जो तब थे, जब यहां थे तुम.





रास्ते पर तारा

ऊंची नीरंध्र अपारदर्शी दीवारों से घिरे ये रास्ते हैं
सीधे सुरक्षित चिकने सरल सपाट रास्ते
जो बार-बार एक ही जैसे चौराहों में खुलते हैं
उतने ही सुरक्षित उतने ही बंद चौराहों में

ये रास्ते कभी हिलते नहीं डगमगाते नहीं
दीमक इन्हें खाते नहीं चरचरा कर ये टूटते नहीं
आवाज तक कभी कोई इनसे आती नहीं
कि जैसे यों ही थे, रहेंगे यों ही सदा सर्वदा

ऊपर आकाश होता है और दृश्य अदृश्य तारे
जो धीरे धीरे बगैर किसी रास्ते के चलते हैं
रास्तों पर चलते लोग जब तब तारों को देखते हैं
जड़ाऊ बेलबूटों से ज्यादा अहमियत उन्हें नहीं देते

एक दिन एक तारा टूटा और रास्ते पर आ गिरा
कुछ लोगों ने उसे उठाया और देर तक समझाते रहे-
गनीमत समझो कि रास्ते पर आ गए

सितारे के लिए लेकिन मुश्किल ही रहा
इस समझाइश को समझना

आकाश...बाहर...वहां...खुला आकाश
बीच आकाश में ये पिंजड़े नुमा लकीरें कौन खींच गया ?
और लकीरें भी ऐसी कि हिल गईं कभी झटके से
तो सबकुछ लिए दिए मुरमुरे सी बिखर जाएंगी

बड़ी देर तक सितारा राह चलतों से
बाहर निकलने का रास्ता पूछता रहा
लोग हैरान होते रहे सुन सुन कर उसके सवाल

रास्तों की दुनिया में तो रास्ते ही होते हैं
रास्तों से बाहर भला हो भी क्या सकता है.






नई शुरुआत

ख़ामोशी
एक अलग तरह की ख़ामोशी
जो पहले करीब से गुजरी नहीं थी

और फिर बाईं तरफ से दर्द का रेला उठता है.

एक कुत्ते के भूंकने
एक गिद्ध के पंख फड़फड़ाने
दो अघाए कौओं के आपस में लड़ पड़ने के साथ
अचके में वापस लौटी एक नई जिंदगी की धड़कनें शुरू होती हैं.

किसी लाश के नीचे दबे हुए धड़ को बाहर खींचना
इस एहतियात के साथ कि कोई हिस्सा तुम्हारा वहीं न रह जाय
फिर सांस भर कर इस नतीजे पर पहुंचना
कि एक अकेली बांह के सहारे यह काम कितना मुश्किल था.

फिर सोचना कि ऐसे हाल में तुम्हारा हाल पूछने वाला कोई नहीं है
फिर थक कर पड़ जाना इस हतक में
कि सारे ओहदों और तमगों के बाद भी तुम एक सिपाही ही रहे
हुक्म पर लड़ने वाले और हुक्म पर हथियार झुका देने वाले.

पौ फट रही है और दूर कहीं नगाड़ों की आवाज आ रही है.

एक झीनी सी उम्मीद तुम्हारे मन में जागती है-
ये नगाड़े अगर तुम्हारी तरफ के हुए
तो मौत के ठंडे दायरों से हुई यह वापसी अकारथ नहीं जाएगी.

लेकिन नगाड़े बहुत दूर हैं
और तुम नहीं जानते कि वहां पहुंचने तक
जान और उम्मीद तुममें बची रही तो भी
वहां कोई उल्टा नतीजा दिख जाने का
सदमा तुम बर्दाश्त कर पाओगे या नहीं.

सुबह...
सिपाही, देखो सुबह हो रही है
जैसे किसी और दुनिया की शाम हो रही हो

इसी और दुनिया में तुम्हें अब जीना और खुश रहना है.

यहां से आगे तुम्हारी कोई फौज नहीं अफसर नहीं देश नहीं
कोई गौरव भी अब नहीं तुम्हारा, जिसका साझा करने आएंगे
हित-मित्र भाई-बंधु प्रेमी-कुटुंबजन.

बेहोशी और हताशा और आत्महीनता के गर्त से ऊपर उठो
कि कल तक जो तुम लड़ते रहे, वह किसी और का युद्ध था

तुम्हारा तो बस अभी शुरू हुआ है.





नफ़रत का नाश्ता

लगता है गलत चुना
पर चुनने को कुछ था नहीं

होता तो प्यार चुनता
नफरत क्यों चुनता
जो कोलतार की तरह
सदा चिपटी ही रह जाती है

कोई चांस नहीं था
जहां तक दिखा नफरत ही देखी
उसी का कुनबा उसी का गांव
उसी का देश और उसी की दुनिया

जहां वह कम दिखती थी
लोग उसे प्यार कहते थे
फिर खाली जगह को भर देते थे
उसी से जल्द अज जल्द

एक दिन पता चला
यह तो बड़े काम की चीज है

चुटकी भर मैंसिल और पोटाश
कागज पर बराबर से मिलाया
फिर बट्टे से ठोंका
तो लगा, छत सर पर आ जाएगी

इस तरह नफरत को नई धार मिली
और धीरे-धीरे खून में घुली
यह सपनीली समझ कि
एक दिन इससे सब बदल जाएगा

लेकिन एक मुश्किल थी
अपनी नींदों में जब हम अकेले होते थे
नफरत के लिए कोई निशाना नहीं होता था
तब वह हमीं पर चोट करती थी

स्वप्नहीन रतजगों में उठकर
खाली घड़े खखोरते हुए कई-कई बार
खुद से पूछते थे-
दुनिया जब तक नहीं बदलती
तब तक इस होने का हम क्या करें

क्या ग्रेनेड और बंदूक की तरह
नफरत को भी टांगने के लिए
दीवार में कोई खूंटी गाड़ दें

दरअसल, हमें पता नहीं था
खूंटियां तो गड़ चुकी थीं हमारे इर्दगिर्द

जिन-जिन चीजों को हम चाहते थे
जो लोग भी हमारे अजीज थे
उन्हीं पर ओवरकोट की तरह
हमारी नफरत टंगने लगी थी

लेकिन हर चीज का वक्त होता है
रूई में रखा ग्रेनेड भी सील जाता है
रोज साफ होने वाली बंदूक का घोड़ा भी
गोली पर टक करके रह जाता है एक रोज

तुम जान भी नहीं पाते
और नफ़रत तुम्हारी एक सुबह
बदहवासी में बदल गई होती है

परेड पर निकले फौजी के जूते में
चुभी लंबी साबुत धारदार कील

एक निश्चित ताल के साथ तुम
गुस्से से फनफना रहे होते हो
और लोग तुम्हें देख कर हंस रहे होते हैं

तुम उनसे छिपने की तरकीबें खोजते हो
कोई कैमॉफ्लॉग कि उन जैसे ही कूल दिखो
कुछ गालों पे डिंपल कुछ बालों में ब्रिलक्रीम
अडंड अंग्रेजी में अढ़ाई सेर ज्ञान
और कोई हिंट कि जेब में कुछ पैसे भी हैं

बट...ओ डियर, यू डोंट बिलांग हियर
बाकी सब मान भी लें तो
खुद को कैसे मनाओगे कि
इतना सब हो जाने के बाद भी
नफरत तुम्हारा नाश्ता नहीं कर पाई है?




अंगूठी

मुझे इसको निकाल कर आना था.

या फिर चुपचाप पिछली जेब में रख लेता
बैठने में जरा सा चुभती, और क्या होता.

किसी गंदी सी धातु के खांचे में खुंसे
लंबोतरे मूंगे वाली यह बेढब अंगूठी
हर जगह मेरी इज्जत उतार लेती है.

एक नास्तिक की उंगली में
अंगूठी का क्या काम
वह भी ऐसी कि आदमी से पहले
वही नजर आती है
जैसे ऊंट से पहले ऊंट का कूबड़.

अब किस-किस को समझाऊं कि
क्यों इसे पहना है
क्या इसका औचित्य है
और निकाल कर फेंक देने में
किस नुकसान का डर सता रहा है.

प्यारे भाई, और कुछ नहीं
यह मेरी लाचारगी की निशानी है.

एक आदमी के दिए इस भरोसे पर पहनी है
कि पिछले दो साल से इतनी खामोशी में
जो तूफान मुझे घेरे चल रहा है
वह अगले छह महीने में
मुझे अपने साथ लेकर जाने वाला था
लेकिन इसे पहने रहने पर
अपना काम पूरा किए बिना ही गुजर जाएगा.

इतने दिन तूफानों में मजे किए
आने और जाने के फलसफे को कभी घास नहीं डाली
लेकिन अब, जब खोने को ज्यादा कुछ बचा नहीं है
तब अंगूठी पहने घूम रहा हूं।

एक पुरानी ईसाई प्रार्थना है-
जिन चीजों पर मेरा कोई वश नहीं है,
ईश्वर मुझे उनको बर्दाश्त करने की शक्ति दे.

सवाल यह है कि
मेरे जैसे लोग, ईश्वर के दरबार में
जिनकी अर्जी ही नहीं लगती
वे यह शक्ति भला किससे मांगें.

जवाब- मूंगे की अंगूठी से.

प्यारे भाई,
तुम, जो न इस तूफान की आहट सुन सकते हो
न इसमें घिरे इंसान की चिल्लाहट-
अगर चाहो तो इस बेढब अंगूठी से जुड़े
हास्यास्पद दृश्यों के मजे ले सकते हो.

मुझे इससे कोई परेशानी नहीं है.

बस, इतनी सी खुन्नस जरूर है
कि इस मनोरंजन में मैं तुम्हारा साथ नहीं दे पा रहा हूं.



गुमचोट

सब ठीकठाक है
बस एक तकलीफ
जब-तब जीने नहीं देती

जानता नहीं कि यह क्या है

याद से जा चुकी
या किसी और जन्म में लगी
भीतर की कोई भोथरी गुमचोट

कोई अनुपस्थिति
कोई अभाव
कोई बेचारगी कि
हम अपने खयाल को सनम समझे थे

इस खयाल का कोई क्या करे

भीड़ भरी राहों में खोए
न जाने कितने
खयाली सनम
याद आते हैं

क्यूं न इक और बनाया जाए

भीतर इतनी खटर-पटर
इतनी आमदरफ्त
इतना शोर

ऐसा कोई ठंडा
पोशीदा कोना कहां है
जहां उसे ठहराया जाए

यह एक साफ-सुथरे
पागलपन की तलाश है
मुझे भी ऐसा लगता है

इस दर्द का इलाज मगर कहां से लाया जाए?


 पेंटिग : Ali Kazim



अट्ठारह साल का लड़का

सींग कटा कर कुलांचें भरने वालों की यह रंगारंग पार्टी
बस थोड़ी ही देर में अपने शबाब पर पहुंचने वाली है

ऐसे सुहाने, नाजुक मोड़ पर कौन यहां से हिलता है
फिर भी, फुरसत मिले तो जरा आस-पास घूम कर देखना
गंवईं सा दिखने वाला एक अट्ठारह साल का लड़का
अपना दिन का ठिकाना छोड़ कर यहीं कहीं टहल रहा होगा

लेकिन अभी, रात के बारह बजे
तुम कैसे उसे ढूंढोगे, कैसे पहचानोगे?

वह कुछ भी पहने हो सकता है,
जैसे काठ की खटपटिया पर पीली धोती और नीली टीशर्ट

उसकी चाल का चौकन्नापन गली के गुंडे जैसा
आंखों की तुर्शी झपट पड़ने को तैयार बनैले जानवर जैसी है,
हालांकि यह हुलिया न उसे मजाकिया बनाता है, न खौफनाक

वह सिर्फ एक फुटकर किस्म का डॉन क्विग्जॉट है,
ब्रेड पकौड़ों और पावर ब्रोकरों के शहर में
अंडे बेच कर एडीसन बनने आया है 

लेकिन एक अनजान लड़के की ऐसी बेढब बारीकियां
इस चौंध भरी शहराती रात में तुम्हें दिखेंगी कैसे ?





*
साढ़े पांच फुट का वह ढीला ढीठ गठीला छोकरा
मोटे काले फ्रेम वाला चश्मा भी अभी नहीं लगाता होगा
कि सामने से आ रही गाड़ियों की पलट रोशनी से ही
सड़क पर उसके होने का कुछ अंदाजा मिल सके

पढ़ते वक्त आंखों में दर्द की शिकायत करता है
पर चश्मा अभी उसकी नजर से पंद्रह-बीस दिन दूर है,
और उसकी दाईं आंख पर कटे का निशान भी अभी नहीं है

वह चोट तो उसे पांच साल बाद लगेगी, तेईस की उम्र में

यहां तुम उसे देर रात तक खुली किसी चाय की दुकान पर
पागल कर देने वाली बहसों में भी उलझा हुआ नहीं पाओगे
यह जानी-पहचानी चीज अभी उसकी पहुंच से काफी बाहर है

असल बात यह कि इस वक्त जहां हम-तुम बातें कर रहे हैं,
वह आजमगढ़ या  इलाहाबाद का कोई स्टुडेंट जोन नहीं
साउथ दिल्ली का एक भुतहा सा नाइट क्लब है...
दुनिया की सारी बहसें जहां पहुंचने के पहले ही हल हो चुकी होती हैं



उसे पहचानने के लिए शायद तुम्हें उससे कुछ सवाल करने पड़ें
जैसे यह कि इतने शातिरपने के साथ, फिर भी इतनी शाइस्तगी से
आंखें ऊपर किए बिना लड़कियां वह कैसे ताड़ लेता है,
और यह कि जिंदगी भर ताड़ता ही रहेगा या कभी आगे भी बढ़ेगा

लगता नहीं कि इन सवालों का तुम्हें कोई जवाब मिलेगा
लेकिन इस अटपटेपन के आकर्षण से कहीं तुम उसके दोस्त बन गए
तो बिना कुछ सोचे-समझे कलेजा निकालकर तुम्हारे हाथ पे धर देगा

उससे कहना कि कोशिश चाहे जितनी भी कर ले, कामयाब उसे नहीं होना
कि ग़मे-रोजगार का कोई भी चमकीला इलाज उसके लिए नहीं बना है
कि हालात चाहे जैसे भी हों, पर अभी की चिंताओं में इतना गर्क न हो
क्योंकि आगे और भी बड़ी चिंताओं का दरिया उसे डूब कर पार करना है

अकाल मौतों के तूफान झेलने हैं, दुनिया बदलने की राजनीति करनी है
फाके की मजबूरियों का मजा डेली अडवेंचर की तरह लेना है
बाड़ेबंदियों के पार जाकर एक पूरा और कुछ अधूरे इश्क करने हैं 
पुलिस की पिटाई खानी है, जेल को घर समझकर जीने का मन बनाना है

और यह सब करके एक दिन अचानक
गृहस्थी और स्वप्नभंग के झुटपुटे में
छोटी से छोटी नौकरी के लिए दफ्तर-दफ्तर भटकना है



*
तुम रेड वाइन का कड़वा घूंट भरते हो,
मुंह बिचकाते हो, कहते हो- लाइफ हैपंस
लेकिन इस पल्प फलसफे की बघार से तुम
मुझे बहलाने की कोशिश न करो

मुझे पता है कि सड़क पर पहली ही मुलाकात में
किसी को आने वाली जिंदगी के ऐसे करख्त ब्यौरे देना
अपने लिए बैठे-बिठाए जूते खाने की व्यवस्था करने जैसा है

इसलिए मैं तुम्हें एक आसान रास्ता बताता हूं-
इसी ऊंघती गंधाती हालत में, आंखें आधी मूंदे आधी खोले
तैरते हुए से तुम उस तक जाओ और भुलावा देकर उसे मेरे पास लाओ

उससे कहो कि शक्ल-सूरत में उससे बहुत मिलता-जुलता एक शख्स
जो इसी शहर में कहीं बारह से सात की रेगुलर नौकरी बजाता है,

नीची नजर से लड़कियां ताड़ने और हर हाल में मगन रहने का
अपना आजमाया हुआ हुनर बेध्यानी के बक्से में डाल कर
अट्ठारह साल के ही अपने बेटे के किसी राह लग जाने की फिक्र करता है,

अपनी चोटिल दाईं आंख ही नहीं, अपने वक्त के रिसते घावों को भी
तरह-तरह के चश्मों के पीछे छिपा कर रखने का हुनर
जिसने दुनिया की सबसे ऊंची युनिवर्सिटी में सीख रखा है-

आलवेज एटीनकी रंगारंग पार्टी में तहेदिल से शामिल होने के लिए
सिर्फ दो मील और बत्तीस साल की छोटी सी दूरी पर
बाहें फैलाए उसका इंतजार कर रहा है.

_____________________
चंद्रभूषण
(१८ मई १९६४, आजमगढ़ )

वर्षों तक राजनीतिक एक्टिविस्ट रहे हैं, साप्ताहिक समकालीन जनमत  से जुड़े थे.  विज्ञान, दर्शन, शिक्षा, राजनीतिक सिद्धांत आदि से सम्बन्धित विश्व प्रसिद्ध किताबों के तेरह अनुवाद अंग्रेजी से हिंदी में ग्रन्थ शिल्पी आदि ने प्रकाशित किये हैं. दो साल तक डिस्कवरी चैनल के लिए ट्रांसक्रिप्सन का काम किया है.

फिलहाल नवभारत टाइम्स में संपादकीय पृष्ठ प्रभारी हैं.
patrakarcb@gmail.com



कला के सामाजिक सरोकार – १ : अमिताभ घोष : यादवेन्द्र

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(Photo courtesy: Sattish Bate/Hindustan Times)








भारत के प्रसिद्ध अंग्रेजी लेखक अमिताभ घोष की २०१६ में प्रकाशित किताब ‘The Great Derangement: Climate Change and the Unthinkable’ ने जहाँ प्रकृति और संस्कृति की आपसी निर्भरता पर ध्यान खींचा वहीँ कला की सामजिक ज़िम्मेदारी को भी बहस में ला दिया. आज हिंदी के कितने लेखक हैं जो समाज/प्रकृति पर कथा से इतर भी लिख रहे हैं ?

यादवेन्द्र कला के सामजिक सरोकार की इस पहली कड़ी में अमिताभ घोष की चर्चा कर रहे हैं.



कला  के सामाजिक सरोकार – १ :  अमिताभ घोष
जलवायु    परिवर्तन  संस्कृति  का  संकट है
यादवेन्द्र



मैंने अंग्रेजी के साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त प्रतिष्ठित लेखक अमिताव घोष को ज्यादा नहीं पढ़ा है पर 2004के विनाशकारी सुनामी ने जब अंडमान को पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया था तब अमिताव ने प्रभावित इलाकों में जा कर देश और दुनिया के बड़े अखबारों में तथ्यों पर आधारित तथ्यों और मनुष्यता के सरोकारों से भरे बेहद भावपूर्ण वृत्तांत लिखे. मैंने तब पहली बार उन्हें पढ़ा और उनके सामाजिक सरोकारों का कायल हुआ. पिछले साल कोलकाता यात्रा पर गया था तो समय चुरा कर मित्रों ने मुझे सुंदरबन घुमाया था, लौट कर सुंदरबन पर केन्द्रित अमिताव घोष की किताब 'द हंग्री टाइड'पढ़ी. उत्तर भारत के हिंदी समाज के लिए सुंदरबन लगभग अछूती अपरिचित दुनिया है जो बदलते मौसम के चलते बड़ी तेजी से नष्ट हो रही है, भूमि के तौर पर और अपनी अनूठी और  विशिष्ट प्रकृति और जीवन शैली  के तौर पर भी. पर इस किताब का वास्तविक नायक है ईमानदारी से जीवन जीने के लिए किसी भी तरह का खतरा उठा कर संघर्ष करने वाला दीन हीन इंसान. वैसे अपने अन्य उपन्यासों में अमिताव ने हिंदी लेखकों के लिए आमतौर पर अस्पृश्य रहे विषयों पर गहन अध्ययन के बाद कलम चलाई है,शायद यही प्रवृत्ति उन्हें भारतीय लेखकों में विशिष्ट बनाती है.

पिछले सालों में उनकी वैचारिक किताब 'द ग्रेट डीरेंजमेंट: क्लाइमेट चेंज एंड द अनथिंकेबल'आयी थी जो अमिताव घोष की प्रकृति और विशेष तौर पर जलवायु परिवर्तन को लेकर वृहत्तर चिंताओं का संकलन है. प्रकृति विमर्श में अनेक वैचारिक स्कूल हैं और एक दूसरे को परस्पर खंडित भी करते रहते हैं, संभव है उनकी स्थापनाओं  से सब सहमत न हों पर इस किताब में रेखांकित की गयी चिंताओं की अनदेखी करना न सिर्फ़ अदूरदर्शिता होगी बल्कि अपने समय से गैर जिम्मेदाराना तौर पर विच्छिन्न होना भी होगा. इस किताब के प्रकाशन के बाद 'लॉस एंजेल्स रिव्यू ऑफ बुक्स'ने लेखक से उनकी किताब को केन्द्र में रख कर विस्तृत बातचीत की,आज के संकटपूर्ण समय में वृहत्तर मानवीय सरोकारों के अनेक बिंदुओं को छूती हुई इस बातचीत के प्रमुख मुद्दे कहीं ज्यादा प्रासंगिक लगते हैं.

जलवायु परिवर्तन को सिर्फ़ वैज्ञानिकों, टेक्नोक्रेट्स और राजनीतिज्ञों की चिंता का विषय मान कर नहीं छोड़ा जा सकता. यह संकट छोटा मोटा मामूली संकट नहीं है बल्कि समग्र संस्कृति का संकट है, इसीलिए यह हमारी सम्पूर्ण कल्पना शक्ति, सूझ बूझ और ख्वाहिशों का संकट है. विज्ञान हमें जलवायु परिवर्तन के लक्षणों से अवगत करा सकता है और हमने यह विषय क्योंकि वैज्ञानिकों को सौंप रखा है इस लिए आपने इर्द गिर्द इस तरह के लक्षण ही लक्षण दिखाई देते हैं. इस सोच की निर्मिति के लिए अमिताव पश्चिमी ज्ञान की परम्परा को जिम्मेदार ठहराते हैं जिसमें आज़ादी को प्रमुखता दी गयी पर उनके लिए आज़ादी का मायना मुख्य रूप से प्रकृति से मुक्ति बताया गया है. हमें बार बार यह समझाया गया कि जो समाज प्रकृति से मुक्त और निरावलम्बी है वही अपना इतिहास और अपनी कला रच सकता है. जो समाज पल-पल प्रकृति के साथ साझेपन और निर्भरता का रिश्ता बना कर जीने की कोशिश करते हैं उनकी न तो कोई चेतना होती है, न इतिहास और न ही अपनी कोई कला होती है. इस स्थापना को समझाने के लिए वे दो ऐसे उदाहरण देते हैं जो हमारी स्मृति में अभी ताज़ा हैं.

2012में हरिकेन सैंडीने अमेरिका के बड़े हिस्से में - ख़ास तौर पर न्यूयॉर्क महानगर में अप्रत्याशित तबाही मचाई थी. प्रभावित इलाकों में अमेरिकी बुद्धिजीवियों का बड़ा तबका रहता है और उनमें से अधिकांश ने उस विभीषिका को निजी तौर पर झेला – लेखक,कवि,चिंतक,समाजशास्त्री,कलाकार,फ़िल्मकार इत्यादि. इस सिलसिले में अमिताव ने कई नामी गिरामी लोगों से बातचीत भी की पर उन्हें अचरजभरी हताशा हुई जब इस संकट पर न कोई कहानी,उपन्यास आया, न किसी बड़े कलाकार ने कोई  कलाकृति बनाई और न ही किसी फ़िल्मकार ने कोई फ़िल्म बनाने की सोची.

उन्होंने दूसरा उदाहरण मुंबई का दिया जहाँ न्यूयॉर्क की तरह ही देश के लेखकों, कलाकारों  और फ़िल्मकारों का बड़ा तबका रहता है और जो पिछले दस पंद्रह वर्षों से कई दिनों तक अनवरत वर्षा के चलते बार बार तबाह हो रहा है. वे बगैर नाम उजागर किये किसी मित्र बड़े कलाकार दम्पति का हवाला देते हैं जिनका स्टूडियो पानी घुस जाने से बर्बाद हो गया और जो कई दिनों तक अपनी बेटी की खोज खबर लेने में असफल रहे, उनसे जब अमिताव ने पूछा कि क्या कोई कालकृति उस विभीषिका को स्मरण करते हुए बनाई तो उन्होंने पलट कर इस तरह भौंचक्का हो कर देखा जैसे कोई बेतुका सवाल पूछा जा रहा हो.

वे दोनों आपदाओं को कुदरती कहर मानने से इनकार करते हैं. इस तरह के विध्वंसक चक्रवात के निर्माण में वही मनुष्य केंद्रित अव्यवहारिक सोच काम करती है जिसके लिए पर्यावरण और पारिस्थितिकी मनुष्य से इतर कोई कमतर तंत्र है.

अमिताव का मानना है कि इन घटनाओं पर स्पष्ट तौर पर मनुष्य के फिंगरप्रिंट्स हैं और वे बार बार हमारी तरफ लौट कर आते हैं, और आते रहेंगे.


संस्कृति के संकट की बात करते हुए वे मध्य पूर्व के रेगिस्तान बहुल देखों और ऑस्ट्रेलिया के कुछ सूखे प्रदेशों का हवाला देते हैं हैं जहाँ बड़े बड़े लॉन उगाने  फैशन चल पड़ा है. खाड़ी देशों के पास तेल से कमाया अकूत पैसा है जिससे वे बहुत ऊँची कीमत पर खारे पानी को मीठा बनाते हैं और अधिकांश इन लॉन में उड़ेल देते हैं. अमिताव कहते हैं कि इन समाजों में लॉन उगाने की परिपाटी कभी रही नहीं. पानी की कमी के  चलते उन्होंने कभी इसकी जरूरत भी नहीं समझी,सौंदर्य का उनका अपना अलग हरियाली से इतर मानदंड रहा. मिसाल के तौर पर वे जेन ऑस्टेन के उपन्यासों को याद करते हैं जिसमें हरे भरे बाग बहुतायाद में आते हैं...अंग्रेजी के प्रचार-प्रसार और बड़ी संख्या में यूरोपीय अमेरिकी लोगों के खाड़ी के देशों में जाने और रहने ने इस प्रवृत्ति को हवा दी है.

अमिताव घोष को मीडिया जिस तरह आज़ादी का  मिथक गढ़ता है उसपर सख्त एतराज है - साहित्य की तुलना में दृश्य माध्यम किसी बात को ज्यादा विश्वसनीय बना देता है. वे उदाहरण देते हैं बाइक के विज्ञापनों का जिसमें हवा में केश लहराते हुए तेज गति से दौड़ते दोपहिये को आज़ादी का प्रतीक बताया जाता है. पर वास्तविकता इससे बिल्कुल परे है - तेज रफ़्तार निर्भर करती है अच्छी चौड़ी सड़क पर...तेज रफ़्तार निर्भर करती है बाइक रूपी मशीन पर...तेज रफ़्तार निर्भर करती है तेल पर. यानि तेज रफ़्तार को आज़ादी का रूपक घोषित करते ही हम सड़क बनाने,मशीन बनाने और तेल बेचने वाले बड़े उद्योगों को खुली छूट दे देते हैं. लेखक का मानना है कि आज़ादी का मतलब उपयोग करने और खरीदने की मनमानी छूट नहीं, इसके अवयव आपके मन,शरीर और आत्मा के अंदर बसे हुए होते हैं. हमें इस मुगालते में रखा गया है कि सभी समस्याओं का निदान टेक्नोलॉजी के पास है...इतिहास बताता है कि टेक्नोलॉजी किसी प्रक्रिया की एफिशिएंसी बढ़ाती जरूर है पर उसके बाद संसाधनों की खपत और बढ़ जाती है. अमिताव कम्प्यूटर और इंटरनेट के चलन में आने के बाद कागज़ की खपत में कोई कमी न आने की मिसाल देते हैं जबकि सपना पेपरलेस ऑफिस दिखाया गया था...उनका मानना है कि इंसानी इच्छाओं और जीवन शैली का आसन्न संकट पर पार पाने में सबसे बड़ी भूमिका है.

साहित्य और फिल्में जलवायु परिवर्तन की बात कभी कभार करती भी हैं तो इसके लिए आज का परिदृश्य नहीं चुनतीं,वे हमेशा दशकों बाद के समय (भविष्य) की बात करती हैं. जबकि वास्तविक परिवर्तन के ढेरों लक्षण आज के समय में हमारे इर्द गिर्द दिखाई देते हैं. विडम्बना यह है कि जलवायु परिवर्तन विमर्श गम्भीर साहित्यिक रचनाओं में नदारद है,यह सिर्फ़ साइंस फ़िक्शन और फैंटेसी के हवाले छोड़ दिया गया है.
यादवेन्द्र
yapandey@gmail.com 

कथा - गाथा : वृश्चिक संक्रान्ति : प्रचण्ड प्रवीर

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२००५ में आई. आई. टी. दिल्ली से रासायनिक अभियांत्रिकी में स्नातक प्रचण्ड प्रवीर हिंदी के बेहद संभवनाशील लेखक हैं. विश्व सिनेमा को भरत मुनि के रस सिद्धांत के आलोक में विश्लेषित करती उनकी पुस्तक ‘अभिनव सिनेमा’ ने आलोचकों का ध्यान अपनी तरफ खींचा है. उनका उपन्यास ‘अल्पहारी गृहत्यागी’ तथा कहानी संग्रह ‘जाना नहीं दिल से दूर’ ने बौद्धिक सघनता और नवाचार से हिंदी जगत को विस्मित किया है. वह अंग्रेजी में भी लिखते हैं.


प्रस्तुत कहानी ‘वृश्चिक संक्रान्ति’ आई.आई.टी. के छात्रों और बिगडैल वार्डन के बीच की आपसी कथा भर नहीं है. यह उच्च शिक्षा संस्थानों में सुनियोजित ढंग से ही रहे भीतरी आक्रमण का सच्चा और आखें खोल देने वाला वृतांत है. यह कहानी दिलचस्प तो है ही इसकी एक गहरी वैचारिक तैयारी भी की गयी है.
यह कहानी समालोचन के पाठकों के लिए ख़ास तौर पर.




लम्बी कहानी
वृश्चिक संक्रान्ति                      
प्रचण्ड प्रवीर



२००५ में आई. आई. टी. दिल्ली से रासायनिक अभियांत्रिकी में स्नातक प्रचण्ड प्रवीर हिंदी के बेहद संभवनाशील लेखक हैं. विश्व सिनेमा को भरत मुनि के रस सिद्धांत के आलोक में विश्लेषित करती उनकी पुस्तक ‘अभिनव सिनेमा’ ने आलोचकों का ध्यान अपनी तरफ खींचा है.  उनका उपन्यास ‘अल्पहारी गृहत्यागी’ तथा कहानी संग्रह ‘जाना नहीं दिल से दूर’ ने बौद्धिक सघनता और नवाचार से हिंदी जगत को विस्मित किया है. वह अंग्रेजी में भी लिखते हैं.


प्रस्तुत कहानी ‘वृश्चिक संक्रान्ति’ आई.आई.टी. के छात्रों और बिगडैल वार्डन के बीच की आपसी कथा भर नहीं है. यह उच्च शिक्षा संस्थानों में सुनियोजित ढंग से ही रहे भीतरी आक्रमण का सच्चा और आखें खोल देने वाला वृतांत है. यह कहानी दिलचस्प तो है ही इसकी एक गहरी वैचारिक तैयारी भी की गयी है.
यह कहानी समालोचन के पाठकों के लिए ख़ास तौर पर.







लम्बी कहानी
वृश्चिक संक्रान्ति
प्रचण्ड प्रवीर




तुला
इस अफ़साने को बयान करने में तमाम तरीके की मुश्किलात हैं. अव्वल तो ज़बान की, जो कभी तत्सम-तद्भव शब्दों से गुज़रती, फारसी-रेख़्ते लफ़्जों के पास फटकती, अंग्रेजी से हाथ मिलाते हुए अपनी जगह बनाने की कोशिश में हैं. लेकिन ये मुश्किल बहुत सी सामाजिक पृष्ठभूमि, परिवेश, घटनाओं के मिलने जुलने के कारण है. जो मैं कहानी सुनाने जा रहा हूँ, उसके लिए मुझे यही भाषा अनुकूल लगी.

एक समय था जब कहानी का मतलब गल्पही समझा जाता था. बच्चों की बात और है, शायद ही किसी सयाने को सिन्दबाद जहाज़ी या अलादीन के चिराग के हक़ीक़त में कोई दिलचस्पी रही होगी. अब माज़रा बदल गया है. लोग-बाग सुनने-पढ़ने से पहले ही पूछ लेते हैं कि यह कहानी-अफ़साना जो भी आप कह रहे हैं क्या वह आपबीती है? ये बड़ा पेचीदा मुआमला होता जाता है. हमारी समझ से पूरी दुनिया एक ही है. हम ही पत्थर, हम ही दरिया, हम ही पंछी, हम ही नदियाँ; इसलिए हर कुछ आपबीती है. ऐसा नहीं भी हो तो भी हम ऐसा मानते हैं क्योंकि कहा गया है कि जो अहं ब्रह्मास्मिका जाप करता रहता है, एक दिन स्वयं ब्रह्म बन जाता है. जो लोग अद्वैत दर्शन से इत्तेफाक़ नहीं रखते, वो हमारी बात पर झुँझला के पूछते हैं कि सीधे-सीधे से बताइए आपके साथ ऐसा हुआ था या नहीं? इस अफ़साने में जो तारीख़ें हैं, वो क्या सच हैं? जो किरदार हैं, वो क्या सच मेंहैं? जो सवाल-जवाब हैं, जो विचार-विमर्श है, उन सबकी हक़ीक़त क्या है?


गंभीर पाठकों को ऐसे सवालों के जवाब के लिए उपनिषदों के इन श्लोकों को पढ़ना चाहिए -

तानि ह वा एतानि त्रीण्यक्षराणि सतीयमिति तद्यत्सत्तदमृतमथ यत्ति तन्मर्त्यमथ यद्यं तेनोभे यच्छति यदनेनोभे यच्छति तस्माद्यमहरहर्वा एवंवित्स्वर्गं लोकमेति ll
       (छांदोग्य उपनिषद्..8.3.5..)
सत्य तीन अक्षरों से बना है , ती और यम. जो है वो सत् यानी अमृत या अमर को बताता है, जो तीहै वो मर्त्य या मरणशील को बताता है, और यम इन दोनों को बाँधने का सङ्केत है. चूँकि अमृत और मर्त्य का युग्म सम्भव है, इसलिए यह संतुलन यमहै. जो यह जानता है वह प्रतिदिन स्वर्ग पहुँच सकता है.


तदेतत् त्र्यक्षरँ सत्यमिति स इत्येकमक्षरं तीत्येकमक्षं यमित्येकमक्षरं प्रथमोत्तमे अक्षरे सत्यं मध्यतोऽनृतं तदेतदमृतमुभयत: सत्येन परिगृहीतं सत्यभूयमेव भवति नैनं विद्वाँ समनृतँ हिनस्ति ll
- बृह्दारण्यक उपनिषद् ..5.5.1..

वह सत्य तीन अक्षरों से बना है. पहला अक्षर है, ‘तीएक अक्षर है, ‘यमएक अक्षर है. पहला और आखिरी अक्षर सत्य है और मध्य का अक्षर अनृत (झूठ)  है. इस तरह झूठ दोनों तरफ़ सच से घिरे होने के कारण, उसमें भी सत्य का ही आधिक्य है. जो ऐसा जानता है उसे अनृत (झूठ) नुकसान नहीं पहुँचाता.

यह मुझे पता नहीं कि सत्य की ऐसी व्युत्पति महान वैयाकरण और व्युत्पतिकारयास्कने अपने निघण्टु (निरुक्त) में की है अथवा नहीं. क्या यह एक काव्यात्त्मक अभिव्यक्ति है, जो कि बहुत कम ही सीधे-सीधे सच से जुड़ी होती हैं. बहरहाल, सरल शब्दों में इस कहानी के सन्दर्भ में कहें तो कुछ ऐसी बातें हैं जो बिल्कुल सच हैं और झूठलायी नहीं जा सकती. कुछ ऐसी बाते हैं जो कि सच नहीं है, पर सच बिना इस कल्पना की चाशनी में लिपटे बिना आपके सामने आ भी नहीं सकता. हम जानते हैं कि शुद्ध आक्सीजन भी मानव शरीर को ग्राह्य नहीं होता.

फिर भी अगर कोई जिद करने लग जाय कि ये कहानी जो विवादास्पद है, जिससे किसी की साख पर बट्टा लग रहा है, किसी को गड़े मुर्दे के उखड़ने का भय है; क्या यह कहानी मेरी खुद की है?ऊपर के श्लोकों के बावजूद न समझने वाले जिद्दियों के लिए मैं यह स्वीकार कर लेना ठीक मानता हूँ कि यह कहानी सच है और इसकी सत्यता की जाँच-परख करना पाठकों पर छोड़ दिया गया है. सीधे-सीधे कह दूँ कि गल्प है तो आप न मानेंगे. सच कबूल करने पर भी आप न मानेंगे. इसलिए किसी एक उत्तर को चुन कर आगे बढ़ते हैं.

यह कहानी है हमारे कॉलेज जीवन में हुयी एक उल्लेखनीय घटना की. यह कहानी है नीलगिरि छात्रावास के मेस बॉयकॉट की, जिसे हम आज तक भूल नहीं पाते. इस कहानी के खलनायक (या कहूँ प्रतिनायक?) थे हमारे हॉस्टेल की वार्डन माइकल जैक्सन’, तत्कालीन डायरेक्टर तेजपाल सिंह बटरोहीऔर अन्य प्रतिष्ठित लोग जो कभी परदे के बाहर कभी न आए. इस कहानी के नायक हैं मेरे दोस्त- मेरे सहपाठी, मेरे हॉस्टेल मेट, जूनियर और सीनियर - वे सभी जिन्हें आज भी यह कहानी बिल्कुल शीशे की तरह साफ याद है.

मैं इस कहानी के साथ न्याय करना चाहता हूँ. क्योंकि यमही और तीका संतुलन करता है. इस उपयुक्त संयोजन का भार मैं अपने ऊपर ले कर सूत्रधार के रूप मेंखुद को पीछे धकेल रहा हूँ. पाँच दिन की कहानी मेरे पाँच मित्रों की जुबानी है. पंद्रह साल बीत जाने के बाद,मैंने अपने मित्रों से निवेदन किया कि वह अपनी-अपनी स्मृति से एक दिन की कहानी मुझे बताएँ. यह उनकी बतायी हुयी कहानी है, इसलिए मेरी आपबीती कम मेरे दोस्तों की ज्यादा है. न्याय की तुला मेरे हाथ में हैं. अत: इस कहानी के प्रस्तुति और सम्पादन के लिए मैं ही ज़िम्मेदार हूँ. तुला न्याय का प्रतीक है. यह दिलचस्प है कि तुला राशि भी इसी न्याय से जुड़ी है. उसका यहाँ क्या सम्बन्ध है, आगे बताता हूँ.
बिना किसी विशेष भूमिका के यह बताना आवश्यक है कि मैंने भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान दिल्ली से स्नातक की उपाधि ग्रहण की थी. आज के दिनों मे भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान का भारत में वही रुतबा है जो कभी पुष्पगिरि महाविहार, विक्रमशिला, तक्षशिला और नालंदा जैसे उच्च शिक्षा के विश्वविख्यात केन्द्रों का था. प्राचीन विश्वविद्यालय कई सदियों तक निर्बाध चलते रहे और अंत में विदेशी आक्रमणों से नष्ट हो गए. विदेशी आक्रमण से नष्ट होने का कारण बहुत हद तक स्वयं के कमजोर होने से जुड़ा होता है. हमारे विश्वविद्यालय को पचास साल हुए और शायद अगले पचास साल के बाद इसका नाम-ओ-निशान मिट जाएगा, या मिटा दिया जाएगा. क्योंकि इसे अंदर से इसे हम खोखला करते जा रहे हैं.

इस दावे की सचाई का दूसरा पहलू ज्योतिष शास्त्र में भी छुपा हुआ है. ज्योतिष समझने के लिए खगोलशास्त्र और तारामंडलों की जानकारी जरूर होनी चाहिए. भले ही लोग ज्योतिष न माने, क्या यह विशेष शर्म की बात नहीं कि सौ में निन्यानवे लोग तारों भरी रात में मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह आदि राशि को भी नहीं पहचान सकते? तारामंडलों की पहचान के बारे में पढ़े लिखे लोग भी बहुधा अनपढ़ हैं? जिस तरह आजकल आम तौर पर लोग पेड़ों के नाम नहीं जानते, पत्थरों को नहीं पहचानते, अरहर और मूंग में भेद नहीं कर सकते; वे अद्वैतवादी नहीं बल्कि अज्ञानी हैं. भेद से भेदाभेद और फिर अभेद पर पहुँचना ही ज्ञानियों का लक्षण है. वैसे भारतीय ज्योतिष परम्परा में राशियों के नाम बेबीलोनी-यूनानी राशिनामों के संस्कृत अनुवाद हैं. प्राचीन भारत में नक्षत्रों पर कथाएँ मिलती हैं, राशियों पर नहीं. राशि की अवधारणा हमारे यहाँ आयातित है.

कार्तिक महीने की ठंढ़ी रातों मेंदेर रात तक जाग कर मृगशीर्ष नक्षत्र और मृग तारामंडल (जिसे अंग्रेजी में ओरायन (शिकारी) भी कहते हैं) को उगते देख कर सोना ग्रामीण लोग की आदतों में शुमार रहा है. हमारे छोटे से शहर जैसा साफ आसमान दिल्ली, बंगलौर, मुम्बई में नहीं नज़र आने वाला. तभी जब पर्यटक बन कर महानगर निवासी लेह-लद्दाख में रात में तारों भरा आसमान देख लेते हैं, उसी क्षण तारों की खूबसूरती के मोह में पड़ जाते हैं.

खगोलशास्त्र में पृथ्वी की तीन गतियाँ पढ़ायी जाती है
1. दैनिक गति (अपनी धुरी पर घूमना, जिससे दिन-रात होते हैं),
2. वार्षिक गति (सूर्य का चक्कर लगाना, जिससे मौसम बदलते हैं), और
3. अयन चलन (Precessional motion, जिससे विषुव बिंदु बदलते हैं).
अयन चलन या प्रिसेशनल मोशन लट्टू के अपने घूर्णन धुरी को चक्कर खा कर बदलता है, उस नाचने वाली गति को कहा जाता है. पृथ्वी की अयन चलन अवधिलगभग 26,000सालों की है.3000ईसा पूर्व कोई और ध्रुव तारा था. इसी तरह सन 14,000ईसा पश्चात लाइरा तारामण्डल का एक तारा नया ध्रुव तारा बन जाएगा.
आकाश में वह बिंदु, जिसमें सूर्य के रहने पर दिन रात बराबर होते हैं विषुव-बिंदु कहलाता है. यह 21मार्च (वसंत-विषुव) और 22सितम्बर (शरद-विषुव) को होता है. प्राचीन काल मेंशरद-विषुव तुला राशि के विशाखा नक्षत्र के पास होती थी और वंसत-विषुव मेष राशि में. चूँकि दिन-रात बराबर होते थे, इसलिए राशि का नाम तुला था.अयन चलन के कारण वसंत-विषुव मेष राशि से हट कर अब मीन राशि में है और शरद-विषुव कन्या राशि में है. इसी तरह किसी दृष्टिकोण से मकर की संक्रान्ति 14जनवरी के बजाय 22दिसम्बर को होती है, जब सूर्य मकर राशि में प्रवेश करते हैं. मकर संक्रान्ति 14जनवरी को क्यों मनायी जाती है, उसकी चर्चा हम किस्से के अंत में करेंगे.
इतने दिनों के बाद जब मैं घटनाक्रम पर विचार करता हूँ तो मेरा निष्कर्ष यह निकलता है कि नीलगिरि छात्रावास के मेस बॉयकॉट (भोजनालय बहिष्कार) का एक कारण बहुविवादित वृश्चिक संक्रान्ति भी रही. जब सूर्य तुला को छोड़ कर वृश्चिक में प्रवेश करने वाले थे, तभी अशुभ घटनाएँ अपने चरम पर थीं.

प्राचीन बेबीलोनवासियों ने जब राशि का नाम दिया, उस समय यह शरद संपात-बिन्दु वृश्चिक राशि में था, जो कालांतर मेंतुला और फिर उसके बाद आज कल कन्या राशि में सरक गया है. यूनानी आख्यान के अनुसार इस बिच्छू का सम्बन्ध महाव्याध (शिकारी) ओरायन से है. दुनिया के सर्वश्रेष्ठ शिकारी होने से अपने दर्प से चूर ओरायन को देवताओं ने सबक सिखाने के लिए एक बिच्छू को भेजा. बिच्छू ने ओरायन को काटा जिससे उसकी मौत हो गयी. तब देवी डायना ने ओरायन (मृग या शिकारी तारामण्डल) को बिच्छू (वृश्चिक) से ठीक विपरीत स्थापित कर दिया, 180डिग्री की दूरी पर, ताकि वह बिच्छू के डंक से बचा रहे. आज भी पृथ्वी के किसी भी कोने से वृश्चिक और ओरायन (मृग) तारामण्डल को साथ-साथ नहीं देख सकते. यहाँ तक कि दक्षिणी ध्रुव में ओरायन का बहुत थोड़ा ही अंश नज़र आता है.

ऐसी ही कुछ परिस्थिति थी कि हॉस्टल में बहुत से लोग यह मानने लगे थे कि वार्डन माइकल जैक्सन को हँसते-खिलखिलाते लोग फूटी आँख नहीं सुहाते थे. वार्डन को माइकल जैक्सन इसलिए कहा जाने लगा था क्योंकि उसके और माइकल जैक्सन के शरीर में कुछ समानताएँ थी. दोनों ही छरहरे, जिस पर मांस नहीं चढ़ता हो. गाल चिपके से, तीखी खड़ी नाक थी. चलने से ऐसा लगता था कि अगले ही पल किसी धुन पर शरीर में वह थिरकन पैदा होगी कि देखने वाले देखते रह जाएँगे. किसी माइकल जैक्सन के फैन ने ही यह तथ्य ढूँढ निकाला था कि वार्डन की जन्मतिथि 29अगस्त 1958थी, जो कि वास्तविक माइकल जैक्सन की जन्मतिथि थी. इसी कारण से वह हम सभी के कोडवर्ड में माइकल जैक्सन के नाम से ही फिट हो गया. अब जब तक बताया न जाय, इस कहानी में वास्तविक दिवंगत अमरीकी नर्तक और गायक माइकल जैक्सन से कोई लेना देना नहीं है.

कुछ बातें हमें नीलगिरी ब्वॉयज हॉस्टेल के बारे में जान लेनी चाहिए. लड़कों का हॉस्टल लम्बी पंक्तियों में बना था, जिसे विंग (पंख) कहते हैं. यह अनुमान लगाया जाता है कि साठ के दशक में केवल फेसिंग, लॉन्ग, शॉर्ट और परपेंडीकुलर विंग ही रहे होंगे. न्यू बाद में और अल्ट्रा-न्यू बहुत बाद में जोड़ा गया है. ग्राँउड फ्लोर को ’ (A), फर्स्ट फ्लोर को बी (B), सेकेण्ड फ्लोर को सी (C) और थर्ड फ्लोर याचौथे तल्ले को डी (D) कहते थे. हर तल्ले पर 76रूम हैं, जिनमें कुछ सिंगल और कुछ डबल रूम हैं. न्यू, परपेंडीकुलर और फेसिंग विंग में सिंगल रूम हैं और लॉन्ग, शॉर्ट और अल्ट्रा न्यू में डबल रूम हैं. बी.टेक के कुछ तीसरे साल वाले और सभी चौथे साल वाले, एम.टेक और पी.एच.डी वाले सिंगल रूम में रहा करते थे. फर्स्ट ईयर और सेकेण्ड ईयर के लड़के डबल रूम में रहा करते थे, यानी अल्ट्रा-न्यू, लॉन्ग और शॉर्ट विंग में, वो भी डीऔर सीफ्लोर पर.

वार्डन का निवास हॉस्टल के साथ ही अलग बने दो मँजिले इमारत में था. नीलगिरि में भी प्रजातंत्र है, वह इस तरह कि एक हाउस सेक्रेटरी हुआ करता है जो आम तौर पर बी.टेक. के चौथे या पाँचवे साल के लड़के होते हैं (ज्ञात हो कि आइ.आइ.टी. में बी.टेक के चार साल और पाँच साल के अलग-अलग शैक्षणिक प्रोग्राम होते हैं). बाकी महत्त्वपूर्ण सेक्रेटरी जैसे स्पोर्ट्स, मेस, मेंटेनेंस, कल्चरर आदि तीसरे साल के लड़के चुने जाते हैं. आम तौर पर एम.टेक. और पी.एच.डी को हॉस्टल की अंदरुनी और बाहरी राजनीति से बाहर ही रखा जाता है. कुछ महत्त्वपूर्ण चुनाव विश्वविद्यालय स्तर पर भी होते हैं, जिसके लिए हॉस्टल के सेकेण्ड ईयर के लड़के, जो किसी सी निचले पद पर मनोनीत किए जाते हैं, वे वोट आदि देते हैं. चुनाव के कारण से आम-तौर पर हॉस्टल में दो गुट बन जाते हैं, जो कि आपसी टकराव, विंग की दोस्ती-यारी और रंजिशों से बनती-बिगड़ती है. यही गुट चुनाव में आपस में मुठभेड़ कर रहे होते हैं.


जिस समय यह घटना घटी उस समय बी.टेक. के चौथे साल में पढ़ने वाला खुशहाल अग्रवालहाऊस सेक्रेटरी था. उसने बी.टेक. के फिफ्थ ईयर के वैभव माथुर के गुट को हरा कर चुनाव जीता था. वैभव माथुर बहुत ही महत्त्वाकाँक्षी था और बाक़ी लोग से अधिक चतुर-चालाक माना जाता था.






जिस समय यह घटना घटी, उस समय स्मार्टफोन क्या साधारण मोबाइल का जोर भी नहीं पकड़ा था. कुछ बेहद धनी स्टूडेंट्स के पास ही यह स्टेसस सिंबलकी तरह हुआ करता था. कॉलेज के बाहर इंटरनेट कम इस्तेमाल हुआ करता था. उन दिनों पेन ड्राइव नहीं, A ड्राइव वाली फ्लापी हुआ करती थीं जिनमें ‘1एमबीका स्पेस हुआ करता था, जिसमें असाइनमेंट सबमिट करना पड़ता था. सीडी प्रचलन में आना शुरु हुयी थी. उन दिनों फोन करने के लिए एसटीडी बूथ पर लाइन लगा कर अपनी बारी आने का इंतज़ार करना पड़ता था. उन दिनों दिन में फ़ोन करना, बहुत मँहगा पड़ता था और फ़ोन के लिए शाम के साढ़े आठ बजने का इंतज़ार करना पड़ता था ताकि पैसे कम लगें. उन दिनों किताबों की पीडीएफ फाइल नहीं मिला करती थी. विकिपीडिया पर चुटकियों में जानकारी नहीं मिला करती थी. सोशल मीडिया शुरू भी नहीं हुआ था. हिन्दुस्तान में इतनी गाड़ियाँ नहीं हुआ करती थी. हाँ, इंटरनेट से डाउनलोड कर के फ़िल्मेँ देखना शुरु हो चुका था.

इस कहानी का घटनाक्रम पाँच दिनों तक सीमित है. जिसके लिए मैंने अपने पाँच दोस्तों से अनुरोध किया कि वे अपनी स्मृति पर जोर दे कर पंद्रह साल पुरानी बात को यथावत लिखें, ठीक वैसे ही जैसे उस दिन की डायरी उन्होंने लिखी होगी.


(एक)


21अक्टूबर 2002 : मयखाना-ए-इल्हाम
[सूत्रधार की टिप्पणी: मशहूर शायर शाद अज़ीमाबादी (1846-1927) पटना के रहने वाले थे. मीर अनीस की तरह यह भी मर्सिया के उस्ताद थे. इस बयान के नायक भी शाद अज़ीमाबादी की तरह फ़क्कड़ है और पटना के ग्रामीण इलाके का रहने वाला है. सन 2001में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान दिल्ली मेंइंजीनियरिंग फ़िजिक्सकी नई ब्राँच खुली थी. चार साल के उसी नये प्रोग्राम के पहले बैच मेंपढ़ रहा नायक दूसरे सालमें है और डी अल्ट्रा-न्यू का बाशिंदा है. तसव्वुफ़ (दर्शन) की बहुत सी बारीकियों से लड़ते हुए हमारा शाद (प्रसन्न) न हो कर बड़ा नाशाद (खिन्न) था.]

कई हिन्दी फ़िल्मों ने मेरे जेहन में यह कहीं गहरे बिठाया था कि कॉलेज में ढ़ेर सारी मस्ती होती है. खूबसूरत खिलखिलातीपरियों जैसी लड़कियाँ बड़ी जल्दी गहरी दोस्त बनती हैं. पढ़ना कम होता है और कॉलेज से निकलते ही अच्छी नौकरी मिल जाती है. यहाँ आने के बाद ऐसी छवि बड़ी जल्दी तार-तार हो गयी. ऐसा नहीं है कि लड़के मस्ती नहीं करते थे. लेकिन इतने प्रतिष्ठित कॉलेज का स्तर ही और है. मैंने जिन्दगी में कभी कोई बास्केटबॉल का कोर्ट नहीं देखा था. लॉन टेनिस का रैकेट नहीं पकड़ा था. इतने सारे वायलिन, गिटार, ड्रम नहीं देखे थे. यहाँ आ कर पता चला के साथ पढ़ने वालों के लिए यह आम बात है. लड़कों ने न केवल बास्केटबॉल खेला है बल्कि राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताओंमें भाग भी लिया है. हर किसी में कोई न कोई उल्लेखनीय टैलेंट है. कोई टेबलटेनिस खेलता है, कोई अच्छा गाता है, कोई चितेरा है, कोई डिबेट में उस्ताद है. एक ही मैं ही था, जिसे कुछ नहीं आता था. बड़ी मुश्किल से यहाँ एडमिशन हुआ, पर अभी तक मैं खुद को यहाँ के लायक नहीं समझता हूँ. मुझे तो ठीक से अँग्रेजी लिखना बोलना भी नहीं आता है. क्लास में मुँह बंद कर के पिछली सीट पर बैठ कर चुपचाप समझने की कोशिश करता रहता हूँ. ऐसा नहीं है कि मैं बुद्धिमान नहीं हूँ. मेरे ग्रेड ठीक ठाक हैं, पर मुझे इससे कहीं ज्यादा की उम्मीद है. माइनर 2में खराब नम्बर से मेरा मूड बिगड़ा हुआ है (एक साल का शैक्षणिक सत्र चौदह हफ्तों के दो सेमेस्टरों में होता है. हर सेमेस्टर में तीन परीक्षाएँ होती हैंमाइनर 1, माइनर 2और अंत मेंमेजर ). नम्बर लाना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि इससे इज्जत बनी रहता है. भले ही यहाँ लोग खेलते कूदते रहते हैं पर परीक्षाओं के समय सब बड़े गम्भीर हो जाते हैं और बहुत ही अच्छे अंक ले कर प्रोफेसरों को भी चकित कर देते हैं. कान्वेंट के पढ़े लड़कों के बीच अपनी जगह बनाने के लिए मुझे बड़ी मेहनत करनी पड़ती है. एक साल में यह समझ आ गया था कि चुपचाप क्लास लगा लेने से, सारी असाइनमेंट बना लेने से और परीक्षा से पहले एक बार विषय पढ़ लेने से सम्मानजनक जगह बनी रहती है.


सोमवार होने के कारण मैं और सुबह उठ कर जल्दी तैयार हो गया. 8बजे की क्लास के लिए सवा सात बजे तक नाश्ते के लिए मेस पहुँचना होता है, ताकि उसके बाद पैदल इंस्टिट्यूट समय पर पहुँचा जा सके. कुछ प्रोफेसर देर से आने वालों के लिए बड़े सख्त होते हैं. पर मेरी साइकोलॉजी की प्रॉफेसर बड़ी दयालु थीं. हमेशा कि तरह मैं समय पर पहुँच गया. जहाँ बहुत से लोग खेलने-कूदने, नाचने-गाने, ड्रामा-डिबेट में लगे थे, वहाँ मेरी अभिरुचि पुस्तकोंमें थी. इंस्टिट्यूट की बड़ी लाइब्रेरी मेंमैं साहित्य की किताबें पढ़ता रहता हूँ. हॉस्टल में भी अलग सा पुस्तकालय है, जिसमें किताब लड़कों की अभिरुचि से मंगायी जाती है, जिसके लिए वार्डन की सहमति जरूरी होती है. मुझे मानविकी विभाग के कक्षाएँ बहुत पसंद हैं. इसमेंथर्ड ईयर और कभी-कभी फोर्थ ईयर वाले भी हुआ करते हैं. इंजीनियरिंग की तुलना में यह मुझे बहुत रोचक लगता है. आज का लेक्चर बहुत शानदार रहा.सुबह के तीन लेक्चर के बाद दोपहर के लिए खाने के लिए आना हुआ. इसके बाद दो बजे से एक-एक घंटे के दो ट्यूटोरियल क्लास थे, लेकिन दोनों ही आज रद्द थे.


बारह बजे के आस पास इंस्टिट्यूट से लौटते हुए शैलेश और मैं साइकोलॉजी के क्लास मेंहुयी बहस को याद करते हुए बहस कर रहे थे. बहस के दौरान शैलेश ने एकदम से पूछा, “तुम आर्ट आफ लिविंगज्वाइन करने के बारे में सोच रहे हो क्या?”

एकदम नहीं. मेरे हिसाब से यह पैसे लूटने का एक तरीका है.
ये तुम चौबे के सामने बोल कर दिखाना. इतने फायदे गिनाएगा कि तुम सोचने लगोगे.शैलेश ने कहा.
हमारी बहस हो रही थी कि गुस्सा क्यों आता है? ‘आर्ट आफ लिविंगतो हमारे वार्डन को करना चाहिए.शैलेश उन लोग मेंगिना जाता था जो कि बहुत अनुशासित रहता था. इसलिए उसने पूछा, “अब तुझे उससे क्या प्रॉब्लम हो गयी?”

हमारा वार्डन कुछ खिसका हुआ है. हॉस्टल के बाहर सीढ़ियों पर बैठा हुआ था, तो मुझे आ कर बोला कि यहाँ बैठोगे तो फाइन कर दूँगा.

ठीक बोलता है.शैलेश ने कहा, “रास्ते में कोई क्यों बैठै?”
कुछ बोलो, उसे हर बात मेंकोई न कोई तकलीफ़ हो जाती है. रूम में ताला न लगा हो तो फाइन, गलती से रूम के अंदर लाइट जलती रह जाए तो दो सौ रूपए फाइन, पंखा चलता रह गया तो पाँच सौ रूपए फाइन, रूम मेंटेपरिकॉर्डर बजाओ और अपना वार्डन चौकीदार की तरह गश्त लगाता हुआ आएगा और टेपरिकॉर्डर उठा कर ले जाएगा. छुड़ाने के एवज में पाँच सौ रूपए का दण्ड भरो. अगर कोई कॉरीडोर पर सिगरेट पीते हुए पकड़ा जाए तो हज़ार रूपए का फाइन. हम लोग यहाँ पढ़ने आए हैं या जेल मेंसजा काटने?”

बिलकुल ठीक कर रहा है वार्डन. हमारे यहाँ हुड़दंगी लड़के बहुत जोर से गाना बजाते हैं. पहली बात है कि सिगरेट पीना खराब बात है. अगर पीना भी है तो अपने रूम मेंपियो. क्या तुम नहीं मानते कि हमारे कॉलेज मेंअधिकतर लड़के नैतिक रूप से गिरे हुए हैं. उन सब के लिए वार्डन का डण्डा होना बहुत ज़रूरी है.


तुम बताओ शैलेश, आर्ट आफ लिविंग वालों के पास इसका क्या जवाब होगा? उन लोग के पास दुनिया की समस्याओं का क्या हल है? मेरे हिसाब से ये वे लोग हैं जो विवेकानंद की ख्याति की तर्ज पर, ओशो की जालसाज़ी-बेईमानी-लंफगई वाले मॉडल पर चलते हुए भटके हुए लोग को बरगलाने की कोशिश है.

शैलेश मेरी बात सुन कर नाराज़ हो गया. दूसरों को गाली देने से पहले अपने गिरेबान में झाँको. तुम अंदर से कितने मजबूत हो? क्या करना चाहते हो ज़िन्दगी में? आधे समय तो आत्महत्या की बात करते रहते हो.

मैं आत्महत्या की बात करता हूँ, आत्महत्या कर लेने की बात नहीं करता.
तुम्हारा मुद्दा क्या है? एक तो तुम इतने परेशान रहते हो. आर्ट आफ लिविंगसीख लोगे तो कम परेशान रहोगे.शैलेश ने सुझाया.

हद है.परेशां हूँ कि क्यूँ मेरी परेशानी नहीं जाती, लड़कपन तो गया मगर मेरी नादानी नहीं जाती. मैं परेशान रहता हूँ कि मेरे ग्रेड कम आते हैं. इसलिए परेशान रहता हूँ कि समझ नहीं आता ज़िन्दगी में आगे क्या करूँगा? पढ़ना लिखना इतना बड़ा बोझ लगता है. हम चाहते हैं क्या है? नौकरी? मतलब किसी के हाँ में हाँ मिलाते हुए काम करते रहो, अपने मन का कुछ न करो.”                       “यही तो सीखना है!

तुमने सीख लिया है? बताओ मुझे?” मैंने चिढ़ कर कहा. तब शैलेश ने मुस्कुरा कर कहा, “मुझे इतना बड़ा गधा समझते हो कि हज़ार रूपए खर्च कर के आर्ट आफ लिविंगका कोर्स करूँगा?”

फिर मुझे क्यों सुझा रहे हो?”

शैलेश ने मुस्कुरा कर कहा, “तुम्हें वाकई इसकी ज़रूरत है.

आज शाम में फ़िल्म सीरीज़ सोसाइटीकॉनवोकेशन हॉल में कोई ब्लैक एंड ह्वाईट फ़िल्म दिखाने वाले हैं. चलोगे?”

अभी दोपहर का क्या प्लान है? कैरम खेलना है या लैन से कोई फ़िल्म डाउनलोड कर के देखना है?”
लाइब्रेरी से प्रेमचंद की मानसरोवरलायी है. उसी को पूरा करने का इरादा है.मैंने कहा.
सोमवार को कॉन्टिनेन्टल खाने का मेनू होता था. मतलब मेस में बनाया देसी पिज्ज़ा और बाज़ार से मंगायी सस्ती पेस्ट्री. बाकी दिन मेस के खाने को सभी गाली दिया करते थे, पर सोमवार के खाने के लिए बहुत से लोग उतावले हुआ करते थे. मेस में 7बजे 8:30तक खाना मिला करता था. शैलेश और मेरा प्लान था कि डिनर कर के फ़िल्म देखने के लिए इंस्टिट्यूट के मल्टी स्टोरेज बिल्डिंग की तरफ़ डोगरा हॉल (जिसे कॉन्वेकेशन हॉल भी कहते हैं) में जाएँगे. शाम में 06:30के आस-पास अचानक लाइट चले जाने के कारणजब शैलेश और हमयूँ ही घूमने के लिए नीचे आ गए,हमने रिसेप्शन के पास ही लड़कों का हुज़ूम उमड़ा हुआ देखा. किसी अनिष्ट की आशंका से मैं उस उबलती भीड़ के पास जा कर अपने ईयर के लड़कों से पूछा, “क्या हुआ?”

माइकल जैक्सन ने फर्स्ट ईयर के गौरव कटारिया की पिटाई कर दी.

क्या?”मैं चकरा गया.सौरभ ने विस्तार से बताया, “गौरव कटारिया अपूर्व के साथ अभी इंस्टिट्यूट की तरफ़ जा रहा था. ये दोनों बास्केटबॉल की प्रैक्टिस से वापस लौटे थे. शायद उनके कोच ने उन्हें बहुत दौड़ाया था. कटारिया वार्डन के घर के पास गुजरते हुए आपस में बात कर रहा था – “बहनचोद! आज तो कोच ने हमारी ले ली.इतना सुनते ही वार्डन जो उस समय फर्स्ट फ्लोर की बॉल्कनी पर खड़ा था, वहीं से चिल्लाया – “ह्वाट डिड यू से? स्टे देयर!“ (क्या कहा तुमने? वहीं रूको!)दोनों सहम कर वहीं खड़े रह गए. नीचे आ कर उसने कटारिया से धमकाते हुएपूछा, “ह्वाट डिड यू से जस्ट नॉउ?” (तुमने अभी क्या कहा?) इतना कह के उसने कटारिया को तीन-चार थप्पड़ रसीद दिए.
अशोक ने कहा, “मैं वहाँ था. थप्पड़ लगने से कटारिया कोने मेंगिर गया, तब भी वार्डन रुका नहीं और उसके पेट पर तीन लात लगा दिए!

नीरज ने टोका, “पेट पर लात नहीं मारी है. तुम बिना बात के बात बढ़ा रहे हो!

वार्डन सनकी है,” मैंने गुस्से से कहा, “जूडो-कराटे की प्रैक्टिस करते-करते लड़कों पर हाथ भी उठाने लगा. कटारिया कहाँ है?”

उसे वार्डन ने ले जा कर उसके रूम में बंद कर दिया है. शायद डर होगा कि कुछ हंगामा न हो!विवेक ने बताया.

अब क्या होगा?” मैंने सहमते हुए पूछा. अनजाने भय ने मुझे घेर लिया. वार्डन का कोई भरोसा नहीं, इस बात को वह मुद्दा बना कर उसपे डिसीप्लिनरी एक्शन ले लेगा. कटारिया को एक सेमेस्टर के लिए ऐसे ही निकाल देगा.

मेरी बात सुन कर नीरज ने धमकते हुए कहा, “डरना इस बार वार्डन को पड़ेगा. गलती उसकी है. बीस-पच्चीस लोग इस हादसे के गवाह हैं. डिसीप्लिन सबके लिए बराबर हो. अगर स्टूडेंट की गलतियों पर सेमेस्टर से निकाल देते हैं तो हमारे इस वाहियात वार्डन को निकाल देना चाहिए.

माइकल जैक्सन की कम्बल कुटाई कर देनी चाहिए.गौरीशंकर ने दांत पीसते हुए कहा. यह सुनते ही सौरभ, नीरज और अशोक ने एक ही बात कही, “हम आइआईटी में पढ़ते हैं. बाकी कॉलेजों की तरह हम भी अगर अपने प्रॉफेसरों की पीटने लगे, तो हममें और बाकी लड़कोंमें क्या अंतर रह जाएगा.
थर्ड ईयर और फोर्थ ईयर के सीनियर कुछ मंत्रणा कर रहे थे. हॉस्टल में ऐसी सरगर्मी पिछले साल 9/11के हमले के बाद देखी थी.ठीक इसके बाद डिनर शुरु हुआ. खाना खा कर के शैलेश के साथ मैं डोगरा हॉल (कॉन्वेकेशन हॉल) की तरफ़ निकल गया. वहाँ 1925की रूसी फ़िल्म द बैटलशिप पोट्मकिनदिखायी गयी. फ़िल्म मेंनाविकों को ज़ुल्मों का बगावत देख कर मैं अजब से जोश में भर गया.

फ़िल्म देख कर लौटते हुए जब हम हॉस्टल आए तो पता चला कि फोर्थ ईयर और फिफ्थ ईयर के सीनियर गौरव कटारिया को ले कर शिकायत करने ओल्ड कैम्पस मेंडीन आफ स्टूडेंटके घर गए. लेकिन डीन ने चालीस लोग की भीड़ को सीधे-सीधे टरका दिया. यह कहा गया कि छोटी सी बात को बिना मतलब के बढ़ाना ठीक नहीं है. क्या तुम लोग भी यही चाहते हो कि यहाँ भी बाकी यूनिवर्सिटी की तरह छात्र संघ बने जो आये दिन हड़ताल करे और प्रॉफेसरों को परेशान करे, परीक्षा की तारीख़ें बढ़वाए, हुड़दंग किया करे?

यह सुन कर मैंने शैलेश से कहा, “हमें भी बगावत करनी चाहिए. अनुशासन के नाम पर गुंडागर्दी ठीक नहीं है. माना कि गाली देना ग़लत बात है, मैं भी नहीं देता, यहाँ कटारिया ने किसी को गाली दी ही नहीं. वह तो लैँग्वेज का पार्ट है, एक्सक्लेमेशन है. अगर ऐसा बोलना असभ्यता भी है तो वार्डन को क्या हक़ बनता है कि वो किसी पर ऐसे हाथ चला दे!

शैलेश ने हिकारत से कहा, “फ़िल्म देख कर ताज़ा जोश पैदा हो गया है? ज़मीन पर आओ. ये सिनेमा नहीं चल रहा है. यहाँ कुछ बोलोगे, अगले दिन डिसीप्लिन के नाम पर लात मार कर निकाल दिये जाआगे. ऐसे ही उन्होंने यहाँ अनुशासन बना रखा है. एक सेमेस्टर की पढ़ाई इतनी मँहगी लगती है तुमको. एजुकेशन लोन ले कर पढ़ रहे हो न? आइआइटी से निकाले जाओगे तो काश्मीर से कन्याकुमारी तक बारहवीं पास का सर्टिफिकेट ले कर घूमते रहोगे, पर किसी कॉलेजमें एडमिशन नहीं मिलेगा. अपनी हैसियत समझो और चुप रहो.मेरा ज़र्द चेहरा देख कर शैलेश थोड़ा नर्म हो गया, “हर बात का ग़म नहीं किया करते. ज़माने की हर बात पर ग़म खाते रहोगे तो कैसे चलेगा?”
एक दिन ऐसा भी नासेह आएगा
ग़म को मैं और ग़म मुझे खा जाएगा
ऐ फ़लक ऐसा भी इक दिन आएगा
जब किए पर अपने तू पछताएगा
कुछ न कहना शादसे हाल-ए-ख़िजाँ
इस ख़बर को सुनते ही मर जाएगा




(दो)
22अक्टूबर 2002 : दाग़-ए-जिगर
[सूत्रधार की टिप्पणी: जिगर मुरादाबादी (1890-1960) बीसवीं सदी के प्रमुख उर्दू शायरोंमें गिने जाते हैं. शायरी उन्हें विरासत मेंमिली थी. पेट पालने के लिए कभी स्टेशन-स्टेशन चश्मे बेचते, कभी कोई और काम कर लिया करते. हमारा दूसरा नायक भी उनकी ही तरह मुरादाबाद का रहने वाला है. भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान दिल्ली के कठिनतम प्रोग्राम, पाँच साल वाले मैथेमेटिक्स एंड कम्प्यूटिंगके इंटिग्रेटेड एम.टेक. का विद्यार्थी है. उन दिनों डी लॉन्गविंग में रहा करता था. हमारा जिगर मुरादाबादी बहुत ही हाजिरजवाब, साहसी और बाँका जवान था, जिन्होंने ज़िन्दगी मेंकभी हारना नहीं सीखा था. ]
हम ख़ाक-नशीनों के ठोकर में ज़माना है.


इसी धमक से, इसी अकड़ से अपन ज़िन्दगी जीते आए हैं. कोई पूछे या न पूछे, अपन बता देते हैं कि मैथेमैटिक्स एंड कंप्यूटिंगही आइआइटी का सबसे मुश्किल प्रोग्राम है. बी.टेक. कंप्यूटर वालों से तो है ही और इलेक्ट्रिक इंजीनियरिंग वालों से भी है. बाकी ब्राँच वालों को हम मुकाबले के लायक ही नहीं समझते. अब हमारे ग्रेड कम क्यों रहते हैं, उसका एक ही कारण है हमारे प्रॉफेसर. हमें नम्बर देना, कर्ज़ देने से भी बड़ा पाप समझते हैं.

बहरहाल, सुबह-सुबह हम क्लास में गए. प्रोफेसर आहलूवालिया ने हमें टोक दिया कि जब आगे की बेंच खाली है तो पीछे क्यों जा रहे हो? हमने कह दिया कि पीछे की बेंच पर सोने में आसानी होती है. प्रोफेसर कूल निकला. मुस्कुरा कर बोला कि आगे ही सो जाओ, कोई मनाही नहीं है. फिर क्या था, आगे ही बैठना पड़ा. बेंच की एक किनारे तितली अपनी सहेली के साथ बैठी थी, इधर हम बैठे थे. तितली और हमारी मुहब्बत शमा-परवाने की मुहब्बत जैसी थी. आँखों-आँखों में बात होती थी. कभी हमारी ज़ुर्रत नहीं होती कि हम अपने इश्क़ का परवान चढ़ा सकते. वह भी कुछ न कहती थी, केवल गुलाबी हँसी हँस के चली जाती थी. तितली रंग-बिरंगी तितली जैसी थे. बहुत रंगीन चमकदार कपड़े, दिलकश अदाएँ, वो विंड टनेल पर खड़ा हो जाना, उसकी ज़ुल्फ़ों का उड़ना... उसके ढ़ेरों चाहने वाले थे, जिनमेंवो शायद किसी को न चाहा करती थी. तितली की फितरत ही ग़ुल से दिल्लगी करने की है, इसलिए हम ज्यादा ध्यान नहीं देते थे.

आहलूवालिया ने ब्लैकबोर्ड पर कुछ लिखा और अचानक पूरी क्लास से पूछ बैठे, “नीलगिरि हॉस्टल से कौन है?” हम लोग ने हाथ खड़े किए. आहलूवालिया ने मुझे इशारे से पूछा, “क्या हुआ है तुम्हारे हॉस्टल में वार्डन के साथ? आज सुबह के अख़बार में आया है.मैं खड़ा हो कर पूरे क्लास के सामने संक्षिप्त मेंबताया कि किस तरह एक जूनियर पर वार्डन ने हाथ उठा दिया. पशोपेश में पड़े प्रोफेसर ने कहा, “तुम लोग ने हौजखास थाने में जा कर एफ.आ.आर. क्यों नहीं लिखवाया?”
अपने ही हॉस्टल के शिवचरण ने कहा, “सर हम आइआइटी की बदनामी नहीं चाहते. हमारे वार्डन ने आतंक मचा रखा है. कभी भी किसी के रूम मेंरात-बेरात दरवाजा खटखटा कर के तलाशी लेने आ जाता है कि कहीं कोई हीटर नहीं चल रहा, कोई सिगरेट तो नहीं पी रहा, और न जाने क्या-क्या. रूम खुला रह गया हो तो फाइन. कोई रूम खुला छोड़ कर नहाने चला गया तो फाइन. हर बात पर कुछ न कुछ फाइन. ऐसा लगता है हम लोग जेलखाने में रहते हों.


देखो बेटा,” आहलूवालिया ने पहली बार हम लोग को बेटा कह कर बुलाया, “तुम लोग चार-पाँच साल में यहाँ से निकल जाओगे. पर आइआइटी को हम चलाते हैं. मैं यहाँ के पहले डायरेक्टर डोगरा के ज़माने से हूँ. आज भी सिविल सर्विसेस के इंटरव्यू लेने के लिएमुझे बुलाया जाताहै. जब आइआइटी का ग्रांट नहीं पास होता है तो मिनिस्ट्री को मैं फोन करता हूँ. डायरेक्टर मुझसे पूछते हैं कि मिस्टर आहलूवालिया, बताओ क्या किया जाय. अभी ये डायरेक्टर और ये वार्डन ठीक काम नहीं कर रहे. तुम लोग को सीधेपुलिस में रिपोर्ट लिखा देनी चाहिए.


मैं क्या कहता कि मुझे पता है वार्डन नियमों के पीछे ऐसे हाथ धो कर क्यूँ पड़ा है? इसलिए कि उसे आगे चल कर डीन बनना है और न जाने क्या-क्या. पता नहीं क्या पढ़ता है और पढ़ाता है कि उसे जूडो-कराटे, बॉक्सिंग करने के अलावा रातोंमें कमरे की तलाशी लेने का भी समय मिल जाता है? एक हम हैं कि जिसे मरने की भी फुरसत नहीं.

सुबह के लेक्चर के बाद जब लंच के लिए हॉस्टल के रास्ते में था तभी खबर मिल गयी कि हम लोग ने मेस बॉयकॉट किया है. अब किसी को मेस में नहीं खाना है जब तक यह सनकी माइकल जैक्सन हॉस्टल से हटा कर कहीं डांस करने न लगा दिया जाय. सीधे-सीधे कहने में मतलब यह है कि ब्रेकफास्ट नहीं, लंच नहीं, डिनर नहीं. अभी हॉस्टल के रास्ते जूस शॉप तक ही पहुँचा था कि विंध्याचल हॉस्टल का ग्राफ थ्योरी वाला मटका (एम.टेक)मिल गया (मतलब वह एम.टेक. स्टूडेंट ग्राफ थ्योरी कोर्स पढ़ाने वाले प्रॉफेसर का अस्सिटेंट है). उसने बताया कि माइनर टूके साथ जो असाइनमेंट सबमिट करना था, उसमें मेरे और तितली को जीरो नम्बर मिले हैं. सुन कर मेरे दिमाग की बत्ती ऐसी जली कि रॉकेट बन के सीधे आकाश में फूटी. मैं समझ गया कि तितली को जो मैंने समझाने के लिए असाइनमेंट दिया था कि थोड़ा बहुत बदल के सबमिट कर दे, उससे हुआ नहीं होगा. पगली ने सीधे के सीधे सबमिट कर दिया है. अब प्रॉफेसर ने पकड़ लिया, हम दोनों के जीरो! इस में मुझे सबसे ज्यादा ग्रेड मिलते, वहीं इसी में मुझे अब सी (6/10) भी मिल जाए तो बहुत है. एक पर एक मुसीबत!

हॉस्टल पहुँच कर सोचा कि अब खाने का क्या किया जाय? मेस के पास लड़के जुटे हुए थे. हर कोई एक-दूसरे को इत्तला दे रहा था कि यहाँ नहीं खाना है. ग़ज़ब की मजबूती दिखी कि एक लड़का उधर नहीं फटका. बी.टेक. क्या, एम.टेक. क्या, पी.एच.डी. वाले भी हमारी बात में हाँ में हाँ मिला रहे थे. मैंने सोचा कि अब ट्यूटोरियल के लिए कॉपियाँ ले लूँ. इंस्टीट्यूट के होलिस्टिक फूड में खाया जाएगा, नहीं तो मेन गेट के बाहर एस.डी.ए. मार्केट में कुछ ले लेंगे. नहीं तो फाँका मारा ही जा सकता है. मैंने मन ही मन सोचा कि बहुत से लड़कों के लिए यह बॉयकॉट भी एक बहाना है ताकि मेस का घटिया खाना न खाना पड़े. वैसे ही वे लोग अक्सर हॉस्टल गेट के बाहर सस्सी ढ़ाबे में खाते हैं, एक तगड़ी वज़ह मिल गयी है इन लोगों को.


जाने से पहले मैंने कॉमन रूम में जा कर मशहूर अंग्रेज़ी अख़बार को पलट कर देखने लगा. अंदर के किसी पन्ने पर एक छोटी सी ख़बर आयी थी कि फर्स्ट ईयर के विद्यार्थी के वार्डन द्वारा कथित पिटाई नीलगिरि छात्रावास में रोष है. इस पर टिप्पणी के लिए वार्डन उपलब्ध नहीं थे. ख़बर के साइज से मुझे निराशा हुयी कि संसार के लिए हमारा पीड़ा बस इतने छोटी सी जगह रखती है, जब के पहले पेज पर किसी नेता के उलजलूल बयान को छापा जाता है. उमड़ती सिकुड़ती भीड़ से पता चला कि हमारे काबिल फोर्थ ईयर वालों के समाचार पत्रों से कॉन्टैक्ट हैं. हो न हो फिफ्थ ईयर के वैभव माथुर ने ही अपने प्रभाव से यह ख़बर छपवायी है. मन ही मन मैंने सोचा कि यह होता है दिल्ली के होने वाले का फ़ायदा. हमारे मुरादाबाद में ऐसा होता तो हम क्या-क्या करवा चुके होते. अव्वल तो वार्डन ही रातोरात उठ चुका होता.


शाम में जब वापस हॉस्टल लौटना हुआ तो देखा कि फोर्थ ईयर और फिफ्थ ईयर के लड़कों से बीच डीन आफ स्टूडेंट’, हाउसमास्टर केमिकल इंजीनियरिंग का पानवाड़ी लाल होठों वाला प्रॉफेसर और एसोसिएट डीन शदाक़त खान जैसे प्रॉफेसर जो प्रशासनिक काम देख रहे थे, लड़कों से बहस कर रहे थे.
सर, यह वार्डन बदल देना चाहिए!

तुम लोग से पहले भी कह चुका हूँ कि एडमिनिस्ट्रेशन इस पर ग़ौर फ़रमाएगा.

आपको पता नहीं किस बेदर्दी से वार्डन सर ने गौरव कटारिया को मारा है.

क्या हुआ? घर में भी गलती करने पर माँ बाप से डाँट सुनते होगे. कभी मार भी खाया होगा?“

एक और आवाज़ आयी, “सर, मेरे पिता जी ने मुझ पर कभी हाथ नहीं उठाया. ऐसी ग़लती की जाँच होनी चाहिए. ऐसे वार्डन को हटाना चाहिए.

देखो, तुम लोग समझ नहीं रहे. बीच सेमेस्टर में किसी को नहीं हटाया जा सकता. कमसे कम दिसम्बर तक तो रहना ही पड़ेगा. इतना बड़ा इंस्टिट्यूशन ऐसे थोड़े ही चलेगा.
हमारा आंदोलन भी चलता रहेगा. जोर से बोलो वार्डन हाय, हाय. वार्डन हाय, हाय.
कोरस में बुलंद आवाज़ आने लगी. वार्डन हाय हाय. वार्डन हाय, हाय.ऐसे में मोटे मुदितदास ने दाहिनी हाथ हवा में मार कर जोर से हमारे हॉस्टल का नारा लगाया, “वीर बहादुर लड़के कौन, नीलबुल्स, नीलबुल्स.

भीड़ चिल्लाने लगी, “सबसे आगे लड़के कौन. नीलबुल्स, नीलबुल्स. वार्डन हाय, हाय. वार्डन हाय, हाय.
तीनों प्रॉफेसर लाल-पीले हो गये. वे गुर्राये, “ऐसे करोगे तो तुम सब पर डिसीप्लिनरी एक्शन लेना पड़ जाएगा.

धमकी सुन कर लड़कोंमें और जोश आ गया. तक़रार होने लगी. कभी कोई एम.टेक. विद्यार्थी कुछ बोलता, कभी कोई पी.एच.डी.. सब क़िस्से सुनाने लगे कि कब वार्डन रात मेंग्यारह बजे चक्कर लगाता है, कब सुबह पाँच बजे. नियमपालन के नाम पर पागलपन की इंतिहा तक कैसे फाइन लगाता है.
माइकल जैक्सन वहीं खड़ा बिना एक शब्द बोले सब को एकटक देख रहा था. जैसे उसे ऊपर से हिदायत मिली हो कि एक शब्द नहीं कहना है.


मैं भीड़ को छोड़ कर अपने रूम में आ कर बैठ गया. मुझे तितली पर गुस्सा आ रहा था. भगवान् ने उसे थोड़ी अकल दी होती तो समझ कर असाइनमेंट कर लेती. एक तो यहाँ होमवर्क मिलता है कि कोई सारा होमवर्क असाइनमेंट खुद से करने बैठे तो हो गया, किसी हाल मेंउसकी डिग्री नहीं निकल सकती. एक-दूसरे की मदद तो करनी ही पड़ती है. यहाँ तो मदद करने के चक्कर में अपना बंटाधार हो गया. कंप्यूटर चालू कर करके आज का असाइनमेंट करने बैठा, देखा कि इंटरनेट ही नहीं आ रहा है. निकल कर मैं कौशिक के रूम में गया. उसने भी कहा कि दो घंटे से इंटरनेट नहीं आ रहा है.

गुस्से में मैंने कुछ कहना ही चाहा कि कौशिक ने कहा, “ये सब डीन का किया-धरा होगा. पिछले साल हॉस्टल में इंटरनेट दिया है उन्होंने. जैसे एक्साम से पहले अक्सर बत्तियाँ गुल कर देते हैं, हमारे प्रोटेस्ट के कारण यहाँ का इंटरनेट बंद कर दिया है. कराकोरम हॉस्टल में आ रहा है, मैंने इंटरकॉम से फोन कर के पता किया है.


यार ये असाइनमेंट करना ज़रूरी है. इंस्टिट्यूट चल कर अपने लैब चलते हैं. वहीं काम करते हैं.कौशिक को मेरी बात पसंद आयी.

हम दोनों अभी रिसेप्शन के पास पहुँचे ही थे कि देखा कि सारी भीड़ छट चुकी थी. एक युवा लड़की कुछ लोग से बातें कर रही थी. हमें देखते ही पास आ कर बताया कि वह एक बड़े अँग्रेज़ी अख़बार से है. बस फिर क्या था, सुंदर संवाददाता और अपना दु:ख. चार लड़के बताने लगे. आते-जाते लोग रूक कर नमक मिर्च लगा कर बताने लगे. कौशिक ने जोश में आ कर जोड़ा, “प्रॉफेसरों ने सज़ा के तौर पर हमारे हॉस्टल का इंटरनेट बंद कर दिया है. वे नहीं चाहते कि हम आप को, मीडियावालों को, यहाँ हो रहे अत्याचार की ख़बर दें. आप देख रहींहैं, ये हॉस्टल लगता है देखने में ... पर आप को यहाँ रहने को कहा जाय तो आप समझ जाएँगी यह जेल है जेल!


इससे पहले कि कौशिक उस रिपोर्टर को देख कर अपने होश और खोता, मैं उसे पकड़ कर अपने साथ घसीटता हुआ बाहर ले गया. साइकिल पर बैठ कर हम दोनों इंस्टिट्यूट की तरफ़ चल दिए.
जब हॉस्टल के साथियों को मैसेंजर पर आनलाइन देखा तो मैंने मेसेज कर के पूछा कि बगैर इंटरनेट कैसे आनलाइन हो. पता चला कि इंटरनेट कुछ तकनीकी ख़राबी से बंद था और अब वापस बहाल किया जा चुका है. मैंने कहा, “कौशिक, तूने रिपोर्टर को अपना नाम तो नहीं बताया था न? कल ये ख़बर छपेगी और डीन को पता चला, फिर तेरा एक सेमेस्टर तो पक्का ही फेल कर दिया जाएगा.कौशिक रोआँसा हो गया.


शाम में हॉलिस्टिक फूड कैंटीनमें खाना खाने के बाद जब हम नीलगिरि लौटे, देखा मेस में सन्नाटा छाया हुआ है. लड़के कहीं-कहीं ढ़ाबे से या किसी रेस्तराँ से खाना खा कर लौट रहे हैं. सुनने में आया कि वार्डन ने गले मिल कर गौरव कटारिया से माफ़ी माँगी. कहा कि बेटा समझ कर हाथ उठ गया. डायरेक्टर ने गौरव कटारिया को बुला कर पूछा कि उसे कोई तक़लीफ़ है, जिस पर गौरव ने किसी तक़लीफ़ से इन्कार कर दिया.


करीब साढ़े आठ बजे पी.ए. सिस्टम (पब्लिक अनाउँसमेंट सिस्टम) से आवाज़ आयी, “मेस बॉयकॉट के मद्देनज़र सभी लोग मेस में इक्कट्ठा हों. सभी सेक्रेटरी, सेकेण्ड ईयर के सभी रेप्रेजन्टेटिव हाउस सेक्रेटरी से फौरन मिलें.लाइन तीन-चार बार लगातार कही गयी. सारे हॉस्टल निवासी अपने कमरों से निकल-निकल कर झुंड बनाते हुए मेस में इकट्ठे होने लगे. करीब पाँच सौ लोग हॉस्टल में रहा करते थे. चार सौ से ज्यादा लोग मेस में आ कर खड़े हो चुके थे.


खुशहाल अग्रवाल बड़ा माना हुआ हॉकी का खिलाड़ी था. उसके माँ-पिताजी दोनों सरकार में बड़े ओहदे में थे. जूनियरोंमें उसका रुतबा था. उसने आवाज़ बुलंद कर के कहा, “साथियों, हम सभी जानते हैं कि वार्डन किस तरह हमारे फर्स्ट ईयर के छात्र पर हाथ उठाया. इसके विरोध को दर्ज़ करने के लिए हम मेस बॉयकॉट कर रहे हैं. हमारी माँग है कि वार्डन को हटाया जाय. आज शाम में डीन और अन्य अधिकारियों ने हमारे हॉस्टल की माँगें मानने से इन्कार कर दिया है. यह फोरम इसलिए बुलाया गया है कि आप सभी अपनी बातेंकहें और कोई भी विचार हो तो वह सामने आया. जिसे अपनी बात कहनी है वह इस टेबल पर खड़ा हो जाय और हम सभी को अपने विचार बताए.
मौका देख कर एक एम.टेक. लड़के ने टेबल पर चढ़ कर कहना शुरु किया, “हमें अपना मेस बॉयकॉट ज़ारी रखना चाहिए.

खुशहाल अग्रवाल ने पूछा, “कब तक?” इस सवाल के लिए वह तैयार नहीं था. उसने इतना ही कहा कि जब तक हमारी बात नहीं मान ली जाय. कह कर वह टेबल से नीचे उतर गया.
टेबल पर चढ़ कर फर्स्ट ईयर के एक लड़के ने कहा, “हमेंप्राइम मिनिस्टर रेसिडेंस के पास जा कर ध्यान देना चाहिए.कुछ हँसी में सबने उसे झिड़क दिया तो वह नीचे उतर आया. किसी ने चढ़ कर कहा, “हम सबको रात भर डायरेक्टर के निवास के पास जा कर चुपचाप खड़े हो जाना चाहिए. मौन सत्याग्रह करना चाहिए. सोचो, चार सौ लड़के रात भर उसके घर के बाहर खड़े रहेंगे तो उसकी क्या हालात होगी?“


भीड़ में से वैभव माथुर ने कहा, “डायरेक्टर बहुत बड़ी चीज़ है. उसे हज़ारों काम लगे रहते हैं. हमारी बात डीन को सुननी चाहिए थी.


भीड़ मेंतरह-तरह की आवाज़े आ रही थी. मैं न जाने किस जोश में भर आया. झट से टेबल पर चढ़ कर मैंने आवाज़ लगायी, “हमारी आवाज़ ज़ुल्म के ख़िलाफ़ है. हम लड़ेंगे. हम मेस बॉयकॉट करेंगे, चाहे जो भी हो.मैंने देखा कि समूचे मेस में मेरी ज़ोरदार आवाज़ से सन्नाटा छा गया. जोश मेंमैंने दहाड़ लगाया, “भाईयों, इस मशाल को हमें जलाए रखना है. ज़रूरत पड़ी तो हम अपनी डिग्री भूल जाएँगे. ज़रूरत पड़ी तो हम जेल जाएँगे. लेकिन जब इस जलजले से हम निकलेंगे तो तप कर सोना बन जाएँगे. हम इंसान बन जाएँगे! क्यों भाइयों?”


मैंने देखा कि मेरी बात सुनते ही भीड़ तितर-बितर होने लगी. कोई अपनी डिग्री भूलना नहीं चाहता था. किसी को ज़ुल्म के ख़िलाफ़ नहीं लड़ना चाहता. इस बात को समझते हुए मुझे बहुत अफ़सोस हुआ और मैं चुपचाप टेबल से नीचे उतर कर फिर से इक बार उस भीड़ का मामूली हिस्सा बन गया. किसी ने मुझसे कुछ कहा नहीं, पर मुझे अपनी भाषण पर ख़ुद ही बड़ी शर्म आयी.
किस-किस बात की शर्म करूँ, तितली के धोखे का या मतलबी दुनिया का?
मेरी हिम्मत देखना मेरी तबीयत देखना
जो सुलझ जाती है गुत्थी फिर से उलझाता हूँ मैं
देखना उस इश्क़ की ये तुर्फ़ाकारी देखना
वो जफ़ा करते हैं मुझ पर और शर्माता हूँ मैं
एक दिल है और तूफ़ान-ए-हवादिस ऐ "ज़िगर"
एक शीशा है कि हर पत्थर से टकराता हूँ मैं



(तीन)


23अक्टूबर 2002 : दीवान-ए-ग़ालिब

[सूत्रधार की टिप्पणी: मिर्ज़ा ग़ालिब (1797-1869) उर्दू के महानतम शायरों मे गिने जाते हैं. हमारे मिर्ज़ा भी आगरे मेंपैदा हुए थे, पर किशोरावस्था से ही दिल्ली में ही रहने लगे थे. उन दिनों ये थर्ड ईयर मेंथे. भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान दिल्ली के कंप्यूटर साइंस के चार साल वाले बी.टेक. प्रोग्राम के छात्र होने के कारण लोग उसकी जहीनीयत से ख़ौफ़ खाते थे और उसकी अंग्रेजी लफ़्फ़ाज़ी पर अचरज करते थे. ग़ालिब ने कोई सेक्रेटरी का पोस्ट नहीं लिया था पर उन्हें हॉस्टल के अंदर और बाहर की पॉलिटिक्स की ख़ूब खबर रहती थी. उनके प्रताप से वार्डन क्या, डीन भी उसे बहुत अच्छे परिचित थे. उन दिनों यह बीपरपेंडीकुलर विंग में रहा करते थे. ]
बुधवार को लंच के बाद आफ्टरनून फ्री हुआ करता है, मतलब किसी भी ईयर के लड़कों के लिए कोई ट्यूटोरियल या प्रैक्टिकल नहीं. इसलिए मैंने और सूखे ने प्लान बना रखा था कि पुरानी दिल्ली जा कर ग़ालिब की हवेलीदेख कर आएँगे. फच्चों से (फर्स्ट ईयर वाले को फच्चा कहने का रिवाज़ है) मैंने ग़ालिब के बारे में सुना. तब से मैं दीवान-ए-ग़ालिब पढ़ रहा हूँ और सूखे को भी इसमें इंटरेस्ट आने लगा. लेक्चर के बाद हमने प्लान बनाया कि उधर से बस पकड़ कर पुरानी दिल्ली चले जाएँगे. बाहर ही कहीं खाना-वाना होगा और शाम तक लौट ही आएँगे. सुबह-सुबह पता चला कि हमारे मेस बहिष्कार के बारे में अखबार में उल्टी-सीधी ख़बरें छप गयीं है. किसी ने गौरव कटारियाका नाम सिद्धार्थ रहेजाछाप दिया था. कहीं यह खबर आ रही थी कि नीलगिरि में इंटरनेट काट दिया गया है. अखबार वालों को मसाला मिल गया था.

बस में बैठ कर सूखे ने पूछा, “तुम्हारी इस पंक्चुअलिटी से तौबा कर लेनी चाहिए. हर जगह टाइम से आना-जाना. हर काम समय पर करना. क्या ज़रूरत है इसकी?” मैं सोच में पड़ गया. शायद तुम सोचते हो कि इस तरह की आदत से कुछ पुरस्कार मिलना चाहिए. मेरे हिसाब से समय पर काम करना अपने आप में पुरस्कार है. अच्छी बात है. वैसे देखो, अपने आइआइटी में आ कर दो तरह की विचारधारा हो जाती है. आधे से अधिक क्लास लगाना नहीं चाहते. कोई काम सही समय पर नहीं करना चाहते और उस पर तुर्रा यह कि हम हिन्दुस्तान के बादशाह हैं.
सूखे ने कहा, “भाई, जेईई (ज्वाइंट एंट्रेन्स एक्सामिनेशन) पास कर के आये हैं, मज़ाक है क्या? डेढ़-दो लाख लड़के इस परीक्षा में बैठते हैं और बमुश्किल तीन हज़ार पास करते हैं. उसमें भी आइआइटी दिल्ली आना मज़ाक तो नहीं?”

यही घमण्ड हम सबको ले डूबेगा. लड़कों को घमण्ड कि यहाँ पढ़ते हैं. प्रोफेसरों का घमण्ड कि यहाँ पढ़ाते हैं, दुनिया-जहान में इतना नाम है, इतनी शोहरत है.

तुम क्या चाहते हो?” सूखे ने ताना मारा.

पता है हमारे डायरेक्टर ने एक लेख लिखा है कि जेईई बंद हो जानी चाहिए और बारहवीं के अंक के आधार पर एडमिशन होना चाहिए.

सूखा के मुँह से निकला, “बहनचोदऽऽ!

हिन्दुस्तान में जहाँ फर्ज़ी की डिग्री मिल जाती है, कितना आसान है ऐसे फालतू के नम्बर ले आना. अलग-अलग राज्योंमें अलग-अलग तरह से नम्बर आते हैं, कहीं सत्तर-पचहत्तर प्रतिशत ही अधिकतम नम्बर आते हैं. इस तरह तो राजस्थान और बिहार के लड़के कभी आइआइटी नहीं आ पाएँगे. कोई अंग्रेजी में कमजोर है, पर गणित में बहुत अच्छा है. ऐसे तो मेहनत करने वाले लड़के और रियल टैलेंट वाले लोग कभी आ ही नहीं पाएँगे. दरअसल यहाँ प्रोफेसरों का माइंडसेट ऐसा है कि इलीट स्कूल के लड़के ही यहाँ पढ़ें. और इलीट घर के लड़कों की आँखों में देखो कि किस तरह गरीब घर के लड़कों को उनकी निगाहों से धिक्कारा जाता है.

हम दोनों ने ग़ालिब की हवेली घूमी. वापस आते समय फुटपाथ पर बिकती जोजेफ हेलर की ‘Catch 22 (कैच 22)’ को देख कर उसने पूछा, “तुमने कैच 22पूरी पढ़ ली? कैसी लगी?”
कब की पढ़ ली. ठीक है. मुझे बहुत पसंद नहीं आयी. सेना का मज़ाक उड़ाया गया है, चलता है. लिखा हुआ बहुत पसंद नहीं आया. एक तरह के जोक़ बार-बार रिपीट हो रहे थे. एक बात की दाद देनी पड़ेगी. इस किताब से ऐसा समझ आता है कि डिसीप्लिन के नाम का स्वांग का पूरा मॉडल सेना से उठ कर आया है.

तुम खुद इतने डिसीप्लिन्ड हो, तुम्हेँ डिसीप्लिन पसंद नहीं?”

मैं वार्डन के ख़िलाफ हूँ. इस तरह के डिसीप्लीन के ख़िलाफ हूँ.

वार्डन डिसीप्लिन की बात नहीं करता है. रुल्स लागू करने के लिए फाइट मारता है. उसको जो काम मिला है, वो करने की कोशिश कर रहा है.सूखा पाला बदल कर जवाब देने लगा, जब कि मैं जानता था कि वो भी माइकल जैक्सन से बहुत चिढ़ता है.

मैं सोचने लगा कि वार्डन ने सेना वाली फ़िल्मों में से ग्रेगरी पेक की ट्व्लेव ओ क्लॉक हाइ’ (Twelve O'Clock High : 1949) और डेविड लीन की द ब्रिज आन दी रिवर क्वाइ’ (The Bridge on the River Kwai : 1957) कई बार देखी है. तभी उसे इस तरह डिसीप्लिन का भूत सवार हो गया है. उसे लगता है कि किसी जोर जबरदस्ती से हॉस्टल वाले उसकी तरह सुबह उठ कर ताइक्वांडो की प्रैक्टिस करने लगेंगे. नियम और नियम पालन अपने आप से किया जाय तो ठीक है, उसके बाद यह अनुशासन नहीं शासन बन जाता है. हम लोग सेना की टुकड़ी नहींहैं, जो उसके कहे पर चलें. हमें नहीं पसंद कि वह रात को हमारे कमरोंमें दस्तक दे कर यह चेक करने आए कि हम हीटर जलाते हैं या नहीं. हम यहाँ कोई युद्ध नहीं लड़ रहे हैं. वैसे मुझे लगता है जब डिसीप्लिन से इतना ही प्यार है तो वार्डन को हम्फ्रे बोगार्ट की द केन म्यूटिनी’ (The Caine Mutiny : 1954) देखनी चाहिए, जिसमें नेवी के आफिसर अपने लेफ्टिनेंट कमांडर को दिमागी तौर पर पागल घोषित कर उसके खिलाफ विद्रोह कर देते हैं.


शाम में यह खबर मिली कि डायरेक्ट, डीन आफ स्टूडेंट और हाउसमास्टर आ रहे हैं. सबकी बातें सुनी जाएगी.
करीब साढ़े पाँच बजे जब पब्लिक अनाउँसमेंट हुयी, सभी लोग मेस में इक्कट्ठा होना शुरु हुए. मेस खचाखच भर चुका था. माइकल जैक्सन सिर झुकाए एक कोने में बैठा था. उसके साथ जोश में भरे हुए डीन और हाउसमास्टर बैठे थे. तभी ख़ामोशी से आ कर डायरेक्टर वहाँ कर बैठ गए. हमने पहली बार डायरेक्टर को रूबरू देखा था. खुशहाल अग्रवाल और बाकी सेक्रेटरी से उनके सवाल जवाब हो रहे थे. डीन आफ स्टूडेंट ने खड़े हो कर हम सबों को सम्बोधित किया, “आज डायरेक्टर साहब हमारे बीच मेंहैं. इन्होंने अपनी बिजी शेड्यूल से हमारे लिए समय निकाला है. हमें उम्मीद है वे आपकी समस्या का समाधान करेंगे और आप लोग निष्पक्ष हो कर अपनी बात रखेंगे. जिस किसी को भी कुछ कहना है, वो बारी-बारी से अपनी बात कहे.

बहुत से हाथ खड़े हो गए. खुशहाल अग्रवाल ने फर्स्ट इयर के एक लड़के की तरफ़ इशारा कर के कहा, “तुम बोलो.

उस लड़के ने बड़ी हिम्मत से कहा, “वार्डन का हम लोग पर हाथ उठाना किस तरह जस्टीफाइड है?”
डायरेक्टर ने कहा, “मुझे बहुत दु:ख है मुझे आप लोग से मिलने का समय नहीं मिल पाता.आज आया भी हूँ तो शिकवे-शिकायत सुनने के लिए. मेरे लिए यह कितना बड़ा क्षण है कि जहाँ मैं पढ़ा, जहाँ से मैंने नौकरी की और जहाँ आज मैं डायरेक्टर हूँ; उस संस्थान को अब अखबारोंमें झूठ-मूठ में बदनाम किया जा रहा है. मैं इस को जस्टीफाइ करने नहीं आया हूँ. मैं इस समस्या को सुलझाने आया हूँ.

दो पल के लिए सन्नाटा छा गया. खुशहाल अग्रवाल ने किसी फोर्थ इयर के लड़के को कुछ कहने की अनुमति दी.

सर, हमारी बात कौन सुनता है? आज जब पानी सर से ऊपर गुज़र गया है तो आप सुनने आए हैं. वरना वार्डन जो कभी भी किसी पर भी इतने फाइन लगा दे, किसी के रूम की तलाशी लेने लगे, हम क्या कर सकते हैं?”

एक और आवाज़ आयी, “आज अगर यह खबर मीडिया में नहीं आती, अखबारोंमें नहीं छपती तो शायद आप हमारी बात भी नहीं सुन रहे होते.

सुन कर डीन ने कहा, “ये गलत है. मैंने हमेशा तुम लोग की बात सुनी है.

थर्ड इयर के अनिल ने कहा, “सर, जब हम परसा आप के पास शिकायत ले कर आपके पहुँचे तो आपने कटारिया की गलती बतायी. आपने कहा कि जब वार्डन थप्पड़ मार रहे थे तो कटारिया पीछे क्यों हटने लगा? पीछे ईंट थी, अगर ईंट उसके सिर पर लगती, चोट आ जाती तो कौन जिम्मेदार होता? हम यह कहना चाहते हैं कि पिटते वक्त आदमी को होश नहीं रहता कि आगे-पीछे खाई है या नहीं.
डीन कुछ कहने को हुए, तभी किसी और ने कुछ कहना शुरु किया. हाउस सेक्रेटरी खुशहाल अग्रवाल ने आवाज़ लगाई, “सब एक साथ नहीं बोलें. एक-एक करके.डीन ने भीड़ को शांत कराते हुए जोर से कहा, “एक मिनट, एक मिनट! तुम लोग को यह पता है कि गौरव कटारिया के घर में यह बात पता चली तो उसके माता-पिता ने क्या कहा?”

सब चुप रहे.

डीन ने आगे कहा, “उन्होंने कहा कि वार्डन सर ने ठीक ही किया. वैसे शिक्षक माँ-बाप जैसे होते हैं. यहाँ गाली-गलौज करना क्या सही बात है? वार्डन ने हाउसमास्टर के सामने गौरव कटारिया से गले मिल कर माफ़ी माँग ली है. अपनी सफाईमेंउन्होंने ये कहा है कि वो अपने परिवार के साथ रहते हैं. इस तरह की भाषा से उनकी पत्नी और बच्चों पर बुरा असर पड़ेगा.

भीड़ से आवाज़ आयी – “इसलिए हाथ उठा देंगे?”

डीन बिफ़र कर चिल्लाये, “वार्डन क्या तुम्हारे गार्जियन जैसे नहींहैं? एक मिनट, एक मिनट... एक मिनट.. शांति, शांति .... क्या गाली दे कर बात करना ठीक बात है?”
मेरे दोस्त सूखे को न जाने कौन सा जोश आ गया, उसने फट से चिल्ला कर कहा, “सर, मेरे घर में मेरे पिता जी ऐसे ही बात किया करते हैं.डीन की आँखेंफड़क गयीं. उसने आवाज़ कम कर के कहा, “ओह... सच में? यहाँ कितने लोग ऐसे हैं जिनके घर में उनके माँ-बाप ऐसे गाली दे कर उनसे बात करते हैं? अपने हाथ खड़े करो.

फिर डीन ने गिनना शुरु किया, “एक.. दो.. चार.. आठ नौ... ओह .. तुम सब मिल गए हो.. सब ने हाथ खड़ा कर दिया. (हँस कर) पूरे हॉस्टल के चार सौ लड़के .... अच्छा.. हम सब समझते हैं कि तुम सब मिल कर झूठ बोल रहे हो. किसी के घर में ऐसे कोई बात नहीं करता और तुम लोग यहाँ एकता दिखा रहे हो.

तभी फोर्थ इयर के निशांत पोद्दार ने कहा, “सर, गाली की ही बात है तो यह दोहरी नीति है. मेरे एक ट्यूटोरियल में एक प्रोफेसर ने गाली दे कर मुझे कहा कि तुम्हें चप्पल से मारूँगा. आपको याद होगा कि पिछले साल मैंने इस सिलसिले मेंआपसे शिकायत भी की थी. आपने मुझे टरका दिया कि वो बहुत प्यार से पढ़ाते हैं. उनका ऐसा लहज़ा है. आज वार्डन की गलती सामने है तो आप मान नहीं रहे हैं?”
वो दूसरी बात है. उस बात को यहाँ मत लाओ. उस के लिए हमने अलग बातचीत की है.कह कर डीन ने कन्नी काटी.

एक पी.एच.डी. स्टूडेंट ने अपना परिचय देते हुए कहा, “सर मैं जबलपुर के पास एक कॉलेज में लेक्चरर हूँ. यहाँ पी.एच.डी. कर रहा हूँ. मेरे दिल में वार्डन साहब के लिए बहुत सम्मान था कि वह हॉस्टल के लिए इतना चिंतित रहते हैं. बगीचे की देख-भाल, साफ-सफाई, मेस का निरीक्षण ... सब अच्छी बाते हैं. एक दिन मैं स्कूटर से आ रहा था. यहाँ रिसेप्शन के पास स्कूटर लगाना माना है, जो मुझे नहीं पता था, हालाँकि वहाँ बोर्ड लगा है, पर मुझे नहीं पता था. जैसे ही मैंने स्कूटर खड़ा किया, इन्होंने आ कर मुझे डेढ़ हज़ार का फाइन कर दिया. मैंने मुआफ़ी माँग कर कहा कि गलती हो गयी है, मुझे नहीं पता था. कहीं और गाड़ी कर देता हूँ, पर वे नहीं माने. सर, मेरे डेढ़ हज़ार रूपए लग गए. मेरे दिल में वार्डन साहब के लिए इज्जत और बढ़ गयी, कि वो नियम के लिए इतने सख्त हैं. आप मिसाल देखिए, इनकी सख़्ती इतनी है कि किसी के भी रूम पर छह लीवर से कम का ताला लगा हो तो दो सौ रूपये का फाइन लगा देते हैं. हम सब मानते हैं, सुरक्षा ज़रूरी है. बहुत से वार्डन इन सब छोटी-छोटी बातों पर ध्यान ही नहीं देते. लेकिन सच कहूँ डायरेक्टर साहब, मेरे दिल में एक ख़लिश रह गयी कि वार्डन साहब मेरी मजबूरी समझते. मुझे अपना घर भी चलाना होता है और पी.एच.डी. भी करनी होती है. हमारे बहुत से पी.एच.डी. दोस्त यहाँ अभी भी खाना खा लेते हैं, क्योंकि उनके पास पैसे नहींहैं. मेरे पास भी नहीं कि मैं बाहर खाना खा सकूँ और मेस का बिल भी भरूँ. मैं अंडरग्रैजुएट बच्चों की तरह हॉस्टल गेट के बाहर सस्सी ढ़ाबे पर नहीं खा सकता. मुझे बीमारी हो जाएगी. मेरा लीवर इतना मजबूत नहीं है. मेरे पास इतने पैसे नहीं है कि रोज अरावली के सामने वाले निजी रेस्तराँ में खाना खाऊँ. मैं भूखा रह जाता हूँपरमैं इन मासूम बच्चों की आवाज़ के साथ खड़ा हूँ कि इन्हें यह न लगे कि ये अकेले हैं.


इस के बाद सेकेण्ड ईयर के नागराज ने डायरेक्टर से कहा, “आप हम सबकी हालत सुन ही रहे हैं. वार्डन की मुआफ़ी काफ़ी नहीं है. हमें इनसे आजाद कर दीजिए. जब तक आप ऐसा नहींकरेंगे, मैं यहाँ खाना नहीं खाऊँगा.

डायरेक्टर ने कहा, “बेटे, तुम्हारा नाम क्या है?” फिर डीन से बोले, “मुझे इसके माँ-बाप से बात करवाइए.इतने भीड़ मेंमैं डायरेक्टर से कहना चाहा, “सर, मुझे भी कुछ कहना है?”
डीन ने मेरी तरफ़ देख कर कहा, “तुम तो समझदार हो. तुम ही बताओ क्या मिल रहा है तुम लोग को? यहाँ मेस का पैसा भी दे रहे हो, बाहर रेस्तराँ में भी खा रहे हो. साथ में गरीब लड़कों पर जोर बना रहे हो कि वे भी यहाँ नहीं खाए. मुझे क्या दिक्कत हो सकती है कि तुम लोग साल भर रेस्तराँ में खाना खाओ. तुम कुछ लोग के कारण गरीब स्टूडेंट भूखे रह जाते हैं. मानवता के नाम पर तुम लोग को यह सोचना चाहिए.

मैंने कहा, “मुझे अफ़सोस है कि आप केवल उन लोग का भूखा रहना देख रहे हैं, यह नहीं देख रहे कि नियम के नाम पर कोई किस हद तक ग़ुजर रहा है. यह ठीक है कि बहुत से लोग यहाँ नहीं खाते, उनके लिए यह मज़े की बात है. पर कुछ तो सच्चाई भी है कि एक बार आवाज़ लगाने पर हम सब हॉस्टल के लोग अन्याय के खिलाफ़ खड़े हुए हैं. तरीका मेस बॉयकॉट के अलावा कुछ और भी हो सकता था. तरीके पर मत जाइए. हमारी तक़लीफ़ समझिए.
मुझे नहीं लगता कि सच में किसी को कोई तक़लीफ है!ऐसा कह कर डीन ने डायरेक्टर की तरफ़ मुड़ कर कहा, “ये लोग हमारी बात नहीं समझना चाहते हैं.डायरेक्टर के खड़े होत ही सभी खड़े हो गए. डायरेक्टर ने कहा, “मैं दोहराता हूँ कि हम सब इस समस्या के समाधान के लिए प्रतिबद्ध हैं. आप से अनुरोध है कि मेस बॉयकॉट वापस लीजिए. मीडिया में झूठी खबरें मत फैलाइए.
न हुई गर मेरे मरने से तसल्ली न सही
इम्तिहाँ और भी बाक़ी हो तो ये भी न सही
एक हंगामे पे मौक़ूफ़ है घर की रौनक़
नौहा-ए-ग़म ही सही नग़्मा-ए-शादी न सही
न सताइश की तमन्ना न सिले की पर्वा
गर नहीं हैं मिरे अशआ'र में मा'नी न सही



(चार)

24अक्टूबर 2002: फ़ैज-ए-मीर
[सूत्रधार की टिप्पणी: खुदा-ए-सुखन मीर तक़ी मीर (1723-1810) भले ही पैदा आगरे में हुए,पीरी मेंलखनऊ में इंतक़ाल फरमा गए, पर ज़िन्दगी का बड़ा औरबेहद ख़ूबसूरत हिस्सा उन्होंने दिल्ली में बिताया. कहा जाता है कि नादिरशाह के आक्रमण के दौरान अपने मरने की झूठी अफवाह फैलाने के बदले एक ही दिन मेंबीस-बाईस हज़ार आदमियों का क़त्ल करवा दिया था. अब्दाली और नादिरशाह के हमलों से कटी-फटी दिल्ली को मीर तक़ी मीर ने अपनी आँखों से देखा. सेकेण्ड ईयर में पढ़ने वाले हमारे मीर तक़ी मीरमेकैनिल इंजिनियरंग ब्राँच के खुदा माने जाते थे. ये सी-शार्ट मेंरहा करते थे. ]

जहाँ तक मेरा मेस बॉयकॉट को ले कर मानना रहा है, मेरे हिसाब से यह एक बेईमान विरोध है. बी.टेक. के बहुत से लड़के बाहर खाना खाना पसंद करते हैं और उनको एक मौका मिल गया कि वार्डन से अपनी खुन्नस निकाली जाय. ज्यादा चिढ़ मुझे उन लोग से है जो कि कराकोरम और अरावली छात्रावास जा कर मुफ्त में नाश्ता, लंच और डिनर कर के आते हैं. न तो वे हॉस्टल गेट के बाहर सस्सी ढ़ाबे में खाते हैं, न ही अरावली हॉस्टल के सामने वाले रेस्तराँ में.

कल शाम डायरेक्टर के विजिट के समय मैं इंस्टिट्यूट में था. सुनने में आया कि रात में नागराज के माँ-पिता जी को फोन किया गया है. धमकी दी जा रही है कि एक्सपेल कर दिया जाएगा. एक तो ब्रेकफस्ट करना छूट ही गया है, दूसरे इस तरह की मुसीबत.

सुबह के लेक्चर के बाद हम नीलगिरी वाले टूएलटी- टूसे बाहर निकल कर हमेशा की तरह एक्जीबिशन हॉल से होते हुए विंड टनेल में आ कर खड़े थे कि खाने के लिए कहाँ चला जाए. तभी उधर से शालू आयी. शालू अटैची थी, मतलब डे स्कॉलर. (जिनका घर आइआइटी से पंद्रह किलोमीटर के दायरे में होता है, वे चाहें तो हॉस्टल में नहीं रह सकते. पर उन्हें किसी हॉस्टल से अटैच किया जाता है, इस लिए उन्हें अटैची कहते हैं.) शालू ने मुस्कुरा कर कहा, “मैं तुम नीलगिरि वालों के लिए घर से खाना बनवा कर लायी हूँ.हम सब उसका चेहरा देखते रह गए. उसने कहा, “चलो मेरी गाड़ी के पास. बैंक के पास गाड़ी खड़ी है. उसी में टिफिन भी रखा है और प्लेटें भी है.हमने शराफ़त से कहा, “तुमने खामखाँ हमारे लिए इतनी तक़लीफ़ की.

अब कोई बहाना बनाने की ज़रूरत नहीं है. मैंने कुक बोला कि तुम सब लोग के लिए कुछ बना दे. चलो भी!

विंड टनेल की ठंढी हवा को छोड़ कर जाने का दिल नहीं कर रहा था पर भूख जबरदस्त भी लगी थी. सो हम लोग मल्टी स्टोरेज बिल्डिंग के बीच से ही सेमिनार हॉल से होते हुये बैंक की तरफ़ निकल गये. शालू ने हम सब के लिए पूड़ी-भुजिया पैक करवाया था. खाते हुए मैंने सोचा कि मेकैनिकल वालों के लिए तो शालू जैसा वरदान मिल गया, बाकियों का न जाने क्या हाल है. शालू ने पूछा, “कब तक चलेगा तुम लोग का हड़ताल? मैंने सुना कल डायरेक्टर आया था.

हाँ, आया था. मैं वहाँ था नहीं. धमकी दे कर गया है. एक लड़के ने कहा कि मैं खाना नहीं खाउँगा. उसके घर फोन कर के धमकी दी है कि एक सेमेस्टर के लिए निकाल देंगे.
ये कोई बात हुयी!शालू ने हैरत से कहा.

ऐसे ही है दुनिया. जिसको मौका मिलता है दूसरे को दबाता है.मेरी बात सुन कर रचित ने कहा, “वार्डन की गलती है. उसे कटारिया को नहीं पीटना चाहिए था.

मेरे हिसाब से पूरे घटनाक्रम में अगर किसी को सबसे कम तकलीफ है तो वह गौरव कटारिया ही है. सब का अटेंशन उसे मिल रहा है. अब कोई उसे कुछ कहेगा भी नहीं. उसे कोई फर्क हीं नहीं पड़ता कि वार्डन ने मार दिया. मुद्दा तो वो रहा ही नहीं. मुद्दा तो यह है कि वार्डन हटेगा या नहीं.
शालू ने कहा, “मुझे नहीं लगता कि यहाँ का एडमिंशट्रेशन पीछे हटेगा. हर बात पर अपनी बात लागू करवाना यहाँ का ऊसूल रहा है. बस यही लॉजिक है.

और नहीं तो क्या. लॉजिक की बात पर याद आया. जब हम फर्स्ट ईयर में हॉस्टल आये थे, उस समय वार्डन ने स्पीच दी. कंप्यूटर साइंस के दुबले-पतले फिट्टू को खड़ा कर दिया और साथ में सिविल के हट्टे कट्टे पहलवान अमरदीप चौधरी को. कहने लगा जब अमरदीप फर्स्ट ईयर में आया था तब वह फिट्टू के जैसा दुबला पतला था. अब मेस का खाना खा कर वह ऐसा तंदुरूस्त हो गया है. तभी अशोक ने पूछ लिया, अगर अमरदीप ऐसा हट्टा-कट्टा हो गया है तो फिट्टू क्यूँ दुबला रह गया. जो ठहाका लगा कि क्या कहने. वार्डन ने बात बदल दी.

रोहित ने कहा, “अपने वार्डन के घर में ड्राइंग रूम में सीलिंग से काले रंग का सिलिंडरिकल पंचिग बैग लटका हुआ है. वार्डन को रोज लगता होगा कि पंचिग बैग पर बहुत प्रैक्टिस कर ली. उसका भी दिल करता होगा कि कोई ह्यूमनआब्जेक्टमिले प्रैक्टिस के लिए, जैसे नाज़ीअपने कैदियों के साथ करते थे वैसा ही कुछ एक्सपेरिमेंट करे.

तुम लोग की मेस खाली रहती है? या सब के लिए खाना बना करता है?” शालू ने पूछा.
पहले दिन तो मेस का खाना बरबाद गया. आज कल बहुत कम बनाते हैं. कुछ पी.एच.डी. मेस में ही खाते हैं. एम.टेक. का बहुत सपोर्ट रहा है. एक है जो माइकल जैक्सन के अंदर पी.एच.डी. कर रहा है, वो हमेशा मेस में ही खाता है. उस गद्दार को हम जैक्सन का पिल्लाकहा करते हैं.मैंने कहा.
अपना माइकल जैक्सन साइको केस है.तुषार ने राय दी , “चर्चिल के शब्दों में उसके पास वो सारे गुण है जिससे मैं चिढ़ता हूँ और एक भी ऐसा दोष नहीं जिसे मैं पसंद करता हूँ.
मेरा खयाल है यह सब उसके उदास बचपन के कारण रहा होगा. सिगमंड फ्रॉयड का कहना था कि हर मानसिक बीमारी का कारण बचपन हुआ करता है.उसे अपना इलाज करवाना चाहिए.
अगर नियम-कानून के लिए इतना ही पागलपन है तो क्या कहा जा सकता है. एक टीचर को उदार होना चाहिए कि उसपे विश्वास किया जा सके. यहाँ किसी प्रोफेसर को हमपें विश्वास नहीं. मानते हैं कि हममें से कई हैं जो सिस्टम का फायदा उठाना चाहते हैं, लेकिन अगर टीचर इतनी सख्ती से पेश आए कि स्टूडेंट का दम घुटने लगे फिर क्या फायदा.

वेकेंटेश ने कहा, “हमारे तरफ़ तेनकलइ में वैडाली धृतिकी बात होती है. इसे मार्जार-किशोर-न्याय भी कहते हैं. जिस तरह बिल्ली अपने बच्चे को मुँह से पकड़ के एक-जगह से दूसरी जगह ले जाती है, उसी तरह प्रॉफेसर को भी स्टूडेंट के लिए नरमी दिखाना चाहिए. बिल्ली जब मुँह में बच्चे को रखती है, न तो दाँत से उसे चोट पहुँचाती है न ही इतने धीमे पकड़ती है कि वह गिर जाए.

उसकी फिलॉसफी सुन कर हम सब हँसने लगे.

पूरे दिन लगातार लेक्चर, ट्यूटोरियल और प्रैक्टिकल कर के मैं थक के चूर हो कर शाम छह बजे हॉस्टल पहुँचा. रूम पर अभी कपड़े बदले ही थे कि मेरा इंदौरी रूम-पार्टनर कहने लगा, “पता है अपने डायरेक्टर ने साफ-साफ धमकी दी है.

किसे?”
हाउस सेक्रेटेरी, मेस सेक्रेटरी, नागराज और पाँच लोग हैं....अपनी उँगलियों पर सबके नाम गिनते-गिनते उसने सिर उठा कर कहा, “सबके घर फोन भी किया गया है कि अगर मेस बॉयकॉट वापस नहीं लिया गया तो इन सब का एक सेमेस्टर तो गया. यहाँ से निकाल दिया जाएगा.

अच्छा.मैं शांति से अपनी कुर्सी पर बैठ गया. इंदौरी मेरे पास आ कर बोला, “तुम्हें तो कोई फर्क ही नहीं पड़ रहा है.

इसके अलावा हो भी क्या सकता है?” मैंने कहा, “वार्डन की सूरत देखो. बाघ से बकरी बन गया है. इंस्टिट्यूट वाले अपनी आदत छोड़ देंगे क्या? मीडिया कब तक इसको मुद्दा बनाएगी?”
मेरी बात सुन कर इंदौरी शांत हो गया. मैंने समझाया, “हर चीज़ का समय होता है. किसी का मर्डर या रेप नहीं हुआ. हर जगह कुछ न कुछ दिक्कते रहती हैं. रहेंगी ही. जो पिटा, उसको मलाल ही नहीं है. हमने कर दिया प्रोटेस्ट, अब छोड़ो.

तो वार्डन नहीं हटेगा?” इंदौरी ने मुझसे कहा.

मैं क्या जानूँ? मैं कोई डायरेक्टर हूँ या डीन हूँ?” मैंने कहा.

पागल माइकल जैक्सन को ऐसा छोड़ देना ठीक नहीं है. आगे आने वाले स्टूडेंट्स के लिए खतरा बन सकता है.कह कर इंदौरी रूम के बाहर चला गया.
शाम में फिर पब्लिक अनाउँसमेंट हुयी. मेस हम सब इक्कट्ठा हुए. खुशहाल अग्रवाल के चेहरे पर मायूसी छायी हुयी थी. सबके आ जाने के बाद उसने कहना शुरु किया, “साथियों, डीन और डायरेक्टर हमारी बात मानने को तैयार नहीं है. डीन ने मुझे आठ लोग के नाम की लिस्ट दी है, जिसमें मेरा भी नाम है, जिन्हें कल इंस्टिट्यूट से अनुशासनिक कारणों से निकाल दिया जाएगा. उन्होंने कहा कि अगर यह मेस बॉयकॉट ख़त्म नहीं हुयी, तो हमें न केवल सेमेस्टर के लिए बल्कि हमेशा के लिए यहाँ से निकाल दिया जाएगा.

यह सुन कर सब को साँप सूँघ गया. एक आवाज़ आयी, “ऐसे कैसे निकाल देंगे? हम धरना देंगे.
दे तो रहे हैं चार दिन से. किसने सुनी आज तक?” नागराज ने मायूस आवाज़ में कहा.
एक एम.टेक. स्टूडेंट ने कहा, “हम तो आगे बढ़ चुके हैं. क्या एक बार भी डीन या डायरेक्टर ने कहा कि वार्डन ने ग़लत किया है? क्या उनके अंदर ग़लती का कोई अहसास भी है? हमें तो यह भी यकीन नहीं है कि बॉयकॉट वापस लेने के बाद भी कहीं इन आठ लोग को इंस्टिट्यूट से न निकाल दें?”
यह सुनते ही खुशहाल अग्रवाल ने झुँझला कर कहा, “बंद करो यार. बहुत हुआ ये सब. वार्डन ने गौरव कटारिया से माफ़ी माँग ली. हम भी भूल जाते हैं.सब ख़ामोश उस हॉकी के खिलाड़ी को देख रहे थे, जो कभी घबराता न था, पर आज हार चुका था.

किस बात के लिए धरना दें? आधे हॉस्टलर मुझे दोष दे रहे हैं कि मेरी वजह से उन्हें बाहर पैसे दे कर खाना पड़ रहा है. आज भी करीब पच्चीस-तीस लोग नाश्ता करने पहुँच गए थे. कब तक हम ये आंदोलन चला पाएँगे?” खुशहाल बेहाल हो चुका था.

फिफ्थ ईयर के ‌वैभव माथुर ने कहा, “हमारे पास अब कोई चारा नहीं बचा है. पता नहीं इस बॉयकॉट को जारी रख कर कुछ कर पाएँगे भी या नहीं. हम नहीं चाहते कि खुशहाल की, नागराज की, या हॉस्टल के किसी रहने वाले की डिग्री पर कोई आँच आए.


और भी कुछ बातें होती रहीं, पर मैं निकल आया. बाहर आ कर इंदौरी और मैं लॉन में बैठ गए. मैंने आकाश की तरफ़ दिखा कर कहा, “आज आसमान साफ़ दिख रहा है.

इंदौरी निराश था. मैंने समझाया, “उदास क्यों हो प्यारे? ज़िन्दगी में इससे भी बड़ी लड़ाइयाँ आएँगी. तब लड़ लेना प्यारे. जान है तो जहान है प्यारे.


क़स्द गर इम्तिहान है प्यारे
अब तलक नीम-जान है प्यारे

सिजदा करने मे सर कटे है जहाँ
सो तेरा आस्तान है प्यारे

मीरअम्दन भी कोई मरता है
जान है तो जहान है प्यारे



(पांच)



25अक्टूबर 2002: तल्खियाँ
[सूत्रधार की टिप्पणी: साहिर लुधियानवी (1921-1980) बीसवीं सदी के प्रमुख शायर और हिन्दी फ़िल्म गीतकार थे. हमारे साहिर लुधियानवीटेक्स्टाइल इंजीनियरिंग (वस्त्र प्रौद्योगिकी) के चार साल के बी.टेक. प्रोग्राम के सेकेन्ड ईयर के छात्र थे और उन दिनों सी अल्ट्रा-न्यूविंग मेंरहा करते थे. ये स्वभाव से इंकलाबी और जज्बाती थे. जमीनी हक़ीक़त इनके दिल मेंतीर की तरह लगता था और यह ग़म का खा कर रह जाया करते थे. ]
आज ही के दिन साहिर मरा था. आज के ही दिन मैं भी ज़रा सा मर गया.

कभी कभी सोचता हूँ कि यह लुधियाने के पानी का असर है जो मैं इतना तल्ख मिजाज़ का हूँ. हर बात से मुझे नाराज़ी हो जाती है. सब से बड़ी नाराज़ी तो मेरी ख़ुद से ही हुआ करती है. सुबह-सुबह सबने सोचा था कि नाश्ता किया जाएगा. मुझे यही बात नागवार गुज़री और मैं सबसे पहले तैयार हो कर सीधे इंस्टिट्यूट की तरफ़ निकल पड़ा. मुझे यह बहुत बड़ी खामी लगती है कि सब एक तरह के कपड़े पहने, एक तरह एक समय पर खाना खाए, एक ही किताबेंपढ़ें और एक ही परीक्षा दें. आज की तारीख में आदमी आदमी न हो कर भेड़ बन चुका है. हर कोई उसे हाँकने में लगा है.

यहाँ आइआइटी में आने के लिए इतने पापड़ बेले. इतनी मेहनत की और यहाँ क्या मिलता है दिन रात पढ़ाई का प्रेशर. पचहत्तर प्रतिशत से कम क्लास लगाने पर अटेंडेंस के नाम पर फेल कर देना. अटेंडेंस प्रॉक्सी (नकली हाज़िरी) पकड़े जाने पर ग्रेड पेनल्टी या क्लास में फेल. ऊपर से इतने असाइनमेंट का बोझ. चल भाई, पढ़ाई इतनी मुश्किल भी नहीं है. कम ग्रेड से भी काम चल जाता है. पर जिसको देखो इस लहजे से बात करता है जैसे वह ख़ुदा है. जो सीखने लायक चीज़ है, वह है विनम्रता, बोलने का लहज़ा, मीठी बोली, एक दूसरे का आदर और प्रेम. यहाँ हर दूसरा स्टूडेंट किसी न किसी से जल रहा है. प्रॉफेसर स्टूडेंट से ऐसे पेश आते हैं जैसे कि मौका मिलने पर पानी का गिलास चेहरे पर फेँकने में हिचकेंगे नहीं.


ऐसे में यह विद्रोह क्या किसी एक का होगा? यह विरोध पूरी विचारधारा का है. इस सड़ रही व्यवस्था में है. हिन्दुस्तान के बेहतरीन दिमाग को मशीन की तरह धौंकनी में झोंक देना, यह क्या है? मेस बॉयकॉट क्या केवल गौरव कटारिया के पिट जाने के ख़िलाफ़ हुआ? इस रामायण में क्या माइकल जैक्सन ही रावण है? मैं यह नहीं कहता कि सारे प्रॉफेसर हरामजादे हैं, बहुत से अच्छे भी हैं. वे न तो अटेंडेंस के चक्कर में पड़ते हैं, न वार्डन बनने के चक्कर में. अच्छे लोग को क्यूँ नहीं ऐसी जिम्मेदार पोस्ट मिला करती हैं?मैं पूछता हूँ कि जब माइकल जैक्सन ने गौरव कटारिया से मुआफ़ी माँगी, उसी समय लगे हाथोँ अपना इस्तीफ़ा क्यूँ नहीं दे दिया? जब हॉस्टल के चार-साढ़े चार सौ लोग आपके खिलाफ़ झंडा बुलंद कर के खड़े हैं, तब वह कौन सी मजबूरी थी कि आप वार्डन के पोस्ट पर चिपके रहे? इन डीन, डायरेक्टर को समझ नहीं आता कि उन्होंने एक बार भी वार्डन से सार्वजनिक माफ़ी नहीं माँगने को कहा? हम कौन सा उसे कान पकड़ कर उठक-बैठक करने को कह रहे थे?
हमारे सेक्रेटरी.... जब क्रान्ति संभाल नहीं सकते तो मशाल क्यूँ जलाई? यही रही तुम्हारी अक्टूबर क्रान्ति? आज इंस्टिट्यूट से निकाल देने की धमकी पर सब की हवा टाइट हो गयी. चंद लोग ने सोचा कि क्रान्ति करते हैं और उन चंद लोग का जब मन हुआ तब क्रान्ति बंद करने को कह रहे हैं? ये हक़ उन्हें किसने दिया? ये बगावत वे ख़त्म करने वाले कौन हैं? ये वही लोग हैं जो बगावत अपने अहंकार के लिए कर रहे थे. ये वही लोग हैं जिन्हें व्यवस्था बदलने से, अन्याय ख़त्म होने से कोई सरोकार नहीं है. ये ज़िन्दगी में वे हार जाने वाले लोग हैं, जो मोटी तनख्वाह पा जाने में अपनी जीत समझते हैं. ये वही लोग हैं जो केले को खा कर छिलके बिखरने में शान समझते हैं. ये वही लोग हैंजिन्हें सही-ग़लत ही पहचान नहीं है और दूसरे के विचारों का सहारा ले कर तर्क-वितर्क करते हैं. ये वही लोग हैंजिन्हें आर्ट आफ लिविंगके नाम पर आर्ट आफ लविंगकी तलाश होती है.
मैं यह सब सोच रहा था कि आठ बजे वाली पहली क्लास में मोटे चश्में वाले बंगाली प्रॉफेसर ने मुझसे कोई सवाल किया. सारी क्लास मेरी ओर देखने लगे. मुझे खोया हुआ पाना कोई हँसने की बात तो न थी, न जाने किस बात पर कहकहा लगा और फिर सुबह की क्लास पहले जैसी चलती रही. एक के बाद दूसरी, दूसरी के बाद तीसरी क्लास .... मैं इस कशमकश में जूझता रहा है कि ये क्यूँ हुआ? क्या इस घटनाक्रम का इसके अलावा कोई और अंत भी हो सकता था?

बारह बजे जब लेक्चर ख़त्म हुआ, तब मैं वापस हॉस्टल की तरफ़ रवाना हुआ. जाने आने वालों के बीच यह ख़बर फैल गयी थी कि नीलगिरि का मेस बॉयकॉट ख़त्म हो गया. हॉस्टल पहुँच कर मैंने देखा कि हाउस सेक्रेटरी, डीन, वार्डन, हाउस मास्टर और एसोसिएट डीन मेस के बाहर खड़े थे. पास लगे नोटिस बोर्ड पर लड़कों का झुण्ड नोटिस पढ़ रहा था. मैंने भी जगह बनायी और नोटिस को पढ़ा.
नोटिस का मजमून यह था कि नीलगिरि में हुए मेस बॉयकॉट की जाँच पड़ताल की गयी. यह तय किया गया है कि अलगे तीन महीने तक नीलगिरि के वार्डन के सभी कार्यकलाप एसोसिएट डीनऔर कराकारोम हॉस्टल के वार्डन के निरीक्षण मेंहोंगे. कोई भी निर्णय लेने से पहले वार्डन को इन दोनों की सलाह लेनी पड़ेगी.


मुझे बड़ी निराशा हुयी. कहाँ तो इस बात की चर्चा चल रही थी कि तीन महीने बाद वार्डन बदल दिया जाएगा, यहाँ उस वादे का कोई नाम-ओ-निशान नहीं था. कुछ लड़के बड़े खुश थे कि चलो, डीन और डायरेक्टर को झुकना तो पड़ा. यह उनकी जीत हुयी. मैं सही सही देख पा रहा था कि हमारी साफ-साफ हार हुयी है. लेकिन मेरी बात कौन सुनता है? कौन समझ सकता है? यह किसी के लिए घटना नहीं रही शायद, सभी अपने जीवनधारा में पहले ही की तरह मग्न हो गये थे.

हाउस सेक्रेटरी ने मुझसे आ कर कहा, “चलो, चलो खाना खा लो.यहीबाकियों को कहने के लिए झट से वह आगे बढ़ा. मैंने देखा कि एक टेबल पर बैठ कर डीन और तमाम अधिकारी हाउस सेक्रेटरी और अन्य प्रमुख सेक्रेटरी के साथ खाना शुरु करने लगे थे. मेस में टिड्डियों की तरह भीड़ उमड़ने लगी. सारे भूखे-प्यासे एम.टेक. और गद्दार पी.एच.डी., तमाम बेशर्म बी.टेक. झट से थालियों के स्टैकसे एक-एक थाली और चम्मच ले कर लाइन लगाने में जुट गए. मेस के बटलर पहले के दिनों की तरह खाना देने में जुट गए.मैंने देखा कि उनके चेहरे पर वही मुस्कान थी, जो बचपन मेंखेल दिखाने आए मदारियों के चेहरे पर देखी थी. मदारी भीड़ के आने का इंतज़ार करते हैं, और फिर भीड़ के आ जाने पर अपनी कामयाबी के लिए पूरे आश्वस्त रहते हैं. फर्क इतना है कि हममें से कुछ ही तमाशबीन थे और बाकी ढ़ेर सारे बंदर थे जो मदारियों की डुगडुगी पर नाच रहे हैं.

मैं मेस के एक कोने में खड़ा बाकी साथियों को खाने पर टूट पड़ते देखने लगा. हर आने वाले चेहरे की खुशी पढ़ने में मशगूल हो गया. मानों वे सभी इस हड़ताल के ख़त्म होने का इंतज़ार ही कर रहे थे. जैसे मंदिर का प्रसाद मुफ़्त में बँट रहा हो, जैसे परीक्षा का नतीज़ा नोटिस बोर्ड पर आ गया हो. उन सब के उल्लास का जवाब मेरे पास कड़वाहट के सिवा कुछ नहीं था. गुस्से के मारे में बिना कुछ खाये निकल कर अपने रूम में चला आया.

करीब डेढ़ बजे जब मैं वापस भूखे पेट ही कंधे पर बैग लिए ट्यूटोरियल के लिए जाने को हुआ, देखा कि फिर से मेस खाली पड़ा है, जबकि खाना सवा दो-ढ़ाई बजे तक मिलता था. मेस की तरफ से आते हुए मोटे रवीन्द्र सैनी ने कहा, “बहनचोद, आज साला मेस स्ट्राइक टूटा और आज इन भोसड़ी बटलरों ने खाना ही कम बनाया. खाना कम पड़ गया और फिर बाहर ही खाना पड़ेगा. भक बहनचोद!
मैंने देखा कि वार्डन वहीं नोटिस बोर्ट के पार खड़ा था पर हमारी बातें सुन कर भी कुछ नहीं बोला.
मेरा दिल कर रहा था कि मैं भी मोटे भुक्खड़ रवीन्द्र को चार थप्पड़ इतने जोर से रसीद दूँ ताकि वह गिर पड़े. इतने पर ही न रुकूँ, बल्कि उसके पेट पर चार किक वैसे ही रसीद दूँ जैसे माइकल जैक्सन ने शायद गौरव कटारिया को मारे थे.
तंग आ चुके हैं कशमकश-ए-ज़िन्दगी से हम
ठुकरा न दें जहाँ को कहीं बे-दिली से हम

लो आज हम ने तोड़ दिया रिश्ता-ए-उम्मीद
लो अब कभी गिला न करेंगे किसी से हम

उभरेंगे एक बार अभी दिल के वलवले
गो दब गए हैं बार-ए-ग़म-ए-ज़िन्दगी से हम

वृश्चिक
उपरोक्त घटना के उपसंहार के रूप में इतना ही कहना है कि माइकल जैक्सन ने वार्डन का न केवल तीन साल का कार्यकाल पूरा किया, बल्कि प्रशासन से नीलगिरि छात्रावास के लिए छह महीने का एक्सटेंशन भी प्राप्तकिया. यह भी उनकी उपलब्धि रही कि अक्टूबर क्रान्ति के ठीक अगले साल उसने बी.टेक. के कुछ लड़कों को रैगिंग के आरोप में हॉस्टल से निकाला भी और एक सेमेस्टर फेल भी करवाया. हालांकि वह घटना अलग विमर्श मांगती है. सार यह है कि अनुशासन के भौंडे आदर्श पर चलते हुए, अपने उच्चाधिकारियों को प्रसन्न करते हुए माइकल जैक्सन ने सफलता की मनवांछित सीढ़ियाँ चढ़ी और आज भी यह सिलसिला ज़ारी ही है.
मशहूर फ़िल्म निर्देशक आर्सन वेल्सकी फ़िल्म मिस्टर अर्कादिन’ (1954) मेंबिच्छू और मेढ़क की एकनैतिक कथा का वर्णन है.


एक बार एक बिच्छू नदी पार कराने के लिए एक मेढ़क से विनती करता है. मेढ़क हिचकिचाता कर कहता है कि तुम तो मुझे काट सकते हो. इस पर बिच्छू उसे तर्क देता है कि ऐसा करना तो विवेक के विपरीत होगा, क्योंकि अगर नदी की बहती धारा के बीचमें बिच्छू अगर उसे काटेगा, तो दोनों ही डूब कर मर जाएँगे. इस पर सहमत हो कर मेढ़क बिच्छू को नदी पार कराने लगता है. बीच रास्ते में उसे महसूस होता है कि बिच्छू ने उसे काट लिया है. मरते-मरते मेढ़क चिल्ला कर पूछता है, “तुम्हारा विवेक कहाँ मर गया?” इस पर डूबते हुए बिच्छू का जवाब आता है, “मैं क्या करता?यह तो मेरा चरित्र है”.

बिच्छू यानी वृश्चिक के चरित्र पर हम फिर आएँगे. हमें एक बिंदु पर चर्चा करनी थी, वह था जब 22दिसम्बर को सूर्य उत्तर की तरफ बढ़ना शुरु कर देते हैं, उस समय ही उत्तरायण मानना चाहिए. इस तरहप्रश्न यह उठता है कि मकर संक्रान्ति22दिसम्बर के बजाय14जनवरी को क्यों मनायी जाती है.

खगोलशास्त्र में वर्ष की दो तरह की परिभाषाएँ हैं–1. नाक्षत्र वर्ष(sidereal year) 2. उष्णकटिबंधीयवर्षसे (tropical year). नाक्षत्र वर्ष 365.2563दिनों का होता है, वहींनिरयण वर्ष 365.2422दिनों का होता है.नाक्षत्र वर्ष में सूर्य और अन्य ग्रहों की चाल के अलावा बहुत दूर स्थित स्थिरमान तारों को भी गणना में लिया जाता है, वहीं उष्णकटिबंधीय वर्ष में सूर्य और सौर मंडल के ग्रहों के चाल को विषुव बिंदु या संपात (equinox) से निर्धारित करते हैं. वसंतविषुव से चलकर और एक चक्कर लगाकर जितने काल में सूर्य फिर वहीं लौटता है उतने को एक सायन वर्ष कहते हैं. किसी तारे से चलकर सूर्य के वहीं लौटने को नाक्षत्र वर्ष कहते हैं. यदि विषुव चलता न होता तो सायन और नाक्षत्र वर्ष बराबर होते. अयन के कारण दोनों वर्षों में कुछ मिनटों का अंतर पड़ता है. भारतीय ज्योतिष गणना के लिए नाक्षत्र वर्ष का प्रयोग करते हैं.

नाक्षत्र वर्ष निरयण निकाय’ (sidereal system) से सम्बन्धित हैं और उष्णकटिबंधीय वर्ष सायन निकाय’(tropical system) से सम्बन्धित हैं. जिस पंचांग में वसंत-विषुव को आरंभस्थान माना जाता है, उसको "सायन"पंचांग कहते हैं और जिस पंचांग में इस विषुव के अतिरिक्त किसी और बिंदु को आरंभस्थान माना जाता है, उसको "निरयण"पंचांग कहते हैं. भारतीय ज्योतिष पद्धति निरयण निकाय पर चलती है. जबकि पाश्चात्य ज्योतिष सायन पर आधारित है.

दोनों निकाय क्रांतिवृत को बारह भागों में बाँट कर राशियों से सम्बद्ध करते हैं. अयन चलन (precession of the equinoxes) के कारण यह दोनों निकाय हर सदी में 1.4आर्क डिग्री से एक दूसरे से दूर होते जाते हैं.करीब सन 285ईस्वी में यह दोनों निकाय बराबर रहे होंगे. निरयण निकाय मेंअयन-चलन का विचार करने के लिए अयनांश जोड़ा जाता है, जो आज कल लगभग 23.8डिग्री या 24दिनों का है.

भारतीय पंचाङ्ग जो निरयण निकाय से सम्बन्धित है,राशियों का क्रांतिवृत्त का विभाजन चित्रा नक्षत्र के सापेक्ष करता है, जहाँ से सूर्य के ठीक 180डिग्री विपरीत होने पर वर्ष का प्रारम्भ माना गया है (चित्रा या स्पाइका नक्षत्र स्थिर माना जाता है, जो कि ठीक क्रांतिवृत्त पर है. यह पृथ्वी से 160प्रकाश वर्ष दूर है). किसी समय कन्या राशि के चित्रा नक्षत्र में ही शरद विषुव हुआ करता था. अब अयन-चलन के कारण स्थिति बदल गयी है.इस तरह मकर संक्रान्ति,पाश्चात्य जगत के अपनायेसायन निकाय के अनुसार 22दिसम्बर को होनी चाहिए थी. लेकिन नाक्षत्र (निरयण) निकाय से यह मकर संक्रान्ति14या 15जनवरी को मनायी जाती है, क्योंकि वर्ष तभी शुरु माना जाता है जब सूर्य अपने मार्ग (क्रांतिवृत्त) पर चित्रा नक्षत्र से ठीक 180डिग्री विपरीत रहते हैं. इसी तरह भारतीय पारम्परिकपंचाङ्ग (विक्रम संवत) से वृश्चिक संक्रान्ति, सायन निकाय के23अक्टूबर के बजाय निरयण निकाय के अनुसार16नवम्बर को मानी जाती है.


भारत का राष्ट्रीय पंचाग (शक संवत) जो ऐस्ट्रोफिजिस्ट डॉक्टर मेघनाद साहा की अध्यक्षता वाले कैलेण्डर रिफॉर्म कमिटी में सन 1955में बनी थी, उसमें वृश्चिक राशि से सम्बद्ध कार्तिक महीना(जोकि कुछ और नहीं बल्कि वृश्चिक सौर मास है) है, 23अक्टूबर को ही शुरु होती है.  मैं ज्योतिष गणना के लिए खगोलशास्त्र की बारीकियों का ध्यान रखता हूँ और अयनांश के24डिग्री से घटाने वाले झंझट से बचने के लिए सायन निकाय की परिभाषा से फलित ज्योतिष पर विचार करता हूँ. इसलिए 23अक्टूबर की घटना मेरे हिसाब से वृश्चिक संक्रान्ति के दिन घटी थी,जिसमें इंस्टिट्यूट के डॉयरेक्टर और डीन ने नीलगिरि हॉस्टल के वार्डन के गलत आचरण पर पर्दा डाला.

ज्योतिष शास्त्रों के अनुसार जब सूर्य वृश्चिक राशि में प्रवेश करते हैं तो यह राक्षसी संक्रान्ति चोर, पापकर्मों में लिप्त रहने वालों और दुष्टों के लिए अनुकूल होता है. जो बेशर्मी से अपना लक्ष्य हासिल करना चाहते हैं, उनकी सहायता करता है. उन लोग के लिए यह बड़ा सहायक होता है, जो चालाक और होशियार होते हैं. जिन लोग को काम निकलते ही पल्ला झाड़ना आता है और जो झूठे वादे करने में माहिर होते हैं, यह उनकी मदद करता है. जिनका व्यवहार सबों के प्रति रूखा होता है और जो अपने स्वार्थ में रत रहते हैं, उन्हें यह संक्रान्ति सुखद फल देती है.
मैं समझ सकता हूँ कि निरयण निकाय को ही फलित ज्योतिष के लिए उपयुक्त मानने वाले भारतीय पण्डित मुझसे ज्योतिष की सूक्ष्मताओं पर बहस करने आएँगे, पर मैंने टालेमी के समय से चलने वाले पाश्चात्य सायन निकायके अनुसार वृश्चिक संक्रान्ति के सही होने का प्रमाण उपरोक्त घटनाओं के प्रभाव के रूप में दे दिया है. उनके लिए फिर से Quod Erat Demonstrandum (Q.E.D.) लिखने में मुझे कुछ विशेष प्रयत्न नहीं करना पड़ेगा.

राशियों के आधार पर ज्योतिष जहाँ से आयी है, वहीं यूयान में प्राचीन लेखों में भी इस वृश्चिक संक्रान्ति को अशुभ ही माना गया. इसका एक उदाहरण हमें पाँचवी सदी का इतिहासकार कुस्तुनतुनिया का सुकरात’ (ईस्वी 380- 439के आसपास)की किताब चर्च का इतिहासमें मिलता है.इतिहासकार प्राचीन अप्राप्य ग्रंथों के संदर्भ में घोषित करता है कि सन 48ईसा पूर्व में जूलियस सीजर के सैनिकों ने महारानी क्लियोपेट्रा के समय मिस्र के अलेक्जांद्रिया शहर का पुस्तकालय इसी वृश्चिक संक्रान्ति के मनहूस समय में जला डाला था. वह यह भी लिखता है कि आगजनी की ऐसी पुनरावृत्ति प्राचीन अलेक्जांद्रिया के पुस्तकालय का छोटा आरूप अलेक्जान्द्रिया के सेरापियमके साथ भी हुयी जिसे सन 391में थियोफिलियस के कोप्टिक पोप ने जलवा डाला. यह बड़ी विडम्बना रही कि फिर वृश्चिक संक्रान्ति का ही प्रकोप ही तो था जब सन 642में मुसलमानों के मिस्र विजय के दौरान बचा खुचा पुस्तकालय जला डाला.इस हादसे की तारीख और वृश्चिक संक्रान्ति का सम्बन्ध मिस्र के फातिमिद खलीफाओं के वक़्त अल-मुस्तनसिर बिल्लाहऔर अल-हफीज़ ली- दिन-अल्लाहजैसे इतिहासकारों ने सन् 1032में अपनी किताब में लिखा है जो उस समय से आज तक चले आ रहे काहिरा के अल-अजहर विश्वविद्यालय में सुरक्षित है.

वृश्चिक संक्रान्तिके बारे में ऐसी एक घटना मध्यकालीन भारत के महान विश्वविद्यालयपुष्पगिरि महाविहारके विषय में चीनी यात्री जुआनजैंग (602-644के आस पास) के तिब्बती लेखपत्रों में स्पष्ट मिलता है. वर्तमान उड़ीसा के जजपुर जिले में सन 1996से 2006के बीच उत्खन्न से प्राचीन विख्यात बौद्ध विश्वविद्यालय पुष्पगिरि महाविहारका अवशेष को प्राप्त कर लिया है. इस तरह पुष्पगिरि महाविहारकी बरसों पुरानी गुत्थी, जो कि आलेखों में विद्यमान थी पर भौगोलिक स्थिति के बारे में अनुमान ही लगाया जा रहा था, अब सुलझा ली गयी है.
जुआनजैंग ने पुष्पगिरि महाविहारके विवादित आचार्यों जैसे भ्रष्ट पुरुषदत्त, महत्त्वाकांक्षी स्थिरमति और अन्य उद्दण्ड प्रशासनिक अधिकारियों के दुर्व्यवहारोंका उल्लेख किया है, जो वृश्चिक संक्रान्ति को हुए थे. तिब्बती भाषा के महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ों के उपलब्ध अनुवाद से आधुनिक इतिहासकारों, जैसे रमेशचंद्र सरकारऔर प्रद्युम्न पालका मानना है कि विद्यार्थियों की शिकायत पर उन भ्रष्ट कुलपति और प्रशासनिक अधिकारियों को कोई दण्ड नहीं मिला क्योंकि उन्हें तत्कालीन राजा के साले का संरक्षण प्राप्त था.छात्रों में असंतोष तब और बढ़ गया जब पुरुषदत्त को राजकीय सम्मान से अलंकृत कर के गुजरात के वल्लभी विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में अनुशंसित किया गया. विवादित आचार्य स्थिरमति, जिस पर छात्रों से दुर्व्यवहार का आरोप था, उसे कालांतर में नागार्जुनकोंडा स्थित बौद्ध विश्वविद्यालय में कुलपति के रूप में भेजा गया. तिब्बती भाषा की विद्वान इतिहासकार गीता मिर्ज़ीने पूर्ववर्ती जापानी इतिहासकार शोहेई इशीमुराके मत की पुष्टि ही कीहै कि इक्ष्वाकु वंशद्वारा पोषित नागार्जुनकोंडा के उस प्रसिद्ध महाविद्यालय का पतन राजनैतिक दखलअंदाज़ी के कारण हुयी, जब स्थिरमति ने महायान के आचार्यों की अनदेखी कर के बर्मा के थेरवादी आचार्यों नियुक्त किया. इस तरह वृश्चिक संक्रान्ति से शुरु हुयी अप्रिय घटना ने विश्वविद्यालय को मंझधार में डुबो दिया.


समकालीन चर्चित इतिहासकार गीता मिर्ज़ीऔर गरट्रूड इमरसन सेनने तिब्बती बौद्ध ग्रंथों के शोध में यह निष्पादित किया गया है कि भारत में वृश्चिक संक्रान्ति का वीभत्स रूप बख्तियार ख़िलजी द्वारा सन 1193में बिहार के विशाल नालन्दा विश्वविद्यालय को जलाने में आता है. समकालीन बांगलादेशी कवि अल महमूद (जन्म 1936) अपनी चर्चित कविता बोख्तियारेर घोड़ामें भी इस वृश्चिक संक्रान्ति का वर्णन करते हैं, जिसमें बहादुर बख्तियार ख़िलजी ने बौद्ध भिक्षुओं को मौत के घाट उतार कर मुस्लिम शासन को और मजबूत किया. हालांकि यह मत इतिहासकारों में पूरी तरह स्वीकृत नहीं हो पाया है. हालांकि यह मत सिद्ध हो जाने पर यह अंगिका प्रदेश के योग्य ज्योतिषों की इस धारणा को पुष्ट ही करेगा कि निस्संदेह यह वृश्चिक संक्रान्ति ही तो है जो लोक में विद्या का दुश्मन बन कर बार-बार पुस्तकों, विश्वविद्यालयों और विद्यार्थियों के विरूद्ध खड़ा हो जाता है.
इतिहास के घटनाएँ विवादित होती हैं. हर पक्ष से हम कारणकार्यवाद स्थापित करना चाहते हैं. तथ्यों से विचार निगमित स्थापित करना, यही इतिहासकारों का काम है. किन्तु अगर कोई मुझसे मेरे निजी विचार पूछे तो मैं ज्योतिषचार्य होने के बावजूद इस तरह के संयोगों पर ध्यान नहीं दूँगा.इसकेबहुत से कारण और मान्यताएँ हैंजिस पर और विचार करना विषयांतर हो जाएगा. अत: इसे यहीं समाप्त करना उचित जान पड़ता है.


इति श्री.

परख : जो कहूँगी सच कहूँगी (कमल कुमार) : हरीश नवल

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जो कहूंगी सच कहूंगी’                  
हरीश नवल







जोकहूंगी सच कहूंगीएक ऐसी लेखिका के संघर्ष और गहन आत्मविश्वास की गाथा है जो कुछबनना चाहती थी और उसने तमाम पारिवारिक, सामाजिक दवाबों और विरोधों के बावजूद अपनी राहें खुद चुनी. अपना लक्ष्य स्वयं निर्धारित किया. संयुक्त परिवार की बेड़ियां भी उसे बांध न पाईं, सामाजिक सांकलें उसके गंतव्य के किवाड़ों को बंद ना रख पाईं और उसने एक प्रकार की अश्वमेघ यात्रा की .... अपने अश्व को भी बचाया और अपने अस्तित्व को भी .... और वह विजयी हुई.
                         
यह पुस्तक जिसे लेखिका ने उपन्यास कहा है और उसे स्त्रियों द्वारा लिखी जा रही आत्मकथाओं की श्रृंखला में भी नहीं रखा, वे इसे आत्मसंस्मरण भी मानती हैं, दरअसल यह किसी विद्या-विशेष के दायरे में नहीं आती. यह प्रयोगधर्मा है. एक नई विद्या का निर्माण करती प्रतीत होती हैं, जिसमें आत्मकथा, संस्मरण, रेखाचित्र, किस्सा, कहानी, जीवनी निबंध, कविता, रिपोर्ताज, व्यंग्य आदि बहुत कुछ है. इसमें अनेक विमर्श हैं, दर्शन हैं, समाजशास्त्रीय व्याख्याएं हैं, मनौवेज्ञानिक गुत्थियों का सुलझाव है, चिंतन की पराकाष्ठा है, व्यष्टि के समष्टि होने की प्रक्रिया है, सबसे बड़ी बात अपनी स्वतंत्र अभिव्यक्तियों को सफलतापूर्वक संप्रेषित करने का उल्लास है.

यह पुस्तक जो भी है, मथती है, द्वन्द्वों में ले जाती है,द्वन्द्वों में से उबारती है, विचारों को उत्तेजना प्रदान करती है, सोचने को मजबूर कर देती है.

विरोधों और उपेक्षाओं के बीच इक्नोमिक्स आनर्स करने वाली लड़की एम..हिंदी में करना चाहती है, करती है और प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान भी लाती है. यह एक बिंदास लड़की है जो अपने जीवन के नियम स्वयं बनाती है. बेवाक है, बेलौस है, क्रांतिकारी है, स्पष्टवादी है,  दो टूक बात करती है, आधी शती पूर्व के उस भारत की नागरिक है जहां स्त्री को तरजीह आज की तुलना में बहुत कम दी जाती थी लेकिन वह मां को अनावश्यक डांटने पर अपने पिता पर बरस सकती है और महीनों उनसे संवाद नहीं करती है. मां उसे प्रताड़ित करती है और कहती है पिता से माफी मांगपर उस दृढ़ लड़की का कथन होता है, "पहले वे आपसे माफी मांगे.’’

विशेष तथ्य है कि यह वही लड़की है जो अपने पिता से सर्वाधिक प्रभावित रही. लेखिका के शब्दों में अपने पिता से जिसने ज्यादा कनेक्ट किया और मां के प्रति विरोध का सा भाव रखा परंतु जहां स्त्री का मान-मर्दन पुरुष ने करना चाहा, वहां उसने सख्त एतराज दर्ज़ किया, उससे जिससे वह ज्यादा कनेक्ट रही. आयरन लेडी ही ऐसा कर पायेगी.

घर बाहर और लेखन - तीन दायित्वों का पालन किया.
तीन औरतों ने लेखिका की रचनात्मकता को प्रभावित किया :-

1)               दादी - चमत्कारिक भाषा, खास तरह की प्रभावी भाषा जिसमें मुहावरे, लोकोक्तियां, लोकगीत, लोककथाएं और किस्से होते थे. बोलने का दिलकश अंदाज था. लेखिका उनके पास बैठ कर डायरी लिखती रहती.

विषेशता :-     दादी अंतिम दिनों में अपना खाना खिड़की के बाहर रख देती, बहुत से पक्षी आते और खा जाते. दादी की मृत्यु के बाद लेखिका ने खिड़की में खाना डाला, पर कोई पक्षी न आया. यह रहस्य है.


2)               मां -   एक साधारण स्त्री थी. पिता अफसर थे. मां के साथ उनका अंदाज अफसरी ही था. एक बार पिता ने नौकरों के सामने मां को डांट लगाई, पिता से भी अधिक जोर से लेखिका चीखी थी, ‘‘स्टॉप दिस’’. मां ने लेखिका को डांटा था, बाप के सामने जुबान चलाती है. चार-पांच महीने पिता-पुत्री में बातचीत नहीं हुई जबकि वह पिता के अधिक समीप थी. उनके साथ घूमने जाना, क्लब जाना, खेलना, घर का कोई काम न करना. मां कहती, ‘‘जा जाकर पिता से माफी मांग ले’’, मैं कहती, ‘पहले उनसे कहो कि आपसे माफी मांगे.’’ मां का जवाब होता, ‘‘पागल हो गई है तू. मां के रूप में एक साधारण औरत हमेशा लेखिका के भीतर जीती रही. भरे पूरे परिवार में औरत की अतृप्ति और जैसे भी उसके खुश रहने के रहस्य को समझा. कमल के लेखन में ऐसी ही स्त्री का संशर्घ और उसकी मुक्ति का प्रयास है.


3)               कमल की सबसे बड़ी बहन - सुशीलल, सुंदर, शिक्षित और आज्ञाकारी. लेखिका से एकदम विपरीत, वह स्वालम्बी थी और नौकरी करती थी. यही गुण उसके दुश्मन बने. उसका पति आत्मसीमित, अहंकारी और हिंसक. बहिन को बात-बात पर अपमानित करने वाला, बहन को परिवार से मिलना छुड़वा दिया. आत्मसम्मान के बिना वह लेखिका को गधे की लीदलगी थी. उसे देखकर जाना कि हर औरत को अपनी लड़ाई खुद लड़नी होती है. वह चेहराहीन अस्तित्वहीन स्त्री है, हमारे यहां ऐसी स्त्रियों को सराहा जाता है, लेखिका को ऐसी औरतें सिर्फ मादा लगती हैं.

4)               पिता की समीपता ने स्वावलंबनऔर आत्म सम्मानके भाव को पुख्ता किया.

5)               तीन साल बड़े भाई का प्रभाव जो मित्रवत था, उसके साथ पतंग, गुल्ली डंडा, कंचे खेले, मारपीट की, ने लेखिका की औरत को दब्बूपन से बचाया. व्यक्तित्व में साहस और खुलापन आया. इस संस्कार ने लेखिका के लेखन में अस्तित्ववान स्त्री-पात्रों की सृष्टि की.

अपने परिवार की कहानी इस पुस्तक में लेखिका ने विस्तार से नहीं दी, स्वयं को ही केंद्र में रखा है, घटनाओं की भीड़ इसमें नहीं है, कतिपय घटनाओं के माध्यम से विचार पोशित किए गए हैं.


हां एक तथ्य विशेष है कि इस कृति में लेखिका ने बतलाने के साथ-साथ जतलाया बहुत कुछ है. यह कृति जतलाती है कि लेखिका का स्वाध्याय कितना है, कितना-कितना पढ़ती रही है कमल कुमार और स्मरण शक्ति भी अद्भूत, पढ़ कर, गुण़ कर, नवनीत निकाल कर बखूबी परोसती है. हिंदी तो हिंदी, संस्कृत तो संस्कृत, अंग्रेजी का भी कितना पढ़ा है, इस हिंदी प्राध्यापिका ने, मुझे तो आश्चर्य होता है. कई बार पढ़ते हुए मुझे गुरूवर प्रो.निर्मला जैन की वे कक्षाएं ध्यान में आई जिनमें वे पाश्चात्य काव्य्शात्र पढ़ाती थीं. बड़े-बड़े समर्थ नाम, बड़ी-बड़ी कृतियां जिनके दबावों से निकल कर लेखिका ने जो-जो कोट किया उसका दबाव मेरे अतीत  पर बहुत पड़ा.

जब का फ्यूजन है लेखिका में, पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, जहां से जो उत्कृष्ट लगा, लेखिका ने बे रोक-टोक लिया. परम्परा और प्रयोग, पुरातन और अत्याधुनिक, सब कुछ का बेलैंस बनाकर लेखिका ने लिया. यह केवल कृति में ही नहीं है, मूलतः व्यक्तित्व में है, वहीं से कृतित्व में आया है. हिंदी पढ़ाने वाली लेखिका का पहरावा अंग्रेजी है. भाव देसी मूल है पर शैली विदेशी है.   

जहां तक कृति के शिल्प पर विचार करें मुझे शोध-प्रबंध प्रविधि ध्यान  में आती है. कमल कुमार ने मानों एक विशय सूची बनाई, अध्यायों में वर्गीकृत किया, प्राक्कथन, भूमिका से अध्याय, अध्यायों से निष्कर्ष, उपसंहार और फिर परिशिष्ट.

लेखिका ने परिवार अध्याय में दादी यानि अम्मा, माताजी, डैडी, भाई, बहन, पति, बेटी, दामाद, समधिन के विशय में थोड़ा-थोड़ा लिखा. दामाद की खलनायकी के संकेत दिए. राजनीतिक प्रभाव,दुष्प्रभाव पर कलम चलाई, अपने लेखन के विषय में विस्तार से लिखा, अपनी कहानियां, कविताएं, उपन्यास आदि के कथ्यों और उनके चरित्रों का वर्णन करते हुए अपनी रचना-प्रक्रिया और साहित्यिक सच के विषय में लिखा. अपनी रचनाओं की समीक्षाएं मन से की हैं. यह इस कृति का मुख्य प्रतिपाद्य है. एक अध्याय अपनी समकालीन लेखिकाओं के विषय में लिखा जिसमें बड़ी बेबाकी से उनके लेखन और चारित्रिक विशिष्टताओं का बखान किया, जहां दुर्बलताएं उन्हें लगी, उन्हें चिहिन्त करने में वे चूकी नहीं. लेखिकाएं - राजी सेठ, दिनेश नंदिनी डालमिया, कृश्णा सोबती, मन्नू भंडारी, डॉ.निर्मला  जैन, कुसुम अंसल, मंजुल भगत, नासिरा  शर्मा, मैत्रेयी पुष्पा, सुनीता जैन, सिम्मी हर्पिता, अरूणा सीतेश, मुक्ता जोशी', चंद्रकांता, अर्चना वर्मा, रीता पालीवाल आदि.

इस कृति में अनेक नामचीन पूर्व पीढ़ी के रचनाकारों के विषय’ में भी उल्लेख किया गया है. प्रोफेसर द्विवेदी, जैनेंद्र कुमार, अज्ञेय, नामवर सिंह, रामदरश मिश्र, विष्णु प्रभाकर, गिरिजा कुमार माथुर, भवानी प्रसाद मिश्र, देवेंद्र इस्सर, रमेशचंद शाह, कमलेश्वरर, निर्मल वर्मा, प्रभाकर श्रोत्रिय, सोमित्र मोहन, भीष्म साहनी, मनोहर श्याम जोशी, कैलाश वाजपेयी, कैलाशचंद पंत, कैलाशवाजपेयी, कुंवर नारायणा, महीप सिंह, बलदेव वंशी, हरदयाल, नरेंद्र मोहन, गंगा प्रसाद, विमल, .कि.गोयनका आदि. लेखिका के अपनी पीढ़ी के पुरूष रचनाकारों में कवेल प्रताप सहगल, अश्विनीऔर गुरूचरण के विषय में उनकी कलम नहीं चली है.

कह सकते हैं कि इस कृति में दिल्ली के विगत पचास वर्ष का साहित्यिक परिवेश इन साहित्यकारों के माध्यम से और लेखिका के व्यक्तिगत अनुभवों के द्वारा काफी हद तक समाया हुआ है.

कुछ अत्यंत रंजित प्रसंग हैं तो कुछ बेहद संजीदे. जो भी लिखा लेखिका ने वही शिद्दत से लिखा है, समर्झा आत्मीय भाशा से लिखा, भाषा पर लेखिका का अधिकार स्पष्ट है - तत्सम, खड़ी, हरियाणवी, पंजाबी, अंग्रेजी, भाशाओं के शब्दों का साधिकार प्रयोग किया गया है. शायद आज के संदर्भ में मॉड्रन सधुक्कड़ी प्रभाव.

अनेक कोटेबल कोटसइस पुस्तक में हैं. साहित्य और जिंदगी’, प्रेम और देह, प्रयोग और कला सुजन और कलात्मकता, रचना लेखन और प्रक्रिया, स्त्री और पुरुष, व्यक्ति और परिवार संदर्भित सूक्तियां प्रभावित करती हैं. अध्यात्म, साहित्य, समाज, शिक्षा, राजनीति, मनोविज्ञान, ...... जैसा कोई विषय लेखिका ने विचार मंथन के लिए छोड़ा ही नहीं.

इस तरह यह रचना अपने व्यक्ति के अतिरिक्त अपने समय और साहित्य की प्रतिकृति है.
_________
जो  कहूँगी सच कहूँगी
कमल कुमार

नमन प्रकाशन 
४२३/१, अंसारी रोड , दरियागंज , नई दिल्ली - ०२

लोकधर्मिता और कुछ कविताएँ : विजेंद्र

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कविताओं से कवि होना चाहिए, अगर  बचनी हैं तो कविताएँ ही बचेंगी. जनकवि, जनता का कवि, लोककवि, लोकधर्मी कवि आदि-आदि कविताओं को समझने के क्रम में तैयार आलोचकीय वर्गीकरण हैं. ८३ वर्षीय विजेंद्र के दस से अधिक कविता संग्रह और लगभग इतने ही आलोचनात्मक–डायरी आदि प्रकाशित हैं. वह चित्रकार भी हैं. उनके साथ ‘लोकधर्मी’ कवि कुछ इस तरह जुड़ा है कि दोनों एक दूसरे के  पर्याय लगते हैं. उन्हें लोकधर्मी कविता की अवधारणा का प्रस्तोता समझा जाता है.


कविता की लोकधर्मिता को व्याख्यायित करता उनका यह आत्मकथ्य, उनकी कुछ कविताएँ और उनके चित्र यहाँ प्रस्तुत हैं.  



कविता में लोक का धर्म                   
विजेंद्र




तने लम्बे अनुभव के बाद कविता मेरे लिए जीवन की अन्य क्रियाओं की तरह ही एक बहुत ही अनुत्पादक सृजन क्रिया है. यहाँ मुझे रूसी क्रन्तिकारी कवि मायकोवस्की की बात याद आती है. उसने कहा है कि,  “अगर कविता को उच्च गुण और विशिष्टता अर्जित करनी है, अगर उसे भविष्य में पनपना है तो हमें चाहिए कि उसे हल्का-फुल्का काम समझ कर अन्य सभी प्रकार के मानवीय श्रम से अलग करना त्याग दें. इस से कुछ बातें साफ़ हैं. एक तो कवि अपने  को उस सामान्य जन से अलग न समझे जो उत्पादक श्रम करता है. दूसरे, हम कविता को श्रम-सौन्दर्य से जोड़े रहे. अपनी जनता से एकायाम रहें.  इसी सन्दर्भ में लोक की बात भी कवि को समझ लेनी चाहिए. लोक हमारा अपना बहुत ही प्राचीन शब्द है. आचार्य भरत मुनि और अभिनव गुप्त ने लोक को कविता के लिए अनिवार्य बताया है. लेकिन आज लोक शब्द को लेकर कुछ शंकाएँ हैं. कुछ विवाद भी हैं.


लोक का एक प्रचलित अर्थ है सामान्य. यह कुलीनता और प्रभु लोक से बिलकुल उल्टा है. लोक में हम उन वर्गों को सम्मिलित कर सकते है जो अपने श्रम पर जीते है. इस दृष्टि से, मोटे तौर पर, हम इस में  निम्न मध्य-वर्ग, निम्न वर्ग, दलित, अनुसूचित जातियाँअनुसूचित जनजातियाँ, आदिवासी, तथा अन्य वे लोग जो दिन-प्रतिदिन अपने कठिन श्रम से अपनी आजीविका अर्जित कर किसी तरह अभावों में जीते  हैं. लेकिन अभिजात वर्ग लोक का नाम लेते ही गाँव को भागता है. और लोक के उत्सव धर्मी रूप को अपने मनोरंजन के लिए याद करता है. अर्थात, लोक -गीत, लोक नृत्य, लोक कलाएँ, लोक उत्सव, लोक की रूढ़ियाँ.  अंध विश्वास आदि. ये कुलीन वर्ग के लिए लोक का सांस्कृतिक रूप कहा जा सकता है. उस से वह अपना मनोरंजन करता है.  


लेकिन वास्तविक लोक वह है जो अपने श्रम के लिए खट रहा है. जो अभावों में है. और शोषण उत्पीड़न से मुक्त होने के लिए संघर्ष रत है. जो अंदर-अंदर कुलीनों के प्रति आक्रोशित  भी है. और समय आने पर आक्रामक भी होता है. इस लिए लोक को  गाँव और शहर में विभाजित करके नहीं देखा जा सकता. जहाँ भी श्रम शील, आभाव ग्रस्त, शोषित उत्पीडित जन अपने अस्तित्व को संघर्ष कर रहे है वहाँ लोक है.

मिसाल के लिए भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में लाखों आदिवासिओं ने अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ कर कुर्बानियाँ दी थीं. जैसे बिरसा मुण्डा, तिलका माँझी आदिवासिओं का नेतृत्व कर रहे थे. इसी प्रकार स्वंत्रता संग्राम में छोटे किसानों और श्रमिकों ने आज़ादी के लिए संघर्ष किया था  अत: लोक का यह रूप  आज के लोकतंत्र की धुरी है. मैंने लोक के इसी पक्ष को स्थापित करने के लिए डेढ़ दशक तक कृति ओरपत्रिका के माध्यम से संघर्ष किया है. मेरे सम्पादकीय इसके प्रमाण हैं.  आज हर लेखक अपने को लोकधर्मी कहने को उत्सुक है. मेरे समीक्षक मुझे लोकधर्मीकवि कहकर ही मेरा मूल्याङ्कन करते हैं. पिछले दिनों वरिष्ठ आलोचक डॉ. अमीरचंद जी के संपादन में एक किताब भी आई है, विजेंद्र की लोकधर्मिता”.

मैंने लोक को सर्वहारा का पर्याय माना है. युवा मर्क्सवादी  समीक्षक उमाशंकर सिंह परमार के शब्दों में, “विजेंद्र का लोक और जन दोनों शब्दावलियो को नया अर्थ देने एवं लोक की अर्थ-वत्ता में विचारधारा का समावेश करने और द्वंद्वात्मकभौतिकवादी दर्शन से लोक की विवेचना करने में अविस्मरणीय योगदान है ( “लहक अप्रैल-मई , 2018, पृष्ठ.76 ) तो कविता मेरे लिए लोक की पुनर्रचना है जो मेरी आत्मा का स्थापत्य भी रचती है. मुझे विश्व  कवि पाब्लो नेरुदा  की पंक्तियाँ याद  आ रही हैं उसने कहा है कविता में बाहरी दुनिया की चीजें किस प्रकार एक हो जाती हैं

मेरे अंदर वे एक हो जाती हैं
जिन्दगियाँ और पत्तियाँ (बादामी)
बहार, पुरुष, और पेड़
झंझा और पत्तिओं की दुनियां से  मैं  प्यार करता  हूँ
मेरे  लिए  होठों  और जड़ों में भेद करना संभव नहीं

दरसल, मुझे भी अपने जनपद और स्थानीयता से बहुत लगाव है. इस से कविता सीमित और संकुचित नहीं होती. विश्व के लोकधर्मी कवि  मेरी पुस्तक में 12देशों के शिखर लोकधर्मी कवि हैं. उन सब में अपने जनपद और परिवेश के प्रति गहरा लगाव है. मेरा विनम्र विचार है कि  कोई भी बड़ी कविता स्थानीय होकर ही वैश्विक बनती है. मैंने लम्बी कवितायेँ भी लगभग 60के आस-पास लिखी हैं. इन में फलक बहुत विस्तृत है. जहाँ-जहाँ मैं रहा वहाँ के जनपद और इलाके इन  में बोलते हैं. वहाँ के कर्मनिष्ठ, श्रमिक और खेतिहर किसान बराबर चित्रित हुए हैं. लोगों का मानना है कि मैंने सबसे अधिक जन-चरित्र सृजित किये हैं. अनेक कौमों के लोग उन में  आते हैं.

मेरी एक कविता है, मुर्दा सीनेवाला.यह एक वास्तविक चरित्र है. जिसे मैंने बिलकुल करीब से देखा है. इसी प्रकार मेरे जन-चरित्र काल्पनिक न होकर वास्तविक है. मैं अधिकांश छोटे स्थानों पर रहा. इस लिए जन-जीवन से संपर्क बना रहा. खास तौर से छोटे खेतिहर किसानों और श्रमिकों से. जहाँ भी रहा वहाँ के लोगों से एकात्म हुआ. वहाँ की प्रकृति से करीब का संपर्क बनाया. मुझे लगता रहा है कि बिना प्रकृति के कविता इकहरी और सतही होने लगती है. अत:  प्रकृति मेरी कविता में कोई उद्दीपन न हो कर एक विराट और विपुल आलंबन का रूप लेती है. इस अर्थ में प्रकृति भी मेरी कविता में एक चरित्र ही है. जिससे आदमी अपने अनुकूल बनाने को संघर्षरत है. अत: प्रकृति मेरी कविता में  मनुष्य और अपने बीच के संघर्ष को ध्वनित करती है. वह कहीं भी निर्जन नहीं हैं. न अन्तर्विरोध शून्य.

लेखक होने के नाते मेरा दर्शन मार्क्सवाद है. यही एक विचारधारा ऐसी है जो सर्वहारा की मुक्ति की बात करती है. दूसरे, यह दुनिया के बारे में सिर्फ बात ही नहीं करती. बल्कि उसे सर्वहारा के पक्ष में बदलने पर बल देती है. मार्क्स की तत्व-मीमांसा लगतार पढता रहा हूँ. 

एक कवि को किसी वैज्ञानिक दर्शन की गहरी जानकारी जरुरी है. क्योंकि बिना उसके कविता में चिंतन की गहनता नहीं आ पाती. और जिस कविता में गहन चिंतन नहीं होता वह बड़ी और विश्व-द्वंद्व तथा सार्वभौमिक कविता नहीं हो पाती. इसके लिए  कवि को सावधानी बरतनी पड़ती है कि विचारधारा ऊपर से थोपी हुई न लगे. इस विचारधरा को समझने के लिए ही मैंने गद्य लिखने का अभ्यास किया. मेरी 5मोटी जिल्द डायरी की हैं. जिन में साहित्य, कविकर्म, काव्य प्रक्रिया, भाषा, रूपविधान, शिल्प और वाक्य-विन्यास  सौंदर्यशास्त्र आदि के प्रसंग भरे पड़े हैं. सौंदर्यशास्त्र में ने लगातार पढ़ा है. उसके फलस्वरूप मेरी तीन पुस्तकें सौंदर्यशास्त्र पर है.  सौन्दर्य-शास्त्र :  भारतीय चित और कविता” ,  “सौंदर्यशास्त्र के नए क्षितिज“  सौन्दर्य-शास्त्र प्रश्न और जिज्ञासाएँ “.इस से मुझे अपनी कविता की सैद्धान्तिकी विकसित करने में  बहुत सहायता मिली है.

मैं कविता के प्रयोजन और परिणाम दोनों पर ध्यान देता हूँ. मेरे अनुसार किसी लेखक का मूल्याङ्कन उसके कथनों से नहीं होता.  बल्कि रचना और लेखक के व्यवहार और जनता पर उनके प्रभाव से होना चाहिए.  मैं कलाकृतियों के एकांगी और संकीर्ण मूल्याङ्कन के पक्ष में नहीं हूँ. कुछ लोग एक ख़ास किस्म की विचारधारा से प्रेरित कविता को ही महत्व देते हैं.

मेरा अपना विनम्र विचार है कि हमें ऐसी कला-कृतियों को भी सहन करना चाहिए जिन में विभिन्न प्रकार के राजनीतिकदृष्टि कोण प्रस्तुत किये गए हों. बशर्ते वह सीधे-सीधे जन विरोधी तो नहीं है. राष्ट्र विरोधी तो नहीं है. अवैज्ञानिक नहीं  है. ध्यान रहे कविता को हम दार्शनिक तर्कशास्त्र से नहीं समझते. बल्कि उसे काव्य तर्क (POETIC  LOGIC) से ही समझना होगा. मिसाल के लिए अगर कोई कवि कहे कि आज तो सूर्य पश्चिम से उदित है. तो हमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए. दूसरे, मनुष्य प्रकृति के नियमों को मानता है. उन्हें नहीं तोड़ सकता. लेकिन कविता प्रकृति के नियम नहीं मानती. हमारे प्राचीन काव्य-शास्त्री आचार्य मम्मट ने कहा है कि कविता, नियति कृत नियम रहितां”  है. अर्थात कविता प्रकृति के नियमो को नहीं मानती.

ध्यान रहे कुछ कृतियाँ राजनीतिक दृष्टि से प्रतिक्रियावादी होकर भी उनमें कुछ-नकुछ  कलात्मकता हो सकती है. वे कला कृतियाँ जिन में कलात्मक प्रतिभा का आभाव होता है बिलकुल शक्तिहीन होती हैं. चाहे वे राजनीतिक दृष्टि से कितनी ही प्रगतिशील क्यों न हों. कविता में नारेबाजी और पोस्टर तकनीक कविता को कमजोर बनाते हैं. हमें दोनों का ही विरोध करना चाहिए. कविता एक कला कृति भी है. इसे कभी नहीं भूलना चाहिए.

कविता की जीवंत भाषा हम जनता के बीच रहकर ही अर्जित कर सकते हैं. रचनाशील भाषा ही कविता के लिए उपुक्त है. अर्थात ऐसी भाषा जहाँ शब्द पूर्व निर्धारित अर्थों का अनुगमन करते है रचनाशील भाषा नहीं कही जा सकती. रचनाशील भाषा में शब्द कवि द्वारा सृजत नव-अर्थों का अनुधावन करते हैं. इस में संदेह नहीं कि श्रमशील जन की भाषा बहुत ही समृद्ध और गतिशील होती है. हमारी अपनी पुस्तक अर्जित भाषा से कहीं अधिक समृद्ध और जीवंत होती है.
कहना न होगा की जीवंत काव्य भाषा में  प्रमुख महत्व क्रियापदों का ही होता है. क्योंकि जीवन गतिशील और विकासशील है. दूसरे, जीवन और वर्ग समाज के गहरे अन्तर्विरोध उसे और अधिक गतिशील और विकासोन्मुख बना देते हैं. काव्य  भाषा  को रूपक, बिम्ब, उपमा, विशेषण आदि विशेष  उपकरण  उसे अधिक अर्थवान  और समृद्ध बनाते हैं. पर इनका उपयोग बहुत ही समझबूझ, संयम और अनुशासन से करना चाहिए.

इसी प्रकार लय कविता का प्राण है. यहाँ तुकबंदी से मतलब नहीं है. बल्कि कविता में आवेग, संवेग, भाव , विभव, अनुभव आदि को एक आन्तरिक प्रवाह में पिरोते हुए सुगठित रूप (फॉर्म)  में ढालना ही लय है. लय कथ्य में अंतर्निहित होती है. अत: कथ्य के अनुसार वह अपना रूप लेती रहती है. बात-चीत के लहजे  में लिखी कविता में भी लय होती है. लय के कथ्य के अनुसार अनेक रूप और स्तर हो सकते हैं. लयहीन कविता निष्प्रभावी होती है. कविता में संश्लिष्ट अर्थध्वनी भी लय रचती है. कहा गया है, MUSIC OF  IDEAS. इसी के साथ हमारी काव्य शैली भी कविता का महत्वपूर्ण उपकरण है.  शैली से ही कवि की पहचान होती है. हम बड़े कविओं  की कविता-पंक्ति देख कर उसे पहचान लेते हैं. मार्क्स ने शैली के बारे में बहुत ही महत्वपूर्ण बात काव्य भषा में कही  है,  STYLE   IS   A   DAGGER   WHICH   STRIKES  UNERRINGLY   AT THE HEART    अर्थात शैली एक ऐसा खंजर है जो ह्रदय पर अचूक वार  करता है. शैली के बारे में ऐसा कथन मैंने अन्यत्र नहीं पढ़ा. और न सुना.

कविता पूरे  जीवन  की मांग करती है. यह कोई आकस्मिक कर्म नहीं है. बल्कि सार्वकालिक ऐसा कर्म है जो हर क्षण का समर्पण चाहता है. इसी लिए कविता को हमारे यहाँ साधना कहा गया है. राजशेखर ने अपनी प्रख्यात कृति,  काव्य मीमांसा” में कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण बातें कवि कर्म, कविता की तैयारी और कवि आचरण के बारे में कही हैं. कहा हैकविओं को विद्याओं तथा उपविद्याओं का अध्ययन करना चाहिए. अर्थात व्याकरण, कोश, छंद-संग्रह, तथा अलंकर शास्त्र-  ये काव्य विद्याएँ हैं जिनका ज्ञान कवि को होना उचित  ही है. कवि  सदा पवित्र रहे. कहा है पवित्र चरित्र या स्वभाव ही सरस्वती का वशीकरण है. कवि को चाहिए कि वह जाने कि लोक सम्मत”  क्या है. अपनी रचना को बड़ा नहीं समझना चाहिए. कविता के प्रयोजन के बारे में भी आचार्य मम्मट ने अनेक माहत्वपूर्ण बातें कही हैं. लेकिन सबसे महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय है, शिवेतरक्षतये” अर्थात जो जन का  अमंगल करे, जो जनविरोधी है, कविता उसका विनाश करे. 

मैंने अरस्तू  से लेकर टी.एस. एलियट. तक का योरपीय काव्यशास्त्र जब पढ़ा तो मुझे कविता का इतना बड़ा प्रयोजन कहीं दिखाई नहीं दिया. वहाँ प्रमुखत: दो बातों पर जोर है. कविता हमें संस्कारित करे. और आनंद दे. लेकिन अमंगल और जनविरोधी तत्व का विनाश भी करे यह भारतीय मौलिक दृष्टि है जो मनुष्य के लोकमंगल की भावना से प्रेरित है. यह मौलिक भी है. और कविता को जनकल्याण से युक्त कर उसे बहुत बड़ा दायित्व सौंपा गया है.
__________

             


विजेंद्र  की कुछ कविताएँ





    अपने चित्र 
      (महान डच  चित्रकार वॉनगॉग की  याद  में)                       


चाहता हूँ
खाना खाते समय भी
उलट-पलट कर अपने चित्र देखूँ
हर चित्र अपूर्ण लगता है
पहले का पूरक-अपूरक
किसी कौने में अकेले बैठ कर
स्केन करने से पहलें भी
मैं उन्हें उलटता-पलटता हूँ
किस कोण से उनमें मेरा चित्त
प्रतबिम्बित हुआ है
आदमी की पीड़ाओं के उफान
रंगों  में भू दृश्य बन जाते हैं
उड़ान भरते हंस शिकारी से भयभीत
बार बार अपूर्णता की ओर ही
निगाह जाती है
यह भी एक तैयारी है
कवि कर्म और चित्रकला के लिए

जो कवितायें और चित्र
मुझे अच्छे नहीं लगते
उन्हें डस्टबिन के हवाले करता हूँ
यह बेरहमी मुझे सोचने को
चिनगारियाँ देती है
जैसे अग्निकणों को फिर से
बीनना होगा
किसी से बात करने की
इच्छा नहीं होती इनके बारे में
सच को बचाए रखने के लिये
पवित्रता जरूरी है आत्मा की
क्या कोई चीज़ पूर्णतः
पवित्र होती भी है
जिसे देखा नहीं
उसके बारे में कहना क्या उचित है
जो मोह-माया से घिरी है वह
निरपेक्ष कैसे
पवित्रता एक भ्रम तो नहीं
किसी उच्चतम गुणात्मकता को
सिर्फ एक नाम खोज लिया है
हमें सन्तोष मिलता है
हम गहराइयों में जा रहे हैं
यहाँ ऐसा कोई नहीं
जे घटिया या श्रेष्ठ लेखक का जिक्र करे
या किसी चित्रकार की
चर्चा हो सके
वॉनगॉग ने जब अपना एक कान
काट कर अपनी प्रेमिका को दिया होगा
तो उसे कितने
भयानक स्वप्न दिखाई दिये होंगे
कविता में कम से कम
बोलने का अभ्यास कर रहा हूँ.       


(वॉनगॉग.  महान  डच  चित्रकार.वह जीवन भर प्रेम के लिये भटकता रहा. पर किसी का सच्चा प्यार  न  पा  सका. वह अन्त में सनकी और अर्ध- विक्षिप्त हो गया था. उसकी एक प्रेमिका ने  जब उससे कुछ माँगा तो उसके पास देने को कुछ  था ही नही. प्रेमिका ने मज़ाक में उससे  उस का एक कान देने को कह दिया. वॅनगाग ने सचमुच  अपना एक कान  काटकर  उसे दे दिया.)






 कहने को शेष         
  
समेटता हूँ जितना अपने आपको
उतना ही गहन होता है रिक्त
चित्त की हिलती  हैं जड़ें
मुरझाने लगते हैं फूल
पतझर का अब
कोई अन्त नहीं रहा
न कोई ओर-छोर
अपने उलझे धागे
समेटने में लगा हूँ
सूर्यास्त की लालिमा शेष है
जिस वसन्त को मैंने
धरती के कणों से बीना था
वह अब कभी नहीं लौटेगा
कितना विस्तृत विराट है
खुला सामने
फिर भी दिखता नहीं क्षितिज
बहुत से पक्षियों को ऊँची उड़ान के लिये
डैने खोलते देखता.

          




मत हो उदास                           

ओ  मेरी  कविताओ
मत हो  उदास
तुम्हें समाज में कोई सम्मान नहीं मिला
मैं ही दोषी हूँ
बहुत ही दुर्बल और भीरु
गाँव का गँवार
आज तक गढ़लीकों की धूल से
अपने को मुक्त नहीं कर पाया
मत हो उदास
सम्भ्रान्त तुम्हें पिछड़ा समझ
नफरत करते हैं
वे तुम में चमत्कारी चुटकले
खोजते हैं
तुम्हारा बदन खुरदरा है
झाड़-झंखड़ों से छिदा-कटा
मैं समय से बहुत पीछे हूँ
हाशिए पर है मेरा नाम
तुम साहस करो
मैं ही हूँ दोषी
जो तुम्हें लकड़हारों
किसानों, मजदूरों की संगत में
घसीटता रहा
सफेदपोश सम्भ्रान्त तुम मे
अपना साफ- सुथरा
पौलिश से चमकता चेहरा नहीं देख पाते
तुम्हें दूर से ही दुत्कारते हैं
तुम मत हो उदास
दोषी मैं ही हूँ
साहस करो
अच्छे भविष्य की उम्मीद
तुम्हें श्रोतो नहीं मिले
न पाठक
मैं ही हूँ  रिक्त मन
गँवार और उजड्ड
तुम ने समझा है मेरा मन
तुम सम्भ्रान्तों के छद्म को
करती रही बेनकाब
किसानों, श्रमिकों और लकड़हारों में
जाती रही बे-खौफ
इस पूरी त्रासदी का खलनायक
मुझे ही मानों
लेकिन तुम मुझे छोड़कर
मत जाओ
मैं ने तुम्हें अपने चित्त के
अतल में सँजोया है
जैसे मेरे अमूर्त चित्रों में रंग संयोजन
एक को दूसरे से अलग करना
मृत्यु है
तुम कितनी सरल हो
हरेक पर करती हो भरोसा
तुम्हारी  आँखों की पवित्रता
खुला निरभ्र आकाश
कैसे हो पायेगा मेरा चित्त ऐसा
तुमने देकर नयी आकृतियाँ
विगत को शब्दें में
कहने दिया है
तुम नग्न हो
शीत में ठिठुरती
तीखे ताप में तपती
तिरछी तेज़ बौछारों में भीगती
जाओ, जाओ वहाँ
जहाँ किसान अन्न की आस में
खेतों को कठिनाई से
सींचता है , जाओ.





हूँ

आकाशोन्मुख होना मेरा लक्ष्य नहीं
पृथ्वी का ठोसपन मुझे लुभाता है
ओह ! कितनी यादें झाँकती है
जाले लगे झरोखों से
ताज का स्थापत्य नहीं
क्षणों में प्रवाहित रक्त का
चाहिये मूर्तिशिल्प
हर क्षण
जो वातास छूकर तुम्हें मेरे पास आता है
उसे जगह देता हूँ
चित्त के पवित्र भवन में
क्या हैं हम दोनों
सितार पर कसे ढीले तार
अब झाला देने से
भंग स्वर निकलते हैं
अँधेरे में खोई चीज़ें
ओह! उनकी छायायें भी नहीं दिखती
आती है कुदाल की आवज़
जब लाल पत्थर की
गढ़ी सिल्ली उपट आती है
लकड़हारों के कुल्हाड़े
जब पड़ते हैं वृक्षों के तनों पर
पूरा  वन काँपता है
भूख नहीं सुनती
वृक्षों का रुदन
नहीं देख पाती
टहनियों के आँसू
जो पचाते हैं भूख  की  लपटें
वे  रहते  हैं  जीवित
उनकी  राख  देखने  को
फूलों का सहसा कुम्हलना
ओह! मीठे गीत
बहुत पीछे छूट गये वसन्त के साथ
त्रासद वेदना का ध्रुपद
बजता है दिन-रात
कहने को अभी शेष है  समर
अनकही बात






दुनिया बहुत बड़ी है

मैं तुम्हें
एक बार में नहीं देख सकता
दुनिया बहुत बड़ी है
एक बार में सिर्फ उजली नाभि दिखती है
पाँचों उंगलियाँ एक बार में उसे नहीं छूतीं
काली चट्टानों की खिरी कोरों पर
जमी कत्थी काई
सूर्य के लगातार प्रहार से
उनका जिस्म खुरदरा हुआ है
किसान धरती कमा रहे हैं
अपने पसीने से उगाते है अन्न
मैं उसे अन्नमय गंध से पहचानता हूँ

वसंत ऋतु ने पहली बार तुम्हारे मस्तक को छुआ है
मैं तुम्हें चाहकर भी एक बार में नहीं देख सकता
एक बार में दिखती है
नीम की महकती मंजरियाँ शांत
मेरे पूर्वजों के चेहरों पर छाया कुहासा
हाथों पर उभरी सिलबटोदार झुर्रियाँ
दुनिया बहुत बड़ी है
जाने कितने रंग हैं इसके
जो चित्रों से नहीं बताये जा सकते
एकबार में पके सेब का
लाल हिस्सा देख सकता हूँ
या घोड़े की टाप से खुंदा
लालोंहां अंकुर धरती को फोड़ के निकला है

मैं तुम्हें एक बार में नहीं देख सकता
हम यहाँ से मुड़ते हैं
तुम मेरे साथ हो
मुझे भरोसा है
यह रास्ता हम दोनों को सरल नहीं है
यहाँ से चट्टानें शुरू होती हैं
नए ढलान उभरते हैं
जीवन उतना सीधा -सपाट नहीं है
जैसा हमने वसंत आगमन पर समझा था
यहाँ से आगे तुम मेरे साथ हो
कुछ डरी , सहमी और अंदर से विचलित
घबराओ मत काल ऐसे ही हमारी
अग्नि-परीक्षा लेता रहा है
तुम चुप क्यों हो
पर आँखें कहती हैं
यह तुम्हारा साथ बहुत सारे वृक्षों के तनों से
अधिक पुख्ता है
वनों से अधिक सघन
ओह ! तुम्हारा यह साथ सदेह
आत्मा के स्थापत्य से ही रचा है एकाकार
यह साथ .... वैसा ही सुर्ख है
जैसे झुरमुटों में दीखता बाल-रवि
यह साथ दीप्त रहेगा अंत तक
यह रहेगा पूरा भरोसा है
हमने सहे हैं विष-बुझे दंश एक साथ
आगे ये ढलान और कठिन होंगे
काल हमारे प्यार की हर क्षण परीक्षा लेगा
हम एक बार इस बीहड़ से निकल कर
दोआबा के विस्तृत मैदान में उगेंगे
जहाँ मैंने देखे है बौराते आम दूर-दूर तक
यही है मेरे दोआबी इलाके का गौरव
इसे छोड़ बबूलों में चलना पड़ रहा है
तुम्हारे साथ-साथ
हम यहाँ से आगे जाने को
सजग होकर मुड़ते है
एक-साथ
ओह ! यह दुनिया तुम से बहुत बड़ी है.








तुम्हें कल की चिंता है

कल बादल होंगे यह पूर्वा कह रही है
कल श्रमिक के घर खाली कनस्तर बजेगा
ओह ! कवि ... निरी खूबसूरत चीजों से
जीवन नहीं चलता
भूख सिर्फ अन्न से मिटती है
जिसे मेरे देश का हलधर उगा के देता है
और प्यास पानी से
लाखों को रोटी नसीब नहीं है
जल का कोई रंग नहीं होता
न कोई घर
मैं फिर भी उसे पहचानने को
मरुथल में भटका हूँ
भरतपुर पक्षी -विहार अभय-आरण्य की झीलों को
बहुत करीब से देखा है थिर-अथिर
लहरों का रंग जामुनी था
तरंग-मालायें जैसे पक्षिओं का कंठा-भरण
श्रमशील हाथ सौन्दर्य रचते हैं
पाँव का असर धरती पहचानती है
सूर्य प्रभा में पत्तियां उल्लसित लगती हैं
उनकी नसों में रसायन पक रहा है
उसे छंद में बांधना कठिन है
मैं प्रार्थना न भी करूं
तो भी धरती को फोड़ अंकुरण होगा
बालियाँ अन्न से भरेंगी
खरपत को तुम्हारे आशीर्वचन की चिंता नहीं
ग्राम कन्यायें बथुआ खोंट रही हैं
उनकी एकाग्र उँगलियों में सधी हुई लय है अनूठी

हर साल किसान खरपत को निरता है
हर साल वह उग आती है
मैं ईश्वर को न भी मानूं
तो भी धमन-भट्टियो में इस्पात पकेगा
वे सुबह से अपने हाथों को साधे
आँच झेलते हैं
अपने पाँवों को साधे खड़े रहते हैं
ये वह प्रार्थना है
जिस से दुनिया की आकृति बदलती है
और नया सौन्दर्य रचा जाता है.








जीवन में इंद्र-घनु खिलते हैं

वे हाथ फूल के सहायक बन जाते हैं
फूल अपने रंगों को और चटक और खुश -दिल बनाते हैं
कभी खिलते हैं
फिर धरती पर गिर जाते हैं
ऐसा ही तो जीवन है
जड़ें जल की तरफ
मुँह किये पौंडती रहती हैं
पुष्प-दल बनता है
पराग-कण मुखर होते हैं सूर्य के प्रकाश में
पत्तियाँ रस -सिक्त
धूप-छाँव मैं ऋतुओं के खुले डैने
वर्षा और शीत में
ये पंखडियाँ
अपने जननांगों की रक्षा करती हैं विष-कीटों से
नर-मादा मिलते हैं
अंडाशय की अदृश्य कोठरियो में
गोल-गोल उजास का जिस्म
बंधा रहता है हवा के बारीक रेशों से
रँगे तंतुओं से ही

जीवन के इंद्र-धनुष खिलते हैं
______________________________________
kritioar@gmail.com


करघे से बुनी औरत : शिव किशोर तिवारी

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कविताएँ हमेशा की तरह खूब लिखी जा रही हैं, तमाम माध्यमों से उनके प्रकाशन की बहुलता २१ वीं सदी की विशेषता है. कविताओं को जितना ‘देखा’ और ‘पसंद’ किया जा रहा है क्या उन्हें उतना ही पढ़ा भी जा रहा है ? अगर वे पसंद की जा रही हैं तो उनमें ऐसा ‘अद्भुत’ और ‘अद्वितीय’ क्या है ?

उच्चतर कलाकृति में विमोहित करने के जो गुण होते हैं, उनकी अंतिम व्याख्या संभव नहीं है. पर यह जो वश में कर लेता है वह क्या है ? इसे समझने की कोशिशें होती रही हैं. उनमें अंतर्निहित विचार की विवेचना भी की जाती है. काव्य सौन्दर्य और विचार-तत्व को उद्घाटित करने का यह जो उपक्रम है उसका भी अपना महत्व है.  

आज पढ़ते हैं अनुराधा सिंह की कविताओं पर शिव किशोर तिवारी को.




करघे से बुनी औरत                                        
(अनुराधा सिंह के संग्रह ‘ईश्वर नहीं नींद चाहिए’ को पढ़ते हुए)

शिव किशोर तिवारी 





ह पुस्तक-समीक्षा नहीं है, न आलोचना. कुछ नया और पुरअसर दिखा तो उसे बांटना चाहता हूँ. इसे एक पाठक की मनबढ़ई समझिये. दो कविताओं से आरंभ करता हूँ. दोनों का मूड अलग-अलग है, पर दोनों एक-सी मारक हैं. पहली कविता –


अबकी मुझे चादर बनाना
---------------
मां ढक देती है देह
जेठ की तपती रात भी
‘लड़कियों को ओढ़कर सोना चाहिए’
सेहरा बांधे पतली मूंछवाला मर्द
मुड़कर आंख तरेरता
राहें धुंधला जातीं पचिया चादर के नीचे
नहीं दिखते गड्ढे पीहर से ससुराल की राह में
नहीं दिखते तलवों में टीसते कींकर
अनचीन्हे चेहरेवाली औरत खींच देतीं
बनारसी चादर पेट तक
‘बहुएं दबी ढकी ही नीकी’
चादर डाल देता देवर उजड़ी मांग पर
और वह उसकी औरत हो जाती

मां, इस बार मुझे देह से नहीं
खड्डी से बुनना
ताने बाने में
नींद का ताबीज बांध देना
चैन का मरहम लेप देना
मौज का मंतर फूंक देना
बुनते समय
रंग-बिरंगे कसीदे करना
ऐसे मीठे प्रेम गीत गाना
जिसमें खुले बालों वाली नखरैल लड़कियां
पानी में खेलती हों
धूप में चमकती हों गिलट की पायलें.

मां, अबकी मुझे देह नहीं चादर बनाना
जिसकी कम से कम एक ओर
आसमान की तरफ उघड़ी हो
हवा की तरफ
नदी की तरफ
जंगल की तरफ
सांस लेती हो                                 
सिंकती हो मद्धम-मद्धम
धूप और वक्त की आंच पर.

गांव की लड़की, बचपन से कदम-कदम पर नसीहतें पाई हुई कि लड़कियों को कैसा होना चाहिए और क्या करना चाहिए. उसका कोई व्यक्तित्व नहीं. वह बस लड़की है. एक दिन लोग उसे बहू बना देते हैं. इस भूमिका-परिवर्तन में भी उसकी सम्मति अनावश्यक है. इस भूमिका की प्रकृति भी अपरिचित लोग निर्धारित करते हैं, जैसे, “बहुएं दबी-ढकी ही नीकी.” विवाह की दो बातें ही लड़की के चित्त को स्पर्श करती हैं – पतली मूछों वाला, आंख तरेरता दूल्हा और उसकी ओढ़नी खींचती अपरिचत औरतें. दूल्हे के प्रति लड़की के मन में भय और आशंका है. अपरिचित औरतों का उसके ऊपर इतना अधिकार होना उसे डराता है.परंतु “सेहरा बांधे पतली मूछों वाला मर्द/मुड़कर आंख तरेरता” यह चित्र कुछ हास्यास्पद भी है. लड़की को शायद भय के साथ थोड़ी हंसी भी आती है. इसी तरह अपरिचित हाथों द्वारा छुआ जाना जिस तरह लड़की को विचलित करता है उसमें प्रतिरोध की गंध है. चित्र अब जटिल दिखने लगता है.

बिना किसी भूमिका के अचानक ये पंक्तियाँ प्रकट होती हैं –“चादर डाल देता देवर उजड़ी मांग पर/‍और वह उसकी औरत हो जाती”. उत्तर भारत के अनेक भागों में चादर डालने का रिवाज़ था. यहां भी स्त्री के ऊपर पति ही नहीं पति के परिवार का भी स्वामित्व संस्कृति का अंग है. स्त्री की इच्छा-अनिच्छा महत्त्वपूर्ण नहीं है. “उसकी औरत हो गई” में स्वामित्व बदलने की ध्वनि है.

इसके बाद का पूरा हिस्सा इस स्त्री का “इंटर्नल मोनोलॉग” है. साधारणतः इसे फ़ैंटेसी समझा जा सकता है. चादर का उसके जीवन पर इतना प्रभाव रहा है कि वह सोचती है कि चादर होना लड़की होने से अधिक काम्य है. परंतु हमें कल्पना करनी होगी कि स्त्री अपना मानसिक संतुलन खो चुकी है. मेरे विचार से इस प्रसंग को लोकगीत की तकनीक से अधिक स्वाभाविक ढंग से समझा जा सकता है. लोकगीतों में इस तरह की असंभव जल्पनाएं मन की व्यथा व्यक्त करने का सामान्य माध्यम हैं.

अंतिम नौ पंक्तियों में कुछ अतिविस्तार लग सकता है पर लोकगीत की तकनीक के हिसाब से अस्वाभाविक नहीं है.

दूसरी कविता जो मैं साझा करना चाहता हूँ उसका मूड गुस्सैल और आक्रामक है, पहली कविता से बिलकुल अलग –


सद्दाम हुसैन हमारी आखिरी उम्मीद था

लिखित लिख रहे थे
प्रयोग बनते जा रहे थे
अंकों और श्रेणियों में ढल रहे थे
रोजगार बस मिलने ही वाले थे
कि हम प्रेम हार गये
अब सद्दाम हुसैन हमारी आखिरी उम्मीद था

पिताओं की मूछें नुकीली
पितामहों की ड्योढ़ियाँ ऊँची
हम कांटेदार बाड़ों में बंद हिरनियाँ
कंठ से आर पार बाण निकालने
की जुगत नहीं जानती थीं
बस चाहती थीं कि वह आदमी
इस दुनिया को बारूद का गोला बना दे
हम युद्ध में राहत तलाशतीं
अपनी नाकामी को
तुम्हारी तबाही में तब्दील होते देखना चाहती थीं
हाथों में नियुक्ति पत्र लिए
कृत्रिम उन्माद से चीखतीं
घुसती थीं पिताओं के कमरे में
उसी दुनिया को लड्डू बांटे जा रहे थे
जिसने बामन बनिया ठाकुर बताकर
हमसे प्रेमी छीन लिये थे
सपनों में भी मर्यादानत ग्रीवाओं में चमकता
मल्टीनेशनल कंपनी का बिल्ला नहीं
बस एक हाथ से छूटता दूसरा हाथ था
ये विभाग स्केल ग्रेड क्लास
तुम्हारे लिए अहम बातें होंगी
हमने तो सरकारी नौकरी का झुनझुना बजाकर
दिल के टूटने का शोर दबाया था

हम सी कायर किशोरियों के लिए
जातिविहीन वर्गविहीन जनविहीन दुनिया
प्रेम के बच रहने की इकलौती संभावना थी
क्षमा कीजिए, पर मई 1992 में सद्दाम हुसैन हमारी आखिरी उम्मीद था.


इस कविता की वाचक एक निश्चित समय की घटनाओं का ज़िक्र कर रही है- मई 1992, अत:  यह विचार आना स्वाभाविक है कि यह आत्मकथात्मक हो सकती है. लेकिन “कांटेदार बाड़े में बंद हिरनियाँ” लिखकर और इसके बाद कई बार बहुवचन का प्रयोग करके कवि ने इस संभावना के विषय में एक द्विविधा उत्पन्न कर दी है. इससे कविता में जो ‘ऐम्बिगुइटी’ पैदा हुई वह भी उसका आकर्षण बन गई है. अर्थात् आप इसे कम से कम दो तरीक़े से व्याख्यायित कर सकते हैं.

रोष और विद्रोह की शब्दावली के पीछे जाकर ज़रा देर से समझ में आता है कि यह कविता प्रेम के बारे में है. बल्कि प्रेम की असफलता के बारे में है. किसी उच्च वर्ण के सम्पन्न कदाचित् ग्रामीण परिवेश में वाचक को किसी अन्य वर्ण के युवक से प्रेम हो जाता है. सामाजिक कारणों से यह प्रेम असफल हो जाता है. वाचक तब संभवत: किशोरी थी, अनेक बंधनों में बँधी – बाड़े में क़ैद हिरनी. जिस वाण से उसका कंठ विद्ध था उसे निकालकर मुखर होने की संभावना भी उसके लिए अज्ञात थी. विद्रोह भीतर घुटकर रह गया. बाद में सरकारी नौकरी या करियर को प्रेम में असफलता की भरपाई की तरह प्रस्तुत किया गया. किन्हीं अन्य लड़कियों को मल्टी नेशनल कंपनियों की मोटी तनख़्वाह वाली नौकरियां क्षतिपूर्ति की तरह मिलीं. पर यह क्षतिपूर्ति निरर्थक थी. अपनी मर्ज़ी से प्रेम और विवाह करने का अधिकार कविता के अंत में भी सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है. और मई 1992 में तो किशोरियों के लिए प्रेम जीवन से अधिक मूल्यवान थ. वस्तुत: यह कविता किशोर प्रेम की स्वतंत्रता की मांग है. तब की प्रतिक्रिया याद आती है – अच्छा हो कि सद्दाम हुसैन ऐसा सर्वनाशी युद्ध छेड़ दे जिसमें दुनिया ही नष्ट हो जाय.

भारतीय परिवेश में स्थित किशोर प्रेम की यह कविता इतनी देसी और सच्ची है कि इसका कोई सानी याद नहीं आता. ‘कंट्रोल्ड एक्प्लोज़न’ जैसी भाषा में लिखी हुई कविता में प्रेम की राह में बिछी बारूदी सुरंगों के विरुद्ध वाचक माँगती है जातिविहीन, वर्गविहीन, जनहीन दुनिया. प्रेम के लिए जातिविहीन और वर्गविहीन न हो सके तो दुनिया जनविहीन हो जाय !


अनुराधा सिंह के इस पहले संग्रह की ज्यादातर कविताएँ स्त्री होने के बारे में हैं. परंतु स्त्री एक निर्विशेष (undifferentiated)समूह नहीं है. स्त्रियों में भी वर्ग हैं – शहर की स्त्री और गांव की, सुरक्षा खोजती स्त्री और स्वतंत्र पहचान खोजती स्त्री, ग़रीब स्त्री और अमीर या मध्यवित्त स्त्री, शिक्षित स्त्री और अशिक्षित स्त्री, बड़ी जाति की स्त्री और छोटी जाति की – अनेक विशेषक हैं. अत: कवि के सामने दो चुनौतियाँ होती हैं – एक, कुछ सार्वभौम अनुभवों की खोज जो स्त्री होने की समरूपता दर्शाती हैं और दूसरी, विशिष्ट स्त्री-समुदाय की उन स्थितियों को रेखांकित करना जो संदर्भ बदलकर अनेक स्त्री- समुदायों पर तत्त्वत: लागू है. अनुराधा सिंह की कविताओं में स्थितियों और अनुभवों की विविधता कथ्य में एकरसता नहीं आने देती. ये अनुभव और स्थितियां कहीं वस्तु के रूप में आती हैं, कहीं उपलक्षण बनकर.
प्रेम और मातृत्व स्त्री होने के सार्वभौम अनुभव हैं. प्रेम के विषय में इस संग्रह में सबसे अधिक कविताएं हैं. ये प्रेम की कोमल कविताएँ नहीं हैं, अधिकतर मोहभंग की कविताएं हैं. मानव सभ्यता के आदि से प्रेम स्त्री के लिए घाटे का सौदा रहा है – ‘अनईक्वल एक्सचेंज’जिसमें शोषण का तत्त्व अपरिहार्य रूप से अंतर्निहित है. संग्रह की पहली कविता ही इस unequal exchangeपर तीखी टिप्पणी करती है –

“धरती से सब छीनकर मैंने तुम्हें दे दिया
कबूतर के वात्सल्य से अधिक दुलराया
बाघ के अस्तित्व से अधिक संरक्षित किया
प्रेम के इस बेतरतीब जंगल को सींचने के लिए
चुराई हुई नदी बांध रखी अपनी आंखों में
फिर भी नहीं बचा पाई कुछ कभी हमारे बीच
क्या सोचती होगी पृथ्वी
औरत के व्यर्थ गए अपराधों के बारे में.“
(‘क्या सोचती होगी धरती’)

मातृत्व के विषय में एक प्रभावोत्पादक कविता है ‘बची थीं इसलिए’. इसे ‘न दैन्यं...नामक कविता के साथ पढ़ें तो कवि की किंचित् ‘डार्क’ दुनिया को समझने में मदद मिलेगी. दूसरी कविता से एक उद्धरण –
“एक घर था जिसमें दुनिया के सारे डर मौजूद थे
फिर भी नहीं भागी मैं वहां से कभी
यह अविकारी दैन्य था
निर्विकल्प पलायन
न दैन्यं न पलायनम् कहने की
सुविधा नहीं दी परमात्मा ने मुझे.”

विराम देने के पहले स्वीकार करता हूँ कि इस टिप्पणी में संग्रह के साथ पूरा न्याय नहीं हो सका. जैसा निवेदन कर चुका हूँ, मैं समीक्षक नहीं बल्कि एक मनबढ़ू पाठक हूँ.
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शिव किशोर तिवारी

सबद भेद : सेवासदन : हुस्न का बाज़ार या सेवा का सदन : गरिमा श्रीवास्तव

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१०० वर्ष पूर्व प्रकाशित सेवासदनको कथाकार प्रेमचंद का पहला मुख्य उपन्यासमाना जाता है, इस शताब्दी वर्ष में इसका गंभीर विवेचन-विश्लेषण होना चाहिए.

Illegitimacy of Nationalism: Rabindranath Tagore and the Politics of Self में  जिस तरह से आशिस नंदी (Ashis nandi) ने रवीन्द्रनाथ ठाकुर के लेखन को केंद्र में रखकर औपनिवेशक भारत में अस्मिताओं के टकराहट को विश्लेषित किया है उस तरह का कार्य अभी प्रेमचंद को लेकर आना शेष है.

सेवासदनमें नृत्यांगनाओं और गायिकाओं की सामजिक उपस्थिति को गुलाम भारत में विक्टोरियन नैतिकता से संचालित राष्ट्रवाद समस्या मानते हुए सुधार की दृष्टि से देखता है.

प्रो. गरिमा श्रीवास्तव साहित्य और स्त्री-लेखन की गंभीर अध्येता हैं. उनकी आलोचना अनुसंधान की श्रमसाध्य प्रक्रियाओं से होकर आकार लेती है. यह आलेख औपनिवेशिक भारत में ब्रिटिश राज द्वारा तवायफों आदि की घनघोर प्रताड़ना को सामने लाते हुए. रुसवा के प्रसिद्ध उपन्यास ‘उमराव जान अदा’ के समक्ष सेवासदन को रखते हुए, अपना पक्ष रखता है.
   





सेवासदन                             
हुस्न का बाज़ार या सेवा का सदन

गरिमा श्रीवास्तव


हिंदी में सेवासदनऔर उर्दू के  उपन्यास उमराव जान अदाके प्रकाशन में लगभग बीस वर्ष का अन्तराल है.उमराव जान अदाका प्रकाशन 1899 में हुआ और बाज़ारेहुस्नलगभग 1916-17 में लिखा गया,जिसका हिंदी संस्करण सेवासदनशीर्षक से आया. 24 फरवरी 1917 को प्रेमचंद ने मुंशी दयानारायण निगम को बाज़ार-ए- हुस्न के बारे में लिखा था,

“मैं आजकल किस्सा लिखते-लिखते नाविल लिख चला. कोई सौ सफ़े तक पहुँच चुका है. इसी वजह से छोटा किस्सा न लिख सका. अब इस नाविल में ऐसा जी लग गया है कि दूसरा काम करने को जी ही नहीं चाहता.किस्सा दिलचस्प है और मुझे ऐसा ख्याल होता है कि अबकी बार नाविल -नवीसी में भी कामयाब हो सकूँगा”[1]

सेवासदन अपने मूल रूप में  उर्दू में तैयार था, जिसके बारे में अमृत राय ने लिखा कि “बाजारे हुस्न में मुंशीजी को अपनी ज़मीन मिल गयी है. समाज में जितनी बेईमानी है, ढोंग ढकोसला है, उनपर चोट करने वाले किस्से लिखना ही उनकी अपनी बात होगी.” प्रेमचंद ‘नॉविल-निगार’ के तौर पर सेवासदन से प्रतिष्ठित हुए, और रुसवा के साथ भी यही हुआ. दोनों रचनाएँ  बहुध्वन्यात्मक हैं और इन दोनों उपन्यासों में बतौर नायिका ऐसी स्त्री का चित्रण किया गया जो किन्हीं कारणों से पतिताकी श्रेणी में आती हैं. ये दोनों उपन्यास अपने -अपने ढंग से अपने समय- समाज की कथा कहने के साथ स्त्री की वकालत- स्वतंत्र अभिकर्ता के रूप में और  यौनिकता के प्रति सजग स्वतंत्र  मनुष्य  के नज़रिए से करते हैं.

सेवासदनके प्रकाशन को सौ वर्ष बीत चुके हैं और इन सौ वर्षों में इस उपन्यास की पड़ताल विभिन्न दृष्टिकोण से की जा चुकी है. यह विश्व् के विभिन्न विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम का अनिवार्य हिस्सा है और सभी प्रमुख देशी -विदेशी भाषाओँ में अनूदित है. यह आलेख 19 वीं शती के उत्तरार्ध और बीसवीं शती के पूर्वार्द्ध में स्त्री यौनिकता के प्रश्न पर भारतीय लेखकों के रवैये की पड़ताल करने के प्रयास के साथ ही उर्दू और बांग्ला में प्रेमचंद के समकालीन रचनाकारों के स्त्री सम्बन्धी रुझान का विश्लेषण भी इसमें अंतर्गुम्फित है. इसमें सेवासदन के उर्दू और हिंदी संस्करणों की तुलना का भी प्रयास किया गया है.

यह तय है कि स्त्री की चेतना का निर्माण न केवल  जैविकता और दैनंदिन जीवन की स्थितियां करती हैं, बल्कि उसकी चेतना के निर्माण में सामुदायिकताकी भूमिका प्रमुख होती है. अपने समुदाय में उनके कुछ आदर्श होते हैं. ऐसे तमाम संरचनात्मक अवसर, जो स्त्री को स्त्री होने के कारण मिलते हैं -वे परिवार, समाज और समुदाय के अंतर्गत ही उन्हें उपलब्ध होते हैं. इन्हीं से स्त्रियों की अन्तश्चेतना का निर्माण होता है, जिनके आधार पर वे अपनी जटिल पहचान को स्थापित करती हैं और किसी आदर्श या कर्तव्य के निर्वहण के लिए तत्पर होती हैं. लेकिन यह चेतना भी उनमें तभी आती है जब उन्हें एक वर्ग विशेष, समुदाय अथवा राष्ट्र के सदस्य के नाते एक वृहत्तर संस्कृति का अंग होने का अहसास हो. 19 वीं सदी के उत्तरार्ध और 20 वीं सदी के पूर्वार्द्ध का साहित्य देखें तो हमें पता चलता है  कि संस्कृति के सांस्थानीकरण की प्रवृत्ति समाज-सुधार की  अनिवार्य चिंता  बन कर आई, जिसमें  बाज़ार में स्त्री की कौन -सी छवि बिकनी  है यह तय था. इसमे संस्कृति भी पण्य थी और स्त्री भी. आश्चर्य नहीं कि 1899 के दौर में उमराव जान अदाजितनी लोकप्रिय हुई वह हिंदी उपन्यासकारों के लिए चुनौती थी, क्योंकि छपते ही उसके दसियों संस्करण निकल गए. प्रेमचंद ने बाजारे -हुस्नलिखकर पाठकीय रूचि को समाज -सुधार की तरफ मोड़ना चाहा, पर उर्दू में उन्हें प्रकाशक नहीं मिला और इसका हिंदी तर्जुमा सेवासदनके नाम से आया जो बतौर लेखक प्रेमचंद की आशंकाओं को धता बताते हुए आज की भाषा में कहें तो बेस्ट सेलरसाबित हुआ. ‘सेवासदनकी सफलता से प्रेमचंद कितने उत्साहित थे इसका पता दयानारायण निगम को 25 अक्टूबर 1919 को लिखे उनके पत्र से चलता है :

“..किस्से शायद मैं लिखूं या न लिखूं, आजकल बाज़ारे-हुस्न की सफाई और नए नाविल की  तसनीफ़ में बेहद मसरूफ़ हूँ. बाज़ारे-हुस्न का गुजराती तर्जुमा शाया हो रहा है ...हिंदी में लोग इसे बेहतरीन नाविल ख़याल करते हैं.”[2]

मिर्ज़ा हादी रुसवा और प्रेमचंद दोनों ने तवायफ़ बन गयी स्त्रियों का चित्रण किया. मिर्ज़ा साहेब ग़दर के बाद 1858 के लखनऊ की पैदाइश थे और प्रेमचंद 1880 के बनारस के पास के गाँव लमही की. मिर्ज़ा हादी रुसवा को शहराती स्वभाव विरासत में मिला था. इसके बरअक्स प्रेमचंद को ग्राम्यता मिली थी. अपने जीवन का बड़ा हिस्सा शहर में बिताने के बावजूद प्रेमचंद शहर के मनमाफिक मिजाज़ में ढल नहीं सके थे. दोनों रचनाकार फारसी और उर्दू में निष्णात थे और आजीविका के तौर पर दोनों ने लेखन को ही अपनाया, प्रेमचंद का अपना छापाखाना था वहीँ मिर्ज़ा साहेब रासायनिक और खगोलीय प्रयोगों के साथ अपराध-कथा और जासूसी उपन्यास लिखने और पढ़ने का शौक रखते थे. प्रेमचंद,लेखन को सामाजिक सरोकार और राष्ट्रीय उत्तरदायित्व से जोड़कर देखते थे. इन दोनों लेखकों को अपने पहले उपन्यास ने ही सफलता के शिखर पर पहुंचा दिया. हालाँकि हादी ने उमराव जान अदासे पहले अफशां-ऐ-राज़शीर्षक उपन्यास लिखा  पर वह अपूर्ण था और प्रेमचंद तो बाज़ारे हुस्न  को एक कहानी मानकर ही लिख रहे थे, जिसकी चर्चा उन्होंने जनवरी 1917 में  मुंशी दयानारायण निगम को लिखे पत्र में की थी  – “मैंने इसे कहानी के रूप में लिखना शुरू किया था,पर अब उसे उपन्यास के रूप में लिख रहा हूँ.”

सेवासदनका मुख्य कथानक है स्त्रीत्व के आदर्श से सुमन का पतन और उसके पुनः उत्थान का प्रयास, उधर उमरावजान अदाका कथानक तवायफों के जीवन के अंदरूनी कार्यव्यापार, बाज़ार में बैठी स्त्री की तहज़ीब,रचनात्मक रुझानों और  लोकप्रियता के व्याज से अपने समय -समाज से निर्मित हुआ है.  सेवासदनमें प्रेमचंद सुमन से सुमनबाई बन जाने  वाली स्त्री के पतन की कहानी सुनाते हैं और उमराव जान अदामें हादी रुसवा अमीरन से उमराव बनी रेख्ती कहने वाली तवायफ की कहानी सुनाते (इसकी जगह सुनते होगा )हैं. सेवासदनके छपते -छपते मिर्ज़ा हादी के उपन्यास को बीस वर्ष बीत चुके थे और इन बीस वर्षों का अंतराल उत्तर भारत में आ रहे बहुत से सांस्कृतिक -सामाजिक बदलावों और आहटों का अन्तराल है. इसलिए सेवासदनपर बात करने के लिए उमराव जान अदासे होकर गुज़रना ज़रूरी है. मिर्ज़ा हादी रुसवा उमराव जान अदाको आपबीती या आत्मकथा या जीवनी कहने के पक्ष में हैं और भूमिका में लिखते हैं -
“अपनी आपबीती, वह जिस कदर कहती जाती थीं, मैं उनसे छुपा के लिखता जाता था. पूरी होने के बाद मैंने मसीदा लिखाया. इस पर उमराव जान बहुत बिगड़ीं. आखिर खुद पढ़ा और जा-बजा जो कुछ रह गया था, उसे दुरुस्त कर दिया. मैं उमराव जान को उस जमाने से जानता हूं, जब उनकी नवाब साहब से मुलाकात थी. उन्हीं दिनों मेरा उठना-बैठना भी, अक्सर उनके यहां रहता था. बरसों बाद फिर एक बार उमराव जान की मुलाकात नवाब साहब से उनके मकान पर हुई, जब वह उनकी बेगम साहिबा की मेहमान थीं. इस मुलाकात का जिक्र आगे है. इसके कुछ अर्से बाद उमराव जान हज करने चली गईं.
उस वक्त तक की उनकी जिंदगी की तमाम घटनाओं को मैं निजी तौर से जानता था. इसलिए मैंने यह किस्सा वहीं तक लिखा, जहां तक मैं अपनी जानकारी से उनके बयान के एक एक लफ्ज को सही समझता था. हज वापसी के बाद उमराव जान खामोशी की जिंदगी बसर करने लगीं. जो कुछ पास जमा था उसी पर गुजर औकात थी.  वैसे उनको किसी चीज की कमी नहीं थी.  मकान, नौकर चाकर, आराम का सामान, खाना पहनना, जो कुछ पास जमा था, उससे अच्छी तरह चलता रहा. वह मुशायरों में जाती थीं, मुहर्रम की मजलिसों में सोज पढ़ती थीं और कभी कभी वैसे भी गाने बजाने के जलसों में शरीक होती थीं.
इस आप बीती में जो कुछ बयान हुआ है, मुझे उसके सही होने में कोई भी शक नहीं है. मगर यह मेरी जाती राय है. नाजरीन को अख्तियार है, जो चाहें समझें.”[3]

इसके बाद पाठक बच्ची अमीरन के उमराव जान अदा में तब्दील होने और यश के शिखर पर पहुँचने के बाद स्वयं को पतित श्रेणी की स्त्री के रूप में पह्चानने और फिर बदले ज़माने में अपने अकेलेपन को अपना कर हज पर जाने और इस शेर के साथ उपन्यास के अंत तक की यात्रा करता है –
मरने के दिन करीब हैं,ख्शायद कि ऐ हयात
तुझ से तबीयत अपनी बहुत सेर हो गयी” [4]


उमराव की जीवन-यात्रा फूलों भरी पगडण्डी नहीं है. बचपन में अपहरण का शिकार हो वह खानम के कोठे पर आ बिकी. मौलवी साहेब से पढ़ाई -लिखाई सीखी, कोठे और बाज़ार के माहौल ने चौदह साल की उम्र में देह की भाषा सिखा दी, तवायफ़ बनने की पूरी प्रक्रिया उसने तफ़सील से बयान की है. कैसे एक  साधारण  सांवले रंग की किशोरी  कोठे की तहजीब का  अंग बन जाती है, पर आत्मसम्मान से समझौता नहीं करती. कोठों पर आने वाले ग्राहक, सामंती समाज के अवशेषों के रूप में घिसी शेरवानी पहनने वाले खाली और भरी जेबों वाले नवाब जादे, नौजवान बिलकिस जैसी तवायफ़ों की चालाकियां, हँसी-मजाक, मान-अपमान, नाच-गान, शेरो -सुखन पढ़ती -गुनती, मुजरों में जाती, अपने फन के बल अपर बाज़ार भाव से वाकिफ होते ही  धीरे -धीरे वह खानम के नियंत्रण से बाहर निकल गयी, कई बार छली गयी, कई दोस्त बने, पर कहीं सच्चा प्रेम न मिला कई मुजरे किये पर कोई शरीकेहयात न मिली  अपने मन की आवाज़ सुनी तो धोखे खाए.

बचपन में बिछुड़े परिवार ने तवायफ़ जानकर उसे ठुकरा दिया. घर-गृहस्थी करने की इच्छाएं रही भी हों तो उन्हें पूरा करना संभव नहीं हो पाया, क्योंकि बाज़ारू औरतों को घर में जगह देना तो किसी सभ्य पुरुष  के लिए संभव नहीं था. इसलिए हमपेशा स्त्रियों को वह नसीहत करती है –

“ऐ बेवकूफ़ रंडी ! कभी इस भुलावे में न आना कि कोई तुझको सच्चे दिल से चाहेगा. तेरा आशना जो तुझ पर जान देता है चार दिन के बाद चलता-फिरता नज़र आयेगा. वह तुझसे हरगिज़ निबाह नहीं कर सकता और न तू इस लायक है. सच्ची चाहत का मज़ा उसी नेकबख्त का हक़ है, जो एक मुंह देखके दूसरे का मुंह कभी नहीं देखती.तुझ जैसी बाजारी शफतल की यह नेमत खुदा नहीं दे सकता”[5].
यह नेमत है- किसी का शरीकेहयात बनने की. नेमत जो गृहिणी को मिलती है, तवायफ़ को नहीं.तवायफ़ तो बाजारू ही रहेगी. इस सत्य को जानने के बावजूद उमराव का सपना है एक अदद सच्चा प्रेमी पा लेना. नहीं मिलना था नहीं मिला, हाँ इतना ज़रूर पता चल गया कि चाहे वह कितना ही सुरीला मर्सिया गाये, कितने अच्छे शेर कहे घर की चाहरदीवारी के भीतर उसकी कोई जगह नहीं, उसे तो प्रेमियों की संतानों  के जनमवार पर दुआएं गानी हैं, मजलिसों की रौनकें बढ़ानी हैं, बिना ज़ाहिर किये कि मजलिस का मज़ा ले रहे, सुगन्धित हुक्का पीते आशिकों के वायदों में वो भी कभी थी, उसे तो  बख्शीश के चंद सिक्के लेकर अपने कोठे पर लौट आना है. यह अकेली तवायफ़ की कथा नहीं बल्कि  गृहिणी बनाम तवायफ़ के मुद्दे को  उन दिनों बहुत से रचनाकारों ने उठाया, क्योंकि मिर्ज़ा हादी रुसवा जिस उमराव की आपबीती लिख रहे थे वह ग़दर के बाद के लखनऊ की तवायफ है, जिसे कलावंत नहीं बल्कि  पतित स्त्री का दर्ज़ा दिया गया वो  ब्रिटिश राज के कानूनों की बदौलत है.

इस प्रसंग में उत्तर भारत की कोठा या तवायफ़ संस्कृति पर एक नज़र डाल लेना ज़रूरी है, क्योंकि सन 1858 से 1877 के म्युनिसिपल रिकार्ड रूम के खातों में अधिकतम कर देनेवालों में वे स्त्रियाँ हैं जिन्हें रिकार्ड्स में नाचने और गाने का व्यवसाय करने वाली लड़कियां’ कहा गया. नागरिक कर- खातों में संयुक्त प्रांत की इन तवायफों के संपत्ति-स्रोतों में बगीचे, घर, खेत, दुकानों की पूरी सूची हमें मिलती है जिनकी गिनती ब्रिटिश राज के खिलाफ विद्रोहियों का साथ देने वाले नागरिकों में की गयी. ग़दर के बाद इन तवायफों को सत्ता के खिलाफ षड्यंत्र रचने, विद्रोहियों को आश्रय देने और नवाब वाजिद अली शाह के पक्षधरों के रूप में चिन्हित किया गया. तवायफों को ब्रिटिश सरकार द्वारा निरंतर मेमोरेंडम दिए जाते थे,लखनऊ और अन्य सैनिक छावनियों के लिए इन्हें खतरा माना जाता था, क्योंकि जितने ब्रिटिश सैनिक ग़दर में नहीं मरे उनसे तीन गुना ज्यादा यौन -रोगों से मरे. यह अनुभव किया गया कि स्वस्थ छावनियों में ही सैनिक रोगमुक्त रह सकते हैं. इसलिए ‘संक्रामक रोग अधिनियम 1864’ पारित कर वेश्याओं की चिकित्सा जांच तथा उनका पंजीकरण अनिवार्य कर दिया. अख़बारों में ख़बरें प्रकाशित हुईं कि अनेक वेश्याओं ने पुलिस उत्पीड़न से तंग आकर आत्महत्या कर ली.”[6]

इस अधिनियम के आने के पहले ही, यानि 1856 में, अवध में तवायफ़ों को मिलने वाली पेंशन दी गयी थी.1857 में तो वे संदेह के घेरे में आ गयी थीं, लेकिन 1864 से तो वे अति साधारण देह -श्रमिकों में तब्दील हो गयीं. वे स्त्रियाँ जो साहित्य-संस्कृति, कला की वाहिकाएं बनकर पुराने समय से ही  शासन, सत्ता और संस्कृति में सम्मानित हुआ करती थीं, बदले समय में अपनी कलाओं के साथ भरण -पोषण के लिए बाजारों में बैठने लगीं. ब्रिटिश कानूनों ने उन्हें बेहद दीनावस्था में पहुंचा दिया अब वे सिंगिंग एंड डांसिंग गर्ल्सबनकर सिविक टैक्स खातों में कर अदाकर्ता थीं. ये बदले समय की नई तरह की चुनौतियाँ थीं, जहाँ एक तरफ सभ्य नागरिक समाज था जो इन तवायफों पर टैक्स लगा रहा था साथ ही उनके साथ अपने संपर्कों को अवैध समझता था और कानूनी प्रावधानों के तहत इनकी मेडिकल जांच करवाता था. शरीर के निरीक्षण-परीक्षण से बचने के लिए ये अक्सर नर्सों, दाईयों और पुलिस को उत्कोच देती थीं. अपने अस्तित्व को बचाने के लिए उनकी ये रणनीतियां थीं.



झूला किन डारो रे अमराइयाँ :स्त्रीत्व का उत्सव
इस पेशे के पारंपरिक स्वरुप को संदेहास्पद बना दिए जाने के बावजूद पुरुषों की दुनिया में ये औरतें एक विशिष्ट सत्ता और पहचान के साथ उपस्थित रहीं. जिस बृहत्तर समाज का वे अंश हैं-उसने दिन के उजाले में उनसे गुरेज़ किया और रात की रोशनी में संग-कामना की. इन तवायफों के जीवन में पुरुष-सत्ता  परंपरागत अर्थों में न थी, न है.  अपने दायरे में गाने-बजाने वाली स्त्रियाँ अपनी यौनिकता के साथ हमेशा उत्सवित रहीं,और यदि फ़्रायडीयन सिद्धांत को मानें  तो यौनिकता एक नैसर्गिक कामप्रवृत्ति है  सामाजिक नीति-नियमों से विद्रोह करती है, अपनी स्वच्छंद परवाज़ के लिए, जो पंख पा जाये तो आत्मा को मुक्त कर डालती है, जंजीरों में जकड़ दी जाए तो दमित कुंठा बनने में वक्त जाया नहीं करती. वही यौनिकता संस्कृति का सहारा लेकर  कभी इन स्त्रियों को सम्मानित तो कहीं अपमानित करती रही. लेकिन अपने समूह, अपने कोठों के दायरे में ये यौनिकता का न सिर्फ उत्सव मनाती रहीं बल्कि सैकड़ों -हजारों लोगों  जिनमें पुरुष, बच्चे, ख्वाज़ासरा, हाशिये पर धकेल दिए गए बुज़ुर्ग, दिवालिये हो चुके ग्राहक,विभिन्न प्रकार के छोटे -मोटे काम करने वाले -मसलन ,कहार,धोबी, फूल बेचने वाले, पनवाड़ी, मद्य विक्रेता इत्यादि को रोज़गार मुहैय्या करवाती रहीं.

जहाँ-जहाँ ये गयीं वहां दर्जी, हज्जाम, रंगरेज़, हलवाई, किराने, सर्राफे की दुकानें खुलती गयीं. या यूँ कहें कि इन स्त्रियों से बाज़ार बसते गए और कोठों के भीतर अपनी अलग अस्मिता का उत्सव ये मनाती दीखीं  जो  भीतर  ही भीतर जीवन- राग की तरह बजता रहा. उन्होंने अपने निजी मंतव्यों, परिभाषाओं, विवरणों के साथ जीना सीखा. औपनिवेशिक भारत द्वारा प्रदत्त  अपमानों ने उन्हें और चतुर और व्यावहारिक बनाया और वे अपने स्त्रीत्व के साथ एक दूसरी दुनिया रचने में कामयाब रहीं. इनमें से कुछ या बहुत की अभिलाषा गृहस्थिन बनने की भी रहा करती. एक लम्बे समय तक बहुविवाह या रखैल की हैसियत से  एकनिष्ठ प्रेम में भी मुब्तिला रहा करतीं और इसके ढेरों प्रमाण भी मिलते हैं. दूसरी तरह  बड़े-सेठों, रसूखदार लोगों से संपर्क के कारण वे सत्ता को भी प्रभावित किया करतीं, वे अपने संपर्कों से कई ज़रूरतमंदों का भला किया करतीं. इसके प्रमाण भी मिलते हैं कि संपन्न तवायफें,बुज़ुर्ग हो चुके तबलचियों, सारंगियों, संगतकारों, मौलवियों, चौकीदारों को पेंशन दिया करतीं थीं, और वयस प्राप्त, रोगी बुज़ुर्ग तवायफ़ों की देखभाल और इंतजाम करने की मानवीय संस्कृति का पोषण भी कई कोठों में किया जाता था.

अवध के नवाब वाज़िद अलीशाह के निष्कासन के बाद उनकी पनाह में रहने वाली तवायफ़ों ने दरबारी संस्कृति के सलीके और तहजीब को संभाले रखा. आज भी उनकी वंशज लखनऊ में हैं जो  गर्व के साथ अपनी पूर्वजाओं का ज़िक्र करती हैं, जिनके कोठों पर  कन्याजन्म पर उत्सव मनाया जाता है और पुत्र जन्म पर मनहूसियत छा जाती है.अपने समय में ये तवायफें काफ़ी रुतबेदार थीं. 18 वीं शताब्दी में उन्होंने स्वयं को  अवध के दरबार में स्थापित कर लिया था.अब्दुल हलीम शररलिखते हैं कि –“लखनऊ की वेश्याएं आमतौर पर तीन जातियों की थीं :एक तो कंचनिया जो असली रंडियां थीं और उनका पेशा आम तौर पर सतीत्व बेचना था ..दूसरी चूनेवालियाँ थीं जिनका असली पेशा चूना बेचना था मगर बाद में बाज़ारी औरतों के गिरोह में शामिल हो गयीं और अंत में जाकर उन्हें बड़ी ख्याति मिली .चूने वाली हैदर जिसका गला मशहूर था और समझा जाता था कि उसका -सा गला किसी ने पाया ही नहीं ,इसी जाति की थी और अपनी बिरादरी की रंडियों का बड़ा गिरोह रखती थी .तीसरी नागरानियाँ थीं .तीनों वे बाज़ारी स्त्रियाँ जिन्होंने अपने गिरोह कायम कर लिए हैं और बिरादरी रखती हैं वरना बहुत सी और कौमों की औरतें भी आवारगी में पड़ने के बाद इसी गिरोह में शामिल हो जाती हैं...ज़ोहरा और मुश्तरी कवयित्रियाँ और गायिकाएं ही नहीं उच्च कोटि की नर्तकियां भी थीं.[7]उधर अवध के वज़ीर रहे हकीम मेहंदी ने अपनी सफलता के पीछे प्यारी नामक तवायफ़ की भूमिका का ज़िक्र किया है. अवध की तहजीब और गायन-नृत्य कलाओं को बचाए रखने का काम इन तवायफों ने किया, हिन्दुस्तानी संगीत और कत्थक जैसी नृत्य शैली इन्हीं के संरक्षण में पुष्पित -पल्लवित हुई. अब्दुल हलीम  शररने रेख्ती(उर्दू का एक काव्यांग) में रचना करने वाली बहुत- सी तवायफों का ज़िक्र गुज़िश्ता लखनऊमें किया है. लखनऊ की तवायफें लम्बे समय तक वहां की जटिल सोपानिक समाज-व्यवस्था का अंग बनी रहीं. चौधराइन के नेतृत्व  में कोठा चलता था,जो अब भी नई उम्र की लड़कियों को तवायफ़ बनने के कायदे सिखाती हैं. संपन्न और आभिजात्य वर्ग के लोग इनके सरपरस्त बनते थे, जो नई बनी तवायफों को धन देकर खरीद लेते थे, जिसमें से चौधराइन को एक तिहाई हिस्सा बतौर कमीशन मिला करता था. इन तवायफों के अलावा अपहृत या खोयी हुई लड़कियां भी, जिन्हें रंडी कहा जाता था और जो कोठे में रहती थीं और तवायफों की अपेक्षा कम इज्ज़त पाती थीं. इनके अलावा पर्देदार विवाहिताएं जिन्हें खानगी कहा जाता था -वे भी आर्थिक कारणों से  कोठों से जुड़ी रहती थीं. बदले में वे अपनी आय का एक हिस्सा चौधराइन को देती थीं. चौधराइन कोठे पर पहरेदार, चौकीदार, दरजी, कहार की तनख्वाहें देती थीं, कोठों के निचले हिस्से संगतकारों, नौकरों से आबाद रहते थे वे अक्सर उनके लिए खुफियागिरी कर पुलिस से बचाते थे.
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दश्ते जनूं की सैर में बहला हुआ था दिल
जिंदा में लाये फिर मुझे अहबाब घेर के.

मिर्ज़ा हादी रुसवा उर्दू के वे पहले साहित्यकार हैं जिन्होंने कोठों और तवायफों की ज़िन्दगी का अत्यंत प्रामाणिक वर्णन किया है. शारिब रुदौलवी का कहना है कि ‘उमराव जान’ में 19वीं सदी का लखनऊ पूरी तरह से उजागर हुआ है और यही इस नॉवेल की खूबी है. हालांकि बतौर लेखक रुसवा की गहरी दिलचस्पी अपराध कथाओं में थी. उन्होंने खूनी श्रृंखला में कई उपन्यास लिखे थे. उनकी पैनी नज़र ने लखनऊ की तवायफों के जीवन को देखने में मदद की होगी, इसलिए वे संक्रमणकालीन अवध प्रान्त की सामाजिक -राजनैतिक स्थितियों को उमराव जान अदामें उकेर सके. तवायफें जो अवध की संस्कृति का अविभाज्य अंग थीं, रुसवा के देखते न देखते उन्हें जबरन देश भर में फैली 110 ब्रिटिश सैन्य छावनियों में भेजा जाने लगा. इससे न सिर्फ इस पेशे का अमानवीकरण हुआ बल्कि तवायफों को गर्हित दृष्टि से देखा जाने लगा. माना जाने लगा कि कोठों पर अपहृत, घर्षित, बलात्कृत स्त्रियाँ ही जाती हैं. ब्रिटिश राज ने इनके सांस्कृतिक अवदान को सिरे से नकार दिया. जबकि सच्चाई यह थी कि इनमे अपहृत लड़कियों का प्रतिशत बहुत कम होता था, बाल-विधवाएं, घर से सताई, उत्पीड़ित, भूखी, धनहीन, अशिक्षित, आश्रयहीन, महामारियों में परिवार को खो देने वाली और कुछ नाच -गान में गहरी रूचि रखने वाली स्त्रियाँ होती थीं. कुछ ऐसी स्त्रियों ने भी कोठों की राह पकड़ी जो परिवार और पितृसत्ता की अधीनता से तंग आ चुकी थीं. स्त्रियों में अशिक्षा,रोज़गार के अवसरों का  अभाव और पितृसत्तात्मक मूल्यों की दबंगई के कारण कइयों  को तवायफ़ का पेशा अपनाना पड़ा और कालांतर में वे मात्र देह श्रमिकों में अवमूल्यित या रिड्यूस हो गयीं. उधर पश्चिम में भी उन्नीसवीं सदी के अंग्रेजी उपन्यासों में  इन्हें अमर्यादित जीवन जीने वाली स्त्रियाँ कहा गया और उनके भीतर चलने वाले पाप-पुण्य के द्वंद्व को जगह दी गयी. इस दौर के उपन्यासों में मर्यादित बनाम पतित स्त्री का द्वित्व विलोम रचा गया, जिसे पाठकों में लोकप्रियता हासिल हुई. विक्टोरियन शुद्धतावादी मूल्यों की प्रतिस्थापना में इस तरह के कथानकों ने ध्यान आकर्षित किया. औपनिवेशिक भारत में, विशेषकर बंगाल और आगे चलकर उत्तर प्रदेश में भी, समाज में स्त्री -पुरुषों की अनियंत्रित यौनिकता की आलोचना की गयी. स्त्री की आकांक्षा और यौनिकता अब विशेष संदेह और नियंत्रण के घेरे में थी.

समाज सुधारकों को यह समझ में ही नहीं आया कि ये स्त्रियाँ जैसी भी ,जिस रूप में हैं उसके पीछे संस्कृति की बहुत बड़ी भूमिका को देख जाना ज़रूरी है .सामंती समाज के खोखले  मूल्य ,पितृसत्ताक व्यवस्था और लैंगिक एवं जातीय विभेद ,दहेज़ ,अनमेल विवाह ,बाल -विवाह और सबसे बढ़कर स्त्री -देह को  पण्य समझने की संस्कृति ने इन्हें कोठों की और धकेला, और यह भी कि अपहरण, यौन हिंसा, अविवाहित मातृत्व की पीड़ा, निर्धनता, परिवार द्वारा इनका परित्याग,सामाजिक एवं घरेलू हिंसा ने कितनी स्त्रियों को देह व्यापार की और मुखातिब कर दिया, जहाँ से वापस लौटने के रास्ते बंद थे.
चाहता हूँ कि उसे पूजना छोडूँ लेकिन
कुफ्र जो ख़ूँ में है दीं पर नहीं आने देता

आदर्श स्त्री की जो  अवधारणा प्रेमचंद को अपने समाज से मिली थी, वह त्यागमयी, एकनिष्ठ,पतिप्राणा  की थी. उसे  समग्रता में विश्लेषित करने पर  कई बिंदु आपस में गुंथे दिखाई देते हैं जिनकी अर्थच्छटाओं को समझने के लिए औपन्यासिक परिदृश्य को समग्रता में देखे जाने की ज़रूरत है. हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के गद्य में साहित्य-रूपों और कथ्य की भिन्नता के बावजूद एक ही जैसे कथानक का दोहराव यह बताता है कि राष्ट्रीय चेतना के निर्माण में सांस्कृतिक मूल्यों और राजनीतिक उद्देश्य की भूमिका प्रमुख थी. प्रेमचंद के समूचे कथा साहित्य में एक खास किस्म की अन्तःसूत्रता है. स्त्री सम्बन्धी मुद्दों पर वे न तो संकीर्ण हैं न प्रतिगामी. ऐतिहासिक सन्दर्भ में प्रेमचंद के स्त्री पात्र परंपरागत स्त्री की भूमिका से कहीं आगे नेतृत्वकारी भूमिका की  आहट देते हैं. उदाहरण के लिए आने वाले दिनों में स्त्री चेतना के विभिन्न पड़ावों का पता ‘सेवासदन’ की सुमन से लेकर ‘गोदान’ की मालती जैसी  पात्र देती हैं. यहाँ सवाल यह है कि स्त्री सम्बन्धी नैतिकता की अवधारणा वे कहाँ से ग्रहण करते हैं. साथ ही क्या वे अपने समय के एकमात्र ऐसे रचनाकार थे जो स्त्री की नैतिकता को समाज -सुधार से जोड़कर देखते थे. प्रेमचंद का स्त्री सम्बन्धी नज़रिया  और उनके द्वारा प्रस्तुत की गयीं जेंडर की छवियाँ समाज में स्त्रियों की स्टीरियोटाइप  छवियों से कैसे प्रभावित हैं. साथ ही स्त्री यौनिकता के मुद्दे पर उनका ट्रीटमेंट क्या है यह देखने की बात है. प्रेमचंद का समय बौद्धिक संक्रमण से प्रभावित है जिसमें औपनिवेशिक समाज बनाम परंपरागत भारतीय समाज,परंपरा बनाम आधुनिकता की टकराहटें और अंतर्विरोध सामने आ रहे थे जो वस्तुतः ऐतिहासिक प्रक्रिया का ही हिस्सा है. इधर भारतीय राजनीतिक परिदृश्य पर गांधी आ और छा चुके हैं. भारतीय राजनैतिक परिदृश्य पर गाँधी के आने के साथ ही स्त्री सम्बन्धी उनके विचारों को सांस्कृतिक उत्थान से जोड़ा जाना स्वाभाविक ही था,जिसकी साहित्यिक अभिव्यक्ति प्रेमचंद में दिखाई देती है. सेवासदन में विट्ठलदास गांधी के यौनिकता सम्बन्धी विचारों का वाहक बनकर आता है – महत्तर आध्यात्मिक उन्नति के लिए दुनियावी खासकर यौन् सुख की इच्छा पर विजय पाना ज़रूरी हैमहात्मा गाँधी भी मगनलाल गांधी को लिखे एक पत्र में अपनी यौनेच्छाओं पर नियंत्रण की बात करते हैं.[8]

भारतीय आदर्श स्त्री की छवि मातृत्व से संपृक्त है .इस मातृत्व को ‘धरती माँ’ से जोड़कर देखा जा रहा है,स्त्री का एक अमर्यादित आचरण इस आदर्श छवि को ध्वस्त कर दे सकता है. प्रेमचंद का कहना है – “स्त्री में  स्त्रीत्व ही नहीं, बल्कि मातृत्व भी होना चाहिए. जब तक वह भाव न हो, तब तक किसी से प्यार, पालन कुछ भी संभव नहीं” [9]यह छवि भारतीय जन की अपनी है -नितांत निजी - ब्रिटिश प्रभुओं का कोई दखल नहीं,जिसे बाहरी आक्रमणकारियों,हमलों से बचाना है. इसलिए प्रेमचंद स्त्री में उन गुणों की स्थापना और कल्पना करते हैं जिसे  शिक्षा द्वारा नयी स्त्री-छवि का आदर्श वहन करना था.[10]

इसके अलावा प्रेमचंद को विरासत में या तो तिलिस्मी ,ऐय्यारी,जासूसी उपन्यास मिले थे या देवरानी -जेठानी की कहानी,वामा -शिक्षक जैसी पुस्तकें ,जिन्हें  ‘कंडक्ट बुक्स” या आचरण -पुस्तक कहा गया है.[11]

इधर गांधी ने निजी और आश्रम जीवन में स्त्री सम्बन्धी प्रयोग किये. उनका मानना था कि स्त्रियों में सहनशीलता पुरुषों की अपेक्षा ज्यादा होती है. गाँधी जी का कहना  था कि
भारत से केवल अंग्रेजों को और उनके राज्‍य को हटाने से भारत को अपनी सच्‍ची सभ्‍यता का स्वराज नहीं मिलेगा. हम अंग्रेजों को हटा दें और उन्‍हीं की सभ्‍यता और उन्‍हीं के आदर्श को स्‍वीकार करें तो हमारा उद्धार नहीं होगा. हमें अपनी आत्‍मा को बचाना चाहिए. भारत के लिखे-पढ़े लोग पश्चिम के मोह में फँस गए हैं. जो लोग पश्चिम के असर तले नहीं आए हैं, वे भारत की धर्म-परायण नैतिक सभ्‍यता को मानते हैं. उनको अगर आत्मशक्ति का उपयोग करने का तरीका सिखाया जाए, सत्याग्रह का रास्‍ता बताया जाए, तो वे पश्चिमी राज्‍य-पद्धति का और उससे होने वाले अन्‍याय का मुकाबला कर सकेंगे तथा शस्‍त्रबल के बिना भारत को स्‍वतंत्र करके दुनिया को भी बचा सकेंगे. आगे वे यूरोप की सभ्यता और वहाँ की संसद को ‘वेश्या’ कहते हैं” ..जैसे बुरे हाल बेसवा के होते हैं, वैसे ही सदा पार्लियामेंट के होते हैं.”.. यह सभ्‍यता तो अधर्म है और यह यूरोप में इतने दरजे तक फैल गई है कि वहाँ के लोग आधे पागल जैसे देखने में आते हैं. उनमें सच्‍ची कु़बत नहीं है; वे नशा करके अपनी ताकत कायम रखते हैं. एकांत में वे बैठ ही नहीं सकते. जो स्‍त्रियाँ घर की रानी होनी चाहिए, उन्हें गलियों में भटकना पड़ता है, या कोई मजदूरी करनी पड़ती है. इंग्‍लैंड में ही चालीस लाख गरीब औरतों का पेट के लिए सख्‍त मजदूरी करनी पड़ती है, और आजकल इसके कारण 'सफ्रेजेट'का आंदोलन चल रहा  है.”[12]

स्पष्ट है कि गांधी जी के लिए देह-श्रमिक स्त्रियाँ बहुत सम्मान की पात्र नहीं हैं,यानि यौनिकता की बात तो दूर वे स्त्रियों के स्वावलंबन की भी आलोचना यूरोपीय सन्दर्भों में करते दीखते हैं. भारतीय राजनैतिक परिदृश्य पर गाँधी के आने के साथ ही स्त्री सम्बन्धी उनके विचारों को सांस्कृतिक उत्थान से जोड़ा जाना स्वाभाविक ही था,जिसकी साहित्यिक अभिव्यक्ति प्रेमचंद के यहाँ दिखाई देती है. इसी कारण से ममता,त्याग,समर्पण,सहनशीलता को विशिष्ट गुण माना गया और जिसके कारण स्त्रियों को पुरुषों से श्रेष्ठ  माना गया और प्रेमचंद ने इन गुणों को वहन करने वाले पुरुष को देवताकी उपाधि दे डाली. गांधीजी की तरह प्रेमचंद भी पश्चिमी तर्ज़ पर मध्यवर्ग या शहरी बुर्जुआ की ओर नहीं देखते बल्कि हाशिये पर पड़े किसान,मज़दूर और औरतों पर अपना ध्यान केन्द्रित करते हैं. वे गांधी से एक कदम आगे जाकर क्रांतिकारी भूमिका निभाते दीखते हैं -जिसे विशिष्ट काल -खंड और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में ही  समझा जा सकता है. यहीं पर उनका लिखा हुआ  साहित्य प्रचलित मानसिकता के अंतर्विरोधों को व्यक्त करता दीखता है.

यद्यपि प्रेमचंद अपने निबंधों और कहानियों में स्त्री -प्रश्नों पर उपन्यासों की अपेक्षाकृत ज्यादा प्रगतिकामी दिखाई देते हैं,लेकिन यथार्थ का दबाव उनपर इतना ज्यादा है कि समाज सुधार के एजेंडे को लेकर चलने के बावजूद क्रांतिकारी किस्म की प्रगतिशीलता को उनके पाठक स्वीकार नहीं कर पाते. संभवतः इसीलिए उनकी वे कहानियां लोकप्रियता अर्जित करने से रह जाती हैं,जो इस पैटर्न पर रची गयी हैं. प्रेमचंद के उपन्यास हमें इस बात का पता देते हैं कि कैसे संस्कृति का सांस्थानिकीकरण किया जाता है और साहित्य भी उसी संस्कृति का हिस्सा है जिसमें बाज़ार में स्त्री की कौन सी छवि बिकनी है -यह तय होता है. यह भी कि संस्कृति भी बाज़ार में बिकने की वस्तु है. प्रेमचंद समाज की गतिविधियों को शब्द और संवाद  ही नहीं देते, बल्कि उसमें दखल भी देते हैं. शांता जो अपनी सगी बहन को अपने घर में सम्मान नहीं दे सकी उसके पतिव्रत के बारे में प्रेमचंद की सुमन सोचती है –
“उसके मन ने कहा जिसे पतिव्रत जैसा साधन मिल गया है ,उसे अब और किसी साधन की क्या आवश्यकता ?इस में सुख -संतोष और शांति सबकुछ है”
इसलिए सदन के गायब हो जाने पर भी शांता अपना पातिव्रत्य नहीं छोड़ती और अंततः उसे इसका पुरस्कार भी मिलता है -एक सुखी परिवार के रूप में. प्रेमचंद सुमन को उसके विलोम में रूप में चित्रित करते हैं, जो चली आती हुई रुढियों से अलग हटकर चलने का प्रयास करती है. वह अपने बल पर जीना चाहती है, पातिव्रत्य की महिमा को समझने का प्रयास नहीं करती, इसलिए मुंह की खाती है. वैसे प्रेमचंद चहारदीवारी के भीतर तो स्त्री स्वावलंबन के पक्षधर हैं लेकिन स्त्री के घर के बाहर नौकरी करने को वे बहुत सम्मान नहीं दे पाते जिसे वे पत्नी शिवरानी देवी के साथ अन्तरंग संवादों में खुलकर अभिव्यक्त करते हैं - शिवरानी देवी लिखती हैं -
“मैं बोली -मैं देखती हूँ कि यहाँ भी काफी स्त्रियाँ नौकरी करने लगी हैं .
आप बोले -नौकरियां करने लगी हैं, मगर वह अच्छा नहीं है, मैं इसको अच्छा नहीं समझता. अब इसका नतीजा क्या हो रहा है ?अब पुरुष और स्त्री दोनों नौकरियाँ करने लगे, तब इसके माने क्या हैं ?रुपये ज्यादा आ जायेंगे. उसी का तो यह फल है कि पुरुषों की बेकारी बढ़ रही है.
मैं बोली -कुछ हो स्त्रियों की कुछ अपनी कमाई तो रहती ही है. आप बोले -यह कमाई का सवाल अभी थोड़े दिनों से उठा है, नहीं तो पहले स्त्रियों की कमाई एक पैसा नहीं होती थी. और स्त्रियाँ काफी दबदबे के साथ घर पर शासन करती थीं”[13]

प्रेमचंद अपने विचारों में सुदृढ़ हैं, वे परम्पराओं की आलोचना तो करते हैं लेकिन सुमन जैसी स्त्री जो परंपरागत खांचे में नहीं आती, उसकी तवालत और मुसीबतों को खूब -बढ़ा चढ़ा कर चित्रित करते हैं, वे मेटा-लिटरेरी फंक्शन के तहत काम करते हैं, समाज सुधारकों का यथार्थ, जीवन की बहुस्तरीयता,स्त्री की बेचैनी, स्वातंत्र्य की पिपासा और अंत में विवश होकर सत्य पथ की ओर लौटा लाना उनके अंतर्द्वंद्व को भी दर्शाता है. इस अंतर्द्वंद्व को बांग्ला उपन्यासों में भी देखा जा सकता है जहाँ इस दौर में  उपन्यासकार  विवाह -संस्था का क्रिटीक पेश कर रहे थे. उदाहरण के तौर पर बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय का कृष्णकान्तार विल(1878) और शरतचंद्र के चरित्रहीन (1913) को देखा जा सकता है.

यह वह दौर था जब ये लेखक समाज सुधार के एजेंडे को लेकर सिर्फ चल ही नहीं रहे थे ,उसका एक क्रिटीक भी रच रहे थे जिसके लिए उपन्यास विधा सबसे उपयुक्त थी. बंगला के उपन्यासों में सतीत्व और पत्नीत्व के महिमामंडन का क्रिटीक रचकर समाज में व्याप्त कुरीतियों को उभारा गया.इसके उदाहरण के तौर पर बंकिमचंद्र, जो पारंपरिक  किस्म के सुधारवादी माने जाते थे,उनकी नायिका बाल -विधवा रोहिणी  के चरित्र को देखा जा सकता है जिसके भीतर विद्रोह की लपट है. कृष्णकांतार विलमें वह कहती है –“मेरी किस गलती की सजा मुझे मिली है कि मैं बाल-विधवा होकर संसार के सभी सुखों से वंचित रहूँ? क्या मैं दूसरों की तुलना में ज्यादा पापी हूँ कि मुझे नियति के नाम पर सभी सुखों से वंचित रहना होगा.अपना समूचा यौवन और सौन्दर्य लिए हुए ,किस दुःख से अपना जीवन लकड़ी के सूखे कुंदे- सा व्यतीत करना होगा”[14]

प्रेमचंद के सेवासदनकी तर्ज़ पर रोहिणी से यह अपेक्षा की जाती है कि स्त्री  अपनी यौनिकता  और भौतिक सुखों के बारे में न सोचे, सोचे तो सिर्फ यही कि  अगले जन्म में पति पाने  के लिए इस जन्म में कष्ट करना ज़रूरी है. और, सुमन जैसी स्त्री को अपने चरित्र में सुधार के लिए विधवाश्रम रहना तजवीज़ किया जाता है. इसके अलावा बांग्ला के उपन्यासों में एक दूसरी प्रवृत्ति भी देखी गयी जो अधिक रेडिकल थी,  जिसमें विधवा पुनर्विवाह की वकालत की गयी ताकि उनकी स्थिति में सुधार हो सके. शरतचंद्र के चरित्रहीनकी नायिका बाल-विधवा है. अपने प्रेमी सतीश से गहरा आतंरिक जुड़ाव होने के बावजूद वह पुनर्विवाह के लिए तैयार नहीं होती. उसे मालूम है कि सभ्य समाज इस सम्बन्ध को स्वीकृति नहीं देगा. वह अपने पक्ष में नहीं खड़ी होती. वह पुरुष के पक्ष में खड़ी होकर आत्मोत्सर्ग से पाठक की अप्रतिम सहानुभूति अर्जित कर लेती है और पाठक भावात्मक रूप से विधवा-पुनर्विवाह के पक्ष मे खड़ा हो जाता है. इस दौर के उपन्यासों में बंगाली विधवा का जीवन विशेष रूप से रेखांकित किया गया कि कैसे पति के मरते ही विधवा स्त्री से यह अपेक्षा की जाती थी कि वह स्वयं को  जीवन की मुख्यधारा, समस्त सुख -आराम से  अलग कर ले और बेहद त्यागमय, पवित्र जीवन व्यतीत करे.

तनिका सरकार ने इन विधवाओं की कठिन जीवन चर्या, इच्छाओं पर आत्मनियंत्रण, व्रत -उपवास, ईश-भजन समन्वित दिनचर्या का विश्लेषण किया है.[15]प्रेमचंद के उपन्यासों और कहानियों में विधवा स्त्रियाँ समस्या के रूप में आती हैं लेकिन उनकी सिर्फ दो रचनाएँ हैं जिनमें विधवा -विवाह का प्रसंग आता है. 17 मई 1932 को प्रेमचंद ने रघुवीर सिंह को पत्र में लिखा:“प्रतिज्ञा और प्रेमा मैंने ही लिखे. मैंने प्रेमा 1905 में लिखा ..जिसमें एक विधवा का पुनर्विवाह है ..उसमें पूर्णा और अमृत  का विवाह हो जाता है ...विधवा के विवाह का चित्रण करके मैंने हिन्दू स्त्री को उसके उच्चादर्श से पतित होते दिखाया .उस समय मैं बिलकुल युवा था सुधार के लिए ईर्ष्यालु किस्म के उत्साह से भरा हुआ था .मैं इस  किताब को उस रूप में देखना नहीं चाहता था .इसलिए मैंने उसमें सुधार किये और दोबारा लिखा.[16]

स्पष्ट है कि प्रेमचंद हिन्दू विधवा को सतीत्व के पथ से च्युत होते नहीं देख सकते थे. प्रेमाश्रम  को दोबारा लिखकर उन्होंने प्रेमा द्वारा विधवा -विवाह का  नकार और आध्यात्मिक पथ  पर उसे अग्रसर  होना दिखाया.उन्होंने स्त्रियों के सुधार की तजवीज़ की, लेकिन उनका रवैया बड़ा कठोर रहा. हिन्दू स्त्री के प्रति उनका दृष्टिकोण गंभीर विवेचन का विषय है, क्योंकि उनके पुरुष पात्र जो पतित हो गए हैं, उन्हें सुधरने के पर्याप्त और आसान अवसर प्रेमचंद मुहैय्या करवाते हैं, जबकि स्त्री पात्रों को सुधरने के अवसर या तो नहीं मिलते और, मिलते भी हैं तो उसके लिए कड़े नियम और कानून हैं. तवायफों के कोठों पर जाने वाला सदन बड़ी आसानी से परिवार जनों की क्षमा का पात्र बनकर शांता के साथ गृहस्थ जीवन जीने लगता है,वहीँ सुमन,जिसका, नैतिक और धार्मिक पतन हो चुका है क्योंकि उसने तवायफ़गिरी की है चाहे कुछ ही दिनों के लिए, उसे समाज-परिवार कोई वापस स्वीकारने को तैयार नहीं. यहाँ तक कि पितृसत्ता से अनुकूलित मष्तिष्क वाली सगी बहन शान्ता भी नहीं. इसी तरह धिक्कारकहानी में (फरवरी 1925) में  विधवा मणि का अंत आत्महत्या में होता है, क्योंकि उसे बचाने वाला इन्द्रनाथ उससे चुपचाप विवाह कर लेता है लेकिन अंततः सामाजिक और पारिवारिक अपमान की जगह वह मृत्यु का वरण करती है. इसी तरह  प्रेमाश्रमकी विधवा गायत्री का अंत तीर्थाटन के पवित्र पहाड़ों में होता है. प्रेमचंद की रचनाएँ तत्कालीन यथार्थ को अभिव्यक्त कर रही हैं ,जिसमें पुरुष सभी अधिकारों से समन्वित है. लेकिन मर्यादा-च्युत और पतित होने पर स्त्री के लिए दोबारा उठकर प्रतिष्ठा पाना असम्भव है.

कर्मभूमिउपन्यास में प्रेमचंद ने पुरुषों के प्रति बहुत उदार दृष्टिकोण व्यक्त किया है.विवाहित अमर सकीना से प्रेम करता है, लेकिन अंततः वह परिवार की व्यवस्था में ही लौट आता है. तत्कालीन समाज व्यवस्था में स्त्री द्वारा पुरुष को गलत ठहराने का कोई अधिकार नहीं है. स्त्री हमेशा पति को उसके किये के लिए माफ़ कर देती है. सन्मार्ग पर लौटने  के सभी रास्ते उसके लिए खुले और स्त्री के लिए बंद हैं.
                     
मैं देखता हूँ जो उनकी तरफ तो हैरत है          
मेरी निगाह का वह इजतराब देखते हैं

यहाँ सवाल यह है कि स्त्री सम्बन्धी नैतिकता की अवधारणा वे कहाँ से ग्रहण करते हैं. साथ ही क्या वे अपने समय के एकमात्र ऐसे रचनाकार थे जो स्त्री की नैतिकता को समाज-सुधार से जोड़कर देखते थे. प्रेमचंद का स्त्री सम्बन्धी नज़रिया और उनके द्वारा प्रस्तुत की गयीं जेंडर की छवियाँ समाज में स्त्रियों की स्टीरियोटाइप  छवियों से कैसे प्रभावित हैं.

प्रेमचंद की तरह मिर्ज़ा हादी रुसवा भी कहते हैं कि जैसा जीवन वे देखते हैं उसे वे उपन्यास में व्यक्त करते हैं, जिससे पाठक को वह जाना-पहचाना  नज़र आता है. ज़ात -ऐ शरीफ़शीर्षक उपन्यास के सन्दर्भ में वे पाठकों से इसरार करते हैं कि इसे अपने समय के इतिहास के रूप में पढ़ा जाना चाहिए. उधर प्रेमचंद  का बल भी,सामाजिक कुरीतियों, गैर बराबरी की प्रवृत्तियों को उभार कर दिखाने पर है.

प्रेमचंद और मिर्ज़ा हादी रुसवा के उपन्यासों में रूप के स्तर पर अंतर है हालाँकि कथ्य में एक सीमा तक समानता है. रुसवा उमराव जान अदामें आत्मकथात्मक रूपबंध को अपनाते हैं, उसमें उमराव की जीवनकथा सिलसिलेवार ढंग से बेहद प्रामाणिक ढंग से कही गयी है. रुसवा उमराव से उसका अतीत पूछते हैं और उमराव उत्तर में अपनी  जीवन-कथा कहती है. प्लाट  कई अध्यायों में बंटा  हुआ है, लेकिन इतिहास की वास्तविक तिथियाँ सिरे से नदारद हैं. मसलन 1857 के ग़दर और सामाजिक उथल-पुथल का थोड़ा हवाला दिया गया है लेकिन ब्योरेवार तिथियों का नितांत अभाव है. घटनाओं के  दोहराव  के कारण अंत तक आते -आते उपन्यास अपनी संरचना में ढीला पड़ जाता है, उसके ढीले -ढाले तंतुओं को बाँधने की ज़रूरत लगती है. अमीना याकिन का कहना है कि –“रुसवा की उमराव का चरित्र जटिल है जिसकी कहानी वह खुद रुसवा को सुनाती है ...रुसवा हमसे चाहते हैं, कि हम उमराव जान की कहानी को आत्मकथ्य के रूप में पढ़ें .ज्यों -ज्यों कथा आगे बढ़ती जाती है वैसे वैसे कहानी की मैंरुसवा की ओर स्थानांतरित हो जाती है. जिसे हम गहन पठन(क्लोज रीडिंग)कहते हैं उसके अनुसार पुरुष के रूप में रुसवा और लेखक के रूप में रुसवा परस्पर अलग -अलग दीख पड़ते हैं.

कथाकार रुसवा और पुरुष रुसवा पूरे उपन्यास में समय-समय पर आवाजाही करते रहते हैं,रुसवा बार-बार उमराव के साथ घटी घटनाओं को पूछते हैं, उमराव बहुत बार अपने बारे में बताती चलती है पर कहीं कहीं ठमक भी जाती है, कहीं कुछ बातें स्पष्ट बताना भी नहीं चाहती, कहीं अपनी यौनिकता को बहुत ही मर्यादित ढंग से काव्यात्मक अभिव्यक्ति भी देती है. यहीं पर यह उपन्यास बहुअर्थछटाएं लिए हुए अपनी जटिल संरचना में पाठक को  अपने साथ लिए चलता है,1857 के आसपास के लखनऊ,कानपुर, फैजाबाद के रास्तों, पगडंडियों, सरायों, रास्ते-घाटों, बाज़ार की रौनकें, चिमगोइयां, नोंक -झोंक, चालबाजियां  और चौक पर -अपहृत अमीरन के तवायफ उमराव बनने की कहानी अपने अंत तक पहुँचती है जहाँ वह शेरो-शायरी लिखती एकाकी लेकिन पर्देदार जिंदगी जीती हुई पाठक के मन पर अमिट छाप छोड़ती है,  दिल में तवायफ़ के लिए एक गहरी अफ्सुर्दगी, उसके इल्म के प्रति गहरे सम्मान के साथ लिपटी चली आती है.

हादी रुसवा कहीं भी तवायफों को समाज से निकाल कर उन्हें हाशिये की अस्मिताएं नहीं बनाते बल्कि यह दिखाते हैं कि शिक्षा, सौन्दर्य और कला समन्वित कलावंत तवायफ़ को सभ्य समाज, उसका अपना परिवार मर्यादा के नाम पर स्वीकार नहीं करता. वह जलसों में गाने, मुज़रा करने के लिए बुलाई जाती है, उसकी कला के कद्रदान भी हैं,संग-साथ, युवा शरीर के लिए इच्छा रखने वाले लोग भी हैं लेकिन विवाह-संस्था में नामित, मान्यता प्राप्त स्त्री के सामने वहकुछ नहीं, विशुद्ध प्रेम, एकनिष्ठता, अर्धांगिनी का गौरव उसका  प्राप्य नहीं.

रुसवा इस स्त्री के लिए बहुत संवेदनशील हैं, लेकिन बतौर लेखक उन्हें उमराव के आत्म का जो मसाला चाहिए उसके लिए वे उसे बेतरह कुरेदते हैं. यहीं पर लेखक रुसवा और पुरुष रुसवा समान भावभूमि पर खड़े दिखाई देते हैं. वे मज़े लेकर कोठों की आतंरिक संरचना, वैभव का वर्णन करते हैं. सिर्फ खुर्शीद के रूप में ऐसी तवायफ़ उन्हें मिलती है जो सच्चे प्रेम की तलाश में हैं, बेहद खूबसूरत लेकिन अपनी स्थिति से असंतुष्ट और इसलिए उदास. वह मेले में गायब हो जाती है और बरसों बाद नवाब की पत्नी के रूप में उमराव से मिलती है. उमराव के साथ ही बिकी बच्ची रामदेई भी बरसों बाद बेगम के रूप में उमराव को पति -बच्चे समेत मिलती है, जिसका कहना है – “खुदा ने सब आरजुएं मेरी पूरी कीं. औलाद की हवस थी, खुदा के सदके से औलाद भी है..जब रामदेई ये बातें कह रही थी उमराव जान को अपनी किस्मत पर अफ़सोस आ रहा था और दिल ही दिल में कहती थी, तकदीर हो तो ऐसी हो. एक मेरी फूटी तकदीर. बिकी भी तो कहाँ !रंडी के घर में.”[17]

इसके बरअक्स सेवासदनको  देखें तो उसकी संरचना बिलकुल नगरीय है. सुमन की कामनाओं का पति से पूरा होना असम्भव है. उसने खाता-पीता बचपन और कैशोर्य देखा है. दरोगा कृष्णचन्द्र की गिरफ़्तारी से पूरे परिवार की आर्थिक संरचना तहस-नहस हो जाती है. सावधानीपूर्वक कम खर्च में जीने का जो उपदेश 1882 में लाला श्रीनिवासदास परीक्षा गुरुमें दे रहे थे उसी तर्ज़ पर सेवासदनमें असावधान जीवन के व्यावहारिक पक्ष का यथार्थ चित्रण है. कृष्णचन्द्र पत्नी की बात नहीं मानते. “गंगाजली चतुर स्त्री थी. उन्हें समझाया करती कि ज़रा हाथ रोककर खर्च करो. जीवन में यदि और कुछ नहीं करना है तो लड़कियों का विवाह तो करना ही पड़ेगा. उस समय किसके सामने हाथ फैलाते फिरोगे...दारोगाजी इन बातों को हँसी में उड़ा देते.”[18]

रिश्वत लेकर दरोगाजी फँस जाते हैं और उधर अनमेल विवाह होता है सुमन का और वो भी गरीब घर में. अब ये हिन्दू गृहिणी की मर्यादा का तकाज़ा है कि वह कम खर्च में बिना प्रश्न किये गृहस्थी चलाये, पर्दे और घूंघट में ढंकी रहे, सभी दुनियावी इच्छाओं को कुचल दे. सुमन ऐसा नहीं कर सकी. उसे भोली बाई के स्वातंत्र्य ने लुभा लिया. सुमन बनारस में रहती है. वही बनारस –“जहाँ बहुत दिनों से तवायफें नागरिक जीवन के केंद्र में रहती चली आती थीं. सभ्य समाज सिर्फ़ आनंद के लिए ही नहीं वरन कला, संगीत नृत्य का लुत्फ़ लेने के साथ-साथ ऐसे आभिजात्य माहौल की खोज में इन तवायफों के पास आता था, जो सौन्दर्यबोधीय दृष्टि से परिष्कृत हो. जो भी तवायफ़ एक बार सौन्दर्य और कला में महारत हासिल कर लेती, उसे हमेशा के लिए सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त हो जाती. बनारस के महाराज और सत्ताधीशों के सामने उसे अपनी कला का प्रदर्शन करने के लिए कहा जाता, साथ ही सभी प्रमुख मंदिरों और पवित्र नदी गंगा की रेत पर होने वाले धार्मिक अनुष्ठानों में आमंत्रित की जाती.”[19]

लेकिन बीसवीं शती के दूसरे दशक तक तवायफों के हालात में महत्वपूर्ण बदलाव आ चुके थे. समाजसुधार के एजेंडे ने राजनीति में खास जगह बना ली थी. समाजसुधार की नई आवाज़ों ने पुरानी काशी के समाज और परम्पराओं को बदल कर रख दिया, विशेषकर तवायफों के सन्दर्भ में. इसका परिणाम यह हुआ कि तवायफों को नए सिरे से अपने लिए संरक्षक और दरबार  ढूँढने पड़े. जबकि निचले दर्जे की देह्श्रमिक सैनिक छावनियों से जुड़ गयीं या शहरी बाज़ारों में ही सैनिकों की यौन-आवश्यकतायें पूरी करने लगीं. उच्चस्तरीय तवायफों ने अपने नए संरक्षकों के रूप में नव्य अभिजात्य और मध्यवर्ग में संभावनाएं तलाशीं. उमराव जैसी तवायफ़ों ने गीत नृत्य में पारंगत होने में वर्षों लगाये थे- “इसी अर्से में मेरी भी तालीम शुरू हो गयी. मेरी तबियत गाने -बजाने के बहुत ही मुनासिब पाई गयी..आवाज़ भी पक्के गाने के लायक थी.सरगम साफ़ होने के बाद उस्ताद ने आस्ताई शुरू करा दी. उस्ताद जी बहुत उसूल से तालीम देते थे. हर एक राग का सुर ब्यौरा जबानी याद करवाया जाता था और वही गले से निकलवाते थे. मजाल न थी कोई सुर कोमल से अति कोमल, शुद्ध से अशुद्ध या तीव्र से तीव्रतर हो जाये ...” [20]  

वहीँ बदले वक्त में लगभग बीस वर्ष के अंतराल से  सेवासदनकी पकी हुई तवायफ़ भोलीबाई सुमन से कहती है –“...यहाँ गाने को कौन पूछता है, ध्रुपद और तिल्लाने की ज़रूरत ही नहीं. बस चलती हुई गजलों की धूम है, दो -चार ठुमरियां और कुछ थियेटर के गाने आ जाएँ और बस फिर तुम्हीं तुम हो. यहाँ तो अच्छी सूरत और मज़ेदार बातें चाहियें, सो खुदा ने यह दोनों ही बातें तुममें कूट -कूट कर भर दी हैं. मैं कसम खाकर कहती हूँ सुमन, तुम एक बार इस लोहे की ज़ंजीर तोड़ दो फिर लोग कैसे दीवानों की तरह दौड़ते हैं “[21]

न पूछो नामाए कमाल की दिलावे जी
तमाम उम्र का किस्सा लिखा हुआ पाया

ये  ज़ंजीर कौन- सी थी जिसे तोड़ने का ज़िक्र भोली बाई कर रही है. इस ज़ंजीर की गिरफ़्त को उसने निजी तौर पर महसूस किया है –ज़िन्दगी जैसी नेमत रो-रोकर दिन काटने के लिए नहीं दी गयी है. जब ज़िन्दगी का कुछ मज़ा ही न मिला तो उससे फायदा ही क्या ? पहले तो मुझे भी डर लगता था कि बड़ी बदनामी मिलेगी, लोग मुझे ज़लील समझेंगे, लेकिन घर से निकलने की देर थी. फिर तो मेरा वह रंग जमा कि अच्छे -अच्छे खुशामदें करने लगे...आज यहाँ कौन रईस, कौन महाजन, कौन मौलवी, कौन पंडित ऐसा है जो मेरे तलुए सहलाने में अपनी इज्ज़त न समझे.” [22]

देखने की बात है कि अनमेल विवाह, दहेज़ प्रथा, शिक्षा की रोज़गार से असंबद्धता, पर्दा जैसे अनेक कारण हैं जो स्त्री की यौनिकता को नियंत्रित करने का प्रयास करते हैं. यही ताकतें स्त्री को मात्र “देहमें  रिड्यूस करती हैं. विवाह का बंधन यदि समानता और पारस्परिक सम्मान पर टिका हो तो आम स्त्री उसमें सुख तलाश लेती है. लेकिन विवाह जब अपमान की जड़ बन जाये, शिक्षा जब साक्षरता से आगे न बढ़ पाए, स्त्री जब स्वयं को दोयम दर्ज़े की वस्तु समझने लगे तब वह देह श्रमकी ओर जाती है, जहाँ उसे झूठा ही सही, सम्मान तो मिलता है. पति के घर से निकलकर आत्मसम्मान की खोज में सुमन वहां पहुँचती है, जहाँ उसके रूप, सौन्दर्य और यौवन की कद्र तो है पर सभ्य कहे जाने वाले समाज में अब उसका चौतरफा अपमान होना तय है. इसलिए वह कोठे पर आनेवालों के साथ गंभीर नहीं, बल्कि खिलंदड़ा व्यवहार करती है. जो लोग उसकी निर्धन अवस्था के कारण दुरदुरा देते थे, वे अब चरण -चापन करते हैं. पद्मसिंह जिन्होंने लोकापवाद के भय से उसे आश्रय नहीं दिया, वे हिन्दू धर्म के रहनुमा हैं. वे ब्राम्हणी को पतन की गर्त में गिरते देख उसके उद्धार के लिए तत्पर हो जाते हैं. इस पूरे दौर में समाजसुधारकों द्वारा तवायफों के कोठों पर जाने को चरित्रहीनता से जोड़ा गया. इस मुद्दे पर हिन्दू और मुसलमान समाजसुधारक एकमत थे. तवायफों को अश्लील माना जाने लगा, स्त्री की पहचान को हिन्दू राष्ट्र और सभ्यता से सम्बद्ध करके देखने का प्रयास हुआ.

चारू गुप्ता का कहना है कि “इस दौर में भाषा के मानकीकरण के साथ -साथ साहित्य में अश्लीलता के लेशमात्र संकेत पर भी हमला बोला गया. ऐसे तत्वों को एक पतनशील और असभ्य संस्कृति की निशानी माना जाने लगा. यौन और शारीरिक आनंद के प्रति भय बढ़ने लगा. उन्हें राष्ट्र की मर्यादा का उल्लंघन माना जाने लगा. एक राष्ट्रवादी हिन्दू पहचान का उभार नैतिकता और प्रतिष्ठा के साझा विचार के साथ गुंथ गया. अतीत की असुविधाजनक परम्पराओं से एक सोची -समझी दूरी रखी जाने लगी और एक एकांगी, उच्च, लिखित, सांस्कृतिक नियमावली स्थापित करने का प्रयास किया जाने लगा...कामुक के स्थान पर सच्चरित्रता की दिशा में हुए इस बदलाव ने लैंगिक छवियों को आमूल रूप से बदल डाला और अधिकांश उच्चसाहित्य में स्त्री की कामुकता, यौनिकता और मौज -मस्ती वाली छवि के स्थान पर एक शास्त्रीय और सौम्य छवि दिखाई देने लगी .साहित्य में नैतिक संहिता की वकालत एक राष्ट्रीय प्रतिमान बन गया.” [23]

लगता है स्त्री की इसी शांत और सौम्य छवि को उभारने के लिए प्रेमचंद ने सुमन का चरित्र गढ़ा. अमृतराय ने विक्टर ह्यूगो केला मिजराबेलका प्रभाव प्रेमचंद पर देखा है[24]जिसमें ज्यां वालाज्याँ की एक बार की हुई चोरी उसे हमेशा के लिए चोर बना देती है और वहाँ का समाज जावेर के रूप में जीवन भर उससे निर्मम प्रतिशोध लेता रहता है. प्रेमचंद की सुमन का उठाया एक अनुचित कदम उसे जीवन भर के लिए दागी बना देता है. वह बदले हुए समय की औपनिवेशिक दृष्टि का वहन करती है जहाँ  औपनिवेशिक दृष्टि से अपने समाज को देखने की चेतना विकसित हो रही थी ,इसलिए  मध्य और उच्चवर्गीय समाज तवायफों को समाज के लिए अनैतिक और उनकी हरकतों को अश्लील मानता था,  जो  समय का तकाज़ा था. ये उमराव जान अदासे बीस वर्ष बाद का समाज था जहाँ हिन्दू और मुस्लिम दोनों के सुधार एजेंडे में “सिंगिंग एंड डांसिंग गर्ल्सका पेशा अनैतिक था जिन्हें बीच बाज़ार में रहने का कोई हक़ नहीं था. अब तवायफ़ों के पास जाने को मुस्लिम शासकों की चरित्रहीनता से भी जोड़कर देखा जाने लगा.

प्रेमचंद इन्हें पूरे समाज के लिए हानिकारक मानते थे. बाज़ारे हुस्नका हिंदी तर्जुमा करते हुए उन्होंने 15वें अध्याय में जो एक अतिरिक्त अंश जोड़ा है, वह कई दृष्टियों से मानीखेज है:
“इसलिए आवश्यक है कि इन विष भरी नागिनों को आबादी से दूर, किसी पृथक स्थान में रक्खा जाय. तब उस निन्द्य स्थान की ओर सैर करने को जाते हुए हमें संकोच होगा. यदि वह आबादी से दूर हो, और वहां घूमने के लिए किसी बहाने की गुंजाइश न हो तो ऐसे बहुत कम बेहया आदमी होंगे जो इस मीनाबाज़ार में क़दम रखने का साहस कर सकें”[25]

देह- श्रमिकों को अब संस्कृति और तहजीब की वाहिकाओं के रूप में नहीं, बल्कि उनको उन पतित स्त्रियों के रूप में देखा जाने लगा, जो युवकों को बहला -फुसला कर उनसे धन ऐंठ लेती हैं और घर टूट जाते हैं. इन तथाकथित पतिताओंके बरअक्स स्त्री के वधू रूप को महिमामंडित किया जाने लगा. यद्यपि 19वीं शती के अंतिम वर्षों में ही विवाह इत्यादि के अवसर पर नाच पार्टी बुलाये जाने को फिजूलखर्ची से जोड़कर देखा गया और बहुत से जातिवादी संगठनों ने नाचने वालियों को बुलाने वालों का बहिष्कार भी किया तथा कई प्रस्ताव भी पास किये, लेकिन अब भी परम्परावादियों और सुधारवादियों में इस मुद्दे पर मतभेद उभर कर सामने आ जाते थे.

सेवासदनमें सदन के पिता मदनसिंह बेटे की बारात में बिना नाच के जाना नहीं चाहते - “..नाच के बिना जनवासा  ही क्या? कम से कम मैंने तो कभी नहीं देखा.. मैं भी इस प्रथा को निन्द्य समझता हूँ. भला किसी तरह लोगों की ऑंखें खुलीं, लेकिन भाई, नक्कू नहीं बनना चाहता. जब सब लोग छोड़ देंगे तो मैं भी छोड़ दूंगा ...मेरे एक ही लड़का है, उसके विवाह में मन के सब हौसले पूरे करना चाहता हूँ. विवाह के बाद मैं भी तुम्हारा मत स्वीकार कर लूँगा. इस समय मुझे अपने पुराने ढंग पर चलने दो ..”

जबकि छोटे भाई पद्मसिंह सुधार के पक्ष में हैं और काफी बहस के बाद वे बड़े भाई को नाच के आयोजन की जगह  कुआं खुदवाने में निवेश करने को राजी करते हुए कहते हैं-...सैकड़ों स्त्रियाँ जो हर रोज़ बाजारों में झरोखों में दिखाई देती हैं,जिन्होंने अपनी लज्जा और सतीत्व को भ्रष्ट कर दिया है, उनके जीवन का सर्वनाश करने वाले हम्हीं लोग हैं...”[26]
     सुन चुके हाल तबाही का मेरी ,और सुनो
     अब तुम्हें कुछ मेरी तक़रीर मज़ा देती है

पद्मसिंह पर आर्य समाज के सुधारवाद का प्रभाव है, यह तथ्य है कि 1898 में बनारस और लखनऊ में तवायफों पर सरकार की ओर से पाबन्दी लगा दी गयी और 1917 में आगरा में भी तवायफों को शहर के केंद्र से हटाने के लिए प्रस्ताव पारित किये गए. इसके लिए स्थानीय निकायों और नगर निगमों पर दबाव डालकर इसे क्रियान्वित कराया गया. हिन्दुओं में आधुनिकता के साथ साथ पतिव्रता पत्नी, स्त्री  शुचिता, स्त्री को मर्यादा का प्रतीक मानना एक हिन्दू राष्ट्र के निर्माण के लिए अनिवार्य महसूस किया गया.

हालाँकि मुस्लिम बौद्धिकों और समाज सुधारकों के लिए भी स्त्री का एजेंडा महत्वपूर्ण था लेकिन हिन्दू सुधारवादियों के सुधार माडल में मुस्लिम स्त्रियों का प्रश्न प्रमुख नहीं था. संभवतः इसी लिए मिर्ज़ा हादी रुसवा जितने साहस के साथ कोठों के आन्तरिक संसार, स्त्री यौनिकता के यथार्थ चित्रण के साथ उमराव जानमें उपस्थित होते हैं वैसा प्रेमचंद नहीं कर पाते, बाजारे हुस्न के  बारे में अमृतराय लिखते हैं, “खैर किताब छपी लेकिन कोई खास कामयाबी नहीं उसे नहीं मिली, उर्दू वालों के लिए कोठे की ज़िन्दगी और उनके मसलों में कोई नयापन नहीं था. नज़ीर अहमद, सरशार और मिर्ज़ा रुसवा जैसे लोग उसके बारे में बहुत लिख चुके थे और बहुत अच्छा लिख चुके थे.”[27]अमृतराय नितांत तटस्थता से बताते हैं कि कोठों की अंदरूनी ज़िन्दगी के बारे में मुंशी जी का ज्ञान बस इतना ही था कि वे उन गलियों और बाज़ारों से गुज़रते थे,जिनका ज़िक्र वे उपन्यास में सतही तौर पर करते हैं. हादी रुसवा जितना अनुभव और तवायफों की ज़िन्दगी के छोटे -बड़े ब्यौरे प्रेमचंद के पास नहीं थे और वे इस उद्देश्य से लिख भी नहीं  रहे थे.  “यहाँ तक कि जो उपन्यास मूल रूप में बाज़ारे हुस्न नाम से लिखा जाता है, यानि सौन्दर्य, यौवन, राग, वासना, इच्छा न जाने कितनी अर्थ ध्वनियाँ जिसमें समाहित हैं उसी कथानक के हिंदी उल्थे को वे सेवासदन-  सेवा का घर - यानि कुछ कुछ नारी सुधार, बाल सुधार गृह, हिन्दू धर्म सुधारकों  की तर्ज़ पर नाम देते हैं.

प्रेमचंद को यही शीर्षक सबसे उपयुक्त लगा. स्त्रियों को शिक्षित करने के मुद्दे पर भी सुधारकों का जो रवैया था वह इस पत्र से जाहिर हो जाता है –“हम अपनी स्त्रियों को शिक्षित तो देखना चाहते हैं पर यदि शिक्षा का अर्थ उनका अपने मनमाफिक लोगों के साथ मनमाना मेलजोल बढ़ाना, ज्ञान में वृद्धि के साथ नैतिकता का हास जुड़ जाना, हमारे सम्मान का अवमूल्यन और घरों के अन्दर की निजता का हनन हो जाये तो हम अपनी स्त्रियों को शिक्षित करने के बजाय अपना सम्मान संजोकर रखना चाहेंगे -चाहे इसके लिए हमें हठधर्मी, पूर्वग्रही या सिरफिरा ही क्यों न कहा जाए.” [28]

यौनिकता के प्रश्न पर भी हिन्दू समाजसुधारकों का रवैया अलग था. यौन इच्छाओं का दमन करने, समलैंगिकता और तवायफों के पास जाने से मना करके युवकों को चारित्रिक रूप से स्वस्थ और राष्ट्र निर्माण में भूमिका निभाने के साथ-साथ स्त्रियों को यह उपदेश दिया जाना ज़रूरी था कि समय रहते उनका विवाह हो, वे सतीत्व का पालन करें, ऐसे साहित्य से परहेज़ करें जिनसे मन में कामुक विचार आते हों. नैतिकता का यही दबाव प्रेमचंद को उपन्यास का शीर्षक सेवासदनरखने के लिए प्रेरित करता है.

इसके साथ ही स्त्री यौनिकता शुरू से ही समाज-सुधारकों को चुनौती दे रही थी. रुसवा समाज सुधार का  एजेंडा लेकर उमराव जान अदानहीं लिख रहे थे लेकिन यही बात प्रेमचंद के बारे में  नहीं कही  जा सकती. चारू गुप्ता का कहना सही है कि –“इन सभी कोशिशों के बावजूद सामूहिक धार्मिक पहचान और उसपर  बनाई गयी पितृसत्ता अस्थिर थी. उदाहरण के लिए, सम्मान हासिल करने की सारी ललक अपने आप में तनाव का स्रोत थी. अंतरजातीय विवाह बेहद तीखे द्वंद्व का मुद्दा था. हिन्दू एकता कई तरह की कृत्रिमताओं पर टिकी हुई थी, जो कभी भी डांवाडोल हो सकती थी. इसके अलावा तमाम नियमों के बावजूद कुछ मध्यवर्गीय महिलाओं, विशेषकर कई निम्नजातीय स्त्रियों, विधवाओं  और वेश्याओं ने नए ढांचे को ठुकराया”[29]

सुमन पितृसत्ता के परंपरागत ढाँचे में से निकलने का प्रयास करती है. कहने को वह भोली बाई से प्रभावित है लेकिन अनमेल विवाह के खांचे में वह खुद को मिसफिट पाती है. बचपन में ईसाई लेडी से उसने शिक्षा पाई है, लेकिन उस शिक्षा का कोई व्यावहारिक पक्ष जान पाती कि इससे पहले ही परिस्थितियां उलट -पलट जाती हैं. लाड़ -दुलार में पली सुमन बहुत कम वेतन वाले गजाधर के पल्ले बाँध दी जाती है, जो पर्दे का उतना ही हिमायती है जितना अन्य कोई ब्राह्मण, या सवर्ण. यह पर्दा हिन्दुओं और मुसलमानों के सांस्कृतिक व्यवहार से जुड़ा हुआ था. पर्दा स्त्रियों की यौनिकता पर नियंत्रण बनाये रखने का एक औज़ार था. पर्दा हटा कि औरत बिगड़ी. औरत के बिगड़ जाने का खतरा था ही था जिससे जातीय वर्चस्व भी कमजोर पड़ सकता था. इसीलिए आंशिक पर्दे की वकालत के साथ -साथ कोठे पर पेशा अपना चुकी स्त्री के शुद्धिकरण की चिंता से पूरा शहर चिंतित हो उठता है. सुमन को पति के घर से प्रताड़ना  मिलने पर वह सीधे भोली बाई की शरण में चली गयी हो, ऐसा नहीं है. वह पहले वकील पद्मसिंह के घर  आश्रय की अपेक्षा से जाती है, लेकिन लोकापवाद के भय से पद्मसिंह उसे घर से जाने को कहलवा देते हैं, अब सुमन रास्ते पर है, मायके का आसरा नहीं, रोजी रोटी लायक शिक्षा नहीं, पर्दे में रहती चली आई है तो कोई सामाजिक संपर्क नहीं –“गजाधर की निर्दयता से भी उसे इतना दुःख न हुआ था. जितना इस समय हो रहा था. .उसे अब मालूम हुआ कि मैंने घर से निकलकर बड़ी भूल की...मैं इन पंडितजी को कितना भला आदमी समझती थी. पर अब मालूम हुआ कि ये रंगे हुए सियार हैं ...यह दुत्कार क्यों सहूँ ?मुझे कहीं रहने का स्थान चाहिए. खाने भर को किसी न किसी तरह कमा लूंगी ?कपड़े भी सीयूंगी तो खाने भर को मिल जायेगा, फिर किसी की  धौंस क्यों सहूँ ?व्यर्थ में एक बेड़ी पैरों में पड़ी हुई थी. और लोक -लाज से वह मुझे रख भी लें तो उठते -बैठते ताने दिया करेंगे. बस, चलकर एक मकान ठीक कर लूं. भोली क्या मेरे साथ इतना भी सलूक न करेगी. वह मुझे अपने घर बार-बार बुलाती थी, क्या इतनी भी दया न करेगी ?[30]

भोली के घर में सुमन को सिर्फ आश्रय ही नहीं मिलता, अपनी यौनिकता, अपने स्त्रीत्व की महत्ता से भी वाकफियत होती  है. वह भोली को बताती है कि उसने ईसाई लेडी से शिक्षा भी पाई है, इसपर जो भोली कहती है वह ध्यान देने की बात है –“दो तीन साल और कसर रह गयी. इतने दिन और पढ़ लेती तो फिर यह ताक न लगी रहती. मालूम हो जाता कि हमारी ज़िन्दगी का मकसद क्या है, हमें ज़िन्दगी का लुत्फ़ कैसे उठाना चाहिए. हम कोई भेड़-बकरी तो हैं नहीं कि मां-बाप जिसके गले मढ़ दें बस उसी की हो रहें. अगर अल्लाह को मंज़ूर  होता कि तुम मुसीबतें झेलो तो तुम्हें परियों की सूरत क्यों देता ?यह बेहूदा रिवाज़ यहीं के लोगों में है कि औरतों को इतना जलील समझते हैं, नहीं तो और मुल्कों में औरत आज़ाद हैं, अपनी पसंद से शादी और जब उससे रास नहीं आती तो तिलाक दे देती हैं. लेकिन हम लोग वही पुरानी लकीर पीटे चली जा रही हैं”[31]

अपने स्त्रीत्व को लेकर यह सचेतनता प्रेमचंद का वैशिष्ट्य है, अपने गुणों की पहचान, यानि अपने जीवन का उत्तरदायित्व स्वयं उठाने को तैयार यह नई स्त्री छविहै, जो आश्रय के अभाव में मरना नहीं चाहती, जीना चाहती है, यह पितृसत्ता के बनाये नियमों से तंग आई स्त्री है. इतनी शिक्षित नहीं कि नौकरी कर सके इसलिए अपनी देह को रोजी रोटी कमाने का जरिया बना लेना चाहती है, सुमन सिलाई करके जीवन-यापन करने को तैयार है, भोली बाई पकी हुई तवायफ़ है वह सुन्दर स्त्री  देह की कीमत बाज़ार में जानती है. इसलिए सुमन को उसकी सलाह है -..”यहाँ ऐरों-गैरों को आने की हिम्मत ही नहीं होती. यहाँ तो सिर्फ रईस लोग आते हैं. बस उन्हें फंसाए रखना चाहिए. अगर वह शरीफ है तब तो तबियत आप ही आप मिल जाती है और बेशरमी का भी ध्यान नहीं होता. लेकिन अगर उससे अपनी तबियत न मिले तो उसे बातों में लगाये रहो, जहाँ तक उसे नोचते -खसोटते बने नोचो. आखिर को वह परेशां होकर खुद ही चला जायेगा, उसके दूसरे भाई और आ फंसेंगे ..”.

बाद सुमन उस राह पर चल निकलती है जो उसीके शब्दों में कलंक की कालिखका रास्ता है, जिसपर जाना आसान है, लौटना मुश्किल. सुमन विट्ठलदास से कहती है –“आप सोचते होंगे कि मैं भोग विलास की लालसा से इस कुमार्ग पर आई हूँ, पर ऐसा नहीं है. मैं ऐसी अंधी नहीं कि भले बुरे की पहचान न कर सकूँ. मैं जानती हूँ कि मैंने अत्यंत निकृष्ट कर्म किया है. लेकिन मैं विवश थी, इसके सिवाय मेरे लिए और कोई रास्ता न था...यद्यपि इस काजल की कोठरी में जा कर पवित्र रहना अत्यंत कठिन है पर मैंने यह प्रतिज्ञा कर ली है कि अपने सत्य की रक्षा करुँगी. और ईश्वर चाहेंगे तो मैं अपना प्रण पूरा करुँगी. मैं गाऊँगी, नाचूंगी, पर अपने को भ्रष्ट न होने दूँगी .” [32]
स्त्री यौनिकता पर नियंत्रण के लिए परंपरा और संस्कृति के साथ -साथ स्वयं स्त्री द्वारा अपनी इच्छाओं को कलंक बताना हिन्दू सुधारवादी रवैये का परिणाम है, जो अपनी देह के प्रति सचेतन स्त्री को चुनौती मानता था. स्त्री की  खुद्मुखतारी पतनशीलता की श्रेणी में शामिल थी. भूख और अभाव से मरना सभ्यता थी, लेकिन भोजन और आश्रय के लिए तवायफ़ बनना असभ्यता थी. राष्ट्र के हित में सुमन जैसी ब्राह्मणी का ह्रदय अपरिवर्तन और अपने चारित्रिक सुधार के लिए व्याकुलता वह थोपी हुई नैतिकता की प्रतिध्वनि थी जिसके तहत कामुक स्त्री कुलटा और पथभ्रष्ट थी, उसे सुधार कर समाजसेवा में लगा देना उसकी शास्त्रीय और सौम्य छवि की पुनर्स्थापना थी.

भारतीय भाषाओँ के साथ साथ हिंदी में स्त्रियों की यौन अस्मिता को अपने नियंत्रण में लेने के लिए अश्लील साहित्य के प्रकाशन पर रोक भी लगायी जाने लगी.” 1870 में जोसेफीन बटलर द्वारा स्थापित की गयी “एसोसिएशन फार मोरल एंड सोशल हाईजीन” की भारतीय शाखा अपने केन्द्रीय संगठनकर्ता मैलिसैंट शेफर्ड के माध्यम से अश्लीलता के खिलाफ एक तीखी मुहिम छेड़े हुए थी. इन धर्मयोद्धाओं ने यौनिकता और सेक्स सम्बन्धी अभिव्यक्तियों पर लगाम कसी.”[33]

उधर कई महिला संगठन भी अश्लीलता का विरोध कर रहे थे. ‘आल इंडिया वीमेंस कांफ्रेंसने  अश्लील विज्ञापन, अश्लील किताबों पर रोक लगाने के लिए औपनिवेशिक सरकार को पत्र लिखा था. उधर गांधी जी भी समाज और साहित्य की गन्दगी की कड़ी आलोचना अपने भाषणों और लेखों में कर ही रहे थे. सुधार अभियानों में तो पहले से ही  नौटंकी या नाच की कलाकारों को अश्लील और नाचने वाली लड़कियों को वेश्या’ कहना शुरू कर दिया गया  था. ”वेश्यावृत्ति विरोधी कानूनों में वेश्या, वारांगना, रखैल, तवायफ़ में कोई अंतर नहीं रह गया था. अनेक रखैलों और वारांगनाओं को समाज में सम्मानजनक दर्ज़ा प्राप्त था ...अतः अंग्रेजों ने वारांगनाओं एवं महिला मित्रों का दर्ज़ा घटाकर उन्हें सामान्य वेश्याओं का दर्ज़ा दे दिया. इस प्रकार जो लोग रखैलों के स्वामी थे, वे उनके ग्राहकों की श्रेणी में आ गए. परिणामस्वरूप कुलीन एवं संभ्रांत लोगों ने महसूस किया कि इससे कि उनका रुतबा घट गया है और वे मालिक से ग्राहक बन गए हैं...”[34]   

इस प्रकार समाज सुधार कार्यक्रमों ने देह श्रमिकों की कई श्रेणियां अनजाने में ही तैयार कर दीं. कल तक नौटंकी और नाच जो उत्सवों और सार्वजनिक कार्यक्रमों का हिस्सा थे उनपर अश्लीलता का आरोप लगा कर अपने एजेंडे को पवित्र हिंदूवादी रूप दिया जाने लगा. इस तरह 1897 में की गयी न्यायमूर्ति रानाडे की घोषणा “आज के बाद सभी समाज सुधार संगठन कृतसंकल्प हैं कि वे अपने परिवारों में होनेवाले विवाह या अन्य समारोहों में नाच की अनुमति नहीं देंगे और न ही उन समारोहों में शामिल होंगे जहाँ नाच की व्यवस्था होगी” का अक्षरशः पालन करने का प्रयास किया गया जिसका अगला कदम था देह श्रमिकों का निर्वासन.

प्रश्न है कि समाज को तवायफों की आवश्यकता है या नहीं. प्रेमचंद इस मुद्दे पर स्पष्ट नहीं हैं. सभ्य कहे जाने वाले समाज से निकाल बाहर करना क्या स्थायी समाधान है या ऐसी स्थितियों में सुधार जिसमें कोई स्त्री देह श्रम के लिए बाध्य न हो. दूसरी स्थिति तो एक यूटोपिया है. पहली स्थिति कोई समाधान नहीं है बल्कि आभिजात्य और देह श्रमिकों के बीच के अन्तराल को बढ़ाने की साजिश है. साथ ही हाशिये पर धकेल देने से न समाजसुधार हो सकता है न ही वे सामाजिक सेंसरशिप के दबावों से मुक्त हो सकती हैं. इन जैसी स्त्रियों को  संस्कृत शास्त्रीय ग्रंथों में प्रयुक्त  भृत्या-जो विभिन्न प्रकार के श्रम करती है -जिसमें  उत्पादन  से लेकर यौन श्रम शामिल है -कहा  जाना चाहिए. 

सुमन जैसी स्त्रियों का क्या हो ?दहेज़ और अनमेल विवाह का शिकार हुई सुमन अपनी पहचान समाज से मांगती दीखती है. ससुराल, मायका, बहन शांता का घर, विधवाश्रम कहीं भी उसके लिए ठौर नहीं है, हर जगह उसे गर्हित पेशेवाली समझ कर किनारे कर दिया जाता है.

प्रेमचन्द स्त्री को लेकर बड़े कशमकश से गुज़रते हैं कुछ नहीं समझ आता तो वर्षों के खोये पति और अब, संन्यास ले  चुके गजाधर से मिला देते हैं. अब सुमन को उस अनाथ आश्रम में पचास कन्याओं की देखभाल करनी होगी जो वेश्याओं की संतानें है –“इस अनाथालय के लिए एक पवित्र आत्मा की आवश्यकता है और तुम्हीं वह आत्मा हो. मैंने बहुत ढूंढा पर ऐसी कोई महिला न मिली जो इस काम को सेवा, प्रेम भाव से करे, जो कन्याओं का माता की भांति पालन करे और अपने प्रेम से अकेली उनकी माताओं का स्थान पूरा कर दे.”[35]

ये  स्त्री की आदर्श छवि थी जिसकी सिद्धि के लिए पूरा कथा-वितान रचा गया, अपने समय के कई राष्ट्रवादियों की तरह वे पश्चिम-विरोधी, पढ़ी -लिखी स्त्री को सामने लाये. सुमन या रोहिणी जैसे चरित्र राष्ट्रवादी रुझान के लिए पूरी तरह फिट बैठती हैं  जो अपनी करुणा, दयालुता, सहजता,निर्धनता, की वजह से लम्बे समय तक कष्ट झेलती हैं, चाहे वे पत्नियाँ हों, विधवाएं, तवायफें हों, वे किसी भी जाति की हों उन्हें पाठक की दया का पात्र बना दिया जाता है, जिनमें सुधार की आवश्यकता अनिवार्यत: होती है. स्त्रीत्व का आदर्श पाने के लिए चरित्रों की अपनी पहचान कहीं गुम हो जाती है; वे अक्सर सेवा, त्याग, समर्पण की प्रतिमूर्ति बन जाती हैं. सुमन भी ऐसा ही एक चरित्र है, जो सुमन भोली बाई के कोठे पर स्वयं गयी थी वही विट्ठलदास के यह कहने से

 “...सोचो तो थोड़े दिनों तक इन्द्रियों को सुख देने के लिए तुम अपनी आत्मा और समाज पर कितना अन्याय कर रही हो..’ तिलमिला जाती है . ‘सुमन ने आज तक किसी से ऐसी बातें न सुनी थीं.वह इन्द्रियों के सुख को और अपने आदर को जीवन का मुख्य उद्देश्य समझती आई थी. उसे आज मालूम हुआ कि सुख संतोष से प्राप्त होता है और आदर सेवा से.”[36]

पाठक सुमन के इस आकस्मिक ह्रदय-परिवर्तन को बहुत दूर तक विश्वसनीय नहीं मानता. सेवा को जीवन का आदर्श बताने के लिए लेखक की कृतसंकल्पता को समझ भी जाता है. स्त्री का अपने इन्द्रिय सुख के लिए जीना अनुचित है, निष्काम सेवा में ही उसके जीवन की वास्तविक सिद्धि है, इसे स्त्री के लिए तय करने वाला कौन सा समाज है ? यह तय है कि प्रेमचंद को भारतीय सामजिक समस्याओं और परम्पराओं  की गहरी परख है, लेकिन स्त्री के सुधार का एक तैयार एजेंडा लेकर वे इस उपन्यास को  रचते हैं. स्त्री को पतित, यौनेच्छाओं से परिपूर्ण और स्वार्थी दिखाकर वे इस सामाजिक समस्या की गहराई में पड़ताल ही नहीं करते हैं, प्रकारांतर से यह भी दिखाते हैं कि पतित स्त्री यानि भोली बाई जैसी तवायफें ऊँची जाति की मासूम इन्द्रियेचछाओं  से भरी सुमन को गलत राह दिखाती हैं.

जहाँ तक समस्याओं के समाधान की बात है तो वह है शहर, बस्ती से दूर ऐसा सदन बनाना जहाँ,अवैध कही जाने वाली बच्चियां रह सकें, उन्हें पढ़ाई -लिखाई, हस्तकलाओं का ज्ञान दिया जा सके. प्रेमचंद जब समाज सुधार पर बात करते हैं तो उनका ध्यान निरंतर इसपर रहता है कि पाठकों के संस्कारों को कहीं चोट न पहुंचे. सुमन सेवासदनमें सारे कार्य करती दिखाई देती है ऐसे जैसे अपने पतित होने का प्रायश्चित कर रही हो. गाँधी भी स्त्रियों को पैसिव यौनिक ऑब्जेक्ट्स मानकर चलते थे, ब्रह्मचर्य के प्रयोगों से यह बात स्पष्ट है. प्रेमचंद भी उसी तर्ज़ पर सोचते हैं, वे इस मुद्दे पर नहीं लिखते कि बतौर स्त्री सुमन की अन्य दुनियावी इच्छाएं क्या हमेशा के लिए दमित हो गयीं? दूसरे की बच्चियों की पालक बनने मात्र से उसके निज की मातृत्व इच्छा का दमन क्यों और किसलिए किया गया.

इस सन्दर्भ में पद्मसिंह और सुभद्रा का निःसंतान दाम्पत्य भी द्रष्टव्य है. सुभद्रा को घर में सभी सुख हैं पर उसे दुःख है कि निःसंतान रह जाने के कारण पति उसे पहले जैसा प्रेम नहीं करता. प्रेमचंद इसे पूर्वजन्म के पापकर्म के फल से जोड़ देते हैं. आगे चलकर जब पद्मसिंह के सामाजिक कार्यों की महत्ता और सत्प्रयासों को पत्नी  सुभद्रा समझ जाती है तब पद्मसिंह अनुभव करते हैं कि एक निःसंतान स्त्री भी अपने पति के लिए शांति और प्रसन्नता का स्रोत हो सकती है- इस कथन की पितृसत्ताक टोन पर हम गौर न भी करें तो यह अस्पष्ट ही रह जाता है कि संतानहीनता कैसे किसी स्त्री की समझदारी के स्तर को प्रभावित कर सकती  है?

प्रेमचंद की तुलना में मिर्ज़ा हादी रुसवा का स्त्री के सतीत्व के प्रति कोई विशेष आग्रह नहीं है. कोठे पर रहने के बावजूद सुमन अपना सतीत्व और स्वयंपाकी होकर जातीय शुद्धता बनाये रखती है. प्रेमचंद उसे नाचते-गाते, हँसते, सजते-संवरते दिखाते हैं पर शरीर बेचते हुए नहीं दिखाते. सुमन के मन में सतीत्व और यौनिकता को लेकर कोई द्वंद्व नहीं, उसे बहुत शुरू  से ही मालूम है कि उसे रिझाना है, लुभाना है पर शरीर नहीं देना है. सतीत्व, पातिव्रत्य और शरीर की पवित्रता बनाये रखने की धारणा हिन्दू राष्ट्र से सम्बद्ध है, जिसे सुमन बखूबी निभा ले जाती है, यह बात दूसरी है कि सजग पाठक कितनी दूर तक इससे सहमत होता है. इसकी तुलना में उमराव जान अदास्वयं को कभी पतित नहीं कहती, न ही वह अपने अस्तित्व को असतीकहकर ख़ारिज करती है. उसमें सतीत्व के प्रति अतिरिक्त आग्रह भी नहीं है. बचपन में हुए अपहरण और कोठे पर खानम को बेचे जाने को वह दुर्भाग्यपूर्ण ज़रूर बताती है, लेकिन अपने अस्तित्व को लेकर उसे पछतावा या सुधारगृह में जाने  की ज़रूरत नहीं लगती. उसके जीवन के उत्तरार्ध की दिनचर्या के बारे में रुसवा लिखते है “..इसके बाद उमराव जान ने बहुत -सी किताबें इस किस्म की, उर्दू, फारसी बजाये खुद पढ़ीं. इससे तबीअत साफ़ होती गयी. कसायद अनवरी और खाकानी एकएक करके पढ़े मगर झूठी खुशामद की बातों में अब उसका दिल न लगता था, इसलिए इनको बंद करके अल्मारी में रख दिया. फ़िलहाल कई अखबार भी उसके पास आते थे, उन्हें देखा करती, उनसे दुनिया का हाल मालूम होता रहता...उमराव जान बहुत दिन हुए सच्चे दिल से तौबा कर चुकी है और जहाँ तक हो सकता है, रोज़ा -नमाज़ की पाबंद है. रफ्ती रंडी की तरह है खुदा चाहे मारे, चाहे जिलाए. उससे पर्दे में घुट के तो न बैठा जायेगा. मगर पर्दा वालियों के लिए दिल से दुआगो है.खुदा उनका राज -सुहाग कायम रखे..” [37]

वहीँ सुमन के मन में सदैव पाप -पुण्य का द्वन्द्व चलता रहता है, इसके बीच का मार्ग वह निकालती है कि वह शरीर नहीं बेचेगी, सिर्फ नाच-गान करेगी. वह अपने जातीय संस्कारों के गर्व को नहीं भूलती. प्रेमचंद पाठक के संस्कारों को धक्का नहीं पहुँचाना चाहते और कठिन समय में भी वह देह की शुचिता के हिमायती हैं. सुमन यदि अपना सतीत्व खो देती तो भारतीय समाज में उसकी कोई जगह नहीं रहती, सुमन को कोठे पर चढ़ने के कारण उसे जीवन भर प्रायश्चित करना पड़ता है, लेकिन वास्तविक क्षमा से वह वंचित ही रह जाती है. वहीँ कोठे पर आने वाले सदन को उसके परिवार जनों द्वारा फिर से अपना लिया जाता है, वह सुखी वैवाहिक जीवन जीता है. स्त्री -पुरुष के सन्दर्भ में क्षमा और प्रायश्चित के मापदंड  परस्पर भिन्न हैं. सुमन के तवायफ़ हो जाने की सूचना पिता कृष्णचन्द्र को जब मिलती है तो वह गजाधर से कहता है कि यदि तुम्हीं उसकी जान ले लेते तो परिवार की इज्ज़त पर कोई आंच ही नहीं आ सकती थी.

प्रेमचंद और रुसवा का एजेंडा अलग -अलग है -प्रेमचंद के लिए तवायफें सामाजिक स्वास्थ्य के लिए हानिकर हैं और रुसवा के लिए कोई भी और काम करने वाली किसी अन्य स्त्री की तरह तवायफ़ भी एक स्त्री, जिसकी जीवन शैली साधारण गृहस्थ स्त्री से अलग है, संवेदना और भावना के स्तर पर उनमें कोई अंतर नहीं बल्कि मौलवी साहेब से जो शिक्षा उमराव ने कोठे पर पाई उसने उसे रचनाकार और अपेक्षाकृत ज्यादा व्यावहारिक बनने में मदद की, मनुष्य चरित्र की परख सुमन से ज्यादा उमराव को है.

अब तो इस राह से वो शख़्स गुज़रता भी नहीं
अब किस उम्मीद पे दरवाज़े से झाँके कोई

यदि बाज़ारेहुस्नऔर सेवासदनको आमने सामने रखा जाये तो कुछ दिलचस्प तथ्य हाथ लगते हैं. अमृतराय ने 3 सितम्बर 1918 को प्रेमचंद द्वारा इम्तियाज़ अली को लिखे पत्र का हवाला दिया है, “मैं इसकी फेयर कापी तभी बनाऊंगा जब आप इसका जिम्मा लें ...मैं तो इसे फेयर करने की तकलीफ नहीं दे सकता. मैंने इसमें पूरे के पूरे दृश्य बदल दिए हैं.”[38]
 यहाँ तक कि जो उपन्यास मूल रूप में बाज़ारेहुस्ननाम से लिखा जाता है, जिसमें  सौन्दर्य, यौवन, राग, वासना, इच्छा न जाने कितनी अर्थ ध्वनियाँ समाहित हैं, उसी के  हिंदी तर्जुमा को वे ‘सेवासदन’ यानि  सेवा का घर बना देते हैं. यही नहीं 1918-19 में प्रेमचंद ने इसकी फेयर कॉपी बनाई तब इसके हिंदी संस्करण में उन्होंने कई सुधार कर दिए और ‘बाजारे-हुस्न’ को वैसा का वैसा रहने दिया. इसकी मूल में पाठकीय अभिरुचि का सवाल था. साथ ही वे, जैसा कि गोपाल राय ने लिखा है, “हिन्दू समाज को आधुनिक और तर्कसंगत रूप देना चाहते थे.”[39]

उन्हें इसका अहसास था कि ‘बाजारे-हुस्नशीर्षक उर्दू के पाठकों में खप जायेगा क्योंकि नज़ीर अहमद और मिर्ज़ा हादी रुसवा ने उपन्यासों में हुस्न के बाज़ार की सैर करवा दी थी. सनसनीखेज़,चमकदार, भड़कीला शीर्षक उन्हें उर्दू की पाठकीय मनोरूचि के अनुकूल लगा और उन्हें यह मालूम था कि हिंदी पाठकीय संसार पर यदि अपना प्रभाव छोड़ना है तो शीर्षक पर विशेष ध्यान दिए जाने की ज़रूरत है, शुद्धतावादी रवैये को लेकर चलने वाले उपन्यास का हिंदी पाठकों ने बड़े उत्साह के साथ स्वागत भी किया. आश्चर्य नहीं कि जो  सुमन उर्दू में खिलंदड़ी, जीवंत, गर्वीली और मर्यादितथी वह हिन्दी में “सुंदर, चंचल और अभिमानिनी” बन चुकी थी. इसी तरह ‘बाजारे हुस्न’ में यह दृश्य है: “सुमन किसी काम में मशगूल हो, पर उनकी आवाज़ सुनते ही चिक की आड़ में आ कर खडी हो जाती है. उसकी शोख तबियत को  को इस ताक -झाँक में एक अजीब लुत्फ़ हासिल होता था. वो महज़ अपने हुस्न का जलवा दिखाने के के लिए, महज दूसरों को बेकरार करने के लिए ये करिश्मा दिखाती थी” (हिंदी तर्जुमा-राबीअ बहार) जबकि सेवासदन में इस प्रसंग को यों चित्रित किया गया है :“स्कूल से जाते हुए हुए युवक सुमन के द्वार की ओर टकटकी लगाये हुए चले जाते. शोहदे उधर से निकलते तो राधा और कान्हा के गीत गाने लगते. सुमन कोई काम करती हो पर उन्हें चिक की आड़ से एक झलक दिखा देती. उसके चंचल ह्रदय को इस ताक -झाँक में असीम आनंद प्राप्त होता था. किसी कुवासना से नहीं, केवल अपने यौवन की छटा दिखाने के लिए, केवल दूसरों के ह्रदय पर विजय पाने के लिए यह खेल खेलती थी”.

सेवासदन के 15वें अध्याय में एक पूरा अंश है, जो तवायफों को विषभरी नागिनें सिद्ध करता है. इस आलेख में ऊपर वह अंश उद्धृत भी किया गया है, लेकिन बाजारे -हुस्न में वो पूरा अंश है ही नहीं. ‘सेवासदनमें प्रेमचंद हिन्दू समाजसुधारकों की भाषा में सोच और लिख रहे हैं. इसलिए पतिता, असती स्त्री को विषाक्त चरित्र कहते हैं.

प्रेमचंद समाज की गतिविधियों को शब्द और संवाद  ही नहीं देते बल्कि उसमें  दखल भी देते हैं. स्त्री और पुरुष का अपनी यौनेच्छाओं पर विजय पाकर समाज हित साधन बन जाना उनके युग की मांग थी,युग के हिन्दू राष्ट्रवादी एजेंडे को पूरा करने में सहयोगी थी. भारतीय विवाह संस्था का क्रिटीक भी प्रेमचंद बेहतरीन ढंग से प्रस्तुत करते हैं,जो सामाजिक कुप्रथाओं के कारण दाम्पत्य में बेडी का काम करता है. सुमन के द्वारा  विद्रोह की कोशिश विवाह संस्था के रुढ़िवादी स्वरुप का नकार है. जब व्यक्तित्व के स्वतंत्र विकास के  अवसर अनुपलब्ध हों तो अनमेल विवाह के शिकार स्त्री -पुरुष स्वस्थ समाज के निर्माण में योगदान नहीं कर सकते.

दहेज़,अशिक्षा,पर्दा ये सब अनैतिकता की ओर उन्मुख करते हैं,उसकी अपेक्षा तवायफ़ (हालाँकि यह कोई विकल्प नहीं है) आत्मनिर्भर और स्वचेतन है,जिसके लिए उमराव जान अदा को देखा जा सकता है,जो भले समाज की दृष्टि में पतित हो लेकिन अपने जीवन में उन नियंत्रणों से मुक्त है जो धीरे-धीरे उसकी मनुष्यता को निगल जाते हैं.
____



[1]अमृतराय, कलम का सिपाही,हंस प्रकाशन,इलाहाबाद,पृष्ठ 170

[2]वही,पृष्ठ 206

[3]उमराव जान अदा, भूमिका, मिर्ज़ा हादी रुसवा,ग्लोबल एक्सचेंज पब्लिशर्स, संस्करण 2010,पृष्ठ 5-10

[4]वही,पृष्ठ152
 
[5]वही,पृष्ठ151- 52

[6]स्त्री संघर्ष का इतिहास -राधा कुमार ,वाणी प्रकाशन .द्वितीय संस्करण 2005, पृष्ठ 83
[7]गुज़िश्ता लखनऊ -अब्दुल हलीम शरर’,नेशनल बुक ट्रस्ट,1971,पृष्ठ167
[8]एरिक एच एरिक्सन ,गांधीज़ ट्रुथ :आन द ओरिजिंस ऑफ़ मिलिटेंट नॉन -वोइलेन्स,न्यूयार्क ,नॉर्टन ,1969,पृष्ठ 374
[9]प्रेमचंद घर में ,शिवरानी देवी ,आत्माराम एंड संस ,दिल्ली,2012 पृष्ठ 24
[10]देखें,पार्थ चटर्जी, 'कॉलॅनाइज़ेशन, नैशनलिज़म ऐंड कॉलॅनाइज़्ड वुमॅन : द कंटेस्ट इन इण्डिया', अमेरिकन एथनोलॅजिस्ट, खण्ड 16, 4 नवम्बर 1989 ,पेज 4.
[11]गरिमा श्रीवास्तव,नवजागरण स्त्री प्रश्न और आचरण पुस्तकें, -प्रतिमान ,सीएसडीएस ,दिसंबर 2014
[12]हिंद स्वराज,मोहनदास करमचंद गांधी.(अनुवाद –अमृतलाल नाणावटी )http://www.hindisamay.com/content/4708/7/-विमर्श-हिंद-स्वराज--अनुवाद-अमृतलाल-ठाकोरदास-नाणावटी--5
[13]प्रेमचंद घर में-शिवरानी देवी प्रेमचंद ,आत्माराम एंड संस ,दिल्ली,2012:  217
[14]कृष्णकान्तार विल,बंकिमचंद्र चटर्जी ,अनुवाद जे.सी घोष,(नोरफोक :न्यू डायरेक्शनस,1962:29

[15]तनिका सरकार ,हिन्दू वाइफ,हिन्दू नेशन ,कम्युनिटी ,रिलीज़न एंड कल्चरल नेशनलिज्म ,ब्लूमिंगटन ,इंडियाना युनिवेर्सिटी प्रेस ,2005,पृष्ठ 34-35

[16]कमल किशोर गोयनका ,संपादन -प्रेमचंद विश्वकोश ,दिल्ली ,1981,खंड-1 ,पृष्ठ 144-45 पर उद्धृत
[17]उमराव जान अदा, वही, पृष्ठ 135
[18]सेवासदन -प्रेमचंद ,भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन ,दिल्ली ,दूसरा संस्करण,2013 पृष्ठ 8
[19]वसुधा डालमिया, सेवासदन, अंगरेजी अनुवाद की भूमिका ,2005,पृष्ठ 9-10

[20]उमराव जान अदा ,वही,पृष्ठ :25
[21]सेवासदन,वही,पृष्ठ 40
[22]सेवासदन,वही. पृष्ठ 39
[23]स्त्रीत्व से हिंदुत्व तक ,चारू गुप्ता ,राजकमल प्रकाशन 2012,पृष्ठ :42
[24]कलम का सिपाही, अमृत राय , हंस प्रकाशन इलाहाबाद ,1976पृष्ठ 204
[25]सेवासदन,वही,पृष्ठ 55
[26]प्रेमचंद ,भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन ,दिल्ली ,दूसरा संस्करण,2013: 103

[27]कलम का सिपाही,वही, 206
[28]अलीगढ़ इंस्टिट्यूट गज़ट ,8 जुलाई 1870 ,नेटिव न्यूज़पेपर रिपोर्ट्स ऑफ़ यू पी ,1870,पृष्ठ 271

[29]चारू गुप्ता -स्त्रीत्व से हिन्दुत्व तक ,राजकमल प्रकाशन ,2012: 33
[30]सेवासदन,वही,पृष्ठ 40  
[31]वही, 39

[32] वही,पृष्ठ 61
[33] चारू गुप्ता,स्त्रीत्व से हिंदुत्व तक राजकमल प्रकाशन ,2012:54
[34]राधा कुमार -स्त्री संघर्ष का इतिहास,वाणी प्रकाशन ,2006:84

[35]सेवासदन,वही,पृष्ठ 218
[36] वही,पृष्ठ 61
[37]उमराव जान अदा,वही,पृष्ठ 15
[38]अमृत राय -कलम का सिपाही, हंस प्रकाशन इलाहाबाद ,1976
[39]हिंदी उपन्यास का इतिहास ,गोपाल राय,पृष्ठ 127

सबद - भेद : विजेंद्र का कवि -कर्म : अमीर चन्द वैश्य

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हिंदी के वरिष्ठ कवि विजेंद्र की कुछ कविताएँ और उनका आत्मकथ्य समालोचन पर आपने कुछ दिनों पहले पढ़ा था. 

८३ वर्षीय विजेंद्र के १९६६ से २०१५ के दरमियाँ २४ कविता संग्रह प्रकाशित हुए हैं और अब उनकी रचनावली भी प्रकाशित हो गयी है.

विजेंद्र की लम्बी कविताओं के चरित्रों पर अमीर चंद वैश्य का यह लेख परिचयात्मक अधिक है फिर भी विजेंद्र की कविताओं की मुख्य विशेषताओं पर भी यह प्रकाश डालता है.


लोक का आलोक                                          
अमीर चन्द वैश्य


भीमबैठका : पत्थरों की पानीदार कहानी : सुदीप सोहनी

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भोपाल स्थित कला संस्थान 'विहान'के संस्थापक, फीचर फिल्मों के लेखक तथा डॉक्यूमेंटरी फिल्म निर्माण में सक्रिय सुदीप सोहनी (29दिसंबर 1984, खंडवा) की कुछ कविताएँ आपने समालोचन में पहले भी पढ़ी हैं.


किसी स्थान या कृति को केंद्र में रखकर  कविताएँ हिन्दी में पहले भी लिखी जाती रहीं हैं, पर सम्पूर्ण संग्रह कम निकले हैं. पिछले साल प्रकाशित प्रेमशंकर शुक्ल का भीमबैठका एकांत की कविता है इसी तरह का संग्रह है.  ग़ालिब की बनारस पर केन्द्रित कविताएँ ‘चिराग़-ए-दैर’ नाम से इसी वर्ष रज़ा फाउंडेशन और राजकमल ने प्रकाशित की है. मूल फ़ारसी से इसका अनुवाद सादिक़ ने किया है.


सुदीप सोहनी की भीमबैठका को केंद्र पर रखकर लिखी ये सोलह कविताएँ इसी तरह का एक प्रयास है. ये कविताएँ भीमबैठका के बहाने आदम की बस्तियों के बसने का इतिहास भी बयाँ करती हैं. जिसे इतिहास भुला देता है उसे कविता याद रखती है.



विचार और कॉन्सेप्ट नोट

मध्यप्रदेश स्थित भीमबैठका पर्यटन व विश्व मानचित्र पर धरोहर के रूप में जाना जाता है. मानव सभ्यता की उत्पत्ति से लेकर स्थापत्य और चित्रकला की लय में गुंथा भीमबैठका केवल एक धरोहर न होकर कलात्मकता की अभिव्यक्ति भी करता है. भीमबैठकापत्थरों के भीतर सोये पड़े इतिहास की कहानी है. यह इतिहास पौराणिक भी हो सकता है, मिथकीय भी,और वैज्ञानिक भी. प्रकृति से आदिम रिश्ते का सच भी यहाँ देखा जा सकता है और मिथकों का काल्पनिक अनुभव भी. सभ्याताओं के इतिहास से गुज़रता भीमबैठकाएक लाख साल पहले के मानव अस्तित्व को आज भी समेटे है. यह न केवल अद्भुत आश्चर्य है बल्कि भावातिरेक भी. महाभारत के रूप में एक महान इतिहास भी यहाँ के पत्थरों में धड़कता है.

गद्य-कविता का यह आलेख
भीमबैठका की इन्हीं अंतर्निहित ध्वनियों को खोजने का उपक्रम करता है.

(भोपाल स्थित भरतनाट्यम प्रशिक्षण संस्थान प्रतिभालय आर्ट्स अकादमी के कलाकारों ने नृत्य गुरु मंजूमणि हतवलने के निर्देशन में इस पर आधारित प्रस्तुति कुछ दिनों पूर्व ही भोपाल में दी है.) 
  


















रूपरेखा और कथ्य के महत्त्वपूर्ण बिन्दु

मानव सभ्यता की उत्पत्ति
स्थापत्य,चित्रकला और कलाबोध
पत्थर के भीतर सोया इतिहास
- काल्पनिक
- मिथकीय
- ऐतिहासिक
- वैज्ञानिक
प्रकृति और आदिम रिश्ते का सच
मिथकों का काल्पनिक अनुभव
भीमबैठका – इतिहास,स्मृति,मिथक,विज्ञान,पुराण






















1)
लाखों साल पहले
धरती पर केवल पानी था.
चारों ओर पानी ही पानी.
सब कुछ जलमग्न था.
सूरज उगता,
अस्त होता.
धरती पर केवल पानी बहता.

मौसम तो कई ऐसे भी हुए,कि
तापमान की कमी के कारण
पानी बर्फ भी बना.

चारों ओर बर्फ ही बर्फ.
बर्फ और पानी की इसी ठिठोली के बीच
काल ने इच्छाशक्ति को जन्म दिया.
इसी इच्छाशक्ति से दुनिया का पहला पत्थर बना.
बाहर से सख्त,भीतर से नर्म.

कहते हैं पत्थर के भीतर के पानी और पानी के बाहर के पत्थर ने,
एक-दूसरे से वादा किया था,हमेशा साथ रहने का.
पानी जब भी पत्थर के भीतर,इधर से उधर दौड़ता तो पत्थर अपना रंग और सूरत बदल लेते.

धूप,ताप,सर्दी,गर्मी,बरसात,
बिजली,अकाल,प्रलय,विनाश,सृष्टि,उत्पत्ति
-किसी काल और परिस्थिति में पानी ने पत्थर का साथ नहीं छोड़ा.

पानी और पत्थर की इसी सृष्टि,प्रेम और सहवास से दुनिया के पहले जीव का जन्म हुआ.




2)
भीमबैठका की यह कहानी लाखों साल पुरानी है.
हममें से कोई भी नहीं था तब,
पर यहाँ के पत्थर तब से हैं,
अब तक.
तब से अब तक चुपचाप खड़े हैं.
अडिग. बगैर बोले. मौन.
कोई इतना चुप कैसे रह सकता है?

मगर, क्या ये वाक़ई चुप हैं!
सर्दी,गर्मी,बरसात,
पतझड़,बसंत के
हज़ारों-हज़ार मौसम देखे हैं इन्होंने.
जब धरती पर चारों ओर पानी था,
तब भी थे ये.
और जब धरती पर बर्फ की चादर ढँकी पड़ी थी,
तब भी थे ये.

बहुत समय के बाद
जब पहली बार कोई जीव पैदा हुआ था
तो पहली झलक इन्होंने ही देखी थी.
फिर जीव से मानव का अस्तित्व आरंभ हुआ,
उसे देखने वाली पहली आँख भी ये पत्थर थे.
मानव को आग भी इन्हीं पत्थरों ने दी और
रहने के लिए छाँव भी.
किलकारी के लिए पहला आंगन भी और
मौत के बाद दफनाने की जगह भी.
यहीं मानव ने पहला संसर्ग किया होगा और
यहीं अपनी दुनिया बसायी होगी.








जब मानव ने कुछ महसूस करना शुरू किया तो
 इन्हीं पत्थरों से कहा.
इन्हीं की पीठ पर उसने अपने मन की बातें कही.

हम आज तक इन पत्थरों को
पत्थर ही कहते आए.
पर सच तो ये है कि इन पत्थरों ने
खुद को हमेशा माँ और पिता ही माना.
क्या हम इन्हें अब भी पत्थर ही कहेंगे ?
























3)
हजारों,लाखों और करोड़ों साल पहले क्या मानव सभ्यता थी?
इसे विज्ञान के चश्मे से देखें या कल्पना के?
जीव और जीवन की इस कहानी में
धरती की उत्पत्ति को हम हो चुका मान लेते हैं.
यह भी कि नदी,पहाड़,समुद्र,
जंगल,आसमान,
पक्षी,पशु और मानव आ चुके.
एक से दूसरा और दूसरे से तीसरा,तीसरे से चौथा,
चौथे से पांचवा और इस तरह कई जन्म होने लगे.  
जन्म के साथ ही हर एक को
विशिष्ट शरीर,आँख,नाक,कान,त्वचा मिलने लगे.
शुरू हुआ इस तरह पृथ्वी पर जीवन.
जीवन के साथ रास्ते खुले.  

सुबह का सूरज और रात का चाँद जैसे आता.
धूप,छाँव,शाम और रात जैसे आती.
अकेलापन जैसे छाता.
मन भी थोड़ा-थोड़ा घबराता.

दिन पर दिन,ऐसे बीतने लगे.
जीवन में अनुभव हर पल के जुड़ने लगे.

एक-एक दिन इस तरह बीतता.
धरती पर जीवन इस तरह खिलता.










4)
एक बार की बात है, मानव अभी जानवर ही था.
न बोलता था न सुनता था.
केवल घुनघुन करता रहता था.

उसका एक ही काम था.
सुबह उठना,दिन भर घूमना,
भूख लगने पर भोजन की खोज करना,
कुछ मिलने पर भूख शांत करना,
फिर सोना,फिर उठना.

मानव अब अपने में
परिवर्तन महसूस कर रहा था.
एक बार भोजन की तलाश में
उसका सामना जानवर से हुआ.
दोनों देखने में एक जैसे.
रहन – सहन में भी एक जैसे.
एक दूजे के सामने आने से डर गए.

शिकार कौन किसका बना,
यह तो हुई अलग बात
 पर बुद्धि ने मानव को
उसकी अलग जाति के बारे में चेताया.

समय के साथ मानव के
स्वरूप में बदलाव आया.
पैरों को उसने हाथ बनाया,
रीढ़ के बल सीधे खड़ा होना उसे आया.

निकल पड़ा होगा मानव तब से,
 जंगल के बाहर.




जंगल में रहने वाले कई और मानव भी,
 ऐसे ही निकल पड़े होंगे.
कहीं एक दूजे से मिले होंगे.
आगे-पीछे होने की जुगत में,
एक दूजे को पहचानने की जुगत में,
कुछ निशान कहीं छोड़े होंगे.

भटकते हुए,
जानवरों से बचने के लिए,
अंधेरे से बचने के लिए,
धूप,गर्मी,बरसात से बचने के लिए
किसी पत्थर के नीचे टिके होंगे!






















5)
भटकते-भटकते
शायद पत्थरों के नीचे,छुपने और
रहने के आश्रय उन्होंने खोजे होंगे.
कुछ यूं ही मिले होंगे,
कुछ उन्होंने बनाए होंगे.

नदियों के किनारे शायद,ऐसे जंगल होंगे
जहाँ कुछ पत्थर,पानी और पेड़ यानि भोजन भी हो.
जब चाहें वे इनमें छुप जाएँ.
जब चाहें निकल आयें.
अपनों के साथ रहें.
सुरक्षित और आबाद रहें.

पत्थरों को ढूंढते,काटते-छाँटते
ऐसे ही किसी ठिकाने पर
किसी ने पहली बार
किसी पत्थर को किसी पत्थर से रगड़ा होगा.
आग निकली होगी.
और फिर, आग पैदा करने की यह इच्छा
भीतर से बाहर निकली होगी.

शुरू हुआ होगा एक डर,
जिसने बाद में खेल का रूप ले लिया होगा.

पत्थर से किसी लकड़ी में आग लगी होगी
जिसने रात में उजाला किया होगा.
कोई जानवर डरा भी होगा.
कोई जंगली फूल और फल इसमें,
गिर कर अपने रूप से बदला भी होगा.

मानव बुद्धि ने इन दोनों ही परिवर्तनों को समझा होगा.
यानि ताकतवर जानवर डर सकता है और
उसका मांस या और कुछ भोजन इसमें पक सकता है.

6)
बुद्धि ने आगे बढ़ने की राह ढूंढ ली.
भोजन का स्वाद मनुष्य ने पहचाना.
आग को पैदा किया. र
हने के आश्रय ढूँढे.

अब उसके भीतर खोज की इसी प्रवृत्ति ने
 बहुत कुछ ढूँढने की ठान ली.
अगला क़दम,जानवर को काबू करने का था.

जैसे ही उसने मशक़्क़त के बाद
किसी एक को काबू किया,
फिर तो एक के बाद दूजा,दूजे के बाद तीजा....
इस तरह अपनी ताक़त को बढ़ते देखा.

जानवर अब साथ, मगर काबू में रहने लगे.
शिकार उसी पर चढ़ कर होने लगे.
भोजन भी पकने लगा.
आग से बहुत कुछ सुंदर होने लगा.

अब मन उसका प्रफुल्लित हुआ.
नाचने वह लगा.
खोज ली उसने चिड़ियों,पक्षियों,जानवरों,
पत्थर से पत्थर रगड़
और
नदियों के पत्थर से टकराने गिरने,
बादल की गड़गड़ाहट की आवाज़ें.








इन्हीं आवाज़ों की नकल की.
मन की आवाज़ भी सुनी होगी.
खुशी और दुख के भाव भी.

पहला शब्द निकलने के बाद वह रोया था.

इसके बाद तो वह खूब झूमा,
खूब नाचा,
खूब मज़े से.
रात भर,दिन भर.

























7)
फल-फूल को डालने और निकालने में
उसके हाथ आग में जलते थे.
लकड़ी काटने में मुट्ठियों के वार भी कम पड़ते थे.
पत्ते-फूल-मांस को मथने में
घुटने छिलते थे.

फिर उसने बुद्धि लगाई.
पत्थर के नीचे मिट्टी,कंकड़,राख़,
हवा,पानी से एक धातु पाई.
भीतर की इच्छाशक्ति से ठोस उसे बनाया.
उसे ही तपाया,गलाया.
लोहा इस तरह उसने पाया.

यह लोहा उसका साथी बना.
पकड़ भी ऐसे ही बनी.
लोहे से मिट्टी को आकार वह देने लगा.

और इस तरह जीवन गढ़ना शुरू हुआ.



8)
सुविधा जीवन की ऐसे बढ़ने लगी.
इच्छाओं ने नए रूप लिए.
परिवार और समूह बनने लगे.
पुकार और आवाज़ों में अलग-अलग स्वर गूंजने लगे.

भोजन की खोज में अब धातु भी जुड़ गई.
और फिर एक दिन चाक पर मिट्टी गूँथी गई.
पहिया इस तरह परिवार में शामिल हुआ.
अब हर मौसम में चल सकने वाला चाक भी जुड़ गया.

पुरुषों ने भोजन और जीवन का बाहरी स्वरूप अपने हाथ लिया.
महिलाओं ने उस धड़ के बीतर धड़कना शुरू करते हुए
पत्थरों से कुछ कहना शुरू किया.
आँगन को बुहारा,
पत्थर को सजाया.
बच्चों की किलकारियों को सँवारा.

पहला चित्र और संगीत जीवन से इसी तरह आया.
















9)
भीमबैठका की कहानी यहीं कहीं छुपी हुई है.
ऐसे ही किसी मानव के पास.
या उसके समूह के पास.
उसकी स्त्रियों के पास.
उसकी सुविधाओं के पास.

उसके आविष्कारों में दबी हुई है.
उसकी इच्छाओं में कहीं खोई हुई है.
उसके भरपूर सृजन का गवाह है भीमबैठका.
उसकी भयावह निराशाओं का साक्षी भी.
उसकी परेशानियों को इन पत्थरों ने दूर से देखा है.
उसकी तकलीफ़ों को अपने भीतर पिरोया है.
भीमबैठका ने उसके प्रेम को जगह दी.

पहली हूक और कूक,
मादकता और गंध भी समेटी.
ये पत्थर हँसे भी,रोये भी.
गवाह हैं लाखों सालों के.
पहली बारिश के,पहली धूप के.
अँधेरे और उजालों के.

पत्थरों का मन भी पिघला होगा,जब
कोई मानव दहाड़ मार कर
चुपचाप रोया होगा.










10)
बरसों पुरानी बात है.
कभी भीम जैसा विशालकाय मानव
समस्त मानव प्रजाति का दुख छुपा कर,
सारा आक्रोश और समुंदर बराबर आँसू लेकर
यहीं सबसे पहले निराशा में रहा था.
वह अपनी स्त्री द्रोपदी को अपमान से भरा और
मुरझाया हुआ नहीं देख पाता था.

भीम शायद इन्हीं पत्थरों से कहता होगा !

अपनी मुट्ठी से अपना आक्रोश इन पत्थरों पर धरता होगा.
किसी पत्थर को उठा कर पटक देता होगा.
किसी पेड़ को पानी की तरह चकनाचूर कर देता होगा.
भीतर की हलचलों को भीम
यहीं भस्म करता होगा.

यहीं द्रोपदी ने
भीम की बेचैनियों को
तड़प की शक्ल में देखा होगा.
इन्हीं पत्थरों पर उसने अपने
खुले केशों को रखा होगा.

ये पत्थर आज भी उस स्पर्श,
तड़प और गुस्से को जानते होंगे.
नहीं विश्वास तो
कछुए से पूछो!
जो आदि काल से इन सबका गवाह रहा है.







11)
समुद्र मंथन के समय,जब
देवता और असुर संग्राम का दृश्य था.
तब कछुए की पीठ पर कल्पवृक्ष धरकर ही सागर को मथा गया था.

एक ओर देवता और दूसरी ओर दानव
यानि
एक ओर सृष्टि और दूसरी ओर संहार.
एक ओर जीवन, दूसरी ओर मृत्यु.
एक ओर सृजन,दूसरी ओर विनाश.

यह कछुआ,
 जो भीमबैठका की कुंडली पर बैठा है,
 देख रहा है समय को,
अंतहीन समय से.
देखता रहेगा,
 अंतहीन समय तक.

कल्पवृक्ष भी
 तमाम इच्छाओं के साथ  
पेड़,पौधे,वनस्पति,
कंद-मूल,जड़ी,बूटी
के रूप में धरती पर फैल गया.

यह सृजन की शक्ति का स्त्रोत है.

जब केवल पत्थर थे और धरती थी,
यह कछुआ तब भी था.
यह जड़ियाँ तब भी थीं.

ओ भीमबैठका की आदिम संजीवनियों,
कुछ तो कहो हमसे इन पत्थरों के बारे में?
संसार के पहले मनुष्य के बारे में ?


12)
हम भीम तक हो आये.
द्रोपदी की मुस्कान और आँसू ढूँढ लाये.

यहीं बैठे-बैठे,कछुए ने
उस मानव से
किसी दिन यह सब कुछ
कहा होगा
और
उस दिन के बाद से,शायद
कछुआ
हमेशा के लिए चुप हो गया होगा.























13)
इन पत्थरों को मानव ने
अपनी तरह देखना शुरू किया.
कहीं भीम-द्रोपदी,
कहीं शिव-पार्वती,
कहीं मानव-मानवी.

मनुष्य की हथेली ने,जो भी
जीवन में सहा,
इन पत्थरों को दिया.

औज़ार और हथियार,
आँसू और मुस्कान,
शब्द और मन की आवाज़, इन
पत्थरों पर रची.

जैसे ढोल बजाते नाचना.
नाचना और गाना.
शिकार पर जाना.
तीर कमान और भाले बनाना.
जानवर पर चढ़ना.
पत्थरों को खोजना.
हाथ फेरना. उ
न्हें सुनना.
उन पर सोना.
उन पर जागना.

दिन भर,पत्थर और नुकीले औजारों से
अपना सब कुछ इनसे कहा होगा.
और फिर यही सब करते,कहते,सुनते,
 इन्हीं पत्थरों की गोद में दफन हुआ होगा.




14)
पर उसके पहले भी,
एक खिलन्दड़ जीवन बीच में है.

किसी पेड़ की डाली पर छड़कर,
कभी फुदककर,कभी लचककर,
किसी झूलती डाली को पकड़कर,
किसी कंधे पर पैर रख कर,
कभी लड़कर,कभी प्रेम में बहकर,
कभी डर कर,
कभी सहम कर,लड़खड़ाकर,
ज़िद कर,खुशी में झूम कर,
मद में चूम कर,
जब इस पत्थर को
उसने छुआ होगा तो
पत्थर अपने आप ही
खुशी से रो पड़ा होगा.

तब शायद,पत्थर ने बोलना सीखा होगा
और मनुष्य ने सुनना.

प्रेम का जन्म हुआ होगा.
और तब पत्थर के भीतर से एक कली
चुपचाप फूट पड़ी होगी,हरी भरी.
लचकन से भरी.
ज़िद की कोई झीर-सी.

सुंदरता ने तब,
घेर लिया होगा भीमबैठका को
 इस तरह चारों ओर से.





15)
ऋतुओं ने भी सब कुछ लुटाया होगा.
पहली बारिश के बाद पहली गंध बारिश की,
यहीं कहीं होगी.
पहला बीज और पहला फूल भी,
यहीं कहीं खिला और अंकुरा होगा.

पहला वसंत यहीं कहीं ठहरा होगा.
जीवन के सृजन का हर बिन्दु,
 इन्हीं पत्थरों के भीतर कहीं दुबका होगा.

ओ पत्थरों,
ओ अपने भीतर
नदियों को समो लेने वाले जीवन के चित्रकारों,
ओ दुनिया के पहले छायाकारों
क्या बताओगे कि
पहले पहले जीवन की
कौन-कौन सी अनुभूतियों को
अपने भीतर जज़्ब किए हुए हो तुम?
















16)
क्या ऐसा कोई क़िस्सा बचा होगा
जो तुमने न सुना हो ?
या कोई दृश्य,
जो तुमने न देखा हो ?

भीमबैठका,
तुमने मानव सभ्यता की
आदिम हरकतों को देखा होगा.
और बदलते हुए समय को भी.

कितने चित्र बने होंगे.
कितने फिर से बने होंगे.
कितने एक के ऊपर एक बने होंगे.
कितने मिटे होंगे.
कितने केवल इच्छाओं में दबे रहे होंगे.
तुम सब जानते हो.

धरती से आकाश और पाताल तक,
आग से हवा तक और राख़ तक,
पानी और अकाल तक,
पुराण से स्मृति,
आदिम से नगरीय तक,
कला से कहने की बेचैनी तक तक
सब कुछ...
सब कुछ...सब कुछ!

क्या हमें वो सब फिर कहोगे?







या अगर हम तुम तक आते रहेंगे तो
क्या हमको उन कहानियों के रास्ते दोगे
जो हमने न सुनी,न देखी,न पढ़ी,
पर फिर भी विश्वास है कि
इस धरती पर तुम्हारे रहते
कुछ तो ऐसा घटा है
जो असंभव से भी अधिक संभव है,
अदृश्य के भी परे है पर,
फिर भी कहीं ध्वनित है,
साँस ले रहा जीवित है.

तुम बोलो तो,
हम बार-बार यहीं उसे
अपने तरीकों से,
महसूस करने की कोशिश करेंगे.
तुम न बोलोगे,तब भी
सुनने की कोशिश करेंगे.
तुम्हारे साथ हर बार
पीछे चलने की कोशिश करेंगे.

ओ संसार के पहले बिछौनों,
ओ संसार के पहले झूलों,
ओ दुनिया के पुरखों
हमें भी अपने आँचल की छाँव दोगे न,
हर बार.
बोलो,बोलो न! 
     








(समाप्त)
___________________________

परख : नये शेखर की जीवनी (अविनाश मिश्र) : प्रचण्ड प्रवीर

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युवा कवि अविनाश मिश्र की गद्य कृति ‘नये शेखर की जीवनी’ वाणी प्रकाशन से अभी-अभी प्रकाशित हुई है. अविनाश मिश्र ने अपनी कविताओं और आलोचना से सबका ध्यान खींचा है और उन्हें उम्मीद से देखा जा रहा है. ऐसे में इस किताब में पाठकों की रूचि स्वाभाविक है. कथाकार प्रचण्ड प्रवीर ने इसे पढ़कर यह रचनात्मक प्रतिक्रिया दी है.  


निराले  शेखर  की  नयी  जीवनी                           
प्रचण्ड प्रवीर



मारे समय के चर्चित और प्रशंसित युवा कवि अविनाश मिश्रकी नवीन पुस्तक नये शेखर की जीवनीअब समग्रता में उपलब्ध है. बकौल नये शेखर -

“उसने पाया कि वह जब से पैदा हुआ तब से ही रो रहा है. सम्पादकों ने रचनाएँ लौटा दीं तो रोया, छाप दीं तो भी रोया, कवि माना गया तो रोया कि कथाकार को तवज्जोह नहीं मिली, कथाकार माना गया तो कवि न माने जाने पर रोया, कवि-कथाकार कहा तो विचारक और क्रान्तिकारी न कहे जाने पर रोया.” (पृष्ठ १३३)

इस पुस्तक की पृष्ठभूमि पर ग़ौर करें.

पृष्ठभूमि:

शेखर: एक जीवनी’ (पहला खण्ड: १९४१, दूसरा खण्ड: १९४४) की भूमिका में अज्ञेय यह लिखते हैं कि  
शेखर कोई बड़ा आदमी नहीं है, वह अच्छा भी आदमी नहीं है. लेकिन वह मानवता के संचित अनुभव के प्रकाश में ईमानदारी से अपने को पहचानने की कोशिश कर रहा है. वह अच्छा संगी नहीं भी हो सकता है, लेकिन उसके अन्त तक उसके साथ चलकर आपके उसके प्रति भाव कठोर नहीं होंगे, ऐसा मुझे विश्वास है. और, कौन जाने, आज के युग में जब हम, आप सभी संश्लिष्ट चरित्र हैं, तब आप पाएँ कि आपके भीतर भी कहीं पर एक शेखर है, जो बड़ा नहीं, अच्छा भी नहीं, लेकिन जागरूक और स्वतन्त्र और ईमानदार है, घोर ईमानदार!’

यद्यपि शेखर: एक जीवनीप्रतिष्ठित कृति है, किन्तु यह प्रतिष्ठा उसकी पठनीयता और वैचित्र्य से अधिक है. जिस तरह चौबीस वर्षीय गोएटे का पहला और अत्यधिक सफल उपन्यास द सॉरो आफ यंग बर्दर’ (१७७४) ने गलत प्रतिमान स्थापित किये जिसे बाद में गोएटे ने भी स्वीकारा, जिससे बहुत कुछ सीखा नहीं जा सकता, उसी तरह मूल शेखर की जीवनी से हम मानसिक क्लेशों और व्यवहारों का अध्ययन करके सचेत हो सकते हैं. हालांकि ईमानदारीपर बहुत जोर दे कर बहुत कुछ हासिल नहीं किया जा सकता, वहीं अज्ञेय जागरूकता और स्वतन्त्रता पर भी जोर देते हैं.

उनका शेखर अपने समय के मूल्यों जैसे साम्यवाद और क्रान्ति पर विचार करता है और वैसा जीवन जीने का प्रयत्न भी करता है. जेल में बंद होने पर उसकी मुलाकात एक कैदी से होती है जो उसे एक सूत्र देता है, अभिमान से भी बड़ा एक दर्द होता है, लेकिन दर्द से बड़ा एक विश्वास होता है.  इस सूत्र के पीछे सामीविचारधारा की चेतना जैसी बात नज़र आती है, जिसमें दर्द सहना और विश्वास कायम रखने को सर्वोच्च महत्ता दी जाती है. यहाँ कहना चाहूँगा कि विश्वास की छलांग को भारतीय दर्शनों में हेय ही माना जाता है. न तो यह तंत्र सम्मत है, न ही यह वेदांत सम्मत है. न ही बौद्ध, जैन यहाँ तक कि लोकायत भी किसी विश्वासको इस तरह की महत्ता देते हैं. पूर्ण सत्य तक पहुँचना (या नहीं पहुँच पाना) सम्बन्धित जो वैचारिक द्वंद्व रहा है, वही चिन्तन की पराकाष्ठा है.


अज्ञेय के उपन्यास की मूल्यात्मक समीक्षा में यह बात सबसे अधिक ध्यान देनी चाहिये कि यह एक अंहाकारात्मक आख्यान है. यहाँ स्वऔर ममसे होते हुये, शेखर का दर्द, शेखर की पीड़ा, शेखर का छला जाना, शेखर का माता-पिता से कड़वी बातें सुनना, शेखर को शशि के पति से अपमानित होना- सब कुछ शेखर के इर्द-गिर्द है. बदले में शेखर क्या कर रहा है? वह सौन्दर्य की खोज कर रहा है टैगोर की कविताओं में, टेनीसन की कविताओं में, नीत्शे के दर्शन में, नये शहरों में, पहाड़ों में देवदार की छाँव में. कुछ इस तरह से कि जो शेखर के साथ हो रहा है बहुत कुछ अन्यायपूर्ण है, पर शेखर इतना प्रतिभाशाली है कि वह सत्य की खोज कविताओं और प्रकृति में कर के अपने बेईमान साथियों और धोखेबाज लोग से जीत जाएगा या उन्हें बदल देगा.

कहने का अर्थ है कि अज्ञेय के उपन्यास में न तो व्यवहार और नीति सम्बन्धी सत्य है, न ही किसी धर्म संकट पर चिन्तन है, न ही किसी विचार व्यवस्था में अनुराग. वे अस्तित्ववादीऔर भातिवादियोंकी तरह भटकना चाहते हैं और पूरे उपन्यास में लगभग भटकते ही रहते हैं. वह इस तरह से कि एक मनुष्य को (जो कि गुण-दोषों दोनों से युक्त है), क्यों सताया जा रहा है? जैसे कि केवल उपन्यास के नायक के साथ बहुत कुछ हुआ हो और शेष का जीवन बड़ा सुखद बीता हो जो नायक पर सहानुभूति दर्ज़ करें.

किन्तु इस आरोपित वैचारिक विफलता की आलोचना में हमें काल का ध्यान रखना होगा कि उस समय कैसी किताबें, परिवेश, सामाजिक परिस्थितियाँ उपलब्ध थी. साहित्य का मूल्यांकन भले ही हम विचार की गहराई, भाव की तीव्रता, और संकल्पता की प्रेरणा से लें; किन्तु साहित्य अपने साथ बहुत से चीजें साथ ले कर चलता है जैसे कि शिल्प के आयाम जो कि पठनीयता, सम्प्रेषणात्मक क्षमता आदि कारयित्री प्रतिभा से अनुसंग हैं.

शिल्प:

अविनाश अगर कवि बनना चाहते थे और कवि बनने का दावा करते हैं तो उनके साध्य और सिद्धि में बहुत फर्क नहीं कहा जा सकता है. इस तरह उनका कथा साहित्य काव्यात्मक अधिक है, जो भाव सम्प्रेषित करना चाहता है. अविनाश मिश्र का यह मानना हो सकता है कि साहित्य में भाषा ही सब कुछ है. इसलिये वह बड़े प्रभावी और मारक भाषा का प्रयोग करते हैं. अज्ञेय के शेखर का अनुसरण करते हुये नया शेखर भी अपने जीवन को बहुत से अनुच्छेदों में देखता है. यहाँ वह अपने काल को ले कर कहीं ज्यादा सजग है. इस सजगता दिनांकों, शहर के प्रवासों, मकान बदलने के क्रमों में उभर कर आती है. ये अनुच्छेद रैखिक क्रम में नहीं हैं, जो कि सूक्ष्मदृष्टि वाले कवि की पहचान है. भावों के प्रवाह को ले कर भी वह बहुत सावधान रहे हैं.

हालांकि शिल्प की समस्या किताब के दीर्घजीवी हो जाने से गहरा जाएगी. जनवरी १९९० से शुरु होने वाले संस्मरण काल में इतनी दूर तक जाते हैं कि वह प्रकाशन तिथि (जून २०१८) का अतिक्रमण कर जाते हैं. मसलन कुछ अनुच्छेद २०१९, २०२२, २०२५ और २०२६ तक के हैं.

इसी क्रम में यदि कवि २०१९ में (जिस समय उसकी आयु ३३ साल की होगी) यह लिखता है कि –
अनुशासन अयोग्यों के लिये होता है
सारी समझदारी अतीत हो जाती है
बहुत समझदारी बहुत मूर्खता का निष्कर्ष है
आत्ममुग्धता एक अच्छी चीज़ है, अगर वह मूर्खों के बीच बरती जाए

तब इसे कवि को ग़ैर जिम्मेदाराना लेखक कहा जाएगा, जहाँ न इसके पक्ष में तर्क है न इसे निषेध करने के लिये इशारे हैं. शायद इसे लड़कपन की बदमाशी जैसे अनदेखा या कुछ संवेदना सा पैदा करने के लिये चुहल ही कहा जा सकता है. यह इसलिये कि बहुत से साहित्यकार बहुत अनुशासित और मेहनती रहे हैं. समझदारी न जाने किन अर्थों मे ली जा रही है. आत्ममुग्धता जैसे दोषों को मानवीय कह कर मानवीय गरिमा को घटाना अपराध कहा जाना चाहिये.

जहाँ अज्ञेय टेनीसनऔर टैगोरपर टिकते हैं, नये शेखर के लिये हिन्दी के बहुपुरस्कृत और शीघ्र विस्मरणीय कवियों की चर्चा आवश्यक लगती है. नयी कविता के आस्वाद के लिये और कविता के लिये मज़दूरी की चाह में बहुत सी ऐसी कविताओं का उल्लेख है जो कि भुला दी जाएँगी. हम आशा कर सकते हैं कि कवि भविष्य में अपने इस आस्वाद के लिये कभी लज्जित हो सकेगा. कवि के लिये आशा इसलिये है कि तमाम संदर्भों से गुज़रते हुये वह अंत में कालिदास और बाणभट्ट के पास विनम्रतापूर्वक पहुँचता है. सम्भव है कि हिन्दी कविताओं के प्रतिमान जिसे कविता कम, ललित निबंध, व्यङ्ग्य, अकविता, एकालाप, भड़ास, कुंठित मन का विषाद कहना श्रेयस्कर है, वे सभी कालिदास, भारवी, बाणभट्ट, भास, श्रीहर्ष, भवभूति के शिल्प, कथ्य और वार्णिक संयोजन अलंकार को देखें और अपनी अक्षमता पर विलाप करें.

हाँ, ये अपराध उनके लिये क्षम्य हैं जो कि खुद को कवि नहीं मानते, और श्रेष्ठता से विनम्रता के साथ परिचित हैं. 

नये शेखर के लिये काल वर्तमानके अर्थ में नहीं समकालीनअर्थ में है. इसलिये वह रेखा-अमिताभ, रजनीकांत, यहाँ तक कि अजय देवगन की फ़िल्म का भी जिक्र कर बैठते हैं. इतनी समकालीनता से बचा जा सकता था क्योंकि वह निरर्थक सिद्ध हो जाएँगी. उदाहरण के लिये अब न कोई कुंदन लाल सहगल को याद करता है, न उनके नशे को, न देव-आनंद और सुरैय्या की प्रेमकथा में कोई रस लेता है.

नया शेखर बहुत सी बातों से आहत हो कर प्रतिक्रियावादी हो जाता है. इस अर्थ में कि वह आत्मघाती भी हो जाता है. जब वह यह कहता है कि माँ-बापहीन और बेरोजगार होना सच था और इस वजह से शेखर जीवनियाँ लिखने की पात्रता खो चुका था या फिर अयोग्य इतने दयनीय हैं उसके करीब कि अपनी जीत अक़्सर उसे बेहद अश्लील लगती है. यह आत्मघाती इसलिये है कि शेखर अपने प्रतिद्वंदी और पैमाने, शत्रु और शिकार, इतने साधारण लोग को चुनता है जिससे वह खुद की प्रतिष्ठा कम करता जाता है. यह वह स्वयं भी जानता है युवा होना कोई छूट नहीं है और यह शेखर तब से जानता है, जब वह युवा नहीं हुआ था.

यह द्वंद्व रेखांकित करने योग्य है क्योंकि बहुत से वाक्य और अनुच्छेद इस तरह की हेगेल की द्वंद्वात्मक तर्कपद्धति (थीसिस’,‘एंटीथीसिसऔर सिंथिसिस) की तरह, या जैन दर्शन के स्यादवादकी तरह समझने, समझाने और अभिव्यक्त करने का सापेक्षिक सिद्धांत पर चलता है, जो कि बहुत स्पष्ट न होते हुये भी विचारधारा की तरह अंदर ही अंदर प्रवाहित होता है.

मूल्य: नये शेखर की जीवनी का मूल्य आत्म-दयाया सहानुभूति बटोर लेनाकदापि नहीं है. विद्रोहसे शुरु होती यह किताब अतीत’,‘प्रतिशोध’,‘संघर्ष’, स्वतन्त्रतासे होते हुये एक कवि की साहित्यिक यात्रा का भी आख्यान है. नया शेखर के लिये संस्कृतिको जड़ता से बचाये रखने के लिये कृत संकल्प है. इसके लिये वह हिन्दी साहित्य का विधिवत अध्ययन करता है, और उसी परम्परा में निबद्ध भी होना चाहता है. अविनाश हिन्दी भाषा में स्नातक कर रहे विद्यार्थियों के लिये एक ऐसा प्रतिदर्श तैयार करते हैं जो कि एक उपलब्धि कही जा सकती है. अपने समस्त काम के बावजूद वह यह कहते हैं कि बी.ए. के बाद शेखर ने एम.ए. नही किया. इसलिये वह उसके साथ कैसे होता जो एम.ए. के बाद होता है. बड़े राजनीतिक बदलाव हुये समाज में, लेकिन उसने खुद को खबरों से दूर रखा. घुस गया अजायबघरों में और देखता रहा ज़ंग लगी हुई तलवारें. पुस्तकालयों से वह वैसे ही गुज़र जैसे वेश्यालयों से एकदम बेदाग. उसने कुछ भी जानना नही चाहा. उसने कुछ भी बदलना नहीं चाहा. उसने नहीं किया मतदान....

यह कहना बेवकूफाना होगा कि लेखक अभिधा में कुछ कहना चाह रहा है. क्योंकि यह सब कुछ दूसरी तरह से खुलता है जहाँ शेखर का एक विशिष्ट राजनैतिक दृष्टिकोण भी है, पुस्तकालयों से पढ़ी पुस्तकों का विवरण भी है, और गहरा इतिहासबोध भी है.

हम अक्सर कवि को उसके कर्मों से भी तौलते हैं. निराले शेखर ने जिस तरह अपना जीवन साहित्य साधना में लगाया है, वह हिन्दी के लिये ऐसा उदाहरण बन गया है जो कि आने वाले समय में एक आदर्श की तरह स्थापित होगा. इस तरह काव्यात्मक मूल्य जब जीवन के कर्मों के मूल्यों के साथ संगति में हो तो वह शोभा देता है. वरना मोहम्मद इकबाल का विवादित उदाहरण सबके सामने है ही.

भाषा
अविनाश की भाषा प्राजंल है और वह ध्वन्यात्मक लय लिये हुये है. वह हिन्दी में अंग्रेजी और विदेशज शब्दों का प्रयोग बड़े स्वभाविकता के साथ करता है. सामाजिक मीडिया पर भारी टिप्पणियाँ उसके भाषीय कौशल का प्रमाण है. अविनाश की भाषा बहुत से आलोचकों और लेखकों ले लिये एक चुनौती जैसी है. वह अपनी भाषा साधना से अपने समकक्षों के बहुत आगे, और प्रतिष्ठितों को आक्रान्त करने का माद्दा रखते हैं.

“दिल्ली में बस समुद्र नहीं है, बाक़ी वह सब कुछ है जो शेखर को चाहिए- अकेलापन. आर्द्रता. गिरगिट.

उदाहरण:
कुछ उद्धरण जो इस किताब में शामिल कर लेने चाहिये थे, वह इस तरह से हैं:

कानपुर, जुलाई १९९९
शेखर जब साढ़े तेरह साल का हुआ तब उसे उपन्यास पढ़ने की तलब हुयी. इसके कुछ दिनों के बाद उसने अपने भाई की दोस्तों से शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के देवदासकी तारीफ़ सुनी. इसके कुछ दिनों के बाद उसने इस उपन्यास के विषय में अपनी बड़ी बहन से पूछा. बड़ी बहन का उत्तर था- देवदास एक मूर्ख आदमी था. उसे पढ़ कर तुम क्या करोगे?” शेखर अपनी बहन की आलोचना से सहमत नहीं हुआ और उसने भाई के उस दोस्त से देवदासके विषय में पूछा जिसका वह बेहद सम्मान करता था. उसके भाई के दोस्त ने चोरी-छुपे सिगरेट पीते हुये पकड़ने जाने पर उसका मुँह बंद रखने के एवज़ में बताया कि देवदासएक सोलह साल के लड़के की कहानी है, जो कि अपने प्रेम से भागते हुये घर से भाग कर महानगर कलकत्तापहुँचता है और वहाँ एक वेश्याउसके प्रेम में पड़ जाती है.

शेखर ने पूछा, “क्या देवदास बहुत सुन्दर था?”
 मालूम नहीं.
शेखर की कल्पना ने दूसरा प्रश्न किया – “स्त्रियाँ उसे ही क्यों प्यार करती थीं, उसके बड़े भाई को क्यों नहीं?”

उसके भाई के दोस्त ने सिगरेट उसकी तरफ़ आगे बढ़ा कर कहा –“इसे जानने के दो ही तरीक हैं. पहला, या तो तुम महानगर चले जाओ और खुद इस सच का पता लगाओ. दूसरा, इसका कश लगा कर दुनिया को भूल जाओ.

शेखर को सिगरेट के धुएँ से नफ़रत थी. इसलिये शेखर के दिल में उसके भाई के दोस्त के लिये रहा सम्मान नष्ट हो गया. कानपुर के फुटपाथ पर देवदास की पुरानी प्रति किराये पर पढ़ने के बाद शेखर ने तय किया कि वह दिल्ली जाएगा.

बात बेवजह बढ़ रही है, कहना बस इतना ही था कि शेखर जब साढ़े तेरह साल का था उसे प्रेम की ज़रूरत महसूस हुयी. इस कारण से वह देवदास को दोषी नहीं मानता था. शेखर ने जाना कि संसार में इच्छा करना दोष नहीं है.

दिल्ली,अगस्त २०१७
शेखर जब तक गोष्ठियों में औसतताओं के साथ बैठा रहता था, उसे स्वीकृतियाँ मिलती रही. इसके लिये उसने मूर्खों को नासमझ, अकवियों को प्रयत्नशील, सनकियों को उन्मादी,अशिष्टों को साहित्यकार, भ्रष्टों को निर्णायक, गिरोहों को मंच कहा. एक दिन ये सारी स्वीकृतियाँ उसकी एक असहमति पर अश्लीलहोने के आरोप से कम पड़ गयीं. इसलिये उसने गिरोह को गिरोह’, मूर्खों को मूर्ख, अशिष्टों को अशिष्ट, भ्रष्टों को भ्रष्ट कहा. उसने महसूस किया कि गोष्ठियाँ दरअसल सफेदपोशों का गिरोह थीं, स्वीकृतियाँ नारेबाज़ियाँ थीं, और साहित्यकार अविवेकी ही नहीं अशिष्ट भी थे. जब उसने इसे जाना, तभी उसने उन सब का निषेध किया जो उसके मेहनतकश हाथ में लकीरें ज्यादा देखते थे, और नसीब कम; जो उसके फटे जूते देखते थे और पिंडलियों की थकान कम, जो उसका मौन देखते थे और विषाद कम.

शेखर के लिये वह सब कुछ वरणीय था जो औसतताओं के लिये अकल्पित था. इसलिये शेखर निराला था.

इसलिये हमें निराले शेखर की नयी जीवनी पढ़नी चाहिये, जो मार्गदर्शक बनेगी उन सबों का जो समझे हुये सत्य पर ईमानदारी से डँटे रहते हैं. उन सब के लिये जो गलती का अहसास होने पर भूलसुधार में लज्जित होते हुये भी सत्य की टेक नहीं छोड़ते.

साहित्य ही मूल्यों का वाहक है. निराले शेखर ने जिया भी है, लिखा भी है, और लिखता रहेगा. इसके लिये उससे आशाएँ बहुत ज्यादा है और उसके पास अवकाश बहुत कम!

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परिप्रेक्ष्य : हिन्दू पानी - मुस्लिम पानी

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हिन्दूपानी - मुस्लिमपानी                     





यपुर. धर्मकेप्रतिनिष्ठाहोनेऔरसाम्प्रदायिकहोनेमेंबहुतअंतरहै.किसीभीधर्मकोमाननेवालाअपनेधार्मिकविश्वासोंपरअडिगरहतेहुएजनहितमेंकामकरसकताहै.लेकिनसाम्प्रदायिकव्यक्तियासमूहोंजोधर्मकेनामपरराजनीतिकरतेहैंवेजनविरोधीकामकरतेहैं.सुप्रसिद्धकथाकारअसग़रवजाहतनेअपनीनयीपुस्तक'हिन्दूपानी - मुस्लिमपानी'केलोकार्पणसमारोहमेंकहाकिराजनीति नेजिसप्रकारसेधर्मकोइस्तेमालकियाहैउससेसाम्प्रदायिकताबढीहै.दूसरीओरशिक्षाऔरजागरूकताकेप्रतिदेशकेनेताओंकोजोचिन्ताहोनीचाहियेथीवोरहीनहीं.क्योंकिउन्हेंधर्मांधताकोफैलानाहीहितकरलगा.

बाबाहिरदारामपुस्तकसेवासमितिद्वाराआयोजितसमारोहमें वरिष्ठकथाकारऔरलघुपत्रिका 'अक्सर'केसम्पादकहेतुभारद्वाजने  भारतकीसामासिकसंस्कृतिकीगहराईकोरेखांकितकरतेहुएकहाकिआजसाहित्यकेसमक्षइससामासिकसंस्कृतिकोमजबूतकरनेकादायित्वगयाहै.

आयोजनमेंकथाकारभगवानअटलानीनेसाहित्यऔरसंस्कृतिकेसम्बन्धकोअटूटबतातेहुएभाईचारेकीआवश्यकताबताई.दिल्लीविश्वविद्यालयकेप्राध्यापकडॉ.पल्लवनेसमारोहमेंअसग़रवजाहतकेरचनात्मकअवदानपरअपनेवक्तव्यमेंकहाकिपांचभिन्नभिन्न विधाओंमेंप्रथमश्रेणीकीयादगारकृतियांलिखनेवालेअसग़रवजाहतकालेखनहमारीभाषाऔरसंस्कृतिकागौरवबढ़ानेवालाहै.  उन्होंनेवजाहतकेहालमेंप्रकाशितकहानीसंग्रह'भीड़तंत्र'काविशेषउल्लेखकरतेहुएसंग्रहकीकहानी'शिक्षाकेनुकसान'काउल्लेखभीकिया.इससेपहलेराजस्थानविश्वविद्यालयकी प्राध्यापिकाप्रियंकागर्गनेविमोचितहोनेवालीकृतिपरएकपरिचयात्मकआलेखप्रस्तुतकिया.  उन्होंनेबतायाकि इससंकलनमेंअसग़रवजाहतकीसाम्प्रदायिकसद्भावविषयकश्रेष्ठकहानियांतोहैंहीवैचारिकपृष्ठभूमिकेरूपमेंउनकेछहमहत्वपूर्णलेखभीसंकलितहैं, जिनकोसाथरखकरपढ़नेसेइनकहानियोंकेनएअर्थखुलतेहैं.

समितिकेउपाध्यक्षडॉदुर्गाप्रसादअग्रवालनेसमितिकेक्रियाकलापकापरिचयदेतेहुएबतायाकि  ‘हिंदूपानी- मुस्लिमपानीशीर्षकवालेइससंकलनकाप्रकाशनबाबाहिरदारामपुस्तकसेवासमितिनेकियाहै. समितिकाप्रयासबहुतकममूल्यपरउच्चगुणवत्तावालीपुस्तकेंप्रकाशितकरपुस्तकसंस्कृतिकोप्रोत्साहितकरनाहै, इसीलिएलगभग 150 पृष्ठोंकेइससंकलनकामूल्यभीमात्रतीसरुपयेरखागयाहै. समारोहकासंचालनयुवारचनाकारचित्रेशरिझवानीनेकिया. 

समारोहकाएकअतिरिक्तआकर्षणयहरहाकिइसेप्रो. असग़रवजाहतकेजन्मदिनकीपूर्वसंध्याकेरूपमेंभीआयोजितकियागया.इसअवसरपरसमितिकेसचिव गजेंद्ररिझवानीनेसभीकीतरफसेअसग़रसाहबकोजन्मदिनको शुभकामनाएंदींऔरकेकभीकाटागया. 

अंतमेंसमितिकेअध्यक्षआसनदासनेभनानीनेआभारप्रदर्शितकिया.आयोजनमेंबड़ीसंख्यामेंलेखक-कविसाहित्यप्रेमीऔरपत्रकारउपस्थितथे. 
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दुर्गाप्रसाद अग्रवाल

स्मृति : गोपाल दास नीरज : संतोष अर्श

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‘गीत एक और ज़रा झूम के गा लूँ तो चलूं..’

हिंदी के प्रसिद्ध गीतकार ९३ वर्षीय गोपाल दास नीरज (४/जनवरी १९२५- १९ जुलाई २०१८) के न रहने से लोकप्रिय हिंदी कविता की परम्परा ठिठक सी गयी है,  मंच पर उसके पास ऐसा कोई स्तरीय कवि अब नहीं बचा है.

नीरज जैसे कवि जनमानस का रंजन करते हुए उसे कविता के लिए भी तैयार करते हैं, इन्हीं गीतों से साहित्य का अंकुरण होता है और पाठक धीरे–धीरे परिपक्व बनता चलता है.

कवि संतोष अर्श ने क्या बेहतरीन ढंग से नीरज को याद किया है. यह स्मृति लेख उन्होंने समालोचन के आग्रह पर रात २ बजे तैयार किया.

नीरज की स्मृति को समर्पित यह अंक



दिल आज शायर है,ग़म आज नग़मा है !                       

(स्मृति शेष गोपाल दास नीरज)

संतोष अर्श 



जिस वर्ष मैं पैदा हुआ उस वर्ष नीरज की उम्र उतनी हो चुकी थी,जितनी किसी सरकारी महकमे के क्लर्क के रिटायर होने की होती है. और जब मैं रेडियो पर नीरज के लिखे गीत सुनने-समझने के क़ाबिल हुआ तब तक नीरज की उम्र अच्छी-ख़ासी हो गई थी और तभी जान पाया की नीरज के गीतों में बादल बिजली चन्दन पानीकी तासीर है. यह नौखेज़ और हैरतअंगेज़ उम्र होती है, फूलों के रंग से, दिल की क़लम सेकिसी को पातीलिखने की.

भारत की कम-अज़-कम तीन पीढ़ियों ने अपनी मसें भींगने के सिन में प्रेम पुजारीका यह गीत सुन कर अपनी मुहब्बत के हसीन ख़्वाब सजाए होंगे. मुहब्बत हमेशा हसीन ख़्वाब सजाती है और उसके लिए नीरज के गीतों से गुज़रना ही पड़ा होगा. यह ऐसा गीत है जो बादल,बिजली,चन्दन,पानी जैसा प्यार किए बिना या किसी के सपने लेकर सोने और किसी की यादों से जागे बग़ैर नहीं लिखा जा सकता.

इस गीत में पातीशब्द के प्रयोग से नीरज ने हिंदी की विकास परंपरा को ता-अमीर खुसरो से ता-बीसवीं सदी के सातवें दशक जोड़े रखा है. न आप आवें न भेजें पतियाँ.मुझे शदीद यक़ीन है कि जिसने भी प्रेम की पाती लिखी है,उसने नीरज के गीत सुने हैं. गरज़ यह कि बिना किसी ऐन-गैन के नीरज प्रेम का कवि है.
 
अपनी उम्र से तिगुने से भी अधिक आयु के नीरज से लखनऊ में मिलने के कई अवसर मिले,किन्तु नहीं मिल सका. मुनव्वर राणा जैसे शायरों से मिल भी चुका था. पिछले सालों में उत्तर प्रदेश की समाजवादी सरकार ने नीरज को ख़ासा सम्मान दिया. भाषा संस्थान का अध्यक्ष पद और राज्यमंत्री का दर्ज़ा भी दे रखा था. इसका कारण राजनीतिक लोग ये बताते थे कि नेता जी मुलायम सिंह यादव और हिंदी के अतिलोकप्रिय गीतकार नीरज दोनों ही इटावा के जन्मे हैं और नीरज मुलायम सिंह यादव जी से पंद्रह वर्ष बड़े हैं. लेकिन इस बात पर मुझे बारहा संदेह होता था,क्योंकि नीरज को जो भी मिला हुआ था वह उसके (सु) योग्य, (सु) पात्र थे. बल्कि यह सब नीरज की मक़बूलियत के बरक्स कुछ क्षुद्र ही नज़र आता था.

नीरज से मिलने क्यों नहीं गया ?आज जब यह लिख रहा हूँ,तो सोचता हूँ कि ठीक ही किया. पीरों की उम्मत की जाती है,उनसे मिलकर उम्मत की उम्मीदवारी को हल्का करना है. नीरज हिंदी के अपने जैसे अकेले बुज़ुर्ग गीतकार थे,उनसे मिलकर उस ज़ादुई राग को ठेस पहुँचती जब अब तक बना हुआ है और अब आगे भी बना रहेगा.
  



बाराबंकी के देवा शरीफ़ की सालाना नुमाइश में होने वाले मुशायरे में नीरज अक्सर आया करते थे. उनके लिए कवि-सम्मेलन और मुशायरे का कोई बंधन-भेद नहीं था. दोनों से उनकी रब्त-ज़ब्त व उनमें आमदो-रफ़्त थी. देवा मेले का यह समय कार्तिक का होता है. जब धान की फ़सल कटनी शुरू हो जाती है और रात के दूसरे पहर ओस के आँसू बहाने से पहले फ़िजाँ हल्की नीली धुंध का आँचल अपने सीने पर डाल लेती है. नीरज भीड़ बनाए रखने के लिए आख़िर तक बिठाए जाते थे. लोग उन्हें सुनने के लिए शॉल-चादर ओढ़े,गमछा-मफ़लर बाँधे या कुछ जड़ाते ही बैठे रहते थे. नीरज कितना भी कुछ सुनाएँ लेकिन उनसे कारवाँ गुज़र गयाकी बहुत फ़रमाइश होती थी. नीरज आख़िरे-शब के हमसफ़र की तरह,ढलती जा रही रात के कान में अपनी लरजती और कभी-कभी गरज उठने वाली आवाज़ में सुनाते थे. उनके स्वर में शराब से तर गले की सी ख़राश होती थी. रात के सन्नाटे में ये ख़राश अपनी आवृत्ति में और स्पष्ट हो उठती थी:




क्या शबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा
क्या जमाल था कि देख आईना मचल उठा
इस तरफ़ ज़मीन और आसमाँ उधर उठा
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा

एक दिन मगर यहाँ ऐसी कुछ हवा चली
लुट गई कली-कली कि घुट गई गली-गली
और हम लुटे-लुटे वक़्त से पिटे-पिटे
साँस की शराब का ख़ुमार देखते रहे
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे.    


इस गीत को मुहम्मद रफ़ी नई उमर की नई फ़सलमें 1966 में ही गा चुके थे और बेशक रफ़ी की आवाज़ का अलग जादू है,लेकिन इसे नीरज के मुँह से सुनने में एक अलग ही कैफ़ियत होती थी. हमने इस कैफ़ियत को नीरज की वृद्ध होती जाती आवाज़ में बरसों के हिसाब से सफ़र करते हुए महसूस किया है. यह हमारी पीढ़ी का गीत नहीं था लेकिन इसे हम अपनी डायरी में लिख कर रखते थे. और जब भी पढ़ते तो नीरज की मुशायरे के मंच के माइक पर खड़ी छवि सामने उभर आती. मेरे मन में इस गीत की टेक गुबार देखते रहेको लेकर एक अलग तरह का बिम्ब बनता रहा है. उर्दू शायरी के अधिक नज़दीक रहने के चलते मुझे लगता कि कारवाँ जो गुज़र गया है उसमें एक महमिल (ऊँट की पीठ पर बनी डोली) है जिसमें लैला जैसी कोई परीज़ाद परदानशीं सवार है और नीरज कोई राजकुमार हैं. अलगरज़ नीरज को गीतों का राजकुमारकहा भी जाता रहा है.

नीरज को मंचीय कवि मान कर हिंदी साहित्य से दूर करने की जो कोशिश जैसी की जाती रही,उसने हिंदी वालों को क्षुद्र ही बनाया है,ऐसा अब कह दिया जाना चाहिए. नीरज वास्तव में लोकमन के कवि हैं. लोकमन चित्तवृत्ति और कालचक्र के संतुलन से विकसित होने में दीर्घ समय लेता है,तब अपनी भाषा के कवि को ग्रहण करता है. कवि को भी उसके अनुरूप बनने-बिगड़ने में समय लगता है. हम अक्सर यह भूल जाते हैं कि नीरज आज के से चिरकुट मंचीय कवियों जैसे कवि कभी नहीं रहे. न वे फ़िल्मी थे. फ़िल्म वालों ने तो स्वयं ही उन्हें बुलाया था,उन्हें नीरज जैसे गीतकार की गरज़ थी.

देवानंद को नीरज की ज़रूरत थी इसलिए उन्होंने प्रेम-पुजारीके गीत उनसे लिखवाये. हम भूल जाते हैं कि नीरज गोपाल सिंह नेपालीके जोड़ के कवि हैं. उन दिनों हिंदी कविता में गीतों की क्या अहमियत थी,यह हम शैलेंद्रमें भी देखते हैं. नीरज हिंदुस्तान की कई पीढ़ियों के कवि का नाम है. सात वर्ष छोड़ दिये जाएँ तो नीरज भारत की एक सदी का कवि तो है ही. तिस पर उसकी भाषा और भाव देखिए ! बौद्ध दर्शन का दु:खवाद भी है उसमें.

लोकभाषा की परंपरा भी है. प्रेम तो अविरल और तरल है. हिंदी की प्रांजलता को फ़िल्मी गीतों में गूँथ कर उसे लोकप्रियता के शिखर तक ले जाना एक बड़ी चुनौती का कार्य है,जबकि लंबे समय तक हिंदी फ़िल्मों के गीतों पर उर्दू शायरी का दबदबेदार प्रभाव रहा है,नीरज ने उस दौर में भी लिखा है-

देर से लहरों पे कमल संभाले हुए मन का
जीवन-ताल में भटक रहा रे तेरा हंसा

अभिप्रेत यह है कि गुलो-बुलबुल और आशिक-महबूब-महबूबा-दिलरुबा वाले फ़िल्मी गीतों में हंसा-हंसिनी को लाना समय के हिसाब से कम चुनौतीपूर्ण नहीं था. ये हंसा कबीर वाला हंसा है,इसमें कोई शुबहा नहीं होना चाहिए. यह भी नहीं है कि नीरज साहित्यिक वैचारिकता और मेयार से भिज्ञ नहीं थे. एक अख़बारी इंटरव्यू में उन्होंने अपनी बात कहने के लिए इलियट की बड़ी महीन और वज़्नी उक्ति को कोट किया है. और वह है-

“Poetry is although creation of the individual mind but given to the national mind.” 

इस संदर्भ में इलियट के प्रसिद्ध लेख ट्रेडिशन एंड इंडिविज़ुअल टैलेंट (1921- दि सैक्रेड वुड) का स्मरण होना स्वाभाविक है. तो नीरज का टी.एस. इलियट को उद्धृत कर यह कहना कि लोकमन एक दिन में नहीं बनताइस बात की तस्दीक करने के लिए है कि नीरज जैसा गीतकार एक दिन में नहीं बनता.
  
नीरज ने उम्र ए दराज़ पायी और जीवन के विभिन्न रंग-ढंग भी देखे. ये रंग-ढंग उनकी रचनाओं में हम सब देखते रहे हैं और उन्हें बहुत अधिक उद्धृत करने की यहाँ आवश्यकता भी नहीं है. एक इंटरव्यू में नीरज ने स्वीकार किया था कि स्त्री-सौंदर्य के प्रति उनमें बचपन से ही उद्दाम आकर्षण रहा है. यह आजीवन बना भी रहा. उसी इंटरव्यू में नीरज ने यह भी बताया था कि अपने बुरे और तंगदस्ती के दिनों में उन्होंने पान-बीड़ी बेचे थे. यहाँ तक कि तांगा भी हाँका था. तांगा हाँकने की बात पढ़ कर मुझे उनके लिखे मेरा नाम ज़ोकरफ़िल्म के गीत ऐ भाई ज़रा देख के चलोकी बरबस याद आ गई थी. इस गीत को बेस्ट लिरिक्स के लिए फ़िल्म-फ़ेयर अवार्ड मिला था. जीवनानुभवों का भाषा से कितना गहरा संबंध है ! भाषा का गीत की लय से कैसा अविच्छिन्न मेल है. और गीत का लोकमन से.

नीरज सच्चे अर्थ में हिंदी के लोकमन के कवि हैं. गीतों के राजकुमार हैं. शीशमहल में बरसों तक गुमसुम बैठे हुए आशाओं के राजकुमार की तरह,जो अब हमें उदास छोड़ कर चला गया है:

और हम डरे-डरे,नीर नैन में भरे
ओढ़ कर कफ़न पड़े मज़ार देखते रहे
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे.

                            
न जाने यह सुखद है कि दु:खद,हिंदी ने नीरज जैसा दूसरा गीतकार नहीं पैदा किया. क्या नीरज के होते हिंदी को इसकी ज़रूरत भी थी ?
_____
poetarshbbk@gmail.com  
   

बुढ़ा शजर : प्रीता व्यास की कविताएँ

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बूढ़ा शजर : कुछ बिंब
प्रीता व्यासकी कविताएँ


    (1)
खोखला करता है
पर कम से कम
रोज़ आता तो है
बूढ़े शजर को
भाने लगा है
कठफोड़वा.





        (2)

बच्चे उसे छू रहे हैं
खेल रहे हैं इर्द -गिर्द
आंखमिचौली,
बूढ़ा शजर
भूलना चाहता है
अपनी उम्र.





     (3)

बताता नहीं है
किसी को भी
बूढ़ा शजर
कि अक्सर
टीसने लगते हैं
टहनियों पर
सावनी झूलों के निशान.





      (4)

चहचहाते हुए लौटते हैं
फुदकते हैं इस डाली से उस डाली
सुनाते हैं दिन भर के किस्से
बूढ़े शजर को
अच्छी लगती है शाम.




     (5)

मुद्दतों बाद
दो नर्म हाथों ने बांधा
मनौती का कलावा
बूढ़ा शजर
पत्ता-पत्ता दुआ बन गया है.



    (6)
यूं ही नहीं हो गई है
छाल सख़्त,
झेले हैं
बूढ़े शजर ने
मौसमों के
बिगड़े मिज़ाज.





   (7)
लुटा सा
रह गया है खड़ा
बूढा शजर 
बहा ले गई है दरिया
सारा गांव.





     (8)

कभी- कभी
घुटने लगता है दम -सा
बूढ़े शजर का
बदलती जा रही है
शहर की हवा.





      (9)
थक के सोया है
गोद में मजदूर कोई
झेल रहा है
बूढ़ा शजर
दोपहर के सूरज की
सारी नाराज़गी
अपने सर.




    
     (10)
नए - नए पर हैं
ऊंची उड़ानों का जोश
बूढ़ा शजर
घोंसले सम्हाले
चिंतित रहता है आजकल.



      (11)

कहीं किसी फुनगी पर
फिर फूटी है
हरी पत्ती,
बूढ़ा शजर
करने लगा है प्रतीक्षा
वसंत की.





       (12)

आदतन ऊधम मचाती
जगा गई
कुछ ताज़गी
कुछ हलचलें
बूढ़े शजर के लिए
क्या से क्या हो गई
गिलहरी.




      (13)

बच्चे चाहते थे तोड़ना
कच्चे-पक्के फल
हवा के बहाने
बूढ़े शजर ने
झुका दीं टहनियां.




      (14)

हल्का सा शोर हुआ
उड़ गए घोंसला छोड़कर
सदा को कुछ परिंदे
बूढ़े शजर की भी
बिखर गईं मुट्ठी भर पत्तियां.




      (15)

निश्चिन्त सो रहा है
टोकनी में
मजदूरिन का बच्चा
बूढ़ा शजर
डुला रहा है
पत्तियों का चंवर.




       (16)
डरता नहीं है
समझदार है
जब भी आती है आंधी
बूढ़ा शजर
झुक जाता है ज़रा सा.

___________ 
प्रीता व्यास
न्यूज़ी लैंड से प्रकाशित होने वाली त्रिभाषाई पत्रिका'धनक'की हिंदी एडीटर हैं और बच्चों के लिए भी लिखती हैं.
  


मंगलाचार : जाई : अनिता सिंह

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अकेली रह गयी माँ के शुरू हो रहे प्रेम सम्बन्ध को उसकी विवाहिता बेटी किस तरह देखेगी ? 
अब यह न वर्जित क्षेत्र है न विषय. अनिता सिंह ने संयत रहकर यह कहानी बुनी है.
  


जाई                                                 
अनिता सिंह





ड़ती फिर रही है मालती. मानों पँख लग गये हों. शादी के बाद पहली बार पूरे दिन रहेगी नीलिमा उसके साथ.



एक ही शहर में होने से बेटी-दामाद,हर दूसरे और चौथे शनिवार बैंक में छुट्टी होने से आते हैं  और घण्टे दो घण्टे में मिलकर लौट जाते हैं.



राजीव को एक सेमिनार अटेंड करने बाहर जाना पड़ा,ऐसे में नीलिमा को एक दिन के लिये माँ के पास छोड़ दिया है.

शाम से ही बेटी की पसंद का खाना बनाने में जुटी है मालती.

माँ, क्या बना रही हो,कहते हुए नीलिमा माँ की पीठ पर झूल गई.

अरे, मेरा बच्चा !

सबकुछ तुम्हारी पसंद का बनाया है.

तुम फ्रेश हो जाओ मैं खाना लगाती हूँ .

तभी राजीव का कॉल आ गया और नीलिमा उसमें व्यस्त हो गई. 

मालती ने कुछ देर इंतज़ार किया,फिर यूँ ही व्हाटसप पर मैसेज चेक करने लगी.

माँ ...खाना लगाइये,कहते हुये नीलिमा माँ के पास आई तो देखा वह किसी से चैट करते हुए मुस्कुरा रही थी.

पल भर को सुखद एहसास से भरकर वह एकबार फिर बालकनी में चली गई.

ज़ेहन में माँ का मुस्कुराता चेहरा सामने आ जाता. किससे बात करके खुश हो रही है माँ !

सोचते हुये नीलिमा दबे पाँव आकर माँ को निहारने लगी.

उसे लगा, जैसे पहली बार देख रही हो माँ को.

बालों में सफेदी, बेतरतीब भौहें और आँखों के नीचे डार्क सर्कल्स वाला सूखा और बेजान चेहरा इस समय किसी से बात करते हुए खिल गया था.

एक वक्त में माँ बहुत सुंदर हुआ करती थी. उन्होंने अपना ध्यान नहीं रखा,पर मुझे ख़याल रखना चाहिये था.

थोड़ी सी आत्मग्लानि का भाव आया नीलिमा के अंदर.

उसने खुद को सामान्य करने के ख़याल से माँ को आवाज़ लगाई.

किससे बातें की जा रही हैं,कहते हुए उसने माँ के हाथों से मोबाइल लेकर अलग रखा और गोद में लेट गई.

कोई नहीं ...बस यूँ ही. तुम बात कर रही थी तो टाइमपास के लिये नेट ऑन किया था. उसके बालों को सहलाते हुये मालती ने कहा .

माँ का सुखद स्पर्श पाकर नीलिमा की आँखे लग गई और इधर बेटी को निहारते-निहारते मालती अतीत में पहुँच गई.





तीन साल की थी नीलिमा जब उसके पापा घर छोड़कर चुपचाप जाने कहाँ निकल गए.

उसकी गलती बस इतनी सी थी कि उसने ड्यूटी के बाद अस्पताल में रुकने से इनकार कर दिया था.

उस दिन हॉर्निया के मरीज का ऑपरेशन हुआ था.

ड्यूटी खत्म होने से पहले जब वह सुई लगाने गई थी तब मरीज एकदम ठीक था.

उसने सुनीता को पेशेंट के बारे में समझाया और घर जाने के लिये निकलने लगी, तभी डॉ. किशोर ने अपने चेम्बर से निकलते हुये कहा--

नर्स !  आज पेशेंट की देखभाल के लिये तुम्हें रुकना होगा.

डॉ. की आवाज़ बता रही थी कि वह नशे में है.

सर ! सिस्टर  सुनीता आ चुकी है ड्यूटी पर,उसने  बताया.

मैंने क्या कहा,सुना नहीं तुमने ?

तुम्हें रुकना होगा डॉ. की आवाज़ गुस्से से लड़खड़ा रही थी.

सर ! मेरी बच्ची मेरे बिना सो नहीं पाएगी कहकर उसने अपना बैग उठाया और निकल गई.

तुमको इसकी सज़ा भुगतनी होगी,गुस्से से भरी आवाज़ थी डॉ. की.

अगले दिन वह जैसे अस्पताल पहुँची वहाँ का नजारा बदला हुआ था.

हर तरफ सामान बिखरा पड़ा था. वह जब तक कुछ समझ पाती डॉ. किशोर सीढ़ियों से पुलिसवाले के साथ आते दिखे.

यही हैं सिस्टर मालती! जिन्होंने रात में मरीज को दवा दी थी.

उसकी चेतना गायब होने लगी थी.

बिखरे सामान पेशेंट के परिजनों का आक्रोश दर्शा रहे थे.

वह कल की कड़ियों को जोड़ने की अनथक कोशिश में थी कि कानों के पास डॉ. का फुसफुसाता स्वर गूंजा ...

शुक्र करो, पुलिस समय पर आ गई वर्ना....

डॉ. की नज़र में हिक़ारत और होठों पर कुटिल मुस्कुराहट चस्पा थी.

पुलिस ने उसे अरेस्ट करते हुये कहा 'ये तो ख़ैरियत है कि तुम देर से आई,  वर्ना मरीज के परिजन तुम्हें नुकसान पहुँचा सकते थे.’

पोस्टमार्टम रिपोर्ट में किसी दवा के साइड इफेक्ट को सत्यापित नहीं किया जा सका. फलतः वह जेल से जल्दी छूटकर घर आ गई.

तबतक उसका घर बिखर चुका था. लोकलाज और क्षोभ से भरा चरसी पति अपनी तीन साल की बच्ची को उसकी नानी के पास छोड़कर कहीं चला गया.

उसने सोच लिया था कि अब वहाँ काम नहीं करेगी लेकिन मालती की नज़रों का सामना करने के डर से डॉ .किशोर ने तबादला करवा लिया था.

आसान कहाँ था जीवन जीना. जेल प्रकरण के बाद सहकर्मियों के बीच दबंग छवि जरूर बन गई थी जो एक लिहाज से सही भी थी.

लेकिन कितना कमजोर कलेजा है उसका यह तो उसकी आत्मा जानती है.

हर बार सड़क पार करना नया जीवन लगता है उसके लिये.

एकाकी रातों में पीड़ा उसकी कनपटियों पर उतर आती है. उसके नस-नस में धुंआ भरने लगता है. ऐसा लगता है जैसे उसका पूरा बदन धुँए में तब्दील हो गया है.

ऐसे सपने के बाद जब नींद नहीं आती है तब वह जोर से चीखना चाहती है. इतनी जोर से आकाश का कलेजा फट जाए.

आधी उमर तो बच्ची को सम्भालने और उसका भविष्य सँवारने में निकाल दिया.

ऊपर से माँ और अपाहिज़ भाई की ज़िम्मेदारी.

बेटे के गुजरने का सदमा माँ न झेल सकी.

बाक़ी बाद अकेलेपन ने भी खूब सताया. लेकिन समाज मे बने सम्मान को किसी कीमत में गंवाना उसे गवारा नहीं था.

नए युग ने मोबाइल पर मनोरंजन के साधन उपलब्ध करा दिए सहकर्मियों ने फोर्टी प्लस व्हाटसप समूह से जोड़ दिया,समय कट ही जा रहा था.

इसी समूह से कुछ लोग अलग-अलग भी कुछ शेयर करते रहते थे.

वह समूह के सारे सदस्यों को नहीं जानती इसलिये अलग से सबके मैसेज़ का रिप्लाई नहीं दे पाती लेकिन उसका अंदाज़ इतना निराला था कि बातों बातों में जुड़ाव सा हो चला है.

काम से फुरसत मिलते ही वह उसके मैसेज़ की प्रतीक्षा करती है.

उसकी परिस्थितियां सड़क के पार जाकर सवारी पकड़ने जैसी है जिससे उसे डर लगता है. लेकिन घर लौटते समय सड़क का सिरा इंतज़ार करता मिलता है.

अपने उस ख़ास दोस्त के मैसेज़ को याद करके उसके होठों पर एक शरारती मुस्कान उभर आई.




घड़ी ने रात के दस बजाए तो मालती की तन्द्रा टूटी.

उसने बड़े प्यार से नीलिमा को जगाया.

चलिये आज खाना मैं लगाती हूँ. नीलिमा ने चहकते हुए कहा.

टेबल पर सबकुछ  नीलिमा की पसंद का था .

बेसन की सब्जी,कढ़ी, रायता, भरवा करेले.

वाह मज़ा आ गया देखकर ही. खुश होते हुये नीलिमा ने फ़टाफ़ट मोबाइल से तस्वीर ली और 'अब बताओ किसकी माँ ज्यादा प्यार करती है'कहते हुये राजीव को सेंड कर दिया.

ये फोटो मुझे भी सेंड कर दो.

क्यों ?

क्यों क्या. रोज तो इतना बनेगा नहीं, फोटो देखकर पेट भरूँगी .

कहकर जोर से हँस पडी मालती.

खाने के बीच नीलिमा चहकती रही. एक रोटी और लीजिये,आप अपना ख़याल नहीं रखतीं. देखिये कितनी दुबली हो गईं हैं. खाना खत्म होने तक प्रवचन चलता रहा .

आज मैं आपके लिये फ़ूड चार्ट बनाती हूँ. इस उम्र में आपको क्या-क्या लेना चाहिये जिससे आपकी हड्डी,बाल और स्किन स्वस्थ रहें. मालती उसकी बातों से लगातार मुस्कुरा रही थी.

सोते समय माँ को  घुटने पर दवा मलते देखकर नीलिमा ने कहा--क्या माँ, दीजिये मैं लगा दूँ .

इस उम्र में औरतें जिंस पहनकर दौड़ती हैं और आप अभी से बूढ़ी होने लगीं.

आज आपको सोने नहीं दूँगी, कहकर वह अपना मेकअप बैग उठा लाई. लाख मना करने पर भी उसने मालती का आई ब्रो प्लक किया और फेसपैक लगाकर चुपचाप आँखें बंद रखने का आदेश दे दिया.

मालती बार-बार हँस पड़ती और बेटी से मीठी डाँट खा जाती.

बोलने की मनाही के बावजूद मालती ने कहा,सो जाओ. सुबह-सुबह राजीव तुम्हें लेने आएंगे.

मैं कल नहीं जा रही. सपाट लहजे में कहा नीलिमा ने. उसके अंदर कोई प्लान चल रहा था.

अरे मेरी बिट्टो ! लेकिन मेरी छुट्टी आज भर की ही थी.

तो क्या हुआ, आप जाइयेगा ड्यूटी. मैं कल, घर अरेंज करूँगी.

सोते समय चुटकुले सुना-सुना कर खूब हँसाती रही नीलिमा. उसने लोरी गाकर माँ को सुलाया. बहुत दिनों बाद सुखद एहसास से भरकर मालती ने पलकों को बन्द किया.

नीलिमा की आँखों से नींद उड़ चुकी थी.

कौन है वह आदमी जिससे बात करके माँ इतनी खुश लगी.

विचारों की आँधी किसी करवट चैन नहीं लेने दे रही थी.

माँ ने कभी किसी चीज की कमी न होने दी. हर मांग पूरी की.

हर माँ करती है और करना भी चाहिये,  नया क्या है इसमें.

उसने भी तो कोई कोर-कसर नहीं रखा.

माँ की अपेक्षाओं पर हरदम खरी उतरी.

माँ ने अपनी पूरी ज़िंदगी हमारे नाम कर दी .

...उन्हें भी अपनी मर्जी से जीने का हक़ है .

...उफ़्फ़ ये क्या सोचने लगी वह.

माँ के किसी कदम से ससुराल में मेरी बदनामी न हो जाए.

हे भगवान ! अगर राजीव या सासु माँ को,  माँ के बारे में पता चला तो ...?

सासु माँ ऐसे हीं ताने देती रहती हैं.

तुम्हारे पापा का कुछ अता पता है नहीं, फिर तुम्हारी मम्मी मंगलसूत्र क्यों लटकाए रहती है !

जो भी हो,  वह माँ के साथ खड़ी रहेगी.

सोचते-सोचते नीलिमा की भी आँख लग गई.

सुबह आरती की आवाज सुनकर उसकी नींद खुल गई.

क्या माँ, यहाँ तो सोने दो कम से कम.

फिर जैसे कुछ अचानक याद आया. वह उठकर मालती के गले में झूल गई.

आज आपको मैं तैयार करती हूँ कहकर उसने आलमारी खोली.

पुराने और बेरंग साड़ियों को देखकर नीलिमा ने माँ से कहा-- 'कौन पहनता है अब ऐसे कपड़े' ?

फिर उसने सारे कपड़े बाहर निकाल दिए.

छोड़ो ये सब. दिन में कर लेना. साथ में नाश्ता कर लो फिर मैं ड्यूटी चली जाऊँगी.

माँ के जाने के बाद  नीलिमा आलमारी से  बचे सामान निकालने लगी.

पुरानी डायरी, अलबम, फोटो फ्रेम.

'पापा की गोद में बैठी नन्ही नीलू'को देखकर आँखों के कोर में छलक आए. आँसू को दुपट्टे से पोछकर फ्रेम में जड़ी उस तस्वीर के शीशे को साफ करने लगी.

यह तस्वीर जब तक दीवाल पर रही नानी के लिये कुढ़न बनी रही.

'नामुराद ने मेरी बेटी की ज़िंदगी ख़राब कर दी'. नानी जैसे शुरू होती माँ आँख बन्द करके कुछ बुदबुदाने लगती .

वर्षो बाद उसने माँ को अपनी कसम दी तब उसने बताया कि वह उनकी सलामती के लिये भगवान से प्रार्थना करती है.

जैसे,नीलिमा ने पूछा.

जब तुम्हारी नानी, तुम्हारे पापा को कोसती है,  तब मैं कहती हूँ 'हे भगवान जी!  वो जहां भी हों उनकी रक्षा करना'.

आलमीरा के एक रैक में उसके खिलौने सजा कर रखे हुए थे. अपनी प्यारी बार्बी को देखकर उसे अपनी ज़िद याद आ गई.

 माँ ने गुल्लक फोड़कर  बार्बी दिलवाई थी.

एक बड़े से पॉलीथिन में पुरानी डायरी,वैशाली कॉपी, जिसपर नीलिमा ने पहली बार पेंसिल से कुछ लिखा था. उसके पंजों की छाप वाला पेपर और उसके बनाए ग्रीटिंग्स थे.

डायरी के पहले पन्ने पर लिखा था 'सुधीर कुमार घायल' बी.ए द्वितीय वर्ष.

 पापा की हैंडराइटिंग को छूकर एक सुखद एहसास से भर गई नीलिमा.

अंदर के पन्नों पर सी ग्रेड की शायरी भरी पड़ी थी.

उसने इरादा किया था कि सबकुछ हटा देना है लेकिन सबकुछ करीने से रख दिया .

पापा की सारी तस्वीरों को फिर से देखा और जाने क्या सोचकर अपने पर्स में रख आई.

टेबल पर रखे मोबाइल पर कोई कॉल आ रहा था.

हे भगवान! माँ का मोबाइल ....

उसने कॉल रिसीव किया.

कितनी बार कॉल कर चुका हूँ. उठातीं क्यूँ नहीं?

जी आप कौन ?

माँ का मोबाइल घर पर छूट गया है.

अरे,नीलिमा बिटिया,कैसी हो?

जी,नमस्ते !

मैंने पहचाना नहीं ?

कोई बात नहीं .

मालती आए तो बोल देना खडूस का फोन था.

खडूस !

कौन है ये खडूस ?

उसने व्हाट्सएप ऑन किया.

सारे नाम जान -पहचान वालों के थे. सामान्य बातचीत,गुड मार्निंग, गुड नाइट...

स्क्रोल करते हुये दिखा 'फोर्टी प्लस ग्रुप'जिसमें योगा, गीत,वीडियो और स्वास्थ्य तथा मनोरंजन भर था.

खडूस नाम से सेव कॉन्टेक्ट पर इधर से भेजा गया स्माइली दिख गया.

रात खाने की मेज पर ली गई तस्वीर पर कमेंट था.

ओहो,हमसे बेईमानी.

सब बनाना होगा,जब मैं आऊँगा.

बिल्कुल. माँ ने जवाब में लिखा था.

पीछे जाने पर लिखा दिखा--

हाय ब्यूटीफुल ! कहाँ हो इन दिनों ...मैसेज़ तो सीन करो...बहुत दिन हुये चुटकुले सुनाए...

जवाब में लिखा था...

फुल एंटरटेनमेंट है घर में.

फ़र्जी का नहीं चलेगा अभी.

बच्ची घर आई है ...

और स्माइली.

तुम्हारा शुगर क्या करामात कर रहा इन दिनों...

ईसीजी का रिपोर्ट तो सही नहीं दिखा रहा.

बहुत लापरवाह हो.

तुमसे बात नहीं करनी.

दवा तो ले रही हूँ.

हरदम डाँटते हो.

अच्छा सुनो ! इस वीडियो को देखकर योगा किया करो.

जी सरकार ! जैसी आज्ञा.

आप भी अपने सर्वाइकल का ख़्याल रखें.

ज्यादा देर कम्प्यूटर पर मत रहें.

उसकी आँखों के सामने  'हाय ब्यूटीफुल' वाला मैसेज़ लगातार घूम रहा था.

उसकी माँ है ही दुनियाँ की सबसे सुंदर माँ.

उसने माँ का व्हाटसप डीपी  खोला.

आँखों पर मोटा चश्मा,आधारकार्ड वाली सूरत.

माँ भी न. आज आती है तो अच्छे से तैयार करके फोटो खिचूंगी और चेंज कर दूँगी डीपी.

 एक शरारती मुस्कान के साथ खडूस का डीपी  देखा. वहाँ रेगिस्तान की तस्वीर लगी हुई थी.

वह उसके मनःस्थिति का अंदाज़ा लगाने लगी. लेकिन इस बात से बेहद परेशान भी हो रही थी कि माँ बीमार है तो मुझे क्यों नहीं बताया.

उसने भी शायद पूछा नहीं  कभी.

जो भी हो,  यह आदमी केयर करता है माँ की. माँ भी जिस तरह सबकुछ शेयर करती है मतलब दोनों अच्छे दोस्त होंगे.

मैसेज पढ़कर माँ के मुस्कुराने की वजह समझ में आ गई थी.


मुस्कुराते हुये उसने गाना लगाया 'काँटो से खींच के ये आँचल.......

और काम में जुट गई.

ड्यूटी से लौटकर मालती ने सहजता से मोबाइल गुम हो जाने की बात बताई, जैसे ही नीलिमा ने मोबाइल लाकर दिया वह असंयत हो उठी.

अचानक उसके चेहरे की

रंगत उड़ गई.

नीलिमा को सामान्य देखकर भी मालती नजरें बचा रही थी.

चाय पीते हुये दोनों ने एकदूसरे के भावों को पढ़ने की कोशिश की,  फिर शापिंग का प्लान बना लिया.

शाम में जम कर खरीदारी की गई.

जिस रंग के लिये मालती मना करती उसी रंग की साड़ी नीलिमा पैक करवा लेती.

सैंडल, मेकअप का सामान ,पर्स ,परफ्यूम  सब कुछ खरीदा गया.

होटल में खाना ऑडर करने के लिये नीलिमा ने मालती के आगे मेनू सरका दिया .

माँ का बच्चों की तरह रास्ते में आइसक्रीम खाना और खिलखिलाना देख नीलिमा ने बड़ा सुकून महसूस किया.

रात में मालती के बालों को डाई करते हुये नीलिमा ने बड़ी हिम्मत करके माँ से पूछा-

माँ,आपने दूसरी शादी क्यों नहीं की ?

चारपाई के पाए की किस्मत में बिस्तर सम्भालना लिखा होता है,बिस्तर होना नहीं.

मालती के सुर में सुर मिलाकर नीलिमा ने कहा और दोनों ठहाका मार कर हँस पड़े.

ज्यादा चौधरी मत बनिये.

हम बच्चे नहीं हैं अब.

ये डायलॉग नहीं चलेगा. झूठे आक्रोश से नीलिमा बोल पड़ी.

सुनिये, जो हम कह रहे हैं.

वह जो बात कहना चाह रही थी उसका रिहर्सल कितनी बार कर चुकी है लेकिन हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी.

कोई वो शख़्स, जो देर तक और दूर तक,  साथ निभाने को तैयार हो,उसे अपना लीजिए. एक साँस में कह गई नीलिमा.

मालती का कलेजा एक बार जोर से उछला. वह बेटी का इशारा समझ रही थी. एक लम्बी साँस और चुप्पी ने मालती के दिल से उतरते बोझ को महसूस किया.

पल भर में कितनी तस्वीरें बनी और मिटी. मालती के जहन में खडूस का चेहरा आया और वो लाज से सिमट गई.

लगा जैसे नीलिमा बेटी नहीं उसकी माँ बन गई है. उसकी आँखों में आँसू छलछला आए.

नीलिमा ने मालती का सिर अपनी गोद में रख लिया और आहिस्ता बालों को सहलाने लगी.

गोद में लेटी मालती निश्छल बच्ची लग रही थी.

दोनों के चेहरे पर सुकून और निश्चिन्तता के भाव दमक रहे थे.
_________________________________________

अनिता सिंह
मुज़फ़्फ़रपुर (बिहार)
गीत-ग़ज़ल संग्रह "कसक बाक़ी है अभी" 2017 में हिंदुस्तानी भाषा अकादमी से प्रकाशित
Dranitasingh.1971@gmail.com/7764918881


मेघ -दूत : महमूद दरवेश की डायरी : यादवेन्द्र

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निर्वासन और प्रतिरोध के कवि महमूद दरवेश (१३,मार्च १९४१ ,अगस्त २००८) को फिलस्तीन के राष्ट्रीय कवि के रूप में भी जाना जाता है. ३० कविता संग्रह और ८ गद्य पुस्तकों के लेखक दरवेश कई साहित्यिक पत्रिकाओं के सम्पादक भी रहे.

A River Dies of Thirstउनका अंतिम (डायरी) संकलन है जो उनकी मृत्यु से आठ महीने पहले प्रकाशित हुआ था. अरबी से अंग्रेजी में इसका अनुवाद Catherine Cobhamका है.  इसके कुछ अंशों का हिंदी में अनुवाद योगेन्द्र ने आपके लिए किया है.

दरवेश की मृत्यु के दस वर्ष हो गए हैं और दुनिया वैसी ही है, और डरावनी हुई है.



महमूद   दरवेश  को याद करते हुए                         
यादवेन्द्र 





काश हमारे बच्चे पेड़ होते

पेड़ पेड़ की बहन होती है,या फिर अच्छी भली पडोसी. बड़े पेड़ छोटों का बहुत ख्याल रखते हैं,जब जरूरत होती है उन्हें छाया देते हैं. लंबे पेड़ ठिगने पेड़ों के प्रति दयालु होते हैं,रात के समय अपने पास से परिंदों को उन पर भेज देते हैं जिस से वे अकेला न महसूस करें. कोई पेड़ कितना भी बड़ा और बलशाली हो छोटे पेड़ों के फल नहीं छीनता.

यदि कोई बाँझ रह जाए तो दूसरा बाल बच्चों वाला पेड़ उसका उपहास नहीं करता. कोई पेड़ दूसरे पर आक्रमण नहीं करता और न ही लकड़हारे जैसा बर्ताव करता है. जब एक पेड़ को काट कर नाव बना दिया जाता है तो वह पानी पर तैरना सीख लेता है. जब उससे  दरवाजा तराश दिया जाता है तो वह सीख लेता है कैसे बरतनी है अंदर की गोपनीयता. जब पेड़ से कुर्सी बना दी जाती है वह फिर भी नहीं भूलता कि उसके सिर पर पहले आकाश हुआ करता था. जब उसे काट कर टेबल बना दिया जाता है तो वह बैठ कर लिखने पढ़ने वाले कवियों को सिखाता है कि कभी भी कठफोड़वा नहीं बनना. पेड़ में क्षमाभाव और चौकन्नापन होता है.

वह न तो कभी सोता है न सपने देखता है बल्कि सपने देखने वालों के राज अपने आगोश में छुपा कर सुरक्षित रखता है. दिन भी रात भी, वहाँ से गुजरने वालों का सम्मान करते हुए और जन्नत की हिफाजत करते हुए. पेड़ और कुछ नहीं एक जीती जागती दुआ है  जिसके हाथ आसमान में ऊपर उठे हुए हैं. आंधियों में जब हवा इसको  धक्का देती है तो यह बड़ी अदा से हौले से झुक जाता है जैसे झुकी होती है हरदम ऊपर ताकती हुई कोई नन. कवि पहले कह चुका है : "काश हमारे बच्चे पत्थर होते.

दरअसल उसको कहना चाहिए था : "काश हमारे बच्चे पेड़ होते."
      



मुझे डर लग रहा है

वह डरा हुआ था, जोर से सुना  कर बोला: "मुझे डर लग रहा है."खिड़कियों के दरवाजे कस कर बंद किये हुए थे सो उसकी आवाज़ गूँजती हुई चारों ओर फ़ैल गयी : "मुझे डर लग रहा है." 

उसके बाद  वह खामोश था पर दीवारें दुहरा रही थीं : "मुझे डर लग रहा है."दरवाजेकुर्सियाँ,टेबलपरदे,कम्बल,मोमबत्तियाँ,कलम और फ्रेम में जड़ी तस्वीरें सब कहने लगीं : "मुझे डर लग रहा है." 

डर डरा हुआ था,जोर से बोला : "अब बस भी करो,बहुत हो गया."पर प्रतिध्वनि ने नहीं कहा: "अब बस भी करो,बहुत हो गया." 

उस घर में रहने में उसको डर लगने लगा था सो दरवाजा खोल कर वह बाहर सड़क पर निकल आया. बाहर उसकी नजर एक क्षत  विक्षत पॉप्लर के पेड़ पर चली गयी और उसको देख कर वह और घबरा गया ... जाने क्यों?

तभी वहाँ से दनदनाती हुई एक फौजी गाडी निकल गयी,वह उसको देख कर इतना डर गया कि सड़क उसको असुरक्षित लगने लगी. पर घर के अंदर जाने से भी वह डर रहा था ... 


अब करे क्या,उसे  कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था. उसे ध्यान आया बदहवासी में वह अपनी चाभी घर के अंदर ही छोड़ आया ...पर जब जेब टटोलते हुए उसको चाभी मिल गयी तो थोड़ी तसल्ली हुई. उसे लगा बिजली काट दी गयी है  सो उसका डर अंधेरे  की तरह और घना हो गया.... पर जब सीढ़ियों के पास आकर स्विच दबाने पर बत्ती जल गयी तो उसके जान में जान आयी. 


उसके मन में शुबहा  हुआ कि  सीहियाँ चढ़ते हुए फिसलने पर उसकी टाँग टूट सकती है पर जब ऐसा कुछ नहीं हुआ तो मन बेहतर और मजबूत हुआ. दरवाजे में लगे ताले में चाभी लगते हुए उसका मन बार-बार कह रहा था यह चाभी लगेगी  नहीं पर चाभी घुमाने पर दरवाजा खुल गया - उसको गहरी तसल्ली मिली. 


अंदर घुसते ही डर कर वह धप से कुर्सी पर बैठ गया. जब उसे यह भरोसा हो गया कि अपने घर के  अंदर घुसने वाला शख्स कोई और नहीं बल्कि वह स्वयं था तब वह आईने के सामने खड़ा होकर उसमें दिखती शक्ल को निहारने लगा - जब अपना चेहरा पहचान कर उसको सौ फीसदी तसल्ली हो गयी  तो उसने चैन की साँस ली. उसे  घर के अंदर पसरी हुई ख़ामोशी साफ़ साफ सुनाई दे रही थीइसके सिवा कुछ और नहीं - यह भी नहीं  : "मुझे डर लग रहा है."

वह आश्वस्त हुआ. अब उसको डर लगना किस कारण बंद हो गया था,मालूम नहीं.




भूलने की जद्दोजहद करते हुए

अंधेरा, मैं बिस्तर से यह सोचते सोचते गिर पड़ा कि कहाँ हूँ मैं ? मैं टटोल कर अपनी देह को महसूस करने की कोशिश कर रहा था और मालूम हुआ मेरी  देह भी मुझे तलाश कर रही है. मैं नजरें दौड़ा कर बिजली का स्विच ढूँढ़ रहा था कि देख सकूँ क्या हो रहा है पर स्विच कहीं दिखा नहीं. बदहवासी में मैं कुर्सी से टकरा गया या कुर्सी मुझसे टकरा गयी सही सही नहीं मालूम हो पाया. जैसे कोई अंधा  व्यक्ति अपनी उँगलियों से छू कर महसूस करता है मैं भी दीवार को टटोल कर देख रहा था कि कपड़ों की आलमारी से जा टकराया. मैंने अलमारी खोली,उँगलियाँ वहाँ रखे कपड़ों से छू गयीं - मैंने कपडे उठा कर नाक से लगाए,उनमें  मेरे शरीर की गंध थी. मुझे तसल्ली हुई मैं सही और अपनी जगह पर ही हूँ पर वहाँ से अलग जहाँ पहुंचना चाहता था. मैं चारों ओर बिजली का स्विच ढूँढ़ रहा था जिस से पता चले कहाँ हूँ .... तभी मुझे स्विच दिखाई पड़ गया.


मैं अपनी चीजों को पहचान गया था : अपना बिस्तर,किताबें,सूटकेस और पाजामा पहने इंसान जो कमोबेश मैं ही था. खिड़की का दरवाजा खोला तो गली में कुत्तों का भौंकना सुनाई दे रहा था. मैं समझ नहीं पाया कब कमरे में लौटा, यह भी नहीं याद आया कि  थोड़ी देर पहले मैं पुल पर खड़ा था. मुझे लगा यह सच नहीं है और मैं बस सपना देख रहा हूँ ..... 

चुल्लू में ठंडा पानी ले मैंने अपना चेहरा धोया जिससे यह तसल्ली कर सकूँ कि सपना नहीं देख रहा बल्कि पूरी तरह जगा हुआ हूँ. किचन में जाकर देखा तो ताज़े फल और बिन धुले बर्तन बासन दिखाई दिए - यह इस बात का सबूत था कि शाम को मैंने यहाँ बैठ कर खाना खाया था. पर यह कब की बात है?

मैंने अपना पासपोर्ट उलट पलट कर देखा - उसी दिन तो वहाँ पहुँचा था. आने के बाद कहीं गया हूँ यह याद नहीं आया - क्या मेरी स्मृति में कोई दरार  बन गई  है?क्या मेरा शरीरी अस्तित्व मानसिक भावों से छिटक कर अलग हो गया है - दोनों के बीच कोई दरार ? 


मेरे मन में डर समा गया और देर रात हो जाने की परवाह न करते हुए मैंने अपने एक दोस्त को फोन किया: 

"मेरी स्मृति के साथ कहीं कुछ गड़बड़ हो गयी है दोस्त, समझ नहीं पा रहा हूँ मैं कहाँ हूँ?

"और कहाँ, तुम रमल्ला में हो."
"पर मैं यहाँ कब आया ?"
"अरे आज ही ... याद  नहीं, हम दोनों वाटचे गार्डन में साथ ही तो थे."
"पर यह बात मुझे क्यों याद नहीं आ रही? तुम्हें क्या लगता है मेरी तबियत ठीक नहीं है?"
"यह ऐसी कोई बीमारी नहीं है दोस्त, बस तुम  भूलने की जद्दोजहद कर रहे हो. और कुछ नहीं."






मातृभूमि

वास्तविक मातृभूमि न तो साबित की जा सकती है न दिखलाई जा सकती है, मेरे लिए मातृभूमि का मतलब यह जानना है कि बारिश की बूँदों के गिरने पर यहाँ की चट्टानों से किस तरह की महक उठती है !

यहाँ मैं न तो एक नागरिक हूँ
न तो अस्थायी तौर पर रह रहा निवासी 
तो फिर मैं क्या हूँ
और कहाँ हूँ ?

ताज्जुब होता है कि सारे नियम कानून उनके हक में खड़े हैं और ऐसे में आपको साबित करना होता है कि आपका वजूद है. 

आपको गृह मंत्री से पूछना पड़ता है : क्या मैं यहाँ मौजूद हूँ .... या कि अनुपस्थित ?
आप किसी दर्शनशास्त्री का जुगाड़ करो जिसके सामने मैं अपना अस्तित्व साबित कर सकूँ.

कौन हो तुम ?
आप देह के सभी अंग प्रत्यंग छू कर देखते हो  
फिर तसल्ली होने पर कहते हो : मैं यहाँ उपस्थित तो हूँ !
पर तुम्हारे होने का सबूत कहाँ है ?..... वे सवाल करते हैं
आप कहते हैं - यहाँ हूँ तो !
यह पर्याप्त नहीं है ... हम कोई कमी ढूँढ़ रहे हैं,उन्होंने कहा
मैं सम्पूर्ण भी हूँ और कम भी - दोनों हूँ एकसाथ .....


आपको बार बार लगता है कि आप यहाँ के नागरिक नहीं हो, और आपका अतीत उन सपनों की तरह है जो किसी पुराने अखबार की चिन्दियों सा हवा में उड़ कर बिखर गया है, और तो और हर सपना दूसरे से बड़ा हादसा है. 
आप युद्ध के बाहर हो न ही जीत के जश्न में हो .... 

यहाँ तक कि हार भी आपके नाम नहीं लिखी है ... पूरी मनुष्यता के दायरे में  भी आपका नामो निशान नहीं है. सो आप इंसान की परिभाषा में नहीं बँधते.... आप दरख़्त हो जाते हो या चट्टान ...या कि कोई कुदरती सामान !

जैसा हर बार होता रहा है इस एयरपोर्ट पर भी आपको अवांछित व्यक्ति घोषित कर दिया जाता है - आपके हाथ में जो दस्तावेज़ हैं वे भूगोल के साथ नाम जोड़ कर  देखने के तर्क पर खरे नहीं उतरते : जिस देश का अस्तित्व दुनिया से खत्म हो गया उस देश का नागरिक होने का दावा करने वाला भला कैसे मौजूद हो सकता है


आप गैर मौजूद  देश के रूपक की बात करोगे तो उनका जवाब होगा : तो फिर जो देश गैर मौजूद है वह है ही नहीं. आप पासपोर्ट ऑफिसर को समझाने की कोशिश करो कि देश की गैर मौजूदगी ही तो निर्वासन होता है ... तो वह झल्ला कर झिड़क देता है : मुझे बहुतेरे काम निबटाने हैं कि तुम्हारी ही सुनता रहूँ .... अपनी बकवासबाजी अपने पास रखो और मेरी आँखों के सामने से दफ़ा हो जाओ.






यादवेन्द्र

बिहार से स्कूली और इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करने के बाद 1980 से लगातार रुड़की के केन्द्रीय भवन अनुसन्धान संस्थान में वैज्ञानिक.

रविवार,दिनमान,जनसत्तानवभारत टाइम्स,हिन्दुस्तान,अमर उजाला,प्रभात खबर इत्यादि में विज्ञान सहित विभिन्न विषयों पर प्रचुर लेखन.

विदेशी समाजों की कविता कहानियों के अंग्रेजी से किये अनुवाद नया ज्ञानोदयहंस, कथादेश, वागर्थ, शुक्रवार, अहा जिंदगी जैसी पत्रिकाओं और वेब पत्रिकाओं तथा ब्लॉगों में प्रकाशित.


मार्च 2017 के स्त्री साहित्य पर केन्द्रित  "कथादेश" का अतिथि संपादन.  साहित्य के अलावा सैर सपाटा, सिनेमा और फ़ोटोग्राफ़ी  का शौक.
yapandey@gmail.com

परख : पदमावत (पुरुषोत्तम अग्रवाल) : अखिलेश

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मलिक मुहम्मद जायसी (१३९८-१४९४ ई.) के महाकव्य 'पदमावत'पर कथित तौर पर आधारित भंसाली की फ़िल्म पदमावत के दयनीय और भूहड़ निर्माण और उस पर हुए हिंसक और आपराधिक प्रदर्शन के बाद इस कृति को पढ़ने की फिर से जरूरत बनी है.

महत्वपूर्ण आलोचक  पुरुषोत्तम अग्रवाल की अंग्रेजी में लिखी कृति प्रेमकथा का महाकाव्य : पद्मावत’ एक तरह से इसकी क्षतिपूर्ति की तरह है. जायसी के उदात्त मंतव्य और इस महाकाव्य के विमोहित करते सौन्दर्य को उद्घाटित करने का यह विनम्र प्रयास जितना साहित्यिक है उतना ही सांस्कृतिक भी. बड़े अर्थों में राजनीतिक भी.

चित्रकार और लेखक अखिलेश का यह लेख ख़ास आपके लिए.




साधारण  भव्यता                                         
अखिलेश 




पिछले दिनों पुरुषोत्तम जी का फ़ोन आया और उन्होंने कहा कि आपके लिए पद्मावत भेजी है पढ़कर बताना कैसी लगी. अब मैं इन्तजार में था और पद्मावत नहीं आ रही थी. कारण व्यक्ति की व्यस्तता थी. ग्वालियर से भोपाल आने में उसे एक माह का समय लगा और मैंने पढ़ना शुरू किया. मैं कोई विशेषज्ञ नहीं हूँ किताब पर टिपण्णी करने के लिए और न ही मुझे कोई दक्षता हासिल हैं ऐतिहासिक विषयों पर बात करने की. इसका छोटा सा कारण समय है जिस पर मुझे कभी क्रमानुसार भरोसा करने का मौका ही  न मिला न मैं लेना चाहता हूँ.

मैं उस अवकाश में रहता हूँ जहाँ समय का भान भर है. खैर देवदत्त पटनायककी विशिष्ट प्रस्तावना और सच में साधारण रेखांकनो से सजी? यह पुस्तक मेरे लिए एक नया अनुभव ले आयी. पहली बार किसी पुस्तक को पढ़ते हुए दूसरी पुस्तक तक पहुँचने का अनुभव हुआ और मैं उदयनसे वासुदेवशरण अग्रवाल की 'पदमावत'ले आया.


इसी बीच बहु-पिटित संजय लीला भंसालीकी फिल्म पद्मावतभी देखने का मौका मिल गया. सूर्यवंशम की तरह ये फिल्म भी टीवी पर रोज आ रही थी. अत: एक दिन देख ही ली. यह एक साधारण फिल्म थी जिसमें भव्यता पाने की, लाने की भरसक  कोशिश की गयी थी और इसी कारण यह अत्यन्त गरीब फिल्म लग रही थी. इस फिल्म को देखते हुए मुझे लगा कि भव्यता बाहरी नहीं है उसका भीतर उजला है या उसमें उजास भरी हो तब भव्यता के दर्शन सम्भव है.

भारी भरकम सेट लगाने और नकली जेवरात पहनाने से designer film बन सकती है किन्तु उसमें छिपी अंदरूनी गरीबी दर्शक तक पहुँच ही जाएगी. ये समय फिल्म के लिए नक़ल का समय है जहाँ हॉलीवुड से होड़ है किन्तु धैर्य नहीं है कि क्लियोपेट्राया बेनहरजैसी फिल्म रच सकें. ये फिल्में भी आज की फिल्में नहीं है जब संजय जी का जन्म हो रहा था उस समय या उसके पहले की होंगी. संक्षेप में भव्यता का सिर्फ एक उदाहरण देना चाहूँगा जिससे बात लौट कर 'पद्मावत'पर आ सके.

यदि आपने महाबलीपुरमके मंदिरोंऔर शिल्पों को देखा है तब उसकी साधारण भव्यता और भीषण विशालता का अनुभव जरूर किया होगा. भारतीय शिल्प कला के ऐसे अनेक उदहारण हैं जिनमें प्रकृति के साक्ष्य में उन्हें रचा गया है और उनकी रचनात्मकता में अनगढ़ता ही उसका नैसर्गिक सौन्दर्य है जिसकी शानदार सचाई आपका मन मोह लेती है.



फिलहाल 'पद्मावत'जिसे पढ़कर मैं उस महाकाव्य की काल्पनिकता से अभिभूत हूँ जो पंद्रहवीं शताब्दी का आधुनिक काव्य है. उसकी आधुनिकता इस तरह भी है कि वो समय कीलित काव्य नहीं है उसकी आधुनिकता हर समय के मूल्यों पर खरी उतरती है. वह प्रेरणादायी अनूठा काव्य है. उसके अनेक अर्थ हैं और उसके अनेक पाठ किये जा सकते हैं. पुरुषोत्तम जी ने पद्मावत का ज्यादा सटीक और तथ्यपरक पाठ लिखा है. इस पाठ में काल्पनिकता और ऐतिहासिक प्रमाण दोनों ही साथ साथ पढ़ने को मिलतें हैं और अपना कोई निर्णय पुरुषोत्तम जी अपनी तरफ से नहीं थोपते हैं. उनका पठन काव्य केन्द्रित है और एक काव्य की यह ताकत है कि वह किसी मान-मर्यादा की  विश्वसनीयता से ज्यादा कल्पना के संसार में डूबा हुआ होता है. सचाई से कोसो दूर वो अपनी सचाई रचता है. उस मायने में यहाँ पुरुषोत्तम जी की विशेषज्ञता को उजागर करता यह एक निर्दोष पाठ है इसकी ताईद करते हुए देवदत्त जी लिखतें हैं-


"Prof. Agrawal demonstrates how this poem has nothing to do with history, religion, or God, or hatred, or invasion, or honour. We find no trace of of the right wing's 'thousand years of slavery' discourse or the left-wings 'Brahmanical hegemony' discourse. It is simply an incredible ode to love, where characters happen to be Rajput, Brahmin and Muslim. Their nobility or cupidity is a function of their personality, not their identity."

ऐसा नहीं है कि इस तरफ पुरुषोत्तम जी का ध्यान न गया हो वे लिखते हैं

"Jayasi never meant to write history. His poem is a work of creative, imaginative literature woven around an episode in history. He transforms that episode and its legend into rich, intricate tapestry of love, desire, struggle and sacrifice."

यह जो भेद है जिसकी तरफ इशारा लेखक कर रहा है वो उसी साधारण भव्यता और नकली सजावट का फर्क है. इतिहास हमेशा बाद में लिखा गया टेक्स्ट है जिसका वर्तमान लिखे जा रहे  शब्द हैं. कविता हर वक़्त पढ़ने वाला सत्य है जो समय के साथ अपना 'आधार'बदलने की क्षमता रखता है. इतिहास लिखने वाला जानता है कि उसके लिखे का आधार झूठ है इसलिए वो सजावटी सामान लगाता है उसमें शौर्य, वीरता, भव्यता, झूठी तारीफ़ के सलमें-सितारे टाँकता है और कवि आत्म अनुभव की शुद्धता और कल्पना की ऊँची उड़ान से उस भव्य का वर्णन करता है जो बरसों बाद भी अपनी साधारण भव्यता से पाठक को अभिभूत कर सकने की क्षमता रखती है.

इस पाठ में हमारा ध्यान लेखक उस तरफ भी ले जाता है जो पाठ के पीछे का है उसके अनगिनत संकेत जिनकी तरफ़ जायसी ने इशारा भी नहीं किया किन्तु एक अच्छे काव्य का गुण है कि वो अपने समय का कुछ सच छिपाए रहता है. पुरुषोत्तम जी की विद्वत्ता इन इशारों को पाठक के सामने धीरे से खोलकर अगली व्याख्या की तरफ़ मुड़ जाती है. वे इस तरह के अनेक ग्रन्थ, काव्य, चरित, समय से उपजे विवादों, लेखकों और पाठ के प्रमाणों के साथ जायसी के पदमावत की उस धीर-गंभीर प्रेम कहानी को चित्रित करते जाते हैं जिसमें शौर्य, त्याग, बलिदान, स्वतंत्रता, दोस्ती, डाह, जलन, विद्वेष, छल-कपट, सूफ़ी, युद्ध, बदला आदि अनेक बातों का वर्णन है. जिससे आम पाठक सम्भवतः चूक सकता है. वे पण्डित की तरह इस पाठ को खोलते चलते हैं.


चित्रकला में यथार्थ को लेकर हमेशा से टकराव रहा कि किस यथार्थ का चित्रण हुआ जाता है दृश्यजगत का, या कुछ और है जिसे हासिल किया जाता है. 'सेजा'ने जब ये कहा चित्र किसी और के नहीं अपने बारे में हैं तब से लेकर अब तक चित्रकला के क्षेत्र में यथार्थ की सुनामी आयी हुई है. इसके बीच पिकासो ने बहुत ही खुबसूरत ढंग से इसे कहा कि हर कल्पना यथार्थ है. यथार्थ से इस तरह का टकराव कविता में होता होगा जहाँ पद्मावत को वास्तविक मानकर उस काव्य कल्पना को हत्याओं का सबब बनना पड़ा. किन्तु एक सच उसमें शुरू में ही कह दिया जाता है जिसका मुरीद हुए बिना कोई पाठक नहीं रह सकता और ये सच लेखक ने यहाँ इस तरह रखा है.

मुहमद बाई दिसी तजी एक सरवन एक आँखिं.
जब ते दाहिन होई मिला बोलू पपीहा पाँखि..

Historians have reconstructed Jayasi's life from Sufi tazkiras (descriptions), legends and various traditions and hints given by the poet himself. It emerges that his was not 'happy' life. He the suffered from smallpox in early childhood, which resulted in him losing his left eye and being permanently short of hearing in the left ear. He gives his physical condition a movingly poetic twist in the course of narrative: 'Since my beloved looked at me and spoke to me on my right side. I myself give up my left eye and ear.'

और साथ ही लेखक यहाँ एक और कवि सूरदास की याद भी दिलातें हैं:


There is a story about great poet Surdas who was also blind. He was granted eyesight briefly and saw Krishna and Radha. He requested them to make him blind again as he did not want his vision, purified by their darshan, to be used for worldly affairs.

जायसी और सूरदास का दिव्यांग होना यथार्थ और कल्पना साथ साथ है. एक सांसारिक सच है एक काल्पनिक. सच दोनों हैं. इसी सच की बुनियाद पर पद्मावत आगे बढ़ता है और पाठक एक नये संसार में खुद को पाता है.

पुरुषोत्तम जी बधाई के पात्र हैं जिन्होंने बहुत ही ख़ूबसूरत ढंग, प्रांजल रोचकता से प्रमाणिकता को बनाये रखते हुए बिलावजह विवादित हुए महाकाव्य को उसकी गरिमा और उसके गूढ़ अर्थों को खोला है. उनका ये उपक्रम अनेक पाठकों को रोमांचित करेगा और शायद वे भी परिचित हो सकेंगे उस भव्यता से जो भीतरी है जो हासिल नहीं की जा सकती जिसे वरदान की तरह पाया जा सकता है. जो रोजमर्रा के साधारण तथ्यों में ही बसती है जिसे बनावट की नहीं बुनावट की जरूरत है. वो इस नकली सांसारिक, या इस माया-रूपी जगत की नहीं है वो इस दुनिया को उसके कार्य व्यापार को इसके बनाये अनेक नियमों को कुछ इस तरह से देखती है कि वे दूसरी दुनिया के लगने लगते हैं. उनमें जादुई तत्वों का समावेश हो जाता है. वे अ-लोकिक हो जाते हैं. साधारण सी बात ही अ-साधारण हो जाती है.  

मेरी समस्या 'कल्पना'है और एक बार खुल जाने के बाद मुझे खुद को पकड़ना पड़ता है रोकना पड़ता है ताकि पाठ का स्वास्थ्य बना रहे. मैं बहुत ही संकोच में यह सब लिख रहा हूँ जिसके योग्य होने के लिए मुझे अंग्रेजी भी जानना चाहिए और अवधी भी. 
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56akhilesh@gmail.com



मेघ-दूत : लाटरी : शर्ली जैक्सन : अनुवाद : शिव किशोर तिवारी

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अमरीकी कथा साहित्य में Shirley Jackson की कहानी ‘The Lottery’ कुछ सबसे विवादास्पद कहानियों में से एक मानी जाती है. इस कहानी के छपते ही शर्ली रातों–रात प्रसिद्ध हो गयीं. यह ३०० की आबादी वाले गाँव के एक ऐसे पारम्परिक लाटरी-उत्सव की कथा है जिसमें चयनित व्यक्ति की पत्थरों से मार-मार कर हत्या कर दी जाती है.

भीड़ के मनोविज्ञान को शर्ली ने अचूक ढंग से व्यक्त किया है. आज जब भारत में भीड़ तंत्र उन्मादी रूप अख्तियार कर चुका है इस कहानी को पढ़ते हुए भीड़ के मनोविकार को समझा जा सकता है.

समालोचन के पाठकों के लिए इस कहानी का अनुवाद ख़ास तौर पर शिव किशोर तिवारी ने किया है, जो खुद अनुवाद को लेकर बहुत सतर्क रहते हैं और समालोचन को भी बार–बार सचेत करते रहते हैं.


“शर्ली जैक्सन (1916-1965) की कहानी ´द लॉटरी´´(1948) अत्यंत प्रसिद्ध है. हॉरर कथा से लेकर सामाजिक-नृतात्विक रूपक-कथा तक के रूपों में इसका विश्लेषण हो चुका है. कुछ लखकों ने इसके पात्रों के नामो में प्रतीकात्मक अर्थ-संकेतों की खोज की है. यहां तक कि एक शोधकर्ता ने इस कहानी को इस्लाम से भी जोड़ा है (Islam in Shirley Jackson’s The Lottery : Nayef Ali Al-Joulan).”

 शिव किशोर तिवारी




लाटरी
शर्ली जैक्सन

अनुवाद : शिव किशोर तिवारी



27 जून की उस सुबह आसमान साफ़ था और धूप खिली थी; परवान चढ़ी गरमी के मौसम की ताज़ा ऊष्मा में ख़ूब सारे फूल खिले थे और घास चटक हरी हो रही थी. कोई दस बजे गाँववाले पोस्ट आफ़िस और बैंक के बीच स्थित खुली जगह में इकट्ठे होने लगे. कुछ गांवों में जिनकी आबादी ज़्यादा थी लाटरी दो दिन चलती थी और 26 जून को शुरू करनी पड़ती थी; लेकिन इस गांव की आबादी केवल तीन सौ के आसपास थी, इसलिए लाटरी का पूरा कार्यक्रम दो घंटे से कम में संपन्न हो जाता था. दस बजे शुरू करके भी कार्यक्रम दोपहर के भोजन, जो दिन का मुख्य भोजन था, के पहले ख़तम हो जाता था.



पहले बच्चे जमा हुए जैसा आम है. स्कूल में हाल ही में गर्मियों की छुट्टियां शुरू हुई थीं तो अभी तक ज़्यादातर बच्चे अपनी आज़ादी के बारे मे पुर-इत्मीनान नहीं हुए थे– थोड़ी देर तक वे शांतिपूर्वक जुटते रहे और अब भी क्लास की, टीचर की, किताबों की, स्कूल में पड़ी डांटों की चर्चा करते रहे. थोड़ी देर के बाद ही उनका शोरगुल और खेलना-कूदना शुरू हो सका. बॉबी मार्टिन ने आते ही अपनी जेबों में पत्थर भर लिये, दूसरे बच्चों ने उसका अनुसरण करते हुए सबसे चिकने, सबसे गोल पत्थरों को चुनना शुरू कर दिया. बॉबी, हैरी जोंस और डिकी डिलाक्वा – गांववालों के उच्चारण  के मुताबिक़ डिलाक्रॉय – ने मैदान के एक कोने में ढेर सारे पत्थर जमा कर दिये, फिर दूसरे लड़कों  के हमलों से उनकी हिफाजत  करने में जुट गए. लड़कियां एक ओर को आपस में बतियाती खड़ी हो गईं. कोई कभी सिर मोड़कर पीछे लड़कों की ओर देख लेती. बहुत छोटे बच्चे धूल में लोट रहे थे या अपने बड़े भाई या बहन की उंगली पकड़े खड़े थे.


थोड़ी देर में मर्द इकट्ठे होने लगे, अपने बच्चों को तकते और बुवाई, बरसात, ट्रैक्टरों तथा टैक्सों की बातें करते. कोने में जमा पत्थरों के ढेर से दूर वे एक साथ खड़े हो गए. वे मज़ाक करते हुए भी अपनी आवाज़ें धीमी रख रहे थे और खुलकर हंसने के बजाय मुसकरा भर रहे थे. मर्दों के कुछ बाद रंग उड़े घरवाले कपड़े और स्वेटर पहने औरतें आईं. एक दूसरे का अभिवादन करती, छोटी-मोटी गप्पें साझा करती वे अपने-अपने पतियों की और बढ़ीं. जल्दी ही औरतें अपने पतियों के पास खड़ी होकर अपने बच्चों को पुकारने लगीं. चार-पांच बार पुकारना पड़ा, तब कहीं बच्चे अनिच्छा से आये. बॉबी मार्टिन अपनी मां के पकड़ने को बढ़े हाथों के नीचे से निकलकर हँसते हुए फिर से पत्थरों के ढेर की और भागा. पिता ने सख़्ती से ऊँची आवाज़ में पुकारा तो बॉबी ने तत्काल आकर पिता और सबसे बड़े भाई के बीच अपनी जगह ली.



मैदान में आयोजित होने वाले सामूहिक नृत्य, किशोर क्लब और हैलोवीन के उत्सवों की तरह लाटरी का संचालन भी मि. समर्स करते थे, सामाजिक कामों में लगाने के लिए उनके पास समय और ऊर्जा थी. वे गोल चेहरे के, मस्त आदमी थे. कोयले का व्यापार करते थे. उनसे लोगों को सहानुभूति थी क्योंकि उनके कोई संतान नहीं थी और उनकी बीवी बदज़बान थी. जब वे मैदान में पहुंचे तब उनके हाथ में चिरपरिचित काला बक्सा था. देखकर गांववालों के बीच कुछ देर तक मंद स्वर में बातें चलीं; फिर अभिवादन में हाथ हिलाकर उन्होंने घोषणा की, “आज देर हो गई दोस्तो”. पोस्टमास्टर मि.ग्रेव्ज़ पीछे-पीछे एक तिपाई लिए आये जिसे मैदान के बीचोबीच रखकर काला बक्सा उसके ऊपर रखा गया. गांववाले तिपाई से दूरी बनाकर उसके और अपने बीच जगह छोड़कर खड़े हुए. जब मि. समर्स ने कहा, “मर्द लोगों में से कोई मेरी मदद करना चाहेंगे ?तब सबमें हिचकिचाहट दिखी, फिर दो आदमी, मि. मार्टिन और उनका बड़ा बेटा बैक्सटर, आगे आये और जब तक मि.समर्स बक्से के अंदर रखी पर्चियों को हिला-हिलाकर मिलाते रहे तब तक दोनों ने बक्से को पकड़कर रखा.


लाटरी के मूल साज़ो-सामान कभी के ग़ायब हो चुके थे, तिपाई पर रखा काला बक्सा तब से इस्तेमाल हो रहा है जब गांव के सबसे बूढ़े व्यक्ति वार्नर बुज़ुर्गवार का जन्म नहीं हुआ था. मि. समर्स ने कई बार गांववालों से नया बक्सा बनवाने की बात की है, लेकिन कोई परंपरा तोड़ना नहीं चाहता, इतनी भी जो बक्से के मारफ़त बची है– कहते हैं कि यह बक्सा बनाने में इसके पहले वाले बक्से के कुछ हिस्से इस्तेमाल हुए थे, उस बक्से के जो तब बना था जब इस गांव को बसानेवाले पहले निवासी यहां आये थे. हर साल लाटरी ख़त्म होने के बाद मि. समर्स नये बक्से की बात उठाते और हर साल बिना किसी कार्रवाई के मामला टल जाता. काला बक्सा साल-दर-साल और बदरंग होता रहा : इस समय वह पूरा काला नहीं था बल्कि एक और से बुरी तरह टूट चुका था जिससे लकड़ी का असली रंग दिखने लगा था. कहीं-कहीं बक्सा बदरंग और दाग़दार था.



मि.मार्टिन और उनके बड़े बेटे बैक्सटर ने काले बक्से को तब तक पकड़कर रखा जब तक मि. समर्स ने अपने हाथ से पर्चियों को अच्छी तरह मिला नहीं लिया. चूंकि बहुत सी रस्में अब तक छोड़ी या भूली जा चुकी थीं, इसलिए पीढ़ियों तक प्रचलित काठ के टुकड़ों की जगह काग़ज़ के टुकड़ों का प्रयोग मि. समर्स स्वीकृत करा पाये. उनका तर्क था कि काठ के टुकड़े तब के लिए ठीक थे जब गांव छोटा-सा था पर अब जब कि उसकी आबादी तीन सौ पार कर गई है और आगे और बढ़ने की उम्मीद है, कोई ऐसी चीज़ इस्तेमाल करनी पड़ेगी जो काले बक्से में समा सके. लाटरी की पिछली रात मि समर्स और मि ग्रेव्ज़ काग़ज़ की पर्चियां तैयार करते थे और उन्हें बक्से में भरते थे. फिर बक्सा मि समर्स की कोयला कंपनी के सेफ़ में बंद कर दिया जाता था. जब अगली सुबह मि समर्स को बक्से को मैदान में ले जाना होता था तभी सेफ़ खुलता था. साल के बाक़ी दिन बक्सा कभी यहां कभी वहां रखा रहता था – एक साल वह मि ग्रेव्स के कोठारे में रखा रहा, दूसरे साल पोस्ट ऑफ़िस के फ़र्श पर, और एक साल मार्टिन किराना दूकान के शेल्फ़ पर पड़ा रहा.


मि समर्स लाटरी की शुरू,आत की घोषणा करें इसके पहले बहुतेरे झमेले थे. तमाम सूचियां बनानी थीं – कुटुंबों के मुखिया, हर कुटुंब के प्रत्येक परिवार का मुखिया, हर परिवार के सदस्यों के नाम. पोस्टमास्टर को मि समर्स को लाटरी अधिकारी की औपचारिक शपथ दिलानी थी; कुछ लोगों को याद आया कि एक ज़माने में लाटरी अधिकारी को कुछ बोलना पड़ता था – हर साल महज़ रस्मी तौर पर वे मंत्रवत् पंक्तियाँ सपाट स्वर में जल्दी-जल्दी दुहराई जाती थीं. कुछ लोगों का ख़्याल था कि उन्हें पढ़ते या गाते समय लाटरी अधिकारी को किसी ख़ास सही तरीक़े से खड़ा होना होता था, दूसरों का कहना था कि लाटरी अधिकारी को लोगों के बीच चक्कर लगाना पड़ता था, लेकिन बरसों पहले यह रिवाज़ ख़तम हो गया था. एक रस्मी अभिवादन भी होता था. यह रस्म भी बदल गई थी, अब इतना ही काफी था कि अधिकारी को हर पर्ची निकालने आये व्यक्ति को संबोधित करना होता था. इन सब कामों में मि समर्स बड़े निपुण थे. नीली जींस और साफ़ सफ़ेद कमीज़ पहने, एक हाथ हलके से काले बक्से पर रखे वे बड़े पक्के और ख़ास लग रहे थे. इस समय वे मि ग्रेव्ज़ और मार्टिन दम्पति के साथ किसी लंबे वर्तालाप में मग्न थे.


मि समर्स अंतत: बातचीत से हटकर जन-समुदाय से मुख़ातिब हुए ; तभी मिसेज़ हचिंसन द्रुत गति से मैदान की और आती दिखीं.जल्दबाज़ी में उनका स्वेटर कंधे पर पड़ा रह गया था. आकर पिछली क़तार में खड़ी हो गईं. मिसेज़ डिलाक्वा उनकी बग़ल में थीं. “मैं तो भूल ही गई थी” वे बोलीं और दोनों महिलाएँ ज़रा सा हंसीं. “सोचा मियां पिछवाड़े लकड़ियां जमा कर रहे होंगे. फिर खिड़की से बाहर देखा तो बच्चे भी नहीं !तब जाके याद आया कि आज तो सत्ताईस है, भागती आई”. वे एप्रन पर हाथ पोछने लगीं. मिसेज़ डिलाक्वा ने कहा, “वक़्त पर ही पहुंची हैं. आगेवाले अभी गपशप में मशग़ूल हैं”.


मिसेज हचिंसन ने गरदन लंबी करके भीड़ का जायज़ा लिया तो उनके पति और बच्चे एकदम आगे की तरफ़ खड़े दिखाई दिये. उन्होंने मिसेज़ डिलाक्वा की बांह हलके से थपथपाकर ‘विदा’ का इशारा किया और भीड़ में रास्ता बनाने लगीं. लोगों ने ख़ुशी-ख़ुशी रास्ता दिया: दो-तीन लोगों ने आवाज़ बस इतनी ऊंची करके कि सभी को सुनाई पड़े  “ये देखो तुम्हारी घरनी आ गई हचिंसन” और “बिल, वो पहुंच गईं आख़िर” कहा. मिसेज़ हचिंसन अपने पति की बग़ल में पहुंच गईं और मि समर्स ने, जो इस बीच इंतज़ार कर रहे थे, ख़ुशमिज़ाज लहज़े में कहा, “मुझे लगा तुम्हारे बग़ैर ही काम चलाना पड़ेगा, टेसी”. मिसेज़ हचिंसन ने हंसते हुए कहा, बरतन अनधुले छोड़ आती तो तुम्हें अच्छा लगता, जो ?नहीं न !” भीड़ में एक मंद हास फैल गया और मिसेज़ हचिंसन को रास्ता देने वाले खिसककर अपनी जगहों पर वापस आ गए.


“चलिए, अब शुरू करें मेरे ख़्याल से,” मि समर्स ने गंभीर स्वर में कहा, जल्दी ख़त्म करके अपने-अपने काम में लगें. कोई ऐसा है जो मौजूद नहीं ?”
“डनबार, डनबार”, कई लोग बोले.
मि समर्स ने अपनी सूची देखी. “क्लाइड डनबार ?”, उन्होंने कहा, “टांग टूटी है नउनकी पर्ची कौन निकालेगा ?”
“मेरे ख़्याल से मैं निकालूंगी”, एक महिला ने कहा.
“पति का पर्चा पत्नी निकाल सकती है” , मि समर्स ने कहा, “जेनी, तुम्हारा कोई लड़का है जो यह काम कर सके?” उत्तर मि समर्स और गांव के और सभी को भली भांति मालूम था पर यह प्रश्न औपचारिक ढंग से पूछना लाटरी अधिकारी का कर्तव्य था. मि समर्स ने भद्र भाव से उत्तर की प्रतीक्षा की.


“होरेस तो मुश्किल से सोलह बरस का हुआ” मिसेज़ डनबार ने खेदपूर्वक कहा, “ मैं समझती हूं अपने मियां की पर्ची इस साल मुझे ही निकालनी पड़ेगी.


“ठीक है”, मि समर्स ने कहा और अपनी सूची में कुछ दर्ज किया. फिर उन्होंने पूछा, “वाट्सन परिवार का लड़का इस बार पर्ची निकालेगा?”


एक लंबे क़द के लड़के ने हाथ उठाया. “ हाज़िर !मैं अपने और अपनी मां के लिए पर्ची निकालूंगा. घबराहट में उसने कई बार पलकें झपकाईं. भीड़ में से इस तरह की आवाज़ें आने लगीं जैसे “शाबास जैक!”, “ ख़ुशी की बात है कि तुम्हारी मां को लाटरी खेलने के लिए एक पुरुष का सहारा हो गया”, तो वह शरीर के ऊपरी हिस्से को झुकाकर अदृश्य होने की कोशिश करने लगा.


“अच्छा, लगता है सभी आ चुके हैं. बुज़ुर्ग वार्नर आ पाये?”, मि समर्स ने कहा. एक आवाज़ आई, “हाज़िर !” मि समर्स ने गरदन स्वीकार के रूप में नवाई.


सहसा भीड़ में सन्नाटा छा गया. मि समर्स ने लिस्ट की ओर देखते हुए खँखारकर गला साफ़ किया. “सब तैयार ?”, उन्होंने कहा, “ मैं लिस्ट से नाम पढ़ूंगा – सबसे पहले कुटुंबों के मुखियों के–  हर आदमी अपनी पर्ची निकालकर ले जाय. जब तक सबके हाथ में पर्ची न आ जाय तब तक कोई अपनी पर्ची न खोले. कोई शक?”.


लोग यह सब इतनी बार कर चुके थे कि उन्होंने उपर्युक्त निर्देशों को ज़्यादा कान नहीं दिया. अधिकतर लोग बार-बार अपने ओठों पर जीभ फिरा रहे थे और न कुछ बोल रहे थे न किसी तरफ़ देख रहे थे. मि समर्स ने एक हाथ ऊपर उठाकर पुकारा, “एडम्स”. एक आदमी भीड़ में से निकलकर आगे आया. “हलो, स्टीव!”, मि समर्स ने कहा. जवाब आया, “ हलो जो!”दोनो जन एक दूसरे को देखकर भावशून्य, कुछ नर्वस सी हंसी हंसे. मि. एडम्स ने काले बक्से में हाथ डालकर एक पर्ची निकाली. मुड़े काग़ज़ के टुकडे को एक कोने से मज़बूती से पकड़े अपनी जगह को वापस आये और अपने कुटुंब से कुछ दूर खड़े हो गये,. काग़ज़ की ओर एक बार भी नहीं देखा.


“एलेन”, मि समर्स ने पुकारा, “ऐंडरसन...बेंथम”.
“लगता है आजकल दो लाटरियों के बीच कोई फ़ासला ही नहीं होता.“, पीछे की क़तार में खड़ी मिसेज़ डिलाक्वा ने मिसेज़ ग्रेव्ज़ से कहा.


“लगता है पिछली लाटरी गये हफ़्ते ही हुई थी.“
“समय सचमुच बड़ी तेज़ी से बीतता है.“ मिसेज़ ग्रेव्ज़ ने कहा.
“क्लार्क...डिलाक्रॉय”
“मेरे मियां वो चले”, मिसेज़ डिलाक्वा ने कहा और इसके बाद सांस रोककर अपने पति का जाना देखती रहीं.


“डनबार”, मि समर्स ने कहा; मिसेज़ डनबार धीर पदों से बक्से की और चलीं. भीड़ से किसी महिला ने आवाज़ लगाई, “शाबास जेनी !” ; दूसरी ने कहा, “वो रही.“


अगला नंबर हमारा है”, मिसेज़ ग्रेव्ज़ ने कहा. वह मि. ग्रेव्ज़ को देखने लगीं, जो बक्से की बग़ल से सामने आये, संजीदगी से मि समर्स का अभिवादन किया और बक्से से एक पर्ची निकाली. अब तक भीड़ में काफी मर्दों के पास पर्चियां आ गई थीं. अपने बड़े हाथों में इन पर्चियों को उलटते-पलटते वे नर्वस दिख रहे थे. मिसेज़ डनबार और उनके दो बेटे साथ खड़े थे और पर्ची मिसेज़ डनबार के हाथ में थी.


“हार्बर्ट... हचिंसन”
“पहुंचो जल्दी,बिल” , मिसेज़ हचिंसन ने कहा और उनके पास खड़े लोग हंसने लगे.
“जोंस”.
“सुना है”, मि एडम्स ने अपनी बग़ल में खड़े वार्नर बुज़ुर्गवार से कहा, “कि उत्तर वाले गांव में लोग लाटरी बंद करने के बारे में सोच रहे हैं”.


बुज़ुर्गवार फुफकारे, “पागल गधे हैं सब के सब. नये ज़माने वालों की बातें सुनो तो लगता है उन्हें पसंद ही नहीं आता कुछ. कुछ ठीक नहीं, कहने लगें कि वापस गुफाओं में रहने चलते हैं !कोई काम न करो, वैसे रहके देखो कुछ दिन. कहावत थी कि ‘जून में लाटरी, अनाज भर बखरी’. अब लगता है जल्द ही हम जंगली अनाज और ओक के फल की खिचड़ी खाने लगेंगे. लाटरी हमेशा रही है”. फिर तुनुकमिज़ाज सुर में बोले, “यही क्या कम है कि वो सामने समर्स छोरा सबके साथ हा हा- ही ही कर रहा है !”


“बहुत जगहों पर तो लाटरी ख़तम ही हो चुकी है”, मिसेज़ एडम्स ने कहा.
“उससे मुसीबत आयेगी, और कुछ नहीं”, बुढ़ऊ ने पूरे विश्वास से कहा, “गधों का  लौंडापना है सब”.
“मार्टिन”, बॉबी ने पिता को आगे जाते देखा, “ओवरडाइक, पर्सी”.
“जल्दी करें भाई”, मिसेज़ डनबार ने बड़े बेटे से कहा, “जल्दी ख़तम करें.“
“ख़तम हो आया है”, बेटा बोला.
“तो तैयार रहो, दौड़के जाके पापा को बताना होगा.“


मि समर्स ने अपना नाम पुकारा और विधिवत् सामने आकर पर्ची निकाली, फिर पुकारा , “वार्नर”.
बूढ़ा भीड़ में जगह बनाते हुए निकलने लगा.“सतहत्तर साल लाटरी में आते हो गए, वह बोला, “यह सतहत्तरवीं बार है”.

“ज़नीनी”

उसके बाद एक लंबा विराम, लोगों सांस रोक खड़े, फिर मि समर्स ने अपना पर्चे वाला हाथ उठाया, “ठीक है भाइयो”. थोड़ी देर तक किसी ने हरकत नहीं की, फिर सारी पर्चियां एक साथ खुल गईं. सहसा सभी औरतें एक साथ बोलने लगीं – “कौन है?किसका निकला ? वाट्सन ? डनबार?थोड़ी देर में एक ही आवाज़ चारों ओर से – “हचिंसन परिवार को मिला. बिल को. बिल हचिसन की पर्ची निकली.“
“अपने पिता को बता आओ”, मिसेज़ डनबार ने बेटे को कहा.


लोग हचिंसन परिवार को ढूंढ़कर देखने आये. बिल हचिंसन चुपचाप अपने हाथ की पर्ची पर नज़र गड़ाये खड़ा था. अचानक मिसेज़ हचिंसन मि समर्स की ओर रुख़ करके चिल्लाईं, “आपने इन्हें अपनी मर्ज़ी की पर्ची लेने का समय नहीं दिया. मैंने देखा. अन्याय है ये”!  
“खेल की तरह लो, टेसी”, मिसेज़ डेलाक्वा ने ऊँची आवाज़ में कहा;  मिसेज़ ग्रेव्ज़ बोलीं, “हम सभी ने एक-सा चांस लिया”.
“चुप करो, टेसी !” , बिल हचिंसन ने कहा.
“चलो, काफी जल्दी काम हुआ लोगो! “, मि समर्स ने कहा, “ थोड़ी और जल्दी करें ताकि पूरा काम समय से ख़तम हो जाय”. उन्होंने दूसरी लिस्ट देखी और बोले, “बिल, आपने हचिंसन कुटुंब की और से पर्ची निकाली. इस कुटुंब में कोई और परिवार है” ?


“डॉन और ईवा हैं न!उनको भी चांस लेने को कहो” !  
“लड़कियां अपने पति के परिवार के साथ पर्ची निकालती हैं, टेसी” , मि समर्स ने नरम लहज़े में कहा, “सबको पता है, तुम्हें भी”.
“अन्याय है ये ”, टेसी ने कहा.
“ना, नहीं ‘जो’, हचिंसन ने अफसोस के साथ कहा, “मेरी बेटी अपने पति के परिवार में गिनी जाएगी, यही उचित भी है. और कोई परिवार है नहीं, बच्चे हैं केवल”.


मि समर्स ने कहा, “तो जहां तक कुटुंब के लिए पर्चा निकालने की बात है आप निकालने वाले हुए. और परिवार के लिए भी आप ही, सही?”
“सही”, बिल हचिंसन ने कहा.
“कितने बच्चे, बिल”?मि समर्स ने पूछा.
“तीन - बिल जूनियर, नैंसी, सबसे छोटा डेव. और मैं तथा टेसी.
“ठीक है. आपने चारों के टिकट वापस ले लिए, हैरी”? मि ग्रेव्ज़ ने स्वीकृति जताई और पर्चियां दिखाईं. “तो बिल की पर्ची भी ले लें और पांचों पर्चियों को बक्से में डाल दें.
“मेरे विचार से शुरू दुबारा करना चाहिए आपको” , मिसेज़ हचिंसन ने यथासंभव संयमित ढंग से कहा, “ बेइंसाफ़ी हुई है. आपने इन्हें पर्ची चुनने का समय नहीं दिया, सबने देखा”.
मि ग्रेव्ज़ ने पांचों पर्चियां बक्से में डाल दीं. बाक़ी सारे काग़ज़ ज़मीन पर डाल दिये जहां से हवा उनको उड़ाकर ले जाने लगी.


“मेरी बात सुनो”, मिसेज़ हचिंसन अपने चारों और खड़े लोगों से कह रही थीं.
“तैयार”? मि समर्स ने पूछा तो बिल ने अपनी पत्नी और बच्चों को नज़र घुमाकर देखा और स्वीकार में गरदन झुकाई. “याद रहे, पर्ची निकालकर, बिना उसे खोले दूसरों के पर्ची निकालने का इंतज़ार करें. हैरी, तुम सबसे छोटे डेव की मदद करना. “मि समर्स ने बच्चे, डेव, का हाथ पकड़ा तो वह ख़ुशी-ख़ुशी आ गया. मि समर्स ने कहा, “बक्से से एक पर्ची निकाल लो डेव”. डेव ने बक्से में हाथ डाला और हँसने लगा. “बस एक पर्चा लेना है” उन्होंने डेव से कहा और हैरी ग्रेव्ज़ ने बच्चे का हाथ पकड़ पर्ची ले ली. डेव उनके पास ही खड़े होकर विस्मयपूर्वक उनकी तरफ देखता रहा.


“इसके बाद नैंसी”, मि समर्स ने कहा. नैंसी की उम्र बारह थी, उसकी स्कूली दोस्त उत्कंठित हो लंबी सांसें भर रही थीं : इस बीच नैंसी  अपनी स्कर्ट का घेरा लहराते नज़ाकत से अपनी पर्ची निकाल लाई. “बिल जूनियर” – बिली का चेहरा लाल हो गया और अपने पांव बड़े लगने लगे. पर्ची निकालते हए बक्सा ही गिरा दिया लगभग.  “टेसी” मि समर्स ने पुकारा. वह हिचकिचाई, चारों और ललकारती नज़रों से देखा और अपने ओठों को सख़्ती से बंद करके बक्से के पास पहुंच गई. एक पर्ची खींचकर निकाली और पीठ पीछे छिपा ली.


“बिल” – मि समर्स ने कहा. बिल हचिंसन ने बक्से में हाथ डलकर एकमात्र पर्ची को ढूंढ़कर निकाला.


भीड़ में सन्नाटा था. एक लड़की फुसफुसाईं, “नैंसी न हो तो अच्छा हो” और उसकी फुसफुसाहट भीड़ के बाहरी छोर तक पहुंच गई.


“पहले जैसी नहीं रही लाटरी”, वार्नर बूढ़ा चटक आवाज़ में बोला, “लोग ही पहले जैसे नहीं रहे”.

“ठीक है, पर्चियां खोलो”, मि समर्स ने कहा, “ हैरी, बच्चे की पर्ची खोलें”.


मि ग्रेव्ज़ ने पर्चा खोलकर हाथ उठाकर सबको दिखाया. पर्ची कोरी थी यह देखकर भीड़ ने समवेत राहत की सांस ली. नैंसी और बिल जूनियर ने अपनी पर्चियां एक साथ खोलीं. उनके चेहरे ख़ुशी से दमकने लगे और वे पर्चों को सर के ऊपर उठाकर सबको दिखाते हुए हंसने लगे.


“टेसी” – मि समर्स ने पुकारा थोड़ी तक कुछ न हुआ तो उन्होंने बिल की ओर देखा. बिल ने अपनी पर्ची खोलकर दिखा दी. वह कोरी थी.


“टेसी है. “मि समर्स की आवाज़ फुसफुसाहट के रूप में निकली. “बिल, उनकी पर्ची दिखाओ.“


बिल हचिंसन अपनी पत्नी की तरफ़ बढ़ा. पर्ची बिल ने उसके हाथ से ज़बर्दस्ती छीन ली. उस पर एक काला निशान था. निशान पिछली रात मि समर्स ने अपने आफ़िस की मोटी पेंसिल से बनाया था. बिल हचिंसन से पर्ची उठाकर सबको दिखाई. भीड़ में हलचल हुई.


“चलो लोगो”, मि समर्स ने कहा, “ख़तम करें अब”.
हालांकि गांव वाले कर्मकांड भूल चुके थे और मूल काले बक्से को भी खो चुके थे, परंतु पत्थरों का इस्तेमाल उन्हें अब भी याद था. लड़कों ने पत्थरों की जो ढेरी बनाई थी वह तैयार थी ही, ज़मीन पर हवा में उड़ते काग़ज़ के टुकड़ों के बीच बहुत से पत्थर पड़े थे. मिसेज़ डिलाक्वा ने इतना बड़ा पत्थर चुना जिसको उठाने के लिए दोनों हाथों का इस्तेमाल करना पड़ा. मिसेज़ डनबार की और मुड़कर वे बोलीं ,”चलो, जल्दी करो.


मिसेज़ डनबार के हाथ में दो छोटे पत्थर थे. इतने में ही वे बेदम हो चुकी थीं. वे बोलीं, “दौड़ना मेरे बस का नहीं है. आप आगे बढ़ें. मैं पीछे-पीछे पहुंचती हूं.“

बच्चों के हाथ में पहले से पत्थर थे. किसी ने हचिंसन के सबसे छोटे बेटे के हथ में कुछ कंकड़ रख दिये.

टेसी हचिंसन अब एक खुली जगह के मध्य में थी. वह अपना हाथ चरम हताशा की मुद्रा में फैलाए हुए थी. गांववाले उसके क़रीब आने लगे. “यह अन्याय है” उसने कहा. एक पत्थर उसकी कनपटी पर लगा. वार्नर बूढ़ा कह रहा था, “चलो, आगे बढ़ो सब लोग”. स्टीव एडम्स भीड़ में आगे था, उसकी बग़ल में मिसेज़ ग्रेव्ज़.

“ये अन्याय है, ग़लत है” !टेसी हचिंसन चीख़ी.
फिर भीड़ उस पर टूट पड़ी.
____________________

(मूल अंग्रेज़ी से अनुवाद : शिव किशोर तिवारी)


तुम कहाँ गए थे लुकमान अली : (दो)

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सौमित्र मोहन विष्णु खरे के शब्दों में ‘वह ऐसा देसी कवि है जो एलेन गिन्सबर्ग के पाए का है’ के साथ कुछ ऐसा हुआ कि उन्हें पिछले कई दशकों से साहित्य के तलघर में दफ़्न कर दिया गया. एक ‘कल्ट’ कवि और ‘लुकमान अली’ कविता से चर्चित/ प्रशंसित/ निंदित जो अब ८० वर्ष का है, पर क्या इधर कोई किसी ने उनपर आलेख लिखा है?  उनपर केन्द्रित किसी पत्रिका का कोई अंक प्रकाशित हुआ है ?  किसी विश्वविद्यालय ने  क्या उनपर कोई लघु शोध भी  पूरा कराया है? जब दिल्ली के ही संदिग्ध कवियों के पास उनके तथाकथित संग्रहों से अधिक तमगे हैं और जिनपर बे-हया कारोबारी ‘आलोचकों’ ने किताबे संपादित भी कर रखी हैं, और मतिमन्द शोध निर्देशकों ने कूड़ा शोध करा रखा है, सौमित्र मोहन के पास ‘सम्मान/पुरस्कार’ की भी जगह ख़ाली है.  

स्वदेश दीपक कहा करते थे कि ‘सौमित्र मोहन का लेखन अपने आपसे लड़ाई का दस्तावेज़ है.’  बाहर लड़ने के लिए पहले आत्म से लड़ना होता है, इसे ही मुक्तिबोध आत्मसंघर्ष कहते हैं. और यह भी कि ‘एक जनवादी – प्रगतिशील’ और मर्यादित माने जाने वाले केदारनाथ अग्रवाल ने लुकमान अली के लिए कहा है “फन्तासीकी यह कविता हिन्दी की पहली बेजोड़ दुःस्वप्न की सार्थक कविता है”.

विष्णु खरे ठीक ही कहते हैं “सौमित्र मोहन की कविताओं को पढ़ना,बर्दाश्त करना,समझ पाना आदि आज 60 वर्षों बाद भी आसान नहीं है.”

सौमित्र मोहन पर समालोचन के इस दूसरे अंक में आप उनकी पंसद की नौ कविताएँ, लुकमान अली के चार हिस्से और इस कविता पर केदारनाथ अग्रवाल का आलेख पढ़ेंगे.
________________




           तुम कहाँ गए थे लुकमान अली :  (दो)       





कवि   ता  एँ




पैटर्न

मेरे पहले आने के पहले वह आएगा।

सूखी घास पर रेंगते कीड़े का कोई अर्थ नहीं है
वह गीली भी हो सकती थी या नहीं भी हो सकती थी

कुर्सी पर बंद पड़ी पत्रिका में किसी की भी कविता हो;
चाय पीते हुए मौसम की याद आ जाए या रविवार या शुक्रवार की
[ट्राम बंद होने की खबर ही तो है]

दीवार पर बच्चों ने कितनी लकीरें खींच दी हैं
                                   उनकी गिनती नहीं है।
सारंगी भी नहीं है, हिरन भी नहीं है, पतंग भी नहीं है
एक दीवार हैउस पर लकीरें हैं : ख्एक कौवा अभी-
अभी उड़ कर गया था अलगनी पर टँगे कपड़ों के ऊपर,

एक पेड़ है; उसकी छाल दिन-ब-दिन उतरती जा रही है
कल कोई आएगा और उसके चिकने हिस्से पर अपना
                      नाम लिख चला जाएगा।
कोई किसी की आँखों में क्यों देखता है स्वीकृति के लिए...
[एक बिस्तर है जो यूँ ही पड़ा रहेगा बिना सलवटों के]

मेरा घरनिबंध पर ब्लेड रख मैं अभी बाहर गया हूँ
बिना उढ़का दरवाजा बिना उढ़का ही है
न उसका रंग उड़ा है, न वह पुराना हुआ है, न गणेश
                     की खुदी तस्वीर खंडित हुई है
एक दरवाज़ा है, एक निबंध है, एक ब्लेड है; है;
[अन्दर से निकल कर कोई बाहर गया है अन्दर आने के लिए]







भागते हुए 

देर तक चलने वाली बातचीत में
एक चुप्पी    घुल गई थी और
उसके चुंबनों में
आने वाले दिनों की उदासी थी।

वह तपते हुए
आलोक में भी   अकेली थी
                       और भविष्य की
अँधेरी सुरंग तक पहुँच कर रुक गई थी।

अपने चारों ओर की तेज़ आवाज़ों में
एक हल्की सरसराहट की तरह
वह आकर्षित कर गई थी।

उसका शरीर संयम-तरंगों पर
झूल रहा था।
स्पर्श की ऊष्मा में       वह
                         अस्थिर खड़ी थी।
निर्वसन होकर भी         वह स्वप्नों से
                              ढंकी हुई थी।

वह उजाले में भी निपट अँधेरा थी;
और लंबी चुप्पी में
          टिकटिकाती घड़ी की
                   सुई थी।

समय के साथ भागते हुए वह थक गई थी।






देशप्रेम-1

लोग बैंडबाजे की इंतज़ार में खिड़कियाँ खोलकर चुपचाप खड़े हैं।
कोई करतब नहीं हो रहा।
देश ठंडी हवा को सूँघ कर उबासियाँ ले रहा है।
भीतर ही भीतर कोई उतर कर खो जाता है कहीं।

हमारे लिए आने वाला कल घिसे हुए उस्तरे की तरह धूप में पड़ा है।
सफर शुरू नहीं होता, खत्म होता है।
एक कमीने आदमी की तलाश में नामों का क्रम बदलता
रहता है और दुखती आँखों में गंदगी भर जाती है।
सिर्फ़ एक अहसास बाकी रह जाता है छलाँग का... कपड़े बदलने
में तारीखें और वार, खरगोश और हिन्दी, पीढ़ी और ढोल
जगह बदलते हुए एक घपला बन जाते हैं। अश्लीलता
सिर्फ़ रह गई है परिवार नियोजन के पोस्टरों में या घरों से
जा कर घरों में घुसते हुए या दल बदलने के साहसपूर्ण कार्यों में।

खाली मनिआर्डर लेकर अवतार आकाश से उतर रहे हैं। उन्हें सेवाएँ
चाहिए सारे देश की। लोग हैं कि चुपचाप खड़े हैं बैंडबाजे की
इंतज़ार में खिड़कियाँ खोल कर।
जुलूस में शामिल होकर एक रेडक्रॉस-गाड़ी उठा रही है :
पत्थर
फटे हुए झंडे
छुटी हुई चप्पलें
और लाशें पिछवाड़े पड़ी हैं; मकानों के दरवाज़ों में दीमकें व्यस्त हैं।






देखना-2                  

एक बहुत लंबी सफेद दीवार के पीछे से आधा दिखता 
वह आदमी       अपनी उपस्थिति को
                                     बेपर्द कर रहा है
साँझ की ताँबई रोशनी में
कठफोड़वे की बेधक गवाही के साथ।

बाल्कनी से दिखता
कपड़े प्रेस करता हुआ धोबी     पत्ते की तरह
                                                   हिलता है।
कई छोटे बच्चे और आवारा कुत्ते
                                   मनकों की तरह यहाँ वहाँ
                                   बिखरे हैं
किसी फिल्म का एक चाक्षुष बिंब बनाते हुए।      

सूरजकुंड हस्तशिल्प मेले में
एक खड्डी मौन खड़ी है अपने परिवेश से
                                                   कट कर।
किसी ग्रुप हाउसिंग सोसाइटी की सीढ़ियाँ
                                                   चढ़ते/उतरते
                                                   दो औरतें
अपनी-अपनी एनजीओ  के बारे में सूचनाओं का  
आदान-प्रदान करते हुए सरकार को कोस रही हैं।

                                                   हिमालय पर छोड़े गए टनों कबाड़ के
इस ऐतिहासिक दौर में      कई दिनों से उदास रहे
                        एक पाठक ने
सज्जा-विहीन सादे कमरे में बैठ कर
कविता-पुस्तक का पन्ना
उँगली पर थूक लगा कर पलटा है।  
कुछ देर पहले तक
वह किलों के परकोटों के साए में
घूम रहा था     पीछे छूटी हुई जिंदगी को
           कोई तरतीब देने के लिए।

दीवार के पीछे से आधा दिखता आदमी
इस आश्चर्य को देख रहा है
कि भीड़ कैसे प्रतीक्षा को भर देती है!








चरागाह

एक सफेद घोड़ा दौड़ता हुआ नदी में कूदता है और पानी की
उछाल लेती झालर में छिप जाता है चरागाह और धोती
सुखाते हुए आदमी का पाँव।

जंगल जगह बदल रहा है। धीरे-धीरे2      पाँव हट रहे
हैं जमीन से। बंद मुँह से निकलती हुई आवाज़ में भाषा
बन रही है। आहिस्ता से आदमी घर में घुस रहा है।

नहीं, अभी नहीं बदलना है हमें!एक नारा
फटे हुए झंडे के बीच में से सरक जाता है बिना किसी गुल के।
डर के।

फिर वही दृश्य है। घोड़े के पीछे से दिखता हुआ आदमी है।
दृश्य नहीं है : आदमी है। और प्रेम से खुले
होंठों में मक्खियों की कतार है। शब्द हैं; जिसके लिए
किसी को फिक्र नहीं है।

पानी जगह बदल रहा है। धीरे-धीरे2      शरीर-धर्म
भूलता जा रहा है। आपे में नहीं कोई और केवल
एक सूँघ है जानवर के आसपास मँडराने की, जंगल
में खोए हुए आदमी के लिए तलाशी लिए जाने
की।

एक चरागाह और धोती में लिपटे पाँच इंच लंबे पाँव में
ठंड बस गई है।





 उर्फ़ की भाषा :

आज की ख़बरों पर ध्यान करें, न करें;
सेहत का ख्याल रखें : सिद्ध आसन

जब मैंने अपना हाथ परदे के पीछे छिपा लिया था तब
तुमने पान की बेगम मेज़ पर रख दी  थी  और उस
बात के लिए मुस्कराए थे जब हम दोनों कमरे
में हाथों का खेल खेलते रहे थे। आपने जामा
मस्जिद की वह गली नहीं देखी होगी जहाँ धूप
सबसे पहले बाँहों पर पड़ती है : यह अहसास
है। आप नाड़ा ढीला करें तो आपको भी होगा।
या आपको इस अँगूठी पर अभ्यास करना होगा
जिससे जमादार, छिड़काव, दरी का बिछना, दिल्ली
के मेयर का कुर्सी पर बैठना और आपकी पत्नी का
फालतू बाल साफ करते हुए दिखाना होता है।
हमारे लिए आसान है होना






षष्ठि पूर्ति

28मई 1968को दिल्ली में आयोजित
देवेंद्र सत्यार्थी की षष्ठि पूर्ति के अवसर पर


बासी    फल।। फल   में   कीड़ा।। कीड़े में चमक।।
चमक में घोड़ा।। घोड़े  पर  सवार।। सवार  पर  तोप।।
तोप पर सत्यार्थी।। सत्यार्थी का झोला।। झोले में कहानी।।
कहानी का नायक।। नायक की टाँग।। टाँग में जोड़।।
जोड़ में शतरंज।। शतरंज की चाल।। चाल में मात।।
मात में गुस्सा।। गुस्से में खून।। खून में पहलवान।।
पहलवान की चीख।। चीख में अँधेरा।। अँधेरे में गुम।।
बासी फल।।






झील

दिन बिल्कुल वैसा ही नहीं है
जैसाकि उसने सोचा था।
वह अपने बेचैन होने के सबब को
घंटों (हाँ, घंटों तक!) आलमारी में ढूँढ़ता रहा था।

क्या तुम उस दृश्य के साक्षी थे
जब पानी झील में बदल रहा था?

यह झील पौराणिक नहीं थी। बल्किनहीं है।
कविता के रूपक की सलाखें तोड़ी जा रही हैं
और मृत शब्दों की अर्थियाँ भारी होती जा रही हैं।

वह अपने दोस्त के आँसू पोंछने लगा है
और अपने पसीने की नमकीन हवा के साथ
कैमरे के सामने खड़ा हो गया है।
खटाखट फोटो उतर रहे हैंहवा के।
वह खुद कहाँ चला गया है?

वह वही है
जो कवि और कविता के दरवाज़ों पर
पहरेदार की तरह खड़ा है...





यथार्थवाद

मैंने सिर्फ देखा था।

एक गंध कई गज के घेरे में बसी हुई है।
तौलिया मुचड़ा हुआ है।
चादर अपने स्थान से हट कर
एक तरफ ज्यादा लटक गई है।
शिथिलता हवा को दबोचे है।

क्या अभी-अभी कोई
कमरे से बाहर गया है?

शायद!
मैंने तो सिर्फ देखा था।





लुक   मान     अली   




पेंटिग
Salman Toor : Humiliated Ancestor #1 (2016)



[1]

झाड़ियों के पीछे एक बौना आदमी पेशाब करता हुआ गुनगुनाता है और सपने में
देखे हुए तेंदुए के लिए आह भरता हुआ वापिस चला जाता है। यह लुकमान
अली है : जिसे जानने के लिए चवन्नी मशीन में नहीं डालनी पड़ती।

लुकमान अली के लिए चीज़ें उतनी बड़ी नहीं है जितना उन तक पहुँचना।
वह पीले, लाल, नीले और काले पाजामे एक साथ पहन कर जब खड़ा होता
है तब उसकी चमत्कार शक्ति उससे आगे निकल जाती है।
वह तीन लिखता है और लोग उसे गुट समझने लगते हैं और
प्रशंसा में नंगे पाँव अमूल्य चीज़ें भेंट देने आते हैं : मसलन,
गुप्तांगों के बाल, बच्चों के बिब और चाय के खाली डिब्बे।
वह इन्हें संभाल कर रखता है और फिर इन्हें कबाड़ी को बेच
अफीम बकरी को खिला देता है। यह उसका शौक है और इसके
लिए वह गंगाप्रसाद विमल से कभी नहीं पूछता।

लुकमान अली कहाँ और कैसे है?’
अगर आपने अँगूठिए की कथा पढ़ी हो
तो आप इसे अपनी जेब से निकाल सकते हैं। इसका नाम
लेकर बड़े-बड़े हमले कर सकते हैं, पीठ पर बजरंग बली के चित्रा दिखा सकते हैं,
आप आँखें बंद करके अमरीका या रूस या चीन या किसी
भी देश से भीख माँग सकते हैं और भारतवासी कहला सकते
हैं : यह भी मुझे लुकमान अली बताता है।




[3]

लुकमान अली के लिए स्वतंत्राता उसके कद से केवल तीन इंच बड़ी है।
वह बनियान की जगह तिरंगा पहनकर कलाबाजियाँ खाता है।
वह चाहता है कि पाँचवें आम चुनाव में बौनों का प्रतिनिधित्व करे।
उन्हें टाफियाँ बाँटें।
जाति और भाषा की कसमें खिलाए।
अपने पाजामे फाड़कर सबके चूतड़ों पर पैबंद लगाए। वह गधे की
                           सवारी करेगा।
                           अपने गुप्तचरों के साथ सारी
                           प्रजा पर हमला बोल देगा।
वह जानता है कि चुनाव
लोगों की राय का प्रतीक नहीं, धन और धमकी का अंगारा है
जिसे लोग        अपने कपड़ों में छिपाए पानी
          के लिए दौड़ते रहते हैं।

वह आज
नहीं तो कल
नहीं तो परसों
नहीं तो किसी दिन
फ्रिज में बैठ कर शास्त्रों का पाठ करेगा।
         रामलीला से उसे उतनी चिढ़ नहीं है जितनी
         पुरुषों द्वारा स्त्रियों के अभिनय से।
वह उनकी धोतियों के नीचे उभार को देखकर नशा करने लगता है।
वह बचपन के शहर और युवकों की संश्स्था के उस लौंडे की याद करने
लगता है। वह अपने स्केट पाँवों से बाँध लेता है।
प्रेमिका के बाल जूतों में रख लेता है। वह अपने बौनेपन में लीन
हो जाता है।
वह तब पकड़ में नहीं आता क्योंकि वह पेड़ नहीं है।
वह पेड़ नहीं है इसलिए लंबा नहीं है।
वह लुकमान अली है : वह लुकमान अली नहीं है।




[6]

लुकमान अली की त्रासदी में वे सभी शामिल हैं जो पाँचवें सवार हैं।
चार्ली चेपलिन से लेकर जगदीश चतुर्वेदी तक के कपड़ों में भूसा भर कर वह एक
फिल्म बनाता है और संवादों तथा शॉट्स की एडिटिंग में व्यस्त हो जाता है :

‘‘जनाब, आप अपने जूतों को संडास की तरह मत बरतें। पैसे इंग्लैंड में रख
कर बारिश का मज़ा आप हिन्दुस्तान में ले रहे हैं।’’ कट।। ‘‘आपकी
कोहनी पर बैंगन उग आए हैं। आप कार्श से तस्वीर खिंचवा रहे
हैं।’’ कट।। ‘‘डाली की मूँछों की कीमत एयर इंडिया का महाराजा है। आप
चाहें तो सौदा कर सकते हैं।’’ कट।। ‘‘मेरी ज़ुल्फें किसने काट लीं?
मैं तो कामयनी की गंजी नायिका हूँ। हाय, मेरे स्तनों को
चूसते हुए तुम हीरो लगते हो।’’ कट।। ‘‘धरती अब भी नहीं घूम
रहीगैलीलियो, तुम अपना अपराध स्वीकार कर लो।’’ कट।। ‘‘मैं खुद
को ढूँढ़ रहा हूँ। मेरी बाईं पसली पर आड़ू लगे हुए हैं। क्या आप
मेरी सहायता करेंगे।’’ कट।।

(शॉट् चौथा) सड़क पर जाते-जाते उसे अचानक लगता है कि वह अकेला है।
उसके चेहरे पर मासूमियत उतर आती है। मासूमियत उसे आदमीबना
देती है और वह घबड़ा कर भागने लगता है। वह आदमीहोने के
अहसास से अपरिचित है। सामने से आती हुई मोटर उलट जाती है।
उसमें लपटें उठने लगती हैं। उसे राहत मिलती है और वह फिर से
लुकमान अली बन जाता है। वह अपने पाजामे कसने लगता है।।

(शॉट् सत्ताइसवाँ) वह एक सपना देखता है। दो दोस्तों के साथ वह पटरे पर
बैठकर उसे सड़क पर घिसट रहा है। एक महिला सड़क के नियम भंग करने
की बात कह कर उनका चालान करना चाहती है। ग  ग  ग एक कोठे पर वे तीनों
चढ़ रहे हैं। सीढ़ियों पर संगमरमर का एक शिल्प है जिसमें भग की
आकृति में बालक कृष्ण का अभिप्राय खुदा है। (शिल्प और वहका
क्लोज़ अप) ग  ग  ग नाच हो रहा है। इतने में भगदड़ मच जाती है। एक
कारिंदा घबड़ा कर कहता है : ‘‘चिड़िया उड़ गई। अब तो नकली हार बचा
है।’’ ग  ग  ग वह भाग रहा है। उसका दोस्त उसे बताता है कि असली हार
उसके पास है। वह हैरान होकर उसकी तरफ देखने लगता है क्योंकि नकली हार
उसके पास होता है। (दोनों के चेहरों का तीस सेकैंड तक फ्रीज़ शॉट्)।।

(शॉट् बत्तीसवाँ) नाली के पास एक कुत्ता खड़ा होकर नंगी नहाती हुई
औरत को देख रहा है। एक कौवा औरत की ब्रॉ नीचे फेंक देता है।
लुकमान अली उसे जेब में रखकर पत्थर से कुत्ते को भगा रहा है और
ठीक कुत्ते की मुद्रा में नंगी नहाती हुई औरत को देखने लगता है।।

(शॉट सत्तरवाँ) काफी हाउस की हर मेज़ पर काफी रखी है। लोगों के कपड़े
उनकी कुर्सियों पर पड़े हुए हैं। वे केवल अंडरवियर पहन कर इस दृश्य को
बाहर खड़े देख रहे हैं। (लोगों की इस भीड़ पर कैमरा कुछ समय तक घूमता है)।।




[7]

सरकस के कुत्ते की तरह
लुकमान अली कूदता है और एक गुफा में दाखिल हो जाता है।
यहाँ वह उस औरत को जातक कथाएँ सुनाएगा।
                           जो महीने में केवल चार दिन के लिए
                           उसे संरक्षक मान लेती है : और बाकी
                           दिनों के लिए
अपने ज़िस्म के हवामहल में , , धीरेकराहती हुई आसन
बदलती रहती है।

लुकमान अली गुदा और मुख और दरवाज़ों में मोमबत्तियाँ जलाकर
                                       दिन कर लेता है। वह अपने पाजामे
उतार कर जब लेटता है तो उसे प्रेमशब्द का अर्थ धातुयाद आने
लगता है। वह मुरदा-घर के बाहर खड़ी गौओं और सीढ़ियों पर टंगे
कफ़न में तिस्तु बनकर प्रवेश कर जाता है।
उसे हरी रोशनी का जंगल अपने पाँवों के चारों ओर घेरता हुआ
लगने लगता है।                               वह अंधा होकर आसनों
का अभ्यास करने लगता है। वह लुकमान अली का पॉप आर्टबन जाता है।

वह कंधों पर माओ के चित्रा और कैनेडी के हत्यारे की बंदूक
रख लेता है और अपने पाजामों को
पैराशूट बनाकर किसी पेशाबघर में उतर जाता है।
वह दिल्ली के बीचोंबीच संजीवनी बूटी बो कर
बेहोश लोगों की तलाश में है या लावारिस लाशों की खोपड़ियाँ चुराने
की तैयारी में उँगलियाँ ठोकता रहता है।

                           लुकमान अली
                           अंडा पकड़कर बचपन
                           के शहर में घूम रहा होता
                           है। वह
गश्त लगाता हुआ सोता है और घोड़े की पीठ पर उलटा बैठकर
अपनी गोलियों को मसलता रहता है।

तारकोल में धागा बाँध कर लुकमान अली खबर भेजता है :
                                       ‘‘विएतनाम और नक्सलवाड़ी
                                       बर्ट्रेण्ड रसेल और ज्याँ पाल सार्त्रा
   के संबंधों को हवा-मुर्ग से जाँच कर मैं घोषित करता हूँ :
युद्ध का कोई पर्यायवादी शब्द नहीं अगर शिश्न तोप नहीं है। मेरी बेकारी
के लिए कोई जिम्मेदार नहीं है। मेरे पाजामों को
टिनोपाल की जरूरत नहीं : शांति कपोत को है। उसे उड़ते हुए धोना होगा।

**
लुकमान अली चौंसठ जोकरों की ताश बाँटता है। वह उन लोगों की प्रतीक्षा में है
जो जनगणना में शामिल नहीं हैं
और किसी भी खेलमें पूरे नहीं हैं।
वह हर तरफ से     पंद्रह गिनकर लुकमान
   अली नहीं है। वह वही है। आसमान
   के रंग और घास के कीड़ों का
जोड़ करते हुए वह तीस करोड़ नब्बे लाख दो सौ उन्नीस आदमियों के एक्स-रे का
अध्ययन कर रहा है। वह उसके पाजामों का गणित हैहिन्दुस्तान की
आबादी का नहीं।

लुकमान अली प्रजातंत्रा की हंडिया में महापुरुषों की डाक टिकटें, सिक्के और
वीरताचक्र इकट्ठे करता हुआ भीख माँग रहा है। वह अंगूठे में फ्रेंचलेदर पहन कर
सलाम करता है।                                वह उँगली वहाँ रखता है, जहाँ
                               सुरसुरी होती है।
और हीजड़े बिच्छू को पकड़ने के लिए भरी महफिल में फुदकने लगते हैं।
लु। क। मा। न। अ। ली। को। पी। ठ। की। त। र। फ। से।
                                           जा। ते। हु। ए। दे। ख। ना।

लुकमान अली अपने टखनों में कीलें ठोंकता हुआ धीरे से पूछ रहा है :
मीदास, तुम कहाँ हो?’



___________

लुकमान अली
केदारनाथ अग्रवाल


अक्टूबर-नवम्बर, सन् 1968, के कृति परिचयके युवालेखन विशेषांक : 1’ में छप कर सामने आया लुकमान अलीसौमित्र मोहन के दुःस्वप्न का पुत्र है. नाम मुसलमानी है. एक साथ लाल, नीले, पीले और काले पाजामे पहनता है. लोगों की जेबों में रहता है. वहाँ से बाहर निकाला जा सकता है. इसका नाम लेकर रूस, चीन, अमरीका या किसी भी देश से भीख माँगी जा सकती है और वह भी आँख मूँद कर (यानी बिना प्रयास के) और भारतवासी कहलाया जा सकता है.

वैसे तो लुकमान अलीमात्र प्रतीक मालूम होता है जो खोजने पर भीकहीं भीसमूचे भारत में आदमी के एक शरीर के रूप में नहीं मिलता. लेकिनकरोड़ों आदमियों का भारतविसंगतियों के परिवेश का आज का भारतअनचाही यंत्रणाओं का भारतदुःस्वप्न की मनोदशा में पहुँच चुका भारत है और इसी भारत का प्रतिनिधि लुकमान अलीहै. अपनी फन्तासी की सत्तामें व्यक्ति विशेष होकर भी यह व्यक्ति विशेष नहीं हैसाधारण हैअति साधारण हैजिसे देखकर-समझकर पूरे भारत को देखा और समझा जा सकता है.

दुःस्वप्न की मनोदशा में पहुँचे अब के भारत को हाड़-मांस के किसी एक जाने-माने व्यक्ति के चरित्र-चित्रण के द्वारा आंशिक रूप में भी व्यक्त नहीं किया जा सकता था. अनेकों व्यक्तियों का एक जगह चित्रण भी असम्भव था. व्यक्ति या समूह एक रचना में एक साथ पकड़ में न आ सकते थे. सौमित्र मोहन ने लुकमान अलीको फन्तासी की सत्तादे कर असम्भव को सम्भव किया है और एक के माध्यम से अनेक के भारत को एक स्थान पर यथासाध्य शाब्दिक जामा दिया है जो व्यक्त हो रही विसंगतियोंअनिच्छित यंत्रणाओं कोतीखे और पैने तरीके से उभारता और दरसाता है.

‘फन्तासीकी यह कविता हिन्दी की पहली बेजोड़ दुःस्वप्न की सार्थक कविता है. इसलिए भी इस कविता का विशेष महत्व है.

दस खंडों में छपी यह एक लम्बी कविता है. युगीन और आधुनिक कथ्य कोजन-मानस में व्याप्त विसंगति कोजो अब तक की लिखी छोटी-बड़ी कविताएँ न कह सकीं उसको इसने कहा और भरपूर कहा और ऐसा कहा कि भरपूर impact पड़ा. इसका कथ्य उतना ही युगीन और आधुनिक है जितना इसका शिल्प. न कथ्य में रोमान हैन सौन्दर्यात्मक प्रवृत्ति हैन शाब्दिक अलंकरण हैन दार्शनिक आरोपित चिंतन हैन पलायन-प्रेरणा हैन भ्रम और भ्रांति है. न शिल्प में पारम्परित वाक्यांश हैंन स्वीकृत काव्यांगी उपमाएँ हैंन रूपकों का आइना है,  न भाषा की गढ़न हैन छंदों की छलन और छुअन हैन कथ्य को शोभित करने की लालसा हैन कुरूप को विकृत करने की उत्कंठा हैंन यथार्थ का दमन हैन आदर्श की चाल-चलन है. जैसी नंगी विसंगति है और जैसा नंगा उसका कथ्य है वैसा नंगा उसका शिल्प है. गद्य और पद्य इसी कविता में कविता हुए हैं और दोनों यहीं अपना-अपना अस्तित्व एक कर सके हैं और एक होकर भारतीय जन-मानस की विसंगति की मनोदशा को अभिव्यक्ति दे सके हैं.


मुक्तिबोध और राजकमल की मृत्यु के समय तक हिन्दी कविता जहाँ तक पहुँची और ले जायी गयी थी वहाँ से आगे पहुँची और ले जायी गयी यह कविता— ‘लुकमान अली’— है. इसकी पहुँच का यह स्थान हिन्दी कविता की वर्तमान उपलब्धि का विशेष महत्व का स्थान है. इस स्थान पर परम्परा और प्रगति का अविच्छन्न सम्बंध टूटा हैकाव्य की समस्त स्वीकृत मान्यताएँ तिरोहित हुई हैंमानसिक गुहाओं की रोमांचक यात्राएँ समाप्त हुई हैंस्वर से संगीत विलग हुआ हैयथार्थ को विसंगति के साथ अभिव्यक्ति मिली हैश्लील की मृत्यु हुई है और अश्लील को साहित्यिक स्वीकार्य मिला हैऔर गद्य को भी कविता कहलाने का गौरव मिला है. 



       "मेरी प्रगतिशीलता कइयों की प्रगतिशीलता से भिन्न रही है. मैंने अपने दार्शनिक सिद्धांतों को कविता के कसने की कसौटी नहीं बनाया. वह 'पार्टी-वाद'होता और उस 'पार्टी-वाद'से परखना इस अपने युग की काव्य-उपलब्धियों के साथ न्याय-सम्मत न होता. यही सोच कर और समझ कर मैंने, 'पार्टी-वाद'से बाहर निकल कर, 'आदमीवाद 'अपनाया और कविता को आदमियत की परख से परखा. 
('समय-समय पर : केदारनाथ अग्रवाल'की भूमिका से  )



यह वास्तव में युगबोध की आधुनिक साहसिक कविता है. यह विश्वविद्यालयी स्वर से अछूती है. यह सड़क के स्वर की,  हरेक नगर के ऊबे-डूबे परिवेश की, करोड़ों-करोड़ साधारण-जनों की सही अर्थों में कविता है. तभी तो यह राजनीति को पास नहीं फटकने देती. प्रतिबद्धता इसका स्वभाव नहीं है. नेताओं को यह नियामक नहीं मानती. उन पर चोट करती है. आदमियों कोनकली बने आदमियों को निरावरण करती है. अपना सब कुछ न पाकर विपन्न जीने वालों की आज की यह कविता उतनी ही वैयक्तिक है जितनी सामूहिक है. इसमें न व्यक्ति की अवज्ञा हैन भीड़ की. व्यक्ति और भीड़ इसी कविता में विसंगति के स्थल पर पहुँच कर अपना-अपना निजी महत्व खो सके हैं और दोनों एक दूसरे के पूरक बन गए हैं. सभ्यता और संस्कृति की परतें यहीं उखड़ी हैं और उनके उखड़ने पर दुःस्वप्न पैदा हुआ है और वही दुःस्वप्न आज के भारत का दुःस्वप्न है जिसे, भारतीय जी रहे हैं असहाय, असमर्थ और चिंतनीय.


(‘समय-समय पर’, केदारनाथ अग्रवाल, परिमल प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण 6जुलाई, 1970)
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सौमित्र मोहन
१९३८ लाहौर

चाक़ू से खेलते हुए (कविता संग्रह , १९७२)
निषेध (संकलित कवि, १९७२)
लुकमान अली तथा अन्य कविताएँ (कविता संग्रह, १९७८)
आधा दिखता वह आदमी (सम्पूर्ण कविताएँ, २०१८)

दूर के पड़ोसी (अनुवाद १९७३)
बाणभट्ट (अनुवाद, १९७८)
कबूतरों की उड़ान(अनुवाद,१९९६)
देहरी में आज भी उगते हैं हमारे पेड़ (अनुवाद, २०००)
राष्ट्रवाद (अनुवाद, २००३)
भारत की समकालीन कला (अनुवाद, २००६)

अकविता (१९६५-१९६७)पत्रिका के विशेष सहयोगी
कृति परिचयके दो अंकों का अतिथि संपादन
अथवा पत्रिका (१९७२-७३) का संपादन प्रकाशन


कविताओं का भारतीय और विदेशी भाषाओँ में अनुवाद.

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