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Channel: समालोचन
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सबद भेद : समलैंगिक कामुकता की रवायत और ग़ालिब : सच्चिदानंद सिंह

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मिर्ज़ा ग़ालिब उर्दू के साथ फ़ारसी के भी महान शायर हैं. आहत और विद्रोही. बकौल अली सरदार ज़ाफरी ग़ालिब ने खुद को ‘गुस्ताख़’ कहा है.
इस अज़ीम शाइर की शायरी के हज़ार रंग हैं, उनमें से एक रंग मर्दों के बीच की आपसी ऐंद्रिकता को भी रौशन करता है. अब यह हाय तौबा की बात नहीं रही. समाज और कानून दोनों इसके प्रति सहज हो रहे हैं.
सच्चिदानंद सिंहने बड़ी मशक्कत से तमाम स्रोतों को खंगालते हुए इस समलैंगिकता की जड़े तलाश की हैं इसकी रवायत लगभग सभी संस्कृतियों में है. उर्दू शायरी इस लिहाज़ से समृद्ध है. इसके दो बड़े शाइरों मीर और ग़ालिब में यह इश्क खूब नुमाया हुआ है. फिलहाल महान ग़ालिब की शायरी में सच्चिदानंद सिंहने इस ‘अम्रदपरस्ती’ को सामने रखा है.
यह दिलचस्प आलेख आपके लिए.



समलैंगिक कामुकता की रवायत और ग़ालिब            
सच्चिदानंद सिंह
 


मेघ - दूत : कमला दास की कविताएँ : अनुवाद रंजना मिश्रा

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भारतीय अंग्रेजी लेखन में मलयाली भाषी कमला दास (31 March 193431 May 2009) एक युग का प्रतिनिधित्व करती हैं. अपनी आत्मकथा के लिए वह ख़ासी चर्चित रहीं, स्त्री यौनिकता पर उनकी मुखरता को उस समय विचलित कर देने वाला लेखन समझा जाता था.

अंग्रेजी में उनके ग्यारह कविता संग्रह प्रकाशित हैं और १९८४ में साहित्य के नोबेल पुरस्कार के लिए भी उन्हें नामित किया गया था. मलयालम में निर्देशक कमल ‘Aami’ शीर्षक से कमला दस के जीवन पर एक बायोपिक बना रहें हैं जिसमें दास की भूमिका Manju Warrierकर रहीं हैं. इस फ़िल्म ने नवम्बर तक रिलीज होने की संभावना है.

रंजना मिश्रा शास्त्रीय संगीत में गति रखती हैं और हिंदी अंग्रेजी में लिखती हैं. उनकी कुछ कविताएँ आपने समालोचन पर भी पढ़ी हैं. कमला दास की दस कविताओं का अनुवाद रंजना ने किया है. संभवत: हिंदी में पहली बार उनकी इतनी कविताएँ अनूदित होकर प्रकाशित हो रहीं हैं. साथ में मूल कविताएँ भी दी जा रहीं हैं.


कमला दास की कविताएँ                      
अनुवाद रंजना मिश्रा


परख : राकेश मिश्र की कविताएँ : ओम निश्चल

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"खोई नहीं है 
वह लड़की
जो मिली थी सपनों में "

राकेश मिश्र के तीन संग्रह एक साथ इसी वर्ष राधाकृष्ण प्रकाशन से प्रकशित होकर सामने आयें हैं. कविता के अभ्‍यस्‍त समालोचक ओम निश्‍चल ने इन कविताओं का निहितार्थ बॉंचा है तथा जैसी प्राथमिक आश्‍वस्‍ति जताई है, उससे राकेश मिश्र संभावनाओं भरे कवि ठहरते हैं.



राकेश मिश्र की कविताएं
उदासियों के विरुद्ध कविता             
ओम निश्‍चल







भी कभी जीवन में कुछ चमत्‍कार होते हैं. कुछ लोग बने होते हैं शासन-प्रशासन के लिए किन्‍तु उनके हृदय पर कविता और कलाएं शासन करती हैं. ऐसे कितने लोग होते हैं जो शुरु में कविता और किस्‍से कहानियों में दिलचस्‍पी रखते हैं, उनकी डायरियों में ऐसी चीजें दर्ज होती रहती हैं . फिर वे कालांतर में कहीं विस्‍मृति के गर्भ में खो जाती हैं. शासन का रुतबा हावी होता जाता है, कविता और कला का सोता सूखता जाता है. पर कुछ लोग ऐसे होते हैं जो अपनी रुचियों को मरने नहीं देते. कविता और कलात्‍मक अभिरुचियॉं उनके भीतर जिन्‍दा रहती हैं तथा संवेदना की नमी पाकर खिल उठती है. कलाएं मनुष्‍यता का श्रृंगार करती हैं. वाण्‍येका समलंकरोति पुरुषं या संस्‍कृता धार्यते. वाणी उसका अलंकरण करती है. राकेश मिश्र ऐसे ही कवियों में हैं जो कविता में बहुत देर से आए. डायरियों में दर्ज कविताओं का जीर्णोद्धार उन्‍होंने अब आकर किया है. एक साथ आए तीन संग्रह चलते रहे रात भर, जिन्‍दगी एक कण है तथा अटक गई नींद उनके कवि-मन का जीवन्‍त प्रमाण हैं.

ये कविताएं उनकी विगत तीस वर्षों की समयावधि का साक्ष्‍य हैं. अब जब वे आई हैं तो जैसे एक प्रवाह के साथ. एक रचनात्‍मक धक्‍के के साथ जिनमें राकेश मिश्र के कच्‍चे-पक्‍के जीवनानुभवों के प्रेक्षण बखूबी प्रकट हुए हैं. यों तो कहने के लिए ये कविताएं तीन संग्रहों में भले ही रूपायित हों पर इनके मिजाज में कोई विशेष पार्थक्‍य नहीं है. एकोहंबहुस्‍याम वाला भाव इनमें है. यानी जो चलते रहे रात भर में है वहीं लगभग जिन्‍दगी एक कण है में तथा जो इन दोनों में है उसका संपुट तीसरे संग्रह अटक गई नींद में है. इनके मध्‍य एक सहकार है, एक सहवर्तिता है. अनुभव की, संवेदना की, कथ्‍य की, शिल्‍प की. कवि में छंद का भी व्‍यापक बोध है जिसे मैं कविता का एक अनिवार्य अंग मानता हूँ. बिना छंदबोध के कोई कवि तो हो सकता है पर सिद्ध कवि नहीं--- और राकेश मिश्र रससिद्ध कवि हैं इसमें संदेह नहीं और संवेदनासिद्ध कवि होने के पथ पर अग्रसर हैं.

कभी ज्ञानप्रकाश विवेक की एक गजल पढ़ी थी जिसका एक मिसरा मेरी स्‍मृति में आज तक अँटका हुआ है. जैसे अँटकी हुई नींद. वह था : जिन्‍दगी के डाकिए को सब पता है दोस्‍तो/ कितना मुश्‍किल मेरे घर का रास्‍ता है दोस्‍तो!जिन्‍दगी यहीं कहीं --में राकेश जी यही तो कहते हैं, 'कहां खो गया पता जिन्‍दगी का'. जीवन भर आदमी जिन्‍दगी का पता ही खोजता है. लोगों की जिन्‍दगियां इस कदर लापता होती हैं कि वे आस पास होती हैं पर हाथ नहीं आतीं. चिट्ठी कविता में वे नीले आकाश को ही लिफाफे में बदल देते हैं और चिट्ठी लिखते हुए नीले आकश को मोड़ कर उस पर पता लिख देते हैं. यह कवि का अपना अंदाजेबयां है. कहीं उसे अपना अकेलापन कृष्‍ण विवर की तरह लगता है कभी प्रिय के पॉव फड़फड़ाते पन्‍नों पर चलते दिखते हैं.

मेरा मानना है कि हर कवि प्राय: प्रेम का कवि होता है. उसकी कविताएं प्रेम की प्रतीतियों का रोजनामचा होती हैं. राकेश मिश्र की कविताओं में यह झीना झीना प्रेम लगभग हर दूसरी कविता में उपस्‍थित है. उनकी छोटी छोटी कविताएं ज्‍यादा वेधक हैं. वे अनुभव के सहेजे हुए क्षण हैं जो कविताओं में आ धमके हैं. कुछ छोटी कविताओं में उनकी कविताई की कसावट देखिए --

पत्‍ते रिश्‍ते में हैं
हवा से बंधन कोई नहीं
मैं तुम्‍हें याद आता रहूँ
मिलना जरूरी नहीं (पत्‍ते)

रात भारी है अभी पलकों पर
सुबह सोएगी अभी देर तलक
दिन चढ़े मुझको लगा देना जरूर
स्‍वप्‍न बाकी बचे हैं दिन भर के(रात भारी है)

काश
खो जाती तुम्‍हारी यादों की किताब
इस छोटे से घर में
हरदम
चलते रहते हैं
तुम्‍हारे पांव
फड़फड़ाते पन्‍नों पर (यादों की किताब)

दो शंख हैं
तुम्‍हारी आंखें
निकलकर जिससे
एक पवित्र आह्वान
मेरे अंतस की रक्‍तसारता को
धवल बना देता है. (पवित्र आह्वान)

दो अमृतकलश हैं
तुम्‍हारी आंखों में
छलकते होठों के द्वार पर
सब अमृत दृश्‍य तेरे (होंठ)

एक मैदानी नदी हैं
उसकी आंखें
हाहाकार कर उठती हैं
बादलों को देख
अन्‍यथा
मौन कलरव हैं
रेतीले तटों में.(मौन)


राकेश मिश्र की कविताओं में प्रेम है
, प्रेम का प्रमेय नहीं है. वह कोई असाध्‍यवीणा नहीं है. वे जीवन के रसबोध के कवि है जहां प्रिय की उच्‍छल जलधि तरंग वाली प्रिय की हँसी उनकी चेतना में अनंत आवृत्‍तियॉं पैदा करती है. उनके उपमानों की एक लंबी श्रृंखला है पर उनमें आंखें, होठ, चिबुक प्रबल हैं. वे अपनी आंखों को भी नदी से तुलनीय मानते हैं जिसके तटों को छू छू के रह जाती हैं प्रिय की पलकों की नाव. जैसा कि मैंने कहा, ये जीवन के रस बोध की कविताएं हैं. उनके ही शब्‍दों में, उसके लिए जीना है जिससे जिन्‍दगी अच्‍छी लगती है और उसके लिए भी जीना है जिसके बिना जिन्‍दगी जिन्‍दगी नहीं लगती. उनके संपूर्ण काव्‍य में शहरी चातुरी नहीं, गँवई और कस्‍बाई सरलता मिलती है. जो कुछ देखते देखते बदल रहा है, उसकी उन्‍हें चिंता है. गांवों में हो रही तब्‍दीली पर उनकी कविता कहती है :

गांव में पानी साफ था
गांव में सड़क नहीं थी तब
गांव में सड़क है
गांव में पानी साफ नही है अब
गांव में जब पानी साफ होगा
गांव में जब सड़क बनेगी
तब मैं डरता हूं
कहीं गांव ही नहीं रहे. (गांव)

कवि शब्‍दों से कविता का एक घर बनाता है. ऐसा घर जहां अपनेपन का घेरा हो. ऐसी कोई बात अज्ञेय ने 'ऐसा कोई घर आपने देखा है'संग्रह की एक कविता में कही थी. वे भी कविताओ से एक घर बनाते हैं. ऐसा घर जहां अपनेपन का उजाला हो, जहां रिश्‍तों में एक हमदर्दी हो. जब वे एक कविता में यह कहते हैं कि 'एक बच्‍चे की आवाज/ जीरे की महक से सराबोर / फेरी लगाती है मेरी चेतना की गली में'तो लगता है इस कवि के पास चेतना की स्‍वच्‍छ पाटी तो है जिस पर प्रेम की अमिट स्‍याही से कुछ लिखा जा सकता है.


बेशक राकेश मिश्र ने तमाम कविताएं लिखी हैं जिनके उनवान बेशक भिन्‍न हों पर उनकी चेतना में एक सा उजाला है, उसमें एक सी धूप है, एक सी छांव है, एक सी ऋतुएं हैं, एक सा मिजाज है. पर जो दो कविताएं मैंने चुनी हैं वे लाजबाव हैं. इन कविताओं से उनकी कविता का प्रयोजन समझ में आता है. कविता आखिर निज का दर्पण न होकर समाज दर्पण है. एक जरा सी कविता उनके अंत:करण का आईना है---

आज जो टूटा
बरगद नहीं था
एक नन्‍हा अंकुर था
मसल दिया गया
पदचापों में खो गई
नन्‍हीं चीख (अंकुर)

एक दूसरी कविता है: मेरी तलाश .

मेरी तलाश
वो जड़
जिसे जमीन न मिली
मेरी मंजिल
वो जमीन
जो जड़-विहीन है.

कभी कैलाश वाजपेयी ने लिखा था: किसी भी अंकुर का मुरझाना सार्वजनिक शोक हो/ जो इंसान इंसान के बीच खाईं हों/ ऐसे सब ग्रंथ अश्‍लील कहे जाएं.कवि की चेतना में उस नन्‍हें अंकुर की चीख समाई हुई है तो यह उस कवि के सरोकार हैं जो लघुमानव के उस प्राचीन फलसफे की याद दिलाता है जो नई कविता में कभी चलाई गयी थी. उनके यहां एक कविता मां पर भी है. वह कहता है, 'मेरे सपनों ने भेजी हैं जितनी भी चिट्ठियां / उन सबका पता हो तुम .'यानी कवि के निजी अहसासात भी एक उदात्‍त चेतना से भरे हैं जिस चेतना के गलियारे में मॉं की आवाजाही है. कुल मिला कर ये कविताएं राकेश मिश्र के अनुभवबहुल जीवन का सारांश हैं. इन कविताओं से लगता है कवि के जीवन में कविताएं ही रंग भरती हैं.

अशोक वाजपेयी कहा करते हैं, 'कविता भाषा का अध्‍यात्‍म है.'कभी कभी राकेश की कविताएं पढते हुए भी ऐसा महसूस होता है. राकेश जी हिंदी कविता की सुपरिचित दुनिया के सर्वथा नए नागरिक हैं. पर उनकी कविताएं पढ़ते हुए लगा कि इस कवि का काव्‍याभ्‍यास पुराना है. यहां कविता की एक उर्वर ज़मीन है और जिस सादगी से वह अपनी बात कहता है उससे वह एक अभ्‍यस्‍त कवि के रूप में सामने आता है. जीवन के सारांश से निर्मित इन कविताओं से गुजरते हुए पाया कि कवि में जीवन को उसके वैविध्‍य में देखने समझने व उसे अपने काव्‍यानुभवों में प्रतिबिम्‍बित करने की अंतर्दृष्‍टि है. भले ही उसका नाम कविता में अजाना हो, पर उसके भीतर एक कवि का दिल धड़कता है, इसमें संशय नहीं. इन्‍हें पढ़ते हुए लगा, उनकी कविताओं में जीवन के गवाक्ष से छन छन कर आती हुई अनुभवों की रोशनी प्रतिबिम्‍बित हो रही है.

राकेश मिश्र की कविताओं में समय का कोई ऐतिहासिक अनुशीलन नही है बल्‍कि इन्‍हें समय व प्रकृति के साथ मनुष्‍य के मन को समझने की एक कोशिश कही जा सकती हैं.  वे जिन्‍दगी के तमाम रंगों को बखूबी अपने काव्‍यात्‍मक अनुभवों का हिस्‍सा बनाते हैं तथा जीवन से अपने संबंधों को वे बारीकियों के साथ प्रतिबिम्‍बित करने की चेष्‍टा करते हैं. उनका काव्‍यात्‍मक संसार जीवन की तरह ही उदार है. वैविध्‍यपूर्ण है तथा जितना भी वे पकड़ सकते हैं, पकड़ने की, रचने की चेष्‍टा करते हैं. हां  उनकी कविताएं अभी एकरैखिक हैं---समय के साथ उनकी शैली में परिपक्‍वता व सघनता आएगी, इसमें संदेह नहीं.


इस संग्रह में अनेक गीत और प्रगीत भी हैं. इनसे कवि के छंदबोध का पता चलता है. अपने भीतर के रसायन से निर्मित ये गीत प्रगीत कवि के आत्‍मज्ञापन का पर्याय भी हैं. आज के समय में लिरिक लिखना बहुत कठिन है. गीतों का एक स्‍वर्णयुग था जो बीत गया. अब जैसा जीवन अतुकांत है, वैसी ही रचना. जीवन में यह अतुकांतता आज के समय की जटिलताओं की देन है. सुकोमल पदावलियों से बनी बुनी उनकी गीति रचनाएं इस बात की गवाह हैं कि जीवन की कविता में कहीं अतुकांत पद विन्‍यास है तो कहीं कोमलकांतपदावली थी.  सच्‍चा कविमन ऐसे अप्रकृत पर्यावरण में भी गीतों का ठीहा खोज लेता है. एक ऐसा ही गीत है उनका जो अपनी निर्मिति में अत्‍यंत सुगठित है --

सपनों में आग लगी
बात नहीं तेरी कहीं !
आज पुरवाई बही
बात नहीं तेरी कहीं .

केसर के खेत बिके
रंग बिके अंग बिके
लहरें रुक रुक के बिकीं
बात नहीं तेरी कहीं.

मंजिल की हाट बिकी
राह बिकी चाह बिकी
रात प्रहरों में बिकी
बात नहीं तेरी कहीं.

पुरइन के पात बिके
सांझ बिकी प्रात बिके
सस्ते में गांव बिके
बात नहीं तेरी कहीं.

सस्‍ते में गांव बिके . बात नहीं तेरी कहीं. यह उलाहना भर ही नहीं, गांवों की हकीकत है. हम इस तरह चौतरफा बाजार से घिरे हैं कि सारी आत्‍मीयताएं सारे नेह छोह बिकाऊ हो चले हैं. पुरइन के पात बिके, सॉंझ बिकी प्रात बिके --कहते हुए कवि उस चरम पर पहुंचता है जहां उसे कहना पड़ता है: सस्‍ते में गांव बिके. यह एक खास तरह का अनमनापन है जो आज के बाजार की देन है. कवि ऐसे तमाम असगुनों की बात करता है जिन्‍हें वह देख रहा है. क्‍या दिन आ गए हैं कि कोमल भाव मन के छिल से गए हैं, परियों के पंख नुच गए हैं---यह कोई गीतकार ही कह सकता है. वही है जो आज भी बसंत की प्रतीक्षा करता है, बादलों की राह अगोरता है, फसलों और सीवान के गीत गाता है, वही है जो आज भी पवन के शीतल झकोरों की अगवानी में छंद लिखता है तथा अपार आपाधापी के बावजूद उसे भरोसा है कि इसी धरती से जीवन खिल उठेगा एक बार फिर.

जब लगा हर छोर सजने
बांसुरी के गीत सुन सुन
भूमि से उठा जीवन. (चलते रहे रात भर)

उनके गीतों में लोक की छौंक और गंध भी है. जैसे कोई फागुनी बयान मन को छू जाए और गोरी के प्रति उसके नायक की अधीर प्रीति बौरा जाए. कुछ गीत यहां ऐसे भी हैं जिनके रचाव में भोजपुरी लहजा बोलता है. ये गीत कवि के लोकेल को अचीन्‍हा नहीं रहने देते. बलिया की माटी जैसे इन गीतों में एक हिलोर भर देती है. उसके गीतों में एक मतवालापन आ धमकता है. वह गा उठता है : अँटक गयी आंखों में नींद/ सपनों में कौन आ गया? पनघट पर जल गए दिए/ सपनों में कौन आ गया? ऐसे अनेक मनभावन गीतों और कविताओं की राकेश मिश्र की दुनिया से उस गांव देस की याद भी उदघाटित हो उठती है जहां धरती का सतरंगी आंचल है, रुनझुन सी छागल है, धान के खेत हैं, पागल पुरवा हैकोयल के बोल हैं, तन्‍वंगी नदिया है ---वह सब कुछ है जो कवि को - ले चल मुझे भुलावा देकर मेरे नाविक धीरे धीरे ---के बोलों के साथ अपने पंखों पर उड़ा ले जाती है. वह मीठे सपनों से जैसे जाग उठता है और पूछता है--

तन्‍वंगी नदिया का चकमक-सा रूप है
चंचल किनारों पर प्रात: की धूप है
गाता है कोई जलगीत--
सपनों में कौन आ गया?(अटक गई नींद)

राकेश मिश्र बहुत देर से कविता में आए हैं. यह उस कवि की भूली बिसरी डायरी है जिसके पन्‍ने कालांतर के बाद खुले हैं. जैसा कि कह चुका हूँ, उनकी बहुत सारी कविताएं इकहरी हैं --एकरैखिक --पर उनमें भी एक आकर्षण है. अधिकतर कविताएं छोटी हैं--जीवनानुभवों की क्षणिकाएं जैसी. 

कविता विरत होते समाज में यह एक कवि द्वारा कविता के बीज बिखेरने की कोशिश है. कवि प्रशासक हो तो और भी अच्‍छा. प्रशासन में कवियों के होने का एक रचनात्‍मक अर्थ है. छोटी कविताओं में तो राकेश मिश्र का हाथ रँवा है. उन्‍हें कुछ लंबी कविताएं भी साधनी चाहिए जहां कवि की साधना को एक बेहतर फलश्रुति मिले. 

कवि में एक लंबी उड़ान की व्‍यग्रता दिखती है, कथ्‍य को बांधने का उसका सलीका भी गौरतलब है.  ये कविताएं कविता के इतिहास में कहां जगह बनाएंगी, यह तो ठीक ठीक नहीं कहा जा सकता, पर ये राकेश मिश्र को एक समर्पित कवि का दर्जा अवश्‍य देती हैं. उनके प्रयत्‍नों में तमाम सीधी सादी लगती पदावलियों के बीच कोई न कोई ऐसी पंक्‍ति आ धमकती है जो कविता की कविसुलभ चेतना का उदाहरण बन जाती है. वे अपनी कविताओं में सारा गोपन उड़ेल देते हैं---बिल्‍कुल बच्‍चन की तरह --मैं छिपाना जानता तो जग मुझे साधू समझता. 

ये कविताएं इस तरह निश्‍छल और सजल हैं कि आंखों की कोर पर ढुरकते आंसुओं की तहरीरें पढ़ लेती हैं तो होठों पर वासंती मधुमास सजाए हास का उल्‍लास बाँच लेती हैं. हॉं, यदि इनमें कहीं एकरसता-सी नज़र आती है तो उम्‍मीद है कि वह धीरे धीरे तिरोहित होगी तथा कविताएं उत्‍तरोत्‍तर निथरे रूप में सामने आएंगी. तब ये निश्‍चित ही एक प्रशासक कवि की नहीं, एक सिद्ध कवि की रचनाएं होंगी.
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राह चलते रहे रात भर; जिन्‍दगी एक कण है एवं अटक गई नींद,कवि: राकेश मिश्र, राधाकृष्‍ण प्रकाशन, नई दिल्‍ली, मूल्‍य क्रमश: रुपये595/-, 395/- एवं 395/-

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डॉ.ओम निश्‍चल
जी-1/506 ए, उत्‍तम नगर नई दिल्‍ली-110059
मेल dromnishchal@gmail.com

Phone 8447289976

निज घर : करियवा-उजरका और सुघरका : सत्यदेव त्रिपाठी

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प्रेमचंद की कहानी ‘दो बैलों की कथा’ के बाद अब गाय गाय न रहीं बैल तो जैसे अदृश्य ही हो गये. गाय के साथ जितनी मासूमियत जुडी हुई थी आज उतनी ही उसके आस-पास हिंसा पसरी हुई है.

लुप्त होती जाती प्रजातियों को संरक्षित करने का एक कार्य साहित्य भी करता है. बैल का लुप्त हो जाना सिर्फ एक शब्द का लुप्त हो जाना नहीं है, एक पूरी चर्या जो उसके आस-पास विकसित हुई थी गायब हो गयी है. एक तरह से पशु केन्द्रित ग्रामीण संस्कृति का लुप्त हो जाना है.

सत्यदेव त्रिपाठी रंगमंच के अध्येता हैं. रंग से जुडी हस्तियों पर उनके संस्मरणों  ने अपना एक स्थान बना लिया है. ख़ासकर 'सत्यदेव दुबे'पर लिखा उनका बेलाग संस्मरण आज भी ज़ेर ए बहस है.

करियवा (काला) और उजरका (सफेद) बैलों की एक जोड़ी है. सत्यदेव  त्रिपाठी ने इसी बहाने एक बिसरी हुई  सभ्यता को जिंदा कर दिया है.




करियवा-उजरकाऔर वो सुघरकाकी याद में
सत्यदेव त्रिपाठी



(एक)
करियवा-उजरका


दि करियवा-उजरका न होते, तो मेरा बचपन वैसा ही न होता, जैसा हुआ और शायद मेरा जीवन भी ऐसा ही न होता, जैसा आज है. मिसाल के तौर पर यदि आज भी मैं सुबह पाँच से साढे पाँच बजे के बीच उठ ही जाता हूँ, तो वह करियवा-उजरका की ही देन है. 1967के अक्तूबर का महीना था, कातिक. रबी की फसल (जौ-गेहूं-चना-मटर) की बुवाई का महीना, जब घर के कर्त्ता-धर्त्ता काका स्वर्गवासी हो गये और सारा कार्यभार मेरे जिम्मे आ गया, तो उन दोनो को खिलाने के लिए मुझे इतनी सुबह उठना होता था कि हल जोतने ले जाने के लिए हमारे हलवाह मंतू भइया आयें, तो ये दोनो दोपहर तक जुतने के लिए खा-पी के तैयार रहें, तीन-चार बार चारा-दाना डालने के बीच पढता तब भी था. तब की पढाई दसवीं की परीक्षा के लिए थी, लेकिन वह बानि आज तक पढने-लिखने के अच्छे समय के रूप में कायम है..

अब तो आप जान ही गये होंगे कि करियवा-उजरका दोनो हमारे बैल थे- उजला (सफेद) होने से उजरका और काला होने से करिअवा. वे कब-कैसे-कहाँ से आये, का मुझे कुछ पता नहीं, क्योंकि मैंने होश ही सँभाला इन्हीं नामों की पुकार व इन्हीं की चर्चा-गुणगान सुनते-सुनते...और बडा हुआ इन्हें पक्खड (बलवान प्रौढ) होते देखते-देखते भिन्न-भिन्न रूपों में- खाते-पीते, उठते-बैठते-सोते...से खेतों में हल खींचते, कूएं पर सिंचाई के लिए पुरवट खींचते, गन्ना पेरने की कल खींचते एवं पुआल से धान निकालने व जौ-गेहूँ के डाँठ (डण्ठलों) को भूसा बनाने के लिए दँवरी में चलते... दिन-दिन भर और जरूरत पडने पर रात-रात को भी कर्मठता की अप्रतिम मिसाल के रूप में...और कभी मेरे भयहर्त्ता के रूप में... जब आपात्कालीन मौकों पर घर से दूर सिवान में अकेले रहट हाँकते हुए उनके बदन पर हाथ रखकर ही वहाँ मौजूद ढेरों भूत-प्रेतों से बच पाता... फिर किशोरावस्था में हमें छोडकर करुण प्रयाण करते हुए भी.... बचपन में माँ-काका-बडके बाबू बात-बात पर इन्हीं की बातें करते, कई-कई बार इनसे ही बतियाते हुए दिखते. 



इन्हीं की देख-भाल करते, खिलाते-पिलाते, खिलाने-पिलाने की फिक्र करते.... याने इन्हीं की नींद जागते-सोते...जो किसान-स्वभाव या सुभाव ही है. कुछ दृश्य बतौर नमूने पेश हैं-


हम भाई-बहनें तैयार हैं काका के साथ बाज़ार जाने के लिए. हमारे लिए कपडे-जूतादि खरीदना है. ऐसे मौके साल में एकाध बार आते हैं, जिससे बेहद उतावली है हमें. काका धोती पहन रहे हैं...और कुर्त्ता पहनने के पहले अरे बरधा त हउदिये किहन रहि गइलें... रहा, हटवले आईं (अरे बैल तो हौदी (खाने के लिए मिट्टी की बडी हौद) की जगह ही रह गये, रुको- जरा हटा के आता हूँ) कहते हुए करियवा-उजरका को उनके आराम करने की जगह पर बाँधने चले जाते और हम इस व्यवधान से कुढने लगते....


गाँव के बाहर आते ही चमटोल बस्ती का कोई दिख जाता है और काका उसको सहेजते हैं- तनिक मंतू से कह देना, सुरुज डुबानी एक चक्कर मार ले और मैं न आया हूँ, तो बरधन (बैलों) को कोयर (चारा) डाल के नादे (हौद पे) लगा दे.


समय से आ गये, तो काका कुर्त्ता तक निकालने के पहले उन्हें चारा डालके नादे लगाने चले जाते...और आने में देर होती, तो रास्ते पर भुनभुनाते- ‘पता नहीं मंतुआ आया या नहीं!! बरध बेचारे ताक रहे होंगे...भूखे होंगे...आदि-आदिकहते-पछताते, अपने को कोसते हुए आते.... फिर पहुँचते ही घर में न आके उधर जाके देख आते कि मंतू ने आके नादे लगाया है या नहीं....


इतना ही नहीं, लगाया है, तो नाँद के पास जाके देखते कि डाला हुआ चारा कितना खा चुके हैं.... फिर चारे की जगह आके जाँचते, अन्दाज़ा लगाते कि मंतू ने कितना चारा डाला होगा, क्योंकि उन्हें दोनो की भूख और ख़ुराक का पता होता कि उजरका दो छींटा (कच्चे बाँस की खपाचियों का झीना बुना बडे आकार का) खाता है, पर करिअवा का पेट ढाई से तीन छींटा से कम में नहीं भरता.


फिर कपडे बदल के, हाथ-मुँह धोके कुरुई (कास को रँगके हाथ से बुनी छोटी-सी खुली डलिया) में दाना (लाई-चने..आदि का चबेना) लेके खाते हुए दुआरे (घर के सामने की जगह) के उस सिरे पर बैठ जाते, जहाँ से दोनो बैल खाते हुए दिखते.... आदि-आदि... 


वैसे काका का यह तो प्राय: रोज़ का नियम था कि खेत-बारी के काम से आने के बाद दाना खाते...प्राय: हर किसान खाता, किसानी आदत, पर काका वहीं बैठकर खाते हुए उनको देखते रहते.... ज्यों ही वे नाद से बाहर मुँह निकालते, दाना खाना छोडके जाके देख आते. कोयर (चारा) खत्म हआ हो, तो छींटा उठाते, और डाल आते.... 

यदि नाँद में कोयर होता, तो कहते अभी तो इतना पडा है, खाते क्यों नहीं? ताक क्या रहे हो!!गोया वे आदमी हों. और फिर भी न खायें, तो स्वाद बढाने के लिए भूसी (आटे के चालने से बचा हुआ) या खुद्दी (कूटे हुए चावल का पछोरन) तथा भूसी-खुद्दी न होने पर पिसान (आटा) ही डाल आते. खरी-दाना तो अतिरिक्त खिलाने व ताकत के लिए अंतिम चलावन (चारा देने) के साथ दिया जाता- हमारे घी-दूध की तरह. सरसो-तीसी से तेल निकालने के बाद बचे पदार्थ को खरी कहते व मटर-चने के दलने से निकले टुकडे को दाना, लेकिन बैलों के लिए जौ का दर्रा भी बनवाते- याने पिसाते नहीं, दराते (दलन करते). और यह सब बोरों में भरकर बैलों के लिए अनिवार्य रूप से रखा जाता.... अधिक दूध पाने के लिए खरी तो नहीं, पर दाना-पिसान दिया जाता दूध देती गाय-भैसों को भी....  

वो पिछली सदी के छठें दशक के अंतिम वर्ष थे...फिर दस सालों तक मेरा बचपन उनसे इसी तरह बतियाते-खेलते और काका के बाद दो-ढाई साल उनके साथ काम करते भी बीता....

अब बताते चलूँ कि हमारे घर से बाहर जाते हुए मंतू भइया को बुलाने की बात क्यों आती. असल में उजरका तो बडके बाबू (जो घर बहुत कम रहते), काका व मंतू भैया के अलावा किसी को अपने पास फटकने ही नहीं देता, तो कौन बाँधे-छोडे उसे? इसलिए तमाम इंतजाम करने पडते.... लेकिन उसके बैठे रहने पर मैं और मुझसे बडी वाली बहन बचपन से ही उसके ऊपर लोटते-पोटते, फिर भी हमें कुछ न बोलता- शायद बच्चा समझ के. बच्चों का ऐसे ख्याल रखते मैंने पालतू पशुओं को काफी देखा है. 

एक बार तो पूरब टोले की एक सरनाम मरकही भैंस किसी तरह छूट कर मेरे घर के सामने से पश्चिम टोले की ओर भागी, हम सब बाहर निकलकर तमाशा देखने लगे, तब तक आगे दिखा बीच रास्ते पर बैठा एक अबोध बच्चा... सब सकते में आ गये कि जान गयी बच्चे की.... लेकिन भैंस उसके सामने पहुँचते ही अचानक रुकी और फिर बायें से घूमकर आगे निकली और दौडने लगी. 

मूर्खता-नासमझी-बेपरवाही के लिए मुहावरा (भैस की आगे बीन बजावे, भैंस बैठ पगुराये...जैसे) बन चुकी भैंस का आवेश में भी जब हाल यह है, तो अपना उजरका तो शालीन बैल था और हम घर के बच्चे....

लेकिन एक ऐसा हादसा उजरके का मेरे साथ ही हुआ, जो अविस्मरणीय है....  बगल वाले गाँव में एक बीघा खेत था अपना. दूर होने के कारण सुबह बैलों को खेत तक पहुँचाने और दोपहर को लाने के लिए मंतू भैया के साथ किसी को जाना होता था. कन्धे पर जुआठ लेके एक बैल का पगहा हाथ में लिये चलना होता था. उस दोपहर मैं गया था – 10-11साल का रहा हूंगा. खेत जुत गया था. हेंगाया (पाटा से समतल किया) जा रहा था. एक-दो फेरे ही बचे थे. मैं इंतज़ार में मेंड पर खडा हो गया. जब हेंगा मेरी तरफ से गुजरा, अचानक रोककर उजरके के पास जुआठ से लटकती एक रस्सी को इंगित करके मंतू भइया ने मुझसे कहा बचवा, उहै रसरिया तनी उप्पर कै दा...(बच्चा, वो रस्सी जरा ऊपर कर दो). 

और मैं तो हुलसा हुआ पहुँचा कि उजरके को सहला भी लूँ...कि तब तक गरदन नीचे करके उसने मुझे सींग पर उठा ही तो लिया...और मंतू भइया हाँ-हाँ, हाँ-हाँ करें, तब तक 3-4-फिट उठते ही झट धीरे से रख भी दिया. मैं तो भौंचक.... सब कुछ पलक झपकते हो गया...मंतू भइया ने आके शर्ट हटाके देखा, तो पेट में दो इंच लम्बे में चमडी छिल के खून चुहचुहा आया था. बाकी संयोग अच्छा था कि सींग का नुकीला भाग मेरे हॉफ पैण्टके खींचकर हुक लगाने वाले फ्लैप के नीचे से होकर ऊपर जाते हुए बाहर निकल आया था, वरना पेट फट जाता और लादी-पोटी बाहर निकल आयी होती....

हल-बैल तो अगल-बगल के लोगों ने घर पहुँचाये, मुझे तो मंतू भइया कन्धे पर उठाके घर लाये. कन्धे पर आते देख पूरे टोले में कुहराम मच गया. पर मुझे याद आता है कि मैं डरा न था, बल्कि कडू तेल में चुराकर बाँधी गयी हल्दी-प्याज के साथ शाम को उजरके के साथ खेला भी था.... उजरके की यह हरकत समझ में तब आयी, जब महादेवीजीका अपनी घोडी पर लिखा संस्मरण पढा


रानी’. वह भी एक बार आठ साल की महादेवीजी को पीठ पर लेके भाग चली थी, लेकिन उनके गिरते ही वहीं ऐसे खडी रह गयी जैसे पश्चात्ताप की प्रस्तर प्रतिमा हो’. हुआ इतना ही था कि पीछे से पाँच साल के भाई ने उसके पाँवों में पतली सण्टी से छू भर दिया था और रानी की न जाने कौन सी दु:स्मृति जाग उठी थी’. 

इधर उजरके का तो ऐसा हुआ था कि उस दिन न जाने किस रौ में मंतू भैया ने हेंगे से जुआठ में बाँधी जाने वाली रस्सियां छोटी बाँध दी थीं और लम्बे होने के कारण उजरके का पिछला पैर हर बार उठते हुए हेंगे के नीचे दब रहा था (यह सुनकर मंतू भइया की खूब लानत-मलामत हुई थी...). तो उसी दर्द और बेबसी में गुस्से से बिलबिलाया हुआ क्रोधान्ध उजरके ने मुझे उठा तो लिया, लेकिन पलक झपकते ही रख दिया. उसे भी अवश्य याद आ गया (क्या गन्ध-स्पर्श से!!) कि वह तो मैं हूँ, वरना फेंक भी सकता था, कुचल भी सकता था.... अब उतने नन्हें से मुझको क्या भान, वरना शाम को अपने बदन पर खेलते पाकर उसके भावों में रानी के समान प्रायश्चित्त की मुखर प्रतिमाके भाव अवश्य रहे होंगे. बडे होकर ऐसी ही वारदातों के बाद अपनी बच्ची (बिल्ली) और अपने गबरू (कुत्ते) के मार्मिक भावों को पढ पाया था (कभी उन पर लिखा, तो व्योरा दूँगा). खैर,

उजरके के साथ इसी खेलने के विश्वास पर उसे बाँधने-छोडने का काम भी मैं थोडा बडा होते ही करने लगा था, लेकिन उसके स्वभाव से डरी माँ व बडी बहन सुरक्षा की दृष्टि से डण्डा लेकर हमारे आसपास रहते, जिसका कोई मतलब नहीं था- सिवा उनके अपने भय-निवारण के, जो मुझे बडे होने पर ही समझ में आया. तभी यह भी जाना कि उजरका मरकहा बिल्कुल नहीं था, बल्कि बहुत सुद्धा (सीधा) था, लेकिन किसी को भी- खासकर अपरिचित को- देखकर उसकी तरफ मूँडी झाँटना (सर चलाना) या झौंकना हर पशु की आदत होती है- पशु-स्वभाव. लेकिन आकार में बडे और शरीर से हृष्ट-पुष्ट होने से उसकी विशालता और लम्बे चेहरे के अग्र भाग पर स्थित गदराये नथुने, बडी-बडी आँखें तथा प्रशस्त माथे पर कुदरत-प्रदत्त डेढ-डेढ फिट की मोटी-मोटी ऊपर की ओर उठीं दो सींगे उसके धवल रंग (उजरका नाम) की श्रृंगार थीं- सुरूप-सुन्दर था हमारा उजरका. पर 16मुट्ठी (बैलों के माप का पैमाना) की ऊँचाई के साथ यही विशाल सम्भार गरदन झटकारते ही किसी को भी डराने के लिए काफी था. 

इसका ख़ामियाज़ा भी वह भुगतता .... और यही बात काका के जाने के बाद ग्यारहवीं-बारहवीं में पढते हुए तब मेरे लिए तनाव व नैतिक संकट का कारण बनती. मैं कॉलेज की कबड्डी-टीम में रहता. खेल-शिक्षक श्री धनुषधारी सिंह अंतरमहाविद्यालयीन स्पर्धाओं के पहले लम्बे अभ्यास कराते. अँधेरा होने तक छोडते नहीं और उजरके के लिए मैं विह्वल होता रहता कि वह खाने से वंचित पडा होगा.... उस समय जो साँसत और थकन-पछतावे का सबब होता, उसी को याद करके आज मज़ा आता है कि वहाँ से छूटते ही मैं सरपट दौडता और तीन किलोमीटर दूर घर जाकर उजरके को नाँदे लगाके ही दम लेता.... तब तक वह पगहा खिंचा-खिंचा के और खूँटे के चारो तरफ खाँच-खाँचके खुर से सारी मिट्टी निकाल चुका होता और उदास-असहाय माँ घर के सामने बैठी होती.....    

लेकिन अपने करियवा को ऐसे मूँडी झाँटते मैंने कभी नहीं देखा. बहुत बाद में पता चला कि उसे दिखता नहीं. देख ही नहीं पाता था, तो गरदन से झपटे कैसे? अन्धा तो वह न जाने कब से था...!! पता तब चला, जब एक दिन वह कूएँ  में गिर गया. बडी यादगार घटना है वह... तब मैं बहुत छोटा था–  प्राय: 6-7साल का. याद आता है कि उस दिन भी हम कहीं जाने के लिए ही तैयार थे और काका उसी तरह उन्हें नादे लगाने चल पडे- पीछे-पीछे उतावले हम भी चल पडे. गर्मी के दिन रहे होंगे, तभी हमेशा की तरह दोनो अपने घर के पीछे बाँसों की छाया में बाँधे गये थे. वहाँ से सामने की तरफ आने के रास्ते में तब एक कुआँ हुआ करता था, जिससे हम उन्हें रोज़ दो बार पानी डालते- तीन-तीन गगरी (घडे). बुढवा इनारकहते थेबहुत पुराना, टूटा-फूटा; पर बहुत चौडा. काका ने उस दिन पहले करियवा को छोडकर पगहा पीठ पर रख दिया- यही चलन है. 



बैल ख़ुद चले जाते हैं. और वह कूयें से आगे बढकर दायें मुडने के पहले ही कूयें की तरफ बढने लगा...तब तक काका उजरके को छोडके चलने का रुख कर चुके थे.. .उसे उधर बढते देखकर हट-हट, अरे वहर कहाँ...चिल्लाते हुए दौडे, तब तक उसके अगले पाँव कूएँ में लडखडा चुके थे...कि पहुँचकर काका ने पूँछ पकड ली...अब गर्दन तक करिरियवा कूएँ में और पूँछ खींचे काका बाहर...दृश्य अटका हुआ (फ्रीज़)... काका कभी दंगल मारने वाले पहलवान थे, बदन में खूब पैरुख (बल पौरुष) था. पढे-लिखे कम थे. शायद उन्हें करियवा को बाहर खींच लेने का यक़ीन था. उधर दुआर पर खडे हम यह देखते ही जाने क्यों जोर-जोर से चिल्लाने क्या, रोने लगे थे शायद ...जिसे सुनकर उस तरफ सामने की अपनी मण्डई से बूढे बिसराम दादा निकले और काका को डाँटते हुए चिल्लाये – ‘अरे छोड दे जैनथवा, नहीं त तहूँ गिरि जइबे’...और काका ने सचमुच छोड दिया..., वरना आधे मिनट तक तो रोके (होल्ड किये) रहे.

पानी में गिरने की जोर की छपाक से काका सहित हम सब सन्न हो गये थे, पर इतने में बिसराम दादा की बेटी बंसराजी बहिनी घर से बाहर निकली और जोर-जोर से ऐसा बम देना (चिल्लाना) शुरू किया कि आनन-फानन में सगरो गाँव जुट गया. फटाफट नार (खूब मोटी रस्सियां) लाये गये.... 3-4लोग कूएँ में उतरे, करियवा की गरदन और पेट से निकालकर पीठ पर नार बाँधा और ऊपर से 15-20लोगों ने मिलकर खींच लिया. आधे घण्टे में करिया पहलवानसही-सलामत बाहर. कुछ देर थसमसाये (अवसन्न) खडे रहे, फिर धीरे-धीरे चलने-फिरने लगे और हौदी से बाँधे गये, तो खाने भी लग गये.... 

घटना महीनों तक गाँव में चर्चा का विषय रही- जैसा कि हर घटना होती है, लेकिन इस बार करिया के गिरने से अधिक सरनाम हुआ काका का पूँछ पकडके खींचना तथा बिसराम दादा का उन्हें डाँटना. और पूरी चर्चा से काका की बावत सारांश स्वरूप दो निष्कर्ष निकले भई, अच्छे पहलवान हैं, तभी तो इतने बडे बरध को थामे रहेऔर दूसरा यह कि पहलवानी बुद्धि न होती, तो भला कोई ऐसा करता’!!फिर तो करिया महराज को इधर-उधर ले-ले जाकर, तरह-तरह से दिखा-चला कर यह पक्का कर लिया गया कि वे अन्धे हैंमोतियाबिन्द हो गया है उन्हें. 

लेकिन उस वक्त तो आदमियों के मोतियाबिन्द का ऑपरेशन भी आँखों का सपना था, बैल की तो क्या कहना...!! इसके बाद करीब नौ-दस साल जीवित व कर्म-रत रहे करिया, पर न मोतिया फूटा, न तब तक मोतिया के फूटने का किसी को पता ही था शायद. हाँ, तब से उन्हें कहीं जाने के लिए छोडा नहीं जाता, पगहा पकडकर लाया-जाया जाता था. खेतों में लेके जाते हुए आगे गड्ढा-मेंड...आदि आने पर हम जोर से कहते – ‘डाँक (पार कर) ले, आगे मेंड हौ’...और वह अगले पैर उठा-उठाकर बडे-बडे डग भरने लगता. लेकिन जाडे में धूप लेने के लिए खडे करते, तो गरदन उधर ही उठाता, जिस तरफ से सूरज की किरनें आती होतीं.... माँ जब रात को खाने के बाद दोनो को रोटी खिलाने निकलती, तो करियवा पहले जान जाता और ठीक उसी तरफ ताकता, जिधर से माँ आती होती तथा माँ के हाथ से रोटी यूँ लपक लेता, गोया दीदे का भरपूर हो....  

करियवा उठने-बैठने से लेकर चलने तक के अपने सारे कामों में काफी धीमा था- क्या इसी अन्धत्त्व के चलते? क्या धीमा चलने से ही उसे हर काम में बायीं तरफ रखा जाता, क्योंकि दायीं तरफ वाले को ज्यादा दूरी तय करनी पडती है खासकर रहट व कल में. बायें चलने के कारण ही काम के दौरान इंगित करते हुए करियवे को बायां या बँवार व उजरके को दहिना या दहिनवार कहा जाता.

लेकिन करियवा खाता था हाली-हाली (जल्दी-जल्दी) और ज्यादा भी. इसी से उसे विनोद में खभोर भी कहते.... यह जितना ही खभोर था, उजरका उतना ही छिबिन (चूज़ी और अरुचि वाला). बडे टिपुर्सन (मान-मनौवल) से खाता. जौ-गेहूँ को भूसे से या धान को पुआल से अलगाने के लिए 25-30बोझ खोलके गोलाई में फैला दिये जाते, उसे पइरकहते थे. 2से 4-5तक जितने सुलभ हो, बैलों को उनके गराँव (गले की रसी) से एक दूसरे को जोडकर पइर पर गोल-गोल घुमाते, उसे दँवरी कहते. इस काम के लिए जिसका भी बैल खाली हो, बिना माँगे ले जाने की सुदृढ परम्परा ही थी. तो इसमे भी हमारा उजरका सबके दाहिने चलता इतना फरहर (तेज व सक्रिय) था. 

हाँकने वाला हमेशा उसके पास होता, इसलिए उसे खाने का मौका भी न था और उसे पडी भी न थी. दाहिने के बाद फिर दुसरका...आदि होते. सबके अंत वाले को मेंहकहा जाता था. अनाज को गन्दगी से बचाने के लिए हमेशा सजग रहना पडता कि बैल गोबर करें, तो हाथ में पुआल लेकर रोप लिया जाये. लेकिन हाँकने वाला तो दाहिने के अलावा अन्दर के बैलों को ठीक से देख न पाता था, तो अगल-बगल की दँवरी वाले या आता-जाता जो भी देखता, चिल्लाता वो तिसरका देखो, गोबर कर रहा है या मेंहवाँ हग रहा है...!!

करियवा अपनी दँवरी में चले या मँगनी में, बैल दो हों या 4-5, हमेशा मेंह ही चलता. उसे सिर्फ अपनी जगह घूमना होता. ऐसे में किसी भी बैल को एक ही जगह घूमने से घुमरा (चक्कर) आ जाता, पर करियवा को कभी नहीं आता, शायद अन्धे होने से उसे अहसास ही नहीं होता.... इस तरह मेंह के लिए आदर्श था वह. लेकिन धान की दँवरी में एक ही जगह घूमने से मेंह चलने वाले के बायें पैर में पुआल लिपटता जाता है, जिसे गूर्ही कहते. बीच-बीच में दँवरी रोककर गूर्ही को छुडाना पडता था.... करियवा ज्यादा ही लपेट लेता और उसे छुडाना मुश्किल होता, क्योंकि वह पैर झटकारता भी जोरों से...शायद इसलिए कि दिखता था नहीं और पैर में लिपटी भारी गूर्ही से उसे अनकुस (अनइज़ी) लगता. लेकिन वह लतहा था, जो सबके डर का बडा कारण होता. हल-रहट-कल-दँवरी में चलते हुए हाँकने वाले का ठीक पीछे होना तय था. 

और ऐसे में कुछ नाग़वार होते ही पीछे वाले को अहटिया के (सन्धान करके या अन्दाज़ा लगाके) ऐसा लात चलाता कि आहत व्यक्ति तो सहसा गिर ही जाता. कइयों को ऐसे गिर के तडपते और फिर घुटने पर हल्दी-प्याज या रेंड का पत्ता आदि बाँधे हफ्तों कराहते-लँगडाते चलते हुए मैंने देखा है.... ऐसा करते हुए मीठी चाल (धीरे-धीरे) चलने वाला करियवा कल-रहट में हुआ, तो दो-तीन चक्कर और हल में हुआ, तो बडी दूर तक लगभग दौडते हुए चलता और दायें चलने वाले उजरके को भी दौडना पडता. फिर भी चार-छह डण्डे की ज़ोरदार मार से कहाँ बच पाता...!! किंतु इसकी उसे लत (बुरी आदत) पड गयी थी, लिहाजा पिटने के लिए तैयार भी रहता.

लात मारने की ऐसी लत वाले जानवरों को लतहाकहा जाता. ऐसा करने वाली गायों को लतही कहते. भैंसों को लात मारते मैंने नहीं देखा-सुना. शायद देह से भारी व आदत से सुस्त व बेपरवाह होने के कारण उनकी यह फ़ितरत हो ही नहीं सकती थी. लेकिन बैलों का लात चलाना लात मारनाके मुहावरे के रूप में मशहूर है. फिल्म थ्री इडियट्समें यह मुहावरा आमिर खान की ज़ुबानी सद्य: जन्मे बच्चे के लिए इस्तेमाल हुआ है– ‘लात मारा’, जो किसी चीज़ को हिकारतपूर्वक ठुकराने के लिए इस्तेमाल होता है. लात खानाभी हिकारतपूर्वक पिटने के लिए मुहावरा है. ऐसा काम ज्यादा करने वालों को लतखोरकहते. और अखाडे का लतमरुवा पहलवान होता हैतो बहुत लोकप्रिय था, जब हमारे बचपन में गाँव में अखाडे हुआ करते थे. इसमें लतमरुवा का मतलब लात मारने वाला नहीं, बल्कि वरिष्ठ अखाडचियों से लडाये जानाहै. और लडाते हुए पैर से ही तो ज्यादा गिराया जाता है – ‘लंगी मारनातो मशहूर दाँव ही है. सो, लतमरुवा यहाँ पहलवानी के लिए लाक्षणिक प्रयोग है. 

लेकिन अब मैं जब करियवा के अन्दर-बाहर व्यापे अफाट अन्धकार के बारे में सोचता हूँ, तो लगता है कि करियवा के लात मारने की शुरुआत तो उसके लाचार अन्धत्व से मिली काली दुनिया की मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रिया स्वरूप हुई होगी, फिर इससे उसके ऊबजनित आक्रोश को किंचित राहत मिली होगी, जो धीरे-धीरे दुर्निवार लत बनती गयी होगी.... इस लत के अलावा उसकी किसी गतिविधि की कोई पहल कदमी कभी नज़र नहीं आती थी. उसके अन्धेपने ने उसे कदाचित बहुत बेपरवाह भी बना दिया था. कभी मैंने उसे खाने के बाद की डकार लेते नहीं सुना. किसी चीज़ की चाहत-ज़रूरत के लिए भोंकरते (गुहार लगाते) नहीं सुना. 


कहीं जाने के लिए छटपटाते नहीं देखा...जैसे सारी इच्छाएं-प्रतिक्रियाएं उसके अदृश्य संसार की भेंट चढ गयी हों.... लेकिन चारा-दाना मिलने पर खाने में कोई कोताही नहीं बरतता, जुआठ गरदन पे रख दिये जाने पर काम से मुँह मोडते भी कभी नहीं दिखा.... गोया खाने-जुतने के अलावा उसे किसी चीज़ से मतलब नहीं, क्योंकि इसके सिवा उसके लिए दुनिया का कोई अस्तित्त्व था ही नहीं. आज की भाषा इसे पेशेवर वृत्ति (प्रोफेशनल अटीट्यूड) कहेगी, पर यदि आज अर्जुन मेरे सामने पूछते कृष्ण से स्थितप्रज्ञस्य का भाषा, समाधिस्थस्य केशव...?’, तो मैं स्थितप्रज्ञ-सा खाने व काम करने तथा समाधिस्थ-सा बैठे रहने वाले अपने करियवा को सामने खडा कर देता.... करिया के इस भाव को भाँप पाने की नज़र तब होती, तो क्या उनसे काम करा पाता...??      

इस अन्धत्त्व और इससे उपजी बेपरवाही का ख़ामियाज़ा एक बार खूब भुगतना पडा करिया पण्डित को.... बरदौर (पशुशाला) में बारिश के मौसम में पशुओं को मच्छरों से बचाने के लिए धुआँ सुलगाया जाता...,जिसे धुआँ देनाकहते. इसके लिए सूखे करसी-कंडा (गोहरी (उपले) बनाने से बचे गोबर के टुकडे व भुर्रे) प्रवेश द्वार के किनारे की दीवाल के पास छह इंच की चौडाई में फैला दिये जाते और उसके एक सिरे पर आग सुलगा दी जाती. वह जलती नहीं थी, रात भर धुँधुआती रहती, जिसके कडवे धुएं से मच्छर भागते रहते और बैल-गायें सुख से सो पाते. रातों को 2-4बार उठके उसे बेना (हाथ के पंखे) से हौंकना (हवा देना) पडता, ताकि आग बुझ न जाये. काका के रहते तो किसी को चिंता ही नहीं रहती थी- वे बार-बार उठते रहते.... उनकी इस नींद को कुकुरनिंदिया कहा जाता थावही श्वान-निद्रा, जो अच्छे विद्यार्थी के पाँच लक्षणों में से एक है. लेकिन उनके न रहने पर मैं-माँ-बडी बहन मिलकर ख्याल रखतेजो भी उठता, जाके हौंक आता. संयोग से उसी दीवाल के सामने सबसे पहले करियवा का खूँटा पडता था, क्योंकि उस नाँद में बडी सींग के नाते उजरके का मुँह जाता ही नहीं था. उसके लिए चौडा बयाला दूसरे सिरे पर बना था. यह व्यवस्था करिया पहलवान के अन्धे होने का पता चलने के पहले की थी और तब तक तो उससे बच के बैठने-सोने की उसकी आदत पड गयी थी.

लेकिन उस रात कैसे वह जान न पाया और आँच लगने पर भी उठ न पाया थका था, नींद गहरी थी...कौन जाने...!! कहीं उसी बेपरवाही की इंतहा तो नहीं?? पर सुबह बाहर निकालते हुए देखके सब हैरान-परेशान...पूरा दायां पट्ठा (पैर का बाहरी-ऊपरी हिस्सा) जल गया था, पर कुशल थी कि असर हड्डी तक नहीं पहुँचा था. देखकर माँ तो धार-धार रोने ही लगी.... पशु-चिकित्सा तब गाँवों तक नहीं पहुँची थी. सो, सहारा था सिर्फ़ खरबिरैया (पेड-पौधे, घास-पात) के इलाज़ का. इसमें जो कोई जो भी बता दे, वह जहाँ भी मिले, जाके काका वहाँ से ले आयें.... 

गज़ब का जीवट व जांगर (श्रम-कौशल) था उनमें. सब कुछ हुआ और पूरा सूखने तक उसे रातों को उस खम्हिया (कच्चे बरामदे) में सुलाया गया, जहाँ हम सोते थे. मच्छरों का बन्दोबस्त यहाँ भी वही था, लेकिन यह जगह बहुत बडी थी. पर कहना होगा कि तब भी करिया ने अद्भुत सहन शक्ति व अपार धैर्य का परिचय दिया- न दर्द की आह भरी, न दवा-इलाज़ के दौरान उफ़ किया.... ख्याल आ रहा कि उसके कुछ ही सालों बाद हमारे देहात के नेता त्रिवेणी राय की पशु-शाला में पंखे लगे. सुनकर हम अपने हाल पर तरसे, अपने घर रहने के लिए अभिशप्त उजरका-करियवा की बदनसीबी पर तडपे और नेतागीरी के पैसे की उनकी अय्याशी पर बहुत खौले भी.... 
         
सबसे आनन्ददायक दिन होते त्योहारों के, जब होली-दीवाली-पचइंया (नागपंचमी) पर पूरे गाँव के लोग अपने बैलों को तालाब में ले जाके नहलाते.... नहलाते वैसे भी, पर महीनों बाद कभी-कभी और सब लोग अपनी फुर्सत-जरूरत से अलग-अलग. लेकिन त्योहारों को तो सबका साथ में... गोया पशु-नहानलग जाता, जिसके मुक़ाबले हमारे कुम्भ...आदि नहानों के दृश्य तो निहायत गलबल ही कहे जायेंगे.... पहले तो घुटने भर पानी में खडे करके हम पुआल से उनका पूरा बदन घिसते. कालांतर में जब मुम्बई में अपने पालतू कुत्तों-चूहों को उनके लिए ख़ास बने अलग-अलग शैम्पू से नहलाया, ब्रश से मला- अब भी वहाँ रहते हुए बीजू-चीकू (कुत्तों) को करता हूँतो करियवा-उजरका के लिए मन बहुत तरसता है.... 

काश, तब अपने लिए भी शैम्पू-ब्रश का पता होता और उनके लिए साबुन खरीदने की औकात व प्रथा होती.... महीनों-महीनों बाद नहलाने के कारण दोनो के बदन से मैल खूब निकलता और एक बार पूरा भींग जाने के बाद वे बडे चाव से नहलवाते- रगडते हुए पूँछ खडी कर लेते, अँगडाई लेने लगते और बाहर निकलने पर उजरका तो कुलाँचे भर-भर के मज़े लेता.... सबसे मज़ेदार होता साफ कर लेने के बाद उन्हें बीच तालाब में ले जाके पौंडाना (तैराना). 

होली में तो सिंचाई के चलते तालाब में पानी बहुत कम रह जाता, लेकिन दीवाली में तालाब भरा रहता और ठण्ड उतनी ज्यादा न रहती...सो पगहा पकड के दोनो को बारी-बारी से खूब पौंडाता.... यह काम करते काका या बडके बाबू को कभी नहीं देखा मैंने, जबकि पौंडने दोनो को आता था - बडके बाबू तो हमारे साथ तैरने का मुकाबला भी करते.... पौंडता करियवा भी, पर वही कि अपने अँधेरे के कारण सहमा रहता. जिधर पगहे को ले जाते, उधर ही जाता अहटियाते-अहटियाते (टोह लगाते हुए). पर उजरका पौंडने के खूब मज़े लेता. तैराकी स्पर्धाओं में तो सिर्फ गति नज़र में लायी जाती है, वरना मनुष्य हों या पशु, मज़े लेते हुए मंथर-मंथर तैरने में अन्दर-अन्दर पानी को पीछे टालने की गति की एक लय होती है, जो पानी के बाहर वाले बदन के हिस्से पर नुमायां होती है (गोवा के स्वीमिंग पूल में बेटे को तैराते हुए उसकी गति की लय भी याद आ रही है). 

और उजरके की बडी-बडी सुन्दर सींगों और धुलने से चमकती हुई रोमावलियों वाली गर्दन, ड्रिल और पीठ के ऊपरी हिस्से की गति से जो लय बनती और इन सबसे मिलकर जो छबि दृश्यमान होती, उसकी नयनाभिरामता के आगे रूपक बन गये हंस की गतिभी पानी भरे... बेशक़, मेरी नज़र से व मेरे उजरके के सामने.... और नौका के लिए मधुर हंसिनी-सी सुन्दरकहने वाले पंतजी ने तो बैल को तैरते शायद देखा भी न हो...साथ तैरते हुए के अनुभव की तो बात ही क्या...!!

घर लाके उनके माथे (दोनो सींगों के बीच के छोटे गड्ढे) पर तेल की मालिश करते. यह काम बडके बाबू ही करते, जब कभी घर रहते-  वरना तो कोई भी करता.... लेकिन उनका करना मालिश का श्रृंगार बन जाता...वे उसमें रस लेते. मुझे अच्छी तरह याद है कि यदि बैल खडे भी रहते, तो सर नीचे करके गोया मालिश कराते.... और बैठे होने पर की तो बात ही क्या, आँखें मूँद ही लेते शायद बडी राहत मिलती होगी उन्हें.... हाँ, सींग में तेल पोतते हुए अवश्य सर हिलाकर बचना चाहते, पर हम जबर्दस्ती पोतते ही...जिसके बाद कई दिनों तक सींगे अच्छी लगतीं. कुछ शौकीन लोग तो सीगों को रँगते भी, किंतु मुझे न रँगना अच्छा लगता, न रँगी हुई सींग को देखना ही. 


इन सबके बाद कभी-कभी काका कालिख में अपना हाथ डुबाके उजरके के दोनो तरफ गदोरी का ठप्पा लगा देते और धीरे से कहते नज़र न लगे बेटे को.... फिर यूँ ही गदोरी करिया पर भी चिपका देते, पर उस पर कोई फर्क़ न पडता – ‘चढे न दूजो रंग’. उजरके की गरदन अपेक्षाकृत नाजुक थी शायद. कातिक में जब हलवाही ज्यादा होती, उसमें सूजन आ जाती. इसके लिए पुआल जलाकर उसकी राख घडे में रखी रहती. और उसे पानी में मिलाकर सुबह हल के लिए जाने के पहले और दोपहर को लौटने पर उसकी गरदन पर छोपते.... इससे उसे राहत मिलती होगी, तभी वह सहर्ष छोपवाता.... 

जाडे के मौसम में उन्हें मठार पिलाया जाता. मठार याने गाढा छाछ, जिसमें घी को खरवने के बाद नीचे जमा काला पड गया घी भी मिला होता. लेकिन गर्मी में मठार नहीं, शुद्ध छाछ पिलातेशायद इसलिए कि घी गर्म करेगा. जाडे भर उन्हें खिलाने के लिए एक अलग खेत मे गाजर बोया जाता.... गाजर धोकर काटा जाने लगता, तभी से दोनो मचलने लगतेइतना प्रिय लगता होगा.... भूसे का चारा तो बारहमासा होता, लेकिन पुआल व ठेंठा (मक्के का सूखा तना) भी लगभग नौमासे छमासे होते ही. ये सूखे चारे होते, जिनमें हरा चारा डाल के स्वास्थ्यकर व स्वादिष्ट करने के लिए अलग-अलग मौसम में अलग-अलग चारों का इंतजाम क़ुदरत ने किया है. बारिश के समय तो खूब हरी-हरी घासों से सारी धरती भर जाती. सनई-बाजरे भी होते.... बस, काटके लाना भर पडता. उन दिनों बाँस भी हरे पत्तों से लद जाते और उन्हें लटकाकर पत्तियां तोड लेना आसान होता. मैं और मेरे खान्दान के स्व. रामाश्रय भाई घास करने में ज्यादा विश्वास न करके या जांगर न लगाके पत्तियां ही तोडते - 20-20आँटी (जूडी- बण्डल).

इसे घास की तरह ही चारे की मशीन में बालके (छोटा-छोटा काटके) भूसे में मिला देने पर हमारे दोनो वीर खरी-दाना की परवाह न करतेसब चाट जाते. फिर तो हरे धान काटके आते, बैलों की तो चम्म होती ही, उसे लतिया के जो धान निकलता, उसे नवान्न के रूप में हम भी खाके तृप्त होते. रबी की फसल शुरू होते ही अगहन-पूस (प्राय: नवम्बर-दिसम्बर) में अँकरी-सरसो हो जाते. माघ-फागुन (जनवरी-फरवरी) में मटर के झंगडे और गन्ने के गेंडे (ऊपर का हरा हिसा) तो चारा ही बन जाते. फिर चैत (मार्च) में लतरी हो जाती. यह ऐसी ग्रामीण-कृषि संस्कृति थी, जो आज लुप्त हो गयी. ट्रैक्टर ने बैलों को खत्म कर दिया. अब गायों के बाछे मारे-मारे फिरते हैं, जिनका पैदा होना कभी किसानों का इष्ट हुआ करता था, लेकिन आज पुत्रीति जाताजैसी महनीय चिंताऔर कस्मै प्रदेयेति’ (किसे दें) के महान वितर्क:बन गये हैं. ऐसे में अब इस हरियाली और हरे चारे को कौन पूछे...?

चैत में कटिया (जौ-गेहूँ कटने) के बाद दँवरी शुरू हो जाती. वैशाख-जेठ भर चलती. इस दौरान कितना हू हरकने के बावजूद ना-ना करते भी बैल इतना जौ-गेहूँ उदरस्थ कर लेते कि दँवरी से छूटने पर तालाबों-कुओं पर, फिर घर पर सिर्फ पानी ही पानी पीते और बैठ-सो जाते. हाल यह होता कि खडा दाना पचता नहीं और गोबर के बदले निछान (बिना किसी मिलावट के) दाना ही बाहर निकलता और इसे उनके जिन्दा रहने की त्रासदी कहें या विकल्प कि भूमिहीन मज़दूर वर्ग की औरतें उसे बीन-बटोरकर ले जातीं और धो-सुखाके पीस-पो के खातीं-खिलातीं. तब यह सब रोज़ देखते, उसी में पलते-बढते-जीते हमें सामान्य (नॉर्मल) ही लगता, लेकिन बडे होकर पढते हुए इसका दंश गहरे चुभा- ख़ासकर दलित-लेखन, जहाँ यह मामला खूब रोशन हुआ है.      

यह सब देखते-साझा करते हुए काका के रहते बडे मज़े से कट रही थी. उनके जाने के बाद भी करने का मज़ा तो आता, पर पढाई और इन सारे कामों के बीच तन-बिन जाना पडतादोनो की हानि के साथ दोनो को निभाना फिर भी उतना मुश्किल न होता, यदि घाटा-नफा की चिंता न होती. घाटा ही ज्यादा था, क्योंकि काका जैसी खेती करके कम में से ज्यादा पैदा कर लेना मुझ अनुभव-विहीन नौसिखिये को आता न था. बहनों की शादियों में तमाम खेत रेहन थे और घर का कोष एकदम रिक्तऋण से लदा. ऐसे में करियवा-उजरका को वैसी रातिब (ख़ुराक) भी न मिल पाती, जिसकी अब इस उम्र में उन्हें ज्यादा ज़रूरत होती.... बिना भरपूर खिलाये, उनसे पूरा काम लेने के लिए मैं अपने को कभी माफ़ नहीं कर पाऊँगा.... दोनो बेचारे मेरे साथ खींच रहे थे अपनी ढलती उम्र को...पता नहीं काका का जाना भी उन्हें साल रहा था. उनके अभाव से भी टूट रहे थे या उनके नमक की अदायगी कर रहे थे...!! पर कब तक...?

पहले करियवा गिरा.... कुछ दिनों तक उठाने पर उठ जाता...पर 1969 के सितम्बर में काका के जाने के लगभग दो साल बाद जो गिरा, तो उठा नहीं. करीब दस दिनों जमीन पर लेटा रहा.... रोज़ अन्दर-बाहर करना सम्भव न हुआ, तो वहीं बाँस खडे करके दरी-चद्दरों से छाँव कर दी गयी. रातों को कुछ गझिन ओढकर मैं वहीं सोता. घंटों-घंटों उसके पास बैठी माँ उसे सहलाती व मक्खियां उडाती पायी जाती.... याद आता है कि कहीं बेतार के तारसे खबर पाकर तीन-चार दिन पहले बडके बाबू भी आ गये थे. खूब तीमारदारी की करिया कीजैसा उनका स्वभाव था. गरदन उठाकर मुँह खोलकर रोटी के छोटे-छोटे टुकडे करके मुँह में रखे जाते, तो कूचने की कोशिश करताकुछ जाता भी अन्दर.... फिर किसी तरह चिरुवा (एक हाथ की अँजुरी) से पानी मुँह में डाला जाता, तो मुँह का बचा हुआ भी शायद पेट में चला जाता. 


हर तीसरे दिन हम तीन-चार लोग मिलकर उसकी करवट बदल देते, ताकि एक ही अलंग (तरफ) पडे रहने की अधिक पीडा तथा चमडी पर छाले पडने से बचे.... जिस दिन गया, दोपहर ढल चुकी थी. उसकी विदाई में बिछडने की पीडा के साथ अगले महीने शुरू होने वाली कातिक की बुवाई की चिंता भी जुड गयी थी. आँखे तो सबकी गीली थीं, माँ की अफाट रुलाई देखी-सुनी नहीं जा रही थी. हरिजन बस्ती के लोग जब करिया को बाँसों में टांग के ले चले, तब तो वे हरकेस काका (कहाँर) भी रो पडे थे, जिन्हें उसने एकाधिक बार लात मारा था. वही अंतिम मूर्त्त दर्शन हुए...पर नज़रों से ओझल तो क्या कभी हो पायेगा अपना प्यारा करियवा...!! नया बैल लेने का सौंहर था नहीं. जदुनाथ चौरसिया से हरसझा हुआ. अब एक दिन हमारे खेत में हल चलता, एक दिन उनके. नये बैल के साथ चलने में उजरका मानो श्रीहीन हो गया. उसकी आँखों से बार-बार पानी गिरने लगता.... एक दिन उसे किसी और के हाँकने में चलना होता और मंतू भइया एक दिन खाली रहते.... उनकी रोजही के लिए उस दिन खेत में उनसे कुछ और काम कराते.... लेकिन गाँव के लोगों ने भी खूब मदद की. जिससे भी माँगा, एक-एक, दो-दो दिन सबने अपनी जोडी दी. किसी तरह कातिक बीता. इसी तरह सिंचाई भी हो गयी. 1970 मार्च में इंटर का मेरा इम्तहान हो गया. अब मैं भी मुक्त...या खाली...

शहर जाके आगे पढने की हालत नहीं.... अभी कटिया में कुछ समय था. सो, नानी व मौंसी के यहाँ चला गया. और आठ दिनों बाद आया, तो खूँटा खाली मिला- उजरका अचानक चला गया था.... उसे बाघीहो गयी हृदय का ज़हर जैसा कुछ, जो अचानक मर जाने पर हर पशु के लिए कहा जाता.... 

कलेजाफाड क्लेश-चिंता के बीच एक राहत मिली कि जाते हुए उजरके को देखने की दुर्दांत पीडा से बच गया, पर आते ही माँ के करुण विलाप और घर-दुआर के असीम सूनेपन से कहाँ बच पाया...!! दुआर के श्रृंगार चले गये.... 


लेकिन उनकी यादों से बचना चाहता भी नहीं जिन्होंने मेरे बचपन को हसीन व भाव-समृद्ध बनाया, किशोरावस्था में जो कन्धे से कन्धा मिलाकर चले, बडे भाइयों जैसे गाढे के साथी बने, उनकी स्मृति को नित्य का प्रणाम...!!
(क्रमश:)
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satyadevtripathi@gmail.com

मति का धीर : गिरीश कारनाड : रंजना मिश्रा

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शब्द की अपनी स्वायत्त सत्ता है और ये दीगर सत्ता केन्द्रों के समक्ष अक्सर प्रतिपक्ष में रहते हैं. शब्दों ने बद्धमूल नैतिकता पर चोट की है उसे खोला है, धर्म की विवेकहीन चर्या को प्रश्नांकित किया है उन्हें उनकी सीमाओं का एहसास कराया है, राजनीतिक सत्ता की हिंसा के समक्ष तन कर खड़े हुए हैं, उन्हें झुकाया है. शब्द मनुष्य के एकांत में उसके होने की गरिमा हैं.  

गिरीश का लेखन यही करता था. भारत में आधुनिक नाटकों के सूत्रधार तो वे थे ही नए बनते आधुनिक मानस के शिल्पकार भी थे. वे सिर्फ कन्नड़ नहीं थे वे इतने थे कि हर भाषा थे. हिंदी के आधुनिक रंगमंच की की विवेचना बिना उनके नहीं हो सकती है. सत्ता के दर्प के समक्ष वे कलम के साहस थे. समालोचन उनकी स्मृतियों की प्रणाम करता है. 

रंजना मिश्रा का यह स्मृति आलेख प्रस्तुत है.


गिरीश कारनाड नाटकास कसे लिहितात हो       
रंजना मिश्रा


गिरीश कारनाड नाटकास कसे लिहितात हो ! फार परावलंबी कला आहे बुवा
(गिरीश कार्नाड नाटक क्यों लिखता है भाई, कितनी परावलम्बी कला है !)


ये शब्द  प्रख्यात साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त मराठी कहानीकार श्री जी ए कुलकर्णी (गुरुनाथ आबाजी कुलकर्णी) के हैं जिसमें आश्चर्य और प्रशंसा का मिला जुला पुट नज़र आता है और साथ ही नाटय लेखन और रंगमंच से जुडी सच्चाई का अंश भी. नाटककार किसी ठहरे हुए तालाब में एक कंकड़ फेंकता है जिससे पैदा होने होने वाली तरंगें दिग्दर्शक, मंच्सज्जा, वेशभूषा, अभिनय और कलाकारों से होतीकई पढाव पार करती जब आखिरी पंक्ति के आखिरी दर्शक तक पहुँच उसे अपनी गिरफ्त में लेकर उसके भीतर घटित नहीं होने लगती तब तक वह नाटककार सफल नहींइस तरह हर नाटककार परावलम्बी ही होता है.

गिरीश रघुनाथ कार्नाड (१९ मई १९३८) के व्यक्तित्व में नाटककार, अभिनेता, कवि, चित्रकार, लेखक, सांस्कृतिक, राजनितिक, सामाजिक कर्मी सारे रंग ऐसे घुले मिले थे कि इन्हें अलगाना कठिन है. उनकी सृजनात्मकता अपनी मिटटी, भाषा और लोगों नैतिक राजनितिक और सामाजिक सरोकारों से जुड़कर विशिष्टता के उस शिखर पर पहुंची जहाँ शायद इक्का दुक्का लोग ही पहुँच पाएऔर आनेवाले वर्षों में सृजनात्मक प्रतिबद्धता के कई प्रतिमान बनाए वहीँ उसी उंचाई पर स्थापित रही.

उनका जन्म महाराष्ट्र के माथेरान में कोंकणी सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ और बचपन ग्रामीण महाराष्ट्र के विभिन्न भागों में गुज़रा पर सिरसी में बिताए समय ने उनके भीतर के नाटककार को जन्म दिया जहाँ यक्षगान और नाटकों की परम्परा से वे परिचित हुए और जो कवि और चित्रकार बनने की आकांक्षा से होता हुआ २३ वर्ष में पहले नाटक ययाति’ (१९६०) के लेखन के समय नाटकों पर आकर ठहरा. बचपन को याद करते हुए किसी साक्षात्कार में उन्होंने कहा था यक्षगान उन दिनों मूलतः निचली जातियों में अधिक प्रचलित लोकनाट्य की तरह देखा जाता था तो वे अपने माता पिता के बिना घरेलू कामगारों के साथ नाटक देखने जाते, हो सकता है बचपन के इन दिनों ने भी उनके भीतर कला के माध्यम से समाज को समझने और जोड़ने की भूमिका तैयार की हो. बाद के वर्षों में उत्तर कर्नाटक के सांस्कृतिक गढ़ धारवाड़ में हुई शिक्षा, धारवाड़ के बुद्धिजीवीवर्ग से जुड़ाव शायद कन्नड़ में लेखन का कारण बनी.उनके नाटक मिथक, इतिहास और लोककथाओं का आधुनिक परिप्रेक्ष्य में  ऐसा पुनर्लेखन रहे जो अपने छह दशकों की यात्रा में दर्शकों, पाठकों के मानस में कितने ही सवाल उठाते उन सच्चाइयों से रूबरू कराते रहे जो समाज की जड़ों को खोखला करता आया है.साथ ही ये नाटक मानव अस्तित्व के शाश्वत प्रश्नों से भी जूझते दिखाई देते हैं. ययातिऐसे ही सवाल उठाती उनसे जूझने की कोशिश करती दिखाई देती है जिसमें हर व्यक्ति जैसे दुःख और द्वन्द्व का एक भँवर है और फिर वह भँवर एक नदी का हिस्सा भी है; और यह हिस्सा होना भी पुनः एक दुःख और द्वन्द्व को जन्म देता है। इसी तरह एक श्रृंखला  बनती जाती है जिसका अन्त व्यक्ति की उस आर्त्त पुकार पर होता है कि भगवान, इसका अर्थ क्या है ?

आधुनिक भारतीय रंगमंच के पुनर्जागरण की यात्रा धर्मवीर भारती, मोहन राकेश, बादल सरकार, विजय तेंदुलकर और गिरीश कर्नाड के बिना अधूरी है. कन्नड़ में लिखे गए उनके सभी नाटकों का अनुवाद अंग्रेजी और अन्य प्रमुख  भारतीय भाषाओं में हुआ. कुछ नाटक उन्होंने अंग्रेजी में भी लिखे जिसे वे अन्तराष्ट्रीय दर्शकों तक ले जाना चाहते थे. सत्यदेव दुबे से जब वे पहली बार मिलने गए तो सत्यदेव दुबे ने समझा ऑक्सफ़ोर्ड से लौटे कार्नाड अंग्रेजी में ही नाटक लिखते होंगे पर जैसे ही उन्हें पता चला कार्नाड के नाटक कन्नड़ में लिखे गए हैं, उन्होंने कार्नाड को गले लगा लिया. गौरतलब है गिरीश कार्नाड के नाटकों की भाषा मराठी नहीं कन्नड़ रही हालांकि मिथक, लोककथाओं से जनमानस का जुड़ाव भी इनके नाटकों की सफलता का प्रमुख कारण रहा पर कार्नाड उन मिथकों लोककथाओं गाथाओं और इतिहास को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में जिस तरह पुनर्परिभाषित करते थे, उनके साथ नए प्रयोग करते थे वह अनोखा था.

१९५८ में अपनी स्नाकोत्तर शिक्षा के लिए वे मुंबई आ गए और गणित विषय चुना जिसके बारे वे कहते हैं– ‘स्कॉलरशिप के लिए मुझे गणित से बेहतर कोई विषय नहीं सूझा क्योंकि इसमें मैं बेहतर कर सकता था. बाद में गणित की शिक्षा मेरे रंगमंचीय सफलता के काम भी आई  क्योंकि गणित अनुशासन और तर्कसंगत सोच की मांग करता है और रंगमंच बिना अनुशासन और तर्कसंगति के संभव नहीं’. ऑक्सफ़ोर्ड में उन्होंने दर्शन, राजनीतिशास्त्र और अर्थशास्त्र का विषय चुना. ऑक्सफ़ोर्ड जाने के पहले ही उन्होंने ययाति (१९६०) लिखा और जब वे वापस आए तो ययाति एक सफल कृति बन चुकी थी. ऑक्सफ़ोर्ड के दिनों ने ही उन्हें तटस्थता से भारतीय समाज को देखने की दृष्टि भी प्रदान की और वे समझ पाए दुनिया नए भारत को किस दृष्टि से देखती है. ऑक्सफ़ोर्ड से वापसी के बाद वे ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, मद्रास और १९७४ में फिल्म और टेलीविजन संस्थान, पुणे में निदेशक होकर आए.  नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी, शबाना आज़मी, अमरीश पुरी जैसे अभिनेता उन दिनों फिल्म संस्थान के स्वर्ण युग का निर्माण कर रहे थे और छात्रों और प्रशासन के बीच की खटपट में नसीर और गिरीश कई बार एक दूसरे के विरुद्ध  भी खड़े हुए पर जब श्याम बेनेगल ने निशांतके लिए किसी नए अभिनेता का परिचय माँगा तो वे गिरीश कार्नाड ही थे जिन्होंने नसीर का परिचय श्याम बेनेगल से करवाया. नसीरुद्दीन शाह और श्याम बेनेगल ने आगामी वर्षों में समानांतर सिनेमा का जो इतिहास रचा वह किसी परिचय का मोहताज़ नहीं.

१९७५ आपातकाल के दिनों में विद्याचरण शुक्ल ने जब कार्नाड को कुछ ऐसी फ़िल्में बनाने को कहा जिससे सरकार की छवि को बेहतर दिखाया गया हो तो कर्नाड का जवाब था– ‘अपने आखिरी छह महीनों में आप मुझसे यह आशा कर रहे हैं!

वे फ़िल्में नहीं बनी, और कार्नाड ने छह महीने पहले ही त्यागपत्र दे दिया और स्वतंत्र लेखन की शुरुआत की.

१९६४ में तुगलकलिखा जिसका अंग्रेजी अनुवाद भी खुद ही किया, तुगलक उनकी यात्रा में मील का पत्थर साबित हुई जिसके मंचन में इब्राहीम अल्काजी, मनोहर सिंह जैसी हस्तियाँ एक साथ आईं. मुहम्मद बिन तुगलक के जटिल व्यक्तित्व पर केन्द्रित यह नाटक कार्नाड को आधुनिक रंगमंच के इतिहास में शामिल करनें को अकेला ही काफी था. संस्कारा (१९७०) (कन्नड़ फिल्म) हयवदन (१९७५) नाग मंडला (कन्नड़-१९९०) उनके उल्लेखनीय नाटक और फिल्म रही. हिंदी फ़िल्में स्वामी, मंथन, निशांत, गोधुली, चेल्वी, वो घर, उत्सव, सूत्रधार, सुर संगम, अग्नि वर्षा, डोर, इकबाल, और आखिरकार टाइगर जिंदा हैऔर भी कई फिल्मों में अभिनय और निर्देशन से जुड़े कार्नाड टी वी धारावाहिक मालगुडी डेज और इन्द्रधनुष में भी देखे गए.

१९७० और ८०  के दशक का समानांतर सिनेमा, कन्नड़ नाटक और फ़िल्में उनकी चर्चा के बिना अधूरी हैं. फिल्म और टेलिविजन संस्थान, पुणे, फुलब्राईट स्कॉलरशिप, ज्ञानपीठ पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार, निर्देशन (१९७१) और पटकथा लेखन (१९७७) के राष्ट्रीय पुरस्कार, पद्म भूषण (१९९२), नेहरु सांस्कृतिक केंद्र, लन्दन के सास्कृतिक प्रतिनिधि के रूप में वे भारत की सांस्कृतिक नीति निश्चित करने में भी काफी सक्रिय भूमिका निभाते रहे. ये उपलब्धियां उनके राजनितिक और लेखकीय प्रतिबद्धता के आड़े न आ सकीं, ये सब उनके गहन रचनात्मक व्यक्तिव् के कई आयाम हैं जो उन्हें अपनी पीढ़ी का प्रखर कलाकार बनाते हैं जिनका नैतिक आग्रह उसकी सृजनात्मकता के साथ साथ विस्तार पाता रहा.

गिरीश कर्नाड के विषय में सोचते ही स्वामीफिल्म का जिम्मेदार और गंभीर घनश्याम याद आता है जिसकी पत्नी किसी और से प्रेम करती है, ‘सुर संगमका वह शास्त्रीय गायक याद आता है जो अपने मूल्यों पर अडिग रहता है, मालगुडी डेज का वह ज्ञानी और गंभीर पिता याद आता है जो बड़ी ही सरलता से अपनी संत्तान को स्वाभिमान का पाठ पढाता है. अपने व्यक्तित्व, आवाज़, आँखों का बेहद मंजा प्रयोग उन्हें एक बेहतर संवेदनशील अभिनेता के रूप में स्थापित  करता था.  उनका भव्य व्यक्तित्व उनके निभाए किरदारों को समयातीत बनाने में पूरी मदद करता था. मेरे मन में एक और तस्वीर उभरती है जिसमें ८० वर्ष के गिरीश कार्नाड अपनी नाक में ट्यूबलगाए हाथ में मी टू अर्बन नक्सलकी तख्ती थामे धीर गंभीर मुद्रा और अविजित सी नज़र आती  आँखों के साथ गौरी लंकेश की हत्या की सालाना  शोक-सभा में नज़र आते हैं. उनका स्वास्थ्य फेफड़े की बीमारी की वजह से काफी कमज़ोर नज़र आया पर उनकी इच्छाशक्ति और नैतिक साहस अब भी पूरी मजबूती से कट्टरपंथियों के विरुद्ध खड़ा था.

वे जानते थे हत्यारों की सूची में गौरी लंकेश से पहले उनका नाम था क्योंकि उनकी मुखर सोच कट्टर हिन्दुत्ववादियों के गले नहीं उतरती थी पर यह उनकी चिंता का विषय नहीं था. वे शायद कुछ गिने चुने रंगकर्मियों में से थे जिनके नाटकों से प्रदेश की राजनीति प्रभावित होती रही. २०१२ का उनका वी. एस. नायपाल के विरुद्ध दिया गया भाषण याद आता है जिसमें उन्होंने नायपाल के मुस्लिम विरोधी बयान की जमकर आलोचना की थी. ये सारी स्मृतियाँ, सभी तस्वीरें उनकी वैचारिक और सामाजिक प्रतिबद्धता का शानदार और बेमिसाल बयान हैं. वे जो सोचते थे वही लिखते थे वैसा ही व्यवहार करते थे और अपने नाटकों में भी उन्होंने उसी सोच की पैरोकारी की उसे पुनर्स्थापित किया जिसका सपना ६० के दशक में भारत का कलाकार और बुद्धिजीवी वर्ग देखता था.

१९६८ का एक वाकया याद करते हुए वे कहते हैं
मैं और मोहन राकेश कलकत्ते में किसी संगीत नाटक के प्रदर्शन पर कोई अतिनाटकीय गीत सुनते हुए एक दूसरे को और देखकर हंस पड़े और मोहन राकेश ने कार्नाड की और मुड़कर कहा– ‘जानते हो हम क्यों हंस रहे हैं? क्योंकि हम जानते हैं आधुनिक भारतीय नाटकों का भविष्य हमारे हाथ में है’ ! यह पूरी तरह सच भी था क्योंकि इस पीढ़ी ने एक दूसरे के नाटकों के अनुवाद और मंचन अपनी भाषाओं में किया, एक दुसरे का हाथ थामे वे आधुनिक भारतीय नाटकों के भविष्य की और बढे.
अपने किसी इंटरव्यू में कार्नाड कहते हैं
मेरी माँ मुझे जन्म नहीं देना चाहती थीं, पर जिस दिन वे गर्भपात करवाने डॉक्टर के पास गईं, डॉक्टर छुट्टी पर थीं. बाद में गर्भपात की बात वे भूल गईं और मेरा जन्म हुआ. जब मैंने यह जाना तो यह विचार कि दुनिया मेरे बिना भी अस्तित्व में होती और ऐसी ही चल रही होती, मुझे स्तब्ध कर गया. वे पांच मिनट मुझे जीवनं की अनर्गलता का पता देने को काफी थे हालांकि बाद में मैं यह बात भूल गया’.
वे जीवन की अनर्गलता भूल गए या उसे आत्मसात कर जो जीवन मिला उसे पूरी ईमानदारी निर्भीकता और प्रतिबद्धता से जीने की कोशिश करते रहे कहना कठिन है क्योंकि उनका पूरा जीवन, उनकी रचना यात्रा, उनके नैतिक, सामाजिक  राजनितिक सरोकार जीवन की निरर्थकता के बरअक्स मायने ढूंढते जीवन का पुनर्पाठ और पुनर्स्थापन ही नज़र आता है, ठीक उनके नाटकों की तरह जिसमें इतिहास और मिथकों का पुनर्पाठ था और जिसका पटाक्षेप १० जून २०१९ को फेफड़े की लम्बे समय से चली आ रही बीमारी से हो गया.

यह समय शायद कठिन सिद्ध होगा आधुनिक भारतीय रंगमंच के आने वाले दिनों के लिए जिसमें गिरीश कार्नाड की उपस्थिति नहीं होगी और उन सार्वजनिक मंचों पर उनकी अनुपस्थिति खलेगी जहाँ मुखर प्रतिपक्ष की भूमिका में वे हमेशा नज़र आते थे.





मैं कहता आँखिन देखी : विष्णु खरे से व्योमेश शुक्ल की बातचीत

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 (फोटो सौजन्य : सुघोष मिश्र)

विष्णु खरे से व्योमेश शुक्ल की यह बातचीत मुक्तिबोध पश्चात हिंदी के दो महत्वपूर्ण कवियों रघुवीर सहाय और श्रीकांत वर्मा पर  केन्द्रित है. कविता की जैसी प्रकृति है वह कुछ भी केन्द्रित नहीं रहने देती. आप बात शुरू करते हैं चिड़िया पर, पर वह तो आकाश से होते हुए आखेटक तक पहुंच जाती है और संस्कृति पर अपने चोंच से चोट करने लगती है.

साहित्य, समाज, राजजनीति, कुंठा, अहंकार सब शामिल हैं इस में. दो कवियों का कवियों पर यह संवाद कविता की पगडंडी पर दूर तक जाता है.  


धर्मनिरपेक्षता भारतीय कविता का सबसे बड़ा हासिल है        
विष्णु खरे से व्योमेश शुक्ल की बातचीत


कवि, आलोचक, अनुवादक, पत्रकार और फ़िल्म-अध्येता विष्णु खरे शुरू से अंत तक हिंदी को असहज करते रहे. उनकी निर्भीक, तीखी, जटिल और अपने वक़्त से आगे की बातें लगातार लोगों को उलझन और तक़लीफ़ में डालती रहीं. फिर भी, इस दुनिया ने उन्हें बहुत प्यार किया. उन्होंने भी इस दुनिया को बहुत प्यार किया. उनका गुस्सा रमते जोगी की फटकार जैसा था, जो हिंदी की कृतज्ञ-कृतघ्न बिरादरी पर आशीर्वाद और शाप की तरह गुज़रा. साहित्य संसार ने अनोखे ढंग से उन्हें बर्दाश्त किया और वह भी इसे सह गये. इस अनमोल पारस्परिकता का बीते उन्नीस सितंबर को पटाक्षेप हो गया जब उनके शरीर ने नई दिल्ली के जी. बी. पंत अस्पताल के सघन चिकित्सा कक्ष में अंतिम साँसें लीं. इस मृत्यु पर सोशल नेटवर्क पर मची गहमागहमी के बाद यह भी तय है कि उनकी कविता और आलोचना का खाता जल्दी बंद होने वाला नहीं है. जब तक बुरी और नक़ली कविता को सज़ा मिलती रहेगी, उनकी शख्सियत की स्पिरिट ज़िन्दा और आबाद रहेगी.
उनके साथ यह बातचीत दिसंबर 2014 में बनारस में हुई थी. इस बातचीत के साथ हमने उनकी सौ कविताएँ भी रिकॉर्ड की थीं.  








मैं आपसे आज की हिंदी कविता के बारे में बात करना चाहता हूँ और यह भी कि आप बहुत पीछे न जायें, निराला तक भी नहीं. बल्कि हम मुक्तिबोध से भी आगे निकल आयें. आपकी पसंद-नापसंद, आपकी जाँच, आपकी निराशा और आपकी उम्मीद इस कविता से गहराई से जुड़ी हुई है. एक सिलसिले में हमलोग उन्हें जानना चाहते हैं.
मुक्तिबोध के बाद रघुवीर सहाय निस्संदेह हिंदी के सबसे बड़े कवि हैं. रघुवीर सहाय ने जिस शिद्दत और जिस गहराई से अपने बाद की युवा पीढ़ी को प्रभावित किया है, उतना मुक्तिबोध नहीं कर पाये. उसका कारण है. मुक्तिबोध की कविता में एक क्लैसिकियत है और रियाल पॉलिटिककी कमी है – उनके यहाँ प्रतीक हैं – डोमाजी उस्ताद हैं, ओरांग उटांग हैं, मुग़लिया कोर्ट से भागता हुआ क़ैदी है. रघुवीर सहाय ने इन सबको छोड़ दिया. वह इस तरफ़ गये ही नहीं. उन्होंने बिलकुल उनलोगों को चुना – उन घटनाओं को, उन वारदातों को, उन व्यक्तियों को – जो या तो कल के अख़बार में थे, या आज के अख़बार में हैं या कल के अख़बार में होंगे. इससे उनकी कविता अख़बारी नहीं बनती. आज सारे संसार में क्या हुआ और कल क्या हो सकता है, इसकी जगह सिर्फ़ एक ही है – इनफार्मेशन - यानी समाचार-पत्र, क्योंकि आप कोई नज़ूमी या भविष्यद्रष्टा तो हैं नहीं, कि आगे होने वाले की कल्पना कर लें. आज की ठोस घटनाओं से – जो कल हुई ठोस घटनाओं का ही प्रसार हैं – आप कल होने वाली घटनाओं तक जा सकते हैं. इसके पीछे एक तर्क, एक प्रोग्रेसन, एक इतिहास है. ख़ला में इतिहास पैदा नहीं होता. पहले और बाद – ये हर इतिहास के लिये ज़रूरी हैं. रघुवीर सहाय के यहाँ सबसे बड़ी सिफ़त यह है कि वह हमारे वर्ग के आदमी थे. हमारे वर्ग के आदमी तो मुक्तिबोध भी थे, लेकिन मुक्तिबोध एक बहुत ही हाइटेंड सेंसिबिलिटी पर काम करते थे. ऐसा नहीं कि उनके यहाँ सड़क का यथार्थवाद सिरे से ग़ायब था. वह कभी-कभी आता था.

रोज़ाना यथार्थ मुक्तिबोध के यहाँ कम या ग़ायब क्यों है ?
दरअसल मुक्तिबोध के साथ एक समस्या और थी. वह 1950 के ज़माने के सरकारी नौकर थे और उस ज़माने के सरकारी नौकर को पॉलिटिक्स डिस्कस करने की अनुमति नहीं थी. इसलिए मुक्तिबोध डे-टू-डे पॉलिटिक्स डिस्कस करने से बचते थे. वह सिद्धांतों में गये. मुक्तिबोध के सारे राजनीतिक लेख उपनाम से लिखे गये हैं. उन्होंने भारत की रोज़ाना राजनीति के बारे में बहुत कम लिखा. उनका सारा लेखन आदर्शवादी और वैश्विकतावादी रहा. सोवियत रूस में जो हो रहा है, अमेरिका में जो हो रहा है, अल्जीयर्स में जो हो रहा है, वह उनके लेखन में है. यहाँ तक कि पाकिस्तान पर भी उनके बहुत सारे कमेंट्स हैं. ये सबकुछ उन्होंने उपनाम से किया है, क्योंकि पहचान लिया जाना तब बहुत बड़ा और वास्तविक डर था. उस ज़माने में सीआईडी वाक़ई बहुत सक्रिय था और वाक़ई वामपंथियों के पीछे पुलिस रहती थी और अगर आप सरकारी नौकर हैं और उपनाम से लिख भी रहे हैं तो यह भी एक ख़तरनाक़ गतिविधि थी. इससे आपकी नौकरी जा सकती थी. आप जेल जा सकते थे.
तो मुक्तिबोध गहराई वाली दैनंदिन भारतीय राजनीति से दूर रहे. एक बात और थी. मुक्तिबोध इस मामले में बहुत आत्मचेतस थे कि उन्हें बड़े सिद्धांतों पर बात करनी है. उनका गद्य कभी भी बहुत ज़्यादा वास्तविक ज़मीन पर नहीं आता, यानी बहुत चालू नहीं बनता. अपना पहिया वह ज़मीन के ऊपर रखते हैं. इसलिए उनकी कविता भी कभी रघुवीर सहाय जैसी कविता हो नहीं पाई. यह एक बड़ी पैराडॉक्सिकल बात है कि बात वह साम्यवाद की करते हैं, लेकिन उनकी भाषा एकदम संभ्रांत रहती है. इसका एक कारण शायद यह भी हो सकता है कि वह अहिंदीभाषी थे और मराठी की परंपरा उनके यहाँ मज़बूत थी. वह मराठी ब्राह्मण थे. वह उस तरह बोलचाल की उर्दू-मिश्रित दैनंदिन भाषा का इस्तेमाल कर ही नहीं सकते थे. रघुवीरजी उत्तर प्रदेश के थे – लखनऊ के. रघुवीर सहाय ने शायद एक दिन भी सरकारी नौकरी न तो की और न ही उसकी परवाह की.
नहीं. वह आकाशवाणी, दिल्ली में लंबे और यादगार सिलसिले में रहे थे.
हाँ. मैं ग़लत कह गया. आकाशवाणी की नौकरी उन्होंने की. लेकिन आप उनकी शुरूआती कविता का टेम्परामेंट देखें और मुक्तिबोध का देखें. मुक्तिबोध पर असर रहा छायावाद का – छायावाद के डिक्शन का. उनका भाषा वाला रजिस्टर कभी नीचे आया ही नहीं. मुक्तिबोध पर उर्दू का कोई असर आपको कभी नज़र नहीं आयेगा. ऐसा भी कहीं नहीं लगता कि उन्होंने शायरी पढ़ी है, जबकि रघुवीर सहाय के यहाँ आप क़दम-क़दम पर पायेंगे कि भले यह आदमी शायरी का दिखावटी ज्ञान न बतला रहा हो, लेकिन यह उर्दू में पगा हुआ है. और फिर, आल इंडिया रेडियो के किस सेक्शन में काम किया उन्होंने - ख़बरों के. वह संगीत में नहीं गये, टॉक्स में नहीं गये. वह ख़बरों की दुनिया में गये. वहाँ इस देश का राजनीतिक यथार्थ उन्हें बार-बार प्रेरित करता रहा कि वह जनता की भाषा में बात करें, जनता के लिए परिचित और उपयोगी बिंब लायें. वह वात्स्यायनजी के साथ थे और एक साहित्यिक पत्र के संपादक हो गये थे, तब भी, उनकी भाषा में वह निम्नमध्यवर्गीय बनक हमेशा रही, जो हमें यह बताकर आकृष्ट करती है कि यह आदमी हमारे तबके का है, हमारी भाषा में बोलता है. आल इंडिया रेडियो छोड़कर नवभारत टाइम्स में आने के बाद, यानी ठेठ पत्रकार हो चुकने के ठीक बाद वह संसद के संवाददाता बनते हैं. संसद लोकतंत्र का अखाड़ा है. अखाड़े की रिपोर्टिंग तो अखाड़ेबाज़ी की भाषा में ही करनी होगी. जब आप अखाड़े के पहलवानों से रोज़ मिलेंगे, उनके साथ उठेंगे-बैठेंगे तो आपमें भी वह लहज़ा आ जायेगा, जो नियमित अखाड़े जाने वाले व्यक्ति में आ जाया करता है, भले वह स्वयं अखाड़ेबाज़ न हो. एक अच्छे बॉक्सिंग मैच की रिपोर्टिंग करने वाला भले बॉक्सर न हो, बॉक्सिंग की सारी टेक्निकल शब्दावली वह जानता है. सारे दाँवपेंच वह जानता है. तो जानते हुए भी न जानना या न जानते हुए भी सबकुछ जानना. न करते हुए भी सबकुछ करना, ये बात रघुवीर सहाय में थी.

हम मुक्तिबोध बनाम रघुवीर सहाय के दिलचस्प और असंभव मुक़दमे की ओर जा रहे हैं.
मुक्तिबोध के लिए हमारे मन में बहुत आदर है. बहुत आदरणीय आदमी के लिए होने वाला प्रेम भी है. रघुवीर सहाय के लिए हमारे मन में प्रेम बहुत है और आदर भी उतना ही है. मुक्तिबोध हमें दूर ही रखते हैं. उनका प्रभामंडल – विराट स्वरुप – हमें उनके बहुत पास जाने नहीं देता. हमें लगता है कि यह आदमी बहुत महान, बहुत गंभीर है. हमारी मानवता इसकी महानता में ख़लल डालेगी. हम वैसे नहीं हो सकते और हम इसके साथ बहुत देर तक रह भी नहीं सकते. जबकि रघुवीर सहाय आपको शामिल करते हैं. रघुवीर सहाय आपको आश्वस्त करते हैं. रघुवीर सहाय यह बतलाते हैं कि जो तुम इस राजनीति के बारे में समझ रहे हो, वह कोई बहुत ग़लत नहीं है, सोच मेरा भी यही है. वह आपको पुष्ट करते हुए चलते हैं. क्या तुम यह नहीं मानते हो कि संसद फेल हो चुकी है ? मैं भी मानता हूँ कि संसद फेल हो गयी है. तुम यह मानते हो कि नब्बे प्रतिशत नेता भ्रष्ट हैं, तो मैं भी मानता हूँ कि शायद पंचानबे प्रतिशत भ्रष्ट हैं. यदि तुम्हारी नाक तक इनकी बदबू आती है तो मेरी नाक तक भी आती है. यदि तुम इन्हें पाखंडी और धूर्त समझते हो तो बिल्कुल सही है, मैं भी समझता हूँ. पहली बार कोई हिंदी कवि जनता के ओपिनियंस के इतने नज़दीक़ आया. जनता भी पहली बार किसी कवि के ओपिनियंस के इतने नज़दीक़ आई. वह हिंदी के इतिहास में बेशक़ अपने ढंग के एकमात्र कवि-पत्रकार हैं.

श्रीकांत वर्मा ?
श्रीकांत वर्मा आते हैं उनके बाद. सर्वेश्वर भी उनके बाद आते हैं. लेकिन, जिस तरह रघुवीर सहाय ने दैनंदिन हिंदीभाषी उत्तरभारतीय राजनीति को पकड़ा है, वह अद्भुत तो है ही, साथ में, हमें यह भी देखना है कि वह उत्तर प्रदेश के आदमी हैं. अगर आप उस समय के हिंदी प्रदेश की राजनीतियों को देखें, तो मध्यप्रदेश में कोई ख़ास अपनी राजनीति थी नहीं. वह राजनीति राजस्थान में भी नहीं थी. हम हरियाणा की बात ही नहीं करते. दो ख़ास क़िस्म की राजनीतियाँ थीं, जिनके शायद दो ख़ास अपने रुझान रहे हों. उनकी अपनी भाषाएँ थीं. उनकी संस्कृतियाँ थीं. वे बिहार और उत्तर प्रदेश की राजनीतियाँ हैं. बिहार की राजनीति पर तब भी उत्तर प्रदेश की राजनीति का साया है. मध्यप्रदेश एकदम मार्जिनल था उस समय. आज भी, एक तरह से मध्यप्रदेश मुख्यधारा की राजनीति में है नहीं. राजस्थान मेनस्ट्रीम पॉलिटिक्स में नहीं है. हिंदीभाषी राजनीति की मेनस्ट्रीम बनती है उत्तर प्रदेश और बिहार को मिलाकर ही. यह विचित्र बात है. रघुवीर सहाय इसी राजनीति को बहुत इंटीमेटली पकड़ते हैं. मुक्तिबोध का परिचय उस ज़माने के मध्यप्रदेश की राजनीति से नहीं था उतना. लोग एक और बात भूल जाते हैं कि मुक्तिबोध एक रियासत में पैदा हुए थेमालवा कभी भी मध्यप्रदेश की मेनस्ट्रीम राजनीति में नहीं रहा. मध्यप्रदेश की मुख्यधारा में तो महाकोसल और छत्तीसगढ़ रहे. मालवा के साथ एक तरह की अजनबियत अभी तक बनी हुई है. यानी मुक्तिबोध हिंदीभाषी नहीं, मुक्तिबोध ठेठ मध्यप्रदेश के राजनीतिक क्षेत्र के आदमी नहीं. वह नागपुर जाते हैं, लेकिन नागपुर पूरा का पूरा महाराष्ट्र में चला जाता है. 1956 में नये राज्य बन गये. विदर्भ और बरार का वह इलाक़ा - जिसमें मुक्तिबोध रहते थे – जो तब कांग्रेस का गढ़ था – वह मध्यप्रदेश के अस्तित्व में आने से पहले ही कटकर अलग हो जाता है. मुक्तिबोध को कभी मध्यप्रदेश की राजनीति समझ में नहीं आई. उन्होंने उसे समझने की कोशिश भी नहीं की. शुरू से ही, उनका आधार मार्क्सवादी था.

लेकिन रघुवीर सहाय मार्क्सवादी नहीं थे.
रघुवीर सहाय भी ज़रूर मार्क्सवादी थे, लेकिन उस तरह के, सिद्धांतों में घुसे हुए खाँटी मार्क्सवादी नहीं थे, जो मुक्तिबोध थे. सैद्धांतिक पक्ष में मुक्तिबोध का बौद्धिक रिगर रघुवीर सहाय से कहीं ज़्यादा था. रियाल पॉलिटिक्स से मुक्तिबोध उतने ही अछूते थे. उनसे स्कैंडलबाज़ी नहीं होती थी. वह मध्यप्रदेश के किसी नेता पर व्यंग्य लिख नहीं सकते थे. वह रिपोर्टर नहीं थे. वह भी आल इंडिया रेडियो में थे, लेकिन उस तरह के नहीं, जैसे रघुवीर सहाय थे. उनकी सर्विस कंडीशनभी देखनी पड़ेगी, जो बड़ी दिलचस्प चीज़ हो सकती है, कि मुक्तिबोध का कैडरअंततः था क्या. मुक्तिबोध बहुत डरते थे. वह सरकार से बहुत ज़्यादा डरने वाले आदमी थे, क्योंकि वह एक तरह का एडवेंचरिज्मअफोर्ड कर नहीं सकते थे. रघवीर सहाय बहुत कम उम्र में ही आज़ाद हो गये थे और उन्हें इस बात की चिंता नहीं थी कि किसी सरकारी नौकरी में वह हैं, या नहीं हैं. वात्स्यायन तो उन्हें बतौर फ्री पर्सनही दिल्ली लाये थे. उसके पहले भी वह वात्स्यायन का ही काम करते थे – प्रतीक में. रघुवीर सहाय ने सरकारी नौकर के बतौर शुरू ही नहीं किया. रघुवीर सहाय का यह बहुत बड़ा एडवांटेजहै. उन्होंने शुरू से ही मन बना लिया है कि वह पत्रकार बनेंगे. सरकारी नौकरी नहीं करेंगे. करेंगे तो मजबूरी में. छोड़ देंगे. सारे जीवन-भर, मुक्तिबोध का लक्ष्य और नियति सरकारी नौकरी रही. आख़िर में, लेक्चररशिपप्राप्त करने के लिए उन्होंने सरकारी नौकरी छोड़ी. एयरफोर्समें थे, फिर आल इंडिया रेडियोमें चले गये.
रोज़मर्रा राजनीति पर सहायजी की पकड़ बहुत पैनी थी, जबकि मुक्तिबोध की निगाह उसके वैश्विक स्वरूप पर है. रघुवीर सहाय इतने ज़्यादा कमिटेड नहीं थे मार्क्सवाद को लेकर. रघुवीर सहाय ने एक भी मार्क्सवादी पुस्तक ध्यान से न पढ़ी होगी. वह एक इंट्युटिवमार्क्सवादी रहे. मुक्तिबोध ऐसा कर ही नहीं सकते थे. मुक्तिबोध क्लैसिकलग्रंथों में घुस गये होंगे – दास कैपिटलवगैरह में. मुक्तिबोध को उसके बग़ैर चैन मिलता ही नहीं. रघुवीर सहाय इन सबसे मुक्त थे. निस्संदेह इस मुक्ति के पीछे वात्स्यायनजी भी रहे होंगे. एक और बात है कि श्रीपत राय और अमृत राय का जो मार्क्सवादी स्वरुप था, उससे रघुवीर सहाय को नफ़रत ही हुई होगी. जिस तरह की बहसबाज़ी ये लोग करते थे, उससे नफ़रत मुक्तिबोध को भी थी. अजीब बात है कि पार्टी की सारी कसरतों-कवायदों से मुक्तिबोध को बहुत नफ़रत थी. वह नफ़रत रघुवीर सहाय को भी थी. रघुवीर सहाय मार्क्सवाद से दूरी बनाये हुए थे. मुक्तिबोध मार्क्सवादी सिद्धांत से तो बहुत इंटिमेटहैं, हिन्दुस्तान की मार्क्सवादी पॉलिटिक्समें बिल्कुल नहीं हैं. रघुवीर सहाय ने इन सारी चीज़ों का अपने कलात्मक लाभ के लिए इस्तेमाल कर लिया. उन्होंने तय किया था कि मुझे इस तरह का प्रतिबद्ध व्यक्ति नहीं होना है. जनता को जिस तरह की प्रतिबद्धता की समझ है, वैसा प्रतिबद्ध होना है. इस मामले में उनके आइकनथे लोहिया.
लोहिया जनता के आदमी थे. लोहिया संसद में बोलने वाले आदमी हैं, बहस करने वाले आदमी हैं, मज़ाक़ उड़ाने वाले आदमी हैं, पोलेमिकल आदमी हैं. लोहिया हिंदी वालों के बीच उठने-बैठने वाले आदमी हैं. महाभारत पढ़े हुए आदमी हैं. उन्हें औरतों से भी प्यार हैं. वह द्रौपदी के बारे में एक अलग दृष्टि रखते हैं. वह जर्मनी से आये हैं. उनका बौद्धिक संसार यूरोप का है. यूरोप का पोस्ट वॉर एटीट्यूडहै उनका. मुक्तिबोध ने वह दुनिया देखी ही नहीं थी. उनके पास पर्चे आते थे सोवियत रूस के. लोहिया को उसकी कोई ज़रूरत नहीं थी. रघुवीर सहाय को कोई आवश्यकता नहीं थी उसकी. रघुवीर सहाय का लिबरेशनइसलिए मैं बड़ा मानता हूँ कि वह कभी भी वात्स्यायन जैसे स्नॉबनहीं बने. वात्स्यायन में ग्रासरूट पॉलिटिक्ससे एक अलग नफ़रत है. प्रतीकमें भारतीय राजनीतिक यथार्थ पर एक भी लेख नहीं है. वात्स्यायनजी ने ख़ुद रियालपॉलिटिकपर एक भी लेख नहीं लिखा, क्योंकि वह भी परहेज़ करते थे. उनको लगता था कि राजनीति पर बात करने वाले वल्गरलोग हैं. मुक्तिबोध को वैसे लोग बेकार लगते थे, उन्हें पढ़ना बेकार लगता था. यदि मेरे पास मार्क्सवाद का सबकुछ समझने-समझाने वाला वेपनहै तो मैं क्यों जाऊं ? वात्स्यायन कह रहे हैं कि मैं इस सब से इतना ऊपर उठा हुआ हूँ कि मैं क्यों जाऊं ? उन्हें एक डर्टी वर्ककरने वाला मिल भी गया – रघुवीर सहाय – यह जायेगा जनता के बीच. यह बड़ा अजीब है कि मुक्तिबोध कमिटेड होकर रह गये, जनता में नहीं पहुँचे, वात्स्यायन न इधर कमिटेड हुए, न उधर कमिटेड हुए – जनता के बीच वह भी नहीं गये. श्रीकांत वर्मा की स्नॉबरी वात्स्यायन वाली है और ग्रासरूट पॉलिटिक्ससे बचने के लिए वह सुपरस्ट्रक्चरका फ़ॉर्मूला अपनाते हैं, कि मैं मिनी माता आगमदास के फ़्लैट में रहकर ऊँचा पॉलिटिक्स करूंगा. वहीं उन्होंने लोहिया से भी राब्ता क़ायम किया. लेकिन जब उन्होंने देखा कि लोहिया का रास्ता सिवा संघर्ष के रास्ते के कुछ नहीं है, उससे मुझे कुछ नहीं मिलेगा, तो धीरे-धीरे उन्होंने मुक्तिबोध को छोड़ दिया, लोहिया को छोड़ दिया और इंदिरा गाँधी को अपना लिया. जो स्नॉबरी वात्स्यायन राजनीति में भाग न लेकर दिखा रहे थे, श्रीकांत ने वही स्नॉबरी कांग्रेस की पॉलिटिक्स में भाग लेकर दिखा दी. उन्होंने स्नॉबरीदिखाई आम कार्यकर्ता के प्रति. वह ख़ुद कार्यकर्ता बने ही नहीं. उन्होंने तय किया कि मैं ख़ास वर्करबनूंगा. मुझे अगर जाना है तो मैं सीधा इंदिरा गाँधी के पास जाऊंगा. ऐसा करने के लिए एक बौद्धिक बेस उन्होंने बनाया. वह दिनमान में पॉलिटिकल रिपोर्टिंगकरते थे, लेकिन उनकी पॉलिटिकल रिपोर्टिंगकुल मिलाकर प्रो कांग्रेसथी. जब रघुवीर सहाय खाँटी पॉलिटिकल संवाददाता थे, तब श्रीकांत वर्मा सड़क पर थे. तब तक श्रीकांत वर्मा ने पत्रकारिता में कोई बहुत बड़ा काम नहीं किया था. उस ज़माने में नवभारत टाइम्स में सीधे विशेष संवाददाता होकर जाना और जाते ही सीधा संसद की कार्रवाई देखने पहुँच जाना – जहाँ आपको महान नेता रोज़ दिख रहे हैं. वहाँ बैठे आप रोज़ नेहरू को देख रहे हैं, पूरी कैबिनेट को देख रहे हैं. आप लोहिया की सारी हरकतें देख रहे हैं. आप कर्पूरी ठाकुर और संपूर्णानंद को देख रहे हैं. पंत को देख रहे हैं. रघुवीर सहाय का यह प्रशिक्षण अनमोल है, लेकिन इसके पीछे रघुवीर सहाय की चॉइस है कि मैं इस देश की राजनीति के बहुत गहरे अन्दर जाऊंगा और मैं इसकी गलाज़त और गन्दगी से डरूंगा नहीं, बल्कि उसी को उजागर करूंगा. यह बहुत बड़ा फ़ैसला था, वर्ना वह भी श्रीकांत वर्मा बन जाते. रघुवीर जी थोडा डरते भी थे कि अगर यह आदमी इतने क़रीब पहुँच गया है कांग्रेस की इतनी बड़ी नेता के, तो कल को पता नहीं क्या हो सकता है. और दरअसल वही हुआ. रघुवीर सहाय के सबसे ख़राब डर भी तो चरितार्थ हुए न. लेकिन उसके बाद पत्रकारिता पर पड़ने वाले राजनीति के असर की कल्पना रघुवीर सहाय ने नहीं की थी, कि कभी मेरे अमुक तरह के इंटेलेक्चुअलहोने की गाज़ मेरे संपादक होने पर गिर सकती है और मेरा प्रो लोहिया होना मेरे ख़िलाफ़ इस्तेमाल किया जा सकता है, लेकिन मैं इंदिरा गाँधी के पास नहीं जाऊंगा, उनकी चापलूसी नहीं करूंगा, क्योंकि वहाँ एक व्यक्ति पहले से मौजूद है – श्रीकांत वर्मा.

श्रीकांतजी और सहायजी के बीच कैसे रिश्ते थे ?
श्रीकांत वर्मा ने निस्संदेह रघुवीर सहाय को तक़लीफ़ दी. तब क्या हुआ था, इसका ठीक-ठीक ब्यौरा बहुत कम मालूम है, लेकिन कुल मिलाकर रघुवीर सहाय को अपने बेस्ट पीरियडमें दिनमान छोड़ना पड़ा. दिनमान सबसे अच्छा और सबसे लंबा रघुवीर सहाय के वक़्त ही निकला. वात्स्यायनजी ने स्थापित किया, लेकिन कितना चलाया ? चार-पाँच साल. रघुवीर सहाय टेकओवर करते हैं 68-69 में और वह इमरजेंसी के बाद तक चलता है. इन दस सालों में उन्होंने भारतीय राजनीति की सारी उठापटक को बाहर के साथ-साथ ख़ुद अपने जीवन पर भी घटते देख लिया. उन्होंने देख लिया कि इस देश की सारी ट्रेजेडी और कुछ नहीं, यहाँ की राजनीति है. यह एहसास उन्हें मार्क्सवाद की तरफ़ नहीं ले गया, यह अनुभव उन्हें लोहियावाद की ओर ले गया. लोहियावाद को सबसे बड़ा ब्लो इमरजेंसीने दिया. उसके बाद लोहियावाद लौटा भी, लेकिन तब तक वह ख़ुद करप्टहो चुका था, क्योंकि सबलोग उसमें घुस गये थे. आप उस वक़्त यह तय नहीं कर सकते थे कि आपातकाल का विरोध सिर्फ़ लोहिया के सिद्धांतों पर होगा. उस समय सबसे बड़ी पार्टी जनसंघ थी. अगर जनसंघ ही इंदिरा गाँधी के ख़िलाफ़ आगे है तो लोहिया बहुत आगे जाते नहीं उस धारा में. इमरजेंसी की एडवांटेजजनसंघ ने लोहियावादियों से छीन ली. कांग्रेस-विरोध की विरासत तब से अब तक छिनी हुई ही है. वह आज तक लोहिया-विचार के खेमे में लौटी नहीं. रघुवीर सहाय इसीलिए एक बड़े भारी राजनीतिक कवि तो बनकर रह गये, उसके आगे नहीं पहुँचे. उसका लगातार दंड उन्हें भुगतना पड़ा. रघुवीर सहाय की जमापूँजी – उनकी राजनीति का एडवांटेजनया कवि लेता है. वह नया कवि – जो नक्सलवाद के उदय के बाद वामपंथी होकर लोहियावाद को नकार देता है, क्योंकि इसबीच वह लोहिया और जयप्रकाश नारायण की कई चालाकियों को समझ जाता है. चालाकी क्या सीमाओं को, कि ये इससे आगे जा ही नहीं सकते. इनका जो समाजवाद है, वह बहुत ज़्यादा काम आता ही नहीं है.

क्या लोहिया के विचार की सीमा रघुवीर सहाय और सहायोत्तर कविता की भी सीमा है ?
राजनीतिक राजनीति की सीमायें अलग होती हैं और राजनीतिक साहित्य की सीमायें अलग. अगर आप लोहिया से प्रभावित होकर संपूर्ण क्रांति की बात साहित्य में लिखें तो वह प्रैक्टिकलभले न हो, एक बड़ा मैसेजदेती है. लोहिया कहते हैं कि अगर मेरी पॉलिटिक्स से संपूर्ण क्रांति आयेगी तो उसके औज़ार कहाँ हैं आपके पास ? उसका एजेंडा कहाँ है ? उसकी पद्धति क्या होगी ? यदि आपके ऊपर राष्ट्र की ज़िम्मेदारी गिर पड़ी तो आप डिफेन्सके सौदों में करेंगे क्या ? लाखों-करोड़ों की योजनाओं में किस तरह से आप करप्शननहीं होने देंगे ? समर्पित कार्यकर्ता आपके पास कहाँ हैं ? वैसे अफ़सर कहाँ हैं आपके पास ? समाज उस ओर कब बदलेगा, जहाँ हर व्यक्ति कहे कि मैं एक पैसा न लूंगा, न दूंगा. मुझे ईमानदार काम चाहिए. जहाँ हर सर्विस फर्स्ट रेटहो. जहाँ चलती ट्रेन में करप्शनन होता हो. जहाँ स्लीपरकी सीटें न बिकती हों. जहाँ नक़ली टिकटें न मिलती हों. कठिनाई असल राजनीति की बात से शुरू होती है.

आपके ख़याल में रघुवीर सहाय क्या इसी लाइन पर टिके रहे ?
नहीं. बाद में रघुवीर सहाय ने एक लेफ्टिस्ट स्टांसअपना ही लिया. वह सुरक्षित था. लोहिया और जयप्रकाश ऐसा नहीं कर सकते थे. मुलायम सिंह यादव लोहियावादी समाजवाद के सबसे ख़राब उदाहरण हैं. उनका समाजवाद क्या है ? या बसपा की ही क्या नीति है ? जब तक आपके पास एक साइंटिफिक एजेंडानहीं होगा, कुछ नहीं हो सकता. रघुवीर सहाय की कविता ने बहुत बड़े पैमाने पर राजनीति की भ्रष्टता को पहचाना. उन्होंने बताया कि राजनेताओं से उम्मीद नहीं की जा सकती.

लेकिन इसी बात को कोई कब तक दोहरायेगा ? कविता में या कविता के बाहर भी, कब तक ? इसके आगे क्या होगा ? लोग ज़रूर पूछेंगे.इसके बाद खाँटी आइडियोलॉजीमें जम्प करना होगा, जो आप करना नहीं चाहते. रघुवीर सहाय एक हद के बाद कभी आगे गये नहीं. आलोक धन्वा जैसे जो कवि गये, उनका क्या हुआ ? जन संस्कृति मंच की विचारधारा को ही क्या लेखक अपना रहे हैं ? क्या सांस्कृतिक संगठनों के पास इस देश के भविष्य का कोई ख़ाका है ? इस देश के भयंकर डाइमेंशन्सहैं – उनको कोई संगठन समझता भी है ? रघुवीर सहाय की कविता की सबसे बड़ी उपलब्धि यही है कि उसने हिंदी कविता को हमेशा के लिएपोलिटिकली कांशसबना दिया. उसने पहली बार यह बतलाया कि कविता का बहुत बड़ा इनपुटराजनीति है. यह निराला बता नहीं पाए थे. कबीर उस ज़माने में थे, जब ऐसा बताया जा नहीं सकता था. तब अधिक से अधिक हिंदू-मुसलमान और जातपात ही मुद्दे थे.
कविता आज बिल्कुल राजनीति के मोर्चे पर है. बल्कि वह एक और राजनीति ही बन गई है. हिंदी कविता हिंदीभाषी राजनीतिक क्षेत्र का वेद बन चुकी है. साहित्य में अगर राजनीति समझनी हो तो आपको हिंदी कविता के पास जाना पड़ेगा और आज की हिंदी कविता को दो ही लोग टेम्परकरते हैं. उसे लेफ्ट बनाते हैं मुक्तिबोध और आत्मवत्ता में डालते हैं रघुवीर सहाय. मुक्तिबोध उसका दिमाग़ तैयार करते हैं और रघुवीर सहाय उसका शरीर.

लेकिन दोनों में ज़्यादा बड़ा क्या है ? ज़्यादा बड़ा वामपंथी कमिटमेंट है या एक समग्र राजनीतिक अनुभव ?
पहली स्टेज कमिटमेंटकी ही है. लेकिन आप प्रगतिशील आन्दोलन की विफलता देखें. वह नकार दिया गया और रघुवीर सहाय और मुक्तिबोध को अपना लिया गया. आज कोई सुमन की बात नहीं करता, कोई नेपाली की बात नहीं करता, क्योंकि इनके पास सिवाय मोर्चेबाज़ी और छोटी मीटिंग के, कोई इन्टेलेक्टही नहीं है. बड़े आन्दोलन का इन्टेलेक्टनहीं है. हिंदी कविता को बड़े मूवमेंट का इन्टेलेक्ट मुक्तिबोध और रघुवीर सहाय देते हैं. यदि आज हिंदी साहित्य को यह एहसास है कि कितनी बड़ी समस्या उसके सामने है, तो यह मुक्तिबोध और रघुवीर सहाय के दम का ही जलवा है, और किसी का नहीं. श्रीकांत वर्मा ने समझौता कर लिया. वह मारे गये. सर्वेश्वर के यहाँ एक रियरगार्ड एक्शनहै, लेकिन वह बचकाना है. वह कन्विंसही नहीं करते.

रघुवीर सहाय के बाद क्या होता है ?
रघुवीर सहाय के बाद उनके कुँवर नारायण और केदारनाथ सिंह जैसे समकालीनों को भी सोशली कमिटेडहोना पड़ता है. ये दोनों थोड़ा पॉलिटिकली कमिटेडहोने का भी धोखा देते हैं, क्योंकि ये डरते हैं – मुक्तिबोध के कमिटमेंटसे भी और रघुवीर सहाय के कमिटमेंटसे भी. अगर ये दोनों आगे निकले होते तो वाकई अनुकरणीय होते. लेकिन कोई चीज़ है जो इन्हें आगे बढ़ने से रोके हुए है. ग़ालिब के शब्दों में, ‘आप  आते थे मगर कोई अनागीर भी था.’ इनके आने को कोई रोके हुए है. ये ख़ुद अपने घोड़े की लगाम पकड़े हुए हैं. वे घोड़े पर बैठे हुए हैं, उसे एड भी मार रहे हैं, लेकिन लगाम कसे हुए हैं. उनकी कविता उनका घोड़ा है और उस घोड़े को उनका आदेश है कि तू मेरी लात खा, लेकिन आगे मत जा. इस स्टांस के अपने फ़ायदे हैं, जो हम देख ही रहे हैं. जुड़े भी हैं, अलग भी हैं. इनकी कविता सर्कस वाला लोहे का घोड़ा है – पहिए वाला – एक जगह पर खड़ा – मनोरंजन करता हुआ. असली घोड़े वाले बहुत आगे निकल गये.
एक पुरानी फ़िल्म याद आ गयी. अल्सीद. अल्सीदबारहवीं-तेरहवीं सदी का एक नायक राजा है. वह इतना प्रतिष्ठित है कि उसकी मृत्यु के बाद राज्य के नागरिक सोचते हैं कि इसकी मृत्यु के बाद दूसरे राज्य की सेनायें हम पर हमला न कर दें. तो उन्होंने अल्सीदकी लाश को घोड़े पर बिठाल कर आगे खड़ा कर दिया और शत्रु सेना मारे भय के पीछे हट गई.
मुक्तिबोध और रघुवीर सहाय हमारे अल्सीदहैं. घोड़े पर बैठकर रण में सबसे आगे चलते हुए. युद्ध अभी जारी है और वे मैदान में हैं. उनके बाद धूमिल, आलोक धन्वा. धूमिल की असामयिक मृत्यु हो गयी. आलोक धन्वा चुप हो गये. इसके बाद हिंदी की प्रतिबद्ध कविता मुक्तिबोध के प्रखर सिद्धांतवाद और रघुवीर सहाय के इंटिमेट राजनीतिक अंतर्ज्ञान के गोल्डेन मीन पर है. इसका एक उदाहरण चंद्रकांत देवताले हैं. उनका पॉलिटिकल बेस कमज़ोर है. बौद्धिकता भी कम है. लेकिन राजनीति पर उसकी निगाह ज़्यादा रैडिकल है.

क्या चीज़ ज़्यादा रैडिकल है ?
रघुवीर सहाय साम्प्रदायिकता को लेकर भी बहुत ज़्यादा मुखर नहीं हैं. हिंदू-मुस्लिम सवाल पर जितनी शिद्दत से आज का कवि बोलता है, रघुवीर सहाय के यहाँ आप नहीं पायेंगे. उन्हें यह सवाल ही नहीं लगता था. पहले राजनीति सुधार लो, यह अपने आप सुधर जायेगा. यही ग़लती वामपंथियों ने की. पहले समाज सुधार लो, साम्यवाद ले आओ, जातपात, धर्म आदि अपने आप सुधर जायेगा. दंगों पर लिखी गयीं रघुवीर सहाय की कविताएँ क्या उतनी मारक हैं, जितनी बाद में लिखी गयीं ? सहायजी के धर्मनिरपेक्ष आग्रह भी न्यूट्रल क़िस्म के हैं.
क्या ऐसा है ? मुझे तो केन्द्रीय रिज़र्व पुलिस और नीम का पेड़ वाली उनकी कविताएँ याद आ रही हैं, जो आपकी स्थापना के विरुद्ध हैं. बहरहाल अगर आपकी स्थापना को मान लें, तो आज की कविता में जो पक्षधर धर्मनिरपेक्षता है, उसके उत्स कहाँ हैं ? क्या वह रघुवीर सहाय के बाद की चीज़ है ?
श्रीकांत वर्मा को देखिये. उनके यहाँ हिंदू-मुस्लिम सवाल है ही नहीं. सहायजी ने अपनी भाषा में उसको खोज और पा लिया था, लेकिन एक मुद्दे के तौर पर वह उनके लिए बड़ी चीज़ है नहीं. अग्रगामी धर्मनिरपेक्षता या साम्प्रदायिकता से सीधी भिडंत उनके यहाँ नहीं है. सीधी भिडंत श्रीकांतजी के यहाँ है, लेकिन वह विचारों नहीं, व्यक्तियों की मुठभेड़ है – इंदिरा गाँधी बनाम स्वर्ण सिंह.

तब धर्मनिरपेक्षता की हिंदी कविता में क्या अहमियत है ?

कैसी बात करते हो ? यह प्रोएक्टिव, ग़ैरतात्कालिक, ग़ैरराजनीतिक धर्मनिरपेक्षता हिंदी कविता, बल्कि भारतीय कविता का सबसे बड़ा हासिल है, जो एक मूल्य में बदल गई है और अपने सत्यापन के लिए उसे किसी दंगे या किसी अतिरेक की ज़रूरत नहीं है.  









निज घर : और वह सुघरका : सत्यदेव त्रिपाठी

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और  वो  सुघरका                                   
सत्यदेव त्रिपाठी




करियवा-उजरका के जाने के सात साल बाद आया सुघरका ....
इस बीच बडा पानी गुजरा सर से...

खेत वग़ैरह रेहन रखके पहले एक, फिर काम न चलने पर दूसरा बैल भी खरीदा, पर कम पैसे लगाये, तो कम औकात के बरध मिले.... ऊपर से मेरे बढते अभावों में पुन: उनकी अच्छी जतन न होती और काम तो ज्यादे होते ही.... सो, वे भी कमज़ोर रहते और खेती भी ठीक से न हो पाती.... फिर भी लटते-बूडते एक साल निकला.

लेकिन तभी आ गया डाक-तार विभाग में क्लर्क की नौकरी का पत्र – ‘जिमि करुणा महँ अद्भुत रस’.... संयोग से वे 1971 की गर्मियों के दिन थे, जिसे ‘जेठी का माथा’ कहते हैं - जब साल भर की खेती-बारी का विधान तय होता है. और मैंने आव देखा, न ताव; सारी खेती अधिया पर देकर, बैलों को बेचकर चले जाने का फैसला कर लिया.... माई-बडके बाबू अवाक्.... जिसने भी सुना – अपने गाँव से लेकर आस-पास के गाँव एवं नात-हित... सबलोग समझाने आये.... एक बीघा खेत बेचकर कर्ज़ चुकता करके ठाट से खेती करने की नेक सलाहें दीं...सब सचमुच मेरा हित चाहते थे, पर मैंने एक न सुनी – पुश्तैनी सम्पत्ति को बेचने से साफ इनकार कर दिया. और सबकी अनसुनी करके निकल ही गया....

पत्र था चयन की सूचना का, बुलावा का न था. एक साल लग गया प्रशिक्षण की बारी आने में. इस दौरान छोटे-मोटे काम करके रिश्तेदारों के यहाँ रहा – कार से दुर्घटना का शिकार होकर तीन महीने अस्पताल में बीते....

ट्रेनिंग के बाद फरवरी 1973 में नौकरी पे लगा, तो पढने की अतृप्त इच्छा का भूत सर पे चढ बोलने लगा - जून में बी.ए. में दाख़िला कराके माना. एमए. तक चार साल लगने ही थे. गुरुवर चन्द्रकांत बान्दिवडेकर की संस्तुति पर परीक्षाफल आने के तीन महीने पहले ही 6 जुलाई 1977 से चेतना कॉलेज में प्राध्यापकी मिल गयी....

पुराने पाठ्यक्रम की अतिरिक्त कक्षाएं अलग से मिल गयीं. खूब काम किया, अच्छे पैसे आये और जून, 1978 में घर जाके सारा क़र्ज़ अदा किया और ठीक 7 सालों बाद नये सिरे से खेती शुरू करायी.... नक़द वेतन व कुछ खेत देकर पूरे समय का आदमी रखा और दो बैल खरीदे, जिनमें आया वह सुघरका....

उसका नाम सुघरका न था, बल्कि उसका कोई नाम ही न था. ये तो करियवा-उजरका के वजन पर मैं लिख रहा हूँ – सुघरका, क्योंकि वह सचमुच बहुत ‘सुग्घर’ – सुगढ (वेल शेप्ड) था – भरत व्यास के शब्दों में कहूँ, तो ‘बडे मन से विधाता ने ‘उसको’ गढा...(घडा नहीं, जैसाकि उस गीत में गाया गया है). उसकी सुघरई ही थी कि पहले ही दिन जो बैल खरीदने निकले और घर से तीन ही किमी. पश्चिम के गाँव बक्कसपुर (बक्सपुर-बख़्शपुर) में वह दिखा, तो सप्ताह भर चहुँ ओर दसों कोस के मान में सायकल से ढूंढते रहे, कोई बैल मन को भाया ही नहीं, क्योंकि आँख में यह जो गड गया था– बल्कि गोपियों के कृष्ण की तरह ‘तिरिछे ह्वै जु अड्यो’हो गया था.... 

वह जमाना था कि एक बैल खरीदने के लिए हम सात लोग जाते – जंगी काका, प्रभाकर चाचा, रामाश्रय भाई साहेब, रामप्यारे-रामपलट व रामपति भइया और मैं- ऐसी सामाजिकता व सामूहिकता तब थी.... सबके पास समय था, क्योंकि दिली इच्छा थी. शायद इसी को पाने-जीने मैं मुम्बई छोडकर गाँव आया, पर अब तो समूची जिन्दगी ही ‘समय और इच्छा के द्व्न्द्व’ में नष्टप्राय हो चुकी है– समाज-समूह की बात ही क्या...!! 

ख़ैर, गँवईं सम्बन्ध में सबसे परिचित होने के बावजूद इस बैल के मालिक सज्जाद भाई सात-सात लोगों के इसरार-हुज्जत के बावजूद 1200 रुपये से एक पैसा कम करने को तैयार न थे. तर्क देते – ‘1300 कहके 1200 करता, तो कया करते आप? छह महीने बाद दीजिए, बैल आपका है, ले जाइये, पर दीजियेगा 1200 ही...’. बात की ऐसी सलाहियत भी थी हमारे ‘लोक’ में तब...!! आखिर हारकर उसी कीमत पर लाये – हारे सज्जाद भाई से नहीं, सुघरके की सुघरई से....

लेकिन कहना होगा कि वह आया, तो देखकर पूरे गाँव का जी जुडा गया. गाँव ही क्या, आते-जाते राही भी खडे हो जाते. देर तक निहारते.... कभी-कभी तो वह बैठा होता, तो आने-जाने वाले लोग पूरा देखने के लिए उठा देते.... हालत ऐसी हो गयी कि खेत से चलके आया होता, उसे आराम की ज़रूरत होती – बैठा होता और कोई उठा देता.... इस हरकत से माँ एकदम झल्ला जाती.... परिणाम यह हुआ कि चलके आने के बाद उसे अन्दर बाँधा जाने लगा, ताकि बैठ के निश्चिंतता से आराम कर सके.... उस बार मेरे मुम्बई आने के पहले माँ ने बरदौर (बैलों वाले घर) में दरवाजा लगवाया – दीन्हेंउ पलक कपाट सयानी की तरह.... ऐसा पहली बार हुआ, वरना बैलों के घर बिना दरवाजे के ही होते रहे. बस, दरवाजे की दोनो दीवालों में आमने-सामने गड्ढे जैसा बडा छेद होता, जिसमें रातों को बाँस का एक टुकडा लगा दिया जाता, ताकि जानवर छूट जाये, तो बाहर न जा पाये.... उस बाँस के टुकडे को ब्योंडा कहते – ब्योंडा लगाना – वही भारतेन्दु बाबू वाला – ‘लै ब्योंडा ठाढे भये श्री अनिरुद्ध सुजान’. अब माँ बाहर से ताला लगा देती. उसे डर था कि रात को कोई ‘छोर’ ले जायेगा.... ताले के बावजूद रातों को उठ-उठके देखती.... इस पर शुरू-शुरू में गाँव में कुछ बोली (तंज) भी बोली गयी..., पर माँ पर फर्क़ न पडा....

लेकिन सूरत ही नहीं, उसकी सीरत भी शानदार थी. सज्जाद ने कहा था – भाई, चाल इसकी मीठी है - दौड के नहीं चलता, चलेगा अपनी चाल से, पर आपके मन और जरूरत भर. यह सच था. दिन भर भी हल चलाओ, या जो भी काम लो, एकरस चलता रहता – न चेहरे पर सिकन, न हाँफा (तज साँस), न झाग़, न तनिक भी कसरियाना.... सारा पैसा इसमें लग गया था, इसलिए दूसरा बैल सस्ता लिया था, तो औकात में हल्का था. इसलिए बडे और कठिन काम के लिए पियारे भइया (रामप्यारे भाई) के ऐसे ही कद्दावर बैल के साथ जोडी बन गयी थी. पूरे गाँव के कठिन काम यही जोडी करने लगी. 

उस साल सारे गाँव का गन्ना इन दोनो की जोडी ने ही बोया. गन्ने के हल को ‘पहिया धरना’ कहते, जो बहुत मेहनत का काम होता. इसमें नौहरे (भारी हल) में अतिरिक्त सँगहा (पुआल-पत्ते) बाँधके चौडा-मोटा कर दिया जाता, ताकि चौडी-गहरी नाली बने. इसमें ‘हराई फानना’ (पहली लाइन चलाना) बडे कौशल का काम होता. इसके लिए बैल व हल चलाने वाला बहुत कुशल होने चाहिए. और यह जोडी तथा पियारे भइया की ऐसी ही कुशल संगति थी – हराई तो सबकी उस साल पियारे भइया ने ही फानी थी.... और ऐसी संगतियां हर गाँव में हर समय कोई न कोई होती ही थी.... इस तरह सारे गाँव का जी ही नहीं जुडाया, सुबिस्ते से हुए बहुत चौचक काम से गाँव लाभान्वित भी हुआ....             
सूरत-सीरत के साथ ही सुघरका की आदतें भी निराली थीं. खेत से काम करके आते ही सारे बैल नाँद पे भागते और हाबुर-हाबुर (हाली-हाली - जल्दी-जल्दी) खाने लगते..., लेकिन सुघरका हल से आकर बैठ जाता – दो-चार घण्टे. पूरी थकान उतारके तब खाता. इतने में शाम के 4 बज जाते – खाते-खाते छह बजते. तो, शाम का खाना भी देर रात को खाता. उसकी नाँद को चारे से भरकर, खरी-दाना चलाके माँ सो जाती. सुबह नाँद में एक तिनका तक न मिलता – खाके सब चाट जाता. इसी तरह सारे पशु अमूमन पानी-चारा साथ में खाते हैं, जिसमें यथाशक्ति खरी-दाना डाला जाता है. इस समूचे कार्य-व्यापार को ‘सानी-पानी करना’ कहते हैं– पानी में सना चारा-दाना. लेकिन अपना यह बच्चा सूखा चारा खाता. उसी में खरी-दाना मिला देते. और खाने के बाद अलग से पानी पीता – दो बाल्टी पूरा. या तो बाल्टी में ही रख दो या फिर उसकी नाँद में डाल दो. 

सुद्धा (सीधा) इतना था कि कोई भी बाँधे-छोडे-सहलाये..., उसके ऊपर लोटे-पोटे, कुछ न बोलता. उसके लिए वह मुहावरा सबकी ज़ुबान पर चस्पा हो गया था – ‘एकदम गऊ है’. बस, एक ही संवेदनशील बिन्दु (सेंसेटिव प्वाइण्ट) था उसका – नाक के ऊपर दोनो आँख के बीच तक के हिस्से पर वह ‘पर तक न रखने’ देता. उसे छूने, साफ करने की बहुतेरी कोशिश मैंने चुनौती की तरह की; लेकिन नहीं, तो नहीं छूने दिया.... बस, साल में दो-एक बार जब मैं घर रहता, तो तालाब में नहलाकर पौंडाते हुए पानी में दबाके उस भाग को धो देता और चुनौती पूरा करने का मनोवैज्ञानिक संतोष पा लेता.... वरना तो ऐसे मे नाथ (नाक को छेदके गरदन में बँधी रस्सी) को खींचते हुए पकड कर बैलों को काबू (कंट्रोल) में लाने का अचूक चलन है. (क्या यही तो नहीं है आरतों को भी सुहाग के प्रतीक रूप में नथ पहनाने का मतलब? कुछ औकात न हो, तो भी नथुनी-पियरी से ब्याहने का मतलब? ‘नथ उतारने’ का मतलब और नथुनियां ने हाय राम बडा दुख दीना’ गाने का मतलब...?) किंतु इसे आज़माने पर भी अपनी नाक की सारी पीडा की परवाह न करते हुए हमारा सुघरका अपने दोनो अगले पाँव उठाकर खडा हो जाता..., लेकिन तब भी हमें हानि पहुँचाने तो क्या, फुंकारने तक की प्रतिक्रिया नहीं देता.....   

ऐसे प्राणी को पाकर माँ को तो समझो कोई निधि ही मिल गयी हो. जैसे काका उजरका-करियवा की नींद सोते-जागते, इसके साथ माँ का जुडाव उससे भी कहीं अधिक हो गया.... जाहिर है कि उसमें स्त्रीत्त्व की ममता के गाढे रंग ने ऐसी मिठास व प्रियता भर दी, जो अकथनीय व अविस्मरणीय है. हालांकि उसी ममत्त्व की अतिशयता ने सुघरका के खाने-पीने, रहने-सहने में कुछ अतिवादी आस्वाद व अरुचियां भी पैदा कीं, तो माँ में आसक्ति की कातरता-भीरुता, लेकिन  अनुरक्ति (ऑब्सेशन) की ये अनिवार्य, पर अपरिहार्य हानियां (निसेसरी इविल्स) हैं.... उन्हीं दिनों घर के पीछे का हिस्सा मैंने पक्का कराया, जिसमें बायीं तरफ का कमरा माँ के सोने का था.  उसी के बायें बाहरी तरफ बैलों का घर था. मैंने वहीं बडा जंगला लगवा दिया, जिसे खोलकर जब चाहो, उन्हें देख लो. फिर तो सोने में भी सुघरका पैर पटके, तो जंगला खोल कर माँ देखने लगे.... इस तरह ‘उसकी नींद सोने-जागने’ का मुहावरा व्यवहार में भी सार्थक हो गया.....

लेकिन दुर्भागय वश यह स्नेह-सम्बन्ध व कर्मयोग ढाई साल ही चला. तीसरे कार्त्तिक में ठीक बुवाई के वक्त वह काम करने वाला अचानक एक सुबह बिना बताये नहीं आया. पूछने पर वेतन बढाने की बात माँ के साथ दबंगई से की, जो मुझे असह्य रूप से नाग़वार लगा. खेती के अलावा पशुओं के काम करने वाले किसी के न होने की हमारी मजबूरी को भुनाना चाह रहा था. छोटे-मोटे पचडे भी बहुत थे, जिससे माँ को अवांच्छित कष्ट होता. लिहाजा पहली बार की ही तरह मैंने तुरत-फुरत में सब कुछ बन्द कर दिया. सारी खेती ठीक पर दे दी, जिसमें करने वाले का नुक्सान हो या फायदा, हमें उतना अनाज मिल जाता है, जितना बीघे के हिसाब से तय हुआ है. यही आज भी चल रहा है. अनाज की मात्रा समय के अनुसार बढती है. उस वक्त भारी समस्या दोनो बैलों की थी. बेचने की घोषणा कराके मैंने सुघरके को पियारे भइया और दूसरे को रामपलट भइया के खूँटे बँधवा दिया. उनसे कहा – जब तक नहीं बिकते, खिलाइये और जोतिये. जब दाम खुल जाये, तो उतने में चाहे, तो आपलोग ही ले लीजिए या फिर बेच दीजिए....

आपात्कालीन ही सही, यह व्यवस्था इसलिए भी अच्छी सिद्ध हुई कि सुघरका और माँ एक दूसरे से छूटकर भी जुडे रहे.... बार-बार माँ जाके दोनो का खाना-पीना देख आती, उनके मन का कुछ खिला आती . सुघरका को जब खाने-हटाने के लिए छोडा जाता, खिंचाके अपने घर चला आता. चलके खेत से आता, तो जोडी वाले बैल को लिये-दिये वहीं चला जाता.... बडी मुश्किल से वापस जाता - कुछ-खिला-पिला के, सहला-चुमकाकर के माँ विदा करती – रो भी लेती.... इस तरह दोनो के मन को धीरे-धीरे मोहँठने का मौका मिल गया....

करियवा-उजरका का जाना तो दैविक दुख था, जिसमें अपने अभाव भी मिल गये थे. इसीलिए दोनो को पूरने की चाहत दबकर भी बनी रह गयी थी, जिसने यह संसार फिर रचवाया. लेकिन समर्थ होकर भी इस भौतिक विडम्बना का क्या करें...? मनुष्य की इस फितरत को बदला नहीं जा सकता, के अहसास ने फिर तीसरी बार किसी ‘सँवरइया’ या ‘समया’ (रंग के अनुसार बैलों के सामान्य नाम) को रखने के सपने को तोड दिया.... फलत: ‘अब अपने तईं खेती शुरू नहीं करूँगा’ की कसम बिना खाये ही यह हीरामन की ‘तीसरी कसम’ सिद्ध हो रहा है.... और कैसे कहूँ कि इन तीनो पशुओं की टीस कितनी-कितनी बार पशु बनने से बरबस बरजती रहती है....


अथ क्षेपक – पशु-कथा का वर्तमान -  
अब बैलों के उस घर में हमारी गाय अकेले रहती है और पंखा भी लग गया है. अभी पिछले 6 जून तक अपने बछडे के साथ रहती थी. 7 जून को उसे छोड दिया गया. साल-सवा साल पहले जिस शुक्र के दिन वह बच्चा पैदा हुआ था, मेरी बडी बहन यहीं थी – नामकरण की मास्टरनी है वह. धरती गिरते ही कहा था – शुकदेवजी आये हैं.... पर बाछों की आगामी त्रासदी में उनके साथ होने की खुशियां भी नहीं मना पाते – नाम लेकर कभी खेलाया नहीं उसे, खेला नहीं उसके साथ...हमेशा एक डर की तलवार टँगी रही.... आखिरी बार इन माँ-बेटे से मिला था अभी अप्रैल के अंत में. तब गाय दूध बन्द करने की प्रक्रिया में थी. जिस बेला दूध नहीं देना होता, गायें पिलाती नहीं बच्चों को. ऐसे में मैं उसे कुछ खिलाने-सहलाने जाता, तो मेरी उंगलियां यूँ चूसने लगता – गोया उसकी माँ की छिम्मियां (स्तन) हों. माथा लडाकर लाड कराता था. उसका गोरा-गदबदा स्पर्श भुलाये नहीं भूलता.... ऐसे प्यारे-दुलारे बच्चे को छोड दिये जाने की आसन्न पीडा से ‘वाष्पस्तम्भितकण्ठत्वाद्’ उसी पर लिखने बैठ गया था...और दो-चार पंक्तियां लिखते ही अचानक करियवा-उजरका और उस सुघरका की स्मृतियों का सोता फूट पडा.... सो, इस पूरी पशु-कथा लेखन का श्रेय उसी बच्चे को है, जो आज जाने कहाँ होगा....

अस्तु, इसे उस बच्चे की याद को समर्पित करते हुए बेबस दिल की आहों से प्रार्थना करता हूँ कि वह जहाँ हो, कुशल से हो...!! व्यवस्था से मजबूर किसान और कर भी क्या सकता है? 
_____________________


सम्पर्क:
सत्यदेव त्रिपाठी
मातरम्, 26-गोकुल नगर, कंचनपुर, डीएलडब्ल्यू, वाराणसी – 221004

मो.- 9422077006   

परख : मल्लिका (मनीषा कुलश्रेष्ठ) : अरुण माहेश्वरी

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मल्लिका
भारतेन्दु बाबू की प्रणय कथा
अरुण माहेश्वरी




ज मनीषा कुलश्रेष्ठ का हाल में प्रकाशित उपन्यास 'मल्लिका'पढ़ गया. मल्लिका, बंकिम चंद्र चटोपाध्याय की ममेरी बहन, बंगाल के एक शिक्षित संभ्रांत घराने की बाल विधवा. तत्कालीन बंगाली मध्यवर्ग के संस्कारों के अनुरूप जीवन बिताने के लिये काशी को चुनती है. संयोग से काशी में वह भारतेन्दु हरिश्चंद्र के मकान के पिछवाड़े की गली के सामने के मकान में ठहरती है. मल्लिका के यौवन की झलक और साहित्यानुराग ने भारतेन्दु बाबू को सहज ही अपनी ओर खींच लिया. दोनों के प्रणय-प्रेम का यह आख्यान भारतेन्दु बाबू की असमय मृत्यु तक चलता है. काशीवासी मल्लिका अंत में वृंदावनवासी बनने के लिये रवाना हो जाती है !

यह है भारतेन्दु बाबू की बंगाली प्रेमिका मल्लिका पर केन्द्रित इस उपन्यास के कथानक का मूल ढांचा. इस ढांचे को देखने से ही साफ हो जाता है कि बांग्ला नवजागरण की पीठिका से आई मल्लिका का हिन्दी नवजागरण के अग्रदूत भारतेन्दु से संपर्क के बावजूद इस प्रणय कथा में उनके स्वतंत्र चरित्र के विकास की कोई कहानी नहीं बनती दिखाई देती है. यह किसी खास परिपार्श्व के संसर्ग से बनने-बिगड़ने वाले चरित्र की कथा नहीं है जो अपने जीवन संघर्षों और अन्तरद्वंद्वों की दरारों से अपने समय और समाज को भी प्रकाशित करता है. यह शुद्ध रूप से एक विधवा की प्रेम कथा है, प्रणय-प्रेम गाथा है, जिसका रूपांतरण उसके काशीवास से वृंदावनवास में स्थानांतरण तक ही होता है. एक स्वाधीन प्रेमी पुरुष की जीवन-लीला का पार्श्व चरित्र.

प्रणय— सचमुच इसकी कथाओं का भी कोई अंत नहीं हुआ करता है. इसकी सघनता एक स्वायत्त, समयोपरि सर्वकालिक सत्य का संसार रचती है, ऐसे एकांतिक सत्य का जो दो प्रेमियों का पूरी तरह से अपना जगत होता है. समाज जो कुल, क्रम की श्रृंखलाओं को मानता है, प्रेम की ऐसी एकांतिक सर्वकालिकता पर सवाल करता है; स्त्री-पुरुष के बीच के दैहिक संबंधों को अलग सांस्कृतिक स्वीकृति देने से परहेज करता है. आज वैसे ही विरह प्रेम को मध्ययुगीन खोज बताने वाले कम नहीं है. इसे स्त्रियों का विषय भी कहा जाता है. लेकिन पुरुष प्रणय के प्रति उदासीन नहीं बल्कि उत्साहित ही रहता है— इसी सत्य के आधार पर इतना तो कहा ही जा सकता है कि स्त्री-पुरुष संबंधों की वासना और सुख सर्वकालिक सत्य है. प्रणय-निवेदन के असंख्य और पूरी तरह से अलग-अलग रूप हो सकते हैं, लेकिन यह स्वयं में एक सत्य की अनुभूति का भाव है. प्रणय कथाओं के स्वरूप मूलत: इसके सामाजिक परिप्रेक्ष्य के भेदों पर टिके होने पर भी इसके अपने जगत का आधारभूत अभेद एक एकांतिक, स्वायत्त भाव होता है. मनुष्य के सामान्य क्रिया-कलापों के बीच दो व्यक्तियों का, एक युगल का अलग टापू— 'नदी के द्वीप'.

यही वजह है कि लेखकों का एक वर्ग आपको ऐसा मिलेगा जो अक्सर सिर्फ प्रणय-प्रेम कथाएं ही लिखता है. वे जीवन भर प्रणय की अनुभूतियों को व्यक्त करने के नानाविध अलंकारों, भाव-भंगिमाओं से लेकर काम क्रिया तक के प्रकरणों की अभिव्यक्ति को साध कर उसे अलग-अलग स्थानिकताओं की लाक्षणिकताओं के साथ उतारते रहते हैं. सारी फार्मूलाबद्ध हिंदी फिल्मों की शक्ति भी इसी प्रणय के जगत की एकांतिकता के सत्य से तैयार होती है. इन प्रणय कथाओं में आम तौर पर स्थानिक विशिष्टता को उकेरने के लिये इकट्ठा किये गये सारे अनुषंगी उपादान लगभग महत्वहीन होते हैं, मूल होता है प्रणय के अपने जगत के उद्वेलनों में पाठक-दर्शक को डुबाना-तिराना.

लेखक प्रणय के इस उद्वेलन के अनुरूप ही भौतिक परिवेश को भास्वरित करता है, मसलन् इसी उपन्यास में —

“'धिक्क...'कहकर उनके हाथ से पन्ना छीनने लगी. उन्होंने उसे बाह से थाम लिया मानो वहीं पर सारा मनोभाव संप्रेषित हो चुका था. आगे बात करना असंभव हो रहा था. बातें बस आँखों ही आँखों में थीं कभी अपेक्षा से देखती आँखें तो कभी शर्म से झुकती आंखें. दोनों के बीच जो लहर प्रवाहित हो रही थी उसे दोनों महसूस कर रहे थे और एक उत्कट आकांक्षा उफान मारने लगी थी. लैंप की बत्तियां नीची हो गईं...छाया और प्रकाश परछाइयों का मद्धिम जादू नींद से जाग गया. वह नैसर्गिक निकटता और विश्वास ही था कि वह उस दिन दैहिक रूप से उनके करीब आ गई. पहला दैहिक संसर्ग...। पहली-पहली तुष्टि....तेज हवा वाली रात थी, मल्लिका के मन का संशय मीठे अनुनाद में बदल गया. चंद्रमा क्षितिज से ऊपर उठ गया था. संकोच के बंध टूट रहे थे.”
(पृष्ठ – 85)

इतनी ही सुनिश्चित होती है इस एकांतिक जगत के युगल की शंकाएँ, अंतरबाधाएं —

“मैं आरंभ से जानती हूँ कि आप आधिपत्य की वस्तु नहीं हो. आपसे आकृष्ट हो मैंने सामाजिक रीतियों को तोड़ा है. संसार के प्रति नहीं अपने हेतु अपराध किया है.”(पृष्ठ – 102)

“मैंने क्या बुरा किया उस आलीजान को दूसरे के कोठे से उठा कर घर खरीद दिया. उसे शुद्ध कर माधवी बना दिया. अब वह मेरे संरक्षण में है, अब वह केवल मुजरों में जाती है. महफिलों में गाती है.'
“मल्लिका बुझ गई. संरक्षण, संरक्षिता, रक्षिता !!” (पृष्ठ – 104)

इसी प्रकार तयशुदा होता है ऐसे लेखन में भाषाई अतिरेक. देखिए मल्लिका के घर की चारदीवारी में प्रणय के दृश्य का ब्रह्मांड-व्यापी स्वरूप —  

“ज्यू के मांसल अधर पहली बार मल्लिका के अधरों के अधीन थे. सूर्यास्त हो ही रहा था, वातावरण में दूर-दूर तक रंगराग छा गया था. गवाक्ष से भीतर आते समीर में चंपई गंध थी. धरती और ब्रह्मांड एक-दूसरे के विपरीत गति में संचालित थे. इस विचित्र घूर्णन में प्रकृति भ्रमित-सी थी. पक्षी नीड़ों की ओर लौटते हुए चुप-से थे.” (पृष्ठ – 133)

और माणिकमोहन कुंज के प्राचीन मंदिर के अलौकिक वातावरण में हरिश्चन्द्र और मल्लिका के आपस में मालाओं के आदान-प्रदान के बाद के भावोद्वेलन का बयान —

“क्या हुआ जो मैं आज तुम पर भर-भर अंजुरियाँ मंदार पुष्प न बरसा सकी, तुम्हें तो इन सूखे बेलपत्रों से रीझ जाना चाहिए था. तुममें और मुझमें घना अंतर है ! तुममें तो भर प्याला देने की क्षमता है, वो तो मैं हूँ, बूँद-बूँद के लिए तृषित चातक.'
“मल्लिका मैं तुम्हें प्रकृति और परमेश्वर द्वारा प्रदत्त भीतरी और बाहरी सौंदर्य की विपुल राशि मानता हूँ,'ज्यू उसे अंक में भरते हुए बोले.” (पृष्ठ – 143)

और इन सबमें जो अंतरनिहित हैं, वह है प्रणय प्रेम के दैहिक और भावनात्मक सत्य की शाश्वतता.
“'उई, केश मत खींचिए ना, जो भी हो, हम ऐसी ही मल्लिका है, ज्यू आपको हमें प्रेम करना होगा.'निराले स्त्रैण ढंग से दीवार की ओर करवट ले कर, मान करते हुए मल्लिका बने हरिश्चन्द्र बोले....हरिश्चन्द्र उधर मुख किए-किए मुस्कुराए. मल्लिका ने उनकी कमर पर हाथ रखा और उन्हें पलटा कर अपने दुर्बल बाहुबंद में भर लिया और ज्यू से बोली —'कुछ बोलोगी नहीं ?'
'प्रेम में निरत युगल के बीच मौन ही तो बोलता है....
'हम तो आज वाचाल है, हमारे अधर बढ़ कर बंद कर दो न ज्यू,'कह कर ज्यू ने मल्लिका को स्वयं पर गिरा लिया.” (पृष्ठ -132-133) 

“क्या हुआ खल लोग तुझे मेरी आश्रिता कहते रहे...तुझे इससे क्या, तेरा प्रेमी और तू जिसकी सरबस है...उसने तो तुझे धर्म-गृहीता माना है. देखना...आगे ऐसे लोग भी उत्पन्न होंगे जो तेरा नाम आदर से लेंगे. मेरी और तेरी जीवन पद्धति समझेंगे. इस प्रेम के दर्शन को मान देंगे.”

दरअसल, सच्चा और अकूत प्रेम ही ऐसे प्रणय आख्यानों के सत्य की अनंतता का स्रोत होता है. उसमें कथा को मिथकीय और साथ ही नाटकीय रूप देने की क्षमता होती है. प्रणय का हर दृश्य उसके यथार्थ स्वरूप से काफी विशाल होता है, श्री कृष्ण के विराट रूप की तरह. इसीलिये मिथकीय होता है, ईश्वरीय कृपा और दिव्य नियति स्वरूप. इसमें स्थानिकता अथवा परिवेश के अन्य पहलू नितांत निर्रथक और अनुर्वर होते हैं. प्रणय से हट कर प्रेम के विछोह की दरारों से जो प्रकट होते हैं, जो पूरे कथानक को दूसरे फलक पर ले जाते हैं, उनका शुद्ध प्रणय कथाओं में कोई मूल्य नहीं होता. यहां भी नहीं है.

बहरहाल, देह और भाषाओं की आदमी की दुनिया में प्रेम के भुवन का सत्य भी कोई अलग या भिन्न नहीं है. प्रणय उसी के देह पक्ष की सच्चाई को विराट, मिथकीय, नाटकीय रूप देता है. 'मल्लिका'में लेखिका ने इसे ही साधने की एक और कोशिश की है.

भारतेन्दु बाबू के जीवन के अन्य सारे प्रसंग अथवा मल्लिका के पिता के संसार के बंगाल के तथ्य, नवजागरण की आधुनिक और क्रांतिकारी बातें सिर्फ उनके लिये ही मायने रखते हैं, जो उनसे पहले से ही परिचित है. ये सब उपन्यास के सजावटी अनुषंगी मात्र है. भारतेन्दु युग के बौद्धिक विमर्श यहां इसलिये भी निरर्थक हो जाते हैं क्योंकि मल्लिका-भारतेन्दु के संबंधों में उनका कोई स्थान नहीं होता और मल्लिका की बंगाल की बलिष्ठ पृष्ठभूमि के बावजूद उसके लिये उन बातों का कोई बहुत ज्यादा अर्थ नहीं होता.

कहना न होगा, बंकिम युग की अनुभूतियों और भाषा का यह विन्यास उस युग के अपने सामाजिक अंतरविरोधों के व्यापक वितान से बाहर की एक स्वायत्त प्रणय की एकांतिक अनुभूति का जगत है. मल्लिका और हरिश्चन्द्र महज सुविधाजनक अवलम्ब हैं.  
_______________________


अपने आकाश में (सविता भार्गव) : अनुपम सिंह

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“प्रेम में पड़ी स्त्री मुझे अच्छी लगती है
लेकिन मुझे दुख होता है
किसी पुरुष की तरह कामोत्तेजित होकर उससे
मैं प्यार नहीं कर सकती

नहीं देखा जाता मुझसे
छली गयी स्त्री का दुख
लेकिन मुझे दुख होता है
मैं नहीं दे सकती उसे
झूठे मक्कार पुरुष के बराबर भी
भोग का सुख.”

सविता भार्गव (मुझे दुख होता है – संग्रह ‘अपने आकाश में’)


सविता भार्गव की कविताओं का संग्रह ‘अपने आकाश में’ २०१७ में राजकमल से प्रकाशित हुआ था और अभी में इसमें पाठकों-लेखकों की दिलचस्पी बनी हुई है. सविता भागर्व की कुछ कविताएँ शास्त्रीय संगीत की तरह गहरी हैं. धीरे-धीर खुलती हैं और असर देर तक बचा रहता है. अनुपम सिंह युवा कवयित्री हैं. वह इस संग्रह को उलट-पुलट रहीं हैं. पढ़ा जाए


जीने की जगह तलाशती कविताएँ                          
अनुपम सिंह






जकल जब भी समय मिलता है, कविताएँ लिखने से अधिक कविताओं के विषय में सोचती हूँ. कोई कविता क्यों अच्छी लगती है और क्यों नहीं अच्छी लगती है? जबकि जो कविताएँ नहीं भी अच्छी लगती हैं, उनमें भी विन्यस्त होता है शुभ विचार. खैर! मुझे लगता है कि कविता गहन संवेदन और पूर्व सघन स्मृतियों के आधार पर बनती है. पूर्व स्मृतियाँ ही गहन संवेदन और चेतन, अचेतन की प्रक्रियाओं द्वारा पुनर्सृजित होकर आ बैठती हैं कविता में. इसलिए कवि के लिए विस्तृत अनुभव लोक का होना भी आवश्यक है. लेकिन कविता में सभी अनुभव जगह नहीं पाते, बल्कि विश्लेषित अनुभव जगह पाते हैं. कविता कोई कूड़ेदान नहीं जहाँ सुबह का खाया और शाम का पाया सब उलट दें उसमें. वह एक ‘कला’ भी है जहाँ  सही रंगों का चुनाव सही मात्रा में करना होता है. मैं कविता पढ़ते समय अपने लिए उसके सार तत्त्व, भाषा के अलग-अलग ताप, भिन्न अनुभव संसार एवं सहज, निश्छल संवेदन को पकड़ना चाहती हूँ. स्त्री कविता में वहीं ‘कविता’ होती है जहाँ गहन संवेदन और पूर्व स्मृतियों का ऐसा घोल तैयार हो जिसमें किसी एक का आत्म नहीं बल्कि आत्म की सामूहिक अभिव्यक्ति झलकती हो. 

कविता वहां अधिक प्रमाणिकता पाती है जहाँ वह सृष्टि के कण-कण से अपने को जोड़ती है. शायद स्त्री कविता का यही मूल केंद्र भी है. स्त्री कविता ने अपनी उपस्थिति से प्रकृति और सृष्टि दोनों की गरिमा बढ़ायी है और वह स्वयं भी प्रकृति में ही अपनी पूर्णता को पाती है. सविता भार्गव के कविता सग्रह –‘अपने आकाश में’‘सृष्टि’ शीर्षक से एक कविता है, इसे आप पढ़ सकते हैं –

“इस रात
नहीं  कोई जब
पास

ख़ुद में
मैं ख़ुद
जनम रही हूँ ”

एक स्त्री को उसके सम्पूर्ण जीवन में सृजन के लिए जिस एकांत और एकाग्रता की ज़रूरत होती है, वह एकांत उसे हासिल हो, कोई जरुरी नहीं. यदि हासिल भी होता है तो  बड़ी मुश्किल से, लेकिन जब कभी वह एकांत उसे हासिल होता है तो उसकी थाती बन जाता है. सबसे खूबसूरत क्षणों में एक, कीमती क्षण की तरह. उस एकांत के क्षणों में वह खुद को खोजती है. वह सृष्टि प्रसवा तो है ही, वह आत्मप्रसवा भी है. भूख, प्यास, नींद और कविता अपने चरम पर जाकर ही अधिक सुखकर होती है. एक माइने में सबसे कष्टकर भी. नींद जब अपने चरम पर होती है तो उसे किसी कीमत पर भी नहीं टाला जा सकता. कविता भी तभी चरम अभिव्यक्ति, सौन्दर्य और शुभता को प्राप्त होती है जब उसकी अभिव्यक्ति प्यास की तरह अनिवार्य हो जाय. और एक स्त्री इन्हीं पीड़ादायक, सुखदायक क्षणों में जन्म लेती है. इस ‘सृष्टि’ शीर्षक कविता में स्त्री का सघन आत्म-प्रेम अभिव्यक्ति पाता है.

“इस रात
मैं हूँ
सबसे मनोरम
सृष्टि ‌‍!”
(सविता भार्गव)

अपने को जब कोई स्त्री इस तरह से पा लेती है, तब उसकी  कुछ और भी पाने की चाह थिर हो जाती है.

एक स्त्री सृष्टि में खुद को अकेले कभी नहीं पहचानती. यह अहम् का भाव उसमें है ही नहीं. वह छोटो-छोटी चीजों के बीच ही खुद को खोजती है. वह सृष्टि के कण-कण से ख़ुद को जुड़ा पाती है. स्त्री सृष्टि का अधूरापन और पूरापन दोनों अपने भीतर महसूस करती है. सविता भार्गव की एक कविता है ‘अधूरा घोंसला’घोंसले का अधूरापन किसी पुरुष को कभी नहीं साल सकता, लेकिन एक स्त्री की उम्मीदें उस घोंसले भी जुड़ जाती हैं. वह उस घोंसले की गौरैया से खुद को जोड़ लेती है –

“मेरी किताबों के पीछे रैक में
एक जोड़ी काली गौरैया
बना रही थी घोंसला
यह जानते हुए कि रैक गन्दा हो जायेगा
थोडा नुक्सान हो जायेगा किताबों का भी
मन से मैं विवश थी
समझोकि मेरा मन उन पर आ गया था
मैं यहाँ तक समझने लगी थी
दोनों में जो मादा है
उसमें मैं हूँ”

लेकिन गौरैया जब अपना अधूरा घोंसला छोड़ उड़ जाती है तो स्त्री का मन भी उड़ जाता है उसके साथ ही. वह अपने को उस घोंसले की तरह ही अधूरा पाती है –

“पहले सोचा था
काली गौरैया में मैं हूँ
सोच रही हूँ कई दिनों से अब
गौरैया मुझमें है
रैक में किताबों के पीछे
ज्यों का त्यों है
अधूरा घोंसला”

स्त्री के भीतर सृष्टि में घुल-मिल जाने का भाव प्रमुख होता है. वह हर शोषित से अपने को जोड़ लेती है. सविता भार्गव के इस संग्रह में अपने को गौरैया से जोड़ती तीन कवितायें हैं. अगली कविता में वे खुद को ही किसी के घर की गौरैया बताती हैं -

“ये नहीं होतीं
नहीं होता घर इतना कर्मशील
और वानस्पतिक
और कम ही होती मेरी आँखों में
आकाश की नीली गहराई

मैं भी किसी घर की
गौरैया हूँ.”
(गौरैया शीर्षक से )

अगली कविता है ‘इस घर में’ यहाँ भी स्त्री, प्रकृति और सृष्टि का सहज ही जुड़ाव दिखाई देता है. इस प्रकृति और सृष्टि में अनंत जीव हैं, अनंत वनस्पतियाँ, अनंत चीजें, लेकिन स्त्री का जुड़ाव जैसा मैंने पहले ही कहा कि शोषित चीजों से ही है. वह उसी में अपना चेहरा साफ़-साफ़ देख पाती है. और अपनी स्थिति को भी -

“इस घर में मैं रहती हूँ
चिड़िया की तरह
मैदान पेड़ गेहूं के दाने और
तालाब के पानी के बारे में
सोचते हुए 
सांप की सरसराहट का
अनुभव करती हूँ
अक्सर.”

लेकिन स्त्री को स्वयं को खोज पाना आसन भी नहीं है. कठिन चुनौतियाँ हैं, ऊँची चौखटे हैं, मजबूत दरवाज़े हैं. ऐसा ही एक दरवाजा इस कविता में भी है और उसकी ऊँची चौखट भी. चौखट को पार करने की चुनौती भी. यह कोई सामान्य दरवाज़ा नहीं है. यह संस्कृति और सभ्यता के विकास क्रम से हासिल मजबूत दरवाजा है. जो हमेशा फटाक से बंद होता है एक स्त्री के मुंह पर. यह सिर्फ घर का ही दरवाज़ा नहीं मन का भी दरवाज़ा है, जिसे संस्कृति के बढ़ई ने बहुत खूबसूरत नक्काशी काटकर बनाया है. एक बारगी में कितनी सुन्दरता और सुरक्षा का भ्रम पैदा करता है यह दरवाज़ा. लेकिन इसकी सांकल खोलने की इजाज़त सिर्फ उनको है जिन्होंने इसे बनाया है, जो इस मन के मालिक हैं.

“ये दरवाजा
तुम्हारे  खटखटाने के लिए
बना है


-

इसके पीछे
खड़ी होकर
मैं एक मज़बूत
और सुन्दर औरत हूँ .”

इस कविता को आप पढ़ सकते हैं, यह एक अच्छी कविता है. विचार और विन्यास दोनों  ही स्तरों पर. पहली नज़र में यह कविता सुन्दरता का आभास कराती है. जैसे-

“होती है इस पर
जब खट-खट
तुम्हारे कहे बगैर
मैं तुम्हें सुन लेती हूँ
तुम्हारी ये अनुगूँज
-मैं हूँ
भीतर आकर थम जाय
इसके लिए बना है ये दरवाज़ा”

यहाँ तक कितना सुरक्षा देने वाला लगता है यह दरवाज़ा, कहीं कोई पेंच नहीं इस दरवाज़े में. लेकिन अगला ही बंद आपके लिए खोल देगा वह द्वार जो दरवाज़े के भीतर जाने पर ही खुलता है. यहाँ अनामिका की ‘दरवाज़ा’ शीर्षक कविता याद आती है-

‘‘मैं एक दरवाज़ा थी
मुझे जितना पीटा गया
मैं उतना ही खुलती गयी’’

सविता भार्गव की कविता में वह पीटने की आवाज़ तो नहीं सुनाई पड़ती. धीरे-धीरे सत्ता सतर्क हुई है. वह निशान नहीं छोड़ती. उसके औजार माइक्रो लेबल के हुए हैं, बहुत सूक्ष्म जिसे नंगी आखों से देखा ही नहीं जा सकता. वहबाहर से बहुत सुन्दर है, मजबूत भी. वह बहुत शाइस्तगी से बंद होता है. लेकिन –

“तुम्हारी आवाज़
‘मैं हूँ ‘
के घेरे में भटकने के लिए बनी हूँ मैं
............................
खड़ी होकर
इस दरवाज़े पर
मैंने तुम्हारे बिछड़ने के
दुःख झेले हैं

लौटने तक तुम्हारे
ये दरवाज़ा’
बंद रहने के लिए बना है .”

यहाँ पहुंचकर कविता अपना पूरा  सन्दर्भ पाठक के सामने खोल देती है. फिर आप सभ्यता, संस्कृति, परम्परा और इतिहास के मुहाने तक टहल आते हैं. जहाँ हर मजबूत दरवाज़े के भीतर एक स्त्री की घुटती, टूटती साँस है.
लेकिन कविता का अंतिम बंद एक चेतस स्त्री की आवाज़ है. वे लिखती हैं-

“मेरे बंद करने के लिए
बना है
यह दरवाज़ा”
यह संस्कृति कितने स्तरों पर विभाजित है, देखने से अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है. जब कविता में आप छोटे-छोटे, देखने में मामूली लगने वाले विषयों को एक नजरिए से उकेरा देखते हैं, तब लगता है कहाँ-कहाँ खींची गयी  है विभाजन की यह लकीर. एक ही वर्णमाला से बनने वाली भाषा एक ही अन्न से पकने वाला भोजन कितना अलग स्वाद देता है स्त्री और पुरुष को. पुरुष भाषा और स्त्री भाषा के अलग-अलग मानदंड होने की बानगी आप ‘गालियाँ’  शीर्षक कविता में देख सकते हैं-

“ड्रामा कोर्स में
एक वाचाल वेश्या का अभिनय करते हुए
मंच पर मैं बके जा रही थी
माँ बहन की गलियाँ

पूरी पृथ्वी एक मंच है
जिसमे पुरुष की यह
आम भाषा है
बोलने के लिए जिसे
स्त्री को
वेश्या के अभिनय का
सहारा  लेना पड़ता है .”

ये गालियाँ  पुरुष के लिए असामान्य नहीं बल्कि सामान्य भाषा की तरह ही हैं. घर, गली, नुक्कड़, ऑफिस कहीं भी धड़ल्ले से प्रयोग लायक. फिर भी वह धारण करता है भद्र पुरुष की संज्ञा, लेकिन इसको बोलते ही स्त्री खास कोटि की स्त्री बन जाती है. जिसे मेरे गाँव की भाषा में ‘नंगिन’ और कवयित्री की भाषा में ‘वेश्या’ कहते हैं. 
                 
स्त्री ने सबसे अधिक अपने स्वप्नों का पीछा किया है, लेकिन हर बार उसे सपनों की टूटी किरचें ही मिली हैं. हर बार सपने में उससे छूट जाते हैं उसके सुख या और अधिक चटक होकर आता दिन का दुःख. स्वप्न हाथ से छूटकर किसी घड़े की तरह बिखर जाते हैं ज़मीन पर, जिसे बटोरकर एक बार फिर फेक दिया जाता है घर के पिछवारे. दरअसल स्वप्न में ही मूर्त होती है एक स्त्री की चाहत, जो हकीकत की दुनिया में पूरी नहीं होती. फ्रायड का मनोविज्ञान यहाँ तक तो सही राह बताता है, लेकिन इसके आगे या तो वह स्वयं भटक जाता है या जानबूझकर गुमराह करता है. वह उन अधूरे सपनों और अधूरी इच्छाओं की समाजशास्त्रीय व्याख्या छुपा ले जाता है, इसलिए आगे समय की गति में फ्रायड की व्याख्या अधूरी पड़ जाती है .

‘व्यवस्था तो है’ शीर्षक कविता से पढ़ सकते हैं इस बंद को-
“मुफ़्त में नहीं मिलती औरत को ज़िंदगी
देना होता है बदले में उसे हमेशा
ठोस,तरल,वाष्प
किसी भी शक्ल में
सबसे जरुरी चीज है उसका स्वप्न
करना पड़ता है अक्सर
सत्यानाश उसका”

या

“सोया हुआ कोई स्पर्श
जागकर सो जाता है
मन की कोई सुन्दर-सी छवि
जागने से पहले ऱोज बिगड़ जाती है”
(अनचाहा सामान शीर्षक से )

स्त्री की दुनिया में किसी और के स्वप्न तिरते हैं. स्त्रियाँ किसी और के डायरी का पन्ना होती हैं. कोई और आकार देता है उनकी वर्णमाला को. कोई और दर्ज़ करता है उनके माथे पर अपनी लिपि-

“उन दिनों
मैं डायरी थी
उसकी”  (डायरी शीर्षक से

स्त्री इस दुनिया से हमेशा ही बहिष्कृत रही. कौन कहे इस दुनिया में जगह पाने की वहतो अपनी ही दुनिया से बहिष्कृत कर दी गयी. सबसे अच्छी बात यह रही कि उसने कभी हार नहीं मानी. संग्रह की एक कविता है ‘जीने की जगह’ आप देख सकते हैं कि कैसे वह बहिष्कृत है इस दुनिया से –

“मैंने अपने भीतर
जीने की जगह बनायी
लेकिनउस पर घर किसी और ने बना लिया
एक दिन उसे निकालने में कामयाब हुयी
और दुसरे को आसरा दिया
चूँकि घर उसका नहीं था
वह कभी समझ नहीं पाया
किधर आँगन है और द्वार किधर है.”

“अपनी देह का ख़याल रखते हुए
कितना ख़याल रखा है
मैंने तुम्हारे मन का

मेरे मन का ख़याल
कम से कम अगले जन्म में
ज़रूर रखना” 
(मेरे मन का ख़याल शीर्षक से )

वैसे तो पूरी दुनिया ही ‘बधिया’ किया हुआ बैल जैसी है. सबके पैमाने हैं, जिसमे होती है पैमाइश सबकी. लेकिन स्त्री के सांचे सबसे अधिक कसे हुए हैं, साँस लेने भर की भी जगह नहीं है. बहुत कम बची है स्त्री स्वयं में. यह अलग बात है कि अब वह बड़ी शिद्दत से खोज भी रही है खुद को. इसलिए स्त्रीत्व की रूढ़िगत, प्रचलित परिभाषाओं से अलग अपनी और नयी परिभाषाएं गढ़ी जा रही हैं स्त्रियों के द्वारा. इसलिए ‘स्त्रीत्त्व क्या है’ शीर्षक कविता एक सहज परिभाषा बन जाती है नयी स्त्री की-

“काश! मेरा स्त्रीत्त्व
परिवार टूटने से बचाने के नाम पर
तुम्हारे गुनाहों को छुपाने में न होता”

भाषा की एक नयी दुनिया से परचित करा रही है आज की स्त्री-कविता. स्त्री-कविता किसी बाह्य घटाटोप को नहीं रचती, वह अपना लोहा आपसे नहीं मनवाती, वह कोई चुहल भी नहीं करती, न कोई रहस्य, बल्कि धीरे से आपके कान में कहती है अब बदल लो अपने पुराने मुहावरे. अब ये किसी काम के नहीं. वह साहित्य के पुराने, रुढ़िवादी, पितृसत्तात्मक मुहावरे को बहुत सार्थक ढंग से बदल रही है, ऐसे बदल रही है कि कविता का सच न खंडित हो. क्योंकि कविता न विवरण है, न ठोस सच्चाई, न उड़न छू कल्पना, न सपाटबयानी है कविता, कविता बाहर से आरोपित सच भी नहीं. वह इन सबके बीच कहीं, किसी कोंण पर घटित होती है.

संग्रह पढ़ते हुए मुझे अनेक अच्छी कवितायेँ मिलीं जिसको उद्धृत करने से नहीं रोक पाई खुद को. लेकिन संग्रह में दो-चार कमजोर कवितायेँ भी हैं. जैसा की अमूमन सभी संग्रहों में देखने को मिलता है. स्टैंड सही होने से हमेशा कविता अच्छी नहीं बनती. संग्रह की एक कविता है– ‘बाँझ  स्त्रियाँ’. इस कविता का स्टैंड बहुत ही अच्छा है, लेकिन यह कविता बदलाव की जल्दबाजी में दिखती है. इसलिए कविता बाँझ स्त्री के जीवन के तनाव, उसकी त्रासदी को पकड़ने के बजाय बाहर से किसी अविश्वसनीय सच का आरोपण करती है .
“बाँझ स्त्रियों का वेफ़िक्र अंदाज
बाकी स्त्रियों के लिए इर्ष्या का
विषय है”
आता है किसी बाँझ स्त्री में भी यह वे फ़िक्र अंदाज, लेकिन यह अंदाज आने तक एक कठिन घर्षण चलता रहता है उसके भीतर, स्वयं से और समाज से भी. यह अंदाज पाने में स्त्री के ज़िंदगी का बड़ा हिस्सा चुक जाता है.
कहा जाता है कि सच को इस तरह से कहा जाना चाहिए कि सौन्दर्य खंडित न हो .लेकिन यह भी जोड़ना चाहिए कि सौन्दर्य भी इस तरह रचा जाना चाहिए की सच भी खंडित न हो. ‘अधूरा घोंसला’ शीर्षक कविता में गौरैया के लिए काला विशेषण मुझे समझ में नहीं आया. यह भी हो सकता है मैंने ही ठीक से कविता को नहीं समझा.
इसी तरह ‘पुरुष दोस्तों की बीवियां’ शीर्षक कविता भी पूरी स्थिति को नहीं उकेर पाती है. जैसे –

“उनके पतिदेव जी लगाते हैं
पूरे शहर का दिन-भर चक्कर
तब जलता है
उनके घर का चूल्हा

पड़े-पड़े अपने विस्तर पर
वे सोचती रहती हैं
स्वामी का चल रहा होगा
कहीं पर रोमांस
मेरा चेहरा याद करके तो
वे बेहद कुढ़-भुन जाती हैं” 

ये चंद बातें थीं, जो कविता को पढ़कर मैं समझ पायी. आपकी राय मेरी राय से ज़रूर अलग होगी यह उम्मीद करती हूँ. ये शब्द बस ! जरिया हैं आपसे किताब का परिचय करने के लिए. मैंने अपने हिस्से का सार ग्रहण किया. अपने हिस्से का सार ग्रहण करने के लिए डुबकी आपको लगानी होगी.
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अनुपम सिंह का जन्म उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में लबेदा नामक गाँव में हुआ. प्रारंभिक शिक्षा गाँव के ही सरकारी विद्यालय में हुयी. इन्होंने स्नातक,परास्नातक की डिग्री इलाहाबाद विश्वविद्यालय तथा पी-एच.डी.की डिग्री दिल्ली विश्वविद्यालय से प्राप्त किया. 
कवितायेँ लिखती हैं, अनेक पत्र-पत्रिकाओं में छप चुकी हैं 
इमेल–anupamdu131@gmail.com 
फोन- 9718427689

परख : मल्लिका (मनीषा कुलश्रेष्ठ) : अरुण माहेश्वरी

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भारतेंदु हरिश्चन्द्र के जीवन पर आधारित दो प्रारम्भिक महत्वपूर्ण पुस्तकें हैं- १९६२ में प्रकाशित ‘भारतेंदु हरिश्चन्द्र’, लेखक हैं श्री ब्रजरत्नदास और १९७५ में प्रकाशित ‘हरिश्चन्द्र’जिसके लेखक हैं बाबू शिवनन्दन सहाय. पहली पुस्तक में भारतेंदु की प्रणय कथा जिसमें बंगभाषी मल्लिका भी शामिल हैं, का ज़िक्र ‘चन्द्र में कलंक’शीर्षक से किया गया है. दूसरी किताब में यह ‘गुलाब में काँटा’शीर्षक से है.

ये शीर्षक ही बहुत कुछ कहते हैं. अगर यही कलंक है तो यह शुभ है इससे चन्द्र की चमक बढ़ती ही है.
उस समय महाराष्ट्र और बंगाल ये दोनों नवजागरण के पुरोधा थे. जिसे आज हम हिंदी पट्टी कहते हैं और जिसमें जैसा भी नवजागरण है वह यहीं से आया है, इससे सुंदर और क्या बात होगी कि वह खड़ी बोली हिंदी के पितामह कहे जाने वाले भारतेंदु के जीवन में प्रेयसी बन कर आई.

कथाकार मनीषा कुलश्रेष्ठ ने मल्लिका को केंद्र में रखकर यह जो उपन्यास लिखा है वह इस बीच प्रेम को देखने की बदली हुई दृष्टि का परिचायक तो ही है, एक स्त्री प्रेम को किस तरह देखती इसका भी पता इससे चलता है.
इस कृति पर आलोचक अरुण माहेश्वरी की यह टिप्पणी आपके लिए.






मल्लिका
भारतेन्दु बाबू की प्रणय कथा                         
अरुण माहेश्वरी




ज मनीषा कुलश्रेष्ठ का हाल में प्रकाशित उपन्यास 'मल्लिका'पढ़ गया. मल्लिका, बंकिम चंद्र चटोपाध्याय की ममेरी बहन, बंगाल के एक शिक्षित संभ्रांत घराने की बाल विधवा. तत्कालीन बंगाली मध्यवर्ग के संस्कारों के अनुरूप जीवन बिताने के लिये काशी को चुनती है. संयोग से काशी में वह भारतेन्दु हरिश्चंद्र के मकान के पिछवाड़े की गली के सामने के मकान में ठहरती है. मल्लिका के यौवन की झलक और साहित्यानुराग ने भारतेन्दु बाबू को सहज ही अपनी ओर खींच लिया. दोनों के प्रणय-प्रेम का यह आख्यान भारतेन्दु बाबू की असमय मृत्यु तक चलता है. काशीवासी मल्लिका अंत में वृंदावनवासी बनने के लिये रवाना हो जाती है !

यह है भारतेन्दु बाबू की बंगाली प्रेमिका मल्लिका पर केन्द्रित इस उपन्यास के कथानक का मूल ढांचा. इस ढांचे को देखने से ही साफ हो जाता है कि बांग्ला नवजागरण की पीठिका से आई मल्लिका का हिन्दी नवजागरण के अग्रदूत भारतेन्दु से संपर्क के बावजूद इस प्रणय कथा में उनके स्वतंत्र चरित्र के विकास की कोई कहानी नहीं बनती दिखाई देती है. यह किसी खास परिपार्श्व के संसर्ग से बनने-बिगड़ने वाले चरित्र की कथा नहीं है जो अपने जीवन संघर्षों और अन्तरद्वंद्वों की दरारों से अपने समय और समाज को भी प्रकाशित करता है. यह शुद्ध रूप से एक विधवा की प्रेम कथा है, प्रणय-प्रेम गाथा है, जिसका रूपांतरण उसके काशीवास से वृंदावनवास में स्थानांतरण तक ही होता है. एक स्वाधीन प्रेमी पुरुष की जीवन-लीला का पार्श्व चरित्र.

प्रणय— सचमुच इसकी कथाओं का भी कोई अंत नहीं हुआ करता है. इसकी सघनता एक स्वायत्त, समयोपरि सर्वकालिक सत्य का संसार रचती है, ऐसे एकांतिक सत्य का जो दो प्रेमियों का पूरी तरह से अपना जगत होता है. समाज जो कुल, क्रम की श्रृंखलाओं को मानता है, प्रेम की ऐसी एकांतिक सर्वकालिकता पर सवाल करता है; स्त्री-पुरुष के बीच के दैहिक संबंधों को अलग सांस्कृतिक स्वीकृति देने से परहेज करता है. आज वैसे ही विरह प्रेम को मध्ययुगीन खोज बताने वाले कम नहीं है. इसे स्त्रियों का विषय भी कहा जाता है. लेकिन पुरुष प्रणय के प्रति उदासीन नहीं बल्कि उत्साहित ही रहता है— इसी सत्य के आधार पर इतना तो कहा ही जा सकता है कि स्त्री-पुरुष संबंधों की वासना और सुख सर्वकालिक सत्य है. प्रणय-निवेदन के असंख्य और पूरी तरह से अलग-अलग रूप हो सकते हैं, लेकिन यह स्वयं में एक सत्य की अनुभूति का भाव है. प्रणय कथाओं के स्वरूप मूलत: इसके सामाजिक परिप्रेक्ष्य के भेदों पर टिके होने पर भी इसके अपने जगत का आधारभूत अभेद एक एकांतिक, स्वायत्त भाव होता है. मनुष्य के सामान्य क्रिया-कलापों के बीच दो व्यक्तियों का, एक युगल का अलग टापू— 'नदी के द्वीप'.


यही वजह है कि लेखकों का एक वर्ग आपको ऐसा मिलेगा जो अक्सर सिर्फ प्रणय-प्रेम कथाएं ही लिखता है. वे जीवन भर प्रणय की अनुभूतियों को व्यक्त करने के नानाविध अलंकारों, भाव-भंगिमाओं से लेकर काम क्रिया तक के प्रकरणों की अभिव्यक्ति को साध कर उसे अलग-अलग स्थानिकताओं की लाक्षणिकताओं के साथ उतारते रहते हैं. सारी फार्मूलाबद्ध हिंदी फिल्मों की शक्ति भी इसी प्रणय के जगत की एकांतिकता के सत्य से तैयार होती है. इन प्रणय कथाओं में आम तौर पर स्थानिक विशिष्टता को उकेरने के लिये इकट्ठा किये गये सारे अनुषंगी उपादान लगभग महत्वहीन होते हैं, मूल होता है प्रणय के अपने जगत के उद्वेलनों में पाठक-दर्शक को डुबाना-तिराना.


लेखक प्रणय के इस उद्वेलन के अनुरूप ही भौतिक परिवेश को भास्वरित करता है, मसलन् इसी उपन्यास में —

“'धिक्क...'कहकर उनके हाथ से पन्ना छीनने लगी. उन्होंने उसे बाह से थाम लिया मानो वहीं पर सारा मनोभाव संप्रेषित हो चुका था. आगे बात करना असंभव हो रहा था. बातें बस आँखों ही आँखों में थीं कभी अपेक्षा से देखती आँखें तो कभी शर्म से झुकती आंखें. दोनों के बीच जो लहर प्रवाहित हो रही थी उसे दोनों महसूस कर रहे थे और एक उत्कट आकांक्षा उफान मारने लगी थी. लैंप की बत्तियां नीची हो गईं...छाया और प्रकाश परछाइयों का मद्धिम जादू नींद से जाग गया. वह नैसर्गिक निकटता और विश्वास ही था कि वह उस दिन दैहिक रूप से उनके करीब आ गई. पहला दैहिक संसर्ग...। पहली-पहली तुष्टि....तेज हवा वाली रात थी, मल्लिका के मन का संशय मीठे अनुनाद में बदल गया. चंद्रमा क्षितिज से ऊपर उठ गया था. संकोच के बंध टूट रहे थे.”
(पृष्ठ – 85)

इतनी ही सुनिश्चित होती है इस एकांतिक जगत के युगल की शंकाएँ, अंतरबाधाएं —

“मैं आरंभ से जानती हूँ कि आप आधिपत्य की वस्तु नहीं हो. आपसे आकृष्ट हो मैंने सामाजिक रीतियों को तोड़ा है. संसार के प्रति नहीं अपने हेतु अपराध किया है.”(पृष्ठ – 102)

“मैंने क्या बुरा किया उस आलीजान को दूसरे के कोठे से उठा कर घर खरीद दिया. उसे शुद्ध कर माधवी बना दिया. अब वह मेरे संरक्षण में है, अब वह केवल मुजरों में जाती है. महफिलों में गाती है.'
“मल्लिका बुझ गई. संरक्षण, संरक्षिता, रक्षिता !!” (पृष्ठ – 104)

इसी प्रकार तयशुदा होता है ऐसे लेखन में भाषाई अतिरेक. देखिए मल्लिका के घर की चारदीवारी में प्रणय के दृश्य का ब्रह्मांड-व्यापी स्वरूप —  

“ज्यू के मांसल अधर पहली बार मल्लिका के अधरों के अधीन थे. सूर्यास्त हो ही रहा था, वातावरण में दूर-दूर तक रंगराग छा गया था. गवाक्ष से भीतर आते समीर में चंपई गंध थी. धरती और ब्रह्मांड एक-दूसरे के विपरीत गति में संचालित थे. इस विचित्र घूर्णन में प्रकृति भ्रमित-सी थी. पक्षी नीड़ों की ओर लौटते हुए चुप-से थे.” (पृष्ठ – 133)

और माणिकमोहन कुंज के प्राचीन मंदिर के अलौकिक वातावरण में हरिश्चन्द्र और मल्लिका के आपस में मालाओं के आदान-प्रदान के बाद के भावोद्वेलन का बयान —

“क्या हुआ जो मैं आज तुम पर भर-भर अंजुरियाँ मंदार पुष्प न बरसा सकी, तुम्हें तो इन सूखे बेलपत्रों से रीझ जाना चाहिए था. तुममें और मुझमें घना अंतर है ! तुममें तो भर प्याला देने की क्षमता है, वो तो मैं हूँ, बूँद-बूँद के लिए तृषित चातक.'
“मल्लिका मैं तुम्हें प्रकृति और परमेश्वर द्वारा प्रदत्त भीतरी और बाहरी सौंदर्य की विपुल राशि मानता हूँ,'ज्यू उसे अंक में भरते हुए बोले.” (पृष्ठ – 143)

और इन सबमें जो अंतरनिहित हैं, वह है प्रणय प्रेम के दैहिक और भावनात्मक सत्य की शाश्वतता.
“'उई, केश मत खींचिए ना, जो भी हो, हम ऐसी ही मल्लिका है, ज्यू आपको हमें प्रेम करना होगा.'निराले स्त्रैण ढंग से दीवार की ओर करवट ले कर, मान करते हुए मल्लिका बने हरिश्चन्द्र बोले....हरिश्चन्द्र उधर मुख किए-किए मुस्कुराए. मल्लिका ने उनकी कमर पर हाथ रखा और उन्हें पलटा कर अपने दुर्बल बाहुबंद में भर लिया और ज्यू से बोली —'कुछ बोलोगी नहीं ?'
'प्रेम में निरत युगल के बीच मौन ही तो बोलता है....
'हम तो आज वाचाल है, हमारे अधर बढ़ कर बंद कर दो न ज्यू,'कह कर ज्यू ने मल्लिका को स्वयं पर गिरा लिया.” (पृष्ठ -132-133) 

“क्या हुआ खल लोग तुझे मेरी आश्रिता कहते रहे...तुझे इससे क्या, तेरा प्रेमी और तू जिसकी सरबस है...उसने तो तुझे धर्म-गृहीता माना है. देखना...आगे ऐसे लोग भी उत्पन्न होंगे जो तेरा नाम आदर से लेंगे. मेरी और तेरी जीवन पद्धति समझेंगे. इस प्रेम के दर्शन को मान देंगे.”

दरअसल, सच्चा और अकूत प्रेम ही ऐसे प्रणय आख्यानों के सत्य की अनंतता का स्रोत होता है. उसमें कथा को मिथकीय और साथ ही नाटकीय रूप देने की क्षमता होती है. प्रणय का हर दृश्य उसके यथार्थ स्वरूप से काफी विशाल होता है, श्री कृष्ण के विराट रूप की तरह. इसीलिये मिथकीय होता है, ईश्वरीय कृपा और दिव्य नियति स्वरूप. इसमें स्थानिकता अथवा परिवेश के अन्य पहलू नितांत निर्रथक और अनुर्वर होते हैं. प्रणय से हट कर प्रेम के विछोह की दरारों से जो प्रकट होते हैं, जो पूरे कथानक को दूसरे फलक पर ले जाते हैं, उनका शुद्ध प्रणय कथाओं में कोई मूल्य नहीं होता. यहां भी नहीं है.

बहरहाल, देह और भाषाओं की आदमी की दुनिया में प्रेम के भुवन का सत्य भी कोई अलग या भिन्न नहीं है. प्रणय उसी के देह पक्ष की सच्चाई को विराट, मिथकीय, नाटकीय रूप देता है. 'मल्लिका'में लेखिका ने इसे ही साधने की एक और कोशिश की है.

भारतेन्दु बाबू के जीवन के अन्य सारे प्रसंग अथवा मल्लिका के पिता के संसार के बंगाल के तथ्य, नवजागरण की आधुनिक और क्रांतिकारी बातें सिर्फ उनके लिये ही मायने रखते हैं, जो उनसे पहले से ही परिचित है. ये सब उपन्यास के सजावटी अनुषंगी मात्र है. भारतेन्दु युग के बौद्धिक विमर्श यहां इसलिये भी निरर्थक हो जाते हैं क्योंकि मल्लिका-भारतेन्दु के संबंधों में उनका कोई स्थान नहीं होता और मल्लिका की बंगाल की बलिष्ठ पृष्ठभूमि के बावजूद उसके लिये उन बातों का कोई बहुत ज्यादा अर्थ नहीं होता.

कहना न होगा, बंकिम युग की अनुभूतियों और भाषा का यह विन्यास उस युग के अपने सामाजिक अंतरविरोधों के व्यापक वितान से बाहर की एक स्वायत्त प्रणय की एकांतिक अनुभूति का जगत है. मल्लिका और हरिश्चन्द्र महज सुविधाजनक अवलम्ब हैं.  
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arunmaheshwari1951@gmail.com

परख : कुठाँव (अब्दुल बिस्मिल्लाह) : सत्य प्रकाश

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‘कुठाँव’ उपन्यास में मसावात की जंग             
सत्य प्रकाश


अब्दुल बिस्मिल्लाह का टटका उपन्यास ‘कुठाँव’ मुस्लिम धर्म में व्याप्त जातिप्रथा और कुप्रथा के आख्यान को उद्घाटित करता है. यदि इसको दूसरे अर्थ में समझें तो हिन्दू धर्म की जातिगत विकृतियाँ कब अपनी दहलीज लांघकर किसी अन्य धर्म को जर्जर लगी, यह समझने में कई दशक, शतक लग गये. अब्दुल बिस्मिल्लाह ने भारत के मुस्लिम धर्म की वर्तमान सामाजिक पृष्ठभूमि के साथ, उनकी आन्तरिक कमजोरियों पर कुठाराघात किया है. उन्होंने भारतीय मुसलमानों की सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और राजनीतिक स्थिति के साथ साथ गरीबी, अशिक्षा, स्त्री शोषण, बलात्कार, छुआछूत, जातिगत ऊँच-नीच जैसे गैर मसावात को यथार्थ के धरातल पर चित्रित किया है. ‘कुठाँव’ का शाब्दिक अर्थ है ‘मर्मस्थल’. अब्दुल बिस्मिल्लाह ने जिस मर्मस्थल की बात की है, वह समाज है. सामाजिक कुरीतियाँ, विकृतियाँ और विडम्बनाएं इस मर्मस्थल को खोखला कर रही हैं.

दुनिया एक दिन में नहीं बनी है वो रोज बनती है. रोज नये विधान, नियम और कानून गढ़े-बुने जाते हैं और रोज ऐसे ही अनगिनत विधान, नियम और कानून नेस्तनाबूत भी होते हैं. अंततः जो विधान, नियम और कानून बने रहने में समर्थ हो पाते हैं वह धर्म का रूप धारण कर लेते हैं. विश्व की बड़ी-बड़ी सभ्यताओं (मेसोपोटामिया, यूनान, मिस्र, हड़प्पाया सिन्धु घाटी सभ्यता) को इस सन्दर्भ में देखा जा सकता है. 

डॉ. राधाकृष्णन अपनी पुस्तक धर्म और समाज में लिखते हैं 

“प्रत्येक सभ्यता किसी न किसी धर्म की अभिव्यक्ति होती है”1

भारत में एकधर्मसे कई धर्म विकसित हुए और कई विकसित धर्म और सभ्यताएँ आज ख़त्म हो गई या हाशिये पर हैं.इन सब में एक बात सत्य है कि खुदा के जितने भी पैगम्बर आये, बड़े नेक और पाक इरादे से आये औरउन्होंने अलग-अलग धर्मों की न केवल स्थापना की बल्किएक नई विचारधारा और संस्कृति कोविकसितकिया.हिन्दू, बौद्ध, जैनऔर सिखधर्म इस बात की गवाही देते हैं. साथ ही इस बात को दरकिनार नहीं किया जा सकता कि मनुष्य अपनी सुविधानुसार धर्म को इस्तेमाल करता रहा है. 

धर्मों के भीतर अनेक वर्ण, वर्णों के भीतर अनेक जातियाँ, जातियों के भीतर अनेक प्रथाएँ, अनेक प्रथाओं के भीतर अनगिनत कुप्रथाएँ कब उपजीं इसको समाज ने समझा ही नहीं. अब्दुल बिस्मिल्लाह का टटका उपन्यास ‘कुठाँव’ मुस्लिम धर्म में व्याप्त जातिप्रथा और कुप्रथा के आख्यान को उद्घाटित करता है. यदि इसको दूसरे अर्थ में समझें तो हिन्दू धर्म की जातिगत विकृतियाँ कब अपनी दहलीज लांघकर किसी अन्य धर्म को जर्जर लगी, यह समझने में कई दशक, शतक लग गये. अब्दुल बिस्मिल्लाह ने भारत के मुस्लिम धर्म की वर्तमान सामाजिक पृष्ठभूमि के साथ, उनकी आन्तरिक कमजोरियों पर कुठाराघात किया है. उन्होंने भारतीय मुसलमानों की सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और राजनीतिक स्थिति के साथ साथ गरीबी, अशिक्षा, स्त्री शोषण, बलात्कार, छुआछूत, जातिगत ऊँच-नीच जैसे गैर मसावात को यथार्थ के धरातल पर चित्रित किया है. ‘कुठाँव’ का शाब्दिक अर्थ है ‘मर्मस्थल’. अब्दुल बिस्मिल्लाह ने जिस मर्मस्थल की बात की है, वह समाज है. सामाजिक कुरीतियाँ, विकृतियाँ और विडम्बनाएं इस मर्मस्थल को खोखला कर रही हैं.

‘कुठाँव’ उपन्यास की मूल समस्या मध्यकालीन इतिहास की ओर सोचने पर मजबूर करती है. भारत में जब इस्लाम अपने पूर्ण वर्चस्व रूप में था तब कुछ राजाओं द्वारा जोर-जबरदस्ती और कुछ लोगस्वेच्छा से इस धर्म को अपनाने लगे. यह धर्म परिवर्तन की प्रक्रिया लगातार चलती रही, इसका उदाहरण अब्दुल बिस्मिल्लाह के ‘कुठाँव’ उपन्यास में देखने को मिलता है सलमान कहता है- 
 
“हिन्दुस्तानी समाज में जितनी जातियाँ हिन्दू समाज में हैं लगभग उतनी ही जातियाँ मुस्लिम समाज में भी हैं. क्या आपको पता है कि मैं नाई हूँ और रफ़ीक धोबी है. मुसलमानों में कुँजड़े हैं, जुलाहे हैं, धुनियाँ हैं, चुड़िहार हैं, मनिहार हैं ; कसाई हैं और तो और हेला भी हैं-यानी पाख़ाना साफ़ करने वाले, जिन्हें पहले मेहतर कहा जाता था और बाद में ‘हलालखोर’ कहा जाने लगा.हिन्दोस्तानमें जब मुसलमान आए तो यहाँ की हर उस जाति के लोगों ने इस्लाम धर्म अपनाया जो हिन्दू समाज में उपेक्षित थे. क्योंकि इस्लाम के हाथ में मसावात का झुनझुना जो था. मगर यह झुनझुना बजाने में सिर्फ अच्छा लगता था...”2

प्राचीन काल से अबतक भारत के विभिन्न धर्मों के भीतर ऊँच-नीच की खाई बनी हुई है. समाज में धार्मिक विखंडन का जो रूप सांप की भांति पैर पसार रहा है उसको देखते हुए यह कहने में अतिश्योक्ति नहीं होगी कि जातिगत विषमता से ही भारत विश्व में शोषण, गरीबी, भ्रष्टाचार के कारण पिछड़ा हुआ है.

उपन्यास में अब्बदुल बिस्मिल्लाह ने मुस्लिम सभ्यता, संस्कृति और तीज त्योहारों में जो परिवर्तन हुआ है, उसको भी रेखांकित किया है. वे लिखते हैं 

“बक़रीद तो बलिदान का दिन है. जिसके पास हैसियत है, वह कराए क़ुर्बानी. चाहे बकरे की कराए चाहे भैंसे की और चाहे ऊँट की. रही ईद बकरीद नमाज़, तो वह वाजिब है. अनिवार्य नहीं. मगर मुसलामानों ने उसे ही अनिवार्य बना दिया.”3

ठीक इसी प्रकार उन्होंने ‘बारावफ़ात’, ‘कुँडे ’का पर्व और ‘नाव-नावरिया’ इत्यादि त्योहारों को उनकी वास्तविकता को दर्शाते हुए, उसके बदलाव को भी अंकित किया है. इसी प्रकार कजरी और कव्वाली जैसे लोकगीत के बारे में भी उन्होंने लिखा है कि 

“सड़क के दोनों किनारों पर पर्दे लगे हुए थे. पर्दों के पीछे स्त्रियाँ कजरी गा रही थीं. मिर्ज़ापुर कीकजरी के कई रूप रहे हैं. दंगलों की कजरी, स्त्रियों की कजरी, कवियों की कजरी और...और मिर्ज़ापुर की अपनी विशेष कजरी. अनन्त चौदस की रात हमेशा स्त्रियों की कजरी का ही आयोजन होता था.”4

कजरी और कव्वाली औरउसके श्रोताओं के सन्दर्भ में लिखते हैं 

“कव्वाली के श्रोता सिर्फ़ पुरुष ही होते थे. यानी एक ही सड़क पर पर्दे के अन्दर स्त्रियाँ कजरी का रस लेती थीं तो पुरुष खुल्लमखुल्ला क़व्वाली सुनते थे. स्त्रियाँपर्दे में और पुरुष सड़क पर. भारतीय संस्कृति का यह रूप मिर्ज़ापुर में हर साल दिखता था.”5 

अब्दुल बिस्मिल्लाह के लेखन में हिन्दू-मुस्लिम साझीसभ्यता, संस्कृति औरलोक गीतों की झलक देखने को मिलती है.

उपन्यास में अश्लीलता के कई बिंब सामने आते हैं. गड़बड़ा के भव्य मेले का जिक्र करते हुए उत्तर भारत की ठण्डी रात को बताना नहीं भूलते. मेले में देर होने से ‘इद्दन’ रात में अपनी बेटी सितारा जो कि उम्र में 12-13 साल की है उसे ठण्ड से बचाने के लिए गाँव के नईम भाई की झोपडी में भेजती है. जिसका जिक्र लेखक करता है 

“कुर्ती के अन्दर चिकनी मिट्टी से बना हुआ एक गोला आकार और उस पर किसी का हाथ. सांसों की आवाज़ और फिर एक अजीब ख़ामोशी. स्त्री और पुरुष-पुरुष और स्त्री-दोनों के लिए मानों एक नया अनुभव. फिर, एक इन्द्रिय खिसकने लगी. नीचे. वह पुरुष की थी. स्त्री सावधान हो गई. सितारा ने करवट फिर बदल ली.”6

अगले दिन सितारा स्वयं मेले में देरी करती है 

“रातगहरी होती जा रही थी और साथ ही ठंड भी. सितारा की तरफ़ रजाई थोड़ी कम पड़ रही थी. अतः वह नईम की तरफ़ थोड़ा और खिसक गई. फिर वह उनसे लिपट सी गई. और...और फिर सितारा को उसी स्पर्श का अनुभव हुआ जो कि पिछली रात में हुआ था. कुछ देर बाद वह सिहर उठी.... ठंड की उस रात में रजाई के नीचे पसीना-साकुछ बहा...और सितारा ने एक रोमांचक-सा दर्द महसूस किया और बस.”7  

यह अनुभव पढ़ने में अश्लील लग सकता है किन्तु क्या यह सामाजिक वास्तविकता नहीं है? इस पर अभी भी विचार करने की जरूरत है. अश्लीलता के उपमेय, उपमान और उपादान कथा की गति में रोचकता पैदा करते हैं. लेखक इस अश्लीलता के संदर्भ में स्वयं उपन्यास के शुरुआत में ‘कहना जरुरी है’ में आत्मस्वीकृति करते हैं 

“पहली बात तो यह कि इस उपन्यास में पाठकों को दो आपत्तिजनक बातें दिखेंगी : कुछ कुछ अश्लीलता और जातिसूचक शब्दों (जो कि आज के युग में असंसदीय या निषिद्ध हैं.) का प्रयोग. मगर यह मेरी मजबूरी थी. उपन्यास की कथावस्तु के हिसाब से इनसे बचपाना मेरे लिए लगभग असम्भव-सा था. फिर भी मैं इसके लिए क्षमाप्रार्थी हूँ.”8 

लेखक की यहाँ उदारता ही कहना अधिक संगत होगा, नहीं तो वर्तमान समय में जो लेखक सत्ता की गुलामी करते हैं वह भी शोषितों के पक्ष की बात करने का दंभ भरने लगे हैं.

प्रस्तुत उपन्यास में लेखक ने मुस्लिम धर्म के भीतर समाहित जातिगत ताने बाने को प्रस्तुत किया है. वर्तमान भारत में मुसलमान 14.2 प्रतिशत की आबादी में हैं जो पहले से अल्पसंख्यक होने की समस्या से संघर्ष कर रहे हैं. आज समाज में हो रहे सांप्रदायिक दंगे, धार्मिक हत्याएं, हिंसा सामान्यतः हिन्दू मुस्लिम के नाम पर विभाजित हो गई हैं. मुस्लिम समुदाय में भी ‘अशरफ’ जिसे उच्च जाति का मुसलमान माना जाता है इसके भीतर सैयद, शेख, पठान, मुग़ल, मलिक और मिर्जा आते हैं, इनके भीतर जातिगत श्रेष्ठता का भाव होता है.दूसरे‘अजलफ़’मुसलमान है जिसके भीतर अधिकतर कामगार जातियाँ दर्जी, जुलाहा,फकीर, रंगरेज, बाढ़ी, भटियारा, चिक, चूड़ीहार, दाई, धोबी, धुनिया,गद्दीदार, कलाल, कसाई, कुला, कुंजरा, लहेरी, महीफरोश, मल्लाह, नालिया, निकारी, अब्दाल, बाको, भेडिया, भाट, चंबा, डफाली, धोबी, हज्जाम, मुचो, नगारची, नट, परवाडिया, मदारिया, तुन्तिया इत्यादि आते हैं. तीसरे दर्जे या कहें कि निम्न दर्जे के मुसलामानों में भानार, हलालखोर, हिजड़ा, कसबी, लालबेगी, मोगता और मेहतर आदि हैं जिनकी दशा शेष वर्गों से भी दयनीय है. धर्म की आड़ में जाति की परिकल्पना कैसे सामजिक शोषण का रूप धारण कर चुकी है उसे ‘कुठाँव’ उपन्यास में देखा जा सकता है. 

उच्च जाति के मुसलमान निम्न जाति के मुसलमानों के साथ रोटी-बेटी का रिश्ता नहीं करते. इस उपन्यास में उच्च जातियों द्वारा, जाति के आधार पर हो रहे शोषण को समाज में छुपाने का प्रयास किया जाता है. उपन्यास की पात्रा हुमा के शब्दों में देखा जा सकता है- 

“फिर हिन्दुस्तान के मुसलमान इतने दिनों तक अपनी-अपनी जाति छिपाने के लिए अरबी समाज के सरनेम क्यों लगाते रहे ? हमारे यहाँ सारे जुलाहे खुद को अंसारी कहते हैं, धुनिया-चुड़िहार अपने नाम के आगे सिद्दीक़ी लगाते हैं, कसाई सब कुरैशी कैसे हो गए, नाई लोग सलमानी क्यों हो गए, फिर हाशिमी काज़मी...वगैरह कहाँ से आ गए? यहाँ तक कि भिखमंगे अपने आगे शाह लगाने लगे और ख़ाँ साहबों की तो भरमार हो गई.”9

मुस्लिमसमाज में जातिगत भेदभाव को लेकर अनवर सुहैल लिखते हैं- 

“भारतीय मुसलमानों में वर्ग और जाति भेद पाया जाता है. शेख सैय्यद मुग़ल पठान जैसे चार समाज अपने आप को श्रेष्ठ मुसलमान मानते हैं और रक्त शुद्धता बचाए रखने के लिए सतत प्रयत्नशील रहते हैं. ये खान-पान, रोटी-बेटी मामले में अपने ही समाज के लोगों के साथ सम्बन्ध बनाते हैं. बाकी जो मुसलमान हैं वे कर्म और हुनर के अनुसार खेमों में बंटे हैं. जुलाहा, कसाई, कुंजड धोबी, साईं, नाई आदि समूह पसमांदा मुसलमानोंमें आते हैं और इसके बाद जो दलित श्रेणी के मुसलमान होते हैं उन्हें हिकारत से देखा जाता है.”10

यह विडम्बना सामाजिक रूप से हिन्दू समाज के जातिगत जकड़न के अनुरूप ही है. जाति की बेड़ियों में जकड़ी स्त्री की दशा और भी दयनीय है.इसउपन्यास में जब सवर्ण असलममियाँको इद्दनकेसाथ बलात्कार करना होता है तो उसकीजाति बाधा नहीं बनती-

“असलम मियाँ लगातार इद्दन से बलात्कार करते रहे और इद्दन बेचारी बगैर कोई आवाज़ उठाए उनके हवस का शिकार बनती रही.”11

किन्तु जब इद्दनको समाज में बराबरी देने की बात आती है तो वही असलम खां उर्फ़ फुन्नन मियाँ बोलते हैं 

“जिस गंदी औरत के हाथों से आपने मुझे पान खिलाना चाहा वह हेलिन है और जो शरबत लेकर आई वह हेलिन की बेटी है. आप खाइए-पीजिए इन भंगिनों-हेलिनों का छुआ हुआ. मुझे बख्स दीजिये.”12

सामाजिक यथार्थ की दृष्टि से अब्दुल बिस्मिल्लाह ने जो दिखाने का प्रयास किया है वह बहुत हद तक ठीक और उम्दा भी है.

स्त्री की दशा समाज में क्यों दयनीय है? क्यों आज भी स्त्रियाँ अपनी अस्मिता को लेकर संघर्षरत हैं? स्त्री विमर्श किस हद तक स्त्रियों की समस्याओं को उठाने में कामयाब रहा है? इनसभीप्रश्नों के उत्तर अब्दुल बिस्मिल्लाह के‘कुठाँव’ उपन्यास में देखने को मिलतेहैं.स्त्री के साथ उसका वजूद जुड़ा होता है और यह वजूद इसी समाज में निर्मित हुआ है. समाज और परिवार की बागडोर पुरुषों के हाथों में है. पितृसत्तात्मक सोच रखने वाले स्त्री और पुरुषों को न यह समस्याएँ दिखाई देती हैं न ही वे स्त्री की समस्याओं के चित्रण में कोई विशेष दिलचस्पी ही रखते हैं. प्रस्तुत उपन्यास में स्त्री के दो रूप सामने आए हैं जिसमें एक उच्च वर्ग की स्त्री है तथा दूसरी निम्न वर्गकी. उच्च वर्ग की स्त्री के पास सभी सुख सुविधाएँ हैं घर है, शिक्षा है, धन है किन्तु निम्न वर्गकी स्त्री आर्थिक रूप से कमजोर है. उसके पास रहने के लिए मात्र एक झोपड़ी है. खाने के लिए सिर्फ उतना ही है जितना वह मजदूरी में कमाती है. उपन्यास में मैला उठाने गई इद्दन को जो खाना नसीब हुआ है वह कुछ इस प्रकार है 

“‘कमाई’ के एवज में उसे रोटियाँ मिलती थीं. चार ताज़ा रोटियाँ तो तय ही थीं- चाहे ज्वार की ही क्यों न हों कभी-कभी गेंहूँ की बासी रोटियाँ भी मिल जाती थीं. बासी रोटियां ही नहीं, बासी भात, दाल, तरकारी और कभी-कभी तो गोश्त का बासी सालन भी मिल जाता था.”13

उच्च वर्ग की स्त्री का यदि शोषण होता है तो केवल पितृसत्ता के द्वारा. इसकी अपेक्षा निम्न वर्ग की स्त्री आर्थिक शोषण का शिकार तो है ही साथ ही वह जातिगत छुआछुत की जकड़न में जकड़ी हुई है. निम्न वर्ग की स्त्रीकामकाजी है और उसको मजदूरी करके पेट पालना पड़ता है. निम्न वर्ग की स्त्री के ऊपर पितृसत्तात्मकता और पुरुषसत्तात्मकता की तलवार लगातार उसकी गर्दन पर लटकी रहती है. ‘कुठाँव’ उपन्यास में निम्न वर्ग की स्त्री को जो काम भी मिलता है वह खुड्डी साफ करने के अतिरिक्त झाड़ू, पोछा, बर्तन तक ही सीमित रहता है.इद्दन जब मैला ढ़ोने को मना करती है तो उसका पति बोलता है:-“ऐसा ही था तो हेला के घर पैदा क्यों हुई ?”14

इद्दन इस प्रथा, नियम और कानून का खंडन और प्रतिरोध करती है:- 
“पैदा तो हमारे बच्चे भी होंगे, मगर क्या हमारे बच्चे भी लोगों के गू-मूत साफ़ करेंगे ? मैं तो अपने बच्चों को यह सब नहीं करने दूँगी.”15 

यह ‘इद्दन’ जैसी आधुनिक स्त्री के आदर्शवादी विचार हैं, किन्तु इस विचार के कारण वहअपने पति द्वारा शारीरिक प्रताड़ना भी झेलती है. राम पुनियानी की पुस्तक ‘धर्मसत्ता और हिंसा’ में विभूति पटेल स्त्री की इन समस्याओं से मुक्ति के सन्दर्भ में लिखते हैं “शिक्षा, क्षमता-निर्माण कार्यक्रम, रोजगार और आर्थिक आत्मनिर्भरता, महिलाओं की राजनीति और कानूनी अधिकारों को बढ़ावा देकर महिला सशक्तिकरण के लिए उत्प्रेरक की भूमिका महत्वपूर्ण ढंग से निभा सकते हैं. बिना महिला अधिकारों को सुनिश्चित किए किसी भी सभ्यता का चेहरा मानवीय नहीं हो सकता.”16

अब्दुल बिस्मिल्लाह ने भी अपने इस उपन्यास के माध्यम से वर्तमान मुस्लिम स्त्री की स्थिति को अभिव्यक्त कियाहै.

विभूति पटेल जिस शिक्षा के माध्यम से भारतीय मुसलमानों कोबेहतर बनाने की बात कर रहे हैं उसकी सामाजिक स्थिति का जिक्र उपन्यासकार ने किया है. ‘इद्दन’ अपनी बेटी ‘सितारा’ को पढ़ाना चाहती है, उसे मजबूर नहीं, मजबूत बनाना चाहती है. जिसके लिए वह कोई भी कदम उठाने को तैयार है. ठाकुरगजेन्द्र सिंह बड़े ओहदे वाले व्यक्ति हैं. उनकी राजनीतिक पहचान है.जब सितारा की माँ इद्दन उनके संपर्क में आती है, तो अपनी बेटी सितारा की शिक्षा के लिए, उसके परीक्षा में पास होने को लेकर चिंतित होती है.जिस पर ठाकुर गजेन्द्र सिंह सितारा को पास कराने के लिए बोलते हैं 

“बताया न कि रेट फिक्स है. कोई अगर खुद से नकल करके लिख ले तो अलग रेट, पूरे कमरे को बोर्ड पर लिख-लिखकर नकल कराने का अलग रेट और किसी की जगह कोई और बैठकर लिख दे तो उसका अलग रेट. वह बहुत हाई होता है. मगर चिन्ता मत कीजिये. मैं वही फिक्स करूँगा. सितारा की जगह कोई और लड़की बैठ जाएगी.”17

राजनीतिक सम्बन्ध रखने वाले व्यक्ति के लिए कैसे वही सुविधाएँ बिना किसी रूकावट के उपलब्ध होती हैं किन्तु आम नागरिक को उसके लिए कीमत चुकानी पड़ती है. ठाकुर गजेन्द्र सिंह सितारा को शिक्षा तो दिलवाने का कार्य करते हैं इन सब के बदले वह सितारा का शारीरिक शोषण भी करते हैं.

स्त्री विमर्शकारों ने स्त्री की विभिन्न समस्याओं को परखने के जोऔजार तैयार किये हैं उनमें से एक‘स्त्री और यौनिकता'का प्रश्न भी है. समाज में ‘स्त्री यौनिकता’ शोषण और पक्षपात का औजार है.‘स्त्री और यौनिकता’ के आधार पर पुरुषसत्तात्मक सोच रखने वालों के लिए स्त्री केवल बच्चे पैदा करने व उन्हें पालने, कपड़े धोने और चूल्हा-चौके के लिए ही बनी है.यह सोच स्त्री के लिए सबसे बड़ी चुनौती है. कुछ इसी प्रकार की चुनौतियाँ अब्दुल बिस्मिल्लाह के उपन्यास ‘कुठाँव’ में भी देखने को मिलतीहै. उपन्यास की नायिका ‘इद्दन’ जाति से दलित मुस्लिम है.‘इद्दन’ जातिगत शोषण से छुटकारा पाने के लिए यौनिकता का सहारा लेती है. 

इद्दन जानती हैं कि उसकी बेटी सितारा का संबंध खां साहब के बेटे नईम से है. इसके बाद भी वह प्रतिकार करने की अपेक्षा समर्थन करती दिखाई देती है-

“वह मुसलमान थी. नईम भी मुसलमान था. मगर नईम खां साहब का बेटा था. और वह ? वह भी खां साहबों में शामिल हो सकती है. माध्यम है सितारा. काश! सितारा के भीतर एक दूसरा नईम जड़ जमा लेता.”18 

इद्दन जिस समस्या से मुक्ति पाना चाहती है वह उसी दलदल में फंसती दिखाई देती है.इस उपन्यास में इद्दन जातिगत मुक्ति के लिए यौनिकता का इस्तेमाल करती है किन्तु उसे अंततः मुक्ति नहीं मिलती.स्त्रीकीशोषण से मुक्ति शिक्षाके माध्यम से ही हो सकती है.

आजादी के बाद संविधान ने अपनी अस्मिता को लेकर संघर्ष करती स्त्री को शिक्षा का अधिकार प्रदान किया. आज जो स्त्री शिक्षित हो रही है वह अपनी अस्मिता को लेकर न केवल चिंतित है बल्कि सजग और सचेत होकर प्रतिरोध भी कर रही है.‘कुठाँव’ में हुमा शिक्षित लड़की है.जब उसे सितारा के साथ हुईजोर जबरदस्ती का पता चलता है तो वह कहती है-
“हरामज़ादे, कमजात, सूअर के बच्चे... नईम मियाँ और ठाकुर...मुसलमान हो या हिन्दू, सब साले एक जैसे हैं. लड़की, और वो भी नीची जात की उनकी नज़र में तो वह गोश्त का एक टुकड़ा-भर है.बस.”19'

भारतीय समाज में धर्म के आधार पर मुस्लिम पहले सेही अल्पसंख्यक हैं किन्तु जातिगत भिन्नता ने उनके आपसी रिश्तों के भीतर भीखटास उत्पन्न कर दीहै. हुमा यहीं चुप नहीं होती, वह आगे कहती है 

“जहाँ तक मेरी परेशानी का सवाल है तो साफ़ बता दूँ कि जातिवाद की असल सज़ा औरत को ही भुगतनी पड़ती है. हिन्दुओं में जैसे कोई भी ब्राह्मण या ठाकुर यह कहता हुआ मिल जाएगा कि मैंने गाँव की किसी चमारिन, पासिनया खटकिन को नहीं छोड़ा है उसी तरह कोई खां साहब या सैयद साहब के साहबज़ादे यहकहते हुए आपको आसानी से मिल जाएँगे कि मैंने अपने इलाके की किसी जुलाहिन,चुड़िहाइन या धोबिन को नहीं छोड़ा है. सब मेरी जाँघों के नीचे से निकलकर अपनी सुहागरात मनाने गई हैं.”20

हिन्दी कथा साहित्य में साम्प्रदायिकता को लेकर लिखी जाने वाली अनगिनतकहानियाँ और उन कहानियों को लिखने वाले कहानीकार मिल जाते हैं किन्तु मुस्लिम धर्म की गैरमसावात(बराबरी)औरकठमुल्लापन को अभी भी उजागर करने में संकोच का अनुभव करते हैं. अब्दुल बिस्मिल्लाह मुस्लिम समुदाय के भीतर जड़ जमा चुकी कुप्रथाओं औरसमस्याओं को सामने रखते हैं तथा मुस्लिम समुदाय की आंतरिक समस्याओं को वर्तमान सन्दर्भ में रखते हुए वे तार्किक विश्लेषण प्रस्तुत करते हैं. अब्दुल बिस्मिल्लाह हिन्दी कथा जगत के सजग सृजनकार हैं. उनके लेखन में कबीर की भांति धार्मिक रूढ़ियों का प्रतिरोध और जातिगत कुप्रथाओं के खण्डन को साफ और स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है. कुठाँव में अब्दुल बिस्मिल्लाह लिखते हैं:- 

“हमारे समाज का सबसे बड़ा छेद है जातिवाद, जिसे हिन्दुओं ने तो समय रहते समझ लिया है मगर हम मुसलमान हैं कि अभी तक न जाने किस छेद में दुबके बैठे हैं.”21

हिन्दू और मुसलमान धर्मकी वास्तविक सामाजिक स्थिति को अब्दुल बिस्मिल्लाह ने समय-समय परप्रश्नचिह्नित करने का कार्य किया है.उनके साहित्य में धार्मिक मान्यताओं में पैठ बना चुकी विकृतियों, कुरीतियों और विडंबनाओ के खण्डन को देखा जा सकता है. उनकी दृष्टि ने सामाजिक उन्माद फ़ैलाने वाली हिन्दुत्ववादीताकतों और कठमुल्लावादी विचारधारा को सिरे से ख़ारिज कर मानवतावादी विचारों को समाज में पूरी सिद्दत से रखने का प्रयत्न किया है.आतंकवाद, साम्प्रदायिकता जैसे संगीन मामलों पर गहरा कटाक्ष इनकी रचनाओं में देखने को मिलता है. इसके साथ ही अब्दुल बिस्मिल्लाह के लेखन ने धर्मों के भीतर बढ़ती वैमनष्यता को ताक पर रख,समाज में भाई-चारा स्थापित करने का कार्य भी किया है.
     
कथा को गढ़ने और रोचकता पैदा करने में भाषा की अहम् भूमिका होती है. अब्दुल बिस्मिल्लाह की भाषा मेंसामाजिक यथार्थ की सच्चाई के साथ तत्कालीन समय और पाठक की मर्यादा का पुट दिखाई पड़ता है. शब्दों को व्यंगात्मक और कहावत की कसौटी पर कसना अब्दुल बिस्मिल्लाह की खूबी रही है. उनके लेखन में जगह-जगह शेर-ओ-शायरी भी देखने को मिलती है. यह शायरी सामाजिक लोकोक्तियों को समाहित कर गढ़ी गई हैं जो उपन्यास के कलेवर और कथा को ओर भी अधिक दिलचस्प बनाती है उदाहरणार्थ:-

“दुख़तारे-दर्ज़ी का सीना देखकर,
जी में आता है कि इसको मल मल दूँ.”

उर्दू के शब्दों की अधिकता हिन्दुस्तानी भाषा की ओर ले जाती है जिसमें गंगा-जमुनी तहजीब शामिल है. लोक-भाषा, लोक-मुहावरे और लोकोक्तियोंका पुट उनके लेखन में बराबर मिलता है. किसी घटना या चरित्र की मानवीय प्रवृत्तियोंको किस्सागोई के साथ प्रस्तुत करना उनकी खूबी रही है. अब्बदुल बिस्मिल्लाह ‘कुठाँव’ उपन्यास के माध्यम से सामाजिक विकृतियों औरधार्मिक कुरीतियों औरसांस्कृतिक विडम्बनाओं पर कुठाराघात करते हैं. जाति के आधार पर शोषण समाज की काली सच्चाई है जिसे लेखक ने इस उपन्यास में तोड़ने का प्रयास किया है.

सन्दर्भ सूची
1.        डॉ. राधाकृष्णन, धर्म और समाज, सरस्वती विहार प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण-1975, पृष्ठ संख्या-17
2.        बिस्मिल्लाह, अब्दुल, कुठाँव, राजकमल प्रकाशन दिल्ली, संस्करण-2019, पृष्ठ संख्या-23
3.        वही, पृष्ठ संख्या-36
4.        वही, पृष्ठ संख्या-103
5.        वही, पृष्ठ संख्या-103
6.        वही, पृष्ठ संख्या-16
7.        वही, पृष्ठ संख्या-16
8.        वही, पृष्ठ संख्या-9
9.        वही, पृष्ठ संख्या-29
10.      सं. डॉ, भदौरिया, शिवदान सिंह, परिंदे पत्रिका, संयुक्तांक जनवरी-2019, पृष्ठ संख्या-64
11.      वही, पृष्ठ संख्या-150
12.      वही, पृष्ठ संख्या-122
13.      वही, पृष्ठ संख्या-104
14.      वही, पृष्ठ संख्या-139
15.      वही, पृष्ठ संख्या-139
16.      सं.पुनियानी, राम, धर्म, सत्ता और समाज, राजकमलप्रकाशन, दिल्ली,संस्करण-2016, पृष्ठ संख्या-184
17.      बिस्मिल्लाह, अब्दुल, कुठाँव, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण-2019, पृष्ठ संख्या-60
18.      वही, पृष्ठ संख्या-20
19.      वही, पृष्ठ संख्या-172
20.      वही, पृष्ठ संख्या-31
21.      वही, पृष्ठ संख्या-22
_____________
सत्य प्रकाश

शोधार्थी-पीएच.डी. हिन्दी
गुजरात केन्द्रीय विश्वविद्यालय

satyaprakash@gmail.com
मो.- 8690048641

सहजि सहजि गुन रमैं : सौरभ राय

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(पेंटिग : Shobha Broota)































कवि और अनुवादक सौरभ राय को आप पढ़ते आ रहें हैं.वह बेंगलुरु में रहते हैं. अपने नये कविता संग्रह ‘काल वैसाखी’ की तैयारी में हैं. कुछ कविताएँ इसी संग्रह से. इन कविताओं में महानगर की यांत्रिकता की भयावहता के बीच आपको राग-तत्व की उपस्थिति भी मिलेगी, छूट गए कस्बे की यादें भी. और कविता इसे ही तो बचाती है.





सौरभ राय की कविताएँ                        







मृत्युबोध

सुबह का सूरज
डूबते सूरज सा मालूम पड़ा
और ब्रश करते हुए हँसता रहा

नहाते वक़्त पानी गरम ठंडा करता रहा
और सोचने लगा
कि देह का तापमान गड़बड़ा न रहा हो

घर से निकला
पीले सिग्नल पर बाइक धीमी की
और रुका

भीख माँगती बुढ़िया को देख इच्छा हुई
जेब के सारे पैसे निकाल कर दे दूँ
और ताकता रहा
अगल बगल के लोगों का मुँह

सामने से आता ट्रक
आकार से बड़ा दिखलाई पड़ा
पीछे कार की चीख
डराकर निकल गई पास से

झुका हुआ पेड़
धरती का निकला हुआ हाथ लगा
माँग रहा था जो मुझसे
अपने हिस्से की हवा का हिसाब

दफ़्तर के सहकर्मियों से मिला
जैसे आखरी बार सहकर्मियों से मिल रहा था
चाय को चाय की तरह पिया

बिजली का बिल भरने गया
एटीएम से पैसे निकाले
और गाँव फ़ोन कर सुनता रहा
छोटी बहन के स्कूल के किस्से

पैदल चला गया
किसी पुराने दोस्त से मिलने
और साथ बैठकर विचार किया
भविष्य पर

घर लौटता हुआ भटक गया
अपने ही शहर में
और अपनी मूर्खता पर मुग्ध हुआ

शाम को शर्ट उतारते हुए कल्पना की
कि किसी तवायफ के कमरे का दरवाजा खोल रहा था
पत्नी से प्रेम करते हुए इच्छा जागी
कि इसी क्षण मर जाऊँ
मृत्यु को मात देता हुआ
और उसके कान में फुसफुसाता रहा
तुम मुक्त हो
तुम मुक्त हो

रात आधी लिखी कविता आधी छोड़ गया
उपन्यास के नायक का थोड़ी देर पीछा किया
और बहुत गहरी नींद सोया
जैसे सो रहा था
अपनी आखरी नींद.






भूला हुआ फ़ोन

सुबह का समय था
और दिन लगभग ढल रहा था
फ़ोन का न होना
मेरी अनुपस्थिति में लिखी गई एक रिक्त कविता थी
जिसे पढ़ता हुआ मैं आदतन झाँक रहा था फ़ोन में
जेब टटोलने की तरह.

मेरे सोचे-लिखे गए तमाम बिम्ब
कैद थे उस ब्लैक बॉक्स में,
और मैं हज़ारों मील दूर
अंतरिक्ष में तैरता एक हवाई जहाज़ था
जिसका संपर्क टूट चुका था
व्याकरण के सभी नियमों से.

मैं अपने भूलने की आदत को
याद कर रहा था
और फ़ोन कर रहा था खाली घर की दीवारों से
मेरी मौजूदगी की बातें
सोफे के पास पड़ा वह
आज नहीं पहुँचा पा रहा था
मेरे ऑफ़िस देर से पहुँचने की खबर
बॉस को कॉल कर फ़ोन कर रहा था
अराजकता की तुकबंद बातें
किसी पुराने दोस्त का कर रहा था जमकर तिरस्कार
और भर रहा था पत्नी को आशंका से.

सिग्नल पर पुलिस वाले को देख
मैं फ़ोन की तरह झन्ना रहा था
मुझे पुलिस का नंबर याद नहीं था
पुलिस के खिलाफ पुलिस में शिकायत करने का यह रूपक
कविता पर कविता लिखने जैसा बेतुका था
मेरी जेब में लाइसेंस था
पुलिसवाले की जेब में फ़ोन !
मेरा यह पापबोध
सिग्नल की तरह रंग बदल रहा था
और किसी बिछड़ी प्रेमिका के फ़ोन कॉल की तरह
मेरी भाषा को मिल रहा था
लिखे जाने का साहस.

ऑफ़िस में प्रवेश करता हुआ
मैं फ़ोन का दबा हुआ एक बटन था
और स्क्रीन पर लगातार छपता जा रहा था
आआआआ……






सुनो तुम्हारे कितने चेहरे

वो चेहरा जो पानीपूरी की बात करते ही
पूरी जैसा गोल
और चटकारे-सा पतला हो जाता है

वो चेहरा जो नहाए बालों को समेटता हुआ
भीगता काँपता है
दो ठहरी आँखों के पीछे

वो चेहरा जो शरारत की ताक में
बचपन का अटका कंचा बन जाता है
और चमक उठता है साइड का एक दांत

वो चेहरा जो ब्यूटी पार्लर से लौटकर बदल जाता है
फ्रिदा कालो से फेसबुक में
जब तुम्हें दोबारा पहचानने में मुझे थोड़ा समय लग जाता है

या वो चेहरा जो आधी रात की नींद में
सन्नाटे सा ताकता है
लिखी जा रही कविता को
जैसे शब्दों से तुम्हारा परिचय पुराना है
और मैं कलम लिए आ गया हूँ
प्रसंगवश.

सुनो तुम्हारे कितने चहरे
लिखने को मेरे पास जिन्हें
केवल कोरे कुछ कागज़.

(पेंटिग : Shobha Broota)




कार सर का ट्यूशन

शहर में किसी-से पूछ लीजिये बतला देगा
कार सर का नाम

राँची यूनिवर्सिटी की प्रोफेसरी छोड़कर
घर बैठे पढ़ाते थे गणित
निकलते थे इनके यहाँ से
बीसों आईआईटी टॉपर !

माथा बाचाके !’ –
ओवर ब्रिज के नीचे
रेलवे यार्ड से सटा था उनका
दो तल्ले का मकान
गराज को बदल दिया था जिसके
छोटे से क्लासरूम में
ऊपर टिमटिमाती थी पिचहत्तर वाट की ट्यूबलाइट
और दीवारों से आती थी
नीले पोचाड़े की त्रिकोणमिति-गंध

कूट वाला नोटबुक लाओ !’ –
पूरी क्लास में थी बस एक ही मेज़
अक्सर पैरों पर कॉपी धरे बीतती थी शाम
और प्लास्टिक स्टूल के पाँव लचकते थे
सो अलग ।

मेज़ पर दर्ज थीं पुरानी प्रेम-घोषणाएं
और यथासंभव मिटाये जाने के बावजूद
दिख पड़ती थी चित्रकारी
कामसूत्र की किताबों को मात देती हुई ।
कैलकुलस की तरह अनंत की खोज था
साल भर का जीवन
अलग-अलग स्कूलों के आये लड़के-लड़कियाँ
लिमिट का चिन्ह लिखते हुए
आँख मिलाने से बचते थे

प्रेम की सबसे सुन्दर जगह ट्यूशन है
यूनिफार्म से बाहर एक सामूहिक मिलन-स्थान ।

आरे फॉरमुला को गुली मारो
हाम इसकुल टीचार नेय है !
सामने ग्रिल पर सुतली से बंधी रहती थी स्लेट
जिसपर हमारे लाये गये सवाल लिख
वे चले जाते थे सिगरेट पीने सड़क पर
राह गुज़रते भिखारी से कहते
भोगोबान का नाम लेने से नेय होगा...
आदमी चीनना सीखो !

ए छेले... आम कितना का...
ट्रेन कोटार सोमोय
आभी टाइम है...

बजती थी ट्रेन की सीटी
और अन्दर झाँककर पूछते थे
हुआ ?’

मैथामेटिक्स को देखना सीखो
तीन ठो तो डाईमेंशेन है !
ग्रिल से लटकती स्लेट पर
नहीं लिखा कभी तीन लाइन से अधिक
और बदल जाता था पिंजरे-सा कमरा
एक जीवंत ग्राफ में
आँखों के वर्टेक्स से हाथ निकलकर
बन जाता था हाईपॉटन्यूस
जिसपर फिसलते हुए समझ जाते थे हम
ढलान की गहराई

थीटा ग़ज़ल के तबले-सी बजती थी
शून्यथी एक अभेद्य संसार की खिड़की
जिसमें झाँक वे नचाते थे सवालों को
एककी जादुई-छड़ी से

फ्रैक्शन को उलट देते थे
रेतघड़ी की तरह
ढूँढ निकालते थे स्क्वायर रूट किसी गुप्तधन का
और प्रोबबिलिटी हल करते हुए निपोरते थे दाँत
जैसे जीत रहे हों जुए में पैसा

जितना भेरियेबल है उतना इकुएशेन बानाओ
जीरो से डिभाइड तुम्हारा माथा खाराप है ?’

वेक्टर लगाकर सुलझा देते थे
कॉम्प्लेक्स नंबर के सवाल
और लॉग टेबल में देखकर बतलाते थे
छज्जे पर बैठी चिड़िया का घनत्व ।

हमारी नोट्स उतारती कलम
अक्सर फिसल जाती थी
उनके छज्जे तक चढ़ने में
बूलियन अलजेब्रा पर बिखेर देती थी बाल
बिरसा चौक की लड़की
और नयी फिल्म की नायिकाएं
होने लगी थीं मेज़ पर दर्ज़.
अंगूठे पर नाचते थे कलम
धोनी के हेलीकाप्टर शॉट की तरह
कि अच्छा खेल रहा है राँची का छौंड़ा
नाम रौशन करेगा !

वैसे देखा जाये
तो हममें राँची का कोई नहीं था
जब एक कोई निकालता था आईआईटी
तो हमारा लड़का क्रैक किया
छपता था राँची के अलावा
कितने गाँवों टाउनबाजारों के
लोकल अखबारों में !

बाहर लगी रहती थीं साईकिलें
जिनमें किसी एक पर बैठे
उँगलियों में सिगरेट दबाये
ट्रिन-ट्रिन घंटी बजाते थे
तुमलोग का कुछ नेय होगा
अपना गाँव लौट जाओ
गोरू दूहो !

ऐसे तबसरों पर जवाब देने से नहीं चूकता था
इकोनॉमिक्स का नितीश
सुनाता था अक्सर नॉनवेज चुटकुले
एक साथ दबती थी उसकी आवाज़ और आँख
डिमांड सप्लाई की तरह
अद्भुत हुनर था उसमें बिना कहे कह देने का
स्वीकार करना चाहूँगा
सीखी है उसकी कॉमिक टाइमिंग से
मैंने भी थोड़ी सी कविता ।

छोड़ दिया था नितीश ने बीच में ही आना
लेकिन मैं जाता रहा उनके यहाँ आखिर तक
एकसाथ चमत्कृत और हताश
और आईआईटी की परीक्षा लिखने के बाद
जब जान गया कि नहीं निकलेगा
और भी अधिक
सिर्फ मिलने के लिए
या डाउट लेकर.

रिजल्ट निकलने के बाद
कई सालों तक राँची रहा
और हर बार
ओवरब्रिज के ऊपर से गुजरते हुए
नीचे खड़ी साइकिलें दिख भी जातीं
कार सर नहीं दिखे.


(पेंटिग : Shobha Broota)





भर्तृहरि : पाँच प्रेम कविताएँ


1.

भरे वक्ष
नैन ठगे गठीला
यौवन तेरा


2.

खुलती आँखें
देखो नीलकमल
मन में खिला


3.

अलसाई सी
सुबह, सपनों को
जैसे सहेजे


4.

वैरागी मन
जैसे जंगल में
उदास हिरन


5.

अमर फल
हथेली से हथेली
जाता फिसल

________________________





sourav894@gmail.com

परख : कुठाँव (अब्दुल बिस्मिल्लाह) : सत्य प्रकाश

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उपन्यास  : कुठाँव 
अब्दुल बिस्मिल्लाह
संस्करण - २०१९ 
राजकमल प्रकाशन प्रा. लि. नई दिल्ली
मूल्य : ४९५ 















पत्रकार और एक्टिविस्ट अली अनवर की बिहार के पसमांदा मुसलमानों को केंद्र में रख कर लिखी हुए अपनी तरह की अलग किताब ‘मसावत की जंग’ २००१ में प्रकाशित हुई थी. इस किताब में मुस्लिम समाज में दलित जातियों (अरजाल) के अस्तित्व, दुर्दशा और उनके हक़ की बातें तथ्यों के आधार पर कही गयीं हैं. ‘प्यार निकाह पर जात की पहरेदारी’ शीर्षक से बकायद एक अध्याय है इसमें जो मुस्लिम समाज में जाति की जकड़बंदी को प्रत्यक्ष करने के लिए पर्याप्त है.

इस वर्ष राजकमल से प्रकाशित वरिष्ठ कथाकार ‘अब्दुल बिस्मिल्लाह’ का उपन्यास इसी वैचारिक आधार पर लिखा गया है. मिर्जापुर के आस-पास के मुस्लिम समाज में ‘जात’ की दारुण उपस्थिति के बीच यह उपन्यास उस समाज की मिली-जुली स्थानीय संस्कृति, रीति-रिवाज और प्रवृत्तियों का भी आईना है. इसमें सरमदआदि के ऐतिहासिक आख्यान भी बीच-बीच में आ गए हैं. कुल मिलाकर उच्च वर्ग के पुरुषों द्वारा निम्न वर्ग की स्त्रियों के दैहिक शोषण को यह केंद्र में रखता है. 

शोधार्थी सत्य प्रकाश ने विस्तार से इस उपन्यास के अर्थात को परखा है.  





‘कुठाँव’ उपन्यास में मसावात की जंग             
सत्य प्रकाश



दुनिया एक दिन में नहीं बनी है वो रोज बनती है. रोज नये विधान, नियम और कानून गढ़े-बुने जाते हैं और रोज ऐसे ही अनगिनत विधान, नियम और कानून नेस्तनाबूत भी होते हैं. अंततः जो विधान, नियम और कानून बने रहने में समर्थ हो पाते हैं वह धर्म का रूप धारण कर लेते हैं. विश्व की बड़ी-बड़ी सभ्यताओं (मेसोपोटामिया, यूनान, मिस्र, हड़प्पाया सिन्धु घाटी सभ्यता) को इस सन्दर्भ में देखा जा सकता है. 

डॉ. राधाकृष्णन अपनी पुस्तक धर्म और समाज में लिखते हैं 


“प्रत्येक सभ्यता किसी न किसी धर्म की अभिव्यक्ति होती है”1

भारत में एक धर्म से कई धर्म विकसित हुए और कई विकसित धर्म और सभ्यताएँ आज ख़त्म हो गई या हाशिये पर हैं. इन सब में एक बात सत्य है कि खुदा के जितने भी पैगम्बर आये, बड़े नेक और पाक इरादे से आये और उन्होंने अलग-अलग धर्मों की न केवल स्थापना की बल्कि एक नई विचारधारा और संस्कृति को विकसित किया. हिन्दू, बौद्ध, जैन और सिख धर्म इस बात की गवाही देते हैं. साथ ही इस बात को दरकिनार नहीं किया जा सकता कि मनुष्य अपनी सुविधानुसार धर्म का इस्तेमाल करता रहा है.


धर्मों के भीतर अनेक वर्ण, वर्णों के भीतर अनेक जातियाँ, जातियों के भीतर अनेक प्रथाएँ, अनेक प्रथाओं के भीतर अनगिनत कुप्रथाएँ कब उपजीं इसको समाज ने समझा ही नहीं. अब्दुल बिस्मिल्लाह का टटका उपन्यास ‘कुठाँव’ मुस्लिम धर्म में व्याप्त जातिप्रथा और कुप्रथा के आख्यान को उद्घाटित करता है.   

अब्दुल बिस्मिल्लाह ने भारत के मुस्लिम धर्म की वर्तमान सामाजिक पृष्ठभूमि के साथ, उनकी आन्तरिक कमजोरियों पर कुठाराघात किया है. उन्होंने भारतीय मुसलमानों की सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और राजनीतिक स्थिति के साथ साथ गरीबी, अशिक्षा, स्त्री शोषण, बलात्कार, छुआछूत, जातिगत ऊँच-नीच जैसे गैर मसावात को यथार्थ के धरातल पर चित्रित किया है. ‘कुठाँव’ का शाब्दिक अर्थ है ‘मर्मस्थल’. अब्दुल बिस्मिल्लाह ने जिस मर्मस्थल की बात की है, वह समाज है. सामाजिक कुरीतियाँ, विकृतियाँ और विडम्बनाएं इस मर्मस्थल को खोखला कर रही हैं.

‘कुठाँव’ उपन्यास की मूल समस्या मध्यकालीन इतिहास की ओर सोचने पर मजबूर करती है. भारत में जब इस्लाम अपने पूर्ण वर्चस्व रूप में था तब कुछ राजाओं द्वारा जोर-जबरदस्ती और कुछ लोगस्वेच्छा से इस धर्म को अपनाने लगे. यह धर्म परिवर्तन की प्रक्रिया लगातार चलती रही, इसका उदाहरण अब्दुल बिस्मिल्लाह के ‘कुठाँव’ उपन्यास में देखने को मिलता है सलमान कहता है- 

“हिन्दुस्तानी समाज में जितनी जातियाँ हिन्दू समाज में हैं लगभग उतनी ही जातियाँ मुस्लिम समाज में भी हैं. क्या आपको पता है कि मैं नाई हूँ और रफ़ीक धोबी है. मुसलमानों में कुँजड़े हैं, जुलाहे हैं, धुनियाँ हैं, चुड़िहार हैं, मनिहार हैं ; कसाई हैं और तो और हेला भी हैं-यानी पाख़ाना साफ़ करने वाले, जिन्हें पहले मेहतर कहा जाता था और बाद में ‘हलालखोर’ कहा जाने लगा.हिन्दोस्तानमें जब मुसलमान आए तो यहाँ की हर उस जाति के लोगों ने इस्लाम धर्म अपनाया जो हिन्दू समाज में उपेक्षित थे. क्योंकि इस्लाम के हाथ में मसावात का झुनझुना जो था. मगर यह झुनझुना बजाने में सिर्फ अच्छा लगता था...”2

प्राचीन काल से अबतक भारत के विभिन्न धर्मों के भीतर ऊँच-नीच की खाई बनी हुई है. समाज में धार्मिक विखंडन का जो रूप सांप की भांति पैर पसार रहा है उसको देखते हुए यह कहने में अतिश्योक्ति नहीं होगी कि जातिगत विषमता से ही भारत विश्व में शोषण, गरीबी, भ्रष्टाचार के कारण पिछड़ा हुआ है.

उपन्यास में अब्बदुल बिस्मिल्लाह ने मुस्लिम सभ्यता, संस्कृति और तीज त्योहारों में जो परिवर्तन हुआ है, उसको भी रेखांकित किया है. वे लिखते हैं 


“बक़रीद तो बलिदान का दिन है. जिसके पास हैसियत है, वह कराए क़ुर्बानी. चाहे बकरे की कराए चाहे भैंसे की और चाहे ऊँट की. रही ईद बकरीद नमाज़, तो वह वाजिब है. अनिवार्य नहीं. मगर मुसलामानों ने उसे ही अनिवार्य बना दिया.”3

ठीक इसी प्रकार उन्होंने ‘बारावफ़ात’, ‘कुँडे ’का पर्व और ‘नाव-नावरिया’ इत्यादि त्योहारों को उनकी वास्तविकता को दर्शाते हुए, उसके बदलाव को भी अंकित किया है. इसी प्रकार कजरी और कव्वाली जैसे लोकगीत के बारे में भी उन्होंने लिखा है कि 


“सड़क के दोनों किनारों पर पर्दे लगे हुए थे. पर्दों के पीछे स्त्रियाँ कजरी गा रही थीं. मिर्ज़ापुर कीकजरी के कई रूप रहे हैं. दंगलों की कजरी, स्त्रियों की कजरी, कवियों की कजरी और...और मिर्ज़ापुर की अपनी विशेष कजरी. अनन्त चौदस की रात हमेशा स्त्रियों की कजरी का ही आयोजन होता था.”4

कजरी और कव्वाली औरउसके श्रोताओं के सन्दर्भ में लिखते हैं 

“कव्वाली के श्रोता सिर्फ़ पुरुष ही होते थे. यानी एक ही सड़क पर पर्दे के अन्दर स्त्रियाँ कजरी का रस लेती थीं तो पुरुष खुल्लमखुल्ला क़व्वाली सुनते थे. स्त्रियाँपर्दे में और पुरुष सड़क पर. भारतीय संस्कृति का यह रूप मिर्ज़ापुर में हर साल दिखता था.”5 

अब्दुल बिस्मिल्लाह के लेखन में हिन्दू-मुस्लिम साझीसभ्यता, संस्कृति औरलोक गीतों की झलक देखने को मिलती है.

उपन्यास में अश्लीलता के कई बिंब सामने आते हैं. गड़बड़ा के भव्य मेले का जिक्र करते हुए उत्तर भारत की ठण्डी रात को बताना नहीं भूलते. मेले में देर होने से ‘इद्दन’ रात में अपनी बेटी सितारा जो कि उम्र में 12-13 साल की है उसे ठण्ड से बचाने के लिए गाँव के नईम भाई की झोपडी में भेजती है. जिसका जिक्र लेखक करता है 


“कुर्ती के अन्दर चिकनी मिट्टी से बना हुआ एक गोला आकार और उस पर किसी का हाथ. सांसों की आवाज़ और फिर एक अजीब ख़ामोशी. स्त्री और पुरुष-पुरुष और स्त्री-दोनों के लिए मानों एक नया अनुभव. फिर, एक इन्द्रिय खिसकने लगी. नीचे. वह पुरुष की थी. स्त्री सावधान हो गई. सितारा ने करवट फिर बदल ली.”6

अगले दिन सितारा स्वयं मेले में देरी करती है 


“रातगहरी होती जा रही थी और साथ ही ठंड भी. सितारा की तरफ़ रजाई थोड़ी कम पड़ रही थी. अतः वह नईम की तरफ़ थोड़ा और खिसक गई. फिर वह उनसे लिपट सी गई. और...और फिर सितारा को उसी स्पर्श का अनुभव हुआ जो कि पिछली रात में हुआ था. कुछ देर बाद वह सिहर उठी.... ठंड की उस रात में रजाई के नीचे पसीना-साकुछ बहा...और सितारा ने एक रोमांचक-सा दर्द महसूस किया और बस.”7  

यह अनुभव पढ़ने में अश्लील लग सकता है किन्तु क्या यह सामाजिक वास्तविकता नहीं है? इस पर अभी भी विचार करने की जरूरत है. अश्लीलता के उपमेय, उपमान और उपादान कथा की गति में रोचकता पैदा करते हैं. लेखक इस अश्लीलता के संदर्भ में स्वयं उपन्यास के शुरुआत में ‘कहना जरुरी है’ में आत्मस्वीकृति करते हैं 


“पहली बात तो यह कि इस उपन्यास में पाठकों को दो आपत्तिजनक बातें दिखेंगी : कुछ कुछ अश्लीलता और जातिसूचक शब्दों (जो कि आज के युग में असंसदीय या निषिद्ध हैं.) का प्रयोग. मगर यह मेरी मजबूरी थी. उपन्यास की कथावस्तु के हिसाब से इनसे बचपाना मेरे लिए लगभग असम्भव-सा था. फिर भी मैं इसके लिए क्षमाप्रार्थी हूँ.”8 

लेखक की यहाँ उदारता ही कहना अधिक संगत होगा, नहीं तो वर्तमान समय में जो लेखक सत्ता की गुलामी करते हैं वह भी शोषितों के पक्ष की बात करने का दंभ भरने लगे हैं.
(अब्दुल बिस्मिल्लाह )

प्रस्तुत उपन्यास में लेखक ने मुस्लिम धर्म के भीतर समाहित जातिगत ताने बाने को प्रस्तुत किया है. वर्तमान भारत में मुसलमान 14.2 प्रतिशत की आबादी में हैं जो पहले से अल्पसंख्यक होने की समस्या से संघर्ष कर रहे हैं. आज समाज में हो रहे सांप्रदायिक दंगे, धार्मिक हत्याएं, हिंसा सामान्यतः हिन्दू मुस्लिम के नाम पर विभाजित हो गई हैं. मुस्लिम समुदाय में भी ‘अशरफ’ जिसे उच्च जाति का मुसलमान माना जाता है इसके भीतर सैयद, शेख, पठान, मुग़ल, मलिक और मिर्जा आते हैं, इनके भीतर जातिगत श्रेष्ठता का भाव होता है. दूसरे‘अजलफ़’मुसलमान है जिसके भीतर अधिकतर कामगार जातियाँ दर्जी, जुलाहा,फकीर, रंगरेज, बाढ़ी, भटियारा, चिक, चूड़ीहार, दाई, धोबी, धुनिया,गद्दीदार, कलाल, कसाई, कुला, कुंजरा, लहेरी, महीफरोश, मल्लाह, नालिया, निकारी, अब्दाल, बाको, भेडिया, भाट, चंबा, डफाली, धोबी, हज्जाम, मुचो, नगारची, नट, परवाडिया, मदारिया, तुन्तिया इत्यादि आते हैं. तीसरे दर्जे या कहें कि निम्न दर्जे के मुसलामानों में भानार, हलालखोर, हिजड़ा, कसबी, लालबेगी, मोगता और मेहतर आदि हैं जिनकी दशा शेष वर्गों से भी दयनीय है. धर्म की आड़ में जाति की परिकल्पना कैसे सामजिक शोषण का रूप धारण कर चुकी है उसे ‘कुठाँव’ उपन्यास में देखा जा सकता है. 

उच्च जाति के मुसलमान निम्न जाति के मुसलमानों के साथ रोटी-बेटी का रिश्ता नहीं करते. इस उपन्यास में उच्च जातियों द्वारा, जाति के आधार पर हो रहे शोषण को समाज में छुपाने का प्रयास किया जाता है. उपन्यास की पात्रा हुमा के शब्दों में देखा जा सकता है- 


“फिर हिन्दुस्तान के मुसलमान इतने दिनों तक अपनी-अपनी जाति छिपाने के लिए अरबी समाज के सरनेम क्यों लगाते रहे ? हमारे यहाँ सारे जुलाहे खुद को अंसारी कहते हैं, धुनिया-चुड़िहार अपने नाम के आगे सिद्दीक़ी लगाते हैं, कसाई सब कुरैशी कैसे हो गए, नाई लोग सलमानी क्यों हो गए, फिर हाशिमी काज़मी...वगैरह कहाँ से आ गए? यहाँ तक कि भिखमंगे अपने आगे शाह लगाने लगे और ख़ाँ साहबों की तो भरमार हो गई.”9

मुस्लिमसमाज में जातिगत भेदभाव को लेकर अनवर सुहैल लिखते हैं- 


“भारतीय मुसलमानों में वर्ग और जाति भेद पाया जाता है. शेख सैय्यद मुग़ल पठान जैसे चार समाज अपने आप को श्रेष्ठ मुसलमान मानते हैं और रक्त शुद्धता बचाए रखने के लिए सतत प्रयत्नशील रहते हैं. ये खान-पान, रोटी-बेटी मामले में अपने ही समाज के लोगों के साथ सम्बन्ध बनाते हैं. बाकी जो मुसलमान हैं वे कर्म और हुनर के अनुसार खेमों में बंटे हैं. जुलाहा, कसाई, कुंजड धोबी, साईं, नाई आदि समूह पसमांदा मुसलमानोंमें आते हैं और इसके बाद जो दलित श्रेणी के मुसलमान होते हैं उन्हें हिकारत से देखा जाता है.”10

यह विडम्बना सामाजिक रूप से हिन्दू समाज के जातिगत जकड़न के अनुरूप ही है. जाति की बेड़ियों में जकड़ी स्त्री की दशा और भी दयनीय है.इसउपन्यास में जब सवर्ण असलममियाँको इद्दनकेसाथ बलात्कार करना होता है तो उसकीजाति बाधा नहीं बनती-


“असलम मियाँ लगातार इद्दन से बलात्कार करते रहे और इद्दन बेचारी बगैर कोई आवाज़ उठाए उनके हवस का शिकार बनती रही.”11

किन्तु जब इद्दनको समाज में बराबरी देने की बात आती है तो वही असलम खां उर्फ़ फुन्नन मियाँ बोलते हैं 


“जिस गंदी औरत के हाथों से आपने मुझे पान खिलाना चाहा वह हेलिन है और जो शरबत लेकर आई वह हेलिन की बेटी है. आप खाइए-पीजिए इन भंगिनों-हेलिनों का छुआ हुआ. मुझे बख्स दीजिये.”12

सामाजिक यथार्थ की दृष्टि से अब्दुल बिस्मिल्लाह ने जो दिखाने का प्रयास किया है वह बहुत हद तक ठीक और उम्दा भी है.

स्त्री की दशा समाज में क्यों दयनीय है? क्यों आज भी स्त्रियाँ अपनी अस्मिता को लेकर संघर्षरत हैं? स्त्री विमर्श किस हद तक स्त्रियों की समस्याओं को उठाने में कामयाब रहा है? इनसभीप्रश्नों के उत्तर अब्दुल बिस्मिल्लाह के‘कुठाँव’ उपन्यास में देखने को मिलतेहैं.स्त्री के साथ उसका वजूद जुड़ा होता है और यह वजूद इसी समाज में निर्मित हुआ है. समाज और परिवार की बागडोर पुरुषों के हाथों में है. पितृसत्तात्मक सोच रखने वाले स्त्री और पुरुषों को न यह समस्याएँ दिखाई देती हैं न ही वे स्त्री की समस्याओं के चित्रण में कोई विशेष दिलचस्पी ही रखते हैं. प्रस्तुत उपन्यास में स्त्री के दो रूप सामने आए हैं जिसमें एक उच्च वर्ग की स्त्री है तथा दूसरी निम्न वर्गकी. उच्च वर्ग की स्त्री के पास सभी सुख सुविधाएँ हैं घर है, शिक्षा है, धन है किन्तु निम्न वर्गकी स्त्री आर्थिक रूप से कमजोर है. उसके पास रहने के लिए मात्र एक झोपड़ी है. खाने के लिए सिर्फ उतना ही है जितना वह मजदूरी में कमाती है. उपन्यास में मैला उठाने गई इद्दन को जो खाना नसीब हुआ है वह कुछ इस प्रकार है 


“‘कमाई’ के एवज में उसे रोटियाँ मिलती थीं. चार ताज़ा रोटियाँ तो तय ही थीं- चाहे ज्वार की ही क्यों न हों कभी-कभी गेंहूँ की बासी रोटियाँ भी मिल जाती थीं. बासी रोटियां ही नहीं, बासी भात, दाल, तरकारी और कभी-कभी तो गोश्त का बासी सालन भी मिल जाता था.”13

उच्च वर्ग की स्त्री का यदि शोषण होता है तो केवल पितृसत्ता के द्वारा. इसकी अपेक्षा निम्न वर्ग की स्त्री आर्थिक शोषण का शिकार तो है ही साथ ही वह जातिगत छुआछुत की जकड़न में जकड़ी हुई है. निम्न वर्ग की स्त्रीकामकाजी है और उसको मजदूरी करके पेट पालना पड़ता है. निम्न वर्ग की स्त्री के ऊपर पितृसत्तात्मकता और पुरुषसत्तात्मकता की तलवार लगातार उसकी गर्दन पर लटकी रहती है. ‘कुठाँव’ उपन्यास में निम्न वर्ग की स्त्री को जो काम भी मिलता है वह खुड्डी साफ करने के अतिरिक्त झाड़ू, पोछा, बर्तन तक ही सीमित रहता है.इद्दन जब मैला ढ़ोने को मना करती है तो उसका पति बोलता है:-“ऐसा ही था तो हेला के घर पैदा क्यों हुई ?”14

इद्दन इस प्रथा, नियम और कानून का खंडन और प्रतिरोध करती है:- 
“पैदा तो हमारे बच्चे भी होंगे, मगर क्या हमारे बच्चे भी लोगों के गू-मूत साफ़ करेंगे ? मैं तो अपने बच्चों को यह सब नहीं करने दूँगी.”15 

यह ‘इद्दन’ जैसी आधुनिक स्त्री के आदर्शवादी विचार हैं, किन्तु इस विचार के कारण वहअपने पति द्वारा शारीरिक प्रताड़ना भी झेलती है. राम पुनियानी की पुस्तक ‘धर्मसत्ता और हिंसा’ में विभूति पटेल स्त्री की इन समस्याओं से मुक्ति के सन्दर्भ में लिखते हैं “शिक्षा, क्षमता-निर्माण कार्यक्रम, रोजगार और आर्थिक आत्मनिर्भरता, महिलाओं की राजनीति और कानूनी अधिकारों को बढ़ावा देकर महिला सशक्तिकरण के लिए उत्प्रेरक की भूमिका महत्वपूर्ण ढंग से निभा सकते हैं. बिना महिला अधिकारों को सुनिश्चित किए किसी भी सभ्यता का चेहरा मानवीय नहीं हो सकता.”16

अब्दुल बिस्मिल्लाह ने भी अपने इस उपन्यास के माध्यम से वर्तमान मुस्लिम स्त्री की स्थिति को अभिव्यक्त कियाहै.

विभूति पटेल जिस शिक्षा के माध्यम से भारतीय मुसलमानों कोबेहतर बनाने की बात कर रहे हैं उसकी सामाजिक स्थिति का जिक्र उपन्यासकार ने किया है. ‘इद्दन’ अपनी बेटी ‘सितारा’ को पढ़ाना चाहती है, उसे मजबूर नहीं, मजबूत बनाना चाहती है. जिसके लिए वह कोई भी कदम उठाने को तैयार है. ठाकुरगजेन्द्र सिंह बड़े ओहदे वाले व्यक्ति हैं. उनकी राजनीतिक पहचान है.जब सितारा की माँ इद्दन उनके संपर्क में आती है, तो अपनी बेटी सितारा की शिक्षा के लिए, उसके परीक्षा में पास होने को लेकर चिंतित होती है.जिस पर ठाकुर गजेन्द्र सिंह सितारा को पास कराने के लिए बोलते हैं 


“बताया न कि रेट फिक्स है. कोई अगर खुद से नकल करके लिख ले तो अलग रेट, पूरे कमरे को बोर्ड पर लिख-लिखकर नकल कराने का अलग रेट और किसी की जगह कोई और बैठकर लिख दे तो उसका अलग रेट. वह बहुत हाई होता है. मगर चिन्ता मत कीजिये. मैं वही फिक्स करूँगा. सितारा की जगह कोई और लड़की बैठ जाएगी.”17

राजनीतिक सम्बन्ध रखने वाले व्यक्ति के लिए कैसे वही सुविधाएँ बिना किसी रूकावट के उपलब्ध होती हैं किन्तु आम नागरिक को उसके लिए कीमत चुकानी पड़ती है. ठाकुर गजेन्द्र सिंह सितारा को शिक्षा तो दिलवाने का कार्य करते हैं इन सब के बदले वह सितारा का शारीरिक शोषण भी करते हैं.

स्त्री विमर्शकारों ने स्त्री की विभिन्न समस्याओं को परखने के जोऔजार तैयार किये हैं उनमें से एक‘स्त्री और यौनिकता'का प्रश्न भी है. समाज में ‘स्त्री यौनिकता’ शोषण और पक्षपात का औजार है.‘स्त्री और यौनिकता’ के आधार पर पुरुषसत्तात्मक सोच रखने वालों के लिए स्त्री केवल बच्चे पैदा करने व उन्हें पालने, कपड़े धोने और चूल्हा-चौके के लिए ही बनी है.यह सोच स्त्री के लिए सबसे बड़ी चुनौती है. कुछ इसी प्रकार की चुनौतियाँ अब्दुल बिस्मिल्लाह के उपन्यास ‘कुठाँव’ में भी देखने को मिलतीहै. उपन्यास की नायिका ‘इद्दन’ जाति से दलित मुस्लिम है.‘इद्दन’ जातिगत शोषण से छुटकारा पाने के लिए यौनिकता का सहारा लेती है. 

इद्दन जानती हैं कि उसकी बेटी सितारा का संबंध खां साहब के बेटे नईम से है. इसके बाद भी वह प्रतिकार करने की अपेक्षा समर्थन करती दिखाई देती है-


“वह मुसलमान थी. नईम भी मुसलमान था. मगर नईम खां साहब का बेटा था. और वह ? वह भी खां साहबों में शामिल हो सकती है. माध्यम है सितारा. काश! सितारा के भीतर एक दूसरा नईम जड़ जमा लेता.”18 

इद्दन जिस समस्या से मुक्ति पाना चाहती है वह उसी दलदल में फंसती दिखाई देती है.इस उपन्यास में इद्दन जातिगत मुक्ति के लिए यौनिकता का इस्तेमाल करती है किन्तु उसे अंततः मुक्ति नहीं मिलती.स्त्रीकीशोषण से मुक्ति शिक्षाके माध्यम से ही हो सकती है.

आजादी के बाद संविधान ने अपनी अस्मिता को लेकर संघर्ष करती स्त्री को शिक्षा का अधिकार प्रदान किया. आज जो स्त्री शिक्षित हो रही है वह अपनी अस्मिता को लेकर न केवल चिंतित है बल्कि सजग और सचेत होकर प्रतिरोध भी कर रही है.‘कुठाँव’ में हुमा शिक्षित लड़की है.जब उसे सितारा के साथ हुईजोर जबरदस्ती का पता चलता है तो वह कहती है-
“हरामज़ादे, कमजात, सूअर के बच्चे... नईम मियाँ और ठाकुर...मुसलमान हो या हिन्दू, सब साले एक जैसे हैं. लड़की, और वो भी नीची जात की उनकी नज़र में तो वह गोश्त का एक टुकड़ा-भर है.बस.”19'

भारतीय समाज में धर्म के आधार पर मुस्लिम पहले सेही अल्पसंख्यक हैं किन्तु जातिगत भिन्नता ने उनके आपसी रिश्तों के भीतर भीखटास उत्पन्न कर दीहै. हुमा यहीं चुप नहीं होती, वह आगे कहती है 


“जहाँ तक मेरी परेशानी का सवाल है तो साफ़ बता दूँ कि जातिवाद की असल सज़ा औरत को ही भुगतनी पड़ती है. हिन्दुओं में जैसे कोई भी ब्राह्मण या ठाकुर यह कहता हुआ मिल जाएगा कि मैंने गाँव की किसी चमारिन, पासिनया खटकिन को नहीं छोड़ा है उसी तरह कोई खां साहब या सैयद साहब के साहबज़ादे यहकहते हुए आपको आसानी से मिल जाएँगे कि मैंने अपने इलाके की किसी जुलाहिन,चुड़िहाइन या धोबिन को नहीं छोड़ा है. सब मेरी जाँघों के नीचे से निकलकर अपनी सुहागरात मनाने गई हैं.”20

हिन्दी कथा साहित्य में साम्प्रदायिकता को लेकर लिखी जाने वाली अनगिनतकहानियाँ और उन कहानियों को लिखने वाले कहानीकार मिल जाते हैं किन्तु मुस्लिम धर्म की गैरमसावात(बराबरी)औरकठमुल्लापन को अभी भी उजागर करने में संकोच का अनुभव करते हैं. अब्दुल बिस्मिल्लाह मुस्लिम समुदाय के भीतर जड़ जमा चुकी कुप्रथाओं औरसमस्याओं को सामने रखते हैं तथा मुस्लिम समुदाय की आंतरिक समस्याओं को वर्तमान सन्दर्भ में रखते हुए वे तार्किक विश्लेषण प्रस्तुत करते हैं. अब्दुल बिस्मिल्लाह हिन्दी कथा जगत के सजग सृजनकार हैं. उनके लेखन में कबीर की भांति धार्मिक रूढ़ियों का प्रतिरोध और जातिगत कुप्रथाओं के खण्डन को साफ और स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है. कुठाँव में अब्दुल बिस्मिल्लाह लिखते हैं:- 


“हमारे समाज का सबसे बड़ा छेद है जातिवाद, जिसे हिन्दुओं ने तो समय रहते समझ लिया है मगर हम मुसलमान हैं कि अभी तक न जाने किस छेद में दुबके बैठे हैं.”21

हिन्दू और मुसलमान धर्मकी वास्तविक सामाजिक स्थिति को अब्दुल बिस्मिल्लाह ने समय-समय परप्रश्नचिह्नित करने का कार्य किया है.उनके साहित्य में धार्मिक मान्यताओं में पैठ बना चुकी विकृतियों, कुरीतियों और विडंबनाओ के खण्डन को देखा जा सकता है. उनकी दृष्टि ने सामाजिक उन्माद फ़ैलाने वाली हिन्दुत्ववादीताकतों और कठमुल्लावादी विचारधारा को सिरे से ख़ारिज कर मानवतावादी विचारों को समाज में पूरी सिद्दत से रखने का प्रयत्न किया है.आतंकवाद, साम्प्रदायिकता जैसे संगीन मामलों पर गहरा कटाक्ष इनकी रचनाओं में देखने को मिलता है. इसके साथ ही अब्दुल बिस्मिल्लाह के लेखन ने धर्मों के भीतर बढ़ती वैमनष्यता को ताक पर रख,समाज में भाई-चारा स्थापित करने का कार्य भी किया है.
     
कथा को गढ़ने और रोचकता पैदा करने में भाषा की अहम् भूमिका होती है. अब्दुल बिस्मिल्लाह की भाषा मेंसामाजिक यथार्थ की सच्चाई के साथ तत्कालीन समय और पाठक की मर्यादा का पुट दिखाई पड़ता है. शब्दों को व्यंगात्मक और कहावत की कसौटी पर कसना अब्दुल बिस्मिल्लाह की खूबी रही है. उनके लेखन में जगह-जगह शेर-ओ-शायरी भी देखने को मिलती है. यह शायरी सामाजिक लोकोक्तियों को समाहित कर गढ़ी गई हैं जो उपन्यास के कलेवर और कथा को ओर भी अधिक दिलचस्प बनाती है उदाहरणार्थ:-

“दुख़तारे-दर्ज़ी का सीना देखकर,
जी में आता है कि इसको मल मल दूँ.”

उर्दू के शब्दों की अधिकता हिन्दुस्तानी भाषा की ओर ले जाती है जिसमें गंगा-जमुनी तहजीब शामिल है. लोक-भाषा, लोक-मुहावरे और लोकोक्तियोंका पुट उनके लेखन में बराबर मिलता है. किसी घटना या चरित्र की मानवीय प्रवृत्तियोंको किस्सागोई के साथ प्रस्तुत करना उनकी खूबी रही है. अब्बदुल बिस्मिल्लाह ‘कुठाँव’ उपन्यास के माध्यम से सामाजिक विकृतियों औरधार्मिक कुरीतियों औरसांस्कृतिक विडम्बनाओं पर कुठाराघात करते हैं. जाति के आधार पर शोषण समाज की काली सच्चाई है जिसे लेखक ने इस उपन्यास में तोड़ने का प्रयास किया है.
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सन्दर्भ सूची
1.        डॉ. राधाकृष्णन, धर्म और समाज, सरस्वती विहार प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण-1975, पृष्ठ संख्या-17
2.        बिस्मिल्लाह, अब्दुल, कुठाँव, राजकमल प्रकाशन दिल्ली, संस्करण-2019, पृष्ठ संख्या-23
3.        वही, पृष्ठ संख्या-36
4.        वही, पृष्ठ संख्या-103
5.        वही, पृष्ठ संख्या-103
6.        वही, पृष्ठ संख्या-16
7.        वही, पृष्ठ संख्या-16
8.        वही, पृष्ठ संख्या-9
9.        वही, पृष्ठ संख्या-29
10.      सं. डॉ, भदौरिया, शिवदान सिंह, परिंदे पत्रिका, संयुक्तांक जनवरी-2019, पृष्ठ संख्या-64
11.      वही, पृष्ठ संख्या-150
12.      वही, पृष्ठ संख्या-122
13.      वही, पृष्ठ संख्या-104
14.      वही, पृष्ठ संख्या-139
15.      वही, पृष्ठ संख्या-139
16.   सं.पुनियानी, राम, धर्म, सत्ता और समाज, राजकमलप्रकाशन, दिल्ली,संस्करण-2016, पृष्ठ संख्या-184
17.  बिस्मिल्लाह, अब्दुल, कुठाँव, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण-2019, पृष्ठ संख्या-60
18.      वही, पृष्ठ संख्या-20
19.      वही, पृष्ठ संख्या-172
20.      वही, पृष्ठ संख्या-31
21.      वही, पृष्ठ संख्या-22
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सत्य प्रकाश
शोधार्थी-पीएच.डी. हिन्दी
गुजरात केन्द्रीय विश्वविद्यालय
satyaprakash@gmail.com
मो.- 8690048641

मल्लिका (दो ) : शुद्ध प्रेमकथा भी कोरी प्रेमकथा नहीं होती : विनय कुमार

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(दो)
मल्लिका
शुद्ध  प्रेमकथा  भी  कोरी  प्रेमकथा  नहीं  होती              

विनय कुमार






कोई भी कथा, चाहे अतीत के बारे में ही क्यों न हो, अपने समय में ही कही जाती है और समकालीनता को ही सम्बोधित करती है. मल्लिका के रचनाकार को इस बात का पूरा ध्यान है. इसलिए उसने महान भारतेंदु के पार्श्व में लता-सी लेटी एक स्त्री जो लिख भी लेती हैके बदले में स्वतंत्र चेतना वाली एक बनती हुई लेखिका को रचा है जो भारतेंदु से प्रेम करती है. वह एक बार भी उस युग-पुरुष को पटाती नहीं दिखती. बिलकुल स्वाभाविक तरीक़े से ख़याल रखती है और फ़िक्र करती है.

ग़ौर से देखें तो मल्लिका कल की नहीं आज की स्त्री है- नियति के दंश से उबरती और अपने अस्तित्व को अर्थवान बनाती हुई. रचनाकार ने मल्लिका को उल्का की तरह नहीं टपकाया है बनारस में, उसे एक भरे-पूरे परिवार में पाल-पोसकर बड़ा किया है. बाग़-तड़ाग, खेत-खलिहान, फूल-फल और भरे-पूरे परिवार के बीच. इस प्रक्रिया में इस बात का भी ध्यान रखा गया है कि उसकी निर्मिति में उन्हीं तत्त्वों का इस्तेमाल हो जो भारतेंदु की प्रेयसी रही मल्लिका को ही रचे और इस क़दर कि इक्कीसवीं सदी में प्रासंगिक भी हो. सुखद आश्चर्य होता है कि मनीषा कुलश्रेष्ठ की मल्लिका बिना किसी विरोधाभास के पुरानी भी है और नयी भी.

‘समालोचन ई पत्रिका’ पर अरुण महेश्वरी जी की समीक्षा मल्लिका के साथ न्याय नहीं करती. उन्होंने उपन्यास को एक सामान्य प्रेमकथा में reduce करने का प्रयास किया है और उद्धरण भी वैसे ही चुने हैं. वे उद्धरण एक ख़ास संदर्भ बेहद ख़ूबसूरत अंश हैं मगर वही सब कुछ नहीं. अपनी स्थापना देते हुए वे कहते हैं :

इस ढांचे को देखने से ही साफ हो जाता है कि बांग्ला नवजागरण की पीठिका से आई मल्लिका का हिन्दी नवजागरण के अग्रदूत भारतेन्दु से संपर्क के बावजूद इस प्रणय कथा में उनके स्वतंत्र चरित्र के विकास की कोई कहानी नहीं बनती दिखाई देती है. यह किसी खास परिपार्श्व के संसर्ग से बनने-बिगड़ने वाले चरित्र की कथा नहीं है जो अपने जीवन संघर्षों और अन्तरद्वंद्वों की दरारों से अपने समय और समाज को भी प्रकाशित करता है. यह शुद्ध रूप से एक विधवा की प्रेम कथा है, प्रणय-प्रेम गाथा है.

मैं उपन्यास और कथा का आलोचक तो नहीं मगर पाठक के रूप में एक उम्र गुज़ारी है. डॉक्टर हूँ. शरीर की चीड़-फाड़ भी की है और २७ सालों से बहैसियत मनोचिकित्सक काम करते हुए हज़ारों लोगों के मन में भी झाँका है. जैविक स्तर पर सारे मनुष्य एक हैं. भोजन हो या सम्भोग- सारी जैविक क्रियाएँ एक तरह से सम्पन्न होती हैं. हमारा मानस भी मूलत: एक है. जो अंतर दिखता है सिर्फ़ सीखे गए व्यवहार की वजह से. कोई डाइनिंग टेबल पर चम्मच से खाता है तो कोई हाथ चाट-चाटकर. शयन कक्ष के भीतर की मूल क्रिया भी समान होती है. अंतर बस अंतरंग संवाद और एक दूसरे के पास पहुँचने के अन्दाज़ में. .. तो जो अंतर है वह cultural construct का है और साहित्य imagined reality के इसी पल-पल बदलते स्पेस में अपना संसार रचता है. एक पाठक के रूप में मुझे यही संसार लुभाता और समृद्ध भी करता रहा है. यह अलग बात है कि विद्वान समीक्षक उपन्यास में रचे गए cultural constructको ख़ारिज करते हुए चंद पृष्ठों पर आए अंतरंग संवादों और दृश्यों को ही उपन्यास का अभिप्राय और उद्देश्य बता बैठे हैं.

इस सिद्धांत पर अमल करें तो बड़े से बड़े उपन्यास को यह कहकर reduce किया जा सकता है कि यह ग़रीबी या भूख या मृत्यु के बारे में है. स्त्री और पुरूष के प्रेम की कथा तो चंद पंक्तियों या एक छोटी-सी कहानी में भी निपटायी जा सकती है. मगर जब कोई रचनाकार औपन्यासिक यात्रा पर निकलता है तो उसकी दृष्टि में वे सारे भौगोलिक-सामाजिक-राजनीतिक संदर्भ होते हैं जिनसे पात्रों के मानस को रचा जाना है. शुद्ध प्रेमकथा भी कोरी प्रेमकथा नहीं होती. बाहर तो बाहर, कई कारक प्रेमियों के जीव- और मनो- विज्ञान के भीतर भी होते हैं जो प्रेम की गति-नियति तय करते हैं.


मल्लिका एक ऐसा उपन्यास है जिसके दोनों पात्र वास्तविक हैं. भारतेंदु के बारे में काफ़ी कुछ पता है मगर मल्लिका के बारे में बहुत कम. तीन उपन्यास, प्राथमिकस्रोतों से प्राप्त कुछ सूचनाएँ और एक तस्वीर- यही तो! तस्वीर भारतेंदु के साथ उसकी अंतरंगता और उसके व्यक्तित्व की कुछ बातों की सूचना देती है. तस्वीर में उन दोनों की मुद्रा, अंग-भाषा और चेहरे पर बिम्बित मनोभाव अपने आप में प्रेमकथा का सारांश रचते हैं. मगर क्या इतने भर से सम्भव था यह उपन्यास? क्या उपन्यास का अभिप्राय वही चंद दृश्य और संवाद है जो उद्धृत किए गए हैं? भारतेंदु के मानस और परिवेश की पड़ताल अनावश्यक थी ?

क्या इनका महत्त्व सिर्फ़ उनके लिए है जो इन घटनाओं को जानते हैं? भारतेंदु की सामाजिक प्रतिष्ठा, उनकी पारिवारिक-आर्थिक स्थिति, उनकी उदारता, उनकी रचनाशीलता, उनका जागता-जगाता मानस और अन्य प्रेमसम्बंध अनावश्यक फ़ुटेज खाते हैं ?  बंगाली नवजागरण की पीठिका से आयी मल्लिका हिंदी नवजागरण के दूत से प्रेमकरती है और वे भी उससे. सच तो यही कि उपन्यास में वर्णित प्रेम पर दोनों के अतीत और वर्तमान के पार्श्व परिवेश बख़ूबी असर डालते हैं. इस प्रेम पर भारतेंदु के क्षरित होते दैहिक और आर्थिक स्वास्थ्य का ही नहीं उनके सामाजिक और लेखकीय जीवन का भी प्रभाव है. और फिर बनारस तो है ही. उपन्यास में बनारस एक शहर-भर नहीं है. वह अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक परम्परा, जीवन शैली अपने उत्सव और अपने अच्छे-बुरे बाशिंदों के साथ मल्लिका के बंगालोत्तर चरित्र के रचाव की प्रक्रिया में बड़ी सहजता से दाख़िल होता चलता है. और भारतेंदु तो बनारसी बाबू ही ठहरे. फ़र्ज़ कीजिए वे कलकत्ता या दिल्ली या पटना के वासी होते और तब सोचिए कि उनका व्यक्तित्व कैसा होता.

और यह मल्लिका कैसे सम्भव हो पाती? कैसे रचा जाता उसका मानस? इतना तो तय है कि मल्लिका बंगाल की थी, और बाल विधवा थी. तो फिर बनारस? मिथक और इतिहास के इस मंच ने क्यों खींचा उसे ? “जस्ट फ़ॉर फ़नऔर अड्वेंचरके लिए बनारस तो नहीं ही आयी होगी. परम्परा ही निभाना होता तो सीधे वृंदावन चली जाती. कुछ तो होगा उसके मन में! अगर चुपचाप वैधव्य ही काटना होता तो बंगाल ही क्या बुरा था! रही स्त्री और युवावस्था के कारण आनेवाले संकटों की बात. तो जानी-पहचानी जगह छोड़कर कोई अनजान इलाक़े में क्यों जाए? और फिर इसके अलावा उसका लेखक और अनुवादक होना. इसे कैसे देखा जाना चाहिए? क्या उसके जीवन का पार्श्व परिदृश्यएक सामान्य प्रेमकथा के साथ अनुस्यूत अतिरिक्त भार की तरह है? उसके कथा-चरित्र के विकास में कोई भूमिका नहीं निभाता? न्यूनतम सूचनाओं के आधार पर भी कहा जाए तो कहना पड़ेगा कि एक बाल विधवा का अभिशप्त जीवन जीने से इंकार, अपने प्रांत और परिजनों से दूर जाकर लेखक का जीवन जीने का साहसिक निर्णय और एक प्रसिद्ध व्यक्ति के साथ विधवा के लिए वर्जित फल का सेवन जैसे तत्त्व उसे सामान्य नारी रहने ही नहीं देते.

ये सत्यापित सूचनाएँ इतना तो अवश्य बताती हैं कि उसके व्यक्तिव में नवजागरण के तत्त्व थे. और अगर ये तत्त्व थे तो कथा का विकास उस सामाजिक-राजनीतिक पृष्ठभूमि को छोड़कर कैसे किया जा सकता था? उपन्यास के विषय के रूप में अलपज्ञात मल्लिका के जीवन का चयन सिर्फ़ भावनात्मक होता तो क़िस्सागोई का अन्दाज़ कुछ और ही होता. इसे तो सामान्य लेखक भी समझता है. ज़ाहिर है, उपलब्ध स्रोतों और तत्कालीन ऐतिहासिक संदर्भों के अध्ययन के बाद ही मल्लिका के व्यक्तिव को रचने लायक कच्चा माल मिला होगा. शेष तो कृती के अचेतन का सम्बद्ध अयस्क और चेतन की क्षमता !

इस उपन्यास में मल्लिका और भारतेंदु के सम्बंध इतने सरलीकृत नहीं कि उन्हें एक और प्रेमकथाकी चिप्पी सटी को पोटली में बंदकर ताक़ पर रख दिया जाए. सच तो यह है कि इन दोनों के सम्बन्धों के बहाने परिवर्तन को प्रस्तुत पुरुषऔर अपने समय से आगे बढ़कर सोचनेवाली आत्मसजग स्त्रीके कई आयामों की पड़ताल की गयी है. वे गुरु और शिष्या भी हैं, रचनाकार मित्र भी, बिज़नेस पार्ट्नर भी और दो स्वतंत्र मनुष्य भी.

भारतेंदु की तरफ़ खड़े होकर देखें तो कई स्त्रियों के बीच मल्लिका भले एक पार्श्व चरित्र नज़र आए मगर इस उपन्यास से बाहर. यहाँ तो बहुगामी भारतेंदु ही पार्श्व चरित्र लगते हैं- अपनी विशाल उपलब्धियों के बावजूद थके-हारे. और मुश्किल जीवन जीती दृढ़मना नायिका अक्षय अमृतधारा सी. माना कि भारतेंदु कई स्त्रियों से प्रेम-सम्बंध बनाने वाले स्वतंत्र पुरुष के रूप में जाने जाते हैं तो इस उपन्यास की मल्लिका भी आश्रिता नहीं. वह तो भारतेंदु द्वारा धर्म-रक्षिताकहे जाने का भी प्रतिवाद करती है. वह अपना मूल्यांकन करते हुए कहती है :

तुम्हारा और मेरा नाता इस संसार की व्याख्या का विषय नहीं है. लोग प्रेम को व्याभिचार समझते हैं. जबकि प्रेम की परिभाषा तक में अपना व्यापक संबंध समेटे नहीं सिमटता. हम धँसते हैं एक दूसरे की कला में अभिव्यक्ति में! मुझे किसी के आगे अपना और तुम्हारा चरित्र सत्यापित नहीं करना.

वह मातृभाषा में कवितायें लिखती है और हिंदी में गद्य. यानी कोरी संवेदना पर नहीं ठहरी है वह, बल्कि विचार और समय की माँग को पहचानने के लिए सक्रिय है. वह सयत्न हिंदी सीखती है और उपन्यास भी लिखती है. बंकिम बाबू से मल्लिका के बौद्धिक जुड़ाव और संवाद के प्रसंग सरसरी तौर पर भले दूर की कौड़ी लगें मगर नवजागरण-नारी के मानस की काव्यात्मक रचना के दृष्टिकोण से सोचें तो अर्थवान मेटाफ़र. ईश्वर चंद्र विद्यासागर की कोई सभा-गोष्ठी बनारस में हुई थी या नहीं, मुझे नहीं पता मगर इस गोष्ठी में विद्यासागर-भारतेंदु संवाद को सुनती मल्लिका मायके से आए नए विचारों के ध्वजधारी के प्रति गर्व और अपने प्रेमी के उदार आग्रहों के प्रति हौले-हौले आश्वस्त होती वधू-सी दिखती है. यह तथ्य भले न हो, उपन्यास के इस चरित्र की निर्मिति के लिए अनिवार्य काव्य-सत्य तो यक़ीनन है.

रोचक क़िस्सागोई न हो तो उपन्यास अपने को पढ़वा नहीं पाता और कथा के अनुरूप भाषा न हो तो लगता है किसी अनाड़ी का किया अनुवाद पढ़ रहे. यह उपन्यास इन दोनों दोषों से रहित है. कथा बाँधती है, जिज्ञासा को जगाए रखती है और पाठक को साथ लिए चलती है. उपन्यास उठाओ तो एक सिटिंग में ख़त्म. भाषा की प्रांजलता मन को मोहती है, ख़ासकर तब जब चर्चा प्रकृति या अंतर्मन की हो रही हो. प्रकृति का वर्णन तो कमाल का. पढ़ते हुए लगता है कि पुराने बंगाल के किसी गाँव पर बनी डॉक्युमेंटरी देख रहे हों.

सारांशत:, यह उपन्यास भारतेंदु और मल्लिका की प्रेमकथा तो है ही मगर उससे कहीं अधिक रूपसी बांग्ला की एक सुसंस्कृत मगर अभिशप्त कन्या के स्वप्नों और संघर्षों की कथा है. नियति के निर्णय की छाया से बाहर निकलने के साहस का काव्य है. यह अकारण नहीं कि कथा प्रतीक्षा की गर्म रेत पर फैले विहवल एकांत से शुरू होती है और समाप्त एक निर्गुण प्रशांति में.
____________

विनय कुमार  कवि  हैं अभी उनकी 'यक्षिणी'प्रकाशित हुई है.

Hony General Secretary:Indian Psychiatric Society
Chairperson: Publication Committee, Indian Psychiatric Society (2016-18)
Hony Treasurer: Indian Association for Social Psychiatry
Imm. Past Hony Treasurer: Indian Psychiatric Society (2012-16)
Consultant Psychiatrist:Manoved Mind Hospital,
NC 116, SBI Officers Colony, Kankarbagh, Patna India.
Oh: +919431011775

परख : मैं कहीं और भी होता हूँ (कुंवर नारायण ) : मीना बुद्धिराजा

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मैं
  कहीं
         और

भी होता हूँ                              
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मीना बुद्धिराजा



विता और हमारे समय का रिश्ता अटूट है क्योंकि स्मृतियों और स्वप्नों के बीच पूर्व विरासत और आने वाली पीढियों के जीवन के बीच सेतु के रूप में कविता सदा उपस्थित रहती है,वह कभी भी खत्म नहीं हो सकती. कविता में कवि के व्यैक्तिक और सार्वभौमिक, तात्कालिक और शाश्वत, भीतर और बाहर तथा यथार्थ और कल्पना के सुविधाजनक पैमाने खत्म हो जाते हैं. अपने समय के सच और जीवन के गहन अनुभवों से जुड़कर कविता एक वृहतर मानवीय अर्थ का विस्तार करते हुए जिन जीवन मूल्यों की खोज करती है वो प्रत्येक युग में प्रासंगिक होते हैं.

हिंदी के शीर्षस्थ कवि और विश्व कवियों मे प्रतिष्ठित असाधारण कवि कुँवर नारायणकी कविता में भी युगीन भौतिक और आत्मिक निर्मम त्रासदियों के बीच भी शब्द के रूप में कविता की सत्ता हमेशा जीवित रहती है और सभी संकटों की गवाही देते हुए भी उसमे मानवीयता और प्रेम की गरिमा पुनर्स्थापित होती है. अपने छह दशक की दीर्घ काव्य यात्रा में उन्होनें भारतीय इतिहास और सामाजिक-राजनीतिक पक्षों की सभी विडंबनाओं और अस्तित्व के प्रश्नों का गंभीरता से सामना किया. उनकी कविता के केंद्र में मानवता के प्रति अगाध आस्था, पारदर्शिता, सच्चाई और जीवन का स्पंदन है जो उनकी व्यापक संवेदनशील दृष्टि का प्रतिबिम्ब  है-

कुछ इस तरह भी पढी जा सकती है
एक जीवन दृष्टि
कि उसमें विनम्र अभिलाषाएं हो
बर्बर महत्वाकाक्षाएं नहीं.
   
आज तमाम निरर्थक शोर के बीच आत्मकेंद्रित और निर्मम होते समय में कुँवर नारायण की कविताएँ नैतिक और मानवीय-वैश्विक सरोकारों की प्रतिबद्धता के लिए उनके अटूट लगाव का प्रमाण हैं. जब वे कहते हैं कि कविता हमारे निजी और सामाजिक जीवन बोध का सबसे संवेदनशील हिस्सा है जिसे बौद्धिक और भावनात्मक स्तरों पर ही ग्रहण किया जा सकता है तो एक आंतरिक दीप्ति से उनकी कविताएँ आलोकित हो उठती हैं. उनकी काव्य चेतना में क्लासिक अनुशासन की गरिमा तो है, साथ ही वह सृजनात्मक ऐतिहासिक नवीनता भी जिसमें सामूहिक मानवीय अवचेतन की सभी ध्वनियाँ मौजूद हैं. कुँवर नारायण जी मानते हैं कि सृजनात्मकता में मुक्ति और रचनाका दोहरा अहसास उनके लिए यथार्थ से पलायन नहीं बल्कि अदम्य जीवन शक्ति का प्रमाण है. यह कवि कविता और उसकी बड़ी दुनिया में कवि की निरंतर आवाजाही का प्रमाण है.
  
कुंवर नारायण जी की विराट काव्य-संवेदना के  इन विविध आयामों को एक बड़े कैनवास पर परस्पर एकसूत्रता के साथ संकलित-स‌ंपादित रूप में इसी वर्ष आधार प्रकाशन से प्रकाशित नयी पुस्तक  शीर्षक मैं कहीं  और भी होता हूँ’  के रूप में आना हिंदी साहित्य के पाठकों के लिए एक बड़ी उपलब्धि है. इस पुस्तक का  चयन एवं संपादन हिंदी की गम्भीर अध्येता-आलोचक डॉ. रेखा सेठी ने किया है. कुँवर नारायण का मह्त्व उनकी काव्य-रचनाओं की सँख्या या सृजन के लंबे काल से निर्धारित नहीं होता. उनका महत्व जीवन की संश्लिष्ट पहचान के कारण है जो आज वाद और विमर्शों से भरे साहित्य जगत में विरल और स्पृहणीय हैं. उनका विशद काव्य साहित्य जगत की बड़ी धरोहर है जिसे बार-बार पढ़ा जाना चाहिए क्योंकि हर पाठ में वे हमारे समक्ष जीवन का एक नया पहलू उजागर करते हैं. इस पुस्तक में कुँवर नारायण की वे सभी कविताएँ संकलित हैं जो परिवेश और जीवन के स्याह-सफेद चौखटों को निरस्त करते हुए जीवन के वास्तविक रंगों की पहचान करके दोनों पक्षों की सच्चाई को पाठकों के सामने लाती हैं. इससे पहले कुँवर जी की कविताओं के अनेक संचयन आ चुके हैं जिन संकलनों में उनको रचनाओं के काल-क्रम के आधार पर उन्हें संकलित-संपादित किया गया है.

प्रस्तुत संकलन और पुस्तक इस दृष्टि से नवीन और मौलिक है कि यहाँ उनके आरम्भिक काव्य-संग्रह चक्रव्यूहसे लेकर अब तक के अन्तिम काव्य- कुमारजीवके अंश भी संकलित हैं और उनकी मृत्यु के बाद 2018 में प्रकाशित कविता-संग्रह- सब इतना असमाप्तसे भी कुछ कविताएँ संकलित की गई हैं.

इस पुस्तक में नये तरीके से कुँवर नारायण जी के बहुआयामी काव्य संसार को अनेक दृष्टि बिंदुओं के आधार पर रेखांकित करते हुए अलग-अलग आठ अध्यायों में संकलित किया और प्रस्तुत किया गया है जिसमें उनकी रचना-प्रक्रिया का संवेदनात्मक विकास भी मिलता है. एक कवि के रूप में उनके व्यक्तित्व की पारदर्शिता और  मानवीय- वैश्विक दृष्टि का प्रतिबिंब इन कविताओं में स्पष्ट दिखाई देता है. कविता के बारे में उनका वक्तव्य है- एक कवि की सबसे बड़ी चुनौती शायद यह है कि हर चुनौती केवल जीवन की ही नहीं कविता की भी एक जरूरी शर्त मालूम हो. जब भी हम सुंदर कुछ या बड़ाकुछ जीवन में जोड़ पाते हैं हम जीवन की एक बुनियादी चुनौती का सामना कर रहे होते हैं. असुंदरौर क्षुद्र के खिलाफ श्रेष्ठ कुछ को रच पाना जीवन की सर्जनात्मक सामर्थ्य में हमारे विश्वास को दृढ़ करता है.दु:ख हो या प्रेम उसका कविता या कलाकृति में प्रकट होना उसका एक नयी संभावना में जन्म है. पीड़ा भी जब एक अनुष्टुप में घनीभूत होती है; वह जीवन का छंद बन जाती है.‘’

नहीं किसी और ने नहीं
मैंने ही तोड़ दिया है कभी-कभी
अपने को झूठे वादे की तरह
यह जानते हुए कि बार-बार
लौटना है मुझे
प्रेम की तरफ
चाहे कविता बराबर ही
जुड़े रहना है किसी तरह
सबसे.

प्रस्तुत संग्रह की कविताएँ अपने आप में उनकी इस वृहद चिंता को मूर्त करती हैं और इस तरह अंत और आरंभ की एक व्यापक और परस्पर अभिन्न परिकल्पना पाठकों के सामने रखती हैं. इस पुस्तक की कविताएँ जहां एक ओर बहुत अनोखे ढ़ंग से बेचैन करती हैं तो वहीं आश्वस्त भी. इनमें एक बडे कवि के समस्त अनुभवों की काव्यात्मक फलश्रुति है और अक्सर एक भव्य विराट उदासी का गूँजता हुआ स्वर. कहीं भूली बिसरी यादों का कोलाज़ है तो कहीं अप्रत्याशित विडम्बनाओं की और गिरते समाज और समय की चिंता भी इन कविताओं में अभिव्यक्त है. पूरे संकलन में सागर के दो तटों की तरह जीवन और मृत्यु के बीच विविध अनुभवों-आहटों की प्रतिध्वनि इनमें अंतर्निहित है-

इन गलियों से
बेदाग़ गुजर जाता तो अच्छा था
और अगर
दाग़ ही लगना था तो फिर     
कपडों पर मासूम रक्त के छींटे नहीं
आत्मा पर किसी बहुत बड़े प्यार का ज़ख्म होता        
जो कभी न भरता.

पुस्तक की भूमिका संपादक डॉ. रेखा सेठीने लिखी है जिसमें विस्तार से कुँवर नारायण की रचना-प्रक्रिया और उनकी काव्य यात्रा के अनेक पड़ावों से, विविध रचनात्मक बिंदुओं से एवं आधारभूत प्रेरणाओं से गहन, गंभीर और संवेदनशील शैली में पाठकों को परिचित करवाया है. समकालीन कविता के परिदृश्य में उनकी कविताओं की प्रासंगिक दृष्टि और युगीन भाव-बोध को भी उन्होनें सूक्ष्मता से परखा है. कुँवर नारायण की कविता जिस व्यापक धरातल पर अमानवीय सत्ता के प्रतिपक्ष और मानवीय मूल्यों के पक्ष में अपना आकार और स्वरूप प्राप्त करती है उसमें इतिहास, स्मृति और समकालीनता मिलकर एक कालजयी अनुभूति का रूप ले लेती हैं. एक वैश्विक कवि के रूप में उनकी कविता विरोधों के सामजंस्य में, परंपरा और आधुनिकता के बीच समन्वय में अपनी काव्य दृष्टि ग्रहण करती है , वह अनुपम है, कालजयी है-

मैं कहीं और भी होता हूँ
जब कविता लिखता
ज़िंदगी बेहद जगह माँगती है    
फैलने के लिए
इस फैलने को जरूरी समझता हूँ    
और अपनी मजबूरी भी
पहुंचना चाहता हूँ अंतरिक्ष तक
फिर लौटना चाहता हूँ  सब तक     
जैसे लौटती हैं
किसी उपग्रह को छूकर
जीवन की असंख्य तरंगें...

मानवीय जीवनानुभवों, प्रकृति, प्रेम के साथ ही जीवन के चिरंतन प्रश्नों से टकराती हुई कबीर, अमीर खुसरो, काफ्का के प्राहा में, अयोध्या 1992आनात्मा देह-फतेह्पुर सीकरी, भृतहरि की विरक्ति , वाजश्रवा का क्रोध, कहता है कुमारजीव, गुएर्निका जैसी कविताएँ हमारे समय और समाज का जो समानांतर पुनर्पाठ प्रस्तुत करती है वह हमारी चेतना को प्रभावित करता है. मनुष्य की आत्मिक संरचनाओं को संबोधित करती ये कविताएँ आज के नैतिक रूप से कमजोर समय का संबल बनती हैं. पुस्तक के  प्रत्येक अध्याय के आरंम्भ में कुँवर नारायण जी की हस्तलिखित मूल कविता की प्रतिलिपि और दुर्लभ चित्रों के साथ पाठक के लिए आत्मीयता और उनकी उपस्थिति को प्रतिकात्मक रूप देती है. पुस्तक के अंतिम भाग मेंअपने-अपने कुँवर नारायणशीर्षक के अंतर्गत समकालीन प्रख्यात कवियों- आलोचकों की दृष्टि में उनकी काव्य-संवेदना का मूल्यांकन  करते हुए जिन नए आयामों की खोज की गई है वह बहुत महत्वपूर्ण है. 

मानवता के प्रति अगाध आस्था और प्रेम उनकी काव्य-संवेदना का मूल स्वर है जो कालातीत और सार्वभौमिक है. कुँवर नारायण के अध्येताओं, हिंदी कविता के पाठकों के लिए भी यह एक अनिवार्य पुस्तक है जसमें कविताओं का संयोजन मौलिक दृष्टि से और नये आधार और तरीके से इन्हें व्यवस्थित किया गया है और पाठकों के सामने  उनकी संवेदनशील कव्यात्मकता का बेहद सघन और अनुभव-समृद्ध बहुआयामी रचना संसार खुलता चला जाता है. एक अद्भुत कला के पारखी और भाषा की गरिमा का जो धैर्य और विवेक इन कविताओं में सम्भव हो पाया है उसमें अनुभूति की विरल गहराई है-

भाषा की ध्वस्त पारिस्थतिकी में
आग यदि लगी तो पहले वहाँ लगेगी
जहाँ ठूँठ हो चुकी होंगी
अपनी ज़मीन से रस खींच सकने वाली शक्तियाँ.

इस पुस्तक में कवि के जीवन और कविताओं में परस्पर साहचर्य के अंतर्निहित भाव को आरम्भ से अंत तक परिलक्षित किया जा सकता है जो आज भी उनकी उपस्थिति को संभव और मूर्त करता है. विस्मृति के विरुद्ध कविता कभी खत्म नहीं होती और यह पुस्तक भी उनकी कुछ  जरूरी कविताओं के माध्यम से कुँवर नारायण जी की अनुपस्थिति में उनसे पाठकों का एक निरंतर शाश्वत संवाद है और आज की कविता के परिद्रश्य में भी सृजनात्मक  दस्तक है क्योंकि उन्होनें तमाम हताशा और  पराजय के बीच अपनी कविताओं मे यही समझाया कि- एक बेहतर कल में वापस लौटना हमेशा संभव है.
__________________________________
मीना बुद्धिराजा

मैं कहीं और भी होता हूँ
(कुँवर नारायण की कविताएँ)

चयन एवं संपादन : रेखा सेठी
आधार प्रकाशन पंचकुला ( हरियाणा )
प्रथम संस्करण 2019
आवरण- अपूर्व नारायण
मूल्य-250 रूपये

अन्यत्र : मुम्बई : संदीप नाईक

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कभी अली सरदार जाफ़री ने बम्बई पर पर अपनी एक नज़्म में कहा था -
“एक जन्नत जहन्नम की आग़ोश में
या इसे यूँ कहूँ
एक दोज़ख़ है फ़िरदौस की गोद में”

आज ‘बम्बई’ मुम्बई है पर आज भी यह तमाम नरकों का स्वर्ग है. संदीप नाईक ने अपने शब्दों में इसके पांच चित्र खींचें हैं. संवेदनशील और मार्मिक. आपके लिए.  





मुम्बई              

संदीप नाईक




(एक)
रेंगने से जीवन निराकार होता है


दुख वहाँ अमरबेल की तरह हर दीवार पर रेंग रहा था, सुख किसी घण्टी की तरह घर में बजता और चंद सेकेंड में बजकर खत्म हो जाता, दुख के आईनों में हर अक्स धुँधला जाता और सुख की धूप जब घर के फर्श पर पड़ती तो अवसाद की परछाईयाँ घनीभूत होकर यूँ निकलती मानो वे पसरकर अब ओर फैल जाएंगी.

तीन प्राणी एक अर्धविकसित शैशव और आसपास अंगना चौबारे से जीवन के भयानकतम रूप में फैली आशाओं का उद्दाम समुद्र जो हर पल हर सांस और चलते फिरते क्षणों में दुआ माँगता रहता, जिंदगियां हर सांस में भरपूर उम्मीदों को लेकर जीने की हौस हादसों से घबराती और फिर रोज़ रोज उगते सूरज के संग एकाकार होकर शीतल चांदनी का इंतज़ार करती.

एक अपाहिज व्यथा सी रिक्त होती आस्थाएं समय के दुष्चक्र पर दर्ज हो रही थी और दूसरी ओर विकास की घुड़दौड़ से पिछड़ा मानव तन मन अपनी वाणी को तो दूर स्पर्श, सुवास, देखने - सुनने से वंचित था और इसी लोक में बेचैन और उद्धिग्न होकर लगातार मन ही मन गूंथता बुनता रहा पर वे तार ना जुड़ पातें ना रेशा रेशा बिखर पातें - जो था वह यही था इन्ही सर्द गर्म दीवारों में और सब एक दूसरे की ओर टुकुर टुकुर से देखतें और दीवार पर बजने वाली घण्टी का इंतज़ार करतें.

जीवन की शाश्वतता से इनकार नही किया जा सकता पर सुखी है वो लोग जो सांस लेते है, समझते - बुझते है और पांचों इंद्रियों को समझकर जीने का उपक्रम करते है, दुख को दुख मानकर दर्ज करते है और सुख की घण्टी को देर तक झंकृत होते सुनते है - यह दोनो चरम स्थितियां अगर आपने समझी हैं तो आप यकीनन उन सबसे परे है जो रोज के मायावी यथार्थ से दूर जाकर असलियत के पंजो पर खड़े होकर आसमान में अपने प्रारब्ध को खोजकर तसल्ली से लम्बा उच्छ्वास भरते हो और छोड़ कर नीचे लौट आते हो कि अभी सब कुछ खत्म नही हुआ है.




























(दो)
हंसो कि जीवन बस अभी यही है


हंसते जोड़े थे, युवा मन थे, एक मधुर मादक आवाज थी और सब झूम रहें थे उसके इशारों पर, थके मांदे लौटे थे आत्मा पर सदियों का बोझ लिए निस्पृह से और यहां आकर मदमस्त थे- एक सहकर्मी का बेटा एक साल बड़ा हुआ था इसी शहर में, उत्सव तो बनता ही था.

कुछेक के बच्चे थे और बाकी इन सवालों पर  कुछ नही बोलते थे मानो दूर दराज़ बसे अपने लोगों के दो जून की रोटी और इस माया के भंवर जाल में फंसकर अपने बीज को भूल ही गए हो.

सप्ताहांत में होने वाले इन ठहाकों से लौटकर जब जीवन दस बाय दस के कमरे में  रात दम तोड़ता तो दिमाग़ के कीड़े कुलबुलाते और फिर लगता कि एक झाग ही बस पर्याप्त है फिर मग में भरा हो या समंदर में.

सुबह आँख खुलती तो उमस की चिपचिपाहट से शरीर की थकावट दूर होने के बजाय अठखेलियाँ करने को बेचैन हो जाती और फिर अस्त व्यस्त शरीर एक शरारत से नाचने को उन्मुक्त हो जाता- एक फोन घर लगाकर फुर्र हो जाते कि सब ठीक है- छुट्टी मिलेगी तब आ पाएंगें अभी तो बहुत कम है.


फिर सब भूलकर कही दूर निकल जाते सामान बिखराकर दिल में शेर सा हौंसला लिए कि जो अतृप्त होगा जीवन में वही मरेगा सुखी और फिर काया का क्या है तन का सुख सारे अवसाद, प्रलाप और तनावों से बड़ा है- इतना कमाकर जब संसार के सुख सबको जुटाकर दे रहें हैं तो अपने लिए एक चिथड़ा सुख भोग लेने में क्या हर्जा है. 















(तीन)
सपनों में अपने

थकान से बड़ी उम्मीद आशा की प्रसव पीड़ा थी जो निर्मोही शहर में सबको सबसे जोड़ती थी, यह उन सबके पेट से ज्यादा दिमाग़ में थी जो परदेसियों को एक बहुत कोमल किंतु शुष्क रेशे के बंधन से हवा में बांधती थी.

इलाहाबाद के शुक्लपुर नामक गाँव से आये हुए दस साल बीत गए एक दिन घर से भागा था ट्रेन में और यहां आकर गटर के पाइप में आंख खुली तब से जीवन उस पाइप से लेकर अभी के पक्के चौड़े मोटे मुंह वाले पाइप भर में बदला है.

एक सपनों की दुनिया है विवियाना और तीसरे माले पर दो कुर्सियां जो दिनभर में सैंकड़ों लोगों को हाथ, पैर, कमर, घुटने, टखनों और काँधों का मसाज देकर रात बारह से सुबह ग्यारह तक सोती है और गयादीन भी - पाइप से निकलकर रास्ते में दो वडापाव खाकर सीधे ऊंघते हुए यही आ जाता है.

जमाने के थके, मोटे, तुण्दियल और हाथ मे रोटी लपेटे चीज़ चाबते लोग जब मसाज करवाने जो ग्यारह से बैठते है तो रात बारह बजे तक धरती की थकान भी नही मिटती, दिन में एकाध सड़े आलुओं का बेक समोसा और रात चौबीस रुपया देकर बेस्ट की ठंडी बस में दहिसर के उस पाइप जिसे वह घर कहता है, में लौटता है.

एक सस्ती सी शराब और पोल्ट्री फार्म के खराब अंडों या लगभग बदबू मारते मुर्गे को खाते हुए दस बरस बीत गए - हाथ पांव गल गए और आंखें धंस गई है, हंसता है फिर भी और हाथ उठाकर नमाज के बखत अल्लाह का और किसी भी मन्दिर या गेरू पुते देवता रूपी पत्थर के आगे सिर झुकाता है.

बड़बड़ाता है या बुदबुदाता है नही पता पर एक बात कहता है गांव में बाप- महतारी को  बहिना के ब्याह के लिए बिला नागा रुपया भेज रहा है, तीन साल से गया नही घर, एक लड़की थी जिसे बहुत प्यार करता था उसकी भी खबर नही कोई - कुर्सी पर कोई बैठा होता है मसाज करवाते तो एक बार चिकट बटुए में देख लेता है तस्वीर उसकी, अबकी बार बोरीवली गया तो तस्वीर फिर बनवाऊंगा और दादर के फुटपाथ से नया बटुआ खरीदूंगा,

जीवन मसाज की कुर्सी, पाइप का घर जो दहिसर नाके के पीछे है, विवियाना, वडा पाव और इलाहाबाद के शुक्लपुर के बीच खप गया है - उसके ख्वाबों में गांव की लड़की आती है - अपने कमरे में वो एक साढ़े तीन लाख की कुर्सी लेकर बैठा है लड़की मुस्कुरा रही है कि उसके तलुओं में गुदगुली हो रही है वह स्पीड बढ़ाता है और अचानक लड़की को करंट लगता है और वह चीखती है - गयादीन नींद से जागता है और अपने ही पसीने की बदबू से परेशान होकर हंस देता है - साला क्या चुतियापा है, वो लड़की क्यों आएगी यहां मसाज करवाने और अगर आ भी गई तो क्या मुझसे मिलेगी और मिली भी तो क्या मैं उससे सौ रुपये लूंगा - नही, नही, नही.

पर फिर जवान होती बहन का चेहरा घूमता है वह उदास होता है - एक आवाज अपने आपको देता है जल्दीकर नई तो 65नम्बर निकल गई तो साला ऐसी में जाने कूँ पड़ेगा और फोकट में टाइम भी खोटी होयेगा और मस्का चाय वाला बी निकल जायेगा.

अपनों की दुनिया के सपने आना जीवन को ईच बर्बाद करने जैसा है, इधर ही घर बसाने का है अपुन को, एकाध खोली वाली कोई लड़की है क्या खोपोली से लेकर वसई गांव या घोड़बंदर गांव ने भी चलेगी, रोज मस्त मसाज कर दिया करूँगा उसकी.













(चार)
इंसानों से ज़्यादा चौपहियों की जातियाँ

मुम्बई की जात क्या है - नीली, हरी, भगवा या लाल, याद रखिये देश प्रेम का झंडा किसी के डंडे में नही है, कल नीले और भगवा का सम्मिश्रण था, एक अवांगर्द भीड़, बैंड, खुली जीप, कानफोड़ू डीजे और नाचते थिरकते युवा, गहरे अवसाद में डूबे लोग, पसीना चूहाते लोग, रंग बिरंगी चश्मे पहने लोग, बेहद काले, पर उज्ज्वल कपड़े और मुंह में गुटखा ठूंसे सड़े दाँत और ट्यूबवेल के समान पेट से निकली लार को यहां वहाँ थूकते लोग.

बाला साहब के फोटो सँग भीमराव का फोटो, हर चौराहे पर हैसियत, औकात और चंदे की प्राप्ति अनुसार भीमराव का पुतला रखा था, ये पुतले बिल्कुल दुर्गाउत्सव या गणेश उत्सव के पहले ही बिकने लगते है- हर बाज़ार और हाथ ठेलों पर, टेंट सजे है संकरी सड़कों को घेर लिया है ट्राफिक जाम है, भोंगे लगे हैं

खुली जीप, बसों, बाइक्स, सायकिल और फुटपाथ पर झंडे लगे है- किसने कब लगाएं मालूम नही पर "वर्गनी घेऊन जातात, काय करतात माहित नाही रे बाबा, कुण विचारेल, सेना देवरस ची असो कि भीमराया ची- अपुन को गोंधळ में पड़ने का नई, सौ दो सौ देने का और अलग होने का"

नौवारी साड़ी से लेकर एकदम आधुनिक साड़ी पहने चश्मा लगाए बैठी है औरतें, सड़क पर झांझ भी बजा रही है, हाथ मे नंगी तलवार जिसमे गुलामी का जंग लगा है पर ठसक है- पीछे सेना की ताकत और भीमराव के दिये अधिकार.

रैली है, चौराहों पर आरती, प्रसाद, भंडारे, फूल मालाएं, आमदार- खासदार और वार्ड मेम्बर घुले मिलें है लोगों से  ये लोग चुनाव में ऐसे रच बस गए हैं कि लगता है अभी जादू की झप्पी ले लेंगे चाहें बुरी तरह बासते मच्छी वाले हो, जूते सुधारने वाले हो या वृहन्नमहानगरपालिका के सफाई कर्मचारी हो- एक कोने पर भगवा ध्वज लहरा रही गाड़ी की जातियाँ इंसानी खांचों से ज्यादा हैं रोल्सरॉयस से लेकर पोर्श, बी एम डब्ल्यू, मर्सिडीज, ऑडी  से लेकर दलित मारुति 800तक - जो औकात एक झटके में तय कर दे रही थी.

इस सबसे दूर अंग्रेजीदाँ नॉन मुम्बईकर घृणा से देख रहें थे- इन जाहिल, गंवार और घाटी लोगों को जो "साले यहाँ आकर गंदगी फैला जाते है, ट्रैफिक जाम कर जाते है, वाट द हैल दिस सेना एंड अंबेडकराइट्स- अ बिग मैस इंडीड एंड वी द टैक्स पेयर्स, दिस ब्लडी इंडिया, द गटर गाईज़ आर एंजोयिंग आवर मनी, आय विश आय कूड़ किल ओर गिव देम अ बिग फक"

अंबेडकर जयंती पर मुम्बई एक घेराबंदी है सभ्य, कुलीन और शिक्षित समाज की- देश और प्रदेश भर से आये मैले-कुचैले, काले बासते लोग जब अपने परिश्रम के पसीने का हिसाब मांगने आते हैं- तो शिक्षित वर्ग की हवा टाईट हो जाती है, सड़कों पर आते- जाते इन्हें देखिये- कितनी घृणा है मुस्कुराहटों के पीछे, दूरदराज से आये लोगों को ये गोली मार देंगे मानो.

संविधान, शिवसेना और दलितों के बीच नागरिक अधिकार और संविधान की प्रस्तावना के बीच जूझती मुम्बई - उफ़

रास्ता लम्बा है- शिक्षितों के लिए, अनपढ़, गरीबों और दलितों के लिए रास्ता नही है और आदिवासियों के लिए यह देश भी देश नही बचा है.

कोई कुछ अब नही कहता, बस मोदी ही आएगा- यह केंद्रित बहस है पर मोदी ने क्या किया, क्या करेगा- कोई सच में कुछ नही कहता.
















(पांच)
इतना प्यार - सम्मान दें कि वे भर जायें


छोटे कस्बों देहातों से आये तो पढ़ने थे, बीबीए किया, एमबीए किया, बीई किया और ना जाने क्या क्या नही किया पढ़ाई में.

मेहनत कर एक गाड़ी खरीदी जिसे बाइक कह लो, एक्टिवा या स्कूटी और ज़िंदगी दौड़ने लगी, जो घर से सक्षम थे थोड़े भी बाप- महतारी ने कर्जा देकर, फसल-जमीन बेचकर बबुआ को गाड़ी ले दी कि जब लौटेगा बम्बई से तो घर भर देगा धन धान्य से  और खुशियां लौंटेगी घर आंगन ओसारे में.

यहां बबुआ रोज सायन, दादर, कुर्ला, दहीसर, भांडुप और अँधेरी में खो गया नौकरी लगी ही नही, कॉलेज के जमाने में हुए इश्क से कविता और तुकबंदी सीखकर शेर पढ़ने लगा, चंद अशआर समझ कर लिखने लगा तो ओपन माईक में 100  50रूपये देकर जाने लगा- एक सर्किल बना- दोस्ती बढ़ी और वह फिल्मों के स्क्रिप्ट-लेखन में घुसने के ख्वाब देखने लगा.

एक था इंस्टाग्राम, एक फेसबुक, एक योर कोट और बस धीमे-धीमे अपने परिचय में मुम्बई में लेखक, पटकथा लेखक, गीतकार, संगीतकार लिखकर "नेम - फेम"कमाने लगा, गांव देहात में जाता तो अपनी वाल पर चकाचक फोटो दिखाता तो गांव के लौंडे जलभुन जाते चंचलाओं के संग अपने हमउम्र को देखकर.

एक से मिला मैं तो युवा लेखक महाशय ने दास्ताँ सुनाई तो होश उड़ गए, अधिकांश मित्र मंडली स्वीगी, जोमैटो, पित्ज़ा हट, कुरियर या ऐसी ही किसी कम्पनी में काम कर मुम्बई दर्शन कर रहे हैं, छपरा का रंजन झा या रांची का शोभित, बर्दमान का शुभेंदु या कालाहांडी का प्रसन्नजीत अब बाइक पर समय साध रहें है- आधे घँटे में डिलीवरी के चेलेंज और जीवन की मुठभेड़ में रोज दिन में पचास दफ़े मौत से मुलाकात होती है, रीवा का शुभम ठाकुर अब अवंतिका में एसी अटेंडेंट है- पर घर मे नही मालूम.

नोएडा से आई उत्पला सिसक रही थी- अभी तीन दिन पहले उसका माशूक विक्रोली में मेट्रो के बनते रास्ते के ट्राफिक में निपट गया 'ऑन द स्पॉट'लाश जब घर भेज रहे थे उसके फ्लैट मेट्स तो वह पहुंच भी नही पाई ; बोली आधे घँटे में पित्ज़ा नही पहुंचा तो तनख्वाह से कट जाता है रुपया, एम्बुलेंस से भी आगे दौड़कर सामान पहुंचाने का हौंसला था उसमें- भरी भीड़ में बाइक का जादूगर था वो, पर उसके मरने पर उसे 108भी नही मिली- क्यों, उत्पला के सवाल का मेरे पास जवाब नही था- वह सिसक रही थी और मेरे गालों पर आंसू कब सूख गए मालूम ही नही पड़ा मुझे.

सॉफ्ट वेयर इंजीनियर है, वेटर है, कुरियर वाले है, मॉल में है, होटल में कुक है, ओला - उबेर चला रहे हैं, हीरानंदानी में लाखों प्रकार के काम है, ट्रेन में एसी अटेंडेंट बन गए है, कॉल सेंटर पर जागकर हाजमा खराब कर लिया है इन्होंने, हर जगह डांट खाते, गाली सुनते और चौबीसों घँटे काम और काम के तनाव में डूबे ये हमारे देश के सम्मानित नागरिक कितने संताप और दारुण दुख से भरे हैं - यह देखना हो तो एक बार बात कीजिये

जब आप मुम्बई, दिल्ली, चेन्नई, बेंगलोर, पटना, औरंगाबाद,  बनारस, त्रिवेंद्रम, हैदराबाद, वारंगल, पणजी,  पूना,गाजियाबाद, गुड़गांव, जबलपुर, नाशिक, इंदौर, भोपाल, जमशेदपुर, अहमदाबाद, बडौदा, गौहाटी या देवास में हो मेरी बात और अनुरोध को मानिए- उनसे प्यार से बात कीजिये- वे हमारे ही बच्चे हैं, युवा मित्र है, वे बहुत सुशील, संस्कारित और सभ्य हैं.

वे हमसे हज़ार गुना ज्यादा संघर्ष कर रहें हैं महानगरों में, यहाँ के रास्तों के ठौर खोजना हो या मानवीय व्यवहार, दो जून की रोटी हो या वन बी एच के फ्लैट में आठ लोगों के साथ रहने, खाने, सोने और इस सबके बीच ख़ुश और सकारात्मक रहने की चुनौती, याद कीजिये क्या उन्होंने फोन पर अपने दुख बताएं आपको, हमेंशा हंसकर ही बोलें है

अपने बच्चों को प्यार कीजिये, दुआ दीजिये और उन्हें इतना सम्मान दीजिये कि वे इस कांक्रीट के जंगल में अपने आपको हजारों कोसों दूर रहकर भी अकेला ना महसूस करें उन्हें यहां आने पर भी इज्जत बख्शिएं- इतनी कि वे अपने सपनों को एक बार फिर बुनने लगें और अपने पीछे आपकी भौतिक उपस्थिति हर पल मान लें.

आंखों में आंसू लेकर यहां से विदा हो रहा हूँ तो मेरे सामने पूरी मुम्बई ही नही देवास जैसे छोटे से कस्बे में डोमिनोज़, जोमैटो का सामान लिए आधे घँटे में पहुंचाने का चैलेंज लिए युवा घूम रहे है, उनके हलक में पानी नही गुर्र-गुर्र करता गुस्सा है, हथेली पर जान हैं और वे माँ बाप के सपनों को दिमाग़ में बसाए माशूका के प्यार की ताकत से सड़कों पर अंधी दौड़ में रेंग रहें है- ट्राफिक जाम में फंसे मोबाइल के हेड फोन पर सुन रहे हैं- कितना समय और लगेगा, वाट द फक, इट्स टू लेट, वी वोंट पे नाउ...

मेरा प्यार, सम्मान इन तक पहुंचे, जब भी अब कोई कुरियर बॉय या डिलीवरी देने आएगा- उसे एक ग्लास पानी और गुड की एक डली तो मैं दे ही सकता हूँ- शायद एक बेहतर दुनिया बनाने की शुरुवात तो ऐसे भी हो सकती है.

मैं द्रवित हूँ पर बेहद आशान्वित भी कि सच में आयेंगे अच्छे दिन भी.
________
(मुम्बई के ये पाँचों फोटोग्राफ गूगल से साभार.)


संदीप नाईक
देवास, मप्र
naiksandi@gmail.com

परख : मैं कहीं और भी होता हूँ (कुंवर नारायण ) : मीना बुद्धिराजा

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कुँवर नारायण की कविताओं का एक चयन रेखा सेठी ने किया है जिसे परख रहीं हैं मीना बुधिराजा.






मैं
  कहीं
         और

भी होता हूँ                              
__________________________
मीना बुद्धिराजा



विता और हमारे समय का रिश्ता अटूट है क्योंकि स्मृतियों और स्वप्नों के बीच पूर्व विरासत और आने वाली पीढियों के जीवन के बीच सेतु के रूप में कविता सदा उपस्थित रहती है,वह कभी भी खत्म नहीं हो सकती. कविता में कवि के व्यैक्तिक और सार्वभौमिक, तात्कालिक और शाश्वत, भीतर और बाहर तथा यथार्थ और कल्पना के सुविधाजनक पैमाने खत्म हो जाते हैं. अपने समय के सच और जीवन के गहन अनुभवों से जुड़कर कविता एक वृहतर मानवीय अर्थ का विस्तार करते हुए जिन जीवन मूल्यों की खोज करती है वो प्रत्येक युग में प्रासंगिक होते हैं.

हिंदी के शीर्षस्थ कवि और विश्व कवियों मे प्रतिष्ठित असाधारण कवि कुँवर नारायणकी कविता में भी युगीन भौतिक और आत्मिक निर्मम त्रासदियों के बीच भी शब्द के रूप में कविता की सत्ता हमेशा जीवित रहती है और सभी संकटों की गवाही देते हुए भी उसमे मानवीयता और प्रेम की गरिमा पुनर्स्थापित होती है. अपने छह दशक की दीर्घ काव्य यात्रा में उन्होनें भारतीय इतिहास और सामाजिक-राजनीतिक पक्षों की सभी विडंबनाओं और अस्तित्व के प्रश्नों का गंभीरता से सामना किया. उनकी कविता के केंद्र में मानवता के प्रति अगाध आस्था, पारदर्शिता, सच्चाई और जीवन का स्पंदन है जो उनकी व्यापक संवेदनशील दृष्टि का प्रतिबिम्ब  है-

कुछ इस तरह भी पढी जा सकती है
एक जीवन दृष्टि
कि उसमें विनम्र अभिलाषाएं हो
बर्बर महत्वाकाक्षाएं नहीं.
   
आज तमाम निरर्थक शोर के बीच आत्मकेंद्रित और निर्मम होते समय में कुँवर नारायण की कविताएँ नैतिक और मानवीय-वैश्विक सरोकारों की प्रतिबद्धता के लिए उनके अटूट लगाव का प्रमाण हैं. जब वे कहते हैं कि कविता हमारे निजी और सामाजिक जीवन बोध का सबसे संवेदनशील हिस्सा है जिसे बौद्धिक और भावनात्मक स्तरों पर ही ग्रहण किया जा सकता है तो एक आंतरिक दीप्ति से उनकी कविताएँ आलोकित हो उठती हैं. उनकी काव्य चेतना में क्लासिक अनुशासन की गरिमा तो है, साथ ही वह सृजनात्मक ऐतिहासिक नवीनता भी जिसमें सामूहिक मानवीय अवचेतन की सभी ध्वनियाँ मौजूद हैं. कुँवर नारायण जी मानते हैं कि सृजनात्मकता में मुक्ति और रचनाका दोहरा अहसास उनके लिए यथार्थ से पलायन नहीं बल्कि अदम्य जीवन शक्ति का प्रमाण है. यह कवि कविता और उसकी बड़ी दुनिया में कवि की निरंतर आवाजाही का प्रमाण है.

कुंवर नारायण जी की विराट काव्य-संवेदना के  इन विविध आयामों को एक बड़े कैनवास पर परस्पर एकसूत्रता के साथ संकलित-स‌ंपादित रूप में इसी वर्ष आधार प्रकाशन से प्रकाशित नयी पुस्तक  शीर्षक मैं कहीं  और भी होता हूँ’  के रूप में आना हिंदी साहित्य के पाठकों के लिए एक बड़ी उपलब्धि है. इस पुस्तक का  चयन एवं संपादन हिंदी की गम्भीर अध्येता-आलोचक डॉ. रेखा सेठी ने किया है. कुँवर नारायण का मह्त्व उनकी काव्य-रचनाओं की सँख्या या सृजन के लंबे काल से निर्धारित नहीं होता. उनका महत्व जीवन की संश्लिष्ट पहचान के कारण है जो आज वाद और विमर्शों से भरे साहित्य जगत में विरल और स्पृहणीय हैं. उनका विशद काव्य साहित्य जगत की बड़ी धरोहर है जिसे बार-बार पढ़ा जाना चाहिए क्योंकि हर पाठ में वे हमारे समक्ष जीवन का एक नया पहलू उजागर करते हैं. इस पुस्तक में कुँवर नारायण की वे सभी कविताएँ संकलित हैं जो परिवेश और जीवन के स्याह-सफेद चौखटों को निरस्त करते हुए जीवन के वास्तविक रंगों की पहचान करके दोनों पक्षों की सच्चाई को पाठकों के सामने लाती हैं. इससे पहले कुँवर जी की कविताओं के अनेक संचयन आ चुके हैं जिन संकलनों में उनको रचनाओं के काल-क्रम के आधार पर उन्हें संकलित-संपादित किया गया है.


प्रस्तुत संकलन और पुस्तक इस दृष्टि से नवीन और मौलिक है कि यहाँ उनके आरम्भिक काव्य-संग्रह चक्रव्यूहसे लेकर अब तक के अन्तिम काव्य- कुमारजीवके अंश भी संकलित हैं और उनकी मृत्यु के बाद 2018 में प्रकाशित कविता-संग्रह- सब इतना असमाप्तसे भी कुछ कविताएँ संकलित की गई हैं.

इस पुस्तक में नये तरीके से कुँवर नारायण जी के बहुआयामी काव्य संसार को अनेक दृष्टि बिंदुओं के आधार पर रेखांकित करते हुए अलग-अलग आठ अध्यायों में संकलित किया और प्रस्तुत किया गया है जिसमें उनकी रचना-प्रक्रिया का संवेदनात्मक विकास भी मिलता है. एक कवि के रूप में उनके व्यक्तित्व की पारदर्शिता और  मानवीय- वैश्विक दृष्टि का प्रतिबिंब इन कविताओं में स्पष्ट दिखाई देता है. कविता के बारे में उनका वक्तव्य है- एक कवि की सबसे बड़ी चुनौती शायद यह है कि हर चुनौती केवल जीवन की ही नहीं कविता की भी एक जरूरी शर्त मालूम हो. जब भी हम सुंदर कुछ या बड़ाकुछ जीवन में जोड़ पाते हैं हम जीवन की एक बुनियादी चुनौती का सामना कर रहे होते हैं. असुंदरौर क्षुद्र के खिलाफ श्रेष्ठ कुछ को रच पाना जीवन की सर्जनात्मक सामर्थ्य में हमारे विश्वास को दृढ़ करता है.दु:ख हो या प्रेम उसका कविता या कलाकृति में प्रकट होना उसका एक नयी संभावना में जन्म है. पीड़ा भी जब एक अनुष्टुप में घनीभूत होती है; वह जीवन का छंद बन जाती है.‘’

नहीं किसी और ने नहीं
मैंने ही तोड़ दिया है कभी-कभी
अपने को झूठे वादे की तरह
यह जानते हुए कि बार-बार
लौटना है मुझे
प्रेम की तरफ
चाहे कविता बराबर ही
जुड़े रहना है किसी तरह
सबसे.

प्रस्तुत संग्रह की कविताएँ अपने आप में उनकी इस वृहद चिंता को मूर्त करती हैं और इस तरह अंत और आरंभ की एक व्यापक और परस्पर अभिन्न परिकल्पना पाठकों के सामने रखती हैं. इस पुस्तक की कविताएँ जहां एक ओर बहुत अनोखे ढ़ंग से बेचैन करती हैं तो वहीं आश्वस्त भी. इनमें एक बडे कवि के समस्त अनुभवों की काव्यात्मक फलश्रुति है और अक्सर एक भव्य विराट उदासी का गूँजता हुआ स्वर. कहीं भूली बिसरी यादों का कोलाज़ है तो कहीं अप्रत्याशित विडम्बनाओं की और गिरते समाज और समय की चिंता भी इन कविताओं में अभिव्यक्त है. पूरे संकलन में सागर के दो तटों की तरह जीवन और मृत्यु के बीच विविध अनुभवों-आहटों की प्रतिध्वनि इनमें अंतर्निहित है-

इन गलियों से
बेदाग़ गुजर जाता तो अच्छा था
और अगर
दाग़ ही लगना था तो फिर     
(डॉ. रेखा सेठी)
कपडों पर मासूम रक्त के छींटे नहीं
आत्मा पर किसी बहुत बड़े प्यार का ज़ख्म होता        
जो कभी न भरता.

पुस्तक की भूमिका संपादक डॉ. रेखा सेठीने लिखी है जिसमें विस्तार से कुँवर नारायण की रचना-प्रक्रिया और उनकी काव्य यात्रा के अनेक पड़ावों से, विविध रचनात्मक बिंदुओं से एवं आधारभूत प्रेरणाओं से गहन, गंभीर और संवेदनशील शैली में पाठकों को परिचित करवाया है. समकालीन कविता के परिदृश्य में उनकी कविताओं की प्रासंगिक दृष्टि और युगीन भाव-बोध को भी उन्होनें सूक्ष्मता से परखा है. 

कुँवर नारायण की कविता जिस व्यापक धरातल पर अमानवीय सत्ता के प्रतिपक्ष और मानवीय मूल्यों के पक्ष में अपना आकार और स्वरूप प्राप्त करती है उसमें इतिहास, स्मृति और समकालीनता मिलकर एक कालजयी अनुभूति का रूप ले लेती हैं. एक वैश्विक कवि के रूप में उनकी कविता विरोधों के सामजंस्य में, परंपरा और आधुनिकता के बीच समन्वय में अपनी काव्य दृष्टि ग्रहण करती है , वह अनुपम है, कालजयी है-

मैं कहीं और भी होता हूँ
जब कविता लिखता
ज़िंदगी बेहद जगह माँगती है    
फैलने के लिए
इस फैलने को जरूरी समझता हूँ    
और अपनी मजबूरी भी
पहुंचना चाहता हूँ अंतरिक्ष तक
फिर लौटना चाहता हूँ  सब तक     
जैसे लौटती हैं
किसी उपग्रह को छूकर
जीवन की असंख्य तरंगें...

मानवीय जीवनानुभवों, प्रकृति, प्रेम के साथ ही जीवन के चिरंतन प्रश्नों से टकराती हुई कबीर, अमीर खुसरो, काफ्का के प्राहा में, अयोध्या 1992आनात्मा देह-फतेह्पुर सीकरी, भृतहरि की विरक्ति , वाजश्रवा का क्रोध, कहता है कुमारजीव, गुएर्निका जैसी कविताएँ हमारे समय और समाज का जो समानांतर पुनर्पाठ प्रस्तुत करती है वह हमारी चेतना को प्रभावित करता है. मनुष्य की आत्मिक संरचनाओं को संबोधित करती ये कविताएँ आज के नैतिक रूप से कमजोर समय का संबल बनती हैं. पुस्तक के  प्रत्येक अध्याय के आरंम्भ में कुँवर नारायण जी की हस्तलिखित मूल कविता की प्रतिलिपि और दुर्लभ चित्रों के साथ पाठक के लिए आत्मीयता और उनकी उपस्थिति को प्रतिकात्मक रूप देती है. पुस्तक के अंतिम भाग मेंअपने-अपने कुँवर नारायणशीर्षक के अंतर्गत समकालीन प्रख्यात कवियों- आलोचकों की दृष्टि में उनकी काव्य-संवेदना का मूल्यांकन  करते हुए जिन नए आयामों की खोज की गई है वह बहुत महत्वपूर्ण है. 

मानवता के प्रति अगाध आस्था और प्रेम उनकी काव्य-संवेदना का मूल स्वर है जो कालातीत और सार्वभौमिक है. कुँवर नारायण के अध्येताओं, हिंदी कविता के पाठकों के लिए भी यह एक अनिवार्य पुस्तक है जसमें कविताओं का संयोजन मौलिक दृष्टि से और नये आधार और तरीके से इन्हें व्यवस्थित किया गया है और पाठकों के सामने  उनकी संवेदनशील कव्यात्मकता का बेहद सघन और अनुभव-समृद्ध बहुआयामी रचना संसार खुलता चला जाता है. एक अद्भुत कला के पारखी और भाषा की गरिमा का जो धैर्य और विवेक इन कविताओं में सम्भव हो पाया है उसमें अनुभूति की विरल गहराई है-

भाषा की ध्वस्त पारिस्थतिकी में
आग यदि लगी तो पहले वहाँ लगेगी
जहाँ ठूँठ हो चुकी होंगी
अपनी ज़मीन से रस खींच सकने वाली शक्तियाँ.

इस पुस्तक में कवि के जीवन और कविताओं में परस्पर साहचर्य के अंतर्निहित भाव को आरम्भ से अंत तक परिलक्षित किया जा सकता है जो आज भी उनकी उपस्थिति को संभव और मूर्त करता है. विस्मृति के विरुद्ध कविता कभी खत्म नहीं होती और यह पुस्तक भी उनकी कुछ  जरूरी कविताओं के माध्यम से कुँवर नारायण जी की अनुपस्थिति में उनसे पाठकों का एक निरंतर शाश्वत संवाद है और आज की कविता के परिद्रश्य में भी सृजनात्मक  दस्तक है क्योंकि उन्होनें तमाम हताशा और  पराजय के बीच अपनी कविताओं मे यही समझाया कि- एक बेहतर कल में वापस लौटना हमेशा संभव है.'
__________________________________
मीना बुद्धिराजा
meenabudhiraja67@gmail.com

मैं कहीं और भी होता हूँ
(कुँवर नारायण की कविताएँ)
चयन एवं संपादन : रेखा सेठी
आधार प्रकाशन पंचकुला ( हरियाणा )
प्रथम संस्करण 2019
आवरण- अपूर्व नारायण
मूल्य-250 रूपये

अदनान कफ़ील दरवेश की कविताएँ

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अदनान कफ़ील दरवेश की कविता ‘क़िबला’ को २०१८ के ‘भारत भूषण अग्रवाल’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था, आलोचक ‘पुरुषोत्तम अग्रवाल’ के निर्णय का स्वागत करते हुए ‘विष्णु खरे’ ने ‘समालोचन’ पर ही एक अच्छी बात कही थी कि ‘इस समय इतने प्रतिभाशाली युवा कवि-कवयित्रियाँ हिंदी में हैं कि एक embarrassment of riches का माहौल है. 

अच्छी बात इसलिए कि कुछ वर्षो पहले यह सुना जाता था कि युवा कवि पिछले कवियों की नकल हैं और उनमे इस तरह से एकरूपता है कि उनकी कविताओं को  अलग से पहचानना संभव नहीं.

अदनान कफ़ील दरवेश की कुछ कविताएँ आपने पहले भी ‘समालोचन’ में पढ़ीं हैं. इन कविताओं में जो बात ध्यान खींचती है वह है वृतांत. वे ब्यौरे अपने आस-पास से उठाते हैं और कुशलता से उन्हें कविता में गूँथ देते हैं. 

कविताओं के तात्कालिक सन्दर्भ रहते हैं. बड़ी कविताएँ तात्कालिकता को युग सत्य में बदल देती हैं. कालजयी होने के लिए भी काल में धंसना जरूरी है. साहित्य में जरूरी नहीं कि ‘contemporary’ ‘temporary’ हो. शाश्वत विषयों पर लिखी कविता ही श्रेष्ठ कविता होगी ऐसी कोई अनिवार्यता नहीं है. 

अदनान की कुछ कविताएँ आप के लिए.




अदनान कफ़ील दरवेश की कविताएँ                    
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शहर की सुबह

शहर खुलता है रोज़ाना
किसी पुराने संदूक़-सा नहीं
किसी बच्चे की नरम मुट्ठियों-सा नहीं
बल्कि वो खुलता है सूरज की असंख्य रौशन धारों से
जो शहर के बीचों-बीच गोलम्बरों पर गिरती हैं
और फैल जाती हैं उन तारीक गलियों तक
जहाँ तक जाने में एक शरीफ़ आदमी कतराता है
लेकिन जहाँ कुत्ते और सुअर बेधड़क घुसे चले जाते हैं

शहर खुलता है मज़दूरों की क़तारों से
जो लेबर-चौकों को आरास्ता करते हैं
शहर खुलता है एक शराबी की तनी आँखों में
नौकरीपेशा लड़कियों की धनक से खुलता है
शहर, गाजे-बाजे और लाल बत्तियों के परेडों से नहीं
बल्कि रिक्शे की ट्रिंग-ट्रिंग
और दूध के कनस्तरों की उठा-पटक से खुलता है
शहर रेलयात्रियों के आगमन से खुलता है
उनके आँखों में बसी थकान से खुलता है

शहर खुलता है खण्डहरों में टपकी ओस से
जहाँ प्रेमी-युगल पाते हैं थोड़ी-सी शरण
शहर खुलता है गंदे सीवरों में उतरते आदमीनुमा मज़दूर से
शहर भिखमंगों के कासे में खुलता है ; पहले सिक्के की खनक से
शहर खुलता है एक नए षड्यंत्र से
जो सफ़ेदपोशों की गुप्त-बैठकों में आकर लेता है

शहर खुलता है एक मृतक से
जो इस लोकतंत्र में बेनाम लाश की तरह
शहर के अँधेरों में पड़ा होता है

शहर खुलता है पान की थूकों से
उबलती चाय की गंध से

शहर खुलता है एक कवि की धुएँ से भरी आँखों में
जिसमें एक स्वप्न की चिता
अभी-अभी जल कर राख हुई होती है...




अकेलापन

(एक)
अकेलापन तुम्हें घेरेगा हवा की तरह
तुम्हें उदास करेगा जैसे पतझड़ में झड़ते हैं सूखे पत्ते
और उदास हो जाती है प्रकृति
अकेलापन तुम्हें धिक्कारेगा तुम्हें बहलाएगा तुम्हें पगलाएगा
अकेलापन तुम्हें अवकाश देगा आत्मा के छंद को सुनने का
उसे रचने के औज़ार तराशने का
अकेलापन तुम्हें उलझाएगा
तुम्हें स्मृतियों के समुद्र में डुबाएगा
तुम्हें रुलाएगा
तुम्हारे गीले आकाश पर तारों की तरह टिमटिमाएगा वो
तुम्हें मसखरे की तरह हँसाएगा
अकेलापन तुमसे शाम के झुटपुटे में बेल की तरह लिपट-लिपट जाएगा

अकेलापन एक जगह होगी
जहाँ तुम 'होने'का अर्थ खोजोगे
अकेलापन तुम्हें अधिक मनुष्य और अधिक निष्ठुर बनाएगा।



(दो)
तपती है दुपहरिया
उड़ती है लू
कमरे में जमती है महीन धूल की चादर
कानों को अखरती है पंखे की कर्कश आवाज़

किताबें मुँह फुलाए घूरती हैं
देख-देख हतोत्साहित होता हूँ
उँगलियाँ चटकाता हुआ

आत्मा धँसती है शरीर की झाड़ियों में
देह धँसता है बिस्तरे में

दिन का डाकिया
उड़ेल देता है बालकनी पर सुनहरे पत्र
सूख जाते हैं अलगनी पर रंग-बिरंगे कपड़े
जिन्हें फैलाते हैं कोमल हाथ
देर तक गूँजती है गलियारे में नन्ही बच्ची की आवाज़
उड़ जाती है डाल से आख़िरी चिड़िया

एक स्त्री की चींख घुट जाती है उसके सूने बरामदे में
वो हँसती है जैसे फट जाता है साज़ का पर्दा
खीझती है ख़ुद पर ; पटकती है बर्तन
हँसती है और छुप कर रो-रो लेती है

जर्जर पेट ऐंठता है दोनों का
दुखती है गुदा...





हत्यारा कवि

उसकी कविताएँ मुझे चकित करती रहीं
उसकी लिखी पंक्तियाँ पढ़कर
अक्सर
मन करुणा से भर-भर जाता
कैसे कहूँ कि उसकी कविताएँ पढ़कर रोया हूँ बारहा
आधी रातों के सुनसानों में

बहुत दिनों तक उसे उसकी कविताओं से ही जाना था
अचानक वो मिल गया किसी गोष्ठी में
और उससे सीधे पहचान हुई
धीरे-धीरे पता चला उसका राजनीतिक पक्ष
जो कि हत्यारों की तरफ़ था
मेरे पाँव से ज़मीन ही खिसक गई
विश्वास नहीं हुआ कि कैसे मेरा प्रिय कवि
हत्यारों की ढाल बन सकता है
जी हुआ उसकी कविताएँ जला दूँ
जिसे पढ़कर रोया था बार-बार
फिर अचानक उसकी एक और कविता पढ़ी
और मन बदल लिया

कोई कवि इतना अदाकार कैसे हो सकता है कविता में
अब भी चकित हूँ
नोचूँ हूँ घास
देखूँ हूँ उसकी तस्वीर, उसका मासूम चेहरा जिसपर फैली है गुनगुनी धूप
सोचूँ हूँ, शायद वो कल मेरी हत्या करने मेरे गले पर छुरी रखे
तो मैं उसका विरोध भी न कर पाऊँ
अजीब प्रेम है उससे मुझे
उफ़्फ़
शायद उसे कहूँ कि भाई गला काट के हाथ धो के जाना
अलमारी में मेरे कपड़े होंगे उन्हें पहन लेना
मुझे तुम्हारी कविताएँ बहुत अच्छी लगती हैं !





स्वप्नकथा


(एक)
घर एक सूखा पत्ता है
जो रात भर खड़खड़ाता है मेरे सिरहाने

पत्ते से निकलती है एक बिल्ली
सारे रास्ते काटती
कूद जाती है कुएँ में
पत्ते से निकलता है साँप
और निगल जाता है मेंढक को
पत्ते से निकलती है भीत
जिसपर चिपकी होती है उजली छिपकली
पत्ते से निकलता है एक फ़िलिप्स का पुराना रेडियो
जिसपर चलती हैं ख़बरें बर्रे-सग़ीर की और आलम की
और के. एल. सहगल का कोई गीत
या बेगम अख़्तर की पाटदार आवाज़
पत्ते से निकलता है चूहा
किताबें और रिसाले कुतरता, गिरता है पटनी से
पत्ते से निकलती है टॉर्च
और गिरती है सिरहाने से बार-बार

ठेंगुरी टेकते चलती है एक आदमक़द छाया
दिन भर का थका सूरज
चुपके से घुस जाता है जर्जर चमड़े के जूते में
जंगले पर रखी ढिबरी में
आलोकित होती हैं खनकती चूड़ियाँ
ओसारे में बजते हैं
पायल के थके घुँघरू
शरीर में अचानक कड़कती है बिजली
और हाथ से गिरता है पानी का गिलास
जो डगरता हुआ धँसता चला जाता है
कितनी-कितनी नींदों के भीतर

मेरी हथेली को भींचती हैं एक जोड़ी बूढ़ी हथेलियाँ
पूछती हैं, "आओगे नहीं इलाहाबाद या उसके पार, जहाँ हूँ ?"
मैं कातर नज़रों से देखता हूँ दाढ़ी में छुपा बाबा का चेहरा
जिसे जागकर कभी नहीं देख पाऊँगा

घड़ी की सुई की आवाज़ के साथ
काँपता हूँ उस भयानक सन्नाटे में
तब तक टनकता है अलार्म और टूटती है बरसों की नींद
और हत्यारा सूरज
गिरता है सौ मन के भारी पत्थर की तरह
मेरे सिर के भीतर...



(दो)
एक अड़हुल का फूल अपनी शाख़ से निकलकर
बढ़ रहा है मुलायम हथेलियों की जानिब
कनैल के फूल से भरी टोकरी
चढ़ रही है मंदिर की पथरीली सीढ़ियाँ
मुँह-अँधेरे बरबराता-चुरमुराता हुआ
खुल रहा है
नन्हे नमाज़ी के लिए
घर का बूढ़ा फाटक

मिट्टी में खुरपी से रोपा जा रहा है लौकी का बीज
चाय की कटोरी में झाँक रही है सोंधी सुबह
पानी से भरे गिलास में घुल रहा है बताशे का सिक्का
नन्हे दामन में हुलस रही हैं नीम की पकी निंबौलियाँ
एक मेंढक टर्राता हुआ उछलता
चढ़ आया है गीले पाँव पर
झींगुरों का सामूहिक-गान साँझ से ही चालू है

पोखर में डूब रही है धीरे-धीरे एक थपुए की चिप्पी
बारिश में हुमक-हुमक कर तैर रही है
एक रंगीन काग़ज़ की छोटी-सी नाव
एक तितली सरसों के खेतों से बतियाती निकल रही है
झमाझम होती बारिश में रो रहा है एक बच्चा
हिल-डुल चारपाई में ठुक रहा है बाँस का पाँचर
कसी जा रही है उसकी ओड़चन
दोपहर में बाज़ार से
सफ़ेद रुमाल में बँधे
चले आ रहे हैं ललगुदिया अमरूद
दर्ज़ी ले रहा है उरेबी गंजी की माप

रात के अँधेरे में
बदन पर फिर रहे हैं जाने-पहचाने हाथ
काजल में रची आँखों से
गिर रही हैं आँसू की मोटी-मोटी बूँदें
रात में शामिल है एक और रात का रोमांच
सीने में चाकू की तरह धँसी है एक जलती हुई बात
भिनास फटने से बहता जा रहा है नाक से ख़ून
झुटपुटे के वक़्त दरवाज़े पर
फन काढ़े बैठा है तमतमाया गेंहुवन साँप
धँस रहा है नींद में बिच्छुओं का तना हुआ डंक

एक बच्ची की चीख़ से झड़ रहे हैं घर के पलस्तर
और काँप रही है दीवार
सारे इलाज पड़ चुके हैं बेकार

सीढ़ियों के नीचे के अँधेरों से
निकल रहा है एक चमकीला फूल
जो चढ़ता जा रहा है सीढ़ियाँ
छत से बूँद-बूँद टपक रहा है ख़ून

बुआ ! बुआ ! बुआ !
कौन पुकार रहा है इस बेचैन कर देने वाली मीठी आवाज़ में
कौन है जो दलदल में धँसता चला जा रहा है
एक परिंदे की चीख़ से काँप उठा है आकाश
पानी ! पानी ! पानी !
किसकी है ये कातर आवाज़ ?
उफ़्फ़ !
आँखों में भर रही है रेत
हाथ से झर रही है रेत
कौन खड़ा है दरवाज़े के पीछे
दम घुटने पर भी निकलती क्यों नहीं चीख़ ?

यूँ स्मृतियों की स्मृतियों में
नींद के पंखों पर बीतता है
नीला पड़ चुका 
सड़ा हुआ
ठंडा समय...




ढिबरी

ये बात है उन दिनों की
जब रात का अँधेरा एक सच्चाई होती थी
और रौशनी के लिए सीमित साधन ही मौजूद थे मेरे गाँव में
जिसमें सबसे इज़्ज़तदार हैसियत होती थी लालटेन की
जिसे साँझ होते ही पोंछा जाता था
और उसके शीशे चमकाए जाते थे
राजा बेटा की तरह माँ और बहने तैयार करती थीं उसे
लेकिन मुझे तो वो बिल्कुल मुखिया लगता था
शाम को
घर के अँधेरों का

लालटेन, प्रायः घरों में एक या दो ही होते थे
जिन्हें प्रायः
अन्हरकूप घरों की इज़्ज़त रखने वाली जगहों पर ही
बारा जाता था
मसलन, बैठके में या फिर रसोईघर में

कभी-कभी तेल ख़तम हो जाने पर हम ढिबरी में पढ़ते थे
मुझे आती थी हाजमोला की शीशी से ढिबरी बनानी
एक छेद टेकुरी से उसके ढक्कन में
फिर बाती पिरो कर तेल भरना होता था बस

ढिबरी जलने से करिया जाता था ताखा
जिसे सुबह गीले कपड़े से पोंछना पड़ता था
ढिबरी का प्रकाश बहुत कमज़ोर होता था
आँखों पर बहुत ज़ोर पड़ता था पढ़ने में
ढिबरी को यहाँ-वहाँ ले जाने में
उसके बुझने का धड़का भी बराबर लगा रहता था
उसके लिए ज़रूरत होती थी
सधी हथेलियों और सधे क़दमों के ख़ूबसूरत मेल की

अब इस नई दुनिया में
जहाँ ढिबरी एक आदिम युग की बात लगती है
मैं जब याद करता हूँ अपना अँधेरा बचपन
जहाँ अब भी बिजली नहीं पहुँचती
और न ही काम आती है ज़ोरदार टॉर्च
आज भी उसी ढिबरी से आलोकित होता है
वो पुराना ठहरा समय
जहाँ एक ढिबरी अब भी लुढ़की पड़ी है
जिसका तेल
बरामदे के कच्चे फ़र्श पर फैल रहा है...



___________________________________
 अदनान कफ़ील दरवेश
(30 जुलाई 1994,गड़वारबलियाउत्तर प्रदेश)
कंप्यूटर साइंस आनर्स (स्नातकदिल्ली विश्वविद्यालय

ईमेल: thisadnan@gmail.com

पितृ-वध : आशुतोष भारद्वाज

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पितृ-वध                              
आशुतोष भारद्वाज



फ़्योडोरोविच करामाजोव मारे जा चुके हैं. पिता निर्दयी था. धन और स्त्री को लेकर बेटे पिता से अरसे से झगड़ते आए थे. पिता की हत्या करना चाहते थे, बड़े बेटे दिमित्री ने उन पर हमला भी किया था. लेकिन पिता के जाने के बाद बेटों के भीतर सहसा अपराध-बोध उमड़ आया है.


मैं दोषी नहीं हूँ. मैं अपने पिता की हत्या का दोषी नहीं हूँमैं उन्हें मारना चाहता था. लेकिन मैं दोषी नहीं हूँमैं वाक़ई उनकी हत्या कर देना चाहता था…  कई बार मैंने सोचा थामैंने इस बारे में कभी अपनी भावनाओं को नहीं छुपाया था. पूरा शहर इस बारे में जानता था.

यह दिमित्री करामाजोव का पुलिस को दिया बयान है जब उसे अपने पिता की हत्या के आरोप में गिरफ़्तार कर लिया जाता है.

इसके थोड़ी देर बाद फ़्योडोरोविच का सबसे छोटा बेटा अल्योशा मँझले भाई ईवान से कहता है:

इन भयावह दो महीनों में जब भी तुम अकेले पड़े हो तुमने यह ख़ुद से कई बार कहा है. तुमने ख़ुद को दोषी ठहराया है, यह स्वीकार किया है कि तुमने ही हत्या की है, किसी और ने नहीं. लेकिन तुम हत्यारे नहीं हो. सुना तुमने? वह तुम नहीं हो. ईश्वर ने मुझे तुम्हें यह बताने केलिए भेजा है.

दिमित्री पर हत्या का मुकदमा चलता है, फ़्योडोरोविच का एक अन्य बेटा स्मेरद्याकोव तब तक आत्महत्या कर चुका है. कथा एक नया मोड़ लेती है जब ईवान भरी अदालत में कहते हैं:


मेरे पिता की हत्या उसने (स्मेरद्याकोव) की थी. हत्या उसने की थी और मैंने उसे इसके लिए उकसाया थाकौन अपने पिता की मृत्यु की कामना नहीं करता?”

दोस्तोयवस्की का यह उपन्यास उस अंधेरे बंद कमरे की एक चाभी है जो शायद तमाम रचनाकारों के भीतर छुपा रहता है लेकिन जिसकी सीढ़ियाँ उतरने का साहस कम लेखक कर पाते हैं. एक सजग रचनाकार को अक्सर बहुत जल्द यह बोध हो जाता है कि जिन पूर्वजों को वह अपना आदर्श मानता आया है, जिनके शब्द उसकी सर्जना को रोशनी देते आए हैं उन्होंने दरअसल उसकी चेतना को अपनी गिरफ़्त में ले रखा है, उनका स्वर उसकी कृतियों को चुप दिशा देता चलता है.

इस बोध के बाद उस पूर्वज से मुक्ति पाने के लिए भीषण संघर्ष शुरू होता है जिसकी परिणति एक अन्य बोध में होती है कि उस पूर्वज या शायद उसके प्रेत का वध अपने काग़ज़ पर किए बग़ैर, अपनी स्याही से उसका शोक-गीत लिखे बग़ैर इस लेखक को मुक्ति नहीं मिलेगी. लेकिन किसी लेखक के लिए यह स्वीकार करना आसान नहीं है कि उसका रचना कर्म उसके पितामह की शव-साधना है या हो जाना चाहता है क्योंकि पितृ-वध मुक्ति का साधन हो या न हो, आख़िर मुक्ति का समूचा प्रत्यय एक विराट मायाजाल है, लेकिन यह मनुष्य को असहनीय अपराध-बोध में डुबो सकता है.


स्वतंत्र भारत की नींव राष्ट्र-पिता के वध से निर्मित होती है. भारतीय अवचेतन आज भी इस अपराध बोध की गिरफ्त में है. स्वातंत्रयोत्तर भारत की राजनीति कारतूसों से बिंधे इस शव के इर्द-गिर्द घूमती आयी है. सत्तर से अधिक वर्ष हुए लेकिन यह अपराजेय और असम्भव लाश अभी तक नहीं बुझी है, इस राष्ट्र के आकाश पर अपने डैने फैलाये पसरी है. 

पश्चिमी सभ्यता की नींव भी उन दो पितृ-पुरुषों के शव से रची गयी है जो इस सभ्यता के दर्शन, धर्म, विचार और व्यवहार के आदि स्रोत हैं सुकरात और ईसा मसीह. पश्चिम के अवचेतन में दफ़न एक स्याह तहख़ाने में इस पिता की लाश दो हज़ार वर्षों से रखी हुई है. लेकिन पश्चिम इस घाव को स्वीकारना नहीं चाहता. वह इससे संवाद करने से भी बचता रहा है. क्या पश्चिम द्वारा दुनिया भर में की गयी हिंसा की एक वजह इस पितृ वध से उपजा अपराध बोध है? क्या अन्य समुदायों और संस्कृतियों को सैविजघोषित कर वह अपने नृशंस कृत्य, अपने ओरिज़िनल सिनपर पर्दा डाल देना चाहता है? इस प्रश्न को किसी आगामी निबंध के लिए रखते हैं. 





(दो)
ए के रामानुजन द इंडियन इडिपस निबंध में कहते हैं कि समूचे भारतीय उपमहाद्वीप के साहित्य, इतिहास, मिथक और लोक कथाओं में सोफ़ोक्लीज के नाटकों की इडिपल हत्या जैसा लगभग कोई उदाहरण नहीं है. महाभारत में कुछ संक्षिप्त-से उल्लेख हैं, लेकिन वह बहुत महत्वपूर्ण नहीं है. मकरंद परांजपे अपनी किताब द डेथ एंड आफ़्टरलाइफ़ अव महात्मा गांधी में इस्लामिक शासन के दौरान राजगद्दी पाने के लिए बेटे द्वारा पिता की हत्या के उदाहरणों का जिक्र करते हैं लेकिन जोर देकर कहते हैं कि हिंदू चेतना इसे घनघोर वर्जित मानती है. हिन्दू इतिहास में ऐसी एकाध घटनायें हैं ज़रूर, मसलन मगध सम्राट बिंबिसार के पुत्र अजातशत्रु ने अपने पिता को क़ैद कर उसे भूखा मार दिया था लेकिन यह कृत्य हिन्दू संस्कार और स्मृति में इतना वीभत्स माना जाता है कि समाज और इतिहासकार इसे याद तक रखना नहीं चाहते.



यह निबंध उपरोक्त प्रस्तावनाओं से परे जा दो प्रस्तावना देना चाहता है. पहली, भारतीय संदर्भ में पितृ-हत्या को माँ के केंद्रीय आइने से देखने की आवश्यकता नहीं है. चूँकि माँ की उपस्थिति अनिवार्य नहीं है इसे इडिपल हत्या कहने के बजाय, एक कृत्य जो माँ को बीच में रख पिता और पुत्र के बीच एक विशिष्ट यौनिक तनाव का संकेत देता है, पितृ-वध कहा जा सकता है. हत्या नहीं, वध. वध में वैधानिकता का भाव है. वध अमूमन ऐसे विराट व्यक्तित्व का होता है जिस पर प्रहार करते वक्त भी वधिक उसे नमन करना नहीं भूलता. वध मृतक की गरिमा में वृद्धि करता है, अक्सर अनुत्तरित प्रश्न पीछे छोड़ जाता है.

पांडव भीष्म के पास उनके वधकी वजह जानने गए थे, गोड़से ने भी अपने कृत्य को गांधी-वधकहा था.

दूसरा, इस वध के अनेक रूप हो सकते हैं. यह सिर्फ़ इतिहास या पुराण के पन्नों में ही नहीं विचार में भी घटित होता है, अपने अविजित पिता को रास्ते से हटा देने की आकांक्षा में घटित होता है. वह क्षण जब पुत्र को एहसास हो जाता है कि भले ही पिता की मृत्यु के बाद उसके भीतर का पुरुष भी धीरे-धीरे मरना शुरू हो जायेगा, लेकिन पिता के रहते वह सिंहासन हासिल नहीं कर पायेगा.

यह महापुरुष भी अपने परवर्ती की इस आकांक्षा से अनजान नहीं है, शायद वह भी यही चाहता है, इसमें ही उसकी मुक्ति है, और पहले से कहीं विराट पुनर्जन्म है. संस्कृत का श्लोक है --- सर्वतो जयमिच्छेत. पुत्राच्छिष्यात्पराजयम्.सभी लोगों को जीतना चाहता हूँ, लेकिन पुत्र और शिष्य से पराजय की इच्छा रखता हूँ.

इसलिए रामानुजन और मकरंद जब लिखते हैं कि चूँकि भीष्म की मृत्यु उनकी अनुमति से हुई थी इसलिए वह पितृ-वध नहीं है, वे व्यास की कथा के मर्म को शायद अनदेखा कर देते हैं.

महाभारत के युद्ध को नौ दिन हो चुके हैं. पांडव हताश हैं. उन्हें अपनी पराजय दिख रही है. नवीं रात पांडव शिविर में युधिष्ठिर कृष्ण से कहते हैं: 


विकट पराक्रमी महात्मा भीष्म हमारी सेना का उसी प्रकार विनाश कर रहे हैं जैसे हाथी सरकंडों के जंगलों को रौंद डालते हैंअब मैं वन को चला जाऊँगा. मेरे लिए वन में जाना ही कल्याणकारी होगा. मेरी युद्ध में रुचि नहीं रही क्योंकि भीष्म हमारा विनाश कर रहे हैं. जैसे पतंगा अग्नि की ओर दौड़ा जाकर मृत्यु को प्राप्त करता है, हमने भी भीष्म पर आक्रमण कर मृत्यु का ही वरण किया है.

अर्जुन का युद्ध से पहले मोहभंग हुआ था, युद्ध की निरर्थकता जान वह युद्धभूमि से हट जाना चाहते थे. युद्ध के बीच भीष्म के सामने अपनी पराजय अवश्यंभावी देख युधिष्ठिर रण छोड़ देना चाहते हैं. चारों भाईयों और कृष्ण से मंत्रणा के बाद उन्हें लगता है कि देवव्रत भीष्म के पास जा उन्हीं से उनके वध का उपाय पूछा जाए”. लेकिन पितामह के प्रति यह विचार आते ही युधिष्ठिर ग्लानि से भर उठते हैं: 


बाल्यावस्था में जब हम पितृहीन हो गए थे, उन्होंने ही हमारा पालन पोषण किया था. माधव, वे हमारे पिता के पिता और हमारे प्रिय हैं, फिर भी मैं उनका वध करना चाहता हूँ. क्षत्रिय की इस जीविका (धर्म) को धिक्कार है.

जीवित बचे रहे आने की आकांक्षा व पितामह की मृत्यु कामना से उपजे अपराध बोध के बीच फँसे पाँचों भाई और कृष्ण भीष्म के पास जाते हैं. युधिष्ठिर कहते हैं: 


हे सर्वज्ञ, युद्ध में हमारी जीत कैसे हो?…आप स्वयं ही हमें अपने वध का उपाय बताइए.

और तब भीष्म कहते हैं: 


यह तुम्हारे लिए पुण्य की बात है कि तुम्हें मेरे इस प्रभाव का ज्ञान हो गया है” कि मेरे रहते तुम कभी विजयी न हो सकोगे.
यह पितृ-वध का विलक्षण उदाहरण है. यहाँ इडिपल या स्त्री की तलाश निरर्थक है. यह कोरी हत्या नहीं है. भले यह वध पुत्र की आकांक्षा की परिणति है लेकिन यह पितामह की अनुमति और भागीदारी से सम्भव होता है, पितामह की प्रतिष्ठा को संवर्द्धित करता है.

घृणा से भरे गोड़से भी गांधी के योगदान को स्वीकारते थे. अदालत में उन्होंने अपने बयान में कहा था कि ट्रिगर दबाने से पहले वह गांधी के समक्ष सम्मान में झुक गएथे. जैसा आशीष नंदी और उनसे पहले रॉबर्ट पायने ने लिखा है कि गांधी की हत्या किसी एक इंसान ने नहीं की थी, इस कृत्य के अनेक मूक सहभागी थे, गांधी ख़ुद उनमें से एक थे. कांग्रेस के अनेक नेता निश्चित ही गांधी की मृत्यु नहीं चाहते थे, लेकिन वे गांधी को नए भारत की राह में बाधा ज़रूर मानते थे. गांधी की भी भीष्म जैसी ही स्थिति थी. गांधी की राजनैतिक संतानों को बोध हो गया था कि गांधी के रहते वे भारत को हासिल नहीं कर पाएँगे. यह बोध ज़ाहिर है गांधी को दरकिनार करते जाने के अपराध बोध का जुड़वाँ था.

यह तीखा अंतर्द्वंद्व सिर्फ़ पांडव भाईयों या कांग्रेसी नेताओं तक ही सीमित नहीं है, वे तमाम पुत्र इससे गुज़रते हैं जो पिता के प्रति आदर और उनसे उपजती असंभव चुनौतियों के बीच ख़ुद को पिसते पाते हैं.

(तीन)
उपरोक्त दृष्टांत सिर्फ़ भूमिका बतौर हैं. भीष्म और गांधी और करामाजोव के सहारे यह निबंध कहीं और पहुँचना चाहता है, एक रचनाकार के अपने पितामह के साथ त्रासद सम्बंध को, उसकी मृत्यु की कामना को टटोलना चाहता है जिसका ज़िक्र ऊपर किया था.

लेकिन उससे पहले दो कृतियों के जरिये देखते हैं कि यह भाव कितने रूप में और कितनी बारीकी से प्रकट हो सकता है. निर्मल वर्मा की लम्बी कहानी बीच बहस में और उपन्यास अंतिम अरण्य. एक कथा का नायक पिता को अस्पताल में मरते हुए देख रहा है, दूसरा पिता-तुल्य मेहरा साहब की अंतिम साँसों को सहेज रहा है. इन दोनों युवकों के भीतर पिता की मृत्यु एक कोरी घटना बतौर दर्ज नहीं हो रही, उनके अंदर इस मृत्यु की आकांक्षा भी बनी हुई है. दोनों पिता की मृत्यु के साक्षी होने उनके अंतिम समय पर आ गए हैं. लेकिन वे तटस्थ दर्शक नहीं हैं, इस मृत्यु में भागीदार हैं, जीवित पिता की कपाल क्रिया करते हैं, इस प्रक्रिया में खुद अपनी मृत्यु की तरफ बढ़ते जाते हैं. पिता की सेज सजाते हैं, उनके शव का अपनी अस्थियों से श्रृंगार करते हैं.

मेहरा साहब ने नायक को अपनी जीवनी सुनने और लिखने के लिए बुलाया है, लेकिन वह सिर्फ़ जीवनी नहीं लिख रहा, दरअसल उन्हें अपनी मृत्यु-कथा रचने में मदद कर रहा है. वह मेहरा साहब की ओर चलती आती मृत्यु को लिपिबद्ध कर रहा है, बग़ैर उन्हें बताए अपने रजिस्टर के पन्नों में उस मृत्यु को दर्ज कर रहा है.

दोनों ही युवकों को यह बोध है कि पिता की मृत्यु बग़ैर न पिता को मुक्ति मिलेगी न उन्हें. दोनों इससे भी अनभिज्ञ नहीं हैं जो ओर्हान पामुक ने अपने पिता की मृत्यु पर लिखा था: एक आदमी की मौत अपने पिता की मृत्यु के साथ शुरू हो जाती है.





(चार)
किसी लेखक के सामने यह प्रश्न शायद कहीं गहरा और तीखा होता है. अपने पितामह लेखक से मुक्ति कैसे पायी जाए? उसके वध का उपाय किससे पूछा जाए? किस तरह अपने स्वर की संप्रभुता हासिल की जाए?

कुछ बरस पहले मैंने एक कहानी लिखी थी जिसमें एक युवा लेखक एक बूढ़े लेखक की श्रद्धांजलि कई बरसों से लिख रहा है जबकि वह बूढ़ा अभी ज़िंदा है. वह युवा उसे अपना गुरु मानता है, इस गहन अपराध-बोध से ग्रस्त है कि उसने अभी तक कुछ भी ऐसा नहीं लिखा जिसे वह बूढ़े को बतौर गुरु-दक्षिणा समर्पित कर सके. इस पाप से मुक्त होने के लिए वह दुनिया का सबसे महान शोक-गीत लिखने का स्वप्न देखता है. बूढ़ा अभी कम-अस-कम दो चार साल तो जीवित रहेगा ही, यानि उसके पास काफी समय है शोक -गीत लिखने के लिए. उसकी मृत्यु के अगले दिन वह इसे प्रकाशित करवा देगा. पूरी दुनिया अचम्भित रह जाएगी कि महज़ एक रात में उसने यह विलक्षण रचना कैसे कर डाली.

इस जुनून में वह इस कथा के कई मसौदे तैयार करता है, बूढ़े को अनेक विधियों से मरता दिखाता है. हार्ट अटैक, सुबह की सैर पर किसी ट्रक ने कुचल दिया, अपनी डेस्क पर मरा पाया गया, अधूरी कहानी से न जूझ पाने की निराशा में हुई मृत्यु, हेमिंग्वे जैसी आत्महत्या. युवा लेखक उसकी मृत्यु की कल्पना करता चलता है लेकिन बूढ़ा नहीं मरता. युवक के भीतर दिन रात मृत्यु बजने लगती है. उसे चारों तरफ़ मृत्यु का विलाप सुनायी देने लगता है, वह हरेक शै में अपने गुरु को मरता हुआ, उसके शव को लकड़ियों पर धधक कर जलते हुए देखता है, लेकिन बूढ़ा नहीं मरता.

इस कहानी का अंतिम वाक्य था: 

तुम उस बूढ़े का शोकगीत लिख रहे थे या उसके ज़रिए दरअसल तुम ख़ुद को ही सम्बोधित थे? क्या तुम ही तो वह बूढ़े नहीं थे जो इस युवक के भेष में अपना शोकगीत लिखने आ गए थे?”

यह भाव वह नहीं है जिसके बारे में एलियट ने लिखा है कि हरेक लेखक अपने पूर्वजों को रचता है, या जब काफ़्का को पढ़ते वक़्त बोर्हेस उनके तमाम पुरखों को चिन्हित कर लेते हैं, काफ़्का के शब्दों के आलोक में पूर्ववर्ती रचनाओं का पाठ एकदम बदल जाता है. यह भाव वह भी नहीं जिसे हैरल्ड ब्लूम द ऐंज़ाइयटी अव इन्फ़्लूयन्सकहते हैं जो अपने पूर्वज के ग़लत पाठसे जन्म लेता है, एक ऐसी प्रक्रिया जहाँ एक लेखक अपने अग्रज के शब्दों को संशोधित करने की आकांक्षा लिए उन्हें मरोड़ देता है, उनसे एक नया अर्थ हासिल कर लेता है.

लेखकीय परम्परा का ज़िक्र जिस तरह इन आलोचकों ने किया है, यह निबंध उससे अलग धुरी पर स्थित है. यहाँ यह सजग बोध है कि पूर्वज से मुक्त हुए बग़ैर लेखक की मुक्ति असम्भव है, लेकिन यह बोध भी है कि यह आकांक्षा और इस दिशा में किया गया कर्म शायद एक छलावा ही रहा आयेगा, इस दौरान पूर्वज कहीं विराट स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाएगा, जिससे बचना चाह रहे थे वह सदा को बना रहा आयेगा, लेकिन फिर भी यह कर्म अनिवार्य नज़र आयेगा.




(पांच)
एक सत्य लेकिन और भी है. इस प्रश्न के मायने पुरुष और स्त्री रचनाकार के लिए भिन्न हो सकते हैं. स्त्री का लेखकीय परंपरा के साथ शायद वह संबंध नहीं जो पुरुष का होता है. चूँकि मानव इतिहास के लम्बे अंतराल में अठारहवीं-उन्नीसवीं सदी से पहले कुछ अपवादों के सिवाय लेखन पुरुष-कलम से ही हुआ है, जिन अर्थों में परम्परा को पुरुष देखता है वह स्त्री के लिए सम्भव नहीं है, उसका सरोकार भी नहीं है. स्त्री के पास शायद ऐसे बहुत अधिक पूर्वज नहीं है जिन्हें वह जिन्हें गुरु-स्थान पर अधिष्ठित कर सके. पुरुष अपनी परम्परा को व्यास, वाल्मीकि, होमर और अरस्तू से लेकर बाणभट्ट, शेक्सपियर, कबीर और बंकिम चन्द्र में देख सकता है, लेकिन स्त्री शायद इनमें से अनेक के साथ कोई अपनापा नहीं जोड़ पाएगी. वह अरस्तू जो कथा में किरदार के चित्रण की चर्चा करते वक्त अपने ग्रंथ पोएटिक्स में घोषित कर देते हैं कि स्त्री हीन प्राणीहै, उसके अंदर शौर्य का गुण नहीं है. वह होमर जिनके महाकाव्य ओडिसी में पश्चिमी साहित्य की शायद पहली ऑनर किलिंगघटित होती है जब यूलिसीज़ अपनी पत्नी की बारह सहायिकाओं की हत्या करवा देता है क्योंकि उन्होंने उसकी अनुपस्थिति में अन्य पुरूषों को अपने साथ सम्बंध बनाने की अनुमति दे दी थी.

स्त्री का इन अग्रजों के प्रति संबंध संकटग्रस्त ही रहेगा. चूँकि स्त्री की पहली फ़िक्र पुरुष द्वारा रचित लेखकीय संसार में अपनी जगह बनाने की रही है, इसलिए वह गुरु-दक्षिणा को एक अनिवार्य पुरुष-प्रश्न बतौर भी देख सकती है. जैसाकि द मैडवुमन इन द ऐटिक में सैंड्रा गिल्बर्ट और सूज़न ग़ुबर लिखती हैं: 


उसका (स्त्री) अपने पुरुष पूर्वजों से संघर्ष सृष्टि के प्रति उनकी दृष्टि को लेकर नहीं, बल्कि ख़ुद उसके (स्त्री) प्रति उनकी दृष्टि पर है.

वर्जीनिया वूल्फ़ भी कहती हैं कि साहित्य की तमाम महानतम रचनाओं में स्त्री को अपने लिए कुछ भी नहीं मिलेगा. ये किताबें पुरुष संसार को लिखती हैं, पुरुष मूल्यों का उत्सव मनाती हैं. स्त्री के पास कोई परम्परा नहीं है, अगर है भी तो वह इतनी छोटी और अपर्याप्त है कि उसका कोई अर्थ नहीं. 


स्त्रियाँ अपनी माताओं के ज़रिए विचार करती हैं. महान पुरुष लेखकों के पास सहारे के लिए जाना व्यर्थ है.

ज़ाहिर है पुरुष के लिए तो बतौर प्रेरणा-स्रोत अनेक पिता उपलब्ध हैं, स्त्री के पास बहुत अधिक माताएँ नहीं हैं. इस तरह स्त्री का लेखन भी इन पूर्वजों के प्रति विद्रोह है, उनसे मुक्ति पाने का रास्ता है.

रचनाकर्म, भले वह स्त्री का हो या पुरुष का, शायद इन्हीं जुड़वाँ आकांक्षाओं से संचालित होता है गुरु-दक्षिणा और गुरु-वध.

लेकिन वह बुज़ुर्ग? इस पूरी कथा में उसकी क्या भूमिका है? क्या यह एकतरफ़ा कर्म है जिसमें उसकी कोई जगह नहीं? क्या वह अपने परवर्ती के हाथों मिटाए जाने को अभिशप्त है? नहीं. वह कोई निरीह शिकार या बलि का प्राणी नहीं है. यह समूची क्रीड़ा उसकी उदार अनुमति, सहृदय भागीदारी से ही सम्भव होती है. भले ही आप उससे उसकी मृत्यु का उपाय जान उसे रणभूमि से हटा दें लेकिन वह महारथी जमीन पर नहीं गिरेगा, उसकी गरिमा के अनुकूल उसकी शैया अभेद बाणों की ही बनेगी, वह सूर्य के तेज़ के साथ उस सेज पर लेट जायेगा, और भले ही वह शर-शैया पर लेटा हो लेकिन वह प्राण अपनी इच्छा से ही त्याग करेगा. अलेहांड्रो जंब्रा के उपन्यास बोनसाई का बूढ़ा उपन्यासकार युवा नायक से कहता है: हम बूढ़े लोगों को युवाओं से सिर्फ़ चापलूसी ही नहीं चाहिए, कहीं गहरे हमें उनके ख़ून की भी ज़रूरत होती है. एक बूढ़े को ढेर सारा ख़ून चाहिए.

इस बुजुर्ग ने अपने उत्तराधिकारी को जितना ख़ून अपने समूचे जीवन में दिया है, उससे कई गुना अधिक उसका लहू वह अपने अंतिम क्षणों में निचोड़ लेता है.

लहू के इन्हीं क़तरों को समेटने की आकांक्षा की कोख़ से अक्सर एक महान कृति जन्म लेती है.
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abharwdaj@gmail

भाष्य : प्रभात की कविता : सदाशिव श्रोत्रिय

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प्रभात की कविताओं पर लिखते हुए अरुण कमल ने माना है कि ‘यह हिंदी कविता की उंचाई भी है और भविष्य भी’. उनका संग्रह ‘अपनों में नहीं रह पाने का गीत’ साहित्य अकादेमी ने २०१४ में प्रकाशित किया था.

प्रभात की  कविताओं का अर्थ संधान करती हुई, अलक्षित सौन्दर्य को इंगित करती हुई सदाशिव श्रोत्रिय की यह टिप्पणी ख़ास आपके लिए.




प्रभा  त   की   कवि  ता                                                                      
सदाशिव श्रोत्रिय


प्रभात की खासियत मैं इस बात में मानता हूं कि किसी विषय के सम्बंध में जिस विशिष्ट भाव को यह कवि अपने मन में महसूस करता है उस भाव को अपने पाठकों तक सम्प्रेषित करने का कोई अनूठा ही तरीका वह निकाल लेता है. उनकी काव्य-सृजन की यह प्रक्रिया मुझे बहुत कुछ स्वप्न-सृजन सी लगती है जिसमें चेतन मन की भूमिका लगभग नहीं के बराबर होती है. किसी  स्वप्न से जगने के बाद जैसे हम कई बार अपने आप को  वियोग, पश्चाताप,उद्विग्नता या अन्य किसी भाव से घिरा पाते हैं उसी तरह प्रभात की कविता पढ़ने के बाद हम जैसे उसके संवेदनात्मक काव्य- अनुभव में सह्भागी हो जाते हैं.

प्रभात अपना यह काम किसी सामाजिक-राजनीतिक स्थिति पर किसी सीधी टिप्पणी से बचते हुए करते हैं. वे कविता को स्वयं बोलने देते हैं और यदि पाठक में उनकी कही बात को सुनने की क्षमता हुई तो कविता के माध्यम से भाव-सम्प्रेषण का उनका अभीष्ट कार्य पूरा हो जाता है.

सदानीरा में प्रकाशित उनकी एक कविता अटके काम  के उदाहरण से मैं अपनी बात  आगे बढ़ाना चाहूंगा. कविता यूं है :



अटके काम


पतंगें अटकी हुई भी सुंदर लगती हैं
उन्हें उड़ने से कितनी देर रोका जा सकता है
आते ही होंगे लकड़ियों के लग्गे लिए लड़के
उतार लेंगे हर अटकी हुई पतंग
फड़फड़ाते हुए फट ही क्यों न जाए
कहीं अटकी हुई पतंग
इस बात को कौन मिटा सकता है भला
कि जब तक अटकी हुई दिखती रही
बच्चे उसे पाने की इच्छा करते रहे

कविता को पढ़ते हुए जो तस्वीर मेरे मन में उभरती है वह पतंगों की न होकर सुन्दर और युवा लड़कियों की है. मुझे लगता है  हमारे समाज में इन लड़कियों की स्थिति को यह कविता बखूबी चित्रित करती है. लड़कियां स्वतंत्र और उन्मुक्त न हों तब भी युवावस्था में उन्हें सुन्दर और आकर्षक लगने से भला कौन रोक सकता है ? अपने घरों और स्कूलों की कैद में भी वे उन्हें देखने वालों को आकर्षित तो करती ही हैं. युवावस्था में अपने हाव-भावों से, अपनी अदाओं से, अपनी मुस्कराहटों से वे सबको रिझाती  हैं. यह सब करते हुए वे शायद इस बात का भी कुछ आभास कराती हैं कि उन्हें बहुत समय तक कैद करके नहीं रखा जा सकता.

समाज के जिन लड़कों के हाथ में लग्गे हैं, अर्थात जो पद-प्रतिष्ठा-धन-बल आदि से सम्पन्न हैं, वे एक न एक दिन इन अटकी हुई पतंगों को उतार कर ( अर्थात उन्हें ब्याह कर) ले ही जाएंगे. इस बीच यह भी सम्भव है कि इनमें से कोई पतंग बहुत फड़फड़ा कर अपने आपको इस क़ैद से मुक्त करने की कोशिश करे और इस संघर्ष में कदाचित फट ही जाए. पर यह एक अस्तित्ववादी यथार्थ है कि जब तक वे अटकी हुई दिखती रहेंगी बच्चे बराबर उन्हें पाने की इच्छा करते रहेंगे.
वस्तुत: पतंगों का यह सामाजिक अर्थ ही प्रभात की इस कविता को कविता बनाता है. पाठक के मन में नारी-स्वातंत्र्य सम्बन्धी किसी विचार का अभाव इस कविता को समझने के लिए आवश्यक अर्हता का अभाव बन जाएगा  और तब यह कविता इसके पाठक को कोई कविता ही नहीं लगेगी.

हमारे समय के बहुत से मसले, बहुत से व्यक्ति और बहुत सी घटनाएं  मिल कर इस कवि से  किसी ऐसी कविता की रचना करवा सकते हैं जिसमें उन सभी का समावेश हो जाए किंतु जिसमें कवि फिर भी सीधे सीधे कोई बयान देता दिखाई न पड़े .पहल -115 में प्रकाशित प्रभात की  क्रिकेट और साइकिल  को मैं एक  ऐसी ही कविता पाता हूं. इस कविता को पढ़ कर लगता है कि इसे लिखते समय कवि के मन में धर्मनिरपेक्षता,यौन-समता , पड़ोसी राष्ट्र के प्रति प्रेम और  सद् व्यवहार, (पहले प्रसिद्ध क्रिकेट खिलाड़ी और अब  अन्य राजनीतिक गतिविधि में संलग्न) इमरान खान, हिन्दू राष्ट्रवाद आदि अनेक बातें मन में आती रही होंगी. इन तमाम चीज़ों के बारे में अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करने के लिए कवि एक विशिष्ट बिम्ब-विधान् और घटना-क्रम खोज निकालता  है. वह यहां हमें जनकपुरी नामक  एक हिन्दू-मुस्लिम कॉलोनी (जिसका नाम पहले ईदगाह कॉलोनी था) में बच्चों को क्रिकेट खेलते दिखाता है. कवि के मन का अक्स हमें इस कविता में दिखाई देता है क्योंकि ये बच्चे खेल को पूरी तरह खेल की भावना से खेल रहे हैं. उनमें पारस्परिक ईर्ष्या या प्रतिस्पर्धा की कोई भावना नहीं है. (पाठक के मन में यहां भारत-पकिस्तान के बीच कटुता के साथ  खेले जाने वाले मैचों की बात आए बिना नहीं रहेगी).

पड़ोसी देशों के बीच आदर्श सम्बन्धों की कवि की कल्पना इस कविता में बड़ी सहजता से प्रवेश कर जाती है. इन बच्चों में से कुछ के नाम (यक्ष-नील-नल-गयंद ) शायद जानबूझ कर शुद्धत: हिन्दुत्वादी रखे गए हैं. मुस्लिम लड़के का नाम मामिर भी शायद एक  शुद्ध मुस्लिम नाम  है. पर खेलते समय  इन बच्चों को अपने हिन्दू या मुस्लिम होने का ज़रा भी बोध नहीं है. खेल के मैदान पर ही  सम्भव इस खेल की भावना को कवि हिन्दू-मुस्लिम सम्बन्धों के आदर्श के रूप में देखता है और इसीलिए वह उसे अपनी इस कविता में चित्रित करता है :

जनकपुरी में बच्चे क्रिकेट खेल रहे हैं
मामिर साइकिल चला रहा है

गोलू बैटिंग कर रहा है
बिट्टू बॉलिंग कर रहा है
यक्ष नील नल गयंद फील्डिंग कर रहे हैं 
क्रिकेट में बड़ा मज़ा आ रहा है
मामिर  साईकिल चला रहा है

पर ये हिन्दू बच्चे बड़े सहज भाव से इस मुस्लिम बच्चे के क्रिकेट कौशल को स्वीकार करते हैं और उससे इस कौशल-प्रदर्शन का आग्रह करते हैं :

निशा  के भाई राकेश ने
साइकिल घुमाते मामिर से कहा
‘अब्बू जी  खेल ले यार ’
‘खेलूंगा’
साइकिल एक तरफ खड़ी करते मामिर ने कहा

ओए बिट्टू तुझसे कब से गोलू के गिल्ले नहीं उड़ रहे
ये ओवर अब्बू जी को करने दे
( अब्बू जी यानी मामिर )


अब्बू जी की पहली ही बॉल पर छक्का पड़ा
दूसरी पर चौका
तीसरी पर दो रन
चौथी में गोलू क्लीन बॉल्ड हो गया
क्रिकेट में रोमांच बढ़ गया

यौन – समता के मुद्दे को भी यह कवि किसी न किसी रूप में इस कविता में ले आता है. अपनी साइकिल पर हाथ आजमाते देख मामिर सहज भाव से निशा से कहता है :

घुमा ले , घुमा ले ’ , .............
क्या चलानी नहीं  आ रही है  ?

कुछ देर बाद सांझ हो जाने पर जब बच्चों के घर से उन्हें बुलाने की आवाज़ें आने लगती है , तब मामिर के पिता का जो चित्रण यह कवि करता है ,वह भी हमें  अनूठा लगता है :

पायजामे के अन्दर दबी बनियान में
लम्बी काली दाढ़ी में चमकता गौरवर्ण चेहरा
गली के छोर पर खड़ा था

हम देखते हैं कि अवसर मिलने पर अपनी कविता को अलंकारिक बनाने के लिए यह कवि ‘निशा’ जैसे किसी शब्द में निहित श्लेष का भी काव्यात्मक उपयोग कर लेता है :

............मामिर
जनकपुरी में  अपने अकेले आशियाने  की तरफ़ बढ़ रहा था
बाकी सब भी अपने-अपने घरों की तरफ़
निशा  भी

राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी की दुर्दशा के सम्बन्ध में विचार करते हुए  यह कवि एक ऐसी विवाहिता स्त्री की कल्पना करता है जिसके न्यायपूर्ण स्थान पर किसी दूसरी ही औरत ने कब्ज़ा कर रखा है.

अपने ही घर में हिंदी की हैसियत
एक रखैल की-सी हो गई है
अँग्रेज़ी पटरानी बनी बैठी है
अँग्रेज़ी के बच्चे शासकों के बच्चों की तरह
पाले-पोसे जाते हैं
हिंदी के बच्चों की हैसियत
दासीपुत्रों सरीखी है
अंग्रेज़ी के बच्चे ही वास्तविक बच्चों की तरह देखे जाते हैं
भावी शासकों की तरह
हिंदी के बच्चों को ज़मीनी अनुभवों और योग्यताओं के बावजूद
उनके सामने हमेशा नज़र नीची किए विनम्र बने रहना होता है
हिंदी हाशिए पर धकेल दिए गए अपने बच्चों के साथ
शिविर में रहती है
अँग्रेज़ी राजमहलों में
हिंदी अब थकी-थकी-सी रहती है
उसके अनथक श्रम का कहीं कोई मूल्य नहीं है
उसके बच्चों का भविष्य अंधकार से भरा है

प्रभात ने स्वयं ने हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए बहुत कार्य किया है और इसीलिए वे उस निराशा के भाव को बख़ूबी महसूस कर सकते हैं जो उनके जैसे प्रतिबद्ध हिन्दी लेखकों की तमाम मेहनत के बावजूद इस देश में अंग्रेज़ी के मुक़ाबले हिन्दी के दूसरे नंबर की भाषा बन कर रहने से उत्पन्न होता है. क्या उन  जैसे लेखकों की तमाम कोशिश के बावजूद हिन्दी इस देश में डूब जाएगी ?

हिंदी अब थकी-थकी-सी रहती है
उसके अनथक श्रम का कहीं कोई मूल्य नहीं है
उसके बच्चों का भविष्य अंधकार से भरा है
कुछ है जो भीतर ही भीतर खाए जाता है
आते-जाते हाँफने लगी है
भयभीत-सी रहने लगी है

हिन्दी की इस असहायतापूर्ण और कमज़ोर स्थिति को एक अतिरिक्त संवेदनात्मक आयाम देने के लिए यह कवि इस कविता की अगली पंक्तियों में जो करता है वह दृष्टव्य है :

कल की ही बात है
नींद में ऐसे छटपटा रही थी जैसे कोई उसका गला दबा रहा हो
बच्चे ने जगाया :
माँ ! माँ ! क्या हुआ !
पथरायी आँखों से बच्चे के चेहरे की ओर देखते बोली :
क्या मैं कुछ कह रही थी?
हाँ तुम डर रही थीं !
थकान से निढाल फिर से सो गई
सोते-सोते ही बताया :
बड़ा अजीब-सा सपना था
अँग्रेज़ी ने मुझे पानी में धक्का दे दिया
उसे लगा पानी कम है
वह हालाँकि हँसी-मज़ाक़ ही कर रही थी
लेकिन पानी बहुत गहरा था
मैं डूब रही थी
इतने ही में तुमने मुझे जगा दिया
जाओ सो जाओ
अभी बहुत रात है
बुदबुदाते हुए वह सो गई

वस्तुत: किसी बाह्य  स्थिति का भावनात्मक उल्था जिस काव्य-प्रतिभा की दरकार रखता है  वह हम प्रभात में पाते हैं. यह उल्था ही दरअसल सीधे पाठक के अवचेतन में प्रवेश की वह क्षमता रखता है जो किसी सफल कविता की अपनी विशेषता है.

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बारे में भी वे अपनी बात   निर्विघ्न  शीर्षक कविता में एक विशिष्ट काव्यात्मक अन्दाज़ में रखते हैं.

मैं निर्विघ्न खाना खा रहा हूँ
तो यह यूँ ही नहीं है
यह एक ऐतिहासिक बात है
ऐसा न हो कि मेरे बाबा की तरह
मेरे मुँह से भी कोई कारिंदा रोटी का कौर छीनने आ जाए


अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हासिल करने के लिए गांधी,नेहरू,अम्बेडकर,ज्योतिबा, सावित्री बाई और नानाभाई,सेंगाभाई जैसे अनेक जाने-अनजाने लोगों ने लम्बे समय तक संघर्ष किया तब कहीं जाकर वह हमें नसीब हुई है. धर्मान्धता के मुद्दे पर टिप्पणी  के लिए भी यह कवि काव्य-रचना के इस मौके का सार्थक इस्तेमाल करने में नहीं चूकता जब वह कहता है कि :

मैं जीवन का जितना भी हिस्सा
निर्विघ्न जी सका
उसके पीछे निर्विघ्नं कुरू मे देव
सर्व कार्येषु सर्वदा
जैसा कोई श्लोक नहीं
लोकशाही के लिए संघर्ष करने वालों का
सुदीर्घ इतिहास रहा
_______________________________ 
सदाशिव श्रोत्रिय
5/126 ,गोवर्द्धन विलास हाउसिंग बोर्ड कोलोनी,
हिरन मगरी , सेक्टर 14,
उदयपुर -313001  (राजस्थान)

मोबाइल -8290479063  
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