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परख : इन हाथों के बिना (नरेन्द्र पुण्डरीक) वाज़दा ख़ान

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वरिष्ठ कवि नरेन्द्र पुण्डरीक का यह पाचवां संग्रह है जिसे बोधि प्रकाशन ने सुरुचि से छापा है. इसकी समीक्षा कवियत्री और चित्रकार वाज़दा ख़ान की कलम से .









इन हाथों के बिना                       
वाज़दा ख़ान





यूंतो किसी भी सृजनशील मन की दुनिया वही होती है जो बाकी सभी लोगों की होती है. परन्तु जो बात सृजनशील व्यक्तित्व या शख्सियत को बाकी लोगों से अलग करती है, खास बनाती है वह है उसका देश, काल, समाज, आसपास की उपेक्षा, दबाव, मजबूरियां व तमाम समस्याओं को देखने समझने और उन्हें महीन ढंग से पकड़ने का नजरिया और शिल्प कौशल. किसी भी सृजनात्मक विधा के लिये चाहे कविता हो, कहानी हो, चित्र हो, के लिये अन्त:करण की सृजनात्मक बुनावट, गहरी सूक्ष्म दृष्टि और उतनी ही गहराई में जाकर महसूस कर पाने की क्षमता अपने में बेहद महत्वपूर्ण कारक है.

दुनिया में जहां व्याप्त क्रूरतायें, कुरीतियां, विषमतायें, भेदभाव, अमानवीय व्यथा से उपजी छटपटाहट, पीड़ा और सब कुछ अच्छे रूप में बदल देने की चाहत रचनाकार को सृजन के कटघरे में खड़ा करती है जहां वह अपने आप को, अपनी आत्मा को पीड़ा से, छटपटाहट से मुक्त करता है. एक तरह से कवितायें कभी कभी मुझे कन्फेशन लगती हैं. कई बार इन्सान कितना विवश होता है कुछ न कर पाने के लिये सिवाय महसूस करने के. तब जैसे ये विधायें एक तरह से कन्फेशन का जरिया बन जाती हैं. ऐसे में नरेन्द्र पुण्डरीक का नया कविता संग्रह "इन हाथों के बिना"निश्चित रूप से पाठकों की चेतना को आन्दोलित करता है. संग्रहीत कवितायें दुनिया, समाज, व्यक्ति और खुद कवि के संघर्ष की आवाज है, आईना हैं, जरूरत हैं. इनमें हर अभिव्यक्ति का रंग बहुत गहरा व असरदार है. कवि की संवेदनशीलता, छटपटाहट और जिजीविषा के रंगों के विविध शेड्स और टोन कविताओं में पूरे अहसास के साथ उभर कर आते हैं. कवितायें कल्पना की उड़ान भर नहीं बल्कि राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक समस्याओं व यथार्थवादी जटिलताओं से बराबर रूबरू होती हैं. जिनसे व्यक्ति की चेतना लगातार उलझती, दरकती और टूटती रहती है.


सृजनशील मन का संघर्ष वैसे बहुत मारक व प्रभावपूर्ण होता है क्योंकि वह अपने भीतर के संसार और बाह्य संसार दोनों स्तर पर तमाम सकारात्मक, नकारात्मक अन्तर्द्वन्दों से जूझता चलता है. कोई भी रचना मानवीय सरोकारों, मूल स्रोतों व प्रश्नों से बावस्ता हुये बगैर अपने वजूद को व अपनी सार्थकता तो रेखांकित नहीं कर पाती. कविताओं में व्यंजित पीड़ा, दुख इत्यादि अनुभूति का पाठक की पीड़ा से तादात्म्य स्थापित हो जाये और पाठक रचनाओं को पढ़कर बेचैन हो जाये तो कविता अपनी सार्थकता पा लेती है. हर रचनाकार बनी बनायी लीक व परिपाटी को तोड़कर उन्हें नया अर्थ देने की कोशिश करता है. कुछ नया मौलिक रचना चाहता है. रचनाकार हमेशा परिवर्तनकामी भूमिका में होता है. सच्चे रचनाकार के भीतर की दुनिया, उसकी अपनी छटपटाहट, संवेदनायें वाह्य जगत की संवेदना और छटपटाहट बन जाती है. निश्चित रूप से व्यष्टि से समष्टि तक पहुंचने तक की यात्रा होती है यह.

"इन हाथों के बिना"कविता संग्रह की कवितायें जमीन की कठोर सच्चाइयों, फलसफों व संघर्षों से उपजी कवितायें हैं. इन कविताओं में मानवीय अनुभवों, जन सरोकारों का जो वितान है वह उनमें निहित सूक्ष्मतम अर्थों को गहनता से रेखांकित करता है जो नरेन्द्र पुण्डरीक की कविताओं की खास विशिष्टता बन जाती है. कवितायें ठहरकर सोचने के लिये विवश करती हैं कि क्या हम वास्तव में इतना संवेदनाशून्य होते जा रहे हैं कि सम्बन्धों के अर्थ हमारे लिये तभी तक हैं कि जब तक वो हमारे लिये फायदेमन्द हैं. 'मां'पर लिखी कविताओं में दुख, आक्रोश, कटाक्ष और करुण अभिव्यक्ति की रेखायें ऐसे रूप या शबीह का खाका खींचती हैं जो इस लोक समाज की क्रूरतम सच्चाइयों में से एक जान पड़ती है. ये कवितायें जैसे पाठक के मन की अतल गहराइयों में जाकर बस जाती हैं. मां लफ़्ज जिससे सारी कायनात जुड़ी है, जिसके मातृत्व के बगैर ये दुनिया अपूर्ण है. 


मां का निश्छल स्नेह जो सदैव अपनी सन्तानों के साथ बना रहता है सुरक्षा का कवच सा. हर मां चाहती है कि उसकी सन्तान सर्वश्रेष्ठ हो, उसे कभी कोई कष्ट न हो. मां ही एक ऐसा शाश्वत सम्बन्ध है जिसमें किसी भी प्रकार का प्रतिफल पाने की चाह अपने बच्चे से नहीं होती. संसार का ऋण तो चुकाया जा सकता है परन्तु मां के ऋण से उऋण नहीं हुआ जा सकता. मां के बिना हमारा कोई अस्तित्व ही न होता इस दुनिया में. कितनी गम्भीर व गहरी संवेदनशील पंक्तियों से कवि मां के वजूद को बयान करता है-

"हम भाइयों के बीच पुल बनी थी मां
जिसमें आये दिन दौड़ती रहती थी बेधड़क बिना किसी हरी लाल बत्ती के
हम लोगों को छुक छुक पिता के बाद हम भाइयों के बीच पुल बनी मां
अचानक नहीं टूटी धीरे धीरे टूटती रही
हम देखते रहे और मानते रहे कि बुढ़ा रही है मां"

मां का अकेलापन पुत्रों द्वारा किंचित महसूस न कर पाना केवल यह मानना कि आयु बढ़ने के साथ धीरे धीरे बढ़ती उसकी असहायता शारीरिक क्षरण है और मानसिक क्षरण जो उसके अकेलेपन से बढ़ रहा है पर ध्यान न देना. जैसे वृद्ध होना कोई गुनाह की श्रेणी में आता है. यह बताता है कि आज के दौर में सन्तानें किस कदर अपनी अपनी दुनिया में मसरूफ होती जा रही हैं कि मां की भी अपनी कुछ पसन्द या नापसन्द हो सकती है या अपने अकेलेपन को उनके साथ बांटना चाहती है. उनके साथ मिल बैठकर थोड़ी देर बतियाना चाहती है जैसे वे इसे समझना ही नहीं चाहते.

"मुझे ऑफिस से आया देख
बदल जाती थी मां के चेहरे की रंगत."

पुल बनी मां हर भाई के हिस्से में थोड़ा थोड़ा है, जैसे पुल दो हिस्सों को जोड़ता है. इसी तरह जैसे उसका (मां) अपना सम्पूर्ण वजूद ही अब स्वयं अपने लिये नहीं है. वैसे भी मां का वजूद कभी अपने लिये होता ही नहीं है. वह परिवार के सदस्यों के बीच खण्ड खण्ड में बंटी रहती है. उसके संसार के केन्द्र में केवल पति व सन्तानें होती हैं. उनसे इतर और कुछ भी नहीं. मगर जब वही सन्तानें अपने पैरों पर खड़ी हो जाती हैं. जीविकोपार्जन हेतु बाहर की ओर रूख करती हैं. उनकी अपनी दुनिया बनती जाती है, जिसमें मां नामक प्राणी अमा नहीं पाती, वही मां जो कल तक उनका जीवन थी. उनके पंख निकले, फड़फड़ाये, उड़ चले और दुनिया बदल गयी उनकी. मगर मां का संसार नहीं बदलता. बदस्तूर मन, प्राण से अपनी संतानों से जुड़ी रहती है. मां के प्रति कवि ये संवेदनशीलता पाठकों को कितना भावुक बनाती है कि उसके बार बार टूटने पर भी, किसी को कोई एहसास नहीं होता-

"मां टूटती रही
मां का टूटना कभी नहीं देखा हमने
पहली बार मां तब टूटी थी जब
हम प्रवासी पक्षी की तरह आते और लौटते रहे
चौथी बार वह तब टूटी थी जब रहती हुयी हमारे घरों में उसने महसूस किया था बेघर होना."

वृद्धावस्था में अकेलेपन का सन्त्रास झेलती मां की पीड़ा, सन्तानों के भरे पूरे परिवार में उसकी स्थिति को, दर्द को बयान करती कवितायें न केवल गम्भीरता से सोचने को विवश करती हैं वरन् सन्तानों द्वारा अपने वृद्ध माता पिता के प्रति उत्तरदायित्व पर सवाल उठाती है. बानगी देखें-

शीर्षक- "अब रह गयी है मां"

"मां के जेवर इस तरह बिना बांटे बंट गये
अब रह गयी मां जो बांटे नहीं बंटती है
छुटही गाय सी कहीं नहीं अटती है."

जैसे मां मां नहीं घर का कोई फालतू सामान हो गयी हो

"मां चुपचाप धीरे धीरे नि:शब्द जल रही थी
जैसे मां ने कभी अपने दु:खों की भनक
किसी को नहीं लगने दी."

वास्तव में मांयें ऐसी ही होती हैं जो अपनी दुख, तकलीफों, इच्छाओं, ख्वाहिशों की भनक किसी को नहीं लगने देतीं. परन्तु परिवार के हर सदस्य की इच्छाओं, आकांक्षाओं का बखूबी से ख्याल रखती हैं अपने पूरे समर्पण व मनोयोग से. मां पर लिखी कवितायें अपनी सम्पूर्ण अभिव्यक्ति में भावों की तीव्रता का प्राचुर्य रखती हैं, जो बिना किसी लाग लपेट के कवि की सच्ची व सहज संवेदनशीलता है. मां के अपने दुख को, मां के प्रति दुख को, उसके सम्पूर्ण जीवन में बिंधे दुख को कवि ने जैसे अणु अणु महसूस किया हो जिसमें सम्पूर्ण समाज की एक बदसूरत सच्चाई ध्वनित होती है. निश्चित रूप से मां का हमेशा के लिये जाना एक युग का चला जाना होता है जिसकी ममत्व भरी छांव में हम पले बढ़े, सुरक्षित महसूस करते रहे.

"पहले पिता गये फिर गयी मां
जब गयी मां तो लगा आंगन से उखड़ गयी गुलमेंहदी
मां गयी तो लगा बोली चली गयी
शब्द चले गये
जिनसे रोज बनती थी भाषा
मां गयी तो आंगन में आने वाली चिड़िया चली गयीं."

यह कैसी विडम्बना है मानव मन की, जब इन्सान करीब होता है तो उसका उतना महत्व समझ में नहीं आता जितना कि उनके हमेशा के लिये जीवन से चले जाने के बाद आता है. फिर भी मां तो मां होती है किसी के भी जीवन का सबसे महत्वपूर्ण और निश्छल सम्बन्ध. मां का न होना जीवन को कहीं बहुत गहरे से उदास करता है. एक खालीपन सा आ जाता है जिसकी कोई भरपाई नहीं. स्मृति बनती यादों में समाती मां बराबर तमाम बातों के लिये याद आती है-

"पत्नी ने बताया कि पिछले साल होली में मां घर में थी
घर है मां नहीं है घर में
मां बिना घर
घर नहीं लगता."

अपने जीवन में व्यस्त बच्चों से मां को कोई शिकवा शिकायत नहीं होती. चाहे वे उसकी खोज खबर लेते हों या न लेते हों. लेकिन कभी कभार जब वे मिलने आ जाते हैं तो जैसे मुरझाई हुई मां प्राण शक्ति पा जाती हो-

"भूले भटके अक्सर राह पाये सा एक छोटा ही आता मिलने
बहुत खुश हो उठती मां
चूजों के सामने चिड़िया सी चहकती मां
मां का चहकना देख लगता अभी बहुत दिन चलेगी मां."

अपनी वृद्ध अवस्था की अशक्तता के बावजूद भी मां पुत्र को किसी भी विपत्ति में या कठिनाई में पड़ा देखकर ढांढस देती है-

"मां को जितनी मजबूती से मैं थामता
उससे कहीं अधिक मजबूती से मुझे थाम लेती मां
मां का थामना देखकर अक्सर मुझे लगता
अन्त अन्त तक बची रहती है मां में
बेटे को थामने की ताकत."

इसके बावजूद भी माता पिता के वृद्धावस्था की असहाय स्थिति में पहुंचते ही घर के सभी बेटे एकत्र होकर हिस्सा बांट लेने की सुगबुगाहट करने लगते हैं. मानवीय सुभाव का कितना क्रूर पक्ष है ये. जिसकी प्रवृत्ति समाज में निरन्तर बढ़ती जा रही है. यदि इस तरह की बातें कहीं से सुनायी नहीं पड़ती तो कवि को लगता है जैसे दुनिया में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है. जैसे ये कोई परिपाटी या परम्परा हो यानी अब समय कितना बदलता जा रहा है कि यदि घर के सभी सदस्यों में एका, सौहार्द्र, भाईचारा, शान्ति बनी रहती है. और सम्पत्ति, जायदाद के बंटवारे को लेकर कोई विवाद या लोभ-लालच नहीं दिखायी पड़ता तो कवि को ऐसा प्रतीत होने लगता है जैसे कहीं कुछ ठीक नहीं चल रहा है-

"दुनिया भी ऐसी है कि यदि भाई का भाई से बंटवारा न होता
लगता है दुनिया में कहीं कुछ जरूर गड़बड़ सड़बड़ चल रहा है."

आज के युग में जहां अपने अपने स्वार्थ, अपने अपने हित चिन्तन में मनुष्यता इतनी रम चुकी है. किसी घर के भीतर सम्पत्ति को लेकर विवाद न होना, सहिष्णुता बनी रहना सचमुच नयी सी बात लगती है, असहज सी लगती है. निश्चय ही समाज, परिवेश, परिवार के समूचे ढांचे में इस तरह के खुदगर्ज बदलाव ज्यादातर जगहों पर देखा जा सकता है. चाहे वह किसी भी वर्ग, जाति से सम्बन्ध रखता हो.

उपभोक्तावादी वातावरण के इस दौर में भौतिक वस्तुओं का आकर्षण इस कदर हावी हो चुका है कि इनके बिना इन्सान अब बिल्कुल नहीं रहना चाहता. और इन्हें प्राप्त करने के लिये चाहे उन्हें कोई भी रास्ता अपनाना पड़े. अमूमन सभी परिवारों में इस तरह का दृश्य देखने को मिलता है-

"जेवर के मामले में जो बहू होती है जितनी तेज नज़र की
उसी अनुपात में उसी के हाथ लग जाते हैं
सो एक ने झटक ली थी पहले ही मां के गले की जंजीर
दूसरी ने धीरे धीरे सरका ली मां की अंगूठियां
तीसरी ने अच्छी लगने के बहाने से एक दिन ले लिया मां के टप्स."

भारतीय समाज में अपने ही बच्चों के द्वारा माता पिता के वृद्धावस्था की दशा-दुर्दशा का बड़ा ही कटु और यथार्थ चित्रण इन कविताओं में बड़े महीन ढंग से अभिव्यक्त हुआ है. 

कविताओं के माध्यम से कवि जो ये तमाम आहट सुन रहा है या महसूस कर रहा है, क्या यही है कलियुग? कि न केवल घर परिवारों में वरन् हर स्थान पर द्वेष, स्वार्थ, हिंसा, अशान्ति का दौर दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है. लोगों के बीच असहिष्णुता, हिंसा, मारपीट, मॉब लिन्चिंग आने वाले समय में समाज किस तरह अपनी नींव रखेगा आखिर?

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vazda.artist@gmail.com


उदय प्रकाश से संतोष अर्श की बातचीत : अंतिम क़िस्त

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समालोचन पर हमारे समय के महत्वपूर्ण लेखक उदय प्रकाश से युवा आलोचक और कवि संतोष अर्श की लम्बी बातचीत की यह तीसरी और अतिम क़िस्त है. पूरी बातचीत बहुत ही दिलचस्प है और लेखक के मनोजगत की यात्रा करती है, इस यात्रा में समय, समाज, भाषा, राजनीति, आदि तमाम पड़ाव आते हैं. एक तरह से एक मुक्कमल अंतर्यात्रा है यह उदय प्रकाश की.

संतोष अर्श बधाई के पात्र है कि उन्होंने अनौपचारिक ढंग से पर अर्थगर्भित प्रश्नों के माध्यम से  यह संवाद संभव किया जो उदय के पाठकों और साहित्य-समाज में रूचि रखने वालों के लिए एक थाती की तरह है अब.

समालोचन के पाठकों के लिए यह विशेष प्रस्तुति.  



मैं अपनी भाषा का आदिवासी हूँ !                            
(उदय प्रकाश से संतोष अर्श की बातचीत की अंतिम क़िस्त)

(‘दिल्ली की दीवारमें उदय प्रकाश लिखते हैं, और स्थितियाँ ऐसी भी हैं कि पता नहीं कब मैं अपने समय से अचानक अनुपस्थित हो जाऊँ.यहाँ ऐसा ही होता था. यह किसी नियम जैसा था. यहाँ हर रोज़ आने वाला आदमी अचानक ही एक दिन अनुपस्थित हो जाता और फिर भविष्य में कभी नज़र न आता.अचानक अनुपस्थित हो जाने का यह भय कितना इंटेंस है. इस भय को भाषा में अभिव्यक्त करना कितना कठिन कार्य है. यह बिना समय को उसके शुद्ध यथार्थ के साथ रचे हुए किया जा सकता है क्या ? लेकिन इतने से ही नहीं, इसके लिए उदय प्रकाश भी होना पड़ता है. इस पूरी बातचीत में हमने उसी इंटेंसिटी के साथ लेखक को विचारवान पाया है.   
   
बातचीत को क़िस्तों में प्रकाशित करने का प्रचलन संभवतः नहीं रहा है. प्रयोग किया गया. यह बातचीत लंबी थी और इसकी लंबाई को भी लोगों ने आलोचनात्मक निगाह से देखा. वे लेखक ही थे. तब मुझे यह कहना चाहिए कि हिंदी की साहित्यिक दुनिया में यह प्रवृत्ति तेज़ी से बढ़ी है कि जो प्रस्तुत किया गया है रचना के रूप में,वे समझते हैं, जैसे वह लेखकों के लिए ही है. हिंदी के लेखक इस अजगरी गुंजलक से निकलने की जगह इसमें और कसते चले जा रहे हैं. यह बातचीत केवल लेखकों के लिए नहीं है. यह उदय प्रकाश के पाठकों के लिए भी है और सामान्य पाठकों के लिए भी. और सबसे ज़्यादा तो हिंदी के उन विद्यार्थियों के लिए है जो पूरे देश के विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों में (हिंदीय कुंठाओं के साथ) हिंदी पढ़ रहे हैं,उसमें शोध आदि कर रहे हैं. इसलिए इस बातचीत की भाषा और इसकी लंबाई पर आने वाले लेखकीय सुझावों को ख़ारिज़ किया जाता है. यह भी किसी तरह की अहमन्यता या दंभ के वशीभूत हो कर नहीं,इस बातचीत की हुई सराहना के बल पर कहा जा रहा है. और वास्तव में यह बातचीत कोई पतलून नहीं है जिसे अख़बारों और पत्रिकाओं की तरह क़तर-ब्योंत कर निक्कर बना दिया जाय,तर्क दे कर कि जो ढकना है,वो तो ढक ही जा रहा है. यह संवाद हरा पेड़ है और पेड़ को काट-छाँट कर पौधा नहीं बनाया जा सकता क्योंकि उसमें जीवन है. लेखक के विचारों में जीवन की दीप्ति होती है.
   

मेरी दृष्टि में यह बातचीत हिंदी साहित्येतिहास में एक कौंध की तरह होगी. क्योंकि यह उस समय की है,जब लेखक मारे जा रहे थे,या मर चुके थे. और बहुत कुछ ऐसा घट रहा था,जिसे हम,इस समय के लोग जानते हैं. अब इस बातचीत का अंत होता है,यद्यपि यह अंत नहीं है. और यह पूरी भी नहीं है,इसमें से कुछ मैंने बचा लिया है. ज़ाहिर है अपने लिए. इस युवा-वरिष्ठ संवाद में लोगों की रुचि देखते ही बनी. वास्तव में यह सारी प्रशंसा लेखक की ही है,उसका उसको अर्पण. रुचि लेने वालों में मेरे असाहित्यिक मित्र मुकेशजैसे व्यक्ति भी थे,जिन्होंने ग्वालियर से दिल्ली राजधानी परिक्षेत्र,मेरे निवास तक आ कर इस अंतिम क़िस्त का कुछ अंश टाइप भी किया. उनका आभार. तकनीकी सहयोग देने और इस बातचीत में अपना धैर्य दिखाने वाली पूर्णिमा कुमारका आभार. लेखक की पत्नी कुमकुम जीका आभार. संतोष अर्श का आभार कि उन्होंने अपनी टुच्ची व्यस्तताओं और माइल्ड बैक-पेन में भी इस बातचीत को अपने अधैर्य से टकराकर तैयार कर लिया,जिसमें साल भर की देर हो गई.- संतोष अर्श)                                   

उदय प्रकाश : (पिछले उत्तर से आगे)...और मुझे लगता है कि गाँधी ने जिससे प्रेरणा ली...शायद आप जानते ही होंगे वो कौन था अमेरिकन ? एट्टीन्थ सेंचुरी का ? ...बहुत प्रसिद्ध है. मैंने ख़ूब उसके बारे मे पढ़ा है....हु वाज़ द मेन....! जिससे ताल्सताय ने भी लिया. गाँधी ने भी लिया. सभी ने लिया. वो...आप सब जानते हैं ! मैं भी जानता हूँ.

संतोष अर्श : मुझे ऐसा कोई याद नहीं आ रहा !!
उदय प्रकाश :वो शहर छोड़ कर चला गया था. जंगल में रहने लगा था. बल्कि मैपोग्राफ़ी... पहली मैपिंग उसी ने शुरू की थी. अनशन उसने शुरू किया. सत्याग्रह उसने शुरू किया.  सिविल डिसओबेडियन्स उसने शुरू किया. बहुत सारी चीज़ें हैं,वहाँ से,जो उसी की हैं. ताल्सताय उससे बहुत प्रभावित थे. और गाँधी भी थे. और दुनिया में काफ़ी लोगों पर असर रहा उसका. और उसका नाम...?(सोचते हुए,किन्तु याद नहीं आ रहा) उसका बहुत बड़ा इम्पैक्ट है. तो फ़िलॉसफ़ी पर ज़्यादा इम्पैक्ट है उसका. ...और साहित्य जो है, फ़िलॉसफ़ी का एक बहुत क़रीबी हिस्सा है. बिना दर्शन के,बिना फ़िलॉसफ़ी के,बिना व्यूज़ के...जिसे आप वर्ड-व्यू कहते हैं,या उसका दूसरा नाम आइडियोलॉजी भी दिया गया है...तो बिना उसके साहित्य होता नहीं है. अगर हम रिड्यूस करके विचार कह देते हैं. लेकिन...विचार भी तो फ़िलॉसफ़ी है. और बिना दर्शन के, बड़ा मुश्किल है साहित्य रच पाना. तो जब आप एक थॉट सिस्टम बनाते हैं, तो फ़िलॉसफ़ी बनती है. वरना फिर तो वही फ़ेसबुक हो जाता है. यानी कुछ यहाँ से,कुछ इधर-उधर से...उससे थॉट सिस्टम बनता नहीं है. तो मेरे ख़याल से साहित्यकार में यह होता है (सोचते हुए) जैसे बीच में जो एब्सर्डिटी के मूवमेंट आए, अकविता आई या नंगी कविता आई,भूखी पीढ़ी आई. तो एब्सर्ड थे वो.

उससे कोई थॉट सिस्टम नहीं बन सका. अब जैसे स्त्री के बारे में है...अकविता का दौर बहुत भयानक दौर है. मतलब इतना ज़्यादा एंटी-वीमेन...है न ! वो नहीं पाएंगे आप. लेकिन उसी में राजकमल चौधरी भी हैं. उस समय कुछ ऐसे भी हैं जो उस समय की फ्यूडल एरिस्टोक्रेसी थी...उस समय का जो कुछ फ़्यूडल,सामंती,अभिजात था,उसको भी तोड़ा. तो दोहरी भूमिका उसकी रही. गिंसबर्ग जैसे !! गिंसबर्ग लेकिन उतने स्त्री-विरोधी नहीं थे. क्योंकि यूरोप में शिक्षा ज़्यादा बढ़ी और आधुनिकीकरण भी हुआ. यूरोप उतना स्त्री-विरोधी नहीं हुआ. जितना हमारे...ख़ास तौर पर जो सेमेटिक, इधर के...जो लोग थे,मध्य एशिया से लेकर के...हमारे इधर तक. यहाँ जितना स्त्री-विरोधी रहा, उतना वहाँ नहीं रहा. लेकिन वहाँ भी...! ट्रंप वहीं आया,ये भी आप देखिए. तो...मुझे क्या लगता है संतोष जी... कि कहते हैं न एक समन्वित....(सोचते हुए वाक्य अधूरा). मेरी एक कहानी है,आप ज़रूर पढ़िए. आप उसे ज़्यादा समझेंगे. पर्यावरण पर ही है,लेकिन वो लगेगा नहीं कि पर्यावरण पर है.  

संतोष अर्श : कौन सी ?
उदय प्रकाश :उसका नाम है छतरियाँ.

संतोष अर्श : हाँ पढ़ी है ! उसमें जंगल की बायो-डाइवर्सिटी जैसा है कुछ,और प्रेम है.     
उदय प्रकाश :उसमें जो लड़की है और जो वो लड़का है, और वो जो जंगल है,जहाँ वो भटकते हुए जाते हैं. वहाँ पर तरह-तरह के कीड़े हैं. इसका अंत मैंने दो तरह से किया है. फिर वो जो लड़की है..., लड़की दरअसल नेचर यानी प्रकृति है. और उसके प्रति जो जिज्ञासा है,उस लड़की की,जो क्युरोसिटी है... वह अकिंचन है. और लड़की उस एज़ में है जो वुमेन नहीं बनी है. वो लगभग वयः संधि में है. और लड़का भी उसी एज़ का है. कहीं-न-कहीं अडोलोसेंस है. एक तरह की अबोधता दोनों में है. यानी दोनों के व्यूज़ नहीं बने हैं. और लड़की का जहाँ अंत होता है,जहाँ लड़का उसके हाथ में वह सबसे अनमोल कीड़ा,जो सबसे आश्चर्यजनक है,जिसको खोलते ही कई रंगों की रोशनियाँ फूटती हैं. तो वह सोचता है कि इससे बड़ा गिफ़्ट तो मैं लड़की को दे नहीं सकता. लड़की ने वो कभी देखा नहीं है,उसके अनुभव में वो है नहीं. लड़की अर्बन है. वो शहर से आई है. तो वह जो बहुत प्रिय है उस लड़के को...! वो उस कीड़े से डर जाती है. बज़ाय खुश होने के,वो उससे डर जाती है. भयभीत हो जाती है. तो कहीं-न-कहीं दोनों में एक बाइनरी है.
(बीच में बिज़नेस स्टैंडर्ड के पत्रकार सत्येंद्र पीएस का कॉल आया है,संतोष अर्श लेखक से क्षमा माँगते हुए सत्येंद्र से बात करते हैं. सत्येंद्र पीएस को कैंसर है और उन्हीं के साथ लेखक आज दिन भर किसी कैंसर अस्पताल में था,जिसका बातचीत के प्रारम्भ में उसने उल्लेख भी किया है. सत्येंद्र पीएस इस बातचीत में शामिल होना चाहते थे,किन्तु थक जाने के कारण नहीं आ सके.)

संतोष अर्श : क्या हिंदी समाज पर्यावरणवादी समाज नहीं है ?
उदय प्रकाश :इसका उत्तर आप अच्छे से दे पाएंगे.

संतोष अर्श : आप क्या कहेंगे ?
उदय प्रकाश :मुझे इधर-उधर जो बीच में लगता रहा,मैं कहता रहा. ...कि जो प्रत्यक्ष संबंध है प्रकृति से,वो लगभग टूटता सा जा रहा है. और भले ही हमारे यहाँ परंपरा रही हो आरण्यक की और सुश्रुत की और तमाम...मेघदूतम् की. भरा पड़ा है साहित्य. यहाँ ये सोचिए आप कि,प्रकृति ही प्रकृति है. और पूरा-का-पूरा रीतिकाल जो है,उसमें बिना प्रकृति-वर्णन के कोई कविता पूरी ही नहीं होती थी. और छायावाद के समय में बहुत प्रगति है. लेकिन समस्या क्या है कि इतना सब होने के बाद भी सब उसी तरह से है,जैसे महान काल-चिंतन हो रहा है लेकिन इतिहास नहीं है. यानी आप की प्रकृति का जो नोमेनक्लेचर है,जो उसका वर्गीकरण है,उसकी जो वैज्ञानिक... एक तरह से शिनाख़्तगी है,वो किसने की ?हमने नहीं की ? पता लगा कि वो डच आए और आ करके उन्होंने बाक़ायदा बोटैनिकल स्टडीज़ शुरू की. फिर पूरा-का-पूरा आपकी बॉटनी का आपके पास इतना बड़ा आरण्यक है. इससे बड़ा ग्रंथ नहीं हो सकता है,कि कितने तरह के पौधे हैं,किसमें क्या-क्या औषधीय गुण हैं, कौन कहाँ से आया है, एक-एक फूल किस देवता को प्रिय है,सब मिल जाएगा. लेकिन फूल किस क्लासीफ़िकेशन में आता है ?किस परिवार का है ? तो ये आपको कहीं नहीं मिलेगा. तो जिसको वैज्ञानिक चिंतन कहते हैं,वह कितना है ? नोमेनक्लेचर कितना है ?

संतोष अर्श : (बीच में ही बोलते हुए) प्रकृति-प्रेम पर्यावरणवाद नहीं है ! 
उदय प्रकाश :आप सही कह रहे हैं. (हँसते हुए) अब जैसे आम ही है. तो मैं जहाँ का हूँ, अमरकंटक का... अमरकंटक जो है वो कालिदास के मेघदूतम् में आम्रकूट है. आम्रकूट ! कूट मतलब जंगल,वन. तमाम...आज भी आमों का जंगल है. वो होते थे बनैले आम. जंगली आम. छोटे-छोटे, खट्टे-मीठे. बंदर वहाँ ख़ूब रहते थे,लंगूर. लेकिन वे आम एक ख़ास ऋतु में होते थे और ख़त्म हो जाते थे. खाने लायक नहीं थे,बड़े नहीं थे. तो किसने उनको बड़ा किया ?क़लम के द्वारा, ग्राफ्टिंग के द्वारा...? ग्राफ्टिंग किसने की ? तो पता लगा कि जब मुग़ल आए तो उन्होंने ग्राफ्टिंग शुरू की. टेक्नीक वो लेकर आए. क़लमी आम जिसे कहते हैं,वो बाबर के समय में आया. फिर पता चलता है कि बाबर ने तोतों की पहचान की. कितने तरह के तोते हैं भारत में? (हँसते हुए) आप साहित्य पढ़ेंगे, तो एक ही तोता है. वही तोता हर जगह है,जबकि वास्तव मे आप देखेंगे तो कई तरह के तोते हैं.

संतोष अर्श : इस समय जहाँ मैं हूँ,वहाँ गागरोनी तोते हैं. जो गागरोन से उड़ कर आते हैं गाँधीनगर तक. ये छोटे होते हैं. हमारे अवध में इन्हें टुइयाँ कहा जाता है. 
उदय प्रकाश : अच्छा हाँ !हमारे यहाँ भी होते हैं. तो...इस तरह से स्टडीज़ करना...अब सालिम अली के पहले,बताइये हमारे यहाँ कोई पक्षी-विज्ञान था क्या ?कितना ज्ञान था चिड़ियों के बारे में?इस तरह से पक्षियों को लिस्ट करना असाधारण है. तो यह काम नहीं हो पाया. कुछ-न-कुछ...जैसे मैंने बताया न कि काल-चिंतन बहुत हुआ कि ब्रह्मा की एक पलक झपकने में कितने युग बीत जाते हैं. युग क्या है,संवत्सर क्या है ?(ठहाका लगाकर) ये ख़ूब हुआ है. लेकिन हिस्ट्री नहीं है.

संतोष अर्श : हम लोग पर्यावरणवाद से पूर्व वारेन हेंस्टिंग्ज़ का साँड़पर थे !  
उदय प्रकाश:हाँ...हाँ ! अब जैसे भारत है. कहानी में मैंने लिखा भी है कि भारत एक अवधारणा थी. एक कान्सेप्ट था. आइडिया ऑफ इंडिया. इंडिया था कहाँ ?फिर अंग्रेज़ आए उन्होंने आके  मैपिंग करवायी. मुग़लों ने भी करवायी थी लेकिन मुग़लों ने रेवेन्यू के हिसाब से परगनों में करवायी. देखिये एक पूरी पॉलिटिकल मैपिंग होती है. भारत में वो नहीं थी. वो उधर से पश्चिम से आए. उन्होंने बाक़ायदा नापा. बल्कि वो चोखीजो है,वो कहती है कि तुमने इसका नक़्शा बना लिया है मतलब तुम इसको नष्ट करोगे. क्योंकि उसके पहले हमारा कोई नक़्शा नहीं था. और हम बहुत बड़े थे. और वो उदाहरण भी देती है कि जो तांत्रिक होते हैं वो जब किसी को मारना होता है,तो उसका एक पुतला बनाते हैं,फिर मंत्र-वंत्र पढ़के उसको काटते जाते हैं. तो वो कहती है कि तुम यही करने जा रहे हो. तुमने इसका पुतला बना लिया है,अब तुम इसको काटोगे. चोखी फिर सुसाइड करती है. वारेन हेंस्टिंग्ज़ का साँड़जो है, वो दरअसल कॉलोनियलाइज़ेशन के लिए है. इसकी पूरी जो प्रक्रिया है उसको समझने की कोशिश है. जैसे अभी मैं कह रहा हूँ कि हमेशा चाहे वो फ़ासिज़्म हो, चाहे कॉलोनियलाइज़ेशन हो,वो हमेशा कल्चर के थ्रू आते हैं. संस्कृति ही उनका दरवाज़ा होता है. तो ये बहुत संस्कृति से प्रेम करने वाले होते हैं. और जब कोई बहुत संस्कृति से प्रेम करे तब वो मामला संदेह वाला हो जाता है. और यह कहा है किसने..?मतलब हम लोग तो इसे अपने अनुभव से जानते हैं लेकिन आप उसको याद करिए, सैम्युल पी. हंटिंग्टन को ! ये उसकी किताब थी क्लैशेज़ ऑफ सिविलाइज़ेशंस! तो उसमें उसने कहा है,कि यह जो समय है,आने वाला,यह सभ्यताओं के टकराव का समय होगा. और संस्कृति ही उसका केंद्र होगी. और आज आप देख रहे हैं पूरा-का-पूरा सिविलाइज़ेशन कॉन्फ़्लिक्ट है. इसमें उसने लिस्ट बनाई है, पाँच,छह,सात जो ख़तरे हो सकते हैं अमेरिका के लिए... वो तो पेंटागन के लिए स्टडी कर रहा था. तो उसने एक जगह ये भी कहा है,जो सिनिक-इंडिक नेक्सस है,ये बहुत ख़तरनाक है.

सिनिक-इंडिक होता है,चाइना और इंडिया. उसका कहना है कि इनका दो हज़ार साल से अगर दो महीने छोड़ दिये जाएँ सन् बासठ के,कहीं कोई युद्ध नहीं हुआ है. ये कहीं एक हुए तो ये सबसे बड़ा ख़तरा है. वन ऑफ द बिगेस्ट डेंज़र. ...ये न होने पाये. तो इसके लिए सारे एफ़र्ट्स हैं. जैसे इस्लाम के बारे में उसने लिखा है. तो...वह किताब संस्कृति को ही केंद्र में रखती है. और इस समय सबसे बड़ा इनवेस्टमेंट कल्चर में है. मतलब वार से ज़्यादा इन्वेस्टमेंट कल्चर में है. और ये फ़ाइंडिंग्स हैं,आप डाटा उठा कर देख लीजिए कि आर्म्स में जितना इन्वेस्टमेंट है,उससे कम इन्वेस्टमेंट ग्लैमर में नहीं है. यानी लगभग वही टेक्नॉलॉजी जो...जो सेटेलाइट टेक्नॉलॉजी है,जो अर्थ का सर्वे करती है,वही टेक्नॉलॉजी आपकी स्किन का सर्वे करती है. तो ब्यूटी में इस्तेमाल होती है. सेम टेक्नॉलॉजी. तो स्किन को कैसे टोन किया जाय,कैसे स्किन चमकदार बनाई जाय,कैसे क्या किया जाय,इसकी टेक्नॉलॉजी वही टेक्नॉलॉजी है जो अर्थ सर्फ़ेस कर रही है. तो ये बातें बहुत सही हैं. ...

मैंने कहा न की नाइंटी में दोनों चीज़ें बदली हैं. कैपिटल बदला है,कैपिटल का रोल बदला और टेक्नॉलॉजी बदली. जब हम कहते हैं न कि आवारा पूँजी आई... क्यों कहते हैं ?इसलिए कहते हैं कि अस्सी प्रतिशत कैपिटल फ्री हो गया. मतलब बिलकुल मुक्त हो गया और मैंने आप से कहा था कि जो दिल्ली की दीवारहै,उसमें जो काला धन है,वो फ्री कैपिटल है. वो कहीं अकाउंटेड नहीं है. उसको आप जहाँ चाहे वहाँ उड़ा सकते हैं. क्योंकि वो कहीं नहीं है. उसका कहीं ज़िक्र नहीं है. तो यह जो मुक्त कैपिटल है,यह लोगों को पल भर में करोड़पति बना सकता है. लेकिन जो करोड़पति बनता है,उसकी ट्रेज़डी क्या है ?वो फॉलो नहीं करता उसको.  बस वो दिखा देता है कि करोड़पति बन गए हैं. ये टकराहटें हैं दो तरह के विचारों की. एक हमारे अपने ही साहित्य के समाज के,मनुष्यता के विचार हैं और दूसरी तरफ़ वो हैं,जो ग्रोथ चाहते हैं,वैल्थ चाहते हैं. तो ये विचारो का संघर्ष है. आपको बताऊँ, आपने नहीं पढ़ा होगा लेकिन अगर आप पढ़ना चाहें तो बहुत पहले एक आदिवासी लेखक,नाटककार, अभी है वो, उसका नाम है टॉमसन हाइवे. उसने दो नाटक लिखे उस समय जब ये सब शुरू हो रहा था, अट्ठासी,नवासी वाला.

एक उसका था...रिज़ सिस्टर्सऔर दूसरा था, ड्राइ लिप्स ओटा मूव टु कापुज़केसिंगतो वो मैंने पढ़ा था,क्योंकि वो मुझको उन्हीं रॉबर्ट ह्यूक्सटडने दिये थे जिन्होंने मुद्राराक्षस के उपन्यास दंडविधानका अनुवाद किया था. उन्होंने कहा था कि आप इनको ज़रूर पढ़ें और मैंने दोनों को पढ़ा. वो फ़िल्दी लैंग्वेज़ में लिखा गया है. गाली-गलौज़ की भाषा में... स्लैंग में लिखा है. दोनों नाटक. और रिज़ मतलब रिज़र्व...जैसे हमारे यहाँ रिज़र्वेशन होता है वैसे ही कनाडा में भी, यूरोप में जो आदिवासी हैं. तेरह प्रतिशत आदिवासी हैं कनाडा में. तो वे रिज़ कहे जाते हैं. रिज़ सिस्टर्स...यानी की तीन बहनें.... तीन आदिवासी बहनें. उनकी कहानी है. तो आदिवासी बहनें जो हैं वो शहर में आ जाती हैं, न्यूयॉर्क के किसी स्लम में आ जाती हैं,तो करें क्या वो ? ऑड जॉब करती हैं. जैसे घर की सफ़ाई का काम, कभी अंडे बेच दिये,कभी थोड़ा प्रास्टीट्यूशन कर लिया. कभी चोरी कर ली,कभी किसी का मॉल उड़ा के ले गए..... इस तरह के काम वो तीनों सिस्टर्स करती रहती हैं. और उनका लक्ष्य होता है इसी इकोनॉमी का...कि हम अमीर बनें. तो न्यूयॉर्क में एक खेल होता है. ...तंबोला ! उसे एक पर्व की तरह कुछ ख़ास दिन मनाया जाता है,पंद्रह दिन तक. सब लोग वहाँ आयें और तंबोला खेलें. वहाँ जो जीतेगा वो सिकंदर होगा.

हू विल बिकम मिलेनियर वाला...कौन बनेगा करोड़पति टाइप. वो बहनें जो साल भर इकट्ठा करती हैं...वो सिर्फ़ तीन बहनें नहीं हैं. बहुत सी औरतें हैं. वो पूरा एक कारवाँ चलता है. तंबोला बहुत बड़े उत्सव की तरह मनाते हैं. जैसे मेले में जाते हैं. गाते-बजाते हैं. और खेलते हैं. हर बार वो सबकुछ हार कर आते हैं. हर बार कंगाल हो कर आते हैं और फिर से शुरू करते हैं अगले साल,वही स्वप्न देखते हुए. यह जो एक गैंबलिंग का,लॉटरी का...अनिश्चितता में अमीर बन जाने का जो सपना दिया,वो इसी इकोनॉमी ने दिया. क्योंकि श्रम से पूरी तरह से मुक्त हो कर, बिना मेहनत के आप अमीर बन सकते हैं. और आप देखते भी हैं कि हाँ लोग बन रहे हैं. तो दरअसल दिल्ली की दीवारको आप पढ़ेंगे बहुत ध्यान से,तो ये जो न्यू इकोनॉमी है,इसने मनुष्य को जो झूठे सपने दिये हैं और जो अमीर बना, उसके साथ जो त्रासदियाँ हुईं ये उसकी मार्मिक कहानी है. मतलब ये सिर्फ़ अर्थ नहीं है,अर्थशास्त्र नहीं है.

क्योंकि कोई भी जो सोशल चेंज़ होगा,सामाजिक परिवर्तन होगा…, जैसे प्रेमचंद क्यों महान बने?उसका कारण ये है कि...जैसे कर्मभूमि ही है या गोदान ही जिसका आपने ज़िक्र किया था,तो कहीं-न-कहीं ये जो मशीनीकरण है, औद्योगीकरण है,पूँजी का जो रोल हैजैसे मेरा कहना था कि जो महाजन है,साहूकार है,प्रेमचंद के समय में,अब मेरे लिए वो बैंकिंग सिस्टम है. कोई भी प्रधानमंत्री आएगा,फ़ाइनेंस मिनिस्टर आएगा,कहेगा कि हम इतनी सब्सिडी दे रहे हैं. हमारे रुरल बैंक्स में इतना परसेंट किसानों के लिए है. हर कोई कहेगा. लेकिन आप जाकर देखिये, जहाँ-जहाँ रूरल बैंक्स हैं,सबसे ज्यादा सुसाइड वहीं हो रहे हैं. वहाँ वो साहूकार नहीं आता है. अब वो एक सिस्टम है. वहाँ एक मुस्कराता हुआ लड़का बैठा है. वह बहुत अच्छी बातें बोलता है. एक तरह से बहुत ही सिविलाइज़्ड है. लेकिन पता नहीं क्यों ? लोग सुसाइड कर रहे हैं. बल्कि इसकी जो...पी. साईंनाथ को आपने पढ़ा ही है. उसने लिखा है कि जिस-जिस हफ़्ते ईनाडु अख़बार में नीलामी के विज्ञापन छपे हैं,उस-उस हफ़्ते किसानों ने सबसे ज़्यादा आत्महत्या की है. आपके इसी बैंकिंग सिस्टम ने ये हत्याएँ पैदा की हैं. 

संतोष अर्श : भारत से बाहर वर्तमान हिंदी साहित्य की क्या स्थिति है ? 
उदय प्रकाश : कोई कुछ नहीं जानता. कहीं कुछ नहीं है. किसी का कोई नाम नहीं जानता. भारत की दूसरी भाषाओं का कुछ है. जैसे मराठी का है. दिलीप चित्रे उनमें से एक नाम है.                                                                           

संतोष अर्श : मोहन दासकी लफ़्ज़ पेशगी में आपने ज्योतिबा फुले को कोट किया है. उससे पहले की आपकी रचनाओं में ऐसे किसी विचारक-सुधारक का उल्लेख नहीं है. अंबेडकर आपकी रचनाओं में क्यों नहीं हैं ?
उदय प्रकाश :नहीं ! हैं न !! आप वो...अनावरणपढ़िए. उसमें हैं.

संतोष अर्श : ये राजेन्द्र यादव जी के विमर्शों का प्रभाव है,या आप को लगा कि सचमुच मार्क्सवादियों को जाति तक पहुँचने,उस पर बात करने में देर हो गयी ?
उदय प्रकाश: हाँ ये लगा !लेकिन देखिये,ये सिक्स्टी एट से ही मेरी कहानियों में आ गया था. 1968 में एक कॉन्फ्रेंस हुई थी केरल में,इंडिया स्टेट एंड सोसाइटी. सेमिनार था. नहीं सिक्स्टी टु में. वह बहुत बड़ा सेमिनार था. इंडिया स्टेट एंड सोसाइटी. उस पर किताब भी आई थी बाद में. पीपीएच से आई थी,कहीं—न-कहीं मिल जाएगी आपको. तो उसमें जो पेपर्स पढ़े गए थे,उसमें एक पेपर था ए.के. रॉय का. वह कास्ट एंड आक्युपेशनइस पर था. यानी कास्ट एंड क्लास. और वह पहला पेपर था जिसने कास्ट को आक्युपेशनल कैटेगरी माना था. और उसने उसमें कहा था कि जब तक हम इसको नहीं समझेंगे,तब तक हम क्लास को नहीं समझ पाएंगे. और उन्होंने इंडियन सोसाइटी और जो दूसरी एशियन सोसाइटीज़ हैं उसमें फ़र्क़ भी किया था. उनको बाद में निकाल दिया गया पार्टी से और सिक्स्टी फ़ोर में कम्युनिस्ट पार्टी भी टूट गई और दो भागों में बंट गई. सीपीआई और सीपीएम हो गई. वह मुझे हमेशा...तब से मुझे हांट करता था.

फिर क्या था ?हम लोग तो एक्टिविस्ट थे ! एक लंबे समय तक. मैं खुद तब नहीं समझ पाता था. लेकिन जैसे-जैसे मैच्योरिटी आती गई मैं पाता गया कि यार ये तो कुछ कास्ट के लोग हैं जो ऊपर तक चले जाते हैं. कुछ ऐसे हैं जो गायब ही हो जाते हैं (हँसी फूटी). लेफ़्ट में भी यही हाल था. फिर लगने लगा कि ये पूरा-का-पूरा एक कास्टिस्ट डेन है. तो फिर मोहभंग होना शुरू हुआ. मैं अभी भी कहता हूँ कि जब तक आप कास्ट को,कास्ट सिस्टम को एड्रेस नहीं करेंगे,तब तक आप...मैं तो नहीं मानूँगा कि सिर्फ़ पोलिटिकल लाइन या पोलिटिकल आइडियोलॉजी के ज़रिये आप कुछ कर लें. ऐसा नहीं हो सकता. तो अब जैसे वो है न...अब उसी दौरान मैंने वो किताब पढ़ी, गॉड दैट फ़ेल्ड. और ग्यारह लेखक,बड़े-बड़े लेखक पॉल एलुआर से लेकर तमाम जो मार्क्सवादी लेखक थे वो आए और उन्होंने बत्तीस में,उन्नीस सौ बत्तीस में पाया कि ये तो गड़बड़ है. सोशलिस्ट स्टेट. और उनकी ख़ामियाँ उनको दिखाई पड़ने लगीं. उन्होंने वार्न करना शुरू किया. उसमें एक विलियम राइटका भी लेख है. वो मुझको बहुत पसंद आया. बहुत मज़ा आया पढ़ने में उसको. तो उसने पूरा वर्णन किया है कि कैसे उसने स्टूडेंट एज़ में...लेफ़्ट सर्किल में शामिल हुआ फिर उसने ये किया...कम्युनिस्ट हुआ. ये हुआ,वो हुआ सब. फिर वो बताता है एक जगह कि वो ब्लैक था, ‘नीग्रो. कहता है कि ब्लैक तो थे ही नहीं,बहुत कम थे. तो जो ब्लैक आते थे उनको बहुत आगे-आगे करते थे. कि देखो हमारे साथ ब्लैक्स भी हैं.

तो उनके लिए कुछ स्पेशल ट्रीटमेंट होता था जैसे हमारे यहाँ कोई मुसलमान आ जाए या कोई दलित आ जाए तो उसको बहुत आगे-आगे रखते हैं (हँसते हुए). तो उसको जान लिया उसने. उसका अंतिम क्वेश्चन यही है,आई जस्ट वांट टु आस्क वन क्वेश्चन व्हाइ देअर आर नो ब्लैक्स इन अमेरिकन लेफ़्ट सर्किल ?व्हाइ एन ओनली व्हाइट सर्किल ?गोरे ही क्यों कम्युनिस्ट होते हैं ?वही सवाल यहाँ था कि सवर्ण जातियाँ ही क्यों कम्युनिस्ट होती हैं ?और ये मैंने कहा भी और आप भी शायद पाएंगे कि, ‘टेपचूमें भी है ये. टेपचूमुसलमान है और उसका फ़ादर भी ट्रांसजेंडर है. अब भी वो नाचता गाता है और लगभग...ही इज़ नॉट अ मस्क्युलिन. तो मुझे लगता है कि सबाल्टर्न की शुरुआत तो टेपचूसे ही हो गई. ये सेवेण्टी सिक्स में हो गई थी. और वो आप देखेंगे कि टेपचूकिससे लड़ता है ? गजाधर शर्मा से !! तो उसको ऑपरेशन थियेटर में...तो वो तो क्रिश्चन है डॉक्टर. जिससे वो कहता है कि इन लोगों ने मुझे मारने की कोशिश की. तो इस तरह की वो कहानी थी. तो ये मत सोचिए कि वो मैं डेलिबरेटिली लिख रहा था. क्योंकि सोच-समझ कर कोई नहीं लिखता. आपकी चेतना में जो चीज़ें होती हैं,वो बहुत सारी चीजों का एक तरह से सम्मिश्रण होती हैं. और वो जब आप लिखते हैं तो सामने आती हैं.

जैसे पीली छतरी वाली लड़कीलिख रहा था... तो ये सच है कि मेरे पास समय नहीं था. मैं शूटिंग में लगा हुआ था. एक प्रोजेक्ट मिला हुआ था. और राजेंद्र (यादव) जी बहुत मानते थे. और उन्होंने धमकाना शुरू कर दिया कि नहीं लिखना ही लिखना है. तो मैंने कहा (हँसते हुए) संभव नहीं है. तो उन्होंने कहा,यार किसी तरह भी लिख कर दे दो. तो मैंने एक छोटी सी शुरुआत की थी. मैंने कहा था कि लिख दूँगा. लव स्टोरी है,ख़त्म कर दूँगा. और वो ख़त्म होने को ही नहीं आ रही थी. और वो पाँचवे भाग पर भी नहीं चाहते थे कि इसे ख़त्म किया जाय. मुझे लगा कि...इतना बवाल हो गया उस पर कि मेरे खिलाफ़ तमाम चीज़ें छपने लगीं कि,वो पागल कुत्ता है,उसे ढेले मारो ! ये,वो. और वो सारे ऑफ़िसर्स भी टूट पड़े-विभूति नारायण राय से लेकर तमाम,सभी लोग. पूरा हिंदी का जो सत्ता-तंत्र है. मेरे पैंतीस असाइनमेंट कैंसल हुए. तो बहुत ख़राब स्थिति हो गई थी. रिग्रेशन होना शुरू हो गया. तो आप ये मान के चलिये कि बहुत डैक्रोनियन लैंग्वेज़ है. इस हिंदी में लिखना आसान नहीं है.

और हिंदी में लिख कर जो महान कवि बनते हैं न,यक़ीन मानिए वो कौन हैं ?जस्ट ट्राइ टु क्वेश्चन इट एंड फ़ाइंड इट अप ! तो उन सब को जानने के बाद मुझे लगा कि...अब आप ये देखिये कि कहाँ से छपी है ?पेंग्विन ने उसको पंप आउट किया. लेकिन पेंग्विन से छपी. फिर उसे निकाला गया. कुछ किताबों के साथ,है न ! लेकिन अब वो येल में छपी और येल यूनिवर्सिटी इस समय मुझे लगता है कि दुनिया की सर्वोत्तम यूनिवर्सिटी है,तो वह वर्ल्ड रैंकिंग के साथ छपती है. और किसी का वहाँ से कुछ नहीं छपा है. किसी की भी किताबें नहीं हैं. और वहाँ की सेलिब्रेटेड बुक है. आपको न्यूयॉर्क टाइम्स में दिखा दूँगा कि उसने पचास साल के वर्ल्ड लिट्रेचर के जो दस क्लासिक्स चुने,तो उन दस में से एक है वो. वही पीली छतरी वाली लड़कीजिसको यहाँ हँसी और मज़ाक बनाया गया.

फिर जर्मनी में मैग्ज़िमम अवार्ड ट्रांसलेशन के पीली छतरी वाली लड़कीने पाये. तो एप्रिशियेटिंग अ वर्क ऑफ आर्ट...इन अ लैंग्वेज़ ! ये बहुत निर्भर करता है कि उस भाषा का स्वामी कौन है ?हू ओंस द लैंग्वेज़ ?मैं जिस भाषा में लिखता हूँ...मैं तो कहता हूँ कि मैं...स्वामी नहीं,ट्राइबल हूँ इसका. और जैसे आदिवासियों से जल,जंगल,ज़मीन छीनी जा रही है,वैसे मेरी भाषा ही मुझसे छीन ली गई. तो यह एहसास होना...! और मैं जानता हूँ कि मैं कभी इस भाषा का मानक नहीं बन सकता. उसका कारण यही है कि जो डिबेट चलाई थी इकोनॉमिक टाइम्स ने...तो उन्होंने दो लोगों को चुना था.

हिंदी वर्सेज़ अंग्रेज़ी डिबेट था. अब ये सोचिए कि उन्होंने हरीश त्रिवेदी को रखा उधर और मुझको रखा इधर. मैं हिंदी का लेखक और हरीश त्रिवेदी अंग्रेज़ी के प्रोफ़ेसर. तो सामान्य लोगों को ये लगा कि दोनों अपनी-अपनी भाषा के बौद्धिक व्यक्ति हैं दोनों अपनी भाषा के बारे में कुछ कहेंगे. तो मज़े की बात ये है कि उसमें इकोनॉमिक टाइम्स में हरीश त्रिवेदी हिंदी के पक्ष में बोल रहे थे,और मैं अंग्रेज़ी के पक्ष में बोल रहा था. तो मैंने कहा कि अगर अंग्रेज़ी नहीं आई तो हम ग़ुलाम हो जाएँगे. और उनका कहना ये था कि अंग्रेज़ी के कारण हम ग़ुलाम हुए या हैं. तो मेरा कहना था कि जब गाँधी ने कहा...वो गाँधी को कोट कर रहे थे,गाँधी ने तब कहा था जब ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ़ एक तरह की यूनिटी की ज़रूरत थी. और हिंदी बीइंग अ वाइडली स्पीकिंग लैंग्वेज़ इन द कंट्री. तो उनको लगा कि हाँ हिंदी जो है,इसको अपनाना चाहिए. और ये चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने भी कहा था. तमिल लोगों ने भी कहा था कि हम हिंदी के पक्ष में हैं. लेकिन आज हिंदी की क्या हालत है ?

अब अंग्रेज़ी जो है,वो लिब्रेट करेगी. हिंदी नहीं लिब्रेट करेगी ! हिंदी तो ड्राइवर,सफ़ाईकर्मी,रिक्शापुलर,कुली और ये सब बनाएगी. तो इस पर झगड़ा हुआ. और काफ़ी अच्छी डिबेट थी वो. लेकिन बाद में मैंने देखा कि पूरे साउथ इंडिया से लेकर बहुत से लोग मेरे फ़ेवर में थे. तो...ये लोग नहीं हैं. संख्या में लोग कहीं नहीं हैं...दे आर हार्डली टू-थ्री पर्सेंट ! लेकिन इतना क़ब्ज़ा कर रखा है...तंत्र बहुत मजबूत है इनका. तो ये समस्या है.

संतोष अर्श : हिंदी का ये तंत्र कैसे टूटेगा ?इसे कैसे क्रश किया जा सकता है ?इसको कैसे तोड़ा जाय,यह भी तो सोचा जाना चाहिए ?
उदय प्रकाश : (लंबी चुप्पी)....मुझे नहीं लगता है कि ये टूटेगा ! और कभी-कभी मैं बड़ा निराश होता हूँ. जैसे चर्च है न ! तो पादरी तो रहेंगे ही ?बाबा साहब अंबेडकर ने क्या कहा था ?उन्होंने कहा था कि जो पोप है,जो फ़ादर है,जो प्रीस्ट है...शब्द उन्होंने प्रीस्ट इस्तेमाल किया है. तो प्रीस्ट कभी रैडिकल सोशल चेंज़ कों अलाउ नहीं करेगा. बुनियादी सामाजिक परिवर्तन पंडा नहीं होने देगा. तो ये प्रीस्ट जो है...और मुल्ला है,मौलवी...क्या वो चाहेगा कि इस्लाम में परिवर्तन हो?एंड ब्राहमिन्स...दे आर आल्सो प्रीस्ट. और ये अंबेडकर भी कहते हैं कि जो ब्राह्मण है,वह हिन्दू वर्ग का पुरोहित है. पुरोहित तो कोई परिवर्तन नहीं करने देगा न ?दे जस्ट वर्शिप्ड ! वे हर विचार को न्यूट्रलाइज़ करते हैं.

सोशल जो उसका रोल हो सकता है,किसी भी विद्रोही विचार का,आधुनिक चिंतक का,वे उसके सामाजिक प्रभाव को निरस्त कर देते हैं. पूजा करते हैं. उसको देवता बना देते हैं. जैसे राजेन्द्र यादव का ही वे देवता नहीं हैं...उस पर मैंने लिखा है. लेकिन लिखा मैंने अंग्रेज़ी में है. वो अभी है मेरे पास. बल्कि जब भारत भारद्वाज और सुधा भारद्वाज ने खलनायक के नाम से निकाली न राजेन्द्र यादव जी पर एक किताब मोटी सी ?खलनायक राजेंद्र यादव ! बड़ी मोटी किताब...बड़ी चर्चा रही उसकी. तो मुझसे भी लेख माँग रहे थे तो मैंने कहा कि मेरे पास समय अभी नहीं है,लेकिन वो जो मैंने लिखा था,मैंने कहा ये ले लीजिए,अंग्रेज़ी में है. तो शायद वो अकेला अंग्रेज़ी में लेख है उन पर. राजेंद्र यादव जी पर. बहुत अच्छा लेख है. अब उसमें...बड़ी गहरी दृष्टि थी राजेन्द्र जी की. बहुत गहरी. और उनके साथ भी वही समस्या थी जो हम सबके साथ है.

वो न लिखने का कारणअगर पढ़ें आप ध्यान से तो उनकी पूरी मजबूरियाँ सामने आती हैं. और सीधा सवाल है कि क्यों नहीं उनको साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया ?उनको नहीं मिला,धर्मवीर भारती... अंधा युगआज भी क्लासिक है! उनकी कहानियाँ गुलकी बन्नोऔर तमाम जो हैं....

संतोष अर्श : रेणु के मैला आँचलको भी नहीं दिया गया ! जिस वर्ष वह छपा था,उसी वर्ष माखनलाल चतुर्वेदी की किसी रचना पर दिया गया था.
उदय प्रकाश :ये तो साफ़ है न ! स्पष्ट है बिलकुल. अब शैलेंद्र और रेणु की दोस्ती ही...शैलेंद्र तो दलित थे. और इप्टा में भी थे. लेकिन उनका क्या हश्र हुआ ?शैलेंद्र को गायब कर दिया.
संतोष अर्श : (मुस्कराते हुए) आपके बारे में एक ख़ास वर्ग के लोग बहुत कुछकहते रहते हैं. उनके बारे में आप क्या कहेंगे ?
उदय प्रकाश :उनको क्या कहूँ ?ये ट्रोल्स हैं देखिए,है न !

संतोष अर्श : अभी मैंने कहीं एक लेख पढ़ा था उसमें भी ऐसा ही बहुत कुछथा. योगी वाला पूरा प्रकरण और तमाम बहुत कुछआपकी रचनाओं पर. ऐसा क्यों है ?
उदय प्रकाश :उसका कोई असर अब मुझ पर नहीं पड़ता है. हाँ,पहले पड़ता था. पहले बहुत पड़ता था. देखिए,मैं आपको एक बात बताता हूँ,मेरी पहली कहानी जो मौसा जीके बाद आई सारिकामें वो टेपचूही थी. टेपचूसेवेण्टी सिक्स में लिखी गई थी. जेएनयू में. वो छपी सारिकामें. जैसे ही ये कहानी आई इतनी पॉप्युलर हुई कि सारिका के अंक उठा कर देख लीजिए,आठ-नौ अंकों तक उस पर चिट्ठियाँ-ही-चिट्ठियाँ छपती रहीं. लोकप्रिय हुई. तो उस पर पहला आरोप लगाया गया. इलाहाबाद से कोई सज्जन एक फ़िल्मी पत्रिका निकालते थे,उसमें प्रदीप पंत जो आजकलके संपादक थे. उन्होंने लिखा, ‘आह क्युकी भद्दी और भोंडी नक़ल टेपचू. और उसमें उन्होंने इसको लिया टेपचूनाम को. मैंने आह क्युपढ़ी भी नहीं थी तब तक.

और टेपचूकैसे लिखी गई ?यह तीन लोगों के जीवन से जुड़ी हुई थी,जिसमें एक मैं था. तीन घटनाओं कों मिलाकर टेपचू लिखी गई. प्लस लेनिन का कहना...कि...सर्वहारा हारता नहीं है कभी. सर्वहारा की पराजय नहीं होती. जिजीविषा... तो जब लिखी गई,तो उन्होंने ये आरोप लगा दिया. किसी ने ला कर के उसे मेरे सामने रख दिया. मैं दिनमानमें उस समय आया था,नया-नया. तो ये जो पूरा गैंग होता है न लेखकों का (हँसते हुए). ...दिल्ली का गैंग था वो. तो जानबूझ कर वो उन्होंने मेरी टेबल पर रख दिया था. अरे क्या है ये ?’मैं बड़ा यंग था उस समय. जिसने रखा उसी ने कहा कि नक़ल है ये तो. तो मैंने कहा कि,बिलकुल झूठ है ये. मैंने पढ़ा तक नहीं उसको. मैंने कहा कि उनका नंबर दो,प्रदीप पंत का ! तो उसने नंबर दिया और मैंने फोन किया प्रदीप पंत को,गुस्से में. तब मैं रिएक्ट करता था. जो आप अभी कह रहे थे ?

बहुत रिएक्ट करता था. रिएक्ट तो अभी भी बीच-बीच में कर देता हूँ. मैंने फोन किया. मैंने कहा कि जो लु-शुनकी कहानी है आह क्युवो आप लेकर आ जाइए. और मैं ये लेकर आता हूँ और हम लोग मिलते हैं मोहन सिंह पैलेस में. और आप सिद्ध करिए कि ये नक़ल है. उन्होंने टेपचूसे समझा कि चाइनीज़ नाम होगा. जबकि हमारे यहाँ टेपचू,लेपचू बहुत नाम होते थे. हमारे यहाँ छत्तीसगढ़ में. आपके यहाँ भी होते होंगे ?

संतोष अर्श : (हँसते हुए) मेरा एक सहपाठी था बचपन में. उसका नाम धच्चूथा. 
उदय प्रकाश : (ठहाका) तो उन्होंने पतली जो हिंदी की आवाज़ होती है,हिंदी की एक जो सवर्ण आवाज़ होती है...(उस काइयाँ नकियाई आवाज़ की नक़ल करते हुए) अरे फिर भी लोग कह रहे हैं तो कुछ होगा न उदय जी ?’तो मुझे बहुत गुस्सा आया. मैंने उनसे कहा,तुम गधे की औलाद हो ! नहीं...मैंने ये कहा कि,तुम गधे के वीर्य से पैदा हुए हो. बहुत यंग था मैं. आप गाली दे रहे हैं,गुंडागर्दी कर रहे हैं’,उसने कहा. तो मैंने कहा कि,(हँसते हुए) जितना तुमको अपने जन्म की शुद्धता की चिंता है,उतनी ही मुझे अपनी रचना की शुद्धता की चिंता है. ये झगड़ा हुआ. तो बहरहाल मैंने डांट-वांट कर रख दिया फोन. अब वो मुश्किल से पंद्रह दिन बीते होंगे कि एक वो थी, ‘चित्रधाराकरके...फ़िल्मी पत्रिका थी मोटी सी. उसमें सेकेंड लीड स्टोरी पंद्रह-बीस पेज की वही थी. मतलब उदय प्रकाश पर. और जब मैंने उस समय कुछ लिखा ही नहीं था...महज़ दो कहानियाँ लिखी थीं. एक टेपचूलिखी थी,एक मौसा जीलिखी थी. और उसमें भी तमाम लोग जानने वाले थे. मंगलेश डबराल और सुरेश सलिल जैसे जाने-पहचाने नाम. सब के उसमें कोटेशंस थे. तब तो कहा जाएगा कि ताल्सताय ने भी उदय प्रकाश की नक़ल करके लिखा है. और एक पेज उसमें था, ‘उदय प्रकाश से बातचीत. उसमें भी पूरा झूठ था. जैसा मैंने आप से पूछा कि,राजीव गाँधी के बारे में आप क्या सोचते हैं ?नक्सलवाद के बारे में आप के क्या विचार हैं ?मुझको उन्होंने बहुत ख़तरनाक नक्सलवादी (देर तक हँसते हुए) सिद्ध किया. मैं बहुत परेशान होता था. बहुत ज़्यादा परेशान हुआ. तो ये चला ख़ूब. और उसके बाद तो हर रचना पर.

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परख : जलावतन (लीलाधर मंडलोई) : मीना बुद्धिराजा

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वरिष्ठ कवि लीलाधर मंडलोई इधर पेटिंग और फोटोग्राफी में भी सक्रिय हैं. लेखन, अनुवाद संपादन का बहु अनुभव है.  जलावतन उनका नया कविता संग्रह है जो विस्थापन को केंद्र में  रखकर रचा गया है. मीना बुद्धिराजा इसे देख-परख रहीं हैं.





विस्थापित मानवता का त्रासद आख्यान : जलावतन             
मीना बुद्धिराजा

एक रचनाकार-कवि के लिए रचना से बाहर जो दुनिया है वह बेहद संश्लिष्ट है और अधिक दुरूह. यह हमारे समय का भयावह सच है कि समकालीन साहित्य की मध्यवर्गीय संवेदना, दृष्टि और सरोकारों को लेकर बन गई रूढ़ि भी अपनी सीमाओं का विश्वसनीय अतिक्रमण नहीं करती. कविता भी इस सीमा से अछूती नहीं रही है. वस्तुत: एक सच्चे कवि को सर्वोत्कृष्ट प्रेरणा जीवन से ही मिलती है जो उसकी आधार भूमि होती है और जिसमें उसकी सृजनशीलता की जड़ें समाहित होती हैं. कला का कोई भी छद्म आवरण विषयवस्तु की प्रतिबद्धता के निर्वाह में जीवन-यथार्थ की जगह नहीं ले सकता. इस कसौटी पर समकालीन हिंदी कविता में उपस्थित सशक्त और प्रतिष्ठित कवि लीलाधर मंडलोईकी कविता जीवंत, आत्मीय और मानवता के पक्ष में बोलने वाली कविता है.

उनकी कविता न्याय और अधिकारों से वंचित समाज और जीवन के संघर्ष में अंतिम पायदान पर खडे मनुष्य की पीड़ा की आवाज़ है. अपनी रचना-प्रक्रिया के बारे में उनका कहना है-

मैं कविता में एक पर्यटक होने की जगह प्रथमत: और अंतत: एक संवेदनशील मनुष्य होने का स्वप्न देखना चाहता हूँ.मैं अंतिम उपेक्षित, वंचित और शोषित मनुष्य को अपनी भाषा में रचने के लिए प्रतिबद्ध हूँ  अपने सरोकार को मूर्त करने के लिए मैं भाषा की तहों में जाता हूँ. अस्वीकार किए जाने के जोखिम के बावज़ूद मैं ऐसा ही कुछ करना चाहता हूँ यानि भाषा, फॉर्म, वाक्य रचना, कहन आदि में यथासंभव तोड़-फोड़.”

लीलाधर मंडलोईकी कविता अपनी बहुआयामिता में संवेदना की एक नयी दुनिया गढ़ती है. वे अपनी रचनाओं में अपने से बाहर उस दुनिया में ले जाना चाहते हैं जो उनकी कविता में हमेशा से उपस्थित है और जिसे कविता से हटाना असंभव है. अपने जीवन के अदम्य संघर्षों में पगे और बचपन में ही आदिवासियों और मजदूरों को विस्थापन के दुख,गरीबी और अभावों से जूझते हुए उन्होनें देखा. एक सम्मानजनक जीवन जीने के लिए प्रकृति के मूल रहवासियों को विस्थापित और निर्वासन की जिन दुश्वारियों और व्यथा से गुजरते हुए उन्होने अनुभव किया. इन स्मृतियों के प्रभाव से अन्याय और शोषण के प्रतिकार, आक्रोश और प्रतिरोध के जो बीज उनकी सृजनशीलता में पनपे वही आगे चलकर मडंलोई जी की सम्पूर्ण कविता की आधारभूमि बने.

मेरे लिखे में अगर दुक्ख है
और सबका नहीं
मेरे लिखे को आग लगे.

मनुष्यता के प्रति गहरे रागात्मक लगाव और हाशिये की अस्मिताओं से जुड़ी उनकी कविता एक प्रखर स्वर बनकर मानव और प्रकृति की एकजुटताप्रेम और संघर्ष के अनेक पहलुओं को अभिव्यक्त करती है. उनके लिए रचना सरोकार से अधिक एक चुनौती है जिसमें उनकी परछाई धूप में जलते हुएभी एक क्षतिग्रस्त समाज में मानवीय उपस्थिति का पुनर्वास करती है. अपने परिवेश के सुख-दुख, प्रेम-घृणा और यथार्थ को अधिक मौलिक और विश्वसनीय तरीके से सचेत- जुझारु शिल्प में पाठक के सामने लाती है. मंडलोई जी की काव्य संवेदना कृत्रिमता से बिल्कुल अलग जिस तलछट में निवास करती है वह उन्हें एक नयी मानवीय भाषा में रचने के लिए विवश करती है. यह कविता कठिन और निर्मम होते वैश्विक परिदृश्य में मनुष्य विरोधी शक्तियों को पहचानने का प्रयास करती है.
 
समकालीन कविता में लीलाधर मडंलोई की कविता अपनी विशिष्ट पहचान रखती है. किसी एक पूर्वनिर्मित ढांचे में बंधकर न चलते हुए वह स्वनिर्मित जीवन की विविध स्थितियों में अदम्य जिजीविषा की प्रक्रिया का साक्षात्कार कराती है। एक प्रतिबद्ध  कवि के रूप में अपनी कविता में अनुभव-वस्तु को इतना प्रधान रखते हैं कि कला-कौशल अपरोक्ष हो जाता है. मनुष्य की चेतना और परिवेश के अन्तर्विरोध का संघर्ष यहां मूल्य-दृष्टि का व्यापक स्वरूप ले लेता है. अपने प्रमुख कविता- संग्रहो जैसे- घर-घर घूमा,  रात-बिरातमगर एक आवाज़, लिखे में दुक्खएक बहुत कोमल तान,उपस्थित है समुद्र, काल बांका तिरछाक्षमायाचना, हत्यारे उतर चुके हैं क्षीर सागरमें शीर्षक रचनाओं में अपनी लोकसंस्कृति की पृष्ठभूमि से  गहरे जुड़े होने पर भी मानव जीवन के नानाविध विस्तार को अपनी कविता के अनुभव में उन्होनें समेटा है. उनकी कवि-दृष्टि वैश्विक स्तर और संवेदना के धरातल पर मानवता के लिए न्याय और समानता के संघर्ष से जुड़ी है.

आज दुनिया में फैलती आक्रामक और हिंसक शक्तियों ने मनुष्य जाति का जो व्यापक उन्मूलन किया है उसे अपनी कविता की अनुभव-वस्तु में बदलकर प्रतिष्ठित कवि लीलाधर मंडलोईका नवीनम कविता-संग्रह जलावतनशीर्षक से भारतीय ज्ञानपीठप्रकाशन संस्थान दिल्ली से अभी प्रकाशित हुआ है जो समकालीन  हिंदी कविता की सार्थक उपलब्धि है. यह पुस्तक विस्थापन की एक वैश्विक ज्वलंत त्रासदी का अंतरंग साक्षात्कार है. सत्ता-लोलुप वैश्विक राजनीतिक शक्तियों की हिंसक विनाश-लीला का भयानक आघात और परिणाम दुनिया में व्यापक स्तर पर हुआ मानवीय विस्थापन है. विस्थापन और निर्वासन की यह दारुण विडंबना विश्व कविता में फिलीस्तीनी कवियों में स्वाभाविक और मार्मिक रूप से दिखाई देती है जिस त्रासदी को उन्होनें स्वयं भोगा है. विस्थापन और अपनी जड़ों से उन्मूलन क्या हमारे समय का केंद्रीय सच है ?लेकिन एक कवि के लिए यह विस्थापन सिर्फ भौतिक ही नहीं आत्मिक भी होता है. विश्वविख्यात फिलीस्तीनी कवि महमूद दरवेशने एक जगह कविता के बारे मे जो लिखा है वह कवि के रूप में उनके अनुभवों और सरोकारों को स्पष्ट करता है-
“आदमी एक जगह जन्म लेता है हालांकि मरने के लिए उसके पास अलग-अलग जगहें हैं- निर्वासन, जेलखाने या अपनी मातृभूमि जिसे अतिक्रमण और उत्पीड़न ने एक भयानक दु:स्वप्न में बदल डाला है. कविता शायद हमें सिखाती है कि हम अपने भीतर एक खूबसूरत स्वप्न को ज़िंदा रखें ताकि बार-बार हम अपने भीतर ही जन्म लेते रहें और एक बेहतर दुनिया बनाने के लिए शब्दों का इस्तेमाल करते रहें. एक ऐसी दुनिया जिसमें स्थायी और व्यापक शांति के लिए हम जीवन के साथ किसी करारनामे पर हस्ताक्षर करते हैं.”

इसलिए उनकी कविताएँ भी व्यापक अर्थों में विस्थापन के दु:स्वप्न और संकीर्ण घेराबंदी के बीच मनुष्य की किसी खोई हुई पहचान और स्मृतियों के बीच उसके पुनर्वास की कविताएं हैं.

इस दृष्टि से जलावतनसमकालीन हिंदी कविता में वैश्विक-विस्थापन के गंभीर विषय पर पहली पुस्तक के रूप में एक उपलब्धि है. विस्थापन पर लीलाधर मंडलोई जी की नज़र पहले से रही है जो उनके रक्त में और सृजन के मूल में भी है. इसीलिए दुनिया में जहां भी यह समस्या सामने आती है, एक कवि के रूप में उसे अनुभव कर उस पर संवेदनशील होते हैं अपना रचनात्मक दायित्व मानते हुए. जब पहले ही उन्होने यह कहा था कि-
सतपुड़ा के कंधे हैं मेरे पास
इसी पहाड़ से गुज़र कर पैदल आये थे माँ-बाप
कोसों का फासला अपनी पिंडलियों के भरोसे फलांगते.

तब वास्तव में अपने माता-पिता के माध्यम से कवि ने विस्थापन की सामूहिक सामाजिक प्रक्रिया के भुक्तभोगी की पीड़ा व्यंजित की थी. जिसका अगला चरण किसी और जगह जाकर विस्थापितों का बसना है.लेकिन जलावतनका विस्थापन और निर्वासन इसकी तुलना में बहुत भिन्न धरातल का अनुभव है. कवि ने जिस गहराई और पीड़ा के साथ इस वैश्विक समस्या पर विचार किया वह आज की दुनिया की अलग तस्वीर पेश करती है.
अरब के एक बड़े भू-भाग में संस्कृतियों की टकराहट और देशों के तनाव के बीच संकीर्ण और नस्ली घृणा से भरे समय में मनुष्यता को बचाए रखने का यह संघर्ष जटिल और बहुआयामी है. जलावतनकी कविताएँ उन हज़ारों-लाखों खामोश लोगों की आवाज़ हैं जो विस्थापन का चेहरा हैंअपने ही घर से बेघर- निर्वासित हैं और लगातार त्रास, अपमान और अनिश्तिताओं का कठिन जीवन जी रहे हैं-
हम शरणार्थी हैं
हमारी कोई दुनिया, कोई देश नहीं
कहते हैं वे कि हम पुकार लें अपने आपको
चाहे तुर्की, सीरियाई, ईराकी, फिलीस्तीनी या कुछ और
हम उनकी भाषा में  जलावतन हैं , शरणार्थी नहीं
और शरण मिलने का मतलब यह नहीं कि आपको
जीवन मिल ही जाए

आज के समय में  जब कोई भी विवाद या प्रश्न अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य और राजनीतिक फायदे के बिना समझा-सुलझाया नहीं जा सकता. तब विस्थापन भी विश्व में एक तरफा अन्याय की वैश्विक परिघटना बन कर आती है. इस लिए यहां देश-दुनिया से विस्थापितों के लिए कवि की मानवीय पक्षधरता भी अनिवार्य हो जाती है. मंडलोई जी इस समस्या के मानवीय बिंदु को पहचानते हैं और दुनिया के अंतर्विरोधों के बीच साहस के साथ उन शक्तियों के कुटिल प्रपंच को सामने रखना चाहते हैं जिन्होनें यह अमानवीय परिस्थिति उत्पन्न की है-

मैं जिनकी वज़ह से शरणार्थी हूँ
यहीं हैं वे जो एक ओर
ढोल बजा रहे हैं शरण का और
दूसरी ओर  खड़ी हैं सेनाएँ सरहद पर.

यही विडंबना है कि जो अमरीकी हैंजर्मन हैं फ्रांसीसी हैं जन्म से और दुनिया की वे जन्मना जातियाँ जिन्होने नहीं भोगा विस्थापन.’ इस तरह एक विश्वव्यापी संघर्ष और एक मानवीय विभाजन सभ्यता को अपदस्थ कर रहा है. इस समस्या की असाधारण चुनौती को कवि ने स्वीकार किया है.जिनको अपने स्थान, परिवेश और संस्कृति से बाहर धकेल दिया गया जिनसे उनके देश और शहर छिन गये. अस्मिता विहीन लोगों के लिए वह खोया हुआ शहर उनकी स्मृतियों में जीवित है जिनसे एक भावात्मक लगाव का गहरा रिश्ता है. इसलिए कवि संवेदना- सहानुभूति से आगे बढ़कर अपनी आवाज़ को उनकी आवाज़ और पहचान में शामिल करना चाहता है. यह स्वर किसी राजनीतिक नारेबाजी और चालू साहित्यिक मुहावरों का मोहताज नहीं. वह उन मर्मांतक बेचैनियों, निर्वासन और उत्पीड़न के उन हालातों से निकला है जो हमारे समय का सबसे बड़ा सच बन गए हैं और जिसकी तीक्ष्ण अनुभूति पूरे विश्व में हो रही है. कवि का संपूर्ण मानवता से प्रेम का स्वपन सामूहिक संघर्ष के बिना पूरा नहीं हो सकता-

मैं जो बोलता हूँ वह मेरा बोला नहीं
उसमें उनकी आवाज़ शामिल है
जो मेरी तरह बोलते हैं
मेरी आवाज़ में उनके क्रोध की समवेत चीख है
और नफरत में खौलते ज्वालामुखी की आग
मैं उनके साथ हूं इसलिए मेरी आवाज़ में उनका बोलना है
मैं अपने से अधिक उनके बोलने को प्रेम करता हूँ

इन कविताओं में विस्थापन के जो दृश्य हैं वे काल्पनिक नहीं वास्तविक प्रतीत होते हैं. विषय-वस्तु में विवरण कम लेकिन जो टूटन, व्यथा और बिखराव है वह भी स्थापित कला-शिल्प के ढांचे का निषेध करते हुए विस्थापन का भाषिक शिल्प बनकर संवेदना और रूप को एकात्म कर देती है. कवि को गहरा अह्सास है कि ये जलावतन लोग बहुत अकेले हैं बेसहारा जिनके साथ न कोई सरकार हैं न कोई खुदा’ .युद्ध और विस्थापन की भयावहता का अनुभव व्यक्ति के अस्तित्व को नष्ट कर देता है. ऐसे बच्चे जिन्हें मारे गये माँ-बाप का चेहरा तक याद नहीं और जो कहता है- मुझे नफरत के साथ वे फिलीस्तीनी पुकारते हैं.’यातना की पराकाष्ठा यह है कि पुरुष ही नहीं स्त्रियाँ भी जीवन के इस युद्ध में योद्धा हैं जो आत्महत्या के इरादे से निकलती हैं और पकड़ी जाती हैं एक और बलात्कार के लिए। औरइस विनाश में ही उन्हें एक नयी शुरुआत करनी है.-

मैं युद्ध के ऐन बीच पैदा हुई
मुझे मनुष्य से अधिक
हथियार से प्रेम करना सिखाया गया
जीवन में सुख से अधिक
दुख से और
जीवन की अनिश्तितता से अधिक
मृत्यु से हमें प्रेम करना सिखाया गया

यह जलावतनी प्रत्येक मनुष्य ही नहीं उसके सहचर प्राणी जगत तोता, बिल्ली, तितली फूल, पत्ते, पक्षी, हवा, धूप, रंग इन सभी के विस्थापन से भी सृष्टि का तादात्मय मंडलोई जी की सहज संवेदना और कवि-प्रवृत्ति का परिचय देती है जो संघर्ष और चरम संकट में भी मनुष्य का साथ नहीं छोड़ती है. यह कविता अपने समय की पहचान करते हुए पंरपरा और अतीत के अनुभवों को वर्तमान और मानवता के भविष्य के स्वप्न से जोड़ती हैं तो वह कोई पलायन नहींबल्कि जीवन मूल्यों को बचाने की उम्मीद पर टिका है. इस दृष्टि से मंडलोई जी हिंदी के दुर्लभ कवि हैं जिन्होनें यह दायित्व निभाया है-

मैं याद करता हूँ और गाता हूँ पुराने गीत
मैं अपमानों को भूलता नहीं
न ही जीता हूँ हताशा की शरण में
मैं शरणार्थी होने की लज्जा में आपादमस्तक होने के बाद
मनुष्य होने की आभा को बचाये हूँ
मैं सिर्फ अपने हक़ की लड़ाई में हूँ

मनुष्य की जिजीविषा के साथ उसकी निर्माण शक्ति में विश्वास भी कवि को सृष्टि के हर तत्व और वस्तु से मिलता है जो अमानवीयता के विरुद्ध एक अदम्य शक्ति बनकर खड़ी होती है. इस आदिम राग में निजता और सार्वभौमिकता का समन्वय मंडलोई जी का उदात्त काव्य स्वर निर्मित करता है. ये कविताएँ केवल काव्यात्मक बिम्ब नहीं हैं लेकिन उनमें आज के विश्व की भयावहता और दहशत का बोध और प्रतिकार एक साथ है. जिस विराट सभ्यता को आततायियों ने उन्मूलित किया है उसको फिर से बचाने का संघर्ष और उम्मीद है- वर्तमान में उस दुनिया के भविष्य का स्वप्न है जहां अन्याय और मनुष्य की बेदखली नहीं है. जब कविता में यह प्रतिध्वनि सुनाई देती है-

कितना कुछ अचानक यह सब
अचानक कलह
अचानक मारकाट
अचानक युद्ध
अचानक मौतें
अचानक रुदन
इस तरह एक दिन अचानक हुआ बेघर
अचानक हुआ शरणार्थी
अचानक इस जीवन में
अचानक यह जीना मरना.

यह अचानक युद्ध का परिवेश और अप्रत्याशित परिस्थितियाँ उस परिवेश और यथार्थ का प्रासंगिक बयान हैं कि जिसमें जो निर्दोष-पीड़ित और निरपराध मानवता है उसकी यंत्रणा को कवि मार्मिकता और विश्वसनीयता से यहां संप्रेषित करने मे समर्थ है. यह मानव-विरोधी क्रूर मानसिकता आज भी विश्व स्तर पर एक चुनौती है जिसके प्रतिरोध में कवि का विवेक इतना सजग है कि वह साम्राज्यवादी देशों के कसीदे नहीं लिखता-

मैं उनका साहित्य पढता हूँ और
अपनी उस धरती के बारे में लिखता हूँ
जो घसीट ली गई है डायनामाईट के ढेर पर.

यह मानवतावादी मूल्य-दृष्टि मंडलोई जी के इतिहास बोध और काव्य संवेदना को अपने आसपास और दूरदराज दुनिया में कहीं भी घटित होने वाले मानवीय संकट के प्रति जागरूक करती है.हिंदी के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठीने इस कविता-संग्रह के लिए आवरण पृष्ठ पर लिखा है-

“मंडलोई ने इस लगभग वैश्विक भयावहता को कविता के शब्दों में खींच लिया है. ये कविताएँ करुणा का रस नहीं करुणा का कालकूट सा प्रभाव पैदा करती है. जलावतन की कविताओं को एक साथ पढें तो इसमें विस्थापन की एक गाथा भी उभरती है. मंडलोई जी की सर्जनात्मक प्रामाणिकता का लक्षण यह है कि इस विस्थापन दुख में उनका अपना विस्थापन अनुभव भी घुल-मिल गया है जो इन कविताओं की काव्य वस्तु को आत्मसात कर लेने का प्रमाण है. इस संकलन में मटमैले ताबीज़ वाले फिलीस्तीनी के साथ गोबर लिपा आँगनऔर माँ की नर्मदा-किनारवाली साड़ी की सिर पर पल्ले की याद याद भी नत्थी है. जलावतन हिंदी की काव्य वस्तु में नया जोड़ने वाली किताब है.”

एक कवि और रचनाकार होने के साथ संस्कृति प्रेमी, साहित्यक-पत्रकार,छायाकंन,साहित्यकारों पर डॉक्यूमेंट्री फिल्म-निर्माण, निर्देशन, संगीत और लैंडस्केप से लेकर अमूर्त चित्रकला में सक्रियऔर गहरीपरख रखने वाले मंडलोई जी की संवेदना और सरोकारों का कैनवास बहुत विस्तृत है.कविता के लिए कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित और सजग- संपादक रहने के साथअपनी कवि-कलाकार दृष्टि में न तो वे इस धरती- प्रकृति और मनुष्यता का कोई कोना छोड़ते हैं और बेहद निर्मम होते समय में मानवीय जीवन की वास्तविक छवियों को पकड़ते हैं. जीवन और साहित्य में घृणा का कोई स्थान नहीं होता और जीवन के द्वंद्वात्मक स्वरूप में एक संवेदनशील कवि प्रेम को ही बचाने का स्वप्न कविता में पूरा करता है. इस कविता-संग्रह के आखिर में कितना अमरशीर्षक कविता में महान कवि केदारनाथ सिंहको स्मरण करते हुए कवि की आस्था शब्दों में, प्रेम में है कि अंतत:-

वो गहता है अखंड मौन
अब लौटना है उसे
सुनते हुए.. अग्नि-राग
लौटना है
सूर्य में
जल में
पवन में
आकाश और
धरा में

जलावतनसंग्रह की कविताएँ भी हमारे समय की साक्षी बनकर वर्चस्ववादी और विनाशकारी महाशक्तियों के कारण तबाह और विस्थापित मानवता की त्रासदी की जीवंत गाथा बनकर भविष्य में सबको एक रचनाकार के दायित्व और प्रतिबद्धता के साथ जिम्मेदारी निभाने की चुनौती भी देती रहेंगी. इस सार्थक पुस्तक की समृद्ध भूमिका हिंदी के गंभीर विद्वत आलोचक अजय तिवारीने लिखी है जो इस कविता-संग्रह के महत्व को स्थापित करती है. सुरेंद्र राजन के शब्दों में- “इस कविता-संग्रह में वैश्विक करुणा की इमेजेस हैं जो आज के महानगरीय पूँजीवादी परिवेश के हृदयहीन जगत में दुर्लभ हैं.”

समकालीन हिंदी पाठकों को विश्व इतिहास को प्रभावित करनेवाली एक परिघटना से साक्षात्कार कराने के लिए जलावतनकी  मार्मिक कविताएँ बहुत समय तक हमारी चेतना को वैचारिक तौर से आंदोलित करती रहेंगी.



मेघ - दूत : अप्रैल की एक ख़ुशगवार सुबह सौ प्रतिशत सम्पूर्ण लड़की को देखने पर : हारुकी मुराकामी : सुशांत सुप्रिय

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हारुकी मुराकामी के 1980 से 1991 के बीच लिखी कहानियों के संग्रह ‘The Elephant Vanishesमें "On Seeing the 100% Perfect Girl One Beautiful April Morning"शीर्षक से यह कहानी संकलित है. हिंदी में इसका अनुवाद सुशांत सुप्रिय ने किया है जो जे. रूबिनके जापानी से अंग्रेज़ी में किए गए अनुवाद पर आधारित है.

हारुकी मुराकामी समकालीन विश्व साहित्य में आज कुछ सर्वाधिक पढ़े जाने वाले कथाकारों में हैं.





हारुकी मुराकामी                        

On Seeing the 100% Perfect Girl One Beautiful April Morning
अप्रैलकी एक ख़ुशगवार सुबह सौ प्रतिशत सम्पूर्ण लड़की को देखने पर

अनुवाद : सुशांत सुप्रिय









प्रैल की एक ख़ुशगवार सुबह टोक्यो के फ़ैशन-परस्त हराजूकू इलाक़े की एक तंग गली में मैं सौ प्रतिशत सम्पूर्ण लड़की के बग़ल से गुज़रता हूँ.

आपको सच बताता हूँ, वह दिखने में उतनी सुंदर नहीं है. भीड़ में वह अलग-से दिखे, वह ऐसी नहीं है. उसने जो कपड़े पहने हुए हैं, वे भी विशिष्ट नहीं हैं. उसके पीछे के बालों में नींद में बनी बेतरतीबी अब भी दिख रही है.वह उतनी युवा भी नहीं है-  वह लगभग तीस वर्ष की होगी, और आप उसे उस अर्थ में लड़की’  भी नहीं कह सकते. किंतु फिर भी मैं पचास गज की दूरी से यह जान गया हूँ कि वह मेरे लिए सौ प्रतिशत सम्पूर्ण लड़की है. जैसे ही मेरी निगाह उस पर पड़ती है, मेरे हृदय में एक हलचल होने लगती है, और मेरा मुँह किसी रेगिस्तान की तरह सूख जाता है.

सम्भवत: आपको भी कोई विशेष प्रकार की लड़की पसंद होगी- वह जिस के टखने पतले हों, या आँखें बड़ी हों , या उँगलियाँ मनोहर हों, या आप बिना किसी विशेष कारण के ऐसी लड़कियों के प्रति आकर्षित हो जाते हों जो अपना भोजन समाप्त करने में समय लेती हैं. ज़ाहिर है, मेरी भी अपनी पसंद हैं. कभी-कभी किसी रेस्तराँ में मैं अपने-आप को अपने बग़ल की मेज पर मौजूद लड़की को ग़ौर से देखता हुआ पाता हूँ क्योंकि मुझे उसकी नाक का आकार पसंद है.

लेकिन कोई भी इस बात को लेकर अड़ नहीं सकता कि उसकी सौ प्रतिशत सम्पूर्ण लड़की को किसी ख़ास तरह के अनुरूप ही होना चाहिए. हालाँकि मुझे नाक पसंद है, किंतु मुझे उसकी नाक का आकार याद नहीं. यहाँ तक कि मुझे यह भी याद नहीं कि उसकी नाक थी भी या नहीं. मुझे बस एक ही बात याद है : वह बला की ख़ूबसूरत नहीं थी. यह अजीब है.

कल एक गली में मैं सौ प्रतिशत सम्पूर्ण लड़की के बग़ल से गुज़रा, मैं किसी से कहता हूँ.
अच्छा ? वह कहता है. वह ख़ूबसूरत रही होगी.”
नहीं, ऐसा तो नहीं था.”
तो फिर वह उस तरह की लड़की होगी तुम्हारी पसंदीदा क़िस्म की लड़की.”
मुझे पता नहीं. मुझे उसके बारे में कुछ भी याद नहीं आ रहा-  यहाँ तक कि उसकी आँखों या उसके उरोजों का आकार भी याद नहीं आ रहा.”
यह तो अजीब बात है.”
हाँ , यह अजीब है.”
तो फिर तुमने क्या किया ? ऊबते हुए वह पूछता है , “ क्या तुमने उससे बात की ? या उसका पीछा किया ?
नहीं. केवल सड़क पर उसके बग़ल से गुज़रा.”
वह चल कर पूरब से पश्चिम की ओर जा रही है, जबकि मैं पश्चिम से पूरब की ओर जा रहा हूँ. यह वाक़ई अप्रैल की एक ख़ुशगवार सुबह है.

काश , मैं उससे बात कर पाता. आधे घंटे की बातचीत काफ़ी होगी : उससे उसके बारे में पूछूँगा, उसे अपने बारे में बताऊँगा, और यह भी बताऊँगा कि दरअसल मैं क्या करना चाहता हूँ. मैं उसे भाग्य की जटिलताओं के बारे में बताऊँगा जिसकी वजह से हम दोनों 1981 की एक ख़ुशगवार सुबह हराजूकू इलाक़े की एक गली में एक-दूसरे के बग़ल से गुज़र रहे हैं. यह तो निश्चित रूप से उत्साहित करने वाले रहस्य से भरी हुई बात होगी. जैसे एक प्राचीन घड़ी तब टिक्-टिक् कर रही हो जब पूरे विश्व में शांति हो.

आपस में बात करने के बाद हम कहीं दोपहर का भोजन ले सकते हैं. शायद हम वूडी ऐलेन की कोई फ़िल्म भी साथ-साथ देखने चले जाएँ या किसी होटल के बार में थोड़ी शराब पीने के लिए रुक जाएँ. यदि क़िस्मत ने साथ दिया तो कौन जाने , हम हम बिस्तर भी हो जाएँ.

मेरे हृदय के द्वार पर सम्भावनाएँ दस्तक दे रही हैं. अब हम दोनों के बीच की दूरी कम हो कर महज़ पंद्रह गज़ रह गई है.
मैं उससे कैसे बात करूँ ? मैं उसे क्या कहूँ ?
नमस्ते. क्या आप मुझसे बात करने के लिए आधे घंटे का समय निकाल सकती हैं ?
बकवास. ऐसा कहते हुए मैं किसी बीमा एजेंट की तरह लगूँगा.
क्षमा करें. क्या आपको पड़ोस में स्थित रात भर खुली रहने वाली किसी लांड्री की जानकारी होगी ?
नहीं. यह भी उतना ही हास्यास्पद होगा. एक तो मेरे पास धुलने के लिए दिए जाने वाले गंदे कपड़े नहीं हैं. इस झांसे में कौन आयेगा भला.
शायद सीधी-सादी सच्चाई से काम बन जाए. नमस्ते. आप मेरे लिए सौ प्रतिशत सम्पूर्ण लड़की हैं.”

नहीं. वह मेरी बात पर यक़ीन नहीं करेगी. माफ़ कीजिए, वह कह सकती है, मैं आप के लिए सौ प्रतिशत सम्पूर्ण लड़की हो सकती हूँ, पर आप मेरे लिए सौ प्रतिशत सम्पूर्ण लड़का नहीं हैं. यह हो सकता है. और यदि मैंने खुद को ऐसी स्थिति में पाया तो मैं टूट कर बिखर जाऊँगा. मैं इस सदमे से कभी नहीं उबर पाऊँगा. मेरी उम्र 32 साल है और बढ़ती उम्र में यह सब होता है.


हम फूल बेचने वाली एक दुकान के सामने से गुज़रते हैं. गरम हवा का एक छोटा-सा झोंका मेरी त्वचा को छू जाता है. डामर गीला है और मेरी नासिकाओं में गुलाब की सुगंध प्रवेश करती है. मैं उस लड़की से बात करने की हिम्मत नहीं जुटा पाता. उसने एक सफ़ेद स्वेटर पहना हुआ है, और अपने दाएँ हाथ में उसने एक कड़क सफ़ेद लिफ़ाफ़ा पकड़ा हुआ है जिसमें डाक-टिकट का नहीं लगा होना ही एकमात्र कमी है. अच्छा, तो उसने किसी को पत्र लिखा है. शायद उसने यह पत्र लिखने में पूरी रात लगा दी हो. उसकी आँखों में भरी नींद को देखने से तो यही लगता है. इस लिफ़ाफ़े में लड़की के सारे गोपनीय रहस्य छिपे हुए हो सकते हैं.

मैं कुछ क़दम और आगे बढ़ाता हूँ और फिर मुड़ जाता हूँ : वह लड़की भीड़ में खो गई है.

अब, ज़ाहिर है, मैं बिल्कुल जानता हूँ कि मुझे उस लड़की को क्या कहना चाहिए था. हालाँकि वह एक लम्बा भाषण हो जाता, इतना लम्बा भाषण कि मैं उसे ठीक से नहीं दे पाता. यूँ भी मेरे मन में जो विचार आते हैं, वे कभी भी व्यावहारिक नहीं होते.
ख़ैर ! तो वह भाषण ऐसे शुरू होता : एक बार की बात है” और उसका अंत इस तरह से
होता , “ एक उदास कथा, आपको नहीं लगता ?

एक बार की बात है , एक लड़का और एक लड़की कहीं रहते थे. लड़के की उम्र अठारह बरस की थी जबकि लड़की सोलह बरस की थी. वह लड़का बहुत रूपवान नहीं था, और वह लड़की भी बेहद ख़ूबसूरत नहीं थी. वे दोनों अकेलेपन से ग्रस्त किसी आम लड़के या लड़की की तरह थे. लेकिन वे अपने हृदय की अतल गहराइयों से इस बात पर यकीन करते थे कि इस विश्व में कहीं कोई सौ प्रतिशत सम्पूर्ण लड़का’  सौ प्रतिशत सम्पूर्ण लड़की’  उनके लिए मौजूद थे. हाँ, चमत्कार में उनका यक़ीन था. और वह चमत्कार वास्तव में हुआ.
एक दिन किसी गली के मोड़ पर वे दोनों आपस में मिल गए.

यह तो आश्चर्यजनक है.”  लड़के ने कहा. मैं जीवन भर तुम्हें ढूँढ़ता रहा हूँ. शायद तुम्हें इस बात पर यक़ीन न हो , लेकिन तुम मेरे लिए सौ प्रतिशत सम्पूर्ण लड़की हो.”
और तुम,” लड़की बोली , “ मेरे लिए सौ प्रतिशत सम्पूर्ण लड़के हो. बिल्कुल वैसे जैसी मैंने कल्पना की थी. यह तो किसी सपने जैसा है.”

वे दोनों पार्क की एक बेंच पर साथ-साथ बैठ गए. उन्होंने एक-दूसरे के हाथ अपने हाथों में लिए और घंटों तक एक-दूसरे को अपने बारे में बताते रहे. अब वे दोनों बिल्कुल अकेलापन महसूस नहीं कर रहे थे. उन्हें एक-दूसरे को चाहने वाले सौ प्रतिशत सम्पूर्ण व्यक्ति द्वारा पा लिया गया था. यह कितनी बढ़िया चीज़ होती है जब आपको चाहने वाला कोई सौ प्रतिशत सम्पूर्ण व्यक्ति आपको पा ले या आप उसे पा लें. यह एक चमत्कार होता है , एक ब्रह्मांडीय चमत्कार.
हालाँकि साथ बैठ कर आपस में बातें करते हुए उनके हृदय में संदेह का एक बीज उग आया- क्या किसी के सपनों का इतनी आसानी से सच हो जाना सही होता है ?

इसलिए, जब उनकी बातचीत के बीच में एक लघु विराम आया तो लड़के ने लड़की से कहा,
चलो , आपस में एक-दूसरे की परीक्षा लेते हैं- केवल एक बार. यदि हम दोनों वाक़ई एक-दूसरे के लिए सौ प्रतिशत बने हैं तो कभी-न-कभी, कहीं-न-कहीं हम दोनों ज़रूर एक-दूसरे से दोबारा मिलेंगे. और जब ऐसा होगा और हम जान जाएँगे कि हम दोनों सौ प्रतिशत एक-दूसरे के लिए ही बने हैं , तब हम उसी समय और उसी जगह एक-दूसरे से ब्याह कर लेंगे. तुम क्या कहती हो ?
हाँ , “ लड़की बोली , “ हमें बिल्कुल यही करना चाहिए.
इसलिए वे दोनों अलग हो गए. लड़की पूर्व दिशा की ओर चली गई और लड़का पश्चिम की ओर.


हालाँकि, वे जिस परीक्षा के लिए सहमत हुए थे, उसकी कोई ज़रूरत नहीं थी. उन्हें ऐसी परीक्षा की बात कभी नहीं करनी चाहिए थी क्योंकि वे दोनों वास्तव में एक-दूसरे के सौ प्रतिशत सम्पूर्ण प्रेमी-प्रेमिका थे. यह एक चमत्कार ही था कि वे दोनों मिल पाए थे. लेकिन उनके लिए यह जान पाना असम्भव था क्योंकि वे अभी युवा और अनुभवहीन थे. भाग्य की क्रूर, उपेक्षा करने वाली लहरों ने उन्हें बिना किसी दया के इधर-उधर उछाल फेंका.

एक बार सर्दियों के भयावह मौसम में लड़का और लड़की, दोनों ही इन्फ़्लुएंज़ा का शिकार हो गए. हफ़्तों तक वे मृत्यु से जूझते रहे जिसके कारण उन्हें स्मृति-लोप हो गया. वे सारी पुरानी बातें भूल गए. जब वे दोनों दोबारा ठीक हुए तब तक उनकी स्मृति का कोष इतना ख़ाली हो गया जितनी बचपन में डी.एच.लारेंस की गुल्लक ख़ाली हुआ करती थी.

हालाँकि वे दोनों दो बुद्धिमान और दृढ़ व्यक्ति थे और अपने सतत प्रयास से उन्होंने एक बार फिर वे संवेदनाएँ और जानकारियाँ हासिल कर लीं जो उनके समाज के सम्पूर्ण सदस्य बनने की राह में मददगार साबित हुए. ईश्वर का लाख-लाख शुक्र है कि वे दोनों वाक़ई नैतिक रूप से प्रशंसनीय नागरिक बन गए. वे जान गए कि कैसे एक मेट्रो रेलगाड़ी से उतर कर दूसरी मेट्रो रेलगाड़ी पकड़नी है और कैसे डाकघर में जा कर किसी को स्पीड-पोस्ट भेजनी है. वाकई , उन्होंने कभी-कभी पचहत्तर प्रतिशत या पचासी प्रतिशत तक दोबारा प्यार को भी महसूस किया.
समय हैरान कर देने वाली तेज़ी के साथ गुज़रता रहा और जल्दी ही लड़का बत्तीस वर्ष का हो गया और लड़की तीस वर्ष की हो गई.

अप्रैल की एक ख़ुशगवार सुबह एक कप कॉफ़ी की तलाश में लड़का पश्चिम से पूर्व की ओर चला जा रहा था जबकि लड़की एक स्पीड-पोस्ट करने के लिए पूर्व से पश्चिम की ओर जा रही थी. वे दोनों टोक्यो के हराजूकू इलाक़े की उसी गली में चलते चले जा रहे थे. उस लम्बी गली के बीच में वे एक-दूसरे की बग़ल से गुज़रे. उनकी लुप्त हो गई स्मृतियों की नाम-मात्र की चमक कुछ पलों के लिए उनके ज़हन में कौंधी. दोनों के हृदय में कुछ हलचल हुई. और वे जान गए :

यह मेरे लिए सौ प्रतिशत सम्पूर्ण लड़की है. 
यह मेरे लिए सौ प्रतिशत सम्पूर्ण लड़का है.

किंतु उनकी स्मृतियों की चमक बेहद क्षीण थी और उसमें चौदह साल पहले वाली स्पष्टत अब नहीं थी. बिना एक भी शब्द बोले वे एक-दूसरे की बग़ल से गुज़रे और हमेशा के लिए भीड़ में खो गए.
एक उदास कथा, आपको नहीं लगता ?
हाँ. बिल्कुल यही. मुझे उस लड़की से यही कहना चाहिए था.

(हारुकी मुराकामी की एक कहानी सातवां आदमी यहाँ और पढ़ें.)
____________________

सुशांत सुप्रिय
कथाकार, कवि, अनुवादक
A-5001,  गौड़ ग्रीन सिटी,   वैभव खंडइंदिरापुरम,
ग़ाज़ियाबाद - 201010 
8512070086/ई-मेल : sushant1968@gmail.com

सबद - भेद : महादेवी वर्मा और आलोचना का मर्दवादी जाल : श्रीधरम

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हिंदी साहित्य में मीरा के पश्चात लम्बे अंतराल के बाद एक स्त्री अपनी प्रखर चेतना के साथ उपस्थित होती है, उस लेखिका का नाम है महादेवी वर्मा (२६ मार्च १९०७११ सितंबर १९८७) आज हिंदी की इस कालजयी कवयित्री का जन्म दिन है.

उपपनिवेश के ख़िलाफ भारतीयों का संघर्ष आंतरिक घेरेबंदी के खिलाफ भी आत्मसंघर्ष है और अस्मिताओं के उदय का भी यह काल है. ऐसे में महादेवी एक गुलाम, मर्दवादी समाज में स्त्री की स्थिति को देखती हैं, उसे रचती हैं और उससे बाहर निकलने के रास्तों की भी तलाश करती हैं. उनका गद्य उन्हें एक स्त्रीवादी लेखिका सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है.

उनकी कविताओं में यही चेतना है पर चूँकि वह छायावादी मुहावरे में अभिव्यक्त हुई है इसलिए आलोचकों ने उन्हें रहस्यवादी, वेदना और और विरह आदि की कवयित्री कह उनकी धार को कुंद कर दिया है. उनकी कविताओं में ‘नीर भरी दुःख की बदली’ है भी तो इसलिए कि उन्हें इस विडम्बना का तीखा एहसास है कि इस ‘विस्तृत नभ का कोई कोना कभी न अपना होगा’. श्रृंखला की कड़ियाँ अभी भी स्त्री के पैरों में हैं.  

अध्येता श्रीधरम ने अपने इस लेख में आलोचकों के महादेवी वर्मा के प्रति इसी मर्दवादी रवैये की पड़ताल की है. आइये देखते हैं कि किस तरह आग को पानी बना दिया जाता है.


महादेवी वर्मा और आलोचना का मर्दवादी जाल                   
श्रीधरम

सबद - भेद : हिंदी कविता और तिब्बत : बंदना झा

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"मैं थक गया हूँ
थक गया हूँ सड़क किनारे स्वेटर बेचता हुआ
चालीस सालों से बैठे-बैठे
धूल और थूक के बीच इन्तज़ार करता"





हिंदी कविता और तिब्बत : बंदना झा          













1980 के दशक में ‘तिब्बत’नामक कविता को भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार प्रदान किया गया. लेखक थे उदय प्रकाश. विस्थापन की पीड़ा का दंश पहली बार तिब्बती सन्दर्भ में दिखाई पड़ा. पूरी कविता अस्फूट है मन ही मन रोती हुई. एक ध्वनि है जो हवा में तारी है बेघर होने और बेवतनी होने का दर्द. सरल सी दिखने वाली कविता में कई सवाल है. बच्चा अपने पिता से सवाल करता है. प्रश्न-दर-प्रश्न पूछता जाता है –
गेंदे के एक फूल में
कितने फूल होते हैं  ‘पापा’?
दूसरा प्रश्न बच्चा करता है
“तिब्बत में बरसात जब होती है तब हम किस मौसम मे होते हैं ?

तिब्बत की बरसात और यहाँ के मौसम के मध्य तारतम्यता की खोज वस्तुतः तिब्बत की खोज है. उस देश को समझना जिसे उसने देखा नहीं है लेकिन वह उसका है. बच्चा जहां है वहाँ अनुभूत कर लेना चाहता है तिब्बत के मौसम को, अपने नथुने मे भर लेना चाहता है बारिश की गंध को जो उसके देश में होती होगी. प्रश्नाकुलता लगातार बढ़ती जाती है साथ ही गहन भी होती जाती है. वह पूछता है तिब्बत में जब तीन बजते है. तब हम किस समय में होते है ? वह उस समय को जीना चाहता है जिसमें तिब्बत होता है. मौसम और समय के मध्य अपने देश तिब्बत की खोज वस्तुतः हर उस तिब्बती की खोज है जो निर्वासन का दंश झेलते हुए यहाँ-वहाँ भटक रहे हैं. शरणार्थी जीवन की पीड़ा एकबारगी घनीभूत हो उठती है जब बच्चा गेंदे के फूल देखकर पूछ बैठता है –
तिब्बत में गेंदे के फूल होते है क्या पापा ?

‘गेंदे का फूल’ एक प्रतीक है जिसका पीलापन उर्जा और रुग्णता दोनों का परिचायक बन जाता है. बच्चा पुनः प्रश्न कर बैठता है –
“लामा शंख बजाते हैं पापा” ?

शंख भारतीय प्रतीक है. शंख वह होगा जहा समुन्द्र है. तिब्बत में पठार है. शंख भारतीय प्रतीक है. हिन्दू उत्सव में, उद्घोष में, पूजा में शंख घोष करते है. भारत के हिन्दू परंपरा से बच्चा परिचित है बौद्ध जीवन में लामा के प्रति यह प्रश्न सांस्कृतिक सेतु का बन जाता है जहाँ बच्चा बस सहजता से जानना चाहता है क्या लामा शंख बजाते हैं पापा ? गेंदे के फूल से शुरू हुआ प्रश्न बरसात, मौसम, समय से होते हुए शंख पर आ जाता है. फिर, प्रश्न उठता है की लामाओं को कम्बल ओढ़कर अँधेरे में तेज़ – तेज़ चलते हुए देखा है कभी ? यहाँ प्रश्न और गहरा हो जाता है, कम्बल ओढ़कर अँधेरे में तेज़-तेज़ चलने की आवश्यकता क्यों है ?

निर्वासित जीवन जीते हुए मृत्यु को सार्वजनिक करना शायद ठीक नहीं. बचे हुए में से किसी का चला जाना अस्तित्व का खतरा भी है. सांस्कृतिक पहचान बचाए रखने की जद्दोजहद के मध्य किसी अपने का जाना तिब्बत के टुकड़े का जाना है. इसलिए वे मन्त्र नहीं पड़ते. कविता में कवि कहता है, वे फुसफुसाते है तिब्बत–तिब्बत. तिब्बत की आवृति तेरह बार कवि ने की है. रुदन में शब्द आवृति कई–कई बार होती है. दुःख एक ही शब्द में हज़ार बार लौट कर आ जाता है. रोते रहते है रात–रात भर यह रोना कई–कई  रातों का है– अपने देश के लिए, उस समय के लिए जिसमे उन्हें जीना था– मणिपद्म के लिए रोना. अंत में, वह बच्चा जब प्रश्न करता है,

“क्या लामा हमारी तरह ही रोते है पापा ? तो इस पंक्ति में बच्चा और लामा का संतरण एक दूसरे में हो जाता है. बच्चे की रुलाई लामा की रुलाई में मिलकर हमें आद्र कर जाती है. लामा रोते नहीँ. उन्हें कमजोर क्यों देखा जाय लेकिन तिब्बत–तिब्बत की फुसफुसाहट में उस नमी से इनकार नहीं किया जा सकता.                                                                                                                                    
कविता के प्रदेश में भी तिब्बत नहीं है. कवि, कथाकार ताकतवर व बड़ी चीजों,  सिद्दांतो के वर्णन मे मशगूल हैं. एशिया का यह पठार सामरिक दृष्टि से आँका जाता है वरना इसकी चिंता भी भुला दी जाती. भारत में बिखरे शालीनता की चादर ओढ़े ये आक्रोशित भी नहीं हो पाते. कविता के उर्वर प्रदेश में यदा-कदा दूब की तरह उगे तिब्बत बड़े - बड़े वृक्षों के तले दब जाता है.                          
                      

लगभग 27 सालो बाद कविवर विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ‘तिब्बत’ शीर्षक के साथ दिखाई देते हैं. वहाँ तिब्बत जड़ हो चुका प्रतीक है जहाँ  सूरज की किरणे भी अब नहीं घुसती और न बहार कोई ध्वनि सुनाई पड़ती. दमन और उपेक्षा इस तरह हावी है कि मीडिया में भी उसका कोई बिम्ब नहीं उभरता, कवि कहता है जो कभी छत था आज वह तहखाना बन चुका है, पशु बोलता नहीं सबसे अधिक झेलता है. याक जो बस लकड़ियाँ लादता, पहाड़ी ढ़लान पर प्यास से हलकान हुए चढ़ता-उतरता है, उसके साथ यदि कोई है तो वह गाँव की बंजारन है जो अज्ञात सैनिको के गर्भ पाल रही है. युद्ध और घृणा के ज्वार का खामियाजा सर्वाधिक स्त्रियाँ ही ढ़ोती है. ऐसे देश में जिसपर दूसरे राष्ट्र का कब्ज़ा हो और जिसे आमूल चूल नष्ट करने हेतु किसी सभ्यता के गर्भ पर हमला किया गया होगा तो वह तिब्बत और वहाँ  की महिलाएँ हैं. नस्ल को ही समाप्त करने की कोशिश सैनिक बूटो का कमाल है– इसलिए स्मृति गंवा चुकी बंजारन है. अतीत का राग, देशराग न बन जाए इसलिए स्मृति पर कील  ठोंकना शत्रु राष्ट्र का प्रथम कर्तव्य बन जाता है. परंतु युवा ‘आत्मदाह’ कर रहे हैं. निर्वासन झेलते वृद्ध पताकाओं पर प्रार्थना लिखते है. इसलिए कवि कहता है, ‘ल्हासा जेल के पार कैलाश मानसर नहीं पहुचती हवाएँ. जेल में कैदियों की भीड़ कैलाश मानसर की हवा रोके हुए है. वहाँ  बुद्ध भी बंधन में हैं और अहिंसा निर्वासित जीवन जी रही अर्थात हिंसा का तांडव चल रहा है.

कवि तिब्बत के सौंदर्य को ‘तोग्देन’ के हवाले कर देता है, क्योंकि टुकड़ों-टुकड़ों में बाँटा गया तिब्बत अब अपना अंतिम संस्कार करने के लिए बचा है. लेकिन कवि को गोल –गोल चमकती आँखों मे अथाह जिज्ञासा लिए पीठ पर मासूम दिख जाता है. कवि की आशा चमकती आँखों में समा जाती है. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ‘तिब्बत’ कविता में भुला दिए गए तिब्बत को देखते है. निर्वासन, बेगानापन, पीड़ा, दुख का समन्वित रूप ‘तिब्बत’ है जो अरसे बाद कवि की चिंता का सबब बना है. भारत का पड़ोसी देश होते हुए भी सृजनात्मक/रचनात्मक स्तर पर तिब्बत चिंतन के केंद्र बिंदु में विशेष रूप से कविता के केन्द्र में कम ही रहा बल्कि न के बराबर ही रहा. कथा–साहित्य विशेषकर उपन्यास में नीरजा माघव ने ‘गेशे जम्पा’ और ‘देनपा’लिखकर सामाजिक सांस्कृतिक विरासत को लाने का प्रयास तो किया लेकिन कविता में न के बराबर रहा.

तिब्बत की यह पीड़ा अनामिकाकी कविता ‘दलाईलामा’में भी उभर कर सामने आती है. कविता तिब्बती भाषा की बात करते हुए तिब्बती बच्चे, उनकी माँओं की बात करती है. अंग्रेजी की सर्वग्रासी शक्ति के सामने तिब्बती भाषा को बचाने उसे कमजोर न पड़ने देने की कोशिश दुभाषिये की है जो दलाईलामा के भाषण का अनुवाद कर रहा है. तिब्बती भाषा की तितली मनोहर और रंग–बिरंगी तो है लेकिन कोमल है. भाषा की तितली का बच्चों के कानों पर बैठना एक रूपक है जो भाषा के संकट की ओर संकेत करता है साथ ही माँ के चमकीले परिधानों पर भी वह तितली बैठती है. माँ शादी के जोड़े की तरह तिब्बती भाषा को बचाए रखना चाहती है. मातृभाषा यदि बच सकती है या उसे बचाने वाला कोई है तो वह बस माँ है. कवयित्री तिब्बती भाषा की चमक की बात करते सीधे एक बिम्ब खड़ा कर देती है तिब्बत का – बूढ़ी आँखों में उम्मीद की एक टिमक जितनी ! तिब्बत की आज़ादी की टिमटिमाहट.

“दुभाषिया बहुत गम्भीर था.
उसको हँसने की फुर्सत ही नहीं थी !
अंग्रेजी के जाल में सावधानी से
पकड़ रहा था तिब्बती भाषा की तितलियाँ
जो लामा के फूल जैसे होठों से उड़ती–उड़ती
कभी उनकी माँओ के चमकीले परिधानों पर –
जो उनकी शादी  के जोड़े थे शायद !

अनामिका रचित ‘दलाईलामा’ का विन्यास तितली की तरह है. वह इस फूल से उस फूल मकरंद लेना जानती है. कविता तुरंत दलाईलामा द्वारा समझाए जा रहे चार आर्य सत्य की बात करते हुए बचपन में बायीं बाँह पर पड़े चेचक के टीके की बात करने लगती है. एक ओर ज्ञान है दूसरी तरफ यथार्थ का टीका है उन्हें इसी युग का होने की ओर संकेत करता है.

अनामिका दलाईलामा में, उनके प्रवचन में बचपन को ढूंढ़ रही है, बचपन की उन हरकतों को जिन्हें दलाईलामा ने किया होगा. पुनः वह बिफर उठती हैं तिब्बत को सोचते हुए कि हम तिब्बत की सच्चाई को दरकिनार करते हुए किस तिब्बत को देख रहें हैं जो फटेहाल है. जिसे हम दलाईलामा, राहुल संकृत्यायन, रेनपोचे, मोनेस्ट्री, चाऊमीन, सस्ते स्वेटर–चप्पल, चीन, बर्फ़, वफादार कुत्ते तक में समेत कर देखते हैं. तिब्बत के बहने प्रेम और नफ़रत को कवयित्री देखती है और तिब्बत के सत्य को ढूंढ़ना चाहती हैं. दुनिया के मानचित्र पर तिब्बत के खोते वजूद और उसे दुनिया के किसी कोने में जीवित रख सकने की जद्दोजहद इस कविता में देख सकते हैं.   

समकालीन कविता में तिब्बती कविताएं हस्तक्षेप करती हैं. तेनजिन त्सुंदे ऐसे  ही तिब्बती युवक हैं जो हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में रहते हैं और तिब्बती भाषा में कविता लिखते हैं. उनकी कविता का अनुवाद अशोक पांडेने किया है. निर्वासन की पीड़ा झेल रहे तेनजिन की कविता हिन्दी में अनुवाद के माध्यम से जब आई तो एक अलग तरह की बेचैनी हिंदी जगत में आई. उनके माता-पिता भारत में तिब्बत के निर्वासित जन हैं. तेनजिन का जन्म भले ही भारत में हुआ हो लेकिन उनकी चेतना में तिब्बत की स्वतंत्रता है. तिब्बत की स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत कार्यकर्ता के रूप में उनकी कविता को देखा जा सकता है. अस्मिता की तलाश, पहचान का संकट, भाषा, संस्कृति के बचाने के बरक्स दुःख मिश्रित चिंता का भाव भी उनकी कविता में देखा जा सकता है. उनकी कविता में निर्वासन से उपजा अवसाद दिखाई देता है. उनकी कविता के बिंब आश्चर्यचकित कर देने वाले हैं.

‘‘जब धर्मशाला में बारिश होती है,’’ कविता में बारिश की बूदों के बरसने को वे मुक्केबाजी के दस्ताने पहने बूँदे हैं तब उनकी मार को महसूस किया जा सकता है. वे कहते हैं, ‘‘टिन की छत के नीचे भीतर मेरा कमरा रोया करता है, बिस्तर और कागजों को गीला करते हुये. भारत में निर्वासन के दंश झेल रहे तिब्बती के दुःख को इस पंक्ति के माध्यम से समझा जा सकता है-

मैं बैठा होता हूँ अपने द्विपदेश बिस्तर पर-
और देखा करता हूँ अपने मूल्क को बाढ़ में
आज़ादी पर लिखे नोट्स
जेल के मेरे दिनों की यादें,
कॉलेज के दोस्तों के ख़त,
डबलरोटी के टुकड़े
और मैगी, नूडल
भरपूर ताकत से उभर आते हैं इस सतह पर
जैसे कोई भूली याद
अचानक फिर से मिल जाए.

कविता यहीं समाप्त नहीं होती. वह टीन के घर में रहते हुए  कश्मीरी मकान मालिकन को याद करता है जो अपने देश नहीं लौट सकती- ‘‘हमारे दरम्यान अक्सर खूबसूरती के लिए प्रतिस्पर्धा होती है- कश्मीर या तिब्बत.”

लेकिन उम्मीद की किरण बाकी है, वह कहते हैं-
बहुत रो चुका मैं
कैदखानों में
और अवसाद के पलों में.

यहाँ से निकलने का रास्ता ज़रूर होना चाहिए. दूसरी कविता आतंकवाद में यही जिजीविषादिखाई देती है- मैं जीवन हूँ, जिसे तुम छोड़ आए थे पीछे दंगाकविता में तेनजिन आक्राशित हो उठते हैं अपने अनुयायी बौद्ध होने पर क्योंकि उनके पिता की मृत्यु अपने देश को बचाने की ख़ातिर लड़ते हुए हुई है. लेकिन शांतिप्रिय होने का बोध उन्हें परेशान करता है- लेकिन कभी-कभी मुझे लगता है मैंने दगा दिया अपने पिता को. तेनजिन, तिब्बत के वह युवा हैं जो निर्वासित जीवन नहीं जीना चाहता. वह या तो तिब्बती होना चाहता है या फिर भारतीय लेकिन, दोनों में से उसे कुछ भी नसीब नहीं.

अपनी कविता में वह कहता है 

‘‘मैं थक गया हूँ, थक गया हूँ सड़क किनारे स्वेटर बेचता हुआ. चालीस सालों से बैठे–बैठे, धूल और थूक के बीच इन्तज़ार करता.’’
इसी पंक्ति में वे आगे कहते हैं- 

मैं थक गया हूँ मजनू के टीले की धूल में
घसीटता हुआ अपनी धोती.”

तेनजिन की यह पंक्ति भारत में रह रहे तिब्बती शरणार्थियों की उपस्थिति एवं स्थिति को बताता है जिसे हम शाल- स्वेटर बेचते हुए मोमो-नूडल्स बनाते तथा चाइनीज रेस्टुरेंट में काम करते हुए देखते हैं. आक्रोशित होते हुए, स्वयं की छवि को बचाकर प्रक्रिया करना कि उन्हें बुरा न समझा जाय- कुल मिलाकर एक सीमित दायरे में उनके जीवन को देखा जा सकता है. उनकी कविता तिब्बती के संघर्ष की गाथा है. एक व्यथा है, हम यहाँ शरणार्थी हैं. खो चुके एक देश के लोग/किसी भी दंश के नागरिक नहीं. हर वर्ष एक पीड़ा से गुजरना भारत में जन्मा एक शरणार्थीको हर साल अपने रजिस्ट्रेशन सर्टिफिकेट के लिये दौड़ना  कितना बेचैन करने वाला है.

एक दुःख है जो हृदय को मथता है ‘‘नेपाली? थाई? जापानी?, चीन? नागा? मुनिपुरी?’’ कोई नहीं पूछता, तिब्बती-?’’ मातृभूमि जिसके किस्से, जहाँ रहने का सपना हर नागरिक का सपना है वह भी नसीब नहीं. 50वर्षों से निर्वासन झेल रहे तिब्बत के युवा की इच्छा है-
‘‘मैं तिब्बती हूँ. अलबत्ता से नहीं आया. कभी गया भी नहीं वहाँ. तो भी सपना देखता हूँ वहाँ मरने का. महानगरों में बसे तिब्बती की जीवन शैली को तेनजिन ने बेहद यथार्थपरक तरीके से उकेरा है.

मुम्बई में एक तिब्बतीकविता में वह कहता है वह चाइनीज ढाबे में रसोइये का काम करता है, परेल ब्रिज में स्वेटर बेचता है लेकिन उसे बीजिंग से आया भगौड़ा या नेपाली बहादुर समझा जाता है लेकिन तिब्बती होने के बारे में कोई नहीं पूछता, मुम्बईपन को तिब्बतियों ने अपना लिया है क्योंकि वह बम्बईया हिन्दी में भी गाली देने लगा है लेकिन शब्द का विस्तार तो अपनी ही भाषा में हो सकता है. ऐसे में उसकी भाषिक क्षमता चूक जाती है और ऐसे मौके पर पारसी हँसने लगते हैं. तिब्बती युवा का मुम्बईया हिन्दी से चूक जाना और पारसी का हँसना गहरी संपृक्ति रखते हैं पारसी समाज भी सांस्कृतिक पहचान बचाए रख सकने के लिए संकट से जूझ रहे हैं .

एक संकट दूसरे पर तारी होता है और हँसी फूट पड़ती है. वाकई में यह हँसी, हँसी नहीं अवसाद है. मिड-डेअखबार पढ़ना एफ.एम. रेडियो सुनना उसका शगल  है लेकिन कैसे करे यह उम्मीद. लोगों का उसपर कटाक्ष करना चिंग-चैंग-पिंग-पौंगउसे नहीं सुहाता. तेनजिन कविता का अंत गहरे दुःख से करता है-

मुम्बई में एक तिब्बती, अब थक चुका है. उसे थोड़ी नींद चाहिए और एक सपना.’

निर्वासन का घर कविता में तेनजिन अपनी गृह संपदा को याद करते हुए पूछता है कि

बाड़े अब दल चुकी हैं, जंगल में
अब मैं कैसे बताऊँ अपने बच्चों को
कि कहाँ से आये थे हम?

एक व्यक्तिगत टोहकविता में कवि छिपते-छिपाते अपने देश के टीले पर पहुँचता है- वह अपने नासारंध्रों में उस मिट्टी की महक को बसा लेना चाहता है. वह कहता है,

‘‘मैंने मिट्टी की सूंघा
ज़मीन को कुरेदा
सूखी हवा को सुना
और सुना बूढ़े जंगली सरसों को”-

वह स्वयं को उस मिट्टी में खो देना चाहता है लेकिन उसे कुछ भी यहाँ और वहाँ फर्क महसूस नहीं होता.

तेनजिन आउटलूक पीकेडर अवार्ड 2001 से सम्मानित कवि हैं. उन्होंने तीन पुस्तके लिखी हैं जिनमें एक कोरा उनका काव्य संग्रह है. आज भी भारत में उनका कोई स्थायी निवास नहीं है. अन्तहीन यात्रा, निर्वासन, अवसाद, तिब्बतीपन के खोने का भय उनकी कविता में दिखायी देता है. कविता की भाषा में सक्रिय कार्यकर्ता का रूप दिखाई देता है इसलिए कविता में शिल्प की खोज बेमानी है. यथार्थ की पकड़ और तीव्रता पाठक पर असर करती है. पेट्रो की बाँसुरीकविता में बाँसुरी का रूपक तिब्बती शरणार्थी के वजूद को बताता है. निर्वासन में जी रहे लोगों की अवाज है उस बाँसुरी में. पेट्रो से जब सवाल पूछा जाता है क्या है तुम्हारी बाँसुरी में - तब उस बाँसुरी की निकली कराह सब ओर सुनाई देती है जब एक सोलह साल की युवा लड़की माँ बन जाती है, जिसकी जगह अब शौचालय के पीछे है. वह बच्चा है जो पुलिस स्टेशन में राह देखते सो गया है, बाँसुरी की आवाज जो चुभती है कानों में लेकिन सुनी नहीं जाती. कवि कहता है – पेद्रो, निर्वासन के दौरान उसकी आवाज़ को महसूस कर सकता है. निर्वासन के अहसास को उसके संघर्ष को तेनजिन त्सुंदे के कविता व्यंजित करती है. हिंदी प्रदेश में अनुवाद के माध्यम से यह आवाज देर से ही सही लेकिन सुनाई देती है . कविता को स्नेह मिलेगा संघर्ष से मुक्ति के लिए, नई हवा में साँस लेने के लिए.
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मेघ-दूत : चु चछिंग - पिताजी की पार्श्व-छवि : पंकज मोहन

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पिता-पुत्र के रिश्तों पर, उनके बीच के प्रेम और अहम् पर हर भाषा में लिखा गया है. पिता, पुत्र में अपना बेहतर होता हुआ देखना चाहता है, वह अपने पीछे एक बेहतर पिता छोड़ जाना चाहता है. पुत्र जब पिता बन जाता है तब वह अपने पिता को समझ पाता है.

पिता-पुत्र की इसी आत्मीयता पर चीनी भाषा में ‘चु चछिंग’ का एक संस्मरण (निबन्ध) है, ‘पिताजी की पार्श्व-छवि’ जिसका अनुवाद हिंदी में पंकज मोहन ने किया है. इसे पढ़ते हुए अगर आपको अपने पिता की बरबस याद आ जाए तो कोई आश्चर्य नहीं.







चु चछिंग

पिताजी की पार्श्व-छवि                        

अनुवाद : पंकज मोहन





आधुनिक चीन के महान कवि  और ललित निबंध लेखक  चु चछिंग (1898-1948)  ने १९२० में  पेकिंग (बीजिंग) विश्वविद्यालय के चीनी साहित्य विभाग से स्नातक की उपाधि प्राप्त की और तदुपरांत उन्होंने  शांघाई, हांगचौ, निंगबो आदि शहरों में स्कूल शिक्षक का जीवन बिताया. १९२५ में उन्होंने बीजिंग-स्थित छिंगह्वा विश्वविद्यालय के चीनी साहित्य विभाग के प्राध्यापक का पदभार ग्रहण किया. १९३१-३२ में उन्होंने लंदन विश्वविद्यालय में अंग्रेजी साहित्य और भाषा विज्ञान का अध्ययन किया. जीवन के अंतिम क्षण तक उन्होंने चीन  के प्रगतिकामी बौद्धिक समाज के मेरुदंड की भूमिका निभायी. "पिताजी की पार्श्व-छवि"नामक लेख १९२८ में प्रकाशित चु चछिंग के निबंध संग्रह में संकलित है.





पिताजी से मिले दो साल हो गए. मेरे मन में उनकी जो छवि अभी भी तरोताजा है, वह है दूर सड़क पर धीरे-धीरे धुंधली और फिर आँखों से ओझल होती हुयी उनकी पार्श्व छवि.


जाड़े का दिन था. मैं उस समय बीजिंग में था, और पिताजी चीन के शुचौ शहर में थे. मुझे समाचार मिला की दादाजी गुजर गए. और करीब उसी वक्त पिताजी भी अपनी एक अस्थायी सरकारी नौकरी से हाथ धो बैठे. सच ही कहा गया है 'संघचारिणो अनर्था:', अर्थात विपत्ति कभी अकेली नहीं आती, आपदा, विपदा, त्रासदा आदि सखी-सहेलियों को भी साथ ले आती है.दादाजी की मृत्यु और पिताजी की नौकरी छूटने के समाचार को सुनते ही मैं शुचौ के लिए रवाना हुआ. वहां से पिताजी को साथ लेकर गाँव जाने की योजना थी. गाँव में हमलोगों को दादाजी का श्राद्ध जो करना था.


शुचौ पहुँचने पर पिताजी के सरकारी फ्लैट में गया. पिताजी के फ्लैट के अहाते में पहले रंग-रंगीले फूल और हरी सब्जियां मुस्कराती थीं, अब वहां घास-मोथे और बियावान के सन्नाटे के सिवा कुछ नहीं था. पिताजी को देखते ही मुझे दादाजी की याद आ गयी, और मेरी आँखों से आंसू की बूँदें टप-टप ढुलकने लगीं. पिताजी ने कहा, "मन छोटा मत करो. तकलीफ का वक्त है, गम की अंधेरी रात हैं. लेकिन रात ही तो है. सबेरा तो होगा ही.”


घर पंहुंचते ही पिताजी ने घर के कीमती सामानों को संदूक से निकालना शुरू किया-- कुछ सामानों को बेच दिया और कुछ को गिरवी पर रख दिया. परिवार का कर्ज तो इस तरह चुक गया, लेकिन दादाजी के श्राध-संस्कार के लिए उन्हें पैसे उधार लेने पड़े. उस समय पिताजी की बेकारी और श्राद्ध के खर्च के कारण हमारे परिवार की स्थिति सचमुच दयनीय थी. श्राद्ध समाप्त होने पर पिताजी काम खोजने नानजिंग शहर के लिए प्रस्थान हुए, और चूकि मैं भी उस समय पेकिंग यूनिवर्सिटी का छात्र था, बीजिंग की गाड़ी पकड़ने के लिए नानजिंग तक जाना था. मैं भी साथ हो लिया.


नानजिंग के एक संबंधी ने आग्रह किया कि मैं उनके घर एक दिन रूककर वहां के दर्शनीय स्थानों को देखूं और आगे बढूँ. दूसरे दिन दोपहर के समय हमलोग नाव से यांग-च नदी पार कर फुकौ शहर पंहुचे. बीजिंग जाने वाली गाड़ी फुकौ स्टेशन से खुलती थी. पिताजी काम के बोझ से दबे हुए थे और स्टेशन जाकर मुझे छोड़ने और गाड़ी में बैठाने के लिए उनके पास समय नहीं था. स्थानीय होटल का एक कर्मचारी उनके जान-पहचान का आदमी था. उससे उन्होंने अनुरोध किया कि वह मुझे स्टेशन तक पंहुचा दे. उन्होंने उस कर्मचारी को बार-बार हिदायत दी कि वह मुझे बहुत सावधानी से ट्रेन में बैठा दे. फिर भी उनकी चिंता दूर नहीं हुई, और मन के किसी कोने में यह शंका बनी रही कि उस कर्मचारी का भरोसा नहीं, वह उतनी मुस्तैदी से उनके आदेश का पालन नहीं कर पायेगा. कुछ समय तक तो वे दुबिधा में रहे , क्या करें क्या न करें, और अंत में उन्होंने मेरे साथ चलकर खुद मुझे स्टेशन तक छोड़ने का निर्णय लिया. मैं उनसे दो-तीन बार कहा कि उनके पास बहुत-सारे काम हैं, स्टेशन तक आकर सी-ऑफ करने की जरूरत नहीं है. लेकिन वे नहीं माने. उन्होंने कहा, तुम्हे उस आदमी के हाथ सौंपकर मैं चला जाउंगा, तो मन में चिंता बनी रहेगी.
(Father and Son by Xie Dongming )


नदी को पारकर हम हम स्टेशन पंहुंचे. मैंने टिकट खरीदा और पिताजी सफ़र में सामान की हिफाजत के बारे में सोचने लगे. उन्होंने एक कुली को बुलाया और उससे मोल-मोल्हाई करने लगे. उस समय मैं सोचता था कि पिताजी की देहाती बोली को सुनकर कुली उन्हें ठग लेगा.. मैं शहर में रह चुका हूँ और मुझसे ज्यादा तेज-तर्रार आदमी कौन है? मुझे खीज हुई कि वे क्यों बीच में पड़ते हैं? खैर, बहुत हील-हुज्जत के बाद कुली का भाड़ा तय हुआ, गाड़ी प्लेटफोर्म पर खड़ी थी. वे मेरे साथ गाड़ी तक आये, और आते ही उन्होंने मेरे लिए एक जगह ढूंढ ली. मैंने उस सीट पर अपना कोट डालकर उसे अपने लिए "आरक्षित"कर लिया. उस कोट को पिताजी ने मेरे लिए बनवाया था.


पिताजी ने मुझे हिदायत दी, सफ़र में हमेशा सावधान रहना चाहिए, खासकर रात में और भी सतर्क रहने की जरूरत है. उन्होंने यहाँ तक कि मेरे कम्पार्टमेंट के Attendant से भी आग्रह किया कि सफ़र में वह मेरा ख्याल रखे. मै मन ही मन सोच रहा था कि पिताजी क्या बकवास कर रहें है. Attendant को तो सिर्फ पैसे बनाने से मतलब है, और वे उससे जाकर मेरा ख्याल रखने का अनुरोध कर रहे हैं. और मैं बच्चा थोड़े ही हूँ.. मेरी उम्र बीस साल की हो गयी,क्या मैं अपना देख-भाल खुद नहीं कर सकता हूँ? लेकिन आज जब उन दिनों की याद आती है तो सोचता हूँ कि उन दिनों मैं अपने आप को कुछ ज्यादा हे चतुर समझता था.


मैंने कहा, बाबूजी, अब आप जाइये. उनकी दृष्टि दूसरे प्लेटफोर्म पर गयी जहां सुन्दर, स्वादिष्ट संतरे बिक रहे थे. उस प्लेटफोर्म पर जाने के लिए हमारी गाड़ीवाले प्लेटफोर्म से उतरकर बीच में बिछी रेलवे की पटरियों को पार करना होता था. और फिर उस प्लेटफोर्म पर चढ़ने के लिए नीचे खड़े होकर प्लेटफोर्म को दोनों हाथों से पकड़ना होता था, और उसके बाद शरीर को ऊपर सरकाना होता था. पिताजी का शरीर भरी-भरकम था, इसलिए उस प्लेटफोर्म पर चढ़ना उनके लिए आसान नहीं था. मैं खुद जाना चाहता था, लेकिन उन्होंने मेरी एक नहीं मानी. मैं गाड़ी की खिड़की से उन्हें देखता रहा. वे काली मिरजई पहने थे, और उनके सर पर भी काली टोपी थी. 


वे किसी तरह हमारी गाड़ीवाले प्लेटफोर्म से उतरकर पटरी को हौले हौले पार कर आगे बढ़ गए, लेकिन दूसरा प्लेटफोर्म थोड़ा ऊंचा था, और उसपर चढ़ना उनके लिए भारी पड़ रहा था. उन्होंने दोनों हाथों को प्लेटफोर्म के किनारे को मजबूती से पकड़ा, और फिर उन्होंने अपना पैर ऊपर उठाया, और अपने मोटे देह को प्लेटफोर्म के ऊपर सरकाने लगे. बहुत श्रम-साध्य काम था. उनकी इस पार्श्व छवि को देखकर मैं अपने आंसू को थाम न पाया. लेकिन इस डर से कि दूसरे यात्री मेरी नम आँखों को देख न लें, मैंने आंसू पोंछ लिए. मैंने फिर दूसरे प्लेटफोर्म पर नजर दौड़ाई. पिताजी हाथ में संतरों से भरी झोली को हाथ में लटकाए मेरी गाड़ी की और लौट रहे थे. उन्होंने झोली को पहले प्लेटफोर्म के नीचे गिरा दिया, फिर एक हाथ को प्लेटफोर्म पर रखा, और अपने शरीर को थोरा तिरछा करते हुए प्लेटफोर्म से लटकते हुए नीचे सरकना शुरू किये. जब वे संतरे देने मेरे प्लेटफोर्म पर वापस आये और ऊपर चढ़ने लगे, मैंने उनका हाथ थाम लिया, और ऊपर उठा लिया.


उन्होंने संतरे की झोली को मेरे सीट पर पड़े कोट के ऊपर रख दिया. उसके बाद अपने कपड़ो॑ के धूल झाड़ने लग गए. अब वे थोड़ा निश्चिन्त-से लग रहे थे. उसके बाद उन्होंने कहा, 'अब मैं जा रहा हूँ, बीजिंग पहुँचते ही चिठ्ठी लिखना',और वे आगे बढ़ गए, और मैं उन्हें देखता रहा. दो-चार कदम ही आगे गए होंगे कि उन्होंने मुझे मुड़कर देखा, और कहा, अब अपनी सीट पर आराम से बैठ जाओ. आज गाड़ी में भीड़ नहीं है. मैं उन्हें तब तक देखता रहा जबतक आने जाने वाले लोंगों की भीड़ में घुल-मिलकर उनकी आकृति अदृश्य नहीं हो गयी, मैं गाड़ी में जाकर अपनी जगह पर बैठ गया, और मेरी ऑंखें फिर डबडबा गयीं.

पिछले दो वर्षों में पिताजी से मिलने का अवसर नहीं मिला, और इस बीच परिवार संकट भी दिनोदिन गहरा ही होता गया. 

अपने जवानी के दिनों से ही पिताजी ने अपने जीवन का मार्ग स्वयं प्रशस्त किया, और अपने कन्धों पर पूरे परिवार का भार उठाया. यौवन में अच्छी-खासी नौकरी भी की.लेकिन 'सब दिन जात न एक समाना'. उन्होंने कल्पना भी न की होगी कि बुढापे में उन्हें इन विपदाओं का सामना करना होगा. आजकल छोटी-छोटी बातों पर भी वे खीज उठते हैं. और मेरे प्रति उनके व्यवहार में भी कुछ फर्क आ गया है. लेकिन वे दो वर्षों से मुझसे नही मिले हैं, 'अवगुण चित्त न धरौं'वाली बात है. मेरा गुण-दोष नहीं देखते-परखते, सिर्फ मुझे और अपने पोते को आँख भर के देखने के लिए लालायित रहते हैं.



मेरे बीजिंग पहुंचने के कुछ दिन बाद ही, उनकी एक चिठ्ठी मिली जिसमे उन्होंने लिखा था "अपनी सेहत के बारे में क्या लिखूं.  तबीयत ठीक-ठाक ही है, लेकिन इन दिनों बांहों में काफी दर्द रहता है, कलम की तो बात मत पूछो, chopstick उठाने में भी तकलीफ होती है, जिन्दगी के खटाड़े को किसी तरह खींच रहा हूँ-- अपने जीवन की अंतिम साँसे ही गिन रहा हूँ." 



मैं इतना ही पढ़ पाया कि आँखों छलछला उठीं, और अश्रु-विगलित आँखों में कौंध गयी और झलकने लगी मेरे पिता की पार्श्व छवि --काली मिर्जई में लैस, सर पर काली टोपी पहने मुझे सी-ऑफ कर वापस कर लौटते हुए पिताजी. न जाने हम दोनो फिर कब मिलेंगे ....

______________
पंकज मोहन
प्रोफेसर और डीनइतिहास  संकाय
नालंदा विश्वविद्यालयराजगीर
pankaj@nalandauniv.edu.in 

सबद - भेद : हिंदी कविता और तिब्बत : बंदना झा

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      "मैं थक गया हूँ
थक गया हूँ सड़क किनारे स्वेटर बेचता हुआ
चालीस सालों से बैठे-बैठे धूल और थूक के बीच इन्तज़ार करता"

हिंदी कविता में तिब्बत के बहाने बंदना झा ने निर्वासन की पीड़ा और संत्रास को पहचानने का कार्य अपने इस आलेख में किया है. उदय प्रकाश, अनामिका, विश्वनाथ प्रसाद त्रिपाठी और तेनजिन त्सुंदे की कविताओं की मदद से वह निर्वासित में पठार की तरह पसरी उदासी और अजनबीपन तक पहुँचीं हैं.

साथ में कुछ कविताएँ भी दी गयीं हैं.




हिंदी कविता और तिब्बत : बंदना झा           













1980 के दशक में ‘तिब्बत’नामक कविता को भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार प्रदान किया गया. लेखक थे उदय प्रकाश. विस्थापन की पीड़ा का दंश पहली बार तिब्बती सन्दर्भ में दिखाई पड़ा. पूरी कविता अस्फूट है मन ही मन रोती हुई. एक ध्वनि है जो हवा में तारी है बेघर होने और बेवतनी होने का दर्द. सरल सी दिखने वाली कविता में कई सवाल है. बच्चा अपने पिता से सवाल करता है. प्रश्न-दर-प्रश्न पूछता जाता है –

गेंदे के एक फूल में
कितने फूल होते हैं  ‘पापा’?
दूसरा प्रश्न बच्चा करता है
“तिब्बत में बरसात जब होती है तब हम किस मौसम मे होते हैं ?

तिब्बत की बरसात और यहाँ के मौसम के मध्य तारतम्यता की खोज वस्तुतः तिब्बत की खोज है. उस देश को समझना जिसे उसने देखा नहीं है लेकिन वह उसका है. बच्चा जहां है वहाँ अनुभूत कर लेना चाहता है तिब्बत के मौसम को, अपने नथुने मे भर लेना चाहता है बारिश की गंध को जो उसके देश में होती होगी. प्रश्नाकुलता लगातार बढ़ती जाती है साथ ही गहन भी होती जाती है. वह पूछता है तिब्बत में जब तीन बजते है. तब हम किस समय में होते है ? वह उस समय को जीना चाहता है जिसमें तिब्बत होता है. मौसम और समय के मध्य अपने देश तिब्बत की खोज वस्तुतः हर उस तिब्बती की खोज है जो निर्वासन का दंश झेलते हुए यहाँ-वहाँ भटक रहे हैं. शरणार्थी जीवन की पीड़ा एकबारगी घनीभूत हो उठती है जब बच्चा गेंदे के फूल देखकर पूछ बैठता है –
तिब्बत में गेंदे के फूल होते है क्या पापा ?

‘गेंदे का फूल’ एक प्रतीक है जिसका पीलापन उर्जा और रुग्णता दोनों का परिचायक बन जाता है. बच्चा पुनः प्रश्न कर बैठता है –

“लामा शंख बजाते हैं पापा” ?

शंख भारतीय प्रतीक है. शंख वह होगा जहा समुन्द्र है. तिब्बत में पठार है. शंख भारतीय प्रतीक है. हिन्दू उत्सव में, उद्घोष में, पूजा में शंख घोष करते है. भारत के हिन्दू परंपरा से बच्चा परिचित है बौद्ध जीवन में लामा के प्रति यह प्रश्न सांस्कृतिक सेतु का बन जाता है जहाँ बच्चा बस सहजता से जानना चाहता है क्या लामा शंख बजाते हैं पापा ? गेंदे के फूल से शुरू हुआ प्रश्न बरसात, मौसम, समय से होते हुए शंख पर आ जाता है. फिर, प्रश्न उठता है की लामाओं को कम्बल ओढ़कर अँधेरे में तेज़ – तेज़ चलते हुए देखा है कभी ? यहाँ प्रश्न और गहरा हो जाता है, कम्बल ओढ़कर अँधेरे में तेज़-तेज़ चलने की आवश्यकता क्यों है ?

निर्वासित जीवन जीते हुए मृत्यु को सार्वजनिक करना शायद ठीक नहीं. बचे हुए में से किसी का चला जाना अस्तित्व का खतरा भी है. सांस्कृतिक पहचान बचाए रखने की जद्दोजहद के मध्य किसी अपने का जाना तिब्बत के टुकड़े का जाना है. इसलिए वे मन्त्र नहीं पड़ते. कविता में कवि कहता है, वे फुसफुसाते है तिब्बत–तिब्बत. तिब्बत की आवृति तेरह बार कवि ने की है. रुदन में शब्द आवृति कई–कई बार होती है. दुःख एक ही शब्द में हज़ार बार लौट कर आ जाता है. रोते रहते है रात–रात भर यह रोना कई–कई  रातों का है– अपने देश के लिए, उस समय के लिए जिसमे उन्हें जीना था– मणिपद्म के लिए रोना. अंत में, वह बच्चा जब प्रश्न करता है,

“क्या लामा हमारी तरह ही रोते है पापा ?" तो इस पंक्ति में बच्चा और लामा का संतरण एक दूसरे में हो जाता है. बच्चे की रुलाई लामा की रुलाई में मिलकर हमें आद्र कर जाती है. लामा रोते नहीँ. उन्हें कमजोर क्यों देखा जाय लेकिन तिब्बत–तिब्बत की फुसफुसाहट में उस नमी से इनकार नहीं किया जा सकता.                                                                                                                                    
कविता के प्रदेश में भी तिब्बत नहीं है. कवि, कथाकार ताकतवर व बड़ी चीजों,  सिद्दांतो के वर्णन मे मशगूल हैं. एशिया का यह पठार सामरिक दृष्टि से आँका जाता है वरना इसकी चिंता भी भुला दी जाती. भारत में बिखरे शालीनता की चादर ओढ़े ये आक्रोशित भी नहीं हो पाते. कविता के उर्वर प्रदेश में यदा-कदा दूब की तरह उगे तिब्बत बड़े - बड़े वृक्षों के तले दब जाता है.                          
                      

लगभग 27 सालो बाद कविवर विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ‘तिब्बत’ शीर्षक के साथ दिखाई देते हैं. वहाँ तिब्बत जड़ हो चुका प्रतीक है जहाँ  सूरज की किरणे भी अब नहीं घुसती और न बहार कोई ध्वनि सुनाई पड़ती. दमन और उपेक्षा इस तरह हावी है कि मीडिया में भी उसका कोई बिम्ब नहीं उभरता, कवि कहता है जो कभी छत था आज वह तहखाना बन चुका है, पशु बोलता नहीं सबसे अधिक झेलता है. याक जो बस लकड़ियाँ लादता, पहाड़ी ढ़लान पर प्यास से हलकान हुए चढ़ता-उतरता है, उसके साथ यदि कोई है तो वह गाँव की बंजारन है जो अज्ञात सैनिको के गर्भ पाल रही है. युद्ध और घृणा के ज्वार का खामियाजा सर्वाधिक स्त्रियाँ ही ढ़ोती है. ऐसे देश में जिसपर दूसरे राष्ट्र का कब्ज़ा हो और जिसे आमूल चूल नष्ट करने हेतु किसी सभ्यता के गर्भ पर हमला किया गया होगा तो वह तिब्बत और वहाँ  की महिलाएँ हैं. नस्ल को ही समाप्त करने की कोशिश सैनिक बूटो का कमाल है– इसलिए स्मृति गंवा चुकी बंजारन है. अतीत का राग, देशराग न बन जाए इसलिए स्मृति पर कील  ठोंकना शत्रु राष्ट्र का प्रथम कर्तव्य बन जाता है. परंतु युवा ‘आत्मदाह’ कर रहे हैं. निर्वासन झेलते वृद्ध पताकाओं पर प्रार्थना लिखते है. इसलिए कवि कहता है, ‘ल्हासा जेल के पार कैलाश मानसर नहीं पहुचती हवाएँ. जेल में कैदियों की भीड़ कैलाश मानसर की हवा रोके हुए है. वहाँ  बुद्ध भी बंधन में हैं और अहिंसा निर्वासित जीवन जी रही अर्थात हिंसा का तांडव चल रहा है.

कवि तिब्बत के सौंदर्य को ‘तोग्देन’ के हवाले कर देता है, क्योंकि टुकड़ों-टुकड़ों में बाँटा गया तिब्बत अब अपना अंतिम संस्कार करने के लिए बचा है. लेकिन कवि को गोल –गोल चमकती आँखों मे अथाह जिज्ञासा लिए पीठ पर मासूम दिख जाता है. कवि की आशा चमकती आँखों में समा जाती है. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ‘तिब्बत’ कविता में भुला दिए गए तिब्बत को देखते है. निर्वासन, बेगानापन, पीड़ा, दुख का समन्वित रूप ‘तिब्बत’ है जो अरसे बाद कवि की चिंता का सबब बना है. भारत का पड़ोसी देश होते हुए भी सृजनात्मक/रचनात्मक स्तर पर तिब्बत चिंतन के केंद्र बिंदु में विशेष रूप से कविता के केन्द्र में कम ही रहा बल्कि न के बराबर ही रहा. कथा–साहित्य विशेषकर उपन्यास में नीरजा माघव ने ‘गेशे जम्पा’ और ‘देनपा’लिखकर सामाजिक सांस्कृतिक विरासत को लाने का प्रयास तो किया लेकिन कविता में न के बराबर रहा.

तिब्बत की यह पीड़ा अनामिकाकी कविता ‘दलाईलामा’में भी उभर कर सामने आती है. कविता तिब्बती भाषा की बात करते हुए तिब्बती बच्चे, उनकी माँओं की बात करती है. अंग्रेजी की सर्वग्रासी शक्ति के सामने तिब्बती भाषा को बचाने उसे कमजोर न पड़ने देने की कोशिश दुभाषिये की है जो दलाईलामा के भाषण का अनुवाद कर रहा है. तिब्बती भाषा की तितली मनोहर और रंग–बिरंगी तो है लेकिन कोमल है. भाषा की तितली का बच्चों के कानों पर बैठना एक रूपक है जो भाषा के संकट की ओर संकेत करता है साथ ही माँ के चमकीले परिधानों पर भी वह तितली बैठती है. माँ शादी के जोड़े की तरह तिब्बती भाषा को बचाए रखना चाहती है. मातृभाषा यदि बच सकती है या उसे बचाने वाला कोई है तो वह बस माँ है. कवयित्री तिब्बती भाषा की चमक की बात करते सीधे एक बिम्ब खड़ा कर देती है तिब्बत का – बूढ़ी आँखों में उम्मीद की एक टिमक जितनी ! तिब्बत की आज़ादी की टिमटिमाहट.

“दुभाषिया बहुत गम्भीर था.
उसको हँसने की फुर्सत ही नहीं थी !
अंग्रेजी के जाल में सावधानी से
पकड़ रहा था तिब्बती भाषा की तितलियाँ
जो लामा के फूल जैसे होठों से उड़ती–उड़ती
कभी तिब्बती बच्चों के कान पर बैठ जाती थीं 
कभी उनकी माँओ के चमकीले परिधानों पर –
जो उनकी शादी  के जोड़े थे शायद !

अनामिका रचित ‘दलाईलामा’ का विन्यास तितली की तरह है. वह इस फूल से उस फूल मकरंद लेना जानती है. कविता तुरंत दलाईलामा द्वारा समझाए जा रहे चार आर्य सत्य की बात करते हुए बचपन में बायीं बाँह पर पड़े चेचक के टीके की बात करने लगती है. एक ओर ज्ञान है दूसरी तरफ यथार्थ का टीका है उन्हें इसी युग का होने की ओर संकेत करता है.

अनामिका दलाईलामा में, उनके प्रवचन में बचपन को ढूंढ़ रही है, बचपन की उन हरकतों को जिन्हें दलाईलामा ने किया होगा. पुनः वह बिफर उठती हैं तिब्बत को सोचते हुए कि हम तिब्बत की सच्चाई को दरकिनार करते हुए किस तिब्बत को देख रहें हैं जो फटेहाल है. जिसे हम दलाईलामा, राहुल संकृत्यायन, रेनपोचे, मोनेस्ट्री, चाऊमीन, सस्ते स्वेटर–चप्पल, चीन, बर्फ़, वफादार कुत्ते तक में समेत कर देखते हैं. तिब्बत के बहने प्रेम और नफ़रत को कवयित्री देखती है और तिब्बत के सत्य को ढूंढ़ना चाहती हैं. दुनिया के मानचित्र पर तिब्बत के खोते वजूद और उसे दुनिया के किसी कोने में जीवित रख सकने की जद्दोजहद इस कविता में देख सकते हैं.   

समकालीन कविता में तिब्बती कविताएं हस्तक्षेप करती हैं. तेनजिन त्सुंदे ऐसे  ही तिब्बती युवक हैं जो हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में रहते हैं और तिब्बती भाषा में कविता लिखते हैं. उनकी कविता का अनुवाद अशोक पांडेने किया है. निर्वासन की पीड़ा झेल रहे तेनजिन की कविता हिन्दी में अनुवाद के माध्यम से जब आई तो एक अलग तरह की बेचैनी हिंदी जगत में आई. उनके माता-पिता भारत में तिब्बत के निर्वासित जन हैं. तेनजिन का जन्म भले ही भारत में हुआ हो लेकिन उनकी चेतना में तिब्बत की स्वतंत्रता है. तिब्बत की स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत कार्यकर्ता के रूप में उनकी कविता को देखा जा सकता है. अस्मिता की तलाश, पहचान का संकट, भाषा, संस्कृति के बचाने के बरक्स दुःख मिश्रित चिंता का भाव भी उनकी कविता में देखा जा सकता है. उनकी कविता में निर्वासन से उपजा अवसाद दिखाई देता है. उनकी कविता के बिंब आश्चर्यचकित कर देने वाले हैं.

‘‘जब धर्मशाला में बारिश होती है,कविता में बारिश की बूदों के बरसने को वे मुक्केबाजी के दस्ताने पहने बूँदे हैं तब उनकी मार को महसूस किया जा सकता है. वे कहते हैं, ‘‘टिन की छत के नीचे भीतर मेरा कमरा रोया करता है, बिस्तर और कागजों को गीला करते हुये. भारत में निर्वासन के दंश झेल रहे तिब्बती के दुःख को इस पंक्ति के माध्यम से समझा जा सकता है-

मैं बैठा होता हूँ अपने द्विपदेश बिस्तर पर-
और देखा करता हूँ अपने मूल्क को बाढ़ में
आज़ादी पर लिखे नोट्स
जेल के मेरे दिनों की यादें,
कॉलेज के दोस्तों के ख़त,
डबलरोटी के टुकड़े
और मैगी, नूडल
भरपूर ताकत से उभर आते हैं इस सतह पर
जैसे कोई भूली याद
अचानक फिर से मिल जाए.

कविता यहीं समाप्त नहीं होती. वह टीन के घर में रहते हुए  कश्मीरी मकान मालिकन को याद करता है जो अपने देश नहीं लौट सकती- ‘‘हमारे दरम्यान अक्सर खूबसूरती के लिए प्रतिस्पर्धा होती है- कश्मीर या तिब्बत.”

लेकिन उम्मीद की किरण बाकी है, वह कहते हैं-
बहुत रो चुका मैं
कैदखानों में
और अवसाद के पलों में.

यहाँ से निकलने का रास्ता ज़रूर होना चाहिए. दूसरी कविता आतंकवाद में यही जिजीविषादिखाई देती है- मैं जीवन हूँ, जिसे तुम छोड़ आए थे पीछे दंगाकविता में तेनजिन आक्राशित हो उठते हैं अपने अनुयायी बौद्ध होने पर क्योंकि उनके पिता की मृत्यु अपने देश को बचाने की ख़ातिर लड़ते हुए हुई है. लेकिन शांतिप्रिय होने का बोध उन्हें परेशान करता है- लेकिन कभी-कभी मुझे लगता है मैंने दगा दिया अपने पिता को. तेनजिन, तिब्बत के वह युवा हैं जो निर्वासित जीवन नहीं जीना चाहता. वह या तो तिब्बती होना चाहता है या फिर भारतीय लेकिन, दोनों में से उसे कुछ भी नसीब नहीं.

अपनी कविता में वह कहता है 

‘‘मैं थक गया हूँ, थक गया हूँ सड़क किनारे स्वेटर बेचता हुआ. चालीस सालों से बैठे–बैठे, धूल और थूक के बीच इन्तज़ार करता.’’

इसी पंक्ति में वे आगे कहते हैं- 

मैं थक गया हूँ मजनू के टीले की धूल में
घसीटता हुआ अपनी धोती.”

तेनजिन की यह पंक्ति भारत में रह रहे तिब्बती शरणार्थियों की उपस्थिति एवं स्थिति को बताता है जिसे हम शाल- स्वेटर बेचते हुए मोमो-नूडल्स बनाते तथा चाइनीज रेस्टुरेंट में काम करते हुए देखते हैं. आक्रोशित होते हुए, स्वयं की छवि को बचाकर प्रक्रिया करना कि उन्हें बुरा न समझा जाय- कुल मिलाकर एक सीमित दायरे में उनके जीवन को देखा जा सकता है. उनकी कविता तिब्बती के संघर्ष की गाथा है. एक व्यथा है, हम यहाँ शरणार्थी हैं. खो चुके एक देश के लोग/किसी भी दंश के नागरिक नहीं. हर वर्ष एक पीड़ा से गुजरना भारत में जन्मा एक शरणार्थीको हर साल अपने रजिस्ट्रेशन सर्टिफिकेट के लिये दौड़ना  कितना बेचैन करने वाला है.

एक दुःख है जो हृदय को मथता है ‘‘नेपाली? थाई? जापानी?, चीन? नागा? मुनिपुरी?’’ कोई नहीं पूछता, तिब्बती-?’’ मातृभूमि जिसके किस्से, जहाँ रहने का सपना हर नागरिक का सपना है वह भी नसीब नहीं. 50वर्षों से निर्वासन झेल रहे तिब्बत के युवा की इच्छा है-
मैं तिब्बती हूँ. अलबत्ता से नहीं आया. कभी गया भी नहीं वहाँ. तो भी सपना देखता हूँ वहाँ मरने का. महानगरों में बसे तिब्बती की जीवन शैली को तेनजिन ने बेहद यथार्थपरक तरीके से उकेरा है.

मुम्बई में एक तिब्बतीकविता में वह कहता है वह चाइनीज ढाबे में रसोइये का काम करता है, परेल ब्रिज में स्वेटर बेचता है लेकिन उसे बीजिंग से आया भगौड़ा या नेपाली बहादुर समझा जाता है लेकिन तिब्बती होने के बारे में कोई नहीं पूछता, मुम्बईपन को तिब्बतियों ने अपना लिया है क्योंकि वह बम्बईया हिन्दी में भी गाली देने लगा है लेकिन शब्द का विस्तार तो अपनी ही भाषा में हो सकता है. ऐसे में उसकी भाषिक क्षमता चूक जाती है और ऐसे मौके पर पारसी हँसने लगते हैं. तिब्बती युवा का मुम्बईया हिन्दी से चूक जाना और पारसी का हँसना गहरी संपृक्ति रखते हैं पारसी समाज भी सांस्कृतिक पहचान बचाए रख सकने के लिए संकट से जूझ रहे हैं .

एक संकट दूसरे पर तारी होता है और हँसी फूट पड़ती है. वाकई में यह हँसी, हँसी नहीं अवसाद है. मिड-डेअखबार पढ़ना एफ.एम. रेडियो सुनना उसका शगल  है लेकिन कैसे करे यह उम्मीद. लोगों का उसपर कटाक्ष करना चिंग-चैंग-पिंग-पौंगउसे नहीं सुहाता. तेनजिन कविता का अंत गहरे दुःख से करता है-

मुम्बई में एक तिब्बती, अब थक चुका है. उसे थोड़ी नींद चाहिए और एक सपना.’

निर्वासन का घर कविता में तेनजिन अपनी गृह संपदा को याद करते हुए पूछता है कि

बाड़े अब दल चुकी हैं, जंगल में
अब मैं कैसे बताऊँ अपने बच्चों को
कि कहाँ से आये थे हम?

एक व्यक्तिगत टोहकविता में कवि छिपते-छिपाते अपने देश के टीले पर पहुँचता है- वह अपने नासारंध्रों में उस मिट्टी की महक को बसा लेना चाहता है. वह कहता है,

‘‘मैंने मिट्टी की सूंघा
ज़मीन को कुरेदा
सूखी हवा को सुना
और सुना बूढ़े जंगली सरसों को”-

वह स्वयं को उस मिट्टी में खो देना चाहता है लेकिन उसे कुछ भी यहाँ और वहाँ फर्क महसूस नहीं होता.

तेनजिन आउटलूक पीकेडर अवार्ड 2001 से सम्मानित कवि हैं. उन्होंने तीन पुस्तके लिखी हैं जिनमें एक कोरा उनका काव्य संग्रह है. आज भी भारत में उनका कोई स्थायी निवास नहीं है. अन्तहीन यात्रा, निर्वासन, अवसाद, तिब्बतीपन के खोने का भय उनकी कविता में दिखायी देता है. कविता की भाषा में सक्रिय कार्यकर्ता का रूप दिखाई देता है इसलिए कविता में शिल्प की खोज बेमानी है. यथार्थ की पकड़ और तीव्रता पाठक पर असर करती है. पेट्रो की बाँसुरीकविता में बाँसुरी का रूपक तिब्बती शरणार्थी के वजूद को बताता है. निर्वासन में जी रहे लोगों की अवाज है उस बाँसुरी में. पेट्रो से जब सवाल पूछा जाता है क्या है तुम्हारी बाँसुरी में - तब उस बाँसुरी की निकली कराह सब ओर सुनाई देती है जब एक सोलह साल की युवा लड़की माँ बन जाती है, जिसकी जगह अब शौचालय के पीछे है. वह बच्चा है जो पुलिस स्टेशन में राह देखते सो गया है, बाँसुरी की आवाज जो चुभती है कानों में लेकिन सुनी नहीं जाती. कवि कहता है – पेद्रो, निर्वासन के दौरान उसकी आवाज़ को महसूस कर सकता है. निर्वासन के अहसास को उसके संघर्ष को तेनजिन त्सुंदे के कविता व्यंजित करती है. 

हिंदी प्रदेश में अनुवाद के माध्यम से यह आवाज देर से ही सही लेकिन सुनाई देती है . कविता को स्नेह मिलेगा संघर्ष से मुक्ति के लिए, नई हवा में साँस लेने के लिए.
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बंदना झा 
prof.bandanajha@gmail.com
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उदय प्रकाश : तिब्बत

तिब्बत से आये हुए
लामा घूमते रहते हैं
आजकल मंत्र बुदबुदाते

उनके खच्चरों के झुंड
बगीचों में उतरते हैं
गेंदे के पौधों को नहीं चरते

गेंदे के एक फूल में
कितने फूल होते हैं
पापा?

तिब्बत में बरसात
जब होती है
तब हम किस मौसम में
होते हैं?

तिब्बत में जब
तीन बजते हैं
तब हम किस समय में
होते हैं?

तिब्बत में
गेंदे के फूल होते हैं
क्या पापा?

लामा शंख बजाते है पापा?

पापा लामाओं को
कंबल ओढ़ कर
अंधेरे में
तेज़-तेज़ चलते हुए देखा है
कभी?

जब लोग मर जाते हैं
तब उनकी कब्रों के चारों ओर
सिर झुका कर
खड़े हो जाते हैं लामा

वे मंत्र नहीं पढ़ते।

वे फुसफुसाते हैं ….तिब्बत
..तिब्बत 
तिब्बत - तिब्बत
….तिब्बत - तिब्बत - तिब्बत
तिब्बत-तिब्बत ..
..तिब्बत …..
….. तिब्बत -तिब्बत
तिब्बत …….

और रोते रहते हैं
रात-रात भर।

क्या लामा
हमारी तरह ही
रोते हैं
पापा?







तेनजिन त्सुंदे  : मैं थक गया हूँ


मैं थक गया हूँ
थक गया हूँ दस मार्च के उस अनुष्ठान से
धर्मशाला की पहाड़ियों से चीख़ता हुआ.

मैं थक गया हूँ
थक गया हूँ सड़क किनारे स्वेटर बेचता हुआ
चालीस सालों से बैठे-बैठे
धूल और थूक के बीच इन्तज़ार करता

मैं थक गया हूँ
दाल-भात खाने से

और कर्नाटक के जंगलों में गाएँ चराने से.

मैं थक गया हूँ
थक गया हूँ मजनू के टीले की धूल में
घसीटता हुआ अपनी धोती.
मैं थक गया हूँ
थक गया हूँ लड़ता हुआ उस देश के लिए
जिसे मैंने कभी देखा ही नहीं.




तेनजिन त्सुंदे : मुम्बई में एक तिब्बती


मुम्बई में एक तिब्बती
को विदेशी नहीं समझा जाता.

यह एक चाइनीज़ ढाबे
में रसोइया होता है
लोग समझते वह चीनी है
बीजिंग से आया कोई भगौड़ा

वह परेल ब्रिज की छाँह में
स्वेटर बेचता है गर्मियों में
लोग समझते हैं वह
कोई रिटायर हो चूका नेपाली बहादुर है.

मुम्बई में एक तिब्बती
बम्बइया हिन्दी में गाली देता है
तनिक तिब्बती मिले लहज़े के साथ
और जब उसकी शब्द-क्षमता खतरे में पड़ती है
ज़ाहिर है वह तिब्बती बोलने लगता है,
ऐसे मौकों पर पारसी हँसने लगते हैं.

मुम्बई में एक तिब्बती को
पसन्द आता है मिड-डे उलटना
उसे पसन्द है एफ० एम० अलबत्ता वह नहीं करता
तिब्बती गाना सुन पाने की उम्मीद
वह एक लालबत्ती पर बस पकड़ता है
दौड़ती ट्रेन में घुसता है छलाँग मारता
गुज़रता है एक लम्बी अँधेरी गली से
और जा लेटता है अपनी खोली में.

उसे गुस्सा आता है
जब लोग उस पर हँसते हैं
चिंग-चौंग-पिंग-पौंग"

मुम्बई में एक तिब्बती
अब थक चूका है
उसे थोड़ी नींद चाहिए और एक सपना,
11बजे रात की विरार फ़ास्ट में
वह चला जाता है हिमालय
सुबह 8:05की फ़ास्ट लोकल
उसे वापस ले आती है चर्चगेट
महानगर में -- एक नए साम्राज्य में.




तेनजिन त्सुंदे : पेट्रो की बाँसुरी




पेद्रो, पेद्रो
क्या है तुम्हारी बाँसुरी में ?
क्या एक नन्हा बच्चा जिसकी माँ खो गई है
और जो घूमता-फिरता है
शहर के गीले पत्थरों पर अपने नंगे पाँव पटकता हुआ ?

पेद्रो, पेद्रो
बताओ न क्या है तुम्हारी बाँसुरी में ?
क्या वह एक मुलायम कराह है
एक युवा लड़की की
सोलह की उम्र में गर्भवती, जिसे बाहर फेंक दिया गया घर से
जो अब रहती है एक पब्लिक पार्क में
शौचालयों के पीछे ?

हैरत कर रहा हूँ
तुम फूँक मारते हो प्लास्टिक-पाइप के ठूँठ में
और वह जीवित हो उठता है किसी बाँसुरी में
बिना आँख, कान या मुँह वाली
बजती हुई बाँसुरी,
अभी रोती हुई, अभी गाती
सीटियाँ जो बदल जाती हैं नन्हीं सुई जैसे बाणों में
बाण जो चुभते हैं
उल्लुओं तक के कानों में चुभते हैं
उल्लू जिनके कानों तक में बाल होते हैं.

पेद्रो, पेद्रो
बताओ न क्या है तुम्हारी बाँसुरी में?
क्या खिड़की के कब्जों में वह सीटी
एक युवा लड़की का रुदन है ?
या उस नन्हे लड़के की साँसें
जो अब थक चुका है और सोया हुआ है
पुलिस स्टेशन में ?

पेद्रो, पेद्रो
बताओ न क्या है तुम्हारी बाँसुरी में ?
बहुत बाद में निर्वासन के दौरान, मैं उसे अब भी देख सकता हूँ।

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रमणिका गुप्ता : एक युद्धरत औरत का जाना : विपिन चौधरी

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रमणिका गुप्ता ने बहुत लिखा है, वह ट्रेड यूनियन की नेता थीं, विधायक भी रहीं. आदिवासियों के लिए उनके सरोकार बहुत मुखर थे. ‘युद्धरत आम आदमी’ का वह संपादन करती थीं. उनकी आत्मकथा ‘हादसे’ और ‘आपहुदरी’ में उनका अपना युद्धरत जीवन और राजनीति तथा संगठनों की असलियत दर्ज़ है.

उन्हें याद कर रहीं हैं विपिन चौधरी.


स्मरण
रमणिका गुप्ता : एक युद्धरत औरत का जाना
विपिन चौधरी






मारा समाज हमेशा महत्वाकांक्षी पुरुषों को लाइम लाइट में रखता है वहीं महत्वकांक्षी स्त्रियां अक्सर ही आलोचना का शिकार हो जाती हैं. तभी एक स्त्री अपने ही जीवन की कहानी में केंद्रीय भूमिका निभाती से बचती है. अपनी ही पहचान को स्थापित करने के लिए हमारे यहाँ स्त्री को अपने लिए निर्धारित फ्रेम से बाहर निकलना पड़ता हैजिसे स्त्री  संदर्भ में बेशर्मी  की संज्ञा दी जाती है, फिर इसी  बेशर्मी का इस्तेमाल समाज उस स्त्री की राह में रोड़े अड़ाने के लिए करता है.

रमणिका जी  का जीवन  इसी स्त्री का प्रतिनिधित्व करता है.  उनकी जिंदगी खुली किताब थी. पहले अपने राजनैतिक जीवन की डायरी फिर अपने निजी जीवन को सार्वजनिक करने का साहस करने वाली रमणिका जी का जीवन हार के लिए नहीं बना था, जीत उनके लहू में थी. और किसी बड़ी जीत के लिए जिद जरूरी होती है. उनकी जिद निजी महत्वकांक्षा न हो कर सामूहिकता के सरोकारों से जुडी होती थी. मजदूर आंदोलनों  में सक्रियता के दौरान श्रमिक वर्ग की मांगों लेकर वे सत्ता,पूंजीवादियों और माफियाओं से अकेली ही अपने दम-ख़म के बूते टक्कर लेती रहीं.

समूह की जीत के लिए उनकी जिद ने ही उन्हें मजदूर वर्ग के बीच लोकप्रिय बनाया. झारखंड की वे कोयला खदानें जो रामगढ़, हजारीबाग, चतरा, पलामू, गिरिडीह, बोकारो, धनबाद, गोड्डा जिलों में फैली हुई हैं उनमे अवैध खनन का विरोध, निजी खान मालिकों और ठेकेदारों से टकराहट उनके जीवन का हिस्सा था. बाद के वर्षों में भी एक योद्धा के जज़्बे से अपनी पत्रिका 'युद्धरत आम आदमी'की  संपादक के रूप में सफाई कर्मचारियों समेत भारतीय समाज के वंचित समुदायों पर केंद्रित विशेषांक निकाले.  जब वे लेखनी के जरिए वंचितों की आवाज़ बनी तब भी उन्होंने कई स्तर पर विरोध का सामना किया. सबसे पहले उन्होंने अपनी पत्रिका 'युद्धरत आम आदमी'पत्रिका में स्थापित और नामचीन लेखकों से अधिक उदयीमान और वंचित समुदाय को जगह देते हुए एक नयी रिवायत शुरू की. इस पर उनका मानना था  हमारी पत्रिका  सर्वहारा, वंचित, स्त्री  के  लेखकीय सरोकारों को  प्रोत्साहित करने का काम करती  है. धुरंधर लेखकों के लिए दूसरी पत्रिकाएं हैं ही.

अपने घर में वे प्रतिदिन लेखकों और शोध-छात्रों से घिरी रहती. पिछले साल मार्च में  केदारनाथ सिंहइस साल के शुरू में कृष्णा सोबती जी, नामवर जी, और अर्चना वर्मा जी ने निधन से रमणिका जी काफी व्यथित थी. हर दूसरे दिन कहने लगी मेरा भी समय आने ही वाला है. दो साल पहले अपने हृदय के आपरेशन के समय से ही वे बहुत परेशान थी. अपनी संस्था, अपनी पत्रिका के भविष्य को लेकर लोगों अपने घर स्थित ऑफिस में बैठी वे किसी काम में थोड़ी सी देरी होने पर ही  भड़क जाती और अपने कर्मचारियों से कह उठती "तुम्हारे पास समय है मेरे पास नहीं." 

पहली मुलाकात से उनकी आखिरी सांस तक उनसे आत्मीयता का एक रिश्ता बना रहा जिसमें कई अवसर नाराज़गी के भी आए और उनके सामने भरपूर लड़ाई भी की मगर रिश्ते की आद्रता कभी कम नहीं हुई.

2008फरवरी के किसी एक शाम, किसी किताब के विमोचन के अवसर पर रमणिका गुप्ता के डिफेंस कॉलोनी के आवास पर एक छोटी से गोष्ठी आयोजित की गई थी. मैंने  उन्हीं दिनों हौज़ खास स्थित  रेडियो मैनेजमेंट अकेडमी में दाखिला लिया था. दिल्ली के साहित्य संसार से मैं अपरिचित ही थी. अपने नए बने साहित्यिक मित्र कथाकार अजय नावरिया की मार्फ़त रमणिका गुप्ता जी से परिचय हुआ जिनसे मेरा परिचय अपने शहर हिसार जिले के अंतर्गत पड़ने वाले  कस्बे फतेहबाद में आयोजित यूथ-फेस्टिवल के  साहित्यिक सेमिनार में हुआ जिसमें हम दोनों बतौर रिसोर्स पर्सन आमंत्रित थे. 

आज भी अच्छी तरह से याद है पहली बार जब मैंने रमणिका जी को रूबरू देखा था तब खाकी रंग के कुर्ते-पजामें और जैकेट में वे 79  वर्षीया  स्त्री   एक युवती सी  ऊर्जा से लबरेज़ कार्यक्रम के आयोजन में लगी हुई थी. मैं  रमणिका जी की जेल की डायरी हंस-पत्रिका में पढ़ चुकी थी.  और कुछ दिन पहले  हमारे शहर हिसार के विधायक नवीन जिंदल के साथ किसी  टेलीविज़न कार्यक्रम में  उन्हें देख-सुन चुकी थी. उस कार्यक्रम  के वाद-विवाद में अपने सामने वालों को मात देने वाली रमणिका जी मेरे सामने थी. बाद के वर्षों में लगातार उनके साथ काम करते हुए उनके जुझारू व्यक्तित्व के कई पहलुओं से सामना हुआ.

2011में उनकी पत्रिका ''युद्धरत आम आदमी'की हाशिये उलाँघती स्त्री कविता-श्रृंखला में काम करने का अवसर मिला. जिसमें संपादकीय सहयोग के दौरान देश की विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओँ की कवयित्रियों के कविताओं के अनुवाद, कविताओं के चयन और स्वयं अनेकों कवयित्रियों से पत्र-व्यवहार और फ़ोन से बातचीत करने के अवसर ने मेरी साहित्यिक समझ में  काफी इज़ाफ़ा किया. इसी पत्रिका के दोनों दोनों खंडों के लोकार्पण और दो दिवसीय संगोष्ठी का आयोजन साहित्य अकादमी के सहयोग से उनके सभागार में किया गया जिसमें 24भाषाओँ की  कवयित्रियां  जिसमें  तमिल की सलमा, कुट्टी रेवती, कन्नड़ की  ममता सागरप्रतिभा नंदकुमार, मलयालम कवयित्री बी. संध्या, मैथिली की विभा रानी वअंग्रेजी-हिंदी की  दीप्ती नवल, सविता सिंह आदि शामिल थीं.

रमणिका जी के घर पर ही हरीराम मीणा, वासवी कीड़ो, अलोका, सुशीला टाकभौरे, अनीता भारती, हेमलता महिश्वर, मणिमाला, महज़बीन, शहनवाज़, मदन कश्यप, नरेंद्र पुंडरीक, नितिशा खलखो  आदि लेखकों से परिचय हुआ. अर्चना वर्मा जी, केदारनाथ सिंहओमप्रकाश वाल्मीकि, सुशीला टाकभौरे, लक्षमण गायकवाड़, शरण कुमार लिंबाले, रजनी तिलक  जी  केसाथ  लंबी बातचीत करने का अवसर रमणिका जी के घर ही  प्राप्त हुआ. महादेव टोपो, हरी उरांव,वंदना टेटे, दमयंती बारला से भी रमणिका जी के मार्फ़त परिचय हुआ.

पत्रिका के सिलसिले में  कई बार  उनके घर रुकना  होता.  देर  रात  मेरी  गुड-नाईट के बाद भी  रमणिका जी  अपने बिस्तर पर बिना किसी सहारे के काम में  जुटी रहतीं.

दलित-विमर्श, आदिवासी पहचान की समस्या, आदिवासी संस्कृति और साहित्य में महिलाओं की जगहआदिवासी क्षेत्रों में महिला-मजदूरों की समस्याओं पर उनकी चिंता उनके  लेखन में साफ झलकती.  उनकी पहचान कवयित्री के क्षेत्र  में उतनी व्यापक नहीं थी  मगर वे सबसे पहले  स्वयं  को कवयित्री ही मानती थी. कविताओं में उनकी विशेष रूचि थी  जब मैंने उनकी पत्रिका के युवा स्त्री विशेषांक निकालने की  योजना रखी  तो उन्होंने ख़ुशी के साथ सहमति दी. तीन साल पहले अपने घर पर मासिक गोष्ठी करवाने के लिए उन्होंने मुझसे कहा और हर महीने इस आयोजन को लेकर वे ऊर्जा से भरी रहती, अपने आस-पास भीड़ उन्हें काफी पसंद थी. 
 
सांस्कृतिक कार्यकर्ता  और  भाषाविद गणेश देवी के साथ भारतीय भाषा लोक सर्वेक्षण: झारखण्ड नाम पुस्तक में सहयोग,नार्थ-ईस्ट की  संस्कृति,   उनकी लोक-कथाओं पर उनके संचयन को  काफी सराहा  गया.  किसी  योजना के जारी रहते हीआगामी  योजना की रूप-रेखा उनके दिमाग में बन रही होती.

अनेक आदिवासी भाषाओँ जैसे चकमा, गैरसिआ, भीली, ढंकी, चकमा, गुजरी, हल्बी, जौनसारी, कोकणी, खोरठा, मगही, वागरी और भी न जाने कितनी ही भाषाओँ के आदिवासी लेखकों और उनके रचनाओं के बारे में उनके फाउंडेशन में काम करके ही जाना.

कुछ साल पहले जे.एन.यू के सहयोग से आदिवासी वासी सेमीनार का अनुभव भी एक शानदार अनुभव था.

रमणिका जी से जुड़ना एक ऐसी संस्था से जुड़ना था जिसकी नेत्री बिना थके अपने अक्ष पर घूमती  रहती थी बिना किसी अड़चन की परवाह करे.
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कृष्णा सोबती : कुछ खत, एक पिक्चर पोस्टकार्ड : आशुतोष भारद्वाज

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कृष्णा सोबती पर आशुतोष भारद्वाज का यह ‘स्मरण’ कृष्णा जी के जीवन के ऐसे पहलू को सामने लाता है जिसपर वह खुद मौन रहना पसंद करती थीं. हालाँकि यहाँ भी वह बहुत मुखर नहीं हैं. किसी भी मेजर राइटर का जीवन जिन उदात्त और सकर्मक तंतुओं से बुना रहता है, उनका कुछ एहसास इस ललित आलेख को पढ़ते हुए होता है. आशुतोष भारद्वाज बहुत अच्छा लिख रहें हैं,  कृष्णा जी पर इसी तरह लिखा जाना चाहिए.

कृष्णा सोबती
कुछ खत, एक पिक्चर पोस्टकार्ड                       
आशुतोषभारद्वाज








नका मुझे पहला फ़ोन २०१० में आया था. मेरा तब तक उनसे कोई परिचय नहीं था, सिवाय इसके कि महीना भर पहले मैं उनसे कथादेशके एक विशेषांक के लिए रचना लेने उनके घर गया था. इसलिए उनकी बात सुन मैं हतप्रभ रह गया था,लेकिन २०१७ की फ़रवरी में जो उन्होंने मुझसे कहा उसका मुझे क़तई यक़ीन नहीं हुआ.

उन्हें अंत नज़दीक दिख रहा था. उनकी स्टडी उनकी अप्रकाशित पांडुलिपियों, प्रकाशित उपन्यासों  के पुराने मसौदों, ख़त,डायरी और तमाम क़िस्म के काग़ज़ व दस्तावेज़ों से अटी पड़ी थी.

मैं अब यह सब नहीं कर पाऊँगी. मेरे पास समय नहीं बचा है. आप इन काग़ज़ों में से काम की चीज़ निकाल कर बाक़ी नष्ट कर सकते हैं?

पिछली बार उन्होंने मुझे अपनी लेखकीय दुनिया में बुलाया था, लेकिन इस बार बुलावा निजी संसार का था. एक ऐसा बुलावा जहाँ वह मुझे अपने कमरे के अंदर भेज ख़ुद बाहर जा बैठ गयीं थीं. मैं अकेला उनके शब्दों, उनकी सृष्टि से रूबरू था. एक विश्वविद्यालय उनकी पांडुलिपियाँ और अन्य दस्तावेज़ अपने अभिलेख़ागार के लिए चाहता था लेकिन वे उन्हें देने से पहले संतुष्ट हो जाना चाहती थीं कि कहीं कोई हल्की लिखत न चली जाए.

मैं आए दिन कई घंटे उनकी स्टडी में बिताने लगा. उनके ख़त, नोट्स. हम हशमत, ज़िंदगीनामा के न जाने कितने मसौदे. सफ़ेद काग़ज़ पर उनके बड़े और कंपकंपाते शब्द. हम दोनों साथ खाना खाते, विमलेश बड़े स्नेह से परोसती जातीं. उनके काग़ज़ों से शुरू हुआ सिलसिला जल्द ही लम्बा होता गया, उनके अतीत के तमाम कोने-कोटरों तक पहुँचता गया. वह अपने जीवन में उतरती जातीं. मैं किसी बायोग्राफ़र सा नोट्स लेता रहता.

ऐसी ही एक दोपहर वे बोलीं. मुझे एक पिक्चर पोस्टकार्ड मिला. उन दोनों ने मुझे लिखा है-हम दोनों यहाँ शराब पी रहे हैं, तुम्हें याद कर रहे हैं.

कौन दोनों?

वह हँसने लगीं. स्मृति में डूबी हंसी जिसके किनारों पर बीते दिनों की चमक थी. हँसते वक़्त उनका चेहरा ऊपर उठ जाता था. शायद आकाश में उन्हें पुराने दोस्त दिखलाई देते थे.

पिछली किसी दोपहर जब मैं आ नहीं सका था अपने पुराने कागजों को टटोलते में उन्हें किसी फ़ाइल में दबा एक पीला पड़ चुका पिक्चर पोस्टकार्ड मिला था. वक्त पर किसी ने ताला-सा मार दिया. मेज पर बिखरे तमाम काग़ज़ों के बीच पचास बरस पुराना वह पोस्टकार्ड. उस पर दो इंसानों के हस्ताक्षर होंगे. यूरोप के किसी शहर की तस्वीर, जहाँ से इसे भेजा गया होगा.

उनमें से एक को वह बचपन से जानतीं होंगी, जब वह और कृष्णा शिमले में पढ़ते होंगे. दूसरे से वह कुछ साल बाद लाहौर में मिलेंगी, जब वह गवरमैंट कॉलेज में शिवनाथके साथ पढ़ते थे, और कृष्णा फतेह चंद कॉलेज में. बीस से कम की कृष्णा तब तलक शिवनाथ से एकदम अपरिचित थीं, जिनसे वह पहली मर्तबा अपने पांचवें दशक में मिलीं थीं और फिर अंत तक उनके साथ रहीं थीं. वह विभाजन के पहले का लाहौर था जिसके सामने दिल्ली एक सूखा हुआ गाँव नजर आता था. किसी को नहीं मालूम था कि कृष्णा की ही तरह वे दोनों भारतीय कथा साहित्य को अनूठे मोड़ देने वाले थे, जिन्होंने कई दशक बाद वह पोस्टकार्ड प्राग से भेजा था, जिस पर प्राग के ओल्ड टाउन हॉल की तस्वीर थी, और दूसरी तरफ़ काली स्याही में यह पंक्तियाँ:

प्रिय कृष्णा जी,

जब कभी दिल्ली में मिलते थे. संग पीनेका अभाव खलता था, अब पीने का अभाव नहीं, लेकिन आपकी कमी बहुत अखरती है.

निर्मल

और इसके ठीक नीचे-
इत्तफ़ाक़ से मैं भी निर्मल के साथ बैठा हूँ, और मैं उससे सहमत हूँ.

कृष्ण बलदेव वैद




(दो)
निर्मल और वैद के अलावा एक अन्य लेखक का ज़िक्र वह अक्सर करती थीं, स्वदेश दीपक.निर्मल २००५ में चले गए, कई मर्तबा आत्महत्या के असफल प्रयासों के बाद दीपक क़रीब एक दशक पहले ग़ायबहो गए. उनकी मृत्यु की आधिकारिक पुष्टि अभी तक नहीं हुई है. कृष्णा ने कभी नहीं कहा कि स्वदेश दीपक की मृत्यु हो गयी. वे अब इस ग्रह पर नहीं हैं,वह कहती थीं, यह याद करते हुए कि वह हमेशा अपने साथ शराब की बोतल लेकर चलते थे.

निर्मल और सोबती की अपने काम पर बहस कभी तल्ख़ भी हो जाया करती थी. एक बार निर्मल ने उनके लेखन को मिथकह दिया. कृष्णा, योर राइटिंग इज़ अ मिथ.

सोबती ने तुरंत आक्रोश में उन्हें याद दिलाया कि वे एक झटके से वे बीस वाक्य बतला सकती हैं  जो उन्होंने चेकोस्लोवाकिया के उपन्यासों से उठाए हैं.

लेकिन उस शाम निर्मल को याद करते हुए उन्होंने तुरंत जोड़ा: निर्मल की उपस्थिति के कुछ और ही मायने थेवह अत्यंत रचनात्मक उपस्थिति थी.

जल्दी चला गयाही वॉज अ गुड चैप, वह बोलीं, एक विरल क्षण जब उनकी आँख नम हो गयी थी. मैं उनके बारे में कल ही सोच रही थी.

उनकी फ़ाइलों में निर्मल का तो शायद एक पिक्चर पोस्टकार्ड ही था जो उन्होंने वैद के साथ भेजा था, ‘केबीके  कई ख़त थे. कुछ ख़त अमरीका से भेजे गए थे, जब वह वहाँ पढ़ाते थे. वैद उन दिनों अमरीका में थे. अभी भी वहीं हैं. उनके भारत आने की सम्भावना बहुत कम थी, लेकिन कृष्णा आश्वस्त थीं कि वैद ज़रूर लौटेंगे. एक बार केबी से भेंट ज़रूर होगी.

वैद लौटे नहीं, उससे पहले ही वह चली गईं.

जब वह अपने दोस्तों के बारे में बतातीं थीं, मुझे लगता था कोई किताब लिखी जानी चाहिए इन लेखकों की यारी पर. इनके राग-द्वेष, प्रेम और हिंसा. किस तरह ये एकदूसरे के काम को बरतते थे. एक किताब जो इनकी दोस्ती के आईने से स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी साहित्य की भी कथा सुनाती चलती हो. वैद की डायरी में भी निर्मल का जिक्र बार-बार आता है. उनकी हालिया किताब ‘अब्र क्या चीज़ है? हवा क्या है?में निर्मल की मृत्यु के बाद कई पन्ने निर्मल पर हैं. पच्चीस अक्तूबर दो हजार पाँच, मृत्यु से कुछ ही घंटे पहले की वैद की यह डायरी: आज कृष्णा के फोन के दौरान जब निर्मल का ज़िक्र आया और मैंने उसे निर्मल की बुरी हालत के बारे में बताया तो वह बुझ गयी और हम दोनों उदास हो गए.

और अगले दिन चिता के सामने यह डायरी: निर्मल की मौत में मुझे अपनी मौत दिखाई देती रही.



(तीन)

इन्हीं लम्हों में हमने तय किया था कि इस संवाद को एक रूप दिया जाए.

मेरा आखिरी साक्षात्कार”.

वे कई बार दोहराती थीं, उस वक्त भी जब उनकी बांयी कलाई सुईयों से बिंध चुकी थी.

एक सुई से निकलती ट्यूब उनके बिस्तर के ऊपर टंगी बोतल तक जा रही है. चार महीने पहले वे बानवे की हो गयीं. भारत की सबसे उम्रदराज और सयानी रचनाकार. कई दिनों से अस्पताल में हैं, लेकिन सुबह का अख़बार अभी भी उनके सिरहाने रखा है.

यह २०१७ की जून का पहला हफ़्ता है. अपनी हस्तलिखित पांडुलिपियों के कई बक्से वे एक विश्वविद्यालय को हाल ही दे चुकी हैं. हम पिछले तीन-चार महीनों से लगातार मिल रहे हैं- उनका मयूर विहार का घर, और अब दक्षिण दिल्ली का यह अस्पताल. उनका यहाँ पांचवा दिन है, कल उन्होंने फ़ोन कर मुझे अस्पताल आने को कहा था. वे इस साक्षात्कारको जल्द पूरा कर लेना चाहती हैं. लेकिन अब यह साक्षात्कार नहीं रहा है. हम उन तमाम जगहों पर पहुँच रहे हैं जिन्हें यात्रा शुरू करने से पहले ध्येय नहीं किया था, जो इस पाठ में दर्ज नहीं हुआ हैशायद ज़रूरत भी नहीं है.

कई बार मिलते ही उनका पहला वाक्य होता है आपके सवाल मुझे सोने नहीं देते. मैं सुबह से ही आपके आने की तैयारी शुरू कर देती हूँ.

वे हँसती हैं. 

उनके बोलने की गति बहुत तेज़ है. शब्द न मालूम कहाँ से बिखरे आते हैं. अनेक दशकों तक फैली स्मृतियाँ वाक्यों में घुमड़ती आती हैं. उनका बचपन, तमाम शहर, लेखकीय जीवन, दोस्त- समूचा जीवन एक ही वाक्य में उतर आता है.

उनका आग्रह है मैं उनकी आवाज़ रिकॉर्ड न करूँ, उनके कहे को काग़ज़ पर लिखता चलूँ. मैं कहता हूँ- आप तो व्यास हैं, लेकिन मैं गणेश नहीं हूँ.

उनकी रचनात्मक ऊर्जा और लेखकीय प्रतिबद्धता पर उम्र का कोई असर दिखाई नहीं देता. वह रोज़ तीन अख़बार पढ़ती हैं,लेखकों-बुद्धिजीवियों के प्रतिरोध सम्मेलनों और सेमिनारों में जाती हैं और लगभग रोज किसी को अपने आतिथ्य से नवाजती हैं. वह आज भी पूरी तरह सजग और सतर्क हैं. उन्हें अपने बचपन का गाँव, दोस्त और किताबें याद हैं, वे घोड़े भी जिनकी सवारी उन्होंने बचपन में की.

इस पड़ाव पर भी वह अपने हरेक शब्द को लेकर अत्यंत सजग हैं. जो भी मैं लिख रहा हूँ उसे मुझे बोल कर सुनाने को कहती हैं. अगर कुछ दिन मैं आ नहीं पाता, तो मुझसे फोन पर पिछली बार का लिखा सुनती हैं. हाल ही उनकी मुक्तिबोध पर किताब आयी है. विश्व साहित्य में शायद ऐसे अवसर कम ही होंगे जब अपने तिरानवे वर्ष में किसी सर्जक ने एक समकालीन रचनाकार पर किताब लिखी हो. उम्र का वह क्षण जब हम अपनी बची चीजें समेटने में व्यस्त होते हैं, वे किसी दूसरे लेखक पर किताब को आकार दे रही थीं. लेकिन वह उसकी छपाई को लेकर प्रकाशक से बहुत नाराज़ हैं. सारी प्रतियाँ उठवा लेना चाहती हैं. उन्होंने साठ साल पहले अपने पहले उपन्यास चन्नाकी पांडुलिपि प्रकाशक से वापस ले नष्ट कर दीं थीं. अपने शब्द-कर्म पर उन्हें अखंड अभिमान है.

एक घटना का वे अक्सर जिक्र करती थीं. नब्बे के दशक में जब वे भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान में राष्ट्रीय फैलो थीं,संस्थान के नए अध्यक्ष गोविंद चंद्र पांडे आए हुए थे. एक औपचारिक सत्र में उन्हें सभी फैलो से मिलना था. पांडे ने सभी से अपना परिचय देने को कहा. कृष्णा को यह बात बहुत अखरी कि जो व्यक्ति उन्हें जानता है, वह उनका परिचय मांग रहा है. हम पिछले कुछ दिनों से मिल रहे हैं. फिर भी आप मेरा नाम जानना चाहते हैं.      I have an ordinary name, but sir, my signature is very expensive(मामूली सा मेरा नाम है, पर श्रीमान मेरे हस्ताक्षर का बड़ा मूल्य है), वे सबके सामने बोलीं थीं.

जून की इस दोपहर वह अस्पताल में अपने कमरे के पलंग पर लेटी हैं, आसमानी नीला गाउन पहने. विमलेश उनके बिस्तर को पैंतालिस डिग्री के कोण पर उठाती हैं. उनके चेहरे पर ताज़ी बर्फ़ सी झुर्रियाँ हैं, आँखों में पहली बरसात की चमक.

कहाँ थे हम पिछली बार?”



(चार)

यह आखिरी साक्षात्कारअधूरा रह गया. दो महीने बाद, सितंबर २०१७, मैं शिमला की उसी पहाड़ी पर रहने चला गया,उसी संस्थान में फैलो बन जहाँ कभी नब्बे के दशक में कृष्णा रहा करती थीं. वैद भी उन्हीं दिनों हफ़्ते भर के लिए यहाँ आए थे, सोबती-वैद संवाद यहीं दर्ज़ हुआ था, संयोग से उसी काँच-घर में जो आज मेरी स्टडी है, जहाँ मैं ये शब्द लिख रहा हूँ.  संस्थान के कर्मचारी विजय को अभी भी याद है कि उन्होंने सोबती-वैद संवाद के लिए टेप रिकॉर्डर इसी काँच-घर की मेज पर रखा था.

निर्मल भी यहीं रहे थे, सत्तर के दशक की शुरुआत में.

मेरे यहाँ आने के बाद वे फोन पर संस्थान और उन जगहों के बारे में उमंग से पूछती थीं जहाँ वह कभी रहीं थीं. उनकी आवाज़ में झुर्रियाँ और सलवटें नहीं थीं. उनका स्वर ऊर्जा और उत्साह से सराबोर होता था. वह शिमले की बर्फ़ और बरसात को ले उत्सुक रहती थीं, और यह जानकर खिल जाती थीं कि उनका पहाड़ बहुत अधिक नहीं बदला है. बहुत सुंदर. मुझे अभी भी अपना अपार्टमेंट याद आता है.

सुंदर. प्यारा. उत्तेजना.

ये शब्द उनकी वर्णमाला में बार-बार आते थे. उन्हें शिमले के संस्थान को छोड़े पच्चीस बरस हो गए थे लेकिन यहाँ के पुराने कर्मचारी अभी भी उन्हें याद करते थे. करीब पैंतालीस वर्षों से शांतिनिकेतन में रह रहे जर्मनी के टैगोर अध्येता मार्टिन कैंपचेन उन्हीं दिनों यहाँ तीन महीने के लिए एसोशिएट फैलो बन कर आए थे. कृष्णा ने मार्टिन को एक गरम कमीज भेंट की थी. जिस पर उन्हें स्नेह उमड़ता था, उसे वह अक्सर ऊनी कपड़े दिया करतीं थीं. मार्टिन उन्हें याद कर कहते हैं. वे मेरी स्मृति में अभी भी दर्ज हैं. बहुत ही निर्भीक और स्वाभिमानी महिला थीं.


(पांच)
मेरे पास उनका सबसे पहला फोन 2010 में आया था. वे अपनी एक किताब की पाण्डुलिपि प्रकाशक को भेजने से पहले मुझे पढ़वाना चाहतीं थीं. मेरी तब कुछ कहानियाँ ही प्रकाशित हुईं थीं. उनके भरोसे पर हतप्रभ मैं मेज पर रखी उनकी पाण्डुलिपि के कागज समेट रहा था कि उन्होंने विमलेश को आवाज दी. विमलेश को जैसे मालूम था, वे अंदर से एक लिफाफा ले आयीं. मैं भौंचक. उसमें रखी राशि आज के स्तर पर भी अच्छी-ख़ासी थी. लेखक अक्सर मित्रों की पांडुलिपियाँ पढ़ते हैं,  अजनबियों की भी. इसके एवज में पैसा देना एकदम अनसुना, अप्रत्याशित था. मैंने बहुत मना किया लेकिन वे नहीं मानीं जो लोग लिखते हैं, मैं उनके समय की बहुत कद्र करती हूँ.

इसके बाद जब भी वह मुझसे अपने लिखे पर राय चाहती थीं,  हमेशा जिद कर एक लिफाफा थमा दिया करतीं थीं. २०१७ की गरमियों में जब उनके घर काफ़ी समय बिताने के बाद भी उनके काग़ज़ ख़त्म नहीं हो रहे थे, तो मैं उनकी फ़ाइलें घर ले जाने लगा. हर चौथे-पाँचवें दिन तीन-चार फ़ाइल ले जाता, कुछ दिन बाद छँटनी कर उन्हें लौटा जाता, दूसरी फ़ाइल ले जाता. ऐसी ही किन्हीं फ़ाइलों में मुझे कुछ ख़त और काग़ज़ मिले, जो मुझे लगा सार्वजनिक नहीं होने चाहिए. अभिलेख़ागार भी नहीं जाने चाहिए. उन्होंने बड़ी निष्ठा से अपने एकांत को जिया था. पिछली पूरी सदी और इस सदी के दो दशकों पर उनका जीवन फैला हुआ था. उनके दोस्त थे, प्रेम भी, लेकिन उनके एकांत में कभी किसी का दख़ल नहीं था.

एक बार उनको आए किसी खत को पलटते हुए मैंने उनसे पूछा था.

रोमांस? उससे?” वह हंसने लगी, जिसके मायने कुछ भी हो सकते थे.

पिछले वर्षों में उन्होंने अपने कई करीबी मित्रों को जाते हुए देखा था. एक बारीक अवसाद उनके ऊपर अक्सर बिछ जाता. मैं अभी भी बची हूँ,”वे अक्सर कहतीं. क्या उन्हें यह ख्याल सताता था कि उनके बाद उनकी चीजों का क्या होगा? ढेर सारी किताबें, खत, फ़ाइल. हमारा संवाद अक्सर उनकी बिखरी चीजों पर आ अटक जाता. उनका स्वाभिमान उन्हें इस फिक्र को स्वीकारने नहीं देता था लेकिन उनकी कसक कभी उनके बड़े फ्रेम वाले चश्मे के बाहर झलक जाती थी. वे लेखकों के लिए एकरेजीडेंसीस्थापित करना चाहतीं थीं.

मृत्यु भी कभी बर्फ के पाँव लिए आती है, गरिमा और मौन के साथ. वे जिस दिन गईं उनका प्रिय शहर शिमला बर्फ से ढका हुआ था. ठीक जिस क्षण उन्होंने दिल्ली में आखिरी सांस ली, छाता लिए एक स्त्री शिमले में मेरे काँच-घर की खिड़की के नीचे से गुजर रही थी. बर्फ गिर रही थी. रात भर गिरती रही थी.
_________________ 
शिमला के उच्च अध्ययन संस्थान के फ़ैलो, पत्रकार, आलोचक, कथाकार, आशुतोष भारद्वाज 
सम्प्रति दैनिक अख़बार 'इंडियन एक्सप्रेसमें कार्यरत हैं.
ई पता : abharwdaj@gmail

मैं और मेरी कविताएँ (६) : संजय कुंदन

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Memory revises  me.
 Li-Young Lee

  
समकालीन महत्वपूर्ण कवियों पर आधारित स्तम्भ मैं और मेरी कविताएँके अंतर्गत आशुतोष दुबे’, ‘अनिरुद्ध उमट’, ‘रुस्तम, ‘कृष्ण कल्पित’ और ‘अम्बर पाण्डेय’ को आपने पढ़ा. इस अंक में प्रस्तुत हैं संजय कुंदन.

संजय कुंदन का चौथा कविता संग्रह ‘तनी हुई रस्सी पर’ अभी हाल ही में ‘सेतु प्रकाशन’ से प्रकाशित हुआ है. संजय का एक कथा-संग्रह और उपन्यास भी प्रकाशित है. उन्हें कविता के लिए भारतभूषण अग्रवाल सम्मान, हेमंत स्मृति सम्मान तथा विद्यापति पुरस्कार भी मिला है. उनकी कविताओं के अंग्रेजी के अलावा भारतीय भाषाओँ में अनुवाद हुए हैं.

संजय साहित्य की दुनिया में एक सहज उपस्थिति हैं, उनकी कविताएँ विद्रूपता, विडम्बना पर अक्सर व्यंग्यात्मक रुख़ अख्तियार करती हैं. समकालीन मनुष्य की विवशता का जिस तरह से दारुण विस्तार हुआ है उसका कुछ पता आपको ये कविताएँ देतीं हैं.

आइये जानते हैं कि संजय कुंदन कविताएँ क्यों लिखते हैं और उनकी कविताएँ क्या करती हैं.     





मैं और मेरी कविताएँ (६) : संजय कुंदन                



मैं क्यों लिखता हूं





र्णमाला सीखने के साथ ही मेरा लेखन भी शुरू हो गया. शायद इसलिए कि घर का माहौल साहित्यिक था. साहित्य रचना लिखने-पढ़ने का ही हिस्सा था. जिस तरह बच्चे पहाड़ा या कविताएं रटते और सीखते हैं, ठीक उसी तरह मैंने कहानी-कविता लिखना शुरू कर दिया. धीरे-धीरे यह मेरे स्वभाव का हिस्सा हो गया. साहित्य की स्थिति मेरे जीवन में एक मित्र जैसी हो गई. यह मेरे एकांत का साथी बन गया. यह एक तरह से प्रति संसार बन गया.

मैं अपने मूल जीवन में अपने को थोड़ा मिसफिट मानता रहा. इस जीवन के संघर्ष में लेखन से मुझे ताकत मिली है. लेखन मेरे लिए एक शैडो लाइफ है जहां मैं अपना गुस्सा, अपनी खीझ उतार सकता हूं. मैं ठठाकर हंस सकता हूं उन सब पर, जिन पर वास्तविक जीवन में नहीं हंस पाता, या खुद अपने आप पर. मेरे भीतर बहुत ज्यादा नफरत है, बहुत ज्यादा गुस्सा है. उन सबको लेखन में ही उतारता रहता हूं. अगर ऐसा न करूं तो मेरे भीतर की घृणा मुझे नष्ट कर डालेगी. इसलिए मैं हमेशा रचनारत रहना चाहता हूं. ईमानदार और सहज लोगों के प्रति मेरे मन में गहरा लगाव है. मैं वैसे चरित्रों की रचना कर, उनके संघर्ष की कथा कहकर एक संतोष पाता हूं. 

दरअसल इस तरह मैं अपनी जिंदगी को ही फिर से रचता हूं. यह पुनर्रचना मुझे एक संतोष देती है. मुझे जो कहना होता है वह मैं साफ-साफ कहता हूं. यह वह भाषा है, जिससे मैं खुद से बात करता हूं. मुझे इस बात की परवाह नहीं है कि यह समकालीन कविता की भाषा है या नहीं. मेरी कविताएं, कविता की कसौटी पर खरी उतरती है या नहीं, यह भी मेरे लिए कोई मुद्दा नहीं है. साहित्य से मुझे जो पाना है, उसका संबंध मेरे आंतरिक जीवन से है, बाह्य जीवन से नहीं. साहित्य की वजह से ही मैं जीवित हूं, इससे ज्यादा और क्या चाहिए! 

मेरा सरोकार साहित्य से है, साहित्य संसार से नहीं. हां, यह उत्सुकता मेरे भीतर जरूर रहती है कि यथार्थ की पुनर्रचना के जरिए मैं किसी को अपने समय को समझने में मदद कर पा रहा हूं या नहीं? अगर ऐसा थोड़ा-बहुत भी हो रहा है तो यह मेरे लेखन की सार्थकता है. यानी मेरा लिखना मुझे ही नहीं कुछ और लोगों के भी काम आए. बस इसीलिए मैं अपनी कविताओं के प्रकाशन में रुचि लेता हूं.

राजनीति मेरे लिए बेहद अहम है क्योंकि यह सामाजिक जीवन की जटिलता और विभिन्न स्तरों पर चल रहे संघर्षों को समझने का एक सूत्र देती है. इसी के जरिए मानवीय शोषण के विविध रूपों को भी पहचानने का अवसर मिलता है.  एक बेहतर जीवन की खोज की लड़ाई एक राजनीतिक लड़ाई भी है. इसलिए मेरी कविताएं राजनीति के विविध स्तरों को उद्घाटित करने का भी काम करती हैं. शोषकों को बेनकाब करते हुए मैं शोषित आम आदमी के संघर्ष को आगे बढ़ाने की कोशिस करता हूं. यह काम मैं सामान्य जीवन में नहीं कर पाता. संभव है कभी भविष्य में करूं भी, लेकिन मेरी यह इच्छा फिलहाल कविता के माध्यम से पूरी हो रही है. इस दृष्टि से भी मेरा लेखन मेरे लिए महत्वपूर्ण है.  




क  वि  ता  एँ
___________


मेरापता

अपनापताकोईठीक-ठीककैसेबतासकताहै

अबयहपूरीतरहसचथोड़ेहीहैकि
मैंकिसीएकशहरकेकिसीमोहल्लेके 
किसीफ्लैटमेंरहताहूं 
औरयहभीसचकहांहैकिमैंकिसीदफ्तरमेंरहताहूं
आठसेदसघंटेरोजाना

कुछजगहोंपरहमेशाकिसीकापायाजाना
वहांउसकारहनानहींहै  
मैंबार-बारवहींचलाजाताहूं 
जहांरहनाचाहताहूं 
भलेहीकोईमुझेकिसीबसस्टैंडपरखड़ादेखेया
किसीबहुमंजिलीइमारतकी
एकछोटीकोठरीमेंदूसरेकादियाहुआकामकरते  


अपनीमर्जीकीजगहपररहना 
एकतनीहुईरस्सीपरचलनेसेकमनहींहै

अगरमैंकहूंकिएकरस्सीहैमेरापतातो 
यहगलतनहींहोगापर 
ऐसाकौनहैजोमुझेवहांमिलेगा 

मिलनेवालेसुविधाजनकजगहपरमिलनाचाहतेहैं 

मैंउनसेकभीनहींमिलता
जोइसलिएमिलतेहैंकि 
मुझसेमिलाकररखसकें 

उनसेहाथमिलातेहुए 
असलमेंमैंउनकाहाथझटकरहाहोताहूं
जबवेअपनीबनावटीहंसी 
मेरीओरफेंकरहेहोतेहैं
मैंउनसेबहुतदूरनिकलचुकाहोताहूं
अपनेअड्डेकीओर.     




दासता

दासताकेपक्षमेंदलीलेंबढ़तीजारहीथीं
अबजोरइसबातपरथाकि 
इसेसमझदारी, बुद्धिमानीयाव्यावहारिकताकहाजाए
जैसेकोईनौजवानअपनेनियंताकेप्रलापपर
अभिभूतहोकरतालीबजाताथा
तोकहाजाताथा
लड़कासमझदारहै

कुछलोगजबयहलिखकरदेदेतेथेकि
वेवेतनकेलिएकामनहींकरते 
तोउनकेइसलिखितझूठपरकहाजाताथा
किउन्होंनेव्यावहारिककदमउठाया

अबशपथपूर्वकघोषणाकीजारहीथी
किहमनेअपनीमर्जीसेदासतास्वीकारकीहै
औरयहजोहमारानियंताहै
उसकेपासहमींगएथेकहनेकि
हमेंमंजूरहैदासता
हमखुशी-खुशीदासबननाचाहेंगे
ऐसालिखवालेनेकेबाद
नियंतानिश्चिंतहोजाताथाऔरभारमुक्त.

अबबेहतरदासबननेकीहोड़लगीथी
एकबारदासबनजानेकेबादभी
कुछलोगअपनेमनकेपन्नोंपर
कईकरारकरतेरहतेथे
जैसेएकबांसुरीवादकतयकरताथाकि
वहअगलेपचासवर्षोंकेलिए
अपनीबांसुरीकिसीतहखानेमेंछुपादेगा
कईकविअपनीकविताएंस्थगितकरदेतेथे

येलोगसमझनहींपातेथेकि
आखिरदासतासेलड़ाईकाइतिहास
क्योंढोयाजारहाहै
औरशहीदोंकीमूर्तियांदेखकर
उन्हेंहैरतहोतीथीकि
कोईइतनीसीबातपरजानकैसेदेसकताहै!



निवेशक

वहमुझेएकगुल्लकसमझताहै 
औररोजअपनानमस्कारमुझमेंडालदेताहै 
वहएकदिनसूदसहितअपनेसारेनमस्कार 
मुझसेवसूललेगा 

उसकेलिएअभिवादनभीनिवेशहै 
औरधन्यवादभी 
किसीकेबालोंकीतारीफ 
वहयूंहीनहींकरता 
किसीकीकमीजकोअद्भुतबतातेहुए
वहअंदाजालगा  रहाहोताहैकि
वहकितनेलाखकाआदमीहै

 वहअपनीमुस्कराहटकापूराहिसाबरखताहै 

जबकिसीकीमिजाजपुर्सीकेलिए 
गुलदस्ताऔरफलोंकीटोकरीलिए 
वहजारहाहोताहै
उसकेभीतरअगलेपांचवर्षोंकीयोजना 
आकारलेरहीहोताहै 
वहसोचरहाहोताहैकिइसबीमारव्यक्तिसेकहां
कब-कबक्याकामनिकालाजासकताहै.



ताकत

ताकतअबऔरताकतवरहोतीजारहीथी
अबवेदिनगएजबएकनंगाफकीरदुत्कारदेताथा
एकविजेताको
अबविजेतासंतोंकीटोलीलेकरसाथचलताथा
जोउसकीजय-जयकारकरतीरहतीथी,
विजेताखुदअपनेकोसाधकबतायाकरताथा

अबभूखकीताकतसेउसेझुकानामुश्किलथा
उसकाउपवासअकसरमुख्यखबरबनाकरताथा
अबत्यागकीशक्तिसेउसेडरानाकठिनथा
उसकादावाथा
अपनागाहर्स्थ्यसुखछोड़दियाउसनेमानवताकीसेवामें


कवियोंकोगुमानथाकिवेनकारसकतेहैंसत्ताधीशोंको
अपनीकविताओंमेंउन्हेंधूलचटासकतेहैं
परअबएकतानाशाहभीकविथा
सधेहुएकवियोंसेकहींज्यादा
बिकतीथींउसकीकिताबें
ख्यातिप्राप्तआलोचकोंनेसिद्धकियाथा
उसेअपनेसमयकाएकमहत्वपूर्णकवि
जाने-मानेविद्वानअबनौकरीकरतेथेउसकी.





न्यायमूर्ति-1

हेन्यायमूर्ति
दूरसेदेखतारहताहूंआपको
आपकेशब्दकानोंमेंगूंजतेहैं
आकाशवाणीकीतरह

आपहंसतेहैं
तोलगताहैपत्थरका
कोईदेवतामुस्कराउठाहो

आपजबकहतेहैं
सबकोन्यायदेंगे
तोमनभरआताहै

कैसेआऊंआपतकहेदेव
आपतकआनेकारास्ता
इतनाआसाननहीं

आपकोसबूतचाहिए
औरमेरेपाससचकेसिवाऔरकुछनहीं


सचकोसबूतमेंढालना
मेरेजैसोंकेलिए
एकयुद्धसेकमनहीं

सचऔरसबूतकेबीचएक
गहरीखाईहैश्रीमान
जिसमेंउड़तेरहतेहैंविशालडैनोंवालेकानूनकेपहरुए
जोसंविधाननहीं, सिक्कोंकीसेवामेंलगेरहतेहैं

आएदिनएकलड़कीसिर्फ
इसलिएजानदेदेतीहैकि
वहअपनेसाथहुएबलात्कारको
बलात्कारनहींसाबितकरपाती

एकआदमीखुलेआमभीड़केहाथों
माराजाताहै
परउसकीहत्या
कभीहत्यानहींसाबितहोपाती

मिलॉर्ड, मैंडरताहूं
किकहींमेरीबेडौलशक्लदेख
आपपूछबैठें
मैंकिसदेशकावासीहूं

एकबूढ़ेपेड़नेदेखाहैमेराबचपन
औरएकनदीकोमालूमहैमेरापता
परक्याआपउनकीगवाहीमानेंगे?



न्यायमूर्ति-2

हेन्यायमूर्ति
जबआपकीआंखोंमेंआंसूदेखे
तोडरगया

लगाकि
किसीनेधक्का
देदियाहो
एकअंधेरीखाईमें

हालांकिआपसेहमारा
सीधा-सीधाकोईवास्तानहीं
परआपकोदेखकरभरोसाबनारहताहै
ठीकउसीतरहजैसेसूरजकोदेखकर
विश्वासबनारहताहैकि
हमारेजीवनमेंथोड़ीरोशनीतोरहेगी

आपकोरोतेदेख
सवालउठा
आखिरकौनहैजो
न्यायकोभीबनारहाअसहाय

हमारेइलाकेमें
सबकुछधीरे-धीरेआताहै
यहांदेरसेपहुंचीसड़क
देरसेपहुंचेबिजलीकेखंभे
देरसेपहुंचेस्कूलऔरअस्पताल
लेकिनअबतकनहींपहुंचासंविधान

कुछलोगकहतेहैंसविधानकारास्ता
रोकदियागयाहै
कुछकहतेहैंकिवहचुकाहै
परहमारीआंखेंउसेदेखनहींपारहीं

हेन्यायमूर्ति
आपकीविकलतादेख
बहुतकुछसाफहोगया
समझमेंगयाकिहमारेजीवनमें
अबतकइंद्रधनुषबनक्योंनहीं
उगपायासंविधान.







गऊजैसीलड़कियां

अबभीकुछलड़कियां
गऊजैसीहोतीथीं

हरबातमेंहांकहनेवाली
मौनरहकरसबकुछसहलेनेवाली
किसीभीखूंटेसेचुपचापबंधजानेवाली

हमारीसंस्कृतिमें
सुशीलऔरसंस्कारीकन्याओंके
यहीसबगुणबताएगएहैं

गऊजैसीलड़कियोंकेमां-बाप
गर्वसेबतातेथे
किउनकीबेटीगऊजैसीहै

वेनिश्चिंतरहतेथे
किउनकीनाकहमेशा
ऊंचीरहेगी
क्योंकिउनकीबेटीगऊजैसीहै

वेगऊजैसीलड़कियां
इतनीसीधीथींकि
समझनहींपातीथींकि
उनकेघरकेठीकबगलका
एकइज्जतदारआदमी
जिसेवहरोजप्रणामकरतीहैं
असलमेंएकशिकारीहैं
वेतोयहभीनहींभांपपातीथीं
किअपनेपतिकीनजरमेंवेदुधारूनहींहैं
उनकीदुनियाइतनीछोटीथी
किउन्हेंयहभीनहींपताहोताथा
किगायोंकीरक्षाकेलिए
गली-गलीमेंबनरहीहैंसेनाएं

जबउनमेंसेकिसीकेचेहरेपर
तेजाबफेंकाजाता
याकिसीपरकिरासनतेलउड़ेलाजाता
याकिसीकेकपड़ेफाड़ेजाते
तबवहगायकीतरहहीरंभातीथी
बसथोड़ीदेरकेलिए

गौरक्षकोंतकनहींपहुंच
पातीथीउसकीआवाज.



हत्यारे

हत्यारोंकोइतनासम्मान
पहलेकभीनहींमिलाथा

प्रकाशकउतावलेथेकि
हत्यारेकुछलिखें
आत्मकथाहीसही

उनकीकिताबेंबेस्टसेलरहोरहीथीं
उनकीकिताबकेलोकार्पणमें
वेनामचीनआलोचकभीपहुंचजायाकरतेथे
जिन्हेंअपनेआयोजनमेंबुलानेकेलिए
तरसजातेथेकविगण

हत्यारेकिसीहड़बड़ीमेंनहींरहतेथे
वेहमेशादिखतेथे
विनम्रऔरप्रसन्न

वेगली-मोहल्लोंमेंआरामसेघूमतेरहते
कभीभु्ट्टाखाते
कभीपतंगउड़ाते
बच्चोंकेसाथछुपन-छपाईखेलते

होलीदशहराईदजैसेपर्वोंमें
वेअक्सरसड़कपरझाड़ूलगाते
यापानीकाछिड़कावकरतेदिखजाते

अबहत्यारे
हत्याकरनेकेबादछुपतेनहींथे
वेनिकलतेथेअगलेदिनझुंडमें
मोमबत्तियांलिएहाथमें
हत्याकेविरोधमेंनारेलगातेहुए

जबमारेगएलोगोंकी
निकलरहीहोतीशवयात्रा
हत्यारेदिखजाते
आगे-आगेचलतेहुए
अर्थीकोकंधादिए 

उन्हेंहत्याराकहनेकीभूलकरें
आपसेइसकासबूतमांगाजासकताहै
आपमु्श्किलमेंपड़सकतेहैं. 





बोलतीहुईचीजें

अबचीजेंआदमीसेज्यादा
मुखरऔरसक्रियथीं
वेइंसानसेएककदमआगेबढ़कर
फैसलेकररहीथीं

होसकताहैआपकिसीव्यक्तिसेमिलनेजाएंतो
अपनेस्वागतमेंमेजबानसेपहले
उसकेघरकेसोफेकोहिलताहुआपाएं

इसबातकीपूरीगुंजाइशहैकिवहसोफाहीतयकरेकि
आपकोमुलाकातकेलिएकितनावक्तदियाजाए
औरदीवारपरटंगीएकघड़ीयहफैसलाकरे
किआपकोचायमिलेयापानीपरहीटरकायाजाए

यहकाममेजबानकीकमीजभीकरसकतीहै
आपकीकमीजकाढंगसेमुआयनाकरनेकेबाद.

वैसेउसव्यक्तिसेमिलकरजानेकेबादभी
यहभ्रमबनारहसकताहै
किउसीसेमुलाकातहुई
याउसकेमोबाइलसे.



टूटतेघर

बेघरतोखैरबेघरथेही
जिनकेघरथे
उनमेंसेभीकई
अपनेघरकोघरनहींमानतेथे
कोईकहताथा
वहघरनहीं
पागलखानाहैपागलखाना

किसीकोअपनाघरमरुस्थलकीतरहलगताथा
जिसमेंकुछछायाएंकभी-कभारडोलतीनजरआतीथीं

अबघरोंमेंसुकूननहींथा
नींदनहींथी
एकआदमीनींदकीतलाशमें
घरसेनिकलकरएकपेड़केनीचेलेटजाताथा

घरमेंरोनातकमुश्किलथा
सिर्फरोनेकेलिएएकस्त्री
सड़ककेएकखंभेसेसटकरखड़ीहोजातीथी

जोघरबाहरसेदिखतेथे
चमकदार, सुसज्जित
वेअंदरसेझुलसेहुएथे
एकधक्केसेगिरसकतीथीउनकीदीवारें

घरटूटरहेथे
परकोईउन्हेंबचानेनहींरहाथा

कोईऔरतघरबचानेकेलिए
अपनीहड्डीगलानेकोतैयारनहींथी
अपनेसपनेकोतंबूकीतरहतानकररहनाउसेमंजूरथा
परघरमेंरहकरबार-बारछलाजानानहीं

घरतहस-नहसहोरहेथे
औरबसभीरहेथे 

नयाघरबसानेवालेभीआश्वस्तनहींथे
किउनकाघरकितनेदिनोंतकघरबनारहेगा
उन्हेंअपनी-अपनीउड़ानकीचिंताथी
वेजमीनमेंपैरधंसाकररहनेकोतैयारनहींथे.
___________


संजय कुंदन
जन्म: 7 दिसंबर, 1969, पटना में
पटना विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में एमए.

संप्रति: हिंदी दैनिक नवभारत टाइम्स’, नई दिल्ली में सहायक संपादक

संपर्क: सी-301, जनसत्ता अपार्टमेंट, सेक्टर-9, वसुंधरा, गाजियाबाद-201012(उप्र)
मोबाइल: 09910257915

ग़ालिब की दिल्ली : सच्चिदानंद सिंह

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मिर्ज़ा असदुल्लाह खां ग़ालिब (27 दिसम्बर1797-15फरवरी 1869) पर अगर बातें हों तो वे भी उनकी शायरी की ही तरह दिलकश और दिलफरेब हो जाती हैं. असल चीज है विडम्बना जो उनकी शायरी के मूल में हैं. नासिर काज़मी ने कभी कहा था-
   
भरी दुनिया में जी नहीं लगता
जाने किस चीज़ की कमी है अभी.”
  
यही वह जगह है जहाँ से महानतम साहित्य फूटता है और पसरता है. दिल्ली में ग़ालिब
विडम्बनाओं के मीनार पर बैठे हैं. इस दर्द की कोई दवा नहीं है-

“दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है.”

मुगलिया तहज़ीब और शासन के ध्वंस पर बैठा शायर एक तरफ देशी अफरातफरी को देख रहा है वहीँ ब्रितानी प्रभाव और आधुनिक सभ्यता को भी परख रहा है. वर्षों से पनपी उदार विचारों के बीच कट्टर सोच के उदय को भी देख रहा है. गरज़ कि विरोधी युग्मों के संगम पर खड़ा है और अपने को सहेजने और बचाने में लगा हुआ है.

देहली के रहने वालो 'असद'को सताओ मत
बे-चारा चंद रोज़ का याँ मेहमान है.
                                                                            

सच्चिदानंद सिंह का ग़ालिब पर गहरा अध्ययन है और इस लेख में वह ग़ालिब की दिल्ली को बयाँ  कर रहें हैं.




ग़ालिब की दिल्ली
सच्चिदानंद सिंह









ठारहवीं सदी हिन्दुस्तान में मराठों की सदी कही जा सकती है. छत्रपति शिवाजी ने मराठों को संगठित कर दिया था और इस सदी में वे हिन्दुस्तान की सर्वोच्च शक्ति के रूप में उभरे. एक समय उनका प्रभाव दक्षिण में तंजवुर से उत्तर में पेशावर तक फैला हुआ था. वहीं मुग़लों का साम्राज्य अपनी अंतिम साँसें गिन रहा था और उनकी राजधानी दिल्ली शायद अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही थी. औरंगजेब की मौत (1707) के बस बारह साल बाद 1719 में मराठे सैनिक दिल्ली तक पहुँच चुके थे. शायद मराठों का यह पहला दिल्ली अभियान बहुत कीर्तिकर नहीं था. मुसलमान इतिहासकारों के अनुसार फार्रूखसियार की बादशाहत के आखिरी दिन हजारों मराठा सैनिक दिल्ली की गलियों में मारे गए थे. हजारों नहीं तो सैकड़ों शायद मारे गए हों पर जो बच गए वे कुछ महीनों के लिए बने नए बादशाह रफी उद्दर्जात से तीन फरमान ले गए- दक्षिण के सभी सूबों से चौथ (कुल लगान का चौथा हिस्सा) वसूलने का अधिकार, सरदेशमुखी (बचे तीन चौथाई का दसवां हिस्सा) वसूलने का अधिकार और स्वराज्य यानी छत्रपति शिवाजी की जीती सम्पूर्ण भूमि पर उनके वंशजों का राज.

रोचक बात यह थी कि इस समय तक दक्षिणी सूबों पर मुग़ल साम्राज्य की कोई पकड़ नहीं रह गयी थी. जो संपत्ति अपनी नहीं हों उन्हें दूसरों को दान कर देने में किसी को कभी कोई आपत्ति नहीं हो सकती. बादशाह मराठों को, या किसी को भी, दक्षिण में कर वसूलने से नहीं रोक सकता था. फिर भी बादशाहत के साथ कुछ ऐसा ऐतिहासिक तिलस्म जुड़ा हुआ था कि मराठों ने अपने साम्राज्य की नींव में मुग़ल बादशाह के फरमान को रखना आवश्यक समझा. शाही फरमान ने युद्ध में जीते क्षेत्र पर उनके अधिकार को वैध करार दिया. इसके कोई बीस साल बाद 1739 में फ़ारस के नादिर शाह ने मुग़ल खजाने और दिल्ली शहर को बेरहमी से लूटा. जाते-जाते शाहजहाँ के बनवाए, रत्नों से मंडित तख़्त-ए-ताऊस (मयूर सिंहासन) को भी नादिर लेता गया. गौरतलब है कि नादिर का यह आक्रमण मुग़ल साम्राज्य के पतन का कारण नहीं था, वह साम्राज्य के खोखले हो चुकने का एक प्रभाव था- अकबर और शाहजहां के उत्तराधिकारी अब अपना सिंहासन भी सुरक्षित नहीं रख पा रहे थे, देश की रक्षा वे क्या कर सकते थे. औरंगज़ेब के बाद कोई शक्तिशाली वारिस मुग़ल तख़्त पर नहीं आया. बादशाह अपने वज़ीरों और सरदारों के हाथों के खिलौने बनते रहे. नादिर के बाद अफगानिस्तान के अहमद शाह अब्दाली ने अनेक बार हिन्दुस्तान पर आक्रमण किये.

1756/7 में, अपने चौथे आक्रमण में वह दिल्ली आया और नादिर की लूट के बाद दिल्ली में जो कुछ भी बच गया था वह सब समेट कर लेता गया. तब तक मराठे उत्तर भारत पर छा चुके थे. 1761 में पानीपत की तीसरी लड़ाई में मराठों को पराजित कर अब्दाली ने उन्हे पंजाब से निकाल दिया, लेकिन दिल्ली के इर्द-गिर्द वे जमे रहे.

इस बीच, 1783 में सिक्खों ने दिल्ली पर चढाई की, लाल किले को फतह किया और उनका एक सरदार, जस्सा सिंह अहलूवालिया, कहते हैं थोड़े समय के लिए, दीवान-ए-आम में बादशाह के तख़्त पर भी बैठा. पर सिक्खों को लाल किला या दिल्ली की सल्तनत नहीं चाहिए थी. वे नज़राना चाहते थे, और वे सिक्ख गुरुओं से जुड़ी दिल्ली की सभी जगहों पर गुरद्वारे बनाना चाहते थे. बादशाह से उन्होंने नज़राना वसूला और बादशाह के खर्चे से, जहाँ-जहाँ वे चाहते थे, गुरद्वारे बनवा कर वापस लौट गए.
                 
देश में वज़ीरों और सरदारों का राज था. अलग-अलग सूबों के सूबेदार अपने को स्वतंत्र घोषित रहे थे. कहने के लिए मुग़ल बादशाह अभी भी हिन्दुस्तान का शहंशाह था मगर मराठों को पराजित कर,सितम्बर 1803 में जब लॉर्ड लेक जमुना पार कर दिल्ली में प्रवेश कर पाया था उस समय तक बादशाह का दरबार और खज़ाना, दोनों लंबे अरसे से खाली पड़े थे. बादशाह शाहआलम दृष्टिहीन था,रुग्ण और असहाय भी. यह वही शाहआलम था जिसने कभी बक्सर के मैदान में कंपनी की फ़ौज से लोहा लेने की ठानी थी. उसे अरबी, फारसी, तुर्की और हिन्दुस्तानी भाषाओं पर अधिकार था.

आफ़ताबतखल्लुस से वह उर्दू में शायरी भी करता था. मगर उसके जीवन में एक के बाद दूसरी पराजय ही लिखी थी. अफ़गानों ने उसकी आँखों की ज्योति छीन ली थी. मराठों ने उसे उसी के किले में बंदी बना कर रखा था. लेकिन फिर भी था तो वह बादशाह! अंग्रेज जानते थे कि उनके राज को बस मुग़ल बादशाह ही वैध ठहरा सकता था और उन्होंने बादशाह के खर्चे बाँध कर उसे अपने कब्ज़े में ले लिया और सियासत की सभी जिम्मेदारी से उसे मुक्त कर दिया. शाह आलम अब बस क़िला-ए- मुआला में सर्वे-सर्वा था. किले के बाहर अंग्रेज हाकिम बहाल थे.

बादशाह को अंग्रेजों ने संभाल कर रखा था क्योंकि हिन्दुस्तान के सभी राजा और नवाब खास तौर पर सभी मुसलमान सरदार अभी भी लाल किले में बैठे मुग़ल को अपने दिल में हिन्दुस्तान का बादशाह समझते थे, चाहे उसे कर या नजराना कोई नहीं दे. अंग्रेजों के लिए बादशाह को पाले रखना एक फायदे का सौदा था.

अंग्रेजों ने न सिर्फ बादशाह को पेंशन और कुछ विशेषाधिकार देकर मुग़ल बादशाहत के स्वांग को ज़िंदा रखा था, बल्कि दिल्ली के निकट अनेक स्वतंत्ररियासतें भी खड़ी कर दीं थीं, मुख्यतः उन मुसलमान सरदारों की जिन्होंने मराठा और जाटों से लड़ने में उनकी सहायता की थी. अंग्रेज सेनापति लेक दिल्ली को कंपनी के प्रति वफादार रियासतों से घेरे रखना चाहता था. जो नयी रियासतें आयीं उनमे एक तो फिरोजपुर-झिरका की रियासत थी, जहाँ के नवाब अहमद बख्श खाँ की बहन की शादी ग़ालिब के चाचा नसरुल्लाह से हुई थी और भतीजी उमराव की शादी ग़ालिब से हुई. और भी ऐसी कई रियासतें आयीं-पटौदी, दोजाना, झज्जर, बल्लभ गढ़, फार्रूख नगर और बहादुर गढ़.

1754 में बहादुर खाँ ने शर्फाबाद की जागीर का नाम बदल कर बहादुर गढ़ रखा था; चालीस साल बाद सिंधिया ने उसके वंशजों को जागीरदार रहने दिया और 1803 में जब वे मराठों को छोड़ अंग्रेजों के साथ हो गए तब लेक ने भी उन्हें जागीरदार बने रहने दिया. ऐसे ही फर्रूखनगर की रियासत थी जहाँ का फौजदार दलेल खां नवाब बन बैठा था. 1757 में जाटों ने फर्रूखनगर को जीत लिया था पर सात साल बाद नवाब वापस आ गया और लेक ने उसकी रियासत बरकरार रखी. निकट में बल्लभगढ़ जाटों का गढ़ था. 1775 में बादशाह ने इसे अजित सिंह को दिया, जिसके बेटे बहादुर सिंह को लेक ने मान्यता दी. एक पठान सरदार को, जो मराठों के साथ था, हरियाणे में दो परगने मराठों से मिले थे, जिन्हें दोजाने से बदल कर उसने दोजाना रियासत की नीव रखी थी. लेक ने इसे भी रहने दिया.

इसी तरह एक अफ़ग़ान सरदार फ़ैज़ खां को, जो मराठों का एक मनसबदार था और जो हवा का रुख देखकर लेक के साथ हो गया था, लेक ने बतौर ईनाम, 1803 में पटौदी का नवाब बना दिया. झज्जर भी एक ऐसी ही रियासत थी, जिसे लेक ने निजामत खां को दी थी. 1857 के बाद इन सात रियासतों में बस तीन बचीं थीं. ग़ालिब ने एक खत में इसका रोना रोया था,

नवाब गवर्नर जनरल बहादुर 15 दिसंबर को यहाँ दाखिल होंगे. देखिये कहाँ उतरते हैं और क्योंकर दरबार करते हैं? आगे के दरबारों में सात जागीरदार थे, उनका अलग अलग दरबार होता था- झज्जर, बहादुरगढ़, बल्लभगढ़, फ़र्रूख नगर, दोजाना, पटौदी, लोहारू. चार मादूमे महज़ (सर्वथा नष्ट) हैं, जो बाक़ी रहे- दोजाना, लोहारू और पटौदी ...”1 .

मगर यह बात पचास साल आगे की है.

1803 में लेक ने दिल्ली में अमन और चैन के दिन वापस ला दिए थे. अंग्रेज चाहे जितने भी नागवार लगते हों दिल्ली वालों ने उन्हें मराठों के मुकाबिले अधिक पसंद किया. नयी व्यवस्था में दृष्टिहीन बादशाह को लोभी, चापलूस दरबारियों ने घेर लिया. शाह आलम ने, जिसे मानो नया जीवन मिला था, अपनी बची खुची संपत्ति को इन दरबारियों पर लुटाना शुरू कर दिया. उसका कहा एक शेर सुना गया है:

आक़िबत की खबर खुदा जाने
अब तो आराम से गुज़रती है
(आक़िबत: मृत्यु के आसन्न होने पर पश्चाताप की अवस्था)

बहुत दिनों तक वह इस नए जीवन को नहीं जी पाया. 1806 में उसकी मौत पर अंग्रेजों की देखरेख में बादशाहत उसके बड़े बेटे अकबर शाह को मिली. इस बीच किले के अंदर, तिमूरी खानदान फैलता जा रहा था. जबतक तिमूरियों के हाथों सत्ता रही थी उनका खानदान सिकुड़ा रहा- बादशाह अपनी सुरक्षा के लिए अपने भाइयों और भतीजों के काम तमाम करता रहता था. अब जब सत्ता की जगह अंग्रेजों से मिलती पेंशन रह गयी थी तब खानदान बेतरह बढ़ने लगा. अनेक बीवियाँ और उनसे बेशुमार बच्चे आम बात थी. शाह आलम के बेटों की संख्या निश्चित रूप से नहीं जानी गयी है पर यह लिखा मिलता है कि उसके सोलह से अधिक पुत्र और दो पुत्रियां थीं, अकबर शाह द्वितीय के चौदह पुत्र और आठ पुत्रियां, और अंतिम मुग़ल सम्राट ज़फर के बाईस पुत्रों के ज़िक्र हैं. औरंगज़ेब के
समय तक सम्राट के भतीजे बचते ही नहीं थे और उसके पुत्रों के रहने के लिए साम्राज्य में किले या महलों की कोई कमी नहीं थी. अब बस लाल किला रह गया था. किले के अंदर बेहिसाब फैला शाही परिवार किस तरह रह रहा था इस पर अंग्रेज लेखकों के विचार बहुत अच्छे नहीं हैं.

चार्ल्स मेटकाफ ने, जो 1811 से 1819 तक दिल्ली में रेजिडेंट रहा था, लिखा है 2, किले में सैकड़ो थके हारे स्त्री-पुरुष रहते थे जिन्हें अपने भविष्य के लिए अब कब्र के सिवा कुछ और नहीं दीखता था. युवा भी थे, जिन्होंने यौवन की उन्मुक्त प्रवृत्तियों को पूरी छूट दे रखी थी. युवाओं की वासना और अधेड़ों के षड्यंत्र, यही दो शक्तियाँ किले के जीवन की मुख्य धारा बनी हुईं थी. जहाँ आत्म नियंत्रण नहीं हो वहाँ नैतिकता नहीं टिक सकती. कौटुम्बिक व्यभिचार, ह्त्या, विषप्रयोग, यंत्रणा आदि नित्य होने वाली बातें थीं. किले के समाज में सभी को जगह मिल जाती थी-  पहलवान, भांड़, चोर, शराब बनाने वाले, चोरी के माल खरीदने वाले, अफीम की मिठाइयां बनाने वाले, सभी. सियासी साजिशों की और गुप्त प्रेम संबंधों की योजनाएं बनती रहतीं थीं. भाई-भाई के विरुद्ध षड्यंत्र रचते थे, कोई पत्नी अपनी सौत के विरुद्ध रचती थी तो कोई गणिका किसी की पत्नी के विरुद्ध. यदि किसी की हत्या हुई तो शव को छिपा कर दूर कर देने के लिए यमुना सबों को सुलभ थी.

मगर इसी किताब में मेटकाफ ने यह भी लिखा है कि जगदीशपुर, बिहार का कुँअर सिंह बिठूर में बैठे नाना से नियमित पत्राचार कर रहा था और कि कुँअर ने बिहार के भूपतियों को 1857 में कंपनी के खिलाफ खड़े करने के प्रयास किये थे. इन दोनों बातों के कोई प्रमाण नहीं मिलते हैं. इस लिए मेटकाफ के लिखे किले के जीवन के वर्णन में अतिशयोक्ति असम्भव नहीं है. किंतु यह ऐतिहासिक सत्य है कि शाही परिवार के जितने वयस्क पुरुष सदस्य उन्नीसवीं सदी में किले के अंदर रह रहे थे उतने पहले कभी नहीं रहे थे. तत्कालीन चित्रकार मज़हर की एक कलाकृति में किले के अन्दर मिटटी के बने घर देखे जा सकते हैं.

यूँ तो सच्चाई क्या है यह आँकना आसान नहीं है किंतु जब वली अहद (युवराज) फखरू की मौत हुई थी, जो ग़ालिब का एक शागिर्द था और हर महीने ग़ालिब के दत्तक पुत्रों के मेवे खाने के लिए अलग से दस रूपये देता था, तब शक की सूई बहुत समय तक बहादुर शाह की चहेती, आखिरी बीबी बेग़म ज़ीनत महल के इर्द-गिर्द घूमती रही जो अपने बेटे जवाँ बख़्श को वली अहद बनाना चाहती थी. उसी तरह जब 1853 में कंपनी के दिल्ली स्थित एजेंट थॉमस मेटकाफ की संदेहात्मक स्थिति में मृत्यु हुई तब फिर शहर ने बेग़म ज़ीनत महल द्वारा विषप्रयोग करवाने का संदेह किया था.

मगर यह बात भी ग़ालिब के दिल्ली आने के कोई चालीस वर्षों के बाद की है. जब ग़ालिब दिल्ली आए थे उस समय मुग़ल तख़्त पर मोइनुद्दीन मुहम्मद अकबर शाह सानी (द्वितीय) था. कहने को तो वह मुग़ल बादशाह था पर अब अंग्रेज उसे बस दिल्ली का शाह कहते थे. अकबर शाह वाकई इससे अधिक कुछ नहीं था, शायद इतना भी नहीं. वह अभी भी 1631-32 में शाहजहां के बनवाए लाल किले में रहता था, जिसका घेरा एक मील से कम नहीं है. उसके दरबार अभी भी उसी खूबसूरत दीवान-ए-आम और सफेद संगमरमर से बने उसी दीवान-ए-ख़ास में लगते थे, मगर उन दरबारों में सियासी बातें नहीं होतीं थीं क्योंकि सियासत बादशाह के हाथ से दूर जा चुकी थी. फिर भी, धीरे-धीरे दिल्ली में पुरानी चमक वापस आ रही थी.

करीब सौ साल तक उथल पुथल झेलने के बाद दिल्ली के इर्द-गिर्द का इलाका अमन चैन से जी रहा था और आस पास के राजा-नवाब दिल्ली की शान-शौकत बढ़ा रहे थे. बादशाह पुराने मुग़ल वैभव से बहुत दूर था; उसके महल में हाथी दाँत और चांदी की कुर्सियों पर गंदे, फटे, पुराने गद्दे रहते थे;फर्श पर बेहतरीन गलीचे और सस्ती दरियाँ साथ-साथ बिछीं रहतीं थीं, किले के अंदर पत्थर के मकानात के साथ साथ मिटटी से बने घर भी दीखते थे 3लेकिन शहर रौनक हो चला था. बादशाह की सम्पत्ति सिकुड़ गयी थी; उसकी मुख्य आय थी अंग्रेजों से मिलती पेंशन, बारह लाख सालाना से कुछ कम. लाल किले को उस छोटी आमदनी पर वैभव में नहीं रखा जा सकता था. लेकिन बादशाह के प्रमुख दरबारी बस दरबार पर आश्रित नहीं थे. उनकी अपनी संपत्ति थी और शान्ति स्थापित हो जाने के बाद एक हद तक वे खुशहाल हो रहे थे. ग़ालिब के जीवन की पृष्ठभूमि से मुग़ल साम्राज्य के अवसान और छोटी रियासतों के उदय को अलग नहीं किया जा सकता.

रईसों की आमदनी गाँवों से आती थी जहाँ उनकी जायदाद हुआ करती थी मगर अपना समय वे मुख्यतः शहरों में बिताते थे, जहाँ की संस्कृति मिली जुली थी. आगरे में हम ग़ालिब को हिंदुओं के साथ पतंग लड़ाते या आधी-आधी रात तक शतरंज खेलते देखते हैं और दिल्ली में हिंदू महाजनों से क़र्ज़ लेते, अपनी हुंडी भुनाते, या फारसी लिख रहे हिंदू शायरों के कलाम सुधारते. ग़ालिब की पृष्ठभूमि में यही मिली-जुली शहरी संस्कृति थी. मुहम्मद मुजीब ने लिखा4 है,मुश्तरिक (मिली-जुली) शहरी तहज़ीब के नज़दीक शहर की वही हैसियत थी जो सहरा (मरुभूमि) में नख़लिस्तान (मरुद्वीप) की, शहर की फ़सील (परकोटे) गोया तहज़ीब को उस बरबरियत (पशुता) से बचाती थी जो उसे चारों तरफ से घेरे हुई थी.

शाहजहानाबाद के परकोटों के अंदर चौड़े चौड़े रास्ते थे, नहरें थीं और विस्तृत हरियाली भी. इसका बहुत खूबसूरत चित्रण दरबार के चित्रकार मज़हर अली खाँ ने 1844 में शायद कंपनी के एजेंट थॉमस मेटकाफ के लिए किया है. जो चीजें सबसे अधिक विस्मित करती हैं वे हैं शाहजहानाबाद की प्लानिंग,हरियाली और उसके चौड़े मुख्य मार्ग. यह चित्र ज़फर के काल का है किंतु अकबर शाह की दिल्ली इससे अलग नहीं थी. इसी दिल्ली में आगरे को छोड़ कर ग़ालिब आया था. इस दिल्ली में वह सब कुछ था जो दुनिया की किसी राजधानी में हो सकता था, सिवाय एक वैभवशाली, प्रभुत्व-संपन्न बादशाह के. इस दिल्ली के बारे में कहा गया है,  शहर आबाद, रिआया दिलशाद, अमीर अपने माल में मस्त, फ़क़ीर अपनी ख़ाल में मस्त. हर दिन जैसे ईद का दिन हो और हर रात शब-ए बारात5.

यह दिल्ली सही मानों में एक भरा पूरा शहर था. ग़ालिब के समय तक शहर जहानाबाद कहलाने लगा था-शाहजहानाबाद का लघुरूप. शाहजहाँ का बसाया शहर सत्ताईस फीट ऊंची दीवार से घिरा था. बारह फीट मोटी इस दीवार का घेरा लगभग चार मील था. इसमें सात बड़े बड़े दरवाजे थे- कश्मीरी, मोरी, काबुली, लाहौरी, अजमेरी, तुर्कमानी और अकबराबादी दरवाजे. किले के सामने जहाँनुमा मस्जिद थी. वहाँ से एक चौडी सड़क, जिसके बीच में एक पतली नहर थी, शहर के बाज़ार तक जाती थी. वहाँ शाहजहाँ की सबसे बड़ी बेटी जहाँआरा बेगम ने अपने पैसों से एक प्रमुख चौराहे को खुले अष्टभुजाकार क्षेत्र में विकसित किया था, चौराहे के केन्द्र में एक बड़े गोल हौज के बीच फव्वारा के साथ. चांद की रोशनी में उस फव्वारे और गोल हौज में चांद के झिलमिलाते बिम्ब की शोभा देखते बनती थी. बनने के तुरंत बाद से वह चौराहा चांदनी चौक कहा जाने लगा.

बाज़ारों की गहमा गहमी का बहुत सजीव चित्रण नवाब दरगाह क़ुली खाँ ने मुरक्का-ए दिल्ली में दिया है. दरगाह क़ुली हैदराबाद के निज़ाम का एक प्रमुख दरबारी था और वृत्तांत लेखक भी. जून 1738 से जुलाई 1741 तक वह निज़ाम आसफ जाह (प्रथम) के साथ दिल्ली में रहा था और उसने दिल्ली के उमरा, अवाम, गाने वाले, कोठे वालियां, सूफी, शायर, चित्रकार, और सामाजिक गतिविधियों के जीवंत विवरण लिख छोड़े हैं. चौक साद अल्लाह खाँ का वर्णन करते हुए उसने लिखा है, सुबह से शाम तक खरीददारों और तमाशबीनों की भीड़ के चलते बाज़ार में कहीं बित्ता भर भी जगह खाली नहीं दिखती थी. खास जगहों पर खास किस्म के व्यापार होते थे. किसी कूचे में हथियार सजे मिलते थे तो कहीं मेवे. किसी गली में अलग-अलग किस्म के चिड़ियों के बाज़ार लगते थे तो कहीं खूबसूरत कमसिन लडको के नाच होते रहते थे. कहीं भांड, विदूषक, स्वांगी, मसखरे ठिठोली करते थे तो कहीं धर्मविद विभिन्न महीनों में मुसलमानों के धार्मिक कर्तव्यों को बताते सुने जाते थे- रमज़ान में रोज़े के पुण्य,धुलहिज्जा में जियारत करने के नियम, मुहर्रम में इमाम हुसैन की शहादत आदि. किसी और कोने में ज्योतिषी भविष्य बताते थे. कमसिन लड़कों के गलों में बाहें डाले लोग निर्भीक घूमते मिलते थे. किसी कोने में लड़कियाँ भी मिलतीं थीं. और सूजाक, गर्मी की दवाएं भी, पता नहीं कितनी असरदार थीं वे दवाएं पर बेचने वाले उन्हें बेचना जानते थे 6. 1857 में चौक साद अल्लाह खाँ नेस्तनाबूद हो गया; मगर चांदनी चौक बच गया था.

अठारहवी सदी में धार्मिक विवाद भी कम नहीं हुए थे. अगली सदी भी उन विवादों से अछूती नहीं रही थी. सतरहवीं सदी से हिन्दुस्तान के इस्लामी विचारक मुग़लों के पतन के मूल में धर्म का क्षय देख रहे थे. उसे दूर करने के लिए नयी सहस्त्राब्दि (हि.) में इस्लाम के पुनर्जागरण का जो झंडा सिरहिंदीने लहराया था उसे अठारहवीं सदी में शाह वलीअल्लाह ने आगे बढाया. शाह वलीअल्लाह के समकालीन, अरब में एक धर्मविद मुहम्मद इब्न अब्द अल-वह्हाब हुआ था. अल-वह्हाब ने बसरा और बगदाद में इस्लामी फ़िक़ (धर्म-विधि) की कट्टरपंथी विचारधारा हन्बली में उच्च शिक्षा प्राप्त की थी और वह चौदहवीं सदी के विख्यात अनुदारवादी धर्मविद इब्न तैमिय्या के विचारों से बहुत प्रभावित था. इब्न तैमिय्या की तरह अल वह्हाब भी इस्लाम को उसके मौलिक रूप में देखना चाहता था, जिसे पैगम्बर मुहम्मद और उनके पहले चार खलीफ़ाओं ने जिया और दिखाया था.

भारत में भी शाह वलीअल्लाह ने इस्लाम के प्रचलित रूप को दोषपूर्ण पाया था और वह भी, अल वह्हाब की तरह, भारत में इस्लाम को उसके मौलिक रूप की ओर ले जाना चाहता था. शाह वलीअल्लाह और अल वह्हाब के विचारों की समानता को देखते हुए वलीअल्लाह को वह्हाबी कहा गया है. शायद यह गलत हो क्योंकि शाह स्वतंत्र रूप से उसी निष्कर्ष पर पंहुचा था, अल वह्हाब से प्रभावित होकर कतई नहीं.

वलीअल्लाह का पुत्र, ग़ालिब का समकालीन, शाह अब्दुल अज़ीज़ उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्ध में दिल्ली के सबसे नामी मुस्लिम धर्मविदों में गिना गया. हिन्दुस्तान में वह्हाबी आन्दोलन की पृष्ठभूमि तैयार करने में शाह अब्दुल का शायद सबसे अधिक योगदान रहा. मशहूर शायर मोमिन खाँ मोमिनअब्दुल  अज़ीज़ का विद्यार्थी रहा था, उसकी विचारधारा से प्रभावित और वह्हाबी आन्दोलन का समर्थक. मोमिन न सिर्फ ग़ालिब का समकालीन था, वह दिल्ली में ग़ालिब का एक अच्छा मित्र भी हुआ और मुशायरों में उसका प्रतिदंद्वी भी.

ग़ालिब तीस वर्षों के रहे होंगे जब रायबरेली के सईद अहमद ने अपनी नयी खिलाफ़त शुरू करने के लिए खैबर पख्तून्वा के इलाके को चुना था. दिल्ली और उसके पास के रईस मुसलमानों ने सईद अहमद के इस प्रयास को आर्थिक मदद दी थी. अफ़गान कबीलों ने भी शुरू में खुला सहयोग दिया,पर खैबर पख्तून्वा सिख साम्राज्य का भाग था और महाराजा रणजीत सिंह के सैनिकों के साथ लड़तेहुए 1832 में सईद अहमद मारा गया और उसकी मौत के साथ शरिया पर, मौलिक शुद्ध इस्लाम पर आधारित राज्य बनाने का यह प्रयास बिखर गया.

सईद अहमद वह्हाबी था और सच्चा इस्लामी राज्य स्थापित करना चाहता था. उसके अनुसार हिन्दुस्तान में इस्लाम दूषित हो गया था और इसके कारण थे यहाँ की पुरानी ग़ैर-इस्लामी संकृति,जिसके चलते, उसकी नज़र में, मुसलमान समाज अपने धार्मिक कर्म काण्ड से फिसल कर बहुत दूर चला आया था. अहमद और उसके अनुयायी विवाह के समय फूलों की मालाओं के उपयोग, दूल्हे की आँखों तक गिरते सेहरे, दाढ़ी नहीं रखने का प्रचलन, ईद के मौके पर गले मिलने, मुहर्रम में ताज़िया निकालने ... यहाँ तक कि किसी से मिलने पर अरबी सलामकी जगह फारसी आदाबसे अभिवादन करने का सख्त विरोध करते थे.

पिछली सदी में शाह वली-अल्लाह ने बादशाह अहमद शाह को लिखा था कि मुसलमानों के शहरों में काफिरों की परम्पराओं के लिए (जैसे होली या गंगा-स्नान) कोई जगह नहीं होनी चाहिए7. मुहर्रम की दसवीं तारीख पर शिया बाज़ारों में मूर्खतापूर्ण बातें न कहते चलें और उनके व्यवहार असंयमित नहीं हों. अहमद शाह ऐसा कुछ कर सकने में नितांत असमर्थ था किंतु उसके वारिस आलमगीर द्वितीय (1754-1759) ने शिया सम्प्रदाय पर रोक लगाने की असफल कोशिश की थी. मराठों के हाथों वास्तविक शक्ति रहने के चलते हिंदुओं के ऊपर किसी प्रकार के प्रतिबन्ध लगाए जाने के सवाल ही नहीं उठते थे. लेकिन शाह के विचार थे कि काफिरों के जनसंहार से मुसलमानों में विपदा, अमंगल घटता है 8. वलीअल्लाह ने संतों के मजारों पर जाने का भी सख्त विरोध किया था. उसके अनुसार मृत संतों की पूजा बुतपरस्ती से किसी तरह अलग नहीं हो सकती.

लेकिन शाह के लाख चाहने पर भी हिंदू और मुसलमान एक दूसरे के त्योहारों में दिलो जाँ से शरीक होते रहे. ऐसा सबसे बड़ा त्यौहार बसंतथा, जिसमे सात दिनों तक दिल्ली के आसपास के नामी संतों के दरगाहों पर मेले लगते थे जिनमे क्या हिंदू और क्या मुसलमान, सभी पूरे जोशो खरोश से भाग लेते थे. दरगाहों पर लगने वाले मेलों में किसी प्रकार का आध्यात्मिक या धार्मिक बंधन नहीं रहता था- आनंदोत्सव था, पुराने भारतवर्ष के मदनोत्सव के मानिंद.

जैसा कहा जा चुका है अठारहवीं सदी से ही पूरी दिल्ली शेरो-शायरी में रंग गयी थी. फारसी शायरी तो मुग़ल दिल्ली में सदियों से पनपती रही थी. अकबर के दरबार में फ़ारस से शायर अपने भाग्य अजमाने आते थे. शाहजहाँ के समय तक स्थानीय शायर भी चमकने लगे थे. मिर्ज़ा अब्दुल क़ादिर बेदिलऔर सिराज अल-दीन अली खाँ आरज़ूदो नामी शायर हुए. आरज़ू शायद सबसे पहले व्यक्ति थे जिन्हें संस्कृत और फ़ारसी के बीच सम्बन्ध दिख पाया था. बेदिल एक विख्यात सूफी, रहस्यवादी शायर के रूप में पनपे. ग़ालिब की शुरुआती शायरी पर बेदिल की गहरी छाप दिखती है. दिल्ली के ये फ़ारसी शायर सादी शिराज़ी (जिसने हिन्दुस्तान में भी अनेक वर्ष बिताए थे), हाफेज़, जामी आदि से प्रभावित रहे थे, पर इनकी शैली ईरान की शैली भिन्न थी; इतनी कि वह सब्के हिंदयानी हिंद की शैली कहलाई.

ग़ालिब के जन्म से कोई सौ साल पहले वली दक्कनी दिल्ली आये थे. दक्कनी एक मिली जुली भाषा में शायरी करते थे जो रेख़्ता कहलाती थी. जैसे प्राचीन भारत में बुद्ध और महावीर के पहले विद्वान नहीं मानते थे कि तत्वज्ञान की चर्चा देवभाषा संस्कृत छोड़ किसी और भाषा में हो सकती है वैसे ही सत्रहवीं सदी तक दिल्ली शहर भी नहीं मानता था कि फ़ारसी छोड़ रेख्ता में शायरी हो सकती थी. शायरी जैसी नफ़ीस चीज के लिए दिल्ली ने दक्कनी की भाषा को अनुपयुक्त समझा. मगर सबों ने उस मिली जुली भाषा को पूर्णतः अस्वीकार नहीं कर दिया.

औरंगज़ेब की मौत के करीब पचास साल पहले 1658 में मीर मुहम्मद जाफ़र एक शायर पैदा हुआ था जिसने ज़तल्ली तखल्लुस से अरबी, फारसी और रेख्ता-तीनो में लिखा. फ़ारसी शायरों के तर्ज पर ज़तल्ली ने अश्लील कविताएँ भी लिखीं और वह उर्दू का पहला व्यंग्यकार भी हुआ. बादशाह फ़र्रुखसियार के ऊपर लिखे एक व्यंग्य के चलते उस बादशाहत के पहले वर्ष, 1813, में ज़तल्ली को फांसी पर लटका दिया गया. ज़तल्ली ने पहली बार प्राकृत पर आधारित भाषाओं के शब्दों के रेख्ता शायरी में जम कर प्रयोग किये थे. उसकी अश्लीलता और फांसी की सज़ा से हुई उसकी मौत के चलते ज़तल्ली का नाम तो बहुत नहीं लिया गया किंतु भारतीय भाषाओं के शब्दों के प्रयोग अब रेख्ता में होने लगे और इस सदी के मध्य तक रेख्ता धीरे धीरे उर्दू में बदल गयी.

शाह आलम द्वितीय के दरबार की भाषा ही उर्दू कहलाई. उर्दू लघुरूप है, ज़बान-ए उर्दू ए मुअल्ला का और उर्दू-ए मुअल्ला यानी शाही शिविर दिल्ली (शाहजहानाबाद) को कहा जाता था 9.

1780 तक भाषा का नाम उर्दू हो चुका था. ज़तल्ली की मौत के सात साल पहले (अन्य मत से उसी साल) मिर्ज़ा मुहम्मद रफ़ी सौदाइस दुनिया में आ चुके थे. सौदा उर्दू के पहले क्लासिकी शायर माने जाते हैं. सौदा, दाग़ और मीर अठारहवीं सदी के तीन महान शायर हुए जो दिल्ली पर छाए रहे. लेकिन दिल्ली की लगातार तबाही होती देख सौदा और मीर, दोनों ने बाद में दिल्ली छोड़ लखनऊ दरबार की शरण ले ली थी. 

1738 की दिल्ली का वर्णन करते हुए नवाब दरगाह क़ुली खाँ ने मुरक्का-ए दिल्ली में लिखा है,चांदनी चौक की दुकानों में अतर, खंजर, चीनी मिटटी और कांच के मर्तबान, सोने-चांदी के गहने,बेशकीमती हथियार बहुत कुछ बिकते थे. लेकिन आकर्षण का सबसे बड़ा केन्द्र चौक का कहवाघर था. वहाँ कहवा तो मिलती ही थी, साथ साथ दिल्ली के शायरों को सुन पाने के मौके भी मिलते थे. शायर अपनी नयी रचनाएँ कहवाघर में पढ़ते थे और आम आदमी, जो न रईसों के मुशायरों में जा सकता था, न तवायफों की महफ़िलों में, कहवाघर में अपने प्रिय शायरों के कलाम के लुत्फ़ उठा सकता था 10.  

उन्नीसवीं सदी तक दिल्ली की तबाही, जैसा लिखा जा चुका है बीती बात हो चुकी थी. ग़ालिब की दिल्ली में शान्ति थी, समृद्धि भी थी. रईस और फ़कीर दोनों एक ज़ुबान बोलते थे और सुनते थे. उर्दू शेरो-सुखन उस दिल्ली के साहित्य का अंग नहीं होकर वहाँ के जीवन का अंग हो गया था11.
_______________________                     

1. मीर मेहदी हसन मजरूह के नाम 2 दिसंबर 1859; श्री राम शर्मा, ग़ालिब के पत्र, हिन्दुस्तानी अकेडमी प्रयागराज (1958); पृष्ठ: 364-365
  
2 सर चार्ल्स थिओफिलस मेटकाफ, टू नेटिव नैरेटिव्स ऑफ द म्यूटिनी, वेस्टमिन्स्टर, (1898), पृष्ठ 13-14

3 उपरोक्त, पृष्ठ 12

4 मुहम्मद मुजीब, ग़ालिब (भारतीय साहित्य के निर्माता), साहित्य अकादमी नयी दिल्ली, (2002), पृष्ठ 9

5 सईद वज़ीर हसन देहलवी, दिल्ली का आख़िरी दीदार, राना सफवी के अनुवाद सिटी ऑफ माई हार्ट से नई दिल्ली (2018), पृष्ठ 6

6 नवाब दरगाह क़ुली खाँ के मुरक्का-ए दिल्ली से; सईद अतर अब्बास रिज़वी, शाह वलीअल्लाह ऐंड हिज़ टाइम्स, कैनबरा (1980), पृष्ठ 175

7 सईद अतर अब्बास रिज़वी, शाह वली-अल्लाह ऐंड हिज़ टाइम्स, कैनबरा (1980); पृष्ठ 294

8 पूर्वोक्त; पृष्ठ 295

9 शम्शुर रह्मान फ़ारूक़ी, अनप्रिविलेज्ड पॉवर: स्ट्रेंज केस ऑफ पर्शियन (ऐंड उर्दू) इन नाइन्टींथ-सेंचुरी इन्डिया,ऐनुअल ऑफ उर्दू स्टडीज़, वॉल्यूम 13 (1998)

10 सईद अतर अब्बास रिज़वी, शाह वलीउल्लाह ऐंड हिज़ टाइम्स, कैनबरा (1980), पृष्ठ 176

11 शम्शुर रह्मान फ़ारूक़ी, अनप्रिविलेज्ड पॉवर: स्ट्रेंज केस ऑफ पर्शियन (ऐंड उर्दू) इन नाइन्टींथ-सेंचुरी इन्डिया,ऐनुअल ऑफ उर्दू स्टडीज़, वॉल्यूम 13 (1998
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sacha_singh@yahoo.com

मंगलाचार : अमिताभ चौधरी

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"बहुत कोमल है
टूटे हुए पत्ते की ऐंठ.     और
बहुत करुण ---
ऐंठ के टूटने की कर्कश-ध्वनि."




अमिताभ चौधरी राजस्थान के जिला चुरु के थिरपाली गाँव में रहते हैं, उम्मीद के साथ ये कविताएँ आपके लिए.   








अमिताभ चौधरी की कविताएँ                      


1. जल भरी झीलों पर झुककर
जल भरी झीलों पर झुककर
यदि मैं मिट्टी के कटने की तह देखता हूँ
तो मुझे अपना चेहरा दिखाई देता है.
मेरी आत्मा के पार्थिव जगत् !
क्या आकाश का शिल्प
इस बात का उत्तर है कि समतल रास्तों का नील
मेरा झील में दिखाई देता चेहरा है ?
                                                 
और
जो जल भरा है : मेरी इस दृष्टि की काट से ?
[
और मैंने उसी की ओंक भर अपनी प्यास बुझाई है!]







2. जितना तुम मुझे छू सको, छू लो
जितना तुम मुझे छू सको,
                            
छू लो! ----
व देखो कि मैंने स्पर्श की सीमाएँ बाँध दी हैं.
अंग वे सब [अ-पुष्ट] मैंने विसर्जित कर दिए हैं.
[
तुमसे छुए गए अपने अंग में : संप्रभ वह
                               
गंगा की तरह पवित्र हो गए हैं
                               
तो मुक्ति-विधायी होंगे!....]
अंत में, [यदि]
मेरे सामने रास्ता बच जाता है,
प्रतीक्षाएँ शेष रह जाती हैं तो मैं आँखें मूँद लेता हूँ
                             
---कि सब अंधकार में लीन हो जाए
                               
और मैं -----
एक स्वप्न जैसी नींद के भार से पलकें गिराए रखूँ
कि, नेपथ्य में --- भटकने के
                                 
  स्वाँग से रिक्त
मैंने देह उतारकर आत्मा तुम्हारे हाथ में रख दी है.







3. धुआँ ही साँस लगा है
धुआँ ही साँस लगा है,
                               
प्रिये! ----
आग की क्या गंध होती है?
चूल्हे पर की छत के काले जाले
फेफड़ों पर झूलते हैं तो रोटी की अन्न-भाषा में
मन को लार लगा आता हूँ :
           धुएँ पर इतनी वैधानिक चेतावनियाँ हैं
          
कि मैं खाली पेट
                                       
आग को
                                       
हथेली पर पाता हूँ
             जीभर जलता हूँ.







4. टूटे हुए पत्ते की स्थिति से
बहुत कोमल है
टूटे हुए पत्ते की ऐंठ.     और
बहुत करुण ---
ऐंठ के टूटने की कर्कश-ध्वनि.
जिस छाया में आने को तपा वह ग्रीष्म,
पीला पड़ा, कना, झड़ा : उस छाया में गिरा
क्या पेड़ के सूख जाने के कौतुक से भरा है?
                                                     
कि मैं ----
उसे हथेली पर रखकर
मुट्ठी भींचने से पहले सोचता हूँ  [कि]
                         "
तुम्हारे लिए इतनी दूर आने के बाद
यदि मैं इस छाया में पहुँचा हूँ तो यह रास्ता ख़त्म हो जाना चाहिए !"
                 [यद्यपि यह एक ऋषि की प्रार्थना नहीं है
                 
कि एक टूटे हुए पत्ते की स्थिति से
                 
बसंत नहीं आना चाहिए!]










5. अबोल ध्वनि सही
दृश्यों की राग लगी आँखें
पलक झपकाने में रहीं :
                      
हाँ! हाँ! हाँ!
                      
                           
नहीं! नहीं! नहीं!
रक्त नहाये उजाले. इसलिए
मैंने वह बात कविता में नहीं कही.
जैसे, एक अबोल ध्वनि सही :
                           हाँ, वही अँधेरा,
                                                
वही ----
जिसे आँखें मूँदकर स्वीकार किया गया. इसलिए नहीं
कि उसे स्वीकार किए जाने में दृश्यों की काट है.





6. एक ऐसे समय
           क्या जानता है समय
          
कि मुझपर खिंची सब रेखाएँ
          
उसके स्पर्श की हैं?
मैंने भी किसी को छुआ तो जैसे
समय को छू लिया है.
और नहीं छुआ है तो समय को नहीं छुआ है.
----एक ऐसे समय में
जबकि, मैं मरुस्थल का विस्तार किए
मिट्टी पर अपनी छाया देखते हुए सोचता हूँ
कि,
          
यदि यह मुझपर हो तो मैं एक क्षण साँस लूँ
          
और देखूँ कि मिट्टी पानी हो गई है.
           समय डूब गया है सूरज का अनुराग लेकर.










7. खेत मिट्टी से खाली नहीं होते, प्रिये
एक पुराने स्वप्न पर पलकें पड़ी हैं :
                 
अकाल वाले वर्ष पर किसान ने
                              
पसीना बुरका दिया है.
                  झीलें पानी से भर गई हैं.
                [
आकाश जैसे तारों से भरता है.]
                               एक अन्य ऋतु में
                              
कभी-कभी मैं सोचता हूँ :
                              
कितनी आग इस पानी के नीचे है
                              
जो आकाश पर तैर रहा है?
तुम मिलो तो मैं तुम्हें बताना चाहूँगा :
                       
भूख की आग चूल्हे की आग है,
                       
जो बुझती है तो भभकती है.
      [
किंवामरी हुई भूख अधिक पेट रखती है.]
राख पर अन्न पकता है तो ऋतु बदल जाती है.
चक्रवातों में कितनी ही धूल उड़े ---
                 खेत मिट्टी से खाली नहीं होते,   प्रिये!
[शब्दों से रिक्त पंक्तियाँ श्वेत पृष्ठ पर मौन व्यक्त नहीं करतीं :
                 अ-वर्ण का नील
                
आँखों में आकाश होता रहता है.]







8. बासी पानी की चिकनाई पर
ठीक है,-----
मैं काई पर पैर रखकर
पानी में चला जाता हूँ.
                    
तुम देखना :
                           बासी पानी की चिकनाई पर
                          
केवल पैर रखने की देर है! .....








9.रिक्त होने का आशय
तुम्हारा दिया हुआ कोई उपहार मेरे पास नहीं,
कि हाथ में. -----
                          कि जेब में. -----
                                                   कि आल्मारी में. -----
तुम्हारी कही हुई कोई बात इस सूने कक्ष में नहीं.
घर में कोई आहट नहीं,
तुम्हारे आने के पैरों की.
तुम्हारे हाथ का
कोई स्पर्श मेरी देह पर नहीं.
मेरी आत्मा पर तुमने कभी अपनी आँखें नहीं छुआई.
तुम्हारे न होने का एक अबाध रिक्त स्थान हैकेवल.
                                                 
जिसे मैंने,
कोष्ठक में बंद करके
पंक्तियों के सामने रखा है.
तुम्हारी ऐसी कोई स्मृति नहीं,
स्मृति का कोई चिह्न नहीं ----
कि उसे मैं साक्षी मानकर तुम्हारे होने-न-होने के अंतराल में
अपनी भाषा रख सकूँ.
मेरे पास कोई राह नहीं ----
कि मैं किसी पंक्ति से होकर कोष्ठक में आ सकूँ.
एक पंक्ति में भी यदि कोष्ठक के रिक्त होने का आशय
मैं नहीं बता सकूँ
तो तुम मेरी विवशता को क्या समझोगे?    [प्रिये!]
क्या कहोगे उस प्रेम को?---जिसे मैंने हवा में किया,
                                              ---
और साँस घोंटी.





10. समय को चाहते हुए
होने/न होने की अ-वशता के बीच
क्या है? [या]
क्या नहीं है? ----कि समय को चाहते हुए
आकाश की ओर नीली होती जाती रश्मियाँ
मेरी आँखें काटती हैं! .....
                      
जबकि, इन आँखों से मैंने तुम्हें देखा है
व समय को सुंदर कहा है!















11. शैया पर
एक बल
देह सारी खिड़की की ओर
धकेलता हूँ : एक और सिलवट समेटता हूँ
                                            
शैया पर.
खिड़की के शीशे पर सूरज की छाप चौंकाती है :
                                              
धुंध जैसी चिलक में,
बंद कमरे के ओझल दृश्य धुँधले-धुँधले दिखाई दे रहे हैं-
[
किंवा, श्वेत पृष्ठ पर न लिखी पंक्ति का नील-वर्ण.]
कि, मैं खिड़की के खुलने की कल्पना करके
                                       
एक प्राण हो रहा हूँ :
            देह की शिथिलता में
           
निर्जीव होने की हानि सह सकने योग्य
           
यदि मैं इस समय होऊँ तो यह शीशे चटखें :
धूप यह भोर की नहीं ---
चढ़ती दोपहर की है. और मैं विपरीत-शीर्ष इसे देख रहा हूँ
कि यह भभककर मुझे प्रतीक्षा-मुक्त कर सकेगी ---
जैसे यह खिड़की खुलेगी!
                                     खुलेगी!
                                                      खु ले गी!
[जैसे यह खिड़की कक्ष को चौमुख भीत से बाहर करेगी.]







12. एक क्षण
एक क्षण
अपनी स्पृहा से बनने और बुझने के बीच शून्य
एक रचता है :
मै भी तो तुम्हारे निकट उतना ही हूँ
जितने कि तुम-
हमारे बीच एक क्षणिक अलगाव है.
जैसे प्रेम क्षणिक नहीं है :
                       ....बिछड़ते ही हम ऐसे मिलते हैं न!
                          
जैसे स्पृहा के सहसा विचलन में
                          
बिछड़ने का मन नहीं होता.

(ये कविताएँ रुस्तम सिंह के सौजन्य से प्राप्त हुई हैं.)
________________________________________



अमिताभ चौधरी
थिरपाली छोटी   
चुरु (राजस्थान) 331305
मोबाइल नं. : 8949223723/9680806496

सबद - भेद : जयप्रकाश मानस की कविता : सदाशिव श्रोत्रिय

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लोगबाग तकनीक तो आधुनिकतम चाहते हैं, पर कविता उन्हें पुरानी चाहिए. किसी भी जीवित समाज में यह संभव नहीं है . साहित्य अपने रूप में भी बदलाव करता है. आज की हिंदी कविता के पाठक थोड़े जरुर हैं पर यही कविता प्रतिनिधि कविता है. ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि कविता के जो भावक हैं, अध्येता हैं वे समकालीन कविताओं का भाष्य करते रहें, उन्हें खोलते रहें.

सदाशिव श्रोत्रिय को आप लगातार समालोचन में पढ़ रहे हैं. उनकी एक बात मुझे हमेशा याद रहती है कि  "अच्छी कविता की समझ के निरंतर घटते जाने को मैं किसी समाज के सांस्कृतिक ह्रास के रूप में देखता हूँ और इसे उसका दुर्भाग्य मानता हूँ.आखिर श्रेष्ठ काव्य मानव की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धियों में से एक है और किसी भी विकसित बुद्धि वाले व्यक्ति को इसका आनंद लेने में समर्थ होना चाहिए."

इस आलेख में वे  जयप्रकाश मानस की कविताओं की तह तक गयें हैं.


                               
जयप्रकाश मानस की कविता                                                                           
सदाशिव श्रोत्रिय





जयप्रकाश मानस की जिस कविता ने सबसे पहले मेरा ध्यान आकर्षित किया वह पहल -113  में प्रकाशित उनकी “थप्प से बैठे किसी डाल पर” शीर्षक कविता थी. कविता के प्रारम्भ में एक नीम का पेड़  किसी के उस पर आकर आकर बैठने की प्रतीक्षा कर रहा है और यह प्रतीक्षित मेहमान  अंतत: उस पर आकर बैठ जाता है :

बूढ़ा नीम ताके रस्ता
उड़ते उड़ते कोई आये
थप्प से बैठे किसी डाल पर
डैनों से धूल झर्राये

“ थप्प से बैठे किसी डाल पर ” और “ डैनों से धूल झर्राये” पढ़ते हुए हमें इस इस कवि की ध्वन्यात्मक कल्पनाशक्ति का बोध होता है जो इस पक्षी की हरकतों से उत्पन्न विभिन्न ध्वनियों को इस कविता में भी उतार देती है.

इसके आगे इस कविता में यह नीम का पेड़ ही इसका ‘पर्सोना’ हो जाता है और तब वह उस पर बैठने वाले इस पक्षी का वर्णन इस तरह करता है :
ठूनके एक-दो , चार-आठ बार
मेरी कड़वी काया को
देखे-पेखे आजू-बाजू
पलकें झपके आश्वस्ति में

पेड़ से परिचय बढ़ने के बाद कवि  इस पक्षी के उसके साथ रोमांस का अनूठा वर्णन करता है :
डाल बदल कर जा बैठे, फिर
ऊपर ताके,झांके नीचे
क्षण भर आंखें मीचे
कुछ गाये, चाहे समझ न आये

पक्षी का गाना उसकी एक सहज ,स्वत:-स्फूर्त प्रक्रिया है जिसे वह शायद स्वयं भी ठीक से नहीं समझ पाता. पर यह स्पष्ट है कि इस प्रक्रिया से समूचा वातावरण  संगीतमय हो जाता है.
पेड़-पर्सोना कविता के अंतिम पद में जो कहता है उससे यह पूरी तरह साबित हो जाता है कि उसकी गदराई निबौरियों की मादक गंध ने इस पक्षी के मन में उसके साथ ही गृहस्थी बसाने की इच्छा जागृत कर दी है और  इस आशय से वह उसके साथ गुप्त प्रेमालाप भी करने लगा है :
बोले चुपके से मेरे कान में
दोस्त कड़वे – तुम्हीं मीठे
मन है कि ठहर जाऊं
घर-बार यहीं रचाऊं ?

इस कवि के पास न केवल एक पक्षी और पेड़ के बीच के बल्कि चींटियों और स्त्रियों के बीच के भावनात्मक सम्बन्धों को भी देख सकने वाली आंख है. तभी तो वह “ कोई तो थी” ( सपनों के क़रीब  हों आंखें , पृष्ठ 58 ) में कह पाता है :

कोई तो थी
धान काटते समय छोड़ी जाती कुछ बालियां
कि अपने बिलों तक ले जाएं समेटकर चींटियां
और अगली फ़सल तक बचीं रहें भूख से

स्त्रियों द्वारा चींटियों की जान बचाने की यह चेष्टा केवल खेत तक ही महदूद नहीं है :
कोई तो थी
चूल्हे से खींच- खींच लाती रही लकड़ियां
देख एकाएक उस पर मचलती चींटियां
जैसे बचना उनका दुनिया का बच जाना हो

मनुष्य और पशु-पक्षियों के बीच घटती सहानुभूति और संवेदनशीलता के आज के समय में जयप्रकाश मानस की ये कविताएं विशेष रूप से अधिक प्रासंगिक नज़र आती हैं. वे मनुष्य और अन्य प्राणियों के बीच एक पारिवारिक रिश्तेदारी का अन्वेषण करती हुई लगती हैं. इसी कविता की अगली पंक्तियां देखिए :
कोई तो है
चाहती है जो – वैसी हों हमारी दादियां
मां के क़रीब रहें और – और बेटियां
बन कर सखी –सहेलियां
जैसे सदियों से चींटियां
कवि का मंतव्य स्पष्ट है : यदि हम संवेदनशील हों तो अन्य प्राणी आज भी हमारे जीवन को भावनात्मक रूप से अधिक समृद्ध बना सकते हैं.

इस कवि की संवेदनशील दृष्टि न केवल चींटियों और स्त्रियों को, बल्कि एक बेजान समझे जाने वाले घर को भी परिवार जैसे  जीवंत तरीके से देखने में समर्थ है. उनके काव्य-संग्रहअबोले के विरुद्ध  के पृष्ठ 39 पर छपी कविता “ एक अदद घर ” में हम इसका उदाहरण देख सकते हैं :

जब
मां
नींव की तरह बिछ जाती है
पिता
तने रहते हैं हरदम छत बन कर
भाई सभी
उठा लेते हैं स्तम्भों की मानिन्द
बहन
हवा और अंजोर बटोर लेती है जैसे झरोखा
बहुएं
मौसमी आघात से बचाने तब्दील हो जाती हैं दीवाल में
तब
नई पीढ़ी के बच्चे
खिलखिला उठते हैं आंगन – सा
आंगन में खिले किसी बारहमासी फूल – सा
तभी गमक- गमक उठता है
एक अदद घर
समूचे पड़ोस में
सारी गलियों में
सारे गांव में
पूरी पृथ्वी में   

जयप्रकाश जी से जब मैंने पूछा कि उन्होंने इस कविता में  हिन्दी व्याकरण की दृष्टि से अधिक सही लगने वाले  “ आंगन – से ”  और “ फूल- से” की बजाय “आंगन-सा” और “फूल-सा” का प्रयोग क्या किसी खास मकसद से किया है  तब उन्होंने बताया कि वे मूलत: एक ओड़िया-भाषी किसान परिवार से आए  हैं और कविता लिखते समय वे भाषा की शुद्धता के सम्बन्ध में बहुत सचेत नहीं रह पाते. तब मुझे लगा कि उनके ओड़िया-भाषी होने ने कैसे सहज ही  इस कविता की हिन्दी में भी भाषा का एक नया जायका जोड़ दिया था.
मानस की कविता पढ़ते हुए मुझे लगा कि इस कवि के पास तथाकथित छोटे आदमी में निहित महानता को देख सकने वाली वह विशिष्ट आंख भी है जो शायद गांधी, निराला या नागार्जुन जैसे संवेदनशील लोगों के पास रही होगी. जिस निहायत छोटे आदमी का वर्णन यह कवि  उसकी कविता “निहायत छोटा आदमी”  (सपनों के क़रीब , पृष्ठ 87)   में करता है उसे हम बेपढ़ा,गंवार और निरा मूर्ख समझते हैं. हम मानते हैं कि उसे इतिहास –भूगोल की कोई जानकारी नहीं है. पर कवि इस छोटे आदमी के जिन गुणों को रेखांकित करता है वे उसका सहज प्रेम , प्रकृति से उसका गहरा लगाव , अपनी धरती से उसका निकट का रिश्ता और अपने लोगों के साथ आत्मीय सम्बन्ध हैं :
उतना  दुखी नहीं होता
निहायत छोटा आदमी
जितना दिखता है

निहायत छोटा आदमी
छोटी-छोटी चीज़ों से संभाल लेता है ज़िन्दगी
नाक फटने पर मिल भर जाए गोबर
बुखार में तुलसी डली चाय
मधुमक्खी काटने पर हल्दी
....... ........... .........

निहायत छोटा आदमी
नयी सब्ज़ी का स्वाद पड़ोस में बांट आता है
उठ खड़ा होता है मामूली हांक पर
औरों के बोल पर जी भर के नाचता
........ ........ .......

उसके साहस , धैर्य, संघर्ष और उसकी जिजीविषा को पुन: रेखांकित करते हुए वह कहता है :
निहायत छोटा आदमी
लहुलूहान पांवों से भी नाप लेता है अपना रास्ता
निहायत छोटा आदमी के निहायत छोटे होते हैं पांव
पर डग भरता है बड़े-बड़े. 
आम आदमी की महानता का अनुमान हमें इस कवि की “ आम आदमी का सामान्य ज्ञान ” (सपनों  के क़रीब हों आंखें ,पृष्ठ85)शीर्षक कविता में भी होता है :
आम आदमी नहीं जानता
झूठ को सच या सच को झूठ की तरह दिखाने की कला
चरित्र सत्यापन की राजनीति
धोखा ,लूट और षडयंत्र का समाज -विज्ञान
ज्ञान इतना पक्का
पहचान लेता है स्वर्ग-नरक की सरहदें

किसी साधारण ग्रामवासी की खुशियां आज भी महंगी भौतिक वस्तुओं के बजाय जिन छोटी-छोटी और अनमोल स्थितियों और दृश्यों पर निर्भर करती हैं उनका हृदयग्राही वर्णन हम उनकी पहल में प्रकाशित कविता “ तब तो मैं खुश होऊं ” में पाते हैं :

गाभिन गाय घर लौटे
आंगन फुटके गौरेया कोदो चुगे
कल से थकीमांदी चंदैनी गेंदा फिर महके
बहुएं ले आयें कुएं से पानी के साबूत मटके
छुटकी नये शब्दों के संग चौखट में फटके
तब तो मैं खुश होऊं !

कवि की खुशी जहां एक ओर घर के आंगन में दिखने वाले पशु-पक्षी और फूलों से जुड़ी है वहीं दूसरी ओर बहुओं द्वारा घर के लिए सृजित जल- समृद्धि और एक बोलना सीख रही बालिका द्वारा अर्जित शब्द-समृद्धि से पोषण पाती है. उसकी खुशी का एक अन्य स्रोत परिवार के सदस्यों बीच प्रेम की प्रगाढ़ता भी है – जहां वह ननद-भौजाई में झगड़ा नहीं देखता और जहां उसकी विधवा काकी के मन में आज भी उसके मृत काका की याद बसी  है :
खुश होऊं कि पत्नी के संग ननद हंसे
खुश होऊं  कि विधवा काकी के मन अब भी काका बसे

कहना न होगा कि प्रेम और सहानुभूति पर आधारित उन पुराने परिवारिक मूल्यों के प्रति  इस कवि का अब भी गहरा लगाव है जिन्हें  आज के स्वार्थ से परिचालित  सम्बन्धों के बरक्स कोई आधुनिकतावादी गए-गुजरे और अप्रासंगिक भी कह सकता है. कवि अब भी कामना करता है कि उसके द्वारा वर्णित  काकी आजकल की स्त्रियों की तरह काका की मृत्यु के तुरंत बाद ही टीवी,सिनेमा और व्हाट्स एप में खोकर उसे पूरी तरह भूल न जाए.

कवि को खुश कर सकने वाली अन्य चीज़ें भी इसी तरह की हैं. यदि बड़ी बेटी की मंगनी बग़ैर सोने-चांदी के हो जाए और उसकी शादी से पहले ही कोई अधिक पैसे वाला दुष्ट प्रतिद्वन्द्वी उसकी मां की प्रसन्नता में ग्रहण न लगा जाए तो यह भी उसकी खुशी का एक बड़ा स्रोत साबित हो  सकता है :
खुश होऊं  कि बड़की  की मंगनी बिन सोन-चांदी
खुश होऊं  कि माई के चंदा को न राहू ग्रसे

सरकारी मुलाजिमों से डरे हुए और हर समय अपने आपको असुरक्षित पाते ग्रामीण कृषकों के प्रति मानस के मन में गहरी सहानुभूति है. इसीलिए इस कविता में आगे वह कहता है :
खुश होऊं कि दादी-दादा की आंखें धंसी-धंसी न दिखें
पिताजी को पटवारी ना यूं धौंस दिखाये
कभी भी छीन लेगी सरकार ज़मीन , कहके गुर्राये
तब तो मैं खुश होऊं

तब तो खुश होऊं कि फ़सल सिर्फ़ मेरी अपनी है
तब तो खुश होऊं कि खेत न गिरवी रहनी है

विभिन्न जीवन स्थितियों में इस कवि की गहरी पैठ का अनुमान हमें इसकी सपनों  के क़रीब हों आंखें  संग्रह के पृष्ठ 31 की  “ चिट्ठी:दो कविताएं ” शीर्षक कविता की दूसरी कविता से होता है. हमारे पारम्परिक मूल्यों से बंधे हुए परिवारों जब एक युवा होती लड़की किसी युवक के प्रेम में पड़ जाती है तब कैसे उसके आसपास का स्नेहपूर्ण पारिवारिक वातावरण उसके लिए  हिंसक और खतरनाक बन जाता है इसे यह कविता अनूठे  तरीके से व्यक्त करती है. यह स्पष्ट है कि  कवि का उद्देश्य यहां केवल इस घटना से सम्बन्धित सामाजिक –पारिवारिक यथार्थ को चित्रित करना है , किसी प्रगतिवादी मूल्य की प्रतिष्ठा करना नहीं.

कविता में वर्णित लड़की  ने किसी को एक प्रेम-पत्र लिखा है ( या इस लड़की ने किसी  को कोई प्रेम-पत्र लिखा है ) और यह प्रेम-पत्र घर में किसी ने इस लड़की की किताब में देख लिया है. इस देख लिए जाने का प्रभाव ही इस कविता का विषय है :
देखते ही देखते
ख़तरा मंडराने लगा
देखते ही देखते
अहिंसक
एक-एक कर
तब्दील हो गए जानवरों में
लगा जैसे समय
आग का पर्वत हो  

इस परिवर्तन का कोई राजनीतिक , विचारधारात्मक या आर्थिक विश्लेषण करने के बजाय कवि कहता है कि यह सब इसलिए हुआ कि ईश्वर ने इस लड़की को एक भोलाभाला मन दिया था जो उसके  वय:सन्धिकाल में सहज रूप से एक युवक की ओर आकर्षित हुआ. प्रकृति के इस विडम्बनात्मक खेल पर प्रश्नचिह्न लगाती इस कविता की अगली पंक्तियां कहती हैं :
लगा जैसे
भोला-भाला मन देकर
ईश्वर ने किया हो सबसे बड़ा पाप
क्यों दीख पड़ी
सुनहरे शब्दों की चिट्ठी
लड़की की नयी किताब में

लगता है यह कविता अधिक प्रभावी रूप से उस अमानवीयता के विरुद्ध खड़े होने की क्षमता रखती है जिससे प्रेरित  होकर बहुत सी सम्मान हत्याएं (honour killings) होती हैं. यदि अधिक संख्या में लोग इसके प्रति संवेदनशील हो सकें तो  इस तरह की क्रूरता के ख़िलाफ़ यह कविता भी अपने आप में एक अधिक कारगर हथियार साबित हो सकती है.

आज लोगों की बढ़ती  हुई आत्मकेन्द्रितता के प्रति इस कवि के मन में गहरा धिक्कार भाव है. इसे उनकी अबोले के विरुद्ध  के पृष्ठ 60 पर छपी कविता में भलीभांति देखा जा सकता है :
कुछ देर तो साथ चलो
कि वह बिल्कुल अकेला न समझे

कुछ तो बतियाओ
कि वह निहायत अबोला न रह जाए

कुछ तो भीतर की सुनो
कि वह बाहर-ही-बाहर  न मर जाए
.................
...................
कुछ भी नहीं कर सकते तो
इस पृथ्वी में होने का मतलब क्या है

आत्मकेन्द्रितता के विरुद्ध लगभग ऐसा ही विचार इस कवि की “ गाना ही गाते रहेंगे ”  ( सपनों के क़रीब हों आंखें ,पृष्ठ30 ) शीर्षक रचना में भी दिखाई देता है :
नदी किनारे गाती-गुनगुनाती
चिड़िया एक हों आप
दिखे एकाएक चींटी एक आकुल-व्याकुल
धार हो इतनी बेमुरव्वत कि
चींटी हो जाए बार -बार असहाय
ऐसे में गाना ही गाते रहेंगे
या छोटी -सी डाल तोड़ कर गिराएंगे  ?

उन अवसरवादियों के प्रति भी इस कवि के मन में गहरा क्षोभ है जो हर निज़ाम में अपनी चमड़ी बचा लेते हैं किंतु जिनका वस्तुत: किसी से कोई लगाव नहीं होता – न अपने लोगों से , न अपनी ज़मीन से और न ही किसी विचारधारा से . “छांव निवासी” ( सपनों के क़रीब हों आंखें ,पृष्ठ32 ) में वह कहता है  :
धूप की मंशाएं भांप कर
इधर-उधर, आगे-पीछे , दाएं-बाएं
जगह बदलते रहते
दरअसल
पेड़ से उन्हें कोई लगाव नहीं होता
कुछ इसी तरह की बात यह कवि “ठंडे लोग” ( सपनों के क़रीब हों आंखें ,पृष्ठ 42) में भी कहता है :
जो नहीं उठाते जोख़िम
जो खड़े नहीं होते तन कर
जो कह नहीं पाते बेलाग बात
जो नहीं बचा पाते धूप-छांह्
यदि तटस्थता यही है
तो सर्वाधिक खतरा
तटस्थ लोगों से है

यह कवि अपेक्षा करता है कि जिस तरह प्रकृति में सभी प्राणी अपने अपने काम में लगे रह कर कोई न कोई रचनात्मक सहयोग देते रहते हैं उसी तरह हर इंसान भी निठल्ला न रह कर कुछ तो करता रहे. “ कोई नहीं हैं बैठे ठाले “ (अबोले के विरुद्ध ,पृष्ठ 65 ) में अभिव्यक्त शारीरिक श्रम के प्रति इस प्रकार का दृष्टिकोण अपने आप में पूंजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध किसी छोटे-मोटे बयान का काम कर सकता है :
कोई नहीं हैं बैठे –ठाले

कीड़े भी सड़े-गले पत्तों को चर रहे हैं
कुछ कोसा बुन रहे हैं

केंचुए आषाढ़  आने से पहले
उलट-पलट देना चाहते हैं ज़मीन

वनपांखी भी कूड़ा-करकट को बदल रहा है घोंसले में
भौंरा फूलों से बटोर रहा है मकरंद
.........................
.....................
पृथ्वी की सुन्दरता में उनका भी कोई योगदान है
.................
और इधर
सुन्दर पृथ्वी के सपने पर कोरा विमर्श
“ बस्तर, कुछ कविताएं “(अबोले के विरुद्ध ,पृष्ठ 44) में यह कवि शांति के निर्वासन और हिंसा के वातावरण से विचलित होकर कहता है :

ज़रा कान लगा कर सुनिए
सुबक-सुबक कर रो रहे हैं
नदिया,जंगल,पहाड़, चिड़िया
और पेड़ की आड़ में आदिवासी

कोई पाठक यह अवश्य कह सकता है कि इस कवि की बहुत अधिक सहानुभूति अन्याय के ख़िलाफ़ लड़ रहे उस क्रांतिकारी के प्रति नहीं है जो कई बार इस हिंसा और ख़ून –ख़राबे के पीछे होता है :
इन सबके बीच
झूम-झूम कर गा रहा है क्रांतिकारी
वह तो यूं ही सुनाई दे रहा है  
कवि की “तालिबान” (अबोले के विरुद्ध ,पृष्ठ 69) शीर्षक कविता निहायत सादगी से धर्मान्धता के ख़िलाफ़ अपनी सशक्त आवाज़ उठाती है :

कोई दलील नहीं
कोई अपील नहीं
कोई गवाह नहीं
कोई वकील नहीं 
वहां सिर्फ़ मौत है

कोई इंसान नहीं
कोई ईमान नहीं
कोई पहचान नहीं
कोई विहान नहीं
वहां सिर्फ़ मौत है

वहां सिर्फ़ मौत है
वहां सिर्फ़ धर्म है
धर्म को मानिए
या  फ़िर
बैमौत मरिए

“ यह तो बूझें”  (अबोले के विरुद्ध ,पृष्ठ 68) में कवि पूछता है कि इस धार्मिक उन्माद- जनित हिंसा को दैवी शक्तियां भी क्यों नहीं रोक पातीं :
तुमने हमारे मन्दिर ढहाए
हमने तुम्हारे मस्जिद
शायद तुम अन्धे हो गए थे
और हम भी
चलो ग़ल्तियां दोनों से हुईं
इंसान थे ......
पर यह तो बूझें
आखिर क्यों
न तुम्हें रोका पैगम्बर ने
न हमें राम ने समझाया  ?
भारतीय  समाज में निरंतर बढ़ता  जाता असुरक्षा भाव कवि के मन में भी वह भय जगाता है जिसे शायद आज हर नागरिक महसूस करने लगा है. इसी भय को प्रकट करते हुए वह कहता है :

जिन्हें अभी डराया नहीं गया है
जिन्हें अभी धमकाया नहीं गया है
जिन्हें अभी सताया नहीं गया है
............
क्या वे सारे के सारे निरापद हैं  ?
कभी भी घेरा जा सकता है
उन्हें
हो सकता है उनकी हत्या ही कर दी जाए
किंतु इस कविता को कविता इसकी निम्नलिखित अंतिम पंक्ति बनाती है जो पूछती है कि
तब तक क्या बहुत देरी नहीं हो चुकी होगी  ?
                                                                    ( पहल – 13 , पृष्ठ 246 )
जयप्रकाश मानस कहीं कहीं बहुत ही कम शब्दों के प्रयोग से (इसे मैं “ अंडरस्टेटमेंट ”  कहूंगा) कोई गहरा प्रभाव उत्पन्न करते हैं.. सपनों के क़रीब हों आंखें  के पृष्ठ 80 पर मुद्रित कविता “ कहीं कुछ हो गया है “ में हम इसका एक अच्छा उदाहरण देख सकते हैं. कविता के प्रारम्भिक भाग को पढ़ कर लगता  है कि इसमें वर्णित गांव की दुनिया यथावत चल रही है :
चिड़ियों के झुरमुट से बोल उठना
...............
छानी-छानी मुस्कराहट सूरुजनारायण की
आंगन बुहारती बेटियों का उल्लास
बछिया को बीच-बीच पिलाकर गोरस निथारना
दिशाओं में उस पार तक
उपस्थित होती घंटे-घड़ियाल की गूंज
..................

 पर तभी यह कवि हमें लगभग चौंकाते हुए कहता है :
लोग फफक- फफक कर बताते हैं
पूछने पर
एक भलामानुस
माटी के लिए दिन-रात खटता था जो
माटी में खो गया यक-ब-यक

ऊपर से सामान्य लगते हुए भी ग्रामवासी भीतर से कितने विचलित हो सकते हैं इसे यह कवि इस कविता के माध्यम से बड़ी कुशलता और सूक्ष्मता से चित्रित करता है.

जब अच्छी चीज़ें बहुत तेज़ी से नष्ट हो रही हों तब कवि के मन में यह प्रश्न आना स्वभाविक है कि इस बदलाव के चलते क्या कुछ भी अच्छा बच नहीं पाएगा ? पर कवि का दृष्टिकोण इस सम्बन्ध में पूरी तरह आशावादी है.   “ बचे रहेंगे “ (पहल – 13 , पृष्ठ 245 ) में वह कहता है :
नहीं चले जाएंगे समूचे
बचे रहेंगे कहीं  न कहीं
बची रहतीं हैं दो-चार बालियां
पूरी फ़सल कट जाने के बावजूद
भारी-भरकम चट्टान के नीचे
बची होती हैं चींटियां

इस आशावादिता के फलस्वरूप कवि के मन में बचे रहने के और भी एक से एक सशक्त बिम्ब आते हैं :
लकड़ी की ऐंठन कोयले में
टूटी हुई पत्तियों में पेड़ का पता
पंखों पर घायल चिड़ियों की कशमकश
मार डाले प्रेमियों के सपने खत में
बचा ही रह जाता है  

आज के इस स्वार्थपूर्ण समय में ,जबकि यह आवश्यक नहीं कि किसी को अच्छाई के बदले में अच्छाई ही मिले , पर्यावरणीय बुराई के बावजूद अच्छाई के प्रति एक प्रकार की प्रतिबद्धता ही किसी को अच्छा बना रहने के लिए प्रेरित कर सकती है. जयप्रकाश जी की “ जब कभी होगा ज़िक्र मेरा “ (पहल – 13 , पृष्ठ 246 ) सम्भवत: इसी तरह के अच्छाई के लिए प्रतिबद्ध किसी पात्र को चित्रित करती है :
याद आएगा
पीठ पर छुरा घोंपने वाले मित्रों के लिए
बटोरता रहा प्रार्थनाओं के फूल कोई
मन में ताउम्र
.............
............
जब कभी होगा ज़िक्र मेरा
याद आएगा
छटपटाता हुआ वह स्वप्न बरबस
आंखों की बेसुध पुतलियों में

प्रेम को यह कवि कविता के एक आवश्यक तत्व के रूप में देखता है. “ जिन्होंने नहीं लिखा कोई प्रेम पत्र”( सपनों के क़रीब हों आंखें ,पृष्ठ 98) में  वह कहता है :
जिन्होंने नहीं लिखा कभी कोई प्रेम पत्र
वे नहीं लिख सकते कोई कविता 
प्रेम के सम्बन्ध में कवि के इस विचार की पुष्टि तब भी होती है जब हम उसकी “वज़न” ( सपनों के क़रीब हों आंखें ,पृष्ठ 95), “अभिसार” ( सपनों के क़रीब हों आंखें ,पृष्ठ 96) या “प्यार में (सपनों के क़रीब हों आंखें ,पृष्ठ 97 ) जैसी कविताएं पढ़ते हैं.

जब मैंने अपने आप से यह प्रश्न किया कि कवि रूप में जयप्रकाश मानस  के किस गुण ने मुझे उनकी कविता की ओर आकर्षित किया तब मुझे लगा कि यह इस कवि का धरती और मानवीय सरोकारों से लगाव , प्रकृति के सभी रूपों से प्रेम और उसकी अतिरिक्त सम्वेदनशीलता ही रही होगी जिसने मुझे उसका मुरीद बनाया.  
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रेणु, पटना और पत्र : निवेदिता

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कल महान कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु की पूण्यतिथि थी, उन्हें याद कर रहीं हैं निवेदिता.



रेणु, पटना और पत्र                                      
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निवेदिता






आँखें खुली तो खिड़की के बाहर गाछ पर हरी-हरी पत्तियां दमक रही थी. भोर लाल-लाल कुमुद फूलो में लिपटा था. शेफाली और अड़हुल के पौधे फूलों से भरे हुए थे. चारो तरफ फूल ही फूल हैं. गुल अब्बास, गेंदा, सूरजमुखी नीले लाल सफेद गुलाबी फूल आहा प्राणों में बस गए. ये वही जगह है जहाँ  फणीश्वर नाथ "रेणु"आया करते थे.बाहर दीवारों पर शीशे में मढ़े हुए रेणु के ख़त टंगें हैं. मैं  उनकी लिखावट देख रही हूँ. ख़त पढ़ रहीं हूँ. फारविसगंज की मशहूर कोठी. जहाँ कभी साहित्य और राजनीति के कई रंग मिलते थे . नम मिट्टी की सौंधी खुशबू और ताजगी फिजा में बसी हुयी है.


मैं उन्हें महसूस कर रही हूँ.  वे यहाँ की मिट्टी की खुशबू में रचे बसे हैं. कमरे के बाहर उनके हर्फ़ झिलमिला रहे हैं. सुलग रहे हैं. मैं देख रही हूँ उन दीवारों को, ईट मिटटी से बने इस घर को. रेणु से मेरी पहचान  इस कदर गहरा गयी है कि मैं हाथ बढ़ा कर उनकी हरारत महसूस कर सकती हूँ. मैंने सतहों के नीचे झाँकने की कोशिश की है जिस से रेणु आख्यान की छवियाँ उजागर हो सके .रेणु की यादें जहाँ-जहाँ, मैं वहां-वहां हूँ. दौर कोई हो शब्द की तरह लेखक जिन्दा रहते हैं. मैं उनके ख़त पढ़ रही थी की बाबूजी मिल गए.

बाबूजी गुनगुनी धूप का मज़ा ले रहे हैं. किताबें और फूलों के बीच.

क्या रेणु यहाँ रुकते थे ? हाँ बहुत बार !
ऐनक के भीतर उनकी आँखें चमकती है .
यादें चुपके से हमारे पास ठहर जाती है
रेणु जी को मेरे भाई साहब बहुत प्यार करते थे
दोनों में गजब की मुहब्बत थी
अज़ब आजाद इन्सान थे और फ़नकार भी.

घोर निराशा और हताशा के बीच भी अफसानों, लेखों, और पत्रों के ज़रिये वे सृजन में जुटे रहे. बाबूजी को लोग यहाँ  विद्या बाबू बुलाते हैं. विद्या सागर गुप्त मेरे लिए मेरे पिता की तरह हैं. मेरी दोस्त  रुचिरा के पिता. जाने माने सोसलिस्ट बालकृष्ण गुप्त उनके बड़े भाई थे. रेणु की खूब छनती थी उनसे. बालकृष्ण गुप्त और समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया गहरे मित्र थे. उनके घर की दीवारों पर गाँधी से लेकर लोहिया की तस्वीर लगी है. मैने ऐसे मारवाड़ी परिवार कम देखे हैं जिनके जीवन में किताबें महत्वपूर्ण हो. एक बड़ा कमरा किताबों से भरा है.

ये लोग मुख्यतः पटसन और कपडे का व्यपार करते थे. इनके दादाजी १८९० के आस-पास कमाने के लिए जोरहट (आसाम) गए फिर कोलकाता. कोलकाता में अपनी गद्दी कायम की. व्यपार बढ़ने लगा तो बिहार के फारविसगंज में गद्दी कायम की. १९४० में इनलोगों ने चावल मिल की स्थापना की. इस घर के इतिहास को  जानना इसलिए जरुरी है कि राममनोहर लोहिया से लेकर रेणु तक की यात्रा ने इस जगह और इस गांव को नयी जमीन दी. उनकी जिन्दगी में रंग भरे. जिन्दगी के आखरी लम्हें तक रिश्ता बना रहा.

बाबूजी ने अपने अतीत को सहेज कर रखा है. इस पर न धूल चढ़ने दी, न खरोंच आने दी. परेशानियों, तकलीफों और भयावह आर्थिक संकट के दौरान रेणु ने जब-जब उन्हें याद किया उनका परिवार उनके साथ रहा. १० मार्च १९७८ को अपने लिखे एक पत्र रेणु ने लिखा – 

मैं अच्छी तरह हूँ.- यदि इसी को  “अच्छी तरह” रहना कहा जाता है. स्वर्ग का सुख भोग रहा हूँ और क्या चाहिए. मनुष्य योनि में जन्म लेकर धन्य हो रहा हूँ. आपसे मिलने की  उत्कट अभिलाषा मन में सदा बनी रहती है. किन्तु, जिस कारण  से मुंह नहीं दिखला पा रहा हूँ वह आप भली भांति समझते होंगे.”

ये दिन रेणु के मुश्किल दिन थे. पैसे की तंगी हमेशा रहती थी. ऐसे समय में पूरा परिवार रेणु की  मदद के लिए तैयार रहता था. दुनिया के इतिहास ने ये बताया है की महान साहित्यकारों, लेखकों और कलाकारों ने कितनी ग़ुरबत में दिन काटे हैं. अगर एंगिल्स नहीं होते तो शायद मार्क्स दुनिया के महान चिंतक नहीं बनते. अगर बाबूजी का परिवार नहीं होता तो शायद “रेणु” की जिन्दगी और कठिन होती. उनकी चिट्ठियां बताती है जीवन के अंतिम दिनों तक वे लोग रेणु की जिन्दगी के अहम् हिस्सा थे. रेणु अपने विचारों में, व्यवहार और आचरण में घरेलू जिन्दगी का बहुत एहतराम करते थे. वे लिखते हैं –


पिछले एक माह से अख़बार पढ़ना और रेडियो सुनना बंद है. चिट्ठी पतरी भी कहीं से नहीं आती, न किसी को लिखता हूँ. ऐसे में आपका पत्र होली के पहले पाकर मन में एक अजीब सी गुदगुदी लग रही है. मन के किसी कोने में ठेसू खिल उठता है.रंग गुलाल उड़ने लगते हैं.”

ऐसे कई ख़त है जिससे हम अपने महान अफसानानिगार को समझ सकते हैं. इन खतों  से रेणु की व्यक्तिगत जिन्दगी, सोच और साहित्य के बारे में कई संकेत मिलते हैं. रेणु अजीब कैफियत से गुज़र रहे थे. वे दिन  गहरी आत्मा पीड़ा के दिन थे. जहाँ से उम्मीद थी वही से अँधेरा पसरा था. अँधेरे के सुलगने के इंतजार में वे जूझते रहे. वे लिखते हैं – 


यहाँ की सारी बातें और अपने दिल दिमाग पर जोर गुज़र रही है. उन्हें पत्र में लिख कर बता नहीं सकता...., बस यही समझ लीजिये कि असाध्य साधना कर रहा हूँ. नहीं तो  और क्या? गृहस्थी की तत्कालीन जिम्मेदारियां, लेखकीये कर्तव्य और शारिरिक स्वास्थ्य– इनसब को एक साथ निभाने के क्रम में ......ज्यादा “ ट्रेंकिवलायिज़र” (Tranqiliser) लेना पड़ रहा है’.

ऐसे तमाम ख़तवेदस्तावेज़ है जिससे हमसब रेणु को समझ सकते हैं. मैं देख पा रही हूँ उन्हें, उनके शब्द मेरे कानों में गूंज रहे हैं.प्यार से लबरेज़ चेहरा, उनका पुरखुलूज़ लहज़ा. उनकी चमकती दमकती बोलती आँखें. जिसे दुनिया ने बहुत बाद में जाना. मेरी मुलाकात उनसे वर्षो पहले हो चुकी है.  मेरी स्मृतियो में उनका वही रूप बसा है. काले घुंघराले बाल और सफेद धोती कुर्त्ता. जब मैं उनसे मिली तब क्या पता था की ये वही” रेणु” हैं जिसे दुनिया  महान कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु के नाम से जानती है. मैं डूब रही हूँ चाहती हूँ आप भी डूब जाएँ मेरे प्रिय कथाकार के साथ



रिक्शा एक मकान के सामने जाकर रुका. काले घुंगराले लंबे बाल, सफेद धोती कुर्ते में एक आदमी उतरा और अंदर चला गया. दरवाजे पर सूर्ख फूलों वाला पर्दा पड़ा था.अंदर दो कमरे.दूसरी तरफ बाबर्चीखाना. अमरुद के दरख्त के नीचे पानी का नल. वह आदमी सीढियों से होते हुए दूसरी मंजिल पर चला गया. हम बच्चे उसी घर के नीचे खेल रहे थे. बच्चों ने कहा लतिका दीदी के घर कोई आया है. दूसरे  बच्चे ने कहा तुम नहीं जानती इन्हें ! अरे ये वही हैं जिनकी किताब पर ‘तीसरी कसम’  फिल्म बनी है.  बच्चे हैरानी से उन्हें देखने लगे. यही हैं!  ‘फणीश्वर नाथ रेणु’  ये बात आज से करीब ४१ साल पहले की है. पटना के तारीक का एक खूबसूरत अध्याय. यह वही जगह है जहाँ हमने जिन्दगी के बेहतरीन वक़्त गुज़ारा है.

पहली बार हमने उन्हें यहीं  देखा था. उनदिनों मेरे पिता राजेन्द्र नगर में रहते थे . हमारे घर के ठीक बगल में लतिका जी रहती थीं. लतिका जी  के बहनोई बुद्धदेव भटाचार्य मेरे पिता के दोस्त थे. वे लोग अक्सर लतिका जी से मिलने आते और फिर हमारे घर आते. रेणु जी से तो कभी कभार ही मिलना होता पर लतिका जी  के घर बच्चों का अड्डा रहता. लतिका जी  राजेन्द्र के ब्लॉक नंबर दो में पटना इंप्रूवमेंट ट्रस्ट के  मकान के दूसरी मंजिल पर रहती थीं.

किताबों से मुहब्बत मुझे बचपन से थी. जब रेणु जी के बारे में पता चला तो एक दिन मैं चुपके से उनके घर पहुँच गयी. दबे पांव चलती कमरे के खुले दरीचे के नीचे पहुँच कर अन्दर झाँका. कमरे में शाम की पीली धूप चमक रही थी. जिसकी आभा रेणु जी के चेहरे पर  पड  रही थी. उनके हाथों में कोई किताब थी.  कमरे में विधानचंद्र राय, नेहरू और रेणु जी की तसवीर. किताबें और नटराज की प्रतिमा.

मैं चुपचाप खड़ी उन्हें निहारती रही. अचानक उनकी नज़र मुझ पर पड़ी. अरे तुम बाहर क्यों खड़ी हो. लतिका देखो कोई बच्ची आई है. ये कह कर उन्होंने मुझे अन्दर बुलाया. अपनी  किताब बंद कर दी. मुस्कुराते हुए मेरा नाम पूछा. मैंने शरमाते हुए कहा निवेदिता. वे हंस पड़े. अरे वाह तुम्हारा नाम बहुत सुन्दर है. बाहर अमलताश की झुकी शाखाएं हलकी हवा में डोल रही थी. और मेरी आँखों के सामने हिरामन डोल रहा था.

बहुत बाद में मैंने रेणु को पढ़ा और डूबती रही. उनको पढ़ते हुए लगा कहानी उनके रेशे–रेशे में थी. जितनी बाहर  थी  उससे कहीं ज्यादे उनके भीतर थी. उनकी सारी कहानियां और उपन्यास के पात्र जैसे हमसब के आसपास बिखरे पड़े हैं. चाहे रसप्रिया हो या तीसरी कसम, लाल पान की बेगम हो या पंचलाईट हो रेणु हिन्दी में नई कहानी की विशेष धारा हैं. जिसमें  आंचलिकता की खुशबू है. उनपर बहुत कुछ लिखा जा चुका है. मैं तो उनके बहाने  उस पटना को याद  कर रही हूँ जिसने रेणु जैसे कथाकार को जिया है. पटना में आज भी मुझे राजेन्द्र नगर का इलाका सबसे ज्यादा पसंद है. शायद  बचपन और जवानी के दिन ही ऐसे होते हैं की आप जहाँ रहें वो जगह गुलज़ार रहती है. मेरी यादो में पटना और पटना में राजेन्द्र नगर सबसे ज्यादा बसा है. जहाँ पुराने शहर की झलक मिल जाती है. 

सड़क के दोनों किनारे पुरानी  ईटों की इमारतें. जिनकी मेहराबों के नीचे बूढ़े, जवान बात करते मिल जाते हैं. नर्म धीमी धीमी तहजीब. यहाँ आज भी अंग्रेजी अहद की यादगार इमारतें  गर्द – आलूद सड़कों के किनारे खड़ी है. वही कचरियां, वही बागात, वही डाकबंगले, वही रेले स्टेशनों के ऊँची चाट वाले वेटिंगरूम और पुराने टूटे फर्नीचर. अगर आपको पुराना पटना याद हो तो पटना में तांगे, बसों और साईकिल और रिक्शा सवारों के रेले गुजरते थे. तब मोटर कार से सड़कें इस कदर लहू लुहान नहीं थीं.  ऊँचे दरख्त और गंगा पर बरसती हुयी चांदनी  से नहाया हुआ मेरा पटना ऐसा ही था.
.
उर्दू के शायर अदीब, हिन्दी और बंगला के अफसानानिगार पटना के गलियों, चौराहों पर मज़मा लगाये मिल जाते थे. चंद मील के फासले पर पटना यूनिवर्सिटी की खूबसूरत इमारतें. किताब की दुकानें. पुरानी चीज़े पुराने दोस्तों की तरह होते हैं. जिनको देखते हुए  हम उन्हें नहीं अपनी गुजरी हुयी जिन्दगी को देखतें हैं. आज फिर वर्षो बाद अपने प्रिय अफसानानिगार से मिल रही हूँ. उनकी जमीं पर. वे नहीं है पर यहाँ की हर चीज़ पर उनकी छाप है. उस महान अफसानानिगार को मेरा सलाम !
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niveditashakeel@gmail.com

परख : बारिशगर : प्रत्यक्षा

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बारिशगर : प्रत्यक्षा
प्रकाशक- आधार प्रकाशन, पंचकुला (हरियाणा)
प्रथम संस्करण-2019
मूल्य-180 रुपये




















प्रत्यक्षा का नया उपन्यास ‘बारिशगर’ चर्चा में है. प्रत्यक्षा कविता और पेंटिग में भी गति रखती हैं. उनका कथा-साहित्य अपने अनूठे शिल्प वैविध्य के कारण अलग से पहचाना जाता है. इस उपन्यास को देख-परख रहीं हैं मीना बुद्धिराजा




प्रत्यक्षा
बारिशगर                                
स्त्री-मन की अनूठी महागाथा


मीना बुद्धिराजा





साहित्य की एक ऐसी विधा जिसमें आधुनिक मनुष्य के जीवन को, उसकी विविधता मेंअंतर्विरोधों के साथ समूची जटिलता और संश्लिष्ट रूप में, सभी रंग-रूपों में और मूर्त-जीवंत रूप में अनुभव कर सकें तो निसंदेह हिंदी साहित्य में यह विधा उपन्यास ही है. उपन्यास के विन्यास में यह संभव है कि मनुष्य के रूप में स्त्री-पुरुष के अस्तित्व का,अपने से इतर समाज से संबधों, दुविधाओं और उसकी जीवन-दृष्टि में वास्तविक रूप में वह सभी संभावनाओं और बहुआयामिता में अभिव्यक्त हो सकता है. इधर कुछ समय से साहित्य की अन्य विधाओं की तरह उपन्यास की संरचनाकथा प्रविधि में जो कई तरह के बदलाव आए हैं और रूपाकारों के बीच एक तरह की तरलता भी दिखाई देती है वह विशिष्ट है. आज कथा-साहित्य में सबसे प्रामणिक, संतुलित और जीवन से स्पंदित लेखन महिला रचनाकारों द्वारा ही हो रहा है.

अस्मिता के मानवीय संकट के समय में जब स्त्री-रचनाकार अपनी पहचान और अस्तित्व को खोलती हुई  साहित्य में उपस्थित होती है तो समस्त स्त्री-समाज के सामूहिक अनथक संघर्ष और स्वप्न का रचनात्मक केंद्रबिंदु बन जाती है. आज स्त्री-कथाकार अपने अनुभव और यथार्थ को परिपक्व जीवनदृष्टि से और विश्वसनीय तरीके से अंकित कर रही हैं और उपन्यास-लेखन में भी स्त्री-चेतना का यह फलक निरंतर विस्तृत और गंभीर हो रहा है.

इक्कीसंवी सदी के प्रथम दशक में स्त्री कथा-साहित्य में जिन चुनिंदायुवा और सशक्त लेखिकाओंने अपनीखास पहचान बनाई उनमें प्रत्यक्षाका नाम उल्लेखनीय है. अपनी रचनाओं में इन्होने स्त्री-अस्मिता के स्वतक ही नहीं उसके आत्मतक पहुंचने की नई संभावनाओं और संवेदनाओं के साथ कथा-लेखन को अनुभव के व्यापक दायरे से भी समृद्ध किया है. पंरपरागत लीक से हटकर समकालीन स्त्री-छवि को विभिन्न कोणों और सूक्ष्म आयामों में नये कथ्य और शिल्पगत प्रयोगों के साथ ढालने की दृष्टि से प्रत्यक्षा आज की अनूठी लेखिका हैं.

उनके प्रमुख कहानी-संग्रहों- जंगल का जादू तिल तिलपहर दोपहर ठुमरी, एक दिन मराकेश में स्त्री-जीवन को सभी पहलुओ से जोड़कर उसके मानवीय संबंधों, टूटते बिखरते सपनों, प्रेम,वेदना, हर्ष-विषाद और अवसाद सभी क्षणों को संवेदना के एक सूत्र में पिरोने की अद्भुत कहानियाँ हैं. उनकी कहानियों में स्त्री-नायिकाओं का अपने मन को थाहकर, अनर्निहित कमजोरियों पर विजय पाकर उस मुकाम तक पहुंचने का क्रमिक विकास है जहाँ वह अपना स्वतंत्र अस्तित्व स्वयं तय करती हैं.

प्रत्यक्षा का कथा-लेखन  स्त्री के प्रति हमें अधिक संवेदनशील और सोच को उदार बनाता है. स्त्री के लिए दुनिया में जहाँ-जहाँ जो दरवाजे- खिड़कियाँ बंद हैँ उन्हे खोलने का साहस करते हुए नई संभावनाओं के साथ बहुत चुपचाप स्त्री के लिए समाज के नजरिये को बदलनें में अपनी विशेष भूमिका निभाता है. इसी अनवरत रचनात्मक यात्रा में कथाकार प्रत्यक्षाका पहला बहुप्रतीक्षित नवीनतम उपन्यास बारिशगरआधार प्रकाशनसे अभी प्रकाशित हुआ है जिसे कथ्य के स्तर पर लेखिका की सृजनात्मक-परिपक्वता,संवेदनशील अंतर्दृष्टि एवं शिल्प भंगिमा का चरम उत्कर्ष माना जा सकता है और पाठकों के लिए एक नयी बेहतरीन उपलब्धि. अंपनी संवेदनासरोकारों एवंलेखकीय दायित्व के रूप में कथाकार और चित्रकार प्रत्यक्षानिरंतर नये बहुरंगी क्षितिज का विस्तार कर रही हैं जिसकी उत्कृष्ट परिणति इस उपन्यास को बेहद पठनीय, रोचक और विलक्षण बनाती है.

बारिशगरउपन्यास एक समकालीन औपन्यासिक कृति के रूप में स्त्री-मुक्ति की घोषणा न करते हुए भी स्त्री-विमर्श रचती है और स्त्री के मन की व्यथा- कथा बांचती है. आधुनिक स्त्री  भी अपने जीवन की यातनाओं, त्रासदी और अनथक संघर्ष की नियति से कभी मुक्त नहीं हो सकी है. प्रेम के लिए, आश्वस्ति के लिएनिश्छ्ल संबंधों और विश्वास के लिए, अपने स्वप्नों के लिए और अपनी मुकम्मल पहचान के लिए उसका यह संग्राम हमेशा होता आया है.

प्रत्यक्षास्त्री के अंतर्मन और उसकी पहचान में उस तह तक भी जाती हैं जहाँ सभी कठिनताओं में अपनी ज़मीन-आसमान खोजते हुए ज़िंदगी का संघर्ष उसे अपने ही बलबूते पर लडना है. उनके लिए लिखना एक स्त्री-रचनाकार के रूप में खुद से प्रेम करना और अपनी आवाज़ भी सुनना  है. सामाजिक- पारिवारिक और स्त्री के द्वारा स्वंय  पर लगाई गई उन बंदिशों से मुक्त होकर बाहर निकलने का माध्यम है जिनमें सदियों की घुटन है. यह रचना-प्रक्रिया में निर्भीक हो तमाम मुश्किलों को पार कर स्वंय को देखना-परखना और महसूस करना है. आत्मीय और सम्मोहक गद्य रचने में अप्रतिम कथाकार प्रत्यक्षाका यह बेजोड़ उपन्यास जीवन की गहरी-बीहड़ अंतर्यात्रा में स्त्री के कठिन संघर्ष और अस्तित्व की तलाश में स्वका विस्तार है जिसमें उसके व्यक्तित्व का नैसर्गिक कोमल और मजबूत पक्ष साथ-साथ चलता है.

प्रेम, यंत्रणास्वप्न और उम्मीद की यह सघनदुनिया एक घरशांत सुंदर पहाड़ी कस्बे और वैश्विक भूगोल के इर्द-गिर्द स्त्री-संवेदनाओं के जिस संसार को रचती है वह उतनी ही स्पंदनशील है कि जैसे खुद से ही संवाद करना और सामना करना है. पुरुषों के बनाए साहित्यिक उपनिवेश में यह उपन्यास स्त्री के साहस,स्वाभिमान अपने नए अंदाज़ और स्त्री-किरदारों की अनूठी गढ़न में पूर्व निर्मित बंधनो से मुक्ति का एक नया स्वर है.आज स्त्री-कथाकार एक बड़े बदलाव के साथ अपने अनुभव, अंतर्द्वंद्वों और असहमतियों को आत्मविश्वास से व्यक्त कर रही हैं जहाँ सिर्फ देह-मुक्ति ही विमर्श का फार्मूला न होकर बौद्धिक रूप से वह अधिक सक्षम,  गंभीर और सचेत भी है. 


इस उपन्यास के कथ्य में स्त्री केंद्र में है पर यह हमारे दौर का नया रचनात्मक स्त्री-विमर्श है जो सीमित दायरों से आगे बढ़कर एक नया सभ्यता विमर्श भी हमारे सामने प्रस्तुत करता है. यहाँ एक बड़ा फलक खुलता है जो एक स्त्री के सबंधों और संवेदनाओं के आयामों को ही नहीं परंतु उसके वैचारिक चेतनामूलक आयामों को भी छूने का ईमानदार प्रयास करता है. कथाकार असाधारण शैली में बहुत आत्मीयता से स्त्री किरदारों के अंतर्मन को स्पर्श करती है और उनके सम्यक भीतरी-बाहरी संसार को अपनी सृजनात्मकता के केंद्र में ले आती हैं. अनुपम शब्द-चित्रकार प्रत्यक्षाअपनी गहन बौद्धिकता को भी यहाँ रचनात्मक औजार की तरह इस्तेमाल करती हैं. विलियम फॉकनरने कहा था कि- 


वह जब कोई किताब लिखते हैं तो उनके पात्र खुद खड़े हो जाते हैं और फिर वही तय करते हैं कि उनको कौन सा रूप मिलेगा और उनका अंज़ाम क्या होगा.

अपने इस उपन्यास बारिशगरमें प्रत्यक्षा कथासूत्र की उपस्थिति को लेकर बहुत संवेदनशील और सजग हैं. यद्यपि भाषा की बारीक कारीगरी और अनुभवों संवेदनाओं के सूक्ष्म-जटिल चित्रण के कारण प्रत्यक्षा का कथा साहित्य परिष्कृत पाठकीय चेतना की मांग करता है. तथापि इस उपन्यास में अपनी रचनाशीलता के बने बनाए घेरे को वे जिस तरह नए प्रयोगों से तोड़ती हैं वह अद्वितीय और सराहनीय है. लेखिका ने बहुत सधाव और कौशल से संतुलित रूप से इसका कथानक लिखा है और कथासूत्रों पर उनकी गहरी पकड़ स्पष्ट दिखाई देती है. जैसे कैनवास पर किसी सधे हुए चित्रकार की पेंटिंग जिसमें सभी भाव और रंग अपनी संपूर्णता में अंकित होते हैं.एक शांत खूबसूरत पहाड़ी कस्बे मे बसे एक घर से उपन्यास की कथा शुरु होती है जिसमें और जिसके आसपास जीवन निस्पंद बह रहा है. घर इस कथा का केंद्र बिंदु है जहाँ सभी चीज़ें दृश्य-अदृश्य रूप से घटित हो रही हैं. घरइस पूरे उपन्यास में जिसका मूर्त रूप परिवार है उससे टकराए बिना समय की और जीवन की मुश्किलों से जूझने का कोई रास्ता कहीं नही दिखाई देता. यह घर इसमें रहने वाले सभी पात्रोंके लिए सबसे बड़ी आश्वस्ति है और ज़िंदगी का एक अटूट हिस्सा और जीता-जागता किरदार भी.
(प्रत्यक्षा)


इस परिवार में मुख्यत: तीन स्त्री चरित्र जिनमें एक विधवा माँ इरावती जो वायुसेना में एक मिग हादसे के दौरान मारे गये अपने पति कर्नल साहब को खो चुकी है. इरा की दो बेटियाँ सरन और दीवा जिनके अपने स्वतंत्र चरित्र और पहचान हैं लेकिन ये सभी रिश्ते आपस में जुड़े हुए भी हैं. इन तीनों स्त्री किरदारों के अंतर्द्वंद, और ज़िंदगी की जटिलताओं से संघर्ष के आसपास इस कथा का वितान रचा गया है. इसी घर में दीवा का बेटा प्यारा बच्चा बाबुनजो माँ के प्यार से वंचित लेकिन इस घर की जान है और इरा और सरन के साथ सबको एक डोर में बांधे रखता है. उसका प्यारा पालतू कछुआ तैमूरलंग भी सोचनेवाला महसूस करने वाला चेतन प्राणी इस घर का अनोखा सदस्य है. इनके साथ ही घर में रह रहा पुरुष किरदार बिलास भी उपन्यास का मुख्य चरित्र है जो अपने अतीत में प्रेम में धोखा खा चुकने के बाद यहाँ एकांत और आत्मनिर्वासन में फिर से ज़िंदगी का अर्थ खोज रहा है. बाहरी होते हुए भी वह इस घर का आत्मीय और अभिन्न हिस्सा है- हर मुश्किल में इनका साथ निभाने वाला.

लेखिका में इस कथानक में कहीं भी वक्त और किरदारों को गढ़ने की बेचैनी और जल्दी नहीं है इसलिए जैसे कूची के एक एक स्ट्रोक से जीवन की आंतरिक लय को पकड़ने और किसी खास क्षण और चरित्र को चित्र्रित कर देने की उनमें जादुई क्षमता है. इसलिए धीरे- धीरे ये सभी किरदार घर में अपनी आकृतियों की छाया से उभरते हैं और व्यक्तियों में बदलते हैं. उनके सभी आयाम अपने वास्तविक रंग-रूप में पाठकों के सामने रूबरू होते हैं और जैसे जैसे उनके सुख-दुख, हंसी-रूलाईयाँ,  उनके संघर्ष , रिश्ते और यातनाएँ सब सामने आते हैं तो पाठकों से एक आत्मीय लगाव का संबंध स्वत:स्थापित कर लेते हैं. घर भी जैसे इनकी भावनाओं और दुखों का और टूटते-गिरते संबंधों को संभालने का प्रतीक यहाँ बन कर आता है-

“घर की रवायत कुछ अजीब सी थी. चीज़ें जैसी होनी चाहिये थीं , उसके ठीक उलट होतीं. इरावती जाने कितने साल की थीं, पर थी ऐसी जवान और उलट. घर भी उलट ही था. दिन में सोता और रात को जागता. किर्र मिर्र किर्र मिर्र आवाज़ें उठतीं. लकड़ी के फाँक से हवा दर्राती हुई गुजरती. काठ की सीढ़ियाँ अपने ही भार से दबी काँखती कराहतीं. कमरे में भूरा अँधेरा छाया रहता ऐसा जैसा बिलास सँवर ने न कहीं देखा न भोगा.... नीचे के बड़े कमरे में ऊँची बड़ी खिड़्की के बगल में जहाज जैसे पलंग पर बाबुन को उचककर चढ़ना पड़ता जिससे वह बाहर देखता. खिड़की से शहर को जाने वाली स‌ड़क दिखती. खिड़की के अंदर से घर की दुनिया दिखती.  घर जैसा घर था वैसा नहीं था. जो भीतर से था वही बाहर से नहीं था. घर भी सोचता कितना बीत गया कितना रीत गया. पहाड़ी टीले की फुनगी पर टिका जैसे अब उड़ा. अहा घर... फिर भी घर घर है इसलिए कि सरन उसे घर बनाए है. जैसे उसके कँधों पर टिका है. घर उसे चुप देखता है, हल्की साँस भरता है. वह उस वक्त उसका राजदार होता है.  बाबुन की आँख में सपना भर जाता है.घर चुपके हँसता है बेआवाज़.”

इराजब घर की बागडोर अपने हाथों में लेती है तो उसमें उसकी वे संवेदनाएँ, घर और रिश्तों के वो सरोकार भी शामिल हैं जो उसकी अपनी पहचान से ज्यादा मायने रखते हैं. जिनमें ज़िन्दगी की रोजमर्रा का संघर्ष है, दबाव-तनाव हैं, उसकी अंदरूनी बेचैनियों और अतीत के जख्मों को कुरेदने वाले यथार्थ की दुखद स्मृतियों का हिसाब-किताब है जो वर्तमान पर हावी हैं. इरा भी इनके साथ ताज़िंदगी अपने भीतर की असहनीय पीड़ा को छिपाकर जीना सीखने की कोशिश करती है. लेकिन इस पूरी पारिवारिक संरचना में तमाम हौसले और फक्कड़पन के बावज़ूद ज़िंदगी की कठिन चुनौतियों में कर्नल के बिनावह कभी अकेली भी पड़ जाती है-

“तुम हो अब भी कहीं. इक्कीस साल से लेकिन, मुझसे छुपे हुए... इरा के भीतर का सब गुमान खत्म हो गया है। इस घर में ऐसे रहती है जैसे पूरा घर एक इंतज़ार हो. और बेचारी सरन जिसने बाप को सिर्फ देखा या दीवा जिसने देखा पाया और फिर जो उसके जीवन से खो गया-किसकी तकलीफ ज्यादा है ? क्या दीवा इसलिए ऐसी हुई ? बिगडैल अपनी मनमानी करने वाली, जिद्दी, बददिमाग. लेकिन मै तो ऐसी न थी ! फिर?  .. घर फिर उसाँस भरता है कि जिम्मेदारी से घर के लोगों की हिफाज़त में है.”

सरनका चरित्र अपनी उम्र से कहीं अधिक संज़ीदा, अंतर्मुखीलेकिन उदार, सहनशील और अनूठी गढ़न की अविस्मरणीय नायिका का है. उसका बिलास के प्रति अव्यक्त, निस्वार्थ प्रेम, ‌ धैर्यठहराव, अपने प्रति बिलास की उपेक्षाकी व्यथा और घर के प्रति सरन का गहरा लगाव,जिम्मेदारी और दायित्व, उसके अनकहे अनसुने दुख सब मौन और मर्मांतक है.उसके प्रेम मे अनुराग- समपर्ण है लेकिन अपने स्वंतत्र अस्तित्व की गरिमा के साथ.प्रत्यक्षा एक स्त्री कथाकार के रूप में महसूस करती हैं कि प्रेम,सुख- दुखदर्द और ख्वाहिशों से लेकर सभी अनुभव बांटने की ही चीज़ हैं. 


दुनिया में सब कुछ व्यक्त करने के लिए ही होता है , जो खुशियाँ जो तकलीफ, जो विडंबनाएँ हमने आत्मसात की हैं उसे साझा करना जरूरी है. इसी से ही जीवन को नए सिरे से गढ‌ने की उम्मीद मिलती है. बिलास भी एक अलग दृष्टि के साथपुरुष चरित्र के रूप में दुनिया को नए सिरे से समझने और समय के रहस्य में खुद को खोजने वालाएक नए नायक की तस्वीर को पेश करता है. पुराने प्रेम और अतीत केबंधनों को तोड‌कर एकांत को चुनकर जीना चाहता है – “हम गुम हुए लोग हैं, छूटी हुई जगहों में गुम, अनदेखीजगहों में गुम, बीते हुए समयों में गुम, अपने होने में हर वक्त गुम.”सरन की उदास आँखों में उम्मीद देखकर वह उस से दूर रहने की कोशिश भी करता है लेकिन सब कुछ खो कर भी एक बार फिर से दिलफरेब प्रेम के होने से अपने को रोक नहीं पाता जो धीरे- धीरे घटित होता है अनायास.


दीवा बचपन में ही पिता की सबसे लाड़ली के रूप में उन्हें खो देने के दुख, अपने लिए इरा की उपेक्षा और माँ और छोटी बहन सरन के प्रति नफरत के जिस दंश के साथ बड़ी होती है उसमें तनाव, दबाव, उपेक्षाओं के बीच साँस लेने को तरसता अवसाद में घिरता और ड्र्ग्स के नशे में डूबता जीवन है. बचपन के मुक्त मन की निश्चिंतता पर लगा ग्रहण जिस छटपटाहट से मुक्त होने के लिए विद्रोही दीवा यायावर बनकर घूमती है विदेश जाती है भटकती है और फिर दारोश के रूप में उसे प्रेम और  जीवन से जूझने की आश्वस्ति मिलती है. लेकिन दारोश भी उसे अनब्याही माँ का दर्ज़ा देकर उसे छोड़कर चला जाता है नितांत असहाय और विवश छोड़कर.  वह बच्चा इरा को सौंपकर दीवा फिर सात साल तक प्राग में भटकती रहती है जिसकी देह और मन पर असंख्य घाव हैं. प्रत्यक्षा बहुत संवेदनशील अंतर्दृष्टि सेदीवा की आंतरिक परतों को उसकी क्लांत गाँठो को हालात के आईने में रखकर बारीकी सेखोलती है. जहाँ निरंतर भटकाव हैंअकेलेपन की अनकही यातना है, जीवन से कठिन संघर्ष,नाउम्मीदी में सांत्वना की, सुकून की और अपनी तलाश है और अंतत इरा, सरन और बाबुन से दूर हो चुके और उलझ गये रिश्तों की अनंत स्मृतियाँ है. 


प्रत्यक्षा मजबूती से अपनी सभी स्त्री नायिकाओं के साथ खड़ी हैं और वो पाठकों की संवेदना का हिस्सा भी बनते हैं. परंपरागत लीक से हटकर दीवा स्त्री के अस्तित्व का जो नया भाष्य रचती है उसमें चाहे जितनी भी स्वछंदता, उन्मुक्तता और खुलापन हो लेकिन पाठक कहीं भी उसके प्रति अनुदार नहीं होता. क्योंकि रचनाकार सिर्फ अपनी लड़ाई नहीं लड़ता न ही सिर्फ अपने दुख-दर्द का लेखा जोखा पेश करता है. उसे जीवन के हर दौर से हरमौसमसे और परिस्थिति से मुठभेड़ करनी होती है. नज़दीक और दूर होते रिश्तों के साथ और समय के इतिहास के हर फैसलों के साथ. दीवा के भीतर की अथाह गहराई के अंधेरे तल में जहाँ कोई रोशनी नहीं जाना चाहती वहाँ बो उसे फिर अपनाता है। इस आंतरिक युद्ध में जीवन के भयंकर दबावऔर का सामना करते हुए दीवा जिनसे दूर भाग रही थी और जो सब कुछ लगभग खो चुका था अंत में वह फिर उस घर मेंमाँ ,बहन और अपने बेटे के पास वापस वापस लौटती है जहाँ उसके रिश्ते, उम्मीद, स्वप्न और प्रेम दोबारा खींच के ले आते है. अतीत और वर्तमान मिलकर फिर एक बेहतर भविष्य की संभावना के लिए एक साथ चलते हैं. दीवा के माध्यम से घर को अनेक अर्थों में खारिज़ करने और पुन: उपल्बब्ध करने की महत्ता का सभ्यतामूलक विमर्श भी इस उपन्यास की कथा के सूत्र में पिरोया गया है. जैसे सुप्रसिद्ध कवि विनोद कुमार शुक्लने अपनी ने एक लोकप्रिय कविता में कहा है-

दूर से अपना घर देखना चाहिए
मजबूरी में न लौट सकने वाली दूरी से अपना घर
कभी लौट सकंगे की पूरी आशा से
सात संमंदर पार चले जाना चाहिए
जाते जाते पलट कर देखना चाहिए
दूसरे देश से अपना देश
अंतरिक्ष से अपनी पृथ्वी

यथार्थ के अनेक हाशियों को पार करने की कोशिश भी यहाँ स्पष्ट है जहाँ प्रश्न सिर्फ स्त्री-पुरुष संबंधों केबीच देह-मुक्ति का विमर्श का नहीं बल्कि वैश्विक और बहुराष्ट्रीय होती संस्कृति में स्त्री- अस्तित्व के एक बड़े फलक को भी खोलने का अछूता  प्रयास है. दीवा तमाम धोखों और आघातों से उभर कर आती नयी बनती स्त्री की छवि है. अपने स्त्री- पात्रों की आंतरिक जड़ता ,संत्रास और पीड़ा को उपन्यासकार गहराई से समझती हैं लेकिन अंतत: गतिशील बदलाव की उम्मीद भी इन्हीं में बसती है जो अपने में एक मुकम्मल स्त्रीकी तस्वीर बनाती हैं. एक मनुष्य के रूप में हम पूरी ज़िंदगी किसीतलाश में बिता देते हैं और जब पुराने बंधनों को तोड़कर जीवंतता से कथा की रचना होती है तो एक नये जीवंत संसार के दरवाजे खुलते हैं. अंत में जिस बारिशगर की कल्पना है वह उसी अदृश्य खामोश किरदार की तरह है जो अपने में प्रेम, सुकून, खुशियों और उम्मीद के रूप में उनके जीवन की शुष्क ज़मीन और बंजर संवेदनाओं को फिर से सराबोर और ज़िंदा करता है. सभी किरदार प्रेम की वेदना, विडंबना और नि:स्सारता को अपने-अपने तरीके से अनुभव करते हैं. अपने दुखों और स्मृतियों को समेटकर भी जिस प्रेम के स्त्रोत की तलाश और इंतज़ार वे करते हैं वह अंतत: बारिशगर के रूपक की तरह साकार होता है जिसकी आरज़ू यह जीता-जागता घर भी कर रहा था-

“कहते हैं कोई जादूगर था जिसने जादू चला दिया. कोई बारिशगर था जिसने सूखे रेगिस्तान में बारिश बना दी. सब और पत्तियाँ लहलहा गई हैं. सब ओर पीले फूल खिल गये हैं. एक खंडहर होता घर फिर से आबाद हुआ है. घर एक दिल है जो धड़कता है- हब डब हब डब.
घर साँस भरता है. अब निश्चिंत हुआ. कोई काम सौंपा था पूरा हुआ. लकड़ी के खंभे जो सालों स्पर्श की गर्माहट पाकर मुलायम चमक से भरे हैंफुसफुसाते हैं कोनों और आलों से. शहतीर चूँ चाँ करते एक संगीत रचते हैं. फर्श पर कदमों की आहट इंतज़ार करती है रोज़ ब रोज़ की ज़िंदगी के मीठे संगीत की.
यही जीवन है. आह! यही मीठा जीवन है. यही मीठा सरल जीवन है.
घर चुपके हँसता है बेआवाज़. एक पल को लगता है भेड़ चराने वाले चरवाहे को कि मेमसाहब वाली लाल कोठी अभी फुनगी पर टिकी गिरी गिरी फिर तिकी. आँख मलता हैरानी में और अपनी बेवकूफी पर सिर हिलाता आँखे मिचमिचा सूरज देखता दिन का समय थाहता है.”

अंतिम दृश्य में अद्भुत परिकल्पना है जैसे रंगों में डूबे शब्दों का सौंदर्य पराकाष्ठा पर है जिसको उकेरने मेंप्रत्यक्षा अप्रतिम हैं. स्वप्न, कल्पना और यथार्थ बिल्कुल समानांतर जिसके स्थूल विवरण से कथाकार बचती हैं और उनकी भाषिक  संरचना इसके लिए हमेशा शैली के स्तर पर बेहद अनूठे प्रयोग करती है. अनेक उपशीर्षकों में सूत्रबद्ध कथानक किसी स्लोमोशन चित्र श्रृखंला की तरह प्रत्यक्ष घटित होता है जिनमें जीवन की आतंरिक लय को अनेक ध्वनियों में सुना जा सकता है।  स्मृतियों और घटनाओं काअंकन जैसे स्पंदित दृश्यों का कोलाज़ है जिन्हें पढ़ना मानों समंदर किनारे बैठकर दूर रोशनियों को तकने जैसा है जिसमें लफ्ज़ पारदर्शी होकर देर तक पाठकों के दिल-ज़हन में तैरते रहते हैं. पहाड़पर घर, पेड़-पौधे, बगीचे, बारिश, मौसम, रात,  सुबह- शाम और प्राग की विदेशी धरती के खूबसूरत शहर जैसे इन शब्द रूपी रंगों में रोशन हो उठते हैं. छोटे वाक्योंसीमित संवादों और आत्मालाप में धीमी गति और कोमलता से आगे बढ़ाने में कथाकार की भाषा का कौशल झलकता है. 


यह भाषा अपनी तरफ खींचती आकर्षित करती है जिसमें उनका आत्मीय और पाठकों के मर्म को छूता गद्य अपने सम्मोहक प्रभाव में निर्मल वर्माके जादुई कथा-शिल्प की याद दिलाता है. इरा, दीवा और सरन के माध्यम से जो कथा बुनी गयी है उनमे सिर्फ स्त्री मन की अंदरूनी बेचैनियोंजिंदगी की जद्दो-जहद में सोच की उलझनें और टकराहटे ही नहीं आत्मीय संबंधों की आहटे भी हैं जो स्त्री के सामूहिक मनोजगत से जुड़ती है. 

यह उपन्यास स्त्री के भीतर साँस लेते मनुष्य के अस्तित्व को पहचानने की कोशिश करता है. इसलिए एक नये कथ्य,कलेवर,भावभूमि और अनूठे चरित्रों को को लेकर लीक से हटकर लिखा गया यह असाधारण उपन्यास एक नये स्त्रीवादी पाठ की माँग भी करता है.
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मीना बुद्धिराजा
ऐसोसिएट प्रोफेसर- हिंदी विभाग, अदिति महाविद्यालय,दिल्ली विश्वविद्यालय
संपर्क-9873806557

कोई चीज़ लाओ जिसको कोई न जानता हो : महेश वर्मा से मोनिका कुमार का संवाद

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महेश वर्मा और मोनिका कुमार दोनों समकालीन महत्वपूर्ण कवि हैं. महेश वर्मा की कविताओं पर मोनिका कुमार ने यह जो संवाद संभव किया है वह इसलिए भी रेखांकित करने योग्य है कि अपने समकक्ष से समक्ष होने का यह दुर्लभ उदाहरण है. यह संवाद सिर्फ महेश वर्मा की कविताओं तक ही नहीं जाता यह हिंदी की २१ वीं सदी की कविता को समझने का रास्ता भी प्रशस्त करता है. वैसे भी दो कवियों की यह जुगलबंदी अपने आप में किसी कन्सर्ट से कम नहीं. महेश चित्रकार भी हैं. साथ में उनके चित्र भी दिए जा रहें हैं.

यह ख़ास प्रस्तुति समालोचन के पाठकों के लिए.

  

“कोई चीज़ लाओ जिसको कोई न जानता हो”                     
महेश वर्मा से मोनिका कुमार का संवाद





हेश वर्मा की कविता की पंक्ति है “कथा लिखनी चाहिए ऐसे कि पंक्तियों के बीच रिसते ख़ून से चिपचिपा जाए ऊँगली पृष्ठ पलटते, न हो भले ही कथा का शीर्षक- ‘रक्तपात’.”
महेश वर्मा का पहला कविता संग्रह “धूल की जगह” (रज़ा पुस्तक माला, राजकमल प्रकाशन, 2018) पढ़ते हुए मुझे लगा कि उनकी इसी पंक्ति के सहारे उनकी कविता के बारे में बात करना ठीक होगा क्योंकि उनकी कवितायें पढ़ने का मेरा अनुभव भी कुछ इसी तरह का है कि पृष्ठ पलटते हुए ऊँगली चिपचिपी होती है लेकिन तुरंत नहीं पता चलता कि पंक्तियों से कुछ रिस रहा है. यह शायद रिसने और बहने का अंतर है कि किसी द्रव्य के बहने का पता जल्दी लग जाता है लेकिन रिसने का पता देर से लगता है. कई बार पता नहीं चलता रसोई की शेल्फ पर रखी बोतल से तेल धीरे-धीरे रिस कर फैलता हुआ निशान बनाते हुए जगह को चिकना कर देता है, फलों सब्जियों पर फफूंद आ जाती है और वे पड़ी-पड़ी कब रिसने लगते हैं, पता नहीं चलता.

चूने से पुती दीवार से कब तेज़ाबी सीलन रिसने लगती है, कुछ और देखते हुए अचानक ही उस पर निगाह पड़ती है. एक बार मेरे सिर पर लोहे का दरवाज़ा लग गया पर लगा सब ठीक है, लेकिन कुछ देर बाद ऐसे ही हाथ बालों में चला गया तो उस पर ख़ून लग गया. चोट गंभीर नहीं थी लेकिन इस बात से हैरानी हुई कि ख़ून रिस रहा था और मुझे पता नहीं चला. रिसने की धीमी गति में दारुणता का अनुभव है जो बहने के किंचित शक्तिशाली अनुभव से अलग होता है.

महेश वर्मा की कवितायों में जीवन के ऐसे अनुभव या दृश्य चीन्हें हैं जो पार्श्व में घटित हो रहे हैं या फिर बड़े बड़े विवरणों के सामने अपनी लघुता स्वीकार करते हुए सिमट गए हैं, उनकी एक कविता माँ, पिता, भाई, पत्नी और बेटे के रात में सोने की कथा को दर्ज करती है. घर की स्त्रियाँ कहाँ और किस भंगिमा में सो रही हैं या भाई अब कैसे नहीं सोता- इस कहानी में दरअसल भारतीय परिवारों के सोने और जागने की कहानी दर्ज है. महेश वर्मा की कवितायें भाषा और जीवन के अधूरेपन, अनुपस्थित और अदृश्य को कवितायों में खींच कर लाती हैं कि कहीं हम पूर्णता, उपस्थित और दृष्टिगत के भ्रम में ही न खो जायें और इस तरह से उथले रूप से आशावान और शांत नहीं हो जायें कि पता ही न चले कि अपने शरीर, समाज और संसार में क्या रिस रहा है.

“वह भोलापन जो विश्वास करता है और सलोना है वह भी अविश्वसनीय हो सकता है –सहज अभिनेत्रियों से भरे इस संसार में
उस सलोनेपन के धब्बे आत्मा की जीर्ण देह पर देखे जाएँ बाद के किसी वर्ष”
***
“संज्ञाओं, परिभाषाओं और उपमायों पर विश्वास न करता हुआ
ख़ालीपन हूँ चीज़ों के बीच छूटा हुआ”

महेश वर्मा की कवितायों की निशानदेही ऐसे नहीं की जा सकती कि ये प्रेम कवितायें हैं या सामाजिक चेतना की कवितायें हैं या दर्शन से भरे हुए आख्यान हैं बल्कि इसमें एक संवेदशील, यथार्थवादी और किंचित दुखोन्मुखी कवि के सभी तरह के दिनों की बात है. शवयात्रा में शामिल होता या शव के चेहरे का निरीक्षण करता हुआ कवि और गली में मुरम्मत की दुकानों पर जाता हुआ भी और प्रेम संबंध की अंतरंगता की जटिलता और सौन्दर्य को जानने की कोशिश करता हुआ भी. छतीसगढ़ का कवि है लेकिन आदिवासी कविता में उतना ही है जितना कवि को दिखा होगा. कवि के पास सूचनायें और ज्ञान तो होता है लेकिन ये सभी सामान और अनुभूतियाँ शायद बहुत धीरे धीरे कवितायों का रसायन बनती हैं, बहुत सारा समय, बहुत सारी जगहें, बहुत सारे विचार और विरोधाभास, बहुत सारी भावनाएं और संवेदनाएं एक कविता की पूर्व पीठिका तैयार करते हैं. महेश वर्मा चित्रकार भी हैं तो यह बात भी कविता को प्रभावित करती होगी. “धूल की जगह” में प्रकाशित कवितायों का गरिष्ट स्वाद उनके सभी तरह के दीर्घ अभ्यास का परिणाम मालूम होती हैं.

हिंदी का हर कवि हिंदी कविता और हिंदी भाषा की हमारी समझ में कुछ परिवर्तन करता है. महेश वर्मा के काव्य और भाषा के प्रयोग गुणात्मक तौर पर दोनों में कुछ बहुत नया और अच्छा जोड़ने वाले हैं. 

नया और अच्छा एक ही बात में कहें तो यह कि कवितायें रीडर-फ्रेंडली नहीं हैं. जबकि सरकार और व्यापार (कई बार साहित्य भी) लगे हुए है कि बेतुकापन और उबड़-खाबड़ ख़तम करके साफ़ सुथरा देश, इतिहास, नागरिकता और सरल साहित्य बनायें तो यह कवि बेतुकेपन को लगभग एक मूल्य की तरह प्रस्तावित करता हुआ धूल की जगह” लेकर प्रस्तुत हुआ है.

कवि के साथ यह बातचीत ई-मेल के माध्यम से लगभग पांच महीनों में पूरी हुई और इस समय में कवि का जल्द जवाब भेजने का कह कर लंबे समय के लिए अदृश्य हो जाना भी शामिल है.
मोनिका कुमार

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‘उदाहरण’ कविता पढ़ते हुए ऐसा लगा जैसे स्त्री के मन तक पहुँच बनाना दुरूह अभ्यास है. जैसे अँधेरे के नीचे उदासी और उदासी एक नीचे ठंडी त्वचा. फिर कथा के सरोवर की सीढ़ियाँ उतरना, समानांतर इतिहास में घोड़ो की टाप सुनना, आर्तनाद सुनना, गुस्से की इबारत पढ़ना और एक चुप्पी को जानना. यूँ तो किसी भी मनुष्य के मन तक पहुँच बनानी या उसे विश्वास दिलाना बहुत मुश्किल बात है, सभ्यता के विकास के इस दौर में हमारे अंतर्संबंध ऐसे हैं कि किसी मनुष्य के क़रीब जाना दीगर बात है लेकिन फिर भी यह कविता पढ़कर लगता है कि स्त्री मन को जानना, उससे परिचय करना सामान्य से कहीं अधिक लंबा काम है. अगर मैं कविता को ठीक पढ़ रही हूँ तो आपसे यह पूछना चाहती हूँ कि स्त्री का मन आपको अधिक अन्धकार में, अधिक गहराई में और कई भावनायों जैसे गुस्से, रहस्य और चुप्पी में एक साथ प्रतीत होता है तो ऐसा क्यों होता है

जहाँ तक इस कविता की स्त्री की बात है उसे इस ढंग से देखा गया है कि युद्ध, दंगे या जीत का उन्माद, बदले की कार्यवाहियां इन सब की कीमतें स्त्री ने अधिक चुकाई हैं. इससे उसके पास ऐसे दुःख जमा हो गये हैं जो सिर्फ स्त्री दुःख हैं. इस कविता में घोड़ों की टापें आर्तनाद वगैरह की बातें वही संकेत करना चाहती हैं. बहुत सारे ऐसे दुःख और यातनाएं हैं जिन्हें वह किसी से नहीं कहती, अपने पुरुष से भी नहीं.

इससे एक साझा स्त्री समझ का संसार बनता होगा जो बाहर के लिए और विशेषकर पुरुष के लिए रहस्यपूर्ण है. क्योंकि बहुत जगह वह (संसार) चुप है.

जानना वैसे भी एक विडम्बनापूर्ण बात लगती है. एक कोशिका के बारे में विश्वासपूर्वक कुछ कहना मुश्किल है. जिनके साथ बचपन से मैत्री रही आई हो ऐसे मनुष्य का व्यवहार प्रायः चकित कर देता है और सारे पूर्वानुमानों को झुठला देता है तो ऐसे में जानने के बारे में क्या कहा जा सकता है ? धीरे धीरे यह कुछ ना जान समझ पाने का बोध अधिक आवृत्ति के साथ सामने आ रहा है. अगर सतत यातना और त्रास ना हों तो यह औचक और रहस्यपूर्ण व्यवहार दुनिया का एकमात्र आकर्षण माना जा सकता है.

“परिप्रेक्ष्य पहले से मौजूद होते थे तब घटना होती थी”, “समय में संदर्भहीन जाने के लिए कला अपर्याप्त थी”, “तयशुदा दस्तावेज़ उत्तर मान लिए जाएँगे”, “आख्यानों के बगूलों से धुंधला हो जाएगा आकाश” आपकी दो कवितायों क्रमशः ‘कारण’ और ‘इस समय’ से लिए हुए वाक्य हैं लेकिन इस तरह का स्वर, असहायता का यह भाव, विकल्पहीनता की स्थिति आपकी बहुत सी कवितायों में प्रकट होती है मुझे भी ऐसा लगता है कि इक्कीसवीं सदी में परिप्रेक्ष्य का अतिरेक है, बहुलता चाहिए थी लेकिन अतिरेक हो गया, अति आख्यानों से धुंधलका हो गया जिन्हें ठीक से पढने की विधि अभी हम विकसित करने की प्रक्रिया में हैं. आपको क्या लगता है कि परिप्रेक्ष्य घटना से पहले भयावह रूप से मौजूद क्यों है? अक्सर तो यह माना गया कि समय में संदर्भहीन जाने से लिए कला बल्कि कला ही पर्याप्त साधन थी, कला हमेशा से वैकल्पिक संसार का पर्याय रही है लेकिन कला भी इस युग में अपर्याप्त क्यों हो गई?    

ज्ञान और सूचना की विराट और सहज उपलब्धता के साथ अभी हम ठीक से वैसा तादात्म्य नहीं स्थापित कर सके हैं जैसा औद्योगिक और पूर्व औद्योगिक समयों में सरल यंत्रों के साथ कर सके थे. समकालीन कला का भी इस पूरी क्रान्ति से  रिश्ता अपने जटिलतम रूप में है. कलाकार पर यह अतिरिक्त दबाव है कि उसकी कला ऐसी ना हो जिसे टेक्नोलोजी आसानी से एक फ़ॉर्मूले में बदल सके. सॉनेट और समाचार लिख सकने वाले सॉफ्टवेयर बहुत पहले आ चुके हैं. तो ऐसी कला का बनाना मुश्किल होता जा रहा है जो समय में संदर्भहीन जीवन से थोड़ी दूर ले जा सके.

आप किसी भी प्रमुख कला रूप को देखिये क्या वह नए स्वप्न हमारे सम्मुख रख पा रही है? वहां भी प्रक्रिया और तकनीक पर अधिक चर्चा है और सांसारिक आपाधापी में और तेज़ गति का दबाव उस पर भी है. कई जगह उसकी सीधे तकनीक से स्पर्धा है. नयी कला में प्राचीन से शोषण करने और तात्कालिकता के अनुरूप उत्पादन का गहरा दबाव है. एक और हिस्सा है जो निरपेक्ष सा है.

कला की आन्तरिक संरचना में भी बहुत बदलाव हुए हैं. सामने आ रही कला का बहुत छोटा हिस्सा अपने प्रेक्षक और भावक से जीवंत संवाद करता है. इसलिये लगता है कि कला का समानांतर संसार इस संसार का विस्तार है, वह इसी की कॉलोनी मालूम पड़ता है. एक उदाहरण है- आर्ट रिव्यू पत्रिका हर साल कला के सौ प्रभावशाली लोगों और संस्थाओं की पावर लिस्ट जारी करती है. मेरे देखते देखते इसमें कलाकार कम होते होते तीन चार की संख्या पर आ गये हैं और पूरी सूची गैलरी मालिकों, गैलरी निर्देशकों, नीलामी केन्द्रों और क्यूरेटर्स से भरी होती है. यही कला के ताकतवर लोग हैं कलाकार हाशिये पर है. ऐसी सूचियों को अंतिम नहीं मान सकते लेकिन इनसे एक प्रवृत्ति का तो पता चलता ही है.

अगर ताकत की राजनीति की बात करें तो वह पहले परिप्रेक्ष्य और यथासंभव तर्क भी पहले गढ़ती हैं, फैलाती है और फिर अपराध करती है. इससे यह अपराध जब वास्तव में घटित होता है तो उसकी कुछ स्वीकार्यता पहले से मौजूद होती है. वह सामाजिक चेतना पर उतनी क्रिया नहीं करती जितना उसे करना चाहिए.

देखेंगी कि आज जघन्यतम अपराध के पक्ष में आक्रामक तर्क देने वाले पर्याप्त मात्रा और ताकत के साथ मौजूद मिलेंगे जबकि शतप्रतिशत जनमत को इसके विरुद्ध होना चाहिये था. साफ़ दिखता है कि हम एक सैन्यवादी अवचेतन की ओर धकेले जा रहे हैं और मनुष्य समाज के रूप में हमारी समझ मध्ययुगीन होती जा रही है. अतर्क्य और निर्लज्ज झूठों को दोहराती सत्ता को अपने नागरिक के बौद्धिक और संवेदनात्मक पक्ष शत्रु लगने लगे हैं. माइथोलॉजी को इतिहास की तरह उद्धृत करने का चलन बढ़ता जा रहा है. रोजमर्रा का तो यह हाल है कि अगर आप कहें कि आज यह वृक्ष अलग ही सुन्दर दिखाई दे रहा है तो आपको सिरफिरा मान  लिया जा सकता है.

ऐसा लगता है कि शीर्षक ‘स्वीकार’, ‘आत्मस्वीकृति’, ‘कन्फैशन’ हो न हो लेकिन हर कविता या कहें कि समग्र साहित्य किसी प्रकार का स्वीकार या आत्मस्वीकृति की अभिव्यक्ति है,बल्कि अस्वीकार का आन्दोलन विषयक साहित्य भी पहले कुछ स्वीकार करता है और फिर अस्वीकार में प्रतिक्रिया दर्ज करता है. 400 ईस्वी में  संत अगस्तीन ने ‘कन्फैश्न्स’ लिखकर जैसे पाश्चात्य साहित्य परंपरा में सिलसिला ही छेड़ दिया, जैसे किसी ने एक शब्द दिया जिसे लोगों ने मन्त्र की तरह ग्रहण किया हो, यह कन्फैशन पर्दे के भीतर किसी पादरी के सामने नहीं बल्कि खुले में अज्ञात पाठकों के सामने है. आमतौर पर स्वीकार किसी अपराध का होता है लेकिन जिसने किसी भी भाषा या संस्कृति में ‘स्वीकार’ या ‘आत्मस्वीकृति’ के शीर्षक में लिखा, उसने इन शब्दों की अर्थवत्ता में भी इज़ाफा किया. अक्सर ये स्वीकार साहित्य के शिल्प में होते भी कवि के कातर रूप से परिचय कराने वाले होते हैं जिससे अचानक कवि कुछ और मनुष्य लगने लगता है. आपकी कविता ‘स्वीकार’ मुझे बहुत अच्छी लगी, किसी शहर में नए आए हुए मनुष्य को बहुत बार स्वीकार करना पड़ता है कि वह नया है, स्वीकार का एक रूप यह भी हो सकता है, ‘जल के लिए पुराना हूँ तो क्या ? इस नदी से तो नया ही साक्षात्कार था न !’, आपकी कविता का मनुष्य प्रागैतिहासिक रूप से नया होने की बात करता है जो पुराना होते होते भी हर क्षण किसी सापेक्ष संबंध में नया है और चूंकि नया है इसलिए आशंका और असुरक्षा से भी घिरा हुआ है, दृश्य के बदल जाने की कामना करता ‘आश्वस्ति की गोद’ में आना मुख म्लान गाड़ लेना चाहता है. बस नया ही है जो न्याय की गुस्सैल निग़ाह और जीभ काटने की धारधार छुरी से बचा हुआ है, यह कैसी विडम्बना है कि नया होना लाभ की स्थिति है लेकिन नया होना डरावना अनुभव भी है. प्रश्न के रूप में कोई वाक्य विन्यस्त नहीं कर सकी लेकिन जिज्ञासा अगर आप अपनी  कविता पर या कुछ और कहें.

अपने परिचय और सुविधा के संसार से बाहर का संसार जो तुलनात्मक रूप से बहुत बड़ा है वह पास जाने पर हर बार अपने नयेपन से विस्मित करता है. बहुत समय से एक का ही जगह रहते रहते यह आदत सी हो जाती है कि जाने पहचाने लोग और दृश्य मिलें जिनसे नियत ढंग का साक्षात्कार हो और इसे बारम्बार दोहराया जाए. लेकिन इससे बाहर आते  ही उस विराट अपरिचय के सम्मुख हतबुद्धि सा खड़ा होना होता है जहां सब कुछ नया है यहाँ तक कि सूर्यास्त और हाटबाज़ार का दृश्य भी. यह नया और अपरिचित भी, लघुता और एकाकीपन का बोध कराता है और इसीलिए विनम्र भी बनाता है.

रोज़गार के सिलसिले में या यूं भी किसी अनजान सी जगह पर इस खिलवाड़ का विचार मन में आता है कि अभी इस क्षण यहाँ हूँ इसका अनुमान कोई भी नहीं लगा सकता. किसी नए कमरे में, सड़क या नदी के किनारे कहीं भी यह ख़याल आता है और एक अपरिभाष्य सी मनोदशा में ले जाता है.

यह अपरिचय, यह नयापन थोड़ा रूमानी सा भी है थोड़ा एकाकी होने का भयभीत आत्म गीत भी है. कुछ भी हो इसे स्वीकार करने में बाकी संसार से अपने रिश्ते का परीक्षण भी चलता रहता है.

कवि के लिए अंबिकापुर में रहना कैसा रहना है ? कवि अंबिकापुर में क्या देखता है ?

इस जगह से बेज़ारी, मोहब्बत और पस्ती का रिश्ता है. यहाँ सभी पुराने लोग ही एक दूसरे को नहीं पहचानते, पुराने मकान और गाड़ियां भी एक दूसरे को जानती हैं. अम्बिकापुर अपने ढंग का मोकोंदो (mocondo) ही है. बस यहाँ केले के अनगिनत पेड़ नहीं हैं ना कोई नदी आसपास. यह भी आधा यथार्थ में है आधा गल्प में. हर मोहल्ले की भाषा अलग भंगिमा रखती है और हर मोहल्ले का हास्यबोध अपने शिल्प में थोड़ा अलग है लेकिन पुराने लोग इस अंतर के भीतर भी मूलतत्व देख लेते हैं. कवि इनमें से अधिकाँश के बीच Poseidon की डॉल्फिन्स की तरह सहज तैरता है. यहाँ इतने संस्मरण हैं कि कुछ औचक और विस्मयपूर्ण हो पाना लगभग असंभव है. यह एक उजागर और दोस्ताना सी जगह है जहां मौसम बहुत मेहरबान हुआ करता है और रेलगाड़ियाँ यहाँ से खफ़ा-खफ़ा सी रहती हैं.

पुराने लोग पिता और भाई के रेफरेंस से ही पहचानते हैं और यह होता है कि सुबह किसी शवयात्रा और अंतिम संस्कार में मिले लोगों में से कुछ, शाम किसी विवाह समारोह में मिल जाएँ और हममें से किसी के चेहरे पर सुबह की मृत्यु का चित्र ना दिखाई दे. कवि होने ना होने से यहाँ कोई ख़ास फ़र्क नहीं पड़ता. स्थानीय हाइरार्की दुनियावी उपलब्धियों को ठेंगे पर रखती है.

अगर अम्बिकापुर के स्थानीय इतिहासबोध, भाषाविज्ञान और दर्शनशास्त्र की समझ ना हो तो यह आपके लिए एक बंद जगह है.

बुत शब्द बुद्ध से बना है और हिप से हिप्पी. आकाशगंगा की आकृति एक सोये हुए पुरुष के जैसी है और ऊँचे दर्जे के कलाकारों से भगवान खुद फेसबुक पर चैट करते हैं. निकम्मा समझे जाने पर चिढ़कर कैसे थेलीज ने तारे देखते देखते बता दिया था कि इस साल जैतून की फसल बहुत होगी, कांट अपने ढीले पायजामे की कमर संभालने के लिए टीन की डिबिया खोंसे रहता था. वैज्ञानिकों से पूछिए हिरण्यगर्भ विस्फोट जिसे आप लोग बिग बैंग कहते हैं उसके पहले क्या था ? जब सृष्टि बिंदु स्वरुप थी उससे पहले कारण स्वरुप कोई वस्तु नहीं थी यह तो सिद्ध हो चुका है कि वह ध्वनि ही थी. तो बताइए वह ध्वनि क्या थी? जान बचानी है तो बोलिए ओम की आवाज़.

यम, नियम, आहार, विहार, ध्यान, धारणा समाधि वगैरह की सूची बताकर कोई भी विद्वत्तापूर्ण मुंह बना सकता है. गीता पर अपनी मास्टरी है कहते हुए एक संस्कृत श्लोक कभी भी आ सकता है, यहाँ संधिविच्छेद के माहिर फ़नकार हैं और तत्क्षण तुक लगाकर आपकी  बात का मखौल बनाया जा सकता है.

‘छंद-भंग पर हो गया था हृदयाघात’ किंवदन्ती पर आपको विश्वास है ? अपनी कविता ‘नसीहत’ में तो वैसे आपने इसे गीत के सन्दर्भ में प्रयोग किया है कि इस किंवदन्ती पर विश्वास करते हुए गीत लिखना चाहिए लेकिन मेरी समझ से इसका आशय किसी भी किस्म के काव्य से है. आधुनिक कविता में छंद का पारंपरिक प्रयोग नहीं है तो फिर कविता किस किंवदन्ती पर विश्वास करते हुए लिखनी चाहिए ?

आधुनिक कविता इस किम्वदन्ती पर विश्वास करते हुए लिखनी चाहिये कि अभी की सारी कवितायेँ मिलकर मनुष्य के अंतर्जगत, उसके संसार, उसकी फंतासियों और स्वप्नों को कम से कम कहीं दर्ज तो कर ही रही हैं. अलग-अलग भाषाओँ और जगहों के कवि इसी विशाल परियोजना के अपने छोटे से हिस्से का काम कर रहे हैं और यह एक ज़रूरी काम है जिसे आगे बढ़ कर हमने खुद चुना है.

छंद भंग वाली किंवदंती पर मुझे विश्वास नहीं है लेकिन अगर किसी गीतकार को है तो मुझमें उसके उस विश्वास के लिए आदर और समर्थन है.

मेरा यह प्रश्न आपकी कविता ‘मछलियों’ से संबंधित है. हालाँकि आपने कविता की पात्र को अत्याधुनिका कहा है पर कविता पढ़ने पर लगता है ‘अत्याधुनिक’ शब्द का आपका प्रयोग बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में वैश्वीकरण और पूँजीवाद के प्रभाव से निर्मित हुए सांस्कृतिक और राजनैतिक ‘उत्तराधुनिक’ यथार्थ के आशय से मिलता जुलता है. उत्तराधुनिकता में यथार्थ को कुछ इस तरह देखने का चलन बना कि कोई भी मूल्य या धारणा स्थिर नहीं है, इसी विचार के अंतर्गत हाई और लो आर्ट के भेद को मिटने की भी कोशिश की गई और एक वस्तु को बिना किसी एक पक्ष का वर्चस्व बनाए बिना उसे उसके सबसे गंभीर और हास्यास्पद पक्ष के साथ एकसाथ देखने की कोशिश की गई. कुछ ऐसी ही कवायद से आपकी कविता का पात्र अन्य अत्याधुनिक पात्र से मज़ाक में कहता है कि मछली के एक चित्र से सब कुछ का चित्र बनाया जा सकता है, अपने इस विचार को और साफ़ करने के लिए वह कहता है कि इसी चित्र से एक फीमेल न्यूड का चित्र और उसके गुप्तांग का चित्र भी बनाया जा सकता है और उसके ठीक बाद हाईपररिअल अंदाज़ में सारा दृश्य एक फिल्म में बदल जाता है जिस फिल्म में कैमरा सीधे सार्वजानिक मूत्रालयों पर रोका जाता है. आप बताएँ यह कविता लिखने का ख्याल कैसे आया या अगर इसके लिखने का कोई पूर्व संदर्भ है ?

इसे आधुनिक कला में होने वाले आडम्बरपूर्ण संवाद की कल्पना करते हुए उस पर व्यंग्य के रूप में शुरू किया था. लिखते हुए बीच में कैमरे की आंख से देखने का नाटकीय ढंग प्रवेश कर गया. संवाद एक झूठ से शुरू होता है कि एक मछली से सबकुछ का चित्र बनाया जा सकता है. नशे और बोल्ड दिखाई देने की लपट  में बातचीत शायद बहकती है तो पुरुष का गंभीर, भयभीत और परास्त कायांतरण होता है क्यूंकि अत्याधुनिका के प्रश्न के आगे के संवाद उसके पास नहीं है. सार्वजानिक मूत्रालयों में चित्रित कुंठा के रेखांकनो पर कैमरे को रोकने का विचार इस कृत्रिम संवाद के औचक अंत की तरह आया है लेकिन वहाँ के चित्रों और कविता के चित्रों में कोई निस्बत बनती भी है.

कोई एक ख़ास बात पूछने से हो सकता है सबसे ज़रूरी बात आने से रह जाए इसलिए मैं खुले प्रश्न की तरह पूछती हूँ कि आपका बचपन कैसा बीता ?

पिता चाहते थे कि मैं स्कूल न जाऊं. खेलूं–कूदूं  और स्वतंत्र बचपन का आनंद लूँ फिर सीधे मुझे आठवीं बोर्ड की परीक्षा दिलाई जाये. पिता शिक्षक थे और मैं परिवार में सबसे छोटा. एक शिक्षक और अभिभावक के रूप में शायद यह उनके अनुभव का निचोड़ जैसा कुछ रहा हो. तो आठ साल की उम्र तक स्कूल से मेरा सामना नहीं हुआ. इस बीच मुझे बुनियादी चीज़े जैसे गिनती और अक्षर वगैरह अज्ञात ढंग से सिखा दिए गए. शायद दीदियाँ इसके लिए कुछ यत्न करती हों कि पिताजी के बौड़मपन में उनका दुलारा भाई अनपढ़ ना रह जाये. पिता बस हस्तलिपि और मात्राओं की शुद्धता वगैरह के लिए रोज़ एक पेज लिखने को कहते थे जो थोड़े बहुत नागे के साथ मैं कर दिया करता था.

आठवें साल में यह होने लगा कि जब दोस्तों के घर पहुँचता तो पता चलता कि वो स्कूल गए हैं और उनकी माएं यह कहने से नहीं चूका करती थीं कि उनके बच्चों को रोज़ स्कूल जाना होता है और वहाँ मुश्किल पढाई करनी पड़ती है. इस बात का सबटेक्स्ट यही हुआ करता कि तुम्हें क्या, यह सब कुछ करना नहीं है. इससे मैं स्कूल जाने के आवेगपूर्ण सपने देखने लगा. सोते से उठ जाता और स्कूल के विषय में औल फ़ौल बड़बड़ाने लगता. तो घर वालों ने समझ लिया कि स्कूल भेजना ही पड़ेगा. घर के पास के स्कूल में मुझे कक्षा तीसरी में  भर्ती कर दिया गया. पहले दिन स्कूल के लिए दीदियों ने तैयार किया. एक अलुमिनियम के स्कूल बक्से में अनुमान से कापियां, स्लेट, पेंसिल, टिफिन और एक सफ़ेद रंग का फाउंटेन पेन रख कर मुझे स्कूल पहुँचाया गया. यहाँ के स्टाफ भी हमारे परिवार का परिचित सा ही था. पहले दिन छुट्टी की घंटी बजी तो बिना अपना बक्शा लिए मैं छुट्टी  लाइन में खड़ा हो गया. असेंबली के छोटे से मंच से बक्से को ऊपर उठा कर दिखाते हुए और मेरा नाम पुकारकर मुझे बुला कर इसे वापस किया गया.

बाकी समय में मोहल्ले के हम सभी साथी बहुत खेलते थे और पास के बड़े बड़े वृक्षों पर चढ़ जाते, तालाब में नहा आते, साँपों और केकड़ों का जीना दूभर किये रहते और घर वालों को इन सब की हवा नहीं लगने देते.

घर के बिलकुल पास मदन दाजी हैं. हर साज़ बजा लेते हैं और कुछ समय मिलिट्री में भी रहे. बचपन में उनके घर जाता तो उन्हें कभी बांसुरी कभी ड्रम बजाते देखता था. वो मेरे लिए पतंग बना देते और कभी कभी बांस से तीर धनुष भी. हम सब साथियों को विश्वास था कि दाजी जादू भी जानते हैं और जूडो कराटे के माहिर भी हैं. दाजी के पास कमांडो ट्रेनिंग, रहस्य विद्या और साँप पकड़ने के अनेक संस्मरण हैं. दाजी को उसी जिज्ञासा और अदब से अब भी हम लोग सुनते हैं.

एक मुन्ना थे जो रहस्यपूर्ण मुस्कान के साथ चुप रहते थे और शतरंज खेलते थे और महीन आवाज़ में पूछते- ‘क्या मामाजी?’ गुलाब सिंह कभी कभी आते थे जिनके बारे में कहा जाता था कि गणित अधिक पढने से उनका दिमाग फिर गया है. वे सुन्दर राइटिंग में दीवार या सड़क पर कुछ असंगत लिख देते जैसे “कूदे + चाय” और अचानक अपनी नकियाई सी आवाज़ में मन डोले मेरा तन डोले गाने लगते. फिर भी उनका सम्मान था. हम लोग उन्हें दूर से देखते. जली हुई मोबिल के कालेपन में डूबे हुए विक्षिप्तों और भिखारियों को कभी सीआईडी ऑफिसर कभी विदेशी जासूस मानकर हम लोग कुछ दूर तक उनका पीछा किया करते फिर अपने डर की सीमा से पहले लौट आते. पैलेस में रखी तोप का गोला चालीस किलोमीटर दूर जाकर फटा था यह कथा बार बार सामने आती और एक लड़भड़ थे जो रविवार को घोड़े पर आते. जहाँ उनका घोडा रुकता उस घर से लड़भड़ के नाम पर कुछ अनाज भिजवा दिया जाता. लड़भड़ कभी घोड़े से नहीं उतरते थे.

मुझे पसंद किया जाता था लेकिन हंसमुख और खुशमिजाज़ बच्चे के रूप में अपने को याद  नहीं कर पा रहा हूँ. बहुत सा हिस्सा भूल गया तो भी सामने एक बढ़ई परिवार था जहाँ मैं अपनी काठ गाड़ी सुधरवाने या गिल्ली बनवाने जाता तो वहां के कारीगर गाना सुनाने की शर्त पर  ही काम कर के देते थे. तब मैं जल्दी से उनके लिए कोई फ़िल्मी गाना सुना देता. बहुत जिद्दी भी था.

मुझे लगता है हम समय और इतिहास के ऐसे दौर में पैदा हुए हैं जहाँ मनुष्य की महान समर्थताएँ जैसे ज्ञान, तर्क, अनुभूति और अध्यात्म क्लांत पड़ गई हैं. ऐसा नहीं होता तो शायद आपकी कविता ‘लाओ’ का स्वर इतना तीव्र न होता, मनुष्य हमेशा अज्ञात से आकर्षित रहा है, हमारा वर्तमान संसार उसकी अनंत जिज्ञासाओं और उद्धमों का प्रतिफलन है लेकिन वह ज्ञात और परिचय के सुख में स्थित रहने वाला संतुलित मनुष्य भी रहा है लेकिन इस दौर में वह उद्विग्न होकर ऐसी चीज़ के लिए ज़िद्द करता हुआ मिलता है ‘जिसको कोई न जानता हो, जिसके बारे में कुछ बताने की असफलता को भी कोई समझ न पाए’ और जो ‘ज्ञान, तर्क, अनुभूति और अध्यातम सब को धता बताती हुई पहली बार की तरह आए’. मुझे हमारी पीढ़ी की यह स्थिति ज्ञान, तर्क, अनुभूति और अध्यात्म के सिलसिलों में अंतिम मनुष्यों जैसी प्रतीत होती है जिनके लिए जीवन की नैसर्गिकता और स्वाभाविकता परिपाटियों, व्याख्यायों और विधियों में उलझ कर लगातार सीमित होती हुई क्षीण हो रही है. निश्चित ही इसका सामना करने के लिए मनुष्य अपने तरीकों से संघर्षरत हैं लेकिन हमारे संघर्ष की जड़ों में निराशा अधिक और आशा कम है क्योंकि संघर्ष के इतिहास भी बताते हैं कि नीयत और कर्म की ईमानदारी के बावजूद हम निरंतर मनुष्य होने का गौरव खो रहे हैं.जो ‘लाओ’ में आप मांग रहे हैं, अगर वह चीज़ कोई और या मान लीजिये मैं आपसे मांग रही हूँ तो आप उसे खोजने, ढूँढने या पाने की क्या युक्ति या सुझाव देंगे?  

सवाल के अगर आखिरी वाक्य से शुरू करें तो मेरा कहना है कि युक्ति और सुझाव मेरे पास नहीं हैं लेकिन कुछ बातें हैं. हमारे समय की वैचारिकी में भी अनेक उलझी हुई अन्तर्धाराएँ हैं जिनके केंद्र में भाषा विज्ञान, शक्ति संरचना, नृविज्ञान, प्रयोजनवाद आदि आदि हैं. कई बार लगता है कि मनुष्य और प्रकृति के सुरक्षित सहअस्तित्व, अपनी नियति को बदल सकने की मनुष्य की क्षमता जैसे बुनियादी सवाल आज की विश्वदृष्टि से ओझल से हैं.

इस कविता का स्वर ऐसा हो गया है कि इसे यह बताने की जल्दी हो कि उस वस्तु या अवस्तु को कैसा ‘नहीं’ होना चाहिये. यह आने वाले नए को पहले से प्रश्नांकित करने की तरह है या उसके परीक्षणों कि अधूरी सूची यह कहना मुश्किल है. लगता है की कवि को ‘कोई चीज़ लाओ’ यह विचार सूझा और फिर इसके होने को मुश्किल से मुश्किल बनाने की शर्ते इसमें जोड़ दी गयीं. एक ढंग से यह जरुरी भी था क्योंकि उपलब्ध चीज़ मांगकर कविता क्या करती?

मैनें अनुभव किया है कि आप हिंदी से लेकर विश्व कविता पढ़ने बल्कि उन्हें ढूंढ-ढूंढ कर पढने के शौक़ीन हैं. कविता पढ़ने के अपने अनुभव कुछ बताएँ कि कविता के भूगोल पर आपने अभी तक कैसे यात्रा की ?

घर पर बड़े भाई प्रभु नारायण वर्मा की ठीक-ठाक लाइब्रेरी पहले से थी तो वहां पढ़ते ढूढ़ते कुछ साल बाद किसी दिन भाई ने कहा तुम तो कविता अधिक पसंद करते हो ना? उस समय से पहले सोचा ही नहीं था कि एक पाठक के रूप में मेरी पसंद क्या है. तो मुझे भी लगा कि हाँ ये तो सही है.

उनके पास हिंदी, हिंदीतर भारतीय और विश्व कविता के अच्छे अनुवाद थे और भारतीय और विश्व कविता पर केन्द्रित पत्रिकाओं के चुनिन्दा विशेषांक भी थे.

इंटरनेट आने के बाद से यह भी हुआ है कि  पहले कोई ऐसा देश खोजना जिसका नाम भी नहीं सुना हो फिर उसकी भाषा की कविता का अंग्रेजी अनुवाद ढूँढना. यह एक मनोरंजक खेल रहा है.

एक बार जैसा आपने भी देखा था कि बीबीसी पर एक समाचार था कि लातविया  के लोग सबसे कम बात करना चाहने वाले देशों में अव्वल हैं. मतलब वह के लोग मुख्य मार्ग का उपयोग तक नहीं करते कि किसी परिचित से साक्षात्कार ना हो के जाये. तो सोचा कि इतना कम बोलने वाले देश के कवि कैसा लिखते होंगे तो इस तरह की भी बात हो जाती है.

कभी ये भी होता है कि किसी सन्दर्भ में किसी कवि का नाम आ जाये तो उसे ढूँढना. मुझे लगता है सब ऐसा ही करते हैं. कभी कभी 1969 में जन्मे कवियों को खोजता हूँ कि मेरी उम्र के कवि कैसा लिख रहे हैं. मतलब बहुत साधारण से फ़िल्टर हैं लेकिन इससे दिलचस्प चीज़े सामने आती हैं. अनुवाद पर बहुत निर्भर होना होता है फिर भी हिंदी में भारतीय और विश्व कविता के अनुवाद की पचास तो अच्छी किताबें निकल ही आएँगी जो एक जीवन भर पढने को कम नहीं हैं. एक  ही कवि को बरसों तक पढना अच्छा लगता है. इस तरह कुछ ही संग्रह हैं जिन्हें अदल बदल कर बरसों से पढ़ रहा हूँ.

संगीत सुनने के बारे में बताईए.

बहुत सी अच्छी चीजों की तरह संगीत सुनने का शौक भी बड़े भाई से ही मुझ तक आया. पिताजी सहगल के अनन्य प्रेमियों में से थे. रेडियो सिलोन से आठ बजने में पाँच मिनट पर सहगल का एक गीत बजता था. उस समय के आस पास पूजा रोक कर पिताजी दीदियों में से किसी एक को सिलोन लगाने को कहते, पूजा घर के बाहर रेडियो रख दिया जाता वे पूजा घर में बैठे-बैठे सहगल का एक गीत सुनते और उसके बाद आगे की पूजा करने लगते. उस दौरान घर में चुप्पी रहती. उस समय सहगल मुझे तनिक पसंद नहीं आते थे. बहुत बाद में उनके तिलिस्म में थोड़ा प्रवेश मिला.

घर में पहला कैसेट प्लेयर और फिर रिकॉर्ड प्लेयर भाई ले कर आये और देखते देखते कैसेट्स और रिकार्ड्स का एक उम्दा और वैविध्यपूर्ण संग्रह तैयार हो गया. भाई शुरू से बेगम अख्तरके मुरीद रहे हैं. मैं जब किसी दूसरे गायक को सुनता मिलता तो भाई कहते– देर सबेर तुम्हें भी बेगम अख्तर ही पसंद आयेंगी. यही हुआ भी. मुझे फ़िल्मी गीत, गजलें, कव्वालियाँ और शास्त्रीय संगीत सुनना पसंद है. बहुत धीमी गति से अभी सीखना शुरू किया है कि कम से कम कुछ समझ सकूँ. इधर ये भी हुआ है कि बचपन में सुने रिकार्ड्स और उसके गायकों को यूट्यूब पर ढूंढ कर सुनना.

एक स्थानीय संगीत विमर्श भी धर्मयुद्ध की तरह चलता रहता है. जैसे नुक्कड़ पर, चाय ठेले पर जबरिया कान में सुनाये गये फ़िल्मी गीतों पर हुज्जत, कल रात हुए ऑर्केस्ट्रा की समीक्षा और उसमें संशोधन के प्रस्ताव. यह प्रायः उत्तेजना की उन ऊँचाइयों तक सहज ही पहुँच जाया करता है जहाँ प्रेक्षक को यह भय हो जाए कि किशोर दा वाले और रफ़ी साब वाले, लता दी वाले और गीता दत्त वाले एक दूसरे की हत्या भी कर सकते हैं.

भातखंडे ने क्या कहा था इससे क्या होता है? अभी लाओ हारमोनियम तुम अपना सा लगाओ मैं अपना सा लगाता हूँ, कौन बेसुरा है क्लीयर हो जाएगा. आवाज़ को सीढ़ी सीढ़ी उतारना चाहिए.

यह संगीत- गुस्से, बेढंगेपन, दोस्ताना इर्ष्याओं और अनंत बकझक की आदिम सिम्फनी है. यह स्मरणशक्ति का महाबली है. संगीतकार रवि की बुआ की शादी किस गाँव में हुई थी यह तक बता देने वाले राव साब मरहूम की जगह अब भी खाली ही है. अहमद हुसैन मोहम्मद हुसैन से अपनी पसंदीदा ग़ज़ल– चल मेरे साथ ही चल को फरमाइश करके सुन लेने के संस्मरण हैं और बीस साल पहले उषा उत्थुप नाईट में कितनी भीड़ थी की हैरत किसी शाम अब भी हमारे सर पर मंडरा सकती है. 

हंगामा है क्यूँ बरपा वाली ग़ज़ल में गुलाम अली ताल से कट गए हैं, कोई मानेगा? क्या खुराक थी बड़े गुलाम अली की! लानत जनरल जिया उल हक़ को कि मेहदी हसन जैसे फ़रिश्ते को छह कोड़े की सज़ा दी. मोहम्मद रफ़ी का गाना रेकॉर्ड करने वाले साउंड रिकार्डिस्ट से 2007 में बोम्बे में मिला था. कल्याण जी के पास अनोखा क्ले वायलिन था और सहगल को भूत ने अंगूठी दी तब उनकी किस्मत पलटी.


आपकी कवितायों का काव्य-पुरुष अतीतजीवी भी प्रतीत होता है जिसके गहरे संबंध यदि हैं तो वह वर्तमान में नहीं अपितु किसी प्राचीनता में अवस्थित हैं. आपकी कई कवितायों में यह काव्य पुरुष किसी सामानांतर भूगोल में अंतरंगता ढूंढता हुआ मिलता है. उदाहरण के तौर पर अगर आपके संग्रह की शीर्षक कविता धूल की जगहपढ़ें तो हमें वहां यह मिलता है :कुछ आहटें बाहर की कुछ यातना के चित्र ठंड मेंपहनने के सारे कोट और कई जोड़े जूते हमारेपुरानेपन के गवाह जहाँ मालूम था कि धूपआने पर क्या फैलाना है, क्या समेट लेना हैबारिश में.कोई गीत थे तो यहीं था.
दुनिया के किसी भी कोने और संस्कृति में जीते हुए जब मनुष्य को धूप और बारिश से अपने संबंधों की विस्मृति होने लगे तो यह चिंताजनक बात है लेकिन इस बदले हुए समय में पुरानियत में जीने के अपने दुःख है. तो फिर क्या करें


शिम्बोर्स्का कहती हैं कि –
‘जैसे ही मैं उच्चारती हूँ शब्द भविष्य,
पहला अक्षर पहले ही अतीत में चला जाता है.'

एक ढंग से हम लोग अतीत ही हैं. इन कविताओं में स्मृति का बहुत इस्तेमाल किया गया है अजीब बात है कि मुझे याद बहुत कम रहता है और भविष्य से बहुत उम्मीदें हैं, तो ऐसा लगता है कि लिखा हुआ अपने ही  ख़िलाफ़ जा सकता है.

'धूल की जगह'कविता मेरी ओर से यह कहने की कोशिश है कि जीवन के भीतर क्षरण और अंततः अंत अपना आकार लेते रहते हैं. इसे अनेक उदाहरणों से याद किया गया है. आपने सही कहा है कि अतीत स्मरण के अतिरेक के खतरे हैं. प्रमुख है पुनरुत्थानवाद का ख़तरा लेकिन मुझे लगता है कि ये कविताएँ अतीत की ऐसी यात्राएँ नहीं करतीं. ये कुछ नज़दीक के अतीत को कविता के ढंग से याद करती हैं या प्रागैतिहासिक अतीत के पैमाने से मनुष्यता को मापना चाहती हैं. रघुवीर सहाय ने किसी संग्रह की भूमिका में लिखा कि- 'वह कितना सुंदर था जो छोड़ आया हूँ और दुखी नहीं हूँ.'


"अंतिम रात"जैसी कई कविताएँ पढ़ते हुए लगता है जैसे आप जीवन के अंतिम छोर पर खड़े होकर कविताएँ लिख रहे हैं, जैसे क़यामत आ चुकी है, "न नौ, न सात, न तेरह, न तीन""धार्मिक भी मारे गए अधार्मिक भी". आपकी कल्पना में इतना नैराश्य क्यों है ? क्या नमक सिर्फ ज़िन्दगी के बदले प्राचीन तुला पर तौल कर मिलने लगे तो जीवन का शुभारंभ होगा ?

इस नैराश्य पर अक्सर उँगली रखी गई है. ख़ुद मैं भी इसे लौटकर देखता हूँ. इसके कारण जितने आंतरिक हैं उससे कम वाह्य नहीं हैं. हमेशा महसूस हुआ है कि जैसे जेनेसिस की सात दिनों में बनाने की कथा है उसका विलोम शुरू हो चुका है.

आपकी कवितायों को शोर में, भीड़ में, धक्कमपेल में या कहिये कि समकालीन शोर शराबे में नहीं पढ़ा जा सकता या शायद मैं नहीं पढ़ सकी, कुछ कवितायों को छोड़ कर जो अपेक्षाकृत स्पष्ट लगती है या जहाँ कविता पढ़ने का अभ्यास या अनुभव काम आ जाता है, ज़्यादातर कविताएँ निरंतर पढ़ते रहने से और क्रमवार पढ़ने में समझ में आती हैं, आप कविता शुरू करने का कोई माहौल नहीं बनाते हैं बल्कि कहीं से भी शुरू कर देते हैं और एकदम अन्तरंग भाषा में शुरू करते हैं जैसे कि सुनने वाला आपकी चेतना को  बख़ूबी जानता है. क्या आपको पाठक पर विश्वास है ? जब आपने कवितायें लिखनी शुरू कीं तो आपको पढ़ने वालों से क्या सुनने को मिला था

यही सुनने को मिलता थी कि समझ नहीं आतीं, पता नहीं क्या है वगैरह.
पाठक को समझाया जाए यह मेरे मन का काम नहीं है. सभी समकालीन कलारूप अपने भावक से एक प्राथमिक किस्म की तैयारी की मांग करते हैं, उतनी ही मांग मेरी कविता भी करती होगी.
क्रमबद्ध, सुसंगत और तार्किक ढंग से बढ़ना कविता का चरित्र नहीं है. यह काम कथा, समाचार, डायरी, आत्मकथा आदि पहले से कर रहे हैं. अमूर्तन और कल्पना को और जगह मिलनी चाहिए लेकिन पता नहीं क्यों ऐसी कोशिशें पाठक के हास्यबोध को जगा देती हैं.

विश्वास है कि (मेरी भी) कविता को पाठक मिलते हैं जो इस अराजकता को लेकर सहिष्णु हैं.

क्या मृत्यु का विचार या जिसे हम 'डैथ विश'कहते हैं- हमेशा आपके मन में चलता रहता है ? क्या मृत्यु मनुष्य को भव्य बनाती है 

अभी तो मृत्यु को लेकर सहज ही हूँ. मुझे बहुत लंबी उम्र की इच्छा है, कम से कम नब्बे वर्ष. बहुत से अंतिम संस्कारों के अनुभव से कह रहा हूँ कि मृत्यु शांत और निरपेक्ष बना देती है,मृत व्यक्ति के जैसा चेहरा नहीं बनाया जा सकता.

आज का दिन कैसा गुज़रा ? मृत्यु का ख़याल आया ? 

बारिश और ठंड के कारण माहौल में उदासी है. कुछ मन का कर नहीं पाया. मृत्यु का ख़याल एक बार कुछ पल के लिए आया था यह सोचते हुए कि लोग कहाँ पहुंच कर यह कह पाते होंगे कि अब उठा ले भगवान वगैरह.

आपके घर परिवार में और लोग भी कवि हैं ? 

हाँ मुझसे बड़े भाई ने कुछ कविताएँ लिखी हैं लेकिन उनका मन कहानी लिखने में अधिक रमता है.

आजकल, इन दिनों क्या सोचते हैं ? 

भारत की राजनीति और पेंटिंग करने के बारे में बहुत सोचता हूँ. बड़े-बड़े कैनवस कल्पना में बनते मिटते रहते हैं इससे कई बात विकल और उत्तेजित होकर बाहर घूमने निकल जाता हूँ. फ़िर लौट आता हूँ. राजनीति के बारे में सोचते हुए लगता है इस मौजूदा फॉर्मेट से कोई सच्ची राह निकलना मुश्किल है. और कुछ निजी बातें भी सोचता हूँ.

कई बार
बहुत सा सोचा हुआ तो इतना बेतुका होता है कि कहाँ से सोच कहाँ पहुंच गई, यह सोचा हुआ भूल जाता है.

पिछली बार कब हैरान हुए ? ऐसा कुछ जिसने आपकी किसी धारणा, कल्पना या विचार के समक्ष कुछ अभूतपूर्व रखा हो. 

अभी याद नहीं आ रहा. लेकिन ऐसा होता रहता है.
देश दुनिया की पेंटिंग्स देखते ऐसी हैरानी अक्सर होती है.
जर्मन विजुअल आर्टिस्ट Gerhard Richter की पेंटिंग तकनीक देखकर हैरानी हुई थी.

कुछ कवि होंगे आपके सोल-मेट्स जैसे ?जीवित या मृत, यहाँ के या दूर के ?
हाँ हैं ना.

राजकमल चौधरी, के. सच्चिदानंदन, दिलीप चित्रे, शंख घोष, नबनीता देवसेन, और अनुवाद में उपलब्ध पोलिश, स्वीडिश और नॉर्वेजियन कवि.

नवनीता देवसेन आपको क्यूँ अच्छी लगती हैं ? आपने उनपर कविता भी लिखी है. 

सबसे पहले मैंने उन्हें समकालीन भारतीय साहित्य पत्रिका में पढ़ा था. अनुवादक उत्पल बैनर्जीका नाम याद नहीं रहा. दसेक साल बाद उनकी दूसरी कविताएँ पढ़ने को मिलीं और अनुवादक से संवाद भी हुआ. मुझे लगता है उनकी सच्ची आवाज़ में कोई मिलावट नहीं है और वह बहुत भीतर से आती हुई बेधक आवाज़ है.

और क्या पूछना चाहिए ? कुछ जो इन प्रश्नों के दायरे में न आया हो पर उसे यहाँ होना चाहिए.

ऐसा तो कुछ नहीं सूझ रहा.

हमारी बातचीत को पसंद की अपनी या किसी अन्य कवि की कविता से खत्म कर दीजिये. 

उदासी

उस जगह जहाँ नीले आकाश
की लहरों की आवाज़ सुनाई देती है
मुझे लगता है जैसे मैं
किसी कल्पनातीत चीज़ को छोड़ आया हूँ

अतीत में साफ़-साफ़, एक स्टेशन पर
मैं खड़ा था एक खिड़की पर खो गई चीज़ों के वास्ते
और पहले से भी ज़्यादा उदास हो गया.

शुंतारो तानीकावा

अनुवाद:अशोक पांडे
_____________________
turtle.walks@gmail.com

औरत की दुनिया (नासिर शर्मा ) : शिप्रा किरण

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हिंदी की वरिष्ठ और महत्वपूर्ण लेखिका नासिरा शर्मा का लेखन विपुल और विविध है. आधुनिक पर्शियन साहित्य तथा समकालीन ईरानी समाज, संस्कृति और राजनीति विषयक मामलों पर उनका  विशेष कार्य है. हिन्दी, उर्दू, अंग्रेजी, पर्शियन, पश्तो आदि विभिन्न भाषाओं के साहित्य का उनका गहरा अध्ययन है. कहानियाँ, उपन्यास, वैचारिकी, संस्मरण, अनुवाद, आलोचना और संपादन की उनकी लगभग ५० से अधिक किताबें प्रकाशित हैं.

‘औरत की दुनिया’ उनके लेखों का संग्रह है जिस पर विस्तार से बात कर रहीं हैं शिप्रा किरण.

 औरत की दुनिया का विस्तार                   
शिप्रा किरण

कलकत्ता - कुछ कविताएँ : अंचित

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समालोचन पर आप अंचित को पढ़ चुके हैं, कोलकाता पर केन्द्रित इन सात कविताओं के साथ वह फिर आपके समक्ष हैं. इन कविताओं में शहर तो है ही अपने अतीत और वर्तमान में एक साथ अपनी ही छाया में हिलता हुआ, एक नर्म धड़कता दिल भी है जो किसी चेतना पारीक के विरह में है.

सुंदर और मार्मिक कविताएँ. 

कलकत्ता                            
कुछ कविताएँ - अंचित



हावड़ा जक्शन

इस शहर में कोई अगर
मुझसे तुम्हारे बारे में पूछेगा तो
मैं क्या जवाब दूँगा?

कलकत्ता एक बार लगता है कि थोड़ा भी नहीं बदला,
और देखो ध्यान से तो लगेगा सब कुछ बदल गया.
मेरी बाँहों पर सिगरेट के जले के दाग महीन हो गए,
और मैंने सोचा था इससे ज़्यादा दर्द तुम दे नहीं पाओगी.

कलकत्ता रबर से पोंछ कर मिटा दिया गया-
कोई स्मृति नहीं मेरे बटुए में अब.

कई कवियों की पूर्व-स्मृतियों की तरह धूमिल है सब,
भाषा में तत्सम शब्दों की तरह ही याद हूँ तुम्हें ,
यही दिलासा कि ताउम्र एक ही नदी के दो नामों की तरह रहेंगे -

कवितायें, भूल जाने का रिकार्ड भर हैं.
जैसे मुझे अब बांग्ला नहीं आती, जैसे नीरा नाम
से मेरा कोई राब्‍ता नहीं, जैसे अब एक ही लाल शाल
बची है हम दोनों को मिला कर.

मेरा एक दोस्त बैरकपुर के लिए ट्रेन पकड़ता है
और मैं सोचता हूँ अब मुझे कविता लिखना छोड़
देना चाहिए.





कलकत्ता अगर मुझे दूर ही करना है - आख़िरी ख़त
(शीर्षक प्रीतिश नंदी की कविता से प्रेरित)

दो चार दिनों में शाम की आड़ में
कुहरे का बाज़ार चल निकलेगा और
मुझे आम के बग़ीचे याद आएँगे.
कविता से कुछ नहीं होता-
मैं बार बार पोखरे के किनारे चीख़ूँगा और
बार बार तुम्हारे नर्म गरम हाथों से
ठुकरा दिया जाऊँगा.

इधर गंगा रूठेगी उधर बेलूर का अँधेरा पुकारने लगेगा

प्यार से कुछ नहीं होता,
मैं फुसफुसाऊँगा बंगाली उपन्यासों की
नायिकाओं के कानों में
और उनके लिए अपना समस्त जीवन
तबाह कर दूँगा, उनसे जुड़ी सब किंवदन्तियाँ
मेरी देह में पैबस्त हो जाएँगी.

एक बार तो लौटूँगा पूरब -
जब जब बढ़ेगी ठंड क्योंकि

महज़ ठुकरा दिया जाना भी
सम्बंध की सहमति को ज़िंदा रखेगा.












चेतना पारीक की मृत्यु कामना

मर जाओ मर जाओ मर जाओ
अब तो मर जाओ चेतना पारीक़.

तुमको नींद से भरी ठंडी सर्द रातों
की क़सम का वास्ता,
तुमको पुरानी गलियों की बंद लम्बी
खिड़कियों का वास्ता.

मैं कब तक आऊँगा कलकत्ता और
बिना मिले लौट जाऊँगा,
मैं कब तक तुम्हारे बेतक्कलुफ दिल से
आस लगाए बैठा रहूँगा.

पोखरों में मछलियाँ अभी भी तुम्हारा इंतज़ार करती हैं .
नयी तितलियाँ कितनी आसानी से अब भी तुम्हारा
ऐतबार करती हैं .

मर गये कितने कवि तुम्हारे प्यार के 
चक्कर में चेतना पारीक़ -
तुम उनसे कविता में पूरी ना हुई .

कितने पागल हो गए, कितने प्रेमी
कितने खुदा - तुमने किसी को
आदमी नहीं छोड़ा.

मैं तुमसे प्रेम चाहता था चेतना पारीक़
तुम मुझसे कविताएँ चाहती थी.

हम कितने अधूरे रहे -
अपने अधूरेपन में मर जाओ,
अपनी मोहब्बत में मर जाओ,
किसी कविता में मर जाओ चेतना पारीक़,
मेरी याद में मर जाओ .

इच्छाओं के बारे में

तुम नहीं जानते क्या चाहिए मुझे -
कितनी आकाशगंगाएँ कितने सूरजमुखी !

जहाँ फ़्लाइओवर शुरू होता है,
वहाँ लगीं पीली लाईटों सी अकेली हो जाती है उदासी मेरे भीतर.

यक्ष-प्रिया के पास जैसे हृदय में कामनाएँ हैं -
पूर्ण संवाद की अस्पष्ट ध्वनियाँ पहुँचती हैं तुम्हारे पास. 

कलकत्ते की दोपहर जितनी उमस हमें खायी जाती है और
हम जब भी कविता में होते हैं इंतज़ार में या विरह में.

हम खेलते हैं हिंसा से प्रेम करते हुए ,नीला मेघ बने ,
आसमान बने, बरसते हुए पर्वतों पर , शहर पर स्वप्न की तरह.








बेलूर मठ

दुख धँसा रहता है
माँस के भीतर हड्डियों को पकड़े
चिपटा हुआ देह से,
वही आत्मा की ज्योत है मेरे भीतर -
जीवन की किताब से अचानक ही
उड़ जा सकती हैं पूरी पूरी पंक्तियाँ.
थके हुए दिनों में जब कोई कविता घर नहीं आती
जब हर उजास ख़्वाब बीत चुके की मलिन छाया में मैला हो जाता है,
दोपहर और साँझ के बीच झिलमिलाते अंधेरे में
मेरे घुटने कांपते हैं. 

हम एक साथ पुरानी दिल्ली जाना चाहते थे,
लड़ना चाहते थे इतिहास के हत्यारों से,
और उस तरह रहना चाहते थे जैसे पहाड़ के
साथ शांति रहती है ठंड के मौसम में.

हर कविता के अंत में यही सोचता हूँ -
कलकत्ता बीत गया जैसे
पटना बीत जाएगा वैसे ही.
जिस तरह याद आती है दिल्ली
वैसे ही याद आता रहेगा.





विरह के बाद

जितनी दूर जाता हूँ तुमसे-
उतना तुम्हारे पास.

दुनिया के अलग अलग शहरों में 
अलग अलग सीढ़ियाँ हैं.
और क़दमों को तो बस चलते जाना है.

प्रेम का जीव विज्ञान पैदा होता है रात्रि के उदर से 
और तुमसे दूर अपनी निर्मिति-अनिर्मिति से उलझा हुआ 
स्वयं -हंता.

एक मन डूबता है - 
पराए आसमान में.

एक असफल प्रयास कि 
आत्मा अपनी यात्रा समाप्त करे. 

तुम मेरी हार की सहयात्री हो -
मेरे साथ ही टूट कर बिखरी हुई -
निराशा के समय प्यास की पूर्ति. 

बताओ 
हम अपनी उम्मीदों का क्या करें- 
जब तक वे नहीं टूटती?
हम अपने प्रेमों का क्या करें -
जब तक वे असफल नहीं होते?
हम अपनी बाँहों का क्या करें कि 
बार बार हमने इनमें नए प्रेम भरे?

आख़िरी सवाल अपनी संतुष्टि से करना चाहिए. 
उसके पैरों में भँवर पड़े, इसका दोषी कौन है?


तुम जिस बिछौने पर सोयी हो -
उसका रास्ता अबूझ है
और मेरी महत्वाकांक्षा फिर रही है 
दूसरे दूसरे शयनकक्षों में.  





























सोनपुर लौटते हुए

जीवन चलता जाता है नदी और दीयरे के बीच,
उजास रातों में तुमसे प्रेम करने की इच्छा रखते हुए
कपास के खेतों के पास तैर रहा हूँ बेपरवाह और रात उजली है.

मेरी बंगाली नाटकों की नायिका
तुम बनलता सेन नहीं हो,
तुम चेतना पारीक नहीं हो,
कलकत्ता नहीं है कहीं भी पसरा हुआ आसपास तुम्हारे.
शान्तिनिकेतन के जंगल अपनी गंध से अघाते हुए
अब नहीं खींचते मुझते.

फिर भी तुम याद आती हो
तुम्हारी आवाजों की वेवलेंथ अभी भी सेट है दिल में. 
तुमसे प्रेम करने की इच्छा रखते हुए बह रहा हूँ
जो थोड़ा बहाव है, क्षीण होता हुआ,
जो थोड़ा पानी है, बाकी गंध भुला दे रहा है. 
और मेरा नाविक मुझे इसी प्रेम की दुहाई देते हुए लौट चलने को कहता है.
 
रात ज्यादा है, सोनपुर दूर है, सुबह काम पर जाना है.
 
मैं प्रेम के योग्य नहीं हूँ,
और घर इंतज़ार करता है.

फिर भी खींच रही है नदी तुम्हारी ओर
सारा पानी बह रहा है तुम्हारी ओर

एक उजास रात है और जीवन चलता जा रहा है .





कलकत्ता आख़िरी कविता

जब अपने शहर में कोई द्वार नहीं खुलता
लम्बी खिड़कियों से झाँकती पूर्व प्रेयसी
याद आती है

उसका शहर ऐसा है कि डँस लेता है.
ज्ञानेंद्रपति को वहीं अमरता का श्राप लगा
स्वदेश दीपक वहाँ से कभी लौटे ही नहीं

लालसा और प्रेम के बीच झूलता हुआ कलकत्ता
मौसमों के बीच - ना सर्द ना गर्म, कम्बल से भारी देह
और ललाट पर बार बार फूटता पसीना

हत्याओं का पर्व मना रहे देश के लोगों , कहते हैं ,
कोई प्रेमी मरता है तो एक बार मृतात्मा
कलकत्ता ज़रूर जाती है

मैं संगीत नहीं समझता पर स्वर की उच्चतम सीढ़ी पर
मद्धिम रोशनी में पूर्व प्रेयसी की हिलती हुई नंगी पीठ,
ज़राशुँको के एक पुराने लाल दीवारों वाले मकान ने छुपा रखी है

बहुत पहले वहीं एक तंत्रपीठ की एक भैरवी ने
मुझसे कहा था कि देश डूबाने वाले बनारस से चुनाव लड़ेगा
और पाँच साल बीतते बीतते हम सब हिंसक हो जाएँगे

यह हिंदी कविता का दुर्भाग्य और दबाव दोनों है , जहाँ संकेत अपराध हैं,
जहाँ कठिन नहीं हुआ जा सकता , जहाँ खेल गम्भीर नहीं होते ,
और मैं वाहवाही के ढाँचे में ख़ुद को भर नहीं पा रहा.

मैं प्रसाद के उपन्यासों वाला जल-दस्यु बनना चाहता था
जो बनारस और कलकत्ते के बीच रहने वाली और अधेड़ पतियों के भार से दबी
औरतों के सपने में आता.

ये आकांक्षाएँ माँस से लिपटी हुई हैं
मैं भूल जाना चाहता हूँ लालसा और प्रेम के घाट
और बीच में बहता गंगा का पानी

मुझे शिष्टाचार से घिन्न होने लगी है
और मेरा पागलपन मुझसे बार बार मद्धिम रौशनी वाले
कमरों में क़ैद हो जाने को कहता है

प्रेयसी की पसीने से भींगी अनावृत उज्जवल पीठ के
बिना राजनीति और कविता का कोई मतलब नहीं है -
यह वाक्य भी मैंने कलकत्ता में पढ़ा था

कलकत्ता हिंदी के कवियों का मुर्दाघर है,
मैंने सुना, लेकिन मेरे पास ना कविता है
ना हिंदी , इसीलिए वहाँ मेरी लालसा अतृप्त
बिचर रही है

ऊँचीं छतों वाले पुराने मकान, सबसे ज़्यादा परिचित देह गंध
और गीले चुंबनों का बिम्ब है कलकत्ता
और इसीलिए भी

यह आख़िरी कविता है
जो हुगली के पुराने घाटों
और उसके पुराने स्टीमरों के लिए लिखी जाएगी -

जितने नायक थे सब कविता में थे
जितने ईश्वर थे सब भाषा में थे 
जितने कवि थे सब सभाओं में थे

इसीलिए मैं अकेला रहा
और सोचता रहा कलकत्ता.









जन्म से ही जीवित है पृथ्वी (प्रेमशंकर शुक्ल) : राहुल राजेश

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'तितली फूल को उसकी टहनी में न पाकर
बिरह में है
जूड़े में वह फूल भी है अनमना बहुत
रह-रह कर आ रही है उसे अपनी प्रिया की गहरी याद


प्रेमशंकर शुक्ल मुख्यत: प्रेम के शुक्ल पक्ष के कवि हैं. उनकी कविता की जमीन प्रेम की संवेदना से गीली है, इस मिट्टी को वह मनचाहा आकार देते चलते हैं कुछ इस तरह कि उसमें प्रेम की तरलता बची रहती है. वह करुणा से होते हुए प्रेम तक पहुंचते हैं. वह अपनी भाषा को प्रेम  के रसायन और करुणा के जल से माँजते रहते हैं. भाषा से भाव तक की उनकी यह जीवन- दृष्टि कला को वृहत्तर आयाम  देती है. नृत्य, चित्र, मूर्ति, संगीत, नाटक आदि सब उनकी कविता के सह-यात्री हैं.  

कला अनुशासनों पर आधारित कविताओं का संग्रह जन्म से ही जीवित है पृथ्वीप्रेमशंकर शुक्ल का पांचवाँ कविता संग्रह है. इस संग्रह की कविताओं पर कवि राहुल राजेश का यह समीक्षात्मक आलेख.




हरहमेश पूरम्पूर बना रहता है मन-बल जहाँ !              
(प्रेमशंकर शुक्ल के कविता-संग्रह 'जन्म से ही जीवित है पृथ्वी'से गुजरते हुए)
राहुल राजेश





न्म से ही जीवित है पृथ्वी. हाँ, सचमुच जन्म से ही जीवित है पृथ्वी. जन्म से अर्थात् जन्मने से. जन्मने से पल्लवों के, शिशुओं के, कलाओं के, सुंदरताओं के. जन्म रही हैं सुंदरताएँ फूहड़ता और फरेब के बरक्स. जन्म रही हैं नित नई कलाएँ- नई ऊर्जा और नई आभा के साथ, मनुष्य का मन-बल बढ़ातीं. पृथ्वी का मन-बल बढ़ातीं कि-कलाओं की कोख कभी अपनी पृथ्वी को मरने नहीं देती!

हाँ, यह जन्म सनातन सत्य है.शाश्वत सत्य है. और यह सत्य, निरंतर जन्म का यह सबसे सुंदर सत्य मृत्यु के विरुद्ध सबसे मुकम्मल, सबसे मजबूत बयान है! इसलिए तो पृथ्वी कभी मृत्यु के चिर तिमिर में एक क्षण के लिए भी विलीन नहीं हो पाती. क्षणांश के लिए भी दृष्टि से, सृष्टि से ओझल नहीं हो पाती. कि नित, हर क्षण जन्म घटित होता रहता है, जो मृत्यु को पराजित करता रहता है! जिसकी नव-प्रस्फुटित रोशनी मृत्यु के अंधकार को हरहमेश हरती रहती है. इसलिए जन्म से ही यानी जन्म के कारण ही नित्य निरंतर जीवित रहती है पृथ्वी. और इसी जन्म के बूते हरहमेश पूरम्पूर बना रहता है मनुष्य का मन-बल! पृथ्वी का मन-बल भी बना रहता है इसी जन्म से ही!

हाँ, प्रेमशंकर शुक्ल के सद्य-प्रकाशित पाँचवें कविता-संग्रह 'जन्म से ही जीवित है पृथ्वी'को पढ़ते-महसूसते, ठहर-ठहरकर इनकी कविताओं को अपने अंतरतम में जज्ब करते कुछ ऐसा ही अंतर्बोध हुआ मुझे! और यह अंतर्बोध ही इन कविताओं का असली सामर्थ्य है,जो बिल्कुल सूक्ष्म तरीके से और सलीके से मनुष्य को यह विश्वास दिलाता है कि यह पृथ्वी, यह जीवन तब तक दुखों, विपदाओं, आपदाओं या कि मृत्यु से पराजित नहीं होगा, जब तक इस पृथ्वी पर कलियाँ फूट रही हैं, कलाएँ सिरज रही हैं जीवन की बगिया में, जीवन के आंगन में, जीवन के रंगमंच पर!

प्रेमशंकर शुक्ल के इस कविता-संग्रह 'जन्म से ही जीवित है पृथ्वी'की कविताएँ वैसे तो प्रकट रूप में कला अनुशासनों पर केंद्रित कविताएँ हैं. पर थोड़े और व्यापक फलक पर, थोड़ी और सूक्ष्म दृष्टि से देखें तो ये कविताएँ वस्तुत: महाजीवन की कविताएँ हैं! महाजीवन के महाराग की कविताएँ हैं. महाजीवन के महारास की कविताएँ हैं. और मनुष्य के इस महाजीवन में, पृथ्वी के इस महाजीवन में, धरती के रोम-रोम के महाजीवन में या फिर बारिश की बूंदों के महाजीवन में या फिर कोयल की कूक के महाजीवन में यह महाराग और महारास कलाएँ ही तो रचती हैं! हाँ, वही कलाएँ जो पृथ्वी के जन्म से ही, मनुष्य के जन्म से ही, शिशु की प्रथम किलकारी से हीइस महाजीवन का साथ निभाती आ रही हैं! हाँ, वही कलाएँ जो आदिकाल से ही, अनंत काल से ही पृथ्वी को, मनुष्य को, जीवन को लय-ताल, सुर और स्वर देती आ रही हैं! हाँ, वही कलाएँ जो जीवन के आरंभ से ही जीवन को संगत देती आ रही हैं!!

यह अनायास नहीं है कि बारिश की बूंदों के जन्म से जन्म लेता है टप-टप का मधुर संगीत. दरअसल यह बारिश की बूंदों के जन्म पर धरती के कंठ से स्वत: फूट पड़ने वाला मीठा आदिम लोकगीत है!यह अनायास नहीं है कि कोयल की कूक सुनकर पृथ्वी पर बरबस उतर आता है बसंत. दरअसल कोयल की कूक विरह का विदारक गीत है,जिसे सुनकर पृथ्वी के पोर-पोर से करुणा फूट पड़ती है. इसी करुणा के जल से पूरी पृथ्वी एक बार फिर हरी हो जाती है. सच कहें तो बसंत पृथ्वी पर विरह और प्रेम की अद्भुत चित्रकारी है! और यह चित्रकारी केवल प्रकृति तक ही सीमित नहीं रहती. हाँ, बसंत केवल पेड़ पर ही नहीं उतरता. वह महावर की शक्ल में स्त्री के पाँव तक उतर आता है! तभी तो कवि 'पाँव-महावर'शीर्षक कविता में कहता है कि"महावर पाँव पर बसंत है!"और यह भी कि-

"स्त्री और धरती जुड़वाँ हैं
फूल-पत्तियाँ, बेलें धरती के महावर-मन से ही फूटती हैं!"

मैं इसी कविता से अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहना चाहता हूँ कि कलाएँ भी जीवन की, दुख की सहोदर हैं. जीवन के दुखों से जूझने की शक्ति कलाओं की कोख से ही सिरजती हैं. सच तो यह है कि जीवन में दुखों और कलाओं का जन्म एक साथ हुआ है! जितना पुरातन है दुख, उतनी ही पुरातन हैं कलाएँ! कलाएँ जीवन में दुखों से अवकाश उपलब्ध कराती हैं पल दो पल के लिए. कलाएँ दुखों से विवर्ण हो गए जीवन के चेहरे में रंग भरती हैं. कलाएँ मनुष्य को नवजीवन देती हैं हर दिन.





(दो)
दरअसल, कलाएँ मनुष्य के दुखों की सबसे आदिम अभिव्यक्ति हैं! कलाओं में ही मनुष्य अपना सुख सृजित करता है. इसलिए कलाएँ मनुष्य का सबसे आदिम सुख भी हैं! वरना खेतों से लौटकर लोग गीत गा-गाकर अपनी थकान नहीं मिटाते! श्रम करते वक्त लोग गीत गा-गाकर अपनी मेहनत को इस तरह माँजते नहीं! यही नहीं, साँझ पहर आसमान में अपने-अपने नीड़ों की ओर लौटते पंछी सामूहिक कलरव-गान के साथ लौटते नहीं! वे चुपचाप न लौट जाते? गोधूलि बेला में घंटियों के समवेत नाद के साथ गायें क्योंकर लौटतीं? वे सिर झुकाए चुपचाप न लौट आतीं?

तो यह साफ है कि कलाएँ हमारे जीवन का श्रृंगार हैं. आभूषण हैं. जो इस जीवन को सुंदर बनाती हैं और जीने लायक भी. इसलिए कवि इस कविता में आगे कितनी सच्ची बात कहता है-

"भाव से भरा हुआ महावर
अभाव का आभूषण है
नहीं होता जेवर-गहना
तो हमारे छोटे-छोटे घरों की औरतें
महावर से ही कर लेती हैं
अपना साज-सिंगार."

और यह भी कि-

"लोक के उत्सव
मुश्किलों से जूझने के सच्चे औजार हैं."

और यह लोक के उत्सव क्या हैं? पाँवों की थिरकन नृत्य बनकर उत्सव रचती हैं तो दीवारों पर, कागज पर, कपड़ों पर, काठ पर, कन्था पर उकेरे गए चित्र वस्तुत: रंगो के, रेखाओं के,धागों के ही तो उत्सव हैं! मूर्तिकार या शिल्पकार जो मूर्ति या शिल्प गढ़ता है, वह दरअसल उसकी उंगलियों की लोच का ही तो उत्सव है! सच कहें तो यह कलाएँ मनुष्य के सुख-दुख की अभिव्यक्तियों के आदिम उत्सव ही तो हैं! ये कलाएँ इन्हीं अभिव्यक्तियों के नयनाभिराम क्रिया-रूप ही तो हैं! जहाँ मनुष्य का दुख भी रंगमंच पर अभिनय करता नजर आता है!

दरअसल,दुख ही सारी कलाओं में असली किरदार निभाता है. न हो यकीन तो इस 'किरदार'शीर्षक कविता को पढ़िए, जो संग्रह की पहली ही कविता है-

"एक नाटक का किरदार
नाटक से भाग कर चित्र बन गया
कुछ दिन चित्र में रहकर
फिर खंडकाव्य में पढ़ा जाता रहा."

महज पंद्रह छोटी-छोटी पंक्तियों की यह कविता बहुत बारीकी से यह बयान कर देती है कि दुख ही दुनिया की सारी कलाओं-विधाओं का केंद्रीय स्वर है और यह दुख ही हर जगह अभिव्यक्त होता है, चाहे वह रंगमंच हो, चित्रकला हो, संगीत हो या फिर शोकगीत! भले यह दुख हर बार अपना चोला बदल ले, लेकिन यह अंतत: पहचान ही लिया जाता है-

"विधाओं की दौड़-भाग और छुपाछुपी में
वह तो पकड़ा ही न जाता अनगिनत युग

लेकिन मंच पर गाते हुए
गायक के कंठ में फंस गया उसका दुख
जिससे कांप कांप गया किरदार
और शोकगीत भी थरथरा गया हर पंक्ति

शोकगीत में ही सबके सामने
बरामद कर लिया गया किरदार

तभी से
हर किरदार शोकगीत में जाने से
थरथराता है!"


(द्वारा  
Tajnoor Khan)



(तीन)
कलाएँ जहाँ एक ओर दुख को सुख में बदलने की एक आदिम प्रविधि है, वहीं प्रेम की पुकार प्रेयसी तक पहुँचाने में भी कलाएँ ही काम आती रही हैं. जैसे श्रम के संगीत को जीवन-दर्शन में बदलने में आदिकाल से काम आते रहे हैं गीत! प्रेम, पसीना, दुख-सुख, हँसी-खुशी, आँसू-मुस्कान- यह सब जीवन के अलग-अलग सुर-ताल हैं, अलग-अलग रंग-राग हैं, जो कभी सुबह-सवेरे, कभी दिन-दोपहर, कभी सरे सांझ और कभी आधी रात को- कभी बांसुरी में, कभी इकतारे में, कभी तानपुरे में, कभी पखावज में, कभी होंठ-बाजा में बज उठते हैं! इस संग्रह से गुजरते हुए बरबस महसूस होता है कि कलाओं के बिना जीवन कितना अधूरा होता? कलाएँ न होतीं तो हमारे दुखों को, हमारे प्रेम को, हमारे संघर्ष को कौन सहेजता?

संग्रह की दूसरी कविता 'इकतारा'को ही लीजिए-

"इकतारा फक्कड़ वाद्य है
अपने एक तार पर गाता है
आख्यान, कविता, पद और लोकगीत

सन्यासियों, फकीरों को बेहद प्रिय है इकतारा

इकतारा से अधिक आंसुओं से भीगा
नहीं है अभी तक कोई वाद्य
इकतारा सुनना करुणा सुनना है
और बुनना है पूरे मन में उजाले का थान."

हाँ, कलाएँ हमारे मन में उजाला भरती हैं. कलाएँ हमारे मन का कलुष हरती हैं. लेकिन कलाएँ इतना भर ही नहीं करतीं. वस्तुत कलाएँ जीवन, युग और सभ्यता की आलोचना भी हैं. कलाएँ हिंसा और अन्याय का प्रतिरोध भी हैं. इसी कविता में आगे यह बहुत सधे हुए ढंग से व्यक्त हुआ है-

"कथा में जहाँ श्रवण कुमार को लगता है
राजा दशरथ का तीर
मूर्छित हो गया है वहीं इकतारा
और फूट नहीं रहे हैं तार-बोल

गा नहीं पा रहा है गायक
और इकतारे के तार में भी
उठ रही है लगातार हिचकी
यह रोना चुपचाप रोना नहीं है
हत्या का पुरजोर विरोध है."

कलाएँ मनुष्य के मन की थाती भी हैं. मनुष्य अपना मन कलाओं को सौंप कर बिसर जाता है दिनों, महीनों, वर्षों के लिए भी! 'अपना मन'शीर्षक कविता देखिए-

"गाते-गाते उसने अपना मन
एक गीत में रख दिया
और भूली ही रही वह बहुत दिन
अचानक उसे अपने मन की जरूरत पड़ी

झूमती बारिश में अचानक उसके कंठ से
उठा वही गीत
तब जाकर पाया उसने गीत में अपना मन!
अपना मन पाने की खुशी में
गाया उस स्त्री ने कई कई बार
वही वही गीत

तभी से स्त्रियों के बीच
दर्द जीते गीतों मेंअपना मन रखने का
चलन फैल गया है!"

यहाँ और एक उल्लेखनीय और महती बात यह है कि कलाओं के बिना केवल मनुष्य का ही नहीं, स्वयं प्रकृति का भी काम नहीं चलता! प्रकृति भी कलाओं की कलाई थामे बिना अपनी दिनचर्या भी आरंभ नहीं कर पाती! इस संग्रह की तमाम कविताएँ इस बात की गवाह हैं. पर यह बात जिस कविता में सबसे सघन लालित्य और कलात्मक रूपात्मकता के साथ दृश्यांकित हुई है, वह है'जीवन-संगीत'शीर्षक कविता. यह कविता संग्रह की सर्वाधिक सुंदर और मेरी सर्वाधिक प्रिय कविताओं में से एक है. इसकी पंक्तियाँ, देखिए, किस तरह प्रकृति की पाँखें खोलती हैं-

"पत्तियाँ धूप का कोई कुनकुना गीत गाती हैं
हवा ताल देती है
घास अपने तानपुरे पर बनाए रखती है स्वर-विन्यास
खेत की तरफ जाती हँसिया
जीवन-संगीत का अद्भुत वाद्य लगती है
खुरपी-कुदाल का भी अपना ही संगीत है
पसीने के सारे गीत आत्मा के होंठ से फूटते हैं

बैलगाड़ी को देखिए नआप-
धड़धड़ाती पूरब से लादे चली आ रही है
खेतों की खिलखिलाहट, सूर्योदय की लाली
और चिड़ियों के गीत के साथ
भरी-पूरी धड़कती हुई एक सुबह!"

इस कविता की भाषा तो मोहक है ही, इस कविता के बिंब अनूठे और अवाक् कर देने वाले तो हैं ही; पर इस कविता में हँसियाको जीवन-संगीत के एक अद्भुत वाद्य के रूप में पहली बार प्रतिष्ठित करना एक उच्च कोटि की काव्य-दृष्टि और बहुत ही सूक्ष्म सौंदर्यबोध का परिचायक भी है. यही नहीं, यहाँ हँसिया को उसके प्रचलित प्रतीकार्थ से मुक्तकर उसे एक उच्चतर अर्थ और मान देने का प्रशंसनीय काव्य-विवेक भी दिखता है. हँसिया को एक औजार के रूप में न देखकर,एक वाद्य के रूप में देखना श्रम को महज उत्पादन के उपादान के रूप में न देखकर, जीवन के सबसे आदिम उत्सव के रूप में देखना है! इस अर्थ में यह कविता श्रम से संबंधित प्रचलित विमर्श का अतिक्रमण करते हुए,उसे एक आदिम प्रकल्प और कला के रूप में चिन्हित करती है.

इसी तरह 'बांसुरी'शीर्षक कविता में कवि कहता है- "बांसुरी चरवाहों का सिरजा वाद्य है/ मुग्ध रहते हैं जिस पर झरने-जंगल-नदियाँ."यहाँ भी चरवाहे को सबसे आदिम बांसुरी वादक के रूप में देखने की उदारता तो है ही;श्रम और उत्पादन, मजदूर और मालिक, शोषक और शोषित के आधुनिक औद्योगिक विमर्श से परे जाकर, चरवाहे को प्रकृति के साथ सहजीवन में अपना जीवन-यापन करने वाले एक विनम्र उद्यमी के रूप में प्रतिष्ठित करने की उदात्तता भी दिखती है,जो आधुनिक हिंदी कविता में अन्यत्र दुर्लभ है. (यहाँ मैं परोक्ष रूप से यह भी इंगित करना चाहता हूँ कि कोई माने या न माने,पर मॉडलिंग और मॉडलिंग फोटोग्राफी जैसी आधुनिकतम कलाओं की आरंभिक संकल्पना में भी गाय-बैलों, भेड़-बकरियों को हांकने वाले डंडे पर अपनी कमर टिकाकर खड़े हो जाने वाले चरवाहे-चरवाहिनेंऔर मटकी लेकर मटक-मटक कर चलने वाली पनहारिनें ही थीं, जो इनकी सबसे आदिम मॉडल बनीं!)





(चार)
इस संग्रह से गुजरते हुए हर कविता अपनी भाषा, अपने कथ्य, अपने कहन से अचंभित करती है. हर कविता की पहली पंक्ति ही एक नवीन कल्पनाशीलता और नवीन काव्य-दृष्टि की झांकी लगती है, जो हमें बड़ी उत्सुकता के साथ आगे की पंक्तियों में उतरने को आतुर कर देती है! और हर कविता की आखिरी पंक्ति हमें उड़ान के एक नए आकाश मेंछोड़ देती है! इस अर्थ में प्रेमशंकर शुक्ल वाकई अनूठे कवि हैं, जो एक शब्द, एक पंक्ति भी बिना गहरे पैठे,कविता में नहीं पिरोते. 'सुंदर कवि'शीर्षक कविता उनकी इस काव्य-उद्यमशीलता को बहुत ही सुंदर ढंग से उद्घाटित करती है-

"सुंदर कवि
पंक्तियों के पंख खोल-खोल कर
उन्हें उड़ने का आकाश देता रहता है
शब्दों को मांज-मांजकर
चमकाता रहता है उनकी धातु."

इसलिए इन कविताओं को हाजिर-नाजिर मानकर मैं बगैर किसी लाग-लपेट के यह कह सकता हूँ कि प्रेमशंकर शुक्ल इस दौर के सर्वाधिक कल्पनाशील, कल्पना-प्रवण और अप्रतिम कवि हैं, जिनके पास मौलिक भाषा, अनछुआ बिंब-विधान, नैसर्गिक दृष्टि-सामर्थ्य और काव्य अनुभूतियों का विपुल संसार तो है ही;उनके पास भाषा को बेहद बारीकी से बरतने का देशज शऊर भी है. 'तत्सम तद्भव'शीर्षक कविता में वह स्वयं स्वीकारते हैं-

"खेती किसानी का आदमी
तत्सम को तद्भव में रूपांतरित कर लेना
आया है पीढ़ियों से मेरे भीतर."

इसलिए तो 'अभिप्राय'शीर्षक कविता में भी वह कहते हैं-

"बहुत भाषा लगाना
उचित नहीं है कविता में
अर्थ से अधिक अभिप्राय में खुलता है
कविता का मन."

इन सबसे भी अधिक महत्वपूर्ण और बलाघात के साथ रेखांकित करने वाली बात यह है कि इनकी कविताओं में आयतित अथवा आयोजित-प्रायोजित कुछ भी नहीं है. जो कुछ भी है, सब स्व से जन्मा है. कह सकता हूँ, उनकी कविताओं के आंगन में सचमुच जन्म से ही जीवित है पृथ्वी!

हाँ, प्रेमशंकर शुक्ल की कविताओं से गुजरते हुए एक पल के लिए भी यह आभास नहीं होता कि ये कविताएँ इस जैसी या उस जैसी हैं या इनकी जैसी या उनकी जैसी हैं. यानी उनके यहाँ उधारी का कोई कारोबार नहीं है! जो है, सब अपनी ही मिट्टी की उपज है. इसलिए'विश्व कविता'शीर्षक कविता में वह स्पष्ट कहते हैं-

"मैं अपनी मातृभाषा में विश्व कविता रचता हूँ
अपनी सांसो से खींचता हूँ
भाषा के जल में तैरते शब्द."

हाँ, सचमुच वह विश्व कविता रचने वाले विश्वकवि ही हैं और कविता के महादेश के विश्व नागरिक भी;दुख जिनकी सृजनात्मकता का केंद्रीय स्वर है, जो बहुत कलात्मकता के साथ किंतु सहज भाव से अभिव्यक्त होता है. बकौल उनके ही-

"जीवन में सारा रकबा दुख का है
केवल दुख जहाँ अवकाश पर है
उतना ही है सुख!"

यह प्रेमशंकर शुक्ल जैसा ईमानदार कवि ही कबूल कर सकता है कि-

"कविता लिखना बदला लेना है
अपने ही दुख से
सुख बुनना है विनम्र."

यह तो सोलह आने सच है कि बिना ईमानदारी और मेहनत के, भाषा में न तो बनक आती है और ना ही कविता में चमक. सच्चा कवि इस बात के लिए सदैव सजग रहता है कि कभी भी प्रश्नांकित ना हो पाए उसका कवि-न्याय. इसलिए 'मेहनत मन'शीर्षक कविता में वह कहते हैं-

"फसलों के हरे होने में किसान के साथ
चिड़ियों के भी गीत हैं, धूप के भी
गीत में मिट्टी, पानी, हवा का जरूरी है जिक्र
नहीं तो प्रश्नांकित होगा कवि-न्याय."

मेहनत करता कवि ही 'पसीने के पराक्रम'को इस तरह पहचान सकता है- "पसीने का पराक्रम कि हरियाली/ उसके होने का दस्तूर है"और यह भी कि- "खेत-खलिहान हमारे सबसे पहले तीरथ हैं!"



(पाँच)
संग्रह की कुछेक कविताओं को छोड़ दें तो इस संग्रह की अधिकांश कविताएं छोटी कद-काठी की हैं और अपनी छोटी काया में ही ये कविताएँ पूरी तरह खिलती हैं और उनकी भाषा की बनक और कहन की चमक देखते बनती है. इसलिए कविताएँ अपनी काया में ऋजु होकर भी अपने अर्थ और आभा में कतई ऋजु नहीं हैं. 'ऋजु नहीं'शीर्षक कविता जीवन की विराट पटकथा को एकदम कम शब्दों में बाँच देती है:

"दुखती देह में भी
खुश रहना है तुम्हें
निचुड़ते मन में भी तुम्हें मुस्कुराना है

मंच पर ऐसी ही है
तुम्हारी पटकथा

नेपथ्य में भी
तुम्हारे दुख की दिनचर्या
ऋजु नहीं है."

'चित्र में'शीर्षक कविता भी एकदम छोटी होकर भी कितनी बड़ी है!-

"चित्र में दुख है
रंगों ने चित्र को हिला कर रख दिया है!"

भाषा, कहन और कल्पनाशीलता के सुगढ़ सौंदर्य और काव्यानुशासन के उदात्त उदाहरण के रूप में 'आलथी पालथी'शीर्षक कविता की कुछ पंक्तियाँ यहाँ उद्धृत करने से स्वयं को रोक नहीं पा रहा हूँ-

"आधे होंठ से पार्वती
आधे होंठ से शिव
पूरी करते हैं मुस्कान
नाभि में भी अंधेरे की
आधी गहराई शिव की है
आधी पार्वती की."

इसी क्रम में 'काजल'शीर्षक कविता भी उल्लेखनीय है. कुछ पंक्तियाँ देखिए-

"काजल आँख का गहना है
 सुंदरता सोई रहती है काजल में
 नर्तकी जिसे अपनी आँख की सज्जा में
 लगाकर या कहें जगाकर
 कर देती है हमें चमत्कृत.

 मेरी जिन करवट पर काजल लगा मिलता है
 लजाते हुए तुम अपने पल्लू से पोंछती हो
 फिर भी रह जाता है कुछ
 मेरी त्वचा रंध्रों में शेष.

 स्याह का सबसे श्रेष्ठ उच्चारण है काजल
 काजल रात का रंग है
 दिन की आँखों में लगा हुआ."

यद्यपि संग्रह में कुछेक कविताएँ ऐसी अवश्य हैं,जिन्हें और कसा जाता तो वे और अधिक पकतीं और पुष्ठ होतीं,तथापि पूरे संग्रह में बेहद विनम्रता से विस्मित कर देने वाली पंक्तियाँ विपुल मात्रा में हैं,जो कवि की कल्पनाशीलता और परिपक्व काव्य-दृष्टि के परिचायक हैं. उदाहरण के लिए 'बोल-बनाव'कविता की यह पहली ही पंक्ति- "चुप्पी प्रेम की सबसे प्रिय शरण स्थली है"या फिर 'आवाज'शीर्षक कविता की ये पंक्तियाँ- "आवाज की धूप/ इबारत में एक सूरज की जगह बनाती है/ अंधेरे के विरुद्ध."या कि 'जूड़े में फूल'कविता की ये पंक्तियाँ-  "नायिका ने अपने जूड़े में/ केवल फूल ही नहीं/ सारा बसंत बांध रखा है!"या फिर 'नृत्यलिपि'कविता की ये पंक्तियाँ- "नर्तकी की हर मुद्रा लिपि है/ जिसमें दर्शक का मन भी नाचता हुआ छपा मिलता है"या कि 'नर्तकी'शीर्षक कविता की ये पंक्तियाँ ही देख लीजिए- "कविता-कथा नृत्य सखी हैं/ एक ही गुरुकुल में सीखा है नृत्य!"

इसी क्रम में कहें तो 'संभव समभाव'शीर्षक कविता की ये पंक्तियाँ विस्मित ही नहीं, विकल भी कर देती हैं-

"लोकगीत समानता के कंठ है
जिसके घर चार दिन का अनाज नहीं है
बियाह प्रयोजन के समय लोकगीत उसे भी
सोने की थाल में जेमन खिला देता है
और चाँदी के लोटे से पिला देता है जल!"

वहीं 'खेत कटाई'शीर्षक कविता में वहअपने अंतस से अनुभव करते हैं कि"धूप में गेहूँ-जौ काटती औरतें/ बातों की फसलें भी काटती रहती हैं/ समय के माथे के सारे घाव/औरतों की निगाह से बाँचने से/ दुख का उच्चारण कभी गलत नहीं होता है!"





(छह)
पर ऐसा नहीं है कि प्रेमशंकर शुक्ल अपनी कविताओं में केवल कलाओं से ही संगत निभाते हैं. वह अपनी कविताओं में अपने समय से भी मुठभेड़ करते हैं और समय की शिनाख्त भी करते हैं.प्रूफशीर्षक कविता इसका सबसे मुखर उदाहरण है और मेरी प्रिय कविताओं में से एक भी. इस महत्वपूर्ण कविता में बेहद बेबाकी से वह कहते हैं-“कितने लोग प्रूफ देख रहे हैं/ पर दुनिया की इबारत है कि सही नहीं छप रही है!”इतना ही नहीं,वह कवियों-कथाकारों को भी कटघरे में खड़ा करते हैं- "कथाकार कहानी के नाम पर लिख दे रहा है रपट/ झूठ दिन-दोपहर साँच को रहा डपट/ अर्धविरामअल्पविराम, पूर्णविराम को अवकाश पर भेज/ खु‌श हैं युवा कवि कि-/ वे कविता में नए प्रयोग कर रहे हैं!"वह कवियों-कथाकारों को ही नहीं,हमारे समय के स्वनाम-धन्य आलोचकों को भी आड़े हाथों लेते हैं और आगाह करते हैं थोड़ी-सी बातशीर्षक कविता में-

"गुजारिश है आपसे
थोड़ी नजर साफ कर देखिए-
यह समय भी निराला-मुक्तिबोध का है
यदि नजर है कहीं
देखने की." 

वह साहित्य और समाज के उथलेपन और उतावलेपन को भी आवाजशीर्षककविता में बड़ी बारीकी से चिन्हित करते हैं-

"एक समय कुछ आवाजों में इतना अधिक लोहा था
कि अगली बारिश में ही खा गई उन्हें जंग
कुछ आवाजें ऐसी थीं कि लालच की बाढ़ में
मारी गई उनकी बाढ़!"

प्रेमशंकर शुक्ल भाषा के प्रति बहुत सजग और जिम्मेदार कवि हैं और इसलिए वह भाषा और कविता के बीच के सूक्ष्म रिश्ते को बखूबी समझते हैं. तभी तो वह जुगलबंदीशीर्षक कविता में यह रेखांकित करते हैं-"भाषा के साथ/ कविता की लंबी जुगलबंदी है/ इसलिए भाषा को ठस होंठ छूने से/ कविता को लगती है ठेस."

लेकिन यह देखना कितना दुखद है कि आजकल लोग भाषा को झूठ के भूसे से लगातार ठस बनाए जा रहे हैं.भाषा-दुखशीर्षक कविता में भाषा के इस दुख को वह बहुत बेधक ढंग से व्यक्त करते हैं-“झूठ-कोशने संक्रमित कर रखा है/ भाषा की श्वासनली/ दुर्बल हो रही है भाषा/ दिन-रात भाषा को काम करना पड़ रहा है/ सच के बरक्स और/ विरुद्ध अपनी ही आत्मा के.”भाषा को दिए दुख के लिए वह दूसरों को ही नहीं, स्वयं कवियों को भी जिम्मेदार मानते हैं और यह बात वह स्वयं स्वीकारते भी हैं 'हम कवि'शीर्षक कविता में कि "हम कवि/ अपनी भाषा के गुनाहगार हैं."इसलिए वह अपने इस गुनाह को भरसक कम करने की कोशिश भी करते हैं-

"जितना ही हम
प्रेम के रसायन से
करुणा के जल से मांजते हैं
हमारी भाषा की धातु
चमक उठती है वह सहसा
और जी उठता है उसका रेशा-रेशा
होता है उतना ही
हमारा गुनाह भी मुआफ."

प्रेमशंकर शुक्ल भाषा की रवानियत और रवायत- दोनों को शिद्दत से महसूसने वाले कवि हैं. इसलिए हमारी भाषा की वर्णमाला में श, ष और स का एक साथ होना उन्हें सिर्फ सुंदर ही नहीं, मानीखेज भी दिखता है. ', , 'शीर्षक कविता के अंत में इसलिए वह कहते हैं- "तीनों की अपनी-अपनी धूप है/ अपनी-अपनी ऊष्मा/ लेकिन साथ का उजाला/ भाषा का चरित्र चमकाता रहता है."इसी क्रम में 'तथा'और 'बिंदी-बिंदी' (....) शीर्षक कविताओं का उल्लेख यहाँ करना चाहता हूँ, जो इस बात के प्रमाण हैं कि प्रेमशंकर शुक्ल भाषा में कौतुक ही नहीं रचते, वरन् वह भाषा में गहरे पैठते हुए, भाषा को एक नई चमक और नया ध्वन्यार्थ भी देते हैं.'तथा'शीर्षक कविता की ये पंक्तियाँ देखिए- 

"हमारे दोनों होठों के बीच
आवाज के लिए जगह देती हुई
जो जगह है वह 'तथा'है
वाक्य में जहाँ फांक दिखने लगे
सोचना चाहिए 'तथा'अवकाश पर है!" 

'बिंदी-बिंदी'कविता में कवि की उर्वर कल्पनाशीलता जिस ऊंचाई पर खड़ी है, वहाँ से जमीनी हकीकत साफ-साफ दिख जाती है, चाहे वह समाज की हो या फिर कविता या आलोचना की-

"पंक्ति में बिंदी-बिंदी किसी की अनुपस्थिति है
आदि-इत्यादि बिंदी के गोत्र के ही हैं
अमूमन मौजूद नहीं करना है जिसे
बिंदियाँ उसी संज्ञासर्वनाम या क्रिया की प्रतिनिधि हैं!
जमाने से है 
बिंदी-बिंदी में चालाकी रखने का चलन
कविता की बात होगी और ऐसी ही किसी बिंदी में
उपस्थित रहूँगा मैं
आलोचक भले मेरा नाम काट दे लेकिन कोई ना कोई बिंदी
करेगी मेरे नाम का प्रतिनिधित्व
दाखिल-खारिज के बीच कविता में मेरी बिंदी भर जगह
जरूर किसी ध्वनि के अनुस्वार की समस्या-पूर्ति होगी!"



(सात)
लेकिन कविता और आलोचना के आकाश में प्रेमशंकर शुक्ल की कविताएँ उन्हें बस बिंदी-बिंदी भर जगह पाने की नहीं, बल्कि पंक्ति-दर-पंक्ति जगह पाने की हकदार बनाती हैं! जमीन से जुड़ा कवि ही भाषा को मांज पाता है और कविता में सत्य का सामर्थ्य भर पाता है. सच कहें तो सच्चा आदमी ही सच्चा कवि हो पाता है और सच्चे कवि की कविता में ही 'सत्यम् शिवम् सुंदरम्'का एक साथ समावेश हो पाता है!

प्रेमशंकर शुक्ल अपनी कविताओं में केवल सुंदर पंक्तियाँ और सुंदर सत्य ही नहीं रचते, वह सुंदर शब्द और पद भी रचते हैं. और उनसे यह इसलिए संभव हो पाता है क्योंकि उनकी कल्पनाशीलता और रचनाशीलता में उनकी मिट्टी की नमी भरपूर बनी हुई है. इसलिए तो उनकी भाषा इतनी उर्वर है और उनकी कविता की फसल में पंक्तियाँ इतनी पुष्ठ! और पंक्तियों की बालियों में सिर्फ अर्थ और अभिप्राय का मीठा दूध ही नहीं भरा हुआ है, भाषा की खनक भी भरी हुई है! तभी तो वे वह मीरा-मनखुशमन,मेहनत-मन, पंक्ति-मन, पूरम्पूर, मन-बल, पुरखुश, राधा-पाँव, नृत्यलिपि, राग-मुख, हरहमेश, बात-नदी आदि जैसे ढेरों शब्द नए ध्वन्यार्थ के साथ गढ़ देते हैं!

और जब कभी उनकी अभिव्यक्ति एकदम घनीभूत हो जाती है तो वह सिर्फ सहायक क्रियाओं से ही नहीं, पंक्तियों से भी मुक्त हो जाते हैं! खजुराहो पर रची गई उनकी इक्कीस कविताएँ इसका अप्रतिम उदाहरण हैं. ये कविताएँ अपनी लघु काया में इतनी सुगठित, सौंदर्यवती और विराट हैं कि इनके शब्द-संयोजन में भी एक लय और वलय दिखता है! मानो इन कविताओं में भी पत्थरों को तराशकर खजुराहो की मूर्तियाँ ही उकेरी गई हैं! मेरी दृष्टि में खजुराहो पर रची गई ये इक्कीस कविताएँ इस संग्रह की सबसे सुंदर कविताएँ हैं और मेरी सबसे पसंदीदा कविताएँ भी. पहली ही कविता 'रतिप्रिया'का शिल्प देखिए-

"मूर्तियों में 
खजुराहो की
रचा 
मनुष्य का मन
गहन

रतिस्पर्श से मिला
बहुत मान 
मंदिर को."

तीसरी कविता'आलोकित'का यह आलोक भी गहिए-

"रति शिल्प निहारतीं
लजातीं
दसों दिशाएँ

लाज से खुलता 
रतिसुख अधिक

अमर
रतिताप से 
पत्थर!"

इन कविताओं को आत्मस्थ होकर पढ़े बिना उनकी आत्मा तक नहीं पहुँचा जा सकता. कुछ कविताओं को मौन होकर, ध्यानस्थ होकर ही पढ़ना होता है. अन्यथा उनका आस्वाद नष्ट हो जाता है. मैं भी इन कविताओं की यहाँ व्याख्या कर उनका आस्वाद नष्ट नहीं करना चाहता. बस इस श्रृंखला की अंतिम कविता 'विवस्त्र वासना'की पंक्तियों के साथ आपसे विदा लेना चाहता हूँ- 

"बाहर काम
भीतर जीतकाम

रचते इस तरह 
अर्थार्थ बहुतेरे
खजुराहो के मंदिर

जीवन में सुख की प्राणप्रतिष्ठा 
शिल्पियों का रहा महास्वप्न

देह का गीत 
संगीत आत्मा का 

प्रकल्प कला का यह सुंदरतम्
नित् नूतन!"

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राहुल राजेश
2/406, रिज़र्व बैंक अधिकारी आवास, गोकुलधाम, गोरेगाँव (पूर्व),मुंबई-400063.
मो. 9429608159,
ईमेल:rahulrajesh2006@gmail.com
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