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परख : घिसी चप्पल की कील : ज्योतिष जोशी
















भारतरत्न भार्गव का दूसरा कविता संग्रह घिसी चप्पल की कीलसंभावना प्रकाशन से इसी वर्ष (२०१८) प्रकाशित हुआ है. उनका पहला संग्रह 'दृश्यों की धार'१९८६ में प्रकाशित हुआ था. 

नए संग्रह को परख रहे हैं आलोचक ज्योतिष जोशी



धार  से कील तक                              
ज्योतिष जोशी





मकालीन हिन्दी कविता में भारतरत्न भार्गव अपरिचित कवि नहीं हैं क्योंकि कवि के रूप में उनकी सक्रियता भले ही कम रही हो लेकिन अपनी काव्य-वस्तु, शिल्प और समय को देखने की उनकी अपनी युक्ति उन्हें एक ऐसे कवि के रूप में प्रतिष्ठित करती है जिसमें कविता को जीने की और उसकी यातना को सह पाने की क्षमता है. श्री भार्गव का पहला कविता संग्रह दृश्यों की धार’ 1986में प्रकाशित हुआ था जिसमें 30कविताएँ संकलित थीं. इस संग्रह में 1955से लेकर 1986तक की कविताएँ शामिल थीं. संग्रह में शामिल कविताओं को देखें तो आश्चर्य होता है कि कवि में अपने समय को लेकर कितनी संजीदगी है और व्यवस्था के प्रति कितना गहरा असंतोष से भरा क्षोभ है. यह सचमुच विचारणीय है कि इतने बड़े फलक के कवि ने कविता-सृजन को वर्षों तक स्थगित क्यों रखा?


श्री भार्गव ने बाद के दिनों में भी कविताएँ लिखनीं जारी रखीं लेकिन उन्हें प्रकाशित कराना या संग्रह के रूप में लाना कतिपय कारणों से संभव न हुआ. यह देख-जान कर किंचित दुःख होता है कि अगर श्री भार्गव की प्राथमिकताएँ न बदलीं होतीं और वे लगातार लिखते रहते तो हिन्दी कविता में उनकी विशेष जगह होती. बहरहाल, यह सुखद है कि उन्होंने कविताओं पर पिछले कुछ वर्षों से पुनः ध्यान देना आरंभ किया है और ऐसी कविताएँ दी हैं जो अपनी निर्मिति में विशेष हैं. इस वर्ष उनका दूसरा संग्रह ‘घिसी चप्पल की कील’ प्रकाशित हुआ है. दोनों संग्रहों पर यहाँ विचार किया गया है.


दृश्यों की धारशीर्षक अपने पहले संग्रह की कविताओं में श्री भार्गव नई कविता के साथ दूसरे काव्यान्दोलनों में भी सक्रिय दिखते हैं और कविता को एक ऐसी अन्तर्लय में उठाते हैं जिसमें तत्कालीन समय दृश्य हो जाता है. इन कविताओं का मुहावरा जीवन-व्यवहार के निकट है और इनमें व्यक्त आक्रोश अपने समय के स्वप्न-भंग से जुड़ा है जिसकी शुरुआत दर्द : एक व्याख्यामें दिखती है-
                                         
अनजाना, अपरिचित दर्द
अनदेखा, अनछुआ दर्द
मीत तुम्हें पता क्या
कैसा है?
कहो तो बताऊँ?
लो सुनो-
दर्द एक नीम की निम्बोली सा
कच्चा तो कड़वा है,
पकने पर मीठा है,
गुणकारी है.


1955में लिखी यह कविता जितनी व्यष्टि की है, उतनी ही समष्टि की भी. सिफत यह है कि यह दर्द न तो अनजाना है और न ही अपरिचित. यह कवि की अभिव्यक्ति का ढंग है जिसमें हम देख पाते हैं कि दर्द कच्चा रहने पर कड़वा हो जाता है और पकने पर मीठा! क्या यह उस उम्मीद या सपने की पीड़ा नहीं है जिसकी प्रतीक्षा में इस देश की जवान नस्लों ने आँखें खोली थीं? 1959में लिखी कविता भवितव्यइस दर्द की जैसे कुंजी बनकर आती है-


गहराने लगी है रात!
पश्चिमीय रक्तकुंड में
बलित सूर्य की
छितराई हुई आँत!!
हाय,
अब कैसे होगा प्रात.


रात गहराने लगी है और सूर्य की आँत भी पश्चिमीय रक्तकुंड में छितराने लगी है. यह चिन्ता वाजिब है कि ऐसे में सुबह किस तरह हो सकेगी.


श्री भार्गव की कविताओं में निजता और सार्वजनिकता के बीच कोई फाँक नहीं है. निज का जीवन जैसे समष्टि में समाहित है, और इसी तरह निजता का संघर्ष सामाजिक संघर्ष में शामिल हो जाता है. इन कविताओं में आक्रोश का स्वर है तो गहरी निराशा का भाव भी; लेकिन इनकी अच्छाई यह है कि यह निराशा नये संकल्प के साथ तनकर खड़े होने को तैयार करती है, खामोशी से बैठने नहीं देती. इन कविताओं में पश्चाताप होता हैशीर्षक कविता अपनी निर्मिति में श्री भार्गव के पहले चरण भी कविताओं में श्रेष्ठ कविता बनकर आती है जिसका स्वर राजनीतिक है और स्वप्नभंग से उपजी वेदना, क्षोभ का रूप धारण कर सामने आती है.

इसे हिन्दी की समकालीन कविता का निर्बल पक्ष ही कहेंगे कि भारतरत्न भार्गव जैसे अनेक कवि कविता-सृजन की निरंतरता से दूर हुए और यथार्थवादी कविता की जो बुनियाद मुक्तिबोध ने डाली थी, उसकी परम्परा में गति नहीं आ पाई. कविता कैसे हमारे जीवन और जगत को तय करती है, कैसे वह हमारे अन्तर की पुकार बनती है, कैसे वह हमारी करुणा, चीख, प्रतिकार और क्षोभ का प्रतिरूप भी है; इसे देखना हो तो श्री भार्गव की कविताएँ उदाहरण बन सकती हैं; क्योंकि इनमें अपनी ही यात्रा है, अपने अन्तर की यात्रा; जिसमें बाहर का सत्य अपनी विभीषिकाओं के साथ प्रकट होता है और हमें भयाक्रांत करता है.



श्री भार्गव के दूसरे संग्रह की कविताएँ अपने स्वभाव में पहले चरण की कविताओं से किंचित भिन्न हैं. इनमें क्षोभ और आक्रोश का पहले जैसा भाव नहीं है और न ही फैन्टेसी के ताने-बाने में यथार्थ को भेदने की आक्रामकता; पर कविता को बरतने और जीने की वही लय यहाँ भी दिखती है जिसके लिए श्री भार्गव की पहचान है. इस चरण की कविताओं में बदले हुए दौर का बारीक पर्यवेक्षण है और अपनी भूमिका की पहचान करती दृष्टि भी. यही कारण है कि इनमें संयत भाषा, सुगठित शिल्प और बिम्बों की अर्थगर्भी युक्ति हैरत में डालती है. इनमें जीवन-व्यवहार और स्मृतियों में लौटकर झाँकने का प्रयत्न तो है ही, नाउम्मीदी को नियति मान लेने की कातर विवशता भी है-


सिरहाने उगी झाड़ी से निकलकर
एक काली चिड़िया
सदियों पुराने बरगद पर जा बैठी कुछ पल,
फिर वीरानों खंडहरों को लांघती
सुलगती आकृतियों को विचारती
शून्य की हथेलियों से चिपक गई !
शून्य से चिपकी
उस काली चिड़िया का नाम है
अपेक्षा !’                      (अपेक्षा, - ‘घिसी चप्पल की कील’)



इन कविताओं में कथात्मकताके साथ दार्शनिकता भी जुड़ी दिखाई देती है जिसमें कवि प्रश्नाकुल होता है और जीवनको तांडव तथा मृत्युको क्रीड़ा कहता है. जीवन में मृत्यु को देखने की कोशिश पहले से ही चली आ रही है, पर धुआँ-धुआँ करते जीवन में शिखर तक पहुँचने की निष्काम चेष्टाको आँकने की युक्ति यहाँ नई है. प्रपातकविता की इन पंक्तियों को देखें-



असंख्य जल-बिन्दु
जीवन को धुआँ-धुआँ करते
हाथ उठा कर सूर्य को पुकारते
शिखर तक पहुँचने की निष्काम चेष्टा
विस्फरित नेत्रों से देखती हरीतिमा
जीवन तांडव
मृत्यु क्रीड़ा.’


हाँ जलबिन्दु जीवन का प्रतीक है जो भाप बनकर उड़ जाता है. कवि उस भाप में शिखर तक पहुँचने की निष्काम चेष्टा देखता है. प्रश्न है कि उसकी सार्थकता क्या है? उसका शिखर तक पहुँचना कैसे सिद्ध हो सकता है? प्रश्न अनुत्तरित है, ठीक उसी तरह जैसे जीवन का मृत्यु में परिवर्तित होना अनुत्तरित है. जीवन में मृत्यु को देखने का यह विरल प्रयत्न है.

इसी तरह के, बल्कि इससे कुछ सघन भाव को व्यक्त करती कविता अमर्त्य सुख भी है जिसमें एक पत्ते के प्रतीक से कवि ने मृत्युपर जीवन की विजय को देखा है. कवि का अपना निष्कर्ष है कि मृत्युजीवन को सौंपती है. जीवन एक देह से निकलकर अनेक देहों, वनस्पतियों और दिशाओं में फैल जाता है. मरना समाप्त होना नहीं होता क्योंकि संसार को चलते रहना होता है-


पीले शिथिल पत्ते ने देखा शाख को
टूटते टूटकर धूल में मिलते
सुबकते कराहते
ढलते दिनकर की थपकियों से
खामोश होती सिसकियाँ

ध्यानस्थ सौंपने लगा पत्ता
अपनी त्वचाअस्थियाँ और विचार
दिशा-दिशा समृद्ध होती हवाएँ
गुनगुनातीं पत्ते के गीत
तालियाँ बजाते किसलय

देह से विदेह होते जाने का अनुभव
अमर्त्य सुख देता
अतीव आनन्द निरानंद होता है पत्ते का.


पीले शिथिल पत्ते का प्रकृति के संचरण में अपने जीवन का त्याग करना वस्तुतः मृत्यु में जीवन को पुनः पाना है और मृत्यु पर विजय भी.


अपने उत्तरार्द्ध की कविताओं में श्री भार्गव कविता को अन्तर-संवाद की तरह बरतते हैं और उसमें अपनी यात्रा के गुजरे पड़ावों को भी देखते हैं. अपने होने या न होने के बारे में आकाश पर इबारत लिखतेश्री भार्गव शोर के समन्दर में खामोशी तलाशते पत्थरभी बनते हैं तो मोहभंगकविता में अपनी ही जिजीविषा से प्रश्न करते हैं. इन कविताओं में बेपनाह पसरे दुःख में सुख के दौर को देखने-पाने की विकलता है तो आत्मदाहको उत्सव बनाकर प्रस्तुत करती परंपरा पर क्षोभ भी है-जीवन का विकल्प मृत्यु तो है पर मृत्यु का कोई विकल्प नहींकहता हुआ कवि षड्यंत्रकारी समय को प्रतिपक्ष करार देता चित्कार भी करता है. यह कविता बहिर्लोक से मनोलोक तक को भेदकर ऐसे प्रश्नों पर टिक जाती है जहाँ ठहरने पर विस्मय होता है.


मृत्यु के पूर्व कोई व्यक्ति यदि शिशू सूक्त पढ़ना चाहे और वह वांछित नवांकुरएक नया व्याकरण रचते हुए समूची सृष्टि को अपने मस्तिष्क में संजोए तो यह कामना स्वाभाविक भी है तो विरल भी. कविता में ऐसी ही मानवीय जिज्ञासाओं को रखते श्री भार्गव कविता को आज की आपाधापी और शोर से निकालते हैं. यहाँ एक मानवीय राग की गहन उत्कटता है जो हर तरह की मलिनता को दूर कर मनुष्य को निर्मल करना चाहती है. कवि में इस दुनिया के नई होने की कामना है, लगता है जैसे यह दुनिया रहने लायक तभी बन सकेगी जब नई दुनिया का दरवाजा खटखटाया जा सके. कवि घिसते हुए जूते के बिम्ब से देखिये क्या कहना चाहता है-


एक नई दुनिया की चौखट तक
पुराने जूते देते हैं नए पाँव बार-बार
हर बार पाँव हो जाते हैं हरे-भरे
हाथ और सिर कभी-कभी
घिसते हुए जूते समूची सृष्टि का लगाते चक्कर
रक्षा करते पाँवों की
ताकि एक नई दुनिया का दरवाजा खटखटा सकूँ
अभी या फिर कभी.


यह एक प्रतिबद्ध कवि की निराशा नहीं, उम्मीद और भविष्य की सुखद कामना है. कविता यहाँ संवाद करती है, प्रश्न भी करती है और अन्तर्पुकार बनकर संदेश बन जाती है. आगत और विगत की जड़ताओं से विरत होकर कवि यहाँ नई यात्रा चाहता है. घिसे हुए जूते पारंपरिक रुढ़ियों की तरह मनुष्यता को कष्ट भी देते हैं तो संज्ञान भी और एक संकल्प भी कि हममें नूतनता की चाह जगे, हम नए रास्ते खोल सकें और थके-हारे होने के बावजूद हार न मानें.
         


इस तरह हम देखते हैं कि श्री भारतरत्न भार्गव की कविताएँ परिणाम में चाहे कम हों, पर अपनी संवेदना और गहरे मर्मों के कारण खास जगह बनाती हैं. श्री भार्गव की कविता-यात्रा के छह दशक यानी साठ वर्ष पूरे हुए हैं. इस दीर्घ-यात्रा में उनकी कविताएँ अनेक काव्यान्दोलनों की साक्षी रही हैं जिनकी छाप उनमें सहजता से देखी जा सकती है. चाहे वह नई कविता का आन्दोलन हो या प्रयोगवाद का या अकविता या समानांतर कविता का.
         

ध्यान देने की बात यह है कि इन काव्यान्दोलनों से गुजरते हुए भी श्री भार्गव की कविताएँ (विशेषकर पहले चरण की) नई कविता के निकट हैं और उनकी पूरी संरचना यथार्थवादी है. उस दौर की कविताएँ अपनी निर्मिति में कविता के फलक को विस्तार देने के अलावा जिन नये मानकों को तैयार करती हैं, उनका बहुत महत्व है. चाहे वह यथार्थ को भेदने की मर्मस्पर्शी दृष्टि हो, चाहे फैन्टेसी में तद्युगीन व्यवस्था को बपर्द करती समझ हो-कवि की सृजनात्मकता मन पर उतरती है. इनमें बिम्बों का प्रयोग और अपने समय की विडंबनाओं को उजागर करने की युक्ति बहुत प्रभावित करती है.

         
दूसरे संग्रह की कविताओं में आक्रोश और क्षोभ का स्वर मंद है. फैन्टेसी का वह प्रयोग भी शिथिल हुआ है तो व्यवस्था के विरुद्ध स्वर में भी नरमी आई है, पर यह परिवर्तन श्री भार्गव के काव्य-विकास में दिखता है; इसे उनके हृस के रूप में नहीं देखा जा सकता. बाद की कविताओं में शिल्प के रचाव और संवेदनात्मक अनुभूतियों में जो परिवर्तन दिखता है, वह कवि की बदली मनोवृत्ति का परिचायक है. जीवन के अनुभव में गुजरे दशक टीस बनकर उभरते हैं. कविता में जीवन-जगत के प्रश्न दार्शनिकता के विमर्श बनते जाते हैं और अपने जीवन की इयत्ता पर चिन्तन करता कवि बार-बार अपने में लौटता है. यह अकारण नहीं है कि जीवन और मृत्यु पर लिखी गई कविताएँ इस चरण में अधिक दिखाई देती हैं. एक वरिष्ठ कवि के नाते, अपने लम्बे जीवन-काल के संघर्षां में खुद को खपाकर हासिल की गई सीख कविता में इस तरह उतरती है गोया हम एक प्रार्थना में शामिल हैं कि सब शुभ हो, ठीक हो, अनुकूल हो.


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इस पूरी काव्य-यात्रा में नाट्यात्मक लाघव कविताओं को जो दृश्यता देता है और जिस व्यूह से हम गुजरते हैं, उसका उदाहरण अन्यत्र खोजना मुश्किल है. निश्चल होती लहरों पर डूबते सूरज का अवसादमहसूस करता कवि वेदना की धड़कन पर घात-प्रत्याघातसहता कवि तड़कती नसें सहलाते हुए बार-बार स्पंदित अनुभव करने का तोषपाता है. कवि की पूरी काव्य-यात्रा एक बड़े संघर्ष का रूपक है जिमसें गहरे जीवन मर्म से भरी वह दृष्टि है जो हमें जिए जाने को प्रेरित करती है-कदाचित् देह से विदेह होते जाने का अनुभवही इस काव्य-यात्रा का आशय है.
___________ 
सम्पर्क :
डी-4/37, सनसिटी अपार्टमेन्ट,
सेक्टर-15, रोहिणी,दिल्ली-110089

परख : हरी मुस्कुराहटों वाला कोलाज (गौतम राजऋषि)
















गौतम राजऋषि के कहानी संग्रह 'हरी मुस्कुराहटों वाला कोलाज'की समीक्षा मीना बुद्धिराजा द्वारा.






सरहद पर शहीद ,शहादत और इश्क                      
मीना बुद्धिराजा





हानी सच, संवेदना और यथार्थ का जीवंत दस्तावेज होती है. इस दृष्टि से समकालीन कथा परिदृश्य में इस वर्ष प्रसिद्ध युवा लेखक गौतम राजऋषि का नया कहानी-संग्रह उल्लेखनीय कहा जा सकता है जो हरी मुस्कराहटों वाला कोलाजशीर्षक से अभी हाल में राजपाल एंड संज़ प्रकाशनसे प्रकाशित हुआ है. गौतम जी एक रचनाकार होने के साथ ही भारतीय सेना में कर्नल हैं और देश की सीमा पर तैनात रहते हुए चुनौतीपूर्ण फौजी जीवन को उन्होनें करीब से जिया और देखा भी है. इस बीच बहुत सी ऐसी घटनाएँ हुईं और ऐसे अनोखे चरित्र मिलते रहे जो यादगार बन गए.  उनकी अधिकांश पोस्टिगं कश्मीर के आतंकवाद ग्रस्त इलाकों और बर्फीली चोटियों पर लाइन ऑफ कंट्रोल यानि बॉर्डर पर हुई है. सेना में रहते हुए उन्होने दुश्मनों के साथ कई मुठभेड़ों का डटकर सामना किया. पराक्रम पदकऔर सेना मैडलसे सम्मानित कर्नल गौतम राजऋषि की राइफल के अचूक निशाने की तरह उनकी कलम भी अपना गहरा प्रभाव पाठकों पर छोड़्ती है. इन्हीं बहुमूल्य अनुभवों और स्मृतियों को लेकर उन्होनें कुछ बेह्तरीन और रोचक कहानियाँ लिखीं जो इस पुस्तक में सम्मिलित हैं और हिंदी की प्रमुख पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं.

इन कहानियों में फौजी जीवन के अनेक आयामों की वो झलक मिलती है जो आम नागरिक  की दुनिया से बहुत अलग है. लेकिन इन कहानियों में इतनी सजीवता और जीवतंता है कि पाठक भी उसी सैनिक और फौजी माहौल में पहुंच जाता है और उसकी पूर्वनिर्मित सोच बिलकुल बदल जाती है. यह कहानी- संग्रह गौतम जी की दूसरी महत्वपूर्ण पुस्तक है. एक कवि और शायर के रूप में पहली पुस्तक जीवन के अनेक पहलुओं से जुड़ी गज़लों का संकलन पाल ले इक रोग नादानशीर्षक से प्रकाशित हो चुकी है जो उनकी बहुत लोकप्रिय और चर्चित किताब रही है.

एक फौजी और कर्नल के रूप में हरी वर्दी वाले सैनिकों की ये कहानियाँ सीमा पर उनके अद्भुत पराक्रम और साहस के साथ मानवीय प्रेम की कोमल संवेदनाओं की यादगार कहानियाँ हैं जो पाठक की मन:स्थिति को निश्चित रूप से दूर तक प्रभावित करती हैं. सत्य और यथार्थ घटनाओं के साथ लेखक की स्मृतियाँ, अनुभूति की आत्मीयता और मौलिक व ताज़गी से भरी अभिव्यक्ति पाठक के दिलो‌-दिमाग में बहुत समय तक ठहर जाने की ताकत रखती हैं जो सीमा पर तैनात फौजी जीवन की कठोर और क्रूर छवि के प्रति पाठक के दृष्टिकोण को भी बदल देती हैं और यह इन कहानियों की विशेष उपलब्धि है. मन की गहराईयों से जुड़ी इन कहानियों में सरहद पर शौर्य,पराक्रम,संघर्ष और शहादत के बेमिसाल अनुभव और किस्से अंकित हैं तो दूसरी तरफ खुशी,  दर्द, गम, ज़ख्म , विषाद और प्रेम का मर्मस्पर्शी सच भी उतनी ही शिद्दत से बयान हुआ है.

भारतीय फौज के जीवन के बहुत से आयामों और दिलचस्प विविध और जीवंत किरदारों से गहराई सेरुबरु कराती ये कहानियाँ वास्तव में एक फिल्म के अलग अलग दृश्यों और रंगों का मानों खूबसूरत कोलाज बनाती हैं जो तमाम जोखिमों के बीच भी मुस्कराहटों को बचाये रखते हैं और पाठक भी उन चरित्रों,फौजी माहौल के उन्हीं दृश्यों और अनुभवों में डूबने- उतरने लगता है.जिस हरी वर्दी पर सरहद पर देश की सुरक्षा  का दायित्व तथा कठिन जिम्मेदारी है. अपने कर्तव्य के साथ ही उनके ह्र्दय में भी कोमल भावनाएं, प्रेम, संवेदनाएं और भावुकता के साथ सभी जज़्बातों  की पराकाष्ठा इन कहानियों में बहुत शिद्दत से उभर कर आयी है जो अधिक मानवीय धरातल पर विश्वसनीय और स्वाभाविक होकर पाठकों से अपना रिश्ता कायम कर लेती हैं. कथ्य और  भाषा - शिल्प के एक नये तथा समकालीन चुस्त कलेवर में ये कहानियाँ पाठकों को भी जीने का तरीका और ज़िंदादिली का अंदाज़ सिखाती हैं और उनसे आत्मीय संवाद स्थापित करती है. अपने सम्मोहन में बांधकर बहुत देर  तक पाठक को प्रभावित करने की क्षमता इन कहानियों की विशेष उपलब्धि है.

पहली कहानी हीरोसेना के मेज़र जवान के अद्भुत साहस और जोखिम के बीच उसके नि:स्वार्थ मानवीय प्रेम की दिलचस्प दास्तान है जो एक पूरी रात भयानक गहरी खाई में लटकी केबल कार में फंसे दो परिवारों के साथ रात गुजारता है और सांत्वना देकर सुबह उनको सुरक्षित पहुंचाता है. नई पीढी से संबध बनाते हुए स्टारडम,जेन एक्स,हार्ट-थ्रोब,डेयर डेविल जैसे शब्दों और बीच-बीच मे संवादो में अंग्रेजी के हल्के- फुल्के प्रचलित वाक्यों का प्रयोग और अनोखी रवानगी से भरी भाषा कहानी को संप्रेषण शैली का नया मुहावरा देती है.

दूसरी शहादतएक मार्मिक और गंभीर कहानी है जिसमें एनीकी मूक पीड़ा और व्यथा का सजीव चित्रण है जिसका प्रेमी और भावी पति डेविड कारगिल की लड़ाई में सीमा पर शहीद हो चुका है और समाज के डर से उसके अजन्मे बच्चे की भी जैसे शहादत हो जाती है जो आजीवन जख्म बनकर उसे दर्द देता रहेगा. सभी कहानियाँ जिंदगी के अलग-अलग शेड्स और रूप-रंग से जुड़ी हैं जिन्हे बहुत खूबसूरती से हर फ्रेम में गौतम राजऋषि जी ने कुशलता लेकिन सहजता से चित्राकिंत किया है. इक रास्ता है ज़िंदगीसेना के कर्नल की ज़िंदादिली और कारगिल युद्ध के अनुभवों की बेह्तरीन चुहल भरी कहानी है जो किसी फिल्म के गतिमान दृश्यों की तरह पाठक की आँखो के सामने कौंध जाती है. इसी तरह सैलाबकहानी मिलिट्री हॉस्पीटल के आईसीयू में कोमा में बेहोश और घायल पड़े सैनिक गुरनाम सिंह के द्वारा किसी दुखद अंत तक नहीं बल्कि अप्रत्याशित रूप से एक सुखद और खुशनुमा अंत तक ले आती है और पाठक भी चकित हुए बिना नहीं रहता.

सिमटी वादी की बिखरी कहानीइस संग्रह की बहुत सशक्त और केंद्रीय कहानी कही जा सकती है जो  कथ्य के स्तर पर बहुत आत्मीय और संवेदनशील तरीके  से किस्सों की अनेक परतों में साज़ियाके जीवन की त्रासदी,उसके परिवार और छोटी बहन सकीना के निकाह की अधूरी ख्वाहिशों की बेबसी के मर्म को उद्घाटित करती है. सेना और वादी के स्थानीय नागरिकों के बीच अतर्विरोधों और निरंतर संघर्ष में रिश्तों की जटिलता और भावनाओं की गहराई को कहानी शिद्दत से बयान करती है. कैप्टन शब्बीर के रूप में विशेष मिशन के लिये तैनात मेजर जयंत के कर्तव्य और अतंर्द्वद्व तथा आतंकवाद की आग में झुलस चुकी वादी की त्रासद परिस्थितियों में भविष्यविहीन पीढ़ी के साथ कहानी एक मार्मिक अंत और ठहर गये दर्द के साथ पाठक की संवेदना को भी झकझोर देती है.

चिलब्लेंसकहानी में कश्मीर के आम जीवन पर आतंकवाद के दुष्प्रभाव से टूटते घरों और संबंधों की त्रासदी के साथ ही बर्फीले मौसम में वहां के जनजीवन की दुशवारियों का भी मार्मिक चित्रण है. गेट द गर्लबर्फीली सीमा के बंकर पर तैनात लेफ्टिनेंट पंकज के जीवन में नेहा के रूप में आए खुशनुमा पलों और उसके साथियों की जिंदादिली की रोचक और खूबसूरत कहानी है. बर्थ नम्बर तीनसुविधा भोगी मध्यवर्ग की स्वार्थपरकता और उसके बरक्स मेजर सुदेश के साहसपूर्ण जज़्बे की रोचक कहानी है तो आय लव यू फ्लाय ब्वाय..कहानी कश्मीर में पीरपंजाल की ऊंची पहा‌ड़ियों पर सेना के मेजर द्वारा सतर्क और सफल रेस्कयू ऑपरेशन में घायल लांसनायक को बचा लेने की घटना का रोमांचक और दृश्यात्मक चित्रण है जो पाठक को भी अपने साथ लेकर चलता है. रक्षक- भक्षकएक निरीह जानवर हिरण शावक जो बर्फबारी में शिकार बनते-बनते आतंकित होकर पनाह के लिये बंकर में आ जाता है, उसके प्रति वाले सेना के जवानों और कंमाडर के अद्भुत मानवीय प्रेम और करुणा की आदर्श कहानी है. चार्ली पिकेटऔर तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा' फौज के अलग-अलग मानवीय सहज किरदारों की हल्की- फुल्की जीवंत कहानियाँ हैं जिनमें तमाम अनुशासन और कर्तव्य के बीच मुस्कुराहटें और ठहाके भी खूब मिलते हैं.
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(गौतम राजऋषि)


इक तो सजन मेरे पास नहीं रेआतंकवाद के भयानक दौर में रेहाना के कभी न खत्म होने वाले इंतज़ार की मार्मिक कहानी है जिसमें जिहाद के नाम पर सीमापार आतंकवादियों के ग्रुप में शामिल उसके मंगेतर सुहैल को वापस लाने की मेजर विकास की अटूट कोशिश के बावज़ूद यह एक अधूरी  और त्रासद प्रेम कहानी बनकर रह जाती है. कश्मीर घाटी के सौंदर्य,झेलम, चिनार के पत्तों और बर्फीले आबशारों के बीच अंत मे प्रसिद्ध गायिका रेशमा का गाना पाठकों के दिल और ज़हन में देर तक गूंजता रहता है. 

आवेदन पत्र शादी काफौज के माहौल में युवा लेफ्टिनेंट युवराज सिंह की शादी को लेकर चुहल भरे क्षणों की प्यारी सी  कहानी है तो दूसरी ओर हैडलाइन' अत्यंत विषम हालातों में आतंक की आड़ में सेना के जवानों पर होने वाले भीड़ के हमलों और आलोचना को झेलती फौज के लिये मीडिया की एकतरफा रिपोर्टिंग और पक्षपातपूर्ण भूमिका के प्रति सवाल उठाने वाली कहानी है. गर्लफ्रेंड्स’कहानी मेजर प्रत्यूष और उसकी टीम द्वारा आतंकवादियों के एक खतरनाक सर्च एनकाउंटर में उनके एक साथी कैप्टन  सिद्धार्थ की मौत का दु:ख और गोलियों से पूरी तरह घायल मेजर के भावुक पश्चाताप की संवेदनशील कहानी है. कहानी का शीर्षक और अंत पाठकों को फिर से चौंका देता है जो गौतम जी की मौलिक कल्पनाशीलता भी कही जा सकती है लेकिन कहानी लगातार अंत तक पाठक को बांधे रखती है.
  
किशनगंगा बनाम नीलमसरहद पर तैनात दोनों देशों के जवानों के बीच होने वाली सहज सरल संवाद की मानवीयता और भावनाओं को दर्शाती `तमाम दुश्मनी और तनाव के बीच कुछ राहत के पल देने वाली रोचक कहानी है. भाषा- शिल्प में अग्रेंजी-उर्दू के शब्दों का खूबसूरत प्रयोग़ इसे पठनीय और जीवंत रूप देता है जो गौतम जी की कलात्मक विशेषता है. बार इज़ क्लोज़्ड ऑन ट्यूज़डेऔर पार्सलभी फौज़ी जीवन के अनुभवों और कई आयामों से जुड़ी दिलचस्प कहानियाँ हैं. हैशटैग’ एकतरफा प्रेम में पूरी तरह समपर्ण और जूनून के बाद अंतत: अपने अपमान और उपेक्षा से आहत समरप्रताप सिंह के प्रतिशोध की रोमांचक कहानी है जो किसी फिल्म के दृश्यों की तरह पाठक के सामने घटित होती है. अंतिम कहानी हरी मुस्कुराहटों वाला कोलाज’ इस संग्रह की प्रतिनिधि कहानी कही जा  सकती है जो मेजर मोहित सक्सेना के चरित्र के माध्यम से सेना और फौज के बारे में पाठक की सोच को बदल देने की क्षमता रखती है. हमेशा जोखिमतथा युद्ध की कठिन परिस्थितियों में रहने और सख्त अनुशासन के लिये पूरी तरह बाध्य हरी वर्दी वाले फौजियों के ह्र्दय में भी कोमलतम भावनाएँ होती हैं. कहानी में अनेक मानवीय संवेदनाओं और रिश्तों का खूबसूरत कोलाज और कहीं- कहीं काव्यात्मक शैली एक जादुई प्रभाव के साथ पाठकों को अपने आकर्षण से बांध लेती है –

हरी है ये ज़मीं हमसे कि हम तो इश्क बोते हैं
हमीं से है हँसी सारी, हमीं पलकें भिगोते हैं.

यह इस वर्ष का बेहतरीन कहानी-संग्रह कहा जा सकता है जो पाठकों से भी सार्थक संवाद स्थापित करता हैं. कठिनतम और दुर्गम हालातों में भी ये कहानियाँ और इसके चरित्र जीने का जज़्बा और संघर्ष करने का हौसला नहींछोड़ते. फौजी ज़िंदगी के सभी रास्तों और मोड़ों से गुजरते हुए एक सफर पर सभी इक्कीस कहानियाँ जैसे पाठक को साथ लेकर चलती हैं जहाँ आघातों,मुठभेड़,खतरों और जोखिम के बीच भी जीवन की मुस्कुराहटें,उम्मीद और ख्वाहिशें हैं. गौतम जी के पास अपनी अनुभूतियों और स्मृतियों को गद्य के कलात्मक-शिल्प में ढ़ालने का और शब्दबद्ध करने का अनूठा कौशल है जो इन खूबसूरत कहानियों को बेहद पठनीय,रोचक और गतिशील बना देता है. लेखक ने जैसे स्वंय जीकर इन कहानियों को बयान किया है इसलिये कब ये कहानी से हकीकत में ढ़ल जाती हैंपाठक को इसका पता नहीं चल पाता. यहाँ कश्मीर केवल एक भौगोलिक ईकाई या सरहद  की रेखा न होकर जीवन के संपूर्ण और सघन अनुभव के रूप में उभर कर आता है इसलिये सभी चरित्र ,परिवेश और घटनाएँ सहज स्वाभाविक और सच के करीब दिखती हैं जिनमें खुशियों के क्षण भी हैं और दर्द के चित्र भी.

आतंकवाद के साये में जीने के लिये अभिशप्त लोगों की त्रासदी अत्यंत मार्मिकता से अभिव्यक्त हुई है तो दूसरी ओरसेना तथाफौजियों के साहस, संघर्ष ,मानवता के सम्मान,  दृढ़ता और संयम की मिसालें भी दिल को छू लेती हैं. हिंदी की प्रसिद्ध और वरिष्ठ कथाकार ममता कालिया जी ने इस पुस्तक के लिये कहा है- 


गौतम राजऋषि का नवीनतम कहानी- संग्रह सही मायनों में आत्मीयता, अनुभव और अनुभूतिका प्रतिरूप है. एक जोखिम भरे कार्य-क्षेत्र के तीखे और तरल क्षणों को रचनाकार ने पकड़ने की कोशिश की है. कुछ अधूरी प्रेम कहानियाँ उदास कर जाती हैं तो आतंकवाद की जड़ में समाया असुरक्षा बोध हमें सीमांत की समस्याओं से रूबरू करता चलता है.कहानी अगर ज़िंदगानी का अक्स है तो ये सब कहानियाँ इस पैमाने पर खरी उतरती हैं...पूरी तरह पाठक को सम्मोहित करने वाली बेबाकी इस किताब की खासियत है.”

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कथ्य और भाषा के स्तर पर मौलिक अंदाज़ की लेखन -शैली और अलग ट्रीटमेंटके साथ एक युवा और नये तेवर की सजीव अभिव्यक्ति पाठकों से बहुत जल्दी जुड़ जाती है. तमाम कठिनपरिस्थितियोंऔर निराशाओं में आशा और उम्मीदकी तरफ ले जाने वाली ये बेहद यादगार और ईमानदार कहानियाँ  हैं जिनमें ज़िंदगी का एक नया फलसफा और अलग नजरिया है और ये पाठक की मानवीय संवेदनाओं को भी उद्वेलित करती हैं जो कहानीकार की सफलता मानी जा सकती है.

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मीना बुद्धिराजा
हिंदी विभाग,  अदिति कॉलेज,  दिल्ली विश्वविद्यालय, 
संपर्क-9873806557

परख : हमन हैं इश्क मस्ताना (विमलेश त्रिपाठी)















विमलेश त्रिपाठी के नये उपन्यास 'हमन हैं इश्क मस्ताना'की समीक्षा विनोद विश्वकर्मा की कलम से .









हमन हैं इश्क़ मस्ताना
मोहब्बतों की  चाहत की कथा                      

विनोद विश्वकर्मा




'हमन है इश्क़ मस्ताना' (उपन्यास),
लेखक - विमलेश त्रिपाठी,
प्रकाशक : 
हिन्द-युग्म 201 बी, पॉकेट ए, मयूर विहार फ़ेस-2, दिल्ली-110091,
पहला संस्करण : 2018,
मूल्य - 130,

कोई मुझसे यह प्रश्न करे कि यह दुनिया कैसे चलती है? तो मैं उसके उत्तर  में  कहूंगा कि - प्रेम से. वास्तव में यदि इस दुनिया से प्रेम मिट जाए तो यह दुनिया ही समाप्त हो जाय. बहुत साल पहले जब मैं आचार्य रामचंद्र शुक्ल का निबंध'श्रद्धा और भक्ति'पढ़ रहा था तो उसमें यही जाना था कि प्रेम में एकाधिकार होता है, और श्रद्धा में प्रेम का विस्तार होता है, अर्थात जिससे हम प्रेम करते हैं वह चाहता है कि हम उसी से प्रेम करें, उसी के आगे पीछे घूमें, और किसी से प्रेम न करें, और हम यदि ऐसा करते हैं तो जिससे हम प्रेम करते हैं उसे दुःख होता है, साथ ही प्रेम की मूल भावना को चोट पहुँचती है, आचार्य शुक्ल बड़े आदमी हैं, उनकी इस धारणा को मैं कहाँ तक समझ पाया यह तो नहीं कहता हूं, लेकिन प्रेम की अवधारणा को जरूर समझ गया था कि प्रेम करो तो भैया एक ही से करो, दूसरे की और न देखो.
  
जब मैं'शेखर : एक जीवनी'पढ़ रहा था तो प्रेम के मनोविज्ञान को पढ़ा. वह यह था कि जीवन में प्रेम एक बार नहीं होता, वह बार-बार होता है, अज्ञेय ठीक-ठीक समझा देते हैं कि प्रेम का यदि जन्म होता है, तो वह मरता भी है, अर्थात प्रेम एक बार उगता है, डूबता है और फिर उसी तरह का वातावरण पाकर पुनः उगता है. प्रेम करने के बाद यह प्रश्न सदियों से बना रहा है कि क्या वह एक ही बार किया जाय. समाज में इस एकनिष्ठ प्रेम ने कितनो की जान ली है, और कितने ही परिवारों को तोड़ा है, फिर भी आज भी हम यही चाहते हैं कि'तुम्हारा चाहने वाला इस दुनिया में, मेरे सिवा कोई और न हो'और यदि हो जाय तो क्या हो? इसी प्रश्न को लेकर के लिखा गया है विमलेश त्रिपाठी का उपन्यास'हमन हैं इश्क़ मस्ताना'. मैं इस उपन्यास को अज्ञेय के'शेखर:एक जीवनी'का अगला भाग मानता हूँ, लेखक ने प्रेम और उसके मनोविज्ञान को बखूबी पकड़ा है, हालाँकि यह निर्णय देना सही नहीं होगा लेकिन मैं फिर भी कहता हूँ की यदि अज्ञेय पुनः इस विषय पर विचार करते तो वह इसी तरह का होता जैसा कि'हमन हैं इश्क़ मस्ताना'में विमलेश त्रिपाठी ने किया है.
       

यह उपन्यास वर्तमान जीवन और उसके अन्तर्विरोधों को बखूबी बयान करता है, आज के समय में प्रेम जीवन से कब चला जाय और कब आ जाय यह अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है, पहले हम गाँव में रहते थे, अब विश्व गाँव में रहते हैं, और विश्व गाँव में संपर्क के जो हथियार हैं, -मेल, यारकुट, फेसबुक, व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम, ट्वीटर, और इन सबके  संपर्क  केंद्र हैं, कम्प्यूटर और मोबाइल. पहले प्रेम आँखों के रास्ते आता था, अब एक ट्वीट या फेसबुक पर एक पोस्ट या एक सन्देश से भी आ जाता है.     
       

इस उपन्यास के नायक अमरेश विश्वाल के जीवन में प्रेम आँखों के रास्ते तो आया ही है, लेकिन सोशल मीडिया के माध्यम से भी आया है, और इसी ने उसके जीवन में हलचल पैदा कर दी है, वह जो शांत और निश्चित जीवन में अपनी पत्नी अनुजा के साथ जी रहा था, किसी ने नहीं सोशल मीडिया ने उसके जीवन के तालाब में अनेक पत्थर फ़ेक दिया है, अब यह पत्थर हैं, या नहीं इसका निर्णय आपको उपन्यास पढ़कर के लेना पड़ेगाअमरेश अपनी पत्नी के अलावा काजू दे, शिवांगी, और मंजरी से प्रेम करता है, यह तीनों लड़कियां या प्रेम उसे सोशल मीडिया से मिले हैं, समय के साथ कुछ छूट जाते हैं और कुछ साथ रहते हैं.
  

जब हम किसी दूसरे से प्रेम करने लगते हैं तो जिससे पहले प्रेम करते हैं उसके अधिकार में बाधा आती है, आमतौर पर ऐसा होता है कि घरों में तनाव बढ़ जाता हैं, झगड़े शुरू हो जाते हैं, हमें सोशल मीडिया की लत लग जाती है, हम वहां भी तलाशते हैं प्रेम, और वहां प्रेम हमें मिल भी जाता है. अनेक रूपों में.


जब प्रेम टूटता है तो न किताबें  अच्छी लगती हैं, न ही कुछ और अर्थात काम करने का भी मन नहीं करता है. प्रेम करना इतना कठिन है कि प्रेम के साथ ही मृत्यु हमारे आस-पास आ जाती है, यह मृत्यु उस तरह की नहीं होती है जो शरीर को नष्ट कर देती है, बल्कि समाज के डर होते हैं, जो सदियों से निर्मित हो गए हैं. शक, संशय और डर के बावजूद लेखक अमरेश प्रेम करता है, प्रेम में तो पास होने की आकांक्षा होती है, अमरेश अपने प्रेम को विस्तार देता है, जो कलकत्ता - अनुजा और काजू दे, दिल्ली - शिवांगी, भोपाल - मंजरी में, विस्तार पा जाने के कारण नायक अपने प्रेम को साध पाया है, या नहीं इसी की कहानी है, यह उपन्यास 'हमन हैं इश्क़ मस्ताना'.
     

कुछ लोग प्रेम को पवित्रता और अपिवत्रता के धरातल पर रखकर भी देखते हैं, वह यह मानते हैं कि यदि आपने एक बार प्रेम करने के बाद  किसी और से प्रेम किया, लड़का या लड़की के रूप में तो आपका प्रेम अपवित्र हो जाता है, नायक अमरेश जब शिवांगी से मिलता है, वह और शिवांगी यह मानते हैं कि उनका मिलन पवित्र है. शिवांगी यह जानती है कि अमरेश एक परिवार वाला आदमी है, उसकी पत्नी है, एक बच्चा भी है, फिर भी वह उससे प्रेम करती है, वह अट्ठाईस की है और अमरेश बयालीस के आस-पास, वह उससे कहती है कि अपने परिवार का ख्याल रखो, अनुजा दीदी से प्रेम करो, शिवांगी के अंदर एक गुस्सा, एक ठहराव और खालीपन है, वह है समाज और अपने परिवार के प्रति - यथा 


"मेरे अंदर एक ठहराव है, एक ख़ालीपन है.ढेर सारा ग़ुस्सा है- अपने परिवार के लिए और इस समाज के लिए भी.इसलिए मुझे समाज का और परिवार का कोई भी वह नियम मान्य नहीं है, जो मुझे घेरता-बाँधता."( खंड - बारह

वह स्वतंत्र जीवन और प्रेम की आकांक्षी है, वह प्रेम में बाधा को नहीं मानना चाहती है. वहीँ जू दे अशरीरी प्रेम को मानती है, और जैसे ही वह अमरेश के बारे में जान जाती है कि अमरेश की शादी हो चुकी है, उससे अलग हो जाती है.
        
एकनिष्ठ प्रेम में और परिवार में यह होता है कि बच्चे अपना जीवन तनाव मुक्त जीते हैं, लेकिन यदि प्रेम एकनिष्ठ नहीं रहा और माता-पिता अलग हो जाएं तो बच्चों को दोनों का प्रेम नहीं मिल पाता है, इस उपन्यास में अंकु इसका उदहारण है. प्लेटो ने तो स्त्रियों के साम्यवाद में यहाँ तक कहा है कि बच्चे किसके हैं यह बच्चों को पता नहीं होना चाहिए, राज्य में बच्चों के पालन के अलग केंद्र होने चाहिए, लेकिन'हमन हैं इश्क़ मस्ताना'का नायक अपने परिवार को बचाना चाहता है, पर अनुजा नहीं चाहती कि वह कहीं और प्रेम खोजे.
        
मंजरी अपनी इच्छा और पूरी जानकारी के साथ अमरेश से प्रेम करती है, अंतरंग होती, सहवास करती है, दूरी के कारण अमरेश उससे बार-बार मिल नहीं पाता है, वह यह मानती है कि जिस शरीर को मेरे प्रियतम अमरेश ने स्पर्श किया है, उसे और कोई नहीं छू सकता है, उसे नायक कहता है कि वह किसी से जहाँ उसके माता-पिता कहें, उससे शादी कर ले, पर वह नायक की बात नहीं मानती है. वह जो करती है, हमें अंदर तक हिलाकर रख देता है. एक जगह कथाकार लिखता है - मंजरी और अमरेश का संवाद है, यथा

"नहीं, अब तुम्हें सचमुच परेशान नहीं करूँगी. तुम्हारा एक घर है. मैं ज़बरदस्ती घुस आई वहाँ. तुम्हारा कोई क़सूर नहीं. सारी ग़लती मेरी है. दरअसल, मुझे सोचना चाहिए था कि तुम किसी और से प्यार कर ही नहीं सकते. तुम एक पुरुष हो जो अपनी देह तो किसी को भी दे सकता है, लेकिन अपना मन वह किसी को नहीं दे सकता. वह वहीं है- तुम्हारे पहले प्यार के पास. तुम दीदी को बहुत प्यार करते हो. इस बात को स्वीकार क्यों नहीं करते?”

“देखो, मैं देह के लिए तुम्हारे पास नहीं गया था. यह तुम भी जानती हो.”

“हाँ, तुम लेकिन अच्छे हो. मुझे तुम्हारे ऊपर कभी क्रोध नहीं आता. पता नहीं क्यों पर शायद इसलिए ही मैं तुम्हें अपना सब कुछ दे सकी. वह सब जो किसी और को नहीं दे सकती. न पहले दिया था और न अब.” (खंड - चौदह)
      
एकनिष्ट प्रेम तो ठीक है, लेकिन जो लोग किन्हीं कारणों से एकनिष्ठ नहीं रहना चाहते, उनका क्या हो? क्या उन्हें बहुनिष्ठ प्रेम करने की आजादी मिलनी चाहिए? क्या प्रेम को बांधकर रखा जा सकता है? आदमी को परिवार की जरूरत है, परिवार का टूटना मनुष्य को पागल कर देता है, इसमें एक पात्र ऐसा भी है, जिसकी पत्नी किसी दूसरे से प्यार करती थी तो उसने उसकी हत्या कर दी है, और अब पागल है, जिसके साथ अमरेश बीड़ी पिता है, तो क्या अनुजा को अमरेश की हत्या कर देनी चाहिए, क्योंकि वह किसी और लड़की से प्रेम करता है? प्रेम के टूटने का अगला पड़ाव है पागलपन, या एक नए प्रेम की तलाश. इन प्रश्नों से भी जूझता है यह उपन्यास. लेकिन जो सबसे बड़ा प्रश्न है, वह यह है कि - यथा

"यह कैसा संस्कार था? यह कैसा नियम था जिसने उसे बाँध दिया था? कब ख़त्म होंगे ये नियम? कब हम इस शरीर की पवित्रता और शरीर की एकनिष्ठता से ऊपर उठ पाएँगे? आख़िर हम मिट्टी हैं- ख़ून और माँस हैं हम.तो फिर यह मोह क्यों? इस तरह के संस्कार क्यों?"(खंड - सोलह)
        
वास्तव में यह प्रश्न बहुत लाजमी है कि यदि हमने किसी एक से प्रेम कर लिया. तो दूसरे से प्रेम करने के लिए स्त्री या पुरुष का शरीर अपवित्र हो गया. क्या शरीर भी अपिवत्र होता है? क्या कुल्हड़ की भांति एक बार चाय पीकर के शरीर को भी नष्ट कर देना चाहिए? फिर प्रेम का क्या होगा, जो बार-बार जीता है, और मरता है, फिर उत्पन्न हो जाता है. प्रेम की स्वतंत्रता में ही जीवन की स्वतंत्रता है, और जीवन स्वतंत्र है तो सबकुछ स्वतंत्र है, प्रेम की मुक्ति की मांग ही इस उपन्यास का मूल लक्ष्य है, यही कारण है कि यह एक महा-आख्यान है, यह महा-आख्यान इसलिए भी है कि चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, किसी दूसरे से प्रेम करने से अपवित्र नहीं हो जाता है, शरीर मिट्टी का बना है, और अपनेपन में वह हर रूप में पवित्र है.
       
प्रेम की स्वतंत्रता परिवार से मुक्ति नहीं है, यदि स्त्री या पुरुष किसी और से प्रेम करते हैं तो भी साथ-साथ रह सकते हैं. परिवार को बचाना भी उनकी जिम्मेदारी है, जिसका प्रयास इस उपन्यास का नायक करता है, पर सफल नहीं हो पाता है.
       

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भाषा, कला, प्रभाव, रस, मार्मिक स्थलों की पहचान इन सभी की  व्यापकता और  और गहराई हमें इस उपन्यास में मिलती है. यही कारण यह उपन्यास केवल अमरेश और उसके जीवन की दास्तां न होकर, अनुजा, शिवांगी, काजू दे, मंजरी की दास्तां न होकर हम सब की दास्ताँ हो जाती है, इस उपन्यास के बारे में मैं यह पढ़ता आ रहा हूँ कि यह सोशल मीडिया से प्राप्त प्रेम पर केंद्रित है, पर यह उपन्यास उससे कहीं बहुत ज्यादा फलक लिए है, पहले जब सोशल मीडिया नहीं था तब भी प्रेम होता था, एक ही स्त्री-पुरुषों का अनेक से. एक बेहतरीन उपन्यास के लिए लेखक विमलेश त्रिपाठी  को हार्दिक बधाई.
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dr.vinod.vishwakarma@gmail.com
09424733246 

कथा- गाथा : नुरीन : प्रदीप श्रीवास्तव







साहित्य में शामिल होने का रास्ता यह है कि प्रसिद्ध पत्रिकाओं में आपकी रचनाएँ छपें, छपती रहें, महत्वपूर्ण किसी प्रकाशक से आपका संग्रह निकले. विमोचन आदि हो, समीक्षाएं छपें और फिर बड़े लेखक-आलोचक आपकी कहीं कुछ चर्चा कर दें. एक-दो जगह आपको बोलने के लिए बुला 
लिया जाए, एकाध सम्मान मिल जाए आदि. इसे ही मुख्यधारा कहते हैं.


ऐसे बहुत से लेखक भी हैं जिनकी रचनाएँ किसी बड़ी पत्रिका में नहीं छपतीं  उनका संग्रह कोई बड़ा प्रकाशक नहीं छापता. वे अपने खर्चे से अपना संग्रह प्रकाशित कराते हैं, कोई परिचित लेखक उसकी भूमिका लिख देता है और वे अपना संग्रह लेखकों-संपादकों और मित्रों को इस प्रत्याशा से भेजते हैं कि कोई उसे पढ़ ले. यह भी एक बड़ी दुनिया है. साहित्य की यह भी एक धारा है.


इसका भी लेखा-जोखा किसी आलोचक-इतिहासकार को रखना चाहिए. आधुनिक हिंदी साहित्य में इस धारा का इतिहास नहीं लिखा गया है. कला के स्तर पर इस धारा में सौष्ठव की कमी और विचारों की अपरिपक्वता फिर भी दिखे पर जो समाज का निम्नवर्गीय प्रसंग है वह यहाँ सच्चाई से सामने आता है.


प्रदीप श्रीवास्तव का कहानी संग्रह ‘मेरी जनहित याचिका एवं अन्य कहानियां’मार्च २०१८ में मुझे मिला. इसे उन्होंने खुद ही छपवाया है. साथ में कुछ कहानियां भी उन्होंने भेजी. दो समीक्षाएं भी भिजवाई. पर समालोचन इन्हें प्रकाशित करने से बचता रहा.


उनकी यह कहानी प्रकाशित करते हुए मुझे यह कहना है कि भले ही यह कहानी ढीली है और इसमें समकालीन कथा का तेज़–तरार्र मुहावरा नहीं है. पर समाज की कटु वास्तविकता तो है ही. केंसरग्रस्त पिता, लाचार दादा और क्रूर माँ के बीच नुरीन जो कर रही है क्या पता ऐसी कई  लडकियाँ इसी समय में कर रही हों.


नुरीन
प्रदीप श्रीवास्तव



नुरीन होश संभालने के साथ ही अपनी अम्मी की आदतों, कामों से असहमत होने लगी थी. जब कुछ बड़ी हुई तो आहत होने पर विरोध भी करने लगी. ऐसे में वह अम्मी से मार खाती और फिर किसी कमरे के किसी कोने में दुबक कर घंटों सुबुकती रहती. दो-तीन टाइम खाना भी न खाती. लेकिन अम्मी उससे एक बार भी खाने को न कहती. बाकी चारो बहनें उससे छोटी थीं. जब अम्मी उसे मारती थी तो वह बहनें इतनी दहशत में आ जातीं कि उसके पास फटकती भी न थीं. सब अम्मी के जोरदार चाटों, डंडों, चिमटों की मार से थर-थर कांपती थीं. वह चाहे स्याह करे या सफेद, उसके अब्बू शांत ही रहते. अम्मी जब आपा खो बैठतीं, डंडों, चिमटों से लड़कियों को पीटतीं तो बेबस अब्बू अपनी एल्यूमिनियम की बैशाखी लिए खट्खट् करते दूसरी जगह चले जाते.

उनकी आंखें तब भरी हुई होती थीं. जिन्हें वह कहीं दूसरी जगह  बैठ कर अपने कुर्ते के कोने से आहिस्ता से पोंछ लेते. वह पूरी कोशिश  करते थे कि कोई उन्हें ऐसे में देख न ले. लेकिन अन्य बच्चों से कहीं ज़्यादा संवेदनशील  नुरीन से अक्सर वह बच नहीं पाते थे. तब नुरीन चुपचाप उन्हें एक गिलास पानी थमा आती थी. खुद पिटने पर वह ऐसा नहीं कर पाती थी. उसे अब्बू की हालत पर बड़ा तरस आता था.
छह साल पहले एक दुर्घटना में उनका एक पैर बेकार हो गया था. कई और चोटों के कारण वह ज़्यादा देर बैठ भी नहीं सकते थे. रही-सही कसर मुंह के कैंसर ने पूरी कर दी थी. तंबाकू-शराब के चलते कैंसर ने मुंह को ऐसा जकड़ा था कि जबड़े के कुछ हिस्से से लेकर जुबान का भी अधिकांश हिस्सा काट दिया गया था. जिससे वह बोल भी नहीं सकते थे. उनकी इस दयनीय स्थिति पर भी अम्मी उन्हें लताड़ने-धिक्कारने, अपमानित करने से बाज नहीं आती थी. शायद ही कोई ऐसा सप्ताह बीतता जब वह अब्बू को यह कह कर ना धिक्कारती हों कि ये पांच-पांच लड़कियां पैदा कर के किसके भरोसे छोड़ दी, कौन पालेगा इनको, तुम्हारा बोझ ढोऊं कि इन करमजलियों का, अंय बताओ किस-किस को ढोऊं.जब अब्बू उनकी इन जली-कटी बातों पर प्रश्नों और लाचारी से भरी आंखों से देखते तो अम्मी किचकिचाती हुई यह भी जोड़ देती अब हमें क्या देख रहे हो जब कहती थी तब समझ में नहीं आया था, तब तो दारू भी चाहिए, मसाला भी चाहिए, खाओ, अब हमीं को चबा लो.यह कहते हुए अम्मी पैर पटकती, धरती हिलाती चल देती थी. और अब्बू बुत बने बैठे रहते.

नुरीन को अम्मी की बातें, गुस्सा कभी-कभी कुछ ही क्षण को ठीक लगता था कि अब्बू के बेकार होने के बाद घर-बाहर का सारा काम उन्हीं के कंधों पर आ गया. घर के उनके कामों में जहां अब्बू को कपड़े पहनने में मदद करना तक शामिल है वहीं बाहर का सारा काम, सारे बच्चों के स्कूल के झमेले और फिर दिन में तीन बार आरा मशीन पर जाना. पहले दादा को आरा मशीन पर पहुंचाना, फिर दोपहर का खाना देने जाना, शाम को उनको घर ले आना. अब्बू के बेकार होने के बाद दादा एक बार फिर से आरा मशीन  का अपना पुश्तैनी धंधा देखने लगे थे. नौकरों के सहारे बड़ा नुकसान होने के कारण उन्होंने मजबूरी में यह कदम उठाया था कि चलो बैठे रहेंगे तो कुछ तो फर्क पडे़गा.

नुरीन हालांकि घर के कामों में अम्मी की बहुत मदद करती थी. उम्र से कहीं ज़्यादा करती थी. इसके चलते उसकी पढ़ाई भी डिस्टर्ब होती थी. ऐसे माहौल में नुरीन को कभी अच्छा नहीं लगता था कि कोई मेहमान उसके घर पर आए. लेकिन मेहमान थे कि आए दिन टपके ही रहते थे. शहर के अलग-अलग हिस्सों में सभी रिश्तों की मिला कर उसकी छह से ज़्यादा फुफ्फु और इनके अलावा चाचा और ख़ालु थे. इन सबमें उसे सबसे ज़्यादा अपने छोटे ख़ालु का आना खलता था. वह न दिन देखें ना रात जब देखो टपक पड़ते थे. बाकी और जहां परिवार के सदस्यों को लेकर आते थे. वहीं वह अकेले ही आते थे.

अब्बू के एक्सीडेंट के समय जहां कई रिश्तेदारों ने बड़ी मदद की थी वहीं इस ख़ालु ने खाना-पूर्ती करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. अब्बू के कैंसर के इलाज के वक़्त भी यही हाल था. नुरीन को अपने इस ख़ालु के चेहरे पर मक्कारी-धूर्तता का ही साया दिखता था. वह चाहती थी कि अम्मी भी ख़ालु की इस धूर्तता को पहचानें. उसे बड़ा गुस्सा आता जब वह अम्मी के साथ अकेले किसी कमरे में बैठकर हंसी-मजाक करता, बतियाता, चाय-नाश्ता करता. और अब्बू अलग-थलग किसी कमरे में अकेले बैठे सूनी-सूनी आंखें लिए दीवार या किसी चीज को एक टक निहारा करते. उस वक़्त उसका मन ख़ालु का मुंह नोच लेने का करता जब वह अम्मी के कंधों पर हाथ रखे बगल में चलता हुआ रसोई तक चला जाता. या फिर जब वह दोनों कमरे में बातें कर रहे होते तो उसके या किसी बहन के वहां पहुंचने पर अम्मी गुस्से से चीख पड़तीं.

उसे यह भी समझने में देर नहीं लगी थी कि उसकी ही तरह अब्बू भी अंदर-अंदर यह सब देख कर बहुत चिढ़ते हैं. मगर उनकी मज़बूरी यह थी कि वह चाह कर भी कुछ बोल नहीं सकते थे. दादा की कुछ चलती नहीं थी. घर चलता रहे इस गरज से वह बेड पर आराम करने की हालत में हिलते-कांपते आरा-मशीन का धंधा संभालते थे. उन्हें मौत के करीब पहुंच चुके अपने बेटे के इलाज की चिंता सताए रहती थी. वैसे भी अब्बू के इलाज के चलते घर अब तक आर्थिक रूप से बिल्कुल टूट चुका था. बाकी दोनों बेटे मुंबई में धंधा जमा लेने के बाद से घर से कोई खास रिश्ता नहीं रख रहे थे. इन सबके बावजूद उनकी हिम्मत पस्त नहीं हुयी थी. तमाम लोगों का बड़ा भारी परिवार होने के बावजूद वह खुद को एकदम तन्हा ही पाते थे. मगर फिर भी उनकी हिम्मत में कमी नहीं थी.

नुरीन उनके इस जज्बे को सलाम करती थी. और अब्बू के साथ-साथ दादा की सेवा में भी कोई कसर नहीं छोड़ती थी. वह दादा से कई बार बोल चुकी थी कि दादा उसे काम-धंधे में हाथ बंटाने दें. लेकिन दादा बस यह कह कर मना कर देते कि बेटा मैं अपने जीते जी तुम्हें लकड़ी के इस धंधे में हरगिज नहीं आने दूंगा. दुकान पर मर्दों की जमात रहती है. वहां तुम्हारा जाना ठीक नहीं है.दादा की इस बात पर वह चुप रह जाती और मन ही मन कहती दादा वहां तो बाहरी मर्दों की जमात से आप मेरे लिए खतरा देख रहे हैं. लेकिन घर में धूर्तों की जो जमात आती रहती है उसमें मैं कितनी सुरक्षित हूं इस पर भी तो कभी गौर फरमाइए.

यह सोचते-सोचते उसकी आंखें भर आतीं कि अब्बू देख कर भी कुछ करने लायक नहीं हैं और दादा घर में धूर्तों की जमात पहचानने लायक नहीं रहे. वह हर ओर अंधेरा ही अंधेरा देख रही थी. इस अंधेरे को दूर करने की वह सोचती और इस कोशिश में घर के ज़्यादा से ज़्यादा काम करने के बावजूद जी जान से पढ़ाई करती. अपनी बहनों को भी पढ़ने के लिए बराबर कहती और बहनों को अपने साथ एक जगह रखती. रिश्तेदारों से दूर रहने की कोशिश करती. घर के इस अंधेरे में दरवाजों, कोनों, दीवारों से टकराते, गिरते-पड़ते उसने ग्रेजुएशन कर लिया. इस पर उसने राहत महसूस की और सोचा कि आगे की पढ़ाई के साथ-साथ नौकरी भी तलाशेगी.

ग्रेजुएशन  किए अभी दो-तीन महिना भी ना बीता था कि पूरे घर पर कहर टूट पड़ा. एक दिन अब्बू के मुंह से खून आने पर जांच कराई गई तो पता चला कि कैंसर तो गले में भी फैला हुआ है और लास्ट स्टेज में है. और अब्बू का जीवन चंद दिनों का ही रह गया है. यह सुनते ही दादा को तो जैसे काठ मार गया. नुरीन को लगा कि जैसे दुनिया ही खत्म हो गई. अब्बू भले ही अपाहिज हो गए थे. गूंगे  हो गए थे. लेकिन एक साया तो था. अब्बू का साया. अम्मी और वह दोनों अब्बू को लेकर फिर पी.जी.आई., लखनऊ के चक्कर लगाने लगी थीं. अब अम्मी को देख कर नुरीन को ऐसा लगा कि मानो अम्मी के लिए यह एक रूटीन वर्क है. अब्बू की सामने खड़ी मौत से जैसे उन पर कोई खास फ़र्क नहीं था. मानो वह पहले ही से यह सब जाने और समझे हुए थीं कि यह सब तो एक दिन होना ही था. जल्दी ही पी.जी.आई. के डॉक्टरों ने निराश हो कर अब्बू को घर भेज दिया. कहा कि ऊपर वाले पर भरोसा रखें. अब हमारे हाथ में कुछ नहीं बचा. आप चाहें तो टाटा इंस्टीट्यूट, मुंबई ले जा सकती हैं.यह सुन कर अम्मी एकदम शांत हो गईं. भावशून्य हो गया उनका चेहरा. वह खुद रो पड़ी थी. पिछली बार जिन रिश्तेदारों ने पैसे आदि हर तरह से सहयोग किया था. वही सब इस बार खानापूर्ति कर चलते बने.

पैसे की तंगी पहले से ही थी. ऐसे में लाखों रुपए अब और कहां से आते कि अब्बू को इलाज के लिए मुंबई ले जाते. सबने एक तरह से हार मान ली. अब पल-पल इस दहशत में बीतने लगा कि वह मनहूस पल कौन सा होगा जिसमें मौत अब्बू को छीन ले जाएगी. इधर कहने को दी गईं दवाओं का कुछ भी असर नहीं था. अब मुंह में खून, भयानक पीड़ा से अब्बू ऐसा कराहते कि सुनने वालों के भी आंसू आ जाएं. इस बीच नुरीन ने देखा कि वह मनहूस ख़ालु अब आ तो नहीं रहा लेकिन फ़ोन पर अम्मी से पहले से ज़्यादा बातें करता रहता है. अब्बू की इस हालत और ख़ालु की कमीनगी से नुरीन का खून खौल उठता था.

वह अब दादा की आंखों में भी गहरा सूनापन देख रही थी. उन्होंने मुंबई में अपने बाकी बेटों को फ़ोन किया कि तुम्हारा एक भाई मौत के दरवाजे पर खड़ा है. तुम लोग मदद कर दो तो किसी तरह मुंबई भेज दूँ, वहां उसका इलाज करा दो.मगर उन बेटों ने मुख्तसर सा जवाब दिया कि अब्बू यहां इतनी मुश्किलात हैं कि हम चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रहे. डॉक्टर, हॉस्पिटल तो वहां भी बहुत अच्छे से हैं. वहीं कोशिश करिए.

दादा को इन बेटों से इससे ज़्यादा की उम्मीद भी नहीं थी. मगर उम्मीद की हर किरण की तरफ वह आस लिए बेतहाशा दौड़ पड़ते थे. नुरीन भी दादा के साथ ही दौड़ रही थी. बल्कि वह उनसे भी आगे निकल जाने को छटपटाती थी. तो इसी छटपटाहट में उसने मुंबई में चाचाओं को खुद भी फ़ोन लगाया कि आप लोग अब्बू को बचा लें. वह ठीक हो जाएंगे तो आप सबके पैसे हर हाल में दे देंगे.नुरीन जानती थी कि उसके चाचा इतने सक्षम हैं कि अब्बू का मुंबई में आसानी से इलाज करा सकते हैं. मगर उन चाचाओं ने नुरीन की आखिरी उम्मीद का सारा नूर खत्म कर दिया.

हार कर वह अम्मी से बोली थी कि एक बार वह भी चाचाओं से बोले. लेकिन वह तो जैसे अंजाम का इंतजार कर रही थीं. नुरीन की बात पर टस से मस नहीं हुईं . कुछ बोलती ही नहीं. बुत बनी उसकी बात बस सुन लेती थीं. नुरीन हर तरफ से थक हार कर आखिर में दादा के पास पहुंची. उनके हाथ जोड़ फफक कर रो पड़ी कि दादा अब्बू को बचा लो. सबने साथ छोड़ दिया दादा. अब आप ही कुछ करिए. अब तो अम्मी भी कुछ नहीं बोलती. दादा बिना अब्बू के कैसे रहेंगे हम लोग.

नुरीन को दादा पर पूरा यकीन था कि वह कितना भी जर्जर हो गए हैं, लेकिन फिर भी वह हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने वालों में नहीं हैं. कोई न कोई रास्ता निकालने की कोशिश जरूर करेंगे. नुरीन के आंसू उसकी सिसकियों को सुन कर दादा भी रो पड़े थे. मगर जल्दी ही अपने आंसू पोंछते हुए बोले अल्लाह-त-आला पर भरोसा रख बच्ची वह बड़ा रहम करने वाला है, तेरे आंसू बेकार ना जाएंगे मेरी बच्ची.इस पर नुरीन बोली थी लेकिन दादा लाखों रुपए कहां से आएंगे. कोई रास्ता तो नहीं दिख रहा. सबने मुंह मोड़ लिया है. दादा वक़्त बिल्कुल नहीं है.नुरीन को दादा ने तब बहुत ढाढ़स बंधाया था. लेकिन खुद को लाचार समझ रहे थे.

पैसे का इंतजाम कहीं से होता दिख नहीं रहा था. उस दिन वह रात भर जागते रहे. पैसे का इंतजाम कैसे हो इसी उधेड़बुन में फजिर की अजान की आवाज़ उनके कानों में पड़ी. वह उठना चाह रहे थे. लेकिन उनको लगा जैसे उनके शरीर में उठने की ताब ही नहीं बची. बड़ी मुश्किलों बाद कहीं वो उठ कर बैठ सके. उस दिन पूरी ताकत लगा कर वह बहुत दिनों बाद नमाज के लिए खुद को तैयार कर सके.

नमाज अता कर वह बैठे ही थे कि नुरीन फिर उनके सामने खड़ी थी. उसने आंगन की तरफ खुलने वाली कमरे की दोनों खिड़कियां खोल दी थीं. कमरे में अच्छी खासी रोशनी आने लगी थी. वह दादा के लिए कॉफी वाले बड़े से मग में भर कर चाय और एक प्लेट में कई रस लेकर आई थी.

वह दादा को बरसों से यही नाश्ता सुबह बड़े शौक से करते देखती आ रही थी. खाने-पीने के मामले में उसने दादा के दो ही शौक देखे थे एक चाय के साथ बर्मा बेकरी के रस खाने और हर दूसरे-तीसरे दिन गलावटी कबाब के साथ रुमाली रोटी खाने का. जब खाते वक़्त कोई मेहमान साथ होता तो वह यह कहना ना भूलते कि भाई इस शहर के गलावटी कबाब और इस रुमाली रोटी का जवाब नहीं. लोग भले ही काकोरी के गलावटी कबाब को ज़्यादा उम्दा मानें लेकिन मुझे तो यही लज़ीज़ लगते हैं.

यदि कोई कहता कि अरे काकोरी लखनऊ से कौन सा अलग है.तो वह जोड़तेजाना तो जाता है काकोरी के नाम से ही ना.फिर वह शीरमाल और मालपुआ की भी बात करते. नुरीन को अच्छी तरह याद है कि दादा ने कई बार यह भी कहा था कि अगर मुझे कोई दूसरी जगह तख्तो-ताज भी दे दे और वहां गलावटी कबाब न हो तो मैं वहां ना जाऊं.जब मुंह में डेंचर लग गए तो कहते इस डेंचर ने सारा स्वाद ही बिगाड़ दिया.

नुरीन ने दादा को अब्बू के पहले ऑपरेशन के बाद पल भर में अपनी इस प्रिय चीज को हमेशा के लिए त्यागते देखा था. तब उन्होंने यह कहते हुए कबाब, रोटी से भरी प्लेट हमेशा के लिए सामने से परे सरका दी थी कि जब यह मेरे बेटे के गले नहीं उतर सकती तो मैं इसे कैसे खा सकता हूं.

उस दिन के बाद नुरीन ने दादा को इस ओर देखते भी ना पाया. आज उन्हीं दादा ने रस भी खाने से साफ मना कर दिया. कहा नुरीन बेटा अब कभी मेरी आंखों के सामने यह ना लाना.उन्होंने कांपते हाथों से चाय उठाकर पीनी शुरू कर दी थी. उन्होंने इसके आगे कुछ नहीं कहा था लेकिन नुरीन ने उनकी भरी हुई आंखें देख कर सब समझ लिया था. फिर जल्दी से कुछ बिस्कुट लाकर उनके सामने रखते हुए कहा दादा बिस्कुट भी खा लीजिए, खाली पेट चाय नुकसान करेगी.नुरीन के कई बार कहने पर उन्होंने एक बिस्कुट खाया फिर भर्रायी आवाज़ में उससे अब्बू के बारे में पूछा. नुरीन बोली रात भर दर्द के मारे कराहते रहे. घंटे भर पहले ही सोए हैं.नुरीन की सूजी हुई आंखें देख कर उन्होंने पूछा था तू भी रात भर नहीं सोई.नुरीन ने साफ बोल दिया कि कैसे सोती दादा, अब्बू के पास कोई भी नहीं था. अम्मी बोलीं थी कि उनकी तबियत ठीक नहीं है. वो दूसरे कमरे में सो रही थीं. अभी कुछ देर पहले ही उठी हैं.

दादा को चुप देख कर नुरीन फिर बोली दादा अब्बू का इलाज कैसे होगा. सबने साथ छोड़ दिया है. तब वह बोले ठीक है बेटा सबने साथ छोड़ दिया है लेकिन अभी मेरी हिम्मत ने साथ नहीं छोड़ा है. मेरी उम्मीद अभी नहीं टूटी है. अपने सामने अपने बेटे को बिना इलाज मरने नहीं दूंगा. भले ही मकान-दुकान बेचने पड़ें. झोपड़ी में रहना पड़े रह लूंगा, मगर हाथ पे हाथ धरे बैठा नहीं रहूंगा.तभी नुरीन को लगा जैसे अब्बू के कराहने की आवाज़ आई है. मैं अभी आई दादाकहती हुई वह अब्बू के कमरे की ओर दौड़ गई. उसको यूँ भागते देख उन्हें लगा कि उनका बेटा शायद जाग गया है. उम्र ने उनके सुनने की कुवत भी कम कर दी थी. इसीलिए नुरीन को जो आवाज़ सुनाई दी उसका उन्हें अहसास ही नहीं था. नुरीन को जाते देख वह यह जरूर बुद-बुदाए थे कि न जाने तुम सब की मुकद्दर में क्या लिखा है.फिर उनका दिमाग रात में सोची इस बात पर चला गया कि अब काम-धाम कुछ करने लायक रहा नहीं. आरा-मशीन का धंधा भी बड़ा मुश्किलों वाला हो गया है. रोज कुछ न कुछ लगा ही रहता है.

मुंशी विपिन बिहारी के सहारे यह काम अब कब तक खीचूंगा. गुंडे-माफिया दुकान की लबे रोड लंबी-चौड़ी जमीन पर नज़र गड़ाए हुए हैं. बरसों से गाहे-बगाहे धमकाते आ रहे हैं. सब शॉपिंग-कॉम्प्लेक्स, अपॉर्टमेंट बनवा कर अरबपति बनने का ख्वाब पाले हुए हैं. यहीं शाद होता तो खुद ही कुछ करता. लखनऊ युनिवर्सिटी पास ही है, हॉस्टल ही बनवा देता तो कितना कमाता. मगर जब ठीक था तो मेरी कुछ सुनता नहीं था. होटल से लेकर ना जाने काहे-काहे का ख्वाब वह भी पाले हुए था. अब ना मेरा ठिकाना है ना उसका. इधर बीच भूमाफिया और भी ज़्यादा सलाम ठोकने लगे हैं. जीते जी यह हाल है मरने के बाद तो सब ऐसे ही इन सब को मार धकिया के कब्जा कर लेंगे.

माफिया तो माफिया ये एम.एल.सी. माफिया तो आए दिन हाथ जोड़-जोड़ कर और डराता है. भाई-परिवार सब के सब एक से बढ़ कर एक हैं. चुनाव के समय चचाजान, चचाजान कह के एक वक़्त पूरे डालीगंज में घुमा लाया था. मैंने कभी बेचने की बात ही नहीं की थी. लेकिन न जाने कितनी बार कह चुका है. चचा जब भी बेचना हो तो हमें बताना आपको मुंह मांगी रकम दूंगा. सारे काम काज बैठे-बैठे करा दूंगा. क्यों न इसे ही बेच दूं. किसी और को बेचा तो टांग अड़ा देगा. माफिया ऊपर से नेता. जान छुड़ाना मुश्किल हो जाएगा. दुकान भी जाएगी पैसा भी नहीं मिलेगा. पांच-छः साल पहले ही साठ-सत्तर लाख बोल रहा था. कहता हूं अब सब कुछ बहुत बदल चुका है.

प्रॉपर्टी के दाम आसमान को छू रहे हैं. सवा करोड़ दे दो तो लिख देता हूं तुम्हारे नाम. सवा करोड़ कहूंगा तो एक करोड़ में तो सौदा पट ही जाएगा. इतने में शाद का इलाज भी करा लूंगा. सत्तर-पचहत्तर लाख जमा कर ब्याज से किसी तरह घर का खर्च चलाऊंगा. इसके अलावा अब कोई रास्ता बचा नहीं है. मकान बेचने से इसका आधा भी ना मिलेगा. पुराने शहर की इन पतली-पतली गलियों और आए दिन के दंगे-फसादों से आजिज आ कर लोग पहले ही नई कॉलोनियों की तरफ खुले में जा रहे हैं तो ऐसे में यहां कौन आएगा. नुरीन के दादा ने सारा हिसाब-किताब करके नेता माफिया के घर जाने के लिए अपने मुंशी को फ़ोन कर कहा कि किसी कारिंदे को आटो के साथ भेज दे. वह नुरीन या उसकी अम्मी को लेकर नहीं जाना चाहते थे. फ़ोन कर के उन्होंने रिसीवर रखा और एक गहरी सांस ले कर बुदबुदाए. जाने मुकद्दर में क्या लिखा है. इस बुढ़ापे में ऊपर वाला और ना जाने क्या-क्या करवाएगा.

वह करीब दो घंटे बाद जब माफिया नेता के यहां से लौटे तो बड़ी निराशा के भाव थे चेहरे पर. कारिंदा उन्हें उनके कमरे में बेड पर बैठा कर चला गया था. वह ज़्यादा देर बैठ न सके और बेड पर लेट गए. नुरीन उसकी बहनें अम्मी कोई भी आस-पास दिख नहीं रहा था. गला सूख रहा था मगर किसी को आवाज़ देने की ताब नहीं थी. काफी देर बाद नुरीन दरवाजे के करीब दिखी तो उन्होंने कोई रास्ता न देख अपनी छड़ी जमीन पर भरसक पूरी ताकत से पटकी कि आवाज़ इतनी तेज हो कि नुरीन सुन ले. इससे जिस तरीके से आवाज़ नुरीन के कानों में पहुंची उससे वह सशंकित मन से दौड़ी आई दादा के पास और छड़ी उठा कर पूछा अरे! दादा क्या हुआ ?आप कहां चले गए थे ? अम्मी आपको दुकान तक छोड़ने जाने आईं तो आप ना जाने कहां चले गए थे. वह बहुत गुस्सा हो रही थीं.उन्होंने नुरीन की किसी बात का जवाब देने के बजाय इशारे से पानी मांगा.

नुरीन पानी लेकर आई तो पीने के कुछ देर बाद बोले तेरे अब्बू कैसे हैं ?’नुरीन ने कहा सो रहे हैं. लेकिन आप कहा चले गए थे ?’तब वह बोले शाद के इलाज के लिए पैसे का इंतजाम करने गया था.उनकी यह बात सुन कर नुरीन कुछ उत्साह से बोली तो इंतजाम हो गया दादा.'इस पर वह गहरी सांस लेकर बोले अभी तो नहीं हुआ. बड़ी जालिम है यह दुनिया. सब मजबूरी का फायदा उठाना चाहते हैं. मगर परेशान ना हो मैं जल्दी ही कर लूंगा . और हां सुनो कुछ देर बाद मुझसे मिलने कोई आएगा. उसे यहीं भेज देना. और देखना उस समय कोई शोर-शराबा न हो.

नुरीन दादा की बात से बड़ी निराश हुई. पानी का खाली गिलास लेकर वह बुझे मन से रसोई में चली गई. अम्मी कुछ काम से बाहर जाते समय खाना बनाने को कह गई थीं. मगर उसका मन कुछ करने का नहीं हो रहा था. वह अच्छी तरह समझ रही थी कि हर पल अब्बू उन सबसे दूर होते जा रहे हैं. उसने सोचा कि दादा से पूछूं कि वह कहां से कैसे कब तक पैसों का इंतजाम कर पाएंगे. फिर यह सोच कर ठहर गई, कि कहीं वह नाराज न हो जाएं. वह समझदार तो बहुत थी लेकिन अभी दादा की तकलीफ का सही-सही  अंदाजा नहीं लगा पा रही थी.

दादा बेड पर लेटे-लेटे उस बिल्डर का इंतजार कर रहे थे. जिसे वह बात करने के लिए फ़ोन कर बुला चुके थे. क्योंकि माफिया नेता ने उन्हें निराश किया था. वह अपने को ठगा हुआ सा महसूस कर रहे थे. उसने बड़ी होशियारी से उनकी खूब आव-भगत की थी. गले लगाया था. बड़े आत्मीयता भरे लफ्ज़ों में कहा था. 'अरे चचाजान आप परेशान न होइए. आपको शाद के इलाज के लिए जितना पैसा चाहिए बीस-पचीस लाख वह ले जाइए. पहले उसका इलाज कराइए बाकी सौदा लिखा-पढ़ी होती रहेगी. आप जो रकम कहेंगे हम देने को तैयार हैं. मगर पहले शाद का इलाज जरूरी है. चचा ये बड़ी भयानक बीमारी है. संभलने का मौका नहीं देती. और फिर शाद का मामला तो बहुत गंभीर है. पहले ही एक ऑपरेशन हो  चुका है.

उसकी बात याद कर उन्होंने मन ही मन उसे गरियाते हुए कहा कमीना मुझे कैसे डरा रहा था. बीस-पचीस लाख में करोड़ों की प्रॉपर्टी हड़पना चाहता है. बीस-पचीस लाख दे कर पहले फंसा लेगा फिर औने-पौने दाम देगा कि इससे ज़्यादा नहीं दे पाऊंगा चाहे दें या ना दें. मेरे पैसे वापस कर बात खत्म करिए. और क्योंकि तब पैसे वापस करना मेरे वश में नहीं होगा. तब औने-पौने में सब लिख देने के सिवा मेरे पास कोई रास्ता नहीं होगा. इसके चक्कर में पड़ा तो यह तो दर-दर का भिखारी बना देगा. कमीना कितना पीछे पड़ा हुआ था. कि पैसा लिए ही जाइए. जब दाल नहीं गली तो कैसे आवाज में तल्खी आने लगी थी. देखो अब यह बिल्डर क्या गुल खिलाता है.

जब तक बिल्डर आया नहीं तब तक वह इन्हीं सब बातों में उलझते रहे. इस बीच नुरीन के बड़ी जिद करने पर उन्होंने मूंग की दाल की थोड़ी सी खिचड़ी खायी थी. जब ढाई-तीन घंटे बाद बिल्डर आकर गया तो उससे भी उन्हें कोई उम्मीद नहीं दिखी. उसने सीधे कहा कि वह एरिया ऐसा है जो अपॉर्टमेंट या शॉपिंग-कॉम्प्लेक्स दोनों ही के लिए कोई बहुत अच्छा नहीं है. फिर भी हम कोशिश करते हैं. कुछ बात बनी तो आएंगे.

नुरीन के दादा ने देखा कि उसकी मां इस दौरान खिड़की के आस-पास बराबर बनी हुई है. उसकी इस हरकत पर उन्हें गुस्सा आ रहा था कि यह छिप कर जासूसी कर रही है. बिल्डर अभी उन्हें निराश करके गया ही था, वह अभी निराशा से उबर भी न पाए थे कि वह अंदर आ गई और सीधे बेलौस पूछताछ करने लगी कि यह क्या कर रहे हैं?‘उनके यह बताने पर कि शाद के इलाज के लिए दुकान बेच कर पैसे का इंतजाम कर रहा हूं.तो वह बहस पर उतर आई कि आप बिना बताए ऐसा कैसे करने जा रहे हैं.

वह मेरे शौहर हैं, जो करना है मैं करूंगी. मैं अच्छी तरह जानती हूं कि मुझे क्या करना है क्या नहीं. आपको कुछ करने की जरूरत नहीं. आप तो हम सबको भीख मंगवा देंगे.‘  नुरीन के दादा उसकी अम्मी की इन बातों का आशय समझते ही सकते में आ गए. उसने सख्त लहजे में कहा था कि आप दुकान नहीं बेचेंगे. इस पर क्रोधित हो कर उन्होंने भी पुरजोर आवाज़ में कहा वो तो मैं भी जानता हूं कि वह तुम्हारा शौहर है और तुम उसके साथ क्या कर रही हो. लेकिन उससे पहले वह मेरी औलाद है, मेरे जिगर का टुकड़ा है. मैं उसे अपने जीते जी कुछ नहीं होने दूंगा. प्रॉपर्टी मेरी है, मैं उसे बेचुंगा, उसका इलाज कराऊंगा. मुझे रोकने वाला कोई कौन होता है. अगर मेरे रास्ते में कोई आया तो मैं उसे छोडूंगा नहीं, पुलिस में रिपोर्ट कर दूंगा.

जब और ज़्यादा बोलने की ताब ना रही तो वह अपना थर-थर कांपता शरीर लेकर बेड पर लेट गए. इस बीच दोनों की तेज़ आवाजें सुन कर नुरीन दौड़ी चली आई थी. वह अब्बू के पास बैठी थी तभी  उसने यह तेज़ आवाज़ें सुनी थीं. उसकी बाकी बहनें  भी आ गई थीं. मगर सब अम्मी का आग-बबूला चेहरा देख कर सन्न खड़ी रह गईं. नुरीन भी कुछ बोलने की हिम्मत न कर सकी. क्षण भर भी न बीता कि अम्मी दरवाजे की ओर पलटी और चीख पड़ी यहां मरने क्यों आ गई सब की सब. इतने बड़े घर में कहीं और मरने का ठौर नहीं मिला क्या?‘

अम्मी का भयानक चेहरा देख सभी सिहर उठीं. सभी देखते-देखते वहां से भाग लीं. नुरीन भी चली गई. तब उसकी अम्मी बुद-बुदाई देखती हूं बुढ़ऊ कि बिना मेरे तू कैसे कुछ करता है. कब्र में पड़ा है, ऊपर खाक भर पड़ने को बाकी रह गई है और हमें धमकी दे रहा पुलिस में भेजने की, मुझे पुलिस के डंडे खिलाएगा. घबड़ा मत पुलिस के डंडे कैसे पड़वाए जाते हैं यह मैं दिखाऊंगी तुझे. अगला दिन तू इस घर में नहीं पुलिस के डंडों, गालियों के बीच थाने में बिताएगा. नुरीन को बरगला कर उसे मेरे खिलाफ भड़काए रहता है ना, देखना उसी नुरीन से मैं तुझे न ठीक कराऊं तो अपनी वालिद की औलाद नहीं.

इसके बाद नुरीन की अम्मी का बाकी दिन, सोने से पहले तक का सारा समय बच्चों को मारने-पीटने, गरियाने, शौहर की इस दयनीय हालत में भी उनको झिड़कने और अपने दुल्हा-भाई से कई दौर में लंबी बातचीत करने में बीता. रात करीब दस बजे दुल्हा भाई को उन्होंने घर भी बुलाया. फिर उसको और नुरीन को लेकर एक कमरे में घंटों खुसुर-फुसुर न जाने क्या बतियाती रही. नुरीन के अलावा बाकी बच्चों को दूसरे कमरे में सोने भेज दिया था. बातचीत के दौरान नुरीन कई बार उठ-उठ कर बाहर जाने को हुई, लेकिन उन्होंने उसे पकड़-पकड़ बैठा लिया. उस रात उसे सुलाया भी अपने ही पास. यह अलग बात है कि नुरीन रात भर रोती रही, जागती रही, सो नहीं पाई.

अगली सुबह रोज जैसी सामान्य ही दिख रही थी. नुरीन दादा को उनका नाश्ता दे आई थी. मगर उसके चेहरे पर अजीब सी दहशत, अजीब सा सूनापन ही था. वह खोई-खोई सी थी. फिर ग्यारह बजते-बजते उसकी अम्मी उसे तैयार कर चौक थाने पहुंच गई. जब घंटे भर बाद नुरीन को लेकर लौटी तो उसने सबसे पहले ससुर के कमरे की ही जांच-पड़ताल की. वहां दो लोगों को बैठा पाकर भुन-भुनाई बुढ्ढा प्रॉपर्टी डीलरों का जमघट लगाए हुए है. सठिया गया है. कुछ देर और सठिया ले. तेरा सठियानापन ऐसे निकालूंगी कि कब्र में भी तेरी रुह कांपेगी. दुल्हा-भाई को लोफर कहता है ना .... घबरा मत.

इधर नुरीन ने कमरे में पहुंचते ही बुर्का उतार कर फेंका और फूट-फूटकर रो पड़ी. उसकी अम्मी बाकी बहनों को दूसरे कमरे में बंद कर उसके पास पहुंची. बोली देख मैं जो भी कर रही हूं तेरे अब्बू की जान बचाने के लिए कर रही हूं. मैं उनको और किसी को भी कुछ नहीं होने दूंगी. अब तू खुद ही तय कर ले कि अपने अब्बू की मौत का गुनाह अपने सिर लेना चाहती है या उनकी जान बचा कर अल्लाह की नेक बंदी बनना चाहती है.

अम्मी की बातों का नुरीन पर कोई असर नहीं था. वह फूट-फूटकर रोती ही रही. उसे थाने से आए हुए घंटा भर न हुआ था कि इंस्पेक्टर दो कांस्टेबलों के साथ आ धमका. घर के दरवाजे से दादा के कमरे तक उन्हें उसकी अम्मी ही लेकर गई. उसके दादा बेड पर आंखें बंद किए लेटे हुए थे. प्रॉपर्टी डीलर कुछ देर पहले ही जा चुके थे. कमरे में इंस्पेक्टर, कांस्टेबलों के जूतों की आवाज़ सुन कर दादा ने आंखें खोल दीं. दाहिनी तरफ सिर घुमा कर तीन लोगों को अम्मी संग खड़ा देख वह माजरा एकदम समझ ना पाए. तभी इंस्पेक्टर बोला जनाब उठिए आपसे कुछ बात करनी है.इंस्पेक्टर का लहजा बड़ा नम्र था. शायद दादा की उम्र और उनकी जर्जर हालत देख कर वह अपने कड़क पुलिसिए लहजे में नहीं बोल रहा था. चेहरे पर अचंभे की अनगिनत रेखाएं लिए दादा उठने लगे. उठने में उनकी तकलीफ देखकर इंस्पेक्टर ने उन्हें बैठने में मदद की और साथ ही प्रश्न भरी नजर नुरीन की अम्मी पर भी डाली.

दादा ने बैठ कर कांपते हाथों से चश्मा लगाया और इंस्पेक्टर की तरफ देखकर बोले जी बताइए क्या पूछना चाहते हैं,‘ दादा का चेहरा पसीने से भर गया था. इंस्पेक्टर ने उनका नाम पूछने के बाद कहा आपकी पोती नुरीन ने कंप्लेंट की है कि आप आए दिन उसके साथ छेड़-छाड़ करते हैं. आज तो आपने हद ही कर दी, सीधे उसकी आबरू लूटने पर उतर आए. उसके अब्बू बीमार हैं, लाचार हैं तो आप उसकी मजबूरी का फायदा उठा रहे हैं.

इंस्पेक्टर इसके आगे आपनी बात पूरी ना कर सका. दादा दोनों हाथ कानों पर लगा कर बोले तौबा-तौबा, या अल्लाह ये मैं क्या सुन रहा हूं. इस उमर में इतनी बड़ी जलालत भरी तोहमत. या अल्लाह अब उठा ही ले मुझेयह कहते-कहते दादा गश खाकर बेड पर ही लुढ़क गए. इस पर इंस्पेक्टर ने एक जलती नजर अम्मी पर डालते हुए कहा इनके चेहरे पर पानी डालिए और अपनी बेटी को भी बुलाइए.

इस बीच इंस्पेक्टर ने मोबाइल पर अपने सीनियर से बात की जिसका लब्बो-लुआब यह था कि मामला संदेहास्पद है. दादा को जब तक होश आया तब तक इंस्पेक्टर ने नुरीन से भी पूछताछ कर मामले को समझने की कोशिश की. लेकिन नुरीन ने रटा हुआ जवाब बोल दिया. अब तक उसके ख़ालु सहित कई लोग आ चुके थे.

घर के बाहर भी लोगों का हुजूम लगने लगा था. लोगों तक बात के फैलते देर न लगी. छुट्टभैये नेता मामले को तूल देने की फिराक में लग गए. किसी को यकीन नहीं हो रहा था कि अब तक अस्सी-बयासी वर्ष का जीवन इज्ज़त से बेदाग गुजार चुके असदुल्ला खां उर्फ मुन्ने खां अपनी पोती के साथ ऐसा करेंगे . अपने समय के मशहूर कनकउएबाज (पतंगबाज) मुन्ने खां का आस-पास अपने समय में अच्छा-खासा नाम था. पूरे जीवन उन पर किसी झगड़े-फसाद, किसी भी तरह के गलत काम का आरोप नहीं लगा था. मजहबी जलसों में भी वह खूब बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते थे. लोगों के बीच उनकी जो छवि थी उससे किसी को उन पर लगे आरोप पर यकीन नहीं हो रहा था. थाने उनके पहुंचने के साथ ही लोगों की भीड़ भी पहुंचने लगी थी. लोगों को समझ ही नहीं आ रहा था, कि आरोपित, आरोपी दोनों एक ही परिवार के एक ही घर के सदस्य हैं. किसको क्या कहें. थाने पर वरिष्ठ अधिकारियों ने समझा-बुझा कर भीड़ को वापस किया. मुन्ने खां, नुरीन उसकी अम्मी से कई बार पूछ-ताछ की गई. नुरीन से महिला अफसर ने बड़े प्यार से सच जानने का प्रयास किया. लेकिन नुरीन ने हर बार उसे वही सच बताया जो उसकी अम्मी और ख़ालु ने रटाया था. इससे वह बुरी तरह खफा हो गई.

अंततः मुन्ने खां को हवालात में डाल दिया गया. अगले तीन दिन उनके हवालात में ही कटने वाले थे. क्योंकि अगले दिन किसी त्योहार की और फिर इतवार की छुट्टी थी. नुरीन जब अम्मी, ख़ालु के साथ घर पहुंची तो देखा रात नौ बजने वाले थे फिर भी घर के आस-पास दर्जनों लोगों का जमावड़ा था. सारे लोगों के चेहरे घूम कर उन्हीं लोगों की तरफ हो रहे थे. अंदर पहुँचते ही नुरीन फूट-फूटकर रोने लगी. अब तक एक-एक कर सारी फुफ्फु-फूफा, ख़ालु-खाला सब आ चुके थे. घर लोगों से भर चुका था. साथ ही दो धड़ों में बंटा भी हुआ था. एक धड़ा दादा की लड़कियों उनके परिवारों का था जो दादा को अम्मी की साजिश का शिकार एकदम निर्दोष मान रहा था. दूसरी तरफ नुरीन की ननिहाल की तरफ के लोग थे जो मासूम नुरीन को दादा के जुल्मों का श्किार, उनकी करतूतों की सताई लड़की मान रहे थे. जो यह कहने से ना चूक रहे थे कि बेचारी के बाप की अब-तब लगी है. और बुढ्ढा उसे अभी से अनाथ समझ हाथ साफ करने में लगा हुआ है. तो कोई बोल रहा था कि ऐसे गंदे इंसान को तो दोज़ख में भी जगह न मिलेगी. अरे इसकी हिम्मत तो देखो. इसे तो जेल में ही सड़ा कर मार देना चाहिए. नुरीन के कानों में यह बातें पिघले शीशे सी पड़ रही थीं. उसके आंसू बंद ही नहीं हो रहे थे. मारे शर्मिंदगी के वह कमरे से बाहर नहीं निकल रही थी. दरवाजा अंदर से बंद कर रखा था.

सारी फुफ्फु उससे बात कर सच जानना चाह रही थीं. लेकिन अम्मी और उनका धड़ा मिलने ही नहीं दे रहा था. देखते-देखते घर में ही दोनों धड़ों के बीच मार-पीट की नौबत आ गई. फिर फुफ्फु -फूफा सारे और मुहल्ले के कई लोगों का हुजूम थाने पहुंचा कि किसी तरह दादा को छुड़ाया जाए जिसका जो बन सका फ़ोन-ओन सब कराया गया. लेकिन पुलिस ने कानून के सामने विवशता जाहिर करके सबको वापस भेज दिया. उन सबके आने पर नुरीन की अम्मी ने एक और हंगामा किया. अपने सारे लोगों के साथ मिलकर किसी को घर के अंदर नहीं घुसने दिया. बात बढ़ गई. आधी रात हंगामा देख किसी ने पुलिस को फ़ोन कर दिया. पुलिस ने मामले की गंभीरता को देखते हुए फुफ्फु-फूफा आदि सबको उन्हें उनके घर वापस भेज दिया. नुरीन करीब तीन बजे कमरे से बाहर निकल कर अब्बू के पास गई. अब तक अम्मी सहित सब सो रहे थे. उसने अब्बू को देखा वह भी सो रहे थे. वह उनके सिरहाने खड़ी उनके चेहरे को अपलक निहारती रही. उसे लगा जैसे अब्बू के शरीर में कोई जुंबिस ही नहीं हो रही है.

उसने घबराते हुए उनके हाथ को पकड़ कर हलके से हिलाया, कोई जवाब न मिला तो उसने दुबारा हिलाते हुए अब्बूआवाज़ भी दी तो इस बार उन्होंने हल्के से आंखें खोल दीं. नुरीन को लगा वह नाहक घबरा उठी थी. अब्बू तो पहले जैसे ही हैं. मगर उनकी आंखों में हल्की सी सुर्खी जरूर आ रही थी. उसने अब्बू के कंधे पर कुछ ऐसे थपकी दी जैसे कोई मां अपने दुध-मुंहे बच्चे को थपकी देकर सुलाती है. उसने देखा अब्बू ने भी आंखें बंद कर ली और सो गए. अगला पूरा दिन अजीब से कोहराम और कशमकस में बीता. जंग का मैदान बने घर में उसे लगा कि एक पक्ष जहां दादा को छुड़ाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रहा है वहीं अम्मी और उनका गुट दादा को हर हाल में लंबी सजा दिलाने में लगा है. इतना ही नहीं अम्मी उस पर बराबर नजर भी रखे हुए हैं, किसी से मिलने भी नहीं दे रही हैं. इस बीच मान-मनौवल, दबाव, सुलह-समझौते की सबकी सारी कोशिशें अम्मी की एक ही बात के आगे ढेर होती रहीं कि मैं ऐसे आदमी को बख्श के अपने सिर पर गुनाह का बोझ न लादुंगी जिसने मेरी जवान, मासूम बेटी की इज़्जत पर हाथ डाला है.

नुरीन ने देखा कि अम्मी के बेअंदाज तेवर के आगे सब धीरे-धीरे पस्त होते जा रहे हैं. इतना ही नहीं लोगों के बीच यह बात भी दबे जुबान हो रही है कि ऐसी औरत का क्या ठिकाना, अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए ना जाने किस पर क्या आरोप लगा दे.

ऐसी ही किच-किच के बीच पूरा दिन बीत गया. ना ठीक से खाना-पानी. न ही आराम! समोसा चाय, नमकपारा, चाय पर ही सब रहे. मर्द लोग बाहर खा-पीकर आते रहे. उसने अब्बू के लिए उनके हिसाब से लिक्वड फूड नली के जरिए दिया. उसे दिनभर सबसे ज़्यादा कुढ़न अम्मी और ख़ालु के बीच गुपचुप होती गुफ्तगू से हुई. काली रात फिर घिर आई. बड़ी जिद पर उसे अम्मी ने अपने कमरे में सोने की इजाजत दी. वह जब सोने के लिए कमरे में पहुंची तो देखा उसकी बहनें सो चुकी हैं. उसके तख्त पर का बिस्तर गायब था. मतलब साफ था कि किसी मेहमान के लिए ले लिया गया था. उठाने वाले को यह परवाह बिल्कुल नहीं थी कि वह कैसे सोएगी. आधी रात में कोई और रास्ता ना देख वह बिना बिस्तर के ही लेट गई. कम रोशनी का एक बल्ब अंधेरे से लड़ने में लगा हुआ था.

दो दिन से ठीक से सो ना पाने. खाना-पीना न मिलने, भयंकर तनाव के चलते उसे सिर दर्द हो रहा था. आंखें जल रही थीं. मगर फिर भी उसका मन दादा पर लगा हुआ था. उसका मन बार-बार उस हवालात में चला जा रहा था जिसमें दादा बंद थे. वह यह सोच-सोच कर परेशान होने लगी कि उनकी जर्जर-सूखी हड्डियां हवालात की पथरीली जमीन का कैसे मुकाबला कर रही होंगी. अब तक तो उनका अंग-अंग चोटिल हो चुका होगा. जिस तरह से उन्हें जीप में बिठाया गया. थाने पर इधर-उधर किया गया उस कड़ियल व्यवहार, कड़ियल माहौल को वह कितना झेल पाएंगे. दो-चार दिन भी झेल पाएं तो बड़ी बात होगी. अम्मी के दबाव उनके डर के चलते मैंने एक फरिश्ते जैसे इंसान पर वह भी अपने सगे दादा पर एकदम झूठा वह भी इतना घिनौना आरोप लगाया. इन खयालों ने उसे भीतर ही भीतर और तोड़ना शुरू कर दिया. उसकी आंखों के  किनारों से आंसू निकल कर कानों तक जा कर उन्हें भिगो रहे थे. इस बात पर वह सिसक पड़ी कि वह अम्मी, खालू की साजिश का आखिर विरोध क्यों न कर पाई. तमाम बातों पर अम्मी से अकसर भिड़ जाने की उसकी हिम्मत आखिर कहां चली गई थी कि दादा पर ऐसा आरोप लगाया.

वह दादा जो मेरे अब्बू, हम सबके भविष्य के लिए अपनी जान से प्यारी दुकान, पुरखों की निशानी कैसे एक पल गंवाए बिना बेचने लगे. और एक अम्मी है. जो अब्बू का क्या होगा उसे इससे ज़्यादा चिंता प्रॉपर्टी की है. उसे बचाने के लिए इस हद तक गिर गई. मुझे अब्बू के नाम पर कितना डरा धमका रही हैं. एक तरह से ब्लैकमेल कर रही हैं. अब्बू की जान का भय दिखा कर ब्लैकमेल कर रही हैं. जब कि सच यह है कि ऐसे तो अब्बू जितने समय के मेहमान हैं वह भी ना चल पाएंगे. और मुझे तो मुंह दिखाने लायक ही नहीं छोड़ा है. मैं किस तरह लोगों को अपना मुंह दिखाऊंगी. सच तो सामने आएगा ही. दादा छूटेंगे ही. या अल्लाह मैं कैसे करूंगी इन सबका सामना. अपना यह काला मुंह दुनिया के किस कोने में ले जाऊंगी. कहां छिपाऊंगी अपना गुनाह. अल्लाह कभी माफ नहीं करेगा मुझे. पुलिस वाले जिस तरह बार-बार पूछताछ कर रहे हैं, मैं ज़्यादा समय उनको अंधेरे में रख नहीं पाऊंगी. वैसे भी उन सब की हमदर्दी दादा ही के साथ है. उन्हें सिर्फ़ प्रमाण नहीं मिल पा रहा है कि झूठ पकड़ सकें. जिस दिन वह मेरा झूठ पकड़ेंगे. उस दिन मुझे जेल भेजे बिना छोडे़ंगे नहीं. और तब मुझे सजा होने से कोई नहीं बचा सकेगा. मैं बर्बाद हो जाऊंगी. बताते हैं लेडीज पुलिस भी बहुत मारती है.

अम्मी के दबाव में मैंने जो गुनाह किया है उसकी सजा अल्लाह जो देगा वो तो देगा ही. पुलिस उससे पहले ही हड्डी-पसली एक कर देगी. दुनिया थूक-थूक कर ही ऐसी जलालत की दुनिया में झोंक देगी कि मेरे सामने सिवाय कहीं डूब मरने के कोई रास्ता नहीं होगा. अम्मी का यह झूठ-गुनाह बस दो चार दिन का ही है. उसके गुनाह से मैंने यदि समय रहते निजात ना पा ली तो सब कुछ बरबाद होने, तबाह होने से बचा ना पाऊंगी. समय रहते अम्मी के गुनाह की इस दुनिया को नष्ट करना ही होगा, इसी में पूरे परिवार और उनकी भी भलाई है. नुरीन लाख थकी-मांदी, भूखी-प्यासी थी लेकिन दिमाग में चलते इन बातों के बवंडर से खुद को अलग नहीं कर पा रही थी. आंखों में गहरी नींद थी लेकिन उन्हें बंद कर वह सो नहीं पा रही थी. उसके दिलो-दिमाग इंतिहा की हद तक बेचैन थे, तालाब से बाहर छिटक गई मछली की तरह उसकी तडफड़ाहट बढ़ती ही जा रही थी कि कैसे इस हालात को बदल दे. जो कालिख खुद पर पोत ली है उसे साफ कर पाक-साफ बन जाए. उलझन तड़फड़ाहट बेचैनी इतनी बढ़ी कि वह उठ कर बैठ गई.

अगली सुबह उसकी अम्मी जल्द ही उठ गई. उसने रात भर एक सपना कई बार देखा कि नुरीन अपनी सारी बहनों को लिए घर के आंगन में एक तरफ खड़ी है. वो उन्हें जो भी बात कहती है, उसे नुरीन और उसकी बहनें एक दम तवज्जोह नहीं दे रही हैं. और जब वह गुस्से में उन्हें मारने दौड़ती है तो वह सब नुरीन के पीछे-पीछे कुछ कदम बाहर को जा कर एकदम गायब हो जाती हैं. उन्होंने बेड पर से उतरने के लिए दोनों पैर नीचे लटकाए, दुपट्टे को ओढ़ने के लिए कंधे पर पीछे फेंका तो उनको लगा कि उसके एक कोने पर कुछ बंधा हुआ है. दुपट्टे के छोर को वापस खींचा तो देखा उनका शक सही था. वह मन ही मन बोलीं मैं तो दुपट्टे में यूं कभी कुछ बांधती नहीं. कल सोते वक्त भी कुछ नहीं था मेरे हाथ में जो बांधती.मन में बढ़ती जा रही इस उलझन के बीच ही उन्होंने गांठ खेल कर देखा तो उसमें किसी कॉपी के कई पन्ने बंधे हुए थे. जिसके पहले पन्ने पर बड़े अक्षरों में सिर्फ़ इतना लिखा था. अम्मी यह सिर्फ़ तुम्हारे लिए है. आगे के पन्नों को पूरा जरूर पढ़ लेना.यह लाइन पढ़ते ही उसकी अम्मी भीतर ही भीतर कुछ बुरा होने की आशंका  से घबरा उठी. उन्होंने अपनी धड़कनों के बढ़ते जाने को स्पष्ट महसूस किया. साथ ही पूरे शरीर में एक थर-थराहट भी.

जल्दी से अगला पन्ना खोल कर पढ़ना शुरू किया. पहली लाइन पढ़ते ही दिल धक् से हो कर रह गया. चेहरे पर पसीने की बूंदें चमक उठीं. हथेलियां नम हो उठीं. कुछ क्षण अपने को संभालने के बाद उन्होंने पहली ही लाइन से फिर पढ़ना शुरू किया. नुरीन ने बिना किसी अभिवादन के सीधे-सीधे लिखना शुरू किया था कि अम्मी मैं हमेशा के लिए घर छोड़ कर जा रही हूं. इसके लिए सिर्फ़ और सिर्फ़ तुम ज़िम्मेदार हो. मैं तुम्हारे गुनाहों में अब और साथ नहीं दे सकती. इसलिए मेरे पास इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं बचा है. इससे भी पहले यह कहूंगी कि मैं अपने अब्बू को निरीह, लाचार अब्बू को तुम्हारे गुनाहों के कारण समय से पहले मौत के मुंह में जाते नहीं देख सकती. और साथ ही यह भी कि तुम अब्बू के इलाज में अकेली सबसे बड़ी बाधा हो, रुकावट हो. अम्मी मैंने अब तक अपने जीवन में  तुम्हारी जैसी औरत नहीं देखी जो संपत्ति के लालच में अपने शौहर को मौत के मुंह में धकेल दे. मुफ्त की संपत्ति पाने के लिए फरिश्ते जैसे अपने ससुर पर अपनी पोती की इज्जत लूटने का घिनौना इल्जाम लगा दे. तुम लालच में इतनी अंधी हो गई हो कि अपनी बेटी की इज्जत पूरी दुनिया के सामने उछालते तुम्हें जरा भी संकोच शर्म नहीं आई. तुमने पलभर को भी यह ना सोचा कि अस्सी बरस के ऐसे इंसान पर तुम आरोप लगा रही हो जो चलने-फिरने, खाने-पीने में भी लाचार है. वह मेरी जैसी लहीम-सहीम एक जवान लड़की की इज़्जत क्या लूट पाएगा.
तुम्हें यह आरोप लगाते हुए जरा सी यह बात समझ में न आई कि दुनिया तुम्हारी इन बातों पर कैसे यकीन कर लेगी. हर आदमी शुरू से ही तुम पर ही शक कर रहा है. पुलिस को दुनिया ऐसी-वैसी कहती रहती है. लेकिन वह सब भी तुम्हीं पर शक कर रहे हैं कि तुमने मुझ पर कोई न कोई दबाव बना कर ही मुझे इस साजिश में शामिल किया है.
अम्मी तुम्हें भले ही पुलिसवालों, दुनिया वालों की नज़र में खुद के लिए लानत-मलामत ना दिख रही हो लेकिन मैंने इन सबकी नज़रों में अपने लिए गुस्सा, नफरत, लानत-मलामत सब देखा है. किसी के सामने पड़ने पर शर्म के मारे मैं जमीन में धंसी चली जाती हूं. मुझे लगता है कि जैसे सचमुच ही सरेराह मेरी इज़्जत लुट चुकी है. पुलिस वालों ने जिस तरह से सच जानने के लिए तरह-तरह के सवाल किए वह मैं बता नहीं सकती. तुम्हें भले ही इन बातों से कोई फर्क ना पड़े लेकिन मुझे वह सब सुन कर लगता है कि इससे अच्छा था कि मैं मर ही जाती.
उस महिला अधिकारी ने बड़ा साफ-साफ पूछा कि तुम्हारे दादा ने यह छेड़खानी पहली बार की या इसके पहले कितनी बार की. उन्होंने तुम्हारे शरीर के किस-किस हिस्से को छुआ. वह मुझसे सच उगलवाने पर इस कदर तुली हुई थी कि शरीर के अहम हिस्सों की तरफ इशारा करके पूछती यहां छुआ या यहां छुआ. किस तरह से.....छी . मैं जवाब दे पाने के बजाय फूट-फूट कर रो पड़ी थी अम्मी. मुझे यह सब सुन कर लग रहा था मानो सचमुच मेरी इज़्जत लुट रही है.  असहनीय थी मेरे लिए वह जलालत.
मैं उस पुलिस अधिकारी को क्या बताती कि मेरे दादा के हाथ हमेशा हम सब बच्चों की भलाई के लिए, दुआ के लिए ही उठे. सिर पर हाथ हमेशा आशीर्वाद के लिए ही रखा. लेकिन अम्मी मैं ऐसी खुर्राट पुलिस ऑफिसर के भी सामने, ऐसी जलालत भरी स्थिति में भी टूटी नहीं. झूठ को बराबर सच बनाए रही. रोती रही मगर अड़ी रही. क्यों कि अब्बू का चेहरा बराबर मेरे सामने था. और तुम्हारी धमकी बराबर कानों में गूंजती रही, कि जरा भी तूने सच बोला तो अब्बू का मरा मुंह देखेगी.तुम बराबर झूठ पर झूठ बोलती रही कि तुम और ख़ालु अब्बू के इलाज के लिए पैसे का इंतजाम बस कर ही चुकी हो. अम्मी यह सब जानते हुए भी मैं सिर्फ़ इस लिए तुम्हारे इशारे पर नाचती रही क्योंकि मैं किसी भी सूरत में अब्बू को नहीं खोना चाहती. और इसीलिए यहां से भागने का भी फै़सला लिया. हमेशा  के लिए. क्योंकि मैं जानती हूं कि मैं यहां रहूंगी तो तुम तो अब्बू का इलाज कराने से रही. ऊपर से दादा को भी छोड़ोगी नहीं. इस हालत में इस तरह तो वह यूं ही चल बसेंगे. इसलिए मैं जा रही हूं. सबसे पहले मैं यहां से जाकर पुलिस को विस्तार से ई-मेल करूंगी. कि दादा को किस तरह झूठी साजिश रचकर फंसाया गया. मुझे साजिश में शामिल होने के लिए फंसाया गया, विवश किया गया.
इन सारी बातों की मैं विडियो रिकॉर्डिंग कर के विडियो भी पुलिस को मेल कर दूंगी. कि दादा बिल्कुल बेगुनाह हैं उन्हें तुरंत छोड़ दिया जाए. इस काम के लिए मैं तुम्हारा मोबाइल ले जा रही हूं. यह काम पूरा होते ही कोरियर से भेज दूंगी. क्योंकि अपने पास रखूंगी तो पुलिस इसके सहारे मुझ तक पहुंच जाएगी. सच जानने के बाद वह तुम्हें नहीं छोड़ेगी. इसलिए मैं दादा को भी फ़ोन करके उनसे गुजारिश करूंगी कि वो ख़ालु को छोड़कर हमें, तुम्हें और बाकी सबको बख्श दें. पुलिस को किसी भी तरह मना कर दें. उन्हें अब्बू का वास्ता दूंगी. अल्लाह-त-अला का वास्ता दूंगी कि हम भटक गए थे. हमें माफ कर दें. हमें पूरा यकीन है कि वे ऐसे नेक इंसान हैं कि हम ने उनसे इतनी घिनौनी ज़्यादती की है लेकिन वह फिर भी हमें बख्श देंगे. वो इतनी कूवत रखते हैं कि हमें जरूर बचा लेंगे.
अम्मी अब तुम यह सोच रही होगी कि इस सबसे अब्बू का इलाज कहां से हो जाएगा. तो अम्मी यह अच्छी तरह समझ लो कि जब मुझे यह पक्का यकीन हो गया कि यह कदम उठाने से दादा को बचाने के साथ-साथ अब्बू के इलाज का भी रास्ता साफ हो जाएगा तभी मैंने यह क़दम उठाया. मैं दादा से साफ कहूंगी कि आप छूटते ही सबसे पहले जो प्रॉपर्टी बेचना चाहते हैं तुरंत बेचकर अब्बू का इलाज कराएं. और घर में शांति बनी रहे इसके लिए वह तुम पर किसी सूरत में कोई केस न करें. तुम्हें बख्श दें. एक तरह से यह तुम्हारे लिए सजा भी है. मैं उनसे यह भी कहूंगी कि दादा मुझे भूल जाओ. क्योंकि मेरे वहां रहने पर आप यह सब नहीं कर पाएंगे. क्योंकि अम्मी ख़ालु के साथ कोई ना कोई साजिश रच कर मुझे फंसाए रहेंगी.
अम्मी मैं दादा को यह भी बता दूंगी कि तुमने किस तरह प्रॉपर्टी के चक्कर में मेरा निकाह ख़ालु के लड़के दिलशाद से करने की साजिश रची है. अम्मी तुम प्रॉपर्टी के चक्कर में इस कदर गिर जाओगी मैंने यह कभी भी नहीं सोचा था. तुम्हें यह भी ख़याल नहीं आया कि मैं भी एक इंसान हूं कोई भेड़-बकरी नहीं कि जहां चाहे बांध दिया, जब चाहा तब जबह कर दिया.
इस निकाह के बारे में सोचते हुए तुम्हें यह ख़याल तो करना चाहिए था कि जिस लड़के के साथ मैं बचपन से खेलती-कूदती, पढ़ती-लिखती आई, जिसे मैंने हमेशा सगा भाई माना. उसे सगे भाई का दर्जा दिया, चाहा-प्यार किया और उसने भी हमें हमेशा सगी बहन माना, प्यार दिया. उससे तुम मेरा निकाह करने का फै़सला किए बैठी हो. ख़ालु तो ख़ालु ठहरे, वह जानते हैं कि घर में कोई लड़का है नहीं. मकान-दुकान मिलाकर कई करोड़ की प्रॉपर्टी है जो अंततः लड़कियों को ही मिलेगी. इस स्वार्थ में अंधे हो उन्होंने तुम्हें फंसाया फिर अपने लड़के को मुझसे निकाह के लिए तैयार कर लिया. जब से तुम दोनों ने दिलशाद को इसके लिए तैयार किया है तब से उसको मुझसे मिलने नहीं दिया. क्योंकि तुम्हें यह डर है कि मुझसे मिलने के बाद वह मुकर ना जाए.
अम्मी तुम्हें सोचना चाहिए था कि आखिर मैं ऐसे शख्स से कैसे निकाह कर लूंगी जिसे बचपन से भाई की तरह देखती रही हूं. फिर अचानक उसे शौहर मान लूं. उसके बच्चों को पैदा करने लगूं. छी.... अम्मी मुझे घिन आती है. यह खयाल आते ही उबकाई आने लगती है. मैं दिलशाद को भी समझा कर मेल करूंगी. मुझे यकीन है कि वह भी क़दम पीछे खींच लेगा. मैं उसको यह भी समझाऊंगी कि यदि तुम्हारे अब्बू, मेरी अम्मी मेरी छोटी बहनों से निकाह की बात चलाएं तो भी तुम ना मानना. बल्कि ऐसे किसी गलत काम को तुम रोकना भी.
अम्मी मैं एकदम समझ नहीं पा रही कि आखिर ख़ालु ऐसा कौन सा काला जादू जानते हैं कि इतनी आसानी से तुम्हें बरगलाया. अपने इशारे पर तुम्हें नचाते हुए एक के बाद एक गुनाह करवाए जा रहे हैं. अम्मी जरा सोचो कि इससे बड़ा गुनाह क्या होगा कि तुम उनके बहकावे में आकर अपने शौहर से दगा कर बैठी. मेरी जुबान यह कहते नहीं कांप रही अम्मी कि तुम लंबे समय से यह इंतजार कर रही हो कि कब तुम्हारे शौहर इस दुनिया से कूच कर जाएं.
अम्मी यह कहने की हिम्मत इस लिए कर पाई हूं, क्योंकि तुम्हारी हरकतों ने दिलो-दिमाग से तुम्हारे लिए सारी इज्जत धो डाली है. जिस तरह तुमने अपनी जवान लड़कियों के सामने, घर में शौहर के रहते ख़ालु से नाजायज संबंधों की पेंगें बढ़ाईं उससे अम्मी मन में तुम्हारे लिए नफरत ही नफरत भर गई है. अपने शौहर की लाचारगी का जैसा फ़ायदा तुम उठा रही हो अम्मी वैसा शायद ही कोई बीवी उठाती हो. जरा सोचो अम्मी तुम्हारी इस घिनौनी, जलील हरकत से अब्बू पर क्या बीतती होगी. अम्मी गुनाह करके ज़्यादा दिन बचा नहीं जा सकता. और अब यही तुम्हारे साथ भी हुआ. मैं जा रही हूं. मेरे जाने से तुम्हारे और कई गुनाह भी बेपर्दा हो जाएंगे. कम से कम दादा के साथ तुमने जो किया वह तो बेपर्दा हो ही जाएगा.
जहां तक बाकी गुनाहों की बात है तो समय के साथ वह अपने आप ही खुल जाएंगे. क्योंकि गुनाह एक दिन खुद पुरजोर आवाज़ में दुनिया के सामने सच बोल ही देता है. अम्मी मैं पुलिस को यह भी कह दूंगी कि मैं अब बालिग हूं. मैं कहीं भी जाने के लिए स्वतंत्र हूं. अब मैं घर में नहीं रहूंगी. इसलिए मुझे ढूंढ़ा ना जाए. दादा से कह कर सारे केस समाप्त करवा लूंगी. अम्मी मुझे अपनी हिम्मत, अपनी क्षमता पर यकीन है. एक दिन अपना एक मुकाम जरूर बनाऊंगी. जिस दिन कुछ बन गई उस दिन एक बार घर जरूर आऊंगी. माना दुनिया बहुत खतरनाक है. एक अकेली लड़की का उसमें रहना दुनिया के सबसे भयानक खतरे का सामना करने जैसा है. शेर, चीतों, भालुओं जैसे हिंसक जानवरों से भरे जंगल में अकेले घूमने जैसा है. अम्मी, ख़ालु जैसे लोगों के चलते खतरे का सामना तो मैं अपने घर में भी करती ही आ रही हूं.
अम्मी इसी खतरनाक दुनिया में एक लड़की पढ़-लिख कर, मेहनत करके, होटल में वेटर से लेकर ना जाने क्या-क्या काम करके आगे बढ़ती है, अपने इसी मुल्क में केंद्रीय मंत्री बन जाती है. और भी ऐसी ना जाने कितनी लड़कियों ने अपना मुकाम बनाया है तो मैं भी क्यों नहीं बना सकती. अम्मी मैं जिस दिन कुछ बन जाऊंगी उस दिन अपनी बहनों को भी साथ ले जाऊंगी. और हां मैं तुम्हारा बुर्का पहन कर जा रही हूं. बड़ा खूबसूरत है. तुम भले ही छिपाओ लेकिन मुझे मालूम है कि किसने दिया है. वैसे भी क्या वाकई तुम्हें बुर्के की जरूरत है भी.
अम्मी तुमने मेरे सामने इसके अलावा कोई रास्ता नहीं छोड़ा है. इसलिए जा रही हूं. हो सके तो गुनाहों से तौबा कर लेना. ज़िंदगी बड़ी खूबसूरत है. इसे खूबसूरत बनाए रखना अपने ही हाथों में है. अच्छा अल्लाह हाफिज.

नुरीन के खत को पूरा पढ़ते-पढ़ते नुरीन की अम्मी पसीने से नहा उठीं. उन्हें सब कुछ हाथों से निकलता लग रहा था. हाथों से कागजों को मोड़ कर उन्हें जल्दी से एक अलमारी में रख कर ताला बंद कर दिया. और दुल्हा-भाई को फ़ोन करने के लिए उस कमरे में जाने को उठीं जिसमें लैंडलाइन फ़ोन रखा था. पसीने से तर उनका शरीर कांप रहा था.

उन्होंने दरवाजे की तरफ क़दम बढ़ाया ही था कि एकदम से नुरीन सामने आ खड़ी हुई. वह एकदम हक्का-बक्का पलभर को बुत सी बन गईं. नुरीन भी उनसे दो क़दम पहले ही स्तब्ध हो ठहर गई. उसकी अम्मी के दिमाग में एक साथ उठ खड़े हुए अनगिनत सवालों ने उन्हें एकदम झकझोर कर रख दिया. फिर भी घर में मेहमानों की मौजूदगी का ख़याल उनके शातिर दिमाग से छूट न सका. वह दांत पीसती हुई आग-बबूला हो बोलीं कलमुंही तू तो जहन्नुम में चली गई थी फिर यहां मरने कैसे आ गई. कहीं ठिकाना नहीं लगा.

यह कहती हुई वह नुरीन की तरफ बढ़ने को हुई तो वह बेखौफ बोली दिलशाद से बात करने के बाद मैंने इरादा बदल दिया.उसकी इस बात का अम्मी ने ना जाने क्या मतलब निकाला कि उस पर हाथ उठाती हुई बोली हरामजादी मुझको बदचलन कहते तेरी काली जुबान कट कर गिर न गई.अम्मी के ऐसे रौद्र रूप से पहले जहां नुरीन दहल उठती थी वह इस वक़्त बिल्कुल नहीं डरी और अम्मी के उठे हाथ को बीच में ही थाम कर बोली बस अम्मी ... अब भी संभल जाओ नहीं तो मैं चिल्ला कर सबको इकट्ठा कर लूंगी.कल्पना से परे उसके इस रूप से उसकी अम्मी सहम सी गईं. उन्हें  जवान बेटी के हाथों में गजब की ताकत का अहसास हुआ. उन्होंने अपना हाथ नुरीन के हाथों में ढीला छोड़ दिया तो नुरीन ने उन्हें अपनी पकड़ से मुक्त कर दिया.

दोनों मां-बेटी पल-भर एक दूसरे की आंखें में देखती रहीं. नुरीन की आंखें भर चुकी थीं. अम्मी की आंखें क्रोध से धधक रही थीं. सुर्ख हुई जा रही थीं. सहसा वह बोलीं मालूम होता तू ऐसी होगी तो पैदा होते ही गला घोंट कर कहीं फेंक देती.इतना ही नहीं यह कहते-कहते उन्होंने नुरीन को पकड़ कर एक तरह से उसे जबरन बेड पर बैठा दिया. फिर बोलीं मैंने ख्वाब में भी नहीं सोचा था कि तू ऐसी नमक हराम, एहसान फरामोश होगी. इतनी बदकार होगी कि अपनी अम्मी को ही बदनाम करने पर तुल जाएगी. बदचलन कहने में जुबान नहीं कांपेगी. तेरी जैसी औलाद से अच्छा था कि मैं बे औलाद रहती. अरे! आज तक सुना है कि किसी लड़की ने अपनी अम्मी को ऐसा कहा हो. उसकी जासूसी की हो. चली थी घर छोड़ कर भागने, मुकाम बनाने, अब्बू का इलाज कराने, उस बुढ्ढे को छुड़ाने, कर चुकी सब. अपनी यह मनहूस सूरत लेकर बाहर निकलने में जान निकल गई. घबरा नहीं मैं तेरी सारी मुराद पूरी कर दूंगी. अब तेरी रुह भी इस घर से बाहर ना जाने पाएगी. देखना मैं तेरा क्या हाल करती हूं.

अम्मी तुम्हारे जो दिल में आए कर लेना, मार कर फेंक देना मुझे, मैं उफ तक न करूंगी. मगर पहले अब्बू का इलाज हो जाने दो.इतना सुनते ही अम्मी उसकी फिर बरस पड़ीं. बोलीं हां .... ऐसे बोल रही है जैसे करोड़ों रुपए वो कमा के भरे हुए हैं घर में और बाकी जो बचा वो तूने भर दिए हैं.

अम्मी उन्होंने कमा के करोड़ों भरे नहीं हैं तो तुमसे या दादा से भी कभी इलाज के लिए एक शब्द बोला भी नहीं है. जो भी उनका इलाज अभी तक हुआ है वह दादा ने खुद कराया है. एक बाप ने अपने बेटे का इलाज कराया है. और वही बाप आगे भी अपने बेटे का इलाज कराने के लिए अपनी संपत्ति बेच रहा है तो तुम्हें क्यों ऐतराज हो रहा है.
उसकी इस बात पर उसकी अम्मी और आग बबूला हो उठीं. किच-किचाते हुए बोलीं चुप .... .इसके आगे वह कुछ और ना बोल सकीं. क्यों कि नुरीन बीच में ही पहले से कहीं ज़्यादा तेज आवाज़ में बोली बस अम्मी! बहुत हो गया. मेरे पास अब फालतू बातों के लिए वक़्त नहीं है. मैं थाने जाकर अपनी कंप्लेंट वापस लेने के लिए दिलशाद को बुला चुकी हूं. वह कुछ देर में आता ही होगा. मैं हर सूरत में दादा को छुड़ा कर आज ही लाऊंगी समझीं. अब इस बारे में मैं तुमसे या किसी से भी ना एक शब्द सुनना चाहती हूं और ना ही कहना चाहती हूं.

नुरीन की एकदम तेज हुई आवाज़, एकदम से ज़्यादा तल्ख हो गए तेवर से उसकी अम्मी जैसे ठहर सी गई. उन्हें बोलने का मौका दिए बगैर नुरीन बोलती गई. उसने आगे कहा और अम्मी यह भी साफ-साफ बता दूं कि मैंने घर छोड़ने का इरादा बाहर आने वाली दुशवारियों से डर कर नहीं बदला. मैंने घर छोड़ने का इरादा दिलशाद से बात कर यह समझने के बाद बदला कि जिस मकसद से मैं यह क़दम उठा रही हूं वह तो पूरा ही नहीं होगा. दिलशाद ने साफ कहा कि ऐसे कुछ नहीं हो पाएगा. केस उलझ जाएगा. पुलिस पहले तुमको ढूढ़ने में लग जाएगी. और कोई आश्चर्य नहीं कि अपनी योजना पर पानी फिर जाने और लेटर में लिखी तुम्हारी बातों से खिसियाई, गुस्साई अम्मी तुम्हारे फूफा वगैरह पर यह आरोप लगा दें कि उन लोगों ने उनकी लड़की नुरीन का अपहरण करा लिया या हत्या कर दी.

वह कुछ भी कर सकती हैं ऐसा ही कोई और बखेड़ा भी खड़ा कर सकती हैं. ऐसे मैं दादा का छूटना, अब्बू का इलाज तो दूर की बात हो जाएगी. तुम्हारी अम्मी घर के ना जाने कितनों और को अंदर करा देगी. तुम भाग कर ना अपनी बहनों को बचा पाओगी और ना खुद को. जैसे उन्होंने तुम्हारा निकाह मुझ से तय कर दिया. वैसे ही तुम्हारे ना रहने पर तुम्हारी बहनों का निकाह ऐसे ही तय कर देंगी. मेरे इंकार करने पर दूसरे भाइयों से कर देंगी. कुल मिला कर पूरा घर तबाह हो जाएगा. जब कि यहां रह कर जो तुमने तय किया है वह सब हो जाएगा. घर की और ज़्यादा थू-थू भी नहीं होगी. मुझसे जितनी मदद हो सकेगी मैं वह सब करूंगा.

अम्मी मुझे दिलशाद की सारी बातें एकदम सही लगीं. मुझे जब पक्का यकीन हो गया कि मैं यहां रह कर ही सब कुछ कर पाऊंगी तभी मैंने अपना इरादा बदला. अम्मी दिलशाद ने सच्चे भाई होने का अपना हक बखूबी अदा किया है. वह कुछ ही देर में यहां आने वाला है. मैं फिर तुमसे कह रही हूं कि अपनी जिद से अब भी तौबा कर लो. दादा को छुड़ाने साथ चलो. अब्बू का इलाज करवाने के लिए वह जो करना चाहते हैं वह उन्हें करने दो. इससे मेरी, तुम्हारी इस घर की दुनिया में और ज़्यादा बदनामी होने से बच जाएगी. हम दोनों ये कह देंगे कि गलतफहमी के कारण यह गलती हो गई. थाने वाले मान जाएंगे. वह सब तो पहले से ही दादा को बेगुनाह मान कर ही चल रहे हैं.

अम्मी मान जाओ अभी भी वक़्त है, इससे ऊपर वाला हमें बख्श देगा. वरना ये तो गुनाह-ए-कबीरा है जो कभी बख्शा नहीं जाएगा. इसलिए कह रही हूं कि तैयार हो जाओ हमारे साथ चलो. क्योंकि अब मैं किसी भी सूरत में पीछे हटने वाली नहीं, एक बात तुम्हें और बता दूं कि मैं यहां तुम से यह सब कहने नहीं आई थी. मैं तो इरादा बदलने के बाद जो खत तुम्हारे दुपट्टे में बांध गई थी उन्हें वापस लेने आई थी. जिससे कि तुम उन्हें ना पढ़ सको. उनमें लिखी बातों से तुम्हें दुख न पहुंचे. मगर बदकिस्मती से आज तुम रोज से जल्दी उठ गई और खत पढ़ लिया. उनमें लिखी बातों के लिए अभी इतना ही कहूंगी कि मुझे माफ कर दो या बाद में जो सजा चाहे दे लेना, मगर अभी चलो.

नुरीन अपनी बात पूरी करके ही चुप हुई. उसकी अम्मी दो बार बीच में बोलने को हुई लेकिन उसने मौका ही नहीं दिया. उसके तेवर ने उसकी अम्मी को यह यकीन करा दिया कि बाजी अब उसके हाथ से निकल कर बहुत दूर जा चुकी है. अब भलाई अगली पीढ़ी की बात मान लेने में ही है. नहीं तो इसके जोश में उठे कदम से वह भी हवालात का सफर तय कर सकती है. साजिश रचने के आरोप में. करमजला दिलशाद इसके साथ है ही. तभी दरवाजे पर दस्तक हुई. जिसे सुन नुरीन फिर उनसे मुखातिब हुई. कहा लगता है दिलशाद आ गया है. तुम साथ चल रही हो तो मैं रुकूं नहीं तो अकेले ही जाऊं.

उसकी अम्मी ने एक जलती हुई नज़र उस पर डालते हुए नफरत भरी आवाज में मुख्तसर सा जवाब दिया चलती हूं.इस बीच घर में ठहरे कई मेहमान जाग चुके थे उनकी आवाजें आने लगी थीं. नुरीन बाहर दरवाजा खोलने को चल दी. वह बात किसी और तक पहुंचने से पहले अम्मी को लेकर थाने के लिए निकल जाना चाहती थी. जिससे बाकी सब कोई रुकावट ना पैदा कर दें. उसे लगा कि थाने पर जल्दी पहुँच  कर इंतजार कर लेना अच्छा है. लेकिन यहां रुकना नहीं.
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सबद भेद : मोहन दास : डर के रंग : शिप्रा किरण


























हिंदी के महत्वपूर्ण कथाकार उदय प्रकाश की चर्चित कथा-कृति ‘मोहनदास’ में डर के इतने रंग शिप्रा ने खोज़ निकाले हैं कि इन्हें पढ़ते हुए भय लगता है. एक सीधे, सच्चे और स्वाभिमानी व्यक्ति के लिए अब कोई जगह रह नहीं गयी है. संगठित संस्थाओं की हिंसा और आवारा भीड़ के ख़तरों के बीच भयग्रस्त ‘मोहनदासों’ की कथाओं की श्रृंखला आज टूटती ही नहीं.  

शिप्रा किरण ने मन से इस आलेख को लिखा है.



मोहन दास  :  डर के रंग                             
शिप्रा किरण



To live is to suffer, to survive is to find some meaning in the suffering” –   Nietzsche


दय प्रकाश की कहानियाँ डर, नैराश्य और अंधेरे से जूझते इंसान की कहानियाँ हैं. उसी इंसान की कहानियाँ जो सदियों से बार-बार गिरता और फिर धूल झाड़ कर संभलता रहा है. वही मनुष्य जो युगों पहले जंगल में जानवरों का शिकार बना है फिर बाद में उन्हीं जानवरों का शिकार कर अपनी भूख भी शांत की है. पहले-पहल आग को देख कर चकित-विस्मित-भयभीत हुआ है फिर उस आग को इस्तेमाल कर उसे अपने काबू में भी किया है. तमाम परेशानियों में भी उसने रास्ते ईजाद किए हैं.
आदमी के डर और भय के कई रूप हम उदय प्रकाश की कहानियों में देख सकते हैं. बल्कि उस डर का रंग और उसकी तेजी भी- ‘‘डर का रंग कैसा होता है? धूसर, सलेटी, ज़र्द, हल्का स्याह या फिर राख जैसा? ऐसी राख जिसके भीतर आग अभी पूरी तरह मरी न हो!...या फिर कोई ऐसा रंग जिसके पीछे से अचानक कोई सन्नाटा झाँकने लगता है और उसकी दरार में से एक फासले पर कोई सिसकी अटकी हुई दिखती है?’’1

डर का यह रूप रोंगटे खड़े कर देने वाला है. ऐसा वर्णन वही कर सकता है जिसने स्वयं उस डर को देखा हो, उसे छुआ भी हो. या जिसने बहुत करीब से किसी बेहद डरे हुए आदमी के चेहरे की रंगत को देखकर उसे महसूसा हो. जब उदय प्रकाश शिंडलर्स लिस्टके रेल की खिड़कियों से झाँकते यहूदी महिलाओं, बूढ़ों और बच्चों के डरे चेहरों की याद दिलाते हैं तो उनका मतलब सिर्फ वहीं तक नहीं होता बल्कि उस रेल की याद आते ही हम फ्लैशबैक में पहुँच जाते हैं. कई सारी तस्वीरें एक साथ जेहन में कौंध जाती हैं. जिसमें सबसे खतरनाक तस्वीर है, भारत-पाकिस्तान विभाजन के दौरान चलने वाली, लाशों और डरे हुए चेहरों से खचाखच भरी ट्रेनों की, गुजरात दंगे के उस डरे-सहमे और दंगाइयों के सामने हाथ जोड़े, जान के लिए गिड़गिड़ाते युवा चेहरे की जिसे भारतीय मीडिया अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए वर्षों तक भुनाती रहती है, जिस डर का चित्रण खुशवंत सिंह ने ट्रेन टू पाकिस्तानमें किया है, वही डर जिसे स्वयं प्रकाशकी कहानी क्या तुमने कोई सरदार भिखारी देखा हैमें बूढ़े सरदार जी के ‘‘काले झुर्रीदार चेहरे, धँसी आँखों और मैली दाढ़ी’’2में देखा जा सकता है.

लेकिन डर के जितने रंग उदय प्रकाश के यहाँ दिखाई देते हैं उतने शायद ही किसी और रचनाकार के यहाँ हों. विभाजन और चैरासी के सिक्ख दंगों के इतने बरस बाद ऐसा क्यों है कि डर के रंगों में कमी तो क्या आई है उनमें और इजाफा ही हुआ है?  क्यों मोहनदास और उस जैसे हजारों युवाओं के चेहरों के डर के रंग और अधिक गहरे हुए हैं? कुछ तो है जो यह डर दिन-ब-दिन बढ़ता ही जा रहा है. तब सिर्फ जान का डर था. कुछेक व्यक्ति ही व्यक्ति के शत्रु थे. अब पूरे माहौल और व्यवस्था में ही शत्रुता की हवा है. व्यक्तियों के समूह के साथ-साथ निर्जीव वस्तुएं भी अपनी पूरी ताकत के साथ इंसान की जान लेने पर आमादा हैं. यह व्यक्ति-वस्तु-मशीन का गठजोड़ है. एक बड़ी ही धूर्तता भरी समझ के साथ मनुष्यता पर चैतरफा आक्रमण की साजिश है यह. आत्मरक्षा के सारे रास्ते बंद कर दिये गए हैं. ऐसे में एक लाचार छटपटाहट के सिवा बचता ही क्या है! सहमा हुआ आदमी अकेला है, कमजोर है पर डराने वाली ताकतें अकेली नहीं हैं. वो मजबूत हैं, एकजुट हैं. इतनी मजबूत हैं कि जीते-जागते मनुष्य से उसका नाम, उसकी पहचान, उसका चेहरा छीनकर उसे मृत घोषित कर दें. वह इस हद तक विवश और मृतप्राय हो जाये कि खुद ही कहता फिरे- ‘‘हमारा नाम मोहन दास नहीं है....हम अदालत में हलफनामा देने को तैयार हैं. जिसे बनना हो बन जाये मोहन दास. आप लोग किसी तरह हमें बचा लीजिये!...हम आप सबके हाथ जोड़ते हैं.3
मोहन दास मात्र कोई संज्ञानहीं है बल्कि यह अपने भीतर की तमाम विशेषताओं को समेटे अपनी संपूर्णता में एक विशेषणभी है. उसके प्रथम नाम मोहनके साथ दासका जुड़ जाना ही उसकी विशेषताओं तक पहुँच जाने के कई मार्ग खोल देता है. वह हरिशंकर परसाई और रघुवीर सहाय के रामदासकी ही कड़ी का मोहन दासहै. जिसे व्यवस्था ने शुरू से डरा-धमका कर अपना दासबने रहने को मजबूर किया है. एक रघुवीर सहाय का रामदास है जिसे पहले से ही पता था कि उसकी हत्या होने वाली है, उसे ही क्यों सबको पता था कि आज उसकी हत्या होगी-

‘‘चैड़ी सड़क गली पतली थी
दिन का समय घनी बदली थी
रामदास उस दिन उदास था
अंत समय आ गया पास था
उसे बता, यह दिया गया था उसकी हत्या होगी

धीरे-धीरे चला अकेला
सोचा साथ किसी को ले ले
फिर रह गयासड़क पर सब थे
सभी मौन थे सभी निहत्थे
सभी जानते थे यह उस दिन उसकी हत्या होगी’’.4


कल्पना कीजिये उस व्यक्ति के डर का जिसे पहले से ही बता दिया गया हो कि वह मार दिया जाने वाला है! क्या रही होगी उसकी हताशा जब भी भरी सड़क पर सब उस व्यक्ति की हत्या का तमाशा देखने के लिए चुपचाप खड़े हों! अगर हम उस हत्यारी भीड़ का हिस्सा नहीं और हमारे भीतर थोड़ी भी आग बाकी है तो हम उसी डर को मोहन दास को पढ़ते हुए जरूर महसूस कर पाते हैं- ‘‘मोहन दास को आप देखेंगे तो पहले तो आपको उस पर दया आएगी लेकिन बाद में आप भी डर जाएंगे. क्योंकि यह समय बहुत डरावना है और यह लगातार डरावना होता जा रहा है’’.5

यह समय सचमुच डरावना है, जब फ्र्सट डिवीजन पास किसी ग्रेजुएट को-

‘‘पानी पीने के लिए हर रोज एक नया कुआं खोदना पड़ता है और खाने के लिए हर रोज रोटी की नयी फसल पैदा करनी पड़ती है.6 और उसी टापर का हुलिया यह हो-

‘‘एक फटी हुई, बेरंग हो चुकी, जगह-जगह पैबंद लगी, किसी समय में नीली डेनिम की फुलपैंट, एक सस्ते टेरीकोट की आधी बाजू की, दायें कंधे के पास उधड़ी हुई बुशर्ट. इसमें किसी समय चैखाने बने थे, जिनकी वे लकीरें धुंधली होकर मिट रही हैं, जिनके रंग कभी हल्के रहे होंगे. और एक रबर का सस्ता बरसाती जूता, जिसे मिट्टी, धूल, दुख पानी, समय और धूप ने इतना चाट डाला है कि अब वह कभी चमड़े और कभी मिट्टी का बना दिखता है’’.7

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(Schindler's List फ़िल्म से एक दृश्य)


बाह्य परिस्थितियाँ ही बहुत हद तक मनुष्य के आंतरिक भावों की भी निर्माता होती हैं और जब समय भयावह और बाहरी ताकतें अत्याचारी हों तो मनोबल भी आखिर कब तक टिके! जूते इंसान के संघर्ष का प्रतीक हैं, एक समय के बाद वह भी रंग बदलने लगते हैं, घिसने लगते हैं. ल्यूटीयन जोनमें सुरक्षित बैठे लोग आदमी के जूतों के रंग उधेड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ते. जान-बूझ कर जीवित रहने के लिए जरूरी और मूलभूत आवश्यकताओं तक आम आदमी की पहुँच इतनी मुश्किल बना दो कि वह ज्यादा आगे की सोच ही ना पाये. तभी मोहनदास निराश होकर कहता है- ‘‘हम भी बी.ए. फ्र्सट क्लास हैं. दिन रात घोंटते थे...! क्या हुआ?’’8  और हार कर बाजार की शरण में चला जाता है. लेकिन यह भी ध्यान रखिए कि मोहनदास के भीतर कुछ ऐसी कमजोरियाँ थीं जिसकी वजह से उसे नौकरी तो नहीं ही मिल सकती, वह बाजार में भी नहीं खप सकता था- मोहन दास बहुत सीधा, संकोची और स्वाभिमानी था’’.9

अपने इन्हीं अवगुणोंके कारण उसने जल्दी ही यह समझ लिया था कि ‘‘स्कूल-कालेज के बाहर की असली जिंदगी दरअसल खेल का ऐसा मैदान है, जहां वही गोल बनाता है, जिसके पास दूसरे को लंगड़ी मारने की ताकत होती है’’.10परसाई के रामदास और इस मोहन दास में बड़ी समानताएं हैं. रामदास भी मोहन दास की तरह ईमानदार था. तभी रामदास का साहब एक जगह कहता है- ‘‘मुझे वर्षों बाद यह ईमानदार आदमी मिला है’’.11

इसी तरह अभावों ने दोनों को ही समय से पहले बूढ़ा कर दिया है- ‘‘मोहन दास की उम्र इस समय पैंतीस-सैंतीस के आसपास होगी, लेकिन देखने में वह मेरे बराबर या मुझसे कुछ बड़ा ही लगता है’’.12मतलब अपनी उम्र से कई गुना बड़ा. ठीक उसी तरह जैसे रामदास- ‘‘अभी तक 35पतझरों को परास्त कर चुका है. यौवन की कमजोरी देखकर बुढ़ापे ने अपने गुप्तचर, सफेद बाल, इसके यौवन के राज्य में भेज दिये हैं, जो एक-एक काले बाल को फुसलाकर विद्रोह करवा रहे हैं’’.13यहाँ फर्क सिर्फ दोनों लेखकों की बात कहने के लहजे में है.

उदय प्रकाश जिस बात को सीधे तरीके से कह रहे हैं, परसाई उसी बात को व्यंग्यात्मक तरीके से मगर भयके रूप दोनों के यहाँ समान हैं. पहले-पहल इस चित्रण को पढ़ कर दया और करुणा का भाव ही पैदा होता है लेकिन अगले ही क्षण हम उस डर से रूबरू हो जाते हैं, जो मनुष्य को रामदास और मोहन दास बनाने के लिए जिम्मेवार हैं. चेखव के क्लर्क की मौतका क्लर्क भी व्यवस्था के उसी डर का शिकार था शायद. तभी अपने बॉस के पास छींक देने और उस अपराधबोध व परिणाम से डर कर एक दिन वह मर जाता है. व्यवस्था ने बाजार के रूप में भयभीत करने का एक और तरीका अख्तियार किया है. जो खूब सफल रहा है और तेजी से फल-फूल भी रहा है. मनुष्य के हाथों की शक्ति, उसकी कारीगरी और श्रम को बाजार ने अपने कब्जे में कर, उस पर भी अपना ठप्पा लगा दिया है.

मोहन दास और कस्तूरी जैसे हजारों महनतकशों के श्रम को बेहद सस्ते दामों में खरीदकर उनकी पैकेजिंग और ब्रांडिंग कर बाजार ने खूब पैसे बनाए हैं. फलाँ-फलाँ हैंडीक्राफ्ट्सके टैग लगाकर भारी मुनाफे कमाए हैं सेठों ने. प्रभात पटनायक इस बात को ऐसे समझाते हैं- आज असुरक्षा के माहौल में छोटे उत्पादक, मसलन किसान, दस्तकार, मछुआरे, शिल्पी आदि और छोटे व्यापारी भी शोषण की मार झेलने के लिए छोड़ दिये जाते हैं. यह शोषण दोहरे तरीके से होता है. एक तो प्रत्यक्ष तौर पर बड़ी पूंजी, उनकी संपदा जैसे उनकी जमीन वगैरह को कौड़ियों के मोल खरीद कर. दूसरे उनकी आमदनी में गिरावट पैदा कर के. इससे लघु उत्पादन के माध्यम से उनकी जिंदा बने रहने की क्षमता कम रह जाती है’’.14

बाजार को नियंत्रित करने वाली ताकतों के द्वारा उन चीजों की कीमतें तय कर दी गईं और महानगरों में दिल्ली हाट, अहमदाबाद हाट जैसे हाटों की अवधारणा विकसित कर, लघु व घरेलू उद्योगों के प्रचार और विकास के नाम पर पूँजीपतियों ने खूब पैसे बटोरे हैं- ‘‘उस रोज आँगन में मोहन दास और कस्तूरी बांस और छींदी की चटाई, खोंभरी और पकऊथी बुनने में लगे थे. बाजार के मोहनलाल मारवाड़ी की दुकान विंध्याचल हैंडीक्राफ्ट्ससे इतना बड़ा ऑर्डरमिला था कि दो-तीन महीनों तक मोहन दास और कस्तूरी को दम मारने की फुर्सत नहीं थी’’.15व्यवस्था की इस कॉन्स्पेरेसी को उदय प्रकाश ने बखूबी समझा है और बाजार की इसी क्रूरता के विषय में वाल्टर बेंजामिन ने भी लिखा है- ‘‘विकास का हर नया सोपान बर्बरता के नए रूपों को जन्म देता है’’.16

सेज, मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया जैसे विकास के परिणामों को हम अपने आस-पास आसानी से देख-समझ सकते हैं. विकास की इन्हीं परियोजनाओं और बाजार की नई नीतियों और चोंचलों का एक और शिकार बिसेसर के रूप में दिखाई देता है- ‘‘खेत में पैदा होने वाले अनाज और दूसरी फसलों की कीमत ही बाजार में नहीं रह गई थी. पास के गाँव बलबहरा का बिसेसर, जिसने ग्रामीण बैंक से कर्ज लेकर सोयाबीन की खेती की थी दो महीना पहले अपने खेत की नीलामी से बचने के लिए बिजली के खंभे पर चढ़कर नंगी तार से चिपक कर मर गया था. छोटे किसान और खेत मजदूर गाँव छोड़-छोड़ कर शहर भाग रहे थे’’.17अपनी जान देने वाले ऐसे किसानों की संख्या लगाता बढ़ती ही जा रही है. फिर विकास किसके लिए है इसके अर्थ क्या हैं!  
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(Schindler's List फ़िल्म से एक दृश्य)

लेनिन नगरका अपराधियों और भ्रष्टाचार का अड्डा बनते जाना मेहनतकशों की हिम्मत और तोड़ देता है. मोहन दास की पहचान और नाम हथिया कर नौकरी करता विसनाथ उसी लेनिन नगर में सुख-चैन से रह रहा है. आफ्टर थ्योरीमें टेरी ईगल्टनने पहचान और अस्मिता पर आए संकटों की वर्तमान संदर्भ में व्याख्या की है- ‘‘चारों तरफ थोड़ा-बहुत नहीं, बहुत ज्यादा बदल रहा है.रातों-रात लोगों की समूची जीवन शैली को मिटा दिया जा रहा है....मनुष्य की पहचानों के छिलके उतारे जा रहे हैं, उन्हें काटा-छांटा जा रहा है’’.18

हर सभ्यता और समाज में ये काटने-छांटने वाले लोगों के इलाके भी कुछ अलग नहीं हैं बल्कि यही हैं- ‘‘लेनिन नगर, गांधी नगर, अंबेडकर नगर, जवाहर नगर, शास्त्री, नेहरू और तिलक नगर जैसी सुव्यवस्थित कालोनियों में हजारों बिसनाथ जैसे लोग थे, जो किसी दूसरे की पहचान, अधिकार, योग्यता और क्षमता को चुरा कर वर्षों से कुर्सियों पर बैठे हुए थे और हजारों की तनख्वाह ले रहे थे’’.19 क्या विडम्बना है हिंदुस्तान की! सत्य मार्ग, न्याय मार्ग, नीति मार्ग आदि भी इसी देश की राजधानी के कुछ मार्गों के नाम हैं. लोकतन्त्र के तीनों स्तंभ मोहन दास को न्याय दिलाने में असक्षम रहते हैं. आम आदमी को न्याय की उम्मीद दिलाने वाले न्यायिक दंडाधिकारी मुक्तिबोधको थक कर कहना पड़ता है- दि होल सिस्टम हैज टोटली कोलैप्स्ड...!’’20

यह कहने के बावजूद भी, बीड़ी पीते हुए, बेचैन होकर सिर्फ अंधेरे कमरे में चक्कर लगाते हुए भी मुक्तिबोध कहते हैं- ‘‘लेकिन मनुष्य के भीतर एक चीज ऐसी है, जो कभी भी, किसी भी युग में, किसी भी तरह की सत्ता द्वारा नहीं मिटाई जा सकती!...और वह है न्याय की आकांक्षा!...न्याय की आकांक्षा कालातीत है’’.21कह कर भी वह उतनी ही बेचैनी से कमरे में टहलते हैं. न्यायिक दंडाधिकारी जी.एम. मुक्तिबोध द्वारा खाँसते हुए कही गई यह बात किसी फैंटेसीजैसी ही लगती है बस! सारी बौद्धिकता और सैद्धांतिकी के बावजूद वह किसी भी तरह का परिवर्तन लाने में असफल होते हैं. लगता है इस व्यवस्था में न्याय बेचैन होकर रतजगे ही कर सकता है और कुछ नहीं. सत्य के लिए लगातार संघर्ष करते रहने वाले मुक्तिबोध की ब्रेनहैमरेज से होने वाली मृत्यु उस न्याय की मृत्यु है जिसके लिए मोहन दास और उसका पूरा परिवार आस लगाए बैठा था. हार कर मोहन दास अपनी अस्मिता, अपना सम्पूर्ण अस्तित्व, अपना स्वाभिमान खोने को तैयार हो जाता है- जिसे बनना हो बन जाये मोहन दास. मैं नहीं हूँ मोहन दास....बस मुझे चैन से जिंदा रहने दिया जाए. अपने अपने घर भरो. लेकिन हमें तो हमारी मेहनत पर जीने दो’’!22अपना सब कुछ खो कर भी मोहन दास जीना चाहता है. सारे डर, भय और नाउम्मीदीयों के खिलाफ. तभी मनुष्य की कभी न चुकने वाली अदम्य जीजिविषा की तरह मोहन दास की यह कहानी भी कभी खत्म नहीं होती. 
  
चंद रोज और मेरी जान,फ़कत चंद ही रोजऔर कुछ देर सितम सह लें, तड़प लें,रो लें...
जिस्म पर कैद है, जज़्बात पे जजीरें हैं
फिक्र महबूस है, गुफ्तार पे ताज़ीरे हैं
अपनी हिम्मत है कि हम फिर भी जिए जाते हैं...
हर घड़ी दर्द के पैबंद लगे जाते हैं
लेकिन अब जुल्म की मीयाद के दिन थोड़े हैं
इक ज़रा सब्र कि फरियाद के दिन थोड़े हैं...
: फैज़़


  संदर्भ सूची-
1. मोहन दास- उदय प्रकाश, पृ. सं.- 07, वाणी प्रकाशन, तृतीय आवृत्ति संस्करण, 2009
2.10प्रतिनिधि कहानियाँ- स्वयं प्रकाश, पृ.सं.- 35, किताबघर प्रकाशन, संस्करण 2008
3. मोहन दास- उदय प्रकाश, पृ. सं.- 10, वाणी प्रकाशन, तृतीय आवृत्ति संस्करण, 2009
4. कविता कोश- रघुवीर सहाय की कवितायें 
5. मोहन दास- उदय प्रकाश, पृ. सं.- 08, वाणी प्रकाशन, तृतीय आवृत्ति संस्करण, 2009
6. मोहन दास- उदय प्रकाश, पृ. सं.- 09, वाणी प्रकाशन, तृतीय आवृत्ति संस्करण, 2009
7. मोहन दास- उदय प्रकाश, पृ. सं.- 08, वाणी प्रकाशन, तृतीय आवृत्ति संस्करण, 2009
8. मोहन दास- उदय प्रकाश, पृ. सं.- 10, वाणी प्रकाशन, तृतीय आवृत्ति संस्करण, 2009
9. मोहन दास- उदय प्रकाश, पृ. सं.- 14, वाणी प्रकाशन, तृतीय आवृत्ति संस्करण, 2009
10. मोहन दास- उदय प्रकाश, पृ. सं.- 14, वाणी प्रकाशन, तृतीय आवृत्ति संस्करण, 2009
11. परसाई रचनावली-1 (सं.मण्डल)- कमला प्रसाद, धनंजय वर्मा, श्यामसुंदर मिश्र, मलय, श्याम कश्यप, पृ.सं.- 37, राजकमल प्रकाशन, चैथा संस्करण, जनवरी 2005
12. मोहन दास- उदय प्रकाश, पृ. सं.- 08, वाणी प्रकाशन, तृतीय आवृत्ति संस्करण, 2009
13. परसाई रचनावली-1 (सं.मण्डल)- कमला प्रसाद, धनंजय वर्मा, श्यामसुंदर मिश्र, मलय, श्याम कश्यप, पृ.सं.- 36, राजकमल प्रकाशन, चैथा संस्करण, जनवरी 2005
14. जनसत्ता- प्रभात पटनायक का आलेख ‘‘नव उदारवाद से उपजी चुनौतियाँ’’, संपादकीय पृष्ठ, दिनांक- 22/2/2014
15. मोहन दास- उदय प्रकाश, पृ. सं.- 08, वाणी प्रकाशन, तृतीय आवृत्ति संस्करण, 2009
16. अंधेरे समय में विचार- विजय कुमार, पृ.सं.- 11, संवाद प्रकाशन, दूसरा संस्करण 2010
17. मोहन दास- उदय प्रकाश, पृ. सं.- 46-47, वाणी प्रकाशन, तृतीय आवृत्ति संस्करण, 2009
18. अंधेरे समय में विचार- विजय कुमार, पृ.सं.- 81, संवाद प्रकाशन, दूसरा संस्करण 2010
19. मोहन दास- उदय प्रकाश, पृ. सं.- 78, वाणी प्रकाशन, तृतीय आवृत्ति संस्करण, 2009
20. मोहन दास- उदय प्रकाश, पृ. सं.- 76, वाणी प्रकाशन, तृतीय आवृत्ति संस्करण, 2009
21. मोहन दास- उदय प्रकाश, पृ. सं.- 77, वाणी प्रकाशन, तृतीय आवृत्ति संस्करण, 2009
22. मोहन दास- उदय प्रकाश, पृ. सं.- 85-86, वाणी प्रकाशन, तृतीय आवृत्ति संस्करण, 2009

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शिप्रा किरण
स्वतंत्र लेखक और अनुवादक

मोबाइल- 7607071662
kiran.shipra@gmail.com

कथा- गाथा : मिथुन : प्रचण्ड प्रवीर



























प्रचण्ड प्रवीर की कहानियों में अक्सर कथा के साथ कुछ ‘बुद्धि-विलास’ के सूत्र भी रहते हैं. वह अपनी कथा की जमीन को पुष्ट करने के लिए दर्शन या प्राचीन साहित्य से भी कुछ सामग्री लिए चलते हैं. यह उनके अध्यवसाय का भी परिचायक है. जो पाठक कथा से कुछ अतिरिक्त बौद्धिक ख़ुराक खोजते हैं उन्हें इससे तोष भी होता है.

मिथुन शीर्षक यह कहानी एक तो आकार में समुचित है मतलब  कहानी की तरह इसे आप एक सिटिंग में पढ़ सकते हैं. अंग्रेजी में कुछ सोच कर ही कहनियों को ‘शॉर्ट स्टोरी’ कहा गया होगा, हिंदी में पहले आकार में लम्बी कहानियों को उपन्यासिका या नॉवेलेट आदि कहा जाता था, पर इधर हिन्दी में न जाने क्यों कहानियों के नाम पर लम्बी कहानियों का ही ज़ोर है.

यह कहानी आर्थिक और सामजिक रूप से कमज़ोर एक बच्चे की है जो अपने दोस्त के जगने का इंतजार उसकी हवेली में कर रहा है. इस प्रतीक्षा में वह जिस अन्तर्द्वन्द्व और तनाव से गुजरता है ,उसका वर्णन  ही इस कहानी का हासिल है.




मिथुन                                   
प्रचण्ड प्रवीर



(मिथुन राशि के पुनर्वसु नक्षत्र में दो तारे हैं. प्राय: सभी प्राचीन सभ्यताओं में जुड़वां या युगल के रूप में इनकी कल्पना की गयी है. इन तारों के यूनानी नाम हैं – कैस्टर और पोलक्स. ये दोनों ज्यूपिटर और लेडा के पुत्र थे. ये दोनों अजेय योद्धा और अभिन्न साथी थे,इसलिये इनके पिता ज्यूपिटर (यानी बृहस्पति) ने इन्हें आकाश में एक-दूसरे के समीप स्थापित कर दिया था. ये दोनों अभिन्नता के प्रतीक माने जाते हैं.)




वाबों के नगर लखनऊ से कुछ पचास मील दूर बसे गाँव में राजेन्द्रनाथ सिंह की जमीन-जायदाद है. किसी ज़माने में इनके पूर्वज कई सौ एकड़ के मालिक थे. फिर घर-परिवार बढ़ा, साथ ही झगड़ा-तकरार भी बढ़ा. बँटवारा होते-होते अब पच्चीस एकड़ की जमीन रह गयी है. खेती में ज्यादा कमाई नहीं रही. समय रहते इसे भाँप कर राजेन्द्रनाथ के दोनों बेटों ने अच्छी पढ़ाई कर के नौकरी कर ली, फिर बंगलौर-पुणे बस गए. बेटियों का ब्याह भी अच्छी जगह हो गया. तीन एकड़ में फैले विशाल पुश्तैनी हवेली में अब राजेन्द्रनाथ अपनी धर्मपत्नी और नौकर-चाकरों के साथ रहते हैं. धान-गेहूँ के बजाय जमीन के बड़े हिस्से पर सागवान उगा रखा है. सागवान की लकड़ी अच्छा मुनाफ़ा देती है.

राजेन्द्रनाथ जी की  चिन्ताएँ बाकी लोग की तरह अनन्त थी, पर इनमें दो प्रमुख चिन्ताएँ इस तरह थीं– 

उनके जाने के बाद इस जमीन जायदाद को कौन देखेगा. बड़ा लड़का सुरेन्द्र के लक्षण ऐसे नहीं लगते कि वो पुणे छोड़ कर वापस इस देहात में आ कर बसे. छोटे वाले लड़के से उम्मीद लगा रखी थी क्योंकि उसकी सैलेरी कम थी. जब अखबार में आईटी कम्पनियों में बड़े पैमाने पर छटनी की खबर देखते, उन्हें यह उम्मीद खुशी से भर देती कि बंगलौर की भीड़-भाड़ और बेकार नौकरी को छोड़कर या वहाँ से निकाल दिए जाने पर छोटा लड़का प्रमोद देर-सवेर वापस गाँव आ जाएगा. कई बार उन्होंने प्रमोद को यह सुझाव भी दिया कि ऐसी छोटी-मोटी नौकरी को लात मारो और यहाँ राजा बन कर रहो. राजेन्द्रनाथ जी की दूसरी चिन्ता थी -

एक पुराना पुलिस केस. जमीन के झगड़े में तैश में आ कर उन्होंने बंदूक उठा कर गोली चला दी थी. लोग उनकी भलमनसाहत नहीं देखते कि दुनाली से निकली गोली केवल छू कर गुज़र गयी थी. बदमाशों ने केस ठोक दिया. अब केस रफा-दफा करवाने में बड़ा लड़का जुटा रहा, जो अभी भी बंद नहीं हुआ है. उचित माध्यमों और बिचौलियों की मदद से दूसरी पार्टी को अच्छे से समझा दिया गया था कि अगली बार अगर गोली चली तो केवल छू कर नहीं निकलेगी. उनकी तरफ़ से एक गवाह था – किशोर लोहार. न जाने उसे कितने पैसे मिले या किसने कसम दी, उसने गवाही में ज्यों का त्यों बोल दिया था. बड़े लड़के के समझाने पर राजेन्द्रनाथ जी ने अपना गुस्से को दबा रखा था. किशोर लोहार को देख कर दाँत पीस कर रह जाया करते थे.


इन सब चिन्ताओं से उनकी धर्मपत्नी विमला देवी को कोई परवाह न थी. वह अपना पूजा-पाठ करतीं. पर्व-त्योहार में किशोर के घर भी बैना भिजवा देतीं.


गर्मी की छुट्टियों में सुरेन्द्र, प्रमोद और बहनें अपने बाल-बच्चों के साथ चार-पाँच दिन बिताने आने वाले थे. प्रमोद की शादी हुए दो साल लगे थे. अभी उसकी कोई संतान नहीं थी. सुरेन्द्र का सात साल का एक बेटा था. उसका नाम उदय था. होश सम्भाले पहली बार अपनी माँ, प्रमोद चाचा और चाची के साथ गाँव आया था. सुरेन्द्र को कुछ काम आ गया, इसलिए उसका कार्यक्रम आखिरी वक्त पर कुछ बदल गया. बहनें और उनके बच्चे भी एक दिन बाद आने वाले थे. इस हिसाब से उदय के पास गाँव में घूमने फिरने बात करने के लिए प्रमोद चाचा के अलावा कोई नहीं था.


गाँव आने के बाद उदय ने एक चीज गौर की. शहर और गाँव में अंतर. अंतर यह था कि शहर में चारो ओर घूम कर देखने पर भी कहीं ऐसा नहीं दीखता जहाँ आकाश-धरती कहीं मिलते हों. हर तरफ़ बिल्डिंग ही बिल्डिंग. गाँव में दूर तक फैले खेत. आकाश का विस्तार बहुत. क्षितिज पर आकाश और धरती मिल जाते नज़र आते. दूसरी चीज जिसने उदय को बहुत परेशान कर दिया था कि यहाँ बिजली हमेशा नहीं रहती. कोई एसी नहीं. बिजली नहीं तो टीवी नहीं चलेगा. मोबाइल भी चार्ज नहीं होगा. उदय को बड़ा तरस आया अपने पापा के बचपन पर.


तीसरी चीज उदय ने पहली बार देखा था, वह था घर का आँगन. सुबह-सुबह राजेन्द्रनाथ जी ने पण्डित बुला रखा था. उदय जब तक उबासी लेता हुआ आँगन में आया, उसकी दादी ने पण्डित जी से पूछा, “यही है हमारा बड़ा पोता. सुरेन्द्र का एक ही लड़का है. हम बोल रखे हैं बेटा-बहू को कि केवल एक से काम नहीं चलेगा. ये लोग मेरी बात सुनता कहाँ है. अब देखिए सात साल का हो गया है. एक भाई-बहन होना ही चाहिए था. इसका कुछ भविष्य बताइए.”



“इतना छोटा बच्चा का कुण्डली देख कर क्या कीजिएगा. अभी इसको रहने दीजिए.” पण्डित जी ने बात टालनी चाही. लेकिन उदय की दादी अड़ गयी, “सुबह-सुबह आए हैं. कुछ तो बताइए. मोटा-मोटी सही.”


“जातक मिथुन राशि का है. बहुत फुर्तीला और चतुर लड़का है. किसी काम में दिल नहीं लगाता होगा. हमेशा खुराफ़ात करेगा. कभी इधर-कभी उधर. अब इसका जन्मदिन आने वाला है न? इसके जन्मदिन पर कथा करवाइए. अच्छा फल देगा.”


इतना सुन कर उदय बाहर निकल भागा. इधर-उधर नज़र डालने पर दूर तक उसे कोई नज़र न आया. किस तरफ़ जाए? सुना है आस-पास कहीं तालाब भी है, जहाँ कमल के फूल खिलते हैं. उदय ने तरकीब लगायी और नाक की सीध में आगे बढ़ने लगा. चलते-चलते सागवान के पेड़ों के पास पहुँचा. उसे महसूस हुआ कि कोई उसे देख रहा है. किसी की निगाहें उसका पीछा कर रही हैं. उसने चौकन्ने हो कर नज़र डाली. दूर एक हमउम्र लड़का भागता हुआ दिखा. कौन था? उसे देख कर भाग क्यों गया?
धूप बढ़ने लगी थी, इसलिए उदय वापस घर लौट आया.


लाल ईंटों से बने किशोर लोहार के मकान की छत खपरैल की थी. तीन कमरों में उसके दो और भाई अपने भरे-पूरे परिवार के साथ किसी तरह गुजारा करते थे. किशोर के दो बेटे-बेटी थे– संगीता नौ साल की और संजय सात साल का. संजय को पता था कि उसका जन्मदिन आने वाला है, लेकिन उसके घर में जन्मदिन मनाने का कोई चलन नहीं था. संजय की दो इच्छाएँ बलवती थी. पहली यह कि किसी तरह उसके जन्मदिन पर उसके घर में भी केक आए और जलती मोमबत्तियाँ फूँक मार कर बुझा दे फिर केक काट कर खाए. इस विचार में सभी महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि उनके पूरे खानदान में किसी ने कभी केक नहीं खाया था. उसके जन्मदिन पर सब पहली बार केक खा सकेंगे. पर यह अभी सम्भव नहीं था, इसलिए जन्मदिन की योजना कुछ सालों के लिए मुल्तवी कर दी गयी थी. संजय की दूसरी ख्वाहिश थी – 


वह थी कार में घूमना. जब-जब राजेन्द्रनाथ के घर से कार निकलती, वह बड़ी हसरत से उसे देखा करता. यह भी नोट कर लिया जाए कि संजय के पूरे खानदान में किसी ने कार में कभी सफर नहीं किया. संजय पहला लड़का होगा जो कार में बैठेगा उसके बाद उसकी बहन संगीता, फिर उसकी माँ, फिर उसके पिताजी, फिर चचेरे भाई-बहन (अगर उन लोगों ने ढंग के कपड़े पहने हो, तो ही).

दोपहर होने से पहले, बाहर धूप में इधर-उधर दौड़ने के बाद संजय ने संगीता को बताया कि हवेली में ‘बाबू साहब’ आए हैं. उनके ही जितने बड़े हैं. संगीता ने सुन कर नाक-भौं सिकोड़ किया. “पैसे वाले बड़े लोग से दूर रहना चाहिए. इनका काम केवल गरीबों को सताना है.”  संजय यह सुन कर अपना मुँह बना लिया. संगीता कुछ समझती नहीं है और संगीता को समझाने का कोई फायदा नहीं होने वाला. किशोर लोहार ने अपनी पत्नी से कहा कि हवेली में घर-परिवार आ गया है. इसका मतलब उसकी दो चिन्ताएँ थी. पहली- गवाही वाले मामले में धमकाने वाले फिर से कुछ न कुछ बोलेंगे. कहीं कोई बवाल फिर न खड़ा हो जाए. कुछ ऊँच-नीच न हो जाए. दूसरी- भट्टी में इतना काम नहीं है. अगर लखनऊ में कोई काम मिल जाता तो अच्छा रहता. सुरेन्द्र बाबू कुछ मदद कर देते तो काम बन जाता. बचपन से देखा है. सहृदय आदमी हैं. अपने पिता की तरह नहीं हैं. गरीब का दर्द समझते हैं. लेकिन उनसे बात कैसी की जाए?


दोपहर के खाने के बाद से ही उदय ने चाचा से बाहर घूमने की रट लगा रखी थी. भयंकर गर्मी देख कर प्रमोद की हिम्मत नहीं होती. भले ही उदय बिना एसी के झल्ला रहा हो, पर इतनी लू में भी बाहर घूमने के खयाल में कोई कमी नहीं थी. माँ, दादी और चाची के मना करने के बाद भी उसके फैसले में कोई परिवर्तन नहीं हुआ. उदय ने प्रमोद चाचा को अपना फैसला सुनाया कि अगर उन्होंने अपने मोटरसाइकिल से नहीं घुमाया तो मजबूरन उसे मोटरसाइकिल को खराब करना पड़ेगा. किस तरह खराब किया जाएगा, वह बाद में ही पता चलेगा. अभी बताया नहीं जा सकता. लगातार योजना, परियोजना, घात-प्रतिघात की बातें सुन कर प्रमोद ने अपना जी कड़ा किया और शाम चार बजे बाहर घुमाने का वादा किया.



पौने चार बजे से ही उदय चाचा की मोटरसाइकिल पर बैठ कर एक्सीलेटर पर हाथ आजमाने लगा. नज़र कमजोर होने के कारण हमेशा चश्मा पहनना उसकी मजबूरी थी. उदय ने सोचा कि जब वो बाइक चलाएगा तब केवल काले चश्में ही पहना करेगा. चार बजने के बाद प्रमोद ने हेलमेट उठाया और अपने पीछे उदय को बिठाया. देखते ही देखते उनकी मोटरसाइकिल हवेली से दूर निकल गयी.


दूर खेत में गेंद खेलता संजय मोटरसाइकिल की आवाज़ से चौंक पड़ा. कच्चे रास्ते को छोड़ कर प्रमोद की मोटरसाइकिल मैदान में उतर कर उसके पास आ गया. मोटरसाइकिल के पीछे से उदय ने संजय से पूछा, “तुम्हारा नाम क्या है?”

“संजय.”


प्रमोद ने उसके घर के बारे में पूछा. जवाब सुन कर प्रमोद ने कहा, ‘अच्छा तुम किशोर के बेटे हो!’ संजय ने हाँ में सर हिलाया. उदय ने पूछा, “तुम मेरे दोस्त बनोगे?” संजय अवाक रह गया. इससे पहले वह कुछ कहता-करता, उदय ने उसे बुलाया, “आओ मेरे पीछे बैठ जाओ. चाचा हमें तालाब ले कर जा रहे हैं.” संजय अपनी खुशी छुपाते हुए कुछ डरते हुए प्रमोद चाचा की मोटरसाइकिल पर चढ़ गया. उदय ने कहा, “मुझे पकड़ लो. गाड़ी तेज चलने पर डर लगेगा.” संजय ने बड़ी नाजुकी से उदय को पकड़ा. लेकिन जैसे ही प्रमोद की मोटरसाइकिल चली, उसने डर के मारे उदय को तेजी से जकड़ लिया.


अगले चार घंटे उदय और संजय ने तालाब देखे. संजय ने तालाब में उतर कर एक कमल का फूल भी तोड़ा. इसके बाद कमल का फूल लिए-लिए मोटरसाइकिल से बड़ी दूर निकल गए. रास्ते में पानी के छोटे नाले मिले. पुराने खण्डहर. टूटे शिवालय. फलों से लदे आम के पेड़. खजूर तोड़ते बच्चे. मोटरसाइकिल रोक कर प्रमोद किनारे बैठा रहा. संजय ने कुछ कच्चे पक्के खजूर ला कर दोनों को दिए. बातों बातों में उदय ने संजय को बताया कि जल्दी ही उसका जन्मदिन आने वाला है. कुछ सोच कर उसने यह भी बताया कि वह मिथुन राशि का है. संजय ने पूछा राशि क्या होती है? उदय ने बताया कि जन्मदिन के आधार पर बारह तरह के लोग होते हैं. हर राशि के लोग आपस में एक जैसे होते हैं. संजय ने अपने जन्मदिन की तारीख बतायी और कहा शायद वह भी मिथुन राशि का है. अपना जन्मदिन मालूम होने के बावजूद प्रमोद को अपनी राशि नहीं मालूम थी, यह जान कर उदय बहुत खुश हुआ. उसने हर जगह मोबाइल से बहुत सी तस्वीरें ली और फौरन अपने पिता जी के भेज दी. इस तरह वापस लौटते हुए उन्हें रात के आठ बज गए.


जब प्रमोद की मोटरसाइकिल संजय के घर के सामने रुकी, उदय ने संजय को कहा, “तुम मेरे दोस्त हो. कल सुबह हम फिर घूमने जाएँगे.” संजय की खुशी का पारवार न रहा. उसके दोनों सपने थोड़े-थोड़े पूरे हो सकते थे. उदय के जन्मदिन पर केक तो कटेगा ही, इसलिए केक खाने को मिल जाएगा. अब जब कल उदय के फुफेरे भाई-बहन आ जाएँगे तो वह कार में घूमेगा. संभव है कि उसे भी कार में घुमाए. यही बाते उसने संगीता को भी बतायी. संगीता ने उसके सर पर हाथ मार के कहा, “तुम बुद्धू हो. अमीर लोग ऐसे ही होते हैं. आज पूछ लिया है. कल शायद न पहचाने.”

संजय ने रूष्ट हो कर संगीता से कहा, “उसने कल सुबह मुझे बुलाया है.”

“बुलाया है?” संगीता ने पूछा.

“हाँ, बुलाया है.” संजय ने ढिठाई से कहा.

“किस समय?” संगीता ने पूछा तो संजय के पास कोई जबाव नहीं था.
 
संगीता ने दोबारा पूछा, “कोई वक्त नहीं बताया?”

संजय ने रोष मे आ कर कहा, “सुबह पाँच बजे.”

संगीता चौंकी, “पाँच बजे?”

“हाँ, सुबह पाँच बजे.” संजय अपने पाँव पटकता हुआ वहाँ से चला गया.


शायद रात भर नींद नहीं आयी थी. हल्की आँख लगती थी और बार-बार टूट जाती थी. संजय घर के बाहर ही सोया था और नींद खुलने पर बार-बार आकाश देखता रहता. जैसे ही पूरब में आसमान थोड़ा साफ होता नज़र आया, वह फौरन उठ खड़ा हुआ. घर में बाकी लोग सो ही रहे थे. सुबह के कामों से फारिग हो कर जब वह बाहर आया, तब तक माँ उठ गयी थी. संजय ने कहा, “हवेली जाना है. उदय ने बुलाया है.”

“इतनी सुबह?” उसकी माँ और कुछ कहती इससे पहले ही संजय उड़न-छू हो गया.


संजय ने आज तक हवेली के अंदर पाँव नहीं रखा था. वहाँ पहुँच कर हवेली के बंद गेट के पास खड़े हो कर वह सोचने लगा कि अब क्या कहा जाए? फिर सोचा, उदय अब तक तैयार होगा और सीधे उसकी मोटरसाइकिल पर बैठ कर घूमने जाना होगा. क्या पता वह देर हो गया हो. कहीं उसे छोड़ कर उदय और प्रमोद चाचा निकल तो नहीं गए? हिम्मत कर के उसने गेट खटखटाया.

उदय की दादी खूब सवेरे उठ कर पूजा-पाठ में लग जाती थी. अभी वह अहाते में फूल ही तोड़ रही थी कि सुबह-सुबह फाटक पर दस्तक से वह भी चौंक पड़ी.

“कौन है?” उसकी आवाज़ पर कोई जबाव नहीं मिला. अचकचाई सी उसने फाटक खोला. सामने किशोर लोहार का बेटा संजय खड़ा था.

“क्या है?” उसने डपट कर पूछा.ऐसी कड़क आवाज़ सुन कर संजय की आवाज़ में बड़ी कातरता आ गयी. उसने कहा, “दादी, उदय ने बुलाया था.”

“उदय ने?”

संजय में साहस वापस लौटा, “हाँ दादी, कल हमलोग प्रमोद चाचा की गाड़ी पर घूमने गए थे. उसने मुझे अपना दोस्त बना लिया है. आज सवेरे बुलाया है.”

“इतनी सवेरे बुलाया है?” उसने आश्चर्य से पूछा.

संजय का दिल धड़क गया. ”हाँ.”

दादी ने कुछ सोच कर कहा, “हाँ, हाँ बुलाया होगा. लेकिन गाँव में एसी कहाँ है? वो रात में देर तक जगा रहा था. अब जब उठेगा तो जाएगा कहीं. तुम बाद में आना.”

यह सुन कर संजय को जैसे मूर्छा आ गयी. घर गया तो संगीता को क्या कहेगा? माँ को क्या बोलेगा? यह सोच कर उसने कहा, “उसके उठने तक हम यहीं इंतजार करते हैं.”

विमला देवी को शहरी बच्चों की आदत मालूम थी. बहुत जल्दी हुआ भी तो नौ बजे. अब देर से सोया है तो दस क्या ग्यारह भी बज सकते हैं. वे संजय से बोली, “अभी उसको उठने में चार-पाँच घंटे लग सकते हैं.”संजय ने जीभ तालु से चिपक गयी. पाँव जमीन में गड़ गए. कुछ बोलते न बना. विमला देवी इतना कह कर फूल लिए अंदर चली गयी. जब बाहर पूजा के बर्तन धोने हैण्डपम्प के पास आयीं, तब भी संजय वहीं खड़ा था. “बात ही नहीं सुनता है. अरे उदय नौ-दस बजे तक उठेगा. तब तक यहाँ क्या करोगे? बाद में आना.”संजय से कुछ न बोला जाय. पूजा के बर्तन धुल गए. उदय की दादी अंदर पूजा करने चली गयी.


करीब एक घंटे के बाद जब उनकी पूजा खत्म हुयी, तब उन्होंने बाहर आ कर देखा. संजय वैसे ही बुत बना खड़ा हुआ था. विमला देवी ने यह देख कर अपना सर ठोंक लिया. “अच्छा, यहीं इंतज़ार करना है तो बता देते. ऐसे कब तक खड़े रहोगे. आओ, अंदर बैठो.” उदय की दादी के इतना कहते ही संजय उनके पीछे पीछे अहाते को पार कर के बैठक में आया. विमला देवी ने इशारे से अंदर बुलाया. आंगन में एक मोढ़ा दे कर बैठने को कहा. “बैठक में बैठोगे तो साहब जी गुस्सा करेंगे. तुम यहीं बैठो.”


तभी उधर से सफेद धोती पहने राजेन्द्रनाथ सिंह घूमते हुए आंगन में आए. अपनी रौ में बोलते रहे, “गैया दुहा गयी कि नहीं? सुनो जी, दोपहर तक जमाई बाबू और बच्चे आ जाएँगे.” उनकी नज़र संजय पर पड़ी. “कौन है ये?” फिर खुद ही संजय से पूछे, “कौन हो तुम जी?”

रौब-दाब वाले साहब जी से संजय काँप गया. मुँह से इतना ही फूटा, “हम उदय के दोस्त हैं.”

उधर से विमला देवी बाहर आयी और बोली, “अरे, यह किशोर लोहार का बेटा है. कल प्रमोद उसके गाड़ी पर घुमा दिया था. आज उदय इसको बुलाया है, इसलिए इंतज़ार कर रहा है.”

“उदय को सिखाई नहीं हो कि लोहार के बेटा से दोस्ती नहीं करते? दोस्ती दुश्मनी सब बराबर वालो के साथ होता है. सुरेन्द्र बाहर रह कर संस्कार भूल गया है. कुछ सिखाया ही नहीं होगा बेटा को. खैर, ऐसे ही गाँव आते रहेगा तो हम सिखा देंगे.” फिर संजय की तरफ़ देख कर बड़बड़ाए, “हम उदय के दोस्त हैं! अरे तुम क्या, हम भी उदय के दोस्त हैं. सारा ज़माना उदय का दोस्त है. हुह... हम उदय के दोस्त हैं!”


संजय चुपचाप सुनता रहा. आंगन में बैठा वह देखता रहा कि गाय दुहाने के बाद दूध कहाँ रखा जा रहा है. पूजा का प्रसाद बँट रहा है, पर उसे किसी ने नहीं पूछा. कुछ देर बाद उदय की माँ और चाची भी उधर से गुजरे. सवालिया निगाहों से देख कर आगे बढ़ गयीं. बैठक में कुछ लोग आए. वहाँ चाय पहुँचाया जा रहा है. नाश्ता पहुँचाया जा रहा है. बैठक से तेज़ आवाज़ रही है- “अगर बदमाश किशोर गवाही नहीं दिया होता तो केस कब का खत्म हो चुका होता.“ “एक-आध बार पिटवा दीजिए न.” “उन लोग अभी बीस चल रहे हैं.” “पकौड़ी बहुत स्वादिष्ट बना है साहब जी.”


मोढ़े पर बैठे संजय के पाँव दुखने लगे. अब तेज भूख भी लग रही थी. लेकिन घर जाए तो क्या बोलेगा? अभी अगर उदय उठ गया और पता चले कि संजय आ कर चला गया तो क्या सोचेगा? विमला देवी उधर से गुज़र रही थी और संजय को देख कर बोले, “हाय राम! इस लड़के ने कुछ न
हीं खाया.“


संजय को बहुत अच्छा लगा जब उसे एक छोटे गिलास में भर कर चाय दी गयी. अंदर से कुछ फुसफुसाहटें आयी. उसके बाद उसके लिए थाली में कुछ बिस्कुट भी आए. बिस्कुट खत्म करने के बाद एक बार फिर से गरम चाय उसके गिलास में भर दी गयी. उदय की चाची ने उदय की माँ को संजय की तरफ़ इशारा कर के कहा, “यह उदय का दोस्त है. उदय के उठने का इंतज़ार कर रहा है.”संजय को एकबारगी बड़ी शर्म आयी. खुद को समझाते हुए वह चुपचाप बैठा रहा. किसी ने उससे नहीं पूछा कि उसने कल किस जतन से खजूर तोड़े. किसी को क्या पता कि उसने तालाब में घुस कर कमल के फूल तोड़े. संजय खुद को समझाने लगा कि अगर उदय न होता तो वह क्या कर रहा होता? बाबू के भट्टी के लिए कोयला ला रहा होता. या किसी भैंसे की सवारी कर रहा होता.उससे अच्छा यहाँ आराम से बैठा है.

बैठक में शायद पण्डित जी आए हुए थे. किसी के विवाह की बात चल रही थी. संजय ने सुना कि लड़की पुनर्वसु नक्षत्र की है, यानी कि मिथुन राशि की. उसके मन में आया कि अगर उदय की माँ ने कुछ भी पूछा तो यह पहले बता दिया जाएगा कि उसका भी जन्मदिन आने वाला है. उदय और वह दोनों मिथुन राशि के हैं. लेकिन हाय, सुबह से बैठे-बैठे साढ़े तीन घंटे हो गए. किसी ने उससे फिर कुछ न पूछा.


जैसे थान में अनाथ बछड़ा को कोई नहीं पूछता, वैसे ही अब आते-जाते नौकर और लोग की नज़र उसे पार कर के चली जाती. किसी को मतलब नहीं है कि वह उदय का दोस्त है.

किसी का फोन आया और विमला देवी दौड़ी-दौड़ी साहब जी के पास गयी. साहब जी झट से कुर्ता पहन कर बाहर निकले. कोई मिलने आया था. वहाँ आवभगत होने लगी. संजय चुपचाप बैठा रहा. उठ कर वापस चला जाए? उदय से बाद में बात कर ली जाएगी. नहीं, थोड़ा और रुक जाते हैं. संजय ने दूर नज़र दौड़ा कर देखा. सामने वाले पहली मंजिल के कमरे में उदय सो रहा होगा. क्या खुद जा कर उसे उठा दिया जाए? नहीं, नहीं, लोग क्या कहेंगे? अभी तो उसके बाबू जी को पीटने की बात कर रहे थे. क्या पता उसे भी चोर समझ ले. उदय न समझेगा. दोस्त है न!

दस बजने को आए. संजय को बैठे-बैठे पाँच घंटे हो गए थे. अचानक घर में गहमागहमी बढ़ गयी. द्वार पर कुछ गाड़ियाँ आ लगी. उदय की बुआ और उसके फुफेरी बहनें आ गयी. उदय की माँ और चाची गले लगने लगीं. हँसी-ठहाके लगने लगे. संजय मोढ़े पर से उठा और दरवाजे तक जा कर उन लोग का गले मिलना देखता रहा. उसे ऐसे देखता देख कर उदय की दादी बोली, “ऐ संजय. जाओ, सामने वाले घर के पहली मंजिल पर उदय सो रहा होगा. उसको उठा कर बोलो की फुआ आ गयी है. उसको ले कर आना.”

यह सुनते ही संजय में अद्भुत उत्साह का संचार हुआ. झट से वह अंदर आंगन को पार करते हुए सामने वाले घर में सीढ़ियाँ चढ़ते हुए उदय के रूम में दाखिल हुआ.


उदय अभी तक सो रहा था.


संजय ने अपने दोस्त को हलके से झिंझोड़ा, “उदय, उदय. उठो.” उदय ने उबासी लेते हुए अंगड़ाई ली. “अरे तुम!” वह खुशी से फूला न समाया. “तुम कब आए?”

संजय ने खुशी से बताया, “सुबह पाँच बजे से तुम्हारे उठने का इंतज़ार हो रहा है. लेकिन अभी तुम्हारी फुआ आयी हैं और तुम्हारी फुफेरी बहनें.”


“क्या? रश्मि दीदी आ गयी?” उदय खुशी से उछल पड़ा. वह बिस्तर से उतर कर भागा. संजय उसके पीछे-पीछे भागता हुआ नीचे सीढ़ी उतरा. लेकिन उदय कुछ ज्यादा ही तेज था. संजय भागते-भागते ठोकर खा कर गिर पड़ा. लेकिन तब तक उदय बहुत आगे निकल चुका था. उठ कर धूल झाड़ते हुए जब तक संजय दरवाजे तक आया, उसने देखा कि उदय अपनी फुफेरी बहनों से बातें कर रहा था. उनके पास पहुँच कर संजय कुछ देर तक चुपचाप खड़ा रहा.


उदय की जब उस पर नज़र पड़ी उसने झट से कहा, “अरे सुनो. आज मैं रश्मि दीदी और नीलम के साथ खेलूँगा. तुम कल सुबह आना फिर हमलोग घूमने चलेंगे.”

संजय का दिल एकदम से बुझ गया. उसे फिर संगीता की बात याद आयी. जी कड़ा कर के उसने पूछ लिया, “कल सुबह कितने बजे!”

संजय की आवाज़ रश्मि और नीलम के ठहाकों में दब गयी. उदय ने रश्मि और नीलम को अपने मोबाइल पर कुछ दिखा रहा था. संजय चुपचाप अपने कदम पीछे करता हुआ धीरे धीरे फाटक की ओर बढ़ गया.


फाटक से बाहर निकल कर बड़ी तेजी से अपने घर की तरफ़ दौड़ पड़ा. अगर उदय भूले से भी आवाज़ दे तो उसकी आवाज़ उसके कानों में न पड़े. दौड़ते -दौड़ते उसका दिल बैठने लगा. उसे संगीता की बात याद आयी – “
अमीर लोग ऐसे ही होते हैं. आज पूछ लिया है. कल शायद न पहचाने.“


घर पहुँच कर वह इधर उधर बाहर ही टहल रहा था कि संगीता ने उसे अंदर बुलाया.
“क्या हुआ? कहाँ गए घूमने?” अंदर आते ही पहला सवाल.

संजय ने कहा, “शहर के लोग ज्यादा घूम नहीं सकते न. इसलिए घर पर बैठ कर लूडो खेल रहे थे.”

“दो लोग में?”

“केवल लूडो नहीं मोबाइल पर वीडियो गेम भी होता है. तुमको सब थोड़े ही पता है.” संजय ने परेशान हो कर झल्लाते हुए कहा. संगीता ने उसे अनसुना करते हुए कहा, “कुछ खाए तो नहीं होगे. अब तुम नहीं आते तो माँ तुम्हें खाने के लिए बुलाने ही वाली थी. खाना खा लो फिर कहीं जाना खेलने.”

संजय ने कहा, “नहीं अब शायद खेलने न जाऊँ.”

“क्यों जी भर गया?” संगीता ने पूछा.

“जिसे खेलना है वह मेरे पास आएगा. मैं क्यों जाऊँ किसी और के पास.” संजय ने तुनक कर कहा. संगीता कुछ न बोली.


शाम में संजय अपने घर के पास कंचे से खेल रहा था कि दूर से एक बड़ी कार आती दिखाई दी. संजय झट से उठ कर अंदर जाने लगा. गाड़ी के रूकते ही अंदर से उदय निकला और उसने आवाज़ लगायी, “दोस्त. हमें तालाब घुमाने नहीं ले चलोगे?” संजय ने घर की चौखट पर से बाहर देखा. प्रमोद चाचा ड्राइवर की सीट पर थे. अंदर से रश्मि और नीलम उसे देख कर मुस्कुरा रहीं थी.
(विष्णु खरे द्वारा संपादित इन्द्रप्रस्थ भारती के नये अंक में भी प्रकाशित')
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सबद भेद : अनुपस्थिति के साये (मुक्तिबोध ) : आशुतोष भारद्वाज































स्मरण
गजानन माधव मुक्तिबोध                               
(१३ नवम्बर १९१७ – ११ सितम्बर १९६४)


मुक्तिबोध को दिवंगत हुए पांच दशक से अधिक हो गए हैं पर आज भी हिंदी कविता की चर्चा उनके ज़िक्र के बिना पूरी नहीं होती है. ११ सितम्बर को हम उनकी पुण्यतिथि मनाते हैं.

मुक्तिबोध २० वीं सदी के हिंदी के बड़े कवि हैं. कविता ही नहीं आलोचना के क्षेत्र में भी उनका कार्य स्थायी महत्व का है.

आपने मुक्तिबोध की कविताओं में क्या कभी प्रेम की कुछ कविता पढ़ी हैं ? उनकी कविताओं में आश्चर्यजनक रूप से प्रेम कविताएँ लगभग अनुपस्थित हैं.


अंग्रेजी के पत्रकार और हिंदी के लेखक आशुतोष भारद्वाज ने मुक्तिबोध की कविताओं में प्रेम की अनुपस्थिति पर ख़ास समालोचन के पाठकों  के लिए यह लेख तैयार किया है. आशुतोष कुछ गिनती के अध्येताओं में है जो संजीदगी से लिखते हैं और हरबार कुछ नवोन्मेष लिए रहते हैं.     













परख : पदमावत (पुरुषोत्तम अग्रवाल) : अखिलेश


















मलिक मुहम्मद जायसी (१३९८-१४९४ ई.) के महाकव्य 'पदमावत'पर कथित तौर पर आधारित भंसाली की फ़िल्म पदमावत के दयनीय और भूहड़ निर्माण और उस पर हुए हिंसक और आपराधिक प्रदर्शन के बाद इस कृति को पढ़ने की फिर से जरूरत बनी है.

महत्वपूर्ण आलोचक  पुरुषोत्तम अग्रवाल की अंग्रेजी में लिखी कृति प्रेमकथा का महाकाव्य : पद्मावत’ एक तरह से इसकी क्षतिपूर्ति की तरह है. जायसी के उदात्त मंतव्य और इस महाकाव्य के विमोहित करते सौन्दर्य को उद्घाटित करने का यह विनम्र प्रयास जितना साहित्यिक है उतना ही सांस्कृतिक भी. बड़े अर्थों में राजनीतिक भी.

चित्रकार और लेखक अखिलेश का यह लेख ख़ास आपके लिए.




साधारण  भव्यता                                         
अखिलेश 




पिछले दिनों पुरुषोत्तम जी का फ़ोन आया और उन्होंने कहा कि आपके लिए पद्मावत भेजी है पढ़कर बताना कैसी लगी. अब मैं इन्तजार में था और पद्मावत नहीं आ रही थी. कारण व्यक्ति की व्यस्तता थी. ग्वालियर से भोपाल आने में उसे एक माह का समय लगा और मैंने पढ़ना शुरू किया. मैं कोई विशेषज्ञ नहीं हूँ किताब पर टिपण्णी करने के लिए और न ही मुझे कोई दक्षता हासिल हैं ऐतिहासिक विषयों पर बात करने की. इसका छोटा सा कारण समय है जिस पर मुझे कभी क्रमानुसार भरोसा करने का मौका ही  न मिला न मैं लेना चाहता हूँ.

मैं उस अवकाश में रहता हूँ जहाँ समय का भान भर है. खैर देवदत्त पटनायककी विशिष्ट प्रस्तावना और सच में साधारण रेखांकनो से सजी? यह पुस्तक मेरे लिए एक नया अनुभव ले आयी. पहली बार किसी पुस्तक को पढ़ते हुए दूसरी पुस्तक तक पहुँचने का अनुभव हुआ और मैं उदयनसे वासुदेवशरण अग्रवाल की 'पदमावत'ले आया.

इसी बीच बहु-पिटित संजय लीला भंसालीकी फिल्म पद्मावतभी देखने का मौका मिल गया. सूर्यवंशम की तरह ये फिल्म भी टीवी पर रोज आ रही थी. अत: एक दिन देख ही ली. यह एक साधारण फिल्म थी जिसमें भव्यता पाने की, लाने की भरसक  कोशिश की गयी थी और इसी कारण यह अत्यन्त गरीब फिल्म लग रही थी. इस फिल्म को देखते हुए मुझे लगा कि भव्यता बाहरी नहीं है उसका भीतर उजला है या उसमें उजास भरी हो तब भव्यता के दर्शन सम्भव है.

भारी भरकम सेट लगाने और नकली जेवरात पहनाने से designer film बन सकती है किन्तु उसमें छिपी अंदरूनी गरीबी दर्शक तक पहुँच ही जाएगी. ये समय फिल्म के लिए नक़ल का समय है जहाँ हॉलीवुड से होड़ है किन्तु धैर्य नहीं है कि क्लियोपेट्राया बेनहरजैसी फिल्म रच सकें. ये फिल्में भी आज की फिल्में नहीं है जब संजय जी का जन्म हो रहा था उस समय या उसके पहले की होंगी. संक्षेप में भव्यता का सिर्फ एक उदाहरण देना चाहूँगा जिससे बात लौट कर 'पद्मावत'पर आ सके.

यदि आपने महाबलीपुरमके मंदिरोंऔर शिल्पों को देखा है तब उसकी साधारण भव्यता और भीषण विशालता का अनुभव जरूर किया होगा. भारतीय शिल्प कला के ऐसे अनेक उदहारण हैं जिनमें प्रकृति के साक्ष्य में उन्हें रचा गया है और उनकी रचनात्मकता में अनगढ़ता ही उसका नैसर्गिक सौन्दर्य है जिसकी शानदार सचाई आपका मन मोह लेती है.



फिलहाल 'पद्मावत'जिसे पढ़कर मैं उस महाकाव्य की काल्पनिकता से अभिभूत हूँ जो पंद्रहवीं शताब्दी का आधुनिक काव्य है. उसकी आधुनिकता इस तरह भी है कि वो समय कीलित काव्य नहीं है उसकी आधुनिकता हर समय के मूल्यों पर खरी उतरती है. वह प्रेरणादायी अनूठा काव्य है. उसके अनेक अर्थ हैं और उसके अनेक पाठ किये जा सकते हैं. पुरुषोत्तम जी ने पद्मावत का ज्यादा सटीक और तथ्यपरक पाठ लिखा है. इस पाठ में काल्पनिकता और ऐतिहासिक प्रमाण दोनों ही साथ साथ पढ़ने को मिलतें हैं और अपना कोई निर्णय पुरुषोत्तम जी अपनी तरफ से नहीं थोपते हैं. उनका पठन काव्य केन्द्रित है और एक काव्य की यह ताकत है कि वह किसी मान-मर्यादा की  विश्वसनीयता से ज्यादा कल्पना के संसार में डूबा हुआ होता है. सचाई से कोसो दूर वो अपनी सचाई रचता है. उस मायने में यहाँ पुरुषोत्तम जी की विशेषज्ञता को उजागर करता यह एक निर्दोष पाठ है इसकी ताईद करते हुए देवदत्त जी लिखतें हैं-


"Prof. Agrawal demonstrates how this poem has nothing to do with history, religion, or God, or hatred, or invasion, or honour. We find no trace of of the right wing's 'thousand years of slavery' discourse or the left-wings 'Brahmanical hegemony' discourse. It is simply an incredible ode to love, where characters happen to be Rajput, Brahmin and Muslim. Their nobility or cupidity is a function of their personality, not their identity."

ऐसा नहीं है कि इस तरफ पुरुषोत्तम जी का ध्यान न गया हो वे लिखते हैं

"Jayasi never meant to write history. His poem is a work of creative, imaginative literature woven around an episode in history. He transforms that episode and its legend into rich, intricate tapestry of love, desire, struggle and sacrifice."

यह जो भेद है जिसकी तरफ इशारा लेखक कर रहा है वो उसी साधारण भव्यता और नकली सजावट का फर्क है. इतिहास हमेशा बाद में लिखा गया टेक्स्ट है जिसका वर्तमान लिखे जा रहे  शब्द हैं. कविता हर वक़्त पढ़ने वाला सत्य है जो समय के साथ अपना 'आधार'बदलने की क्षमता रखता है. इतिहास लिखने वाला जानता है कि उसके लिखे का आधार झूठ है इसलिए वो सजावटी सामान लगाता है उसमें शौर्य, वीरता, भव्यता, झूठी तारीफ़ के सलमें-सितारे टाँकता है और कवि आत्म अनुभव की शुद्धता और कल्पना की ऊँची उड़ान से उस भव्य का वर्णन करता है जो बरसों बाद भी अपनी साधारण भव्यता से पाठक को अभिभूत कर सकने की क्षमता रखती है.

इस पाठ में हमारा ध्यान लेखक उस तरफ भी ले जाता है जो पाठ के पीछे का है उसके अनगिनत संकेत जिनकी तरफ़ जायसी ने इशारा भी नहीं किया किन्तु एक अच्छे काव्य का गुण है कि वो अपने समय का कुछ सच छिपाए रहता है. पुरुषोत्तम जी की विद्वत्ता इन इशारों को पाठक के सामने धीरे से खोलकर अगली व्याख्या की तरफ़ मुड़ जाती है. वे इस तरह के अनेक ग्रन्थ, काव्य, चरित, समय से उपजे विवादों, लेखकों और पाठ के प्रमाणों के साथ जायसी के पदमावत की उस धीर-गंभीर प्रेम कहानी को चित्रित करते जाते हैं जिसमें शौर्य, त्याग, बलिदान, स्वतंत्रता, दोस्ती, डाह, जलन, विद्वेष, छल-कपट, सूफ़ी, युद्ध, बदला आदि अनेक बातों का वर्णन है. जिससे आम पाठक सम्भवतः चूक सकता है. वे पण्डित की तरह इस पाठ को खोलते चलते हैं.


चित्रकला में यथार्थ को लेकर हमेशा से टकराव रहा कि किस यथार्थ का चित्रण हुआ जाता है दृश्यजगत का, या कुछ और है जिसे हासिल किया जाता है. 'सेजा'ने जब ये कहा चित्र किसी और के नहीं अपने बारे में हैं तब से लेकर अब तक चित्रकला के क्षेत्र में यथार्थ की सुनामी आयी हुई है. इसके बीच पिकासो ने बहुत ही खुबसूरत ढंग से इसे कहा कि हर कल्पना यथार्थ है. यथार्थ से इस तरह का टकराव कविता में होता होगा जहाँ पद्मावत को वास्तविक मानकर उस काव्य कल्पना को हत्याओं का सबब बनना पड़ा. किन्तु एक सच उसमें शुरू में ही कह दिया जाता है जिसका मुरीद हुए बिना कोई पाठक नहीं रह सकता और ये सच लेखक ने यहाँ इस तरह रखा है.

मुहमद बाई दिसी तजी एक सरवन एक आँखिं.
जब ते दाहिन होई मिला बोलू पपीहा पाँखि..

Historians have reconstructed Jayasi's life from Sufi tazkiras (descriptions), legends and various traditions and hints given by the poet himself. It emerges that his was not 'happy' life. He the suffered from smallpox in early childhood, which resulted in him losing his left eye and being permanently short of hearing in the left ear. He gives his physical condition a movingly poetic twist in the course of narrative: 'Since my beloved looked at me and spoke to me on my right side. I myself give up my left eye and ear.'

और साथ ही लेखक यहाँ एक और कवि सूरदास की याद भी दिलातें हैं:


There is a story about great poet Surdas who was also blind. He was granted eyesight briefly and saw Krishna and Radha. He requested them to make him blind again as he did not want his vision, purified by their darshan, to be used for worldly affairs.

जायसी और सूरदास का दिव्यांग होना यथार्थ और कल्पना साथ साथ है. एक सांसारिक सच है एक काल्पनिक. सच दोनों हैं. इसी सच की बुनियाद पर पद्मावत आगे बढ़ता है और पाठक एक नये संसार में खुद को पाता है.

पुरुषोत्तम जी बधाई के पात्र हैं जिन्होंने बहुत ही ख़ूबसूरत ढंग, प्रांजल रोचकता से प्रमाणिकता को बनाये रखते हुए बिलावजह विवादित हुए महाकाव्य को उसकी गरिमा और उसके गूढ़ अर्थों को खोला है. उनका ये उपक्रम अनेक पाठकों को रोमांचित करेगा और शायद वे भी परिचित हो सकेंगे उस भव्यता से जो भीतरी है जो हासिल नहीं की जा सकती जिसे वरदान की तरह पाया जा सकता है. जो रोजमर्रा के साधारण तथ्यों में ही बसती है जिसे बनावट की नहीं बुनावट की जरूरत है. वो इस नकली सांसारिक, या इस माया-रूपी जगत की नहीं है वो इस दुनिया को उसके कार्य व्यापार को इसके बनाये अनेक नियमों को कुछ इस तरह से देखती है कि वे दूसरी दुनिया के लगने लगते हैं. उनमें जादुई तत्वों का समावेश हो जाता है. वे अ-लोकिक हो जाते हैं. साधारण सी बात ही अ-साधारण हो जाती है.  
मेरी समस्या 'कल्पना'है और एक बार खुल जाने के बाद मुझे खुद को पकड़ना पड़ता है रोकना पड़ता है ताकि पाठ का स्वास्थ्य बना रहे. मैं बहुत ही संकोच में यह सब लिख रहा हूँ जिसके योग्य होने के लिए मुझे अंग्रेजी भी जानना चाहिए और अवधी भी. 
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सबद भेद : अनुपस्थिति के साये (मुक्तिबोध ) : आशुतोष भारद्वाज































स्मरण
गजानन माधव मुक्तिबोध                               
(१३ नवम्बर १९१७ – ११ सितम्बर १९६४)


मुक्तिबोध को दिवंगत हुए पांच दशक से अधिक हो गए हैं पर आज भी हिंदी कविता की चर्चा उनके ज़िक्र के बिना पूरी नहीं होती है. ११ सितम्बर को हम उनकी पुण्यतिथि मनाते हैं.

मुक्तिबोध २० वीं सदी के हिंदी के बड़े कवि हैं. कविता ही नहीं आलोचना के क्षेत्र में भी उनका कार्य स्थायी महत्व का है.

आपने मुक्तिबोध की कविताओं में क्या कभी प्रेम की कुछ कविता पढ़ी हैं ? उनकी कविताओं में आश्चर्यजनक रूप से प्रेम कविताएँ लगभग अनुपस्थित हैं.


अंग्रेजी के पत्रकार और हिंदी के लेखक आशुतोष भारद्वाज ने मुक्तिबोध की कविताओं में प्रेम की अनुपस्थिति पर ख़ास समालोचन के पाठकों  के लिए यह लेख तैयार किया है. आशुतोष कुछ गिनती के अध्येताओं में है जो संजीदगी से लिखते हैं और हरबार कुछ नवोन्मेष लिए रहते हैं.     




अनुपस्थिति    के  साये                                  
आशुतोष भारद्वाज



मुक्तिबोध की सृजनात्मक सृष्टि तीन प्रमुख भावों से निर्मित और नियंत्रित होती है. पहला, उनके काव्य में प्रेम और स्त्री लगभग अनुपस्थित हैं. (नेमिजी द्वारा सम्पादित उनकी रचनावली में उनकी कवितायें और कहानियां तीन खंड यानि करीब तेरह सौ पन्नों में फैली हुई हैं लेकिन स्त्री, प्रेमिका ही नहीं, बतौर अन्य रूपों में भी लगभग गायब है.)

दूसरा, इस काव्य की कामना यानि इसकी ईड पर लेखक के आदर्श यानि सुपर ईगो का अंकुश है. 

तीसरा, इसका क्रांतिगामी नायक किसी भी ऐसे कर्म को हेय मानता है जो क्रांति के पथ पर न जाता हो लेकिन खुद ऐसे कर्म (साहित्य लेखन) में लिप्त है जो उसके अनुसार क्रांति को सीधा संबोधित नहीं है. लेखन अपने में एक क्रांतिकारी कर्म हो सकता है इससे वह अनजान है, या अनजान बने रहना चाहता है. 

ये भाव मुक्तिबोध की कविता को क्या स्वरुप देते हैं, यह निबंध उसकी पड़ताल है. इसके बहाने यह निबंध उनकी रचनात्मक कल्पना के किसी सुदूर झरोखे से चुपचाप झाँकती हुई स्त्री को केंद्र में लाने का प्रयास करता है, और किसी रचना में स्त्री की उपस्थिति के मायने को भी परखना चाहता है.





नकी रचनावली में अठारह उन्नीस की उम्र तक लिखी कुल तीन या चार प्रेम कवितायें हैं, इसके बाद एक प्रेम कविता छब्बीस सत्ताईस में लिखी गयी है. तैंतीस की उम्र की एक कविता तम छायाओं कोमें एक उचटती सी पंक्ति आती है जिसमें प्रियेसंबोधन इस्तेमाल होता है, उनके काव्य में इस शब्द की यह एक दुर्लभ उपस्थिति है, लेकिन कवि तुरंत बतला देता है कि यह संबोधन उसे विचलित करता है, और वह इस पर प्रश्न भी खड़ा कर देता है.

किन्तु सत्य है प्रिये (प्रिय कहते ही तत्क्षण छाती में होती है धक् धक्)
क्योंकि न न्यायोचित, संबोधन पूर्ण रिक्त है.

अपनी आगामी कविता में कवि इस विडंबना को स्पष्ट कर देता है जब वह कहता है ---

पुरुष हूँ, आँसू मैं गिरा नहीं सकता हूँ
इसलिए सूने में, सूने में तकता हूँ....मेरी इन आँखों को देख अगर पाओ तुम, समझोगी कि जिंदगी में कहाँ हूँ अटकता हूँ.

पुरुष हूँ इसलिए आँसू नहीं गिरा सकता. इसका क्या अर्थ है? क्या साम्यवादी क्रांति का आदर्श, जैसा कि मुक्तिबोध और कई अन्य कामरेड इसे समझते थे या समझते हैं, एक अति पौरुषेय प्रत्यय है, जिसमें आंसू और स्त्री की जगह नहीं है? भारत के मध्य भाग में एक विशाल गुरिल्ला सेना कई दशकों से राज्य के विरुद्ध सशस्त्र क्रांति की जंग लड़ रही है. इस सेना के नियम बड़े कठोर हैं. प्रेम पर सख्त पहरा है, संतान का जन्म तो अपराध है.



(दो)

किसी रचना में स्त्री की उपस्थिति के क्या मायने हैं? क्या यह अनुपस्थिति किसी रचना को अधिक पौरूषेय बनाती है? किसी रचना का स्त्री तत्व क्या उसके पुरुष तत्व से भिन्न होता है? यह इस प्रश्न से एकदम अलग है कि स्त्री लेखन और पुरुष लेखन में कोई फर्क है या नहीं .

स्त्री पुरुष का विलोम नहीं है, प्रतिरूप भी नहीं लेकिन वह उससे एक इतर संसार जरूर है. मानव व्यवहार व चेतना के कई गुणों को स्त्री और पुरुष के आदि गुण माना जाता रहा है. कोमलता, माधुर्य,करूणा इत्यादि को स्त्री पर आरोपित कर दिया जाता है, हिंसा, क्रूरता, शक्ति को पुरूष पर. लेकिन यह गुण दोनों में ही कमोबेश उपलब्ध हैं.

लेकिन दोनों भिन्न सत्तायें हैं, शायद इसलिये कि सामाजिक-सांस्कृतिक भेद की वजह से दोनों के अनुभव संसार में गहरा फर्क रहा है. चूँकि मनुष्य अपने अनुभवों की निर्मिति है, स्त्री पुरुष का भेद उनके अनुभवों के आइने से देखा जा सकता है.

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(The Corinthian Maid", Joseph Wright of Derby, 1784)

अनुभव के इसी भेद को वर्जिनिया वुल्फअपने निबंध ‘अ रूम ऑफ वंस ओन’में रेखांकित करती हैं जब वे जॉर्ज एलियटऔर जेन ऑस्टिनजैसी लेखिकाओं का जिक्र करते हुये कहती हैं कि अगर टॉलस्टायने अपना जीवन किसी परिवार में, बाकी दुनिया से कट कर बिताया होता तो वे युद्ध और शांति कभी न लिख पाते. वे लिखती हैं:

जिस समय (जॉर्ज एलियट एक घर की दीवारों के भीतर ही सीमित थीं) यूरोप के दूसरे छोर पर एक युवक उनमुक्त जीवन जी रहा था, कभी इस जिप्सी के साथ, कभी उस अद्भुत स्त्री के साथ; वह रणभूमि में जाता था; मानव जीवन के तमाम अनुभवों को निर्द्वंद्व होकर, समूचे आवेग के साथ जीता था, और जब वह अर्से बाद अपनी किताबें लिखने बैठा तो इन अनुभवों ने उसकी लेखनी को विलक्षण ढंग से समृद्ध किया.


जब मार्गरेट ड्यूरासत्तर पार कर चुकी थीं, एक साक्षात्कार में पूरी शक्ति से कहती हैं:  
पुरुष की सृष्टि में स्त्री कहीं अन्यत्र होती है, एक ऐसी जगह जहाँ पुरुष अपनी इच्छा से ही आता-जाता है.

इसके बाद वह समलैंगिक पुरुष लेखकों पर टिप्पणी करती हैं:

किसी समलैंगी के साथ हुए प्रेम में वह मिथकीय, शाश्वत अनुभूति नहीं होती जो सिर्फ विपरीत लिंग के साथ ही घटित होती है  इसलिए साहित्य को --- आप सिर्फ प्रूस्त का ही उदाहरण ले लें --- समलैंगिक उन्माद को विपरीत लिंग में परिवर्तित करना ही पड़ा --- अल्फ्रेड को अलबर्टाइन, स्पष्ट कहें तो. जैसा कि मैंने पहले भी कहा है, इसलिए मैं रोलां बार्थ को महान लेखक नहीं मानती: कोई चीज थी जो उन्हें सीमित करती थी, मानो जीवन का प्राचीनतम अनुभव उन्हें छुए बगैर ही चला गया, स्त्री का यौनिक अनुभव.


गौरतलब है कि ऐसा कहते वक्त वे तमाम पुरुष और स्त्रियों के साथ जीवन बिता आयीं थीं. लेकिन उन्होंने यह भी जोड़ा कि 


लिखते वक्त मैं खुद से यह प्रश्न नहीं पूछती कि स्त्री संवेदनशीलता के क्या मायने हैं. एक महान चेतना उभयलिंगी होती है. कला को किन्हीं अर्थों में स्त्रेण बनाने का प्रयास स्त्री की बहुत बड़ी भूल है.

अनेक लेखिकाएं यह मत साझा करती हैं. मसलन कृष्णा सोबती अर्द्धनारीश्वर के प्रत्ययमें आस्था रखती हैं जो रचना के लम्हों में रचनाकार के भीतर उतर आता है. इस लेखक के साथ एक साक्षात्कार में उन्होंने खुद को स्त्री लेखकमानने से इंकार करते हुए कहा:

मैं स्त्री लेखन को नहीं मानती. सिद्धांतकार भले ही किसी कृति को इस संकीर्ण ढंग से परखें, लेकिन मेरे लिए कोई महान कृति स्त्री और पुरुष दोनों तत्व लिए रहती है..

ये तीनों कद्दावर लेखिकाएं --- वूल्फ, ड्यूरा और सोबती --- पुरुष और स्त्री के अनुभव जगत की भिन्नता को स्वीकारती हैं लेकिन ज़ोर देती हैं कि महान कलाकार संस्कृति द्वारा आरोपित लिंग भेद से परे निकल जाते हैं.

इसलिये जब कोई पुरुष किसी स्त्री को बरतता है, जीवन या कविता में, तो वह अपने से इतर अनुभव जगत से संवादरत होता है. एक लगभग अनदेखे-अनजाने प्रदेश में प्रवेश करता है, उसके तंतुओं को खोलता-टटोलता है. यह स्त्री उस पुरुष की प्रतिद्वंदी हो सकती है, शत्रु या प्रेमिका भी. उसकी हिंसा, करूणा, प्रेम या वासना और हवस का पात्र भी. किसी स्त्री लेखक के लिये भी यह बात उतनी ही सही है. उसके लिये भी पुरुष प्रतिद्वंदी, प्रेमी, विलोम या प्रतिरूप भी हो सकता है.

इससे यह निगमित किया जा सकता है कि किसी भी कलाकृति की कुंडली उस जगह की बुनियाद पर बनाई जा सकती है जो उसका रचनाकार अपने विपरीत लिंग को देता या देती है. यहीं से यह भी प्रस्तावित किया जा सकता है कि किसी कृति की महानता उस अवकाश के आधार पर निर्धारित हो सकती है जो वह कृति अपने या अपने रचनाकार के अन्यको देती है.

जब कोई कलाकार अपने से इतर किसी अन्यसंसार में प्रवेश करता है, उसके निवासियों से संवादरत होता है तो उस कृति में दुविधा, असमंजस, अर्थ बाहुल्य का समावेश होने की संभावना जन्म लेती है. उस कृति की भाषा पर कोहरे की परछाईं गिरती हैवह कृति दिन या रात के भेद को पार कर गोधूलि बेला में पहुँचती है. यह इतर संसार रचनाकार की चेतना के सामने एक रचनात्मक चुनौती खड़ा करता है कि वह अपने पूर्वाग्रहों को नकार उससे संवाद जोड़ पाता है या अपने आग्रहों और भ्रमों के आइने से देखता हुआ उसे स्वतंत्र स्पेस देने से इंकार कर देता है.

किसी रचना में स्त्री पुरुष संबंधों का डायनैमिक्स इसलिये यौनिक आकांक्षाओं का उतना फलन नहीं जितना वह एक लगभग अबूझी और अनजान सृष्टि से हुये संवाद का संविधान है. उसे खोलने-टटोलने की छटपटाहट है, उसकी असंभाव्यता और दूसरेपन को डीकोड करने का प्रयास है.

इसी संवाद की भूमि पर प्रेम, उन्माद, चाहना, ईर्ष्या, हिंसा इत्यादि भावों के जन्म की संभावनायें घटित होती हैं. किसी कृति में इस संवाद के स्थल हमें शायद इसलिये ही लुभाते हैं कि वह हमें अपने जीवन के इस इतर पक्ष से परिचित कराते हैं.

कम ही बड़े पुरूष कलाकार हैं जिनकी कला उनके स्त्री-किरदारों के बगैर पूरी होती हो. अगर स्त्री उसकी कल्पना की मरकज न भी हो तो भी वह उसके कला-कर्म पर एक बीहड़ आसमान, एक विराट स्वप्न की तरह मंडराती रहती है. व्यास, शेक्सपियर से लेकर बर्गमैनकी शक्तिशाली स्त्रियाँ इसका प्रमाण हैं.




(तीन)

इस रोशनी में अब हम उस प्रश्न को टटोल सकते हैं कि स्त्री की अनुपस्थिति मुक्तिबोध के काव्य को क्या स्वरूप देती है. उनके काव्य की एक बड़ी विशेषता है उनके नायक की गहरी आंतरिक छटपटाहट और आत्मसंघर्ष, आत्म-भर्त्सना भी. लेकिन उसे अपनी अपने विचार की शक्ति पर कोई संशय नहीं. क्रांति में योगदान न दे पाने की वजह से वह खुद को कोसता जरूर है लेकिन क्रांति के विचार और उसकी अनिवार्यता परउसे कोई संशय नहीं. उसे कवि, नर्तक, शिल्पकार इत्यादि समाज के सभी वर्ग रक्तपायी वर्ग से नाभिनाल-बद्धनजर आते हैं. वह अपने को, एक क्रांतिगामी नायक को एक किनारे रखता है, बाकी दुनिया दूसरे किनारे पर धकेल देता  है.

क्या मुक्तिबोध की कविता में अदरयानि दूसरे का बोध बहुत गहरा और नुकीला है? क्या कवि लगभग समूची सृष्टि को अपना विलोम माने बैठा है? वह अकेलाहै बौद्धिक जुगाली में अपने से दुकेलाहै.

क्या इसकी वजह यह है कि मुक्तिबोध अपने विचार को ही अंतिम सत्य मानते रहे? क्या यह कह सकते हैं कि इस रचनात्मक अवस्था यानि बहुध्वन्यात्मकता की इस अनुपस्थिति की एक वजह रचना में स्त्री की अनुपस्थिति है? स्त्री की उपस्थिति रचना और उसके किरदारों के स्वर को किस क़दर परवर्तित करती है इसके कई उदाहरण हैं.

गोराकी सुचरिता नायक की अतिवादिता पर  प्रश्न करती है, अंततः उसे अपनी अवधारणाओं पर पुनर्विचार को प्रेरित करती है. टैगोर के इस उपन्यास का निर्णायक मोड़ उस लम्हे आता है जब नायक गोरा स्त्री के महत्व को समझता है. गोरा कट्टर हिन्दू है, जातिप्रथा का समर्थक है, मानता है कि भारत का भविष्य हिन्दू पुनर्जागरण में है. लेकिन इतना मजबूत व्यक्तित्व जो सभी को बहस में हराता आया है, ब्रह्म समाज की सदस्य सुचरिता के संपर्क में आ अपने तर्क की सीमा को पहचानने लगता है. जिस इंसान ने स्त्री की भूमिका को कभी भी परिवार से परे नहीं देखा वह सुचरिता के जरिये एक नए सत्य से साक्षात्कार करता है”.

संस्कार की नायिका तपस्वी जीवन जीते आ रहे प्राणेशाचार्य को सृष्टि के अनछुए पहलू से परिचित कराती है, उसके जीवन को पलट कर रख देती है. झूठा सच की स्त्रियाँ विभाजन के दौरान पुरुष द्वारा की जा रही हिंसा को नकारती हैं. दोस्तोयवेस्की के अपराध और दंड  के एक विलक्षण दृश्य में सोन्या अपराध बोध में डूबे नायक को तहख़ाने में बाइबल का राइज़िंग अव लाज़रसपढ़ कर सुनाती है, जिसके बाद नायक के भीतर की जड़ता पिघलने लगती है.

यही बात स्त्री के संदर्भ में भी सही है. पुरुष की उपस्थिति उसके लेखन का विस्तार करती है. इसका सबसे विलक्षण उदाहरण हैं कृष्णा सोबती. उन्होंने जब हम हशमतलिखने के लिये पुरुष उपनाम चुना तो पाया कि उनकी लेखनी और भाव ही नहीं, लिखावट यानि हस्तलिपि का स्वरूप भी बदल गया. वे पुरुष का अपनी कथाओं में चित्रण करती आयीं थीं लेकिन जब उन्होंने खुद को पुरुष नाम दिया, पुरुष को अपनी रचनात्मक चेतना में धारण किया तो उनके शब्द और अक्षर वह नहीं रहे जो उनकी अन्य रचनाओं में थे.

मुक्तिबोध की एक दुर्लभ प्रेम कविता के उदाहरण से देखा जा सकता है कि स्त्री और प्रेम का भाव उनके विचार, भाषा की सतह और कविता के ढांचे को किस क़दर बुनियादी तौर पर परिवर्तित कर देता है.

मैं बहुत दिनों से बहुत दिनों से 
बहुत-बहुत सी बातें तुमसे चाह रहा था कहना 
और कि साथ साथ यों साथ साथ 
फिर बहना बहना बहना 
मेघों की आवाज़ों से 
कुहरे की भाषाओं से 
रंगों के उद्भासों से ज्यों नभ का कोना-कोना 
है बोल रहा धरती से 
जी खोल रहा धरती से 
त्यों चाह रहा कहना 
उपमा संकेतों से 
रूपक से, मौन प्रतीकों से 
मैं बहुत दिनों से बहुत दिनों से 
बहुत-बहुत सी बातें तुमसे चाह रहा था कहना





(चार)

किसी पुरुष रचनाकार के शब्द को स्त्री किस तरह कायांतरित करती है, उस रचना की काया में वह अनकहे और अनबूझे रहे आये एहसास और हसरतें किस तरह चुपचाप पिरो देती है इसका एक विलक्षण उदाहरण दो अलग काल खंडों में रची गयी राम कथा के यह अंश देते हैं.

वाल्मीकि रामायण  के अरण्य कांडके पैंतालिसवे सर्ग में राम मृग के पीछे जा चुके हैं. सीता और लक्ष्मण कुटिया में अकेले हैं कि राम की पुकार आती है. घबराती हुयी सीता लक्ष्मण से राम की सहायता के लिये जाने को कहती हैं लेकिन वे उन्हें आश्वासन देते हैं, यह भी कहते हैं कि राम ने उन्हें सीता के पास रहने के लिये कहा है. और तब सीता लक्ष्मण पर वह आरोप लगाती  हैं जो रामकथा की बुनियाद पर गहरा प्रश्न लगाता है. जब लक्ष्मण जाने से मना कर देते हैं तो आक्रोश में सीता कहती हैं कि वह राम की सहायता के लिये सिर्फ इसलिये नहीं जा रहे क्योंकि उनकी सीता पर कुदृष्टि है, कि वह राम के खत्म होने के बाद उनको पाना चाहते हैं, कि लक्ष्मण दरअसल जंगल सिर्फ उन्हीं के पीछे आये हैं. वे उन्हें दुष्ट”, “अनार्यऔर कुलपावककह गाली देती हैं, और यह भी जोड़ती हैं कि शायद भरत ने ही लक्ष्मण को उन्हें यहाँ भेजा है.

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(साभार - keshav )

यह अचंभित कर देने वाला वाक्या है. हम मानते आये हैं कि लक्ष्मण ने सीता के सिर्फ चरणों को ही देखा है, चेहरे पर भी उनकी कभी निगाह ही नहीं गयी. लक्ष्मण का आदर्श भाई और देवर का स्वरूप यहाँ भरभरा कर गिर जाता है. जंगल के इतने बरसों के दौरान लक्ष्मण ने ऐसा क्या कहा या किया, सीता ने उनमें ऐसा क्या देखा कि वह उन पर कुदृष्टि का आरोप लगा रही हैं. क्या लक्ष्मण निष्कंलक नहीं, आदर्श भाई नहीं? यह प्रश्न खुद सीता पर भी लौटता है कि वे अब तक चुप क्यों रहीं? अगर उन्हें लक्ष्मण के भीतर इस भाव का एहसास था तो उन्होंने अब तक प्रतिकार क्यों नहीं किया? राम को क्यों नहीं बतलाया? या यह सीता की महज कुंठा है, झुंझलाहट है कि वह जैसे भी संभव हो लक्ष्मण को उकसा रहीं हैं कि वे राम की रक्षा के लिये चले जायें? और अगर ऐसा है तो इस क्षण सीता और कैकेयी या मंथरा में कोई बहुत गहरा चरित्रगत अंतर नहीं रह जाता.

एक उत्कृष्ट रचनाकार की तरह वाल्मीकि इन प्रश्नों को अनुत्तरित छोड़ देते हैं. गौर करें कि यह वाक्या वाल्मीकि रामायण में है, एक आरंभिक रामकथा, उस इंसान द्वारा रची गयी जिसने राम को बचपन से देखा, अपने आश्रम में सीता को शरण दी, लव कुश उनके घर ही पले बढ़े. यह झारखंड या छत्तीसगढ़ के किसी कबीले में कही गयी रामकथा नहीं जिसे कोई वैकल्पिक या थ्री हंड्रेड रामायणमें से एक कह कर खारिज कर सके. हाँलाँकि कोई भी रामकथा वैकल्पिक नहीं, भारतीय समाज ने मिलकर सबको रचा है, उन्होंने भारतीय समाज को रचा है. लेकिन वाल्मीकि रामायण की सीता अगर लक्ष्मण पर यह आरोप लगा रही हैं तो इसे अनसुना नहीं किया जा सकता.

कई सदियों बाद तुलसीदास भी रामकथा लिखने बैठते हैं. इस प्रसंग पर आते हैं. उनके सामने सकंट गहरा है. अगर वे भी सीता-लक्ष्मण के संबंध पर यही प्रश्न लगाते हैं तो उनकी रामकथा का उद्देश्य कमजोर पड़ता है, आखिर उन्हें एक आदर्श की स्थापना करनी है. तुलसी शुरुआत से ही अपने किरदारों की आकांक्षा के बजाय अपने आदर्श यानि सुपर ईगो से संचालित हो रहे हैं. लेकिन इस स्थल पर इस रचना अपने रचनाकार के आरोपित आवरण को उतार फैंकती है और तुलसीदास लिखते हैं ---


मरम बचन जब सीता बोला. हरि प्रेरित लछिमन मन डोला.

सीता ने जो कुछ भी भला-बुरा लक्ष्मण से कहा, तुलसी उसे मरम बचनमें सीमित तो कर देते हैं, लेकिन पर्याप्त संकेत देते हुये कि सीता ने अत्यंत मर्मभेदी बात कही है. यह कविता की काया में ईड यानी अव्यक्त रही आयी कामना का समावेश है. यह रचना का दुर्लभ क्षण है. किरदार की आकांक्षा रचनाकार के नैतिक आदर्श से परे निकल जाती है.

एक अन्य दृष्टि से कहें तो एक रचनाकार अपने पूर्ववर्ती कलाकार को शायद इसी तरह नमन करता है, उसका ऋण अदा करता है. तुलसी का भक्त चाह कर भी वे शब्द नहीं प्रयोग कर सकता था जो सीता और लक्ष्मण के संबंध पर सवाल लगाते हों, लेकिन उन्हें अपने कथा-गुरू वाल्मीकि की मूर्ति के समक्ष ली गयी शपथ भी याद रही होगी. मरम बचनइसी शपथ का निर्वाह है, इसका प्रमाण है कि रचना अपने रचयिता और किरदार, दोनों से मुक्त हो जाने का ख्वाब देखती है, दुर्लभ लम्हों में मुक्त हो भी जाती है. एक मध्यकालीन भक्त कवि अपने समूचे आग्रहों के बावजूद अपनी रचना में वे संकेत छोड़ जाता है, जो उस कथा का पाठ बदल देते हैं.

स्त्री के महत्व को इस्लाम धर्म के आईने से भी देख सकते हैं. इस्लाम की चेतना और कल्पना में स्त्री अमूमन अनुपस्थित रही है. यह निरा पौरूषेय धर्म है. इसके पैगंबर, संतसभी पुरुष हैं. इस्लाम शायद उतना कट्टर नहीं होता अगर इस्लाम का पुरुष किसी स्त्री से संवाद-संघर्षरत रहा होता. दिलचस्प यह है कि जब सूफी कवियों के जरिये इस्लाम में स्त्री और प्रेम प्रवेश करते हैं तो इस्लाम का स्वरूप झटके से बदल जाता है. सूफी कवि प्रकृति और खुदा से बुनियादी तौर पर एकदम अलग किस्म का सम्बन्ध बनाते हैं, जिसमें उन्माद और खुमार है, समर्पण भी है. उर्दू शायर जिस तरह अपने खुदा और मजहब से ठिठोली करता है वह स्त्री के बगैर संभव नहीं था.

मसलन मीर बुत शब्द से एक बेजोड़ शरारत रचते हैं. उर्दू में बुत का अर्थ मूर्ति तो है ही, यह माशूक के लिए भी प्रयोग होता है. जब मीर कहते हैं ---

बोसा उस बुत का लेकर मुंह मोड़ा
, भारी पत्थर था चूम कर छोड़ा ---

तो वे माशूक और इश्क के तीर से अपने मजहब और उसके विचार को बींध देते हैं.



(पांच)

वापस मुक्तिबोध पर लौटते हैं जिनकी कविता में अपने वर्तमान के प्रति गहन छटपटाहट, असंतोष है, नकार भाव है. यह नकार भाव किस तरह प्रेम के स्पर्श से बदल जाता है इसका एक अद्भुत उदाहरण यह कविता है ---

जिंदगी में जो कुछ है, जो भी है
सहर्ष स्वीकारा है; इसलिए कि जो कुछ भी मेरा है
वह तुम्हें प्यारा है
गरबीली गरीबी यह, ये गभीर अनुभव सब
यह विचार वैभव सब
दृढ़ता यह, भीतर की सरिता यह अभिनव सब....जो कुछ भी जाग्रत है अपलक है
संवेदन तुम्हारा है!

क्या किसी और स्थल पर मुक्तिबोध जीवन को, गरीबी को, अपने विचार वैभव को इस तरह स्वीकारते दिखाई देते हैं? ऐसी ही एक और दुर्लभ कविता है. यहाँ प्रेमिका के बजाय माँ केंद्र में है. मुक्तिबोध का नायक कभी किसी से रास्ता पूछता नजर नहीं आता, अपने रास्ते पर उसे कभी कोई संशय नहीं होता. वह दूसरों की राह पर बेखटक टिप्पणी करता आया है. लेकिन इस कविता में स्त्री पुरुष को, कविता के नायक को राह दिखला रही है.

एक अन्तः कथा
अग्नि के काष्ठ
खोजती माँ
बीनती नित्य सूखे डण्ठल
सूखी टहनी, रूखी डालें
...
मुझमें दुविधा
पर माँ की आज्ञा से समिधा
एकत्र कर रहा हूँ
...
टोकरी उठा, मैं चला जा रहा हूँ
आगे-आगे माँ
पीछे मैं
-
टोकरी विवर में से स्वर आते दबे-दबे
मानो कलरव गा उठता हो धीमे-धीमे
मैं पूछ रहा
टोकरी विवर में पक्षी स्वर
कलरव क्यों है
माँ कहती-
सूखी टहनी की अग्नि क्षमता
ही गाती है पक्षी स्वर में
वह बन्द आग है खुलने को

इसके बाद जब नायक विचरण करता-सा है एक फैण्टेसी मेंइस विश्वास के साथ कि यह निश्चय है कि फैण्टेसी कल वास्तव होगी” (फैण्टेसी में विचरण और भविष्य में इसके पूर्ण होने पर विश्वास मुक्तिबोध की कविता का स्थायी भाव है), तब माँ उसे टोकती है, सुधारती है, “व्यंगस्मित मुसकरा रही/डाँटती हुयी कहती हैकि

केवल जीवन कर्तव्यों का
पालन न हो सके इसलिय
निज को बहकाया करता है.
चल इधर, बीन रूखी टहनी
सूखी डालें
भूरे डण्ठल,
पहचान अग्नि के अधिष्ठान
जा पहुँच स्वयं के मित्रों में
कर अग्नि-भिक्षा
लोगों से पड़ोसियों से मिल


क्या यह अंधेरे मेंरहती वह जन-मन-करुणा सी माँहै जो मुक्तिबोध की कविता से हंकालदी गयी है? लेकिन मुक्तिबोध के सभी प्रयासों के बावजूद वह स्त्री माँ के रूप में इस कविता में चली आई है, नायक से कह रही है कि अपने विचार की खोह से बाहर निकल, अपनी आत्म ग्लानि को परे हटा लोगों से और पड़ोसियों से मिल, अपने विरोधी के मत का सम्मान कर. अगर ऐसा है तो क्या यह क्षण जब यह मुस्कुराती हुई स्त्री नायक से कह रही है कि केवल जीवन कर्तव्यों का पालन न हो सके इसलिये वह निज को बहकाया करता है, क्या यह क्षण मुक्तिबोध का तुलसीदास क्षण है?

चूँकि मैं मुक्तिबोध की कविता के मनोविज्ञान को टटोल रहा हूँ, मैं अंत एक और प्रश्न से करना चाहूँगा, जो उनके मृत्यूपरांत जीवन को एक मनोवैज्ञानिक के नजरिये से टटोलना चाहता है.

अगर हमारी आलोचना पिछले पचास वर्षों में मुक्तिबोध की कविता के इस अभाव और उसके प्रभाव को नहीं देख पायी तो क्या इसकी वजह यह है कि मुक्तिबोध हमारी, हम हिंदी रचनाकारों की सामूहिक ग्लानि के प्रतीक हैं

जिस तरह हिंदुस्तान इस अपराध बोध को लिए जी रहा है कि आजाद भारत अपने राष्ट्र पिताको छह महीने भी जीवित न रख सका, जिस तरह गांधी की हत्या उनके हत्यारों पर गहरा कलंक छोड़ गयी क्या नियति ने जो मृत्यु मुक्तिबोध के लिए चुनी वह हम हिंदी लेखकों को इस अपराध बोध में डुबो गयी कि हम अपनी भाषा के एक अत्यंत समर्पित रचनाकार को बचा न सके?

आशीष नंदी ने लिखा है कि आजादी के बाद घनघोर निराशा के लम्हों में गाँधी को शायद एहसास हो गया था कि एक हिंसक मृत्यु शायद उन्हें कहीं अधिक प्रासंगिक बना देगी, जो वे जीवित रह कर न कर पाते शायद उनकी मृत्यु उसे हासिल कर लेगी. नंदी लिखते हैं कि सुकरात और ईसा मसीह की तरह गांधी को मालूम था कि मनुष्य के अपराध बोध का सर्जनात्मक इस्तेमाल कैसे किया जाये.

मुक्तिबोध का निश्चित ही अपनी मृत्यु चुनने में कोई योगदान न था, लेकिन क्या सुकरात, ईसा मसीह और गाँधी की इस कड़ी में हम मुक्तिबोध का नाम जोड़ सकते हैं? हालाँकि यह प्रश्न शायद आलोचक का उतना नहीं जितना उनके जीवनीकार का है, लेकिन यह सवाल स्त्री की अनुपस्थिति की तरह उनके पाठ पर हमेशा मंडराता रहता है.

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कथाकार-पत्रकार आशुतोष भारद्वाज इन दिनों शिमला के भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान में फैलो हैं.

ई पता : abharwdaj@gmail

सबद भेद : मुक्तिबोध - सत्य और सत्ता का संघर्ष : अमरेन्द्र कुमार शर्मा













मुक्तिबोध को स्मरण करते हुए आपने आशुतोष भारद्वाज का आलेख ‘अनुपस्थिति के  साये’पढ़ा. इस क्रम में अध्येता अमरेन्द्र कुमार शर्मा का यह आलेख आपके सम्मुख प्रस्तुत है.

मुक्तिबोध की कविताएँ प्रतिबद्ध मार्क्सवादी कवि की कविताएँ हैं जो जितनी स्थानीय हैं उतनी ही वैश्विक चेतना से विस्तृत भी. इन कविताओं में सत्ता मूलक राजनीति की रणनीतियों की भी सूक्ष्म और गहरी समझ है.

मुक्तिबोध को बार–बार और तरह–तरह से परखना चाहिए, यह हमारी राजनीतिक चेतना के स्वास्थ्य के लिए भी जरूरी है.
 
  
 

मुक्तिबोध की कविता  सत्य से सत्ता के युद्ध  का  रंग है’        
एक ‘आत्म-संवादी’ विश्लेषण

अमरेन्द्र कुमार शर्मा




“मेरे तो समूचे जीवन के लिए ही कविता नमक के समान रही है. उसके बिना मेरा जीवन फीका और बेजायका होता ”.
मेरा दागिस्तान - रसूल हमजातोव (141)



‘कागज की भूरी छाती पर’[1]:


ब इच्छा और पसंदगी के अनुरूप सब कुछ पा लेने की और ग्रहण कर लेने की तात्कालिक अवैध जिद एक मुहिम के तौर हमारे समय का सबसे प्रबल विचार बनता जा रहा हो; कि जिसके लिए कोई तय सिद्धांत नहीं, कोई तय नियम नहीं, कोई तय दार्शनिक मंतव्य नहीं, और यही एक मूल्य के रूप में रूपायित होता जा रहा हो; तब ऐसे समय में मुक्तिबोध की कविताओं से संवाद करना स्वयं को कई किस्म के अपरिभाषेय संदेहों और अप्रत्यक्ष खतरों में ड़ाल देना है.

मैं मुक्तिबोध की कविता के साथ होते, चलते हुए, इस संदेह और खतरे से अपने इस आलेख को बचा नहीं सका हूँ. वह भी तब जब कि यह जानता हूँ कि मुक्तिबोध की कविताओं में ‘सत्य’, ‘सत्ता’, ‘युद्ध’ जैसे पद अनायास नहीं आते, और यह भी कि कविता की रचना-प्रक्रिया युद्ध की तरह की प्रक्रिया हुआ करती है, कविता के पूर्ण होने तक रचना प्रक्रिया शब्दों, वाक्यों की भारी काट-छांट इसमें मची रहती है. एक शब्द के मुक्कमल आकार ग्रहण करने में कई सारे शब्द लहू-लुहान होते हैं और कई शब्द की भ्रूण हत्या भी होती जाती है. मुक्तिबोध जैसे कवि की कविता में तो और भी ज्यादा.

मुक्तिबोध की कविता अनुपस्थित में उपस्थित की और उपस्थित में अनुपस्थित की हमारी कथित सभ्यता में एक उपस्थित सत्ता-मीमांसा है. मुक्तिबोध की कविता में यह सत्ता-मीमांसा आद्य बिंब की तरह मौजूद होती है, मुक्तिबोध में इस मौजूदगी की एक पृष्ठभूमि है, जो उनके जीवन की स्मृतियों से जुड़ी हुई है. मुक्तिबोध के जीवन के शुरूआती दौर को अगर हम देखें तों मुक्तिबोध के बाल मन की पहली भूख ‘सौंदर्य’ है, और दूसरी ‘विश्व मानव का दुःख.’ ‘सौंदर्य’ और ‘मानव का दुःख’ के बीच के संघर्ष को मुक्तिबोध रचते हुए अपने ‘साहित्यिक जीवन की पहली उलझन’ मानते हैं. मुक्तिबोध के भीतर ‘पहली उलझन’ ने अनेक ‘आंतरिक द्वंद्व’ पैदा किए और यही वह वजह रही कि उनके सामने कभी भी रचना के लिए कोई ‘एक ही काव्य-विषय’ नहीं रह सके. विविधता उनके काव्य का आत्म संघर्षात्मक सौंदर्य है. 

मुक्तिबोध के जीवन-चर्या को अगर देखें तों उनके जीवन में कविता उतनी ही नजदीक है ‘जितना कि स्पंदन’. मुक्तिबोध काव्य की व्यापक सीमा को ‘अपनी जीवन-सीमा’ से मिला देने की दुर्निवार चाह रखते हैं. इस चाह में मुक्तिबोध ‘जीवन के आंतरिक द्वंद्व’ और ‘जगत के द्वंद्व’ को सुलझाने की प्रक्रिया में खुद को शामिल करते हैं. इस प्रक्रिया के द्वारा उनके भीतर एक दर्शन का विकास होता है. वह दर्शन है ‘अनुभव-सिद्ध व्यवस्थित तत्त्व-प्रणाली’.

मुक्तिबोध मानते हैं कि ‘आगे चलकर मेरी काव्य की गति को निश्चित करनेवाला सशक्त कारण यही प्रवृति रही है.[2]मुक्तिबोध की न केवल काव्य-यात्रा में बल्कि गद्य में भी हम देखते हैं कि  ‘जीवन के आंतरिक द्वंद्व’ और ‘जगत के द्वंद्व’ को सुलझाने की प्रक्रिया अनवरत जारी रहती है. यह वह प्रक्रिया थी, जिसकी समझ उनके उन समकालीनों में बिल्कुल नहीं थी, जो साहित्य में केवल छद्म रच रहे थे उसे प्रगतिशीलता का नाम दे रहे थे और चर्चित होने की एक निर्लज चाह रखते थे. 

मैं अपने इस आलेख में मुक्तिबोध की कुछ कविताएँ मसलन, ‘रात, चलते हैं अकेले ही सितारे’, ‘बहुत शर्म आती है’, ‘पित:, तुम्हारी आती है याद’, ‘शब्दों का अर्थ जब’, ‘जिंदगी बुरादा तो बारूद बनेगी ही’के साथ मुक्तिबोध की एक और कविता जिसे मुक्तिबोध ने अपने आत्म-वक्तव्य में अपनी प्रिय कविता बताया है ‘मुझे पुकारती हुई पुकार खो गयी वहीं’ (इस कविता में मुक्तिबोध का अपना अस्तित्व है और कविता का भी. यह कविता प्रतीक के जुलाई-अगस्त 1947के अंक में पहली बार प्रकाशित हुई थी) को संदर्भित करूँगा.

अपने आलेख में कुछ जगहों पर मैंने ‘अँधेरे में’का भी उल्लेख किया है. रामविलास शर्मा के एक प्रसिद्ध लेख ‘मुक्तिबोध का आत्मसंघर्ष और उनकी कविता’को पढ़ते हुए मेरे मन में लेख को लेकर कई सवाल उभरे जो जाहिर है मुक्तिबोध की कविता के पाठक होने के नाते मेरे मन में उभरे. इस आलेख में रामविलास शर्मा के उपर्युक्त लेख की संक्षिप्त परख करने की कोशिश भी की गई है. अपनी बात रखने के क्रम में मैं मुक्तिबोध की कविता को वर्तमान समय की चल रही प्रवृतियों के समानांतर जिरह करते हुए कुछ  ठोस बिंदुओं के साथ देखने की भी कोशिश करूँगा.

मुक्तिबोध की कविता का अपना एक वर्ग है, वर्तमान में वर्ग की धारणा टूटी है, ‘पहला वर्ग समुदाय (कम्युनिटी) का है और दूसरा वर्ग भीड़ (क्राउड) का है.’मुक्तिबोध की कविता भीड़ वाले वर्ग को संबोधित नहीं करती है बल्कि उसके दुःख- दर्द के ‘सत्त्व’ को अपनी कविता में पिरोती है. हिंदी साहित्य का ‘क्राउड’ मुक्तिबोध की कविता को ‘दुरूह’ अगर कहता है तो हमें समझना चाहिए कि वह वाकई सही कह रहा है, क्योंकि कविता उसकी भाषा में तो कतई नहीं लिखी गई है; बल्कि मुक्तिबोध की कविता स्वंय मुक्तिबोध के शब्दों में ‘जागरित – बुद्धि है, प्रज्वलत घी है.’ वाले वर्ग को संबोधित करती है. यही मुक्तिबोध की कविता का सौंदर्य है और कविता की ताकत भी.

आलोचकों का एक वृंद इसे एक स्तर पर सीमा भी मानता है और मुक्तिबोध की कविता को अगम्य भी. बहरहाल.




‘मिट्टी से सने हुए लोहे के फाल-सी’[3]:

बीसवीं शताब्दी के सत्तर के दशक में कुछ-एक विचारधारों ने ज्ञान के तमाम माध्यमों  को भिन्न किस्म से समझने की कोशिश को नए सिरे से हवा देना शुरू किया था. ज्ञान की सरणियों को एक नए ‘पाठ’ के आधार पर हमारे सामने उपस्थित किया जा रहा था. नब्बे के दशक में भूमंडलीकरण के प्रभाव ने एक बार फिर ‘पाठ’ के ढांचें और उसके रूपकों को बदला. लेकिन सत्तर और नब्बे के दशक  ने नए ‘पाठ’ को तथ्यों और तर्कों  से रिक्त नहीं किया था. आज इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में ‘पाठ’ की स्थितियाँ बदली हैं. साहित्य और राजनीति ने ‘पाठ’ की एक नयी पाठशाला निर्मित कर ली है. इक्कीसवीं सदी का यह समय ‘पाठ की राजनीति’ का समय है जिसमें तथ्यों और तर्कों का तापमान हमेशा शुन्य डिग्री से नीचे होता है.’ ऐसे समय में मुक्तिबोध की कविता इस ‘पाठ’ के भेद में विन्यस्त शब्दों की, शब्दों के माध्यम से बरती गई राजनीति या उसके प्रपंच का भेद खोलती है. मैं इसके लिए मुक्तिबोध की कविता ‘शब्दों का अर्थ जब’ जो किंचित लंबी कविता है लेकिन उसके कुछ चुने हुए अंशको आपके सामने रखना चाहता हूँ; ‘पाठ की राजनीति’ और ‘शब्दों के माध्यम से बरती गई राजनीति’ के प्रपंच को समझने के लिए यह जरुरी है. यह मेरा दावा नहीं है, बल्कि अगर किंचित धैर्य से इसे पढ़ा जाए तो आपकी ‘जागरित बुद्धि’ पर यकीन है.

‘वेश्या के देह से
तैरते-उतरते व चढ़ते हुए कंपभरे
भड़कीले वस्त्रों-सा
सकुचाता सिहर जाय,
शब्दों का अर्थ जब,
किराये के श्रृंगार – दागों सा उभर आय आदतन
शैया की चमकीली
चादर सा फुसकाता हँस जाए,
बिके हुए कमनीय और कपोलों पर
पापों के फूलों-सा मुस्काए
शब्दों का अर्थ जब !! ’

‘शब्दों का अर्थ जब
अपने ही दांतों से
अपने ही घावों को
काटे और चूम जाय,
झूठलाती झूठी – सी
निंदा के होठों को
चाटे और झूम जाय –
शब्दों का अर्थ जब ,
सीधों के गालों पर
टेढों की घृणाभरी
कुत्सामय झापड़ – सा
आत्मा के आस-पास
द्वेषों की ईर्ष्या की
थू हर-बबूलों की
कांटेदार बागड़-सा
शब्दों का अर्थ जब’

‘जनता को ढोर समझ
ढोरों की पीठभरे
घावों में चोंच मार
रक्त-भोज, मांस-भोज
करते हुए गर्दन मटकाते दर्प-भर कौओं-सा
भूखी अस्थि-पंजर शेष
नित्य मार खाती-सी
रंभाती हुई अकुलाती दर्दभरी
दीन मलिन गौओं-सा
शब्दों का अर्थ जब.’

‘सत्ता के परब्रम्ह
ईश्वर के आस-पास
सांस्कृतिक लहँगों में
लफंगों का लास-रास
खुश होकर तालियाँ
देते हुए गोलमटोल
बिके हुए मूर्खों के
होंठों पर हीन हास
शब्दों का अर्थ जब ; ’

(शब्दों का अर्थ जब ; रचनाकाल 1949से 1957तक. अंतिम संशोधन संभवतः नागपुर में 1957में किए गए.)


मुझे मुक्तिबोध की उपर्युक्त कविता को पढ़ते हुए एकबारगी सुकरात (469-399 ईसा पूर्व) की यह बात याद आती है, कि ‘एथेंस का पतन हो रहा है क्योंकि शब्द अपने अर्थ खो रहे हैं’. वर्तमान समय में चल रही सत्ताओं के खेल और साहित्य का इन सत्ता के खेल में न केवल सहयोग बल्कि कभी-कभी नतमस्तक हो जाने के संदर्भ से मुक्तिबोध की इस कविता को वर्तमान समय के तथ्यों और तर्कों की रौशनी में पढ़ा जाना चाहिए. जब हमारा समय और परिवेश ‘पूँजी’ की नई पारिभाषिक की चपेट में है और उसके इर्द-गिर्द अपने रूपाकार को बदल देने की दौड़ में शामिल है, ‘पूँजी’ की नई पारिभाषिकी में स्वयं को ढाल लेने के लिए तैयार है, तमाम जनसंचार माध्यम अपनी भाषा में सत्ता के मुखापेक्षी होते जा रहे हैं, अखबार सत्ता के विज्ञापन की भाषा में हमारी तमाम उजास सुबहों मलिन कर रहा है और देश का अधिकांश युवा एक खास तरह के राजनीतिक परिवेश की शब्दावली में समाज की संरचना को ‘सांस्कृतिक लहँगों में/लफंगों का लास-रास’ में ढाल रहा हो; ऐसे समय में एक जिम्मेदार ‘शब्द-रचना’ की आवयश्कता होती है. प्रतिरोध की विवेकपूर्ण ‘शब्द-रचना’ करने वाले वर्ग के संरक्षण की जरूरत होती है. लेकिन ‘शब्दों का अर्थ जब, / सीधों के गालों पर / टेढों की घृणाभरी / कुत्सामय झापड़ – सा’ होने लगे, उसकी हत्याएँ की जाने लगे, शब्दों में गोली के सुराख़ बना दिए जाएँ,  कारागार में बंद किया जाने लगे तों हमें सोचना चाहिए कि मुक्तिबोध के दौर का भयानक समय और ज्यादा गहरा और ज्यादा भयावह और ज्यादा अँधेरा हुआ है. हम देख रहे हैं कि वर्तमान राजनीति, धर्म, संस्कृति और साहित्य ‘सांस्कृतिक लहँगों में / लफंगों का लास-रास’ की शक्ल में तब्दील होता जा रहा है.  
ऐसे में मुक्तिबोध की कविताओं को पढ़ना केवल अकादमिक पाठ या केवल विलास  के लिए नहीं होता बल्कि मुक्तिबोध की कविता को ऐसे समय में पढ़ना, और बार-बार पढ़ना एक ‘एक्टिविज्म’ की तरह लगता है, एक प्रतिरोधी मशाल की उजास की तरह. 


‘यह बोल का अपने लाभ के लिए इस्तेमाल करने की कला का समय है’भारत में 2014के लोकसभा और 2017के विधान सभा के चुनावों की संरचना और उसमें इस्तेमाल की गई भाषा को अगर ध्यान से याद कर, उसे दुबारा फिर-फिर सुनकर समझने की कोशिश करें और फिर उस भाषा से हासिल परिणाम (पाँच साल के लिए  {लेकिन क्या वाकई पाँच साल के लिए ही !}) के विन्यास को देखें तो मुक्तिबोध की कविता की इन पंक्तियों का एक स्पष्ट: विलोम दिखलाई देगा –

‘दुनिया न कचरे का ढेर कि जिस पर
दानों को चुगने चढ़ा हुआ कोई भी कुक्कट
कोई भी मुर्गा
यदि बांग दे उठे जोरदार
बन जाए मसीहा.’


हम देखते हैं कि, हमारे ही समय में हमारे ही सामने, हमारे देखते-देखते हमारी ही दुनिया को पहले ‘कचरे का ढेर’ बनाया गया और उस ढेर पर जिसने जितने जोरदार ढंग से, पूरी ताकत के साथ ‘बांग’ दिया है, ‘मसीहा’ बन गया. विलोम में ढलती हुई हमारी दुनिया, मुक्तिबोध की कविता की दुनिया के भीतर जितना है उतना ही कविता से बाहर की दुनिया

‘जनता को ढोर समझ
ढोरों की पीठभरे
घावों में चोंच मार
रक्त-भोज, मांस-भोज’. 

भारतीय राजनीति और समाज के वर्तमान विन्यास को बहुत ध्यान से, महज सरलीकृत ढंग से नहीं बल्कि एक जिम्मेदारी के भाव से अगर देखें और समझेंतो हमारे इस समयको (जिसमें साहित्य विशेष रूप से शामिल है) पूँजी के ‘नए’ सरोकारों ने ‘हरेक का हरेक के विरुद्ध भेडिया युद्ध’ के रूप में रूपायित कर दिए जाने की राजनीति का समय बना दिया गया है. मुक्तिबोध की कविता इस समय से आलोचकीय संवाद करती हुई प्रतिरोध रचती है. प्रतिरोध रचते हुए मुक्तिबोध की कविता कभी आत्मभर्त्सना करती हुई स्वयं को जिम्मेदार ठहराती है, खुद को कटघरे में रखती है तो कभी आत्मभर्त्सना (यह आत्मग्रस्तता नहीं है) के स्वर को सार्वजनीन आत्मभर्त्सना में रूपायित करती हुई  राज्य-सत्ता की क्रूरता को उधेड़ देती है. समय की कठिनाइयों और दुश्वारियों का जिम्मेदार कवि भी होता है, मुक्तिबोध इसे स्वीकारते हैं इसलिए वे अपने समय के अद्वितीय नैतिक कवि भी है. वे उन रचनाकारों में नहीं हैं जो समस्त सामाजिक विसंगतियों के लिए जिम्मेदार बाह्य परिस्थितियों को बताता हुआ खुद को पाक-साफ़ घोषित कर देता है. मुक्तिबोध की कविता में इसी कारण समाजवादी संस्कृति और व्यक्ति-स्वातंत्र्य में कोई विलोम नहीं उभरता बल्कि समाज और व्यक्ति के बीच की द्वंद्वात्मकता का परिवेश उभरता है. 

‘बहुत शर्म आती है मैंने
खून बहाया नहीं तुम्हारे साथ
बहुत तड़पकर उठे वज्र-से
गलियों के जब खेतों-खलिहानों के हाथ
बहुत खून था छोटी-छोटी पंखुड़ियों में
जो शहीद हो गयीं किसीको अनजाने कोने
कोई भी न बचे
केवल पत्थर रह गए तुम्हारे लिए अकेले रोने ’
(बहुत शर्म आती है; रचनाकाल 1949-1950 , नागपुर )

तू चुप न बैठ कि बोल दे
उसको कि जो हिय में बहुत बैचेन है
वह झूठ की
गुरु विश्व – प्राचीरें, दिशाएँ फेंकता
वह एकटक सब देखता
सब जानता-सा नैन है.
(चुप न बैठ कि बोल दे, संभावित रचनाकाल 1949-1950)[4]

‘सुबह से शाम तक
मन में ही
आडी-टेढ़ी लकीरों से करता हूँ
अपनी ही काट-पीट’
(चाहिए मुझे मेरा असंग बबुलपन ; संभावित रचनाकाल 1957, नागपुर)


साथ-साथ रवि पथ पर चलने वाले साथी ’[5]:
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यह समय, संस्कृति, विचार और राजनीति के प्रतिकार्थी संयोजन-वियोजन के डिस्कोर्स का समय है कि जिसमें मिथकें अपना नया आकार और नए नाम के साथ नवीन अर्थ ग्रहण कर रही हैं. संस्कृति, विचार, राजनीति, मिथक अपना एक नया ‘नरेटिव’ निर्मित करने की एक वाचाल प्रक्रिया में शामिल है. इस प्रकार के ‘डिस्कोर्स’ के भीतर और उस ‘डिस्कोर्स’ के बाहर भी मुक्तिबोध की कविता को बार-बार पढ़ा जाना चाहिए. पढ़ा इसलिए भी जाना चाहिए कि हम अपने समय में रहते हुए कविता पाठ के द्वारा अपने भीतर किस तरह की काट-छांट करना चाहते हैं.  करना चाहते भी हैं कि नहीं ? इस क्रम में मैं संक्षेप में  रामविलास शर्मा के एक प्रसिद्ध लेख ‘मुक्तिबोध का आत्मसंघर्ष और उनकी कविता’ का उल्लेख करते हुए मुक्तिबोध के संदर्भ से विश्लेष्ण करूँगा. यह जानते हुए कि इस विश्लेषण का भी एक अपना विश्लेषण किया जा सकता है. रामविलास शर्मा ने अपने इस लेख में मुक्तिबोध की रचनाधर्मिता को कई स्तर पर समझने की बात कही है. इस लेख को अगर ‘प्रतिकार्थी संयोजन-वियोजन के डिस्कोर्स’ के तौर पर देखा जाए तो इस लेख की आंतरिक संरचना में ऐसी कई बातें हैं जो मुक्तिबोध की कविता का ‘अति-पाठ’ करते हुए लगती है. (यहाँ मेरा यह भी आग्रह है कि इस आलेख के आरंभ में ‘पाठ की राजनीति’ के संदर्भ को एक बार फिर से यहाँ पढ़ा जाए.)
                                 

“मार्क्सवाद पूर्ण ज्ञान का दावा नहीं करता, मुक्तिबोध उस ज्ञान से उकता उठे थे जो सतत विकासमान हो. विकासमान होगा तो ज्ञान अपूर्ण भी होगा. उन्हें चाहिए था पूर्ण ज्ञान ; ऐसा ज्ञान रहस्यवाद ही दे सकता था.”[6]

‘मुक्तिबोध उस ज्ञान से उकता उठे थे’ रामविलास शर्मा ने अपने इस लेख के विश्लेषण में मार्क्सवाद से उकताने का कहीं कोई प्रमाण नहीं दिया है. चूँकि रामविलास जी को इस बात की जल्दीबाजी थी कि वह साबित कर सकें कि मुक्तिबोध के विचार में और कविता में भी रहस्यवाद है. रहस्यवाद के लिए वे तर्क की एक इमारत खड़ी करते हैं. वे आगे कहते हैं कि ‘उन्हें चाहिए था पूर्ण ज्ञान’. यह ‘पूर्ण ज्ञान’ क्या है. दरअसल , मुक्तिबोध ने अपनी कुछ कविताओं में ‘पूर्ण ज्ञान’ पद का प्रयोग किया. रामविलास जी मुक्तिबोध की कविताओं में प्रयुक्त ‘पूर्ण ज्ञान’ के पद को देखकर यह बयान जारी कर दिया कि मुक्तिबोध को ‘पूर्ण ज्ञान’ चाहिए था और यह ज्ञान रहस्यवाद के पास है.    
क्या किसी कविता में किसी संदर्भ से अगर ‘पूर्ण ज्ञान’ का उल्लेख कर दिया जाए और इसकी आवृति एकाधिक हो तो किसी कवि को ‘पूर्ण ज्ञान’ पाने की आंकाक्षा वाला रचनाकार मान लिया जाएगा. अपने इस आलेख में रामविलास जी ऐसी कई तरह की हड़बड़ी भरे निष्कर्ष निकालते हुए लगते हैं. रहस्यवादी साबित करने के लिए वे मुक्तिबोध की कविताओं से लगातार कई शब्द चुनते हैं. इस चुनाव का उनका एक निश्चित प्रयोजन है.

“रहस्यवाद के अनेक परंपरागत प्रतीक जिनका संबंध प्रकाश और आनंद से है, मुक्तिबोध की कविता में भी हैं... मुक्तिबोध का मन अँधेरे से घिरा रहता है, वह अँधेरे में प्रकाश की खोज में भटकता है, आनंद  से अधिक उसे अनुभूति होती है दुःख की, पुराने कुएं, बावड़ी, खंडहर , वीरान पत्थर, खड्ड, अंधरी तंग गलियाँ, घने बरगद, फुटा हुआ भैरो का मंदिर... ”[7]

हम अगर ध्यान से देखें तो रामविलास जी ने उन्हीं शब्दों का चयन किया है जिससे उन्हें एक खास विचार बनाने का अवकाश मिल सके. दरअसल, चयन की भी अपनी एक राजनीति होती है. कविता में पुराने कुएं, बावड़ी, खंडहर, वीरान पत्थर, खड्ड, अँधेरी तंग गलियाँ, घने बरगद, फुटा हुआ भैरो का मंदिर का उल्लेख भर कर देने से क्या मुक्तिबोध एक  रहस्यवादी कवि साबित हो जाते हैं. हिंदी साहित्य और विश्व साहित्य में बहुलता से ‘अंधेरों’ का वर्णन है. ‘अँधेरी तंग गलियाँ’, ‘खंडहर’ आदि स्थानों का जिक्र तो साहित्य में भरा पड़ा है. हिंदी और विश्व सिनेमा में तो यह खूब है. तो, क्या यह सब रहस्यवाद है ? अगर हाँ, तो फिर हमारी पूरी कायनात ही रहस्यवादी है, जिसमें न कोई द्वन्द्ध है न कोई संघर्ष ही बल्कि केवल आनंद ही आनंद.क्या मुक्तिबोध की कविता को हम आनंद के रूप में देख सकते हैं ? रामविलास जी को मुक्तिबोध की कविता में ‘उजाले’ और ‘जागरण’ को भी देखना चाहिए था. ‘अँधेरे में’ कविता में ‘जागरित बुद्धि है, प्रज्ज्वलत घी है’ और ‘सब सोए हुए हैं. लेकिन, मैं जाग रहा, देख रहा ’ जैसे कई उजाले और जागरण हैं, ‘चकमक चिंगारियाँ’, ‘आकाशगंगा’, ‘उल्कापिंड’ जैसे पद भरे पड़े हैं, और अंततः अँधेरे के बारे में बात करना उजाले की प्राक्कल्पना ही तो है.
 


रामविलास शर्मा निराला पर शोधपरक कार्य कर चुके थे, निराला पर विवेकानंद के व्यापक प्रभाओं की गहरी छान-बीन कर चुके थे. मुक्तिबोध पर उपर्युक्त आलेख लिखते हुए वह मुक्तिबोध के लेखन के लिए एक धुरी की तलाश कर रहे थे जो मार्क्सवाद से अलग हो. रामविलास जी को यह धुरी अस्तितवाद और रहस्यवाद में मिला जिसके लिए उन्होंने मुक्तिबोध की कविताओं में प्रयुक्त शब्दों को छांटा. इस काट-छाँट में रामविलास जी ने अपने आलेख में यह कोशिश की कि मुक्तिबोध को एक खास ढाँचे के अंदर ‘रिड्यूस’ कर दिया जाए. ‘रिड्यूस’ की अपनी इस प्रक्रिया में वे एक बार अपने लेख में लिखते हैं, “मुक्तिबोध नहीं कहते कि दुनिया लिजलिजी है, उसे देखकर उबकाई आती है, मैं सड़ रहा हूँ, देश सड़ रहा है, शरीर पर कनखजूरे रेंग रहे हैं, इत्यादि. वह सार्त्र की भावभूमि से अलग हटकर किर्केगार्द और काफ्का के प्रदेश में विचरण करते हैं. इस अस्तितवाद से वह रहस्यवाद और मार्क्सवाद की पटरी कैसे बिठाते हैं ? ”[8]

क्रिकेगार्द और काफ्का का केवल उल्लेख भर रामविलास जी ने किया है , यह नहीं बताया कि मुक्तिबोध की किस कविता या लेख में यह विचरण, महज विचरण के अर्थों में संभव हुआ है. संभवतः ‘कनखजूरे’ का उल्लेख रामविलास शर्मा जी ने काफ्का की प्रसिद्ध कहानी ‘मेटामोर्फोसिस’ को याद करते हुए किया हो क्योंकि काफ्का की इस कहानी में कहानी का नायक एक दिन स्वयं को एक बड़े से तिलचट्टे में परिवर्तित पाता है.


‘अँधेरे में’ कविता  में जो कलाकार मारा जाता है , उस कलाकार के बारे में  रामविलास शर्मा लिखते हैं , ... यह कलाकार मुक्तिबोध का ही प्रतिरूप है.[9]

रामविलास शर्मा यहीं नहीं रुकते बल्कि मुक्तिबोध की प्रसिद्ध पुस्तक ‘कामायनी : एक पुनर्विचार’  को पढ़ते हुए भी वे इसी तरह की बात करते हैं ,

“कामायनी के मनु को मुक्तिबोध की निगाह से देखें तो वह स्वयं मुक्तिबोध से काफ़ी मिलते-जुलते दिखाई देते हैं ..... मनु वह सबकुछ है जो मुक्तिबोध हैं और होना चाहते हैं ”[10]

रामविलास शर्मा की यह मुक्तिबोध की रचनाधर्मिता के बारे एक खतरनाक सरलीकृत पाठ है. ऐसा पाठ तो किसी भी लेखक के बारे में किया जा सकता है. रामविलास शर्मा अपने तर्क को और धारदार बनाने के लिए मनु और मुक्तिबोध को जोड़ने के लिए कामायनी के ‘उत्तुंग शिखर’ और अँधेरे में के  ‘तुंग शिखर’ को आपस में मिलाते हैं.  हिंदी आलोचना में इस प्रकार के मेल करने और उस मेल से एक निष्कर्ष निकाल लेने पद्धति की एक आसान परंपरा रही है. कई बार यह मेल करने की पद्धति हमें अन्यार्थ निष्कर्षों की ओर ले जाता है. बहरहाल रामविलास शर्मा लिखते हैं,

“... मनु हिमगिरी के उत्तुंग शिखर पर बैठे हैं , ‘अँधेरे में’ कविता का रहस्मय व्यक्ति मुक्तिबोध को तुंग शिखर के कगार पर बिठा देता है.”[11]

दरअसल, किसी भी दृश्य को हम कहाँ से खड़े होकर देखते हैं, यह बेहद महतवपूर्ण होता है. पेंटिंग या किसी स्थापत्य को देखने की दृष्टि और उससे अर्थ ग्रहण करने का बोध , देखे जाने के स्थान और उसके कोण पर निर्भर करता है. स्थान बदलते ही दृश्य और उस दृश्य का कोण, उसका बोध बदल जाता है. जाहिर है यह साहित्य और उस साहित्य के पाठ पर भी लागू होता है. हिंदी साहित्य में किसी भी कहानी, उपन्यास के नायक को उसके लेखक का ही प्रतिरूप मान लिए जाने की हिंदी आलोचना की एक लद्धड़ परंपरा रही है. गोया, लेखक की यह सीमा हो कि वह अपनी हर कहानी,उपन्यास में खुद को नायक या किसी चरित्र के रूम में चित्रित करे ही, उसमें स्वयं को ढाले, स्वयं को उसमें गढे ही. जैसे कि उसका रचना-सामर्थ्य खुद को रचना में शामिल किए बिना साबित ही न हो. लगभग यह हाल हिंदी कविता का भी है.  कविता में वर्णित घटना  को भी उस कवि के जीवन में घटित घटना से जोड़ लिया जाता है,  काव्य- नायक को भी कवि का प्रतिरूप मान लिया जाता है. रामविलास शर्मा अपने इस लेख में जगह-जगह मुक्तिबोध की कविताओं  को  उद्धृत करते हुए  उस कविता में मुक्तिबोध के स्वयं  के होने को साबित कर रहे हैं.  हिंदी साहित्य की आलोचना परंपरा में  ‘प्रतिकार्थी संयोजन-वियोजन के डिस्कोर्स’ की परंपरा रही है. हिंदी आलोचना के लिए इसे दीर्घ  स्वस्थ परंपरा नहीं मानी जा सकती है.
 

दरअसल, मुक्तिबोध की कविता हिंदी कविता के इतिहास में अलग से रेखांकित की जाती रही है, इसकी कई वजहों  में से एक वजह है जिसे हिंदी के प्रसिद्ध कवि अशोक वाजपेयी ने कई बार कहा और जोर देकर दुहराया भी है कि ‘मुक्तिबोध की कविता का कोई पूर्वज नहीं है.’मुक्तिबोध की कविता के शिल्प और उसके ढ़ांचे को अगर देखें तो हम पाएँगे कि मुक्तिबोध से पहले की कविता की किसी भी परंपरा का निर्वाह मुक्तिबोध की कविता में नहीं हुआ है. छोटी-छोटी कविताओं के वर्चस्व के विरुद्ध मुक्तिबोध की लंबी कविता एक आंदोलन की तरह है. मुक्तिबोध की कविता हिंदी कविता के लोकतंत्र का एक अलहदा विस्तार है जिसके क़दमों की छाप हिंदी कविता के अतीत में नहीं है और यह   वर्तमान की हिंदी कविता में भी नहीं दिखलाई देती. हिंदी के एक और प्रसिद्ध कवि आलोक धन्वा ने भी रेखांकित किया है, ‘वे हिंदी की परंपरा के कवि नहीं हैं. काव्यवस्तु, काव्यभाषा, काव्य शिल्प की दृष्टि से हिंदी में ऐसा कवि उनसे पहले और उनके बाद कोई नहीं हुआ है’ [12]

इसलिए हिंदी कविता के पारंपरिक अर्थ-विन्यास में मुक्तिबोध की कविता भारतीय परंपरा की रसदशा में नहीं समाती है जैसा कि हिंदी के प्रसिद्ध कवि जयशंकर प्रसाद की कविता समाती है. मुक्तिबोध की कविता के पाठ से हमें रचनात्मक सूख या आनंद नहीं प्राप्त होता, मुक्तिबोध का ऐसा ध्येय भी नहीं रहा है बल्कि एक गहरी बेचैनी, एक कचोट, दिल और दिमाग की सतह को और अधिक खुरदरा बना देती है. जहाँ खुद के बारे में सोचना एक दृश्यमान क्रिया है. मुक्तिबोध की  कविता ‘इसी चौड़े ऊँचे टीले पर’ में इस क्रिया को एक उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है –

“जाने कब से
मेरे हाथ हुए पत्थर के
मेरे पैर मृत्तिका-स्तर के
मेरी सूरत माटी की – सी
दिल के भीतर गर्म ईंट है , गरम ईंट है
जले हुए ठूँठ के तने-सी स्याह पीठ है ” !![13]


‘संध्या के केसर-जल से लाल स्नान ’[14]:

मुक्तिबोध अपने जीवन के शुरूआती मानसिक संघर्ष को बड़ी बेचैनी भरे रूप में याद करते हैं. वे अपने समय में एक ओर हिंदी के ‘नवीन सौंदर्य-काव्य’ को देख रहे थे और दूसरी ओर उनके बाल मन पर पहले से ही ‘मराठी साहित्य के अधिक मानवतामय उपन्यास-लोक का सुकुमार परंतु तीव्र प्रभाव’ रहा था. दोनों प्रभावों के बीच मुक्तिबोध संघर्ष करते हुए, अपने समय के समानांतर ‘हिंदी के सौंदर्य-लोक’ को चुनते हैं. इस ‘सौंदर्य लोक’ में उनकी कविता की संरचना व्यक्ति और समाज के यथार्थ को उसके आंतरिक मनोभावों के साथ रूप ग्रहण करती है. अपने आलेख के इस हिस्से में मैं मुक्तिबोध की तीन अलहदा कविता पर संक्षिप्त बात करना चाहूँगा. हम देखेंगे कि मुक्तिबोध की इन कविताओं का ‘टोन’ और ‘ट्यून’ दोनों भिन्न है. पहली कविता है , ‘रात चलते हैं अकेले ही सितारे’ यह एक भिन्न किस्म की कविता है, भिन्नता इस अर्थ में कि इसमें एक खुली शब्द-संरचना है, एक आंतरिक लय की भावपरक महीन बुनावट है. इस कविता की तरलता को महसूस किया जा सके इसलिए इसकी कुछ पंक्तियों को  यहाँ दर्ज कर रहा हूँ -


‘अपना धैर्य पृथ्वी के ह्रदय में रख दिया था
धैर्य पृथ्वी का ह्रदय में रख लिया था.
उतनी भूमि पर है चिरंतन अधिकार मेरा,
जिसकी गोद में मैंने सुलाया प्यार मेरा.
आगे लालटेन उदास,
पीछे, दो हमारे पास साथी.
केवल पैर की ध्वनि के सहारे
राह चलती जा रही थी.’
(रात,चलते हैं अकेले ही सितारे; संभावित रचनाकाल , 1944-1948)


यह कविता एक बच्चे की मृत्यु के बाद लिखी गई है. उस बच्चे को दफन कर दिया गया है. बच्चा जिसके होने से हम धैर्य पाते हैं उसी धैर्य को पृथ्वी के हृदय में रखते हुए मन बहुत विचलित हो रहा था और इसलिए  खुद को संभालता हुआ पृथ्वी के धैर्य को अपने हृदय में रखकर लौटते हुए मन बहुत उदास है. यह सोचता हुआ कि पृथ्वी की गोद में हमने अपने  प्यार को सुलाया है, पृथ्वी के जितने हिस्से में हमने अपना धैर्य दफनाया है भूमि का उतना हिस्सा  हमेशा के लिए मेरी स्मृति के अधिकार में है, उतनी भूमि हमारी है. दफनाने के बाद लौटते हुए दृश्य का शिल्प-बंध बेमिसाल है. मुक्तिबोध दर्ज करते हैं कि अपने दो साथ के साथ बेआवाज लौटना, जिसमें केवल चलने की ध्वनि ही सुनाई दे रही है, महज क्रिया नहीं है बल्कि अपने धैर्य को पृथ्वी के हृदय में सौंपते हुए भीतर से रिक्त हो जाना है. इस रिक्तता में जैसे हम स्थिर हों और उदास लालटेन के सहारे राह ही चलती जा रही है. ‘अँधेरे में’ कविता में भी यह चलना अलग संदर्भ में जारी रहता है ‘

दोनों ओर, नीली गैसलाइट-पांत
चल-रही,चल रही’
                                   
दूसरी कविता है, ‘मुझे पुकारती हुई पुकार खो गई वहीँ’. इस कविता के वस्तु-तत्व में ध्वनि की तरलता है. इस  कविता में ‘पुकार’ चेतनशील विवेक है, यह विवेक व्यक्ति को आवाज लगाती, पुकारती, जाग्रत करती रहती है. इस चेतनशील विवेक के खोने का मतलब है, तर्क-संभाव्य दुनिया का खो जाना या उस संभावना का खत्म हो जाना जहाँ विवेकशीलता को जगह मिलती हो और एक तार्किक दुनिया निर्मित होती हो. विवेकसम्मत दुनिया की निर्मिति में बाधा उत्पन्न हो जाना दरअसल एक खतरनाक समय के आने का संकेत है. हम देख रहे हैं कि इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक की सत्ता–संरचना विवेक की जगह एक घोषित पाखंड को तरजीह दे रही है. विवेकहीन सत्ता-संरचना की दुनिया मुक्तिबोध के इसी कविता में  -

‘अमानवी कठोर ईंट-पत्थरों भरा हुआ
न नीर है, न पीर है, न मलीन है
सदा विशून्य शुष्क ही कुआँ रहा’.

यह सच है कि मुक्तिबोध का समय आज के समय से भिन्न रहा है. लेकिन, यह सोचना और देखना कितना पीड़ादायक हो सकता है कि हम अपने समय में, अपने समय को स्थगित कर मुक्तिबोध के समय को याद करते हुए अपने समय में विन्यस्त कर रहे हैं. दरअसल, मुक्तिबोध की कविता के समय के साथ आज के समय की तुलना करना एक रासायनिक–क्रिया है. मुक्तिबोध की कविता  व्यावहारिक जीवन सचाई, और इस सचाई के ताप से निर्मित मौलिकता से निर्मित हुई है इसलिए उनकी कविता यह अवकाश देती है कि हम  समय का एक रसायन तैयार करें जिससे हम अपने समय की जांच कर सकें – ‘क्रास एग्जामिन हिम थोरोली ’.  
 
‘विराट झूठ के अनंत छंद – सी
भयावनी अशांत पीत धुंध – सी
सदा अगेय
गोपनीय द्वन्द्ध- सी असंग जो अपूर्त स्वपन-लालसा
प्रवेग में उड़े सुतीक्ष्ण वाण पर
अलक्ष्य भार-सी वृथा
जगा रही विरूप चित्र हार का
सधे हुए निजत्व की अभद्र रौद्र हार - सी.
मैं उदास हाथ में
हार की प्रतप्त रेत मल रहा
निहारता हुआ प्रचंड उष्ण गोल दूर के क्षितिज.’

(मुझे पुकारती हुई पुकार खो गई वहीं ; प्रतीक , जुलाई-अगस्त 1947,चाँद का मुँह टेढ़ा है में संकलित )

मुक्तिबोध की रचनाओं का दृष्टि-विस्तार और उसकी गहराई बहुत व्यापक है. मुक्तिबोध की कविता का विस्तृत वितान और उनके गद्य की बुनावट में समय पूरी समग्रता से उपस्थित होता है, इस समग्रता में एक ओर  स्थानीयता है तो दूसरी ओर वैश्विक चेतना है, सामाजिकता है तो राजनीति की बारीक़ परख भी. पूँजी के गठजोड़ की पड़ताल है तो श्रम की महत्ता की पहचान भी. दरअसल, औपनिवेशिक भारत में पूँजी के विराट खेल और उसकी भविष्यलक्षित शोषणकारी परियोजना को बड़ी ही सूक्ष्मता के साथ मुक्तिबोध ने समझा था, उन्होंने आजादी के बाद भारत में उभरते हुए अवसरवाद के विराट फैलाव को भी देखा था इसलिए उनकी कविता में जीवन-जगत अपनी विराटता के साथ उपस्थित होता है.

‘मुझे पुकारती हुई पुकार खो गई वहीं’ में जिस विवेकपूर्ण ‘पुकार’ के खोने की बात है, उसमें शामिल है, ‘विराट झूठ का छंद’, ‘अशांत पीत धुंध’, ‘गोपनीय द्वन्द्ध, ‘अलक्ष्य भार’, ‘विरूप चित्र’, ‘अभद्र रौद्र हार’, ‘हार की प्रतप्त रेत’, ‘चंड उष्ण गोल’. मुक्तिबोध द्वारा प्रयुक्त इन सारे पद-बंध को एक साथ देखने पर यह सहज ही लक्षित किया जा सकता है कि इस प्रकार का प्रयोग हिंदी कविता में पहली बार किया जा रहा है. झूठ के साथ विराटता, अशांत धुंध, अलक्ष्य द्वन्द्ध, अभद्र हार कुछ ऐसी शब्द - रचना है जिसे कविता में पढ़ते हुए  मुक्तिबोध के चिंतन संसार की व्यापकता को समझा जा सकता है.  

तीसरी कविता है, ‘पित: तुम्हारी मुझे आती है याद’. यह कविता, वर्तमान का अतीत के साथ संवाद के टूट जाने और उस टूट को फिर से जोड़ने की बेचैनी को सृजित करने वाली है. इस कविता में सत्य पर बने रहने का आग्रह दरअसल, सभ्यता के बने और बचे रहने का आग्रह है. कविता में पित: की याद है -

‘पित: तुम्हारी वीर-जीवन इतिहास-कथा
देती है मेरी प्रेरणाओं की दिशाएँ बता
आँसू पोंछ जातीं वे
धीरज बंधाती वे
संग्राम का शिल्प मुझे अचूक सिखा जातीं वे
संघर्ष में मुझे देतीं सत्य की महान व्यथा.’

(पित: तुम्हारी मुझे आती है याद ; संभावित रचनाकाल 1951, नागपुर )

आजादी के बाद की शुरूआती भारतीय राजनीति में मध्यवर्गी अवसरवाद की फूटती हुई कोपलों के सामाजिक दृश्यालेख से मुक्तिबोध बहुत चिंतित थे और इसलिए वे सावधान भी रहे. उन्होंने यह महसूस किया था कि उनके समय के कई सहयात्री इस अवसरवाद के राही हो गए थे. मुक्तिबोध सचेतन रूप से अपना रास्ता अलग रख रहे थे. इसलिए वे सबसे ज्यादा सामाजिक और आर्थिक विसंगतियों से दो-चार हुए. कई कारणों के साथ यही वह कारण रहा कि उनकी कविताओं में बेचैनी, तड़प हमें दिखलाई देता है. मुझे यहाँ थियोडोर एडोर्नों की एक बात याद आती है, ‘यातना की आवाज बनना ही सच की वास्तविक शर्त है’.मुक्तिबोध की उपर्युक्त कविता में ‘सत्य की महान व्यथा’ यही है. इसलिए मध्यवर्गी अवसरवाद की फूटती हुई कोपलों के सामाजिक दृश्यालेख में मुक्तिबोध बार-बार अपनी कविताओं में आजादी के पुरखों को याद करते हैं, यह याद जितना भारतीय संदर्भ की आजादी के पुरखों के लिए है उतना ही दुनिया की आजादी के लिए काम कर रहे पुरखों के लिए है. मुक्तिबोध अपनी कविता ‘अँधेरे में’ में तों दर्जनों ऐसे पुरखों  को याद करते हैं. ‘पित: तुम्हारी मुझे आती है याद ’ में मुक्तिबोध पुरखों को याद करते हैं. संघर्ष में सत्य का साथ न छोड़ने की प्रेरणा महात्मा गाँधी देते हैं. किसी भी तरह के संघर्ष - संग्राम का शिल्प सत्य पर आधारित होता है , यही सिख ‘पित:’ देते हैं. यही ‘पित:’ आगे बढ़कर संघर्षरत व्यक्ति के आँसू पोंछते हुए धीरज बंधाते है और सत्य पर टिके रहने की महान व्यथा को सहने की ताकत देते हैं, पित: की ‘’वीर-जीवन इतिहास-कथा प्रेरणा देती है और सही दिशा बताती है. इसलिए कवि कहता है, ‘पित: तुम्हारी मुझे आती है याद’. मुक्तिबोध की इस कविता में सत्य की राह पर चलना एक महान व्यथा है. व्यथा कभी महान नहीं होती लेकिन अगर व्यथा का कोई नैतिक मूल्य हो, उसका कोई नैतिक बोध हो और उसकी रक्षा किया जाना जरुरी हो तो उसके लिए उठाये जाने वाली व्यथाएं महान होंगी ही. 

और अंत में, मुक्तिबोध की प्रसिद्ध कविता ‘अँधेरे में’ के डोमाजी उस्ताद को नमन, जिसे मुक्तिबोध के बाद के हिंदी साहित्य की लिखित और मौखिक संरचना में बार-बार कई मौकों पर उधृत किया गया. जिसकी उपस्थिति का उल्लेख साहित्य के हर अवसरवादी गठजोड़ में होती है.

दरअसल, डोमाजी उस्ताद जिसे डोमाजी वस्ताद भी कहा जाता था, का असली नाम भाऊसाहब देशमुख था, वह, नागपुर के कर्नलबाग इलाके का रहने वाला एक मजबूत कद-काठी का यह व्यक्ति अपने शहर में शाही दरबार लगाता था और शिवाजी महाराज के अंदाज में अपने सिंहासननुमा कुर्सी पर बैठकर पूरे शहर की खोज-खबर लेता था और फैसले सुनाया करता था. उसे पहलवानी का बड़ा शौक था. हर दशहरे में वह अपने शस्त्रों की पूजा करता था. 1952 से 1975तक डोमाजी का शहर में बोलबाला था. उसने बड़े पैमाने पर राजनीति में शामिल व्यक्तियों को आगे बढ़ाने का काम किया था. 2012 में लगभग 100 वर्ष की उम्र में पुणे के अपने आवास पर उसकी मृत्यु हुई. डोमाजी उस्ताद को याद करना दरअसल साहित्य और राजनीति के उस गठजोड़ को याद करना है जिसमें साहित्य अपनी नैतिक मूल्यों से पदच्युत होती है. 
                   

अब, जबकि यह आलेख खत्म हो रहा है तो भारी मन से यह कहना चाह रहा हूँ कि कुछ भी लिखा, पढ़ा जाए हम इस इक्कीसवीं सदी में बीसवीं सदी की ही भांति एक लाभार्थी की भूमिका में रहना चाहते हैं, हम इस भूमिका के खुद से छीन लिए जाने के भय में जीते हैं. ऐसे में मुक्तिबोध की कविता के पास एक गहरे आश्वासन और भयमुक्त चेतना के साथ जाने की अपील है क्योंकि मुक्तिबोध के लिए कविता उनके समूचे जीवन में नमक के समान रही है. 

‘आबाद जिसमें तुझको, देखा था एक मुद्दत
उस दिल की मुमिल्कत (देश) को, अब ख़राब देखा’
:दीवान-ए-मीर (51)

(‘हिंदी कविता के बदले तेवर : मुक्तिबोध और शमशेर विषय’ के संदर्भ से मुक्तिबोध की कविता पर राष्ट्रीय संगोष्ठी 24-25 मार्च 2017, महात्मा गाँधी अंतर राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में पढ़ा गया आलेख. सिर्फ यहीं प्रकाशित)
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डॉ. अमरेन्द्र कुमार शर्मा
8765480535
महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा




[1]नेमिचन्द्र जैन (संपादक) , ( 1998 ); मुक्तिबोध रचनावली – एक ;राजकमल प्रकाशन , पृष्ठ - 362
[2]नेमिचन्द्र जैन (संपादक) , ( 1998 ); मुक्तिबोध रचनावली – पांच  ;राजकमल प्रकाशन , पृष्ठ 266
[3]नेमिचन्द्र जैन (संपादक) , ( 1998 ); मुक्तिबोध रचनावली – एक ;राजकमल प्रकाशन , पृष्ठ 313
[4]आलोचना ( मुक्तिबोध पर केंद्रित अंक), जुलाई – सितम्बर 2015 , पृष्ठ 25
[5]नेमिचन्द्र जैन (संपादक) , ( 1998 ); मुक्तिबोध रचनावली - एक ;राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ -299
[6]रामविलास शर्मा संचयिता , सं – मुरली मनोहर प्रसाद सिंह , आधार प्रकाशन , 2014पृष्ठ 457
[7]रामविलास शर्मा संचयिता , सं – मुरली मनोहर प्रसाद सिंह , आधार प्रकाशन , 2014पृष्ठ 459
[8]रामविलास शर्मा संचयिता , सं – मुरली मनोहर प्रसाद सिंह , आधार प्रकाशन , 2014पृष्ठ 463
[9]रामविलास शर्मा संचयिता , सं – मुरली मनोहर प्रसाद सिंह , आधार प्रकाशन , 2014पृष्ठ 468
[10]रामविलास शर्मा संचयिता , सं – मुरली मनोहर प्रसाद सिंह , आधार प्रकाशन , 2014पृष्ठ 471
[11]रामविलास शर्मा संचयिता , सं – मुरली मनोहर प्रसाद सिंह , आधार प्रकाशन , 2014पृष्ठ 471
[12]वागर्थ , सितंबर 2014 ; संपादकीय
[13]नेमिचन्द्र जैन (संपादक) , ( 1998 ); मुक्तिबोध रचनावली – दो;राजकमल प्रकाशन , पृष्ठ 375
[14]नेमिचन्द्र जैन (संपादक) , ( 1998 ); मुक्तिबोध रचनावली – एक ;राजकमल प्रकाशन , पृष्ठ 295



हिंदी - दिवस : भाषा और राजभाषा अधिकारी : राहुल राजेश
























हिंदी–दिवस की शुभकामनाएं. 

हिंदी को जन की आकांक्षाओं, उम्मीदों और अनुभवों की संवाहिका बनने के साथ ही, तकनीकी रूप सक्षम भी बनना है.

इस अवसर समालोचन विगत वर्षों से हिंदी-भाषा की व्यावहारिक समस्याओं पर आलेख प्रकाशित करता रहा है.

कार्यालयों में राज-भाषा अधिकारी की चुनैतियों पर यह आलेख राहुल राजेश ने तैयार किया है. कवि–लेखक के साथ वे राज-भाषा अधिकारी भी हैं.


  

भाषा   और  राजभाषा अधिकारी                                                     
राहुल राजेश




राजभाषा अधिकारी
दि हम अबतक यह नहीं जान पाए कि हम क्या हैं यानी हम राजभाषा अधिकारी क्यों बने हैं तो हमारा राजभाषा अधिकारी बनना और राजभाषा अधिकारी होना व्यर्थ है! मैं यहाँ राजभाषा अधिकारी बननेसे कहीं बहुत अधिक जोर राजभाषा अधिकारी होनेपर दे रहा हूँ. कहने का सीधा आशय यह है कि आप राजभाषा अधिकारी बन गए हैं, अब राजभाषा अधिकारी होइए! यदि आपका ट्रांसफॉर्मेशनया कहें कि मेटामॉर्फोसिसयानी कायांतरण राजभाषा अधिकारी बनने से राजभाषा अधिकारी होने में नहीं हो पाया, यानी ‘from seen as a Rajbhasha Officer’  से  ‘Being a Rajbhasha Officer’  में आप खुद को कायांतरित  (ट्रांसफॉर्म) नहीं कर पाए तो जान लीजिए कि आप इस काम के लिए नहीं बने हैं! बेहतर होता कि आप कहीं थानेदार या दरोगा बन जाते!

हम राजभाषा अधिकारी नहीं, दरअसल भाषा के सेवक हैं! भाषा-सेवक हैं! जब तक हम खुद को राजभाषा अधिकारी कहते रहेंगे, हम इस पद के अधिकारी नहीं होंगे! इस पद की गरिमा के अधिकारी नहीं हो पाएँगे! और जब हम खुद इस पद की गरिमा के अधिकारी नहीं हो पाएँगे तो हम औरों को इस पद की गरिमा का एहसास कैसे करा पाएँगे?

तो यह साफ-साफ समझ लीजिए कि आँकड़े तैयार करना, आँकड़े भरना और आँकड़े भेजना हमारा असली काम नहीं है! आप आँकड़ों से खेल सकते हैं, लेकिन भाषा से नहीं! आप भाषा से खेलेंगे तो भाषा आपको नंगा कर देगी! लेकिन सच्चाई यही है कि हम अब तक भाषा से खेलते आए हैं और इसलिए हम हर बार नंगा होते आए हैं!


भाषा का सेवक
हमारा असली काम है - भाषा को संवारना. भाषा को संभालना. भाषा को गिरने से बचाना. भाषा को लड़खड़ाने से बचाना. भाषा के लिए नई जमीन तैयार करना. भाषा की जमीन में उग आए खर-पतवार को हटाना. भाषा के अन्न में मिल आए कंकर-पत्थर को बीनना! पर हम हकीकत में क्या करते हैं? हम आँकड़ों को संजाते-संवारते रहते हैं! हम आँकड़ों को संभालते रहते हैं! हम आँकड़ों को गिरने से बचाते रहते हैं! हम आँकड़ों में घुस आए खर-पतवार छांटते रहते हैं!

ऐसा करने से आँकड़े मांगने वाले भले हमें माफ कर दें, भाषा हमें माफ नहीं करेगी! ऐसा करने से भले आपके बॉस खुश हो जाएँ, भाषा कतई खुश नहीं होगी! ऐसा करने से भले राजभाषा अधिकारी को धड़ाधड़ प्रोमोशनमिल जाए, पर यकीन मानिए, भाषा-सेवक का डिमोशनही होगा! क्योंकि आँकड़ों की कॉस्मेटिक सर्जरीसे भाषा का कोई भला नहीं हो रहा है!

विज्ञान की भाषा में कहें तो हम दीवार पर बल (फोर्स) तो लगा रहे हैं पर हम एक इंच भी आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं! तो असल में भाषा की जमीन पर कोई कार्य ही निष्पादित नहीं हो रहा है क्योंकि वर्क डन इज इक्वल टू फोर्स अप्लाईड इंटू डिस्टेंस’!

जरा गौर कीजिए! इतनी चाक-चौबंद व्यवस्था और इतना रोबस्ट सिस्टमहोने के बावजूद किसी भी पॉलिसी इम्प्लीमेंटेशनमें इतना लोचा है तो हमारे ऑफिसियल लैंग्वेज इम्प्लीमेंटेशनमें कितना लोचा होगा! संबंधित ऑथरिटीके इतने कड़े रूख, इतने कड़े तेवर, इतने कड़े निर्देश, इतनी कड़ी निगरानी के बावजूद, ‘पॉलिसी इम्प्लीमेंटेशनके तत्काल डिजायर्ड इफेक्ट्स अचीवनहीं हो पाते तो ऑफिसियल लैंग्वेज इंम्प्लीमेंटेशन पॉलिसीतो प्रेरणा और प्रोत्साहन पर आधारित है! हम चाहकर भी एक झटके में शून्य से शतांक तक नहीं पहुँच सकते.


विशेषज्ञता
यह जान लीजिए कि आँकड़े जुटाना, भरना, भेजना महज ऊपरी काम है! जिसे कोई भी कर सकता है. इसमें राजभाषा अधिकारी की विशेषज्ञता कहाँ हैहमारा असली और अंदरूनी काम है- भाषा का इस्तेमाल बढ़ाना! पर यह बात किसी से नहीं छिपी है कि आँकड़ों के बढ़ने से भाषा का इस्तेमाल नहीं बढ़ता! आँकड़ों से भाषा का कभी भला नहीं होता! भाषा के इस्तेमाल से भाषा का भला होता है! और आँकड़े भाषा का इस्तेमाल नहीं करते! लोग करते हैं भाषा का इस्तेमाल! पर लाख दावे और छलावे के बावजूद, आँकड़ों के बहुत करीब पहुँच कर भी हम लोगों से बहुत दूर हैं!

प्रवीणता प्राप्त और कार्यसाधक ज्ञान प्राप्त कर्मचारियों की संख्या मात्र बढ़ा देने से भाषा का इस्तेमाल नहीं बढ़ जाता! पर हम यही मानते हैं! और जब असल में इस्तेमाल नहीं बढ़ पाता है तो हम आँकड़े बढ़ा देते हैं! दरअसल हम लोगों के पास आँकड़े मांगने जाते हैं, भाषा का इस्तेमाल बढ़ाने नहीं जाते हैं! इसलिए लोग भी हमें डाटा एंट्री ऑपरेटरसे अधिक कुछ नहीं समझते! या कहें, हम भी खुद को डाटा एंट्री ऑपरेटरही समझ बैठे हैं! वरना एक भाषा का सेवक, भाषा का किसान किसी के पास जाए और वह खाली हाथ लौट आए, ऐसा हो ही नहीं सकता!

राजभाषा अधिकारी  दरअसल राजभाषा नहीं, भाषा अधिकारी होता है. वह ऑफिसियल लैंग्वेज ऑफिसरनहीं, दरअसल लैंग्वेज ऑफिसरहोता है. वह ट्रांसलेशन ऑफिसरहोता है. एक राजभाषा अधिकारी दरअसल भाषाकर्मी होता है. जैसे बैंकिंग क्षेत्र में काम करने वाला कोई भी व्यक्ति सबसे पहले बैंकरहोता है. जैसे नॉलेज इंस्टीट्यूटशंसकहे जाने वाले तमाम संस्थानों के बाकी लोग नॉलेज ऑन्ट्रेप्रेन्योर्सहैं, ठीक वैसे हीहम राजभाषा अधिकारी लैंग्वेज ऑन्ट्रेप्रेन्योर्सहैं! इसलिए हमें भाषा का उद्यमी होना है, आँकड़ों का नहीं! हमें भाषा का अध्यवसायी बनना है, आँकड़ों का नहीं! हमें अनुवाद का अनुगामी बनना है, आँकड़ों का नहीं! हमें भाषा का अभ्यासी बनना है, आँकड़ों का नहीं!

पर अफसोस कि आँकड़ों में लगातार लोटते-पोटते, हम आउटपुट-ओरिएंटेड ऑफिसरबन गए हैं! जबकि प्रचलित धारणा के उलट, हमको इनपुट-ओरिएंटेड ऑफिसरबनना है! हम अबतक मैक्रो लेवलपर काम करते आए हैं, जबकि असल में हमें माइक्रो लेवलपर काम करना है!


खोजी बनामखबरी
आँकड़ों के फेर में हम भाषा में अन्वेषी बनना भूल गए हैं. दरअसल हम आँकड़े बढ़ाने-घटाने के चक्कर में खोजी होने के बजाय, खबरी बन गए हैं! चाहे सेमिनार हो या सम्मेलन, कोई कार्यशाला हो या कोई बैठक-  हम ले-देकर बस आँकड़ों में ही लटपटाए रहते हैं! राजभाषा सेमिनारों, सम्मेलनों आदि में भी पढ़े जाने वाले पर्चे भी, भाषा और अनुवाद को छोड़कर, अन्य तमाम मुद्दों पर केन्द्रित होते हैं और उन्ही विषयेतरमुद्दों पर आह-वाह करने की अब तो स्थापित परंपरा भी बन चुकी है! हिंदी को प्रोत्साहन और हिंदी दिवस मनाने के नाम पर हम सांस्कृतिक कार्यक्रम पेश करने-कराने वाले सांस्कृतिक कर्मी में तब्दील हो जाने को तत्पर होते हैं पर शायद ही हम आपस में कभी भाषा पर, अनुवाद पर, किसी नए अंग्रेजी शब्द के सही, सटीक पर्याय पर गंभीरता से, शिद्दत से बात करते हैं! शब्दावली-निर्माण आदि को केंद्र में रखकर किए गए हमारे इक्के-दुक्के प्रयास भी दरअसल खानापूर्ति जैसी औपचारिक और ठस्स मशक्कत ही होते हैं, जिसमें भाषा के जज्बे से कम ही काम लिया जाता है!

ऐसे में न तो अल्प-प्रचलित हिन्दी पर्यायों को और माँजने, इस्तेमाल में लाने की कहीं कोई सच्ची कोशिश दिखती है और न ही कहीं कार्यालयीन कामकाज में प्रयुक्त हो रही हिन्दी और दैनंदिन अनुवाद को और अधिक सहज-सरल बनाने की सतत कोशिश दिखती है! हम कभी किसी शब्द या अनुवाद को लेकर कभी चर्चा-परिचर्चा नहीं करते जबकि भाषा और अनुवाद ऐसी अंतःक्रियाएँ हैं जो चौबीसों घंटे हमें अपने आप में डुबोए रखती है. पर हम भाषा की नदी और अनुवाद के समंदर में कभी तबीयत से छलांग ही नहीं लगाते!


भाषा का भ्रष्टाचार
हम भाषा के सेवक हैं. इसलिए हमारा दायित्व भाषा को भ्रष्ट होने से बचाना भी है. एकदम शुद्धतावादी होने से बचते हुए और भाषायी विवेक का सचेत इस्तेमाल करते हुए, हमें भाषा को न तो एकदम संस्कृतनिष्ठ ही बनने देना है और न ही भाषा को एकदम दरिद्र बना देना है! जैसे मौद्रिक नीति के अंतर्गत नीतिगत ब्याज दर तय करने में हम  पीएलआर, बीपीएलआर, बेस रेट से आगे बढ़ते हुए, आज एलएएफ यानी लिक्विडिटी एडजस्टमेंट फैसिलिटीतक चले आए हैं, ठीक वैसे ही, हमारी राजभाषा हिंदी भी संस्कृतनिष्ठ से बहुत आगे बढ़ते हुए, ‘मॉडर्नऔर मार्केट-फ्रेंडलीहो गई है. लेकिन जैसे हम कॉल मनी मार्केटके रेट कॉरिडोरको चौड़ा (वाइड) नहीं, संकरा (नैरो) ही रखते हैं ताकि नीतिगत दर निर्धारितकरने का उद्देश्यही हमारे हाथ से न निकल जाए, ठीक वैसे ही हम हिंदी में अंग्रेजी की मिलावट के कॉरिडोरको भी एकदम ढीला नहीं छोड़ सकते, नहीं तो हमारी भाषा ही हमारे हाथ से निकल जाएगी! तब यह भले बहुत कुछ और हो जाए, हिंदी तो जरा भी  नहीं रह जाएगी!

संस्कृतनिष्ठ बनाम सहज-सरल पर्याय के इस  मामले को इस उदाहरण से भी समझिए. बॉलीवुड की हिंदी फिल्मों में 'लव-ट्राइंग्ल'का खूब इस्तेमाल होता है! अंग्रेजी के इस 'लव ट्राइंग्ल'के लिए हिंदी में 'प्रेम-त्रिकोण'कहा जाता है! लेकिन इसमें 'प्रेम'और 'त्रिकोण' - दोनों शब्द ही घनघोर संस्कृतनिष्ठ हैं! कइयों को तो इन्हें बोलने में तो कइयों को इन्हें समझने में भी घनघोर कठिनाई होती होगी! तो इस संस्कृतनिष्ठ 'प्रेम-त्रिकोण'को सरल-सहज करते हुए क्यों न 'प्यार-तिकोना'कर दिया जाए? लेकिन क्या इसमें वही बात, वही स्वाद है, जो उस संस्कृतनिष्ठ 'प्रेम-त्रिकोण'में है?? और सबसे मजेदार सवाल तो यह कि इतना संस्कृतनिष्ठ होने के बावजूद यह हिंदी पर्याय  इतना प्रचलित और स्वीकृत कैसे हो गया?? यानी समस्या संस्कृतनिष्ठ होने में नहीं है, इनके इस्तेमाल के प्रति निर्रथक दुराग्रह और दुष्प्रचार में है!!


अनवरत
अक्सर संस्कृतनिष्ट हिन्दी और संस्कृतनिष्ठ हिन्दी पर्याय के निराधार आरोप की आड़ में लोग हिन्दी में सीधे-सीधे अंग्रेजी शब्दों को ही स्वीकार कर लेने और इस्तेमाल में ले आने की पुरजोर वकालत करने लगते हैं. और यह वकालत दबाव और दबदबे की हद तक पहुँच जाती है. ऐसे में राजभाषा अधिकारियों के लिए अपने घुटने टेक देना सबसे आसान रास्ता होता है. लेकिन इससे भाषा का सीधा-सीधा नुकसान तो होता ही है, उस गलत धारणा को भी बल मिल जाता है, जिस गलत धारणा के बल पर हिन्दी पर्यायों की जगह सीधे-सीधे अंग्रेजी शब्दों को आसानी से जगह मिल जाती है!

इसलिए इस प्रतिकूल रवैये से पार पाने का एक ही उपाय है कि हम सीधे-सीधे अंग्रेजी शब्दों को इस्तेमाल में लेने और लाने का भरसक विरोध करें और उन शब्दों के लिए हिन्दी में उपलब्ध सटीक और समर्थ हिन्दी पर्यायों को सामने रखने और उनको इस्तेमाल में लाने का दृढ़तापूर्वक प्रयास करें. इसके लिए हम लोगों से खुलकर चर्चा करें, अन्य भाषाओं से उदाहरण लेकर उन्हें समझाने-बुझाने की कोशिश करें. उन हिन्दी पर्यायों का उदाहरण दें जो शुरू में अटपटे लगते थे लेकिन इस्तेमाल में आने के बाद, धीरे-धीरे सहज और अपने लगने लगे. प्रबंधन, प्रसंस्करण, आरक्षण, ई-बटुआ, ई-भुगतान, समय-सारणी, जैव-विविधता, पर्यावरण-हितैषी आदि-आदि जैसे सैकड़ों शब्द शुरू में लोगों को शायद थोड़े असहज लगे होंगे, लेकिन अब वे प्रचलित होते-होते मानक और सहज हो गए हैं! इसलिए यदि आप सचमुच भाषा के सेवक हैं तो भाषा के हक में बिना भरदम कोशिश किए, कभी हार न मानें.


देशज
मुंबई में आप यदि सड़क मार्ग से शहर में या शहर के इर्दगिर्द यात्रा कर रहे हों तो जरा गौर करें कि अंग्रेजी में लिखे यातायात-निर्देशों को मराठी में कितनी सहजता से व्यक्त किया गया है! मैं अपनी बात कुछेक उदाहरण की मदद  से स्पष्ट करता हूँ. अंग्रेजी शब्द ‘Flyover’ के लिए मराठी में उड्डानपुललिखा गया है. फिर हम हिन्दी में सीधे-सीधे  अंग्रेजी शब्द फ़्लाइओवरही क्यों लिख देना चाहते हैं? क्या हम इसके बदले हिन्दी में भी उड्डानपुलनहीं लिख सकते? इसी तरह अंग्रेजी शब्दों  ‘Free Way’ और ‘Underpass’ के लिए मराठी में क्रमशः मुक्त मार्गऔर भुसारी मार्ग’  शब्द प्रयोग किए गए हैं, जो बिलकुल साफ-साफ समझ में आते हैं. लेकिन हम हिन्दी में सीधे-सीधे फ्री वेऔर अंडरपासही लिख देना चाहते हैं! क्या हम हिन्दी में भी क्रमशः मुक्त मार्गऔर भुसारी मार्ग’  शब्द प्रयोग नहीं कर सकते? क्या हम इन्हें हिन्दी में धड़ल्ले से इस्तेमाल कर प्रचलित नहीं बना सकते?

पर लोगों को तुरंत आपत्ति हो जाएगी कि ये तो अटपटा है! भाई, ये शब्द न तो मराठियों के लिए अटपटे हैं न हिंदीभाषियों के लिए. मैं पूछता हूँ, जब आप सीधे-सीधे अंग्रेजी शब्दों को स्वीकार कर लेने को उतावले हैं तो आपको प्रांतीय भाषाओं के इतने सहज-सुंदर पर्यायों को अपनाने में दिक्कत क्यों हो रही है? मुझे तो ‘Underpass’ के लिए यह भुसारी मार्गबहुत प्यारा पर्याय लग रहा है! मराठी में ‘Accident Prone Zone’ को अपघात प्रवण क्षेत्रकहा जाता है. मुझे तो यह दुर्घटना संभावित क्षेत्रसे कहीं अधिक सहज-सरल पर्याय लग रहा है और इसका प्रयोग करने में भी किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए!

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अभी हाल में कोलकाता के एक चिकित्सा जाँचघर में ‘X-Ray’ को हिन्दी में क्ष-किरणलिखा हुआ देखा तो मुझे बहुत खुशी हुई. हम ‘X-Ray’ को हिन्दी में भी एक्स-रेही लिखते आ रहे हैं. पर देखिए, ‘क्ष-किरणके रूप में यहाँ इसका कितना सही, सटीक और संप्रेषणीय पर्याय इस्तेमाल किया जा रहा है!

इसलिए भाषा में नए शब्दों की आवाजाही सिर्फ एक ही भाषा (अंग्रेजी) तक सीमित न रह जाए, यह भी हम भाषा के सेवकों को देखना होगा.
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राहुल राजेश, बी-37, आरबीआई स्टाफ क्वाटर्स, डोवर लेन, गड़ियाहाट, कोलकाता-700029.
मो.: 09429608159
ई-मेल: rahulrajesh2006@gmail.com

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भारत भूषण सम्मान और अदनान कफ़ील दरवेश की कविता 'क़िबला'





























हिंदी साहित्य के लिए पुरस्कार तो बहुत हैं पर भारत भूषण अग्रवाल सम्मान अपनी तरह से अकेला ही है. हर वर्ष किसी युवा कवि की एक कविता पर दिया जाने वाला यह सम्मान (राशि ५००० हजार रूपये.) अपनी स्थापना से ही (१९८०) से चर्चित, प्रशंसित और निन्दित रहा है. खुद चयन में शामिल कुछ लेखकों ने इस पर गम्भीर सवाल उठायें हैं.

३५ वर्ष से कम आयु के कवि की कविता के चयन में – नेमिचन्द्र जैन, नामवर सिंह, अशोक वाजपेयी, केदारनाथ सिंह, विष्णु खरेप्रारम्भ में शामिल थे. प्रत्येक वर्ष क्रम से यह एकल चयन की प्रक्रिया संचालित होती थी. बाद में चयन कर्ताओं में नये लेखकों को जोड़ा गया अब अशोक वाजपेयी, अरुण कमल, उदय प्रकाश, अनामिका और पुरुषोत्तम अग्रवालप्रत्येक वर्ष श्रेष्ठ युवा कविता का चयन करते हैं.

इस वर्ष का भारत भूषण अग्रवाल सम्मान युवा कवि अदनान कफील दरवेश की कविता क़िबला को देने की घोषणा आलोचक पुरुषोत्तम अग्रवाल द्वारा की गयी है. कविता और चयन वक्तव्य आपके लिए.











क़िबला
अदनानकफ़ीलदरवेश 



माँकभीमस्जिदनहींगई 
कमसेकमजब सेमैंजानताहूँमाँको 
हालाँकिनमाज़पढ़नेऔरतेंमस्जिदेंनहींजायाकरतींहमारेयहाँ 
क्यूंकिमस्जिदख़ुदाकाघरहैऔरसिर्फ़मर्दोंकीइबादतगाह  
लेकिनऔरतेंमिन्नतें-मुरादेंमांगनेऔरताखाभरनेमस्जिदेंजासकतीथीं 
लेकिनमाँकभीनहींगई 
शायदउसकेपासमन्नतमाँगनेकेलिएभीसमयरहाहो 
याउसकीकोईमन्नतरहीहीनहींकभी 
येकहपानामेरेलिएबड़ामुश्किलहै 
यूँतोमाँनइहरभीकमहीजापाती 
लेकिनरोज़देखाहैमैंनेमाँको 
पौफटनेकेबादसे ही देरराततक 
उसअँधेरे-करियायेरसोईघरमेंकामकरतेहुए 
सबकुछकरीनेसेसईंतते-सम्हारते-लीपते-बुहारतेहुए 
जहाँउजालाभीजानेसेख़ासाकतराताथा 
माँकारोज़रसोईघरमेंकामकरना 
ठीकवैसाहीथाजैसेसूरजकारोज़निकलना 
शायदकिसीदिनथका-माँदासूरजभीनिकलता 
फिरभीमाँरसोईघरमेंसुबह-सुबहहीहाज़िरीलगाती.

रोज़ धुएँकेबीचअँगीठी-सीदिन-रातजलतीथीमाँ 
जिस परपकतीथींगरमरोटियाँऔरहमेंनिवालानसीबहोता
माँकीदुनियामेंचिड़ियाँ, पहाड़, नदियाँ 
अख़बारऔरछुट्टियाँबिलकुलनहींथे 
उसकीदुनियामेंचौका-बेलन, सूप, खरल, ओखरीऔरजाँताथे 
जूठनसेबजबजातीबाल्टीथी 
जलीउँगलियाँथीं,फटीबिवाईथी 
उसकीदुनियामेंफूलऔरइत्रकीख़ुश्बूलगभगनदारदथे 
बल्किउसकेपासकभीसूखनेवालाटप्-टप्चूतापसीनाथा

उसकीतेज़गंधथी 
जिससेमैंमाँकोअक्सरपहचानता.

ख़ालीवक़्तोंमेंमाँचावलबीनती 
औरगीतगुनगुनाती
"लेलेअईहSबालमबजरियासेचुनरी
और हम, "कुच्छुचाहीं,कुच्छुचाहीं…" रटतेरहते 
औरमाँडिब्बेटटोलती 
कभीखोवा, कभीगुड़, कभीमलीदा
कभीमेथऊरा, कभीतिलवाऔरकभीजनेरेकीदरीलाकरदेती.

एकदिनचावलबीनते-बीनतेमाँकीआँखेंपथरागयीं 
ज़मीनपरदेरतककामकरते-करतेउसकेपाँवमेंगठियाहोगया  
माँफिरभीएकटाँगपरखटतीरही
बहनोंकीरोज़बढ़तीउम्रसेहलकान 
दिनमेंपाँचबारसिरपटकती ख़ुदाकेसामने.

माँकेलिएदुनियामेंक्योंनहींलिखागयाअब तक कोईमर्सिया,कोईनौहा
मेरी माँकाख़ुदाइतनानिर्दयीक्यूँहै
माँकेश्रमकीक़ीमतकबमिलेगीआख़िरइसदुनियामें
मेरीमाँकीउम्रक्याकोईसरकार, किसीमुल्ककाआईनवापिसकरसकताहै
मेरीमाँकेखोयेस्वप्नक्याकोईउसकीआँखमें
ठीकउसीजगहफिररखसकताहैजहाँवेथे

माँयूँतोकभीमक्कानहींगई 
वोजानाचाहतीथीभीयानहीं 
येकभीमैंपूछनहींसका 
लेकिनमैंइतनाभरोसेकेसाथकहसकताहूँकि 
माँऔरउसकेजैसीतमामऔरतोंकाक़िबलामक्केमेंनहीं 
रसोईघरमेंथा... 
(वागर्थ, मासिकपत्रिका, अंक 266, सितंबर 2017)







अदनान की यह कविता माँ की दिनचर्या के आत्मीय, सहज चित्र के जरिेएमाँ और उसके जैसी तमाम औरतोंके जीवन-वास्तव को रेखांकित करती है. अपने रोजमर्रा के वास्तविक जीवन अनुभव के आधार पर गढ़े गये इस शब्द-चित्र में अदनान आस्था और उसके तंत्र यानि संगठित धर्म के बीच के संबंध की विडंबना को रेखांकित करते हैं.

क़िबलाइसलामी आस्था में प्रार्थना की दिशा का संकेतक होता है. लेकिन आस्था के तंत्र में ख़ुदा का घर सिर्फ मर्दों की इबादतगाह में बदल जाता है, माँ और उसके जैसी तमाम औरतों का क़िबला मक्के में नहीं रसोईघर में सीमित हो कर रह जाता है. स्त्री-सशक्तिकरण की वास्तविकता को नकारे बिना, सच यही है कि स्त्री के श्रम और सभ्यता-निर्माण में उसके योगदान की पूरी पहचान होने की मंजिल अभी बहुत बहुत दूर हैआस्थातंत्र के साथ ही सामाजिक संरचना की इस समस्या पर भी कविता की निगाह बनी हुई है.

अदनान की यह कविता सभ्यता, संस्कृति और धर्म में स्त्री के योगदान को, इसकी उपेक्षा को पुरजोर ढंग से रेखांकित करती है. उनकी अन्य कविताओं में भी आस-पास के जीवन, रोजमर्रा के अनुभवों को प्रभावी शब्द-संयोजन में ढालने की सामर्थ्य दिखती है.

मैंक़िबलाकविता  के लिए अदनान क़फ़ील दरवेश को भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार देने की संस्तुति करता हूँ.
पुरुषोत्तम अग्रवाल.
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अदनानकफ़ीलदरवेश
30 जुलाई1994
(जन्मस्थान: ग्राम-गड़वार, ज़िला-बलिया, उत्तरप्रदेश)

कुछ कविताएँ पत्र -पत्रिकाओं में प्रकाशित’

मंगलाचार : सुदर्शन शर्मा










बोधि प्रकाशन की कवि ‘दीपक अरोड़ा स्‍मृति पांडुलिपि प्रकाशन योजना’ के अंतर्गत इस वर्ष के चयनित कवि हैं, अखिलेश श्रीवास्तव और सुदर्शन शर्मा. अखिलेश की कविताएँ आप समालोचन पर पढ़ चुके हैं. सुदर्शन शर्मा की कविताएँ आपके लिए.

आज ही दोनों कविता संग्रहों का लोकार्पण भी है. बधाई कवि-द्वद्व को और माया मृग को भी जिन्होंने दीपक अरोड़ा की स्मृति में यह सार्थक परम्परा चला रखी है.





सुदर्शन शर्मा की कविताएँ                 


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कविता - रहस्य : कृष्ण कल्पित की आर्स पोएटिका : शिव किशोर तिवारी







कहते हैं वाल्टर वेन्यामिन सिर्फ उद्धरणों द्वारा ही एक किताब लिखना चाहते थे. कृष्ण कल्पित ‘विरचित’ कविता–रहस्य (New Criticism उर्फ़ नया काव्यशास्त्र) को आप शास्त्र और काव्य के सहमिलन से तैयार दिलचस्प किसी किताब के तौर पर भी पढ़ सकते हैं, इसे एक बैठकी में पूरा पढ़ा जा सकता है. यह मोहक, मारक और मननीय है.

इस ‘कविता-रहस्य’ के पास देर से ही सही शिव किशोर तिवारी जैसा ‘सह्रदय’ पहुंचा है. किसी कृति को जब उसका आलोचक मिलता है तब कृति कैसे खुलती है इसे देखना हो तो यह आलेख पढ़ना चाहिए. यह भी कम रुचिकर नहीं है.


कृष्ण कल्पित की आर्स पोएटिका : कविता-रहस्य               
शिव किशोर तिवारी




“हिंदी का प्रथम काव्यशास्त्र” कृष्ण कल्पित का कविता-रहस्य(2015) छपने के कोई साल भर बाद ई-कामर्स की कृपा से मेरे पास आया (अब गूगल करने पर कविता-रहस्य के नाम पर मेरी ही लिखी एक टिप्पणी का सुराग मिल रहा है, बस). तब यह सोचना स्वाभाविक लगा कि इस अनूठी कृति पर सबका ध्यान जायेगा. आख़िर यह पहला मौक़ा था जब किसी हिंदी कवि ने अपने युग, परिवेश और भाषा के परिप्रेक्ष्य में अपनी भूमिका और प्रासंगिकता को परखने का साहस किया था और अपने अनिर्णय, संदेह, भय, उलझन आदि को खुलकर साझा किया था. 

महत्त्वपूर्ण यह नहीं था कि उसने कौन सी नवीन व्युत्पत्ति प्रस्तुत की. महत्त्वपूर्ण यह था  एक स्थापित साठ वर्षीय कवि ने अपनी सफलता को एक किनारे डाल अपने आप से पूछने का ख़तरा उठाया – मैं ऐसा क्या कर रहा हूँ जो युग के लिए अर्थ रखता हो. हो सकता है कृति में फैले हुए तमाम एल्यूज़ंस ने पाठक के अंदर आलस्य उत्पन्न किया हो. या संभव है इस कृति की कंगारू शैली ने पढ़ने वालों को हतोत्साहित किया हो. या शायद हिंदी में किताबों के चर्चित-अचर्चित रहने का अपना तर्क हो. मोटी बात यह है कि इस कृति की ख़ास चर्चा नहीं हुई. अब अपनी पहली कुछ पंक्तियों की टिप्पणी के ठीक दो साल यह कुछ विस्तृत टिप्पणी लिखने में प्रवृत् हुआ हूँ.
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(कृष्ण कल्पित)


लेखक ने भूमिका में बताया है कि वे राजशेखर (9वीं-10वीं शताब्दी) से प्रभावित हैं. राजशेखर का ग्रंथ ‘काव्यमीमांसा’ 18 अधिकरणों में बँटा था ऐसा मानते हैं परंतु केवल 18 अध्यायों का एक अधिकरण अब तक प्राप्त हुआ है. इस अधिकरण का नाम ‘कवि-रहस्य’है जिससे कल्पित ने अपनी कृति का नाम ग्रहण किया है. राजशेखर के कुल का नाम यायावर था. स्वभाव से भी घुमंतू थे ऐसा प्रतीत होता है. रामशंकर मिश्र के उपन्यास ‘राजशेखर’में उनकी घुमक्कड़ी का विस्तर वर्णन किया है.

कल्पित ने अपनी कविताओं और वक्तव्यों में कई बार अपनी यायावरी का ज़िक्र किया है. काव्यमीमांसा में जहाँ राजशेखर ने औरों से अलग अपना मत व्यक्त किया है वहाँ ‘इति यायावरीय:’लिख दिया है. इसी की अनुकृति में कल्पित ने अपने ग्रंथ के हर अध्याय की समाप्ति पर ‘इति यायावरीय’ लिखा है – माने यह कल्पित का मत है. ‘कविता- रहस्य’ को समझने के लिए यह बात महत्वपूर्ण है. तमाम एल्यूज़न और उद्धरणों के बाद यह कल्पित का काव्यशास्त्र है.

परंतु कल्पित राजशेखर की तरह व्यवस्थित नहीं. अलग-अलग अध्यायों की विषयवस्तु उल्लिखित नहीं है यह बड़ी बाधा नहीं है. मुश्किल है लेखक का अचानक एक विषय से दूसरे विषय पर कूद जाना (जिसे मैंने कंगारू शैली कहा है) और बहुत-सी ओवरलैपिंग. पाठकों के लिए मैं विषयवस्तु को व्यवस्थित करने का प्रयास करता हूँ.


प्रथम - अध्याय
कविता-कवि-आलोचना

पहले अध्याय में एक थीम शुरू होती है जो ग्रंथ के अंत तक चलती है –  “पूरब की कविता भली औ’पश्चिम का गद्य”. याने लेखक East is east and west is westइस कथन को नये ढंग से दुहराता है. बाद के अध्यायों में संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, ब्रजभाषा, उर्दू और फ़ारसी के काव्य की चर्चा करते हुए इस पौर्वात्य कविता का एक ख़ाका खींचने का प्रयास हुआ है. इस अध्याय में कविता पर जो सूत्र लिखे हैं उनमें भी यह प्रयास स्पष्ट हैं. कुछ तो ऐसे आत्यंतिक सूत्र हैं जिनसे लेखक को स्वय आने वाले अध्यायों में हटना पड़ा है; जैसे-

“कविता पूरब की एक गाँजा पीने वाली सिद्ध योगिनी का नाम है.“

“जीवन की आलोचना गर कविता का काम.
कौन करेगा बच गये इतने सारे काम ..”

यह एक निर्णायक अवस्थिति है कि कविता अन्तर्मुखी, स्वानुभव-केन्द्रित, आत्मतत्त्वान्वेषी और लोकनिरपेक्ष उद्यम है. आर्नल्ड की ‘जीवन की आलोचना’वाली धारणा को यहां सम्पूर्ण नकार रहे हैं. परंतु दूसरे अध्याय में ही कविता की पक्षधरता की वकालत है –

“कविता प्रताड़ित और निर्धन के हृदय की हाय है
यह सनातन विपक्ष है.” (अध्याय 2, पृ 26) 

इसी तरह आर्नल्ड के कथन को अध्याय 5 में पुन: उद्धृत करके लेखक उसका इतनी स्पष्टता के साथ प्रत्याख्यान नहीं करता –

“कविता जीवन की आलोचना है या नहीं
कुछ कहा नहीं जा सकता
लेकिन यह पत्थर की लकीर है
कि आलोचना कविता का जीवन है. (पृ 89)

इस अध्याय में लेखक ने कवि और आलोचक के संबंध का भी ज़िक्र किया है. यहां राजशेखर की अवधारणा को दुहराया गया है कि कवि को भावक (पाठक/आलोचक) भी होना चाहिए. लेखक बाद के अध्यायों में भी इस विषय पर कई बार आता है. इसका अभिप्राय है कि कविता एक रचना है न कि “सबल भावों का सहज वन्यप्रवाह” (वर्ड्सवर्थ). इस तरह कल्पित काव्यानुशासन की क्लासिकी भारतीय परंपरा से जुड़ते हैं. गांजा पीने वाली योगिनी का चित्र इस दृष्टि से असंगत लगता है.

यहाँ यह स्पष्ट करते चलें कि जिन अंतर्विरोधों का दृष्टांत ऊपर दिया गया है वे इस युग के हिंदी कवि के अपरिहार्य अंत:संघर्ष से पैदा होते हैं. किसी ने पहली बार इस सत्य का इस तरह सामना किया यही इस ग्रंथ में विशिष्ट है.



द्वितीय - अध्याय
कवि के लिए अध्येय – कवि की मूल प्रकृति –काव्यप्रतिभा- लेखन बनाम वाचन

लेखक राजशेखर के इस निर्देश पर लौटता है – “एक कवि को शास्त्रों का अवगाहन, लोक का अवलोकन और अपने पूर्ववर्ती कवियों की कविताओं का पारायण सूक्ष्म रीति से करना चाहिये.”
कारण?
“इससे पूर्वलोक और परलोक के विलोकन की दिव्य अंतर- दृष्टि प्राप्त होती है.”

पूर्वलोक लेखक का गढ़ा शब्द है. इसका पूर्वकाल के अतिरिक्त अन्य अर्थ संभव नहीं लगता. उसके विपरीतार्थक के रूप में प्रयोग होने के कारण परलोक का अर्थ आने वाली दुनिया याने भविष्य का संसार यह अर्थ लेना पड़ेगा. इन पंक्तियों में भी क्लासिक नियमों के प्रति श्रद्धा दिखती है.   

परंतु कवि का जो रूप इस अध्याय में व्यक्त हुआ है वह इतना मासूम नहीं है. लेखक का मत है कि हर नये कवि को पुराने कवि का वध करना होता है. छंद में इस बात को किंचित् कवि-सम्मेलनी भाषा में इस तरह व्यक्त किया गया है –

बिजलियों की तरह झपटता है
क़ातिलों का गिरोह लगता है
क़त्लो गारत के बाद ही यारो
शायरों का नसीब जगता है

स्पष्टत: लेखक का अभिमत है कि पुरानी परिपाटी को नष्ट करके ही नई परिपाटी आ सकती है. यह आधुनिकतावाद – जैसी घोषणा लगती है जिसने रेनेसाँ से आरंभ करके 1900 तक के काव्यशास्त्र को सिर के बल खड़ा कर दिया था. परिवर्तन हर युग में हुआ है, जैसे अंग्रेज़ी में रेस्टोरेशन, आगस्टन, रोमैंटिक, विक्टोरियन आदि युगों में हुआ परंतु 1400 से 1900 तक की काव्यकला को दरकिनार कर एकदम नई काव्यभाषा का निर्माण आधुनिकतावाद ने ही किया. कल्पित का क़त्लो ग़ारत कुछ ऐसे परिवर्तन की बात करता प्रतीत होता है. लेखक संभवत: समकालीन हिंदी कविता के लिए एक नया मुहावरा चाहता है.

काव्य-प्रतिभा की व्याख्या कल्पित राजशेखर की पद्धति पर ही करते हैं जो स्वयं राजशेखर ने पूर्ववर्ती आचार्यों से ग्रहण की है. इसके तत्त्व हैं

1) अवधान या समाधि और
2) अभ्यास. अर्थात् काव्यशक्ति का एक तत्त्व आभ्यंतर और एक बाह्य है. (राजशेखर ने और भी बहुत लिखा है पर कल्पित इतना ही ग्रहण करते हैं.)

राजशेखर ने कारयित्री प्रतिभा और भावयित्री प्रतिभा का भेद माना है जिसे कल्पित ने इन शब्दों में व्यक्त किया है – “कवि बिन भावक कुछ नहीं, भावक बिन कविराज.“ यह बिंदु लेखक पहले अध्याय में भी उठा चुके हैं कि कवि और भावक (पाठक/आलोचक) अन्योन्याश्रित हैं.
इस अध्याय में कविता के वाचन (कहना) को लेखन के ऊपर रखा है. यह भी कविता की पौर्वात्य पद्धति का एक वैशिष्ट्य प्रतीत होता है.



तृतीय - अध्याय
पूरब की कविता – कव्यार्थ– कविता की लोकधर्मिता

यह पूरा अध्याय कल्पित की पूरब की कविता की अवधारणा को समर्पित है, यद्यपि एक जगह ब्रेष्ट भी घुस आये हैं. इस ग्रंथ की सबसे सशक्त पंक्तियां इस अध्याय में हैं –

“कविता दुधारू गाय नहीं होती
जिससे काव्यार्थ दुहा जाता हो
कविता की काया-कहन-शिल्प-कथ्य ही उसका भावार्थ है
कविता अन्तिम अमृत है
जिसे और नहीं निचोड़ा जा सकता.”

इन पंक्तियों में कुछ ऐसा नहीं है जो पहले न कहा गया हो पर जिस समास और प्रभोत्पादकता के साथ यहाँ कहा गया है वह दुर्लभ है. इस उद्धरण की मूल प्रस्तावना यह है कि कविता को अन्य शब्दों में समझना- समझाना निरर्थक है. वह एक पूर्ण ऑर्गैनिक सत्ता है जिसे उसकी पूर्णता में ही समझा जा सकता है.

कविता के संबंध में कल्पित की दूसरी स्थापना है कि वह नैतिक होती है “जिसे पढ़कर बुरे लोग गुस्से से काँपते/ और अच्छे लोग प्रसन्नता से नाचने लगते हैं.“

पूरबी कविता के तीन तत्त्व इस अध्याय में तीन प्रतीकों के माध्यम से बताये गये हैं – क्रौंच के प्रतीक से संस्कृत का काव्य, दूहा या दोहा के माध्यम से देशज या लोक काव्य तथा ग़ज़ल के माध्यम से अरबी-फ़ारसी की काव्य- परंपरा. इन तीनों के संयोग को कल्पित पूरबी कविता मानते हैं ऐसा प्रतीत होता है.

ग्रंथ में बार-बार कविता की लोकधर्मिता का उल्लेख है. इस अध्याय में चलते- चलते लेखक ने दुरूह आधुनिक कविता पर एक उद्धरणीय व्यंग्य किया है –

“सूख गईं नदियाँ सभी, उजड़ गये सब खेत.
गुज़रे थे इस राह से कठिन काव्य के प्रेत..”


चतुर्थ - अध्याय
कवि की प्रासंगिकता – काव्यार्थ – संप्रेषणीयता- मानवीयता

कालिदास का उदाहरण देते हुए कल्पित कहते हैं कि कवि कालजयी (पुरातन पर प्रासंगिक) नहीं बल्कि अकालजयी (शाब्दिक अर्थ अस्पष्ट पर अभिप्राय चिरनवीन, हर युग में नई दृष्टि से प्रासंगिक) होता है. रामायण में ब्रह्मा वाल्मीकि को वर देते हैं कि तुम्हारा लिखा सदैव सत्य होगा. इस उद्धरण के अलावा रामायण से एक अन्य उद्धरण से सहमति प्रकट करते हुए कल्पित कहते हैं कि न केवल काल अपितु स्थान का अतिक्रमण भी कवि के लिए संभव है. राजशेखर को उद्धृत करके लेखक ने कहा है कि कवि भूत, वर्तमान और भविष्य तीनों को समझने में समर्थ है. कवि की प्रासंगिकता से संबंधित विचारों में नवीनता नहीं है न कोई अनिश्चय. लेकिन पुस्तक में अन्यत्र प्रचुर अनिश्चय है –

“ख़ुदा-ए-सुख़न कहे जाने वाले
मीर तक़ी मीर की क़ब्र कहते हैं
लखनऊ के पास रेलगाड़ी की दो पटरियों के बीच
अपनी क़िस्मत पर आँसू बहा रही है” (पृ 89)

काव्यार्थ और संप्रेषणीयता पर लेखक अलग-अलग तीन प्रकार के विचारों का समर्थन करते हैं जिनमें दो इसी अध्याय से हैं –

1.         सरलता कविता का काम नहीं हो सकता : कविता का कार्यभार भाषा की कठिनता/ और उसके अंतरस्यूत गूढ़ रहस्यों को बचाये रखना है. (पृ 14)
2.         कविता को एक झीने पर्दे की तरह होना चाहिए/कुछ पर्दा कुछ बेपर्दा /आधा उजाला आधा अँधेरा /चले आओ ये है कविता का डेरा.(पृ 65)
3.         (संस्कृत शास्त्रकार को उद्धृत करते हुए) “जो ग्वाले से लेकर स्त्रियों तक को रुचिकर प्रतीत हो, ऐसा काव्य पाठ करने वाला कवि वाग्देवी का परम प्रिय होता है.“
अध्याय के अंत में कविता के माध्यम से  युद्ध का विरोध, राष्ट्रीयता का अस्वीकार, काव्य में समानुभूति की प्रधानता आदि पर फुटकर विचार हैं जो अन्य अध्यायों में भी आये हैं.



पंचम - अध्याय 
काव्यशास्त्र – प्रेम-कविता – मर्सिया शैली – पश्चम का काव्यशास्त्र – हिंदी कविता का वर्तमान

लेखक ने इस सामान्य तथ्य का उल्लेख किया है काव्यशास्त्र साहित्य के बाद आया. उसके बाद प्लेटो, अरस्तू, क्रोचे, रिचर्ड्स, आर्नल्ड आदि विद्वानों के विचारों का उल्लेख है. मैथ्यू आर्नल्ड को छोड़कर किसी का विरोध नहीं किया है.
प्रेम-कविता को स्त्री-पुरुष के प्रेम तक सीमित करने की निंदा करते हुए कल्पित निराला की सरोज-स्मृतिको दुनिया की श्रेष्ठ प्रेम कविता ठहराते हैं. सरोज-स्मृति एलेजी है. उसे प्रेम कविता की श्रेणी में रखने का तर्क स्पष्ट नहीं है.
काव्य की मर्सिया शैली की वकालत करते हुए कल्पित संभवत¨अपनी पूरब की कविता का सूत्र इस अध्याय में बनाये रखते हैं.
वर्तमान हिंदी कविता के विषय में लेखक के विचार निराशापूर्ण हैं –
“कविता के इतिहास में कभी-कभी कविता-विहीन समय भी आता है

ऐसे दरिद्र दौर में मसखरे, विट,प्लवक,शौभिक, भाँड़,जम्भक, हलकट,मवाली, नर्तक,गायक इत्यादि कवि के रूप में मशहूर हो जाते हैं और ऐसा तब होता है जब सच्ची कविता अपनी जड़ों से कट जाती है और कविता अनुवादों, अनुदानों और पुरस्कारों के अँधेरों में गुम हो जाती है.”
(विट- विदूषक, प्लवक- रस्सी का खेल दिखाने वाले मदारी, शौभिक- बाज़ीगर, जम्भक–प्रेत (प्रेतविद्या का जानकार?))



षष्ठ - अध्याय
काव्यार्थ – काव्यभाषा – कविता किसलिए – काव्यरचना – कविता में चोरी – नव समीक्षा
काव्यार्थ पर तीसरे अध्याय में जो लिख रखा है वही यहाँ दुहराते हैं –

“कविता का कब हो सका कोई निश्चित अर्थ.
मूल पाठ ही सत्य है व्याख्यायें सब व्यर्थ ..

काव्यभाषा के संदर्भ में लेखक ने किसी “जातीय अलंकार” का उल्लेख किया है और उसे कविता की प्रथम और मूल भाषा बताया है. जातीय अलंकार का “गुण यथार्थ-चित्रण है, बाकी जितने भी अलंकार हैं वे बढ़ाए हुए हैं और आचार्यों के वाग्विलास हेतु हैं”.रुद्रट ने वास्तव्य अलंकारों की श्रेणी में जाति अलंकार का उल्लेख किया है. वास्तव्य अलंकारों के बारे में रुद्रट कहते हैं – “ क्रियते वस्तुस्वरूपकथनम्” अर्थात् ये अलंकार

वास्तविक स्वरूप का कथन करते हैं. कल्पित का जातीय अलंकार यही प्रतीत होता है. (मेरा ख़्याल है कि अधिकांश पाठकों को संस्कृत काव्यशास्त्र में ऐसी अवधारणा पाकर आश्चर्य होगा.) किंतु कविता की भाषा और व्याकरण के बारे में कल्पित सख़्त हैं. शब्द-समृद्धि को वे सबसे आवश्यक मानते हैं. यहां कल्पित हिंदी शब्दसागर’ के विषय में एक टिप्पणी करते हैं जो उनकी ही कविता रेख़्ते के बीज की याद दिलाती है.

काव्यभाषा की चर्चा के बीच इस अध्याय में उद्धृत एक अद्भुत गद्य कविता को साझा करने का लोभ नहीं रोक पा रहा हूँ –

“झरते चले गए थे शब्द खड़खड़-खड़खड़ की डरावनी गूँज भरने लगी थी भीतर धुँधलके में आकाश की धूसर-धूसर देह के बासी कसाव में बेमन से लिपटे हुए दृश्य के तिलिस्म को झकझोरती हुई ठीक वक़्त पर पहुँचती हुई आख़िरी बस में मेरे पिछले सालों के अनुभवों का पतझड़ शुरू हो गया जब वसंत पंचमी से दो दिन पहले लौट रहा था अपने घर पूरे पौने तीन साल बाद अपने बाएं फेफड़े को कविता में गलाकर मैं दुनिया की बेजोड़ कविता हो गया जब मुझे देखा अपने मोतियाबिंद के बावजूद मां ने जिस तरह उसको क्या कभी लिख सकता हूँ
अब तक याद है मुझको
हवा में ठंड बाक़ी थी और मां की हथेलियों में गरमास”
(पृ 121)

“कविता किसलिए” शीर्षक देकर कल्पित वामन का उद्धरण देते हैं कि कविता का के दो उद्देश्य हैं – भावक के लिए आनंद की सृष्टि करना और
कवि के लिए अक्षय कीर्ति का अर्जन.
दूसरे उद्देश्य से कल्पित सहमत नहीं हैं. कीर्ति कवि को नष्ट करती है यह उनका मत है. पुरस्कारों का भी उन्होंने ग्रंथ में बार-बार विरोध किया है.
कविता में चोरी पर राजशेखर ने बड़े विस्तार से सख़्ती के साथ विचार किया है. कल्पित असहमत नहीं हैं पर अनुकरण को स्वाभाविक मानते हैं.
अंत में अमेरिकी आंदोलन “न्यू क्रिटिसिज़्म” का संक्षिप्त उल्लेख है. कल्पित इस विचारधारा से असहमति जताते हैं.




सप्तम - अध्याय
यह अध्याय इतना बिखरा हुआ है कि ‘की वर्ड’ निकालना असंभव हो गया है. पहले कल्पित उत्तर आधुनिकता का कुछ पंक्तियों में श्राद्ध करते हैं फिर डेरीडा को दो तीन वाक्यों में ख़ारिज करते हैं. मार्क्वाद और उसके सौंदर्यशास्त्र का उल्लेख सहानुभूति के साथ किया गया है. लेखक को विश्वास है कि इस समय दुरवस्था को प्राप्त होने के बावजूद “कविता और मार्क्सवाद अब भी मनुष्यता की आशा हैं”.

सके बाद इस अध्याय का मुख्य बल उन सामयिक हिंदी कवियों पर है जिनमें कल्पित को भविष्य की हिंदी कविता के बीज दिखते हैं. उद्धृत कवि हैं असद ज़ैदी, आलोकधन्वा, मंगलेश डबराल, वीरेन डंगवाल, अजंता देव और देवी प्रसाद मिश्र. अनुद्धृत परंतु उल्लिखित कवियों में कुमार विकल और ज्ञानेंद्र पति. इन अपवादों के अलावा “समकालीन हिन्दी कविता बहुत सारे ख़राब कवियों- कांवड़ियों का एक विशाल जुलूस है जो डोमाजी उस्ताद के नेतृत्व में जयपुर, दिल्ली, भोपाल, इलाहाबाद, लखनऊ, बनारस, पटना होते हुए धीरे-धीरे वैद्यनाथ धाम की और बढ़ रहा है.”

उल्लेखनीय है कि लेखक ने किसी भी उद्धृत कवि का नाम नहीं दिया है. जिन पंक्तियों को उन्होंने कविता की नई भाषा के निदर्शन के रूप में उद्धृत किया है उनके बारे में लिखते हैं – “यह ज़रूर किसी दीवाने- दुस्तर- दुर्लभ कवि की रचना होगी ”यह रहस्योद्घाटन मुझे करना पड़ेगा कि कवि देवी प्रसाद मिश्र हैं. पंक्तियाँ ये हैं –

“जिस टमाटर से यवतमाल के किसान का
ताज़ा ख़ून जैसा रिस रहा था
उस टमाटर के बारे में उसने बताया कि
यह जेनेटिकली मॉडिफ़ाइड बीज वाला टमाटर है
जिसके बीज अमेरिका में तैयार किए गए हैं
जान यह पड़ता था कि बहुत लंबे हाथों वाला वह आदमी भी ऐसे ही किसी
बीज से पैदा हुआ था जिसे विकसित करने में अमेरिका ने बरसों मदद की हो”.


तात्पर्य-निर्णय

ग्रंथ की भाषा-शैली कल्पित की कविताओं से अलग नहीं है. कल्पित की एक आकर्षक औघड़ - फक्कड़ शैली है जो इस ग्रंथ में जोम पर है. पर उनके लिखे में जनरलाइज़ेशन बहुत रहते हैं. जनरलाइज़ेशन कभी-कभी किसी परिचित तथ्य, घटना, मिथ या किंवदंती से एक सामान्य पर चामत्कारिक निष्कर्ष के रूप में प्रकट होता है और कभी पूरी तरह सनक जैसा लगता है. कविता में सनक के लिए स्थान होता है पर शास्त्र में नहीं खपता. कविता-रहस्य से एक उदाहरण –
“पूरब की कविता भली औ पश्चिम का गद्य.
कवि को तीनों चाहिए गद्य पद्य औ मद्य.. ( पृ19)
इसका क्या अभिप्राय समझा जाय?

एक दूसरी समस्या है उद्धरणों के अर्थ को अनावश्यक खींचना, जैसे,
“आचार्य वामन काव्यालंकारसूत्रवृत्ति में काव्य-रचना के उद्योग को अभियोग कहते हैं ...कविता लिखना यदि अभियोग है तो कवि अभियुक्त है...” (पृ 115)
वामन ने अभियोग शब्द का प्रयोग अभ्यास के अर्थ में किया है. अभ्यास शब्द का प्रयोग अनेक काव्यशास्त्रियों ने किया है. इल्ज़ाम का अभिप्राय कतई नहीं है.

ग्रंथ में परस्पर विरोधी कथन काफी हैं. इसके अलावा शुद्ध सनक के उदाहरण भी हैं, जैसे –
“कोई भी शास्त्र शूद्रों, स्त्रियों, असुरों और मूर्खों की निंदा के बिना पूर्ण नहीं होता जबकि नये ज़माने में इनकी निंदा आलोचना करना जान का जोखिम है.” (पृ 64)

यद्यपि यह वाक्य प्राचीन शास्त्रकारों और आधुनिक पोलिटिकल करेक्टनेस दोनों पर व्यंग्य की तरह ग्रहण किया जायेगा तथापि किताब में इसका कोई पूर्वापर संबंध दिखाई नहीं देता. एक अन्य स्थान में श्लोक और उसके दिये गये अर्थ में साम्य नहीं है (“हंस प्रयच्छ मे कान्तां ...” पृष्ठ 95).
इन सभी कारणों से कविता- रहस्य का तात्पर्य-निर्णय दुष्कर है. फिर भी कुछ निष्कर्ष स्पष्ट और दृश्य हैं -

1.         पूरब की कविता की वकालत बार–बार की गई है. कल्पित मानते हैं कि समकालीन हिंदी कविता अधिकतर ‘अनुवाद’ है अर्थात् कथ्य और शिल्प दोनों के स्तर पर किसी न किसी विदेशी वाद की अनुगामी है. वे एक नई कविता की सिफ़ारिश करते हैं जो हमारे अपने सरोकारों पर पूरब के शिल्प में लिखी जाय. पूरब के शिल्प से उनका अभिप्राय संस्कृत, प्राकृत आदि भारतीय भाषाओं और अरबी- फ़ारसी की परम्परा से जुड़ा शिल्प है जिसमें पश्चिम के शब्दों, बिंबों और प्रतीकों का अनुकरण न हो. पूरबियत का एक अनिवार्य अंग है श्रव्य परम्परा. कविता न केवल पढ़ी जाय बल्कि सुनाई भी जाय.

2.         भाषा के संबंध में कल्पित परम्परावादी हैं. वे शब्द-भांडार और व्याकरण पर बल देते हैं.

3.         संप्रेषणीयता को लेखक काम्य मानते हैं पर उसके प्रति कोई ‘डॉग्मैटिक’ दृष्टिकोण अपनाने को तैयार नहीं हैं.

4.         समकालीन हिंदी कविता के बारे में लेखक के विचार अनुकूल नहीं है. चंद कवियों को छोड़कर बाक़ी को गिरोहबंद कुकवियों का दल बताया है. कुकविता के मठाधीशों का  रूपक डोमाजी उस्ताद नामक एक माफिया सरदार को बनाया है जो मुक्तिबोध की ‘अँधेरे में’ भी प्रकट हो चुका है.

5.         पश्चिमी विचारधाराओं में लेखक को केवल मार्क्सवाद का भविष्य आशाजनक लगता है हालांकि इस दौर में वह ख़स्ताहाल है.


उपसंहार

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हिंदी में यह अपने ढंग की पहली पुस्तक है. मैंने इसे शास्त्र के हिसाब से समझने की कोशिश की है, इसलिए इसकी औघड़ शैली का आकर्षण इस प्रबंध में ठीक से विवेचित नहीं हुआ. पर यदि आपको शास्त्र में रुचि नहीं है तो इसे कविता की तरह पढ़िए.
__________________

शिव किशोर तिवारी
२००७ में भारतीय प्रशासनिक सेवा से निवृत्त.
हिंदीअसमियाबंगलासंस्कृतअंग्रेजीसिलहटी और भोजपुरी आदि भाषाओँ से अनुवाद और लेखन.
tewarisk@yahoocom 


मंगलाचार : अमृत रंजन



हिंदी कविता की दुनिया में बिलकुल नयी पीढ़ी दस्तक दे रही है. कुछ दिन पहले आपने समालोचन पर ही अस्मिता पाठक की कविताएँ उत्साह से पढ़ी थीं. आज १५ वर्षीय अमृत रंजन की कुछ कविताएँ आपके लिए.
यह देखना कि इन कविताओं में भय की एक लगातार बढ़ती हुई परिधि है, जो दरअसल वयस्कों द्वारा निर्मित इस संसार पर प्रश्न भी है. विचलित करता है.  

   
अमृत  रंजन  की  कविताएँ                             




बेचैन

कितना और बाक़ी है?
कितनी और देर तक इन
कीड़ों को मेरे जिस्म पर
खुला छोड़ दोगे?
चुभता है.

बदन को नोचने का मन करने लगा है,
लेकिन हाथ बँधे हुए हैं.
पूरे जंगल की आग
केवल मुट्ठी भर पानी से कैसे बुझाऊँ.
गिड़गिड़ा रहा हूँ,
रोक दो.
(2018)


अपवर्तन

रेगिस्तान में सूरज कैसे डूबता है?
क्या बालू में,

रौशनी नहीं घुटती?
(2018)



टूटे सात रंग

क्या आपने रंगीला आसमान देखा है?

मैंने देखा है
सात रंगों में बदल कर
आसमान में पानी की तरह फैलते हुए उसे

बहुत खुश नज़र आता है आसमान
लेकिन,
जैसा सब जानते हैं,

हर दुःख खुशी की चादर ओढ़े रहता है.
क्या ये रंग आसमान के आँसू हैं?
या केवल पानी है?
मैं नहीं जानता.

लेकिन यह जानता हूँ
कि आसमान दुःखी है.
ये सात रंग ख़ुशी के तो नहीं हो सकते.

ख़ुशी खुद में बँटती नहीं.
अगर ये ख़ुशी के रंग होते
तो आसमान इन्हें बाँटता नहीं.
(2016)


काग़ज़ का टुकड़ा

एक काग़ज़ के टुकड़े का,
इस ज़माने में,
माँ से ज़्यादा मोल हो गया है.
एक काग़ज़ के टुकड़े से
दुनिया मुट्ठी में आ सकती है.

एक काग़ज़ के टुकड़े से
लड़कियाँ ख़ुद को बेच देती हैं.
लड़के ख़रीद लेते हैं.
एक काग़ज़ के टुकड़े से
छत की छाँव मिलती है.


लेकिन जिसके पास काग़ज़
का टुकड़ा नहीं है
उसका क्या होता है?
रात बिन पेट गुजारनी पड़ती है.
आँसुओं को पानी की तरह
पीना पड़ता है.


छत के लिए तड़पना पड़ता है.
बिन एक काग़ज़ के टुकड़े के,
हम दुनिया में गूँगे होते हैं.
मगर आवाज़ दिल से आती है,
और याद रखो दिल को
ख़रीदा नहीं जा सकता.
(2014)



रात

कुछ समझ न आया
लड़खड़ाते हुए,
कदम रखा उस अँधेरी रात में.

डर लगना  
शुरू हो जाता है अँधेरे में

सितारों की हल्की सी रौशनी
हज़ारों ख़याल मन में.

लगता है मैंने
ग़ुस्ताख़ी कर दी
रात की इस चंचलता में फंस कर

अलग- अलग आवाज़ें आ
हमें सावधान कर जातीं
कि
बेटा, आगे ख़तरा पल रहा है,
जाना मत.

पर यह हमें उधर जाने के लिए
और भी उत्साह से भर देता है.
क़दम से क़दम मिलाते हुए
आगे बढ़ते हैं हम

एक रौशनी हमारी आँखों
को अपनी रौशनी दे
हमें उठा देती हैं.

बिस्तर पर बैठे हुए
सोचते हैं.
इतना उजाला क्यों है भाई!
(2014)



 
नामुमकिन

जब समय का काँच टूटेगा,
तब सारा समय अलग हो जाएगा.

वक़्त का बँटवारा,
न जाने कैसे होगा
मुमकिन.
(2018)


अगर हम उसके बच्चे हैं

अगर हम उसके बच्चे हैं
तो वह हमें अमर क्यों नहीं बनाता .
क्या वह अमर होने का फायदा
केवल ख़ुद लेना चाहता ?

अगर हम उसके बच्चे हैं
तो वह इस दुनिया में आए

अनाथों के लिए माँ की ममता,
क्यों नहीं जता जाता ?

अगर हम उसके बच्चे हैं,
तो वह, जिसे न किसी ने देखा
न किसी ने सुना है,
वह,
अपने बच्चे को भूखा मरते हुए
कैसे देख पाता ?

अगर हम उसके बच्चे हैं,
तो वह हम भाई-बहनों को,
एक-दूसरे का गला काट देने से
क्यों नहीं रोक पाता?

अगर हम उसके बच्चे हैं
तो वह हमारे अपनों को
मौत से पहले क्यों मार देता ?

मै पूछता हूँ क्यों ?
ऐसे कोई अपने बच्चों को पालता है भला?
________________



अमृत रंजन की उम्र 15 साल है. लगभग पिछले चार साल से वह कवितायें एवं गद्य लिख रहे हैं. आजकल अमेरिका में अपने माता-पिता के साथ रहते हुए ग्यारहवीं कक्षा में अध्ययन कर रहे हैं और अपने पहले कविता संग्रह को तैयार कर रहे हैं. साथ ही,कहानी तथा अन्य गद्य विधाओं में लेखन कर रहे हैं. वे 'जानकी पुल'  के संपादक भी हैं. 

विष्णु खरे : वह अंतिम आदमी

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(सौजन्य से अनुराग वत्स)

कवि, आलोचक, अनुवादक, पत्रकार, संपादक और फ़िल्म कला मर्मग्य विष्णु खरे एक महान पाठक भी थे. उन्हें किसी नवोदित की कोई कविता पढ़कर उससे बात करने में कोई संकोच कभी नहीं रहा. किसी बड़े रचनाकार को उसकी किसी पिद्दी रचना पर हड़काते हुए उन्हें अक्सर देखा जा सकता है. वे ये जानते थे कि किस कवि  की कौन सी कविता अच्छी है.

समालोचन से उनका गहरा-सघन जुड़ाव था. लगभग सभी पोस्ट पढ़ते थे और टिप्पणियाँ देते थे. आज जब वे नहीं ही खुद समालोचन चलाने की मेरी इच्छा आधी रह गयी है. ‘निर्भीक और सत्य की गहराइयों तक पहुँचने वाली दृष्टि’ अब बुझ गयी है.

उनके मित्रों और युवा मित्रों ने उन्हें यहाँ याद किया है. अब और क्या किया जा सकता है ?  

________
युवाओं का हमसफर
नरेश सक्सेना
विष्णु खरे  विलक्षण प्रतिभा के कवि आलोचक थे कभी-कभी बेहद कटु और दुस्साहसी. आहत करने वाले और संवेदनशील एक साथ. यह एक विरोधाभास की तरह उनमें था. प्रशंसा और प्रेम या कटु आलोचना और धिक्कार दोनों में अतिरेक. किन्तु कविता की उनसे बेहतर समझ बहुत ही कम लोगों में है. यह बेहद दु:ख और निराशा का समय है.

वे अकेले थे जिन्होंने आलोचना की भाषा में कविता को संभव किया. कभी-कभी ऐसा कठोर गद्य गोया कानून की किताब का अंश. असफल भी हुए तो फ़िक्र नहीं की.

बौद्धिक स्तर पर उनसे टकराने का साहस बहुत कम लोगों में था. जिनसें वे प्रेम करते थे वे भी उनसें डरते थे.

पिताओं के साथ टाइपिंग का इम्तिहान देने आई लड़कियों पर उनकी वह मार्मिक और करुणा से भरी कविता. उस विषय पर यानी निम्न मध्यवर्गीय पिताओं की बेटी को कम से कम क्लर्क बना देने की निरीह और कातर आकांक्षा. वैसी कविता हिंदी में दूसरी नहीं है.

उनके न रहने से सबसे बड़ी क्षति युवा कवियों की हुई है. इतने आग्रह और आत्मीयता से शायद ही कोई उन्हें पढ़ता हो.

जब वे युवा थे तो अपनी एक कविता में 'शाम को घर लौटती चिड़ियों’ से उन्होंने पूछा था एक अशुभ सवाल, कि चिड़ियो तुम मरने के लिये कहां जाती हो'

उनके बारे में अशुभ ख़बर सुनते ही, ये वाक्य अनायास ही याद आया.

वे जीवन की तलाश में बार-बार अकेले छिंदवाड़ा जाते थे. यही तलाश उन्हें दिल्ली खींच लाई थी.
मृत्यु ने कितनी क्रूरता से हमें याद दिलाया कि यही है जीवन.

________________________________

विष्णुखरेके लिए एक विदा
विजयकुमार

अन्ततवहीहुआ, जिसकीआशंकाथी.विष्णुखरेनहींरहे. उनकाजानाकोईअप्रत्याशित   नहीं.पिछलेकुछदिनोंसे  स्थितिबहुतखराबथी.फिरभी  उनपरकोई  शोकान्तिकाया  श्रूद्धांजलिलिखनाबहुतकठिनहै. 

एकजीवन्त, सृजनात्मक, वैचारिकसूचनात्मक, अनप्रेडिक्टेबलबहसतलब, जीवंत, जिज्ञासु, पढाकूजुझारू, मौलिक, गपशपकोआतुर, औपचारिकाताओंकोताकपररखदेनेवाला, प्रतिभाकोआगेबढकरअभयदेनेवाला, मूर्खताओंकोभड़भड़ादेनेवाला, प्रतिभाशून्ययशाकांक्षियोंकेलियेजूतानिकाललेनेवाला, किसीकेलेखयाकविताकेपसंदजानेपरदेरतकउसीकेबारेमेंबतरसमेंडूबारहनेवाला,   योग्यऔरअयोग्यकीअपने, एकदमअपनेमानकोंपरछंटनीकरनेवालासभीसेसंवाद  करताहुआ, सबकीआवाज़केपर्देमेंरहनेवाला, सभीकोखरीखरीसुनादेताहुआ, साहित्यकेटॉपफ्लोरसेग्राउंडफ्लोरतक  किसीकोभीसीधेसीधेफटकारलगादेनेवाला, मूर्तिभंजक, विवादप्रिय, मित्रताओंऔरशत्रुताओंदोनोंकासीधेसीधेहिसाबकरदेनेवाला, क्रोधी, कड़क, उत्सुक, कोमल, भावुक, शुभचिन्तक, नीटपीनेवाला,  कोईरियायतदेनेवाला, थोडीसीतारीफकरतेहीएकविकरालहंसीहंसदेनेवाला, अपनेतरकशमेंअलगअलगलोगोंकेलियेअलगअलगतीररखनेवाला, कोमलगंधारसेलेकरमौलिकगालियोंतकफैलेएकअजीबसेबीहड़रेंजवालावह  हमाराअग्रजसाथी, किसी  कोभीकिसीभीकिस्मकीरियायतदेनेवालावहलिटमसपेपरचलागया.

ऐसाआदमीकिजिनकोउसनेमानाउनसेखूबप्यारकिया, उन्हेंबहसेंकरनेकीभीअनुमतियांदीं, यह  भीनहींजतायाकिअंतिमसत्यमेरेहीपासहै लेकिनलिजलिजोंऔरखीसेंनिपोरते, यशाकांक्षीपिलपिलोंकीठकुरसुहातीमहफिलोंमेंवहबुलइनचाइनाशॉप’था.

ऐसा अग्रजसाथीजोएकमौकापरस्त, अविश्वसनीय, दोगले, आत्ममुग्ध, आत्मकेन्द्रित  साहित्यिकपरिदृश्यकेपरखचेउड़ाताथा.  वहजोसंस्थाओंसेकभीदूरभीनहींरहापरसंस्थाओंसेजिसकीपटरीकभीबहुतबैठीनहीं.  अबउसकेजानेकेबादउसकेकिसपक्षपरचर्चाकीजाये ?

1977 -78 केआसपासएकदिनचन्द्रकांतदेवतालेनेकहाकिदिल्लीइतनीबारजातेरहतेहो.विष्णुखरेसेनहींमिले.वेसाहित्यअकादमीमेंबैठतेहैं.मैंने  कहाकिउनसेमिलनेमेंडरलगताहै.आजयादकरताहूंतोलगताहैकियहबातअजीबथी  किउनसेमिलनेकेबहुतपहलेहीउनकेलेखोंकोपढकरएकअजीबकिस्मकीप्रतिक्रियानेजन्मलियाथा.उसमेंआदर, उत्सुकताऔर  भयसबएकसाथथे.

देवतालेनेकहाकिवोनिहायतदेसीआदमीहै.डरनासिर्फस्नॉब’किस्मकेलोगोंसेचाहिये.  खैरदेवतालेजीसेमिलतारहा, लेकिनखरेजीसेमिलनेमेंडरबनाहीरहा.  1980 केआसपासएककार्यक्रममेंअचानकमुलाकातहुई.किसीनेपरिचयकराया.तुरंतबोले“वोरविवारमेंकमीजेंशीर्षक  वालीकवितातुम्हारीहै ? हांकहनेपरकुछ  नहींबोले.एकशब्दभीनहींबोलेऔरआगेबढगये.अजीबआदमीहैमैंभीतर  हीभीतरभुनभुनाया.लेकिनउनकीइसअदानेमुझेबहुतआकर्षितभीकिया.उसकविताकेबारेमेंबीसवर्षबादअचानकएकदिनबोलेऔरबहुतदेरतकबोले.मैंनेबीचमेंटोकातोबिगड़गये.बोलेजबमैंकिसीविचारप्रवाहमेंबहरहाहोताहूंतोमुझेअपनाकानदेदेनाचाहिये.

इसबीचइनबीसवर्षोंमेंउनसेएकप्रगाढपरिचयहोचुकाथा.गपशपमेंउनजैसापैशनऔर  उत्तेजनासेभराआदमीमैंनेनहींदेखा.गॉसिपकेउनकेअपनेअंदाज़थे.किसीकिस्सेकेअज्ञातपक्षकोअचानकखोलदेतेथे.किसीसर्वज्ञाततथ्यकेपिष्टपेषणमेंउनकीरुचिनहींथी.महफिलमेंवहछठायासातवांआदमीबहुतदेरसेकुछबोलनहींरहाहै, इसपरउनकीनज़ररहतीथी.बहुतबोलतेकोअचानकडांटसकतेथे.चारसालपहलेबम्बईमेंप्रेसक्लबमेंकार्यक्रमकेबादकी  एकअतंरंगमहफिलमेंएकबड़बडियाउनकीरचनाओंपरबहुतदेरसेबहुतअनावश्यकतारीफकियेजारहाथा.वेचुपथे.तबियतभीकुछठीकनहींथी.  अचानकबोले“देखोमेरेइतनेबुरेदिनअभीनहींआयेहैंकिमैंतुम्हारीइसबकवास  भरीतारीफकोसुन  फूलासमांऊ.अबतुमयहांसेदफाहोनेकाक्यालोगे?.वहबेचाराहतप्रभरहगया.थोडीदेरबादचुपचापउठकरचलागया. 

क्या  विष्णुखरेक्रूरथे? थे, शायदएकसीमातक.क्याविष्णुखरेबहुतकोमलथे? थे, शायदएकसीमातक.मोहम्मदरफीकेनिधनपरउन्होंनेदिनमानमेंलिखाथाकिगातेहुए “:रफ़ीकाचेहराकिसीअबोधबच्चेकीतरहमासूमसालगताथा.‘’  मुझेपतानहींक्योंआजउनपरलिखतेहुएरफीकेबारेमेंउनकालिखाहुआयहवाक्ययादगया.खरेजीकेबहुतसारेरंगथे.लेकिनविष्णु  खरेअपनेमूड्सऔरअपनेव्यवहारकेएकसप्तरंगीपर्देकेपीछेछिपछिपजाते  थे.लोगअक्सरइसपर्देपरउनकेवेभड़कीले, सुर्खरंगदेखतेरहजातेथे.इनरंगोंकेपीछेएकरंगकिसीमासूमसेउसबालककाथाजोअपनेइनोसेंस’कोबचायेरखनाचाहताथा.

एकबेहदजटिलव्यक्तिजोजीवनकेहरमरहलेपर  इसदुनियाकीभीड़़मेंअपने्बचपनकीकिसीइनोसेंसकोखोजरहाथा.बाकीतोसबबातेंसाहित्यकीपेशेवरबातेंहैं.दृश्यमेंविष्णुखरेकीइसअजीबसी  ‘डायनमिक’  औरबहुतकलोसेल’  कीकिस्मकीजोउ्पस्थितिरहीहै, वहएकमुद्दाहै.

अभीउनकीकविता, लेख, अनुवाद, पत्रकारिता  परबहुतसारीबातेंहोंगी.होनीभी  चाहिये.अशोकवाजपेयी, ऋतुराज, विनोदकुमारशुक्ल, चन्द्रकांतदेवताले, धूमिल, राजकमलचौधरी, जगूड़ीआदि  कीउसपीढीकोहमहमेशाआगेभीअपनेअपनेतरीकोंसे  विश्लेषितकरतेरहेंगे.इनलोगोंपरलगातारबातकरनाहमाराशगल  है.साठकेदशकसे 2018 केबीचगंगामेंबहुतसारापानीबहचुकाहै.  बहुतकुछलिखनेकोहोगा.परशायदकोईउसबेहदजटिलव्यक्तित्वकेभीतरकेकिसीकोनेमेंबैठेउसमासूमबच्चेकोभीकोईदेखेगाजोबहुतदुनियादारनहींथा. 
     
अलविदाअग्रजसाथी.                          .
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अलविदा विष्णु जी ! मेरे प्रिय कवि ! मेरे प्यारे अग्रज मित्र !
कात्यायनी

अपनी राह खुद बनाने वाले हिन्दी के अप्रतिम विद्रोही कवि विष्णु खरे नहीं रहे. किसी अनिष्टत की आशंका तो उस दिन से ही बनी हुई थी, जिस दिन पता चला कि मस्तिष्का्घात के बाद जी.बी.पंत अस्पेताल के आई.सी.यू. में भरती विष्णु  जी कोमा में चले गये हैं. फिर भी जबतक जीवन चलता रहता है, इंसान उम्मीद की डोर थाम्ह कर ही चलता है. आज उम्मीद की वह डोर टूट गयी और हृदय गहरी उदासी और शोक से भर गया.

विष्णु जी से मेरा 29 वर्षों का सम्पर्क था. हम लोगों की मैत्री के गहराते जाने में विष्णु जी की आयु या वरिष्ठता कभी आड़े नहीं आयी. अपनी बुनियादी प्रकृति से वह निहायत साफ़गो और लोकतांत्रिक प्रकृति के व्यक्ति थे. पहली बार उनसे मेरी मुलाक़ात लखनऊ में ही हुई थी. तब मैं 'स्वतंत्र भारत'अख़बार के लिए गोरखपुर से रिर्पोटिंग करती थी. 'नवभारत टाइम्स्'के गोरखपुर और आसपास के जिलों की संवाददाता पद के लिए साक्षात्कातर देने मैं लखनऊ आयी थी.

विष्णु जी तब 'नवभारत टाइम्सन'के लखनऊ संस्करण के प्रभारी सम्पादक थे. मेरा साक्षात्कार उन्होंने ही लिया था. तबतक मेरी कविताएँ कई पत्र-पत्रिकाओं में छप चुकी थीं और विष्णु जी उनसे परिचित थे. पर उस पहली मुलाक़ात में पत्रकारिता के दायरे से बाहर हमलोगों की कोई बातचीत नहीं हुई. बाद की कुछ मुलाक़ातों के दौरान साहित्य पर कुछ अनौपचारिक चर्चाएँ हुईं. विष्णु जी ने जब 'नवभारत टाइम्स'छोड़ा, उसके कुछ ही दिनों बाद मैंने भी पत्रकारिता छोड़ दी, क्योंकि इससे सामाजिक-राजनीतिक कामों में काफी बाधा आ रही थी.

विष्णु जी से मेरे अनौपचारिक और प्रगाढ़ सम्बन्ध बने 1994 के बाद. 1994 में ही मेरा पहला कविता-संकलन 'सात भाइयों के बीच चम्पा'प्रकाशित हुआ. विष्णु जी ने विशेष तौर पर फोन करके मुझे बधाई दी और संकलन की कविताओं को लेकर बातचीत की. मुझे इतना याद है कि उन्होंरने पूर्वज कवियों की छाया से निकलने और वाम कविता के रोमानी, यूटोपियाई तथा अतिकथन की प्रवृत्ति से पीछा छुड़ाने पर विशेष बल दिया था. 1994 के बाद, लगभग हर वर्ष (कभी-कभी वर्ष में एकाधिक बार भी) दिल्ली जाना और विष्णु जी से मिलना होता रहता था. 2010 तक, हर विश्व पुस्तक मेला के दौरान उनसे कई दिनों तक लगातार मुलाक़ातें होती थीं और साहित्यं तथा राजनीति पर लम्बी-लम्बी बातें होती थीं. आज अगर मैं यह कहूँ तो अतिशयोक्ति नहीं होगी कि मेरे काव्य संस्कार और साहित्यिक आलोचनात्मक विवेक के विकास में जिन लोगों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, उसमें विष्णु जी प्रमुखता के साथ शामिल हैं.

मेरा दूसरा कविता संकलन 'इस पौरुषपूर्ण समय में'1999 में प्रकाशित हुआ. प्रस्तावना लिखने के लिए जब मैंने विष्णुर जी से बात की तो वे न केवल तत्क्षण सहर्ष तैयार हो गये, बल्कि पंद्रह दिनों के भीतर एक लम्बीप प्रस्तावना लिखकर भेज भी दी. इसके बाद के मेरे दो संकलनों 'जादू नहीं कविता'और 'फुटपाथ पर कुर्सी'के प्रकाशन के बाद जिन मित्रों ने सबसे पहले फोन करके इन संग्रहों की कविताओं पर बातचीत की, उनमें विष्णु जी भी शामिल थे.

अप्रैल 2003 में लखनऊ में 'राहुल फाउण्डेरशन'की ओर से आयोजित कार्यक्रम में विष्णु खरे ने अपने व्याख्यान में देश के राजनीतिक परिदृश्य पर बहुत प्रखरता से अपनी बात रखी थी. इस दौरान 'आमने-सामने'कार्यक्रम के अन्तर्गत उनके काव्यपाठ और उनसे संवाद का भी आयोजन हुआ था.

2007 में मैंने 'परिकल्पना प्रकाशन' (जो हमलोगों का साहित्यिक प्रकाशन है) को नयी कविताओं के एक संकलन और चयनित कविताओं का एक संकलन प्रकाशन हेतु देने के लिए विष्णुं जी से बात की, जिसके लिए वे सहर्ष तैयार हो गये. जनवरी, 2008 में 'पाठान्तयर'और 'लालटेन जलाना'इन दो संकलनों का परिकल्पना से प्रकाशन हुआ.

2013 से विष्णु जी से भेंट-मुलाक़ात का सिलसिला भंग हो गया. बस, कभी-कभार फोन पर बातचीत हो जाती थी. हमलोगों की आखि़री मुलाक़ात कई वर्षों बाद, अभी पिछले दिनों, जनवरी 2018 में जयपुर में आयोजित 'समानांतर साहित्यक उत्सव'में हुई. इसी उत्सव में अपने वक्तव्य में विष्णु जी ने ज़ोर देकर कहा था कि आज के हालात को समझने के लिए और उनका सामना करने के लिए मार्क्सवादी होना बहुत ज़रूरी है.

आयोजन के दौरान विष्णु जी से हिन्दुतत्ववादी फासिज़्म की चुनौतियों पर, सांस्कृततिक संकटों पर और हमलोगों की राजनीतिक-सांस्कृतिक सरगर्मियों पर टुकड़े-टुकड़े में कई बार बातचीत हुई. मैंने उन्हें लखनऊ आमंत्रित किया और कहा कि साहित्यिक कार्यक्रम के अतिरिक्त  हमलोग इन सभी विषयों पर विस्तार से बैठकर बातें करेंगे. वह सहर्ष तैयार हो गये और हँसते हुए बोले, ''तुम जब भी, जहाँ भी बुलाओ, मैं आने को तैयार हूँ.''  तय यह  हुआ कि अक्टूबर  या  नवम्बंर में लखनऊ में कार्यक्रम रखा जाये, लेकिन विष्णु. जी, आपने तो वायदाखि़लाफ़ी कर दी. ऐसा तो आप कभी नहीं करते थे!

विष्णु खरे हिन्दी के एक ऐसे कवि हैं, जो स्वयं में एक परम्परा और एक प्रवृत्ति हैं. उनकी कविता आधुनिकता के प्रोजेक्ट पर अपने मौलिक ढंग से काम करती है. लोकजीवन की अतीतोन्मुख रागात्मकता के जिस लिसलिसेपन-चिटचिटेपन से उत्तरवर्ती पीढ़ी के कई वामपंथी कवियों की कविता भी पूरी तरह से मुक्त नहीं हो सकी है, वह विष्णु् खरे की कविताई में हमें आदि से अंत तक  कहीं देखने को  मिलती. नवगीतों के ज़माने में भी उनकी कविता उनकी छाप-छाया से एकदम मुक्त रही.

एक संक्रमणशील बुर्जुआ समाज के तरल वस्तुगत यथार्थ को पकड़ने और बाँधने की कोशिश करते हुए विष्णु खरे की कविता साहसिक प्रयोगशीलता के साथ गद्यात्मक आख्यानात्मकता की विशिष्टम शैली का  आविष्कार करती  है  और   हिन्दीं कविता के क्षितिज को अनन्य ढंग से विस्तारित करती है.

अपने समकालीन रघुवीर सहाय, कुँवर नारायण, केदारनाथ सिंह आदि बड़े कवियों से एकदम अलग ढंग से विष्णु खरे की कविता अपने समय और समाज की तमाम तफ़सीलों को एक किस्म  की निरुद्विग्न वस्तुपरकता के साथ,  'इंटेंसढंग से   प्रस्तुत करती है. विष्णु खरे की कविता अभिधा की काव्यात्मक शक्ति और अर्थ-समृद्धि की कविता है. मितकथन को कविता की शक्ति मानने की प्रचलित अवधारणा को तोड़ते हुए विष्णु खरे शब्द-बहुलता और वर्णन के विस्तार द्वारा एक प्रभाव-वितान रचते हैं, एक तरह का भाषिक स्पेस क्रियेट करते हैं, लेकिन वहाँ रंच मात्र भी भाव-स्फीति या अर्थ-स्खलन या प्रयोजन-विचलन नहीं होता. सच कहें तो छन्द-मुक्ति के बाद हिन्दी कविता ने विष्णु खरे की कविताई में एक नयी मुक्ति पाई है और जीवन की संश्लिष्ट गद्यात्मकता को पकड़ने की, ज्यादा गहराई से उतर गयी जीवन की अंतर्लय को पकड़ने की शक्ति अर्जित की है.

विष्णु खरे की  कविता में कहीं गहन विक्षोभ के  रूप मेंतो   कहीं  आभासी   ''तटस्थता''के रूप में एक नैतिक विकलता मौजूद रहती है, लेकिन जटिल प्रश्नों  का सहज समाधान प्रस्तुलत करने के बजाय वहाँ विवेक को सक्रिय  करने वाली  प्रश्‍नाकुलता ही तार्किक निष्पत्ति के रूप में सामने आती है. मुझे विश्वास है कि हमारी इस अंधकारपूर्ण, आततायी शताब्दी के वर्ष जैसे-जैसे बीतते जायेंगे, विष्णु खरे की कविता हमारे समय के आम नागरिक की नैतिक विकलता, द्वंद्व, जिजीविषा और युयुत्सा की कविता के रूप में ज्यादा से ज्यादा महत्व  अर्जित करती जायेगी.

न सिर्फ कविता, बल्कि हिन्दी पत्रकारिता, आलोचना, फिल्म्-समालोचना, अनुवाद आदि के क्षेत्र में भी विष्णु जी के जो अवदान हैं, उनका यथोचित मूल्यांकन किया जाना अभी बाक़ी है.  इस विरल प्रतिभा को, इस बेहतरीन दिल वाले विद्रोही कवि को हमारा आख़ि‍री सलाम!
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दुर्वासा! कविता का मुँहफ़ट फ़कीरा चला गया
तुषार धवल

भाषा की लगाम थामे वह जंगल बीहड़ बस्ती बंजर उड़ता रहा. ज्ञान की टंकी से लहू सींचता वह अचानक किसी पन्ने से निकला हुआ कोई प्रेत था, किसी के माथे जा बैठा तो सिर धुन कर ही लौटता था.

उसके लिखे की समीक्षा तो समय करेगा, पीढ़ियाँ करती रहेंगी. नीरस गद्य की छाती से कविता की धारा निकाल देना उसकी कुछ वही ताक़त थी जो महाभारत के उस महानायक की, जो अपने बाण से सूखी धरती की छाती से गंगा निकाल लाता था. लेकिन इसमें वक़्त लगेगा. फ़ुर्सत में होगा यह सब.

अभी लेकिन, ग़मज़दा हूँ क्या? मैं खुद से पूछता हूँ. उसके चले जाने की आहट मुझे पहले ही हो गई थी. फरवरी 2018 में जब हमने साथ, लगभग पूरी रात शराब पी थी और तबले, चित्रे, मन्ना डे और जीबनान्द दास पर अंतहीन बातें की थी, जब हमने कॉमरेडों की साहित्यिक ऐय्यारी की गुप्त कथाओंका श्रवण किया और चॉम्स्की के चूतियापेजैसी शब्दावली की हँसते हँसते लोट-पोट हो जाने तक व्याख्या किया था.

हम तीन लोग थे. वे, सॉनेट मंडल (अंग्रेज़ी का युवा कवि) और मैं. हमने देखा, वे लगातार नीटपीये जा रहे थे. मैं चिंता और हैरत से उन्हें देख रहा था. सॉनेट को मैं ने बताया कि ये अभी दिल के दौरे से उबरे हैं. इस तरह पीयेंगे तो कब तक टिकेंगे? हमने कोशिश की कि ग्लास को कुछ डाइल्यूट कर दिया जाये, लेकिन सम्भव नहीं हो पाया.

इस बीच लिस्से (किस्से) चलते रहे, विवेचन होता रहा. शराब, संगीत, कविता, हँसी रात बहा ले गई. शायद उस शाम मैंने उन्हें मग्न पाया था, तकलीफ़ों से गुज़र कर लिखी जा रही कविता में पाये जाने वाले सुख में रमा देखा था. मैंने उन्हें अंतिमतोष में रमा हुआ पाया था, मैं ने मृत्यु से लौट कर उन्हें नीटपेग्स की अनगिनत घूँटों के बीच आसन्न अंत को पुकारते हुए देखा था, मैं ने दुर्वासाको उस रात जीने की निपट फकीरी मेंहँसते हुए देखा था. अंत की आहट बेआवाज़ थी, उसमें हँसी थी जिस से संयम के अवरोध को यम ने धीरे से खिसका दिया था.
दुर्वासा ! कविता का मुँहफ़ट फ़कीरा चला गया !!
 

संवाद के खरे                      
मोनिका कुमार

विष्णु खरे के पास संवाद करने का अदम्य साहस था, हम में से अधिकतर लोग खुले मन और विचारों के होते हुए भी एक ख़ास नापतोल और संवाद के संभावित प्रभाव और दुष्प्रभाव का आकलन करने के बाद संवाद में रत होते हैं लेकिन विष्णु जी की संवाद-ऊर्जा का स्रोत उनकी विशुद्ध साहित्यिक सक्रियता थी. मुझे नहीं लगता विष्णु जी ने अपनी दृष्टि में आने वाली साहित्यिक कृति या किसी घटना के प्रसंग में अपने विचारों को कभी ज़ब्त किया या कूटनीति के अंतर्गत उसे प्रकट करने में कभी विलंब भी किया हो. इस तरह के स्वभाव होने से जो नफ़ा-नुक्सान होता है, वह  नफ़ा-नुक्सान तो उन्होंने झेला होगा लेकिन यह बात अद्भुत है कि विष्णु जी बातचीत और व्यवहार में कभी पीड़ित और बोझिल नहीं लगते थे.

अक्सर वरिष्ठ लोग एक विशेष प्रकार का बैगेज ढोए हुए मिलते हैं जैसे कि इतिहास का भला और स्वर्णिम युग बीत चुका है, जैसे घी का युग बीत गया और अब केवल छाछ बची है. विष्णु जी भी राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक गिरावट को लेकर चिंतित और दुखी होते थे लेकिन उनसे बात करते हुए कभी ऐसा नहीं लगता था कि अब कुछ नहीं बचा है बल्कि उनसे बात करके या उनके विचार पढ़कर ऐसा लगता था कि जीवन सतत संघर्ष है, कल भी था, आज भी है और कल भी रहेगा. विष्णु जी के ऐसे गुण से युवा पीढ़ी ने सकारात्मकता प्राप्त की है क्यूंकि वे हमेशा युवा साहित्यकारों के लेखन में रूचि लेते थे और उस पर लिखते भी थे.

साहित्यकार विष्णु जी के व्यक्तित्व में अतीत, वर्तमान और भविष्य बोध का सुंदर संयोग था, वे केवल अतीतजीवी नहीं थे, वर्तमान से निराश होकर अकर्मण्य नहीं थे और भविष्य को लेकर सिर्फ़ आतंकित या संशयित नहीं थे बल्कि उनकी सक्रियता इन तीनों काल खंडों के बीच सामयिकप्रकार से संभव होती थी.

विष्णु जी के विधिवत प्रकाशित साहित्य से भी अधिक सक्रियता उनकी फुटकर टिप्पणियों के रूप में मिलती रही है. भविष्य में जब कोई पाठक उनके रचनात्मक लेखन और व्यक्तित्व की खोज करेगा तो यह खोज केवल उनके छपे हुए साहित्य या इधर-उधर छपे हुए जीवन वृत्त से या लोगों द्वारा लिखी हुई टिप्पणियों तक नहीं खत्म होगी बल्कि उस पाठक को कई जगहों तक पहुँच बनानी होगी, शायद यह खोज सोशल मीडिया पर संपन्न हुए गंभीर साहित्य कर्म को नए ढंग से रेखांकित करेगी और नए माध्यम की प्रासंगिकता को पुख्ता भी करेगी. विष्णु खरे ने सोशल मीडिया का भी भरपूर उपयोग किया. 

हिंदी साहित्य के विवाद-उर्वर प्रदेश में अधिकतम रूप से अपना मत प्रकट किया. भूले बिसरे या भुला दिए गए संदर्भों को विमर्श में लाते रहे और इस तरह निरंतर वे वर्तमान को अतीत से जोड़ते गए. पिछले कुछ समय से मैनें विष्णु जी की टिप्पणियों में एकरिमाइंडरदेखा है जो किसी प्रसंग में अतीत में घटित किसी घटना से जुडी महत्वपूर्ण सूचना जोड़ते थे और विषय को विस्तार देते थे.

विष्णु जी ने लंबा साहित्यिक जीवन जिया, उससे बड़ी बात कि तल्लीनता और संलग्नता से यह जीवन जिया. साहित्य प्रदेश के ज़िम्मेवार नागरिक बनकर इसके जनपद में अपने अस्तित्व का निवेश किया. पहले मुझे ऐसा लगता था जैसे विष्णु जी हमेशा गुस्से में रहते हैं लेकिन जैसे जैसे मैनें कैसा कहा जा रहा हैके साथ साथ क्या कहा जा रहा हैकी तवज्जो करनी शुरू की तो विष्णु जी की अभिव्यक्ति का सघन टैक्सचर समझ आया. इस तरह विष्णु जी की साहित्यिक संगति में मेरे भीतर के पाठक और श्रोता को जो चुनौती मिली, उससे मुझे लाभ हुआ. हमने विनम्रता और मीठी भाषा के प्रति बहुत भारी आग्रह बना लिया है लेकिन वह सच्ची और गहरी भी तो हो ना ! उत्तेजना से आच्छादित खरे जी की खरी खरी क्यूँ ना सुनी जाए!

विष्णु जी का लोकधर्म सूक्ष्म था और साहित्यिक संवेदना वैश्विक रूप से व्यापक इसलिए वे हर प्रकार की कविता का आस्वादन करते थे. अक्सर ऐसा लगता रहा कि वे बहुत अतेरिक से प्रशस्ति और आलोचना करते हैं, उनके वाक्यों में संज्ञा से पहले कुछ विशेषण अनिवार्यतः होते थे चाहे वे आलोचना कर रहे हों या प्रशंसा. अक्सर पथिक इन विशेषणों के अतिरेक से घबरा जाता है लेकिन समग्रता में देखें तो पाठकीय विवेक का प्रयोग करके उनकी हर टिप्पणी से कुछ महत्वपूर्ण प्राप्त होता है. विष्णु जी की प्रगतिशीलता उनके व्यवहार में गुंथी हुई थी, ओढ़ी हुई नहीं थी. उनकी विद्वता के कई आयाम थे. उन्होंने कविताएँ लिखीं, आलोचना लिखी, अनुवाद किये, सिनेमा पर लिखा और इसके अलावा भी विपुल लिखा जिसे हिंदी साहित्य के कई ब्लॉग सहेज कर रखेंगे. अभी तो हमें समय लगेगा उनके अवदान को समझने में. लेकिन इतना तो अभी भी पता है कि यह बहुत मूल्यवान है, हिंदी साहित्य की थाती का अभिन्न अंग है.

विष्णु जी का जीवन वृत्त जानकार पता चलता है कि वे बार बार ख़ुद को एक जगह से खदेड़ कर दूसरी जगह रह सकते थे, उन्हें अज्ञात और अनजान का भय नहीं होगा. इसी देश में उन्होंने बदलते हुए राजनीतिक और सांस्कृतिक माहौल को देखा लेकिन साहसपूर्वक इन सब के बीच रह कर स्वायत्त बने रहे. संवाद को जीवन का आधार बनाते हुए अखंड जीवन जिया. ख़ास उत्तेजना से भरे हुए विष्णु जी हिंदी साहित्य की विशिष्ट भंगिमा है जो अनुभव, ताज़गी और तीक्ष्ण बुद्धि से बनी है, ऐसी भंगिमा जो चेहरे को विश्वसनीय बना देती है.
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तौबा मेरी तौबा ......
अनुराधा सिंह

फिलहाल तो मैं यह तय नहीं कर पा रही हूँ कि उनसे मिलकर ठीक किया था मैंने या गलत. शायद न मिलती तो आज बेहतर होती. मेरे लिए यह केवल हिंदी के एक अप्रतिम कवि, विचारक और आलोचक से विदा लेना भर होता. यह जो मैं इस आदमी के ऐसे मोह में पड़ गयी हूँ इसका क्या करूँ अब? अब यह मुलाकात एक खलिश बनकर टीसती रहेगी उम्र भर.

जबकि मैं पिछले साढ़े चार साल से मुंबई में ही रहती रही हूँ, उनके अपने शहर में. मेरा संकलन इसी साल प्रकाशित हुआ है. ये सारे संयोग ऐसे हैं कि मुझे उनसे मिलना ही चाहिए था पर नहीं मिली. अपनी कविताओं की दुनिया के निर्जन वैभव में खुश थी, उनसे मिलने से किसी सोये शेर को छेड़ने जैसी मुसीबत भी गले पड़ सकती थी. लोगों की बातें सुन पढ़कर मुझपर ऐसा खौफ़ तारी था कि बस. सो मैं नहीं मिली. लेकिन २६ जून को विजय कुमार जी से एक चर्चा के दौरान उन्होंने कहा, ‘अरे मैडम ज़रूर मिलिए उनसे. अपना संग्रह भी दीजिये. आपकी कविताएँ उन्हें डिज़र्व करती हैं.और उनका नंबर भेज दिया.

मैंने डरते काँपते फोन मिलाया, मेरी हालत कबड्डी के खेल में दूसरे पाले में घुसने वाले उस फिसड्डी खिलाड़ी जैसी थी जो घुस तो जाता है लेकिन मुड़ मुड़ कर पीछे देखता जाता है कि ज़रा ख़तरा महसूस हो और गिरता पड़ता अपने पाले में वापस भाग आये.
सर नमस्ते, मैं अनुराधा सिंह.
नमस्ते
सर मैं मुंबई में रहती हूँ, थोड़ा लिखती पढ़ती हूँ
बहुत अच्छी बात है यह तो.

आपसे मिलना चाहती हूँ. इसी साल मेरा संग्रह ज्ञानपीठ से प्रकाशित हुआ है (सोचा कि इससे पहले कि वे फोन पर कुछ फेंक कर मारें उन्हें बता दूं कि कुछ ठीक-ठाक कविताएँ हैं मेरे पास)
ज़रूर पढ़ाइये, कैसे पढायेंगी
कुरियर कर दूँ ?
ठीक है कर दीजिये. आपको बता दूं कि मैं परसों दिल्ली के लिए निकल रहा हूँ, हिंदी अकादमी ज्वाइन कर रहा हूँ .
जी सर .
तो देख लीजिये, आपका संग्रह देखना चाहता हूँ
ठीक है सर , नमस्ते.

बाद में याद आया कि उनको अकादमी के लिए बधाई देनी चाहिए थी. लेकिन मैं घबराहट में इतनी तेज़ गति से बात करती हूँ कि कुछ याद नहीं रहता. पहले से सोचा हुआ सब एक साँस में बोल कर फोन काट देती हूँ. लेकिन फिर भी यह तय हुआ कि कल उनके घर जाकर उन्हें संग्रह दे दिया जायेगा. वे उस पूरी शाम और देर रात तक मुझे अपना पता मैसेज करने की कोशिश करते रहे. लेकिन शायद नेटवर्क की खराबी या किसी और कारण उनके वे सन्देश मुझ तक नहीं आये. मैं उनकी इन कोशिशों से अनभिज्ञ थी. सुबह नौ बजे उनका फोन आया कि पता नहीं जा पा रहा. फिर पता पहुँच गया. फिर फोन आया. मैं एक स्लम एरिया में रहता हूँ क्या अब भी आप आना चाहेंगी?”फिर फोन आया कि, “मैं अपने फ्लैट में अकेला रहता हूँ, परिवार पास में दूसरे फ्लैट में रहता है. यह बात जानना आपके लिए ज़रूरी है.

मुझे थोड़ा संकोच हुआ फिर सोचा, अब तो जाना ही पड़ेगा पर मैं बहुत सचेत रहूंगी. बिलकुल सजग, बस अब मिल ही लेना चाहिए. कल से आज तक उनके साथ इतनी कॉल हो चुकीं थीं और वे इतने अनौपचारिक और उत्साहित थे कि मैंने अनायास पूछा :
सर आप मिठाई खाते हैं
नहीं
फिर ठीक है, वैसे मैं आपके लिए मिठाई लेकर आने वाली थी.
................(१० सेकंड)
यह तो आप बहुत अच्छा करेंगी.

सो मैंने उनके लिए एक बंगाली मिठाई ली लेकिन यह मातहत अफसर वाला डिब्बा नहीं था. बस ५-६ पीस ही थे कि बस हम दोनों खा सकें और चार समोसे भी ले लिए. अब मैं बताती हूँ मैंने ऐसा क्यों किया था, एक तो अपने यहाँ मुंबई में जब भी किसी साहित्यकार से मिलने जाओ वे आवभगत बहुत करते हैं. मेज भर के मिठाइयाँ और पकवान खिलाते हैं. भले ही वे सुधा अरोड़ा हों, सूरज प्रकाश, धीरेन्द्र अस्थाना, संतोष श्रीवास्तव या मीरा श्रीवास्तव. मैं उनको इस उम्र में इस तवालत से बचा लेना चाहती थी. इससे भी ज़रूरी बात यह थी कि मेरे घर में दो-दो बुड्ढे हैं,पापा ७६ साल के ससुर जी ७४ के, उन्हें बिगाड़ने में मुझे बहुत मज़ा आता है. और मैं एक ही दिन में इस बुड्ढे के प्यार में पड़ गयी थी. (साहित्य और कविता गई तेल लेने,मुझे यह आदमी बहुत अपना लगा, यह कल से अब तक कई बार मेरे साथ हँस चुका था, और कसम से इसके बाद इसका लिखा पढ़ा सब मेरे लिए बेकार था. पापा को ११ जून २०१७ को स्ट्रोक हुआ था, तबसे मैंने उनकी आवाज़ नहीं सुनी थी. विष्णु जी की आवाज़ एक अमृत की धार सी मेरे बावले कानों में बह रही थी.)

मैं टैक्सी में बैठी और उनका फोन आया, “चल दीं ?” फिर पापा याद आये. तौबा....!!
टैक्सी वाले को फोन दीजियेउसे बताया कि किस-किस मोड़ से कैसे कैसे मुड़े कि मुझे असुविधा न हो. उसी पल लगा कि एक इन्सान के तौर पर वे बहुत कुछ मेरे जैसे हैं. बहुत परवाह करने वाले, बहुत डिटेलिंग पसंद.

रास्ता वाकई बहुत लम्बा और गन्दा था, म्हाडा का इलाका. मुझे वह हिंदुस्तान का हिस्सा ही नहीं लग रहा था. लेकिन उन्होंने इतनी तरह के लैंडमार्क बताये थे कि मैं आराम से उनके घर पहुँच गयी. घर की बाहरी दीवार पर बड़े ही सुरुचिपूर्ण ढंग से चटाइयाँ जड़ी थीं. दरवाज़ा खुला और हिंदी साहित्य की दुर्जेय शख्सियत मेरे सामने खड़ी थी, वृद्ध, गरिमामय और सुन्दर.

टैक्सी की सीट गीली रही होगी, मेरा दुपट्टा और कुरता थोड़े गीले थे. मैंने उनके सोफे पर बैठने से मना किया तो वे उस पर बिछाने के लिए एक मोटी चादर ले आये. उन्हें देखते ही अब तक का मेरा संकोच ख़त्म हो गया. हम दोनों ही गज़ब बातूनी. संकलन तो बैग में ही रखा रह गया. मैं एक छोटे कबूतर सी फुरफुरी और उत्साह से भरी, उनकी बातों का जवाब दे रही थी. उन्होंने पहले आधे घंटे में ही लगभग हर बड़ी हस्ती को मूर्ख कह लिया था, एक आध को गधा भी. लेकिन आप देखिये यही फर्क है विष्णु खरे में और शेष दुनिया में कि वे किसी बड़े से बड़े आदमी को उसके मुँह पर गधा कहने की जुर्रत रखते थे लेकिन ह्रदय उनका कलुषित नहीं था. वे अहंकारी नहीं थे, अहम्मन्य नहीं थे. उन्हें उनकी गलती बताओ तो मान लेते थे.
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हिन्दी साहित्य के भीष्म पितामह
प्रचण्ड प्रवीर

इस दु:ख की घड़ी में विष्णु जी के देहावसान का शोक उनकी स्मृति पर भारी पड़ रहा है. हिन्दी साहित्य संसार उन्हें बहुत से रूपों में जानता है और याद करता है. बहुत से लोग उन्हें कवि, आलोचक, पत्रकार या साहित्यकार की तरह उन्हें सम्बोधित करते हैं. उनके विराट व्यक्तित्व को अपूर्व मेधा, धुरंधर विद्यार्थी व अध्येता, बहुविध विद्वान और संघर्षशील बुद्धिजीवी की तरह भी देखा जा सकता है. उनकी प्रतिभा वैज्ञानिकों और समाजसुधारकों की अपेक्षा एक सत्यनिष्ठ और कर्मठ बुद्धिजीवी की कसौटियों पर कसी जा सकती है, जिसके मानक विशिष्ट हैं. यह अतिरेक नहीं है, किन्तु कटु सत्य है कि विष्णु खरे की समकक्ष प्रतिभा का कोई व्यक्ति हिन्दी साहित्य संसार में अब शेष नहीं, जिसकी स्मृति विलक्षण, विश्व साहित्य पर पकड़ असाधारण, प्राचीन भारतीय ग्रंथ और विचार परम्परा परिचय उल्लेखनीय, सिनेमा सौन्दर्य दृष्टि अद्भुत, काव्य आलोचना कर्म अनन्य, नयी कविता दृष्टि अनुपम और समसामायिक लेख दूरदर्शी हों.

हमारे एक सीनियर हुआ करते थे जिनकी निजी स्मृति यह थी कि मोहम्मद रफ़ी की मौत पर रोते हुये उन्हें यह बहुत आश्चर्य हो रहा था कि उनके सहपाठी साथ क्यों नहीं रो रहे? क्या वे नहीं समझते कि रफ़ी कौन है? यह शोक दुगुना हुआ जा रहा है कि इस क्षति की कहीं कोई भरपायी दूर-दूर तक नज़र नहीं आती. न जाने कितने लोग समझ सकते हैं कि विष्णु खरे कौन थे.

विष्णु जी का सानिध्य मुझे उनके जीवन काल की संध्या में प्राप्त हुआ, वह भी कुल दो साल दस महीने. वह भी इसलिये क्योंकि हिन्दी में एकमात्र वही थे जो नयी पीढ़ी से संवाद करने के लिये ईमानदारी से न केवल उपलब्ध थे बल्कि उनसे तर्क-वितर्क करने का सामर्थ्य भी रखते थे. मैं यह भी कहना चाहूँगा कि नवोदितों में जो ढिठाई रहती है, जिसका कारण सूचना संचार तंत्र की विपुलता से उपजा सूचनात्मक ज्ञान अग्रजों से कई गुना बढ़ कर है, उनकी बेरूखियाँ, बदतमीजियाँ, नादानियाँ झेलने की क्षमता विष्णु जी में थी.

अपने मारक वाक्यों में और व्यंग्यात्मक वचनों में भी विष्णु जी ने केवल हम सभी की कल्याण ही चाहा. एक पिता की तरह वह जैकस तातीको जाक़ ताती’,  ‘नट हैम्सनको नुत हैम्सन’, ‘रेने चारको रेने शारजैसी गलतियों को सुधारते हुये वह कभी भी अज्ञान पर हँसते नहीं थे. वर्तनी की अशुद्धि हो या व्याकरण की, एक बड़े पेज पर विष्णु जी की नज़र एकदम से गलतियाँ ढूँढ लेती थी. या तो यह उनके बरसों के पत्रकारिता करियर का कमाल था, या जन्मजात प्रतिभा, विष्णु जी ने विलक्षण अध्येता और संपादक के रूप में यह सिखलाया कि साहित्यकार बनने की पहली शर्त भाषा के साथ तमीज़ बरतना होती है.
महाभारत उनका प्रिय ग्रंथ था. इन अर्थों में हम आज उन्हें हिन्दी साहित्य संसार की भीष्म पितामह की तरह याद करते हैं. उनके समकालीनों ने उनके कई रूप देखे होंगे और उनका अनुभव कहीं ज्यादा व्यापक होगा. विष्णु जी की विलक्षण कविताएँ, जिन्हें ललित निबंध या उत्तर आधुनिक काव्य रचनाएँ कहना समीचीन लगता है, हिन्दी में बहुत बड़ा स्थान रखती है जिसे आज हम सभी याद कर रहे हैं. किन्तु यह हमें याद करना चाहिये कि किस तरह, किन विपरीत परिस्थितियों में अपने सिद्धांतों पर लड़ते हुये उन्होंने नवभारत टाइम्स के संपादक की नौकरी छोड़ी और अवैतिनक कार्य करते हुये उन्होंने जीवन के अंतिम चौबीस वर्ष उसे आत्म सम्मान, निर्भयता और प्रखरता के साथ जिये.

यह हिन्दी के किसी साहित्यकर्मी के लिये एक आदर्श खड़ा करता है कि अंग्रेजी से एम. ए. किया हुआ एक युवक छोटे से अखबार में नौकरी करने के बाद, प्रफ़ेसर की नौकरी छोड़ कर साहित्य अकादमी का कार्य सचिव का दारोमदार सम्भाला, और फिर नवभारत टाइम्स जैसे समाचार पत्र के संपादक रहें. यह देखना चाहिये कि अपने विचारात्मक लेखों और आलोचना के लिये उन्होंने कितना परिश्रम और कितनी मेहनत उस दौर में किया जब इंटरनेट उपलब्ध नहीं था. महान संगीतकार मोजार्ट ने एक बार अपने किसी प्रशंसक को उत्तर दिया था कि मेरी संगीत साधना के पीछे मेरे जाग कर बितायी रातें कोई नहीं देखता. कोई यह नहीं जानता कि मैंने अपने से पहले सभी बड़े संगीतकारों की सारी रचनाओं का गहन अध्ययन और अभ्यास किया है.
यही लगन इस बात से समझी जा सकती कि मात्र उन्नीस वर्ष में उन्होंने टी. एस. एलियट की कविताओं का हिन्दी अनुवाद किया था, जब एलियट जीवित थे. रामधारी सिंह दिनकर, जो विष्णु जी की आयु से अनभिज्ञ थे, उन्होंने श्री विष्णु खरेजी की इतनी प्रशंसा की कि डर के मारे विष्णु जी कभी दिनकर जी से नहीं मिले. विष्णु जी के लिये हिन्दी का कथा साहित्य संसार की सबसे बड़ी विभूति जैनेन्द्र थे. मेरे अल्पज्ञान में, मौज़ूदा हिन्दी साहित्य संसार जो अपने चरित्र में राजनैतिक दखल देना और राय रखना अपनी मजबूरी और जिम्मेदारी समझता है, और स्वतंत्रता के बाद की साहित्यिक पीढ़ी जो ज्ञान, विषय, चेतना और दर्शन के समस्याओं से परिचित होने के साथ अपनी राय कदाचित ईमानदारी से रखती थी, सभी पीढ़ियों के बीच सेतु रूप से मौजूद विष्णु जी हिन्दी साहित्य के बहुतेरे आयाम में सबसे बड़ी विभूति के रूप में प्रतिष्ठित हैं.
साहित्यकार होने के लिये पहली शर्त नैतिक रूप से प्रतिबद्ध जीवन जीना होता है. सभी उम्र के साहित्यकर्मियों के लिये विष्णु जी की तमाम नसीहतों में यह विशेष रूप से याद किया जाना चाहिये. वह इसलिये क्योंकि विष्णु खरे में सत्यनिष्ठा, स्वतंत्रता और मूल्यबोध के तीन आदर्श विलक्षण रूप से घटित हुये. यह मेरा सौभाग्य रहा कि विष्णु जी का आशीर्वाद मुझे मिला.

विष्णु जी को कोटि-कोटि नमन.


कहो तो डरो कि हाय यह क्यों कह दिया
(दिवंगत् : विष्णु खरे)
संतोष अर्श
आलोचना की अपनी पहली क़िताब में विष्णु खरे ने समर्पण (मलयज की स्मृति) में जो ग़ज़ल नज़्र की है और जो बिलाशक ख़ुदा-ए-सुख़न मीरकी है- के दो शेर विष्णु खरे की तबीयत का मज़ा देते हैं:

बात की तर्ज़ को देखो, तो कोई जादू था. 
पर मिली ख़ाक़ में क्या सहर बयानी उसकी..  
मर्सिये दिल के, कई कह के दिये लोगों को. 
शहरे-दिल्ली में है, सब पास निशानी उसकी.

यह कितनी हैरतअंगेज़ बात है कि किसी कवि की मृत्यु हो और उसके मरने के समय उसकी भाषा का कोई नया लेखक उसकी क़िताब पढ़ रहा हो. विष्णु खरे को दिल्ली में जिस समय ब्रेन हैम्ब्रेज हुआ और उसके बाद मौत भी, मैं उनकी पुस्तक जो संभवतः उन्हें प्यारी थी आलोचना की पहली क़िताबपढ़ रहा था. उनकी मृत्यु ट्रैजिक है. वे दिल्ली में अकेले रह रहे थे और हाल ही में उन्हें हिंदी अकादमी दिल्ली का उपाध्यक्ष बनाया गया था.

विष्णु खरे इस उम्र तक संवादजीवी थे. हिंदी के ऐसे बहुत कम लेखक रहे हैं हैं जो 78के सिन तक पचीस-तीस की उम्र के लेखकों से संवाद बनाए रखते थे. खरे खरी-खरी बोलते थे. डांट देते थे. गाली बक देते थे. फटकार देते थे. ज़ाहिल और काहिल कह देते थे. लेकिन उसी त्वरा से तारीफ़ भी कर देते थे. इतनी प्रशंसा कर देते कि नए लिखने वालों का आत्मविश्वास बना रहे. तमाम युवा लेखक उनसे कुढ़-चिढ़ जाते थे. उनकी बेबाकी से पस्त हो जाते और उनके बारे में अंट-शंट बोलने लग जाते. लेकिन वे बहुत फ़ायदा कमाते, जो उनसे सीखते थे. वह फ़ायदा मैंने स्वयं कमाया है. मुझे याद है मुद्राराक्षस की मृत्यु पर मेरे लिखे एक लेख पर उनकी टिप्पणी आई थी. मुद्रा लखनऊ के लेखक थे. विष्णु खरे ने काफ़ी समय, जब वे एक अख़बार के संपादक थे- लखनऊ में बिताया था. लखनऊ से उनके प्रेम को मैंने उस लेख पर की गई टिप्पणी में महसूस किया था. आज उनकी उस टिप्पणी को उद्धृत करना ज़रूरी लग रहा है-

जब मैं लखनऊ नवभारत टाइम्स में तैनात हुआ तो मुद्रा से संपर्क और बढ़ा लेकिन टाइम्स ऑफ इंडिया समूह से मुद्रा की हमेशा खटकी रही- उन्हें उसके प्रकाशनों और साहू-जैन परिवार की कोई चिंता नहीं थी. हिंदी के कथित बड़े-से-बड़े साहित्यकार का वह माँजना बिगाड़ कर रख देते थे, लेकिन अकारण नहीं, उनके क़हक़हों में जो जंग-लगी धार थी उसने शायद ही किसी को बख़्शा हो. उनके बारे में निजी विवाद भी बहुत चले- चलेंगे, लेकिन वह उनकी जीवन-शैली को बिगाड़ न सके. उन्होंने उनकी कभी परवाह न की.....वह हिंदी के चंद ग्रेट सर्वाइवरमें से थे. वह हिंदी के हॉबिट थे, बल्कि योडा थे. वह लिलिपुट नहीं थे. संतोष अर्श ने उन पर यह इतना अच्छा लिखा है कि काश इसे मैंने लिखा होता.”     
(समालोचन: स्मृति शेष मुद्राराक्षस)

विष्णु खरे ने कभी नाम का पीछा नहीं किया. उन्होंने काम किया और काम का ही पीछा किया. काम की प्रशंसा की. निरर्थक या हिंदी की ढर्रे की नहीं. हॉलीवुड और पाश्चात्य या फिर विश्व सिनेमा में हम युवाओं की जो हज़ारों-हज़ार फिल्में देख डालने की रुचि निर्मित हुई है, उसमें विष्णु खरे के सिनेमालोचन का कोई योगदान नहीं है, यह कहने की हम में हिम्मत नहीं है. वे कई बार हिंदी की ज़ाहिलियत से खीझ उठते थे. कुछ कड़वा बोल देते तो लोग खीझ उठते. उन्हें एलीटकहने लगते. क्योंकि वे अँग्रेजी के प्राध्यापक रहे. अँग्रेजी में भी लिखा और विश्व कविता का अनुवाद किया. इस एलीटसे वे गुज़रे न होते तो यह लिखने की ज़रूरत उन्हें क्यों पड़ती कि:

हिंदी के प्राध्यापकों की एक अक्षौहिणी पिछले पचासों वर्षों से जो परिवेश बना पाई है वह आज साहित्य के पठन-पाठन को कहाँ ले आया है, यह बताने की बात नहीं. किन्तु भारत जैसे देश में जहाँ निरक्षरता जाने कितने प्रतिशत है, महाविद्यालयों में पढ़ने वाला विद्यार्थी भी एलीटहै, उसे पढ़ाने वाले तो एलीटहुए ही. स्पष्ट है कि एलीटका परिवेश- एलीटद्वारा निर्मित परिवेश- परिवेश नहीं हो सकता. भारत में लिखाई-पढ़ाई अभी भी एलीटकर्म है- आम साहित्यकार आम आदमी से ऊपर है और श्रेष्ठ साहित्यकार, आज का आधुनिक साहित्यकार, तो उससे बहुत दूर है. ऐसे साहित्य की समीक्षा को जो भी संदर्भ इस्तेमाल करने होंगे वे लाख न चाहने पर भी एलीटिस्टहोंगे- दरअसल सारी उच्चस्तरीय भाषा आम भारतीय के लिए जैबरवॉकीया जिबरिशहै. ऐसी भाषा और ऐसा साहित्य गैर-साहित्यिक परिवेश की उदासीनता को कैसे साहित्यिक दिलचस्पी में बदल सकते हैं जबकि उसके लिए पूरे समाज को मौलिक रूप में बदलना हो ?”    
(उदासीन परिवेश और आलोचना : आलोचना की पहली क़िताब)

कहना ये है कि कई बार वे हिंदी दुनिया की ज़ाहिलियत का शिकार होते थे लेकिन उससे पहले वे ज़ाहिलों का शिकार कर चुके होते थे. रचना पर उनसे बात करने के लिए जिस तरह की तैयारी होनी चाहिए वह कई बार हमारे पास नहीं होती थी, इस पर अगर वे फटकार लगाते थे, तो उसमें हमारा हित जुड़ा होता था. हम अपनी ज़ाहिलियत को छुपाने के लिए उन्हें एलीटिस्टबना देते थे. उनसे मेरा जो अंतिम साहित्यिक संवाद है वह जनकवि विद्रोही’ (रमाशंकर यादव) पर लिखे एक लेख पर आई टिप्पणी के रूप में है. वह इस प्रकार है-
मूल कविताओं या संग्रह को देखे बिना सिर्फ किसी अच्छी, भरोसेमंद समीक्षा के आधार पर अहोरूपं अहोध्वनि:मचा देने की काहिल और ज़ाहिल रवायत हिंदी में एक वबा की तरह फैली हुई है. अभी यही कहा जा सकता है कि संतोष अर्श संकलन के प्रति उत्सुकता जगाने के अपने प्राथमिक उद्देश्य में सफल रहे हैं, लेकिन इसे क्या कहा जाय कि जन संस्कृति मंच द्वारा मुरत्तब इस संग्रह के प्रकाशन-संपादन के प्रारंभिक अनिवार्य दौरे नदारद हैं ?”
(विद्रोही की काव्य-संवेदना और भाषिक प्रतिरोध का विवेक : समालोचन)

इसी लेख पर अपनी टीप को बढ़ते हुए उन्होंने लिखा था- संतोष अर्श और अरुण देव (समालोचन के संपादक) की बाल-सुलभ नासमझी की वज़ह से ही इस टॉप सीक्रेट लिटरेरी मिशन का अनचाहा भंडाफोड़ हो गया.कहना यह है कि वे एलीटिस्ट नहीं थे बल्कि एकमात्र ऐसे कवि-आलोचक थे जो निरंतर बिलकुल युवा पीढ़ी के लेखकों तक से संवाद बनाए रखे हुए थे. हम हिंदी वाले सीखने से पहले सिखाने की ज़िद या सनक पाले हुए विष्णु खरे जैसे साहित्यिक शिक्षकों से सीखने से बचते रहे हैं. यही हमारी ज़ाहिलियत का कारण है.
विष्णु खरे ने हिंदी के लिए जो काम किया है उसका ब्यौरा यहाँ प्रस्तुत करने की कोई ज़रूरत नहीं है, सभी जानते हैं, जिन्हें पढ़ने-लिखने में रुचि है. उनकी कविता और कविता की भाषा का ज़िक्र इसलिए ज़रूरी है की दिन-ब-दिन शब्दों से कंगाल होती जा रही हिंदी दुनिया को विष्णु खरे की मौत पर ही यह ख़याल रहे कि वे भाषा को लेकर कितने सचेत रहे. उन्नीस सौ अस्सी के किसी वर्ष में पटना के किसी कार्यक्रम में आज के प्रतिष्ठित आलोचक नंदकिशोर नवल ने रघुवीर सहाय से पूछा था कि, एकदम नई पीढ़ी के के कवियों में वे सबसे संभावनाशील किसे मानते हैं, तो उन्होंने उत्तर में विष्णु खरे का नाम लिया था. यह भाषा के फ़ॉर्मको तोड़ने के लिए था. वास्तव में आठवें दशक की हिंदी कविता में प्रचलित भाषा के फ़ॉर्म को सबसे अधिक तोड़ने वाले कवि विष्णु खरे थे. फिर जब रघुवीर सहाय ने विष्णु खरे की कविता-पुस्तक खुद अपनी आँखकी समीक्षा दिनमान में लिखी तो, उनकी मृत्यु पर उनकी कविताई के लिए सबसे अधिक कही जाने वाली बात पहली बार उन्होंने ही कही थी- कहानी में कविता कहना विष्णु खरे की सबसे बड़ी शक्ति है.इन सब बातों को बाक़ायदा नंदकिशोर नवल जैसे आलोचक लिख चुके हैं.
सांप्रदायिक फ़ासीवाद के खिलाफ़ मुखर रहने वाले विष्णु खरे के दिल पर न दिनों क्या गुज़र रही थी, कह नहीं सकते. लेकिन उसका अनुमान उनके संग्रह काल और अवधि के दरमियानकी कवितायें जिन्होंने पढ़ी होंगी, वे कर सकते हैं. उनकी कवितायें पढ़ने के लिए बड़े धैर्य और संयम की ज़रूरत पहली शर्त है. और उससे भी पहली शर्त है कि हिंदीछाप ज़ाहिलियत से आप छुटकारा पा सके हों. उनकी गूंगमहलकविता भी ख़ासी चर्चित रही. एक कविता दज्जालकी शब्दावली देखिए-

लोग पहले से ही कर रहे हैं इबादत इबलीस की
उनकी आँखों की शर्म कभी की मर चुकी है
बेईमानी मक्र-ओ-फ़रेब उनकी पारसाई और ज़िंदगानी बन चुके
अपने ईमान गिरवी रखे हुए उन्हें ज़माने हुए
उनकी मज़बूरी है कि अल्लाह उन्हें दीखता नहीं
वरना वे उस पर भी रिबा और रिश्वत आज़मा लें
मशाइख़ और दानिश्वरों की बेहुर्मती का चौतरफ़ा रिवाज़ है
कहीं-न-कहीं क़हत पड़ा हुआ है मुल्क में
क़त्ल और ख़ुदकुशी का चलन है
कौन सा गुनाह है जो नहीं होता...

उनकी कई कविताएँ ऐसी ही भाषा का लिबास पहने हुए हैं. यह कवि की लक्षित सजगता है. वह आलोचना में भी ऐसा करते रहे हैं. हिंदी की भीरुता से उन्हें चिढ़ थी. हिंदी को संस्कृतनिष्ठता का पुरातन अचकन पहनाकर उसके सांप्रदायिकीकरण को भी वे चीह्नते थे. हिंदी की इस भीरु खाल पर वे कहीं-कहीं चिकोटी भी काट लेते हैं. जैसे कि यह-

भारतीय जनमानस में जो भीरु हिन्दू बैठा हुआ है वह कभी राम के आगे शिव का आत्म-समर्पण करवा देता है, कभी कृष्ण को शिव से ओब्लाइज़करवा देता है, कहीं बुद्ध को विष्णु का अवतार बना देता है, अटलबिहारी को जवाहरप्रेमी कर देता है. कर्म, पुनर्जन्म और माया की अवधारणाएँ इसी महाभय से निजात पाने की तरक़ीबें हैं, जय जवान जय किसान, गरीबी हटाओ, हिन्दू-मुस्लिम भाई-भाई आदि समस्याओं की भयावहता से न उलझ पाने से पैदा होने के टोटके हैं. वेद-पुराण और तंत्र में शत्रु को परास्त करने से लेकर सर्पदंश दूर करने के मंत्र मिलते हैं.
(रचना के साथ सहज संबंध : आलोचना की पहली क़िताब)                  

उनकी कविताओं में उर्दू के शब्दों को देख कर लगता है कि कैसी नफ़ीस उर्दू वे जानते थे. उतनी ही अच्छी हिंदी और अंग्रेज़ी के तो वे अध्यापक रहे. अच्छे अनुवादक और संपादक. फ़िल्म समीक्षक भी. इलियट का उनके द्वारा किया गया अनुवाद हमारे लिए एक उपलब्धि की तरह है. हम हिंदी वालों को विश्व साहित्य के अनमोल पदों, शब्दों और मुहाविरों से अवगत कराने वाले, खूसट और निर्मम कहे जाने वाले आलोचक और जीवन के अंतिम समय तक जवान रहने वाले कवि का इस बुरे समय में चले जाना एक आघात की तरह है. हमें उनसे अभी बहुत कुछ सीखना था. अपनी ज़ाहिलियत और काहिलियत से नज़ात पानी थी. बात जिस ग़ज़ल से शुरू हुई उसी पर ख़त्म होगी. मीरउन्हें प्रिय थे:
अब गए उसके, जुज़ अफ़सोस नहीं कुछ हासिल
हैफ़ सद हैफ़ कि कुछ क़द्र न जानी उसकी.
मृत्यु से पूर्व उनके आधे शरीर को लक़वा मार जाने की ख़बर मुझ तक पहुँची थी. तब से मैं अधीर था, उनकी आलोचना की पहली क़िताबछूता था और रख देता था. मृत्यु प्रत्येक तरह की अधीरता समाप्त कर देती है.          
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मैं आपको अलविदा कैसे कहूं विष्णु सर..!
सारंग उपाध्याय

लिखने-पढ़ने और लिखे-पढ़े हुए के तेजी से प्रसारित-प्रचारित होने की होड़ मेंअजीब रचनात्मक आवाजों के शोर में और मनुष्य सभ्यता के सर्वाधिक अभिव्यक्त होने वाले समय में विष्णु खरे की आवाज का मौन हो मुझे स्तब्ध कर देता है. एक अजीब बेचैनी से भर देता है. लगता है मानों इस भीषण शोर में एक आवाज जो मेरे नाम से मुझे पुकारती, जानती और समझाने वाली रही अचानक गुम हो रही है और शोर का एक सैलाब मुझे निगल जाने के लिए बेचैन है.

डिजिटल होते समाज में और डिजटली हाल-चाल पूछने के संदेशों की भीड़ में, सैंकड़ों Emails की आवाजाही के बीच मेरे मेल के इनबॉक्स में इक्का-दुक्का मेल विष्णु खरे जी के भी हैं, जिन्हें देखकर लगता है कि इस भीड़ में कुछ है जो अपना है.

इन mails को देखकर मेरे सामने विष्णु जी की आवाज और चेहरा घूम रहा है. यह mails मेरी संपदा है. चिट्ठियों के गुम होने के दौर में एक ऐसी संपत्ति है, जो मेरे जैसे गुमनाम युवा कलमकारों की अनोखी और कीमती विरासत है. लिखने-छाप देने की तूफानी स्पीड और अचानक बिखराव में कुछ बातचीत और प्रतिक्रियाएं भी हैं जो एक ठहराव हैं जहां स्थिर होकर इस समय और समाज को देखने की दृष्टि मिलती है.

शहरों-महानगरों की यायावरी से सालों पहले विष्णु खरे की प्रतिनिधि कविताओं से मैं उन तक पहुंचा था. फिर इंदौर में उनका नाम गोष्ठियों, चर्चाओं-परिर्चाओं और कई लेखकों से बातचीत में सुना. समय बीतता गया और एक लंबे अंतराल के बाद एक दिन अचानक मैं विष्णु सर के सामने था.

2011-12 में मुंबई में मलाड के मालवणी इलाके में एक से देढ़ घंटे की मुलाकात और पहली बार हिंदी साहित्य की दुर्जेय मेधा से साक्षात्कार. मैं जितना डरा, सहमा और झिझक से भरा हुआ था वे उतने ही सरल, सहज और कोमलता के साथ मिले.

इस लंबी बातचीत में मेरा मध्य प्रदेश से होना उनके विशेष स्नेह, दुलार का कारण बना. बातचीत में कस्बा, शहर, करियर, परवरिश लिखना-पढ़ना सबकुछ था और बाद में पूरी सहजता के साथ उन्होंने उनका जीवन साझा कर दिया. बातचीत में इतनी सरलता, सहजता और उष्णता ठहरी कि उनके साथ संबंधों की डोर मेरे मुंबई से दिल्ली आ जाने के बाद भी हमेशा जीवंत रही.

एक बार मुंबई में उन्होंने मुझे दोबारा मिलने के लिए बुलाया तो मैं जा नहीं पाया. फिर एक दिन फोन पर कहा- आप आने वाले थे आए नहीं..!

मैं आज सोच रहा हूं कि मैं आपसे दोबारा मिलने क्यों नहीं पहुंचा?


दो साल पहले समालोचन में फिल्म सैराट पर लिखी लंबी समीक्षा के बहाने फोन पर लगातार लंबी बातें हुईं. बोले- सारंग बाबू मैंने और तुम्हारी काकी ने भी भागकर शादी की थी. मैं हंसकर रह गया और अपने भी अंतरजातीय विवाह की कहानी सुना दी.

वह एक लंबी बातचीत का दौर था, जिसकी डोर हमारे मोबाइल नेटवर्क में बंधी थी. सिलसिला लंबा हुआ और ये बातें होती रहीं. मैं अचरज में था कि एक 32-33 साल के युवा से एक 70-75 साल का बुजुर्ग वरिष्ठ कवि कितनी आत्मीयता और मित्रता के साथ बातें करता है, और यह व्यक्ति आज के समय में भी कितना अपडेट है.

यकीनन यह बहुत अद्भुत था. पीढ़ियों के अंतराल को विष्णु सर मिनटों में काट देते थे. लगता था मानों वे इस दौर से, समय से और इसमें हो रहे बदलाव पर पूरी तरह नजर बनाए हुए थे. वे युवाओं से सीधे संवाद करते थे और हर तरह की बातें करते थे.

दीन-दुनिया की बातें, हिंदी साहित्य के गलियारों में लेखकों के संसार और चरित्र की बातें, पुरस्कार वापसी जैसे मुद्दों की बातें, हिंदी फिल्मों और विश्व सिनेमा पर उनकी विराट समझ की बातें, समाज की बातें, राजनीति, धर्म, संस्कृति, इकॉनॉमी की बातें. बातें भी ऐसी कि बस आप सुनते जाइए. नये संदर्भों, हर विधा के विद्वानों और जानकारों के कोट के साथ.

विष्णु जी मुझे लेखक और कवि से ज्यादा पत्रकार के रूप में मिले. पत्रकार भी ऐसे कि देखने की इतनी सूक्ष्म नजर मैंने पहले कभी नहीं देखी. जानकारियों का अद्भुत खजाना और वहां निकलती ऐसी दृष्टि की आजकल के न्यूज रूम में वैसे संपादकों की कल्पना ही नहीं की जा सकती.  

मैंने जब भी विष्णु जी के बारे में सोचा तो पाया कि मैं बातें किससे करता हूं

कवि से
लेखक से
पत्रकार से
या एक बड़े फिल्म समीक्षक से

पता नहीं विष्णु खरे जी के कितने रूप थे. लेखक, कवि और अनुवादक वाले रूप के अलावा अंग्रेजी के व्याख्याता विष्णु खरे से मेरा कभी सामना नहीं हुआ. जो बातें हुईं वह फिल्म पर हुई. मैंने उन्हें लेखक से ज्यादा मित्र के रूप में जाना और कवि से ज्यादा सिनेमा और फिल्म के एक अद्भुत जानकार के रूप में. उनके दिल्ली आने की सूचना से बहुत खुश था, लेकिन दिल्ली आने के उनके फैसले पर ब्रेन हैमरेज होने की घटना से गुस्सा भी आया. एक उम्र के बाद ऐसे कोई अकेले रहता है क्या? और आज तो इतने अचानक से इस दुनिया से विदाई..!

विष्णु सर, आपके इस तरह अचानक जाने की सूचना से स्तब्ध हो गया और उसी हाल में आपके जाने की खबर बना रहा था. मैं कैसा महसूस कर रहा था मैं ही जानता हूं.

ऊफ..! आप ऐसे कैसे जा सकते हैं जबकि मेरा लिखा हुआ बहुत कुछ आपको बताना था. बातचीत करनी थी और चाय तो बाकी ही थी.

मैं आपको अलविदा कैसे कहूं विष्णु सर..!
 


मेघ- दूत : बाल्थाज़ार की आश्चर्यजनक दोपहर : गैब्रिएल गार्सिया मार्खेज़












कला व्यक्ति को कैसे, किस तरह और कितना उदात्त बना सकती हैं इसे देखना हो तो यथार्थ से भी आगे के यथार्थ को अपनी जादुई शैली में व्यक्त करने वाले महान कथाकार गैब्रिएल गार्सिया मार्खेज़ की यह कहानी पढ़नी चाहिए.

बाल्थाज़ार दुनिया का सबसे सुंदर पिंजरा बनाता है, पर यह पिंजरा फिर उसे आकार देने लगता है. इसका अंग्रेजी (Balthazar's Marvellous Afternoon) से अनुवाद सुशांत सुप्रिय ने किया है.






बाल्थाज़ार   की  आश्चर्यजनक दोपहर                 
गैब्रिएल गार्सिया मार्खेज़

अनुवाद : सुशांत सुप्रिय



पिंजरा बन कर तैयार हो गया था. बाल्थाज़ार ने आदतन उसे छज्जे से टाँग दिया, और जब उसने दोपहर का भोजन ख़त्म किया, तब तक सभी उसे दुनिया का सबसे सुंदर पिंजरा बताने लगे थे. उस पिंजरे को देखने के लिए इतने लोग आए कि घर के सामने भीड़ जुट गई, और बाल्थाज़ार को उसे छज्जे से उतार कर अपनी दुकान बंद कर देनी पड़ी.

“तुम्हें दाढ़ी बनानी होगी,उसकी पत्नी उर्सुला ने कहा. “तुम बंदर जैसे लग रहे हो.”
“दोपहर का खाना खाने के बाद दाढ़ी बनाना बुरी बात होती है,बाल्थाज़ार ने कहा.

दो हफ़्ते से बढ़ रही उसकी दाढ़ी के बाल छोटे, कड़े और चुभने वाले थे,  और वे किसी घोड़ी के अयाल जैसे थे. इसकी वजह से उसके चेहरे का भाव किसी डरे-सहमे लड़के जैसा लग रहा था. लेकिन यह एक भ्रामक मुद्रा थी. फ़रवरी में वह तीस साल का हो गया था. वह बिना उर्सुला से ब्याह किए उसके साथ पिछले चार वर्षों से रह रहा था. उनके कोई बच्चा भी नहीं था. जीवन ने उसे सावधान रहने की कई वजहें दी थीं, किंतु उसके पास भयभीत होने का कोई कारण नहीं था. उसे तो यह भी नहीं पता था कि अभी थोड़ी देर पहले उसके द्वारा बनाया गया पिंजरा कुछ लोगों के लिए दुनिया का सबसे सुंदर पिंजरा था. वह तो बचपन से ही पिंजरे बनाने का आदी था, और उसके लिए यह पिंजरा बनाना भी बाक़ी पिंजरों को बनाने से ज़्यादा मुश्किल नहीं रहा था.

“तो फिर तुम कुछ देर आराम कर लो,उर्सुला ने कहा. “इस बढ़ी दाढ़ी में तुम किसी को मुँह दिखाने के लायक नहीं हो.”

आराम करते समय उसे कई बार अपने झूले से उतरना पड़ा ताकि वह पड़ोसियों को अपना पिंजरा दिखा सके. इससे पहले उर्सुला ने इस बात पर कोई ध्यान नहीं दिया था. वह नाराज़ थी क्योंकि उसके पति ने बढ़ई की दुकान के अपने काम की उपेक्षा करके अपना सारा समय पिंजरा बनाने में अर्पित कर दिया था. पिछले दो हफ़्तों से वह ठीक से सो भी नहीं पाया था. नींद में वह अस्पष्ट-सा कुछ बड़बड़ाता रहता था. इस बीच उसे दाढ़ी बनाने की फ़ुर्सत भी नहीं मिली थी. किंतु बनने के बाद जब उर्सुला ने वह सुंदर पिंजरा देखा तो उसका ग़ुस्सा काफ़ूर हो गया. जब बाल्थाज़ार थोड़ी देर बाद सो कर उठा तो उसने पाया कि उर्सुला ने उसकी क़मीज़ और पैंट को इस्त्री कर दिया था. उसने उसके कपड़े झूले के पास ही एक कुर्सी पर रख दिए थे और वह पिंजरे को उठा कर खाना खाने वाली मेज़ पर ले आई थी. वहाँ वह उसे चुपचाप ध्यान से देख रही थी.

“तुम इसे कितने में बेचोगे ?उसने पूछा.
“मैं नहीं जानता,बाल्थाज़ार बोला. “मैं इसके एवज़ में तीस पेसो माँगूँगा ताकि मुझे इसके बदले में कम-से-कम बीस पेसो तो मिलें ही.”
“तुम इसके बदले में पचास पेसो माँगना,उर्सुला ने कहा. “पिछले दो हफ़्तों से तुम ठीक से सोए भी नहीं हो. फिर यह पिंजरा काफ़ी बड़ा है. मुझे लगता है, मैंने अपने जीवन में इससे बड़ा पिंजरा नहीं देखा है.”

बाल्थाज़ार अपनी दाढ़ी बनाने लगा.

“क्या तुम्हें लगता है कि वे मुझे इस पिंजरे के लिए पचास पेसो देंगे ?
“श्री चेपे मौंतिएल के लिए पचास पेसो कोई बड़ी रक़म नहीं है, और यह पिंजरा इस रक़म के योग्य है,उर्सुला बोली. “तुम्हें तो इसके बदले में साठ पेसो माँगने चाहिए.”

मकान दमघोंटू छाया में पड़ा था. वह अप्रैल का पहला हफ़्ता था और बड़े कीड़ों के लगातार चिं-चिं-चिं का शोर करते रहने की वजह से गर्मी भी असहनीय होती जा रही थी. कपड़े पहनने के बाद बाल्थाज़ार ने आँगन का दरवाज़ा खोल लिया ताकि हवा के भीतर आने से कुछ ठंडक मिले. इस बीच बच्चों का एक झुंड खाना खाने वाले कमरे में घुस आया.

यह ख़बर चारों ओर फैल गई थी. अपने जीवन से ख़ुश किंतु अपने पेशे से थके हुए डॉक्टर ओक्टेवियो जिराल्डो अपनी बीमार पत्नी के साथ दोपहर का खाना खाते हुए बाल्थाज़ार के पिंजरे के बारे में ही सोच रहे थे. गरम दिनों में जहाँ वे मेज़ लगा देते थे, उस भीतरी आँगन में फूलों के कई गमले और पीत-चटकी चिड़िया के दो पिंजरे थे. उर्सुला को चिड़ियाँ पसंद थीं. वह उन्हें इतना चाहती थी कि उसे बिल्लियों से नफ़रत थी क्योंकि बिल्लियाँ चिड़ियों को खा सकती थीं. उर्सुला के बारे में सोचते हुए डॉक्टर जिराल्डो उस दोपहर एक मरीज़ को देखने गए, और जब वे लौटे तो वे पिंजरे का निरीक्षण करने के लिए बाल्थाज़ार के घर की ओर से निकले.

खाना खाने वाले कमरे में बहुत से लोग मौजूद थे. प्रदर्शन के लिए पिंजरे को मेज़ पर रखा गया था. तारों से बना उसका एक विशाल गुम्बद था. भीतर तीन मंजिलें बनी हुई थीं. वहाँ कई रास्ते और चिड़ियों के खाना खाने और सोने के लिए कई कक्ष बने हुए थे. चिड़ियों के मनोरंजन के लिए कुछ जगहों पर झूले लगाए गए थे. दरअसल वह पूरा पिंजरा किसी विशाल बर्फ़ बनाने वाले कारख़ाने का छोटा-सा नमूना प्रतीत होता था. डॉक्टर ने बिना छुए ध्यान से उस पिंजरे को जाँचा, और सोचने लगा कि वह पिंजरा अपनी ख्याति से भी बेहतर था. दरअसल अपनी पत्नी के लिए उसने जिस पिंजरे की कल्पना की थी, वह उससे कहीं ज़्यादा ख़ूबसूरत था.

“यह तो कल्पना की उड़ान की पराकाष्ठा है,उसने कहा. उसने भीड़ में से बाल्थाज़ार को अपने पास बुलाया और अपनी पितृसुलभ आँखें उस पर टिकाते हुए आगे कहा,तुम एक असाधारण वास्तुकार होते.”
बाल्थाज़ार के मुख पर लाली आ गई.
वह बोला, शुक्रिया.”

“यह सच है, डॉक्टर ने कहा. वह अपने यौवन में सुंदर रही स्त्री जैसा था -- बहुत मृदु, नाज़ुक और मांसल. उसके हाथ बेहद कोमल-सुकुमार थे. उसकी आवाज़ लातिनी भाषा बोल रहे किसी पुजारी जैसी लगती थी. “तुम्हें इस पिंजरे में चिड़ियाँ रखने की भी ज़रूरत नहीं,उसने दर्शकों के सामने पिंजरे को गोल घुमाते हुए कहा, गोया वह उसकी नीलामी कर रहा हो. “इसे पेड़ों के बीच टाँग देना ही पर्याप्त होगा ताकि यह स्वयं वहाँ गीत गा सके.” उसने पिंजरे को वापस मेज़ पर रखा, एक पल के लिए कुछ सोचा और पिंजरे को देखते हुए बोला,बढ़िया. तो मैं इसे ख़रीद लूँगा.”

“पर यह पहले ही बिक चुका है,उर्सुला ने कहा.
“यह श्री चेपे मौंतिएल के बेटे का पिंजरा है,बाल्थाज़ार बोला. “उन्होंने ख़ास तौर पर इसे बनाने के लिए कहा था.”
यह सुनकर डॉक्टर ने पिंजरे के लिए सम्मान का भाव अपना लिया.
“क्या उन्होंने इसकी रूपरेखा भी तुम्हें बताई थी ?
“नहीं,बाल्थाजार ने कहा. “उन्होंने कहा था कि उन्हें अपनी काले सिर और लम्बी पूँछ वाली चिड़िया-जोड़े के लिए इसके जैसा ही एक बड़ा पिंजरा चाहिए.”
डॉक्टर ने पिंजरे की ओर देखा.
“लेकिन यह पिंजरा उस ख़ास जोड़े के लिए बना तो नहीं लगता.”

“डॉक्टर साहब, यह पिंजरा ख़ास उसी चिड़िया-जोड़े के लिए बनाया गया है,मेज़ के पास पहुँचते हुए बाल्थाज़ार ने कहा. बच्चों ने उसे घेर लिया. “बहुत ध्यान से हिसाब लगा कर इसका माप लिया गया है,अपनी उँगली से पिंजरे के कई कक्षों की ओर इशारा करते हुए वह बोला. फिर उसने अपनी उँगलियों की गाँठों से उसके गुम्बद पर हल्की-सी चोट की और पिंजरा अनुनाद से भर उठा.

“यह पाई जाने वाली सबसे मज़बूत तार है और हर जोड़ पर भीतर-बाहर से इसकी टँकाई की गई है,उसने कहा.
“इस पिंजरे में तो तोता भी रह सकता है ,एक बच्चे ने बीच में कहा.
“बिल्कुल रह सकता है,बाल्थाज़ार बोला.
डॉक्टर ने अपना सिर मोड़ा.




“ठीक है. पर उन्होंने तुम्हें इस पिंजरे के लिए कोई रूपरेखा तो दी नहीं थी,” वह बोला. 

“उन्होंने तुम्हें कोई सटीक विनिर्देश नहीं दिए थे, केवल इतना ही कहा था कि पिंजरा काले सिर और लम्बी पूँछ वाली चिड़िया-जोड़े को रखने जितना बड़ा होना चाहिए. क्या यह बात सही नहीं?
“आप सही कह रहे हैं,बाल्थाज़ार ने कहा.
“तब तो कोई समस्या ही नहीं,डॉक्टर बोला. “काले सिर और लम्बी पूँछ वाली चिड़िया-जोड़े को रखने जितना बड़ा पिंजरा होना एक बात है और यही पिंजरा होना दूसरी बात है. इस बात का कोई प्रमाण नहीं कि तुम्हें इसी पिंजरे को बनाने के लिए कहा गया था.”

“लेकिन यही वह पिंजरा है,बाल्थाज़ार ने चकराते हुए कहा .”मैंने इसे इसीलिए बनाया है.”
डॉक्टर ने व्यग्र होकर इशारा किया.

“तुम ऐसा ही एक और पिंजरा बना सकते हो,उर्सुला ने अपने पति की ओर देखते हुए कहा. और फिर वह डॉक्टर से बोली,आपको पिंजरा ख़रीदने की बहुत जल्दी तो नहीं है ?
“मैंने अपनी पत्नी को आज दोपहर में ही पिंजरा ला कर देने का आश्वासन दिया था,” डॉक्टर ने कहा.
“मुझे बहुत खेद है, डॉक्टर साहब, किंतु मैं पहले ही बिक चुकी चीज़ को आपको दोबारा नहीं बेच सकता हूँ,बाल्थाज़ार ने कहा.

डॉक्टर ने उपेक्षा के भाव से अपने कंधे उचकाए. अपनी गर्दन के पसीने को रुमाल से सुखाते हुए, उसने पिंजरे को चुपचाप सधी हुई किंतु उड़ती नज़र से ऐसे देखा जैसे कोई दूर जाते हुए जहाज़ को देखता है.

“उन्होंने इस पिंजरे के लिए तुम्हें कितनी राशि दी ?”
“साठ पेसो,उर्सुला बोली.
डॉक्टर पिंजरे को देखता रहा. “यह बहुत सुंदर है,उसने एक ठंडी साँस ली. “बेहद सुंदर.” फिर दरवाज़े की ओर जाते और मुस्कुराते हुए वह ज़ोर-ज़ोर से ख़ुद को पंखा झलने लगा, और उस पूरी घटना का निशान उसकी स्मृति से हमेशा के लिए ग़ायब हो गया.

“मौंतिएल बेहद अमीर है,उसने कहा.

असल में जोस मौंतिएल जितना अमीर लगता था उतना था नहीं, लेकिन उतना अमीर बनने के लिए वह कुछ भी कर सकने में समर्थ था. वहाँ से कुछ ही इमारतों की दूरी पर उपकरणों से ठसाठस भरे एक मकान में, जहाँ किसी ने भी कभी ऐसी कोई गंध नहीं सूँघी थी जिसे बेचा न जा सके, जोस मौंतिएल पिंजरे की ख़बर से उदासीन था. मृत्यु की सनक से ग्रस्त उसकी पत्नी दोपहर के भोजन के बाद सभी दरवाज़े और खिड़कियाँ बंद करके दो घंटे के लिए लेट जाती थी, लेकिन उसकी आँखें कमरे के अँधेरे को देखती रहती थीं. जोस मौंतिएल उस समय आराम करता था. बहुत सारी आवाज़ों के मिले-जुले शोर ने उस लेटी हुई महिला को चौंका दिया. तब उसने बैठक का दरवाज़ा खोला और अपने मकान के बाहर भीड़ को खड़ा पाया. उस भीड़ के बीच में सफ़ेद कपड़े पहने अभी-अभी दाढ़ी बना कर आया बाल्थाजार पिंजरा लिए हुए खड़ा था. उसके चेहरे पर मर्यादित सरलता का वह भाव था जो अमीरों के आवास पर आने वाले ग़रीबों के चेहरों पर होता है.

“वाह, यह क्या आश्चर्यजनक चीज़ है !” पिंजरे को देखते ही जोस मौंतितिएल की पत्नी चहक कर बोली. उसके कांतिमय चेहरे पर एक उल्लसित भाव था और वह बाल्थाज़ार को रास्ता दिखाते हुए घर के भीतर ले गई.” मैंने अपने जीवन में इस जैसी बढ़िया चीज़ कभी नहीं देखी,उसने कहा, लेकिन भीड़ के दरवाज़े तक आ जाने की वजह से उसने थोडा चिढ़ कर आगे कहा, “इससे पहले कि यह भीड़ इस बैठक-कक्ष को दर्शक-दीर्घा में बदल दे, तुम यह पिंजरा लेकर भीतर आ जाओ.”


जोस मौंतिएल के घर के लिए बाल्थाज़ार अजनबी नहीं था. अपने कौशल और बर्ताव के स्पष्टवादी तरीक़े की वजह से उसे कई मौक़ों पर बढ़ई के छोटे-मोटे काम करने के लिए वहाँ बुलाया गया था. लेकिन अमीर लोगों के बीच वह कभी भी ख़ुद को सहज महसूस नहीं कर पाता था. वह उनके तौर-तरीक़ों, उनकी बहस करने वाली झगड़ालू पत्नियों और भयंकर शल्य क्रियाओं को झेलने के उनके अनुभव के बारे में सोचता रहता था, और उसे हमेशा उनकी स्थिति पर तरस आता था. जब वह उनके मकानों में जाता तो ख़ुद को अपने पाँव घसीटने से नहीं रोक पाता था.

“क्या पेपे घर पर है ?”उसने पूछा.
उसने पिंजरा खाना खाने वाली मेज़ पर रख दिया.
“वह स्कूल गया है,जोस मौंतिएल की पत्नी ने कहा. “लेकिन वह जल्दी ही घर आ जाएगा. मौंतिएल नहा रहे हैं.” उसने जोड़ा.
असल में जोस मौंतिएल को नहाने का समय ही नहीं मिला था. वह अपनी देह पर बहुत ज़रूरी मद्यसार लगा रहा था ताकि वह बाहर आ कर यह देख सके कि वहाँ क्या हो रहा है. वह इतना सतर्क व्यक्ति था कि वह बिना पंखा चलाए सोता था ताकि सोते समय भी उसे घर में आ रही आवाज़ों के बारे में पता रहे.

“एडीलेड,वह चिल्लाया. “वहाँ क्या हो रहा है ?”
“यहाँ आ कर देखो, यह कितनी आश्चर्यजनक चीज़ है !” उसकी पत्नी ने वापस चिल्ला कर
कहा.
अपने गर्दन के इर्द-गिर्द तौलिया लपेटे स्थूलकाय और रोयेंदार जोस मौंतिएल सोने वाले कमरे की खुली खिड़की पर प्रकट हुआ.
“वह क्या है ?”
“वह पेपे का पिंजरा है,बाल्थाज़ार बोला. उसकी पत्नी ने हैरानी से उसकी ओर देखा.
“किसका ?
“पेपे का,बाल्थाज़ार ने कहा. और फिर जोस मौंतिएल की ओर मुड़कर वह बोला, “पेपे ने इसे अपने लिए बनाने के लिए मुझे कहा था.”
उसी पल तो कुछ नहीं हुआ लेकिन बाल्थाज़ार को लगा जैसे किसी ने उसके सामने नहाने वाले कमरे का दरवाज़ा खोल दिया था. जोस मौंतिएल अपने अधोवस्त्र पहने हुए ही सोने वाले कमरे में से बाहर आ गया.

“पेपे !” वह चिल्लाया.
“वह अभी स्कूल से वापस नहीं लौटा है,उसकी पत्नी ने बिना हिले-डुले फुसफुसा कर कहा.
तभी पेपे दरवाज़े के सामने नज़र आया. वह लगभग बारह साल का लड़का था जिसकी आँखों की बरौनियाँ मुड़ी हुई थीं और जो दिखने में अपनी माँ जैसा ही शांत और दयनीय लगता था.

“यहाँ आओ,जोस मौंतिएल ने उससे कहा. “क्या तुमने इसे बनाने की माँग की थी ?”
बच्चे ने अपना सिर झुका लिया. उसे बालों से पकड़ कर जोस मौंतिएल ने उसे मजबूर किया कि वह उससे आँखें मिलाए.
“मुझे जवाब दो.”
बच्चे ने बिना जवाब दिए अपने दाँतों से अपने होठ काटे.
“मौंतिएल,उसकी पत्नी फुसफुसा कर बोली.
जोस मौंतिएल ने लड़के को जाने दिया और ग़ुस्से में वह बाल्थाज़ार की ओर मुड़ा.
“मुझे बहुत खेद है, बाल्थाज़ार,उसने कहा. “लेकिन यह पिंजरा बनाने से पहले तुम्हें मुझसे बात कर लेनी चाहिए थी. केवल तुम ही किसी बच्चे के साथ ऐसा इकरारनामा कर सकते हो.”

बोलते-बोलते उसके चेहरे पर फिर से शांति और संयम का भाव लौट आया. पिंजरे की ओर देखे बिना उसने उसे उठाकर बाल्थाज़ार को दे दिया. “इसे तत्काल यहाँ से ले जाओ और जो भी इसे ख़रीदना चाहे, उसे बेच दो,”वह बोला. “इसके अलावा कृपया मुझसे बहस मत करना.” उसने बाल्थाजार का कंधा थपथपा कर कहा,डॉक्टर ने मुझे क्रोधित होने से मना किया है.”

बच्चा तब तक बिना हिले-डुले और बिना पलकें झपकाए खड़ा रहा जब तक बाल्थाज़ार ने अपने हाथ में पिंजरा पकड़ कर उसकी ओर अनिश्चितता से नहीं देखा. तब उसने अपने गले से कुत्ते की गुर्राहट जैसी आवाज़ निकाली और चिल्लाते हुए फ़र्श पर लोटने लगा.

जोस मौंतिएल ने बिना विचलित हुए उसकी ओर देखा, जबकि बच्चे की माँ उसे शांत करने का प्रयास करने लगी. “उसे बिल्कुल मत उठाओ,वह बोला. “उसे फ़र्श पर अपना सिर फोड़ने दो. फिर वहाँ नमक और नींबू लगा देना ताकि वह जी भर कर चिल्ला सके.” बच्चा बिना आँसू बहाए चीख़ता-चिल्लाता जा रहा था जबकि उसकी माँ ने उसे कलाइयों से पकड़ा हुआ था.

“उसे अकेला छोड़ दो,जोस मौंतिएल ने बल देकर कहा.

बाल्थाजार ने बच्चे को ऐसी निगाहों से देखा जैसे वह मृत्यु के चंगुल में फँसे रेबीज़ रोग से ग्रस्त किसी जानवर को देख रहा हो. तब तक लगभग चार बज गए थे. उस समय उर्सुला अपने घर पर प्याज के फाँक काटते हुए एक बहुत पुराना गीत गा रही थी.
“पेपे,”बाल्थाज़ार ने कहा.

वह मुस्कुराते हुए बच्चे की ओर गया और उसने पिंजरा उसकी ओर बढ़ा दिया. बच्चा उछल कर खड़ा हो गया और उसने पिंजरे को अपनी बाँहों में ले लिया. पिंजरा लगभग उसके जितना बड़ा ही था. बच्चा पिंजरे के तारों के बीच में से बाल्थाज़ार को देखते हुए खड़ा रहा. वह नहीं जानता था कि वह क्या कहे. उसके चेहरे पर आँसू का एक भी क़तरा नहीं था.

“बाल्थाज़ार,”जोस मौंतिएल ने आवाज को नरम बनाते हुए कहा,मैंने तुम्हें पहले ही कह दिया है कि तुम इस पिंजरे को यहाँ से ले जाओ.”
“पिंजरा लौटा दो,महिला ने बच्चे से कहा.

“उसे रखे रहो,बाल्थाज़ार बोला. और फिर उसने जोस मौंतिएल से कहा,आख़िर मैंने यह पिंजरा इसी बच्चे के लिए बनाया है.”

जोस मौंतिएल उसके पीछे-पीछे चलते हुए बैठक में आ गया. “बेवक़ूफ़ी मत करो, बाल्थाज़ार,उसका रास्ता रोक कर मौंतिएल कह रहा था,अपना यह सामान अपने घर ले जाओ. मूर्खता मत करो. मैं तुम्हें इसके लिए एक पैसा नहीं देने वाला.”

“कोई बात नहीं,बाल्थाज़ार बोला. मैंने इसे ख़ास तौर से पेपे के लिए तोहफ़े के रूप में बनाया था. मैं इसके लिए आपसे कोई रक़म नहीं लेने वाला था.”

जब बाल्थाज़ार दरवाज़े पर रास्ता रोक रहे दर्शकों के बीच में से होकर गुज़र रहा था, उस समय जोस मौंतिएल बैठक में खड़ा हो कर चिल्ला रहा था. उसके चेहरे का रंग फीका पड़ गया था और उसकी आँखें लाल होने लगी थीं. जब बाल्थाज़ार सामूहिक खेल वाले मुख्य कक्ष में से हो कर गुज़रा तो वहाँ सब ने खड़े हो कर उत्साहपूर्ण ढंग से उसका स्वागत किया. उस पल तक उसने यही सोचा था कि इस बार उसने पहले से कहीं बेहतर पिंजरा बनाया था, और उसे यह पिंजरा जोस मौंतिएल के बेटे को देना पड़ा ताकि वह रोना-धोना बंद कर दे, हालाँकि इनमें से कोई भी चीज़ उतनी महत्त्वपूर्ण नहीं थी. पर तब उसे यह अहसास हुआ कि कई लोगों के लिए यह सारा वाक़या महत्त्वपूर्ण था और इस बात से उसमें थोड़ा जोश आ गया.

“तो उन्होंने तुम्हें उस पिंजरे के लिए पचास पेसो दिए.”
“साठ,”बाल्थाज़ार बोला.
“वाह, तुम छा गए,”किसी ने कहा. “एक तुम ही हो जो श्री चेपे मौंतिएल से इतनी रक़म वसूल करने में कामयाब रहे. हमें इसका उत्सव मनाना चाहिए.”

उन्होंने उसे एक बीयर ख़रीद कर दी और बदले में बाल्थाजार ने सबके लिए जाम का एक दौर चलाया. चूँकि यह बाहर कहीं पीने का उसका पहला अवसर था, शाम का झुटपुटा होते-होते वह पूरी तरह से नशे में धुत्त् हो चुका था. नशे में वह एक हज़ार पिंजरों की एक आश्चर्यजनक कल्पित परियोजना के बारे में बात कर रहा था जहाँ हर पिंजरा साठ पेसो का होना था और फिर बढ़ते-बढ़ते यह महत्त्वाकांक्षी परियोजना दस लाख पिंजरों तक पहुँच जानी थी. तब उसके पास छह करोड़ पेसो हो जाने थे.

“अमीर लोगों के मरने से पहले हमें बहुत सारी चीज़ें बना कर उन्हें बेचनी हैं,नशे में धुत्त् वह बोलता चला जा रहा था. “वे सभी बीमार हैं, और वे सभी मरने वाले हैं. उन्होंने अपने जीवन का ऐसा सत्यानाश कर लिया है कि अब वे नाराज़ भी नहीं हो सकते.”
पिछले दो घंटे से रेकॉर्ड-प्लेयर पर बिना व्यवधान के गीत बजाने के पैसे बाल्थाज़ार ही दे रहा था. सभी ने बाल्थाज़ार के स्वास्थ्य और सौभाग्य की सलामती तथा अमीरों की मृत्यु के नाम जाम पिया, लेकिन रात्रि के भोजन के समय उन्होंने उसे सामूहिक खेल वाले मुख्य कक्ष में अकेला छोड़ दिया.


रात आठ बजे तक उर्सुला ने बाल्थाज़ार के लौट आने की प्रतीक्षा की थी. उसने उसके लिए भुने हुए गोश्त की एक प्लेट, जिस पर कटे हुए प्याज़ की फाँकें पड़ी थीं, बचा कर रख छोड़ी थी. किसी ने उर्सुला को बताया था कि उसका पति सामूहिक खेल वाले मुख्य कक्ष में ख़ुशी से उन्मत्त, सबको ख़रीद कर बीयर पिला रहा था. लेकिन उसने इस बात पर यक़ीन नहीं किया क्योंकि बाल्थाजार कभी भी नशे में धुत्त् नहीं हुआ था.


जब वह लगभग मध्य-रात्रि के समय सोने के लिए बिस्तर पर गयी, उस समय बाल्थाज़ार एक ऐसे रोशन कमरे में था जहाँ छोटी-छोटी मेज़ें लगी थीं, जिनके इर्द-गिर्द चार-चार कुर्सियाँ थीं. वहीं बाहर एक नृत्य-स्थल भी था जहाँ छोटी पूँछ और लम्बी टाँगों वाली चिड़ियाँ चहलक़दमी कर रही थीं. उसके चेहरे पर कुंकुम जैसी लाली थी, और क्योंकि वह अब एक और क़दम भी चलने की स्थिति में नहीं था, वह दो स्त्रियों के साथ हमबिस्तर हो जाना चाहता था. 


उसने वहाँ इतने रुपए-पैसे ख़र्च कर दिए थे कि उसे यह कह कर अपनी घड़ी गिरवी रखनी पड़ी थी कि वह कल बाक़ी की रक़म चुका देगा. कुछ पल बाद जब वह अपने हाथ-पैर फैलाए गली में गिरा पड़ा था तो उसे अहसास हुआ कि कोई उसके जूते उतार कर लिये जा रहा है, लेकिन वह अपने सबसे सुखी दिन का परित्याग नहीं करना चाहता था. सुबह पाँच बजे की प्रार्थना-सभा में जाने वाली उधर से गुज़र रही महिलाओं ने उसकी ओर देखने का साहस भी नहीं किया क्योंकि उन्हें लगा कि वह मर चुका था.
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(Balthazar : the name is of Greek origin, meaning `God save the King.' He was one of the three wise men who travelled to Judea to pay homage to the infant Jesus. The Biblical source of the name is significant.)
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सुशांत सुप्रिय
कथाकार, कवि, अनुवादक

A-5001,  गौड़ ग्रीन सिटी,   वैभव खंडइंदिरापुरम,
ग़ाज़ियाबाद - 201010 
8512070086/ई-मेल : sushant1968@gmail.com

कथा - गाथा : गलत पते की चिट्ठियाँ : योगिता यादव

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(by kallchar)























कहानी
गलत पते की चिट्ठियाँ                                                   
योगिता यादव



क थी सांदली रानी. खाती सुनार की थी, गाती कुम्हार की थी. सुनार दिन भर पसीना बहाता. उसके लिए सुंदर झुमके और बालियां गढ़ता. फिर उसे पहनाता. हर बार बाली और झुमके के लिए उसे कानों में नए छेद करने पड़ते. कान छिदवाने की पीड़ा में उसकी आंखें नम हो जातीं. पर वह किए जा रही थी. कुम्हार मिट्टी इकट्ठी करता. उसे चाक पर चढ़ाता. गोल गोल घूमते चाक पर मिट़टी नाचने लगती. कुम्हार सांदली रानी से पूछता कि बताओ क्या बनाऊं. उसकी मिट्टी से वो कभी मीठे शरबत की सुराही बनवाती, कभी पूजा का दीया कुम्हार बना देता.

अब क्योंकि समय बदल रहा था. जातियों के किले टूट रहे थे. पेशे बदल रहे थे. इसलिए अब सुनार, सुनार न था. वह मल्टीनेशनल कंपनी का एक काबिल एम्पलॉई था कनक कपूर. कुम्हार भी कुम्हार न था वह कॉलेज में पढ़ाता था कबीर कुमार. कॉलेज से आते-जाते कभी कभार कबीर उस बस स्टॉप के पास से गुजर जाता जहां सांदली रानी यानी मंजरी अपने बच्चों को स्कूल बस में चढ़ाने जाती थी. तो यूं ही शिष्टाचार वश बातचीत हो जाती और यूं हीं वह पूछ लेता, 'सेहत कैसी है?’, 'कुछ जरूरत हो तो बताइएगा.दिन भर की दौड़ भाग में अक्सर मंजरी की सेहत के साथ कुछ न कुछ लगा ही रहता था और घर भर की जरूरतों में उसे किसी न किसी चीज की जरूरत पड़ती ही रहती थी, सो ये दोनों सवाल उसके दिल के सबसे ज्यादा नर्म सवाल बन गए थे. जिनका वह अकसर यही जवाब देती, 'अच्छी हूं’, 'नहीं-नहीं थैंक्यू..

सांदली रानी यूं तो राजपूताने से थी, पर जातियों के किले टूटने से बहुत पहले ही राजपूताने के भव्य भ्रम भी गिरने लगे थे. जागीरों के खो जाने के बाद भी जो शासन करते रहना चाहते थे, उनके लिए नया कोर्स शुरू हो गया था एमबीए. सो होनहार इस लड़की को परिवार ने एमबीए करवा दी. फुरसत में 'फार फ्रॉम मेडिंग क्राउडऔर 'ग्रेट एक्सपेक्टेशन्सजैसे विश्‍वस्‍तरीय किताबें पढ़ने वाली मंजरी ने बढ़िया ग्रेड के साथ एचआर में एमबीए कंप्लीट की. फिर कनक कपूर से शादी की. मल्टीनेशनल कंपनी में कार्यरत कनक कपूर पहले ही लाखों रुपया कमा रहा था, सो एमबीए की डिग्री पर चालीस-पचास हजार रुपये की नौकरी करवाने से बेहतर था कि घर में ही पत्नी के ज्ञान और व्यवहार का लाभ लिया जाए. यूं भी आजकल घर में फुल टाइम मेड रखो तो वह दस हजार से कम नहीं लेती. उस पर पत्नी अगर रोज ऑफिस जाएगी तो साड़ी-गाड़ी के साथ और बहुत से खर्च बढ़ जाते हैं. फिर परिवार को बांधने वाला एक शीराजा भी तो चाहिए. जो पचास हजार और खर्च करने पर भी नहीं मिलने वाला था.

ये सारी कैलकुलेशन देखते हुए कनक कपूर ने डिग्रियां संभालकर स्टडी रूम की एक ड्राअर में रख दीं और मंजरी को घर-भर के काम पर लगा दिया. मंजरी जब कनक कपूर की जिंदगी में आई वह बेहद खूबसूरत और सुडौल थी. अकसर वेस्टर्न डे्रसेज पहना करती थी. शादी में कनक कपूर और उनके परिवार ने मंजरी के लिए भारी-भारी साड़ियां और लहंगे खरीदे. लेबर लॉ और कंपनी एक्ट पढ़कर आई  मंजरी को खाना-वाना बनाना कुछ नहीं आता था. सासू मां ने अंग्रेजी में लिखी गई भारतीय व्यंजनों की रेसिपी बुक्स बहू रानी को तोहफे में दीं. कुछ परंपरागत व्यंजन पहले खिलाए, फिर बनाने सिखाए. मंजरी धीरे-धीरे सीख रही थी. सास ने बड़े स्नेह से मंजरी को समझाया कि स्प्रेड शीट पर 'कॉस्ट टू कंपनीकैलकुलेट करने से ज्यादा मुश्किल है सारी रोटियां एक ही वजन और एक ही आकार की गोल बनाना. लेकिन क्योंकि मंजरी एक काबिल और होनहार लड़की है, सो देखिए उसने रोटी गोल बनाना भी सीख लिया.

मल्टीनेशनल कंपनी के काबिल ऑफिसर कनक कपूर को अक्सर मीटिंगों, कांन्फ्रेंसों में जाना होता. वहां उसे बफे में भांति-भांति के व्यंजन खाने और खिलाने होते. कभी इंडियन, कॉन्टीनेंटल, चायनीज, इटेलियन, पंजाबी, बंगाली और न जाने क्या क्या.... जो स्वाद, जो अंदाज उसे लजीज लगते, उन्हें वह घर ले आता. पति के स्वाद का ख्याल रखने वाली मंजरी ने अब चाइनीज और इटेलियन डिशीज की रेसिपी बुक्स खरीदीं. कनक कपूर शादी की पहली सालगिरह पर मंजरी के लिए एक 'टेबलेटले आए. इस पर वह इंटरनेट पर और भी कई तरह की रेसिपीज सर्च कर सकती थीं. खिलाने और परोसने के और भी कई अंदाज सीख सकती थी. वह देख सकती थी कि अब लॉन में हेंगिंग फ्लावर पॉट लगाने का चलन है या क्यारियों में कारनेशन के पौधे लगाने का. स्टडी रूम में जो कुर्सी मंजरी ने अपने पढ़ने के लिए लगवाई थी उस पर अब अकसर इस्त्री किए जाने वाले कपड़ों का ढेर पड़ा रहता. जब भी उसे फुरसत होती वह स्टडी टेबल पर मोटी चादर बिछाकर इस ढेर के कुछ कपड़े इस्त्री कर देती. बाकी का ढेर किसी को दिख न जाए इसके लिए उसने स्टडी रूम की खिड़कियों पर मोटे पर्दे डाल दिए थे.

स्टडी रूम पर ज्यादातर समय ताला पड़ा रहता. भारी, महंगी साड़ियों का पल्ला कमर में खोंसे वह सर्चिंग, सर्फिंग और सर्विंग में बिजी रहती. फ्री साइज साड़ियों में उसे पता ही नहीं चला कि कब उसकी जींस का साइज 28 से, 32 और 32 से 36 हो गया. अब वह और भरी-भरी, और सुंदर दिखने लगी थी. गोद भी भरी. गोल मटोल दो बच्चों से. कितना सुंदर परिवार है न ...

जो देखता मोहित हो जाता. परफेक्ट फैमिली. पढ़ी-लिखी एचआर में एमबीए की डिग्री वाली लड़की रसोई में स्वादिष्ट-पौष्टिक पकवान बना रही है. लाखों रुपया कमाने वाला कनक कपूर पत्नी की पल-पल की खबर रखता है. हर फैशन की साड़ियां उसके वार्डरोब में शामिल करता जाता है. और बच्चे अपनी शरारतों के साथ दादा-दादी और रिश्तेदारों के वात्सल्य की छांव में बड़े हो रहे थे.

पर कभी कभार सांदली रानी यानी मंजरी की देह से चंदन की खुशबू आने लगती. पता नहीं क्यों! पर जब भी यह खुशबू आती मंजरी का मन अजीब सा हो जाता. उसे अपने भीतर से कुछ खोने, कुछ न कर पाने का भाव उठने लगता. ऐसी कौन सी सुगंध है जो महंगे से महंगे रूम फ्रेशनर से भी ज्यादा उसे परेशान कर देती है. इसी खोज में मंजरी कभी-कभी बहुत उदास हो जाती. इस उदासी के बीच भी कुछ कहां रुकने वाला था.  बच्चे बड़े हो रहे थे, उनकी जरूरतें बढ़ रहीं थीं. मंजरी बच्‍चों और परिवार की जरूरतों के हिसाब से खुद को ढाल रही थी. मसलन अब उसे समझ आने लगा था कि बड़े वाले सोनू को पढ़ाने से पहले उसे खुद सारी किताबें पढ़नी होंगी. और अगर यही लापरवाही जारी रही तो कोई ट़यूशन ढूंढनी होगी.

यूं ही एक दिन उदासी के बाद भी मुस्कुराते हुए मंजरी ने कबीर से बच्चों के लिए कोई होम ट़यूटर ढूंढने को कह दिया. मंजरी के गुदगुदे बच्चों को जब मुस्कुराते देखता तो कबीर कुमार को अपने बच्चों का लोहेदार अनुशासन में कसा बचपन परेशान करने लगता. असल में बस स्‍टॉप पर मंजरी और दोनों बच्चों का मुस्‍कुराकर अभिवादन करने वाले कबीर कुमार को कॉलेज में पढ़ाते हुए ही अपने साथ की एक लड़की से प्यार हो गया था. जो पद में उनसे जूनियर पर हौसले में सीनियर थी. वह लड़की जैसे बिल्कुल लौहार थी. उसके भीतर गजब का लोहा था. वह किसी से भी लोहा ले सकती थी. अपने परिवार से भी. अब प्यार तो प्यार है. यह ऐसी धुंध है जिसके आगोश में सब ढक जाता है. प्यार की धुंध में कबीर की मिट्टी और अस्मिता का लोहा सब एक हो गया, लंबे अरसे तक एक ही रहा और दोनों परिणय बंधन में बंध गए. पर मिट्टी तो मिट्टी है, कितनी भी ढको, अपना कच्चापन कहां छोड़ पाती है. यही कच्चापन जब बहुत बढ़ जाता तो अस्मिता को खीझ होने लगती. उसे लगता कि उसने मिट्टी के माधो से प्यार कर लिया है. इस मिट्टी के साथ गृहस्थी बसाकर उसने अपने भीतर के लोहे को जंग लगा ली है.

इस चिढ़चिढ़ेपन में उसका लोहा और ज्यादा कठोर होकर उसके व्यवहार में उतर आता. वह लोहे की बातें करतीं. बच्चों को लोहे की जंजीरों से जैसे अनुशासन में बांधने की कोशिश करती. यही कबीर बेबस हो जाता. पता तो अस्मिता को भी था कि वह अपने परिवार के साथ ज्यादती कर रही है, पर उसे डर था कि अगर उसने ज़रा भी ढील दी तो कबीर की मिट्टी उसके भीतर के लोहे को जंग लगा देगी. वह दिन में बार-बार फोन करती. पूछती कि कहां हो, क्या कर रहे हो? कब लौटोगे? अब तक क्यों नहीं लौटे? कबीर जब किताबें पढ़ चुका होता, वह उन्हें बेवजह उलटती-पलटती. इश्क के ककहरे में गच्‍चा खाई अस्मिता को अब हर किताब से नफरत हो चली थी. अब कुछ भी पढ़ने को उसका जी नहीं चाहता था. इन गुम हुए फूलों से बेपरवाह कबीर कविताई के चक्‍कर में पड़ गया था. कभी सराहने भर को अस्मिता उन कविताओं की तारीफ भी करती. पर ज्यादातर कविताओं में से खुद को गुम ही पाती. वह इन कविताओं में कोई गुम हुआ फूल ढूंढ रही थी. यूं ही कभी-कभी उसे लगता कि कितना अच्छा होता अगर प्यार-व्यार में पड़े बगैर उसने दिमाग से काम लिया होता. और उस बिजनेसमैन से शादी की होती, जिसके पास इस्पात से औजार बनाने की बड़ी-बड़ी मशीनें हैं. यहां शायद वह ठगी गई. यही सोचते सोचते उसके सिर में डिप्रेशन का एक कील बराबर लोहा उतर आता और वह दर्द से परेशान हो उठती.


कबीर अपनी दुनिया में मगन. उसे कहां पता था कि उसका मिट़टीपना अस्मिता के लोहे को जंग लगा रहा है. पर हां इतना जरूर समझता था कि अस्मिता का कठोर मन अब उसकी नर्म भाषा समझ नहीं पा रहा है. पर ये दो बच्चे हैं न जिनमें अभी थोड़ी सी मिट्टी बाकी है और जिनको अभी चुनौतियों से थोड़ा लोहा लेना है, उनके लिए वह बेपरवाही की एक मुस्कान अपने होंठों पर लिए घूमता. वह पढ़ता-पढ़ाता. लिखता और लिखवाता. बस मिट्टी को जंग बताए जाने की हताशा को खुद पर हावी होने से बचाता.


यूं ही हताशा को अपने भीतर दबोचे वह बस स्टॉप के पास से गुजर रहा था कि उसे याद आया कि वह मंजरी के बच्‍चों के लिए अभी तक कोई होम ट़यूटर नहीं ढूंढ पाया है. मंजरी के पास तो सौ काम थे, उसे कहां किसी एक काम कोई खास खबर रहती थी. आज भी मंजरी सुबह की जल्दबाज बदहवासी में बच्चों को लिए बस के पीछे दौड़ रही थी. असल में हुआ यूं कि कल सोनू स्कूल से घर लौटते हुए पानी की बोतल कहीं गुमा आया. बोतल का ख्याल उसे तब आया जब रात के आठ बज गए थे. अब इस समय अगर वाटर बॉटल लेने बाजार जाती तो डिनर डिस्टर्ब हो जाता. डिनर बहुत जरूरी था. बढ़ते बच्चों के लिए यह जरूरी है कि वह समय पर अच्छा खाना खाएं. वह भी सोने से कम से कम दो घंटे पहले. ताकि हाजमा भी ठीक बना रहे. वरना और सौ तरह की मुश्किलें बच्चों के साथ हो जाती हैं. छोटा वाला मोनू अगर रात को सोते समय दूध न पिए तो उसे सुबह फ्रेश होने में देर हो जाती है. अब एक देरी का मतलब लगातार और कई कामों की देर है. सोनू और मोनू दोनों वक्त पर खाना खाएं, वक्त पर होमवर्क करें और वक्त पर सो जाएं ताकि सुबह वक्त पर उठ सकें, ये सब जिम्मेदारियां मंजरी की थीं. इन्हीं जिम्मेदारियों की रेलमपेल में वह अक्सर कुछ न कुछ भूल ही जाती थी. जैसे इस बार हुआ. सोनू वाटर बॉटल स्कूल में गुमा आया और उसे ख्याल ही नहीं रहा.

अब सुबह फ्रिज की प्लास्टिक बॉटल को साफ कर, उस पर सोनू के नाम की स्लिप लगाकर फिल्टर्ड वाटर भरने में लगभग सात मिनट एक्स्ट्रा लग गए. प्लास्टिक की बोतल पर कोई भी पैन ढंग से काम नहीं करता. इसलिए मंजरी ने सफेद कागज पर स्कैच पैन से सोनू का नाम और क्लास लिखी और फिर सेलो टेप से उसे बोतल पर चिपका दिया. सोनू इतना लापरवाह है कि उसके साथ उसे खास एहतियात बरतनी पड़ती है. वरना पांचवीं क्लास तक पहुंचते तो बच्चे बहुत समझदार हो जाते हैं. सोनू की लापरवाहियां भी मंजरी को बेवजह उलझाए रखती और वह खीझ उठती. उसी खीझ में अकसर सोनू पिट जाता. फिर सासू मां से मंजरी को डांट पड़ती. इस सब मिलीजुली खींचतान में बस छूट गई और मंजरी उस छूटती हुई बस को आवाज देते हुए दौड़ रही थी. अगर बच्चों के पापा होते तो इसी बस को अगले स्टॉप पर पकड़ा जा सकता था. पर पापा तो अब यहां नहीं थे न.

कनक कपूर को लगने लगा था कि परिवार के खर्च बढ़ रहे हैं. जिस हिसाब से एजुकेशन महंगी होती जो रही है उस हिसाब से उन्हें अगले बारह साल की जरूरतों की तैयारी अभी से करनी पड़ेगी. इसी सोच के साथ उन्होंने एक नई कंपनी में एप्लाई कर दिया. इस कंपनी ने इन्हें न केवल पहले से ऊंचा पद दिया, बल्कि सीधे कनाडा में पोस्टिंग कर दी. तनख्वाह पहले वाली तनख्वाह से लगभग डबल और रहना-खाना सब कंपनी के खाते में. कुल मिलाकर तनख्वाह पूरी की पूरी बची हुई. इतना अच्छा ऑफर भला कोई हाथ से कैसे जाने देता. सो कनक कपूर कनाडा चले गए.

घर की जिम्मेदारियों और बच्चों की शैतानियों के बीच मंजरी को छोड़कर. नहीं असल में छोड़ा भी नहीं था. वह बिल्कुल मंजरी के टच में थे. अक्सर उनकी स्काइप पर बातें होतीं. टेबलेट का फ्रंट कैमरा ऑन करवाकर वह घर भर का और मंजरी का भी जायजा लेते रहते.

पर बच्चों को स्कूल कौन छोड़ता. कबीर ने इस बार जब हाय हैलो किया तो मंजरी प्यासी मैना सी बोल उठी, ''आप प्लीज बच्चों को थोड़ा आगे तक छोड़ देंगे? इनकी स्‍कूल बस छूट गई है. अभी अगले स्टॉप पर मिल जाएगी.’’  कबीर ठहरा मिट्टी का आदमी. उसने गाड़ी का लॉक खोला और दोनों बच्चों को उसमें बैठा लिया और बोल पड़ा, ''आप भी साथ बैठ जाइए. मुझे पता नहीं चलेगा, बस के रूट के बारे में.’’

बच्चों में उलझी उलझी सी मंजरी ने बिखर आए बालों को फिर से क्लचर में कसा और अगली सीट पर बैठ गई. थोड़ी ही दूर पहुंचकर बच्चों की स्कूल बस तो मिल गई पर कुछ चीजें इस मुलाकात के बाद अटक कर रह गईं. कबीर की गाड़ी के डेशबोर्ड पर शेक्सपीयर की किताबें पड़ीं थीं. इन किताबों पर मंजरी ने कुछ नहीं कहा पर एक कसक मंजरी के मन में रह गई कि अगर उसने ड्राइविंग सीख ली होती तो आज उसे यूं किसी अनजान आदमी का अहसान न लेना पड़ता. कनक के कनाडा जाते ही गाड़ी पर कनक के छोटे भाई आरव का अधिकार हो गया था. मां-पिताजी जिस को भी जरूरत होती वह आरव के साथ गाड़ी में बैठकर चले जाते. बच्चों को भी चाचू बहुत प्यारे थे. बस चिढ़ मंजरी को ही थी. जबकि दोनों लगभग हम उम्र थे, लेकिन मंजरी उससे बचती ही रहती.

एमबीए करने के बाद भी मंजरी के भीतर से राजपूताने के भ्रम और ठसक कम नहीं हुए थे. वह हर रिश्ते में एक खास तरह की दूरी बनाए रखना चाहती थी, और आरव दूरियों को जल्द से जल्द पाटने में विश्वास रखता था. भाई की गाड़ी और भाभी की साड़ी उसके लिए लगभग समभाव के थे. घर की जिम्मेदारियां तो वह संभाल ही रहा था, लेकिन अपने ओछे मज़ाक और गैरजरूरी रोकटोक के कारण कई बार मंजरी से डांट खा चुका था. पर हर बार बाद में परिवार से मंजरी को ही डांट पड़ती थी. कभी बचपना कहकर, कभी जिम्मेदारी कहकर आरव की बात सही साबित कर दी जाती. ऐसे में घर में गाड़ी होते हुए भी उसे बच्चों को छोडऩे के लिए कबीर को कहना पड़ा.

कनाडा जाने के बाद से कनक कुछ ज्यादा ही पॉजेसिव हो गया था. रात में लंबी बातचीत करता. दिन भर का हालचाल जानना चाहता. मां-पिताजी की अतिरिक्त केयर करता और सब हिदायतें मंजरी पर मढ़ता जाता. शुरु के पांच दस मिनट मंजरी भी पूरे मन से बात करती. दिन भर का हाल बयां करतीं. बच्चों की शरारतें बताती, घर वालों के व्यवहार के बारे में कहती. बस ये शुरू के पांच दस मिनट तो अच्छे चलते उसके बाद वह या तो कनक से अपने व्यवहारकुशल न होने पर डांट खाती रहती या यह सुनती रहती कि इस काम को जैसे उसने किया, वैसे न किया जाता तो और बेहतर होता. दिन भर की थकी मांदी मंजरी जब पति की बातों में सहानुभूति के शब्द टोह रही होती, उसे खुरदरी सच्चाईयां बताई जातीं. वह भीग जाती, आंसुओं में. उसके गले के भीतर बहुत कुछ रुंध जाता.

आज भी जब उसने सोनू के वाटर बॉटल गुम कर देने, बच्चों के लेट होने और फिर कबीर की गाड़ी से बच्चों को अगले स्टॉप तक छोडऩे की बात कनक को बताई तो उसे लग रहा था कि अपनी डिग्रियों को स्टडी की ड्राअर में डलवाकर गृहस्थी के डांसिंग फ्लोर पर बिना थके थिरकने वाली मंजरी पर कनक का दिल बाग़ बाग़ हो उठेगा. लेकिन हुआ ठीक इसके उलट. मंजरी को खूब डांट पड़ी. कनक ने बताया कि फ्रिज की प्लास्टिक बोतलें बच्चों के लिए कितनी 'अनहायजनिकहैं. गर्मियों के टेंपरेचर में उनमें कैमिकल बनने लगता है जो बच्चों की सेहत के लिए बिल्कुल ठीक नहीं. फिर उसे डांट पड़ी कि किसी अनजान आदमी, बस एक दो बार हाय-हैलो करने वाले के साथ इस तरह गाड़ी में बैठना और बच्चों को बिठाकर उसे स्कूल बस का रूट बता देना कितना 'अनसेफहै. -कि मंजरी ने अपनी पढ़ाई-लिखाई ही नहीं सजगता भी सब गोबर कर ली है. कनक ने जब यह कहा कि मुझे तो शक हो रहा है कि एमबीए की यह डिग्री तुमने अपनी मेहनत से ली है या बाप के रौब और पैसे से खरीदी है...’’ तो मंजरी झर झर रोने लगी.

बच्‍चे जब गहरी नींद में सो रहे थे और इन आंसुओं को पोंछने वाला आसपास कोई नहीं था, तभी कनक के कुछ और शब्द मंजरी को खरोंचते चले गए.

उसने कहा,  ''इतने साल साथ रहने के बाद भी मंजरी परिवार संभालना नहीं सीखी. घर में देवर है, लेकिन उससे बात करते हुए तो शायद तुम्हारी ईगो हर्ट होती है.’’

बातचीत स्काइप पर हो रही थी और मंजरी अपनी हिचकियां पल्लू में समेट रही थी ताकि बेडरूम के बाहर किसी को भीतर की आवाजों के बारे में अंदाजा न हो. कनक को इस बात पर और गुस्सा आया कि मंजरी इतनी फूहड़ कैसे हो सकती है कि उसके इंटरनेशनल समय और कॉल को वह यूं रोकर बर्बाद कर रही है. असल में उसे मंजरी के इस लकड़ीपने से ही कोफ्त होती थी. जरा सी नर्मी मिले तो भीग जाती है, थोड़ा सा ताप दो तो सुलगने लगती है. अभी-अभी पड़ी डांट से मंजरी गीली लकड़ी की तरह सुलग रही थी. कनक इस सब 'बेवजहके रोने-धोने को त्रिया चरित्तकहता था. उसका मानना था कि पत्नी तो बिल्कुल सोने के कंगन जैसी होनी चाहिए. जिसमें भले ही खोट मिला हो पर एक बार जिस सांचे में ढाल दो, ताउम्र वैसी की वैसी बनी रहे. कनक की स्वर्णमृग सी ख्वाहिशें सोने के कंगन जैसी जीवन संगिनी के लिए मचल उठतीं.


(दो)
कुछ दिन बाद एक सुबह मंजरी को फिर बच्चों की स्कूल बस के स्टॉप पर कबीर कुमार गुजरते हुए दिखे. इस बार दोनों ने एक-दूसरे को अधिक आत्मीयता से अभिवादन किया. जैसे अब पहचान पुख्ता हो गई है. पर आज की इस पुख्ता मुस्कान के बारे में मंजरी ने कनक को कुछ नहीं बताया. पिछली डांट अभी वह भूल नहीं पाई थी.
रात को जब टेबलेट का फ्रंट कैमरा ऑन करके मंजरी कनक से बातें कर रहीं थी कनक को लगा कि मंजरी आज थकी कम और खुश ज्यादा है. मंजरी को भी लगा कि कनक की बातों में आज उपदेश कम और उमंग ज्यादा है. बातों ही बातों में कनक कपूर ने बताया कि उनके ऑफिस में एक नई एम्प्लाई आयी है. मूलत: पाकिस्तान से है, लेकिन है सिंध की और पिछले कई सालों से कनाडा में ही रह रही है. हाइली क्वालीफाइड यह लड़की वेस्टर्न ड्रेसेज पहनती है और बहुत सुंदर लगती है. सिंध की उस लड़की की यह तारीफ मंजरी को अच्छी नहीं लगी. पर वह सुनती रही. असल में मंजरी जब 28 से 36 होती जा रही थी कनक को तभी अहसास होने लगा था कि मंजरी अब उसके साथ चलती बिल्कुल अच्छी नहीं लगती. उसका बड़ा हुआ वजन और घरेलू टाइप के कपड़े इंटरनेशनल कॉन्फ्रेंसों में उसके साथ चलने लायक नहीं रह गए हैं. जिसे कनक कपूर से सालों पहले पसंद किया था वह मंजरी अब की मंजरी से ज्‍यादा खूबसूरत थी और कनक कपूर का तब का स्‍टेटस अब के स्‍टेटस के सामने कुछ भी नहीं था.

मंजरी जब यह सब सुनती तो एक अलग तरह की कुंठा से भर जाती. आज वही कुंठा एक बार फिर से उसके मन में उतर रही थी जब कनक सिंध की उस लड़की की तारीफ कर रहा था. इस बार उसने अपना वजन कम करके खुद को वेस्टर्न ड्रेसेज में कनक के साथ इंटरनेशनल डेलीगेट से मिलने लायक बनाने की ठानी.



(तीन)
अगले दिन शाम को मंडी से सब्जियां लाते हुए मंजरी ने आधा किलो नींबू, ढाई सौ ग्राम शहद का डिब्बा और एक कूदने वाली प्लास्टिक की रस्सी खरीद ली. घरेलू सामानों के थैले उठाए मंजरी ऑटो रिक्शा का इंतजार कर रही थी, उसी समय कबीर अपनी पत्नी अस्मिता के साथ वहां से गुजर रहा था. कबीर ने मंजरी को देखा और मंजरी ने कबीर को. मंजरी ने एक पल को राहत की सांस ली कि अब उसे और ऑटो का इंतजार नहीं करना पड़ेगा. लेकिन कबीर ने उसे देखकर भी अनदेखा कर दिया. मंजरी ठगी सी रह गई. ठगी हुई सी इसी हालत में उसने बिना कुछ पूछे ऑटो लिया और घर चली आई. आज उसका मन अनमना सा था. कनक के व्हाट्सएप पर कई मैसेज आए पर मंजरी ने स्काइप ऑन नहीं किया. वह बुझी बुझी सी सो गई. पर कबीर की इस हरकत की वजह नहीं ढूंढ पाई.



(चार)
मंजरी जल्द से जल्द कबीर से मिलना चाहती थी और पूछना चाहती थी कि क्या उसने सचमुच उसे नहीं देखा या जान बूझकर अनदेखा किया. दोनों ही स्थितियां मंजरी को अच्छी नहीं लगीं थीं.

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(by kallchar)



कुछ दिन बाद कबीर कुमार बस स्टॉप पर मिले. उन्होंने फिर अभिवादन में मुस्कुराहट बिखेरी पर मंजरी ने इस भाव से कि वह बहुत व्यस्त है आधी मुस्कान ली और आधी वहीं छोड़ दी. अगर सचमुच उस शाम को कबीर ने उसे न देखा हो तो वह भी क्यों गैरजरूरी उत्सुकता दिखाए. लगातार दो-चार दिन यूं ही आधी-आधी मुस्कानों वाली व्यस्त सी मुलाकात होती रही. पर आज बच्चों की पीटीएम थी और मंजरी को बच्चों के साथ स्कूल जाना था. मंजरी ऑटो रिक्शा का इंतजार कर रही थी कि तभी कबीर कुमार वहां से होकर गुजरे और उन्होंने बस यूं ही शिष्टाचारवश गाड़ी रोक दी. बच्चे चहक कर अधिकारभाव से गाड़ी में बैठने को आतुर हो उठे. लेकिन अभी कुछ गैप रखना जरूरी था. कनक ने बताया कि यह सब सुरक्षा के लिहाज से ठीक नहीं. कबीर ने इसरार किया कि उन्हें कोई तकलीफ नहीं होगी. दोनों का रूट एक ही है. पर फिर भी अगर मंजरी को ठीक न लगे तो वह ज्यादा कुछ नहीं कहेगा. जब तक कबीर की बात के अर्थ और गहरे होते मंजरी और बच्चे गाड़ी में बैठ चुके थे. रास्ते भर हल्की-फुल्की खूब बातें हुई. कनक के कनाडा जाने के बाद से मंजरी के पास खूब सारी बातें थीं जो अब तक सुनी नहीं गईं थीं. वहीं अस्मिता के लोहेपन से कबीर जब तब चोटिल होता रहता था, सो उसे भी एक नर्म आवाज की तलाश नहीं, पर कमी तो थी ही. मंजरी की बातों में नर्मी थी. कबीर के व्यवहार में अब भी एक कोरापन था. दोनों ने खूब बातें कीं.

कबीर ने बताया कि वह कॉलेज में पढ़ाता है.
 मंजरी ने बताया कि वह भी एमबीए है पर परिवार की जिम्मेदारियों को उसने प्राथमिकता दी.
कबीर ने बताया कि उसके दो बच्चे हैं जो उसे बहुत प्यार करते हैं और उसे रोल मॉडल मानते हैं.
मंजरी ने बताया कि इन दोनों की शैतानियों में उसकी आधी से ज्यादा मत मारी जा चुकी है.
कबीर ने कहा कि आपको जब भी जरूरत हो आप मुझे बेझिझक कह सकती हैं.
दोनों ने एक दूसरे के कॉन्टेक्ट नंबर एक्सचेंज किए.
मंजरी ने कहा कि घर में गाड़ी होते हुए भी उसे ऑटो रिक्शा का वेट करना पड़ता है.
कबीर ने कहा कि अब उसे भी गाड़ी चलानी सीख लेनी चाहिए.
मंजरी ने बताया कि अभी वह सोनू के लिए कोई अच्छी किताब ढूंढ रही है, कि उसकी ग्रामर बहुत वीक है.

बातें खत्‍म न हुईं पर बच्चों का स्कूल आ गया था.... मंजरी में एक पुलक थी. वह कुछ कुछ हल्की हो रही थी. गाड़ी से उतरते हुए उसने कहा, ''थैंक्यू’’,

कबीर ने कहा, ''सॉरी...’’
मंजरी ने पूछा क्यूं?
''वो उस दिन बाजार में.... अस्मिता साथ थी... आपको देखकर भी गाड़ी रोक नहीं सका.’’
कानों का भी मुख होता है, यह अहसास आज मंजरी को हुआ. जब उसने बच्चों के सामने कबीर के इन शब्दों को अपने कानों में जल्दी-जल्दी निगल लिया. बिना कोई रिएक्शन दिए.

जब तक मंजरी स्कूल के भीतर दाखिल हुई उसके व्हाट्सएप पर मैसेज था. ''अच्छा लगा आपसे बात करके.’’

यह रोशनदान था, खिड़की थी या गेटवे था... जो भी था कबीर ने मंजरी के लिए खोल दिया था.

मंजरी लिखना चाहती थी, ''मुझे कितना अच्छा लगा, यह मैं बता नहीं सकती.’’ पर नहीं लिखा. और वह सीधे बच्चों के साथ टीचर्स से मिलने चली गई.



(पांच)
अगली ही सुबह बच्चों के स्कूल जाने के बाद मंजरी ने प्लास्टिक की रस्सी कूदनी शुरू की. पैरों की धमक अभी अपना कोरस भी पूरा नहीं कर पाई थी कि निचले कमरे से सासू मां की आवाज आई, ''मंजरी बेटा क्या हो रहा है?’’

''कुछ नहीं मम्मा’’ की धीमी सी आवाज के साथ ही मंजरी ने रस्सी लपेटते हुए वापस ड्रेसिंग टेबल की ड्राअर में रख दी. और टॉवल उठाए बाथरूम चली गई.

इधर मंजरी सुबह खाली पेट गुनगुने पानी में नींबू और शहद मिलाकर पी रही थी कि उसी दौरान देवर आरव का रिश्ता तय हो गया. अभी पिछले दिनों जिस आरव को उसने अपना मोबाइल फोन छेडऩे पर बेतहाशा डांट लगाई थी, उसी की शादी के लिए उसे भरपूर तैयारियां करनी थीं. अगर वह ऐसा नहीं करेगी तो फिर कनक की डांट कि उसे परिवार संभालना नहीं आया.

कि उसकी ईगो हमेशा नाक पर सवार रहती है.



(छह)
उस दिन की बातें न मंजरी भूली थी, न कबीर. कबीर ने मंजरी को मैसेज किया, ''मेरे पास ग्रामर की कुछ अच्छी किताबें हैं. आप चाहें तो ले सकती हैं.’’

मंजरी इन किताबों को लेने कहीं और जाना चाहती थी. पर उसने बच्चों की स्कूल बस के स्टॉप पर ही तीन में से दो किताबें कबीर से ले लीं. उसे याद थीं कबीर की कार के डेशबोर्ड पर रखी शेक्सपीयर की किताबें. उसने कुछ संकोच के साथ उन किताबों के बारे में पूछा.

कबीर ने अगले ही दिन शेक्सपीयर की दो किताबें मंजरी को दे दीं. कनक कपूर की गृहस्थी के साथ ही एक और जिंदगी थी जो अब मंजरी जीने लगी थी.

शायद कनक भी.
शायद कबीर भी.

कभी-कभी इन दोनों रास्तों में जबरदस्त घर्षण हो जाता. जब कनक के फोन के बीच में कबीर का मैसेज आ जाता. मंजरी का मन कबीर के मैसेज पर और आवाज कनक के फोन पर अटक जाती. ज्यूं-ज्यूं मंजरी कनक से लापरवाह हो रही थी कनक की चौकीदारी मंजरी पर बढ़ती जा रही थी. वह दिन में कई बार मैसेज करके चैक करता कि मंजरी ऑनलाइन है या ऑफलाइन. मंजरी कभी ऑनलाइन होती, कभी ऑफलाइन. कभी मोबाइल ऑन रह जाता और वह काम में मसरूफ हो जाती. ऐसे समय में कनक का गुस्सा चौथे आसमान पर पहुंच जाता कि मंजरी की इतनी हिम्मत की ऑनलाइन होने के बावजूद वह उसके मैसेजेस का जवाब नहीं दे रही है. आखिर यह टेबलेट, यह मोबाइल, यह घर सब उसी का है. इस सब के साथ ही मंजरी पर भी उसका मालिकाना हक बनता है. और फिर दोनों के बीच ठीकठाक तकरार होती.

यह तकरार भी जब वह कबीर कुमार को सुनाती तो कबीर के भीतर की मिट्टी कुछ और नर्म हो जाती. उसे मंजरी की निरीहता पर दया आने लगती. पर हृदय यह सोचकर भी फूल जाता कि वह जिस डाली को सहला रहा है, वहां छांव भले ही कम है पर कांटे भी तो लगभग न के बराबर हैं.

इधर कबीर की मिट्टी में बढ़ती हुई नमी को देखते हुए अस्मिता को उसमें फंगस लगने का डर सताने लगा था. वह कबीर की कॉल और मैसेज डिटेल चैक करती. कबीर यूं तो सीधा साधा था पर न जाने किस रूप में मिल जाएं भगवान की तर्ज पर अस्मिता को भी नाराज नहीं करना चाहता था. मंजरी के मैसेज कभी भी अस्मिता के लिए परेशानी का सबब बन सकते हैं, यही सोचकर वह हर मैसेज दिल में बसा लेता और मोबाइल से तत्‍काल डिलीट कर देता.

कॉलेज में छात्राओं से घिरे रहने वाले प्रोफेसर का इनबॉक्‍स खाली कैसे हो सकता है, यही सोचकर अस्मिता की शक की सूईं हमेशा कबीर पर गढ़ी रहती. यूं ही अवसाद में अपने शक की सब कहानियां वह दुखी होकर कौशल को बताती. कौशल वही उद्योगपति था जिससे शादी न कर पाने का दुख अकसर अस्मिता को सालता रहता था. अस्मिता खाली पीरियड में कबीर के ट्वीट और एफबी अकाउंट खंगालती. उसके लिखे शब्दों से नए अर्थ खोजने की कोशिश करती. पर हर बार उसे पहले से ज्यादा लिजलिजापन महसूस होता. वह घृणा से भर जाती. फिर उसे ख्याल आता बच्चों का. वह चुप लगा जाती. अपने अनुशासन को और कड़ा कर लेती. कि अगर यह भी बाप जैसे हो गए तो उसकी जिंदगी व्यर्थ हो जाएगी.


(सात)
घर में गहमागहमी का माहौल था. इधर बच्‍चों के एग्‍जाम शुरू होने वाले थे और उधर आरव की शादी के दिन भी नजदीक आ रहे थे. एक मां और भाभी होने के नाते मंजरी पर बहुत सी जिम्‍मेदारियां बढ़ गईं थी. बच्‍चों की रिवीजन के साथ ही उसे सासू मां के साथ नई बहू के लिए वरी बनाने पर ध्‍यान देना था. कनक कुछ खास सामान कनाडा से ही खरीद कर लाने वाला था. तैयारियों में उसने जब मंजरी की ख्वाहिश पूछी तो मंजरी ने रेड कलर का खूब फूला हुआ वेस्टर्न गाउन मंगवा लिया. ख्वाहिश बहुत बुरी नहीं थी, लेकिन उन हालात से मेल नहीं खाती थी, जो कनक कपूर घर पर छोड़ गए थे. वह लड़की जो जरा सी डांट पर झर झर आंसू बहाती है... और जरा से प्यार में जिसने एमबीए की डिग्रियां भुला दी, उसमें आज लाल रंग का वेस्‍टर्न गाउन पहनने की ख्‍वाहिश क्‍योंकर जाग उठी.
सवालों की यही पड़ताल कनक कपूर का दिमाग छलनी किए दे रही थी. वीकेंड पर सिंध वाली लड़की के साथ कॉफी पीते हुए भी उसे यही बात बार-बार याद आ रही थी. वह चाहता तो शेयर कर सकता था, लेकिन इससे उसके आउटडेटेड विचारों की पोल खुल सकती थी. जिन विचारों को लेकर वह सिंध की उस लड़की के साथ कई डेट्स मना चुका था. उसके चॉकलेटी होंठों के बीच फ्रूट्स एंड नट्स जैसी खिलती मुस्कान से उसे अहसास होता कि उसने अगर शादी के लिए थोड़ा और इंतजार कर लिया होता तो मुमकिन है कि ऐसी कोई लड़की आज परमानेंट उसकी बाहों में होती.


(आठ)
कनक कपूर जब ढेर सारा सामान लेकर भाई की शादी के लिए अपने घर वापस लौटा तो उस सामान में खूब फूला हुआ रेड वेस्टर्न गाउन तो नहीं था पर दहकते सवालों वाली आंखें थीं. वह और सतर्क हो गए. मंजरी की पुलक उनमें अजीब सी चिढ़ भर देती. वह जब किसी भी छोटी-बड़ी गलती के लिए मंजरी को डांटते तो वह हल्की मुस्कान के साथ उस काम को फिर से दुरुस्त कर देती. कनक को पहले मंजरी के रोने से कोफ्त तो होती थी पर एक सुरक्षा भाव भी था कि मंजरी जब भी रोएगीकनक का कंधा ढूंढेगी. पर अब उसका यूं मुस्कुरा देना उसे छील जाता था. वह घुमा फिराकर मंजरी से कई सवाल पूछता. मंजरी अपनी किताबें पढ़ने में बिजी रहती. कनक का मन करता कि वह उसकी किताबें उठा फेंके.
कनक ने जो टेबलेट मंजरी को रेसिपीज सर्च करने के लिए दिया था मंजरी अब उससे ऑन लाइन किताबें सर्च करती और पढ़ती रहती. कनक मंजरी के तन मन की तलाशी लेना चाहता था. कि कौन है जिसने इस लाचार सी, बेसुध सी लड़की में फिर से पुलक भर दी है. पर मंजरी ने पासवर्ड सेट कर दिया था, जिसका पता न बच्चों को था, न सास ससुर को और न ही कनक को. मंजरी की यह तालाबंदी कनक की बर्दाश्त के बाहर हो रही थी. उसने मोबाइल उठाया, पासवर्ड डाला .... इस बार पासवर्ड न सोनूनॉटीमोनूथा, कनकमायल. कनक कपूर तीसरा पासवर्ड ट्राई कर ही रहे थे कि मंजरी ने झट से उनके हाथ से मोबाइल छीन लिया और मोबाइल छीनते हुए मंजरी के शार्प, पेंटेड नाखून कनक कपूर की हथेली छील गए.

तड़ाक! कनक कपूर ने खुन्नस भरा एक जोरदार तमाचा मंजरी के गाल पर जमा दिया. जब तक कनक दूसरे चांटे के लिए अपना हाथ उठाता मंजरी मुस्कुराते हुए किताब और मोबाइल हाथ में लिए कमरे से बाहर चली गई. मुस्‍कान भी ऐसी कि जैसे लिखा हो रान्‍ग पिन एंटर्ड
आज फिर सांदली रानी की देह से चंदन की खुशबू उठ रही है. यह खुशबू किसकी है सुनार की..., कुम्‍हार की... या पलकें खोल रही रानी की अधूरी कामनाओं की....

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कहानी संग्रह : क्लीन चिट,
उपन्यास : ख्वाहिशों के खांडववन
भारतीय ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कारहंस कथा सम्‍मान आदि 
yvidyarthi@yahoo.in 

भूमंडलोत्तर कहानी – २१ (गलत पते की चिट्ठियाँ ) : राकेश बिहारी)







राकेश बिहारी ने समकालीन कथा-साहित्य पर अपने स्तंभ ‘भूमंडलोत्तर कहानीकी शुरुआत लगभग चार वर्ष पूर्व समालोचन पर की थी. आज इसकी २१ वीं कड़ी योगिता यादव की कहानी ‘गलते पते की चिट्ठियाँ’ पर आधारित है. 

यह स्तम्भ अब पूरा होने को है और जल्दी ही ये आलेख पुस्तकाकार प्रकाशित होंगे. २१ वीं सदी की हिंदी कथा-आलोचना में इसका अपना महत्व है. कथा की सभी प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व यहाँ हुआ है. राकेश बिहारी ने इस आलोचना उपक्रम में कुछ प्रयोग भी किये हैं, कभी पाठक के पत्र के माध्यम से तो कभी खुद कथा का कोई पात्र ही कथा की विवेचना करता है.

‘प्रेम के नाम एक पत्र जो प्रेम-पत्र नहीं है’में राकेश बिहारी कहानी की नायिका द्वारा संपादक को लिखे पत्र के माध्यम से इस कथा की विवेचना करते हैं. 



भूमंडलोत्तर कहानी – 21
प्रेम के नाम एक पत्र जो प्रेम-पत्र नहीं है                   
(संदर्भ: योगिता यादव की कहानी गलत पते की चिट्ठियाँ’)

राकेश बिहारी 



आदरणीय प्रेम भारद्वाज जी,
नमस्कार!


ई मेल के जमाने में एक अजनबी फ़ीमेल का पत्र पाकर कहीं चौंक तो नहीं गए आप?

मेरा इरादा आपको परेशान करने का नहीं है,अलबत्ता मैं खुद ही थोड़ी परेशान या कहिए हैरान हूँ. आपके सामने मैं किसी पहेली की तरह नहीं उपस्थित होना चाहती. अतः पहले अपना परिचय ही दे दूँ-  मैं मंजरी! व्यवसाय प्रबंधन में स्नातकोत्तर यानी एमबीए! आपने नहीं पहचाना न?अरे,मैं मंजरी,कनक कपूर की पत्नी! वही,जो उस दिन कबीर के साथ बस स्टॉप पर खड़ी थी. ओह! आप तो बिलकुल ही नहीं पहचान रहे मुझे. दरअसल मेरी परेशानी का सबब भी यही है कि आप मुझे नहीं पहचानते या कहूँ कि मुझे भुला दिया है आपने. 5 नवंबर 2016 की उस शाम जब `हंसके साहित्योत्सव में आप त्रिवेणी सभागार के मंच पर विराजमान थे,आपकी निगाहों के सामने आखिरी पंक्ति में मैं भी बैठी थी,बहुत उम्मीद के साथ कि आपकी नज़र मुझ पर जरूर जाएगी. जब तक आप मंचासीन थे आपकी नजरे इनायत को तरसती रही,पर आपको मेरी सुध नहीं आनी थी तो नहीं ही आई. प्लीज आप मेरी बातों से परेशान मत होइए,मैं कुछ और बताती हूँ आपको अपने बारे में ताकि आप मुझे ठीक-ठीक पहचान सकें.

आप योगिता यादवको तो जानते हैं न?वही योगिता जो कहानियाँ लिखती हैं. याद कीजिये,हंस के उस साहित्योत्सव के ठीक एक महीना पहले यानी अक्तूबर 2016 की पाखी में आपने उनकी एक कहानी प्रकाशित की थी- गलत पते की चिट्ठियाँ’. वह मेरी ही कहानी तो थी- मैं यानी सांदली रानी जो खाती सुनार का थी और गाती कुम्हार का थी. सांदली यानी मैं,यानी मंजरी! सुनार यानी कनक कपूर यानी मेरे पति... और कुम्हार यानी कबीर,मेरा दोस्त! जानते हैं,प्रेम जी,जब योगिता जी ने मुझे रचना शुरू किया था,मैं डरी हुयी थी कि कहीं हमेशा से बुने जाते रहे प्रेम त्रिकोण में न फंसा दी जाऊँ,कि मेरे भीतर का नवोन्मेष किसी घिसे-पिटे फार्मूले की भेंट न चढ़ जाये. हालांकि मैं वही स्त्री हूँ जो जाने कब से पितृसत्ता का शिकार रही है ... पर मैंने जिस तरह अपने आप को पुनराविष्कृत करने की कोशिश की थी,उसमें एक नयापन था.

मेरे भीतर का वह नयापन अपनी सार्वजनिक स्वीकृति के लिए छटपटा रहा था कि उन्हीं दिनो मुझे हंसद्वारा आयोजित किए जाने वाले उस साहित्योत्सव के बारे में पता चला. दरअसल कबीर ने उस दिन जो किताब मुझे पढ़ने को दी थी,उसी में हंस के उस आयोजन का आमंत्रण पत्र रखा हुआ था,मुझे नहीं मालूम कि किताब के पन्नों के बीच उस आमन्त्रण पत्र का रखा जाना अनायास था या कि कबीर ने मुझे जानकारी देने के लिए उसे वहाँ जानबूझ कर रख छोड़ा था.
कहानी का समकाल : नयेपन की पहचान-इस सत्र के आगे वक्ताओं की सूची में आपका नाम देखते ही मैंने उस कार्यक्रम में जाना तय कर लिया था. त्रिवेणी सभागार में उस दिन कबीर मेरी बगल की कुर्सी पर बैठा था,पर मेरी निगाहें आप पर जमी थीं. नयेपन की तलाश में जुटे वक्ताओं के शब्दों में मैं अपने जैसी स्त्रियों की बातें भी सुनना चाहती थी पर वे जाने किस दुनिया की बातें करने में तल्लीन थे. चूंकि एक महीना पहले ही आपने मेरी कहानी को अपनी पत्रिका में स्थान दिया था,मुझे यकीन था कि आपको मेरी याद जरूर आएगी. लेकिन अपने भीतर के नयेपन को पहचाने जाने की मेरी बेचैनी तब एक गहरी उदासी में बदल गई जब आपने भी अपने वक्तव्य में मुझ जैसी आज की सांदली रानियों का कोई जिक्र तक नहीं किया.

आप एक खास किस्म की ओजपूर्ण वाणी में कुछ भी नया नहीं कह पाने के लिए समकालीन कहानी को कोस रहे थे और मैं लगातार यह सोच रही थी कि आपने क्या सोच कर मेरी कहानी प्रकाशित की होगीमुझे पाखीके पन्नों पर उतारने का निर्णय करते हुये मेरे भीतर करवट लेते नयेपन पर आपकी नज़र गई भी थी या नहीं?या फिर मेरी सर्जिका योगिता यादव जी के लेखकीय जीवनवृत्त ने ही तो आपको उस निर्णय तक नहीं पहुंचा दिया था?

मेरी उदासी,बेचैनी और यह आशंका तब से मेरे भीतर जड़ जमाए बैठी हुई है. कभी सोचती हूँ कि पाखी परिचर्चाके बहाने ही आपसे मिल कर अपनी जिज्ञासाओं का समाधान कर आऊँ,पर यह सोच कर संकोचवश ठहर जाती हूं कि कुछ खास विद्वानों और विदूषियों के लिए आरक्षित उस सभा की धवल आभा मुझ आम स्त्री के आ पहुँचने से कहीं धूसर तो न हो जाएगी?पर मेरी बेचैनी है कि लगातार बनी हुई है,इसीलिए आज आपको यह पत्र लिखने बैठ गई. मुझे इस बात का पूरा-पूरा इल्म है कि एक संपादक का समय कितना कीमती होता है,इसलिए मन ही मन मैं उन सभी लेखक-लेखिकाओं के आगे क्षमाप्रार्थी हूँ जिनकी रचनाएँ मुझ नाचीज़ की चिट्ठी पढे जाने के कारण आपके कर कमलों तक किंचित विलंब से पहुंचेंगी.

जबसे आपने मेरी कहानी प्रकाशित की है,मैं तभी से आप से मिलना चाहती थी. मिलकर आपसे बताना चाहती थी कि किसी स्त्री के लिए अपने भीतर बसे कस्तूरीगंध को खोज लेना कितना सुखद और प्रीतिकर होता है. यह भी कि एक स्त्री खुद को न पहचाने जाने की बेचैनी से उत्पन्न त्रासदी के आस्वाद को ग्रहण करते हुये किन दारुण मनःस्थितियों से गुजरती है. अपनी सर्जिका योगिता जी के बाद मुझे इसके लिए सबसे ज्यादा उपयुक्त आप ही लगे.  

तभी आपको यह खत लिख रही हूँ. घर-परिवार और समाज के हाशिये पर निर्वासित जीवन जीने को मजबूर मुझ जैसी स्त्रियाँ खुद को नए सिरे से खोज लेने की खुशी और आप जैसों द्वारा नहीं पहचाने जाने की पीड़ा से उपजी छटपटाहट के दो पाटों के बीच किस बेचैनी से अपनी सांसों का हिसाब रखती हैं,हो सके तो कभी ठहरकर इस बावत भी सोचिएगा.

उन दिनों जब योगिता जी कहानी की तलाश में लगभग हर शाम अपने दफ्तर से निकलते हुये मेरे घर तक आ जाया करती थीं,मैं उनसे खूब-खूब बतिआती थी. मैंने उन्हें बताया था कि शादी के बाद नौकरी छोड़ कर घर-बार सम्हालने के कनक के प्रस्ताव को स्वीकार लेना मेरे लिए बहुत सहज नहीं था. पर कुछ तो ससुराल वालों का लिहाज तो कुछ नए घर की जिम्मेवारियों के प्रति मेरे भीतर ठूंस-ठूंस कर भरे गए सिखावनों का दबाव,मैंने भारी मन से अपनी एमबीए की डिग्री ड्राअर के हवाले कर अपने पढे-लिखे हाथों में व्यंजनों की रेसिपी बुक्स थाम ली थी.

अपने भाइयों और साथी पुरुष-मित्रों की तरह छह अंकीय तन्ख्वाह वाली नौकरी का सपना सँजोने वाली मेरी आँखें तब अक्सर ही अकेले में रो-रो कर सूज जाया करती थीं. पता नहीं योगिता जी उन बातों को भूल गईं या फिर मेरी उन बातों ने उन्हें प्रभावित ही नहीं क्या,उन्होंने कहानी लिखते हुये मेरी उस तकलीफ और बेचैनी का जिक्र तक नहीं किया. पर उसके बाद मेरे जीवन में जो कुछ बीता उन्होंने उसे बहुत बारीकी से महसूस किया है.

कुछ प्रसंग तो कहानी में इस खूबसूरती के साथ दर्ज हैं कि मैं खुद भी उन्हें उस तरह नहीं बता सकूँ. सच कहूँ तो उस कहानी को पढ़ने के बाद ही मैंने ठीक-ठीक यह समझा कि मेरे भीतर जो टूट कर बन-बिखर रहा था उसके अर्थ कितने गहरे और बहुपरतीय हैं. चाहे हम लाख सोच-विचार कर कोई निर्णय करें पर अपने किए की हर परत और उसकी नियति से हम खुद भी अनभिज्ञ होते हैं. कबीर जिस तरह मेरे जीवन में दाखिल हुआ,मुझे डर था कि कोई उसे ठीक उसी तरह समझ पाएगा. जाने क्यों मुझे लगता है कि योगिता जी की जगह कोई पुरुष होता तो शायद ही इस बात को समझ पाता. कनक के कनाडा जाने के बाद जब से कबीर मेरे जीवन में आया है,मैं जैसे खुद की यात्रा पर निकल पड़ी हूँ. थोड़ी सी असावधानी मेरी कहानी को एक विवाहेतर संबंध की समान्य कहानी में बदल सकती थी. मुझे खुशी है कि योगिता जी ने मेरी बारीक मनःस्थितियों को समझा और ऐसा नहीं होने दिया.


स्वयं के पुनर्संधान और इस क्रम में की गई अपनी अभिक्रियाओ में निहित नयेपन के दावे को सुन आप मुझ पर हंस तो नहीं रहे हैं न प्रेमजी! आप शायद यही सोच रहे होंगे कि मेरी कहानी में कुछ भी नया नहीं है - हमेशा की तरह चूल्हे चौके में झोंक दी जानेवाली एक पढ़ी लिखी स्त्री,घर से दूर अर्थोपार्जन के लिए गया पति,हर पल उसकी हर एक हरकतों पर वैसे ही नज़र रखना,घर से बाहर एक पुरुष से मित्रता,पति का बढ़ता शक और इन सबके बीच एक से अधिक तबाह होती ज़िंदगियाँ... हाँ,आपने बिलकुल ठीक सोचा,यह सब मेरी कहानी में भी मौजूद है.

मेरे एमबीए होने के बावजूद मुझे रसोई और घर की चहारदीवारी में कैद कर मेरा पति कनक कपूर बड़े पैकेज की नौकरी के लिए खुद कनाडा चला गया. यहाँ बच्चों की ज़िम्मेदारी,सास ससुर की सेवा और देवर,जो भाई की अनुपस्थिति में उसकी गाड़ी और मेरी साड़ी पर एक-सी नज़र रखता है,की लोलुप नज़रों से बचते-बचाते मैं हर कदम अपने होने और न होने के बीच खुद को एक सार्वजनिक आपूर्ति केंद्र में बदलता देखने को अभिशप्त रही.

ऐसे में कबीर जैसे सौम्य व्यक्ति का मेरी तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाना मेरे लिए एक ऐसे रोशनदान का खुलना है जिसकी झिर्रियों से झर रही रोशनी में मैं खुद से दूर हो चले या कि कर दिये गए उस आत्म को तलाश सकती हूँ जिसका होना मेरे अस्तित्व की पहचान है.

जानते हैं,एक शाम योगिता जी ने मुझसे पूछा था कि मैं कनक से मुक्त क्यों नहीं हो जाती?कबीर के साथ नई ज़िंदगी शुरू कर अपने स्थगित जीवन को फिर से क्यों नहीं जीना शुरू कर देती हूँ?कि मुझे खुद पर खुद का दावा करने के लिए फिर एक पुरुष के कांधे की ही जरूरत क्यों है?हो सकता है ये प्रश्न आपके भीतर भी सर उठा रहे हों. योगिता जी से कही अपनी बात मैं आपके लिए भी दुहराना चाहती हूँ. विवाह संस्था और पितृसत्ता के अंतर्संबंधों को मैंने भली भांति पहचान लिया है. गोकि कबीर मेरे प्रति पर्याप्त सदाशय है,इसकी कोई गारंटी नहीं कि कल को वह कनक में नहीं बदल जाएगा. वैसे भी जो कबीर अपनी पत्नी की उपस्थिति में मुझे पहचान भी नहीं सकता वह मेरे साथ नया जीवन शुरू कर पाएगा यह मैं कैसे सोच सकती हूँ?

मैं जानती हूँ कि इस वक्त आप कबीर की पत्नी अस्मिता के सख्त और शक्की व्यवहार के आलोक में मेरी आशंकाओं को बेबुनियाद या बेजा समझ रहे होंगे. मैं जानती हूँ कि कबीर एक सौम्य इंसान है,मेरे लिए सदाशयी भी. पर अस्मिता के लिए भी वह ठीक ऐसा ही होगा मैं पूरे यकीन के साथ नहीं कह सकती. कनक को ही देखिये न मेरे साथ जिस तरह पेश आता है कनाडा में पाकिस्तान मूल की अपनी स्त्री सहकर्मी के साथ तो उसका यही व्यवहार नहीं होता होगा न?इसलिए कल को यदि मुझे यह पता चले कि अस्मिता के मन के किसी कोने में एक मंजरी भी रहती है तो मुझे आश्चर्य नहीं होगा.


जानते हैं प्रेमजी,एमबीए की पढ़ाई के दौरान हमने मैकग्रेगर की मोटिवेशन थियरि पढ़ी थी. प्रख्यात मैनेजमेंट गुरु मैकग्रेगर  ने बताया था कि अपने अधीनस्थ कर्मचारियों को मोटिवेट करने के लिए एक प्रबन्धक दो तरह की मान्यताओं के अनुसार काम करता है. उन्हीं दो मान्यताओं को मैनेजमेंट साइंस में थियरि एक्सऔर थियरि वाईके नाम से जाना जाता है.

थियरि एक्समें विश्वास करने वाले मैनेजर जहां अपने कर्मचारियों के प्रति नकारात्मक सोच रखते हैं वहीं थियरि वाईकी मान्यताओं में विश्वास रखने वाले मैनेजर अपने कर्मचारियों के बारे में सकारात्मक मान्यताएँ रखते हैं. मैं सोचती हूँ कि यदि इसी तर्ज पर पुरुषों का वर्गीकरण किया जाय तो पति जहाँ अपनी पत्नी के साथ थियरि एक्सकी मान्यताओं के अनुरूप व्यवहार करते नज़र आएंगे वहीं,प्रेमी या पुरुष-दोस्त अपनी प्रेमिका या महिला-मित्र के साथ थियरि वाईकी मान्यताओं के अनुरूप व्यवहार करते मिलेंगे.


मैनेजमेंट के सिद्धान्त का उद्धरण देख कर आप किसी नकारात्मक मान्यताओं या पूर्वाग्रहों से तो नहीं घिर गए,प्रेम जी?मैनेजमेंट को ज्ञान के अनुशासन की तरह नहीं देख सकने के कारण अमूमन हमारी भाषा के लेखक-संपादक मैनेजमेंट शब्द सुनते ही बिदक जाते हैं,इसीलिए पूछ लिया. अब मेरी सृजनहार योगिता जी को ही देखिये न,एमबीए में मेरे दाखिले की बात बताते हुये उन्होंने क्या कहा है –
जागीरों के खो जाने के बाद भी जो शासन करते रहना चाहते थे,उनके लिए नया कोर्स शुरू हो गया था एमबीए,सो होनहार इस लड़की को परिवार ने एमबीए करा दिया.

मैं नहीं जानती कि मेरी कहानी को प्रकाशित करने से पूर्व मुझसे रूबरू होते हुये आपने यह सोचा भी था या नहीं,पर आपको नहीं लगता कि एमबीए जैसे आधुनिक व्यावसायिक पाठयक्रमों के बारे में ऐसी राय एक खास तरह के पूर्वाग्रह का ही नतीजा है?अपनी संतानों को मेडिकल,इंजीनियरिंग,एमबीए या किसी अन्य पाठ्यक्रमों में दाखिला दिलाते माता-पिता और अभिभावक क्या इस तरह की जाति-ग्रंथि से संचालित होते हैं कि किसी कोर्स विशेष को इस तरह लांछित किया जाय?

क्या यह सच नहीं कि बड़े-छोटे व्यावसायिक-गैरव्यावसायिक संस्थानों में जहां मुझ जैसे एमबीए डिग्रीधारी अच्छी ख़ासी संख्या में पाये जाते हैं,वहाँ एक नए तरह का सर्वहारा वर्ग विकसित हो रहा है,जिस पर एक अतिरिक्त संवेदनशीलता के साथ ध्यान दिये जाने की जरूरत है?यदि हाँ,तो मेरी कहानी से गुजरते हुये आपने योगिता जी से इस बाबत कोई चर्चा क्यों नहीं की?कहीं आप भी वर्गबोध और वर्गीय चेतना की जरूरी अवधारणा को उसी तंग नजरिए से तो नहीं देखते जो मैनेजमेंट साइंस को अस्पृश्य मानते हुये उसे ज्ञान के अनुशासन के रूप में भी स्वीकार नहीं करना चाहता है?उम्मीद करती हूँ कि हमेशा की तरह कारपोरेट और मैनेजमेंट जैसे शब्द भर की उपस्थिति से ही चिढ़ जाने के बजाय आप इन प्रश्नों के आलोक में मुझ जैस नए सर्वहाराओं की स्थिति पर भी विचार करने की उदारता दिखाएंगे. हाँ,तो फिर अपनी कहानी पर लौटती हूँ.


तलाक और पुनर्विवाह की संभावनाओं पर सोचना मुझे खुद को नए सिरे से उसी यातना चक्र के हवाले कर देना लगने लगा है. इस दौरान बच्चों को जिस संताप से गुजरना होता है वह भी कोई नई बात तो है नहीं. इसलिए मैंने यह तह किया है कि अपने बच्चों के साथ इसी जमीन पर खड़ी रहते हुये मैं अपने होने का दावा करूंगी. अपने भीतर बसी चंदन की उस खुशबू का संधान करूंगी जिसका अहसास मुझे एक खास तरह की चेतना से भर देता है. और हाँ, ऐसा करने सेमुझे अब कोई रोक नहीं सकता. मैं आपको यह भी स्पष्ट कर दूँ कि यह विवाह संस्था को बनाए रखने की कोई विकल्पहीन मजबूरी नहीं,बल्कि विवाह संस्था के भीतर अपने हिस्से की जमीन का नए सिरे से दावा है जिसे पितृसत्ता ने कब से अतिक्रमित कर हम सांदली रानियों को `किसी का खाने`और `किसी का गाने`की बाइनरी में कैद कर रखा है.  

कनक ने कभी मुझे ‘टैब’ इसलिए लाकर दिया था कि नए-नए व्यंजनों की पाक-प्रविधि सीखकर उसकी और उसके परिवार की सेवा कर सकूँ. आज उसी ‘टैब’ का पासवर्ड उसके आहतपुरुष अहम को हर कदम असुरक्षित कर रहा है.खुद को पुनराविष्कृत कर लेने की मेरी खुशी उसे चैन से बैठने नहीं दे रही. आज अपने हाथ से मोबाइल ले लेने पर उसने मुझे चांटा भले मारा हो लेकिन मैं जानती हूँ कि मेरे सहज लौटते आत्मविश्वास को देख वह बेतरह विचलित है.

मुझे यह विश्वास है कि आज न कल उसे मेरी निजता और अस्मिता के दावे को स्वीकार करना ही होगा. यह सच है कि कनक ने जिन किताबों की दुनिया से मुझे दूर कर दिया था ‘टैब’ ने मेरी वह दुनिया मुझे नए सिरे से लौटा दी है. किताबें निःसन्देह हमारी रूह को आज़ाद करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं,पर मैं किताबों को अपने लिए किसी ओट की तरह नहीं इस्तेमाल करना चाहती. मैंने योगिता जी से साफ-साफ बताया था कि मोबाइल और टैब ने मेरे लिए मेरे हिस्से की जमीन और आसमान दोनों का दरवाजा खोल दिया है और मेरी दुनिया सिर्फ किताबों से विनिर्मित नहीं होती. इसमें मेरे दोस्त,मेरी अभिरुचियाँ, पसंद-नापसंद,  हंसी-रुदन, सपने-कामनाएँ,खूबियाँ-खामियां...  सब उसी हक और बराबरी के साथ शामिल हैं जैसे वे अबतक पुरुषों के जीवन में शामिल रही हैं. मैं यह भी स्पष्ट कर दूँ कि बेशक कबीर मेरा अब दोस्त है,पर अब वह मेरा अकेला दोस्त नहीं,जिनके साथ व्हाट्सएप और मेसेंजर पर मैं संपर्क में रहती हूँ.

मुझे अछा लगता यदि योगिता जीने मोबाइल और टैब पर मेरी इस बृहत्तर दुनिया के बारे में भी बताया होता जो अपने हिस्से की हवा और धूप सिर्फ ज्ञान और आदर्श के वृक्षों से ही हासिल नहीं करती. ग्राहय और वर्जित के चयन का नैतिकताबोध मैंने खुद अर्जित किया है.

खुद को पुनराविष्कृत करने के इस दावे को आप इस नैतिकताबोध का उद्घोष भी कह सकते हैं. बहुत दूर तक साथ देने के बावजूद,पितृसत्ता से अर्जित यह योगिताजी का शुचिताबोध ही है, जो मेरी पवित्रता को अक्षुण्ण साबित करने के लिए मोबाइल और टैब पर मेरे किताब पढे जाने को ही गहराई से रेखांकित करती है. मैं अपना भला-बुरा खुद समझसकती हूँ,इसलिए मुझे मेरे सर्जक की थोपी हुई आचार संहिता भी स्वीकार्य नहीं है. मेरे भीतर की यह आवाज़ ही वह नवोन्मेष है जिसे मैंने अपनी अस्मिता के साथ पुनराविष्कृत और हासिल किया है.

पिछले कुछ दिनों में मैंने गौर किया है कि आप अपने फेसबुक पोस्ट और पाखी के संपादकीय में कथालोचना की दुर्दशा कोलेकर खासा चिंतित दिखाई दे रहे हैं. आपकी इन चिंताओं में आलोचना के नये उपकरणों की तलाश की मांग भी शामिल है. हालांकि आलोचना के नए उपकरण की मांग कोई नई बात नहीं है, हर पीढ़ी का लेखक अपने समय की आलोचना से यही मांग करता रहा है.लेकिन हमेशा से रेखांकित की जाती रही इस जरूरत को पहली बारकहे जाने के भ्रम के साथ किसी जुमले की तरह पुनः-पुनः दुहराते हये क्या कभी आपने यह सोचा है कि आलोचना के नए उपकरण किसी दूसरी दुनिया या आलोचना पुस्तकों से नहीं आयात किये जाते हैं,बल्कि उनके संधान के लिए पाठक/आलोचक/संपादक को रचना में ही धंसना होता है?  

सिर्फ भाषा के कौतुक और शिल्प के चमत्कार तक ही नयेपन के तलाश को परिसीमित कर देने वाली दृष्टि सही अर्थों में नयेपन को रेखांकित कर सकें इसके लिए उन्हें मुझ जैसे आज के कथा-चरित्रों के भीतर की नई आहटों को महसूस करना होगा.

रचना के भीतर का नयापन अपने समय की समीक्षा के लिए नए उपकरणऔर शब्दावली का पता खुद दे देता है,बशर्ते पाठक-आलोचक अपने पूर्वनिर्धारित निष्कर्षों के घेरे से बाहर निकल कर उस नयेपन को पहचानने की कोशिश करें. क्या आपसे उम्मीद करूँ कि मुझ जैसों के जीवन-व्यवहारों में व्याप्त नयेपन पर आप नए सिरे से सोचेंगे?

आप एक पारखी संपादक व साहित्य की दुनिया के अनुभवी नागरिक हैं और मैं एमबीए डिग्रीधारी एक आम स्त्री,जिसे साहित्य की परंपरा का भी कोई बोध नहीं. इसलिए यदि मेरी किसी बात से आपको ठेस पहुंची हो तो मुझे इसका खेद है.
आपका बहुत समय लिया,अब इजाजत चाहती हूँ.
धन्यवाद और शुभकामनाओं सहित
मंजरी


पुनश्च: हाँ,यह पत्र आपको सिर्फ पढ़ने के लिए भेज रही हूँ, ‘पाखीमें प्रकाशित करने के लिए नहीं.
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