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मेघ-दूत : लाटरी : शर्ली जैक्सन : अनुवाद : शिव किशोर तिवारी

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अमरीकी कथा-साहित्य में Shirley Jackson की कहानी ‘The Lottery’ कुछ सबसे विवादास्पद कहानियों में से एक मानी जाती है. इस कहानी के छपते ही शर्ली रातों–रात प्रसिद्ध हो गयीं. यह ३०० की आबादी वाले गाँव के एक ऐसे पारम्परिक लाटरी-उत्सव की कथा है जिसमें चयनित व्यक्ति की पत्थरों से मार-मार कर हत्या कर दी जाती है.

भीड़ के मनोविज्ञान को शर्ली ने अचूक ढंग से व्यक्त किया है. आज जब भारत में भीड़तंत्र उन्मादी रूप अख्तियार कर चुका है इस कहानी को पढ़ते हुए भीड़ के मनोविकार को समझा जा सकता है.

समालोचन के पाठकों के लिए इस कहानी का अनुवाद ख़ास तौर पर शिव किशोर तिवारी ने किया है, जो खुद अनुवाद को लेकर बहुत सतर्क रहते हैं और समालोचन को भी बार–बार सचेत करते रहते हैं.


“शर्ली जैक्सन (1916-1965) की कहानी ´द लॉटरी´´(1948) अत्यंत प्रसिद्ध है. हॉरर कथा से लेकर सामाजिक-नृतात्विक रूपक-कथा तक के रूपों में इसका विश्लेषण हो चुका है. कुछ लखकों ने इसके पात्रों के नामो में प्रतीकात्मक अर्थ-संकेतों की खोज की है. यहां तक कि एक शोधकर्ता ने इस कहानी को इस्लाम से भी जोड़ा है (Islam in Shirley Jackson’s The Lottery : Nayef Ali Al-Joulan).”

 शिव किशोर तिवारी





लाटरी
शर्ली जैक्सन

अनुवाद : शिव किशोर तिवारी





27 जून की उस सुबह आसमान साफ़ था और धूप खिली थी; परवान चढ़ी गरमी के मौसम की ताज़ा ऊष्मा में ख़ूब सारे फूल खिले थे और घास चटक हरी हो रही थी. कोई दस बजे गाँववाले पोस्ट आफ़िस और बैंक के बीच स्थित खुली जगह में इकट्ठे होने लगे. कुछ गांवों में जिनकी आबादी ज़्यादा थी लाटरी दो दिन चलती थी और 26 जून को शुरू करनी पड़ती थी; लेकिन इस गांव की आबादी केवल तीन सौ के आसपास थी, इसलिए लाटरी का पूरा कार्यक्रम दो घंटे से कम में संपन्न हो जाता था. दस बजे शुरू करके भी कार्यक्रम दोपहर के भोजन, जो दिन का मुख्य भोजन था, के पहले ख़तम हो जाता था.

शर्ली जैक्सन



पहले बच्चे जमा हुए जैसा आम है. स्कूल में हाल ही में गर्मियों की छुट्टियां शुरू हुई थीं तो अभी तक ज़्यादातर बच्चे अपनी आज़ादी के बारे मे पुर-इत्मीनान नहीं हुए थे– थोड़ी देर तक वे शांतिपूर्वक जुटते रहे और अब भी क्लास की, टीचर की, किताबों की, स्कूल में पड़ी डांटों की चर्चा करते रहे. थोड़ी देर के बाद ही उनका शोरगुल और खेलना-कूदना शुरू हो सका. बॉबी मार्टिन ने आते ही अपनी जेबों में पत्थर भर लिये, दूसरे बच्चों ने उसका अनुसरण करते हुए सबसे चिकने, सबसे गोल पत्थरों को चुनना शुरू कर दिया. बॉबी, हैरी जोंस और डिकी डिलाक्वा – गांववालों के उच्चारण  के मुताबिक़ डिलाक्रॉय – ने मैदान के एक कोने में ढेर सारे पत्थर जमा कर दिये, फिर दूसरे लड़कों  के हमलों से उनकी हिफाजत  करने में जुट गए. लड़कियां एक ओर को आपस में बतियाती खड़ी हो गईं. कोई कभी सिर मोड़कर पीछे लड़कों की ओर देख लेती. बहुत छोटे बच्चे धूल में लोट रहे थे या अपने बड़े भाई या बहन की उंगली पकड़े खड़े थे.


थोड़ी देर में मर्द इकट्ठे होने लगे, अपने बच्चों को तकते और बुवाई, बरसात, ट्रैक्टरों तथा टैक्सों की बातें करते. कोने में जमा पत्थरों के ढेर से दूर वे एक साथ खड़े हो गए. वे मज़ाक करते हुए भी अपनी आवाज़ें धीमी रख रहे थे और खुलकर हंसने के बजाय मुसकरा भर रहे थे. मर्दों के कुछ बाद रंग उड़े घरवाले कपड़े और स्वेटर पहने औरतें आईं. एक दूसरे का अभिवादन करती, छोटी-मोटी गप्पें साझा करती वे अपने-अपने पतियों की और बढ़ीं. जल्दी ही औरतें अपने पतियों के पास खड़ी होकर अपने बच्चों को पुकारने लगीं. चार-पांच बार पुकारना पड़ा, तब कहीं बच्चे अनिच्छा से आये. बॉबी मार्टिन अपनी मां के पकड़ने को बढ़े हाथों के नीचे से निकलकर हँसते हुए फिर से पत्थरों के ढेर की और भागा. पिता ने सख़्ती से ऊँची आवाज़ में पुकारा तो बॉबी ने तत्काल आकर पिता और सबसे बड़े भाई के बीच अपनी जगह ली.



मैदान में आयोजित होने वाले सामूहिक नृत्य, किशोर क्लब और हैलोवीन के उत्सवों की तरह लाटरी का संचालन भी मि. समर्स करते थे, सामाजिक कामों में लगाने के लिए उनके पास समय और ऊर्जा थी. वे गोल चेहरे के, मस्त आदमी थे. कोयले का व्यापार करते थे. उनसे लोगों को सहानुभूति थी क्योंकि उनके कोई संतान नहीं थी और उनकी बीवी बदज़बान थी. जब वे मैदान में पहुंचे तब उनके हाथ में चिरपरिचित काला बक्सा था. देखकर गांववालों के बीच कुछ देर तक मंद स्वर में बातें चलीं; फिर अभिवादन में हाथ हिलाकर उन्होंने घोषणा की, “आज देर हो गई दोस्तो”. पोस्टमास्टर मि.ग्रेव्ज़ पीछे-पीछे एक तिपाई लिए आये जिसे मैदान के बीचोबीच रखकर काला बक्सा उसके ऊपर रखा गया. गांववाले तिपाई से दूरी बनाकर उसके और अपने बीच जगह छोड़कर खड़े हुए. जब मि. समर्स ने कहा, “मर्द लोगों में से कोई मेरी मदद करना चाहेंगे ?तब सबमें हिचकिचाहट दिखी, फिर दो आदमी, मि. मार्टिन और उनका बड़ा बेटा बैक्सटर, आगे आये और जब तक मि.समर्स बक्से के अंदर रखी पर्चियों को हिला-हिलाकर मिलाते रहे तब तक दोनों ने बक्से को पकड़कर रखा.



लाटरी के मूल साज़ो-सामान कभी के ग़ायब हो चुके थे, तिपाई पर रखा काला बक्सा तब से इस्तेमाल हो रहा है जब गांव के सबसे बूढ़े व्यक्ति वार्नर बुज़ुर्गवार का जन्म नहीं हुआ था. मि. समर्स ने कई बार गांववालों से नया बक्सा बनवाने की बात की है, लेकिन कोई परंपरा तोड़ना नहीं चाहता, इतनी भी जो बक्से के मारफ़त बची है– कहते हैं कि यह बक्सा बनाने में इसके पहले वाले बक्से के कुछ हिस्से इस्तेमाल हुए थे, उस बक्से के जो तब बना था जब इस गांव को बसानेवाले पहले निवासी यहां आये थे. हर साल लाटरी ख़त्म होने के बाद मि. समर्स नये बक्से की बात उठाते और हर साल बिना किसी कार्रवाई के मामला टल जाता. काला बक्सा साल-दर-साल और बदरंग होता रहा : इस समय वह पूरा काला नहीं था बल्कि एक और से बुरी तरह टूट चुका था जिससे लकड़ी का असली रंग दिखने लगा था. कहीं-कहीं बक्सा बदरंग और दाग़दार था.




मि.मार्टिन और उनके बड़े बेटे बैक्सटर ने काले बक्से को तब तक पकड़कर रखा जब तक मि. समर्स ने अपने हाथ से पर्चियों को अच्छी तरह मिला नहीं लिया. चूंकि बहुत सी रस्में अब तक छोड़ी या भूली जा चुकी थीं, इसलिए पीढ़ियों तक प्रचलित काठ के टुकड़ों की जगह काग़ज़ के टुकड़ों का प्रयोग मि. समर्स स्वीकृत करा पाये. उनका तर्क था कि काठ के टुकड़े तब के लिए ठीक थे जब गांव छोटा-सा था पर अब जब कि उसकी आबादी तीन सौ पार कर गई है और आगे और बढ़ने की उम्मीद है, कोई ऐसी चीज़ इस्तेमाल करनी पड़ेगी जो काले बक्से में समा सके. लाटरी की पिछली रात मि समर्स और मि ग्रेव्ज़ काग़ज़ की पर्चियां तैयार करते थे और उन्हें बक्से में भरते थे. फिर बक्सा मि समर्स की कोयला कंपनी के सेफ़ में बंद कर दिया जाता था. जब अगली सुबह मि समर्स को बक्से को मैदान में ले जाना होता था तभी सेफ़ खुलता था. साल के बाक़ी दिन बक्सा कभी यहां कभी वहां रखा रहता था – एक साल वह मि ग्रेव्स के कोठारे में रखा रहा, दूसरे साल पोस्ट ऑफ़िस के फ़र्श पर, और एक साल मार्टिन किराना दूकान के शेल्फ़ पर पड़ा रहा.



मि समर्स लाटरी की शुरू,आत की घोषणा करें इसके पहले बहुतेरे झमेले थे. तमाम सूचियां बनानी थीं – कुटुंबों के मुखिया, हर कुटुंब के प्रत्येक परिवार का मुखिया, हर परिवार के सदस्यों के नाम. पोस्टमास्टर को मि समर्स को लाटरी अधिकारी की औपचारिक शपथ दिलानी थी; कुछ लोगों को याद आया कि एक ज़माने में लाटरी अधिकारी को कुछ बोलना पड़ता था – हर साल महज़ रस्मी तौर पर वे मंत्रवत् पंक्तियाँ सपाट स्वर में जल्दी-जल्दी दुहराई जाती थीं. कुछ लोगों का ख़्याल था कि उन्हें पढ़ते या गाते समय लाटरी अधिकारी को किसी ख़ास सही तरीक़े से खड़ा होना होता था, दूसरों का कहना था कि लाटरी अधिकारी को लोगों के बीच चक्कर लगाना पड़ता था, लेकिन बरसों पहले यह रिवाज़ ख़तम हो गया था. एक रस्मी अभिवादन भी होता था. यह रस्म भी बदल गई थी, अब इतना ही काफी था कि अधिकारी को हर पर्ची निकालने आये व्यक्ति को संबोधित करना होता था. इन सब कामों में मि समर्स बड़े निपुण थे. नीली जींस और साफ़ सफ़ेद कमीज़ पहने, एक हाथ हलके से काले बक्से पर रखे वे बड़े पक्के और ख़ास लग रहे थे. इस समय वे मि ग्रेव्ज़ और मार्टिन दम्पति के साथ किसी लंबे वर्तालाप में मग्न थे.



मि समर्स अंतत: बातचीत से हटकर जन-समुदाय से मुख़ातिब हुए ; तभी मिसेज़ हचिंसन द्रुत गति से मैदान की और आती दिखीं.जल्दबाज़ी में उनका स्वेटर कंधे पर पड़ा रह गया था. आकर पिछली क़तार में खड़ी हो गईं. मिसेज़ डिलाक्वा उनकी बग़ल में थीं. “मैं तो भूल ही गई थी” वे बोलीं और दोनों महिलाएँ ज़रा सा हंसीं. “सोचा मियां पिछवाड़े लकड़ियां जमा कर रहे होंगे. फिर खिड़की से बाहर देखा तो बच्चे भी नहीं !तब जाके याद आया कि आज तो सत्ताईस है, भागती आई”. वे एप्रन पर हाथ पोछने लगीं. मिसेज़ डिलाक्वा ने कहा, “वक़्त पर ही पहुंची हैं. आगेवाले अभी गपशप में मशग़ूल हैं”.



मिसेज हचिंसन ने गरदन लंबी करके भीड़ का जायज़ा लिया तो उनके पति और बच्चे एकदम आगे की तरफ़ खड़े दिखाई दिये. उन्होंने मिसेज़ डिलाक्वा की बांह हलके से थपथपाकर ‘विदा’ का इशारा किया और भीड़ में रास्ता बनाने लगीं. लोगों ने ख़ुशी-ख़ुशी रास्ता दिया: दो-तीन लोगों ने आवाज़ बस इतनी ऊंची करके कि सभी को सुनाई पड़े  “ये देखो तुम्हारी घरनी आ गई हचिंसन” और “बिल, वो पहुंच गईं आख़िर” कहा. 


मिसेज़ हचिंसन अपने पति की बग़ल में पहुंच गईं और मि समर्स ने, जो इस बीच इंतज़ार कर रहे थे, ख़ुशमिज़ाज लहज़े में कहा, “मुझे लगा तुम्हारे बग़ैर ही काम चलाना पड़ेगा, टेसी”. मिसेज़ हचिंसन ने हंसते हुए कहा, बरतन अनधुले छोड़ आती तो तुम्हें अच्छा लगता, जो ?नहीं न !” भीड़ में एक मंद हास फैल गया और मिसेज़ हचिंसन को रास्ता देने वाले खिसककर अपनी जगहों पर वापस आ गए.


“चलिए, अब शुरू करें मेरे ख़्याल से,” मि समर्स ने गंभीर स्वर में कहा, जल्दी ख़त्म करके अपने-अपने काम में लगें. कोई ऐसा है जो मौजूद नहीं ?”
“डनबार, डनबार”, कई लोग बोले.
मि समर्स ने अपनी सूची देखी. “क्लाइड डनबार ?”, उन्होंने कहा, “टांग टूटी है नउनकी पर्ची कौन निकालेगा ?”
“मेरे ख़्याल से मैं निकालूंगी”, एक महिला ने कहा.


“पति का पर्चा पत्नी निकाल सकती है” , मि समर्स ने कहा, “जेनी, तुम्हारा कोई लड़का है जो यह काम कर सके?” उत्तर मि समर्स और गांव के और सभी को भली भांति मालूम था पर यह प्रश्न औपचारिक ढंग से पूछना लाटरी अधिकारी का कर्तव्य था. मि समर्स ने भद्र भाव से उत्तर की प्रतीक्षा की.


“होरेस तो मुश्किल से सोलह बरस का हुआ” मिसेज़ डनबार ने खेदपूर्वक कहा, “ मैं समझती हूं अपने मियां की पर्ची इस साल मुझे ही निकालनी पड़ेगी.


“ठीक है”, मि समर्स ने कहा और अपनी सूची में कुछ दर्ज किया. फिर उन्होंने पूछा, “वाट्सन परिवार का लड़का इस बार पर्ची निकालेगा?”


एक लंबे क़द के लड़के ने हाथ उठाया. “ हाज़िर !मैं अपने और अपनी मां के लिए पर्ची निकालूंगा. घबराहट में उसने कई बार पलकें झपकाईं. भीड़ में से इस तरह की आवाज़ें आने लगीं जैसे “शाबास जैक!”, “ ख़ुशी की बात है कि तुम्हारी मां को लाटरी खेलने के लिए एक पुरुष का सहारा हो गया”, तो वह शरीर के ऊपरी हिस्से को झुकाकर अदृश्य होने की कोशिश करने लगा.


“अच्छा, लगता है सभी आ चुके हैं. बुज़ुर्ग वार्नर आ पाये?”, मि समर्स ने कहा. एक आवाज़ आई, “हाज़िर !” मि समर्स ने गरदन स्वीकार के रूप में नवाई.


सहसा भीड़ में सन्नाटा छा गया. मि समर्स ने लिस्ट की ओर देखते हुए खँखारकर गला साफ़ किया. “सब तैयार ?”, उन्होंने कहा, “ मैं लिस्ट से नाम पढ़ूंगा – सबसे पहले कुटुंबों के मुखियों के–  हर आदमी अपनी पर्ची निकालकर ले जाय. जब तक सबके हाथ में पर्ची न आ जाय तब तक कोई अपनी पर्ची न खोले. कोई शक?”.


लोग यह सब इतनी बार कर चुके थे कि उन्होंने उपर्युक्त निर्देशों को ज़्यादा कान नहीं दिया. अधिकतर लोग बार-बार अपने ओठों पर जीभ फिरा रहे थे और न कुछ बोल रहे थे न किसी तरफ़ देख रहे थे. मि समर्स ने एक हाथ ऊपर उठाकर पुकारा, “एडम्स”. एक आदमी भीड़ में से निकलकर आगे आया. “हलो, स्टीव!”, मि समर्स ने कहा. जवाब आया, “हलो जो!”दोनो जन एक दूसरे को देखकर भावशून्य, कुछ नर्वस सी हंसी हंसे. मि. एडम्स ने काले बक्से में हाथ डालकर एक पर्ची निकाली. मुड़े काग़ज़ के टुकडे को एक कोने से मज़बूती से पकड़े अपनी जगह को वापस आये और अपने कुटुंब से कुछ दूर खड़े हो गये,. काग़ज़ की ओर एक बार भी नहीं देखा.


“एलेन”, मि समर्स ने पुकारा, “ऐंडरसन...बेंथम”.
“लगता है आजकल दो लाटरियों के बीच कोई फ़ासला ही नहीं होता.“, पीछे की क़तार में खड़ी मिसेज़ डिलाक्वा ने मिसेज़ ग्रेव्ज़ से कहा.


“लगता है पिछली लाटरी गये हफ़्ते ही हुई थी.“
“समय सचमुच बड़ी तेज़ी से बीतता है.“ मिसेज़ ग्रेव्ज़ ने कहा.
“क्लार्क...डिलाक्रॉय”
“मेरे मियां वो चले”, मिसेज़ डिलाक्वा ने कहा और इसके बाद सांस रोककर अपने पति का जाना देखती रहीं.


“डनबार”, मि समर्स ने कहा; मिसेज़ डनबार धीर पदों से बक्से की और चलीं. भीड़ से किसी महिला ने आवाज़ लगाई, “शाबास जेनी !” ; दूसरी ने कहा, “वो रही.“


अगला नंबर हमारा है”, मिसेज़ ग्रेव्ज़ ने कहा. वह मि. ग्रेव्ज़ को देखने लगीं, जो बक्से की बग़ल से सामने आये, संजीदगी से मि समर्स का अभिवादन किया और बक्से से एक पर्ची निकाली. अब तक भीड़ में काफी मर्दों के पास पर्चियां आ गई थीं. अपने बड़े हाथों में इन पर्चियों को उलटते-पलटते वे नर्वस दिख रहे थे. मिसेज़ डनबार और उनके दो बेटे साथ खड़े थे और पर्ची मिसेज़ डनबार के हाथ में थी.


“हार्बर्ट... हचिंसन”
“पहुंचो जल्दी,बिल” , मिसेज़ हचिंसन ने कहा और उनके पास खड़े लोग हंसने लगे.
“जोंस”.
“सुना है”, मि एडम्स ने अपनी बग़ल में खड़े वार्नर बुज़ुर्गवार से कहा, “कि उत्तर वाले गांव में लोग लाटरी बंद करने के बारे में सोच रहे हैं”.


बुज़ुर्गवार फुफकारे, “पागल गधे हैं सब के सब. नये ज़माने वालों की बातें सुनो तो लगता है उन्हें पसंद ही नहीं आता कुछ. कुछ ठीक नहीं, कहने लगें कि वापस गुफाओं में रहने चलते हैं !कोई काम न करो, वैसे रहके देखो कुछ दिन. कहावत थी कि ‘जून में लाटरी, अनाज भर बखरी’. अब लगता है जल्द ही हम जंगली अनाज और ओक के फल की खिचड़ी खाने लगेंगे. लाटरी हमेशा रही है”. फिर तुनुकमिज़ाज सुर में बोले, “यही क्या कम है कि वो सामने समर्स छोरा सबके साथ हा हा- ही ही कर रहा है !”



“बहुत जगहों पर तो लाटरी ख़तम ही हो चुकी है”, मिसेज़ एडम्स ने कहा.
“उससे मुसीबत आयेगी, और कुछ नहीं”, बुढ़ऊ ने पूरे विश्वास से कहा, “गधों का  लौंडापना है सब”.
“मार्टिन”, बॉबी ने पिता को आगे जाते देखा, “ओवरडाइक, पर्सी”.
“जल्दी करें भाई”, मिसेज़ डनबार ने बड़े बेटे से कहा, “जल्दी ख़तम करें.“
“ख़तम हो आया है”, बेटा बोला.
“तो तैयार रहो, दौड़के जाके पापा को बताना होगा.“


मि समर्स ने अपना नाम पुकारा और विधिवत् सामने आकर पर्ची निकाली, फिर पुकारा , “वार्नर”.
बूढ़ा भीड़ में जगह बनाते हुए निकलने लगा.“सतहत्तर साल लाटरी में आते हो गए, वह बोला, “यह सतहत्तरवीं बार है”.

“ज़नीनी”

उसके बाद एक लंबा विराम, लोगों सांस रोक खड़े, फिर मि समर्स ने अपना पर्चे वाला हाथ उठाया, “ठीक है भाइयो”. थोड़ी देर तक किसी ने हरकत नहीं की, फिर सारी पर्चियां एक साथ खुल गईं. सहसा सभी औरतें एक साथ बोलने लगीं – “कौन है?किसका निकला ? वाट्सन ? डनबार?थोड़ी देर में एक ही आवाज़ चारों ओर से – “हचिंसन परिवार को मिला. बिल को. बिल हचिसन की पर्ची निकली.“
“अपने पिता को बता आओ”, मिसेज़ डनबार ने बेटे को कहा.


लोग हचिंसन परिवार को ढूंढ़कर देखने आये. बिल हचिंसन चुपचाप अपने हाथ की पर्ची पर नज़र गड़ाये खड़ा था. अचानक मिसेज़ हचिंसन मि समर्स की ओर रुख़ करके चिल्लाईं, “आपने इन्हें अपनी मर्ज़ी की पर्ची लेने का समय नहीं दिया. मैंने देखा. अन्याय है ये”!  
“खेल की तरह लो, टेसी”, मिसेज़ डेलाक्वा ने ऊँची आवाज़ में कहा;  मिसेज़ ग्रेव्ज़ बोलीं, “हम सभी ने एक-सा चांस लिया”.
“चुप करो, टेसी !” , बिल हचिंसन ने कहा.
“चलो, काफी जल्दी काम हुआ लोगो! “, मि समर्स ने कहा, “ थोड़ी और जल्दी करें ताकि पूरा काम समय से ख़तम हो जाय”. उन्होंने दूसरी लिस्ट देखी और बोले, “बिल, आपने हचिंसन कुटुंब की और से पर्ची निकाली. इस कुटुंब में कोई और परिवार है” ?


“डॉन और ईवा हैं न!उनको भी चांस लेने को कहो” !  
“लड़कियां अपने पति के परिवार के साथ पर्ची निकालती हैं, टेसी” , मि समर्स ने नरम लहज़े में कहा, “सबको पता है, तुम्हें भी”.
“अन्याय है ये ”, टेसी ने कहा.
“ना, नहीं ‘जो’, हचिंसन ने अफसोस के साथ कहा, “मेरी बेटी अपने पति के परिवार में गिनी जाएगी, यही उचित भी है. और कोई परिवार है नहीं, बच्चे हैं केवल”.


मि समर्स ने कहा, “तो जहां तक कुटुंब के लिए पर्चा निकालने की बात है आप निकालने वाले हुए. और परिवार के लिए भी आप ही, सही?”
“सही”, बिल हचिंसन ने कहा.
“कितने बच्चे, बिल”?मि समर्स ने पूछा.
“तीन - बिल जूनियर, नैंसी, सबसे छोटा डेव. और मैं तथा टेसी.
“ठीक है. आपने चारों के टिकट वापस ले लिए, हैरी”? मि ग्रेव्ज़ ने स्वीकृति जताई और पर्चियां दिखाईं. “तो बिल की पर्ची भी ले लें और पांचों पर्चियों को बक्से में डाल दें.
“मेरे विचार से शुरू दुबारा करना चाहिए आपको” , मिसेज़ हचिंसन ने यथासंभव संयमित ढंग से कहा, “ बेइंसाफ़ी हुई है. आपने इन्हें पर्ची चुनने का समय नहीं दिया, सबने देखा”.
मि ग्रेव्ज़ ने पांचों पर्चियां बक्से में डाल दीं. बाक़ी सारे काग़ज़ ज़मीन पर डाल दिये जहां से हवा उनको उड़ाकर ले जाने लगी.


“मेरी बात सुनो”, मिसेज़ हचिंसन अपने चारों और खड़े लोगों से कह रही थीं.
“तैयार”? मि समर्स ने पूछा तो बिल ने अपनी पत्नी और बच्चों को नज़र घुमाकर देखा और स्वीकार में गरदन झुकाई. “याद रहे, पर्ची निकालकर, बिना उसे खोले दूसरों के पर्ची निकालने का इंतज़ार करें. हैरी, तुम सबसे छोटे डेव की मदद करना. “मि समर्स ने बच्चे, डेव, का हाथ पकड़ा तो वह ख़ुशी-ख़ुशी आ गया. मि समर्स ने कहा, “बक्से से एक पर्ची निकाल लो डेव”. डेव ने बक्से में हाथ डाला और हँसने लगा. “बस एक पर्चा लेना है” उन्होंने डेव से कहा और हैरी ग्रेव्ज़ ने बच्चे का हाथ पकड़ पर्ची ले ली. डेव उनके पास ही खड़े होकर विस्मयपूर्वक उनकी तरफ देखता रहा.


“इसके बाद नैंसी”, मि समर्स ने कहा. नैंसी की उम्र बारह थी, उसकी स्कूली दोस्त उत्कंठित हो लंबी सांसें भर रही थीं : इस बीच नैंसी  अपनी स्कर्ट का घेरा लहराते नज़ाकत से अपनी पर्ची निकाल लाई. “बिल जूनियर” – बिली का चेहरा लाल हो गया और अपने पांव बड़े लगने लगे. पर्ची निकालते हए बक्सा ही गिरा दिया लगभग.  “टेसी” मि समर्स ने पुकारा. वह हिचकिचाई, चारों और ललकारती नज़रों से देखा और अपने ओठों को सख़्ती से बंद करके बक्से के पास पहुंच गई. एक पर्ची खींचकर निकाली और पीठ पीछे छिपा ली.


“बिल” – मि समर्स ने कहा. बिल हचिंसन ने बक्से में हाथ डलकर एकमात्र पर्ची को ढूंढ़कर निकाला.


भीड़ में सन्नाटा था. एक लड़की फुसफुसाईं, “नैंसी न हो तो अच्छा हो” और उसकी फुसफुसाहट भीड़ के बाहरी छोर तक पहुंच गई.


“पहले जैसी नहीं रही लाटरी”, वार्नर बूढ़ा चटक आवाज़ में बोला, “लोग ही पहले जैसे नहीं रहे”.

“ठीक है, पर्चियां खोलो”, मि समर्स ने कहा, “ हैरी, बच्चे की पर्ची खोलें”.


मि ग्रेव्ज़ ने पर्चा खोलकर हाथ उठाकर सबको दिखाया. पर्ची कोरी थी यह देखकर भीड़ ने समवेत राहत की सांस ली. नैंसी और बिल जूनियर ने अपनी पर्चियां एक साथ खोलीं. उनके चेहरे ख़ुशी से दमकने लगे और वे पर्चों को सर के ऊपर उठाकर सबको दिखाते हुए हंसने लगे.


“टेसी” – मि समर्स ने पुकारा थोड़ी तक कुछ न हुआ तो उन्होंने बिल की ओर देखा. बिल ने अपनी पर्ची खोलकर दिखा दी. वह कोरी थी.


“टेसी है. “मि समर्स की आवाज़ फुसफुसाहट के रूप में निकली. “बिल, उनकी पर्ची दिखाओ.“


बिल हचिंसन अपनी पत्नी की तरफ़ बढ़ा. पर्ची बिल ने उसके हाथ से ज़बर्दस्ती छीन ली. उस पर एक काला निशान था. निशान पिछली रात मि समर्स ने अपने आफ़िस की मोटी पेंसिल से बनाया था. बिल हचिंसन से पर्ची उठाकर सबको दिखाई. भीड़ में हलचल हुई.


“चलो लोगो”, मि समर्स ने कहा, “ख़तम करें अब”.
हालांकि गांव वाले कर्मकांड भूल चुके थे और मूल काले बक्से को भी खो चुके थे, परंतु पत्थरों का इस्तेमाल उन्हें अब भी याद था. लड़कों ने पत्थरों की जो ढेरी बनाई थी वह तैयार थी ही, ज़मीन पर हवा में उड़ते काग़ज़ के टुकड़ों के बीच बहुत से पत्थर पड़े थे. मिसेज़ डिलाक्वा ने इतना बड़ा पत्थर चुना जिसको उठाने के लिए दोनों हाथों का इस्तेमाल करना पड़ा. मिसेज़ डनबार की और मुड़कर वे बोलीं ,”चलो, जल्दी करो.


मिसेज़ डनबार के हाथ में दो छोटे पत्थर थे. इतने में ही वे बेदम हो चुकी थीं. वे बोलीं, “दौड़ना मेरे बस का नहीं है. आप आगे बढ़ें. मैं पीछे-पीछे पहुंचती हूं.“

बच्चों के हाथ में पहले से पत्थर थे. किसी ने हचिंसन के सबसे छोटे बेटे के हथ में कुछ कंकड़ रख दिये.

टेसी हचिंसन अब एक खुली जगह के मध्य में थी. वह अपना हाथ चरम हताशा की मुद्रा में फैलाए हुए थी. गांववाले उसके क़रीब आने लगे. “यह अन्याय है” उसने कहा. एक पत्थर उसकी कनपटी पर लगा. वार्नर बूढ़ा कह रहा था, “चलो, आगे बढ़ो सब लोग”. स्टीव एडम्स भीड़ में आगे था, उसकी बग़ल में मिसेज़ ग्रेव्ज़.

“ये अन्याय है, ग़लत है” !टेसी हचिंसन चीख़ी.
फिर भीड़ उस पर टूट पड़ी.
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शिव किशोर तिवारी

tewarisk@yahoo.com 


भारतीय अस्मिता की खोज और जवाहरलाल नेहरू : नामवर सिंह

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प्रथम प्रधानमन्त्री और आधुनिक भारत के निर्माता जवाहरलाल नेहरु लेखक भी थे. ‘The Discovery of India’, ‘Glimpses of World History’, Toward Freedom (autobiography) और ‘Letters from a Father to His Daughter’ में उनके अध्यवसाय, अंतर्दृष्टि और गहरी संवेदना के दर्शन होते हैं.

हिंदी के महत्वपूर्ण आलोचक नामवर सिंह ने जवाहरलाल नेहरु के लेखन पर एक विस्तृत व्याख्यान दिया था, जो आज और भी प्रासंगिक है. 

लेखक-आलोचक नदं भारद्वाज ने इसकी सुगठित प्रस्तवना भी लिखी है. २८ जुलाई को नामवर जी ९२ साल के हो गए.
उनके शतायु होने की कामना के साथ यह प्रस्तुति.

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नंद भारद्वाज



हिन्दी की प्रगतिशील साहित्य परम्परा के पुनर्मूल्यांकन और समकालीन रचनाकर्म के वस्तुपरक विवेचन-मूल्यांकन का जोखिम भरा काम करनेवाले आलोचकों में डॉ. नामवर सिंह की अपनी अलग पहचान रही है. वे न केवल अपनी वस्तुनिष्ठ और वैज्ञानिक दृष्टि के कारण आकर्षण का केन्द्र रहे हैं, बल्कि व्याख्या-विवेचन की अपनी विशिष्ट शैली के कारण भी समकालीन रचनाकारों और आलोचकों के बीच सर्वाधिक चर्चित और सम्मानित रहे हैं. अपनी प्रगतिशील जीवन-दृष्टि के आधार पर, एक ओर जहां उन्होंने पुराने रसवादी और नव-कलावादी मानदण्डों और मनोवृत्तियों से अनवरत संघर्ष किया है, वहीं दूसरी ओर उन्होंने समकालीन आलोचना में उभरते सरलीकरणों और एकांगीपन का भी जमकर विरोध किया है. एक सहृदय पाठक और प्रबुद्ध रचनाकार के रूप में वे समकालीन रचनाकर्म के प्रति जितने संवेदनशील हैं, उतने ही अपने आलोचना-कर्म के प्रति सजग और जवाबदेह.

28जुलाई, 1927को काशी से कोई तीस मील दूर एक छोटे-से गांव जीअनपुर में जन्मे नामवर सिंह अजब जीवट के धनी रहे हैं. उनके बहुआयामी व्यक्तित्व में जितने उतार-चढ़ाव, संघर्ष और उपलब्धियां समाहित हैं, उन्हें सीमित शब्दों में बयान कर पाना आसान भी नहीं है. वे हिन्दी संसार में इतने लोकप्रिय व्यक्ति हैं कि आज उनके औपचारिक परिचय की कोई आवश्‍यकता रह भी नहीं गई है. नौ दशकों की इस संघर्षपूर्ण जीवन-यात्रा में नामवरजी की देश के स्वाधीनता संग्राम, स्वाधीनता के बाद के सार्वजनिक जीवन, इतिहास, दर्शन, साहित्य और संस्कृति के गंभीर अध्ययन-अध्यापन और समाज में लोकतान्त्रिक मूल्यों की स्थापना के लिए जारी संघर्ष में जो महत्वपूर्ण भूमिका रही है, वही प्रकारान्तर से उनकी आलोचनात्मक कृतियों के रूप में आज हमारी अमूल्य धरोहर बन गई है. जो हमें अपने समय, समाज और साहित्य को गहराई से समझने की दृष्टि देती हैं.
 
नामवरजी की देश के सार्वजनिक जीवन और भारतीय अस्मिता की खोज में आरंभ से ही गहरी रुचि रही है. यह जानकारी पाठकों के लिए संभवतः दिलचस्प होगी कि स्वाधीनता संग्राम और पंडित जवाहरलाल नेहरू के प्रति नामवरजी का आकर्षण और आदर उतना ही पुराना है, जितना अपने प्रारंभिक शिक्षक धर्मदेव सिंह और अन्य आत्मीय जनों के प्रति रहा है. यह सन् 1936के आस-पास की बात है, जब नामवरजी चैथी जमात में अपने गांव जीअनपुर के पास ही माधोपुर की स्कूल में पढ़ते थे. उन्हीं दिनों वहां से कोई चार मील दूर कमालपुर गांव में पंडित जवाहरलाल नेहरू की एक जनसभा होने वाली थी. आप इसी बात से अनुमान लगा सकते हैं कि नामवरजी पंडित नेहरू को सुनने वहां से चार मील दूर पैदल भागते हुए गये, हालांकि तब तक सभा सम्पन्न हो चुकी थी और वे पंडित नेहरू का भाषण नहीं सुन पाए, लेकिन पंडित नेहरू के प्रति उनके आकर्षण और लगाव में कोई कमी नहीं आई.

उन्हीं दिनों हेतमपुर के स्वाधीनता सेनानी कामताप्रसाद विद्यार्थी से उनका परिचय हुआ और उन्हीं की प्रेरणा और प्रभाव से उन्होंने इतिहास, दर्शन और साहित्य की गंभीर पुस्तकों का अध्ययन किया. गांधीजी की आत्मकथा सत्य के प्रयोग’, टॉलस्टॉय की प्रेम में भगवानऔर पं. नेहरू की मेरी कहानीतथा विश्व इतिहास की झलकआदि पुस्तकों का गंभीर अध्ययन उन्हीं दिनों की बात है. 1942के भारत छोड़ो आन्दोलन के दिनों में वे विशेष रूप से सक्रिय रहे और उस आन्दोलन में पुलिस की गोली से बाल-बाल बचे.
           
हम नामवरजी के जिस आलोचक रूप से परिचित हैं, वह दरअसल उनका बाद का विकास है. एक रचनाकार के रूप में उनकी पहली पहचान तो कविता से ही बनी थी - सन् ’40से ’45के बीच उन्होंने जमकर कविताएं लिखीं और उन कविताओं का एक संग्रह नीम के फूलनाम से प्रकाशन के लिए तैयार हुआ भी, लेकिन किसी कारणवश वह प्रकाशित नहीं हो पाया. इसी दौरान उन्होंने कुछ ललित निबन्ध और आलोचनात्मक लेख लिखने शुरू किये और उस प्रक्रिया में वे इतने रम गये कि जैसे और कुछ करने की फुरसत ही नहीं रह गई. सन् 1951में उनकी जो पहली किताब प्रकाशित हुई वह थी बक़लम खुद’, जिसमें उनके 17निबंध संकलित हैं. उसके बाद तो ’54से ’57के बीच उनकी कई किताबें प्रकाशित हुईं जिनमें छायावाद’, ‘आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियां’, ‘पृथ्वीराज रासो की भाषा’, ‘इतिहास और आलोचनाआदि प्रमुख हैं, जो उस जमाने में और आज भी हिन्दी आलोचना के क्षेत्र में सर्वाधिक चर्चित कृतियों के रूप में जानी जाती हैं. इसी क्रम में सातवें, आठवें और नौवें दशक में कहानी नयी कहानी’, ‘कविता के नये प्रतिमान’, ‘दूसरी परम्परा की खोज’, ‘वाद विवाद संवादआदि कृतियों के माध्यम से नामवरजी ने समकालीन साहित्य में ऐसी बहस का सूत्रपात किया, जिसकी अनुगूंज आज भी साहित्यिक हलकों में सुनी जा सकती है.
      
साहित्य के गंभीर अध्येता और विशेषज्ञ के साथ ही नामवरजी की शिक्षा और संस्कृति के क्षेत्र में भी अपनी अलग पहचान रही है. एक शिक्षक के रूप में उन्होंने देश की अनेक बड़ी शिक्षण संस्थाओं जैसे काशी हिन्दू विश्‍वविद्यालय, जोधपुर विश्‍व-विद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्‍व-विद्यालयमें जहां वर्षों साहित्य और भाषा के क्षेत्र में विद्यार्थियों का मार्गदर्शन किया है, वहीं साहित्य और भारतीय भाषाओं की शिक्षण प्रक्रिया और उनके पाठ्यक्रमों को नया वैज्ञानिक स्वरूप प्रदान करने में निर्णायक भूमिका अदा की. आज अपनी आयु के ९२ वे वर्ष पार करने पर भी महात्मा गांधी हिन्दी विश्‍व-विद्यालय के कुलपति और एक नेशनल फैलो के रूप में उन्हें अपनी उसी भूमिका का निर्वाह करते देखना, हिन्दी समाज और हमारे समय का सबसे बड़ा सौभाग्य है.
      
पिछले छह दशकों में राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर होने वाली राजनीतिक उथल-पुथल, इस देश के सांस्कृतिक इतिहास और उसमें राष्ट्र के नायकों की भूमिका, आर्थिक विकास की प्रक्रिया, भूमंडलीकरण, उपभोक्तावादी संस्कृति के प्रसार और जन-संचार की भूमिका पर नामवरजी अपनी संपादकीय टिप्पणियों, लेखों और व्याख्यानों के माध्यम से अपनी बात कहते रहे हैं, अपनी चिन्ताएं जाहिर करते रहे हैं और उन खतरों से बराबर आगाह करते रहे हैं जो भारत जैसे विकासशील देशों और तीसरी दुनिया के देशों के सामने आज चुनौती बनकर खड़े हैं. 

इसी राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य और भारत की सांस्कृतिक पहचान में उनकी गहरी रुचि को ध्यान में रखते हुए कुछ वर्ष पहले राजस्थान के ऐतिहासिक नगर बीकानेरमें आकाशवाणीकी ओर से हमने पंडित नेहरू की ऐतिहासिक कृति डिस्कवरी ऑफ इंडियापर नामवरजी से एक व्याख्यान का आग्रह किया था, जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया और वह प्रभावशाली व्याख्यान संभव हुआ. उसी वाचिक व्याख्यान का अविकल आलेख यहां पाठकों के सामने पहली बार प्रस्तुत किया जा रहा है, जो मुझे आज भी उतना ही प्रासंगिक और सजीव लगता है.   


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डॉ. नामवर सिंह के व्याख्यान का मूल पाठ
भारतीय  अस्मिता  की  खोज  और  जवाहरलाल  नेहरू                
डॉ. नामवर सिंह









भारत के स्वाधीनता आन्दोलन के मूलभूत लक्ष्यों में एक बड़ा लक्ष्य यह था कि इस देश के नागरिकों को अंग्रेजी हुकूमत से मुक्ति तो मिले ही, वे अपनी राष्ट्रीय पहचान और समृद्ध संस्कृति के वारिस होने का आत्मिक गौरव भी अनुभव कर सकें. वही सांस्कृतिक गौरव, जो सिन्धु घाटी की सभ्यता, आर्य सभ्यता, वैदिक संस्कृति, बौद्ध-जैन संस्कृति, मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन और वैचारिक समन्वय की सुदीर्घ परंपरा से निर्मित हुआ है.
      
आज इस राष्ट्रीय पहचान और आत्मगौरव की भावना का महत्व इसलिए भी बढ़ गया है कि हमारी जातीय स्मृति में एक प्रकार का भ्रंश दिखाई पड़ रहा है. भ्रंश इस अर्थ में कि हम सिर्फ आज में जीते हैं, दस वर्ष पहले की घटनाओं को भी याद रखने की सामर्थ्य हम खोते जा रहे हैं. राष्ट्र के उन तमाम नायकों को भूलते जा रहे हैं, जिनका हमारे अपने अतीत और वर्तमान से गहरा ताल्लुक रहा है. ऐसे वातावरण में यदि हम यह भी भूल जाएं कि हम किस देश के हैं, किस देश के संस्कारों से बने हैं और जिस देश के संस्कारों से बने हैं, वह केवल एक छोटा-सा भौगोलिक क्षेत्र भर नहीं है, बल्कि एक महान् सभ्यता का वारिस है, उसकी एक महान् संस्कृति रही है, जिसमें भारतवासी होने के नाते ही नहीं, बल्कि मनुष्य होने के नाते किसी की भी दिलचस्पी हो सकती है.
        
इस देश के विकास में दिलचस्पी रखने वाले लोग यह भली भांति जानते हैं कि आजादी के बाद इस देश के आर्थिक निर्माण के लिए जो राष्ट्रीय नीति तय की गई थी, उसे तैयार करने में पं. जवाहरलाल नेहरू की महत्वपूर्ण भूमिका रही है, हालांकि इस दस्तावेज को तैयार करने में वे अकेले नहीं थे, और भी बहुत-से लोग थे, जिन्होंने इसे तैयार करने में अपना योग दिया. उस नीति में इसी बात पर सबसे अधिक बल दिया गया था कि इस देश को किस तरह आत्म-निर्भर बनाया जाए. इस काम को अंजाम देने के लिए पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से एक ऐसा आधारभूत आर्थिक ढांचा तैयार करने का लक्ष्य सामने रखा गया, जिसके सामने बाकी सारे विकल्प गौण थे. इस राष्ट्रीय नीति में सार्वजनिक क्षेत्र की केन्द्रीय भूमिका मानी गई और बाकी गैर-सरकारी क्षेत्र को सहायक की भूमिका में रखा गया. विकास के इस ढांचे में जमींदारी प्रथा को खत्म करके भूमि संबंधी नये नियम बनाने पर गंभीरता से विचार किया गया, ऐसे नियम जिनमें गांवों का विकास हो, औद्योगीकरण को बढ़ावा मिले और दुनिया के दूसरे विकसित देशों  की तरह यहां भी आधुनिकीकरण की प्रक्रिया तेजी से विकसित हो. पंडित जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में बनी यह राष्ट्रीय नीति आजादी के बाद स्वतंत्र भारत की आर्थिक प्रगति का मूल आधार थी.
     
विदेश नीति के मामले में भी इस नेतृत्व ने गुटों में बंटी दुनिया से अलग अपना एक निरापद रास्ता चुना - यह रास्ता था, गुटनिरपेक्षता की नीति का, जिसमें भारत जैसे और भी कई विकासशील देश थे, जो न सब्जबाग दिखाने वाले पूंजीवादी देशों के साथ जाना चाहते थे, न लड़ाकू समझे जाने वाले समाजवादी देशों के साथ. इस नीति के पीछे भी सबसे बड़ा दबाव उस राष्ट्रीय एकता और सामाजिक संस्कृति का ही रहा, जिसकी पुख्ता नींव धर्मनिरपेक्षता या सेकुलरिज्म की भावना पर आधारित थी, जो सारे विभेदों और बहुलता के बावजूद राष्ट्र की अन्तर्निहित एकता को प्रोत्साहन देती थी.
      
अपनी राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय सोच के चलते पंडित नेहरू ने तीन महत्वपूर्ण पुस्तके लिखीं थीं – विश्‍व इतिहास की झलक, मेरी कहानी और हिन्दुस्तान की कहानी.इन तीन पुस्तकों के अलावा अपनी पुत्री इंदिरा गांधी के नाम जो उन्होंने पत्र लिखे थे, वे भी एक पुस्तक के आकार में सामने आ चुके हैं और इन पत्रों में भी पंडित नेहरू ने इन पुस्तकों के अच्छे-खासे हवाले दिए हैं. ये सभी पुस्तकें एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं. पंडित नेहरू से कई सौ साल पहले यूरोप में यही काम महान् चिंतक हॉब्सने भी करने का प्रयत्न किया था. हॉब्स, लॉक और रूसोदुनिया में लोकतंत्र की विचारधारा पर गंभीरता से विचार करने वाले महान् चिन्तकों में गिने जाते हैं, जिन्होंने यूरोप में सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक चिंतन के एक नये युग का सूत्रपात किया. 


हॉब्स ने भी यह प्रतिज्ञा की थी कि वे तीन ऐसी पुस्तकें लिखेंगे, जिनमें एक में विश्व के स्वरूप पर विचार होगा, दूसरी पुस्तक में वे राष्ट्रीय राज्य के स्वरूप पर विचार करेंगे और तीसरी पुस्तक स्वयं उनकी अपनी जीवन कहानी पर आधारित होगी. हॉब्स केवल लिवायथनके रूप में मुख्य रूप से राज्य के स्वरूप पर ही विचार कर सके, इस किताब की भूमिका के रूप में उन्होंने अपने जीवन की कहानी भी लिखी लेकिन विश्व की वह इसी पुस्तक में मात्र झलक ही प्रस्तुत कर सके. हॉब्स जो काम नहीं कर सके, पंडित नेहरू ने वही कार्य अपनी कहानी, अपने देश की कहानी और सारे संसार की कहानी के रूप में ही कर दिखाया.
          
इन तीनों कहानियों को अगर हम ध्यान से देखें तो पाएंगे कि विराट विश्‍व के परिप्रेक्ष्य में भारत और भारत के परिप्रेक्ष्य में जवाहरलाल नेहरू नाम का वह व्यक्ति प्रकारान्तर से विश्‍व  को और अपने देश को देखते हुए उसके भीतर अपनी ही खोज करता रहा है. हमारे यहां यह परंपरा भी रही है कि हर खोज अपने आप से शुरू होती है - आत्मानाम् विधिःअर्थात् अपने आप को जानो. जो अपने आपको नहीं जानेगा, वह अपने देश को भी नहीं जानेगा, वह सारे ब्रह्मांड और विश्‍व को भी नहीं जान पाएगा, इसलिए हर व्यक्ति की ये तीनों खोजें एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं. जवाहरलाल नेहरू ने इन तीनों ग्रंथों के माध्यम से वस्तुतः एक ही खोज की थी, जिसे एक शब्द में भारतीय अस्मिता की खोज कहा जा सकता है, भारत की पहचान की खोज और पहचान किसी की अकेले की नहीं होती, परिचय पूर्ण होता है अपने समूचे संदर्भ के साथ, इसलिए जवाहरलाल की अपनी कहानी अपने देश की कहानी से जुड़ी हुई है और उस देश की कहानी उस संसार की कहानी से जुड़ी हुई है, जिसमें वह देश और वह व्यक्ति स्थित है. अंग्रेजी में जिसे कहते हैं सिचुएटेड. इन तीनों कहानियों का जिक्र करना इसलिए आवश्यक है कि लगभग दो किताबें विश्‍व इतिहास की झलकऔर मेरी कहानीउन्होंने सन् 1933और 1935के बीच लिखी, जबकि हिन्दुस्तान की कहानी (डिस्कवरी ऑफ इंडिया) उन्होंने ग्यारह वर्ष बाद 1946में पूरी की, जब वे स्वाधीनता प्राप्ति से एक वर्ष पूर्व अमरगढ़ जेल में बंद थे.
     
इन दस-बारह सालों के अन्तराल को देखना दिलचस्प होगा. दो महत्वपूर्ण ग्रंथ लिख देने के बाद पंडित जवाहरलाल नेहरू को क्यों यह जरूरत महसूस हुई भारत को खोजने की? उनकी शिक्षा इंगलैंड में हुई थी और वहां से शिक्षा प्राप्त करने के बाद देश, दुनिया और लोकतंत्र के बारे में उनकी जो समझ बनी, संभवतः उसी के चलते उन्हें भारत की आजादी की लड़ाई में हिस्सा लेना आवयक लगा. आजादी की लड़ाई में हिस्सा लेने के ही क्रम में उन्होंने इस देश के गांवों, शहरों और कस्बों यात्राएं कीं, यहां की जनता को देखने, उनके दुख-दर्द जानने-सुनने और समझने का मौका मिला. इस अनुभव से आजादी की लड़ाई के प्रति तो वे वचन बद्ध हुए ही, लेकिन उससे भी ज्यादा जरूरी उनके लिए यह हो गया कि इस देश की जनता को उसकी समृद्ध विरासत और असली ताकत से परिचित कराया जाए और ऐसी वैज्ञानिक समझ से जोड़ा जाए जो भारत के नव-निर्माण का आधार हो सकती है.
   
   
भारतीय अस्मिता की खोज की आवश्यकता उस उपनिवेशी दौर में खासतौर से महसूस की गई, जब अंग्रेजी हुकूमत ने एक ऐसा विच्छेद उत्पन्न करने की कोशिश की, जहां भारत का समूचा इतिहास अपने मूल से काटकर अलग कर दिया गया और एक नया दौर, नया इतिहास रचने का उपक्रम किया गया. यही नहीं, अंग्रेजों ने अपने कुछ चुनिन्दा लोगों के जरिये यह समझाने का भी प्रयत्न किया कि यहीं से भारत के असली इतिहास की शुरुआत होती है. यह पहला अवसर था, जब हमारे यहां सात समंदर पार से आई एक कौम ने अपने ढंग से भारत का इतिहास लिखना शुरू किया. हमारे इतिहास की विडंबना यह थी कि जिन अंग्रेजों ने हमारे अतीत को तहस-नहस किया, बरबाद किया, जिन्होंने यहां की पुरानी जमी-जमाई ग्रामीण पंचायती व्यवस्था, जो सदियों से चली आ रही थी, उसको नष्ट किया. उसकी जगह उन्होंने अपनी नयी भूमि-व्यवस्था और जमींदारी प्रणाली लागू की. नये कानून बनाए, अपनी न्यायपालिका बनाई और अपनी आवश्‍यकताओं के अनुरूप एक नयी प्रशासनिक व्यवस्था स्थापित की. उन्होंने समूचे सामुदायिक जीवन को नष्ट किया.


उन्होंने इस देश की धरती को खोदकर पुराने मंदिरों को, पुरानी इमारतों को, पुराने अवशेषों को खोज-खोजकर निकालना शुरू किया और निकाल कर उन शिलालेखों को, सिक्कों को, मंदिरों को, मूर्तियों को ढूंढ़कर एक ऐसा नया इतिहास लिखने का प्रयास किया, जिसका एकमात्र उद्देश्‍य था इस देश को मानसिक रूप से इस हद तक गुलाम बना देना कि वह स्वयं आत्म-विस्मृत होकर उनके पश्चिमी रंग में ही रंग जाए और उन्हीं के वर्चस्व को स्वीकार कर ले. इस वातावरण में हमारे देश के बुद्धिजीवियों ने नये सिरे से भारतीय अस्मिता की खोज आरंभ की. यह खोज राजा राममोहन राय से शुरू होती है, ईश्‍वरचंद्र विद्यासागर, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, श्री अरविन्द, लोकमान्य तिलक आदि ने हिन्दुओं में और सर सैयद अहमद खांऔर उनके दूसरे साथियों ने मुसलमानों में एक सुधार स्थापित करने की भरपूर कोशिश की. निश्‍चय ही इस अर्थ में भारतीय अस्मिता की खोज, खोज भर नहीं थी, वह अंग्रेजी इरादों के विरुद्ध एक लड़ाई जारी रखने और अपनी हिफाजत करने का मुख्य आधार थी.
    
स्वाधीनता आन्दोलन से जुड़े लोगों के बीच इस प्रक्रिया की अंतिम कड़ी के रूप में पंडित जवाहरलाल नेहरू की ये तीनों किताबें अत्यंत महत्वपूर्ण थी. इन तीनों किताबों को लेकर पुरातनतावादी या सनातनतावादी विद्वानों को उतनी चिन्ता नहीं थी जितनी अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त उन मध्यवर्गीय लोगों को थी, जिनके लिए हमारा अतीत एक दूसरा संसार था, एक दूसरी दुनिया थी, जिस दुनिया से अंग्रेजों ने हमें काटकर अलग कर रखा था. कई बार होता यह है कि हम पराई जगह जाकर अपने देश की पहचान ज्यादा बेहतर ढंग से कर पाते हैं, शायद इसीलिए इंग्लैंड में पढ़ने वाले जवाहरलाल में इस देश को पहचानने की तड़प का होना ज्यादा स्वाभाविक था.

पंडित नेहरू ने अपनी इस तड़प और खोज का महत्व बतलाते हुए कहा था कि 


‘‘अगर किताबों और पुराने स्मारकों और गुजरे हुए जमाने के सांस्कृतिक कारनामों ने हिन्दुस्तान की कुछ जानकारी मुझमें पैदा की, फिर भी उनसे मुझे संतोष न हुआ और जिस बात की मुझे तलाश थी उसका पता न चला और वो उससे मिल भी कैसे सकता था और मैं यह जानने की कोशिश में था कि उस गुजरे हुए जमाने का हाल के जमाने से कुछ सच्चा ताल्लुक है भी या नहीं. मेरे लिए और मेरे जैसे बहुतों के लिए जमाने का हाल में कुछ ऐसा था कि जिसमें मध्य युग की हद दर्जे की गरीबी, दुख और बीच के वर्गों की कुछ हद तक सतही आधुनिकता की एक अजीब खिचड़ी थी. मैं अपने जैसे या अपने वर्ग के लोगों को सराहने वाला नहीं था, लेकिन मुझे उम्मीद थी कि वही हिन्दुस्तान की हिफाजत में या लड़ाई में आगे आयेगा.’’ 

इसी बात को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा था,


‘‘नई शक्तियों ने सिर उठाया. उन्होंने हमें गांवों की जनता की ओर धकेला और पहली बार हमारे नौजवान पढ़े-लिखों के सामने एक नये और दूसरे हिन्दुस्तान की तस्वीर आई जिसकी मौजूदगी को वे गरीब करीब करीब भुला ही चुके थे या जिसे वो ज्यादा अहमियत नहीं देते थे. इस तरह हमारे लिए असली हिन्दुस्तान की खोज शुरू हुई और इसने जहां एक तरफ हमें बहुत-सी जानकारी हासिल कराई, दूसरी तरफ हमारे अन्दर कश्‍मकश भी पैदा कर दी. मेरे लिए सचमुच यह एक खोज की यात्रा साबित हुई और जब मैं अपने लोगों की कमियों और कमजोरियों को दुख के साथ समझता था, वहीं मुझे हिन्दुस्तान के गांवों में रहने वालों कुछ ऐसी विशेषता मिली, जिसको लफ्जों में बताना बड़ा कठिन था और जिसने मुझे अपनी तरफ खींचा. यह विशेषता ऐसी थी जिसका मैंने अपने यहां के बीच के वर्ग में बिल्कुल अभाव पाया था. आम जनता की मैं आदर्शवादी कल्पना नहीं करता हूं और जहां तक हो सकता है अमूर्त रूप से उसका खयाल करने से बचता हूं. हिन्दुस्तान की जनता इतनी विविध और विशाल होते हुए भी मेरे लिए बड़ी वास्तविक है. ये हो सकता है कि चूंकि मैं उनसे कोई उम्मीदें नहीं रखता था इसलिए मुझे मायूसी नहीं हुई. जितनी मैंने आशा कर रखी थी, उससे मैंने उन्हें बढ़कर ही पाया. मुझे ऐसा जान पड़ा कि उनमें जो मजबूती और अन्दरूनी ताकत है उसकी वजह यह है कि वह अपनी पुरानी परंपरा अब भी अपनाए हुए है.’’
     
जवाहरलाल नेहरू के भीतर भारत की खोज की आग एकबार तब उठी जब वे पांच हजार साल पुरानी सभ्यता मोहनजोदड़ो के अवशेषों पर खड़े थे और उन अवशेषों को देखकर उन्हें गर्व हुआ था कि पांच हजार साल पहले भारत में ऐसी विकसित नगर-सभ्यता थी, जैसी सभ्यता दुनिया के इतिहास में कहीं नहीं थी. उन खंडहरों पर खड़े होकर उन्होंने पहली बार यह महसूस किया कि भारत को खोजना है तो केवल खंडहरों में खोजने काम नहीं चलेगा, उसे खोजना है तो किताबों की खाक छाननी पड़ेगी और उसे कहीं और भी खोजना पड़ेगा. उस हिन्दुस्तान को देखना पड़ेगा जो खंडहर नहीं है, जो जीता-जागता और जीवंत है और जिसे खुद जनता ने बनाया है. उस जनता के संपर्क में आने के बाद खुद जवाहरलाल नेहरू ने लिखा है कि कुछ लोगों के लिए जनता अमूर्त है, लेकिन मेरे लिए वह बड़ी वास्तविक और हाड़-मांस की ठोस जीती-जागती चीज है. बहुत से लोग कहते हैं कि जनता ये कर देगी, वो कर देगी, हम जानते हैं कि उसकी भी अपनी सीमाएं हैं.इन सीमाओं को जानने के बाद पंडित नेहरू ही यह कह सकते थे कि


‘‘मैं चूंकि उससे बड़ी उम्मीदें नहीं रखता इसलिए मुझे कोई मायूसी नहीं हुई, जितनी मैंने आशा कर रखी थी, उससे मैंने उसे बढ़कर ही पाया है.’’

जिसका सबूत है कि हिन्दुस्तान को आजादी जनता ने दिलाई, कुछ चन्द पढ़े-लिखे लोगों ने या बाहर से आए हुए नेताओं ने नहीं. इस जनता की मदद के बिना भारत की अपनी पहचान नहीं की जा सकती थी. इसलिए मोहनजोदड़ो और आज की जनता ये दोनों जिस बिन्दु पर मिलते हैं, वहां उसकी खोज सबसे महत्वपूर्ण खोज है और जवाहरलाल ने फिर कहा है कि मोहनजोदड़ो से लेकर आज तक जनता जिस रूप में दिखाई पड़ती है, यह जो नैरन्तर्य है, ये जो अविच्छिन्नता है, क्या बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी ! तमाम उथल-पुथल और तूफानी हमलों के बावजूद हड़प्पा और मोहनजोदड़ो से जो शुरुआत हुई या और पहले से हुई होगी, सबूत जिसका मिलता है. हड़प्पा-मोहनजोदड़ो ईसा से तीन साढे़-तीन हजार साल पहले थी, तबसे लेकर आज तक जो नैरन्तर्य दिखाई पड़ता है, वो क्या है, इसकी तलाश ही भारतीय अस्मिता की तलाश है.  
     
जवाहरलाल नेहरू ने हिन्दुस्तान की कहानीमें भारत :एक खोजनाम का जो अध्याय लिखा है वह इस किताब का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है. उन्होंने भारतीय अस्मिता या भारतीय संस्कृति की बहुत अच्छी उपमा दी है - अंग्रेजी का एक शब्द है पेरेंसिस्ट’, जिसका यूरोप के संदर्भ में अर्थ बनता है चर्म पत्र और हमारे संदर्भ में भोज पत्र अर्थात् पेड़ की छाल, जिस पर कुछ लिखा जाता था और एक लिखावट को मिटाकर दूसरी इबारत लिखी जाती थी, फिर उसे मिटाकर तीसरी इबारत लिखी जाती थी. भारतीय अस्मिता की पहचान के लिए इस तरह पंडित नेहरू ने भोज-पत्र के रूप में एक बहुत अच्छा शब्द काम में लिया था. कैसा है यह भोज-पत्र, क्या रूप है इसका, स्वयं पंडित नेहरू के शब्दों में देखें :

‘‘मैं हिन्दुस्तान में और भी दूर दूर के हिस्सों में, शहरों और कस्बों और गांवों में घूमा. हिन्दुस्तान की जमीन और उसके लोग मेरे  सामने फैले हुए थे और मैं एक बड़ी खोज की यात्रा में था. हिन्दुस्तान, जिसमें इतनी विविधता और मोहिनी शक्ति है, मुझ पर धुंध की तरह सवार था और ये धुंध बढ़ती ही गई, जितना ही मैं उसे देखता था, उतना ही मुझे इस बात का अनुभव होता था कि मेरे लिए या किसी के लिए भी जिन विचारों का वह प्रतीक था, उसे समझ पाना कितना कठिन था. उसके विस्तार से या उसकी विविधता से मैं घबराता नहीं था, लेकिन उसकी आत्मा की गहराई ऐसी थी जिसकी थाह मैं नहीं पा सकता था, अगरचे कभी कभी उसकी झलक मुझे मिल जाती, ये किसी कदीम भोज-पत्र जैसा था, जिस पर विचार और चिन्तन की तहें एक पर एक जमी हुई थी और फिर भी बाद की तह ने पहले से आंके हुए लेख को पूरी तरह मिटाया नहीं था. उस वक्त हमें भान चाहे हो न हो, ये सब एकसाथ हमारे चेतन और अवचेतन में मौजूद है और ये सब मिलकर हिन्दुस्तान के पेचीदा और भेद भरे व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं.

    
इसी क्रम में अपनी खोज के मकसद का खुलासा करते हुए उन्होंने लिखा

 - ‘‘जैसा चेहरा अपनी भेदभरी और कभी-कभी व्यंग्य भरी मुस्कुराहट के साथ सारे हिन्दुस्तान में दिखाई देता था, अगरचे ऊपरी ढंग से हमारे देश के लोगों में विविधता, विभिन्नता दिखाई देती थी, लेकिन सभी जगह वो समानता और वो एकता मिलती थी, जिसने हमारे दिन चाहे जैसे बीते हों, हमें साथ रखा. हिन्दुस्तान की एकता अब मेरे लिए एक खयाली बात न रह गई थी, एक अन्दरूनी अहसास था और मैं इसके बस में आ गया. यह एकता ऐसी मजबूत थी कि किसी राजनैतिक विलगाव में, किसी संकट में या किसी आफत में उसने फर्क न आने दिया. हिन्दुस्तान की इस आत्मा की खोज में मैं लगा रहा. कुतुहलवश नहीं, अगरचे कुतुहल यकीनी तौर पर मौजूद था, बल्कि इसलिए कि मैं समझता था कि इसके जरिये मुझे अपने मुल्क और अपने मुल्क के लोगों को समझने की कुंजी मिल जाएगी और विचार तथा काम के लिए कोई सूत्र हाथ लग जाएगा.’’
    
राजनीति और चुनाव की रोजमर्रा की बातें ऐसी होती हैं कि जिनमें हम जरा से मामलों में उत्तेजित हो जाते हैं लेकिन अगर हिन्दुस्तान के भविष्य की इमारत तैयार करना चाहते हैं, जो मजबूत और खूबसूरत हो तो हमें गहरी नींव खोदनी पड़ेगी. भारत का हर गांव, हर कस्बा, हर शहर और इस तरह समूचा भारत एक भोज-पत्र है, जिस पर हजारों बार लिखा गया है और हर लिखावट थोड़ी मिट गई है, लेकिन फिर भी बची हुई है और सारी लिखावटें एकसाथ बची हुई हैं. ये एक जादू है, एक करिश्मा है और इन सब लिखावटों को पढ़ना, पढ़कर उनमें एकसूत्रता स्थापित करना और उसके नैरन्तर्य को देखना, इस विविधता और एकता की पहचान करना, यह एक चीज थी जो जवाहरलाल ने हिन्दुस्तान को एक भोज-पत्रनुमा देखकर पहचान करने की कोशिश की.

   
दरअसल हिन्दुस्तान की कहानी के पीछे जो गहरा अहसास है, और वह अहसास संक्रामक है, जो बिजली के तार की तरह पढ़ने वाले को छूता है, तो वह अहसास बड़ी चीज है, जो यह किताब कराती है. नेहरूजी ने इसके साथ यह भी कहा था कि यह हमने कुतुहलवश नहीं किया है, बल्कि जाने हुए को महसूस करना था, छूना था और उस महसूस करने की वजह क्या थी, उन्होंने कहा कि 

‘‘मैं अपने लोगों को समझने की कुंजी नहीं जानता. हिन्दुस्तान की आत्मा खोजने का मतलब था, लोगों को समझना, पहचानना, क्योंकि उन्हीं लोगों से आजादी की लड़ाई लड़नी है और उन्हीं लोगों से आजाद हिन्दुस्तान का निर्माण भी करना है.’’ 

और जिन लोगों को निर्माण के काम में लगाना है, उन्हें जानना बहुत जरूरी है. उन्होंने यह भी लिखा था कि विचार और काम के लिए कोई सूत्र हाथ लग जाए और अगर हम हिन्दुस्तान की भविष्य की इमारत तैयार करना चाहते हैं, जो ‘मजबूत और खूबसूरत हो, दोनों शब्दों पर ध्यान दें. कुछ लोग हिन्दुस्तान को मजबूत इमारत बनाना चाहते हैं और मजबूत इमारतें लोगों ने बनाई हैं, लेकिन मजबूत भी हों और खूबसूरत भी हो, ऐसी इमारत के लिए नेहरूजी ने कहा कि हमें गहरी नींव खोदनी पड़ेगी. उस गहरी नींव को खोदने के लिए जरूरी है कि आप हिन्दुस्तान की आत्मा को गहराई से जानें, नींव जहां आप खोदने जा रहे हैं, उस जमीन की गहराई से जब तक आप वाकिफ नहीं होंगे, तब तक आप जो भी खुदाई करेंगे, वो सतह की होगी और इमारत यही नहीं कि मजबूत नहीं होगी, खूबसूरत भी नहीं होगी. इसलिए जवाहरलाल नेहरू के लिए हिन्दुस्तान की खोज दिमागी अय्याशी नहीं थी, वह उनके लिए सतही दिलचस्पी या कुतुहल की चीज नहीं थी, बल्कि उस कुंजी की खोज करनी थी, जिस पर हिन्दुस्तान की मजबूत और खूबसूरत इमारत बनानी थी. इसलिए डिस्कवरी ऑफ इंडियाया भारत की खोजएक मामूली किताब नहीं है, बल्कि वह घोषणापत्र है, जिस पर आजाद हिन्दुस्तान के आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक विकास की नींव खड़ी की गई है.
      
जवाहरलाल नेहरू ने इसी किताब के अंत में, जहां भूमिका भाग में हिन्दुस्तान की खोज है, वहां उपसंहार करते हुए उन्होंने बहुत महत्वपूर्ण सवाल उठाते हुए, स्वयं अपने लिखे हुए का सारांश बताया है - 


‘‘मैं क्या खोज कर पाया, क्या खोजा है मैंने, ये कल्पना कर पाना कि मैं उसे पर्दे के बाहर ला सकूंगा और उसके वर्तमान और अति प्राचीन युग के स्वरूप को देख पाऊंगा, एक अनधिकार चेष्टा थी.’’  

नेहरूजी की यह विनम्रता देखने योग्य है. उन्होंने लिखा था,

‘‘आज चालीस करोड़ अलग अलग स्त्री-पुरुष हैं, सब एक दूसरे से भिन्न हैं और हर एक व्यक्ति विचार और भावना की दुनिया में रहता है. अब मौजूदा जमाने की ही यह बात है तो गुजरे जमाने की बात तो और भी मुश्किल रही होगी, जिसमें अनगिनत इन्सानों और अनगिनत पीढि़यों की कहानी है. फिर भी किसी चीज ने उन सब को एक साथ बांध रखा है और वह उन्हें अब भी बांधे हुए है. हिन्दुस्तान की भौगोलिक और आर्थिक सत्ता है, उसमें विभिन्नता में एक सांस्कृतिक एक्य है और बहुत-सी परस्पर विरोधी बातें सुदृढ़ हैं, लेकिन अदृश्‍य धागे से एकसाथ गुंथी हुई हैं. बार बार आक्रमण होने पर भी उसकी आत्मा कभी जीती नहीं जा सकी और आज भी जब वो एक अहंकारी विजेता का क्रीड़ा-स्‍थल मालूम होता है, उसकी आत्मा अपरास्त और अविजित है. एक पुरानी किंवदंती की तरह उसमें पकड़ में न आने का गुण है, ऐसा मालूम होता है कि कोई जादू उसके दिमाग पर छाया हुआ है. वो तो असल में एक विचार है और एक गाथा है, एक कल्पना चित्र है और स्वप्न है, किन्तु है सच्चा, सजीव और व्यापक. कुछ अंधियारे पहलुओं की डरावनी झलक भी दिखाई देती है और हमको आरंभिक युग की याद आती है, लेकिन साथ ही सम्पन्न और उजले पहलू भी. उसका एक गुजरा जमाना है और कहीं कहीं उससे शर्म महसूस होती है या नफरत होती है, उसमें जिद है और गलती भी है और कभी कभी उसमें एक भावुक उद्विग्नता भी दिखाई देती है फिर भी वो बहुत प्रिय है और उसके बच्चे चाहे वे कहीं के भी हों, वे कैसी भी परिस्थिति में हों, उसको भुला नहीं सकते. वजह यह है कि वो उन सबसे संबंधित है और उसकी महानता और खामियों का उनसे ताल्लुक है. वे सब जिन्होंने बेहद बड़े परिमाण में जिन्दगी की कामना, खुशी और गलती को देखा है और जिन्‍होंने ज्ञानकूप की थाह ली है, और उसकी उन आंखों में प्रतिबिंबित होते हैं, उनमें से हरेक उसकी ओर आकर्षित है, लेकिन हरेक आकर्षण का सबब शायद जुदा जुदा है और कभी कभी तो उसके पास उसका कोई खास सबब भी नहीं है, हरेक को उसके बहुरंगी व्यक्तित्व का एक अलग पहलू दिखाई पड़ता है.’’
    
तो इस तरह जवाहरलाल ने अपनी इस खोज के दौरान यह देखा कि जो बुराई के साथ अच्छाई है, विविधता में एकता है और यह जो जादू है, एक स्वप्न है, कल्पना चित्र है, कुछ वैसा ही कल्पना-चित्र या स्वप्न हिन्दी में निराला, पन्त, प्रसादने भी अपनी कविता के आकाश में इन्द्रधनुष के रूप में देखा था, उसी दौर में जो रवीन्द्रनाथ की रंगीन मधुर कविताएं थीं, जवाहरलाल नेहरू का ताल्लुक भी उसी दौर से था, इसलिए यदि उन्हें हिन्दुस्तान एक स्वप्न की तरह मालूम होता है, एक कल्पना-चित्र लगता है, एक ख्वाब मालूम होता है, तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है, लेकिन उन कवियों की तरह हिन्दुस्तान की उन गलतियों और कमजोरियों की तरफ भी उनकी नजर गई, जिनको देखकर हमें शर्म महसूस होती थी, यथार्थ के उस पहलू को भी उन्होंने कभी अनदेखा नहीं किया. जवाहरलाल नेहरू ने अपनी चेतना में मोहनजोदड़ो से लेकर आज तक के इस यथार्थ को जिन्दगी के ठोस अनुभवों की रोशनी में देखा. सवाल यह है कि जो पहचान नेहरू ने की वह क्या थी? क्या पहचाना गहराई में पैठकर और अस्मिता की उस खोज में आखिर क्या नयापन पाया?
    
भारत मुख्यतः किसानों और मजदूरों का देश माना गया है, वह भारत माता नहीं है, उतना खूबसूरत भी नहीं है जितना पेश किया जाता है, वह हजारों वर्षों से संघर्षरत रहा है, कभी जीता है कभी हारा है, लेकिन इधर पश्चिम से जो एक सर्वशक्तिमान पूंजीवाद की सत्ता आई है, उसके सामने इसे परास्त होना पड़ा है. गौर करने की बात यह भी है कि पश्चिम से केवल पूंजीवाद ही नहीं आया है, कुछ और भी आया है और वह है साम्यवाद. इसी साम्यवाद के लिबास को अपनाने पर ही वह पूंजीवाद से मुकाबला कर पाएगा.

पश्चिम से साम्यवाद की जो चेतना आई है उस चेतना को अपनी जरूरत के मुताबिक थोड़ा बदलना भी पड़ सकता है, उसमें थोड़ी काट-छांट करनी पड़ेगी. हिन्दुस्तान का जो जनमानस है, उसमें किसानों, मजदूरों के अलावा भी कई तरह के लोग हैं, इसका कोई स्पष्ट वर्गीकरण भी नहीं है, विद्वानों ने अपने ढंग से समय के साथ आए बदलावों को रेखांकित भी किया है और इसका गहरा असर पड़ा है. पंडित नेहरू ने अपनी भूमिका में स्वयं लिखा भी है, ‘‘इन 12सालों में मैं बहुत बदल गया हूं, मैं ज्यादा विचारशील हो गया हूं, शायद मुझमें ज्यादा संतुलन और अलहदगी की भावना और मिजाज की शान्ति आ गई है.’’

यानी 12सालों के बीच साम्यवाद के प्रति वो झुकाव, समाजवाद के प्रति आदर्शपूर्ण निष्ठा, वर्ग-संघर्ष के माध्यम से इतिहास को समझने की दृष्टि, किसानों और मजदूरों का विशेष रूप से हितसाधन, इन सारी बातों के स्थान पर, जैसा उन्होंने कहा कि मैं विचारशील हो गया हूं, संतुलन आ गया है या अलहदगी की भावना, एक डिटैचमेंट’, एक निस्पृहता, निःसंगता की भावना आ गई है और ये सारी बातें सूचित करती हैं.

खास बात तो यह है कि जवाहरलाल की यह पारदर्शी ईमानदारी ध्यान देने लायक है. वे कह सकते थे कि मैं नहीं बदला हूं, आज भी उन्हीं बातों पर कायम हूं, तो कोई दबाव नहीं था उन पर, लेकिन उनकी इस ईमानदारी पर प्यार आता है और उनसे हर भारतीय लगाव महसूस करता है कि एक आदमी अपने भीतर घटित होने वाले परिवर्तनों को साफ साफ स्वीकार करता है और ये बातें जो सामने आई हैं, उनसे यह साफ तौर पर जाहिर होता है कि हिन्दुस्तान की जो तस्वीर 1935में मेरी कहानीमें उपस्थित की गई थी, वह 1946तक इन बारह वर्षों में काफी बदल गई है. इन बारह वर्षों में उनके सोच और व्यवहार में जो निस्संगता, संतुलन और विचारशीलता आई है, या ’35से ’46तक भारतीय राजनीति में जो परिवर्तन घटित हुए हैं, 1940और ’45के बीच जो तनाव के वर्ष रहे, दूसरा महायुद्ध हुआ, साम्प्रदायिक दंगों का सिलसिला चल निकला, दिन पर दिन लगने लगा कि समाजवाद तो बहुत दूर की चीज है, हमारी तो आजादी ही खतरे में है - एक बुर्जुआ लोकतंत्र ही गनीमत है, आप समाजवाद की बात कर रहे हैं ! इन 12वर्षों के दौर में, जिसे नेहरू ने संतुलन कहा है, निस्संगता कहा है, ये सारी बातें उस मोहनजोदड़ों से लेकर ऋग्वेद और ऋग्वेद के बाद प्राचीन भारत के इतिहास से गुजरते हुए जैसे मार्क्‍सवाद के प्रति वैसी निष्ठा नहीं रह गई थी, हालांकि उससे एकदम संबंध टूटा भी नहीं था, लेकिन 1946 तक आते आते उसका स्थान वेदान्त ने ले लिया, उसका स्थान बौद्धों के बुद्धिवाद से उत्पन्न होने वाली करुणा ने ले लिया. यह वेदान्त और करुणा का आकर्षण पूरे भारत की पहचान थी.
     
यह जानना वाकई दिलचस्प है कि सन् 1945से पहले नेहरू ने यह कभी नहीं कहा कि वे भारत की आत्मा की खोज करना चाहते हैं. सन् 1946में हिन्दुस्तान की कहानीलिखते हुए वे भारत की आत्मा की खोज करने लगे और जो आदमी आत्मा की खोज करने लगेगा, वह शरीर और आत्मा के द्वैत से बच नहीं सकता, यह भी जरूरी नहीं है कि वह भौतिकवादी रह ही जाए, फिर तो वह मानववादी होने के लिए ही अभिशप्त है. 

हिन्दुस्तान की कहानीलिखते हुए पंडित नेहरू जिस अस्मिता की पहचान की, उसमें उन्होंने दो चीजें खोजीं - ये दो चीजें थीं, ‘कॉण्टीन्यूटीऔर स्टैबिलिटी’, अर्थात् निरन्तरता और स्थिरता. 

भारत की सबसे बड़ी विशेषता है उसकी बहुत पुरानी सभ्यता, जिसमें पांच हजार सालों की निरन्तरता दिखाई देती है. यह सुनने में बड़ा अच्छा लगता है कि हड़प्पा और मोहनजोदड़ो से लेकर आज तक एक निरन्तरता बनी हुई है, लेकिन यह निरन्तरता तो चीन में थी, पुराने यूनान में बनी हुई थी, इसलिए निरन्तरता को ही अगर भारत की विशेषता कहा जाए तो यह अकेली भारत की विशेषता नहीं थी. यह विशेषता तो संसार के अन्य प्राचीन देशों की भी रही है, इसलिए विचारणीय बात यह हो गई कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि हम निरन्तरता को अधिक रूमानी रंग दे रहे हैं?
    
जवाहरलाल नेहरू ने इस देश की जातीय स्मृति (रेशियल मेमोरी) की भी बात कही है. जातीय स्मृति इस रूप में अवयव है कि लोगों को वेद याद है. जातीय स्मृति का यह आलम है कि यदि मार्शल ने हड़प्पा-मोहनजोदड़ो को खोदा न होता तो उनके लिखित दस्तावेजों से तो यह पता ही नहीं चलता. जातीय स्मृति का ही एक हाल यह था कि 19वीं सदी में एक अंग्रेज को खुदाई में अशोक के काल का एक शिलालेख मिला, वह उस शिलालेख को लेकर बनारस के तमाम पंडितों के पास गया और कहा कि इसको पढ़ो क्या लिखा हुआ है, तो कोई पंडित नहीं पढ़ सका. अगर जातीय स्मृति पर ही हम भरोसा रखते तो हिन्दुस्तान के जो उपलब्ध दस्तावेज थे, उनसे महान् गुप्तों और महान् मौर्यों में से किसी का पता भी नहीं लगता, इसलिए जिस कॉण्टीन्यूटी की हम बात करते हैं या जवाहरलाल ने जिस निरन्तरता पर बल दिया है, यदि वह निरन्तरता उसी तरह बनी रहती तो कायदे से हमारे यहां पांच हजार साल पहले की समाज-व्यवस्था को आज भी चलता रहना चाहिए था और आगे भी वह चलती रहे तो बहुत अच्छा है. लेकिन वैज्ञानिक सोच में विश्वास रखने वाले सभी जानते हैं कि निरन्तरता कोई बड़ा गुण या विशेषता नहीं होती.

इसी देश में एक सनातनता का भी आदर्श रहा है. इसी तरह दूसरा आदर्श अगर बुद्ध को ही माना जाए तो विच्छिन्न प्रवाह का रहा है. इसलिए इतिहास केवल धारा नहीं है, इतिहास क्रान्तियों का भी रहा है, परिवर्तनों का भी अपना इतिहास होता है. नेहरूजी संतुलन की बात करते हुए ऐसा लगता है कि परिवर्तन के बड़े आदर्श को छोड़कर नैरन्तर्य पर चले गये. इसी तरह पंडित नेहरू ने जिस दूसरी विशेषता पर बल दिया, वह थी स्‍टेबिलिटीया पायदारी. इस पायदारी को हिन्दुस्तान की सबसे बड़ी पहचान बताया जाता है. इतने आंधी-तूफान आए, हमले हुए, लेकिन हिन्दुस्तान कायम रहा, वह उखड़ा नहीं यानि सभ्यता के रूप मे हिन्दुस्तान में जिजीविषा है. लेकिन जीने से ज्यादा जरूरी होता है, सार्थक जीना.

महाभारत में कहा गया है कि सौ साल तक धुंआ देते हुए जलने की अपेक्षा क्षण भर में जल जाना श्रेयस्कर है. हिन्दुस्तान की कहानीपढ़ते हुए हमें गंगा की धारा का-सा नैरन्तर्य दिखाई पड़ता है, उसमें एक सुखद स्थिरता भी दिखाई पड़ती है. लेकिन समूची कहानी में वह स्थिरता उस विचारधारा पर कायम दिखाई देती है, जिसकी तह में छिपा हुआ दमन है, असंतोष है, कहीं जातिवाद के खिलाफ असंतोष तो व्यक्त किया गया है, लेकिन उस दूसरी परंपरा की कहानी नहीं कही गई है जो इस देश के आदिवासियों में, जनजातियों में अछूत समझी जाने वाली जातियों के बीच असंतोष के रूप में फूटती रही है.
      

तीसरी बात जो पंडित नेहरू ने कही और जिस पर आज भी बहुत बल दिया जाता है कि भारत की पहचान उसकी सामासिकता में है, जिसको भिन्नता में एकता या विविधता में एकता या यूनिटी इन डाइवरसिटीभी कहा जाता है. ऊपर से देखने पर ऐसा लगता है कि यहां प्रदेश, धर्म, क्षेत्र आदि को लेकर बहुत से भेदभाव काम करते हैं. जबकि वास्तविकता यह है कि संसार की अन्य सभ्यताएं भी इसी तरह की बातों के साथ विकसित हुई हैं, जहां इस तरह के भेदभाव एक सामान्य बात है. क्षेत्रीय भेद तो अन्यत्र भी हैं, धर्म भेद भी मिलते हैं. इस सामासिकता को किसी गुण के रूप में कहा जाए कि वह सबको जज्ब कर लेती है. 


भारतीय सभ्यता के बारे में तो यही कहा जाता है कि जितने बाहर के लोग आए, उनको जज्ब कर लिया है, या हम लोगों ने अपना बना लिया है, उन्हें अपनी सभ्यता में समाहित कर लिया है. स्थिति यह होती है कि इस जज्ब करने की प्रक्रिया में जो हारमोनियससभ्यता बनती है, उस सभ्यता के बारे में हम जज्ब करना तो जानते हैं, लेकिन जिस बात पर बल नहीं दिया गया वह यह कि हर सभ्यता, हर संस्कृति इस मिलने की प्रक्रिया में संग्रह भी करती है और त्याग भी करती है. जब तक आप त्याग के बिना संग्रह करते रहेंगे, जहां भी होगा, वहां अपच होगा और बराबर एक संघर्ष की स्थिति बनी रहेगी. इसलिए कला में, संस्कृति में जब भी सामासिकता पैदा होती है और हर समास में कई बार दोनों पद प्रधान नहीं रहा करते. 


यह बात तो संस्कृत व्याकरण के लोग भी जानते हैं कि कहीं कहीं एक पद का प्रायः लोप भी हो जाया करता है. इसलिए पंडित नेहरू ने जिस सामासिक संस्कृति की बात कही, उसमें ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि स्वयं पंडित नेहरू का व्यक्तित्व अनेक प्रकार की संस्कृतियों, सभ्यताओं और संस्कारों का कुंज था, जब वे भारत की संस्कृति की सामासिकता का जिक्र करते थे तो लगभग अपने व्यक्तित्व की सामासिकता और भारतीय संस्कृति की सामासिकता दोनों को एक-साथ आमने-सामने रखकर देखते थे.


जब भी भारतीय संस्कृति की सामासिकता पर विचार करें, तो मानदंड के रूप में पंडित नेहरू के व्यक्तित्व को हमेशा सामने रखें, बल्कि आप गांधीजी के व्यक्तित्व से तुलना करके भी देख सकते हैं कि गांधीजी का व्यक्तित्व अधिक इंटीग्रेटेडथा या नेहरूजी का. एक ऐसा अंतरग्रथित, इंटीग्रेटेड या सामासिक व्यक्तित्व, जिसमें अनेक प्रकार के गुणों का मेल हो. एक तीसरा व्यक्तित्व वह भी होता है, जिसमें अनेक तत्वों के बीच संघर्ष या तनाव हुआ करता है. जहां पश्चिम और पूर्व का तनाव हो, नेहरूजी ने लिखा है

‘‘मेरे भीतर पश्चिम और पूर्व का तनाव है, मेरे भीतर प्राचीन और आधुनिकता का तनाव है’’, 


पंडित नेहरू का व्यक्तित्व भारतीय समाज के इन्ही तनावों के दौर से गुजर रहा था, इसलिए सामासिकता हमारे यहां वस्तुतः अंतर्द्वन्द्व, अंतर्संघर्ष, अंतर्विरोध और तनाव की स्थिति में रही है और यह विशेषता सामासिकता से ज्यादा महत्वपूर्ण है. इसी में उसकी जीवंतता है. इसके निराकरण के लिए समुचित प्रयास तथ्य के रूप में जब तक हम स्वीकार नहीं करेंगे, तब तक हम एक सेमेटिक या काल्पनिक दुनिया में रहेंगे, अर्थात् हिन्दुस्तान की कहानीमें जवाहरलाल नेहरू ने नैरंतर्य और स्थिरता के साथ जिस सामासिकता पर सबसे अधिक बल दिया था, वह आज भी विचारणीय है.
     
अंतिम बात जो कहना चाहता हूं, वह यह कि हिन्दुस्तान की कहानीके रूप में पंडित नेहरू की यह कृति स्वाधीन भारत का एक ऐसा दस्तावेज था, जो एक प्राचीन देश को आधुनिक बनाने का महत्वपूर्ण प्रयत्न साबित हुआ. वे मानते थे कि आधुनिक बनाने के लिए विज्ञान उसकी बुनियाद है, जहां उन्होंने कहा कि ये नया है कि नहीं, अर्थात् वे प्राचीन भारतीय संस्कृति की आध्यात्मिकता और पश्चिम की वैज्ञानिकता, इन दोनों के संयोग से नये भारत का विकास देखना चाहते थे. एक तरह से देखें तो बंकिमचंद्र ने भी यही कहा था, यही रवीन्द्रनाथ कहते थे और विवेकानंद भी यही कहते थे कि भारत की अपनी आध्यात्मिकता और पश्चिम का विज्ञान दोनों के योग से भारत आधुनिक राष्ट्र बन सकता है.

जवाहरलाल नेहरू ने अपने एक लेख में बड़े स्पष्ट शब्दों में कहा है कि हम लोगों को प्राचीन को खोजने के लिए और सुदूर को खोजने के लिए कहीं बाहर जाने की जरूरत नहीं है. अपने देश के बाहर हमें वर्तमान की खोज के लिए जाना है और वह वाक्य उनका बहुत ही दिलचस्प और महत्वपूर्ण है - 


‘‘हम हिन्दुस्तानियों को सुदूर और प्राचीन की तलाश  में देश के बाहर नहीं जाना है, उसकी हमारे पास बहुतायत है. अगर हमें विदेशों में जाना है तो वह सिर्फ वर्तमान की तलाश में, यह तलाश जरूरी है, क्योंकि उससे अलाहिदा रहने के मायने हैं कि पिछड़ापन और क्षय.’’
     
कुछ लोगों का कहना है कि बुनियादी रूप से यह एक तरह की औपनिवेशिक जहनियत थी, अर्थात् पश्चिम वर्तमान है, भविष्य पश्चिम के साथ है क्योंकि पश्चिम में विज्ञान है, इसलिए हमें उन तमाम चीजों को लेकर अपना निर्माण और विकास करना पड़ेगा. इस पूरी प्रक्रिया को बारीकी से देखने पर हम पाएंगे कि यह एक ऐसी विषम दौड़ की तरह है, जिसमें पश्चिम निरन्तर वर्तमान और भविष्य बनता चला जाएगा और हम इस दौड़ में निरंतर कम से कम 50साल पीछे रहेंगे.

इस पूरी तेजी में निरंतरता, स्थिरता, सामासिकता और परिवर्तनशीलता की ऐतिहासिक प्रक्रिया के साथ हम एक ऐसे नियम के अनुसार चलने की कोशिश कर रहे हैं, जिसमें बुनियादी चीज गायब है. ये हिन्दुस्तान की निरंतरता, स्थिरता और सामासिकता से अलग हटकर एक अमूर्त भाववादी ढंग से सोचने की प्रक्रिया है, जहां यह समझा जाता है कि परिवर्तन मशीन करती है, जबकि बुनियादी उसूल, जिसे पंडित नेहरू किसी समय बड़ी दृढ़ता से विश्‍वास किया करते थे कि मनुष्य अपना इतिहास स्वयं बनाता है. जागता इन्सान इतिहास बनाने वाली कोई मशीन नहीं हुआ करता, यह एक मानवीय समझ थी. हिन्दुस्तान की अपनी पहचान इसी मानवीय समझ में आस्था, मनुष्य-जाति की क्षमता में विश्‍वास और उसकी विवेकशीलता पर टिकी है. 



यही बुनियादी समझ पंडित नेहरू की मेरी कहानीसे निकलती है, जो हिन्दुस्तान की कहानीतक आते आते मद्धिम पड़ गई थी, मगर एकदम लुप्त नहीं हुई थी. नतीजा यह हुआ कि आगे चलकर आजाद हिन्दुस्तान जिस दिशा में विकसित हुआ, वह हिन्दुस्तान की कहानीकी सीमाओं से ग्रस्त है, ‘मेरी कहानीसे उतना आलोकित और ऊर्जस्वित नहीं. इसके बावजूद पंडित नेहरू की वह व्यापक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्यवादी अंतर्दृष्टि इस अर्थ में आज भी प्रासंगिक है कि हमारा प्रस्थान-बिंदु वहीं है और किसी भी नये चिन्तन का आधार प्रस्तुत करने के लिए वही विचारधारा इस देश के लिए अधिक महत्वपूर्ण और ज्वलंत साबित होगी.
(१९८९)
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नंद भारद्वाज / 09829103455     

भारत भूषण सम्मान और अदनान कफ़ील दरवेश की कविता 'क़िबला'

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हिंदी साहित्य के लिए पुरस्कार तो बहुत हैं पर भारत भूषण अग्रवाल सम्मान अपनी तरह से अकेला ही है. हर वर्ष किसी युवा कवि की एक कविता पर दिया जाने वाला यह सम्मान (राशि ५००० हजार रूपये.) अपनी स्थापना से ही (१९८०) से चर्चित, प्रशंसित और निन्दित रहा है. खुद चयन में शामिल कुछ लेखकों ने इस पर गम्भीर सवाल उठायें हैं.

३५ वर्ष से कम आयु के कवि की कविता के चयन में – नेमिचन्द्र जैन, नामवर सिंह, अशोक वाजपेयी, केदारनाथ सिंह, विष्णु खरेप्रारम्भ में शामिल थे. प्रत्येक वर्ष क्रम से यह एकल चयन की प्रक्रिया संचालित होती थी. बाद में चयन कर्ताओं में नये लेखकों को जोड़ा गया अब अशोक वाजपेयी, अरुण कमल, उदय प्रकाश, अनामिका और पुरुषोत्तम अग्रवालप्रत्येक वर्ष श्रेष्ठ युवा कविता का चयन करते हैं.

इस वर्ष का भारत भूषण अग्रवाल सम्मान युवा कवि अदनान कफील दरवेश की कविता क़िबला को देने की घोषणा आलोचक पुरुषोत्तम अग्रवाल द्वारा की गयी है. कविता और चयन वक्तव्य आपके लिए.











क़िबला
अदनानकफ़ीलदरवेश 



माँकभीमस्जिदनहींगई 
कमसेकमजबसेमैंजानताहूँमाँको 
हालाँकिनमाज़पढ़नेऔरतेंमस्जिदेंनहींजायाकरतींहमारेयहाँ 
क्यूंकिमस्जिदख़ुदाकाघरहैऔरसिर्फ़मर्दोंकीइबादतगाह  
लेकिनऔरतेंमिन्नतें-मुरादेंमांगनेऔरताखाभरनेमस्जिदेंजासकतीथीं 
लेकिनमाँकभीनहींगई 
शायदउसकेपासमन्नतमाँगनेकेलिएभीसमयरहाहो 
याउसकीकोईमन्नतरहीहीनहींकभी 
येकहपानामेरेलिएबड़ामुश्किलहै 
यूँतोमाँनइहरभीकमहीजापाती 
लेकिनरोज़देखाहैमैंनेमाँको 
पौफटनेकेबादसेही देरराततक 
उसअँधेरे-करियायेरसोईघरमेंकामकरतेहुए 
सबकुछकरीनेसेसईंतते-सम्हारते-लीपते-बुहारतेहुए 
जहाँउजालाभीजानेसेख़ासाकतराताथा 
माँकारोज़रसोईघरमेंकामकरना 
ठीकवैसाहीथाजैसेसूरजकारोज़निकलना 
शायदकिसीदिनथका-माँदासूरजभीनिकलता 
फिरभीमाँरसोईघरमेंसुबह-सुबहहीहाज़िरीलगाती.

रोज़धुएँकेबीचअँगीठी-सीदिन-रातजलतीथीमाँ 
जिसपरपकतीथींगरमरोटियाँऔरहमेंनिवालानसीबहोता
माँकीदुनियामेंचिड़ियाँ, पहाड़, नदियाँ 
अख़बारऔरछुट्टियाँबिलकुलनहींथे 
उसकीदुनियामेंचौका-बेलन, सूप, खरल, ओखरीऔरजाँताथे 
जूठनसेबजबजातीबाल्टीथी 
जलीउँगलियाँथीं,फटीबिवाईथी 
उसकीदुनियामेंफूलऔरइत्रकीख़ुश्बूलगभगनदारदथे 
बल्किउसकेपासकभीसूखनेवालाटप्-टप्चूतापसीनाथा
उसकीतेज़गंधथी 
जिससेमैंमाँकोअक्सरपहचानता.
ख़ालीवक़्तोंमेंमाँचावलबीनती 
औरगीतगुनगुनाती
"..लेलेअईहSबालमबजरियासेचुनरी
औरहम, "कुच्छुचाहीं,कुच्छुचाहीं…"रटतेरहते 
औरमाँडिब्बेटटोलती 
कभीखोवा, कभीगुड़, कभीमलीदा
कभीमेथऊरा, कभीतिलवाऔरकभीजनेरेकीदरीलाकरदेती.

एकदिनचावलबीनते-बीनतेमाँकीआँखेंपथरागयीं 
ज़मीनपरदेरतककामकरते-करतेउसकेपाँवमेंगठियाहोगया  
माँफिरभीएकटाँगपरखटतीरही
बहनोंकीरोज़बढ़तीउम्रसेहलकान 
दिनमेंपाँचबारसिरपटकती ख़ुदाकेसामने.

माँकेलिएदुनियामेंक्योंनहींलिखागयाअबतककोईमर्सिया,कोईनौहा
मेरीमाँकाख़ुदाइतनानिर्दयीक्यूँहै
माँकेश्रमकीक़ीमतकबमिलेगीआख़िरइसदुनियामें
मेरीमाँकीउम्रक्याकोईसरकार, किसीमुल्ककाआईनवापिसकरसकताहै
मेरीमाँकेखोयेस्वप्नक्याकोईउसकीआँखमें
ठीकउसीजगहफिररखसकताहैजहाँवेथे

माँयूँतोकभीमक्कानहींगई 
वोजानाचाहतीथीभीयानहीं 
येकभीमैंपूछनहींसका 
लेकिनमैंइतनाभरोसेकेसाथकहसकताहूँकि 
माँऔरउसकेजैसीतमामऔरतोंकाक़िबलामक्केमेंनहीं 
रसोईघरमेंथा... 
[वागर्थ, मासिकपत्रिका, अंक 266, सितंबर 2017]







अदनान की यह कविता माँ की दिनचर्या के आत्मीय, सहज चित्र के जरिेएमाँ और उसके जैसी तमाम औरतोंके जीवन-वास्तव को रेखांकित करती है. अपने रोजमर्रा के वास्तविक जीवन अनुभव के आधार पर गढ़े गये इस शब्द-चित्र में अदनान आस्था और उसके तंत्र यानि संगठित धर्म के बीच के संबंध की विडंबना को रेखांकित करते हैं.
क़िबलाइसलामी आस्था में प्रार्थना की दिशा का संकेतक होता है. लेकिन आस्था के तंत्र में ख़ुदा का घर सिर्फ मर्दों की इबादतगाह में बदल जाता है, माँ और उसके जैसी तमाम औरतों का क़िबला मक्के में नहीं रसोईघर में सीमित हो कर रह जाता है. स्त्री-सशक्तिकरण की वास्तविकता को नकारे बिना, सच यही है कि स्त्री के श्रम और सभ्यता-निर्माण में उसके योगदान की पूरी पहचान होने की मंजिल अभी बहुत बहुत दूर हैआस्थातंत्र के साथ ही सामाजिक संरचना की इस समस्या पर भी कविता की निगाह बनी हुई है.
अदनान की यह कविता सभ्यता, संस्कृति और धर्म में स्त्री के योगदान को, इसकी उपेक्षा को पुरजोर ढंग से रेखांकित करती है. उनकी अन्य कविताओं में भी आस-पास के जीवन, रोजमर्रा के अनुभवों को प्रभावी शब्द-संयोजन में ढालने की सामर्थ्य दिखती है.
मैंक़िबलाकविता"के लिए अदनान क़फ़ील दरवेश को भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार देने की संस्तुति करता हूँ.
पुरुषोत्तम अग्रवाल.
________________________

अदनानकफ़ीलदरवेश
30 जुलाई1994
(जन्मस्थान: ग्राम-गड़वार, ज़िला-बलिया, उत्तरप्रदेश)

कुछ कविताएँ पत्र -पत्रिकाओं में प्रकाशित’
मो. 9990225150

अन्यत्र : मानसून के बीच वर्षा वन की सैर : भास्कर उप्रेती

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नैनीताल से रातीघाट के बीच ट्रेकिंग के लिए कुछ उत्साही लोग इसी बारिश में निकल पड़ते हैं. उनके अनुभव क्या रहे? वे विविधताओं से भरे पहाड़ में क्या कुछ देख पाए?

एकदिवसीय ट्रैकिंग का यह दिलचस्प संस्मरण आपके लिए.






मानसून   के  बीच   वर्षा  वन   की   सैर
(एकदिवसीय पथारोहण का संस्मरण)

भास्कर उप्रेती




22 जुलाई रविवार का दिन, मौसम विभाग की ओर से भारी बारिश का अलर्ट जारी हुआ था. अपवादस्वरूप, अलर्ट सच भी साबित हुआ. कम से कम पहाड़ों पर कई जगह अच्छी बारिश हुई थी. यह दिन पहले से ही एकदिवसीय ट्रैक करने के लिए सोच लिया गया था. आईडिया था कि जंगल में बारिश संग चलेंगे. बारिश में जंगल को और प्रकृति को महसूस करेंगे. खुद को भी इसी प्रकृति का हिस्सा मानते हुए. 


प्रकृति के बीच जाने और उसमें शामिल होने का ख़याल ही आपको एक बड़ी दासता से मुक्त कर देता है. हालाँकि, पूरी तरह प्रकृतिस्थ होना संभव नहीं. हमारी चिंताएं, हमारे सरोकार, हमारी भाषा, हमारा बौनापन, हमारा अहंभाव, हमारा तुच्छपना भी यात्राओं में हमारे साथ चला ही आता है. मगर जिस भी परिस्थिति में घूमें, घूमने के अपने फायदे तो हैं ही. महान लेखक अनातोले फ़्रांसकहते हैं; घूमने से हमें वह मिलता है जो कभी मनुष्य और ब्रह्मांड के बीच का सीधा-सीधा नाता था”.



तो इस बार हमने अपना मानसून ट्रैक चुना- नैनीताल से रातीघाट का पैदल मार्ग. यह करीब 12 किलोमीटर लंबा ट्रैक है. इस ट्रैक में डांठ से चलकर आप पहले दूनीखाल तक पहुँचते हैं. दूनीखाल से एक रास्ता आपको चौर्सा गाँव के रास्ते रातीघाट पहुंचाता है. दूसरा भवाली गाँव (भवाली नहीं) के श्मशान घाट से पहुँचाता है- निगलाट और कैंची धाम. कहीं-कहीं दुबटीयों-तिबटीयों और चौबटियों पर थोड़ा भ्रम होता है. मगर, सहज बुद्धि से आप सही-सही या तकरीबन सही रास्ते को पा जाते हैं. बने हुए रास्ते दरअसल पुराने यात्रियों के अनुभव और समझदारी का परिणाम होते हैं. जाहिर है वह बहुत सारे जोखिमों के बाद निकाले गए निष्कर्ष होते हैं. एक बार कौसानी से द्योनाई के ट्रैक पर हमें जोखिम उठाने की सूझी. चीड़ वन में यूँ भी पुराने रास्ते खोजना मुश्किल होता है, लेकिन अब उस पर भी मनमाना हो लें तो फिर कोई गुजर नहीं. हुआ यही जैसे-जैसे आसमानी रंग गाढ़ा होता गया हम उतने ही पगलाये पैर पटकते रहे. फिर रात हुई और आधीरात. टॉर्च जो थीं वो बुझा गईं. भटक जाने के अहसास ने हमें चिड़चिड़ा भी बना दिया.


हम चार जन थे और हमारे चार अपने-अपने रास्ते थे. खैर गहरी रात्रि में हमें जंगल के एक कोने से दूर कहीं गाँव की रौशनी दिखाई दी. फिर हम किसी तरह घुटने फोड़-फोड़कर, पिरूल में रगड़-रगड़कर गाँव की सरहद तक पहुँच पाए. सुबह मालूम पड़ा ऊपर देखने पर कि हम रात को एक बेहद खतरनाक कफ्फर (चट्टान) में मंडरा रहे थे. ऐसा ही एक अनुभव हल्द्वानी से भद्यूनी ट्रैक करते हुए जंगल में हुआ. हम अंततः एक आक्रांत भेव (कांठा) में जा अटके, और फिर हमारे पास अँधेरे में उससे फिसलकर नीचे सरकने के सिवा कोई विकल्प नहीं था. नीचे हम झाड़ियों में उलझ गए, जिसे बाद में किसी ने भालुओं की राजधानी बताया. यात्राओं में जोखिम उठाये जा सकते हैं और उठाए जाने चाहिए, लेकिन तब मन:स्थिति बहुत पक्की होनी चाहिए.


समय की कमी हो और कम बजट में करना हो तो यह (नैनीताल- रातीघाट ट्रैक) हल्द्वानी-रामनगर के करीब में एक बेहतरीन ट्रैक है. यदि इसे नैनीताल के पर्यटन के साथ जोड़ दिया जाता तो शायद नैनीताल पहुँचने वाले पर्यटक जलालत की भावना के साथ नहीं गर्व की भावना से वापस लौटते. नैनीताल के साथ यूँ तो किलबरी-कोटाबाग, वल्दियाखान-बसानी जैसे एकदिवसीय ट्रैक भी जोड़े जा सकते हैं. कुंजखड़क-बेतालघाट भी एक अच्छा आकर्षण हो सकता है.


बारिश की आमद के बीच हम सुबह 9.40 में नैनीताल डांठ से स्नो व्यू के लिए रवाना हुए. करीब 10.30 में हम यहाँ पहुंचे. इस बीच हमने अपने नैनीताल के दिनों को याद किया. नैनीताल की सबकी अपनी-अपनी स्मृति थी. स्मृति-यात्रा में रवि मोहन और विनोद जीना की यादें ही अधिक आयीं. स्नो व्यू पहुंचकर हमें याद आया हममें से किसी ने भी नैनी झील की तरफ नहीं देखा था. पता नहीं ऐसा आत्मज्ञान हमें कहाँ से मिला होगा. स्नो व्यू में बिड़ला बैंड पर हमने चाय पी और कुछ रसद अपने बैगों में भर लिया.


शुरुआत में हमारा सामना स्नो व्यू पर्यटन केंद्र और बिड़ला स्कूल से बहकर आ रही गाद से हुआ. लेकिन, धोबीघाट तक आते-आते प्रकृति का रंग जमने लगा. अंग्रेज बहादुरों ने अपने से जो बेहतरीन ट्रैक बनाया था, वह आज भी हमारे काम आ रहा है. और इस राह से गुजरने वाले भारतवासियों को लज्जित भी करता है कि हम ऐसी कितनी जगहें बना पाए या बनी हुई जगहों को ही कितना सम्मान दे सके.




नैनीताल जलागम क्षेत्र में थोड़ी बहुत बारिश पहले भी हो चुकी थी, हर तरफ हरियाली का राज था. रंग-बिरंगे च्यो (जंगली मशरूम) जगह-जगह से अपनी छतरियां उठाए बैठे थे. बांज और बुरांश के पेड़ों पर गहरी काई जमी थी. कई जगहों पर नम पत्थरों पर जूला (झूला), साँप का मामा हमें मिला, कई ऐसी वनस्पति जिन्हें हम नाम से नहीं जानते. सबसे अधिक हर जगह से फूटते-बहते-निकसते जल श्रोत.


लहरियाकाँटा और बिड़ला स्कूल के बीच के जंगल से एक बेहद दिलकश नदी बहती है. इसे आकाशगंगा जैसा कुछ कहना सार्थक होगा. यह तीखे ढलान से दौड़ती हुई आती है. बाकी मौसम में यह गुमसुम बहती है लेकिन बारिश के दिनों में यह फुफकारती हुई बहती है. इसका पथ सर्पिलाकार है. इससे यह दौड़ते हुए झरने का भी भ्रम पैदा करती है. रास्ते में मिले बटोहियों (ग्रामीणों) से इसके बारे में पूछा तो वह इसका नाम नहीं बता पाए. नीचे भवाली गाँव में कैम्प साइट के मालिक साहजी को भी इसका नाम नहीं मालूम था. शायद इसका कोई नाम है ही नहीं. नदी बाद में गहरे खड्ड में गिरती है और फिर दूनीखाल से पहले किलबरी से आने वाले गदेरे के साथ कहीं नीचे गहराई में संगम करती है. ट्रैक बहुत ऊपर है नदी बहुत नीचे. बस सूसाट-भूभाट ही कानों को नसीब होता है.



यहाँ की वानस्पतिक विविधता अमेजन वर्षावन की भांति महसूस होती है. नम चौड़े पत्ते के वन और वनस्पतियाँ यहाँ इफरात में हैं. अच्छे जंगल के लिए आसमान छूते विशाल वृक्ष ही नहीं उलझी लताएँ, भांति-भांति की घास, कम ऊंचाई वाले झाड़ीनुमा पेड़, मिट्टी पर पत्थर पर काईदार परतें यह सब यहाँ मिलता है. टेरीडोफायटा परिवार की प्रजातियों की (जिस समूह से लिंगूड़ ही एक स्थानीय नाम याद आता है) की यहाँ बहुतायत है. मौस यहाँ खूब हैं, पत्थर में उगने वाली हरिता भी है. पेड़ों में भी तरह-तरह के झूले (शायद इसलिए इन्हें झूला नाम दिया गया हो), पुष्पदार और गैर-पुष्पदार दोनों तरह के, और जल प्रजातियाँ जिन्हें शायद स्परमाटो-फायटा कहते हैं. इतिहास हमें बताता है कि फर्न जाति मनुष्य जाति के विकसित होने से बहुत पहले धरती में आ गए थे और आज भी वह धरती की हरियाली के सबसे बड़े रक्षक हैं. धरती का होना मतलब नमी का होना. नमी नहीं रहेगी तो किसी भी तरह का जीवन अस्तित्वमान नहीं रहेगा.


कुछ समय पहले नैनीताल के वरिष्ठ प्रकृति विद् और वन विभाग के मुलाजिम विनोद पांडेजी ने बताया था कि नैनीताल के जंगलों से जोंक गायब हो गयी हैं. यह नैनीताल के प्राकृतिक स्वास्थ्य के लिए अशुभ सूचक है. हमें भी धोबीघाट से नीचे मिलने वाले पहले पुल तक यही लग रहा था. लेकिन, थोड़ी ही देर में हमारे पैरों में गुदगुदी होने लगी. जब पहली जोक नज़र आई तो हमने जोरो से इसका जश्न मनाया. हममें से प्रत्येक यात्री ने कामना की कि उन्हें अधिक से अधिक जोंक लगें. और हमारी कामना बहुत हद तक पूरी भी हुई. सबको जोंक ने खाया और उधेड़ा. भवाली गाँव की परली धार पार करने पर श्मशान से ठीक पहले हमने अंतिम जोंक के दर्शन का लाभ प्राप्त किया. यानी कि ट्रैक के पूरे नम हिस्से में हमें जोंक मिलती रहीं. यह फ़िलहाल के लिए आश्वस्ति है.



बर्ड वाचिंग के लिहाज से भी यहाँ की वन्यता काफी समृद्ध प्रतीत होता है. चिड़ियों के लिए ख्यात किलबरी वन बायीं तरफ करीब ही है. कोकलाज फीजेंट, पहाड़ी बुलबुल, गौरैया, पहाड़ी मैना (सिटौला) यहाँ आम तौर पर दीख जाती हैं, यह यात्रियों  के भाग्य की बात है कि वह कौन सी नयी चिड़िया यहाँ देखते हैं. हमने यहाँ एक अनूठी चिड़ियाँ को दो-तीन जगहों पर देखा, वह जब उड़ती है तो उसके पंखों का निचला रंग पीला और हरा दिखाई देता है. कुछ चिड़ियाँ हमने देखी तो नहीं लेकिन उनकी आवाज हमारे लिए नई थी. छोटे आकार की कई तितलियाँ हमने देखीं, जिनके रंग चटख थे. यदि हम बारिश के थमने का इंतजार करते तो हमें और अधिक तितलियाँ दिखतीं. कैंची धाम की ओर उतरते जंगल में हमें कुलाँचें मारता काकड़ (हिरन प्रजाति, माउंटेन गोट) दिख गया, जो हमारी यात्रा को सफल करने के लिए उद्दीपक बना.



पिछली बार जब हमने नैनीताल से भवाली का ट्रैक किया था भवाली गाँव होते हुए तो यहाँ सड़क कटनी शुरू हुई थी. इस बार सड़क मोटर आने लायक हो गयी है. हालाँकि इसमें अभी बुलडोजर और जेसीबी काम कर ही रहे हैं. दो नेचर रिसॉर्ट्स ‘चौखम्बा’ और ‘वालनट’ नाम से यहाँ खुल गए हैं, जिनका मकसद तो नेचर वाक और बर्ड वाचिंग बगैरा है, लेकिन अभी उसके लिए उनके पास पर्याप्त तैयारी नहीं है. असल मकसद तो नैनीताल-मार्का टूरिस्ट हो ही यहाँ लाना है, ताकि उनका स्वाद बदल सकें. पर्यटन व्यवसाइयों के लिए सरकार की ओर से कोई मार्गदर्शन भी नहीं है. और इन दिनों तो जिस तरह की सरकारें आ रही हैं, उन्हें न ही सुना जाय तो बेहतर.


चौखम्बा में तो होटलकर्मी जोंक को मारने के लिए अपने प्रांगण में नमक का छिड़काव कर रहे थे. यह है हमारी चाहतों का विकास, लेकिन प्रकृति को यह रास आएगा या नहीं भविष्य बताएगा. आज के दिन कोई भी ग्रामीणों को यह कैसे समझा सकेगा कि जिस विकास की चाहत आप पाल रहे हैं, वह आपके विनाश की बुनियाद रख रहा है.

जंगल की सीमा में जब हमारे साथियों को पहली बार बिजली का तार दिखा तो वह जोर-जोर से चिल्लाए विकास-विकास. फिर हमें जहाँ-जहाँ नमकीन के रैपर, बीयर-शराब की बोतलें, पानी की बोतलें दीखती हम ‘विकास-विकास’ चिल्लाने लगते. एक अच्छी-भली जगह में हमें लेंटाना की झाड़ी दिखी तो हम फिर ‘विकास-विकास’ चीखे.

हम लोग नैनीताल (2084 मीटर) से स्नो व्यू (2270 मीटर) होकर कैंची धाम (1400 मीटर) के ट्रैक पर चले. पहले करीब 200 मीटर उठे और फिर 800 मीटर गिरे. बावजूद इसके मार्ग में मिलने वाली दृश्यावलियाँ आपको कहीं पर भी ऊँचाइ बदलने का अहसास नहीं होने देती. कैंची धाम तक की एकदम ढालू उतार में पैरों के नाखून जरूर चुभने लगते हैं. बारिश के कारण हमारे पैर गीले-गलगल हो चुके थे सो यह अहसास कुछ अधिक हो रहा था. फिर अब हम एकरस चीड़-वन में भी थे, जो उदासी पैदा करते हैं और विविधतावादी विचार का भी निषेध करते हैं. 

करीब 4.30 बजे हम कैंची के करीब किरौला भोजनालय में थे. यहाँ से हमने वापसी की गाड़ी पकड़ ली. और भीमताल से हल्द्वानी की ओर मुड़ते हुए जब हमने बोहराकून से हल्द्वानी नगर को देखा तो वह भी आज पुरसुकून दिलकश लग रहा था. यह भाव बदला हुआ नजरिया भी हो सकता है. हमारे भीतर का परिवर्तित भाव.
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(यात्राकार- पीयूष जोशी- हल्द्वानी, रवि मोहन-पंतनगर, विनोद जीना-हल्द्वानी, भास्कर-हल्द्वानी)


chebhaskar@gmail.com
मोब- 9456593077  

संस्मरण : मृत्यु कथा : आशुतोष भारद्वाज

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(माओवादियों का ताड़मेटला हमले की याद में बनाया स्मारक.
ये हिंदुस्तान में कहीं भी बना माओवादियों का सबसे बड़ा स्मारक है.)













इंडियन एक्सप्रेस से जुड़े पत्रकार-कथाकारआशुतोष भारद्वाज आजकल शिमला उच्च अध्ययन संस्थान में फैलो हैं. नक्सल प्रभावित इलाक़ों में फ़र्ज़ी मुठभेड़, आदिवासी संघर्ष, माओवादी विद्रोह पर नियमित लिखते रहे हैं. आशुतोष भारद्वाज ने कई बरस इन जंगलों में बिताये हैं. इन अनुभवों पर हिंदी और अंग्रेजी में लिखी गयी किताब, मृत्यु कथा/The Death Script’ का मलयालम, पंजाबी और तेलुगु में भी अनुवाद हो रहा है. इससे एक विचलित करने वाला अंश समालोचन के पाठकों के लिए यहाँ प्रस्तुत है.


पत्रकार के यथार्थबोध और कथाकार की कथा-शैली ने मिलाकर यह जो वृतांत रचा है वह दहशत पैदा करता है. एक ही देश-काल में जैसे किसी और सभ्यता की बात हम पढ़ रहे हों. इस अंश को पढ़ते हुए यह अहसास बराबर बना रहता है– “जंगल एक जानदार चीता है शहर एक पिलपिला केंचुआ.”





मृत्यु कथा                                   
आशुतोष भारद्वाज




सोलह फरवरी, दो हजार तेरह. सुबह सवा सात. बीजापुर जिले का छोटा काकलेर गाँव.

कब तक मैं इस ख़ौफ़नाक से दिखते सात आठ झोंपड़ियों वाले वीरान गाँव में बंधक बना रहूँगा? जो खाट इन्होंने मुझे दी है क्या उस पर कभी कोई दूसरा भोपाल पटनम गया होगा? खाट गयी होगी तो उसके साथ एक बकरी भी घिसटती गयी होगी. दोनों में से कोई एक ही बच पाया होगा-खाट का इंसान या बकरी? या कोई भी नहीं? खाट की जेवड़ी पर उँगलियाँ फिराते हुए मैंने चारों तरफ़ निगाह घुमाई. बकरी तो नहीं लेकिन झोंपड़ी के पीछे से निकलती आती कुछ जंगली मुर्ग़ियाँ ज़रूर कुदक रहीं थीं. आज कौन बचेगा- मैं या मुर्ग़ियाँ?

कल शाम चार क़रीब यहाँ से मोटरसाइकल पर गुज़र रहा था कि कई गाँव वालों ने रास्ता रोक लिया. उन्हें शक था मैं पुलिस मुखबिर हूँ. मैंने अख़बार का आईकार्ड दिखाया, उन्हें यक़ीन नहीं हुआ. मैं अक्सर ऐसे मौक़ों के लिए अपनी ख़बरों की ढेर सारी कतरनें लेकर चलता हूँ. लेकिन वे अंग्रेज़ी में थीं, उन्हें समझ नहीं आ रहीं थीं. शायद हिंदी भी वे नहीं समझ पाते. क़रीब दसेक लोग मुझे घेरे खड़े थे, मुझसे कहा बाइक यहीं खड़ी कर दो. मुझे किनारे हो जाने को कहा, बाइक पर टंगे मेरे बैग को टटोलने लगे- कपड़े, बिस्कुट, काम भर की दवाइयाँ. थोड़ी देर बाद कई  गाँववाले और आ गए, उनके पास धनुष, कुल्हाड़ी, भरमार बंदूक़ जैसे छोटे हथियार थे.

आप चाहें तो अपने दादा लोगों से पूछ सकते हैं, वे मुझे जानते हैं. मैंने उन नक्सली नेताओं के नाम गिनाए जिनसे पहले मिल चुका था. लेकिन वे बस्तर के दूसरे जंगलों में घूमा करते थे, इस गाँव के निवासी उन्हें नहीं जानते थे. बीहड़ जंगल में मुझे पुलिस मुखबिर समझ पहले भी कई बार रोका गया है, हर बार बच निकलने के बाद तय किया है अगली बार चेहरे पर भय की बूँद तक नहीं गिरने दूँगा. हर बार की तरह इस बार भी पूरी तरह सहज नहीं था, लेकिन नहीं चाहता था उन्हें इसका आभास हो. वे लोग मेरी बाइक को भी टटोल रहे थे. उस पर नम्बर प्लेट नहीं थी, क्या इससे उन्हें कुछ शक होगा? बस्तर में बिना नम्बरप्लेट की बाइक अमूमन पुलिसवाले ही चलाते हैं. क्या मुझे नम्बर प्लेट वाली बाइक लानी चाहिए थे? क्या इस बाइक पर पुलिस का कोई निशान बचा रह गया है? बाइक ले निकलते वक्त मुझे इसके हरेक अंग को ख़ुद ही पूरी तरह टटोल लेना चाहिए था, मेरी ही ग़लती थी.

इन दिनों इस इलाक़े में कौन से नक्सली हैं, मैंने उनसे पूछा, आप ये कतरनें और मेरा ख़त उन तक पहुँचा दें.

मैंने अपने बारे में बतलाते हुए एक ख़त लिख उन्हें दे दिया. वे राज़ी हो गए, दो-तीन लोग आगे रवाना हो गए. जब तक आगे से हरी झंडी नहीं मिलती मुझे यहीं रुकना था.

मुझे एक झोंपड़ी में ले जाया गया. शुरुआत में वे काफ़ी रूखे और कठोर थे, थोड़े खूंखार और डरावने भी, या शायद मैंने ही अपने भीतर का डर उन पर आरोपित कर दिया था. लेकिन रात तक वे सहज हो गए. कोई मेरे लिए एक खाट ले आया. नहीं तो आप कहोगे कि ज़मीन पर सुला दिया.



परसों रात बेबसी और खतरे के बीच मैंने दंडकारण्य के दो अखंड नियम तय किये थे, उनमें से एक अगली यानि कल सुबह ही तोड़ दिया, जिसकी वजह से इस वक़्त यहाँ था.

पहला:
कभी ऐसे जंगल में मोटरसाइकिल लेकर मत जाओ जहाँ रत्ती भर पगडण्डी न हो, रास्ते में नदियाँ और पहाड़ियाँधरती पर नुकीले पत्थर और पेड़ों की बीहड़ जड़ें उभरी हों, इसलिए नहीं कि अगर गाड़ी फिसली तो हड्डियाँ चटक जाएँगी, यह भी नहीं कि गाड़ी पंचर हो गयी तो ढोनी पड़ेगी क्योंकि कई बार खींच कर बहुत दूर तक ले गया हूँ, बल्कि इसलिए कि अगर गाड़ी बुरी तरह टूट गयी तो खिंचेगी भी नहीं, अंजर पंजर हालत में उसे वहीं छोड़ कर आने का मन भी आसानी से नहीं बना पाओगे.
दूसरा: 
जंगल में एकदम खुले में रात मत बिताओ, भले कितनी देर चलना पड़े लेकिन किसी छत, कच्ची और टूटी ही सही, के नीचे पहुँच जाओ.

परसों सुबह बीजापुर से निकला, दिन भर बाइक चला कर शाम को फरसेगढ़ पहुंचा. उससे पिछली सुबह दंतेवाड़ा से निकला, जंगलों में घूमता शाम को बीजापुर पहुँचा था. ख़बर मिली थी कि सेंड्रा में गडचिरोली सीमा पर  कोई बड़ी भारी बैठक होने वाली है माओवादियों की. फरसेगढ़ पर सलाह दी गयी थी आगे बाइक का रास्ता एकदम नहीं है, सेंड्रा तक सिर्फ़ जंगल बिखरा है, कच्ची पगडंडी भी नहीं मिलेगी. ऐसी सलाह लेकिन कब और कहाँ मानी जाती हैं. दिन की रोशनी ख़त्म होने में अभी देर थी. हाहाकर मचाते वृक्षों औरझाड़ियों के बीच कभी हिनहिनाती कभी मिमियाती गाड़ी घंटे भर घसीटने के बाद एक गंजी नदी आयी जिसकी चांद शायद बचपन में ही सफ़ाचट कर दी गयी थी. जंगल में एक घाटीनुमा खायी के बीच फैला रेत का दरिया.

बाइक नीचे उतर तो गयी, लेकिन ऊपर चढ़ने में बालू में फ़ंस गयी. चढ़ाई और बालू इतनी घातक कि पहले गेयर में पूरी स्पीड देने पर भी गाड़ी रत्ती भर न हिले, वहीं फ़ंसी हुई हिनहिनाए. चढ़ायी तीखी थी, पूरी जान लगा दी, एक हाथ बाइक खिंच पाती, फिर नीचे ढुलक जाती.फ़रवरी की सर्दी, लेकिन आधे घंटे में  क़मीज़ तर हो गयी.ख़ुद को कोसा ये कब समझ आएगा कि जंगल का जहाज़ मोटरसाइकल नहीं साइकल होती है.

रोशनी कम हो रही थी, लगा इसे यहीं छोड़ रात कहीं रुकने का ठौर खोजा जाये.इसे कोई ले तो नहीं जाएगा? जिससे माँग कर लाया था उसे क्या कहूँगा?

बाइक की चौकीदारी करते हुए वहीं किसी पेड़ के नीचे पसर गया. लेकिन जंगली जानवर का ख़तरा, नींद कैसे आएगी. दो-ढाई घंटे बाद साढ़े आठ क़रीब शुरू से ही भीतर बुदबुदाता विचार पुख़्ता हुआ कि यहाँ रात बिताना महाकाव्यात्मक मूर्खता है. जहाँ दूर तक कोई इंसान न हो कौन इस आफ़त को लेने आएगा, इस ख़याल की पीठ पर बाइक को वहींछोड़ बैग पीठ पर टाँग चलना शुरू किया, कई रास्ते खो देने और पा लेने के बीच क़रीब ढाई घंटे में फरसेगढ़ के सरकारी स्कूल पर पहुँचा.अगली सुबह स्कूल के चौकीदार मनोज मंडावी और दो विद्यार्थियों को साथ लेकर गंजी नदी तक आया, बाइक को खींच कर निकाला. मैंने ग़लत रास्ता लिया था, मनोज ने बताया, यह रास्ता सेंड्रा नहीं जाता.

क़ायदे से मुझे अब वापस लौट जाना चाहिए था. यह जंगल बाइक के लिए नहीं था लेकिन रात का सबक़ अगर सुबह होते ही भुला न दिया जाए तो जीवन में नमक कैसे आएगा.

सेंड्रा हो आया, माओवादी बैठक नहीं मिली, इस वक़्त सेंड्रा के पास छोटा काकलेर में रिहाई के संदेसे के इंतज़ार में हूँ.

कई लोग मेरी फ़िक्र कर रहे होंगे. जया जी (जया जादवानी) के बेटे की शादी कल है, मुझे वहाँ होना था.उस पुलिसवाले की बाइक जो मैं सिर्फ़ एक दिन के लिए कहकर लेकर आया था.और दंतेवाड़ा के सर्किट हाउस का केयरटेकर पिछले तीन दिनों से मेरा कमरा बंद है, चाभी मेरे पास. मेरा लैपटॉप कमरे में.

जंगल के अप्रत्याशित जोखिम के सामने शहर का सुरक्षित जीवन मरियल, मुर्दार और मुरझाया हुआ लगता है. जंगल एक जानदार चीता. शहर एक पिलपिला केंचुआ.

पिछली चार रातें चार जगहों पर दंतेवाड़ा, बीजापुर, फरसेगढ़ और छोटा काकलेर. आख़िरी तीन अप्रत्याशित. आख़िरी दो तो रात गिरने से ठीक पहले तय हुईं.

परसों देर रात जब फरसेगढ़ के प्राथमिक स्कूल आदर्श बालक आश्रम पहुँचा तो मनोज महुए में धुत पड़ा था. आँखें जल रहीं थीं. लेकिन उसे इतना होश था कि जब मैंने अपना आईकार्ड दिखाते हुए रात भर रुकने की जगह माँगी तो उसने तुरंत कहा एक शर्त है. आप रायपुर में लोगों को जानते होंगे. इस स्कूल में सौ बच्चे हैं, एक भी बाथरूम नहीं. आपको यहाँ बाथरूम बनवाना पड़ेगा. वह सिर्फ़ बाथरूम की कहता था, जबकि बच्चों की क्लास टीन की चादर के नीचे चलती थी. कोई कमरा नहीं.

छोटा काकलेर फरसेगढ़ से क़रीब बीसेक किलोमीटर अंदर जंगल में है. फरसेगढ़ में पुलिस का आख़िरी थाना, सीआरपीएफ की आख़िरी चौकी. यह स्कूल भारत सरकार का आख़िरी निशान. इसके बाद वह इलाक़ा शुरू होता है जहाँ अनेक सालों से सत्ता का कोई चिन्ह नहीं.

छोटा काकलेर के जिन युवकों ने मुझे रोक रखा है, वे लगभग निरक्षर हैं. सैकड़ों वर्ग किलोमीटर तक फैले इलाक़े में कोई स्कूल, चिकित्सा केंद्र, नरेगा की स्कीम नहीं. तेंदू पत्ता पर सरकारी बोनस भी नहीं. वारंगल से आन्ध्र के व्यापारी तेंदू पत्ता के दिनों में आते हैं, एक सौ बीस रुपए पर तेंदू पत्ता की एक गड्डी.तेंदू पत्ता और महुए से सात-आठ लोगों के एक परिवार की सालाना आमदनी छ हज़ार रुपया.

ये युवक साल में दो-तीन महीने आन्ध्र जाते हैं. दिहाड़ी मज़दूर बतौर काम करते हैं छह हज़ार रुपए महीना, एक कोठरी में रहने, खाने और निबटने की जगह. हफ़्ते में एक बार मुर्ग़ा.

अब ये युवक मुझसे खुलने लगे हैं. सत्यम ख़ुर्राम मेरे एक प्रश्न पर मुझे एक कथा सुनाते हैं.

अगर किसी को आकस्मिक चिकित्सा की ज़रूरत पड़े तो आप क्या करते हो?

अमूमन तो सोच लेते हैं कि हो गया काम ख़त्म, यहीं मर जाने देते हैं लेकिन कभी लगता है कि बचाना ज़रूरी है तो एक खाट तैयार करते हैं और एक हट्टी- कट्टी बकरी.

बकरी? खाट पर?

नहीं, खाट पर मरीज को लिटाते हैं, बकरी के गले में रस्सी बाँध उसे ले चलते हैं. पूरा दिन चल जंगल पार कर भोपालपटनम आता है. बकरी तंदरुस्त हुई तो छह हज़ार मिल जाते हैं, इलाज हो जाता है.

और अगर मरीज की हालत बहुत ख़राब हुई, इतने लम्बे रास्ते में कुछ हो गया, या भोपालपटनम के उस मरियल से सरकारी स्वास्थ्य केंद्र में ही आदमी खेल गया तो?

फिर क्या, एक दूसरा युवक जवाब देता है. बकरी तो फिर भी बिकेगी. ख़ूब सारी शराब आ जाती है.

सेंड्रा आज बीहड़ लिबरेटेड जोनहै, लेकिन फरसेगढ़ स्कूल के मास्टरजी टी कंटैय्या ने मुझे बताया था कभी सेंड्रा शहर की तरह हुआ करता था. मैं यहाँ के लिए निकलने से पहले इसे टटोल रहा था तो सरकारी काग़ज़ों में सेंड्रा में एक फ़ॉरेस्ट रेस्टहाउस होना दर्ज था, यानिअधिकारी इतनी दूर जाते थे, वहाँ रुका करते थे. लेकिन ये अंग्रेज़ हुकूमत और मध्य प्रदेश सरकार के चिन्ह हैं, छत्तीसगढ़ सरकार अभी तक यहाँ नहीं पहुँची. मैं सेंड्रा तक गया लेकिन रेस्टहाउस नहीं मिला.

इस राज्य को बने तेरह साल हो गए, लेकिन जंग लगे सरकारी फट्टों पर पर अभी भी मध्य प्रदेशलिखा है. सागमेट्टा गाँव के क़रीब इंद्रावती राष्ट्रीय उद्यान के एक फट्टे पर मध्य प्रदेश वनविभागदर्ज है. सागमेट्टा के निवासी दुर्गम मल्लाया बताते हैं कि यहाँ के लोग दूर आन्ध्र और हैदराबाद चले जाते हैं, लेकिन छत्तीसगढ़ के नज़दीकी शहरों में उनके क़दम नहीं पड़ते. किसी निवासी का अपने राज्य पर इतना घनघोर अविश्वास एक अद्भुत घटना है.

मल्लाया म्हार हैं, अम्बेडकर की जाति.उन्हें याद नहीं उनके पूर्वज महाराष्ट्र से यहाँ कब, कैसे आए.

सत्ता की इनकी एकमात्र स्मृति सलवा ज़ुडुम की है जब जुडुम नेताओं के साथ पुलिस यहाँ आयी थीभीषण युद्ध शुरू हुआ था.फरसेगढ़ से थोड़ा पहले कुटरू है जहाँ ज़ुडुम के शुरुआती कारनामे दर्ज हुए थे. कुटरू थाने के ठीक सामने छत्तीसगढ़ में जुडुम का शायद सबसे पहला स्मारक है. सलवा जुडुम शहीद स्मारक. शहीदों को शत् शत् नमन. स्थापना ४जून, २००५.इस स्मारक की तस्वीर लेते हुए मुझे गोटा चिन्ना की याद आयी. वे इसी इलाक़े के आरम्भिक जुडुम नेताओं में थेपिछले दिसम्बर माओवादियों ने उनकी हत्या कर दी.गाँव वालों को नक्सलियों से कोई ख़ास मुहब्बत नहीं लेकिन वे इस हत्या पर उछल पड़े.

इसी स्मारक के पास एक परचूने की छोटी सी दुकान है जहाँ सिर्फ़ एक पोस्टर लगा है रामदेव का. पतंजलि का सामान यहाँ भी मिलता है. पोस्टर आह्वान करता है जगदलपुर चलो.बाईस, तेईस, चौबीस फ़रवरी को जगदलपुर में निशुल्क योग ज्ञान शिविर. यह फ़रवरी दो हज़ार तेरह है. बस्तर की सबसे अंदरूनी जगहों पर यह व्यापारी बाबा पहुँच गया है, जबकि केंद्रमें इसकी पसंदीदा सरकार की इस वक़्त कोई आहट नहीं है. इतने कम समय में इस व्यापारी का इतना गहरा सांस्कृतिक-राजनैतिक प्रभाव एक विलक्षण समाजशास्त्रीय घटना है.
(छोटा काकलेर गाँव में कोटेश्वरा राव का स्मारक. 
लेखक आशुतोष भारद्वाज इसी स्मारक की तस्वीर ले रहे थे जब गाँववालों ने उन्हें घेर लिया था.)

कुटरू से पहले रानी बोदली जहाँ भारत के इतिहास में माओवादियों का दूसरा सबसे भीषण हमला हुआ था, २००७ में पचपन पुलिसवाले मारे गए थे. मैं आते वक़्त वहाँ रुका था. इस हमले की पुरानी तस्वीरें याद आयीं --- जमीन पर लाश बिखरी हैं, कॉपी हाथ में लिए दो पुलिसवाले उनकी गिनती और उन्हें पहचानने की कोशिश कर रहे हैं. दंतेवाड़ा के साथी पत्रकार सुरेश महापात्रा ने कभी बताया था कि जब वह इन लाशों पर ख़बर करने यहाँ आएथे, सड़ चुकी अधजली लाशों की तस्वीरें लीं तो उन्हें लगा कि दुनिया में कुछ देखना नहीं बचा अब: मुझे लगा कि हो गया बस.

तब तक मैंने ख़बरनवीसी शुरू भी नहीं की थी, रत्ती भर अंदेशा नहीं था कभी मृत्यु मुझे बुलाएगी, मैं इस जगह आऊँगा.रानी बोदली पर देर तक खड़ा रहता हूँ. माओवादियों के दस्तावेज़ मेंकितने विस्तार से इस हमले का और अपने गुरिल्ला साथियों के बलिदान का ज़िक्र हुआ है.

सत्ता भी अपने बलिदान याद करती है. राज्य में चुनाव नवम्बर में हैं, क़वायद शुरू हो चुकी है. हाल ही बीजापुर में एक सभा में कांग्रेस के पोस्टर लहराते थे — “इंदिरा, राजीव का बलिदान याद रखेगा हिंदुस्तान.

जंगल के निवासियों को इन बलिदानियों का नाम भी नहीं मालूम, यह भी नहीं कि इनके बलिदान का दंडकारण्य से क्या सम्बंध है. राजनीति और सत्ता का इनसे तलाक़ लगभग सम्पूर्ण है.

लेकिन बकरी?



(दो)

रानी बोदली अकेला नहीं है. बस्तर मृत्यु का अजायबघर है. पुलिस, माओवादी, नागरिक, जुडुम नेता सबने अपनी मृत्यु को ईंट और पत्थर में दर्ज कर दिया है.छोटा काकलेर में मैं इसलिए ही फ़ंस गया था कि एक मृत्यु ने मुझे थाम लिया था. बाइक से गुज़रते में निगाह गयी थी  —- पेड़ों के झुरमुट के बीच लाल रंग के दो स्मारक धूप में चमक रहे थे.उनकेचारों तरफ़ ताज़ा पुती ईंटों की क़तार बिछी हुईं थीं, मसलन वहाँ मेला सा लगता हो. यह स्मारक किसके होंगे? नज़दीक गया, बाइक खड़ी की. एक स्मारक

सीपीआई माओवादी की पोलितब्युरो के सदस्य मल्लोजुला कोटेश्वरा राव उर्फ़ किशनजी की याद में था जो सीआरपीएफ के साथ  नवंबर ग्यारह की मुठभेड़ में मारे गए थे, दूसरा इंद्रावती नैशनल पार्क की एरिया कमेटी सदस्य कवासी गोविंद का जो मार्च बारह में ख़त्म हुए थे.

कई सारी तस्वीरें लीं. स्मारकों के चारों तरफ़ घूम कर देखा. उनके प्लेटफ़ॉर्म पर चढ़ा. मुझसे क़रीब ढाई गुना ऊँचे यानी क़रीब पंद्रह फ़ीट ऊँचे स्मारक. क़रीब दसेक मिनट उन्हें छूता-टटोलता रहा. इस बीच किसी ग्रामीण की निगाह मुझ पर पड़ गयी. जल्द ही कई सारे लोग इकट्ठे हो गए, मुझे घेर लिया.

माओवादियों का सबसे महाकाय स्मारक सुकमा ज़िले के भीषण जंगल में है. दो हज़ार बारह की जनवरी में उस जंगल को साइकल से कुरेदते हुए अचानक एक लाल क़ुतुबमीनार सामने आ गयी थी. माओवादी क्रान्ति के इतिहास में ताड़मेटला सबसे दुर्दांत हमला. सुरक्षा बल के छिहत्तर सिपाही लील गया. उसमें मारे गए आठ गुरिल्ला लड़ाकों के नाम इस स्मारक परलिखे हुए थे. माओवादी दस्तावेज़ बताते हैं इस हमले में २१ एके-४७, ४२ इंसास रायफल, छः लाइट मशीन गन, सात एसएलआर रायफल, एक नौ एमएम स्टेनगन, ३१२२ कारतूस, ३९ ग्रेनेडसमेत तमाम चीज़ें गुरिल्ला लड़ाकों ने मुर्दा ख़ाकीधारियों से छीन लीं थीं.

अरसा बाद मुझे किसी आईएएस अधिकारी ने बताया कि एक बार जब वे उस जगह का हवाई दौरा कर रहे थे तो हैलिकॉप्टर से दिखती उस मीनार को देख भौंचक थे कि इस जंगल में जहाँ सबसे नज़दीकी परचूने की दुकान भी कई घंटे दूर है, ईंट और गारे लाने के लिए तो दिन भर का रास्ता होगा, लेकिन लाया किस रास्ते से जाएगा? चारों तरफ़ तो पुलिस लगी है.

पुलिस ने भी अपने साथियों की याद में भरपेट स्मारक बनाए हैं. सुकमा जिले में एर्राबोर थाने के पास करीब दर्जन भर मूर्तियाँ लगी हैं पुलिसवालों की. एक सीधी लकीर में वर्दीधारी मूर्तियाँ. हाथ में रायफल.

मूर्तियाँ दिन भर धूप में चमकती रहती हैं. सभी के चेहरे एक जैसे लगते हैं.क्या मृत्यु सिर्फ़ एक ही होती है, उसके बाद सिर्फ़ उसे दोहराया जाता है? इन सभी मूर्तियों की कलाई पर घड़ी बंधी है. इन घड़ियों की सुइयां भी एक ही जगह टिकी हैं. क्या मृत्यु अपना वक्त चुनने में भेदभाव नहीं करती?



(तीन)

मृत्यु को पत्थर पर सहेज रखना बस्तर की परम्परा, शायद व्यसन भी है. पूरे बस्तर में स्मृति-स्तम्भ लगे हुए हैं, पत्थर और लकड़ी के. जंगल के निवासी अपने मृतकों की याद में उनकी क़ब्र पर लगा देते हैं. उन पर अद्भुत चित्रकारी करते हैं. मृतक के जीवन को बतलाते चित्र.इन चित्रों के चेहरे भी अक्सर एक जैसे दिखते हैं. मसलन नरसू मंडावी और लच्छू कश्यप डेढ़ सौ  मील की दूरी पर दफ़न हुए, लेकिन उनके स्मृति पत्थरों पर दर्ज चेहरे एक जैसे ही हैं. क्या बस्तर का मृत्यु-चित्रकार सिर्फ़ एक ही चेहरा उकेरना जानता है या उसे मृत्यु का चेहराहमेशा एक सा ही दिखता है? या मृत्यु का चेहरा होता ही एक है, दोहराया भले कई जगह जाता है.

हर जगह ये स्तम्भ दिखते हैं, लेकिन कभी उनका कोई प्रियजन वहाँ बैठा उन्हें याद करता, उनके मृत्यु दिन पर वहाँ आता, फूल चढ़ाता नहीं दिखाई देता. मृत्यु का शृंगार कर उसे वहाँ बसा कर चित्रकार भूल गया है, मृत्यु ख़ुद ही पलती-पनपती रहती है.


मृत्यु-पत्थर का सबसे विकट चेहरा महेंद्र कर्मा के पुश्तैनी गाँव फरसपाल से बाहर निकलते ही दिखता है. कर्मा के घर के बाहर उनकी विशाल मूर्ति है, करीब सौ हाथ ऊँची जिस पर सूख चुके फूलों की माला झूलती रहती है. थोड़ा आगे जा सड़क के दोनों तरफ उनके परिवार के दर्जनों स्तम्भ लगे हुए हैं. न मालूम कितनों का खून यहाँ दर्ज है.


क्या बस्तर के माओवादी इतिहास को, मृत्यु के अजायबघर कोमहेंद्र कर्माके घर की छत से देखा जा सकता है? बस्तर में नक्सलियों के पनपने की अनेक वजहें हैं, लेकिन विचित्र विडम्बना है कि कर्मा जो आंध्र से आये गुरिल्ला लड़ाकों को  को बस्तर से उखाड़ फेंकना चाहते थे वे ही उनके विस्तार की बहुत बड़ी वजह बने.

नब्बे के दशक में उन्होंने नक्सलियों के विरुद्ध जन जागरण अभियान चलाया, जिसके बाद गुरिल्ला गतिविधियों में तेज़ी आयी, फिर दो हज़ार पाँच में उन्होंने सलवा जुडुम शुरू किया और अब माओवादियों के दस्तों में चोट खाए जंगल के निवासी आ जुड़े, गुरिल्ला लड़ाके अविजित दिखाई देने लगे.

कर्मा का राजनैतिक जीवन दिलचस्प है. वे  ख़ालिस आदिवासी नेता थे, जंगल के निवासी. बस्तर से बाहर न उनकी पहुँच थी, न उन्होंने बनानी चाही. लेकिन  बस्तर के आकाश पर जहाँ भी निगाह जाये वे एक विराट औपन्यासिक किरदार की तरह दिखाई दे जाते हैं.

कभी कट्टर कम्युनिस्ट रहे उन्होंने अपना राजनैतिक जीवन १९८० के दशक में बतौर सीपीआई एमएलए शुरू किया था. अगला चुनाव उन्होंने अपने कांग्रेसी बड़े भाई लक्ष्मण कर्मा के विरुद्ध हारा. बाद में वे कांग्रेस में शामिल हुए लेकिनदिलचस्प है कि एक ऐसे मसले पर पार्टी छोड़ दी जिससे बस्तर में आदिवासियों का जीवन काफ़ी स्वायत्त हो जाता, बाहरीशक्तियों मसलन सरकार और व्यापार का हस्तक्षेप बहुत कम हो जाता. जब दिग्विजय सिंह की मध्य प्रदेश सरकार ने बस्तर को संविधान की छठी अनुसूची में लाने की बात की कि इससे उत्तरपूर्व भारत की तरह बस्तर के आदिवासियों को अधिक अधिकार मिल जाएँगे तो कर्मा ने इसका विरोध यह दिलचस्प तर्क देकर किया कि इससे नक्सलियों को फ़ायदा होगा.जब बस्तर में छठी अनुसूची के लिए ज़बरदस्त माहौल था, कर्मा ने कांग्रेस छोड़ी, बतौर निर्दलीय सिर्फ़ इसके विरोध पर १९९६ का लोक सभा चुनाव लड़ा और जीत भी गए, हालाँकि बाद में फिर कांग्रेस चले गए.

बस्तर में छठी अनुसूची के लिए लड़ाई आज भी जारी है.

दंतेवाड़ा और सुकमा कभी कर्मा के अभेद्य क़िले थे. यहाँ पर नक्सलियों के फैलते क़दमों को उखाड़ फेंकने के लिए उन्होंने लड़ाइयाँ लड़ीं, और यही इलाक़े गुरिल्ला लड़ाके का दुर्ग बनतेगए. इतिहास की द्वंद्वात्मकता मनुष्य के साथ दिलचस्प खेल खेलती है. कर्मा कमज़ोर पड़ते गए, माओवादी अजेय होते गए, और जहाँ राजनीति कभी कांग्रेस और सीपीआई के बीच हुआकरती थी, वहाँ भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आ गए. इस तरह बस्तर एक अद्भुत इलाक़ा बना जहाँ क्रांतिकारी वामपंथ और दक्षिणपंथ का उत्थान लगभग एक साथ हुआ. 


भाजपा ने चुनाव मेंस्थानीय गुरिल्ला लड़ाकों की मदद ली, लड़ाकों को भी सबसे पहले अपने विकराल शत्रु कर्मा से निबटना था, उन्हें अपने कट्टर वैचारिक विरोधी भाजपा की सहायता करने में कोई संकोचनहीं हुआ. २००८ के विधान सभा चुनाव में बस्तर की बारह सीट में से ग्यारह भाजपा जीत गयी, एक ऐसे वक़्त जब माओवादी क्रांतिकारी अपने उत्कर्ष पर थे, उनकी हिंसा का कोई तोड़ नहींदिखता था, वे लगभग जहाँ चाहे वहाँ भीषण हमला करने में सक्षम थे.

कर्मा २००८ का ऐतिहासिक चुनाव कर्मा अपने घर दंतेवाड़ा में बुरी तरह हारे, भाजपा और सीपीआई के बाद तीसरे स्थान पर रहे. यह चुनाव सलवा जुडुम की विकराल हिंसा की छाती परलड़ा गया था. जुडुम के दौरान भाजपा सरकार ने कांग्रेसी कर्मा को बेतहाशा समर्थन किया था, असलहे और धन दोनों से. अपनी ताक़त के नशीले महुए में डूबे कर्मा बस्तर टाइगर कहलाते थे, नक्सलियों के ख़िलाफ़ उन्मादे आदिवासी लड़ाकों  की ख़ूँख़ार फ़ौज खड़ी कर रहे थे. कर्मा को रमन सिंह का तेरहवाँ मंत्री कहा जाने लगा था. लेकिन जब जुडुम की चौतरफा आलोचना होने लगी तो भाजपा ने कर्मा से पल्ला झाड़ा, सारा ठीकरा उनके सिर.

पापा ने भाजपा से समर्थन ले ग़लत किया था. ये हम आदिवासियों की लड़ाई थी, हमें लड़नी थी. भाजपा ने पापा को यूज किया,”कर्मा के बड़े बेटे दीपक ने बहुत बाद में मुझे बतलाया.

२००८ का दंतेवाड़ा चुनाव माओवादी जंग के फ़रेबी लहू का विराट मानचित्र बनाता है. कर्मा के समर्थक कई सालों से आरोप लगाते थे कि भाजपा नक्सली से गले मिल गयी, और दोनों ने मिल अपने दुश्मन को ध्वस्त किया. नवम्बर २०१३ के चुनाव से ठीक पहले माओवादी पुड़ियम लिंगा की भाजपा नेता शिव दयाल सिंह तोमर की हत्या के जुर्म में गिरफ़्तारी हुई, और उसने दंतेवाड़ा पुलिस कप्तान नरेन्द्र खरे और सीआरपीएफ अधिकारियों की उपस्थिति में मीडिया के सामने उस राज को खोला जिसे सभी अरसे से जानते थे कि उसने दंतेवाड़ा के भाजपा प्रत्याशी और अपने चाचा भीमा मंडावी को २००८ के चुनाव में मदद की थी. दिलचस्प है कि इस ख़बरनवीस के सामने मंडावी ने लिंगा की सहायता लेना तो नहीं स्वीकारा, लेकिन यह कहा कि लिंगा उनके गाँव तोयलंका का निवासी है और उसने २०११ के एक उपचुनाव में भाजपा के लिए काम किया था, जो भाजपा ने जीता भी था.

दंडकारण्य में क्रांति और राजनीति, वाम और दक्षिण की रेखाएँ धुँधला जाती हैं. शायद जंग फ़रेब की बुनियाद पर ही लड़ी जाती है, महाभारत का रचयिता बहुत पहले ही बतला गया है.



(चार)
कर्मा के बग़ैर बस्तर का माओवादी विद्रोह क्या आकार लेता इसका सिर्फ़ क़यास ही लगाया जा सकता है. शायद क़यास भी सम्भव भी नहीं.

मैं उनसे कई मर्तबा मिला था, जुडुम की ज़्यादतियों का ज़िक्र होते ही हर बार वे कहते थे-  ये हमारा, हम आदिवासियों का बस्तर है. नक्सली हमारी ज़मीन पर क्यों आए?

उनके किरदार की विलक्षण औपन्यासिकता का एहसास मुझे उनकी हत्या के कुछ महीने बाद यानी नवम्बर दो हजार तेरह के विधान सभा चुनाव के दौरान हुआ. उनकी पत्नी देवती दंतेवाड़ा से चुनाव लड़ रही थीं जहाँ से कभी कर्मा विधायक रहे थे. सिर्फ गोंडी बोलने वाली देवती की राजनीति या अपने शौहर के  कारनामों में कभी कोई दिलचस्पी नहीं थी. बरसों पहले जब उनके शौहर और बेटे दक्षिण बस्तर के जंगलों में रायफलें लेकर माओवाद को बस्तर से खत्म कर देने के नाम पर क्या कुछ नहीं उजाड़ रहे थे, वे अपने घर में बेखबर रही आती थीं.

क्या उन्होंने सोचा था कि एक दिन वे कर्मा की सीट दंतेवाड़ा पर नामांकन का अपना पर्चा दाख़िल करने  कलक्टर कार्यालय जाएँगी? आकाश पर स्याह बादल. चारों तरफ़ से एके-४७धारी पुलिसवालों से घिरी कलफ़ लगी सफेद साड़ी के पल्लू को सम्भालती एक दुबली औरत कार्यालय से निकलती आ रही है. उनके दबंग बेटे काले चश्मे पहने, महँगे मोबाइल फ़ोनकान से लगाये उनके साथ चल रहे हैं. दंतेवाड़ा में चर्चा में है कि अगर वे जीतीं तो यहाँ से पाँच विधायक होंगे.

कर्मा के चारों बेटे —- दीपक, छविंद्र, देवराज और आशीष —- और देवकी के पास ज़ेड प्लस सुरक्षा है. उन सबके नाम नक्सलियों का फरमान है, सब घोषित तौर पर नक्सलियों की हिटलिस्ट में हैं. हिंदुस्तान का शायद अकेला ऐसा परिवार जिसके पाँच सदस्यों के पास ज़ेड प्लस सुरक्षा है. दो बेटियाँ भी हैं, सुलोचना और तूलिका.

पिता की ही तरह संतान हैं. मृत्यु का खौफ पेट से ही लेकर नहीं आये. पूरा परिवार दशकों से रायफलों के साथ जीता आया है. सिवाय आशीष के. कर्मा ने अपने तीसरे और पढाई में सबसेहोशियार बेटे को जल्दी ही दिल्ली भेज दिया था, वह दिल्ली पब्लिक स्कूल में पढ़े, फिर दिल्ली यूनिवर्सिटी में. कुछ महीने पहले तक वह सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी कर रहे थे, परिवार का सपना था एक बेटा कलक्टर बनेगा. कर्मा की मई में हत्या हो गयी, आशीष दंतेवाड़ा लौट आए. क्या होगा? मारे ही तो जायेंगे. हमारे भीतर का डर मर चुका है. यह हमारी जमीन है. हमें यह वापस चाहिए,” आशीषकी कसी हुई टी-शर्ट में मांसपेशियां चमकती हैं.

मैं नवम्बर की एक दोपहर दीपक के साथ चुनाव प्रचार में दंतेवाड़ा घूम रहा हूँ. हम स्कोर्पियो में हैं, हमारी गाड़ी में  छः एके -४७ धारी जवान बैठे हैं. बंदूकधारी जवानों की एक गाड़ी हमारे पीछे है, एक आगे. पूरे रास्ते हरेक तीन-चार सौ मीटर पर पुलिसवाले खड़े हैं. अचानक दीपक ड्राइवर को कच्ची सड़क पर उतार देने को कहते हैं. राइफ़लधारी लगभग घबरा कर पीछे मुड़ कर देखता है उसकी निगाहों में प्रश्न है. यहाँ क्यों सर?

दीपक ड्राइवर से फिर कहते हैं दाहिने मुड़ लो.

बॉस की बात माननी ही पड़ेगी. आगे बैठा पुलिसवाला माथे का पसीना पौंछता है, वाकी-टाकी से आगे चल रही हथियारबंद गाड़ी को फ़ोन करता है कि हमने रास्ता बदल लिया है, पीछे मुड़ कर आ जाओ.

सभी पुलिसवाले अचानक मुस्तैद हो गए हैं. कच्ची सड़क जंगल की तरफ जा रही है, अनजान रास्ते न मालूम क्या मिलेगा, बारूदी विस्फोट से गाड़ी उड़ भी सकती है. पुलिस की गाड़ी इसी तरह नक्सली हमले का शिकार बनती हैं जब वे अचानक से कोई नया रास्ता चुन लेते हैं. कर्मा परिवार जब दंतेवाड़ा से अपने गाँव फरसपाल जाता है, सबसे पहले पुलिस की रोड ओपनिंग पार्टी निकलती है, रास्ता साफ़ करती है, उसके बाद गाड़ी निकलती है.आज भी दीपक के चुनावी दौरे के लिए रूट तय था. रूट की जानकारी ज़िले के एसपी को पहले से दी जाती है, उसके बाद वो रास्ता साफ़ कराया जाता है. पुलिसवाले अक्सर शिकायत करते हैं कि कर्मा के लड़के बेवजह रास्ता बदलवाते हैं, किसी दिन कुछ हो गया तो सारा ठीकरा पुलिस के सिर फूटेगा कि उन्होंने बग़ैर रोड ओपनिंग हुई सड़क पर गाड़ी क्यों उतार दी.

लेकिन दीपक को कोई फ़िक्र नहीं. वे मुझे एक गाँव में ले जाना चाहते हैं, कुछ दिखाना चाहते हैं.

इसके डेढ़ साल बाद दो हज़ार पंद्रह की गरमियों में हवा उबल रही है कि जुडुम पार्ट-टू शुरू हो रहा है. ठीक दस साल पहले यानी २००५ की गरमियों में महेंद्र कर्मा थे, इस बार उनका दूसरा बेटा छविन्द्र है. पिछली बार बस्तर में आ रहे टाटा के लौह संयंत्र की चर्चा थी, इस बार ख़ुद प्रधानमंत्री एक लौह संयंत्र का उद्घाटन करने आए हैं. निजी कम्पनियों के साथ मिलकरक्या फिर से जंगल का सफ़ाया होना है?

बस्तर के तीन जिलों में कर्मा के तीन सेनापति थे जो जुडुम की लड़ाई लड़ रहे थे. सुकमा में सोयम मूका, दंतेवाड़ा में चैतराम अट्टामी, बीजापुर में महादेव राणा. राणा की हत्या बहुत पहले होगयी, चैतराम अपने गाँव से करीब एक दशक पहले उजड़ गए, उसके बाद सलवा जुडुम शरणार्थियों के कैंप में रहते हैं. मूका भी सलवा जुडुम के दौरान उजड़ गए थे.

हम मई की इस दोपहर जगदलपुर में बैठे हैं. मूका और छविंद्र में बहस हो रही है किसके घर में सबसे अधिक नक्सली हमले और हत्या हुई हैं. दंडकारण्य में मृत्यु एक तमग़ा है, लाश एक व्यसन.

मूका जोर देकर कहते हैं कि इस जंग में सबसे अधिक उनके रिश्तेदार मारे गये हैं. अगर आपको भरोसा नहीं होता तो तहसील कार्यालय के कागज देख लीजिये,”उनकी आवाज डबडबाती है जब वे अपने मृत बड़े भाई सोयम मुकेश को याद करते हैं. मूका एक प्राथमिक स्कूल में शिक्षक थे, चैन से जी रहे थे कि उनके मामा महेंद्र कर्मा ने उन्हें बंदूक थमा दी कि नक्सलियों को ख़त्म करना है. ठीक दस साल बाद इन गर्मियों में कर्मा का बेटा उन्हें एक नया आन्दोलन शुरू करने के लिए उकसा रहा है, लेकिन मूका की बन्दूक ठंडी पड़ चुकी है.

उनकी (कर्मा) हत्या के बाद मेरा भरोसा उठ गया. जब वे जिन्दा थे मुझे लगता था हम मौत को पछाड़ सकते हैं...कर्मा कहते थे कि जिन्दा रहना है तो दुश्मन की खबर और दुश्मन से दूरी दोनों जरुरी है.

छविन्द्र उनके पास बैठे मुस्कुरा रहे हैं. वह मूका को चिढ़ाते हैं, जो छविन्द्र की दूर की बहन से ब्याहे हैं. इन्हें कुछ नहीं होगाये इतने बेशर्म हैं कि इनका विकिट नहीं गिर रहा,” छविन्द्र अपने बहनोई को छेड़ते हैं. भाई को अपनी बहन के विधवा हो जाने की कतई फ़िक्र नहीं. सुनते हैं कुछ लोग मृत्यु को हथेली पर लेकर चलते हैं, बस्तर में मृत्यु इन्सान की पलकों पर टिकी रहती है.

मूका छविन्द्र के ताने सुन खिसियाते हैं. एक समय जुडुम के करीब सौ प्रमुख नेता हुआ करते थे. आज सिर्फ करीब पन्द्रह बचे हैं, इसके लगभग सभी संस्थापक नेता मारे जा चुके हैं.

एक अन्य वरिष्ठ नेता सत्तार अली कहते हैं उन्होंने करीब सौ दोस्त खो दिए हैं. एक बार नक्सलियों ने उनके घर पर हमला किया था. एक गोली उनकी पीठ में लगी, उनके कंधे को चीरती हुईपास खड़े भाई के भीतर घुस गयी. आपको भरोसा न हो तो अपनी क़मीज़ उतार कर गोली का निशान दिखाऊँ?”

सत्तार कर्मा की गाड़ी में थे जब माओवादियों ने मई दो हजार तेरह में सुकमा से रायपुर लौटते कांग्रेस के काफिले पर भीषण हमला किया था (मुझे इस काफिले में होना था, कांग्रेस की सुकमा में चुनावी सभा पर रिपोर्टिंग करनी थी, लेकिन ऐन वक्त पर मुझे कोई दूसरा काम आ गया). दोनों तरफ से गोलियां चलीं, लेकिन माओवादियों ने चारों तरफ से घेर लिया था. सरकारी काफिले का असलहा ख़त्म हो रहा था, गुरिल्ला लड़ाकों का निशाना सिर्फ कर्मा थे लेकिन गोलियों के फव्वारे में एकदम निर्दोष कांग्रेसी नेता मर रहे थे. हम दोनों जीप के पीछे दुबके थे. कर्मा चाहते तो बच कर निकलने की सोच सकते थे. लेकिन गोलियां चलीं, तो वे बाहर निकल आये. उन्होंने अपनी जान दे दी, हम सबको बचा दिया.

चेतराम अट्टामी जिन पर पुलिस के साथ मिल जंगल के गाँव जलाने के तमाम आरोप हैं, आवेश में आकर कहते हैं:आप पुलिस के क़हर की बात करते हो. आपको मालूम भी है नक्सलियों ने क्या किया था? अगर बेटा को मारना है तो सबके सामने उसके माँ और बाप को उसे पत्थर से मारने को बोलते थेउनकी लड़ाई पूँजीपतियों से थी. उन्होंने ख़ुद ही क्यों नहीं उन्हें ख़त्म कर दिया? हम आदिवासी लोग दुनिया के बारे में कुछ नहीं जानते थे, उन्होंने हम लोगों से अपनी लड़ाई लड़वाई. ये जनवाद है?”

लेकिन छविन्द्र? वे कौन सी राजनीति कर रहे हैं? २०१४ के लोक सभा चुनाव में बड़े भाई दीपक को बस्तर लोक सभा की कांग्रेस टिकिट मिल गयी थी. दंतेवाड़ा विधान सभा पर माँ देवती का क़ब्ज़ा है. क्या जुडुम-दो छविंद्र का राजनैतिक पैंतरा है? मृत्यु की ज़मीन पर अपनी हसरतों का संधान है?

मेरे पिता समेत मेरे परिवार के ९५ लोग मारे गए हैं. लोग कहते हैं मैं जुडुम फिर से शुरू कर राजनीति कर रहा हूँ. मैं सिर्फ इस इलाके को नक्सलियों से मुक्त कराने की अपनी पारिवारिक जिम्मेदारी निभा रहा हूँ...मुझे मालूम है जब हम अन्दर जायेंगे वे हम पर हमला करेंगे. लेकिन इस लड़ाई में कुर्बानियां देनी ही पड़ेंगी. अगर गोली चलनी ही हैं, तो पहली गोली मेरी छाती पर आने दो,”
चौंतीस साल के छविन्द्र कहते हैं.



इस युद्ध में, शायद किसी भी अन्य युद्ध की तरह, सही और गलत का फर्क फ़क़त एक संयोग है. कर्मा की बस्तर पर राज करने की गहन राजनैतिक आकांक्षाएं थीं. वे दंतेवाड़ा को नक्सलियों से मुक्त कराना चाहते थे, लेकिन अपनी पसंद की निजी कम्पनियों के साथ उन्होंने जोड़-तोड़ की. न मालूम कितने ही जंगल के निवासियों को जो उनके ही भाई-बंधु थे जुडुम के दौरान कुचल डाला. इसके बावजूद जब फरसपाल के आकाश में चमकते में उनके कुनबे के विराट मृत्यु-स्तम्भ पर निगाह जाती है तो लगता है कर्मा की लड़ाई शायद अपनी जमीन पर कब्जे की लड़ाई भी थी. जंगल के एक जमींदार की उसके इलाके में आ गए बाहरी लोगों से वर्चस्व की लड़ाई थी. बस्तर का जंगल उनका था. वे इसे बनाते-बिगाड़ते, संवारते या नष्ट करते लेकिन आन्ध्र से आए पढ़े-लिखे गुरिल्ला लड़ाकों का प्रभुत्व उन्हें बर्दाश्त नहीं हुआ. यह स्वाभिमान की लड़ाई थी, भले ही स्वार्थ और क्रूरता से संचालित होती थी. आखिर कौन खुद को, अपने परिवार को दांव पर लगा देगा? कोई व्यापारी या राजनेता तो शायद नहीं. व्यापार या राजनीति में डूबा इन्सान इस कदर मौत से बेख़ौफ़ होकर शायद नहीं जी सकता, अपने पूरे कुटुंब को एक-एक कर ख़ूनी मौत मरते नहीं देख सकता.

दीपक के फ़ोन पर अभी भी अपने पिता का नम्बर बिग बॉसके नाम से सुरक्षित है.  पिता की हत्या के बाद यह नम्बर उनकी माँ के पास आ गया है. जब भी वे बेटे को फ़ोन करती हैं बेटे की स्क्रीन पर बिग बॉस कॉलिंगचमकता है. बेटे को अक्सर शुबहा हो जाता है कि कहीं पिता ने तो फ़ोन नहीं किया, बेटे के मुँह से कभी हाँ, पापाभी निकल जाता है.



(पांच)

मृत्यु का एक चेहरा और भी है जो मुझे दो हज़ार चौदह के अगस्त में पद्मा कुमारी ने दिखाया था. मैं उनके हैदराबाद के घर में बैठा हुआ था. पद्मा जेल में थीं जब उनके कामरेड पति सुरेश की पुलिस मुठभेड़ में मृत्यु हो गयी. मैंने उनकी लाश का चेहरा देखने नहीं गयी. मुझे मालूम था उनकी देह बुरी तरह से विकृत की जा चुकी है. मैं अपनी स्मृति में उनकी मुस्कान को जीवित रखना चाहती थी.

वे मेरे सिर्फ़ पति नहीं थे, वे मेरे नेता था. मेरी पार्टी के नेता.

सुरेश की मृत्यु के कुछ साल बाद पद्मा जेल से बाहर आयीं और २००७ में उन्होंने क्रांतिकारी लेखक संघ के एक पत्रकार सदस्य से दूसरी शादी कर ली. लेकिन सुरेश के चेहरे को वे नहीं भूलीं, ‘अमरुल्ला बंधु मित्रुला संघमसे जुड़ गयीं. आन्ध्र और तेलंगाना में कार्यरत इस संस्था का गठन मुठभेड़ में मारे गए माओवादियों के रिश्तेदारों ने किया है जिनमें से कई ख़ुद भी लम्बी गुरिल्ला ज़िंदगी जी चुके हैं. इसकी लगभग नब्बे प्रतिशत सदस्य स्त्रियाँ हैं. यह लोग मुठभेड़ में मारे गए माओवादियों के शव दूसरे राज्यों  से लेकर आते हैं, उनके रिश्तेदारों को सौंप देते हैं, सम्माजनक दाह संस्कार में मदद करते हैं. मृत्यु-वाहिनी के मृत्यु-वाहक. मित्रुला संघम हर साल अठारह जुलाई को तेलंगाना और आंध्र में वार्षिक दिन मनाता है, कई जगह कार्यक्रम होते हैं, लोग क्रांति की लड़ाई में मारे गए लड़ाकों को याद करते हैं. पिछले चालीस साल में आन्ध्र और तेलंगाना के क़रीब छः हज़ार लड़ाके मारे जा चुके हैं.

छत्तीसगढ़ में जंगल के निवासी गुरिल्ला लड़ाके के लिए ऐसी कोई संस्था नहीं है, जबकि पिछले दस-पंद्रह सालों सबसे अधिक मौत उनकी ही हुई हैं. वे मारे जाते हैं, कई बार शिनाख्त भी नहीं हो पाती, परिवार शव लेने कैसे आएगा? पुलिस इन सड़ते हुए शवों को इल्लत की तरह बरतती हुई दफ़ना देती है.

पद्मा की संस्था के मृत्यु-वाहक २०११ नवम्बर में पश्चिम बंगाल में मारे गए किशनजी का शव भी लेकर आये थे, करीमनगर ज़िले के पेदापल्ली इलाक़े में रहते उनके परिवार को सौंप दिया.

अगस्त दो हज़ार चौदह की रात बेहद उमस भरी है, लेकिन पेदापल्ली में अठासी साल की मधुरम्मा देर तक बात करती हैं. वे सिर्फ़ तेलुगु बोलती हैं, लेकिन जो ख़बरनवीस उनसे मिलने इतनी दूर से आया है वह तेलुगु नहीं समझ पाता. उनके पोते दिलीप अपनी दादी और ख़बरनवीस के बीच दुभाषिया बनते हैं. दिलीप किशनजी के भतीजे हैं, एक स्थानीय कॉलेज में मनोविज्ञान पढ़ाते हैं. हम उनके घर के अंदर बैठे हैं. सम्पन्न घर. एसी लगा है, ड्रॉइंग रूम में ढेर सारे अवार्ड. किसे मिले होंगे ये?

मधुरम्मा को अभी भी याद है नवम्बर का वह दिन जब पुलिस ने पेदापल्ली आने वाली सड़कों पर भारी पहरा बिठा दिया था, नाकाबंदी कर दी थी, लेकिन क़रीब सत्तर हज़ार की भीड़ उनके बेटे के लिए उमड़ आयी थी.

जब वे घर छोड़ कर जा रहे थे आपने रोका नहीं?

मैं कैसे रोकती? इंदिरा अम्मा ने इमरजेंसी लगा दी थी. उसे अंडरग्राउंड होना ही पड़ा.दुःख तो होता ही है, लेकिन मुझे उस पर गर्व है. उसका यहाँ बहुत सम्मान है.
(मधुरम्मा अपने मृत बेटे कोटेश्वरा राव की तस्वीर के साथ करीमनगर के अपने घर में. )

मैं चौंकता हूँ कि नब्बे की होने जा रही मधुरम्मा इतने अधिकार से इंदिरा अम्माकैसे कह रही हैं. उनके कमरे में रखे अवार्ड देख पता चलता है कि किशनजी के पिता मल्लोजुला वेंकटैया स्वतंत्रता सेनानी थे. यह पंद्रह अगस्त उन्नीस सौ बहत्तर को, दिलीप एक अवार्ड की तरफ़ इशारा करते हैं, इंदिरा गांधी ने उन्हें दिया था. उनके दादा भी भारत की आज़ादी के लिए लड़े थे. किशनजी के छोटे भाई मल्लोजुला वेणुगोपाल राव भी सत्तर के दशक में अंडरग्राउंड हो गए थे. इस वक़्त सीपीआई माओवादी पोलितब्यूरो के सदस्य हैं, शीर्षस्थ क्रांतिकारियों में शुमार.

स्वतंत्रता सेनानी के पोते और बेटे देश के सबसे दुर्दाँत क्रांतिकारी बनते हैं, अपनी शिक्षा और जीवन क्रांति के सपने पर क़ुर्बान करते हैं, उनमें से एक मुठभेड़ में देश के सर्वोच्च सुरक्षा बल द्वारा मारा जाता है, एक ऐसी विवादास्पद मुठभेड़ जिसके बारे में अक्सर यह सुनने में आता है कि इसके पीछे एक स्त्री का हाथ था जो उस लड़ाके को धर दबोचने केलिए ही पुलिस द्वारा प्लांटकी गयी थी, जिसके बाद, माओवादी और उनके सहयोगी संगठन आरोप लगाते हैं और जैसाकि पोस्टमार्टम की तस्वीरें संकेत देती हैं, पुलिस ने किशनजी के शव के साथ बेइंतहा बेरहमी की. मुर्दे को तहस नहस कर दिया.

मुझे याद आता है कि दो हज़ार बारह की गरमियों में मैंने एक निहायत ही मासूम बच्चे की ताज़ा लाश पर उसी सुरक्षा बल द्वारा घोंपे गए ख़ंजर के निशान देखे थे, अपने भीतर मृत्यु को एक स्थायी घर बनाते महसूस किया था. यह भी याद आता है मई तेरह में जब क़रीब सौ नक्सलियों ने निहत्थे कर्मा को जंगल में घेर कर मारा था, वे अपने दुश्मन की ताज़ी लाश को पैरों से खूँदते रहे थे, उसे चाक़ू से गोदते हुए उस पर नाचते रहे थे. उनकी लाश पर उत्सव मनाया था.

वह कोई अपवाद नहीं था. शीर्षस्थ माओवादी नेता दुश्मन की लाश के साथ नृशंसता को एक मनोवैज्ञानिक ज़रूरत बतलाते रहे हैं कि दुश्मन को कुचलने से, उस दृश्य का वीडियो बनाने से,उसे बार-बार देखने से कामरेड का उत्साह बढ़ता है, दुश्मन के प्रति डर मिट जाता है. मैंने माओवादी कैंप में युवा लड़ाकों को मुठभेड़ के वीडियो देखते देखा है --- गुरिल्ला लड़ाकों की आँखों में वहशी सुकून बरस आता है जब वे किसी पेड़ की मचान पर टिकी रात के अंधेरे में चमकती कम्प्यूटर स्क्रीन पर देखते हैं कि उनके साथियों ने किस तरह मरे हुए दुश्मन को नेस्तनाबूद कर दिया. रानी बोदली हत्याकांड में पुलिसवालों की लाश के साथ पाशविक बर्ताव को नक्सलियों ने अपने ख़ुफ़िया दस्तावेज़ों में इस तरह जायज़ ठहराया था: कामरेड साथियों के परिवार सलवा जुडुम की वजह से तबाह हो गए थे. उनकी बहनों का बलात्कार हुआ था, उनके माता-पिता और भाई मारे गए थे. इसलिए उनकी घृणा असीम थी. इसी घृणा की वजह से कामरेड बहादुरी से लड़ सके. जुडुम के गुंडों को बोटियों में क़तर देना इसी घृणा की अभिव्यक्ति था.

बस्तर में आख़िर शिकार इंसान का नहीं लाश का होता है.

क्या माओवादी आंदोलन आज़ाद भारत का महाभारत है और दंडकारण्य कुरुक्षेत्र
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abharwdaj@gmail.com


मंगलाचार : ज्योति शोभा (कविताएँ)

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(फोटो आभार - rehahn )


ज्योति  शोभा की कविताएँ टूटे हुए प्रेम की राख से उठती हैं. ‘देख तो दिल कि जाँ से उठता है /ये धुआँ सा कहाँ से उठता है’बरबस मीर याद आते हैं. तीव्रता तो है पर इसे और सुगढ़ किया जाना चाहिए. उनकी आठ कविताएँ .




ज्योति  शोभा  की  कविताएँ                   







1)       
तुम्हारी शक्ल मुझसे मिलने लगी है कोलकाता
अपनी छोटी सी देह में
मैनें संभाल कर रखी है तुम्हारी नग्न उंगलियां
उनसे झरते शांत स्पर्श

देखो कोलकाता
तुम सुख नहीं दे सकते
मगर मैं नाप सकती हूँ तुम्हारे सभी दुःख
रोबी को दिया तुमने विराट भुवन
मुझे अपना घर
इसी छोटे से गुलदान में
मैंने सजा दी है अपनी वेदना

कविता की तरह
जादू होता है यहाँ रहते
तपने लगती है मेरी पिंडलियाँ
हंसों के रेले छपाके से उड़ते हैं मेरे कपोलों से
दिन, दिन से नहीं बीतते
उनसे आती है एक महीन जलतरंग

रात जमा होती है नाभि पर
एक पर गिरती एक और बूँद
इन्हीं अनगिन पोखरों को पार करते
मछुआरों की छोटी डोंगियों में मिलती है
मुझे तुम्हारी गर्म, तिड़कती सांस

याद आता है मुझे
मेरा प्रेयस बाजुओं की ठंडी जगह पर रखता था अपने लब

कोलकाता, तुम कितना प्यार करते हो
बगैर बारिश के भी रखते हो तर मुझे
मैं चाहती हूँ तुम ले लो अब
मेरे उस बिसरे प्रेमी की जगह.



२)
तुम्हें पता नहीं
कितने मौसम चाह रहे हैं
मुझे ध्वस्त करना
मुझे प्रेम करते हुए ध्वस्त करना
मैं मुस्कुराती हूँ
तुम्हारा शुक्रिया है
तुम ये कर चुके हो पहले ही.




३)
एक लम्बी , कत्थई ट्रेन जाती है यहाँ से
तुम्हारे शहर
मैं नहीं जा सकती

एक नाज़ुक पत्ती , टूट कर
उड़ जाती है तुम्हारी खिड़की की ओर

मैं रह जाती हूँ
मचलकर
ये सांझ , ये पुरवाई
सब लाती है
एक आदिम सी व्यथा
जाने कवि कैसे लिखते हैं इसे
शब्दों से
ढक कर.




४)
मैं चोरी कर लाती हूँ तुम्हारे लिए
अपने गाँव की नदी, महुए का पेड़ और चुप चलती
कच्ची पगडंडियां
तुम चाहते हो मेरी चटकती धूप
मैं तुम में छाँह चाहती हूँ
खोये हुए प्रेम में कलेश जैसा कुछ नहीं होता.






५)
तुम आओगे जब तक
ख़त्म हो जाएंगी नज़्में
फिर ये पत्ते जो उड़ उड़ कर
बिखरे हैं सहन में
किसे आवाज़ देंगे
तुमको कोई और भी पुकारता होगा
मेरे सिवा
एक बार कहो नज़्मों से मेरी
ज़िन्दगी तवील है
मोहब्बत के सिवा
कुछ और भी करें.




६)
समस्त नक्षत्रों की शय्या किये
जो सोया है निर्विघ्न
उसे नहीं गड़ते
मेरी ग्रीवा को चुभते हैं
कुश के कर्णफूल
चंपा के हार खरोंचते हैं मेरा हृदय
मेरे मन को क्षत करते हैं लोकाचार के मन्त्र
मुझ में इतना शोक रहा
कि आ गयी अपनी देह उठाये शमशान तक
कठोर हुए मेरे
शव को अब अग्नि चाहिए
पर कैसा प्रेमी है वो
समस्त अग्नि कंठ में धारे कहता है
आओ प्रिये
सोवो मेरी तरह
कचनार पुष्पों पर , बिल्व पत्रों पर
क्लान्त मेरे चर्म पर
विस्मित सुरभि हो कर.





७)
जब कोई तेज़ी से बजाता है तुरही
मैं जान जाती हूँ
कोई मांगलिक कार्य संपन्न होने वाला है
शायद लौट आने वाला है प्रेमी
शायद खुलने वाली है
अधरों की गिरह
युद्ध का ख्याल नहीं आता
कतई नहीं.







८)
ये कैसे मंदिर हैं
जो स्वप्न में निर्जन द्वीपों की तरह आते हैं
उनकी मूर्तियों पर सिर्फ पत्ते रह गए हैं
मेमनों के मुंह से छूटे हुए
नितम्बों पर लकीरें हैं
कमल नालों की
सिन्दूर की धार बनी पड़ी है स्तनों के मध्य
जिन पर साफ़ दिखाई देते हैं समूचे संसार के जल को ढो रहे
चींटों के झुण्ड
उठो तो , उठो
कौन कसेगा इनके लहंगों की नीवी
कौन बाँधेगा पुष्पों की मेखला कटि पे
कौन तो उँगलियों से सरकते पारिजात के कंगन थामेगा
इनके पुजारी को कौन जगायेगा
जो सो रहा है मद के नशे में चूर
इस मंदिर को किसी दिन खोज निकलेगा कोई पुरातत्वेता
जल्दी उठो
एक खंड गिर गया है देखो
जहाँ से संसार को दिख जायेगी उसकी प्रीति
क्या नहीं हो सकते तुम खड़े उस जगह
कैसे तो अनुरागी हो
अंकपाश के चिन्ह को ढकना नहीं जानते अंकपाश से.
______

ज्योति शोभा अंग्रेजी साहित्य में स्नातक हैं. 
"बिखरे किस्से"पहला कविता संग्रह है. कुछ कविताएं राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय संकलनों में भी प्रकाशित हो चुकी हैं.
jyotimodi1977@gmail.com


संस्मरण : मृत्यु कथा : आशुतोष भारद्वाज

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(माओवादियों का ताड़मेटला हमले की याद में बनाया स्मारक.
ये हिंदुस्तान में कहीं भी बना माओवादियों का
सबसे बड़ा स्मारक है.)













इंडियन एक्सप्रेस से जुड़े पत्रकार-कथाकारआशुतोष भारद्वाज आजकल शिमला उच्च अध्ययन संस्थान में फैलो हैं. नक्सल प्रभावित इलाक़ों में फ़र्ज़ी मुठभेड़, आदिवासी संघर्ष, माओवादी विद्रोह पर नियमित लिखते रहे हैं. आशुतोष भारद्वाज ने कई बरस इन जंगलों में बिताये हैं. इन अनुभवों पर हिंदी और अंग्रेजी में लिखी गयी किताब, मृत्यु कथा/The Death Script’ का मलयालम, पंजाबी और तेलुगु में भी अनुवाद हो रहा है. इससे एक विचलित करने वाला अंश समालोचन के पाठकों के लिए यहाँ प्रस्तुत है.


पत्रकार के यथार्थबोध और कथाकार की कथा-शैली ने मिलाकर यह जो वृतांत रचा है वह दहशत पैदा करता है. एक ही देश-काल में जैसे किसी और सभ्यता को हम पढ़ रहे हों. इस अंश को पढ़ते हुए यह अहसास बराबर बना रहता है– “जंगल एक जानदार चीता है शहर एक पिलपिला केंचुआ.”उम्मीद है यह किताब हिंदी में खूब उत्साह से पढ़ी जायेगी.






मृत्यु कथा                                   
आशुतोष भारद्वाज




सोलह फरवरी, दो हजार तेरह. सुबह सवा सात. बीजापुर जिले का छोटा काकलेर गाँव.

कब तक मैं इस ख़ौफ़नाक से दिखते सात आठ झोंपड़ियों वाले वीरान गाँव में बंधक बना रहूँगा? जो खाट इन्होंने मुझे दी है क्या उस पर कभी कोई दूसरा भोपाल पटनम गया होगा? खाट गयी होगी तो उसके साथ एक बकरी भी घिसटती गयी होगी. दोनों में से कोई एक ही बच पाया होगा-खाट का इंसान या बकरी? या कोई भी नहीं? खाट की जेवड़ी पर उँगलियाँ फिराते हुए मैंने चारों तरफ़ निगाह घुमाई. बकरी तो नहीं लेकिन झोंपड़ी के पीछे से निकलती आती कुछ जंगली मुर्ग़ियाँ ज़रूर कुदक रहीं थीं. आज कौन बचेगा- मैं या मुर्ग़ियाँ?

कल शाम चार क़रीब यहाँ से मोटरसाइकल पर गुज़र रहा था कि कई गाँव वालों ने रास्ता रोक लिया. उन्हें शक था मैं पुलिस मुखबिर हूँ. मैंने अख़बार का आईकार्ड दिखाया, उन्हें यक़ीन नहीं हुआ. मैं अक्सर ऐसे मौक़ों के लिए अपनी ख़बरों की ढेर सारी कतरनें लेकर चलता हूँ. लेकिन वे अंग्रेज़ी में थीं, उन्हें समझ नहीं आ रहीं थीं. शायद हिंदी भी वे नहीं समझ पाते. क़रीब दसेक लोग मुझे घेरे खड़े थे, मुझसे कहा बाइक यहीं खड़ी कर दो. मुझे किनारे हो जाने को कहा, बाइक पर टंगे मेरे बैग को टटोलने लगे- कपड़े, बिस्कुट, काम भर की दवाइयाँ. थोड़ी देर बाद कई  गाँववाले और आ गए, उनके पास धनुष, कुल्हाड़ी, भरमार बंदूक़ जैसे छोटे हथियार थे.

आप चाहें तो अपने दादा लोगों से पूछ सकते हैं, वे मुझे जानते हैं. मैंने उन नक्सली नेताओं के नाम गिनाए जिनसे पहले मिल चुका था. लेकिन वे बस्तर के दूसरे जंगलों में घूमा करते थे, इस गाँव के निवासी उन्हें नहीं जानते थे. बीहड़ जंगल में मुझे पुलिस मुखबिर समझ पहले भी कई बार रोका गया है, हर बार बच निकलने के बाद तय किया है अगली बार चेहरे पर भय की बूँद तक नहीं गिरने दूँगा. हर बार की तरह इस बार भी पूरी तरह सहज नहीं था, लेकिन नहीं चाहता था उन्हें इसका आभास हो. वे लोग मेरी बाइक को भी टटोल रहे थे. उस पर नम्बर प्लेट नहीं थी, क्या इससे उन्हें कुछ शक होगा? बस्तर में बिना नम्बरप्लेट की बाइक अमूमन पुलिसवाले ही चलाते हैं. क्या मुझे नम्बर प्लेट वाली बाइक लानी चाहिए थे? क्या इस बाइक पर पुलिस का कोई निशान बचा रह गया है? बाइक ले निकलते वक्त मुझे इसके हरेक अंग को ख़ुद ही पूरी तरह टटोल लेना चाहिए था, मेरी ही ग़लती थी.

इन दिनों इस इलाक़े में कौन से नक्सली हैं, मैंने उनसे पूछा, आप ये कतरनें और मेरा ख़त उन तक पहुँचा दें.

मैंने अपने बारे में बतलाते हुए एक ख़त लिख उन्हें दे दिया. वे राज़ी हो गए, दो-तीन लोग आगे रवाना हो गए. जब तक आगे से हरी झंडी नहीं मिलती मुझे यहीं रुकना था.

मुझे एक झोंपड़ी में ले जाया गया. शुरुआत में वे काफ़ी रूखे और कठोर थे, थोड़े खूंखार और डरावने भी, या शायद मैंने ही अपने भीतर का डर उन पर आरोपित कर दिया था. लेकिन रात तक वे सहज हो गए. कोई मेरे लिए एक खाट ले आया. नहीं तो आप कहोगे कि ज़मीन पर सुला दिया.

परसों रात बेबसी और खतरे के बीच मैंने दंडकारण्य के दो अखंड नियम तय किये थे, उनमें से एक अगली यानि कल सुबह ही तोड़ दिया, जिसकी वजह से इस वक़्त यहाँ था.



पहला:
कभी ऐसे जंगल में मोटरसाइकिल लेकर मत जाओ जहाँ रत्ती भर पगडण्डी न हो, रास्ते में नदियाँ और पहाड़ियाँधरती पर नुकीले पत्थर और पेड़ों की बीहड़ जड़ें उभरी हों, इसलिए नहीं कि अगर गाड़ी फिसली तो हड्डियाँ चटक जाएँगी, यह भी नहीं कि गाड़ी पंचर हो गयी तो ढोनी पड़ेगी क्योंकि कई बार खींच कर बहुत दूर तक ले गया हूँ, बल्कि इसलिए कि अगर गाड़ी बुरी तरह टूट गयी तो खिंचेगी भी नहीं, अंजर पंजर हालत में उसे वहीं छोड़ कर आने का मन भी आसानी से नहीं बना पाओगे.


दूसरा: 

जंगल में एकदम खुले में रात मत बिताओ, भले कितनी देर चलना पड़े लेकिन किसी छत, कच्ची और टूटी ही सही, के नीचे पहुँच जाओ.

परसों सुबह बीजापुर से निकला, दिन भर बाइक चला कर शाम को फरसेगढ़ पहुंचा. उससे पिछली सुबह दंतेवाड़ा से निकला, जंगलों में घूमता शाम को बीजापुर पहुँचा था. ख़बर मिली थी कि सेंड्रा में गडचिरोली सीमा पर  कोई बड़ी भारी बैठक होने वाली है माओवादियों की. फरसेगढ़ पर सलाह दी गयी थी आगे बाइक का रास्ता एकदम नहीं है, सेंड्रा तक सिर्फ़ जंगल बिखरा है, कच्ची पगडंडी भी नहीं मिलेगी. ऐसी सलाह लेकिन कब और कहाँ मानी जाती हैं. दिन की रोशनी ख़त्म होने में अभी देर थी. हाहाकर मचाते वृक्षों औरझाड़ियों के बीच कभी हिनहिनाती कभी मिमियाती गाड़ी घंटे भर घसीटने के बाद एक गंजी नदी आयी जिसकी चांद शायद बचपन में ही सफ़ाचट कर दी गयी थी. जंगल में एक घाटीनुमा खायी के बीच फैला रेत का दरिया.

बाइक नीचे उतर तो गयी, लेकिन ऊपर चढ़ने में बालू में फ़ंस गयी. चढ़ाई और बालू इतनी घातक कि पहले गेयर में पूरी स्पीड देने पर भी गाड़ी रत्ती भर न हिले, वहीं फ़ंसी हुई हिनहिनाए. चढ़ायी तीखी थी, पूरी जान लगा दी, एक हाथ बाइक खिंच पाती, फिर नीचे ढुलक जाती.फ़रवरी की सर्दी, लेकिन आधे घंटे में  क़मीज़ तर हो गयी.ख़ुद को कोसा ये कब समझ आएगा कि जंगल का जहाज़ मोटरसाइकल नहीं साइकल होती है.

रोशनी कम हो रही थी, लगा इसे यहीं छोड़ रात कहीं रुकने का ठौर खोजा जाये.इसे कोई ले तो नहीं जाएगा? जिससे माँग कर लाया था उसे क्या कहूँगा?

बाइक की चौकीदारी करते हुए वहीं किसी पेड़ के नीचे पसर गया. लेकिन जंगली जानवर का ख़तरा, नींद कैसे आएगी. दो-ढाई घंटे बाद साढ़े आठ क़रीब शुरू से ही भीतर बुदबुदाता विचार पुख़्ता हुआ कि यहाँ रात बिताना महाकाव्यात्मक मूर्खता है. जहाँ दूर तक कोई इंसान न हो कौन इस आफ़त को लेने आएगा, इस ख़याल की पीठ पर बाइक को वहींछोड़ बैग पीठ पर टाँग चलना शुरू किया, कई रास्ते खो देने और पा लेने के बीच क़रीब ढाई घंटे में फरसेगढ़ के सरकारी स्कूल पर पहुँचा.अगली सुबह स्कूल के चौकीदार मनोज मंडावी और दो विद्यार्थियों को साथ लेकर गंजी नदी तक आया, बाइक को खींच कर निकाला. मैंने ग़लत रास्ता लिया था, मनोज ने बताया, यह रास्ता सेंड्रा नहीं जाता.

क़ायदे से मुझे अब वापस लौट जाना चाहिए था. यह जंगल बाइक के लिए नहीं था लेकिन रात का सबक़ अगर सुबह होते ही भुला न दिया जाए तो जीवन में नमक कैसे आएगा.

सेंड्रा हो आया, माओवादी बैठक नहीं मिली, इस वक़्त सेंड्रा के पास छोटा काकलेर में रिहाई के संदेसे के इंतज़ार में हूँ.

कई लोग मेरी फ़िक्र कर रहे होंगे. जया जी (जया जादवानी) के बेटे की शादी कल है, मुझे वहाँ होना था.उस पुलिसवाले की बाइक जो मैं सिर्फ़ एक दिन के लिए कहकर लेकर आया था.और दंतेवाड़ा के सर्किट हाउस का केयरटेकर पिछले तीन दिनों से मेरा कमरा बंद है, चाभी मेरे पास. मेरा लैपटॉप कमरे में.

जंगल के अप्रत्याशित जोखिम के सामने शहर का सुरक्षित जीवन मरियल, मुर्दार और मुरझाया हुआ लगता है. जंगल एक जानदार चीता. शहर एक पिलपिला केंचुआ.

पिछली चार रातें चार जगहों पर दंतेवाड़ा, बीजापुर, फरसेगढ़ और छोटा काकलेर. आख़िरी तीन अप्रत्याशित. आख़िरी दो तो रात गिरने से ठीक पहले तय हुईं.

परसों देर रात जब फरसेगढ़ के प्राथमिक स्कूल आदर्श बालक आश्रम पहुँचा तो मनोज महुए में धुत पड़ा था. आँखें जल रहीं थीं. लेकिन उसे इतना होश था कि जब मैंने अपना आईकार्ड दिखाते हुए रात भर रुकने की जगह माँगी तो उसने तुरंत कहा एक शर्त है. आप रायपुर में लोगों को जानते होंगे. इस स्कूल में सौ बच्चे हैं, एक भी बाथरूम नहीं. आपको यहाँ बाथरूम बनवाना पड़ेगा. वह सिर्फ़ बाथरूम की कहता था, जबकि बच्चों की क्लास टीन की चादर के नीचे चलती थी. कोई कमरा नहीं.

छोटा काकलेर फरसेगढ़ से क़रीब बीसेक किलोमीटर अंदर जंगल में है. फरसेगढ़ में पुलिस का आख़िरी थाना, सीआरपीएफ की आख़िरी चौकी. यह स्कूल भारत सरकार का आख़िरी निशान. इसके बाद वह इलाक़ा शुरू होता है जहाँ अनेक सालों से सत्ता का कोई चिन्ह नहीं.

छोटा काकलेर के जिन युवकों ने मुझे रोक रखा है, वे लगभग निरक्षर हैं. सैकड़ों वर्ग किलोमीटर तक फैले इलाक़े में कोई स्कूल, चिकित्सा केंद्र, नरेगा की स्कीम नहीं. तेंदू पत्ता पर सरकारी बोनस भी नहीं. वारंगल से आन्ध्र के व्यापारी तेंदू पत्ता के दिनों में आते हैं, एक सौ बीस रुपए पर तेंदू पत्ता की एक गड्डी.तेंदू पत्ता और महुए से सात-आठ लोगों के एक परिवार की सालाना आमदनी छ हज़ार रुपया.

ये युवक साल में दो-तीन महीने आन्ध्र जाते हैं. दिहाड़ी मज़दूर बतौर काम करते हैं छह हज़ार रुपए महीना, एक कोठरी में रहने, खाने और निबटने की जगह. हफ़्ते में एक बार मुर्ग़ा.

अब ये युवक मुझसे खुलने लगे हैं. सत्यम ख़ुर्राम मेरे एक प्रश्न पर मुझे एक कथा सुनाते हैं.

अगर किसी को आकस्मिक चिकित्सा की ज़रूरत पड़े तो आप क्या करते हो?

अमूमन तो सोच लेते हैं कि हो गया काम ख़त्म, यहीं मर जाने देते हैं लेकिन कभी लगता है कि बचाना ज़रूरी है तो एक खाट तैयार करते हैं और एक हट्टी- कट्टी बकरी.
बकरी? खाट पर?
नहीं, खाट पर मरीज को लिटाते हैं, बकरी के गले में रस्सी बाँध उसे ले चलते हैं. पूरा दिन चल जंगल पार कर भोपालपटनम आता है. बकरी तंदरुस्त हुई तो छह हज़ार मिल जाते हैं, इलाज हो जाता है.
और अगर मरीज की हालत बहुत ख़राब हुई, इतने लम्बे रास्ते में कुछ हो गया, या भोपालपटनम के उस मरियल से सरकारी स्वास्थ्य केंद्र में ही आदमी खेल गया तो?
फिर क्या, एक दूसरा युवक जवाब देता है. बकरी तो फिर भी बिकेगी. ख़ूब सारी शराब आ जाती है.

सेंड्रा आज बीहड़ लिबरेटेड जोनहै, लेकिन फरसेगढ़ स्कूल के मास्टरजी टी कंटैय्या ने मुझे बताया था कभी सेंड्रा शहर की तरह हुआ करता था. मैं यहाँ के लिए निकलने से पहले इसे टटोल रहा था तो सरकारी काग़ज़ों में सेंड्रा में एक फ़ॉरेस्ट रेस्टहाउस होना दर्ज था, यानिअधिकारी इतनी दूर जाते थे, वहाँ रुका करते थे. लेकिन ये अंग्रेज़ हुकूमत और मध्य प्रदेश सरकार के चिन्ह हैं, छत्तीसगढ़ सरकार अभी तक यहाँ नहीं पहुँची. मैं सेंड्रा तक गया लेकिन रेस्टहाउस नहीं मिला.

इस राज्य को बने तेरह साल हो गए, लेकिन जंग लगे सरकारी फट्टों पर पर अभी भी मध्य प्रदेशलिखा है. सागमेट्टा गाँव के क़रीब इंद्रावती राष्ट्रीय उद्यान के एक फट्टे पर मध्य प्रदेश वनविभागदर्ज है. सागमेट्टा के निवासी दुर्गम मल्लाया बताते हैं कि यहाँ के लोग दूर आन्ध्र और हैदराबाद चले जाते हैं, लेकिन छत्तीसगढ़ के नज़दीकी शहरों में उनके क़दम नहीं पड़ते. किसी निवासी का अपने राज्य पर इतना घनघोर अविश्वास एक अद्भुत घटना है.

मल्लाया म्हार हैं, अम्बेडकर की जाति.उन्हें याद नहीं उनके पूर्वज महाराष्ट्र से यहाँ कब, कैसे आए.

सत्ता की इनकी एकमात्र स्मृति सलवा ज़ुडुम की है जब जुडुम नेताओं के साथ पुलिस यहाँ आयी थीभीषण युद्ध शुरू हुआ था.फरसेगढ़ से थोड़ा पहले कुटरू है जहाँ ज़ुडुम के शुरुआती कारनामे दर्ज हुए थे. कुटरू थाने के ठीक सामने छत्तीसगढ़ में जुडुम का शायद सबसे पहला स्मारक है. सलवा जुडुम शहीद स्मारक. शहीदों को शत् शत् नमन. स्थापना- ४जून, २००५.इस स्मारक की तस्वीर लेते हुए मुझे गोटा चिन्ना की याद आयी. वे इसी इलाक़े के आरम्भिक जुडुम नेताओं में थेपिछले दिसम्बर माओवादियों ने उनकी हत्या कर दी.गाँव वालों को नक्सलियों से कोई ख़ास मुहब्बत नहीं लेकिन वे इस हत्या पर उछल पड़े.

इसी स्मारक के पास एक परचूने की छोटी सी दुकान है जहाँ सिर्फ़ एक पोस्टर लगा है- रामदेव का. पतंजलि का सामान यहाँ भी मिलता है. पोस्टर आह्वान करता है-  जगदलपुर चलो. बाईस, तेईस, चौबीस फ़रवरी को जगदलपुर में निशुल्क योग ज्ञान शिविर.यह फ़रवरी दो हज़ार तेरह है. बस्तर की सबसे अंदरूनी जगहों पर यह व्यापारी बाबा पहुँच गया है, जबकि केंद्रमें इसकी पसंदीदा सरकार की इस वक़्त कोई आहट नहीं है. इतने कम समय में इस व्यापारी का इतना गहरा सांस्कृतिक-राजनैतिक प्रभाव एक विलक्षण समाजशास्त्रीय घटना है.
(छोटा काकलेर गाँव में कोटेश्वरा राव का स्मारक.
लेखक आशुतोष भारद्वाज इसी स्मारक की तस्वीर ले रहे थे 
जब गाँववालों ने उन्हें घेर लिया था.)

कुटरू से पहले रानी बोदली जहाँ भारत के इतिहास में माओवादियों का दूसरा सबसे भीषण हमला हुआ था, २००७ में पचपन पुलिसवाले मारे गए थे. मैं आते वक़्त वहाँ रुका था. इस हमले की पुरानी तस्वीरें याद आयीं-  जमीन पर लाश बिखरी हैं, कॉपी हाथ में लिए दो पुलिसवाले उनकी गिनती और उन्हें पहचानने की कोशिश कर रहे हैं. दंतेवाड़ा के साथी पत्रकार सुरेश महापात्रा ने कभी बताया था कि जब वह इन लाशों पर ख़बर करने यहाँ आएथे, सड़ चुकी अधजली लाशों की तस्वीरें लीं तो उन्हें लगा कि दुनिया में कुछ देखना नहीं बचा अब: मुझे लगा कि हो गया बस.

तब तक मैंने ख़बरनवीसी शुरू भी नहीं की थी, रत्ती भर अंदेशा नहीं था कभी मृत्यु मुझे बुलाएगी, मैं इस जगह आऊँगा.रानी बोदली पर देर तक खड़ा रहता हूँ. माओवादियों के दस्तावेज़ मेंकितने विस्तार से इस हमले का और अपने गुरिल्ला साथियों के बलिदान का ज़िक्र हुआ है.

सत्ता भी अपने बलिदान याद करती है. राज्य में चुनाव नवम्बर में हैं, क़वायद शुरू हो चुकी है. हाल ही बीजापुर में एक सभा में कांग्रेस के पोस्टर लहराते थे — “इंदिरा, राजीव का बलिदान याद रखेगा हिंदुस्तान.

जंगल के निवासियों को इन बलिदानियों का नाम भी नहीं मालूम, यह भी नहीं कि इनके बलिदान का दंडकारण्य से क्या सम्बंध है. राजनीति और सत्ता का इनसे तलाक़ लगभग सम्पूर्ण है.

लेकिन बकरी?



(दो)

रानी बोदली अकेला नहीं है. बस्तर मृत्यु का अजायबघर है. पुलिस, माओवादी, नागरिक, जुडुम नेता सबने अपनी मृत्यु को ईंट और पत्थर में दर्ज कर दिया है.छोटा काकलेर में मैं इसलिए ही फ़ंस गया था कि एक मृत्यु ने मुझे थाम लिया था. बाइक से गुज़रते में निगाह गयी थी  —- पेड़ों के झुरमुट के बीच लाल रंग के दो स्मारक धूप में चमक रहे थे.उनकेचारों तरफ़ ताज़ा पुती ईंटों की क़तार बिछी हुईं थीं, मसलन वहाँ मेला सा लगता हो. यह स्मारक किसके होंगे? नज़दीक गया, बाइक खड़ी की. एक स्मारक

सीपीआई माओवादी की पोलितब्युरो के सदस्य मल्लोजुला कोटेश्वरा राव उर्फ़ किशनजी की याद में था जो सीआरपीएफ के साथ  नवंबर ग्यारह की मुठभेड़ में मारे गए थे, दूसरा इंद्रावती नैशनल पार्क की एरिया कमेटी सदस्य कवासी गोविंद का जो मार्च बारह में ख़त्म हुए थे.

कई सारी तस्वीरें लीं. स्मारकों के चारों तरफ़ घूम कर देखा. उनके प्लेटफ़ॉर्म पर चढ़ा. मुझसे क़रीब ढाई गुना ऊँचे यानी क़रीब पंद्रह फ़ीट ऊँचे स्मारक. क़रीब दसेक मिनट उन्हें छूता-टटोलता रहा. इस बीच किसी ग्रामीण की निगाह मुझ पर पड़ गयी. जल्द ही कई सारे लोग इकट्ठे हो गए, मुझे घेर लिया.

माओवादियों का सबसे महाकाय स्मारक सुकमा ज़िले के भीषण जंगल में है. दो हज़ार बारह की जनवरी में उस जंगल को साइकल से कुरेदते हुए अचानक एक लाल क़ुतुबमीनार सामने आ गयी थी. माओवादी क्रान्ति के इतिहास में ताड़मेटला सबसे दुर्दांत हमला. सुरक्षा बल के छिहत्तर सिपाही लील गया. उसमें मारे गए आठ गुरिल्ला लड़ाकों के नाम इस स्मारक परलिखे हुए थे. माओवादी दस्तावेज़ बताते हैं इस हमले में २१ एके-४७, ४२ इंसास रायफल, छः लाइट मशीन गन, सात एसएलआर रायफल, एक नौ एमएम स्टेनगन, ३१२२ कारतूस, ३९ ग्रेनेडसमेत तमाम चीज़ें गुरिल्ला लड़ाकों ने मुर्दा ख़ाकीधारियों से छीन लीं थीं.

अरसा बाद मुझे किसी आईएएस अधिकारी ने बताया कि एक बार जब वे उस जगह का हवाई दौरा कर रहे थे तो हैलिकॉप्टर से दिखती उस मीनार को देख भौंचक थे कि इस जंगल में जहाँ सबसे नज़दीकी परचूने की दुकान भी कई घंटे दूर है, ईंट और गारे लाने के लिए तो दिन भर का रास्ता होगा, लेकिन लाया किस रास्ते से जाएगा? चारों तरफ़ तो पुलिस लगी है.

पुलिस ने भी अपने साथियों की याद में भरपेट स्मारक बनाए हैं. सुकमा जिले में एर्राबोर थाने के पास करीब दर्जन भर मूर्तियाँ लगी हैं पुलिसवालों की. एक सीधी लकीर में वर्दीधारी मूर्तियाँ. हाथ में रायफल.

मूर्तियाँ दिन भर धूप में चमकती रहती हैं. सभी के चेहरे एक जैसे लगते हैं.क्या मृत्यु सिर्फ़ एक ही होती है, उसके बाद सिर्फ़ उसे दोहराया जाता है? इन सभी मूर्तियों की कलाई पर घड़ी बंधी है. इन घड़ियों की सुइयां भी एक ही जगह टिकी हैं. क्या मृत्यु अपना वक्त चुनने में भेदभाव नहीं करती?



(तीन)

मृत्यु को पत्थर पर सहेज रखना बस्तर की परम्परा, शायद व्यसन भी है. पूरे बस्तर में स्मृति-स्तम्भ लगे हुए हैं, पत्थर और लकड़ी के. जंगल के निवासी अपने मृतकों की याद में उनकी क़ब्र पर लगा देते हैं. उन पर अद्भुत चित्रकारी करते हैं. मृतक के जीवन को बतलाते चित्र.इन चित्रों के चेहरे भी अक्सर एक जैसे दिखते हैं. मसलन नरसू मंडावी और लच्छू कश्यप डेढ़ सौ  मील की दूरी पर दफ़न हुए, लेकिन उनके स्मृति पत्थरों पर दर्ज चेहरे एक जैसे ही हैं. क्या बस्तर का मृत्यु-चित्रकार सिर्फ़ एक ही चेहरा उकेरना जानता है या उसे मृत्यु का चेहराहमेशा एक सा ही दिखता है? या मृत्यु का चेहरा होता ही एक है, दोहराया भले कई जगह जाता है.

हर जगह ये स्तम्भ दिखते हैं, लेकिन कभी उनका कोई प्रियजन वहाँ बैठा उन्हें याद करता, उनके मृत्यु दिन पर वहाँ आता, फूल चढ़ाता नहीं दिखाई देता. मृत्यु का शृंगार कर उसे वहाँ बसा कर चित्रकार भूल गया है, मृत्यु ख़ुद ही पलती-पनपती रहती है.

मृत्यु-पत्थर का सबसे विकट चेहरा महेंद्र कर्मा के पुश्तैनी गाँव फरसपाल से बाहर निकलते ही दिखता है. कर्मा के घर के बाहर उनकी विशाल मूर्ति है, करीब सौ हाथ ऊँची जिस पर सूख चुके फूलों की माला झूलती रहती है. थोड़ा आगे जा सड़क के दोनों तरफ उनके परिवार के दर्जनों स्तम्भ लगे हुए हैं. न मालूम कितनों का खून यहाँ दर्ज है.

क्या बस्तर के माओवादी इतिहास को, मृत्यु के अजायबघर कोमहेंद्र कर्माके घर की छत से देखा जा सकता है? बस्तर में नक्सलियों के पनपने की अनेक वजहें हैं, लेकिन विचित्र विडम्बना है कि कर्मा जो आंध्र से आये गुरिल्ला लड़ाकों को  को बस्तर से उखाड़ फेंकना चाहते थे वे ही उनके विस्तार की बहुत बड़ी वजह बने.

नब्बे के दशक में उन्होंने नक्सलियों के विरुद्ध जन जागरण अभियान चलाया, जिसके बाद गुरिल्ला गतिविधियों में तेज़ी आयी, फिर दो हज़ार पाँच में उन्होंने सलवा जुडुम शुरू किया और अब माओवादियों के दस्तों में चोट खाए जंगल के निवासी आ जुड़े, गुरिल्ला लड़ाके अविजित दिखाई देने लगे.

कर्मा का राजनैतिक जीवन दिलचस्प है. वे  ख़ालिस आदिवासी नेता थे, जंगल के निवासी. बस्तर से बाहर न उनकी पहुँच थी, न उन्होंने बनानी चाही. लेकिन  बस्तर के आकाश पर जहाँ भी निगाह जाये वे एक विराट औपन्यासिक किरदार की तरह दिखाई दे जाते हैं.

कभी कट्टर कम्युनिस्ट रहे उन्होंने अपना राजनैतिक जीवन १९८० के दशक में बतौर सीपीआई एमएलए शुरू किया था. अगला चुनाव उन्होंने अपने कांग्रेसी बड़े भाई लक्ष्मण कर्मा के विरुद्ध हारा. बाद में वे कांग्रेस में शामिल हुए लेकिनदिलचस्प है कि एक ऐसे मसले पर पार्टी छोड़ दी जिससे बस्तर में आदिवासियों का जीवन काफ़ी स्वायत्त हो जाता, बाहरीशक्तियों मसलन सरकार और व्यापार का हस्तक्षेप बहुत कम हो जाता. जब दिग्विजय सिंह की मध्य प्रदेश सरकार ने बस्तर को संविधान की छठी अनुसूची में लाने की बात की कि इससे उत्तरपूर्व भारत की तरह बस्तर के आदिवासियों को अधिक अधिकार मिल जाएँगे तो कर्मा ने इसका विरोध यह दिलचस्प तर्क देकर किया कि इससे नक्सलियों को फ़ायदा होगा.जब बस्तर में छठी अनुसूची के लिए ज़बरदस्त माहौल था, कर्मा ने कांग्रेस छोड़ी, बतौर निर्दलीय सिर्फ़ इसके विरोध पर १९९६ का लोक सभा चुनाव लड़ा और जीत भी गए, हालाँकि बाद में फिर कांग्रेस चले गए.

बस्तर में छठी अनुसूची के लिए लड़ाई आज भी जारी है.

दंतेवाड़ा और सुकमा कभी कर्मा के अभेद्य क़िले थे. यहाँ पर नक्सलियों के फैलते क़दमों को उखाड़ फेंकने के लिए उन्होंने लड़ाइयाँ लड़ीं, और यही इलाक़े गुरिल्ला लड़ाके का दुर्ग बनतेगए. इतिहास की द्वंद्वात्मकता मनुष्य के साथ दिलचस्प खेल खेलती है. कर्मा कमज़ोर पड़ते गए, माओवादी अजेय होते गए, और जहाँ राजनीति कभी कांग्रेस और सीपीआई के बीच हुआकरती थी, वहाँ भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आ गए. इस तरह बस्तर एक अद्भुत इलाक़ा बना जहाँ क्रांतिकारी वामपंथ और दक्षिणपंथ का उत्थान लगभग एक साथ हुआ. 


भाजपा ने चुनाव मेंस्थानीय गुरिल्ला लड़ाकों की मदद ली, लड़ाकों को भी सबसे पहले अपने विकराल शत्रु कर्मा से निबटना था, उन्हें अपने कट्टर वैचारिक विरोधी भाजपा की सहायता करने में कोई संकोचनहीं हुआ. २००८ के विधान सभा चुनाव में बस्तर की बारह सीट में से ग्यारह भाजपा जीत गयी, एक ऐसे वक़्त जब माओवादी क्रांतिकारी अपने उत्कर्ष पर थे, उनकी हिंसा का कोई तोड़ नहींदिखता था, वे लगभग जहाँ चाहे वहाँ भीषण हमला करने में सक्षम थे.

कर्मा २००८ का ऐतिहासिक चुनाव कर्मा अपने घर दंतेवाड़ा में बुरी तरह हारे, भाजपा और सीपीआई के बाद तीसरे स्थान पर रहे. यह चुनाव सलवा जुडुम की विकराल हिंसा की छाती परलड़ा गया था. जुडुम के दौरान भाजपा सरकार ने कांग्रेसी कर्मा को बेतहाशा समर्थन किया था, असलहे और धन दोनों से. अपनी ताक़त के नशीले महुए में डूबे कर्मा बस्तर टाइगर कहलाते थे, नक्सलियों के ख़िलाफ़ उन्मादे आदिवासी लड़ाकों  की ख़ूँख़ार फ़ौज खड़ी कर रहे थे. कर्मा को रमन सिंह का तेरहवाँ मंत्री कहा जाने लगा था. लेकिन जब जुडुम की चौतरफा आलोचना होने लगी तो भाजपा ने कर्मा से पल्ला झाड़ा, सारा ठीकरा उनके सिर.

पापा ने भाजपा से समर्थन ले ग़लत किया था. ये हम आदिवासियों की लड़ाई थी, हमें लड़नी थी. भाजपा ने पापा को यूज किया,”
कर्मा के बड़े बेटे दीपक ने बहुत बाद में मुझे बतलाया.

२००८ का दंतेवाड़ा चुनाव माओवादी जंग के फ़रेबी लहू का विराट मानचित्र बनाता है. कर्मा के समर्थक कई सालों से आरोप लगाते थे कि भाजपा नक्सली से गले मिल गयी, और दोनों ने मिल अपने दुश्मन को ध्वस्त किया. नवम्बर २०१३ के चुनाव से ठीक पहले माओवादी पुड़ियम लिंगा की भाजपा नेता शिव दयाल सिंह तोमर की हत्या के जुर्म में गिरफ़्तारी हुई, और उसने दंतेवाड़ा पुलिस कप्तान नरेन्द्र खरे और सीआरपीएफ अधिकारियों की उपस्थिति में मीडिया के सामने उस राज को खोला जिसे सभी अरसे से जानते थे कि उसने दंतेवाड़ा के भाजपा प्रत्याशी और अपने चाचा भीमा मंडावी को २००८ के चुनाव में मदद की थी. दिलचस्प है कि इस ख़बरनवीस के सामने मंडावी ने लिंगा की सहायता लेना तो नहीं स्वीकारा, लेकिन यह कहा कि लिंगा उनके गाँव तोयलंका का निवासी है और उसने २०११ के एक उपचुनाव में भाजपा के लिए काम किया था, जो भाजपा ने जीता भी था.

दंडकारण्य में क्रांति और राजनीति, वाम और दक्षिण की रेखाएँ धुँधला जाती हैं. शायद जंग फ़रेब की बुनियाद पर ही लड़ी जाती है, महाभारत का रचयिता बहुत पहले ही बतला गया है.



(चार)
कर्मा के बग़ैर बस्तर का माओवादी विद्रोह क्या आकार लेता इसका सिर्फ़ क़यास ही लगाया जा सकता है. शायद क़यास भी सम्भव भी नहीं.

मैं उनसे कई मर्तबा मिला था, जुडुम की ज़्यादतियों का ज़िक्र होते ही हर बार वे कहते थे-  ये हमारा, हम आदिवासियों का बस्तर है. नक्सली हमारी ज़मीन पर क्यों आए?

उनके किरदार की विलक्षण औपन्यासिकता का एहसास मुझे उनकी हत्या के कुछ महीने बाद यानी नवम्बर दो हजार तेरह के विधान सभा चुनाव के दौरान हुआ. उनकी पत्नी देवती दंतेवाड़ा से चुनाव लड़ रही थीं जहाँ से कभी कर्मा विधायक रहे थे. सिर्फ गोंडी बोलने वाली देवती की राजनीति या अपने शौहर के  कारनामों में कभी कोई दिलचस्पी नहीं थी. बरसों पहले जब उनके शौहर और बेटे दक्षिण बस्तर के जंगलों में रायफलें लेकर माओवाद को बस्तर से खत्म कर देने के नाम पर क्या कुछ नहीं उजाड़ रहे थे, वे अपने घर में बेखबर रही आती थीं.

क्या उन्होंने सोचा था कि एक दिन वे कर्मा की सीट दंतेवाड़ा पर नामांकन का अपना पर्चा दाख़िल करने  कलक्टर कार्यालय जाएँगी? आकाश पर स्याह बादल. चारों तरफ़ से एके-४७धारी पुलिसवालों से घिरी कलफ़ लगी सफेद साड़ी के पल्लू को सम्भालती एक दुबली औरत कार्यालय से निकलती आ रही है. उनके दबंग बेटे काले चश्मे पहने, महँगे मोबाइल फ़ोनकान से लगाये उनके साथ चल रहे हैं. दंतेवाड़ा में चर्चा में है कि अगर वे जीतीं तो यहाँ से पाँच विधायक होंगे.

कर्मा के चारों बेटे —- दीपक, छविंद्र, देवराज और आशीष —- और देवकी के पास ज़ेड प्लस सुरक्षा है. उन सबके नाम नक्सलियों का फरमान है, सब घोषित तौर पर नक्सलियों की हिटलिस्ट में हैं. हिंदुस्तान का शायद अकेला ऐसा परिवार जिसके पाँच सदस्यों के पास ज़ेड प्लस सुरक्षा है. दो बेटियाँ भी हैं, सुलोचना और तूलिका.

पिता की ही तरह संतान हैं. मृत्यु का खौफ पेट से ही लेकर नहीं आये. पूरा परिवार दशकों से रायफलों के साथ जीता आया है. सिवाय आशीष के. कर्मा ने अपने तीसरे और पढाई में सबसेहोशियार बेटे को जल्दी ही दिल्ली भेज दिया था, वह दिल्ली पब्लिक स्कूल में पढ़े, फिर दिल्ली यूनिवर्सिटी में. कुछ महीने पहले तक वह सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी कर रहे थे, परिवार का सपना था एक बेटा कलक्टर बनेगा. कर्मा की मई में हत्या हो गयी, आशीष दंतेवाड़ा लौट आए. क्या होगा? मारे ही तो जायेंगे. हमारे भीतर का डर मर चुका है. यह हमारी जमीन है. हमें यह वापस चाहिए,” आशीषकी कसी हुई टी-शर्ट में मांसपेशियां चमकती हैं.

मैं नवम्बर की एक दोपहर दीपक के साथ चुनाव प्रचार में दंतेवाड़ा घूम रहा हूँ. हम स्कोर्पियो में हैं, हमारी गाड़ी में  छः एके -४७ धारी जवान बैठे हैं. बंदूकधारी जवानों की एक गाड़ी हमारे पीछे है, एक आगे. पूरे रास्ते हरेक तीन-चार सौ मीटर पर पुलिसवाले खड़े हैं. अचानक दीपक ड्राइवर को कच्ची सड़क पर उतार देने को कहते हैं. राइफ़लधारी लगभग घबरा कर पीछे मुड़ कर देखता है उसकी निगाहों में प्रश्न है. यहाँ क्यों सर?

दीपक ड्राइवर से फिर कहते हैं दाहिने मुड़ लो.

बॉस की बात माननी ही पड़ेगी. आगे बैठा पुलिसवाला माथे का पसीना पौंछता है, वाकी-टाकी से आगे चल रही हथियारबंद गाड़ी को फ़ोन करता है कि हमने रास्ता बदल लिया है, पीछे मुड़ कर आ जाओ.

सभी पुलिसवाले अचानक मुस्तैद हो गए हैं. कच्ची सड़क जंगल की तरफ जा रही है, अनजान रास्ते न मालूम क्या मिलेगा, बारूदी विस्फोट से गाड़ी उड़ भी सकती है. पुलिस की गाड़ी इसी तरह नक्सली हमले का शिकार बनती हैं जब वे अचानक से कोई नया रास्ता चुन लेते हैं. कर्मा परिवार जब दंतेवाड़ा से अपने गाँव फरसपाल जाता है, सबसे पहले पुलिस की रोड ओपनिंग पार्टी निकलती है, रास्ता साफ़ करती है, उसके बाद गाड़ी निकलती है.आज भी दीपक के चुनावी दौरे के लिए रूट तय था. रूट की जानकारी ज़िले के एसपी को पहले से दी जाती है, उसके बाद वो रास्ता साफ़ कराया जाता है. पुलिसवाले अक्सर शिकायत करते हैं कि कर्मा के लड़के बेवजह रास्ता बदलवाते हैं, किसी दिन कुछ हो गया तो सारा ठीकरा पुलिस के सिर फूटेगा कि उन्होंने बग़ैर रोड ओपनिंग हुई सड़क पर गाड़ी क्यों उतार दी.

लेकिन दीपक को कोई फ़िक्र नहीं. वे मुझे एक गाँव में ले जाना चाहते हैं, कुछ दिखाना चाहते हैं.

इसके डेढ़ साल बाद दो हज़ार पंद्रह की गरमियों में हवा उबल रही है कि जुडुम पार्ट-टू शुरू हो रहा है. ठीक दस साल पहले यानी २००५ की गरमियों में महेंद्र कर्मा थे, इस बार उनका दूसरा बेटा छविन्द्र है. पिछली बार बस्तर में आ रहे टाटा के लौह संयंत्र की चर्चा थी, इस बार ख़ुद प्रधानमंत्री एक लौह संयंत्र का उद्घाटन करने आए हैं. निजी कम्पनियों के साथ मिलकरक्या फिर से जंगल का सफ़ाया होना है?

बस्तर के तीन जिलों में कर्मा के तीन सेनापति थे जो जुडुम की लड़ाई लड़ रहे थे. सुकमा में सोयम मूका, दंतेवाड़ा में चैतराम अट्टामी, बीजापुर में महादेव राणा. राणा की हत्या बहुत पहले होगयी, चैतराम अपने गाँव से करीब एक दशक पहले उजड़ गए, उसके बाद सलवा जुडुम शरणार्थियों के कैंप में रहते हैं. मूका भी सलवा जुडुम के दौरान उजड़ गए थे.

हम मई की इस दोपहर जगदलपुर में बैठे हैं. मूका और छविंद्र में बहस हो रही है किसके घर में सबसे अधिक नक्सली हमले और हत्या हुई हैं. दंडकारण्य में मृत्यु एक तमग़ा है, लाश एक व्यसन.

मूका जोर देकर कहते हैं कि इस जंग में सबसे अधिक उनके रिश्तेदार मारे गये हैं. अगर आपको भरोसा नहीं होता तो तहसील कार्यालय के कागज देख लीजिये,”उनकी आवाज डबडबाती है जब वे अपने मृत बड़े भाई सोयम मुकेश को याद करते हैं. मूका एक प्राथमिक स्कूल में शिक्षक थे, चैन से जी रहे थे कि उनके मामा महेंद्र कर्मा ने उन्हें बंदूक थमा दी कि नक्सलियों को ख़त्म करना है. ठीक दस साल बाद इन गर्मियों में कर्मा का बेटा उन्हें एक नया आन्दोलन शुरू करने के लिए उकसा रहा है, लेकिन मूका की बन्दूक ठंडी पड़ चुकी है.

उनकी (कर्मा) हत्या के बाद मेरा भरोसा उठ गया. जब वे जिन्दा थे मुझे लगता था हम मौत को पछाड़ सकते हैं...कर्मा कहते थे कि जिन्दा रहना है तो दुश्मन की खबर और दुश्मन से दूरी दोनों जरुरी है.

छविन्द्र उनके पास बैठे मुस्कुरा रहे हैं. वह मूका को चिढ़ाते हैं, जो छविन्द्र की दूर की बहन से ब्याहे हैं. इन्हें कुछ नहीं होगाये इतने बेशर्म हैं कि इनका विकिट नहीं गिर रहा,” छविन्द्र अपने बहनोई को छेड़ते हैं. भाई को अपनी बहन के विधवा हो जाने की कतई फ़िक्र नहीं. सुनते हैं कुछ लोग मृत्यु को हथेली पर लेकर चलते हैं, बस्तर में मृत्यु इन्सान की पलकों पर टिकी रहती है.

मूका छविन्द्र के ताने सुन खिसियाते हैं. एक समय जुडुम के करीब सौ प्रमुख नेता हुआ करते थे. आज सिर्फ करीब पन्द्रह बचे हैं, इसके लगभग सभी संस्थापक नेता मारे जा चुके हैं.

एक अन्य वरिष्ठ नेता सत्तार अली कहते हैं उन्होंने करीब सौ दोस्त खो दिए हैं. एक बार नक्सलियों ने उनके घर पर हमला किया था. एक गोली उनकी पीठ में लगी, उनके कंधे को चीरती हुईपास खड़े भाई के भीतर घुस गयी. आपको भरोसा न हो तो अपनी क़मीज़ उतार कर गोली का निशान दिखाऊँ?”

सत्तार कर्मा की गाड़ी में थे जब माओवादियों ने मई दो हजार तेरह में सुकमा से रायपुर लौटते कांग्रेस के काफिले पर भीषण हमला किया था (मुझे इस काफिले में होना था, कांग्रेस की सुकमा में चुनावी सभा पर रिपोर्टिंग करनी थी, लेकिन ऐन वक्त पर मुझे कोई दूसरा काम आ गया). दोनों तरफ से गोलियां चलीं, लेकिन माओवादियों ने चारों तरफ से घेर लिया था. सरकारी काफिले का असलहा ख़त्म हो रहा था, गुरिल्ला लड़ाकों का निशाना सिर्फ कर्मा थे लेकिन गोलियों के फव्वारे में एकदम निर्दोष कांग्रेसी नेता मर रहे थे. हम दोनों जीप के पीछे दुबके थे. कर्मा चाहते तो बच कर निकलने की सोच सकते थे. लेकिन गोलियां चलीं, तो वे बाहर निकल आये. उन्होंने अपनी जान दे दी, हम सबको बचा दिया.

चेतराम अट्टामी जिन पर पुलिस के साथ मिल जंगल के गाँव जलाने के तमाम आरोप हैं, आवेश में आकर कहते हैं:आप पुलिस के क़हर की बात करते हो. आपको मालूम भी है नक्सलियों ने क्या किया था? अगर बेटा को मारना है तो सबके सामने उसके माँ और बाप को उसे पत्थर से मारने को बोलते थेउनकी लड़ाई पूँजीपतियों से थी. उन्होंने ख़ुद ही क्यों नहीं उन्हें ख़त्म कर दिया? हम आदिवासी लोग दुनिया के बारे में कुछ नहीं जानते थे, उन्होंने हम लोगों से अपनी लड़ाई लड़वाई. ये जनवाद है?”

लेकिन छविन्द्र? वे कौन सी राजनीति कर रहे हैं? २०१४ के लोक सभा चुनाव में बड़े भाई दीपक को बस्तर लोक सभा की कांग्रेस टिकिट मिल गयी थी. दंतेवाड़ा विधान सभा पर माँ देवती का क़ब्ज़ा है. क्या जुडुम-दो छविंद्र का राजनैतिक पैंतरा है? मृत्यु की ज़मीन पर अपनी हसरतों का संधान है?

मेरे पिता समेत मेरे परिवार के ९५ लोग मारे गए हैं. लोग कहते हैं मैं जुडुम फिर से शुरू कर राजनीति कर रहा हूँ. मैं सिर्फ इस इलाके को नक्सलियों से मुक्त कराने की अपनी पारिवारिक जिम्मेदारी निभा रहा हूँ...मुझे मालूम है जब हम अन्दर जायेंगे वे हम पर हमला करेंगे. लेकिन इस लड़ाई में कुर्बानियां देनी ही पड़ेंगी. अगर गोली चलनी ही हैं, तो पहली गोली मेरी छाती पर आने दो,”
चौंतीस साल के छविन्द्र कहते हैं.

इस युद्ध में, शायद किसी भी अन्य युद्ध की तरह, सही और गलत का फर्क फ़क़त एक संयोग है. कर्मा की बस्तर पर राज करने की गहन राजनैतिक आकांक्षाएं थीं. वे दंतेवाड़ा को नक्सलियों से मुक्त कराना चाहते थे, लेकिन अपनी पसंद की निजी कम्पनियों के साथ उन्होंने जोड़-तोड़ की. न मालूम कितने ही जंगल के निवासियों को जो उनके ही भाई-बंधु थे जुडुम के दौरान कुचल डाला. इसके बावजूद जब फरसपाल के आकाश में चमकते में उनके कुनबे के विराट मृत्यु-स्तम्भ पर निगाह जाती है तो लगता है कर्मा की लड़ाई शायद अपनी जमीन पर कब्जे की लड़ाई भी थी. 


जंगल के एक जमींदार की उसके इलाके में आ गए बाहरी लोगों से वर्चस्व की लड़ाई थी. बस्तर का जंगल उनका था. वे इसे बनाते-बिगाड़ते, संवारते या नष्ट करते लेकिन आन्ध्र से आए पढ़े-लिखे गुरिल्ला लड़ाकों का प्रभुत्व उन्हें बर्दाश्त नहीं हुआ. यह स्वाभिमान की लड़ाई थी, भले ही स्वार्थ और क्रूरता से संचालित होती थी. आखिर कौन खुद को, अपने परिवार को दांव पर लगा देगा? कोई व्यापारी या राजनेता तो शायद नहीं. व्यापार या राजनीति में डूबा इन्सान इस कदर मौत से बेख़ौफ़ होकर शायद नहीं जी सकता, अपने पूरे कुटुंब को एक-एक कर ख़ूनी मौत मरते नहीं देख सकता.

दीपक के फ़ोन पर अभी भी अपने पिता का नम्बर बिग बॉसके नाम से सुरक्षित है.  पिता की हत्या के बाद यह नम्बर उनकी माँ के पास आ गया है. जब भी वे बेटे को फ़ोन करती हैं बेटे की स्क्रीन पर बिग बॉस कॉलिंगचमकता है. बेटे को अक्सर शुबहा हो जाता है कि कहीं पिता ने तो फ़ोन नहीं किया, बेटे के मुँह से कभी हाँ, पापाभी निकल जाता है.



(पांच)

मृत्यु का एक चेहरा और भी है जो मुझे दो हज़ार चौदह के अगस्त में पद्मा कुमारी ने दिखाया था. मैं उनके हैदराबाद के घर में बैठा हुआ था. पद्मा जेल में थीं जब उनके कामरेड पति सुरेश की पुलिस मुठभेड़ में मृत्यु हो गयी. मैंने उनकी लाश का चेहरा देखने नहीं गयी. मुझे मालूम था उनकी देह बुरी तरह से विकृत की जा चुकी है. मैं अपनी स्मृति में उनकी मुस्कान को जीवित रखना चाहती थी.

वे मेरे सिर्फ़ पति नहीं थे, वे मेरे नेता था. मेरी पार्टी के नेता.

सुरेश की मृत्यु के कुछ साल बाद पद्मा जेल से बाहर आयीं और २००७ में उन्होंने क्रांतिकारी लेखक संघ के एक पत्रकार सदस्य से दूसरी शादी कर ली. लेकिन सुरेश के चेहरे को वे नहीं भूलीं, ‘अमरुल्ला बंधु मित्रुला संघमसे जुड़ गयीं. आन्ध्र और तेलंगाना में कार्यरत इस संस्था का गठन मुठभेड़ में मारे गए माओवादियों के रिश्तेदारों ने किया है जिनमें से कई ख़ुद भी लम्बी गुरिल्ला ज़िंदगी जी चुके हैं. इसकी लगभग नब्बे प्रतिशत सदस्य स्त्रियाँ हैं. यह लोग मुठभेड़ में मारे गए माओवादियों के शव दूसरे राज्यों  से लेकर आते हैं, उनके रिश्तेदारों को सौंप देते हैं, सम्माजनक दाह संस्कार में मदद करते हैं. मृत्यु-वाहिनी के मृत्यु-वाहक. मित्रुला संघम हर साल अठारह जुलाई को तेलंगाना और आंध्र में वार्षिक दिन मनाता है, कई जगह कार्यक्रम होते हैं, लोग क्रांति की लड़ाई में मारे गए लड़ाकों को याद करते हैं. पिछले चालीस साल में आन्ध्र और तेलंगाना के क़रीब छः हज़ार लड़ाके मारे जा चुके हैं.

छत्तीसगढ़ में जंगल के निवासी गुरिल्ला लड़ाके के लिए ऐसी कोई संस्था नहीं है, जबकि पिछले दस-पंद्रह सालों सबसे अधिक मौत उनकी ही हुई हैं. वे मारे जाते हैं, कई बार शिनाख्त भी नहीं हो पाती, परिवार शव लेने कैसे आएगा? पुलिस इन सड़ते हुए शवों को इल्लत की तरह बरतती हुई दफ़ना देती है.

पद्मा की संस्था के मृत्यु-वाहक २०११ नवम्बर में पश्चिम बंगाल में मारे गए किशनजी का शव भी लेकर आये थे, करीमनगर ज़िले के पेदापल्ली इलाक़े में रहते उनके परिवार को सौंप दिया.

अगस्त दो हज़ार चौदह की रात बेहद उमस भरी है, लेकिन पेदापल्ली में अठासी साल की मधुरम्मा देर तक बात करती हैं. वे सिर्फ़ तेलुगु बोलती हैं, लेकिन जो ख़बरनवीस उनसे मिलने इतनी दूर से आया है वह तेलुगु नहीं समझ पाता. उनके पोते दिलीप अपनी दादी और ख़बरनवीस के बीच दुभाषिया बनते हैं. दिलीप किशनजी के भतीजे हैं, एक स्थानीय कॉलेज में मनोविज्ञान पढ़ाते हैं. हम उनके घर के अंदर बैठे हैं. सम्पन्न घर. एसी लगा है, ड्रॉइंग रूम में ढेर सारे अवार्ड. किसे मिले होंगे ये?

मधुरम्मा को अभी भी याद है नवम्बर का वह दिन जब पुलिस ने पेदापल्ली आने वाली सड़कों पर भारी पहरा बिठा दिया था, नाकाबंदी कर दी थी, लेकिन क़रीब सत्तर हज़ार की भीड़ उनके बेटे के लिए उमड़ आयी थी.

जब वे घर छोड़ कर जा रहे थे आपने रोका नहीं?

मैं कैसे रोकती? इंदिरा अम्मा ने इमरजेंसी लगा दी थी. उसे अंडरग्राउंड होना ही पड़ा.दुःख तो होता ही है, लेकिन मुझे उस पर गर्व है. उसका यहाँ बहुत सम्मान है.
(मधुरम्मा अपने मृत बेटे कोटेश्वरा राव की तस्वीर के साथ 
करीमनगर के अपने घर में. )

मैं चौंकता हूँ कि नब्बे की होने जा रही मधुरम्मा इतने अधिकार से इंदिरा अम्माकैसे कह रही हैं. उनके कमरे में रखे अवार्ड देख पता चलता है कि किशनजी के पिता मल्लोजुला वेंकटैया स्वतंत्रता सेनानी थे. यह पंद्रह अगस्त उन्नीस सौ बहत्तर को, दिलीप एक अवार्ड की तरफ़ इशारा करते हैं, इंदिरा गांधी ने उन्हें दिया था. उनके दादा भी भारत की आज़ादी के लिए लड़े थे. किशनजी के छोटे भाई मल्लोजुला वेणुगोपाल राव भी सत्तर के दशक में अंडरग्राउंड हो गए थे. इस वक़्त सीपीआई माओवादी पोलितब्यूरो के सदस्य हैं, शीर्षस्थ क्रांतिकारियों में शुमार.

स्वतंत्रता सेनानी के पोते और बेटे देश के सबसे दुर्दाँत क्रांतिकारी बनते हैं, अपनी शिक्षा और जीवन क्रांति के सपने पर क़ुर्बान करते हैं, उनमें से एक मुठभेड़ में देश के सर्वोच्च सुरक्षा बल द्वारा मारा जाता है, एक ऐसी विवादास्पद मुठभेड़ जिसके बारे में अक्सर यह सुनने में आता है कि इसके पीछे एक स्त्री का हाथ था जो उस लड़ाके को धर दबोचने केलिए ही पुलिस द्वारा प्लांटकी गयी थी, जिसके बाद, माओवादी और उनके सहयोगी संगठन आरोप लगाते हैं और जैसाकि पोस्टमार्टम की तस्वीरें संकेत देती हैं, पुलिस ने किशनजी के शव के साथ बेइंतहा बेरहमी की. मुर्दे को तहस नहस कर दिया.

मुझे याद आता है कि दो हज़ार बारह की गरमियों में मैंने एक निहायत ही मासूम बच्चे की ताज़ा लाश पर उसी सुरक्षा बल द्वारा घोंपे गए ख़ंजर के निशान देखे थे, अपने भीतर मृत्यु को एक स्थायी घर बनाते महसूस किया था. यह भी याद आता है मई तेरह में जब क़रीब सौ नक्सलियों ने निहत्थे कर्मा को जंगल में घेर कर मारा था, वे अपने दुश्मन की ताज़ी लाश को पैरों से खूँदते रहे थे, उसे चाक़ू से गोदते हुए उस पर नाचते रहे थे. उनकी लाश पर उत्सव मनाया था.


वह कोई अपवाद नहीं था. शीर्षस्थ माओवादी नेता दुश्मन की लाश के साथ नृशंसता को एक मनोवैज्ञानिक ज़रूरत बतलाते रहे हैं कि दुश्मन को कुचलने से, उस दृश्य का वीडियो बनाने से,उसे बार-बार देखने से कामरेड का उत्साह बढ़ता है, दुश्मन के प्रति डर मिट जाता है. मैंने माओवादी कैंप में युवा लड़ाकों को मुठभेड़ के वीडियो देखते देखा है --- गुरिल्ला लड़ाकों की आँखों में वहशी सुकून बरस आता है जब वे किसी पेड़ की मचान पर टिकी रात के अंधेरे में चमकती कम्प्यूटर स्क्रीन पर देखते हैं कि उनके साथियों ने किस तरह मरे हुए दुश्मन को नेस्तनाबूद कर दिया. रानी बोदली हत्याकांड में पुलिसवालों की लाश के साथ पाशविक बर्ताव को नक्सलियों ने अपने ख़ुफ़िया दस्तावेज़ों में इस तरह जायज़ ठहराया था: कामरेड साथियों के परिवार सलवा जुडुम की वजह से तबाह हो गए थे. उनकी बहनों का बलात्कार हुआ था, उनके माता-पिता और भाई मारे गए थे. इसलिए उनकी घृणा असीम थी. इसी घृणा की वजह से कामरेड बहादुरी से लड़ सके. जुडुम के गुंडों को बोटियों में क़तर देना इसी घृणा की अभिव्यक्ति था.

बस्तर में आख़िर शिकार इंसान का नहीं लाश का होता है.

क्या माओवादी आंदोलन आज़ाद भारत का महाभारत है और दंडकारण्य कुरुक्षेत्र
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abharwdaj@gmail.com

एस. हरीश के उपन्यास 'मीशा'पर विवाद : यादवेन्द्र

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(पेंटिग : ABDULLAH M. I. SYED - DIVINE ECONOMY)










ज्याँ पाल सार्त्र कहा करते थे– ‘मनुष्य स्वतंत्र होने के लिए अभिशप्त है.’ वह मध्ययुगीन बर्बरताओं से बाहर आया अब ‘आधुनिकता’ की जंजीरों को भी पहचान कर उन्हें काट रहा है. हेगेल ठीक ही कहते हैं – ‘स्वतन्त्रता की चेतना की प्रगति का विकास ही इतिहास है’.

स्वतन्त्रता की असली परीक्षा अभिव्यक्ति की जमीन पर होती है. साहित्य ने हमेशा से अभिव्यक्ति के ‘ख़तरे’ उठायें हैं. सभी तरह की सताएं अपने प्रतिपक्ष को नियंत्रित करना चाहती हैं. अगर अभिव्यक्ति ने ये ख़तरे न उठाये होते तो आज मनुष्य का कैसा इतिहास होता इसकी आप कल्पना कर सकते हैं.

सत्ता, धर्म और पूंजी का तालिबानी गठजोड़ हर जगह विरोध, प्रतिरोध और प्रतिपक्ष को खत्म कर देने पर आमादा है. धार्मिक कट्टरता इस धरती की सबसे बुरी चीज है वह इसे दोजख़ बनाकर काल्पनिक जन्नत के लिए शवों को सजाने का काम करती है.    

   
अभी हाल की घटना मलयाली लेखक एस. हरीश के धारवाहिक छप रहे उपन्यास 'मीशा'से जुडी है. उसकी कुछ पंक्तियों को लेकर इतना बवाल मचा कि अंतत: अख़बार ने उसका छपना स्थगित कर दिया. ऐसे में एक प्रकाशक ने इसे छापने की हिम्मत दिखाई. लेखक और प्रकाशक का महत्वपूर्ण वक्तव्य यहाँ यादवेन्द्र प्रस्तुत कर रहे हैं.


मेघाच्छादित  आकाश  में  उम्मीद  की  कौंध            
यादवेन्द्र




यादवेन्द्र



मलयालम के चर्चित और पुरस्कृत लेखक एस.हरीश के उपन्यास 'मीशा'की आठ दस पंक्तियों को लेकर हिंदूवादी संगठनों ने केरल में बड़ा और गंदा बवाल मचाया....उपन्यास को धारावाहिक छापने वाली पत्रिका 'मातृभूमि'की प्रतियाँ जलाईं और लेखक को इतना धमकाया कि इसकी तीन कड़ियों के बाद उनके कहने पर पत्रिका में प्रकाशन रोक दिया गया. अन्ततः एक बड़े प्रकाशक ने साहस दिखाते हुए दस पन्द्रह दिन में ही उपन्यास पुस्तकाकार छाप दिया.

यहाँ ये दो मलयालम के चर्चित और पुरस्कृत लेखक एस.हरीश के उपन्यास 'मीशा'की आठ दस पंक्तियों (बॉक्स में देखें) को लेकर हिंदूवादी संगठनों ने केरल में बड़ा और गंदा बवाल मचाया....उपन्यास को धारावाहिक छापने वाली पत्रिका 'मातृभूमि'की प्रतियाँ जलाईं और लेखक को इतना धमकाया कि इसकी तीन कड़ियों के बाद उनके कहने पर पत्रिका में प्रकाशन रोक दिया गया. अन्ततः एक बड़े प्रकाशक ने साहस दिखाते हुए दस पन्द्रह दिन में ही उपन्यास पुस्तकाकार छाप दिया.

महत्वपूर्ण व जरूरी हैं जो देश के वर्तमान सांस्कृतिक परिदृश्य का अंधेरा बताने के लिए पर्याप्त हैं:

26 जुलाई 2018को एस हरीश ने अपने पाठकों को खुला पत्र लिखा :

एस हरीश


"मातृभूमि सचित्र साप्ताहिक में मेरे उपन्यास की तीन कड़ियाँ छपीं - यह उपन्यास पिछले पाँच वर्षों के कठोर परिश्रम जा प्रतिफलन है और इसकी विषयवस्तु बचपन से मेरे मन में घर किये हुए थी. पर मैं देख रहा हूँ कि इस कृति का एक बहुत छोटा सा अंश सोशल मीडिया पर बड़े दुर्भावनापूर्ण ढंग से प्रचारित प्रसारित किया जा रहा है...कोई दिन ऐसा नहीं बीतता जिस दिन मुझे सोशल मीडिया पर धमकियाँ न दी जाती हों. एक चैनल पर राज्य स्तर के नेता ने कहा कि चौराहे पर खड़ा कर मुझे झापड़ मारना चाहिए. 

यहाँ तक कि मेरी पत्नी और दोनों बच्चों की तस्वीरें भी सोशल मीडिया पर अपमानजनक ढंग से साझा की जा रही हैं. और तो और मेरी माँ, बहन और पिता - जो अब इस दुनिया में भी नहीं हैं - तक को भी नहीं बख्शा गया. राज्य महिला आयोग और अनेक पुलिस थानों में मेरे खिलाफ़ रिपोर्ट लिखाई गयी. इन सब को ध्यान में रख कर मैंने निश्चय किया है कि अपना उपन्यास पत्रिका में आगे छपने से रोक दूँ. 

यह उपन्यास भी तत्काल छपे ऐसा मेरा कोई इरादा नहीं है. जब भविष्य में मुझे लगेगा कि समाज भावनात्मक रूप से शांत हो गया है और इसे स्वीकार करने के लिए तैयार है तब मैं इस कृति को छपने के लिए दूँगा. जिन लोगों ने मुझे इतना अपमानित प्रताड़ित किया मैं उनके विरुद्ध भी कोई कानूनी कारवाई नहीं करने जा रहा हूँ...


मैं लंबे कानूनी दाँव पेंच में नहीं उलझना चाहता जिस से कम से कम आने वाले समय में अपना काम शांतिपूर्ण ढंग से कर पाऊँ. इतना ही नहीं जो सत्ता में बैठे शक्तिशाली लोग हैं मेरी क्षमता उनसे पंगा लेने की नहीं है. इस संकट में जो तमाम लोग मेरे साथ खड़े रहे उन्हें मैं तहे दिल से शुक्रिया कहना चाहता हूँ- विशेष तौर पर 'मातृभूमि'की संपादकीय टीम और अपने परिवार का आभारी हूँ जो निरन्तर मेरे साथ खड़े रहे.

मेरी कलम रुकेगी नहीं, आगे भी चलती रहेगी."



इस घटना के दस दिन बाद ही केरल के प्रमुख प्रकाशक डी सी बुक्स ने हिंदूवादी संगठनों की धमकियों को अँगूठा दिखाते हुए एस हरीश का उपन्यास "मीशा"पुस्तक के रूप में प्रकाशित कर दिया. इस मौके पर डी सी बुक्स ने एक महत्वपूर्ण व साहसिक वक्तव्य भी जारी किया :

'यदि 'मीशा'को अब न प्रकाशित किया गया तो हम ऐसे मुकाम पर पहुँच जायेंगे जहाँ मलयालम में कोई कहानी और उपन्यास प्रकाशित करना असंभव हो जायेगा. वैकुम मोहम्मद बशीर,वी के एन,चंगमपुझा,वी टी भट्टतिरिपद जैसे बड़े और  आज की पीढ़ी के लेखकों की रचनाएँ प्रकाशित करने के लिए जाने किस-किस की अनुमति लेनी पड़ेगी.'
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विवादित  अंश
छह महीने पहले मेरे एक दोस्त ने मेरे साथ चलते चलते पूछा : 'बता सकते हो लड़कियाँ नहा धो कर और इतना सज धज कर मंदिर में क्यों जाती हैं?'
'पूजा करने के लिए,और क्यों?'
'नहीं, तुम गौर करना....सबसे सुंदर कपड़े पहन कर, सबसे आकर्षक सज धज के साथ ही वे भगवान के सामने प्रार्थना क्यों करती हैं?...उनके अवचेतन में यह सजधज बैठी हुई है - यह इस बात का संकेत है कि वे सेक्स करने की उच्छुक हैं. यदि ऐसा नहीं है तो हर महीने चार पाँच दिन वे मंदिर की ओर रुख क्यों नहीं करतीं?अपने को सजा धजा कर वे यह घोषणा करती हैं कि अब वे इसके लिए तैयार हैं....खास तौर पर उनके निशाने पर मंदिर के पुजारी होते हैं. पहले के समय में इन सारे कामों के असली मालिक वही होते थे.'
(सुप्रीम कोर्ट में किताब के विरोध में दायर याचिका से उद्धृत)
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किताब के बारे में लेखक हरीश ने विस्तार से 'द हिन्दू'से बात की और कहा कि विवाद वाला प्रसंग पचास साल पहले का दो मित्रों का संवाद है. उनके अनुसार जिस दिन उपन्यास के पात्र लेखक का हुक्म मानने लगेंगे उसदिन सबकुछ नष्ट हो जाएगा - वास्तविक जिंदगी और कहानियाँ दोनों विसंगतियों (ऐब्सर्डिटी) के पैरों पर चलती हैं. वे कहते हैं कि वे स्वयं संवाद के स्त्री विरोधी तेवर के खिलाफ़ हैं पर किरदारों पर उनका कोई वश नहीं चलता. उनके अनुसार कहानियाँ लोकतंत्र का उच्चतर स्वरूप है जिसमें असहमतियों की पूरी जगह है.
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yapandey@gmail.com


स्मरण : शिवपूजन सहाय : प्रभात कुमार मिश्र

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स्मरण
शिवपूजन सहाय
(जन्म: ९ अगस्त, १८९३ : २१ जनवरी, १९६३)

शिवपूजन सहाय आधुनिक हिंदी साहित्य के निर्माण काल के साक्षी और सहभागी हैं. अपने समय के अधिकतर हिंदी लेखकों से उनके निकट के सम्बन्ध रहे थे. यहाँ तक की कालजयी रचनाओं के संपादन और प्रकाशन में भी उनकी सहभगिता थी. खुद उनका अपना लेखन भी विविध और समृद्ध है.
उनके जन्म दिन पर प्रभात कुमार मिश्र का यह आलेख उनके साहित्यिक सरोकारों से हमारा बखूबी परिचय करवाता है.




शिवपूजन  सहाय  की  उपस्थिति                         
प्रभात कुमार मिश्र



शिवपूजन सहाय स्वयं साहित्य-स्रष्टा तो थे ही, वह दूसरों में साहित्य-रचना की प्रेरणा पैदा करनेवाले और नए लेखकों को प्रोत्साहित करनेवाले साहित्यकार भी थे. इस अर्थ में वह भारतेन्दु, बालमुकुन्द गुप्त और महावीरप्रसाद द्विवेदी की परम्परा को अग्रसर करने वाले सिद्ध हुए. महावीरप्रसाद द्विवेदी के बारे में प्रेमचन्द ने हंसके द्विवेदी-अभिनंदनांकमें संपादकीय वक्तव्य में यह लिखा था कि

ये सबको पिता की तरह शासित किया करते थे और माता की तरह प्यार ! ये हमारी गलतियों पर फटकारते थे, उन्हें प्रेमपूर्वक सुधार देते और हमारी सफलता पर हमें प्रेम के मोदक भी खिलाते थे. इन्होंने ठोंक-ठोंककर हमें सुधारा, पुचकार-पुचकारकर ठीक रास्ते पर चढ़ाया और उत्साह दे-देकर आगे बढ़ाया.’’

ठीक यही बात मतवाला मंडल के श्रृंगारशिवपूजन सहाय के बारे में रामवृक्ष बेनीपुरी ने शब्दों के थोड़े हेर-फेर के साथ लिखी है. शिवपूजन सहाय ने उन्हें पत्र लिखकर एक हास्य-व्यंग्य के पत्र गोलमालके सम्पादन का भार सौंपा था. बेनीपुरी जी ने लिखा है कि गोलमालमें मुझे पूरी स्वाधीनता थी. शिवजी के बताए रास्ते पर चलता. जहां त्रुटि होती, शिवजी लम्बा पत्र लिखते. यही नहीं,मेरी सफलता पर भी पीठ ठोंकते.’’

शिवपूजन सहाय का सम्बन्ध हिन्दी नवजागरण के दूसरे चरण अर्थात् महावीरप्रसाद द्विवेदी के युग से है. इस युग तक आते-आते साहित्य को ज्ञानराशि के संचित कोशके रूप में स्वीकार किया जा चुका था. साहित्य अब निरे रसस्रोत अथवा मनोरंजन की वस्तु नहीं मानी जा रही थी बल्कि साहित्य के भीतर स्वाभाविक तौर पर समाज, इतिहास, अर्थशास्त्र, राजनीति, विज्ञान एवं सभ्यता-संस्कृति के विभिन्न उपादानों का प्रवेश हो चुका था. शिवपूजन सहाय ने युग की इस धारा को समय रहते पहचान लिया और विभिन्न विधाओं में उत्कृष्ट और नए ढंग का साहित्य-सृजन तो किया ही, हिन्दी भाषा और साहित्य से जुड़े विभिन्न विषयों, राष्ट्रभाषा और राजभाषा सम्बन्धी बहसों,समकालीन राजनीतिक परिस्थितियों तथा अन्य ज्वलन्त सामाजिक  समस्याओंपर विभिन्न पत्रिकाओं के संपादकीय स्तम्भों में अपने विचार प्रकट किए.

यद्यपि हिन्दी नवजागरण के प्रसंग में जब हम शिवपूजन सहाय के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विचार करने को प्रवृत्त होते हैं तो एक बड़ी समस्या सबसे पहले उपस्थित होती है. असल में हिन्दी नवजागरण के विस्तृत परिसर का एक कोना अभी भी विद्वानों और गवेषकों की राह देख रहा है. ऐसा प्रतीत होता है कि हिन्दी नवजागरण का एक जरूरी अध्याय अभी तक लिखा ही नहीं गया है. इसका कारण यह है कि हिन्दी नवजागरण से सम्बन्धित विमर्शों का भूगोल प्रायः पश्चिमोत्तर भारत अर्थात् पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश पर ही केंद्रित रहा है. हिन्दी भाषी पूरब के इलाकों विशेषकर बिहार प्रांत में नवजागरण के स्वरूप और उसकी दिशाओं पर अपेक्षित ध्यान नहीं गया है. यह अनायास नहीं है कि भारतेन्दु मंडल के अग्रदूतों के बाद हिन्दी नवजागरण की धारा को आगे बढ़ाने वाले नामों में शामिल जनार्दन प्रसाद झा द्विज’, लक्ष्मी नारायण सुधांशु’, अनूपलाल मंडल, रामावतार शर्मा, शिवनन्दन सहाय, महेश नारायण, शिवपूजन सहाय, रामवृक्ष बेनीपुरी, नलिन विलोचन शर्मा आदि के बारे में हम प्रायः अधिक नहीं जानते.

इस भूभाग में नवजागरण की प्रकृति पर विशेष ध्यान देने की जरूरत इस कारण भी है कि बिहार में हिन्दी 1881 से ही कचहरियों की भाषा स्वीकृत हो गई और बाद में जाकर 1900 में यूपी में. इस सन्दर्भ में अयोध्या प्रसाद खत्री के नेतृत्व में चलने वाले खड़ी बोली आंदोलन की भूमिका से हम परिचित हैं ही.नवजागरण के अग्रणी चिंतकों की रचनाओं को सामने लाने में पटना के खड्गविलास प्रेस के योगदान की उपेक्षा नहीं की जा सकती है. अपने-अपने ढंग से इन सबका योगदान अनूठा है, इन सबने हिन्दी नवजागरण के यज्ञ में अपने-अपने हिस्से की समिधा दी है. ये वो लोग हैं जिनके बीच शिवपूजन सहाय का साहित्यिक जीवन बीता है. इनके वैचारिक और साहित्यिक संग-साथ में ही शिवपूजन सहाय के मानस में न जितने कितने विचारों ने जन्म लिया है और कितनी ही योजनाओं  ने आकार पाया है.

जनार्दन प्रसाद झा द्विज’ (1904-1964)छपरा के राजेन्द्र कॉलेज में शिवपूजन सहाय के सहयोगी थे. प्रेमचन्द के साहित्य पर प्रकाशित पहली आलोचनात्मक किताब प्रेमचन्द की उपन्यास कलालिखने का गौरव इन्हें ही प्राप्त है. पहले से ही अंग्रेजी में एम ए हो चुके बहुमुखी प्रतिभा के स्वामी द्विज जी को हिन्दू विश्वविद्यालय से हिन्दी में भी एम ए की डिग्री प्राप्त होने पर स्वयं प्रेमचन्द ने एक टिप्पणी लिखी थी, जो अब विविध प्रसंगभाग तीन में द्विजजी को बधाईशीर्षक से संकलित है. प्रेमचन्द ने लिखा था कि ‘‘भावुकता के सागर में डुबकियां लगानेवाला कवि और कल्पना के आकाश में उड़नेवाला गल्पकार और चरित्र-जीवन परीक्षा भवन में बैठकर ऐसी असाधारण सफलता प्राप्त करले यह साधारण बात नहीं है. परीक्षाएं तो रट्टुओं के लिए है और इस क्षेत्र में हमने प्रतिभाओं को रट्टुओं से नीचा देखते पाया है. कवि को परीक्षा से क्या प्रयोजन! कल्पनावालों को भाषा-विज्ञान और भाषा को प्राचीन इतिहास से क्या प्रयोजन, लेकिन द्विजजी ने यह पाला जीत कर साबित कर दिया कि वह अगर आज शाक-भाजी की दुकान खोलकर बैठ जाएं तो वहां भी सफल हो सकते हैं.’’

 आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का मत था कि द्विज जी की कहानियां गुलेरी जी की सामान्य घटना प्रधान कहानी उसने कहा थाऔर चंडी प्रसाद हृदयेशजी की उन्मादिनीकहानी का मनोरम समन्वय उपस्थित करती है.

शिवपूजन सहाय से द्विज जी का प्रेम बहुत सघन था. उनके बीच के इस प्रेम की एक झलक हमें शिवपूजन सहाय द्वारा उनको याद करते हुए लिखे गए इस अंश में दिखाई पड़ती है ‘‘उधर प्लेटफार्म से गाड़ी सरकने लगी, इधर पैरों के नीचे की धरती खिसकती-सी जान पड़ी. मालूम हुआ, गाड़ी के साथ प्लेटफार्म भी चला किन्तु प्लेटफार्म ऐसा सौभाग्यशाली न था. उसने अपनी थर्राहट को मेरे पैरों की राह सारे अंग में बिखेर दिया. लालसा थी, पर हाथ हिलाने की सुध ही न रही. मानो देखते-देखते हाथ साथ छोड़ गए. एकाएक हृदय भर आया. चेतना चम्पत हो गयी. हाथ का छाता अनायास टेककर चकराता हुआ शरीर संभालने का प्रयास करने लगा. ऐसा कातर कभी न हुआ था. शायद ढलती उम्र की अशक्तता भावावेश के आकस्मिक आवेग से सहसा दहल गई. प्रेम की विह्वलता कहना तो दम्भ ही होगा.’’

1944 में राजेन्द्र कॉलेज, छपरा की नौकरी छोड़कर द्विज जी के प्रस्थान के समय का वर्णन इन पंक्तियों में है. समझना कठिन नहीं है कि शिवपूजन सहाय द्विज जी के साथ कितने गहरे जुड़े थे. द्विज जी के साथ जुड़े रहने का अर्थ था दुनिया भर के साहित्य की नवीन चिंताओं के साथ जुड़े रहना.

लक्ष्मीनारायण सुधांशु’ (1906-1974)ने ही सबसे पहले बिहार कांग्रेस के अग्रणी नेता के बतौर प्रांतीय सरकार के समक्ष बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् की स्थापना का प्रस्ताव रखा था. कांग्रेस के साथ राजनीतिक मोर्चे पर अग्रणी रहते हुए भी काव्य में अभिव्यंजनावाद’ (1938) तथा जीवन के तत्व और काव्य-सिद्धांत’ (1942) जैसी असाधारण पुस्तकों के रचयिता सुधांशु जी के मौलिक साहित्यिक योगदान को छोड़कर उस युग के साहित्यिक परिवेश के आकलन में आगे नहीं बढ़ा जा सकता. सुधांशु जी ने आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के रहते ही स्वच्छन्दतावादी काव्य-प्रवृत्तियों का पक्ष लेकर उनकी अतिशय शास्त्रीयतावाद के आग्रह का प्रतिवाद किया था. यही नहीं अभिव्यंजना सम्बन्धी शुक्ल जी के मतों की भी तीखी आलोचना सुधांशु जी ने की थी. कहने की आवश्यकता नहीं कि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की ख्याति और साहित्यिक दबदबे के सामने आकर प्रश्न उठाना लक्ष्मीनारायण सुधांशुके न केवल साहस का परिचय कराता है बल्कि उनकी मेधा और चिंतन के भी गवाक्ष खोलता है. रस रंगऔर गुलाब की कलियांउनके कथा संग्रह हैं. रस रंगमें काव्य के रूपों-रसों को आधार बनाकर कथाओं को रचा-बुना गया है.

अप्रतिम उपन्यासकार अनूपलाल मंडल (1896-1982) को आज हम लगभग भूल से चले हैं किन्तु फणीश्वरनाथ रेणु से भी पहले आंचलिकता के तत्वों को ठीक-ठीक उपन्यास के भीतर ले आनेवाले उपन्यासकार थे अनूपलाल मंडल. ग्रामीण अंचल के सामाजिक ताने-बाने को उनके उपन्यासों में यथारूप देखा जा सकता है. इनके उपन्यासां में सामाजिक विषमताओं का तीखा प्रतिरोध, स्त्रियों के प्रति गहरी संवेदना और सामान्य मानवीयता की रक्षा का स्वर प्रबल है. इनकी आत्म-मर्यादाशीर्षक एक कहानी 1928 में ही चांदमासिक में छपी थी. 1940 में उनके उपन्यास मीमांसापर आधारित एक फिल्म भी बनी थी बहूरानीनाम से. महान कथा-शिल्पी अनूपलाल मंडल के लगभग बीस उपन्यास प्रकाशित हैं. इन उपन्यासों में अभियान का पथ, आवारों की दुनिया, उत्तर पांडुलिपि, उत्तर पुरूष, केन्द्र और परिधि, ज्वाला, तूफान और तिनके, तथा दस बीघा जमीन प्रमुख हैं. इन्हें आलोचकों ने प्रेमचन्द और रेणु के बीच की कड़ी माना है. इन्हें बिहार का प्रेमचन्दभी कहा जाता है. शिवपूजन सहाय से इनकी घनिष्ठ मैत्री थी और बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् के कार्यों में ये उनके सहयोगी भी थे.

हिन्दी पत्रकारिता और कविता के क्षेत्र में महेश नारायण (1858-1907) को छोड़कर बात आगे नहीं बढ़ती. हिन्दी की पहली आधुनिक कविता मानी जानेवाली स्वप्नशीर्षक कविता महेश नारायण की ही लिखी हुई है.पटना से निकलनेवाली साप्ताहिक पत्रिका बिहार बंधुने इस कविता को 13 अक्टूबर, 1881 से लेकर 15 दिसम्बर, 1881 तक धारावाहिक छापा था. स्वाधीनता की चेतना से युक्त खड़ी बोली हिन्दी में कविता लिखना सचमुच भारतेन्दु युग की काव्य विषयक मान्यताओं में एक सार्थक हस्तक्षेप था. हिन्दी में मुक्त छन्द और फैंटेसी का प्रयोग सबसे पहले इसी कविता में देखने को मिलता है. जीवनी जैसी नवीन गद्यविधा का जब हिन्दी में प्रवेश ही हो रहा था लगभग उसी समय भारतेन्दु और तुलसीदास की प्रसिद्ध जीवनियां लिखी थी शिवनन्दन सहाय ने. रामावतार शर्मा (1877-1929) दर्शनशास्त्र और साहित्य के उद्भट विद्वान थे. 


अप्रतिम शैलीकार रामवृक्ष बेनीपुरी (1899-1968) जिन्होंने साहित्य, पत्रकारिता और राजनीति को एक कर दिया था. राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने उन्हें कलम का जादूगरकहा था. एक पत्रकार के रूप में बालक, युवक, योगी, जनता, हिमालय और नई धारा जैसी पत्रिकाओं का सम्पादन करके भारतीय इतिहास की लगभग आधी सदी का इतिहास उन्होंने सुरक्षित कर दिया है. नलिन विलोचन शर्मा (1916-1961) थे जिन्होंने हिन्दी में इतिहास-दर्शन सम्बन्धी पहली मुकम्मल किताब लिखी थी साहित्य का इतिहास दर्शन. शिवपूजन सहाय ने नलिन विलोचन शर्मा के साथ मिलकर अयोध्या प्रसाद खत्री स्मारक अभिनंदन ग्रंथका संपादन किया था.कहने की आवश्यकता नहीं है कि इन सब विभूतियों के बीच बाबू शिवपूजन सहाय का व्यक्तित्व अलग ही दमकता था. सचमुच ही वे मतवाला मंडल के श्रृंगार’  थे, निराला जी ने ठीक ही शिवपूजन सहाय को हिन्दी भूषणकहकर पुकारा था.

शिवपूजन सहाय का साहित्यिक सम्बन्ध एक प्रकार से भारतेन्दु मंडल तक जा पहुंचता है. उर्दू पढ़ रहे बालक शिवपूजन सहाय को हिन्दी पढ़ने की प्रेरणा मिली थी अक्षयवट मिश्र विप्रचंदसे. अक्षयवट मिश्र भारत मित्रपत्रिका में बालमुकुन्द गुप्त के सहयोगी थे और लाला पार्वतीनन्दन के नाम से सरस्वतीमें व्यंग्य लिखा करते थे. इसलिए भारतेन्दु युगीन हिन्दी नवजागरण की चिंताएं एवं विशेषताएं स्वाभाविक रूप से शिवपूजन सहाय के साहित्य में भी दिखाई पड़ती हैं. ऐसी ही एक विशेषता है हंसमुखगद्य की रचना. शिवपूजन सहाय की रचनाओं में हमें भारतेन्दु युगीन जिन्दादिली की उपस्थिति मिलती है. भाषा में चुटीलापन और हास्य-व्यंग्य के माध्यम से गहरी बात कह देना शिवपूजन सहाय को सिद्धहस्त था. हां, समय बदला, परिस्थितियां और चुनौतियां बदल गई थीं इसलिए इन चिंताओं का स्वरूप भी एकदम एक-सा नहीं है.

जिस प्रकार नवजागरण के आरंभिक दौर से ही राजनीतिक मुक्ति के किसी ठीक-ठाक मार्ग को न पाकर नवजागरण के अग्रदूतों ने स्वत्व-रक्षा के सांस्कृतिक मोर्चे को सम्हाल लिया था और औपनिवेशिक सम्मोहन का अपने लेखन से डटकर प्रतिरोध किया उसी प्रकार नवजागरण के इस नए दौर में शिवपूजन सहाय ने संस्कृति पर पड़ रहे औपनिवेशिक प्रभाव को समय रहते पहचान लिया था. 31 दिसम्बर, 1956 को डायरी में उन्होंने लिखा था
‘‘अभी तक हमारे देश में अंग्रेजी भाषा, अंग्रेजी सभ्यता, अंग्रेजी संस्कृति, अंग्रेजी नीति-रीति चल रही है. स्वदेशी तिथि और संवत् का व्यवहार बहुत कम होता है. भारतीय ढंग से छुट्टियां भी नहीं होतीं. अंगरेजियत हर जगह सिक्का जमाये बैठी नजर आती है. भारतीयता का रंग फीका पड़ गया है. मकान बनाते हैं अंगरेजी ढंग के, भोज और उत्सव होते हैं विदेशी ढंग के, वेशभूषा में और खानपान में तो बहुत विदेशी ढंग आ गया है. भारतीय सभ्यता-संस्कृति का ध्यान ही छूट गया है. उसके प्रति जन-जन के मन में आग्रह और ममता नहीं है, उसके महत्व के चिन्तन और उसके तत्व तथा तथ्य के अनुशीलन की प्रवृत्ति भी नहीं है. अभी तक वास्तविक देशोद्धार हुआ कहां है?’’

शिवपूजन सहाय साफ समझते थे कि सभ्यताके प्रसार के साथ-साथ संस्कृतिका विकास भी होता चले यह आवश्यक नहीं है. उनका मानना था कि जैसे-जैसे सभ्यता फैलती जाती है, मनुष्यता घटती जाती है. यांत्रिक सभ्यता के भयावह परिणामों की एक स्पष्ट समझदारी थी उनके पास. उन्होंने चिंता प्रकट की है कि पहाड़ों और जंगलों में रहने वाले मनुष्य सहज ही सत्य और अपने धर्म तथा मनुष्यता के आदर्शों को निबाहनेवाले थे किन्तु यांत्रिक सभ्यता की पहुंच ने उन्हें भी आलसी, अकर्मण्य, बेईमान और छली बना दिया है. वास्तविक देशोद्धार से शिवपूजन सहाय का अभिप्राय था

‘‘भारत का भौतिक विकास तो हो रहा है, पर आध्यात्मिक पतन भी हो रहा है. जबतक नैतिक पतन होता रहेगा तबतक बाहरी विकासों से कोई लाभ या सुख प्राप्त नहीं होगा. देश में जो सांस्कृतिक आयोजनों की धूम है वह भी सांस्कृतिक विकास की वृद्धि नहीं कर रहा, उससे प्रजा की वासनाओं का उद्दीपन हो रहा है. जान पड़ता है कि वासना की भूख अनेक रूपों में अपनी तृप्ति के साधन जुटा रही है. किन्तु यह दृढ़ निश्चय है कि नैतिक उत्थान से ही देश सुखी और समृद्ध होगा.’’

शिवपूजन सहाय ने कई स्थानों पर यह भाव प्रकट किया है कि भारत जैसे पराधीन देश में प्रजा का कल्याण तो राष्ट्रीय एकता से ही हो सकता है; पर केवल मौखिक एकता नहीं- भाव, विचार, सिद्धान्त, कार्य-प्रणाली और ध्येय आदि सबकी दृढ़ एकता चाहिए.

युगानुकूल संदर्भों में अपने सच को कहने में शिवपूजन सहाय बड़े ही साहसी थे. मतवालामें उन्होंने बलवन्त सिंह के नाम से भगत सिंह का एक लेख भी छापा था. यह उनके साहस का ही प्रमाण है कि उन्होंने ठीक उस समय महात्मा गांधी की जबरदस्त आलोचना की थी जब भारतीय राजनीति में गांधी का स्वर ही भारत का स्वर माना जा रहा था. उन्होंने साफ स्वर में गांधी के सत्याग्रह की आलोचना की थी. उनका कहना था कि सारे देशकी नजर केवल महात्मा गांधी पर टिकी हुई है, वह अपनी शक्ति संचय कर केवल गांधी बाबा के निर्देश की प्रतीक्षा कर रहा है. कांग्रेस की कार्यपद्धति पर तीखा व्यंग्य करते हुए शिवपूजन सहाय ने उसे देश की भोलीभाली जनता की भावनाओं से खेलनेवाला बताया है
‘‘‘देशसे आप क्या समझे? ‘देशमोटर पर नहीं चढ़ता, ताली नहीं पीटता, पत्र-सम्पादन नहीं करता, लेक्चर नहीं झाड़ता, प्रस्ताव पास नहीं करता, तर्कशास्त्रियों का गड़बड़झाला नहीं समझता-उसको तो स्वत्व का भी ज्ञान नहीं-वह भोलाभाला है-गौ है-अबोध है-अगर उसे कसाई को दे डालिए तो बिना चीं-चपड़ किए चला जाएगा. वह तो सिर्फ चार शब्द जानता है-गांधीबाबा’, ‘भारतमाता’, ‘कांग्रेसऔर स्वराज.’’

शिवपूजन सहाय के इस कथन में यह लक्षित कर सकना कठिन नहीं है कि केवल अधिवेशनों, बहसों, तर्कों, प्रस्तावों आदि से स्वराजपाने के कांग्रेसी ढंग से वे एकदम सहमत नहीं थे.राजनीति के क्षेत्र में धैर्य और संतोष वाली कांग्रेस की कार्य-पद्धति को शिवपूजन सहाय उचित नहीं मानते थे. नागपुर में सशस्त्र-सत्याग्रह का आंदोलन करने वाले मंचरेशा आवारी की जब महात्मा गांधी ने यह कहकर आलोचना की थी कि मरने या अपनी जान देने को निकला सत्याग्रही अपने हाथ में तलवार कैसे रख सकता है?’तब शिवपूजन सहाय ने यह टिप्पणी कीथी कि 

‘‘महात्माजी की नागपुर-सत्याग्रह के विरूद्ध उक्त दलीलें उन्हीं के योग्य हैं. पर हम जैसे साधारण संसारी प्राणियों का महात्माजी की उक्त दलीलों से इस युग में कोई भी उपकार न हो सकेगा इसमें कोई सन्देह नहीं. हम श्री अवारी की इस बात को मानते हैं, और बड़े जोर से मानते हैं कि दुर्बल की शान्ति और सत्याग्रह का कोई मूल्य नहीं. मजा और खूबसूरती तो तब हो जब हम सशस्त्र और सबल होकर भी शान्त और सत्याग्रही रहें.’’

इतना ही नहीं महात्मा गांधी के ग्रामसुधार योजनाओं पर भी शिवपूजन सहाय का रूख आलोचनात्मक है. उनका कहना है कि ग्राम-समस्याओं का निराकरण केवल मस्तिष्क-बल या बुद्धि-बल से नहीं हो सकता, उसके लिए वास्तविक प्रत्यक्ष अनुभव की आवश्यकता है. कह सकते हैं कि महात्मा गांधी ने तो निकट से भारत के गांवों को देखकर अपनी धारणा पक्की की थी. किन्तु शिवपूजन सहाय ज्यादा जोर देकर कहते हैं कि गांवों का अनुभव दूर से नहीं हो सकता. लिखित विवरणों और आंकड़ों से भी नहीं, पूछताछ या जांच-पड़ताल और दौरा करने से भी नहीं. शिवपूजन सहाय के अनुसार इसका सबसे बड़ा कारण तो यह है कि विभिन्न प्रान्तों के गांवों की समस्याएं भिन्न-भिन्न हैं. 

शिवपूजन सहाय ने निकट से गांव के जीवन को देखा था. उन्होंने अपने अनुभव के आधार पर लिखा है कि गांवों की पहली आवश्यकता है शिक्षा-प्रचार की. उन्होंने लड़कों और लड़कियों की शिक्षा के उचित प्रबन्ध को सबसे पहले आवश्यक माना है. उनके अनुसार गांवों की दूसरी आवश्यकता है अच्छी सड़कों की और फिर क्रमशः अच्छे जलाशयों, दवाखानों, नदियों और महामारियों की बाढ़ से बचने की स्थायी व्यवस्था, और खेतों की चकबन्दी की जरूरत सबसे अधिक है. शिवपूजन सहाय को आशंका थी कि ग्राम-सुधार के महात्मा गांधी के रचनात्मक कार्यक्रमों की ओर गांववाले आशा-भरी करूण-कातर दृष्टि से देख तो रहे हैं किन्तु देशभक्तकांग्रेसी-कार्यकर्ताओं की श्रद्धा इस ओर होगी भी कि नहीं.

शिवपूजन सहाय के साहस का एक और बड़ा प्रमाण हमें उनके द्वारा कवीन्द्र रवीन्द्रनाथ पर की गई व्यंग्य-टिप्पणी से मिलता है. शिवपूजन सहाय रवीन्द्रनाथ के व्यक्तित्व के एक पहलू से बहुत अप्रसन्न थे. अपने शांतिनिकेतन में रवीन्द्रनाथ ने हिन्दी की शिक्षा-दीक्षा का बढ़िया प्रबन्ध कर रखा था किन्तु स्वयं हिन्दी सीखने के प्रति उन्होंने आजीवन कोई अभिरूचि जाहिर नहीं की थी. इस बारे में पूछे जाने पर हमेशा रवीन्द्रनाथ का एक ही निश्चित उत्तर होता था कि टूटी-फूटी हिन्दी बोलकर मैं सरस्वती का अपमान नहीं करना चाहता. इस प्रसंग में शिवपूजन सहाय ने बड़ी मारक टिप्पणी लिखी है कि

‘‘नागराक्षर में लिखे हुए महात्मा गांधी के अनेक पत्र यत्र-तत्र छप चुके हैं, जिनमें कुछ अशुद्धियां भी पाई जाती हैं. पर तब भी महात्माजी के हस्तलेखों को पाकर देवनागरी अपने को धन्य ही मानती है. महाकवि के समान युगद्रष्टा महापुरूष की अमर लेखनी से प्रसूत नागराक्षर भी उसे धन्य ही बनाते; पर राष्ट्रभाषा हिन्दी को ऐसी गर्व-गौरव प्रदान करने की कृपा महाकवि ने न दिखाई. उनकी तूलिका से अंकित अनेक अटपटे चित्र दर्शनीय कला की संज्ञा पाकर चित्रकला के क्षेत्र में सुयश पा गए; पर राष्ट्रभाषा हिन्दी न उनकी वाणी के अमृत का एक कण ही चख सकी और न देवनागरी उनकी लेखनी के प्रसाद का कोई कण पा सकी.’’

इतना ही नहीं शिवपूजन सहाय ने इस बात पर भी चिंता जाहिर की थी कि रवीन्द्रनाथ के साहित्य पर कबीर, दादू, विद्यापति आदि हिन्दी के कवियों का प्रभाव तो विद्वानों ने बताया है किन्तु किसी ने इस बात की चर्चा नहीं की है कि आखिर क्यों महाकवि ने अपनी किसी रचना में इन कवियों की चर्चा तक नहीं की है?

शिवपूजन सहाय के साहस की बात चले तो यह भी बताना अनावश्यक नहीं होगा कि महावीरप्रसाद द्विवेदी के यत्नों और प्रभाव से उस युग में जो प्युरिटन साहित्यका दौर आया था, उस दौर में भी साहित्यिक सरसता की बात की थी शिवपूजन सहाय ने. साहित्यशब्द की एक साफ समझदारी थी शिवपूजन सहाय की. वो मानते थे कि ‘‘किसी राष्ट्र या जाति में संजीवनी शक्ति भरने वाला साहित्य ही है इसलिए सब-कुछ खोकर भी यदि हम इसे बचाए रहेंगे, तो फिर इसी के द्वारा हम सब-कुछ पा भी सकते हैं किन्तु इसे खोकर यदि बहुत-कुछ पा भी लेंगे, तो फिर इसे कभी पा न सकेंगे.’’ 

अपने समय में लिखी जा रही अधिकांश समालोचनाओं से शिवपूजन सहाय प्रसन्न नहीं थे. उनकी अप्रसन्नता का कारण यह था कि उनकी दृष्टि में अधिकांश आलोचनाएं ईर्ष्या-द्वेष और पक्षपात से भरी हुई होती थीं. सच्ची समालोचना की हिमायत करते हुए शिवपूजन सहाय ने अपनी साहित्यिक समीक्षाओं में बाबू श्यामसुन्दर दास और रामचन्द्र शुक्ल तक की आलोचना करने में हिचक नहीं दिखाई. भट्टनायकके छद्मनाम से समीक्षाएं लिखा करते थे शिवपूजन सहाय. रामचन्द्र शुक्ल ने महावीर प्रसाद द्विवेदी के प्रसंग में एक स्थान पर लिखा था कि द्विवेदी जी के लेखों को पढ़ने से ऐसा जान पड़ता है कि लेखक बहुत मोटी अक्ल के पाठकों के लिए लिख रहा है’’.

शिवपूजन सहाय ने इसकी समीक्षा करते हुए जिस साहस और स्पष्टवादिता का परिचय दिया है वह उल्लेखनीय है. शिवपूजन सहाय ने लिखा कि वास्तव में द्विवेदी जी दूसरों ही के समझने के लिए लिखते हैं, पर शुक्ल जी केवल अपने ही समझने के लिए लिखा करते हैं.’’

शिवपूजन सहाय का जीवन गुलाम भारत की चिंताजनक सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों के बीच प्रौढ़ हुआ था. इन सबके बीच अर्जित जीवनानुभवों ने उन्हें राष्ट्रहित और राष्ट्रभाषा की सेवा के मार्ग में बढ़ने की प्रेरणा दी थी. आधुनिक राष्ट्र की भाषा के रूप में हिन्दी को स्थापित करने में इनकी बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका रही है. जीवन भर जिस एक चीज को सबसे अहमियत दी थी शिवपूजन सहाय ने वह थी हिन्दी भाषा. उनका मानना था कि रचना में

‘‘भाषा खिलवाड़ करने की चीज नहीं है. भाषा बड़ी नाजुक चीज है. उसका रूप संवारने की कला कथा-रचना की कला से भिन्न है. उसके साथ मनमानी छेड़खानी साहित्य की मर्यादा भ्रष्ट करती है. हमारा मत है कि कथा-साहित्य की परख भाषा की कसौटी पर पहले होनी चाहिए.’’

बिल्कुल पक्की भाषा लिखने वाले शिवपूजन सहाय की इस विशेषता के ही कारण न केवल प्रेमचंद ने अपनी रंगभूमिके संपादन का जिम्मा उन्हें सौंपा था बल्कि उन्होंने महावीरप्रसाद द्विवेदी अभिनंदन ग्रंथ’, ‘राजेन्द्र प्रसाद अभिनंदन ग्रंथ’, ‘अयोध्या प्रसाद खत्री स्मारक अभिनंदन ग्रंथआदि महत्वपूर्ण अभिनंदन ग्रंथों के साथ-साथ राजेन्द्र प्रसाद की वृहदाकार आत्मकथा का भी संपादन किया था.

भाषा सम्बन्धी उनकी इस धारणा का सबसे अच्छा उदाहरण भी उनका ही उपन्यास है देहाती दुनिया’ (1926). इस उपन्यास के आरंभ में ही उन्होंने लिखा है कि ‘‘मैंने आज तक जितनी पुस्तकें लिखीं, उनकी भाषा अत्यन्त कृत्रिम, जटिल, आडम्बरपूर्ण, अस्वाभाविक और अलंकारयुक्त हो गई. उनसे मेरे शिक्षित मित्रों को तो सन्तोष हुआ, पर मेरे देहाती मित्रों का मनोरंजन कुछ भी न हुआ.’’  

इस उपन्यास में उन्होंने आंचलिक शब्दों, मुहावरों और देहात में चलने वाली कहावतों का साभिप्राय प्रयोग किया है. इन मुहावरों और कहावतों का प्रयोग करते हुए शिवपूजन सहाय ने निरन्तर यह ध्यान रखा है कि इनका प्रयोग इस प्रकार किया जाए कि प्रसंगानुकूल उनका अर्थ समझने में कोई कठिनाई न उपस्थित हो. आंखों में ही रात काटना’, ‘हंसी ओठों की राह न निकलकर आंखों की राह फूट पड़ना’, ‘कल्पना की हाट में खाली हाथ घूमनाजैसे नए मुहावरों का प्रयोग भाषा पर उनके जबरदस्त अधिकार का परिचय कराते हैं. कड़ाके की सर्दीका प्रयोग तो आम है किन्तु शिवपूजन सहाय ने कड़ाके की धूपजैसा मौलिक प्रयोग भी किया है.

भाषा सम्बन्धी उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि कथाकार की भाषा ऐसी मनभावनी होनी चाहिए कि उसकी रचना का उद्देश्य और निष्कर्ष उसके बतलाये बिना ही भली प्रकार पाठक के ध्यान में आप-से-आप आ जाना चाहिए.जब उन्होंने कथा-लेखन के क्षेत्र में पांव रखे थे तब स्वयं उन्होंने माना है कि

‘‘उस युग में कला’, ‘टेकनीक’, ‘वादआदि की कहीं कोई चर्चा नहीं सुन पड़ती थी. कहानी-लेखक तब कलाकार नहीं कहलाता था. वस्तुतः वह आरम्भिक युग था. कलात्मक चमत्कार तो विकास-युग की चीज है.हां, कथावस्तु की कल्पना मैंने कभी नहीं की. देखे-सुने-पढ़े विषयों से ही घटना और चरित्र का मसाला जुटाता रहा. मेरी एक भी कहानी कल्पना-लोक से नहीं उतरी है. आंखों-देखी और कानों-सुनी घटनाओं से हृदय में जब जैसे भावों की अनुभूति हुई तब तैसे उद्गार अभिव्यक्त हुए.’’

शिवपूजन सहाय ने देहाती दुनियाके द्वारा हिन्दी में उपन्यासकी तत्कालीन समझ में तब्दीली लाई थी. इस उपन्यास का महत्व न केवल इसमें उनके द्वारा किए गए नूतन भाषिक प्रयोगों की वजह से है बल्कि हिन्दी में विराम चिह्नों का साधिकार और शुद्ध प्रयोग भी उस जमाने में इसी उपन्यास में देखने को मिलता है. सबसे बड़ी बात इस प्रसंग में यह है कि देहाती दुनियाके रूप में शिवपूजन सहाय ने एक अनूठा औपन्यासिक शिल्प हिन्दी के सामने रखा था. यह अनायास नहीं है कि इस उपन्यास को उन्होंने प्रसिद्ध कहानीकार राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह को समर्पित किया है और अपने समर्पण वाक्य में शिवपूजन सहाय ने उन्हें हिन्दी के गद्य-कविकहकर संबोधित किया है. कहने की आवश्यकता नहीं है कि स्वयं शिवपूजन सहाय की दृष्टि में देहाती दुनियाका शिल्प गद्य-कविताका ही शिल्प है.

आजादी की लड़ाई के बीच और आजाद भारत की समस्याओं से निपटने में लेखकों की भूमिका बड़ी महत्वपूर्ण रही है. लेखकों-कवियों ने अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति के द्वारा देश की जनता की पीड़ा और वेदना की अभिव्यक्ति की है और उनकी आशाओं और आकांक्षाओं को स्वर प्रदान किया है. आजाद भारत में भारत की अस्मिता और खोई हुई प्रतिष्ठा को वापस पाने का एक व्यापक और संगठित अभियान शुरू हुआ थाऔर अलग-अलग प्रांतीय सरकारों द्वारा विभिन्न साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थाओं की संस्थापना के प्रयास आरंभ हुए थे. ऐसी ही एक संस्था थी बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्. परिषद् के आरंभिक काल से ही बतौर सचिव शिवपूजन सहाय संलग्न थे. इनकी प्रतिभा, क्षमता, दृष्टि और अभिरूचि का परिचय हमें उस समय के परिषद् के प्रकाशनों को देखकर मिलता है. राहुल सांकृत्यायन की महत्वपूर्ण पुस्तकें सहरपा कोश’, ‘दक्खिनी हिन्दी काव्यधारा’, ‘मध्य एशिया का इतिहास’, आचार्य नरेन्द्र देव की पुस्तक बौद्ध धर्म दर्शन’, वासुदेवशरण अग्रवाल की किताब पद्मावत : एक संजीवनी व्याख्या’, कई खंडों में छपे बिहार का साहित्यिक इतिहास’, ‘विद्यापति ग्रन्थावलीआदि के प्रकाशन के पीछे शिवपूजन सहाय की ही प्रेरणा और कोशिश थी. बिहार प्रांतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशनों के आयोजन और उन सम्मेलनों के संचालन में शिवपूजन सहाय की बड़ी भूमिका रहा करती थी. 

शिवपूजन सहाय देश और समाज से गहरे जुड़े थे और उसकी युगीन आवश्यकताओं का निकट अनुभव रखने वाले विद्वान थे. हिन्दी भाषा और साहित्य के विकास और समृद्धि को लेकर उनमें गहरी और सच्ची चिंता थी. हिन्दी क्षेत्र के साहित्यिक और सांस्कृतिक मानस के निर्माताओं में शिवपूजन सहाय अग्रगण्य थे.
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प्रभात कुमार मिश्र
हिन्दी विभाग, असम विश्वविद्यालय, सिलचर, असम-788011
मो 09435370523 / ई – पता : prabhat432@gmail.com


अच्युतानंद मिश्र की कविताएँ

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अच्युतानंद मिश्र की बीसवीं शताब्दी के मुख्य चिंतकों पर आधारित चिंतनपरक किताब ‘बाज़ार के अरण्य में’ इसी वर्ष आधार प्रकाशन से प्रकाशित हुई है. पश्चिमी के आधुनिक और उतर-आधुनिक दार्शनिकों को समझते हुए उन्हें भारतीय परिवेश में देखते हुए इसे लिखा गया है. जिन्हें इस समय को समझने में रूचि है वे जरुर इसे पढ़ें.


अच्युतानंद मिश्र कवि हैं और २०१७ का युवा कविता का भारत भूषण भी इन्हें प्राप्त है. उनकी कुछ कविताएँ यहाँ प्रस्तुत हैं.

कलाएं अपनी संवेदना और सृजनात्मकता के साथ प्रतिपक्ष निर्मित करती चलती हैं, वे यथास्थितिवादी नहीं होती हैं उनमें अक्सर एक रचनात्मक असंतोष रहता है. लेखन वर्तमान में चुक जाए तो वह कैसे कालजीवी होगा, कालजीवी होने का रास्ता पर काल से होकर जरुर जाता है. कुछ रचनाएँ भविष्य के लिए भी  अपनी अर्थवत्ता बचाकर रखती हैं.

कलाओं से सपाट और एकरेखीय ढंग से समकालीनता का सच उद्घाटित करने की मांग खतरनाक है, यह अंतत: नारे में बदल जाने या प्रतिबन्ध की मांग की तरफ ले जाता है. एक सभ्य समाज को सृजनात्मक भाषा के साहस को समझना चाहिए और उसे सहना भी चाहिए.


अच्युतानंद मिश्र की कविताएँ डर से मुठभेड़ करती हैं यह डर मुक्तिबोध के ‘अँधेरे’ से ज्यादा घना और ज़ालिम है. पर उम्मीद तो कविताएँ खोज़ ही लेती हैं.     





अच्युतानंद    मिश्र   की   कविताएँ                                        




ये दिन

हत्याएं होती हैं, रक्तहीन
मृतक के सिरहाने हम रख जाते हैं फूल
कोमल सुंदर
चुप रहकर फूल बढाते हैं
मृतक का सम्मान
एक बेचैन पक्षी तोड़ता है सन्नाटा
एक मृत्यु में छिपी होती है कई मृत्यु

हम करते हैं रक्तदान
दिन कोमल और सुंदर
नवजात शिशु के रुई से बाल जैसे
कोई नहीं है इस वक्त
कोई बात नहीं
यह उदास-शिशु से दिन
खामोशी की तीव्र भागदौड़
टूटता सन्नाटा
एक और मृत्यु रक्तहीन
रंगहीन यह दुनिया.

चटक लाल पक्षी
प्रतिक्षाहीन शिशु भविष्य
स्थगित वर्तमान
ठहराव के कंटीले तारों से
उलझी हर सांस
फंसावट में
हर रेशमी उलझन
हर उलझन के कई-कई नाम

खून में लिपटी चादर
काले स्याह धब्बे से
स्मृतियों में बढ़ गए दुख के फफोले
एक चीख भर प्रतिरोध
फेफड़े में भर देते हैं सांस

कौन कहाँ इस वक्त
एक हल्की सी आहट की तरह
प्रवेश करता स्वप्न में
स्वप्न के सारे राज छिपाती
एक चमकीली सुबह में खुल सकता है कुछ भी
खरगोश के मुलायम कानों की ऐठन की तरह
खुलता है सुबह का दरवाजा
भीतर प्रवेश करता है एक दिन
चौकन्ना हिरण
कुलांचे भरता है.







वसंत उस बरस
                                                                        

हमने अपने वसंत को चूमा
और खो गये
कुछ पत्तियां थी निष्पाप
टंगी रह गयी
कुछ पतंगे
उड़े और मर गये
एक कांच का आइना
टूट गया
वह सड़क पर बेतहाशा
दौड़ती रही

सबकुछ इतना स्वाभाविक था
कि हवा चली और दुप्पट्टा लहरा गया
शहर से दूर
एक जोर की लहर उठी
सीटी बजाती बस दूर चली गयी
बस की खिड़की से कोई रुमाल लहराता रहा
स्मृतियाँ धूल बनकर उड़ने लगी हर ओर
उस बरस वसंत
ने पागल कर दिया

फिर जीवन में आते रहे
शीत और ग्रीष्म अविराम.







बंजारे

बालकनी से देखा तो
सामने गुमसुम सा बैठा मैदान
अचानक रंगीन होता नज़र आने लगा
खच्चरों से जुती चार गाड़ियाँ
खोली जा रही थी
लाल -पीले -नील घाघरों में उड़ती औरतें
इधर-उधर बच्चों के पीछे दौड़ रही थीं
और मर्द खुले बदन तम्बू बांध रहे थे
पानी के ग्लास में एक बूंद खून की
तरह फ़ैल रही थी शाम 

कुछ देर इधर उधर करता मैं
दुबारा बालकनी में गया तो
रात घिर आई थी
बेहद उमस भरा मौसम था
खुले में उनके तम्बुओं को फड़फड़ाता देखकर
मैं तारों की छांव तले रात
गुजार सकने के सुख से वंचित
मध्यवर्गीय कुंठा और आत्मघाती
हिंसा से भर आया

पत्नी से थोड़ी नोंक झोंक के बाद
जब मैं फिर पंहुचा बालकनी की तरफ
मैंने देखा वहां लाल नीली आग की 
लपटें उठ रही हैं
और आग के पास बैठी औरतें
रोटियां सेंक रही हैं
बच्चे मैदान का चक्कर लगा रहें हैं
और मर्द आग के पास बैठकर ताश के पत्ते फेंट रहे हैं
साथ मिलकर खाने के बाद
वे देर रात तक बैठे रहे
बुझी हुयी आग के पास
और फिर चले गए
अपने-अपने तम्बुओं के भीतर

उमस और गर्मी से बुरा हालथा
कि बीच रात अचानक उचट गयी नींद
पानी का ग्लास हाथ में लिए
मैं पहुंचा बालकनी की तरफ
तम्बू हलके-हलके
इस तरह हिल रहे थे
जैसे लय में चलते चाक से
हिलता है कुम्हार का बदन
यह सृजन की थरथराहट थी
सिरजा जा रहा था जीवन

दो -तीन दिन बाद वे तम्बू नहीं थे
बस उनके धुंधले पदचिन्ह बचे हुए थे सड़क तक
वे निकल पड़े होंगे
किसी और खाली मैदान की तरफ

चीटियों के पुरखे वे
आदिम पृथ्वी की तलाश में
छान मारेंगे समूची पृथ्वी
और गुस्से में भरकर एक दिन
वे मार देंगे अपने खच्चरों को
सारे तम्बुओं को वे उलट देंगे
सब कुछ झुलसा देंगे
वे आग में
खाली परात सी पृथ्वी पर
वे नृत्य करेंगे
आदिम लय से गूंज उठेंगी सारी धरती
वे गुलेल के पत्थर से तोड़ देंगे सारा सीसा
औरतें बुहार कर ले जाएँगी सबकुछ समुद्र तक

अनथक यात्री वे
एक दिन चले जायेंगे पृथ्वी के बाहर
अपने साथ लिए समुद्र का नमक
और आँखों में सूरज की चमक.





पागल होने से ठीक पहले

पत्ते उड़कर वापस
आ रहे थे पेड़ों की तरफ
हवा का इरादा मैं जान नहीं पाया

कम निकलता हूँ इन दिनों
मुझे डर रहता है,
कहीं बरसात न हो जाए
हर अकेला आदमी मेरी ही तलाश में
पकड़ा जाऊं मैं
बारिश के बीच अकेला
सड़कों पर

मैं भागता रहूँ
और बरसात होती रहे
गली से एक बच्चा निकले
और साइकिल के छूटे पहिये की तरह
घूमता हुआ लौट आये
सब देखें मेरी ओर
उनकी हंसी मेरे चेहरे पर कीचड़ की मानिंद
उभर आये

मैं सोचता हूँ और
बिजली गुल हो जाती है
पंखों की आवाज़ सुनकर
भाग चुकी होती है छिपकलियाँ
कभी-कभी इस कदर अकेला होता हूँ
कि मुझे खुद को साबित करने के लिए
नींद का सहारा लेना होता है
सपने में मैं
एक सफ़ेद मेमने के पीछे भाग रहा होता हूँ
मैं गिर जाता हूँ मेरे घुटने छिल जाते हैं
और पानी के जहाज़
और रेलगाड़ियाँ
और हवाई जहाज़ कहीं से चले आते हैं
तीनों पर एक साथ बैठता हूँ
और पंखा चलने लगता है

तेज़ रौशनी के छीटों से
साफ़ करता हूँ आँखें
मैं हड़बडाकर बैठ जाता हूँ
कान लगाकर सुनता हूँ
घड़ी ठीक समय बता रही है
लेकिन मेरे भीतर एक आवाज़
आती है
कोई भरोसा नहीं
घड़ी हो या बिजली
रास्ता हो या नदी
कोई भरोसा नहीं

दरवाजे की तरफ जाता हूँ
हालाँकि अब तक कोई
दस्तक नहीं हुयी
मैं अनसुनी किसी आवाज़ की तरफ बढ़ रहा हूँ
मुझे लगता है उस तरफ से
कुछ लोग अभी पुकारेंगे
मुझे लगता है वे किसी मुसीबत में हैं
उनकी आवाज़ गले में फंस गयी है
उनके पैर जमीन में धंस गये हैं
उनके हाथों को लताओं ने बाँध लिया है

मैं उनकी तरफ जाना चाहता हूँ
मैं ठीक ठीक कह रहा हूँ
मैंने अपने कानों से उनकी आवाज़ नहीं सुनी
मैंने अपनी आँखों से नहीं देखा उनका चेहरा
मैंने हाथों से नहीं छुई उनकी उलझन
मुझे लगता है उस तरफ से ही
हाँ उसी तरफ से जहाँ कुछ दिखाई नहीं दे रहा है
उनकी आवाज़ आएगी

मुझे अपनी आँखों पर भरोसा नहीं करना चाहिए
मुझे अपने कानों से परे
सुनने की आदत डालनी होगी
मेरे हाथ इच्छाओं को छूने में
लगातार असफल रहे




2.
वे लोग खो गये हैं
वे उन अखबारों के साथ
कहीं चले गये
वहाँ उनके नाम छपे होने चाहिए थे
पीले पन्नों की रौशनी में
उनके रंगहीन चेहरे छिप गये
मुझे शब्दों से बाहर आकर
उन्हें पुकारना होगा
शब्दों में अब वे नहीं बचे
बहुत दिनों तक वे
शब्दों की खुरचन बनकर 
भटकते रहे यहाँ वहां
फिर वे सिमटे रहे
शब्द और पूर्ण विराम के बीच
खाली जगहों पर वर्षों तक
पूर्ण विराम के ठीक पहले के संगीत की
मद्धिम धुन पर सवार वे कहीं चले गये

उनकी गलती थी कि
वे इतना कम शोर करते थे कि
कुत्ते के कान तक उन्हें सुन नहीं सके
और जब पैर मिट्टी की ठंडक को छू रहे थे 
वे उसी मिट्टी को मुलायम कर रहे थे
वे पैर और मिट्टी के अलिखित
सम्बन्ध के बीच बचे रह गये
वे भोर से ठीक पहले की हवा की नमी में
और देर रात काम करते
बच्चे की झपकी में घुल चुके हैं
वे एक एक कर हर जगह
पहुँच रहें हैं
वे एक एक कर हर चीज़ को
छू रहे  हैं
हर चीज़ पर मौजूद ठंडक उन्हीं की है
थोड़ी देर पहले तक वे पत्तों के टूटने में शामिल थे
वे बच्चों की रुलाई के ठीक पहले की कचोट
में शामिल थे
वे चीखने के ठीक पहले की
दरार में कहीं छिप रहे थे
लेकिन अब वे नज़र नहीं आ रहे




3.
चीज़ें गोल गोल घूम रही हैं
पत्ते नाच रहे हैं
लोग ठहाका लगा रहे हैं
हवाई जहाज़ उड़ रहे
पानी के जहाज़
पानी से थोडा ऊपर चल रहे हैं
सबकुछ एक पुरानी रफ़्तार में

मैं उस मेमने में बदल गया हूँ
उसकी आँख से ही देखता हूँ सबकुछ
एक देश सिकुड़ रहा है
समंदर घेर रही है उसे
ऊँची उठती लहरों में घुल चूका है मानचित्र

पानी के जहाज़ अब पानी की नोंक पर तैर रहें हैं
हवाई जहाज़ के ऐन सामने 
पानी के जहाज़ हैं  
धमाका कभी  हो सकता है

दोनों दरवाज़े खुले हैं
लोग जल्दी जल्दी में इधर से उधार आ रहे हैं
कुछ लोग हवाई जहाज़ से कूदकर
पानी के जहाज़ पर आ गये हैं
वे बेहद पढ़े लिखे और जहीन लोग हैं
वे पानी और हवा के नियमों में फर्क कर रहे हैं

अब कुछ भी देखना नहीं चाहता 
इससे पहले की लहर
उस सफ़ेद मेमने को बहा ले
मैं पत्ते में बदल रहा हूँ

जहाज़ डूब कर रहेंगे
सभी जानते हैं
कोई नहीं जानता
कौन सा जहाज़ डूबेगा पहले

दरवाज़े पर दस्तक हुयी बाहर कोई नहीं है
शायद वही लोग आये थे
सिटकनी की ठंडक से जानता हूँ
दीवार घड़ी अब भी

ठीक समय बता रही है.
_________________________

 anmishra27@gmail.com

वी.एस.नायपॉल का 'आधा- जीवन' : जय कौशल

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८५ वर्षीय विदियाधर सूरज प्रसाद नायपॉल (१७/०८/१९३२ -१२/०८/२०१८)साहित्य के लिए नोबेल (२००१) पाने वाले रवीन्द्रनाथ टैगोर (१९१३) के बाद दूसरे भारतीय (मूल) लेखक हैं. उनके कथा-साहित्य में २००१ में प्रकाशित ‘हाफ अ लाइफ’ का अहम स्थान है. अपने अध्ययन के सिलसिले में इस कृति का अनुवाद जय कौशल ने किया है. इसका एक अंश यहाँ दिया जा रहा है.

‘आधा-जीवन’ के परिचय में जय कौशल ने नायपॉल के लेखन की विशेषताओं पर भी प्रकाश डाला है और अनुवाद की चुनौतियों पर अंत में लिखा है.

समालोचन की तरफ से नायपॉल को श्रदासुमन.



Half a Life                  
V.S. Naipaul





००१ में प्रकाशित उपन्यास हाफ़ ए लाइफ मुख्यतः विली सोमरसेट चंद्रन की कहानी है. जिसमें उसके भारत से इंग्लैण्ड और वहाँ से अफ्रीका जाने का वर्णन किया गया है. इस उपन्यास की शुरुआत पिता-पुत्र संवाद से होती है. पुत्र विली सोमरसेट चंद्रन पिता से अपने नाम के बीच सोमरसेट रखे जाने की वजह पूछता है. पिताजी उसका जवाब देते हुए स्वयं अपने जीवन में ग़लत राह चुन लेने की कथा बयान करते हैं. यहाँ आधे पृष्ठ बाद ही लेखक उत्तम पुरुष शैली में आ जाता है. कृति का पहला अध्याय ए विज़िट फ्राम सोमरसेट मॉमशीर्षक से है.

इस उपन्यास का महत्वपूर्ण हिस्सा इसमें विन्यस्त उपकथाएँ हैं, नायपॉल ने इनमें काफी हद तक सफलता पाई है. शुरुआती अध्याय बेहद कलापूर्ण है. दशकों में फैली घटनाएँ, जिन्हें जितनी बार कहा जाए अपने रूपाकार में थोड़ा-बहुत बदली हुई लगती हैं, इसमें कथावस्तु के रूप में चुनी गई है. विली के पिता की शिकायत है कि महात्मा गाँधी के आह्वान पर अंग्रेजी शिक्षा से बायकॉट के कारण वह जीवन में मिसफ़िट रहा. यद्यपि परिवार और बेहतर भविष्य देखते हुए वह भिक्षुक बन जाता है. अपनी मूर्खता से होनेवाली दुर्गति से बचने का उसे यही उपाय सूझता है. जीवन में परेशानियों से बचने के लिए वह मौन व्रत भी धारण करता है, जिससे सोमरसेट मॉम नामक एक यात्री लेखक इतना प्रभावित होता है कि अपनी यात्रा-वृत्तान्त की पुस्तक में उस पर संस्मरणात्मक टिप्पणी लिखता है.

अपने परिवार की परम्पराओं आदि की अनदेखी कर वह (विली का पिता) किसी ऐसी लड़की से शादी करने का विचार बनाता है जो अत्यन्त बैकवर्ड’ (भारतीय संदर्भ में दलित) हो. युनिवर्सिटी में एक ऐसी लड़की उसकी निगाह में भी होती है, इसलिए नहीं कि वह उसे पसंद है बल्कि वह तो उसके रंग-रूप, आकार, उसके कपड़े यहाँ तक कि उसकी जाति तक से घृणा करता है. लेकिन वह उसकी आत्मत्याग की भावना (गाँधी द्वारा प्रदत्त दर्शन-लाइफ़ ऑफ सेक्रिफ़ाइस) को पूरा करने के लिए फिट है, इसलिए उससे शादी कर लेता है. उसी से उसे विली और सरोजिनी नाम से दो अनचाहे बच्चे होते हैं. किशोर विली को पिता की ये बातें बुरी तरह आहत और निराश करती है. वह पिता से घृणा करने लगता है और यहीं से शुरू होती है उसकी आइडेन्टिटीकी तलाश.

उपन्यास के अगले अध्याय में विली के स्कूल के दिनों और इसके बाद आगे की पढ़ाई के लिए इंगलैण्ड जाने का वर्णन है. (वैसे तो यह दूसरा अध्याय है लेकिन उपन्यास में इसे द फ़र्स्ट चैप्टरशीर्षक दिया गया है.) यहाँ भी संप्रेषणीयता के स्तर पर कहानियाँ बहुत महत्वपूर्ण और जरूरी जान पड़ती है. अपने पिताजी की तरह उसे भी चीजों को सीधे-सीधे कह देना ठीक नहीं लगता. विली ने कुछ रचनाएँ लिखी हैं, जो थीं तो स्कूल के लिए पर उनके द्वारा उसका वास्तविक मंतव्य पिता तक अपनी बात पहुँचाना था, जिन्हें पढ़कर वे बुरी तरह अपमानित एवं गुस्सा होते हैं.

ब्राह्मण पिता और पिछड़ी जाति की माँ की संकर संतान विली इसके बाद आगे की पढ़ाई के लिए इंग्लैण्ड चला जाता है. वहाँ की दुनिया उसके लिए एकदम नई है, वहीं उसे अपने जैसे अन्य दोस्त मिलते हैं, जो अधिकतर वर्णसंकर हैं. दोस्ती, सेक्स के मामले में पूरी तरह अनाड़ी होने के बाबजूद वह इनके बारे में वहाँ काफी कुछ सीखता है.

वह लेखक बनना चाहता है. उसने एक किताब लिखी है लेकिन प्रकाशित होने पर भी वह उसे अपनी सफलता का हिस्सा नहीं मानता, क्योंकि उसे कमज़ोर बताकर खूब आलोचनात्मक टिप्पणियाँ की जाती हैं. अन्ततः वह अपनी लेखकीय इच्छा की ही बलि दे देता है. परन्तु एना नाम की एक अफ्रीकन लड़की को उसकी किताब बहुत पसन्द आती है, जो उनके बीच निकटता का माध्यम भी बनती है. क्योंकि एना भी पुर्तगाली पिता और अफ्रीकन माँ की संकर संतान है. 

पढ़ाई खत्म होने को आ जाती है, लेकिन वह अभी आगे के बारे में कुछ तय नहीं पाया, बहन सरोजिनी के बार.बार चिट्ठियाँ लिखने के बावजूद वह भारत नहीं जाना चाहता. आखि़रकार वह एना के साथ मोजाम्बिक के पुर्तगाली उपनिवेश चला जाता है. यहाँ आकर नायपॉल एक छलाँग लगाते हैं- वह अठारह साल वहीं रहा.इसके तुरन्त बाद वह फिर छलाँग लगाते हैं और बताते हैं कि विली एना और अफ्ऱीका की ज़िन्दगी छोड़कर अपनी बहन सरोजिनी के पास जर्मनी चला जाता है. ए सैकण्ड ट्रांसलेशनशीर्षक से उपन्यास का यह तीसरा हिस्सा पूरी तरह नरेटिव है, इसमें विली सरोजिनी को अफ्रीका में बिताए दो दशकों की कहानी सुनाता है और इसी रूप में उपन्यास समाप्त हो जाता है. यहाँ भी नायपॉल ने उत्तम पुरुष शैली (स्वयं विली के माध्यम से) अपनाई है.

दरअसल हाफ़ ए लाइफअधूरेपन का उपन्यास है. इसका नायक निर्वासित-सा जीवन जीता है. उसके भारतीय माता-पिता मिश्रित जाति (अलग-अलग जाति) के हैं जो उनकी अपनी सम्पूर्णता में भी बाधक बन गई है. विली के सामने पिताजी के अधूरे जिए गए जीवन के कुछ उदाहरण हैं, वह भी उसी राह पर चलता दिखाई देता है. उसके पास केवल वादे हैं; न सुदृढ़ विषय, न समुचित उद्देश्य. इंग्लैण्ड जाकर वह अपने निजी स्वातन्त्र्य के बारे में लिखने की सोचता है, अपने अतीत, कुल परम्पराओं एवं स्वयं की समीक्षा करना चाहता है, लेकिन करता कुछ नहीं. आइडेन्टिटी की तलाश इस उपन्यास का केन्द्रीय तत्त्व है, जिसका गहरा सम्बन्ध ऐन्द्रिकता (सेन्सुअलिटी) और अन्यत्व (अदरनेस) से है. विली का यह अन्यत्व उसे सेक्स जैसे निजी क्षणों में भी नहीं छोड़ता, वह पूरी तरह किसी का नहीं हो पाता, अपना भी नहीं.

उपन्यास समाप्त होने तक वह इकतालीस साल का हुआ है, यानी देखने में उसका आधा जीवन बीता चुका है लेकिन आकांक्षाएँ अभी भी अधूरी हैं.

इस उपन्यास के नायक विली को नायपॉल के पैरोकार चरित्र के रूप में देखना बहुत कठिन नहीं है. हो सकता है स्वयं नायपॉल ऐसा होने से हमेशा डरते रहे हों, लेकिन इसमें उनकी कुछ प्राथमिकताएँ एवं झुकावों की झलक ज़रूर मिलती है. विली नायपॉल का पूरा तो नहीं, छोटा रूप लग सकता है, क्योंकि पाठक को इसमें उनकी आत्मकथा-सा स्वाद महसूस होता है. हाफ़ ए लाइफ़के सभी भाग बहुत अच्छे हैं, खासकर भाषा एकदम प्रवाहपूर्ण है. (डेली टेलीग्राफने इसकी भाषा को वण्डरफुल रीडेबिलिटीकहा है.) 

पिता-पुत्र संवाद से कहानी की शुरुआत भी अच्छी है. इसके अलावा इंग्लैण्ड और अफ्रीका में बिताई गई ज़िन्दगी का भी अच्छा चित्रण किया गया है. फिर भी उपन्यास में कई जगह उतावलापन बरता गया लगता है. देशकाल के इतने बड़े फलक पर चीज़ें मानो घुल-मिल गई हैं. कुछ बहुत प्रभावशाली पात्रों का भी नायक से तारतम्य नहीं बन पाया. वे एक बार दिखे और गायब हो गए. इस उपन्यास की शुरुआत और पृष्ठभूमि भारत होने के बावजूद इसमें भारत का चित्रण अमूर्त किस्म का है. इंग्लैण्ड के स्केच भी अच्छे है लेकिन मोज़ाम्बिक (अफ्रीका) अपने पूरे यथार्थ के साथ मौजूद है. जो भी हो, उत्तम पुरुष से प्रथम पुरुष और अतीत से लेकर वर्तमान तक लगातार अपनी छलांगों के बावजूद उपन्यास की शैली काफ़ी प्रभावशाली है. अपने इस रूप में भी यह बेहद पठनीय है और निश्चय ही प्रामाणिक भी.
_______


आ धा जीवन        
सोमरसेट मॉम : एक यात्रा की शुरुआत
अनुवाद : जय कौशल






एक दिन विली चंद्रन ने अपने पिता से पूछा, ‘मेरे नाम के बीच सोमरसेट  क्यों है ? जब से स्कूल के बच्चों को इसका पता चला है, वे मुझे चिढ़ाते हैं.
तुम्हारा नाम एक बहुत बड़े अंग्रेज़ी लेखक पर रखा गया है. तुमने घर में उनकी किताबें देखी ही होंगी.पिता जी ने सहज स्वर में कहा.

लेकिन मैंने तो उन्हें पढ़ा ही नहीं. आख़िर आप उन्हें इतना क्यों पसंद करते हैं ?’
यह तो मुझे नहीं मालूम, लेकिन तुम इस बात को ध्यान से सुनो और अपने दिमाग़ में बिठा लो!

और इस तरह शुरू हुई विली चंद्रन के पिता की कहानी, जिसने काफ़ी लंबा वक़्त ले लिया. विली की बढ़ती उम्र के साथ कहानी भी बदलती चली गई. उसमें नई चीजें जुड़ती गईं और एक दिन इंग्लैण्ड जाने के लिए विली ने भारत छोड़ दिया. उसने जो कहानी सुनी, वह इस प्रकार थी -
       
“कोई लेखक (जैसा विली चंद्रन के पिता ने बताया था) एक उपन्यास के लिए अध्यात्म पर सामग्री जुटाने भारत आया था. यह 1930के आस-पास की बात होगी. महाराजा के कॉलेज़ के प्रिंसिपल उसे हमारे पास ले आए. तब मैं अपने किसी दोषपूर्ण कार्य के लिए प्रायश्चित कर रहा था और एक बड़े मंदिर के अहाते में भिक्षुओं की तरह समय बिता रहा था. सार्वजनिक स्थल होने के नाते मैंने इसे चुना था. असल में महाराजा के दरबारियों में से ही मेरे कुछ दुश्मन मेरे पीछे लगे हुए थे. मंदिर का अहाता मुझे दफ़्तर के बजाय ज़्यादा सुरक्षित लगा क्योंकि यहाँ लोगों का हुजूम बना रहता था. इस उत्पीड़न से मैं काफी उद्विग्न था, इसलिए स्वयं को शांत करने के लिए मैंने मौन-व्रत धारण कर लिया था. 


इससे स्थानीय लोगों में मेरा सम्मान ही नहीं बढ़ा बल्कि कुछ वाह वाही भी मिली. लोग मेरी मौन-साधना को देखने आने लगे यहाँ तक कि कुछ लोग मेरे लिए उपहार तक लाने लगे थे. राज्य-अधिकारियों को मेरे संकल्प के आगे झुकना पड़ा. जब मैंने अधेड़ वय के एक ठिगने क़द के गोरे को प्रिंसिपल के साथ देखा जो मेरे साथ बातचीत करना चाह रहे थे तो मेरी दृढ़ता और बढ़ गई. लोग जान गए थे कि कुछ न कुछ ज़रूर होने वाला है, इसलिए वे इस टकराव को देखने के लिए आतुर थे. मुझे पता था कि वे मेरी तरफ़ हैं, लेकिन मैंने कुछ नहीं कहा. सारी बातें प्रिंसिपल और उस लेखक के बीच ही हुईं. मेरे बारे में बात करते वक़्त वे मेरी ओर देखते रहते लेकिन मैं अंधा-बहरा बना उन्हें तकता रहा और सारी भीड़ हम तीनों को निहारती रही.

शुरुआत कुछ इस तरह हुई. मैंने उस महान व्यक्ति से कुछ नहीं कहा. अब इस बात पर ज़ोर देना मुश्किल है और पूरा यकीन भी नहीं कि मैंने जब पहली बार उन्हें देखा तो उनके बारे में क्या कुछ सुन रखा था. मैं अंग्रेज़ी साहित्य को ब्राउनिंग, शेली जैसे रचनाकारों के माध्यम से ही जानता था. इन्हें मैंने विश्वविद्यालय के दौरान वर्षों पढ़ा था. पर महात्मा जी के आह्वान और अपनी मूर्खता के चलते मैंने अंग्रेज़ी शिक्षा से बायकॉट कर लिया था. लेकिन अपने मित्रों एवं शत्रुओं की उन्नति और समृद्धि बढ़ते देख मैं स्वयं को जीवन के प्रति असफल (मिसफ़िट) ही पाता रहा. यहाँ और भी बहुत कुछ कहने को है, जो तुम्हें फिर कभी बताऊँगा.

अब मैं लेखक की ओर मुड़ना चाहता हूँ. तुम्हें पूरा विश्वास है न कि मैंने उसे अन्त तक कुछ नहीं कहा. फिर भी कोई डेढ़ साल बाद उसका यात्रा-वृत्त प्रकाशित हुआ, जिसमें दो-तीन पृष्ठ मेरे ऊपर लिखे गए थे. उसमें मंदिर, वहाँ की भीड़, उनकी पोशाक, चढ़ावे में मिले नारियल, आटे, चावल तथा अहाते के प्राचीन पत्थरों पर पसरी दुपहरी की धूप के बारे में वह सारा ब्यौरा था, जो महाराजा के प्रिंसिपल ने उन्हें बताया था, इनके अलावा कुछ दूसरी बातें भी ..... स्पष्ट था, प्रिंसिपल ने मेरे आत्मनिषेधों के विभिन्न संकल्पों को बहुत अच्छा बता कर लेखक की प्रशंसा अर्जित करनी चाही थी. यह तो बहुत कम है, संभवतः एक पूरे अनुच्छेद में ही पत्थरों, दोपहर बाद की चमक, मंदिर की प्रशांति और मेरी त्वचा की चिकनाहट का चित्रण किया गया था.

इस तरह मेरी प्रसिद्धि केवल भारत में ही नहीं जहाँ भरपूर ईर्ष्या फैली है बल्कि विदेशों में भी बढ़ी. जब युद्ध के दौरान लेखक का प्रसिद्ध उपन्यास आया और विदेशी समालोचकों की तीक्ष्ण दृष्टि ने मुझे आध्यात्मिक स्रोत के रूप में देखना शुरू किया तो इस ईर्ष्या ने प्रतिशोध का रूप ले लिया था.

लेकिन मेरा उत्पीड़न थम गया. वह लेखक आश्चर्यजनक रूप से साम्राज्य विरोधी था. यह उसकी पहली भारतीय पुस्तक थी, जो यात्रावृत्त के रूप में थी. इसमें महाराजा, उसकी रियासत, कॉलेज के प्रिंसिपल समेत उनके अधिकारियों का महिमामंडन किया गया था. इसने मेरे प्रति सबका दृष्टिकोण बदल दिया था. वे मुझे लेखक की ही दृष्टि से देखने लगे- एक उच्च कुलोत्पन्न, महाराजा की राजकोषीय सेवा में उच्चपदस्थ, उज्ज्वल भविष्य की संभावना वाला लेकिन जो शासक के लिए पवित्र कर्मकांड सम्पन्न कराने हेतु कतारबद्ध रहता है और बेहद ग़रीबों में भी ग़रीब बनकर एक भिक्षु की तरह थोड़े से अन्न पर गुज़ारा करता है.

अब मेरा उस भूमिका से अलग होना कठिन हो गया था. एक दिन महाराजा ने अपने दीवानों में से एक के द्वारा मुझे शुभकामनाएँ भिजवाईं. इसने मेरी चिन्ता और बढ़ा दी. मुझे लग रहा था कि शीघ्र ही शहर में कोई धार्मिक उत्तेजना भड़क सकती है और मुझे बाहर जाकर अपनी तरह से काम करने की आज्ञा मिल सकती है.

लेकिन तभी एक महत्त्वपूर्ण धार्मिक उत्सव के दौरान चिलचिलाती धूप में महाराजा अपनी नंगी पीठ लिए पश्चात्ताप की-सी मुद्रा ओढ़े अपने हाथों से मुझे नारियल एवं कपड़े भेंट करने आए, जिन्हें एक धूर्त दरबारी ढोकर ला रहा था. मैं उसे अच्छी तरह जानता था. मैं जान गया था कि अब यहाँ से भागना असंभव है. अतः मैंने वह अपरिचित-सा जीवन जीना ही बेहतर समझा जिसे मेरी नियति निर्धारित कर चुकी थी.

मेरे पास विदेशों तक से अतिथि आने लगे थे. उनमें से अधिकाशतः उस विख्यात लेखक के मित्र ही होते थे. जो कुछ उन्होंने लिखा था, वे उसे देखने इंग्लैण्ड से आए थे. अभ्यागतों में कोई लेखक से पत्र लिखाकर लाता, कोई महाराजा के उच्चाधिकारियों से, तो कोई मेरे पास पहले ही आ चुके लोगों से. उनमें से कुछ लेखक भी थे, जिनके यहाँ आने के एकाध सप्ताह अथवा महीने बाद लंदन की किसी-न-किसी पत्रिका में अपनी यात्रा से संबंधित लेखादि प्रकाशित होते रहते थे. इन लोगों के साथ मैंने अपने जीवन के इस नए आयाम को खूब परखा था और अब मैं काफ़ी कुछ सहज हो चला था. यदा-कदा हम यात्रा कर चुके लोगों में से किसी के बारे में बातें करने लगते, तब हममें से कोई बड़े इतमीनान से मुझे बताता, ‘मैं उसे जानता हूँ, वह मेरा बहुत अच्छा मित्र हैया ऐसा ही कुछ ...

इस प्रकार नवंबर से मार्च के पाँच महीने- जो कि हमारा शरद काल या cold weather है, जैसा कि अंग्रेज़ लोग भारतीय मौसम को इंग्लैण्ड के मौसम से अलगाने के लिए कहते रहे हैं- के दौरान मैं एक सामाजिक हस्ती बन गया था, विदेशियों से परिचय के बढ़ते दायरे और उनसे बातचीत के नाते.

कई बार बोलते समय हमसे चूक हो जाती है, पर हम उसे सुधारना नहीं चाहते बल्कि यह जताने की कोशिश करते हैं कि हमने जो कहा उसका यही अर्थ है और हम पाते हैं कि हमारे प्रमाद में भी कुछ सच्चाई है. उदाहरण के लिए, किसी के भले नाम से कुछ निकाल लेना उस नाम से कुछ दूर हो जाना भी है. और इसी तरह अपने हैरत भरे जीवन पर विचारते हुए मुझमें उस विख्यात अंग्रेज़ी लेखक से भेंट की इच्छा जागी. ऐसा लगता था मानो इसी जीवन-पद्धति से भागने अथवा इससे ओझल हो जाने का स्वप्न मैं पिछले कई वर्षों से देख रहा था.

पर मुझे लौटना पड़ा. हम पुरोहितों के घराने से थे और एक मंदिर विशेष से सम्बद्ध थे. लेकिन मैं उसके निर्माण के बारे में कुछ नहीं जानता था. वह मंदिर कब, कितने समय में बना, किस शासक ने बनवाया अथवा हम उससे कब से जुड़े हुए थे आदि-आदि. हम लोगों की इस बारे में कोई जानकारी नहीं थी. हमारे परिवार ने अपनी पुरोहिताई से वहाँ एक समुदाय-सा बना लिया था.

एक समय तक मुझे लगता था कि हमारा समुदाय काफ़ी समृद्ध एवं वैभवशाली रहा होगा जो कि लोगों की कई तरह से सहायता किया करता होगा. लेकिन मुसलमानों द्वारा इस इलाके को जीतने के बाद हम ग़रीब होते चले गए. जिनकी हमने सहायता की थी वे भी अब हमारी अधिक सहायता नहीं कर पा रहे थे. अंग्रेज़ों के आने के बाद तो चीज़ें और ज़्यादा बिगड़ीं. वहाँ क़ानून तो था लेकिन आबादी भी बढ़ती चली गई. मंदिर समुदाय से भी हमारी दूरियाँ बढ़ती गईं. जैसा कि मेरे दादाजी ने बताया था, समाज पर सारे जटिल विधि-विधान तो लागू थे लेकिन खाने तक के लाले पड़ रहे थे. लोग कमज़ोर होने लगे और इसके चलते वे बीमार पड़ने लगे थे. कैसा दुर्भाग्य था हमारे पुरोहित समुदाय का! इसीलिए जब कभी-कभार दादाजी 1890ई. के आसपास की कहानी सुनाने लगते तो मेरी उसमें कोई इच्छा नहीं होती थी.
     
मेरे दादाजी ने तब उस मंदिर एवं समुदाय को त्यागने की ठानी जब वे एकदम जर्जर हो चुके थे. उन्होंने सोचा कि वे उस बड़े शहर चले जाएँगे जहाँ महाराजा का राजप्रासाद एवं एक प्रसिद्ध मंदिर भी था. इसकी उन्होंने यथासंभव तैयारी भी की, थोड़े-से चावल, आटा, तेल और कुछ पैसे वगैरह रख लिए. इस बारे में उन्होंने किसी को कुछ नहीं बताया. जिस दिन उन्हें जाना था, वे मुँह-अंधेरे उठे और रेलवे स्टेशन की तरफ़ चल पड़े. रेलवे-स्टेशन मीलों दूर था, वे लगातार तीन दिनों तक चलते रहे. इसी बीच वे बेहद ग़रीब बस्तियों से भी गुजऱे. 


उनकी स्थिति इनसे कहीं ज़्यादा दयनीय थी. लेकिन जब उन्होंने देखा कि एक पुरोहित भूख से बेहाल है तो उनके द्वारा इन्हें अन्न और शरण दी गई. अन्ततः वे स्टेशन तक पहुँच गए. उस समय वे बहुत भयभीत थे एवं अपनी ताक़त और साहस को चुका हुआ महसूस कर रहे थे, उन्हें बाहरी दुनिया की कोई चीज़ नज़र नहीं आ रही थी. दोपहर बाद ट्रेन आई. रेलवे-स्टेशन की भीड़ और शोरगुल भरी आवाज़ उन्हें हाल तक याद थी. इसके बाद रात घिर आई. इससे पूर्व उन्होंने कभी ट्रेन में यात्रा नहीं की थी लेकिन सारा समय वह भीतर की ओर ही झाँकते रहे.

सुबह वह उस विशाल नगर में पहुँचे. उन्होंने मंदिर का रास्ता पूछा और वहाँ जाकर ठहर गए. मंदिर के अहाते में धूप से बचने के लिए वह सारा दिन इधर-उधर भटकते रहे. शाम की पूजा-अर्चना के बाद प्रसाद वितरण किया गया जिसमें वह भी शामिल हुए. प्रसाद उतना तो नहीं था पर उससे कहीं अधिक था जिस पर वह अब तक निर्वाह करते आए थे. उन्होंने यह जताने की भी कोशिश की कि वह एक तीर्थयात्री हैं. इस तरह उनके शुरुआती कुछ दिन निकल गए, किसी ने कुछ नहीं पूछा. परन्तु जब वह नज़र में आए तो उनसे पूछताछ की गई. उन्होंने अपनी सारी कथा बयान कर दी. मंदिर के अधिकारियों ने उन्हें खदेड़ा नहीं . उनमें से एक अधिकारी दयालु प्रवृत्ति का था. उसने दादाजी को पत्र-लेखक (Letter-writer) बनने का सुझाव दिया. इसके लिए उसने ज़रूरी सामान जैसे पेन, निब, स्याही, काग़ज़ वगैरह भी दे दिए. अब दादाजी महाराजा के राजभवन के पास दरबार के बाहर पटरी पर अन्य पत्र-लेखकों के साथ जा बैठे.

उन पत्र-लेखकों में से ज़्यादातर अंग्रेज़ी में लिखा करते थे. वे लोगों के लिए विभिन्न प्रकार की अर्जियाँ देते थे, कई सरकारी प्रपत्रों में उनकी सहायता करते थे. दादाजी सिर्फ़ हिंदी और अपनी क्षेत्रीय भाषा जानते थे. उन्हें अंग्रेज़ी नहीं आती थी. उस शहर में बहुत-से लोग अकाल-क्षेत्र से भागकर आए हुए थे जो अपने परिवारों का कुशल-मंगल जानना चाहते थे. उनसे दादाजी को काम भी मिल गया और किसी को कोई ईर्ष्या भी नहीं हुई. अपने पुरोहिती परिधान के नाते लोग उनकी तरफ़ खिंचे चले आते थे. कुछ दिनों में जब वे ठीक-ठाक गुज़र-बसर करने लायक़ हो गए तो शाम को मंदिर में शरण लेना बंद कर उन्होंने एक कमरा ले लिया और सपरिवार उसमें रहने लगे. पत्र-लेखन से जुड़े काम और मंदिर के सौहार्द के चलते लोग उनके बारे में अधिकाधिक परिचित होते गए और अंततः उन्होंने महाराजा के महल में मुंशी जैसा सम्मानित पद पाने में सफलता पा ली.

काम के लिहाज़ से यह पद ज़्यादा सुरक्षित था. हालाँकि वेतन अधिक नहीं था लेकिन यहाँ से किसी को अब तक बरखास्त नहीं किया गया था और लोग-बाग़ उनके प्रति सम्मान जताया करते थे.

मेरे पिताजी वहाँ के जीवन में सरलता से रच-बस गए. उन्होंने अंग्रेज़ी सीखी, माध्यमिक विद्यालय से अपने डिप्लोमा आदि प्राप्त किए और दरबार में जल्द ही अपने पिताजी से भी ऊँचा पद पा गए. वह महाराजा के यहाँ दीवान हो गए थे. वहाँ बहुत सारे दीवान थे. जो बड़ी लक-दक़ पोशाक पहनते और नगर में छोटे-मोटे देवताओं की तरह सम्मान पाते. पिताजी चाहते थे कि मैं भी उसी रास्ते पर चलूँ और शिखर तक पहुँचूँ. मंदिर समुदाय की सुरक्षा मेरे पिताजी के लिए पुनराविष्कार की तरह थी जिसे मेरे दादाजी छोड़ आए थे.

लेकिन मुझमें कोई विद्रोही कुलबुला रहा था. मैं दादाजी को कई बार उनकी आकांक्षाओं, किसी अनहोनी के भय, अपने बुरे दिनों की ओर ही झाँकते रहने एवं आस-पास के परिवेश को न देख सकने की क्षमता के बारे में कहते सुनता रहता था. बढ़ती उम्र के साथ उनका गुस्सा भी बढ़ता चला गया था. वह कहने लगे थे कि मंदिर समुदाय में सब मूर्ख जमा है. विपत्तियाँ सहते रहने के बावजूद उन्होंने कुछ नहीं किया. अंतिम घड़ी में वह खुद भी सबकुछ छोड़कर भाग खड़े हुए, क्योंकि जब वह बड़े नगर में पहुँचे तो उन्हें मंदिर के अहाते में किसी अध-भूखे जानवर (1Half–starved Animal)  की तरह दुबककर रहना पड़ा था. स्वयं के लिए भी वह ऐसे भद्दे शब्द इस्तेमाल कर डालते थे. उनका गुस्सा मुझे बहुत बेधता था. मेरे दिमाग़ में ख़याल आने शुरू हो जाते थे कि महाराजा के महल के आसपास नगर में हम सब जो जीवन जी रहे हैं, क्या यही अंतिम है, सारी सुरक्षा झूठी है. इस तरह के विचार मुझे संत्रस्त कर डालते थे. मुझे समझ नहीं आता था कि स्वयं को टूटने से कैसे बचाऊँ.

मैं स्वयं को राजनीति के लायक़ मानता था. भारत पूरी तरह राजनीतिमय था. परन्तु महाराजा के राज्य में स्वाधीनता संघर्ष का कोई अस्तित्व नहीं था, यह ग़ैरकानूनी माना जाता था. हालाँकि हम कुछेक उल्लेख्य नामों और बाहर हो रहे उनके कार्यकलापों से परिचित थे लेकिन उनसे हमारी एक ख़ास दूरी थी.

अब मैं विश्वविद्यालय में था. बी.ए. करने के बाद मेरी इच्छा मेडिसिन या इंजीनियरी के लिए महाराजा से छात्रवृत्ति प्राप्त करने की थी. इसके बाद मैं महाराजा के कॉलेज प्रिंसिपल की पुत्री से शादी करता. सब कुछ तयशुदा था. यह हो भी जाता लेकिन मुझे इन सबसे अरुचि-सी होने लगी थी.
     
विश्वविद्यालय में मैं काहिल और आलसी होता चला गया. बी. ए. कोर्स से मेरा ध्यान हट गया था. न तो मैं द मेयर ऑफ कास्टर ब्रिज़को, ना ही उसके पात्रों अथवा कहानी को समझ पाया था. मैं तो यह भी नहीं जानता था कि उक्त कृति का काल-खण्ड क्या था. शेक्सपीयर अच्छे लगते पर शेली, कीट्स और वर्ड्सवर्थ मेरे गले नहीं उतरते थे. जब मैं इन कवियों को पढ़ता तो मेरे मन में यही आता कि ये कुछ और नहीं, झूठ का पुलिन्दा भर हैं, इस तरह कोई नहीं सोचता.

प्रोफ़ेसर साहब हमें अपने नोट्स कॉपी करवाते थे. पन्ने पर पन्ने लिखवाते जाते. मुझे अच्छी तरह याद है, वह हमें संक्षिप्तीकरण करके लिखवाते और चाहते कि हम उन्हें जस का तस उतार लें. वह कभी वर्ड्सवर्थका पूरा नाम नहीं लेते. उसका शुरुआती अक्षर डब्ल्यूबोलते, ना कि वर्ड्सवर्थ’, जैसे डब्ल्यूने अमुक किया, ‘डब्ल्यूने अमुक लिखा आदि.

यह जानते हुए कि सारी अच्छी घटनाएँ अन्यत्र घट रही हैं और हम एक छद्म-सुरक्षात्मक जीवन जी रहे हैं, मैं बेहद बेचैनी अनुभव कर रहा था. अपनी व्यर्थता के बोध से मुझे पढ़ाई तक से घृणा होने लगी. स्वतन्त्रता-आंदोलन के नाम से ही मेरे मन में सम्मान का भाग जाग उठता. 1931-32के आसपास जब महात्मा गाँधी ने छात्रों द्वारा विश्वविद्यालयों का बहिष्कार करने का आह्वान किया तो मैंने अपने में सारे निकम्मेपन और जी-हुजूरी को एक ओर झटककर स्वयं को उस जीवन के लिए तैयार कर लिया. विश्वविद्यालय के अहाते में मैंने अपनी पुस्तकों की होली जला डाली, जिसमें द मेयर ऑफ कास्टरब्रिज़’, शेली, कीट्स यहाँ तक कि प्रोफ़ेसर के नोट्स तक झोंक दिए. इसके बाद आने वाले तूफ़ान का इन्तज़ार करते हुए घर चला आया.

खै़र.... आगे कुछ हुआ नहीं. किसी ने मेरे पिताजी को भी कुछ नहीं कहा. ना ही डीन की ओर से किसी कार्यवाही की सूचना मिली. शायद आग जलाना भर काफ़ी नहीं था. पुस्तकें आसानी से नहीं जलतीं वरना आग की किसी बड़ी घटना को अंजाम दिया जा सकता था. हो सकता था विश्वविद्यालय के सदर अहाते में पसरी अस्तव्यस्तता एवं शोर के चलते आते-जाते लोगों को एक छोटे-से कोने में किया गया मेरा काम कोई अजूबा नहीं जान पड़ा.

अब मुझे अपना नाकारापन और अधिक खलने लगा. देश के दूसरे हिस्सों में महानायकों की कमी न थी. उनके जैसा होना बल्कि उनकी एक झलक तक पाना मुझे वरदान-सा लगता. उनकी महानता की संस्पर्श पाने के लिए मैं कुछ भी छोड़ने को तैयार था.
     
महाराजा के महल में चापलूसी के सिवा कुछ नहीं था. मेरी रातें इसी उधेड़बुन में निकल जातीं कि मुझे क्या करना चाहिए? शायद आश्रम जाने से पूर्व स्वयं महात्मा गाँधी भी एक-दो साल इसी उधेड़बुन में रहे होंगे. ज़ाहिर है, आज उनकी जीवनचर्या में शांति दिखाई देती है, वे हर किसी की श्रद्धा के पात्र हैं. वास्तव में वे बड़ी यंत्रणा के दौर से गुज़रे होंगे. परतंत्रता की स्थिति में बड़े परेशान रहे होंगे कि कैसे देश को उद्बुद्ध किया जाए और तब उन्होंने नमक आंदोलन के रूप में एक अद्भुत और अकल्पनीय विचार सूझा होगा. नमक बनाने के लिए अपने आश्रम से लेकर समुद्र तक की लम्बी यात्रा ......
     
इसलिए दरबारियों के लिए बने पिताजी वाले आवास में घर की तरह इतमीनान से रहते हुए शांति बनाए रखने के लिए मैं विश्वविद्यालय जाने का बहाना करता रहा. किन्तु, जैसा कि बता चुका हूँ मेरे लिए यह एक पीड़ादायक अनुभव था. अन्त में मुझे उसी उत्प्रेरणा का आभास हुआ. तमाम चीज़ों को देखते हुए मुझे अपना निर्णय उचित जान पड़ा और मैंने इसे अन्त तक निभाने का निश्चय किया.
     
यह निर्णय मेरे लिए आत्मत्याग से कम नहीं था. केवल आत्मत्याग ही नहीं, यह सक्रिय होने की भी घड़ी थी. कोई मूर्ख होता तो वह किसी पुल से छलाँग लगा देता या किसी ट्रेन के नीचे खुद को झोंक देता. लेकिन इससे भी कठिन था वह त्याग जिसे गाँधी जी ने अनुमोदित किया था. उन्होंने जातिवाद से जुड़ी बुराइयों की भरपूर भर्त्सना की थी. कोई उन्हें ग़लत नहीं मानता था लेकिन इस दिशा में वास्तविक काम नहीं के बराबर हुआ था.
     
मेरा फ़ैसला दो टूक था. यह मेरे कुल सहित, विदेशी बेड़ियों में जकड़े मूर्ख एवं भुक्खड़ पुजारियों (दादाजी के अनुसार) की सारी बातों का प्रतिकार था. इतना ही नहीं, यह महाराजा के यहाँ मुझे उच्चपदस्थ सेवक के रूप में देखने की मेरे पिताजी की फूहड़ आशा और कॉलेज प्रिंसिपल द्वारा अपनी पुत्री का मुझसे विवाह किए जाने की मूर्खतापूर्ण आकांक्षाओं तक का प्रतिकार था. मेरा फ़ैसला उन सबको मौत के मुँह में ठेलने जैसा था. अब मैं अपनी क्षमतानुसार जो सबसे अच्छा काम कर सकता था, वह था- किसी अत्यंत ग़रीब लड़की से अपना विवाह.
     
असल में, मेरे दिमाग़ में पहले से ही विश्वविद्यालय की एक ऐसी लड़की थी. लेकिन ना तो मैं उसे जानता था, ना ही कभी बातचीत की थी. मुझे उसकी जानकारी भर थी. वह क़द-काठी की छोटी, गठीली, साँवली और किसी पिछड़ी जाति की लगती थी. बेहद काली-सी, जिसके सामने के दो दाँत बहुत दमकते रहते थे. उसके कपड़े कभी गहरे चटख रंग के होते तो कभी बेहद मटमैले-से, जो संयोग से उसकी त्वचा के कालेपन से जा मिलते थे. वह जरूर किसी पिछड़ी जाति की ही थी. सुनते हैं, महाराजा की ओर से इन पिछड़े लोगों को कुछेक छात्रवृत्तियाँ दी जाती थीं. महाराजा अपनी दयालुता के लिए प्रसिद्ध थे और ये छात्रवृत्तियाँ उनके धार्मिक ट्रस्ट के कार्यों में से एक थी.
     
दरअसल जब मैंने उसे व्याख्यान कक्ष में अपनी किताबों और नोट्स के साथ आते देखा तो मुझे पहली बार ऐसा जान पड़ा कि सब उसी की ओर तक रहे हैं लेकिन वह किसी की ओर नहीं देख रही थी. इसके बाद मैंने उसे कई बार देखा. बड़ी मासूमियत से पेन थामे वह शेली, डब्ल्यू, ब्राउनिंग, आर्नाल्ड और साथ ही हैमलेट में एकालाप के महत्त्व पर प्रोफ़ेसर के नोट्स उतारती रहती.
इस अंतिम शब्द ने हमें बहुत परेशान किया. अपने मूड के अनुसार प्रोफ़ेसर ने इसका तीन-चार तरीक़ों से उच्चारण किया और जब वह नोट्स द्वारा हमारे ज्ञान की जाँच करने लगे तो हम सबको भी वह शब्द दोहराना पड़ा. दरअसल साहित्य हममें से ज़्यादातर को हौवा लगता था.
     
मैं कई कारणों से उस छात्रवृत्ति प्राप्त लड़की के बारे में सोचता रहता था. एक तो शायद उसे वजीफा मिलता था. हमारे प्रोफेसर ने, जो उस पर बहुत अधिक ध्यान नहीं देते थे, एक दिन उससे कुछ पूछ लिया. तब मैंने पाया कि उसमें बेहतर समझ की कमी ही नहीं थी, बल्कि उसे हैमलेट की मूल कथा तक का पता नहीं था. वह केवल शब्दों से खिलवाड़ कर रही थी. उसका ख़याल था कि उक्त नाटक भारत से सम्बन्धित था. यह सुनकर प्रोफेसर ने उसका मज़ाक बना लिया, क्लास के छात्र भी हँसने लगे मानो वे उससे कुछ ज़्यादा समझदार थे.

तब से मैं उसकी ओर ज़्यादा ध्यान देने लगा. उसे लेकर मैं कभी आकृष्ट होता तो कभी खुद को समेट लेता. वह तो वैसे ही बेहद सिमटी रहती थी. उसका परिवार और जातिगत पेशा भी बर्दाश्त करना असहनीय थे.

ये लोग जब मंदिर जाते तो इन्हें गर्भ-गृह से दूर रहने को कहा जाता था. वहाँ देवता की मूर्ति थी. वहाँ नियुक्त पुजारी इनके स्पर्श से भी कतराता. वह उन पर पवित्र भस्म इस तरह छिड़कतामानो कुत्ते को रोटी का टुकड़ा फेंक रहा हो. जब भी मैं उसके बारे में सोचता, मेरा दिमाग़ ऐसी चीज़ों से भिन्ना जाता. वह लोगों की चुभती नज़रें खुद पर लगातार झेलती लेकिन कभी किसी की ओर पलट कर नहीं देखती थी. इन सबसे परेशान वह यही चाहती रही थी कि यह मामला ख़त्म हो जाए. उसके प्रति अपने लगाव के चलते मुझे धीरे-धीरे उससे थोड़ी सहानुभूति होने लगी और उसकी आँखों से इस दुनिया को देखने की चाह जगने लगी थी.
     
मैंने तय कर लिया कि मुझे इसी लड़की का साथ देना चाहिए और इससे निर्णायक बातचीत कर एक त्याग भरा जीवन जीना चाहिए.
     
मुख्य सड़क से थोड़ा हटकर वहीं एक टी-रूमकहना चाहिए एक रेस्टोरेन्ट था, सस्ता होने के कारण छात्र वहीं जाया करते. जब कोई बैरे को सिगरेट के लिए कहता तो वह पाँच सिगरेटों वाली एक खुली डिब्बी हमारे आगे बढ़ा देता, हम जितनी चाहते ले लेते और उतने पैसे वहाँ रख देते. यहीं पर एक दिन मैंने उस स्कॉलरशिप-गर्ल’ (छात्रवृत्ति प्राप्त लड़की) को देखा. वह एक गोलाकार मेज़ पर पंखे के ठीक नीचे अकेले बैठी थी. मैं भी उसके पास जाकर बैठ गया. मुझे देखकर वह बजाय खुश होने के सहम-सी गई. तब मुझे लगा कि पहले उसके बारे में जान लेना चाहिए था, शायद उसने मुझ पर कभी ध्यान नहीं दिया था. बी.ए. में मुझमें ऐसी कोई ख़ास बात भी नहीं थी.
     
इस तरह शुरुआत में ही यह मेरे लिए चेतावनी जैसी हो गई थी लेकिन जानते हुए भी मैंने इस ओर ज़्यादा ग़ौर नहीं किया.

‘‘मैंने आपको इंग्लिश-क्लास में देखा था.’’ मैंने कहा. पता नहीं, बात शुरू करने का मेरा यह ठीक तरीका था. इससे उसे यह जताना था कि जब प्रोफ़ेसर साहब हैमलेटपर उसकी खिल्ली उड़ा रहे थे तो मैं भी वहीं था. उसने कुछ नहीं कहा.
     
तभी चेहरे पर चमकीली आभा वाला दुबला-पतला बैरा- जो पिछले कई दिनों से एक बेहद गंदी सफ़ेद जैकेट पहने था- आया और मेज़ पर ठण्डे पानी का एक चीकट गिलास रखते हुए पूछा कि मुझे क्या चाहिए. उसका यह निकम्मापन देख मुझे बड़ी झुँझलाहट हुई. वह बड़ी ऊहापोह में थी. उसका ऊपरी स्याह होठ धीरे से अपने दाँतों पर फिसला. मैंने नोट किया कि वह पाउडर लगाती थी जो उसके चेहरे को आभाहीन बना रहा था, हाँ, जहाँ पाउडर ख़त्म होता था, वहाँ से उसकी चमकीली त्वचा देखी जा सकती थी. शर्म से झेंपते हुए मैंने पहलू बदला.
     
मेरी समझ में नहीं आ रहा था उससे किस बारे में बात करूँ. ‘‘तुम कहाँ रहती हो ? तुम्हारे पिताजी क्या करते हैं ? तुम्हारे भाई अगर है,तो वे क्या करते हैं’’ जैसा मैं कुछ नहीं पूछ पाया. यह सब जानना परेशानी ही बढ़ाता और मेरी इसमें कोई रुचि भी नहीं थी. इनके उत्तर मुझे पीछे ही धकेलते. वहाँ से जाने की इच्छा भी नहीं थी, इसलिए बैरे द्वारा लाए गए पाँच सस्ती सिगरेटों के पैक में से एक सिगरेट और चाय मँगवाकर पीते हुए चुपचाप सस्ते से सैंडिलों में फँसे उसके काले-काले पैरों को देखता रहा. मुझे अपनी इस कोशिश पर फिर शर्म आने लगी थी.
     
अब मैं अक्सर उस चाय वाले के यहाँ जाता और जब भी वह मिलती, उसकी बग़ल में जा बैठता. हम दोनों में कोई बात नहीं करता था.

एक दिन वह मेरे बाद आई, लेकिन मेरी तरफ़ नहीं. मैं धर्मसंकट में फँस गया. टी-रूममें और लोग भी थे, जिनकी ज़िन्दगी साधारण और ठीक-ठाक ढंग से चल रही थी. मैं एक-दो मिनट तो चुपचाप अपनी घबराहट के साथ बैठा हुआ इस आत्मबलिदानी जीवन को छोड़ देने के बारे में सोचता रहा. लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला. उसे मेरी ओर से उदासीन देख मैं चिढ़कर उठा और उसके पास वाली कुर्सी पर जा बैठा. वह भी शायद इसी आस में थी, इसलिए उसने थोड़ा सरकते हुए मेरे लिए जगह बना दी. इतनी देर में यही हो पाया. अब तक बिना कुछ बोले और बिना टी-रूमके अलावा कहीं मिले हमारे बीच एक ख़ास क़िस्म का रिश्ता बन गया था. लोग हमें अज़नबी निगाहों से देख रहे थे, जिन्हें मैं अपने पर लगातार महसूस कर रहा था. वह भी खुद को घिरा पा रही थी. मैंने नोट किया कि वह इन घूरती निगाहों को झेल नहीं पा रही थी, लेकिन उसे ऐसा देख मुझे अजीब-सा सुकून मिल रहा था. मैं बैरों, विद्यार्थियों और आम लोगों के कारण इस नतीजे पर पहुँचा था और यह मेरे जीवन का पहला फल था. हालाँकि ये केवल आरम्भिक नतीजे थे, मैं जानता था बड़ी लड़ाइयाँ और कड़ी परीक्षाएँ अभी बाक़ी थीं, अच्छे परिणाम भी शेष थे.

उनमें से एक मौक़ा जल्दी ही आ गया. एक दिन टी-रूममें उसने मुझसे बातचीत की. अक्सर हमारे बीच ख़ामोशी छाई रहती थी, संप्रेषण का अच्छा तरीका यही था, लेकिन उसकी प्रगति से मुझे अपने तईं आश्चर्यजनक पिछड़ेपन का अहसास हुआ और उसकी आवाज़ सुनकर निराशा. मुझे याद आया कि क्लास में हैमलेट वाले प्रकरण के दिन तो मैंने इसकी फुसफुसाहट-सी ही सुनी थी, जिसमें थोड़ी-बहुत झिझक और शर्मिन्दगी बाक़ी थी. लेकिन उसकी आवाज़ मीठी तो क्या ऐसे अंतरंग मौक़े पर भी इतनी तेज़ और खुरदरी थी कि दूर तक सुनी जा सकती थी. इसे उसी के वर्ग के लोगों से जोड़ा जा सकता था. मैं तो सोचता था कि ऐसी चीज़ें वह स्कॉलरशिप-गर्लके रूप में पहले ही छोड़ चुकी होगी.

जो भी हो, उस आवाज़ को सुनकर मुझे बेहद कोफ़्त हुई, मैंने एक बार फिर खुद को डूबता हुआ महसूस किया. लेकिन आत्मबलिदानी जीवन जीने के अपने दृढ़-निश्चय का ख़याल आते ही यह भाव ख़त्म हो गया और मैंने तय किया कि मैं पीछे नहीं हटूँगा.
     
उसके अनगढ़पन, सामने वाले चमकदार दाँतों और पाउडर से पुती त्वचा की ही तरह उसकी आवाज़ के खुरदरेपन और खुद अपने डर से मैं इस क़दर भयभीत था कि मुझे उससे पूछना पड़ा कि उसने कहा क्या था?
     
‘‘किसी ने मेरे अंकल को बता दिया है.’’ उसने कहा.
‘‘अंकल!’’ मुझे लगा उसे इस तरह की फ़ालतू चीजों में मुझे उलझाने का कोई अधिकार नहीं है. कौन है यह अंकल? अब तक कहाँ था? यहाँ तक कि लोग जिस अंकलशब्द का प्रयोग नज़दीकी रिश्तों के लिए करते हैं, मुझे गुस्ताख़ी भरा लगा.
‘‘वह लेबरर्स-यूनियनका नेता है, एक फ़ायरब्राण्ड’...’’

उसने अंग्रेज़ी शब्द का प्रयोग किया था, जो उसके मुँह से अजीब-सी तिक्तता का बोध करा रहा था. हमारे यहाँ की राजनीति में राष्ट्रवादी नहीं थे क्योंकि महाराजा की ओर से इसकी इज़ाज़त नहीं थी. लेकिन अर्द्ध राष्ट्रवादी, चालबाज जैसे भद्दे शब्दों के आम प्रयोग के लिए हमने लेबरर्स’, ‘वर्कर्सजैसे चमकदार शब्द खोज लिए थे. अब मैं जान गया कि वह कौन थी. वह किसी फ़ायरब्राण्डसे जुड़ी थी, इसीलिए उसे महाराजा की ओर से छात्रवृत्ति मिली थी. ख़ुद की नज़रों में वह एक प्रभावशाली, ताक़तवर और आगे बढ़ती हुई शख़्सियत थी.

‘‘उन्होंने कहा है कि वह तुम्हारे ख़िलाफ़ एक जुलूस निकालने जा रहे हैं, जाति-उत्पीड़न का.’’ वह बोली.

यह मुझे हतोत्साहित करने की योजना थी- मेरे द्वारा परम्परागत मूल्यों के प्रतिकार की सार्वजनिक सूचना. यहाँ तक कि यह मेरे आत्मबलिदानी जीवन की महात्मा जी के विचारों से हुई निष्ठा का अपमान तक था.

‘‘उन्होंने कहा है कि वह तुम्हारे ख़िलाफ़ जुलूस निकालेंगे और तुम्हारे घर को आग लगा देंगे. सारी दुनिया तुम्हें मेरे साथ पिछलों कई हफ़्तों से टी-रूममें बैठा देख चुकी है. अब तुम क्या करोगे?’’

मैं सचमुच डर गया था, मैं उस फ़ायरब्राण्ड को भी जानता था.
‘‘तुम्हारे अनुसार मुझे क्या करना चाहिए?’’ मैंने पूछा.
“जब तक मामला ठंडा नहीं पड़ जाता, तुम मुझे कहीं छुपा दो.’’
“लेकिन यह तो तुम्हारा अपहरण होगा!’’
‘‘तुम्हें यही करना पड़ेगा.’’
वह शांत थी लेकिन मेरे दिलो-दिमाग़ में तूफ़ान घुमड़ रहा था.
     
कुछ महीनों पहले मैं विश्वविद्यालय में एक साधारण-सा आलसी लड़का था. इसे छोटे-से जीवन में महानता का सोपान चढ़ने का आकांक्षी, देश के महान लोगों के बारे में सोचता रहनेवाला, फ़िल्मीगीत सुनने और भावनाओं में गोते लगाने वाला, (चूँकि ये चीजे़ं सार्वभौम होती हैं, इसलिए ज़्यादा नहीं बताऊँगा) अपनी निजी इच्छाओं की पूर्ति में असमर्थ, जीवन में चापलूसी और दुनिया की असारता को महसूस करता हुआ मैं अपने पिता को मिले सी-ग्रेड के सरकारी क्वार्टर में रहता था. आज मेरी ज़िन्दगी का लगभग सबकुछ बदल चुका था.
     
सुरक्षित होने के बावजूद मैं डर रहा था, जैसे कोई बच्चा बारिश रुकने के बाद गंदे पानी में आसमान की परछाई देखकर डरे. मानो मेरे पैर उसकी कीचड़ में सन गए थे, जो छूते ही प्रचण्ड बाढ़ में बदल गया और मुझे साथ बहाए ले जा रहा था. कुछ देर तक मेरा मन इसी में उलझा रहा. तब दुनिया के बारे में मेरा नज़रिया बना कि यह संसार ऐसा नहीं है जहाँ आम आदमी सरलता से रह सके, काम कर सके. यह तो एक रहस्यगर्भा प्रचण्ड नदी है, थोड़ा-सा ध्यान चूका कि आदमी को कहीं का कहीं बहा ले जाएगी. जाहिर है इस दौरान मैं लड़की को भी देख रहा था. उसके पतले साँवले पैर, बड़े दाँत और गहरी त्वचा सब बदले-बदले लग रहे थे.

उसकी सलाह के अनुसार मुझे उसके लिए एक जगह तलाश करनी थी. किसी बोर्डिंग या हॉस्टल का तो सवाल ही नहीं था. मुझे अपने परिचित याद आए. परिवार और विश्वविद्यालय के दोस्त छोड़ देने पड़े. अन्त में ख़याल आया कि मुझे उस शिल्पी’ (इमेज़ मेकर) की तलाश करनी चाहिए, जिसका हमारे पुरखों के मंदिर और फ़ैक्टरी के बीच पुराना सम्बन्ध था. मैं अक्सर वहाँ जाता था. मुझे याद है उसका मालिक (master) एक छोटे क़द का आदमी था, जो आँखों पर चश्मा लगाता था. धूल से अटे अपने चश्मे और कारीगरी की चिप्पियों के कारण वह अन्धा लगता था. छोटी कद-काठी और दिखने में साधारण से दस-बारह आदमी पत्थरों पर छैनी-हथौडे़ से तरह-तरह की आवाजे़ं करते वहाँ मिलते. उनके बीच टिकना बड़ा मुश्किल था, लेकिन मैं जानता था कि स्कॉलरशिप गर्ल’ (छात्रवृत्ति प्राप्त लड़की) को इससे कोई एतराज़ नहीं होगा.

वह शिल्पी साधारण जाति (निम्न तो नहीं पर उच्च जाति से दूर) का था और मेरे लिए सर्वथा उपयुक्त था. उसके अहाते में बहुत से कारीगर सपरिवार रहा करते थे. वह मंदिर के एक स्तंभ पर एक जटिल-सी ड्रॉइंग उकेरने में व्यस्त था. मुझे देख वह हमेशा की तरह मुस्कुराया. मैंने उसकी ड्रॉइंग देखी, इसके बाद उसने कुछ और भी चीजें दिखाईं. मैंने लड़की पर बात करने की भूमिका बनाई कि एक पिछड़ी जाति की लड़की, जिसे घरवालों द्वारा परेशान किया जा रहा था. अब उसे एक शरण की आवश्यकता है. मैंने झेंपने के बजाए अधिकारपूर्वक बात करने का निश्चय किया था. मास्टर मेरे परिवार वालों  को जानता था. वह नहीं चाहता था कि ऐसी कोई युवती मेरे साथ हो. मैंने बताया कि मैं वास्तव में किसी उच्चकुलीन की ओर से ऐसा कर रहा था. पिछड़ों के प्रति महाराजा की सहानुभूति सर्वविदित थी, इसलिए मास्टर ने ऐसा व्यवहार किया, जो दुनियावी तौर-तरीक़ों को अच्छी तरह जानता हो. उसने स्टोर हाउस के पीछे चित्रों, प्रतिमाओं, आवक्ष-मूर्तियों आदि चीजों से अटा एक कमरा हमें दे दिया. वह देवताओं आदि की मूर्तियाँ बनाने जैसा जटिल कार्य ही नहीं करता था, जो बेहद सूक्ष्मता से होता है, बल्कि उसके यहाँ जीवित या मृत लोगों की प्रतिमाएँ भी गढ़ी जाती थीं. 


उसने राष्ट्रीय आंदोलन के कई स्वतन्त्रता सेनानियों, महात्माओं के अलावा फोटोग्राफ़ द्वारा लोगों के माता-पिता या फिर दादा-दादी की आवक्ष-मूर्तियाँ भी बनाई थीं. कई बार तो वे असली मनुष्यों से भी सुन्दर लगतीं. किन्तु बड़े व्यक्तित्वों से भरी हुई यह जगह जल्द ही मुझे बेचैन करने लगी थी. यहीं मैंने जाना कि प्रत्येक देवता में किसी-न-किसी स्तर पर कोई कमी होती है, उनकी तथाकथित आतंकित कर देने वाली ताक़त सच्ची नहीं होती और इसीलिए हमसब उनसे अभिभूत नहीं हो पाते.

मन में तो यह था कि लड़की को वहीं छोड़ दूँ और इस ओर कभी मुड़कर न देखूँ, लेकिन उसके फायरब्राण्डचाचा का आतंक हमेशा बना रहता. अगर यह ज़्यादा यहाँ रुक गई तो मेरे लिए इसे निकालना और कठिन हो जाएगा. हमें एक दूजे के साथ जीना था, इसके बावजूद मैंने उसे छुआ तक नहीं था.

अब मैं घर में रहने लगा. विश्वविद्यालय जाकर पढ़ने के बहाने बाहर निकलता. कभी-कभार उस शिल्पी (इमेज़ मेकर) के यहाँ भी जाता लेकिन वहाँ ज़्यादा देर नहीं रुकता था क्योंकि मैं मास्टर के मन में कोई भी शक नहीं डालना चाहता था.

उसके दिन बड़ी कठिनता से बीत रहे थे. उस अंधेरे कमरे में, जिसमें अहाते की धूल से सब कुछ अटा पड़ा था, यहाँ तक कि लड़की की त्वचा भी पाउडर पुती लगती थी. एक दिन वह मुझे बेहद निराशा अवस्था में मिली.
‘‘क्या बात है?’’ मैंने पूछा.
‘‘मेरी ज़िन्दगी कितनी बदल गई है.उसने उखड़ी आवाज़ में कहा.
‘‘और मेरी!’’
‘‘मैं बाहर होती तो इस समय परीक्षाएँ दे रही होती. लेकिन अब क्या हो ?’’
‘‘मैं तो विश्वविद्यालय को बायकॉटकर रहा हूँ.’’
‘‘फिर तुम्हें नौकरी कैसे मिलेगी ? कौन देगा तुम्हें रुपए-पैसे ? जाओ और परीक्षाएँ दे दो!’’
‘‘मैंने पढ़ाई नहीं की. अब मैं वे नोट्स नहीं रट सकता. बहुत लेट हो चुका हूँ.’’
‘‘तुम उन लोगों के बारे में जानते हो. वे तुम्हें पास कर देंगे.’’
जब परिणाम आया तो बाबूजी बोले, ‘‘सुना है, तुम रोमान्टिक्स और द मेयर ऑफ केस्टरब्रिज़ के बारे में कुछ नहीं जानते. कुछ समझ में नहीं आता. वे तुम्हें फेल करने पर आमादा हैं.’’

प्रिंसिपल ने उनसे इस बाबत बातचीत की थी. मन में आया कि कह दूँ ‘‘महात्मा के आह्वान पर मैंने बहुत पहले ही अंग्रेज़ी शिक्षा से बायकॉटकर लिया. मैंने अपनी किताबें भी जला डाली हैं.’’ लेकिन ऐन वक़्त पर हिम्मत जवाब दे गई.
‘‘परीक्षा-हाल में मुझे अपनी सारी ताक़त निचुड़ती जान पड़ती है.’’ अन्त में मैंने कहा और अपनी कमज़ोरी पर चीख़ पड़ा.
‘‘अगर तुम्हें हार्डी, वेसेक्स या किसी अन्य किसी पर कोई परेशानी थी तो मेरे पास आना चाहिए था. आज भी मेरे सारे स्कूल नोट्स रखे हैं.’’

पिताजी छुट्टी पर थे और हमारे सी ग्रेडघर के सामने वाले छोटे-से गर्म कमरे में बिना वर्दी एवं पगड़ी के सिर्फ़ धोती और क़मीज़ में बैठे थे. महाराजा के दरबारी दिन-रात कोट के साथ पगड़ी एवं वर्दियाँ पहनते थे. वे जूते कभी नहीं पहनते थे. इससे उनके तलवे काले, सख़्त एवं आधा इंच मोटे हो गये थे.

ठीक है, अब तुम भूमि-कर विभाग में (Land tax departmentमें काम करो.इस तरह मैंने महाराजा की रियासत में काम करना शुरू कर दिया. भूमिकर विभाग बहुत बड़ा था. भूमि के छोटे मालिकों को भी इसके अधीन कर अदा करना पड़ता था. पूरी रियासत में इसके अधिकारी नियुक्त थे, जो भूमि का सर्वेक्षण करते, मालिकों का रिकॉर्ड रखते और उनसे कर वसूल कर खाते में चढ़ाते. मैं केन्द्रीय कार्यालय में था. यह ऊँचे गुंबदवाली सफ़ेद संगमरमर की एक भव्य इमारत थी. इसमें ढेर सारे कमरे थे. मेरा काम कमरा नं. बीस में था. इसकी मेंजे़ क़ागज़ों से अटी रहती और बड़ी.बड़ी शेल्फ ऐसी लगतीं मानो रेलवे स्टेशन का लेफ्ट०-लगेजरूम’ (सामान रखने का कमरा) हो. कुछ क़ागज भारी भरकम डब्बों में रखकर रस्सी से बाँध दिए गए थे तो कुछ को कपड़े के बण्डलों में बाँधा हुआ था. शेल्फ़ के ऊपर रखे फ़ोल्डर सालों पुराने थे, सिगरेट के धुएँ और धूल से उनकी रंगत बदल गई थी. छत का पंखा भी धुँए से भूरा-बादामी हो चला था. कमरा ऊपर की ओर तम्बाकू जैसा भूरा था और उसके दरवाज़े, मेज़, फ़र्श और नीचे के हिस्से गहरे महोगनी रंग के थे.

मैंने खुद को कोसा. यह नौकरों-सा काम मेरे आत्मबलिदानी जीवन के दृष्टिकोण में कोई योग नहीं दे सकता. लेकिन तब मैं इसे पाकर खुश था क्योंकि मुझे पैसों की सख़्त ज़रूरत थी. मैं गले तक क़र्ज़ में डूबा था.

मैंने महल में पिताजी की हैसियत और उनके नाम का सहारा लेकर लड़की की मदद करने के लिए कई साहूकारों से पैसा उधार ले रखा था.

उसने कुछ पैसे ख़र्च कर रसोई का सामान और अपने कपड़े आदि जुटाकर कमरे को सहेज लिया था. अपने पिता के सी-ग्रेडघर में किसी तपस्वी की तरह रहते हुए किन्तु किसी गृहस्थ की तरह मैंने उसका सारा खर्च़ वहन किया.

उसने कभी यह नहीं माना कि मेरे पास पैसा नहीं था. उसे लगता था कि मेरे जैसे लोग गुप्त फ़ण्ड रखते हैं. यह हमारी जाति के खिलाफ़ हो रहे प्रचार में से एक था, लेकिन मैंने ऐसी सपाट कटूक्तियाँ भी झेलीं. जब मैंने एक महाजन से कुछ और रक़म लेकर उसे दी तो भी उसने कोई आश्चर्य नहीं जताया. वह व्यंग्य (अथवा कटाक्ष) में कहती- ‘‘पता नहीं हमारे प्रोफ़ेसर क्यों कहते थे कि तुम बड़े दुखी दिखते हो. तुम्हारी जाति तो किसी को कुछ देते समय हमेशा दुःखी ही रहती है.’’ उसका व्यवहार कभी-कभी अपने फ़ायरब्राण्डचाचा (पिछड़ों के अगवा) जैसा लगता था.
मुझे कोई खुशी नहीं थी लेकिन वह इस नये काम से प्रसन्न थी.

‘‘कम ही सही लेकिन बदलाव के लिए पैसों की यह लगातार मिलती खेप बुरी नहीं है.’’ उसने कहा.
‘‘पता नहीं, मैं कब तक यह नौकरी कर पाऊँगा.’’
‘‘देखो, मैं पहले ही बहुत दुःख झेल चुकी हूँ; अब ज़्यादा सहने की हिम्मत नहीं है. अगर तुम मुझे विश्वविद्यालय से भगाकर नहीं लाते हो तो मैं परीक्षाएँ देती और बी. ए. कर लेती. विश्वविद्यालय तक भेजने में मेरे माता-पिता ने काफ़ी दिक़्क़तें झेली थीं.
आवेश में मेरी रुलाई फूट पड़ी.

उसकी बात पर नहीं, इस पर कि मुझे उस कै़दख़ाने सरीखे घर में रहना पड़ रहा था. लेकिन ज्यों-ज्यों काम बढ़ता गया, मेरा घर में रहना दिनों-दिन कम होता गया. मुझे लगा, मैं एक बार फिर बच्चा बन गया था. मेरे बचपन की एक कहानी है, जिसे मेरे, माता-पिता सुनाया करते थे. एक दिन उन्होंने मुझसे कहा ‘‘आज हम तुम्हें स्कूल छोड़ने जा रहे हैं.’’ शाम को पूछा गया ‘‘तुम्हें स्कूल पसन्द आया ?’’ ‘‘हाँ मुझे अच्छा लगा.’’ मैंने कहा. अगली सुबह उन्होंने मुझे जल्दी उठा दिया. जब मैंने इस बारे में पूछा तो बोले ‘‘तुम्हें स्कूल जाना है ना!’’ लेकिन मैं कल तो गया ही था,’’ मैंने रोते हुए कहा. भूमिकर विभाग में काम पर जाते हुए मुझे कुछ ऐसा ही लगा. एक ही जगह दिन-ब-दिन, साल-दर-साल जब तक कि मृत्यु न हो जाए, काम करने का विचार, मुझे बुरी तरह डरा देता.

एक दिन दफ़्तर में सुपरवाइज़र आया और बोला, ‘‘आपकी बदली ऑडिट सेक्शन में  कर दी गई है.’’
     
इस विभाग में हमें टैक्स-कलेक्टरएवं सर्वेक्षकों के बीच होने वाली धाँधलियों पर नज़र रखनी थी. अधिकारी लोग ग़रीब और अनपढ़ लोगों से भूमिकर वसूलते समय उन्हें पावती-रसीद नहीं देते, जिसके चलते उन्हें फिर से कर अदा करना पड़ता था. या फिर रसीद के लिए उन्हें घूस देनी पड़ती. ग़रीबों के साथ ऐसी धोखाधड़ियों का यह अंतहीन सिलसिला था. ये अधिकारी भी कर अदाकर्ताओं से ज़्यादा अमीर नहीं थे. आख़िर कर अदा न किए जाने का खामियाजा किसे भुगतना पड़ता. जब भी उन मटमैले क़ाग़जों की ओर देखता, मैं खुद को धोखेबाज़ महसूस करता. सो मैंने उन क़ाग़जी टुकड़ों फेंकना या नष्ट करना शुरू कर दिया. मैं एक अन्तर्घाती-सा बन गया था और यह सोचकर मुझे गहरी शांति मिली थी कि बिना कोई लम्बा चौड़ा वक्तव्य दिए मैं अपने स्तर पर नागरिक अवज्ञा (Civil disobedience) का अनुपालन कर रहा था.

एक दिन सुपरवाइजर ने मुझसे कहा ‘‘तुम्हें चीफ़-इन्स्पेक्टर ने बुलाया है.’’ यह सुनकर मेरी सारी बहादुरी हवा हो गई. मुझे महाजन, उधारी और मूर्तिकार के यहाँ ठहरी लड़़की की याद आने लगी. चीफ़-इन्स्पेक्टर मेज़ पर फ़ाइलों में घिरा बैठा था. मेज़ उन्हीं घपलेवाली फाइलों से पटी थी, जो आधा दर्जन मेज़ों से गुजरती हुई अंततः यहाँ तक इसके निरंकुश निर्णयों के लिए पहुँची थी. अपनी कुर्सी में धँसा हुआ वह मेरी ओर अपने चश्मे के मोटे शीशे से झाँकता हुआ बोला, ‘‘तुम यहाँ अपने काम से खुश हो ना ?’’

मैंने सिर झुका लिया. लेकिन कुछ कहा नहीं .
अगले सप्ताह तुम्हें असिस्टेंट-इन्स्पेक्टर बना दिया जाएगा.
यह काफ़ी ऊँची प्रोन्नति थी लेकिन मुझे एक फंदा-सा जान पड़ा.’’ ‘‘पता नहीं सर, मैं इसके योग्य हूँ भी या नहीं. मैंने कहा.
‘‘हम तुम्हें  पूरा इन्स्पेक्टर नहीं असिस्टेंट-इन्स्पेक्टर बना रहे हैं.’’

यह मेरी पहली ही तरक़्क़ी थी. मैंने कैसे यह नौकरी पाई या कितनी जोड़.तोड़ की इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा, उन्होंने मुझे प्रोन्नत करना ज़ारी रखा, जो कि नागरिक अवज्ञा के एकदम उलट था. इससे मैं चिंतित हो उठा था और एक शाम मैंने अपने पिताजी को बता दिया.
‘‘स्कूल प्रिंसिपल को अपने दामाद से बहुत उम्मीदें होती हैं.’’ उन्होंने कहा.
‘‘लेकिन मैं उनका दामाद नहीं बन सकता. मेरी शादी हो चुकी है.’’

पता नहीं यह कैसे मेरे मुँह से निकल गया, जो पूरी तरह सच नहीं था लेकिन इससे मैंने अपने और उस लड़की के बारे में गहराई से सोचना शुरू कर दिया था. पिताजी आग-बबूला हो गये. उनकी सारी सहनशक्ति जाती रही. लगा, उनका दिल बैठ गया था. काफ़ी देर बाद उन्होंने पूछा-‘‘कौन है वह लड़की ?’’

मैंने बता दिया. वह कुछ नहीं बोले. मुझे लगा, वे बेहोश हो जाएँगे. मैं उन्हें शांत करना चाहता था. इसलिए मैंने उन्हें उस लड़की के फ़ायरब्राण्डचाचा के बारे में बताया. साथ ही, अपने मूर्खताभरे इरादों के बारे में भी जो मेरे बलिदानी विचारों से विकसित थे. मैंने बताया कि लड़की की एक पृष्ठभूमि है, ऐसा नहीं कि उसका कोई आधार ही नहीं. इससे मामला और बिगड़ गया. वे फ़ायरब्राण्डके बारे में कुछ नहीं सुनना चाहते थे. वे सामने वाले छोटे कमरे में ही फ़र्श पर बिछी बाँस की एक पुरानी चटाई पर लेट गए और माँ को पुकारा. मुझे उनके गंदे और फटे हुए पैरों के सख़्त तलवे दिखाई पड़े. उनकी एड़ियों में दरारें पड़ी थीं और उन पर पपड़ियाँ जमीं थी. एक दरबारी के नाते पिताजी को जूते पहनने की इजाज़त नहीं थी, लेकिन वे मेरे लिए जूते ज़रूर ला देते थे.

अन्त में वे बोले- ‘‘तुमने हम सबके मुँह पर कालिख पोत दी है, अब प्रिंसिपल का खौ़फ़ भी झेलना पड़ेगा. उसकी बेटी से शादी करके तुम सबकी नज़र में ऊपर उठ जाते. तुमने उसकी बेइज्जती की है.’’
     
हालाँकि मैंने दोनों लड़कियों में किसी को छुआ तक नहीं था और ना ही किसी के साथ कोई सगाई वगैरह ही की थी फिर भी मुझसे उन दोनों औरतों का अनादर हो गया था.

पिताजी ठीक से सो नहीं पाए थे, सुबह उनकी आँखें सूजी हुई जान पड़ीं.
वे बोले- ‘‘सदियों से हम ऐसे ही रहे हैं, यहाँ तक कि जब मुसलमान आए और जब हम भुखमरी के शिकार रहे, तब भी. लेकिन अब तुमने हमारी कुल परंपरा को कलंकित कर दिया.’’
‘‘अब त्याग का समय आ गया है,’’ मैंने कहा.
‘‘त्याग...त्याग...! क्यों ?’’
“मैं तो महात्मा जी के आह्वान का अनुपालन कर रहा हूँ.’’यह सुनकर मेरे पिताजी ठिठक गए. मैंने फिर कहा- मैं केवल वही त्याग कर रहा हूँ, जो करना चाहिए.ये पंक्ति पिछली शाम से ही मेरे मन में घूम रही थी.

‘‘स्कूल प्रिंसिपल ऊँची पहुँच वाला आदमी है, वह ज़रूर हमारे विरुद्ध कोई षड्यंत्र रचेगा. पता नहीं, मैं कैसे उनका सामना करूँगा, कैसे कुछ कह पाऊँगा. तुम्हारे लिए त्याग की बात करना बहुत आसान है. तुम जवान हो, भाग सकते हो, लेकिन मुझे और तुम्हारी माँ को इसका परिणाम भुगतना पड़ेगा. अच्छा होगा तुम यहाँ से चले जाओ. तुम्हें लगता है कि यहाँ तुम्हें किसी पिछड़े (बैकवर्ड) के साथ रहने दिया जाएगा ?’’

पिताजी ठीक कह रहे थे. मेरे लिए उनकी बात मानना ही अधिक उचित होता. वास्तव में मैं उस युवती के साथ रह भी नहीं रहा था. यह विचार दिन-ब-दिन मज़बूत भी होता जाता और मुझे पीछे की ओर धकेलता भी जाता. इसलिए मेरी स्थिति बड़ी असमंजस भरी भी.
     
कुछ हफ़्तों में हालात सामान्य हो गए थे. मैं पिताजी के सरकारी आवास में आवास आ गया. कभी-कभार मूर्तिकार के यहाँ भी जाने लगा था. मैंने भूमिकर विभाग में भी काम करना शुरू कर दिया था. इधर पिताजी को प्रिंसिपल का हमेशा खटका बना रहता, लेकिन कुछ हुआ नहीं.
एक दिन एक संदेशवाहक ने बताया कि चीफ़-इन्स्पेक्टर मुझसे मिलना चाहते हैं.
चीफ़़ इन्पेक्टर मेज़ पर रखी फ़ाइलों से घिरा बैठा था, उनमें कुछ मेरी जानी-पहचानी लग रही थीं.
‘‘अगर मैं कहूँ कि तुम्हें एक और तरक़्क़ी के लिए तुम्हें चुना गया है तो तुम्हें कैसा लगेगा?’’ उसने पूछा.
‘‘नहीं .. हाँ, लेकिन मैं इसके योग्य कहाँ हूँ. भला मुझमें इन तरकि़्क़यों वाली योग्यता है?’’
“लगता तो मुझे भी यही है, मैंने तुम्हारे कुछ कामों की कुछ जाँच की और हैरान रह गया हूँ. कई दस्तावेज़ नष्ट कर दिए गए हैं, रसीदें तक फेंक दी गई हैं.उसने कहा.
‘‘मुझे कुछ नहीं पता. इसमें किसी और का हाथ होगा.’’ मैंने कहा.
“बात ये है, कुछ उच्चाधिकारियों ने तुम्हारी शिकायत की थी, तुम्हारे ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार की जाँच चल रही है. जो एक गंभीर मामला है. तुम जेल भी जा सकते हो- आर-आई. यानी कठोर कारावास में. ये फ़ाइलें तुम पर इल्ज़ाम मढ़ने के लिए काफ़ी है.’’

अब वह लड़की ही इकलौता सहारा थी, जिससे मैं इस बारे में बात कर सकता था. मैं शिल्पी के यहाँ गया.
वह बोली, ‘‘तुम उन धोखेबाज़ों के साथ थे न!’’ मानो इससे उसे खुशी हुई थी.
‘‘हाँ, लेकिन लगता नहीं वे अब तक जाँच कर ही रहे हैं. वहाँ ढेर सारे क़ागज़ पड़े हैं, इससे तो किसी पर भी वे कोई मामला मढ़ सकते हैं. दरअसल कॉलेज का प्रिंसिपल मेरे खि़लाफ़ है. मुझे तुम्हें बताना चाहिए था, वह मेरे साथ अपनी लड़की की शादी करना चाहता था.’’

मुझे ज़्यादा कुछ कहना नहीं पड़ा. वह समझ चुकी थी. उसने इस बात के सारे सिरे जोड़ लिए थे.
‘‘मैं अपने चाचा को एक जुलूस निकालने के लिए कहती हूँ.’’ उसने कहा.
‘‘चाचा! जूलूस : हाथों में आड़े तिरछे बैनर लिए महल और सचिवालय के बाहर मेरा नाम लेकर चीख़ते पिछड़े लोगों का हुजूम!
‘‘नहीं, नहीं, प्लीज, जुलूस-वुलूस नहीं.’’
पर वह ज़िद करने लगी, वह उत्तेजित हो उठी थी.
‘‘वह एक क्राउडपुलरहै’’- उसने अंग्रेज़ी शब्द का प्रयोग किया था.

असल में फ़ायरब्राण्डद्वारा अपनी ही सुरक्षा का विचार मुझे असह्य लगा. हालाँकि मैं जानता था कि तमाम झटकों के बावजूद मैंने उससे समझौता कर लिया है पर यह बात सुनकर मेरे पिता मर जाते-अपने को इस युवती, प्रिंसिपल, फ़ायरब्राण्ड, जेल आदि के घने अंधियारे समुद्र में फँसते देख मैं इन सबसे भागने का मन बनाने लगा था. दादाजी की तरह मैंने भी शहर के प्रसिद्ध मंदिर में शरण लेने की सोची. और त्याग के उच्चतम क्षणों तक जाने के बजाय मैंने उन्हीं की तरह सहज रूप से पुरानी राह चुन ली थी.

मैंने गुपचुप तैयारियाँ कीं. करने को ज़्यादा कुछ नहीं था, बस मुझे अपने सिर के बाल मुँडवाने थे. अगले दिन मैं मुँह-अंधेरे उठा, अपने समुदाय (पुजारी-समुदाय) वाले परिधान पहने और जिस तरह भगवान बुद्ध ने अपने पिता का सारा एशो-आराम त्याग दिया था, मैंने भी अपने पिताजी का घर छोड़ दिया और नंगी देह, नंगे पाँव लिए मंदिर की ओर चल पड़ा. मेरे पिताजी कभी जूते नहीं पहनते थे जबकि मैं कुछ धार्मिक अवसरों के अलावा हमेशा जूते डाले रहता था. पिताजी के बजाय मेरे तलवे ज़्यादा मुलायम और सुकुमार थे. जल्द ही वे ऐसे सुलग उठे, जैसे कि सूरज उगते समय आसमान की लाली और मंदिर के प्रांगण के पत्थर भभक उठते हों.
     
दिन में सूर्य से बचने के लिए मैं भी अपने दादाजी की तरह इधर-उधर भटकता रहा. शाम को आरती के बाद मुझे प्रसाद दिया गया. उपयुक्त घड़ी देखकर मैंने पुजारियों के आगे खुद के भिक्षु होने के बारे में बताया और अपने पूर्वजों का परिचय देते हुए स्वयं के लिए उपासना की जगह माँगी. मैंने छिपने की कोशिश क़तई नहीं की. मंदिर का अहाता सदर रास्ते की तरह ही भीड़-भाड़ वाला था. मैंने सोच लिया था कि जितने ज़्यादा लोग मुझे देखेंगे और मेरे त्याग भरे जीवन के बारे में जानेंगे, मेरी सुरक्षा के लिए उतना ही अच्छा रहेगा. लेकिन मेरे मामले पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया गया, मंदिर में मेरी उपस्थिति को जानने और मेरे दोष ढँकने के तीन-चार दिन बाद ही उस घटना का पता लोगों को चल गया.

जब फ़ायरब्राण्ड ने जुलूस निकाला तो प्रिंसिपल और भूमिकर विभाग के अधिकारी सकते में आ गए. हर कोई बुरी तरह डरा हुआ था, इसलिए किसी ने मुझे छुआ तक नहीं. इस तरह अपनी अवमानना, पिताजी की सभी पीड़ाओं और अपने अतीत के साथ मैं पिछड़ों के उत्थान का एक हिस्सा बन गया था.

यह सब कुछ दो-तीन सप्ताह चलता रहा, पता नहीं, कब क्या हुआ, कहाँ जाकर सारी चीजे़ं ख़त्म हुईं. मुझे तो यह तक नहीं पता मैं उस अजीब-सी स्थिति में कब तक बना रहा. सरकारी वकील काम पर मुस्तैद थे. मैं जानता था कि अगर फ़ायरब्राण्डनहीं होता तो कोई भी शरणस्थली मुझे कोर्ट से नहीं बचा सकती थी. मुझे ध्यान आया कि ऐसी स्थितियों में महात्मा जी की तरह करना चाहिए था- मौनव्रत. यह मेरे स्वभाव के अनुकूल था और लगा कि इससे मेरी सारी कठिनाइयाँ हल हो जाने वाली थीं. मेरे मौनव्रत धारण की ख़बर चारों ओर फैल गई थी. वे आम लोग, जो लोग दूर-दूर से भगवान के दर्शन के लिए यहाँ आते थे, अब मुझ पर भी श्रद्धा रखने लगे. फ़ायरब्राण्ड’, उसकी भतीजी और उन राजनीतिक कारणों के बावजूद मैं जल्द ही संत के रूप में प्रसिद्ध हो गया.

मैं ठीक वैसा ही मशहूर हो गया था जैसा पड़ोस में अपनी दुष्टतापूर्ण हरकतों के नाते कुख्यात माधवन नामक एक बैकवर्ड जाति से आया वकील. वह इतना बदतमीज़ था कि पुजारी जब भी महत्त्वपूर्ण और लम्बे समय तक चलने वाले कष्टकर धार्मिक अनुष्ठान करते, वह सारी मर्यादाओं और शालीनता को ताक पर रखकर मंदिर के सामने टहलने लगता. यज्ञ आदि के दौरान तनिक भी गलती होने पर सब-कुछ दोबारा दोहराना पड़ता है. इसलिए ऐसे अवसरों पर पिछड़ों के लिए मंदिर के तमाम गलियारें बंद कर दिए जाते ताकि उनके द्वारा पैदा शोरगुल जैसी बाधाओं से बचा जा सके.

ये लोग इधर-उधर तो गाँधी, नेहरू एवं अंग्रेज़ों पर बहस करते थे लेकिन यहाँ महाराजा की रियासत में, इनके लिए राजनीति के दरवाजे़ बंद थे. यहाँ इन्हें अर्द्ध-राष्ट्रवादी, चौथाई-राष्ट्रवादी बल्कि इनमें भी नहीं गिना जाता था. इन सबका मुख्य कारण जातीय द्वेष था. कुछ समय इन्होंने मेरे और वकील के लिए नागरिक अवज्ञाएँ भी की थीं. एक ओर वे वकील के अधिकार का समर्थन करते मंदिर में से गुज़रते तो दूसरी ओर उन्होंने फ़ायरब्राण्ड की भतीजी से मेरी शादी के अधिकार की मुहिम भी चलाई थी.

एक दिन की हड़ताल एवं जुलूस ने मुझे कोर्ट और प्रिंसिपल से साफ़ बचा लिया  था, साथ ही उसकी लड़की से भी. लेकिन मैं इससे इतना दुःखी हुआ कि वकील को इसका मूल्य देने की सोचने लगा. हालाँकि मेरे त्याग और सादगी भरे जीवन में यह मोड़ मुझे उपयुक्त नहीं जान पड़ रहा था. मेरी इच्छा देश की उन्हीं महान विभूतियों का अनुसरण करने की हुई. किस्मत ने मुझे उन लोगों का नायक बना दिया था जो अपने जातीय विद्वेष के चलते लड़ रहे थे और उन्हें नीचा दिखाना चाहते थे.

कोई तीन महीने मैं ऐसे ही पड़ा रहा, सिर्फ़ श्रद्धालुओं का अभिवादन स्वीकार करता, न उनसे बात करता और न किसी चढ़ावे की ओर ध्यान देता. समय गुज़ारने का यह असहज तरीका बुरा नहीं था बल्कि अपनी स्थिति को देखते हुए यह मेरे मौन व्रत में सहायक ही रहा. सारी समस्याएँ ख़त्म हो गई थीं. कुछ दिन बाद तो मैं उनकी चिन्ता करना ही भूल गया. जब मेरी चुप्पी मुझे ही खलने लगी तो मैं किसी वस्तु या व्यक्ति के बिना पड़े रहने और सबसे कटा रहने के इस अहसास का थोड़ा बहुत आनंद लेने लगा. दस-पन्द्रह मिनट तक मैं अपनी स्थिति भूल जाता. कई बार तो मुझे अपने होने का पता ही नहीं रहता था.

जब वह विख्यात लेखक और उनके प्रिंसिपल मित्र पधारे तो मेरा जीवन एक दूसरा मोड़ ले चुका था. प्रिसिंपल स्टेट के ट्यूरिस्ट्स पब्लिकशन का डायरेक्टर भी था. इसलिए आस-पास उसकी बड़ी प्रसिद्धि थी. उसने एक हिकारत भरी नज़र मेरी ओर डाली लेकिन जब वे आगे बढ़ गए तो मुझे चिन्ता हुई. तभी लेखक के मित्र मिस्टर हेक्स्टन मेरे बारे में पूछताछ करने लगे. ‘‘कुछ नहीं, कोई ख़ास बात नहीं है’’ प्रिंसिपल ने हाथ नचाते हुए कहा. लेकिन मि. हेक्स्टन ने जोर देते हुए पूछा कि लोग मेरे लिए उपहार क्यों लाते हैं ? तब प्रिंसिपल ने बताया कि मैंने मौन-व्रत धारण किया हुआ था और इससे पूर्व भी मैं सौ दिनों तक ऐसा कर चुका था. लेखक महोदय को इससे बड़ी उत्सुकता हुई. यह देखकर प्रिंसिपल, जैसा कि ऐसे लोग होते ही हैं, महाराजा के पर्यटन विभाग के योग्य कर्मचारी के नाते उन्हें सब बताने लगा. उसने अपनी नज़रें मुझ पर गड़ा दी थीं और हमारे पुरोहित परिवार और मंदिर के पुरखों के बारे में बढ़ा-चढ़ाकर बताने लगा. उसने मेरे अतीत के बारे में भी बताया, जो भविष्य के लिए काफ़ी सुनहरा होता. जबकि उन सब चीज़ों को मैं एक संन्यासी के रूप में रहते हुए और श्रद्धालुओं की दान-दक्षिणा पर निर्वाह करते हुए रहस्यात्मक ढंग से त्याग चुका था. प्रिंसिपल की सराहना ने मुझे विचलित कर दिया था. मुझे यह सब उसकी गन्दी साज़िश लग रही थी. मैं उसे ऐसे देख रहा था मानो उसकी भाषा मेरे पल्ले नहीं पड़ रही हो.

प्रिंसिपल एक-एक शब्द चबाते हुए बोला- ‘‘यह दुःख झेलने से डरता है, इस जीवन में ही नहीं, अगले जीवन में भी, और इसे डरते रहने का अधिकार भी है.’’
‘‘क्या मतलब!’’ लेखक के भाव बदल गए थे.
‘‘क्या हमसे रोज़ कोई-न-कोई पाप नहीं होता, जिसे आगे भोगना पड़ेगा! क्या सब लोग घात नहीं करते?’’ प्रिंसीपल ने कहा.
यह टिप्पणी मेरे अपने दुर्भाग्य पर थी. मैंने उसके व्यंग्यपूर्ण लहजे को अनसुना कर दिया और पीठ मोड़ ली. अगले दिन लेखक और उनका दोस्त फिर आए. इस बार प्रिंसिपल साथ नहीं था.
‘‘मैं तुम्हारे मौनव्रत को जानता हूँ. लेकिन क्या तुम मेरे कुछ प्रश्नों का उत्तर लिखकर दे दोगे?’’ लेखक ने पूछा.
मैंने कोई उत्तर नहीं दिया, उसने अपने दोस्त से पैड माँगी और उस पर पैंसिल से लिखा- ‘‘क्या तुम खुश हो?’’
पैड लेकर मैंने पूरी गंभीरता से लिखा- ‘‘अपने मौन में पूरी स्वतन्त्रता महसूस करता हूँ और यह खुशी ही है.’’
इसी तरह के कुछ और लेकिन आसान जान पड़ते प्रश्न थे जिनका मुझसे पहले भी वास्ता पड़ चुका था. इसलिए उत्तर देते समय मुझे कोई परेशानी नहीं हुई बल्कि मुझे अच्छा ही लगा. उसने ज़ोर से अपने दोस्त से कुछ कहा, मानो मैं गूँगा ही नहीं बहरा भी था.
‘‘मुझे यह सब कुछ-कुछ एलेक्ज़ेंडर और ब्राह्मण (चन्द्रगुप्त नाटक से) जैसा लगा. क्या तुम्हें उस गाथा के बारे में पता है?’’ मिस्टर हेक्स्टन ने चिढे स्वर में मना करा दिया. तेज़ धूप से उनकी आँखें सुर्ख़ हो उठी थीं. धूप और उससे मंदिर के चिकने पत्थरों की चौंध के कारण वे तप गए थे. लेखक ने सपाट किन्तु खीज़ते हुए कहा- ‘‘कोई बात नहीं.’’ इसके बाद वह मेरी ओर मुड़ गए. फिर हमने कुछ और लेखन-कार्य किया.
इस मीटिंग के ख़त्म होने पर लगा मानो मैं किसी परीक्षा में पास हो गया था. मुझे पता था कि इस मीटिंग की बात चारों ओर फैलेगी लेकिन लेखक की इज्ज़त को देखते हुए प्रिंसिपल और अन्य दूसरे अधिकारी नुक़सान नहीं पहुँचा पाएँगे. यही हुआ भी. असल में लेखक के चलते उन्हें मुझ पर गर्व करना पड़ा यहाँ तक कि बेचारे प्रिंसिपल की तरह राज्याधिकारी भी मेरी भरपूर प्रशंसा कर रहे थे. लेखक की किताब आने के बाद यहाँ अन्य विदेशी लोग भी आने लगे थे. इस समय जबकि चारों ओर स्वाधीनता संग्राम की धूम थी और मुझे प्रतिष्ठित विदेशी बुद्धिजीवियों और आध्यात्मिक केन्द्रों में थोड़ी बहुत प्रतिष्ठा मिलने लगी थी.

अब इस भूमिका से कोई छुटकारा नहीं था. शुरू में लगा कि मैं स्वयं को फंदे में डाल रहा हूँ, लेकिन जल्द ही मैं इसके अनुकूल होता चला गया. तरह-तरह की दुर्घटनाओं, दुःस्वप्नों और एक के बाद दूसरी परिस्थितियों से टकराते जाने, उन्हीं के उकसावे पर अभिनय करते रहने तथा बिना उचित दिशा-निर्देशों के जीवन में पाखंडों से बचते हुए भी मैं अपनी पैतृक रूढ़ियों में पड़ गया था. इससे मैं विस्मित और स्तंभित था. मुझे लगता कोई महाशक्ति हाथ उठाकर मुझे सच्चा मार्ग दिखाना चाह रही है.

मेरे पिताजी और प्रिंसिपल का नज़रिया कुछ दूसरा ही था. सरकारी कारणों से मेरी प्रशंसा करने के बावजूद, प्रिंसिपल की नज़र में मैं एक जातिच्युत और कलंकित व्यक्ति था जो अपने व्यवहार से पवित्र व्यवस्था की खिल्ली उड़ा रहा था. लेकिन मैंने उन्हें रोका नहीं. वे और उनका संताप दोनों मुझसे काफ़ी दूर थे.

अब मेरे लिए जीवन को व्यवस्थित करने का समय था, इसलिए मैं मंदिर में नहीं ठहर सकता था. उस लड़की के साथ जीवन की संगति बैठाने के लिए कुछ-न-कुछ करना जरूरी था. मैं सब कुछ छोड़ सकता था, यह भूमिका भी, लेकिन उस लड़की से दूर नहीं रह सकता था. उसे छोड़ना अपमान को चौगुना करना था, फिर वहाँ वह फ़ायरब्राण्डभी मौज़ूद था. मैं सबको सॉरीकहते हुए चुपचाप अपनी भूमिका से नहीं भाग सकता था.

अब तक वह शिल्पीके यहाँ बेहद परेशानी में रह रही थी. ज्यों-ज्यों हमारा संबंध प्रगाढ़ होता गया और प्रसिद्धि पाता गया, उस लड़की के प्रति दिन-ब-दिन मेरी शर्मिन्दगी बढ़ती चली गई.
उससे ही नहीं, मैं अपने माता-पिता और प्रिंसिपल से भी उतना ही शर्मिंदा था और अपने वर्ग के लोग-बाग मुझसे शर्मिंदा थे. यह शर्म किसी लाइलाज़ रोग की तरह बनी रहती. मेरी सारी छोटी-बड़ी कामयाबी इससे प्रभावित हो रही थी (जिनका संदर्भ एक पुस्तक, पत्र-पत्रिकाओं के लेखों एवं एक महत्त्वपूर्ण यात्री द्वारा उल्लेखित). बताना अजीब-सा लगेगा लेकिन मैंने अपने अकेलेपन पर ध्यान देना बंद कर दिया और सप्रयास इसका सामना करते हुए इससे छुटकारा पा सका. यह अकेलापन मेरे स्वभाव का एक अटूट हिस्सा बन गया था, जिससे उबरने में मुझे काफ़ी समय लगा.
अन्ततः अपने पैरों पर खड़ा मैं एक व्यवस्थित आदमी बन ही गया. यह कोई बड़ी सौगात नहीं थी. मैंने उस लड़की से शादी कर ली. इसके लिए कोई समारोह नहीं हुआ था. मुझे नहीं लगता कि ऐसा कुछ होना ज़रूरी था. मेरे मन में कोई अपराध-भाव नहीं था पर मैंने निजी तौर पर संभोग न करने की प्रतिज्ञा की. यानी मैंने महात्मा जी की तरह ब्रह्मचर्य-पालन का व्रत लिया था लेकिन उन्हीं की तरह असफल भी रहा. मुझे बेहद शर्मिन्दगी हुई जब जल्द ही इसका परिणाम सामने आया. मुझे यह मानना पड़ा कि उसे गर्भ ठहर गया है. पहले से ही उसकी अनगढ़ देह में गर्भ से उभर रहे पेट के चलते होने वाले बदलाव मुझे मथते रहते. मैं यह प्रार्थना करता कि मैं जो कुछ देख रहा हूँ, काश वह झूठ हो.

खैर जब विली पैदा हुआ तो मेरी सारी कोशिश उसमें पिछड़ों के लक्षण पहचानने की रहती. मुझे उस नन्हें प्राणी के ऊपर झुका देखकर कोई भी यही कहता कि मैं उसे गर्व से निहार रहा था. दरअसल, उसके बारे में यह सब सोचते हुए मेरा दिल बैठ जाता था.

इसके बाद जब मैं उसको बड़ा होते देखता तो कुछ कह नहीं पाता लेकिन बुरी तरह दुःखी हो जाता और आँसुओं को रोककर सोचने लगतादृ‘‘प्यारे विली, मैंने तुम्हारे लिए क्या किया है, मैं तुम पर ज़बरदस्ती कलंक क्यों मढूँ ?’’ फिर सोचने लगता- यह सब बकवास है, न यह तुम हो, न यह तुम्हारा है. उसका सपाट चेहरा भी यही बताता है. लेकिन तुम इस पर कोई आरोप मत मढ़ो. भले ही तुमने उसे उसकी वृहत्तर वंशावली से निकाल बाहर किया है. लेकिन मेरे मन में उसके लिए कोई-न-कोई आशा ज़रूर बनी रहती. जैसे किसी को देखकर मैं सोचने लगता ‘‘यह भी विली जैसा दिखता है. इसकी शक्ल उसी के जैसी लग रही है. फिर जब मैं जाकर उसे देखता तो मेरा दिल बैठ जाता, उसे एक नज़र पड़ते ही समझ जाता कि मैंने फिर से खुद को बेवकूफ़ बना लिया है.’’
यह सब मेरा निजी तमाशा ही था. जिसने मेरे अकेलेपन को पोंछ फेंका; अगर विली की माँ यह सब जानती तो पता नहीं क्या कहती. बेटा होने के बाद वह बेडौल ढंग से फैल गई थी. ऐसा लगता था कि वह मेरी शारीरिक भूख से भी उदासीन हो चली थी. उसे अपनी गृहस्थी पर गर्व था. उसने एक अंग्रेज़ अफ़सर की बीवी से पुष्प सज्जा की ट्रेनिंग ली थी - उस समय देश आज़ाद नहीं हुआ था और नगर में एक अंग्रेज सेना की कमान तैनात थी. एक पारसी महिला से उसने पाक कला और हाउस क्राफ़्टभी सीखी थी. मुझे याद है एक बार उसने मेरे मेहमानों की आवभगत का ज़िम्मा लिया था. मैं चुपचाप देखता रहा. उसने मेज़ को नये ढंग से सेट करने के लिए प्रत्येक मेहमान की प्लेट के बग़ल में एक-एक तौलिया रख दिया. जो मुझे अच्छा नहीं लगा. मैंने ऐसा कहीं नहीं देखा था लेकिन वह अड़ी रही. इन्हें वह नेपकिन(serviette)कह रही थी. इन दिनों वह ज़्यादा कुछ नहीं बोलती. लेकिन मेरे पूर्वजों के बारे में बेहूदी फ़ब्तियाँ कसने लगीं थी, जो आधुनिक हाउस क्राफ़्टके बारे में कुछ भी नहीं जानते थे.

हमारे घर के प्रथम मेहमान एक फ्रांसीसी थे और रोमां रोलां पर एक पुस्तक लिख रहे थे, भारत में उनका बहुत सम्मान था, वह महात्मा गाँधी के घोर प्रशंसक थे. मैं अपना विषाद भूलकर सारी शाम मेज़ पर रखे उन तौलियों के बारे में ही सोचता रहा.

मेरा स्वभाव ही कुछ ऐसा था. मेरे दुःख और आत्म-जुगुप्सा की कल्पना की जा सकती है, जब मेरे ब्रह्मचर्य-व्रतके बावजूद, जो मेरी गंभीरता का सूचक था, विली की माँ दोबारा गर्भवती हो गई. इस बार लड़की पैदा हुई थी. अब आत्म-प्रवंचना के लिए कोई जगह नहीं बची थी. लड़की अपनी माँ पर गई थी. यह एक तरह का दैविक दण्ड था. मैंने उसका नाम सरोजनी रखा- जो स्वाधीनता आंदोलन के दौर की एक कवयित्री के नाम पर था, इस आकांक्षा से कि उसकी भी ऐसी ही प्रशंसा होगी क्योंकि सरोजनी नामक कवयित्री एक महान देशभक्त थी.”
     
यही वह कहानी थी, जो विली चंद्रन के पिता ने सुनाई थी. दस वर्षों की इस कहानी के विभिन्न हिस्से अलग- अलग समय में कहे गये थे. इसी दौरान विली भी बड़ा हो रहा था.
     
उसके पिताजी बोले- ‘‘कई साल पहले कहानी शुरू करने से पूर्व तुमने पूछा था कि क्या मैं उस लेखक को वाक़ई पसन्द करता हूँ, जिसके नाम पर तुम्हारा नाम रखा गया है. मैंने कहा था कि मुझे पता नहीं, लेकिन तुम इसे ध्यान में रखो. तुम वे सारी बातें सुन चुके हो. अब तुम्हारी क्या राय है?’’
मुझे तरस आता है आप पर.विली चंद्रन बोला.
‘‘तुम्हारी माँ का भी यही कहना है.’’
“आपने जो कुछ कहा, उसमें मेरे लिए क्या है? उसमें मुझे भला क्या मिला!’’ विली ने कहा.
‘‘मेरा जीवन त्याग से भरा रहा है. तुम्हें देने को मेरे पास था भी क्या? ले-देकर मेरी मैत्री. मेरा ख़ज़ाना भी वही है.’’ पिता ने बताया.
“और उस बेचारी सरोजिनी का क्या होगा ?’’
“मैं तुम्हें साफ़ तौर बता दूँ कि उसे हमें परखने के लिए भेजा गया है. उसके बारे में मैं ऐसा कुछ नहीं बता सकता जो तुम नहीं जानते. इस देश में उसका भविष्य उज्ज्वल नहीं लगता लेकिन सौंदर्य और अन्य चीज़ों के मामले में विदेशी लोगों के अपने ख़यालात होते हैं, उनके अपने मायने हैं. इसलिए मेरी इच्छा यही है कि सरोजिनी अन्तर्राष्ट्रीय विवाह करे.’’



अनुवाद मेरी जान 
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अनुवाद की दुनिया में विवाद बहुत हैं. कोई कहता है अनुवाद को अनुवाद जैसा लगना चाहिए तो कोई उसे अनुसृजन मानता है. किसी को वह कला, विज्ञान या फिर शिल्प लगता है तो किसी को उसमें तीनों रूप नज़र आते हैं. अनुवाद और अनुवादकों को लेकर भी विभिन्न कटूक्तियाँ प्रचलित हैं, जैसे- अनुवादक प्रवंचक होता है.’ ’जो मौलिक नहीं लिख सकता वही अनुवाद करता है.’ ’अनुवाद किसी स्त्री की तरह है जो या तो सुन्दर होगी या फिर वफादार.’ ‘अनुवाद दोयम दर्जे़ का काम हैआदि.आदि. इसलिए शुरुआत में मैं थोड़ा डरा हुआ था.

वैसे तकनीकी स्तर पर देखें तो अनुवाद-कर्म भौतिक विज्ञान की किसी कक्षा में बैठने की तरह है, जहाँ पहले नियम खोल-खोलकर समझाए जाते हैं और फिर प्रयोगशाला में उनका अनुप्रयोग कराया जाता है. भौतिकी में प्रयोक्ता को उन्हीं नियमों के अनुसार चलना पड़ता है ताकि वांछित उद्देश्य सिद्ध हो सके. प्रथमदृष्टया अनुवाद भी रचनात्मक होता हुआ अपनी प्रक्रिया में तकनीकी लग सकता है लेकिन इसकी रचनाशाला में घुसते ही सारे औपचारिक एक नियम किनारे हो जाते हैं- रह जाती है वांछित भाव या अर्थ प्राप्ति की एक अभिलाषा.

अनुवाद जब यंत्रवत अभ्यासमूलक कार्य मान कर किया जाता है तो यह न केवल जटिल बल्कि बोझिल जान पड़ता है क्योंकि इसमें शब्द से लेकर अर्थ, वाक्य.संरचना, संदर्भ, मुहावरों, पर्यायों, संस्कृति और शैली आदि सबका ध्यान रखना पड़ता है. मलयाली कवि के. सच्चिदानंदन की एक पंक्ति है- अनुवादक ढोता है अपने कंधों पर किसी और का सिर. इसलिए दोनों भाषाओं का विद्वान होने के साथ.साथ अनुवाद.कर्म में रुचि भी आवश्यक है. तभी अनुवादक सही अर्थ के लिए सही शब्द का संधान कर सकेगा.

  वी.एस.नायपॉल कृत हाफ़ ए लाइफ़को चुनने के पीछे कई कारण रहे. इनके बारे में लगातार सुनता आ रहा था, हमेशा विवादों में घिरा रहनेवाला एक लेखक. विख्यात और कुख्यात दोनों. देखा जाए तो कुख्यात ज्यादा- उसे भारत विरोधी’, ‘मुस्लिम विरोधी’, ‘धर्म विरोधी’, ‘प्रतिक्रियावादी’, ‘घटिया मित्र’, ‘महिला प्रेमी’, ‘गोरों का निग्गरऔर भी न जाने क्या-क्या अप्रिय संज्ञा और संबोधनों से पुकारा गया.

लेकिन किसी व्यक्ति अथवा विचार को स्वीकारने या ख़ारिज करने से पहले उसके बारे में जानना बेहद जरूरी है. हमें शहाबुद्दीन की तरह नहीं होना चाहिए कि सैटनिक वर्सेज़को पढ़े-जाने बिना, केवल सुनकर ही कि उसमें मुसलमानों के खि़लाफ़ लिखा गया है, सलमान रूश्दी के लिए फाँसी की माँग करने लगे.

तो, स्वीकारने या ख़ारिज करने से पूर्व जानने के लिए नायपॉल को चुनना पहली वजह रही. दूसरे, वह भारतीय मूल के लेखक हैं- एक वजह यह भी थी.

लेखक चुनाव के बाद बारी आई कृति चयन की. नायपॉल ने अब तक चौदह कथात्मक (2004में प्रकाशित मैजिक सीड्स सहित) और बारह ग़ैर कथात्मक कृतियों की रचना की है जिनमें विस्थापन और अलगाव की पीड़ा अपने आत्यंतिक रूप में दर्ज है. कथात्मक कृतियों में ए हाउस फार मिस्टर बिस्वासके बाद 2001में प्रकाशित उनकी नवीनतम कृति हाफ़ ए लाइफ़ही सर्वाधिक प्रसिद्ध मानी जा रही थी. उनके पाँच दशकों के लेखन में यह पहली पुस्तक है जिसकी पृष्ठभूमि भारत है. इसमें विभाजित व्यक्तित्व और विभाजित समाज की दास्तान अभिव्यक्त हुई है. ब्राह्मण पिता और बैकवर्ड (दलित) माता से उत्पन्न संकरपुत्र (उपन्यास का नायक) किस तरह अपनी पहचान के प्रति चिंताग्रस्त रहता है. उपन्यास की मूल अंतर्वस्तु यही है.

वी. एस. नायपॉल की कृति हाफ़ ए लाइफ़ का अनुवाद करते समय विभिन्न अनुभवों से गुजरा. इससे मेरी भाषिक-सांस्कृतिक समृद्धि तो बढ़ी ही, इंग्लैण्ड और अफ्रीका के इतिहास, भूगोल एवं सामाजिक जीवन-शैली की समझ भी विकसित हुई.

हाफ़ ए लाइफनायक के आधे जीवन की अधूरी जीवनी है. पुस्तक के अंग्रेज़ी शीर्षक में ये दोनों अर्थ ध्वनित होते हैं. इस उपन्यास का मूल शीर्षक अनूदित करते हुए मुझे कई विकल्प सूझ रहे थे. जैसे- आधी ज़िदंगी, अधूरा जीवन, अधूरी जिंदगी, एक जीवन अधूरा-सा - लेकिन अंग्रेज़ी शीर्षक के समकक्ष मैंने इसका निकटतम अनुवाद आधा जीवनही रखने का निर्णय लिया.

उपन्यास का नायक विली ब्राह्मण पिता और बैकवर्ड (भारतीय संदर्भ में कहें तो दलित) माता की संकर संतान है, जो अपनी अलग पहचान की तलाश में चिन्तित रहता है. उसकी जटिल मानसिक ग्रंथियों एवं संवेदनाओं को पकड़कर समझने और अनूदित करते हुए निश्चय ही कई-कई बार पंक्तियों को छोड़ना, जोड़ना और संयोजित करना पड़ा है. मूल रचना के प्रति निष्ठा रखते हुए लक्ष्य भाषा की प्रकृति के अनुसार थोड़ी-बहुत रचनात्मक छूटें भी ली गई हैं, जिसका उद्देश्य अनुवाद में प्रवाहमयता और पठनीयता बनाए रखना था.

इस उपन्यास में नायपॉल ने अपनी शैली के अनुरूप लम्बे-लम्बे वाक्यों का प्रयोग किया गया है. जिनमें विशेषण, वाक्यांश भी खूब आए हैं. यद्यपि डेली टेलीग्राफ़ने इस कृति की विशेषता वण्डरफुल रीडेबिलिटीकहकर रेखांकित की है.


लेकिन उनकी वाक्य-शैली की यही विशेषताएँ लक्ष्य-भाषा हिन्दी में लाने में काफी मेहनत करनी पड़ी है. मूल पाठ में प्रयुक्त कुछ शब्दों के समतुल्य हिन्दी में सटीक अनुवाद न मिलने के कारण उनका या तो वैसे ही लिप्यन्तरण कर दिया गया है अथवा उचित शब्द के अभाव में प्रचलित शब्द का सहारा लेकर काम चलाया गया है. उदाहरण के लिए,  ‘जीनियाज’, ‘जैक्वारीजैसे शब्द लिप्यांतरित किए गए हैं. कुछ महत्त्वपूर्ण संदर्भों की पाद.टिप्पणियाँ यथास्थान दे दी गई हैं.

कथा - गाथा : खेलना चाहता है हामिद : दिनेश कर्नाटक

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प्रेमचंद की कहानी ईदगाह का हामिद खिलौने की जगह चिमटा खरीद लाता है जिससे कि रोटी सेकते हुए दादी अमीना की उँगलियाँ न जले. आज़ाद हिंदुस्तान में हामिद के सामने कौन सी ऐसी मजबूरी है कि वह अब भी खेल नहीं पाता ?    

चर्चित कथाकार दिनेश कर्नाटक ने हामिद को केंद्र में रखकर यह कथा बुनी है. बाल मनोविज्ञान पर उनकी भी नज़र है.

स्वाधीनता दिवस पर यह कहानी ख़ास समालोचन के पाठकों के लिए.



(कहानी)
खेलना  चाहता  है हामिद                                       

दिनेश कर्नाटक



हामिद तो आपको याद ही होगा ना. अपनी ईदगाह कहानी वाला हामिद. वही जिसके अम्मी-अब्बू किसी नामुराद बीमारी की भेंट चढ़ गये थे. जो अपनी बूढ़ी दादी अमीना के साथ अकेले रहता था. जो अपने दोस्तों के साथ ईदगाह जाने को लेकर खुश था. जिसे बूढ़ी दादी ने तीन आने दिये थे. जिसने खिलौने, मिठाई में पैसे खर्च करने के बजाय चिमटा लिया था. जिसके चिमटे ने वकील, पुलिस के सिपाही, शेर सबको हरा दिया था. जिसके चिमटे को देखकर न सिर्फ उसकी दादी भाव-विभोर हो गई थी, बल्कि हम सबकी आंखों में भी आंसू आ गये थे. वही हामिद जिसने हम को प्रेरित किया था कि हम भी एक बार कोई न कोई ऐसा काम जरूर करेंगे कि हमारी दादी भी हमें गले से भींच लेगी और अपनी बेशकीमती दुवाओं से हमें संसार का सबसे अमीर आदमी बना देगी.

वही हामिद अब स्कूल में पढ़ता था. मगर पढ़ाई से कहीं ज्यादा उसे खेलना पसंद था. हर समय उसका मन खेलने को करता. खेल के नाम से उसका मन पतंग की तरह आकाश में उड़ने लगता. सच तो यह है कि अगर उसे कोई साथ देने वाला मिल जाता तो वह दिन-रात बगैर खाये-पीये खेलता रहता. वह तो अम्मी उसे दूर से गालियां देती हुई दिखती तब उसे होश आता कि घर जाना भी जरूरी होता है. नामुराद बैट-बल्ला तो उसे इतना पसंद था कि सोते हुए भी उसका मन उनसे अलग होने का नहीं होता था. उसका बस चलता तो बैट-बल्ले को ही साथ रखकर सो जाता. मगर अम्मी का खौफ उसे मनमर्जी करने से रोकता था. दोनों को वह ऐसी जगह पर रखता था कि जैसे ही कोई खेलने वाला मिल जाता तो इतनी तेजी से दोनों को निकाल कर लाता कि खेलने को आये हुए उसके दोस्त भी दंग रह जाते थे. हर रोज वह उन्हें किसी नयी जगह छुपा देता ताकि फिर से अम्मी कोई नया बवाल न खड़ा कर दे. उसके लिये दोनों दुनिया की सबसे कीमती चीजें थी. 

उसका बैट-बॉल तथा दीगर खेलों के पीछे इस तरह पगलाये रहना अम्मी-अब्बू को पसंद नहीं था. दोनों उसके मुस्तकबिल को लेकर परेशान रहते थे. कहते, इस लौंडे के यही रंग-ढंग रहे तो किसी काम का नहीं रह जायेगा. वे चाहते थे, लौंडा उनके खानदानी फर्नीचर के  काम में रूचि ले. उन्हें जितना भरोसा अपने इस पुश्तैनी काम पर था, उतना पढ़ाई पर नहीं था. दोनों को लगता, लड़के को हुनर आ गया तो और जो कुछ हो जाये मगर भूखा नहीं मरने का. अम्मी ने यही सोचकर एक-दो बार उसके बैट-बॉल को गायब कर दिया था. मगर अम्मी पर शक होते ही हामिद मियां ने वो तूफान मचाया कि पूरा मौहल्ला घर के सामने आकर खड़ा हो गया और हार कर अम्मी को मुंह पर कपड़ा बांधकर कूड़े के ढेर से मुए बैट-बल्ले को लाना पड़ा. दोनों के सामने आते ही लौंडे की आंखें में ऐसी चमक आयी कि उसी समय किसी को तैयार कर भाईजान ने खेलना शुरू कर दिया.

जाड़ों की छुट्टियां पड़ने वाली थी. हामिद मन ही मन बहुत खुश था. उसने सोच रखा था, इस बार वह दोस्तों के साथ खूब खेलेगा. लेकिन उसे क्या पता साजिश भी कोई चीज होती है. वही हुआ जिसका उसे डर था ? छुट्टियों का पहला दिन था. हामिद मियां अपने दोस्तों के साथ मैदान की ओर जाने के बजाय दुकान की ओर जा रहे थे. आज से ही उसकी छुट्टियां शुरू हुई थी और आज ही अब्बू को काम के लिए बाहर जाना पड़ रहा था. सुबह-सुबह घर में सवाल खड़ा हो गया कि दुकान कौन खोलेगा ? दुकान का खुलना जरूरी था. जिम्मा उसके बड़े भाई कासिम और उसके ऊपर ही आना था. कासिम ने घर में पहले से ही कह दिया था कि इस बार छुट्टियों में उससे दुकान या काम पर जाने के लिए न कहा जाए. उसे दसवीं के बोर्ड के इम्तहान में अच्छे नंबरों से पास होना था. 

हामिद कितने दिनों से इन छुट्टियों का इंतजार कर रहा था. स्कूल उसके लिए कैद खाने जैसा था. रोज वही प्रार्थना, वही प्रतीज्ञा. वही घंटी. वही शिक्षकों का सुई की नोक पर आना-जाना. कोर्स को रेल की तरह भगाये ले जाना. किताब-कॉपी. डंडा-श्याममपट. लिखना-रटना. काम पूरा करना. वरना मार खाना. हर रोज वह बुरी तरह पक जाता था. वह तो गनीमत थी कि हाफटाईम होता था और वह दोस्तों के साथ कुछ न कुछ खेल लेता था.

उसने सोच रखा था, इन छुट्टियों के दौरान वह खूब मजे करेगा. स्कूल में खेलना नहीं हो पाता था. रोज मन में कसक रह जाती थी. मगर छुट्टियों में वह छककर खेल लेना चाहता था. छुट्टियों का आना उसे ईद के आने का जैसा लग रहा था. उसे हर ओर खुशियाँ ही खुशियाँ, रंग ही रंग नजर आ रहे थे. आस-पास की दुनिया बदली-बदली सी लग रही थी. मन में कैसे-कैसे ख्याल थे ? क्रिकेट तो थी ही-चींटो, चोर-सिपाही, छुपन-छुपाई के साथ जी भरकर साइकिल चलाने का इरादा था. मगर अब ऐसा लग रहा था जैसे सब कुछ एक झटके में खत्म हो गया.

अब्बू और अम्मी मौका मिलते ही समझाने लगते थे कि असली चीज है हाथ का हुनर. एक बार को पढ़ा-लिखा आदमी बेरोजगार रह सकता है, मगर हुनरमंद आदमी को कभी काम की कमी नहीं रहती.  हो जाओ तुम अच्छे नंबरों से पास. ले आओ फर्स्ट डिवीजन. कौन दिलवा रिया तुम को नौकरी ?‘ मगर कासिम के खयालात कुछ और ही हैं. वो कहता है, ‘आज के जमाने में पढ़ाई ही असली चीज है ! पढ़-लिखकर ही अपने हालात बदले जा सकते हैं. वरना चीरते रहो लकड़ी, ठोंकते रहो कीलें, कुछ नहीं होनेका ! जैसे हो वैसे ही बने रहोगे !

हामिद ने दुकान जाने से बचने की भरपूर कोशिश की थी. उसने अब्बू से कासिम को भेजने को कहा. हामिद का रूंआसा चेहरा देखकर अब्बू ने कासिम को समझाते हुए कहा, ‘तू दुकान में रहेगा तो गाहक से बात कर लेगा. हामिद अभी छोटा है. क्या समझेगा ? क्या समझायेगा ? इसे साथ लेकर दुकान चले जइ्यो. वहीं पढ़ लेना. कौन सा वहां तुझे कोई काम करना पड़ रिया है ? दुकनदारी का उसूल है कि चाहे दुकनदार के सामने कैसी भी मजबूरी क्यों न हो, दुकान रोज समय से खुल जानी चाहिए.

जवाब में कासिम ने कहा, ‘अब्बू, ये साल मेरे लिए बड़ा कीमती है. इसके बाद तुम जो कहोगे मुझे मंजूर होगा. मैं खुद ही तुम्हारे साथ काम पर चले चलूंगा ! आप की कसम दुकान पर पढ़ाई नहीं हो पाती. कोई न कोई आकर डिस्टर्बकर देता है.

अब्बू को झटका सा लगा था. आसमान की ओर देखकर कहने लगे-ऐ मेरे खुदा, ऐसे समय के बारे में तो नहीं सोचा था. घर में दो-दो लौंडों के होते हुए दुकान नी खुलेगी और अकेले काम पर जाना पड़ेगा. न जाने आगे जाकर कैसा समय देखना है ?’

कासिम ने तिलमिला कर कहा था, ‘अब्बू अब ऐसी बात मत करो ! क्या मैं अपनी मर्जी से काम करने नहीं आ जाता ? कब मैंने आपको अकेला छोड़ा ?’

हामिद मायूस हो चुका था. काफी मायूस. उसे लग रहा था, जैसे फिल्डिंग सजने के बाद बॉलर पहली बॉल फेंकने ही वाला था कि अचानक पानी बरसने लगा और देर तक इंतजार करने के बाद सबको  हार कर घर की ओर को जाना पड़ा.

हामिद समझता था कि दुकान के भरोसे ही उनकी गुजर-बसर चलती है. दुकान उनके लिए दूसरी कई बातों से पहले है. स्कूल से आने के बाद रोज ही अम्मी उसे किसी न किसी काम से दुकान भेज देती थी. लेकिन स्कूल की छुट्टियों के दौरान वह कोई भी काम नहीं करना चाहता था. उसने ठान रखी थी, जब छुट्टियां हमारी हैं तो मर्जी भी हमारी ही चलनी चाहिए. दुकान जाने का उसका बिलकुल भी मन नहीं था. लेकिन जब अब्बू ने जाते हुए उसका नाम लेकर कह दिया कि समय से दुकान खोल दियोतो जवाब में वह कुछ नहींकह पाया था. उसी समय से उसके थोपड़े पर बारह बज गये थे. बाद में भी मना करने का मतलब था अम्मी का वही बार-बार दोहराये जाने वाला लंबा-चौड़ा भाषण जिसे सुन-सुनकर उसके कान पक चुके थे. स्कूल में गुरुजी की सुनो. घर में अम्मी-अब्बू की. उसने सोचा इससे अच्छा तो चुपचाप दुकान को चल दूं.

दुकान को जाते हुए वह सोच रहा था, कि अगर कासिम भी उसके साथ होता तो मौका मिलते ही वह दुकान से खिसक लेता. मगर अब वह बुरी तरह से फंस चुका था.

तभी उसे शहदाब और आसिफ अपने घर के बाहर खेलते हुए दिखे. दोनों कितने खुश थे. उसे देखकर पूछने लगे, ‘हामिद, दुकान जा रिया है क्या ?’

दुकान का नाम सुनते ही हामिद का मन रोने को हो आया था. उसे लगा, दोनों ने जान-बूझकर  उसे चिढ़ाने के लिए दुकान का नाम लिया. दोनों को गाली देकर वह आगे बढ़ गया.

हामिद ने एक-एक कर बैड, मुर्गी का दड़बा, ऑलमारी और चौखट को निकालकर बाहर रखा. दुकान की सफाई की. लकड़ी की फंटियों और इधर-उधर बिखरे हुए सामान को सहेजने के बाद वह काउंटर पर बैठ गया. अगरबत्ती सुलगाई. कुछ देर सामने पड़े कागजात उलटता-पलटता रहा. फिर उसका मन इन सब से उचटने लगा. अचानक उसे अपने छोटे भांजे कादिर की याद आयी. पिछले साल जब वह अम्मी के साथ बाजी के वहां गया था तो कादिर के साथ उसे खूब मजा आया था. कभी वह उसके पेट पर चढ़ता, कभी उसके बाल खींचता और कभी ठुमक-ठुमक कर दौड़ता. अपनी अनजान भाषा में वह हामिद से न जाने क्या-क्या कहता. इन छुट्टियों में भी उसे बाजी के वहां जाने का मौका मिलता तो कितना मजा आता. कुछ दिन पहले जब उसने यह बात अम्मी से कही तो भड़ककर कहने लगी, ‘चुप करके अब्बू के साथ काम सीख. देख नहीं रिया है अड़ौस-पड़ौस के लड़के सारा काम कर लेवे हैं. और सब को छोड़. अपने बड़े भाई को देख पढ़ने का भी अच्छा और काम में भी होशियार ! एक तू है.......हर बखत खेलने-कूदने और आवारागर्दी की बात सोचता रहता है.

हामिद को लगता है, अम्मी को उसकी ख़ुशी से कोई मतलब नहीं ! खेलने के नाम से तो जैसे उन्हें नफरत है. वो तो अब्बू हैं जो अम्मी से कह देते हैं, ‘अरे अभी नहीं खेलेगा तो फिर कब खेलेगा ? हर वक्त की किच-किच अच्छी नहीं हुवा करती !

अम्मी चिढ़कर अब्बू से कहती- बाद में लौंडों को बिगाड़ने का इल्जाम मत लगइयो !
हामिद सोचता, आखिरकार अम्मी को खेलने से इतनी नफरत क्यों है ?‘अलबत्ता उसे कोई मुकम्मल जवाब नहीं मिल पाता था.

दोपहर के समय जब हामिद घर में खाने के लिए गया तो उसका किसी से बातचीत करने का मन नहीं था. घर में सब खुश थे. उनको क्या पता कि उस पर क्या बीत रही है ? अम्मी और भाई ने उसकी हौसला अफजाही करने की कोशिश की. उसने चुपचाप खाना खाया और दुकान लौट आया. अम्मी ने कॉपी-किताब साथ ले जाने का मशविरा दिया जिसे उसने अनसुना कर दिया.

अब वह अपने दोस्तों के बारे में सोच रहा था. सभी कितने खुश होंगे. कितने मजे से खेल रहे होंगे. कितनी मस्ती कर रहे होंगे. उसकी गैरमौजूदगी में राशिद और फैजान ने दो टीमें बनाई होंगी. फिर खेल शुरू हुआ होगा. किसी ने डिबरी पर निशाना लगाया होगा. डिबरी के बिखरते ही सब भागने लगे होंगे. कभी कोई आउट होता होगा तो कभी कोई डिबरी बनाने में कामयाब हो जाता होगा. ख़ुशी के मारे सब चीख-चिल्ला रहे होंगे. ऐसे ही खेलते हुए शाम हो जाएगी. फिर उन्हें भूख लगने लगेगी और कुछ खाने को मिलने की उम्मीद में वे घर की ओर को चल देंगे.

लग गई भूख.....आ गई घर की याद.....क्यों लौट आए........खेलते रहते........!उनकी अम्मी उन्हें ताना देगी. वे चुपचाप अम्मी की डांट सुनते रहेंगे. अम्मी ने कुछ दिया तो ठीक वरना बर्तनों को उलट-पलटकर वे कुछ न कुछ ढूंढ लेंगे. कुछ देर अम्मी की नजरों के सामने बने रहने के बाद मौका मिलते ही फिर से गायब हो जाएंगे. अब वे सब स्कूल के मैदान की ओर को जाएंगे. वहां वे क्रिकेट खेलेंगे. हामिद ने ठान रखा था, इस बार वह जल्दी आउट नहीं होगा. क्रीज में डटा रहेगा. सभी का पसीना निकालकर रख देगा. धौनी की तरह खूब चौके-छक्के लगायेगा !

मगर वह दुकान में था. उसने सोच लिया था, घर जाकर वह किसी से बातचीत नहीं करेगा. 
   
दुकान जाते हुए हामिद को तीन दिन हो चुके थे. वह ही जानता है यह समय उसने कितनी तकलीफ के साथ बिताया था. उसका कल का दिन भी उदासी, गुस्से और दोस्तों के बारे में सोचते हुए बीता था. इस दौरान उसकी छुट्टियों में खेलने को लेकर अम्मी से तीखी बहस हुई थी.
   
अम्मी ने कहा था-ये ही नहीं किसी भी छुट्टी में खेलने की बात भूल जइयो. तुझे छुट्टियों में अब्बू के काम में हाथ बंटाना होगा.
   
मैं नहीं करने का कोई काम-धाम.उसने छूटते हुए कहा था.
   
तो जहां जायेगा वहीं खाने-पीने का इंतजाम भी कर लियो. यहां सूरत मत दिखइयो. ऐसे नालायकों के लिए यहां कोई जगह नहीं.
   
मैं छुट्टियों में नहीं खेलूंगा तो कब खेलूंगा ? छुट्टियां तो मेरी हैं.उसने रूंआसा होकर कहा था.
   
ये बात दिमाग से निकाल दे. तेरा कुछ नहीं है. सब हमारा है. तेरो को हमने जन्म दिया है. जैसा कहेंगे, वैसा करेगा. वो तो गनीमत समझ अब्बू तुम्हें स्कूल भिजवा देते हैं. औरों के मां-बाप तो स्कूल भी न भिजवाते.अम्मी ने बड़ी रूखाई से कहा था.
   
उसके पास अम्मी की इस कड़वी बात का कोई जवाब नहीं था.
     
आज दुकान की साफ-सफाई करने के बाद जब वह काउंटर पर बैठा तो उसे अपने ऊपर गुस्सा आया. वह सोच रहा था, इस तरह बगैर कुछ किए खाली बैठे हुए कैसे वक्त गुजारा जा सकता है? उसका ध्यान बगल की दुकान में काम करने वाले आमिर की ओर गया. वह उसकी ही उम्र का था. सोचा, उस से बात कर लेता हूं. वह टीन काटने में लगा हुआ था. कुछ देर तक वह उसे काम करते हुए देखता रहा. वह अपने काम में खोया हुआ था. हामिद को लगा उसे देखकर वह खुश होगा और बातचीत करेगा. लेकिन उसने एक बार मुस्करा कर उसकी ओर देखा फिर अपने काम में लग गया. हामिद को लगा मानो उसे अपने काम में ही खेल का मजा आ रहा था.
   
कुछ देर यूं ही बेकार बैठे रहने के बाद हामिद ने सोचा क्यों न कुछ काम किया जाए ? इसी बहाने वह कुछ सीख जायेगा और समय भी बीत जाएगा.

उसने पटली बनाने की सोची. कमरे से लकड़ी लाकर वह काम पर लग गया. पहला काम था, चौड़ी लकड़ी को आयताकार काटना. फिर बराबर के दो पाए बनाना. कुछ ही देर में, वह काम में मशगूल हो गया. पटली तैयार हो चुकी थी, लेकिन तैयार पटली में उसे कोई खास बात नजर नहीं आयी. ऐसी तो कोई भी बना देगा. अब्बू कहते हैं, गाहक को नए-नए डिजायन पसंद आते हैं. क्यों न वह भी कोई नया डिजायन निकाले ? कुछ अलग तरह का. कुछ खास. जिसे देखकर अब्बू खुश हो जाएं. उसने डिजायन निकालना शुरू  ही किया था कि उसके हाथ पर आरी लग गयी. काफी दर्द होने लगा. खून भी बहने लगा. उसकी आंखों में आंसू आ गए. कपड़े का एक चिथड़ा ढूंढकर उसने कटी हुई जगह को बांध दिया.
   
जब दर्द कम हो गया तो उसने सोचा, ‘जो भी हो आज तो मैं नई डिजायन की पटली बनाकर ही रहूंगा !
   
वह फिर से काम में जुट गया. मगर आरी से अपनी मर्जी का काम लेना आसान नहीं था. इस बार पैर का नंबर था. शुक्र है ज्यादा नहीं कटा.

कुछ देर सुस्ताने के बाद वह फिर से पटली पर डिजायन निकालने में जुट गया. बीच में कुछ लोग अब्बू को पूछने आए थे. उसने उन्हें बताया कि वो एक-दो दिन के बाद ही मिलेंगे. पटली पर काम करते हुए पूरा दिन बीत गया. उसने सोचा था एक जोरदार चीज बनाकर सब को चौंका देगा, लेकिन शाम को जो चीज तैयार होकर उसके सामने पड़ी थी. वह उसकी उम्मीद के मुताबिक तो बिल्कुल भी नहीं थी. उसे देखकर कोफ्त हो रही थी और किसी ऐसी जगह फैंकने का मन कर रहा था, जहां कोई भी उसे देख न पाए.

अब्बू का बाहर का काम अब खत्म हो गया था. हामिद मन ही मन काफी खुश था. वह सोच रहा था, अब तो मुझे दुकान से मुक्ति मिल जाएगी. इसलिए वह नींद का बहाना बनाकर बिस्तर पर पड़ा रहा. लेकिन अब्बू कहां मानने वाले थे. उन्होंने दुकान का हवाला देकर उससे जल्दी उठने को कहा. बुझे मन से तैयार होकर वह अब्बू के साथ चल पड़ा. वह कुछ भी नहीं कह पाया. कैसे कहता ? अम्मी हमेशा कहती है, ‘तुम लोगों को कुछ अंदाजा भी है कि तुम्हारे अब्बू हम सब के लिए कितनी मेहनत करते हैं ?’ उनको गुस्सा दिलाने से क्या फायदा ? दुकान पर काम नहीं होगा तो अब्बू खुद ही कह देंगे, ‘जा, हामिद अपने दोस्तों के साथ खेल !

दुकान की साफ-सफाई के बाद सामान बाहर निकालकर तथा अगरबत्ती सुलगाकर हामिद एक स्टूल पर बैठ गया. अब्बू कहने लगे, ‘हामिद आज हमें टेबल बनानी है. तू लकड़ियां बाहर निकाल !

उसने लकड़ियां बाहर निकाल दी. रनदे से लकड़ियों की सफाई करने के बाद अब्बू ने उन पर जगह-जगह निशान लगा दिए और काम बांट दिया. उन्हें छिदाई करनी थी जबकि हामिद को चूलें चीरनी थी. तभी कोई गाहक आ गया. अब्बू उस से बातें करने लगे. जब वह गया तब तक हामिद काफी काम कर चुका था. उसने अब्बू से कहा, ‘अब्बू चलो, आज आपका मेरा मुकाबला हो जाए !
उन्होंने कहा, ‘ठीक है.
अब्बू आराम से छिदाई करते रहे जबकि हामिद ने तेजी से अपना काम निपटा दिया.
वह अब्बू से जीत गया था. जब उस ने अब्बू से कहा कि मैं जीत गया तो वे ख़ुशी से उसकी ओर देखने लगे. हामिद जानता है, अब्बू के लिए अब इस तरह के खेलों का कोई मतलब नहीं है. उसका दिल बहलाने के लिए ही उन्होंने हामी भरी थी. सच तो यह है कि वह अब्बू से कभी जीत नहीं सकता.

अब एक बात तय हो चुकी थी कि छुट्टियों पर हामिद का नहीं उसके अम्मी-अब्बू का अख्तियार था. जैसा वो कहेंगे वैसा उसे करना पड़ेगा. उसकी मनमर्जी नहीं चलने वाली थी.

हामिद अपने ही खयालों में खोया हुआ दुकान को जा रहा था कि एक कुत्ते ने न जाने कहां से आकर उसके ऊपर छलांग लगा दी. पहले तो उसे लगा वो उसके साथ खेलना चाहता है. लेकिन उसके हाव-भाव ठीक नहीं थे. एक पल के लिए हामिद घबराया. फिर न जाने कहां से उसके अंदर इतनी हिम्मत आ गई कि उसने न सिर्फ उसे अपने ऊपर से धकेल दिया, बल्कि एक जोरदार लात भी दे मारी. कुत्ता तो भाग गया. लेकिन देर तक उसका दिल जोरों से धड़कता रहा. कहीं फिर से लौटकर हमला न कर दे सोचकर उसने चारों ओर देखा और वहां से चल पड़ा. आगे जाकर देखा वही कुत्ता दूसरे लोगों पर भी झपट रहा था. लोग उसे पत्थर मारकर भगा रहे थे.

हामिद दुकान की साफ-सफाई के काम निपटाकर बैठा ही था कि अब्बू आ गए. आते ही कहने लगे, ‘बैठने का वक्त नहीं है हामिद, चल दरवाजा बनाते हैं !

हामिद ने फटाफट लकड़ी बाहर निकाली. अब्बू ने हमेशा की तरह लकड़ी को रंदे से साफ कर निशान लगाए. उससे कहा, ‘हामिद, निशान पर ही आरी चलाना !

हामिद ने कहा, ‘ठीक है !और लकड़ी को चीरने लगा. उसे आरी चलाने में बहुत मजा आ रहा था. वह अपनी ही धुन में आरी चलाता जा रहा था. लेकिन तभी आरी उसके हाथ पर लग गई. बहुत दर्द हो रहा था और खून भी बह रहा था. उसने अब्बू से कुछ नहीं कहा और चुपके से दुकान के अंदर चला गया. कपड़े से खून साफ किया और वहां रखे हुए मलहम को चोट पर लगा दिया. कुछ ही देर में खून रुक गया. वह फिर से काम करने लगा. अब वह सावधानी से काम कर रहा था. फिर खाने का वक्त हो गया और दोनों घर को चल पड़े.

खाना खाने के बाद अब्बू ने कहा, ‘चल हामिद, अब दुकान चलते हैं !
हामिद ने कहा, ‘अब्बू, मैं दुकान नहीं जाऊंगा, मुझे स्कूल का बहुत सा काम करना है. दुकान के चक्कर में, मैं अभी तक कुछ भी काम नहीं कर पाया.
अब्बू ने कहा, ‘ठीक है, वैसे भी तेरा हाथ कट गया है. तू घर में रह.
अब्बू की इस बात से वह चौंक गया, ‘तुमको कैसे पता ?’ उसने पूछा.
जब तू दुकान के अंदर जा रहा था तभी मैंने तेरे हाथ से खून की एक बूंद को गिरते हुए देखा था.

हामिद सोच में पड़ गया. जब अब्बू को पता चल गया कि मेरा हाथ कट गया है तो उन्होंने उस समय कुछ क्यों नहीं कहा ? उसे बुरा लगा. हो सकता है, उनके लिए ये रोजमर्रा की बात हो. फिर उसे ख्याल आया, उसे अब्बू से झूठ नहीं बोलना चाहिए था. उसे स्कूल के काम की बात के बजाय साफ-साफ कह देना चाहिए था कि उसे खेलना है. यदि वह ऐसा कह देता तो मन में किसी तरह का बोझ नहीं रहता.

अब्बू के जाते ही हामिद भी खेलने चला गया. उसे देखकर उसके दोस्त अरशद, फैजल, नाजिम आदि बहुत खुश हुए. उसे भी इतने दिनों बाद उनके बीच पहुंचकर बहुत अच्छा लग रहा था. वह जल्दी खेल शुरू करके कुछ ही पलों में सारे दिनों की कसर निकाल लेना चाहता था. खेलते-खेलते समय का पता नहीं चला और शाम हो गई.

आज हामिद काफी खुश था. आज वह उदास नहीं था और किसी से नाराज नहीं था.

अब्बू अब तक बाहर के कामों के लिए कासिम को ही ले जाते थे. हामिद का मन भी उनके साथ जाने को होता था. वह हमेशा कहता कि कासिम जा सकता है तो मैं क्यों नहीं. वे कहते अभी तुझे काम नहीं आता या तू अभी छोटा है. अब्बू घर में जब उन जगहों की बातें बताते तो हामिद को लगता, वह भी वहां होता तो कितना मजा आता. नई जगह, नए लोग देखने को मिलते. खाने को नई चीजें मिलती.

तो क्या जिस दिन का वह ख्वाब देखा करता था, आज वह दिन आ गया ?

हां, कासिम कह रहा है कि वो दुकान पर चला जाएगा.अब्बू ने कहा.
मगर अब्बू आप तो कहते हो मुझे काम नहीं आता.हामिद ने पूछा.
तो क्या हुआ ? आज तू ही मेरे साथ काम पर चलेगा. काम करने से आता है, बेटा !
मगर कल से स्कूल खुल रहे हैं. मेरा स्कूल का काम भी पूरा नहीं हुआ है ?’ अचानक उसे ख्याल आया कि वह अभी तक स्कूल का काम पूरा नहीं कर पाया है.
वहां ज्यादा काम नहीं है. शाम को जल्दी लौट आएंगे फिर कर लेना.
ठीक है, फिर मैं आपके साथ चलता हूं.उस ने खुश होते हुए कहा.

हामिद को बस के सफर के दौरान खिड़की पर बैठना बहुत पसंद है. उस ने बस के अंदर पहुंचते ही खिड़की वाली सीट पर कब्जा जमा लिया. वह बहुत खुश था. जैसे उसे मन मांगी मुराद मिल गई हो. उसकी बेसब्री देखकर बगल में बैठा व्यक्ति उसे तीखी नजरों से घूरने लगा. हामिद ने उसे नजरअंदाज कर दिया और मजे से बाहर की दुनिया देखने लगा. कुछ दूर तक उसे अपने कस्बे की जानी-पहचानी जगहें नजर आती रही. मगर, कमाल यह था कि बस पर बैठकर वही रोज की देखी हुई जगहें कितनी अलग सी लग रही थी ? जैसे किसी और जगह का हिस्सा हो. सड़क के आस-पास टहलते हुए उसे अपने कुछ दोस्त भी नजर आए थे. उस ने उन्हें आवाज दी और फुर्ती से हाथ हिलाया. मगर न जाने उनका ध्यान कहां था. बगल में बैठे व्यक्ति ने उसे डांटा-हल्ला क्यों मचा रहा है ? बस में पहली बार बैठ रहा है क्या ?’ अब्बू ने भी उसे टोका था.

इस के बाद आसमान को छूते हुए ऊंचे पेड़ों वाला जंगल आया था. जहां तक नजर जाती पेड़ ही पेड़ नजर आ रहे थे. जंगल के बाद एक गांव आया. दूर तक पसरे हुए हरे-भरे खेत और उनके बीच छोटे-बड़े घर दिखायी दे रहे थे. स्त्री-पुरुष खेतों पर काम कर रहे थे. यह सब कुछ हामिद के लिए अलग और नया था. वह बहुत खुश था. उसे लग रहा था, छुट्टी का असली मजा तो आज आया है.

जिस जगह वे काम करने पहुंचे, वह किसी बड़े किसान घर था. अब्बू ने एक कमरे से लकड़ी बाहर निकाली और एक कपड़े पर औजार सजा दिये.
हामिद तू छिदाईयां कर....मैं मालिक से मिल कर आता हूं.अब्बू ने उससे कहा.

कुछ ही देर में, हामिद काम में रम गया. उसे काम करने में खूब मजा आ रहा था. उसे यह सोचकर भी काफी अच्छा लग रहा था कि अब उसे छोटा नहीं समझा जा रहा था. अब वह भी बड़ों की जमात में शामिल हो चुका था. तभी वह मनहूस पल आया, जब उसके पैर पर हथौड़ा लग गया. काफी दर्द होने लगा. रूलाई फूट पड़ी. कोई देख न ले यह सोचकर उसने अपने चेहरे को बांहों में छुपा लिया और काम रोककर अपने पैर को सहलाने लगा. उसे अपने ऊपर गुस्सा आ रहा था. जितनी बार मैं काम करता हूं, उतनी बार मुझे चोट क्यों लगती है ? अब्बू और भाई के साथ तो ऐसा नहीं होता ? मुझे अभी अच्छे से काम नहीं आता, शायद इसलिए हर बार चोट लग जाती है.वह सोच रहा था. 

अब्बू के आने तक दर्द कम हो चुका था और वह काम में जुटा हुआ था. अब्बू ने उसका काम देखा. कुछ हिदायतें दी फिर दोनों मिलकर काम करने लगे.

तभी हामिद को अपने बगल में हरे रंग की एक टेनिस बॉल दिखायी दी. उसे लगा आस-पास कोई खेल रहा है. उस ने अब्बू की ओर देखा. उसकी तरफ उनकी पीठ थी. बॉल उठाकर वह मकान के पीछे की ओर चला गया. वो उसकी ही उम्र के दो लड़के थे. एक बाजार का नया बैट पकड़े हुए विकेट के सामने खड़ा था और दूसरा उसकी ओर देख रहा था. हामिद ने बॉल उसकी ओर फैंक दी और मंत्रमुग्ध सा उनके बल्ले और टेनिस बॉल को देखने लगा. हामिद भी इसी तरह के बल्ले और गेंद से खेलना चाहता था, मगर न तो उसके और न उसके किसी दोस्त के पास इस तरह का बल्ला और गेंद थी. उन्हें मजबूरी में हाथ से बनाए हुए बल्ले और कपड़े की गेंद से खेलना पड़ता था.

तू भी खेलेगा ?’ बड़े लड़के ने उस से पूछा था. फिल्डिंग में लग जा. मेरे बाद इसका, फिर तेरा नंबर आयेगा !

हामिद भागकर विकेट के पीछे चला गया. उसके खेलने से उन्हें काफी सहूलियत हो रही थी. वह भागकर इधर-उधर जा रही बॉल लाकर उन्हें दे रहा था. फिर छोटे लड़के ने उस से बॉलिंग करने को कहा. वह ख़ुशी से चहकते हुए उसके पास गया. उस ने बॉल को पकड़कर ध्यान से देखा. बॉल सचमुच शानदार थी. उसके मन में हूक सी उठी हम लोग भी इसी बॉल से खेलते तो कितना मजा आता ? हामिद ने चौथी बॉल में उस लड़के को आउट कर दिया था. अब दूसरा लड़का बैटिंग कर रहा था. उसके बाद हामिद की बारी आनी थी. वह बेसब्री से अपनी बारी का इंतजार कर रहा था. बाजार के बल्ले से खेलने का उसका बड़ा मन था. वह उन दोनों को अपनी बैटिंग दिखाना चाहता था. उसका इरादा कुछ जोरदार चौके और छक्के लगाने का था.

आखिरकार उसकी बारी आई. उसने बैट पकड़ा और लड़के की बालिंग का इंतजार करने लगा. लड़का बालिंग के लिए दौड़ने लगा, लेकिन क्रीज के अंत में आकर रूक गया. तभी हामिद के चेहरे पर एक जोरदार थप्पड़ पड़ा. उसके कुछ समझ में नहीं आया. थप्पड़ इतना जोरदार था कि उसकी आंखों के आगे अंधेरा छा गया. जब होश आया तो अब्बू उसके सामने थे. दोनों लड़के घबराये हुए से हामिद की ओर देख रहे थे.

जहां देखो, खेल शुरू ! हम यहां काम करने आए हैं या खेलने ?’ अब्बू हामिद से पूछ रहे थे.

और हामिद के पास रोने के सिवाय और कोई जवाब नहीं था. 
________

दिनेश कर्नाटक
13 जुलार्इ 1972, रानीबाग (नैनीताल)

कहानी-संग्रह ‘'पहाड़ में सन्नाटा’’, ‘'आते रहना'’ तथा ‘’मैकाले का जिन्न तथा अन्य कहानियाँ’’ क्रमशः बोधि, जयपुर, अंतिका प्रकाशन, दिल्ली तथा लेखक मंच प्रकाशन, गाजियाबाद से प्रकाशित. एक उपन्यास 'फिर वही सवालभारतीय ज्ञानपीठ से तथा यात्रा वृतान्त की पुस्तक दक्षिण भारत में सोलह दिनलेखक मंच प्रकाशन से प्रकाशित.

लखनऊ में वर्ष 2010 के प्रताप नारायण मिश्र स्मृति युवा साहित्यकार सम्मानसे सम्मानित,उपन्यास 'फिर वही सवाल'भारतीय ज्ञानपीठ की नवलेखन प्रतियोगिता-2009 में पुरस्कृत. 

विद्यालयी शिक्षा, उत्तराखंड की कक्षा 4, 5, 7 तथा 8 की हिन्दी पाठयपुस्तकों 'हंसी-खुशी तथा 'बुरांश'के लेखन तथा संपादन में हिस्सेदारी.

शैक्षिक सरोकारों पर केन्द्रित शिक्षकों के सामूहिक प्रयासों से निकाली जा रही पत्रिका 'शैक्षिक दखलका संपादन.    

सम्पर्क :  "मुक्तिबोध" / 
ग्राम व पो.आ.-रानीबाग 
जिला-नैनीताल (उत्तराखंड) पिन-263126, मोबाइल-094117 93190
ई मेल- 
dineshkarnatak12@gmail.com  

अंचित की कविताएँ

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“ओ मेरी भाषा
मैं लौटता हूं तुम में
जब चुप रहते-रहते
अकड़ जाती है मेरी जीभ
दुखने लगती है
मेरी आत्मा”  (केदारनाथ सिंह)

कविता के पास भी मनुष्यता इसी तरह लौटती है, जब तक कविता लिखी जाती रहेगी मनुष्य की प्रजाति इस धरती पर बची रहेगी. सृजनात्मकता कोशिकाएँ में ही नहीं भाषा  में भी घटित होती है.

आइये युवा कवि अंचित की कुछ कविताएँ पढ़ते हैं.  



अंचित की कविताएँ                                         




यात्राएँ:(एक)  

ईमानदार पंक्तियों के हाथ 
अंत में कुछ नहीं आता है. 

कुछ भी चिन्हित करना स्वयंवर जैसा है, 
लगा देना ठप्पा. 

मानता हुआ बिम्बों को नया, 
चढ़ता हूँ पहाड़ पर,
पीठ पर ढोता हुआ बोझ. 

हर बार वही बोझ होता है 
तो गणित ये तय करता है 
कि बिम्ब भी वही हैं- दोहराव की गड्डी.

बसंत आता है,
जैसे बीच सड़क पर एक सूखा हुआ पेड़ हूँ 
और बगल की बालकनी में चुग रहा है दाने
कोई मोर बैठा हुआ. 

पानी का जहाज़ होता हूँ कभी कभी- 
आगमन और पलायन दोनों का गीलापन लिए हुए, 
घाटों का असंभव प्रेम लिए.

दूसरों के लिए कुछ नहीं किया-
स्वजनों के बारे में भी नहीं सोचा,
कविता अपने लिए की,
जैसे चूमा प्रेमिका को डूबते सूरज के सामने, 
जैसे पैसेंजर ट्रेन में मूली के अचार में सान कर फांका चबेना
और ट्रेन डूबती गयी ठन्डे होते गया-जंक्शन पर .

अगर कुछ हासिल भी होता 
(पंक्तियों को, और अगर ये भी तय सत्य कि
कर्म का प्रयोजन सफलता है )
तो भी 
कुल जमा जीरो है.

मरने के बाद कविता का इस्तेमाल 
नए पैदा हुए कर लेते हैं सोशल इंजीनियरिंग के लिए 
जैसे मैंने अपने पहले के मृत कवियों का इस्तेमाल किया 
और उन्होंने अपने पुरखों का. 

मैं कौन होता हूँ?
दुख नटखट होता है 
चिपट चिपट जाता है पैरों से, 
चाटता है तलवे ,
याद दिलाता है कई कई बार कि
कविता बूढ़े घुटनों में भरे हुए मवाद में होती है. 




मैं कौन होता हूँ

अंत में कुछ नहीं बचता
उँगलियों की छाप प्रेमिका की पीठ से अदृश्य हो जाती है, 
उसकी पीठ का शीतल ज्वर,उसकी थूक का स्वाद 
एक सूखती हुई नदी के पास दफ़न बच्चे के शव जैसा याद रहता है 
अस्पष्ट - पानी और दीयर का चिरंतन युद्ध जैसे. 

आधा दुःख - आधा उल्लास
कटे अंगूठे से खून चूता हुआ.

कविता है
कि जीवन है 
कि गिलास कोई
कि आधा खाली
कि आधा भरा हुआ. 







यात्राएँ (दो)


चीखें,
ठण्ड,
घुटता रूदन,
रुग्न मरणासन्न नदी.

भटकता हुआ,
घर खोज रहा हूँ.

राम का नाम,
एक घड़ीघंट,
पीपल का पेड़

तुम थी जब कुछ नहीं था.

नदी में पानी था,
कर्मनाशा से डूब जाते थे गाँव
कौनहारा पर लाल पानी बहता था
कनैल का पेड़ झड़ता था दियरे पर

दूर उज्जैन में भैरव के मंदिर में
जब दिए सांय सांय करते थे
काली होती शाम के वक़्त,
तुम सजदे में होगी,
रोज़ याद आता है.




****

एक पुराने झड़ते हुए थियेटर की बंद पड़ी
टिकेट खिड़की से सटी हुई चाय की एक दूकान-
जहाँ पलटता हुआ अपनी महंगी घड़ी के बिना अपनी कलाई,
जेब में पड़े लाइटर की टोह लेता हुआ,
अचानक थम जाता हूँ.

ये याद आता है,
नजीब घर नहीं लौटा अभी तक.
बसंत कुञ्ज सुनसान हो जाएगा,
बेर सराय में ओस बढ़ जायेगी
पालम पर विलम्ब के प्लेकार्ड लगा दिए जायेंगे.

नजीब की उम्मीद को
सूरज ले जा रहा है अपनी पीठ पर ढ़ोता हुआ.
मैं सोचना चाहता हूँ,
जो होता है प्यार, नफरत, गिला, शिकवा,
आदमी आदमी से करता है.



***

आखिर कलाकार को तकनीक सोचनी पडती है.
कला के लिए कला क्या एक बेकार वाक्य है?
कलाकार हूँ भी कि नहीं?
एक भीड़भाड़ वाला जारगन है इधर भी
हफ्ता मांगता, धमकाता हुआ.
(ये क्यों कहा जाए कविता में?)



****

जब मेरे मुंह में मिटटी भरी हुई थी
मेरे लिए फातिहे पढ़े गये और काली पट्टी बांधे
मुझसे लिपटी हुई तुम मजलिसों में नौहे रोती रही.

मेरे जागने से पहले
कर्कगार्ड के सपने में जाने कब तक आता रहा अब्राहम.

आवाज़ें बदल जाती हैं ना अचानक ही.
जैसे लोग. आप पहचान नहीं पाते.


*****


अ से अस्सी घाट, ब से चले जाओगे भितरामपुर
ई से ईक्जिमा चढ़ता हुआ देश की केहुनी पर
ल से लम्बी लाइनें
म से... किसकी माँ ? कौन माँ ?
घ से घूम रहा है सब

दिल कुहंक रहा है,
उसकी सांस की नली में चला गया है अपना ही खून.

रेणु का गाँव है,
बैल हांक रहा है हीरामन चिरप्रसन्न
कोई बेताल उसके माथे नहीं बैठा.




******

तुम्हारी ठंडी त्वचा
गर्म होने लगती है मेरी छुअन से.
तुम्हारे पसीने की गंध रोज़ खेतों तक मेरा पीछा करती है.
तुमसे इतर कहीं और जाना नहीं चाहता,
सब घाटियाँ और पहाड़ इधर ही इतनी दूर में,
सब लोग बाग़ इतनी ही दूर में,
जीने लगना इतनी ही दूर में,
एक जमी हुई झील, एक फूलों की घाटी इतनी ही दूर में.

-    

पर घर नहीं मिला अभी तक.

नजीब नहीं लौटा,
कोई अपने कमरे में पंखे से लटका है,
पूरे सूबे में एक ही खून चढ़ाने की मशीन है,
गांधी मैदान वन वे हो गया है,
दिल्ली में गिरने लगा है कुहासा,
नजीब की बहन को घसीटा गया है राजपथ पर
नजीब की माँ देखना चाहती है ईसा मसीह को फिर से
पानी पर चलते हुए.

दुनिया का दीमक हो कर रह गया है ईश्वर-
मेरे दोस्त, तुम्हारी माँ के लिए हमलोग कुछ नही कर पाए!




****

लूट लिया गया है सब जो लूटा जा सकता था
बेच दिया गया है वो सब जो बेचा जा सकता था



***

मेरा तुम्हारा दुर्भाग्य देखो, कैसा समय आता जा रहा है
तुम्हारे लिए कविता लिखने बैठता हूँ और रोने लगता हूँ.
____________________________________________





कवितायेँ लिखता हूँ. कुछ लेख और कुछ कहानियां भी लिखी हैं. साहित्य और युवाओं से जुड़े एक छोटे से ग्रुप का सदस्य हूँ. पटना में रहता हूँ. कुछ जगह कुछ कवितायेँ प्रकाशित हुईं हैं. गद्य कविताओं के दो संग्रह,"ऑफनोट पोयम्स"  और "साथ-असाथ"के नाम से प्रकाशित हैं.


भाष्य : मंगलेश डबराल का घर और ‘न्यू ऑर्लियंस में जैज़ : शिव किशोर तिवारी

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देखते-देखते हम सबके प्रिय मंगलेश डबराल ७० साल के हो गए. अगर कवि अपनी लिखी जा रही कविताओं में ज़िन्दा है तो उसकी उम्र का एहसास नहीं होता. मंगलेश सक्रिय हैं और कविताएँ भी लिख रहे हैं. इस यात्रा में उनकी कविताओं के शिल्प, कथ्य और सरोकार में बदलाव लक्षित किये जा सकते हैं.  

मंगलेश के पहले कविता संग्रह 'पहाड़ पर लालटेन’ (१९८१) की कविता ‘घर’ और २०१३ में प्रकाशित उनके नवीनतम कविता संग्रह ‘नये युग में शत्रु’ (२०१३) की कविता ‘न्यू ऑर्लियंस में जैज़’को आपने सामने रखकर यही देखने की कोशिश कर रहे हैं शिव किशोर तिवारी.

इन दोनों कविताओं को आप पढ़ेंगे ही, इस विवेचना में गर आप भी कुछ जोड़ सकें तो यह संवाद सार्थक होगा.  




मंगलेश डबराल का  घर  और  न्यू ऑर्लियंस में जैज़                       
शिव किशोर तिवारी





घर
मंगलेश डबराल




यह जो हाथ बांधे सामने खड़ा है घर है

काली काठ की दीवालों पर सांप बने हैं
जिन पर पीठ टेकने के निशान हैं
इनमें दीमकें लगी हैं
जो जब चलती हैं पूरा घर कांपता है

इसमें काठ का एक संदूक है
जिसके भीतर चीथड़ों और स्वप्नों का
एक मिला-जुला अंधकार है
इसे पिता ने दादा से प्राप्त किया था
और दादा ने ख़ुद कमाकर

घर जब टूटेगा बक्स तभी उठेगा

कई बच्चे बड़े हुए इस घर में
गिरते पड़ते आख़िरकार
खाने-कमाने की खोज में तितर-बितर होते हुए
यहां कुछ मौतें हुईं
कुछ स्त्रियां रोईं इस तरह
कि बस उनका सुबकना सुनाई दे
कुछ बहुत पुरानी चीज़ें अब भी बजती हैं घर में

दिन-भर लकड़ी ढोकर मां आग जलाती है
पिता डाकख़ाने में चिट्ठी का इंतज़ार करके
लौटते हैं हाथ-पांव में
दर्द की शिकायत के साथ
रात में जब घर कांपता है
पिता सोचते हैं जब मैं नहीं हूँगा
क्या होगा इस घर का.

_________________


यह कविता 1975 में लिखी गई और डबराल के पहले संग्रह 'पहाड़ पर लालटेन' (1981) में संकलित है.


पहली पंक्ति में "हाथ बांधे खड़ा है"मानवीकरण का बिम्ब है. घर सेवा को तत्पर, अति विनयी, संभवतः कुछ निरीह व्यक्ति की तरह है. घर कभी मज़बूत था और एक भरे-पूरे परिवार का आश्रय था, अब वह इतना जर्जर हो गया है कि काठ में लगी दीमकें चलती हैं तो वह कांपता है. उसमें केवल एक वृद्ध दंपति रहते हैं, मन में यह आशा लिए कि बाहर कमाने- खाने का हीला खोजने गये बच्चे लौटकर आयेंगे. घर और वृद्ध दंपति एक दूसरे का आईना हैं.


'हाथ बांधे'का अर्थ यदि with arms folded लें तो उसमें प्रतीक्षा की व्यंजना हो सकती है. पहाड़ की ठंड में सीने पर हाथ बांधकर शरीर की गरमी को सुरक्षित रखते हुए व्यक्ति का चित्र भी उभरता है.


पहले वाक्य की संरचना भी देखनी होगी - वह जो सामने खड़ा है घर है.'एक घर नहीं , सिर्फ़ घर. पहाड़ का लकड़ी से बना पुरानी चाल का एक घर जो प्रतिनिधि घर भी है. ख़ाली होते पहाड़ों का घर. पलायन-प्रब्रजन का प्रतीक घर.


काठ के संदूक का बिम्ब कमज़ोर है. साधारण, बहुप्रयुक्त बिंब है. चीथडों और सपनों का मिश्रित अंधकार भी काफ़ी निर्जीव है और विशेष प्रभावोत्पादक नहीं है. पर इस खंड की आख़िरी पंक्ति 'जब घर टूटेगा बक्स तभी उठेगा जानदार है. पुराने घरों का सुपरिचित अनुभव है. संदूक तत्स्थान में बनाये जाते थे. फिर उनके बाहर निकलने जितना चौडा कोई दरवाज़ा नहीं होता था. संदूक घर की आत्मा की तरह है, पीढ़ियों का इतिहास छिपाये. वह घर के ढहने तक बाहर नहीं निकलने वाला.


घर के इतिहास में कुछ बातें साधारण है. दुनिया के सभी घरों की तरह उसमें जन्म हुए, मरण हुए. मृत्यु पर स्त्रियां ऊंची आवाज़ में नहीं रोतीं. संभवतः कुलीन ढंग का शोक है या मृत्यु का स्वीकार इस समाज में अधिक सहज है. फिर एक अप्रसंग पंक्ति- "बहुत कुछ पुरानी चीजें अब भी बजती हैं घर में."कौन सी पुरानी चीजें यह स्पष्ट नहीं हैं, पर हम कल्पना कर सकते हैं कि किसी घर से आने वाली आवाज़ें - लोगों की बातें, बच्चों का शोर, पूजा की घंटी, दीवाल घड़ी की टिक टिक,लकड़ी की संधियों में हवा की सीटी, फूल का बरतन गिरने की आवाज़, गाना- बजाना . बहुत कुछ खो गई हैं पर पर कुछ अब तक जीवित हैं. कुछ की स्मृति जीवित है.


दिन भर लकड़ी जमा करती मां, बच्चों की चिट्ठियों की निष्फल प्रतीक्षा करते पिता इन बिंबों में भी नयापन नहीं है.


लेकिन अंतिम बिम्ब इतना प्रभावोत्पादक है कि सारी कविता में वही याद रह जाता है -

रात में जब घर कांपता है
पिता सोचते हैं जब मैं नहीं हूँगा
तो क्या होगा इस घर का.

सबसे पहले ऑयरनी चोट करती है. एक जर्जर घर, संपत्ति के हिसाब से जिसका कोई मूल्य नहीं, उसके भविष्य की चिंता में ही विद्रूप की छाया है. फिर ख़याल आता हि कि यह घर जो एक जीवनशैली, एक सभ्यता, एक संस्कृति का प्रतीक है उसकी चिंता इतनी हल्की चीज़ तो नहीं है. शिल्प की दृष्टि से उल्लेखनीय न होने के बावजूद यह अत्यंत आकर्षक कविता है.











न्यू ऑर्लींस में जैज़
मंगलेश डबराल



शराब की जो बोतलें अमेरिका में भरी हुई दिखी थीं
वे यहां ख़ाली और टूटी हुई हैं
सड़कों के किनारे बिखरे हुए नुकीले कांच और पत्थर
जैज़ जैज़ जैज़ एक लंबी अछोर गली
दोनों तरफ़ गिलासों के जमघट उनमें शराब कांपती है
लोग उसमें अपनी तकलीफ़ को रोटी की तरह डुबोकर खाते हैं
गोरा होटल का मैनेजर कहता है उधर मत जाइए
वहां बहुत ज़्यादा अपराध है
यहां के टूरिस्ट निर्देशों को ग़ौर से पढ़िए
अमेरिका के पांच सबसे हिंसक शहरों में है न्यू ऑर्लींस

चंद्रमा अपने सारे काले बेटे यहां भेज देता है
रात अपनी तमाम काली बेटियां यहां भेज देती है
यहां तारे टूटकर गिरते हैं और मनुष्य बन जाते हैं
जैज़ जैज़ जैज़ नशे की एक नदी है मिसीसिपी
फ़्रेंच क्वार्टर में तीन सौ साल पहले आये थे ग़ुलाम
अफ़्रीका से भैंसों की फ़ौज१ की तरह लाए हुए
जैसे ही कोड़ों की मार कुछ कम होती
वे फिर से करने लगते गाने और नाचने का अपना प्रिय काम
उन्हें हुक्म दिया जाता मेज़ पर नहीं रसोईघरों में खाओ२
वे हंसते हुए जाते खाते और नाचते
एक चतुर क्रूर सभ्यता के लिए उन पर शासन करना कितना कठिन
उनके लिए बने सारे नियम और वे तोड़ते रहे सारे नियम
आते और जाते हैं कितने ही अत्याचारी
फ़्रांसीसी स्पेनी अमरीकी इंसानों के ख़रीदार
समुद्र से उठते हुए कितने ही तूफ़ान
हरिकेन बेट्सी रीटा कैटरीना
तब भी प्रेम की तलाश ख़त्म नहीं होती इस दुनिया में
जहां हर चीज़ पर डॉलर मे लिखी हुई है उसकी क़ीमत


अब क्लैरिनेट के रंध्रों से अंधेरा बह रहा था
ट्रम्पेट के गले से रुंधी हुई कोई याद बाहर आ रही थी
जब सैक्सोफ़ोन के स्वर नदी के ऊपर घुमड़ रहे थे
एक ट्रोंबोन इस शहर के दिल की तरह चमक रहा था
मुझे दिखा एक मनुष्य काला वह ब्रेड खा रहा था
वह हंस रहा था बढ़ रहा था मेरी तरफ़ हाथ मिलाने के लिए
उसके मुंह में हंसी तारों जैसी चमकती थी
उसे बुलाती हुई दूर से आई एक स्ट्रीटकार
उसका नाम था डिज़ायर३
दूर एक होटल में टूरिस्टों का इंतज़ार कर रहा था
डरा हुआ गोरा मैनेजर.
(2005)
____________


१. अश्वेत ब्लू गीत ‘बफ़ेलो सोल्जर कॉट इन अफ्रीक़’
२. प्रसिद्ध अमेरिकी अश्वेत कवि लैंग्स्टन ह्यूज़ की एक कविता पंक्ति
३. टेनेसी विलियम्स का प्रसिद्ध नाटक अ स्ट्रीटकार नेम्ड डिज़ायर. यह ट्राम अब भी न्यू ऑर्लींस में चलती है.






विता न्यू ऑर्लेंस के बारे में है तो जैज़, अश्वेत अमेरिकी और हरिकेन कैटरीना तो होना ही चाहिए.  तीनों हैं. एक अश्वेत कवि की एकाध पंक्ति  भी होनी चाहिए. है जी. न्यू ऑर्लेंस की पृष्ठभूमि पर लिखी किसी जानी-मानी साहित्यिक कृति का उल्लेख होना चाहिए. है न!

आप न्यू ऑर्लेंस में बैठकर रिपोर्टिंग कर रहे हों, बेसबॉल की कमेंट्री कर रहे हों या देश में  पीछे छूट गये प्रियजन को पत्र लिख रहे हों, इतना ज़रूर  लिखेंगे.

लेकिन कविता में आप शहर का कोई अनुद्घाटित पक्ष उभारेंगे. कुछ ऐसा लिखेंगे जो कविता के मुहावरे में कवि की पंचेन्द्रिय और मन पर पड़े विलक्षण चित्रात्मक प्रभावों को अभिव्यक्ति देता हो. चलिए डबराल की कविता में कविता की खोज करते हैं.



पहला चित्र-

सड़कों पर तोडी हुई शराब की बोतलों के टुकड़े हैं. एक लंबी और चक्करदार गली जिसमें  2005 में भी जैज़ संस्कृति का प्रसार दिखाई देता है. सड़क की दोनों तरफ़ शराब के गिलासों की क़तार जिनमें रोटियों की तरह डुबोकर लोग अपने दुःख खाते हैं. बड़ा अटपटा सा बिंब है. पर स्पष्ट है कि वाचक इस वक़्त शहर के अश्वेत इलाक़े में है जिसमें जाने को होटल के गोरे मैनेजर ने मना किया था. शराब गिलासों में है तो पीने वाले लोग भी होंगे. कहीं बेकारी और ख़ालीपने की व्यंजना है इन पंक्तियों में. तोड़ी गई बोतलों का कांच और नुकीले पत्थर दिखाते हैं कि साधारण मिडिल क्लास के आदमी को होटल के मैनेजर की बात सही लगती. परंतु वाचक को मैनेजर का नज़रिया पूर्वाग्रह-ग्रस्त लगता है. वह मैनेजर की सलाह को ख़ारिज करके इस इलाक़े में आया है. जैज़ जैज़ जैज़ एक लंबी कठिन अछोर गलीसे यह भी प्रतीत होता है कि वाचक को इस परिवेश में एक सांस्कृतिक जीवंतता दिख रही है, परंतु इसका कोई चाक्षुष बिंब नहीं प्रस्तुत किया गया है. पाठक को यह स्पष्ट अनुभूति नहीं होती कि वाचक का नज़रिया किस प्रकार अलग है. पाठक के मन में यह सवाल भी जागता है - गोरों के इलाक़े में ठहरे ही क्यों?



आगे चलते हैं -

चंद्रमा के काले बेटे और रात की काली बेटियाँ  यहीं भेज दी जाती हैं. बहुत ढूंढ़कर भी चंद्रमा के बेटों और रात की बेटियों का कोई मिथकीय उत्स नहीं मिला. कवि की कल्पना है तो कहना होगा कि ये खिझाऊ रूपक इस इलाक़े में बसे काले लोगों के लिए कोई समानुभूति नहीं जगाते, बल्कि कवि की संवेदनशून्यता ही दिखाते हैं. चंद्रमा और रात के बेटे-बेटियों के रूपक से क्या अभिप्रेत है? किनसे कंट्रास्ट व्यंजित है सूरज के बेटों और दिन की बेटियों से? इन रूपकों में क्या है जो मालिकों और दासों को अलग करता था और गोरों और कालों को वर्तमान में अलग करता हैक्या कवि प्रकृति या भाग्य की बात कर रहा है ? संभव तो नहीं लगता. फिर क्या कवि ने वैसे ही जो मन में आया लीप दिया?


यहां तारे टूटकर गिरते हैं तो मनुष्य बन जाते हैं. हालांकि तारे टूटकर धरती तक पहुँचे तो बड़े- बड़े गड्ढे बनेंगे पर हम मान लेते हैं कि यह बिम्ब सूचित करता है कि शहर  विस्थापित या अपने मूल से उखडे लोगों का आश्रय है. ये सभी मिसिसिपी के प्रवाह में व्याप्त अफ़्रीकी मूल से उपजी जैज़ संस्कृति के वाहक हैं.  दो पंक्तियों में 300 वर्ष पूर्व काले ग़ुलामों का आगमन और अगली दो पंक्तियों में अत्यंत कठिन परिस्थितियों में उनका अपने गीत-नृत्य को जीवित रखना वर्णित है. यह हिस्सा अभिधात्मक है, कविता के काम का ख़ास कुछ नहीं है.

लगी-लगी एक पंक्ति आती है जिसे कवि ने अलग से नोट लिखकर लैंग्स्टन ह्यूज़ की कविता की पंक्ति बताया है -

"उन्हें हुक्म दिया जाता मेज़ पर नहीं  रसोई घरों में खाओ".

इस पंक्ति में कौन-सा भयानक अन्याय व्यक्त हुआ है समझ में नहीं आया. उस समय यूरोप के या अमेरिका के ही श्वेत नौकर क्या मालिक की डाइनिंग टेबल पर खाते थे और केवल अमेरिकी काले ग़ुलाम किचेन में खाते थे? हमारे देश में नौकर कहाँ खाते हैं? डबराल के घर में क्या व्यवस्था है? इस बात से उद्वेलित क्यों हुआ हमारा कवि?
मैं ह्यूज़ की पंक्तियां आपके सोचने के लिए छोड़ जाता हूं  -



"I too sing America.

I am the darker brother.
They send me to eat in the kitchen
When company comes,
But I laugh,
And eat well
And I grow strong." (1926)


अमेरिका के हाथ में आने के पहले न्यू ऑर्लेंस फ्रांस और स्पेन के अधिकार में रहा था. वाचक कहता है कि इन सभी आततायियों के क़ानूनों को व्यर्थ करके काले लोगों ने अपनी संस्कृति को जिलाए रखा क्योंकि "प्रेम की तलाश ख़तम नहीं होती इस दुनिया में."


इसके बाद जैज़ के वाद्यों के उल्लेख के साथ कुल चार पंक्तियों में संभावित कथ्य को प्रतिबिंबित किया गया है कि अकल्पनीय अत्याचारों के शिकार दासों ने नगर की संस्कृति को बदल दिया.

फिर काव्यसंग्रह के शीर्षक वाली दो पंक्तियां-

"मुझे दिखा एक मनुष्य काला वह ब्रेड खा रहा था
हंस रहा था बढ़ रहा था मेरी तरफ़ हाथ मिलाने के लिए"


आप कृपा करके कह रहे हैं  काला भी मनुष्य है या काले लोग पान की तरह ब्रेड चबाते रहते हैं  या क्या कहना चाहते हैं? या कहना है कि गोरे मैनेजर ने आपको गुमराह किया, दरसल यहाँ के काले लोग विदेशियों को देखते ही हाथ मिलाने दौड़ते हैं?

हाथ मिलाना हुआ कि नहीं  हुआ स्पष्ट नहीं है पर इसी बहाने "ए स्ट्रीटकार नेम्ड डिज़ायर"का उल्लेख करने का अवसर मिल गया. और आख़िरी पंक्तियां-

"दूर एक होटल में टूरिस्टों का इंतज़ार  कर रहा था
डरा हुआ गोरा मैनेजर."

जब कालों में ही रुचि थी तो इतनी दूर सुरक्षित गोरों के इलाक़े में रुके क्यों मियां?

कविता के बिंब आदि अनाकर्षक और बलात् नियोजित हैं इसका संकेत ऊपर दिया जा चुका है. चांद और रात के काले बेटे-बेटियों के रूपक के अलावा दासों के लिए एक उपमा भी है भैंसों की फ़ौज. कवि ने नोट लिखकर बताया है कि यह उपमा न होकर एल्यूज़न है –“अश्वेत ब्लू गीत बफ़ेलो सोल्जर कॉट इन अफ्रीका’”. संभवत: बॉब मार्ली के गीत बफ़ेलो सोल्जरसे अभिप्राय है. परंतु गीत का संदर्भ ज़रूरी नहीं है. जब 1866 में क़ानून बनाकर काले सिपाहियों की भर्ती अमेरिकी सेना में की गई तब उन्हें नेटिव इंडियन लोगों का ख़ात्मा करने के लिए नियुक्त किया गया. 


इन सैनिकों के घुंघराले (शायद चोटियों वाले) बालों की वजह से इंडियन इन्हें बफ़ेलो सोल्जरबुलाने लगे. यह बफ़ेलो दरअसल भैंसा नहीं था, बल्कि अमेरिकन बाइसन था जिसे हिंदी में गौर कह सकते हैं. बॉब मार्ली का गीत अमेरिकन अश्वेतों के इस कुकृत्य का अपोलोजियाहै. इस एल्यूज़न से कविता की विषयवस्तु का क्या संबंध है? वैसे भी कविता में भैंसों की फ़ौज की तरहलिखा है जिसे एक घटिया कोटि की उपमा ही मानना पड़ेगा.


बिंब भी अद्भुत हैं तकलीफ़ को रोटी की तरह शराब में डुबोकर खाना, तारे टूटकर गिरते हैं और मनुष्य बन जाते हैं, ब्रेड खाता हुआ काला आदमी सब एक से एक ! अब एल्यूज़न(allusion) पर नज़र डालिए. एक ह्यूज़ की कविता  I Too Sing America का है. अलग से टिप्पणी डालकर कवि ने समझाया है कि उसने ह्यूज़ की कविता से एक पंक्ति ली है. यह सही नहीं है. पंक्ति नहीं ली बल्कि दो पंक्तियों का भाव लिया है. फिर 1926 में रंगभेद के बारे में लिखी कविता को दासों से कैसे जोड़ दिया? दास लोग सारे के सारे मालिक के किचन में खाते थे (डाइनिंग टेबुल को तो अलग ही रखो) ? दूसरा एल्यूज़न टेनेसी विलियम्स के नाटक A Streetcar Named Desire का है. इसका तो इस कविता के कथ्य (वह जहां भी छिपा हो) से दूर-दूर तक का संबंध नहीं है, न कविता के किसी हिस्से से यह एल्यूज़न जुड़ता है.



निष्कर्ष-

कहने को कुछ था. जैज़ एक बड़ी सांस्कृतिक घटना थी. दासों ने मालिकों की संस्कृति को पलट दिया. यही कथ्य कविता को प्राणवान बना सकता था लेकिन कवि ने इसे साधारण ढंग से चार पंक्तियों में चलता किया है. बाक़ी की 34 पंक्तियों में इधर-उधर की बातें, इतिहास, जिजीविषा का महत्त्व, बाज़ारवादहिंदी के भुच्च पाठकों का ज्ञानवर्धन आदि पर ज़ोर है. इतिहास लिखना था तो 500 पंक्तियों की कविता लिखते. 38 पंक्तियों में इतना ज्ञान

इस कविता से 30 साल पहले लिखी कविता “घर” में शिल्प इतना शक्तिशाली नहीं है पर एक प्रामाणिक आंतरिकता है जो उसे मोहक है। “न्यू ऑर्लींस में जैज़” में शिल्प केवल कमज़ोर नहीं है, हास्यास्पद है और प्रामाणिकता की जगह हवा भरी है; परिणाम – फुस्स्स!

_______________

शिव किशोर तिवारी
२००७ में भारतीय प्रशासनिक सेवा से निवृत्त.
हिंदीअसमियाबंगलासंस्कृतअंग्रेजीसिलहटी और भोजपुरी आदि भाषाओँ से अनुवाद और लेखन.
tewarisk@yahoocom 

                       

वी.एस.नायपॉल : आधा जीवन (Half a Life) - २ : जय कौशल

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नोबेल पुरस्कार से सम्मानित वी.एस.नायपॉल के महत्वपूर्ण उपन्यास 'आधा जीवन' (Half a Life)का दूसरा भाग प्रस्तुत है. इसका अनुवाद जय कौशल ने किया है. इस उपन्यास के अनुवाद का पहला हिस्सा पढ़कर पाठकों–लेखकों के पत्र और फोन आते रहे कि इसका दूसरा भाग कब प्रकाशित हो रहा है. 

जल्दी ही इसका अंतिम और तीसरा हिस्सा भी प्रकाशित किया जायेगा. जय कौशल ने पहले भाग के साथ प्रस्तुत अपनी भूमिका और उत्तर-कथ्य में उपन्यास के सार और महत्त्व पर प्रकाश डाला है और अनुवाद की दुश्वारियों की भी चर्चा की है. उन्हें फिर से क्या दुहराना.
कहीं कसर रह गयी हो तो आपके सुझाव से पाठ को दुरुस्त कर दिया जायेगा.

वी एस नायपाल क्या हैं वह इस उपन्यास को पढ़ते हुए आप बखूबी समझ सकते हैं.  


Half a Life

V S Naipaul

2

पहला अध्याय

 (The first Chapter)



वी.एस.नायपॉल
आधा जीवन (Half a Life)                            

अनुवाद : जय कौशल







विली और उसकी बहन सरोजनी मिशन स्कूल जाने लगे थे. एक दिन एक कनाडाई अध्यापक ने मुस्कराकर बड़े अपनेपन से पूछा- ‘‘विली, तुम्हारे पिताजी क्या करते हैं?’’ वह कई लड़कों से यही सवाल पूछ चुके थे. वे अपने-अपने पिता के निम्नस्तरीय कामों को बेहिचक बता देते थे. विली को इस बेहयाई पर बड़ी हैरानी होती. लेकिन जब यही सवाल उससे पूछा गया तो वह समझ नहीं पाया कि क्या बताए ? वह शर्म से गड़ गया था. इधर अध्यापक मुस्कुराते हुए उत्तर का इंतज़ार कर रहे थे. अन्त में विली ने खीजते हुए कहा- आप सबको मालूम है कि मेरे पिताजी क्या करते हैं ?’’

सारी क्लास में हँसी फूट गई. लड़के उसकी खीज पर हँस रहे थे ना कि उत्तर पर. उस दिन से विली को अपने पिताजी से और नफ़रत हो गई.

विली की माँ मिशन स्कूल में ही पढ़ी थी और चाहती थी कि उसके बच्चे भी वहीं पढ़ें. यहाँ के ज़्यादातर बच्चे पिछड़े परिवारों से थे जिन्हें अपनी जाति के कारण स्थानीय विद्यालयों में दाखि़ला मिलता था. उन्हें लगता था कि अगर ऐसे बच्चों को प्रवेश दिया गया तो जीना मुहाल हो जाएगा. अपने शुरुआती दिनों में वह स्वयं (विली की माँ) ऐसी ही जाति स्कूल में गई थी. महाराजा की उसके प्रति सहानुभूति के बावजूद वह खस्ताहाल और धूल से अटा स्कूल महल से काफ़ी दूर आंचलिक इलाके में स्थित था. खस्ताहाल होते हुए भी स्कूल के अध्यापक और चपरासी विली की माँ का यहाँ आना पसन्द नहीं करते थे. यहाँ तक कि चपरासी  भी खासे बेरहम थे. उनका कहना था कि अगर स्कूल में पिछड़ों का आना जारी रहा तो वे काम छोड़कर अनशन पर चले जाएंगे. उन्होंने बड़ी मुश्किल से अपनी ज़िद छोड़ी, तब कहीं जाकर लड़की को दाखिला मिला.

लेकिन पहले ही दिन से हालात बिगड़ गए. मध्यान्तर के दौरान वह दूसरे छात्रों के साथ स्कूल के अहाते में पानी पीने गई थी, जहाँ एक बेरुख़ा और मरभुक्खा-सा चपरासी पाइप से पानी निकाल रहा था. उसके हाथ में बाँस की लम्बी सी घड़ेली थी, छात्र के नज़दीक आने से पहले ही वह उससे पीतल या फिर अल्यूमीनियम का गिलास भर देता. विली की माँ को यह सोचकर बड़ी हैरानी हो रही थी कि कौन-सा गिलास उठाए लेकिन नजदीक जाने पर पता चला कि वह किसी गिलास को नहीं छू सकती. उसे देखकर वह बेरुखा और भरमुक्खा चपरासी क्रोध में ऐसे चीख़ने लगा मानो उसे किसी ने लावारिस कुत्ता समझकर पीटा हो. जब कुछ बच्चों ने विरोध किया तो वह इधर-उधर कुछ खोजने लगा और वहीं कुछ दूर ज़मीन पर पड़ा एक जंग लगा और गंदा डिब्बा उठा लिया- जिसे किसी टिन ऑपनर से खोला हुआ था. किनारों से बेहद खुरदुरा यह मक्खन का नीला डिब्बा आस्ट्रेलिया से आया था. उसने उसी में पानी डाल दिया. तब विली की माँ को पता चला कि वहाँ अल्यूमीनियम मुसलमानों, ईसाइयों और इसी वर्ग से जुड़े लोगों के लिए था, पीतल सवर्णों के लिए और वह जंग लगा बदरंग-सा डिब्बा उसकी ख़ातिर था. उसने उस पर थूक दिया.
     
चपरासी को इतना गुस्सा आया कि उसकी ओर बाँस की घड़ेली इस तरह तान ली मानो उससे मार बैठेगा. डर के मारे वह स्कूल के बाहर भागी, पीछे से गालियाँ बकने की आवाज़ आ रही थी. कई हफ़्तों के बाद उसने स्कूल की ओर रुख़ किया. उसके परिवार और समुदाय वालों को इसकी कोई ख़बर नहीं थी. अगर वे इसे जानते तो वह लगातार स्कूल जाती रहती. उन्हें तो दीन-दुनिया की कोई जानकारी नहीं थी. लोगों के धर्म, उनकी जाति, मुसलमान, ईसाई वगैरह के बारे में वे कुछ नहीं जानते थे. वे तो सदियों से बाहरी दुनिया से कटे और उपेक्षाएँ झेलते हुए रहते आए थे.
     
विली जब भी यह कहानी सुनता तो उसका खून खौल उठता. वह अपनी माँ को बहुत प्यार करता था. कच्ची उम्र से ही वह अपने ख़र्च के पैसों से घर के लिए छोटी.मोटी चीज़ें ले आया करता था. जैसे- लकड़ी का फ्रेमजड़ा कोई आईना, रंगीन कश्मीरी पेपर मैशी, क्रेप के काग़ज़ी फूल वगैरह.
     
धीरे-धीरे उम्र बढ़ने के साथ उसे मिशन स्कूल और राज्य में उसकी स्थिति का अंदाज़ होता गया. स्कूली छात्रों के बारे में भी उसकी जानकारी बढ़ गई थी. वह जान गया कि मिशन स्कूल जाना एक तरह का ब्रांड होना था. वह अपनी माँ से लगातार खुद को दूर होता देखने लगा था. स्कूल में वह अपने और सहपाठियों से काफी अच्छा था. उसे जितनी सफलता मिली, माँ से उसकी दूरी बढ़ती चली गई.
     
वह अब कनाडा जाने की इच्छा सँजोने लगा था- उसके अध्यापक वहीं के थे. उसने सोचा कि वहाँ वह उनका धर्मग्रहण कर वैसा ही हो जाएगा और सारी दुनिया में अध्यापन करता घूमेगा.
     
एक दिन जब उसे छुट्टियों पर एक निबन्ध लिखने को कहा गया. उसने कल्पना कर ली कि वह कनाडा का है और अपने माता-पिता को मॉम’ (डव्ड) और पॉप’ (च्व्च्) कहकर पुकारता है. एक दिन मॉमऔर पॉपअपने बच्चों को समुद्र तट पर ले जाने की सोचते हैं. वे सुबह जल्दी उठकर ऊपर स्थित बच्चों के कमरे में जाकर उन्हें जगाते हैं. बच्चे अपने छुट्टियों वाले कपड़े पहनते हैं और कार से समुद्र किनारे पहुँच जाते हैं. समुद्र तट छुट्टी मनानेवालों से भरा है. पूरा परिवार अपने साथ लाई गई मिठाइयाँ खाता है और बड़ी मस्ती से झूमते हुए शाम को घर लौटता है. विदेशी जीवन का यह पूरा विवरण, जैसे कि ऊपरी मंज़िल, बच्चों का कमरा आदि उसने एक अमेरिकी कॉमिक बुक से लिए थे, जो मिशन स्कूल में बँटा करती थी. इनके साथ कुछ स्थानीय ब्यौरे भी मिला दिए थे जैसे- छुट्टी के कपड़े और मिठाइयाँ. इनमें से कई मॉमऔर पॉपने वहाँ के अधनंगे भिखारियों के बीच मिठाइयाँ आदि बाँटकर बड़ा संतोष जताया था. इस निबंध को सर्वाधिक अंक मिले; दस में से दस और विली को इसे क्लास में पढ़ने को कहा गया. क्लास के बच्चों में ज़्यादातर बेहद ग़रीब परिवारों से थे, उनकी समझ में ही नहीं आया कि क्या कुछ लिखा गया है. ना ही उनमें ऐसी किसी खोज की तैयारी थी. वे बाहरी दुनिया से अनजान थे. सबने बड़े ध्यान से विली की कहानी सुनी. उसने वह नोटबुक लाकर माँ को दिखाई. वह गर्व से फूल उठी. ‘‘इसे अपने पिताजी को दिखाओ, साहित्य उनका विषय रहा है.’’ वह बोली.
     
पिताजी को सीधे नोटबुक नहीं देते हुए विली ने उसे बरामदे की मेज़ पर रख दिया, जहाँ बैठकर वे आश्रम का भीतरी अहाता निहारते हुए सुबह की कॉफी पिया करते थे.
     
उन्होंने वह लेख पढ़ा और शर्म से डूब गए. सोचने लगे- सब कुछ झूठा है, बकवास, इसने यह सब कहाँ से सीखा?’’ फिर सोचा- क्या यह शेली, वर्ड्सवर्थ जैसों से भी बुरा लिखा गया है ? उनका सारा कुछ भी तो बकवास है.’’उन्होंने एक बार फिर उसे पढ़ा. और अपनी भूली हुई स्मृतियों और विचारों पर दुःखी होते हुए सोचा- ‘‘प्यारे विली, मैंने तुम्हारे लिए किया ही क्या है ?’’

कॉफी ख़त्म हो गई थी. मंदिर के मुख्य अहाते पर सुबह-सवेरे आनेवाले श्रद्धालुओं के आगमन का स्वर सुनाई पड़ा. अब वह सोच रहे थे, मैंने उसके लिए कुछ नहीं किया. वह मेरे जैसा नहीं है. वह तो अपनी माँ का बेटा है. मॉम और पॉप वाला सारा व्यवहार उसी का नतीजा है. वह इससे बच नहीं सकती. उसका परिवेश ही ऐसा है. उस पर मिशन-स्कूल का भूत सवार है. हज़ार जन्मों के बाद शायद वह ये बात समझ पाए. लेकिन वह भली औरतों की तरह इन्तज़ार भी नहीं कर सकती. आजकल के अन्य पिछड़ों की तरह वह भी शानो-शौकत से जीना चाहती है.
     
उन्होंने विली के आगे कभी उस निबन्ध की चर्चा नहीं की, ना विली ने पूछा पर इसके बाद से पिताजी के प्रति विली की नफ़रत और बढ़ गई.
     
इसके कुछेक हफ़्तों बाद एक दिन पिताजी घर के पास वाले आश्रम में जब अपने यजमानों के साथ बैठे थे, विली ने भीतरी बरामदे में वही नोटबुक फिर से मेज़ पर रख दी. पिताजी ने दोपहर में खाने के समय जब उसे देखा तो ताव में आ गए. पहली ही नज़र में उन्हें लगा कि इसमें भी मॉम और पॉप से जुड़ा वैसा ही कोई अप्रिय लेख होगा. उन्होंने सोचा, यह लड़का अपनी माँ का ही सिखाया हुआ है और पिछड़ों जैसी चालाकी से मुझे परेशान कर रहा है. कोई उपाय न सूझता देख उन्होंने स्वयं से पूछा- ‘‘ऐसे में महात्मा जी क्या करते ? क्या वे अपनी नागरिक अवज्ञा के साथ ऐसे धूर्त से मिलते. लेकिन उससे कुछ होता-वोता नहीं.’’इसलिए उन्होंने कुछ नहीं किया. कॉपी छुई तक नहीं. लंच में स्कूल से आने पर वह विली को वैसी ही पड़ी मिली.
     
विली ने अंग्रेज़ी में सोचा- ‘‘ही इज़ नॉट ओनली अ फ्रॉड, बट अ कॉवर्ड,’’  यह वाक्य पूरी तरह जँचा नहीं, तर्क के स्तर पर भी टूटा जान पड़ा. उसने दुबारा विचार किया- नॉट ओनली इज़ ही अ फ्रॉड, बट ही इज ऑलसो अ कावर्ड.’’इस शुरुआती क्रम-विपर्यय से वह परेशान हो उठा था, यहाँ वाक्य में बटऔर ऑलसोअप्रसांगिक लग रहे थे. कनाडाई मिशन स्कूल आते समय उसे अपनी कम्पोजिशन-क्लास का व्याकरण संबंधी कुछ गड़बड़झाला भी सताने लगा. उसके मन में उस वाक्य के कई रूप बन-बिगड़ रहे थे लेकिन स्कूल में आकर वह पिता और उस घटना सबको भूल चुका था.
     
लेकिन विली के पिताजी उसे नहीं भुला पाए. लड़के की चुप्पी और बुरी संगत उन्हें परेशान कर रही थी. दोपहर बाद तक उन्हें पक्का यक़ीन हो गया था कि उस नोटबुक में ज़रूर कुछ-न-कुछ आपत्तिजनक है. वे अपने एक यजमान से बातचीत बीच में छोड़ कर बरामदे के दूसरी ओर चले गये और उसे खोलकर देखने लगे. इसमें राजा कोफ़ेचुआ और भिखारनशीर्षक से एक रचना थी.

बहुत दिनों पहले एक बार भीषण अकाल पड़ा था. पूरी प्रजा दुःखी हो उठी. तब अपनी जान जोखि़म में डाल एक भिखारन राजा कोफे़चुआ के दरबार में पहुँची और उनसे सहायता की माँग की. वह प्रवेश की अनुमति लेकर राजा से मिलने आई थी. उसका सिर ढँका था और नीची नजरें किए हुए बात कर रही थी. उसने अपनी बात इतनी ख़ूबसूरती और शालीनता से रखी थी कि राजा ने प्रभावित होकर उससे चेहरे पर पड़ा आँचल हटाने का अनुरोध कर डाला. उसका अद्वितीय सौन्दर्य देखकर राजा उन्मत्त हो उठा और उसी घड़ी दरबार में फ़रमान जारी कर दिया कि यह भिखारन उसकी रानी बनेगी. राजा वचन का पक्का था, लेकिन उसकी इस रानी की ख़ुशियाँ देर तक नहीं ठहर पाईं. चूँकि हर कोई उसका पूर्व परिचय जानता था, इसलिए कोई उसे असली रानी का दर्जा नहीं देता था. वह अपने परिवार से भी कट गई थी. कई बार वे महल के द्वार तक आकर उसे आवाज़ देते लेकिन उसे उन तक जाने की इजाज़त नहीं थी. दरबारी भी अब खुलेआम उसका अपमान करने लगे थे. राजा को इसका पता नहीं था, न रानी ने शर्म से उन्हें कुछ बताया. कुछ दिनों बाद उन्हें पुत्र पैदा हुआ. अब तो लोग रानी-भिखारन सम्बन्ध को सरेआम कोसने लगे. वह बड़ा होता बालक भी अपनी माँ के चलते अपमान झेल रहा था.

उसने इसका बदला लेने की प्रतिज्ञा की थी. बड़ा होने पर इसे पूरा भी कर दिखाया. उसने राजा की हत्या कर डाली थी. इससे दरबारी और राजभवन के द्वार पर खड़े भिखारियों सहित सब लोग प्रसन्न हुए. कहानी वहीं ख़त्म हो गई थी. मिशनरी  अध्यापक ने इस नोटबुक के हाशिए पर जगह-जगह लाल स्याही से निशान लगा रखे थे और अन्त में दस्तख़त भी किया था.

विली के पिताजी ने सोचा, हमने भी एक दैत्य पैदा कर लिया है, जो सचमुच अपनी माँ और उसके रिश्तेदारों से घृणा करता है. उसकी माँ इससे अनजान है. लेकिन उसकी माँ का चाचा पिछड़ों का फ़ायरब्राण्डहै. जिसे मुझे कभी नहीं भुलाना चाहिए. यह लड़का मेरी बची हुई ज़िन्दगी में ज़हर घोल देगा. मुझे इसे यहाँ से दूर भेज देना चाहिए.

इसके कुछ समय बाद एक दिन उन्होंने सहज स्वर में विली से कहा (हालाँकि वे  उससे इतनी तटस्थता से बात नहीं कर पाते थे)- ‘‘हम तुम्हारी अगली पढ़ाई के बारे में सोच रहे हैं विली, तुम्हें मुझ जैसा नहीं बनना है.’’

‘‘ऐसी क्या बात है ?’’ विली ने कहा ‘‘आप बड़ी ख़ुशी से कुछ भी कर सकते हैं.’’
उसके पिताजी तैश में आए बिना बोले- ‘‘मैं महात्मा जी का अनुयायी था. मैंने अपनी अंग्रेज़ी की सारी किताबें युनिवर्सिटी के अहाते में जला डाली थीं.
‘‘तो इससे क्या फ़र्क़ पड़ गया ?’’ विली की माँ बोली.
‘‘अब तुम कुछ भी कहो. मैंने अंग्रेज़ी की किताबें जलाईं और डिग्री तक नहीं ली. अब मेरा कहना यह है कि विली को डिग्री लेनी ही चाहिए.’’
‘‘मैं कनाडा जाना चाहता हूँ.’’ विली ने कहा.
‘‘मेरे लिए जीवन क्या है- बलिदान ही तो है. मैंने भविष्य के लिए कुछ नहीं जोड़ा. मैं तुम्हें बनारस, बम्बई, कलकत्ता यहाँ तक कि दिल्ली भेज सकता हूँ लेकिन कनाडा नहीं भेज सकता.
‘‘ठीक है, फिर मुझे पादरी लोग भेजेंगे.’’
यह ओछी बात तुम्हारी माँ ने ही तुम्हारे दिमाग़ में भरी होगी. पादरी भला तुम्हें कनाडा क्यों भेजेंगे.
‘‘वे मुझे एक मिशनरी बनाएँगे.’’
‘‘तुम बेवकूफ़ हो, वे तुम्हें पालतू बन्दर बनाकर रख छोडेंगे और फिर वापस भेज देंगे ताकि तुम अपनी माँ के परिवार वालों और दूसरे पिछड़ों के बीच काम करते रहो.’’
     
‘‘यह आपको ही लगता होगा,’’ कहकर विली ने बातचीत ख़त्म कर दी. कुछ दिन बाद वही नोटबुक बरामदे की उसी मेज़ पर फिर पड़ी दिखी. विली के पिता को इसमें कोई आपत्ति नहीं थी. उन्होंने उस अंतिम रचना के लाल निशान वाले पृष्ठ खोलकर देख लिए थे.
     
यह एक कहानी थी. वह नोटबुक की सबसे लम्बी रचना थी, जो बड़ी तन्मयता के साथ लिखी गई थी. बड़ी तेजी से और तनाव में छोटे-बड़े वाक्य लिखे जाने के कारण सारे पन्ने मुचड़ गए थे. अध्यापक ने कहीं-कहीं इसे इतना पसन्द किया था कि कई सारे पन्नों के हाशिए पर लाल स्याही से लम्बी लाइनें खींच दी थी. विली की दूसरी कहानियों, दृष्टान्त कथाओं की तरह यह भी बिना किसी निश्चित देश-काल के कही गई थी.
     

यह कहानी अकाल से जुड़ी थी, जब ब्राह्मण तक भी इससे भूखों मरने लगे थे. एक दिन भूख से तड़पता एक ब्राह्मण अपना सारा समाज छोड़कर चल पड़ा और उसने किसी पहाड़ी बीहड़ में अकेले ससम्मान मरने का निश्चय किया. पस्त होकर गिरने से पहले उसने चारों ओर निगाहें दौड़ाई. एक चट्टान की गहरी और अंधी गुफा देख वह उसी में घुस गया. उसने यथासंभव स्वयं को शुद्ध किया फिर मरने के लिए अपना सिर चट्टान से टिका दिया. पत्थर से टिके उसके सिर और गर्दन बुरी तरह अकड़ गए थे. दुःखी होकर वह उठा और चट्टान को छूकर देखने लगा. उसे लगा कि वह कोई चट्टान नहीं, एक सख़्त चीकट और बोसीदा बोरा था. ध्यान से देखने पर पता चला कि वह बोरा किसी पुराने ख़ज़ाने से भरा था.

बोरे को छूते ही उसे एक आत्मा की आवाज़ सुनाई दी- ‘‘यह ख़ज़ाना सदियों से तुम्हारी राह देख रहा था. अब यह तुम्हारा है और हमेशा के लिए तुम्हारा ही रहेगा है. लेकिन तुम्हें मेरी एक शर्त माननी पड़ेगी... बोलो मंज़ूर है! ’’
     
‘‘बताइये, मुझे क्या करना होगा ?’’ ब्राह्मण ने काँपते हुए पूछा.
     
‘‘तुम्हें हर साल एक बच्चे की बलि चढ़ानी होगी. तुम जब तक ऐसा करते रहोगे, ख़ज़ाना तुम्हारे पास बना रहेगा. इसमें चूक हो जाने पर, यह वापस यहीं चला आएगा. तुमसे पहले सदियों से लोग यहाँ आते रहे हैं, लेकिन कोई भी पूरी तरह सफल नहीं हो पाया.’’
     
ब्राह्मण बड़े असमंजस में था कि क्या कहे! तभी आत्मा चीख़कर बोली- ‘‘ऐ मरने वाले, क्या तुम्हें यह शर्त मंज़ूर है ?’’
     
‘‘लेकिन मैं बच्चा लाऊँगा कहाँ से!’’

‘‘मैं इसमें तुम्हारी कोई सहायता नहीं कर सकता, यह तुम्हारी चिंता है. अगर तुम यह ठान लो तो हल भी निकाल आएगा. बोलो, मंज़ूर है तुम्हें ?’’
     
‘‘हाँ मंजूर है,’’ ब्राह्मण ने हामी भरी.
     
‘‘तो सो जाओ, भाग्यवान.’’ जब तुम जगोगे तो खुद को अपने पुराने मंदिर में पाओगे और सारी दुनिया तुम्हारे क़दमों तले होगी लेकिन अपनी प्रतिज्ञा मत भूल जाना.’’ब्राह्मण जब उठा तो उसने स्वयं को तृप्त और भला-चंगा पाया. अब वह इतना धनवान हो चुका था जिसकी कल्पना सपने में भी नहीं की जा सकती. मारे ख़ुशी के उसकी चीख़ निकलने ही वाली थी कि अचानक उसे शर्त याद हो आई. वह चिन्तित हो उठा. अब वह हर घड़ी इसी परेशानी में डूबा रहता.
     
एक दिन उसने मंदिर के सामने से आदिवासी लोगों का एक दल गुज़रता देखा. वे सब काले-कलूटे, बौने और लगभग नंगे थे. भूख ने उनकी बस्तियाँ छीन ली थी और पुराने नियमों से छिटका दिया था. उन्हें मंदिर के पास भी नहीं फटकने दिया जाता था क्योंकि उनकी छाया, उनकी दृष्टि यहाँ तक कि उनकी आवाज़ तक अपवित्र थी. यह ब्राह्मण जिसे आत्मज्ञान हो चुका था, उनके पड़ाव को खोजकर रात के समय शाल से अपना मुँह ढाँप कर वहाँ पहुँचा और मुखिया को जगाकर दान और धर्म की रक्षा की बातें करने लगा. साथ ही, एक अधमरे बालक को ख़रीदने का प्रस्ताव रखा. उसने उसके साथ एक सौदा किया, जिसके अनुसार मुखिया एक बच्चे को बेहोश करके उस गुफा तक ले आया करेगा. अगर वह उसे ईमानदारीपूर्वक ले आया तो एक सप्ताह के बाद उसे वहीं पुराने ख़ज़ाने का हिस्सा प्राप्त होगा. जिससे उसके और सारे आदिवासी समूह के दुःख दूर हो जाएंगे.
     
वादे के अनुसार बलि चढ़ा दी गई, धन भी पहुँचा दिया गया. यह क्रम ब्राह्मण और वह आदिवासी मुखिया मिलकर सालों निभाते रहे.
एक दिन मुखिया खा-पीकर, उम्दा कपड़े पहनकर और बालों में तेल चुपड़कर मंदिर में पहुँच गया. उसे यहाँ देख ब्राह्मण भड़क उठा.
‘‘कौन हो तुम ?’’ उसने पूछा.
‘‘हम एक-दूसरे को अच्छी तरह पहचानते हैं. तब से लेकर आज तक की सारी बातें मुझे याद हैं. मैंने तो तुम्हें पहली रात ही पहचान लिया और सब समझ गया था. अब तुम्हें मुझे ख़ज़ाने का आधा हिस्सा देना होगा.’’

‘‘चुप रहो!’’ ब्राह्मण ने डाँट दिया ‘‘मैं जानता हूँ कि तुम आदिवासी लोग पिछले पंद्रह सालों से गुफा में बच्चों की बलि चढ़ाते रहे हो, यह तुम्हारा आदिवासी रिवाज़ है. अब तुम जब रईस और शहरी हो गए हो तो शर्म आती है, डर लगता है. अब तुम यहाँ आकर मेरी ग़लती बता रहे हो, मेरी समझ पर शक कर रहे हो. तुम्हारे आदिवासी रिवाज़ जानकर मैंने तुम्हें माफ़ कर दिया हालाँकि मुझे इस बात का पहले से डर था. अगर यह सब मैंने किया है तो किसी को भेजकर बच्चों की हड्डियाँ दिखाओ. दिखने में तो तुम बड़े चिकने-चुपड़े लग रहे हो मगर तुम्हारी छाया भी इस पवित्र जगह को दूषित बना रही है.
     
मुखिया दास की तरह झुका और माफ़ी माँगते हुए वापस मुड़ गया. ‘‘और अपनी कौल मत भूल जाना!’’ब्राह्मण ने आवाज़ देकर कहा.
     
कुछ दिन बाद ब्राह्मण की वार्षिक बलि का समय आया. इसके लिए उसने हड्डियोंवाली गुफ़ा में रात्रि का समय चुन रखा था. वह मुखिया के पास गया और तरह-तरह के क़िस्सों से उसे बहकाने लगा, ‘‘आप मुझसे कहकर आते अथवा लोग वहाँ मेरा इन्तज़ार कर रहे हैं’’ आदि-आदि. लेकिन मुखिया को इस झूठ से कोई हैरानी नहीं हुई, बल्कि उसने ब्राह्मण के साथ उचित व्यवहार ही किया. रात में ब्राह्मण को गुफा में दो बेहोश बच्चे मिले. अपने कुशल हाथों से उसने गुफा की आत्मा के लिए दोनों की बलि चढ़ा दी. लेकिन जब अंतिम-संस्कार की घड़ी आई तो चिता में जलती लकड़ियों की रोशनी में उसने देखा कि वे दोनों उसके अपने ही बच्चे थे.

कहानी यहीं ख़त्म हो गई थी. विली के पिता ने एक साँस में ही इसे पढ़ लिया था. वापस पन्ने पलटते समय उन्हें पता चला कि पढ़ने के दौरान उन्हें याद ही नहीं रहा कि इस कहानी का शीर्षक ए लाइफ ऑफ़ सेक्रिफ़ाइस’ (बलिदान भरा जीवन) था.
     
‘‘इस लड़के का दिमाग़ ख़राब हो गया है.’’उन्होंने सोचा, ‘‘यह मुझसे और अपनी माँ से तो नफ़रत करता ही है अब अपने खि़लाफ़ भी जा रहा है. यह सब मिशनरियों का किया-धरा है, इसके अलावा बाकी बचे समय में अमेरिकी कॉमिक पत्रिकाएँ, मॉम, पॉप, ‘डिक ट्रेसीतथा पैशन वीकमें क्राइस्ट ऑन द क्रॉस’ (सलीब पर ईसा मसीह) जैसी फ़िल्मों, बोगार्ट, काग्ने और जॉर्ज रॉफ़्ट के चलते यह सब हो रहा है. मैं इससे बैर नहीं पाल सकता! महात्मा जी वाले तरीक़े ही इससे निपटना होगा. मैं तब तक मौनव्रत धारण करूँगा जहाँ तक बात उससे जुड़ी रहेगी.’’

दो-तीन हफ़्ते बाद विली की माँ ने कहा ‘‘मैं चाहती हूँ तुम अपना मौनव्रत तोड़ दो. विली इससे जरा भी खुश नहीं.’’
     
‘‘यह लड़का हाथ से निकल चुका है, ऐसा कुछ नहीं बचा कि जो मैं उसके लिए  करूँ ?’’
     
‘‘आपको इसकी मदद करनी होगी, यह और कोई नहीं कर सकता. दो दिन पहले मैंने इसे अंधेरे में बैठे पाया, बत्ती जलाने पर देखा कि वह रो रहा था. मैंने पूछा- ‘‘क्या बात है तो उसने बताया ‘‘मुझे सारी दुनिया दुखिया जान पड़ती है. यही हमारे भाग्य में बदा है. समझ में नहीं आता मैं क्या करूँ.’’ मुझे एकाएक कुछ नहीं सूझा. यह सब उसे तुमसे ही मिला है. मैंने उसे काफ़ी समझाया-बुझाया. मैंने उससे कह दिया कि सब ठीक हो जाएगा और वह कनाडा जा सकेगा. लेकिन अब वह कनाडा नहीं जाना चाहता, ना ही मिशनरी बनना चाहता है, यहाँ तक कि अब वह स्कूल भी नहीं जाना चाहता.’’
     
‘‘लगता है स्कूल में कुछ हुआ है?’’
     
मैंने यह भी पूछा था. वह किसी काम से प्रिंसिपल के दफ़्तर गया था. वहाँ एक मिशनरी की पत्रिका रखी थी. जिसके आवरण पर एक रंगीन चित्र बना था. उसमें चश्मा और घड़ी पहने एक पादरी बुद्ध की मूर्ति पर एक पैर रखे खड़ा था. उसने कुल्हाड़ी से उसके टुकड़े किए हुए थे और किसी लकड़हारे की तरह कुल्हाड़ी पर झुककर मुस्कुरा रहा था. स्कूली पढ़ाई के दौरान मैंने ऐसी चीज़ें देखी थीं लेकिन मुझे इससे कभी परेशानी नहीं हुई. पर विली उन्हें देख बेहद शर्म महसूस कर रहा है. उसे लग रहा है पादरी तब से उसे मूर्ख बनाते रहे थे. अब उसे मिशनरी बनने की सोचते हुए भी शर्म आती है. वह यहाँ से छूटकर कनाडा भी जाना चाहता था, लेकिन चित्र देखने से पहले उसे मिशनरी के कामों का अंदाजा भी नहीं था.
‘‘अगर वह मिशन स्कूल नहीं जाना चाहता तो न जाए.
‘‘तुम्हारी ही तरह!’’
लेकिन मिशन स्कूल तो तुम्हारा विचार था.
ख़ैर, विली ने स्कूल जाना बंद कर दिया और घर में आलसियों की तरह रहने लगा.
     
एक दिन पिताजी ने उसे औंधे मुँह सोते पाया, पास में द विकर ऑफ वेकफ़ील्डका स्कूल-संस्करण रखा था. उसके पैर क्रॉस की शक्ल में थे और गंदे लग रहे थे. उसे देखकर उन्हें गुस्सा तो आया ही, चिंता भी हुई क्योंकि वह बड़ा दयनीय लग रहा. मैं अक्सर सोचता था कि तुम मेरे हो और चिंतित भी होता क्योंकि मैंने तुम्हारे लिए कुछ नहीं किया. पर अब पता चल गया कि तुम मेरे नहीं हो. मेरे मन में जो कुछ है, तुम्हारे लिए नहीं, तुम कोई और हो जिसे मैं नहीं जानता. तुमने एक अनजानी यात्रा शुरू कर दी है, मैं इसीलिए परेशान हूँ.
     
कुछ दिन बाद उन्होंने विली से कहा- ‘‘वैसे मैं भाग्यशाली तो नहीं हूँ, फिर भी तुम चाहो तो इंग्लैण्ड के अपने कुछ परिचितों को चिट्ठी लिख देता हूँ, शायद वे तुम्हारी मदद कर दें.’’

विली बहुत खुश हुआ पर ज़ाहिर नहीं होने दिया.

वही प्रसिद्ध लेखक, जिसके नाम पर विली का नाम था, अब काफ़ी बुज़ुर्ग हो चले थे. दक्षिणी फ्रांस से कई दिनों में उनका जवाब आया. पत्र के रूप में एक छोटा-सा क़ागज़ था जो साफ-सुथरा टाइप किया हुआ था-

प्रिय चंद्रन,

तुम्हारा पत्र पाकर खुशी हुई. मेरे पास उस देश की बहुत सारी यादें हैं, अपने भारतीय मित्रों से भी मैं उसके बारे में बात करता रहता हूँ. आपका ...... .

इस पत्र में विली पर कुछ नहीं था. हो सकता था, जो कहा गया, उसे बुज़ुर्ग लेखक समझ नहीं पाये अथवा उनके सचिवों द्वारा ऐसा हो गया था, वे उसे ठीक तरह नहीं समझे. जो भी हो, इससे विली के पिताजी बड़े लज्जित हुए. उन्होंने विली को नहीं बताया पर फ्रेंच स्टाम्प लगे पत्र से वह समझ गया था.

युद्धकालीन दौर के उस सुप्रसिद्ध ब्रॉडकास्टरका तो कोई ज़वाब ही नहीं आया, जो स्वाधीनता, विभाजन एवं गाँधी की हत्या से जुड़े मसलों की रिपोर्ट तैयार करने भारत आया था और संयोगवश उससे दोस्ती हो गई थी. कई लोगों ने किसी भी मदद से साफ़ मना कर दिया था. कुछ ने उस लेखक की तरह दोस्ती भरे लम्बे-लम्बे खत तो भेजे पर मदद की बात बिल्कुल नहीं की थी.
     
विली के पिता ने शांत रहने की बड़ी कोशिश की, लेकिन सफल नहीं हो सके. वे पत्नी से कहने लगे (हालाँकि उनका सिद्धांत था कि अपनी समस्याएँ अपने तक ही रखते थे), ‘‘जब वे यहाँ आए तो मैंने उनके लिए बहुत कुछ किया था. उन्हें आश्रम में ठहराया, यहाँ तक कि सबको उनसे परिचित कराया.’’

उन्होंने भी तुम्हारे लिए काफ़ी कुछ किया था. उन्होंने तुम्हें जीविका दी, इससे तुम इन्कार नहीं कर सकते.’’ पत्नी ने कहा.
     
‘‘अब मैं कभी इसके सामने ऐसे मामले नहीं खोलूँगा. मैंने अपना नियम तोड़कर ग़लत किया. वह एकदम बेशरम बैकवर्डजो ठहरी. मेरा नमक खाकर मेरा ही अपमान करने वाली.’’
     
वह इस बात को लेकर परेशान थे कि विली को क्या बताएँ. हालाँकि वह उसकी कमजोरी समझ गए थे, इसलिए उन्हें खुद के अपमान की चिन्ता नहीं थी. पर वह उसका दुःख नहीं बढ़ाना चाहते थे. उन्हें याद था, जब वह औंधे मुँह बेबस पड़ा लेटा था, उसके बगल में स्कूल के दिनों वाली द विकर ऑफ वेकफ़ील्डकी बेजान-सी कॉपी पड़ी थी और उसके क्रॉस की अवस्था में बने दोनों पैर अपनी माँ की तरह गंदे थे.
     
लेकिन उनका सारा अपमान और निराशा ख़त्म हो गई जब लंदन के हाउस ऑफ लॉर्ड्स से नीले लिफ़ाफ़े में बंद एक पत्र आया, जो दीखने में बड़ा रोबीला एवं राजकीय था और उस पर इसी से मेल खाती बड़ी खूबसूरत लिखावट भी थी. यह पत्र उस बेहद चर्चित व्यक्ति का था जिसने स्वाधीनता के तुरन्त बाद आश्रम की यात्रा की थी. प्रसिद्ध होने के कारण वह विली के पिताजी को याद रह गया था. विली के पिता को वह पत्र देखकर ख़ुशी हुई थी. उसमें विली के लिए एक छात्रवृत्ति और लंदन में आगे की पढ़ाई का आमंत्रण था जिसके बारे में छोटे-मोटे लोग सपने बुना करते हैं.
     
इस तरह बीस वर्ष की उम्र में विली लंदन आ गया, जो कभी मिशन-स्कूल का विद्यार्थी था, तब न तो उसकी पढ़ाई ही पूरी हुई थी और न उसे आगे का कुछ पता था. अब तक ज्ञान के नाम पर उसके पास बहुत कुछ नहीं था. बाहरी दुनिया के बारे में थोड़ा-बहुत उसने मिशन स्कूल में तीस या चालीस के दशक की हॉलीवुड की फिल्में देखकर जाना था.

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वह (लंदन) पानी के जहाज़ में गया था. यात्रा के दौरान उसे हर चीज़ डरावनी लग रही थी. जैसे अपने देश का ऐसा आकार, बंदरगाह की भीड़, वहाँ खड़े सैकड़ों जहाज़ और उस पर सवार आत्मविश्वास से लबरेज़ मुसाफ़िर. ये सब देख उसकी बोलती बंद हो गई थी. इस पर शुरू में उसे थोड़ी चिन्ता ज़रूर हुई लेकिन बाद में लगा कि यही ख़ामोशी बिना किसी भेद-भाव के उसे ताक़त प्रदान कर रही थी. रास्ते में वह हर चीज़ अनचाहे देखता, सुनता आया था. बाद में इन सबको उसने ऐसे याद किया जैसे बीमार होने के बाद कोई शुरुआती घटनाओं पर सोचता है. जहाज़ के पहले बड़े और घुमावदार मोड़ तक की सारी चीज़ें उसे पूरी तरह याद थीं.
     
वह सोचता था लंदन बेहद ख़ूबसूरत शहर होगा. ख़ूबसूरती से उसका मतलब परियों के लोक जैसी शानो-शौकत और चकाचौंध से था. लेकिन लंदन पहुँचकर वहाँ की सड़कों की खस्ता हालत देख उसे बेहद निराशा हुई. पता नहीं वह क्या देखना चाहता था. भूमिगत स्टेशनों से उठाकर लाई गई निर्देशिकाओं और फ़ोल्डरों ने भी उसकी बहुत सहायता नहीं की. वैसे उनमें स्थानीय पर्यटन स्थलों और प्रसिद्ध स्थानों के बारे में ठीक से बताया गया था, जिनके द्वारा विली को लंदन के बारे में थोड़ा और जानने को मिला.
     
शहर में वह केवल दो स्थानों बंकिघम पैलेसऔर स्पीकर कॉर्नरके बारे में जानता था. बंकिघम पैलेस से उसे गहरी निराशा हुई. उसका विचार था कि अपने यहाँ के महलों की तरह महाराजा का महल विशाल होगा, लेकिन अब मन-ही-मन राजा और रानी उसे ढोंगी जान पड़े. उसे यह शहर बनावटी लग रहा था. स्पीकर कॉर्नरदेखकर वह निराश ही नहीं, शर्म से पानी हो गया. मिशन स्कूल में सामान्य-ज्ञान की कक्षा में उसने उसके बारे में सुना था और सत्र समाप्ति पर होनेवाली परीक्षाओं में कई बार इस पर काफ़ी लिखा भी था.
     
अपनी माँ के फ़ायरब्राण्डचाचा की तरह उसे भी यहाँ बेहद विद्रोही और शोर शराबे वाली भीड़ का अनुमान था. उसे बड़ी-बड़ी बसों और कारों में हर समय उदासीन भाव लिए एक-दूसरे से बात करते हुए सफ़र करते लोगों को देख विश्वास नहीं होता था. उनमें कुछ बेहद धार्मिक विचारों के लगते. अपने घरेलू जीवन को याद करते हुए विली सोच रहा था कि इन लोगों के घरवाले दिन में कितने सुखी रहते होंगे जब ये घर से बाहर होते हैं.
     
ये निराश करने वाले दृश्य देखना छोड़कर वह बेसवाटर रोड से लगे रास्तों पर चलने लगा. बिना किसी ओर देखे वह घर की हालत और अपने बारे में सोचते हुए बढ़ा जा रहा था तभी किसी को देखकर ठिठका. रास्ते में लकड़ी के सहारे एक आदमी टहल रहा था. विली ने देखा, अरे, ये तो कहीं वो तो... अनुमान से परे इतने बड़े आदमी को अचानक सामने देखकर विली की इन्द्रियाँ जाग उठीं. वह उन्हें ऐसे निहार रहा था जैसे आश्रम में आने वाले लोग पिताजी पर नज़र टिकाए रहते थे. उन्हें पाकर वह अपने में कुलीनता.बोध का अनुभव कर रहा था.
     
वह लम्बा छरहरा-सा एक आदमी था और बेहद स्याह रंग का डबल ब्रेस्ट सूट पहने था, जिसमें उनका छरहरापन और भी निखर रहा था. अपने घुँघराले बालों को उन्होंने पीछे की ओर सहेज रखा था. उनके पतले चेहरे पर बाज़-जैसी नाक थी. उनकी क़द-काठी, चेहरे की बारीकी विली द्वारा देखे गए उस फ़ोटो से हू-ब-हू मिल रही थी. यह नेहरू जी के क़रीबी मित्र कृष्ण मेनन थे जो भारत में अन्तर्राष्ट्रीय फोरम के प्रवक्ता थे. वह सिर झुकाए कुछ सोचते हुए आगे बढ़ रहे थे. जब उन्होंने चेहरा ऊपर किया और विली से नजरें मिली तो वे हल्के से मुस्कुरा दिए. ऐसे महान आदमी से विली की मुलाकात यूँ ही हो जाएगी- उसे उम्मीद नहीं थी. उनके बीच कुछ बात होती इससे पहले वे एक-दूसरे को काटते हुए जा चुके थे. विली  कृष्ण मेनन को जाते देखता रह गया था.

दो-तीन दिन बाद कॉलेज के कॉमन रूम में विली ने एक अख़बार में कृष्ण मेनन की वही तस्वीर छपी देखी, जिसमें वे न्यूयॉर्क और संयुक्त राष्ट्र से आने के बाद लंदन में टहल रहे थे. वे क्लेरिज़ होटल में ठहरे थे. विली ने मानचित्र और निर्देशिकाओं को ध्यान से देखा. उसे पता चला था कि कृष्ण मेनन दोपहर बाद अक्सर होटल से पार्क तक टहलते थे. इस दौरान वे अपने आगामी भाषण पर विचार करते थे. उनके भाषण ब्रिटेन, फ्रांस आदि देशों द्वारा मिस्र पर हुए हमले को लेकर होते थे.
     
विली को इन हमलों की कोई जानकारी नहीं थी. ये हमले अक्सर स्वेज़ नहर के राष्ट्रीयकरण की वजह से थे. स्वेज़ के बारे में उसने मिशन-स्कूल के भूगोल में पढ़ा था, पर इस बारे में वह ज़्यादा कुछ नहीं जानता था. उसने स्वेजनामक एक हॉलीवुड फ़िल्म भी देखी थी. लेकिन अब उसे साफ़ तौर पर कुछ याद नहीं था. फिर इस बारे में कोई राय बनाकर उसे, उसके परिवार या उसके शहर को कोई लाभ भी नहीं होने वाला था. ना ही नहर और मिस्र का इतिहास ही उसे कुछ देता. वह मिस्र के एक नेता कर्नल नासेर को ज़रूर जानता था, उसके बारे में भी कृष्ण मेनन के विषय में पता करते हुए जानकारी मिली थी. वह कृष्ण मेनन के बारे में ज़्यादा नहीं जानता था लेकिन उसकी महानता का लोहा मानता था. घर में भी वह चलताऊ ढंग से अख़बार पढ़ता था. ख़ासकर संयुक्तराष्ट्र के चुनाव और युद्ध सम्बन्धी बातों से तो वह दूर ही रहता. किसी हल्की-फुल्की पुस्तक या फिल्म की तरह अख़बारों में कभी-कभार ही कुछ ध्यान देने लायक़ होता था. इस प्रकार जहाज़ पर चढ़ने के बाद विली बिना देखे देखने और बिना ध्यान दिए सुनने लगा था. जिस तरह घर पर सालों से वह अखबार उलटता-पलटता था. सुर्ख़ियाँ पढ़ते समय बड़े नामों को देख भर लेता.
     
लेकिन कृष्ण मेनन को देखने के बाद उसे अहसास हुआ कि वह दुनिया के बारे में कितना कम जानता था. नहीं देखने की यह आदत मैंने अपने पिता से सीखी थी,’ वह बुदबुदाया. अब वह अख़ब़ारों में मिस्र से सम्बन्धित ख़बरें पढ़ने लगा था लेकिन थोड़ी-बहुत पृष्ठभूमि के अलावा वह ज़्यादा कुछ समझ नहीं पाया. अख़बारों में तो सीरियल की तरह ख़बरें दी जाती थीं, सबकुछ जानने के लिए शुरुआती घटना समझना ज़रूरी था. इसलिए उसने इस बारे में कॉलेज लाइब्रेरी में पढ़ना शुरू किया, लेकिन ठीक से समझ पाने का कोई भी तरीक़ा उसे नहीं मिला क्योंकि चीज़ें तेजी से घटती रही थीं. वह आगे पढ़ता गया लेकिन उसे अपने ज्ञान में कोई खास बढ़ोतरी महसूस नहीं हुई. फिर उसने युद्धकालीन इतिहास की एक किताब खोली पर वह भी उसके पल्ले नहीं पड़ी. पाठक को चर्चित घटनाओं की पहले से जानकारी होनी चाहिए तभी वह आगे की बात समझ पाएगा. विली को लगा वह अज्ञानता में गोते खा रहा है और अपने समय के ज्ञान के अभाव में ही जिए जा रहा है. उसे अपनी माँ के चाचा की याद आई जो अक्सर कहा करते थे- पिछड़ों को लम्बे समय से समाज के बाहर रखा गया है. इसीलिए उन्हें भारत के बारे में, दूसरों धर्मों और यहाँ तक कि अपनी ही जाति के लोगों की विशेषताओं के बारे में पता नहीं होता. दूसरे, उन्हें कभी से गुलाम बनाकर रखा गया है.तब उसे जान पड़ा कि उसे यह रिक्तता माँ की ओर से मिली थी.
     
पिताजी ने विली को मिलने के लिए कुछ लोगों के नाम सुझाए थे. उसने इस ओर कोई पहल नहीं थी. वह लंदन में पिताजी की नज़रों से दूर रहकर, अपने ही तरीक़े से चलना चाहता था. लेकिन कॉलेज में उन बड़े नामों को लेकर उसने थोड़ी-बहुत शेख़ी ज़रूर बघारी. कौन कितना बड़ा नाम है, इसके लिए वह बड़ी मासूमियत से बातचीत के दौरान उन लोगों के नाम लेता और प्रतिक्रिया पाने के बाद, धीरे-धीरे उन्हें हटा देता. इससे दुनिया के प्रति उसका नज़रिया और विकसित हुआ. अब उसने एक पत्र अपने नाम वाले उन्हीं लेखक को लिखा और दूसरा एक बड़े पत्रकार को, जिनके बारे में एक अख़बार में पढ़ा था. पत्रकार का जवाब पहले आया,

‘‘प्रिय चंद्रन, मैं तुम्हारे पिताजी को अच्छी तरह जानता हूँ. मेरा पसंदीदा बाबू ....’’ 
बाबूशब्द उनके लिए ठीक नहीं था, इसके बजाय साधू या तपस्वी अच्छा होता. खैर, विली ने इसका ज्यादा नोटिस नहीं लिया. पत्र काफ़ी सौहार्दपूर्ण था जिसमें विली को अखबार के दफ़्तर में आने को कहा गया था.
     
इसके कोई एक सप्ताह बाद विली फ़्लीट.स्ट्रीट गया. उस दिन काफ़ी तेज़ धूप खिली थी लेकिन जैसा कि कहते हैं, लंदन में बारिश कभी भी हो सकती है, अतः उसने एक पतला-सा पुराना ओवरकोट पहन लिया था. थोड़ी देर बाद वह अखबार की उस काली-सी विशाल इमारत में पहुँच गया. वहाँ जाकर पसीने से भीगा ओवरकोट उतारने पर ऐसा लगा मानो वह बूंदा-बांदी के बीच से आया था, उसकी जैकेट का कॉलर भी भीगा हुआ था. उसने गेटकीपर से अपना नाम भिजवाया. कुछ देर में गहरे रंग का सूट पहने अधेड़-सा एक पत्रकार नीचे आया. वे लॉबी में ही खड़े होकर बतियाने लगे. हालाँकि बातचीत में कुछ खास नहीं था. पत्रकार महोदय ने बाबूके बारे में पूछा. तब भी विली ने उसे नहीं सुधारा. फिर अखबार को लेकर बातचीत हुई, विली समझ गया कि यह अखबार भारत की स्वाधीनता के खिलाफ था. उसे भारत के प्रति मैत्री भाव तक पसन्द नहीं था. स्वयं उस पत्रकार ने भी भारत-यात्रा के बाद देश पर कुछ अप्रिय टिप्पणियाँ की थीं.

दरअसल यह अखबार बीवरब्रुक का है. जो भारतीयों को समय नहीं देता. एकाध मामलों में वह चर्चिल का फैन है.पत्रकार ने बताया.
‘‘यह बीवरब्रुक कौन है ?’’
पत्रकार ने बेहद धीमी आवाज में कहा- ‘‘हमारा मालिक (Proprietor)’’.
उसे अचम्भा हुआ कि विली यह भी नहीं जानता था. इधर विली सोच रहा था- ‘‘अच्छा है, मैं उसे नहीं जानता, ना ही उससे प्रभावित हुआ.’’
     
तभी किसी ने मुख्य दरवाज़े से प्रवेश किया, जो विली के पीछे था. पत्रकार ने उनकी ओर देखते हुए श्रद्धा से कहा- ‘‘वह हमारे संपादक महोदय हैं.’’
     
गहरे रंग का गुलाबी सूट पहने एक अधेड़ लॉबी से जाता हुआ दिखा. ‘‘उसका नाम ऑर्थर क्रिश्चियन्सन है. वह दुनिया के बेहतरीन संपादकों में से एक है.’’ उस ओर एकटक देखते हुए पत्रकार बोला. फिर मानो खुद से ही बतियाने लगा- ‘’यहाँ तक आने में बहुत-कुछ लग जाता है.’’
     
फिर मूड बदलते हुए उसने मजाक में कहा- ‘‘तुम उससे नौकरी माँगने तो नहीं आए हो!’’
विली ने हँसी रोकते हुए कहा- ‘‘मैं स्टूडेन्ट हूँ. यहाँ छात्रवृत्ति पर आया हूँ. मैं यहाँ नौकरी तलाश करने नहीं आया.’’
‘‘कहाँ ?’’
विली ने कॉलेज का नाम बताया. पत्रकार उसे जानता नहीं था पर विली को लगा उसका अपमान किया जा रहा है.
‘मैं वास्तव में एक शानदार कॉलेज में हूँ.
“क्या तुम दमैल हो ?’’ उसने फिर मज़ाक़ किया था. “मैंने इसलिए पूछा क्योंकि हमारा मालिक भी दमे का मरीज है और ऐसे लोगों के प्रति बहुत अच्छा बर्ताव करता है. तब अगर तुम नौकरी के लिए आते तो काफी रियायत मिलती.’’
     
इसके बाद वह लौट आया. उसे अपने पिताजी पर बड़ी शर्म आ रही थी. इसने अपने लेख में जरूर उनका मजाक बनाया होगा. उसे खुद पर भी शर्म आई क्योंकि उसने पिता के बताए मित्रों के पास नहीं जाने का निर्णय लिया था, फिर भी उनके पास चला गया.

कुछ दिनों बाद उन्हीं लेखक का पत्र आया जिनके नाम पर विली का नाम था. वह क्लैरिज़ होटल का एक छोटा-सा लैटरपैड था. वही क्लैरिज, जहाँ कृष्ण मेनन रहे थे और संयुक्त राष्ट्र के अपने भाषण पर विचारमग्न पार्क में टहलने जा रहे थे.
पत्र पर्याप्त हाशिया लिए काफी साफ-सुथरा और डबल-स्पेस में टाइप किया हुआ था.
“प्रिय विली चंद्रन, तुम्हारा पत्र पाकर अच्छा लगा. मेरे पास भारत की अच्छी-अच्छी यादें हैं. अपने भारतीय मित्रों से भी मैं उन्हें बाँटता रहता हूँ.तुम्हारा .......’’

इसके बाद काँपती लिखावट में हस्ताक्षर बने हुए थे.

अब विली सोच रहा था- ‘‘मैंने पिताजी को कितना ग़लत समझा. मुझे लगता था एक ब्राह्मण होने के कारण उनका जीवन बेहद आसान था, निकम्मेपन ने उन्हें बेकार बना दिया था. अब समझ में आया है कि यह दुनिया उनके लिए भी कितनी दुश्वार थी.’’
     
कॉलेज में विली संभ्रम में पड़ा रहता. जो पाठ दिया जाता, वह उसे बेस्वाद भोजन की तरह लगता. दिमाग़ में सब गड्ड-मड्ड बना रहता. इसीलिए अध्यापक, ट्यूटर आदि द्वारा जो भी लेख या निबन्ध बताया जाता, या फिर किताबें पढ़ने को कही जातीं, वह सुन्न-सा करता रहता. वह इतना अस्थिर चित्त था कि उसे अपने आगे-पीछे की कोई जानकारी नहीं थी. उसे चीजों के पैमाने, ऐतिहासिक समय अथवा दूरी का कोई आइडिया नहीं था.

यहाँ तक कि बंकिघम पैलेस देखने तक उसका यही विश्वास बना हुआ था कि वहाँ के राजा-रानी ढोंगी थे और वह देश नकली.
     
लेकिन कॉलेज में आकर उसे कायदे से हर चीज दुबारा सीखनी पड़ी, जैसे- समूह में खाना कैसे खाया जाता है, लोगों का कैसे अभिवादन करते हैं और किस तरह उनका अभिवादन स्वीकार किया जाता है. और एक बार अभिवादन के दस या पंद्रह मिनट बाद ही पुनः अभिवादन नहीं करते आदि सब चीजें उसने दुबारा सीखीं. इनके अलावा आते-जाते हुए दरवाजा किस तरह बंद किया जाता है अथवा बिना विवादित हुए बयान कैसे दिया जाता है.

वह कॉलेज एक अर्द्ध-धर्मार्थ विक्टोरियन फाउण्डेशन का था और ऑक्सफोर्ड एवं कैम्ब्रिज़ के मॉडल पर बना हुआ था. वहाँ के विद्यार्थी यही कहते थे. इसी कारण वहाँ कई तरह की परम्पराएँ थी जिन पर वहाँ के लोग गर्व तो करते थे लेकिन पूछने पर समझा नहीं पाते थे. वहाँ यूनिफार्म, भोजन-कक्ष में आपसी व्यवहार जैसे सामान्य नियम तो थे ही, कुछ अनोखे नियम भी थे- जैसे दुर्व्यवहार होने पर दण्डस्वरूप बीयर पिलाई जाती थी. औपचारिक अवसरों पर सबका काला चोगा पहनना जरूरी था. विली द्वारा पूछने पर एक अध्यापक ने बताया कि ऑक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज़ में भी ऐसा ही होता है. यह चोगा प्राचीन रोमनों से अपनाया गया था.

विली ने अभिभूत होने के बजाय मिशन स्कूल के दिनों की तरह इस पर कॉलेज स्थित लाइब्रेरी में खोजना शुरू किया. तब उसे पता चला, प्राचीन विश्व की चोगाधारी मूर्तियों के अतिरिक्त किसी और को इसे पहनने की इसकी इजाजत नहीं थी, फिर रोमनों ने इन्हें कैसे पहन लिया.
     
शिक्षार्थियों द्वारा पहनने वाला चोगा शायद हज़ारों वर्ष पूर्व इस्लाम धर्म के मदरसों से लिया गया था. हालाँकि इसका भी कोई पक्का सबूत नहीं था.

ये नियम विली के लिए तो नए थे, पर वास्तव में ये चर्च-जैसी कॉलेज की पुरानी इमारत से भी पहले के बने हुए लगते थे. इनसे विली को घर और यहाँ में तुलना करने का एक नजरिया प्राप्त हुआ था.
     
एक बात और हुई, शुरुआत में जो नियम बड़े आत्मरोपित और कठिन लगते थे, दूसरा सत्र ख़त्म होते-होते उनका कोई मूल्य नहीं रहा था.
     
इधर विली की माँ के फ़ायरब्राण्डचाचा द्वारा पिछड़ों की समानता का सालों से चल रहा आंदोलन जारी था. विली भी उनके पक्ष में था. किन्तु उसे ये सब कहने की चीज़ें लगी, वास्तव में कुछ दिख नहीं रहा था. कॉलेज में या बाहर किसी ने उसे नियमों के लिए नहीं टोका. उसे लगा कि वह अपनी इच्छानुसार जीने को स्वतन्त्र था.
     
वह चाहता तो अपनी निजी स्वतन्त्रता पर लिखते हुए, अपने अतीत और पूर्वजों की कारणों सहित पड़ताल कर सकता था.
     
वह अपने पारिवारिक मित्र रहे चर्चित लेखक और पत्रकार बीवरब्रुक दोनों के साथ एकांगी रूप से हुए परिचय की शेख़ी बघारने लगा था. पर उसके पास अभिभूत कर देने वाली चीज़ें नहीं थी. वह एक बिन्दु इधर से उठाता तो दूसरा कहीं और से. जैसे ट्रेड यूनियन की खबरें अखबारों से ले लेता.
     
एक दिन उसे याद आया कि माँ का फ़ायरब्राण्डचाचा कभी-कभी पब्लिक मीटिंग में जाते समय लाल रंग का स्कार्फ़ बाँधता था. इसे वह पिछड़ों के प्रसिद्ध क्रांतिकारी नेता और नास्तिक कवि भारतीदर्शन की देखा-देखी करता था. फ़ायरब्राण्डएक यूनियन लीडर था- मजदूर अधिकारों का अगुआ. उसने अपने ट्यूटोरियल तक में लोगों की पीड़ा और बातचीत के बिन्दुओं को शामिल कर रखा था.
     
विली को लगता था कि मिशन-स्कूल में पढ़कर उसकी माँ लगभग आधी क्रिश्चियन हो गई थी. उसके सामने वह खुद को पूर्ण क्रिश्चियन मानता था. उसे मिशन-स्कूल रूपी धब्बे को धोने और नंगे पैर रहने वाले बेचारे पिछड़ों में खुशी पैदा करने का विचार त्याग कर पढ़ाई के कारण कुछ ख़ास तरह की चीज़ें स्वीकार करनी पड़ी थी (क्योंकि कॉलेज दक्षिण अफ्रीका स्थित न्यासलैण्ड के एक क्रिश्चियन मिशन का समर्थक था, कॉमन रूम में उनकी पत्रिका भी आती थीं). वह अपनी माँ को महाद्वीप के प्रारम्भिक इसाई समुदाय से जोड़ता जो ईसाईयत जितना ही पुराना था. अपने पिताजी को उसने ब्राह्मणही माना पर दादाजी को दरबारीसंबोधन दिया. यूँ शब्दों से खेलकर उसने खुद की पुनः पड़ताल की थी. इससे उसे बड़ी ताकत महसूस हुई.
तुम व्यवस्थित हो गए लगते हो.उसके ट्यूटर ने कहा था.
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सका उत्साह अब लोगों को आकर्षित करने लगा था. उनमें एक का नाम पर्सी काटो था. जमैकियन माता-पिता की संकर संतान पर्सी साँवले रंग का था. विली और पर्सी दोनों बाहर के थे और छात्रवृत्ति पर वहाँ गए थे. शुरुआत में दोनों एक-दूसरे से संशकित रहते, पर धीरे-धीरे उनमें दोस्ती हो गई. अब वे घर-परिवार तक की बातें करने लगे थे. अपने पूर्वजों के बारे में बताते हुए पर्सी ने बताया- “शायद मेरी दादी भारतीय हैं.’’ सुनकर विली को बड़ी टीस हुई. उसने सोचा वह भी उनकी माँ जैसी ही होगी. अपने घुँघराले बालों में हाथ फिराते हुए पर्सी बोला- नीग्रो असल में अप्रभावी रहता है.विली उसका आशय समझ नहीं सका. वह समझा पर्सी अपने पैदा होने की कहानी बता रहा था. वह जमैका का था पर पूरी तरह जमैकी नहीं था. उसका जन्म पनामा में हुआ और वहीं वह बड़ा भी हुआ. 



’‘इंग्लैंड में तुमसे भेंट करने वाला मैं अकेला काला, जमैकी या वेस्ट इंडियन हूँ जो क्रिकेट के बारे में कुछ नहीं जानता.’’ उसने बताया.
’‘तुम पनामा कैसे पहुँचे ?’’ विली ने पूछा.
‘’मेरे पिताजी पनामा नहर में काम करने वहाँ गए थे.’’
’‘वह भी स्वेज़ नहर जैसी होगी, जो अभी तक ख़बरों में है.’’
‘’यह प्रथम युद्ध से पहले की बात है.’’
विली ने मिशन स्कूल की तरह कॉलेज लाइब्रेरी में पनामा की भी खोज की थी. उसे धूल भरे फटे-पुराने विश्वकोशों में युद्ध पूर्व के कुछ चित्र मिले जिनमें विशाल निर्माण कार्य होता हुआ दिखाई दे रहा था. सूखे बाँधों पर संभवतः काले जमैकी मजदूरों की भीड़ लगी थी. शायद उन्हीं में कोई पर्सी का पिता रहा होगा.
     
’‘पनामा नहर पर तुम्हारे पिताजी क्या काम करते थे ?’’ कॉमन रूम में उसने पर्सी से पूछा.
’‘वह क्लर्क थे, तुम्हें पता ही है वहाँ के लोग बिल्कुल अनपढ़ हैं.’’
विली को विश्वास नहीं हुआ- “यह झूठ बोलकर मुझे मूर्ख बना रहा है. इसके पिता वहाँ मजदूरों के उसी झुण्ड में होंगे और ज़मीन खोदने से पहले गैंती उठाए कृतज्ञ भाव से फोटोग्राफ़र को देख रहे होंगे.’’विली के लिए ऐसे आदमी से निपटना काफी उलझन भरा था, जो ना तो उपयुक्त जगह पैदा हुआ तथा नीग्रो और ग़ैर-नीग्रो दोनों गुण लिए था. एक नीग्रो के रूप में पर्सी विली के साथ छात्रवृत्ति उठा रहा था तो ग़ैर-नीग्रों के रूप में वह उससे एक दूरी बनाए रखता था. विली के मन में पर्सी के पिता की एक तस्वीर बन गई थी- पनामा में एक सैनिक की तरह हाथों में गैंती की मूठ पकड़े कड़ी धूप में खड़े हुए. उसने सोचा वह पर्सी के बारे में थोड़ा और जान गया था.
     
अपने बारे में पर्सी को बताते समय विली बेहद सचेत रहता ताकि भविष्य में कोई परेशानी न हो. वह पर्सी के अपने से ऊपर समझता, और उसे एक शहरी व्यक्तित्व के रूप गिनता था, पर्सी लंदन और पश्चिमी जीवन शैली का अच्छा जानकार था, सो विली ने उसे शहर में अपना गाइड बनने को राजी कर लिया.
     
पर्सी को कपड़े बहुत पसंद थे. वह हमेशा सूट पर टाई बाँधे रहता. उसकी कॉलर हमेशा साफ-सुथरी, कलफदार और तनी हुई होती. उसके जूते भी बढ़िया पॉलिश किए और नए होते. वह कपड़ों की कटाई-सिलाई का भी अच्छा जानकर था. वह औरों से भी इन्हें लेकर बात करता रहता. कपड़े उसके व्यक्तित्व का सूचक थे. वह उन लोगों का आदर करता जो कपड़ों का आदर करते.
     
विली इस मामले में बिल्कुल कोरा था. उसके पास सफेद रंग की पाँच कमीजें थी. पर कई-कई दिन में कॉलेज लॉण्ड्री जाने के कारण वह एक ही कमीज दो-तीन दिन चलाता. वह लाल रंग की सूती टाई भी बाँधता था, जिसे उसने छः शिलिंग में लिया था. हर तीसरे महीने उसे टाई बदलनी पड़ती क्योंकि पुरानी वाली बुरी तरह गंदी और  नॉट बाँधने से ऐंठ चुकी होती. उसके पास एक हरे रंग की पतली सी जैकेट भी थी, जो उसे फिट नहीं आती थी, इसे उसने तट पर लगी फिफ्टी शिलिंग टेलर्सकी सेल से तीन पाउण्ड में लिया था. उसे अपने कपड़े बहुत बुरे नहीं लगते. पर पर्सी की रुचियों पर उसे आश्चर्य होता था. कपड़े, उनका रंग आदि पर बात करना उसे औरतों का काम लगता था. 
     
दरअसल उसकी यह सोच अपनी माँ के रंग-बिरंगे कपड़ों को देखकर बनी थी. वह इन चीज़ों को ग़लत और ज़नाना मानता था. पर जब उसने कपड़ों, जूतों आदि पर पर्सी के आकर्षण का कारण समझा तो अपनी ग़लती का अहसास हुआ.
एक दिन पर्सी बोला- “इस शनिवार मेरी गर्लफ्रेण्ड आ रही है.’’
वीकेण्ड पर लड़कियों को लड़कों के कमरों में आने की छूट थी.
‘‘पता नहीं विली तुम्हें इसकी जानकारी है कि नहीं, वीकेण्ड में कॉलेज संभोग की ऐशगाह बन जाता है.’’
यह सुनकर विली को बेहद उत्तेजना महसूस हुई, साथ ही पर्सी के ऐसी बात को इतना आराम से कह देने पर ईर्ष्या भी.
’‘मैं तुम्हारी गर्लफ्रेण्ड से मिल सकता हूँ.’’
’‘ठीक है, शनिवार को हमारे साथ रह कर ड्रिंक का मजा भी लेना.’’विली को शनिवार बहुत दूर लगने लगा था.
“उसका नाम क्या है ?’’ कुछ देर बाद उसने पूछा. ’‘जुने,’’ पर्सी ने चकित होते हुए बताया. सुनकर विली को बड़ी ठंडक मिली थी. थोड़ी देर बाद उसने अचानक फिर पूछा, ’ ’‘जुने क्या करती है ?’’
’‘वह डेबन्हाम्स में एक परफ्युम काउन्टर पर काम करती है.’’
परफ्यूम काउन्टर, डेबन्हाम्स; इन शब्दों ने उसे मदोन्मत्त कर दिया था. पर्सी भी इसे समझ रहा था, उसने आगे कहा- “ऑक्सफोर्ड स्ट्रीट पर डेबन्हाम्स का विशाल स्टोर है.’’
“तुम उससे कहाँ मिले थे ?’’ उसने फिर पूछा.
“हमारी मुलाक़ात हुई एक क्लब में हुई थी.’’
‘‘क्लब में.’’
‘‘हाँ, शराब पीने की जगह, जहाँ मैं काम करता था.’’
’‘अच्छा, अच्छा!’’ विली को झटका-सा लगा लेकिन उसने ज़ाहिर नहीं होने दिया.
‘‘पहले मैं वहीं काम करता था. मेरे एक मित्र ने वह काम दिलवाया था. चाहो तो तुम्हें भी वहाँ ले जा सकता हूँ.’’
वे भूमिगत रास्ते से मार्बल आर्क( हाइडे पार्क, लंदन स्थित एक जगह - अनुवादक)आए. वहीं, जहाँ कई महीने पहले विली स्पीकर्स कॉर्नरदेखने आया था और अचानक कृष्ण मेनन दीख गए थे. एक विशाल होटल के पीछे गली से गुज़र कर वे ऑक्सफोर्ड स्ट्रीट पहुँचे. यह विली के दिमाग़ में रचे-बसे लंदन से कोई और ही लंदन लग रहा था. पर्सी उसे एक सँकरे गलियारे से ऑक्सफोर्ड स्ट्रीट के उत्तर में ले  आया. एक उढ़के दरवाजे पर लगा छोटा-सा साइनबोर्ड क्लब की ओर इशारा कर रहा था. इसकी लॉबी में अंधेरा पसरा था. काउण्टर पर एक काला-सा आदमी बैठा था, पास ही भूरे बालों, पाउडर पुते सफ़ेद चेहरे और पीली ड्रेस पहने स्टूल पर एक स्त्री बैठी दिखाई पड़ी. दोनों ने पर्सी का स्वागत किया. उसे देख विली में हलचल मच गई थी, जो उसके बहुत कम बचे हुए सौन्दर्य और उम्र से बड़ी दिखने के कारण नहीं, बल्कि उसके रूखे और फूहड़ दिखावे तथा इतनी तैयारी करके आने और चरित्रहीन की तरह देर तक वहाँ रहने के कारण हुई थी. उन दोनों में कोई नहीं पीता था लेकिन पर्सी ने दो पैग व्हिस्की का आदेश दिया और वे बैठकर बतियाने लगे. उसने बताया - मैं सामने दिखाई दे रहे उस कमरे में था. सीधों के लिए सीधा और टेढ़ों के साथ टेढ़ा होकर पेश आता. लंदन-जैसी जगह आदमी को हर चीज़ सिखा देती है. मैंने यहाँ सबकुछ किया. एक बार मैंने अपने एक दोस्त से कोई छोटा-मोटा बिजनेस करने की बात कही. उसे इसका बुरा लगा. मैंने सोचा, दोस्ती बचाए रखने के लिए यह कहना छोड़ देना चाहिए. वह एक ख़तरनाक आदमी है. कभी मिलाऊँगा.विली ने आगे जोड़ा- ‘‘तभी एक दिन डेबन्हाम्स के परफ़्यूम काउंटर से जुने यहाँ आयी.
     
‘‘हाँ, यहाँ से थोड़ी ही दूर पर है. पैदल....’’
विली न तो यह जानता था कि जुने कैसी थी, न उसे डेबन्हाम्स का पता था, फिर भी दिमाग़ी तौर पर वह डेबन्हाम्स से क्लब के कई चक्कर लगा चुका था.
     
शनिवार को वह पर्सी के कमरे में आयी. वह काफी सयानी लग रही थी. उसने कसी हुई स्कर्ट पहन रखी थी, जिसमें उसके कूल्हे उभरे दिखाई दे रहे थे. छोटा-सा कमरा उसके परफ़्यूम की ख़ुशबू से भर गया था. डेबन्हाम्स में इसके काउन्टर पर बहुत सारे परफ़्यूम रखे होंगे, जिन्हें यह खूब उड़ेला करती होगीविली सोच रहा था. विली को इन खुशबुओं की तनिक भी पहचान नहीं थी, ना ही इनके स्रोतों की.

वे कॉलेज सोफे पर बैठे थे और विली अपने को जुने के मुक़ाबले काफी समेटे हुए बैठा था. जुने ख़ुद को खूब सँवारे हुए थी. परफ़्यूम लगाए और कतरी हुई भौंहें लिए वह अपनी चिकनी रोमिल टाँगों को फैलाए बैठी थी.
     
पर्सी ने भी इसे नोट किया था लेकिन वह कुछ बोला नहीं. विली ने इसे दोस्ती के नाते ही लिया. उसे जुने भद्र और समझदार जान पड़ी जबकि पर्सी उतावला दीखा. विली उसके सौम्य चेहरे की कोमलता पढ़ रहा था. लेकिन जब उन्होंने उसे जाने को कहा तो वह उदास हो गया. वह सोचने लगा कि उसे भी किसी वेश्या के पास जाना चाहिए. वेश्याओं के बारे में वह कुछ नहीं जानता था. उसे पिकेडिली-सर्कस के आस-पास की उन गलियों की जानकारी जरूर थी, जो इसके लिए मशहूर थीं. लेकिन वह वहाँ कभी जाने का साहस नहीं जुटा पाया.

सोमवार को वह डेबन्हाम्स गया. परफ़्यूम काउण्टरकी लड़कियाँ उसे हैरानी से देख रही थीं. वह भी उन्हें एकटक देखे जा रहा था. वे सब-की-सब पाउडर से पुतीं, बनावटी, अनोखी बरौनियाँ लिए दुकान में टँगे मुर्गों की तरह साफ़ और चिकनी नज़र आ रही थीं. वहाँ तमाम गलियाँ शीशों से जड़ी और कृत्रिम रोशनी से जगमगा रही थीं. विली को लगा वह एक अनोखे लंदन में आ पहुँचा है. वहीं जुने भी दिख गई. वह लम्बी, मोटी, नाजुक और खूबसूरत लग रही थी. उसे देख शनिवार को वह बड़ी मुश्किल से अपने को रोक पाया था. उसकी काली भौंहे, सीपियों-सी मोहक पलकें और मदहोश कर देनेवाली बरौनियाँ क़यामत ढा रही थीं. उसने विली का अभिवादन किया और बड़े अपनेपन से मिली. ज़्यादा कुछ बताए बिना ही वह समझ गई थी कि विली चाहता क्या था ? इधर विली को कहने में बड़ी झिझक हो रही थी.
     
’‘क्या तुम मुझसे मिलना चाह रही थी ?’’ उसके मुँह से निकला.
’‘हाँ, बिल्कुल,’’ वह सहजता से बोली.
‘‘काम के बाद क्या हम आज ही मिल सकते हैं ?’’
‘‘कहाँ!’’
‘‘क्लब में’’
‘‘वहीं पर्सी वाली जगह. लेकिन मालूम है, वहाँ पहले सदस्य बनना ज़रूरी है.’’

दोपहर बाद विली क्लब की सदस्यता मालूम करने गया. उस समय वहाँ स्टूल पर बैठी एक गोरी महिला और एक काले बारमैन के अलावा कोई नहीं था. (उसका काम भी वही था जिसे पहले पर्सी करता था. वह भी सीधों के साथ सीधा और अक्खड़ों के साथ अक्खड़ था). उसने विली से एक फ़ार्म भरवाया और पाँच पाउण्ड ले लिए. उन दिनों विली का कुल खर्च सात पाउण्ड था. बारमैन ने पेन से एक छोटा गोला बनाया, मानो वज़न उठाने से पहले उसे तौल रहा था, फिर पूरे इतमीनान से एक छोटे-से सदस्यता-पत्रक पर विली का नाम लिख दिया.

उसने गली में इधर-उधर ध्यान से देखा और मन ही मन जुने के आने के समय के बारे में सोचता रहा. क्लब में पहुँचते ही विली ने दरवाज़े पर उसका स्वागत किया और दोनों अंदर आ गए. बारमैन और वह स्टूल वाली महिला जुने को पहचान गए थे, इससे विली को ख़ुशी हुई थी. उसने शराब मँगवाई ... पन्द्रह शिलिंग के दो बढ़िया पैग. और अंधियारे कमरे में जाकर उससे बातचीत करने लगा. उसका परफ़्यूम सूँघते हुए वह उसे बार-बार छेड़ रहा था.

वह बोली- ‘‘हम कॉलेज में नहीं जाएँगे, पर्सी को बुरा लगेगा. वहाँ मैं वीकेण्ड में ही आ सकूँगी.’’
कुछ देर बाद उसने कहा- ‘‘हम कहीं और चलें, एक टैक्सी ले लेते हैं.’’
जब उसने ड्राइवर को पता बताया तो उसका मुँह बन गया. टैक्सी मार्बल आर्क, बेसवाटर से होती हुई बढ़ने लगी, आगे जाकर वह उत्तर और जल्द ही एक बेहद ऊबड़-खाबड़ रास्ते पर मुड़ गई. यहाँ बिना रेलिंग के बड़े-बड़े मकान बने हुए थे, खिड़कियों के सामने कूड़ों का अंबार पड़ा था. ऐसे ही एक मकान के आगे उसने गाड़ी रुकवा ली. विली ने टिप समेत पाँच शिलिंग चुकाए.

इस मकान की सीढ़ियों पर रेलिंग नहीं थी, दरवाज़ा टूटा हुआ था, जिस पर जगह-जगह पुराने पेंट की तहें जमी थीं. भीतरी हाल में अंधेरा पसरा था और पुरानी धूल की बू आ रही थी, दीवारों पर गैस के ब्रेकेट बने हुए थे. छत से चिपके वालपेपर काले पड़ गये थे. फ़र्श का लिनोलियम उधड़ चुका था, जिसे थोड़ा बहुत किनारों की ओर से देखा जा सकता था. खिड़कियाँ भद्दी और टूटी हुई थीं, उस तरफ़ की सीढ़ियाँ काफी चौड़ी और पुरानी शैली की थीं लेकिन काठ के जंगले खुरदरे और काले थे. सामने वाली खिड़की भी गंदी और चटखी हुई थी. घर के पीछे थोड़ी जमीन पड़ी थी जिसमें कबाड़ भरा हुआ था.

जुने बोली- “यह कोई नाइट-क्लब तो नहीं है, बस कामचलाऊ जगह है.’’

विली को विश्वास नहीं आया. यहाँ के दरवाजे़ तो बंद थे ही, जैसे-जैसे वे ऊपर चढ़े, सीढ़ियाँ सँकरी होती गईं और दरवाज़े अधखुले. जिनमें विली को बेहद बूढ़ी औरतें दिखाई पड़ीं, उनके चेहरे झुर्रीदार और पीले थे. मार्बल आर्क के इतने पास होने पर भी यह एक दूसरा शहर लग रहा था, मानो कॉलेज में चमकने वाला सूरज कोई और था, जिस तरह डेबन्हाम्स के परफ़्यूम काउण्टर की दुनिया अनोखी थी.

जुने ने एक छोटा-सा कमरा खोला. जिसकी नंगी फर्श पर अख़बार में एक गद्दा लिपटा था. वहीं कुर्सी पर एक तौलिया पड़ा था और ऊपर की तरफ एक बल्ब लटक रहा था. जुने एक-एक कर कपड़े उतारने लगी. विली के लिए यही बहुत था. वह इतना उत्तेजित हो उठा कि उन क्षणों का बहुत कम आनंद ले पाया. थोड़ी ही देर में वह स्खलित हो गया था. जिस काम के लिए वीकेण्ड से इतनी बड़ी योजना बना रहा था, पैसे ख़र्च किए थे, वह यूँ ख़त्म होगा, यह सोच कर विली कुछ कह नहीं पा रहा था.

जुने ने अपनी गुदगुदी बाँह पर उसका सिर रखते हुए कहा, ‘‘मेरा एक दोस्त कहता है कि भारतीयों के साथ अक्सर ऐसा होता है. इसकी वजह अरेन्ज-मैरिज है. वे लोग बेहतर ढंग से कोशिश करने की जरूरत ही नहीं समझते. मेरे पिता के अनुसार उनके पिता अक्सर कहा करते थे- पहले औरत को संतुष्ट करो, फिर अपने बारे में सोचो.मुझे नहीं लगता, तुमने आज तक इस बारे में किसी और से बात की होगी.’’
विली को पहली बार अपने पिता पर तरस आ रहा था

‘‘मुझे एक कोशिश और करने दो, जुने,’’ उसने कहा.
उसने कोशिश की भी, इस बार यह देर तक खिंचा लेकिन जुने के चेहरे पर तृप्ति के भाव नहीं आए. ख़ैर, वह क्षण भी पहले की तरह ही समाप्त हुआ. जुने उठी और कॉरिडोर से सटे टॉयलेट में चली गई. उसने वापस आकर कपड़े पहन लिए थे. अब विली ने उसकी ओर क़तई नहीं देखा. वे चुपचाप सीढ़ियाँ उतरने लगे. एक दरवाज़ा खोलकर एक बुढ़िया ने उन्हें घूरते हुए देखा था. घंटा भर पहले विली को यह बुरा लगा होता, लेकिन अब उसे कोई फर्क नहीं पड़ा. नीचे आते हुए उन्होंने नाटे क़द के एक आदमी को देखा, जिसने चौड़ी पट्टी वाला जमैकियन हैट लगा रखी थी उससे उसका चेहरा छिप गया था. उसकी पतलून- जो आधी जूट की थी, एड़ियों से कसी हुई थी और ऊपर से बैलून जैसी फूली हुई थी. वह काफ़ी देर तक इनकी ओर तकता रहा. वे टूटे-फूटे गलियारों से- जो बड़े ही शांत थे, उनकी बड़ी-बड़ी खिड़कियों पर पर्दे लटक रहे थे- से गुजरते हुए चल पड़े. उस लंदन की ओर जहाँ जगमगाती दुकानें और खूब ट्रैफ़िक था.

आस-पास कोई टैक्सी नहीं थी. जुने यह कहती हुई बस में जा चढ़ी कि इससे वह मार्बल आर्कतक चली जाएगी, वहाँ से क्रिकलवुडके लिए दूसरी बस पकड़ लेगी. विली ने कॉलेज वापसी के लिए दूसरी बस ली थी. रास्ते भर वह जुने के बारे में सोचता रहा कि पता नहीं वह घर जाएगी या फिर कहीं और... उसे पर्सी की भी याद आई और पछतावा होने लगा. लेकिन थोड़ी देर बाद उसने इसे एक तरफ झटक दिया. कुल मिलाकर वह अपने आपसे ख़ुश था. उसका दोपहर बाद का काम काफी अच्छा और मनोरंजक रहा था. अब वह एक बदला हुआ आदमी था. उसने सोचा, पैसों की चिन्ता बाद में करता रहेगा. अगली बार जब पर्सी मिला तो उसने पूछा- ‘‘ जुने के परिवार वाले कैसे लोग हैं ?
     
‘‘पता नहीं, मैं उनसे कभी नहीं मिला. शायद वह उन्हें पसन्द नहीं करती.’’
इसके बाद उसने लाइब्रेरी जाकर पेलिकन पेपरबैक का द फीज़िओलोजी ऑफ सेक्सनिकाला. उसने यह किताब पहले भी देखी थी लेकिन साइंटिफ़िक टाइटलसमझ कर छोड़ दिया था. विश्वयुद्ध के दौर की इस किताब की जिल्दबंदी इतनी मज़बूती से की गई थी कि जंग लगी पिनों के चलते इसके शुरुआती हिस्से की पंक्तियाँ दब गई थीं, जिन्हें वह बड़ी कठिनाई से देख पा रहा था. उसे किताब और उसके सारे पन्नों को घुमा-घुमाकर देखना पड़ा. आख़िरकार उसे अपने काम की चीज़ दिख ही गई. उसमें लिखा था कि एक औसत आदमी अधिक-से-अधिक दस या पंद्रह मिनट तक सेक्स कर सकता था. यह अच्छी ख़बर नहीं थी. इसके बाद की दो-तीन पंक्तियाँ तो और भी बुरी थीं. जैसे एक सेक्स-एथलीटआधा घण्टे बड़े आराम से बना रह सकता है. ऐसी गंभीर पेलिकनपुस्तक में इतनी छिछोरी भाषा की उसे उम्मीद नहीं थी. उसके लिए यह घूँसे की तरह था. उसने उसे बंद करके रख दिया.

अगली बार जब पर्सी दिखा तो उसने पूछा- ‘‘यार पर्सी, तुम्हें सेक्स के बारे में इतना कहाँ से पता चला ?’’

पर्सी ने बताया, ‘‘तुम्हें छोटी लड़कियों से शुरू करना होगा. हमने भी ऐसा ही किया था. तुम किसी छोटी बच्ची से शुरुआत करो. यार, तुम्हें परेशान होने की जरूरत नहीं है. मैं जानता हूँ कि लम्बे-चौड़े परिवारों में क्या-क्या होता है, तुम्हें कुछ नहीं पता. तुम्हारी दिक्कत यह है कि तुम ज़रूरत से ज्यादा पाक-साफ हो. तुम्हें देखते सब हैं लेकिन समझता कोई नहीं.
     
‘‘मुझसे ज़्यादा साफ़-सुथरे तो तुम हो, हमेशा सूट और खूबसूरत शर्ट में रहते हो.
     
‘‘मैं औरतों को परेशान कर देता हूँ. वे मुझसे सहमी रहती हैं. तुम्हें भी यही करना होगा, विली! दरअसल सेक्स एक पशुवत व्यवहार है, इसके लिए तुम्हें भी वैसा ही होना पड़ेगा.’’
‘‘क्या जुने भी तुमसे डरती है ?’’
‘‘बुरी तरह! उसी से पूछ लेना.’’
विली ने एक पल सोचा कि अपने बारे में बता दे, लेकिन उसे सही शब्द नहीं मिल रहे थे. तभी उसे एक पुरानी फ़िल्म का जुमला याद आया- ‘‘पर्सी, मैं और जुने एक-दूसरे को प्यार करते हैं.’’ वह यही कहना चाहता था, लेकिन ऐन वक़्त पर शब्दों ने साथ नहीं दिया.
     
पूरे सप्ताह भर विली ख़ुश होता रहा कि उसने पर्सी को कुछ नहीं बताया. शनिवार की शाम, पर्सी (शहर का जानकार) उसे एक पार्टी में नॉटिंग-हिल ले गया. वह वहाँ किसी को नहीं जानता था इसलिए पर्सी से ही चिपका रहा.
     
कुछ देर बार जुने आ गई. पर्सी बोला- ‘‘यार यह पार्टी तो जहन्नुम जैसी बोरिंग है. मैं और जुने कॉलेज में संभोग के लिए जा रहे हैं.’’
विली ने जुने की ओर देखते हुए पूछा- ’’सचमुच!’’
‘‘हाँ, विली!’’ जुने सहजता से बोली.
अगर कोई पूछता तो विली कह देता कि पर्सी उसे अंग्रेज़ी तौर-तरीके सिखा रहा है. दरअसल पर्सी के माध्यम से वह अनजाने ही 1950के दौर के लंदन में बसे अप्रवासियों की खास बोहेमियन जीवन-शैली का हिस्सा बनने जा रहा था. यह सोहो (पारम्परिक जीवन शैली पसन्द लोगों की एक जगह) की जीवन शैली से अलग उनकी अपनी एक दुनिया थी. यहाँ कैरेबिया, अफ्रीका और एशिया के श्वेत उपनिवेशों से आए लोग हाल में ही आकर बसे थे. ज़ाहिर है इंग्लैण्ड के लिए ये नए और बाहरी लोग थे, ये वहाँ के मूल निवासियों, जिनमें उच्च और निम्न दोनों वर्गों के लोग शामिल थे, से समय-समय पर सम्बन्धस्थापित करना चाहते थे. ताकि इंग्लैण्ड का सामाजिक ढाँचा करवट ले. अंग्रेज लोग भी नये आने वालों में आधुनिक जीवन शैली वालों को चाहते थे. इन्हें नॉटिंग हिल के तटस्थ क्षेत्र में छोटे-मोटे धुँधली रोशनी वाले कामकाजी फ़्लैट मिल गए थे, जहाँ वे एक-दूसरे के साथ मिल जुलकर हँसी-खुशी से जीवन बिता रहे थे (नॉटिंग हिल उस जगह के काफ़ी नजदीक था, जहाँ उस शाम विली और जुने गए थे). कुछेक अप्रवासियों ने वहाँ अच्छी नौकरियाँ एवं बढ़िया घरों की सुविधा जुटा ली थीं और उनमें रहने चले गए थे तो कुछ वहीं असुरक्षित जीवन जीते हुए भी आनंदमग्न बने थे.
     
लेकिन एक दुबले-पतले छोटे और ख़ूबसूरत आदमी से विली डरा हुआ था. वह गोरा दिखता था. कहता था, वह कई उपनिवेशों से हो आया है, उसकी उच्चारण-शैली भी कुछ वैसी ही थी. दूर से वह जितना भला लगता था, नज़दीक जाने पर उतना ही वाहियात. वह एक घिसी हुई जैकेट और गंदी-सी कमीज डाले रहता. उसकी ख़ाल चीकट, दाँत काले और भद्दे तथा साँसें उखड़ी.उखड़ी लगती थी. पहली बार जब उसकी विली से मुलाकात हुई तो उसने अपने बारे में काफ़ी कुछ बताया था. वह एक अच्छे औपनिवेशिक परिवार से था. विश्वयुद्ध से पहले उसके पिता ने उसे इंग्लैण्ड में पढ़ाई के लिए भेजा था ताकि वह अंग्रेज़ी सोसायटी के लायक बन सके. उसने एक अंग्रेज़ी-ट्यूटर भी रखा हुआ था. एक दिन ट्यूटर ने पढ़ाते वक़्त उससे पूछा- ‘‘अगर तुमसे डिनर के लिए पूछा जाए तो कहाँ जाना पसन्द करोगे- रिट्ज या बर्कले .’’ उसने कहा- रिट्ज. ट्यूटर सिर हिलाते हुए बोला- ‘‘नहीं, नहीं, यह कभी मत भूलो कि बर्कले का खाना ज़्यादा बेहतर है.’’ विश्वयुद्ध के बाद पारिवारिक विवाद के चलते वहाँ की व्यवस्था ही ख़त्म हो गई. उसने यही सब लिख रखा था और उसका एक हिस्सा अथवा प्रकरण विली को सुनाना चाहता था. विली अपने कमरे चला आया. उसने  पास ही बोर्डिंग हाउस वाले कमरे में एक मनोचिकित्सक से मिलने का वृत्तान्त सुनाया. इस अध्याय में मनोचिकित्सक के संवाद बहुत कम थे.

सुनते ही विली को लगा कि पाठ के मनोचिकित्सक का कमरा भी बिल्कुल इसी कमरे जैसा था जहाँ वे बैठे थे. अन्त में जब उसने विली से उसकी राय के बारे में जानना चाहा तो विली बोला- ‘‘मुझे डॉक्टर और मरीज के बारे में कुछ और बताओ.’’ लेखक तैश खा गया. उसकी काली आँखें सुलग उठीं, तम्बाकू से सड़ चुके अपने दाँत निपोरकर चिल्लाने लगा- ‘‘तू क्या है, कहाँ से चला आया, तेरे पास अक़्ल नाम की कोई चीज़ है भी या नहीं ? एक बेहद प्रसिद्ध लेखक इसे पढ़कर कह चुका है कि मैंने लेखन में नए आयाम स्थापित किए हैं.’’

उसको इस तरह भड़कता देख विली कमरे से बाहर निकल भागा.
     
लेकिन जब उनकी दुबारा मुलाक़ात हुई तो वह बड़ी शांति से मिला. ‘‘मुझे माफ़ कर देना, दोस्त! मुझे उस कमरे से बड़ी नफ़रत है, वह मुझे ताबूत जैसा लगता है. हालाँकि मैं पुराने दिनों में उसका आदी रहा हूँ. अब मैं उसे छोड़ रहा हूँ, प्लीज़ मुझे माफ़ करो और इसे ख़ाली कराने में मेरी मदद करो ताकि मुझे विश्वास हो सके कि तुमने उस दिन का बुरा नहीं माना.’’
     
विली ने बोर्डिंग-हाउस जाकर दरवाज़ा खटखटाया. बगल वाले गेट से एक अधेड़ औरत निकली- ‘‘अच्छा तुम हो, कल जाते समय वह बता गया था कि अपने सामान के लिए किसी को भेजेगा. तुम उसका सूटकेस ले जा सकते हो लेकिन पहले पिछला किराया चुकाना होगा. यह रही कॉपी, चार.पाँच महीने का किराया बाक़ी है, कुल छियासठ पाउण्ड और पंद्रह शिलिंग.’’ यह सुनकर विली वापस चला आया.
     
इसके कुछ ही दिन बाद वह पर्सी की एक पार्टी में गया, वहाँ वह आदमी भी था, उसने दाढ़ी बढ़ा ली थी. विली को देख वह सफेद वाइन का जाम पीते हुए आया और बोला- ‘‘सॉरी दोस्त! जैसा दक्षिण अफ्रीका में हम अक्सर कहते कि तुम भारतीय लोग ही हमेशा क़र्ज़दार रहते हैं. फिर भी तुमने मेरी मदद करनी चाही थी.’’
     
एक दिन शाम को वही आदमी फिर नज़र आया, वह मौज़-मस्ती वाली पार्टियों का आदी नहीं लग रहा था. पर उसके हाथ में शैम्पन की बोतल थी, जो उसने पर्सी को दरवाज़े पर ही भेंट कर दी थी. पचासेक की उम्र का वह आदमी भी पर्सी की तरह सलीकेदार कपड़े; चेक की कमीज़, सुरमई सूट और हाथ से टाँकी गई कॉलर की एक जैकेट पहने था. जिसकी मुलायम आस्तीन बाँहों पर फैली थीं. पर्सी ने उससे विली का परिचय कराया और दोनों को साथ-साथ छोड़ दिया. विली पीने का आदी नहीं था, लेकिन उसे देखते हुए शैम्पेन के लिए कहना पड़ा. उसने बेहद शालीन और अपनत्व भरे लहज़े में कहा- ‘‘यह बेहद ठण्डी है और रिट्जसे लाई गई है. वे मेरे लिए एक बोतल हमेशा तैयार रखते हैं.’’
     
विली को विश्वास नहीं हुआ. दिखने में यह आदमी कितना गंभीर है. इसकी शांत और ठहरी हुई आँखों से तो यही लगता है. यूँ विली के लिए इस मामले पर कुछ तय कर पाना जरूरी नहीं था. आखिर यह मामला उनके लिए मायने क्या रखता था. लेकिन फिर वही रिटज’! इतनी विलासिता क्या ठीक होगी. घर पर रहते हुए विली के लिए होटल का मतलब कोई बेहद सस्ती चाय की दुकान या ढाबा था. लेकिन लंदन वालों के लिए इसका मतलब एकदम अलग था- विलासिता उनके लिए अच्छा खाना या पीना उतना ज़रूरी नहीं था, जितना कि होटल का भव्य होना. मानो पैसे ज़्यादा देने पर उन्हें कुछ अतिरिक्त प्रसन्नता मिलती थी.
     
विली ने एक आदमी और देखा. वह किसी से कोई बातचीत नहीं कर रहा था, चुपचाप अपने काम में लगा था.
‘‘क्या आप लंदन में काम करते हैं ?’’ विली ने पूछा.
हाँ’, अज़नबी ने बताया, ‘मैं एक डेवलपर हूँ और इस इलाके का विकास कर रहा हूँ. अभी तो यह कूड़ेदान जैसा लगता है लेकिन अगले बीस सालों में इसका नक्शा बदल जाएगा. मैं बस इसी के इंतज़ार में हूँ. यह मध्य लंदन का इलाका है. यहाँ सारे पुराने किराएदार बसे हुए हैं. रिहाइश के लिए इन बड़े-बड़े घरों का किराया कितना कम है. सचमुच यहाँ से वे बाहर निकलना चाहते हैं- घने उपनगरों में या फिर गाँव के कॉटेजों में. मैं उनकी इस मामले में मदद करूँगा. प्रॉपर्टी खरीदने के बाद मैं इन किरायेदारों को आवास मुहैया कराऊँगा. कुछ ले लेंगे, कुछ नहीं. फिर मैं इस हिस्से को तोड़ डालूँगा. पर्सी को भी मैंने कभी इसी तरह अंधेरे से बाहर निकाला था.ये सारी बातें उसने इतनी शालीनता और सलीके से बताई कि विली को यक़ीन आ गया.
‘‘और पर्सी ?’’ विली ने पूछा.
‘‘वह लंदन का पुराना जमींदार है. उसने तुम्हें बताया नहीं ?’’
देर शाम पर्सी ने उससे पूछा- ‘‘उस बूढ़े ने तुम्हें खूब बनाया होगा, विली .’’
‘‘वह बता रहा था तुम पहले ज़मींदार थे.’’

‘‘अरे भाई, मुझे ढेर सारे काम करने पड़े हैं. यहाँ बसें चलाने के लिए वेस्ट इंडियन ड्राइवरों की ज़रूरत थी. लेकिन उनके रहने की समस्या बनी हुई थी. यहाँ के निवासी उन्हें किराये पर रखना नहीं चाहते. मुझे तुम्हें ये बता देना चाहिए था. ख़ैर, यहाँ के एक-दो द्वीपों की सरकारों ने मुझ-जैसे लोगों को प्रॉपर्टी खरीद कर वेस्ट इंडियनों को किराये पर रखने को कहा था. शुरुआत इसी तरह हुई. यह कोई हवाई इरादा नहीं था. मैंने पंद्रह सौ पाउण्ड देकर मकान खरीद लिये और लोगों को रख दिया.  एक का किराया साढ़े सात सौ पाउण्ड था. लड़कों को मैं थोड़े कम में अलग से बचे कमरों में रख लेता. हर शुक्रवार मैं किराया वसूलने जाता था. बारबेडोस में इनके मुक़ाबले आप अच्छे लोग नहीं पा सकते. ये काफ़ी अहसानमंद होते हैं. लंदन की ट्रांसपोर्ट शिफ़्ट खत्म होने के बाद हर आदमी में एक भला जैकमिलेगा जो कमरे की साफ़-सफ़ाई के बाद बिस्तर के बग़ल में घुटने मोड़ कर प्रार्थना करता है. उनके एक तरफ लेवीटीकस (Third book of the Bibleअनुवादक) (खुली हुई बाईबल)होती तो दूसरी तरफ़ किराये पर लाई गई किताबें और नोट्स. इस बुजुर्ग को मेरे बारे में पता था- उसने मकान ख़रीदने को कहा. मैं मना नहीं कर सका. इसी ने मुझे क्लब में काम देने की बात भी कही; कारोबार के हिस्सेदार के रूप में. जब मैंने इसकी वजह पूछी तो उसने बताया कि उसे बोरियत हो रही थी. सोच-समझकर मैंने कॉलेज से छात्रवृत्ति ले ली. लेकिन यह अब भी मुझसे दोस्ती बनाए रखना चाहता है और मुझे परेशान किया करता है. सोचता है कि मैं इसका काम सँभालूँ. विली, मैं इसी वजह से परेशान हूँ.’’
     
विली सोच रहा था- कैसा अजीब शहर है यह! जब मैं स्पीकर्स-कॉर्नर ढूँढ़ते हुए इधर आया और यहीं कृष्ण मेनन को टहलते हुए देखा था, जो स्वेज़ पर हमले के अपने भाषण पर विचार मग्न थे, उस समय तक मुझे ज़रा भी नहीं पता था कि यहाँ एक तरफ़ क्लब और डेबन्हाम्स का परफ़्यूम काउन्टर है तो दूसरी ओर मैं, पर्सी की पुरानी जागीर और उस आदमी की अपनी दुनिया इतने पास-पास हैं.
     
ऐसी ही एक और पार्टी थी, जिसमें विली को भारी-भरकम दाढ़ी वाला एक युवा मिला. उसने बताया कि वह बी.बी.सी. में कार्यरत है. उसका काम था- बी.बी.सी की विदेशी सेवाओं के कार्यक्रम बनाना और उनका संपादन. वह इस क्षेत्र में नया आया था लेकिन अपना काम पूरी ईमानदारी और गंभीरता से करता था और जानता था कि उसका काम काफ़ी अहम है. वह स्वभाव से अभिजात प्रकृति का था और पूर्व मान्यताओं का सम्मान करता था. काम के दौरान उसे लगा कि नॉटिंग हिल की स्वच्छंद हवा में तैरना चाहिए. इसकी खातिर उसने विली जैसे लोगों से सम्पर्क बढ़ाना शुरू कर दिया, जो अंधेरे की दुनिया को चीरकर उन्मुक्त लहरों में तैरने को बेताब थे.
     
उसने विली से कहा था- ‘‘तुम मिनट-दर-मिनट मेरे लिए रोचक और महत्त्वपूर्ण होते जा रहे हो.’’ विली तब अपने पुरखों के इतिहास पर काम कर रहा था. प्रोड्यूसर ने कहा- ‘‘हम यहाँ ईसाई समुदाय के बारे में ज़्यादा नहीं जानते. यह काफ़ी पुराना ओर आरंभिक है. और जैसा कि तुमने बताया भारत से कटा हुआ भी है. इसके बारे में जानना सुनना बेहतर होगा. तुम इस पर हमारे लिए कोई आलेख क्यों नहीं लिखकर देते. हमारे किसी कॉमनवेल्थ-प्रोग्राम में इसे आराम से जोड़ा जा सकता है. पाँच मिनट के छः सौ पचास शब्द-पेंग्विन की पुस्तक के डेढ़ पृष्ठ के बराबर. अगर हमने उसका इस्तेमाल किया तो बिना किसी हुज्जत के पाँच गिनीज़ मिलेंगी.’’
     
छात्रवृत्ति के अलावा विली को इसके पहले इस तरह पैसों का ऑफर नहीं मिला था. प्रोड्यूसर के सुझाव पर विचार करते-करते, उसकी दिशा तय करते हुए, जल्दी ही उसके दिमाग़ में पाँच मिनट की बातचीत का ख़ाका बन चुका था. शुरुआत उसने अपनी पारिवारिक घटनाओं से ही की थीं. इनमें विश्वकोश से भी कुछ तथ्य जोड़े. इसमें भारत से विलगाव का अनुभव भी शामिल था. हालाँकि उसमें भारत के अन्य धर्मों की वास्तविक जानकारी नहीं थी. ब्रिटिश काल में ईसाई विवेक से जुड़े परिवारों का काम, सामाजिक सुधार तथा एक-दो बातें  फ़ायरब्राण्ड से सम्बन्धित थी, जो आम सभाओं में बोलते समय लाल स्कार्फ बाँधा करता था. साथ ही इनमें लेखक मिशन-स्कूल में अपनी शिक्षा, पुराने और नए ईसाइयों के आपसी तनाव, पिछड़ों और नव-धर्मान्तरितों की चिन्ताएँ भी शामिल थीं. विली के लिए यह बेहद तकलीफ भरा अनुभव था, लेकिन अंत में यह लाभकारी साबित हुआ, इससे उसकी नव इसाइयों के प्रति समझ एवं स्वीकार्यता ही नहीं बढ़ी, ईसाइयत के दायरे से हटकर उस बृहत्तर भारतीय संसार को भी जानने में मदद मिली. जहाँ से उसके पूर्वज अलग हुए थे.
     
इस वार्ता को लिखने में उसे दो घण्टे लग गए. वह मानो फिर से मिशन स्कूल का विद्यार्थी हो गया था. लगभग एक सप्ताह बाद उसे बी.बी.सी. का स्वीकृति पत्र मिला, नीचे प्रोड्यूसर का छोटा-सा हस्ताक्षर था. वह ऐसा आदमी था जो अपने संस्थान की प्रगति में ही अपनी पहचान समझता था. लगभग तीन सप्ताह बाद विली को स्क्रिप्ट रिकॅार्ड करने के लिए बुलावा आया. उसने हॉलबोर्न के लिए भूमिगत मार्ग लिया और किंग्सवे के शानदार इलाके से होते हुए बुश-हाउस की ओर बढ़ चला. इस दौरान पहली बार उसे लंदन की इतनी खूबसूरत झलकियाँ मिलीं. अब तक वह इस देश की शक्ति और सम्पत्ति बारे में ही जानता था. इससे पहले उसने ऐसी छटाएँ नहीं देखी थी, कॉलेज और नाटिंग-हिल में ऐसा कुछ देखने को था ही नहीं.
     
उसे स्टूडियो की ड्रामेबाजी अच्छी लगी. लाल और हरी लाइटें, अपने साउण्ड-प्रूफ़ कक्ष में बैठे प्रोड्यूसर एवं स्टूडियो-मैनेजर. उसकी स्क्रिप्ट एक बड़ी पत्रिका का हिस्सा थी और डिस्क पर रिकॉर्ड की गई थी. उसे और अन्य सहायकों को सारी प्रक्रिया दो बार करनी पड़ी. प्रोड्यूसर एकदम चौकस था और सबको बार-बार मशविरे दे रहा था. उसने जो कुछ कहा, विली उसे ध्यानपूर्वक सुन रहा था. अपनी आवाज़ पर ध्यान मत दो, मुद्दे पर ग़ौर करो, हृदय की गहराई से बोलो या वाक्य के अन्त में अपनी आवाज़ गिरने मत दो आदि.
अन्त में उन्होंने विली से कहा था- ‘‘तुम एकदम सहज रहे.’’
     
एक माह बाद उसे एक पश्चिमी अफ्रीकी युवा की उत्कीर्णन कला से संबंधित एक प्रदर्शनी में जाने को कहा गया. जब विली पहुँचा तो उसे पूरी गैलरी में अकेला उत्कीर्णक ही दिखाई पड़ा, जो कसीदे कढ़ी एक गंदी-सी अफ्रीकी टोपी और गाउन पहने था. अपने को बतौर रिपोर्टर बताना विली को अच्छा नहीं लगा लेकिन उस अफ्रीकी ने बड़ी तसल्ली से बातचीत की. उसने बताया कि जैसे ही वह कोई लकड़ी का टुकड़ा देखता है, उसके मन में उस पर उकेरे जानेवाली मूर्ति उभर आती है. उसने विली को पूरी प्रदर्शनी दिखाई. भारी अफ्रीकन गाउन के फीते उसी जाँघों से टकरा रहे थे. उसने बड़ी स्पष्टता से यह भी बता दिया कि लकड़ी के प्रत्येक टुकड़े के लिए उसने कितनी-कितनी रकम अदा की थी. ख़ैर, विली ने इसी बातचीत पर अपना आलेख तैयार कर लिया.
     
इसके दो हफ्ते बाद प्रोड्यूसर ने उसे एक अमेरिकी होस्टेस और गॉसिप लेखिका के साथ साहित्यिक-भोज (Literary-luncheon) पर जाने का कहा. लेखिका की सारी बात इस बात पर केन्द्रित रही कि डिनर-पार्टी की व्यवस्था कैसे की जानी चाहिए या फिर बोर लोगों से कैसे निपटा जाए आदि. उसका कहना था कि एक बोर को दूसरे बोर के साथ बैठा देना चाहिए; आग को आग ही बुझा सकती है. विली ने इस पर भी आलेख तैयार कर दिया था.

     
अब उसे अपनी बढ़ती हुई माँग का आभास हो चला था. एक दिन दोपहर को स्क्रिप्ट रिकार्डिंग के बाद उसने साउथेम्पटन रॉ की एक फ़र्म से किस्तों पर एक टाइपराइटर खरीद लिया. उसने चौबीस पाउण्ड के लोन के एक एग्रीमेन्ट पर हस्ताक्षर किया (जिस तरह पर्सी के पास वेस्ट-इंडियन किरायेदारों वाली कॉपी रहती थी) उसे भी एक मज़बूत जिल्द वाली पास-बुक दे दी गई ताकि लम्बे समय तक चल सके और उसमें हर हफ़्ते किए गए भुगतान को दर्ज किया जा सके.
     
अब उसका लिखना ज़्यादा आसान हो गया था. विली को यह भी पता चल गया था कि रेडियो-वार्ता बोझिल नहीं होनी चाहिए. साथ ही, पाँच मिनट के काम के लिए कितना मसाला चाहिए- मोटे तौर पर यही कोई तीन-चार बिन्दु, इसलिए वह तुरन्त अनावश्यक चीजों की छँटाई करने लगता. उसने प्रोड्यूसर, स्टूडियो मैनेजर और अन्य सहायकों से भी इस विषय में जानकारी ले ली. इनमें कुछ सहायक बेहद पेशेवर थे- वे उपनगरों में रहते थे और ट्रेन से आते-जाते थे. उनके हाथों में भारी-भरकम ब्रीफ़केसरहता, जिनमें कई कार्यक्रमों के आलेख और उनकी रूपरेखाएँ होती थीं. ये काफ़ी व्यस्त बने रहते थे, छोटी-मोटी स्क्रिप्ट का काम भी हफ़्तों, महीनों पहले तैयार कर लिया रहते. लेकिन किसी पत्रिका (कार्यक्रम) के लिए आधे घण्टे के कार्यक्रम में भी इन्हें दो बार बैठना नागवार गुज़रता था. ये दूसरों के काम देखते ही बोरहोने लगते थे. विली ने ऐसे ही लोगों से खीजना सीखा था.
     
लेकिन रोज़र नाम के एक युवा वकील ने उसे बहुत प्रभावित किया. उसका कैरियर अभी शुरुआती दौर में ही था. वह सरकार की लीगल-एड-स्कीमके तहत काम कर रहा था. जो वकीलों को फ़ीस अदा करने में असमर्थ लोगों के लिए बनी थी. ऐसे लोग काफी परेशान रहते थे लेकिन कानून पर इनका भरोसा कायम था. विली रोज़र के इसी काम पर आलेख तैयार कर रहा था. वह इसे अंतिम रूप ही दे रहा था कि तभी एक मोटी-सी औरत रोज़र के ऑफिस में आई और पूछा- ‘‘क्या तुम्हीं वह भोले वकील हो ?’’ सुनकर एक बार तो रोज़र को गुस्सा आया लेकिन इसे दबाकर उसने शर्माते हुए कहा- ‘‘जी हाँ, मैं ही हूँ.’’
     
विली ने स्क्रिप्ट-रिकार्डिंग में भी उसकी बड़ी प्रशंसा की थी. इसके बाद रोज़र उसे  बी.बी.सी. क्लब ले गया. वहाँ बैठने के बाद रोज़र ने कहा- मैं यहाँ का सदस्य तो नहीं, लेकिन यह जगह है बड़ी सुविधाजनक.
     
उसने विली से उसके विषय के बारे में पूछताछ की. विली ने अपनी कॉलेज की पढ़ाई के बारे में बताया.
‘‘अच्छा! तो आप अध्यापक बनने जा रहे हैं’’ रोज़र ने कहा.
‘‘नहीं, नहीं’’, वास्तव में विली की कभी अध्यापक बनने की इच्छा नहीं रही.
एक वाक्यांश उसके दिमाग़ में उभर रहा था- ‘‘आई एम मार्किंग टाइम’’’ 
रोज़र बोला, ‘‘मुझे भी यही चीज़ पसन्द है.’’
     
वे दोस्त बन गए थे. रोज़र उससे कुछ लम्बा था और गहरे रंग का डबल-ब्रेस्ट सूट पहने हुए था. उसका व्यवहार बेहद विनम्र और बातचीत करने की अदा एकदम संतुलित होती था. उसके कसे और सधे हुए वाक्य विली को बुरी तरह आकर्षित करते. रोज़र में इन चीज़ों के विकास की वजह थी- उसका परिवार, स्कूल, युनिवर्सिटी, उसके दोस्त और वकालत का पेशा. विली ने यह सब एकसाथ रोज़र में ही पाया.

एक दिन उसने रोज़र को ट्राउजर ब्रासेस’  में देखा. उसे बड़ी हैरानी हुई. पूछने पर रोज़र ने बताया- ’‘यार, तुम्हारी तरह ना तो मेरे पास कमर है, ना कूल्हे. इसे तुरन्त नीचे खिसकाया जा सकता है.’’
     
सप्ताह में उनकी एक बार मुलाकात होती. कभी-कभार वे लॉ-कोर्ट्समें लंच के लिए जाते. रोज़र को वहाँ की पुडिंगबहुत पसंद थी. वे थिएटर भी साथ-साथ जाते. रोज़र एक क्षेत्रीय अखबार में लंदन लेटरनाम से एक साप्ताहिक कॉलम लिखता था. इसके लिए उसे किसी वांछित नाटक पर लिखने के लिए टिकटें भी मिल जाती थीं. कई बार वे उस मकान की मरम्मत का काम देखने जाते जिसे रोज़र ने मार्बल आर्कके पास एक गंदे और सँकरे गलियारे में लिया था. एक बार उसके बारे में बात करते हुए रोज़र ने बताया- ’’मेरे पास थोड़ी बहुत पूँजी थी, यही कोई चार हज़ार पाउण्ड. मुझे इसका सबसे अच्छा उपयोग लंदन में प्रॉपर्टीबनाना लगा.’’

एक छोटे-से मकान पर रोज़र के इतने अच्छे विचारों पर विली फ़िदा हो गया था. वह उसके चार हज़ार पाउण्ड की रकम पर उतना नहीं जितना उसकी जानकारी, आत्मविश्वास, पूँजी और प्रॉपर्टीजैसे बढ़िया शब्दों के प्रयोग से प्रभावित था. पिछले दिनों जब भारत में ईसाई धर्म से सम्बन्धित अपने आलेख की रिकार्डिंग के लिए वह किंग्सवे से बुश हाउस की ओर आ रहा था तब पहली बार उसे विश्व-युद्ध से पूर्व इंग्लैण्ड की दौलत और ताक़त का भान हुआ और धीरे-धीरे रोज़र के साथ रहते हुए उसे प्राप्त करने रास्ते भी नज़र आने लगे. उसे लगा कॉलेज में पढ़ाई के लिए आने वालों और नॉटिंग हिल में मौज़.मस्ती का जीवन बसर कर रहे आप्रवासियों ने भी शुरुआत में ऐसा ही कुछ सोचा होगा.
     
एक दिन पर्सी काटो ने बेहद अतिरेक पूर्ण जमैकियन लहज़े में कहा- ‘वाह (Wha)क्या बात है दोस्त! किसी और की दोस्ती में डूबने के बाद क्या अपने पुराने दोस्त को भूल जाओगे ?.....
‘‘जुने भी तुम्हारे बारे में पूछ रही थी’’ फिर वह सामान्य लहजे पर उतर आया था.

विली को उसी कमरे की याद आई, जहाँ वह उसे ले गई थी. पर्सी भी अक्सर उससे वहीं मिलता था. वहाँ का संडास, किसी द्वीप से आया जमैकियन टोपी और जूट के पायजामे वाला अश्वेत आदमी, उसका दूर से उन्हें घूरना, सब उसे याद आ रहे थे. रोज़र की दोस्ती में ये बड़ी अजूबी बातें थीं. विली अब उन घटनाओं को कहीं दूर से देख रहा था.

‘‘मैं समझ नहीं पाता, आखिर तुम करना क्या चाहते हो ? कोई पुश्तैनी धंधा करोगे या फिर तुम खुद को काहिल रईस समझते हो.’’ रोज़र ने पूछा था लेकिन ऐसे नाज़ुक मौकों पर विली ने सपाट चेहरा बनाए रखना सीख लिया था.

उसने कहा- ’‘मैं लेखन-कार्य करना चाहता हूँ.’’ हालाँकि यह सही नहीं था, उस घड़ी तक भी उसने ऐसा मन नहीं बनाया था. चूँकि रोज़र दबाव देकर पूछ रहा था और इस विषय में जल्दी कुछ तय करना ज़रूरी समझता था. विली ने रोज़र से बहुत कुछ सीखा था. रोज़र एक बेहतर पाठक था. वह समकालीन अंग्रेज़ी के कई प्रसिद्ध लेखकों जैसे ऑरवेल, वॉग, पॉवेल, कोनॅली आदि का प्रशंसक था.
     
विली के उत्तर से रोज़र निराश दीखा.
विली ने पूछा- ‘‘क्या मैं तुम्हें अपनी कुछ चीज़ें दिखा सकता हूँ ?’’
     
उसने मिशन स्कूल के दौरान लिखी कुछ कहानियाँ टाइप कर रखी थीं. एक शाम वह उन्हें रोज़र को दिखाने ले आया. वे एक पब (शराब के अड्डे) पहुँचे, जहाँ रोज़र ने एक-एक कर उनको देख डाला. उसकी सूरत बेहद गंभीर लग रही थी. उसका वकीलाना अन्दाज़ देखकर विली ने सोचा आज तक उसने अपनी किसी पुरानी चीज़ की परवाह नहीं की थी, चाहे वे कहानियाँ ही क्यों न हो. उसे लगा, इस आदत के चलते कहीं वह रोज़र से मित्रता न गवाँ बैठे.

    

तभी रोज़र बोला- ‘‘मैं तुम्हारे हमनाम और पारिवारिक दोस्त (उस बुजुर्ग लेखक जिनके नाम पर विली का नाम रखा गया.) को जानता हूँ, जिनके अनुसार किसी कहानी में एक प्रारम्भ, मध्य और एक उचित अन्त होना चाहिए. लेकिन सोचकर देखो, क्या ज़िन्दगी हमेशा इसी तरह होती है. इसकी ना तो कोई विशुद्ध शुरुआत होती दिखती है, ना चुस्त-दुरुस्त अंत. यह तो बस चलती जाती है. तुम मध्य से ही कहानी उठाओ और मध्य पर ही ख़त्म करो. अब यह कहानी जो ब्राह्मण, खज़ाने और बच्चों की बलि से जुड़ी है. इसे आश्रम में ब्राह्मण से मिलने आते हुए आदिवासी मुखिया वाली बात से शुरू करना चाहिए था. उसे पहले धमकी देने फिर पैरों में गिरने पर रोक देना चाहिए. हम जानते हैं कि जाते-जाते उसने एक भयानक हत्या की योजना बना ली है. क्या तुमने हेमिंग्वे को पढ़ा है. उनकी शुरुआती कहानियाँ पढ़ो. उनमें एक कहानी द किलर्स  शीर्षक से है, पाँच.छः पन्नों की यह कहानी केवल संवादों में लिखी गई है.

रात के समय दो आदमी एक ख़ाली और सस्ते कैफ़े में आते हैं और उस पर क़ब्ज़ा जमा लेते हैं. हाथ में हथियार लिए वे एक गुंडे की बाट जोह रहे हैं, जिसे मारने की उन्हें सुपारी दी गई है, इतना ही! हॉलीवुड में इस पर एक शानदार फ़िल्म भी बन चुकी है लेकिन कहानी कहीं बेहतर है. मुझे पता है तुमने ये कहानियाँ स्कूल में लिखी थी, और तुम्हें ये अच्छी लगती हैं. लेकिन एक वकील के नाते मेरी सलाह है कि तुम वास्तविक घटनाओं का आधार बनाकर लिखो, जो तुमने अब तक नहीं किया. मैंने अपना बहुत सारा समय ऐसी ही चीज़ों में बिताया है. मुझे ऐसी कहानियों की भी जानकारी है, जिनमें लेखक एक रहस्य बनाए रखता है, जिसे वह छिपाना चाहता है.’’
     
यह सुनकर विली को बहुत बुरा लगा. वह शर्म से गड़ गया. उसे लगा आँसू निकलने ही वाले हैं. उसने अपनी कहानियाँ लीं और खड़ा हो गया.
‘‘अच्छा ये होगा, पहले चीज़ों के प्रति अपनी समझ विकसित कर लो.’’ रोज़र बोला.
विली ने अड्डा छोड़ते हुए सोचा- ‘‘मैं अब कभी रोज़र से नहीं मिलूँगा. ये पुरानी कहानियाँ उसे दिखानी ही नहीं चाहिए थीं. वह सच बोल रहा था, ये बेकार की हैं.

इस दोस्ती पर अफ़सोस करते हुए उसने जुने और नॉटिंग हिल के उसी कमरे की याद आ रही थी. उसने उसे एक ओर झटक दिया था. लेकिन वह अलग नहीं रह पाया और कुछ दिन बाद लंच के समय उसे ढूँढने निकल पड़ा. बॉण्डस्ट्रीट तक वह भूतल रास्ते से आया था. डेबन्हाम्स जाने के लिए वह रास्ता पार ही कर रहा था, तभी उसने देखा कि जुने एक लड़की के साथ सामने से चली आ रही थी. उसकी नज़र विली पर नहीं पड़ी. वह सिर झुकाए बातें कर रही थी. आज उसे वह पहले की तरह ताज़गी भरी, सीधी और सुगन्धित नहीं लगी, उसका रंग भी बदला-बदला लग रहा था.

दूसरी लड़की के साथ उसे ऐसी घरेलू-सी अवस्था में देखकर विली की काम भावना उड़ गई, उसने मुँह बना लिया. विली का मन उसे अभिवादन करने का भी नहीं हुआ. वे एक-दूसरे को छूते हुए गुज़र गए. उसने विली को देखा तक नहीं. उनकी बातचीत उसके कानों में जरूर पड़ी. वह सोच रहा था- यह शायद इसीलिए क्रिकलवुड में रहती है. थोड़ी-थोड़ी देर में किसी के भी साथ हो लेती है.

उसने राहत की साँस ली लेकिन साथ ही अपने को बहिष्कृत भी महसूस किया. बहुत पहले ऐसा ही तब हुआ था- जब वह घर पर था और मिशनरी का पादरी बनकर सारी दुनिया में एक अधिकार प्राप्त व्यक्ति के नाते घूमने-फिरने का अपना पुराना सपना उसे त्यागना पड़ा था.

कुछ दिनों बाद वह एक पुस्तक विक्रेता के यहाँ गया. वहाँ से उसने दो शिलिंग और छः पेंस में हेमिंग्वे की शुरुआती कहानियों की किताब ख़रीदी और वहीं खड़े.ख़ड़े द किलर्सके आरम्भिक चार पन्ने पढ़ डाले. कहानी अस्पष्ट शैली में और हल्की-सी रहस्यमकता का पुट लिए थी, जो उसे बहुत पसन्द आया. अगर इसकी रहस्यात्मकता थोड़ी कम कर दी गई होती तो बाद के पृष्ठों में विद्यमान लय ग़ायब हो जाती. रोज़र के सुझावानुसार विली अपनी ए लाइफ ऑफ सेक्रिफ़ाइसशीर्षक कहानी दोबारा लिखने की सोचने लगा था.

रोज़र ने द किलर्सपर बनी फ़िल्म की ओर भी इशारा किया था, लेकिन विली ने उसने देखा नहीं. सोचा, उन्होंने पता नहीं मूल कहानी का क्या बना डाला होगा.

अगले कई दिनों तक वह इस पर ढंग से काम करने के तरीके़ सोचता रहा. उसके दिमाग में आया कि हालीवुड फ़िल्मों में कुछ ऐसे दृश्य या क्षण होते हैं, जिनको सेक्रिफ़ाइसकी विषयवस्तु पर पुनर्सर्जित किया जा सकता है. खासकर काग्ने गैंगस्टर  और हम्फ्रे बोगार्ट  की हाई सिएरा’- जैसी फ़िल्में. मिशन स्कूल में लिखी कुछ मौलिक रचनाओं में एक ऐसी ही थी. उसने एक ऐसे आदमी को विषय बनाया था- (देश अथवा काल से निरपेक्ष) जो किसी ख़ास वजह से एक गुप्त स्थान पर किसी का इंतजार कर रहा था. इस बीच वह सिगरेट-पर-सिगरेट पिये  जा रहा था (इसमें ढेर सारे सिगरेट के टोटों और तीलियों का जिक्र था) और वहाँ से गुजरती कारों और आने-जाने वालों की आवाज़ें सुन रहा था. आखि़रकार (यह रचना सिर्फ एक पन्ने में सिमटी हुई थी) जब वह आदमी पहुँचा तो इंतज़ार करनेवाला आदमी गुस्से से बेक़ाबू हो गया. यह कहानी उसे यहीं समाप्त करनी पड़ी. क्योंकि आगे-पीछे का कुछ अता-पता नहीं था. लेकिन अब काग्नेय और बोगार्ट की फ़िल्मों के कारण ऐसी कोई समस्या नहीं आनेवाली थी. 

उसने एक ही सप्ताह में छह कहानियाँ लिख डाली. ‘हाइसिएरामें तीन कहानियाँ थीं, काग्ने या बोगार्ट के पात्रों के आधार पर उसने उनसे तीन-चार और गढ़ लीं. फ़िल्म के पात्रों के अनुरूप वह उन्हें कहानी-दर-कहानी बदलता गया. इस तरह उनके कई अलग रूप बन गए. सभी कहानियाँ बलिदानका संदर्भ लिए थीं. उनमें विन्यस्त परिवेश अपनी अलग पहचान देने लगे थे. इन कहानियों में प्रयुक्त उपकरण थे- एक बुर्जों और स्तम्भों वाला गुम्बदाकार महल, सपाट गवाक्षों और तलोंवाला सचिवालय, अजीबोगरीब फ़ौजी छावनी, उससे लगी सफेद किनारों वाली सड़क; जो अक्सर सुनसान पड़ी रहती, काफी दूर तक फैली युनिवर्सिटी, उसकी दुकानें, दो पुराने मंदिर; जहाँ श्रद्धालु ख़ास तरह के परिधानों में आते थे, एक बाज़ार, ऊँची.नीची बस्तियों वाली हाउसिंग कॉलोनियाँ, एक अविश्वासी पुजारी का आश्रम, एक मूर्तिकार, शहर से बाहर बदबूदार चमड़ा साफ़ करने वाले कारखाने और उनसे लगी सबसे अलग-थलग पड़े लोगों की आबादी. 

विली हैरान था कि पात्र उधार लेकर लिखी हुई इन रचनाओं में उसकी भावनाएँ ज़्यादा ईमानदारी और सच्चाई से उकेरी गई थीं. उसने कॉलेज में एक निबन्ध भी लिखा था. अब उसे शेक्सपीयर द्वारा अपने जीवन से सीधे न लेकर आस-पास से उठाई गई कहानियों की करामात भी समझ में आ रहा थी.

छह कहानियाँ चालीस से भी कम पृष्ठों में आ गईं. वह सबसे पहले इन पर रोज़र की प्रतिक्रिया देखना चाहता था. उसने उसे पत्र लिखा. रोज़र ने उसे वार्डर स्ट्रीट के छोर पर स्थित शेज विक्टर (chez victor) में लंच के लिए बुलाया. विली भी तैयार बैठा था. रोज़र ने कहा ‘‘तुमने खिड़की पर वह साइनदेखा- ^Le Patron manage ice’- यहाँ मालिक खाना खाता है.’’

‘‘यहाँ साहित्यिक लोग आते हैं.’’ रोज़र ने आवाज़ धीमी करते हुए कहा था- ‘‘वह जो सामने आ रहे हैं, उनका नाम वी. एस. प्रिशेट (V.S. Pritchett) है. विली ने यह नाम पहली बार सुना था. ये न्यू स्टेट्समेनके प्रधान समीक्षक हैं.’’ अधेड़ उम्र का वह आदमी काफी हट्टा-कट्टा, सौम्य और प्रसन्नचित दिखाई दे रहा था. उसकी पत्रिका को विली ने कॉलेज लाइब्रेरी में देखा था, हर शुक्रवार की सुबह लड़कों में उसके लिए छीना-झपटी मची रहती थी. पर विली ने उसे कभी पढ़ने की कभी जरूरत महसूस नहीं की. न्यू-स्टेट्समैनउसके लिए रहस्य की तरह था, अंग्रेज़ी जीवन की घटनाओं और संदर्भों से लैस, जो उसकी समझ से परे थी.

रोज़र बोला- ‘‘मेरी गर्लफ्रेण्ड आने वाली है. उसका नाम पर्दिता है. शायद वह मेरी मंगेतर भी बने.’’
उसका यह अटपटा पद-विन्यास सुनकर विली को कुछ संदेह हुआ.
वह लम्बी, छरहरी, देखने में साधारण शक्ल-सूरत की और हाव-भाव में अजीब-सी लग रही थी. उसने अपनी सफेद त्वचा को चमक देने के लिए कोई चमकीला लेप लगा रखा था, जो जुने के मेकअप से बिल्कुल भिन्न लग रहा था.

उसने अपने सफे़द धारीदार दस्ताने उतारे और शेज़ विक्टर की छोटी मेज़ पर इस अदा से रखा कि विली को उसका चेहरा ग़ौर से देखना पड़ा. उसकी आँखों की भाषा और उसके प्रति शिष्टाचार जताते हुए ऊपर से नीचे देखकर विली तुरन्त समझ गया कि रोज़र और पर्दिता के आपसी सम्बन्ध बहुत अच्छे नहीं चल रहे थे. खाने के दौरान भी उसे यही बात महसूस हुई. उनके बीच ज़्यादातर बातचीत भोजन को लेकर होती रही, जिसकी पहल विली की ओर से हुई. रोज़र शिष्टाचार बनाए हुए था लेकिन पर्दिता के साथ बुझा-सा दिख रहा था. उसकी आँखें उदास सी थी और चेहरे का रंग उड़ा-उड़ा लग रहा था. रोज़र का वह खुलापन भी ग़ायब था बल्कि उसके माथे पर चिंता की लकीरें साफ़ खिंची हुई थी. विली और रोज़र शेज़ विक्टर से एक साथ निकले. रोज़र कहने लगा- ‘‘मैं इससे थक गया हूँ यार! और इससे ही नहीं, इसके बाद वाली बल्कि उससे भी आगे वाली से जल्दी ही थक जाऊँगा. औरतों में होता ही क्या   है ? उनकी खूबसूरती भी मिथ ही होती है. यह उन्हीं का सिरदर्द होता है.’’
‘‘यह क्या चाहती है ?’’ विली ने पूछा.

‘‘यह चाहती है कि मैं बिज़नेस करना शुरू कर दूँ, फिर इससे शादी. शादी..शादी... जब भी मैं इसे देखता हूँ, दिमाग में यही गूँजता रहता है.’’
‘‘मैंने आपकी सलाह पर ग़ौर करते हुए कुछ लेखन का काम किया है. आप देखना चाहेंगे.’’
‘‘हमें यह ज़ोखिम भी उठाना ही है.’’
‘‘हाँ, मेरी भी इच्छा है आप इसे पढ़ें.  
     
उसने जैकेट के सामने वाली जेब से कहानियाँ निकाली और रोज़र को थमा दीं.
कोई तीन दिन बाद रोज़र का सौहार्द भरा ख़त आया, जब वे मिले तो रोज़र ने कहा- ‘‘ये कहानियाँ ज़्यादा यथार्थपरक हैं. ये हेमिंग्वे नहीं क्लीस्ट (Kleist) के ज़्यादा निकट हैं. किसी एक का तो उतना नहीं पर अपनी संपूर्णता में इनका अच्छा प्रभाव बनता है. इनका धुंधलापन चला गया है. हाँ, पृष्ठभूमि होनी चाहिए, चाहे वह भारत की हो अथवा नहीं, तुम्हें अपना काम करते रहना चाहिए. सौ पृष्ठ और हो गए तो हम इनकी बिक्री के बारे में भी सोच सकते हैं.’’
     

इस बार कहानियाँ उतनी आसानी से नहीं बनीं, इनमें एक-दो सप्ताह का समय भी लगा. सिनेमाई-दृश्यों और मसाले की ज़रूरत पड़ते जान विली ने पुरानी फ़िल्में, विदेशी सिनेमा भी देख डाले. इस विषय को लेकर वह हेम्पस्टीड और ऑक्सफोर्ड स्ट्रीट स्थित अकादेमी के हर आदमी से मिला. अकादेमी में ही उसने तीन बार द चाइल्डहुड ऑफ मैक्सिम र्गोकीदेखी. जिसे अपनी कहानियों में उकेरते हुए विली रो भी पड़ा. क्योंकि स्थितियाँ उसके अपने बचपन से काफ़ी मेल खा रही थीं.


एक दिन रोज़र ने कहा- ‘‘जल्दी ही लंदन से हमारा संपादक आने वाला है. जानते ही हो, मैं उसके लिए किताबों और नाटकों पर एक साप्ताहिक कॉलम तैयार करता हूँ. जिसके प्रति कॉलम दस पाउण्ड मिलते हैं. मैं सांस्कृतिक व्यक्तित्वों को लेकर ऐसी-वैसी टिप्पणी भी कर देता हूँ. लगता है, वह मेरी जाँच करने आ रहा है. कहता था, मेरे दोस्तों से मिलेगा. मैंने उसे लंदन के बुद्धिजीवियों के एक भोज में आमंत्रित किया है. तुम्हें भी वहाँ आना है, विली! मार्बल आर्क स्थित घर में आयोजित यह पहली पार्टी है. वहाँ मैं तुम्हारा भावी साहित्यकार के रूप में परिचय कराऊँगा. यहीं प्राउस्ट में स्वान नामक एक सामाजिक हस्ती है जो कभी-कभार अनमेल लोगों की पार्टी आयोजित करता है. जिन्हें वह सामाजिक गुलदस्ता कहकर बुलाता है. मैं भी संपादक के लिए ऐसा ही कुछ करने की सोच रहा हूँ.      
    
पश्चिमी अफ्रीका में अपनी नेशनल सर्विस के दौरान मेरी मुलाकात एक नीग्रो से हुई थी. वह एक वेस्ट इंडियन का बेटा था, जो अफ्रीकी आंदोलन के दौरान पश्चिमी अफ्रीका में बस गया था. मारकस नाम का यह आदमी बेहद आकर्षक और सुसंस्कृत था. वह अतृप्त स्वभाव का आदमी था और अंतर-जातीय-सेक्स (Inter-racialsex.) को बेहद पसंद करता था. पहली मुलाकात के दौरान मेरी उसकी सारी बातचीत इसी पर ही केन्द्रित रही. उठते-उठते मैं बोला - ‘‘अफ्रीकी औरतें बड़ी लुभावनी होती हैं.’’

‘‘हाँ, अगर तुम जानवरों जैसा सलूक करो तो!’’ उसने कहा था.

देश की आज़ादी के बाद वह राजनयिक की ट्रेनिंग पर यहाँ आया था. लंदन उसे स्वर्ग लगता है. उसकी दो सबसे बड़ी इच्छाएँ हैं. एक तो उसका सबसे बड़ा पौत्र अंग्रेज़ों जैसा गोरा हो. इस दिशा में उसका आधा काम हो चुका है. पाँच अंग्रेज़ औरतों से उसे पाँच नीग्रो बच्चे पैदा हो चुके हैं. अब वह सचेत हो गया, कहीं वे उसी के लिए मुसीबत न बन जाएँ. उसकी इच्छा है कि बुढ़ापे में जब वह चलने में असमर्थ हो जाएगा तो अपने सबसे बड़े और गोरे पोते के साथ किंग्स रोड  पर टहला करेगा. तब लोगों को अपनी ओर घूरते देख उसका पौत्र चिल्लाएगा- ‘‘दादाजी, ये हमें क्यूँ घूर रहे हैं ?’’
    
उसकी दूसरी इच्छा थी काउट्स’, यानी जो रानी का बैंक है, उसमें अपना खाता खुलवाने वाला पहला अश्वेत आदमी बनने की.
    
‘‘क्या वहाँ अब तक ऐसा नहीं हुआ ?’’ विली ने पूछा.
    
‘‘पता नहीं, उसे असलियत की जानकारी है भी या नहीं.’’
    
‘‘उसे तुरन्त बैंक जाकर इस बारे में पता करना चाहिए. अपने लिए एक फॉर्म माँगना चाहिए.
    
‘‘वह सोचता है उसे वहाँ बड़ी चालाकी से टरका दिया जाएगा. वे कह देंगे कि फॉर्म ख़त्म हो गए हैं. जो वह चाहता नहीं. जब उसे पूरा यक़ीन हो जाएगा तभी किसी दिन अचानक जाकर फ़ॉर्म जमा करेगा ताकि पहला आदमी वही बन सके.’’
    
इसके बाद मैं समझ नहीं पाया. आगे तुम पूछना. उसे भी अच्छा लगेगा. वहीं एक युवा कवि और उनकी पत्नी भी मिलेंगे. वे थोड़े नाख़ुश से दिखेंगे और अधिकतर चुप बने रहेंगे. बल्कि कई बार कवि महोदय अपने से बातचीत करने वाले को झिड़क तक देते हैं. लेकिन वह ख्यातिनाम आदमी है. संपादक को उनसे मिलकर खुशी होगी.
    
एक बार मैंने लंदन लैटरमें इस कवि की एक किताब पर लिखा था, मेरा उनसे तभी का परिचय है. विली बोला- ‘‘मैं चुप्पा लोगों के बारे में जानता हूँ. मेरे पिताजी अक्सर मौनव्रत रखते थे. मैं उस कवि से मिलूँगा.’’       
    
उनसे मिलकर तुम्हें कोई ख़ास अच्छा नहीं लगेगा. कविता एकदम जटिल, शुष्क और अतिरेकपूर्ण चीज़ है. फिर भी तुम इस पर विचार करो तो तुम्हारी मर्जी. वैसे चाहो तो उससे मिल सकते हो, लेकिन बातचीत डिनर के बाद ही हो पायेगी. मैंने उन्हें एक मिला-जुला वातावरण देने के लिए बुलाया है. जिन दो लोगों से तुम्हें और मिलना चाहिए, वे मेरे ऑक्सफ़ोर्ड के परिचित हैं. मध्यवर्गीय पृष्ठभूमि के ये लोग अमीरज़ादियों के पीछे भागते रहते हैं. यही उनका मुख्य काम बन गया है. इसकी शुरुआत उन्होंने ऑक्सफ़ोर्ड से की थी. तब से वे अमीर से अमीरतर औरतें बदलते रहे हैं.
    
किसी औरत से जुड़ी सम्पत्ति का उनका पैमाना बहुत ऊँचा हो गया है. दोनों एक-दूसरे पर संदेह करते हैं बल्कि धोख़ेबाज़ तक मानते हैं. उन्होंने यह सूत्र ऑक्सफ़ोर्ड के दौरान ही पा लिया था कि अमीर औरतों की खोज ही सफलता की पहली सीढ़ी है. उन्होंने ऐसी अमीरज़ादियों को फाँसने के तरीक़े अपनाने शुरू किये जो प्रायः अपने से निचले वर्ग के युवाओं पर कोई ध्यान नहीं देती थीं. जल्द ही एक से एक अमीर युवतियाँ इनके जाल में आने लगीं और ये धनी होते चले गए.
    
इनमें से एक रिचर्ड बदचलन, मुँहलगा, शरीर से थुलथुल और शराबी था. यानी ऐसा नहीं था कि औरतें उसकी ओर अनायास खिंचती. वह ऊनी कपड़े की एक चीकट और ऐसी ही विएला कमीज़ डाले रहता. लेकिन उसे अपनी साख का अंदाज़ था और इसी के बल पर वह खेलता था.
    
वह स्वयं को जर्मनी के एक स्वच्छन्द और बोसीदे नाटककार बर्तोल्त ब्रेख़्त की तरह पेश करता. सच यह है, वह केवल बिस्तरी मार्क्सवादी था. उसका मार्क्सवाद बिस्तर से शुरू होकर वहीं ख़त्म हो जाता था. यह बात उसके द्वारा छली गई औरतें भी जानती थीं. फिर भी वे उसके साथ सुरक्षित महसूस करतीं. ऑक्सफ़ोर्ड से लेकर आज तक ये चला आ रहा है. फ़र्क़ इतना ही था वहाँ अमीर औरतों के साथ सोने में उसे आत्मिक उत्तेजना मिलती थी, इधर वह उनसे ढेर सारा धन ऐंठने लगा था. दरअसल यहीं उससे ग़लतियाँ हुईं. इस मामले में वह बेडरूम से भी आगे बढ़ गया था. मुझे याद है एक अधनंगी औरत ने सिसकते हुए उससे कहा था- ‘‘मैं तो सोचती थी तुम मार्क्सवादी हो.’’ ‘‘और मैं सोचता था तुम अमीरज़ादी हो,’’ उसने जल्दी से पतलून ऊपर सरकाते हुए कहा था. प्रकाशन के क्षेत्र में भी रिचर्ड लगातार धनी होता जा रहा है. वह तेज़ी से आगे बढ़ रहा है, क्योंकि एक प्रकाशक के नाते उसका मार्क्सवादी होना, उसके लिए लाभदायक है. वह जितनी औरतें को छोड़ता, उनसे कहीं ज़्यादा उसकी ओर खिंची चली आतीं.
    
पीटर की जीवन-शैली एकदम अलग थी. उदार परिवेश का वह युवक देश का एस्टेट-एजेन्ट भी था और ऑक्सफ़ोर्ड में एक भद्र अंग्रेज़ पुरुष की तरह रहता था. वहाँ बहुत सारी विदेशी लड़कियाँ विभिन्न भाषा-संस्थानों में अंग्रेजी का अध्ययन कर रही थीं. उनमें कुछ अमीर भी थीं. अपने संकोची स्वभाव के चलते वह उनकी अनदेखी करता था और अपनी गतिविधियाँ बनाए हुए था. वे भी उसे भिन्न स्वभाव का समझती थीं. बुद्धि में वह औरों से काफी तेज़ था, धान से निकले दाने की तरह विषय का आशय तुरन्त भाँप लेता था.
    
एक बार उसे दो-तीन अमीर यूरोपीय घरों से बुलावा आया. उसने खुद को सँवारा और वहाँ जाना शुरू कर दिया. बालों को आधे फ़ौजी स्टाइल में कटवा कर उसने अपने लालटेनी जबड़ों को काम में लेना सीख लिया. अवर कॉमन रूम में एक दिन हम लंच के बाद एक बेकार-सी कॉफी पी रहे थे. उसने मुझसे पूछा- ‘‘तुम्हारे अनुसार किसी आदमी पर सबसे सेक्सी कपड़ा कौन-सा लगता है ?’’ यह कॉमन रूम की जाने लायक़ बात नहीं थी. लेकिन इससे पता चलता था कि पीटर एस्टेट.एजेन्ट वाले रास्ते से दूर किधर जाने लगा था.
    
अंत में उसी ने बताया- ‘‘एक बेहद साफ़-सुफरी और इस्तरी की हुई सफ़ेद क़मीज़.’’ यह बात उसे एक फ्रांसीसी लड़की ने बताई थी जिसके साथ उसने कल की रात गुज़ारी थी. तब से वह हमेशा सफ़ेद क़मीज़ पहने रहता . आजकल तो वे काफ़ी महँगी हो गई हैं. हाथ की बुनी ऐसी सूती कमीजों को वह जैकेट के ऊपर कॉलर निकाल कर पहनता. स्टार्च डालने से कॉलर मोम.सी कड़क लगती थी. अकादमिक दुनिया में पीटर एक इतिहासकार था. उसने इतिहास में भोजनजैसे महत्वपूर्ण विषय पर एक पुस्तिका लिखी थी; जो वास्तव में एक किताब की संपादित प्रस्तुति थी.
    
वह केवल दिखाने भर के लिए नई किताबों और प्रकाशकों से अंग्रिम पैसा पाने की बात बताता रहता. सच यह है कि उसकी बौद्धिक ऊर्जा क्षीण हो चुकी थी. औरतों ने उसे लील लिया था. उन्हें तृप्त करने के लिए वह संभोग का विभिन्न तरीकों से वर्णन करने में लगा रहता. याद रखना विली, पीटर औरतों की बातचीत और यौन-आनंद की तरह-तरह से व्याख्या करता था. आज भी उसकी सफलता का यही राज़ है. अकादमिक दुनिया में भी वह औरतों की वजह से बना हुआ हैं. अब तो वह लातिन-अमेरिका का विशेषज्ञ हो गया था, क्योंकि एक कोलम्बियाई युवती के रूप में उसे एक बम्पर ईनाम मिला है. कोलम्बिया-जैसे ग़रीब देश की यह युवती लातिन-अमेरिका की उन अन्ध-आस्थाओें से जुड़ी है जो पिछली चार शताब्दियों से इंडियनों की अस्थि-मज्जा में घुसी हुई है.
“वह पीटर के साथ रहने लगी है, रिचर्ड इस साधारण रूप में नहीं लेगा. वह जल-भुन रहा होगा. वह ज़रूर कोई माक्सर्वादी जाल रचेगा. मैंने वह पार्टी इसलिए भी रखी है ताकि तुम उस युवती से बातचीत कर सको. कुल मिलाकर दस लोग होंगे.’’
    
विली ने गिनने का प्रयास किया पर नौ ही याद आ रहे थे. दसवाँ कौन होगा, यही बात उसके दिमाग़ में चल रही थी.
    
एक दिन रोज़र ने बताया, ’’मेरा संपादक हमारे यहाँ रुकना चाहता है. मैं उसे अपने एकदम छोटे घर के बारे में बता चुका था, लेकिन वह कहता रहा कि उसे पता है, उसकी परवरिश भी ग़रीबी में हुई थी, अब या तो मैं कम बिस्तर में काम चलाऊँ या किसी होटल में ठहरूँ. लेकिन यह तो ठीक नहीं होगा कि अपनी पार्टी में मैं ही मेहमान.सा रहूँ.’’
    
पार्टी के दिन विली रोज़र के यहाँ पहुँचा. पर्दिता उसे अंदर लिवाने आई. वह ठीक से पहचान में नहीं आ रही थी. संपादक पहले ही आ पहुँचा था. चश्मा लगाए वह सज्जन इतने मोटे थे कि उसकी क़मीज़ फटने को हो रही थी. विली को अपने बारे में ऐसा सोचकर शर्म आ रही थी. संपादक होटल भी नहीं जाना चाहता था और रोज़र का घर आर्किटेक्ट द्वारा बड़ा दिखाने की कोशिश के बावजूद उनके जगह घेरने से छोटा लग रहा था.
    
रोज़र ने बेसमेंट से आकर सबका परिचय कराया. सम्पादक वैसे ही बैठा रहा. बातचीत के दौरान संपादक ने बताया कि उसने 1931में महात्मा गाँधी को देखा था, जब वे इंग्लैण्ड आए थे. उसने उनके कपड़ों आदि पर कोई टिप्पणी नहीं की. हालाँकि विली, उसकी माँ और माँ के चाचा महात्मा से घृणा करते थे. फिर जब मारकस आया तो वह पॉल रॉबेसन  को देखने की बताने लगा था.
    
मारकस बेहद आत्मविश्वासी, उत्साही और मज़ाक़िया था. विली उससे बातचीत कर काफ़ी प्रभावित हुआ. ’’मुझे आपकी सबसे बड़े पौत्र वाली योजना का पता है.’’ विली ने बताया. वह कहने लगा- ’’यह कोई बड़ी बात नहीं है. बल्कि पिछड़े डेढ़ सौ सालों में यहाँ यह खूब हुआ है. अठारहवीं सदी में इंग्लैण्ड में अश्वेत लोगों की संख्या आधा मिलियन रही होगी. आज सबके सब स्थानीय लोगों में मिल गए हैं. उनकी नस्ल तक बन गई है. असल में नीग्रो जीन अप्रभावी होता है. अगर यह ख़ूब होता तो यहाँ आज की तुलना में जातीयता की भावना कम होती. जो अच्छी बात थी. ऐसी बहुत सारी चीजे़ं यहाँ बची हुई हैं, इसलिए कह रहा हूँ. मैं तुम्हें एक कहानी सुनाऊँ. जब मैं अफ्रीका में था तो मेरी मुलाकात अलास्का की एक फ्रांसीसी औरत से हुई. कुछ दिन बाद उसने मुझे अपने परिवार वालों से मिलाने की इच्छा जताई. हम यूरोप गए और उसके घर पहुँचे. उसने स्कूल जीवन के अपने मित्रों से मेरा परिचय कराया. लेकिन वह उनकी संकीर्ण मानसिकता के चलते बड़ी भयभीत थी. अगली सुबह मैंने सबको खूब खींचा बल्कि उनकी माताओं को भी नहीं बख़्शा. फिर भी मेरी दोस्त को चिन्ता होती रही.’’
    
तभी कवि महोदय पधारे. उन्होंने बड़े आदर से संपादक का अभिवादन किया, इसके बाद अपनी बीवी के साथ कमरे के एक कोने में खिन्न.से होकर बैठ गए.
    
वह कोलम्बियाई औरत (जिसे पीटर लाया था) विली की उम्मीद से हटकर अधेड़ उम्र की, शायद चालीस से ऊपर की रही होगी. उसका नाम सेराफिना था. वह दुबली.पतली और व्यवहार.कुशल लग रही थी. लेकिन उसके चेहरे से परेशानी के भाव दिख रहे थे. उसने बालों में रंग किया हुआ था और उसकी बेहद सफ़ेद त्वचा बालों तक पाउडर से पुती थी. कुछ देर बाद वह उठी और विली के सामने आ बैठी. ’‘आपको औरतें अच्छी लगती हैं ?’’ फिर विली को सकुचाते देख कहने लगी- ‘‘असल में सभी मर्दों को औरतें पसन्द नहीं होती. मैं जानती हूँ कि मैं छब्बीस साल तक कुँवारी रही. मेरे पति समलिंगी  (Pederast) थे. कोलम्बिया में इसके लिए एक डॉलर में आपको दोग़ले लड़कों की भरमार मिल जाएगी.’’

‘‘छब्बीस के बाद आपके साथ क्या हुआ ?’’ विली ने पूछा.

’’मैं आपको आपबीती बता रही हूँ. ज़ाहिर है कुछ तो हुआ ही होगा, लेकिन मैंने कोई पाप नहीं किया.’’
रोज़र और पर्दिता खाने.पीने की व्यवस्था करने लगे थे. वह फिर बोली- ‘‘मुझे मर्द अच्छे लगते हैं. उनमें बेहिसाब ताक़त होती है.’’ ‘‘तुम्हारा मतलब ऊर्जा! ’’ विली ने पूछा.
‘‘मेरा मतलब अतुलनीय शक्ति से है.’’ वह चिढ़-सी गई थी. विली ने पीटर की ओर देखा, वह पार्टी के लिए एकदम तैयार लग रहा था. लेकिन उसकी आँखें उदास, थकी और खोई-खोई मालूम होती थीं.
रोज़र ने खाना आगे बढ़ाते हुए पूछा- ’’सेराफिना, तो फिर तुमने किसी समलिंगी (Pederast) से शादी क्यों की ?’’
    
‘‘अपनी अमीरी और गोरी जिद्द के चलते.’’
‘‘यह तो कोई ख़ास वजह नहीं है.’’ रोज़र बोला.
उसने ध्यान नहीं दिया- ‘‘अपनी आने वाल संतान को हम धनी और गोरा देखना चाहते हैं. हम विशुद्ध स्पेनी बोलते हैं. मेरे पिता भी गोरे और सुंदर थे, काश तुम उन्हें देखते. हमारे लिए कोलम्बिया में शादी करना ही मुश्किल है.’’
विली बोला-‘‘क्या कोलम्बिया में और गोरे लोग नहीं हैं ?’’
‘‘तुम्हारे लिए यह कहना जितना आसान है हमारे लिए नहीं. अभी मैंने जो कुछ बताया, उसी के कारण हमारे लिए पति की खोज मुश्किल है. हमारे यहाँ की बहुत सारी लड़कियों ने यूरोपियों से ब्याह रचाया है. खुद मेरी छोटी बहन ने अर्जेन्टीनियाई से शादी की है. पति के लिए हम इतने सचेत न हों तो ग़लती ही करेंगे.’’
    
’’यह ग़लती ही तो है, कोलम्बिया छोड़कर चुराई हुई इंडियन ज़मीन पर रहना.’’ रिचर्ड (उसी प्रकाशक) की आवाज़ कमरे से बाहर तक जा रही थी.

‘‘मेरी बहन ने किसी की जमीन नहीं चुराई.’’ सेराफिना बोली. रिचर्ड बोला- इसे अस्सी वर्ष पूर्व जनरल रोका और उसके गिरोह ने चुराया था. रेलवे और रेमिंग्टन राइफ़ल के सामने इंडियन गुलेल एवं पत्थर आ खड़े हुए थे. उनमें घास और पेड़ों के मैदानों के साथ अच्छी.बुरी कई चीजें आ गई थीं. अब तुम्हारी बहन लूट के पुराने माल की नई चोरी कर रही है. मैं तो इवा पेरन  का धन्यवाद देता हूँ, जिसने टूटी-फूटी हवेलियाँ तो ढहा दीं.

‘‘ये सब मुझे प्रभावित करने की कोशिश कर रहे हैं. यह कोलम्बिया में आम है.’‘ सेराफिना ने बताया.
मारकस बोला ‘‘मुझे नहीं लगता, इस बात की जानकारी सबको होगी कि 1800ई. में ब्यूनस आयर्स और उरूग्वे में नीग्रो लोगों की बहुत बड़ी तादाद मौजूद थी. आज वे स्थानीय आबादी में घुल मिल गए हैं. और संतानें पैदा कर रहे हैं. नीग्रो जीन की अप्रभाविता के बारे में भी सब नहीं जानते.’’
    
रिचर्ड और मारकस की बातचीत बढ़ चली थी. मारकस जो भी कहता, रिचर्ड छेड़छाड़ भरे लहज़े में उसका उल्टा बोलता. सारी बातचीत के दौरान पीटर कुछ नहीं बोला. सेराफिना विली से बोली- ‘‘यह ऐसा लगता है मानो अकेला पाते ही मुझे दबोच लेगा. सोचता होगा मैं एक भोली लातिन.अमेरिकी हूँ.’’ इसके बाद वह भी चुप हो गई. अनायास ही विली का ध्यान पर्दिता की ओर चला गया, नज़रें उसकी देह पर ठहर गईं. अब तक उसके सौन्दर्य पर उसने बिल्कुल ध्यान नहीं दिया था. बस शेज़ विक्टर में मेज़ पर दस्ताने उतारकर रखने वाला उसका मनोहर अंदाज़ याद था. उसे नॉटिंग हिल वाले कमरे में नग्न जुने याद आ गई. विली बेतरह उत्तेजित हो उठा.
    
रोज़र और पर्दिता प्लेटें हटाने लगे. मारकस ने भी उत्साह से उनकी मदद की. इसके बाद कॉफी और ब्राण्डी आ गई.
    
विली को खोया देखा सेराफिना कहने लगी- ‘‘क्या तुम्हें जलन हो रही है ?’ वह क्या सोचकर बोली, विली एकाएक नहीं समझ पाया, बोला- ‘‘नहीं, कोई और इच्छा मचल रही थी.’’ वह बताने लगी- ‘‘सुनो, जब मैं कोलम्बिया में पीटर के साथ थी, सारी औरतें इसकी तरफ़ भागती थी. यही अंग्रेज़ी नौजवान और स्कॉलर, जो वहाँ बैठा है. एक ही महीने में मेरे बारे में सब भुलाकर किसी के साथ भाग निकला.
    
इसे देश की असलियत के बारे में जानकारी नहीं थी इसलिए ग़लती कर बैठा. एक ही हफ़्ते में इसे पता चल गया कि वह अमीर नहीं थी और वर्णसंकर औरत थी, उसने इसे मूर्ख बना दिया. फिर यह वापस आया और मेरे घुटनों पर सिर रखकर बच्चों की तरह रोने लगा. मुझे माफ़ कर दो प्लीज़.मैंने इसके बालों में हाथ फिराते हुए कहा- ’’तुमने सोचा होगा कि वह अमीर और गोरी नस्ल की है.’’ ‘हाँ, हाँ,’ इसने कहा. खैर इसे सज़ा देनी चाहिए थी लेकिन मैंने इसे माफ़ कर दिया.’’
    
तभी संपादक ने दो-एक बार गला खँखारा. यह चुप रहने का संकेत था. सेराफ़िना विली से हटकर रिचर्ड की ओर देखने लगी, जो संपादक को सधी हुई नज़रों से ताक रहा था. वह कोने में बैठा हुआ बड़ा भारी लग रहा था. पैंट के ऊपर उसका पेट निकला हुआ था और क़मीज़ के बटन खिंच हुए थे.
    
वह कहने लगा- ‘‘आपमें से कोई यह बात नहीं समझ पाया होगा कि पार्टी की यह शाम एक क्षेत्रीय संपादक के लिए कैसी रही. आपने मुझे दुनिया की कुछ ऐसी झलकियाँ दिखलाईं, जिनसे मैं अनजान था. मैं अंधियारे सेटेनिक उत्तर के एक पुराने और बेकार से शहर से आता हूँ. आजकल दुनिया में हमारी पूछ नहीं है, लेकिन इतिहास में हमारा नाम अंकित है. हमारी बनाई हुई चीजें सारी दुनिया में फैली हुई हैं और आधुनिक युग के लोगों की सहायक रही हैं. अपने को हम संसार का केन्द्रबिन्दु समझते थे, लेकिन अब ऐसा नहीं रहा. अब तो आप जैसे लोगों से मिलकर पता चलता है कि दुनिया किधर जा रही है. इस पार्टी की तरह आप सबका जीवन तड़क.भड़क वाला रहा है. आप लोगों के बारे में अब तक जो कुछ सुना था, आज देख भी लिया. लेकिन आपने एक ऐसे आदमी का सम्मान किया, जो इन सबसे बहुत दूर है, इसके लिए मैं हृदय से आपका धन्यवाद करता हूँ. किन्तु अंधियारे में रह रहे हम लोगों की भी आत्मा है, कुछ आकांक्षाएँ, कुछ सपने हैं. लेकिन ज़िन्दगी के बारे में कुछ भी कहना कठिन है. कवि ग्रे  ने कहा था- शायद यहाँ वह दिल लगा है जो कभी नक्षत्रीय गीतों से समृद्ध था.’  यह उनके जैसा तो नहीं फिर भी मैंने अपने हृदय से कुछ लेखन किया है और इससे पहले कि हम लोग बिछुड़ें, शायद हमेशा के लिए, मैं आप लोगों की इज़ाजत से वह सुनाना चाहता हूँ.
     उसने जैकेट की भीतरी जेब से अख़बारी कागज़ की कुछ मुड़ी हुई तहें निकालीं और मौन.भरे उस माहौल में बिना किसी की ओर देखे, नीचे रख दीं.
    
‘‘ये गैली हैं, अख़बार के प्रूफ़. यह कॉपी बहुत बड़े आकार में तैयार होती है. इसमें शायद एकाध शब्द बदले गए हैं, कुछ बेढंगे वाक्यांश सुधारे गए हैं. अब यह पूरी तरह प्रेस के लिए तैयार है. जिस दिन मेरी मृत्यु होगी, उसी हफ़्ते यह हमारे अख़बार में छपेगी. आप सोचेंगे यह मेरी निधन.सूचना बनेगी. आप जैसे कुछ लोग हाँफने लगेंगे, कुछ ठण्डी आहें भरेंगे. लेकिन मौत तो सबको आती है, इसके लिए तैयार भी रहना चाहिए. मैं कोई शेख़ी नहीं बघार रहा हूँ. मुझसे ज़्यादा आप इस बारे में जानते हैं. फिर भी जो कुछ होगा, विषाद के क्षणों में मैं आपको हौसला रखने के लिए ही कहूँगा.
उसने पढ़ना शुरू किया -

‘‘हेनरी आर्थर पर्सिवल सोमर्स, जो कि नवम्बर 1940में इस अख़बार का संपादक बना, दूसरे पृष्ठ पर उसके निधन की विस्तार से सूचना है, का जन्म 17जुलाई 1895को एक जहाज़ मिस्त्री के यहाँ हुआ था...’’
धीरे-धीरे, गली-दर-गली कहानी खुलती गई थी, जिसमें छोटा-सा घर, पतली-सी गली, पिताजी की बेरोज़गारी के दिन, परिवार से वियोग, चौदह साल की उम्र में बच्चे का स्कूल छोड़ना, विभिन्न दफ़्तरों में छोटी-मोटी क्लर्की, विश्व-युद्ध, मेडिकलजाँच में आर्मी से निकाला जाना, आख़िरकार युद्ध के अंतिम दिनों में इस अख़बार के प्रोडक्शन पर कॉपी-होल्डरजो कि लड़कियों का जॉब है, की नौकरी, कम्पोज़िटर के लिए ज़ोर-ज़ोर से पढ़ना ... आदि आए. पढ़ते-पढ़ते उसका गला भर आया था.
    

कवि और उसकी पत्नी इससे अलग, बिना किसी हैरानी के देख रहे थे. पीटर शून्य में ताक रहा था. सेराफ़िना सीधी बैठी हुई रिचर्ड की ओर देख रही थी. मारकस मानसिक बेचैनी लिए इधर.उधर की सोच रहा था. एकाध बार वह थोड़ा.सा बुदबुदाया, फिर अपनी ही आवाज़ सुनकर चुप हो गया था. लेकिन विली संपादक की कहानी से बहुत प्रभावित दिख रहा था. यह सब उसके लिए नई चीज़ थी. हालाँकि उसे कोई गहरी जानकारी नहीं मिली. फिर भी उसने संपादक का शहर और उसके जीवन में झाँकने का प्रयास किया. उसे अपने पिता की याद आ रही थी, फिर वह चौंककर अपने बारे में सोचने लगा. सेराफ़िना उसकी ओर मुड़ चुकी थी और बातचीत सुनकर स्तंभित लग रही थी. विली और सुनने के लिए थोड़ा आगे बढ़ गया.


संपादक को विली के झुकाव का पता था, पर वह शिथिल होने लगा था. उसके शब्द अटक रहे थे, एकाध बार उसने सिसकियाँ भी लीं. इस तरह वह अंतिम गेली तक पहुँच पाया. उसके चेहरे पर आँसू झिलमिलाने लगे थे, मानो रो देगा ....
’‘अपने जीवन के कड़वे अनुभव उसे याद थे. फिर पत्रकारिता प्रकृति से ही स्वल्पायु होती है, जो कोई कीर्ति.चिह्न नहीं छोड़ती. प्रेम जैसा स्वर्गिक अहसास उसे कभी नहीं छू पाया, लेकिन अंग्रेजी भाषा के साथ उसका रोमान्स ताउम्र चलता रहा....’’
उसने अपने धुँधला चश्मा उतारा, सभी गेलियाँ उठाई और गीली आँखों से फ़र्श को ताकने लगा. माहौल गंभीर हो गया था.
 
तभी मारकस ने टिप्पणी की- ‘‘लेखन का यह बेहद उत्कृष्ट नमूना है.’’ लेकिन संपादक ख़ामोश रहा. वह उसी तरह बैठा रहा. कमरे में फिर चुप्पी आ पसरी थी. पार्टी ख़त्म हो गई थी. लोग गुडबायभी ऐसे फुसफसाकर बोल रहे थे मानो किसी रोगी के कमरे से निकले रहे हों. कवि और उसकी पत्नी तो ऐसे निकल गए मानो थे ही नहीं. सेराफ़िना भी रिचर्ड को देखते हुए उठी और पीटर के साथ चल पड़ी.
 
’‘मैं सफाई में तुम्हारी मदद करूँ, पर्दिता!’’ मारकस ने धीरे.से पूछा. विली जल.भुन गया था पर उसे किसी ने रुकने को नहीं कहा.
 
अपनी उदासी पोंछकर रोज़र विली को दरवाजे़ तक छोड़ने आया था. इसके बाद शरारत से कहने लगा- इन्होंने मुझे बताया था कि ये मेरे लंदन के दोस्तों से मिलना चाहते हैं. लेकिन इन्हें शायद ऐसे दर्शकों की उम्मीद नहीं थी.’’



भारतरत्न भार्गव की कविताएँ

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अस्सी वर्षीय भारतरत्न भार्गव (१९३८) का चालीस वर्ष के लम्बे अंतराल के बाद दूसरा कविता संग्रह ‘घिसी चप्पल की कील’ संभावना प्रकाशन से इसी वर्ष (२०१८) प्रकाशित हुआ है.

भारतरत्न भार्गव इस बीच रंगमंच, भरत मुनि के नाट्यशात्र और आधुनिक रंग–अवधारणाओं के चिन्तन मनन आदि में संलिप्त रहे. रॉयल एकडेमी ऑफ ड्रेमिटिक आर्ट्स (लन्दन), एनएसडी आदि से प्रशिक्षित भार्गव केन्द्रीय संगीत नाटक अकादेमी के उपसचिव पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात सम्प्रति नेत्रहीन बच्चों की आवासीय संस्थान नाट्यकुलम  के संस्थापक एवं कुलगुरु हैं.
  
अपने आत्मकल्प में कवि कहता है –धीरे-धीरे यह समझ में आने लगा कि कविता में भाषा का इतना अधिक महत्व नहीं जितना शब्द का है. कविता के शब्द का जितना अधिक अर्थविस्तार होगा उतनी ही वह प्रभावकारी होगी. अभिधात्मकता शब्द की विराट सत्ता को सीमित कर देती है.”
   
इस संग्रह से कुछ कविताएँ आपके समक्ष प्रस्तुत हैं. विस्तृत अनुभव और मनन से परिपक्व इन कविताओं के लिए कवि को बधाई.  

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भारतरत्न  भार्गव  की  कविताएँ                             



छतरी


वह बैठी दुबकी कोने में पैबन्द लगी
काली सी बूढ़ी याद पिता की
टूटी छतरी.

डर लगता छूते झरझरा कर गिर पड़ने का
पुराने पलस्तर का
मन की दीवारों को करके नंगा. 

यादें खुलकर नुकीले तारों सी
सीने में उतर जा सकतीं
हो सकता मर्माहत
किसी उखड़ी याद के पैनेपन से
अकारण ही अनायास.

इतिहास है छोटा इस याद का
छतरी भर.

चिपट गई थी कैशोर्य में
हौल खाए बच्चे की तरह
शव को मुखाग्नि देने के बाद.

कभी यह याद चलती थी साथ-साथ
धूप में छांव में
भाव में अभाव में
देती थी सब
देती ही होगी सब कुछ
जो नहीं मिलता कहीं कभी भी
छतरी के अलावा.

अब नहीं देती कुछ भी
सुख-दुःख
करुणा-शोक
अंधेरा-आलोक
धिक्कार-स्वीकार
प्यार-वितृष्णा
यह पैबन्द लगी याद.

फिर भी बैठक के कोने में
दुबकी सी रहती है
पिता की याद
ज़रूरी से सामान के साथ
टूटी छतरी.                                  



 
कचरा बीनते रामधुन


सूरज ने अलसाई चदरिया उतार दी
खिड़की दरवाज़ों के पर्दे सरकाए. फिर
झांका शीशे से. बाहर आकाश थिर.
ओस स्नात दूर्वादल. मैंने भी आँख मली.

पास कहीं शंखों और घंटों की ध्वनि गुंजित.
शब्दों में अनबोली कामना थी मुखरित.
भावों का सौदा यह. घृत-दीपक आरती.
चंदन की झाड़न पथ मन के बुहारती.

चिमटे सी अंगुलियाँ. कचरे के ढ़ेर पर
बीन रही ज़िन्दगी. दुर्गन्धित चिन्दियाँ
कूकर या शूकर या गाय या मुर्गियाँ.
प्राण और पेट का रिश्ता है विग्रहकर.

मंदिर में शंख और कचरे में ज़िंदगी.
आत्मा और देह की तुष्टि हेतु बन्दगी.
पहले में स्वर्ग काम्य, दूजे में नंगा दर्द.
रिश्ता क्या खोजना ! प्रश्न हैं सभी व्यर्थ.

मैंने फिर घबराकर खिड़की के पर्दों को
डाल दिया सोच पर. क्यों बूझूँ अर्थों को.





लाजवन्ती

कैसे पहुँच गया
लाजवन्ती के युवा पौधों के बीच
पता नहीं.

फूल ये गुलाब से सलोने
पर चौकन्ने
रोम-रोम सजी प्रतीक्षित मुखश्री
देखती रहीं कौतुकी दृष्टि
छू भर दिया अनछुए कपोलों को

सहमी फिर लजा गई
सखियों के आँचल में
लुक-छिप जाने को आकुल-व्याकुल

चित्ताकर्षक भंगिमा
अनुभव था नया-नया
विस्मृतियों को ताज़ा करते
मुड़ने लगे पांव अनायास फिर
कांटों कंकरों भरी पगडंडियों की ओर!

लौटते देख मुझे
आहिस्ता से खोली पलकें
उठी गरदन, कंपकंपाए ओठ
पढ़कर मेरी आँखें निस्पृह, निर्विकार
बोली धीमे चुपके से-
रूको, फिर नहीं छुओगे मुझे!




बोनसाई

स्वच्छंद गर्वोन्नत क़द्दावर पेड़ों की सन्तानें
किस प्रलोभन से
सुसज्जित कक्षों की शोभा बढ़ातीं
किसका अहम् करते हैं तुष्ट
ये बोनसाई

अपनी शाखों पत्तियों जड़ों को
काट दिए जाने पर
क़ैद हो जाती छोटे से प्याले में
क़द्दावर पेड़ों की आधुनिक सन्तानें

मरती नहीं कभी भी
सीख रही हैं
हाथ पांव मुंड काट दिए जाने पर भी
जीवित रहने की कला
ये बोनसाई सन्तानें!




राख और आग


बिसरी बिखरी पगडंडियों को
संवारने बुहारने वाले
लहुलुहान ज़िद्दी हाथों को पढ़कर
कोई भी समझ सकता था
कंटीली झाड़ियों और पथरीली ज़मीन की वह दुनिया
ओझल क्यों रही राख की चादर में लिपटी.

यहीं से उड़ान भरते हैं वे दृष्टिकल्प
जिनकी सुकुमार आँखों के लिए
तितलियों के पंखों से निर्मित है रंगपरी
दृष्ट हैं निर्जन बस्तियाँ
अलंकृत हतोपलब्धियाँ.
आँखों के अन्दर की आँखों से
फूटते उजाले ने परोस दिया
अर्थ गर्भित शून्य.
यहीं कहीं, हाँ यहीं कहीं होगा
पूर्वजों के नामालूम ख़जाने का
अघोषित रहस्य
पुराणों और इतिहास के ताबूतों से
फूटती चिंगारियाँ रात के अंधेरे में.

सिरे खो गए हैं और गांठे अबूझ
फिर से शुरू करनी होगी
राख और आग की परिक्रमा
परिभाषित करना नये सिरे से आग को.
कहाँ है वह ओझा
जो राख को
आग बनाने का मंत्र जानता है!



आत्मरोदन

लाल चींटियों का गिरोह
घसीट कर ले जा रहा है अपने बिल में
एक बूढ़ी आत्मा.

गोपन विषैले डंकों को निरापद ज्ञापित करते
अन्दर की आँखों में छिपाए दहशतनाक इरादे
बढ़ता मौन जुलूस आहिस्ता-आहिस्ता
रहस्यमय गन्तव्य की ओर
जा पहुँचता है अनजाने ब्रह्माण्ड के
अन्तिम छोर तक.
अशरीरी आत्मा का क्रन्दन या ग़रीब का रोदन
चीख़ने बिलखने की भाषा से बेख़बर
आक्रोश के भाव से अभावग्रस्त
चला जाता है न जाने की चाह के बावजूद
किसी अदृश्य लोक में.
एक अनाम ग्रह से करता उत्कीर्ण
समूची धरती के दुःस्वप्नों के कथादंश
एक अनलमुख पिशाच
विदेह में होता नहीं द्रोहकर्ष
भले ही स्मृतिकोष में धंसी हों
रौंदी और कुचली आकांक्षाओं की बस्तियाँ
अनिमेष अग्निकांड में झूलती प्रार्थनाएं/याचनाएं
रौशनी और धुआँ
सिरजन और ध्वंस में निर्द्वन्द्व
लाल चींटियों की गिरफ़्त से
मुक्ति की करती प्रतीक्षा
एक बूढ़ी निरानंद आत्मा.




लुप्त होता आदमी


वह चाहता नहीं था लुप्त होना
इस सचेतन संसार से
यह भी नहीं कि ख़ामोश बैठा रहे
अपने को खारे समुद्र में घुलता जान कर भी

वह जानता था समझता
उसके लुप्त होते जाने की वजह
वह नहीं है क़तई नहीं
उसका मन हुआ कि एक बार
सिर्फ़ एक बार
वह होते रहने भर के लिए ज़ोर से चीख़े
कि शामिल हों वे जो गूंगे हैं बहरे भी
जिन्हें पता नहीं अभी तक
कितना ख़तरनाक हो सकता है लुप्त होता आदमी
उसके लगभग न होने के बोझ से दबी
शातिर निगाहों ने समवेत अफ़सोस
ज़ाहिर किया और उसके दफ़्न के लिए
आकर्षक ताजिए बनाने में मशगूल हो गए
ढोल ताशों के साथ छातियाँ पीटते
बुद्धिजीवी जश्न मनाने की फ़िराक में थे
कि तभी धरती के स्तन से फूटी दूध जैसी
एक बूँद उसके हलक़ में उतर गई

यह कैसे हुआ और क्यों उसे पता नहीं
लेकिन लगातार ऐसी अप्रत्याशित घटनाओं के बावजूद
उसका लुप्त न होना सुखद आश्चर्य ही तो है.




दुख उवाच

दुख ने कहा सुख से
ओ अभिलषित,
जग वन्दित,
मेरा भी जीवन है
पर तुम सा नहीं.

क्यों है नीरांजन प्रेम का
रक्त सिंचित ?
फूलों की पांखुरियों में
छिपे हैं शूल-दंश भला क्यों ?
यही प्रश्न गढ़ती हैं मेरी सांसें

अत्यन्त लघु है तुम्हारा संसार
उच्छवास और विराम तक सीमित
चिथड़ा चिथड़ा अपेक्षा आकांक्षा
निजता के गुह्य अन्तर में लुका छिपा बैठा
चोर अवसर ताकता
चुपके से बोध का घर उजाड़ देने का.

लगता है इसी राह में पड़ाव है तुम्हारा
किन्तु वह सराय है
मैं रहता अनन्त में
वीरान अंधी संकरी गलियों से गुजरते
चुग्गा तलाशती चिड़ियों की आकुलता
निश्चल होती लहरों पर डूबते सूरज का अवसाद
वेदना की धड़कन पर घात-प्रत्याघात
नितान्त अपरिचित तुम्हारे संसार से.

अश्रु विन्दु में डूबकर समन्दर पार करने का संकल्प
तरूशाखों से झरते हुए पत्तों की
तड़कती नसें सहलाते हुए
बार-बार स्पंदित अनुभव करने का तोष
धधकते भाड़ की आग में चने सा खिलना
मेरा जीवन है
तुम्हारे समूचे ब्रह्माण्ड से अलग.       





अनवरत : बंसवन में


रूखे सूखे बंसवन को
झिंझोड़ती आँधी
आँखों में भर गई रेत
उखाड़ पछाड़ गई
डूबते दिन का मस्तूल
कुल्ले करके कोलाहल के गिरेबान में
लौटने लगी उतनी ही जल्दी.

बूढ़े बांस ने
पकड़ा गला
दी पटकनी
धोबी पछाड़ खाकर
गिरी चारों खाने चित्त आँधी
कहा कान में फटे बाँस ने-
इतना सब दे गई हो
लेकर नहीं जाओगी कुछ भी
फिर उसने
चुपके से रख दिया ओठों पर
कभी न मिटने वाला निशान
बांसों की दुनिया में
तभी से अनगिनत स्वर हवाओं के साथ
गलबहियाँ डाले
बंसवन में नाचते हैं अनवरत.




अग्नि-चिरन्तन


समिधा और शव
दोनों हैं आग्नेय !

कहाँ से धारण करती है
अग्नि अपना रूप
आकाशचारी मेघों के हिरण्याक्षों से
चन्दनवन की अंगुलियों की पोरों से
भभूत रमाए पर्वतों के विपर्यस्त ज्वालामुख से
जड़ से
चेतन से
तृप्ति से अतृप्ति से
दाह से आह से
प्रतिभासित है उसमें वह सब जो चिरन्तन नहीं

अग्नि नहीं है देह
अग्नि है आत्मन्!
जीवन है अग्नि
राख बनाती है समस्त ब्रह्मांड को.




घिसी चप्पल की कील


ईश्वर के संभावित जन्म और आशंकित मृत्यु तक का
लेखा-जोखा जिस छोटे से बटुए में बंद है
डर लगता उसे खोलते.

समस्त जीवाणुआें के अनन्त अनुभव
परीक्षित नियम सिद्धान्त दर्शन
मंत्र यंत्र षड़यंत्र
जटिल कुटिल युद्ध-चक्र
तीनों लोकों पर विजय की पुराण कथाएं
पृथ्वी का धीरे-धीरे अग्निपिंड में बदलना
सब कुछ जानने के लिए
बंद बटुए को खोलना ज़रूरी
किन्तु लगता है डर!

फिर भी खोलना तो होगा ही
चाहे इसमें षड़-यंत्र हों या बाइबिल
आर डी एक्स हो या कुरान
विनाश हो या गीता
इसे खोले बिना
समझना असंभव उस भाग-दौड़ का महत्त्व
पड़ावों का रहस्य
लगातार आत्म-रोदन, शोधन, प्रतिरोधन
या बहु-व्यापी शोकाकुल संगीत!

कौन था वह आदि पुरुष
जिसने चलने की ठानी
इच्छा जागी भागने-दौड़ने की.
तभी समझा पाँवों का महत्त्व
अपनी जगह खोजने और बनाने में
बीत गए हज़ारों हज़ार वर्ष!

छोटी सी दुनिया को
बड़ा करते जाने के लिए
आदमी चलने लगा
अक्षांश से देशान्तर तक
विचार से संकल्प तक
अनुभव से सिद्धान्त तक
सृजन से विसर्जन तक.
इस चलनेको यदि चाहें तो
कह सकते हैं यात्रा भी,
यात्रा एक कुलीन घराने का शब्द है
शालीनता के कोष का.

दीगर है बात यह
पाँवों का पाँव होना सार्थक होता है
चलने से, यात्रा से नहीं.

यात्रा शोभित होती
घोड़े की पीठ, हाथी का हौदा,
विकास/विलास का विमान
या फिर धर्म-ध्वजा पर आसीन!
उधर, चलते हुए बनता जो रिश्ता पाँव का
ज़मीन के खुरदुरेपन से
वह यात्रा से नहीं.
इसलिए पाँव चलने लगे
भूगोल और इतिहास को छोटा करते हुए
पाँव बड़े होने लगे.

गरिमामंडित सज्जा के लिए
पाँवों ने मांगा कवच कलेवर
सुविधा और सुरक्षा भी
कारण रहे होंगे,
रहे ही होंगे निर्विवाद यह.

वह चप्पल थी या खड़ाऊँ
जिसे राम ने भरत को दिया था उधार
या वामन के तलुओं का लेप
तीन पग में समूची सृष्टि जिसने
नाप डाली.

शक्ति वर्धक थी चप्पल पाँवां के लिए
वर्धन के बाद सत्ता और वर्चस्व
सबकुछ पाँवों की बदौलत था
एतदर्थ चप्पल निहायत ज़रूरी हो गई
पाँवों के लिए.
चप्पल के बिना चलना असंभव
पाँव और ज़मीन के रिश्ते में चप्पल है साधन
वही देती है निर्देश चलना है कहाँ तक, कब तक.

पाँव और चप्पल व्यायोग
कितना विलक्षण है, विचक्षण भी.
दोनों ही नायक हैं, सूत्रधार भी दोनों
एक दूसरे को विदूषक सिद्ध करते.

घिसना तो चप्पल को होगा
पाँव ठेलते एक दिशा में.
डोली हैं पाँव,
चप्पल कहार.

पाँव सुरक्षित थे चप्पल से
चप्पल घिसने लगी, टूटने भी
पाँवों की ख़ातिर.
चाल उसे चलनी थी
उसने यह चाल चली.
घिसना स्वीकार किया.
शान्ति और क्रान्ति में
पाँवों का साथ दिया.

टूटने की बजाय
चिपट गई पाँव से खाल की तरह.
घिसी चप्पल ने पाँवों की मनुहार की
मिल जाए कील अगर
जीवन खंडित होने से बच जाए चप्पल का.
शिरस्त्राण मिला कीलों की दुनिया में
कील ने दिया चप्पल को
वह सब कुछ जो नहीं दिया पाँवों ने
केवल लिया.

कील ठुकी चप्पल के तन पर
सलीब पर चढ़ गई.

चाल हुई दुगन तिगन
द्रुत लय में खोजे सम
तर्क में वाद में
जीवन आस्वाद में
नीति और रीति में
द्वेष और प्रीति में
चप्पल की चाल का जयघोष!

(भूखे की उम्मीद की तरह
लम्बी होती जाती बात)
समन्दर के बीच उठती उत्ताल तरंगें
किनारे आते-आते बन जाती पालतू

एक सन्तनुमा विचार के अंगूठे से
टकरा कर कील ने मुँह खोला
पूछने लगी जलसाघर से आती
मदमस्त गंध से - किस तरफ है उसका पेट
(खंखार कर एक समूची यातना उगलती है गंध)

चप्पल का मुँह बंद हुआ
खुल गया कील का
सुरक्षा के घेरे को तोड़कर
फोड़ कर क़िले के कपाट और परकोटे
भौंचक्की कील ने देखा
पाँवों का निसर्ग
सातों समन्दर, तीनों लोक
ऋषि मुनियों का ज्ञान
अन्वेषित विज्ञान
पाँवों की स्तुति में लीन!
दीन-हीन कील के वंशजों ने पुकारा
चीख़-चीख़ कर दी दुहाई अधिकारों की, अस्मिता की
पाँवों के कानों तक पहुँची नहीं चीख़.

नई जन्मी कील ने
चिकोटी भरी तलुवे में
शातिर नीतिज्ञ ने छोटी सी बूंद
हलक़ में उतार दी ख़ून की. उसे चुप रखने के लिए.
नई उपजी टीस तलुवों के कलेजे तक जा पहुँची
रिस रिस कर पहुँचने लगा ख़ून कील के मुँह में.
ग़द्दार नई कील के मुँह पर मूसल दे मारी पाँवों ने
मरणासन्न कील के इशारे पर
पैदा हुई एक और कील
और कीलें और और कीलें.

बात बिगड़ती जा रही या सुधरती ?
संघर्ष का कौन सा रूप छिपा है
इस बात के मूल में ?
उद्घाटित करने में कितना जोखिम
इसे यहीं छोड़ दिया जाए
ईश्वर की आशंकित मृत्यु तक
यदि संभावित जन्म के बाद
ईश्वर अनश्वर सिद्ध हो गया
तो कैसे होगा कील के मुँह तक पहुँचे
रक्त विन्दुओं का विश्लेषण
दलित या शोषित के संदर्भ में ?
बात को समाप्त किया जाए या नहीं ?

नासूर गहराता जा रहा
पाँवों की चप्पलें तटस्थ
 संकल्पित कीलें
खुले मुँह की प्यास बुझाने के लिए.
पाँवों केहरे हरे घाव पुकारते हरे-हरे.


गन्तव्य


अपरिचित दुखों का हाथ थामे
कितनी दूर तक चलता चला आया
नहीं जानता था
इनका और मेरा
गन्तव्य कितना अलग

लिया था सहारा सुविधा के लिए
अपने बियाबान को देने नया अर्थ
कृतज्ञ हूँ इन्होंने दिया मुझे धुआँ
उजागर किया
दृश्य के अदृश्य का सत्य
चकित हूँ इन्होंने रखी अंगुली मेरी
छिन्न-खिन्न आइने के टुकड़ों पर
थमा दी लगभग फट गई कोथली

पुरखों की कोथली में
छिपी थी आँखें
आँखों में तहाए थे सूखे आँसू
आँसुओं के गर्भ में था समन्दर
समन्दर की हथेलियों में ज्वार
ज्वार के ओठों पर प्यास
       मेरी परिचिता

अब इस प्यास के सहारे
जाना ही होगा
ले जाए जिधर
भूल कर अपना गन्तव्य !


______________
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परिप्रेक्ष्य : ग्यारहवां विश्व हिंदी सम्मेलन : संतोष अर्श

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साहित्य तो समाज का दर्पण होता ही है, भाषा और साहित्य के आयोजन भी दर्पण ही होते हैं. आइये ग्यारहवें विश्व हिंदी सम्मेलन के इस आयोजन में हम अपना चेहरा देखें.  


वैश्विक हिंदी को संकुचित करता सम्मेलन का खटराग
(विश्व हिंदी सम्मेलन पर एक रपट)

संतोष अर्श

मॉरीशस जाने की योजना बहुत पहले से थी. यह संयोग या दुर्योग विश्व हिंदी सम्मेलन के समय बना यह दीगर बात है. मॉरीशस केवल स्वप्न का सा देश ही नहीं है बल्कि द्वीप की रंग-बिरंगी मिट्टी और उसके अलबेले समुद्र में भारतीय अप्रवासियों के लहू और पसीने का रंग भी शामिल है. मॉरीशस जाने के पीछे बड़ी प्रेरणा थी अश्विनी कुमार पंकजका उपन्यास माटी-माटी अरकाटी.इस पुस्तक में उन्होंने गिरमिटियों के ऐतिहासिक संघर्ष को नए-उत्तर-आधुनिक,उत्तर-औपनिवेशिक व भूमंडलीकृत प्रश्नों के साथ रचा है. इसमें मॉरीशस की भौगोलिकता का जीवंत वर्णन है. यह वर्णन पढ़ कर पिछले दिनों जब मैं राँची गया था,तो पंकज जी से इस पर बात हुई थी. मैंने उनसे पूछा था कि आप मॉरीशस गए थे क्या ?उन्होंने कहा,नहीं. कारण आर्थिक थे. मैंने उनसे कहा कि आपकी इस रचना पर मैं मॉरीशस में ही पर्चा पढ़ूँगा. यही संकल्प था. इसलिए मॉरीशस की दास्तान में बिना गिरमिटियों के संघर्ष और दर्द को शामिल किये, यह अफ़साना पूरा नहीं हो सकता. द्वीप पर जितनी हिंदी भाषा बची हुई है उसके पीछे की संघर्ष-यात्रा को विस्मृत कर देना इस भाषा के लिए कैसा होगा,हम सभी जानते हैं,किंतु इससे मुँह चुराना चाहते हैं. दूसरी ओर वे लोग भी हैं जो इस बची-खुची भाषा की देह को नोंचने-खसोटने में लगे हुए हैं.

मेरी यात्रा के लिए किसी तरह की सरकारी इमदाद नहीं थी. यह निजी स्तर पर या अन्य स्रोतों से पोषित थी. वैसे भी हिंदी के लिए बोयी जाने वाली सरकारी हरी चरी चरने वाले छुट्टे मवेशी इतना रगेदते और बेझते हुए दौड़ते हैं कि स्वाभिमानी बकरियाँ,मुर्गियाँ और भेड़ें घबरा कर दड़बे में लौट आएँ. मरे हुए ढ़ोर की देह से चीटियों को तभी कुछ मिलेगा जब सियारों और कुत्तों से कुछ बच पाएगा. लेकिन वे ज़मीन तक चाट लेना चाहते हैं. मैं वहाँ हिंदी भाषा-साहित्य के शोधार्थी और प्रेमी की तरह जाना चाहता था. उसी तरह गया. और उसी तरह उसे देखा. जैसा देखा है,वैसा ही बताऊंगा.

चूँकि इससे पहले किसी विश्व हिंदी सम्मेलन में शरीक़ नहीं हुआ था अतः इस आयोजन  के बारे में जानता नहीं था. वहाँ क्या होता है ?किस स्वाद के गुलगुले पकते हैं ?भाषा और साहित्य के होते हैं या राजनीति के ?कैसे लोग आते हैं ?हिंदी प्रेमी होते हैं या हिंदूवादी राजनीति प्रेमी ?वगैरह,वगैरह. इन सभी जिज्ञासाओं के सुलगते काष्ठ पर लोटा भर पानी पहले-पहल हवाईजहाज में जाते समय ही पड़ा. जब स्वयं को हिंदी पुस्तकों का प्रकाशक बताने वाला एक सम्मेलनी फ्लाइट अटेंडेंट से वाइन के लिए झगड़ रहा था. ये कैसे लोग थे? जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत की इज़्ज़त का फ़ालूदा बना रहे थे. जो समूह के समूह में आए थे. ऐसे ही दृश्य सम्मेलन में भोजन और नाश्ते के समय दिखते थे. लाइन में खड़ा होना भारतीयों को आता नहीं. परोसने वाले मॉरीशस के भाई-बंधु इनकी हरकतों को देख कर स्तब्ध और अवाक् रह जाते थे. वे खीझ सकते थे, या अपना सिर पीटते. लेकिन उन्होंने गुनगुना और धैर्यपूर्ण स्वागत किया.

सम्मेलनियों में आशाराम बापू और राधे माँ जैसे नर-नारी भी थे. सरकारी प्रतिष्ठानों के सरकारी ख़र्च पर आए कारकून भी थे. आत्म-मुग्ध लेखक-लेखिकाएँ थीं,कवि-कवयित्रियाँ, आध्यात्मिक मॉडल्स जिनकी नंगी कामोत्तेजक पीठ पर वैदिक टैटू गुदे हुए थे,तंत्र-मंत्र वाले औघड़-औघड़नियाँ थे, आर्य वीर और मर्यादा पुरुषोत्तम भी थे. कुछ ठरकी बूढ़े और अधेड़ भी थे जो विदेशी धरती पर भी अपने ठरकपन से बाज़ नहीं आ रहे थे. यह एक अनुभवजनित घटना तब बन गई जब हिंदी का एक घोषित कवि और प्रतिष्ठित प्रकाशनों से छपा एक लेखक अपने दो लफंगे मित्रों के साथ,उनसे किसी प्रकार की सहायता माँगने गई एक छात्रा से द्विअर्थी,कुंठित बातें करने लगा. इससे पहले मैं उससे कहता कि मैं उसे जानता हूँ यति और इंद्रियों से मिश्रितलेखक अपनी कुंठा का प्रदर्शन कर बैठा. इसलिए मैंने उसे न पहचान कर उसके इस कृत्य का दण्ड देने की कोशिश की. लेकिन शर्मदारी और बेशर्मी में बड़ा फ़र्क यह है कि शर्म की एक हद होती है. कई बार ऐसा होता है कि जितनी हमें शर्म आती है लोग उससे कई गुना अधिक बेशर्म होते हैं. चुनांचे यक्ष-यक्षिणियाँ,किन्नर, गंधर्व,देव-मनुष्य सब थे. एकाध हम जैसे असुर भी थे. कुछ जनवादी भी थे जो सरकारी ख़र्च पर यात्रा का मोह त्याग नहीं पाए थे और यात्रा को सार्वजनिक करने से बच रहे थे. अतः अंतर्राष्ट्रीय साहित्यिक स्व छाया चित्ररोपण (सेल्फ़ी) कर तो रहे थे,किन्तु उसे थोबड़ पोथी (फ़ेसबुक) पर चस्पा (शेयर) नहीं कर रहे थे. उनके भेद समय स्वयं खोलेगा.

हिंदी को राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर संकीर्ण बनाने का पहला प्रयास उसके सवर्णीकरण से शुरू होता है. यद्यपि कुछ लोग उसे हिंदूकरण कहते हैं. इस सम्मेलन को भी वाम धड़े के विचारक हिंदी नहीं,हिंदू सम्मेलनकह रहे हैं. किन्तु ये विचारक ये नहीं देखते कि हिंदी के थोड़े से साहित्य को छोड़ कर तमाम साहित्य हिंदूवादी ही है. वह अपनी मूल चेतना में धार्मिक है. सांप्रदायिक राजनीति उसका सांप्रदायीकरण सरलता से कर लेती है. उसे इन अंतर्विरोधों से मुक्त करने हेतु उदारवादियों को अभी और श्रम करना होगा. हिंदी,हिंदू,हिंदुस्तानतो आधुनिक हिंदी साहित्य की बुनियाद के रूप में रखा गया. इसलिए भाषा को दक्षिणपंथ के लिए ढाल देने में या इच्छित होने पर एक हद तक उसे फ़ासिस्ट बना देने में कोई दिक्कत नहीं आनी है. मॉरीशस में हिंदी की इन्हीं प्रवृत्तियों का लाभ उठाया जा रहा था. और वह प्रवृत्ति क्या है ? ‘हत्याको वधमें तब्दील कर देना.

सरकारी प्रतिनिधि मण्डल में भी तमाम लोग थे. जो दरबार के चारण हैं उनका क्या कहना है? वे तो विशिष्टजन हैं. नाती-पोते,बिटिया-दामाद,वधू-पुत्र सभी डेलीगेशन में थे. हो सकता है कुछ लोग अपने कुत्तों को भी साथ लाये हों. अंग्रेज़ी का मुहविरा है कि मुझसे मुहब्बत करो,और मेरे कुत्ते से भी (Love me and my dog also). सबके तीन-चार-पाँच सितारा होटलों में अलग-अलग कमरे थे. अन्य तमाम तरह के व्यय,जिसका भार भारत की जनता पर पड़ने वाला था. जिसमें हिंदी पट्टी की ग़रीब जनता भी है. हिंदी ग़रीब-गुरबों,कुलियों,मजूरों,रिक्शाचालकों,खेतिहरों,खोमचेवालों और भिखारियों की भी भाषा है. लेकिन डेलीगेशन के नाम पर लोगों ने अपने विदेशों में बस गए,हिंदी को त्याग चुके रिश्तेदारों तक को बुला रखा था.

सम्मेलन की थीम हिंदी विश्व और भारतीय संस्कृतिथी. लेकिन वहाँ जो प्रस्तुत की जा रही थी,क्या वह भारतीय संस्कृति थी ?मुद्राराक्षस के शब्दों को उधार लूँ तो क्या सवर्ण संस्कृति ही भारतीय संस्कृति है ?’ क्या दलित-पिछड़ों आदिवासियों की संस्कृति भारतीय संस्कृति नहीं है? महान विविधतापूर्ण संस्कृति वाले भारत देश की संस्कृति को इस एकांगी रूप में विश्व-पटल पर रखना सांस्कृतिक इल्यूज़न पैदा करना है. प्रतिनिधि मण्डल से लेकर प्रतिभागियों तक में दूसरे वर्गों का प्रतिनिधित्व कितना था?क्या यह भारत के चंद लोगों का विश्व हिंदी सम्मेलन था ?क्या हिंदी केवल वर्ग या जाति विशेष की भाषा है ?हिंदी को जिन गिरमिटियों ने अपने हाँड़-माँस और ख़ून से सींच-पोस कर मॉरीशस में स्थापित किया था,क्या उन्होंने कभी सोचा था कि हिंदी के नाम पर वहाँ ऐसे लोग आएंगे ?उसे इतना संकुचनशील बना देंगे. और उस पर भी क्षेत्रीय लेखकों की उपेक्षा की गयी.

मॉरीशस के एक वरिष्ठ लेखक ने जिसे मॉरीशस सरकार ने प्रतिनिधि मण्डल में भी सम्मिलित किया था,अपनी फ़ेसबुक वाल पर लिखा है कि सम्मेलन के एक सत्र से उसका नाम बिना उसे बताये हटा दिया गया और वहाँ जो कवि सम्मेलन हुआ उसमें मॉरीशस के क्षेत्रीय कवियों को बुलाया तक नहीं गया. इसी तरह वैश्विक हिंदी बनेगी ?

गिरमिटियों ने एक जाति-पाँति विहीन मॉरीशस बनाया था और लंबे समय तक उसे बनाए रखने में कामयाब भी रहे किंतु जब से वहाँ एम्बेसी और अन्य संस्थानों में एक ख़ास तरह के लोग नियुक्त होने लगे हैं तब से वे भारत से उसी ख़ास तरह के लोगों को ही मॉरीशस बुलाते हैं ऐसा मॉरीशस के ही एक लेखक ने मुझसे बताया. इस बात की तस्दीक तब हुई जब सम्मेलन में भारत से आई एक स्त्री मुझसे मेरा सरनेम जानने के लिए झगड़ पड़ी. यानी भारतीय संस्कृति और हिंदी के नाम पर पूरे विश्व में जाति-पाँति बाँटी जा रही है. मॉरीशस की इमारतों की दीवारों पर लिखा Kill Racismका काला नारा मेरी आँखें कैसे भूल सकती हैं?
सम्मेलन में राजनीतिक लोग थे. भारत के सत्तारूढ़ दल के मंत्रीगण थे. बातें हुईं,भाषण हुए. हिंदी संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनेगी ऐसा बहुत पहले से कहा जा रहा है. संयुक्त राष्ट्र संघ में 6 भाषाओं को आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता प्राप्त है – अरबी,चीनी,अंग्रेज़ी,फ्रांसीसी,रूसी और स्पैनिश. संचालन की भाषाएँ अंग्रेज़ी और फ्रांसीसी हैं. हिंदी का अंतर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में संवर्द्धन करने और विश्व हिंदी सम्मेलन के आयोजन को संस्थागत व्यवस्था प्रदान करने के उद्देश्य से विश्व हिंदी सचिवालयकी स्थापना का निर्णय लिया गया था. इसकी संकल्पना 1975 के नागपुर में आयोजित प्रथम विश्व हिंदी सम्मेलन के दौरान की गयी थी. मॉरीशस के तत्कालीन प्रधानमंत्री सर शिवसागर रामगुलामने मॉरीशस में विश्व  हिंदी सचिवालयकी स्थापना का प्रस्ताव प्रस्तुत किया. 12 नवंबर 2002 को मॉरीशस के मंत्रिमंडल द्वारा विश्व हिंदी सचिवालय अधिनियम पारित किया गया तथा विश्व हिंदी सचिवालय की स्थापना की गयी. विश्व हिंदी सचिवालय ने 11 फरवरी 2008 से औपचारिक रूप से कार्य करना शुरू कर दिया.

हिंदी को वैश्विक स्तर पर सक्रिय भाषा के रूप में विकसित करने के लिए प्रत्येक 10 जनवरी को अंतर्राष्ट्रीय हिंदी दिवस मनाया जाता है. इस बार फिर हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा बनाने की पुरानी पड़ चुकी बात दोहराई गई. उसके लिए कई हज़ार करोड़ रुपए ख़र्चे जाएँगे यह भी कहा गया.

लेकिन विश्व हिंदी सम्मेलन का क्या हुआ ?वह भारत के सत्तारूढ़ दल के एक दिवंगत नेता की शोकसभा बन कर रह गया. इसके अतिरिक्त और भी कुछ ?भाषा और साहित्य के सम्मेलनों में जो सर्जनात्मक ऊर्जा होती है वह वहाँ से गायब थी. चारों ओर नज़र आ रहे थे जुगाड़ू चेहरे. समय काटने वाले हिंदी के अध्यापक. प्रोफ़ेसर,कुलपति,संपादक,प्रकाशक और उनके रिश्तेदार. गिने-चुने हिंदी पढ़ने वाले छात्र,जिनकी वहाँ सबसे ज़्यादा आवश्यकता थी. कुछ खाये-अघाए लोग जिनके लिए भाषा और साहित्य विलास है. राजनीति हावी थी. इतनी कि प्रतिभागियों को जो बस्ता (किट) मिला उसमें भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री और उसके मंत्रियों की विदेश यात्राओं के विवरण का एक चिकने और महँगे कागज़ वाला मोटा कैटलॉग रखा हुआ था.

कहाँ थी हिंदी भाषा ?कहाँ थी भारतीय संस्कृति ?मॉरीशस से हिंदी भाषा को संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा बनाने की बात उठती रहती है. मॉरीशस के हिंदी प्रेमी इसके लिए संयुक्त राष्ट्र संघ में प्रयास भी कर चुके हैं. जब मैंने मॉरीशस के एक राजनीतिक व्यक्ति से पूछा कि मॉरीशस में हिंदी को आधिकारिक भाषा का दर्जा क्यों नहीं दिया जा रहा है,तो उत्तर में उसने कहा कि यह असंभव है. मुझे उत्तर सुनकर कोई अचरज या क्षोभ नहीं हुआ. मॉरीशस के अप्रवासी भारतीयों की तरक़्क़ी का कारण उनका अपने जीवन में फ्रेंच संस्कृति को स्वीकृति देना है. वे फ्रेंच में अपनी मूल भाषा को मिला कर क्रियोल बनाते हैं और बोलते हैं. मुझे सुबह-सुबह अपने मेजबान के घर विश्व हिंदी सम्मेलन की जानकारी भी फ्रेंच रेडियो पर मिली थी. अँग्रेजी मॉरीशस की राजभाषा है. अतः हिंदी को मॉरीशस की आधिकारिक भाषा बनाए जाने के प्रश्न पर मिले उत्तर से मैं हैरान नहीं हुआ.

मॉरीशस के प्रधानमंत्री ने सम्मेलन के उदघाटन भाषण में कहा कि “मैं हिंदी बहुत ज़्यादा नहीं बोल पाता हूँ,लेकिन कुछ-कुछ बोलने की कोशिश करता हूँ.उन्होंने भरपूर कोशिश की बोलने की,क्योंकि हिंदी से उन्हें प्रेम है. हिंदी को उन्होंने अपने एंसेस्टर्स (पुरखों) की भाषा कहा. पुरखों की भाषा के लिए वे सब कुछ करने को तैयार हैं,ऐसी प्रतिबद्धता भी है उनमें. मॉरीशस की भारतीय मूल की जनता में भी हिंदी के लिए सच्चा प्रेम है. वह कारों में हिंदी गाने बजाती है. घरों में हिंदी फिल्में देखती है. लेकिन जैसा कि मॉरीशस के प्रधानमंत्री ने कहा,कि यह उनके पुरखों कीभाषा है.

ग्यारहवें विश्व हिंदी सम्मेलन के लिए एक पचास सेकेंड की एनीमेशन फ़िल्म बनाई गई थी. जिसमें मोर और डोडो पात्र हैं. दोनों ही दोनों देशों के राष्ट्रीय पक्षी हैं. फ़िल्म में मोर डोडो को बचाने जाता है,लेकिन डोडो है कहाँ ?वह तो सत्रहवीं सदी में ही विलुप्त हो गई थी. और उस पर एक अँग्रेजी मुहावरा बना दिया गया-“Asdumb as dodo.”इसी फ़िल्म में एक स्थान पर मॉरीशस कॉमर्शियल बैंक (MCB) की इमारत को दिखाया गया है. मॉरीशस के एक बुज़ुर्ग हिंदी लेखक ने मुझे बताया कि यह बैंक ग़ुलामी का प्रतीक है क्योंकि इसमें मॉरीशस के भारतीय मूल के लोगों को नौकरी नहीं दी जाती है,भले ही नियुक्तियाँ रिक्त पड़ी रहें. उनके इस कथन के बहुतेरे अर्थ थे. अर्थों से गहरी थी पीड़ा.

सम्मेलन में कई देशों के हिंदी से जुड़े लोग आए हुए थे. उन सब को वहाँ क्या प्राप्त हुआ,कह नहीं सकते. आशाजनक और स्मरणीय घटना थी यूक्रेन के एक हिंदी-अध्यापक से मिलना. वह कीव यूनिवर्सिटी में हिंदी पढ़ाते हैं. जो सदन में चुपचाप बैठे हुए थे. जब मैंने उनसे अँग्रेजी में बात शुरू की तो उन्होंने कहा कि हिंदी बोल-समझ सकता हूँ.मैंने उनसे यूक्रेन में हिंदी के बारे में पूछा तो वे कहने लगे, ‘छात्र पढ़ने आते हैं लेकिन कम,क्योंकि हिंदी में रोज़गार नहीं है.उन्होंने स्वयं द्वारा किये गये उक्राइनी गीति-नाट्य के हिंदी अनुवाद की पुस्तक हिंदी ऑटोग्राफ के साथ भेंट की. यही एक घटना थी जिसने हिंदी के प्रति उम्मीद पैदा की. यह ओपेरा उन्नीसवीं सदी की यूक्रेन की बड़ी कवयित्री लेस्या उक्राईंका का है. जिसका अनुवाद वनगीतनाम से यूरी बोत्विंकिन ने किया है. इस गीति-नाट्य की पात्र मावकाकहती है-

नहीं मैं जीवित हूँ ! तथा सदा रहूँगी !
मेरे हृदय में वह है जो नहीं मरता.

क्या मावका ये किसी भाषा के लिए कह रही है ?

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निज घर : अभी मेरे लिए एक कविता लिखो : फराज बेरकदर : यादवेन्द्र

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सीरिया के कवि, पत्रकार फराज अहमद बेरकदर (जन्म: १९५१) को एकाधिकारवादी सत्ता के विरोधी होने के आरोप में १९८७ में गिरफ्तार कर लिया गया, लम्बी यातना के बाद १९९३ में कोर्ट के समझ प्रस्तुत किया गया जहाँ उन्हें १५ वर्ष की सजा सुनाई गयी, अंतर्राष्ट्रीय दबाव के कारण १६ नवम्बर २००० को वे मुक्त किये गये.

फराज की गिरफ्तारी के लगभग ३० वर्ष बाद आज सीरिया एकाधिकारवाद और धार्मिक कट्टरता के कारण पूरी तरह बर्बाद हो गया है. जिन लोगों ने उस समय फराज को गिरफ्तार किया होगा उन्हें भी अपने देश की इस भीषण दुर्दशा का अंदेशा नहीं हुआ होगा.

जहाँ लेखकों, पत्रकारों, बुद्धिजीवियों पर हमले होते हैं वह जगह इसी तरह वीरान हो जाती है, ये एकतरह के संकेत हैं जिन्हें इतिहास बार-बार प्रकट करता रहता है.

फराज के जेल में रहते हुए उनकी बेटी से सम्बन्धित एक मार्मिक प्रसंग का अनुवाद यादवेन्द्र ने किया है, जो आज आपके लिये  यहाँ प्रस्तुत है.
  




अभी  मेरे  लिए  एक  कविता  लिखो                 
फराज बेरकदर

अनुवाद : यादवेन्द्र



मैंपक्के तौर पर नहीं कह सकता कि पिता के रूप में मैं सफल रहा या नहीं- दरअसल परिस्थितियाँ ही कुछ ऐसी रहीं कि इस विषय पर विस्तार से सोचना विचारना  हो नहीं पाया. जब बेटी का जन्म हुआ मुझे अपने राजनैतिक कामों के चलते भूमिगत होना पड़ा, वह चार वर्ष की हुई तो मुझे गिरफ़्तार कर लिया गया. गिरफ़्तारी के शुरू के पाँच साल न तो मुझ तक कोई सूचना पहुँचने दी जाती न किसी से मिलने दिया जाता. इन सब पाबंदियों के बावजूद,मुझे लगता है मैं ऐसा बदनसीब पिता हूँ जिसकी आँखों में आँसू हमेशा हमेशा के लिए ठहर गए हैं.


जब मैं भूमिगत था कभी कभार बेटी को देख लेता था, उसका नाम लेकर बुलाता पर वह अलग-अलग मौकों पर मुझे अलग-अलग नाम से सम्बोधित करती- पहचान उजागर न होने देने की खातिर अपने काल्पनिक नामों के बारे में हमने ही उसे बताया था. मैंने उसे सिखा दिया था कि किसी बाहरी के सामने मुझे बाबा कह कर न पुकारा करे और वह बड़ी सावधानी के साथ इस  हिदायत का पालन करती. जब उसे किसी ख़ास  चीज की  इच्छा होती तो मेरी सिखाई हुई बात की जान बूझ कर अनदेखी करती- बार-बार कहने पर भी जब उसकी माँ सोडा खरीद कर नहीं देती तो वह मेरी ओर देख कर टूटे हुए रिकॉर्ड की तरह तेज और हठीली आवाज में सबको सुना कर बार बार दुहराती : बाबा..बाबा..बाबा..  और वह तब तक यह प्यारी सी शरारत करती रहती जबतक उसके मन माफ़िक काम हो नहीं जाता, या उसका आश्वासन न मिल जाता.


जब उसकी माँ भी मेरी तरह गिरफ़्तार गयी तो उसके बाद सिर्फ़ दो बार बेटी को देखने का मौका मिल पाया. जब वह मेरे साथ होती तो मुझे उसकी सुरक्षा को लेकर सबसे ज्यादा चिंता रहती इसलिए कभी यहाँ तो कभी वहाँ छुपते छुपाते भागना पड़ता था. जब कभी हड़बड़ी में उसको अकेले छोड़ कर भागना पड़ा सबसे ज्यादा चिंता यह रहती कि उसको तो अपने पिता का असली नाम भी नहीं मालूम है,वह तो तमाम काल्पनिक नामों से मुझे जानती है. अपना नाम भी वह किसी तरह टूटी फूटी भाषा में बोल सकती थी. मेरे मन में हमेशा यह डर बना रहता कि लुकाछिपी के इस खेल  में कहीं वह मुझसे हमेशा के लिए बिछुड़ न जाए.


उस समय बेटी के पास एक छोटा सा सूटकेस हुआ करता था, मुझे मालूम नहीं किसने दिया पर वह उस सूटकेस को खूब सहेज संभाल कर रखती. एक दिन मैंने उसकी नज़रें बचा कर उस सूटकेस में कागज का एक टुकड़ा रख दिया जिस पर बेटी का नाम और परिवार का पता साफ़ साफ़ लिख दिया था. फिर बाद में उसको बता भी दिया कि वह उस कागज को कभी भी न तो बाहर निकाल कर फेंके न फाड़ कर नष्ट करे.


एकदिन मुझे कुछ ऐसा काम पूरा करना था जिसमें बेटी को साथ रखना संभव नहीं था इसलिए उसे एक परिचित परिवार में छोड़ना पड़ा जहाँ से शाम होने पर उसको मेरे पास कोई पहुँचा देता. पर शाम को जब वह मेरे पास घर लौटी उसके पास न तो वह सूटकेस था और न ही मेरा लिखा हुआ कागज़.
"मैंने तुम्हें जो कागज दिया था वह कहाँ छोड़ आयीं मेरी जान?",मैंने उससे पूछा.
बड़ी मासूमियत से उसने अपने दोनों हाथ हवा में लहराते हुए जवाब दिया :"गुम हो गया."  गिरफ़्तार होने से पहले की बेटी की वह आखिरी छवि थी जो मन के पटल पर अंकित हो गयी.


अपनी माँ के बारे में वह मुझसे पूछती- कभी याचना के स्वर में तो कभी कभी तल्ख़ होकर भी, ऐसे मौकों पर मेरी आवाज भर्रा जाती और मेरा अपने आँसुओं पर से नियंत्रण छूट जाता. एक नहीं सी जान इस तरह मेरी लाचारियों और दुर्बलताओं को नंगा उधेड़ कर रख देती. जब मैं गिरफ़्तार कर लिया गया तो एकबारगी लगा चलो अच्छा हुआ,बेटी के तमाम सवालों से मैं मुक्त हो गया, पर जैसे ही जेल में यातना और पूछताछ का सिलसिला थमता माँ के बारे में बेटी के किये सवाल मुँह बाकर मेरे सामने आ खड़े होते और मैं लाचारी तथा असमंजस में कालकोठरी की दीवारों पर अपना  सिर पटकने लगता.


इतना लाचार और शक्तिहीन होकर मैं कैसे जियूँगा,मन ही मन मैं बेटी से कहता. गनीमत है कि बेटी को गिरफ़्तार नहीं किया गया था- अचानक मेरे मन में बिजली की तरह यह ख्याल कौंधा कि जरूरत पड़ी तो उसे मैं उसकी माँ तक पहुँचाने की अर्जी दे सकता हूँ...  या अपने पास रख सकता हूँ. क्या होता यदि बेटी को कोख में लिए हुए मेरी पत्नी गिरफ़्तार हो जाती, जाहिर है उसको माँ के पास ही जेल में रहने दिया जाता. कुछ लोगों को यह बात बेतुकी और सनक भरी लग सकती है- पर दीना का मामला सबके सामने है जिसका जन्म जेल के अंदर ही हुआ और अब वह वहीँ अपनी माँ के साथ रह रही है- जेल में उस बच्ची के रहने पर कहीं कोई विवाद नहीं है. आप कह सकते हैं कि दीना का मामला अपवाद है पर उस से पहले भी तो मारिया को जेल में उसकी माँ के साथ रहने दिया गया था. जब आँखों के सामने ऐसे उदाहरण हैं तो फिर मेरी बेटी के साथ अलग बर्ताव कैसे किया जाएगा. मुझे इसकी कतई परवाह नहीं कि मेरे बारे में आप क्या सोचते हैं,  सुरक्षाबलों को यह समझाना जरुरी था कि वे उस बच्ची को गिरफ़्तार कर लें जो ढंग से बोल भी नहीं सकती.


किसी को राजनैतिक विचारों के लिए गिरफ़्तार करना जायज नहीं है, यह अन्यायपूर्ण और अमानवीय है. पर बच्ची के मामले में गिरफ़्तारी को जायज ठहराया जा सकता है, आवश्यक और सामान्य कहा जा सकता है. इसी आधार पर मैं देश की सर्वोच्च कानूनी संस्था से अपील करूँगा और अनुरोध न स्वीकार करने की स्थिति में कटघरे में घसीट लाऊँगा कि उसने मेरी बेटी को गिरफ़्तार क्यों नहीं किया. मेरी यह बात कितनी भी निष्ठुर क्यों न लगे पर उन्हें इस मानवीय मुद्दे का हल निकालना ही पड़ेगा.


जेल में सालों साल की तोड़ने वाली बेचैनी ने जैसे मेरे पूरे अस्तित्व पर जड़ता की एक मोटी परत चढ़ा दी थी, बिन बताये एक दिन यह जड़ता अचानक टूट गयी जब कैमरे से खींची तस्वीरों का एक पैकेट जेल में आ पहुँचा. एक-एक कर सभी फ़ोटो साथी कैदियों ने पहचान लिए, सिर्फ़ एक फ़ोटो बची रह गयी. इस बची हुई फ़ोटो को एक-एक कर सभी कैदियों के सामने रखा गया कि शायद किसी से पहचानने में चूक हुई हो. मैंने तय कर लिया था कि मैं उनकी तरफ़ तभी निगाह डालूँगा जब सभी अन्य कैदी देख पहचान लेंगे. तभी एक साथी कैदी ने ज़िद की कि मैं बची हुई इकलौती  तस्वीर एक बार देख तो लूँ, हो सकता है मेरा कोई जानने वाला हो. 


जब मैंने पहली बार उस तस्वीर पर नज़र डाली तो पूरी तरह से अनिच्छा का भाव मन पर छाया हुआ था- तस्वीर एक छोटी बच्ची की थी जो पीले रंग का स्वेटर पहने हुए थी और ऊपर से गुलाबी रंग की हलके लगभग पारदर्शी कपडे की गोल घेर वाली ड्रेस. स्वेटर का कुछ हिस्सा कॉलर के पास से बाहर झाँक रहा था- उसे देख कर  लगता था जैसे स्वेटर पुराना और बदरंग हो चुका था. पर कपड़ों से एकदम उलट  उस लड़की का चेहरा किसी ताजे गुलाब सा खिला-खिला था. मुझे लगा निर्जीव कपड़ों में और सजीव चेहरे में कितना विरोधाभास था- दोनों एक दूसरे से  उलट.


"इस चेहरे को मैं नहीं पहचानता, और इस समय मेरे परिवार में है कौन जो मेरे लिए कोई सामान भेजेगा, और किसी तरह भेज भी दे तो उसका मुझ तक पहुँचना बिलकुल असंभव है.",फ़ोटो देख कर अनमने भाव से मैंने कहा.
"कहीं  यह तस्वीर तुम्हारी बेटी सोमर की तो नहीं दोस्त?",  एक साथी कैदी ने झिझकते हुए मेरे कान के पास आकर कहा.
फिर दूसरा बोल पड़ा :"मुझे पक्का यकीन है कि फ़ोटो सोमर की ही है. "


यह बात सही है कि तस्वीर देख कर मुझे अपनी बेटी सोमर की याद आ गयी थी पर मन में उसकी छवि जो दर्ज थी वह आखिरी बार घर छोड़ते समय की थी, बड़े जतन से मैंने वह  छवि अपने मन में बसा रखी थी,कोई और फोटो मुझे अजनबी लगती थी. अपने मन को समझाने के लिए मैंने यह सोचा कि सोमर तो अभी छोटी सी बच्ची है,इतनी बड़ी कहाँ हुई, पर साथी के आग्रह पर मैंने तस्वीर पर दुबारा नज़र दौड़ाई. जाने कैसे मुझे यह एहसास होने लगा कि हो न हो इस तस्वीर में जो लड़की है वह मेरी दुलारी बेटी सोमर ही है. फिर भी मैं पूरी तरह आश्वस्त नहीं हो पा रहा था, मेरे मन में घबराहट,उदासी,दुःख और निराशा के भाव एकसाथ उमड़ने घुमड़ने लगे - हो सकता है यह मेरी बेटी सोमर ही हो.

कुछ समय बीतने पर मेरे मन में यह भरोसा पक्का होने लगा कि यह तस्वीर सोमर की ही है...निर्जीव तस्वीर में दो ऑंखें जिन्दा हो उठीं और उन मिचमिचाती आँखों में मुस्कुराहट तैर गयी,वे बोल पड़ीं : "बाबा,पहचाना नहीं मैं आपकी बेटी सोमर हूँ !"

मेरा मन हुआ उछल उछल कर सब को वह  फोटो  दिखाऊँ और बताऊँ कि देखो यह मेरी प्यारी बेटी सोमर है. अब बड़ी हो गयी है. पर उसी समय मेरे मन में दूसरा सवाल उभरा और हावी होने लगा- जब मैं अपनी बेटी के सामने आऊँगा,क्या वह मुझे पहचान लेगी ?कोई असमंजस तो उसके मन में नहीं आएगा?फिर मैंने अपने मन के दुचित्तीपन पर कस कर लगाम कसी, नहीं ऐसा कभी नहीं हो सकता, सामने आते ही उसका मन जोर जोर से कहेगा: सोमर,यह तुम्हारे सामने जो इंसान खड़ा है वह तुम्हारा बाबा ही है.


आखिरकार मुझे मिलने जुलने वालों को अपने पास बुलाने की इजाजत मिल गयी- मेरे साथियों ने इधर उधर से मेरे लिए कुछ ठीक ठाक कपड़ों का जुगाड़ कर दिया और बड़े उत्साह से मुलाकातियों से मिलने वाली जगह पहुँच गया. आये हुए लोगों को एक एक कर मैंने गौर से देखना शुरू किया हाँलाकि किसी ख़ास व्यक्ति पर मेरी नज़र नहीं थी- जैसे ही  मेरी नज़र मेरी माँ के पीछे छुपने और मुझे देख लेने की असफल कोशिश करती हुई एक लड़की  पड़ी समझ गया वह सोमर ही है. जब उसके सामने आया तो मैंने अपने आपको संयत और सहज रखने  भरपूर कोशिश की.. बरसों पहले भी ऐसा करने का वाकया याद आ गया.

"तुम मुझे पहचानती हो?,मैंने पूछा.
वह हौले से मुस्कुराई और अपनी आँखें मूँद कर जैसे उसने इशारों इशारों में जवाब दे दिया कि हाँ,बिलकुल पहचान गयी.
मुझे सचमुच शक्ल से पहचानती हो या दादी ने कहा बाबा से मिलने जा रहे हैं इस कारण पहचाना ?
ऐसा नहीं है, मैं आपको पहले से पहचानती हूँ. उसने मुस्कुरा कर जवाब दिया.
आसमान अभी फट पड़े और इसकी गवाही दे कि मेरी बेटी जो कह रही है वह सौ फ़ीसदी सच है ....दरअसल मुझे अपने कानों पर भरोसा नहीं हो रहा था.


अगली मुलाक़ात में मैंने माँ से यह फिर पूछा कि सोमार सचमुच मुझे पहचान गयी थी .... या मेरा मन रखने को ऐसा कह रही थी?माँ ने कहा कि वह न सिर्फ़ मुझे पहचानती है बल्कि जब भी कोई मेरी बावत पूछता तो  ख़ुशी से पागल हो जाती है. माँ के अनुसार मेरे बारे में वह बड़े गर्व से कहती : मेरे बाबा पूरी दुनिया  निराले हैं .... मैंने उन्हें पहचानने में पल भर भी देर नहीं लगाया. वे जरा भी तो नहीं बदले, बल्कि पहले से ज्यादा खूबसूरत हो गए हैं.


अगले कुछ महीनों में बेटी का मुझसे मिलने जेल में आना मानों अंधेरे में उजाले कौंध जाना होता- मेरी लाचारियों के बीच शक्ति की तरह और गुलामी में आज़ादी की किरण की तरह वह मेरे पास आती. मेरी वह छोटी सी बच्ची- अपनी खामोशियों  भी- मेरा जीवन उम्मीद से लबालब भर देती. दूसरी मुलाकात में उसने  थोड़ी झिझक और संजीदगी के साथ मेरे कानों के पास आकर पूछा : बाबा, क्या आप सचमुच कवि  हैं ?

इस अप्रत्याशित प्रश्न के लिए मैं तैयार नहीं था,बोला : शायद .... हाँ , बेटी.
तब आप मेरे लिए कोई कविता क्यों नहीं लिखते ?
मैंने तुम्हारे लिए कई कवितायेँ लिखी हैं .... जब बड़ी हो जाओगी तब पढ़ना.
बड़े होने पर पढ़ने वाली कवितायेँ मुझे नहीं चाहियें .... मेरे लिए अभी एक कविता लिखो.
उसके कहने पर  मैंने उसी वक्त उसके लिए एक कविता लिखी जिसमें उसे समझ आने वाले बिम्बों और स्मृतियों का प्रयोग किया. अगली मुलाकात में वह मेरे पास आयी और मुझसे लिपट कर धीरे से बोली : बाबा मैंने याद कर ली.


पहले मैं उसकी बात समझ नहीं पाया पर जैसे ही पिछली  मुलाकात वाली कविता का  स्मरण हुआ, बोला : यदि तुम्हें वो कविता पसंद आयी और तुमने याद कर ली तो मुझे भी तो सुनाओ. उसने गहरी साँस भरी और कमरे में चारों तरफ़ सतर्क नज़रों से देखा और मुझे निगाहों-निगाहों में समझा दिया कि चोरी छुपे थमाई हुई कविता भला मैं सामने कैसे सुना सकती हूँ.


दमन और  आतंक कितनी दूर तक जाता है उस छोटी सी बच्ची ने मुझे भली प्रकार समझा दिया .... कोई उससे अछूता नहीं था.

अगले दो सालों तक सोमर ने मुझसे मिलने जेल आने का कोई मौका नहीं गँवाया .... सोचता हूँ कि इन मुलाकातों के बारे में लिखूँ ....या उन पलों की मधुर स्मृतियाँ मन के सबसे अंदर के कोने में संजो कर रखूँ जब सोमर मेरे  जीवन से फिर से अनुपस्थित हो जायेगी- अंधेरे में जलने वाली बाती की तरह.


मुझे कभी नहीं समझ आया कि क्या फिर कभी  उसकी सूरत  मुझसे सचमुच इतनी दूर चली जायेगी ? लगने लगा है कि  उसका गुम हो जाना मेरे जीवन का सबसे बड़ा सत्य बन गया है,उसके सिवा कुछ सूझता ही नहीं .....अन्य साथियों की तरह अपने मन को लाख समझाने पर भी मैं तसल्ली नहीं दे पा रहा हूँ. बार बार मुझे लगता है - भाषा निरर्थक है ...  और ख़ामोशी भी उतनी ही अर्थहीन है.... सत्य और भ्रम - और इन दो अतियों के  बीच आवा जाही करने वाली तमाम चीजें और क्रियाएँ - यहाँ तक कि चारों तरफ़ दीवार से घिरी कालकोठरी भी सब कुछ पूरी तरह से  बेमानी हैं.

मुझे लगता है जैसे मैं गुजर गए पलों के ऊपर-ऊपर कहीं तैर रहा हूँ और मेरा अपने आप पर से नियंत्रण छूटता चला जा रहा है.

आज मेरी बेटी 11 साल की हो गयी पर मैं ऐसा बदकिस्मत पिता हूँ कि इसके सम्पूर्ण एहसास से आज भी वंचित हूँ. 

मैंने आपको बताया कि जब बेटी का जन्म हुआ मुझे अपने राजनैतिक कामों के चलते भूमिगत होना पड़ा..... वह चार वर्ष की हुई तो मुझे गिरफ़्तार कर लिया गया. गिरफ़्तारी के शुरू के पाँच साल न तो मुझ तक कोई सूचना पहुँचने दी जाती न किसी से मिलने दिया जाता. इन सब पाबंदियों के बावजूद,मुझे लगता है मैं ऐसा बदनसीब पिता हूँ जिसकी आँखों में आँसू हमेशा हमेशा के लिए ठहर गए हैं. 
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1951 में सीरिया में जन्मे कवि, पत्रकार और पूर्व कम्युनिस्ट कार्यकर्ता फराज बेरकदर देश की एकाधिकारवादी सत्ता के प्रमुख  विरोधियों में रहे हैं जिसके चलते लगभग पंद्रह वर्षों तक जेल में यातना झेलते रहे. उनका पूरा परिवार सीरिया के वामपंथी आंदोलन का हिस्सा रहा. युवावस्था से ही वे कवितायेँ लिखने लगे थे और एक साहित्यिक पत्रिका का सम्पादन करते थे. सीरिया के बुद्धिजीवियों की सज़ा माफ़ी के लिए चलाये गए विश्व्यापी आंदोलन के चलते उन्हें जेल से मुक्त किया गया पर उसके बाद वे अपने देश नहीं लौटे, स्वीडन जाकर बस गए.

सीरिया की तानाशाही के इतिहास के बारे में वे कहते हैं कि जब सीरिया का सांस्कृतिक इतिहास लिखा जाएगा तब जेलों  और कैदियों की  उसमें प्रमुख भागीदारी होगी .... जब यह निरंकुश तानाशाही खत्म होगी हजारों बुद्धिजीवी ऐसे होंगे जिनके पास अपनी यातना और अनुभवों को कागज पर उतारने के लिए बहुत कुछ होगा.


यू आर नॉट एलोन, ए न्यू डांस ऐट द कोर्ट ऑफ़ हार्ट,एशियन रेसाइटल,मिरर्स ऑफ़ ऐब्सेंस फराज बेरकदर की अंग्रेजी में अनूदित रचनाओं के प्रमुख संकलन हैं. उन्हें साहित्य और मानवाधिकारों के संघर्ष के लिए अनेक पुरस्कार मिले हैं.


यहाँ प्रस्तुत रचना अरबी साहित्य की प्रतिष्ठित पत्रिका "अल जदीद"में 2006 में संस्मरण कह कर छापी गयी थी पर मुझे इसमें किसी भावपूर्ण कहानी के प्रमुख तत्व दिखाई देते हैं सो इसका अनुवाद कर रहा हूँ. 
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यादवेन्द्र
yapandey@gmail.com 

कथा-गाथा : बारिश के देवता : प्रत्यक्षा

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प्रत्यक्षा की कहानी ‘बारिश के देवता’ का चयन २०१८ के ‘राजेन्द्र यादव हंस कथा सम्मान’ के लिए वरिष्ठ कथाकार उदय प्रकाश द्वारा किया गया है. हंस में प्रकाशित कहानियों में से ही चयनित किसी कहानी को यह पुरस्कार प्रत्येक वर्ष दिया जाता है. प्रत्यक्षा को इसके लिए समालोचन की तरफ से बधाई.

कथा-आलोचक राकेश बिहारी समकालीन हिंदी कथा-साहित्य पर आधारित अपने स्तम्भ, ‘भूमंडलोत्तर कहानीके अंतर्गत आज इसी कहानी की विवेचना कर रहे हैं. यह इस श्रृंखला की बीसवीं कड़ी है.  यह कहानी एक अकाउंटटेंट के आस-पास घूमती है जो भूमंडलीकरण के बाद पैदा हुआ नव सर्वहारा लगता है. राकेश ने इस विवेचना में इस पेशे की बारीकियों को भी ध्यान में रखा है.



बारिश  के देवता                         
प्रत्यक्षा 




गातार बारिश हो रही थी. झमझम. फोन की घँटी बेतहाशा बजती है.

हलो हलो ?
हलो डॉक्यूमेंटस नहीं मिले.. कोई उधर से चीख रहा है
भेजा था तीन दिन पहले,रा स कुलकर्णी पियून के हाथ से बिल के गट्ठर लेता, कँधे से सरकते फोन को रोकता हकलाता है.
बाहर बारिश तेज़ है. ऐसबेस्टस की छत से पानी चूने लगा है. बिल का बंडल मेज़ पर पटकता, एक पाँव से डस्टबिन चूते पानी के ठीक नीचे ठेलता रा स नाक सुड़कता है. लालसा से दफ्तर के उस इलाके को देखता है जहाँ कुछ सूखा है. ये बारिश वाला इलाका है. हर जगह पानी ही पानी. बॉस पीले रेनकोट में सूखा घूमता है. सुना है किसी केस में उसने अपने बॉस को कभी फँसाना चाहा था, तभी से इस चेरापुँजी दफ्तर में उसका तबादला हुआ था. तब से यहीं है.

सिर्फ पीला रेनकोट ही नहीं, उसका पी ए एक पीली छतरी भी ताने उसके पीछे चलता है. यहाँ इस जगह में हर चीज़ बारिश के हिसाब से तय होती है. मसलन जो ऊपर हैं उन्हें दफ्तर में सूखा इलाका मिला हुआ है, कॉलोनी में सूखे घर मिले हुये हैं. उनके जूते खास बाहर से मँगाये जाते हैं जो उनके पैरों को कीचड़ और उबलते पानी में सूखा रखते हैं. इस जगह सूखा रहना बड़ी नियामत की चीज़ है.

रा स कुलकर्णी जूनियर अफसर है, जूनियरमोस्ट. उसकी सीट धमधम बरसते पानी वाली जगह है. उसका घर कीचड़ से घिरे सेक्टर में है. रा स कुलकर्णी यहाँ पनिशमेंट पोस्टिंग पर आया है.

वैसे दफ्तर के लोगों को हैरानी है कि इस पाँच फुट दो इंच सिंगल हड्डी काया ने ऐसा क्या किया था उसे ये तमगा मिला. कोई पूछता है तो रा स कुलकर्णी नाक सुड़क कर रुमाल में चेहरा छुपा लेता है. आजकल उसके साईनस का प्रॉब्लेम अक्यूट हो गया है.

बाहर अब भी घमासान बारिश हो रही है. बाहर भीतर पानी हरहर ज़मीन पर नाले पनाले सा बह रहा है. कुलकर्णी ने जूतों सहित अपने पाँव कुर्सी पर कर लिये हैं,फाईल पर काम चल रहा है.


(एक)
इधर कुछ दिनों से उसने नोटिस किया है. अपने शरीर का मुआयना करते देखा कि शरीर के सब बाल एकदम महीन हो गये हैं. त्वचा साफ पीली. पानी में डूबी पीली त्वचा वाली मछली. उसका मन भी बारिश में डूबा मेंढक हो गया है. बस बड़ी बड़ी आँख खोले लकड़ी के फट्टे पर चुपचाप बैठा मन.

पत्नी खाना बनाती है, परोसती है तो रा स कुलकर्णी चुपचाप खा लेता है. पत्नी लगातार शिकायत करती है. रा स कुलकर्णी चुपचाप सुन लेता है. पत्नी रात के खाने के बाद उसे ज़बरदस्ती घूमने ले जाती है. बकायदा बाँह पकड़ कर. वो किधर को भी टहलने निकलते हैं,रा स कुलकर्णी पाता है कि अंत में वो उसी ढूह पर पहुँचे हैं जहाँ से सूखे इलाके के क्वार्टर्स अपने सूखेपन में जगमगाते खड़े हैं. पत्नी लम्बी साँस भरकर कुलकर्णी की बाँह से टिक जाती है. पूछती ह, तुम्हें कब अलॉट होगा इनमें से एक क्वार्टर ?
र स कुलकर्णी की दुबली काया ज़रा झुक जाती है. कँधे सिकुड़ जाते हैं. उसे भय होता है कि जूते की छेद से कीचड़ उसके पैरों में रिस रहा है, बदबूदार, ठंडा,सड़ा हुआ कीचड़. उसके पैर की उँगलियाँ किसी भयानक जुगुप्सा में अंदर मुड़ने लगती हैं. पलट कर किसी बेचैन हबड़ तबड़ में घर भागता है. पत्नी भुनभुनाती पीछे छूट जाती है. जूते खोलकर रा स कुलकर्णी पैरों को दस बार पोंछता है, फिर जूते साफ करता है. रगड़ रगड़ कर कीचड़ धोता है. सब तरफ एक नमी का वास है. अपने दुर्गंध में भारी.



(दो)
रा स कुलकर्णी का बायोडेटा भी उसकी तरह संक्षिप्त है. उसकी उम्र उनतीस साल है. कद पाँच फूट दो इंच. शरीर दुबला, बाल महीन, मुलायम. महीन करीने से कतरी हुई मूँछ की बारीक रेखा. गोल बड़ी आँख चश्मे के पीछे तेज़. दायें घुटने पर बचपन की चोट का निशान. नौंवी कक्षा में एकबार स्मॉल पॉक्स का शिकार. कुछ छोटे चकत्ते प्रसाद स्वरूप नाक के गिर्द. मैट्रिक करते वक्त पिता का देहावसन. आई सी डब्लू ए इंटर करके नौकरी में उन्नीस साल में घुसा. पाँच साल लगातार फाईनल में स्ट्रैटेजिक मनेजमेंट एंड मार्केटिंग और टैक्सेशन का पेपर उसे रुलाता रहा. फिर छठवें साल आई सी डब्लू ए की डिग्री और अफसर की नौकरी. तुरत उसके बाद सुकन्या से विवाह. नौकरी और विवाह के साथ ही साईनस से भी नाता जुड़ा. साईनस इज़ अ सैक ऑर अ कैविटी इन एनी ऑरगन ऑर टिशू, ये जान लेने के बावज़ूद उसकी तकलीफ बढ़ती रही. एक महज कैविटी कैसे इतनी तकलीफ पैदा कर सकती है का तार्किक आधार उसकी तकलीफ को कम करने में सक्षम नहीं हुआ.

तब से वो लगातार सुड़कता है. हाथ में रुमाल हमेशा. डॉक्टर ने बताया था नाक में पॉलिप है. सेकंड ओपिनियन लिया फिर थर्ड. आखिर ऑपरेशन कराया. पन्द्रह दिन मेडिकल लीव. उसके बाद दफ्तर में हर किसी के पूछने पर, ठीक हो अब कुलकर्णी, वह सर डुलाता. हाथ में दबा मसला रुमाल पास्ट टेंस हो गया. 


(तीन)
तीन महीने बाद सुबह उठते ही पहली छींक आई. एक दिन पहले दफतर में शर्मा जी ने बुलाया था. फाईल पकड़ाते हुये कहा थादेख लो रायलसन की बिड भी है..

रा स कुलकर्णी फाईल लेकर चुपचाप अपने केबिन में आ गया. दस बिड थे. रायलसन का चौथा था, इन ऑर्डर ऑफ प्राईस. उसे समझ नहीं आया, शर्माजी ने सिर्फ रायलसन का नाम क्यों लिया.

रा स कुलकर्णी इस विभाग में नया नया आया है. इसके पहले सैलरी डिपार्टमेंट में था. दस लोगों की भीड़ में एक. बड़ी सुरक्षा थी भीड़ में. इंक्रीमेंट लगाना, महंगाई भत्ता फीड करना, कैंटीन सब्सिडी किसी का उड़ा देना; सब सामूहिक निर्णय होते. जिसका उड़ता उसको फिर बहाल भी कर दिया जाता. किसी की जान नहीं जाती. बस एक सबक सिखाना था साले गुप्ता को..बहुत हल्ला कर रहा था..ऐसा कुछ महाजन उसका बॉस बोलता. रा स कुलकर्णी ये सुनकर पीला पड़ जाता. किसी को क्या बेवज़ह तंग करना ? फिर सर झुका कर गुप्ता के डॆटाबेस में होम लोन रिकवरी पाँच हज़ार पाँच सौ छप्पन रुपये चढ़ा देता. उस दिन उसे छींक के दौरे पड़ते. नाक लाल हो जाती. रूमाल भीग जाता. रात पत्नी हमदर्द का लाल तेल छाती पर मलती, दोनों नथुनों में बनफ्शा का तेल दो बून्द एहतियात से गिराती. तब जाकर रा स कुलकर्णी को चैन आता. नींद आती. नींद में गुप्ता कटारी लेकर पीछे दौड़ता.


दिन में सैलरी स्लिप बँटते ही गुप्ता हाज़िर हो जाता, दहाडता, आग उगलता..
मेरी होमलोन रिकवरी कैसे की ?
क्यों सर ? रा स कुलकर्णी अपने जूतों में थर्राता पूछता.
 इसलिये कि मैंने आजतक कोई लोन नहीं लिया. होमलोन तो दूर की बात है

महाजन मुलायमियत से कुलकर्णी को रेस्क्यू करता गुप्ता को बाँहों से घेर कर अपने केबिन तक ले जाता

आईये बॉस चाय पीजिये. फिर रा स कुलकर्णी को आवाज़ लगाता

यार कुलकर्णी ज़रा चन्दर को बोल दे दो कप चाय के लिये.

फिर मुड़ कर कुलकर्णी को आँख मारता और गुप्ता की तरफ मुखातिब होता कहता,

लड़कों से गलती हो जाती है कभी कभी. चिंता न करें अगले महीने सही हो जायेगा. अभी आपके सामने कह देता हूँ. फिर ज़ोर की कड़क आवाज़ में कुलकर्णी को हिदायत देता

देखो अगले महीने ये गलती न हो. और हाँ इस महीने जो रिकवरी हुई उसे ज़रूर पे कर देना नेक्सट मंथ.

नेक्सट मंथ ? अरे महाजन बॉस ये तो अभी दिलाओ यार. पूरे महीने का टाईट बजट रहता. कुछ करो.

कुलकर्णी की पहली छींक शुरु होती. छींकते छींकते कहता, सर पेमेंट वाउचर बना दूँ ?

महाजन गुप्ता को इस आश्वासन से विदा करता कि अगले महीने पे हो जायेगी. फिर कुलकर्णी का बुलाहटा होता.

यार तुम ट्रेन नहीं हो रहे. इसी तरह तुरत पे करना था तो काटना क्यों था ? ज़रा समझा करो न.

फिर मुखर्जी को बुलाता. चतुर शातिर मुखर्जी को हिदायत दी जाती, कुलकर्णी को सिस्टम समझाओ.

अगले महीने कुलकर्णी कहता, सर वो गुप्ताजी की रिकवरी तो बन्द करनी है न ?
महाजन बिना फाईल से सर ऊपर उठाये उवाचता, नहीं इस महीने नहीं.


उस रात रा स कुलकर्णी को छींक का ज़बरदस्त दौरा पड़ता. पत्नी तुलसी का काढ़ा बनाती,गोल केतली से भाप लिवाती, अमृतांजन बाम मलती,लगातार बोलती.

इस पानी से तुम्हारा साईनस ठीक होने से रहा. पता नहीं कब सूखे क्वार्टर हमें मिलेंगे. रशीद और सफिया अगले हफ्ते शिफ्ट हो रहे हैं. ढूह के पार जो पहला क्वार्टर है न वही अलॉट हुआ है. ठीक है,एकदम सूखा नहीं फिर भी इतना भी पानी नहीं. मुझे कह रही थी कि दो जोड़ी अच्छी जूते हैं तुम चाहो तो ले लो,हमें अब इतनी ज़रूरत नहीं. जूते सचमुच अच्छे हैं. उनसे तलवे सूखे रहते हैं. मेरे पैरों में नमी की वजह से बिवाई फट गई है. लगातार दर्द रहता है. तुमसे कहा था,पुराने जूते सचमुच खराब हो गये. घर में भी चलते वक्त पानी भीतर रिसता है,पर तुम कुछ कहाँ करोगे ? घर का तो कुछ किया नहीं जूते क्या करोगे ?

उसकी आवाज़ का सुर ऊपर उतरोत्तर जा रहा है. रा स कुलकर्णी कोशिश करके अपनी आँखें मूँद लेता है. रशीद,महाजन की लिस्ट के हिसाब से लोगों के टूर और मेडिकल बिल्स में खूब कटौती करता है. जहाँ बॉस कहता है वहाँ नियम के विरुद्ध भी पेमेंट करता है. कुलकर्णी के टोकने पर ढिठाई से हँसता है, अरे कुछ गड़बड़ भी हुआ तो क्या ? अपने एम्प्लॉयी हैं,भागेंगे कहाँ. जब महाजन यहाँ से जायेगा तब सब एक्सेस पेमेंट रिकवर कर लेंगे,बस. दो और दो चार ही तो होते हैं बॉस.

रा स कुलकर्णी सोचता है,हाँ चार ही तो होते हैं. फिर उसका हिसाब गड़बड़ क्यों हो जाता है.

तीसरे महीने महाजन के मना करने के बावज़ूद सारी रिकवरी पेमेंट में डाल देता है. महाजन को कोई खबर नहीं. सैलरी स्लिप बँटने के बाद गुप्ता आता है.

थैंकयू बॉस..

अगले दिन रा स कुलकर्णी का तबादला दूसरे विभाग में हो जाता है. रात साईनस का अक्यूट अटैक पड़ता है. माथे,चेहरे पर सब चीज़ जाम. सोच,बुद्धि पर भी जाम. बाहर पानी धमधम बरस रहा है. इतना पानी जैसे सब बह जायेगा. धरती,आकाश,ये घर,ज़मीन,आदमी औरत जानवर सब. बस रा स कुलकर्णी के चेहरे की भीतर जितनी साईनस कविटिज़ हैं वहाँ कुछ भी नहीं बहता. बाहर के बहने का छोटा सा विरोध दर्ज़ होता है यहाँ,कुलकर्णी की काया के भीतर. कुलकर्णी चाहे कितना भी विरोध कर ले इस उपद्रव का,उसकी दुबली काया इस विध्वंस के लिये तैयार नहीं. शरीर तकलीफ में दोहरा होता है,सर फटता है,कोई मोटी सुरंग माथे के भीतर खुदती है,कोई चौकन्नी बिल्ली पूँछ उठाये फिरती है. भीतर भीतर बाहर के प्राकृतिक आपदा के रोक में शरीर के सब द्रव अपनी गति धीमी करते हैं. अंतत: रा स कुलकर्णी इस शारिरिक आपदा को मोड़ न पाने की स्थिति में अस्पताल पहुँचता है. हफ्ते दिन की सिक लीव के बाद नये विभाग में उसका पदार्पण होता है.

ये नया विभाग,पिछले विभाग के बनिस्पत ज़रा और गीले इलाके में है. यहाँ बॉस की मेज़ के ऊपर छतरी लगी हुई है जिसके कोनों से पानी गिरता,एक गोलाई में छोटे छोटे चहबच्चे बनाता है. कुलकर्णी को बॉस के पास पहुँचने के लिये हमेशा उन चहबच्चों को फलांगना पड़ता है. उसके जूते घिस गये हैं और भीगने पर बास मारते हैं. और इन दिनों वो लगातार बास मारते हैं. कुलकर्णी को सबसे ज़्यादा तकलीफ इस बात की है कि उसके पैर अब हमेशा नम रहते हैं. उसे सूखे पैरों की याद इस शिद्दत से आती है कि उसकी पैरों की उँगलियाँ मुड़ जाती हैं भीतर की ओर,सूखे पन की तलाश में. उसके सपनों में इतना सूखापन होता है जैसे रेगिस्तानों में. नींद में पत्नी के शरीर को टटोलने की बजाय आजकल वह अपने पैरों को टटोलता है सूखेपन की उम्मीदभरी यातना में.



(चार)
कम्पैरिटिव स्टेटमेंट बनाते कुलकर्णी दो बार चेक करता है. रायलसन का बिड चौथा ही है. चाहे जितनी बार जोड़ लो. सारे टैक्सेज़ तीसरी बार कैलकुलेट करता है. एक्साईज़ ड्यूटी,सेल्सटैक्स,वैट,एंट्री टैक्स,सर्विस टैक्स. सारे रेट्स एक बार फिर. फर्गुसन लोवेस्ट है फिर विमकॉन और तीसरे नम्बर पर जॉयस लिमिटेड. बॉस के पास स्टेटमेंट लेकर दिखाता है. शर्मा पूछता है,

इधर रॉयलसन किधर ?
सर रायलसन तो चौथे नम्बर पर है. हम तो पहले तीन बिड ही लेते हैंइवैल्यूयेशन के लिये.
शर्मा चश्मे के फ्रेम के बाहर से उसे घूरता है. फिर साथ की टेबल से अधिकारी को बुलाता है

अधिकारी इसे रूल समझाओ..
सर मैंने रूल के हिसाब से ही किया है. प्रोक्योरमेंट पॉलिसी पढ़ने के बाद. कुलकर्णी की आवाज़ डगमगाती है.

अधिकारी उसे बाँहों से घेर कर चाय पीने ले जाता है.  आज बारिश टिपाटापी ही है. आसमान कुछ हद तक साफ. कैफेटेरिया में एक सूखा कोना तलाश कर दोनों चाय पीते हैं चुपचाप. चाय खत्म होने के बाद अधिकारी पूछता है..
तुम्हें इस नौकरी में कितने दिन हुये ?
कुलकर्णी कुछ अदबदा कर उँगलियों पर जोड़ता,फिर पूछता है,
क्यों ?
इसलिये कि तुम अगर सही तौर तरीके नौकरी के नहीं सीखे तो सुनते हैं एक कोई और जगह है जहाँ ज़मीन तक नहीं दिखती,इतना पानी है. यहाँ तो कम से कम ज़मीन दिखती है.
कुलकर्णी खिड़की के बाहर देखता है,सचमुच पानी के बीच बीच ज़मीन का टुकड़ा.

फिर ? मुझे क्या करना चाहिये ?
रायलसन को लोवेस्ट बनाओ.
कैसे बना दूँ,वो चौथा है,चौथा ही रहेगा
कैसे बनाना है वही तो तुम्हें बुद्धि इस्तेमाल करनी है. हर चीज़ कोई तुम्हें क्यों बतायेगा ? तुम अफसर किस लिये हो ?

रात कुलकर्णी सोचता है,सच मैं अफसर किसलिये हूँ ? पत्नी से पूछता है
सुनो,मैं अफसर हूँ ?
पत्नी खाना बनाना रोक कर कमरे में साड़ी खोंसे आती है
क्या ?
मैं अफसर हूँ ?
तुम्हारा दिमाग बिगड़ गया है ? तुम्हें पता है रसोई में टखने भर पानी है ? मैं मोढ़े पर खड़े होकर रोटी बना रही हूँ,मेरे पाँव की बिवाईयाँ फट रही हैं. जो ग्रीज़ लगाती हूँ वो तुरत पानी से बह जाता है. इन दीवारों में इतनी नमी है कि सूखे कपड़े भी नम हो जाते हैं. मेरी हड्डियों तक में नमी घुस आई है. इस पचीस साल की उम्र में पचास साल जैसी हो गई हूँ और तुम पूछते हो,मैं अफसर हूँ ? पागल हो गये हो तुम,पागल पागल.

कुलकर्णी हताश सोचता है,मेरी परेशानियों का इस घर में कोई हल नहीं. ये औरत सिरफ अपनी बिवाई सोचती है,अपनी फटी हड्डी सोचती है मेरा कुछ भी नहीं सोचती. पत्नी की आवाज़ लगातर रसोई से आती है. उनमें सफिया के जूते,उनका सूखा घर,ढूह के पार की श्रीमती क और श्रीमान च की अकड़,उनके घर को जाते सूखे रास्ते,माँ बाप ने ऐसा ब्याह करके किस्मत फोड़ दी जैसी बात,ब्याह के बाद नये गहने तो दूर एक जोड़ी बढ़िया जूतों पर बात आकर थम जाती है. पत्नी बोलते बोलते थक गई है. नमी सचमुच उसे बीमार बना रही है,जल्दी थका दे रही है.

नींद में डूबने के पहले कुलकर्णी खूब सोचता है. रायलसन को कैसे लोवेस्ट बना दें इसकी जुगत सोचता है,फर्गुसन को सीन से आउट कैसे करें ये सोचता है,कौन सी लोडिंग करूँ कि फर्गुसन की प्राईस रायलसन से बढ़ जाये,सोचता है,रायलसन को इन करने से कौन फायदे में आयेगा,ये सोचता है,मेरे कँधे पर बंदूक चलेगी ये सोचता है,कल मामला विजिलेंस में गया तो मेरी नौकरी गई ये सोचता है और आज अगर शर्मा की बात न मानूं तो आज के आज किसी बदतर जगह पर ताबादला,ये सोचता है,फिर ये सोचता है इतना क्यों सोचता हूँ,फिर ये कि इतना सोचना मेरे साईनस को बढ़ायेगा. पत्नी ग्रीज़ अपने तलुये पर मल रही है. उसका काम खत्म हुआ. अब बस बिस्तर पर लेट जाना है. बायीं तरफ वाली दीवार से नमी पसीज रही है. कुलकर्णी को लगता है कि नमी की कतार धीरे धीरे उसकी ओर रेंगती बढ़ रही है. रात नींद में कुलकर्णी किसी पनियाले नाले में बहता बदबूदार पानी के हौज़ में डूबता,साँस लेते छटपटाता,हदस में डूबता उठता है. बगल में पत्नी बेलौस हल्के खर्राटे लेती,ग्रीज़ से महमहाती निश्चिंत सोई पड़ी है.

सुबह टेबल पर इंटर ऑफिस मेमो पड़ा है. बिड के आकलन के लिये कमिटी गठित की गई है. वित्त से कुलकर्णी है,संविदा से नायर है और इंडेंटिंग विभाग से के मुरली. मुरली का फोन दस बजे आता है

एक मीटिंग कर लें ?
आधे घँटे बाद तीनों बैठते हैं. क्वालिफाईंग रिक्वायरमेंट पर माथा पच्ची की जाती है. फर्गुसन,रायलसन और विमकॉन तीनों क्वालिफाई कर रहे हैं.जॉयस क्वालिफाई नहीं हो रहा है. विमकॉन पर टेकनिकल लोडिंग हो गई है रायलसन अब दूसरे नम्बर पर है.

ड्राफ्ट रिपोर्ट बना ली जाये ? नायर पूछता है. कुलकर्णी चुप है. इस सारे अनालिसिस में रायलसन को कंट्रैक्ट जायेगा ऐसा कुछ नहीं लग रहा. सिर्फ उसके बॉस ने रायलसन की बात की है. नायर और मुरली को इस साजिश की कोई खबर नहीं. मतलब रायलसन से शर्मा ने अकेले पैसा खाया है. कुलकर्णी की छाती धड़धड़ कर रही है. इस डिस्कशन में रायलसन के पक्ष में ऐसा क्या बोल दे कि बाकी दोनों उसको कंसिडरेशन ज़ोन में ले आयें. उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा. दोनों उठ खड़े होते हैं. नायर कहता है,मैं ड्राफ्ट रिपोर्ट तैयार कर के दिखाता हूँ. फिर उसको रिफाईन किया जायेगा.

तीन चार दिन निकल जाते हैं. कुलकर्णी नायर को फोन कर पूछता है,क्या हुआ रिपोर्ट का ?
बॉस किसी दूसरे काम में फँस गया था. आज करता हूँ. शाम को शर्मा कुलकर्णी से पूछता है,कमिटी रिपोर्ट कब देगी ? बिड खुले महीने से ऊपर हुआ.
पर सर कमिटी नॉमिनेट हुये तो सिर्फ पाँच दिन हुये हैं,कुलकर्णी हकलाता है पर तब तक शर्मा फोन पर किसी पार्टी को डाँट रहा है. उसकी सफाई नहीं सुनता है. पर रायलसन की बात भी नहीं करता. कुलकर्णी को एक तरीके की राहत होती है.

रात बारिश अचानक थमी है. कुलकर्णी पत्नी के साथ टहलने निकलता है. गमबूट्स पहने वो पश्चिमी कोने की तरफ निकलते हैं. तालाब में ढेरों कमल के फूल हैं. कुछ देर वहाँ रुकते हैं फिर धीरे धीरे अचाहे ढूह की तरफ निकलते हैं. आज बहुत परिवार टहलने निकले हैं. सब एक एक करके ढूह पर इकट्ठा होते हैं,कुछ देर वहाँ रुक कर बतियाते हैं,साफ आसमान में तारों की बात करते हैं,पिछले साल की बारिश की बात करते हैं,भीगे पैरों की बात करते हैं,नमी की बात करते हैं,सूखी ज़मीन की बात करते हैं,फिर आसमान के तारों को देखते घर लौट जाते हैं.


सवेरे ठीक साढ़े नौ बजे नायर का फोन आता है. अपने केबिन में बुला रहा है. मुरली पहले से बैठा है. नायर धीमी आवाज़ में राज़ खोलता फुसफुसाता है

एक अनॉनिमस कम्प्लेंट आई है
एक सफेद टाईप्ड कागज़ बढ़ाता है. कुलकर्णी पढ़ता है जिसमें कहा गया है कि फर्गुसन ने फोर्ज्ड डाक्यूमेंटस जमा किये हैं.

किसने कम्प्लेन किया ?
मुरली कहता है,और कौन ? शायद रायलसन ?
कुलकर्णी की हथेलियाँ अचानक पसीज जाती हैं. उसकी छाती में कुछ फँस जाता है.

फिर ? पूछता है.
अनॉनिमस कम्प्लेन पर हम क्यों ध्यान दें ? रूलबुक क्या कहती है.
वही कि ऐसे अनोनिमस कम्प्लेन को डस्टबिन में डालो
फिर डालो डस्टबिन में

नायर चुप है. कागज़ वापस ड्रावर में डाल देता है.
कमिटी को बताना था सो बताया,अब आगे इसका क्या करना है वो सोचना होगा
क्यों सोचना होगा ? रूलबुक कहती है ड्स्टबिन में डालो,तो डालो,सोचो क्यों ?
इतनी हड़बड़ी में कुछ तय करना सही नहीं. सोच लें हम सब फिर बैठते हैं.


दो दिन तीनों सोचते हैं. कुलकर्णी को खेल की पहली चाल साफ दिखाई देती है. शर्मा अब रायलसन की बात नहीं करता. सिर्फ कमिटी कितना देर कर रही है रिपोर्ट सबमिट करने में,की बात करता है.

चौथे दिन तीनों बैठते हैं. नायर कहता है उसने अपने बॉस से डिसकस किया है. उनका कहना है कि फर्गुसन को इस कम्प्लेन के बल पर डिसक्वालिफाई किया जाय.
पर ? अनॉनिमस कम्प्लेन के आधार पर उसके बिड को हम कैसे हटा सकते हैं ?
इसके लिये प्रोसिजरली जो करना है वो कमिटी करे ऐसा इंसट्रक्शन है,नायर सूचित करता है.
अगले दिन नायर एक ड्राफ्ट बनाता है,दोनों को दिखाता है. मुरली चुप है. कुलकर्णी कहता है हम फँस जायेंगे. रूल के खिलाफ कुछ भी किया तो नौकरी जायेगी.

कुलकर्णी इस मसले को अपने बॉस से डिस्कस नहीं कर सकता. उसे बॉस की ऑपिनियन पता है. आजकल शर्मा उसे देख चश्मे के फ्रेम के बाहर से मुस्कुराता है.


(पांच)
कुलकर्णी रात को भयानक सपने देखता है. जेल की सलाखों के,रेगिस्तान में प्यासे भटकने के,बंजर धरती के. इन्हीं दिनों में से किसी एक दिन पत्नी ने कुछ इठलाते और कुछ घबड़ाते एलान किया था कि शायद वो गर्भवती है.

 इस महीने दस दिन की देरी हुई है
पत्नी का मासिक हमेशा अनियमित है. ऐसे एलान कई बार कर चुकी थी पहले भी. लेकिन दस दिन पहली दफा हुआ है. रात को सपने से भीगे उठते कुलकर्णी सोई पत्नी के पेट का मुआयना करता है. कोई जीव पनप रहा है जैसा कुछ दिखता नहीं. उसे तो ये भी याद नहीं कि पत्नी के साथ सोया कब था. लेकिन पत्नी कह रही है तो ज़रूर सोया होगा.

अँधेरे में पानी बहने की आवाज़ शिराओं में गूँजती है. ये गलत समय है बच्चे के पैदा होने का. हम उसे सूखी धरती,सूखी हवा नहीं दे पायेंगे. शायद बच्चा ऐसा हो जो गीलेपन के गुणसूत्र लेकर हँसता खिलखिलाता पैदा हो? कुलकर्णी के भयानक सपनों में ये भी जुड़ गया है अब. पत्नी आजकल कमर को हाथों से सहारा दिये चलती है. ऐसा शायद उसने हिन्दी फिल्मों से सीखा है. जैसे प्यार करते वक्त होंठों को दाबकर मुस्कुराना और अश्लील सिसकारी भरना उसने फूहड़ ब्लू फिल्म्स से सीखा है.

कुलकर्णी आईने में जब खुद को देखता है लगता है किसी और को देख रहा है. आईने के पार की जो दूसरी दुनिया है,काश वहाँ सर छुपाया जा सकता.



(छह)
सुबह सुबह दफ्तर पहुँचते ही उसका बुलावा बड़े साहब के कमरे में होता है. बड़े साहब मतलब इस प्रोजेक्ट के हेड. उनका कमरा भव्य है. कमरे के एक कोने में मछलियों का बड़ा टैंक है. साहब कमरे से लगे वाशरूम में है. कुलकर्णी कुर्सी के कोने पर सहमता बैठा है. हाथ में दाबा रूमाल पसीज गया है. मछलियाँ एक एक करके टैंक की दीवार के पास आकर उसे देख गई हैं. टैंक की बगल में रखे हैंगर पर साहब का सफेद उम्दा रेनकोट और पतली नफीस छतरी टंगी है. दीवार पर टाउनशिप और दफ्तर की इमारत और पीछे फैक्टरी की रात में ली जगमग पोस्टर है. पोस्टर में इमारत के सामने पानी में बिजली के लट्टुओं की झिलमिल रौशनी किसी सपनीले दुनिया का चित्र है. कुलकर्णी मंत्रमुग्ध देखता है सच और भ्रम के बीच कैसा मायावी फासला है.

साहब मुस्कुराते आते हैं और कुलकर्णी के उठने के उपक्रम को खारिज करते कहते हैं

बैठो बैठो
कुलकर्णी कुर्सी के एज पर टिका है.

 तुम ग प्रोजेक्ट के मूल्याँकन समीति में हो ? एक कम्प्लेंट आई है

साहब अपने पाईप को सुलगाते,मेज़ पर रखे कागज़ों के पुलिन्दे को ठेलते फोन उठाते कहते हैं.
मैं चाहता हूँ कि उस निविदा का आकलन नियमों के अनुसार हो. मैं कोई इर्रेगुलारिटी बरदाश्त नहीं करूँगा


कुलकर्णी को लगता है उसकी साँप छुछूँदर की हालत है. साहब वही चाहते हैं जो शर्मा चाहता है ? या फिर फर्गूसन के पक्ष में हैं. चश्मे के भीतर साहब की आँखें साँप की आँखें हैं.

रात नींद में पसीने से तरबतर उसकी साँस फूलती है.

अगले दिन कमिटी मीटींग में नायर कहता है,
हमें कम्प्लेंट डस्ट्बिन में डाल देनी चाहिये. फर्गुसन लोवेस्ट है,उसी को निविदा जानी चाहिये.
क्यों कुलकर्णी बॉस ?
कुलकर्णी को साहब की  पाईप याद आती है,शर्मा की शातिर मुस्कान याद आती है,गीले घर की याद आती है.
कॉरिडॉर से कोई गुज़रा है,ज़रा सा झाँक कर,मुस्कुरा कर,
नमस्ते साहब
नायर मुस्कुराता है,नमस्ते
फिर धीमे कहता है,फर्गुसन का बैजल है
और रायलसन ?

तुम्हें वो पुल की कहानी याद है न. जो सिर्फ कागज़ पर बनती थी.

नायर हँसता है फिर आँख मारता है. खेल के नियम बदल गये बॉस.


(सात)
कम्प्लेंट में लिखा है,फर्गुसन के फर्ज़ी दस्तावेज़ जमा किया है. जिस काम की वजह से वो क्वालिफाई होते हैं वो काम उन्होंने नहीं किया है. किसी पुल का पाईल फाउंडेशन. पुल किसी नदी पर बना है. नदी में पानी है. पाईल फाउनडेशन पानी के भीतर है. फाउंडेशन के काम को साबित करता सर्टीफिकेट फर्ज़ी है.

स ग च जगह में पुल है. यहाँ से बहुत दूर नहीं है. मुरली रात को कुलकर्णी के घर आया है.

सुनो अगर हम चुपचाप देख आयें तो ? इस रविवार ?

मुरली की आवाज़ में डर है.
यार मैं फँसना नहीं चाहता. मेरी ज़िम्मेदारियाँ बहुत हैं.
मुरली की बहन जो मानसिक रूप से अस्वस्थ है,उसके साथ रहती है,बूढी माँ हैं,पत्नी है,तीन बच्चे हैं.

ठीक से छह महीने और निकाल दूँ तो अ स्थान पर तबादला हो  जायेगा. वहाँ सूखा है. बच्चे ठीक से पल बढ़ जायेंगे. सब इतना अच्छा सही चल रहा था कि इस निविदा का झमेला सर पर आ पड़ा. मैं मज़े से क्वालिटी सर्टीफिकेट ठेकेदारों को इशू कर रहा था. बॉस जैसा कहता वैसा. अब इस कहानी में किसकी बात मानूँ कुछ समझ नहीं आता.

अगले रविवार कुलकर्णी और मुरली सुबह निकल पड़ते हैं. देर दोपहर स ग च पहुँचते हैं. धूल खाया कस्बा. मरा मरा सा. लावारिस कुत्ते और गाय. पानी के बदबूदार रेले.

ढाबे पर चाय सुड़कते पूछते हैं,
भैया ये ज नदी किधर है यहाँ
क्या ?
ज नदी
ढाबे वाला हँसता है,ज़ नदी ? ज़ नदी यहाँ कहाँ यहाँ कोई नदी नहीं. बस पनाले हैं. फैक्टरियों से निकलते पनाले.

मुरली पता निकालता है.ये स ग च,ये ज नदी,उसपर ये दो किलोमीटर लम्बा पुल..ये पता ?
भांग खा के आये हो ? दो किलोमीटर पुल ? हुँह पुल ? न नदी न पुल न दो किलो मीटर

ईंटो पर पाँव जमाते पनालों को पार करते चार घँटे में स ग च घूम लेते हैं,गुजरते विचरते बूढों,नंग लावारिस बच्चों,बेजार मरगिल्ली औरतों,पान दुकान और हार्ड्वेयर के दुकानदारों,पंकचर बनाने वाले साईकिल दुकानों,अमाम तमाम जगहों से खोज पड़ताल करने और पैरों को गन्दा करने के बाद ये बात साफ होती है कि स ग च में कोई नदी नहीं है

रात को कुलकर्णी थका लेकिन चैन की नींद में पड़ता है. अब खतरा नहीं. सुबह शर्मा को बता देगा कि फर्गूसन के खिलाफ कम्प्लेंट सही है. रायलसन को काम मिलना तय है. बॉस खुश. उसकी अंतरात्मा खुश. मुरली खुश. सब खुश
निकल गये जंजाल से


रात बहुत दिनों बाद वो सुकन्या को पास खींचता है. सुकन्या अनमना कर उसका हाथ झिड़क देती है.
क्या बात है बौरा गये हो क्या ? इतनी रात में ?
इतनी ही रात में तो
सुकन्या बैठ जाती है भकुआई सी
तबियत ठीक है न ? ठीक है तो सो जाओ ?
फिर धम्म से लेटती है. कुछ देर तक उसका भुनभुनाना जारी रहता है,

ऐसे बास मारते कमरे में प्यार हुँह,एक सूखा पलंग तक नहीं और अरमान ऐसे,जीवन नरक है नरक. अब तो बाबा आई के पास हम चले जायेंगे. अब और नहीं सहा जाता बप्पा अब और नहीं


(आठ)
दफ्तर में पहली चाय सुड़कता रा स कुलकर्णी मुस्कुराता है. मुस्तैदी से शर्मा के पास जाता है

हाँ कहो
सर वो ग प्रोजेक्ट की निविदा...
हाँ निविदा.. क्या हुआ ? बडे साहब का फोन था. सब पॉलिसी के अनुसार होना चाहिये. रिपोर्ट आज ही सबमिट होना चाहिये

जी सर वो दरसल फर्गूसन के खिलाफ जो कम्प्लेंट थी...,कुलकर्णी हकलाता है
कम्प्लेंट अनॉनिमस थी ? बॉस हुँकारता है
जी जी
फिर ? पॉलिसी क्या कहती है ? कॉगनिज़ेंस नहीं लेना है ? क्यों
लेकिन सर,कुलकर्णी पर छींक के दौरे की शुरुआत है
हम हम देख.. सर वहाँ नदी ही नहीं
बाकी का वाक्य छींक के भूचाल में दब जाता है

बॉस बेदिली से इशारा करता है जाने को. रूमाल से अपना चेहरा बचाता है.

मुरली का फुसफुसाता फोन आता है कुछ देर में,

वो कह रहे हैं कम्प्लेंट को फाड़ो और फर्गूसन के पक्ष में तुरत रिपोर्ट बनाओ
लेकिन कल तक तो रायलसन के पक्ष में कह रहे थे ?
फर्गूसन ने नाव छतरी गेन्दा मलाई की होगी,समझो यार
ये गलत होगा
कुलकर्णी हकलाता है. हम फँस जायेंगे. हमको मालूम है अब कि फर्गूसन फर्ज़ी है. हम फँस जायेंगे

सोच लो कि हम इतवार स ग च नहीं गये थे. बस इतना करना है
बस इतना ही ? माने बन्दर की पूँछ उगा लें ?

कॉरिडॉर से कोई झाँकता है.
शुक्रिया सर
फर्गूसन का बैजल है.


(अंतिम)
बहुत पानी है. गाढ़ा,जमा हुआ. पानी ही पानी. काला पानी. दुनिया में सब ऐसा ही है. दो भाग में बँटा हुआ. सूखा और गीला. सूखे की किस्मत किन्हीं और की है. गीले की किस्मत कुलकर्णी जैसे की. दुनिया ही कुलकर्णी है. गलत और सही के बीच लटका हुआ त्रिशंकु.

बहुत सोचना अपने को धीमे धीमे ज़मीन के भीतर धँसाना हुआ. कुलकर्णी को ये तक नहीं पता कि उससे गड़बड़ कहाँ हुई. विजिलेंस ने उसे क्यों पकड़ा. जिन्होंने खेल रचाया वही मासूम हुये. लेकिन पता नहीं किसने खेल रचाया ? या शायद कोई खेल नहीं. शायद यही फैक्ट है कि एक दुनिया है चमकीली भव्य शानदार. दूसरी है ज़मीन के भीतर,अँधेरी,गुम्म हवाओं और बदबू वाली. सबटेरानियन. जिसमें उम्मीद के सूखे की एक किरण नहीं.

बाहर कितनी बारिश है. कीचड़ से लथपथ सब. अस्पताल की इमारत ढह गई. सड़क हर साल बनती है हर साल टूटती है,कागज़ों पर फैक्टरियाँ बनती हैं,गाँवों में बिजली आती है,अस्पताल में डॉक्टर जबकि असलियत में वीरान रेगिस्तान,बिन तारों के पोल और भगोडे डॉक्टर हैं. काला बाज़ार है,टैक्स की चोरी है,सरकार अँधी है. न्याय की देवी आँख पर पट्टी बाँधे है. डॉक्टर ने नकली दवा की इंजेक्शन लगाई,मरीज की हालत नाज़ुक है. स्कूल में मिड डे मील में मिलावट से सौ स्कूली बच्चे अस्पताल में भरती हैं, ग्यारह साल की बच्ची का बलात्कार फिर हत्या है,बड़े दफ्तर के छोटे मुलाजिम स्कैम में गिरफ्तार हैं, साहब सौ करोड़ की सम्पत्ति बिन बोले डकारे हैं,हज़ार करोड,एक हज़ार,यहाँ तक सौ पचास कुछ भी चलेगा.. चलेगा ही हाजरीन,हत्या जेनोसाईड,युद्ध,मौत,बलात्कार,विनाश.यही सब चलेगा.

कुलकर्णी हमेशा पानी की दुनिया में रहेगा. सिर से पैर तक पानी ही पानी. पानी के साले कीड़े सब. कोई औकात नहीं कोई शऊर नहीं. मरते भी नहीं. सर उठाये चले आते हैं. आँखों को तकलीफ होती है,इन्हें देख कर तकलीफ होती है. मरते क्यों नहीं. न अच्छा है मरते नहीं. फिर मैला कौन ढोयेगा? नीचे से ऊपर की दुनिया को अपने कँधे पर लिये कौन खड़ा रहेगा ? कुछ अच्छे सजे रहें उसके लिये बहुतों को गर्दन भर पानी में धँसे रहना ही होगा. यही नियम है.

नफासत से भरे,शक्ति के दर्प में चूर,अक्खड़,क्रूर,अमानवीय सूखे का तबका जो बाकियों को खदेड़ रहा है पानी की तरफ ताकि उनका सूखा टुकड़ा महफूज़ रहे.
बारिश के देवता की अराधना सूखे वाले ही करते हैं. हे देवता इतनी बारिश करो कि सब डूब जायें,बस हम कुछ लोग बचे रहें सूखे महफूज़. हे देवता.


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लेफ्टिनेंट मिलो माईंडर बाईंडर जोसेफ हेलर की किताब कैच 22 का एक काल्पनिक चरित्र है. योसारियन के स्क्वाड्रन के मेस अधिकारी के रूप में वह द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान एक युद्ध मुनाफाखोर है शायद अमेरिकी साहित्य का  सबसे अच्छा काल्पनिक मुनाफाखोर.


फौज़ की नौकरी करते हुये वह एक उद्यम शुरु करता है एम एंड एम एनटरप्राईज़. ब्लैक मार्केट के ज़रिये से वह् चीज़ें खरीदता बेचता है और अंतत: जर्मनी के लिये भी काम करना शुरु करते हुये पियानोसा में अपने ही स्क्वाड्रन पर बमबारी करवाता है.



खैर, शुरुआत में वह ये काम अपने मेस के लिये ताज़े अंडों की खरीद से करता है जिन्हें वह सिसिली में एक सेंट पर खरीदता है, माल्टा में उन्हीं अंडों को साढ़े चार सेंट पर बेचता है, वापस उन्हें सात सेंट पर खरीदता और आखिर में उन्हीं अंडों को स्क्वाड्रन मेस को पाँच सेंट पर बेच देता है. ऐसा करते उसका सिंडीकेट एक अंतरराष्ट्रीय गिरोह् बन जाता है और मिलो पालेर्मो का मेयर, माल्टा का असिस्टेंट गवर्नर, ओरान का शाह, बगदाद का खलीफा, काहिरा का मेयर और कई बुतपरस्त अफ्रीकी देशों में मकई, चावल और बारिश का देवता बन जाता है.
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भूमंडलोत्तर कहानी – २० (बारिश के देवता - प्रत्यक्षा ) : राकेश बिहारी)

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प्रत्यक्षा की कहानी ‘बारिश के देवता’ का चयन २०१८ के ‘राजेन्द्र यादव हंस कथा सम्मान’ के लिए वरिष्ठ कथाकार उदय प्रकाश द्वारा किया गया है. हंस में प्रकाशित कहानियों में से ही चयनित किसी कहानी को यह पुरस्कार प्रत्येक वर्ष दिया जाता है. प्रत्यक्षा को इसके लिए समालोचन की तरफ से बधाई.

कथा-आलोचक राकेश बिहारी समकालीन हिंदी कथा-साहित्य पर आधारित अपने स्तम्भ, ‘भूमंडलोत्तर कहानी’ के अंतर्गत आज इसी कहानी की विवेचना कर रहे हैं. यह इस श्रृंखला की बीसवीं कड़ी है.  यह कहानी एक अकाउंटटेंट के आस-पास घूमती है जो भूमंडलीकरण के बाद पैदा हुआ नव सर्वहारा लगता है. राकेश ने इस विवेचना में इस पेशे की बारीकियों को भी ध्यान में रखा है.




भूमंडलोत्तर कहानी – 20
हिन्दी  कहानी  के परिसर  का  विस्तार                
(संदर्भ: प्रत्यक्षा की कहानी बारिश के देवता’)

राकेश बिहारी  



प्रत्यक्षा की कहानी बारिश के देवता’, जिसका चयन प्रख्यात कथाकार उदय प्रकाश ने राजेन्द्र यादव हंस कथा सम्मान - 2018’ के लिए किया है, से गुजरना मेरे लिए एक अत्यन्त ही आत्मीय माहौल से रूबरू होने जैसा है. इस कहानी का केंद्रीय चरित्र रा स कुलकर्णीजो डिग्रीधारी कॉस्ट अकाउंटेंट है, एक सार्वजनिक संस्थान में फाइनान्स ऑफिसर के पद पर कार्यरत है. नौकरी के शुरुआती कुछ दिन वेतन अनुभाग में कार्य करने के बाद वह संविदा मूल्यांकन वाले अनुभाग में पदस्थापित कर दिया जाता है, जो इस कहानी के मूल कथानक का घटनास्थल है. किसी कहानी के पात्र की व्यावसायिक योग्यता और जॉब प्रोफाइलका हूबहू किसी पाठक की निजी स्थितियों से मिल जाना उस पाठक के लिए कितना सुखद हो सकता है, वह इस वक्त मुझसे बेहतर कौन महसूस कर सकता है? हमपेशा होने के कारण प्रत्यक्षा और मैं ऐसे कुलकर्णियों की मनोदशा को समान धरातल पर महसूस कर सकते हैं. हालांकि व्यावसायिक योग्यता (आई सी डब्ल्यू ए यानी कॉस्ट अकाउंटेंसी) की समानता कुलकर्णी को खुद प्रत्यक्षा से भी ज्यादा मेरे करीब ला खड़ा करती है. इसलिए किसी कहानी में कुलकर्णी जैसे पात्र से मिलना मेरे लिए एक स्तर पर खुद से मिलने जैसा भी है. कथापात्र में पाठक को खुद की छवि दिख जानायदि किसी कहानी की सफलता की कसौटी हो तो बारिश के देवताको निश्चित ही एक सफल कहानी माना जाना चाहिए.
(राजेन्द्र यादव)




पिछले वाक्य में प्रयुक्त यदिऔर तोके रास्ते मैं इस कहानी के भीतर दाखिल होऊँ, इसके पहले एक दिलचस्प बात यह कि इस कहानी को मेरे भीतर स्थित तीन किरदारों ने तीन अलग-अलग दृष्टि से पढ़ा है. मेरे भीतर के तीन किरदार- एक वह जो पेशे से कॉस्ट अकाउंटेंट है और संयोग से रा स कुलकर्णीजैसी ही नौकरी करता है, दूसरा वह जो कहानियों का एक शौकीन पाठक है और तीसरा वह जो गाहे-बगाहे, साधिकार-अनाधिकार कहानियों पर बात करता है, जिसे आप अपनी कसौटी और सदाशयता के अनुसार टिप्पणीकार, समीक्षक, आलोचक या कुछ और भी कह सकते हैं.


 पहला किरदार यानी एक अकाउंटेंट की राय  

कारपोरेट, मैनेजमेंट, अकाउंटेंट जैसे शब्द सामान्यतया लेखकीय सहानुभूति के योग्य नहीं माने जाते रहे हैं. पिछले बीस-पच्चीस वर्षों के दौरान भूमंडलीकरण और उदारीकरण के बहाने निर्मित नए आर्थिक-सामाजिक पर्यावरण के बीच सांस लेते हुये व्यक्ति, नौकरीपेशा और लेखक तीनों ही रूप में मैंने यह महसूस किया है कि छोटे-बड़े व्यावसायिक संस्थानों के भीतर उन पेशेवरों का एक नया सर्वहारा वर्ग  तैयार हो गया है जिसकी चिंता अमूमन लेखकीय परिसर में नहीं की जाती रही है. संदर्भित कहानी का केंद्रीय चरित्र रा स कुलकर्णी’, इसी समुदाय का एक सदस्य है. इसलिए किसी कहानी की चिंता के केंद्र में ऐसे व्यक्ति का होना मेरे लिए निजी तौर पर संतोष और खुशी दोनों का विषय है. हिन्दी कहानी की चौहद्दी के इस विकास को कहानी के सतत जनतांत्रीकरण की दिशा में बढ़े एक और कदम की तरह देखते हुये इसे इस कहानी का सबसे बड़ा हासिल माना जाना चाहिए.

जब कहानी का चरित्र और उसकी स्थितियाँ किसी पाठक को अपने जैसी लगने लगें तो कहानी से उसकी अपेक्षाएँ भी बढ़ जाती हैं. वह अपने जैसे पात्र को कहानी में देख कर एक तरफ जहां खुश होता है वहीं दूसरी तरफ संवेदना और तथ्य दोनों ही कसौटियों पर हर कदम कहानी को कसता चलता है. मेरे भीतर का फ़ाइनेंस प्रोफेशनलभी इस कहानी को पढ़ते हुये ऐसी ही अपेक्षाओं से भरा हुआ था. हर कदम कुलकर्णी की जगह खुद को रख के देखने और वैसी ही स्थितियों में अपने भीतर उत्पन्न हो सकने वाले तनावों को कुलकर्णी के जीवन-व्यवहार में खोजने की कोशिश से विनिर्मित पाठ प्रक्रिया से गुजरते हुये मैंने महसूस किया कि एक सार्वजनिक संस्थान में करणीय-अकरणीय, स्वीकार्य-अस्वीकार्य, नियमसम्मत और नियम के प्रतिकूल की परस्पर विपरीत परिस्थितियों के बीच वरिष्ठ से वरिष्ठतम अधिकारियों तक के दबाव से जूझता एक कनिष्ठ अधिकारी जिस तरह के मानसिक त्रास, बेचैनीभय, असुरक्षा, गुस्सा, प्रतिरोध आदि के सघन संजाल में घिरा रहता है, कहानी में व्यक्त कुलकर्णी की व्यावहारिक अभिक्रियाएं उसके आसपास भी नहीं पहुँच पातीं. 

कुलकर्णी का तनाव यदि पाठक के तनाव में परिवर्तित नहीं हो पाता है तो इसका कारण यह है कि कहानी कुलकर्णी के संवेदना पक्ष से ज्यादा संविदा प्रक्रिया के ब्योरों पर फोकस करती है. लेकिन ऐसा करते हुये कहानी में संविदा और निविदा की मूल्यांकन प्रक्रिया जिस तरह से घटित होती दिखाई गई है वह सामान्य प्रक्रिया के उलट होने के कारण मुझ जैसे पाठकों को एक तकनीकी खामी की तरह लगातार परेशान करती है. टेंडर के मूल्यांकन की प्रक्रिया में क्वालिफ़ाइंग रिक्वायरमेंटकी जांच पहले की जाती है और इसमें सफल होने वाले संविदाकारों के प्राइस बिडका ही मूल्यांकन किया जाता है.  पर विवेच्य कहानी में टेंडर के मूल्यांकन की इस सामान्य प्रक्रिया को उलटते हुये संविदाकारों द्वारा कोट किए गए मूल्यों का तुलनात्मक अध्ययन पहले दिखाया गया है और संविदाकारों के क्वालिफ़ाइंग रिकव्यारमेंटकी जांच बाद में की गई है. एक सामान्य पाठक जो टेंडरींग प्रक्रिया की इन बारीकियों को नहीं जानता है उसके पाठ में इस तकनीकी खामी से कोई फर्क नहीं पड़ेगा लेकिन इन तकनीकी बारीकियों को समझने वाले पाठकों के लिए यह एक बड़ा तकनीकी दोष है जिसे वित्तीय अनियमितत्ताओं के दौरान सामान्य प्रक्रियाओ के उल्लंघ्न के नाम पर भी नहीं स्वीकार किया जा सकता है.

पारिभाषिक शब्दों के हिन्दी पर्याय का इस्तेमाल करते हुये भी लेखक को सतर्क होने की जरूरत होती है, जिसके अभाव में कई बार छोटी असावधानी बड़ी दुर्घटना का कारण बन सकती है. विवेच्य कहानी में भी इसका एक उदाहरण देखा जा सकता है. ध्यान दिया जाना चाहिए कि कहानी में वित्त, संविदा और इंडेंटिंग विभाग की जो तीन सदस्यीय कमिटी बनाई गई है उसे लेखिका ने एक जगह आकलनतो दूसरी जगह मूल्यांकनसमिति कहा है. एक जैसा अर्थ ध्वनित करने बावजूद इन दोनों शब्दों के अर्थ में एक बारीक अंतर है. आकलन जहां इस्टिमेटका पर्याय है वहीं मूल्यांकन इवैल्यूशनका. गौरतलब है कि इस्टिमेशनजहां टेंडरिंग प्रक्रिया शुरू होने के पहले की कार्रवाई है वहीं इवैल्यूएशनटेंडरिंग प्रक्रिया का लगभग आखिरी (सेकेंड लास्ट) चरण. बहुत संभव है कि कहानी में हुई ऐसी चूकें एक सामान्य पाठक के पाठ में कोई अवरोध न उत्पन्न करे, पर महज इस कारण से भाषाई प्रयोगों में होनेवाली ऐसी चूकों को स्वीकार्य  तो नहीं ही माना जा सकता है न!

गैरउपयोगी अपेंडिक्स के औचित्य पर प्रश्नचिह्न उर्फ दूसरे किरदार की प्रतिक्रिया 

कहानी पढ़ने का शौकीन एक पाठक किसी कहानी में सबसे पहले पठनीयता और कहानीपन खोजता है. लेकिन पठनीयताऔर कहानीपनजैसी अवधारणाओं के लिए कोई सर्वमान्य कसौटी नहीं बनाई जा सकती. पठनीयता और कहानीपन के मानक और मायने तय करने में पाठकों की साहित्यिक चेतना और बौद्धिक स्तर की भी भूमिका होती है. भाषा की बारीक और कलात्मक कताई तथा संवेदनाओं के अमूर्तन की जटिलताओं के  कारण प्रत्यक्षा की कहानियाँ परिष्कृत पाठकीय चेतना की मांग करती हैं. लेकिन उनकी कहानियों में सामान्यतया अमूर्तन की शिकायत करनेवाले पाठकों के लिए बारिश के देवताउनकी अन्य कहानियों की तुलना में ज्यादा कथात्मक है या यूं कहें कि प्रत्यक्षा इस कहानी में कथासूत्र की उपस्थिति को लेकर ज्यादा सजग हैं. हालांकि बिंबों-प्रतीकों की प्रयोगधर्मी रचनाशीलता जो प्रत्यक्षा के लेखन की खास विशेषता है, इस कहानी में भी मौजूद है, तथापि अपनी रचनाशीलता के बने-बनाए घेरे को जिस तरह वे इस कहानी में तोड़ती हैं, वह उल्लेखनीय और सराहनीय है. पर हाँ, क्या ही अच्छा होता यदि वे इस क्रम में कहानी के अंत में जोसेफ हेलर के प्रसिद्ध उपन्यास कैच 22’ का संदर्भ देने के लोभ का संवरण कर पातीं. कारण कि इस संदर्भ के बिना पढे जाने पर जहां कहानी किसी अपूर्णता का अहसास नहीं कराती वहीं इसके साथ पढ़ने पर कहानी के मूल्य में कोई अभिवृद्धि नहीं होती.

इस तरह के नए और तकनीकी अनुभव क्षेत्रों की कहानियों में भाषा की बड़ी भूमिका होती है. हिन्दी की कहानी में यथासंभव हिन्दी शब्दों का प्रयोग सराहनीय है. पर संवाद और पारिभाषिक शब्दों को लिखते हुये कई बार अङ्ग्रेज़ी के शब्द कहानी की संप्रेषणीयता को सहज और विश्वसनीय बनाने के लिए जरूरी होते हैं. गौर किया जाना चाहिए कि एक अलग और अपरम्परागत अनुभव क्षेत्र की प्रतीति को साकार करने के लिए इस कहानी में जो भाषाई प्रयोग हुये हैं कई बार संप्रेषणीयता में बाधा उत्पन्न करते हैं. उदाहरण के तौर पर केंद्रीय चरित्र के नाम को लिया जा सकता है. सामान्यतया दफ्तरों में अधिकारियों के नाम का लघुरूप ही प्रचलन में होता है, जो उनके नाम के अलग-अलग हिस्सों के प्रथमाक्षरों को उनके सरनेम’ (सामान्यतया जातीय उपनाम) के साथ जोड़कर बनाया जाता है. लोगों को सिर्फ सरनेमसे भी बुलाये जाने का भी चलन है. पर इस कहानी में जिस तरह केंद्रीय चरित्र के नाम के लघुरूप का हिंदीकरण किया गया है, वह अपनी असहजता के कारण कहानी के पाठ को अवरुद्ध करता है. क्या ही अच्छा होता कि अत्यन्त सहजता के साथ साइनसके प्रोब्लेमको अक्यूटबताने वाली यह कहानी अपने अन्य पात्रों- महाजन, शर्मा, गुप्ता, नायर आदि की तरह रा स कुलकर्णीको सिर्फ कुलकर्णी से ही संबोधित करती. हो सकता है कहानी और जीवन में कुलकर्णी जैसों की असहज स्थितियों को अभिव्यंजित करने के लिए कथाकार ने कुलकर्णी के नाम का असहजीकरण किया हो, पर ऐसी या इस जैसी कोई अन्य स्थिति इस प्रयोग से अभिव्यंजित नहीं होती.

किन्तु-परंतु की आखिरी किश्त यानी तीसरे किरदार का अभिमत   

    
(प्रत्यक्षा)

बारिश के देवताकहानी के केंद्र में एक निरीह और लगभग ईमानदार फाइनन्स ऑफिसर का जीवन है जो अपने वरिष्ठ अधिकारियों के दबाव में वह सब करने को विवश है जिसकी इजाजत नियम-कानून नहीं देते हैं. निर्दोष होते हुये भी वित्तीय अनियमितता के किसी केस में पनिशमेंट पोस्टिंग झेल रहा कुलकर्णी आगे कुंआ पीछे खाई की स्थिति में है. बॉस की बात न माने तो किसी बदतर जगह पर तबादला और बॉस की बात मान ले तो विजिलेन्स का डर. अलग तरह के इन दो भयों के बीच जी रहे कुलकर्णी के साथ उसकी पत्नी भी है, जिसकी एक ही चिंता है कि कब उसे सूखे क्वार्टर मिलेंगे. कारण कि चेरापूंजी, जहां कुलकर्णी पदस्थापित है, “में हर चीज़ बारिश के हिसाब से तय होती है. मसलन जो ऊपर हैं उन्हें दफ्तर में सूखा इलाका मिला हुआ है, कॉलोनी में सूखे घर मिले हुये हैं...  इस जगह सूखा रहना बड़ी नियामत की चीज़ है. सूखा यानी सुविधा, गीला यानी असुविधा. . बाहरी-भीतरी शक्तियों के प्रलोभन या भय के दबाव में काम करनेवाले कंपनी के बड़े अधिकारी हों या उनके अधीन्स्थ छोटे कर्मचारी सब के सब सूखे-गीले के इन्हीं खांचों में बंटे हुये हैं. भौगोलिक स्थिति के आधार पर सिस्टम का चरित्र उद्घाटित करने के लिए, ‘सूखेऔर मलाईदारपदों के प्रचलित मुहावरे के उलटनए प्रतीक गढ़ने की कोशिश में जिस तरह यह  कहानी सूखा-गीला की बाइनरी निर्मित करने की सायास कोशिश करती दिखती है वह कई बार पाठकों के लिये ऊब का कारण भी हो सकती है. इतना ही नहीं, कुलकर्णी जैसों के जीवन में व्याप्त गीलेपन और बड़े अधिकारियों के जीवन में व्याप्त सूखे के बीच पसरे फासले को चिन्हित करने का प्रयत्न करती यह कहानी अंत तक आते-आते जिस अप्रत्याशित वाचालता का शिकार होकर भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़ा होने का जतन करती है, वह कहानीकार के आत्मविश्वास की कमी को ही रेखांकित कर जाता है. 


कहानी में सबकुछ आरोपित कर देने की इस लाउड कोशिश का ही नतीजा है कि मैला ढोने  तक के लिए  भी वह  कुलकर्णियों को ही  अभिशप्त मान बैठती है. कहने की जरूरत नहीं  कि कुलकर्णी मैला ढोने के काम में लगे जातीय समूह स एनहीन आते हैं.  अच्छा होता यदि यह कहानी कुलकर्णी जैसों के जीवन की विवशता से उत्पन्न विडंबनाओं को अभियंजित करने का ही काम करती. तब पाठक खुद ब खुद उन दुरभिसंधियों की पहचान कर लेते जो इन समस्याओं के मूल में हैं.

किसी कहानी के भीतर निहित कथातत्व के प्रभावी सम्प्रेषण में भाषा और कहन की शैली की बड़ी भूमिका होती है. कहानी में व्याप्त संभावनाओं और उसके गंतव्य का उचित आकलन करते हुये लेखक यह तय करता है कि कहानी प्रथम पुरुषमें कही जायगी या अन्य पुरुषमें. कई बार कथ्य की संश्लिष्टता मैंऔर वहकी आवाजाही का शिल्प भी अख़्तियार करती है. लेकिन कथानक में छुपी संभावनाओं के सही आकलन के अभाव और तदनुरूप खामीयुक्त भाषा के चयन के कारण मैंऔर वहका घालमेल कहानी की संप्रेषणीयता में बाधा उत्पन्न करता है. विवेच्य कहानी की भाषा और कहन दोनों ही में ये कमियाँ देखी जा सकती हैं. उदाहरण के तौर पर कहानी का एक हिस्सा - 

नींद में डूबने के पहले कुलकर्णी खूब सोचता है. रायलसन को कैसे लोवेस्ट बना दें इसकी जुगत सोचता है, फर्गुसन को सीन से आउट कैसे करें ये सोचता है, कौन सी लोडिंग करूँ कि फर्गुसन की प्राईस रायलसन से बढ़ जाये, सोचता है, रायलसन को इन करने से कौन फायदे में आयेगा, ये सोचता है, मेरे कँधे पर बंदूक चलेगी ये सोचता है, कल मामला विजिलेंस में गया तो मेरी नौकरी गई ये सोचता है और आज अगर शर्मा की बात न मानूं तो आज के आज किसी बदतर जगह पर ताबादला, ये सोचता है, फिर ये सोचता है इतना क्यों सोचता हूँ, फिर ये कि इतना सोचना मेरे साईनस को बढ़ायेगा.

काव्यात्मक अभिव्यक्ति की धनी  प्रत्यक्षा स्वभावतः एक शिल्प-सजग कथाकार हैं. लिहाजा अपनी बात कहने के लिए वे नए-नए बिंबों-प्रतीकों का प्रयोग भी  करती हैं.  उनकी  यही प्रयोगधर्मिता इस कहानी में बारिश के देवता का एक ऐसा  मिथ रचने की कोशिश करती है जो परंपरा से सर्वथा भिन्न है- बारिश के देवता की अराधना सूखे वाले ही करते हैं. हे देवता इतनी बारिश करो कि सब डूब जायें, बस हम कुछ लोग बचे रहें सूखे महफूज़. हे देवता…” बारिश के देवता का मिथक किसी न किसी रूप में प्रायः दुनिया की हर सभ्यता में मौजूद है. भारतीय समाज में इन्द्र को बारिश के देवता की मान्यता प्राप्त है, जो अतिवृष्टि और अनावृष्टि दोनों ही स्थितियों में तारणहार बन कर उपस्थित होते हैं. कमोबेश हर सभयता-समाज में प्रचलित बारिश के देवता की यही भूमिका होती है. यहाँ यह भी रेखांकित किया जाना चाहिए कि सुविधासंपन्न वर्ग भी कभी यह नहीं चाहता कि सुविधाहीन वर्ग पूरी तरह डूब जाय या कि समाप्त हो जाये. 

सुविधाहीनों की उपस्थिति दरअसल उनके लिए खाद-पानी का काम करती है.  पर्याप्त वैचारिक और तार्किक तैयारी के अभाव में किसी बहुप्रचलित और स्वीकृत मिथकीय चरित्र को एक नए रूप में स्थापित कर पाना संभव नहीं होता. संभव है कि बारिश के देवता की निर्मिति की इस कोशिश के मूल में  जोसेफ हेलर के उपन्यास कैच 22’ में उल्लिखित रेन गॉडका आकर्षण काम कर रहा हो, जिसका उल्लेख खुद लेखिका ने कहानी के अंत  में किया है.  हालांकि यहाँ ठीक-ठीक यह नहीं  पता कि बारिश का देवता कौन है, पर  इस बात की संभावना सबसे ज्यादा है कि कहानी शायद रायलसनऔर फर्गुसनजैसी कंपनियों को ही बारिश के  देवता की तरह देखती होकारण कि ये कंपनियाँ हीं सरकारी तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार के मूल में हैं. यदि ऐसा है तो कहानी में रचित सूखे और गीले की बाइनरी के अनुसार उन्हें बारिश का नहीं सूखे का देवता कहा जाना चाहिये.

इसमें कोई शक नहीं कि प्रत्यक्षा इस कहानी में  भूमंडलोत्तर समय के हाशिये पर उग रहे नए सर्वहाराओं को पहचानने का जरूरी काम करती हैं, लेकिन असफल बिंबों-प्रतीकों की निर्मिति और असावधान भाषा-शैली के कारण बारिश का देवताएक सफल कहानी होते होते रह जाती है.
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