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ज्योति शोभा की कविताएँ

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ज्योति शोभा की कविताएँ इधर खूब पढ़ी और सराही जा रहीं हैं. पिछले वर्ष समालोचन के ‘मंगलाचार’ में वह रेखांकित हुईं थीं. इस बीच उनकी कविताओं ने अपने मूल स्वर की रक्षा करते हुए लगातार अपने को पुष्ट किया है. बांग्ला कवियों की भावुकता, मार्मिकता, सूक्ष्मकल्पनाशीलता और सांस्कृतिक समृद्धि उन्हें विरासत में मिली है.

उनकी कुछ नई  कविताएँ आपके लिए




ज्योति शोभा की कविताएँ                               






पकड़ने की कला में निपुण नहीं होती देह
 
वर्षों पुरानी हो गयी है देह
भार नहीं संभाल पाती

चुंबन गिर रहे हैं
केशों की रेखा पर रखे गए थे जो
अज्ञातवास के ईश्वर की तरह 
जो वेदों से निकल कर घूमता है अर्धरात्रि की शीतल कालिमा में 
टहक कर आये स्वेद से जैसे 
भीगा जान पड़ता है

क्षुधा गिरती है
जो अन्न में नहीं
कटे बिल्व फल की धार में रहती है
ऊँगली सराबोर कर
जो मुख भर भी नहीं आता उससे कैसी तुष्टि

कामना गिर रही है जर्जर होती देह से
बीच शहर में एक पीली बत्ती के आलोक जैसी
यों धूसर पड़ती है क्षण भर में ज्यों अचानक ही रस सूख गया है बाती से
कथा मान जाती है किन्तु खुली रह जाती है पोथी

पकड़ने की कला में निपुण नहीं होती देह
जैसे निपुण होती है नृत्य नाटिका में

गिरते दुःख को देखती है
गिरते परों को गिनती है
गिरते भस्म को जुटाती है
नहीं जकड़ पाती अग्नि

ऋतुओं के इतने चक्र बीतते हैं
संसार सोचता है क्यों नहीं जकड़ लेती अपनी प्रीति

किन्तु एक ही चीर है
एक ही ह्रदय
क्या कहती जीवों से जो मात्र सौंदर्य में गिरते हैं

अपने स्थान से हिली तो अनावृत ही होगी.




ईश्वर का एकांत

विषम अवस्था है उसके एकांत की
काव्य में पड़ा जैसे कोई तरल बिम्ब
क्षण भर प्रकट होता है फिर स्वयं ही में विलुप्त
एक और निषिद्ध रूप वाला प्रेमी
जोड़ लेता है घुटने पसलियों से

ताप में दग्ध झूलती है वेणी जो उसकी जंघाओं पर है
किन्तु ओझल है उद्गम
केवल वह चित्रकार जानता है
जिसने पूस के पाले में उकेरी थी मंदिर की चौथाई दीवार
कि स्वयं एक भीषण अरण्य जैसी
प्रेयसी प्रणय पश्चात गंगा में करती है प्रभात स्नान

यों तो कोई नहीं देखता किस दिशा से आलिंगन लिया है उसका जल कणिकाओं ने
केवल वट दीखता है उसके चतुर्दिक
वह भी घनघोर मेघ जैसा अब बरसा कि तब बरसा
गिरे पात से भरे हुए हैं उसके अंग
कोई अनंत राग में फूलते हुए मदार जैसी तपती है जटा
जहाँ हर तिमाहे निर्जल ही पड़ा रहता है सूर्य
वहां से पाँव नहीं उठते
मूर्छा घेर लेती है काया को
तब जी होता है सामुद्रिक से महूरत निकलवा कर
कह आऊँ -
तुम्हारे द्वार पर इतने नदी पोखर हैं
कविता पढ़ कर भी शांत नहीं होती धारा
इतना सिन्दूर है देह पर
कि झुकने से लाल पड़ जाता है सम्पूर्ण वक्ष

तुम्हारे एकांत में अडोल हो उठती है श्वास
जैसे पांचवी बार मृत्यु गंध आने पर भी नहीं हिली थी पुतली

बरस के कोई भी पखवाड़े आने से जीवन नहीं छूटता
मोह छूट जाता है अपनी काया से.




जिसे भय नहीं था यह इक्कसवीं सदी है
जिस अशांत हृदय को लिए डोल आयी पूरा भुवन
दो पैसे की पुड़िया में रखी कामना जैसी बहती रही जल में
नदी दिपदिपाती रही पीछे

खंगाल दिए काव्य और पुस्तकों से भरे ताखे
प्यासी भटकती रही लिप्सा से मुक्त बांग्ला फिल्मों में 
टकटकी लगाए जड़वत रही मछुआरों की हाँक से गूंजते नगर में 
वह निमिष भर में शिथिल हुआ तुम्हारी छाती से लगते

क्या यहीं शांत हुए थे उमड़ते ज्वालामुखी
गहन हुए थे तमाल के वन
स्वर मूक हो गए मद्धम ताप में सीझते

क्या यहीं मिट गया था अंजन !

जिसके तल में असूर्यम्पश्या श्वास का कोलाहल है
हाड़ में धूम्र भरा है बीड़ी का
जिसके निश्चेष्ट आलिंगन में अवरुद्ध होते हैं कंठ
टीके ही रहते हैं दो स्कन्धों के मध्य एक कपोत के पंख

क्या वहीं उग्रवादियों ने समर्पण किया था हथियारों के बोझ से थक कर
टोकरी रख दी थी खजूर की एक आदिवासी बाला ने
जब पृथ्वी पर मेघ उत्पात करते थे
आधी बाँध कर धोती क्या यहीं सो गयी थी वह
जिसे भय नहीं था यह इक्कसवीं सदी है
.



असीम देह पर हरीतिमा लिए

असीम देह पर हरीतिमा लिए
जिस तरह रात्रि तिमिर देखता है मुझे
बस उतना ही प्यार कर सकती हूँ मैं

"खिड़की खुली रहे तो और घना हो जाता है जीवन"
यह बात कहने को बहुत धीमी श्वास में कही थी 
किन्तु तीव्र वेग से नदी की तरह पसर गयी है 
गाढ़े कर दिए शिराओं में अरण्य

किसी जाते हुए को देखने के लिए नहीं
सांझ में कौंधते लावण्य के लिए दर्पण देखती हूँ
कौन है जो आता है पलट कर

सिर्फ ठन्डे हो रहे गुलाब हैं
सिर्फ सिकुड़े हुए तलवे हैं
और मूक केश है शय्या पर बरसों से खुले हुए

"तुम्हारी उत्कंठा में मेरे स्वप्न तैरते हैं "
यह पंक्ति कोई तीखा आघात है ब्रह्माण्ड से टूट गिरता है सुन्दर पल में
"मुझे भय है मुख के शुष्क होने का
सुरक्षित रखो जैसे वाद्य रखते हैं संगीतकार अपने "
बार-बार ही दोहराती हूँ

मेरे ही निराश्रय स्पर्श हैं
तारों को खींचते हैं पृथ्वी पर
.





आत्मा है देह के बाहर भी 

इतने गीत हैं तुम्हारी देह में
एक उठाती हूँ तो दूसरा छूट जाता है पीछे

ज्यों ठाकुर की बाड़ी जाती थी जोरासांको तो भूल जाती थी
कमरे के बाहर भी है उनकी गंध
आत्मा है देह के बाहर भी 
बरामदे में गेंदे के पुष्प से झांकती

गाइड कहता है
यह प्राचीन किताब है महत्वपूर्ण है इसकी लिपि
मुझे बुरा लगता
क्यों नहीं कहते टूरिस्ट से
इतना जल है इसमें जितनी तुम्हारी देह में नहीं

इतने अचूक मन्त्र हैं कवियों के पास
पलक झपकते अपराह्न को बदल देते हैं रात्रि में
स्पर्श के पूर्व ही मृत्यु हो जाए
ऐसे छूते हैं

मेरे समक्ष ही नाटकों में
दूसरी पंक्ति की स्त्री ने हाथ धरा था पहली पंक्ति के चित्रकार का
और वही चित्र कला-दीर्घा में टंगा था
पावस के दिवस भीषण वर्षा में
इतने कलेश हैं और इतने आलाप
एक भी नहीं कहती तो कंठ तक आ जाते हैं
तुम अपार्थिव ईश्वर को देखते हो यह मुझे
दृग खोले एकटक
अन्धकार में भी और चिलक में भी
सम्पूर्ण श्रृंगार में और अनावृत भी

सब आवेग ले रहा है मुझसे
ज्यों लेता है बाबू घाट फूलों की गंध से विचलित धारा के

इस तरह लेना भी देने का बिम्ब है
तुम आओगे और चूमोगे तो प्रतिमा हो जायेगी देह
दुर्गा जैसी
जरा भी नहीं सिहरेगी.



उजागर

इतने बड़े संसार में एक फूल नहीं छिपता
उसे भी मार देती है मृत्यु
अफ़सोस है
छुपी हुई हूँ मैं
अज्ञातवास में भी लिख रही हूँ कविता 
कर रही हूँ तुम्हें प्यार 
अकेले में.




सहा नहीं जाता इतना सुख

मध्यमा धर कर जो ले जाता है शांतिनिकेतन पौष मेले में
वही जकड़ लेता है श्यामल देह
धवल उत्तरीय छोड़ देता है ब्रह्मपुत्र के जल में

निष्कम्प है मेरी सिरहन
जो कहती है 
सहा नहीं जाता इतना सुख
कि वह नहीं देखता भुवन की ओर
देखता है तिमिर का सागर
ठीक उरों के बीच
और पूछता है
क्या कम हो जाएंगे दुःख यदि ओक भर पी ले कोई पोखर
क्या नौकाएं मरती हैं सिर्फ गल कर
क्या जल से दूर भी रहता है कोई जल !







देखो अब कौन आता है 

देखो अब कौन आता है
झोला भर बेर और मुट्ठी भर कविता लिए


चुम्बनों की तो बात ही निषिद्ध है
क्योंकि उद्यान बंद रहते हैं चैत्र की रात्रि
जिस समय चन्द्रमा पीड़ा देता है 
और टीसती है चांदनी मन को 
सोये रहते हैं हाथ रिक्शे 
ट्रामें खड़ी रहती है निःशब्द बीच सड़क 
रात रानी भी सहम कर बिखेरती है सुवास परिचित चेहरों पर

देखो, कौन जाता है बेखटके
कवि की तरह गिरे पत्तों से दोना बनाता है

पोस्टर उधड़ आये हैं लेनिन सरणी की दीवारों से
पैरों में फँसते हैं
शराब पीकर आँखें लाल हैं जिसकी वह कह रहा है
मना है किसी स्त्री को पुरुष के घर रहना कविता पढ़ने

आलिंगन करने से हज़ार खतरे हैं
बुकोवस्की की तरह नहीं है भारत के लेखक


देखो, अब कौन लाता है किताबें
जिन पर सोने से सर को आराम मिले
कौन लाता है नींद
जो कालबैशाखी के जोर से न टूटे

आखिर जीना तो है
मर तो नहीं जाते हैं लोग जब कोई प्रिय मरता है.
___________
jyotimodi1977@gmail.com

परख : अनासक्त आस्तिक (ज्योतिष जोशी ) : मीना बुद्धिराजा

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अनासक्त आस्तिक : जैनेन्द्र कुमार की जीवनी
ज्योतिष जोशी
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली-2
प्रथम संस्करण-2019
आवरण चित्र-प्रदीप कुमार
मूल्य- रू- 299
पृष्ठ संख्या- 299













क्रांतिकारी कथाकार और मौलिक चिंतक जैनेन्द्र कुमार की जीवनी ‘अनासक्त आस्तिक’आलोचक और रंग विमर्शकार ज्योतिष जोशी की कृति है जिसे रज़ा फेलोशिप के अंतर्गत लिखा गया है और जिसका प्रकाशन राजकमल ने किया है.

ज्योतिष जोशी जैनेन्द्र कुमार के अध्येता हैं, जैनेन्द्र कुमार जैसे बीहड़ रचनाकार पर लिखना भी बहुत श्रमसाध्य और अनुसंधान का कार्य है. हिंदी को एक महान रचनाकार की जीवनी मिली है. बधाई.

मीना बुद्धिराजा लगातार अपने समय की कृतियों पर लिख रहीं हैं. ‘अनासक्त आस्तिक’ पर उन्होंने विस्तार से लिखा है कि जहाँ कृति की विशिष्टताएं उभर कर सामने आयीं  हैं वहीँ यह समीक्षा पुस्तक में रूचि जागृत करने वाली भी है. 



अनासक्त आस्तिक                     
एक मानवीय-साहित्य साधक की जीवनी

मीना बुद्दिराजा






कुछ पुस्तकें सच में पाठकों के लिए बहुत जरूरी होती हैं जो उनकी दृष्टि का विस्तार करती हैं, सोच के नज़रिये को बदलती हैं, किसी रचनाकार और व्यक्ति विशेष के बारे में पूर्वाग्रहों और पूर्व निर्मित बनी-बनाई अवधारणाओं से मुक्त करती हैं. किसी व्यक्ति विशेष और रचनाकार के जीवन को उस समय में होने वाले सभी परिवर्तनों की जटिलता को अपने भीतर समेटकर उसके अंतर्बाह्य जीवन का निष्पक्ष रूप प्रस्तुत करती है. इस दृष्टि से जीवनी और संस्मरण ऐसी विधा है जो आज के साहित्यिक परिदृश्य में लगभग हाशिये पर है. हिंदीं में कलम का सिपाही, निराला की साहित्य साधना तथा आवारा मसीहाजैसी और भी उत्कृष्ट जीवनी परक साहित्यिक रचनाओं का होना अनिवार्य है. हमारा दायित्व है कि जिन युग प्रवर्तक रचनाकारों ने हमारी साहित्यिक चेतना को गढ़ाउसे एक विचारधारा, एक मूल्य दृष्टि दी और व्यापक संवेदना एवं चिंतन का आधार देकर इतिहास और संस्कृति में नाम अमिट किया. जिन्होने आने वाली पीढ़ियों के लिए सार्वकालिक और कालजयी रचनाएँ दीं. उनके जीवन-संघर्ष, आदर्श और अनेक अनछुए पहलुओं को जानने और कृतज्ञता बोध के लिए उनसे परिचित होना जीवनी विधा के रूप में एक सशक्त माध्यम है.

जीवन वृतांत से जुड़ी होने के कारण हम सतही तौर पर कह सकते हैं कि किसी दूसरे के जीवन को तटस्थ और वस्तुपरक भाव से देखना आसान होता है लेकिन तथ्यों को पूरी तरह से निरपेक्ष और राग-बंध से मुक्त होकर देखने, जीवन के सभी पहलुओं को ठीक-ठीक समझने और उनका महत्व और मूल्यांकन करने में जीवनी लेखक की भूमिका बहुत दायित्वपूर्ण और ऐतिहासिक महत्व रखती है. इसमें दृष्टि की विशदता, उदारता और घटनाओं को आंतरिक रूप से देखना यह सभी कठिन अध्यवसाय ही जीवनी को लिखने के संकल्प में कार्यान्वित होते हैं. यह उस रचनाकार की रचना प्रक्रिया को भी जीवन के साथ जानने समझने का ही तरीका है. हिंदी में अच्छी यहाँ तक कि प्रसिद्ध साहित्यकारों की जीवनियाँ बहुत कम हैं जो श्रेष्ठ हों. रचनात्मक पक्ष की दृष्टि से इसके लिए गहरी उदासीनता का भाव है. इस संवेदनहीन स्थिति में जो लेखक निष्ठा और दृढ़ संकल्प से शोध-परिश्रम से और तथ्यों की खोज करके जीवनी लिख रहे हैं वह नि:संदेह एक दस्तावेज़ की तरह संग्रहणीय होती हैं. जो राष्ट्र की अस्मिता को रूपायित करती हैं साथ ही जीवनीकार का आत्म-बिम्ब और जीवन-चरित भी प्रवादों और किवदंतियों से मुक्त होकर वास्तविक पहचान के साथ सामने आता है.

समकालीन गद्य के परिदृश्य में इस अभाव की पूर्तिकरते हुए हिंदी के कालजयी मूर्धन्य कथाकार ‘जैनेन्द्र कुमारकी जीवनी के रूप में प्रख्यात आलोचक-लेखक ज्योतिष जोशीकी नयी पुस्तक “अनासक्त आस्तिक” शीर्षक से हाल ही में प्रतिष्ठित राजकमल प्रकाशनसे प्रकाशित होकर आना कई संदर्भों में बहुत सार्थक और अनिवार्य है. साहित्य,कला-संस्कृति और रंगमंच के गहन अध्येता-आलोचक ज्योतिष जोशी जिन्होनें इस क्षेत्र में आलोचना को कई स्तरों पर अपनी मौलिक दृष्टि से समृद्ध किया हैं. अनेक पुस्तकों के लेखक-संपादक और साहित्य-कला-आलोचना में उत्कृष्ट योगदान के लिए विशिष्ट पुरस्कारों से सम्मानित ‘ज्योतिष जोशी’ जी की यह नवीन  पुस्तक ‘अनासक्त आस्तिक’ हिंदीं कथा- साहित्य के इतिहास में प्रेमचंदोत्तर काल के युग प्रवर्तक रचनाकार जैनेंद्र कुमार के जीवन, साहित्य-यात्रा और युगीन परिवेश में उनके विराट व्यक्तित्व को विहंगम और सुव्यवस्थित रूप से पाठकों के सामने लाती है.

इस पुस्तक में उनके जीवन के महत्वपूर्ण तथ्यों और घटनाओं को कथा के सूत्र में विविध सर्गों(अध्यायों) के अंतर्गत पिरोकर रोचक और प्रवाहमयी शैली में प्रस्तुत किया गया है जिसमें गंभीरता और गरिमा के साथ अद्भुत पठनीयता का गुण भी विद्यमान है.

रज़ा फाउंडेशन फेलोशिप योजना के अंतर्गत लिखी गई इस जीवनी के आमुख में प्रख्यात कवि- आलोचक अशोक वाजपेयीने इसे हिंदी साहित्य में एक बड़े अभाव की पूर्ति का उद्देश्य पूर्ण होने पर संतोष व्यक्त किया है. इस महत्वपूर्ण जीवनी में विलक्षण रचनाकार जैनेंद्र कुमारके साहित्य, विचार और सार्वजनिक-राष्ट्रीय जीवन में भी निरंतर उनकी जो उपस्थिति-सक्रियता रही उसका क्रमिक विकास और तथात्मक चित्रण है. एक अनूठे साहित्यकार के रूप में उनके बहुरंगी जीवन, समय,परिवेश और परिस्थितियों का 25 वर्षों तक शोध करने के बाद अनवरत छह महीनों तक ज्योतिष जोशीके लगातार लेखन के बाद यह जीवनी अत्यंत प्रामाणिक और तथ्यात्मक-निष्पक्ष रूप से पाठकों के सामने आती है. इस पुस्तक में आद्यंत जैनेंद्र जी का बहुआयामी जीवन और संघर्ष समसामयिक प्रभावों से क्रमश: विकसित होता हुआ एक परिपूर्ण आकार लेता है. कथा की स्वत:स्फूर्त शैली में बुनी गई यह जीवनी अपने स्वाभाविक प्रवाह में आगे बढ़ती जाती है जिसमें कहीं-कहीं आवश्यक संवादो को भी जोड़ा गया है जो पुस्तक को जीवंत और रोचक बनाते हैं. सभी संदर्भों और तथ्यों के अध्ययन-मनन और गहन दीर्घ शोध के साथ इतने बड़े रचनाकार-विचारक की जीवनी लिखना विशद और कठिन काम है जिसमें अपेक्षित धैर्य निष्ठा, तन्मयता,तटस्थता और ईमानदारी का निर्वाह किया गया है.


अपने युग के बड़े कथाकार जैनेंद्र कुमार के जीवन और  रचनात्मक अवदान को परखने का यह प्रयास निश्चय ही उन्हें नये सिरे से रेखांकित करने-समझने में सहायक होगा. प्रेमचंद के बाद जैनेंद्र ने कथा-साहित्य को वृहद और समृद्ध किया और उसे नई भाव भूमि दी. इसके साथ ही जैनेंद्र कुमार आजीवन प्रखर राष्ट्रवादी चिंतक-अन्यतम दार्शनिक भी रहे और भारत सहित वैश्विक राजनीति पर अपनी गहरी दृष्टि रखने वाले प्रबुद्ध, स्वाधीनता आंदोलन के तपोनिष्ठ सत्याग्रही भी रहे. उन्होने अपना सारा जीवन देश और लेखन को समर्पित किया. उन्होनें अनासक्त रहते हुए संयम, उदारता और मानवता के आधार पर जो लिखा वह हमेशा एक नयी राह की खोज का कारण बना.  

हिंदी कहानी-उपन्यास को एक नयी भाषा, शिल्प और आधुनिकतम प्रविधियों में ढालकर जैनेंद्र नें  परंपरागत लीक से हटकर नये विषयों पर विचार करने का प्रथमत: साहस किया. स्त्री के अस्तित्व को सदियों के उत्पीड़न और रूढियों से मुक्त कर अपनी स्वंतत्र पहचान और आकांक्षाओं के साथ उभारा जो स्त्री-मुक्ति के लिए एक नया कदम था. ये सभी बिंदु इस औपन्यासिक जीवनी में सात पर्वों के अंतर्गत- जीवनारंभसत्याग्रह, स्वाधीनता, स्वधर्म, स्वत्व-बोध, असार संसार और अंतिम अध्यायमहाप्रयाण तक जैनेंद्र कुमार के जीवन की सहजतागरिमा और साहित्य-यात्रा को सिलसिलेवार तरीके से पाठकों के सामने बेहद पठनीय तथा आत्मीय शैली में प्रस्तुत करते हैं.

पुस्तक के मध्य में छवि-वीथिके अंतर्गत उनकी पुस्तक ‘अकाल पुरुष गाँधी’ के जैनेंद्र जी के हस्तलिखितपृष्ठ के साथ ही कुछ दुर्लभ छाया-चित्रों-फोटोकेसंग्रह को भी संजोया गया है जिनमें पारिवारिक-चित्रों और समकालीन साहित्यकारों जैसे प्रेमचंद,मैथिलीशरणगुप्त, महादेवी वर्मा, निर्मल वर्मा, अज्ञेय के साथ जुड़ी स्मृतियाँ और भारत-भारती सम्मान के गौरवपूर्ण क्षणपाठकों के लिए भी बहुमूल्य हैं.

2 जनवरी 1905 को अलीगढ़ के कौड़ियागंज कस्बे में अलीगढ़ के कौडीयागंज कस्बे में रामदेवी बाई ने सकट चतुर्थी के दिन एक सुंदर बालक को जन्म दिया. जिसे सकटुआ नाम कहकर पुकारा गया लेकिन पिता ने बालक के तेजोदीप्त मुखमंडल को देखकर नाम दिया- आनंदीलाल. दो वर्ष की उम्र में ही पिता को खो देने पर उनकी माँ के जीवन संघर्ष और कठोर परिस्थितियों के कारण मामा भगवान दीन के साथ रहना पड़ा. शिक्षा-दीक्षा के लिए उन्हें हस्तिनापुर ऋषभ ब्रह्यचर्याश्रममें नामांकन के लिए उनका नाम बदलकर जैनेंद्र रखा गया. उनकी प्रखर और कुशाग्र बुद्धि के कारण आगे की शिक्षा के लिए बनारस के हिन्दू कॉलेज में भेजा गया. लेकिन मामा के देशप्रेम , राष्ट्रीय जागरण के अभियान से जुड़कर और गाँधी जी के प्रभाव से कांग्रेस के असहयोग आँदोलन में भाग लेने के कारण जैनेंद्र नें पढाई छोड़ दी. इसी बीच  आजीविका के लिए संघर्ष और देश हित के लिए आंदोलनो में हिस्सा लेते हुए दिल्ली लौटकर लिखने का संकल्प करते हुए 1927 में  उन्होनें लिखने का संकल्प करते हुए पहली कहानी लिखी-खेल.यह कहानी विशाल भारतमें छपी लोकप्रिय हुई  और यह वर्ष उनके लिए उर्वर सिद्ध हुआ.

1921 में उनका कहानी-संग्रह फाँसीप्रकाशित हुआ और इसकी सफलता के बाद इसी वर्ष प्रसिद्ध उपन्यास परखभी छपा और हिंदी को एक सम्पूर्ण कथाकार मिल गया. इस उपन्यास में पांरपरिक ढा‌चे को तोड़ते हुए बाल-वैधव्य के पाखंड पर प्रहार करते हुए स्त्री की नियति पर बड़े प्रश्न उठाए गए. प्रेमचंद की मानवीय लेखनी से प्रभावित जैनेंद्र कुमार मानते थे किजो काल के दुर्धर्ष थपेड़ों से अचल रहेगा, वही किसी की सच्ची वेदना, सच्चे त्याग पर एकाएक गलकर किसी भी दिशामें बह सकता है.

जैनेंद्र के मन में गाँधी के सत्याग्रह,प्रेम और स्वराज का एक स्वप्निल आदर्श था जिसे उग्र और हिंसक संगठनों में शामिल होकर युवक अपने आचरण से तहस-नहस कर रहे थे. सत्ता और स्वार्थ के इस द्वैत का प्रतिकार करते हुए उन्होनें 1934 में सुनीताउपन्यास लिखा जिसने हिंदी साहित्य जगत में जैसे भूचाल ला दिया. भाषा, शिल्प और कथ्य के साथ मनोविज्ञान के धरातल पर नायिका के रूप में सामाजिक मान्यताओं को ठुकराकर स्त्री की जो नई स्वतंत्र छवि उन्होनें रखी उस पर बहुत विवाद और आपतियाँ भी हुईं. 1935 में एक रातकहानी संग्रह, 1937 में नयी कहानियाँशीर्षक से वैवाहिक-और संकीर्ण सामाजिक समस्याओं पर आया कहानी- संग्रह और 1937 में त्यागपत्रउपन्यास के प्रकाशन के साथ ही हिंदी साहित्य में सनसनी फैल गई. इसे उनका सर्वश्रेष्ठ उपन्यास कहा गया जिसमें मृणालके माध्यम से जैनेंद्र ने भारतीय समाज कीपारंपरिक नैतिकता और मर्यादाओं  को ध्वस्त कर भारतीय सामाजिक जीवन में स्त्री के लिए नयी नैतिकता की नींव रखी. यह उपन्यास स्त्री शक्ति के अभ्युदय का विराट आख्यान था. हिंदी उपन्यास के इतिहास में आधुनिक नारी का यह पहला प्रवेश था जो अपने स्वरूप में क्रांतिकारी थी और जिसने सामजिक रूढ़ियों के ढांचे, व्यवस्था और पारंपरिक मूल्यों पर चोट करते हुए नये मानवीय संबंधों की खोज की. मृणाल कहती है कि  उसका विद्रोह समाज को तोड़ना-फोड़ना, विवाह संस्था का तिरस्कार और अनैकितता की यातना भोग रहे व्यक्ति का विद्रोह है और उसका चरित्र पारंपरिक स्त्री-नायिकाओं के समक्ष चुनौती बनकर खड़ा होता है.

इसी वर्ष जैनेंद्र के विचारशीर्षक पुस्तक आई जिसमें जैनेंद्र के साहित्य, कला, दर्शन, आलोचना, धर्म,   संस्कृति पर उनके प्रबुद्ध विचारों को संकलित किया गया है. इसी वर्ष 1937 में ही उनका चौथा उपन्यास कल्याणी प्रकाशित हुआ जो स्त्री-पुरुष संबंधों के बीच प्रेम और दांपत्य के नये प्रश्नों के साथ आया. 1938 में  नीलम देश की राजकन्यासूक्ष्म मनोवैज्ञानिक  विषयों पर  कहानी -संग्रह भी प्रकाशित हुआ जिसे पाठकों का अपार प्रेम मिला लेकिन आलोचको ने फिर इसे यथार्थ विरोधी कहते हुए प्रतिक्रियाएँ दी. इसके बाद पाजेब और जयसंधि  1948 में प्रकाशित होकर आये लेकिन गाँधी जी की हत्या और विभाजन की त्रासदी के बाद मिली आज़ादी का दुख अभी भी जैनेंद्र जी के मन को व्यथित कर रहा था.

1948  से 1951 तक उन्होने लम्बी खामोशी अख्तियार कर ली. इस वर्ष वे फिर से संकल्पबद्ध  हुए और पूर्वोदयपुस्तक का प्रकाशन हुआ जिसमें राजनीति-संस्कृति , सर्वोदय, गांधी नीति, लोकतंत्र पर उनका गंभीर चिंतन है. इसके बाद सुखदा और विवर्त उपन्यास 1953 में प्रकाशित हुए जिनमें वे पारंपरिक स्त्री के मिथक को तोड़कर उसकी मुक्ति का नया पाठ तैयार करते हैं.और इसी वर्ष स्पर्धानामक उनका कहानी-संग्रह भी शिल्प, भाषा और विषय की नवीनता के कारण चर्चित हुआ. इसके बाद व्यतीत, जयवर्द्धन उपन्यास आये जिसमें भारतीय राष्ट्र- राज्य का चिंतन, आदर्श और आहिंसा को प्रतिष्ठित किया गया है. इसी वर्ष1956 में उन्हें चीन के राष्ट्रीय साहित्यिक महोत्सव में शामिल होने का आमंत्रण मिला जिसमें जैनेंद्र जी की सादगी और उनकी वक्तृता को बहुत सम्मान मिला. 1960 में मास्को की साहित्यिक यात्रा और गोष्ठियों के दौरान जैनेंद्र टाल्सटाय के प्रसिद्ध स्मारक पर भी गये जिनके मानवतावाद और करुणा में उनकी गहरी आस्था थी और जिनके नाटक का अनुवाद उन्होने पाप और प्रकाशशीर्षक से किया था.इसके बाद जो भी पुस्तकें उन्होने लिखीं उसमें विश्वदृष्टि के व्यापक बोध के साथ एक सत्याग्रही राष्ट्र-चिंतक के रूप में स्थिरता, विवेक और दायित्व के साथ वे सभी ज्वलंत प्रश्नों के संदर्भ में विभाजन और स्वराज की सच्चाई का मूल्यांकन करते रहे.

1970 में वे पत्नी भगवती देवी के साथ जापान की यात्रा पर गए. 1971 में पद्मभूषण अलंकरण और बहुत से सम्मानों के बाद भी जैनेंद्र जी जीवन -व्यवहार में आदर्श और अनासक्त बने रहे। परंतु वे देश की राजनीतिक परिस्थितियों के प्रति सजग और ज़िम्मेदार बौद्धिक-चिंतक के रूप में हमेशा सक्रिय रूप से उपस्थित रहते थे. 1985 में पत्नी की मृत्यु के पश्चात उनका ह्रदय जैसे विचलित हो गया. इसी वर्ष उन्हें उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का सर्वोच्च सम्मान भारत भारतीमिला जिस अवसर पर प्रधानमंत्री के वक्तव्य में उन्हें आत्मा का शिल्पीकहा गया. उनका जीवन किसी साधना से कम नहीं थाऔर सभी परिचितों को वे असाधारण और गृहस्थ सन्यासी का आदर्श दिखते थे.

जैनेंद्र जी का अंतिम उपन्यास दशार्कउनके जीवन काल में ही 1985 में प्रकाशित हुआ जो उन्होनें पुत्र दिलीप के कहने पर बोलकर लिखवाया था. इसके प्रकाशन के बाद भी हिंदी जगत में खलबली सी मची. जीवन के यथार्थ के संदर्भ में विवाह, प्रेम, परिवार और समाज में विवाहेतर स्त्री-पुरुष संबंधों और  उपभोक्तावाद के प्रभाव से बिखरते मूल्यों-संस्कार और विचारों के विस्फोट के रूप में यह उपन्यास  समाज की अनेक विसंगतियों व असुविधाजनक प्रश्नों से टकराता है. 1986 में भारत भवन भोपाल में जैनेंद्र प्रसंग नाम से भव्य आयोजन हुआ जिसमें जैनेंद्र स्वयं उपस्थित रहे और अपने कृतित्व पर आलोचना-प्रशंसा के भावों को मुक्त मन से अंगीकार करते रहे. अशोक वाजपेयीनिर्मल वर्मा, पुरुषोत्तम अग्रवाल, प्रभात त्रिपाठी , विजय मोहन सिंह जैसे आलोचकों ने बेबाक राय रखी. आलजालपुस्तक  को न लिख पाने का अफसोस  भावुक होकर जैनेंद्र जी नें यहाँ भी व्यक्त किया.
(ज्योतिष जोशी)

22 नवम्बर 1986 को राष्ट्र्कवि मैथिलिशरण गुप्त के जन्म-शताब्दी समारोह में गुड़गाँव पहुंचकर अपना लंबा वक्तव्य दिया जिसमे गुप्त जी की राष्ट्र-राज्य-दृष्टि और जीवन मूल्यों की प्रतिष्ठा को साहित्य में बुनियादी और गहरा कार्य बताया. इस व्याख्यान के बाद ही उनकी तबीयत बहुत बिगड़ गई और आयुर्विज्ञान संस्थान में वे भर्ती रहे. निष्क्रिय शरीर और वाणी से असमर्थ जैनेंद्र अश्रुओं और पीड़ा को शांत मन से झेलते रहे. इसी बीच 4 अप्रैल1987 में उनके स्नेही मित्र अज्ञेयका भी देहांत हो गया जिसके बाद वे अधिक व्याकुल हो गये और उनका धैर्य जैसे टूटने लगा. सभी साहित्यिक मित्रऔर परिवार उनके स्वस्थ होने की कामना करते.11 सितंबर 1987 को महादेवी वर्मा का भी निधन हो गया जिनसे जैनेंद्र जी की गहरी आत्मीयता और लगाव था. इस शोक से वे दुखी होकर मौन जैसे शून्य में अटक गये. जिन जैनेंद्र पर सबसे अधिक विवाद हुए, सबसे ज्यादा आक्षेप पर वे तटस्थ रह्ते और सबको निरुत्तर करते हुए वे एक निरीह जीवन जी रहे थे. सभी लेखक-राजनीतिज्ञ उनकी मूर्धन्य उपस्थिति और विलक्षणविचारों की नवीनता के कायल थे जिसके आलोक में आगामी पीढ़ी को राह दिखाई देती है. अंतिम दिनों में मौन भाव और संयम से वेदना को सहते हुए जैनेंद्र जो आजीवन सतत कर्मशील साधक रहे, जीवन की सार्थकता और व्यर्थता पर विचार करते रहे और अंतर्मन की आवाज़ सुनते। उनके पुत्र प्रदीप कुमार पिता के इन आँसुओं की भाषा समझते थे.

24 दिसम्बर 1988 शनिवार की सुबह मृत्यु के सत्य को प्रणाम करते हुए जैनेंद्र कुमार जी ने अंतिम साँस ली.

जैनेंद्र का जाना, एक अप्रतिहत, अनासक्त, मानवता प्रेम के साधक का जाना था जिसमें एक पूरा युग समाया था. उनके निधन से हिंदी भाषाका जगत जैसे दरिद्र हो गया. जीवन के सार्थक मूल्यों के प्रवक्ता के जाने से जो शून्य उभरा वह भयावह था. उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए विष्णु खरेने अपने संपादकीय में लिखा-

“भारतीय महालेखन में वे व्यास के ज्यादा समीप हैं,वाल्मिकि से कम कबीर ज्यादा हैं,सूर-तुलसी कम, गालिब-मीर ज्यादा हैं, इकबाल-फैज़ कम. उन्हीं की शैली में जिसकी संक्रामकता घातक है,वे जैनेंद्र ज्यादा हैं,  प्रेमचंद कम. प्रेमचंद की तरह जैनेंद्र भी बहुत सादा इंसान थे. जैनेंद्र मौन का इस्तेमाल हथियार के रूप में नहीं करते थे. हिंदी साहित्य में वे अमर तो 1950 में ही हो गये थे, पर इस अमरत्व को वे ओढ़ते-बिछाते नहीं थे. मानवता के प्रति उनमें असंदिग्ध प्रतिबद्धता थी और साथ में अदम्य नैतिक साहस तथा एक हमेशा जिज्ञासु , उत्सुक,पैना मस्तिष्क. उनके पाठक और लेखक जाने कि उनकी विरासत का अब क्या किया जाए लेकिन उनके जाने के बाद एक धन्यता और भय हमे है- धन्यभाव इसलिए कि हम जैनेंद्र के ज़माने में रह पाए और भय इसलिए कि अब दूसरा जैनेंद्र कोई नहीं है.”

ज्योतिष जोशी ने इस जीवनी को नाम दिया- ‘अनासक्त आस्तिक’ जो अपने अनूरूप ही जैनेंद्र कुमार के रूप में एक राष्ट्रचिंतक, लेखक, विचारक और समग्र सत्याग्रही के साथ परिपूर्ण अपरिग्रही की वास्तविक छवि को प्रस्तुत करती है. 1936 में प्रेमचंद के निधन के बाद जैनेंद्र ने उन पर एक अविस्मरणीय संस्मरण लिखा था- नास्तिक संत. प्रेमचंद नास्तिक तो थे पर संत भी थेक्योकि मानव-मात्र के प्रति करुणा से उनका समूचा जीवन और लेखन आप्लावित रहा. इसी तरह जैनेंद्र स्वंय आस्तिक तो थेपरन्तु यश, अहंकारसे निर्लिप्त और किसी भी प्राप्ति के लोभ से मुक्त रहे.

यह बहुमूल्य पुस्तक अपने विराट कलेवर में जैनेंद्र जी के साथ समकालीन स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास को भी जैसे साथ-साथ लेकर चलती है. जैनेंद्र कुमार जी का सीधा संपर्क और संवाद महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरु, डॉ राजेंद्र प्रसाद, विनोबा भावे, जयप्रकाश नारायण,  इंदिरा गाँधीके साथ भी था जिसके अनेक प्रसंग इस जीवनी में बिखरे हुए हैं. परंतु यह संवाद राष्ट्रीय – मानवीय हितों के लिये था, निजी स्वार्थों के लिए कभी नहीं और जिसमें सत्ता से असहमति का विवेक भी और आक्रोश भीथा. कांग्रेस द्वारा देश के विभाजन कोस्वीकार कर लेने के दंश और गांधी जी की पीड़ा को जैनेंद्र जी समझते थे और स्वतंत्रता के बाद सत्य और आहिंसा के आदर्श महात्मा गाँधी हत्या के बाद वे बहुत उद्विग्न हो उठे और जैसे सत्ता की आकांक्षा से उनका मोहभंग हो गया.इन सभी राजनीतिक, सामाजिक परिस्थितियों, अंतर्विरोधों और संघर्षों के बीच जैनेंद्र जी की रचना-प्रक्रिया भी इस पुस्तक में पाठकों के सामने खुलती है और उनकी रचनाओं के उत्स भी प्रकट होते हैं. उनके जीवन की बहुस्तरीय-बहुआयामी यात्रा में आगे बढ़ते हुए यह पुस्तक अपनी विषयगत रेंज़और वैचारिक गहराई में उनके काल-खंडके इतिहास और साहित्य से गुज़रते हुए पाठकों को उस समय का आईना उपलब्ध कराती है.

जैनेन्द्र कुमार पहले ऐसे बडे कथाकार रहे जिन्होनें कहानी-उपन्यास को घटना के स्तर से उपर उठाकर चरित्र और व्यक्ति के मनोवैज्ञानिक और सूक्ष्म धरातल पर लाने का सार्थक प्रयास किया. साहित्य में वे अपने अनूठे पथ के अन्वेषक थे जिन्होनें स्थूल सामाजिक यथार्थ का मार्ग न अपनाकर  मनोविश्लेषण और व्यक्ति की चेतना को महत्व दिया और यह रचना और आलोचना का आगे चलकर नया आधार बना.नयी कहानियाँशब्द भी सबसे पहले जैनेन्द्र जी ने ही दिया जिसके लिए वे नये, तार्किक,प्रखर विचारों के कारण पुरानी व नई पीढ़ी के लिए विवाद का केंद्र बने रहे. सामाजिक ढ़ांचे में बदलाव के साथ उनका यह मानना था कि समाज में स्त्री पक्ष को समुचित स्वतंत्रता मिले.  

तमाम विपरीत हालातों के बीच अनुभवों से तपे उनके लेखन के लिए भी प्रेमचंद ने कभी जैनेंद्र को भारत का गोर्कीकहा था.बहुत से आलोचक उन्हे प्रेमचंद का विलोम और विरोधी मानकर कुपाठ करते रहे लेकिन वास्तव वे उनके पूरक थे. जैनेंद्र जी की प्रखर प्रतिभा को सबसे पहले प्रेमचंद ने ही पहचाना और अपनी अलग राह बनाने की सलाह दी. दोनों में प्रगाढ़ निकटता थी जिसके प्रमाण कई संस्मरण औरवार्ताओं के रूप में इस जीवनी में मिलते हैं. अंतिम समय में प्रेमचंद के साथ जैनेंद्र ही रहे जिसके अनेक भावुक प्रसंगों कामार्मिक वर्णन पाठकों को भी द्रवित कर देता है. उनके निधन के बाद जैनेंद्र ने जैसे एक सच्चा प्रेरक मित्र खो दिया था. अत: उन्हें साथ-साथ रखकर ही जीवन, राष्ट्र और साहित्य के इतिहास में उनकी भूमिका को समग्रता से समझा जा सकता है. हिंदी साहित्य जगत में दोनों को प्रतिपक्ष में रख कर देखने की जो कुचेष्टा चलती रही उन मिथ्या अवधारणाओं को भी यह पुस्तक निरस्त-स्पष्ट करती है. 


जैनेंद्र ने हिंदी कथा-साहित्य को नयी पारदर्शी भाषा, शिल्प और कथ्य की नयी प्रवृतियाँ प्रदान की और लीक से हटकर कहानी और उपन्यास ने प्रयोगशीलता का पहला पाठ उन्हीं से सीखा. उन्होने हिंदी गद्य को भाषा का नया तेवर और  सूक्ष्म भंगिमा देकर उसे तराशा जिसका अज्ञेयके साहित्य पर भी स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है. जैनेन्द्रजी की दृष्टि उदार और संवेदना के सूत्र बहुत सजीव और स्पंदनशील थे. मानवता और देश के लिए भी उनके आदर्श उतने ही प्रासंगिक थे जितना उनका लेखन जो विचारों के विस्फोट की अभिव्यक्ति बनकर आता. अनूठे कथाकार होने के साथ जैनेंद्र प्रखर चिंतक, विचारक और दार्शनिक तथा सक्रिय आंदोलनकारी भी रहे. एक अपरिग्रही के रूप में वे एक महान व्यक्तित्व भी थे जिनका समुचित मूल्यांकन अनिवार्य भी है.

एक प्रामाणिक जीवनी के रूप में जैनेंद्र साहित्य के मर्मज्ञ अध्येता-आलोचक ज्योतिष जोशी की यह पुस्तक समकालीन गद्य में जीवनी विधा को समृद्ध करने के साथ एक बड़े शून्य को भी भरती है और पाठकों के लिए एक उपल्ब्धि और दस्तावेज़ के रूप में महत्व रखती है. 

जैनेन्द्र के व्यक्तित्व-विकास, जीवन-वैशिष्टय, तथा रचनात्मक अवदान को रेखांकित करने में लेखक ज्योतिष जी ने उनकी कृतिमेरे भटकावके संकेतों को इस जीवनी का आधार बनाया. उनकी शेष रचनाएं-स्मृति पर्व, अकाल पुरुष गाँधी और विष्णु प्रभाकर द्वारा संपादित वृहद पुस्तक जैनेंद्र: साक्षी हैं पीढ़ियाँके संस्मरणों से भी घटनाओं के संयोजन में सहायता मिली जिसका उल्लेख इस पुस्तक की भूमिका में किया गया है. यह पुस्तक न सिर्फ कथाकार जैनेन्द्र के व्यक्तिव की नयी खोज करती है बल्कि इसके माध्यम से पाठक जैसे एक विराट युग में भी विचरण करता है. 

ज्योतिष जी की आत्मीय, भावप्रवण भाषा जहाँ मन में एक राग बोध को उत्पन्न करती है, पुस्तक को प्रवाह्पूर्ण और मोहक बनाती है सचेत -सजग करती है साथ ही सोचने के लिए भी विवश करती है.सभी उपलब्ध सामग्री,तथ्यों,संवादोवार्ताओं, व्याख्यानों और संस्मरणों और स्मृतियों पर गहन शोध के पश्चात मौलिक और नयी दृष्टि से लिखी गई बेहद पठनीय, प्रवाहपूर्णआकर्षक और उपयोगी यह उत्कृष्ट जीवनी हिंदी साहित्य के कालजयी कथाकार जैनेन्द्र कुमारको केंद्र में पुनर्स्थापित करने के लिए समग्र और सार्थक पुस्तकमानी जा सकती है.
__________________
मीना बुद्धिराजा
एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, अदिति महाविद्यालय, दिल्ली -विश्वविद्यालय

संपर्क- 9873806557

अपने आकाश में (सविता भार्गव) : अनुपमा सिंह

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“प्रेम में पड़ी स्त्री मुझे अच्छी लगती है
लेकिन मुझे दुख होता है
किसी पुरुष की तरह कामोत्तेजित होकर उससे
मैं प्यार नहीं कर सकती

नहीं देखा जाता मुझसे
छली गयी स्त्री का दुख
लेकिन मुझे दुख होता है
मैं नहीं दे सकती उसे
झूठे मक्कार पुरुष के बराबर भी
भोग का सुख.”

सविता भार्गव (मुझे दुख होता है – संग्रह ‘अपने आकाश में’)


सविता भार्गव की कविताओं का संग्रह ‘अपने आकाश में’ २०१७ में राजकमल से प्रकाशित हुआ था और अभी में इसमें पाठकों-लेखकों की दिलचस्पी बनी हुई है. सविता भागर्व की कुछ कविताएँ शास्त्रीय संगीत की तरह गहरी हैं. धीरे-धीर खुलती हैं और असर देर तक बचा रहता है. अनुपमा सिंह युवा कवयित्री हैं. वह इस संग्रह को उलट-पुलट रहीं हैं. पढ़ा जाए


जीने की जगह तलाशती कविताएँ                          
अनुपमा सिंह






जकल जब भी समय मिलता है, कविताएँ लिखने से अधिक कविताओं के विषय में सोचती हूँ. कोई कविता क्यों अच्छी लगती है और क्यों नहीं अच्छी लगती है? जबकि जो कविताएँ नहीं भी अच्छी लगती हैं, उनमें भी विन्यस्त होता है शुभ विचार. खैर! मुझे लगता है कि कविता गहन संवेदन और पूर्व सघन स्मृतियों के आधार पर बनती है. पूर्व स्मृतियाँ ही गहन संवेदन और चेतन, अचेतन की प्रक्रियाओं द्वारा पुनर्सृजित होकर आ बैठती हैं कविता में. इसलिए कवि के लिए विस्तृत अनुभव लोक का होना भी आवश्यक है. लेकिन कविता में सभी अनुभव जगह नहीं पाते, बल्कि विश्लेषित अनुभव जगह पाते हैं. कविता कोई कूड़ेदान नहीं जहाँ सुबह का खाया और शाम का पाया सब उलट दें उसमें. वह एक ‘कला’ भी है जहाँ  सही रंगों का चुनाव सही मात्रा में करना होता है. मैं कविता पढ़ते समय अपने लिए उसके सार तत्त्व, भाषा के अलग-अलग ताप, भिन्न अनुभव संसार एवं सहज, निश्छल संवेदन को पकड़ना चाहती हूँ. स्त्री कविता में वहीं ‘कविता’ होती है जहाँ गहन संवेदन और पूर्व स्मृतियों का ऐसा घोल तैयार हो जिसमें किसी एक का आत्म नहीं बल्कि आत्म की सामूहिक अभिव्यक्ति झलकती हो. 

कविता वहां अधिक प्रमाणिकता पाती है जहाँ वह सृष्टि के कण-कण से अपने को जोड़ती है. शायद स्त्री कविता का यही मूल केंद्र भी है. स्त्री कविता ने अपनी उपस्थिति से प्रकृति और सृष्टि दोनों की गरिमा बढ़ायी है और वह स्वयं भी प्रकृति में ही अपनी पूर्णता को पाती है. सविता भार्गव के कविता सग्रह –‘अपने आकाश में’ ‘सृष्टि’ शीर्षक से एक कविता है, इसे आप पढ़ सकते हैं –
“इस रात
नहीं  कोई जब
पास

ख़ुद में
मैं ख़ुद
जनम रही हूँ ”

एक स्त्री को उसके सम्पूर्ण जीवन में सृजन के लिए जिस एकांत और एकाग्रता की ज़रूरत होती है, वह एकांत उसे हासिल हो, कोई जरुरी नहीं. यदि हासिल भी होता है तो  बड़ी मुश्किल से, लेकिन जब कभी वह एकांत उसे हासिल होता है तो उसकी थाती बन जाता है. सबसे खूबसूरत क्षणों में एक, कीमती क्षण की तरह. उस एकांत के क्षणों में वह खुद को खोजती है. वह सृष्टि प्रसवा तो है ही, वह आत्मप्रसवा भी है. भूख, प्यास, नींद और कविता अपने चरम पर जाकर ही अधिक सुखकर होती है. एक माइने में सबसे कष्टकर भी. नींद जब अपने चरम पर होती है तो उसे किसी कीमत पर भी नहीं टाला जा सकता. कविता भी तभी चरम अभिव्यक्ति, सौन्दर्य और शुभता को प्राप्त होती है जब उसकी अभिव्यक्ति प्यास की तरह अनिवार्य हो जाय. और एक स्त्री इन्हीं पीड़ादायक, सुखदायक क्षणों में जन्म लेती है. इस ‘सृष्टि’ शीर्षक कविता में स्त्री का सघन आत्म-प्रेम अभिव्यक्ति पाता है.
“इस रात
मैं हूँ
सबसे मनोरम
सृष्टि ‌‍!”

अपने को जब कोई स्त्री इस तरह से पा लेती है, तब उसकी  कुछ और भी पाने की चाह थिर हो जाती है.

एक स्त्री सृष्टि में खुद को अकेले कभी नहीं पहचानती. यह अहम् का भाव उसमें है ही नहीं. वह छोटो-छोटी चीजों के बीच ही खुद को खोजती है. वह सृष्टि के कण-कण से ख़ुद को जुड़ा पाती है. स्त्री सृष्टि का अधूरापन और पूरापन दोनों अपने भीतर महसूस करती है. सविता भार्गव की एक कविता है ‘अधूरा घोंसला’ घोंसले का अधूरापन किसी पुरुष को कभी नहीं साल सकता, लेकिन एक स्त्री की उम्मीदें उस घोंसले भी जुड़ जाती हैं. वह उस घोंसले की गौरैया से खुद को जोड़ लेती है –
“मेरी किताबों के पीछे रैक में
एक जोड़ी काली गौरैया
बना रही थी घोंसला
यह जानते हुए कि रैक गन्दा हो जायेगा
थोडा नुक्सान हो जायेगा किताबों का भी
मन से मैं विवश थी
समझोकि मेरा मन उन पर आ गया था
मैं यहाँ तक समझने लगी थी
दोनों में जो मादा है
उसमें मैं हूँ”

लेकिन गौरैया जब अपना अधूरा घोंसला छोड़ उड़ जाती है तो स्त्री का मन भी उड़ जाता है उसके साथ ही. वह अपने को उस घोंसले की तरह ही अधूरा पाती है –

“पहले सोचा था
काली गौरैया में मैं हूँ
सोच रही हूँ कई दिनों से अब
गौरैया मुझमें है
रैक में किताबों के पीछे
ज्यों का त्यों है
अधूरा घोंसला”

स्त्री के भीतर सृष्टि में घुल-मिल जाने का भाव प्रमुख होता है. वह हर शोषित से अपने को जोड़ लेती है. सविता भार्गव के इस संग्रह में अपने को गौरैया से जोड़ती तीन कवितायें हैं. अगली कविता में वे खुद को ही किसी के घर की गौरैया बताती हैं -
“ये नहीं होतीं
नहीं होता घर इतना कर्मशील
और वानस्पतिक
और कम ही होती मेरी आँखों में
आकाश की नीली गहराई

मैं भी किसी घर की
गौरैया हूँ.”
(गौरैया शीर्षक से )

अगली कविता है ‘इस घर में’ यहाँ भी स्त्री, प्रकृति और सृष्टि का सहज ही जुड़ाव दिखाई देता है. इस प्रकृति और सृष्टि में अनंत जीव हैं, अनंत वनस्पतियाँ, अनंत चीजें, लेकिन स्त्री का जुड़ाव जैसा मैंने पहले ही कहा कि शोषित चीजों से ही है. वह उसी में अपना चेहरा साफ़-साफ़ देख पाती है. और अपनी स्थिति को भी -
“इस घर में मैं रहती हूँ
चिड़िया की तरह
मैदान पेड़ गेहूं के दाने और
तालाब के पानी के बारे में
सोचते हुए 
सांप की सरसराहट का
अनुभव करती हूँ
अक्सर.”

लेकिन स्त्री को स्वयं को खोज पाना आसन भी नहीं है. कठिन चुनौतियाँ हैं, ऊँची चौखटे हैं, मजबूत दरवाज़े हैं. ऐसा ही एक दरवाजा इस कविता में भी है और उसकी ऊँची चौखट भी. चौखट को पार करने की चुनौती भी. यह कोई सामान्य दरवाज़ा नहीं है. यह संस्कृति और सभ्यता के विकास क्रम से हासिल मजबूत दरवाजा है. जो हमेशा फटाक से बंद होता है एक स्त्री के मुंह पर. यह सिर्फ घर का ही दरवाज़ा नहीं मन का भी दरवाज़ा है, जिसे संस्कृति के बढ़ई ने बहुत खूबसूरत नक्काशी काटकर बनाया है. एक बारगी में कितनी सुन्दरता और सुरक्षा का भ्रम पैदा करता है यह दरवाज़ा. लेकिन इसकी सांकल खोलने की इजाज़त सिर्फ उनको है जिन्होंने इसे बनाया है, जो इस मन के मालिक हैं.
“ये दरवाजा
तुम्हारे  खटखटाने के लिए
बना है
.......................
इसके पीछे
खड़ी होकर
मैं एक मज़बूत
और सुन्दर औरत हूँ .”

इस कविता को आप पढ़ सकते हैं, यह एक अच्छी कविता है. विचार और विन्यास दोनों  ही स्तरों पर. पहली नज़र में यह कविता सुन्दरता का आभास कराती है. जैसे-
“होती है इस पर
जब खट-खट
तुम्हारे कहे बगैर
मैं तुम्हें सुन लेती हूँ
तुम्हारी ये अनुगूँज
-मैं हूँ
भीतर आकर थम जाय
इसके लिए बना है ये दरवाज़ा”

यहाँ तक कितना सुरक्षा देने वाला लगता है यह दरवाज़ा, कहीं कोई पेंच नहीं इस दरवाज़े में. लेकिन अगला ही बंद आपके लिए खोल देगा वह द्वार जो दरवाज़े के भीतर जाने पर ही खुलता है. यहाँ अनामिका की ‘दरवाज़ा’ शीर्षक कविता याद आती है-
‘‘मैं एक दरवाज़ा थी
मुझे जितना पीटा गया
मैं उतना ही खुलती गयी’’

सविता भार्गव की कविता में वह पीटने की आवाज़ तो नहीं सुनाई पड़ती. धीरे-धीरे सत्ता सतर्क हुई है. वह निशान नहीं छोड़ती. उसके औजार माइक्रो लेबल के हुए हैं, बहुत सूक्ष्म जिसे नंगी आखों से देखा ही नहीं जा सकता. वहबाहर से बहुत सुन्दर है, मजबूत भी. वह बहुत शाइस्तगी से बंद होता है. लेकिन –
“तुम्हारी आवाज़
‘मैं हूँ ‘
के घेरे में भटकने के लिए बनी हूँ मैं
............................
खड़ी होकर
इस दरवाज़े पर
मैंने तुम्हारे बिछड़ने के
दुःख झेले हैं

लौटने तक तुम्हारे
ये दरवाज़ा’
बंद रहने के लिए बना है .”

यहाँ पहुंचकर कविता अपना पूरा  सन्दर्भ पाठक के सामने खोल देती है. फिर आप सभ्यता, संस्कृति, परम्परा और इतिहास के मुहाने तक टहल आते हैं. जहाँ हर मजबूत दरवाज़े के भीतर एक स्त्री की घुटती, टूटती साँस है.
लेकिन कविता का अंतिम बंद एक चेतस स्त्री की आवाज़ है. वे लिखती हैं-
“मेरे बंद करने के लिए
बना है
यह दरवाज़ा”
यह संस्कृति कितने स्तरों पर विभाजित है, देखने से अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है. जब कविता में आप छोटे-छोटे, देखने में मामूली लगने वाले विषयों को एक नजरिए से उकेरा देखते हैं, तब लगता है कहाँ-कहाँ खींची गयी  है विभाजन की यह लकीर. एक ही वर्णमाला से बनने वाली भाषा एक ही अन्न से पकने वाला भोजन कितना अलग स्वाद देता है स्त्री और पुरुष को. पुरुष भाषा और स्त्री भाषा के अलग-अलग मानदंड होने की बानगी आप ‘गालियाँ’  शीर्षक कविता में देख सकते हैं-
“ड्रामा कोर्स में
एक वाचाल वेश्या का अभिनय करते हुए
मंच पर मैं बके जा रही थी
माँ बहन की गलियाँ

पूरी पृथ्वी एक मंच है
जिसमे पुरुष की यह
आम भाषा है
बोलने के लिए जिसे
स्त्री को
वेश्या के अभिनय का
सहारा  लेना पड़ता है .”

ये गालियाँ  पुरुष के लिए असामान्य नहीं बल्कि सामान्य भाषा की तरह ही हैं. घर, गली, नुक्कड़, ऑफिस कहीं भी धड़ल्ले से प्रयोग लायक. फिर भी वह धारण करता है भद्र पुरुष की संज्ञा, लेकिन इसको बोलते ही स्त्री खास कोटि की स्त्री बन जाती है. जिसे मेरे गाँव की भाषा में ‘नंगिन’ और कवयित्री की भाषा में ‘वेश्या’ कहते हैं .
                              
स्त्री ने सबसे अधिक अपने स्वप्नों का पीछा किया है, लेकिन हर बार उसे सपनों की टूटी किरचें ही मिली हैं. हर बार सपने में उससे छूट जाते हैं उसके सुख या और अधिक चटक होकर आता दिन का दुःख. स्वप्न हाथ से छूटकर किसी घड़े की तरह बिखर जाते हैं ज़मीन पर, जिसे बटोरकर एक बार फिर फेक दिया जाता है घर के पिछवारे. दरअसल स्वप्न में ही मूर्त होती है एक स्त्री की चाहत, जो हकीकत की दुनिया में पूरी नहीं होती. फ्रायड का मनोविज्ञान यहाँ तक तो सही राह बताता है, लेकिन इसके आगे या तो वह स्वयं भटक जाता है या जानबूझकर गुमराह करता है. वह उन अधूरे सपनों और अधूरी इच्छाओं की समाजशास्त्रीय व्याख्या छुपा ले जाता है, इसलिए आगे समय की गति में फ्रायड की व्याख्या अधूरी पड़ जाती है .
‘व्यवस्था तो है’ शीर्षक कविता से पढ़ सकते हैं इस बंद को-
“मुफ़्त में नहीं मिलती औरत को ज़िंदगी
देना होता है बदले में उसे हमेशा
ठोस,तरल,वाष्प
किसी भी शक्ल में
सबसे जरुरी चीज है उसका स्वप्न
करना पड़ता है अक्सर
सत्यानाश उसका”
या
“सोया हुआ कोई स्पर्श
जागकर सो जाता है
मन की कोई सुन्दर-सी छवि
जागने से पहले ऱोज बिगड़ जाती है”
(अनचाहा सामान शीर्षक से )

स्त्री की दुनिया में किसी और के स्वप्न तिरते हैं. स्त्रियाँ किसी और के डायरी का पन्ना होती हैं. कोई और आकर देता है उनकी वर्णमाला को. कोई और दर्ज़ करता है उनके माथे पर अपनी लिपि-
“उन दिनों
मैं डायरी थी
उसकी”  (डायरी शीर्षक से

स्त्री इस दुनिया से हमेशा ही बहिष्कृत रही. कौन कहे इस दुनिया में जगह पाने की वहतो अपनी ही दुनिया से बहिष्कृत कर दी गयी. सबसे अच्छी बात यह रही कि उसने कभी हार नहीं मानी. संग्रह की एक कविता है ‘जीने की जगह’ आप देख सकते हैं कि कैसे वह बहिष्कृत है इस दुनिया से –
“मैंने अपने भीतर
जीने की जगह बनायी
लेकिनउस पर घर किसी और ने बना लिया
एक दिन उसे निकालने में कामयाब हुयी
और दुसरे को आसरा दिया
चूँकि घर उसका नहीं था
वह कभी समझ नहीं पाया
किधर आँगन है और द्वार किधर है.”

“अपनी देह का ख़याल रखते हुए
कितना ख़याल रखा है
मैंने तुम्हारे मन का

मेरे मन का ख़याल
कम से कम अगले जन्म में
ज़रूर रखना” (मेरे मन का ख़याल शीर्षक से )

वैसे तो पूरी दुनिया ही ‘बधिया’ किया हुआ बैल जैसी है. सबके पैमाने हैं, जिसमे होती है पैमाइश सबकी. लेकिन स्त्री के सांचे सबसे अधिक कसे हुए हैं, साँस लेने भर की भी जगह नहीं है. बहुत कम बची है स्त्री स्वयं में. यह अलग बात है कि अब वह बड़ी शिद्दत से खोज भी रही है खुद को. इसलिए स्त्रीत्व की रूढ़िगत, प्रचलित परिभाषाओं से अलग अपनी और नयी परिभाषाएं गढ़ी जा रही हैं स्त्रिओं के द्वारा. इसलिए ‘स्त्रीत्त्व क्या है’ शीर्षक कविता एक सहज परिभाषा बन जाती है नयी स्त्री की-

“काश! मेरा स्त्रीत्त्व
परिवार टूटने से बचाने के नाम पर
तुम्हारे गुनाहों को छुपाने में न होता”

भाषा की एक नयी दुनिया से परचित करा रही है आज की स्त्री-कविता. स्त्री-कविता किसी बाह्य घटाटोप को नहीं रचती, वह अपना लोहा आपसे नहीं मनवाती, वह कोई चुहल भी नहीं करती, न कोई रहस्य, बल्कि धीरे से आपके कान में कहती है अब बदल लो अपने पुराने मुहावरे. अब ये किसी काम के नहीं. वह साहित्य के पुराने, रुढ़िवादी, पितृसत्तात्मक मुहावरे को बहुत सार्थक ढंग से बदल रही है, ऐसे बदल रही है कि कविता का सच न खंडित हो. क्योंकि कविता न विवरण है, न ठोस सच्चाई, न उड़न छू कल्पना, न सपाटबयानी है कविता, कविता बाहर से आरोपित सच भी नहीं. वह इन सबके बीच कहीं, किसी कोंण पर घटित होती है.

संग्रह पढ़ते हुए मुझे अनेक अच्छी कवितायेँ मिलीं जिसको उद्धृत करने से नहीं रोक पाई खुद को. लेकिन संग्रह में दो-चार कमजोर कवितायेँ भी हैं. जैसा की अमूमन सभी संग्रहों में देखने को मिलता है. स्टैंड सही होने से हमेशा कविता अच्छी नहीं बनती. संग्रह की एक कविता है– ‘बाँझ  स्त्रियाँ’. इस कविता का स्टैंड बहुत ही अच्छा है, लेकिन यह कविता बदलाव की जल्दबाजी में दिखती है. इसलिए कविता बाँझ स्त्री के जीवन के तनाव, उसकी त्रासदी को पकड़ने के बजाय बाहर से किसी अविश्वसनीय सच का आरोपण करती है .
“बाँझ स्त्रियों का वेफ़िक्र अंदाज
बाकी स्त्रियों के लिए इर्ष्या का
विषय है”
आता है किसी बाँझ स्त्री में भी यह वे फ़िक्र अंदाज, लेकिन यह अंदाज आने तक एक कठिन घर्षण चलता रहता है उसके भीतर, स्वयं से और समाज से भी. यह अंदाज पाने में स्त्री के ज़िंदगी का बड़ा हिस्सा चुक जाता है.
कहा जाता है कि सच को इस तरह से कहा जाना चाहिए कि सौन्दर्य खंडित न हो .लेकिन यह भी जोड़ना चाहिए कि सौन्दर्य भी इस तरह रचा जाना चाहिए की सच भी खंडित न हो. ‘अधूरा घोंसला’ शीर्षक कविता में गौरैया के लिए काला विशेषण मुझे समझ में नहीं आया. यह भी हो सकता है मैंने ही ठीक से कविता को नहीं समझा.
इसी तरह ‘पुरुष दोस्तों की बीवियां’ शीर्षक कविता भी पूरी स्थिति को नहीं उकेर पाती है. जैसे –
“उनके पतिदेव जी लगाते हैं
पूरे शहर का दिन-भर चक्कर
तब जलता है
उनके घर का चूल्हा

पड़े-पड़े अपने विस्तर पर
वे सोचती रहती हैं
स्वामी का चल रहा होगा
कहीं पर रोमांस
मेरा चेहरा याद करके तो
वे बेहद कुढ़-भुन जाती हैं”


ये चंद बातें थीं, जो कविता को पढ़कर मैं समझ पायी. आपकी राय मेरी राय से ज़रूर अलग होगी यह उम्मीद करती हूँ. ये शब्द बस ! जरिया हैं आपसे किताब का परिचय करने के लिए. मैंने अपने हिस्से का सार ग्रहण किया. अपने हिस्से का सार ग्रहण करने के लिए डुबकी आपको लगानी होगी.
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अनुपम सिंह का जन्म उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में लबेदा नामक गाँव में हुआ .प्रारंभिक शिक्षा गाँव के ही सरकारी विद्यालय में हुयी .इन्होंने स्नातक,परास्नातक की डिग्री इलाहाबाद विश्वविद्यालय तथा पी-एच.डी.की डिग्री दिल्ली विश्वविद्यालय से प्राप्त किया .येकवितायेँ लिखती हैं. इनकी कवितायेँ अनेक पत्र-पत्रिकाओं में छप चुकी हैं
फोन- 9718427689

सहजि सहजि गुन रमैं : सौरभ राय

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कवि और अनुवादक सौरभ राय को आप पढ़ते आ रहें हैं.वह बेंगलुरु में रहते हैं. अपने नये कविता संग्रह ‘काल वैसाखी’ की तैयारी में हैं. कुछ कविताएँ इसी संग्रह से. इन कविताओं में महानगर की यांत्रिकता की भयावहता के बीच आपको राग-तत्व की उपस्थिति भी मिलेगी, छूट गए कस्बे की यादें भी और कविता इसे ही बचाती है.


सौरभ राय की कविताएँ                        

कथा-गाथा : तमाशा (अफसर अहमद) : शिव किशोर तिवारी

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अफसर अहमद बांग्ला भाषा के मशहूर कथाकार हैं. मृणाल सेन की फ़िल्म आमार भुबोनउनके ही उपन्यास धानज्योत्स्नापर आधारित है.  अफसर अहमद के २७  उपन्यास और १४ कथेतर कृतियाँ प्रकाशित हैं. उन्हें कहानी के लिए कथा अवार्डतथा अनुवाद के लिए साहित्य अकादेमीपुरस्कार आदि मिले हैं.

अफसर अहमद की बांग्ला कहानी ‘रंग’ का हिंदी अनुवाद शिव किशोर तिवारी ने ‘तमाशा’ शीर्षक से आपके लिए किया है.

कबूतरबाजी कला है और नशा भी है, इस अछूते विषय पर इस कहानी को पढ़ना अपने आपमें एक अनुभव है. बहुत ही शानदार अनुवाद शिव किशोर तिवारी ने किया है कथा प्रवाह की रक्षा करते हुए.
अब आप हैं और यह कहानी. 


 तमाशा                       
(अफसर अहमद की बांग्ला कहानी ‘रंग’ का हिंदी अनुवाद)

शिव किशोर तिवारी






निशिकांत
कबूतरों के झुंड में जिरिया मादा दिख नहीं रही थी. निशिकांत अंदर ही अंदर बड़ा बेचैन होने लगा. उसकी प्यारी कबूतरी ग़ायब हो गई? कल उड़ते-उड़ते खो गई?या किसी और की छत पर उतर गई?याकि आकाश में ही खो गई ? जिरिया आसमान में एक साथ पाँच-छ: घंटे तक उड़ सकती है. कभी-कभी आसमान में खो जाना भी चाहती है. तो क्या कल की उड़ान से जिरिया मादा नहीं लौटी?

आज की सुबह निशिकांत का जवान बेटा युगल कबूतरों को दाना खिला रहा था. लंबी-चौड़ी छत पर जहाँ दाना डाल रखा था वहाँ कबूतरों का झुंड आकर इकट्ठा हो गया था. एक को धकेलकर दूसरा घुस रहा था. झुंड में जैसे एक छंद का निर्माण हो रहा था. सब एक रंग के कबूतर नहीं थे, न एक नस्ल के. सभी नर नहीं थे. मादा भी थीं. अद्भुत चाल-ढाल, अद्भुत स्वभाव इनका! दाना खिलाने का काम पहले निशिकांत खुद करता था, बेटा बस देखता था. करीब साल भर से युगल ही खिला रहा है, निशिकांत सिर्फ देखता रहता है. बहू दोनों को राँधकर खिलाती है. उसका नाम वासंती है. वासंती दुतल्ले या तिनतल्ले की छत पर कम ही आती है. वह अपना समय नीचे के तल्ले पर चौके और शयनकक्ष के बीच बिताती है. कबूतरों के चक्कर में वह नहीं पड़ती. चक्कर में रहते हैं निशिकांत और युगल. युगल पक्का बाप का बेटा निकला है. कबूतरों का यह नशा निशिकांत को उसके पिता से मिला था और युगल को निशिकांत से. आजकल युगल इस नशे में मस्त है. निशिकांत अपने को अभिज्ञ कबूतर-नसेड़ी बताता है.

सुबह से लेकर शाम तक इन्हीं कबूतरों को लेकर बाप-बेटे का समय कटता है. सुबह उन्हें दाना खिलाना, पानी पिलाना, उसके बाद ताली बजाकर आसमान में उड़ाना. आसमान का रुख समझकर कबूतरों को उड़ाना होता है. सुबह दस बजे ही समझ लेना होगा कि आज आसमान क्या कह रहा है. आँधी-पानी की सम्भावना है?कबूतरों को तो पता नहीं चलेगा. ताली बजाने से आकाश में उड़ना है, बस इतना जानते हैं वे. और जिस किस्म का कबूतर जितनी देर तक आकाश में उड़ सकता है, उतनी देर तक खुलकर आनंदपूर्वक उड़ता है. वह सिर्फ़ ताली समझता है, बजते ही उड़ पड़ता है. और कुछ नहीं जानता. किस आकाश में बादल आने वाले हैं, किसमें आँधी – यह सब उसे नहीं पता. यह सब जानना होता है निशिकांत और युगल को. आसमान का हाल देखकर ताली बजानी है, कबूतरों को उड़ाना है. मौसम-विज्ञान का जानकार होना होगा. आसमान का रंग ही बता देगा कि किस समय कहाँ क्या होगा. उसे समझकर ताली बजाओ, कबूतर उड़ाओ.

कबूतर तो कुछ समझते नहीं. ताली की आवाज मिलते ही उड़ जायेंगे. आकाश में खूब ऊँचाई पर जाकर उड़ेंगे. जिसकी जितनी देर उड़ने की सामर्थ्य होगी वह उतनी देर तक उड़ेगा ही. मर्जी मुताबिक उनको उतारा नहीं जा सकता. उनका आनंद उड़ने में ही है. जब दम खतम हो जाता है तभी उतरते हैं. नस्ल के हिसाब से कबूतरों की अलग-अलग उड़ने की मियाद होती है. जितनी अच्छी नस्ल होगी उतनी ही लंबी उड़ान की मियाद होगी. उसी अनुपात में उनका मूल्य होता है. किसी कबूतर का दाम हजार, किसी का पाँच हजार. कबूतर ज्यादा हो जायँ तो निशिकांत बेच भी लेता है. कबूतरों के नसेड़ी कबूतर की जाति पहचानते हैं. अच्छी नस्ल का कबूतर मिल जाय तो दाम देने से पीछे नहीं हटते.

फिर आती है कबूतरबाजी. कबूतरों के शौकीन अपने सर्वश्रेष्ठ कबूतरों को लेकर एक जगह इकट्ठा होते हैं. कबूतरों को उड़ाते हैं. एक रेफरी होता है. जिसका कबूतर सबसे अधिक देर तक उड़े उसे पुरस्कार मिलता है. ऐसे पाँच पुरस्कार  पाने का अनुभव निशिकांत को है.

इन कबूतरों के साथ ही बाप-बेटे का सारा समय छत पर बीतता है. फिर रात को खा-पीकर वे दुतल्ले पर चढ़ जाते हैं और वहाँ बरामदे में लेटे-लेटे दोनों के बीच कबूतर-चर्चा होती है. निशिकांत बेटे को कबूतरों की तमाम कहानियाँ सुनाता है. किस गाँव में कौन कितना बड़ा कबूतरों का शौकीन था, उन सबके जीवन-वृत्त पर बात होती है. निशिकांत अपने अनेक अनुभव सुनाता है. फिर पास-पास पड़े-पड़े दोनों को नींद आ जाती है.

निशिकांत के पुरखे जमींदार थे. अब भी कोई तीस बीघे धनखड़ है. बटाईदार लोग खेती करते हैं. जितना धान उनसे मिलता है उससे ही तीन प्राणियों का काम आराम से चल जाता है. वह, युगल और वासंती यही तीन जनों का परिवार है. धान बेचकर किराने का सामान आता है; साड़ी, कुर्ता, गमछा आता है. निशिकांत इन चक्करों में ज्यादा नहीं पड़ता. काम चल जाय, बस.

लेकिन जिरिया मादा कहाँ गई ?युगल को पूछे क्या?युगल दाना छींट ही रहा है- चावल और मसूर की दाल. “जिरिया मादा नहीं है, तुझे पता नहीं चला ?

युगल ने गर्दन मोड़ी. फिर दाने का बरतन लिये-लिये खड़ा हुआ. “पीछे छप्पर के नीचे कबूतरखाने में दुबकी रहती है.”‘ वह कबूतरखाने से बाहर खींच लाया कबूतरी को और झुंड में छोड़ दिया.

निशिकांत के चेहरे पर हँसी खिल गई. वह कबूतरों का खाना देखता रहा. सुरमा नर-मादा, कालदुमा नर-मादा, गलाधन्ना नर-मादा, खैरा नर-माता, पेशे, गुन्नर, जिरिया, दावाश नर और मादा – सभी दाना चुग रहे हैं. सबके जोड़े हैं. बच्चे भी हैं. जिरिया मादा निशिकांत की बड़ी प्रिय है. झुंड में पहले उसी को ढूँढ़ता है. उड़ान से जब तक वापस नहीं आती, निशिकांत को चैन नहीं मिलता. उसकी नींद कबूतरों की आवाज से खुलती है. इन पक्षियों की नींद थोड़ी है, खूब सवेरे उठकर आवाज करते हैं. इनकी बातें करते-करते बाप-बेटा सोते हैं और इन्हीं की आवाज से जगते हैं. फिर सारा दिन इन्हीं के पीछे पागल.
(अफसर अहमद)

कबूतर जितनी देर आसमान में रहेंगे, उतनी देर तक वे उनका उड़ना देखेंगे. निशिकांत सिर उठाकर आकाश की और नहीं देखता. एक बरतन में पानी डालकर छत पर रख लेता है. उसमें आकाश का प्रतिबिम्ब बनता है और कबूतर उड़ते हुए साफ दिखते हैं. बाप-बेटा बर्तन के पानी में उड़ते कबूतरों को देखते रहते हैं. चार-पाँच घंटे किस तरह कट जाते हैं पता ही नहीं चलता. कैसा नशा-सा छाया रहता है. बारी-बारी वे नहा– धोकर, खा-पीकर वापस आते हैं. कोई कबूतर घंटे दो घंटे में आसमान से उतर आता है. कोई-कोई कबूतर पाँच-छ: घंटे तक उड़ते रहते हैं. दिन ढलकर जब धूसर हो चुका होता है, कुछ कबूतर तब लौटते हैं. उनको एक बार और दाना दिया जाता है, पानी पिलाया जाता है. फिर अँधेरा होने के पहले उन्हें कबूतरखाने में बंद करना होता है.

बहू, वासंती, की कबूतरों में दिलचस्पी नहीं है. कोई मतलब नहीं रखती. खाना पकाती है, खाती-खिलाती है और सोती है. शादी को तीन साल हो गये पर बेटा-बेटी कुछ पैदा नहीं कर पाई. बाप-बेटे से प्राय: निपूती, बाँझ जैसे अपशब्द सुनती है वासंती. निशिकांत सोचता है, सच तो, तीन साल में माँ नहीं बन सकी !
युगल बोला, “बापू, आज उड़ाओगे क्या? तुम्हारा आसमान क्या कहता है?”

निशिकांत ने आकाश की और मुँह उठाकर देखा, “देखें”. किंतु तत्काल मौसम का अनुमान नहीं कर पाया. तब उसने पानी के बरतन को उठाकर छत के बीच में रखा. पानी में आकाश को बेहतर समझ पाता है निशिकांत. कबूतरों की जिन्दगी का सवाल है. आँधी-पानी की संभावना हो तो कबूतरों को उड़ाना ठीक नहीं होगा. आँधी-पानी आ गया तो एक नहीं बचेगा. पंद्रह साल पहले निशिकांत अपने कबूतर इसी तरह खो बैठा था. उसके बाद एक-एक करके बढ़ाने पड़े. नर, मादा, बच्चे सब मिलाकर इस समय सैंतीस कबूतर हैं. हर साल दो-चार बिक जाते हैं.

निशिकांत पानी में आसमान को देख रहा है. समझने की कोशिश कर रहा है. हवा-पानी की जानकारी कर रहा है. जेठ का सत्रहवाँ दिन है लेकिन पानी नहीं बरसा. सूखे में गाँव तप रहा है. तालाब-पोखर सूख गये हैं. किसान धान का बेहन नहीं डाल पाये. लोग बारिश के लिए तड़प रहे हैं. हालाँकि निशिकांत बारिश नहीं चाहता क्योंकि कबूतर उड़ाना बंद करना पड़ेगा. कबूतर न उड़ा पाया तो अच्छा नहीं लगता उसे. वह आकाश का रुख समझने की कोशिश जारी रखता है. जरा भी भूल की गुंजाइश नहीं है.
युगल ने पूछा, “क्या समझ में आया, बापू?”
“देख रहा हूँ”.
बाप मौसम का जानकार है. उसकी बात अच्छर-अच्छर सच होती है. युगल बाप पर भरोसा करता है. बावन साल की उम्र, इतने सालों से कबूतर उड़ाता आ रहा है, आकाश देखने का कितना अनुभव है, उससे गलती हो सकती है भला?युगल भी आकाश देखना सीख रहा है.
निशिकांत ने मुँह उठाया.
युगल ने पूछा, आँधी-पानी आ सकता है?”
“ना, कोई लच्छन नहीं”.
“तो उड़ाया जाय”.
“उड़ा”.
दाना-पानी के बाद सभी कबूतर छत की कोर्निस, जिसके नीचे कबूतरखाना था, पर बैठे थे. युगल ने ताली बजा दी, निशिकांत ने भी बजाई. सारे कबूतर आसमान की और उड़ चले. सिर्फ बच्चे, जिनके डैने अभी तैयार नहीं हुए, नीचे रह गये. अच्छी नस्ल वाले कबूतर कुछ ही क्षणों में आसमान में पहुँच गये. बहुत ऊँचाई पर. बहुत दूर. डैनों पर धूप गिन्नी-सी चमकती है.

निशिकांत बरतन के पानी में कबूतरों का उड़ना देख रहा है. युगल भी आकर पास बैठ गया है, बरतन के पानी में कबूतरों का उड़ना देख रहा है. दोनों मगन हैं, पानी से आँख नहीं हटती. कबूतर जिस घर के होते हैं उसकी छत की सीध में उड़ते हैं. इससे उतरने में सुविधा होती है.

बाप-बेटा पसीने से तर-बतर हैं. बाप की उम्र हुई, लगातार देर तक धूप में नहीं बैठ पाता. बीच-बीच में छप्पर की छाँव में चला जाता है. थोड़ी देर आराम करके फिर पानी के बरतन के पास आ बैठता है. युगल भी दो- चार बार आराम करेगा. फिर पानी में देखते हुए समय बीतेगा.

निशिकांत नीचे उतरा. तमाखू की लत है. गुड़ाखू का मंजन करता है. बाप, बेटा, बहू सभी तमाखू वाला यह मंजन करते हैं. एक डिब्बा खरीदो तो पाँच-सात दिन चलता है बस. नीचे उतरकर निशिकांत को रसोई के आले पर गुड़ाखू का डिब्बा नहीं मिला. कहाँ रखा है यह बताने को युगल की बहू भी आसपास नहीं है. कोई सुनगुन भी नहीं मिल रहा है.ऐसे समय निशिकांत को बड़ा डर लगता है. कहीं वासंती अपने कमरे के भीतर गले में रस्सी लगाकर झूल तो नहीं गई! निशिकांत की कल्पना में यह डरावना ख्याल कभी-कभी आता है. भय होता है. घबराहट होती है. क्यों गले में फाँसी लगायेगी, इसका कार्य-कारण संबंध निशिकांत नहीं बिठा पाता. लोग तो यूँ ही, बिला वजह भी फाँसी लगा लेते हैं. कोई कारण पता नहीं चलता. इसके अलावा वासंती को रात-दिन निपूती और बाँझ जैसी गालियाँ पड़ती हैं. इसी तरह एक दिन निशिकांत ने अपनी औरत को कमरे की धरन से झूलते देखा था. निशिकांत को उसके फाँसी लगाने का कारण भी समझ में नहीं आया.ऐसे ही एक दिन स्नान करके, खाना पकाने का काम बाकी रखकर फाँसी लगा ली. कोई पाँच साल पहले की बात है. किस कारण? निशिकांत को अब तक इस सवाल का जवाब नहीं मिला.

इसलिए इस वक्त चुपचाप चारों और कहीं वासंती नहीं दिखी तो निशिकांत के मन में उसके फाँसी लगा लेने का ख्याल आया. ऊँची आवाज में बुलाने में डर लगता है. युगल को भी नहीं बुला सकता, वह उड़ते कबूतरों की निगरानी पर है. वासंती की ओर से कोई आवाज नहीं. रसोई में खाना बनाने की तैयारी करके रख गई है. थोड़ी दैर में खाना बनाने बैठेगी. पुकारने में डर लगता है, कहीं उत्तर न मिला तो?फाँसी लगाया आदमी उत्तर कैस देगा?

अतएव निशिकांत थोड़ी देर तक रसोई के दालान मं चुपचाप बैठा रहा. सुनगुन पाने की उम्मीद में इंतजार करता रहा. उसके बाद दबे पाँव दालान से उतरकर वासंती के कमरे की और बढ़ा. दरवाजा अधखुला था. निशिकांत आहिस्ता से कमरे में दाखिल होने लगा. साथ-साथ उसने अपनी जीभ काटी, क्योंकि उस वक्त वासंती नहाकर कपड़े बदल रही थी.नग्न अवस्था में साया पहन रही थी. तभी निशिकांत ने अंदर झाँका था.


युगल
बाप से मौसम जानने की विद्या कैसे सीखे युगल यही सोचता रहता है. आकाश के रंग मैं आते बदलाव पकड़ने लायक तो बनना पड़ेगा. कई घंटे पहले ही आँधी-पानी का अनुमान कर लिया करेगा.

गाँव के लोग बार-बार बापू के पास आ रहे हैं. सबकी यही जिज्ञासा है कि बरसात कब शुरू होगी. बापू सबको निराश करता रहा है. और सचमुच अभी तक पानी नहीं आया. आकाश मैं पानी नहीं होगा तो बापू कहाँ से ला देगा?लेकिन गाँव के लोगों को विश्वास दिलाना कठिन है. बापू झूठ तो नहीं बोल सकता, गो कि झूठ बोले देने से गाँव वालों को आश्वस्ति अनुभव होती. हृदय में आशा बनी रहती. लेकिन बापू को झूठ बोलना अच्छा नहीं लगता. आकाश कह रहा है इस समय बरसात नहीं होगी तो गाँववालों को यही बताना पड़ेगा. गाँव के लोग सूखे में भुन रहे हैं, खेती नहीं कर पा रहे. आकाश की और हाथ उठाकर वर्षा की भिक्षा माँगते हैं, पूजा करते हैं, मेढकों का ब्याह रचाते हैं.

कबूतरों का ज्ञान युगल को पिता से मिला है. और सीखना बाकी है. डरता है बाप कहीं अचानक मर न जाय. फिर तो पूरा ज्ञान नहीं मिल सकेगा. मौसम जाने की विद्या भी न सीखी जा सकेगी. कहते हैं आकाश का रंग आँधी-पानी की खबर देता है. और हवा की दिशा बताता है.

पिछले साल की बात है. कबूतर उड़ा दिये थे. बापू और वह खुद बरतन के पानी में कोई घंटै भर उनका उड़ना देखते रहे. पानी में कबूतरों का उड़ना और आसमान का हाल देखते देखते बापू को पता चल गया कि दो घंटे के अंदर ही आँधी-पानी आयेगा. तत्काल कबूतरों को उतारना पड़ेगा. लेकिन इतनी दूरी से उतारें कैसे? कबूतर पास हों तो दाना डालकर बुलाया जा सकता है. पर दूर के कबूतर तो दाना डालना देख नहीं पायेंगे. बापू कैसे उतारे इन कबूतरों को?

कबूतरखाने में कम दूर तक उड़ने वाले कबूतर थे. उनको निकालकर आसमान में उड़ा दिया. ये कबूतर दूर तक नहीं उड़ सकते, उड़कर आसपास चक्कर काटने लगे. अब उनको दिखाकर दाना डालना शुरू किया. दूर उड़ने वाले कबूतर पास उड़ने वालों को देख पा रहे थे. पास वाले कबूतर जब दाने के लोभ में उतरने लगेंगे तो दूर वाले भी चाहे कुछ भी समझकर उनके पीछे-पीछे उतर आये. इस तरह बापू ने समय रहते कबूतरों को उतार लिया. यह एक नई चीज युगल ने सीखी. परंतु मौसम की समझ न हो तो उतारने की विद्या किस काम की?कम से कम दो घंटे पहले हवा-पानी का अंदाजा हो जाना चाहिए. कभी-कभी तो पाँच मिनट पहले तक पता नहीं चलता, हवा-पानी पाँच मिनट बाद ही आ धमकते हैं. वृष्टि का अंदाजा बहुत पहले लगा पाने के लिए मौसम विशारद होना होगा. युगल बाप से यह विद्या सीखना चाहता है. कहीं अचानक मर न जाय. वैसे ही सींकिया और बीमार- सा है. ज्यादा खा-पी नहीं पाता. साँस का रोग है, आँव पड़ा रहता है. हड़ियल शरीर. डर लगता है, कब टें बोल जाय !

वासंती उसकी बहू होने के हक से इस घर में है. रहे,रहेगी ही. लेकिन दिल में इस बात का बड़ा मलाल है कि एक बच्चा नहीं जन पाई. एक बेटे की हसरत है. उसकी मृयु के बाद उसका बेटा कबूतरों के झुंड को पालेगा. कबूतर-नसेड़ी बनेगा. मौसम की विद्या सीखेगा. कबूतरों की देखभाल कर पायेगा. अंडों से बच्चे निकाल पायेगा. युगल के यही सब सपने हैं. उसके पिता के भी. तभी बाप-बेटा वासन्ती को निपूती,बाँझ आदि का ताना देते रहते हैं. वासंती मुँह बंद रखकर सुन लेती है, कुछ बोलती नहीं. बड़ी शात स्वभाव की स्त्री है. हजार बात सुनके भी चूँ नहीं करती. तरुणी है, सुंदर है. लेकिन कबूतरों के नशे से उसे लेना-देना नहीं है. पकाती है और खिलाती-खाती है. और सोती है, जबर्दस्त सोनेवाली है. काफी समय से युगल की बीवी के साथ कोई बात नहीं हुई. वासंती कबूतरों के बारे में कोई बात कर नहीं पाती, इसलिए युगल से उसकी कोई बात नहीं होती. कितने दिनों से युगल ने उसकी तरफ मुँह उठाकर देखा भी नहीं!  देखने का समय नहीं युगल के पास, न इच्छा है. गमछा चाहिये तो खुद उठा लाता है, बीवी से नहीं माँगता. दाँत माजने के लिए गुड़ाखू का डब्बा आले से खुद उठा लाता. वैसे ही सिर में और बदन में खुद उठाकर तेल की मालिश करता.

वासंती को भी उससे कोई माँग या चाहना नहीं है. वह चुपचाप देखती रहती है बस. कबूतर के नशे में विघ्न न पड़े इसलिए युगल भी उसकी ओर खास ध्यान नहीं देता. वासंती जो चाहे करे.
युगल ने देखा कि पिता दाँतों में गुड़ाखू घिसने और मुँह धोने के बाद छत पर लौट आये हैं.
निशिकांत बोला, “जा, तंबाकू से दाँत माँज आ.“
पानी के बरतन के पास से हट आया युगल. फिर नीचे उतरने लगा. तब तक वासंती पाकघर के दालान में खाना बनाना शुरू कर चुकी है. नहा आई है, पीठ पर खुले, बिखरे बाल.पास में मुहल्ले का सुंदर बैठा है. वासंती ने उसे बैठने के लिए पीढ़ा दे दिया है. सुंदर वासंती के साथ बातें कर रहा है. प्राय: ऐसे ही गप करने आता है. मुहल्ले का रहनेवाला और युगल का हमउम्र है. बड़ा मिलनसार लड़का है. बीच-बीच में आता है. वासंती के साथ गप मार जाता है. सुंदर बहुरूपिया है. रोज अलग-अलग रूप बनाकर बाजार-बाजार घूमता है. भिक्षा माँगता है.

युगल ने सुंदर की बगल से निकलकर आले से गुड़ाखू का डब्बा उठाया. उसके बाद दुआरे की ओर उतरकर कोठार की छाँव में जा बैठा. गुड़ाखू निकालकर मंजन करने लगा.
सुंदर ने आवाज दी, “क्यों युगल, पानी बरसेगा ?
युगल ने जवाब नहीं दिया.
सुंदर ही फिर बोला, “तो बारिश की उम्मीद नहीं है.“
युगल कुछ नहीं बोला.
वासंती और सुंदर अपने वार्तालाप की और लौटे. एक-दूसरों की बातों पर बीच-बीच में हँस रहे थे.
युगल बीच-बीच में आसमान की और सिर उठाकर कबूतरों का उड़ना देख रहा है.

दाँतों में गड़ाखू मलने से माथे में एक अजीब झिमझिम होती है. बड़ी अच्छी लगती है. नशे में डूबकर चुपचाप बैठे रहना और भी अच्छा लगता है. वासंती और सुंदर बातें कर रहे हैं पर उनके पास जाने का मन नहीं होता. सुंदर की बात का जवाब नहीं दिया, इसलिए सुंदर उससे और बात नहीं करना चाहेगा. जिन्हें बात करनी हैं करें. सुंदर और वासंती आपस में बातें कर रहे हैं, करें. बस उसे नहीं बात करनी. पानी नहीं बरसा, खेती नहीं हो पा रही है इससे उसे मतलब नहीं है. नइहाटी बाजार में किस चीज़ के भाव कम हो गये हैं इससे भी उसे कोई मतलब नहीं है.
बात करते-करते सुंदर और वासंती हँसते हैं. हँसें.





वासंती
दूसरे दिन सुबह वासंती को ख्याल आया कि बहुत दिनों से बारिश नहीं हुई. आज होगी क्या? वासंती को कैसे पता होगा?वह क्या मौसम-विशारद है? वह तो उसका ससुर है. लेकिन उसका बदन जल रहा है. देह में अशान्ति है, आराम नहीं मालूम होता. हवा तप रही है. पेड़-पौधे झुलस रहे हैं. बारिश की बड़ी जरूरत है. वासंती मन ही मन वर्षा के लिए प्रार्थना करती है.

सुबह उसने बाप-बेटे के लिए चाय-रोटी तैयार कर दी थी. खाकर दोनों छत पर चले गये. वासंती स्नान करने के लिए आकुल है, बदन ठंडा होगा. सारी रात पसीने से तरबतर शरीर को पानी की ठंडक की हसरत है. देह का हाल देह ही जानती है. बाप-बेटा सारा वक्त एक साथ काटते हैं. रात दुतल्ले के बरामदे में एक साथ रहते हैं. वासंती अकेली नीचे वाले कमरे में रहती है. उसे निपूती, बाँझ क्यों कहते हैं?  उसका मर्द कभी साथ सोता है?बीवी के साथ सोना तो भूल ही चुका है. कबूतरबाजी के नशे में रहता है. इसी नशे में बहुत कुछ भूला रह सकता है. पर वासंती? उसका तो नहीं चलता! उसके अंदर का लय-ताल तो बिगड़ता जा रहा है!दिन, रात, महीने, साल बीत रहे हैं. जीवन की लय नहीं मिलती.

पुखरी में पानी कम हो गया है. वासंती उसमें उतरती है. पानी कम है, पूरा बदन भीग जाय इसके लिए सिकुड़कर बैठना होता है. इस समय शरीर पानी की ढंडक से जुड़ा रहा है. हाट-बाजार जाना नहीं, मेला घूमना होता नहीं. उसका काम है दो कबूतर-नसेड़ियों को राँधकर खिलाना. दिन-महीने बीतते हैं, वासंती निपूती वगैरह की गालियाँ सुनती रहती है. उसका क्या दोष है?कोई भी दोष नहीं!मर्द गबरू जवान है, फिर भी सब कुछ भूला रहता है.

वासंती की एक सलेही तक नहीं है जिसके साथ बातें करके समय काटे. उनके घर से लगी कई पोखरियाँ, बगीचे, पेड़-पौधे हैं, पर कोई घर नहीं है. इसलिए लोगों का आना-जाना कम है. फेरीवाले ढूँढ़-ढाँढ़कर आते हैं कभी. दो महीने पहले ‘गाजन’ (शिव की चैत्र पूजा) के बाजों की आवाज सुनी थी, पर शिवभक्तों के जुलूस का रास्ता घर से काफी दूर था.
पर सुंदर आता है. आज भी जरूर आयेगा. आम तौर से तीसरे पहर बहुरूपिया सजकर भिक्षाटन के लिए निकलता था. सुबह के वक्त आता है, आयेगा आज भी. आयेगा? आ भी सकता है.
स्नान करके घर के सहन पर पहुँची तो सुंदर वहाँ नहीं दिखा. तो और थोड़ी देर बाद आयेगा. इस वक्त कोठार की छाँव में बैठे बाप-बेटा बातें कर रहे थे. कबूतरों की बातें. आज कबूतर नहीं उड़ाये इन लोगों ने?क्यों?वासंती नहीं जानती. वह कपड़े बदलने घर के अंदर चली गई.

वासंती रस्सी पर गीले कपड़े डालने बाहर आई तो उसने देखा कि एक झुंड कबूतर सहन में दाना चुग रहे हैं. ससुर और पति उन्हें दाना डाल रहे हैं. इसका मतलब आज कबूतर नहीं उड़ायेंगे. बल्कि कबूतरों को छत से उतार लाए हैं ताकि आदतन उड़ न जायँ. कबूतर क्यों नहीं उड़ाये? आसमान तो साफ है. तो क्या आज बारिश आने वाली है?ससुर को पूछे क्या?वे जानकार हैं, पहले पता चल गया होगा. किंतु ससुर को पूछ सके ऐसा व्यवहार दोनों के बीच कभी रहा नहीं. पूछने से ससुर ही पूछते हैं और वह जवाब देती है. कभी पति हुक्म करते हैं वह तामील करती है. ऐसे ही चले, ठीक है. अपने आप में मगन रहना. इसी मग्नता में वासंती ने कल्पना कर डाली कि युगल की पत्नी रहकर भी यदि वह सुंदर के पुत्र की माँ बने ?अत्यंत कल्पनिक एक गोपन भाव. बात सोचकर वासंती मन ही मन हँसती है. लेकिन अभी कोई आकर हँसने का कारण पूछे तो बता नहीं पायेगी. किसी हाल मैं नहीं. कोई काट डाले तब भी नहीं. यह तो बस कल्पना है, कल्पना ही रहेगी.

सुंदर आता है, बोलता-बतियाता है, बस इतना ही. उसे सुंदर का आना भला लगता है. सुंदर के आने-जाने और बोलने-बतियाने के दौरान यह ख्याल मन में आ गया. किंतु सुंदर को कभी नहीं बोल पायेगी. वह स्त्री है, उसके लिए मुँह खोलकर यह सब बोलना संभव है?कहते हैं औरतों की चाहे छाती फट जाय, पर बोल नहीं फूटते.

वासंती रसोई के लिए बैठी. बाप-बेटा कबूतरों को खिला रहे हैं, उनकी देखभाल कर रहे हैं. उन दोनों की आपसी बातचीत से वासंती को पता चला कि वृष्टि की संभावना है, इसलिए आज कबूतर नहीं उड़ा रहे हैं. सुनकर उमंग से भर उठी वासंती. कोई जेठानी-देवरानी है नहीं जिसे चिल्लाकर यह खुशखबरी दे. अड़ोस-पड़ोस भी नहीं. लेकिन उसका मन हुलास से भर गया. बारिश होगी, उसके ससुर का अंदाजा कभी गलत नहीं होता. आहा!जान में जान आयेगी. धरती शीतल होगी. यह बात वह पहले जान चुकी है तो दूसरों को बता पाने से जी ठंडा होता. ससुर आसमान तकते रहते हैं, उनका बारिश का अंदाजा पक्का होता है. उस दिन गाँववाले पूछने आये थे तो ससुर नहीं कहा था बारिश नहीं होगी. आज आते तो खुशखबरी मिलती.

सुंदर को तो बहुत पहले आना था, अभी तक आया क्यों नहीं? या आज आयेगा ही नहीं? भेस बनाकर कहीं दूर तो नहीं जा रहा है आज? हो सकता है. तब तो वासंती से मिले बिना ही चला जाय शायद. यह सोचकर वासंती को कष्ट हुआ, मन खराब हो गया. लगता है आज नहीं आयेगा. नहीं आयेगा माने आज न उसके साथ मुलाकात होगी न बातचीत. कभी-कभी सुबह नहीं आ पाता तो सजकर निकलते समय मिलकर जाता है. तब उसके बदन पर बहुरुपिये की सज्जा होती है. सजकर अलग ही दिखता है. किन्तु पोशाक के नीचे वही सुंदर होता है, बात करता है, हँसी-मजाक करता है. वासंती भी हँसते हुए उसे विदा करती है. कभी आँचल की खूँट खोलकर एक अठन्नी उसके भिक्षापात्र में डाल देती है. कभी देवी-देवता का भेस बनाकर आता है तो पाँव छूकर प्रणाम करती है.

आज सुंदर कहीं जाने वाला है ?  जाने के पहले उससे मिलकर जायेगा?  आज क्या भेस बनाया है वह भी देखती. सुंदर कुँवारा है. बहुरूपिया है, इसलिए कोई अपनी बेटी उसे देना नहीं चाहता. सुंदर को शादी की चाहना है परंतु वह कलाकार है, भाँति-भाँति के भेस बनाना भी छोड़ नहीं सकता.
सहन में कबूतर चर रहे हैं. बाप-बेटा कोठार की छाँव में खुसुर-पुसुर कर रहे हैं. बीच में दाँतों में गुड़ाखू लगाते हैं. सूरज तप रहा है. धूप मानो आग की लपटें फेंक रही है. कोई सोच भी सकता है कि आज बारिश होगी? लेकिन ससुर ने कहा है बारिश होगी तो जरूर होगी.

दोनों को देखकर वासंती को हँसी आती है. मानो मुर्दा आदमी हों. संसार से कोई संबंध नहीं. गाँव से, मुहल्ले से, किसी से मतलब नहीं, मेलजोल नहीं. हाट-बाजार या कहीं और जाना नहीं. जबकि वासंती को हाट-बाजार घूमने का खूब मन होता है. पर जा नहीं सकती है,घर के भीतर रहने वाली बहू है. गरीब घर की बहू होती तो आम तोड़कर बाजार में बेचने जाती, दस-पाँच रुपये आते, बाजार घूमने का मौका अलग. जामुन तोड़कर बाजार में बिक्री करने जाती, घूमना-फिरना होता. या चावल उधार माँगने किसी पड़ोसन के यहाँ जाती तो कहीं किसी घर में उसकी एक सखी होती. वह सखी कभी-कभी उसको मिलने आती, अच्छा समय कट जाता.

उसकी शादी के दो साल पहले उसकी सास गले में फंदा लगाकर मरी थी. उसे भी तकलीफें हैं, दु:ख हैं, अकेलापन है, लेकिन वह मरना नहीं चाहती. जीने की बड़ी इच्छा है.


उपसंहार
आज सुंदर को रूप साजकर शहर की तरफ जाना है, इसलिए सुबह वासंती भाभी के साथ गपशप करना नहीं हो पाया. आज उसने हनुमान का रूप धरा है. भेस बनाने में समय लगा. सजने में समय लगेगा इसलिए समय से पहले सजना शुरू कर दिया था. हनुमान का भेस उसने वासंती भाभी को अभी तक नहीं दिखाया है. उसे लालसा हुई निकलते वक्त एक बार वासंती को यह रूप दिखाता जाय. कूद-फाँदकर, तमाशा करके दिखाये. उससे वासंती जरूर खुश होगी. और फिर भाभी की वह हँसी ! खिलखिलाकर, लोट-लोटकर हँसती है. उस हँसी के लालच में ही जाने का मन होता है. वासंती भाभी के सामने तमाशा करना उसे भाता है, उसे हँसाना अच्छा लगता है. वासंती को भी अच्छा लगता होगा. हँसते हुए वासंती बड़ी अच्छी लगती है, उसका सौंदर्य मानो खुल जाता है. और भी सुंदर लगने लगती है.

शहर पहुँचने में देर हो जायेगी, फिर भी सुंदर वासंती को तमाशा दिखाने का लोभ संवरण नहीं कर पाया. हनुमान का भेस बनाने में कपड़े कम लगते हैं पर कालिख-वालिख बहुत लगानी पड़ती है. इसके अलावा पूँछ को लेकर हमेशा मुश्किल होती है. पूँछ को कमर से कसकर बाँधना होता है और याद रखना होता है कि वह भी शरीर का अंग है. इस सज्जा के ऊपर कंधे पर झोला लेकर चलना है, हाथ में भिक्षापात्र. जो कुछ मिल जाता है उससे माँ-बटे का परिवार चल जाता है. बहू लाने से उसका भी खर्चा चल जायेगा.

चुपके-चुपके सुंदर वासंती भाभी के बगीचे में घुसा. पिछवाड़े से दाखिल होगा, क्योंकि भाभी को चौंकाना है. हू हू की आवाज के साथ उछल-कूद करेगा, वासंती भाभी हँस-हँसकर दुहरी हो जायेगा. सुंदर के लिए यह दृश्य बड़ा आनंददायक होगा.

अभी जरूर खाना पका ही रहा होगी. वह पहले शायद रसोई की छत पर कूद-फाँद, तमाशा करेगा. वासंती भाभी दुआरे निकल आयेगी. फिर क्या होगा?

रसोई की दीवार से लगा एक नारियल का पेड़ था. हनुमान बना सुंदर उस पर चढ़ गया. वहाँ से टिन की छत पर कूद गया. जोर की आवाज हुई. फिर टिन की छत पर कूदने लगा. साथ-साथ मुँह से हू-हू की आवाज निकालने लगा. वहाँ से सहन में कूद आया जहाँ कबूतरों का झुंड था.
डरकर कबूतर उड़ गये और देखते-देखते आकाश में बहुत ऊँचाई तक पहुँच गये.
रसोई छोड़कर वासंती बाहर आ गई. और ही ही हँसती दुहरी हो गई. साड़ी का आँचल धूल में लोटने लगा.
उधर बाप-बेटा छाती पीट रहे थे. उनके सारे कबूतर उड़ गये, अभी पानी आयेगा, तेज हवा चलेगी. उनका छाती पीटना और रोना-धोना सुंदर और वासंती के कानों में नहीं गया. वासंती ने न कुछ देखा न सुना.  रंग जम रहा है तो सच्चे कलाकार की तरह सुंदर अपने तमाशे में लीन हो रहा, कहीं और उसका ध्यान ही नहीं गया. गुणग्राही दर्शक की तरह वासंती आनंद-विभोर है. कबूतर उड़ गये, अभी आँधीपानी आयेगा और वे नष्ट हो जायेंगे, इस यथार्थ की चेतना से वे दूर थे. सुंदर हँस रहा है, वासंती हँसकर लोट-पोट हो रही है.

सुंदर हनुमान की तरह कूद रहा है, वासंती हँसते-हँसते लोट रही है, यह दृश्य देर तक चला. देर तक माने जब तक बादल नहीं आ गये और बारिश के पूरे आसार नहीं हुए. हवा रुक-सी गई. निशिकांत और युगल छत की और भागे. वहाँ कबूतरों को उतारने की नाकाम कोशिश करने लगे.
दोनों रो रहे हैं, छाती पीट रहे हैं.

जैसे ही वासंती को समझ में आया कि कबूतर उड़ गये, बाप-बेटा छत पर छाती कूट रहे हैं, कबूतरों को उतारने के असफल प्रयास कर रहे हैं और आसमान में बादल छा रहे हैं, वैसे ही उसकी हँसी बंद हो गई. उसकी हँसी क्यों थम गई यह समझने के क्रम में सुंदर को समझ में आया कि उसने तमाशा करके कबूतरों को उड़ा दिया है. कबूतर नीचे थे इसका मतलब आज उड़ाने की बात नहीं थी, निशिकांत को आँधी-पानी के आने का अनुमान रहा होगा. उसकी वजह से यह घटना घटी है. सुंदर को जैसे ही यह सब समझ में आया, वह तेजी से कूँदते-फाँदते सहन से छूटा.

वासंती हनुमान को रोककर प्रणाम करना चाहती थी, पर इसका मौका नहीं मिला.
तभी आँधी-पानी आ गया और वासंती मगन होकर बारिश में भीगने लगी.

_____________________


शिव किशोर तिवारी
२००७ में भारतीय प्रशासनिक सेवा से निवृत्त.
हिंदीअसमिया, बांग्ला, संस्कृतअंग्रेजीसिलहटी और भोजपुरी आदि भाषाओँ से अनुवाद और लेखन.


tewarisk@yahoocom 

अन्यत्र : मुम्बई : संदीप नाईक

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कभी अली सरदार जाफ़री ने बम्बई पर पर अपनी एक नज़्म में कहा था -
“एक जन्नत जहन्नम की आग़ोश में
या इसे यूँ कहूँ
एक दोज़ख़ है फ़िरदौस की गोद में”

आज ‘बम्बई’ मुम्बई है पर आज भी यह तमाम नरकों का स्वर्ग है. संदीप नईक ने अपने शब्दों में इसके पांच चित्र खींचें हैं. संवेदनशील और मार्मिक. आपके लिए.  





मुम्बई              

संदीप नाईक




(एक)
रेंगने से जीवन निराकार होता है


दुख वहाँ अमरबेल की तरह हर दीवार पर रेंग रहा था, सुख किसी घण्टी की तरह घर में बजता और चंद सेकेंड में बजकर खत्म हो जाता, दुख के आईनों में हर अक्स धुँधला जाता और सुख की धूप जब घर के फर्श पर पड़ती तो अवसाद की परछाईयाँ घनीभूत होकर यूँ निकलती मानो वे पसरकर अब ओर फैल जाएंगी.

तीन प्राणी एक अर्धविकसित शैशव और आसपास अंगना चौबारे से जीवन के भयानकतम रूप में फैली आशाओं का उद्दाम समुद्र जो हर पल हर सांस और चलते फिरते क्षणों में दुआ माँगता रहता, जिंदगियां हर सांस में भरपूर उम्मीदों को लेकर जीने की हौस हादसों से घबराती और फिर रोज़ रोज उगते सूरज के संग एकाकार होकर शीतल चांदनी का इंतज़ार करती.

एक अपाहिज व्यथा सी रिक्त होती आस्थाएं समय के दुष्चक्र पर दर्ज हो रही थी और दूसरी ओर विकास की घुड़दौड़ से पिछड़ा मानव तन मन अपनी वाणी को तो दूर स्पर्श, सुवास, देखने - सुनने से वंचित था और इसी लोक में बेचैन और उद्धिग्न होकर लगातार मन ही मन गूंथता बुनता रहा पर वे तार ना जुड़ पातें ना रेशा रेशा बिखर पातें - जो था वह यही था इन्ही सर्द गर्म दीवारों में और सब एक दूसरे की ओर टुकुर टुकुर से देखतें और दीवार पर बजने वाली घण्टी का इंतज़ार करतें.

जीवन की शाश्वतता से इनकार नही किया जा सकता पर सुखी है वो लोग जो सांस लेते है, समझते - बुझते है और पांचों इंद्रियों को समझकर जीने का उपक्रम करते है, दुख को दुख मानकर दर्ज करते है और सुख की घण्टी को देर तक झंकृत होते सुनते है - यह दोनो चरम स्थितियां अगर आपने समझी हैं तो आप यकीनन उन सबसे परे है जो रोज के मायावी यथार्थ से दूर जाकर असलियत के पंजो पर खड़े होकर आसमान में अपने प्रारब्ध को खोजकर तसल्ली से लम्बा उच्छ्वास भरते हो और छोड़ कर नीचे लौट आते हो कि अभी सब कुछ खत्म नही हुआ है.































(दो)
हंसो कि जीवन बस अभी यही है


हंसते जोड़े थे, युवा मन थे, एक मधुर मादक आवाज थी और सब झूम रहें थे उसके इशारों पर, थके मांदे लौटे थे आत्मा पर सदियों का बोझ लिए निस्पृह से और यहां आकर मदमस्त थे- एक सहकर्मी का बेटा एक साल बड़ा हुआ था इसी शहर में, उत्सव तो बनता ही था.

कुछेक के बच्चे थे और बाकी इन सवालों पर  कुछ नही बोलते थे मानो दूर दराज़ बसे अपने लोगों के दो जून की रोटी और इस माया के भंवर जाल में फंसकर अपने बीज को भूल ही गए हो.

सप्ताहांत में होने वाले इन ठहाकों से लौटकर जब जीवन दस बाय दस के कमरे में  रात दम तोड़ता तो दिमाग़ के कीड़े कुलबुलाते और फिर लगता कि एक झाग ही बस पर्याप्त है फिर मग में भरा हो या समंदर में.

सुबह आँख खुलती तो उमस की चिपचिपाहट से शरीर की थकावट दूर होने के बजाय अठखेलियाँ करने को बेचैन हो जाती और फिर अस्त व्यस्त शरीर एक शरारत से नाचने को उन्मुक्त हो जाता- एक फोन घर लगाकर फुर्र हो जाते कि सब ठीक है- छुट्टी मिलेगी तब आ पाएंगें अभी तो बहुत कम है.


फिर सब भूलकर कही दूर निकल जाते सामान बिखराकर दिल में शेर सा हौंसला लिए कि जो अतृप्त होगा जीवन में वही मरेगा सुखी और फिर काया का क्या है तन का सुख सारे अवसाद, प्रलाप और तनावों से बड़ा है- इतना कमाकर जब संसार के सुख सबको जुटाकर दे रहें हैं तो अपने लिए एक चिथड़ा सुख भोग लेने में क्या हर्जा है. 




























(तीन)
सपनों में अपने

थकान से बड़ी उम्मीद आशा की प्रसव पीड़ा थी जो निर्मोही शहर में सबको सबसे जोड़ती थी, यह उन सबके पेट से ज्यादा दिमाग़ में थी जो परदेसियों को एक बहुत कोमल किंतु शुष्क रेशे के बंधन से हवा में बांधती थी.

इलाहाबाद के शुक्लपुर नामक गाँव से आये हुए दस साल बीत गए एक दिन घर से भागा था ट्रेन में और यहां आकर गटर के पाइप में आंख खुली तब से जीवन उस पाइप से लेकर अभी के पक्के चौड़े मोटे मुंह वाले पाइप भर में बदला है.

एक सपनों की दुनिया है विवियाना और तीसरे माले पर दो कुर्सियां जो दिनभर में सैंकड़ों लोगों को हाथ, पैर, कमर, घुटने, टखनों और काँधों का मसाज देकर रात बारह से सुबह ग्यारह तक सोती है और गयादीन भी - पाइप से निकलकर रास्ते में दो वडापाव खाकर सीधे ऊंघते हुए यही आ जाता है.

जमाने के थके, मोटे, तुण्दियल और हाथ मे रोटी लपेटे चीज़ चाबते लोग जब मसाज करवाने जो ग्यारह से बैठते है तो रात बारह बजे तक धरती की थकान भी नही मिटती, दिन में एकाध सड़े आलुओं का बेक समोसा और रात चौबीस रुपया देकर बेस्ट की ठंडी बस में दहिसर के उस पाइप जिसे वह घर कहता है, में लौटता है.

एक सस्ती सी शराब और पोल्ट्री फार्म के खराब अंडों या लगभग बदबू मारते मुर्गे को खाते हुए दस बरस बीत गए - हाथ पांव गल गए और आंखें धंस गई है, हंसता है फिर भी और हाथ उठाकर नमाज के बखत अल्लाह का और किसी भी मन्दिर या गेरू पुते देवता रूपी पत्थर के आगे सिर झुकाता है.

बड़बड़ाता है या बुदबुदाता है नही पता पर एक बात कहता है गांव में बाप- महतारी को  बहिना के ब्याह के लिए बिला नागा रुपया भेज रहा है, तीन साल से गया नही घर, एक लड़की थी जिसे बहुत प्यार करता था उसकी भी खबर नही कोई - कुर्सी पर कोई बैठा होता है मसाज करवाते तो एक बार चिकट बटुए में देख लेता है तस्वीर उसकी, अबकी बार बोरीवली गया तो तस्वीर फिर बनवाऊंगा और दादर के फुटपाथ से नया बटुआ खरीदूंगा,

जीवन मसाज की कुर्सी, पाइप का घर जो दहिसर नाके के पीछे है, विवियाना, वडा पाव और इलाहाबाद के शुक्लपुर के बीच खप गया है - उसके ख्वाबों में गांव की लड़की आती है - अपने कमरे में वो एक साढ़े तीन लाख की कुर्सी लेकर बैठा है लड़की मुस्कुरा रही है कि उसके तलुओं में गुदगुली हो रही है वह स्पीड बढ़ाता है और अचानक लड़की को करंट लगता है और वह चीखती है - गयादीन नींद से जागता है और अपने ही पसीने की बदबू से परेशान होकर हंस देता है - साला क्या चुतियापा है, वो लड़की क्यों आएगी यहां मसाज करवाने और अगर आ भी गई तो क्या मुझसे मिलेगी और मिली भी तो क्या मैं उससे सौ रुपये लूंगा - नही, नही, नही.

पर फिर जवान होती बहन का चेहरा घूमता है वह उदास होता है - एक आवाज अपने आपको देता है जल्दीकर नई तो 65नम्बर निकल गई तो साला ऐसी में जाने कूँ पड़ेगा और फोकट में टाइम भी खोटी होयेगा और मस्का चाय वाला बी निकल जायेगा.

अपनों की दुनिया के सपने आना जीवन को ईच बर्बाद करने जैसा है, इधर ही घर बसाने का है अपुन को, एकाध खोली वाली कोई लड़की है क्या खोपोली से लेकर वसई गांव या घोड़बंदर गांव ने भी चलेगी, रोज मस्त मसाज कर दिया करूँगा उसकी.
























(चार)
इंसानों से ज़्यादा चौपहियों की जातियाँ

मुम्बई की जात क्या है - नीली, हरी, भगवा या लाल, याद रखिये देश प्रेम का झंडा किसी के डंडे में नही है, कल नीले और भगवा का सम्मिश्रण था, एक अवांगर्द भीड़, बैंड, खुली जीप, कानफोड़ू डीजे और नाचते थिरकते युवा, गहरे अवसाद में डूबे लोग, पसीना चूहाते लोग, रंग बिरंगी चश्मे पहने लोग, बेहद काले, पर उज्ज्वल कपड़े और मुंह में गुटखा ठूंसे सड़े दाँत और ट्यूबवेल के समान पेट से निकली लार को यहां वहाँ थूकते लोग.

बाला साहब के फोटो सँग भीमराव का फोटो, हर चौराहे पर हैसियत, औकात और चंदे की प्राप्ति अनुसार भीमराव का पुतला रखा था, ये पुतले बिल्कुल दुर्गाउत्सव या गणेश उत्सव के पहले ही बिकने लगते है- हर बाज़ार और हाथ ठेलों पर, टेंट सजे है संकरी सड़कों को घेर लिया है ट्राफिक जाम है, भोंगे लगे हैं

खुली जीप, बसों, बाइक्स, सायकिल और फुटपाथ पर झंडे लगे है- किसने कब लगाएं मालूम नही पर "वर्गनी घेऊन जातात, काय करतात माहित नाही रे बाबा, कुण विचारेल, सेना देवरस ची असो कि भीमराया ची- अपुन को गोंधळ में पड़ने का नई, सौ दो सौ देने का और अलग होने का"

नौवारी साड़ी से लेकर एकदम आधुनिक साड़ी पहने चश्मा लगाए बैठी है औरतें, सड़क पर झांझ भी बजा रही है, हाथ मे नंगी तलवार जिसमे गुलामी का जंग लगा है पर ठसक है- पीछे सेना की ताकत और भीमराव के दिये अधिकार.

रैली है, चौराहों पर आरती, प्रसाद, भंडारे, फूल मालाएं, आमदार- खासदार और वार्ड मेम्बर घुले मिलें है लोगों से  ये लोग चुनाव में ऐसे रच बस गए हैं कि लगता है अभी जादू की झप्पी ले लेंगे चाहें बुरी तरह बासते मच्छी वाले हो, जूते सुधारने वाले हो या वृहन्नमहानगरपालिका के सफाई कर्मचारी हो- एक कोने पर भगवा ध्वज लहरा रही गाड़ी की जातियाँ इंसानी खांचों से ज्यादा हैं रोल्सरॉयस से लेकर पोर्श, बी एम डब्ल्यू, मर्सिडीज, ऑडी  से लेकर दलित मारुति 800तक - जो औकात एक झटके में तय कर दे रही थी.

इस सबसे दूर अंग्रेजीदाँ नॉन मुम्बईकर घृणा से देख रहें थे- इन जाहिल, गंवार और घाटी लोगों को जो "साले यहाँ आकर गंदगी फैला जाते है, ट्रैफिक जाम कर जाते है, वाट द हैल दिस सेना एंड अंबेडकराइट्स- अ बिग मैस इंडीड एंड वी द टैक्स पेयर्स, दिस ब्लडी इंडिया, द गटर गाईज़ आर एंजोयिंग आवर मनी, आय विश आय कूड़ किल ओर गिव देम अ बिग फक"

अंबेडकर जयंती पर मुम्बई एक घेराबंदी है सभ्य, कुलीन और शिक्षित समाज की- देश और प्रदेश भर से आये मैले-कुचैले, काले बासते लोग जब अपने परिश्रम के पसीने का हिसाब मांगने आते हैं- तो शिक्षित वर्ग की हवा टाईट हो जाती है, सड़कों पर आते- जाते इन्हें देखिये- कितनी घृणा है मुस्कुराहटों के पीछे, दूरदराज से आये लोगों को ये गोली मार देंगे मानो.

संविधान, शिवसेना और दलितों के बीच नागरिक अधिकार और संविधान की प्रस्तावना के बीच जूझती मुम्बई - उफ़

रास्ता लम्बा है- शिक्षितों के लिए, अनपढ़, गरीबों और दलितों के लिए रास्ता नही है और आदिवासियों के लिए यह देश भी देश नही बचा है.

कोई कुछ अब नही कहता, बस मोदी ही आएगा- यह केंद्रित बहस है पर मोदी ने क्या किया, क्या करेगा- कोई सच में कुछ नही कहता.




























(पांच)
इतना प्यार - सम्मान दें कि वे भर जायें


छोटे कस्बों देहातों से आये तो पढ़ने थे, बीबीए किया, एमबीए किया, बीई किया और ना जाने क्या क्या नही किया पढ़ाई में.

मेहनत कर एक गाड़ी खरीदी जिसे बाइक कह लो, एक्टिवा या स्कूटी और ज़िंदगी दौड़ने लगी, जो घर से सक्षम थे थोड़े भी बाप- महतारी ने कर्जा देकर, फसल-जमीन बेचकर बबुआ को गाड़ी ले दी कि जब लौटेगा बम्बई से तो घर भर देगा धन धान्य से  और खुशियां लौंटेगी घर आंगन ओसारे में.

यहां बबुआ रोज सायन, दादर, कुर्ला, दहीसर, भांडुप और अँधेरी में खो गया नौकरी लगी ही नही, कॉलेज के जमाने में हुए इश्क से कविता और तुकबंदी सीखकर शेर पढ़ने लगा, चंद अशआर समझ कर लिखने लगा तो ओपन माईक में 100  50रूपये देकर जाने लगा- एक सर्किल बना- दोस्ती बढ़ी और वह फिल्मों के स्क्रिप्ट-लेखन में घुसने के ख्वाब देखने लगा.

एक था इंस्टाग्राम, एक फेसबुक, एक योर कोट और बस धीमे-धीमे अपने परिचय में मुम्बई में लेखक, पटकथा लेखक, गीतकार, संगीतकार लिखकर "नेम - फेम"कमाने लगा, गांव देहात में जाता तो अपनी वाल पर चकाचक फोटो दिखाता तो गांव के लौंडे जलभुन जाते चंचलाओं के संग अपने हमउम्र को देखकर.

एक से मिला मैं तो युवा लेखक महाशय ने दास्ताँ सुनाई तो होश उड़ गए, अधिकांश मित्र मंडली स्वीगी, जोमैटो, पित्ज़ा हट, कुरियर या ऐसी ही किसी कम्पनी में काम कर मुम्बई दर्शन कर रहे हैं, छपरा का रंजन झा या रांची का शोभित, बर्दमान का शुभेंदु या कालाहांडी का प्रसन्नजीत अब बाइक पर समय साध रहें है- आधे घँटे में डिलीवरी के चेलेंज और जीवन की मुठभेड़ में रोज दिन में पचास दफ़े मौत से मुलाकात होती है, रीवा का शुभम ठाकुर अब अवंतिका में एसी अटेंडेंट है- पर घर मे नही मालूम.

नोएडा से आई उत्पला सिसक रही थी- अभी तीन दिन पहले उसका माशूक विक्रोली में मेट्रो के बनते रास्ते के ट्राफिक में निपट गया 'ऑन द स्पॉट'लाश जब घर भेज रहे थे उसके फ्लैट मेट्स तो वह पहुंच भी नही पाई ; बोली आधे घँटे में पित्ज़ा नही पहुंचा तो तनख्वाह से कट जाता है रुपया, एम्बुलेंस से भी आगे दौड़कर सामान पहुंचाने का हौंसला था उसमें- भरी भीड़ में बाइक का जादूगर था वो, पर उसके मरने पर उसे 108भी नही मिली- क्यों, उत्पला के सवाल का मेरे पास जवाब नही था- वह सिसक रही थी और मेरे गालों पर आंसू कब सूख गए मालूम ही नही पड़ा मुझे.

सॉफ्ट वेयर इंजीनियर है, वेटर है, कुरियर वाले है, मॉल में है, होटल में कुक है, ओला - उबेर चला रहे हैं, हीरानंदानी में लाखों प्रकार के काम है, ट्रेन में एसी अटेंडेंट बन गए है, कॉल सेंटर पर जागकर हाजमा खराब कर लिया है इन्होंने, हर जगह डांट खाते, गाली सुनते और चौबीसों घँटे काम और काम के तनाव में डूबे ये हमारे देश के सम्मानित नागरिक कितने संताप और दारुण दुख से भरे हैं - यह देखना हो तो एक बार बात कीजिये

जब आप मुम्बई, दिल्ली, चेन्नई, बेंगलोर, पटना, औरंगाबाद,  बनारस, त्रिवेंद्रम, हैदराबाद, वारंगल, पणजी,  पूना,गाजियाबाद, गुड़गांव, जबलपुर, नाशिक, इंदौर, भोपाल, जमशेदपुर, अहमदाबाद, बडौदा, गौहाटी या देवास में हो मेरी बात और अनुरोध को मानिए- उनसे प्यार से बात कीजिये- वे हमारे ही बच्चे हैं, युवा मित्र है, वे बहुत सुशील, संस्कारित और सभ्य हैं.

वे हमसे हज़ार गुना ज्यादा संघर्ष कर रहें हैं महानगरों में, यहाँ के रास्तों के ठौर खोजना हो या मानवीय व्यवहार, दो जून की रोटी हो या वन बी एच के फ्लैट में आठ लोगों के साथ रहने, खाने, सोने और इस सबके बीच ख़ुश और सकारात्मक रहने की चुनौती, याद कीजिये क्या उन्होंने फोन पर अपने दुख बताएं आपको, हमेंशा हंसकर ही बोलें है

अपने बच्चों को प्यार कीजिये, दुआ दीजिये और उन्हें इतना सम्मान दीजिये कि वे इस कांक्रीट के जंगल में अपने आपको हजारों कोसों दूर रहकर भी अकेला ना महसूस करें उन्हें यहां आने पर भी इज्जत बख्शिएं- इतनी कि वे अपने सपनों को एक बार फिर बुनने लगें और अपने पीछे आपकी भौतिक उपस्थिति हर पल मान लें.

आंखों में आंसू लेकर यहां से विदा हो रहा हूँ तो मेरे सामने पूरी मुम्बई ही नही देवास जैसे छोटे से कस्बे में डोमिनोज़, जोमैटो का सामान लिए आधे घँटे में पहुंचाने का चैलेंज लिए युवा घूम रहे है, उनके हलक में पानी नही गुर्र-गुर्र करता गुस्सा है, हथेली पर जान हैं और वे माँ बाप के सपनों को दिमाग़ में बसाए माशूका के प्यार की ताकत से सड़कों पर अंधी दौड़ में रेंग रहें है- ट्राफिक जाम में फंसे मोबाइल के हेड फोन पर सुन रहे हैं- कितना समय और लगेगा, वाट द फक, इट्स टू लेट, वी वोंट पे नाउ...

मेरा प्यार, सम्मान इन तक पहुंचे, जब भी अब कोई कुरियर बॉय या डिलीवरी देने आएगा- उसे एक ग्लास पानी और गुड की एक डली तो मैं दे ही सकता हूँ- शायद एक बेहतर दुनिया बनाने की शुरुवात तो ऐसे भी हो सकती है.

मैं द्रवित हूँ पर बेहद आशान्वित भी कि सच में आयेंगे अच्छे दिन भी.
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(मुम्बई के ये पाँचों फोटोग्राफ गूगल से साभार.)




संदीप नाईक
देवास, मप्र
naiksandi@gmail.com

सावित्रीबाई फुले की कविताई : बजरंग बिहारी तिवारी

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महान सुधारक सावित्रीबाई फुले कवयित्री भी थीं. उनके मराठी में दो संग्रह प्रकाशित हुए- ‘काव्यफुले’ (१८५४) तथा ‘बावन्नकशी सुबोधरत्नाकर’ (१८९१).
‘क्रांतिज्योति’सावित्रीबाई फुले की कविताएँ औपनिवेशिक भारत में  समाजिक-धार्मिक क्रान्ति की भूमिका तैयार कर रहीं थीं.
बजरंग बिहारी तिवारी ने विस्तार से और मूल मराठी की मदद से सावित्रीबाई फुले की कविताई पर यह ऐतिहासिक महत्व का आलेख तैयार किया है. प्रस्तुत है.



हम नहीं रोनी सूरत वाले’ : सावित्रीबाई फुले की कविताई                
बजरंग बिहारी तिवारी




जीवन की गहरी समझ के साथ काव्य-रचना में प्रवृत्त होने वाली सावित्रीबाई फुले (1831-1897) अपने दो काव्य-संग्रहों के बल पर सृजन के इतिहास में अमर हैं. उनका पहला संग्रह ‘काव्यफुले’ 1854 में तथा दूसरा ‘बावन्नकशी सुबोधरत्नाकर’ 1891 में प्रकाशित हुआ. दोनों ही संग्रह ज्योतिबा फुले से संदर्भित हैं. पहले संग्रह में उन्होंने अपने जीवनसाथी फुले के प्रति प्रेमपूर्वक कृतज्ञता जाहिर की है तो दूसरे में उनकी प्रामाणिकजीवनी दी है. कविता विधा में जीवनी लिखने का आशय ब्योरेवार वृत्त निरूपण करना नहीं है अपितु जीवन का सत्व प्रस्तुत करना है. ऐसा सत्व जो अनुभूत हो. काल की कसौटी पर खरा उतरने वाला हो.

‘बावन्नकशी’का मतलब ही है बावन तोले खरा. बावन संख्या वास्तव में इस संग्रह में सम्मिलित बावन पदों की सूचक हैं. ये पद छः शीर्षकों के अंतर्गत रखे गए हैं- उपोद्घात, सिद्धांत, पेशवाई, आंग्लाई, ज्योतिबा और उपसंहार. पहले संग्रह ‘काव्यफुले’ में 41 कविताएँ हैं. ये कविताएँ जिस अंतर्दृष्टि के साथ विषयों के जितने बड़े रेंज को समेटती हैं वह चकित करने वाली बात है. डॉ. मा.गो. माळी ने ‘सावित्रीबाई फुले समग्र वाङ्मय’ (मराठी) की अपनी भूमिका में ‘काव्यफुले’ की कविताओं को विषयवार सात वर्गों में रखा है-

1) निसर्ग विषयक- कुल सात कविताएँ,
2)समाज विषयक- ग्यारह कविताएँ
3)प्रार्थनापरक- छः कविताएँ
4)आत्मपरक- पाँच कविताएँ
5)काव्य विषयक- दो कविताएँ
6)बोधपरक- आठ कविताएँ औ
7)इतिहास विषयक- दो कविताएँ. 
    
कवि के रूप में सावित्रीबाई की चिंताएं तात्कालिक से ज्यादा दूरगामी स्वरूप वाली हैं. वे वास्तविकताओं से ही कविता रचना चाहती हैं. ‘खुळे काव्य व खुळा कवी’ (‘झूठा कवि और फरेबी कविता’, ‘खुळा’ का शाब्दिक अर्थ ‘पागल’ अथवा ‘सनकी’ होता है.) शीर्षक अपनी रचना में वे कल्पनाजीवी कवियों पर मीठी चुटकी लेती हैं. कवि कल्पना के बल पर ‘अघटित घटना का सर्जक’ बन जाता है. वह स्वर्ग-नरक के दृश्य उपस्थित करता है. परियों के शब्द-चित्र बनाता है. कल्पनालोक में ले जाकर रुलाता-हंसाता है. व्यंग्यात्मक लहजे में सावित्रीबाई लिखती हैं कि कवि के मानस-पटल पर बनते चित्र में परियाँ मुस्कराती हैं, मीठी-मीठी बातें करती हैं, कवि को बाहों में भरकर चुंबन लेती हैं. असलियत यह है कि ये परियाँ कवि से प्रेम ही नहीं करतीं! लेकिन, कवि को मन के लड्डू खाने से कौन रोक सकता है- ‘जवळ घेऊनि चुंबितसे/ कवीच्या मनी चित्र दिसे.’इस पारंपरिक कल्पनाप्रसूत काव्यधारा के बरक्स यथार्थवादी धारा भी है. सावित्रीबाई उसी में आती हैं. काल्पनिक जगत में ले जाने के स्थान पर वे अपने वास्तविक गाँव (नायगाँव) का शब्दचित्र उकेरती हैं-

मेरी जन्मभूमि
मुझे वंदनीय और दिल से प्यारी
मैं उसका गौरव गीत गाती हूँ.

बागों में कुएँ और लुभावने फल-फूल पौधे
पंछी गाते गीत मधुर
रंग-बिरंगी तितलियाँ मंडराती फूल-पौधों पर
साक्षात् प्रकृति
चहल-पहल करती हर पल.

‘माझी जन्मभूमी’ शीर्षक इस कविता में सावित्रीबाई ने अपनी जन्मभूमि के वर्तमान के साथ सुदूर अतीत और निकट इतिहास को भी पेश किया है. महाभारत काल में यहाँ बंदर, लोमड़ी और गीदड़ बसते थे. फिर रट्ठवासियों से यह इलाका आबाद हुआ. रट्ठवासी मराठा किसानों के पूर्वज माने जाते हैं. इसके बाद आया शिवाजी महराज का युग. उन्होंने कुनबी, मराठों को साथ लेकर लोकहितकारी स्वराज्य स्थापित किया.
    
सावित्रीबाई ने कल्पनाजीवी कवि का मजाक उड़ाया है लेकिन ‘द्रष्टा कवि’ की भरपूर प्रशंसा की है. उन्होंने इसी शीर्षक से एक कविता लिखी है. ज्ञानी कवि को उन्होंने द्रष्टा कवि कहा है. ज्ञान का परम प्रेमी द्रष्टा कवि नव रसों का भण्डार होता है. काव्य की ओजस्विता उसके होंठों से प्रवाहित होती है. नव-चंडी (उसे) द्रष्टा बनाती हैं. यह देवी ही उसकी जिह्वा पर बैठकर गाती हैं. यह धवल, मधुर और कल्याणकारी गायन शंभु की जटा से प्रवाहित गंगा की धारा के तुल्य होता है. पद्म-पुष्प से सुवासित उसका मानस-सरोवर चार विद्याओं और चौंसठ कलाओं से युक्त तथा नवरत्न रसों से पूरित होता है. यहाँ ‘नव’ श्लिष्ट पद है- नवीन और नौ दोनों अर्थ देने वाला. ऐसा कवि कभी सोचता है कि वह ‘विश्व’ मित्र है और उसकी कविता प्रतिसृष्टि है. (वास्तव में) उसकी कविता दिव्य सृष्टि का काव्य है और उसी से जीवन सुंदर, शिव (मंगलकारी) व सत्य होता है. समृद्ध अर्थच्छवियों वाली यह कविता परंपरा और आधुनिकता के संधिस्थल पर नवता की ओर अग्रसर है. कवि का ज्ञानी होना और उस ज्ञान का सोद्देश्य होना इस कविता का अभिनव प्रस्ताव है. जिन चार विद्याओं का जिक्र इस कविता में है उसका हवाला ‘काव्यमीमांसा’ में मिलता है.  इस ग्रंथ के रचनाकार भारतीय अर्वाचीनता के प्रस्तावक कवि नवीं सदी के राजशेखर ने काव्य को पाँचवीं विद्या मानते हुए शेष चारों विद्याओं का इसमें अंतर्भाव माना था. ये चार विद्याएँ हैं- त्रयी (धर्मशास्त्र), वार्ता (कृषि-शिल्प-वाणिज्य), आन्वीक्षकी (तर्कशास्त्र, दर्शन) और दंडनीति (राजनीतिशास्त्र). इन विद्याओं का ज्ञान ‘द्रष्टा कवि’ होने की पूर्वशर्त है. ज्ञान की सोद्देश्यता का आशय है जनकल्याण की भावना. कवि की वाणी गंगा की तरह सबका हित करने वाली हो- यह संत काव्य-धारा का निचोड़ है. जो स्वार्थों के परे देख सकता/सकती हो वही ‘द्रष्टा’ है. द्रष्टा कवि ही सत्य, शिव और सुंदर अर्थात् ‘मधुर’ काव्य रच सकता है. ‘सत्य, शिव और सुंदर’ सावित्रीबाई की प्रिय कसौटी है.
    
कथा है कि विश्वामित्र ने प्रतिसृष्टि अर्थात् इस जगत के समानांतर दूसरे विश्व की रचना कर दी थी. सावित्रीबाई उसका संकेत करते हुए द्रष्टा कवि को भी ‘विश्व’ मित्र के रूप में देखना चाहती हैं- “कधी कल्पी मी “विश्व” मित्र आहे/ काव्य माझे हे प्रतिसृष्टी आहे”.विश्वशब्द को इनवर्टेड कॉमा में रखने का क्या आशय होगा? यह कि इसे विश्वामित्र वाले मिथक से भिन्न समझा जाए और इससे संसार का हित चाहने वाले विश्व-मित्र कवि का तात्पर्य लिया जाए. “दिव्य सृष्टीचे काव्य हे तयाचे” (दिव्य सृष्टि है उसका काव्य) -ऐसी कविता की दिव्यता का तर्क सत्य, सुंदर और मंगलकारी जीवन की कामना-संभावना से उपजा है. वाणी की देवी सरस्वती को हटाकर ‘नव-चंडी’ को ले आना सावित्रीबाई की अपनी सूझ है. यह ‘नव-चंडी’ ही कवि पर वरदहस्त रखती है और उसे सामान्य कवि से द्रष्टा कवि बनाती है. मूल कविता में विश्व के अतिरिक्त दो अन्य शब्दों को भी इनवर्टेड कॉमा में रखा गया है- द्रष्टा औरमधुरा.इसका मतलब है कि ये कवि के बीज शब्द हैं और इनका विशिष्ट अर्थ लिया जाना चाहिए. ‘द्रष्टा कवि’ दिंडी काव्यवृत्त में लिखी गई कविता है. चार चरणों वाला दिंडी मात्रिक छंद है. इसके प्रत्येक चरण में 19 मात्राएँ होती हैं. नवें और दसवें पर यति का विधान रहता है.
    
कृतज्ञता-बोध सावित्रीबाई के कवि-व्यक्तित्व का उल्लेखनीय पक्ष है. यह बोध उन्हें परंपरा से जोड़ता भी है और अलगाता भी है. वे अपने पुरखों का स्मरण करती हैं और बलिराजा के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करती हैं-

“त्यांना पदोपदा बंदू.
वंशज त्यांचे आपण.
तू पुण्यात्मा बळीराजा.
स्त्रोत गाती तुझे जन.”

‘बळीचे स्तोत्र’ शीर्षक यह कविता अनुष्टुभ छंद में है. ‘काव्यफुले’ संग्रह की कुल आठ कविताएँ इस छंद में हैं. अर्धसमवृत्त अनुष्टुभ या अनुष्टुप छंद में चार चरण (पाद या मराठी में ओळी) होते हैं. प्रत्येक चरण में आठ वर्ण या अक्षर होते हैं. पाँचवाँ वर्ण लघु तथा छठा गुरु होता है. सातवाँ अक्षर पहले और तीसरे चरण में दीर्घ तथा दूसरे और चौथे चरण में ह्रस्व होता है. इसी छंद में उन्होंने छत्रपति शिवाजी का श्रद्धापूर्वक स्मरण किया है. शूद्रादि-अतिशूद्रों के हमदर्द शिवाजी का गुणगान करती हुई सावित्रीबाई कहती हैं कि उनकी जगह इतिहास में सुरक्षित है जबकि राजा नल, युधिष्ठिर आदि का पुण्यस्मरण पुराणों में है. सावित्रीबाई की स्त्री-चेतना का परिचय उनकी ‘राणी छत्रपती ताराबाई’ शीर्षक कविता से मिलता है. ताराबाई भोंसले (1675-1761) छत्रपति शिवाजी के दूसरे पुत्र राजाराम की पत्नी थीं. पति की मृत्यु के समय उनके पुत्र शिवाजी तृतीय की उम्र मात्र 4 वर्ष थी. ताराबाई ने अपने पुत्र को गद्दी का वारिस घोषित कर मराठा राज्य का शासनसूत्र स्वयं संभाल लिया था. उनके शासनकाल (1700-1707) में मराठों ने शक्ति अर्जित की, तमाम सफल युद्धों में संपदा बटोरी और औरंगजेब की सेना को लगातार कड़ी टक्कर दी. ऐसी वीरांगना स्त्री की वंदना करती हुई सावित्रीबाई कहती हैं-

“ताराबाई माझी मर्दीनी
 भासे चंडिका रणांगणी
 रणदेवी ती श्रद्धास्थानी
 नमन माझिये तिचिया चरणी..”
    
सावित्रीबाई ने जिसके प्रति सबसे ज्यादा कृतज्ञता ज्ञापित की है वे हैं ज्योतिबा फुले. फुले को लिखे उनके तीन पत्र मिलते हैं. इन पत्रों के संबोधनों और कैफ़ियत से ज्योतिबा के प्रति उनके गहरे सम्मान और अनुराग का पता चलता है. अपने पहले काव्य संग्रह की ‘अर्पणिका’ लिखते हुए तेइस वर्षीया कवयित्री ने हृदय की विशालता व अकुंठ कृतज्ञता का परिचय दिया है. यह अर्पण जोतिबा के साथ सभी ‘सुजन हितकारियों’ के प्रति है. वसंततिलका छंद में रचित इस ‘अर्पणिका’ का भावार्थ है-

‘मुझ पर है सबका असीम स्नेह
महसूस कर हृदय भर आता
इतने अगाध स्नेह की मैं हकदार नहीं
आपके उपकारों और सहृदयता को पाकर
अर्पण करती हूँ अपनी काव्यमाला.’

‘संसाराची वाट’ (संसार का मार्ग) शीर्षक कविता में वे जोतिबा को अपने जीवन में वही स्थान देती हैं जो स्थान पुष्प में पराग का होता है. वे जोतिबा के संदेश को ‘अपने मन के भीतर सहेजकर रखती’ हैं. ‘जोतीबानां नमस्कार’ (जोतिबा को नमस्कार) में वे जोतिबा को ज्ञानामृत प्रदाता कहती हैं. शूद्रों, अतिशूद्रों को उनके उद्धारक ज्ञान की जरूरत है. ‘जोतिबाचा बोध’ (जोतिबा का मार्गदर्शन) कविता में वे सेवाभाव को इंसान का मुख्य गुण मानती हैं. यह ज्ञान उन्हें जोतिबा के सान्निध्य ने दिया है- “ऐसा बोध देती. अनुभवे जोती. मनात ठेविती. सावित्री मी.” माँ के प्रति उनके मन में गहरा प्रेम है. अपनी यादों में उन्होंने माँ की मेधा, ममता, मजबूती और मेहनत की छवियाँ संजोकर रखी हैं.  अष्ट मात्री छंद में रचित ‘आमची आऊ’ (हमारी माई) में वे माँ की अपार मेहनत और दयालुता का स्मरण करती हैं. उनके लिए माँ अक्षय ऊर्जा की स्रोत हैं-
“जैसे मूर्तिमंत साक्षात्
विद्या की शक्ति
हृदय के भीतर हमने उसे रखा है.”   
     
सावित्रीबाई के पहले काव्यसंग्रह में वैयक्तिक अनुभूतियों की प्रधानता है तो दूसरे संग्रह में सामुदायिक उत्थान की चिंता का स्वर मुख्य है. बड़ी सतर्क वैचारिकी के साथ उन्होंने जोतिबा को संत परंपरा से जोड़ा है. यह जुड़ाव फुले को ‘महात्मा’ कहे जाने को औचित्य प्रदान करने के लिए नहीं है बल्कि भारत के जनबुद्धिजीवियों की पहचान कराने के लिए है. ‘संत’ शब्द लोक परंपरा में जनबुद्धिजीवी (पब्लिक इंटेलेक्चुअल) का पर्याय है. सावित्रीबाई स्पष्ट करती हैं कि उनके लिए संत का आशय आध्यात्मिक प्रवचन करने वाला व्यक्ति नहीं है. संत वह है जिसकी कथनी और करनी में फर्क न हो- ‘वाचे उच्चारी. तैसी क्रिया करी’. संत वह है जो परमार्थ कार्य में संलग्न रहे, स्वार्थ से परिचालित न हो-
“सुख दुःख काही.
स्वार्थपणा नाही
परहित पाही.
तोच थोर..”

जिसे दूसरे का उत्कर्ष काम्य हो और, “इंसानियत का रिश्ता/ जो जानते-पहचानते हैं/ सावित्री कहे, वे ही हैं सच्चे संत” (‘तेच संत’/वे ही सच्चे संत). अपने दूसरे संग्रह (‘सुबोध रत्नाकर’) में उन्होंने स्मृतिशेष जोतिबा को संत तुकोबा के समान बताया है- “तुकाराम जैसा तसा संत जोती/ सुधा ज्ञान देई जना रीतिभाती”. अपने अभंगों में खरी-खरी बात लिखने वाले संत तुकोबा जनता के चित्त में जीवंत उपस्थिति हैं. तुकोबा का कथन है- “आम्हां घरीं धन शब्दाचीं च रत्ने. शब्दाची च शस्त्रे यत्न करूं..” –‘हमारे घर में शब्द ही संपत्ति है. हमारा रत्न धन सब कुछ वही है. हम इन शब्दों से यत्नपूर्वक शस्त्र भी तैयार कर सकते हैं और समय पड़ने पर उनका उपयोग भी कर सकते हैं.’संत तुकोबा या तुकाराम का उल्लेख जोतिबा ने अपने ग्रंथ ‘किसान का कोड़ा’ (प्रकाशन वर्ष 1883 ई.) में किया है. वे लिखते हैं कि धूर्त पुरोहितों ने षड्यंत्र करके तुकाराम और शिवाजी के मध्य स्नेह-भाव विकसित ही नहीं होने दिया. किसान परिवार में पैदा हुए तुकाराम किसानों के बीच उत्पन्न शिवाजी राजा को किसानों की भलाई के लिए समझा सकते थे, ब्राह्मणों के चंगुल से बाहर आने का रास्ता सुझा सकते थे. जोतिबा की ही तरह डॉ. आंबेडकर के मन में भी संत तुकाराम के प्रति बड़ा सम्मान भाव था. उनके द्वारा प्रकाशित मराठी पाक्षिक ‘मूकनायक’के प्रथम पृष्ठ के शीर्ष पर संत तुकाराम का अभंग छपता था. इस अभंग की एक पंक्ति है- “नव्हे जगीं कोणी मुकियाचा जाण.” ‘मूक लोगों की जगत में कोई नहीं सुनता.’कहने की जरूरत नहीं, पाक्षिक के नामकरण में तुकोबा की यह पंक्ति आधार बनी है.

सत्यशोधक समाज की पत्र-पत्रिकाओं में भी शीर्ष स्थान पर संत तुकाराम की रचित अभंगों की पंक्तियाँ लिखी होती थीं. शास्त्र-प्रमाण की जगह विवेक को प्रमाण मानने वाले सत्यधर्मी लोग तुकोबा की यह सूक्ति प्रस्तुत करते थे- ‘सत्य असत्याशी मन केले ग्वाही.’–सत्यासत्य निर्धारण के संबंध में मन की गवाही (अंतिम) मानी जाए.    
    
भारत का दलित स्त्री साहित्यान्दोलन उचित ही सावित्रीबाई को अपनी पुरखिन मानता है. दलित साहित्यान्दोलन के पहले दौर में आक्रोश की प्रधानता है, आवेगमय अभिव्यक्तियों की अधिकता है, संघर्ष के नारे हैं, अवसाद के चिह्न हैं और प्रहारात्मक रूखी भाषा है. जैसा जीवन होगा, अभिव्यक्ति वैसी ही होगी –यह इस दौर के रचनाकारों का सच है, तर्क भी है. दलित स्त्री रचनात्मकता इस साहित्यान्दोलन के दूसरे दौर में संगठित रूप से उभरती है. यह दौर पहले दौर से कई अर्थों में भिन्न है. आंदोलन में दृढ़ता के स्तर पर कमी नहीं आती है परंतु आक्रोश भरा तेवर बदल जाता है. जीवन में सिर्फ रूखापन नहीं है- यह बात व्यक्त होने लगती है. अब तक दलित आंदोलन की नींव डालने वालों में फुले-आंबेडकर की ही चर्चा होती थी. अब सावित्रीबाई का नामोल्लेख होने लगता है. उनकी कविताएँ अनूदित होने लगती हैं, उद्धृत की जाने लगती हैं. सावित्रीबाई फुले की कविताएँ इस तथ्य का समर्थन करती है कि दलित स्त्रियों ने बहुत सोच-समझकर उन्हें अपनी पुरखिन स्वीकार किया है. सावित्रीबाई को अवमानना, हिंसा और यातना कम नहीं झेलनी पड़ी थी. सवर्णों ने उन्हें लगातार अपशब्दों-गालियों से भेदा, व्यथित किया था. उन पर ढेले, कीचड़ और गोबर फेंके थे. उनका जीना दूभर कर दिया था. दूसरी तरफ उन्हें अपने कुनबे से भी विरोध झेलना पड़ा था. मायके में भाई अंट-शंट बोलता है और ससुराल में ससुर धमकाकर घर से बहिष्कृत कर देते हैं. इतने तनावों, इतनी प्रतिकूलताओं के बावजूद उन्होंने अपनी सहजता बनाए-बचाए रखी. जीवन को उत्सव की तरह देखा. आनंद के स्रोतों को ओझल नहीं होने दिया. ‘काव्यफुले’ संग्रह में प्राकृतिक सौंदर्य पर सात कविताएँ सतरंगी प्रिज्म की तरह झिलमिला रही हैं. शीतल समीर की सरसराहट, मिट्टी की सुगंध, तितलियों की रंगीनी और फूलों का खिलना सब सावित्रीबाई को आकर्षित करते हैं. वे सबको अपनी कविता का विषय बनाती हैं. उनका जीवनोत्सव अक्षुण्ण रहता है. इससे उनकी संघर्ष क्षमता का संवर्धन होता रहता है. जीवन को इतनी गहराई से चाहने वाली कवयित्री पुणे के आसपास फ़ैली प्लेग की महामारी में दूसरों का जीवन बचाने के लिए घर-घर, गली-गली घूमती हैं. यह जानते हुए कि प्लेग संक्रामक बीमारी है वे मरीजों की सेवा करती हैं. गंभीर मरीजों को अपने पोष्य-पुत्र यशवंत के क्लीनिक लाती हैं. उनके इलाज की व्यवस्था करती हैं. इसी तरह सेवा करते हुए उन्होंने एक मरणासन्न (महार) बालक को सड़क किनारे पड़ा देखा. उसे दवाखाने लेकर आईं. प्लेग-पीड़ित रोगियों के सतत संपर्क में रहने से अंततः उन्हें भी प्लेग हुआ. सिर्फ 66 वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु हो गई. उन्होंने खुद को उत्सर्ग कर दिया. बड़ा उदात्त संतत्व है यह! शब्द-कर्म, सिद्धांत-व्यवहार की एकता का अप्रतिम उदाहरण.
    
‘मेरा गाँव, मेरी जन्मभूमि’कविता में जीवनराग में पगा उनका उच्च स्वर उद्घोष है- “हम नहीं रोनी सूरत वाले.”रोनी सूरत से बचना है तो ‘फूल खिलाना’होगा- सावित्रीबाई की जन्मभूमि उनसे यही कहती है. ‘काव्यफुले’शीर्षक में आया ‘फुले’ श्लिष्ट शब्द है- फूल और फुले दोनों का वाचक. महान राजा बलि के वारिस होने के नाते यह उनका दायित्व है- “आम्ही तयांचे वंशज रडगाणे नच गाणारे/ जन्मभूमिही मला सांगते फुले कराया ती/ तीच उधळते मी तिजवरती..” ‘रडगाणे नच गाणारे’ को जैसे आगामी दलित स्त्री साहित्यान्दोलन का आधार वाक्य बनना था. ‘रडगाणे नच गाणारे’का आशय है- हम रोंदू गीत गाने वाले (लोग) नहीं हैं, हम रोना नहीं रोते, हम अपनी व्यथा का प्रदर्शन नहीं करते, हम रोनी सूरत वाले नहीं हैं. दलित स्त्री कविता का रागात्मक जीवनबोध, सौंदर्य-दृष्टि, सकारात्मक अतीत-स्मरण, आशावादी आंदोलनधर्मिता और सृजन में विश्वास का सिरा सावित्रीबाई से जुड़ा है.
    
‘सावित्री-जोतिबा संवाद’ शीर्षक कविता बातचीत की शैली में है. इसी के अनुरूप अभंग छंद में कविता रची गई है. ‘अभंग’ का आविष्कार तेरहवीं सदी के वारकरी संतों ने किया था. सत्रहवीं सदी के संत तुकाराम ने अपने सारे वचन अभंग में ही कहे और इस छंद को जन-जन तक पहुँचाया.. अभंग वर्णवृत्त या आक्षरिक छंद है. अक्षरों की गिनती में लचीलापन लिए हुए. अभंग दो चरणों और चार चरणों वाले होते हैं. दो चरणों वाले अभंग के प्रत्येक चरण में 8-8 अक्षर होते हैं. अंत में यमक होता है. चार चरणों वाले अभंग के प्रथम तीन चरणों में 6-6 अक्षर तथा अंतिम पाद में चार अक्षर होते हैं. दूसरे और तीसरे चरणों में यमक का पुट रहता है. ‘काव्यफुले’ के अभंग चार चरणों वाले हैं. संग्रह में ‘सावित्री व जोतिबा संवाद’ को आख़िरी (इकतालीसवीं) कविता के रूप में रखा गया है. इस संवाद में सावित्री कहती हैं कि चंद्रमा अस्त हो चला है, सूरज का उजाला फैल गया है. जोतिबा का जवाब है- “पर रात बीती बेहद दुःख में!” (‘रजनी ती कष्टी. झाली फार..’)  इस पर सावित्री टिप्पणी है- “उल्लुओं की इच्छा एक ही होती है/ कि कर दें सूरज पर अभिशापों की बौछार.” (‘घुबडाची इच्छा. अशीच असते.. देतते सूर्याते. शाप शिव्या..’) लेकिन, उल्लुओं की चाहत से क्या सूर्योदय नहीं होगा? सूर्य उगा. ‘शूद्रादि महार जाग गए’.यह उत्सव की बेला है. ऊर्जा सहेजने का समय है. जोतिबा कहते हैं-

“चलो, हम दोनों जाएँ बाग़ की ओर
देखें प्रकृति की शोभा...
तितलियों को देखो,
मंडराती फूलों पर
पंछी पेड़ों पर बैठे चहक रहे हैं.
ठंडी ठंडी हवा बहती है
खिल उठी है सारी सृष्टि.”

शूद्रातिशूद्रों (दलितों) के जागरण से ही सृष्टि का खिलना भासमान हो रहा है. अभिधा और व्यंजना को काव्य-रसायन से जोड़ने का काम सावित्रीबाई करती हैं. फूलों का खिलना और (महार आदि) दलित समुदायों का जागृत हो जाना फुले-दम्पती की प्रसन्नता का हेतु है. जोतिबा का कथन है कि अज्ञानता की वजह से दीन-दलितों को दुःख झेलना पड़ा. जानवरों की भांति जीना पड़ा. उल्लू यही चाहते भी थे- “दीनदलितांनी. अज्ञान सहावे.. अमानुष व्हावे. घुबडेच्छा..” महार-मांग आदि जातियों के लिए ‘दीन-दलित’ पदबंध का प्रयोग ध्यातव्य है.

दलित जागरण के बाद मुक्ति-संघर्ष का नया अध्याय आरंभ होने पर पदबंध में आया ‘दीन’ गायब हो जाता है और उसकी जगह ‘पैंथर’ आ जाता है. मगर, इस प्रक्रिया को घटित होने में एक शताब्दी बीतती है. सावित्री के संवाद में उचित ही जोतिबा को ज्ञान का सूर्य कहा गया है जिसके उदय से कालरात्रि का अवसान हुआ है. कविता का अंत सावित्रीबाई इन शब्दों में करती हैं- “जाऊ चला गाठू. मानवता केंद्र.. मनुष्यत्व इंद्र. पदी जाऊ..” –
‘चलिए, मेरे संग आगे बढ़ें
पाएँ मिलकर मानवता की मंजिल
और मानव होने के
सर्वोच्च पद पर पहुँचें.’
    
प्रकृति पर लिखी कविताओं से सावित्रीबाई की सूक्ष्म पर्यवेक्षण क्षमता का पता चलता है. उनकी निसर्ग विषयक कविताओं को पढ़े बिना उनका जीवन दर्शन नहीं समझा जा सकता. परवर्ती काल में जिस दलित कविता का उदय हुआ वह बहुलांश में या तो विचार कविता है या फिर अनुभव कविता. विचार और अनुभव दोनों ही सांद्र आक्रोश में घुले हुए आते हैं. पर्यवेक्षण और अनुभव का अंतर समझा जाना चाहिए. अनुभव को समाज-सापेक्ष माना जाए और पर्यवेक्षण को प्रकृति-सापेक्ष. अस्मितावादी आंदोलन और ‘विचारधारा’ के आग्रह से पर्यवेक्षण प्रसूत काव्य-रचना को सराहने में हिचक महसूस की जाती रही है. एक अघोषित-अनकही बंदिश का अहसास बना रहता है और कविगण निसर्गपरक काव्य-रचना की तरफ नहीं मुड़ते. सावित्रीबाई का समय आंतरिक प्रतिबंधों का न होकर बाह्य अवरोधों का था. बाह्य अवरोधों से पार पाना कम कठिन नहीं होता है. सावित्रीबाई का अदम्य साहस पराभूत नहीं हो सकता था. उन्होंने अकुंठ भाव से निसर्ग-सुषमा का अवलोकन किया. उसके सौंदर्य पर मुग्ध हुईं. जीवनोल्लास के छंद रचे. उनका कहना है कि मानव और निसर्ग दो भिन्न अस्तित्व नहीं हैं. ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. हम सृष्टि के सारे जीवों को एक समझें और उनमें मानव-समुदाय को प्रकृति की अमूल्य निधि जानकर उसकी कद्र करें- “मानवप्राणी निसर्गसृष्टी द्वय शिक्क्याचे नाणे. एकच असे ते म्हणुनि सृष्टीला शोभवु मानव लेणे.” उनकी कविता ‘माटी का गीत’ (‘मातीची ओवी’) मिट्टी के रंग और शेड्स की पहचान करती है. मिट्टी का वैविध्य उन्हें आह्लादित करता है. इसी से उसके उपयोग की विविधता संभव होती है. उत्पादक-वर्ग के सौंदर्यबोध के निर्माण में उपयोगिता की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है. सावित्रीबाई का सौंदर्यबोध यद्यपि उपयोगिता की सीमारेखा को लांघता रहता है. मिट्टी की महिमा का गायन करते हुए वे गहन साहचर्य को इसका हेतु बताती हैं- “मिट्टी की महिमा कैसे बताऊँ?/ मिट्टी से नाता हमारा, खेत-खलिहानों जैसा.”जैसे खेत का खलिहान से संबंध होता है वैसे ही मिट्टी से उनका नाता है- अटूट और अंतरंग. ओवी छंद लोकगीतों के लिए प्रयुक्त होता है और (साहित्यिक) ग्रंथों के लिए भी. अनुष्टुप (या अनुष्टुभ) से विकसित यह छंद स्फुट गीतकारों, लोकगायकों तथा ग्रंथकारों, प्रबंधकारों में समान रूप से लोकप्रिय रहा है. ‘ज्ञानेश्वरी’ और ‘दासबोध’ जैसे ग्रंथ ओवी में हैं. लोकगीतों वाला ओवी स्त्रियों का प्रिय छंद रहा है, उनके मनोभावों का कोश. यह दो, तीन, साढ़े तीन तथा चार चरणों वाला होता है. ‘मातीची ओवी’ साढ़े तीन चरणों वाली है. इस ओवी के अतिरिक्त उनकी तीन अन्य कविताएँ भी इसी छंद में हैं. सभी साढ़े तीन चरणों वाली. इस छंद प्रत्येक चरण में छः अक्षर होते हैं और आधे चरण में चार-
“मातीचा महिमा.
सांगावा किती हा.
मातीचे नाते अहा.
शिवारात..”  
    
मनुस्मृति में कृषि को शूद्रों का कार्य बताया गया है. खेती का काम त्रैवर्णिकों, विशेषकर ब्राह्मणों के लिए वर्जित है. शेतकर अर्थात् किसान के अपमान का प्रश्न उठाते हुए सावित्रीबाई ने मनु के प्रति आक्रोश व्यक्त किया है-
“हल जो चलावे, खेती जो करे
वे होते हैं मूर्ख- ऐसा कहे मनु. ...
शूद्रों का जन्म
फल है पूर्वजन्म के पापों का
उन्हें इस जन्म में चुकाते हैं सभी शूद्र
विषमता का रचते
समाज के कुटिल रीति-रिवाज
धूर्तों की है यह नीति अमानवीय.”
(‘मनु म्हणे’/कहे मनु)

मनु से उलट संतों की परंपरा में अपनी कविताएँ रचती हुई सावित्रीबाई खेती को ‘ब्रह्मवंती’ =साक्षात् ब्रह्म कहती हैं. यह मनुवादी विधान का नकार है. कृषिकार्य का उदात्तीकरण है. किसानों के मनोबल का उन्नयन है-
“खेती ही
साक्षात् ब्रह्म है
अन्न धान देती है
अन्न को कहते हैं परब्रह्म
शूद्र करे खेती
और खाते हैं निठल्ले.”

साढ़े तीन चरणों वाली ओवी में निबद्ध ‘ब्रह्मवंती शेती’ कविता का समापन सावित्रीबाई मौलिक सूझ के साथ करती हैं- “जे करिती शेती. विद्या संपादती. तया ज्ञानवंती. सुखी करी..” –‘जो करते हैं खेती/ और ज्ञान की करें प्राप्ति/ वे बने ज्ञानी/ सुख-समृद्धि से भरपूर.’ खेती करने वाले शिक्षित हों, ज्ञानी बनें –यह इच्छा महात्मा फुले की भी थी. 1882 में शिक्षा व्यवस्था में सुधार हेतु सुझाव देने के लिए बने हंटर कमीशन के समक्ष जोतिबा फुले ने विस्तार से अपना पक्ष रखा था. इसमें उन्होंने किसानों की शिक्षा का मुद्दा उठाया था. वे चाहते थे कि ग्रामीण स्कूलों में जो अध्यापक नियुक्त किए जाएँ वे किसान परिवारों के हों. इससे शूद्र अतिशूद्र परिवारों से आने वाले बच्चे अपने शिक्षक के साथ घुलमिल सकेंगे और शिक्षक भी उनकी समस्याओं, जरूरतों को ठीक से समझ सकेंगे. इसके विपरीत ब्राह्मण जाति के अध्यापक अपने धार्मिक संस्कारों के कारण अपेक्षित परिणाम नहीं दे सकेंगे. अपने बद्धमूल अहंकार के चलते वे उन विद्यार्थियों में हीन भाव भी भरेंगे.
    
‘ब्रह्मवंती खेती’ संत चिंतन की परंपरा में लिखी गई कविता है. संतों ने अन्न को ब्रह्म कहा था और कृषिकार्य को सम्मान की निगाह से देखा था. संत रैदास ने उस समाज का सपना देखा था जहाँ सबको अन्न मिले. कबीर ने अन्न को प्राथमिकता दी थी और भगवान से मिलने के लिए अन्न का आश्रय अपरिहार्य बताया था- ‘अन्नै बिना न होय सुकाल . तजियै अन्न न मिलै गुपाल.’ संत गरीबदास ने अन्नदेव की दो आरतियाँ लिखी थीं और उसे पोथी-ज्ञान से बढ़कर माना था- “पोथी-पत्रा विद्यादान . अन्न पुरुष बिना कैसा ध्यान.” संत रज्जब अली ने तो किसान को सर्वश्रेष्ठ साबित करते हुए प्रकृति के सभी प्रमुख तत्त्वों को कृषि मजदूर के रूप में देखा था- “पाँचों तत्व मयंक सों, अन्नहि काज मजूर. रज्जब सो दालिद्र में, आवै क्यों सु हजूर..”
    
फूलों पर लिखी कविताओं में रचनाकार सावित्रीबाई के वय की गहरी छाप है. एक उल्लसित चित्त ही सौंदर्य-संभार को इस तरह देख सकता है, सराह सकता है. निसर्ग के प्रति सावित्री की यह नव्य दृष्टि उन्हें संत परंपरा से अलग करती है. सावित्रीबाई अपने प्रिय फूलों को उनके नाम के साथ अपनी कविता का विषय बनाती हैं- ‘रूप बिसेष नाम बिनु जानें. करतल गत न परहिं पहिचानें..’ नाम स्मृति-कोष को उद्बुद्ध करता है. चित्त में संचित प्रतिबिम्ब से उस प्रत्यक्ष-गोचर बिम्ब को सम्बद्ध कर देता है. तब, पुष्प-विशेष से जुड़ी तमाम छवियाँ उस अनुभव-क्षण को अगाध-विराट बना जाती हैं. इस तरह ‘स्व’-संभूत सौंदर्यानुभव समष्टि की थाती बन जाता है. चम्पा नामक फूल पर लिखते हुए रचनाकार ने पहले उसके रंग पर निगाह डाली है, फिर ढंग पर और अंततः बाह्य से आंतरिक गुणों की तरफ आती हुई यह निगाह सुवास-सुगंधि तक पहुँची है. कविता जिस चम्पा पर केंद्रित है उसका रंग पीला है. इसकी कांति सोने जैसी, वर्ण हल्दी का और आभा वासंती है. वर्ण और गंध इसे ऐन्द्रिक बनाते हैं, कवियों के आकर्षण का कारण-
“जिस तरह रति के संग
मदन क्रीड़ा करता है
ठीक उसी भाँति यह
कवियों के
मन को ललचाता.”

चम्पा के स्थूल और सूक्ष्म वर्णन से आगे बढ़कर कविता उस रहस्यमयता से संकेत के साथ पूरी होती है जो उसके असमाप्य आकर्षण के मूल में है-
“गूढपणे तो
मनात शिरूनी
काव्य कराया
उन्मुख करतो..”
नयन, नासिका और रसिक जनों को तृप्त करता चम्पा का फूल अंततः मुरझा जाता है (“नेत्र नासिका/ रसिक मनाला/ तृप्त करूनी/ मरून पडतो..”). मगर, ऐसे गूढ़ार्थी पुष्प को कविता में लाकर उसकी स्मृति अक्षुण्ण कर दी गई है- ‘फूल मरै पर मरै न बासू.’ ‘पिवळा चाफा’ या पीला चम्पा नामक यह कविता अल्प प्रचलित ‘अक्षर छंद’ में है. ‘जाईचे फूल’ या चमेली के फूल शीर्षक कविता का छंद भी यही है.  इस छंद के प्रत्येक चरण में 11 वर्ण होते हैं. पांचवें और छठे वर्ण पर यति होती है. ‘चमेली के फूल’ कविता में सावित्रीबाई पुष्प से पारस्परिकता कायम करती हैं- “जब-जब मैं देखती हूँ/ चमेली के फूलों को/ तब-तब वे फूल मुझे निहारते हैं.” सफ़ेद रंग और मनोहारी सुगंध वाले उमंग भरे पाँच पंखुड़ी के ये फूल ‘मीठी हँसी’ हँसकर, ‘लज्जा भरी नज़र’ से देखने वाली को निहारते हैं. सिर्फ निहारते ही नहीं, ये रचनाकार को ‘आपबीती’ भी सुनाते हैं. उनकी आपबीती में स्वार्थी-लालची लोगों के कृत्य उभरते हैं-
“रीत जगाची
कार्य झाल्यावर
फेकुन देई
मजला हुंगुन..”

‘जग की रीत
कार्य हो गया
फेंक दिया तब
मुझे धूल में.’


कहने की जरूरत नहीं कि सावित्रीबाई की कविताओं की प्रारंभिक या प्रमुख श्रोता/पाठिका उनकी सखियाँ और शिष्याएँ रही होंगीं. अन्योक्ति की तरह ऐसी कविताएँ उन्हें प्रबोधन भी देती होंगी. ‘जाईची कली’ (जूही की कलियाँ) रात में खिलकर सुगंध बिखेरती हैं. ‘यौवन से ओतप्रोत’ इन कलियों का जीवन क्षणिक होता है- “नष्ट होऊनी जाय अखेरी/ अशीच मानव कळी जाईची..” –‘नष्ट हो जाती वह आखिर/ इसी तरह मनुष्य भी है, जैसे जूही की कलियाँ.

कबीरादि संत मनुष्य की नश्वरता दर्शाने के लिए ऐसे प्रतीकों का इस्तेमाल करते हैं. सावित्रीबाई उनसे इस अर्थ में भिन्न हैं कि वे जीवन की सार्थकता का गायन करती हैं. क्षणिक होने से जीवन निरर्थक नहीं होता. ‘गुलाब का फूल’ कविता में सावित्रीबाई ने ‘कनेर के फूल’ से इसकी तुलना की है. “रूप-रंग दोनों का एक सा” है लेकिन कनेर का फूल जंगली है. वह आम आदमी जैसा है जबकि गुलाब ‘राजकुमार’ जैसा. तुलना के बाद नतीजे पर पहुँचती रचनाकार स्वयं को स्थूल उपयोगितावादी समझ से मुक्त कर लेती है. ‘मन को हरने की पात्रता गुलाब में’ है. इंसान भी गुलाब के फूल की तरह है-

“तशी दोन्ही फूले
असती वेगळी
योग्यता आगळी
गुलाबाची..
गुलाब सारखा
मानव हा प्राणी
सावित्रीची वाणी
ध्यानी आणा..”

सावित्रीबाई अपनी इस बात पर पाठकों का तवज्जो चाहती हैं. ‘कल्चर’ और ‘नेचर’ में वे प्रथम को वरीयता देती प्रतीत होती हैं. सावित्रीबाई की कविताओं में तितलियों की एकाधिक बार आवृत्ति हुई है. फूलों पर कविता लिखने वाली रचनाकार तितलियों पर ध्यान दे, यह स्वाभाविक है. ‘तितली और फूलों की कलियाँ’ में तितलियों की ख़ूबसूरती के वर्णन से कविता शुरू होती है. चमकदार, सतरंगी, बातूनी हँसी, रेशमी पंख और मनोहर रूप वाली तितलियों को “...देख-देख मैं खो गयी/ बिसर गयी अपने आप को”. इन तितलियों को कलियों ने आतुर होकर अपने पास बुलाया. बेसब्री से उनकी राह देखी. तितलियाँ आईं. फूलों का रस पिया. फूल मुरझाए तो तितलियाँ कहीं और चलती बनीं.
    
जिस दिन गुलामी का इतिहास लिखा जाना शुरू होता है उस दिन गुलामी इतिहास बन जाती है. ‘बावन्नकशी सुबोधरत्नाकर’ संग्रह के ‘उपोद्घात’ की अंतिम पंक्ति है-
“कुळाची कथा गीत ग्रंथी लिही मी
गुलामी जनाचा इतिहास नामी..”

‘अपने गीतों में
शूद्रों की गुलामी का इतिहास लिख रही हूँ.”

अगले खंडों में वे ईरानी मूल के वर्णवादियों/ आर्यों द्वारा छल-कपट से मूल निवासियों की पराजय, पेशवा राज्य में शूद्रों और अतिशूद्रों का दमन, (1818 ई. में पेशवाई का अंत) अंगरेजी राज की प्रतिष्ठा, अत्याचारी समाज व्यवस्था का पतनोन्मुख होना, ज्योतिबा फुले का प्रादुर्भाव, समाज परिवर्तन हेतु उनका आंदोलन, उस आंदोलन के असर का वर्णन करती हैं. इस संग्रह के प्रारंभ में सावित्रीबाई बताती हैं कि उनकी यह रचना ‘भुजंग प्रयात’ छंद में है. भुजंग प्रयात चार चरणों वाला समवृत्त छंद है जिसके प्रत्येक चरण में 12 अक्षर होते हैं. संस्कृत मूल से आया यह छंद अपनी सरलता, प्रवाहमयता और शब्द मैत्री के लिए जाना जाता है. इसके प्रत्येक चरण में चार यगण होते हैं. एक यगण में लघु-गुरु-गुरु (ISS) क्रम होता है. हिंदी अनुवाद में इस छंद का निर्वाह नहीं हो पाया है. इस छंद की गतिमयता के आस्वाद के लिए एक उदाहरण प्रस्तुत है-

रची काव्य सोपे भुजंगप्रयाते
मनी वृत्त आखून गाणे लिहीते
भ्रतारास अर्पी बहू आदराने
नसे ते इहीहो परी चिंतनाने..

‘सहज काव्य रचना करती हूँ
भुजंग प्रयात छंद में
मन के भीतर रचती हूँ पंक्तियाँ
फिर उतारती हूँ कागज पर गीत
जीवन साथी जोतिबा को
वो सारे गीत अर्पण करती हूँ
आदर के साथ
अब वे यहाँ नहीं हैं इस जगत में
किंतु हमेशा रहते हैं मेरे चिंतन में..”
    
व्यवस्था परिवर्तन किए बिना शूद्रों, स्त्रियों और दलितों की जिंदगी में बदलाव नहीं आएगा. सावित्रीबाई उन सभी उपायों का निर्देश करती हैं जिनसे परिवर्तन संभव होना है. ऐसे उपायों में शिक्षा सर्वोपरि है. उनकी कई कविताओं में शिक्षा की जरूरत रेखांकित की गई है. अपनी एक कविता में वे आह्वान करती हैं कि जोतिबा दलितों में ज्ञान प्राप्ति की लालसा भर दें. ‘किसान का कोड़ा’ ग्रंथ के ‘उपोद्घात’ में जोतिबा ने विद्या-अविद्या के परिणामों पर इस तरह विचार किया है-

“विद्या बिना मति गयी
मति गयी तो नीति गयी
नीति गयी तब गति न रही
गति न रही तो वित्त गया
वित्त बिना शूद्र धँसे-धँसाये
इतने अनर्थ अकेली अविद्या ने ढाये..”

‘नवस’ (‘मन्नत’) शीर्षक कविता में सावित्रीबाई ने अंधविश्वासों में जकड़ी जनता को देखकर दुःख व्यक्त किया है और इससे मुक्ति के लिए विवेकसंपन्न होने की आवश्यकता बतायी है-
“धोंडे मुले देती. नवसा पावती.
लग्न का करती. नारी नर..
सावित्री वदते. करूनि विचार.
जीवन साकार. करूनि ध्या..”

‘यदि पत्थर पूजने से होते बच्चे
तो फिर नर नारी
नाहक शादी क्यों रचाते?
सावित्री कहे
विचार करो
जीवन सार्थक करो
विवेक संपन्न होकर.’

‘तयास मानव म्हणावे का?’  (उसे कैसे कहें इंसान?) कविता में वे पुनः यही मुद्दा उठाती हैं-
“ज्योतिष, पँचांग, हस्तरेखा में पड़े मूर्ख
स्वर्ग-नरक की कल्पना में डूबे
पशु जीवन में भी
ऐसे भ्रम के लिए कोई स्थान नहीं
उसे कैसे कहें इंसान?”

वे यह भी कहती हैं जिसे गुलामी में होने का अहसास न हो, आजादी की कीमत न पहचानता हो, इंसानियत की कोई समझ न हो उसे भला इंसान कैसे कहें-
“गुलामगिरीचे दुःख नाही
जराही त्यास जाणवत नाही
माणुसकीही समजत नाही
तयास मानव म्हणावे का?”

ध्यान दीजिए सावित्रीबाई की ये चिंताएँ 1850 के आस-पास व्यक्त हो रही हैं. हिंदी कविता में इस समय भक्ति और रीति की प्रवृत्तियाँ ही प्रबल हैं. हिंदी नवजागरण के पुरोधा भारतेन्दु हरिश्चंद्र का जन्म ही 1850 में होता है! इस युग में सावित्रीबाई उक्त कविता में शिक्षा के महत्त्व का प्रतिपादन करते हुए लिखती हैं-

“ज्ञान नहीं, विद्या नहीं
पढ़-लिखकर शिक्षित होने की मंशा नहीं
बुद्धि होकर भी उसे व्यर्थ गंवाएँ
उसे कैसे कहें इंसान?”

‘स्वागत’ कविता में वे उन बच्चों और उनके अभिभावकों का स्वागत करती हैं जो शिक्षा हेतु स्कूल पहुँचे हैं. ‘अज्ञान’, ‘शिक्षा के लिए जाग्रत हो जाओ’, ‘श्रेष्ठ धन’ आदि कविताओं में वे मुक्ति के इसी मार्ग पर प्रकाश डालती हैं. अंग्रेजी भाषा के महत्त्व का गान उन्होंने अपनी कुछ कविताओं में इसी मकसद से किया है-

“अंग्रेजी पढ़कर जातिभेद की
दीवारें तोड़ डालो
फेंक दो भट-ब्राह्मणों के
षड्यंत्री शास्त्र-पुराणों को.”

‘शूद्रों के दुःख’ कविता में उनका निर्भ्रांत कथन है-
“शूद्रों के उद्धार का है
एक मात्र रास्ता
वह है शिक्षा का रास्ता.”

किंचित नाटकीयता लिए प्रयोगशील कविता ‘सामुदायिक संवाद पद्य’ (‘समूह-संवाद की कविता’) में पाँच-पाँच बालिकाओं के चार समूह निर्दिष्ट हैं. ये समूह आपस में संवाद करते हैं. पहले समूह की लड़कियाँ शिक्षा का महत्त्व जानती हैं. वे सभी से स्कूल चलने को कहती हैं. दूसरे समूह की बालिकाएँ स्कूल जाने से खेलना बेहतर समझती हैं- ‘अरे, क्या धरा है पाठशाला में?’.तीसरे समूह की लड़कियों के लिए घरेलू काम करने जरूरी हैं- “तुमचं बोलणं पटत नाही घरची काम करू चला”‘तुम्हारी बात मानने लायक नहीं. चलो घर का काम करें.’चौथा समूह सलाह देता है कि इन सभी विकल्पों में क्या सही है यह जानने के लिए ‘आई’ (माँ) से पूछते हैं. ‘माँ’ का जवाब है-

अभिमानाने जगण्यासाठी शिकून ध्या जा शाळेला”
मनुष्याचा खरा दागिना शिक्षण आहे ध्या चला
                   जा शाळेला जा शाळेला
काम पहिलं शिकायच आहे, दुसरं काम खेळ खेळा
जमेल तेव्हा झाडणं पुसणं हात लावा घरकामाला
                      जा आधि जा शाळेला”

‘संसार में स्वाभिमान से जीने के लिए
शिक्षा प्राप्त करो
मनुष्यों का सच्चा गहना है शिक्षा
विद्यालय जाओ
पहला काम है पढ़ाई, दूसरा काम खेल-कूद
पढ़ाई से फुर्सत मिले तभी करो घर की साफ़-सफाई
चलो, अब पाठशाला जाओ.’

उस दौर में बालिकाओं के लिए यह वरीयता क्रम सुखद आश्चर्य से भर देता है!इस प्रबोधन के बाद लड़कियों का यह समूह कोरस में कहता है-

“अज्ञानाची दारिद्रयाची गुलामगिरीही तोडू चला
युगयुगाचे जीवन आपले फेकून देऊ चला चला.”

‘अज्ञानता और दरिद्रता की गुलामगिरी चलो तोड़ डालें
युगों का यह (दासता भरा) जीवन चलो फेंक आएँ.’

गुलामी का अहसास कराती, मुक्ति की राह बताती, लड़कियों को प्रबोधन देती ऐसी माँ उस समय तक विश्व साहित्य में भी दुर्लभ थी. ‘माँ’ का क्रांतिकारी चरित्र पहली बार गोर्की के इसी शीर्षक से प्रकाशित उपन्यास ने प्रस्तुत किया. सावित्रीबाई की उक्त कविता के पचास वर्ष बाद 1906 में आए ‘मदर’ उपन्यास की माँ निलोवना अपने बेटे पावेल और उसके दोस्तों के कारण धीरे-धीरे बदलती है. ‘सामुदायिक संवाद पद्य’ की आई (माँ) नई पीढ़ी की लड़कियों को ज्ञान, सचेतनता, स्वतंत्रता और स्वाभिमान की ओर अग्रसर करती है. ‘मदर’ उपन्यास का यह कथन जैसे सावित्रीबाई की कविता की अनुगूँज है- “हज़ारों लोग ऐसे हैं जो अगर चाहें तो बेहतर जिंदगी बिता सकते हैं लेकिन वे जंगलियों जैसी जिंदगी बिताते रहते हैं और उसी में मगन रहते हैं.”
    
आज हम सावित्रीबाई को कैसे पढ़ें? उन्हें किस तरह प्रस्तुत करें? प्रश्न गंभीर है और संवेदनशील भी. अक्सर देखने में आता है कि उनके व्यक्तित्व और लेखन के जो पक्ष ‘असुविधाजनक’ लगते हैं उन पर चुप्पी साध ली जाती है. बहुधा उन्हें इस तरह पेश किया जाता है जैसे वे आज के अस्मितावादी एजेंडे के अनुरूप लिख रही थीं, अपनी प्राथमिकताएं तय कर रही थीं! इस तरह की प्रस्तुति में ऐतिहासिकता की क्षति होती ही है, उस विकास-प्रक्रिया को समझने में भी बाधा आती है जिससे गुजरकर मुक्ति आंदोलन समकाल तक पहुँचा है. उक्त विवेचन में हमने देखा कि सावित्रीबाई पारंपरिक छंदों में अपनी कविताएँ रचती हैं. उनके द्वारा प्रयुक्त काव्यवृत्तों/छंदों की संख्या आठ है. वे ‘ईशस्तवन’, ‘शिव प्रार्थना’ और ‘शिवस्तोत्र’रचती हैं. ‘ईशस्तवन’ में वे शंकर से ज्ञानार्थियों को विद्या देने तथा दीनता दूर करने की प्रार्थना करती हैं- “विद्या देई ज्ञान इच्छितो/ दैन्यासुर संहारा/ श्रीधरा..”‘शिव प्रार्थना’ में वे पुनः सबकी अज्ञानता दूर करने की प्रार्थना करती हैं- “अज्ञान नष्ट कारी, वर सर्वा लाभो.. प्रार्थना ही सावित्रीची..”‘शिवस्त्रोत’ में उनकी कामना है कि शंभु उनकी जिह्वा पर विराजें जिससे वे यशःपूत काव्य रच सकें- “त्या शंभूला पुजुनिया वर मागते मी/ जिह्वेवरी बसूनि तू रचि काव्य नामी.”

भगवान शिव के प्रति अपनी श्रद्धा की अभिव्यक्ति उन्होंने अपने काव्यसंग्रह के मुखपृष्ठ के चुनाव में भी की थी. ‘काव्यफुले’ के कवर पेज पर शिव-पार्वती का चित्र छपा था. शिव के प्रति उनके श्रद्धा-भाव से ज्योतिबा फुले रुष्ट हुए हों, ऐसा कोई साक्ष्य या संकेत मुझे नहीं मिला है. ज्योतिबा की हिंदू देवी-देवताओं में कोई आस्था नहीं थी फिर भी उन्होंने अपनी इच्छा सावित्रीबाई पर नहीं थोपी. वे सामाजिक जनतंत्र के लिए संघर्ष कर रहे थे. वे परिवार में भी जनतांत्रिक माहौल चाहते थे. 1889 में लिखी अपनी ‘सार्वजनिक सत्यधर्म’ पुस्तक में उन्होंने ऐसे परिवार की कामना की है जिसके सभी सदस्य अलग-अलग धर्मों को मानने वाले हों तथापि वे आपस में ‘प्रेम और अपनापे’ से रहते हों.     
    
सावित्रीबाई के सरोकारों की व्यापकता का ज्ञान उनके भाषणों से भी होता है. उनके पाँच भाषणों की एक पुस्तक 1892 में शास्त्री महाघट, वत्सल प्रेस, बड़ोदासे छपी थी. सावित्री ने स्वयं ज्योतिबा के भाषणों को संकलित, संपादित कर शिला प्रकाशन, पुणे से 1856 में छपवाया था. सावित्रीबाई ने जिन विषयों पर भाषण दिया था उनके शीर्षक थे- ‘उद्योग’, ‘विद्यादान’, ‘सदाचरण’, ‘व्यसन’ और ‘कर्ज’. अपने व्याख्यान में वे संस्कृत के श्लोक भी उद्धृत करती हैं. उनके द्वारा उद्धृत श्लोक विद्या और वित्त के महत्व पर प्रकाश डालता है. कुलीनता का दारोमदार इसी पर टिका होता है. अकुलीन भी अगर ज्ञान प्राप्त कर लें तो वे पूजनीय हो जाते हैं- ‘विद्यावित्तविहीनेन किंकुलीनेन दोहिनाम्. अकुलोनोपि यो विद्वान् दैवतैरपि पूज्यते.’

20 अप्रैल, 1877 ओतूर जुन्नर से जोतिबा को लिखे पत्र में उन्होंने 1876 में आए अकाल की विभीषिका का वर्णन किया है. सत्यशोधक मंडल द्वारा किए जा रहे राहत कार्यों का नेतृत्व करने सावित्रीबाई वहाँ गई थीं. अपने पत्र में उन्होंने वहाँ सक्रिय सभी सत्यशोधक कार्यकर्ताओं का नामोल्लेख किया है. उल्लिखित नामों में रा.ब. कृष्णाजी पंत और लक्ष्मण शास्त्री भी हैं. इनके बारे में सावित्रीबाई ने लिखा है-
“रा.ब. कृष्णाजी पंत लक्ष्मणशास्त्री हे आपणास विश्रुत आहेत. त्यांनी माझ्या समवेत दुष्काळी गावात जाऊन दुष्काळाने हैराण झालेल्या लोकांना द्रव्यरुपाने मदत केली.”
‘राय बहादुर कृष्णाजी पंत, लक्ष्मण शास्त्री आपको (जोतिबा को) और आपके कार्यों को जानते हैं. इन लोगों ने मेरे साथ अकाल पीड़ित गाँवों का दौरा कर, अकाल पीड़ित लोगों को पैसे देकर मदद की है.’

सावित्रीबाई व्यक्ति और व्यवस्था का अंतर भलीभांति समझती हैं. 10 अक्टूबर 1856 को लिखे पत्र में वे अपने भाई की भ्रष्टबुद्धि, अल्पबुद्धि या द्वेषबुद्धि का कारण उसका भट लोगों (पुरोहितों) की शिक्षा के प्रभाव में आना बताती हैं- “भाऊ तुझी बुद्धी कोती असून भट लोकांच्या शिकवणीने दुर्बल झाली आहे.”
   
मराठी के प्रथम आधुनिक कवि केशवसुतमाने जाते हैं. केशवसुत का मूल नाम कृष्णाजी केशव दामले था. उनका जीवनकाल 1866-1905 है. कुल उनतालीस वर्ष की अवस्था में उनकी मृत्यु प्लेग से हुई थी. वे विचारों में प्रगतिशील थे. जाति-वर्ण व्यवस्था के विरुद्ध. जातितंत्र को देश की परतंत्रता का हेतु मानने वाले. उन्होंने अस्पृश्यता, बाल विवाह के विरुद्ध लिखा. उनकी कुल 135 कविताएँ उपलब्ध हैं. ये 1885 से 1905 के मध्य लिखी गई हैं. केशवसुत के जीवित रहते उनका कोई संग्रह नहीं छपा. हरिनारायण आप्टे ने उनकी कविताओं को 1916 में पहली बार संग्रह रूप में प्रकाशित कराया. केशवसुत के जन्म से पहले ही सावित्रीबाई का पहला संग्रह छप चुका था. जाहिर है सावित्रीबाई को ही मराठी का पहला आधुनिक कवि स्वीकारा जाना चाहिए.

प्रथम कवि के प्रश्न पर विचार करते हुए साहित्यकार डॉ. अशोक चोपडे ने महात्मा फुले को ‘आधुनिक मराठी कविता का जनक’ कहा है. ध्यातव्य है कि जोतिबा की किताब सावित्रीबाई के बाद ही प्रकाशित हुई थी. 1855 में जोतिबा का लिखा नाटक ‘तृतीय रत्न’ छपा था. यह उनकी पहली प्रकाशित कृति थी. इस तथ्य के आलोक में सावित्री को ही पहला आधुनिक मराठी साहित्यकार/कवि मानना चाहिए. वे सिर्फ मराठी नहीं, आधुनिक भारतीय कविता की प्रथम हस्ताक्षर मानी जा सकती हैं. उन्होंने अपनी कविताओं में जिस तरह मनुष्य और प्रकृति के संबंध को रचा उससे उन्हें भारतीय कविता का आरंभिक स्वच्छंदतावादी रचनाकार माना जा सकता है. इस स्थापना के औचित्य पर अन्यत्र विस्तार से विचार किया जाना चाहिए. कविता में स्वाभाविक स्वच्छंदता के प्रश्न पर विचार करते हुए आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा था “यह भावधारा अपने साथ हमारे चिरपरिचित पशुपक्षियों, पेड़पौधों, जंगल मैदानों आदि को भी समेटे चलती है.” इस संबंध में उन्होंने यह भी लिखा कि स्वच्छंद भावधारा की अभिव्यंजन प्रणालियाँ वे होती हैं जिनमें जनता अपने को सहजता से व्यक्त करती आ रही होती है. सावित्रीबाई ने जिन पौधों, फूलों और प्राणियों पर लिखा वे जनता के प्रगाढ़ परिचय के दायरे में आते हैं. सच्चे स्वच्छंद काव्यमार्ग की रूपरेखा स्पष्ट करते हुए आ. शुक्ल ने लिखा है-
“जब पंडितों की काव्यधारा इस स्वाभाविक भावधारा से विच्छिन्न पड़कर रूढ़ हो जाती है तब वह कृत्रिम होने लगती है और उसकी शक्ति भी क्षीण होने लगती है. ऐसी परिस्थिति में इसी भावधारा की ओर दृष्टि ले जाने की आवश्यकता होती है. दृष्टि ले जाने का अभिप्राय है उस उस स्वाभाविक भावधारा के ढलाव की नाना अंतर्भूमियों को परख कर शिष्ट काव्य के स्वरूप का पुनर्विधान करना. यह पुनर्विधान सामंजस्य के रूप में हो, अंधप्रतिक्रिया के रूप में नहीं, जो विपरीतता की हद तक जा पहुँचती है. इस प्रकार के परिवर्तन को ही अनुभूति की सच्ची नैसर्गिक स्वच्छंदता (ट्रू रोमांटिसिज्म) कहना चाहिए, क्योंकि वह मूल प्राकृतिक आधार पर होता है.” (‘हिंदी साहित्य का इतिहास’, ना. प्र. सभा, वाराणसी, सं. २०४९ वि., पृ. ३२६-२७) 

आ. शुक्ल रहस्यात्मकता, दार्शनिकता, कलात्मकता तथा व्यक्तिगत स्वातंत्र्यभावना के प्रदर्शन को ‘सच्ची नैसर्गिक स्वच्छंदता’ के लिए बाधक मानते हैं. इंग्लैंड के सच्चे स्वच्छंदतावादी कवियों में वे काउपर, रॉबर्ट बर्न्स और वाल्टर स्कॉट का नाम लेते हैं. काउपर ने कविता को पांडित्य की विदेशी रूढ़ियों से मुक्त किया, किसानी झोपड़े में रहने वाले बर्न्स ने इस कविता को जनता के हृदय में संचरण करने लायक बनाया अर्थात् ‘देश के परंपरागत प्रचलित गीतों की मार्मिकता परखकर देशभाषा में रचनाएँ कीं’ और वाल्टर स्कॉट ने ‘देश की अंतर्व्यापिनी भावधारा से शक्ति लेकर साहित्य को अनुप्राणित किया.’ ‘ट्रू रोमांटिसिज्म’ की उक्त कसौटियों पर सावित्रीबाई का काव्यकर्म खरा उतरता है. उनमें वैयक्तिकता की भावना अवश्य ही मजबूत है लेकिन वह जन-स्वातंत्र्य की चिंता से बढ़कर नहीं है.
    
सावित्रीबाई भारतीय स्त्रीवाद की भी पहली आवाज हैं. स्त्रीवादी होने का आशय है उस शोषणतंत्र को पहचानना जो स्त्री समुदाय को कमतर, हीनतर बनाए रखता है. स्त्रीवादी वे हैं जो थोपी गई वर्जनाओं को मनसा-वाचा-कर्मणा निरस्त करती हैं. जिन दिनों अपने प्रेम का इजहार करना वर्जित था, सावित्रीबाई ने खुलकर जोतिबा के प्रति अपने प्रेम को अभिव्यक्त किया. जब पति का नाम लेना निषिद्ध (टैबू) था तब उन्होंने जोतिबा को नाम से ही संबोधित किया. जोतिबा निर्गुण ब्रह्म में विश्वास करते थे. सावित्री ने अपनी अलग राह बनायी. उन्होंने शिव के प्रति अपनी आस्था रखी. निर्गुण ब्रह्म की सारी अच्छाइयों के साथ यह दिक्कत भी है कि वहाँ स्त्री की कोई जगह नहीं जबकि शिव के साथ या समकक्ष पार्वती की सत्ता हुआ करती है. भारत के इतिहास में ऐसा उदाहरण शायद ही मिले जब किसी पत्नी ने अपने पति को मुखाग्नि दी हो. जोतिबा फुले का अंतिम संस्कार सावित्रीबाई ने ही किया था. अब तक वे सत्यशोधक समाज की महिला शाखा की प्रमुख थीं. जोतिबा के स्मृतिशेष होने के बाद उन्होंने पूरे सत्यशोधक समाज का नेतृत्व किया. अपने पति के प्रति सारे सम्मान के बावजूद उन्होंने हमेशा बराबरी के स्तर पर ही संवाद किया. मानो इस बात को प्रमाणित करने के लिए ही उन्होंने ‘काव्यफुले’ संग्रह की अंतिम कविता (सावित्री-जोतिबा संवाद) लिखी थी! पुरुषवादियों को उन्होंने बिना चूके मुंहतोड़ जवाब दिया. स्कूल से पढ़ाकर लौटते वक्त एक बार एक दबंग ने उनका रास्ता रोक लिया. उसने धमकाया कि अगर वे महारों-मातंगों को पढ़ाना बंद नहीं करेंगी तो उनका बहुत बुरा अंजाम होगा.

सावित्रीबाई न दबीं न झुकीं. तमाम तमाशबीनों के समक्ष उन्होंने उस गुंडे को इतना तगड़ा थप्पड़ लगाया कि उससे भागते न बना. यह घटना पूना में बड़ी तेजी से चर्चित हो गई. इसके बाद किसी अन्य व्यक्ति ने उनका रास्ता रोकने की हिम्मत नहीं की. ‘फुलपाखरू व फुलाची कळी’ (तितली और फूल की कली) में उन्होंने स्त्री के साथ होने वाली दगाबाजी और शोषण का चित्र खींचा है. इस कविता में फुलपाखरू पुरुष वर्ग का प्रतीक है और कली स्त्री वर्ग की. फुलपाखरू को हिंदी में तितली कहा जाता है. तितली स्त्रीलिंगी शब्द है. ऐसे में भ्रम से बचने के लिए या तो मूल कविता का फुलपाखरू शब्द व्यवहृत हो या फिर उसका संस्कृत प्रतिशब्द ‘चित्रपतंग’. भावावेश में कली फुलपाखरू को आमंत्रित करती है, उसे अपना सब कुछ सौंप देती है. बदले में फुलपाखरू-

“रूप तियेचे  करी विच्छिन्न
नकोसे केले   तिजला त्याने
शोषून काढ़ी  मध तियेचा
चिपाड केले  तिला तयाने ..”

‘बिगाड़ डाली उसकी काया
उजाड़ डाला आँधी बनकर
सुखा डाला शहद खींचकर
प्राण सोखकर बर्बाद करके
चला गया वह उसे त्याग कर.”

कली की यह परिणति दिखाकर कवयित्री लिखती है कि उसकी बर्बादी का जिम्मेदार फुलपाखरू कभी उस ओर नहीं लौटा, सपने में भी याद नहीं किया. उसमें शर्म नाम की कोई चीज़ ही नहीं है- “जावयास त्या  लाजही नाही.”कोई याद कराए तो वह पूछता है, कौन-सी कली : “कोण कोठली कळी फुलांची” ?फुलपाखरू की बेवफाई देखकर सावित्री हैरान रह जाती हैं- “पाहुनिया मी  स्तिमित होई.” अपने मायके नायगाँव से 29 अगस्त 1868 को लिखे पत्र में वे जोतिबा को एक ‘मॉब लिंचिंग’ की सूचना देती हैं. गाँव की एक महार नवयुवती सारजा का आकर्षण पोथी-पत्रा वाले गणेश के प्रति हो गया. दोनों के बीच शारीरिक संपर्क से गर्भ भी ठहर गया. यह खबर बाहर आयी और लुच्चे-लफंगों ने उन दोनों को घेर लिया. पीट-पीट कर उनकी हत्या करने लगे. यह जानकारी मिलते ही सावित्री भागते हुए वहाँ पहुँचीं और हत्यारी भीड़ को क़ानून का, अंग्रेज सरकार का भय दिखाकर किसी तरह रोका. पंचायत बैठी. दोनों को गाँव से बहिष्कृत कर दिया गया. यह सब बताकर पत्र के अंत में सावित्री लिखती हैं कि मैंने उन दोनों को आपकी शरण में भेज दिया है. उम्मीद है यह सब जानकर आप उनके रहने की कहीं व्यवस्था कर देंगे- “या उभयतांस तुमचेकडे पाठविले आहे. अधिक दूसरे काय वर्तावे. कळावे ही विज्ञापना.”

डॉ. आंबेडकर ने कहा था कि वे इस लिए जागते रहते हैं क्योंकि उनका समाज सोया हुआ है. सावित्रीबाई ने बिना कहे ही यह बात बहुत पहले जाहिर कर दी थी. शूद्रातिशूद्र के जागरण हेतु लिखी गई किताब ‘बावन्नकशी सुबोध रत्नाकर’के समापन के साथ सावित्रीबाई ने समय भी दर्ज कर दिया था- “मिती शुक्ल पक्ष १५ शके १८१३ रात्री २ बाजून २० मिनिटानी ही पोथी लिहून पूरी केली असे..” रात दो बजकर बीस मिनट पर ग्रंथ लेखन का कार्य पूर्ण करने का अर्थ है कि लेखिका की प्रतिबद्धता, सरोकार और प्राथमिकता उसके निजी सुख, नींद, आराम से बढ़कर है. सावित्रीबाई के आरंभिक जीवनीकारों ने उचित ही इस तेजोदीप्त व्यक्तित्व को ऐसे विशेषण दिए हैं. प्रथम जीवनीकार (1980) डॉ. मा.गो. माळी ने उन्हें ‘क्रांतिज्योति’और डॉ. के. पी. देशपाण्डे (1982) ने उन्हें ‘अग्निफुले’कहा है.
   
उनकी मृत्यु के सवा सौ बरस बीत जाने के बाद उनकी प्रासंगिकता कम होने की बजाए बढ़ी है. वे भारत के दलित स्त्री आंदोलन की नींव रखने वाली पुरस्कर्ता-प्रस्तावक रचनाकार हैं. जाति, जेंडर और वर्गीय शोषण के विरुद्ध संघर्ष में सावित्रीबाई फुले की कविताएँ दीपस्तंभ की भांति प्रतिबद्ध आंदोलनकारियों का मार्गदर्शन करती रहेंगी.
  
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संदर्भ और आभार

‘सावित्रीबाई फुले की कविताएँ’ (2015), संपादन- अनिता भारती, अनुवाद – शेखर पवार, फ़ारूक शाह, स्वराज प्रकाशन, नई दिल्ली

‘सावित्रीबाई फुले रचना समग्र’, (2017), संपादक- रजनी तिलक, अनुवादक- शेखर पवार, द मार्जिनलाइज्ड पब्लिकेशन, इग्नू रोड, दिल्ली-68.

‘काव्य फुले’ (2012, अंगरेजी अनुवाद), अनुवादिका- उज्ज्वला म्हात्रे, संपादिका- ललिताधारा, प्रकाशक- डॉ. आंबेडकर कॉलेज ऑफ़ कॉमर्स एंड इकोनॉमिक्स, मुंबई.

‘सावित्रीबाई फुले समग्र वाङ्मय’ (2018), मुख्य संपादक- प्रा. हरी नरके, संपादक- प्रा. मा. गो. माळी, महात्मा जोतीराव फुले चरित्र साधने प्रकाशन समिती, महाराष्ट्र शासन, मुंबई, इस ग्रंथ का प्रथम संस्करण 1988 में छपा था.

‘महात्मा फुले : साहित्य और विचार’ (1993), संपादक- हरि नरके, महात्मा फुले चरित्र साधने प्रकाशन समिती, महाराष्ट्र शासन, मुंबई

‘किसान का कोड़ा’ (1996), महात्मा जोतीराव फुले, हिंदी अनुवाद- प्रा. वेदकुमार वेदालंकार, महात्मा जोतीराव फुले चरित्र साधने प्रकाशन समिती, महाराष्ट्र शासन, मुंबई.

‘हिंदी साहित्य का इतिहास’, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, छब्बीसवाँ संस्करण, सं. 2049 विक्रमी.
यह लेख शायद ही लिखा जाता अगर मा.शेखर पवार ने सावित्रीबाई फुले की रचनाओं का हिंदी अनुवाद न किया होता. उनके प्रति आभार व्यक्त करते हुए मैं यह जरूर कहना चाहूँगा कि अभी तक जो दो अनुवाद प्रकाशित हुए हैं वे त्रुटिरहित नहीं हैं. इनमें अनुवादकीय और संपादकीय दिक्कतें नज़र आती हैं. अगर मैं मूल मराठी ग्रंथ अपने सामने न रखता तो इस निबंध में गलतियों की संख्या बढ़ जाती.
    
इस निबंध को लिखने का प्रस्ताव दिया दलित लेखक संघ (दलेस) के अध्यक्ष मा. हीरालाल राजस्थानी ने. इस निबंध का पहला ड्राफ्ट दलेस की पत्रिका ‘प्रतिबद्ध’ के सावित्रीबाई फुले विशेषांक में छपा है. दूसरा परिवर्धित ड्राफ्ट ‘कथादेश’ पत्रिका के मई 2019 अंक, मेरे ‘दलित प्रश्न’ स्तंभ में. मैं इन दोनों पत्रिकाओं के संपादकों को धन्यवाद देता हूँ. मराठी ग्रंथ उपलब्ध कराने के लिए अपने अग्रज प्रो. सत्यदेव त्रिपाठी के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ. मराठी भाषा के विद्वानों और अपने शुभचिंतकों मा. अरविंद सुरवाड़े, प्रो. अनिल सपकाल, राहुल कोसंबी, सूर्यनारायण रणसुभे, शिवदत्त वावलकर से निबंध तैयार करते समय पूछताछ करता रहा हूँ. अगर इस निबंध में कुछ सार्थक है तो इसका श्रेय इन्हें है और गलतियों की जिम्मेदारी मेरी है.

देशबंधु महाविद्यालय ने मुझे एक वर्ष का सबाटिकल अवकाश प्रदान करके अध्ययन और लेखन का रास्ता कुछ और आसान बनाया है. मैं अपनी संस्था और इसके प्राचार्य के प्रति आभार व्यक्त करता हूँ.
Email id- btiwari@db.du.ac.in  

कथा-गाथा : अवशिष्ट : नरेश गोस्वामी

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नरेश गोस्वामी की कहानियाँ आप समालोचन पर पढ़ते आ रहें हैं, आम नागरिक की लाचारी और डर को जिस तरह से वह लगातार लिख रहे हैं, वैसा अब तक देखने में कम मिला है. कसी हुई कथा-वस्तु उनकी विशेषता है.

‘अवशिष्ट’ बाज़ार और ताकत के सामने निरीह और डरे हुए एक ऐसे युवा की कहानी है जो किसी भी शहर में आसानी से आपको दिख जायेगा.

कहानी पढ़ते हुए इस डर को आप लगातार महसूस करते हैं.



अवशिष्‍ट                                                 
नरेश गोस्वामी  






भी जब इंस्‍टीट्यूट के सहायकों ने मुझे इस बिल्डिंग के बाहर छोड़ा था तो धूप चिलक रही थी. इसलिए अंदर दाखिल होने के बाद देर तक कुछ भी दिखाई नहीं दिया. यहां की ट्यूबलाइट बहुत पहले खराब हुई थी, लेकिन उसे अभी तक बदला नहीं गया है. जो भी बाहर की रोशनी से अंदर आता है उसे इसी तरह थोड़ी देर इंतज़ार करना पड़ता है. लिहाज़ा मैं भी सीढि़यों की रेलिंग पकड़े इंतज़ार करता रहा कि कुछ दिखाई देना शुरु हो तो आगे चलूं. थोड़ी देर बाद कुछअंदाज़ा सा हुआ तो ऊपर चढ़ने लगा. मेरा कमरा पहले फ़्लोर पर है. हॉस्‍टल की तरह यहां हर फ़्लोर पर आमने सामने कमरे बने हैं. कमरों की यह क़तार जहां जाकर रुकती हैं, वहां एक घुमावदार जीने के बाद ऐसी ही एक क़तार दुबारा शुरु हो जाती है.

बरामदे में हमेशा की तरह एक मरियल रोशनी है. लगता है अभी कुछ देर पहले यहां बहुत से लोग थे जो अब अपने अपने काम पर निकल गए हैं. और जाते समय अपने पीछे यह सूनापन छोड़ गए हैं. मैंने अपना कमरा दूर से पहचान लिया है. कह नहीं सकता कि मुझे उसे पहचान कर ख़ुशी हो रही है या कि मैं बस एक राहत महसूस कर रहा हूं. कमरे की दीवारों पर धूल की परत चढ़ गयी है. वह बिस्‍तर और खुली अलमारी में बिछे सफेद मोटे काग़ज पर भी जम चुकी है. पलंग के बॉक्‍स के पल्‍ले को ऊपर उठाकर देखा— अंदर पड़ी चीज़ें तुड़ी-मुड़ी हो गई है. दरवाजे के पीछे देखता हूं तो कपड़े धूल में चिमटकर चमड़े की तरह हो गए हैं.  

यानी अब फर्श और दीवारों से धूल झाड़ने के अलावा मुझे कपड़े भी धोने पडेंगे. मुझे सफ़ाई करना शुरु से अच्‍छा लगता है. मां कहा करती थी कि मैं ग़लती से लड़का हो गया हूं वर्ना मेरी आदते एकदम लड़कियों वाली हैं. मुझे कमरे में झाड़ू लगाने के बाद फर्श धोने का काम बहुत अच्छा लगता था. इस धुले हुए फर्श पर जब मैं नंगे पांव चलता था तो मेरे भीतर का सारा ताप ख़त्‍म हो जाता था. कमरा धोने के बाद मैं गीले फर्श पर देर तक यूं ही बैठा रहता था. उन दिनों जब सुबह-सुबह चाय के समय मम्‍मी-पापा में अचानक गाली-गलौज शुरु हो जाती थी तो पापा स्‍कूटर उठा कर कहीं निकल जाते थे और मम्‍मी अंदर वाले कमरे में अपने माथे पर अपना दुपट्टा कस कर बिस्‍तर पर लेट जाती थी. उन दोनों की लड़ाई  के बाद जब मैंने पहली बार कमरे की धुलाई की थी तो मेरे भीतर का बढ़ता ताप थोड़ी देर के बाद ख़त्‍म हो गया था. इस तरह, दोनों की लड़ाई के बाद जब बाहर वाले कमरे में बैठे-बैठे मुझे कुछ समझ नहीं आता था तो मैं कमरा साफ़ करने लगता था. शायद अपने ताप से लड़ने की तरकीब ढूंढ ली थी मैंने. आज मेरा वही चालीस साल पुराना दिमाग़ कह रहा है कि कोई मुझे सिर्फ़ एक घंटा दे दे तो मैं कमरे को चमाचम करके रख दूंगा.  

असल में, अब इंस्‍टीट्यूट के सहायकों से पूछे बिना मैं कोई काम नहीं कर सकता. वे हमेशा मेरे आसपास रहते हैं. वैसे वे मुझे कुछ भी करने से मना भी नहीं करते, लेकिन जब भी कुछ शुरु करता हूं तो फ़ौरन सामने आ जाते हैं और मुझे घड़ी दिखाने लगते हैं. इसलिए कमरे की सफ़ाई शुरु करने से पहले मुझे उनसे पूछना होगा कि वे मुझे कितना समय दे सकते हैं. वे थोड़ी दूर खड़े सिगरेट पी रहे हैं. अभी कुछ देर पहले उनमें से एक ने आंख और हाथ के इशारे से मेरी कोई मदद करने के लिए पूछा था. लेकिन मैं किसी को धूल में सानना नहीं चाहता.

सीढि़यां चढ़ते हुए सोचता आया था कि पहुंच कर सबसे पहले नहाऊंगा. लेकिन अब कमरे की गंदगी देखकर नहाने का ख़याल जाता रहा. शरीर और दिमाग की बढ़ती चिड़चिड़ के बीच अचानक ध्‍यान गया कि दीवार में बनी जिस अलमारी के सामने की जगह खाली रहती थी वहां कोई और बिस्‍तर लगा है. अलमारी के एक खाने में देवी-देवताओं की कई मूर्तियां रखी हैं और बिस्‍तर के दाहिने कोने की तरफ़ दीवार पर कच्‍ची पेंसिल से लिखा है: ‘बस भगवान ही सबका साथ निभाता है’. धूल से अंटे मेरे दिमाग की हालत ऐसी नहीं रह गई है कि मैं यह सोच सकूं कि इस बीच मेरे कमरे में कौन घुस आया है. इस कशमकश में अचानक याद आता है कि कमरे में अंदर आने के लिए मैंने ताला खोला ही नहीं था. यह सोचते ही मुझे लगा कि मेरे दिमाग में ‘ओफ़्फ’ जैसा कोई शब्‍द बजा है. आखि़र ऐसा कैसे हो सकता है!यह कमरा मेरे नाम अलॉट है !मैं इसका किराया नियमित रूप से देता रहा हूं !

ठीक है कि मैं कई महीनों के लिए ग़ायब हो गया था लेकिन कमरा तो मेरे ही नाम था. फिर बिल्डिंग का मालिक इस कमरे में किसी और को कैसे घुसा सकता है ?तो क्‍या इसका मतलब ये है कि जिन दिनों मैं ग़ायब रहा था तो राजू यह कमरा छोड़ कर कहीं और चला गया था  !   मेरी आंखों के सामने अचानक एक बैंगनी अंधेरे रंग का पर्दा गिरा है. याद आया कि अभी एक साल पहले तक राजू इसी कमरे में रहने के लिए आया करता था. उसने दो-चार महीने पहले ही ‘स्विच ऐंड स्विच’ ज्‍वाइन की थी जहां मैं पिछले आठ सालों से काम कर रहा था. कभी कभी वह महीने भर तक मेरे साथ रह जाता था. मैंने उससे कई दफ़ा कहा था कि अगर वह टिक कर काम करना चाहता है तो उसे इसी बिल्डिंग में कोई कमरा ले लेना चाहिए. मैंने उसे समझाने की कोशिश की थी कि जब फैक्‍ट्री और बिल्डिंग एक दूसरे के इतने पास पड़ती है तो कहीं बाहर रहने और आने-जाने पर पैसा फूंकने में क्‍या तुक है. लेकिन, राजू ने मेरी राय यह कह कर हवा में उड़ा दी थी कि, ‘इस बिल्डिंग में आकर मैं भी एक दिन तुम लोगों की तरह कबूतर बन जाऊंगा’. किंतु सच ये है कि वह बहुत लंबे समय तक बाहर भी कोई जगह नहीं ढूंढ़ पाया था. और इसका नतीजा यह हुआ कि इस कमरे की दूसरी चाबी लगभग उसी के पास रहने लगी थी.

मैं अब कमरे की सफ़ाई करने का इरादा स्‍थगित करना चाहता हूं. मुझे लगता है कि कमरे की धूल मेरे नथुनों और गर्दन पर जमने लगी है. कुछ देर और बैठा रहा तो वह मेरे शरीर के हर अंग पर चिपक जाएगी. दरअसल धूल के साथ यह एक बड़ी दिक़्क़त है कि अगर तुम उसे बुहार कर बाहर निकालना चाहोगे तो वह उल्‍टे तुम्‍हारी तरफ़ लौट आती है. वह आदमी से इसी तरह बदला लेती है

मैं इतनी सारी बातें एक साथ नहीं सोच सकता. और अकेले यह नहीं समझ सकता कि इस बीच क्‍या क्‍या हुआ होगा. इसलिए कमरे से निकल कर बाहर बरामदे में आ गया हूं. मुझे वक़्त का पक्‍का एहसास नहीं है. इस बरामदे में खड़े होकर कोई भी वक़्त का अंदाज़ा नहीं लगा सकता. सुबह हो या शाम— यहां हर समय ट्यूब लाइट जली रहती है. बरामदे में कहीं कहीं दो तीन लोग किसी ट्यूब के नीचे खड़े बीड़ी पीते हुए बात कर रहे हैं. मेरा उनसे कोई परिचय नहीं है. मैं अपने बचे-खुचे दिमाग से बस इतना पता लगाने की सोच रहा हूं कि अपने उस दोस्‍त के कमरे के बारे में किसी से पूछ लूं. लेकिन उनके चेहरे पर जमी अजनबियत देखकर मेरी हिम्‍मत नहीं होती. इसलिए बरामदे में निरुद्देश्‍य आगे चलते जाने के अलावा मैं कुछ और नहीं कर सकता. लेकिन ठीक इसी बीच मेरे दिमाग में एक नक़्शा खुला है:  दो बरामदों के बाद, जहां यह बिल्डिंग ख़त्‍म होती है वहीं बिल्‍डिंग के मालिक का घर है. कोई ध्‍वनि तरंग मुझसे कह रही है कि मुझे इस बारे में मालिक से जाकर बात करनी चाहिए. मैं उसके कहने पर आगे चल पड़ा हूं.

एक के बाद दूसरा बरामदा आता है. मैं इस खोह में बाहर की तरफ़ चल रहा हूं. और मेरे पीछे एक धूल भरा अंधेरा चल रहा है. लो, अब बिल्डिंग का आखि़री जीना भी उतर गया हूं. ज़मीन पर आते आते मेरे तलुओं से पसीना रिसने लगा है. मैं इस हालत में पैर जमा कर नहीं चल सकता. चलूंगा तो फिसल कर गिर पडूंगा. बिल्डिंग के मालिक का बंगला बस एक पार्क छोड़ कर है. एक विशालकाय अहाते में खड़े इस बंगले के चारों तरफ़ पेड़ों का एक घेरा सा है. बंगले में अंदर जाने के लिए बाहरी दीवार से दो रास्‍ते जाते   है. इनमें एक रास्‍ते जाने और दूसरा आने के लिए है.

मुझे लगता है कि अब यह दूरी मुझे रेंगकर पार करनी पड़ेगी. रेंगने का ख़याल आते मेरे घुटने अपने आप मुड़ने लगे हैं. पसीने के कारण मेरे शरीर के साथ पानी की एक झिल्‍ली बन गयी है जिसमें मैं आसानी से रेंग या रपट सकता हूं. यहां से मैं बंगले की चारदीवारी के एक कोने में गार्ड का माचिसनुमा कमरा देख सकता हूं. मैं आड़ी तिरछी खड़ी लंबी-लंबी गाडि़यों के पहियों के बीच से देखता हूं कि गार्ड एक मोटे रजिस्‍टर पर किसी आगंतुक का ब्‍योरा दर्ज कर रहा है. अभी चार-पांच साल पहले तक इस गार्ड की मूंछ-दाढ़ी स्‍याह काली थी. तब वह इकहरे शरीर का था और चहक कर काम करता था. लेकिन अब वह सिर, मूंछ और दाढ़ी समेत पूरा सफेद हो गया है. मुझे उसकी मूंछ और दाढ़ी नकली लग रही है. आखि़र जो आदमी इतने सालों से इस जगह के अलावा कहीं गया ही नहीं, वह इतने कम समय में इतना सफेद कैसे हो सकता है !  जाने क्‍यों गार्ड को देखकर मेरा हौसला टूटने लगा है. शायद मुझे किसी से कुछ न पूछ कर वापस लौट जाना चाहिए. मेरा संदेह बढ़ने लगा है कि मालिक मेरी इतनी मामूली बात पर कोई ध्‍यान नहीं देगा. वह पहले ही कई लोगों से‍ घिरा होगा और उसके सामने या तो मैं अपनी बात कह नहीं पाऊंगा या वह सुनना ही नहीं चाहेगा. यानी दोनों स्थितियों में मुझे ही बेइज्‍जत होना पड़ेगा.

लिहाज़ा, बंगले की बाहरी दीवार के पास खड़ी एक लहीम-शहीम एसयूवी की ओट में मैंने कुहनियां टिका कर अपनी दिशा बदल ली है. मैं एक बार ज़मीन से सिर उठा कर देखता हूं और दुबारा बिल्‍डिंग की ओर रेंगना लगा हूं.

मन में शायद अब आख़री और बहुत कमज़ोर सा खयाल यह रह गया है कि अगर राजू मिल जाए तो उससे पूछ भर लूं कि आखि़र इस बीच हुआ क्‍या था. लेकिन इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि वह मिल ही जाएगा . इसलिए लौटते हुए मुझमे कोई उत्‍कंठा नहीं बची है. जैसे मैं मालिक की तरफ़ जाते हुए तय नहीं कर पाया था कि मुझे उसके पास जाना चाहिए या नहीं वैसे ही लौटते हुए यह लग रहा है कि राजू के मिलने या न मिलने से भी कुछ नहीं होना.

तभी वह मुझे अचानक एक कमरे अचानक निकलता दिखा. उसका मुंह मेरी तरफ़ था. मैं उसके नाम का बस ‘र’ ही पुकारने वाला था कि वह मेरी तरफ़ दौड़ने पड़ा. उसने मेरे पास पहुंचने से पहले ही बोलना शुरु कर दिया था. मुझे लगा जैसे उसने यह रिहर्सल कर ली थी कि मैं जब भी उसे मिलूंगा तो वह सारी बात इसी तरह दनादन कहता चला जाएगा. वह कह रहा था:

‘देख यार, तू जब अचानक ग़ायब हो गया तो मैं महीनों इंतज़ार करता रहा. मैं हर दिन तेरा मोबाइल ट्राई करता था लेकिन वह हमेशा बंद मिलता था. मैंने तेरे भाई से भी कांटेक्‍ट किया लेकिन उसने बस यही बताया कि तू कहीं ग़ायब हो गया है. इससे ज्‍़यादा उसने कुछ नहीं बताया. बता मैं क्‍या करता. वो मेरा कमरा तो था नहीं. तो फिर तेरे बगैर मैं उसमें कैसे रहता. उसके बाद मैंने एक बंदे से रिक्‍वेस्‍ट की कुछ दिनों के लिए वह मुझे अपने साथ रख ले’.

इतना कहकर वह अचानक चुप हो गया. दिमाग में उड़ती रेत के बीच मेरा उससे यह कहने का मन हुआ: ‘साले तू कब तक यूं ही भटकता रहेगा’. लेकिन एकदम ख़याल आया कि मेरी हालत भी तो वैसी ही है. राजू इतना दीन लग रहा था कि मैं उसे और परेशान नहीं करना चाहता था. इसलिए बस इतना पूछ पाया- .... तो ये बंदा कौन है और मेरे कमरे में कब से रह रहा है ?

‘मुझे ज्‍यादा नहीं पता. लेकिन तुम्‍हारे गायब होने के बाद जब एक दिन मैं कमरे में था तो मालिक के दो एजेंट आए. उनके साथ एक कमज़ोर सा लड़का था. एक एजेंट ने मुझसे पूछा कि यहां कौन रहता है. मैंने जब कहा कि मैं ही रहता हूं तो उसने हंसते हुए कहा कि ‘अबे ओय झूठ क्‍यूं बोल रहा है, तू तो स्‍टपणी है उसकी. देख यू छोरा तीनेक महीन्‍ने इसी कमरे मैं रहवैगा’. उन लोगों को पहले से पता था कि मैं तेरे साथ फ्री में रहता हूं. इसलिए मैं उनका विरोध नहीं कर सका. और शाम तक वह लड़का बिस्‍तर समेत इस कमरे में आ गया. बाद में थोड़ा बहुत पता चला कि वह लड़का मालिक के किसी दूर के रिश्‍तेदार का बेटा है, वह कहीं नौकरी करता है और यहां दो-चार महीने के लिए रहेगा’
मुझे लगा कि राजू अब मुझसे शायद यह पूछेगा कि मैं कहां गायब हो गया था ?इसलिए आगे बोलने से पहले इंतज़ार करता रहा कि वह कुछ कहे लेकिन उसे मेरी गुमशुदगी में कोई दिलचस्‍पी नहीं थी. उसके चेहरे या आंखों में ऐसा कोई सवाल ही नहीं था. एक क्षण के लिए मुझे धक्‍का सा लगा लेकिन फिर उसी की बात याद आई कि मेरे भाई को भी मेरे ग़ायब हो जाने से कोई फर्क नहीं पड़ा था. और उसने भी यह जानना नहीं चाहा था कि मैं कहां चला गया था.

राजू शायद अपनी हर बात कह चुका है. मेरा अचानक ध्‍यान गया कि उसकी मूंछ और दाढ़ी का बड़ा हिस्‍सा सफेद हो चुका है. वह बहुत थका हुआ है. मुझे उसे जाने देना चाहिए. पर उसने यह बात मुझसे पहले सोच ली थी. उसने अपने सिर को थोड़ा टेढ़ा करते हुए कहा- ‘अच्‍छा तो... अब...’
और वाक्‍य अधूरा छोड़ कर बरामदे की सलेटी रोशनी में आगे बढ़ने लगा.  

बरामदे के आखिरी छोर पर सीढि़यां उतरने से पहले वह अचानक ठिठका. मुझे लगा कि वह पलट कर कोई छूटी हुई बात कहना चाहता है. लेकिन वह वहीं खड़ा रहा. उसने एक क्षण के लिए गला साफ़ किया और बिना मुड़े कहने लगा: ‘अमन, तुम कब तक नींद में चलते रहोगे... तुम स्‍वीकार क्‍यों नहीं करते कि तुम्‍हें यहां से निकाल दिया गया है... तुम्‍हारा अब इस जगह से कोई ताल्‍लुक नहीं रह गया है... और तुम जिस बात को छिपाते रहो हो उसका सबको पता चल चुका है... देखो, अगर इस बार उन्‍होंने तुम्‍हें यहां देख लिया तो तुम्‍हारा भुर्ता बना कर रख देंगे...’.

मैं यह देखकर दहशत से भर गया हूं कि यह बात कहते हुए उसके शरीर में कोई हरकत नहीं हो रही है. लगता है जैसे वह कागज़ पर लिखी कोई सूचना पढ़ रहा है और आवाज़ उसकी पीठ से निकल रही है. आखिर में, जब उसने नीचे उतरने के‍ लिए सीढि़यों पर पैर रखे तो मुझे यकायक महसूस हुआ कि मैं इस लंबे बरामदे में एकदम अकेला हो गया हूं. कि मैं ग़लत जगह आ गया हूं और मुझे यहां ज्‍़यादा देर नहीं रुकना चाहिए.

मेरे भीतर बिखरे पत्‍ते, टहनियां, प्‍लास्टिक की पन्नियां और न जाने कैसी अंडबंड चीज़ें फिर जमा होने लगी हैं. कुछ देर बाद वे आपस में टकराने लगेंगी और उनके बीच मैडम कपाही की टीन की तरह बजती आवाज़ आने लगेगी: ‘अमन जी, कंपनी की स्विच यूनिट बंद हो रही है...जीएम का ऑर्डर है... इस हफ़्ते अपना हिसाब कर लेना’.

मैं यह तक जानता हूं फिर इसके बाद रेत का एक बगूला उठेगा और गोल गोल चक्‍कर काटने लगेगा. और इस रेतीले शोर में हज़ारों उखड़े बिखरते शब्‍द आकर मेरी कनपटी पर बजने लगेंगे: ‘पर मैडम आठ सालों के बाद... किस्‍तें, पहले बता दिया होता तो... जिंदग़ी को दुबारा सैट करना...’

दोनों सहायक मुझे ढूंढ़ते हुए ऊपर आ गए हैं. वे बरामदे के दूसरे सिरे पर खड़े मुझे हाथ के इशारे से बुला रहे हैं. मैं ताड़ गया हूं कि मुझे नियत जगह पर न पाकर वे चिंतित हो गए थे.  

उन्‍हें बरामदे के इस झनझनाते सूनेपन में देखकर मेरी दहशत कम होने लगी है. उन्‍होंने मुझे चलने का इशारा किया है. मैं लगभग एक पालतू पशु की तरह उनकी ओर दौड़ने लगा हूं. मेरे पैरों में एक परिचित ख़ुशी दौड़ रही है कि बाद में जो होगा सो होगा लेकिन कम से कम फ़ौरी तौर पर तो वे मुझे इस बिल्डिंग से बाहर ले ही जाएंगे  
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सबद भेद : बेवतनी से बदवतनी तक : बलवन्त कौर

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(Photo by James Groleau)



राष्ट्र के महाख्यान में दर्द और ज़ख्मों के तमाम अध्याय छुपा लिए जाते हैं, कोशिश होती है उनसे आँख चुराने की. उन्हें याद करना अपने को यातना के कटघरे में खड़ा करना है.

बलवन्त कौरआजकल देश के विभाजन, दंगे और साम्प्रदायिकता से जुड़े हिन्दी, उर्दू, पंजाबी साहित्य पर कार्य कर रहीं हैं. यह आलेख 47 से लेखकर 84 तक के कत्लेआम की बेहद तकलीफ़देह यात्रा है  जो बेवतनी से बदवतनी तक पहुँचती है. 


बेवतनी से बदवतनी तक                     
बलवन्त कौर


(यह लेख 1947और 1984से संबंधित कहानियों, संस्मरणों, हलफनामों के सहारे की गई स्मृतियों की एक बेतरतीब यात्रा है जिसमें व्यवस्थित विश्लेषण या विमर्श की जगह हिंसा और विस्थापन के अनुभवों से उपजे विचार भर हैं जो विभाजन के सत्तर सालों के बाद भी जारी उसकी निरंतरता को रेखांकित करते हैं.)



“खौफ़ और दहशत का वह मंजर इतने सालों के बाद आज फिर ताजा हो गया. उस दिन दरबार साहिब (स्वर्णमंदिर) में श्रद्धालुओं की (गुरूपुरब की वजह से) भीड़ थी या आतंकियों व फौजियों की, कहना मुश्किल है. अभी कल ही की तो बात है जब दादी की उंगली पकड़े एक बच्ची दरबार साहिब में मस्ती कर रही थी. अचानक उसकी मस्ती जिद्द में बदल गई. जिद्द, घर जाने की. घर, जो उस शहर से दूर दिल्ली में था. दिल्ली तो नहीँ पर दरबार साहब से निकल कर हम जहां पंहुचे, इतना याद है, पूरा शहर अन्धेरे में डूबा मिला. गोलियाँ शहर पर चील की तरह मँडरा रही थीँ. ज़रा सा दीवार या खिड़की से बाहर निकले नहीँ कि चील झपट्टा मार दूसरी दुनिया में पहुँचा देती. दम साधे दादी ने पोती को सीने से लगाए रखा. कहीँ ग़लती से भी चील उस बच्ची को न उड़ा ले जाए. दादी के सामने सन सैंतालीस था जहाँ मारने वाले और बचाने वाले सब आमने-सामने थे.

पर आज कौन किस को मार रहा था, पता ही नहीं था. किसी तरह खौफ़ के वे दिन-रात कटे. दिल्ली घर वापस आने की वह जद्दोजहद  अपने चरम पर पहुँच गई थी. लेकिन खौफ़ और दहशत में जीता वह सारा शहर ही मानो वहाँ से भाग जाना चाहता था. न रेल में जगह, न बस में. आज का ज़माना भी नहीँ था कि अपने ज़िन्दा होने की खब़र मोबाइल या फ़ोन से दी जा सकती. एक लम्बी जद्दोजहद के बाद घर वापसी हुई. पर वे अन्धेरी, खूनी रातें कई सालों तक दुःस्वप्नों का हिस्सा बनी रहीं, दादी की नहीँ उस बच्ची की. दादी तो सन सैंतालीस देख चुकी थी. सब कुछ ठीक ठाक था. सब पहले जैसा हो गया था. लेकिन दादी कहती थी ज्यादा निश्चिंत या खुश नहीँ होना चाहिए, नज़र लग जाती है. और हुआ भी वही, नज़र लग गई. अब नज़र लग गई रोटी और बेटी के सम्बन्धों को.  इस शहर पर भी चीलें उड़ने लगीँ.... “जब एक बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती तो हिलती है”... “खून का बदला खून तो होना चाहिए”..

क्यों बख्शा जाए इन सरदारों को ... आख़िर एक प्रधानमंत्री को उसके सरदार बॉडीगार्डों ने मारा है,इतनी आसानी से थोड़ा जाने देंगें इन सरदारों को’.... बच्ची और दादी के साथ सारा घर हैरान! मानने को तैयार ही नहीँ, शहर में कुछ गड़बड़ है. चीलें उड़ रही हैं. किसी पुलिस वाले ने कहा “सरदारजी घर के अन्दर चले जाइए. सिखों का कत्ल किया जा रहा है. हमारे हाथ बांध दिए गए हैं. हम कुछ नहीँ कर पाएंगे”.

बच्ची के घर के लोग आदतन जिद्द में “जी, हम क्यों जाएं घर, हमने थोड़े ही मारा है प्रधानमंत्री को.  ‘मोने’ हमें क्यों मारेगें? उनसे तो हमारा रोटी-बेटी का सम्बन्ध है, खून का रिश्ता है”. लेकिन थोड़ी ही देर में चारो तरफ  मार-काट, धुँआ, लूट-पाट की खबरें हवाओं मे तैरने लगी. दादी फिर परेशान. जिन बच्चों को पाकिस्तान से जिंदा बचा कर लाई थी, आज अपने ही देश में उन्हें कैसे बचाए. देखते ही देखते कुछ लोगों ने एक सरदार पड़ोसी को मार दिया, पूरा गुरूद्वारा जला दिया. और लड़ने लगे दंगाई आपस में लूट के सामान के लिए. वह सामान भी जो साँझी सम्पत्ति था.

गुरूद्वारे में सब के लिए समान रूप से उपलब्ध. दादी फिर बैचेन. बताती है- नहीँ उन्नी सौ चौरासी ,सन सैंतालीस से ज्यादा भयानक है क्योंकि उन दिनों पड़ोसियों में ‘आंख की शर्म’ तो थी. तब हमारे पड़ोसी हमें देख आँख नीची कर हमारे सामने से चले गए थे, जाने दिया था हमें, पर आज तो आँखों की शर्म भी मर गई है”.[i]



कहानी की यह दादी और उनका परिवार आज भी जीवित है पर ‘सन सैंतालीस से चौरासी’ तक की यातना, उसके पूरे परिवार की स्मृतियों का बड़ा हिस्सा है. सिर्फ़ दादी ही नहीँ सम्पूर्ण हिन्दुस्तानके जातीय मानस में ‘विभाजन’ और ‘दंगे’ हमेशा एक जीवित स्मृति के रूप में विद्यमान हैँ. अपने घरों से, सम्पत्ति से बेदखल कर दिए जाने का दर्द, अपनों को अपने सामने मरते और बलात्कृत होते देखने का दुख तो था ही, लेकिन एक नयी जगह पर ‘रिफ्यूजी’ बन पैर जमाने का संघर्ष भी इस यातना में शामिल है. विभाजन की हिंसा में जो जिंदा रह गए उन्होंने ही नहीँ बल्कि उनकी संतानों ने भी इस संघर्ष को बहुत क़रीब से देखा और महसूस किया है.

कृष्णा सोबती ने अपने एक साक्षात्कार मे विभाजन के सन्दर्भ में ठीक ही कहा हैं- “१९४७ को भूलना जितना मुश्किल है याद रखना उतना ही खतरनाक”. पर समस्या यह है कि हिन्दुस्तान की सियासत ने ‘बर्बरता और हैवानियत’ के मन्ज़र को भूलना तो दूर, इतनी बार दोहरा कर याद रखवाया है कि कुछ लोगों या समुदायों के लिए उन्नीस सौ सैंतालीस कभी खत्म ही नहीँ हुआ. जो लोग विभाजन की कहानियाँ सुनते हुए बड़े हुए थे. उन्नीस सौ चौरासी से दो हजार दो तक न जाने कितनी तरह के विभाजन उनके सामने साकार हो गए. विभाजन, जो एक ऐतिहासिक- राजनीतिक परिघटना थी, कब तीसरी पीढी के सामने फिर से साकार हो गई पता ही नहीँ चला. दादी की तरह ‘रफूजी’[ii] 

कहानी की नानी भी इतिहास के उस क्षण में जीती उन्नीस सौ चौरासी को उसी दर्दनाक अतीत की छाया में देखती रहती है, जहाँ उसके ‘पेड़ जैसे तीन लड़कों’ का उसकी आँखों के सामने कत्ल कर दिया गया था. अतीत की खासियत होती है कि वह वर्तमान के साथ साये की तरह जुड़ा रहता है. इसलिए हरियाणा में दिल्ली से आए चौरासी के रिफ्यूज़ियों को देख वह सहसा कह उठती है- “हाय रब्बा, यह दिल्ली में पाकिस्तान कब बन गया” [iii].इस तरहचौरासी ने नानी के दिमाग में फिर से सैंतालीस को जागृत कर दिया और ‘मोने’ (हिन्दू)  होते हुए भी सैंतालीस और चौरासी में उसके लिए कोई फर्क़ नहीँ रहा. तब वह जिनके साथ रिफ्यूजी हुई थी, उनमें से कुछ आज फिर से ‘रिफ्यूजी’ हो गए थे. हाँ, एक अन्तर जरूर था, सैँतालीस के लुटे –पिटे लोगों के बीच सब कुछ खो कर भी एक तसल्ली थी कि वे एक ऐसी जगह जा रहे हैँ जिस की नींव भले ही हिंसा पर हो पर वहाँ ‘अपने’ होंगे और फिर से किसी ‘विभाजन और विस्थापन’ का सामना नहीँ करना पड़ेगा. लेकिन चौरासी में अपने देश जैसी कोई भी अवधारणा ही बेमानी हो गई थी. प्रो हरभजन सिंह ने ठीक ही कहा-  

“किसी और देश में अजनबी होता, जर्मनी में यहूदियों की तरह की नियति भोगता तो भी शायद इतना दुख नहीँ होता. पर अपने देश में बाहरी की तरह, गर्दन तोड़ने के क़ाबिल समझे जाने का दुख इससे कहीँ अधिक संताप पैदा करता था. बेवतनी से कहीँ बड़ा दुख बदवतनी का था”

बेवतन हो जाण दा दुख सी लिया, दुख जर लिया
बदवतन हो जाण दी बोली किसे मारी न सी. [iv]

अपने ही देश में ‘बदवतन’ होने के दुख ने लोगों को हिला कर रख दिया. सैंतालीस, चौरासी  बन पहले से ही विस्थापितों को पुन: विस्थापित कर गया.

“मुझे अपना सामान बांधने में आधा घंटा लगा. मैँ सोचने लगा कि अपने घर से मैँ क्या-क्या उठाऊँ जहाँ पर पाकिस्तान से निकाले जाने के बाद से रहता आ रहा हूँ. अंततः मैने तय किया कि मैँ यहाँ से कुछ भी नहीँ उठाऊंगा, सब कुछ यहीँ रहने दूंगा.........आज से सैँतीस साल पहले ऐसे ही अपना सब कुछ पाकिस्तान में छोड आया था, अब हिन्दुस्तान में ही सही.[v]


आज़ाद लोकतांत्रिक हिन्दुस्तान में यह पहली बार हो रहा था. जब व्यक्ति को उसके धर्म, उसकी अलग पहचान व वेशभूषा-- पगड़ी और दाढ़ी के कारण चिन्हित करके मारा जा रहा था. पगड़ी और दाढ़ी इसलिए, क्योंकि जिन लोगों ने किसी तरह अपने बाल दाढ़ी कटवा लिए और पहचाने नहीं गए, वे बच गए.

“शाम छः बजे कत्लेआम शुरू हो चुका था..चारों ओर अन्धेरा था, इलाके का बिजली पानी काट दिया गया था, इलाके में २०० लोगों की भीड़ इकठ्ठा हो गई. वो लोगों को घर से निकालते, उन्हें मारते, फिर उन पर तेल छिड़क कर आग लगा देते..... त्रिलोकपुरी की तंग गलियों के कारण लोग चाहकर भी भाग नहीँ सकते थे. तलवारों से लैस दंगाइयों की भीड़ ने इलाके को घेर रखा था...... रात करीब साढ़े नौ बजे मैंने अपने बाल काटे ......” [vi]

अपनी पहचान बदलने वाले तो बच गए वर्ना ऐसे परिवारों और लोगों की फेहरिस्त देखी जा सकती है जिनका आधा परिवार सैंतालीस में खत्म हो गया था और बचे हुए सारे चौरासी खा गई. दिल्ली में चौरासी के बाद बसी विधवाओं की कॉलोनी इसका प्रमाण है. जीता जागता चौरासी और उसके चिन्ह इन कॉलोनियों में देखे जा सकते है.

यह बहुत दिलचस्प है कि ऐसा तब हो रहा था जब हिन्दू-सिख संघर्ष का कोई इतिहास पहले से मौजूद नहीँ था बल्कि दोनों के बीच सामाजिक-सांस्कृतिक और कई जगह रक्त सम्बन्धों का भी सांझापन था.

(पाकिस्तान से यह परम्परा रही थी कि कई हिन्दू परिवारों में एक बेटे को सिख बनाया जाता था. हिन्दू वहाँ, हिन्दू नहीँ ‘मोने’ कहलाते, शादियों भी आपस में साधारण बात मानी जाती थी. खुद दादी, जो ‘हिन्दू’ थी, का विवाह सिख परिवार में हुआ था)

स्वतंत्र भारत में उस साँझेपन को ‘प्रधानमंत्री’ की हत्या से जोड़कर ‘राज्य’ के सुनियोजित और सुसंगाठित हस्तक्षेप से तोड़ा गया. यह नरंसहार इतने सुनियोजित तरीके हुआ कि केवल दिल्ली में ही ३००० सिख और पूरे देश में लगभग ५००० सिखों को मार ड़ाला गया था. (अलग-अलग रिपोर्टों के मुताबिक)

“देखते देखते ही ट्रकों के ट्रको अजीब सी भीड. को उतार कर चले गए. कोई अनदेखा हाथ उन्हें मिटी के तेल के डिब्बे, सरीए और लाठी थमा गए. वह हुडदंगी भीड़ सामने की कोठी में से जो भी सामान मिला लूट लूट कर ला रही थी. हाथों में बरबादी और मौत का सामान लिए आदम बू, आदम बू करती भीड़ पागल सांडों कि तरह घुम रही थी जैसे ही शिकार सामने आता उसके सिर पर सरियों और लाठियों से पहले उसको जख्मी करती फिर उस पर मिट्टी का तेल डाल लाग लगा खुशी से किलकारियाँ मारती जैसे ...क्रिकेट का मैच जीत लिया हो या किसी की पतंग काट ली हो या...फिरंगी का यूनियन–जैक उतार कर अपना तिरंगा लहराने में कामयाबी पा ली हो.” [vii]
इस जनसंहार में दंगाई कब ‘देश’ के रूप में और एक प्रधानमंत्री देश की ‘माँ’ के रूपक में बदल गई, पता ही नहीँ चला. जब भी दंगाई किसी सिख को मारने के लिए, टायर या पाउडर डाल के जलाने के लिए घेरते, तो उनका पहला वाक्य होता “तुमने देश की माँ को मारा है तुम्हें जिंदा रहने का कोई अधिकार नहीं है.‘ इन मरने वालोँ में स्वतंत्रता सेनानी और फौजी भी थे जिन्होंने दँगाईयों के देश के लिए लाठी और सरहद पर गोली भी खाई थी.

“मैँ बार –बार वही पहुँच जाती हूँ वहीं, जहाँ जमुना बाजार के पास रिंग रोड़ पर बस चालक ने दारजी को उतार दिया था, आगे होता दंगा भाँपकर. दारजी उतरे ही थे कि जाने कहाँ से भिड़ों के छत्ते की तरह दंगाई उन पर टूट पड़े थे. हाथोँ में बांस और लाठियाँ लिए. किसी ने उनकी जेब नहीँ टटोली, पैसे नहीँ छीने, घड़ी नहीँ ली. बस उन्हें पीट-पीट कर मुर्दा करके वहाँ डाल गए. मालूम नहीँ, वह कितनी देर वहाँ पड़े रहे, रिंग रोड के किनारे.” [viii]

देश की माँ की हत्या का बदला हजारों सिखों से लिया जा चुका था. इस सारी दहशत के बाद औरतें बची दोहरा दुख भोगने के लिए. पति और बच्चे तो आँख के सामने खत्म हो चुके थे. लेकिन इसके बाद भी कहर नहीँ थमा-  

सुबह आँखों के सामने अपने पति और परिवार के दस आदमियों को दंगाइयों के हाथों कटते-मरते देखा था और अब रात को यहीँ कमीने हमारी इज्जत लूटने आ गए थे”.
यह कहते हुए भागी कौर के अंदर मानो ज्वालामुखी धधकने लगता है.

“दरिंदोँ ने सभी औरतों को नंगा कर दिया था. हम मजबूर, असहाय औरतों के साथ कितनों ने बलात्कार किया याद नहीँ. मैँ बेहोश हो चुकी थी.... इन कमीनों ने किसी औरत को पूरी रात कपड़ा पहनने नहीँ दिया.“  [ix]

कुछ ऐसे ही हालात देखते हुए गगन गिल की माता जी को सन सैंतालीस में जलंधर में स्तन कटी औरतों का जलूस याद आता है और वह एक हाथ में तलवार ले अपनी बेटियोँ से माफी मांगती हैँ –

“सारा समय माँ हम चारों बहनों को एक-एक करके देखती रही जब काफी देर वे लोग दूसरी मंजिल से नीचे नहीं गए, तो उन्होंने खुद को मजबूत किया. हाथ जोड़ते हुए कहा, ‘मेरी बच्चियों, अगर मुझे तुम्हें मारना पड़ा, तो मुझे माफ़ कर देना. मैनें सन् सैंतालीस में देखा था, औरतों के साथ क्या होता है....” [x]

दादी भी कहती है ‘दंगा किसी भी कौम में हो भोगना तो औरतों को ही होना पड़ता है. दंगे में भी, दंगे के बाद भी. इतना कहते ही वह पाकिस्तान में छूट गई अपनी भतीजी को आज भी याद कर रोने लगती है. दादी नहीँ जानती उसकी भतीजी आज़ादी के सत्तर साल बाद आज जीवित भी है या नहीँ. पर उसे लगता है, अगर बच कर हिन्दुस्तान आई होती तो चौरासी में न जाने उसका क्या हश्र होता. क्योंकि राष्ट्रवाद या देशभक्ति की इबारतें ज्यादातर औरतों के जिस्म पर ही लिखी जाती हैं. अमृता प्रीतम के लाख पुकारने पर भी कोई ‘वारिसशाह इनके दर्द को देख कब्र से कभी नहीँ उठता’ [xi].

गुरूद्वारों मे आग लगा, लोगों को जिंदा जला, औरतों से बलात्कार कर कामयाबी का यह तिरंगा लगातार तीन दिनों तक फहराया जाता रहा. अगर कोई कसर बच रही थी तो उसे पूरा करने के लिए गुरूग्रंथ साहिब को जलाने-फाड़ने की होड़ भी देखी जा सकती थी. ऐसी ही किसी होड़ को देख दादी फिर सैंतालीस में पहुँच जाती है जब उसके पीछे आ रहे काफिले पर अचानक मुसलमानों ने हमला कर दिया. हमलावरों के हाथों में तलवारें थी. काफिले के कुछ लोगों ने अपने सर पर गुरुग्रंथ साहिब उठाए हुए थे. इन लोगों ने हमलावरों से पवित्र ग्रंथ को नदी में प्रवाहित करने की अनुमति मांगी जो उन्हें मिल गई. यह अलग बात है कि आदिग्रंथ के साथ वे सब भी नदी में कूद पड़े थे. दादी और उनकी देवरानी अपने भाइयों की लाशें वहीं छोड़, सिसकियों को दबाए वहाँ से आगे चल दीं जहाँ चूहेवाली (अब पाकिस्तान में) में उन्हें एक मुसलमान ने पनाह दी. 

दादी लगातार चौरासी में सैंतालीस को खोजती नज़र आती. ‘सैंतालीस से चौरासी तक ने गुरूग्रंथसाहिब को भी प्रधानमंत्री का इतना हत्यारा बना दिया कि पवित्र ग्रंथों की विरासत संभालने वाले ‘मोने’ तक भी इस वहशीपन से घबरा उठे’. ‘झुटपुटा’ कहानी के ‘मोने’ चौधरी साहब को जब लोग उलाहना देते है कि लूट-पाट मची थी और आगजनी में वह कहीँ नज़र नहीँ आये तो उनका जबाव था-

“मेरे घर में दरबार साहिब रखा है ना. एक कमरे में हमने छोटा –सा गुरूद्वारा बनाया हुआ है ना, साईं. अब किसी बदमाश को पता चल जाता तो मेरे घर को ही आग लगा देता. अब अपना ही कोई आदमी उन गुंडों को बता देता कि इधर दरबार साहिब रखा है, तो वे मेरे घर को ही आग लगा देते. हम हिन्दू तो एक-दूसरे को काटते हैँ ना. [xii]

दरअसल 1984भारतीय लोकतंत्र का वह हादसा है जिसने आज प्रबल हो चुकी हिंसक और उद्धत हिन्दूवादी मानसिकता जो सैंतालीस में शैशवावस्था में थी, को रचने और गढ़ने का काम किया. आज़ादी के सैंतीस साल बाद दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र एक हिन्दू राष्ट्र में रूपान्तरित हो रहा था.  एक एक ऐसा राष्ट्र जिसमें सिख या अल्पसंख्यक  इस देश के समान नागरिक नहीँ  बल्कि ‘आतंकवादी या गद्दार’ थे.  

तब प्रधानमंत्री की हत्या की प्रतिक्रिया से लेकर,सिखों के आतंकवादी और गद्दार होने के न जाने कितने नैरेटिव गढ़ दिए गए थे. यहाँ तक कि फैली हुई हिंसा के बीच सिखों के प्रति सहानुभूति कम करने के लिए अनेक तरह की अफवाहों ने भी अपना काम किया- ‘सिखों ने भी तो पंजाब में हिन्दुओं को मारा है,  ‘सिखों ने पानी में जहर मिला दिया है’, ‘सिख रेजीमेंट ने बगावत कर दी है’ या फिर ‘पंजाब से हिन्दुओं को मार कर गाड़ी भर कर भेजा जा रहा हैँ’. ठीक वैसे ही जैसे सन सैंतालीस में सरहद के दोनों तरफ सर कटी लाशों का हजूम लेकर गाड़ी आने की अफवाह फैली और इन अफवाहों ने हिंसा को बढ़ाने के साथ जायज ठहराने के तर्क भी तलाश लिए. चौरासी में भी ऐसी ही अफवाहों( प्रधानमंत्री की मौत पर सरदारों ने मिठाईयाँ बांटी आदि)  द्वारा हिंसा को उचित ठहराया गया. 



किसी समुदाय के प्रति नफ़रत फैला कर उनका जनसंहार कराने के इस प्रयोग को आज़ाद और लोकतांत्रिक भारत में पहली बार सफलता पूर्वक अंजाम दिया गया.  बाद में यह प्रयोग और खुले तौर पर २००२ में दोहराया गया. आज तो अफ़वाहों का उत्पादन एक छोटे-मोटे उद्योग के रूप में ‘पोस्ट-ट्रुथ’ की शक्ल में हमारे दौर का एक लक्षण बन चुका है. 

इस मानसिकता को गढ़ने में तब की पुलिस प्रशासन, मीडिया, विपक्ष सब ने न सिर्फ़ अहम भूमिका निभाई बल्कि उनके भीतर का साम्प्रदायिक चरित्र, भी पूरी तरह से उभर कर सामने आया. इस संहार के बाद जब 

“पहली बार संसद बैठी तो पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की मृत्यु पर तो शोक-प्रस्ताव आया, पर देश में मारे गए ५००० निर्दोष सिखों के बारे में एक लफ़्ज़ तक नहीं बोला गया था. सत्ता-पक्ष तो मौन रहा ही, उस वक़्त विपक्ष ने भी अपनी जुबान सिल ली थी.” [xiii]  

तब के विपक्ष में वामपंथी पार्टियों के अलावा भारतीय जनता पार्टी भी शामिल थी. र एसएस के पूर्वप्रमुख नानाजी देशमुख ने भी ‘प्रतिपक्ष’ पत्रिका में दिए गए अपने तात्कालिक संदेश में इन दंगों को इंदिरा गाँधी की हत्या के साथ-साथ सिख आतंकवाद  से उभरी सहज प्रतिक्रिया ही बताया.[xiv]अगर उस समय सत्ता का यह साम्प्रदायिक चरित्र नहीँ उभरता तो शायद उसके बाद 1991-92 और बाद में 2002भी नहीँ होता. इन सब की नींव चौरासी ही बना. नानावती आयोग में आए हलफनामों और साहित्य के आत्मकथनों में पुलिस और मीडिया की भूमिका को देखा जा सकता है. दादी को याद आता है जब सैंतालीस में  लायलपुर स्टेशन (अब पाकिस्तान में) पर मालगाड़ी में बैठे काफिले के लोग गाड़ी चलने की उडीक(इन्तज़ार) कर रहे थे तभी मुस्लिम हमलावरों ने धावा बोल दिया लेकिन उस समय गोरखा रेजीमेंट के सैनिकों ने पहुँच कर न सिर्फ़ सभी को बचाया बल्कि गाड़ी को सही सलामत अमृतसर तक भी पहुँचाया. लेकिन आज चौरासी मे तो पुलिस स्वयं दंगाइयों का रोल अदा कर रही थी. पुलिस के भीतर का साम्प्रदायिक चरित्र इस समय साफ़ तौर पर उभर कर सामने आया था. बाद में हाशिमपुरा, गुजरात दंगों आदि में पुलिस के इस चरित्र को साफ़ तौर पर देखा जा सकता है. 

“स्थिति को देखते हुए ग्रंथी ने सब सिखों को दोपहर गुरूद्वारे में इकठ्ठे होने को कहा, ताकि हमले की स्थिति में कुछ तो प्रतिरोध किया जा सके. भीड़ ने सात दफा हमला लिया... दोपहर तीन बजे के क़रीब पुलिस मौक़ा-ए-वारदात पर पंहुची. सिखों को लगा कि लम्बे समय से जो संघर्ष चल रहा है वह खत्म हुआ. ...पुलिस ने आते ही इस तरह के तेवर भी दिखाए. सिखों से कहा सभी गुरूद्वारे के अन्दर एक कोने में चले जाओं... सिख पुलिस पर भरोसा कर अन्दर चले गए. लेकिन उनकी आंखे तब खुली की खुली रह गई, जब दंगों को नियंत्रित करने के लिए आए रिज़र्व पुलिस बल ने गुरूद्वारे पर उसी तरफ गोलियां चलानी शुरू कर दी , जिस तरफ सिखों को इकठ्ठा किया गया था....” [xv]

यहाँ तक की दूरदर्शन तक  हिंसक वक्तव्यों के प्रचार प्रसार में लगा हुआ था. बार बार कैमरे का फोकस ‘खून बदला खून’ या ‘सरदारों ने देश की मां को मारा है खून के छींटे उनके घरों तक भी जाने चाहिए’ जैसे नारों को बार बार दिखा रहा था. दादी की पोती को अच्छी तरह याद है कि यह वही समय था जब रविवार सुबह दूरदर्शन पर सिंह-बन्धुओं की आवाज में ‘कोई बोले राम-राम... ‘शब्द  से सुबह की शुरूआत होती थी. उसी दूरदर्शन का साम्प्रदायिक राष्ट्रवादी चरित्र उभर रहा था. यह इस मामले में अनोखा नरसंहार था जिसमें भीड़ का नेतृत्व समाज के सम्मानित नेता कर रहे थे. इन नेताओं का दबदबा इतना था कि अस्पतालों तक ने जले लोगों या घायल सरदारों का इलाज करने से मना कर दिया था. पंजाबी में कहावत है “नहूवाँ नालों मास कदी अलग हो सकता है?” (नाखूनों से भला कभी मांस अलग हो सकता है) लेकिन चौरासी ने मांस को नोच-नोच कर अलग कर दिया.

“तभी कुछ लोग दुकान के अन्दर से एक अलमारी को घसीट कर सड़क के बीचोबीच ले आये और देखते-ही-देखते धू-धू करती आग के शोले उसमें से निकलने लगे... मानो लोहड़ी जलायी गयी हो. साइन बोर्ड तोड़ने वाला अभी छड़ से अलमारी को पीट रहा था.
“दुकान सरदार की है मगर घर तो हिन्दू का है.” तमाशबीनों में से एक आदमी बोला, “इसलिए अलमारी बाहर खींच लाए हैँ.”
इस पर एक और आदमी ने टिप्पणी की, “इधर पीछे ड्राई क्लीनर की दुकान को आग  नहीँ लगाई.”
“क्यों?”
“क्योंकि उसमें एक हिन्दू और एक सिख दोनों भाई वाल हैँ.”...
“पीछे मोतीनगर में ड्राईक्लीनर की एक दुकान किसी सिख-सरदार की है. उसे जलाने गए तो किसी ने पुकार कर कहा, ‘ओ कम्बख्तों, दुकान सिख की है पर उसमें कपड़े तो हिन्दुओं के ही हैँ. इस पर इसे भी छोड़ दिया गया.“ [xvi]

भीष्म साहनी की कहानी ‘झुटपुटे’ का पात्र चौरासी के समय ही यह भविष्यवाणी कर देता है कि चौरासी के नौसिखिए दंगाई जब पैरों के बल खड़े हो जाएंगे तो क्या कहर बरपेगा.

“अभी शुरूआत है, साईं, अभी शुरूआत है. जब सीख जायेंगे तो ऐसी ग़लतियाँ नहीँ करेंगे- हम लोग अभी नौसिखुआ हैं ना, इसलिए. जब सीख जाएँगे तब तुम देखना. दूर से ही एक -दूसरे को देखकर रोंगटे खड़े हो जाया करेंगे. अभी तो बच्चा पैरों के बल खड़े होना सीख रहा है.... [xvii]

यह नौसिखिया दंगाई मानसिकता १९९२ और २००२ में पूरी तरह से वयस्क हो चुकी थी. इसलिए चौरासी से अधिक सुनियोजित ढ़ंग से २००२ की घटना हुई.दंगाई मानसिकता २००२ तक आते आते पूरी तरह अपने चरम पर पंहुच गई. इतनी चरम पर कि धर्म व मज़हब के नाम पर जिन की देह पर अक्सर दंगाई अपनी विजय-पताका लहराया करते थे, वे औरतें भी लूटपाट और हिंसा का हिस्सा बनने लगीँ. उन्नीस सौ सैंतालीस में सारी हिंसा के बावजूद उस पर लिखे साहित्य में कई प्रेम-कहानियाँ मिलती हैं. लेकिन चौरासी पर लिखे साहित्य में मानवीयता के कई लम्हे आते हैं पर प्रेम-कहानी जैसी कृतियाँ लगभग अनुपस्थित हैं. यह एक हैरत की बात है. शायद प्रेम कहानियों की दुनिया को नफरतों की आंधियों ने चौरासी और दो हजार दो तक आते-आते उड़ा दिया. बल्कि मानवीय संवेदना की नियति यहाँ तक आ पहुँची कि अध्यापक भी हिन्दू और सिखों में तब्दील हो गए.

“१६-१७ साल मैंने कॉलेज और विश्वविद्यालय में हिन्दी पढ़ाई थी. मेरे ज्यादातर विद्यार्थी हिन्दू थे और वे मेरे उनके प्रति और हिन्दू संस्कृति के प्रति प्यार को जानते थे जानते ही नहीं, बल्कि उन्हें इस संबंध में दृढ़ विश्वास भी था. पर मुसीबत के वक्त मेरे पास कोई नहीँ था ” [xviii]

स्मृतियों का विभाजन राष्ट्र की चेतना के विभाजन में बदल चुका था. दिल्ली जैसे शहर में हरभजन सिंह ने कभी सोचा नहीं था कि वे एक अलग समुदाय का हिस्सा हैँ, लेकिन चौरासी के हादसे ने उन जैसों न जाने कितनों को एक नये प्रकार के अल्पसंख्यक, असुरक्षित समुदाय के रूप में उभार दिया था. लेकिन इंसानियत का जज्बा इस विभाजित राष्ट्रवादी चेतना से कहीं बड़ा है. इसीलिए अपने घर से  बेदखल होने से पहले  वह घर में दिया जला कर रखा चाहता है ताकि  जो कोई भी इस घर पर कब्जा कर रहने आए वह घर में इंसानियत को रोशन पाए.

उजड़ चुक्का है घर भावें नथावाँ कोई बस जाऊ
उदी ख़ातर ही जाँदी बार इक दीवा जगा चलिए.
..................................................................
असाडे क़ातलाँ ने ताँ परेवाँ (प्रेतों) संग वसणा है
बड़ा गाहिरा इन्हाँ दा दुख, न दे के बददुआ चलिए [xix]

इन्सानियत के इसी रिश्ते के कारण भुक्त-भोगियों की स्मृति में सिर्फ़ यातनाओं और दंगाइयों के बिम्ब ही नहीँ मौजूद रहते बल्कि उन लोगों के भी बिम्ब दर्ज रहते हैं जिन्होंने अपनी जान दे कर भी लोगों की जान बचाई. दादी को लाहौर के पास के गाँव का वह मुसलमान आज भी याद है जिसने पूरी रात उसे व उसके बच्चों को पनाह दी. चौरासी वालों को वो पुलिस वाला याद है जिसने सीसगंज गुरूद्वारे में फँसे हजारों सिखों को अपनी नौकरी की परवाह किए बिना बचाया या इस तरह के अनेक अन्य गुमनाम लोग जो स्वयं खत्म हो इन्सानियत के जज्बे को जिंदा रख गए. साहित्य भी इसी जज्बे से चलता है.

कहते हैँ स्मृतियों का पीड़ा से बड़ा गहरा रिश्ता होता है. एक स्मृति न जाने कितनी अन्य स्मृतियों से जुड़ जाती है. भीष्म साहनी भिवंडी के दंगा पीडितों के बीच जाते हैं तो उन्हें उन्नीस सौ सैंतालीस याद आता है. दादी चौरासी देखती हैं तो उन्हें सैंतालीस याद आता है. हम २००२ सुनते हैं तो चौरासी याद आता है. चौरासी के डर और यातना के ऐसे ही क्षणों में खुशवंत सिंह भिवंडी जलगाँव आदि के दंगा पीड़ितो के साथ दर्द का सांझापन महसूस करते हैँ  “मैं अपनी बारी का इंतजार कर रहा था. मुझे लग रहा था कि निशाने के लिए बंद तीतरों में से मैं भी एक तीतर था जो ढक्कन के खुलने और अपने निशाना बनने का इंतजार कर रहा था. ज़िदगी में पहली बार मैंने अनुभव किया कि नाज़ी जर्मनी में यहूदियों को कैसा लगता होगा और भिवंडी, जलगांव, मुरादाबाद, राँची और अन्य जगहों में जब दंगे हुए थे, तो मुसलमानों पर क्या गुजरी होगी. जीवन में पहली बार मुझे मालूम हुआ कि पूर्वआयोजित हत्याकांड, अग्निहांड, जाति-संहार आदि शब्दों के असली मायने क्या होते हैं.“ [xx]

दरअसल स्मृतियों का ताना बाना कुछ ऐसा ही होता है. एक से दूसरी स्मृति जुड़ती जाती है और दर्द की पूरी एक शृंखला बना देती है. इसीलिए दादी विभाजन के इतने सालों बाद भी बार-बार सैंतालीस हो जाती है. लेकिन हाँ दादी को सैंतालीस को लेकर उतना गिला शिकवा नहीँ है जितना उसके परिवार को चौरासी को लेकर है. चौरासी उनकी व्यक्तिगत ही नहीँ सामुदायिक स्मृति का हिस्सा है लेकिन सवाल है कि यह राष्ट्र की सामूहिक स्मृति का हिस्सा बन पाया है या नहीँ. सामूहिक स्मृतियाँ कैसे बनती हैं यह खुशवंत सिंह के इस कथन में देखा जा सकता है जहाँ उनकी व्यक्तिगत चौरासी की यातना उन्हें यातना के शिकार भिन्न देशकाल की यातनाओं से जोड़ देती है. उनकी व्यक्तिगत यातना सामूहिक यातना में तबदील हो जाती है. क्या कभी सैंतालीस या चौरासी की स्मृतियाँ पूरे राष्ट्र की सामूहिक संवेदना का हिस्सा उसी प्रकार बन पाएँगीं कि राष्ट्र का हर व्यक्ति उस दर्द से दो-चार हो सके जिस दर्द से चौरासी के शिकार गुजरे हैं. आज जो कुछ हो रहा है उसमें ऐसा होता दिखता तो नहीं है. कहीं विभाजन के सत्तर सालों में राष्ट्र की स्मृति या संवेदना विभाजित तो नहीं हो गई है. यदि हाँ, तो सवाल यह उठता है कि इस संवेदना के और कितने विभाजन होंगे.  


[i]  व्यक्तिगत स्मृति
[ii] स्वदेश दीपक- कहानी रफूजी 
[iii] वही
[iv] हरभजन सिंह (ले०) - उन्नीस सौ चौरासी, पृष्ठ121, सम्पादन–संकलन, अमरजीत चंदन, पृष्ठ , चेतना प्रकाशन, लुधियाना 2017
[v]  .खुशवन्त सिंह, मेरा लहूलुहान पंजाब,(अनु० उषा महाजन) पृष्ठ -101, राजकमल प्रकाशन, 1993
[vi] बी.बी.सी पर दिया साक्षात्कार https://www.bbc.com/hindi/india/.../130411_sikh_riots_mohan_vk
[vii] राजिन्दर कौर-कहानी, हुण रोटी खाणी सोखी हो गई सी, पृष्ठ 157 , संकलन सम्पादन जिन्दर – 1984 दा संताप, संगम प्रकाशन, समाना 2014
[viii] गगन गिल – इत्यादि, लोकमत पत्रिका
[ix] जरनैल सिंह, कब कटेगी चौरासी, पृ० 27 ,पेंग्विन बुक इंडिया, यात्रा बुक्स, 2009
[x] गगन गिल --इत्यादि, लोकमत पत्रिका
[xi] देखें विभाजन पर लिखी अमृता प्रीतम की कविता- अज आखाँ वारिश शाह नूँ--
[xii] भीष्म साहनी- कहानी झुटपुटा, पृष्ठ 23
[xiii] जरनैल सिंह, कब कटेगी चौरासी, पृ० 117 ,पेंग्विन बुक इंडिया, यात्रा बुक्स, 2009
[xiv] संपादक -जॉर्ज फर्नांडिज़ प्रतिपक्ष, 25 नवंबर 1984 ,
[xv] जरनैल सिंह, कब कटेगी चौरासी, पृ० 82 ,पेंग्विन बुक इंडिया, यात्रा बुक्स, 2009
[xvi] भीष्म साहनी- कहानी झुटपुटा, पृष्ठ 19-20
[xvii] वही पृष्ठ 24
[xviii] हरभजन सिंह (ले०) - उन्नीस सौ चौरासी, सम्पादन, पृष्ठ 121–संकलन, अमरजीत चंदन, चेतना प्रकाशन, लुधियाना 2017
[xix] वही
[xx] खुशवन्त सिंह- मेरा लहूलुहान पंजाब, पृष्ठ-99, राजकमल प्रकाशन, 1993

·   इनके अतिरिक्त नानवाती आयोग की रिपोर्ट का इस्तेमाल किया गया।
·   जहाँ कहीं भी अनुवाद हैं वह स्वंय लेख के लेखक द्वारा ही किए गए हैं।

(आलोचना पत्रिका से आभार सहित)
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बलवन्त कौर
251, भाई परमानन्द कॉलोनी
दिल्ली -110009
9868892723

मति का धीर : लक्ष्मीधर मालवीय

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मदनमोहन मालवीय के पौत्र लक्ष्मीधर मालवीय हिंदी के शिक्षक, भाषाशास्त्री, संपादक, कथाकार, चित्रकार आदि तो थे ही जापान में उनका घर लेखकों का एक सहज आत्मीय अड्डा भी बना रहा. उन्होंने साहित्यकारों के बेजोड़ फोटो खींचे हैं. पचासी वर्ष की समृद्ध और सार्थक जीवन-यात्रा पूर्ण कर वे अब हम से विदा ले चुके हैं. कल (१०/५/२०१९) उनका निधन हो गया.


उनकी स्मृति को नमन करते हुए समालोचन उनकी एक कहनी यहाँ प्रस्तुत कर रहा है. संभावना प्रकाशन ने उनके कई कहानी संग्रह प्रकाशित किये हैं.

ह नी मू न                                  
लक्ष्मीधर मालवीय




ज्वालामुखी से फूटकर बहती हुई ऊँची-ऊँची लहरें धीरे-धीरे जड़ होकर जम गई थीं, पर्वतों के फेरों में! वहाँ पहाड़ी नदी का चौड़ा सा कछार ही बच रहा था. नदी में जल न होने से गोल चिकने पत्थरों और रोड़ों की नदी थी वह. ध्यान से देरवने पर पता चला कि वे रोड़े धीरे-धीरे सरक रहे हैं, ऊपर की ओर. सूरज डूबे कुछ ही देर हुई थी, पहाड़ की ढाल के ऊपरी हिस्से पर आकाश की नीली स्याही लुढ़क गई थी.
सड़क के मोड़ पर एक किनारे चार-पाँच व्यक्ति छितरे हुए रवड़े थे. नीचे जाने वाली बस के निकल जाने के बाद वे पहुँचे होंगे, और अब किसी ट्रक के गु़जरने की राह देरव रहे होंगे. एक पुरुष पैंतीस-चालीस साल की परेशान चेहरे वाली एक औरत के दोनों बाँह-कँधे पकड़कर लगातार समझाने के अंदाज़ में बोलता और मनुहार करता हुआ रोक रहा था और वह स्त्रा अपने को छुड़ाने के लिए रवींचतान कर रही थी. वे कगार के एकदम किनारे थे. उनके पैरों के पास ही ज़मीन में तीन-चौथाई गड़ा ड्रम था, सफ़ेदी किया हुआ. दूसरी और तीसरी बार भी पलटकर उधर देरवने पर वही दिरवलाई दिया पहले से कुछ अधिक दूरी पर जाकर अपने को छुड़ाती हुई वह औरत और इस ओर रह गया कगार के किनारे गड़ा हुआ वही ड्रम.

सामने वाले पहाड़ की अँधेरी ढाल पर जहाँ-तहाँ रह-रहकर पीली-पीली लपटें उठतीं. कई दिन हुए, जंगल में आग लग गई थी. जंगल बुझते-बुझते फिर जल उठने वाली मशाल की तरह जल रहा था. ठीक उसके नीचे तलहटी में सफ़ेद घरों की सिमटी हुई बस्ती थी.
बगल वाले नाले के ढूह पर रवड़े होकर बातें कर रहे व्यक्तियों के शरीरों का काला रव़ाका यहाँ से दिरवलाई दे रहा था. देर से वे अपनी जगह अडिग रवड़े थे. यहाँ आते समय जब हम उनके बगल से गुज़र रहे थे, उन्होंने हमें रोककर पूछा था µ उन्हें वैसी ही जिज्ञासा थी जैसी कि औचट जगह आए हुए बाहरी नौजवान जोड़े को लेकर होनी चाहिए, आरिव़री किरणों के भी गायब हो जाने के बाद वाले गहराते नीले उजास में. ऊँचे-ऊँचे पेड़ों के झुंड, एक समान नक्शे के सफ़ेद मकानों की बस्ती, कगार पर रवड़े तीन मनुष्य, बरामदे के सामने की ऊबड़-रवाबड़ रवुली जगह, अब सब पर गाढ़ी रोशनाई फैल गई थी.
अकेली आँरव की तरह चमक रही थी, अँधेंरी गली में दूर पर की अकेली दुकान में जल रही ढिबरी. मोमबत्ती वहाँ भला क्या मिल पाएगी! चौदह-पंद्रह साल का वह छोकरा जो दोपहर को यहाँ हमारे पहुँचने के समय से ही हमारे पीछे लग गया था, उस दुकान से मोमबत्ती रव़रीद लाने को कहकर पैसे ले आया था. उसे गए काफ़ी देर हो गई. अब क्या लौटेगा वह!
बरामदे से नीचे उतर, कुछ दूर जाकर इधर देरवने पर डाकबँगला दफ़्ती के काले कटआउट-सा दिरवलाई दिया. पत्थर के गोल रोड़ों की सूरवी नदी तो वहाँ से दिरवलाई न देती मगर रोड़ों के रिवसकने की धीमी सरसराहट सुनाई दी. सामने काले परदे पर एक जगह धीरे-धीरे डोलती हुई भभक उठती पीली लपटें नज़र आतीं. हो सकता है वे तीन बातूनी अब भी उसी जगह पर रवड़े फुसफुसाकर बातें कर रहे हों.
वह अँधेरे कमरे में बैठी कुढ़ रही होगी. लगता है, हमें अँधेरे ही में सो जाना होगा. वह बरामदे की ओर वाली बंद रिवड़की के आगे कुर्सी रवींचकर बैठ गई थी. अब भी वहीं बैठी थी. घुप अँधेरा होने पर भी मालूम हो गया कि वह जाकर पलंग पर लेटी नहीं है बल्कि उल्टी हथेली पर गाल टिकाए काँच के बाहर का अँधेरा ताक रही है.
कोई एक-डेढ़ घंटा हुआ होगा कि न जाने कौन आकर बंद दरवाजे़ को ज़ोर-ज़ोर से ठोकरें मारने लगा. उठकर साँकल गिराकर दरवाज़ा रवोला. मक्के की सोंधी रव़ुशबू नथूनों में लगी. अँधेरे में दोनों हाथों से बड़ा-सा थाल उठाए हुए चौकीदार रवड़ा था. वह हमारे लिए रात का रवाना बनाकर ले आया था. अँधेरे कमरे में आकर रवड़े हो चौकीदार ने लड़रवड़ाती ज़बान और बहुत सारे इशारों से बताया कि लालटेन है, मगर तेल नहीं लौटते समय मुसाफ़िर लालटेन से किरासीन का तेल निकाल ले जाते हैं. ऐसा वे एहतियातन अगले डाकबँगले के विचार से करते होंगे.
इस समय कितना बजा होगा, उसने चौकीदार से पूछा. चौकीदार ने अनुमान का समय बताया मगर मैं ठीक समझ न पाया उसने समझ लिया होगा, क्योंकि उसने दोबारा नहीं पूछा.
रवों-रवों रवाँसते हुए चौकीदार ने पैर से टटोलकर टेबुल ढूँढ़ लिया और थाल उस पर ररव दिया. चौकीदार को शाम के समय एक बार ध्यान से देरवा था. उसके ज़र्द चेहरे पर अधिकतर सफ़ेद रवूँटियां थीं. सिर और कानों के ऊपर से लपेटे हुए मैले तौलिए में से रिवचड़ी बाल उसके माथे पर लटके थे, पुतलियों में बिल्लौरी चमक थी और वह रह-रहकर कमज़ोर ठुनकियों में रवाँस रहा था.
दरवाज़ा बंद किए जाने की तीरव़ी आवाज़ से पता चला, चौकीदार चला गया.
मुझे तेज़ भूरव लगी थी. वह नींद से सो गई थी. या ठीक पता नहीं. मैंने अँधेरे को पोंछने की तरह एक बाँह फैलाकर उसे टटोल निकाला.
वह रवाना मैं नहीं रवाऊँगी. वह अब तक अँधेरे में जागते पड़े हुए की-सी तत्पर आवाज़ थी.
रवाना रवा रहा था कि चौकीदार ने आकर फिर दरवाज़ा भड़भड़ाया. चौकीदार नहीं, लड़का था. बोला मोमबत्ती रव़रीदने के लिए उसे पैदल नीचे के गाँव तक जाना पड़ा. सिर्फ़ एक मोमबत्ती बच रही थी.
मोमबत्ती न जलाओ, नहीं तो मेरी नींद भाग जाएगी.
मैंने उसे एक बाँह के घेरे में लेकर अपनी ओर रवींचा लेकिन उसने रवु़द को अचानक भारी बना लिया.
उसे छोड़कर और-और बहुतेरी बातें सोचते-सोचते मैं फिर उसके बारे में ही सोचने लगा. उसकी कालर बोन काफ़ी उभरी हुई है लेकिन उसकी देह के कई आकर्षक हिस्से स्थूल हैं. उसके बाएँ उरोज के नीचे एक बड़ा-सा तिल है, जिसे जीभ की नोक से टटोलते हुए ढूँढ़ना और पा जाना क्रमशः उत्तेजक होता है. उसके पतले होठों के बारे में. मैं लिपस्टिक के रंगों में से एक का चुनाव करने लगा. गुलाबी या हल्का लाल नहीं, बल्कि चटरव़ रवूनी लाल. नहीं, वह भी नहीं.
पूरे साढ़े तीन साल प्रेम में मुब्तिला रहने के बाद हमने शादी की और हम हनीमून मनाने पहाड़ों पर आए हैं मैंने उसे अपने निकट लाना चाहकर फिर कोशिश की मगर भारी पत्थर की तरह वह हिली तक नहीं! वह पैदल चलने की थकान भरी गहरी नींद सो रही थी. उसके पैर साँवले हैं, घुटनों तक. मैं उत्तेजित से हताश हो गया.
उजाला ठीक से हुआ भी न था कि कुलियों ने आकर ज़ोर-ज़ोर से आवाज़ें दे, अपने नाम चिल्लाते हुए दरवाज़ा भड़भड़ाकर हमें जगा दिया. पिछली शाम उन कुलियों को तय न किया होता और उनके नाम सुने हुए न होते  तो उनका आना डाकुओं के हमले-सा लगता.

पिछली रात पैक किया हुआ हमारा सामान पीठों पर लादकर वे तीनों कुली पहले चल पड़े. जाते-जाते उन्होंने बताया कि वे अगले मुकाम पर शाम को मिलेंगे. नहीं-नहीं, बीच में राह भटकने का कोई डर नहीं क्यांकि एक ही पगडंडी का रास्ता है.
पहाड़ की तीखी चढ़ाई चढ़कर हाँफ़ते हुए दम लेने को रुका तो दिरवलाई दिया, सूरज अभी-अभी पहाड़ के ऊपर उछला था. उससे इस सुंदर दृश्य को देरवने के लिए कहने के इरादे से मुड़ा तो देरवा, उसने सफ़ेद लिपस्टिक लगा ररवी थी, जो गीले इनैमल पेंट की तरह चमक रही थी.
मीलों दूर के बर्फ़ से ढके पहाड़ भी तब पहली बार दिरवलाई दिए. थोड़ी ही देर बाद सर्दी महसूस हुई.
वह तेज़ चाल ऊपर चढ़ते हुए मेरे बगल से चुपचाप निकलकर आगे बढ़ गई. जींस में कसे उसके भारी नितंब कुछ ही देर में छोटे होने लगे. मुझे थोड़ा डर लगा कि वह इसी तरह अकेली बढ़ती गई तो कहीं राह भटक न जाए.
मैं बीच रास्ते में सुस्ताते हुए तुम्हें मिल जाऊँगी, या अगले डाकबँगले में — लगता है उसने मेरे मन की बात भाँप ली थी.
मैंने कदम बढ़ाकर उसके पास पहुँचना चाहा पर लगा कि मैं सीने तक गहरे जल में आगे धँसने की कोशिश कर रहा हूँ, इससे ज़्यादा तेज़ चलने का यत्न करूँगा तो यहीं भहरा पडूँगा.
वह तो कब की मेरी आँरवों से ओझल हो चुकी थी!
रोज़ इसी तरह डाकबँगले से मुँह अँधेरे निकलकर इकट्ठा या अकेले चलते हुए पाँचवा दिन था हमारे हनीमून का, जब ऊपर से लेकर नीचे तक बर्फ़ से ढका हुआ पहाड़ सामने दिरवलाई दिया µ नीली धुँध में बहुत ही बड़े ओले सा! पर्वत के नीचे चौड़ी नदी कि निकासी थी मगर नदी लहरों की परतों समेत जमी हुई.
पगडंडी के दोनों ओर दूर-दूर तक पेड़ों के काले ठूँठ ही नज़र आए. ज़मीन भी रारव से ढकी. कुलियों ने कल इसी जगह के बारे में कहा होगा, कि पाँच साल हुए जंगल में भारी आग लगी थी और कोई परववारे भर जंगल जलाने के बाद बुझी थी.
अगले डाकबँगले के बरामदे में वह रवंभे की आड़ लेकर रवड़ी मेरी राह देरव रही थी.
ओह डार्लिंग, तुम मुझे कितना प्यार करती हो µ आगे बढ़कर मैंने उसका होंठ हल्के से चूम लिया. अँधेरा होने से मैं उसका चेहरा ठीक से न देरव सका, मगर वही रही होगी. और भला कौन हो सकता है, यहाँ! फिर भी मैं उसका चेहरा एक बार ज़रूर देरवना चाहता था. उसके होंठ और रव़ासकर यह कि उसने लिपस्टिक का रंग बदल दिया होगा.
वह आरव़ीरी बँगला था. कुली हमारा सामान बरामदे में छोड़कर चले गए थे. उन्होंने बता ररवा था कि घाटी में छह किलोमीटर दूर गाँव में उनके रिश्तेदारों के घर हैं, रात वे वहाँ बिताएँगे और चौथे रोज़ जब हमें नीचे उतरना है, वे आ जाएँगे.
नए मुसाफ़िर की आहट पाकर कुछ देर बाद यहाँ का चौकीदार आया और बोला कि उसकी कोठरी के पीछे वाले मक्के के रव़ेत के नीचे है. हमें उससे कोई मदद न चाहिए थी. हमारे बिना कहे ही उसने आतिशदान में लकड़ियाँ जमा कर सुलगा दी. फिर अँधेरी पगडंडी पर चलता हुआ आँरव से ओझल हो गया.
लालटेन जलाने के लिए माचिस की काँड़ी जलाकर बत्ती को छुआई मगर उसने लौ न पकड़ी. लालटेन हिलाने पर पता चला उसमें तेल न था. यहाँ तो दुकान भला क्या होगी. कमरे की आग रातभर जलाए ररवना ज़रूरी था. सर्दी से बचने के लिए क्योंकि चौरवट में दरवाज़े न थे. और इसलिए भी कि आते समय जमी हुई नदी के दूसरी ओर धीरे-धीरे दूर जाता हुआ एक काला रीछ दिरवलाई दिया था.
डाकबँगले में दो ही कमरे थे. दोनों रवाली. इधर भला कौन आएगा. देरवने लायक है भी क्या. एक जमी हुई नदी और उसके सिरे पर रवड़ा बर्फ़ का हल्का नीला पहाड़.
दरवाजे़-रिवड़कियों के चौरवटों के बाहर बहुत बडे़ एक्वेरियम की तरह अँधेरे का उजास फैला था. उसमें एक जगह बड़ा तारा झिलमिलाता हुआ दिरवलाई दिया. तेज़ी से उड़ती हुई रेत की सरसराहट सुनाई दी. बर्फ़ की ऊँची नुकीली चोटी टूटकर बिरवरती हुई नीचे गिरी होगी. कुछ ही देर में रेत की सरसराहट और साफ़ सुनाई देने लगी. वह रेत न थी, सामने जमी हुई नदी के तल पर छोटे-बड़े पत्थर कछुओं की मानिंद धीरे-धीरे ऊपर की ओर सरक रहे थे.
सामने मक्के के पके रवेत में लपटें, धूप की चमकीली किरणों की तरह, लहक रही थीं. पास ही किसी पेड़ की ऊँची डाल पर बैठा कौवा देर से काँव-काँव कर रहा था. अचानक वह उड़ा और काँव-काँव करता हुआ घाटी की ओर निकल गया. फिर भी बगुले की क्वाँ-क्वाँ की तरह भारी अंतिम काँव-काँव की मनहूस गूँज देर तक कानों के भीतर गूँजती रही.
उसने एक साथ बहुत सारे लकड़ी के कुंदे आतिशदान में डाल दिए थे. आँच सारे कमरे में भर गई. उसकी हथेली पर हथेली ररवी —उसकी हथेली हल्के बुरव़ार-सी गर्म लगी.
लेकिन आँच बढ़ते-बढ़ते असह्य हो गई. यहाँ तक कि गालों की चमड़ी के नीचे दिल की धड़कनें, धक्-धक् करती हुई साफ़ सुनाई देने लगीं और लगा कि आँरवों की पुतलियाँ आग पर ररवी बारीक काँच की रकाबी की तरह तड़ककर टूट जाएँगी!
उसने आँरवों में मुस्कराते हुए हथेली उठाई और चार उँगलियाँ हिलाकर मुझे पास आने का इशारा किया. उसका साँवला चेहरा आग की पीली लपटों और ताप से ताँबई रंग का हो गया था. उसकी पतली नाक के ऊपर उभर आई पसीने की नन्ही-नन्ही बूँदों के भीतर कई-कई नन्ही लपटें नाच रही थीं.
मैंने कहा था न तुमसे, कि कितनी भी दूर क्यों न हो, आरिव़री मंज़िल तक तुम्हारा साथ दूँगी!
मैं कृतज्ञता प्रगट करने के भाव से उसकी नंगी बाँह पर धीरे-धीरे हथेली फेरने लगा.
सातों रंग काले आकाश में बारीक धूल जैसे फहरा रहे थे. कई सौ मीटर की ऊँचाई से गहराई वाली बर्फ़ की सपाट ढलान पर लाल झरना बेआवाज़ गिरता दिरवलाई दिया.
क्या तुम्हारी तबीयत बिगड़ रही है? उसने मेरा सिर अपनी ओर रवींचकर अपने स्तनों के बीच दबा लिया.
नहीं तो! मैं सिर्फ़ तुम्हें प्यार करता हूँ.
सुनते ही वह रिवलरिवलाकर हँस पड़ी —या कि तुम मुझे सिर्फ़ प्यार करते हो.
मुझसे उत्तर देते न बना.
तुम इधर मेरे और पास क्यों नहीं आ जाते! उसके होठों के कोने पर अब भी भूली हुई मुस्कान थी.
अपने मन की क्रूरता को उससे छिपा ले जाने में मैं शायद सफल हो रहा था. थोड़ी देर तक उस चेहरे को एकटक देरवता रहा. फिर उसके उरोजों के बीच अपना चेहरा गड़ा लिया.
मैंने तुम्हें कितनी बार बताया है कि मेरा नाम राधा नहीं है!
मैं चौकन्ना हो गया —तो क्या मैंने तुम्हें अभी राधा कहकर पुकारा था? अकेला पल, अंतिम से एकदम पहले वाला, कितना पैना और नुकीला होता है!
धू-धू जलती हुई आग की लपटों के ऊपर एक महराब, ऊँचा, रवंडहर इमारत के प्रवेशद्वार का. उसकी कच्ची दीवारें और छत धुएँ से काली थीं.
उस दरवाजे़ से होकर हम पहले भी कई बार गुज़र चुके थे. अंदर एक झील हुआ करती थी, जिसमें रोशनी की मीनारें थीं. महराबदार दरवाजे़ से होकर अंदर जाते और बाहर निकलते वक़्त हमारे क़दम आप ही तेज़ हो जाते, इस डर से कि ऊपर का सारा ढाँचा किसी भी समय भरभराकर गिर पड़ेगा.
वह मेरे सामने बैठी थी और उसकी एक-एक पारदर्शी शिरा में रक़्त दौड़ता दिरवलाई दे रहा था. गर्म बहुत है, कहते हुए उसने एक-एक कर अपने सारे वस्त्रा छिलकों की तरह उतार दिए. बाँस के सफे़द रेशों जैसे उसके लंबे केश और महीन काग़ज की रवाली थैलियों से उसके स्तन. आग की पीली रोशनी उसके एक ओर से, थोड़ा पीछे से आ रही थी, इससे उसके एक गाल की जगह रवोरवला, सिर सपाट गंजा और आँरव की जगह पर काला कोटर दिरवलाई दिया.
तुम आकर इस कुर्सी पर बैठ जाओ तो तुम्हारे चेहरे पर ठीक रोशनी पड़ने लगेगी µ मैं कुछ-कुछ डर गया था.
तभी देरवा, जलती आग वाले प्रवेशद्वार से एक, दो, तीन, चार-चार मानव आकृतियाँ दबे पैर अंदर आकर कमरे के चारों कोनों में रवड़ी हो गईं, और उल्लुओं जैसी आँरवों से लगीं हमें घूरने!
तुम उस तरफ़ न देरवो —उसने निकट आकर मुझे परले वाले कँधे से पकड़कर अपने से सटा लिया —फ़िक्र न करो, मैं जो तुम्हारे साथ हूँ! तुमने यही तो कहा था न, कि क्या सब कुछ को इकट्ठा दाँव पर लगाओगी? लेकिन क्या तुम्हें पता है?
क्या?
कि मैं क्या चाहती हूँ!
हाँ. मुझे —
उसने तीरवेपन से बात काट दी —नहीं! उसने कई बार सिर हिलाया —नहीं, तुम नहीं जानते.
बाहर सफ़ेद-सफ़ेद गाले मंद गति से उतर रहे थे. बर्फ़ के कई फाहे, राह भटके हुए की भाँति, उड़ते हुए बिना दरवाज़ों वाले चौरवट से अंदर आए और फ़र्श तक पहुँचने के बजाय बीच ही में ग़ायब हो रहे!
राधा! तुमने अपना नाम राधा ही बताया था न! देरवो राधा, हम दोनों ही यदि इकट्ठा विक्षिप्त हुए तो हमें किसी निर्जन द्वीप में —
राधा, या जो भी उसका नाम रहा हो, उल्लसित स्वर में बोली —तो क्या बेजा होगा! जीवन की अंतिम साँस तक काले आकाश के नीचे तेज़ धूप को तुम्हारे साथ अपनी देह में सोरवते हुए घूमा करेंगे हम! मैं तेज़ बहती हवा और हिमपात की, अपनी देह के रेशे-रेशे को बाहर निकालकर उसे बर्फ़ से धोने की कामना पूरी कर सकूँगी. और क्या तुम जानते हो?
क्या?
कि यों भी हम यहाँ से नीचे नहीं लौट रहे हैं. कभी नहीं.
मगर चौथे दिन कुली आएँगे.
तो क्या हुआ! हम वापस कभी न पहुँच पाएँगे —उसके स्वर से आह्लाद छलका पड़ रहा था —जानते हो हम कितनी दूर निकल आए हैं? डेढ़ सौ किलोमीटर! किलोमीटरों के डेढ़ सौ फेरे हमारे पैरों को जंज़ीर से जकड़े हैं, वे कभी न रवुलेंगे, कभी नहीं.
हम पंद्रह किलोमीटर एक दिन के हिसाब से चलकर —
अचानक उठकर रवड़ी होते हुए उसने तेज़ी से बात काटी —दूरी के फेरे तब भी कम न होंगे!
सर्द हवा के झोंके ताप को धकेलते हुए अंदर तक पैठने लगे. कोनों में रवड़े वे लोग हथेलियों से मुँह दबाकर हँसी को बाहर निकल पड़ने से रोक रहे थे.
वह एक पर्वत की ऊँची चोटी से पेंग भरकर उड़ती हुई दूसरे पर्वत की सबसे ऊँची चोटी पर जा बैठती! बाँस के बारीक रेशों से लंबे बाल, बारीक कागज़ की रवाली थैलियों जैसे झूलते हुए दोनों स्तन. हँसती हुई वह बोली µ दूरियों की साँकल तब भी पैरों से लिपटी ही रहेगी, समझे! बर्फ़ के ऊँचे धरहरों वाली नदी बहकर नीचे नहीं जाती! बल्कि छोटे-बड़े रोड़े और पत्थर ही वह देरवो, ऊपर चढ़ते आ रहे हैं!
रारव से लिपटी लकड़ियों के भीतर जलती हुई आग थी और उसे एकटक देरवते रहने पर कभी कदा उसमें से पीली या नीली छोटी सी लौ बाहर झाँककर फिर आग के अंदर लौट जाती. बाहर पेड़ों की पत्राविहीन शारवों पर बैठे पक्षियों जैसे बर्फ़ के कई लोंदे गिरे धप्-धप्! जैसे कि सफ़ेद उल्लू ठंड से मर-मरकर गिर रहे हों!
ठीक ही कहा था उसने. हम एक-दूसरे के इतने अधिक निकट आ गए थे कि एक के लिए दूसरा आँरव से ओझल हो चुका था! ऊँची-ऊँची चोटियों वाले बर्फ़ के पहाड़ों को लिए हुए वह नदी सचमुच जम गई थी! पहाड़ों के सबसे ऊँचे-ऊँचे धौले शिरवर ऊपर से टूटकर गिरते और हिमनद की कड़ी सतह से टकराकर बिरवरते तो तनिक भी आवाज़ न पैदा होती मगर दिरवलाई देता, ढेर सारी बर्फ़ चमकती धूल-सी हवा के झोंकों के साथ एक ओर उड़ जाती!

सड़क के मोड़ पर रवड़े वे सभी लोग अब तक वहाँ से अपने-अपने ठिकाने की ओर चले गए होंगे. वह पुरुष भी अपनी पत्नी को साथ लेकर घर वापस पहुँच ही गया होगा और सूरवी नदी के तल पर बिरवरे रोड़े मंथर गति से ऊपर की ओर चढ़ रहे होंगे!

  

कथा-गाथा : ज़ोम्बी : शिवेंद्र

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ज़ोम्बी चलता फिरता मृत मानव शरीर है जिसे तांत्रिक प्रक्रियाओं द्वारा जीवित किया जाता है पर वह शव की ही तरह व्यवहार करता है उसमें स्वतंत्र सोच या विवेक का अभाव रहता है. वह मनुष्यों को संक्रमित कर उसे भी अपने जैसा बना लेता है. हालीवुड की तमाम फ़िल्मों इस पर बनी हैं और बन रहीं हैं.

मुझे तो कई बार ऐसा लगता है कि पश्चिम कहीं ग़ैर यरोपीय समूह को ज़ोम्बी  के रूप में तो निर्मित नहीं कर रहा जिससे कि उनके सामूहिक संहार को न्यायोचित ठहराया जा सके और जो विकसित सक्षम हैं उन्हें इसके लिए पाप-बोध न हो. खैर

हिंदी कहानी में भी ज़ोम्बी का अवतरण हो चुका है. हिंदी के बहुचर्चित प्रतिभाशाली कथाकार शिवेन्द्र ने इसी शीर्षक से यह कहानी लिखी है.



                   
ज़ोम्बी
शिवेन्द्र



सुब बस अपने ठुकराए जाने का बदला लेना चाहता था. ट्रेन पकड़कर वह संध्या के शहर जा रहा था कि तभी ऐसी ख़बर आने लगी कि शहर दर शहर लोग ज़ोम्बी बनते जा रहे हैं. पैसेंजर परेशान हो उठे. उनके फ़ोन लगातार बज रहे थे या वे लगातार किसी न किसी को लगाए हुए थे. तब भी कुछ क्लीयर नहीं हो रहा था. बस इतना समझ आ रहा था कि रात प्रधानमंत्री ने कुछ घोषणा की थी और यह भी कि लोगों के ज़ोम्बी बनने में ही लोगों की भलाई है. अब तक सुब यह नहीं तय कर पाया था कि वह संध्या को कैसे मारेगा? उसके दीमाग में बहुत सी योजनाएँ थीं पर अब उन सब पर भारी पड़ रही थी ज़ोम्बी बन जाने की योजना.

ट्रेन में लोग अब भी इस बात पर डीबेट कर रहे थे कि लोग ज़ोम्बी क्यों बन रहे हैं और कैसे बन रहे हैं, सुब ने अपने एक पत्रकार दोस्त को फ़ोन किया और उससे अब तक की सबसे सटीक जानकारी ले ली. दोस्त ने उसे हिदायत दी कि वह किसी भी बैंक और एटीएम के पास न जाए क्योंकि सारे ज़ोम्बी वहीं  इकट्ठे हो रहे हैं.

परेशान लोगों के बीच एक अकेला सुब था जो मुस्कुरा रहा था. जहाँ लोगों का इस टेंशन में सिर फटा जा रहा था कि वे अपने स्टेशन पर उतरें या नहीं, वहीं सुब बड़ी शान से संध्या के स्टेशन पर उतर गया. उसे संध्या का पता नहीं मालूम था. संध्या के यह बताने के बाद कि वह किसी दोपर नाम के लड़के की ओर आकर्षित होती जा रही है, सुब ने उसे बार बार अपने प्यार का हवाला देकर उससे अपनी रही सही दोस्ती भी बिगाड़ ली थी और पता नहीं दोपर के आकर्षण में या सुब से तंग आकर वह कोचिंग करने के बहाने या सचमुच कोचिंग करने इस शहर में आ गई थी. सुब इधर उधर से बस इतना ही पता कर पाया था पर उसे पता था कि हर शहर में कोचिंग के एकाध ही अड्डे होते हैं और फिर उसे अपने प्यार पर इतना भरोसा था कि अगर वह सुबह सुबह चौराहे पर खड़ा हो जाए तो शाम होते न होते संध्या को उससे टकराना ही था.

इसलिए स्टेशन से बाहर निकलते ही वह उन बड़े बड़े पोस्टरों पर छपे पते पढ़ने लगा जो लोगों को आईएएस बनाने का दावा कर रहे थे और उन्हें ही संध्या का पता मानकर वह उसी पते की ओर चल पड़ा. रास्ते में उसे ख़याल आया कि ऐसे वहाँ जाने का कोई फ़ायदा नहीं क्योंकि उसे तो संध्या से बदला लेना है, इसलिए वहाँ ज़ोम्बी बनकर ही जाना चाहिए.

उसने एक एटीएम ढूँढा और क़तार बांधे जौंबियों के पीछे जाकर खड़ा हो गया. उसे लगा था कि अगले ही पल कोई ज़ोम्बी अपना इन्फ़ेक्शन उसके ख़ून में उतार देगा लेकिन ऐसा हुआ नहीं. सब एक के पीछे एक बस खड़े रहे, किसी ने सुब की ओर देखा भी नहीं. उसने एक के कंधे पर टैप किया तब भी कोई रिस्पोंस नहीं. तब इधर आने से कतराते, झिझकते, भय खाते  एक आदमी को उसने साहस दिया- अरे! इनसे डरने की ज़रूरत नहीं, ये काटते नहीं

पर जैसे ही वह आदमी एटीएम तक आया, सारे के सारे ज़ोम्बी उस पर टूट पड़े और अगले ही पल वह आदमी भी ज़ोम्बी बन चुका था- क़तार में निरुद्देशय सबसे पीछे खड़ा हुआ. सुब को आश्चर्य हुआ- तो ज़ोम्बी उससे परहेज़ क्यों कर रहे हैं? उसने एक ज़ोम्बी को दो चाटें लगाए- काटो मुझे भी काटो

लेकिन ज़ोम्बी यह करेला भी खा गया. यहाँ भी रिजेक्शन- सुब का दिल बैठ गया. उसने अपने पत्रकार दोस्त को फिर से फ़ोन किया. इसका ठीक ठीक कारण उसे भी नहीं पता था, लेकिन रुझान यह कह रहे थे कि ये ज़ोम्बी केवल उन्हीं पर अटैक कर रहे थे जिनकी या तो जेब ख़ाली थी या जो यहाँ तक पैसे निकालने की नियत से आ रहे थे.

सुब की तो ऐसी कोई नियत थी नहीं, वह पक्का ज़ोम्बी बनने यहाँ आया था. तब उसने अपनी जेब टटोली. जेब में भी कुल तीन हज़ार रुपए थे. सुब समझ गया कि उसे ज़ोम्बी बनने के लिए क्या करना है- काग़ज़ के उन बेकार टुकड़ों को उसने निकाला और किसी बेवफ़ा लड़की के झूठे प्रेम पत्रों की तरह सड़क पर उछाल दिया. एक ज़ोम्बी में हरकत हुई. सुब को लगा कि अब बनेगा वह भी जौम्बी. लेकिन वह ज़ोम्बी तो उसके फेंके हुए रुपए बटोरने लगा था और फिर उसे काटने की बजाय उसने सुब के रुपए उसी की जेब में घुसेड़ दिए. जब अगली बार भी सुब ने ऐसा ही किया तो उस ज़ोम्बी ने जिसे उसने दो चांटे मारे थे, रुपए उसकी जेब में रखने के बाद उसे एक घूँसा भी मारा, पर काटा नहीं.

ये कैसे ज़ोम्बी हैं?” सुब ने सोचा. हालाँकि अब तक बिना कहे ही वह समझ गया था कि उसे यह रुपए फेंकने नहीं बल्कि ख़र्च करने हैं. केवल तभी उसे ये ज़ोम्बी काटेंगे और वह ज़ोम्बी बन सकेगा. कैसा समय था कि प्यार का बदला लेना भी आसान नहीं रह गया था!

वह तीन हज़ार रुपए लेकर बाज़ार की ओर निकल पड़ा. पर अब कोई बाज़ार बचा ही नहीं था. लोगों को ज़ोम्बी बनता देखकर जो आदमी थे वे अच्छे आदमी और जो अच्छे आदमी थे वे बहुत अच्छे आदमी बन गए थे. दुकानदारों ने सबकुछ फ़्री कर दिया था. शॉपिंग मॉल में कुछ भी ख़रीदो, कुछ मत दोवाले ऑफ़र के पोस्टर लग गए थे. ख़ाली लोग अपने तवे-कढ़ाही लेकर घरों से बाहर निकल आए थे और ऑफ़िस जाने वालों को मुफ़्त में नाश्ता करा रहे थे. खिलाने वाले इतने थे कि खाने वाले कम पड़ जा रहे थे. सुब कहीं से कुछ भी लेकर, कुछ भी खा पीकर पैसे बढ़ाता तो लोग उस पर हंस देते- क्या भाई साब अब हम आदमी होकर आदमी से पैसे लेंगे?”

हद ये कि सुबह से शाम हो गई और सुब के तीन हज़ार तो क्या एक भी रुपए ख़र्च नहीं हुए. पैसे ख़र्च न होने की थकान से उसका पूरा शरीर टूट रहा था. वह अपने प्यार का बदला लेने निकला था पर अब उसे आराम चाहिए था. उसने एक होटल की ओर रूख किया और एक एक क़दम चलते हुए वह एक एक देवी देवता को लड्डू-पेड़े-बकरे चढ़ाता जा रहा था कि कम से कम ये होटल वाले पैसे लेते हों.

होटल वाले भी खुदा के बंदे निकले. सुब ने उनके आगे हाथ जोड़े तो उन्होंने उसके पैर पकड़ लिए. बड़ी मुसीबत थी. सुब अगले एक सप्ताह तक अलग अलग होटलों के धक्के खाता रहा. इस बीच घूम घूमकर उसने संध्या के कोचिंग का भी पता लगा लिया और दूर से ही सही पर संध्या से मिल भी लिया. वह पहले से अधिक ख़ुश और खिली खिली लग रही थी. सुब का दिल संध्या के लिए फिर से धड़क उठा. बार बार संध्या के मना करने के बावजूद उसे लगा कि कम से कम उसे एक कोशिश और करनी चाहिए. बस प्रॉब्लम ये थी कि संध्या किसी भी तरह ये समझने को तैयार नहीं थी कि सुब के बिना वह ख़ुश नहीं रह पाएगी.

वह दोपहर सुब पर हावी हो गई और उसने जो पीनी शुरू की तो शाम कर दी. शाम को उसे दोपर का ख़याल आया. उसे लगा कि वह संध्या को तो नहीं समझा सकता पर दोपर ज़रूर ही उसके प्यार को समझ जाएगा, क्योंकि लड़के तो होते ही एक दूसरे के भाई हैं. उस शाम से तो नहीं पर अगली सुबह से वह संध्या का पीछा करने लगा और जब संध्या दोपर से मिली तो वह संध्या को छोड़कर दोपर का पीछा करने लगा और पहली फ़ुर्सत में ही उसने रो रोकर दोपर को अपनी और संध्या की पूरी प्रेम कहानी बता दी. दोपर को शॉक लगा क्योंकि संध्या ने अपनी तरफ़ से कभी भी किसी ऐसे प्रेमी का ज़िक्र नहीं किया था और यदि यह आदमी से अच्छा आदमी और अच्छे आदमी से बहुत अच्छा आदमी बनने का समय नहीं होता तो दोपर ख़ुद संध्या से बदला लेने पर उतारू हो जाता. पर सुब का समय ही ख़राब था कि उसने अपनी दास्तान कही भी थी तो ऐसे अच्छे समय में.

वह बुरी तरह टूट गया. संध्या उसे प्यार नहीं कर रही थी और वह इसका बदला ले नहीं पा रहा था. उसके तीन हज़ार, अपनी एक एक पाई सहित अब भी उसकी जेब में जमे थे, जिसके कारण वह ज़ोम्बी तक नहीं बन पा रहा था. अब सारे रास्ते आत्महत्या की ओर जा रहे थे.

उसने शराब मँगाई मगर पी नहीं, वह पूरे होशों-हवाश में मरना चाहता था. मरने से पहले उसे लगा कि वह पागल हो जाएगा. प्लेटफ़ॉर्म की भीड़ के बीचोंबीच खड़ा वह चिल्लाया- लड़कियों को सबकुछ इतनी आसानी से कैसे मिल जाता है…”

अब किसी को क्या पता? कोई कुछ बोला ही नहीं. सुब ने किसी मोबाईल की तरह अपनी जेब से रुपए निकाले और उन्हें प्लेटफ़ॉर्म पर पटककर, पटरी की ओर बढ़ गया. लेकिन इससे पहले कि वह मरता, एक लड़की उन्हें लौटाने आ गई- तुम्हारे रुपए

अगर उसे संध्या की तरह तैयार किया जाता तो वह कम-बेशी उसी के जैसी लग सकती थी. लड़की ने इस ओर ध्यान नहीं दिया था. सुब ने उसे सलाह दी- इन्हें तुम ही क्यों नहीं रख लेती?”

तुम चाहते हो कि मैं इन्हें रख लूँ?” लड़की ने ख़ुशी ख़ुशी पूछा. सुब ने हाँ कर दी. लड़की ने वो रुपए रख लिए और बोली- तो चलो

कहाँ?” सुब को आश्चर्य हुआ.

तुम तो देख ही रहे होगे कि लोग अपनी चीज़ें देकर भी पैसे नहीं ले रहे हैं, अब मैं लाख बुरी सही पर तुमसे यूँ ही पैसे थोड़ी न ले लूँगीलड़की ने उसे पटरी से उतार दिया- आओ मेरे साथ

उनके पीछे से धड़धड़ाती हुई ट्रेन गुज़र गई. लड़की उसे अपने घर लेकर आई. उसकी छोटी सी खोली नोटों से भरी हुई थी. यहाँ तक कि बिस्तर भी नोटों की गड्डी सजाकर बनाया गया था- तुम इतने रुपयों का करोगी क्या?”
एक दिन मैं इनमें आग लगाऊँगीवह हँसी.

जब लड़की ने दरवाज़ा बंद किया, सुब को घबराहट सी हुई. वह जितना घबराया उतना ही तना. फिर यह सोचकर कि अगर इस लड़की को उस तरह से देखा जाय तो यह संध्या हो सकती है, वह नॉर्मल हुआ. लड़की को इसकी उम्मीद नहीं थी- हो गया?” उसने पूछा. सुब को यह पता नहीं चला कि क्या हो गया. पर यह कमरा उसे अच्छा लगने लगा और यह लड़की भी और संध्या से बदला लेने की बात उसके मन से निकल गई और समय तो इतना अच्छा था ही कि अगर कोई चाह ले तो सुख से अपनी ज़िंदगी गुज़ार सकता था.

ऐसे समय में भी सुब के नसीब में सुख नहीं था. रात होते ही लड़की ने उसे यहाँ से जाने के लिए कह दिया, क्योंकि आग लगाने के लिए उसे अभी और रुपए इकट्टे करने थे. दरवाज़े के बाहर खड़े खड़े सुब ने एक बार फिर से यह निर्णय किया कि अब वह संध्या से बदला लेकर ही रहेगा और अब तो उसकी जेब भी ख़ाली थी, अब उसे ज़ोम्बी बनने से कोई नहीं रोक सकता था.

उसी रात वह नज़दीकी बैंक गया और ज़ोम्बी बन गया पर जौंबियों की असली समस्या उसे ज़ोम्बी बन जाने के बाद समझ आई और वो ये कि अब वो बैंक और एटीएम के अलावा और कहीं नहीं जा सकता था. अब वह संध्या के पास कैसे जाएगा? उसने दीमाग लगाया- वह एटीएम-एटीएम घूमते घूमते उस गली के एटीएम पर जाकर खड़ा हो गया जहाँ संध्या का कोचिंग था और इंतज़ार करने लगा. संध्या को उसने कई बार देखा पर वह पागल थोड़ी ही न थी जो जौंबियों से कटवाने आती. वह दूर से ही निकल जाती.


सुब ने संध्या को सुबह-शाम जोहा, दिन-रात और हर दिन और इतने दिन कि वह दिनों की गिनती भूल गया. पर हर रोज़ वह बस एक ही कल्पना किया करता कि आज संध्या आ रही है और एक दिन उसकी कल्पना सच हो गई- संध्या अपनी कुछ सहेलियों के साथ एटीएम पर आई. वह बहुत ख़ुश थी. उसके साथ दोपर भी था और वह भी ख़ुश लगने की कोशिश कर रहा था. इतने सारे लोगों को अपनी ओर आते देख सभी ज़ोम्बी अपने दाँत पीसने लगे. पर उन सबको पीछे धकेल सुब आगे आ गया- संध्या को तो वही मारेगा, इसलिए तो वह ज़ोम्बी बना था. 


उसने कोशिश की और बहुत कोशिश की लेकिन संध्या पर अटैक नहीं कर पाया, क्योंकि वह पैसे निकालने नहीं बल्कि सबको मिठाई खिलाने आई थी- उसका आईएएस निकल गया था.
__________
शिवेंद्र
मुंबई में रहते हुए फ़िल्मों और टीवी सीरियल आदि में सक्रियता के साथ-साथ सतत लेखन भी.
writershivendra@yahoo.in







सबद - भेद : मुद्राराक्षस का नारकीय : संतोष अर्श

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“एक ही फन हमने सीखा है,
जिस से मिलिये उसे ख़फा कीजिये (जॉन एलिया)

मुद्राराक्षस (२१ जून १९३३- १३ जून २०१६) इसी तरह के व्यक्ति थे, उनका आत्मपरक उपन्यास ‘नारकीय’ इस बात की तसदीक़ करता है. उनका मूल नाम सुभाषचन्द्र आर्य है. लेखक, चिंतक, एक्टिविस्ट और धर्म-संस्कृति के मौलिक व्याख्याकार मुद्राराक्षस ने दस नाटक, नौ उपन्यास, तीन कहानी संग्रह, दो व्यंग्य संग्रह, दो आलोचना पुस्तकें और पुनर्पाठ आदि लिखे हैं.

नारकीय उनके लेखकीय जीवन का वृतांत है जिसमें उनका जीवन-संघर्ष, राजनीतिक सामाजिक बदलाव और समकालीन तमाम लेखकों से उनके मुठभेड़ के किस्से आदि दर्ज़ हैं. यह लेखक के उसके समय और समाज का भी वृतांत है.

प्रस्तुत आलेख हिंदी के यशस्वी अध्येता-आलोचक संतोष अर्श ने लिखा है. बहुत ही महत्वपूर्ण आलेख है. विस्तार से मुद्राराक्षस के व्यक्तित्व और वैचारिकी को परखता समझता है. इस आलेख में कुछ रोचक प्रसंग भी आ गयें हैं.




मुद्राराक्षस के नरक की नियतिहीनता : नारकीय           
संतोष अर्श 





कथा-गाथा : अशोक अग्रवाल : कोरस

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किसी भी लेखक के लिए पांच दशकों का सक्रिय रचनात्मक जीवन आसन नहीं होता, ख़ासकर हिंदी का कथाकार जो आजीविका के लिए तमाम दूसरे कर्मो पर निर्भर रहता है. वरिष्ठ कथाकार अशोक अग्रवाल की पहली कहानी अवमूल्यन1968 के धर्मयुगमें छपी थी, बाइसवाँ सालउनकी  आखिरी प्रकाशित कहानी है, जो कथादेशमें  2017 में छपी है.  

पचास वर्षो में विस्तृत उनकी ४९ कहानियों का एक शानदार संकलन संभावना ने प्रकाशित किया है. ये कहानियां जहाँ लेखक का एक मुकम्मल पाठ एक ज़िल्द में प्रस्तुत करती हैं वहीँ इस आधी सदी में किस तरह समय, समाज और उसे देखने का लेखकीय नज़रिया बदला है, पर भी प्रकाश डालती हैं. एक तरह यह जिंदा आईना है अपने वक्त का.

अशोक अग्रवाल की अपनी टिप्पणी और कथाकार मित्रों की सम्मतियों के साथ उनकी एक कहानी कोरस प्रस्तुत है.




आधी सदी का कोरस
(अशोक अग्रवाल की सम्पूर्ण कहानियाँ)


                         धीरेन्द्र अस्थाना 
             (रविवार  पत्रिका से, 1982)


“अशोक अग्रवाल की कहानियाँ घर, परिवार और समाज के आपसी द्वंद्वात्मक और तनावपूर्ण सम्बन्धों से गुजरते हुए व्यवस्था के उस अंदरूनी इलाके में प्रवेश कर जाती हैं जहाँ तमाम-तमाम क्रूरताएँ और षड्यंत्र अपने चेहरे पर आक्रमण के लिए बाहर निकलने से पूर्व का चिकना, लुभावना, आत्मीय और आकर्षक, ‘मेकअप फाउंडेशनलगा रहे होते हैं. ...जहाँ पहुँच और पहुँचा कर लेखक प्रस्थान कर जाता है और हमें प्रत्याक्रमण का समीकरण बनाने के लिए छोड़ देता है. यह छोड़ जानाहमारे विवेक और संवेदना को तीव्र करता है और यही वह बिंदु है जहाँ हमें किसी समर्थ रचनाकार की ताकत और महत्त्व का पता चलता है.
   
इन कहानियों से गुजरना जहाँ एक ओर लेखकीय श्रम की उपलब्धियों को महसूस करना है, वहाँ मन की भीतरी पर्त तक में एक गहरी बेचैनी महसूस करना भी है. लेखक बनने के जनवादी शॉर्टकट के विरुद्ध ये कहानियाँ एक सृजनात्मक बयान हैं, ऐसा बयान जो समकालीन कहानी के इस दुखद माहौल में एक हलचल खड़ी कर सकता है.”
                            


कर्मेन्दु शिशिर 
(कहानी के आसपास पुस्तक से, 2018 )

“उनकी प्रारम्भ से आज तक की कहानियों में जो बात पहली निगाह में आती है, वह है अंतर्वस्तु और शिल्प का वैविध्य. ऐसी बहुरेखीय रचनाशीलता उन रुढ़ियों से सम्भव नहीं थी, जो समांतर या आगे की कहानियों में मुखर रही. ऐसी बात नहीं कि उन्होंने अपने सहज बोध और संवेदना के सहारे ही ऐसा सम्भव किया. उनमें एक ऐसा नैतिक विज़न भी था, जो जीवन को उसकी अपनी स्वाभाविकता और सहज प्रवाहमयता में समझने को प्रेरित करता रहा.

अशोक अग्रवाल की मूल प्रकृति पर विचार करें तो उनके भीतर एक खास तरह की मासूमियत है. अपने चरित्रों से इस तरह निष्पक्ष, निष्कपट और खुला सलूक कम कथाकार कर पाते हैं. यह अकारण नहीं है कि अशोक अग्रवाल बच्चों, बूढ़ों और स्त्रियों के चरित्रों की बारीक पहचान में हमें गहरे प्रभावित करते हैं.”
                   





अपने  को  देखना               
अशोक अग्रवाल

“आधी सदी का कोरस मेरे पिछले पचास वर्ष के कहानी लेखन का दस्तावेज़ है. इसमें कुल उनचास कहानियाँ शामिल हैं. मेरी पहली कहानी अवमूल्यन1968 के धर्मयुगके किसी अंक में प्रकाशित हुई थी और बाइसवाँ सालआखिरी प्रकाशित कहानी है, जो कथादेशके जनवरी 2017 अंक में छपी है. इस संग्रह में संकलित कहानियों के अलावा कोई दस-बारह कहानियाँ ऐसी हैं, जो समय-समय पर विभिन्न लघु पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई थीं, लेकिन उनकी कोई प्रति मेरे पास नहीं है, और वे पत्रिकाएँ भी काल-कवलित हो चुकी हैं. उन्हें ऐसे गुमशुदा व्यक्तियों की कतार में रखा जा सकता है, जो कभी वापिस लौट कर नहीं आते लेकिन जिनकी प्रतीक्षा हमेशा बनी रहती है. 


दस-बारह कहानियाँ अपने पहले प्रारूप में मेरी पुरानी धूलखाई फाइलों में क़ैद हैं जिनके काग़ज़ जर्जर और अक्षर धूमिल हो चुके हैं जो यदा-कदा गुंगुआते अस्फुट स्वरों में कभी-कभी मेरी निद्रा भंग करते हैं. लेकिन फिर से उसी लगाव के साथ स्पर्श करने का साहस न बटोर पाने की ग्लानि उन्हें अनदेखा-अनसुना करना अधिक सुविधाप्रद प्रतीत होता है. कुछ आधे-अधूरे प्रारूप और फुटकर नोट्स एक उस ग़ैर-ज़िम्मेदार अभिभावक की तरह प्रतीत होते हैं जो उन्हें उनकी नियति के हवाले छोड़ आँखें मूँद अपनी आरामगाह में लौट गया हो. अतः आधी सदी का कोरस को मेरी सम्पूर्ण कहानियों का संग्रह मान लेना उपयुक्त होगा.

वर्ष 1968 के दिसम्बर का कोई एक दिन. वरिष्ठ कालजयी कथाकार जैनेन्द्र कुमार का हमारे महाविद्यालय के दीक्षांत समारोह में बतौर मुख्य अतिथि आगमन हुआ. मैं एम.ए. के अंतिम वर्ष का छात्रा था. समारोह के उपरांत एक कहानी गोष्ठी का आयोजन छात्रा समिति की ओर से मेरे निवास पर आयोजित किया गया. जैनेन्द्र कुमार की उपस्थिति मात्रा हम सभी को बेहद रोमांचित और उत्साह से भर देने वाली थी. गोष्ठी के उपरांत अपनी कुछ अधकचरी कहानियों का पुलिंदा मैं उन्हें पकड़ा सब कुछ भूल गया. मेरे विस्मय की कोई सीमा न रही जब आठ-दस दिन बाद ही उनके हाथ का लिखा पोस्टकार्ड मिला. पोस्टकार्ड की एक पंक्ति तुम्हारी कहानियाँ हाथ में लीं और सभी कहानियाँ एक-एक कर बिना किसी व्यवधान के मुझसे अनायास पढ़वाती चली गईं. इसे ही इन कहानियों की सफलता का प्रमाण मान लेना चाहिए’, मुझे आज भी स्मरण है. वे कहानियाँ खासी अधकचरी और भावातिरेक में लिखी गई अभिव्यक्तियाँ मात्रा थीं, जिन्हें स्वयं मैंने एक समय बाद खारिज़ कर दिया था और संभवतः उन कहानियों में से कोई भी इस संकलन में मौजूद नहीं है. यह उदार-हृदय वरिष्ठ कथाकार का अंकुरित होते कथाकार को उत्प्रेरित करने हेतु प्रोत्साहन भर था जिसके अभाव में प्रायः संभावनाशील प्रतिभाएँ अपनी उर्वर यात्रा पर असमय विराम लगा देती हैं.

आत्मश्लाघा, प्रवंचना, आडम्बर और भौतिक महत्वाकांक्षाओं से विलग एक लेखक कैसे अपने सृजन में वीतरागी संत की तरह ध्यानस्थ हो सकता है, इसका अहसास पहली दफा निर्मल वर्मा से मिलने पर हुआ. मेरे शिशु-सुलभ जिज्ञासा के उत्तर में कहा गया उनका एक वाक्य कि यूरोप का लेखक अपना सब कुछ खोकर लेखन को पाना चाहता है और हमारे हिन्दी का लेखक लेखन के माध्यम से सब कुछ अर्जित करना चाहता है’, एक अमिट रेखा की तरह आज भी मन-मस्तिष्क पर अंकित है. करोल बाग के दुमंजिला घर की वह छोटी-सी बरसाती जिसके फर्श पर दरी बिछी थी, बिखरी किताबें और पत्रिकाएँ, पास रखे स्टूल पर कुछ अधलिखे कागज़, सिरहाने पुस्तकों-से भरी रैक और सबसे ऊपर एक प्यारी बच्ची पुतुल’ (निर्मल जी की बेटी) का छोटा-सा फ्रेम मढ़ा फोटोग्रॉफ, इलेक्ट्रिक कैटिल, प्लास्टिक के छोटे-छोटे मर्तबानों में चाय पत्ती, चीनी, बिस्कुट और तीन-चार कॉफ़ी के मग. इन सबके बीच स्टूल पर कोहनियाँ टिकाए स्नेह और शिशु-सुलभ मुस्कराहट बिखेरते निर्मल वर्मा. डेढ़ दशक तक मेरे लिए वह बरसाती एक ऐसे तीर्थस्थल की तरह रही, जहाँ आप अनेक संशयों और अनसुलझे सवालों से भरे उद्विग्न स्थिति में जाते हैं और वापिस लौटते हुए स्वयं को बेहद हल्का और भारहीन महसूस करते हैं.

वह 1975 की सर्दियों का कोई दिन रहा होगा. अजय सिंह आग्रह के साथ रात्रि विश्राम के लिए अपने निवास पर ले गए. उन दिनों शमशेर बहादुर सिंह शोभा और अजय के साथ रह रहे थे. वे मुझे शमशेर जी के छोटे कमरे में पहुँचा वापिस लौट गए. मेरा परिचय पा शमशेर जी मुस्कराए और फिर किताबों के ढेर को खंगोलकर मेरा पहला कहानी संग्रह उसका खेल मुझे थमाते बोले एक नज़र देख लें. कोई भी पन्ना ऐसा न था जो लाल स्याही से न रंगा गया हो, कहीं-कहीं प्रश्नचिन्ह या कोई टीका-टिप्पणी. फिर देर तक वर्तनी और शब्दों के सही प्रयोग, अभिव्यक्ति के लिए मितव्ययता और फिजूलखर्ची से परहेज़, विषयों के चयन और अनगढ़ नैसर्गिक शब्दों के बारे में देर तक समझाते रहेकृ सहज और स्नेह भरे शब्दों में.

मध्य प्रदेश शासन के संस्कृति मंत्रालय द्वारा अखिल भारतीय मुक्तिबोध पुरस्कार के लिए मेरे इस संग्रह को शमशेरजी के पास भिजवाया गया था. उनके अलावा शेष दो निर्णायक थे निर्मल वर्मा और कुंवर नारायण. पुरस्कार मुझे मिल चुका था, लेकिन अब पुरस्कार प्राप्ति का सारा अहंकार जाता रहा था. ‘‘रचनाकार को विनम्र होना चाहिए, कुछ ऐसा लगे कि उसने नहीं बल्कि उसकी रचना ने ही उसे रचा हैं’’, शमशेरजी की यह सीख आज भी कुछ लिखते हुए एक लक्ष्मण रेखा की तरह खींची दिखाई देती है.

इन सभी वरिष्ठ रचनाकारों ने मेरी रचनात्मकता को सिंचित करने और उसमें खाद-पानी देने का काम किया. इन सभी कालजयी लेखकों को मेरी विनम्र स्मरणांजलि.

इसके साथ-साथ उन तमाम पात्रों, चरित्रों, दृश्यों और स्थलों से क्षमायाचना जो अपनी अनसुनी, अनदेखी, आपबीती के लिए बरसों-बरस मेरे इर्द-गिर्द मंडराते रहे इस प्रत्याशा में कि मैं कभी उनके गूंगे स्वरों और पीड़ा को अभिव्यक्ति दूँगा, लेकिन अंततः मुझसे निराश होकर किसी दूसरे सुपात्राकी तलाश में निकल गए और जो आज भी यदा-कदा मेरी वादा खिलाफ़ी के विरुद्ध अपनी खीज़ निकालने मेरी नींद में खलल डालने आ पहुँचते हैं.

इस संकलन में कहानियों के क्रम को मैंने पलट दिया है. सबसे बाद प्रकाशित कहानी संग्रह मसौदा गाँव का बूढ़ा से प्रारम्भ कर पीछे की ओर लौटा हूँ. यह एक प्रकार से वर्तमान के झरोखे से अतीत में झाँकना है.

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कहानी
को र स
अशोक अग्रवाल




फूं... फूं... की हल्की ध्वनि के बीच चूल्हे से धुआँ उठा. छिपट्टियों के ढेर के नीचे सुगबुगा रही आग की लपटों को चितसिंह पूरी ताकत से सतह पर खींचने में जुट गया.

उसकी पीठ के पीछे आसमान में तैरता लाल गोला धीरे-धीरे पानी में डूबता हुआ ठहर गया. ऊँचाई से कतारों में उतरते सफ़ेद बगुलों के छोटे-छोटे समूह टापुओं पर छितरा गए. कुछ बगुले पानी की सतह के ऊपर पंख फड़फड़ाते, कुछ डुबकियाँ लगाते और फिर गोलाई में उड़ान भरते दूसरे टापू पर पहुँच रहे थे.

चितसिंह पीठ घुमाता तो भी उसे यह सब दिखाई नहीं देता. उसकी आँखें तो दस गज की दूरी पर स्थित उस दरख्त से अटकी थीं, जिसकी गाढ़ी परछाई के नीचे मेहरदीन उकडूँ बैठा था. तीन दिन से वह इसी तरह बिना हिले-डुले दो ईंटों के आसन पर टिका है. सात-आठ गायें एक-दूसरे से सटी उसके आगे स्थिर खड़ी हैं. जुगलाने या रम्भाने की कोई आवाज़ नहीं. बड़ी-बड़ी आँखें मेहरदीन के ऊपर टिकाए हुए... देर तक ऐसे ही उसे ताकती रहेंगी, फिर उनमें हल्की-सी हलचल होगी... एक-एक कर चलना शुरू करेंगी... कोई आधा-एक घड़ी बाद सौ गज के दायरे में चक्कर लगा
फिर वहीं आकर खड़ी हो जाएँगी.

चितसिंह ने गालों को फुलाते हुए तिरछी नज़र से मेहरदीन के चूल्हे की तरफ़ देखा. राख की ढेर के ऊपर खाली पतीला लुढ़का पड़ा था... कोई पशु रात में अपना मुँह मारने आया होगा. पतीला उसकी आँखों से बचा रह गया. छोटे-छोटे बर्तनों को उसने पेड़ से लटकी मेहरदीन की पोटली में ठूँस दिया था. तेज़ आवाज़ के साथ उसने मुँह से हवा बाहर निकाली... छिपट्टियों के नीचे दुबकी लपट भभकने लगी. अपने अलावा चार बाटी तो मेहरदीन की भी सेंकनी होंगी... फिर दाल रांधेगा... फिर मेहरदीन के पास जाएगा.

चूल्हे के आग पकड़ने और लाल गोले के नहर में डूबने की क्रियाएँ एक साथ हुईं. चितसिंह पानी लाने के लिए उठा. दोनों घड़े बाईखान और मानसिंह के चूल्हों के पास रखे थे. लुढ़के पतीले ने फिर उसका ध्यान अपनी तरफ़ खींचा. पतीले को उसने पास पड़े कपड़े से झाड़-पोंछ पेड़ की डाल से अटका दिया. राख के ढेर और कोयलों को एक जगह इकट्ठा किया और चूल्हे की ईंट को फिर से जमाया. मानसिंह का घड़ा खाली था. चूल्हे ने मुश्किल से आग पकड़ी थी. नहर से पानी लाने गया तो चूल्हा ठंडा हो गया. बाईखान के घड़े के पास चितसिंह कुछ देर ठिठका खड़ा रहा. दूर सुलग रहे चूल्हे की आग उसे मद्धिम होती सी लगी. बाईखान के घडे़ में कामचलाऊ पानी हिलडुल रहा था.

चितसिंह किता’, मेहरदीन जाउंद’, मानसिंह म्याजलराऔर बाईखान पोखरणके गुडीगाँव से अलग-अलग जत्थों में चार दिन आगे-पीछे यहाँ पहुँचे थे. बावड़ियों और कुंओं में गाद बची थी. धरती दरक गई थी. मवेशियों की कौन कहे, मानुख के लिए भी पानी की बूँद नहीं.... सभी गाँवों और ढाणियों की हालात एक सी. ढोर-डंगरो की सलामती के लिए गाँव-ढाणी त्याजने ही हुए.

सदाराऊपहुँच सभी की सूखी आँखें हरी हो आईं. चितसिंह की सारी गायें बेकाबू हो रम्भाती हुई दौड़ चलीं. चौड़े पाट वाली नहर और उसकी ढेरों शाखाएँ... पानी से लबालब. इतना पानी! चितसिंह जिधर नज़र दौड़ाए... पानी ही पानी. पानी की सूंघ पा थार के सारे पक्षी और मवेशी यहीं चले आए हैं.

संध्या होने तक चितसिंह ने अपनी गृहस्थी बसा ली. मजबूत खेजड़े की फैली हुई जड़ों के आसपास की ज़मीन को उसने अच्छी तरह बुहारा. सेवण की बड़ी-बड़ी गठरियों को जमाया. बर्तन और कपड़ों की पोटलियों को शाखों के ऊपर टाँग ईंटों को इकट्ठा कर चूल्हा बनाया. मानसिंह का चूल्हा उसी खेजड़े के नीचे पीछे की ओर बना था.

बाईखान और मेहरदीन की गृहस्थियाँ एक सीध में सात-आठ हाथ आगे दूसरे खेजड़े के नीचे बसी थीं. सूरज के छिपते-छिपते चार चूल्हों ने लगभग एक साथ आग पकड़ी.

दिन बीतते-बीतते चितसिंह की समझ में आ गया. सारा मामला इतना आसान नहीं. यहाँ पानी का दरिया बह रहा है तो सेवण का एक तिनका भी आसपास नहीं. डांगरों के दाना-पानी में कितनी भी कटौती कर ले, साथ लाई सेवण की गठिरयाँ बाइस गायों का पेट कब तक भर सकेंगी?

सूरज छिपने से पहले मानसिंह और बाईखान ने डांगरों को हाँका लगाया. सेवण का मैदान आठ कोस पार करने के बाद आएगा. अभी चलना शुरू करेंगे तब जाकर कहीं सुबह वहाँ पहुँच पाएंगे. देर हुई तो चिलचिलाती धूप में डांगर बीच रास्ते में मुँह फाड़ देंगे. अपने आधे डांगरों को उन्होंने चितसिंह और मेहरदीन के हवाले किया और उनके आधे डांगर अपने रेवड़ में समेट सेवण के मैदान की दिशा में चल दिए.

चितसिंह के यहाँ आने के बाद पहली बार सिर्फ़ दो चूल्हे सुगबगाए और बाकी दोनों उसी तरह सोए रहे. बाजरे की रोटियाँ हथेली में थाम उसे अटपटा सा लगा. सांगरे का ढेर सारा अचार उसने रोटियों पर रखा और मेहरदीन के पास जा पहुँचा.

चितसिंह कुल्ला-दातुन निपटा नहर में गोता लगाने की सोच रहा था कि मेहरदीन हाँफता-दौड़ता दिखाई दिया. मुट्ठी में दबी रोटी और घास. चितसिंह उसके पीछे लपका. उसने देखा कि मेहरदीन घुटनों के बल झुका ज़मीन पर गिरी गाय के मुँह में रोटी का टुकड़ा ठूंसने की भरपूर कोशिश में जुटा है. गाय का पेट गुब्बारा बन गया है, बड़ी-बड़ी आँखें फाड़े वह निष्पंद पड़ी है. उसके देखते-देखते गाय के मुँह से एक हिचकी के साथ पानी बाहर निकला... कोरों से लार बहनी शुरू हुई और गर्दन एक तरफ़ लुढ़क गई.

मेहरदीन की रुंधी और टुकड़ों में धचकती रोने की आवाज़ कुछ देर हवा में गूँजते रहने के बाद खामोश हो गई. वह बाईखान की सबसे प्यारी सोना थी. बाईखान लौटेगा तो वह उसे अपना मुँह कैसे दिखाएगा? दो दिन से लगातार पानी ही पानी पी रही थी... घास का एक तिनका नहीं... भूख लगती तो फिर नहर में मुँह मारने पहुँच जाती... सोना के खुले मुँह से पानी अभी भी लार की तरह रिस रहा था. कुछ गायें चलती हुई सोना के पास आयीं और वहीं खड़ी हो गईंकृ बिना हिले-डुले पत्थर की बड़ी-बड़ी मूर्तियों की तरह, सोना की ओर टकटकी लगाए.
चितसिंह वहीं ज़मीन पर बैठ गया.

बाईखान मुँह अँधेरे वापिस लौटा. मेहरदीन पूरी रात खांसते हुए बलगम उगलता रहा था और इस वक़्त उकडूँ बैठा धीमी-धीमी आवाज़ में कराह रहा था. चितसिंह चित्त लेटा आकाश की ओर टकटकी लगाए कुछ सोच रहा था.

बाईखान को देखते ही चितसिंह उठ बैठा. उसका जी धक्क से रह गया. बाईखान अकेला लौटा था. दाढ़ी के बड़े-बड़े बाल धूल में अटे थे और सिर का पग्गड़ अधखुला गर्दन पर झूल रहा था. दूर तक नज़रें दौड़ायीं... मानसिंह का कोई चिन्ह नहीं. डांगरों का एक रेवड़ मरी चाल से नहर की ओर रेंग रहा था. बाईखान ने गर्दन नीची कर ली. वह इन्हें कैसे बताए
, सेवण चरने के बाद डांगरों को पानी भी चाहिए! वहाँ सेवण के मैदान में कोई बावड़ी या कुइयां नहीं. छागलों का पानी उनकी अपनी प्यास बुझाए या डांगरों की. सेवण पेट में उतरते ही डांगरों का जत्था चारों 
दिशाओं में कैसे पगलाया हुआ अपना मत्था ज़मीन से पटकता है!

उसके मुँह से मुश्किल से इतना बोल फूटा‘‘दो मवेशी रास्ते में लुढ़क लिए. आखिरी साँस टूटने तक मानसिंह को वहीं बैठना होगा.’’

नहर की ओर बढ़ते चितसिंह सिर्फ़ एक ही बात सोच रहा था सेवण का मैदान उड़ता हुआ इस नहर की ओर क्यों नहीं चला आता!

पखवाड़ा बीतते-बीतते किसी को एक दूसरे से कुछ पूछने, बताने या कहने की ज़रूरत नहीं रह गई. डांगरों को अब हाँकना नहीं पड़ता... उनके पीछे-पीछे चलने की कोई आवश्यकता नहीं. अपने पथ को उन्होंने अच्छी तरह बूझ लिया है. सेवण के मैदान से नहर तक और नहर से सेवण तक. एक निश्चित रास्ता... एक ही परिक्रमा. पानी पीते-पीते पेट फूलने लगता तो मुँह से लार बहाते कोई गाय सेवण के मैदान से आती हवा को सूंघती... खुरों को पटकती उस दिशा की ओर चलना शुरू करती, उसके आस-पास खड़ी उसकी बांधवियाँ मिचमिची आँखों से मुँह बाए कुछ देर तक देखती रहतीं, फिर धीरे-धीरे उसके पीछे एक कतार में कदम बढ़ाने लगतीं. दूसरी ओर, सेवण के मैदान में सेवण के सूखे तिनके जब मुँह और पेट में सुलगने लगते तो नहर की दिशा से पानी की फुहारें उन्हें अपने पास बुलाने लगतीं. ...रात और दिन, धूप और छांह, पानी और सेवण... के बीच भेद करने की सारी इन्द्रियाँ शिथिल हो चुकी थीं.

उनकी यह यात्रा किसी भी घड़ी प्रारंभ हो जाती. ...चलते-चलते मुँह से फेन बाहर निकलने लगता या आँतें खिंचने लगतीं तो किसी पेड़ के नीचे खड़ी हो जातीं... घड़ी दो घड़ी बाद फिर घिसटने लगतीं. यकायक उनमें से कोई पछाड़ा खा ज़मीन पर बिछ जाती तो सभी ठहर जातीं. मूक खड़ी ऐंठनियाँ खाते उसके शरीर को देखती रहतीं... खुले मुँह के ऊपर जब मक्खियाँ भिनभिनाने लगतीं और पूँछ ऐंठी रस्सी की तरह खामोश पड़ी रहती... देर तक, तब उनमें हरकत होती. नहर की धाराओं का चुम्बक उन्हें अपनी दिशा में और सेवण की हरियाली पीछे की ओर खींचने लगती. दो विपरीत दिशाओं में एक साथ न चल पाने से हकबकायी सी फिर वहीं ठिठककर खड़ी हो जातीं.

चितसिंह अपनी बाटियाँ सेंक चुका था. चूल्हे की आग मद्धिम होने लगी. आस-पास के खेजड़ों की डगालें और सूखी झाड़ियों की जड़ें चूल्हों की भेंट चढ़ चुकी थीं.

वह चिंतित हो आया... अभी चूल्हे में और आग चाहिए. ...मेहरदीन की पीठ हिलडुल नहीं रही. वह उसी तरह बैठा है. कई बार वह उसके नज़दीक जा वापिस मुड़ लिया था. मेहरदीन की दुलारी कजरी सुबह से लुढ़की पड़ी है. ...आज उसका चूल्हा खामोश रहेगा. बाईखान का दोपहरी से कुछ पता नहीं... आखिरी बार नहर की ओर जाता दिखाई दिया था. मानसिंह दो दिन हुए सेवण के मैदान की ओर गया था... अभी तक नहीं लौटा. संभव है आज चला आए. थके-हारे उसकी देह में इतना बल बचा होगा कि चूल्हा फूँक सके...?

तीनों चूल्हों और उसके आस-पास की खाली ज़मीन को खंगोलती चितसिंह की आँखें बार-बार अपने चूल्हे की धीमी होती लपटों से चिपक जातीं. यह नई बात नहीं... एक पखवाड़े से कोई रात ऐसी नहीं आई जब चारों चूल्हे एक साथ हँसे-खिलखिलाये हों. उनके सोने और जागने का कोई क्रम नहीं....

चितसिंह उठा और दोनों खेजड़ों के चारों ओर घूम गया. मोटी डगालों से लटक रही अपनी पोटलियां को उतार एक गठरी बनायी और उसे मानसिंह की बोरी के ऊपर टिका दिया. चट-चट की तीखी आवाज़ के साथ खेजड़े के दो मजबूत बाजू उखड़कर उसके हाथ में चले आए.

चूल्हे ने एक बार फिर आग पकड़ ली.

चितसिंह ने मेहरदीन के हिस्से की बाटियाँ सेंकी. पतीले को चूल्हे पर टिकाते उसे पीछे धप्प-धप्प की आवाज़ सुनाई दी. कनखियों से देखाकृ बाईखान उसकी ओर न आकर अपने ठिए की ओर बढ़ गया है.

पतीली खुदबुदाने लगी थी. चितसिंह ने दो मुट्ठी उड़द उसमें डाली. लकड़ी को चूल्हे से इतना बाहर खींचा कि आग बुझने न पाए... फिर धीरे-धीरे चलता बाईखान के पास पहुँचा.
बाईखान की हिलती हुई लाल-सफ़ेद दाढ़ी खेजड़े के नीचे फैली परछाई का हिस्सा बनी थी.
चितसिंह धीरे से खंकाराकृ ‘‘चूल्हे में काफी आग हैगी. अपनी और मानसिंह की रोटी सेंक लिजो. मैं पाणी भरने जा रहा.’’
चितसिंह खाली घड़े को बगल में दबाए नहर की ओर चल दिया.
सूरज कभी का नहर में गोता लगा चुका था. उसके डूबने के आखिरी चिन्ह और रंग आकाश और पानी में घुलमिल एकाकार हो गए थे. चितसिंह के देखते-देखते बगुलों की आखिरी कतार टिड्डियों और फिर चींटियों में बदलती अँधेरे में खो गई.
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अशोक अग्रवाल
जन्म : सन् 1948, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जनपद हापुड़ में.
शिक्षा : एम. ए. हिन्दी साहित्य.

पुरस्कार तथा सम्मान : कहानी संग्रह उसका खेल संस्कृति मंत्रालय, मध्य प्रदेश शासन द्वारा अखिल भारतीय मुक्तिबोध पुरस्कार से सम्मानित (1975). वायदा माफ गवाह उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा पुरस्कृत (1977). संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा सीनियर फैलोशिप (1994).

प्रकाशित कृतियाँ : उसका खेल (1973), संकरी गली में (1979), उसके हिस्से की नींद (1988), मामूली बात (1993), दस प्रतिनिधि कहानियाँ (2003), मसौदा गाँव का बूढ़ा (2005), आधी सदी का कोरस (सम्पूर्ण कहानियाँ, 2019)— कहानी संग्रह ; वायदा माफ गवाह (1975), काली और कलन्दर (2002)— उपन्यास ; किसी वक्त किसी जगह (2003)— यात्रा वृत्तान्त; दस कहानीकार (1971)— सम्पादन.

अनेक भारतीय तथा विदेशी भाषाओं में कहानियों के अनुवाद. वायदा माफ गवाह मराठी तथा मलयालम में प्रकाशित. अनेक महत्वपूर्ण संकलनों में कहानियाँ सम्मिलित.

सम्पर्क : 8265874186 (मो.)
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कहानी संग्रह के लिए संभावना प्रकाशन से सम्पर्क किया जा सकता है
६४, रेवती कुंज, हापुड़ -२४५१०१
मोब. 7017437410 

भाषा का अवमूल्यन : यादवेन्द्र

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मनुष्य के पास विकसित भाषा है, भाषा में ही वह रहता है. किसी भी समाज के सांस्कृतिक पतन की आहट उसकी भाषा में सुनी जा सकती है. सबसे पहले भाषा पतित होती है, गिरती है.

राजनीति मनुष्यों के समूह की सार्वजनिक हित-चिंता और हित-साधन का माध्यम है. वह सत्ता है इसलिए उसे प्राप्त करने की अनैतिकताएं और असामाजिकताएं भी हैं. और यह सब भाषा में ही घटित होते हैं.

भारतीय राजनीति में भाषा का अवमूल्यन प्रत्यक्ष तो है ही अभूतपूर्व भी है, जिसे हम लोकप्रिय संस्कृति कहते हैं वहाँ भी यह चरम पर है. तथाकथित कवि सम्मेलन और हास्य के टी वी कार्यक्रम बिना दैहिक और भाषाई फूहड़ता के आज पूरे नहीं होते, और सितम यह है कि हमें इसकी आदत पड़ती जा रही है.

यहाँ भाषा को लेकर शुद्धतावादी रूढ़ीवाद का समर्थन नहीं किया जा रहा है. सन्दर्भ से च्युत भषाई कुरुचि ही अभद्रता है.

लेखक यादवेन्द्र जी ने समकालीन भारतीय राजनीति में भाषाई गिरेपन पर यह टिप्पणी लिखी है आपके लिए.




भाषा का अवमूल्यन                           
यादवेन्द्र








मनुष्य भाषा के पिंजरे में कैद रहता है
 नीत्शे


(यादवेन्द्र)


स चुनाव में शब्दों और विचारों को इतनी कुत्सित और अश्लील ढंग से प्रस्तुत किया है कि लगता ही नहीं शालीन और सभ्य समाज में यह सब हो रहा है.चौंकाने वाली बात यह कि यह दलदल निरक्षरों ने नहीं पढ़े लिखे महानुभावों ने पैदा किया. सबसे बड़ी बात है कि हर कोई बिना सोचे समझे यह बोलता चला गया कि चुनाव एक निश्चित अवधि में पूरी हो जाने वाली प्रक्रिया है और इसके परिणामों के आधार पर देश और समाज को पूर्ववत काम करना पड़ेगापर निकट अतीत में जो शाब्दिक और भावनात्मक गंदगी फैलाई गई इसकी दुर्गंध उसकी सड़न आसानी से जाने वाली नही, बहुत दिनों तक हमें इसका खामियाज़ा भुगतना पड़ेगा. कोई आश्चर्य नहीं कि यह बाद में एक सांस्कृतिक महामारी का रूप ले ले जिसमें बड़ी संख्या में और व्यापक रूप में हमें अपने प्रियजनों की बलि (मेरा आशय शारीरिक और भावनात्मक दोनों से है) देनी पड़े.इसके दुष्परिणाम अकल्पनीय रूप से भयावह होंगे और उन्हें भुगतना हमारी नियति होगी.


सत्तापक्ष अपने कामकाज पर वोट माँगने की बजाय विरोधियों को नित नए भद्दे और फूहड़ विशेषणों से सम्बोधित कर रहा था- कॉंग्रेस की विधवा से लेकर भ्रष्टाचारी नम्बर एक और महामिलावट से लेक्ट कत्ल की रात और टुकड़े टुकड़े गैंग जैसे जुमलों वाली एक आदिम बर्बर शब्दावली गढ़ रहा था.चाहे दिखावे के लिए हो इस अघोषित युद्ध में पप्पू पप्पू कह कर अपमानित किये जाने वाले राहुल गांधी ने भाषाओं की क्रूरता को रेखांकित करते हुए एक तर्कसंगत बात कही :

'मैं राजनीति में एक नई भाषा के लिए संघर्ष कर रहा हूँ.मुद्दों पर हम चाहे कितनी तल्ख़ी से लड़ें झगड़ें- विचारधारा को लेकर एक दूसरे के साथ घमासान करें.पर एक दूसरे के लिए घृणा और हिंसा वाले शब्दों का प्रयोग न करें, यह देश के लिए बहुत बुरा है.'

ऐसे में हो यह रहा है कि अनेक शब्दों के अर्थ बदल रहे हैं और कई बार वे बेमायना हो जा रहे हैं.देखते देखते चौकीदार शब्द की हमारे समय में ऐसी लानत मलानत की जाएगी कभी किसी ने सपने में सोचा था?

भाषा के दुरूपयोग पर प्रचुर काम करने वाले अमेरिकी भाषाविज्ञानी प्रो.स्टीवन पिंकर का कहना है कि  

"प्रिंटिंग प्रेस के आविष्कार के बाद भाषा की अशुद्धता और दुरूपयोग में सबसे ज्यादा वृद्धि हुई है, अब भाषा पर नियंत्रण रखने वाली कोई अथॉरिटी नहीं है बल्कि यह 'विकि'की तरह काम करने लगी है जिसमें लाखों लाख लेखक और इस्तेमाल करने वाले लोग इसमें पल पल अपनी सुविधा और जरूरत के हिसाब से संशोधन करते रहते हैं."

पिंकर कहते हैं कि आम तौर पर लोग इस भ्रम में रहते हैं कि शब्दकोश भाषा के दुरुपयोग पर अंकुश रखते हैं जबकि सच्चाई सिर्फ़ इतनी है कि शब्दकोश शब्दों के समय के साथ बदलते अर्थों का लेखाजोखा रखते हैं.वे नए नए मुहावरों, शब्दप्रयोग, इंटरनेट के अनुसार संक्षिप्तीकरण इत्यादि का हवाला देकर कहते हैं कि यही कारण है कि आज के समय की बड़ी विडम्बना यह है कि "अच्छे लोग खराब भाषा का प्रयोग करने लगे हैं."


इस संदर्भ में जॉर्ज ऑरवेलके 1946के अल्पज्ञात निबन्ध 'पॉलिटिक्स एंड द इंग्लिश लैंग्वेज'का हवाला दिया जाता है जो द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की दुनिया को लक्षित कर कहता है कि हमारे समय में राजनैतिक भाषण और लेखन (यानी भाषा) अरक्षणीय (इन डिफेंसिबल) की रक्षा करने में जुटा हुआ है, यहाँ तक कि भारत में ब्रिटिश राज को जारी रखने, रूस में राजनैतिक उछाड़ पछाड़ और निष्कासन और यहाँ तक कि जापान पर एटम बम गिराने तक को जायज ठहराने के तर्क गढ़े जा रहे हैं.वे आगे कहते हैं कि एक के बाद दूसरे नेता भाषा का प्रयोग जानकारी देने के लिए नहीं बल्कि सत्य पर पर्दा डालने के लिए कर रहे हैं.भाषा की कुटिल राजनीति के प्रति सचेत करते हुए वे कहते हैं कि जनता के साथ संवाद की भाषा सीधी सरल होनी चाहिए पर जानबूझ कर असली मकसद छुपाने के लिए भाषा का सायास दुरुपयोग किया जा रहा है.

इस संदर्भ में मुझे बरसों पहले पढ़ी और अनुवाद करके डायरी में रखी मेरे प्रिय अमेरिकी कवि डब्ल्यू एस मेरविन की 'शुक्रिया'कविता याद आ रही है जो बड़े तीखे, गहरे और करुण ढंग से हमारे दिन दिन विकृत और हृदयहीन होते जाते समय में शब्द और उसके मायने के बीच की भयावह खाई को रेखांकित करती है....डर लगता है देख कर कि मुँह से आदतन 'शुक्रिया शुक्रिया'उगलते हुए हम मनुष्यता को चुनौती देने वाले किस अंधेरे की ओर पहुँच गए.


______
शुक्रिया 
डब्ल्यू एस मेरविन


सुनो
उतरती हुई रात को हम कहते हैं शुक्रिया
पुल पर ठहर कर झुकते हैं रेलिंग पर
शीशे के घरों से निकलते हैं बाहर
मुँह में ठूँसे हुए खाना और निहारने लगते हैं आकाश
और बोलते हैं : शुक्रिया

पानी के बगल में खड़े होकर
हम शुक्राना अदा करते हैं पानी का
खिडकियों पर खड़े होकर निहारते हैं बाहर का नजारा
अपनी दिशाओं में
अस्पतालों के चक्कर लगा कर
लूट खसोट के बाद 
या अंत्येष्टियों से लौट कर घर आते हैं
तो बोलते हैं: शुक्रिया

किसी इंसान के मर जाने की खबर सुन कर
चाहे उसे चीन्हते हों या नहीं
बोलते हैं: शुक्रिया

टेलीफोन पर हम दुहराते रहते हैं: शुक्रिया
चौखटों पर हों, कार में बैठे हों पिछली सीट पर
या एलीवेटर में हों
हर जगह हम बोलते रहते हैं: शुक्रिया

युद्ध को याद करें
या  दरवाजे पर आये पुलिस वाले को
हम अदा करते ही हैं :शुक्रिया

कोई सीढ़ियों पर पैर पटक पटक कर चलता है
तब भी हम शुक्रिया बोलते हैं

बैंक जाते हैं तब बोलते हैं: शुक्रिया
अफसरों और धनाढ्यों के सामने जब पड़ते हैं
और उन सभी के सामने भी जो
कुछ भी हो जाए कभी बदलेंगे नहीं जिनके चाल चलन
उनको देखते ही हम अनायास बोलने लगते हैं:
शुक्रिया ..... शुक्रिया !!

अपने आसपास दम तोड़ते जानवरों को देखते हुए
भाव विह्वल हो हम बोल पड़ते हैं: शुक्रिया

घड़ी की सुई से तेज रफ़्तार में
देखते हैं कैसे मिनट मिनट में कटते जा रहे हैं जंगल
तब भी हम अदा करते हैं: शुक्रिया

दिमाग से जैसे पट पट मरते जा रहे हैं सेल
वैसे ही मिटते जा रहे शब्दों को देख कर भी
हम यही कहते हैं : शुक्रिया शुक्रिया!

दैत्य की मानिंद जैसे जैसे हम पर चढ़ते आ रहे हैं शहर
वैसे वैसे बदहवासी में हम बोलते जाते हैं:
शुक्रिया शुक्रिया !

कहीं कोई सुने न सुने बस हम बोलते जाते हैं:
शुक्रिया शुक्रिया !
शुक्रिया शुक्रिया रटते जाते हैं हम  
और हाथ हिलाते रहते हैं
आसपास तेजी से घिरते जाते अंधेरे में
__________

मंगलाचार : सोमेश शुक्ल

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हिंदी कविता की दुनिया में विविधता उसी तरह है जिस तरह इस समाज में है. एक ही समय में तमाम चीजें एक साथ चलती रहती हैं. आप अपने लिए कोई सी जगह चुन सकते हैं किसी भी स्वर में कह सकते हैं. शोर में शामिल होने का दबाव साहित्य में नहीं है. सोमेश शुक्ल जरा अपने अंदर उतरते हैं और चुप्पियों को सुनते हैं. इस युवा की कुछ कविताएँ आपके लिए.





सोमेश शुक्ल की कविताएँ






सोमेश में शुक्ल घुसा हुआ है
जैसे आकस्मिकता में घुसी होती है ऐतिहासिकता

हमें पता होना चाहिये
किसी चीज का आकार हमेशा उस चीज से छोटा होता है
घटना बड़ी होती है घटना के समय से
मन इतना तक छोटा हो सकता है कि हो ही न

कहने के लिये जब कुछ नहीं होता
तब कुछ कहना कितना जरूरी हो जाता है

मैं जब किसी से मिलता हूँ तो बीच में
एक आदमी जितनी दूरी बनाकर रखता हूँ

जमीन देखकर चलना मैंने छोड़ दिया है
कहीं कुछ भी पाने की इच्छा अब मुझमें नहीं रही



(दो)

होना हो सकता है

चुपचाप!
अकेले अकेले बात करती दो वस्तुओं के बीच
बातों का कोई अंत नहीं

मौन को सुन लिये जाने के अलावा भी उसमें कुछ हो सकता है
देखने को संसार में दृश्यों के अलावे भी कुछ हो सकता है
कुछ भी हो सकता है
दुनिया का सबसे निर्दयी हत्यारा मेरा पता जान चुका है
वह जैसे संसार के उस कोने से मेरी हत्या करता हुआ चला आ रहा है
उसके साथ उसका साथ भी हो सकता है

जो लोग जान चुके हैं कि उन्हें कुछ पता नहीं
तो उनके साथ अब कभी भी कुछ भी हो सकता है

एक जगर देर तक छूने में 'वहाँ'छुअन नहीं रहती
बाकी कहीं कुछ भी हो सकता है

होता सब है, कभी न कभी
अचानक, लेकिन पंक्तिबद्ध
जानवर कहीं भी जा सकते हैं लेकिन जंगल में
कोई कुछ भी कह सकता है लेकिन बातों में
यह सच है कि हर आकार को तोड़ा जा सकता है
अर्थ को उसके पीछे की ओर मोड़ा जा सकता है और प्रश्न में जोड़ा जा सकता है
कुछ नहीं में भी थोड़ा आ सकता है

जितना दूर उतना भीतर की ओर
जितना गहरा उतना सतही
बाकी सिर्फ बीच है जो कहीं भी हो सकता है



(तीन)

चलने से कभी मैंने ये नहीं सोचा कि मेरा रास्ता पूरा हो
मैं बस चलने को पूरा करना चाहता था

जीवन भर मैं जहां जहां गया
उन जगहों को वहां वहां से अपने साथ ले आया,

अब कहीं न जाने के लिये भी कोई जगह नहीं बची है




(चार)


अपने आप से बंधे हुऐ मवेशियों की तरह
मैं चरता हूँ अपने होने की जगह

रोटी नहीं कि पता नहीं भूख नहीं
इतना भिखरा हुआ एकांत
कि पड़ोस में कोई पड़ोस नहीं

मन के भीतर कुछ है जो मन को लीलता है
स्मृतियों को छोड़ देता है

एक अज्ञात थकान में
मैं चलाता हूँ और चलने का रास्ता छोड़ देता हूँ

जैसे एक आधार अपनी धार में लगातार
सिर्फ मुझको बहाता है मेरा सबकुछ छोड़ देता है



(पांच)

जब मैं अपनी ही शक्ल देखता हूँ
मुझसे थकी हुई मुझतक
उन्हीं आँखों से उन्हीं में देखना
कितना बड़ा हिस्सा मेरा असंतुष्ट पड़ा है.

मैं सिर्फ इन पत्थरों को संतुष्ट कर सकता हूँ
इस मिट्टी को, कण-कण संतुष्ट कर सकता हूँ
अंतरिक्ष के इस क्षण-क्षण रिक्त को संतुष्ट कर सकता हूँ

इन्हें कहीं से भी, मैं कुछ भी पुकार सकता हूँ
और ये यदि नहीं सुनते तो और अधिक संतुष्ट होंगे

मैं इन्हीं से इन्हें पुकारता हूँ
सबकुछ अपनी-अपनी ओर ही तो लौट रहा है.



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someshshukl@gmail.com



परख : रिनाला खुर्द (ईश मधु तलवार) : मीना बुद्धिराजा

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रिनाला खुर्द
ईशमधु तलवार
प्रकाशक- राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली-110002
प्रथम संस्करण-2019
पृष्ठ सं-160
मूल्य- पेपरबैक्स-  रू. 150












“रिनाला खुर्द पढ़ने के बाद लगा, जैसे मैं नीम का कोई पेड़ हो गया हूँ और उस पेड़ से लिपटकर कोई चुपचाप रो रहा है, क्योंकि जिससे वह प्यार करता है, उसने कहा था कि कभी रोना हो तो पेड़ से लग कर रोना, इंसान अब इस काबिल नहीं रहे.”
उदय प्रकाश

इसी वर्ष ईशमधु तलवार का उपन्यास ‘रिनाला खुर्द’ राजकमल से प्रकाशित हुआ है. एक मासूम प्रेम भारत पाकिस्तान के बटवारे के बाद बट जाता है. पूरा उपन्यास इस प्रेम की तलाश का एक कारुणिक वृतांत है. इस उपन्यास को देख परख रहीं हैं मीना बुद्धिराजा


रिनाला खुर्द :  सरहद पर प्रेम                          
मीना बुद्धिराजा







भारतीय इतिहास के सबसे संवेदनशील कालखंड विभाजन की मार्मिक गत्यात्मकता में निहित मानवीय सचऔर इस सच को चुनौती देने वाले इंसानों की पीड़ा और त्रासदी को लेकर हिंदी कथा साहित्य में अनेक कालजयी कृतियां लिखी गईं हैं. इतिहास में समाया हुआ सच कलात्मक रूप में साहित्य में ढ‌ल जाता है. विभाजन के दर्दनाक इतिहास में आंकड़े, तथ्य और घटनाएं जरूर दर्ज़ होते हैं पर ज़िंदा किरदार तो साहित्य में ही संभव है जिसमें स्मृतियों की बड़ी भूमिका होती है.एक सुलगती खामोशी के बीच की पीड़ा जिसके बिना न जी पाते हैं न मर सकते हैं वो अंदरूनी रिक्तता जिसमें सर्जनात्मकता का स्पंदन औए एक साझे सपने को बचाने की कोशिश हो. विभाजन संबंधी साहित्य में मंटो, भीष्म साहनी,अमृता प्रीतम,मोहन राकेश,इस्मत चुगतई, कृश्नचंदर, स्वदेश दीपककृष्णा सोबती और नासिरा शर्मा तक जैसे रचनाकारों ने बेहद मार्मिक और प्रभावशाली रचनाएँ प्रस्तुत की है जिसमें विभाजन जैसे उनकी मानवीय संवेदना की चौखट पर दस्तक देता है.एक पूरी संस्कृति की तहज़ीब के बिखरने की व्यथा-कथा को इनकी रचनाएँ बड़े फलक पर दिखाती हैं और मानवता और उम्मीद के पक्ष में अंत तक खड़ी होती हैं.


इसी साहित्यिक यात्रा में समकालीन कथा-लेखन के परिदृश्य में प्रसिद्ध लेखक-पत्रकार और कथाकार ईशमधु तलवारका नवीनतम उपन्यास रिनाला खुर्दहाल ही में राजकमल प्रकाशनसे प्रकाशित होकर आना पाठकों के लिए एक नयी और सार्थक उपलब्धि है. नाटक और व्यंग्य लेखन के साथ फिल्म और गीत-संगीत भी उनके लेखन का विषय रहे हैं. राजस्थान साहित्य अकादमी की ओर से साहित्यिक एवं रचनात्मक पत्रकारिता के लिए पुरस्कृत हो चुके और जयपुर दूरदर्शन से संबद्ध रचनाकार ईशमधु तलवार सतत सक्रिय सृजनात्मक लेखक हैं. रिनाला खुर्दउपन्यास वर्तमान मेंपाकिस्तान में स्थित एक इलाके के नाम पर आधारित शीर्षक है जो पहले अविभाजित भारत का ही हिस्सा था. हकीकत और अफसाने के साथ यह विभाजन के दशकों बीत जाने के बाद की स्मृतियों का मार्मिक और संवेदनशील कथा- वृतांत है जो वर्तमान से अतीत में आवाजाही करती रोचक कथा और मुख्य पात्रों चाई जी, मधुकर और सलमा के माध्यम से विभाजन की त्रासदी को गहराई से अनुभव करता है.यह बहुत  पठनीय, दिलचस्प और मार्मिक लघु आकार का उपन्यास है लेकिन पाठकों के मन में गहरे धँस जाने की सामर्थ्य रखता है.

समकालीन उपन्यासों से कुछ अलग कथानक और संरचना-शिल्प के स्तर पर भी यह प्रेम के छोटे-छोटे प्रंसंगों के माध्यम से सरहदों पर खींची गई नफरत की दीवार की भयावहता को भी समझने की कोशिश करता है जिसमें मानवता और प्रेम के सूखते हुए स्त्रोत को बचाने का भरसक प्रयास है. इस राग और विराग से भरे बेहद पठनीय उपन्यास में एक साथ कई कहानियाँ एक दूसरे के समानांतर साथ-साथ चलती हैं. हिंदुस्तान में मेवात के किसी छोटे से गाँवबगड़की रहने वाली मासूम खूबसूरत लेकिन निडर लड़की जंगल में भेड़-बकरियाँ चराने वाली नरगिस बंटवारे के बाद सरहद के उस पार पाकिस्तान में लाहौर के पास किसी इलाके में रहने उस मुल्क की मशहूर लोक-गायिका बन चुकी है. इधर बचपन में नरगिस के साथ स्कूल जाने वाला, खेलने वाला, राबड़ी खाने वाला और दिन-रात उसके साथ रहने वाला, उससे शादी करने के सपने देखने देखने वाला नायक मधु सरहद के इस पार भारत में भूगोल की उच्च शिक्षा के बाद पुरातत्व-आर्कियोलोजी का विशेषज्ञ बन चुका है.

नायक मधु की माँ जिसे वह चाई जीकह कर पुकारता है, वह सरहद के उस पार पाकिस्तान में विभाजन के समय रिनाला खुर्द में अपना घर, खेत, असबाब- सामान ही नही, अपना एक ऐसा जरूरी संदूक भी छोड़ आई हैं जिसमें उनकी कई रचनाएं कविता- कहानी,पत्र जो रिसालों में छपी और जीवन भर की पूरी-अधूरी जीवन भर की यादें  भी हैं. इस पूरे उपन्यास में चाई जी उन दर्द भरी स्मृतियों और साझे अनुभवों के बक्से से कुछ न कुछ  निकाल कर याद करके रो देती और भावुक हो जाती हैं जिसमें उनकी तड़प को महसूस किया जा सकता है और खो चुके रिनाला खुर्द की गलियों के लिए उनके असीम लगाव को पाठक भी संवेदना के स्तर पर अनुभव करता है.


तुम्हारी याद के परचम खुले हैं राहों में
तुम्हारा जिक्र है पेडों में, खानकाहों में

उपन्यास में सभी समानांतर चलती कथाएँ एक नहीं, कई छूट गयीं, बिछड़ गयी चीज़ों को खोजने, पाने और पाकर फिर खो देने का मार्मिक कौतुक रचती हैं. एक विलुप्त होती नदी सरस्वती जो दोनो देशों की सरहद के रेगिस्तानी इलाके के नीचे  से बह रही है,उसकी खोज के लिये मधु को भारतीय पुरातत्व विभाग के विशेष मिशन पर पाकिस्तान जाने का दुर्लभ अवसर मिलता है जिसके सपने और स्मृतियाँ चाई जी और मधु के जीवन से कभी अलग नहीं हुए. वहाँ जाकर उसकी उसकी मुलाकात अपने बचपन के खोये हुए प्यार के रूप में नर्गिस उर्फ सलमा से होती है जो शादी के बाद बहुत पहले पाकिस्तान आ गई थी. यहाँ की धरती यहाँ के लोग भी बिल्कुल हमारे जैसे ही हैं और दोनों मुल्कों में मोह्ब्बत का पुल बनाना चाहते हैं. सलमा यहाँ आकार एक विख्यात गायिका बन गई लेकिन न वह बचपन के गाँव की मधुर यादों और न अपने प्रेमी मधु को कभी भूल पाई थी. सलमा और मधु जब दोबारा मिलते हैं तो जैसे उनके अनकहे प्यार की, दर्द की एक नदी फिर से प्रवाहित होने लगती है. पति के द्वारा आरम्भ से ही शारिरिक-मानसिक प्रताड़ना सहने वाली सलमा के कड‌वे, उदास और निरर्थक जीवन में मधु जैसे पुन: एक उम्मीद और प्रेम का स्त्रोत बनकर दाखिल होता है. स्त्री के शोषण और नियति, उसके स्वतंत्र अस्तित्व से जुड़े त्रासद सवाल दोनों मुल्कों में एक जैसे ही हैं. अपने अतीत और खोये हुए सच्चे प्यार को याद करके मधु और सलमा अपने सुख-दुख बांटते हुए भविष्य में फिर एक साथ रहने के सपने देखते हैं लेकिन बीच में सरहद की कँटीली दीवारें और फासले आ जाते हैं जिसकी वज़ह से अपने-अपने दुखों के साथ उन्हें जुदा होना पड़ता है. वापसी के आखिरी दिन रिनाला खुर्द पहुंच कर मधु किसी तरह चाई जी के उस बक्से को तलाश कर लेता है जो उनके जीवन का एकमात्र सपना था. लेकिन वहाँ की पुलिस उसे उसे संदेहास्पद गतिविधि समझकर बंदी बनाकर रख लेती है.  जेल में अनेक यातनाएं सहने के बाद मधु को अपने मित्र इरशाद अमीन की मदद और  भारत सरकार के पुख्ता सबूतों की वज़ह से उसे रिहा किया जाता है. हिन्दुस्तान वापस आने तक चाई जी इसगम से बेहद बीमार हो चुकी हैं और उनकी भी मृत्यु हो जाती है. पैतृक गाँव बगड़ में चाई जी का अंतिम संस्कार करने के बाद मधु को खबर मिलती है कि सलमा ने भी पाकिस्तान में मधु से बिछड़ने के गम और नाउम्मीदी में आत्महत्या कर ली. इस दोहरे दुख और त्रासद अंत के साथ मधु ज़िन्दगी में जैसे अपना सब कुछ खो देता है. सरहदो के फासलों ने उस प्रेम की नदी को फिर से विलुप्त कर दिया था जो दोनों देशों के दिलों को जोड़ने का कारण बन सकती थी –

सामने ही नीम का पेड़ था. मैंने नीम का पेड़ बाहों में भरा और मेरी आंखों से आंसू बह निकले. सलमा के शब्द मेरे कानों मे गूंज रहे थे- “पेड़ से चिपक कर ही रोना. इंसानों के सामने रोने से कोई फायदा नहीं.” आँसुओं के बीच एक ऐसी नदी थी जो बाहर से भीतर आ रही थी और एक नदी जो भीतर से बाहर निकल कर उफन रही थी. ..सरहदों के नीचे आज एक और नदी दफन हो गई थी. पुल भी टूट गया था. अब पता नहीं सरहद से कब किस नदी के सोते फूटेंगे?... मुझे सपने से जगाने वाली चाई जी नहीं थी. मेरी नींद टूटी. अब सलमा कभी नहीं मिलेगी.

यह उपन्यास विभाजन की निर्मम त्रासदी में धकेल दिये गए मनुष्यों की पीड़ा  और दुखों को, स्मृतियों को घटनाओं में शिद्दत से दर्ज़ करने वाला मानवीय दस्तावेज़ भी है. उपन्यास की भूमिका में प्रख्यात हिंदी कथाकार उदय प्रकाशने बहुत गंभीरता से अपना यह वक्तव्य  लिखा है-

इस उपन्यास में मधु अपनी नरगिस को नहीं, या चाईजी अपनी संडूक को ही नहीं खोजते, इसमें सियासत की शतरंज पर बिसात बनाकर दो टुकड़ों में बाँत दिये गए दो शरीर, अपने अलग कर दिए गए रिश्तों, खेतों-खलिहानों, घर- बगीचों और जैसे अपने ही जिस्म से अलग काट दिए अंगों की खोज में विकल भटकते हैं. 1947 में देश विभाजन पर बहुत सी कहानियाँ-उपन्यास लिखे गए हैं, फिल्में बनी हैं. लेकिन यह उपंयास अपने लघु आकार में बड़ी कथा इसलिए भी कहता है कि यह विभाजन के बाद की स्मृतियों का विचलन कारी वृतांत है. महत्वपूर्ण यह है कि ये स्मृतियाँ सिर्फ कुछ पात्रों की निजी स्मृतियां नहीं रह जातीं, वे दो देशों, दो समुदायों, दो इतिहासों और मिथकों के अटूट ,अविभाज्य, निरंतर अंतर्संबंधों की कहानी भी बन जाती हैं.
  
हिंसा, रेगिस्तान, उजाड़, फौज, सियासत, संदेह और युद्ध के साये तले दहशत से साँस लेती धरती के गर्भ में, चुपचाप बहती हुई विलुप्त नदी सरस्वती की तलाश सिर्फ सप्तसिंधुया हड़प्पा सभ्यता की खोज भर नहीं रह जाती, वह बुल्ले शाह, वारिस शाह, परवीन शाकिर,मेहदी हसन, नूरजहाँ, मंटो, नुसरत फतेह अली खाँ के करीब जाने और भीष्म साहनी-बलराज साहनी के पिता के पेशावर से जुड़े जीवन के संघर्ष को देखने के हासिल में भी बदल जाती है.”
 
एक साझी विरासत और संस्कृति के बीच सियासत द्वारा खींची गई हदें और दीवारें क्यों आज भी मजबूत और गहरी होती जा रही हैं यह अनुत्तरित सवाल इस उपन्यास को पढ़ने के बाद फिर से उठ खड़ा होता है.इस उपन्यास में जीवन का सफर कई रंगों से होकर गुजरता है, जिसमें अंधेरे-उजाले, खुशियों से छलकती नदियाँ हैं तो दुखों के पहाड़ भी. लेकिन किसी इनसान को यदि उसकी सरज़मीन से उसकी जडों से उखाड़ दिया जाए तो उसका दर्द ज़िंदगी के पूरे सफर में साये की तरह पीछा करता है. मधु ने जीवन भर चाई जी को दर्द के इस दरिया से गुज़रते हुए बचपन से अब तक देखा था. रिनाला खुर्द की नहरें, बाग-बगीचेचाई जी की यादों में बसे थे जो उम्र भर उन्हें बेचैन करते रहे. पाकिस्तान में भी ऐसे बहुत से लोग हैं जो अपनी ज़मीन छोड़ने की टीस को आज तक जख्म की तरह सीने में लिए बैठे हैं. भौगोलिक हलचलों से दोनों मुल्कों को जोड़ने वाली नदियाँ दफन होती रहीं, वक्त के साथ रास्ता बदलती रहीं, सरहद के कंटीले तारों में इन्सानी रिश्ते भी दम तोड़ने को मजबूर हुए लेकिन अवाम के दिलों में बहने वाली मोहब्बत की नदी अभी पूरी तरह सूखी नहीं. मानवीय संवेदनाओं से जुड़े रोचक और भावुक किस्सों के अनेक स्त्रोत भी इस उपन्यास में पाठक का ध्यान अंत तक नहीं हटने देते.

उपन्यास की कथा की धुरी तो वर्तमान है जहाँ से अतीत में दाखिल होते हुए भविष्य के स्वप्न भी मधु और सलमा संजोते हैं. संबंधों के टूटते-बिखरते लम्हे और कथासूत्रों को इतिहास की एक वृहद रेंज तक फैलाना- निर्वाह करना एक दुष्कर काम है जिसे इशमधु तलवार जी ने बतौर कथाकार बहुत खूबी से संयोजित किया है. स्मृतियों के सहारे घटनाओं और प्रसंगों को सजीव करनाऔर कथा को खूबसूरत बनाने के लिये प्रत्येक अध्याय के उपशीर्षक के बाद उर्दू शायरी और अशआरों से कथा को फिर से सूत्रबद्ध करना,सलमा के गाये मेवाती मारवाड़ी लोक- गीतों और पाकिस्तान के पंजाबी संगीत की विरासत से जुड़े जीवन के विभिन्न पक्षों को सघन बुनावट के साथबहुत संवेदनशील और कलात्मक रूप से कथा में गूँथा गया है जो पाठकों को एक प्रभावपूर्ण तरीके से आकर्षित कर लेते हैं और कथा जैसे भावनाओं की एक स्वच्छंद नदी की तरह कल-कल करती प्रवाहित होती रहती है –

मोहे पिया मिलन की आस वा
लगी अखियाँ तो तेरी प्यास वा
हाय रुकने लगी साँस वा
कहे लगा अधूरी ही ये लगन
हाय जिंदड़ी लुट्टी तें यार सजन
कदी मोड़ मुहारा ते आ वतन.

स्मृतियों और वर्तमान से जुड़े चरित्र,घटनाओं और परिवेश का विस्तार दोनों देशों के भूक्षेत्र जयपुर, अलवर, मेवात, अमृतसर, वाघा बार्डर, लाहौर, पत्तन मुनारा, मुल्तान, बहावलपुर और रिनाला खुर्द तक फैला है जिनके सतलुज चिनाब  नदियाँ, जंगल, पुल, सड़कें, शहर इस उपन्यास में जीवंत और दृश्यमान हो उठे हैं और एक समन्वित संस्कृति के साथ लयबद्ध होकर सांगीतिक अभिव्यक्ति में इस तरह घुल जाते हैं कि कहीं भी कथा को बोझिल नहीं होने देते. फैज़ अहमद फैज़, कतील शिफाई,परवीन शाकिर, फरीदा खानम और तहमीना दुर्रानीकी शायरी के और जीवन के प्रसंग भी उपन्यास को समासामयिक, दिलचस्प और रोचक बनाते हैं.


राजस्थानी- मेवाती लोक शब्दों के साथ पंजाबी-उर्दू का खूबसूरत समन्वय भाषा शैली को कलात्मक व आत्मीय स्तरपर स्थानीय संदर्भों और मिट्टी की खुशबू से कथा को जोड़े रखता है. लेखक की संवेदनशीलदृष्टिकथ्य और शिल्प के विलक्षण तालमेल में इतने कौशल से मधु और सलमा की जीवन कथा के माध्यम से अनेक प्रसंगों से जुड़ती-टकराती, दोनों मुल्कों के मार्मिक प्रसंगों को उघाड़ती इतिहास के हादसों और वर्तमान के रिश्तों को  इस बारीकी से खोलती जाती हैं कि संवेदना के स्तर पर पाठक भी अत्यंत गहराई से उनसे जुड़ जाता है. यहाँ विभाजन कोई  दहशतनाक घटना या दुर्घटना भर बन कर नहीं आता,बल्कि वह इतिहास का एक जलता हुआ टुकड़ा है जो इस उपन्यास के सभी किरदारों के रूप में मनुष्य की रूह में दाखिल हो गया है. इस जलते हुए नासूर ने इन्हें जीवन भर कभी धधकाया और कभी बुरी तरह झुलसाया. आत्मा को ज़ख्मी करने वाली यह तकलीफ ताज़िंदगी इन का पीछा करती रही और चेतन-अवचेतन को बार-बार घेरती रचनाकार को मानवता के लिए बची हुई गुंजाईश को बचाए रखने के लिए प्रेरणा स्त्रोत देती रही.समकालीन परिस्थितियों और राजनीतिक-वैश्विक संदर्भों में सरहद की सीमाओं को लाघंकर अनेक मानवीय कोणों से ,एक नयी और प्रासंगिक ईमानदार दृष्टि से लिखा गया यह उपन्यास हमारे समय से भी और उन प्रश्नों से भी जुड़ जाता है जिसमें तमाम भिन्नताओं और विरोधों के बावज़ूद हम मनुष्य है और मानवीय संवेदनाओं का विभाजन नामुमकिन है. यह उपन्यास इस सच की तसकीद भी करता है कि भारत-पाकिस्तान को युद्ध, डिफ़ेंस और रक्षा- बजट न बढ़ाकर आपसी मोहब्बतों का बजट बढ़ाना चाहिये.

अपने मुक्कमल रूप में यह उपन्यास पाठकों की चेतना में अपनी इसी अंतरंगता और गतिशीलता के साथ जीवंत रूप में घटित होता है जोरिनाला खुर्दके रूप में समकालीनउपन्यास की सफलता और उपलब्धि भी है.
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सबद भेद : पॉल गोमरा का स्कूटर (उदय प्रकाश) : शिप्रा किरण

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पॉल गोमरा का स्कूटर
बाज़ार से यूं ही गुज़र जाना आसान कहाँ              
शिप्रा किरण


“बड़ी तेजी से दुनिया बनती जा रही है एक बड़ा गाँव
लोभ क्रोध ईर्ष्या द्वेष के लिए अब कहीं और नहीं जाना पड़ता
मनुष्यों के संबंध बहुत पतले तारों से बांध दिए गए हैं जो बात-बात में टूट जाते हैं
उन्हें जोड़ने के लिए फिर से जाना होता है बाज़ार
जहां तमाम स्वादिष्ट चीजें एक
बेस्वाद जीवन को घेरे हुए हैं
मंगलेश डबराल








दय प्रकाश का साहित्य इसी बेस्वाद होते जा रहे जीवन और उसके कड़वाहट की वजहों के पड़ताल का साहित्य है. कड़वाहट से निजात दिलाने वाला नहीं सिर्फ उनकी तह तक पहुंचाने वाला साहित्य. यह उस बाज़ार की पोल खोलने वाला साहित्य है जिसने मनुष्य के अस्तित्व पर ही सवाल खड़े कर दिए हैं. यह उस चकाचौंध की असलियत बताने वाला साहित्य है जिसमें दुनिया की आँखें चुंधियां सी गईं हैं. अस्मिताएं खतरे में हैं लेकिन अस्मिता पर मंडरा रहे खतरे को भाँपना आसान नहीं है. पता भी नहीं चलता कि कब ‘मोहनदास’ का नाम और उसकी पहचान उससे छिन जाती है. पता ही नहीं चलता और ‘राम गोपाल’ पॉल गोमरा बनने को विवश हो जाता है.

भूमंडलीकरण के दौर में बाज़ार एक ऐसी आंधी बन कर आया कि अपने साथ सब कुछ उड़ा ले चला. ये तय है कि इस आंधी में वही बचा रहेगा जो अपने पैर बाज़ार में टिकाए रखने के काबिल बनेगा. पॉल गोमरा को भी वर्तमान में टिके रहना मुश्किल लगता था क्योंकि-

‘‘इतिहास का उन्हें अपार ज्ञान था लेकिन वर्तमान उनकी समझ में नहीं आता था. बहुत प्रयत्नपूर्वक एकाग्रचित्त होकर वे कभी-कभार वर्तमान को समझने का प्रयत्न करते तब तक वह बदल जाता था.’1

हर पल हो रहे इस बदलाव को समझने और काबिल बनने की होड़ में अंततः बाज़ार ही उसका आश्रय भी बनेगा. बाज़ार हर रोज एक नया सामान और उसके साथ साथ उसे साधने के लिए एक नई तकनीक पेश कर दे रहा है. एक स्किल सीखते-सीखते दूसरी, नई और पहले से भी बेहतर स्किल यहाँ आ जाती है और फिर बाज़ार ही लोगों को उसके लिए स्किल्डबनाने में बड़ी तत्परता से जुट जाता है. अर्थशास्त्री जोसफ शुंपीटर ने इसे ही पूंजीवादी व्यवस्था के अंतर्गत सर्जनात्मक ध्वंस’ (Creative Destruction) कहा है –

Whatever has been built is going to be destroyed by a better product or better method or a better organization or a better strategy2
इस सर्जनात्मक ध्वंस की चर्चा जोसफ शुंपीटर से पहले ही कम्युनिस्ट घोषणापत्र में मार्क्स-एंगेल्स भी कर चुके हैं. सीधे तौर पर तो नहीं पर आधुनिक पूंजीवादी समाज के सन्दर्भ में किए गए कुछ विश्लेषणों के दौरान –

…in these crises a great part not only of the existing products, but also of the previously created productive forces,are periodically destroyed.”3

यह पूंजीवादी विनाश का एक बड़ा ही भ्रामक रूप है जिसमें विनाश, पहले से और बेहतर व उत्कृष्ट की सृष्टि कर के किया जाना है. लेकिन पूंजीवाद के इस सृजनात्मक ध्वंस का बड़ा फायदा अंततः बजार को ही मिलता है तभी तो इसका नतीजा यह रहा कि

‘‘बाज़ार अब सभी चीजों का विकल्प बन चुका था. शहर, गाँव, कस्बे बड़ी तेजी से बाज़ार में बदल रहे थे. हर घर दुकान में तब्दील हो रहा था. बाप अपने बेटे को इसलिए घर से निकाल कर भगा रहा था कि वह बाज़ार में कहीं फिट नहीं बैठ रहा था.’’4

बाज़ार अब सारे संबंधों के विकल्प के रूप में सामने है. और यहाँ जो मिसफिट है वह अपनी पहचान खोने को विवश है, वह आत्महत्याओं का विकल्प चुनने को विवश है. अपनी पहचान खोकर, बाज़ार और उसके इस भागम-भाग से थक कर खुद को अकेला ही पाता है. पूंजीवादी मौजूदा दौर में आर्थिक विषमताओं और क्रूर-अन्यायपूर्ण व्यवस्था से जूझते हुए उसे यही एक रास्ता दिखाई देता है-
‘‘सचमुच यह कैसा समाज है जहां कोई व्यक्ति लाखों की भीड़ में खुद को गहरे अकेलेपन में पाता है, जहां कोई व्यक्ति अपने को मार डालने की अदम्य इच्छा से अभिभूत हो जाता है और किसी को इसका पता तक नहीं चलता? यह समाज, समाज नहीं, बल्कि एक रेगिस्तान है जहां जंगली जानवर बसते हैं, जैसा कि रूसो ने कहा था.’’5
कहीं न कहीं ऐसी ही अदम्य इच्छा और ऐसी ही किसी आत्महत्या की आशंका से बचने के लिए ही पॉल गोमरा भी रामगोपाल से पॉल गोमरा बनता है. चूंकि वह हिन्दी साहित्य का विद्वान था तो अपनी योग्यता के अनुरूप ही नाम बदलने के विखंडनवादी तरीके को अपनाता है. इस नए यथार्थ से तालमेल बिठाने के लिए उसने-

‘‘अपने नाम राम गोपाल के पालको तोड़कर अलग निकाला और उसको हल्का सा डिसटॉर्ट करते हुए पॉलबना दिया. इसके बाद बाकी बचे रामगोको उल्टी तरफ से पढ़ दिया- गोमरा.’’6

निश्चय ही यह विखंडन बाज़ार के दबाव का ही परिणाम है और यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि यह सिर्फ एक व्यक्ति के नाम का ही नहीं उसके पूरे व्यक्तित्व, उसकी पूरी अस्मिता का डिस्टॉर्शन है. यह बाज़ार से टक्कर लेने और उसे मात देने की होड़ से उपजी पद्धति है. यह देरीदीय विखंडनवादका भी विखंडन है. बाज़ार एक आम इंसान के भीतर ऐसी हीनता-ग्रंथि पैदा करता है कि वह उससे मुक्त होने के लिए छटपटाता फिरता है.

‘‘बाज़ार आप किसी वस्तु की आवश्यकता होने पर जाते हैं. बाज़ारवादी दौर में आप बाज़ार जाते नहीं. माल आपका पीछा करता है. आपकी असुविधा का ध्यान किए बिना आपके घर में घुस आता है. वह आपकी जीवनशैली और शक्ल का माखौल उड़ाकर तब तक आपको हीन भावना से भरता रहता है जब तक आप उस माल का उपयोग करना नहीं आरंभ कर देते.’7

बाज़ार अपने साजो-समान के साथ उसकी हीनता बोध को भुनाने की फिराक में हर क्षण तैयार और चौकस रहता है. धीरे- धीरे यह बाज़ार उसकी जरूरत बन जाता है. और बाज़ार के मापदण्डों पर खरा उतरना इंसान की मजबूरी. डार्विन की survival of the fittestकी थियरी का हवाला देता हुआ बाज़ार,इंसान को उसके दम घुट जाने की हद तक अपनी बाँहों में जकड़ता जाता है. पुरानी व्यवस्था और बने बनाए ढर्रे पर चलने वाला एक आदर्शवादी और नैतिक मूल्यों से भरा-पूरा व्यक्ति इन सबसे पहले तो घबरा सा जाता है. वह समझ ही नहीं पाता कि इस व्यवस्था की ताल से ताल मिलाई कैसे जाए. वह एक अजीब सी भ्रम की दुनिया में जीने लगता है. एक लंबी बेहोशी के बाद जागकर भौंचक्का सा रह जाता है जैसे. और जब जागता है तब उसे एहसास होता है कि-

‘‘लोग बाग मारुति, एस्टीम, सीएलो, जेन, सिएरा, सूमो, होंडा, कावासाकी, सुजुकी और पता नहीं किन-किन गाड़ियों में चलने लगे थे. कहाँ से कहाँ पहुँच गए थे. और पॉल गोमरा को साइकिल तक चलानी नहीं आती थी.’’8

हिन्दी का ही लेखक होने के नाते उन्हें इस बात का भी एहसास बार-बार होता था कि

‘‘वे समाज के आगे-आगे कबीर-प्रेमचंद की तरह मशाल लेकर चलने वाले अगुआ-अवांगार्द लेखक की बजाय, समय के पीछे-पीछे किसी तरह रेंगने-घिसटने वाले कानखजूरे, गोजरा, केंचुआ या घोंघा बनते जा रहे हैं.’’9

और तभी वह अपना नाम बदलने के बाद अब एक स्कूटर खरीदने के बारे में सोचते हैं. लेकिन उनके अवचेतन में कहीं न कहीं स्कूटर चलाना नहीं जानने का डर और एक तरह की ग्रंथि भी मौजूद रहती है, अपने पिछड़ जाने का डर भी रहता है तभी उन्हें अजीब-अजीब सपने आने लगते हैं-
‘‘उस रात पॉल गोमरा ने अपने टीवी सेट पर स्वप्न जैसा विज्ञापन देखा. बस्तर, अबूझमाड़, किरर या मयूरभंज जैसे किसी आदिवासी इलाके में अपने तीर धनुष लेकर निकले हुए आदिवासियों का एक झुंड अचानक जंगल में लोहे का एक जानवर देखता है. वे उस पर अपने जहर बुझे बान चलाने ही वाले होते हैं कि उन्हीं में से एक युवा आदिवासी, जो दुस्साहसी और नई चीजों के प्रति आदिम जिज्ञासा से भरपूर है. उन्हें रोककर उस जानवर के पास पहुँचता है और उसे निश्चल पाकर उसके ऊपर चढ़ जाता है और उसकी पीठ और पुट्ठों पर कूदने लगता है.’’10

नई चीजों और भौतिकता के प्रति इंसान की यही आदिम जिज्ञासा उसे कहीं न कहीं बाज़ार के करीब ले जाने का कारण बनती है. पॉल गोमरा के इस सपने के बारे में पढ़ते ही अंग्रेजी की प्रसिद्ध फिल्म द गॉड्स मस्ट बी क्रेजीकावो दृश्य आँखों के आगे घूम जाता है, जब एक आदिवासी इलाके में अचानक कहीं से कोको-कोला की बोतल पा ली जाती है, वह बोतल उनके लिए बिल्कुल नई और निराली चीज होती है. पहले तो वह आदिवासी-बच्चों के कौतूहल का कारण बनती है फिर पूरे आदिवासी समाज की हैरानी का. धीरे-धीरे उस बोतल का आकर्षण इतना बढ़ जाता है कि उसपर अधिकार पाने के लिए उन आदिवासी समूहों में झगड़े और टकराव की स्थिति आ जाती है. यह पहला अवसर होता है जब उस समाज में आपसी कड़वाहट की शुरुआत होती है. 


आदिवासी समाज का मुखिया उसी बोतल को झगड़े की जड़ मानता है तथा उससे छुटकारा पाने के लिए बोतल को जमीन में गाड़ आता है. लेकिन उस बोतल के आकर्षण से भरा हुआ एक दूसरा आदिवासी उसे वापस निकाल लाता है. इस तरह एक भोले-भाले और निश्छल समाज में वर्चस्व की लड़ाई और शक्ति प्रदर्शन की शुरूआत होती है. वह बोतल भी इसी बाज़ार का प्रतिनिधित्व कर रही होती है. इंसान को पागल कर देने वाले बाज़ार का ही एक हथियार है- विज्ञापन. जो उसके अवचेतन तक में प्रवेश कर चुका है. उदय प्रकाश के यहाँ विज्ञापन के असर और उसके असर से बेखबर इन्सानों और उन स्थितियों को बखूबी देखा जा सकता है. ये स्थितियाँ ही हमें अपने आसपास के परिवेश का जायजा लेने को विवश करती हैं. यह बाज़ार और विज्ञापन का प्रभाव ही है कि

‘‘यथार्थ मशीन युग से निकलकर इलेक्ट्रॉनिक और उसके आगे के युग में जा रहा था.’’11
और बच्चे –
‘‘बच्चे जादुओं, परी कथाओं और डायनासोर जैसे प्रागैतिहासिक जंतुओं के साथ गिल्ली-डंडा या बेसबॉल खेल रहे थे. वे हनुमान जी, भीष्म पितामह और कृष्ण जी को कैडबरीज के चॉकलेटखिला रहे थे और मैकडॉवेल सोडा पिला रहे थे.’’12

नई पीढ़ी न जाने किस अंधीदौड़ में और कौन सी दिशा में भाग रही है कुछ पता नहीं चल पा रहा. जिस आठ साल के बेटे मंटू के पैर में मोच आ जाने पर पॉल गोमरा उसे नूरानी तेल की मालिश किया करते, जिसे भुने जौ और चने का सत्तू खिलाया करते वही बाज़ार के और उसके तमाम हथियारों का शिकार बन-
 
‘‘कमरे के बीचोंबीच स्टीरियो डेक में मैडोना का कैसेट चलाकर डांस कर रहा था.’’13

ये नई जेनेरेशन के शौक थे. यही वह जेनेरेशन गैप था जिसकी खाई पाटते-पाटते व्यक्ति कब स्वयं भी इस बाज़ार का शिकार होता जाता है, उसे खुद ही इसका एहसास नहीं होता. और पॉल गोमरा भी एक दिन-

‘‘जब कवि नगर के अपने एल.आई.जी. फ्लैट तक पहुँच कर उन्होंने कॉलबेल बजाई और दरवाजा खुला तो वे गिरते-गिरते बचे. उनके घर का दरवाजा उनकी पत्नी स्नेहलता सक्सेना ने नहीं, मशहूर मॉडल मेहर जेस्सिया ने खोला था. रोलर और कंडीशनर से घुंघराले हो गए बाल, जिन्हें ड्रायर से सुखाकर चमकीला बना दिया गया था, भूरे और कत्थई होकर पंखे की हवा में काँप रहे थे. साँवला रंग बदलकर हल्का हरा और आसमानी हो गया था. पलकों में सुनहरा शैडो. शरीर में मौंट्रियल की प्रसिद्ध यू डि कोलन शैंटिली की खुशबू आ रही थी. उसने हल्के गुलाबी और सलेटी रंग की जो लिंगरी पहन रखी थी, उसकी मूल डिजाइन की परिकल्पना पेरिस के फैशन डिजाइनर रोम्याँ कार्तियें ने की थी.’’14

विज्ञापन किसी भी व्यक्ति या वस्तु को इतना सजा सँवारकर प्रस्तुत करता है कि वह अपनी एक गहरी छाप छोड़ जाता है. यह स्वाभाविक ही है कि एक अदृश्य वस्तु के प्रति हमारा आकर्षण जितना ही तीव्र होता है, उसे पाने की लालसा भी उतनी ही प्रबल होती जाती है. ऐसा ही वास्तविक जो असल में वास्तविक है नहीं, को इटालियन विचारक-दार्शनिक उम्बर्तो एको ने The authentic fake कहा.

‘‘पूंजीवादी बाज़ार में रची गई छवियाँ और उनका मायाजाल मनुष्य के मन के एक अनियंत्रित और आदिम संवेग को तो व्यक्त करता ही है, वह उसकी वास्तविक आंतरिक अतृप्त आकांक्षाओं और अधूरे रह गए सपनों को भी ध्वनित करता है.’’15

आज सिनेमा और टेलीविजन द्वारा ऐसी ही न जाने कितनी मेहर जेस्सिया की छवियाँ व्यक्ति के मन-मस्तिष्क पर गढ़ी जा रही हैं. ऐसी ही छवियाँ हमें अपनी स्मृतियों, अपनी वास्तविकताओं से दूर कर एक अजनबी दुनिया में लिए जा रही हैं. बाज़ार और विज्ञापनों द्वारा गढ़े जा रहे गैर-वास्तविक को ही हमने वास्तविक और मूल मान लिया है. बाज़ार विज्ञापनों के सहारे उपभोग की इन वस्तुओं का ऐसा प्रभामंडल तैयार करता है कि व्यक्ति स्वाभाविक स्मृतियों और कल्पनाओं को नहीं बल्कि उसी आभासी दुनिया की फंतासियों को सच मानने लगता है. ज्यां बोद्रिला ने इसे ही हाइपर रियलिटी (Hyperreality)कहा है, और इसकी परिभाषा देते हुए इसे A real without origin orrealityकहा है अर्थात बिना वास्तविकता का वास्तविक. हाइपर रियलिटी के ही सन्दर्भ में उम्बर्तो ने The authentic fakeवाली बात कही है, जिसका जिक्र ऊपर किया गया है. विजय कुमार ने अपनी किताब में इसकी व्याख्या कुछ इस तरह की है –

‘‘वास्तविकता मूल से कहीं अधिक वास्तविक है. भयावह मूल से कहीं अधिक भयावह है. सेक्स मूल से कहीं अधिक सेक्सी है. पोर्नोग्राफी कामुकता के मूल से कहीं अधिक कामुक है, युद्ध अपने मूल से कहीं अधिक नाटकीय है.’’16

निश्चित तौर पर ‘अति’ कभी वास्तविक नहीं हो सकता. मंगलेश डबराल अपनी एक कविता
‘यथार्थ इन दिनों’ में लिखते हैं –

यथार्थ इन दिनों बहुत ज़्यादा यथार्थ है
उसे समझना कठिन है सहन करना और भी कठिन”17

यह बाज़ार का ही कमाल था कि अपनी पत्नी स्नेहलता सक्सेना में उसे टेलीविजन द्वारा बनाई गई एक छवि मशहूर मॉडल मेहर जेस्सिया दिखाई देती है. और पॉल गोमरा बाज़ार के ही एक उपकरण मेहर जेस्सिया के बनावटी और उपभोक्तावादी सौन्दर्य में बहुत देर तक डूबता-उतराता रहता है. क्योंकि जाने-अन्जाने ही बाज़ार उसकी चेतना में प्रविष्ट हो चुका है और यह सारी घटनाएँ उसी के परिणामस्वरूप घटित हो रही हैं. आज मनुष्य भी वही देखना चाहता है जो उसे दिखाया जा रहा है. अपने आसपास की कठोर सच्चाईयों से भागकर वह बाज़ार की शरण में जाता है. वह खुद भी भ्रम और छलनाओं की दुनिया में जीना चाहता है, उसे अपने सपनों को खोने का भी डर नहीं रह गया है. जबकि वह भागकर जिस दुनिया में जा रहा है वहाँ मृगमरीचिका और रहस्य के अलावा कुछ भी हाथ नहीं आने वाला. पूंजीवादी व्यवस्थाएं साजिशन लोगों की स्मृतियों का सफाया कर वहाँ घुसपैठ करती हैं.

‘‘लोगों की स्मृति उस कैसेट की तरह थी, जिसमें हर रोज नई छवियाँ और नई आवाजें टेप की जातीं और रात में उन्हें पोंछ दिया जाता. सुबह वे सब के सब स्मृतिहीन होकर उठते. उन्हें पिछला कुछ याद नहीं रहता था.’’17

ये शक्तियाँ सबकी स्मृतियों के साथ खिलवाड़ करती हैं. अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करने के बाद उन्हें धो-पोंछ कर मिटा देती हैं.

‘‘खुद पॉल गोमरा की स्मृति भी दगा देने लगती. हालाँकि वे उसे बचाए रखने के कठिन संघर्ष में जूझते रहते.’’18

लेकिन अपनी स्मृतियों को बचा पाना असंभव सा है इस दौर में इसलिए आज व्यक्ति अपनी जड़ों से कटकर अकेला हुआ जा रहा है. शहरों यहाँ तक कि अब कस्बों, घरों तक फैले बाज़ार ने उसे एक-दूसरे से अजनबी ही बनाया है. इस कृत्रिम जीवन ने एक भयानक एलियनेशन को जन्म दिया है.

‘‘दिल्ली एक ऐसा शहर था, जहां लोग सिर्फ काम पड़ने पर ही मिलते थे. यों ही मिल लेने से लोगों के मन में उस व्यक्ति के प्रति धारणायें खराब हो जाती थीं.’’19


दिल्ली तो महज प्रतिनिधित्व करती है शहरी अजनबीपन का, यही हाल देश के सभी बड़े शहरों का था. मशहूर शायर बशीर बद्र ने यूं ही नहीं लिखा था कि

‘‘कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से
ये नए मिजाज का शहर है जरा फासले से मिला करो.’’20

शीत युद्ध की समाप्ति से पहले जो विश्व दो महाशक्तियों- सोवियत रूस और अमरीका, के दौर में दो ध़ुवों में बंटा हुआ था. शीत युद्ध की समाप्ति के बाद एकधु़वीय हो गया. इस शक्ति संतुलन के टूटते ही अब अमरीका का लगभग पूरी दुनिया पर एकाधिकार कायम हुआ. इसी के साथ पूरा विश्व एक नए तरह के उपनिवेशवाद का शिकार हुआ. बाज़ार के माध्यम से अमरीका ने इस नवउपनिवेशवाद का प्रसार आरंभ किया, खासकर विकासशील देशों के बाज़ार पर उसकी खास नजर रही. यही तीसरी दुनिया के देशों के बाज़ार उसका लक्ष्य रहे. भारत भी अमरीका का ऐसा ही एक बाज़ार बना. इन देशों को अपना बाज़ार बनाने की प्रक्रिया तो लगातार चलती ही रही लेकिन यह तब और पुख्ता हो गई जब भारत में 1991में नई आर्थिक नीतियाँ लागू हुईं. इस नई आर्थिक नीति के तीन प्रमुख तत्वों- उदारीकरण, वैश्वीकरण और निजीकरण ने मिलकर पूरे भारतीय समाज को आर्थिक स्तर पर तो प्रभावित किया ही सामाजिक, सांस्कृतिक स्तरों पर भी उतना ही प्रभावित किया. अब इन देशों के बाज़ार पूरी तरह मुक्त कर दिए गए. सभी व्यापारिक सीमाओं को समाप्त कर ग्लोबल विलेजकी अवधारणा सामने आई. 

पहले विदेशी कंपनियों पर व्यापारिक नीतियों के अंतर्गत लाइसेन्स, कोटा आदि के जो लगाम लगे हुए थे उनमें पूरी ढील दे दी गई. भारत में भी विदेशी कंपनियों व बड़े उद्योगपतियों ने खुलकर पूंजी लगाई. जिसका परिणाम यह हुआ कि बड़े स्तर पर बेरोजगारी तो बढ़ी ही लघु उद्योग व घरेलू उद्योगों का भी तेजी से ह्रास हुआ. किसान, दस्तकार जैसे छोटे व्यापारियों के लिए असुरक्षा का माहौल बढ़ता गया. एक तरफ जहां आम आदमी पर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष करों का बोझ बढ़ा वहीं दूसरी तरफ कॉर्पोरेट व उद्योगों को खरबों रुपये की रियायत दी गई. इस तरह पूरा भारतीय समाज आर्थिक विषमता के मकड़जाल में फँसता गया.

‘‘एक के बाद दूसरी सरकारों की वह आर्थिक नीति, जो देश के महानगरों को अमेरिका बना रही थी, वही देश के गावों और पिछड़े इलाकों को कंगाल बनाकर इथियोपिया, रवांडा और घाना पैदा कर रही थी.’’21

इसी तरह एफडीआई, सेज जैसे सरकारी कवायदों ने किसानों, छोटे व्यापारी समूहों की हालत दिन-ब-दिन खराब ही की.

‘‘महँगाई बढ़ने का एक कारण किसानों का संकट में होना भी है. किसान कर्ज के बोझ तले ही नहीं दबा है उसे कई और संकटों से जूझना पड़ रहा है. वह कर्ज के कारण उदासी, विषाद और निराशा का शिकार हो रहा हो रहा है. वह आत्महत्या कर रहा है.’22

महंगाई को कम करने के लिए भी जो रास्ते अख्तियार किए जा रहे हैं वह भी उनके शोषण पर ही टिके हैं-

‘‘महंगाई रोकने के लिए विदेशों से गेंहू, आलू, प्याज मंगवाया जाता है. लेकिन देश में पैदा होने वाले अनाज, फल, सब्जियों आदि की समुचित मूल्य पर खरीद और संरक्षण आदि को लेकर कभी गंभीरता नहीं दिखाई जाती. अपने किसान की समस्याएं दूर करने की चिंता सरकारों को नहीं है.’23

मोहनदास का बिसेसर किसान ऐसी ही सरकारी लापरवाही का शिकार होता है-

‘‘खेत में पैदा होने वाले अनाज और दूसरी फसलों की कीमत ही बाज़ार में नहीं रह गई थी. पास के गाँव बलबहरा का बिसेसर, जिसने ग्रामीण बैंक से कर्ज लेकर सोयाबीन की खेती की थी, दो महीना पहले अपने खेत की नीलामी से बचने के लिए बिजली के खंभे पर चढ़कर नंगी तार से चिपक कर मर गया था.’24

इसलिए रोजगार के लिए शहरों की ओर पलायन करना किसानों और ग्रामीण मजदूरों की मजबूरी हो गई-

‘‘छोटे किसान और मजदूर गाँव छोड़-छोड़कर शहर भाग रहे थे.’’25

लेकिन वहाँ भी स्थितियाँ बेहतर नहीं थीं. नई संभावनाओं की तलाश में वह पलायन तो करता पर अपनी जड़ों से उखड़कर वह कहीं का नहीं रहता. न उसके गाँव में उसके कोई निशान बाकी रह जाते हैं और न ही शहर उसे कभी स्वीकार करता. भाई का सत्याग्रहके मुन्ना की भी यही हालत होती है-

‘‘सात साल पहले जब वह विष्णुपुर गया तो उसे बताया गया कि ग्राम पंचायत के वार्ड नंबर 12से, जहां उसका घर था, अब उसका नाम कट गया है. ...वह अचानक बेघरबार और निर्वासित हो गया था. दिल्ली में उसका कोई घर नहीं था. गाँव से उसके निशान मिटाए जा रहे थे.’26

अपनी जड़ों से दूर जाता, अपनी पहचान, अस्मिता और अस्तित्व के संकटों से जूझता, अपने ही गाँव-समाज और परिवार के बीच अजनबी बना आज का हर इंसान कहीं न कहीं काफ्का के ‘मेटामॉर्फोसिस’ का वही ग्रेगोर साम्साहै जिसका इन संकटपूर्ण स्थितियों को देखते और झेलते हुए कायांतरण हो जाता है. किन्तु कष्ट और पीड़ा से उसे तब भी मुक्ति नहीं मिलती. पॉल गोमरा और मोहन दास आदि का कायांतरण तो हो जाता है पर कायांतरण की विवशता और उसकी पीड़ा उन का पीछा कभी नहीं छोड़ती. रामगोपाल पॉल गोमरा में बदल जाने की कोशिश के बावजूद अंततः रामगोपाल ही रहता है. मोहनदास अपना नाम बदल जाने और अपनी पहचान खो जाने के बाद भी अपनी स्मृतियों और अपने अस्तित्व को नहीं खो पता. सारे संघर्ष और नाउम्मीदीयों के बावजूद उनकी अस्मिताएं उनके भीतर बनी रहती है. क्योंकि तमाम निराशाओं के बीच भी उन्होंने उम्मीदें बचा कर रखी हैं. देरीदा ने लिखा है-

‘‘चरम निराशा की अवस्था में किसी उम्मीद की आकांक्षा समय के साथ हमारे रिश्ते का एक अभिन्न अंग है. नाउम्मीदी इसलिए है, क्योंकि हमें उम्मीद है कि कुछ और सुंदर घटित होगा.’’27




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संदर्भ
1.पॉल गोमरा का स्कूटर (कहानी संग्रह)- उदय प्रकाश, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ॰ सं॰ 36
2.Rediscovering Schumpeter: The power of capitalism by Sean Silverthron: hbswk-hbs-edu
3.Manifesto of the communist party : Marx-Engles – LeftWord Books, New Delhi, pg. no. 24
4.पॉल गोमरा का स्कूटर (कहानी संग्रह)- उदय प्रकाश, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ॰ सं॰ 37
5.प्यूचे: आत्महत्या के बारे में- कार्ल मार्क्स (अनुवाद : ज्ञानेन्द्र) गार्गी प्रकाशन, सहारनपुर, पृ॰ सं॰ 03
6.पॉल गोमरा का स्कूटर (कहानी संग्रह)- उदय प्रकाश, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ॰ सं॰ 45
7.समकालीन भारतीय साहित्य (जुलाई-अगस्त 2011) संपादक मण्डल : सुनील गंगोपाध्याय, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, अग्रहार कृष्णमूर्ति, साहित्य अकादेमी, दिल्ली, पृ॰ सं॰ 67
8.पॉल गोमरा का स्कूटर (कहानी संग्रह)- उदय प्रकाश, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ॰ सं॰ 48
9.पॉल गोमरा का स्कूटर (कहानी संग्रह)- उदय प्रकाश, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ॰ सं॰ 48
10.         पॉल गोमरा का स्कूटर (कहानी संग्रह)- उदय प्रकाश, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ॰ सं॰ 50
11.         पॉल गोमरा का स्कूटर (कहानी संग्रह)- उदय प्रकाश, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ॰ सं॰ 38
12.         पॉल गोमरा का स्कूटर (कहानी संग्रह)- उदय प्रकाश, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ॰ सं॰ 38
13.         पॉल गोमरा का स्कूटर (कहानी संग्रह)- उदय प्रकाश, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ॰ सं॰ 40
14.         पॉल गोमरा का स्कूटर (कहानी संग्रह)- उदय प्रकाश, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ॰ सं॰ 40
15.         अंधेरे समय में विचार- विजय कुमार, संवाद प्रकाशन, मेरठ, पृ॰ सं॰ 45
16.         अंधेरे समय में विचार- विजय कुमार, संवाद प्रकाशन, मेरठ, पृ॰ सं॰ 244
17.         http://kavitakosh.org
18.         पॉल गोमरा का स्कूटर (कहानी संग्रह)- उदय प्रकाश, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ॰ सं॰ 61
19.         पॉल गोमरा का स्कूटर (कहानी संग्रह)- उदय प्रकाश, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ॰ सं॰ 61
20.         पॉल गोमरा का स्कूटर (कहानी संग्रह)- उदय प्रकाश, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ॰ सं॰ 65
21.         https://www.rekhta.org
22.         मोहन दास- उदय प्रकाश, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ॰ सं॰ 65
23.         जनसत्ता–(16/10/2015)संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित धर्मेन्द्रपाल सिंह का विदेशी निवेश में कितनी हकीकतशीर्षक आलेख  
24.         जनसत्ता–(16/10/2015)संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित धर्मेन्द्रपाल सिंह का विदेशी निवेश में कितनी हकीकतशीर्षक आलेख  
25.         मोहन दास- उदय प्रकाश, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ॰ सं॰ 46-47 
26.         मोहन दास- उदय प्रकाश, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ॰ सं॰ 47
27.         पॉल गोमरा का स्कूटर (कहानी संग्रह)- उदय प्रकाश, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ॰ सं॰ 83
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शिप्रा किरण
युवा लेखिका और अनुवादक
ई.मेल. kiran.shipra@gmail.com

मो. 8130963690


कथा-गाथा : ईश : प्रचण्ड प्रवीर

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प्रचण्ड प्रवीर जो भी लिखते हैं उसमें दर्शन की सुदृढ़ भावभूमि अवश्य होती है वैसे वह पेशे से केमिकल इंजीनियर हैं. उनका एक उपन्यास, हिंदी और अंग्रेजी में एक एक कहानी संग्रह, विश्व सिनेमा को भारतीय रस सिद्धांत के आलोक में देखती हुई एक आलोचनात्मक किताब, लेख, अनुवाद आदि प्रकाशित हो चुके हैं. संस्कृत साहित्य में विशेष रूचि रखते हैं.

उपनिषदों को आधार बनाकर ग्यारह कहानियों की श्रृंखला पर कार्य कर रहें हैं. यह उनकी पहली कहानी है ‘ईश’. दर्शन को कथा के शिल्प में कहने के अपने ज़ोखिम हैं. यह एक प्रयोग भी है. कहानी आपके समक्ष है.


ई श                                               
प्रचण्ड प्रवीर







हुत पहले की बात है. बात एकदम से शुरु नहीं होती. हर किसी बात के पीछे अतीतबंधा होता है, जो खींचने पर धागे की तरह खुलता ही जाता है. अब इसमें याद रखा जाने योग्य अतीत अंतत: इतिहास बन जाता है. उसमें भी यह सवाल उठता रहता है इतने में से कितना इतिहास हमारे काम का है और कितना व्यर्थ है? इतिहास की बहुत सी बातें अंतत: सामान्य ज्ञान बन जाती हैं. इस तरह यह समझा जा सकता है कि इतिहास का मूलभूत प्रश्न इसमें निहित है कि कितनी बातों को सामान्य ज्ञान मान लेना चाहिए!


मेरे शिक्षक का मत था कि इतिहास का कोई खास मतलब नहीं होता है. इतिहास दरअसल कूड़ेदान की चीज होती है, जिसका पुनर्चक्रण करके काम की चीजें बनती हैं और बनायी जाती है. किन्तु इतिहास स्वयं में कोई सत्य नहीं देता. इसलिए इतिहास को किसी नज़र से देखा जाता है और तरह-तरह के मत निकाले जाते हैं. अंतत: किसी नज़र से इतिहास भी खुद को दुहराने के लिए बाध्य हो जाता है. वहीं देखा जाय तो सामान्य ज्ञान वस्तुत: सत्यपरक न हो व्यवहारपरक या स्वार्थसिद्धि हेतु ही है. इसलिए जो पुनरावृत्ति की आशा से ऐतिहासिकता पर महत्त्व देते हैं, दरअसल वह अंधेरे में भटक रहे होते हैं. मेरे शिक्षक, जो धीर पुरुष थे, उन्होंने यह भी कहा कि किन्तु आश्चर्य है कि जो इतिहास को अनदेखा कर जीते हैं वह और भी गहरे अंधेरे में विचर रहे होते हैं. दरअसल जो इतिहास को जान कर इतिहास को अनदेखा कर के आगे बढ़ सकता है, वे ही किसी बात को समझ सकते हैं.
     
बात बहुत पहले की है. सौ साल के आस-पास से बात शुरु की जा सकती है, जब मेरा जन्म होने ही वाला था. उन दिनों का विज्ञान और तकनीक आज के मुकाबले कुछ कम था. तकरीबन उस समय तक मानव की दो मुख्य प्रजातियाँ हो गयीं थीं – १. गुणसूत्र संशाधित २. प्राकृतिक. करीब आज से दो सौ साल पहले मानवों ने जीन और गुणसूत्रों का संशाधन करना शुरु किया और उत्तरोत्तर ऐसी जाति विकसित हुयी जिसमें कर्क रोग, क्षय रोग, मामूली सर्दी, मलेरिया, गंजापन आदि बीमारियों का समूल नाश हो गया है. मानव कोशिकाएँ ऐसे रोग से सदा के लिए संरक्षित हो गयीं. इतना ही नहीं यौक्तिक रूप से मनुष्य पहले की तुलना में अधिक बुद्धिमान, बेहतर स्मरण शक्ति वाला हो गया.
   
दूसरी ओर बहुत से लोग ने मानव जीन और गुणसूत्र संशाधन का विरोध किया और प्राकृतिक तरीके से संतान उत्पत्ति करते रहे. इस तरह दो तरह की जाति व्यवस्था विकसित हुयी. किन्तु यह जाति व्यवस्था भी बहुत दिनों तक पूरी तरह कारगर नहीं हो पायी क्योंकि बहुत से वर्णसंकर पैदा होते गये. हालांकि वर्णसंकरों को प्राकृतिक मानवों ने अपनाया, वहीं गुणसूत्र संशाधित प्रजाति ने उसे कमतर कह कर अलग ही रखा.
पिछड़ जाने के कारण प्राकृतिक मानवों ने खुद को और पीछे ढ़केला. अब वे भूमि के छोटे हिस्से पर प्राचीन तौर तरीकों से खेती करके अपना जीवन यापन करते थे. विज्ञान ने इतनी तरक्की कर ली है कि प्रयोगशाला में शाकाहार, मांसाहार, हर तरह का भोजन बड़े पैमाने पर बनने लगा है. मशीन तस्वीरें बनाने से ले कर, संगीत लहरियाँ गढ़ने से ले कर कहानियाँ लिखने तक का काम कर रहे हैं. किन्तु एक विचित्र समस्या ने गुणसूत्र संशाधित और प्राकृतिक दोनों तरह के मनुष्यों को घेर लिया.
वह थी आत्महत्या की समस्या!
   
एक सदी पहले तक यह देखा जाता रहा था कि आत्महत्या करने वाले अधिकांश मनुष्य दु:खी और लाचार हो कर, आवेश में या अवसाद में आत्महत्या कर बैठते  थे. नयी सदी का मानव यह प्रश्न पूछने लगा कि आखिर जीवन का उद्देश्य क्या है? प्रश्नों का मूलभूत रूप से बदल जाना, अकस्मात ही नहीं हो गया. इसका कारण यह था कि मनुष्य बड़े कम समय में बहुत से काम करने लगा था. एक रात मनुष्य सोता, तब मशीन रात भर में उसे संसार भर में बनी उत्कृष्ट फ़िल्में दिखा देतीं और वह अवचेतन में ही उनसे परिचित हो जाता. एक दिन में वह चित्र, स्थापत्य के सभी चर्चित कलाकृतियों से गुज़र जाता. कुछ दिनों में वह संसार का अद्यतन सङ्गीत सुन लेता. फिर मशीनों की ही मदद से वह गाना सीख लेता. जिस नृत्य की उत्कृष्टता को सीखने में जीवन लग जाता था, वह गुणसूत्र से संशाधित कर देने से और मशीनों के निर्देश से मनुष्य महीने भर में हर तरह के नृत्य में पारंगत हासिल कर लेता.
   
साहित्य, कला, सङ्गीत, यौन क्रियाएँ, पर्यटन – जब सबकी सीमाएँ समाप्त हो गयी, तब मनुष्य के लिए मृत्यु एक उत्कृष्ट प्रश्न के रूप में सुदृढ़ हुआ. मनुष्यों के लिए नए रोग उत्पन्न होते गए, जिसका समाधान न मिला. अंतिम विजय न मिली. शून्य एक महती प्रश्न था और उसका कोई उत्तर न था. 
   
पिछली सदी के कुछ मनोवैज्ञानिक ऐसा मानते थे कि गुणसूत्र संशाधित मनुष्य बहुत भावुक हैं. वे मामूली रोग से घबरा कर बड़े पैमाने पर आत्महत्या करने लगे हैं. वैज्ञानिकों ने इसके लिए समाधान निकाला कि मनुष्य भावुक कम से कम हो. इसके बाद की पीढ़ी ने साहित्य, कला और सङ्गीत की शिक्षा लेनी बंद कर दी. विधिवत शिक्षा उनके स्वातंत्र्य का हनन था. इसके बाद शुरु हुआ हत्याओं का दौर!
   
मामूली बातों पर या मज़ाक में ही किसी की नृशंस हत्या करना एक नए तरह का मनोरंजन के रूप में स्थापित हुआ. 
   
वैज्ञानिक इस बात पर भी बड़े चिंतित हुए. मशीनों की सख्त की निगरानी में इस तरह के मनोरंजन पर पाबंदी लगा दी गयी. समाज वैज्ञानिकों ने धन के संचय पर भी रोक लगा दी. यह विचारा गया कि धन की कमी से मनुष्य के लिए जीविका की चिंता रहेगी और इस तरह चिंताओं भी घिरा मनुष्य अनर्थक प्रश्न न पूछेगा. इस तरह जिस गरीबी का उन्मूलन कर लिया गया था, वह वापस लायी गयी.
   
इसका परिणाम और भी निराशापूर्ण हुआ. क्योंकि ठीक इसी के बाद शुरु हुआ था सामूहिक आत्महत्याओं का दौर. जैसे सदियों पहले महामारी में गाँव के गाँव खत्म हो जाते थे, उसी तरह सामूहिक आत्महत्याओं से नगर के नगर उजड़ने लगे. यह थी मेरे युग की महती समस्या!
     
तीन-चार सौ साल पहले अमरीका में दुनिया भर के बेहतरीन वैज्ञानिक इक्कठे हो कर विज्ञान की प्रगति में अभूतपूर्व दिशा प्रदान की. विश्व तेजी से बदल गया. उत्तरोत्तर भौतिक निकटता की आवश्यकता समाप्त हो गयी. ‘देश’ (दूरी) जीता न गया, किन्तु ‘देश’ की महत्ता कम होती गयी. मेरे शिक्षक, जो धीर पुरुष थे, उन्होंने मुझे विशिष्ट बनाया और मेरा जन्म प्रयोगशाला में ही हुआ. किन्तु वे मेरे माता-पिता न थे. दरअसल बहुत से गुणसूत्रों के आधार पर मुझे कृत्रिम रूप से सर्जित किया गया. हालांकि यह पद्धति नयी नहीं थी, पर मेरा जन्म इसलिए विशिष्ट था क्योंकि मुझमें विश्व की सभी भाषाओं को नैसर्गिक रूप को समझने की क्षमता विकसित की गयी थी. इस काम करने में मशीनें भी हार चुकी थीं क्योंकि उत्तरोत्तर कुछ ऐसे प्रश्न पैदा हुए जिसका निराकरण करना मशीन के लिए सम्भव न था. मेरे शिक्षक ने हार न मानी और जब मैं प्रयोगशाला में एक महीने में ही बन कर तैयार हुआ, मेरे चमकते नेत्रों से वशीभूत हो कर उन्होंने मेरा नाम ‘आदित्य’ रखा.




(दो)
   
मेरे शिक्षक धीर पुरुष थे, साधु सरीखे दीखते थे. लम्बी दाढ़ी, मुनियों जैसा पहनावा. चेहरे पर काली आँखों के सिवा कुछ भी नज़र नहीं आता था. उन्होंने मेरी शिक्षा के लिए कोई व्यग्रता या उत्तेजना नहीं दिखायी. उन्होंने किसी भी तकनीक का उपयोग किये बिना बड़े ही धैर्य से अलग बीस साल मुझे प्रकृति से ही नैसर्गिक तरीके से सीखने को छोड़ दिया. उन्होंने मुझे वर्णमाला तक न सिखाया. न ही मेरी किसी तरह की कोई परीक्षा ली. मेरे लालन पालन के लिए एक निर्धन दम्पत्ति को नियुक्त किया गया था, जिन्होंने खडगपुर की पहाड़ियों में बनी निर्जन गोलाकार प्रयोगशाला में मेरे साथ रहते थे. उन्होंने ही मेरे लिए भोजन का प्रबन्ध किया और निर्जन वन में भयंकर जीव-जन्तुओं से रक्षा की. उन्हीं अर्थों में वह मेरे माता-पिता हुए.

पठार पर बने मेरे गोलाकार निवास पर मेरे शिक्षक का आना तबसे ही चालू है जबसे मैंने होश सम्भाला. यह बहुत बाद में मैंने जाना कि मुझ से पहले उन्होंने पाँच और अतिमानवों को इसी प्रयोगशाला में बनाया था और वे उनकी अपेक्षा के अनुरूप न निकले. मेरे जन्म के समय उनकी आयु बहुत हो चुकी होगी. यह निश्चित था कि मेरे जन्म के साथ ही वह आश्वस्त थें कि उनका प्रयोजन सिद्ध होगा. उनकी आकांक्षा थी कि मैं बिना किसी बाहरी सहायता के, बिना किसी उपादान के समस्त विषयों को स्वयं ही सीखूँ और ‘वह सब कुछ’ करूँ जिसपर वे गर्व कर सकें. ‘वह सब कुछ’ क्या था, यह मेरे लिए एक रहस्य ही था. यह उनके गुणसूत्र संशाधन पर निर्भर था. 

मेरे केश रेशमी हुए. मेरा रूप और शारीरिक सौष्ठव उनके इच्छानुसार ही हुआ होगा क्योंकि ऐसा मैंने यौवन में प्रवेश करते हुए जाना कि मैं बहुत प्रभावशाली और आकर्षक व्यक्तित्व का स्वामी हूँ. कब जाना?

कैसे जाना?
शिक्षक के आदेशानुसार मैंने किशोरावस्था तक अधिकांश समय मानव का इतिहास, व्याकरण, गणित और तमाम भाषाएँ पढ़ते हुए बितायीं थीं. इसमें मेरा न कोई साथी न ही कोई मार्गदर्शक आचार्य. इतिहास पढ़ने के क्रम में मैंने जाना कि धन के कारण बहुत से युद्ध हुए. द्वेष का कारण किसी और के वैभव और ऐश्वर्य की प्रति ईर्ष्या जाना. 

किशोरावस्था में मैंने जाना कि बिना धनबल के संसार को जीतना अपेक्षाकृत कठिन है. मैं अकेला ही अतिमानव तो नहीं था. क्या मैं खिलाड़ी बनूँ? चित्रकार बनूँ? किस विधि से धनी बन जाऊँ? 

एक बार मेरे शिक्षक जब मेरे निवास पर पधारे, तब मैंने उनसे यही प्रश्न किया – मेरा भविष्य क्या होगा? किस तरह से मैं अपार धन का स्वामी बनूँगा? कौन सा रास्ता चुनूँ जिससे मैं धनवान बनूँ?
   
मेरे शिक्षक ने जो कहा, मुझे आज भी याद है -इस संसार में जो कुछ भी है, उसमें ईश का वास है.यह धन किसका है? अधिक का लालच न कर. जो मिल जाय, उसी से अपना पालन कर.
   
मेरे शिक्षक जो धीर पुरुष थे, जो इतने प्रतिष्ठित जीव-वैज्ञानिक थे, उनसे ऐसी महत्त्वाकांक्षाहीन बातें सुन कर मुझे अटपटा लगा. किन्तु उनसे प्रतिप्रश्न पूछना कोई फल नहीं देता था. मैं बहुत पूछता तो भी वह कुछ न कहते. शायद यही कारण रहा होगा कि मैं किसी भी मनुष्य से कोई भी वैचारिक प्रश्न करने की ज़रूरत नहीं समझी. या तो वह यह समझते थे कि मैं अपनी क्षमता से धनवान तो हो ही जाऊँगा, आत्मनिर्भर हो जाऊँगा. किन्तु वह मेरी जलती महत्त्वाकांक्षा पर पानी न डाल सके.
   
उनका कहा निरर्थक नहीं होता है, शायद इसलिए उनकी कही बात बहुत दिनों तक मेरे कानों में गूँजती रही. यह मेरे लिए चुनौती थी कि इन वाक्यों का सही मतलब समझूँ. एक बात मैंने बहुत पहले सीख ली थी कि मानव में धैर्य बहुत होना चाहिए. कम से कम सीखने और जानने के मामले में. जो पूछने पर बताया न जाय, वह दुबारा पूछना अश्लीलता ही है. 
   
उन दिनों मैं एक अलग ही परियोजना में जुड़ा हुआ था. वह था औषधियों के सेवन से मनुष्य के शरीर का बूढ़ा न होने देना. यह काम करीब दो सौ सालों से चला ही आ रहा था. पहले इंसान चूहों पर, बंदरों पर शोध करता था. बाद में यह सब कम्प्यूटर के मॉडल पर होने लगा. लेकिन जब भी सैद्धांतिक मॉडलों को व्यवहार में लाने की कवायद की गयी, नतीज़ा उल्टा ही निकला.
   
इतिहास से जो एक सामान्य ज्ञान की बात निकलती है, वह यह है कि विलक्षण मानवों को युवावस्था तक अंधा संघर्ष करना पड़ता है. वह बने बनाए रास्ते पर चलता जाता है. कुछ दूरी पर जाने के बाद वह अपनी पिछले पायदानों को मिटा कर अंधेरे में भटकता है, फिर नयी समझ पैदा कर कुछ विलक्षण करता है. यह काम अधिकांश बीस साल-पच्चीस साल तक की उम्र में हो ही जाते हैं. शायद यह योजना थी या संयोग, मेरा किसी कन्या से मिलना जुलना कभी न हुआ.
    
साहित्य पढ़ते हुए मैंने जाना कि अधिकांश कवियों के लिए स्त्री ही अनसुलझा प्रश्न था. मैंने तब विचारा कि मैं प्रश्न से कैसे परिचित होऊँगा? इतना मुझे पता था कि स्त्रियाँ सजने सँवरने का मौका नहीं जाने देती. यही कारण था कि जब गुणसूत्र संशाधित मानवों को प्रजातियों ने बेहद मजबूत मानव पंख विकसित किए, कालांतर में वह स्त्रियों की एकाधिकार सम्पदा बन गए. जिस तरह लम्बे बाल अधिकतर स्त्रियाँ ही रखती हैं, उसी तरह कुछ अपवादों को छोड़ कर सभी स्त्रियों ने पंख अपना लिए और पुरूषों के गुणसूत्रों में पंख निषेध कर दिये गए. एक और दिलचस्प बात हुयी. प्राकृतिक प्रजाति की स्त्रियों के लिए प्रयोगशाला में बने पंख आ गये जो कि स्त्रियों के अंग से मजबूती से चिपक जाते. स्त्रियों में पंख कट जाने पर दुबारा उग जाया करते थे. इस तरह बहुत कम ही पंखविहीन औरतें होतीं और बचे खुचे पंख वाले पुरुष स्त्रैण माने जाने लगे.
   
एक दिन प्रात: काल में मैं सौर उर्जा से उड़ने वाले हल्के उड़नखटोले से पास की झील का मुआयना कर रहा था, तभी मेरी नज़र झील के किनारे बैठी दो युवतियों पर पड़ी. न जाने किसी शक्ति से मैं उधर खिंचा चला गया. मेरी नज़र उससे जा मिली, जिसने मेरी ज़िन्दगी झट से बदल डाली.

    नैन सो नैन नाहीं मिलाओ, नैन सो नैन नाहीं मिलाओ, देखत सूरत आवत लाज, सइयाँ
    प्यार से प्यार आके सजाओ, प्यार से प्यार आके सजाओ, मधुर मिलन गावत आज, गुइयाँ
    
   
सफेद साड़ी में लिपटी सुबह की लालिमा जैसी अधरों वाली कन्या अपने सफेद पंख फड़फड़ाते हुए मुझे देख कर बरबस बोल उठीं, ‘गुइयाँ!’ 
   
यह राज की बात कह कर वह हल्के से मुस्कायी. मैं जो आज तक प्रीत के बारे में पढ़ता ही आया था, पहली बार जान पाया कि हृदय के बिंध जाने पर कैसा मीठा सा लगता है. मेरे हाथ-पाँव से पसीने छूट गए. उसने मुझसे प्रश्न किया – गुइयाँ, तुम पहाड़ी के महल पर रहते हो न?
   
मैंने हाँ में सिर हिला कर पूछा, ‘तुम कौन हो? मुझे कैसे जानती हो?”
   
उन दोनों में जो छोटी थी, शावक की तरह लजा कर काँपती हुयी अपने पंखों से अपना चेहरा ढँपते हुए पहली के पीछे छुप गयी. उस कन्या ने बच्ची को समझाते हुए कहा, “डरो नहीं. अभी चलते हैं.“ मैंने फिर पूछा, “आप कौन हैं?”
   
मेरी तरफ़ देख कर बोली, “मेरा नाम ईशा है.“ कह कर वह झट से अपने सफेदपंख फैला कर फूलों की डलिया लिये देखते ही देखते दूर गगन में उड़ चली. उसके पीछे-पीछे छोटी बच्ची भी उड़ती चली गयी. मैं जड़वत् स्तम्भित उन्हें देखता ही रह गया. मेरे उड़नखटोले की गति के सामने नए पंखों की रफ्तार कहाँ टिकती? लेकिन जैसे मेरी सारी शक्ति निचुड़ गयी थी और मैं उसका पीछा भी न कर सका.
   
उस रूपवती के जाते ही संसार नि:सार हो गया. एकबारगी मुझे ऐसा लगा कि मैं अपने शिक्षक की बात को समझ गया. क्योंकि उसी क्षण में मेरी महत्त्वाकांक्षा एकदम से बदल गयी. मुझे लगा कि अब ईशा ही सबसे दुर्लभ और सर्वाधिक अभीष्ट है.
    
मैंने शिक्षक की बात को कुछ इस तरह से दुहराया –
जगत् में जो कुछ भी संसार है, उन सबमें ईशा का वास है. अब वह जो जहाँ मुझे त्याग कर दे रही है, उसी से मेरी ज़िन्दगी चलेगी. इससे अधिक मुझे कुछ न मिलेगा, जिसका मैं लालच करूँ. अगर वह मुझे मिल जाय तो वही मेरी जीवन भर की निधि होगी. आखिरकारयह धन किसका है? कौन सा धन, किस तरह का धन? धन है तो किसलिए है? धन से मिलेगा भी क्या? सब कुछ ईशा ही तो है.






(तीन)
   
इस युग में मनुष्य के लिए स्मृति की समस्या नहीं रही. इक्कीसवीं सदी के अंत में ही मनुष्यों ने स्मृतिकोश के लिए क्लॉउड सर्विस का त्याग कर के गुणसूत्रों में ही समस्त घटनाएँ बीजरूप में छुपा दीं. इसके उपरांत पारस्परिक सम्बन्धों में, तुमने क्या कहा था और क्या नहीं कहा था – जैसी बहस का स्थान – मेरा आशय क्या था और शब्द-अर्थ की ग्रहण क्षमता पर पारस्परिक प्रहार हो गया. क्योंकि सभी तकनीकी प्रगतियों के पश्चात भी चेतना में अर्थ ग्रहण करने की प्रक्रिया न तो गुणसूत्रों से निर्धारित की जा सकी न ही किसी अन्य तकनीक से.
   
इसलिए कहता हूँ कि घटना के ठीक तीन दिन बाद मेरे निवास पर शिक्षक से मिलने एक अधेड़ आगंतुक आये और वे दोनों अंतहीन बातें करने लगे. करीब तीन दिन तक वे दोनों एक ही जगह बैठे, खाते-पीते बाते करते रहें. उनकी बातें कुछ इस तरह की थीं – आगंतुक का मानना था कि जब जैविक प्रजनन से संतति होती हैं, फिर गुणसूत्रों से संशाधित मनुष्य अधिक क्या हासिल कर रहे हैं? अगर अजर-अमर होना मनुष्य का अभीष्ट है, तो फिर प्राकृतिक संतानों के द्वारा मनुष्य क्या खुद को जीता हुआ नहीं पाता है? मेरे शिक्षक इस के विरोध में कह रहे थे – मनुष्य की संतति मनुष्य का विस्तार अवश्य है किन्तु वह व्यक्तिगत नहीं है. इसलिए मानवों के लिए मृत्यु का प्रश्न, अजर-अमर होने का प्रश्न, आत्महत्या का प्रश्न बना रहेगा, क्योंकि मनुष्य खुद को संकुचित व्यक्ति मानने को बाध्य है. इसके बाद वे दोनों मानव के विस्तार और संकोच पर वाद-विवाद करते रहे.

   
तब उस सुबह मैंने कौतूहल से उन्हें टोक कर पूछ बैठा, “संकुचित व्यक्ति से आपका क्या तात्पर्य है?“
   
मेरे प्रश्न पूछे जाने से दोनों एक साथ ही चुप हो गए. फिर आगंतुक ने मेरे शिक्षक से कहा, “आदित्य क्या हमारे युग की महती समस्या से अपरिचित है? क्या वह इस बारे में नहीं सोचता?”
   
यह मेरी प्रतिभा के बारे में आशंका थी. इसलिए मैंने उत्तर दिया, ‘अगर आप सामूहिक आत्महत्यापर विचार कर रहे हैं, फिर निश्चय ही इसका अर्थ है कि इसका निदान के विषय में आपका एक मत अवश्य होगा. उसी मत की पुष्टि के लिए आप दोनों एक दूसरे के विचारों को आँक रहे होंगे. जहाँ तक मैं समझता हूँ, इसका समस्या का निराकारण आप इस अर्थ में लेते हैं कि आत्महत्या अनिष्ट है. इसका उन्मूलन ‘संकल्प’ से ही हो सकता है. यह संकल्प वैयक्तिक हो या समाज द्वारा शासित? क्या यह ज्ञान द्वारा प्रेरित हो सकता है या सौन्दर्य द्वारा संचालित? समस्या यह है कि आत्महत्या स्वातंत्र्य की अभिव्यक्ति है और उसे आप सत्य या मूल्यबोध से रोकना चाहते हैं.“
   
आगंतुक का चेहरा दीप्त हो उठा. उन्होंने प्रसन्न हो कर कहा, “इस जगत में कर्म करते हुए सौ वर्ष जीने की इच्छा करनी चाहिए. इसके अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं जिससे कर्मों को लेप हो.“ मेरे शिक्षक ने उनकी बात सम्भाल कर कहा, “इनका आशय कर्मफल और पुनर्जन्म के सिद्धांतों से है. मैं पुनर्जन्म को नहीं मानता. कर्मफल के सिद्धांत को भी नहीं मानता. इसलिए ‘सौ वर्ष’ से जो दीर्घ जीवन के प्रति निष्ठा है, उसका आधार यौक्तिक नहीं है. यह न ही तार्किक है, न ही प्रत्यक्ष से निगमित है.“
   
आगंतुक उठ खड़े हुए. जैसे ही मैंने उनके पाँव छू कर उनका आशीर्वाद लिया, उन्होंने कहा, “मुझे तुम्हारे प्रयोग में रुचि है. मैं पास ही में रहता हूँ. कभी मेरे घर पर आओ. तुम से अच्छी चर्चा हो सकती है.“
   
संसार में कुछ चीजें अनुभव योग्य होती हैं. कुछ विशेष अनुभूतियाँ स्मृति से पुनर्जीवित नहीं होतीं.जैसे पुत्र को पिता सहज प्राप्त होता है, मुझे भी लगा कि वे मुझे सहज ही मिले हैं. आगंतुक से मिल कर मुझे ऐसा लगा कि वह भी मेरे पिता सरीखे हैं. वे भी अनागत संकट से मेरे यथासम्भव रक्षा करेंगे. आगंतुक का स्नेहाकांक्षी मैं उनसे मिलने उनके निवास पर जा पहुँचा.

   
सुबह के दस बज रहे थे. मैं उनके बेलनाकार पाँच मंजिले निवास के नीचे खड़ा था. घर के चारों ओर हरी लताएँ लिपटी हुयी थीं जिसमें छोटे-छोटे बैंगनी फूल खिले थे. जैसे ही अपने आने की सूचना दरवाजे के बाहर छोटे से यंत्र से प्रेषित की, ऊपरी मंजिल की खिड़कियों से वे ही दो कन्याएँ पंख फड़फड़ाती उड़तीं हुयीं लताओं को हटाती सफेद बादल के टुकड़े जैसी अवतरित हुयीं.
   
ईशा और उसकी छोटी बहन मोगरा की कलियों जैसी सुवासित थीं. मुझे घर के अंदर बिठा कर वे अपने आंगन से वापस ऊपर की तरफ पंख फड़फड़ाते उड़ गयीं. बहुत से नन्हें पंख हवा में तैरते मेरी गोद में गिर गये.

   
उस दिन मेरे निवास पर आये आगंतुक ईशा के पिता थे. उनका नाम ब्रह्म था.

   
मेरे कुशल क्षेम के बाद उन्होंने मेरी परियोजनाओं के बारे में पूछा. मैं अजर मानव बनाने के लिए कृतसंकल्प था. मुझे आशा थी कि वह मेरी प्रतिबद्धता या परियोजना से प्रसन्न होंगे. किन्तु इसके विपरीत वे इससे खिन्न हुए. उन्होंने पूछा, “क्या मैं यह सुनिश्चित कर सकता हूँ कि अजर मानव आत्महत्या नहीं करेगा?”

   
“यही करना चाहता हूँ.“ मैंने कहा.

   
“कल को अगर तुम अमर मानव भी बना लो, तो इससे क्या होगा? मैं नहीं समझ पा रहा हूँ कि अजर मानव बनाने से क्या हासिल होगा?” ब्रह्म ने पूछा.

   
“विद्या उपयोगिता साधने के लिए थोड़े ही अर्जित की जाती है. उसकी उपयोगिता तो बाद में निर्धारित होती है.“ मेरे प्रतिवाद पर ब्रह्म ने कहा, ”विद्या निरपेक्ष मूल्य नहीं है. ज्ञान निरपेक्ष मूल्य है. ज्ञान स्वयं अपने लिए हो सकता है, विद्या किसी अन्य का आश्रय ढूँढती है.“

   
अपने स्वभाववश मैंने अनुकूल प्रश्न किया, “आप सामूहिक हत्याओं के विषय में क्या विचार रखते हैं?”
   
“जो केवल शरीर और इन्द्रियों की शक्ति से अच्छे बुरे का निर्णय करने वाले गहन अन्धकार में हैं. सत्य के निर्देश का हनन करने वाले लोग प्रेत हो कर भी वैसे ही अन्धकार में ही जाते हैं.“
   
“यह बात तो ठीक लगती है कि आपकी बातें न तो अनुमान से सिद्ध है, न ही प्रत्यक्ष से. आपकी अभिव्यक्ति कविता अधिक लगती है.“ मेरी धृष्टता पर वे हँसने लगे. उन्होंने पूछा, “तुम कुछ और भी चाहते हो. क्या बात है?”

   
“मैं जानना चाहता हूँ कि आप प्राकृतिक पुरुष हैं या गुणसूत्र संशाधित?”

   
उन्होंने यह कह कर टाल दिया, “इससे कुछ विशेष जानने को नहीं है. दोनों ही तरह के मनुष्य में आत्मा है, सुख है, पीड़ा है, विषाद है, विद्या या अविद्या है. ज्ञान इससे कहीं परे हैं. वैसे तुम्हारे मुख से प्रतीत होता है कि तुम कुछ और पूछना चाह रहे थे. निस्संकोच कहो!”

   
“आपके घर में सुरभि जैसी जो हर जगह है, मैं आपकी उस पुत्री ईशा का अजर प्रतिरूप बनाना चाहता हूँ.“ मैंने बड़ी झिझक के साथ अपने मन की बात कह दी.

   
मेरी बात सुन कर वे कुछ देर मौन रहे. फिर उन्होंने पूछा,” और कुछ?”

   
किंचित भार से मैंने पलके झुका कर उन्हें उत्तर दिया, “शेष ईशा की स्वीकृति की प्रतीक्षा है.“





(चार)
अगले दिन सुबह-सुबह जब पंख फड़फड़ाते मेरे गोलाकार निवास के शीशे के बने पारदर्शी छत पर ईशा आहिस्ते से आ बैठी, मैं नीचे लेटा उसकी बिखर गये गेसुओं को अपलक निहारता रह गया. उसके गीले घुंघराले बाल खुले थे. हाथों में सोने के रत्नजड़ित कंगन थे. नैनों पर लगा काजल किसी धनुष की प्रत्यंचा की तरह कानों तक चढ़ा था. एकबारगी मुझे लगा कि मैं हृदय के इतने तेज धड़कने से मैं मर जाऊँगा. मेरे सिल गए होंटों और खुली रह गयी पलकों पर ईशा की हँसी ने मेरे प्राण वापस कर दिये. वह किसलिए हँस रही थी?

   
छत की खिड़की खोलते ही ईशा हवा में तैरती नीचे उतर आयी. मैं सीढ़ियों से उतरता उसे साधिकार इधर-उधर स्वच्छंदता से घूमता देख रहा था.

   
वह ईशा एक ही थी.

   
“मेरा प्रतिरूप बनाना चाहते हो?” उसने अनायास ही पूछ लिया. मैंने देखा उसका स्निग्ध मुखमंडल मेरे उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा है. किन्तु बहुत घबरा जाने सेमैं कुछ कह न सका. उसके फिर पूछने पर मुझे खुद पर बड़ी लाज आयी. उसने एक शब्द का प्रश्न किया, “क्यों?”

   
बड़ी हिम्मत जुटा कर मैंने उत्तर दिया क्योंकि जो प्रश्न का उत्तर न दे सके वह शक्तिहीन होता है. स्त्रियाँ शक्तिहीन पर दया कर सकती हैं, प्रेम नहीं. इसलिए मैंने दृढ़ता से कहा, “वह इसलिए क्योंकि तुम एक ही हो, जो अपने स्वरूप से विचलित नहीं होती. मेरे मन से अधिक गति वाली हो. मैं जानता हूँ कि मेरी इन्द्रियाँ तुम्हें प्राप्त नहीं कर सकती, क्योंकि तुम इनसे बढ़कर हो. अब तुमने ही मेरे जीवन के शेष कर्मों निर्धारण कर दिया है !”

   
ईशा इससे विचलित न हुयी. “कैसे?” उसने पूछा और पंख फैलाए हवा में सूखे पीले पत्ते की तरह भारहीन हो कर तैरने लगी.

   
“देखो न! तुम चलती भी हो और नहीं भी चलती हो. तुम मेरे दूर भी हो और समीप भी हो. तुम ही मेरे मन में हो और बाहर भी हो.“

   
“और?” ईशा ने पलट कर एकटक मुझे देखा.

   
“आज से बारह सौ साल पहले, बारहवीं सदी में लिखे के ‘लैला मजनूँ’ की दास्तान में मजनूँ को हर जगह लैला ही दिखायी देती थी. आज मैं जान गया हूँ कि वह झूठ नहीं था. मुझे हर जगह तुम ही तुम दिखायी देती हो. चूँकि हर जगह तुम हो, इसलिए मैं किसी से भी घृणा नहीं करता. मेरे अंदर प्रेम का सोता फूट गया है.“

   
“और जो मैं तुम से दूर चली जाऊँ तो?” ईशा ने उलाहना दिया और पंख फड़फड़ाते ऊपर की ओर उड़ने लगी.
   
“जिसके लिए हर कुछ तुम ही हो गयी, उसके लिए क्या शोक या क्या मोह?” मैंने कहा. ईशा यह सुन कर नीचे आयी और उलाहना देते हुए मेरी नाक पकड़ कर हल्के से हिलाया, “ये कहने की बातें हैं.एक वचन दोगे?” मैं अपलक उसे निहारता रह गया.“जब मैं किसी बात का जवाब न दूँ तो तुम वह मुझसे दुबारा न पूछोगे.“ उसकी आत्मीयता से मैं बंध गया.

   
इस तरह ईशा और मैंने बहुत सी बातें की.

   
पहली ही मुलाकात में हम चिर काल के लिए मित्र बन गए. अब सोचता हूँ तो ईशा ही मुझे सहज मिली थी. बिना किसी विशेष प्रयत्न के वह मेरे घर खुद चल कर आयी थी.


   
ईशा एक ही थी.

   
ईशा ही जैसे सर्वव्यापी थी, तेजस्विनी थी. वह देह से अलग, अलौकिक अनुभूति थी. वह शुद्ध और निष्पाप थी. वह कवि थी, मनीषी थी, सब को जीत लेने वाली और स्वयं ही अपना कारण थी. जैसे अनादिकाल से वह जीवन का आधार थी.

   
ईशा, ईशा, ईशा......!

   
मेरे मन में प्रश्न उठा कि ईशा प्राकृतिक मानवी है या गुणसूत्र संशाधित कन्या या कोई देवी? क्या उसने कृत्रिम पंख अपने शरीर में हमेशा के लिए लगवा लिए हैं? या फिर वह सच में अतिमानवी है? जो भी है वह मुझे बृहततर और श्रेष्ठ है.

   
ईशा से मिलने के बाद वह प्रश्न मेरे लिए गौण हो गया. वह जो भी थी, मेरे कल्पना से परे थी. नित्य नए रूपों में वह कभी भी उड़ती मेरे आकाश पर पंख फैलाए चली आती थी. कभी देखते ही देखते बहुत दूर चली जाती. बादलों में अठखेलियाँ करती, मंद फुहारों में विचरती, नये-नये गंधों से मदमाती, ईशा मेरे लिए सबसे बड़ा रहस्य थी.

   
उससे मिल कर मैं भूल भी गया था कि मैं कुछ और करना भी चाहता हूँ.

   
एक संध्या को आम के पेड़ पर झूला झूलते हुए उसने मुझसे पूछ ही लिया, “अब भी मेरा प्रतिरूप बनाना चाहते हो?”

   
एक झटके में बीस साल के युवा का अभिमान उदीप्त हो गया. मैंने कहा, “पहले छायाचित्र लूँगा. कई दिनों तक तुम्हारा चित्र बनाऊँगा, अंत में तुम्हारी मूर्ति बनाऊँगा.“

   
“अच्छा?” ईशा के प्रश्न में उलाहना, व्यङ्ग्य, प्रश्न - सब कुछ एक साथ ही था.

   
“ठीक है. मैं मान लेता हूँ कि मैं अच्छा छायाकार नहीं हूँ, न ही अच्छा चित्रकार, न ही मूर्तिकार. किन्तु मैं विद्या सीख तो सकता हूँ.“

   
“मुझे आशा है तुम जल्दी ही सीख लोगे.“ ईशा का संशय बेमानी न था. गुणसूत्रों से मेरी निजी शक्ति अवश्य प्राकृतिक मानवों से बढ़ कर थी. किन्तु अभ्यास और परिवेश भी प्रतिभा को पुष्ट करने के लिए आवश्यक होते हैं. मुझे समय तो लगता ही.

   
“इसका एक सरल उपाय है. किन्तु क्या तुम इसे अपना सकोगी?”

   
“क्या?”
   
“मैंने प्रयोगशाला में एक ऐसा आसव तैयार किया है जिसे पी कर तुम अजर हो जाओगी. तुम्हारा यौवन सौ साल तक अक्षुण्ण हो जाएगा.“ ईशा हतप्रभ मुझे देखती रही. मैंने उसे दिलासा दिया, “यह बात कोई नहीं जानता. मेरे शिक्षक भी नहीं. हम दोनों इस आसव को पी लेते हैं. इस तरह हम चिर युवा बन जाएँगे.“

   
ईशा के चेहरे पर बहुत से रंग आने जाने लगे. “घबराओ नहीं. यह विष नहीं है. तुम डरती हो तो पहले
मैं इसे पी लेता हूँ.“

   
“मैं डरती नहीं आदित्य ! “ ईशा का उत्तर था, “मैं आश्वस्त हूँ कि तुम्हारा प्रयोग सफल होगा. किन्तु यह मुझे व्यर्थ लगता है. लेकिन मुझे अजर नहीं होना. मैं समय के साथ बूढ़ी होना चाहती हूँ और मरना भी चाहती हूँ.“

   
“क्यों?” मैंने ईशा से पूछ लिया, “इस तरह तो कोई भी नयी प्रगति व्यर्थ ही है.“
   
“बिल्कुल.“ ईशा ने कहा, “तुम जिसे प्रगति समझते हो, वह कुछ और नहीं किसी न किसी इच्छा की तुष्टि है.“ यह सुन कर मैं किंचित सोच में निमग्न हो गया. ईशा मेरे पास आयी और कानों में चुपके से पूछ बैठी, “तुम मुझसे प्रेम करते हो या मेरे रूप से?”

   
“तुमसे ही प्रेम करता हूँ. किन्तु....” मैंने ईशा की तरफ देखा.

   
“किन्तु क्या?”

   
“किन्तु मैं अजर होना चाहता हूँ.“ यह सुन कर ईशा ने पूछा, “यह तो अच्छी बात है. तुम आसव पी लो और चिर युवा बने रहो.“

   
“क्या तुम मुझे हमेशा प्रेम करोगी?”

   
“यही सवाल मैं तुमसे करूँ तो?” ईशा के प्रतिप्रश्न पर मैं निरुत्तर हो गया. मेरा मौन देख कर ईशा ने कहा, “यह समय पर छोड़ दें.“

   
“हमारा विवाह?” मैंने चोर निगाह से ईशा की तरफ़ देखा.

   
“उसमें क्या दिक्कत है?” ईशा ने पूछा.

   
“मैं युवा रहूँगा और तुम नहीं. क्या यह ठीक होगा?” ईशा ने यह सुन कर कुछ न कहा. वह उठ कर जाने वाली थी पर मैने उसका आँचल पकड़ लिया.

   
    सितारे झिलमिला उठे
    सितारे झिलमिला उठे, चराग जगमगा उठे, बस न अब मुझको टोकना,

    बस न अब मुझको टोकना, न बढ़ के राह रोकना,

    अगर मैं रुक गयी तो आ न पाऊँगी फिर कभी, 


यही कहोगे तुम सदा कि दिल अभी नहीं भरा, जो ख़त्म हो किसी जगह ये ऐसा सिलसिला नहीं . 






(पांच)


ईशा कब मेरे घर आती, कब जाती, इस पर उनके पिता या उसकी बहन ने कभी पाबंदी नहीं लगायी. मैं सोचता हूँ कि ईशा को कोई रोक भी नहीं सकता था. जब मैं नहीं रोक पाया तो क्या उसके पिता उसे रोक भी पाते? क्या उसकी बात टाल सकते? जब कोई अनुपम सुंदरी कुछ विचार ले, कोई हृदयहीन ही उसकी इच्छा को ठुकराना चाहेगा.

   
जेठ की दुपहर मेंईशा के सामने मैंने चिरयुवा बने रहने के लिए वह आसव पी लिया. ईशा ने पहली बार मेरे कपोल चूम लिये. “अबसे तुम हमेशा मेरे लिए हो गये.“ ईशा ने साधिकार कहा, “प्रेम में मैं फायदे में रही. मेरे लिए चिरयुवा प्रेमी और तुम्हारे लिए बूढ़ी हो जाने वाली औरत.“

   
“कम से कम अगले पच्चीस साल तक तुम युवा ही रहोगी.“ मैंने कहा, “उससे कहीं पहले ही मैं तुम्हारे प्रतिरूप बना लूँगा.“ ईशा मुस्कुरायी. मैंने पूछा, “हमारा विवाह?”

   
“समय पर देखते हैं.“ ईशा ने कहा.

   
उस दिन के बाद बहुत से दिन बीतें. बहुत सी बातें हुयी. ईशा और हम दूर नीले गगन में उड़ जाया करते.

   
आ नीले गगन तले, प्यार हम करें, आ नीले गगन तले, प्यार हम करें

   
हिल-मिल के प्यार का इकरार हम करें,

    आ नीले गगन तले, प्यार हम करें

    ये शाम की बेला ये मधुर मस्त नज़ारे

    बैठें रहें हम तुम यूँ बाहों के सहारे

    ये शाम की बेला ये मधुर मस्त नज़ारे

    बैठें रहें हम तुम यूँ बाहों के सहारे

    वो दिन ना आये इंतज़ार हम करें

    आ नीले गगन तले, प्यार हम करें

   
   
पर्वतों की चोटियों पर खड़ी ईशा का छायाचित्र,  समंदर में अठखेलियाँ खेलती ईशा का तैल चित्र, शिला पर शैलपुत्री जैसी विराजमान ईशा की मूर्ति – इसे बनाते हुए मुझसे साल-दर-साल फिसलते गए. प्रदर्शनियों में मुझे अप्रत्याशित सफलता मिली. अगले दस साल में मैं बहुचर्चित छायाकार, चित्रकार और मूर्तिकार के रूप में स्थापित हो गया. इसके साथ मैं विज्ञान के अध्ययन और जैविक प्रयोगों में भी जुटा रहा.

   
ईशा हमेशा मुझे नये रूप में मिलती. कभी नया केश-विन्यास, कभी नयी वेश-भूषा, कभी कभी बहुत दिनों तक लाल रंग के नए कपड़े, कभीं महीनों तक एक ही खुशबू, कभी नया इत्र. नूतन का अर्थ क्या पिछले से भिन्न होता है या आशा से भिन्न होता है?

   
ईशा के साथ एक असामान्य घटना हुआ करती थी. मैं जो कुछ कहने जाता था, मानों उसने पहले ही सुन रखा हो. कई बार ईशा मेरे सपनों में आ कर कहती कि मैं कल नहीं आऊँगी. अगले दिन मैं उससे सम्पर्क करता, तब वह उसी सुर में दुहराती कि वह नहीं आ पाएगी.

   
यह घटना कई बार नवीन लगती, कई बार रहस्यमयी लगती. कई बार सपनों में आया सच नहीं भी होता. लेकिन मैं अपने सपनों के बारे में जब भी कुछ बोलता, ईशा उसे ध्यान से सुनती. मुझे लगता था कि वह जैसे सब जानती थी.

    तू माँग का सिन्दूर तू आँखों का है काजल

    ले बांध ले दामन के किनारों से ये आँचल

    सामने बैठे रहो श्रृंगार हम करें

    आ नीले गगन तले, प्यार हम करें

    यही प्रश्न मैंने ईशा से पूछ लिया. तुम कौन सी विद्या जानती हो, जो मेरे मन की बात जान
 लेती हो? मानों वह यह भी जानती थी कि मैं उससे यह पूछने वाला हूँ. ईशा जो अब षोडशी न थी, अब यौवन की स्वामिनी थी, उस स्मिता ने मुझसे कहा –“जो अविद्या की उपासना करते हैं वे घोर अन्धकार में प्रवेश करते हैं और जो विद्या में ही रत हैं वे मानो उससे भी अधिक अन्धकार में प्रवेश करते हैं. विद्या से और ही फल बतलाया गया है और अविद्या से और ही फल बतलाया गया है. ऐसा हमने बुद्धिमान् पुरुषों से सुना है, जिन्होंने हमारे प्रति उसकी व्यवस्था की थी. जो विद्या और अविद्या – इन दोनों को एक साथ जानता है, वह अविद्या से मृत्यु को पार करके विद्या से अमरत्व प्राप्त कर लेता है.“

   
    मैं ईशा के कहे से उसका मतलब नहीं पूछता था. मुझे लगता था कि वह इसकी व्याख्या नहीं करेगी. मुझे अपना किया वादा अच्छे से याद था.
   




(छह)
   
 ईशा की छोटी बहन थी प्रज्ञा. ईशा ने बताया या उसने खुद सोचा, वह मेरे पास आ कर कभी बूढ़े न होने की दवा माँगी. यह तो सब को पता था कि मैं इसकी खोज कर रहा हूँ, पर यह केवल ईशा ही जानती थी कि मैं अपने अभीष्ट पाने में सफल हो चुका हूँ. किन्तु प्रज्ञा सत्य की अधिकारिणी न थी. वह जिद करती रही कि और मुझे बार-बार झुठलाना पड़ता रहा. ईशा को मैंने जब बताया, ईशा मौन हो गयी. निश्चित रूप से ईशा यह नहीं चाहती कि प्रज्ञा अजर हो जाय, साथ ही वह यह भी नहीं चाहती होगी कि मैं झूठ बोलूँ.

   

 किसी घने मेघ के कारण मटमैले अंधियारे दिन में जब काफी बारिश हुयी थी, प्रज्ञा ने रो-रो कर ईशा से जिद की, कि वह मुझे मना ले. अपने छोटी बहन के आगे विवश हो कर बारिश में भीगे पंख लिये ईशा प्रज्ञा का हाथ थामे मेरे पास आयी.

   
“मैं प्रज्ञा को समझा न सकी. हर कोई स्वयं अपने विद्या-अविद्या, ज्ञान-अज्ञान से कर्म-विकर्म में जूझता है. जो श्रेष्ठ लोगों का आग्रह आदेश समझ कर आचरण करते हैं, वह अपेक्षाकृत मधुमय मार्ग पर चलते हैं. मैं जानती हूँ कि तुम भी अपने प्रयोग के लिये व्याकुल हो. तुम चाहो तो प्रज्ञा को अजर बना दो. चाहो तो मेरे कितने प्रतिरूप बना दो, मैं तुम्हें नहीं रोकूँगी.“ यह कहते हुए ईशा का चेहरा मलिन पड़ गया, मानों अकस्मात ही संध्या के सूरज पर बादल छा गये.

   
मेरे आविष्कृत आसव का पान करने से प्रज्ञा अजर हो गयी!

   
उस रात बड़ी मूसलाधार बारिश हुयी. उमस से परेशान मैं किसी तरह सो गया. बार-बार ईशा का मलिन चेहरा मुझे याद आता. बार-बार मुझे लगता कि मैंने प्रज्ञा के साथ अन्याय किया. उस रात मैंने एक अजब सा स्वप्न देखा, जो मैं इतने सालों में भूल न पाया. स्वप्न में मैं बर्फीले पहाड़ों में अकेला भटक रहा था. मेरे नज़र ईशा के पिता और मेरे शिक्षक पर जा पड़ी जो मुझसे दूर भागे जा रहे थे. मैं उनकी तरफ़ दौड़ने लगा. दौड़ते-दौड़ते मैं गिर पड़ा. मैं देखता हूँ कि ईशा के पिता मुझे उठा कर कहते हैं कि ईशा तुम्हारे हाथों में सौंप रहा हूँ. कह कर वह अदृश्य हो जाते हैं. मैं देखता हूँ कि मेरे शिक्षक बड़ी दूर दौड़ रहे हैं. मैं उनके पीछे पहुँच गया हूँ. मेरे रोकने से वह रुक नहीं रहे. उनकी बाँह पकड़ कर मैं उन्हें रोकता हूँ. जैसे वह मेरी तरफ़ मुड़ कर देखते हैं जो मैं अपना ही चेहरा देख कर काँप उठता हूँ. इस अजीब सपने से मेरे रोंगटे खड़े हो गये और मैं सिहर कर एकदम से उठ गया. 
   
ठीक उसी रात मातृहीन ईशा और प्रज्ञा को पितृशोक से गुजरना पड़ा. मैं गहरे अपराधबोध में पड़ गया. जैसे यह प्रज्ञा को ईश्वरीय दण्ड मिला था. मुझे आशंका हुयी कि मैं भी ऋत को भंग करने के लिए निश्चित ही काल-सिंहों के समक्ष भोज्य रूप में प्रस्तुत किया जाऊँगा. इसी गहरे भय से मैंने ईशा से विवाह करने का संकल्प लिया.

   
अनुकूल परिस्थितियों में मैंने ईशा से विवाह कर लिया. मेरे विवाह में मेरे शिक्षक सम्मिलित न हो पाये. अगले दिन मैंने जाना कि उसी रात उनका स्वर्गवास हो गया. दो महत्त्वपूर्ण मार्गदर्शकों की मृत्यु से मुझे गहरा आघात लगा. ईशा ने इन मृत्यों को सहजता से लिया. यह कितनी खिन्नता का विषय था कि प्रज्ञा की अजरता उसे कुम्हला गयी और पितृशोक पर वह रोयी तक नहीं.

   
ईशा मेरे लिए एक अबूझ पहेली सी लगने लगी. मैं उस दुर्लभ रूपा का स्वामी था. खुद को उसके वर्तमान और भविष्य का नियामक समझता था. उसके अतीत के बारे में सब कुछ जान चुका था. क्या मैं एक और ईशा बना नहीं सकता? क्या मैं ईशा की पहेली की गुत्थी नहीं सुलझा सकता?

   
मैंने प्रयोगशाला में ईशा के प्रतिरूप को एक महीने में तैयार किया. ईशा के गुणसूत्रों से, उसकी समस्त स्मृतियों से संजोयी हुयी, ठीक ईशा के रूप लावण्य में उसका अजर प्रतिरूप बनाने में मैंने सफलता प्राप्त की. जब वस्त्रविहीन ईशा के पहले अजर प्रतिरूप ने आँखें खोली, सबसे उसने मुझे झिड़क दिया, “बिना कपड़ों के मुझे ऐसे देख रहे हो, क्या तुम्हें लज्जा नहीं आती?” ईशा के प्रतिरूप के पास ईशा का सारा ज्ञान था ही. वह यह भी जानती थी कि वह एक प्रतिरूप बन कर जीवित हो रही है. किसी शिशु के तरह न उसके लालन-पालन की आवश्यकता थी, न ही उसके शिक्षा की. वह सब कुछ जो ईशा के पास था उसके पास भी था. फिर भी वह प्रतिरूप मेरे प्रति न प्रेम रखती थी न कृतज्ञता.
   
प्रज्ञा ने अपने बड़ी बहन के प्रतिरूप के रहने का बंदोबस्त किया.

   
जब रात के खाने पर ईशा, प्रज्ञा और ईशा की प्रतिरूप तीनों ही बैठे थे, मैं फिर भी ईशा उसके प्रतिरूप से अलग पहचान गया. ईशा की आँखों में मेरे लिए गहरी चिंता, क्षोभ और विरह की तड़प नज़र आ रही थी. ईशा के प्रतिरूप ने मुझे चेतावनी दी, “तुम यह मत सोचना कि तुम मेरे साथ प्रेम कर सकोगे.“
   
“ऐसी कल्पना करना भी तुम्हारी भूल है. मैं अपनी पत्नी के प्रति समर्पित हूँ.“ मैं समझता हूँ यही कहना मेरी जीवन की सबसे बड़ी भूल रही. ईशा की प्रतिरूप, जिसे मैं उसकी नज़र से पहचान लिया करता था, ने मेरे कथन को चुनौती समझा. शीघ्र ही वह ईशा की जगह लेने के लिए मेरे आस-पास डोरे डालने मंडराने लगी. यह आश्चर्य था कि अजर प्रज्ञा ईशा और उसके प्रतिरूप में भेद नहीं कर पाती थी. न जाने क्यों मेरे लिए यह सरल था. ईशा मेरे पास गुजरती, न जाने कैसे इत्र के झोंके बहने लगते. न जाने मुझे कैसी मधुर झङ्कार सुनायी देने लगती.

   
मेरी अवहेलना ईशा की प्रतिरूप सह न सकी. एक मनहूस दिन सुबह पहाड़ी पर बने मेरे गोलाकार घर के पास की घाटी में उसका शव पाया गया. उसने रात में कूद कर आत्महत्या कर ली थी. प्रतिरूप की हत्या मेरे लिए बहुत बड़ी दुर्घटना थी. मेरे प्रयोग के साथ वही समस्या थी जो बाकी गुणसूत्र संशाधित मानवों में थी. वह अजर भले होती, पर जरा काल आने से पहले उसने मृत्यु को स्वेच्छा से वर लिया. तब मेरे लिए यह प्रश्न उठा क्या ईशा भी गुणसूत्र संशाधित मानवी थी? यह कैसे हो सकता था? ईशा तो अलौकिक थी. वह सङ्गीत, वह सुगंध, वह वाणी, वह रूप – यह कृत्रिम कैसे हो सकता है?

   
प्रतिरूपों का निर्माण करते करते मैं बूढ़ा न हुआ. ईशा की उम्र बढ़ती गयी. उसके प्रतिरूप बनते रहे. वे सभी यह जानते रहे कि मैं ईशा के अलावा किसी और से प्यार नहीं कर सकता. वे यह भी जानते रहे कि उनसे पहले सभी प्रतिरूपों ने आत्महत्या की. मैंने अलग अलग समय पर एकत्रित गुणसूत्रों से अलग-अलग स्मृति और ज्ञान की, भिन्न आयु के प्रतिरूपों को बनाने की चेष्टा की. पर मैं कभी वृद्धा ईशा न बनाता. हमेशा ईशा जैसी ईशा बनाने की कोशिश करता, जिसमें वैसा ही आकर्षण हो जिससे ईशा ने मुझे बांध रखा है.

   
फिर भी वे सभी अनिद्ध सुंदरियाँ आत्महत्या करती रहीं. पहले बीस साल की लड़कियाँ मरा करती थीं. सालों में चालीस साला विरह व्याकुल ईशा की प्रतिरूप स्त्रियाँ मरने लगी. इतनी मौतों के बाद भी मेरा पागलपन बंद न हुआ.

   
एक पूर्णिमा को मैं ईशा की गोद में सिर रख का उसके अधरों का पान कर रहा था, ईशा के नयन छलछला उठे. वह मेरे दु:ख से, मेरी पीड़ा से, मेरी आत्मग्लानि से व्यथित थी. उसने धीरे से कहा, “तुम नहीं समझते.“

   
मैंने उसकी तरफ़ देखा. “क्या मैं सबकी मृत्यु की अपराधी हूँ?”

   
ईशा इसे नकारते हुए कहा, “जो केवल असंभूति की उपासना करते हैं, वे घोर अंधकार में घिर जाते हैं और जो केवल संभूति की ही उपासना करते हैं, वे मानों उससे भी अधिक अंधकार में फँस जाते हैं. जिन देवपुरुषों ने हमारे लिए (इन विषयों को) विशेषरूप से कहा है, हमने उन धीर पुरुषों से सुना है कि संभूति का प्रभाव भिन्न है तथा असंभूति का प्रभाव इससे भिन्न है. संभूति और विनाश – इन दोनों कलाओं को एक साथ जानो, विनाश की कला से मृत्यु को पार करके तथा संभूति कला से अमृतत्व की प्राप्ति की जाती है.“

   
न जाने क्यूँ मैंने उस दिन ईशा से इसका मतलब नहीं पूछा. अब सोचता हूँ कि शायद वह पूछने पर बता देती.

   
मैं अपने अभिमान में रह गया. ईशा के प्रतिरूप को बनाता चला गया.

   
अधेड़ प्रतिरूप मुझसे पूछतीं, “मैं तुमसे प्रेम करती हूँ. क्या तुम मेरे प्रेम को इसलिए ठुकराते हो कि तुम युवा हो? पर तुम युवा कैसे? तुम तो मुझसे बड़े ही हो. केवल तुम्हारा शरीर मुझसे युवा है.“
कोई यह कहती, “मैं फायदे में हूँ कि तुम मुझे ही प्रेम करते हो. जबकि मैं तुम्हारा यौवन भोगने के लिए ही धरती पर आयी हूँ. अगर तुम मेरा प्रेम नहीं पाना चाहते तो मुझे बनाया ही क्यूँ?”

एक प्रतिरूप कहती, “प्रज्ञा भी अजरता से थक चुकी है. मैं इस बात की प्रतीक्षा है कि किस दिन तुम ईशा और मुझसे में भेद करना छोड़ दोगे? क्योंकि तुमने ही तो कहा था कि सब कुछ ईशा ही है. फिर मैं ईशा ही तो हूँ. मुझे अपनी बाँहों में ले लो.“

   
अब प्रतिरूपों में बहुत धैर्य आ गया था. मैं बार बार उनकी स्मृतियों और गुणसूत्रों मे संशोधन करता रहता. सबके नवजात सुंदर पंखों से खेलना मुझे बहुत अच्छा लगता था, पर ज्यों ही उम्रदराज प्रतिरूप मेरी तरफ़ देखती, मेरे तन-बदन में क्रोध की ज्वाला फूट पड़ती. मैं अपने आपे में न रहता.
   
प्रज्ञा के लिये यह बहुत दुखद स्थिति थी. उसके लिये हर प्रतिरूप का मरना उसकी बहन का मरना था.वह तय नहीं कर पाती कि मूल ईशा की मृत्यु हो चुकी है या वह अभी तक जीवित है. उसके लिए भी आत्महत्या का विकल्प महत्त्वपूर्ण विकल्प बन गया है. मेरे तर्कों, वितर्कों, कुतर्कों को प्रज्ञा सत्तर साल तक झेलती रही.मुझे याद है कि जिस रात ईशा के ग्यारह प्रतिरूपों के साथ प्रज्ञा ने घाटी में कूद कर आत्महत्या की, उसकी अगलीसुबहनिन्यानवे वर्ष की ईशा ने छत की खिड़की खोली और बूढ़े हो चुके पंखों की ताकत से हल्के हल्के आसमान में उड़ती हुयी दूर बहुत दूर चली गयी.
मैं उसे जाता देखता रह गया.




   

(सात)
   
ईशा के जाने के बाद मैं दुपहर से देर रात तक बिना आवाज़ के रोता रहा. बूढ़ी हो चुकी ईशा, जो मेरे पत्नी थी, जिसने मेरे साथ संतानहीन सत्तर से अधिक साल बिताये थे.

   
बहुत रो लेने के बाद मैंने तय किया कि ईशा को वापस ढूँढ कर लाऊँगा. संसार की सारी गतिविधियों का लेखा-जोखा जानना मुश्किल न था. किसी भी तरह की गति न केवल संज्ञान में ली जाती थी, बल्कि अपराधिक गतिविधियों पर नज़र रखने के लिए अनन्त काल तक सुरक्षित रखी जाती थी. एक सदी पहले ही भीषण वाद-विवाद के पश्चात सभी प्राणियों की गति सार्वजनिक रूप से सुलभ थी.

   
कृत्रिम उपग्रह की सूचना के आधार पर यह निश्चित हुआ कि ईशा खडगपुर की पहाड़ियों से उत्तर उड़ते हुए हिमालय की चोटियों को पार करती हुयी अन्नपूर्णा पर्वत समूह के पास आखिरी बार गतिशील पायी गयी थी. उसके बाद वह कहाँ गयी, यह सूचना अनुपलब्ध थी.
 क्या ईशा काल कलवित हो गयी?

   
ऐसा नहीं हो सकता. इस विचार से ही मैं सिहर उठा. अगली सुबह ईशा से मिलने के लिए तत्पर मैं अपने उड़नखटोले में उड़ते हुए हिमालय की ओर चल पड़ा. सौर उर्जा से चलने वाले उड़नखटोले से भी अन्नपूर्णा पर्वत समूह की यात्रा इतनी आसान नहीं थी. मौसम के खराब होते ही मुझे उड़नखटोले को अन्नपूर्णा पर्वतसमूह से पहले ही पोखरा घाटी में उतारना पड़ा. अब भी वह जगह मुझे कई मील आगे थी जहाँ ईशा आखिरी बार पायी गयी थी.

   
जंगल में उड़नखटोले से मैं बाहर निकल कर इधर उधर देख ही रहा था कि तेज बारिश ने मुझे वापिस की ओर धकेला. तभी मेरी नज़र दूर खड़े एक बलिष्ठ मुनि पर जा पड़ी, जो तेज बारिश में अविचलित जैसी मेरी ही बाट देख रहा था. उसने इशारे से मुझे बुलाया.

   
उसकी तरफ बढ़ते हुए मुझे अजीब सी अनुभूति हुयी. जैसे मैंने इस पुरुष को पहले कभी देखा है. इस तरह सिहर जाने से पल भर में जैसे मुझे अपनी जीवन की बहुत सी घटनाएँ फिर से याद आ गयी. जीवन का एक बड़ा खोया हुआ हिस्सा स्वप्न की कल्पनाओं और व्यर्थ की चिंताओं का होता है. न जाने मैंने कितने भूले सपनों पल भर में याद कर लिया. पल भर में मुझे लगा कि मानों जीवन अभी तक स्वप्न ही हो. ईशा को मिले हुए कुछ पल ही हुए हों. मैं अभी भी तरुण ही खडगपुर की पहाड़ियों में अकेला बेतहाशा भाग रहा हूँ. भागते-भागते मेरी टक्कर इस बलिष्ठ मुनि से होती है और मेरी तंद्रा टूटती है.

   
मुनि ने मुझसे पूछा, “तुम कौन हो? इतनी तेज बारिश में कहाँ भटक रहे हो?”
   
जब मैंने उपरोक्त कहानी मुनि को बतायी, मुनि ने अपना परिचय ‘पूषन’ नाम से दिया. बारिश रुक गयी थी. ईशा की तड़प में मेरे नैनों से बारिश हो उठी. पूषन ने पूछा, “अच्छा ये बताओ. जब ईशा हमेशा तुम्हारे पास थी, तब तुम उसका प्रतिरूप क्यों बनाना चाहते थे?” मुझे निरुत्तर देख कर पूषन ने धिक्कारा, “जब सत्य तुम्हारे समीप था, तुम उसकी अनुकृति में लगे रहे.“

   
“सत्य क्या है?” मैंने रुक कर कहा, “मैं जान नहीं पाया. क्या तुम जानते हो?“
   
हामी भरते पूषन मुस्कुरा उठे.

   
मैंने मन ही मन विचारा - सुनहले पात्र से सत्य का मुख ढँका हुआ है. पूषन, मुझ सत्य के अभिलाषी के लिए सत्य की उपलब्धि के लिए उसे उघाड़ दें.

   
पूषन उठ कर घने वन में जाने लगे. मैंने विचारा कि उनके पीछे चलूँ या उन्हें जाने दूँ? क्या मैं ईशा की तरह इन्हें भी खो दूँगा? नहीं, नहीं. यह ईशा को भी जानते हैं और मुझे भी. मैं भी शायद इनको जानता हूँ. क्या रहस्य है यह?

   
मैं उनके पीछे-पीछे जाने लगा. यह देख कर पूषन ने मुझे लताड़ा, “मेरे पीछे आने से क्या मिलेगा? तुम ईशा को क्यूँ नहीं ढूँढते?”

   
मैंने तड़प कर कहा, “यही तो मैं भी जानना चाहता हूँ कि मैं अब ईशा को क्यूँ नहीं ढूँढ रहा. अगर कुछ ढूँढता भी हूँ तो वह इसलिए कि मैं अपूर्ण हूँ. ईशा थी तब भी मैं अधूरा ही था. मैंने उसके चित्र बनाये, मूर्तियाँ बनायी, छायाचित्र से ले कर जैविक प्रतिरूप बना डाले. फिर भी मुझे कभी ईशा नहीं बन पायी. मैं हर बार असफल ही रहा. यह भी बड़ी आश्चर्यजनक बात है कि यह असफलता केवल मुझे ही पता थी, किसी और को नहीं. प्रज्ञा ईशा और प्रतिरूप में भेद नहीं कर पाती थी. संभवत: पूरे विश्व में एकमात्र मैं ही ईशा से परिचित था. मैं वह देख सकता था, जो कोई नहीं देख सकता था. ईशा और उसके प्रतिरूपों में भेद.“

   
पूषन ने बड़ी गम्भीरता से रुक कर पूछा, “तुम मेरे पीछे क्यों आ रहे हो?”
   
“पता नहीं. जैसे लगता है कि आप ही हैं हो मुझे समझ सकते हैं. आप ही मुझे सत्य दिखा सकते हैं. आप अकारण क्रोधित हो रहे हैं. अपना सौम्य रूप मुझे दिखाइए, ताकि मैं जान सकूँ कि आप जो हैं, वह मैं ही हूँ.“

   
“क्या मतलब है तुम्हारा?” पूषन चिल्लाये.

   
उनके चिल्लाने में मुझे अपनी आवाज़ की अनुगूँज सुनायी दी. मैंने अपनी शंका दृढ़ता से व्यक्त की,“इस घने जंगल में आप कौन हो सकते हैं? आप कोई और नहीं, बल्कि मेरे शिक्षक के जैविक प्रतिरूप ही हैं. और मेरे शिक्षक ने मुझे अपना प्रतिरूप ही बनाया था. आप दरअसल मेरी जीवन लीला को देखते आ रहे हैं. मैं अजर होने की जिद करता रहा, आप अमर हो गये हैं. इस शरीर से दूसरे शरीर तक ....“

   
“मैं अमर नहीं हुआ. केवल शरीर का काल में विस्तार मिला है. अब तुम क्या चाहते हो? तुमने मुझे निराश ही किया. तुम अतृप्त जीवन जीते रहे. प्राकृतिक मानवी ईशा के मोह में पड़ कर अंधकारमय जीवन जीते रहे. तुम्हारा जीवन तो व्यर्थ ही गया.”

   
उनकी झिड़की का मुझ पर कोई असर न हुआ, “मैं अजर-अमर नहीं होना चाहता. मैं ईशा के पास जाना चाहता हूँ. एक बार फिर से मिलना चाहता हूँ.“

   
“कैसे मोह में हो? जो जीवन भर तुम्हारे साथ रही फिर भी तुम उसे ढूँढ रहे हो? तुम सत्य जानना चाहते हों न? और मैं कहूँ कि ईशा सत्य नहीं है. सत्य इसलिए नहीं है क्योंकि अमर नहीं है.“ पूषन ने कठोरता से कहा.

   
“अगर सत्य और ईशा में एक चुनना है तो मैं ईशा को चुनूँगा.“
   
“मुझे नहीं लगता कि फिर प्राणत्याग करने के सिवा तुम्हारे पास कोई विकल्प है.“ पूषन झिड़क
दिया. “आत्महत्या करने के लिए तैयार हो जाओ.“

   
आत्महत्या! यह शब्द सुनते ही मैं काँप उठा. जीवन भर मैं जिसके खिलाफ़ मैं काम करता रहा, आज मैं उसकी वरण कर लूँ?

   
पूषन ने मुझे ललकारा, “वह देखो, इतनी तेज बारिश भी उस जंगल की आग को बुझा नहीं सकी.“ मैंने देखा दूर जंगल में आग लगी हुयी थी. पूषन उधर बढ़ चले. मैं उनके पीछे-पीछे चलता गया. जलते हुए जंगल की आँच जब बदन को झुलसाने लगी, इतने समीप पहुँच कर पूषन ने कहा, “जीवन वायु-अग्नि और अमृत से संयोग से बना है . यह शरीर तो अंतत: भस्म हो जाने वाला है. अब तू स्मरण कर, अपने किये हुए को स्मरण कर. अब तू स्मरण कर, अपने किये हुए को स्मरण कर.“
   
पूषन का इशारा था कि मैं दावानल में जल कर खाक हो जाऊँ. अग्नि के लिये स्वयं हवि बन जाऊँ.
   
मुझे स्मरण आया कि ईशा के कई बार कहने पर भी मैं इस बात पर सहमत नहीं हुआ कि हमें संतान उत्पन्न करना चाहिए. मुझे स्मरण हो उठा कि ईशा ने मेरी किसी बात की अवहेलना नहीं की. मेरी स्मृति में यह विचार कौंधा कि मैंने कोई भी बात ईशा से कभी न पूछी, इस डर से कि वह कहीं बताने से मना न कर दे. मुझे याद आया कि ईशा को अपने छायाचित्रों, तस्वीरों, मूर्तियों से कोई प्रेम न था. केवल मैं उन पर जान छिड़कता था. मुझे स्मरण हुआ कि ईशा ने आदित्य के बाद किसी से अगाध प्रेम रखा तो प्रज्ञा से, जिसे मैंने अजर बनने के लिए अभिशापित कर दिया. मुझे याद आया कि ईशा मुझे सपनों में मिला करती थी, जब कि वह मेरी बाँहों में सोया करती थी.
   
घड़कते दिल से अग्नि की तरफ कदम बढ़ाते हुए मैंने अग्नि से प्रार्थना की - हे अग्ने. आप हमें श्रेष्ठ मार्ग से ऐश्वर्य की ओर ले चलें. आप कर्म मार्गों के श्रेष्ठ ज्ञाता हैं. हमें कुटिल पापकर्मों से बचाएँ. हम भूयिष्ठ नमन करते हुए आपसे विनय करते हैं.

   
किसी जलती शाख के गिरते ही उसकी नीचे में असह्य जलन से जल रहा था, तब मैंने कवि मनीषी ईशा को देखा. वह षोडशी अपने सफेद पंख फैलाये मुस्कुरा रही थी.

   
उसने बाहें फैला कर मुझसे कहा, “गुइयाँ.“
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prachand@gmail.com

कृष्ण बलदेव वैद : डायरी का दर्पण : आशुतोष भारद्वाज

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उदयन वाजपेयी के संपादन में प्रकाशित त्रैमासिक ‘समास’ साहित्य की कुछ गिनती की गम्भीर पत्रिकाओं में से एक है. इसके सोलहवें अंक (जुलाई-सितम्बर 2017) में हिंदी के महत्वपूर्ण उपन्यासकारों में से एक कृष्ण बलदेव वैद से उदयन की सुदीर्घ बातचीत प्रकाशित हुई है, वैद की डायरी के कुछ हिस्सों के साथ. यह डायरी ‘अब्र क्या चीज़ है? हवा क्या है?’ राजकमल से २०१८ में छप कर आ चुकी है.

इस दिलचस्प बातचीत में उदयन वैद से उनकी निर्मल वर्मा की मित्रता के विषय में भी पूछते हैं. वैद के शब्दों में यह दोस्ती १९८४ तक ‘पुरानी, परायी और किसी कदर कसैली’ हो चुकी थी’.

आलोचक-लेखक आशुतोष भारद्वाज ने वैद की डायरी पर यह लेख लिखा है, इसका एक बड़ा हिस्सा इसी दोस्ती पर है.

पढ़ते हैं. हमेशा की तरह मोहक और मारक.  



वैद की डायरी
डा य री  का  दर्पण                                       
आशुतोष भारद्वाज

सबद भेद : कृष्‍णा सोबती :ओम निश्‍चल

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सुपरिचित आलोचक ओम निश्चल की लेखन शैली की यह विशेषता है कि वह जो भी करते हैं पूरी तैयारी के साथ करते हैं और लगभग सभी पक्षों को समेटने का प्रयास करते हैं. उनके यहाँ मुकम्मल दर्ज़ होता है. वे आलोच्य का गहन अवलोकन प्रस्तुत करते हैं.

मरहूम लेखिका कृष्णा सोबती क़द इतना बड़ा और पैरहन इतना बहुवर्णी है कि वे खुद आलोचकों के लिए चुनौती बन जाती हैं. ओम इस चुनौती को इए आलेख में स्वीकार करते हैं.

आलेख प्रस्तुत है.


कृष्‍णा सोबती
विरुद्धों के सामंजस्‍य से टकराती हुई एक कथाकार                               

ओम निश्‍चल


  
किसी भी लेखक के बारे में जानना हो तो किसी ऐसे लेखक का मंतव्‍य पढ़ो जो उसका समकालीन हो और जिसकी टिप्‍पणी भरोसेमंद हो. हिंदी के जाने माने कवि कुँवर नारायण ने अपनी पुस्‍तक रुख़में सोबती पर जो लिखा है वह ध्‍यातव्‍य है. अचरज यह कि अपने समकालीनों पर एक से एक नायाब संस्‍मरण दर्ज करने वाली सोबती ने शायद बहुत कम कुंवर नारायण पर कहा होगा. हम हशमतके तीन खंड तो इसके गवाह हैं. पर कुंवर नारायण उन पर लिखते हुए कहते हैं, 'हर लेखक की अपनी शैली होती है,भाषा को उस ख़ास अंदाज में बरतती हुई,जो बाद में उसकी खास पहचान बन जाती है. कृष्‍णा सोबती का भी जिन्‍दगी को देखने बूझने और बयां करने का एक फक्‍कड़ तरीक़ा है,जो अक्‍सर हमें सरशार के फ़साना ए आज़ाद की याद दिलाता है . उनकी उर्दू में लखनवी नफ़ासत है ,तो पंजाब का ठेठ अक्‍खड़पन भी.'इसी सिलसिले में वे ऐ लड़की  को उनकी कलम का सबसे कोमल छोर मानते हैं तो जिन्‍दगीनामाको दूसरा छोर ,जो कि लगभग ठेठ पंजाब है.

कृष्‍णा सोबती जिस एक और बात के लिए जानी जाती है वह है उनका मिजाज. उनके अनुकूल न होने पर उनसे सामंजस्‍य बिठा पाना मुश्‍किल होता है. उनके इस मिजाज के बारे में कुँवर जी कहते हैं, 'सोबती का लेख न तो रियायती है,न सिफारिशी. जब तारीफ़ करती हैं तो भरपूर ,खुले दिल से और प्रहार करती हैं ,तो कोई कोर-कसर उठा नहीं रखतीं.'उनके संस्‍मरण इस बात के गवाह हैं. हम हशमत के तीनों खंडों में उन्‍होंने अपने मित्र लेखकों के बारे में खुल कर लिखा है. बिल्‍कुल रसीले गद्य की मानिंद जैसे वह कोई शहद का छत्‍ता हो. पर वहीं ऐसे भी संस्‍मरण हैं जो उनके धुर अक्‍खड़ मिजाज की भी गवाही देते हैं. जैसे हम हशमतमें रवीन्‍द्र कालिया पर लिखा संस्‍मरण जो उनके उस संस्‍मरण के प्रत्‍युत्‍तर में कथादेशमें लिखा गया था जो उन्‍होंने किसी मामूली घटना को केंद्र में रख कर तद्भव के लिए लिखा था.

सोबती की कहानियां
सोबती अपने कथा साहित्‍य में जिस साहसिकता का प्रतीक मानी जाती हैं वह उनके व्‍यक्‍तित्‍व को एक शाश्‍वत ऊँचाई देता है. कथा साहित्‍य या लेखन में स्‍त्री विमर्श के लांच होने के पहले वे अपने आख्‍यानों में तेज तर्रार नायिकाओं की जननी बन चुकी थीं. नैतिकता के कागज़ी प्रतिमानों को ध्‍वस्‍त करते हुए मित्रो मरजानीलिखा तो ऐ लड़कीउनके विद्रोही तेवर की एक और मिसाल बन कर सामने आई. सोबती ने शुरुआती दौर में कहानियां लिखीं जो उनके संग्रह बादलों के घेरेमें संकलित हैं. हालांकि  यह संग्रह सन 1980 में सामने आया . वे पात्रों को अपने बीच से उठाने में सिद्धहस्‍त  हैं. इन  कहानियों  में उन्‍होंने दादी अम्‍मा का चरित्र सँजोया है. बहनेंमें बहनों का किरदार जैसे वे अपनी लेखनी से जीवंत बना देती हैं.

सोबती विभाजन व आजादी के संघर्ष के दौर से गुजरी कथाकार हैं सो विभाजन की  कचोट को उनहोंने अपनी कहानियों और खास तौर पर अपने आखिरी उपन्‍यास गुजरात पाकिस्‍तान से गुजरात हिंदुस्तानमें भरपूर जिया है. उनकी कहानियों में आए चरित्र दादी अम्‍मा,कामदार भीखमलाल,मां,लामा,व बादलों के घेरे कहानी की बुआ देर तक अपनी विशिष्‍टताओं से गूँजते रहते हैं. डरो मत,मैं तुम्‍हारी रक्षा करूंगा --- छोटी किन्‍तु हारर पैदा करनेवाली कहानी है. जैसे विभाजन की मारकाट के शब्‍द हमारे कानों में डिकोड हो रहे हों. वे विभाजन के दौरान लारियों से भर भर कर ले जाई जाने वाली सवारियों का जैसे जीवंत चित्रण करती हैं वह काबिलेगौर है. जरा सी कहानी और इतने बारीक डिटेल्‍स कि आंखें भर आएं. कहानी के अंश देखें, ''एक निर्जीव युवक,पथरायी आंखें,सूखे बाल और नीले अधर,ड्राइवर ने हमदर्दी के गीले स्‍वर में उस बेजान शरीर को झकझोर कर कहा, 'उठो भाई,अपना वतन आ गया...'.वतन ! ओठ फड़फड़ाए----दो सोयी सोयी भरी हुई बाहें उठीं ,ओठ फड़फड़ाए, ''डरो मत,मैं तुम्‍हारी रक्षा करूंगा...''आवाज मौत की खामोशी में खो गयी. पथरायी हुई आंखों की पलकें जड़ हो गयीं---वतन की यात्रा खत्‍म हो गयी. ''इस कहानी के बीच बीच में उभरती आवाज 'डरो मत मैं तुम्‍हारी रक्षा करूंगा'जिस तरह का दबाव मस्‍तिष्‍क पर डालता है वह विभाजन के दौरान मची मार काट के दृश्‍य को उपस्‍थित कर देता है.

इसी संग्रह में उनकी एक कहानी सिक्‍का बदल गयाहै. विभाजन की त्रासदी का ऐसा हिला देने वाला वृत्‍तांत की रुह हिल उठे. शाह जी के जाने के बाद शाहनी अकेली हो गयी हैं-- बूढी  असहाय. पर गांव वालों से न चाहते हुए भी उसे जुदा होना पड़ रहा है. उसके जाने की बात से सारा गांव रो उठा है. पर वह अब और यहां रुक नहीं सकती. पर जाएगी कहां. शाह जी के जाने के बाद वैसे ही वह अकेली हो गयी थी अब न जाने कहां दाना पानी लिखा हो. उसे जाना होगा क्‍योंकि राज पलट गया है,सिक्‍का बदल गया है. उसके जाने की खबर से शेरे का दिल टूट गया है,इसमाइल उससे कुछ आशीषें मांगता है. स्‍मृति का एक बड़ा कालखंड छोड़ कर शाहनी चल पडी है,  चल पड़ा है ट्रक. किसी अजानी राह पर. आंखें बरस रही हैं,दाऊद खां विचलित हो कर देख रहा है उसे जाते हुए. कुछ पता नहीं ट्रक चल रहा है कि वह स्‍वयं चल रही है. छोटी छोटी कहानियों में एक औपन्‍यासिक असर पैदा कर देने वाली कृष्‍णा सोबती ने जो रचा है वह कहानी या उपन्‍यास भर नही है ,वह महज आख्‍यान नही है ; वह बदलते हुए युग की दास्‍तान है. वह बदलते हुए चरित्रों की दास्‍तान है. एक अन्‍य कहानी मेरी मॉं कहॉं....  भी विभाजन को शिद्दत से महसूस करने वाली कहानी है.  युनुस गाड़ी चला रहा है. सड़कों पर मारकाट मची है. मुसलमानों को काफिर कहा जा रहा है . उसे भी. अचानक उसे सड़क पर एक घायल बच्‍ची दिखती है. अभी जान है. उसे अपनी बहन नूरन याद आती है जिसे छोड कर बेवा मॉं  चल बसी थी. वह उसे उठा लेता है और अस्‍पताल ले जाता है. तमाम कश्‍मकश से गुजरते हुए वह उसका इलाज कराता है . बच्‍ची ठीक हो रही है पर उसका चेहरा देखते हुए उसे भय लगता है कहीं वह मार न डाले. काफिर जो है. होश आते ही वह कहती है मुझे कैंप में छोड दो. वह कहता है मेरे घर चलो. वह पूछती है मेरी मां कहॉं है,मेरे भाई कहां,मेरी बहन कहॉं? मार्मिक कहानी है यह. यों तो उनकी और भी कहानियां बहुत अच्‍छी हैं. मनोविश्‍लेषण में लाजवाब. कुछ पारिवारिक मिजाज की कहानियां भी हैं  जैसे बहनें और दादी अम्‍मा कहानी अपने में पारिवारिकता की एक अजीब सी सुगंध से रची बसी हैं.


जीवन और चिंतन
कृष्‍णा सोबती के लेखन में यह जो धार है,यह जो लीक से हट कर पात्रों स्‍थितियों मानवीय परिस्‍थतियों को रचने की शक्‍ति है वह कहां से आती है. अपने उपन्‍यासों के जरिए जिस तरह के स्‍त्री पात्र उन्‍होंने प्रस्‍तुत किए हैं वे साठ के दौर में एक संस्‍कारी किस्‍म के समाज में मिलने मुश्‍किल होते हैं. पर रचनाकार वही है जो ढँके मुँदे समाज के ढँके मुँदे यथार्थ को रच कर दिखाए. वे जिस दौर की कथाकार हैं तब ऐसे कथाकार कम थे जिनके यहां यौनिकता पर चर्चा या अपनी इच्‍छाओं का सहज इज़हार स्‍वीकार्य था. एक आरोपित उच्‍चादर्श भरे जीवन की कामना कथाकारों से भी की जाती थी. समाज की बुराइयों को ढॉंक कर चलने की मध्‍यवर्गीय आदतों का शिकार कथाकार भी हुआ करता था. कृष्‍णा सोबती ने इस रूढ़ि को आगे बढ़ कर तोड़ा. वे संयुक्‍त परिवार में पली बढ़ीं. विभाजन का दर्द देखा. मारकाट देखी. पाकिस्‍तानी मुसलमानों और हिंदुस्‍तानी मुसलमानों के मिजाज के बारीक से बारीक अंतर को महसूसा. अपनी कहानियों में मुस्‍लिम पात्र को रचते हुए कहीं से भी यह बताने की चेष्‍टा नहीं की कि मुसलमान अनिवार्य तौर पर बुरे होते हैं. दंगे के बीच हो रही मार काट से बचाने वाले पात्र उनके यहां मुसलमान भी हैं. शाहनी को अपने बीच न बचा पाने की टीस  दाउद के मन में है. एक बच्‍ची  को सड़क पर घायल व कराहता हुआ देख कर जिस शख्‍स का दिल पिघल जाता है वह और कोई नहीं ड्राइवर यूनुस है. एक मुस्‍लिम पात्र. कितने अपनापे से वह उस बच्‍ची का उपचार कराता है और अपने घर ले जाता है. वह भले उसे देख कर डर जाती है क्‍योंकि उसे वैसे ही दृश्‍य और निर्मम चेहरे ही देखे हैं पर यूनुस ऐसा नहीं है. यह भरोसा भी सोबती ही दिलाती हैं.

मित्रो की सेक्‍सुअल डिजायरऔर सोच में बोल्‍डनेसको लेकर काफी चर्चा हुई है. वे कहती हैं,ये दुनिया बहुत बड़ी  है,इसमे कई तरह के आवरण हैं. आज जो लडकियां शिक्षित हैं,पढ रही हैं,उन्‍हें इस बात का अहसास है. हमारे समाज में इन बातों को लेकर नैतिकता का जो कोड  है वो बहुत सख्‍त रहा है और संभवत: जहां सख्‍ती ज्‍यादा होती है वहां वर्जनाओं की सांकल तोड़ने की कोशिशें ज्‍यादा होती हैं. वे एक सवाल के उत्‍तर में कहती हैं, ''मित्रो सिर्फ एक किताब नहीं रही,समय के साथ साथ वह एक व्‍यक्‍तित्‍व में बदल गयी है.''वे कहती हैं, ''मित्रोमरजानी की मित्रो जब अपनी छातियां खोल कर अपने आपको देखती है तो उसकी निगाह में स्‍त्री और पुरुष दोनो की निगाह शामिल होती है.''उनके शब्‍दों में, ''मित्रो व्‍यक्‍ति की जिस छटपटाहट का प्रतीक है वह यौन उफान ही नहीं,व्‍यक्‍ति की अस्‍मिता का भी अक्‍स है जिसे नारी की पारिवारिक महिमा में भुला दिया जाता है.''

कृष्‍णा सोबती के लेखन से गुजरते हुए यह नहीं लगता कि कोई चीज वे भाषा के आवरण में छुपा रही हैं. उनके पास हर घटना हर परिस्‍थिति को कहने के लिए समर्थ भाषा है. वे जीवन की उत्‍सवता की रचनाकार हैं जहां एक उन्‍मुक्‍त वातावरण में चीजें घटित होती हैं. मित्रो भले औरों की निगाह में बोल्‍ड या आउटस्‍पोकेन हो, पर वह है इसी जीवन-जगत की प्राणी. और हर प्राणी अपना जीवन अपनी तरह जीता है. उनके जीवन और रहन सहन में भव्‍यता तो थी पर मध्‍यवर्गीयता की रुढियों से मुक्‍त न था. लिहाजा ऐसे समाज में जो जीवन उनहोंने देखा,महसूस किया,जिन लोगों,चरित्रों के साथ वे रहीं,उन्हें भीतर से महसूस किया और फिर जो रचा,वह निरुद्विग्‍न रह कर. तभी मित्रो जैसी स्त्री ने आकार लिया. वे अपनी रचनाओं को अपने चिंतन से जोड़ कर देखती हैं. कहती हैं वे ,मेरे रचनात्‍मक पक्ष से मेरा रिश्‍ता मेरी चिंतन दृष्‍टि से बनता है. एक संपन्‍न परिवार में पली ननिहाल और ददिहाल दोनों घरानों की संस्कृतियों  को जीने वाली कृष्‍णा सोबती किताबों के बीच बड़ी हुई. पर नफासत इतनी कि खाने की मेज पर बैठकर किताब पढने की मनाही थी क्‍योंकि उससे किताबों के गंदे होने की आशंका रहती है.

सोबती अपनी भाषा से पहचानी जाती हैं,जैसे निर्मल वर्मा,अज्ञेय,जैनेन्‍द्र. ज़िन्‍दगीनामामें पूरी तरह पंजाबियत है जैसे मैला ऑंचलमें भाषाई आंचलिकता की खुशबू. दोनों अपने देशज मुहावरे,भाषिक विपुलता और बेबाक चरित्रों के कारण दूर से ही पहचाने जाते हैं. आप सोबती के संस्‍मरणों की भाषा पढें. लेखकों कवियों के मिजाज और उनकी शख्‍सियत पर उनके वृत्‍तांत पढ़ें तो लगेगा अपने मित्र लेखक लेखिकाओं का पूरा चित्र खींच देने में वे माहिर हैं. जैसा लेखक वैसा ही उनके गद्य का मिजाज. एक-एक पल के बोल बरताव का दृश्‍य उकेर देनेमें कुशल कृष्‍णाजी के हम हशमतके  संस्‍मरण ऐसे किसी भी लेखक के लिए मिसाल हैं जो उसकी परिधि में शामिल हैं. सौभाग्‍य है कि अशोक वाजपेयी व निर्मल वर्मा यहां दो बार आए हैं. दोनों बार कृष्‍णा जी ने उन पर डूब कर लिखा है.  वे शब्‍द चयन को लेकर भी काफी सतर्कता बरतने वाली लेखिका रही हैं. न होतीं तो जि़न्‍दगीनामाके शीर्षक के प्रति उनमें इतना मोह न होता कि वे इसके लिए अमृता प्रीतम से एक लंबी कानूनी लड़ाई लड़तीं.


अपना रचनात्मक एकांत
कृष्‍णा सोबती की हर अदा में नफासत नज़र आती है. वे सभा में हों,बोल रही हों,बात कर रही हों,उनका अंदाज बिल्‍कुल जुदा होता. बल्‍कि कई बार उनके व्‍यक्‍तित्‍व के सख्‍त रेशों से यह पहचानना मुश्‍किल होता कि इस बात पर पता नहीं उनका क्‍या रिएक्‍शन हो. उनकी शख्‍सियत में एक खास तरह की रहस्‍यात्‍मकता रही है. किसी से खुलना तो तह तक अंदर,न खुलना तो नारियल के छिल्‍के की तरह सख्‍त. तोड़ना मुश्‍किल उनकी खामोशियों को. गो कि खामोशियां उन्‍हें बहुत अच्‍छी लगतीं. वे एक जगह कृष्‍ण बलदेव वैद से बतियाते हुए कहती हैं, ''पेड़ों की ऊँचाइयों में से छनता मौन अपने एकान्‍तिक कोलाहल में हवाओं को छूता हुआ आपको घेर लेता है. सम्‍पूर्ण हारमनी. आप यहां कुछ और हो उठते हैं. (सोबती-वैद संवाद,पृ22)

लेखक का अपना एकांत वह होता है जहां उसकी लिखने पढने की गृहस्‍थी होती है. वह और उसकी तनहाई. जहां एक का भी अंत हो जाए. ऐसा एकांत. नितांत एकल इकाई. लिखने की मेज. इस बारे में बहुधा लोगों ने उनसे सवाल किए हैं. पर जैसा कि कुंवर नारायण अपनी डायरी में लिखते हैं,लिखना मेरा शौक है,बीमारी नहीं. केवल 10-15 कृतियॉं देकर वे गए पर सारी की सारी क्‍लासिक. अभिव्‍यक्‍ति के चरम शिखरों को छुआ उन्‍होंने. कृष्‍णा सोबती का भी यही हाल रहा. लगभग डेढ़ दर्जन कृतियां. दो-एक इधर उधर. इसी में पूरा जीवन समेट दिया उन्‍होंने.  वे कहती हैं, ''मात्र लिखने के लिए लिखना--यह मेरे निकट कभी घटित नहीं हुआ. लिखित में दोहराने से बहुत कतराती हूँ.''लेखक अपने ठीहे पर बैठता नहीं समाधिस्‍थ-सा होता है. अपनी रचना प्रक्रिया समझाते हुए वे कहती हैं, ''अक्‍सर रात को ही काम करती हूँ. यह सोचकर सुख होता है कि इस पर्यावरण को मैंने हर पल अपने में महसूस किया है. पन्‍नों पर पाठ में घुलने दिया है. रात अपनी मेज के आसपास बहती निपट खामोशियां कुछ ऐसी जैसे टीन की छत पर हल्‍की हल्‍की बूँदाबांदी हो रही हो.''लेखन को वे अपने आपसे संवाद मानती हैं.
अपने लिखने के समय के बारे में अन्‍यत्र वे बताती हैं कि 'मैं रात में लिखती हूँ---रात का अंधकार जब मेरे अकेले टेबल लैंप के रहस्‍य में आ सिमटता है तो शब्‍द मुझे नए राग,नई लय और नई धुन में आ मिलते हैं.'(लेखक का जनतंत्र,आशुतोष भारद्वाज से बातचीत,पृ199)  वे स्‍वीकार करती हैं कि लेखक सिर्फ निज की लड़ाई नहीं लड़ता. न अपने दुख दर्द और हर्ष विषाद का ही लेखा जोखा पेश करता है. अपने अंदर बाहर को रचनात्‍मक सेतु से जोड़ता है. उसे लगातार उगना होता है--हर मौसम,हर दौर में.''(सोबती वैद संवाद,पृ30)

लिखना क्‍या हमेशा एक-सा होता है,शायद नहीं. इसलिए कि जीवन में भी सारे काम एक से नहीं होते. बड़े लेखक की कोई रचना उम्‍दा हो सकती है कोई हल्‍की भी. यह मन मिजाज मौसम और अनुभूति की गहराई पर निर्भर करता है.  अनुभव के बीज बहुत अच्‍छे हों पर संवेदना की जमीन में वैसी नमी न हो तो शायद रचना की पैदावार बहुत अच्‍छी नही होगी. इस बात को वे स्‍वीकारती हैं. कहती हैं, ''लेखन में सूखे के अंतराल तो आते ही रहते हैं. सभी रचनाएं एक जैसी ऊर्जा में से नहीं फूटतीं. कई बार ऐसा भी होता है कि बड़े बड़े लेखक अचानक चुक जाते हैं,दो तीन अच्‍छी रचनाएं देने के बाद. यह अंदेशा हर लेखक के सर या कलम पर मँडराता रहता है. ''(वही,पृ164)सोबती लिखने के लिए सनलिट् ब्रांड का कागज और सिग्नेचर पेन पसंद किया करती थीं . चन्नाऔर डार से बिछुड़ीसनलिट ब्रांड कागज पर ही लिखे गये.

भाषा का अनुभव बनते जीवनानुभव
वे बातचीत में अक्‍सर कुछ ऐसी बातें कह जाती हैं जो सार्वभौम और एक्‍सकलूसिव होती हैं. वैद व अन्‍य लेखकों के साथ संवाद में बीच बीच में आए हुए ऐसे अनेक वाक्‍य/विचार हमें सम्‍मोहित करते हैं,यथा :  लेखक सिर्फ निज की लड़ाई नहीं लड़ता, अपने अंदर बाहर को रचनात्मक सेतु से जोड़ता है,अच्छी रचना जिन्दगी की टकराहटों और संघर्ष में से होकर उभरती है, शिल्प और कथ्य कॄति की बुनतर में ताने-बाने की तरह गुँथे रहते है,सादी सरल भाषा सिर्फ पठनीयता का ही नुस्खा नहीं, वह भाषा का परिष्कार भी है,सेक़्स हमारे जीवन का, साहित्य का महाभाव है, व्‍यक्‍ति का आात्मिक एकांत परिवार के कोलाहल में गायब हो जाता है, संयुक़्त परिवार की संस्कारी मर्यादा व्‍यक्‍ति की निजता से बहुत कुछ छीन लेती है, लेखक का अपना नाम और अपने लेखन की मर्यादा स्वयं बनानी होती है, बाजार प्रकाशक की अतॄप्त आत्मा को अपनी ओर खींचता है,कापीराइट के रक्षक और भक्षक दोनों एक ही वजूद में पलते हैं,परंपरा  के नाम पर सिर्फ भव्‍य प्राचीन को टेरना निरर्थक है.

भाषा सोबती की वह विशिष्‍ट इकाई है जहां वे अपने होने को अलग ढंग से रेखांकित करती हैं. हिंदी की रचना परंपरा में यह चीज सबसे जयादा मायने रखती है कि उसके पास अपने अनुभवों को रचना में बदलने के लिए भाषा कैसी है. कविता में जैसे विनोद कुमार शुक्‍ल का अपना अंदाजेबयां है,किसी और का वैसा नहीं,जगूड़ी का अपना स्‍थापत्‍य है वैसा किसी और का नहीं. अज्ञेय अपनी भाषा शैली में बहुत निथरे नजर आते हैं. निर्मल वर्मा अपने गद्य की स्‍निग्‍धता के लिए ही याद किए जाते हैं. वैसे ही कृष्‍णा सोबती न केवल अपनी कहानियों,उपन्‍यासों की अनूठी किस्‍सागोई के लिए याद की जाती हैं,अपने साहसिक तथा त्‍यक्‍तलज्‍जासुखी भवेत् वालेभाव से जीने सोचने वाले पात्रों के लिए याद की जाती हैं बल्‍कि अपनी खास तरह की भाषिक अदायगी के लिए भी. हालांकि वे तत्‍कालीन पाकिस्‍तान के गुजरात में जन्मी,विभाजन के हालात का साक्षात्‍कार किया,फिर भी जितना उनका पंजाबी व पंजाबियत पर दबदबा रहा है उतना ही हिंदी पर भी. एक साफ सुथरेपन की कलफ उनकी भाषा पर हमेशा दीखती रही. जैसे अज्ञेय पंजाबी होते हुए भी कुशीनगर में जनमे पिता के साथ देश के अनेक स्‍थलों पर आते जाते रहे,सेना में भी रहे पर उनकी भाषा देखिए तो वहां तत्‍सम का भी दबदबा है तद्भव का भी. देशज व बोलियों के साथ भी उनका गहरा अपनापा रहा है . न होता तो उनकी भाषा भी आकाशवाणी के समाचारों सी रुखी और निर्विकार होती. कृष्‍णा सोबती के साथ भी ऐसा ही है. जिन्‍दगीनामा में छायी पंजाबी व पंजाबियत के लिए उन्‍हें एकाधिक आलोचनाएं भी सुननी पड़ीं जैसा कि रेणु को मैला आंचलकी खास इलाकाई भाषा के लिए. किन्‍तु यही इन उपन्‍यासों की विशेषता भी रही है कि वे आसानी से अन्‍य उपन्‍यासों के ढेर में से अलगाई जा सकती हैं. हमारे समय के अन्‍य कद्दावर  कथाकार नागर,यशपाल,  राही मासूम रज़ा,  सुरेन्‍द्र वर्मा,कृष्‍ण बलदेव वैद,विनोद कुमार शुक्‍ल,स्‍वदेश दीपक अपनी भाषाई अदायगी के लिए ही जाने जाते हैं. आखिरकार मुझे चांद चाहिए --अनेक प्रेम कथाओं के होते हुए भी जब सामने आया तो अचानक भाषा किस्‍सागोई की नाक की कील की तरह दमकने लगी. वह भाषा हाथोहाथ ली गयी. नौकर की कमीजया दीवार में एक खिड़की रहती थी---आया तो वह विनोदकुमार शुक्‍ल की अपनी भाषाई लीक पर चल कर आया . वे भाषा की नई तहजीब के रचनाकार हैं,भाषा का यही अनूठापन उनके काव्‍य में भी पहचाना जाता है. सोबती इसी तरह अपनी बनाई भाषा की सरणि पर चलती दीखती हैं जो उन्‍होंने अपने पैदाइश की जगह,अपने प्रवासों,अपनी आवाहाजियों व अपनी अलग तरह की सोहबतों से हासिल किया है. उनकी किस्‍सागोई के बारे में श्‍लीलता अश्‍लीलता की बहसें होती रही हैं किन्‍तु भाषा के शील का उन्‍होंने हमेशा ध्‍यान रखा. भाषा को उन्‍होंने किसी नैतिक किस्‍म के व्‍याकरण से संचालित नही होने दिया.  वे भाषा की बहुवस्‍तुस्‍पर्शिता की रचनाकार हैं. जहां जैसी भाषा की दरकार है वैसा प्रयोग किया है उन्‍होंने. जिन्‍दगीनामाकी जो भाषा है वह दिलोदानिशकी नही है. वहां एक परिष्‍कृत भाषाई प्रभामंडल मिलेगा. संस्‍मरणों में क्‍योंकि अधिकांशत: नैरेटर वे खुद होती हैं तो उनका भाषाई संस्‍कार जिसमें उर्दू हिंदी संस्‍कृत की घुलत मिलत है,उसका प्रभाव बोलता है. 'मित्रो मरजानी'  की भाषा  अलग है. वह मित्रों के अंदरूनी संस्‍कारों के पिघलने के साथ पिघलती और बहती है. वे सरलता व सादगी को भाषा का एक गुण तो मानती हैं पर एकमात्र गुण नहीं.  जिन्‍दगीनामामें जो भाषाई वितान है,फैलाव है व पंजाबी परिवेश और उसके सामाजिक लोकाचार की उपज है. यह किसी एक गांव की कहानी नही है,जैसे रागदरबारीका देहात कोई एक निश्‍चित जगह की भौगोलिक इकाई नही है,वह भारतीय देहात और कस्‍बाई यथार्थ का एक नमूना है जो भाषाई विभिन्‍नताओं के बावजूद एक सा है. वे कहीं कहती भी हैं कि जिन्‍दगीनामाजैसापाठ दूसरे हाथ के माल से नहीं बुना जा सकता था. जैसे हम कहें कि रागदरबारीकेवल श्रीलाल शुक्‍ल जी लिख सकते  थे या आधा गॉंवकेवल राही मासूम रजा और मुझे चॉंद चाहिएकेवल सुरेन्‍द्र वर्मा. केवल यह अद्वितीयता ही लेखक का उसका अपना शैलीकार बनाती है. वह आसानी से किसी की लेखन शैली में तिरोहित और समामेलित नहीं हो सकता. यह भाषाई अद्वितीयता तो सोबती के यहां है ही.

लेखक के सरोकार
लेखक आखिरकार अपनी विषय वस्‍तु से ज्‍यादा अपने सरोकारों से जाना जाता है. वह किसी विचारधारा का पक्षधर न भी हो तो उसके लेखन की गहराई कम नही होती. विभाजन व फिरकापरस्‍ती के चरम यथार्थ से गुजरने के बावजूद आपको एक सच्‍चे लेखक में कहीं भी संकीर्णता की बू नहीं दिखाई देगी. भीष्‍म साहनी के तमससे गुजरिए. विभाजन की खौफनाक दास्‍तान किन्‍तु यह नहीं कह सकते कि वे कहीं भी संकीर्णतावादी मनोवृत्‍ति का शिकार होकर किसी हिंदू समुदाय का पक्ष ले रहे हैं या कुछ ऐसा रच रहे हैं कि उनका किसी एक रुख की पक्षधरता तय की जाए. लेखक की मेज न्‍याय की वह तुला है जिस पर हर कोई अपने वजन के अनुसार तुलता है. वह हर किसी का पैरोकार है . वह सच का पहरुआ है. विभाजन के दोनो ओर से उखड़े परिवारों की तबाह दुनिया के मंजर से गुजरी सोबती कमाल अहमद से बातचीत में यह स्‍वीकार करती हैं कि मैं उन खौफनाक वक्‍तों की पौध हूँ,विभाजन को झेले हुए हूँ फिर भी बॉंटना चाहती हूँ  आपसे कि मेरी धर्मनिरपेक्षता को पिछले पचास वर्षों में शक-सुबह से किसी सांप्रदायिकता ने जख्‍मी नहीं किया. (लेखक का जनतंत्र,पृ 138)

सोबती ने अपने स्‍त्री होने को कभी किसी कमी या अभिशाप के रूप में नही लिया. स्‍त्री को लेकर स्‍त्री की स्‍वायत्‍तता को लेकर समाज चाहे कितना ही संकीर्ण हो,उन्‍होंने अपने स्‍त्री होने का हमेशा सेलीब्रेट किया. कभी शायद ही मन में ख्‍याल आया हो कि काश मैं पुरुष होती . बड़ी से बड़ी सत्‍ता के सामने न झुकने की जिद उनमें थी तो किसी भी सहृदय व्‍यक्‍ति से सरलता और तरलता से मिलने की कशिश भी उनमें थी. इसलिए उनसे हुई बातचीत की सूची पर निगाह फेरते हुए पाया कि उनसे रचना के क्षेत्र में किसी बहुत बड़े व्‍यक्‍ति ने बातचीत नहीं की. उस वक्‍त के तमाम समकालीन लेखक थे जो अपने अपने लेखन के शिखर पर थे. अज्ञेय से बहुत से आला दर्जे के लेखकों ने बातचीत की है. कुँवर नारायण से भी. पर सोबती से पता नहीं क्‍यों बातचीत करने वालों में युवा लोग ज्‍यादा रहे हैं. जानी पहचानी शख्‍सियतों में कृष्‍ण बलदेव वैद,अनामिका,आलोक भल्‍ला,गिरधर राठी और पुराने लोगों में बस रणवीर रांग्रा. बाकी सब युवा हैं--- निरंजनदेव शर्मा,कृपाशंकर चौबे,कमाल अहमद ,आशुतोष भारद्वाज आदि . हां कृष्‍ण बलदेव वैद ने लंबी और ठहरावदार बातचीत की है---एक अलग पुस्‍तक में . उनसे बातचीत में भी वे लेखक के मान स्‍वाभिमान को नीचे नहीं गिरने देतीं. आखिरकार मित्रो की कामभावना की आकांक्षा की इज़हार केवल उनके दिमागी खेल की उपज नहीं थी.  यह मानव स्‍वभाव है. हर किसी में सेक्‍सुअलिटी के गुणसूत्र और परिमाण अलग अलग होते हैं  और वे तो मानती ही हैं कि ''सेक्‍स हमारे जीवन का,साहित्‍य का महाभाव है. जो उपन्‍यास(समय सरगम) इस समय मेरी मेज़ पर है,उसकी खामोशियों में बूढे-सयाने लोगों का यह मौसम भी सेक्‍स और अनुराग भाव से रिक्‍त नहीं है. उसका रंग जरूर यौवन से अलग है.''(सोबती-वैद संवाद,पृ153)

वे बेशक एक अभिजात परिवार में जनमी. गुजरात में सोबती स्‍ट्रीट की सोबती हवेली सदैव उनकी स्‍मृतियों में रही . बाद में दिल्‍ली व शिमला में पली बढीं. पर उनके सरोकार सदैव अपने समय व समाज के साथ रहे. वे कहती हैं,मैं,मेरा लेखक,मेरा व्‍यक्‍तित्‍व मेरा नागरिक स्‍त्री होते हुए भी उत्‍पीड़न के रोग से ग्रस्‍त नहीं. फिर भी वे समाज में सहिष्‍णुता के लिए अंत तक कार्यरत रहीं. देश के कुछ बुद्धिजीवियों लेखकों की हत्‍या पर वे सरकार के विरुद्ध लामबंद हुईं. ऐसी ही किसी बात से क्षुब्‍ध होकर पद्मश्री स्‍वीकार करने से मना कर दिया. पर उनके अभिजात व्‍यक्‍तित्‍व के भीतर एक लेखक की समवेदना थी. वे कहती हैं,हमें पिछड़े,निर्धन,आदिवासी,अशिक्षित और स्‍त्री की भीड़ को नागरिक के स्‍वरुप में सहज ही स्‍वीकार करने की तालीम जुटानी होगी. यह जिम्‍मा शिक्षितों और लेखकोंपर है. जनसाधारण से इलीटिस्‍ट की दूरी को हमें पाटना होगा. ''शायद उनका ध्‍यान साहित्य में तेजी से स्‍थान हासिल कर रहे स्‍त्री व दलित विमर्शों की ओर था. उनके लेखन व स्‍वभाव में परिष्‍कृति की हद तक सुगढ़ता उनके सौंदर्यबोध का परिचायक है. मानवीय जीवन की पेचीदगियों तथा उनके सरोकारों को खोलने में उनके उपन्‍यास,कहानियां व विचार एक बड़ी भूमिका निभाते हैं.

यह सरोकार ही है कि उन्‍होंने हम हशमतसीरीज में बहुत से लेखकों पर संस्‍मरण टॉंके पर मुक्‍तिबोध पर अलग से एक पूरी पुस्‍तक(मुक्‍तिबोध: एक व्‍यक्‍तित्‍व सही की तलाश में) की ही परियोजना तैयार की. हालांकि यह उनकी कोई आलोचनात्‍मक पुस्‍तक नहीं है तथापि यह एक कवि के लिए उनकी हार्दिक प्रणति है. अकारण नहीं कि वे कविता को साहित्य में अव्‍वल विधा मानती भी रही हैं. वे कहती भी हैं, ''कवि लौकिक नहीं,अलौकिक शक्‍ति से ऊर्जा पाता है. उदात्‍त प्रकृति से सिमटा हुआ नहीं,वह दूर तक जीता है. इसलिए कविता का स्‍थान गद्य से ऊपर है . गद्य वालों को मान लेना चाहिए कि वे नंबर दो पर हैं. नंबर एक पर कवि है.''(लेखक का जनतंत्र,155) ''मुक्‍तिबोध पर लिखते हुए वे जैसे हिंदी के आधुनिक पुरोधा कवि का ऋण चुका रही हों. यह आलोचना की रूढ शब्दावली से अलग कृतज्ञता, सहचिंतन और सहृदयता का एक समावेशी पाठ है जो मुक्तिबोध के रचे-सिरजे शब्दों के आलोक में सोबती के कवि-मन का उदबोधन है. जैसी अनूठी कृष्णा जी की कथा-भाषा है, वैसा ही अनौपचारिक पाठ मुक्तिबोध पर लिखी इस किताब का है. जिस शिष्ट सँवरन-भरे गद्य के लिए वे जानी जाती हैं, उसकी भी एक कौंध यहॉं अंधेरे में मोमबत्ती की तरह जलती दिखाई देती है. एक बड़े लेखक का आत्‍मसंघर्ष एक बड़ा लेखक ही समझ सकता है. मुक्‍तिबोध पर कृष्‍णा सोबती की किताब मुक्‍तिबोध के इसी आत्‍मसंघर्ष और उनके कवि-व्‍यक्‍तित्‍व की खूबियों को समझने की एक कोशिश है. आलोचना प्राय: पाठ के जिस वस्‍तुनिष्‍ठ संसार का पारायण और परीक्षण करती है,एक सर्जक लेखक जीवन सत्‍य के उजालों को अपनी रूह में भरता है जो पाठ के धुंधलके को चीरती हुई आती है. कृष्‍णा सोबती ने मुक्‍तिबोध के काव्‍य की गहन वीथियों से गुजरती हुई कुछ कविताओं के आलोक में उस कवि-मन को पढने की चेष्‍टा करती हैं जिसकी कविताएं सीमातीत यथार्थ को भेदती हुई किसी भी प्रकार की कंडीशनिंग के विरुद्ध एक प्रतियथार्थ रचती हैं.

उपन्‍यासों में व्‍यक्‍त जीवन-यथार्थ
किसी भी कथाकार के विचारों को उसके संबोधनों से नहीं,उसकी कहानियों,उपन्‍यासों की अंतर्धारा में अनुस्‍यूत वैचारिकी से ग्रहण किया जाना चाहिए. कृष्‍णा सोबती के उपन्‍यास शुरु से ही इस समाज के ढँके मुँदे यथार्थ के उदभेदन का काम करते हैं. उनकी कहानियां कोई सतयुगी आदर्शवादी कहानियां नही हैं वे मानवीय प्रवृत्‍तियों,लोभ,लाभ,ईर्ष्‍या,वेदना,करुणा,शील,संकोच,काम,क्रोध सबका समाहार हैं.  जिन्‍दगीनामाएक बड़े फलक का उपन्‍यास है. यह एक बड़े कालखंड का आख्‍यान है. पंजाबी संस्‍कृति की भाषाई कौंध इसमें है तो विभाजन  और विस्‍थापन की पीड़ा भी . सिक्‍का बदल गयाकहानी में जिस तरह का यथार्थ चित्रित है उसका महाविस्‍तार जिन्‍दगीनामा के कथ्‍य में है. बीसवीं सदी की ग्रामीण सभ्‍यता व संस्‍कृति की एक विराट झॉंकी यहां मिलती है तो शाह जी व उनके परिवार के रुप में यहां भी सिक्‍का बदल गयाजैसी कहानी की भावभूमि नजर आती है.

विभाजन पर अनेक उपन्‍यास लिखे गए हैं, तमस,झूठा सच,आग का दरिया,काले कोसऔर उदास नस्‍लेंआदि.  जिन्‍दगीनामा के मूल में जिस कहानी का ऊपर जिक्र है वह  सोबती के संग्रह बादलों के घेरेमें शामिल है. गांव वालों को इस बात का मलाल है कि वे शाहणी की आखिरकार हिफाजत न कर सके. उनके गांव से रुखसत होते ही गांव के बुजर्ग मुसलमानों की आंखें जिस तरह गीली हो उठती हैं वह अपने आपमें इस बात की मिसाल है कि ध्‍वंस और हिंसा के बीच भी अपनत्‍व की कोई हरी टहनी रिश्‍तों की नमी को गीली रखती है. यह उपन्‍यास यह जानने की कोशिश भी है कि  उन्‍नीसवीं सदी की शुरुआत में भारत पाकिस्‍तान के सीमांत क्षेत्र में गंवई खेतिहर सभ्‍यता के बीच ऐसा क्‍या घटित हो रहा था कि उसे एक देश के दो टुकड़े करने के निर्णय को अमली जामा पहनाने में मदद की. क्‍या यहां हिंदू मुसलमान जिस तरह की अमन की जिन्‍दगी बसर कर रहे थे ,चौपालों में दोनों समुदायों के लोग बैठकी किया करते थे,वहॉं यह खौफ कैसे तारी हुआ कि एक समुदाय दूसरे के हितों का दुश्‍मन है. इस डर को किस तरह सोबती ने यहां डिकोड किया है यह एक दूसरा पहलू है जिन्‍दगीनामा के कथ्‍य को जॉंचने परखने का.  भाषा के मामले तो इसे भी रेणु के मैला आंचल की तरह आंचलिक उपन्‍यास का दर्जा दिया जा सकता है. पंजाबी संस्‍कृति,लोक संस्‍कृति,सामुदायिकता की भावना के साथ उर्दू फारसी मिश्रित भाषा भी यहां पनाह लेती है. लोक भाषा के प्रतितो उनका लगाव जबर्दस्‍त रहा ही है क्‍योंकि पहला उपन्‍यास चन्‍ना को इसी कारण छपने के बाद वापस ले लिया कि उसमें भाषा को आसान बनाने के लिए पंजाबी शब्‍दों का रुपांतर दे दिया गया था जिससे उसका सौंदर्य आहत हो रहा था. हिंदू मुस्‍लिम समुदायोंमें आपसी रिश्‍तों में प्रगाढता के रसायन भी इसमें मिलते हैं जो सदियों के रहन सहन से ही चले आ रहे हैं. पंजाब जिस तरह अपनी कुदरत के लिए  जाना जाता है उसी तरह अपने पीर फकीरों से दुआओं के लिए भी. कुल मिलाकर जिन्‍दगीनामा केवल विभाजन का ही नहीं,जिन्‍दादिली का उपन्‍यास है. कम से कम इस उपन्‍यास के जरिए पंजाब के सौंदर्य,संस्‍कृति मेल मिलाप को जाना बूझा जा सकता है.

बूढ़ों पर अनेक कहानियां लिखी गयी हैं. एक कहानी श्रीलाल शुक्‍ल की भी है. इस उम्र में. लाजवाब. उपन्‍यास भी लिखे गए हैं. गिलिगडू,समय सरगम औरअंतिम अरण्‍य. समय सरगमसोबती की हिंदी उपन्‍यास की दुनिया को एक अनुपम देन है. ईशान और आरण्‍या के परस्‍पर विपरीत सोच के बावजूद इन दो बूढे पात्रों में बौद्धिकता के ऐसे तमाम अन्‍तस्‍सूत्र हैं जो उन्‍हें आपस में जोडे रखते हैं. आरण्‍या अविवाहित होते हुए स्‍वतंत्रता से जीवन जीने के लिए प्रतिबद्ध है. इस उपन्‍यास के बहाने वे  संयुक्‍त परिवारों के टूटने बिखरने पर भी चर्चा भी करते हैं. कुछ अन्‍य पात्र जैसे दम्‍यंती और कामिनी भी इस आख्‍यान का हिस्‍सा बनते हैं जिनके अपने अपने दुख हैं. केवल वृद्ध जीवन के निहितार्थ ही नहीं,यहां इस बहाने मानव जीवन के आसन्‍न संकटों पर भी आरण्‍या और ईशान चर्चा करते हैं तथा कोई अदृष्‍ट शक्‍ति है जो उन्‍हें विपरीतध्रुवीय होनेके बावजूद एकमेक करती है. मित्रो मरजानीमें मित्रो तमाम कष्‍ट उठाती है,पर अंतत: परिवार में वापस लौटती है . वह यौन इच्‍छा को सहज मानवीय इच्‍छा और अधिकार के रूप में लेती है,इसीलिए अपनी इच्‍छाएं छुपा नहीं पाती.  वह अपने अधिकारों के लिए सजग दिखती है तथा उस मोर्चे पर वह किसी से दबती नहीं. यह नारी सशक्‍तीकरण का तमाम दशक पहले किया गया पूर्वानुमान है जो आज कितना सच हो चुका है. आज के माहौल में देखें तो मित्रो जैसे आज की स्‍त्री का प्रतीक लगती है.  दिलो दानिशमें महकबानो पुरुषवर्चस्‍व को चुनौती देने वाली पात्र है जो एक संघर्षशील महिला की दास्‍तान है. इस उपन्‍यास को पढते हुए लगता है स्‍त्री ही स्‍त्री की दुश्‍मन है.  ऐ लड़कीमें भी पारिवारिक सत्‍ता के बीच स्‍त्री पुरुष अधिकारों में लेवलप्‍लेइंग के लिए जददोजहद चलती है . इस लंबी कहानी के केंद्र में एक वृद्धा है जो जीवन से संघर्ष में हार नहीं मानती. वह मृत्‍यु से अंत तक मुठभेड़ करती है.  जीवन की एक त्रासदी उसका आजीवन पीछा करती है. जिन लोगों को काशी का अस्‍सीकी गालियां खटकती हैं उन्‍हें यारों के यारकी गालियां भी खटकेंगी  किन्‍तु आफसियल जिन्‍दगी और बाबूगिरी के गोरखधंधों की तह तक जाने के लिए भाषाई शील कभी कभी तोड़ना भी पड़ता है तभी सत्‍य का साक्षात्‍कार होता है. यारों के यारइसका उदाहरण है. तिन पहाड़की जया में भी प्रेम की बेलें फूटती हैं जिसके प्रति वह आसक्‍ति का भाव रखती है.

डार से बिछड़ीकी पाशो भी पुरुष परतंत्रता का शिकार है. वह पौरुषेय नियमों के अधीन है. ऐसे माहौल में वह रहने को विवश है जहां स्‍त्री को स्‍त्री नहीं एक पदार्थ समझा जाता है. ननिहाल में रहते हुए वह कम लांछना का शिकार नहीं होती . मां के किए की सजा उसे मिलती है और लगभग जीवन भर अपनों की दुत्‍कार तथाप,अपने जीवन की रक्षा के लिए यहां वहां भागती इस स्‍त्री को दो पल जीवन मे सुकून के नही मिलते. पर आजादी की चाह उसे है. स्‍त्री जीवन की विडंबनाओं को उकेरने में आज का स्‍त्री विमर्श चाहे जितना चौकस हो,आज भी वह सोबती के उपन्‍यासों में वर्णित स्‍त्री के आख्यानों को लॉंघ नही दे सका है. स्‍त्री वेदना की वे चितेरी हैं. पौरुषेय समाज में स्त्री की नगण्‍य हैसियत के विरुद्ध उनके स्‍त्री पात्र लगातार संघर्ष करते हैं तथा बार बार नियति के हाथो पराजित होते हुए भी हार नहीं मानते.


सूरजमुखी अँधेरे केउपन्‍यास में रतिका यानी रत्‍ती का चरित्र काफी जटिल है . ऐसे हालात में जहां बाल्‍यकाल में ही लड़की यौन शोषण का शिकार हुई हो,वह आजीवन स्‍नेहवंचित रहती है. बचपन ने उसके जीवन का जैसे स्‍वत्‍व नष्‍ट कर दिया हो. उसकी आत्‍मा लहुलुहान नजर आती है. एक गंदी लड़की का टैग लग जाता है उस पर जो उसे भीतर से तोड़ता है. पर वह अपनी अस्‍मिता को बुझने नहीं देती. एक बलात्‍कृत स्‍त्री का भी अपना स्‍वाभिमान होता है जिसे वह अंत तक बचाए रखने की जद्दोजेहद करती है. सोबती का जीवन खुद में एक कहानी है. गुजरात पाकिस्‍तान से गुजरात हिंदोसतान तक --जैसे देखी गयी विभाजन की त्रासदी की कहानी हैं जिसमें खुद के बचपन को भी गहरे विजुअलाइज किया गया है. तत्‍कालीन रियासतों के वृत्‍तांत और गांधी युग की पेचीदगियों को भी बखूबी इसमें याद किया गया है. सोबती के स्‍त्री पात्र जिस तरह अपनी अस्‍मिता के लिए संघर्ष करते हैं वे नियति के विरुद्ध जिस तरह अप्रतिहत चेतना बन कर उभरते हैं यह सोबती का कथावैशिष्‍ट्य है कि स्‍त्रियों का किसी एक तरह का प्रोटोटाइप यहां पर नहीं रचा है. उनके पात्रों में वैविध्‍य है. हालात को देखने का नजरिया भिन्‍न है. जिस तरह की जिद कृष्‍णा सोबती में एक लेखक के नाते रही है,उसकी कहीं न कहीं एक छाया उनके स्‍त्री पात्रों में भी देखने को मिलती है.

स्‍निग्‍ध गद्य : शब्‍दचित्रों से आती हुई रोशनी
सोबती गद्य की कोमलता का दूसरा नाम है. लेखकों के ऐसे प्रोफाइल शायद ही किसी दूसरे लेखक ने लिखे हों. बल्‍कि उल्‍टे हिंदी में ऐसा सौतियाडाह है कि कोई एक दूसरे की तारीफ न कर सकता है न सुन सकता है. युवाओं में आज इतनी महत्‍वाकांक्षा भर गयी है कि रातोरात प्रसिद्धि चाहते हैं. एक साधारण सी चालू प्रेमकथा लिख कर वे बड़े लेखक का खिताब पा लेना चाहते हैं. सोबती के जीवन और लेखन की बारीकियों से गुजरने पर यह मालूम होता है कि लेखकीय ख्‍याति उन्‍हें किसी जाती रसूख के कारण नहीं मिली बल्‍कि यह उनके अपने रचनात्‍मक उद्यम का नतीजा है. उनका ही दूसरा प्रतिरूप हशमत उनके अपने ही व्‍यक्‍तित्‍व की बिंदास छायाछवि है. हम हशमत का आईना घूमता हुआ दोस्‍त लेखकों के एक एक किए धरे की खबर रखता है और उसे अपने शब्‍दचित्र में ऑंक देता है. एक मूर्ति लेखक की अपनी होती है जो सार्वजनिक होती है दूसरी छवि वह जिसे सोबती अपनी तूलिका से चित्रित करती हैं. ऐसे शब्‍दचित्र हिंदी में विरल हैं.

उनकी श्रृंखला हम हशमतसे शुरु होकर हम हशमत तक समाप्‍त हो जाती है. पहले खंड में निर्मल वर्मा,भीष्‍म साहनी,कृष्‍ण बलदेव वैद,शीला संधू,गोविंद मिश्र,नागार्जुन,मनोहरश्‍याम जोशी जैसे जिन्‍दादिल लेखक हैं तो दूसरे खंड में नामवर सिंह,अशोक वाजपेयी,अश्‍क,अज्ञेय,श्रीकांत वर्मा ,नेमिचंद्र जैन,मंटो,प्रयाग शुक्‍ल,नासिरा शर्मा,कन्‍हैयालाल नंदन व कमलेश्‍वर जैसे लेखक हैं. तीसरे खंड में पुन: अशोक वाजपेयी,निर्मल वर्मा आए हैं तो साथ ही सत्‍येन,देवेन्‍द्र इस्‍सर,निर्मला जैन,शंभुनाथ व विष्‍णु खरे भी. दो शख्‍सियतें ऐसी हैं कि उन पर उनका गुस्‍सा भी रचनात्‍मक होकर बरसा है--विभूति नारायण राय व रवीन्‍द्र कालिया. छिनाल प्रकरण में राय की खबर ली है उन्‍होंने तो एक बहुत ही सतही किस्‍म के तद्भव में छपे संस्‍मरण पर रवीन्‍द्र कालिया की बखिया उधेड़ी है उन्‍होंने. कहते हैं उनकी तारीफ का कोई चरम बिन्‍दु नहीं होता न उनके धिक्‍कार का. उनके गुस्‍से पर सहज ही ठंडा पानी नही डाला जा सकता.

बहरहाल,ये शब्‍दचित्र संस्‍मरण हैं,रेखाचित्र भी हैं और लेखकों की शानदार प्रोफाइल भी. प्रशंसा की तो शिखर पर चढा दिया और उतारा तो पूरी तरह नजर से उतार दिया. पर उनके शब्‍दचित्रों की अपनी महक है जो सबसे जुदा है. उनके शब्‍दचित्रों से भीनी भीनी महक आती है. ये शब्‍दचित्र लेखकों को सेलिब्रिटी बना देते हैं. किस लेखक का कैसा मिजाज है,किससे डेटिंग चल रही है,किससे अनबन है,क्‍या लिख रहा है वह,किससे गलबहियां हैं इन दिनों,कौन सत्‍ता के नजदीक है,कौन फक्‍कड़ है,किसमें कौन सा ऐब है सारा कुछ उनके वृत्‍तांत में खिल उठता है. इन्‍हें पढ़ते हुए जिन लेखकों से आप कभी न मिले हों,उनसे मिलने का सा आभास होता है. निर्मल को वे उनके गद्य के टुकड़ों से याद करती हैं तो भीष्‍म साहनी को उनकी एकनिष्‍ठता के लिए  जिनकी गृहस्‍थी में दूर दूर तक किसी असली या काल्‍पनिक महबूबा का नाम हवा में नहीं लहराता. वे लिखती हैं, ''दरअसल भीष्‍म की बीवी ही इस सांझे आसन पर विराजमान हैं. दोस्‍तों का कहना है भीष्‍म को 'एक में तीन'जैसी बेनयाज बीवी मिली हुई है. बीवी,प्रेमिका और पाठिका. ''अशोक  वाजपेयी और निर्मल वर्मा ही ऐसे दो लेखक हैं जो इस सीरीज में दुहराए गए हैं. एक लेखक पर दो दो शब्‍दचित्र. अज्ञेय पर भी अलग से लेख भी है जो ओम थानवी संपादित अपने अपने अज्ञेय में शामिल है. वे इन शब्‍दचित्रों में कही व्‍यक्‍तित्‍वकी गुत्‍थियां खोलती हैं तो कहीं लेखन के गुणसूत्र बांचती हैं. किसी लेखक का कोई टुकड़ा या कविता पसंद आ गयी तो उसके हवाले भी यहां दिए हैं. गो कि एक लेखक को समझने के जो भी अनौपचारिक टूल्‍स हो सकते हैं उनके विनियोग से उन्‍हें उकेरने समझने की चेष्‍टा की गयी है. इन्‍हें पढते हुए तब की दिल्ली और बाहर की महफिलों सोहबतों का अंदाजा लगाया जा सकता है और कृष्‍णा जी की नफासतपसंद लेखनी  का मिजाज भी पढा जा सकता है. हाल ही आया दिल्‍ली की सोहबतों का संस्‍मरणनामा 'मार्फत दिल्‍ली'उस दिल्‍ली के अफसाने बयाँ करता है जिस दौर में वे यहां आईं और दिल्‍ली की होकर रह गयीं.

अपनी भाषा,अपने अंदाजेबयां,अपने कथासंसार,अपने साहस,अपनी अस्‍मिता,अपनी वाग्‍मिता और अपने लेखकीय स्‍वाभिमान के बल पर हिंदी कथा साहित्‍य की एक लीजेंड्री शख्‍सियत बन चुकी कृष्‍णा सोबती उस अप्रतिहत चेतना का नाम है जिसने अपनी भाषा को निरंतर मॉंजा और परिष्‍कृत किया है. अहिंदीभाषी क्षेत्र में पैदाइश के बावजूद हिंदी पर उनकी पकड़ बेहद संजीदा थी. उनके गद्य में इत्र जैसी महक थी. उन्‍होंने तमाम लेखकों कवियों पर जैसे व्‍यक्‍तिचित्र लिखे,वैसा उन पर एक भी व्‍यक्‍तिचित्र या शब्‍दचित्र  नहीं लिखा जा सका . वे सच्‍चे मायने में गुणग्राहक थीं जिसका आज लेखकों व पाठकों दोनों में अभाव दिखता है. उनमें एक अलग भाषाई ताप था,एक अलग टेक्‍सचर जो उनके उपन्‍यासों की भाषा को विशिष्‍ट बनाता है. उन्‍होंने अपने लेखन में जिस तरह स्‍त्री पात्रों की बुनियाद रखी और मजबूत की वह आज के स्‍त्री विमर्श का आधारभित्‍ति है इसमें संशय नहीं. वे सदैव लेखकों के उस नजरिए की आलोचना करती रही हैं जो स्‍त्री को सिर्फ पकवान बनाने और परोसने की विशेषज्ञ के रूप में ही समझती आई है.
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ओम निश्चल
हिंदी के सुपरिचित कवि,गीतकार एवं आलोचक. 'शब्‍द सक्रिय हैं'(कविता संग्रह) एवं 'शब्‍दों से गपशप'(आलोचना),

'भाषा की खादी'(निबंध)सहित भाषा व आलोचना-समीक्षा की अनेक कृतियां प्रकाशित. अज्ञेय सहित कई कवियों के कविता-चयन, अधुनांतिक बांग्ला कविता एवं कुंवर नारायण पर केंद्रित आलोचनात्‍मक पुस्‍तक 'अन्‍वय'एवं 'अन्‍विति'का संपादन. उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा आचार्य रामचंद्र शुक्‍ल आलोचना पुरस्‍कार से सम्‍मानित.

संपर्क : जी-1/506 ए,उत्‍तम नगर,
नई दिल्‍ली110059
फोन 8447289976 मेल dromnishchal@gmail.com
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