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सबद भेद : बेवतनी से बदवतनी तक : बलवन्त कौर

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(Photo by James Groleau)



राष्ट्र के महाख्यान में दर्द और ज़ख्मों के तमाम अध्याय छुपा लिए जाते हैं, कोशिश होती है उनसे आँख चुराने की. उन्हें याद करना अपने को यातना के कटघरे में खड़ा करना है.

बलवन्त कौरआजकल देश के विभाजन, दंगे और साम्प्रदायिकता से जुड़े हिन्दी, उर्दू, पंजाबी साहित्य पर कार्य कर रहीं हैं. यह आलेख 47 से लेखकर 84 तक के कत्लेआम की बेहद तकलीफ़देह यात्रा है  जो बेवतनी से बदवतनी तक पहुँचती है. 


बेवतनी से बदवतनी तक                     
बलवन्त कौर


(यह लेख 1947और 1984से संबंधित कहानियों, संस्मरणों, हलफनामों के सहारे की गई स्मृतियों की एक बेतरतीब यात्रा है जिसमें व्यवस्थित विश्लेषण या विमर्श की जगह हिंसा और विस्थापन के अनुभवों से उपजे विचार भर हैं जो विभाजन के सत्तर सालों के बाद भी जारी उसकी निरंतरता को रेखांकित करते हैं.)



“खौफ़ और दहशत का वह मंजर इतने सालों के बाद आज फिर ताजा हो गया. उस दिन दरबार साहिब (स्वर्णमंदिर) में श्रद्धालुओं की (गुरूपुरब की वजह से) भीड़ थी या आतंकियों व फौजियों की, कहना मुश्किल है. अभी कल ही की तो बात है जब दादी की उंगली पकड़े एक बच्ची दरबार साहिब में मस्ती कर रही थी. अचानक उसकी मस्ती जिद्द में बदल गई. जिद्द, घर जाने की. घर, जो उस शहर से दूर दिल्ली में था. दिल्ली तो नहीँ पर दरबार साहब से निकल कर हम जहां पंहुचे, इतना याद है, पूरा शहर अन्धेरे में डूबा मिला. गोलियाँ शहर पर चील की तरह मँडरा रही थीँ. ज़रा सा दीवार या खिड़की से बाहर निकले नहीँ कि चील झपट्टा मार दूसरी दुनिया में पहुँचा देती. दम साधे दादी ने पोती को सीने से लगाए रखा. कहीँ ग़लती से भी चील उस बच्ची को न उड़ा ले जाए. दादी के सामने सन सैंतालीस था जहाँ मारने वाले और बचाने वाले सब आमने-सामने थे.

पर आज कौन किस को मार रहा था, पता ही नहीं था. किसी तरह खौफ़ के वे दिन-रात कटे. दिल्ली घर वापस आने की वह जद्दोजहद  अपने चरम पर पहुँच गई थी. लेकिन खौफ़ और दहशत में जीता वह सारा शहर ही मानो वहाँ से भाग जाना चाहता था. न रेल में जगह, न बस में. आज का ज़माना भी नहीँ था कि अपने ज़िन्दा होने की खब़र मोबाइल या फ़ोन से दी जा सकती. एक लम्बी जद्दोजहद के बाद घर वापसी हुई. पर वे अन्धेरी, खूनी रातें कई सालों तक दुःस्वप्नों का हिस्सा बनी रहीं, दादी की नहीँ उस बच्ची की. दादी तो सन सैंतालीस देख चुकी थी. सब कुछ ठीक ठाक था. सब पहले जैसा हो गया था. लेकिन दादी कहती थी ज्यादा निश्चिंत या खुश नहीँ होना चाहिए, नज़र लग जाती है. और हुआ भी वही, नज़र लग गई. अब नज़र लग गई रोटी और बेटी के सम्बन्धों को.  इस शहर पर भी चीलें उड़ने लगीँ.... “जब एक बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती तो हिलती है”... “खून का बदला खून तो होना चाहिए”..

क्यों बख्शा जाए इन सरदारों को ... आख़िर एक प्रधानमंत्री को उसके सरदार बॉडीगार्डों ने मारा है,इतनी आसानी से थोड़ा जाने देंगें इन सरदारों को’.... बच्ची और दादी के साथ सारा घर हैरान! मानने को तैयार ही नहीँ, शहर में कुछ गड़बड़ है. चीलें उड़ रही हैं. किसी पुलिस वाले ने कहा “सरदारजी घर के अन्दर चले जाइए. सिखों का कत्ल किया जा रहा है. हमारे हाथ बांध दिए गए हैं. हम कुछ नहीँ कर पाएंगे”.

बच्ची के घर के लोग आदतन जिद्द में “जी, हम क्यों जाएं घर, हमने थोड़े ही मारा है प्रधानमंत्री को.  ‘मोने’ हमें क्यों मारेगें? उनसे तो हमारा रोटी-बेटी का सम्बन्ध है, खून का रिश्ता है”. लेकिन थोड़ी ही देर में चारो तरफ  मार-काट, धुँआ, लूट-पाट की खबरें हवाओं मे तैरने लगी. दादी फिर परेशान. जिन बच्चों को पाकिस्तान से जिंदा बचा कर लाई थी, आज अपने ही देश में उन्हें कैसे बचाए. देखते ही देखते कुछ लोगों ने एक सरदार पड़ोसी को मार दिया, पूरा गुरूद्वारा जला दिया. और लड़ने लगे दंगाई आपस में लूट के सामान के लिए. वह सामान भी जो साँझी सम्पत्ति था.

गुरूद्वारे में सब के लिए समान रूप से उपलब्ध. दादी फिर बैचेन. बताती है- नहीँ उन्नी सौ चौरासी ,सन सैंतालीस से ज्यादा भयानक है क्योंकि उन दिनों पड़ोसियों में ‘आंख की शर्म’ तो थी. तब हमारे पड़ोसी हमें देख आँख नीची कर हमारे सामने से चले गए थे, जाने दिया था हमें, पर आज तो आँखों की शर्म भी मर गई है”.[i]



कहानी की यह दादी और उनका परिवार आज भी जीवित है पर ‘सन सैंतालीस से चौरासी’ तक की यातना, उसके पूरे परिवार की स्मृतियों का बड़ा हिस्सा है. सिर्फ़ दादी ही नहीँ सम्पूर्ण हिन्दुस्तानके जातीय मानस में ‘विभाजन’ और ‘दंगे’ हमेशा एक जीवित स्मृति के रूप में विद्यमान हैँ. अपने घरों से, सम्पत्ति से बेदखल कर दिए जाने का दर्द, अपनों को अपने सामने मरते और बलात्कृत होते देखने का दुख तो था ही, लेकिन एक नयी जगह पर ‘रिफ्यूजी’ बन पैर जमाने का संघर्ष भी इस यातना में शामिल है. विभाजन की हिंसा में जो जिंदा रह गए उन्होंने ही नहीँ बल्कि उनकी संतानों ने भी इस संघर्ष को बहुत क़रीब से देखा और महसूस किया है.

कृष्णा सोबती ने अपने एक साक्षात्कार मे विभाजन के सन्दर्भ में ठीक ही कहा हैं- “१९४७ को भूलना जितना मुश्किल है याद रखना उतना ही खतरनाक”. पर समस्या यह है कि हिन्दुस्तान की सियासत ने ‘बर्बरता और हैवानियत’ के मन्ज़र को भूलना तो दूर, इतनी बार दोहरा कर याद रखवाया है कि कुछ लोगों या समुदायों के लिए उन्नीस सौ सैंतालीस कभी खत्म ही नहीँ हुआ. जो लोग विभाजन की कहानियाँ सुनते हुए बड़े हुए थे. उन्नीस सौ चौरासी से दो हजार दो तक न जाने कितनी तरह के विभाजन उनके सामने साकार हो गए. विभाजन, जो एक ऐतिहासिक- राजनीतिक परिघटना थी, कब तीसरी पीढी के सामने फिर से साकार हो गई पता ही नहीँ चला. दादी की तरह ‘रफूजी’[ii] 

कहानी की नानी भी इतिहास के उस क्षण में जीती उन्नीस सौ चौरासी को उसी दर्दनाक अतीत की छाया में देखती रहती है, जहाँ उसके ‘पेड़ जैसे तीन लड़कों’ का उसकी आँखों के सामने कत्ल कर दिया गया था. अतीत की खासियत होती है कि वह वर्तमान के साथ साये की तरह जुड़ा रहता है. इसलिए हरियाणा में दिल्ली से आए चौरासी के रिफ्यूज़ियों को देख वह सहसा कह उठती है- “हाय रब्बा, यह दिल्ली में पाकिस्तान कब बन गया” [iii].इस तरहचौरासी ने नानी के दिमाग में फिर से सैंतालीस को जागृत कर दिया और ‘मोने’ (हिन्दू)  होते हुए भी सैंतालीस और चौरासी में उसके लिए कोई फर्क़ नहीँ रहा. तब वह जिनके साथ रिफ्यूजी हुई थी, उनमें से कुछ आज फिर से ‘रिफ्यूजी’ हो गए थे. हाँ, एक अन्तर जरूर था, सैँतालीस के लुटे –पिटे लोगों के बीच सब कुछ खो कर भी एक तसल्ली थी कि वे एक ऐसी जगह जा रहे हैँ जिस की नींव भले ही हिंसा पर हो पर वहाँ ‘अपने’ होंगे और फिर से किसी ‘विभाजन और विस्थापन’ का सामना नहीँ करना पड़ेगा. लेकिन चौरासी में अपने देश जैसी कोई भी अवधारणा ही बेमानी हो गई थी. प्रो हरभजन सिंह ने ठीक ही कहा-  

“किसी और देश में अजनबी होता, जर्मनी में यहूदियों की तरह की नियति भोगता तो भी शायद इतना दुख नहीँ होता. पर अपने देश में बाहरी की तरह, गर्दन तोड़ने के क़ाबिल समझे जाने का दुख इससे कहीँ अधिक संताप पैदा करता था. बेवतनी से कहीँ बड़ा दुख बदवतनी का था”

बेवतन हो जाण दा दुख सी लिया, दुख जर लिया
बदवतन हो जाण दी बोली किसे मारी न सी. [iv]

अपने ही देश में ‘बदवतन’ होने के दुख ने लोगों को हिला कर रख दिया. सैंतालीस, चौरासी  बन पहले से ही विस्थापितों को पुन: विस्थापित कर गया.

“मुझे अपना सामान बांधने में आधा घंटा लगा. मैँ सोचने लगा कि अपने घर से मैँ क्या-क्या उठाऊँ जहाँ पर पाकिस्तान से निकाले जाने के बाद से रहता आ रहा हूँ. अंततः मैने तय किया कि मैँ यहाँ से कुछ भी नहीँ उठाऊंगा, सब कुछ यहीँ रहने दूंगा.........आज से सैँतीस साल पहले ऐसे ही अपना सब कुछ पाकिस्तान में छोड आया था, अब हिन्दुस्तान में ही सही.[v]


आज़ाद लोकतांत्रिक हिन्दुस्तान में यह पहली बार हो रहा था. जब व्यक्ति को उसके धर्म, उसकी अलग पहचान व वेशभूषा-- पगड़ी और दाढ़ी के कारण चिन्हित करके मारा जा रहा था. पगड़ी और दाढ़ी इसलिए, क्योंकि जिन लोगों ने किसी तरह अपने बाल दाढ़ी कटवा लिए और पहचाने नहीं गए, वे बच गए.

“शाम छः बजे कत्लेआम शुरू हो चुका था..चारों ओर अन्धेरा था, इलाके का बिजली पानी काट दिया गया था, इलाके में २०० लोगों की भीड़ इकठ्ठा हो गई. वो लोगों को घर से निकालते, उन्हें मारते, फिर उन पर तेल छिड़क कर आग लगा देते..... त्रिलोकपुरी की तंग गलियों के कारण लोग चाहकर भी भाग नहीँ सकते थे. तलवारों से लैस दंगाइयों की भीड़ ने इलाके को घेर रखा था...... रात करीब साढ़े नौ बजे मैंने अपने बाल काटे ......” [vi]

अपनी पहचान बदलने वाले तो बच गए वर्ना ऐसे परिवारों और लोगों की फेहरिस्त देखी जा सकती है जिनका आधा परिवार सैंतालीस में खत्म हो गया था और बचे हुए सारे चौरासी खा गई. दिल्ली में चौरासी के बाद बसी विधवाओं की कॉलोनी इसका प्रमाण है. जीता जागता चौरासी और उसके चिन्ह इन कॉलोनियों में देखे जा सकते है.

यह बहुत दिलचस्प है कि ऐसा तब हो रहा था जब हिन्दू-सिख संघर्ष का कोई इतिहास पहले से मौजूद नहीँ था बल्कि दोनों के बीच सामाजिक-सांस्कृतिक और कई जगह रक्त सम्बन्धों का भी सांझापन था.

(पाकिस्तान से यह परम्परा रही थी कि कई हिन्दू परिवारों में एक बेटे को सिख बनाया जाता था. हिन्दू वहाँ, हिन्दू नहीँ ‘मोने’ कहलाते, शादियों भी आपस में साधारण बात मानी जाती थी. खुद दादी, जो ‘हिन्दू’ थी, का विवाह सिख परिवार में हुआ था)

स्वतंत्र भारत में उस साँझेपन को ‘प्रधानमंत्री’ की हत्या से जोड़कर ‘राज्य’ के सुनियोजित और सुसंगाठित हस्तक्षेप से तोड़ा गया. यह नरंसहार इतने सुनियोजित तरीके हुआ कि केवल दिल्ली में ही ३००० सिख और पूरे देश में लगभग ५००० सिखों को मार ड़ाला गया था. (अलग-अलग रिपोर्टों के मुताबिक)

“देखते देखते ही ट्रकों के ट्रको अजीब सी भीड. को उतार कर चले गए. कोई अनदेखा हाथ उन्हें मिटी के तेल के डिब्बे, सरीए और लाठी थमा गए. वह हुडदंगी भीड़ सामने की कोठी में से जो भी सामान मिला लूट लूट कर ला रही थी. हाथों में बरबादी और मौत का सामान लिए आदम बू, आदम बू करती भीड़ पागल सांडों कि तरह घुम रही थी जैसे ही शिकार सामने आता उसके सिर पर सरियों और लाठियों से पहले उसको जख्मी करती फिर उस पर मिट्टी का तेल डाल लाग लगा खुशी से किलकारियाँ मारती जैसे ...क्रिकेट का मैच जीत लिया हो या किसी की पतंग काट ली हो या...फिरंगी का यूनियन–जैक उतार कर अपना तिरंगा लहराने में कामयाबी पा ली हो.” [vii]
इस जनसंहार में दंगाई कब ‘देश’ के रूप में और एक प्रधानमंत्री देश की ‘माँ’ के रूपक में बदल गई, पता ही नहीँ चला. जब भी दंगाई किसी सिख को मारने के लिए, टायर या पाउडर डाल के जलाने के लिए घेरते, तो उनका पहला वाक्य होता “तुमने देश की माँ को मारा है तुम्हें जिंदा रहने का कोई अधिकार नहीं है.‘ इन मरने वालोँ में स्वतंत्रता सेनानी और फौजी भी थे जिन्होंने दँगाईयों के देश के लिए लाठी और सरहद पर गोली भी खाई थी.

“मैँ बार –बार वही पहुँच जाती हूँ वहीं, जहाँ जमुना बाजार के पास रिंग रोड़ पर बस चालक ने दारजी को उतार दिया था, आगे होता दंगा भाँपकर. दारजी उतरे ही थे कि जाने कहाँ से भिड़ों के छत्ते की तरह दंगाई उन पर टूट पड़े थे. हाथोँ में बांस और लाठियाँ लिए. किसी ने उनकी जेब नहीँ टटोली, पैसे नहीँ छीने, घड़ी नहीँ ली. बस उन्हें पीट-पीट कर मुर्दा करके वहाँ डाल गए. मालूम नहीँ, वह कितनी देर वहाँ पड़े रहे, रिंग रोड के किनारे.” [viii]

देश की माँ की हत्या का बदला हजारों सिखों से लिया जा चुका था. इस सारी दहशत के बाद औरतें बची दोहरा दुख भोगने के लिए. पति और बच्चे तो आँख के सामने खत्म हो चुके थे. लेकिन इसके बाद भी कहर नहीँ थमा-  

सुबह आँखों के सामने अपने पति और परिवार के दस आदमियों को दंगाइयों के हाथों कटते-मरते देखा था और अब रात को यहीँ कमीने हमारी इज्जत लूटने आ गए थे”.
यह कहते हुए भागी कौर के अंदर मानो ज्वालामुखी धधकने लगता है.

“दरिंदोँ ने सभी औरतों को नंगा कर दिया था. हम मजबूर, असहाय औरतों के साथ कितनों ने बलात्कार किया याद नहीँ. मैँ बेहोश हो चुकी थी.... इन कमीनों ने किसी औरत को पूरी रात कपड़ा पहनने नहीँ दिया.“  [ix]

कुछ ऐसे ही हालात देखते हुए गगन गिल की माता जी को सन सैंतालीस में जलंधर में स्तन कटी औरतों का जलूस याद आता है और वह एक हाथ में तलवार ले अपनी बेटियोँ से माफी मांगती हैँ –

“सारा समय माँ हम चारों बहनों को एक-एक करके देखती रही जब काफी देर वे लोग दूसरी मंजिल से नीचे नहीं गए, तो उन्होंने खुद को मजबूत किया. हाथ जोड़ते हुए कहा, ‘मेरी बच्चियों, अगर मुझे तुम्हें मारना पड़ा, तो मुझे माफ़ कर देना. मैनें सन् सैंतालीस में देखा था, औरतों के साथ क्या होता है....” [x]

दादी भी कहती है ‘दंगा किसी भी कौम में हो भोगना तो औरतों को ही होना पड़ता है. दंगे में भी, दंगे के बाद भी. इतना कहते ही वह पाकिस्तान में छूट गई अपनी भतीजी को आज भी याद कर रोने लगती है. दादी नहीँ जानती उसकी भतीजी आज़ादी के सत्तर साल बाद आज जीवित भी है या नहीँ. पर उसे लगता है, अगर बच कर हिन्दुस्तान आई होती तो चौरासी में न जाने उसका क्या हश्र होता. क्योंकि राष्ट्रवाद या देशभक्ति की इबारतें ज्यादातर औरतों के जिस्म पर ही लिखी जाती हैं. अमृता प्रीतम के लाख पुकारने पर भी कोई ‘वारिसशाह इनके दर्द को देख कब्र से कभी नहीँ उठता’ [xi].

गुरूद्वारों मे आग लगा, लोगों को जिंदा जला, औरतों से बलात्कार कर कामयाबी का यह तिरंगा लगातार तीन दिनों तक फहराया जाता रहा. अगर कोई कसर बच रही थी तो उसे पूरा करने के लिए गुरूग्रंथ साहिब को जलाने-फाड़ने की होड़ भी देखी जा सकती थी. ऐसी ही किसी होड़ को देख दादी फिर सैंतालीस में पहुँच जाती है जब उसके पीछे आ रहे काफिले पर अचानक मुसलमानों ने हमला कर दिया. हमलावरों के हाथों में तलवारें थी. काफिले के कुछ लोगों ने अपने सर पर गुरुग्रंथ साहिब उठाए हुए थे. इन लोगों ने हमलावरों से पवित्र ग्रंथ को नदी में प्रवाहित करने की अनुमति मांगी जो उन्हें मिल गई. यह अलग बात है कि आदिग्रंथ के साथ वे सब भी नदी में कूद पड़े थे. दादी और उनकी देवरानी अपने भाइयों की लाशें वहीं छोड़, सिसकियों को दबाए वहाँ से आगे चल दीं जहाँ चूहेवाली (अब पाकिस्तान में) में उन्हें एक मुसलमान ने पनाह दी. 

दादी लगातार चौरासी में सैंतालीस को खोजती नज़र आती. ‘सैंतालीस से चौरासी तक ने गुरूग्रंथसाहिब को भी प्रधानमंत्री का इतना हत्यारा बना दिया कि पवित्र ग्रंथों की विरासत संभालने वाले ‘मोने’ तक भी इस वहशीपन से घबरा उठे’. ‘झुटपुटा’ कहानी के ‘मोने’ चौधरी साहब को जब लोग उलाहना देते है कि लूट-पाट मची थी और आगजनी में वह कहीँ नज़र नहीँ आये तो उनका जबाव था-

“मेरे घर में दरबार साहिब रखा है ना. एक कमरे में हमने छोटा –सा गुरूद्वारा बनाया हुआ है ना, साईं. अब किसी बदमाश को पता चल जाता तो मेरे घर को ही आग लगा देता. अब अपना ही कोई आदमी उन गुंडों को बता देता कि इधर दरबार साहिब रखा है, तो वे मेरे घर को ही आग लगा देते. हम हिन्दू तो एक-दूसरे को काटते हैँ ना. [xii]

दरअसल 1984भारतीय लोकतंत्र का वह हादसा है जिसने आज प्रबल हो चुकी हिंसक और उद्धत हिन्दूवादी मानसिकता जो सैंतालीस में शैशवावस्था में थी, को रचने और गढ़ने का काम किया. आज़ादी के सैंतीस साल बाद दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र एक हिन्दू राष्ट्र में रूपान्तरित हो रहा था.  एक एक ऐसा राष्ट्र जिसमें सिख या अल्पसंख्यक  इस देश के समान नागरिक नहीँ  बल्कि ‘आतंकवादी या गद्दार’ थे.  

तब प्रधानमंत्री की हत्या की प्रतिक्रिया से लेकर,सिखों के आतंकवादी और गद्दार होने के न जाने कितने नैरेटिव गढ़ दिए गए थे. यहाँ तक कि फैली हुई हिंसा के बीच सिखों के प्रति सहानुभूति कम करने के लिए अनेक तरह की अफवाहों ने भी अपना काम किया- ‘सिखों ने भी तो पंजाब में हिन्दुओं को मारा है,  ‘सिखों ने पानी में जहर मिला दिया है’, ‘सिख रेजीमेंट ने बगावत कर दी है’ या फिर ‘पंजाब से हिन्दुओं को मार कर गाड़ी भर कर भेजा जा रहा हैँ’. ठीक वैसे ही जैसे सन सैंतालीस में सरहद के दोनों तरफ सर कटी लाशों का हजूम लेकर गाड़ी आने की अफवाह फैली और इन अफवाहों ने हिंसा को बढ़ाने के साथ जायज ठहराने के तर्क भी तलाश लिए. चौरासी में भी ऐसी ही अफवाहों( प्रधानमंत्री की मौत पर सरदारों ने मिठाईयाँ बांटी आदि)  द्वारा हिंसा को उचित ठहराया गया. 



किसी समुदाय के प्रति नफ़रत फैला कर उनका जनसंहार कराने के इस प्रयोग को आज़ाद और लोकतांत्रिक भारत में पहली बार सफलता पूर्वक अंजाम दिया गया.  बाद में यह प्रयोग और खुले तौर पर २००२ में दोहराया गया. आज तो अफ़वाहों का उत्पादन एक छोटे-मोटे उद्योग के रूप में ‘पोस्ट-ट्रुथ’ की शक्ल में हमारे दौर का एक लक्षण बन चुका है. 

इस मानसिकता को गढ़ने में तब की पुलिस प्रशासन, मीडिया, विपक्ष सब ने न सिर्फ़ अहम भूमिका निभाई बल्कि उनके भीतर का साम्प्रदायिक चरित्र, भी पूरी तरह से उभर कर सामने आया. इस संहार के बाद जब 

“पहली बार संसद बैठी तो पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की मृत्यु पर तो शोक-प्रस्ताव आया, पर देश में मारे गए ५००० निर्दोष सिखों के बारे में एक लफ़्ज़ तक नहीं बोला गया था. सत्ता-पक्ष तो मौन रहा ही, उस वक़्त विपक्ष ने भी अपनी जुबान सिल ली थी.” [xiii]  

तब के विपक्ष में वामपंथी पार्टियों के अलावा भारतीय जनता पार्टी भी शामिल थी. र एसएस के पूर्वप्रमुख नानाजी देशमुख ने भी ‘प्रतिपक्ष’ पत्रिका में दिए गए अपने तात्कालिक संदेश में इन दंगों को इंदिरा गाँधी की हत्या के साथ-साथ सिख आतंकवाद  से उभरी सहज प्रतिक्रिया ही बताया.[xiv]अगर उस समय सत्ता का यह साम्प्रदायिक चरित्र नहीँ उभरता तो शायद उसके बाद 1991-92 और बाद में 2002भी नहीँ होता. इन सब की नींव चौरासी ही बना. नानावती आयोग में आए हलफनामों और साहित्य के आत्मकथनों में पुलिस और मीडिया की भूमिका को देखा जा सकता है. दादी को याद आता है जब सैंतालीस में  लायलपुर स्टेशन (अब पाकिस्तान में) पर मालगाड़ी में बैठे काफिले के लोग गाड़ी चलने की उडीक(इन्तज़ार) कर रहे थे तभी मुस्लिम हमलावरों ने धावा बोल दिया लेकिन उस समय गोरखा रेजीमेंट के सैनिकों ने पहुँच कर न सिर्फ़ सभी को बचाया बल्कि गाड़ी को सही सलामत अमृतसर तक भी पहुँचाया. लेकिन आज चौरासी मे तो पुलिस स्वयं दंगाइयों का रोल अदा कर रही थी. पुलिस के भीतर का साम्प्रदायिक चरित्र इस समय साफ़ तौर पर उभर कर सामने आया था. बाद में हाशिमपुरा, गुजरात दंगों आदि में पुलिस के इस चरित्र को साफ़ तौर पर देखा जा सकता है. 

“स्थिति को देखते हुए ग्रंथी ने सब सिखों को दोपहर गुरूद्वारे में इकठ्ठे होने को कहा, ताकि हमले की स्थिति में कुछ तो प्रतिरोध किया जा सके. भीड़ ने सात दफा हमला लिया... दोपहर तीन बजे के क़रीब पुलिस मौक़ा-ए-वारदात पर पंहुची. सिखों को लगा कि लम्बे समय से जो संघर्ष चल रहा है वह खत्म हुआ. ...पुलिस ने आते ही इस तरह के तेवर भी दिखाए. सिखों से कहा सभी गुरूद्वारे के अन्दर एक कोने में चले जाओं... सिख पुलिस पर भरोसा कर अन्दर चले गए. लेकिन उनकी आंखे तब खुली की खुली रह गई, जब दंगों को नियंत्रित करने के लिए आए रिज़र्व पुलिस बल ने गुरूद्वारे पर उसी तरफ गोलियां चलानी शुरू कर दी , जिस तरफ सिखों को इकठ्ठा किया गया था....” [xv]

यहाँ तक की दूरदर्शन तक  हिंसक वक्तव्यों के प्रचार प्रसार में लगा हुआ था. बार बार कैमरे का फोकस ‘खून बदला खून’ या ‘सरदारों ने देश की मां को मारा है खून के छींटे उनके घरों तक भी जाने चाहिए’ जैसे नारों को बार बार दिखा रहा था. दादी की पोती को अच्छी तरह याद है कि यह वही समय था जब रविवार सुबह दूरदर्शन पर सिंह-बन्धुओं की आवाज में ‘कोई बोले राम-राम... ‘शब्द  से सुबह की शुरूआत होती थी. उसी दूरदर्शन का साम्प्रदायिक राष्ट्रवादी चरित्र उभर रहा था. यह इस मामले में अनोखा नरसंहार था जिसमें भीड़ का नेतृत्व समाज के सम्मानित नेता कर रहे थे. इन नेताओं का दबदबा इतना था कि अस्पतालों तक ने जले लोगों या घायल सरदारों का इलाज करने से मना कर दिया था. पंजाबी में कहावत है “नहूवाँ नालों मास कदी अलग हो सकता है?” (नाखूनों से भला कभी मांस अलग हो सकता है) लेकिन चौरासी ने मांस को नोच-नोच कर अलग कर दिया.

“तभी कुछ लोग दुकान के अन्दर से एक अलमारी को घसीट कर सड़क के बीचोबीच ले आये और देखते-ही-देखते धू-धू करती आग के शोले उसमें से निकलने लगे... मानो लोहड़ी जलायी गयी हो. साइन बोर्ड तोड़ने वाला अभी छड़ से अलमारी को पीट रहा था.
“दुकान सरदार की है मगर घर तो हिन्दू का है.” तमाशबीनों में से एक आदमी बोला, “इसलिए अलमारी बाहर खींच लाए हैँ.”
इस पर एक और आदमी ने टिप्पणी की, “इधर पीछे ड्राई क्लीनर की दुकान को आग  नहीँ लगाई.”
“क्यों?”
“क्योंकि उसमें एक हिन्दू और एक सिख दोनों भाई वाल हैँ.”...
“पीछे मोतीनगर में ड्राईक्लीनर की एक दुकान किसी सिख-सरदार की है. उसे जलाने गए तो किसी ने पुकार कर कहा, ‘ओ कम्बख्तों, दुकान सिख की है पर उसमें कपड़े तो हिन्दुओं के ही हैँ. इस पर इसे भी छोड़ दिया गया.“ [xvi]

भीष्म साहनी की कहानी ‘झुटपुटे’ का पात्र चौरासी के समय ही यह भविष्यवाणी कर देता है कि चौरासी के नौसिखिए दंगाई जब पैरों के बल खड़े हो जाएंगे तो क्या कहर बरपेगा.

“अभी शुरूआत है, साईं, अभी शुरूआत है. जब सीख जायेंगे तो ऐसी ग़लतियाँ नहीँ करेंगे- हम लोग अभी नौसिखुआ हैं ना, इसलिए. जब सीख जाएँगे तब तुम देखना. दूर से ही एक -दूसरे को देखकर रोंगटे खड़े हो जाया करेंगे. अभी तो बच्चा पैरों के बल खड़े होना सीख रहा है.... [xvii]

यह नौसिखिया दंगाई मानसिकता १९९२ और २००२ में पूरी तरह से वयस्क हो चुकी थी. इसलिए चौरासी से अधिक सुनियोजित ढ़ंग से २००२ की घटना हुई.दंगाई मानसिकता २००२ तक आते आते पूरी तरह अपने चरम पर पंहुच गई. इतनी चरम पर कि धर्म व मज़हब के नाम पर जिन की देह पर अक्सर दंगाई अपनी विजय-पताका लहराया करते थे, वे औरतें भी लूटपाट और हिंसा का हिस्सा बनने लगीँ. उन्नीस सौ सैंतालीस में सारी हिंसा के बावजूद उस पर लिखे साहित्य में कई प्रेम-कहानियाँ मिलती हैं. लेकिन चौरासी पर लिखे साहित्य में मानवीयता के कई लम्हे आते हैं पर प्रेम-कहानी जैसी कृतियाँ लगभग अनुपस्थित हैं. यह एक हैरत की बात है. शायद प्रेम कहानियों की दुनिया को नफरतों की आंधियों ने चौरासी और दो हजार दो तक आते-आते उड़ा दिया. बल्कि मानवीय संवेदना की नियति यहाँ तक आ पहुँची कि अध्यापक भी हिन्दू और सिखों में तब्दील हो गए.

“१६-१७ साल मैंने कॉलेज और विश्वविद्यालय में हिन्दी पढ़ाई थी. मेरे ज्यादातर विद्यार्थी हिन्दू थे और वे मेरे उनके प्रति और हिन्दू संस्कृति के प्रति प्यार को जानते थे जानते ही नहीं, बल्कि उन्हें इस संबंध में दृढ़ विश्वास भी था. पर मुसीबत के वक्त मेरे पास कोई नहीँ था ” [xviii]

स्मृतियों का विभाजन राष्ट्र की चेतना के विभाजन में बदल चुका था. दिल्ली जैसे शहर में हरभजन सिंह ने कभी सोचा नहीं था कि वे एक अलग समुदाय का हिस्सा हैँ, लेकिन चौरासी के हादसे ने उन जैसों न जाने कितनों को एक नये प्रकार के अल्पसंख्यक, असुरक्षित समुदाय के रूप में उभार दिया था. लेकिन इंसानियत का जज्बा इस विभाजित राष्ट्रवादी चेतना से कहीं बड़ा है. इसीलिए अपने घर से  बेदखल होने से पहले  वह घर में दिया जला कर रखा चाहता है ताकि  जो कोई भी इस घर पर कब्जा कर रहने आए वह घर में इंसानियत को रोशन पाए.

उजड़ चुक्का है घर भावें नथावाँ कोई बस जाऊ
उदी ख़ातर ही जाँदी बार इक दीवा जगा चलिए.
..................................................................
असाडे क़ातलाँ ने ताँ परेवाँ (प्रेतों) संग वसणा है
बड़ा गाहिरा इन्हाँ दा दुख, न दे के बददुआ चलिए [xix]

इन्सानियत के इसी रिश्ते के कारण भुक्त-भोगियों की स्मृति में सिर्फ़ यातनाओं और दंगाइयों के बिम्ब ही नहीँ मौजूद रहते बल्कि उन लोगों के भी बिम्ब दर्ज रहते हैं जिन्होंने अपनी जान दे कर भी लोगों की जान बचाई. दादी को लाहौर के पास के गाँव का वह मुसलमान आज भी याद है जिसने पूरी रात उसे व उसके बच्चों को पनाह दी. चौरासी वालों को वो पुलिस वाला याद है जिसने सीसगंज गुरूद्वारे में फँसे हजारों सिखों को अपनी नौकरी की परवाह किए बिना बचाया या इस तरह के अनेक अन्य गुमनाम लोग जो स्वयं खत्म हो इन्सानियत के जज्बे को जिंदा रख गए. साहित्य भी इसी जज्बे से चलता है.

कहते हैँ स्मृतियों का पीड़ा से बड़ा गहरा रिश्ता होता है. एक स्मृति न जाने कितनी अन्य स्मृतियों से जुड़ जाती है. भीष्म साहनी भिवंडी के दंगा पीडितों के बीच जाते हैं तो उन्हें उन्नीस सौ सैंतालीस याद आता है. दादी चौरासी देखती हैं तो उन्हें सैंतालीस याद आता है. हम २००२ सुनते हैं तो चौरासी याद आता है. चौरासी के डर और यातना के ऐसे ही क्षणों में खुशवंत सिंह भिवंडी जलगाँव आदि के दंगा पीड़ितो के साथ दर्द का सांझापन महसूस करते हैँ  “मैं अपनी बारी का इंतजार कर रहा था. मुझे लग रहा था कि निशाने के लिए बंद तीतरों में से मैं भी एक तीतर था जो ढक्कन के खुलने और अपने निशाना बनने का इंतजार कर रहा था. ज़िदगी में पहली बार मैंने अनुभव किया कि नाज़ी जर्मनी में यहूदियों को कैसा लगता होगा और भिवंडी, जलगांव, मुरादाबाद, राँची और अन्य जगहों में जब दंगे हुए थे, तो मुसलमानों पर क्या गुजरी होगी. जीवन में पहली बार मुझे मालूम हुआ कि पूर्वआयोजित हत्याकांड, अग्निहांड, जाति-संहार आदि शब्दों के असली मायने क्या होते हैं.“ [xx]

दरअसल स्मृतियों का ताना बाना कुछ ऐसा ही होता है. एक से दूसरी स्मृति जुड़ती जाती है और दर्द की पूरी एक शृंखला बना देती है. इसीलिए दादी विभाजन के इतने सालों बाद भी बार-बार सैंतालीस हो जाती है. लेकिन हाँ दादी को सैंतालीस को लेकर उतना गिला शिकवा नहीँ है जितना उसके परिवार को चौरासी को लेकर है. चौरासी उनकी व्यक्तिगत ही नहीँ सामुदायिक स्मृति का हिस्सा है लेकिन सवाल है कि यह राष्ट्र की सामूहिक स्मृति का हिस्सा बन पाया है या नहीँ. सामूहिक स्मृतियाँ कैसे बनती हैं यह खुशवंत सिंह के इस कथन में देखा जा सकता है जहाँ उनकी व्यक्तिगत चौरासी की यातना उन्हें यातना के शिकार भिन्न देशकाल की यातनाओं से जोड़ देती है. उनकी व्यक्तिगत यातना सामूहिक यातना में तबदील हो जाती है. क्या कभी सैंतालीस या चौरासी की स्मृतियाँ पूरे राष्ट्र की सामूहिक संवेदना का हिस्सा उसी प्रकार बन पाएँगीं कि राष्ट्र का हर व्यक्ति उस दर्द से दो-चार हो सके जिस दर्द से चौरासी के शिकार गुजरे हैं. आज जो कुछ हो रहा है उसमें ऐसा होता दिखता तो नहीं है. कहीं विभाजन के सत्तर सालों में राष्ट्र की स्मृति या संवेदना विभाजित तो नहीं हो गई है. यदि हाँ, तो सवाल यह उठता है कि इस संवेदना के और कितने विभाजन होंगे.  


[i]  व्यक्तिगत स्मृति
[ii] स्वदेश दीपक- कहानी रफूजी 
[iii] वही
[iv] हरभजन सिंह (ले०) - उन्नीस सौ चौरासी, पृष्ठ121, सम्पादन–संकलन, अमरजीत चंदन, पृष्ठ , चेतना प्रकाशन, लुधियाना 2017
[v]  .खुशवन्त सिंह, मेरा लहूलुहान पंजाब,(अनु० उषा महाजन) पृष्ठ -101, राजकमल प्रकाशन, 1993
[vi] बी.बी.सी पर दिया साक्षात्कार https://www.bbc.com/hindi/india/.../130411_sikh_riots_mohan_vk
[vii] राजिन्दर कौर-कहानी, हुण रोटी खाणी सोखी हो गई सी, पृष्ठ 157 , संकलन सम्पादन जिन्दर – 1984 दा संताप, संगम प्रकाशन, समाना 2014
[viii] गगन गिल – इत्यादि, लोकमत पत्रिका
[ix] जरनैल सिंह, कब कटेगी चौरासी, पृ० 27 ,पेंग्विन बुक इंडिया, यात्रा बुक्स, 2009
[x] गगन गिल --इत्यादि, लोकमत पत्रिका
[xi] देखें विभाजन पर लिखी अमृता प्रीतम की कविता- अज आखाँ वारिश शाह नूँ--
[xii] भीष्म साहनी- कहानी झुटपुटा, पृष्ठ 23
[xiii] जरनैल सिंह, कब कटेगी चौरासी, पृ० 117 ,पेंग्विन बुक इंडिया, यात्रा बुक्स, 2009
[xiv] संपादक -जॉर्ज फर्नांडिज़ प्रतिपक्ष, 25 नवंबर 1984 ,
[xv] जरनैल सिंह, कब कटेगी चौरासी, पृ० 82 ,पेंग्विन बुक इंडिया, यात्रा बुक्स, 2009
[xvi] भीष्म साहनी- कहानी झुटपुटा, पृष्ठ 19-20
[xvii] वही पृष्ठ 24
[xviii] हरभजन सिंह (ले०) - उन्नीस सौ चौरासी, सम्पादन, पृष्ठ 121–संकलन, अमरजीत चंदन, चेतना प्रकाशन, लुधियाना 2017
[xix] वही
[xx] खुशवन्त सिंह- मेरा लहूलुहान पंजाब, पृष्ठ-99, राजकमल प्रकाशन, 1993

·   इनके अतिरिक्त नानवाती आयोग की रिपोर्ट का इस्तेमाल किया गया।
·   जहाँ कहीं भी अनुवाद हैं वह स्वंय लेख के लेखक द्वारा ही किए गए हैं।

(आलोचना पत्रिका से आभार सहित)
_______________________


बलवन्त कौर
251, भाई परमानन्द कॉलोनी
दिल्ली -110009
9868892723

भाष्य : प्रभात की कविता : सदाशिव श्रोत्रिय

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प्रभात की कविताओं पर लिखते हुए अरुण कमल ने माना है कि ‘यह हिंदी कविता की उंचाई भी है और भविष्य भी’. उनका संग्रह ‘अपनों में नहीं रह पाने का गीत’ साहित्य अकादेमी ने २०१४ में प्रकाशित किया था.

प्रभात की  कविताओं का अर्थ संधान करती हुई, अलक्षित सौन्दर्य को इंगित करती हुई सदाशिव श्रोत्रिय की यह टिप्पणी ख़ास आपके लिए.




प्रभा  त   की   कवि  ता                                                                      
सदाशिव श्रोत्रिय







प्रभात की खासियत मैं इस बात में मानता हूं कि किसी विषय के सम्बंध में जिस विशिष्ट भाव को यह कवि अपने मन में महसूस करता है उस भाव को अपने पाठकों तक सम्प्रेषित करने का कोई अनूठा ही तरीका वह निकाल लेता है. उनकी काव्य-सृजन की यह प्रक्रिया मुझे बहुत कुछ स्वप्न-सृजन सी लगती है जिसमें चेतन मन की भूमिका लगभग नहीं के बराबर होती है. किसी  स्वप्न से जगने के बाद जैसे हम कई बार अपने आप को  वियोग, पश्चाताप,उद्विग्नता या अन्य किसी भाव से घिरा पाते हैं उसी तरह प्रभात की कविता पढ़ने के बाद हम जैसे उसके संवेदनात्मक काव्य- अनुभव में सह्भागी हो जाते हैं.

प्रभात अपना यह काम किसी सामाजिक-राजनीतिक स्थिति पर किसी सीधी टिप्पणी से बचते हुए करते हैं. वे कविता को स्वयं बोलने देते हैं और यदि पाठक में उनकी कही बात को सुनने की क्षमता हुई तो कविता के माध्यम से भाव-सम्प्रेषण का उनका अभीष्ट कार्य पूरा हो जाता है.

सदानीरा में प्रकाशित उनकी एक कविता अटके काम  के उदाहरण से मैं अपनी बात  आगे बढ़ाना चाहूंगा. कविता यूं है :

पतंगें अटकी हुई भी सुंदर लगती हैं
उन्हें उड़ने से कितनी देर रोका जा सकता है
आते ही होंगे लकड़ियों के लग्गे लिए लड़के
उतार लेंगे हर अटकी हुई पतंग
फड़फड़ाते हुए फट ही क्यों न जाए
कहीं अटकी हुई पतंग
इस बात को कौन मिटा सकता है भला
कि जब तक अटकी हुई दिखती रही
बच्चे उसे पाने की इच्छा करते रहे

कविता को पढ़ते हुए जो तस्वीर मेरे मन में उभरती है वह पतंगों की न होकर सुन्दर और युवा लड़कियों की है. मुझे लगता है  हमारे समाज में इन लड़कियों की स्थिति को यह कविता बखूबी चित्रित करती है. लड़कियां स्वतंत्र और उन्मुक्त न हों तब भी युवावस्था में उन्हें सुन्दर और आकर्षक लगने से भला कौन रोक सकता है ? अपने घरों और स्कूलों की कैद में भी वे उन्हें देखने वालों को आकर्षित तो करती ही हैं. युवावस्था में अपने हाव-भावों से, अपनी अदाओं से, अपनी मुस्कराहटों से वे सबको रिझाती  हैं. यह सब करते हुए वे शायद इस बात का भी कुछ आभास कराती हैं कि उन्हें बहुत समय तक कैद करके नहीं रखा जा सकता.

समाज के जिन लड़कों के हाथ में लग्गे हैं, अर्थात जो पद-प्रतिष्ठा-धन-बल आदि से सम्पन्न हैं, वे एक न एक दिन इन अटकी हुई पतंगों को उतार कर ( अर्थात उन्हें ब्याह कर) ले ही जाएंगे. इस बीच यह भी सम्भव है कि इनमें से कोई पतंग बहुत फड़फड़ा कर अपने आपको इस क़ैद से मुक्त करने की कोशिश करे और इस संघर्ष में कदाचित फट ही जाए. पर यह एक अस्तित्ववादी यथार्थ है कि जब तक वे अटकी हुई दिखती रहेंगी बच्चे बराबर उन्हें पाने की इच्छा करते रहेंगे.

वस्तुत: पतंगों का यह सामाजिक अर्थ ही प्रभात की इस कविता को कविता बनाता है. पाठक के मन में नारी-स्वातंत्र्य सम्बन्धी किसी विचार का अभाव इस कविता को समझने के लिए आवश्यक अर्हता का अभाव बन जाएगा  और तब यह कविता इसके पाठक को कोई कविता ही नहीं लगेगी.

हमारे समय के बहुत से मसले, बहुत से व्यक्ति और बहुत सी घटनाएं  मिल कर इस कवि से  किसी ऐसी कविता की रचना करवा सकते हैं जिसमें उन सभी का समावेश हो जाए किंतु जिसमें कवि फिर भी सीधे सीधे कोई बयान देता दिखाई न पड़े.पहल-115 में प्रकाशित प्रभात की  क्रिकेट और साइकिल  को मैं एक  ऐसी ही कविता पाता हूं. इस कविता को पढ़ कर लगता है कि इसे लिखते समय कवि के मन में धर्मनिरपेक्षता, यौन-समता, पड़ोसी राष्ट्र के प्रति प्रेम और  सद् व्यवहार, (पहले प्रसिद्ध क्रिकेट खिलाड़ी और अब  अन्य राजनीतिक गतिविधि में संलग्न) इमरान खान, हिन्दू राष्ट्रवाद आदि अनेक बातें मन में आती रही होंगी. इन तमाम चीज़ों के बारे में अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करने के लिए कवि एक विशिष्ट बिम्ब-विधान् और घटना-क्रम खोज निकालता  है. वह यहां हमें जनकपुरी नामक  एक हिन्दू-मुस्लिम कॉलोनी (जिसका नाम पहले ईदगाह कॉलोनी था) में बच्चों को क्रिकेट खेलते दिखाता है. कवि के मन का अक्स हमें इस कविता में दिखाई देता है क्योंकि ये बच्चे खेल को पूरी तरह खेल की भावना से खेल रहे हैं. उनमें पारस्परिक ईर्ष्या या प्रतिस्पर्धा की कोई भावना नहीं है. (पाठक के मन में यहां भारत-पकिस्तान के बीच कटुता के साथ  खेले जाने वाले मैचों की बात आए बिना नहीं रहेगी).

पड़ोसी देशों के बीच आदर्श सम्बन्धों की कवि की कल्पना इस कविता में बड़ी सहजता से प्रवेश कर जाती है. इन बच्चों में से कुछ के नाम (यक्ष-नील-नल-गयंद ) शायद जानबूझ कर शुद्धत: हिन्दुत्वादी रखे गए हैं. मुस्लिम लड़के का नाम मामिर भी शायद एक  शुद्ध मुस्लिम नाम  है. पर खेलते समय  इन बच्चों को अपने हिन्दू या मुस्लिम होने का ज़रा भी बोध नहीं है. खेल के मैदान पर ही  सम्भव इस खेल की भावना को कवि हिन्दू-मुस्लिम सम्बन्धों के आदर्श के रूप में देखता है और इसीलिए वह उसे अपनी इस कविता में चित्रित करता है :

जनकपुरी में बच्चे क्रिकेट खेल रहे हैं
मामिर साइकिल चला रहा है

गोलू बैटिंग कर रहा है
बिट्टू बॉलिंग कर रहा है
यक्ष नील नल गयंद फील्डिंग कर रहे हैं 
क्रिकेट में बड़ा मज़ा आ रहा है
मामिर  साईकिल चला रहा है

पर ये हिन्दू बच्चे बड़े सहज भाव से इस मुस्लिम बच्चे के क्रिकेट कौशल को स्वीकार करते हैं और उससे इस कौशल-प्रदर्शन का आग्रह करते हैं :

निशा  के भाई राकेश ने
साइकिल घुमाते मामिर से कहा
‘अब्बू जी  खेल ले यार ’
‘खेलूंगा’
साइकिल एक तरफ खड़ी करते मामिर ने कहा

ओए बिट्टू तुझसे कब से गोलू के गिल्ले नहीं उड़ रहे
ये ओवर अब्बू जी को करने दे
( अब्बू जी यानी मामिर )


अब्बू जी की पहली ही बॉल पर छक्का पड़ा
दूसरी पर चौका
तीसरी पर दो रन
चौथी में गोलू क्लीन बॉल्ड हो गया
क्रिकेट में रोमांच बढ़ गया

यौन – समता के मुद्दे को भी यह कवि किसी न किसी रूप में इस कविता में ले आता है. अपनी साइकिल पर हाथ आजमाते देख मामिर सहज भाव से निशा से कहता है :

घुमा ले , घुमा ले ’ , .............
क्या चलानी नहीं  आ रही है  ?

कुछ देर बाद सांझ हो जाने पर जब बच्चों के घर से उन्हें बुलाने की आवाज़ें आने लगती है , तब मामिर के पिता का जो चित्रण यह कवि करता है ,वह भी हमें  अनूठा लगता है :

पायजामे के अन्दर दबी बनियान में
लम्बी काली दाढ़ी में चमकता गौरवर्ण चेहरा
गली के छोर पर खड़ा था

हम देखते हैं कि अवसर मिलने पर अपनी कविता को अलंकारिक बनाने के लिए यह कवि ‘निशा’ जैसे किसी शब्द में निहित श्लेष का भी काव्यात्मक उपयोग कर लेता है :

............मामिर
जनकपुरी में  अपने अकेले आशियाने  की तरफ़ बढ़ रहा था
बाकी सब भी अपने-अपने घरों की तरफ़
निशा  भी

राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी की दुर्दशा के सम्बन्ध में विचार करते हुए  यह कवि एक ऐसी विवाहिता स्त्री की कल्पना करता है जिसके न्यायपूर्ण स्थान पर किसी दूसरी ही औरत ने कब्ज़ा कर रखा है.

अपने ही घर में हिंदी की हैसियत
एक रखैल की-सी हो गई है
अँग्रेज़ी पटरानी बनी बैठी है
अँग्रेज़ी के बच्चे शासकों के बच्चों की तरह
पाले-पोसे जाते हैं
हिंदी के बच्चों की हैसियत
दासीपुत्रों सरीखी है
अंग्रेज़ी के बच्चे ही वास्तविक बच्चों की तरह देखे जाते हैं
भावी शासकों की तरह
हिंदी के बच्चों को ज़मीनी अनुभवों और योग्यताओं के बावजूद
उनके सामने हमेशा नज़र नीची किए विनम्र बने रहना होता है
हिंदी हाशिए पर धकेल दिए गए अपने बच्चों के साथ
शिविर में रहती है
अँग्रेज़ी राजमहलों में
हिंदी अब थकी-थकी-सी रहती है
उसके अनथक श्रम का कहीं कोई मूल्य नहीं है
उसके बच्चों का भविष्य अंधकार से भरा है

प्रभात ने स्वयं ने हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए बहुत कार्य किया है और इसीलिए वे उस निराशा के भाव को बख़ूबी महसूस कर सकते हैं जो उनके जैसे प्रतिबद्ध हिन्दी लेखकों की तमाम मेहनत के बावजूद इस देश में अंग्रेज़ी के मुक़ाबले हिन्दी के दूसरे नंबर की भाषा बन कर रहने से उत्पन्न होता है. क्या उन  जैसे लेखकों की तमाम कोशिश के बावजूद हिन्दी इस देश में डूब जाएगी ?

हिंदी अब थकी-थकी-सी रहती है
उसके अनथक श्रम का कहीं कोई मूल्य नहीं है
उसके बच्चों का भविष्य अंधकार से भरा है
कुछ है जो भीतर ही भीतर खाए जाता है
आते-जाते हाँफने लगी है
भयभीत-सी रहने लगी है

हिन्दी की इस असहायतापूर्ण और कमज़ोर स्थिति को एक अतिरिक्त संवेदनात्मक आयाम देने के लिए यह कवि इस कविता की अगली पंक्तियों में जो करता है वह दृष्टव्य है :

कल की ही बात है
नींद में ऐसे छटपटा रही थी जैसे कोई उसका गला दबा रहा हो
बच्चे ने जगाया :
माँ ! माँ ! क्या हुआ !
पथरायी आँखों से बच्चे के चेहरे की ओर देखते बोली :
क्या मैं कुछ कह रही थी?
हाँ तुम डर रही थीं !
थकान से निढाल फिर से सो गई
सोते-सोते ही बताया :
बड़ा अजीब-सा सपना था
अँग्रेज़ी ने मुझे पानी में धक्का दे दिया
उसे लगा पानी कम है
वह हालाँकि हँसी-मज़ाक़ ही कर रही थी
लेकिन पानी बहुत गहरा था
मैं डूब रही थी
इतने ही में तुमने मुझे जगा दिया
जाओ सो जाओ
अभी बहुत रात है
बुदबुदाते हुए वह सो गई

वस्तुत: किसी बाह्य  स्थिति का भावनात्मक उल्था जिस काव्य-प्रतिभा की दरकार रखता है  वह हम प्रभात में पाते हैं. यह उल्था ही दरअसल सीधे पाठक के अवचेतन में प्रवेश की वह क्षमता रखता है जो किसी सफल कविता की अपनी विशेषता है.

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बारे में भी वे अपनी बात   निर्विघ्न  शीर्षक कविता में एक विशिष्ट काव्यात्मक अन्दाज़ में रखते हैं.

मैं निर्विघ्न खाना खा रहा हूँ
तो यह यूँ ही नहीं है
यह एक ऐतिहासिक बात है
ऐसा न हो कि मेरे बाबा की तरह
मेरे मुँह से भी कोई कारिंदा रोटी का कौर छीनने आ जाए



अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हासिल करने के लिए गांधी,नेहरू,अम्बेडकर,ज्योतिबा, सावित्री बाई और नानाभाई,सेंगाभाई जैसे अनेक जाने-अनजाने लोगों ने लम्बे समय तक संघर्ष किया तब कहीं जाकर वह हमें नसीब हुई है. धर्मान्धता के मुद्दे पर टिप्पणी  के लिए भी यह कवि काव्य-रचना के इस मौके का सार्थक इस्तेमाल करने में नहीं चूकता जब वह कहता है कि :

मैं जीवन का जितना भी हिस्सा
निर्विघ्न जी सका
उसके पीछे निर्विघ्नं कुरू मे देव
सर्व कार्येषु सर्वदा
जैसा कोई श्लोक नहीं
लोकशाही के लिए संघर्ष करने वालों का
सुदीर्घ इतिहास रहा
_______________________________ 
सदाशिव श्रोत्रिय
5/126 ,गोवर्द्धन विलास हाउसिंग बोर्ड कोलोनी,
हिरन मगरी , सेक्टर 14,
उदयपुर -313001  (राजस्थान)

मोबाइल -8290479063 





प्रभात को यहाँ भी पढ़ें. 

विनोद पदरज की कविताएँ

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कोई तो रंग है’ और ‘अगन जल’ संग्रहों के कवि विनोद पदरज (13 फरवरी 1960-सवाई माधोपुर) का तीसरा संग्रह ‘देस’ बोधि प्रकाशन से इसी वर्ष प्रकाशित हुआ है. स्थानीयता को सलीके से बरतने और शिल्प की कसावट के लिए वे जाने जाते हैं. इस संग्रह के लिए उन्हें बधाई.

विनोद पदरज कुछ कविताएँ आपके लिए  



विनोद पदरज की कविताएँ                        









गुलाम मोहम्मद

गुलाम मोहम्मद मेरा दोस्त है
आप कहेंगे यह भी कोई कहने की बात है
ऐसा ही समय है कि यह कहने की बात है
इसी वजह से हत्या होगी मेरी
इसी वजह से मारा जाएगा गुलाम मोहम्मद.





गुलाम मोहम्मद

हमसे हमारे दरख़्त छीन लिए गये थे
और बैठे थे हम
बिजली के नंगे तारों पर
और उड़ा था वो
दाना कहां है, कहां है दाना कहते हुए
और सऊदी चला गया था
और मैं फूट फूट कर रोया था
वही मेरा दोस्त मेरा जिगरी मेरा यार गुलाम मोहम्मद
जिसके साथ मैंने मछली पकड़ना सीखा पतंग उड़ाना
कुओं बावड़ियों में तैरना गमठा लगाना
जिसके साथ मैं जंगलों में घूमा खण्डहरों में
ईद पर दीवाली पर सिंवइंय्या मिठाइयां खाने की
रवायत तो सदियों पुरानी थी
पर मैंने उसके साथ हाईदौस में कटार चमकाई
ताजिये की खपच्चियों पर पन्नियां चिपकाईं
उसने मेरे साथ महीनों रामलीला देखी
जिसके साथ मैं महफूज था स्कूल में कॉलेजमें
वह दबंग लड़कों से मेरे लिए शेर की तरह भिड़ जाता था
वही मेरा दोस्त गुलाम मोहम्मद
कल रात मेरे स्वप्न में आया

मैं कहीं से लौट रहा था
कि झलका पीछे वह विनोद विनोद पुकारता
मेरी सांस फूल गई
कलेजा हलक को
सन्नाटा रीढ़ में
पसीने से नहा गया
शायद उसके पास कोई पिस्तौल हो
या फिर छुरा धारदार
दूर से भी करे वार
तो तड़प कर गिरूंगा
और सारे घर में कोहराम मच जाएगा
दम साध कर भागा
कि पीछे पीछे वह भी विनोद विनोद पुकारता
मैं घर में घुस गया
किवाड़ बन्द कर लिये सिटकनी चढ़ा दी
खिड़की से झांका तो वह द्वार पीट रहा था
बार बारऔर लगातार वह द्वार पीट रहा था विनोद विनोद पुकारता
पर मैंने अंत तक द्वार नहीं खोला
एक बार भी ललक कर गुलाम मोहम्मद नहीं बोला
आखिर थक हारकर लौट गया वह

कौन सा मोड़ है यह गुलाम मोहम्मद
हम जो दुनिया को प्यार करते थे और सोचते थे कि बदल देंगे यह दुनिया,
दुनिया को प्यार करते हुए
कहां चले आये हम गुलाम मोहम्मद
कौन ले आया हमें यहां तक
हमारे पुरखों ने तो सन सैंतालीस का आग का दरिया
साथ साथ पार किया था.

  



भादवे की रात

अंधड़ पानी सांप सळीटों भरी भादवे की रात है यह
चारों तरफ फसलें हैं-मक्का बाजरा
मेंढक टर्रा रहे हैं
मैं राह भूल गया हूँ
दूर कुछ रोशनी दिखाई पड़ती है
गिरता पड़ता भागता ठिठुरता मैं वहां पहुँचता हूँ
जहां एक छान में
एक बूढ़ा और एक बुढ़िया बैठे हैं ब्याळू करके
लालटेन जल रही है
मुझे सामने देखकर बूढ़ा पूछता है-कौन हो
मैं उसे अपनी कथा सुनाता हूँ
सुनकर बूढ़ा कहता है-चौमासे की रात है, फिर डुल जाओगे,यहीं डट जाओ
बुढ़िया कहती है-मैं रोटी सेक देती हूँ खालो और आराम करो
जगह जगह टपकती छान के कोने में चूल्हा है
जिसे वह सुलगाती है
गीली सीली टिंगटियाँ जलाती है
खानाबनाती है
और मुझे पास बिठाकर खिलाती है
बूढ़ा मेरे लिए नई गूदड़ी बिछाता है
फिर हम नींद आने तक बतियाते हैं

सुबह
मुझे चाय पिलाकर बूढ़ा
सही गैल तक छोड़कर जाता है

यह मेरे किशोरावस्था की बात है
जिसे याद कर मैं आजकल ढरक ढरक रोता हूँ





उनकी बातचीत

मेरे पिता बहुत अच्छा रेजा बुनते थे
ओड़ पास गांवों में धूम थी उनकी
हटवाड़े जाते थे तो माल कम पड़ जाता था
किसान तो उसकी खोळ से ही सर्दियां काट देते थे

मेरे पिता बहुत अच्छी जूतियां बनाते थे
चमड़े की बहुत परख थी उनको
और सूत की सिलाई ऐसी
कि जूतियां टूटती ही नहीं थीं
छोड़नी पड़ती थी
पर जिसने एक बार पहन ली बार बार आता था
काटती बिल्कुल नहीं थीं
पांव ऐसे मुलायम रहते थे उनमें कि जैसे मक्खन हों

मेरे पिता बहुत अच्छी छपाई करते थे
एकदम पक्का रंग
कपड़ा फट जाता था पर रंग नहीं जाता था
सावों में तो फुर्सत ही नहीं मिलती थी उनको

मेरे पिता बहुत अच्छी मूर्तियाँ बनाते थे
मुहं बोलती हुईं
कई मंदिरों में हैं उनकी बनाई मूर्तियाँ
सामने जाओ तो हाथ अपने आप जुड़ जाते हैं

मेरे पिता नामी कारीगर थे
खाट और मचल्या और पालना और गुड़ले
पीढ़ी दर पीढ़ी चलते थे
और सग्गड़ और गाड़ियां तो ऐसी
कि दूर दूर से लोग देखने आते थे

मेरे पिता के घड़े मशहूर थे इलाके में
वे छांट कर मिट्टी लाते थे और गूंदते थे आटे की तरह
फिर चाक पर घूमाकर अचक उठाते थे
पकाते थे आवे में
ऐसे घड़े जैसे सारे ही जुड़वां हों
मां उन्हें गेरू और खड़ी से रंगती थी
दो दो गर्मियों तक वापरते थे लोग
मजाल जो पानी ठंडा न रहे

मेरे पिता पत्थरों पर नक्काशी करते थे
कसीदा कारी
कैसे कैसे जालियां झरोखे बनाते थे
कि भीतर वाला तो सब कुछ देख लेता था
पर बाहर वाले को भीतर का कुछ भी नजर नहीं आता था

गर्व से बतियाते हैं दुपहरी करते हुए वे मजूर बेलदार
जिनके पिता सेठ साहूकार नहीं
जिनके पिता पंडित ब्राह्मण नहीं
जिनके पिता ठाकुर जमींदार नहीं





नंदिनी गाय

हमारे घर में एक गाय है
नंदिनी नाम है उसका
हमारे प्राण बसते हैं उसमें

बड़री बड़री आंखें
लटकती गादी
त्वचा इतनी चिकनी कि नजरें नहीं ठहरतीं
थोड़ी शैतान भी है
पत्नी के अलावा किसी को दूध नहीं देती
धार काढ़ते वक्त न्याणा बाँधना पड़ता है

पिछले तीन दिन से वह ताव में है
बस में नहीं आती
खूँटा तुड़ाती है
मैं उसे पास के गांव ले जाना चाहता हूँ
जहां किसी के पास नागौरी वृषभ है
पर कैसे ले जाऊं
जुगाड़ में ले जाऊं तो ख़तरा बहुत है
अखबार भरे पड़े हैं
इससे अच्छा तो यह है
कि दाढ़ी कटा लूं
धोती कुर्ता पहन लूं
रामनामी ओढ़ लूं तिलक लगा लूं
आधार कार्ड रख लूं जेब में
गौशाला के चन्दे की रसीदें
चारों धाम ढोकते खुद की तस्वीरें
तब निकलूं-सड़क के रास्ते
सबसे बतियाता, राम राम करता
रुकता,बीड़ी पीता, कहता
कि ताव में है

फिर भी डर लग रहा है
धुकधुकी हो रही है
रीढ़ सिहर रही है
बार बार बच्चों का खयाल आ रहा है
जबकि जाना आना मात्र एक कोस है
और अपना ही देस है





नतशीश पेड़

जिन पेड़ों पर अंग्रेजों ने किसानों को फांसी पर लटकाया था
अट्ठारह सौ सत्तावन में
वे तने हुए थे
सुतवां मेरुदण्ड, उन्नत भाल
आज वे नतशीश हैं
शर्म में डूबे हुए
लुंज पुंज
उनकी शाखों से कर्ज में डूबे किसान लटके हैं
खुदही फांसी का फंदा बनाकर

अरे ये तो वही लूगड़ियाँ हैं
जिन्हें वे चाव से खरीदकर लाये थे कस्बे के बाजार से
जिन्हें ओढ़कर धराणियां चलती थी तो आंगन के रूप चढ़ता था
पेड़ों को उनके चूड़े फोड़ने की आवाज सुनाई देती है
जो कितनी भिन्न है अठारह सौ सत्तावन से.





गीत

अपनी मैली कुचैली जर्जर लूगड़ियों से लाज किये
सत्तर पार की कुछ वृद्धाएं
गीत गाती थीं
जिनमें स्त्रियों के दुःख ही दुःख थे
जिन्हे सुनते हुए
आंखें भर आती थीं

मैंने उनसे कहा-
सुख के भी कुछ गीत गाओ

अचकचा गईं वे
चुप हो गईं
विचार में पड़ गईं
फिर उन्होंने रुंधे स्वरों में
विवाह के कुछ गीत गाये
भतैयों के कुछ
कुछ जच्चा बच्चा के
और अंत में
देवी देवताओं के.





कृषक

मैं उसकी जर्जर झोंपडी का चित्र बनाना चाहता था
और उसके जीर्ण शीर्ण लत्तों चीरड़ों का
और उसकी जूतियों का
जिनमें यात्राएं नहीं
यातनाएँ भरी थीं
और उसके चेहरे का
जो उसकी झोंपड़ी लत्तों जूतियों का कोलाज था
पर मैंने देखा
मेरा पूरा कैनवास
थिगलियों से भर गया है
जिसमें दो आंखें जल बुझ रही हैं.

_____________________________ 

विनोद पदरज 
3/137, हाउसिंग बोर्ड, सवाई माधोपुर, राजस्थान, 322001
फोन : मोबाइल-9799369958

एक था डॉक्टर एक था संत : विमर्शमूलक विखंडन और उकसावेबाजी के बीच : अरुण माहेश्वरी

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लेखिका और विचारक अरुंधति रॉय की किताब ‘The Doctor and the Saint’ का हिंदी अनुवाद अनिल यादव ‘जयहिंद’ और रतन लाल ने ‘एक था डॉक्टर एक था संत’ शीर्षक से किया है, जिसे राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित किया है.

आलोचक अरुण माहेश्वरी ने इस पुस्तक को पढ़ते हुए रामविलास शर्मा के गाँधी, आम्बेडकर और लोहिया पर उनके चिंतन को भी ध्यान में रखा है. उनका मानना है है कि अरुंधति रॉय इस किताब में  विमर्श से कई बार उकसावेबाजी की ओर फिसल जाती हैं.


विमर्शमूलक विखंडन और उकसावेबाजी के बीच            
अरुण माहेश्वरी



अरुंधति रॉय की किताब 'एक था डाक्टर और एक था संत'लगभग एक सांस में ही पढ़ गया. अरुंधति की गांधी को कठघरे में खड़ा कर उन पर बरसाई गई धाराप्रवाह, एक के बाद एक जोरदार दलीलों की विचारोत्तेजना अपने घेरे से बाहर निकलने ही नहीं दे रही थी. अरुंधति जितना गांधी को ध्वस्त कर रही थी, उतना ही अधिक जैसे हमारे सामने सोच की ज्यादा से ज्यादा बड़ी चुनौती पैदा हो रही थी कि कैसे चुटकी बजाते हुए एक विशाल और बेहद मजबूत समझे जाते रहे महल को कोई इस प्रकार धूलिसात कर रहा है! और, हम लगातार परस्पर-विरोधी बातों के समुच्चय के विभ्रम पर टिके उनकी दलीलों के जादू पर उतने ही अजीब ढंग से सवालों से भी घिरते चले जा रहे थे.

यह सच है कि कोई भी गंभीर विमर्श इसी प्रकार पैदा हुआ करता है, स्थापित प्रतिमा को ध्वस्त करके. यही ज्ञान की क्रियात्मकता है. तंत्र के त्रिक दर्शन की प्रसिद्ध उक्ति है—
“इस प्रकाशात्मा परमेश्वर शिव की सत्ताशिव का अपना वजूद विमर्श है जो इच्छा ज्ञान क्रियात्मक है. अर्थात विमर्श प्रकाश से भिन्न नहीं और प्रकाश विमर्श से भिन्न नहीं, वही ज्ञान की श्रृंखला का कारक है.”
(आचार्य क्षेमराज रचित-पराप्रवेशिका, ईश्वर आश्रम ट्रस्ट, पृ:8)

विमर्श का वह स्वरूप जिसमें ज्ञान को निकाल कर अन्यों को सौंपा जाता है,  कोरी बकवास नहीं होता, लेकिन, वह भी कोई अंतिम सत्य नहीं होता. इस प्रकार का ज्ञान तभी उत्पन्न होता है जब विश्लेषक का ज्ञान विश्लेष्य के तर्क को बिखेर देता है, जिससे किसी विश्लेषण के प्रारंभिक चरणों में ही ज्ञान के इस प्रकार के हस्तांतरण का ढाँचा तैयार हो जाता है. अर्थात्, विमर्श के लिये ज़रूरी है विश्लेष्य के अपने तर्क को पहले बिखेर दिया जाए. विश्लेषण की भूमिका किसी स्थापित राय अथवा ज्ञान कोश से सत्य को अलग देखने की होती है. ज्ञान कोश जगत के सत्य का सीमित ज्ञान होता है, इसीलिये वह ज्ञान का गुटका आगे के विमर्श का दिशा-निर्देशक नहीं,  बल्कि भटकाने वाला ज़्यादा होता है.

कहना न होगा, ये बातें जितनी अरुंधति रॉय की किताब में किये गये विश्लेषणों पर लागू होती है, उतनी ही इन्हें उनकी किताब के विश्लेषण पर भी लागू किया जा सकता है. आलोचना हमेशा आलोच्य कृति में निहित ज्ञान को सामने लाती है और उस ज्ञान को बिखेर कर ही आगे हस्तांतरणीय भी बनाती है.

शायद ऐसे ही किन्हीं कारणों से किताब को एक साँस में पढ़ते हुए ही हमने अपनी कुछ पूर्व धारणाओं के आधार पर ही फेसबुक पर कुछ सामान्य प्रकार की प्रश्नमूलक टिप्पणियां लिखी. पहली टिप्पणी थी —'महज एक विमर्श के प्रस्ताव के लिये :'

“प्राचीन काल में वर्ण व्यवस्था और अस्पृश्यता के बीच उसी प्रकार फ़र्क़ करने की ज़रूरत है जैसे आज पूँजीवाद और फासीवाद में फ़र्क़ किया जाना चाहिए; जैसे समाजवाद में सर्वहारा के अघिनायकत्व और एक व्यक्ति की तानाशाही में फ़र्क़ किया जाना चाहिए.

“कोई भी दर्शनशास्त्रीय विमर्श अपनी अमूर्तता के चरम बिंदु की दीर्घकालीनता में मूल बिन्दुओं से बिल्कुल विपरीत अन्य कई विमर्शों को जन्म दिया करता है. यही बात समाज-व्यवस्थाओं की संरचनाओं पर भी लागू होती है.

“गांधी भारतीय वर्ण व्यवस्था के प्रशंसक और अस्पृश्यता के तीव्र विरोधी थे. क्या यह गांधी का कोरा मिथ्याचार था या इसका कोई संबंध सामाजिक संरचनाओं के विकास के इतिहास की एक समझ से हो सकता है ?” (25 जून 2019)

सामाजिक संरचना का चतुर्वर्णीय स्वरूप सिर्फ भारत में ही नहीं था. खुद आंबेडकर ने दुनिया के अन्य हिस्सों के इतिहास में समाज के जातिगत विभाजन की सच्चाई की बात कही है. रोमन साम्राज्य के शासन का मूल सिद्धांत ही इस पर टिका हुआ था. नागरिकों की आबादी का patricians (शासक कुल) census rank  (श्रेष्ठि समुदाय) noble (शिक्षित समुदाय) और citizenship (सैनिक और किसान आदि) में विभाजन रोमन साम्राज्य का एक मूलभूत प्रशासनिक सिद्धांत रहा है. इस विषय में, भारतीय इतिहास में ग्रीक संपर्कों के अध्याय को नज़रंदाज़ करके भारत के चतुर्वर्ण सिद्धांत की व्युत्पत्ति के इतिहास को और अंग्रेज़ों के काल में शासक कुलों के नस्ली सिद्धांत की भूमिका को बिना समझे इसके वर्तमान रूप को भी समझना मुश्किल है.
अरुंधति की किताब में ही कहा गया है कि “जनसांख्यिकी की चिन्ता ने (भारत की) राजनीति में उथल-पुथल मचा रखी थी.” (पृ : 53) किताब में कई जगहों पर इसके चित्र मिलते हैं. हर्बर्ट रिस्ले के नेतृत्व में 1901 की जनगणना को ब्रिटिश भारत की पूरी हिंदू आबादी पर जाति-व्यवस्था को बाक़ायदा लागू करने के एक उपक्रम के रूप में ऐसे ही याद नहीं किया जाता है. रिस्ले नस्लवादी था और आदमी के नाक-नक़्शे और चमड़ी के रंग से समाज में उसके स्थान के सिद्धांत पर विश्वास करता था.
यह एक वैसी ही प्रक्रिया है जैसे लोकतंत्र से जाति-प्रथा को बल मिलना. “लोकतंत्र ने जाति का उन्मूलन नहीं किया है. इसने जाति का आधुनिकीकरण करके इसकी जड़ों को और मजबूत किया है.” (पृ : 32) इसके साथ अंग्रेजों ने आधुनिक प्रशासन में प्रतिनिधित्व के अधिकार के प्रश्न को जोड़ जो दिया था.

बहरहाल, रोमन साम्राज्य में जैसे ग़ुलामों के लिये नागरिकता का कोई नियम नहीं था, उसी प्रकार भारत के ब्राह्मणवाद ने शूद्रों के मामले में अस्पृश्यता की शूचिता से इसे और भी जघन्य बना दिया था. नौ सौ साल के इस्लामी शासन और दो सौ साल के अंग्रेज़ी शासन के बावजूद वर्ण व्यवस्था का पूरी तरह से बने रहना इस कथित हिंदू सामाजिक संरचना के साथ भारत के सभी शासक वर्गों के स्वार्थों के संकेत भी देता है. ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों के लिये सभी शासन तंत्रों में जगह थी. किसान सामान्य नागरिक रहे और शूद्रों को उत्पादन की पूरी प्रणाली में अस्पृश्य ग़ुलाम बना कर रख दिया गया. लेकिन अस्पृश्यता भारत की अपनी वह खास चीज है जिसने वर्णों के बीच अन्तरक्रियाओं की संभावनाओं को ही समाप्त कर दिया था. यही हमारे यहां का 'ब्राह्मणवाद'है.

फिर भी, कुल मिला कर सच यही है कि भारत की आज़ादी की लड़ाई के बीच से वर्ण व्यवस्था के खिलाफ पहली बार आवाज़ उठी और स्वतंत्र भारत के संविधान में जातिगत भेदभाव को ख़त्म करने की प्रतिज्ञा ली गई. इसीलिये भारत के अछूत प्रश्न को आज आजादी की लड़ाई की समग्रता से काट कर नहीं देखा जा सकता है. आज भी फासीवादी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का प्रतिकार न किसी प्रकार के 'साफ्ट हिंदुत्व'में हैं और न किसी अन्य जातिवाद में. इसका उत्तर है भारतीय संविधान की मूलभूत जनतांत्रिक और समानता की मानवतावादी और समाजवादी भावना में, जो आजादी की लड़ाई की ही फलश्रुति है.



ऐलेन बाद्यू को मनोविश्लेषक जॉक लकान विश्लेषण संबंधी कथन से दर्शनशास्त्र को परिभाषित करने वाला जो सूत्र मिला है, वह है - “Raise impotence to impossibility ( नपुंसकता को असंभवता तक ले जाना).” (Alain Badiou, Lacan, Columbia University Press, page – xli)कहना न होगा, असंभवता को नपुंसकता बताना इसीका विलोम है, जो दर्शन को दैनंदिन के सच के रूप में रखता है.

बाद्यू का यह कथन दर्शनशास्त्र में सत्य के सर्वकालिक परिप्रेक्ष्य और दैनंदिन घटनाक्रमों के बीच से सामने आने वाले सत्य के नित नये रूप के बीच के द्वंद्व को समझने की एक कुंजी प्रदान करता है. विषय के सत्य को उसके व्यापक परिप्रेक्ष्य में लगातार खुलते हुए समग्रत: देखना और उसके हर दिन के नये रूप को ही अंतिम सत्य मान कर उस पर निर्णायक राय सुना देने के बीच जमीन आसमान का फर्क होता है.

भारतीय राजनीति में गांधी भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के सत्य की समग्रता से जुड़ा हुआ विषय है. न वह सिर्फ दक्षिण अफ्रीका का सत्याग्रही है और न भारत में सविनय अवज्ञा, अछूतोद्धार, सांप्रदायिक सौहार्द्र, समाजसुधार, ग्राम स्वराज तथा ट्रस्टीशिप के सिद्धांत वाले राष्ट्रपिता कहलाने वाले व्यक्ति हैं।

इस संदर्भ में हम यहां गांधी और आंबेडकर पर डा. रामविलास शर्मा की किताब का उल्लेख करना चाहेंगे. लगभग आठ सौ पन्नों की अपनी किताब 'गांधी, अंबेडकर, लोहिया और भारतीय इतिहास की समस्याएँ'में उन्होंने इन तीनों पर अलग-अलग काफी बातों को अपने नजरिये से समेट कर रखने की कोशिश की है. इस किताब की भूमिका में किताब के प्रमेय के रूप में उन्होंने तीनों के बारे में संक्षिप्त सूत्रों में जो बातें लिखी है, उनमें से गांधी और अंबेडकर के बारे में उनकी बातों को इस लेख की सीमा के बावजूद रखना जरूरी समझता हूं.

गांधी के बारे में समग्र रूप से विचार करने वाले लगभग सभी लोग दक्षिण अफ्रीका में उनके जीवन के प्रसंगों को जरूर उठाते हैं, तत्व रूप में, जिन्हें आगे भारत के राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन में गांधी की भूमिका में विकसित होते हुए दिखाया जाता है. अरुंधति राय ने भी यह किया है और डा. शर्मा भी यहीं से अपनी बात का प्रारंभ करते हैं.

डा. शर्मा लिखते हैं-
“गांधीजी मजदूरों के जीवन से अच्छी तरह परिचित थे. दक्षिण अफ्रीका में उन्होंने मजदूरों की एक लंबी लड़ाई चलाई थी....गांधीजी बहुत अच्छे इतिहास लेखक थे. दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास उनकी श्रेष्ठ कृति है....दासों के व्यापार में अंग्रेज पहले पीछे थे फिर इस कौशल में यूरोप के सभी देशों से आगे बढ़ गये....भारत से गरीब किसानों को फुसला कर उपनिवेशों में ले जाते थे, वहां उनसे गुलामों की तरह काम कराते थे. इसी गुलामी से मुक्ति पाने के लिए दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी ने 'गिरमिटिया'मजदूरों को संगठित किया था....गिरमिट प्रथा पुरानी दास प्रथा का नया संस्करण थी. उपनिवेशों में भारतीय व्यापारियों को अधिकारहीन रखने और मजदूरों से अपने दुर्व्यवहारों को उचित ठहराने के लिए अंग्रेज रंगभेद का सहारा लेते थे. काले आदमी शासित होने के लिए बने हैं और गोरे उन पर शासन करने के अधिकारी हैं.
“भारतवासियों को असभ्य बता कर वे उनके इतिहास और संस्कृति पर आक्षेप करते थे. परंतु अनेक अंग्रेज विद्वानों ने भारत के ज्ञान-विज्ञान, कला-कौशल का उचित मूल्यांकन किया था. गांधीजी ने उनका हवाला देकर उपनिवेशवादियों के दृष्टिकोण का खंडन किया. इस तरह उन्होंने भारत के सांस्कृतिक इतिहास के दमन को राजनीतिक संघर्ष का अस्त्र बना दिया....दक्षिण अफ्रीका से गांधीजी ने बहुत कुछ सीखा. ...इनमें सबसे महत्वपूर्ण है जातीय अस्मिता और राष्ट्रीय आत्म-सम्मान का मेल. दक्षिण अफ्रीका में गांधी जी ने मिल मजदूरों के जातीय गर्व को उभार कर उन्हें उत्साहित किया. भारत में उन्होंने अनेक जातियों के प्रति यह नीति अपनाई.” (पृष्ठ – v-viii)

डा. शर्मा का गांधीजी की वैचारिक संरचना के तत्वों के बारे में यह विचार था कि “निष्क्रिय प्रतिरोध का सिद्धांत उन्होंने तोलस्तोय से ग्रहण किया था. उसे सत्याग्रह का नाम बाद में दिया गया. सर्वोदय का सिद्धांत उन्होंने रस्किन से प्राप्त किया था. भारत ग्राम सभाओं का देश है. यह इतिहास विरोधी कल्पना उन्हें हेनरी मेन से मिली. जिसे गांधीवाद कहा जाता है, उसके मुख्य स्रोत विदेशी हैं, पर गांधीजी तोलस्तोय की तरह सक्रिय प्रतिरोध की प्रशंसा भी करते थे और रस्किन की तरह पूंजीवाद की आलोचना भी करते थे.” अर्थात्, यह सिर्फ किसी भारतीय प्राचीनता की उपज नहीं थी.

डा. शर्मा ने भी यह नोट किया कि गांधीजी के सामने अन्य दो प्रमुख राजनीतिक समस्याएँ थी-सांप्रदायिकता और अछूत समस्या. डा. शर्मा लिखते हैं कि “गांधीजी ने कहा था, अछूतों की मूल समस्या जमीन की है. उन्हें जमीन मिलनी चाहिए....गांधीजी ने कहा था, पूंजीवादी व्यवस्था में बेरोजगारी खत्म नहीं हो सकती.... गांधीजी ने कहा था, मजदूर संगठित नहीं है, वे अपनी ताकत नहीं पहचानते, उनमें शासन करने की क्षमता है....गांधीजी ने कहा था, यह विज्ञान का युग है, विज्ञान अंधविश्वासों को मिटा सकता है....गांधीजी ने कहा था, विदेशी पूंजी के प्रभुत्व से हर तरह की बरबादी होती है.” (पृष्ठ – viii-x)

गांधीजी जो चाहते थे और जिसमें वे विफल रहे, इसे गिनाते हुए डा. शर्मा लिखते हैं — “गांधीजी देश का विभाजन नहीं चाहते थे. वह उसे रोक नहीं पाये. वह कांग्रेस और सरकारी कामकाज से अंग्रेजी को निकाल देना चाहते थे, नहीं निकाल पाये. वह अछूतों को ऊंची जातियों के बराबर दर्जा देना चाहते थे, नहीं दे पाये. वह विदेशी पूंजी के दबाव से देश को मुक्त करना चाहते थे, नहीं कर पाये. वह चाहते थे, गांधी और सारी दुनिया के लोग खादी पहनें, उनकी इच्छा पूरी नहीं हुई. वह चाहते थे, पूंजीपति, जमींदार, और धनी लोग अपनी संपत्ति का उपयोग गरीबों के हित में करें, उनकी यह इच्छा भी पूरी नहीं हुई. वह चाहते थे, हिन्दू मुसलमान का भेदभाव खत्म हो, वैसा नहीं हुआ. ऐसी उनकी और असफलताएँ भी गिनायी जा सकती हैं.”

इसके बाद की ही डा. शर्मा की पंक्ति है —
“पर उनका प्रभाव करोड़ों पर था. भारतीय इतिहास में कोई भी एक व्यक्ति, किसी भी युग में, इतने विशाल जन समुदायों को प्रभावित नहीं कर सका और विश्व इतिहास में भी किसी व्यक्ति का ऐसा व्यापक प्रभाव नहीं देखा गया.” (पृष्ठ – viii-ix)

कहना न होगा, डा. शर्मा की किताब में गांधीजी के बारे में लगभग 460 पृष्ठों के हिस्से में भूमिका की इन्हीं उपरोक्त बातों के प्रमाण और विश्लेषण दिये गये हैं.

इसी प्रकार, डा. शर्मा आम्बेडकर के बारे में भूमिका में संक्षेप में लिखते हैं-
वे अपने समय के सबसे सुपठित व्यक्तियों में एक थे जिन्होंने संस्कृत का धार्मिक, पौराणिक और वेद संबंधी सारा वांगमय अनुवाद में पढ़ कर अनेक मौलिक स्थापनाएँ लोगों के सामने रखी थी. डा. शर्मा चूंकि खुद सीधे अथवा संकेतों में यह कहते रहे हैं कि आर्य भारत में बाहर से नहीं आए थे, इसीलिये इस बारे में आम्बेडकर के विचारों का उल्लेख उन्होंने भूमिका में भी किया है कि वे यह नहीं मानते थे कि आर्य बाहर से आए थे. (यद्यपि अब आनुवांशिक वैज्ञानिक अध्ययनों के बाद तो इस बात में कोई शक ही नहीं रह गया है कि मध्य एशिया के मैदानी इलाके से आर्य भारत में आए थे.) बहरहाल, आंबेडकर के वर्ण व्यवस्था के बारे में विचार पर डा. शर्मा कहते हैं कि “समाज की भौतिक परिस्थितियों को पहचानते हुए उन्होंने बताया कि यह प्रथा केवल भारत में नहीं, भारत के बाहर भी रही है. किंतु अधिकतर उनका झुकाव इस धारणा की ओर रहा है कि यह विशेषता केवल हिंदू धर्म की है.”

स्वतंत्रता आंदोलन के संदर्भ में डा. शर्मा लिखते हैं कि “उन्होंने स्वाधीनता आंदोलन के विरोध में अछूतों का नया अलग संगठन खड़ा किया. इससे स्वाधीनता आंदोलन कमजोर हुआ, बिखराव की ताकतें आगे बढ़ीं. साइमन कमीशन के आने के बाद आम्बेडकर में परिवर्तन दिखाई देता है....एक समय उन्होंने पाकिस्तान का समर्थन भी किया. जाति की परिभाषा उद्धृत करते हुए उन्होंने मुसलमानों को एक जाति कल्पित किया. किंतु 1947 के बाद उनमें फिर परिवर्तन हुआ. ...जब तक आर्थिक समानता न होगी तब तक वास्तविक जनतंत्र स्थापित नहीं हो सकता. ...एक बड़े विचारक में जैसे अंतरविरोध हो सकते हैं, वैसे अंतरविरोध आम्बेडकर में भी थे. ...आम्बेडकर यह भी जानते थे कि उद्योगीकरण से ऐसी परिस्थितियां पैदा हो सकती है जिनमें बाप का पेशा बेटे के लिए अनिवार्य न हो....जाति प्रथा के विचार से वे अछूत थे. समाज में उन्हें बहुत अपमान सहना पड़ा था. परंतु वह मजदूर वर्ग में पैदा हुए थे....गांधीजी की तुलना में जातीय सम्मान के बारे में उनके विचार उलझे हुए थे. ...उन्होंने बौद्ध धर्म की जो व्याख्या की, वह बहुत कुछ भौतिकवाद के अनुसार की, और उनकी ग्रंथावली के संपादकों का कहना है कि उसे बौद्ध मतावलंबी स्वीकार नहीं करते थे. डॉ आम्बेडकर समाज के विवेकशील आलोचक थे. अंधविश्वासों के विरुद्ध संघर्ष करने में उनकी विवेकशीलता हमारा मार्गदर्शन कर सकती है.” (पृष्ठ – xi-xiii)

अब हम आते हैं अरुंधति रॉय की किताब में व्यक्त विचारों पर. डा. शर्मा के ठीक विपरीत अरुंधति रॉय आम्बेडकर को जाति व्यवस्था के मूल, हिंदू धर्म का कट्टर विरोधी बताते हुए गांधी को हर मायने में उनके धुर प्रतिपक्ष के रूप में पेश करती है. उनके शब्दों में “दुनिया के सर्वाधिक प्रसिद्ध भारतीय, मोहनदास करमचंद गांधी, आंबेडकर से असहमत थे. उनका विश्वास था कि जाति, भारतीय समाज की प्रतिभा का प्रतिनिधित्व करती है.” (पृ:21)
“वे यथास्थिति के संत है.” (पृ: 35)
“समस्या यह है कि गांधी ने 'सब कुछ'कहा और 'सब कुछ'का उलटा भी बोल दिया.” (पृ: 36)
“गांधी, जो वैश्य थे, और एक गुजराती बनिया परिवार में जन्मे, विशेषाधिकारप्राप्त जातियों के हिन्दू समाज सुधारकों और उनके संगठनों में नवीनतम सुधारक थे....उन्होंने खुद को एक दूरदर्शी, रहस्यवादी, नैतिकतावादी, और महान मानवीय व्यक्ति के रूप में पेश किया जिसने सच्चाई और पवित्रता के हथियारों से एक शक्तिशाली साम्राज्य को धराशायी कर दिया. हम कैसे सामंजस्य स्थापित करें अहिंसावादी गांधी के विचार का गांधी — जिसने शक्ति को सत्य से टक्कर दी, गांधी — अन्याय का प्रतिकार, विनम्र-गांधी, नर-मादा—गांधी, गांधी—एक माँ, गांधी—जिसके लिए कहा जाता है कि उन्होंने राजनीति का स्त्रीकरण किया, और स्त्रियों के लिये राजनीति में आने की जमीन तैयार की, पर्यावरणविद्—गांधी, वाक् पटु गांधी और महान वाक्य बोलने वाला गांधी—इन सबका हम गांधी के जाति के प्रति विचार (और कारनामों) से कैसे सामंजस्य स्थापित करें ? हम इस नैतिक धर्म की संरचना का क्या करें, जो अविचलित, पूरी तरह से क्रूर संस्थागत अन्याय पर टिकी हुई है ?” (पृ: 37-38)
“एक विशेषाधिकारप्राप्त सवर्ण बनिया यह कैसे दावा कर सकता था कि वह ही साढ़े चार करोड़ भारतीय अछूतों का असली प्रतिनिधि है, अगर उसे यह यकीन ह हो कि वह वास्तव में ही महात्मा है ? ...इसी ने गांधी को अपनी स्वच्छता की स्थिति, अपने आहार, अपने मल-त्याग, अपने एनिमाओं और यौन जीवन के दैनिक प्रसारण की स्वीकृति दी. जनता को अपनी अंतरंगता के जाल में खींचने की, ताकि बाद में उसका उपयोग और जोड़-तोड़ का लाभ वे ले सकें, जब वे अपने उपवास और आत्म-दंड देने का काम करें. इसने उन्हें छूट दी, खुद का बार-बार खंडन करने की, और फिर कहा : “मेरा उद्देश्य यह नहीं है कि मेरा हर बयान, मेरे पिछले बयान की कसौटी पर खरा उतरे, लेकिन मेरा हर बयान सत्य की कसौटी पर खरा होना चाहिए, जिस भी रूप में सत्य उस पल मेरे सामने प्रस्तुत हो. इसका परिणाम यह हुआ है कि मैं एक सत्य से दूसरे सत्य तक पहुंचता रहा हूँ.”
“आम राजनीतिज्ञ एक राजनीतिक मुनाफे से दूसरे राजनीतिक मुनाफे के बीच झूलता रहता है. सिर्फ एक महात्मा है जो एक सत्य से दूसरे सत्य तक पहुंचता है....उस पीढ़ी का व्यक्ति जो गांधी की संत-जीवनी की खुराक पर पला-बढ़ा है (मेरे समेत), यह जानकर कि दक्षिण अफ्रीका में क्या हुआ, न सिर्फ परेशान होगा, बल्कि हक्का-बक्का रह जाएगा.” (पृ: 60-61)
“(दक्षिण अफ्रीका में) भारतीय समुदाय के प्रवक्ता के रूप में गांधी ने इस बात में हमेशा सावधानी बरती और खयाल रखा कि वे 'पैसेंजर इंडियंस'की भारतीय 'इडेंचर्ड' (जो भारतीय बँधुआ मजदूर के रूप में दक्षिणी अफ्रीका लाए गए थे) से दूरी बनाए रखें.”(पृ:62-63)
“गांधी का हमेशा कहना था कि वह गरीबों में भी सबसे गरीब की तरह जीना चाहते थे. सवाल यह है कि जो गरीब नहीं है क्या वह सचमुच गरीब का रूप ले सकता है ? ...दक्षिण अफ्रीका में गांधी की गरीबी कायम रखने के लिए हजारों एकड़ जमीन और फलों से लदे हजारों वृक्ष मौजूद थे.
“दरिद्र और निर्बल की जंग, उन चीजों को वापस पाने की जंग है जो उनसे छीन ली गई है. त्यागने की जंग नहीं है. लेकिन गांधी कामयाब धार्मिक बाबाओं की तरह एक चतुर राजनीतिज्ञ थे. ...अलबत्ता, वे भारतीय व्यापारियों के हक की लड़ाई जरूर लड़ रहे थे कि कैसे वे अपने कारोबार का विस्तार ट्रांसवाल में कर सकें और ब्रिटिश व्यापारियों का मुकाबला कर सकें.” (पृ : 74-75)

फिर भी, अरुंधति के शब्दों में —
“गांधी के महात्मापन की ओढ़नी राष्ट्रीय आंदोलन पर ऐसे छाई रही जैसे किसी कश्ती का बादबान. वे पूरी दुनिया के दिलो-दिमाग पर हावी थे. उन्होंने हजारों लोगों को जागृत करके सीधे राजनीतिक सक्रियता के मैदान में उतार दिया. वे सबकी आँखों का ध्रुवतारा थे, राष्ट्र की आवाज थे.” (पृ : 60)
“गांधी जाति-व्यवस्था के प्रशंसक थे, लेकिन वे यह भी मानते थे कि जातियों में ऊंच-नीच की श्रेणी नहीं होनी चाहिए. सभी जातियों को समान माना जाना चाहिए.” (पृ : 22)
“गांधी के राजनीतिक अन्तराभास, सियासी समझ, ने कांग्रेस की खूब बढ़िया सेवा की. उनके मन्दिर-प्रवेश कार्यक्रम ने अछूत आबादी की एक बड़ी संख्या को कांग्रेस से जोड़ने का काम किया.” (पृ : 133)

और आंबेडकर !
वे एक अछूत परिवार में जन्मे, वर्ण व्यवस्था की तमाम जिल्लतों को खुद सहते हुए अपनी मेहनत और लगन के बल पर अपने समय की उच्चतम शिक्षा हासिल की. हिन्दू समाज को उन्होंने एक ऐसी डरावनी मीनार की संज्ञा दी जिसमें न सीढ़ी है और न कोई प्रवेश द्वार. इसमें जो जहां जन्मेगा वह वहीं पर मरने के लिये अभिशप्त होगा. “अछूतों के लिए हिन्दू धर्म सही मायने में एक नर्क है.”
“आंबेडकर गांधी के लिये सबसे खौफनाक विरोधी था. आंबेडकर ने गांधी को न केवल राजनीतिक या बौद्धिक चुनौती दी, बल्कि नैतिक चुनौती भी दी.”
“इस संभावना से कि भारत के अछूतों पर भारत के मुख्य रूप से हिन्दू लोगों के दयावान हृदयों का ही शासन होगा, आंबेडकर का माथा भन्ना गया. उनको आने वाला डरावना भविष्य साफ नजर आ रहा था. आंबेडकर भविष्य के प्रति चिन्तित हो उठे, बेकरार होकर वे किसी तरह से संविधान सभा का सदस्य बनने का जुगाड़ बिठाने लगे.”(पृ : 40)
“आंबेडकर का महान योगदान यह है कि एक ऐसे जटिल, बहुमुखी राजनीतिक संघर्ष में, जिसमें जरूरत से ज्यादा सम्प्रदायवाद था, अन्धकारवाद था, ठगी थी, वे प्रबुद्धता लेकर आए. (पृ : 42)
“आंबेडकर को अतीत के अन्याय का दर्द भरा अहसास था, लेकिन उससे दूर जाने की अपनी जल्दबाजी में, वे पश्चिमी आधुनिकता के विनाशकारी खतरों को पहचानने में नाकाम रहे.” (पृ : 46)
“दुर्भाग्य से आदिवासी समुदाय को उदारवादी चश्मे से देखने से, आंबेडकर का लेखन, जो अन्यथा आज के सन्दर्भ में बहुत प्रासंगिक है, अचानक पौराणिक हो जाता है.
“आदिवासियों के बारे में आंबेडकर की राय जानकारी कऔर समझ की कमी दर्शाती है.” (पृ : 117)
जाति का विनाशमें एक जगह आंबेडकर यूजनिक्स की भाषा का सहारा लेते हैं, वह विषय जो यूरोपियन फासिस्ट लोगों में अत्यधिक लोकप्रिय था : “शारीरिक रूप से बोला जाए तो हिन्दू C3 लोग हैं. वे एक बौनी और ठिगनी नस्ल है, कद-काठी के अवरुद्ध विकास वाले, और कमजोर लोग.” (पृ : 118)

“हांलाँकि आंबेडकर बेहद प्रज्ञावान और बुद्धिमन्त थे, लेकिन उनका पास समयबोध नहीं था, शातिरपना भी नहीं था, धूर्तता नहीं थी और अनैतिक रास्तों पर चलना तो उनकी फतरत में था ही नहीं— वे सभी गुण जो एक 'अच्छे राजनीतिज्ञ की परम आवश्यकता होते हैं.” (पृ : 133)
“दुर्भाग्य से उनकी दूसरी पार्टी शैड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन 1946 के प्रांतीय विधायिकाओं के चुनावों में पराजित हो गई. पराजय के नतीजे में आंबेडकर ने अन्तरिम मंत्रालय की कार्यकारी परिषद् में, जो अगस्त 1946 में गठित हुई थी, अपना स्थान खो दिया. यह एक गंभीर झटका था क्योंकि आंबेडकर पूरी शिद्दत से चाहते थे कि अपने उस पद का इस्तेमाल करके वे कार्यकारी परिषद की उस समिति का हिस्सा बन जाएँ, जो भारतीय संविधान का मसौदा तैयार करेगी. ...कांग्रेस ने आंबेडकर को संविधान समिति में नियुक्त कर दिया.” (पृ : 136-137)
“गांधी इस बात को बखूबी समझते थे, आखिर वे एक राजनेता थे, जो आंबेडकर नहीं थे.” (पृ :128)

इस प्रकार गंभीरता से देखें, तो पायेंगे कि मामला वही, जैसा कि हमने शुरू में ही कहा, लेखन के परिप्रेक्ष्य की समस्या का है. डा. शर्मा के लेखन के सामने गांधी की तरह ही, परिप्रेक्ष्य था भारत का स्वतंत्रता आंदोलन. और अरुंधति राय के बेनकाब-लेखन के लिये है, बाकी हर चीज से अलग-थलग— दलित समस्या. अर्थात आंबेडकर का अपना खास विषय. एक ऐसा विषय जो नि:संदेह आजादी की तमाम अन्य प्रतिश्रुतियों की तरह ही पूरी न होने वाली एक प्रमुख प्रतिश्रुति है, आजादी के 72 साल बाद भी कुछ हद तक अनसुलझा विषय और आज की दलित राजनीति का सर्वप्रमुख जीवंत विषय. यह कुछ वैसे ही जैसे आज सांप्रदायिकता भी राजनीति का एक प्रमुख विषय है.

अरुंधति ने अपनी किताब में एक 'जर्मन यहूदी'की किताब से चिपके 'किताबी'कम्युनिस्टों के साथ आंबेडकर के रिश्तों के बारे में भी अपने क्रांतिकारी तेवर में कई बातें लिखी है. इसमें 'ब्राह्मण'ईएमएस नम्बूदरीपाद की किताब 'भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष का इतिहास'से आंबेडकर और वामपंथियों के बीच टकराव पर एक बहुत वेधक टिप्पणी को उन्होंने उद्धृत किया है- “वह स्वतंत्रता आंदोलन को एक बड़ा झटका था. इसने लोगों काध्यानपूर्ण स्वतंत्रता के महत्वपूर्ण मकसद से भटकाकर हरिजन (अछूत) के उत्थान के महत्वहीन मुद्दे की ओर कर दिया.”(पृ : 114)

कुल मिला कर प्रश्न वही है — क्या महत्वपूर्ण था और क्या उतना महत्वपूर्ण नहीं, अर्थात अनुषंगी था !

अंत में हम यहां, इसी परिप्रेक्ष्य के सवाल पर हमारे स्वतंत्रता आंदोलन के अनन्य इतिहासकार बिपन चंद्रा को उद्धृत करके अपनी बात को खत्म करेंगे. वे लिखते हैं —
“भारत का राष्ट्रीय आंदोलन नि:संदेह आधुनिक समाज के लिये सबसे बड़े जन-आंदोलन में से एक था. ...
“वस्तुत: सिर्फ भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन से ही एक अर्द्ध-जनतांत्रिक अथवा जनतांत्रिक प्रकार की राजनीतिक संरचना को सफलता के साथ हटाने या बदलने का वास्तविक ऐतिहासिक उदाहरण मिलता है. सिर्फ यही वह आंदोलन है जिसमें मोटे तौर पर वार ऑफ पोजीशन के ग्राम्शी के सिद्धांत पर सफलता के साथ अमल किया गया था ; जहां क्रांति के एक ऐतिहासिक क्षण में राजसत्ता पर कब्जा नहीं किया गया था, बल्कि एक नैतिक, राजनीतिक और विचारधारात्मक स्तर पर दीर्घकालीन लोकप्रिय संघर्ष के जरिये किया गया था ; जिसमें प्रति-प्रभुत्व की एक-एक ईंट को एक के बाद एक चरण में रखा गया था ; जिसमें 'निष्क्रियता'के प्रत्येक चरण के बाद ही संघर्ष का चरण आता था.” ( India’s Struggle for Independence, Introduction, page – 13)

सचमुच, जो भी किसी पूरी श्रृंखला की सिर्फ एक कड़ी को लेकर ही बाजार में उतर आने को आतुर रहते हैं, उनके लिये भारत के स्वतंत्रता संघर्ष की समग्रता के प्रतीक पुरुष गांधी इसी प्रकार नफरत के पात्र, अबूझ ही रहेंगे. अरुंधति के इस लेखन के तेवर को देखते हुए अंत में हम यही कहेंगे कि विमर्शमूलक विखंडन और कोरी उकसावेबाजी में कभी-कभी विभाजन की रेखा बहुत महीन हुआ करती है.
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आर्टिकल 15 : संविधान, सच और सिनेमा : संदीप नाईक

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अनुभव सिन्हा के निर्देशन में अभी हाल ही भी प्रदर्शित हिंदी फ़िल्म 'आर्टिकल 15'सभी तरह के दर्शकों में खूब लोकप्रिय हो रही है. इस फ़िल्म को हिंदी के चर्चित कथाकार गौरव सोलंकी ने लिखा है.

संदीप नाईक इस फ़िल्म की खूबियों और ख़ामियों से आपका परिचय करा रहें हैं.





आर्टिकल 15 :  संविधान, सच और सिनेमा                   
संदीप नाईक






तीन लड़कियों की कहानी 3 रुपयों  से शुरू होती है और तीन पुलिसवालों की इर्द-गिर्द घूमती है, भारतीय संविधान की तीन मूल बातें- समानता,  स्वतंत्रता और भ्रातृत्व जैसे तत्वों से भरा भारतीय संविधान आज भी देश के 98% लोगों को मालूम नहीं है, असल में संविधान अपने आप में इतना पेचीदा है कि उसे समझना उसकी क्लिष्ट भाषा को अर्थ सहित पचा पाना और उसका इंटरप्रिटेशन कर पाना इस देश के सिर्फ 2% लोगों के ही बस में है- इसमें 1% कानून वाले हैं और दूसरा 1% पुलिस वाले हैं जो इसका दुरुपयोग करते हैं शेष 98% लोग इस किताब के चारों ओर चक्कर लगाते रहते हैं और एक तरह के संजाल में फंसे रहते हैं और लोकतंत्र में अशोक चक्र का पहिया उनकी लाश न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका के चारो ओर ढोता रहता है- जिसे हम "हम सम्प्रभु लोगों का संविधान"कहकर सबसे पवित्र मान बैठे है.


यह संविधान इन 2 प्रतिशत लोगों के बाप का माल बनकर रह गया है जिसे यह जब चाहे अपने पक्ष में करके सारे फैसले न्याय के नाम पर सुना देते हैं और शेष 98% लोग अपनी लाश को अपने सलीब पर ढोते हुए न्याय के मंदिरों, वैधानिक संस्थाओं के आसपास चक्कर लगाते रहते हैं- एक है पुलिस, एक है जाति व्यवस्था,  एक ही राजनीति और एक है धर्म-देश का पूरा समाज और पूरा तंत्र इस चतुर्भुज पर टिका है और आम लोग संविधान में प्रदत समता, स्वतंत्रता और भ्रातृत्व के त्रिभुज में फंसकर न्याय नामक चौथा कोण ढूंढते रहते हैं.


इसी संविधान का आर्टिकल 15 सिर्फ आर्टिकल नहीं, बल्कि इस देश के लोगों को बाबा साहब अंबेडकर द्वारा दिया गया एक बड़ा हथियार है परंतु ना लोग इसे आज तक समझ पाए ना राज्य नामक व्यवस्था उन्हें किसी भी प्रकार की शक्तियां हस्तांतरित करने को तैयार है,  आर्टिकल में लिखा है राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म, मूल वंश, जाति, लिंग,जन्म स्थान या इनमें से किसी आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा- परंतु सीबीआई अफसर हो ब्रह्मदत्त जैसा पुलिस अधिकारी या कोई दलित नेता जो एक महंत के कंधों का सहारा लेकर अपनी ही जाति के लोगों को मरवाने का षडयंत्र कर रहा है,  ठेकेदारों के साथ इन तीनों का गठजोड़ इतना स्ट्रांग है कि तीन लड़कियां मात्र 3 रुपये की मजदूरी बढ़ाने के लिए अपहृत कर ली जाती है और उनके साथ बुरी तरह से सामूहिक बलात्कार होता है, सौभाग्य से एक लड़की भाग निकलने में कामयाब होती है परंतु अपनी किस्मत को रोते हुए ऐसे जंगल में जाकर धंस जाती है जहां 4 दिन से उसे खाने पीने के लिए कुछ नहीं मिल रहा, दो लड़कियां ना मात्र सामूहिक रूप से बलात्कृत की जाती है बल्कि उनकी जाति को और पूरे समुदाय को जो तथाकथित रूप से पिछड़ा है और नीची जाति का है, को सबक सिखाने के लिए पेड़ पर टांग दिया जाता है गोया की इस तरह से कोई भी आगे से मजदूरी बढ़ाने के लिए मांग नहीं करेगा.


देश की वास्तविक स्थिति इससे ज्यादा खराब है दलितों में तो आज जागरूकता इतनी है कि वह भले ही मार खा रहे हो,  मानव मल उठा रहे हो या सड़कों पर मेनहोल उठाकर अंदर के सीवेज से गन्द निकाल रहे हो परन्तु आदिवासी समाज तो बहुत ही ज्यादा पीछे है, पिछले दिनों मैंने एक अंतरराष्ट्रीय संस्था के लिए छोटा सा शोध का कार्य किया था जहां मैंने देखा कि कुक्षी मनावर के क्षेत्रों में प्रभावशाली समुदाय और जाति के लोग इन आदिवासियों के छोटे बच्चों से कपास तुड़वाने का काम करवाते हैं, लगभग 6000 बच्चे बंधुआ मजदूर है,  उनकी स्त्रियों का शोषण करते हैं और बदले में उन्हें 1 माह में 10 से 20 किलो अनाज देते हैं और घर के काम,  जानवरों का गोबर, कूड़ा-कचरा उठाना, साथ ही खेती के भी सारे काम लगभग निशुल्क करवाते हैं- साथ साथ भी किशोरी लड़कियों का दैहिक शोषण कई प्रकार के लोग करते हैं; मंडला, डिंडोरी से लेकर बालाघाट, अलीराजपुर, झाबुआ, छिंदवाड़ा में यदि आर्टिकल 15 के संदर्भ में बात की जाए तो लगता है कि हम अभी आदिम युग में जी रहे हैं- जहां ना कोई व्यवस्था है, ना तंत्र, ना राजनीति और ना उनकी देखभाल करने वाला महिला ट्रैफिकिंग जबरजस्त है.


इस फिल्म में एक युवा अधिकारी है जो दिल्ली से एक विभागीय सचिव के साथ में झगड़ कर आया है और उसका ईमानदाराना कन्फेशन है कि उसे पनिशमेंट के तहत एक पिछड़े इलाके में भेजा गया जहां उसे अब बरसों से बजबजाते तंत्र से जूझना है- इस तंत्र में विधायक है, धर्म है, महंत है, भगवा- हरे- नीले- पीले झंडे हैं, ब्राह्मणवाद हैं दलितवाद है, यहां अंबेडकर, गांधी और पूरी सत्ता है- दिल्ली का खौफ और मोबाइल के कनेक्शन जिनसे आजकल व्यवस्था चलती है, यह इतना बड़ा संजाल है कि देश का 70% वंचित तबका पूरी तरह से इसमें लगातार 72 वर्षों से फिसल रहा है. इस अफ़सर की बीवी है जो बेहद शालीन है और वह लगातार एक मोरल सपोर्ट के रूप में उस अफसर को नाममात्र काम करने के लिए प्रेरित करती है, बल्कि स्त्री होने के नाते सूझबूझ से दिशा दिखाने का काम करती है, फिल्म में दूसरी प्रेम कहानी गौरा और निषाद की है जो आमतौर पर आपको डकैत या नक्सलवादी प्रभावित इलाकों में देखने को मिल जाएगी- जहां प्रेमिका गांव में रहकर संघर्ष कर रही है और प्रेमी कहीं दूर बैठकर संगठित गिरोहों का सरगना है और सारे आंदोलन खुफिया तौर पर चलाता है ये दोनों समुदाय में अपेक्षाकृत पढ़े लिखे लोग हैं जो अपने अधिकारों को तो जानते हैं,  प्रक्रियाओं को भी जानते हैं परंतु इनके बीच में फँसकर रह जाते हैं, इनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा है पर ज्यादा नहीं है, परंतु यह संगठनों के झोल में उलझे रहते हैं और इनका अंत निश्चित ही किसी एनअकाउंटर में होता है.


फिल्म में जाति को लेकर बहुत ज्यादा फोकस किया गया है क्योंकि जिस इलाके का पूरा वर्णन है जिस प्रांत विशेष की बात की गई है  बहुत ही वह बहुत ही प्रतीकात्मक रूप से उल्लेखनीय है, शुरुवात में ही अफ़सर का ड्राइवर कहता है यह तिराहा आकर्षक है- जिसका एक रास्ता लखनऊ जाता है, एक अयोध्या जाता है और एक कश्मीर जाता है पर जय भीम और धर्म की जय के नारों में रास्ते खो जाते है और तरक्की कही खड़ी अपनी किस्मत पर अफसोस कर रही है.


अंत के दृश्य में जब पूरी व्यवस्थापिका अर्थात पुलिस जो तीसरी लड़की को ढूंढने का काम करती है- भयानक दलदल में है, कीचड़ में सनी है- तब वह युवा अधिकारी अपने मातहतों से पूछता है कि आपने किस को वोट दिया- 10वीं 12वीं पास या हद से हद ग्रेजुएट पुलिस वाले अपनी समझ के हिसाब से जवाब देते हैं कि पंजा, फूल, साइकिल, लालटेन या मोमबत्ती या बहुत कंफ्यूज हो गए थे और जो हंसी अंत में पर्दे के साथ-साथ दर्शकों में फैलती है- वह घृणा ही नहीं, बल्कि वीभत्स रस का एक उदाहरण है जो हम सब के मुंह पर 70 साला कीचड़ का कालिख पोत कर जम जाता है एक झन्नाटेदार तमाचे की तरह.


आर्टिकल 15 एक फिल्म नहीं, बल्कि एक सवाल है- एक बड़ा सवाल जो व्यवस्था से है और जिसका खूबसूरत अंत जरूर है परंतु वह युवा अधिकारी जब सीबीआई के बुजुर्ग अधिकारी से कहता है कि "आप को हिंदी से बहुत प्यार है जबकि हिंदी आपकी पहली भाषा भी नहीं है और दिल्ली में यदि आप ना कह देंगे तो आपका खून हो जाएगा"  फिल्म तो यहीं खत्म हो गई थी क्योंकि नायक जब सारे सबूत सीबीआई के अधिकारी को देकर कमरे से बाहर निकलता है परन्तु बाद में लड़की को ढूंढना और हैप्पी एंड करना तो दर्शकों को संतुष्ट करने जैसा है.


वस्तुतः यह फिल्म भारतीय फिल्म समाज के इतिहास में एक तरह का मील का पत्थर तो नहीं परंतु वास्तविक दृश्य और उन "लीचड़, गंदे और कलुषित लोगों के बीच में दृश्याई जाने से थोड़ी सी अलग लगी है,  थाने से लेकर पूरे शहर में हड़ताल के दौरान कचरा फेंकना एक तरह का रिबेलीयन व्यवहार है जो लेखक और निर्देशक पूरे स्वच्छता अभियान पर सवाल खड़ा करते हुए भारतीय जनता के पसीने से कमाए गए टैक्स को लेकर कर रहे हैं और साथ ही सीवेज साफ कर रहे एक व्यक्ति पर लगभग डेढ़ मिनट का फिल्माया गया दृश्य अंदर से झुनझुनी पैदा कर देता है कि कैसे कोई कैसे कोई इतनी गंदगी में उतर कर नाक- मुंह बंद करके पूरे समाज का कचरा ऊपर ढोलता है और निषाद कहता है कि "बॉर्डर से ज्यादा तो सफाई कर्मचारियों की मृत्यु हर साल देश में हो जाती है परंतु कहीं कोई हलचल नहीं होती".

असल में फ़िल्म हमारे 70-71 साल के पूरे विकास में वंचित तबके, खास करके दलित और आधी आबादी के अस्मिता का प्रश्न उठाती है- यह प्रश्न और उनके आजीविका, गरिमा और सम्मान के साथ आर्टिकल 15 के आलोक में भारत जैसे विशाल देश में जीने के संदर्भ में है जहां मंदिर प्रवेश भी एक मुद्दा है,  पुलिस वालों का राजनीति, धर्म और ठेकेदारों के साथ घुल मिल जाना भी परंतु आश्वस्ति सिर्फ इतनी है कि अभी भी अयान रंजन जैसे युवा अधिकारी और लाखों युवा हैं, हम इस समय विश्व के सबसे ज्यादा यानी 55% युवा भारत में रखते है और ये युवा चाहे तो जाति, संप्रदाय, धर्म, ध्वजायें और राजनीति के दायरे तोड़कर वास्तव में समाज बदलाव में एक बड़ी भूमिका निभा सकते हैं.


बड़े बेटे मोहित के साथ गौरव सोलंकी रुड़की से पढ़े हैं जब मैं आईआईटी जाता था तो चार सालों में कभी मिल नहीं पाया- संदेश और फोन पर बात हुई है परंतु यही लगता है कि एक किशोर या एक युवा में कितनी संभावनाएं होती है, कितना जोश और जुनून होता है कि वह बहुत थोड़े वर्षों में ही अपनी मेधा और मेहनत का इस्तेमाल करके सुव्यवस्थित तरीके एवं सूझबूझ के साथ अपना बेहतरीन दे सकता है, यद्यपि गौरव का अभी बेहतरीन आना बाकी है पर कहानियों के बाद एक नए माध्यम में डंके बजाते हुए खंबे गाड़ने की यह कहानी अप्रतिम है.


कम लागत और भौंडे प्रदर्शन ना करते हुए निर्देशक अनुराग में बहुत बेहतर काम किया है, फिल्म में बदलाव का गीत भी है और बेटियों की विदाई का भी बस अफसोस इतना है की विदाई गीत पोस्टमार्टम की लाश को ढोते हुए गाया गया है और बाकी तो दृश्य संयोजन, प्रकाश, संवाद बहुत अच्छे हैं फिल्म का फ्लो अच्छा है, निर्देशन काफी सधा हुआ है;  गौरव के साथ अनुराग भी बधाई के पात्र हैं और सारे कलाकार भी- एक बात मैं यह कहना चाहता हूं कि जब मैं इन कलाकारों को देख रहा था तो मुझे हबीब तनवीर का नया थियेटर याद आ रहा था- जिसके सारे कलाकार एकदम देसी बीड़ी पीने वाले और जमीनी थे जो नाटक के बाद में बाहर आकर लोगों से सहज मिलते थे पता ही नहीं चलता था कि वह किसी बड़े नाटक समूह के हिस्से हैं.


बहरहाल फ़िल्म देखिए बहुत ज़्यादा अपेक्षा के साथ ना जाये पर देश की हालत यहाँ तक पहुंचाने वालों को देखने और 70 % हिस्से का दुख दर्द देखने जरूर जाएँ कम से कम एक विचार भी दिमाग़ में खटके या आप संविधान का आर्टिकल 15 गूगल भर कर लें तो देश प्रेमी तो मैं आपको कह ही दूँगा भले राष्ट्रवादी ना कहूँ.
 ______________________
संदीप नाईक
सी 55, कालानी बाग
देवास, मप्र 455001
मोबाइल 9425919221

अंकिता आनंद की कविताएँ

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अंकिता आनंद आतिशनाट्य समिति और "पीपल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्सकी सदस्य हैं. इससे पहले उनका जुड़ाव सूचना के अधिकार के राष्ट्रीय अभियान, पेंगुइन बुक्स और समन्वय: भारतीय भाषा महोत्सवसे था. समालोचन में आपने पहले भी अंकिता को पढ़ा है.

ज़माने को बदलने की जदोजहद में जो लोग मुब्तिला थे उन्हें इधर यह एहसास बराबर होता रहा है कि चीजें बदली दिखती हैं पर असल बदलाव अभी हुआ नहीं है. अंकिता की कुछ नई कविताएँ आपके लिए.  




अंकिता आनंद की कविताएँ                   



ईश्वर 

हमें कई ग़लत आदतें सिखाता है,
जैसे 
किसी से बातें करना 
बिना ये जाने कि वो सुन भी रहा है या नहीं. 


दु:ख की जगह 

दुख कहीं भी आपको दबोच सकता है 
एक से एक असुविधाजनक मौकों पर 

मीटिंग के बीच 
ठीक आपके बोलने की बारी से पहले 

निवाले में लिपट 
अटक सकता है गले में 

हँसी की पीठ से निकल 
धप्पा कर सकता है 

उसे सोचना, सीखना चाहिए 
संवेदनशील, शांत होना
दबे कदमों से आना 
बस तभी जब सही वक्त हो 

पर कब?
कौन सा समय हमने सुनिश्चित किया है?
कौन सी जगह
जहाँ उसे मान से बिठा पूछा जाए 
कैसा है वह?



ज़माना बदल गया 

ज़माना बदल गया है 
बचपन में जान गई थी 
पहनने-ओढ़ने की आज़ादी थी 
जब तक मैं सलीके से बैठूँ 

अब पहले वाली बात नहीं रही 
जितना जी चाहा पढ़ पाई 
जब तक उम्र
"शादी के लायक"नहीं हो गई 

जब प्रेम विवाह कर पाई 
अपनी जाति में 
तो चकित रह गई देखकर 
ज़माना कितना बदल चुका था 

और इसलिए
क्योंकि ज़माना बदल चुका था,
अपने साथ लाया दहेज रख पाई 
हमारे संयुक्त खाते में 

नया ज़माना आ चुका है
दोस्तों के साथ मिलकर हँसने की छूट थी 
जब मंडप में पंडित का बताया हुआ वचन दुहरा रही थी:
"मैं पराए मर्दों के सामने नहीं हँसूंगी"

जो ये ज़माना बदला न होता 
तो पहले थप्पड़ के बाद 
कैसे चिल्ला कर 
अपना गुस्सा दिखा पाती 

न ही परिवार को बता पाती 
जिन्होंने याद दिलाया कि मेरा फ़ैसला मुझे ही निभाना है,
कि अब बहुत देर हो चुकी,
पर साथ ही मेरे पति को भी समझाया, क्योंकि ज़माना बदल चुका है 

ताली दो हाथ से बजती है 
जब वो आग-बबूला हो, दूसरे को पानी होना चाहिए, घी नहीं,
ख़ासकर जब वो आपके बर्थडे केक पर मोमबत्ती भी जलाता हो
(जी हाँ, ज़माना जो बदल चुका है)

दुबारा दफ़्तर जाने का मन तो करता है 
लेकिन हर शाम घंटे भर के लिए मैं जो चाहे कर सकती हूँ 
जब बच्चे अपने प्यारे पापा को खेल का मैदान बनाते हैं 
इसलिए क्योंकि ज़माना बदल गया है; फिर वक्त हो जाता है पापा के फेवरेट टीवी शो का 

जब मम्मी जी-पापा जी आएँ, कुछ भी पहन सकती हूँ 
जैसे अपने मम्मी-पापा के सामने 
बस सब ढ़का रहे, और ये तो कोई भी देख सकता है कि 
ज़माना अब बदल गया है 

जायदाद में अब मेरा भी हिस्सा है 
वाकई, ज़माना कितना बदल गया 
हाँ, कोई शरीफ़ बहन इतनी छोटी बात पर 
क्यों ही अपने भाई से लड़ना चाहेगी

ज़रूरी है जो मिला हो उसकी कदर कर पाना 
हर फिक्र को (चूल्हे के) धुएँ में उड़ाते चले जाना 
तब जाकर सराहा जा सकता है 
ज़माना किस हद तक बदल चुका है.


खाई 

तुम्हारी आँखों में तैरते दर्द के रेशे 
दग़ा देते हैं तुम्हारी हँसी के रेशम को,
और प्रश्नचिन्ह लगाते हैं 
हमारे प्यार पर. 


खोज 

ख़ुदकोढूंढ़नेकीव्यस्ततामें 
शामिलएकइंतज़ारहै 
किसीका 
जोहमेंढूँढ़निकाले.


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रंजना मिश्रा की कविताएँ

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कवियों पर कविताएँ कवि लिखते रहें हैं. ‘पुरस्कारों की घोषणा’ में रंजना मिश्रा ने कवियों पर जो मीठी चुटकी ली वह कमाल की ही. एक कविता अभिनेता संजीव कुमार पर है तो कुछ कविताएँ अपने शोहदे प्रेमी अंजुम के लिए. लगभग सभी कविताएँ किसी ने किसी तरह प्रेम से जुड़ती हैं. प्रेम जहाँ करुणा भी है और एक छल भी. एक कविता वृक्षों पर है जो प्रेम का आश्रयस्थल है पर तेज़ी से प्रेम की तरह ही विलुप्त हो रहा है. शिल्प में सुगढ़ कविताएँ.  

रंजना मिश्रा की कुछ कविताएँ आपके लिए.




रंजना मिश्रा की कविताएँ                              


हरिहर जेठालाल जरीवाला (संजीव कुमार)


(1)
दुख का रंग पर्दे पर उन दिनों गुलाबी था
नायिकाएँ दुख में भी गुलाबी नज़र आतीं
नायक मरून सिल्क के लूँगी कुर्ते में
उसी रंग की शराब के सहारे
प्रेम में हार का गम ग़लत किया करते
प्रेम अतिरंजना, दुख नाटकीयता और खुशी
मिलावट के रंगों से चिपचिपाती थी
तुम वहीं थे न उन दिनों हरि भाई?


(2)
पहलेपहल देखा था मैने तुम्हें इन्हीं दिनों
अपनी मोटी कमर पर उतनी ही चौड़ी बेल्ट कसे
छींट दार शर्ट के चौड़े कॉलर के ऊपर नज़र आती
छोटी सी गर्दन वाले चेहरे पर जड़ी उन आँखों के साथ
जो अक्सर चेहरे से निकलकर पूरी पृथ्वी को अपनी छांह में ले लेतीं
वह हँसी जो मुस्कुराते हुए भी न मुस्कुराने का ढब जानती थीं
खिलखिलाती आवाज़ कई बार दरअसल आँसुओं से भीगी नज़र आती
लौटा लाते थे तुम दुख को दुख के, हँसी को हँसी के
और इंसान को उसी इंसान के घर
पूरी टूट फूट और मरम्मत के साथ
धूरी पर घूमती हुई पृथ्वी
लौटा लाती है जैसे
दिन को दिन के और रात को रात के ही घर




(3)
उन दिनों भूल गई मैं पंजाब के उस कसरती नौजवान को भी
जिसकी हँसी पर कुर्बान हम कॉलेज कैंटीन की दीवारें उसके नाम से रंग दिया करते
पर सपनों में उसकी बगल खुद को पाने में हिचकिचाते
(हर उम्र के अपने संशय होते हैं)
पर तुम्हारी कहन में बस इंसान का होना ही पूरा था
अपनी पूरी विडंबना और मधुरता के साथ
तुम कहते थे दरअसल हर इंसान की कथा
जो नायक नहीं था
और बसते थे उस चमकती दुनिया में रूह की तरह
या रेशम के कीड़े की तरह
जो अपने ही धागे से कसता जाता है लगातार
तुम अपने ही प्यार में थे हरिभाई
या किसी स्वप्न से दन्शित


(4)
शतरंज की मोहरें तुमसे बेहतर कौन जान पाया होगा
तुमने ही तो दी थी खुद को शह और मात
उम्र के ठीक सैंतालीसवें साल मे
इतने किरदारों की इतनी उमरें जीकर तुम थक चले थे शायद
सो गए कोई अधूरी कहानी बीच में ही छोड़कर
तुम्हीं ने हमें बताया था
नायकों के नायक होने से पहले की सीढ़ी
उनका इंसान हो जाना है
और प्रेम, दुख, हास्य और सहजता में रंगकर
चाँदनी रातों में उन नक्काशीदार बेल बूटो की कथा कहनी है
जो दिन में ही नज़र आते हैं
तुम ही तो जानते थे बचे हुए को बचाए ले जाने का हुनर
औसत को बेहतर और बेहतर को असाधारण बनाने का हुनर
अपने जोड़ी भर पैरों पर पूरी ऊँचाई से खड़े तुम
जानते थे दुख को उसकी पूरी उज्ज्वलता में बरतने का हुनर
उन दिनों भी
जब दुख का रंग गुलाबी था !




पेड़ और कविता

पेड़ों पर लिखी जानेवाली सारी कविताएँ
इंसानों ने लिखी
जानवर कविता कहाँ करते हैं!
पेड़ों पर लिखी जानेवाली अधिकतर कविताएँ
काग़ज़ों पर लिखी गईं
उसे सुंदर बनाने की कोशिश में
खूब सारे अक्षर लिखे, काटे और मिटाए गए
शब्दों से भरे वे काग़ज़ कवि के कमरे की शोभा बने
अक्सर वे कविताएँ मेज़ और कुर्सी पर बैठकर लिखी गईं
कई कविताओं में अलग अलग तरीके से पेड़ों के प्रति प्रेम का वर्णन था
प्रेम कविताओं की नायिकाएँ
अक्सर पेड़ की छाँव में अपने प्रेमियों का इंतज़ार करतीं
पेड़ों को इसका पता था
वे नायिकाओं की प्रतीक्षा के साक्षी बनते रहे
सदियों तक
इस बीच उन्होने कोई कविता नही रची
बस साथ दिया प्रेमिकाओं और कवियों का
तब तक

जबतक उन्हें काटकर
काग़ज़ या मेज़ में तब्दील न कर दिया गया.



पुरस्कारों की घोषणा

वे अचानक नहीं आए
वे धीरे धीरे
अलग अलग गली, मोहल्लों, टोलों, कस्बों, शहरों, महानगरों से आए
कुछ - देर तक चलते रहे
कइयों ने कोई तेज़ चलती गाड़ी पकड़ी
वे अपनी दाढ़ी टोपी झोले किताबें बन्डी और
शब्दों की पोटली लिए आए
कुछ के पास तो वाद और माइक्रोस्कोप भी थे
भूख और दंभ तो खैर सबके पास था
कुछ स को श लिखते
कुछ श तो स
त को द और द को त भी
अपनी जगह दुरुस्त था
कुछ सिर्फ़ अनुवादों पर यकीन रखते
कुछ की यू एस पी प्रेम पर लिखना था
इसलिए वे बार बार प्रेम करते
कुछ हाशिए के कवि थे
वे अपनी कविता हाशिए पर ही लिखते
कुछ कवयित्रियाँ भी थीं
वे अपने अपने पतियों को खाने का डब्बा देकर आईं थीं
वे दुख प्रेम और संस्कार भरी कविताएँ लिखतीं
कुछ अफ़सर कवि थे कुछ चपरासी कवि
अफ़सर कवि चपरासी कवि को डाँटे रहता
और चपरासी कवि, कविता में क्रांति की संभावनाएँ तलाशता
कुछ एक किताब वाले कवि थे
वे महानुभाओं की पंक्ति में बैठना चाहते
दूसरी किताब का यकीन उन्हें वहीं से मिलने की उम्मीद थी
सूक्ष्म कवियों के बिंब अक्सर लड़खड़ाकर गिर पड़ते
घुटने छिली कविता ऐसे में दर्दनाक दिखाई देती
सबके अपने अपने गढ़ थे
अपनी अपनी सेनाएँ
वे अपनी अपनी सेनाओं का नेतृत्व बड़ी शान से करते
वे विशेष थे
विशेष दुखी, विशेष ज्ञानी और अधिक ऊँचे थे
इतने ऊँचे
कि अक्सर वास्तविकता से काफ़ी ऊँचाई पर चले जाते
हँसी उनके लिए वर्ज्य थी
उनका विश्वास था हंसते हुए तस्वीरें अच्छी नहीं आतीं
वे थोड़ी थोड़ी देर में मोटी सी किताब की ओर देखते
और बड़े बड़े शब्द फेंक मारते
कुछ कमज़ोर कवि तो सहम जाते
पर थोड़ी ही देर में ठहाका लगाकर हंस पड़ते
ऐसे में दाढ़ी वाले कवि टोपी वाले कवि को देखते
और मुँह फेर लेते
वाद वाला कवि जल्दी जल्दी अपनी किताबें पलटने लगता
माइक्रोस्कोप वाला बड़ी सूक्ष्मता से इसे समझने की कोशिश करता
और कुर्ते वाला झोले वाले को कुहनी मारता
बड़ा गड़बड़झाला था

थोड़ी ही देर में
चाय समोसे का स्टाल लगा.
और समानता के दर्शन हुए
पुरस्कारों की घोषणा अभी बाकी थी.




दुनिया में औरतें 

उनमें से कुछ मौन हैं
कुछ अंजान
उनका मौन और अज्ञान
उन्हें देवी बनाता है
कुछ और भी हैं
पर वे चरित्र हीन हैं
हम यहाँ उनकी बात नहीं करेंगे!
दुनिया में बस
इतनी ही औरतें हैं!






प्रेम कहानियाँ

प्रेम कहानियाँ पसंद हैं मुझे
इनके पात्र कई दिनों, हफ्तों और महीनो मेरे साथ बने रहते हैं
फिल्मों की तो पूछिए मत
प्रेम पर बनी फिल्में मुझे हँसाती हैं रूलाती हैं
और स्तब्ध कर जाती हैं
मैं अपनी पसंदीदा फिल्में
कई बार देख सकती हूँ और
हर बार उनमें नया अर्थ ढूँढ लाती हूँ.
ये भी एक वजह है क़ि मेरे दोस्त मुझे ताने देते हैं
और मेरे घर के बच्चे कनखियों से मुझे देख मुस्कुराते हैं
मुझे लगता है
यह दुनिया अनंत तक जी सकती है
सिर्फ़ प्रेम की उंगली थामकर
पर इन दिनों मेरा यकीन
अपने काँपते घुटनों की ओर देखता है बार बार
हम एक दूसरे की आँखों से आँखें नहीं मिला पाते
सचमुच-
अपनी उम्र और सदी के इस छोर पर खड़े होकर
प्रेम कहानियों पर यकीन करना वाकई संगीन है,
ख़ासकर तब-
जब आप पढ़ते हों रोज़ का अख़बार भी !



बंजारेपन का मारा प्रेम

तरह तरह के फूल पत्तों पेड़ गाछ चिरई चुनमुन ताप पाला बारिश
और लोगों से भरी इस दुनिया में
कौन कब कहाँ टकरा जाए
कहाँ एक क्षण को हम ठहर जाएं
दुलार दें किसी को मन ही मन
ध्वस्त हो जाएं दीवारें
सबसे कोमल क्षणों में
प्रेम कब हमें निहत्था निःशंक ढूंढ निकाले
और हमारी मिटटी नम कर दे
खुद को थोड़ा सा छोड़ जाए हमारे भीतर
सींच जाए हमें
कब हम अनजाने ही हो जाएँ तैयार
उन उबड़ खाबड़ रास्तों पर चल निकलने को
अदृश्य ठंडी आग में जलने को
उस मीठी उदासी के लिए
जो इसका हासिल है
किसे मालूम
और किसी एक दिन हमें चमत्कृत कर
अपने ही बंजारेपन का मारा प्रेम
हमें स्तब्ध अकेला और उदास छोड़
गुम हो जाए
ताकि हम सुनते रहें उसकी प्रतिध्वनियां
और करते रहें इंतज़ार
किसी और समय
और कारणों से
और तरीके से
उसके लौट आने का
और इस इंतज़ार में करें प्यार
तरह तरह के फूल पत्तों पेड़ गाछ चिरई चुनमुन ताप पाला बारिश
और लोगों से भरी इस दुनिया को.


बुधवार पेठ की वेश्याएं

उखड़ी पलास्टरों वाली दीवार बोसीदा पर्दों के पीछे बजती पेटी
और पुराने तबले की धमधमाती आवाज़ के बीच वे गाती हैं
वे गाती है सुन कर सीखी कोई ठुमरी
कोई दादरा कोई फ़िल्मी गीत
विलम्बित सुरों की पेचीदगी में नहीं उलझती वे
उन्हें पालने वाले राजा नहीं दूर के मोहल्ले से आया
कोई मजदूर कोई पियक्कड़ आवारा है
जिसकी देह उसके बस में नहीं
वे कहानियां सुनती सुनाती हैं एक दूसरे को प्राचीन दादियों की
जिन्हें घर बेदखल किया गया था गाने के लिए और झूम जाती हैं
हर घाटी अपना आकाश ढूंढ़ती भटकती है
फुसफुसाती हैं खिलखिलाती हैं
शाम होते ही अपने ग्राहकों से कहतीं
'बाबू ये हम ही थीं जो बचा कर रख पाईं संगीत को सबसे मुश्किल समय
हमारे ही आँगन से जाती है देवी की मिटटी पूजा के दिनों में '
कहते हुए अपने खुरदरे पैर समेट लेती हैं
बुधवार पेठ की रंडियां
क्या पता धृणा से या हिकारत से
बाबू मुंह बाएँ ताकता है और
उनके सुर में सुर मिलाता है.


(नोट : किताब की दुकानों, पुणे के प्रसिद्द दगडू शेठ गणपति मंदिर और इलेक्ट्रॉनिक सामान की दुकानों से भरी इस जगह  को औरंगजेब ने सन १६६० में किसी और नाम से बसाया और पेशवाओं ने इसका नाम बुधवार पेठ कर दिया. शहर के मध्य स्थित यह जगह यौन कर्मियों के लिए भी जानी जाती है.)




अंजुम के लिए


(१)

कितने दिनों से याद नहीं आया गली के मोड़ पर खड़ा वह शोहदा
सायकिल पर टिककर जो मुझे देख गाने गाया करता था
कुढ़ जाती थी मैं उसे देखते ही
हालांकि आगे जाकर मुस्कुरा दिया करती थी उस की नज़र से परे
सुना है रोमियो कहते हैं वे उसे
मेरे लिए था जो मेरी नई उम्र का पहला प्रेमी


(२)

तुम लौट जाओ अंजुम मेरे युवा प्रेमी
अपनी सायकिल के साथ
तुम मुकाबला नहीं कर पाओगे उन का जो बाइक पर आएँगे
और तुम्हें बताएँगे कि अब अच्छे दिन हैं
तुम तो जानते हो प्रेम बुरे दिनों का साथी होता है अक्सर
जब कोई प्रेम में होता है बुरे दिन खुद ब खुद चले आते हैं
बुरे दिनों में ही लोग करते है प्रेम भिगोते है तकिया खुलते हैं रेशा रेशा
और लिखते हैं कविताएँ
बुरे दिन उन्हें अच्छा इंसान बनाते हैं
मेरी एक बहन बोलने लगी थी धाराप्रवाह अंग्रेज़ी
प्रेमी उस का लॉयला में पढता था
एक मित्र तो तिब्बती लड़की के प्यार में पड़कर
बनाने लगा था तिब्बती खाना

(३)

जानते हो
भीड़ प्रेम नहीं करती समझती भी नहीं
प्रेम करता है अकेला व्यक्ति जैसे बुद्ध ने किया था
वे मोबाइल लिए आयेंगे और कर देंगे वाइरल
तुम्हारे एकांत कोतुम्हारे सौम्य को
वे देखेंगे तुम्हें तुम्हारा प्रेम उन की नज़रों से चूक जाएगा

(४)

जैसे ही उस पार्क के एकांत में तुम थामोगे अपनी प्रिया का हाथ
सेंसेक्स धड़ से नीचे आएगा मुद्रास्फीति की दर बढ़ जाएगी
किसान करने लगेंगे आत्महत्या अपने परिवारों के साथ
और चीन डोकलम के रास्ते घुस आएगा तुम्हारे देश में
देश को सबसे बड़ा खतरा तुम्हारे प्रेम से है
तुम्हे देना ही चाहिए राष्ट्रहित में, एक चुम्बन का बलिदान
इसलिए ज़रूरी है
पार्क के एकांत से तुम अपने अपने घरों में लौट जाओ
और संस्कृति की तो पूछो ही मत
बिना प्रेम किये भी तुम पैदा कर सकते हो दर्जनभर बच्चे

दिल्ली का हाश्मी दवाखाना तुम्हारी मदद को रहेगा हमेशा तैयार
_____________________



रंजना मिश्रा

शिक्षा वाणिज्य और 
शास्त्रीय संगीत में
आकाशवाणीपुणे से संबद्ध.
कथादेश में यात्रा संस्मरणइंडिया मैगबिंदी बॉटम (अँग्रेज़ीमें निबंध/रचनाएँ प्रकाशित
प्रतिलिपि कविता सम्मान (समीक्षकों की पसंद२०१७
ranjanamisra4@gmail.com

परख : शिलाहवा (किरण सिंह) : मीना बुद्धिराजा

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मिथकीय पात्रों को केंद्र में रखकर सृजनात्मक लेखन अतीत का वर्तमान के सन्दर्भ में पुनर्लेखन है, कथाकार किरण सिंह शोध-अन्वेषण के साथ अपने पात्रों का सृजन करती हैं. ‘अहल्या’ को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास ‘शिलाहवा’ इधर चर्चा में है.

परख रहीं हैं- मीना बुद्धिराज.


शिलावहा : अहल्या की समकालीन कथा                        
मीना बुद्धिराजा


मकालीन हिंदी कथा-परिदृश्य में स्त्री-लेखन तमाम भेदभावों जाति, वर्ग, वर्ण, लिंग की सीमाओं के बहुत परे अपनी वैश्विक पहचान और अस्तित्व को खोलता हुआ सामने आया है. यह साहित्य स्त्री-अस्मिता, उसकी संवेदना और वैचारिकता को समकालीन परिसर में देखनें का अभूतपूर्व प्रयास है. इक्कीसवीं सदी में उत्तर आधुनिक विमर्शों के दबाव और हाशिये के विमर्शों की केंद्र में उपस्थिति ने पितृसत्ता के खिलाफ स्त्री-कथा लेखन का एक मजबूत पक्ष तैयार किया है. धर्म, राजनीति और परंपरागत पितृसत्ता के घालमेल ने स्त्री की स्वतंत्र अस्मिता, उसके जरूरी मुद्दे और पहचान को सभ्यता के इतिहास में हमेशा हाशिये पर रखा.  ऐसे मानवीय संकट के समय में जब एक सशक्त स्त्री रचनाकार की रचनात्मक शक्तियाँ अपने समय से जीवंत संवाद कायम करती हैं तो इतिहास में सदियों से चला आ रहा भेदभाव, असमानता और स्त्री शोषण-उत्पीड़न का अमानवीय चेहराबेनकाब हो जाता है. आज के कथा-परिदृश्य में किरण सिंहइस दृष्टि से सबसे प्रखर, निर्भीक और समसामयिक कथाकार हैं जो परंपरागत लीक से हटकर कर कथा-वस्तु और शिल्प के नये प्रयोगों का इस हद तक जोखिम उठाती हैं कि सभी पुराने प्रतिमानों को ध्वस्त कर देती हैं. स्त्री के पक्ष में उनका साहसपूर्ण लेखन वर्तमान और भविष्य के लिए उसकी स्वतंत्र पहचान का संघर्ष और मुक्ति की उम्मीद के रूप में अत्यंत सजग-सचेत उपस्थिति है.

उनकी कहानियाँ संझा, द्रौपदी पीक, यीशू की कीलें जैसी प्रख्यात रचनाएँ उन तमाम तरह की सत्ता संरचनाओं के खिलाफ भीषण विद्रोह- बगावत हैं जो धर्म, लिंग, जाति, राजनीति, रूढियों और पितृसत्ता के रूप में सदियों से पंरपरा में,समाज की संरचना की भीतरी जडों में समाहित हो चुकी हैं. किरण सिंह का कथा-साहित्य स्त्री-मुक्ति के साथ मानव-मुक्ति के इस अभियान में निरंतर समय की चुनौतियों को स्वीकार कर गहरा सक्रिय हस्तक्षेप है और मानवीय अस्मिता का रचनात्मक-सामाजिक विमर्श उत्पन्न करता है.


इस सृजन-संघर्ष की यात्रा में कथाकार किरण सिंहका नवीनतम उपन्यास शिलावहाशीर्षक से इसी वर्षआधार प्रकाशनसे प्रकाशित होकर आया है जो स्त्री-विमर्श के नये संदर्भों को पारिभाषित करने के लिए बेहद चर्चित और सार्थक उपलब्धि माना जा रहा है. यह उपन्यास अहल्याके चरित्र के आधार पर इतने  अछूते विषय के साथ लिखा गया है कि पाठक पढ़ कर स्तब्ध-चमत्कृत रह जाता है और उसके बहुत से बने-बनाए मिथ-विश्वास टूट जाते हैं.

सदियों से समाज की बनी-बनाई आस्थाएँ दरक जाती हैं. यहाँ उपन्यासकार किरण सिंह धर्म, संस्कृति और समाज के बनाए बेबुनियाद रुग्ण-छद्म ढांचे को कड़ा प्रहार और आघात करके गिराती चलती हैं. परंपरा और मूल्यों की आड़ में संकीर्ण अमानवीय छत्रछाया में घोर सामंती स्त्री-विरोधी मूल्यों को रचने और उन्हें समाज की मानसिकता पर थोपने वाली पितृसत्ता के षड्यंत्र के बारे में इस उपन्यास में बेबाकी से कथाकार उदघाटित करती हैं. स्त्रियों की मानसिक गुलामी को सदियों तक सामाजिक संरचना की अनेक परतों के अंदर बनाए रखने के षडयंत्र-प्रपंच को शिलावहाकी कथा न केवल सामने लाती है बल्कि इससे मुक्त होने का अनथक प्रयास भी करती है.

किरण सिहं की साहसिक कलम से अवतरित आज की अहल्याअपने प्राचीन मिथकीय चरित्र से बिल्कुल विपरीत एक क्रांतिकारी, निर्भीक और प्रखर बौद्धिक स्त्री है जिसके पास तर्क और विवेक है, जो धर्म की क्रूर व्यवस्था के सभी कुटिल मंसूबों को, पितृसत्ता के हथियार के रूप में जम चुकी रूढियों की विराट शिला को अपने प्रचंड प्रवाह से बहा देने में सक्षम है.कालके इतिहास में अहल्या की स्त्री-आत्मा की यह संवेदना भी दर्ज़ है जो स्त्री चिंतन की राहें तय करते हुए शिलावहामें उसे समकालीनता की नज़र से देखनें का लेखिका किरण सिंहका महत प्रयास है और जो स्त्री-मुक्ति का नया स्त्रीवादी पुनर्पाठ भी तैयार करता है.

इस औपन्यासिक कृति का आधार लघु होने पर भी रचना फलक अपने विषय में बहुत व्यापक है जिसमें विचार और संवेदना से लेकर अंतर्दृष्टि और सृजन कार्य तक कथाकार नें अपनी क्षमताओं का निरंतर विकास किया है,उसे अधिक निखारा और अचूक बनाया है. कथा की पृष्ठभूमि का आधार और केंद्र पौराणिक चरित्र अहल्याहै जिसकी परंपरा से चली आ रही मिथकीय कथा को जनमानस में स्थापित किया गया. अहल्या वह स्त्री थी जिसने अपने पति गौतम ऋषि की अनुपस्थिति में अन्य पुरुष राजा इंद्र से प्रेम संबंध बनाया.इस रहस्य का पता चलते ही दंडस्वरूप उसे गौतम ने पाषाण यानि पत्थर की शिला बन जाने का शाप दे दिया. जिसके अनुसार बहुत वर्षों के बाद राम के वन में आने पर उनके स्पर्श से पुन: उसे स्त्री का रूप मिलेगा और तब अहल्या का उद्धार होगा.

इस प्रचलित कथा को निरस्त करते हुए कथाकार ईश्वर के रूप में राम को प्रश्नांकित और पूरी सांस्कृतिक संरचना को ही चुनौती देती हैं कि अवतार के रूप में उनका ईश्वरत्व ब्रह्म(सत्ता), ऋषिग़ण (धर्म) और दशरथ (पूँजी का स्त्रोत) के गठजोड़ की बिसात पर उत्पन्न एक मोहरा हैं. इसलिए उपन्यास में लेखिका कथानक का सूत्र महाकाव्य वाल्मीकि रामायण की यथार्थवादी कथा के ऐतिहासिक संदर्भों से ग्रहण करती हैं जो मानवीय दृष्टि से अधिक तर्कसंगत है. वाल्मीकि रामायण के बाद सभी रचे गये ग्रंथों और कथाओं में अहल्या ने अपना मूल स्वतंत्र अस्तित्व जैसे खो दिया जबकि रामायण में वह स्वतंत्र चेतना संपन्न नारी है. इतिहास और सामाजिक संरचना में स्त्री-शोषण की परंपरा को बनाये रखने के लिए अहल्याके स्वतंत्र निर्णय की शक्ति और दुस्साहस की कथा के पुनर्पाठ से और मिथकों के समय सापेक्ष विमर्श से इस सदी का साहित्य  हमेशा क्यों बचता रहा?जबकि सीता, उर्वशी, उर्मिला और द्रोपदी जैसे चरित्रों को बहुत बार नये रूपों में व्याख्यायित किया जाता रहा.

कथाकार किरण सिंहअह्ल्या के सदियों से उपेक्षित चरित्र के पुनर्पाठ का, उसके अस्तित्व में निहित संभावनाओं का अन्वेषण करती हैं और उसे आज की प्रासंगिकता के साथ भविष्य को भी एक नयी दृष्टि और स्त्री-चेतना प्रदान करती हैं। नि:संदेह यह एक दुस्साध्य कार्य है जिसे उनकी सशक्त-अपराजेय स्त्री रचनात्मकता ने साकार किया है और यह विलक्षण उपलब्धि है,एक आंदोलन है, सतत संघर्ष यात्रा है.
   
लोक प्रचलित कथा के अनुसार अहल्या एक मिथक चरित्र है जो योनिजा नहीं है वह एक प्रयोग है. एक यंत्र मात्र और एक दोषरहित सौंदर्य की प्रतिमूर्ति जो सम्पूर्ण ब्रह्मांड में अद्वितीय थी. उसकी रचना ही इसलिए हुई है कि– ‘आर्यावर्त की स्त्रियाँ देखें कि चमत्कारों की अधिष्ठात्री कितने दुख सहकर भी व्यवस्था का पालन कर रही है तो हमारी क्या बिसात.’ इसलिए उसके जन्म के साथ ही ब्रह्म और ऋर्षियों द्वारा इस निर्देश के साथ भरथरियों को प्रचार के लिए भेजा जाता है कि अहिल्या को रुदन, व्यथा के पर्याय के रूप में प्रचारित करते हुए समूची भारतीय स्त्री-जाति के ह्र्दय में असुरक्षा, त्याग, सहनशीलता, संयम और विवशता के भाव को मजबूत किया जा सके. लेकिन किरण सिंह ने स्त्री-जाति की अस्मिता की प्रतिनिधि रचनाकर के रूप में इस प्राचीन मिथक के मर्म को ही उलट दिया है और उसे चुनौती देते हुए उसके स्वतंत्र मौलिक अस्तित्व और स्व की पहचान को स्थापित किया है. मिथकों में अहल्या ब्रह्म पुत्री मानी गई लेकिन शिलावहा में कथाकार ने उसे अपनी सृजन शक्ति और विचार-पुत्री के प्रतीक के रूप में गढा है.

अहल्या के विलक्षण व्यक्तित्व में –ताप में तनी रहने वाली बबूल की पत्तियाँ’- अर्थात स्वाभिमान और दृढ संकल्प की शक्ति और रेत में खिलने वाला भटकटैया का पीला फूल जिसे छूने पर इकतारे सा बजता है‘-यानि कठोर और विपरीत हालातों में भी अपने जीवन का उत्सव मनाने की सृजनात्मक-रागात्मक जिजीविषा, आशा, संवेदना और  इकहरे बाँस के अंदर की तरलता जो पाताल से भी जल की नमी खींच सकता है- जिनका सामूहिक रूप है शिलावहाका शाश्वत स्त्री- चरित्र. अहल्याजो अपनी मूल संरचना में इस उपन्यास में सदानीरा की तरह एक उद्दाम नदी के रूप में प्रवाहित-स्पंदित होती है और उसकी लड़ाई जड़ता के विरुद्ध है-
‘’मुझे बहने को न मिले तो मैं मर ही जाऊँ.‘’

(अहल्या : राजा रवि वर्मा)

वाल्मीकि रामायण में इस उपन्यास के नामकरण का स्रोत मिलता है जब भरत वन मार्ग से अयोध्या लौटते हैं- ‘’तदनंतर सत्यप्रतिज्ञ भरत ने पवित्र होकर शिलावहानाम की नदी का दर्शन किया जो अपनी प्रखर धारा से शिलाखंडों, बड़ी बड़ी चटटानों को भी बहा ले जाने के कारण उक्त नाम से प्रसिद्ध थी. उस नदी का दर्शन करके वे आगे बढ़ गए और पर्वतों को लाँघते हुए चैत्ररथ नामक वन में जा पहुँचे.
सत्यसंध: शुचिभूत्वा प्रेक्षमाण: शिलावहाम.
अभ्यगात स महाशैलान वनं चैत्ररथं प्रति.‘’

शिलावहाउपन्यास में कथाकार एक सचेतन जीवंत स्त्री अहिल्या को शिला बना दी जाने वाली कथा को पीड़ा, आक्रोश और स्त्री-शोषण की अनंत त्रासदी के रूप में देखती हैं. इस नयी और मौलिक कथा-चरित्र की रचना के केंद्र में सदियों से स्थापित पितृसत्तात्मक सँस्कृति की जडों को समूल नष्ट करने का स्त्री का आह्वान, प्रतिरोध और विद्रोह की घोषणा के रूप में स्त्री-मुक्ति का आख्यान है. जिसमें सिर्फ देह मुक्ति ही नहीं वैचारिक गुलामी का विरोध, संघर्ष और कर्म सौंदर्य के रूप में स्त्री की दृढ़ता के साथ व्यापक मानवीय अस्मिता का विमर्श भी शामिल है. अहिल्या के मिथकीय चरित्र के आवरण को हटाकर यह महागाथा ब्राहमणवादी पितृसत्ता, वर्णव्यवस्था,परंपरा, समाज और धर्म के नीति-नियामकों कीस्त्री-विरोधी कुटिल चालों को बेनकाब करती हुई सपूंर्ण व्यवस्था पर ही प्रश्न चिन्ह खड़े करती है.

यह नई स्त्री-चेतना और मुक्ति का आंदोलन अहल्या के मूलत: जेंडर समानता, न्याय, आत्मसम्मान और  स्त्री-पुरुष के मानवीय संबंधों के लिए छेड़े गये संघर्ष की भूमिका है. यह उसके मिथकीय चरित्र का पुनर्पाठ और स्त्री के लिए समाज व सत्ता की सोच को अधिक उदार और जिम्मेदार बनाने का व्यापक प्रयास है जो समूची मानव जाति के सामाजिक, सांस्कृतिक और सभ्यतामूलक विकास के लिए भी अनिवार्य है. अहिल्या की स्त्री-चेतना यहाँ हाशिये की अस्मिताओं, वंचितों, दलितों, उपेक्षितों और शोषितों की सामूहिक मुक्ति के स्वर में अपने को जिस तरह समर्पित करके अपनी हिस्सेदारी निभाती है वह क्रांतिचेतना उत्तर आधुनिक यथार्थ की विमर्शभूमि है. इसमें स्त्री-मुक्ति की चुनौती पुरुषवर्चस्वी समाज संरचनाओं में अपनी स्वतंत्र संभावनाओं की खोजकर के भविष्य के अज्ञात अध्यायों को खोलने की भूमिका निभाने का है. यह निश्चय ही एक कठिन और साहसिक कार्य है जिसमें स्त्री को एक पूरे युग को अपने अंदर नये सिरे से रूपातंरित करना होगा जिसे शिलावहामें अहिल्याके चरित्र में रचनाकार ने उठाने का जोखिम स्वीकार किया है.

स्त्री के  दैहिक, वैचारिक परिष्कार द्वारा उसे यौन-शोषण, लैंगिक-आर्थिक-मानसिक उत्पीड़न से मुक्त करके अस्मिता- आंदोलनों को रचनात्मक स्तर पर आगे बढ़ाना जो स्त्री-मुक्ति की बुनियादी चिंता है. धर्मशास्त्रों के विधि- विधान पर खड़ी व्यवस्था जिसके तहत स्त्री के जरूरी मुद्दों को दबा दिया गया, उन ज्वलंत प्रश्नों से आज का स्त्री विमर्श जूझ और टकरा रहा है. स्त्री मुक्ति का मुद्दा यूटोपिया ही रहेगा या हमारे सामाजिक जीवन का यथार्थ भी बनेगा, यहआज की स्त्री कथाकार की केंद्रीय चिंता है.

इस पूरी पितृसत्ता की सांस्कृतिक-धार्मिक सरंचना के माध्यम से जो षडयंत्र और कुटिलप्रपंच सदियों से इतिहास में स्थापित किया गया. जिसमें ब्रहर्षि गौतम के निर्देशन में समाज के नये संविधान बनाने का सुनियोजित कार्य चलता रहा और इसके तहत उनका मानना था-
हमें एक ऐसी व्यवस्था तैयार करनी है कि एक-एक माँस्वंय अपनी बेटी को दूध के साथ ये पिलाए कि वह बेटों से हीन है. स्त्री के मुख से यह निकले कि स्त्री ही स्त्री की सबसे बड़ी शत्रु होती है. जब रक्त- मज्जा, हवा- पानी, पत्ती-पत्ती यह मान ले कि स्त्री नीच होती है...तब वह व्यवस्था जिसे क्रांति कहते हैं वह आ जाए तो भी रसातल में पहुँच चुकी स्त्री, कितना भी उपर चढ़े, दोयम श्रेणी की ही बनी रहेगी. अपमान और पराधीनता उसके स्वभाव में आ जाए. हमें प्रलय तक स्त्री को आर्थिक..मानसिक..दैहिक रूप से थूर देना होगा. इसके लिए स्त्री के क्रोध और विचारशक्ति को चार युगों और इसके बाद तक कोई भी युग हो..तब तक के लिये पोंछ दो..

पितृसत्ता की मुख्य चिंता यही है कि-

‘क्योंकि स्त्री के उठते ही उसकी झुकी हुई रीढ़ और ग्रीवा पर रखा देव युग गिर जाएगा.’इतना भर ही नहीं स्त्री को प्रताड़ित करने के दुर्भाव से योजना यह भी बनी कि- ‘सभी मिल कर कहें-नारी नरक का द्वार..स्त्री योनि पाप का मूल..और यह भी कि लगातार उन्हें स्मरण कराते रह्कर  कि तुम सिर्फ दो सूत योनि हो. न बुद्धि न मन.’

यह विधान परंपरा के नाम पर अब तक तक प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से समाज को संचालित करता रहा है. सृष्टि के पितामह का कथन- ‘समाज को यही बताना कि स्त्री किसी की पुत्री नहीं है..किसी की भगिनी नहीं .. और हम अपनी पुत्रीवत से विवाह करें तो भी देवता हैं..संत हैं.’

शिलावहा में धर्मशास्त्रों के इस पूर्वनिर्धारित षडयंत्र को अहिल्या के तर्कों द्वारा परत दर परत उघाड़ कर रख दिया गया है. आज भूमंडलीकरण के दौर में भी इक्कीसवीं सदी में स्त्री का संघर्ष अधिक जटिल और उस का शोषण इकहरा न होकर दोहरा-तिहरा है. इस के मूल में सांस्कृतिक पारंपरिक कुरीतियाँ. पूर्वाग्रह और स्त्री-विरोधी मानसिकता की गहरी और सूक्ष्म व्यूह रचना है जिसने हमेशा समाज की सोच को नियंत्रित किया है. स्त्री को हीन और भोग्या बनाकर और पुरुष को अधिक वर्चस्ववादी शक्तियाँ देकर लैंगिक विभाजन और दमन-उत्पीड़न की व्यवस्था समाज में हमेशा चलती रही जिसका किसी ने विरोध नहीं किया. किरण सिंह का लेखन स्त्री को पराधीन बनाने वाली इस पितृसत्ता में निहित विवाह, परिवार,धर्म, जाति, वर्ग, लिंग आदि संस्थाओं की स्त्रीविरोधी भूमिका को हमेशा सामने लाता है. स्त्री को शक्तिहीन और विवश करने की यह प्रक्रिया बेहद सूक्ष्म, जटिल और संश्लिष्ट है जिसमें उसे इतिहास में कभी किसी संवाद, विवाद और प्रश्न का अवसर नहीं दिया गया.

शिलावहामें अहल्या अपने नयी स्थापना में इन्हीं प्रश्नों से सीधी मुठभेड़ करके समाज की संकीर्ण मानसिकता से टकराने का जोखिम उठाती है. वह धर्मसत्ता के पाखंड और उनके बनाए संविधान को चुनौती देते हुए सामाजिकता और दैहिकता के प्रश्नों को समानंतर लेकर चलते हुए पितृसत्ता पर ठीक उन्हीं तर्कों से प्रहार करती है जो उसकी अपनी पहचान के भी सवाल हैं.  जनसभा में इंद्र के साथ अपने संबंध को साहस से स्वीकारने पर ब्रहादेव के वर्णव्यवस्था के इस विधान और कठोर नियम परवह प्रश्न करती है-

‘’अहल्या ! तुम जन के समक्ष सोच समझकर राष्ट्रभावना और नये संविधान की हँसी उड़ा रही हो. तुम अच्छी तरह जानती हो कि स्त्री की यौन इच्छा पर कठोर नियंत्रण का नियमरक्त गोत्र की शुद्धता, संपत्ति का हस्तांतरण और सामाजिक अनुशासन के लिए बनाया गया है.‘’

अह्ल्या इसका जो प्रत्युत्तर देती है वह पूरी सास्कृतिक-सामाजिक संरचना में स्त्री पर थोपे हुए नैतिक मूल्यों- आदर्शों के विरुद्ध स्त्रीत्व का प्रखर विद्रोह है और अपनी स्वतंत्र अस्मिता की घोषणा है-

‘’ब्रह्मदेव !.. मेरा हथियार तो प्रेम है जिसे आप हथकंडा कहते- कहते  स्वंय प्रेम से दूर हो गये. एक समय में कई कई स्त्रियों को पालतू बनाकर जोतना चाहते हैं...पर प्रेम किसी से नहीं करते. इसलिए एक को भी संतुष्ट नहीं कर सके. ऐसे में स्त्री की यौन इच्छाएँ नहीं दबी तो. नपुंसक समाज ही स्त्री की यौनेच्छा से डरता है. देवताओं. यह बंधुआ और बधिया जीवन मुझे नहीं चाहिए.’

अह्ल्या यहाँ स्त्री-मुक्ति की चेतना से संपृक्त और अपने अधिकारों के लिए सजग- निर्भीक स्त्री के रूप में चित्रित की गयी है. जो फैसले के समय पूरे जनसमाज में यह घोषित कर देती है कि उसकी दोनो संताने गौतम ऋषि की न होकर इंद्र के लिए एकनिष्ठ प्रेम के परिणाम से उत्पन्न हुई हैं. वह  साहस और स्वाभिमान के साथ अवसाद और रुदन न करते हुए उपस्थित पितृसत्ता को अपना अंतिम निर्णय सुनाती है जो अभूतपूर्व है-

‘’आप मुझे धर्म ध्वजा थमाने चले थे. मैंने धर्म की धज्जी उड़ा दी. सम्मान और संतान दोनों से हार गए श्रेष्ठ नस्ल के उत्पादक.‘’

प्रख्यात स्त्री-कथा आलोचक रोहिणी अग्रवालनें इस उपन्यास की प्रामाणिक और विशेष भूमिका में यह कहा है कि-

‘शिलावहा उपन्यास में किरण सिंह अहल्या को पत्थर की निर्जीव शिला में रूपायित न कर प्रेम की क्रमिक यात्रा की आत्मान्वेषी पथिक बनाती हैं. सोचती हूँ कि लोक स्मृतियों में पत्थर बन जाने के अभिशाप को ढोती स्त्री के व्यक्तित्व को इतना निस्सीम आसमान और प्रचंड प्रखरता देने की ताकत और प्रेरणा लेखिका ने कहाँ से पाई होगी. क्या हमारे समय के कंटीले यथार्थ से जो अपने मूल चरित्र में अधिकाधिक स्त्रीद्वेषी और परम्परा भक्त होता जा रहा है? लेखिका अपनी कहानियों में पहले से ही अपने स्तर पर पौराणिक कथाओं और सांस्कृतिक पूर्वाग्रहों से मुठभेड़ करती रही हैं. इसलिये किरणसिंह अहल्या को एक बड़ा कर्मक्षेत्र उपलब्ध कराती हैं,सामाजिक कुटिलताओं से ग्रस्त हाशियाग्रस्त अस्मिताओं के हाहाकर को चित्रित करती हैं और अहल्या स्त्री की मानवीय अस्मिता को बचाने का संघर्ष भी करती है.

शिलावहा वर्चस्ववादी शक्तियों के विरुद्ध जिस प्रति- संस्कृति का निर्माण करती है उसमें सांस्कृतिक संरचनाएँ राजनीतिक सत्ता के चरित्र का ही अक्स हैं जिसका अह्ल्या विरोध करती है... शिलावहा स्त्री को पत्थर बना देने की मंशा रखने वाली व्यवस्था पर करारा तमाचा है.यह उपन्यास कथा के प्रवाह से छिटक कर  विचार करने का स्पेस देता है कि सजा के कठोर कानूनी प्रावधान होते हुए भी क्यों यौन हिंसा के जघन्यतम अपराधी दंड की हदबंदियों से मुक्त हो समाज (और राजनीति में भी) बाहुबलि की बढ़ी-चढी हैसियत के साथ घूमते हैं.किरण सिंह पितृसत्ता और वर्ण व्यव्स्था को धर्म सत्ता के सबसे ज्यादा मारक और धारदार हथियारों के रूप में देखती हैं.

द्रौपदी पीककहानी में राजनीतिक. आर्थिक,धार्मिक, संरक्षण प्राप्त नागा साधुओं के पाखंड और अपराध को वे अपनी सधी शैली में पहले ही व्यक्त कर चुकी हैं जहाँ पर्दाफाश एक बड़ी सनसनी की तरह नहीं आता, चरित्र के भीतर गहरी पैठ के कारण उसके संवेगों, प्रतिक्रियाओं और कार्यशैली के जरिए बेआवाज़ आता है. ..परिवार,संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति- मनुष्य की सभ्यता यात्रा के तीन महत्वपूर्ण मोडों को एंगिल्स पहले ही स्त्री की परधीनता के मूलभूत कारक मान चुके हैं, लेकिन विडंबना यह है कि स्त्री फिर भी पुरुष को डराती रही है- संवेदना, सहनशीलता में गुथी सृजनात्मकता और क्रांति की दीपशिखा के कारण.’

यह वक्तव्य उपन्यास की कथा के मिथकीय आवरण को हटाकर आज के धरातल पर स्थापित करता है जहाँ पितृसत्ता और धार्मिक-सामाजिक व्यवस्था की पड़ताल करके जिन प्रश्नों को अहल्या के माध्यम से कथाकार ने उठाया है। जिन आदर्शों और स्त्री शोषण के नियमों की नींव पर यह समूची टिकी है, उसकी एक-एक ईंट हिल जाती है और यह अमानवीय ढांचा गिरने लगता है.

अहल्या विकटतम परिस्थियों में भी अपने अस्तित्व के लिये जूझती है, अंत तक संघर्ष करती है और कभी पराजय स्वीकार नहीं करती. इस कथा में परपंरागत  कथ्य-वस्तु और शिल्प की परिपाटी को भी कथाकार तोड़ देती हैं और स्त्री के पक्ष में इन रूढियों को तोड़ना जरूरी भी है. उपन्यास के आरंभ की कथा में दशरथ की स्त्री लोलुपता,भोगवादी पुरुष मानसिकता के साथ प्रकारांतर से कौशल्या, सुमित्रा की विवशता और बहुत कम आयु की कैकेयी से अनमेल विवाह की त्रासदी के मर्म को छूने में भी कथाकार की नयी दृष्टि और स्त्री-उत्पीड़न का प्रतिरोध कई बडे प्रश्नों को उठाता है और सीता के संदर्भ में भी लोक मानस में बसी कथा का वास्तविक पुनर्पाठ करने की सार्थक कोशिश करता है. स्त्री के पक्ष में सभी खतरे उठाने का साहस कथाकार को प्रेरित करता है और पाठक की चेतना को जाग्रत कर विमर्श के नये बिंदु पर केंद्रित कर देता है जब एक वाल्मीकि कवि राजसत्ता के विरुद्ध  घोषणा करता है- 
‘’मैं ईश्वर की सामान्य मानव से भी गई-बीती दुर्बलताएँ लिखूंगा.‘’

शिलावहा की मूल स्थापना यही है कि आज के दौर की हीनहीं किसी  भी समय की स्त्री अह्ल्या की तरह पत्थर नहीं बन सकती. स्त्री की यौनिकता की बहस उसके जीवन को किस तरह असहनीय बना देती है जिसके दंश और पीड़ा को झेलना प्रत्येक युग की स्त्री- नियति बन चुकी है लेकिन अह्ल्या आत्मसपर्पण नहीं करती. उपन्यास के अंत में न्याय- जनसभा के समक्ष अहल्या-गौतम का संवाद पितृसत्ता की व्यवस्था को कायम रखने के मूल में पुरुष की कायरता और पाखंडपूर्ण दृष्टि को सत्य के रूप में सामने रखता है-

“स्त्री की ओर चरित्रहीनता का चक्र फेंको और घर बैठे मजा लो.” और आखिरी चोट के रूप में  गौतम ऋषि का शाप- “योनि के लिए तुम इतनी प्रताड़ित की जाओ कि तुम्हें अपनी योनि से वितृष्णा हो जाए.. खुल कर प्रेम न कर सको. पत्थर बनो.” और अहल्या को शिला पर पटककर घायल करके आत्मग्लानि लिए हुए घने जंगल में भूखा-प्यासा हवा पर ज़िंदा रहने और मिट्टी पर सोने के लिए नारीत्व के प्रायश्चित के लिए छोड़ दिया गया. परंतु यहाँ अहल्या इस दंड और शेष अवधि को जीवन की नयी संभावनाओं में बदल लेती है. अपने संकल्प को पृथ्वी की तरह अथाह धैर्य, उर्वरता, प्रकृति के साहचर्य, श्रम-संस्कृति और मानव-प्रेम के साथ दलित, शोषित जनों और असहाय स्त्रियों का सम्बल बनकर जननायक की भूमिका का पालन करती है.

निर्जन श्मशान चैत्य की तलहटी और बंजर भूमि को अपने प्रेम और कर्म- श्रम सौंदर्य से बिरवे रोपकर हरे-भरे पेड़ों से और जन-जन से लहलहा देती है. सोलह वर्ष के पश्चात जब शुन:शेप राम के आने की सूचना देता है तो इस नयी कथा में राम अह्ल्या को शापमुक्त और स्त्री-उद्धार करने नहीं प्रकृति, कृषि की उन्नति और दुर्भिक्ष से राज्य को मुक्त करने के लिए अनुभवी-कर्मठ अह्ल्यासे उपाय और विचार-विमर्श करने के लिए चलकर आते हैं. उपन्यास का यह अंतिम दृश्य अहल्या की अदम्य शक्ति, दृढ़ संकल्प व स्त्री-गरिमा की पराकाष्ठा है-
श्मशान चैत्य की अंतिम सीढी पर अहल्या खड़ी थी. उसने पहली सीढी पर खड़े राम को देखा-
“राम जो जानकारी चाहिये, दी जाएगी. इसके बदले मुक्ति शुल्क नहीं चाहिये. जानते हो, सीता तुम्हें स्वामी नहीं, बार-बार राजा रामकह रही थी. आज मुझे इसका अर्थ समझ में आया.. राजा का अर्थ है, अपना राज्य बचाने वाला वणिक. मैं शास्त्रियों के ग्रंथों से तर्क निकालकर अपना कहा सिद्ध कर दूँगी.‘’

राम गर्दन उठाये समझ रहे थे- पतला लंबा शरीर, खुली हथेलियों में कुदाल चलाने से पड़ी गाँठें, पीले गालों पर झांई, सफेद केश...कहीं देखा है इन्हें, हाँ अकाल की सदानीरा में गाड़े गए सूखे बाँस की तरह..जो पाताल से पानी खींच लाता है....

मैं उनसे सच लिखने को कहूँगा.

सच्चाई यह है कि हम अपनी मुक्ति का श्रेय किसी को नहीं देना चाहतीं. दूर-दूर तक देखो, मेरे रोपे हुए पौधे ब्रहमपुरी के बादलों को खींच लेने के लिए बड़े हो रहे हैं. मेरी शाखाएँ,देवत्व की चिता जलाने के लिए तैयार हैं.

और इंद्र से मेरा संदेशा कहना कि लड़ाईयाँ भुजाओं से नहीं कलेजे से लड़ी जाती हैं.‘’
 
ये संवाद जो किसी भी सुप्तमानवीय चेतना को आंदोलित-जाग्रत करने में समर्थ हैं वही अह्ल्या इसके साथ ये भी कहती रही- ‘’प्रेम में डूबी स्त्रियों के चेहरे सँसार के सबसे सुंदर चेहरे हैं.‘’

प्रेम और क्रांति को एक साथ लेकर जीने वाली अह्ल्या के अप्रतिम चरित्र में मिथक की पुरानी कथा-रूढि को ध्वस्त कर यह उपन्यास नये संदर्भों में स्थापित और रेखाँकित करता है. धर्मसत्ता, समाज और सामंती परम्परा के सभी नियमों को चुनौती देते हुए अह्ल्या जिन विपरीत परिस्थितियों में जीवन और अस्मिता का संघर्ष करती है वह आज स्त्री के सम्मान, न्याय और गरिमा की पुनर्प्राप्ति का भी अनथक आंदोलन व स्त्री का रचनात्मक प्रतिशोध है. वह समाज की संकीर्ण मानसिकता से टकराने का जोखिम उठाकर पुरुष को बेहतर सत्ता का मनुष्य मानने वाले समाज से प्रश्न करती है कि स्त्री आधी आबादी है तो फिर उसे मानवीय गरिमा से वंचित क्यों रखा गया है. स्त्री अब पुरुष सता से किसी अतिरिक्त दया या सहानुभूति की अपेक्षा नहीं रखती और अपने आक्रोश व असहमति को व्यक्त कर रही है. 

अहल्याका संघर्ष मात्र देह्मुक्ति का नहीं बल्कि बौद्धिक रूप से अधिक सक्षम, सामाजिक रूप से ज्यादा सचेत और परिपक्व है. अहल्याके माध्यम से स्त्री की वास्तविक स्थिति, संभावनाओ और सदियों की दासता की दारुण स्थितियों से मुक्ति की दिशाओं का उद्घाटन हुआ है. स्त्री की नयी पहचान को स्थापित करते हुए कथाकार ने यह प्रमाणित किया है कि समाज में हर तरह के शोषण और अत्याचार का उपभोक्ता प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से स्त्री ही होती है चाहे वह धार्मिक कुरीतियाँ हो, यौन हिंसा या आर्थिक पराधीनता सबसे बुरा प्रभाव स्त्री पर हुआ है.

अहल्या इन बंधनों को तोड़कर त्याग और संयम जैसे आरोपित मूल्यों को नकार कर स्त्री की स्वंतत्र अस्मिता को मानवीय ईकाई के रूप में मुक्ति का मुख्य मुद्दा बनाती है. इस संघर्ष पथ पर तैनात रहने के लिए ज्यादा तर्कसंगत दृष्टि, सुलझा हुआ गंभीर व्यक्तित्व और  संकल्प शक्ति जैसी क्षमताएं उसके पास हैं. शिलावहा मेंअहल्याके रूप में कथाकार किरण सिंह की यह नयी संकल्पना हिंदी कथा-साहित्य में अभूतपूर्व है. इस उपन्यास के केंद्र में स्त्री जीवन की ज्वलंत और भयावह समस्याएँ हैं, उन मर्यादाओं की तीक्ष्ण-कड़ी आलोचना है जिन्होनें वस्तु से व्यक्ति बनने की प्रक्रिया में हमेशा स्त्री समाज का खुला दमन और शोषण किया. आज स्त्री अपनी भूमिका पहचान कर रही है अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठा रही है. वर्जीनिया वुल्फ ने कहा है- ‘’स्त्री का लेखन स्त्री का लेखन होता है, स्त्रीवादी होने से बच नहीं सकता. अपने सर्वोत्तम में वह स्त्रीवादी ही होगा.” इस अर्थ में यह उपन्यास स्त्री को व्यवस्था की गुलामी से मुक्त करके  उसे एक आत्मनिर्णायक स्वतंत्र व्यक्ति की पहचान के रूप में स्थापित करने का सार्थक प्रयास है.

एक मिथकीय और अनछुई कथा और स्त्री-चरित्र को नये कलेवर में प्रस्तुत करके कथाकार ने जिस तार्किक, समकालीन एवं जेडंर संवेदनशील दृष्टि का परिचय देने का साहस किया है वह अहल्याके मिथक को समसामयिक विमर्श और बहस के दायरे में ला देता है कि इस दृष्टि और नये आयाम से पहले इस पर क्यों नहीं सोचा या लिखा गया ?

शिलावहाने अहल्या को एक नयी पहचान दी है और यह नयी कथावस्तु अपनी तह में डूबे पौरुषपूर्ण समाज के कई विरोधाभासों और छुपे पहलुओं को उजागर करती है. वैचारिक स्तर पर पाठकों को सत्ता, धर्म, हिंसाऔर नैतिकता के पाखंड तले  छिपे दंभ, लोलुपता, शोषण और दोहरेपन से रूबरू कराती है. शिलावहा की रचना हमेशा से धैर्य, नैतिकता और त्याग के दबाव से मौन करा दी गई स्त्री और किसी भी पितृसत्तात्मक पौराणिक महाआख्यान की रचना के पीछे के छदम और कुटिल षडयंत्र को, स्त्री यौनिकता को अपने स्वार्थों,आकाक्षांओं के अनुसार गढने की पूर्वपरंपरा को ध्वस्त करके उससे मुक्ति दिलाने का एक महत उपक्रम है. आज की जटिल सामाजिक संरचना में अपनी अस्मिता के प्रति चेतनाशील हुए, अन्याय-शोषण का विरोध किए बिना स्त्री मुक्ति संभव नहीं है. उपन्यास में कहीं-कहीं अहल्या के तर्क, संवाद और संदर्भ पाठक को अतिरंजित, विवादित और बोल्ड लग सकते हैं, उसकी भाषा आक्रामक और नुकीली है जो बार-बार पितृसत्ता को घायल करती है. लेकिन अपने समय का सच लिखने,नये विमर्श को स्थापित करने,नये स्त्रीवादी पाठ के लिए मिथक की सीमाओं में ही नयी संभावनाओं की तलाश रचनाकार को करनी पड़ती है जिसमें लेखिका की सजग, जिम्मेदार और प्रतिबद्ध दृष्टि के साथ न्याय करने में यह उपन्यास सक्षम है.

स्त्रियों के अधिकारों के मामले में धर्म कितना क्रूर रहा है और मर्दवादी व्यवस्था कैसे उसे अपने हथियार के रूप में इसे इस्तेमाल करती है. यहाँ अहल्या इन सभी रूढियों को अपने प्रचंड आवेग से ध्वस्त कर देने में सक्षम है. उपन्यास की कथा-संरचना में अहल्या की भाषा का स्वर लाउड और निर्मम है लेकिन संकीर्ण मानसिकता पर चोट करने के लिए ऐसी मजबूत भाषा ही अपेक्षित है. शिलावहाउपन्यास एक बार फिर से किरण सिंह के सशक्त रचनात्मक किरदार को स्थापित करने में समकालीन स्त्री- कथा परिदृश्य की एक विशिष्ट उपलब्धि है.

यह उपन्यास उनका बड़ा वैचारिक फलक, गहन स्त्री संवेदना, मानव संबंधों व परिस्थितियों की जटिलता को , उसकी बारीकी में देखने- पकड़ने की अद्भुत क्षमता,सामंतवादी समाज की प्रखर विरोधी एंव उदार आधुनिक दृष्टि का विलक्षण उदाहरण है.

इस उपन्यास के विधा-विन्यास को लेकर प्रश्न उठे हैं कि इसे किस विधा के अंतर्गत रखा जाए?आकार और विषय-विस्तार की दृष्टि से इसे लंबी कहानी न कह कर लघु उपन्यास कहना अधिक न्यायोचित और तर्कसंगत है. कथा-संरचना में नये प्रयोगों और संदर्भों को लेकर जिस तरह उदय प्रकाश की रचना मोहनदास’, कृष्णा सोबती की मित्रो मरजानी, जैनेंद्र के परख और त्यागपत्र जैसी कृतियों को उपन्यास के रूप में देखा गया.

शिलावहामें भी कथा का संवेदनात्मक और वैचारिक फलक अहल्या के जीवन के व्यापक विस्तार को समेटता है और अपनी सघन बुनावट में जिन बड़े युगीन प्रश्नों को प्रतीकात्मक रूप से सूत्रबद्ध करता है वह कथाकार के रचनात्मक कौशल का प्रमाण है. किरण सिंह अपनी हर रचना में कथा दृष्टि और कथा-भूमि बदलती चलती हैं, लीक से हटकर पंरपरागत कथा-रूढियों को तोड़ने का जोखिम उठाती हैं इसलिये विषयवस्तु की बहुआयामिता के साथ शिल्प का ढांचा बदलना  स्वाभाविक है.

शिलावहामें लोक प्रचलित मिथक और स्मृतियों की पुनर्व्याख्या नये संदर्भों में करने के लिये लेखिका जिन नाटकीय युक्तियों और कथा-तत्वों का प्रयोग करती हैं वह स्त्री-जीवन से जुड़े सभी पक्ष और त्रासदी को जीवंत करने के लिए ही कार्य करते हैं. आज जब समकालीन परिदृश्य में पारम्परिक कथ्य की विधाएँ पूरी तरह बदल रही हैं, टूट रही हैं और एक दूसरे में समाहित हो रही हैं. लेखक अपनी अनुभूति और रुचि के अनुसार कला की आज़ादी खुद रचता है, नये प्रयोगों को भी अपनाता है और कई बार विषयवस्तु भी अपनी विधा स्वंय चुन लेती है.

इस उपन्यास में कथाकार ने स्त्री के सामाजिक-सांस्कृतिक जटिल यथार्थ के मूल स्त्रोत को पकड़कर जिस समकालीन विराट विमर्शों की निर्मिति तक पहुँचकर इसे अधिक प्रासंगिक बनाया है उसे केंद्र में रखते हुए शिलावहाको उपन्यास कहना सर्वथा उचित है. पितृसत्ता,वर्णव्यवस्था और धर्मसत्ता के गठजोड़ से प्रत्येक युग में ही नहीं आज भी स्त्री के प्रति जातीय, वर्गीय, लैंगिक, सामाजिक, आर्थिकशोषण, यौन उत्पीड़न अधिक क्रूर,व्यापक, निरंकुश और संगठित रूप से कायम है जिनमें स्त्री-मुक्ति के प्रश्न और चुनौतियाँ बिल्कुल सामने खड़े हैं.

शिलावहाकी महागाथा में अतीत के पूर्वाग्रहों से मुक्त स्त्री-अस्मिता के आंदोलन के रूप में अहल्याका विद्रोह एक विकल्पहीन व्यवस्था में अपनी स्वतंत्रता के विकल्प की खोज का, नये भविष्य का संघर्ष है जिसके लिए कथाकार किरणसिंह ने पितृसत्तात्मक परम्परा से अलग अपना नया सौंदर्यशास्त्र और कथा-शिल्प गढ़ा है.

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पंकज चौधरी : समय, सत्ता और प्रतिपक्ष : शहंशाह आलम

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पंकज चौधरी की कविताएँ अभिधा की ताकत की कविताएँ हैं, इस ताकत का इस्तेमाल वह सत्ता चाहे समाजिक और धार्मिक ही क्यों न हो की संरचनाओं में अंतर्निहित असंतुलन को समझने में करते हैं. वह करुणा की ताकत के कवि हैं. उनकी कविताओं पर कवि शहंशाह आलम की यह टिप्पणी. और पंकज की कविताएँ भी.



पंकज चौधरी की कविताएँ
समय, सत्ता और प्रतिपक्ष                 

शहंशाह आलम


पुराने पत्‍ते झर गए
नए पत्‍तों का आना जारी है
पेड़ की डालियां
अभी खाली-खाली हैं.

कुछ पत्‍ते बड़े हो रहे हैं
कुछ पत्‍ते अभी छोटे-छोटे हैं
पत्तियां पत्‍ते बनने के क्रम में हैं
और कोंपल पत्तियां बनने के क्रम में
बाकी कोंपलों का फूटना जारी है.

पेड़ का छतनार पेड़ बनना
अभी जारी है.

दुनिया के भी बनने का यही क्रम है
दुनिया को रातोंरात
बदलने की तैयारी
एक महामारी है. 



प किसी पोखर के तट पर खड़े होकर इस समय के बारे में थोड़ा-सा ठंडे दिमाग़, थोड़ा-सा गंभीर और थोड़ा-साज़्यादा ईमानदार होकर सोचें, तो आपकी संवेदना अगर अब तक बची हुई है, तो आपको महसूस यही होगा कि किसी लोहार का घन अगर है, तो वह घन विद्रोह करना चाहता है. इसी तरह बढ़ई का रंदा, कुम्हार का चाक, महावत का अंकुश भी विद्रोह करना चाहता है और किसान की हँसिया भी विद्रोह करना चाहती है.

आख़िरकार ये सारे औज़ार विद्रोह करना किससे चाहते हैं, अपने समय से या किसी और वस्तु से? मैं आपको बताना चाहता हूँ कि ये सारे औज़ार दरअसल अपने समय से विद्रोह नहीं करना चाहते, न इन औज़ारों के इस्तेमाल करने वाले किसी लोहार, किसी बढ़ई, किसी कुम्हार, किसी महावत या किसी किसान से विद्रोह करना चाहते हैं. ये औज़ार आज के शासक-वर्ग के अराजक होने की स्थिति से विद्रोह करना चाहते हैं. पंकज चौधरी की कविता भी एक औज़ार है और इनकी कविता भी आज की सत्ता की घातक नीतियों से विद्रोह करना चाहती है.

आज जो एक तरह की ऐनार्की हर तरफ़ फैली हुई हैकोई किसी को अकारण मार दे रहा है, कोई किसी को अकारण धक्का दे दे रहा है, कोई किसी को अकारण गरिया दे रहा है, कोई किसी के मुँह पर अकारण थूक दे रहा है, कोई किसी को अकारण चिढ़ा दे रहा है. या फिर, कोई लड़की अपने घर से निकली और मालूम हुआ कि उसके साथ किसी ने बलात्कार कर लिया. कोई घर से पाई-पाई जोड़कर रखे रुपए-पैसे बैंक में जमा करने के लिए निकला और मालूम हुआ कि उसके सारे रुपए-पैसे कोई उचक्का छीनकर भाग गया. कोई लड़का घर से स्कूल गया और अपहरण कर लिया गया. यह सब हो इसीलिए रहा है कि आज का शासक जो है, वही अराजकतावादी हो गया है. शासक अराजकतावाद का समर्थक है, तभी हमारे जिस वोट से वह अबकि चुनाव में हार सकता था, हमारे उस वोट को ही चुराकर अपने पक्ष में कर ले रहा है. यही वजह है कि आदमी के शत्रु भी अधिक सक्रिय दिखाई देते हैं. पंकज चौधरी की कविता इसी अराजकता के अनुयायी और समर्थक शासन का विरोध खुलकर करती है-

भूमिहारों का टिकट कटा
ब्राह्मणों को टिकट मिला.

यादवों को ज्‍यादा सीटें मिलीं
कुर्मियों को उससे कम.

राजपूत सब पर भारी पड़े
कायस्‍थों को शहरी क्षेत्र से टिकट मिले.

चमारों को दो सीटें ज्‍यादा मिलीं
दूसाधों को दो सीटें कम.

वाल्‍मीकियों ने खटिकों की सीटों पर दावा किया
खटिकों ने राजभरों की सीटों पर. 

गुर्जरों ने जाटों के लिए अपनी सीटें छोड़ीं
लोधों ने टिकट के लिए कीं मारामारी.

मल्‍लाहों का खाता खुला
कुम्‍हारों का रास्‍ता बंद.

कहारों ने चक्‍का जाम किया
हज्‍जामों ने पार्टी दफ्तर पर बोला हमला.

संतालों ने मुंडाओं को दिया शिकस्‍त.

अशराफों ने पसमांदों की सीटें हड़पीं.

यह जातिसभा का चुनाव है
लोकसभा का नहीं!

यह जातिपर्व का लोकतंत्र है
लोकतंत्र का महापर्व नहीं!

बहुत सारे कवि भी आजकल ऐनार्की फैलाने में लगे हैं और यह उनके लिए दुःख की बात कभी नहीं रही. ये वे कवि हैं, जो जनता का पक्ष सामने न लाकर सत्ता का पक्ष यह कहते हुए प्रकट करते हैं कि जो वर्तमान सत्ता के साथ हैं, वही राष्ट्रभक्त, बाक़ी सब देशद्रोही. बाक़ी सब पाकिस्तानी या बंगलादेशी या किसी और ग्रह के प्राणी. अब यह बात मेरी समझ से परे है कि कोई कवि सत्ता का इतना बड़ा अंधभक्त कैसे हो सकता है, जो देश की ईमानदार जनता के विरुद्ध सीना तानकर खड़ा रहता है और जनता को पकौड़े बेचते, जूते साफ़ करते, नाला साफ़ करते देखकर ख़ुश भी होता है. ऐसे कवि की ख़ुशी इस बात में अधिक है कि वह ख़ुद सरकारी नौकरी में है, अगर उसका दो भाई और है, तो वह भी सरकारी नौकरी में है. अब उस कवि के बच्चे भी हैं, तो उसकी चिंता इसमें है कि वह अपने बच्चों को भी सरकारी नौकर जल्द-से-जल्द घोषित कराए और यह तभी संभव है कि जब देश की बाक़ी बची हुई जनता पकौड़े बेचने में, जूते साफ़ करने में, नाले साफ़ करने व्यस्त रहेगी. 

पंकज चौधरी को ऐसे कवियों की सच्चाई मालूम है. इनको मालूम है कि देश का यह शिक्षित तबक़ा अब जनता के पक्ष की सत्ता अपने देश में आने ही नहीं देना चाहता. इस तबक़ा में वैसे सरकारी सेवककवि भी शामिल हैं, जो पचास हज़ार से अधिक की राशि अपनी भविष्य निधि के खाते में हर महीने जमा करवाते हैं. उनका पेट भरा है, तो उनका अब जनता से क्या लेना-देना. तभी लोहार घन, बढ़ई का रंदा, कुम्हार का चाक, महावत का अंकुश और किसान की हँसिया विद्रोह करना चाहती है, लेकिन उनके विद्रोह को उनके घर भूख की सेना भेजकर दाब दिया जाता रहा है. पंकज चौधरी के पास चूँकि उनकी धारदार क़लम है, उसी धारदार क़लम के भरोसे ये देश की जनता के पक्ष में पूरे आत्मविश्वास से खड़े दिखाई देते हैं-

कहा जाता है
कि समय और पैसे को महत्‍व देना
जिसने जान लिया
उसने दुनिया को जान लिया
उसने दुनिया को जीत लिया.

अब सवाल यह पैदा होता है
कि समय को वह आदमी
कैसे महत्‍व दे पाएगा
जिसे दिल्‍ली में ही
आश्रम से गोविंदपुरी जाने के लिए
जितनी देर
बस का इंतजार करना पड़ता है
उतनी देर में
कोई और आदमी
दिल्‍ली से पटना पहुंच जाता है 
और वह
बस का इंतजार ही करता रह जाता है?

बस का इंतजार करने वाला आदमी
दुनिया को कैसे जीतेगा?   

कवि अगर जनता के पक्ष का है, तो वह हर लड़ाई जीत सकता है. कवि अगर सत्ता के पक्ष का है, तो जनता की हक़मारी कर सकता है. नरेश सक्सेना जैसे हिंदी के महत्वपूर्ण कवि हमको समझाते भी रहे हैं, ‘कि हमारा समय घृणा का है. मेरी कामना एक ऐसी प्रेम कविता की है, जो हिंसा और क्रूरता को समझ और संवेदना में बदल दे. ऐसी कविता, जो हमें बच्चों जैसा सरल, निश्छल, और कोमल बना दे.मेरी भी यही कामना है और पंकज चौधरी की भी यही कामना है कि धन-दौलत, खाने-पीने के सामाँ से हर अघाया हुआ कवि उस आदमी के बारे में अपनी घृणा का त्याग करे, जो तीन वक़्त न ठीक से खा पाता है और न किसी रात को ठीक से सो पाता है. अगर आप ऐसा नहीं कर पाते हैं, तो आपको कवि भी नहीं होना चाहिए. आपको टाटा, बिरला या अम्बानी होना चाहिए. वे कहाँ कवि होना चाहते हैं. उनको मालूम है कि अगर वे कविता लिखेंगे, तो उनकी कविता आदमी के बुरे वक़्त में कभी काम नहीं आने वाली.

जो कमजोर हो गया है
उसे कमजोरी से उबारने के लिए
क्‍या थोड़ी ताकत
उनसे उसे नहीं मिल सकती
जिनके पास ताकत का आधिक्‍य है?

ताकत के आधिक्‍य का
सही उपयोग क्‍या है?
कमजोर को थोड़ी ताकत देकर
उसे कमजोर नहीं रहने देना?
या कमजोर को कमजोर ही रहने देना?
या अपनी ताकत के आधिक्‍य का
इस्‍तेमाल करके
उसे और कमजोर कर देना?
और फिर अपनी ताकत के आधिक्‍य को
बढ़ाते हुए
उसे असीम-अतुलित कर लेना?  

ताकत के आधिक्‍य में
आखिरकार करुणा की ताकत क्‍योंकर नहीं होती?          

पंकज चौधरी की कविता आदमी के बुरे वक़्त में हमेशा काम आने वाली कविता है. इनकी कविता आदमी के मन में कोई संदेह पैदा नहीं करती. इनकी कविता का स्वर चिड़िया के स्वर की तरह है, जो आपके कान को अच्छा लगता है. पंकज चौधरी की कविता आदमी और आदमियत के शत्रुओं पर भारी पड़ने वाली कविता है. इनकी कविता उस वृक्ष की तरह है, जिसको हज़ार भुजाएँ होती हैं और हर भुजा वृक्ष की ही तरह मज़बूत होती है. आप इस भुजा के सहारे कोई भी नदी पार कर सकते हैं. या कोई भी समय पार कर सकते हैं. पंकज चौधरी की कविता किसी भी सच्चे आदमी का दिल नहीं तोड़ती. दिल उसी का तोड़ती है, जो पत्थरदिल होते हैं. और यह हिंदी कविता के लिए ख़ुशी की बात है-

मैं जहां खड़ा था
उसके पार्श्‍व में
एक पोखर कल-कल कर रहा था
पोखर के कल-कल करते पानी पर
बगुलें उठक-बैठक कर रहे थे.

पोखर के तट पर
हरे-भरे पेड़ खड़े थे
पेड़ों पर घोंसले बने थे
घोंसलों से चूजें बाहर झांक रहे थे.

पोखर के उस पार
दूर-दूर तक
गेहूं की पकी-पकी बालियां
ही दिख रही थीं
नीला आसमान
जमीं से मिल रहा था.

और कैमरे से
मेरी तस्‍वीर
सुंदर उतर रही थी

प्रकृति के बिना
क्‍या हम अपने सुंदर जीवन की
कल्‍पना कर सकते हैं? 

सच कहिए तो पंकज चौधरी अपनी कविता में रात का गहन अँधकार चीरकर सुबह वाला वह उजाला लाते हैं, जो उजाला हमारी आँखों को ठंडक पहुँचाता है. इनकी कविता का लक्ष्य यही है कि जो लोहार हैं, जो बढ़ई हैं, जो कुम्हार हैं, जो महावत हैं या जो किसान वग़ैरह-वग़ैरह हैं, उनके जीवन की आकाशगंगाएँ हमेशा मुस्कुराती रहें. आज की सत्ता ऐसों की ही तो मुस्कुराहट छिनती रही है. जो लोहार हैं, जो बढ़ई हैं, जो कुम्हार हैं, जो महावत हैं, जो किसान हैं, उनकी खिड़की पर न बारिश को आने दिया जाता है और न चिड़ियाँ को. पंकज चौधरी सत्ता की इसी वर्जना, इसी निषेध, इसी मनाही, इसी प्रतिबंध को तोड़ते हैं. यह कवि आदमी की, आकाश की, दरिया की, पेड़ की, चिड़ियाँ की और ओसकण की उदासी को भगाता है. यानी यह कवि हर शै की आज़ादी चाहता है. और जो मनुष्य सच्चा वाला कवि होगा, वह सबकी आज़ादी ही तो चाहेगा पंकज चौधरी की तरह- किसी की भी क्रूरता, किसी की भी हठधर्मिता, किसी की भी तानाशाही, किसी की भी सीनाज़ोरी को ललकारता हुआ. वह भी बल और हठ से नहीं, मुहब्बत से-

जैसे उदास पत्‍ते
हवा का साथ मिलने से
झूमने लगते हैं.

जैसे पत्रहीन नग्‍न गाछ
नई-नई पत्तियों के आगमन से
हरे-भरे पेड़ के रूप में
आच्‍छादित हो जाते हैं.

जैसे फागुन की
किसी तप्‍त और शांत दुपहरी को
कोयल की कूक
सुरीली और काव्‍यमयी बना देती है.

जैसे रेगीस्‍तान
शाम के आगमन से
शीतल और सांद्र हो जाता है.

जैसे मेघ के आगमन से
बेहाल हो चुके खेतों में
हाल आ जाता है.

ठीक
वैसे ही
मुझे भी
तुम्‍हारा संग-साथ चाहिए
ताकि मैं भी
अपने निपट अकेलेपन से निपट सकूं. 
______________

यक्षिणी (विनय कुमार) : अंचित

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विनय कुमार का कविता संग्रह ‘यक्षिणी’ इसी साल राजकमल से छप कर आया है. यक्षिणी की खंडित मूर्ति को केंद्र में रखकर लिखी गयी यह काव्य-श्रृंखला, कविता के शिल्प में मिथक को जहाँ साकार करती है वहीँ समय के प्रहार को भी मुखर करती है.
युवा कवि अंचित यात्राओं के सन्दर्भ में इस कृति को देख रहें हैं -




यक्षिणी
यात्राओं के बारे में                             

अंचित  

मंगलेश डबराल की कविताएँ

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हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि मंगलेश डबराल की काव्य-यात्रा का यह पांचवा दशक है. इन पचास वर्षो में वह हिंदी कविता के विश्वसनीय और जरूरी कवि बने हुए हैं.

पहाड़ पर लालटेन’, घर का रास्ता’, हम जो देखते हैं’, आवाज भी एक जगह है’ और ‘नये युग में शत्रु’आदि उनके कविता संग्रह प्रकाशित हैं. सभी भारतीय भाषाओं के अलावा अंग्रेज़ी, रूसी, जर्मन, डच, फ्रांसीसी, स्पानी, इतालवी, पुर्तगाली, बल्गारी, पोल्स्की आदि विदेशी भाषाओं के कई संकलनों और पत्र-पत्रिकाओं में मंगलेश डबराल की कविताओं के अनुवाद प्रकाशित हुआ है. मरिओला द्वारा उनके कविता-संग्रह आवाज़ भी एक जगह हैका इतालवी अनुवाद अंके ला वोचे ऐ उन लुओगोनाम से प्रकाशित है तथा अंग्रेज़ी अनुवादों का एक चयन दिस नंबर दज़ नॉट एग्ज़िस्टप्रकाशित हुआ है.

उन्होंने बेर्टोल्ट ब्रेश्ट, हांस माग्नुस ऐंत्सेंसबर्गर, यानिस रित्सोस, जि़्बग्नीयेव हेर्बेत, तादेऊष रूज़ेविच, पाब्लो नेरूदा, एर्नेस्तो कार्देनाल, डोरा गाबे आदि की कविताओं का अंग्रेज़ी से हिंदी में अनुवाद किया है.

मंगलेश डबराल की १५ नई कविताएँ समालोचन प्रकाशित करते हुए  कवि असद ज़ैदी के शब्दों में इन कविताओं के लिए यही कह सकता है कि “और इससे ज़्यादा आश्वस्ति क्या हो सकती है कि इन कविताओं में वह साज़े-हस्ती बे-सदा नहीं हुआ है जो ‘पहाड़ पर लालटेन’ से लेकर उनके पिछले संग्रह ‘आवाज़ भी एक जगह है’ में सुनाई देता रहा था.”



मंगलेश डबराल की १५ नई कविताएं                    







पहाड़ से मैदान

मैं पहाड़ में पैदा हुआ और मैदान में चला आया
यह कुछ इस तरह हुआ जैसे मेरा दिमाग पहाड़ में छूट गया
और शरीर मैदान में चला आया
या इस तरह जैसे पहाड़ सिर्फ मेरे दिमाग में रह गया
और मैदान मेरे शरीर में बस गया

पहाड़ पर बारिश होती है बर्फ पड़ती है
धूप में चोटियाँ अपनी वीरानगी को चमकाती रहती हैं
नदियाँ निकलती हैं और छतों से धुआँ उठता है
मैदान में तब धूल उड़ रही होती है
कोई चीज़ ढहाई जा रही होती है
कोई ठोकपीट चलती है और हवा की जगह शोर दौड़ता है

मेरा शरीर मैदान है सिर्फ एक समतल
जो अपने को घसीटता चलता है शहरों में सड़कों पर
हाथों को चलाता और पैरों को बढाता रहता है
एक मछुआरे के जाल की तरह वह अपने को फेंकता
और खींचता है किसी अशांत डावांडोल समुद्र से

मेरे शरीर में पहाड़ कहीं नहीं है
और पहाड़ और मैदान के बीच हमेशा की तरह एक खाई है
कभी-कभी मेरा शरीर अपने दोनों हाथ ऊपर उठाता है
और अपने दिमाग को टटोलने लगता है.




स्मृति : एक

खिड़की की सलाखों से बाहर आती हुई लालटेन की रोशनी
पीले फूलों जैसी
हवा में हारमोनियम से उठते प्राचीन स्वर
छोटे-छोटे  बारीक बादलों की तरह चमकते हुए
शाम एक गुमसुम बच्ची की तरह छज्जे पर आकर  बैठ  गयी है
जंगल से घास-लकड़ी लेकर आती औरतें आँगन से गुज़रती हुईं  
अपने नंगे पैरों की थाप छोड़ देती हैं

इस बीच बहुत सा समय बीत गया
कई बारिशें हुईं और सूख गयीं
बार-बार बर्फ गिरी और पिघल गयी
पत्थर अपनी जगह से खिसक कर कहीं और चले गये
वे पेड़ जो आँगन में फल देते थे और ज़्यादा ऊँचाइयों पर पहुँच गये
लोग भी कूच कर गये नयी शरणगाहों की ओर
अपने घरों के किवाड़ बंद करते हुए

एक मिटे हुए दृश्य के भीतर से तब भी आती रहती है
पीले फूलों जैसी लालटेन की रोशनी
एक हारमोनियम के बादलों जैसे उठते हुए स्वर
और आँगन में जंगल से घास-लकड़ी  लाती
स्त्रियों के पैरों की थाप.






स्मृति : दो

वह एक दृश्य था जिसमें एक पुराना घर था
जो बहुत से मनुष्यों के सांस लेने से बना था
उस दृश्य में फूल खिलते तारे चमकते पानी बहता
और समय किसी पहाड़ी चोटी से धूप की तरह
एक-एक क़दम उतरता हुआ दिखाई देता
अब वहाँ वह दृश्य नहीं है बल्कि उसका एक खंडहर है
तुम लंबे समय से वहाँ लौटना चाहते रहे हो जहाँ उस दृश्य का खंडहर न हो
लेकिन अच्छी तरह जानते हो कि यह संभव नहीं है
और हर लौटना सिर्फ एक उजड़ी हुई जगह में जाना है 
एक अवशेष, एक अतीत और एक इतिहास में
एक दृश्य के अनस्तित्व में

इसलिए तुम पीछे नहीं बल्कि आगे जाते हो
अँधेरे में किसी कल्पित उजाले के सहारे रास्ता टटोलते हुए
किसी दूसरी जगह और किसी दूसरे समय की ओर
स्मृति ही दूसरा समय है जहां सहसा तुम्हें दिख जाता है
वह दृश्य उसका घर जहाँ लोगों की साँसें भरी हुई होती हैं
और फूल खिलते हैं तारे चमकते है पानी बहता है
और धूप एक चोटी से उतरती हुई दिखती है.






गुड़हल

मुझे ऐसे फूल अच्छे लगते हैं
जो दिन-रात खिले हुए न रहें
शाम होने पर थक जाएँ और उनीदे होने लगें
रात में अपने को समेट लें सोने चले जाएँ
आखिर दिन-रात मुस्कुराते रहना कोई अच्छी बात नहीं

गुड़हल ऐसा ही फूल है
रात में वह बदल जाता है गायब हो जाता है
तुम देख नहीं सकते कि दिन में वह फूल था
अगले दिन सूरज आने के साथ वह फिर से पंख फैलाने
चमकने रंग बिखेरने लगता है
और जब हवा चलती है तो इस तरह दिखता है
जैसे बाकी सारे फूल उसके इर्दगिर्द नृत्य कर रहे हों

सूरजमुखी भी कुछ इसी तरह है
लेकिन मेरे जैसे मनुष्य के लिए वह कुछ ज्यादा ही बड़ा है
और उसकी एक यह आदत मुझे अच्छी नहीं लगती
कि सूरज जिस तरफ भी जाता है
वह उधर ही अपना मुंह घुमाता हुआ दिखता है.





अशाश्वत

सर्दी के दिनों में जो प्रेम शुरू हुआ
वह बहुत सारे कपड़े पहने हुए था
उसे बार-बार बर्फ में रास्ता बनाना पड़ता था
और आग उसे अपनी ओर खींचती रहती थी
जब बर्फ पिघलना शुरू हुई तो वह पानी की तरह
हल्की चमक लिये हुए कुछ दूर तक बहता हुआ दिखा 
फिर अप्रैल के महीने में जऱा सी एक छुवन
जिसके नतीजे में होंठ पैदा होते रहे  

बरसात के मौसम में वह तरबतर होना चाहता था
बारिशें बहुत कम हो चली थीं और पृथ्वी उबल रही थी
तब भी वह इसरार करता चलो भीगा जाये
यह और बात है कि अक्सर उसे ज़ुकाम जकड़ लेता
अक्टूबर की हवा में जैसा कि होता है
वह किसी टहनी की तरह नर्म और नाज़ुक हो गया 
जिसे कोई तोडऩा चाहता तो यह बहुत आसान था   

मैं अच्छी तरह जानता थाकि यह प्रेम है
पतझड़ के आते ही वह इस तरह दिखेगा 
जैसे किसी पेड़ से गिरा हुआ पीला पत्ता.





मेरा दिल

एक दिन जब मुझे यकीन हो गया
कि मेरा दिल ही सारी मुसीबतों की जड़ है
इस हद तक कि अब वह खुद एक मुसीबत बना हुआ है
मैं उसे डॉक्टर के पास ले गया
और लाचारी के साथ बोला डॉक्टर यह मेरा दिल है
लेकिन यह वह दिल नहीं है 
जिस पर मुझको कभी नाज़ था1

डॉक्टर भी कम अनुभवी नहीं था
इतने दिलों को दुरुस्त कर चुका था
कि खुद दिल के पेशेवर मरीज से कम नहीं लगता था
उसने कहा तुमने ज़रूर मिर्ज़ा ग़ालिब को गौर से पढ़ा है 
मैं जानता हूँ यह एक पुराना दिल है
पहले यह पारदर्शी था लेकिन धीरे-धीरे अपारदर्शी होता गया
और अब उसमें कुछ भी दिखना बंद हो गया है 
वह भावनाएं सोखता रहता है और कुछ प्रकट नहीं करता
जैसे एक काला विवर सारी रोशनी सोख लेता हो
लेकिन तुम अपनी हिस्ट्री बताओ

मैंने कहा जी हाँ आप शायद सही कहते हैं
मुझे अक्सर लगता है मेरा दिल जैसे अपनी जगह पर नहीं है
और यह पता लगाना मुश्किल है कि वह कहाँ है
कभी लगता है वह मेरे पेट में या हाथों में चला गया है
अक्सर यही भ्रम होता है कि वह मेरे पैरों में रह रहा है 
बल्कि मेरे पैर नहीं यह मेरा दिल ही है
जो इस मुश्किल दुनिया को पार करता आ रहा है

डॉक्टर अपना पेशा छोड़कर दार्शनिक बन गया
हाँ हाँ उसने कहा मुझे देखते ही पता चल गया था
कि तुम्हारे जैसे दिलों का कोई इलाज नहीं है
बस थोड़ी-बहुत मरम्मत हो सकती है कुछ रफू वगैरह 
ऐसे दिल तभी ठीक हो पाते हैं 
जब कोई दूसरा दिल भी उनसे अपनी बात कहता हो   
और तुम्हें पता होगा यह ज़माना कैसा  है
इन दिनों कोई किसी से अपने दिल की बात नहीं कहता 
सब उसे छिपाते रहते हैं
इतने सारे लोग लेकिन कहीं कोई रूह नहीं 
इसीलिए तुम्हारा दिल भी अपनी जगह छोड़कर
इधर-उधर भागता रहता है कभी हाथ में कभी पैर में.
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1मिर्ज़ा ग़ालिब का शेर: ‘अर्ज़े नियाज़े इश्क के काबिल नहीं रहा/जिस दिल पे मुझको नाज़ था वो दिल नहीं रहा’.






होटल

जिन होटलों में मैं रहा उन्हें समझना कठिन था
हालांकि लोग उनमें एक जैसी मुद्रा में इस तरह प्रवेश करते थे
जैसे अपने घर का कब्ज़ा लेने जा रहे हों
और मालिकाने के दस्तावेज़ उनके ब्रीफकेस में रखे हुए हों
लेकिन मेरे लिए यह भी समझना आसान नहीं था
कि कौन सी रोशनी कहाँ से जलती है और कैसे बुझती है
और कई लैंप इतने पेचीदा थे कि उन्हें जलाना
एक पहेली को हल करने जैसी खुशी देता था
बाथरूम में नल सुन्दर फंदों की तरह लटकते थे
और किस नल को किधर घुमाने से ठंढा
और किधर घुमाने से गर्म पानी आता था या नहीं आता था
यह जानने में मेरी पूरी उम्र निकल सकती थी 
बिस्तर नींद से ज्यादा अठखेलियों के लिए बना था
और उस पर तकियों का एक बीहड़ स्वप्निल संसार
फिलहाल आराम कर रहा था

यही वह जगह है मैंने सोचा
जहां लेखकों ने भारी-भरकम उपन्यास लिखे
जिन्हें वे अपने घरों के कोलाहल में नहीं लिख पाए
कवियों ने काव्य रचे जो बाद में पुरस्कृत हुए 
यहीं कुछ भले लोगों ने प्रेम और ताकतवरों ने बलात्कार किये
बहुत से चुम्बन और वीर्य के निशान यहाँ सो रहे होंगे
एक दोस्त कहता था सारे होटल एक जैसे हैं
बल्कि दुनिया जितना विशालकाय एक ही होटल है कहीं
जिसके हज़ारों-हज़ार हिस्से जगह-जगह जमा दिए गए हैं
और वह आदमी भी एक ही है
जिसके लाखों-लाख हिस्से यहाँ प्रवेश करते रहते हैं
सिर्फ उसके नाम अलग-अलग हैं

आखिरकार मेरी नींद को एक जगह नसीब हुई
जो एक छोटे से होटल जैसी थी जिसका कोई नाम नहीं था
एक बिस्तर था जिस पर शायद वर्षों से कोई सोया नहीं था 
एक बल्ब लटकता था एक बाथरूम था
जिसके नल में पानी कभी आता था कभी नहीं आता था
जब मैंने पूछा क्या गर्म पानी मिल सकता है नहाने के लिए
तो कुछ देर बाद एक खामोश सा लड़का आया
एक पुरानी लोहे की बाल्टी लिये हुए
और इशारा करके चला गया.







सुबह की नींद

सुबह की नींद अच्छे-अच्छों को सुला देती है
अनिद्रा के शिकार लोग एक झपकी लेते हैं
और क़यामत उन्हें छुए बगैर गुज़र जाती है
सुबह की नींद कहती है
कोई हडबडी नहीं  
लोग वैसे ही रहेंगे खाते और सोते हुए
सोते और खाते हुए
तुम जो सारी रात जागते और रोते हुए
रोते और जागते हुए रहे हो
तुम्हारे लिए थोड़ी सी मिठास ज़रूरी है 

सुबह की नींद एक स्त्री है
जिसे तुम अच्छी तरह नहीं जानते
वह आधा परिचित है आधा अजनबी
वह बहुत दूर से आकर पंहुचती है तुम तक 
किसी समुद्र से नाव की तरह
वही है जो कहती है
आओ प्रेम की महान बेखुदी की शरण में आओ
एक पहाड़ की निबिड़ शान्ति के भीतर आओ
उस दिशा में जाओ
जहां जा रहा है पीली तितलियों का झुण्ड 

सुबह की नींद का स्वाद नहीं जानते
अत्याचारी-अन्यायी लोग
वे कहते हैं हम ब्राह्म मुहूर्त में उठ जाते हैं
कसरत करते हैं देखो छप्पन इंच का हमारा सीना
फिर हम देर तक पूजा-अर्चना में बैठते हैं
इसी बीच तय कर लेते हैं
कि क्या-क्या काम निपटाने हैं आज

सुबह की नींद आती है
दुनिया के कामकाज लांघती हुई
ट्रेनें जा चुकी हैं हवाई जहाज़ उड़ चुके हैं
सभाएं-गोष्ठियां शुरू हो चुकी हैं
और तुम कहीं के लिए भी कम नहीं पड़े हो
जब बाहर दुनिया चल रही होती है
लोग आते और जाते हैं एक स्वार्थ से दूसरे स्वार्थ तक
सुबह की नींद गिरती है तुम्हारे अंगों पर
जैसे दिन भर तपे हुए पेड़ की पत्तियों पर ओस.





सोते-जागते

जागते हुए में जिनसे दूर भागता रहता हूँ
वे अक्सर मेरी नीद में प्रवेश करते हैं

एक दुर्गम पहाड़ पर चढ़ने से बचता हूँ
लेकिन वह मेरे सपने में प्रकट होता है
जिस पर कुछ दूर तक चढ़ने के बाद कोई रास्ता नहीं है
और सिर्फ नीचे एक अथाह खाई है

जागते हुए में एक समुद्र में तैरने से बचता हूँ
सोते हुए में देखता हूँ रात का एक अपार समुद्र 
कहीं कोई नाव नहीं है और मैं डूब रहा हूँ
और डूबने का कोई अंत नहीं है

जागते हुए में अपने घाव दिखलाने से बचता हूँ
खुद से भी कहता रहता हूँ नहीं कोई दर्द नहीं है
लेकिन नींद में आंसुओं का एक सैलाब आता है
और मेरी आँखों को
अपने रास्ते की तरह इस्तेमाल करता है 

दिन भर मेरे सर पर
बहुत से लोगों का बहुत सा सामान लदा होता है 
उसे पहुंचाने के लिए सफ़र पर निकलता हूँ
नीद में पता चलता है सारा सामान खो गया है
और मुझे खाली हाथ जाना होगा 

दिन में एक अत्याचारी-अन्यायी से दूर भागता हूँ
उससे हाथ नहीं मिलाना चाहता
उसे चिमटे से भी नहीं छूना चाहता
लेकन वह मेरी नींद में सेंध लगाता है
मुझे बांहों में भरने के लिए हाथ बढाता है
और इनकार करने पर कहता है 
इस घर से निकाल दूंगा इस देश से निकाल दूंगा

कुछ खराब कवि जिनसे बचने की कोशश करता हूँ
मेरे सपने में आते हैं
और इतनी देर तक बडबडाते हैं
कि मैं जाग पड़ता हूँ घायल की तरह.






भारी हवा

आततायियो तुम्हारे लिए यहाँ कोई जगह नहीं है
शासको यहाँ कोई सिंहासन नहीं जिस पर तुम बैठ सको  
हाकिमो तुम्हारे लिए कोई कुर्सी खाली नहीं है
ताक़तवरो तुम यहाँ खड़े भी नहीं रह पाओगे
लुटेरो तुम इस धरती पर एक क़दम नहीं रख सकते    
जालिमो यहाँ एक भी ऐसा आदमी नहीं
जो तुम्हारा ज़ुल्म बर्दाश्त कर पायेगा   
घुसपैठियो आखिकार तुम यहाँ से खदेड़ दिये जाओगे
आदमखोरो तुम कितनी भी कोशिश करो
मनुष्य को कभी मिटा नहीं पाओगे

यही सब कहता हूँ किसी उधेड़बुन और तकलीफ में 
आसपास की हवा लोहे सरीखी भारी और गर्म है
शाम दूर तक फैला हुआ एक बियाबान 
जहां कोई सुनता नहीं सुनकर कोई जवाब नहीं देता
शायद सुनती है सिर्फ यह पृथ्वी और उसके पेड़
जो मुझे लम्बे समय से शरण दिये हुए हैं 
शायद सुनता है यह आसमान जो हर सुबह
हल्की सी उम्मीद की तरह सर के ऊपर तन जाता है
शायद सुनती है वह मेरी बेटी
जो कहती रहती है पापा क्या आप मुझसे कुछ कह रहे हैं.




जैसे

पिता के बदन में बहुत दर्द रहता था
माँ रात में देर तक उनके हाथ-पैर दबाती थी
तब वे सो पाते थे
फिर वह खुद इस तरह सो जाती
जैसे उसने कभी दर्द जाना ही न हो 
वह एक रहस्यमय सा दर्द था
जिसकी वजह शायद सिर्फ माँ जानती थी
लेकिन किसी को बताती नहीं थी

पिता के दर्द को मुझ तक पंहुचने में कई साल लगे
लगभग मेरी उम्र जितने वर्ष
वह आया पहाड़ नदी जंगल को पार करते हुए
रोज़ मैं देखता हूँ
एक बदहवास सा आदमी चला आ रहा है
किसी लम्बे सफ़र से
जैसे अपने किसी स्वजन को खोजता हुआ.







हत्यारों का घोषणापत्र

हम जानते हैं कि हम कितने कुटिल और धूर्त हैं.
हम जानते हैं कि हम कितने झूठ बोलते आये हैं
हम जानते हैं कि हमने कितनी हत्याएं की 
कितनों को बेवजह मारा-पीटा है सताया है
औरतों और बच्चों को भी हमने नहीं बख्शा
जब लोग रोते-बिलखते थे हम उनके घरों को लूटते थे
चलता रहा हमारा खेल परदे पर और परदे के पीछे भी

हमसे ज्यादा कौन जान सकता है हमारे कारनामों का कच्चा चिट्ठा
इसीलिए हमें उनकी परवाह नहीं
जो जानते हैं हमारी असलियत.
हम जानते हैं कि हमारा खेल इस पर टिका है
कि बहुत से लोग हैं जो हमारे बारे में बहुत कम जानते हैं
या बिलकुल नहीं जानते
और बहुत से लोग हैं जो जानते हैं
कि हम जो भी करते हैं अच्छा करते हैं
वे खुद भी यही करना चाहते हैं.






शहनाइयों के बारे में बिस्मिल्लाह खान

क्या दशाश्वमेध घाट की पैडी पर
मेरे संगीत का कोई टुकड़ा अब भी गिरा हुआ होगा?
क्या मेरा कोई सुर कोमल रिखभ या शुद्ध मध्यम 
अब भी गंगा की धारा में चमकता होगा?
बालाजी के कानों में क्या अब भी गूंजती होगी 
मेरी तोडी या बैरागी भैरव?
क्या बनारस की गलियों में बह रही होगी मेरी कजरी
देहाती किशोरी की तरह उमगती हुई ?
मेरी शहनाइयों का कोई मज़हब नहीं था
सुबह की इबादत या शाम की नमाज़
वे एक जैसी कशिश से बजती थीं 
सुबह-सुबह मैं उनसे ही कहता था बिस्मिल्लाह
फिर याद आता था अरे अपना भी तो है यही नाम —बिस्मिल्लाह

याद नहीं कहाँ-कहाँ गया मैं ईरान-तूरान अमेरिका-यूरोप 
हर कहीं बनारस और गंगा को खोजता हुआ
मज़हब और मौसीकी के बीच संगत कराता हुआ
मैंने कहा कैसे बस जाऊं आपके अमेरिका में
जहां न गंगा है न बनारस न गंगा-जमुनी तहजीब
जिन्होंने मुझसे कहा इस्लाम में मौसिकी हराम है
उन्हें शहनाई पर बजा कर सुनाया राग भैरव में अल्लाह 
और कर दिया हैरान
वह सुर ही है जिससे आदमी पंहुचता है उस तक
जिसे खुदा कहो या ईश्वर कहो या अल्लाह
अरे अगर इस्लाम में है मौसिकी हराम
तो कैसे पैदा हुए पचासों उस्ताद 
जिनके नाम से शुरू हुए हिन्दुस्तानी संगीत के घराने तमाम
अब्दुल करीम, अब्दुल वहीद, अल्लादिया, अलाउद्दीन,
मंजी, भूरजी, रजब अली, अली अकबर, विलायत, अमीर खान, अमजद
कहाँ तक गिनाएं नाम 

मेरी निगाहों के सामने बदलने लगा था बनारस
भूमंडलीकरण एक प्लाटिक का नाम था
जो जम रहा था जटिल तानों जैसी गलियों में
एक बेसुरापन छा रहा था हर जगह
यह बनारस बाज़ के खामोश होने का दौर था
कत्थक के थमने और ठुमरी की लय के टूटने का दौर  
टूटी ही रही मेरे नाम की सड़क मेरे नाम की तख्ती    
एक शोर उठा बनारस अब क्योतो बन रहा है
और उसके साथ गिरे हुए मलवे में दबने लगी सुबहे-बनारस 
एक दिन इसी क्योतो में मेरी शहनाइयां नीलाम हुई
उन्हें मेरे अपने ही पोते नज़रे हसन ने चुराया 
और सिर्फ एक महंगा मोबाइल खरीदने की खातिर
बेच दिया फकत 17000रुपये में 
उनकी चांदी गला दी गयी लकड़ी जला दी गयी
उनके सुर हुए सुपुर्दे-ख़ाक 
अच्छा हुआ इस बीच मैं रुखसत हो गया  
बनारस अब कहाँ थी मेरे रहने की जगह.



उस स्त्री का प्रेम  

वह स्त्री पता नहीं कहाँ होगी
जिसने मुझसे कहा था
वे तमाम स्त्रियाँ जो कभी तुम्हें प्यार करेंगी
मेरे भीतर से निकल कर आयी होंगी
और तुम जो प्रेम मुझसे करोगे 
उसे उन तमाम स्त्रियों से कर रहे होगे
और तुम उनसे जो प्रेम करोगे
उसे तुम मुझसे कर रहे होगे 

यह जानना कठिन है कि वह स्त्री कहाँ होगी
जो अपना सारा प्रेम मेरे भीतर छोड़कर
अकेली चली गयी
और यह भ्रम बना रहा कि वह कहीं आसपास होगी
और कई बार उसके आने की आवाज़ आती थी
हवा उसके स्पंदनों से भरी होती थी
उसके स्पर्श उड़ते हुए आते थे
चलते-चलते अचानक उसकी आत्मा दिख जाती थी
उतरते हुए अँधेरे में खिले हुए फूल की तरह

बाद में जिन स्त्रियों से मुलाक़ात हुई
उन्होंने मुझसे प्रेम नहीं किया
शायद मुझे उसके योग्य नहीं समझा 
मैंने देखा वे उस पहली स्त्री को याद करती थीं
उसी की आहट सुनती थीं
उसी के स्पंदनों से भरी हुई होती थीं
उसी के स्पर्शों को पहने रहती थीं 
उसी को देखती रहती थीं
अँधेरे में खिले हुए फूल की तरह.




रोटी और कविता
(संयुक्ता के लिए)

जो रोटी बनाता है कविता नहीं लिखता
जो कविता लिखता है रोटी नहीं बनाता
दोनों का आपस में कोई रिश्ता नहीं दिखता

लेकिन वह क्या है
जब एक रोटी खाते हुए लगता है
कविता पढ़ रहे हैं
और कोई कविता पढ़ते हुए लगता है
रोटी खा रहे हैं. 
_______________________




कथा-गाथा : आखेट से पहले : नरेश गोस्वामी

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ख़रीद फ़रोख़्त का जो यह ऑन लाइन व्यवसाय है, जो हर जगह पसरा है यहाँ तक कि आप दिवंगत के लिए शोक संदेश लिख रहे थे और बगल में किसी नामी कम्पनी का उत्पाद अच्छे खासे डिस्काउंट पर चमकने लगता है और इसी बीच आप वहां भी घूम आते हैं. इस सदी ने संवेदना में दरारे डाली हैं इसकी शुरुआत टीवी पर विज्ञापनों ने की थी. अगर आप आन लाइन हैं तो एक साथ तमाम लाइनों पर आप चल क्या दौड़ रहें हैं.


इस विषय पर क्या आपने कोई कहानी पढ़ी है ? नरेश गोस्वामी की यह कहानी इसी विषय पर है, आकार में छोटी है और प्रभावी है.   
  
आखेट  से पहले
नरेश गोस्वामी 


वे दोनों अलग-अलग साइटों के निवासी हैं. लेकिन उन्‍होंने आपस में बात करना सीख लिया हैं. जब भी कोई खिन्‍न या उदास होता है तो दोनों अपनी-अपनी साइट के अज्ञात स्‍पेस में कुछ अदृष्‍य तंतुओं को जोड़ कर आपस में बात करने लगते हैं. चूंकि आदमी हमेशा मुंह से बात करता है, इसलिए उसे यक़ीन नहीं होता कि बिन मुंह की चीज़ें भी आपस में बोल-बतिया सकती हैं. स्‍क्रीन के सामने बैठे आदमी को लगता है कि सामने आती जाती चीज़ों को केवल वही देख रहा है, जबकि इधर यह हुआ है कि चीज़ें उस व्‍यक्ति की एक एक क्लिक और हरकत का हिसाब रखने लगी हैं. 

उस दिन दोनों फिर बात कर रहे थे. पहला विकट उत्‍साह में और दूसरा निराश बैठा था.   
‘‘देख लेना, वह फिर लौट कर आएगा’’. पहले ने दूसरे से कहा.  
तुम इतने यक़ीन से कैसे कह सकते हो’ ? दूसरे ने पूछा.
‘‘यक़ीन-वकीन की बात छोड़ो, मैं जो कह रहा हूं उस पर ध्‍यान दो’’.
फिर भी, कोई तो कारण होगा.

‘‘हां, है ना... तुमने देखा उसे... शुरु में वह मुझ पर सरसरी नज़र डाल कर गुजर गया. लेकिन थोड़ी ही देर में वापस लौट आया. दस-पंद्रह सैकेंड तक मुझे देखता रहा. और तुम जानते हो कि मेरे लिए इतना वक़्त काफ़ी होता है उसके भीतर उतरने के लिए... हां, पंद्रह सेकेंड बहुत होते है जनाब किसी का मन पढ़ने के लिए... देख, अगर कोई बंदा किसी प्रोडक्‍ट पर इतनी देर रुक जाता है तो इसका मतलब है कि प्रोडक्‍ट ने उसके मन में जगह बना ली है. अगर किसी वजह से उस समय वह प्रोडक्‍ट का पूरा प्रोफाइल नहीं भी देख पाता तो यक़ीन मानो कि वह जल्‍दी ही लौटेगा. अब यह मेरा काम है कि मैं बार-बार उसके सामने आता रहूं....   
मुझे तुम्‍हारी बात कुछ जम नहीं रही... मुझ पर तो किसी की नज़र नहीं गयी तीन महीनों से
‘‘तुम्‍हें जमेगी भी नहीं... तुम्‍हें यहां बिना तैयारी के बैठा दिया गया है...पर वह बात बाद में करेंगे’’.
मतलब

‘‘फिलहाल मतलब यही है कि अगर किसी बंदे ने मुझे एक बार रुककर देख लिया तो फिर ये मेरी जि़म्‍मेदारी है कि मैं हमेशा उसकी आंखों के सामने रहूं... यू नो, वी शुड रिगार्ड दी कस्‍टूमर ऐज़ गॉड.... वह मुझे देखे न देखे, लेकिन यह मेरा फ़र्ज है कि मैं उसे हमेशा देखता रहूं... इंतज़ार करता रहूं कि कभी न कभी तो मुझ पर उसकी कृपा होगी’’

लेकिन, अगर बंदे के पास ऑलरेडी कई जूते हों तो वह नये क्‍यों खरीदेगा. दूसरे की जिज्ञासा देर तक शांत नहीं हुई. 
‘‘तो, इससे क्‍या ! मुझे इससे क्‍या मतलब कि उसके पास और कितने जूते हैं. मेरा मतलब केवल इस बात से है कि मैं उसके कलेक्‍शन में कब आ रहा हूं’’. पहले ने आत्‍मविश्‍वास से कहा.
लेकिन, तुमने अभी तक मुझे यह नहीं बताया कि तुम्‍हें यह कैसे पता चल जाता है जो बंदा तुम्‍हें अभी देखकर गया है, वह दुबारा लौट कर आएगा

 ‘‘वैसे यह बहुत सिंपल है गुरु, पर जैसा कि मैंने अभी कहा, तुम्‍हें बिना तैयारी के बिठा दिया गया है. तुम लोग अपडेट नहीं करते... जैसे अभी जो यह बंदा पलट कर गया है, उसकी कोई प्रॉब्लम है. हो सकता है कि उसका कद छोटा हो और वह ऊंची हील वाला जूता ढूंढ रहा हो. या अगर वह अभी तय नहीं कर पा रहा है तो इसका मतलब है कि वह कुछ और चाहता है. वह डील के लिए तैयार है पर उसे कुछ एक्‍सट्रा चाहिए... हो सकता है कि उसके पास वाक़ई कई जोड़ी जूते हों और उसे नये जूतों की बिल्‍कुल भी ज़रूरत न हो तो ऐसे में मुझे उसे कुछ एक्‍सट्रा ऑफ़र करना चाहिए...’’. पहले ने दूसरे की तरफ़ पहेली बूझने की निगाह से देखा है.     
मैं समझा नहीं. दूसरे ने पहले के पास सरकते हुए पूछा.

तुम भी अजीब हो यार... अरे, बात साफ़ है कि बंदा थोड़ा स्‍मार्ट है. वह इंतज़ार करना चाहता है. अपनी जेब में वह तभी हाथ डालेगा जब उसे लगेगा कि यह प्रोडक्‍ट उसे फ्री बराबर मिल रही है. वह इस पर तभी हाथ रखेगा जब उसे पचास पर्सेंट से ऊपर का डिस्‍कांउट दिया जाएगा और उसके कार्ट में यह मैसेज फ़्लैश किया जाएगा कि यह डील कल सुबह ग्‍यारह बजे तक ख़त्‍म हो जाएगी... अच्‍छा, चलो तुम्‍हें एक बंदे का किस्‍सा सुनाता हूं. वह शायद ऐसा ही कोई आदमी रहा होगा जो अभी हमारे सामने सारी डीटेल्‍स पढ़कर लॉग आउट कर गया है... तो ख़ैर वो बंदा कई दिनों से स्‍वेड के जूते देख रहा था. साइज और कलर सब कुछ सलेक्‍ट कर लेता था, लेकिन आखिर में ऑर्डर करने के बजाय कार्ट में डाल कर फुर्र हो जाता था. जूता ज़रा हाई-ऐंड था. मैं उसे कई दिनों तक लगातार देखता रहा. मैं उसकी हरकतें देख रहा था. वह फिदा तो इसी प्रोडक्‍ट पर था पर शायद कीमत पर आकर अटक जाता था. वह बीसियों दिन इसी तरह खेलता रहा रहा. मैं हर दिन सोचता कि आज तो वह ज़रूर फाइनल कर देगा, लेकिन बंदा पांच दस मिनट ऊपर नीचे स्‍क्रॉल करता और फिर सब फुस्‍स.

मैं जानता था कि बंदा ख़ुद को कुछ ज्‍़यादा ही स्‍मार्ट समझ रहा है. उसे लगा होगा कि बीस पच्‍चीस दिनों में कभी तो कीमत नीचे आएगी ही. कई कस्‍टूमर दिमाग़ की दही बना देते हैं. ऐसे लोग कई साइटों पर एक साथ सैर करते रहते हैं. और जहां सस्‍ता मिलता है झट से‍ क्लिक कर देते हैं. इसे वे रिसर्च करना कहते हैं. पर ये तो हम ही जानते हैं बेटा कि ये रिसर्च-विसर्च कुछ नहीं होती. सारी सूचनाएं तो पहले से तय रहती हैं. ख़ैर, हमने भी ठान रखा था कि बच्‍चू तुम्‍हें हम कहीं और तो नहीं जाने देंगे... तो हुआ यूं कि छब्‍बीसवें दिन साइट ने एक मैसेज तैयार किया: स्‍वेड सीरीज़ में पेश है आपके लिए स्‍टाइल और कंफ़र्ट का नया स्‍टेटमेंट... चुनिये और भूल जाईये ! उस दिन हमने उसके सामने इतने मॉडल रख दिए थे कि वह बचकर नहीं जा सकता था. मतलब आखिरकार हमने बंदे से एक जूता फाइनल करवा ही लिया’’.

अपनी सफलता की कहानी सुनाते हुए पहला मोर नृत्‍य करने लगा था. दूसरा उसे निष्‍चेष्‍ट देखे जा रहा था. उसके पूरे वजूद पर रिरियाहट तारी थी.
लेकिन, मेरा क्‍या होगा... मेरी तरफ़ तो कोई आता ही नहीं. दूसरा कातर होता जा रहा था.
हां...हां तुम्‍हारा भी नंबर लगवाते हैं. पहला इतना प्रमुदित है कि फिलहाल कोई भी वादा कर सकता है.

तभी पहले को अपने आसपास एक नयी हरकत महसूस हुई. एक सेकेंड बीता होगा कि वह ख़ुशी से झूमने लगा है. वह एक के बाद एक पहलू बदलने लगा है. कभी सामने से आता है, कभी साइड से आता है. कभी पट लेट जाता है. कभी एकदम उल्‍टा हो जाता है. बिल्‍कुल इस तरह कि जैसे रैंप पर कोई मॉडल चल रहा हो और अंधेरे में फ़ोटाग्राफ़र्स के फ़्लैश दमक रहे हों.

दूसरा उसे अवाक् देखे जा रहा है.
‘‘देख, वो बंदा फिर इधर आ रहा है. वह फिर ऊपर-नीचे, आगे-पीछे दौड़ लगा रहा है... लो देखो, वह नये मैसेज पर रुक गया है: जूते की हील बाहर से देखने में भले ही छोटी लगे लेकिन उसका एक हिस्‍सा अंदर छुपा हुआ है... शान से पहनिये, मस्‍त रहिये
... अरे, अरे देखो, उसने तो ऑर्डर भी कर दिया है! ’’.

दूसरा उसकी ख़ुशी में शामिल होना चाहता है लेकिन वह नहीं जानता कि इसकी शुरुआत कहां से करे. उसे यह सब जादू का खेल लग रहा है. वह चकित है कि पहला कस्‍टूमर की इच्‍छा के बारे में इतनी आसानी से कैसे जान लेता है.

लेकिन अभी वह सोच ही रहा था कि अब दंग रह गया है. उसके भीतर कोई नन्‍हीं सी घंटी बजी है और उसका यह ख़याल ख़ुद ब ख़ुद पहले तक पहुंच कर और वहां से जवाब लेकर लौट आया है. दूसरा चौंक कर देखता है कि वह पहले के बिल्‍कुल नजदीक पहुंच गया है. उसके भीतर फिर वही नन्‍हीं घंटी बजती है:    
‘‘हमसे मुक़ाबला करोगे तो मार्केट में टिक नहीं पाओगे... बेहतर होगा कि हमारे साथ मिल जाओ’’
दूसरा देखता है कि पहले वाले का फ्रेम इतना चौड़ा हो गया है कि‍ दोनों अपनी-अपनी साइटों से उठ कर अचानक एक दूसरे के बाजू में आकर बैठ गए हैं. अब दोनों एक साथ मुस्‍कुरा रहे हैं. उनके पीछे दुनिया के किसी महानगर की इकतालिसवीं मंजिल पर अपने ऑफि़स में बैठा सुशील कृपलानी टॉप मैनेजमेंट को मेल लिख रहा है: हैप्‍पी टू शेअर विद यू दैट चोपड़ाज हैव एग्रीड टू मर्ज विद अस, फ़ायनली. मेल भेजने के बाद उसने यह सूचना नि‍चले स्‍टाफ़ को फॉरवर्ड कर दी है, और दो मि‍नट बाद ही साइट पर ख़बर दमकने लगी है: जूतों की प्रसि‍द्ध कंपनी चोपड़ा शूज का लकार्ट में वि‍लय. कृपलानी के चेहरे पर विजय की तिरछी मुस्‍कान उभरी है. वह ख़ुशी में चुटकी बजा रहा है. चुटकी के साथ उसके मुंह से शायद यस, वी कैनभी निकला है, लेकिन वह चुटकी की आवाज़ में दब गया है. अभी तक पहला और दूसरा सिर्फ़ जूते की तरह मुस्‍कुरा रहे थे. अब दोनों आदमी की तरह हंसने लगे हैं.      
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कृष्ण बलदेव वैद : डायरी का दर्पण : आशुतोष भारद्वाज

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उदयन वाजपेयी के संपादन में प्रकाशित त्रैमासिक ‘समास’ साहित्य की कुछ गिनती की गम्भीर पत्रिकाओं में से एक है. इसके सोलहवें अंक (जुलाई-सितम्बर 2017) में हिंदी के महत्वपूर्ण उपन्यासकारों में से एक कृष्ण बलदेव वैद से उदयन की सुदीर्घ बातचीत प्रकाशित हुई है, वैद की डायरी के कुछ हिस्सों के साथ. यह डायरी ‘अब्र क्या चीज़ है? हवा क्या है?’ राजकमल से २०१८ में छप कर आ चुकी है.

इस दिलचस्प बातचीत में उदयन वैद से उनकी निर्मल वर्मा की मित्रता के विषय में भी पूछते हैं. वैद के शब्दों में यह दोस्ती १९८४ तक ‘पुरानी, परायी और किसी कदर कसैली’ हो चुकी थी’.

आलोचक-लेखक आशुतोष भारद्वाज ने वैद की डायरी पर यह लेख लिखा है, इसका एक बड़ा हिस्सा इसी दोस्ती पर है.

पढ़ते हैं. हमेशा की तरह मोहक और मारक.  



कृष्ण बलदेव वैद 
डा  य री  का  दर्पण                                       
आशुतोष भारद्वाज





ई जिल्दों में फैली कृष्ण बलदेव वैद की डायरियों में प्रवेश का एक रास्ता है लेखक का अपने सबसे क़रीबी मित्र के साथ सम्बंध जिसका ज़िक्र १९५० के दशक से लेकर पचास साल बाद उनकी मृत्यु तक वैद की डायरियों में अनेक रूप में आता है. अगर किसी पाठक को इन दोनों लेखकों की दोस्ती और लेखन के बारे में रत्ती भर भी इल्म न हो, तब भी ये डायरियाँ उस रिश्ते और उसके आईने से इनकी लेखकीय सृष्टि की बड़ी प्रामाणिक तस्वीर बनाती हैं.



शुरुआत तीन नवम्बर दो हजार चार की इस डायरी से करते हैं.



कल रात के स्वप्न में निर्मल और मैं कहीं एक साथ थे. आमने-सामने बैठे हुए. निर्मल ने अंग्रेजी में कहा: यू नो दैट माई एंटायर रायटिंग इज़ डायरेक्टिद ऐट यू? इससे पहले कि मैं कुछ कहता उसने कह दिया: आई नो दैट यूअर एंटायर रायटिंग इज़ डायरेक्टिद ऐट मी. जब वह यह कह रहा था तो मुझे काफ़्का का अपने पिता के नाम के नाम वह मशहूर लम्बा ख़त याद आ रहा था को इस वाक्य से शुरू होता है और जो काफ़्का की मृत्यु के बाद ही प्रकाश में आ सका था और जिसे काफ़्का ने अपने पिता को भेजा नहीं था. और साथ ही अनाइस नीन की डायरी में लिखी यह बात कि उसका सारा लेखन उसके पिता को संबोधित एक लम्बा ख़त ही था.



एक रचनाकार के स्वप्न में दूसरा लेखक आकर कहता है कि हम दोनों का लेखन मूलतः और अंततः एक दूसरे को ही संबोधित है, हम एक दूसरे के लिए ही लिखते हैं. वह रचनाकार सुबह उठ इस सपने को डायरी में दर्ज करता है, उसे प्रकाशित कर सार्वजनिक भी कर देता है. इसके निहितार्थ को समझने के लिए स्वप्न-विज्ञान में महारत हासिल करने की जरूरत नहीं है.

वैद की डायरियों में तमाम लेखक, चित्रकार आते हैं, उनके साथ बिताये लम्हे भी. लेकिन एक लेखक हमसाये और हमनवाज़ की तरह शुरू से ही उनके साथ चलता है, उनके सपने में आ कुलबुलाता है. वैद की डायरियों में उस लेखक का सबसे पहला उल्लेख १९५६ का है जब दोनों दिल्ली में रहते थे, तंगी के दिन थे, दोनों एक ही लड़की को ट्यूशन पढ़ाया करते थे.

ट्यूशन पढ़ा कर लौटा हूँ. बस का इंतज़ार घंटों करना पड़ा. खाना भी काफ़ी ख़राब मिला. ट्यूशन वाली लड़की के मज़ाक़ से भी मूड ख़राब है. उसने मेरे चेहरे की तुलना चिड़िया से करते हुए पूछा कि मैं इतना सूख क्यों गया हूँ. लड़की शमशाद बेगम की बेटी! उसने देख लिया होगा कि मुझे उसकी उपमा बुरी लगी है. मैं उसे अंग्रेज़ी पढ़ाता हूँ, निर्मल इतिहास. बदले के तौर पर कल उसे पढ़ाने नहीं जाऊँगा.

इसके कुछ साल दोनों भारत छोड़ देते हैं, एक यूरोप चला जाता है, दूसरा अमरीका. दोनों भारतीय कथा साहित्य में नए किले स्थापित करते हैं, विलक्षण गद्य का संधान करते हैं. दोनों का अध्ययन विपुल है, शब्द के प्रति समर्पण घनघोर, आत्म-प्रचार से दूर, साधक-लेखक की छवि को चरितार्थ करते हुए. दोनों की दोस्ती गहरी होती जाती है. निर्मल अमरीका में वैद के घर रुकते हैं, वैद निर्मल के पास प्राग आते हैं, दोनों प्राग से कृष्णा सोबती को एक पिक्चर पोस्टकार्ड लिखते हैं.

लेकिन कुछ और भी घटित होता है --- हिंदी जगत निर्मल की कथाओं से तो तुरंत सम्मोहित हो जाता है, उसका बचपन एक क्लासिक का दर्जा हासिल ज़रूर करता है, वैद के लेखन के मुरीद कई बनते हैं, लेकिन वैद का पाठक वर्ग निर्मल जितना व्यापक नहीं हो पाता, और इस दरमियाँ कहीं दोस्ती भी धीरे-धीरे दरकने लगती है.

क्या इसकी एक वजह वह है जो वैद १९९३ की अपनी डायरी में दर्ज करते हैं?

निर्मल जब से प्रतिष्ठित हुआ है तब से वह मुझे काट रहा है, ऐसे संकेत मुझे कई दिशाओं से मिलते रहे हैं कि उसने मेरे काम को नकारा है, उसकी निंदा की है. शुरू के दौर में वह मेरा प्रशंसक हुआ करता है. अब अगर कोई मेरी प्रशंसा करे तो वह हैरान होता है, हैरानी के माध्यम से यह व्यक्त करता है कि वह मेरे काम को कमतर समझता है. कहीं-न-कहीं उसे यह असुरक्षा है कि मैं उसका हमपल्ला हूँ, शायद उससे बेहतर हूँ, मेरी निंदा सुन वह ख़ुश होता है. मेरी कोशिश यह रहती है कि कोई मेरे सामने उसकी निंदा न करे. मेरे मन में उसके काम को लेकर कई संकोच हैं लेकिन मैं उसकी ख़ूबियों को नकारता नहीं, अपने मन में भी नहीं.

इन दोनों दिगज्जों के बीच की दरार हिंदी को दिखने लगी है, इसकी ध्वनियाँ भी सुनाई देती हैं.

१९९७ में वैद उदयपुर आए हुए हैं. एक दिन नामवर सिंह उनसे मिलने आते हैं, वैद डायरी में लिखते हैं:
नामवर जी अचानक बोले वैद और निर्मल के द्वंद्व से कृष्णा सोबती ने ख़ूब फ़ायदा उठाया है. मैंने या किसी और ने उनकी इस बात को आगे नहीं बढ़ाया. वे न जाने क्या कहना और कहलवाना चाहते थे.


नामवर किस फ़ायदेका ज़िक्र कर रहे थे?
वैद इससे अनभिज्ञ नहीं हैं कि उनके तमाम लेखक मित्र निर्मल के गद्य के शायद कहीं बड़े शैदाई हैं, कई युवा लेखक तो लगभग भक्त हैं. अस्सी के दशक में निर्मल कुछ वर्ष निराला सृजन पीठ पर भोपाल में रहते हैं, उसके बाद वैद भी उसी पीठ पर आते हैं, और १९८८ में भोपाल की यह डायरी. 

लड़कों (मुन्ना, मदन, ध्रुव) से आज छोटी सी बैठक हुई. तीनों निर्मल जीसे आक्रांतहैं लेकिन तीनों उस आतंक से मुक्त भी होना चाहते हैं.




(दो)
कई बरस पहले मैंने वैद का लम्बा साक्षात्कार किया था. उसमें वे निर्मल से अपनी दोस्ती को लेकर खुल कर बोले थे: 

लेखकों की मित्रता में बीतते वक्त के साथ विकार आने लगते हैं. भारत में ही नहीं बाहर भी. काम्यू-सार्त्र का झगड़ा तो मशहूर है. वैचारिक मतभेद, पर्सनल बातें भी आ जाती हैं. शुरुआत की सी घनिष्ठता आखिर के दिनों में नहीं रहती. जैनेंद्र और अज्ञेय में नहीं थी. उसका कुछ न कुछ अवशेष लेकिन आखिर तक भी रहता है जैसा निर्मल और मेरे साथ रहा. एक खास किस्म की निकटता थी जो किसी और के साथ उसकी भी शायद न थी, मेरी भी नहीं. लेकिन दूरियाँ भी थीं. बीच में कुछ बातें आने लगती हैं. ईगो कह लीजिये.

उन्होंने निर्मल से अपनी शिकायतों का भी उल्लेख किया था.

अपने कुछ दोस्तों, खासतौर पर निर्मल से, मुझे यह शिकायत होने लगी थी कि वे सैल्फ-राइचस होते जा रहे थे. निर्मल में शायद यह प्रवृत्ति शुरु में भी होगी लेकिन बाद में यह प्रबल होती गयी थी. उनके आखिरी दिनों में दो चीजों ने उन्हें बहुत गिराया, अपने पद से और मेरी नजर से, कि उनके जो दोष दूसरों को साफ दिखाई देते थे उनसे वे बेखबर रहने लगे थे. दूसरों की दृष्टि और विचारों में दोष निकालते हुये वे ऐसे इंसान की मुद्रा बना लेते थे जिसे यह शक जरा भी न हो कि उसमें भी ये दोष हो सकते हैं. जब वे दूसरों को ईमानदारी का उपदेश देने लगते थे तो अपनी बेईमानी को भूल जाते थे.

जब मैंने पूछा कि क्या आप दोनों एक दूसरे को अपनी पांडुलिपियाँ पढ़वाते थे, अपने लिखे पर राय लेते थे, तो वैद बोले कि निर्मल ने उनसे कभी राय नहीं ली,“लिखने या छपने के बाद हाँ पढ़ते थे एक दूसरे को लेकिन फिर वो भी कम होता गया.

आपने एक दूसरे को पढ़ना ही बंद कर दिया?”

नहीं, मैं तो पढ़ता रहा लेकिन मेरा ख्याल है निर्मल ने बंद कर दिया.

हो सकता है वे भी आपको पढ़ते रहे हों लेकिन बताया नहीं हो आपको.

हाँ, हो सकता है यह भी.



(तीन) 
नाइजीरियन-अमरीकन लेखक तेजू कोले ने वर्जीनिया वूल्फ की डायरी पढ़ने के अपने अनुभव पर एक निबंध लिखा है. वह देर रात तलक डायरी पढ़ते रहे, सुबह सोकर उठे तो आँखों के सामने धुंधला महसूस किया. डायरी पढ़ने के बाद मैं उनके शब्दों के आलोक में सोने चला गया. तक़रीबन तीन का वक्त था. मैं बिना सपनों के सोया. उठा तो मेरी बाईं  आँख पर स्लेटी पर्दा छाया था. पूरी तरह दृष्टि नहीं खोयी थी, मैं उस पर्दे के धुंधले किनारे देख सकता था. कोई दर्द भी नहीं था. बाथरूम की सिंक में आँखों पर ठंडा पानी छिड़कते वक्त मुझे लगा कि क्या यह मेरे अवचेतन की क्रिया थी? क्या मैं उन निरीह लोगों में से हूँ जो लिखे हुए शब्द के प्रति करुणा के वशीभूत हो अँधेरे में डूबते जाते हैं?”

वर्जीनिया वूल्फ की डायरी जो तेजू पढ़ रहे थे १९४०-४१ में लिखी गयी थी, वूल्फ ने उसमें विश्व युद्ध में नष्ट हुए अपने लन्दन के घर, हवाई हमलों की भीषणता, अपने प्रेमी के प्रति उमड़ती आकांक्षा, जेम्स जॉयस की असामयिक मृत्यु के बाद का अवसाद दर्ज किया था. सत्तर साल पहले दर्ज हुआ एक अंग्रेज लेखिका का निजी अनुभव तेजू को बैचैन करता है, यह डायरी विधा की शक्ति, उपलब्धि है.

रचनाकार की डायरी पाठक को बड़े आत्मीय तरीक़े से संबोधित करती है, उससे अपनापा जोड़ लेती है. डायरी को लेखक की नोटबुक कहा जाता है, जिसमें वह अपने लेखन का कच्चा माल संजोता है. डायरी लेकिन एक मंच भी है. एक विराट रंगमंच जहाँ लेखक खुद से संवाद करता है. हेमलेट सा मोनोलोग, आत्मालाप, जिसे पाठक जब अरसे बाद पढ़ता है उस लेखक की रूह को मथते तत्वों से गुजरता है. आत्ममंथन के यही क्षण किसी डायरी को ऊपर उठाते हैं. कितनी बेबाकी, क्रूरता से लेखक खुद को, अपनी वासना, हसरत, अंतर्द्वंदों को उकेरता है, उनसे जूझता है.

कृष्ण बलदेव वैद की डायरियाँ एक गद्यकार के रचना कर्म, सहयात्रियों और जीवन के अनेक पक्षों को उजागर करती उस तिलिस्म को खोलने की चाभी भी हैं वैद की कथाएं निर्मित करती हैं. दूसरा न कोई का अकेला मरता जलावतनी बूढा, बिमल उर्फ़ जाएँ तो जाएँ कहाँ का शरारती नायक, उसका बचपन में खाली ढोल की तरह बजता काला दुःख --- इन सबके चिन्ह उनकी डायरी में मिलते हैं. अपने लेखकीय जीवन की शुरुआत से ही वैद ने डायरी को अपना दर्पण बना लिया था, जिसके भीतर वह अपने को तलाशा-तराशा किया करते थे.

मुल्कराज आनंद पर शोध करने के लिए वह उनके घर खंडाला रहे थे लेकिन उनकी भाषा और उपन्यासों का नकलीपन जान उनसे मोहभंग हुआ. मित्रों पर बेबाक टिप्पणियां, अशोक वाजपेयी की नफासत, सलीके और अफसरियत का जिक्र और यह कथन --- अगर रमेश चंद्र शाह सहज हो जाएँ तो उनकी बात दिलचस्प और खरी हो जाती है, लेकिन वे सहज कम ही हो पाते हैं.

अपना स्वर हासिल करने की आकांक्षा वैद में आरंभ से ही थी, उनकी डायरी इसकी साक्षी रही है:

अब कुछ ऐसा लिखना चाहिए जिसके लिए अगर सूली पर भी चढ़ना पड़े तो झिझक न हो ख़ौफ़नाक, गहरा, नरम.

उनका यही स्वभाव उन्हें अज्ञेय से दूर ले जाता है. पचास के दशक में अज्ञेय कई लेखकों के महानायक बन उभरे थे, वैद ने लेकिन शेखर में नकलीपन चिन्हित कर लिया था --- 

शेखर में खोखलाहट और बनावट ज्यादा है. शेखर बतौर किरदार और इंसान अरोचक है, अज्ञेय उसे रोचक मानते हैं, इस पर हैरानी होती है.

१९५५ में दर्ज हुआ ये दो वाक्य एक युवा लेखक के दुस्साहस का, हिंदी कथा साहित्य की प्रचलित राह से अलग अपनी जगह बनाने का संकेत हैं.

वैद अपने और निर्मल के फ़र्क़ को इस तरह देखते हैं: 

निर्मल और मुझमें बड़ा अंतर: वह मर्यादा का मुरीद, मैं विरोधी.

लेकिन क्या निर्मल वाकई उतने मर्यादा-प्रेमीथे जैसा वैद इंगित करते हैं? क्या वैद अपने दोस्त के प्रति ज़्यादती कर रहे हैं? क्या यह आंकलन उस बारीक खाई का सूचक है जो दोनों के बीच चलती और बढ़ती गयी है? मसलन १९८९ की यह डायरी: कल शाम शीला संधू के घर निर्मल की शादी की दावत दबी दबी सी. ठंडी और उबाऊ. जब हम पहुँचे तो निर्मल शामलाल जी से बात कर रहा था, उस बात को एक आड़ के तौर पर इस्तेमाल कर रहा थानिर्मल बूढ़ा दूल्हा बना शामलाल जी के साथ ही जुड़ा रहाभीष्म ने कुछ अश्लील लतीफ़े मुझे सुनाए लेकिन उनसे से भी बात नहीं बनी.

ज़्यादती के इस प्रश्न को किसी आगामी लेख या इन दोनों के जीवनीकार के लिए छोड़ते हैं.

वैद निर्मल की बढ़ती सार्वजनिकतादेख नाख़ुश भी होते हैं. उनकी १९८५ की डायरी: इस बार जब निर्मल के घर गया तो बाहर से सब कुछ बुझा बुझा और बासी नज़र आयानिर्मल का मुस्कराता हुआ चेहरा जैसे कोई टेढ़ा बूढ़ा कमल खिलने की कोशिश कर रहा होबातों बातों में पता चला कि कुछ ही दिन बाद निर्मल किसी गांधी मेले में शामिल होने जा रहा है. उसकी ज़िंदगी के इस पक्ष को में समझ नहीं पाया उसका मंच-मोह!

यहाँ यह भी जोड़ना चाहिए कि वैद अपने प्रति भी बड़े निर्मम हैं. उन्हें पाठक और आलोचक की दरकार नहीं, अपनी डायरियों में वह किसी लेखक की शायद सबसे बड़ी कमज़ोरी पाठक की आकांक्षा से भी उबरते दिखाई देते हैं. वे पाठक भी अपनी ही शर्तों पर चाहते हैं. मसलन सात जून दो हजार चार को वह लिखते हैं: 

आज शाम रमेश दवे की किताब कृष्ण बलदेव वैद: गल्प का विकल्प के प्रूफ मुझे भेजे गए. तीन-चार घंटे उसी को दिए. दोहराव बहुत है. मुझे प्रतिष्ठितकरने का प्रयास जहीन है, लेकिन शोध में कई दोष हैं और उतावली के कई प्रमाण भी. फिर भी किताब अपने यहाँ के मानकों के सन्दर्भ में मजबूत है, ‘बुरीनहीं, बड़ी भी शायद न हो.

वैद का लेखकीय संसार विराट है लेकिन उन पर आलोचकीय काम बहुत कम हुआ है. तमाम लेखक लालयित रहते हैं कोई उन पर कुछ लिख दे, दो-चार लाइन ही घसीट दे, लेकिन वह ख़ुद पर लिखी गयी आलोचनाकिताब को कोई खास महत्व नहीं देते.

वह एक जगह लिखते हैं: 

मैं कड़ा नक्काद हूँ, अपना भी औरों का भी. इसलिए मैं औरों को पसन्द हूँ न अपने आपको. इसलिए मैं इतना अकेला और अकुलाया हुआ रहता हूँ.

जाहिर है ऐसा इंसान अपने दोस्तों के काम का भी कड़ा आलोचक होगा. लेकिन वैद की डायरी में निर्मल का जिक्र सिर्फ तल्खी या शिकायत के साथ ही नहीं आता, ऐसे तमाम अवसर हैं जब वैद जिस निर्मलीय भावुकतापर सवाल उठाते हैं, उसी भीगे हुए भाव से अपनी दोस्ती को दर्ज करते हैं.

छब्बीस फ़रवरी दो हज़ार पाँच को वैद बीमार निर्मल को देखने उनके घर जाते हैं. निर्मल अरसे से बीमार चल रहे हैं. तब तक दोनों के बीच तमाम झगड़े हो चुके हैं, लेकिन वैद लिखते हैं: 

देखने में वह लाचार और कमज़ोर नज़र नहीं आ रहा था. उसकी आवाज़ कमज़ोर थी और उसके फेफड़ों से बोलते समय घर-घरकी आवाज़ आ रही थीतनाव तो नहीं था, कसाव कुछ था. सब जाने के लिए एक साथ ही उठे. घर से बाहर निकलने से पहले मैं और निर्मल बग़लगीर हुए. वह क्षण शुद्ध आत्मीयता का था. गगन देख रही थी और भर्रायी हुई मुस्करा रही थी. मैंने निर्मल से कहा: तमाम बातों के बावजूद तुम और मैं सोल-मेट्सहैं, हमात्मा हैं.

या बाईस नवम्बर दो हजार दो की यह पेरिस डायरी.

परसों रात निर्मल सुबह चार बजे तक मेरे कमरे में बैठा रहा. कुछ पीते रहे, कुछ भावुक हुए, दो बजे तक मुन्ना साथ था, फिर वह हमें अकेला छोड़ने के लिए ही शायद चला गया --- दो बूढ़े साबिका दोस्तों को आपसी रंजश दूरी दूर या काम करने का अवसर देने के लिए ही शायद. हम अपने-अपने प्रोस्टेट ऑपरेशन के बारे में बात करते रहे.

दो वयोवृद्ध लेखक विदेश यात्रा पर हैं, अपने प्रोस्टेट ऑपरेशन के बारे में सुबह चार बजे तक बात कर रहे हैं.

वैद की डायरियाँ उकसाती है कि इस दोस्ती को टटोला जाए, इस दोस्ती के कभी नज़दीक कभी दूर घटित होती दोनों की कथा-यात्रा के सहारे दोनों की जीवनी लिखी जाए.

वैद की डायरी निर्मल की बीमारी का बड़ी मार्मिकता से ज़िक्र करती है. मृत्यु के बाद तो कई पन्ने निर्मल पर हैं. पच्चीस अक्तूबर दो हजार पाँच, मृत्यु से कुछ ही घंटे पहले की वैद की यह डायरी: आज कृष्णा के फोन के दौरान जब निर्मल का जिक्र आया और मैंने उसे निर्मल की बुरी हालत के बारे में बताया तो वह बुझ गयी और हम दोनों उदास हो गए.

और अगले दिन चिता के सामने यह डायरी: निर्मल की मौत में मुझे अपनी मौत दिखाई देती रही.

डायरियाँ निर्मल ने भी काफ़ी लिखी हैं, लेकिन हैरानी की बात है कि जो इंसान उनकी मौत में अपनी मौत देख रहा था, जिसके साथ निर्मल  ने तमाम चीज़ें साझा की थीं, शायद प्रेम भी, जिसके साथ वह जवानी के दिनों में एक लड़की को ट्यूशन पढ़ाने जाते थे, जो उनका हमकलम, हमनवा, हमराज़, हमग़म, हमजौक़, हममज़ाक़था, उसका ज़िक्र निर्मल की डायरी में कहीं नहीं आता.

कहीं भी नहीं.

जीवनीकार को यह अनुपस्थिति भी प्रेरित कर सकती है.
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abharwdaj@gmail

कथा-गाथा : आखेट से पहले : नरेश गोस्वामी

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ख़रीद फ़रोख़्त का जो यह ऑन लाइन व्यवसाय है, जो हर जगह पसरा है यहाँ तक कि आप दिवंगत के लिए शोक संदेश लिख रहे थे और बगल में किसी नामी कम्पनी का उत्पाद अच्छे खासे डिस्काउंट पर चमकने लगता है और इसी बीच आप वहां भी घूम आते हैं. इस सदी ने संवेदना में दरारे डाली हैं इसकी शुरुआत टीवी पर विज्ञापनों ने की थी. अगर आप आन लाइन हैं तो एक साथ तमाम लाइनों पर आप चल क्या दौड़ रहें हैं. ज्यों ही आप कोई उत्पाद देखते हैं, संभावित खरीददार बन बैठते हैं और वह आप पर नज़र रखता है ठीक शिकारी जैसे अपने शिकार पर. 


इस विषय पर क्या आपने कोई कहानी पढ़ी है ? नरेश गोस्वामी की यह कहानी इसी विषय पर है, आकार में छोटी है पर प्रभावी है.   
  
आखेट  से पहले                               
नरेश गोस्वामी 








वेदोनों अलग-अलग साइटों के निवासी हैं. लेकिन उन्‍होंने आपस में बात करना सीख लिया हैं. जब भी कोई खिन्‍न या उदास होता है तो दोनों अपनी-अपनी साइट के अज्ञात स्‍पेस में कुछ अदृष्‍य तंतुओं को जोड़ कर आपस में बात करने लगते हैं. चूंकि आदमी हमेशा मुंह से बात करता है, इसलिए उसे यक़ीन नहीं होता कि बिन मुंह की चीज़ें भी आपस में बोल-बतिया सकती हैं. स्‍क्रीन के सामने बैठे आदमी को लगता है कि सामने आती जाती चीज़ों को केवल वही देख रहा है, जबकि इधर यह हुआ है कि चीज़ें उस व्‍यक्ति की एक एक क्लिक और हरकत का हिसाब रखने लगी हैं. 

उस दिन दोनों फिर बात कर रहे थे. पहला विकट उत्‍साह में और दूसरा निराश बैठा था.   
‘‘देख लेना, वह फिर लौट कर आएगा’’. पहले ने दूसरे से कहा.  
तुम इतने यक़ीन से कैसे कह सकते हो’ ? दूसरे ने पूछा.
‘‘यक़ीन-वकीन की बात छोड़ो, मैं जो कह रहा हूं उस पर ध्‍यान दो’’.
फिर भी, कोई तो कारण होगा.

‘‘हां, है ना... तुमने देखा उसे... शुरु में वह मुझ पर सरसरी नज़र डाल कर गुजर गया. लेकिन थोड़ी ही देर में वापस लौट आया. दस-पंद्रह सैकेंड तक मुझे देखता रहा. और तुम जानते हो कि मेरे लिए इतना वक़्त काफ़ी होता है उसके भीतर उतरने के लिए... हां, पंद्रह सेकेंड बहुत होते है जनाब किसी का मन पढ़ने के लिए... देख, अगर कोई बंदा किसी प्रोडक्‍ट पर इतनी देर रुक जाता है तो इसका मतलब है कि प्रोडक्‍ट ने उसके मन में जगह बना ली है. अगर किसी वजह से उस समय वह प्रोडक्‍ट का पूरा प्रोफाइल नहीं भी देख पाता तो यक़ीन मानो कि वह जल्‍दी ही लौटेगा. अब यह मेरा काम है कि मैं बार-बार उसके सामने आता रहूं....   
मुझे तुम्‍हारी बात कुछ जम नहीं रही... मुझ पर तो किसी की नज़र नहीं गयी तीन महीनों से
‘‘तुम्‍हें जमेगी भी नहीं... तुम्‍हें यहां बिना तैयारी के बैठा दिया गया है...पर वह बात बाद में करेंगे’’.
मतलब

‘‘फिलहाल मतलब यही है कि अगर किसी बंदे ने मुझे एक बार रुककर देख लिया तो फिर ये मेरी जि़म्‍मेदारी है कि मैं हमेशा उसकी आंखों के सामने रहूं... यू नो, वी शुड रिगार्ड दी कस्‍टूमर ऐज़ गॉड.... वह मुझे देखे न देखे, लेकिन यह मेरा फ़र्ज है कि मैं उसे हमेशा देखता रहूं... इंतज़ार करता रहूं कि कभी न कभी तो मुझ पर उसकी कृपा होगी’’

लेकिन, अगर बंदे के पास ऑलरेडी कई जूते हों तो वह नये क्‍यों खरीदेगा. दूसरे की जिज्ञासा देर तक शांत नहीं हुई. 
‘‘तो, इससे क्‍या ! मुझे इससे क्‍या मतलब कि उसके पास और कितने जूते हैं. मेरा मतलब केवल इस बात से है कि मैं उसके कलेक्‍शन में कब आ रहा हूं’’. पहले ने आत्‍मविश्‍वास से कहा.
लेकिन, तुमने अभी तक मुझे यह नहीं बताया कि तुम्‍हें यह कैसे पता चल जाता है जो बंदा तुम्‍हें अभी देखकर गया है, वह दुबारा लौट कर आएगा

 ‘‘वैसे यह बहुत सिंपल है गुरु, पर जैसा कि मैंने अभी कहा, तुम्‍हें बिना तैयारी के बिठा दिया गया है. तुम लोग अपडेट नहीं करते... जैसे अभी जो यह बंदा पलट कर गया है, उसकी कोई प्रॉब्लम है. हो सकता है कि उसका कद छोटा हो और वह ऊंची हील वाला जूता ढूंढ रहा हो. या अगर वह अभी तय नहीं कर पा रहा है तो इसका मतलब है कि वह कुछ और चाहता है. वह डील के लिए तैयार है पर उसे कुछ एक्‍सट्रा चाहिए... हो सकता है कि उसके पास वाक़ई कई जोड़ी जूते हों और उसे नये जूतों की बिल्‍कुल भी ज़रूरत न हो तो ऐसे में मुझे उसे कुछ एक्‍सट्रा ऑफ़र करना चाहिए...’’. पहले ने दूसरे की तरफ़ पहेली बूझने की निगाह से देखा है.     
मैं समझा नहीं. दूसरे ने पहले के पास सरकते हुए पूछा.

तुम भी अजीब हो यार... अरे, बात साफ़ है कि बंदा थोड़ा स्‍मार्ट है. वह इंतज़ार करना चाहता है. अपनी जेब में वह तभी हाथ डालेगा जब उसे लगेगा कि यह प्रोडक्‍ट उसे फ्री बराबर मिल रही है. वह इस पर तभी हाथ रखेगा जब उसे पचास पर्सेंट से ऊपर का डिस्‍कांउट दिया जाएगा और उसके कार्ट में यह मैसेज फ़्लैश किया जाएगा कि यह डील कल सुबह ग्‍यारह बजे तक ख़त्‍म हो जाएगी... अच्‍छा, चलो तुम्‍हें एक बंदे का किस्‍सा सुनाता हूं. वह शायद ऐसा ही कोई आदमी रहा होगा जो अभी हमारे सामने सारी डीटेल्‍स पढ़कर लॉग आउट कर गया है... तो ख़ैर वो बंदा कई दिनों से स्‍वेड के जूते देख रहा था. साइज और कलर सब कुछ सलेक्‍ट कर लेता था, लेकिन आखिर में ऑर्डर करने के बजाय कार्ट में डाल कर फुर्र हो जाता था. जूता ज़रा हाई-ऐंड था. मैं उसे कई दिनों तक लगातार देखता रहा. मैं उसकी हरकतें देख रहा था. वह फिदा तो इसी प्रोडक्‍ट पर था पर शायद कीमत पर आकर अटक जाता था. वह बीसियों दिन इसी तरह खेलता रहा रहा. मैं हर दिन सोचता कि आज तो वह ज़रूर फाइनल कर देगा, लेकिन बंदा पांच दस मिनट ऊपर नीचे स्‍क्रॉल करता और फिर सब फुस्‍स.

मैं जानता था कि बंदा ख़ुद को कुछ ज्‍़यादा ही स्‍मार्ट समझ रहा है. उसे लगा होगा कि बीस पच्‍चीस दिनों में कभी तो कीमत नीचे आएगी ही. कई कस्‍टूमर दिमाग़ की दही बना देते हैं. ऐसे लोग कई साइटों पर एक साथ सैर करते रहते हैं. और जहां सस्‍ता मिलता है झट से‍ क्लिक कर देते हैं. इसे वे रिसर्च करना कहते हैं. पर ये तो हम ही जानते हैं बेटा कि ये रिसर्च-विसर्च कुछ नहीं होती. सारी सूचनाएं तो पहले से तय रहती हैं. ख़ैर, हमने भी ठान रखा था कि बच्‍चू तुम्‍हें हम कहीं और तो नहीं जाने देंगे... तो हुआ यूं कि छब्‍बीसवें दिन साइट ने एक मैसेज तैयार किया: स्‍वेड सीरीज़ में पेश है आपके लिए स्‍टाइल और कंफ़र्ट का नया स्‍टेटमेंट... चुनिये और भूल जाईये ! उस दिन हमने उसके सामने इतने मॉडल रख दिए थे कि वह बचकर नहीं जा सकता था. मतलब आखिरकार हमने बंदे से एक जूता फाइनल करवा ही लिया’’.

अपनी सफलता की कहानी सुनाते हुए पहला मोर नृत्‍य करने लगा था. दूसरा उसे निष्‍चेष्‍ट देखे जा रहा था. उसके पूरे वजूद पर रिरियाहट तारी थी.
लेकिन, मेरा क्‍या होगा... मेरी तरफ़ तो कोई आता ही नहीं. दूसरा कातर होता जा रहा था.
हां...हां तुम्‍हारा भी नंबर लगवाते हैं. पहला इतना प्रमुदित है कि फिलहाल कोई भी वादा कर सकता है.

तभी पहले को अपने आसपास एक नयी हरकत महसूस हुई. एक सेकेंड बीता होगा कि वह ख़ुशी से झूमने लगा है. वह एक के बाद एक पहलू बदलने लगा है. कभी सामने से आता है, कभी साइड से आता है. कभी पट लेट जाता है. कभी एकदम उल्‍टा हो जाता है. बिल्‍कुल इस तरह कि जैसे रैंप पर कोई मॉडल चल रहा हो और अंधेरे में फ़ोटाग्राफ़र्स के फ़्लैश दमक रहे हों.

दूसरा उसे अवाक् देखे जा रहा है.
‘‘देख, वो बंदा फिर इधर आ रहा है. वह फिर ऊपर-नीचे, आगे-पीछे दौड़ लगा रहा है... लो देखो, वह नये मैसेज पर रुक गया है: जूते की हील बाहर से देखने में भले ही छोटी लगे लेकिन उसका एक हिस्‍सा अंदर छुपा हुआ है... शान से पहनिये, मस्‍त रहिये
... अरे, अरे देखो, उसने तो ऑर्डर भी कर दिया है! ’’.

दूसरा उसकी ख़ुशी में शामिल होना चाहता है लेकिन वह नहीं जानता कि इसकी शुरुआत कहां से करे. उसे यह सब जादू का खेल लग रहा है. वह चकित है कि पहला कस्‍टूमर की इच्‍छा के बारे में इतनी आसानी से कैसे जान लेता है.

लेकिन अभी वह सोच ही रहा था कि अब दंग रह गया है. उसके भीतर कोई नन्‍हीं सी घंटी बजी है और उसका यह ख़याल ख़ुद ब ख़ुद पहले तक पहुंच कर और वहां से जवाब लेकर लौट आया है. दूसरा चौंक कर देखता है कि वह पहले के बिल्‍कुल नजदीक पहुंच गया है. उसके भीतर फिर वही नन्‍हीं घंटी बजती है:    
‘‘हमसे मुक़ाबला करोगे तो मार्केट में टिक नहीं पाओगे... बेहतर होगा कि हमारे साथ मिल जाओ’’

दूसरा देखता है कि पहले वाले का फ्रेम इतना चौड़ा हो गया है कि‍ दोनों अपनी-अपनी साइटों से उठ कर अचानक एक दूसरे के बाजू में आकर बैठ गए हैं. अब दोनों एक साथ मुस्‍कुरा रहे हैं. उनके पीछे दुनिया के किसी महानगर की इकतालिसवीं मंजिल पर अपने ऑफि़स में बैठा सुशील कृपलानी टॉप मैनेजमेंट को मेल लिख रहा है: हैप्‍पी टू शेअर विद यू दैट चोपड़ाज हैव एग्रीड टू मर्ज विद अस, फ़ायनली. मेल भेजने के बाद उसने यह सूचना नि‍चले स्‍टाफ़ को फॉरवर्ड कर दी है, और दो मि‍नट बाद ही साइट पर ख़बर दमकने लगी है: जूतों की प्रसि‍द्ध कंपनी चोपड़ा शूज का लकार्ट में वि‍लय. कृपलानी के चेहरे पर विजय की तिरछी मुस्‍कान उभरी है. 

वह ख़ुशी में चुटकी बजा रहा है. चुटकी के साथ उसके मुंह से शायद यस, वी कैनभी निकला है, लेकिन वह चुटकी की आवाज़ में दब गया है. अभी तक पहला और दूसरा सिर्फ़ जूते की तरह मुस्‍कुरा रहे थे. अब दोनों आदमी की तरह हंसने लगे हैं.      
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naresh.goswami@gmail.com 

मेघ-दूत : डब्ल्यू. एस. मरविन की आठ कविताएँ : सरबजीत गरचा

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हमारे समय के महत्वपूर्ण कवियों में से एक डब्ल्यू. एस. मरविन  (William Stanley Merwin : September 30, 1927 – March 15, 2019) का इसी साल मार्च में निधन हो गया, स्मरण करते हुए उनकी आठ कविताओं का हिंदी अनुवाद सरबजीत गरचा ने किया है जो खुद कवि हैं.




अनुवाद
डब्ल्यू. एस. मरविन की आठ कविताएँ                   
सरबजीत गरचा



डब्ल्यू. एस. मरविन(1927-2019)

अमेरिका के महानतम कवियों में से एक. अनुवाद के लिए भी ख्याति-लब्ध. दुनिया के अनेक श्रेष्ठ कवियों ने अपनी कविता पर मरविन प्रभाव स्वीकार किया है. कविता, अनुवाद, निबंध एवं संस्मरण की 50 से ज़्यादा पुस्तकें. शुरूआती संग्रहों के बाद अपनी कविता में विराम-चिन्हों का इस्तेमाल हमेशा के लिए छोड़ दिया क्योंकि उनका मानना था कि “मन विराम-चिन्हों में नहीं सोचता”. दो बार कविता के लिए पुलित्ज़र पुरस्कार के अलावा कई और सम्मान. नीचे दी गई आठ कविताओं में से छह उनके अंतिम संग्रह,गार्डन टाइम,से. आँखों की कमज़ोर पड़ती हुई रौशनी के कारण इस संग्रह की कविताएं उन्होंने अपनी पत्नी को डिक्टेट की थीं. मार्च 2019में निधन.

सरबजीत गरचा






सुबह

क्या मैं उसे इसी तरह प्यार करता अगर वह रुक सकती
क्या मैं उसे इसी तरह प्यार करता अगर वह
सारा आसमान होती एक अकेला स्वर्ग होती
या अगर मैं मान सकता कि वह मेरी है
कोई मिल्कियत जो सिर्फ़ मेरी है
या मैं फ़र्ज़ करता कि उसने मुझे देख लिया
वह मुझे पहचानती है और शायद मुझ से मिलने आई है
उन तमाम सुबहों से निकलकर जिन्हें मैंने कभी नहीं जाना
और उन सारी सुबहों से भी जिन्हें मैं भुला चुका हूं
क्या मैं उसे ऐसे ही प्यार करता अगर मैं कहीं और होता
या पहली-पहली बार जवान होता
या बिलकुल यही पंछी नहीं गा रहे होते
या मैं उन्हें सुन नहीं पाता या उनके पेड़ नहीं देख पाता
क्या मैं उसे इसी तरह प्यार करता अगर मैं दर्द में होता
शरीर के सुर्ख ज़ुल्म या मातम की सलेटी ख़ला में
क्या मैं उसे इसी तरह प्यार करता अगर मैं जानता
कि याद आ जाएगा मुझे कुछ भी जो
अब यहाँ है
कुछ भी कुछ भी





मेरा दूसरा अंधेरा

कभी-कभी अंधेरे में ख़ुद को
एक ऐसी जगह पाता हूं जो
किसी और समय में पहचानी-सी थी
और सोचता हूं
क्या वो जगह मेरे कभी न देखे हुए
उन सूर्योदयों और सूर्यास्तों के बीच
कहीं बदल तो नहीं गई है
सोचता हूं क्या वो चीज़ें जो मुझे याद हैं
अब भी ठीक वहीं हैं जहां मुझे याद है कि वो हैं
क्या मैं उन्हें पहचान लूंगा अगर मेरा हाथ
इस अंधेरे में उन्हें छू ले
क्या वो मुझे पहचान लेंगी और क्या वो
अब तक मेरा इंतज़ार कर रही थीं
अंधेरे में




अभाव

अभाव मेरा भाई था
भाई है
लेकिन मेरे पास उसकी
कोई तस्वीर नहीं

उसका नाम हैन्सन था
जो कभी इस्तेमाल में नहीं लाया गया
वो मेरे नाना का नाम हुआ करता था
जो जवानी में ही चल बसे

मां उसे देख भी न पाई थी
कि उसका बच्चा उससे
दूर ले जाया जा चुका था

शायद नहलाने के लिए

उन्होंने आकर उससे कहा
कि वह हर तरह से बेनुक़्स था
कहा कि उन्होंने इतना
ख़ूबसूरत बच्चा पहले कभी नहीं देखा था
और फिर बताया कि वह मर चुका है

वह ख़ुद को इस भरोसे संभाले रही
कि वह उनसे कहीं गिर गया होगा
उसकी नज़र और पहुंच के बाहर
गिर पड़ा होगा अपने ख़ाली नाम से बाहर

ज़िंदगी भर वह मेरे क़रीब रहा है
लेकिन मैं उसके बारे में
तुम्हें कुछ नहीं बता सकता



एक दिन सुबह-सुबह

यह रही अंधेरे में चलती स्मृति
जैसी वह है उसकी वैसी कोई तस्वीर नहीं
आने वाले दिन को पहले कभी न देखा गया था
तारे किसी दूसरे जीवन में चले गए हैं
चले गए हैं सपने अलविदा की आवाज़ किए बग़ैर
कीड़े जाग उठते हैं उड़ते हैं अपने गीले पैरों को लिए हुए
रात को अपने साथ ले जाने की कोशिश करते हुए
केवल स्मृति जगी हुई है मेरे साथ
क्योंकि वह जानती है कि यह
हो सकता है आख़िरी रतजगा





भूलने की आवाज़

रात भर जब बारिश हो रही थी
स्याह घाटी ख़ामोशी से सुन रही थी
ख़ामोश घाटी ने याद नहीं किया
तुम मेरी बग़ल में सो रही थीं
जब गिरती रही बारिश हमारे इर्द-गिर्द
मैंने तुम्हें सांस लेते हुए सुना
मैं तुम्हारी सांस की आवाज़ को
याद करना चाहता था
लेकिन हम वहां लेटे रहे भूलते हुए
सोते और जागते
एक वक़्त पर एक सांस भूलते
जबकि बारिश हमारे इर्द-गिर्द गिरती रही




सौग़ात

जब वे बाग़ छोड़कर जा रहे थे
फ़रिश्तों में एक उनके सामने झुका
और फुसफुसाया

मुझसे कहा गया है कि
जब तुम बाग़ छोड़कर जाने लगो
मैं तुम्हें यह दे दूं

मुझे नहीं पता यह क्या है
या किसलिए है
और तुम इसका क्या करोगे

तुम इसे रख नहीं पाओगे
लेकिन तुम तो

कुछ भी नहीं रख पाओगे
फिर भी सौग़ात के लिए

दोनों एक साथ आगे बढ़े
और जब उनके हाथ मिले

वे हंस पड़े




मेरा हाथ

देखो किस तरह अतीत ख़त्म नहीं होता
इस वर्तमान में
वह हर समय जगा हुआ है
कभी इंतज़ार न करता हुआ
वह अब मेरा हाथ है लेकिन
वह नहीं जो मेरी गिरफ़्त में था
वह मेरा हाथ नहीं है बल्कि
वह है जो मेरी गिरफ़्त में था
लेकिन वह कभी एक-सा नहीं लगता
किसी और को वह याद नहीं
बहुत पहले हवा में घुल चुका घर
ईंटो की सड़क पर टायरों की घरघराहट
किसी गुम हो चुके बेडरूम में ठंडी रौशनी
दो ज़िंदगानियों के बीच
ओरियल की कौंध
नदी जिसे एक बच्चा देख रहा था




जगह

दुनिया के आख़िरी दिन
मैं एक पेड़ लगाना चाहूंगा

किसलिए
फल के लिए नहीं

फल देने वाला पेड़
वह नहीं होता जो लगाया जाता है

मैं चाहता हूं वह पेड़
जो ज़मीन में पहली बार खड़ा होता है

जब सूरज
ढल रहा हो

और पानी
जड़ों को छू रहा हो

मृतकों से भरी ज़मीन में
और गुज़र रहे हों बादल

एक-एक कर
उसके पत्तों के ऊपर 

 ___________________
सरबजीत गरचा

कवि एवं अनुवादक. अंग्रेज़ी में कविता. तीन कविता संग्रह एवं अनुवाद की दो पुस्तकें. नवीनतम संग्रहअ क्लॉक इन द फ़ार पास्ट,2018में प्रकाशित और चर्चित.
sarabjeetgarcha@gmail.com

कथा-गाथा : गूँगी रुलाई का कोरस : रणेन्द्र

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रणेंद्र के तीसरे अप्रकाशित उपन्यास ‘गूँगी रुलाई का कोरस’ के कुछ अंश यहाँ प्रस्तुत हैं. ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ और ‘गायब होता देश’ से चर्चित, प्रशंसित रणेंद्र के इस तीसरे उपन्यास से भी बहुत उम्मीदें हैं. शीर्षक ही इस बात का पता देता है कि इस उपन्यास के केंद्र में शास्त्रीय संगीत है और वह समय भी जिसने इसे अब बदरंग कर दिया है.

रणेन्द्र अध्ययन और शोध करके लिखने वाले कथाकार हैं. उनके उपन्यासों के लिए यह कहा जा सकता है कि जिसे इतिहास भुला देता है उसे साहित्य याद रखता है.      



गूँगी रुलाई का कोरस                             
रणेन्द्र



रक्त की गंध लेकर हवा जब उन्मत्त हो
जल उठे कविता विस्फोटक बारूद की मिट्टी
अल्पना-गाँव-नौकाएँ-नगर-मंदिर
तराई से सुन्दरवन की सीमा जब
सारी रात रो लेने के बाद शुष्क ज्वलंत हो उठी हो
जब जन्म स्थल की मिट्टी और वधस्थल की कीच
एक हो गई हो
तब दुविधा क्यों? संशय कैसा? त्रास क्यों?”

नवारुण भट्टाचार्य





बेरे थोड़ी देर से नींद खुली. पत्नी श्रावणी का चेहरा आँसुओं से भींगा था. बहुत मुश्किल से आवाज़ आई...क..म..ल.. फिर धार-धार आँसू. लगा कि छाती के भीतर जोर से मरोड़ उठा हो. अजब तरह की पीड़ा, हूक की तरह...  अँतड़ियाँ ऐंठने लगी. हूक ऊपर उठी, लगा छाती फट जायेगी. चक्कर सा आने लगा. श्रावणी ने दौड़ कर सँभाला. पानी पिलाया. सिर चकराना बन्द हुआ. रुलाई फूट पड़ी.

अम्मू के आँगन में आज सूरज नहीं उगा था. न जाने किस राहु-केतु ने उसे निगल लिया था. उस अँधेरे के दलदल में हम धँसे जा रहे थे. तभी कोई कानों में फुसफुसाया, पुलिस आत्महत्या बता रही है. लेकिन अपने गाँव वाले स्टेशन के बस फर्लांग भर पहले कोई चलती ट्रेन से छलाँग लगा कर आत्महत्या क्यों करेगा?

कल सबेरे ट्रेन में बिठाने तक तो सब नॉर्मल था. ठीक-ठाक. यह सही है कि अखबार के मैनेजमेंट से उसकी बहस हुई थी. वही अखबार डेली एक्सप्रेस’, जिसने कभी माँग-माँग कर लेख छापे. उन लेखों पर बहसें करवा कर उन्हें लोकप्रिय बनाया. तब यही सम्पादक श्रीवास्तव हर तीसरे-चौथे दिन फोन किया करते. आलेख का नया विषय सुझाया करते. सुआर्यन जागरण सेना और भगवान् कच्छप-रक्षा सेना की हरकतों से वे भी उतना ही बेचैन हुआ करते थे जितना कि कमल या मौसीकी-मंजिलऔर आश्रम के लोग. ठीक है कि बी०बी० गुप्ता ने अखबार के शेयर खरीद लिए. इसका क्या मतलब कि एकदम एक सौ अस्सी डिग्री पर घूम जाया जाये. आश्रम की जमीन जायदाद बड़ो नानू-नानू के खानदान की बेटियों का नाम से था. झूठे कागजात पर दावा पेश कर रहे किसी बाहुबली बिल्डर के पक्ष में मुख्य पृष्ठ पर समाचार छापने का क्या मतलब? वह भी छह कॉलम का. क्या मजाक है? बात ऐसी थी कि अपने भालो कमल दा जैसा बाउल मानुष भी गुस्से में आ गया. हाँ! सम्पादक श्रीवास्तव से थोड़ी ज्यादा गरमा-गरमी हो गई थी. इसका उसे अफसोस जरूर था. लेकिन इस वाकये से वह किसी तनाव में या डरा हुआ तो नहीं था. 


डरता वह किसी से भी नहीं था. चाहे श्रीवास्तव की हिस्ट्री-ज्योगारफी, जो भी रही हो. चाहे जिन सफेदपोश लोगों के कालेधन को खपाने के लिए उसने यह प्रेस खरीदा हो. चाहे सुआर्यन जागरण सेना के खतरनाक और रहस्यमय नेता बी०बी० गुप्ता से उसकी जितनी गहरी दोस्ती हो. हमारे यार कमल कबीर को ठेंगा भर फर्क नहीं पड़ता था. हाँ! उसे पछतावा इस बात का था कि श्रीवास्तव के बोल-वचन जो भी रहे हों, जिसके कहने पर झूठी खबर उसने छापी हो, उसे इतना लाउड और एग्रेसिव नहीं होना चाहिए था. यह उसका एटिकेट नहीं था. उसने स्टेशन से ही हमारे सामने श्रीवास्तव को सॉरीका मेसेज भेजा था. लेकिन यह कोई गिड़गिड़ाहट नहीं थी. अब यह सब न डिप्रेशन के लक्षण थे और न आत्महत्या की प्लानिंग के. उसने आत्महत्या नहीं की है. इसकी तो गारंटी है. लेकिन सवाल यह भी है कि अगर हत्या हुई है, तो किसने करवाई?

हाँ! यह सच है कि कुछ समय पहले कमल डिप्रेशन में था. इसके कारण कहीं बाहर नहीं थे बल्कि घर में थे..... दरअसल शब्बो भाभी अपने अब्बू से बहुत गहरे जुड़ी थीं. और बाबा-बेटियों के लगाव से थोड़ा ज्यादा ही लगाव. बात ऐसी थी, जब बचपन और कैशोर्य में उन्हें अम्मी की सबसे ज्यादा जरूरत थी उस वक्त वे बहुत ज्यादा व्यस्त थीं. उनकी ख्याति चरम पर थी. वे तब देश की सबसे व्यस्त शास्त्रीय गायिकाओं में से एक थीं. उनका होना भर कार्यक्रमों की सफलता की गारंटी था. देश-विदेश के संगीत-समारोहों, आकाशवाणी-दूरदर्शन के कार्यक्रमों से फुर्सत मिलती, तो उनकी अतिप्रिय शिष्य-शिष्याएँ घेरे रहतीं. उनमें से तो कुछ इतनी दुलारी थीं कि रसोईघर से बेडरूम तक वे ही वे होतीं. शबनम का तो मानो वजूद ही न हो. शबनम तो थी ही नहीं. ऐसी अम्मी तो किसी घर में नहीं. नानू तो और भी व्यस्त. घर में रहते भी तो अपने कमरे में रियाज़़ में डूबे. उन जैसे सारे उबाऊ दिनों, बोझिल रातों में केवल अब्बू-बेटी का ही संग-साथ रहता. एक दूसरे को ढाढ़स बँधाता. इसीलिए जब भी अब्बू अपना जोगिया जामा पहन कर संगियों के संग सारंगी-एकतारा लेकर निकलते, शब्बो की जान निकल जाती. उसकी बायीं आँख फड़कने लगती. नाक सुरसुराने लगती. बुखार चढ़ने लगता. पेट खराब हो जाता. किन्तु अब्बू नहीं रुकते. 

अब शब्बो की कोशिश होती कि वह उन रातों में नहीं सोये. क्योंकि सोते ही बुरे सपने आ घेरते कि अब्बू को लोग खदेड़ रहे हैं. मार रहे हैं. तलवारें चला रहे हैं. गोलियाँ चल रही है. धायँ-धायँ. अब्बू गोली खाकर औंधे मुँह सड़क पर पड़े हैं. भीड़ उन्हें कुचलती हुई भागी जा रही है. अब्बू लहूलुहान. डर से काँपती शब्बो की आँखें खुल जातीं, तो सचमुच पट्टियों में लिपटे अब्बू, लहूलुहान, बगल के बिस्तर पर लेटे दिखते. थोड़ी देर के लिए तो उसे यकीं ही नहीं होता कि यह ख्वाब है कि हक़ीक़त. फिर शब्बो को बहुत गुस्सा आता. सब पर. पूरी दुनिया पर. खास कर अम्मी पर, जो अब्बू को कभी रोकती नहीं थीं. बहुत-बहुत गुस्सा. दिनों-हफ्तों-महीनों अम्मी से बात नहीं करती. थोड़ी बड़ी हुई. तो सब कुछ समझने लगी. 

अब्बू के पीछे लगी हुई बद्दुआ से अब उसे मुहब्बत हो गयी. अम्मी की तरह उसे भी यह एतबार हो गया कि उस कमबख्त बद्दुआ से कहीं बड़ी एक दुआ भी अब्बू खुर्शीद शाह जोगी के कदम-दर-कदम साथ चलती है. कि दंगे-बलवे कितने भी बड़े हों, गोलियाँ-फरसे-बर्छे कितने भी चलें, अब्बू को हमसे छीन नहीं सकते. जब असम-नेल्ली में चले तलवार, भागलपुर में लाशों के ऊपर फूलगोभी के खेत में चौतरफा चले फरसे, और हाशिमपुरा में लगी गोलियाँ कुछ नहीं बिगाड़ सकीं, तो कोई इब्लीस-कोई शैतान क्या बिगाड़ लेगा? अब्बू तो हर हाल में हमारे पास आयेंगे ही आयेंगे. हर बार परवरदिगार की दुआ उन्हें अपनी चादर में लपेट कर हिफाजत से हमारे पास पहुँचा देगी.

लेकिन शब्बो की पकती समझ, रौशन दिमाग, आला दर्जे की पढ़ाई, मौसीकी की चाँद-चाँदनी सब फक्क से उड़ जाते, जब वह अब्बू को पट्टियों में लिपटे-जख्म खाये देखती. तब उसे बहुत-बहुत गुस्सा आता. अम्मू-नानू सब पर. खास कर अहमदाबाद वली दकनी की मजार के ज़मींदोज होने के बाद, रातों-रात उस पर कोलतार फेरने और सड़क बनने की खबर के बाद जब बुलडोजर से घुटने तक कुचला दाहिना पैर लेकर अब्बू वापस आये तो लगा, वह सबों पर टूट पड़ेगी. उसे अब्बू के संगी जोगी काकू लोग भी दूश्मन ही लगने लगे. अपने नहीं ......... कोई और ............ अन्य ........... शायद दंगे वाले गुंडों जैसे.

ठीक है कि पूरे देश या सच कहें तो पूरी दुनिया की हवा बारूद के कणों से भर गई है. तेजाबी हो गई है. अब कहीं-कोई इन्साँ को इन्साँ की नज़र से नहीं देखता. वह हिन्दू है या मुसलमाँ, कैथोलिक या प्रोटेस्टेंट या यहूदी या शिया-अहमदिया-कुर्द-सूफी-मैक्सिकन-ब्लैक-ब्राउन.. न जाने क्या-क्या.... एक कभी न खत्म होने वाली लिस्ट, जो यह बतलाती थी कि सामने वाला हमारा नहीं है. हमारे हममें शामिल नहीं है. वह कोई और है, दूसरा है, ‘अन्यहै. एक अजनबी है, जिससे अलग रहना है. जिसमें कमियाँ ढूँढ़नी है. अभी नहीं तो इतिहास के पन्नों में ढूँढ-ढूँढ कर उससे चिढ़ना है-उससे घृणा करनी है. क़िस्से-कहानियों के राक्षस के शक्ल में उसे ढालना है. मौका मिलते ही इस राक्षस को, पैदाइशी दुश्मन को खत्म कर देना है. यही वह जलेबी जैसा घुमावदार नक्शा था जिसका चक्कर लगा, हवा बवंडर का रूप इख्तियार करती थी.

लेकिन यह बवंडर, यह बारूद-भरी धूल अम्मू की चौखट को कैसे लाँघ गई? शब्बो भाभी की साँसों में- सोच में- दिल में- कैसे समा गई? वह देश में संगीत के सबसे आला घराने की वारिसों में से एक थी, जिनके यहाँ मौसीकी-गायन ही इबादत थी. जहाँ पूजा और नमाज को एक साथ इज़्ज़त बख्शी जाती थी. निजामुद्दीन औलिया से इजहारे मुहब्बत और माँ शारदा देवी से गुहार में कोई फर्क नहीं था. खुद अम्मू के बड़ो बाबा जब भी मौज में होते तो यह बतलाते थे कि उनके पूर्वज त्रिपुरा के दीनानाथ देव शर्मा हिन्दू थे, जिनके इकलौते बेटे ने देवी चौधरानी के इंकलाबी समूह में शामिल रहने के कारण गिरफ्तारी के भय से इस्लाम ग्रहण कर अपनी पहचान छुपाई थी. वे सिराजू से शम्स फकीर बन गये थे. बड़ो बाबा और अपने बड़े नानू की बीवियाँ भी हिन्दू घराने से थीं. खानदान में कौन क्या था? किसकी इबादत-पूजा करता था, अब तक किसी ने न ध्यान दिया, न किसी का ध्यान गया. 

बड़ो बाबा का मैहरवाली माँ शारदा से लौ लगी थी, इसे तो हर कोई जानता है. बिना माँ की पूजा किये उनके मुँह से निवाला भी नहीं उतरता था. क्या शख्सियत थी बड़ो बाबा की! मैहर देवी की सैकड़ों सीढ़ियाँ चढ़ी, मग्न होकर पूजा की. मन हुआ तो मैया को कुछ गाकर सुनाया. उतरे तो मछली बाजार की ओर निकल लिए. उसी मस्त भाव से मछलियाँ खरीदीं. घर आकर नमाज पढ़ी, खाना खाया और रियाज़़ के लिए बैठ गए. लेकिन आज किसे याद थे बड़ो बाबा और उनकी मैहर माई की सेवा, किसे याद थे बड़ो नानू माहताबुद्दीन खान का काली माँ से जुड़ाव और बाबा बिस्मिल्ला खाँ का गंगा मैया से लगाव. हवा में घुला तेजाब इन सारे लगावों, मुहब्बतों को तार-तार करने पर आमादा था. अभी तो बस मौत की खबरें ही सच थीं. अभी तो हमारे जिगर का एक हिस्सा कट गया था. अभी तो कमल के मौत की खबर आरे की तरह हमारे कलेजे को चीरे जा रही थी.




(दो)

“खूसरो रैन सुहाग की, जागी पी के संग.
तन मेरा मन पीउ का, दोऊ भये एक रंग.”
-अमीर खुसरो

बेचारा कमल! उसे सुआर्यन सेना के लोगों के साथ जब-तब होने वाली बहसों के पहले किसी ने यह याद नहीं दिलाया था कि उसका धरम क्या है? उसकी जाति क्या है? वैसे भी उसका पूरा नाम कमल कबीर था. वीरभूम के नामी बाउल रोबिन दादू का पोता और संगीत महाविद्यालय के उस्ताद मदन बाउल का इकलौता चिराग़. स्कूल के रजिस्टर में बाबा ने बाउल की जगह लिखाया कबीर तो वह कमल बाउल से कमल कबीर हो गया. हालाँकि उसका बहुत मन था कि नाम ही बदलना है तो अपना नाम वह लालन रख ले लालन कमल....न.. न लालन कबीर...कमल लालन ना.. लालन कमल ही ठीक. या फिर निताई रख ले, निताई कमल... या मिताई.. या कमल गौर कैसा.. कैसा.... रहता या कमल चैतन्य... भीषोण भालो... क्या नाम... कमल चैतन्य. किन्तु उसके मुँह से बोल ही नहीं फूटता था. ननिहाल चुरूलिया जाता तो उसका मन होता कि वह अपना नाम सीधे नजरूल इस्लाम ही रख ले. अब मन का क्या? मन तो क्या न क्या सोचता रहता! ...कैसा .... करता रहता! मन करता कि जब कोई उसका धरम-जाति पूछे तो वह भी अपने पुरखे लालन फकीर की तरह चिल्ला कर कहे सब पूछते लालन फकीर हिन्दू या मुसलमान, लालन कहे जानूँ न मैं मेरा क्या संधान.

लेकिन लगता है माँ की तरह उसे भी घुट्टी में पिलाया गया था कि मन को मारो. चुप रहो. जब्त करो. जो बाबा कहें वो सच. जो दादू कहें वो सच. बाकी सब झूठ. उसे भालो छेलो बनना था, जैसे माँ को भालो बो-अच्छी बहू. दोनों ने केवल सिर हिलाना सीखा था. सपने में भी ना नहीं बोला. कभी मन की बात नहीं कही. बस फिर क्या, सब भालो... भालो.... कमोल खोका खूब भालो. मदन बो खूब भालो. लेकिन कमल जितना अपनी माँ को जानता था उतना बाबा और दादू क्या जानते. माँ अपने मन के खाते-खतियान में साल भर का हिसाब लिखती रहती और माँ-मनसा के पूजा के दिनों में सब वसूल लेती. हिसाब-किताब बराबर. कमल ने एक दिन मूड में माँ की कहानी सुनाई थी.

हमारे गाँव धूरिशा में माँ मनसा की पूजा सावन माह के आखिरी दिनों में बड़ी धूमधाम से सम्पन्न होती. तीन दिनों तक चलने वाली इस पूजा में बत्तख की बलि चढ़ती थी. खास बात यह थी कि माँ पर माँ मनसा की असवारी आती. वे पूजा-स्थल पर जा कर बाल-फाल फैला कर झूमने लगती. साल भर चुप रहने वाली माँ कितना-कितना बोलती. बोली-बानी सब बदल जाती. सबका भूत-भविष्य सब बाँचने लगती. बाबा-दादू से कितना-कितना साड़ी-सन्देश-रसोगोल्ला सब उसी अवस्था में वसूल लेती. बड़ा होने पर मुझे सब समझ में आने लगा था. साल भर जो भी खाने-पीने-पहनने-ओढ़ने का मन करता, माँ मनसा के असवारी के बहाने सब पूरा कर लेती. हिसाब-किताब बरोबर.

कमल के गप्प में माँ मनसा और माँ अक्सर आया करती थीं. लेकिन अभी तक कमल अपने मन की बातों को पूरा करने का उपाय नहीं ढूँढ पाया था. सचमुच में खूब भालो छेले था. नाटक करना-झूठ बोलना-लोगों की बात काटना सीख नहीं पाया. आदमी को इतना अच्छा भी नहीं बनना चाहिए. दादू ने कहा, कमोल गाना सीखेगा. कमल सबेरे तीन बजे रियाज़़ के लिए हाज़िर. बारहवीं पास करते बाबा ने कहा खोका इंजीनियरिंग पढ़ेगा. कमोल कम्पीटिशन की तैयारी में भिड़ गया. दूसरे साल सिम्बोसिस इन्स्टीच्यूट ऑफ मीडिया एंड कम्यूनिकेशन, पूणे के इंजीनियरिंग कॉलेज में. साउन्ड इंजीनियरिंग का ब्रान्च भी बाबा की पसन्द से. क्लास में उतनी नामी गायिका पद्मविभूषण विदुषी रागेश्वरी देवी की बेटी शबनम खान. पर्सनाल्टी ऐसी कि सब दो हाथ दूर ही रहते. पाँच फीट सात-आठ ऊँचाई, एकदम देवी माँ जैसा रूप-रंग. खूब बड़ी-बड़ी आँखें. घुटनों तक लम्बे घुँघराले बाल. खूब घनी भौंहें. बस नाक सुतवा नहीं, पहाड़ियों जैसी. उसके ऊपर नानू उस्ताद अय्यूब खान साहब जैसी गम्भीर भाव-भंगिमा. अम्मीजान के देश-विदेश से लाये एक से एक ड्रेस एक अलग आतंक का माहौल बना देते. करैला पर नीम यह कि गुस्सैल भी. किसी ने न दोस्ती करनी चाही और न उसने किसी को तरजीह दी.

छह-सात माह बाद लाइब्रेरी में मिस खान ने ही आवाज दी थी... ऐ ...छेले कि नाम ... ओ... कमोल जरा सा मेरा यह प्रोब्लम देख लो. यानी पहले दिन से आदेश देने वाली अदा. कमोल बेचारा ... उसे तो पैदा होते आदेश सुनने की आदत, एकदम नेचुरल ...घर जैसी फीलिंग. कोई दिक्कत नहीं. कोई ईगो-फिगो नहीं. कोई किन्तु-परन्तु नहीं. मिस खान की पढ़ाई की तकलीफें अब कमोल कबीर- के॰ के॰ के जिम्मे. जब सेमेस्टर के सारे पेपर्स के॰ के॰ नोट्स के सहारे पार हो गये तो मिस खान साहिबा को थोड़ी-थोड़ी गिल्ट-गिल्ट सी फीलिंग हुई होगी, तो उन्होंने एक अटपटा सा, अजीबो-गरीब सा फरमान जारी किया, के॰ के॰ सुनो अब से हम तुम्हारे फ्रेंड. कमल को थोड़ी देर तक तो समझ में नहीं आया कि यह नया आदेश क्या है? इस पर किस तरह रिऐक्शन देना है? बात कुछ खुली, तो उसने सदा की तरह हामी भर दी.

लेकिन दादू-बाबा-माँ और अब मिस खान की हर बात पर हामी भरने वाला भालो छेले-भालो कमोल इतना भालो भी नहीं था. कुछ बातें अपनी मन की भी किया करता था. जैसे दादू से सात-आठ साल तक जो पक्का गान सीखा था वो सब धु्रपद, धमार-ख्याल, सबका कमरा बन्द कर रात में रियाज़़ किया करता. पढ़ाई-प्रोजेक्ट पूरा कर, कमरे की खिड़की-दरवाज़े बन्द कर के सारंगी से शुरू करता. माहौल बनते गायन का रियाज़़ शुरू. काफी-वागेश्वरी-जैजैवन्ती से होता आधी रात के राग मालकौस-विहाग तक पहुँचता. फिर नियम से सो जाता. कभी जल्दी नींद आती तो सबेरे जल्दी उठ कर ललिता-योगिया-रामकली-गुनकली, भोर के रागों का रियाज़.

लेकिन उस भोर में बात छुपी नहीं रह गई. उसे ठीक-ठाक याद है कि राग जोगिया के कोमल धैवत पर था कि कोई किवाड़ खटखटाने लगा. पहले धीरे-धीरे फिर जोर-जोर से. उसे उठना ही पड़ा. बड़ी खीज हुई. न जाने कौन है? अगल-बगल के कमरों के बैचमैट्स तो धूप चढ़े आठ-साढ़े आठ बजे तक सोते थे. बैचमैट्स ही क्यों, लगभग पूरे हॉस्टल का यही हाल था. फिर जैसे-तैसे ब्रश-फ्रश करते ब्रेड-आमलेट भकोसते हाफ पैन्ट्स में ही क्लास में. यह इतना आम मंजर था कि अब कोई चौंकता भी नहीं था. लड़कियों ने भी मान लिया था कि ये नालायक-इडियट्स ऐसे ही हैं. नहीं सुधरने वाले. अब भालो छेले कमोल ही पूरी ड्रेस में ऑड लगता. बैचमैट्स टीज़ करते. गुस्साते. हार कर कमल भी हाफ पैन्ट्स-स्लीपर में ही क्लास जाने लगा.


दरवाजा खोलते ही सामने मिस खान. अभी... अभी तो ठीक से उजाला भी नहीं हुआ था. सूर्योदय के ठीक पहले का गहरा अँधेरा. क्यों... कैसे, अभी सोच ही रहा था कि मिस खान उसे हल्के से ठेलते हुए कमरे में अन्दर. घूम-घूम कर कभी सारंगी-कभी तानपूरा-कभी हारमोनियम देखने लगी. अजब-गजब मंजर थे. उनका चेहरा स्क्रीन बना हुआ था. उस पर तरह-तरह के रंग आ-जा रहे थे. कभी बैजनी-कभी नीला-जामुनी कभी लाल. चेहरा इन्द्रधनुष में तब्दील होता जा रहा था और आँखें फैल कर कानों तक पहुँच गई थीं. पहली बार भालो कमोल .... कमल कबीर उर्फ के॰ के॰ मिस खान के सामने नर्वस नहीं था. उसे स्क्रीन के क्षण-क्षण बदलते रंगों को देख कर मजा आ रहा था.

कुछ मिनटों के बाद ही मिस खान के मुँह से बोल फूटे. बोल क्या, केवल हँसी के बुलबुले फूटे. वह तो बस हँसे ही जा रही थी. धीरे-धीरे पूरा कमरा उनकी खिलखिलाहट से भर उठा. अपने रोम-रोम से खिलखिलाती मिस खान नीचे चटाई पर बैठ गई और तानपूरा उठा लिया. कोमल धैवत से आगाज़ किया. राग जोगिया अपने कोमल ऋषभ-कोमल धैवत के साथ कमरे में खुद पधार कर भक्ति बिखराने लगी... सूरत बिसरे नाहीं मन सो.... हृदय उपजे आस दरसन .....




(तीन)

तुव गुण रवि उदै कीनो याही तें कहत तुमको बाई उदैपुरी.
अनगिन गुण गायन के अलाप विस्तार सुर जोत
दीपक जो तोलों सों विद्या है दुरी..
जब जब गावत तब तब रससमुद्र लहरें उपजावत
एसी सरस्वती कौन कों फुरी.
जानन मन जान शाह औरंगजेब रीझ रहे याही तें
कहत तुमको विधारूप चातुरी..
-औरंगजेब


मिस शबनम खान के चेहरे पर खिला इन्द्रधनुष थोड़ा ढीठ हो चला था. एक तो बिना पूछे जब-तब चला आता. और आता तो जल्दी रुखसत नहीं होता. वे जब के॰ के॰ के कमरे में तशरीफ लातीं तो चेहरे का वह इन्द्रधनुष साथ-साथ तशरीफ लाता और कमरे की दरो-दीवार पर काबिज हो जाता. बेशरम इन्द्रधनुष बड़ा मायावी था. मायाजाल फैलाना उसकी फितरत थी. दरो-दीवार से उतर कर वह इन दोनों के वजूद में जज्ब होने की कोशिश में लगा रहता. दोनों की निगाहों की रंगत बदलने में उसे देर नहीं लगती. उसके बाद वह हॉस्टल का नाचीज कमरा अपने को जन्नत का हिस्सा महसूसने लगता. फिर वहाँ जो तानपूरे-हारमोनियम के स्वर गूँजते, जो ताल और सुर चमचमाते, जो राग और सरगम की लहरें उठतीं, उनकी खुशबू से पूरी कायनात महक उठती. अमीर खुसरो-गोपाल नायक और जयदेव, स्वामी हरिदास-बैजू बावरा और तानसेन, राजा मानसिंह तोमर और बादशाह अकबर, मुहम्मद शाह रंगीले,सदारंग-अदारंग और खुशरंग, वाजिद अली शाह और विष्णु दिगम्बर पुलस्कर, भातखंडे, उस्ताद बड़े गुलाम अली खाँ और बड़ो बाबा, पंडित ओंकार नाथ ठाकुर और उस्ताद अमीर खाँ, सब के सब उस जन्नत के टुकड़े पर हाजिर हो जाते. दाद देते, झूमते, उन दोनों के आलाप और सुर में सुर मिलाते उसे कोरस बनाते. सबका रोम-रोम गाता, रोम-रोम सुनता. ठीक शब्बो के नानू की सीख की तरह कि नगमा ऐसा कि रूह सुनाए और रूह सुने.

जन्नत के इस टुकड़े पर उस ढीठ धनुक की शरारत से रूहें सुना रही थीं और पूरी कायनात सुन रही थी. खिड़की से चोरी छिपे झाँकता चाँद सुन रहा था, एड़ियों पर उचक कर ताकते सितारे सुन रहे थे, नदियों-वनस्पतियों की डाकिया हवा कमरे में आलथी-पालथी मार कर सुन रही थी.

सब बदल रहे थे. जैसे पतझड़ के बाद बसंत आया हो. सबसे पहले तो मिस शबनम खान बदलीं. सारा रूखापन, उदासी, गुस्सा, डिप्रेशन सब के सब धीरे-धीरे यूँ गायब हुए मानो हरसिंगार के पौधों पर बरसों बाद नई टहनियाँ, पत्तों और कलियाँ आई हों. उसके नानू तो कहा ही करते थे कि मौसीकी रूह के सबसे पाक जज्बे का बहाव है, उसे पेड़ पर पत्तियों की तरह आना चाहिए. और गुलाबी-नई-नकोरी पत्तियां शब्बो की रूह में उतरती-खिलती ही जा रही थीं. यह कमाल के॰ के॰ का था. जो काम दवाओं और दुआओं ने नहीं किया, नानू-अब्बू-अम्मू की राग-रागनियों ने नहीं किया, वह असम्भव काम भालो कमोल के तानपूरे और सुर ने कर दिखाया था. एक जादू था जो घटित हो चुका था. उसे आश्चर्य भी हो रहा था, थोड़ी ईर्ष्या भी हो रही थी और थोड़ा दुलार भी आ रहा था. कमोल... भालो बाबू....

ईर्ष्या इसलिए कि जिस खानदान में वह पैदा हुई थी वह हिन्दुस्तानी मौसीकी के सबसे बड़े-ऊँचे आलिमों का खानदान था. कहते हैं छह महीने की उम्र से ही उसने मौसीकी की अपनी समझ दिखलानी शुरू कर दी थी. उसकी रुलाई तानपूरे की झंकार सुनते बन्द हो जाती. दो-ढ़ाई साल की उम्र से ही अम्मू के रियाज़़ के समय अलस्सुबह जग जाती. उनी बगल में बैठ, ध्यान से आरोह-अवरोह को गुनती रहतीं. कभी-कभी उनके आलाप में अपने तुतली-आलाप की युगलबन्दी का मजा लेती. दुनिया भर में हिन्दुस्तानी मौसीकी का अलख जगाते, सम्मान बढ़ाते लगातार घूमते रहने वाले नानू ने उसकी जन्मजात प्रतिभा को पहचाना और पाँच साल की उम्र से बाजाप्ता गंडा बाँध कर अपना शागिर्द बनाया. सबसे नन्ही शागिर्द. शायद हिन्दुस्तानी संगीत के इतिहास में बाल गंधर्व-कुमार गंधर्व के बाद दूसरी सबसे नन्ही शागिर्द. जिसके मानस की कोशिकाओं में सारी राग-रागिनियाँ सोई पड़ी थीं. केवल सच्चे गुरु के टोहके की जरूरत थी.

कुछ-कुछ कुमार गंधर्व वाली चमत्कार-जैसी बात शब्बो में भी थी. लेकिन दरअसल उसके असली गुरु उसके अपने अब्बा हुजूर ही थे, क्योंकि चाह कर भी नानू और अम्मू अपनी व्यस्ततम रुटीन से उसके लिए समय नहीं निकाल पाते थे. इसीलिए वह नानू से तो उतना नहीं, किन्तु अम्मू से बहुत नाराज रहती थी. अब्बू की तालीम को गाँठ में बाँध तो रही थी, किन्तु औरों की तरह उसके मन के कोने में यह बात छुपी थी कि अम्मू, अब्बू से कहीं बड़ी गायिका हैं तभी तो इतना नाम है, इतना सम्मान है. इतने प्रोग्राम्स, इतने ईनाम-एकराम. लेकिन जब अब्बू के पाठ-रियाज़ की बदौलत मात्र पन्द्रह बरस की उम्र में ख्याल गायकी का आउटस्टैंडिंग यंग पर्सन अवार्ड जीता तो उसका नज़रिया बदल गया. दरअसल अब्बू खुर्शीद शाह ने भले ही उस्ताद अय्यूब खान के कदमों में बैठ कर सबसे ऊँची तालीम पाई हो, हिन्दुस्तानी मौसीकी के जर्रे-जर्रे को रोम-रोम में जज्ब किया हो, किन्तु मंच-प्रदर्शन, बैठकी-समारोह, वाह-वाही, देश-विदेश के दौरे, ईनाम-एकराम, साहब-हुक्काम सब उन्हें बेमतलब के लगते. तालियों की गड़गड़ाहटों से उन्हें घबराहट होती. वे थे खानदानी जोगी और जोगी ही बने रहना चाहते थे. वर्षों के रियाज़-मिहनत-गायन की तालीम का लाभ यह हुआ कि अपने उस्ताद अय्यूब खान की तरह मौसीकी के बहाने वे भी रूहानी खुशबू से रूबरू हो गये. वह गाढ़ी खुशबू उनके वजूद पर इस कदर तारी हुई कि दुनिया की हर खुशबू, हर रंग फीका लगने लगा.

लेकिन इस औलिया फकीर खुर्शीद शाह ने मौसीकी की तालीम से एक दुनियाबी ईनाम भी हासिल किया था. कोहिनूर जैसे नयाब हीरे से भी बेशकीमती-अनमोल-अपरूप हीरा. दरअसल तालीम के आखिरी दिनां में उस्ताद अपनी बेटी रागेश्वरी को भी संगीत-समारोहों में साथ ले जाते. जाते तो और शागिर्द भी, लेकिन उनकी कोशिश रहती कि रागेश्वरी को भी एकल गायन का मौका मिले. बढ़ावा तो अन्य शागिर्दों को, खास कर मदन बाउल और खुर्शीद जोगी को भी देते किन्तु बेटी आखिर बेटी थी, वह भी इतनी गुणवान. मौका भले अब्बू के कारण मिला हो, लेकिन अपनी खास जगह, रागेश्वरी ने, अपनी प्रतिभा के बल पर बनायी. जल्द ही उस्ताद के बिना अलग से विदुषी रागेश्वरी देवी को गायन के न्योते आने लगे. उसी सिलसिले में एक बहुत ही नामी, राष्ट्रीय स्तर के संगीत सम्मेलन में गायन के लिए न्योता आया, किन्तु अब्बू को यूरोप दौरे पर निकलना था, सो रागेश्वरी का अकेले ही जाना तय हुआ. किन्तु मौसम बदल रहा था और रागेश्वरी को हरारत-सी थी. हल्का बुखार, सर्दी-खाँसी. तब तय यह भी हुआ कि साथ में खुर्शीद जोगी भी जायेंगे. शायद उस्ताद को कुछ अंदेशा रहा हो, या यूँ ही एहतियातन.

लेकिन यात्रा की थकान या बेअसर दवा के कारण रागेश्वरी की हरारत बढ़ गई. अब उस बड़े-विशाल समारोह में अपने घराने और उस्ताद की शान बचाने की जिम्मेवारी खुर्शीद पर. मौसीकी के एक से एक दिग्गज सामने बैठे हुए. उनके पीछे रसिकों की भारी भीड़. नये गायक का होश फाख्ता करने को सारा सरअंजाम मौजूद था. लेकिन खुर्शीद तो मन से जोगी. उन्हें इस भीड़ के लिए थोड़े गाना था, उन्हें तो बस अपने उस्ताद अय्यूब खान और आदिगुरु गोरखनाथ को सुनाना था. दिन का चौथा पहर था. आँखें मूँदीं. जिन्हें सुनाना था, उन्हें याद किया और उस्ताद का मनपसन्द राग मारवा उठाया. उस्ताद की ही मेरुदण्ड तकनीक. बिलम्बित में जाग बावराके षडज से ही सारी फुसफुसाहटें बन्द हो गईं. कोमल ऋषभ से तीव्र मध्यम पर पहुँचते चमत्कार सा हुआ. लगा कि शागिर्द खुर्शीद नहीं बल्कि उस्ताद अय्यूब खान साहब खुद माइक के सामने हों. एकदम सन्नाटा. फिर तो सवा घण्टे तक मारवा ही मारवा था, विलम्बित से द्रुत तक. गुरु बिन ज्ञान न पावेंके बोल धरती से आकाश तक छा गये. गायन खत्म हुआ तो महफिल सराबोर हो चुकी थी. सबके हृदय और कंठ भरे-भरे से. सुनने-सुनाने के लिए कोई अवकाश ही नहीं था. उस अपूर्व मारवा के बाद सभा उठ गई. गरम चादर और गाढ़ी चिन्ता में लिपटी रागेश्वरी के तो मानो होश गुम गये हों. गायन के शुरू होते कोमल ऋषभ से तीव्र मध्यम तक पहुँचते उसकी दिल की धड़कन तीव्र से तीव्रतम हो गई. अपने अब्बू की छवि खुर्शीद में उतरते देख आँखें फटी रह गईं. मारवा को यूँ रोम-रोम में उतरता महसूस करना एक अचीन्ही खुशबू में डूबना, सब उसके लिए नया था. सब नया-नकोर, चाँद-चाँदनी में ऊब-डूब करता. सामने मंच पर झूमता-झुमाता खुर्शीद भी नया-नया सा. मारवा भी बिल्कुल नये कलेवर में रिमझिम-रिमझिम बरस रहा था. रस में भींगता सारे रसिकों का वजूद धुल-पुँछकर ज्यादा हरा, चमचम चमकीला हो निखर आया था. कम से कम रागेश्वरी तो यही महसूस कर रही थी. उसे तो मंच पर अब्बू के साथ-साथ आदिगुरु गोरखनाथ भी अपने शिष्यों की भीड़ के साथ दिख रहे थे. रागेश्वरी को अब ज्यादा आगे-पीछे नहीं सोचना था. वह जिस खुशबू में डूब-उतरा रही थी उसी खुशबू से उसने एक अनोखी वरमाला गूँथी और सामने रस में लथपथ खुर्शीद के गले में डाल दी. अब्बू और आदिगुरु तो आशीर्वाद देने के लिए बैठे ही थे.

शब्बो को सब पता था. लेकिन न जाने क्यों ध्यान से सब उतर गया था. दुनियावी चमक-दमक, ईनाम-एकरामों की झमक से आँखों पर पर्दा पड़ गया था. वह अपने अब्बू के अनोखेपन को भूल गई थी. क्या अनोखा औलिया-फकीर-जोगी अम्मी चुन कर लाई थी? अब उसके हिस्से में यह बाउल. सब औल-बौल उसके ही खानदान की किस्मत में. समय-कुसमय, सोच में डूबती-उतराती, अनोखे रंग में रँगती, बेमतलब खिलखिलाती शब्बो खुद भी औल-बौल, औलिया-बाउल बनती जा रही थी.

अब शब्बो को लग रहा है कि जो होता है अच्छा ही होता है. न वह नानू-अब्बू से जिद्द कर अहमदाबाद के राहत शिविरों में जाती, न वे खौफनाक मंजर सामने आते, न वह शॉक्ड होती, न मेंटल ब्लॉक होता, न उसका गायन छूटता, न वह इस इंजीनियरिंग कॉलेज में आती और न इस आउल-बाउल कमल कबीर से भेंट होती. तब फिर अनजाने उसके कलम शबनम के॰ खान कैसे लिखते?
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निज घर : लटक मत फटक : व्योमेश शुक्ल

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तस्वीर : आभार सहित Sughosh Mishra


हिंदी के कवि व्योमेश शुक्ल, इधर रंगकर्मी, प्रखर. उनके निर्देशित नाटकों ने देश भर में ध्यान खींचा है, कामायनी, राम की शक्ति पूजा, रश्मिरथी चित्रकूट आदि को आधार बनाकर मंचित नाटक खूब पसंद किये जा रहें हैं. संगीत नाटक एकादेमी का युवा वर्ग का पुरस्कार भी उन्हें इधर मिला है.

उनकी यह गद्य भी आप देखें.





ल  ट  क  मत  फटक                       
व्योमेश शुक्ल





राष्ट्रीय राजमार्ग

एक : लटक मत फटक
दो : नीम की लकड़ी किसी चंदन से कम नहीं, हमारा गाँव किरवाडी किसी लंदन से कम नहीं
तीन : माँ का आर्शीवाद
चार : माता-पिता का आशीर्वाद
पाँच : गरिब रथ
छह : Use Dipper at night
सात : आदि शक्ति



बंसी कौल

मशहूर डिज़ाइनर और रंगनिर्देशक बंसी कौल इन दिनों राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के दूसरे वर्ष के छात्रों के साथ एक नाटक तैयार कर रहे हैं. तेरह जनवरी को विद्यालय के ही अभिमंच सभागार में पहली बार प्रस्तुत होने जा रहे इस नाटक का नाम है खेल पहेली. यह नाटक रवीन्द्रनाथ टैगोर के लिखे कुछ कौतुकों पर आधारित है.

नौ जनवरी की दोपहर मैंने उन्हें अचानक फ़ोन कर दिया और कहने लगा कि आपसे मिलना चाहता हूँ. मुझे पता था कि वह नाटक की तैयारियों में व्यस्त होंगे, फिर भी. दरअसल वह एक बहुत उजली सोहबत हैं. एक पैशनेट टाकर. उनसे मुलाक़ात एक क्लास है. वह कभी भी पद्मश्री की तरह बात नहीं करते. अनोखी अंतर्दृष्टियों और मौलिक चिंताओं के बीच व्यवस्थाओं और व्यक्तियों को गाली आदि देकर अपने और आपके बीच वह एक आमफ़हम रास्ता बना लेते हैं.
इस बार की मुलाक़ात अलग थी. वह अपनी खेल पहेली के बीच में थे. अभिमंच सभागार के बाहर पत्थर की बेंच पर बाक़ी धूप के एक छोटे से टुकड़े में बैठे इस बुज़ुर्ग को देखकर पहली बार मुझे हल्का-सा डर लगा. मैं उनके क़रीब बैठ गया.

उन्होने कहा : काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के मंच कला संकाय में ड्रामा डिपार्टमेंट क्यों नहीं है ? मैंने उन्हें बताया : कुछ साल पहले अशोक वाजपेयी इसी बात के लिए तत्कालीन कुलपति डी. पी. सिंह से मिले थे. मैं उस मुलाक़ात में था. उन्होने हिंदी विभाग के अंतर्गत रायटर्स चेयर जैसी कोई चीज़ बनाने की बात भी की थी. दोनों काम नहीं हुए.

अब उन्होने पूछा : क्या अशोकजी को काशी हिंदू विश्वविद्यालय ने डॉक्टरेट दिया है ? मैंने कहा : नहीं. वह बोले : आज़ादी के बाद हिंदीभाषी समाज में सर्वोत्तम संस्कृति कर्म करने वालों में से एक इस व्यक्ति को हिंदी पट्टी के किसी बड़े विश्वविद्यालय ने डॉक्टरेट की उपाधि नहीं दी है. अगर वह उत्तर पूर्व या दक्षिण भारत के होते तो वहाँ के लोग उन्हें कंधे पर उठाये घूमते. हिंदी समाज बहुत नाशुक्रा है. मैंने सिर हिलाया : हाँ-हाँ.

प्रोफेसर इमैरिटस जैसी संस्था दरअसल बौद्धिकता, जिज्ञासा और रचना का माहौल बनाने का काम करती है. अपनी दुनिया में बहुत कुछ कर चुका एक आदमी एक विश्वविद्यालय में टहलता है, कक्षाओं के बाहर छात्रों से अनौपचारिक बातचीत करता है. शहर में चला जाता है. उस शहर की ज्ञान-परंपरा के सूत्रों से विश्वविद्यालय की रोज़ाना पढ़ाई-लिखाई को जोड़ता है. वह संस्था में माहौल और चरित्र बनाता है. हिंदी के विश्वविद्यालयों में इस काम के लिए जो पैसा आता है, वह जाता कहाँ है ? उन्होने मुझसे पूछा. मैं क्या बताता. मुझे क्या पता था. मैं तो यही सब जानने के लिए उनसे मिलने आया था.

बंसी कौल अपने कामकाज को लेकर बहुत निष्कवच हैं. उसके बारे में वह निर्मम बातें करते हैं. उसे किसी भी तरह की महानता से मंडित करने पर क़तई विश्वास उनका नहीं है. उन्होने मुझसे कहा : अंदर सेट और लाइट्स का काम चल रहा है. जाओ, देखो.

खेल पहेली का पूरा सेट विकर्णवत है. उसके दरवाज़े नब्बे नहीं, पैतालीस के कोण पर हैं. मुझे टेढ़ी चीज़ें पसंद हैं. मैं घुसते ही ख़ुश हो गया. सफ़ेद पर्दे के बैकग्राउंड में पीछे की ओर पूरे मंच की चौड़ाई में बहुत से दरवाज़े हैं और उनपर अनिश्चित ज्यामितिक आकार के गड्ढे हैं. वैसे, ज्यामितिक आकार पूरे लैंडस्केप पर तारी हैं. मंच के फ्लोर पर भी काले और सफ़ेद रंगों की जुगलबंदी में अनगिन त्रिभुजवत, चतुर्भुजवत आकार हैं. जैसे दूर से आता हुआ प्रकाश रास्ते की तमाम चीज़ों से टकराकर, कहीं उन्हीं में बिलमकर, कट-पिट कर ज़मीन पर गिरा हो. विंग्स पर भी ज्यामिती है. चरित्रों के चेहरों पर भी रंग-बिरंगे ज्यामितिक आकार हैं. इसके अलावा पूरा मंच आगे की ओर ज़रा-सा ढलवाँ भी है. यों, अलग से मंच पर दो स्लोप और कुछ शुद्ध गोल चीज़ें हैं, जो अपने ही ढंग से कोणीय ज्यामिती को काउंटर कर रही हैं.

मैंने सोचा : इस प्रस्तुति का सिनिक डिज़ाइन कितना अतियथार्थ है और बंसी कौल यथार्थ के कितने बीहड़ नागरिक. क्या उनकी कल्पना इन शिल्पों के ज़रिये उनके ही रोज़मर्रा किरदार को चुनौती देती है ? कुछ देर पहले क्या इसी पशोपेश में शांत बाहर वह पत्थर की बेंच पर सूरज की रौशनी के क्षरणशील त्रिभुज पर मेरा इंतज़ार करते हुए बैठे थे, जब उन्हें देखकर मैं ज़रा सा डर गया था.

तभी बनारस से मेरे मामा का फ़ोन आ गया. उनसे बात करता हुआ मैं बाहर बंसीजी के पास आ गया.

मैंने देखा, इस बीच दूसरे साल के छात्र लगातार उनसे नाटक के पार्श्वसंगीत, ड्रेस और मेकअप आदि दूसरी चीज़ों के बारे में बातचीत करके चलते बन रहे थे.

अंततः मैंने भी यही किया. मेरी क्लास भी संपन्न हुई और मैं भी उन्हें प्रणाम कहकर चलता बना.



अपने आप और बेकार

मैं गली से लगे हुए कमरे में बैठा हूँ और खिड़की खुली हुई है तो बग़ल के घर से तुम्हारी आवाज़ साफ़ सुनाई दे रही है. न जाने क्यों, कल से,

कई आवाज़ें मुझे साफ़ सुनाई दे रही हैं. तुम्हारी आवाज़ सुनाई देने का पहला मतलब तो यही है कि तुम ज़िन्दा हो. बोलने के लिए तुम, सुनने के लिए मैं. हम मर नहीं गये हैं, आज के लिए इतना भी काफ़ी है.


मुक्तिबोध और अभंग

हमलोग एक म्यूज़िकट्रैक की रिकॉर्डिंग के लिए स्टूडियो में थे. तबला बज रहा था. एक जगह मैंने तबलावादक से कहा : 'यहाँ कुमार गंधर्व के भजन वाला ठेका बजना चाहिए'. वह तैयार हो गए और बोले : 'उसे अभंग कहते हैं.'

अभंग - मैं रुक गया. आठ मात्राओं के लोकप्रिय ताल - कहरवे का जो रूप कुमारजी के भजनों में बजता आया है, उसका नाम अभंग है? मेरा मन तुरंत मान गया. उतनी सादगी, उतने कम बोलों का विन्यास, उतना कम श्रृंगार. कोई तिहाई नहीं, किसी चटपटे अंदाज़ में सम पर पहुँचने की कोई जल्दबाज़ी नहीं, एक अनंत निरंतर - जैसे यह ताल हमेशा से बजता आया है और हमेशा बजता रहेगा. नामदेव और तुकाराम लगातार विट्ठल की स्तुति में कविता कहते रहेंगे.

अभंग - मैं रुका ही रहा. आज कुमारजी होते तो ज़रूर मुक्तिबोध को गाते और पीछे बजता अभंग.


तुलसीदास

थके नयन रघुपति छबि देखें। पलकन्हिहूँ परिहरीं निमेषें॥
अधिक सनेहँ देह भै भोरी। सरद ससिहि जनु चितव चकोरी॥

जनक का उपवन. पहली मुलाक़ात में राम को देखते हुए सीता की आँखें थक गयी हैं, लेकिन पलकें पल-भर के लिए भी झपकने का नाम नहीं ले रही हैं. अधिक स्नेह के कारण देह विभोर हो गयी है, जैसे चकोरी शरद के चंद्रमा को देखती हो.

छन्नूलाल मिश्र 'मानस'की यही पंक्तियाँ गा रहे थे. प्रख्यात पर्यावरणविद और संकटमोचन मंदिर के महंत प्रोफ़ेसर वीरभद्र मिश्र अपने स्वर में इन पंक्तियों को गाकर दोहरा रहे थे. यह रोज़ का क्रम था. अचानक महंत जी रुके और मुझसे कहने लगे : 'अधिक सनेहँ देह भै भोरी' - इस वाक्य का मंचन भला कैसे संभव है? इतनी सामर्थ्य किसमें है? सिर्फ़ आंगिक से इस 'विभोर'का निदर्शन हो नहीं पायेगा. उसके लिए बहुत ऊँचा, बहुत गहरा सात्विक चाहिए.

मैं भी चुप होकर सोचता रहा.
कुछ देर बाद, जवाब उन्होंने ही दिया : महज़ दो शब्दों में : अमिट और शाश्वत
केलुचरण महापात्र.



रंगसमीक्षा के बारे में कुछ बातें :

एक
दृश्यालेख इस कदर विपर्यस्त है कि फ़िलहाल भारतीय रंगमंच के एक साथ अनेक अलगअलग वर्तमान पर्यावरण हैं. दृश्य का सामान्यीकरण करने वाली मेधा का यहाँ अभाव है; इसलिए कुछ सूत्रों में बौद्धिक प्रत्ययों में इस समस्तको पहचाना नहीं जा पाता और यों, ख़ासियतें कुंठित हो जाती हैं. प्रायः हम कृतियों को फुटकर प्रशंसाएँ और निन्दाएँ लौटा रहे हैं और आलोचना के मूल्य सामने नहीं आ पा रहे हैं. आज के थियेटर लाइकर का कॉमनसेंसजिन तत्वों से मिलकर बन रहा है, उसमें आलोचना नहीं है, बल्कि, हमारे दर्शक का कॉमनसेंसनिर्देशक की छवि के दबदबे, सराहनामूलक समीक्षाओं के आकार-प्रकार और एक अमूर्त तरल वाहवाही पर निर्भर है बाक़ी का स्वीकार प्रदर्शनों की संख्या, चयन और पुरस्कार आदि से तय हो जा रहा है. आलोचनात्मक हस्तक्षेप कम है और जहाँ है भी, यथास्थिति का मददगार है.



दो
पिछले दस साल में लिखी गईनाटककार या निर्देशक की कीर्ति के रथ का रास्ता रोक देने वाली समीक्षाओं की संख्या बताइये. विध्वंस और ख़राब नाटक को सज़ा देने का काम आलोचना के एजेंडे पर नहीं है. यह एक विडंबना है कि इस प्रकार हमारा सर्वोत्तम रंगकर्मी भी हमारी समवेत बौद्धिकता सेआलोचना जिसका प्रतिनिधित्व करती है– ‘इंडोर्सडनहीं है. हमारे अव्वलीन निर्देशकों को भी प्रायः बग़ैर किसी मूल्यांकन के बड़ा निर्देशक मान लिया गया है. इसलिए यदाकदा उठ खड़े होने वाले मुद्दे भी वायव्य हो जाने को अभिशप्त हैं. असहमति की जगह खीझ ने ले ली है और आलोचनात्मक अंतर्वस्तु के क्षीण हो जाने के कारण दृश्य में कहासुनी, अन्यथाकरण और कांसिपिरेसी थियरी का जलवा है और रचनात्मकता और नावीन्य हाशिये पर हैं, यानी एक ट्रैजिक नई प्रवृति यह है कि रंग समीक्षा को शामिल बाजा मान लिया गया है, वह किसी के भी लिए अनिवार्य नहीं है.


तीन
चूँकि दृश्य में जैविक ऐक्य के सूत्र नहीं खोजे जा सके हैं इसलिए अलग-अलग दृश्यों की अलग-अलग मुख्य धाराएँ हैं इनसे संवाद के लिए इतने ही हाशिये भी दरकार हैं. दिक्कत है कि हाशियों का रेखांकन भी आलोचना के ज़रिये ही मुमकिन है. आलोचना के विरल हो जाने पर रंगकर्म आत्मविश्वस्त कैसे रह सकता है ? यह तय है कि अगर आलोचना मूल्यांकन की कसौटियां – ‘कैनन’ – प्रस्तावित नहीं करेगी तो बाज़ार के कैननपर चलना होगा, बाज़ार का सबसे मजबूत औजार है लोकप्रियता’. बहस की अनुपस्थिति में हमारे यहाँ लोकप्रियता का सवाल किसी तड़प की तरह उठता है और ढह जाता है. उसे कन्विंसिंग तरीके से प्रोब्लेमेटाइज़नहीं किया जा सका है. लोकप्रियतासे कोई रंजिश नहीं है , लेकिन उसे असमाधेय और अंतिम मान लेना कहाँ की समझदारी है ? उसे प्रश्नांकित करने और वृहत्तर मूल्यसंसार में उसे लोकेटकरने की ज़िम्मेदारी को टाला नहीं जा सकता.
  

चार

आलोचना के विपथन के कारण, ज़ाहिर है, थियेटर का नुक़सान हुआ है. वह चाहे अनचाहे उस कॉमन ग्राउंडसे दूर हुआ है जहाँ से लोकप्रियता और गंभीरता को एक साथ संबोधित किया जा सके. टेक्स्टके साथ अपने रिश्ते को थियेटर ने तर्कपूर्ण जीवन व्यावहारिकता की सतह पर स्थिर और जड़ीभूत कर लिया है. हमारा रंगकर्म लिखे हुए शब्द नाटक, उपन्यास, आख्यान और कविता की गहराई से ऑबसेस्ड तो है, लेकिन यही गहराई रिहर्सल की स्पेस और मंचन के फ्लोर पर प्रतिफलित नहीं हो पा रही है. एक ओर हमारा थियेटर ग़ैरपारंपरिक मज़मूनों की ओर बढ़ता दिखता है, वहीं दूसरी तरफ़ वह मशहूर साहित्यिक कृतियों नाटकों तक को सम्यक व्याख्या के साथ मंचित कर पाने में असमर्थ हो रहा है. 

जीवन के बढ़ते हुए नाटक, दुनिया के बाहर और भीतर और मनुष्य के अंत:करण के गहनतम स्तरों पर मचे हुए कोहराम का आम्यंतरीकरण और अभिनय के ज़रिये उसकी अभिव्यक्ति तो बाद की बात है, अभी तो बाउंड स्क्रिप्टको निभा पाने का सामर्थ्य ही जाँच का मुद्दा है. चूँकि वस्तुसत्य पर आलोचकीय ग्रिपसबकीअभिनेता हो, समीक्षक हो या निर्देशक- ढीली हुई है, इसलिए एक कृति कई बार कुपाठ का शिकार होती है.
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व्योमेश शुक्ल
vyomeshshukla@gmail.com
9519138988

कृष्ण बलदेव वैद से आशुतोष भारद्वाज की बातचीत

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कृष्ण बलदेव वैद 
(२७ जुलाई,१९२७,पंजाब, पीएच डी- हार्वर्ड विश्वविद्यालय)

उपन्यास

उसका बचपनबिमल उर्फ जाएँ तो जाएँ कहाँनसरीनदूसरा न कोईदर्द ला दवा, गुज़रा हुआ ज़मानाकाला कोलाजनर-नारीमायालोकएक नौकरानी की डायरी

कहानी संग्रह

बीच का दरवाज़मेरा दुश्मनदूसरे किनारे सेलापताआलापलीलावह और मैं, उसके बयानचर्चित कहानियाँपिता की परछाइयाँबदचलन बीवियों का द्वीपखाली किताब का जादूरात की सैर (दो खण्डों में)बोधित्सव की बीवीखामोशीप्रतिनिधि कहानियांमेरी प्रिय कहानियां. दस प्रतिनिधि कहानियांशाम हर रंग मेंप्रवास-गंगाअंत का उजालासम्पूर्ण कहानियां  

नाटक

भूख आग हैहमारी बुढ़ियासवाल और स्वप्नपरिवार-अखाड़ाकहते हैं जिसको प्यारमोनालिज़ा की मुस्कानअंत का उजाला 

निबंध
शिकस्त की आवाज़संचयन, संशय के साए

अनुवाद
हिन्दी में

गॉडो के इन्तज़ार में (बेकिट)आखिरी खेल (बेकिट), फ़ेड्रा (रासीन)एलिस: अजूबों की दुनिया में (लुई कैरल)


अंग्रेज़ी में
टेक्नीक इन दी टेल्स ऑफ़ हेनरी जेम्सस्टैप्स इन डार्कनेस (उसका बचपन)विमल इन बाग़(बिमल उर्फ़ जाएँ तो जाएँ कहाँ)डाइंग एलोन (दूसरा न कोई)दी ब्रोकन मिरर (गुज़रा हुआ ज़माना)साइलेंस इन दी डार्कद स्कल्प्टर इन एग्ज़ाइल
द डायरी ऑफ़ अ मेडसर्वेंट (एक नौकरानी की डायरी)
डेज़ ऑफ़ लोंगिंग (निर्मल वर्मा - वे दिन), बिटर स्विट डिज़ायर (श्रीकांत वर्मा -दूसरी बार), इन द डार्क (मुक्तिबोध - अँधेरे में)


डायरी
ख्याब है दीवाने काजब आँख खुल गयीडुबाया मुझ को होने ने, अब्र क्या चीज़ है ? हवा क्या है. आदि 


भारतीय और विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवाद प्रकाशित.


कृष्ण बलदेव वैद से आशुतोष भारद्वाज की बातचीत     






II आरम्भ II
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हार्वर्ड में लिखी आपकी आलोचना किताब टैक्नीक इन द टेल्स ऑफ़ हेनरी जेम्स. शीर्षक में भी अनुप्रास. यह अनायास नहीं होगा. 
ह शीर्षक शुरु में तो नहीं था लेकिन बाद में आ गया. अनुप्रास का यह आग्रह मेरे भीतर है. अंग्रेजी में भी जो मैंने अनुवाद किये हैं या थोड़ा बहुत लिखा है, उसमें भी अनुप्रास, एसोनैंस, एलीटरेशन मेरे स्टाइल में अनायास ही आ जाता है. गद्य में मुझे लय देखने की लत है. जेम्स का गद्य, वहां एक लय है. आप उसे ऊँचा पढ़ें. जॉयस के गद्य में तो संगीत है. जॉयस तो गाता है. फिनिगंस वेकभले न समझ आये आपको, अभी भी नहीं समझ आता मुझे. कई कीज़ के साथ भी पढ़ा है, कई चीजें छूट जाती हैं. उसे ऊँचा पढ़िये. अगर मैं आयरिश होता(तो शायद).... आयरिश उसे पढ़ें तो उसका संगीत सुनाई देगा भले समझ न आये. मेरी समझ में गद्य में भी लय हो सकती है बगैर उसे क्षुद्र अर्थों में काव्यात्मक या पर्पल प्रोज बनाये. रूखे गद्य में भी. मसलन निर्मल के मुकाबले मेरा गद्य रूखा है, जानबूझकर है. मैं उस तरह का सौंदर्य अपने गद्य में नहीं लाना चाहता लेकिन लय तो बनी रहती है. शब्दों की आपसी रगड़ से संगीत पैदा होता है, वह निर्मलीय हो सकता है, वैदीय भी. 
लिखते में ही मैं सुनता रहता हॅूं इसकी आवाज क्या होगी. बोलकर तो नहीं लिखता लेकिन जब भी पाठ का कहीं मौका मिला है पढ़ने में बड़ा मजा आया है. 
अनुप्रास मेरे गद्य के संगीत का एक स्रोत है, और भी होंगे.


टैक्नीकइनटेल्स. तकनीक आपका बुनियादी सराकोर तभी से रहा है. दूसरे, स्टोरी नहीं टेल्स, कहानी नहीं कथा. 
ससे भी पहले से. हेनरी जेम्स अपने छोटे आकार के गल्प को टेल्स कहते हैं. मृत्यु से पहले उन्होंने अपनी चुनिंदा रचनाओं को संकलित किया था --- द न्यूयॉर्क एडिशन. उसका शीर्षक ही था द नोवेल्स एंड टेल्स ऑफ़ हेनरी जेम्स. छोटी कहानियों का उनका प्रत्यय टेल का था, फ्रैंच में जिसे Conte कहते हैं. 
हिंदी मेंलंबी’ कहानियां अमूमन दस-बारह हजार शब्दों से अधिक नहीं होतीं. जेम्स की सबसे छोटी कहानी द रियल थिंगसात-आठ हजार शब्द. अपनी बहुत सी कहानियों को वे नॉवलेट भी कह सकते थे मसलन टर्न ऑफ़ द स्क्रू, द बीस्ट इन द जगंल . एक तो इस वजह से वेशार्ट स्टोरीनहीं इस्तेमाल करना चाहते थे. कहानी की परिभाषा जो एडगर एलन पो ने दी, कहानी वो जो एक बैठक में खत्म हो सके, तो जेम्स जानबूझकर पो की प्रतिक्रिया में, जो उन दिनों चलन भी था पत्रिका में आदर्श कहानी पांच -छः हजार शब्दों की मानी जाती थी जैसा हमारे यहाँ अभी भी है, उसे तोड़ रहे थे. शब्दों के लिहाज़ से. 

दूसरा, उनकी स्टाइल इतनी डिमांडिंग है कि आप एक बैठक में उनकी कोई कहानी नहीं खत्म कर सकते. 

टेल्सको चुनने में मेरा कोई इनोवेशन नहीं था. उन्होंने ख़ुद ही इसे परिभाषित करते लंबे निबंध लिखे थे. पहली बार अंग्रेजी में किसी बड़े लेखक ने कहानी और उपन्यास पर आलोचना लिखी, सिद्ध किया लघु गल्प या टेल में भी किसी उपन्यास जैसी संश्लिष्टता पैदा की ला सकती है. कहानी के लिये उनका प्रत्यय हमारे गल्प के नजदीक ठहरता है. 

यह दस्तूर कि कहानी एक ही फर्राटे में लिख दी या पढ़ ली जाये, ऐसी कहानियों को वे ऐनकडोट कहते थे. मैंने अपनी किताब में भी पैराबेल्स और ऐनकडोट्स का ज़िक्र किया है जो आकार में छोटी और संश्लिष्ट भी नहीं हैं, एकरेखीय कहानियाँ ओ हेनरी, पो सरीखी कहानियाँ. जेम्स ने ऐनकडोटिक कहानियाँ भी लिखीं लेकिन उनकी महानतम कहानियों फिगर इन द कारपेट, द बीस्ट इन द जंगल, द जॉली कार्नर --- में उपन्यास सरीखी संश्लिष्टता है. कई चीजों को उन्होंने कहानी से शुरु किया, उपन्यास पर खत्म किया. 



आप उस किताब में लिखते हैं कि जेम्स का गल्प कहानी की संकीर्ण विधानावली का अतिक्रमण कर जाता है. आपकी खुद की कहानियों में फेबल सरीखा तत्व वहीं से उभरा
हानी में मैंने थोड़ी देर से प्रयोग किये लेकिन उपन्यास में शुरु से ही सचेत था. उसका बचपनके दो ड्राफ्ट लिखे, पहला निरा यथार्थवादी जिसमें परिप्रेक्ष्य का बड़ा चित्रण था, उस कस्बे, वर्ग का. फिर लगा मैं तो वही लिख रहा हॅूं जो नहीं लिखना चाहता था, मैं जेम्स की तरह भी नहीं लिखना चाहता था. जेम्स से मैंने ग्रहण किया कि उपन्यास भी कला है. उसमें कुछ भी भूसे की तरह नहीं डाला जा सकता, हांलांकि उस तरह भी महान उपन्यास लिखे गये हैं. मैंने उनसे स्टाइल, संश्लिष्टता, भाषा, रूपक, मैटाफर्स और फैबूलेशन की गुंजाइश तो सीखी लेकिन उन जैसा फैलाव मेरे लेखक के स्वभाव के अनुकूल नहीं था. 

मैंने नैरेटिव को तोड़ने की कोशिश की. ढांचे को ले सचेत तो हूँ लेकिन निरा नियंत्रित ढांचा नहीं देना चाहता. संगीत की लय और चित्रकला के विन्यास पर मेरा आग्रह निरंतर रहा. काला कोलाज मसलन. 

मेरी कहानियों में फेबुलिस्टक या पैराबेल सरीखे तत्व तो हैं. मेरा दुश्मनऔर उसी थीम पर तीन कहानियां मैंने लिखीं. डॉपलगैंगर या आल्टर इगो जिसे मनोहर श्याम जोशी ने हमजाद कहा है कई स्थलों पर आता है --- मेरा कोई दूसरा घूम रहा है. लेकिन मेरी टेल्स जेम्स सी नहीं. 

शुरुआत में तो मैंने ऐनकडोट मसलन उड़ान, बीच का दरवाजालिखीं. बाद की कहानियाँ लीला, प्रवास गंगाजिनमें दस्तूरनुमा ढांचा नहीं हैं, इनके किरदार भी खंडित हैं, नैरेटिव भी. पाठक खुद ही पढ़ लीलाको बाँधेगा कहाँ से खत्म करे कहाँ शुरु. नर नारीमें भी नैरेटिव की निरंतरता को तोड़ा है. बिमल में फिर भी एक खास किस्म का आख्यान है जो उसके दिन के साथ चलता है--- समाधि, स्थिति. काला कोलाज, माया लोक, नर नारीमें खंडित है. दूसरा न कोई, दर्द ला दवामें लंबा मोनोलॉग है. 

मेरी कहानियाँ एकदम संयमित होती है, निर्मम इकॉनमी. ऐसा नहीं कि थोड़ा डायलाग भी हो, माहौल हो, चुस्की चाय की भी चलें. उसमें सांकेतिकता होती है. मेटाफोरिकल ढांचा.  



फॉर्म के साथ प्रयोग शायद आपके बोध में आये परिवर्तन को भीलक्षित करते हैं. उसकाबचपनके बहते हुए नैरेटिव के बाद जब आप काला कोलाज में ढांचे को तोड़ते हैं तो सृष्टि के प्रति आपकी दृष्टि बदल चुकी होती है.
वेस्टेज तो अभी भी मेरे काम में बहुत कम है. रैटॉरिक तो है लेकिन उसका खास मकसद है. कोई वाक्य कहना, उसका क्षिद्रान्वेषण करना, उसे कई तरह से कहना, उसका ही खंडन करना. कई चीजें जो उस वाक्य में नहीं आ सकतीं, वे और उनका उलट भी आ जाये. 

लेकिन ऐसा नहीं कि प्रत्यय पहले बन गया हो, लिखते-सोचते ही फॉर्म बनती है. ऐसा नहीं मैं स्पांटेनिटी का ख्याल नहीं करता, लेकिन फिर जो मन में आये जरूरी नहीं उसका कोई स्वरूप भी बने... रूप लिखने की प्रक्रिया में ही अर्जित होता है. ऐसा नहीं कि ये ख्याल करूँ कोई बड़ा तीर मारना है फॉर्म में लेकिन पचास साल से ज्यादा हुआ काम करते और कोशिश यही रहती है अपने को दोहराऊँ नहीं. ये कोशिश दोहरावों को रोकती है लेकिन पूरी तरह खत्म नहीं कर पाती. आखिर लिख तो मैं ही रहा हॅूं. उसका बचपनके कई तत्व मसलन बीरू, कुछ लोगों का कहना है बीरू ही बिमल है, वही मेरादुश्मनका नैरेटर है. या सिमिलीज और मैटाफर. हैमिंग्वे के काम में उपमायें होती ही नहीं. न कोई विशेषण न उपमायें. मेरे यहाँ विशेषण भी हैं, रूपक भी, तुलनायें भी. जिन्हें आप होमॅरिक या एपिक सिमिलीज भी कह सकते हैं. इकॉनमी के साथ यह भी है. 

रूपक महज लेखन के दौरान नहीं हैं, किसी की शक्ल मसलन देखूं तो तुलना करता रहता हूँ इसकी नाक इस तरह की है. कोई दृश्य मुझे किसी और दृश्य की याद दिलाता है. मैं दृश्य को अनुभूत करता ही सिमिलीज और मैटाफर्स में हॅूं. 

निरंतरता तो है. स्टायलिस्टिक और थीमेटिक निरंतरता तो है. भूख, गरीबी, भौतिक अभाव बार बार आते हैं. काला कोलाजमें ऐसे कई दृश्य हैं जिन्हें बहुत कम लोग देख-बर्दाश्त कर पाते हैं. इनका चित्रण यथार्थवादी तरीके से नहीं होता लेकिन इनका यथार्थ मारक है क्योंकि प्रगतिवादी तो सैंसर कर देते हैं, पांयचे पकड़ चलते हैं. दूसरे, बीरू की तड़प और तलाश कई रूप लेती है. कॉमिक और ट्रैजिकॉमिक रूप भी. समाधि लगाने की कोशिश भी करता है लेकिन लगती नहीं. या ऐसे सवाल कि हम कहाँ से आये, कहाँ जा रहे हैं. 

मैं आपके सवाल का जवाब नहीं दे पा रहा कि पहले फॉर्म बदलती है या दृष्टि. 
मेरे लिये फॉर्म अपने विषय को तलाशने-तराशने का साधन है. 

फॉर्म के जरिये ही मैं अपने विषय तक पहुँचता हॅूं. कच्चा विषय तो बतौर अनुभव या किसी और रूप में मेरे अंदर होगा ही लेकिन जब तक फॉर्म न मिले तो कुछ नहीं. मसलन नर नारीजिसका एक तत्व स्त्रीवाद है कि मैं स्त्रीवादी चेतना को विकसित करने का प्रयास कर रहा हॅूं. एक सचेत और असचेत नायिका है. लेकिन मैं यह उस तरह नहीं लिख सकता जिस तरह हिंदी में नब्बे फीसद उपन्यास लिखे जाते हैं, एक फार्म जो अब घिस चुकी है. जब तक मुझे नहीं सूझता अपने किरदार के भीतर कैसे जाऊँ कुछ नहीं होने पाता. मसलन स्ट्रीम ऑफ़ कांशसनैस बार बार इस्तेमाल करता हॅूं. अगर मुझे ऐसी फ्रैगमैंटिड फार्म न मिलती तो उस तरह का उपन्यास इतना अच्छा न लिख पाता. 




फॉर्मअगर जरिया है भी तो कोई प्रस्थान बिंदु तो होगा ही जहाँ से शुरु करते हैं आप? 
मोनोलॉग शायद जरिया है एक. उसका बचपनमें भी कई ऐसे बिंदु हैं जहाँ  बीरू अकेला है, स्ट्रीम ऑफ़  कांशसनैस नहीं वहाँ लेकिन बीरू अपने ख्यालों में है. गुजरा हुआ जमानामें भी लंबा ड्रीम सीक्वेंस है, स्ट्रीम ऑफ़  कांशसनैस का तत्व है. प्रथम पुरुष नैरेटिव या एक खास प्वांइट ऑफ़  व्यू से देखने की मैंने कोशिश की है. प्वांइट ऑफ़ व्यू पर जेम्स ने बहुत अधिक बल दिया है वे प्रथम पुरुष नैरेटिव के खिलाफ थे. जबकि मुझे लगता है प्रथम पुरुष नैरेशन में भी वही संयम हासिल किया जा सकता है जो जेम्स चाहते थे. गुजरा हुआ जमानामें वैसा संयम है भी. 

तो दो तीन युक्तियाँ हैं जो मैं बार बार इस्तेमाल करता हूँ  भले ही उपर से लगे एकदम नया प्रयोग हो रहा है. मोनोलॉग , स्ट्रीम ऑफ़  कांशसनैस, प्रथम पुरुष नैरेटिव. आख्यान खंडित करने का प्रयास. नर नारी, मायालोक औरकाला कोलाज. एक नौकरानी की डायरीमें फिर से वापस गया हॅूं, डायरी कई लोगों ने लिखीं हैं. लेकिन मैंने डायलॉग से परहेज किया. प्रयास यह रहा है कि चेतना का जन्म हो, नायिका डायरी लिखती है और उसे रस आने लगता है. वह डायरी में अपने को पाना चाह रही है. यह भी था कि शायद मैं एक सरल सा उपन्यास लिखना चाहता था. अंत का उजालाऔर इस डायरी को लिखने में अजीब सी आसानी रही. 




प्रथम पुरुष नैरेटिव आपको अपने किरदारों से कहीं गहरे जोड़ देता है शायद. एक आत्मीयता. 
प्रथम पुरुष नैरेटिव की सीमायें भी हैं. उसमें टॉलस्टाय जैसा विस्तार, कैनवास नहीं आ सकता. लेकिन यूलिसिस प्रथम पुरुष नैरेटर का ही रूप है. उसमें तीन नैरेटर है और प्रमुख स्टीफन डैडलस ही है. आत्मीयता तो रहती है लेकिन इंटैंसिटी भी आती है. उसमें बिखराव की गुंजाइश कम है. जेम्स हांलांकि इसके विपरीत थे, कहते थे फर्स्ट पर्सन इज कंडैम्ड टू द फ्लूयिडिटी ऑफ़ सैल्फ रैविलेशन. 

उनकी मान्यता को मैंने हार्वर्ड में चुनौती दी. द अंबैसेडर्सके एक सफे का विश्लेषण कर बताया कि अगर जेम्स उसे प्रथम पुरुष में लिखते तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता.वह’ के बजायमैं’ कर दो. काम्यू का आउटसाइडर भी प्रथम पुरुष में है और बड़ा ही सघन है. जेम्स ने पहले ही समूची वेस्टेज हटा दी है. प्वांइट ऑफ़  व्यू और उसकी पकड़ इतनी जबरदस्त हो कि आप एक ही नायक की आँख से सब कुछ घटित होता देख रहे हैं तो फिर प्रथम पुरुष में क्यों नहीं.

मैंने प्रथम पुरुष क्यों चुना? उसका बचपन में प्रथम पुरुष नहीं लेकिन आँख  वही है. प्रथम पुरुष सघनता के अलावा मैंने इसलिये भी चुना कि उसमें एक सैल्फ-कांशस नायक या प्रतिनायक जो आत्मसजग है, अपनी हर हरकत देख-परख रहा है, हर वाक्य छान रहा है. दूसरा, यथार्थवादी रूढ़ियों के प्रति मेरा विद्रोह ---- कि थोड़ा माहौल हो ही. उसका संकेत करना काफी है. मसलन एक नौकरानी की डायरी. उसमें उसके जीवन का संकेत पूरा मिलता है. 



उसका बचपनके बाद लम्बे अरसे तक कथा लगभग न्यून रही आती है आपके यहाँ. न्यून गल्प दो तीन दशकों तक चलता है फिर सहसा गल्प का विस्फोट.बदचलन बीवियों का द्वीप. 
था तो रही लेकिन घटना पर आधारित नहीं. मायालोक में कई कहानियां  हैं.काला कोलाज में दृश्य. बिमल में भी कहानी है. कहानी को तोड़ने की कोशिश है, खंडित करने की. दूसरे, बदचलनबीवियोंकादीपकथासरित्सागरकी कहानियों पर प्रयोग ही था, कथा के रस को हासिल करने के लिये. तथाकथित पोस्टमॉडर्न  तत्व भी लाये. वो विस्फोट तो संयोग से ही हो गया. मन में था शायद अर्से से. लेकिन आप इन्हें मूल से तुलना करें ये एकदम नयी कहानियां  हैं. मैंने कथासरित्सागरसे खेला भर है. 

ये खेल का तत्व मेरी फॉर्म  में है. स्टाइल में, शिल्प में भी. खिलवाड़ नहीं, जो हल्का शब्द है. खेल. लीला. शाब्दिक व शैल्पिक लीला. 



खेल के साथ शरारत भी शायद. फॉर्म  ही नहीं मिजाज में भी. दो किरदारों वाले नाटक अंत का उजाला का पाठ मसलन. आप उसे पढ़ रहे थे और शुरु में ही कह गये थे, शायद किसी शरारत के ही तहत, बजाय किरदारों का नाम लेने के पहले पात्र पर दांये हाथ की तर्जनी उपर उठायेंगे, दूसरे पर बांये की. मैं दर्शकों के बीच था, पूरा समय मेरा यही ध्यान रहा कौन सी उंगली अब उठी है, कौन सी उठने जा रही है. तुर्रा यह बीच-बीच में गलत उंगली भी उठ जाया करती थी. शायद शरारत ही. (वैद ने इस नाटक का पाठ दिल्ली में किया था. यहाँ उसी पाठ का उल्लेख है.
हाँ.शरारत. हमारे यहाँ  बहुत है. कृष्ण की लीला. माखन चोर. चीर हरण. 
नैरेटिव की जड़ता कि कोई आरंभ, मध्य, अंत हो, इसे तो तोड़ना चाहिये. ये आशंका कि खेल से उसकी गंभीरता खत्म हो जाती है गलत है. भूख के साथ खेलना मसलन, भूखकुमारी का दर्द उस कहानी में उतना ही शायद उससे कहीं अधिक सशक्त है. उसे एक स्वप्न में पिरो दिया गया है. 
काला कोलाजमें दोहरी माई का किरदार. जिन उपन्यासों में भूख ठस तरीके से चित्रित की जाती है मैं तो जरा भी प्रभावित नहीं होता. इतना शोषण होता दीखता है जनवादी लेखन में लेकिन कोई असर नहीं होता उसका. वो जड़ फार्म है, इतना फूहड़ तरीका है. 



भूखकुमारीकेसाथएकशाम. यह एक रोमानी सी कहानी नहीं है? मध्यमवर्गीय नायक अपने अपराध बोध को छुपाने के लिये एक काल्पनिक किरदार गढ़ देता है, एक फितूर.
समें फंतासी है, रोमानियत नहीं. मैंने उस लड़की को रोमान्टिसाइज नहीं किया है, उसे एक ऐसी चेतना जरूर दी है जो आम लेखकों की दृष्टि में अयथार्थवादी होगी. मेरा यह मानना है कि बच्चे किसी भी वर्ग के हों, बड़े ही संवेदनशील हो सकते हैं. बीरू, एक नौकरानी की डायरी की नायिका, भूख कुमारी. इनमें यह क्षमता है कि वह किसी चीज को समझें और उस पर संवेदनशील प्रतिक्रिया करें. संवेदनशील होना और अतिभावुक होना दो अलग चीजें हैं. अगर मैं उसे अधिक सैंटीमैंटल बनाता या उसकी झौंपड़ी या उसके कचरा बीनने को खूबसूरत तौर पर पेश करता तो वह रोमानी लगती. नायक-लेखक और लड़की का रिश्ता सांकेतिक ही रहा आता है. वह रोज सैर को जाता है लेकिन एक खास जगह से लौट आता है. उस जगह से आगे जाने का मतलब किसी दूसरे प्रदेश में प्रवेश है. आज उसने हिम्मत की है और वह वहाँ  चला गया है. इसमें फंतासी का तत्व तो है लेकिन यह एक अच्छी बात ही कही जायेगी, अगर सिद्ध हो जाये तो, कि नायक और लड़की के संवाद को एक दूसरे स्तर पर ले जाना जो स्वप्नलोक भी हो सकता है. मसलन एलिस इन वंडरलैंडकी फंतासी जो यथार्थ से उलट नहीं, यथार्थ तक पहुँचने का ही एक तरीका है. 




वहपहुँचतातोहैयथार्थतकलेकिनयहबोधबनारहताहैकिवहलड़कीउसकाहीख्यालहै, उसकाहीअपराधबोधहैजिससेमुक्तिकेलियेउसनेउसेगढ़दियाहै. 
गर इस तरीके से पढ़ें कहानी को तो भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा, तो भी वह फंतासी रहेगी. अपराध बोध कि वह भूख के अनुभव से दूर हो गया है, या भूख के यथार्थ का सामना नहीं कर रहा, यह पाठ भी उस कहानी में निहित है, तो भी उस नायक की रूमानियत नहीं झलकती, अपने अपराध बोध से साक्षात्कार का एक नया तरीका झलकता है कि उसने इस लड़की को रच दिया है, खुद को चेतावनी-चुनौती देने के लिये इस लड़की को ईजाद कर लिया है. यह कहानी पूरी तरह तो यह इजाजत नहीं देती कि आप इसे सिर्फ एक फंतासी के तौर पर पढ़ें कि वो लड़की है ही नहीं, उसके दिमाग का ही प्रोजैक्शन है. नहीं. उस लड़की में ऐसी खूबियां हैं, ऐसे फीचर्स हैं जो उसे एक ठोस लड़की भी बनाते हैं और एक प्रतीक भी. उसके अपराध बोध का एक प्रतीक.



जब आप इसे लिख रहे थे तो आपके ज़ेहन में यह दोनों संभावित व्याख्या थीं?
लिखते वक्त तो बहुत कुछ नहीं भी होगा, बहुत कुछ और भी होगा. लेकिन लिख चुकने के बाद जो उसमें आ सका है, आ चुका है, उसकी मल्टीप्लिसिटी इसलिये ही कायम रहती है क्योंकि वह यथार्थवादी रूढ़ियों से हटती है. इसी वजह से उसमें यह संश्लिष्टता या संभावना आती है कि आप उसे एक से अधिक तरीके से पढ़ सकें. 



आप यथार्थवादी फॉर्म  का विरोध करते हैं कि यह ठस, घिस चुकी है. आप भी तो लेकिन वही गिनती के तकनीकी औजार प्रयोग कर रहे हैं-- मोनोलॉग , स्ट्रीम ऑफ़  कांशसनैस, प्रथम पुरुष नैरेटिव. 
थार्थवादी रूढ़ियां जिन बातों पर जोर देती हैं कि संदर्भ विस्तृत हो, किरदार का पूरा नक्शा विस्तार किया जाये. मुझे लगता है कि इन रूढ़ियों की अब जरूरत नहीं, इनकी अनुपस्थिति कोई दोष नहीं उपन्यास में. इनके माध्यम से जो चीजें स्थापित-प्रस्तावित की जाती थीं वो किसी और तरीके से भी हो सकती हैं. ये बंधन अगर टूट जायें तो आप ऐसी कोशिश नहीं करेंगे. टॉलस्टाय, प्रेमचंद या बाल्जाक सरीखे महान उपन्यासकार--- हांलांकि प्रेमचंद उनके पाये के नहीं हैं, गाल्सवर्दी तक ही पहुँचते हैं, दरअसल यथार्थवाद की महान परंपरा उन्नीसवीं के अंत तक घिस चुकी थी. उसमें कोई संभावना नहीं बची थी. सोवियत के जमाने में लिखे गये उपन्यास उस पाये के नहीं थे. शालाखोव का क्वाइट फ्लोज़ द डॉन, हाउ द स्टील वाज टैंपर्ड-- सोवियत सोशलिस्ट रियलिज्म के उपन्यास जिन्हें स्टालिन पीस प्राइज, लेनिन पीस प्राइज मिलते थे उस पाये के नहीं थे. जिस परंपरा की बात जॉर्ज लूकाच ने की है स्टडीज इन यूरोपियन रियलिज्म वो परंपरा अब घिस चुकी हैं. वे बैस्ट सैलर टाइप के लोग ही लिख रहे हैं. 

कई लोग अभी भी यथार्थ को चित्रित कर रहे हैं लेकिन उसकी अभिव्यक्ति के लिये उन्होंने और युक्तियां प्रयुक्त की हैं, कुछ उन्होंने सिनेमा से लिया है, कुछ खंडित नैरेटिव, कुछ उत्तरआधुनिक डिवाइस भी ली हैं.

मुझे कोई रुचि नहीं कि मैं अपने किरदार को बाल्जाक या टॉलस्टाय की तरह चित्रित करूँ.

जो आपका सवाल कि मैं बार बार वही करता हॅूं, तो उसमें अदल-बदल होती रहती है. खंडित नैरेटिव में कई गुंजाइश हैं, सिनेमा के मोंताज में भी, मोंताज हांलांकि बहुत पुरानी चीज हो चुकी है. संगीत से तुलना करें तो उससे फॉर्म  में लय आ जाती है. सही है, अगर ये चीजें भी सौ-दो सौ साल तक चलती रहीं तो कुछ और ढूंढ़ना पड़ेगा. लेकिन इन चीजों के बदलने से आपकी शैली एकदम बदल जाती है.

निर्मल या वात्सयायनजी का जिक्र करें तो उनके उपन्यासों में कुछ और चीजें आयीं हैं, भाषा और शैली के स्तर. लेकिन संरचना के स्तर वे रोमांटिक रियलिज्म तक ही पहुँचते हैं. उससे आगे नहीं बढ़ते. मसलन सूखाऔर कव्वे और काला पानी. निर्मल की गति इसलिये ही मंथर होती है कि उन्हें हर चीज जरूरी दिखती है—- मौसम, चढ़ाई चढ़ता नायकक्योंकि वे जाने अनजाने वही विधियां इस्तेमाल कर रहे हैं.

ये दावा नहीं है कि जो यथार्थवाद को नकार रहा है वह पूरी तरह से नकारता है. नाम देने पड़ते हैं, हांलांकि मेरे किरदारों के कई बार नाम नहीं होते. न ही ये दावा है कि जो दूसरा रास्ता अख्तियार किया मैंने वह हमेशा तरोताजा ही रहेगा. दरअसल अभी तक हम जॉयस से आगे नहीं बढ़ सके. वे एक ऐसे चरम बिंदु तक ले गये गद्य और ढांचे को खासतौर पर फिनिगंस वेकमें कि उससे आगे अंग्रेजी का कोई उपन्यासकार नहीं जा पाया है. 

ये भी मानना पड़ेगा कि अगर आप जॉयस के बाद के महान उपन्यास गिनें तो वे लोग उन्नीसवीं सदी के महान यथार्थवादी उपन्यासों से भिन्न हैं. रश्दी को लें, भले ही महान न सही वे उल्लेखनीय तो हैं, एलियास कनेटी एकदम अलग हैं. फॉकनर ने स्ट्रीम ऑफ़ कांशसनैस का अपने तरीके से इस्तेमाल किया.


यानि आप मान रहे हैं कि रियलिज्म में भी संभावनायें हो सकती हैं.
हाँ, लेकिन वे संभावनायें कमजोर ही होंगी जब तक आप उनमें कुछ नया नहीं तलाशेंगे. मसलन वर्जीनिया वुल्फ अपने पितामह गाल्स्वर्दी इत्यादि को नकारती हैं, अपनी राह बनाती हैं. उन्होंने कहा ऑन ऑर अबाउट डिसेंबर1910 ह्यूमन कैरेक्टर चेंज्ड और द एक्सैन्ट फाल्स हियर एंड नॉट देयर. 

एक ओर तो निर्मल वुल्फ का बारबार गुणगान करते हैं, लेकिन उनके और वुल्फ के उपन्यासों में फर्क यह है कि यथार्थवादी ढांचे को उन्होंने तोड़ा-- मिसेज डैलोवे में भी, टू द लाइटहाउस में भी. उनके शुरुआती उपन्यास भले ही यथार्थवादी थे लेकिन वे उस ढांचे को छोड़ती गयीं. स्वप्न का ढांचा ले सकते हैं. मैंनेमायालोकमें प्रयास किया कि स्वप्न सरीखा ढांचा बुन दूँ. मैं ये नहीं कह रहा कि कोई बहुत क्रांतिकारी परिवर्तन कर दिये लेकिन हमारे संदर्भ में देखें तो बहुत कुछ भिन्न किया मैंने. 

यथार्थवादी तरीके से भी उत्कृष्ट काम किया जा सकता है लेकिन मैं उस उत्कृष्ट को कोष्ठक/इनवर्टड कोमा में रखूँगा क्योंकि वहाँ  वही बैस्टसैलर सरीखा काम हो रहा है जो कहानी, प्लाट की रट लगाते हैं. इसके साथ अतिभावुक, रुलाने वाला आर्द्र भी काम हो रहा है भीगा भीगा है समां वाला. 

इस बहस को कितना ही खींच लें लेकिन जिन लोगों के मन में यह बस जाता है कि जो यथार्थवाद का विरोध कर रहा है वह यथार्थ का भी विरोध करता है कि यथार्थ को पकड़ने कि लिये यथार्थवाद बहुत जरूरी है. मैं समझता हूँ  कि यथार्थ की कोई भी परिभाषा हो, बाहरी या आंतरिक, उसे पकड़ने के लिये भी फिलहाल तो यह जरूरी है ही कि उसे पकड़ने के लिये हम यथार्थवादी रूढ़ियों से दूर जायें. फिर परखिये पचास सौ साल बाद. 

साहित्य और कला में प्रगति नाम की कोई चीज नहीं होती. आप पिछले को नहीं नकारते. कोई बेवकूफ ही माइकिल एंजेलो को नकार सकता है, भले ही पिकासो माइकिल एंजेलो जैसा नहीं रचेंगे, उनसे जो लेना है ले लेंगे. 



कहानी तो माना कि आप अपने लिये ही लिख रहे हैं, पाठक ध्येय या उद्देश्य नहीं. लेकिन नाटक तो अनिवार्यतः दर्शक और मंचन के लिये है. आपने नाटक भी लिखे हैं. इन दोनों की रचना में कोई फर्क कहीं
नाटक को भी उसी तरह लिख सकते हैं आप लिखते समय अपने को न डरायें कि यह मंचित हो पायेगा या नहीं, दर्शक इसे समझेगा या नहीं. कई महान नाटक भले शेक्सपियर के हों, चेखव या बैकेट के, उनमें कोई बंदिश नहीं. क्या शेक्सपियर अपने ऑडियंस को ध्यान में रखता था, रखता होगा लेकिन महानतम रचनात्मक लम्हों में वह उन्हें भूल जाता था. यह नहीं सोचता था वो उसके साथ उड़ेंगे या नहीं, लेकिन वो उड़े. अपना महानतम काव्य वह हैमलेट, किंग लियरमें नहीं लिख पाता अगर वह सोचता यह एलिजाबेथियन ऑडियंस को समझ आयेगा या नहीं. उसने अपने आपको पंगु नहीं बनाया होगा तभी वह इतना उॅंचा उड़ सका, टैंपेस्ट जैसा नाटक लिख सका, भाषा को मुक्त कर सका. सही है वह एक उत्कृष्ट अभिनेता भी था और यह समझ थी कि उसे दर्शकों को भी खुश करना है लेकिन अपने महानतम लम्हों में उसने उन्हें खुश नहीं किया. टू बी ऑर नॉट टू बीलिखते समय वह भूल गया कोई इसे समझेगा या नहीं. 

फिल्म लें. फिल्म से ज्यादा ऐसी कोई कला नहीं जो दूसरों पर निर्भर होती है. लेकिन जिन लोगों ने महान फिल्म बनायी है, तारकोवस्की ने नहीं सोचा होगा स्टॉकरकोई देखेगा या नहीं. नाटक को कला के प्रतिमानों पर लेना है तो उसे इन्हीं शर्तों पर उतरना होगा. बैकेट ने नहीं सोचा होगा उसके नाटक सफल होंगे, दर्शक को समझ आयेंगे या नहीं. नाटक के लिये भी अनकंप्रोमाइजिंग दृष्टिकोण बहुत जरूरी है. उसके लिये जोखिम उठाना ही चाहिये. हमारी बुढ़िया, जिसका मंचन नहीं हुआ अभी, भूख आग हैसे ज्यादा मुश्किल और जोरदार है. 

पाठक का हौआ, पाठक को हौए के तौर पर इस्तेमाल नहीं करना चाहिये. इस हौए को प्रगतिवादी लेखकों ने बनाया है, इससे साहित्य को बहुत नुकसान पहुंचा. भाषा ऐसी सबकी समझ आये--- ये गलत है. यह व्यवसायिक और नीरस लेखन को जन्म देता है. वे सोचते हैं समाज का उत्थान कर रहे हैं. वही पुराने शोषण के दृश्य, जिनमें न कोई कंपकंपी होती है न अनुभव की शिद्दत न ही सौंदर्य. अखबारी सी सूचनानुमा बात होती है.


आप लिखते वक्त कहीं अटके हों, किसी फिल्म को देखते या किताब पढ़ते या किसी दृश्य से गुजरते आपको कुछ कौंध जाये और आपका अटका उपन्यास फिर चल पड़े भले ही उस किताब या दृश्य का आपके अधूरे उपन्यास से कोई संबंध न हो. ऐसा होता है आपके साथ?

ह तो क्रिएटिव प्रोसेस ही है. आप कई चीजों से उकसाये जाते हैं. अक्सर होता है मेरे साथ कुछ ऐसा जिसका कोई ताल्लुक नहीं है जो आपके मन में चल रहा है उससे. यह किसी याद से भी हो सकता है, दृश्य से भी. सड़क पर चलते हुये, कार चलाते हुये, किसी से बात करते हुये. कई ख्याल अकेले में ही आते हैं एकाग्रता बांधने से. कई तरीकों से दस्तक देती है प्रेरणा.

जो चीज उपर से असंबद्ध लगती है किन्हीं अन्य स्तरों पर उसका संबंध होगा. प्रूस्त का उपन्यास शुरु होता है नायक मैडलीन बिस्कुट चाय में डुबोता है तो उसे कई चीजें कौंध जाती हैं जिसका उस डुबोने से कोई संबंध नहीं है. जो चीज ट्रिगर  करती है उसका कोई संबंध परोक्ष सही जरूर होगा. अवचतेन स्तर पर हो. फ्रायड ने कह तो दिया अवचेतन कार्यरत रहता है. ऐसे स्वप्न आते हैं जिनकी आपने कभी कल्पना ही नहीं की होगी. दिमाग बड़ा ही जटिल सयंत्र है, चेतना का ताल्लुक बताते हैं दिमाग से है. 




कुछ ऐसे बिंदु होंगे जहाँ  आपका उपन्यास अक्सर अटकता होगा. 
ब लिखना शुरु किया था मुझे प्लाट  कभी पसंद नहीं आया. फिर मैंने प्लाट  छोड़ ही दिया. प्लाट  की जगह शुरु में किरदारों ने ली, फिर एंबियेंस ने. एंबियेंस जो परिवेश से भी सूक्ष्म है. अगर मैं प्लाट  में फंसू तो भटक जाउॅगा. अंत कभी मुझे तंग नहीं करता. जरूरी नहीं मैं कोशिश करूँ  अंत में सब कुछ समेट लिया जाये. अगर रचना अनफिनिश्ड लगती है तो भी ठीक, उसकी भी अपनी एक फॉर्म  होती है. काला कोलाजको कह सकते हैं--- मैंने यूँही खत्म कर दिया, छोड़ दिया. अगर नहीं रास्ता मिल रहा तो छोड़ दिया आगे कोई और चीज आ जायेगी जैसे नर नारीआ गया. उस तरह के अंत का सुगठित आदर्श जो हेनरी जेम्सियन आदर्श था मैंने छोड़ा. फार्म को ले सजग रहो लेकिन जरूरी नहीं हर फार्म बिल्कुल फिनिश्ड नजर आये. ओपन एंडेड उपन्यास भी हो सकता है उसे क्यों समेटा जाये. कविता में भी कुछ लोगों की आदत होती है कविता की आखिरी पंक्ति उसमें सब कुछ आ जाये लेकिन आप क्यों खामख्वाह उसकी संभावनाओं को सीमित कर रहे हैं. उसे खुला ही रहने दीजिये. कुछ चित्र, स्वामी के कई चित्र मुझे अनफिनिश्ड लगते हैं, रामकुमार के नहीं. अनफिनिश्ड चित्रों में वैसी ही कभी कभी उससे ज्यादा शक्ति नजर आती है. बी राजन. बड़े भारी मिल्टन स्कॉलर. फॉर्म  ऑफ़  द अनफिनिश्डलिखी. बहुत प्यारी किताब. उन्होंने अंग्रेजी से उदाहरण लिये. मैंने उनसे कहा था काफ्का के भी उपन्यास लिये जायें वे भी अनफिनिश्ड हैं. और वे महान हैं. कुछ चीजें खत्म होने से ही इंकार कर देती हैं. हमें इसे स्वीकारना चाहिये.




आप किसी दृश्य से गुजरते, उद्वेलित होते हैं, क्या यह भी तय करते हैं कहीं प्रयोग करेंगे इसका और घर आ उसे डायरी में दर्ज कर लेते हैं
लग है मेरा तरीका. अगर दर्ज भी होता है तो मन में ही. कई बड़े अच्छे लेखक तो जैसे ही कोई ख्याल आता है कागज पर भी नहीं अपनी कमीज के कफ पर ही लिख लेते हैं. नोट्स लेकिन कई किताबों, कहानियों के लिये हैं. बिमल को लिखते हुये कई दफा नोट्स बनाये थे लेकिन ऐसा नहीं हुआ फौरन फैसला कर लिया हो इसे इस्तेमाल करना है. कई बार शुरु करने से पहले डूडलिंग सी, अनकंट्रॉल्ड आउटपोर सा भी होता रहा है.

कभी ये भी हुआ है मसलन काला कोलाज जिसमें निरंतरता नहीं है, जैसे कोई चित्रकार --- कभी यहाँ  ब्रश कभी वहाँ . खंडों में ही लिखा, बाद में फैसला किया किसे कहाँ  रखना है. मैं समझता हूँ  इन दोनों उपन्यासों-- माया लोक, काला कोलाज-- को कहीं से भी पढ़ा जा सकता है. जरूरी नहीं आप आदि से शुरु करें और अंत पर खत्म करें.
यह तत्व बाद की कई रचनाओं में है. दूसरा न कोई, दर्द ला दवा.



अपने पुराने किरदारों को ले नॉस्टैल्जिक होते हैं? बीरू या रानीखेत की वो दोपहर जब आपने उसे लिखा था. 
हाँ. गया भी हूँ वहां. कुछ ही साल पहले मेरी नातिन आयी थी अमरीका से, उसे ले गया था रानीखेत. लेकिन सबसे पुरानी यादें सबसे ज्यादा तीव्र होती हैं. कई लेखकों, मेरे जैसे लेखक के लिये, बचपन के साल ही बीज-वर्ष हैं. अक्सर सोचता हूँ जो कुछ घटना था घट गया उसी को खंगाल रहा हूँ. सबसे रोशन यादें, सबसे ज्यादा नॉस्टैल्जिक यादें उस कस्बे की हैं--- डिंगा. उसके बाद का मसलन दिल्ली काफी धुंधला पड़ जाता है. किरदार तो याद आते हैं लेकिन कभी-कभी अपने लेखन को पढ़—- जैसे अभी हाल ही मैंने प्रयोग किया अपनी पिछली किताबों को कहीं से भी पढ़ना शुरु कर दिया. बड़ी सुखद सी हैरानी होती है ये मैंने लिखा था. गद्य लेखक को तो वैसे भी वाक्य याद कैसे रहेंगे. कवि को कवितायें, शायर को तो सारा दीवान याद होता है. अपने को पढ़कर हैरान होना अच्छा लगता है. अपने से लिहाज भी होता है, ईगो भी संतुष्ट होता है शायद. और ये मैंने हाल ही में शुरु किया. मैं भूलता जा रहा हॅूं.
लीला. 

फर्ज करो मैं लीलापढूं तो कुछ याद नहीं आता कब किस हालत में क्या गुल खिलाये हैं मैंने. 

याद से मुझे याद आया, पता नहीं मेरे साथ ही है या सबके साथ, सुबह का लिखा शाम को पूरी तरह याद नहीं रहता. 



इससे ईगो संतुष्ट होता है
क खुशी कि बी योर ओन रीडर. पहले हिचक भी होती है अपने को क्यों पढॅूं, अपने को पढ़ने का, अपनी तस्वीर देखने का क्या मतलब हुआ. लेकिन तस्वीर का उदाहरण गलत है. लिखा हुआ भूल जाते हैं खासतौर पर जब किसी लेखक की तथाकथित ताकत भाषा में हो और वह भाषा के तथाकथित चमत्कार भूल जाये. तो मैंने सोचा इसे करके देखूं. गुजरा हुआ जमानामैंने सिरहाने रख ली, उसकी वजह भी थी आनी मांतो उसका फ्रैंच में अनुवाद कर रही हैं, तो मुझे लगा यह तो काफी सुखद है, एक तो काफी समय हुआ उसे लिखे. ईगो इस अर्थ में कि पढ़कर सुखद हैरानी हो जो मैंने लिखा था वो बुरा नहीं है.


खुफिया खुशी.
हाँ. खुफिया खुशी.




 II मध्य II
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भारतीय लेखक जब यूरोप जाता है कहानी, कविता और नहीं तो दो-चार संस्मरण ही लिख लाता है. भरमार है यूरोप-केंद्रित लेखन की, उस महाद्वीप से हमारे बौद्धिक संवाद की. निर्मल का भारत और यूरोपः प्रतिश्रुति के क्षेत्रों में मसलन. इसके बरअक्स अमरीका हमारे सरोकारों से एकदम गायब है. कोई दंभ है यहाँ ? आपके लेखन से भी अमरीका गायब है.
मुझे संस्मरण लिखने की ललक नहीं रही. डायरी जो मैं लिखता रहा उसमें भी जो कुछ पढ़ा उसके बारे में लेकिन वो भी विस्तार से नहीं. मसलन रमेशचंद्र शाह लिखते हैं तो पूरा निबंध लिख देते हैं. सही है मैंने अमरीका पर ज्यादा नहीं लिखा, एक कहानी है बस, क्यों नहीं लिखा मालूम नहीं. आपका जो सवाल है वो मुझ पर तो लागू नहीं होता. मेरे न लिखने का कारण मेरा टैंपरामेंट है. कभी कभी ही मैं जहाँ  भी जाता हूँ  वहाँ  के बारे में लिखता हूँ. मसलन वेनिस न गया होता तो वेनिसमेंवैराग्यन लिखता. लेकिन मैं अपने अतीत को ही खोदता हूँ.

आपके प्रश्न को मैं इसी वक़्त ही सोच रहा हॅूं. एक तो स्नॉबरी का तत्व है. यूरोप में मसलन निर्मल, अशोक वाजपेयी की तो दिलचस्पी है लेकिन वे अमरीका को समझते हैं घटिया मुल्क है. है नहीं जबकि. साहित्य को ही लें. जिस तरह के उपन्यास उन्होंने पैदा किये-- हेनरी जेम्स, मैलविल, फॉल्कनर, हैमिंग्वे. बौद्धिक स्तर पर उन्होंने कोई कम काम नहीं किया. शरण दी अनेक महान लोगों को. उनकी उपलब्धियां कम नहीं हैं लेकिन एक पूर्वाग्रह जो उनके खिलाफ है कि निपट भौतिकवाद का, डॉलर नियंत्रित देश है. कोई इतिहास नहीं है. हेनरी जेम्स ने ही पूरी सूची बना दी थी कोई कैसे अमरीका में उपन्यास लिख सकता है कि मैं इंग्लैंड में क्यों रहना चाहता हॅूं. अमरीका में ऑक्सफ़ोर्ड नहीं है, कैंम्ब्रिज नहीं है, कथीड्रल नहीं है, इतिहास नहीं है. कोई कैसे बिना इन चीजों के महान उपन्यास लिख सकता है. 

नहीं है यह सब. महान उपन्यास फिर भी लिखे गये. मोबी डिकमहान कृति है. हाथ्रोन का द हाउस ऑफ़  सेवन गेबल्स भी महान है. कई चीजों के बगैर भी महान उपन्यास लिखे जा सकते हैं. लेकिन हम यूरोप से ज्यादा अपने को जोड़ कर देखते हैं. 



दूसराकोईअमरीका के परिवेश को छूता था. कोई अबैंडैंड/उजाड़ कस्बा. 
हाँ. लेकिन दूसरा न कोईका कस्बा अमरीका के उन उजाड़ कस्बों में से नहीं था जिन्हें लोग किसी महामारी या संसाधन खत्म हो जाने की वजह से छोड़ कहीं और बस जाते हैं. वह यूनिवर्सिटी टाउन था. बर्फ बहुत पड़ती थी. उजाड़ इसलिये जब लड़के लड़कियां छुट्टियों में चले जाते थे उजाड़ नजर आता था. निर्मल, रामकुमार वहाँ  रहे थे हमारे साथ. एक दरिया भी था वहाँ. बड़ा सुंदर कस्बा था.



उपन्यास का, गल्प का कोई भारतीय स्वरूप हो भी सकता है? इसके जरिये हम गल्प को फिर से किसी तय ढांचे में नहीं बंद कर रहे?
हाँ . बिल्कुल. सजातीय फॉर्म  का सवाल और खुद सजातीय फॉर्म  ही अब नहीं रही. उठा था ये सवाल पहले भी. उसमें तो मैंने एक ही बात कही है कि नॉवेल या तो किसी ख्याल के प्रति ऑब्सेशन से निकला या आउटरेज से. इसकी कमी है हमारे यहाँ. 

हॉलैंड में आठ-नौ साल पहले एक सेमिनार हुआ था. इंडियननैस ऑफ़  इंडियन लिटरेचर. मैंने वहाँ  पेपर पढ़ा था कि इस पर जोर नहीं होना चाहिये इसमें सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बू आती है और फिर यह रास्ता सीधा फासिज्म की ओर जाता है. ठीक है कुछ बातें संस्कृति की खुद ही आ जाती हैं लेकिन सायास अगर कोशिश करेंगे कि दृष्टिकोण, विषय शुद्ध देशी हो तो नहीं होने पाता. हम कई जगहों से चीजें ग्रहण करते हैं जिसमें भारतीयता अभारतीयता का भेद समझ नहीं आता. मेरी कहानी बुढ़िया की गठरीइसी संदर्भ में है, पढ़नी चाहिये. नाटक हमारी बुढ़ियाउसी का एक रूप है. यह कि यह हमारी भारतीयता, थाती है गलत है. निर्मल उसका शिकार हुये. उदयन इसके शिकार होते जा रहे हैं. हमारे यहाँ  
सब कुछ था, शिक्षा पद्धति बहुत अच्छी थी. होगा सब कुछ, सब जगह था. बहुत सी सभ्यताओं का अतीत स्वर्णिम था.



लेकिन कोई तो ऐसा तत्व होगा. यह भारतीय लेखक, यह अमरीकी और यह तुर्क. 
कुछ चीजें होंगी, होती होंगी ऐसी. लेकिन वे भी पूरी तरह इतनी शुद्ध नहीं होंगी कि कहीं और न मिलें. आखिर यह सवाल किसे नहीं तंग करतेः विज्ञान, धर्म, कला हर कोई ये प्रश्न उठाता है. दर्द ला दवा में हस्ती और नेस्ती का सवाल है. होने का सवाल अस्तित्ववाद ने उठाया, हमारे यहाँ  भी उठता रहा है. दानाई की चीज तो यही. 

हक्सले ने एक एंथोलोजी बनाई थी, पेरिनियलफ़िलॉसफ़ी. जिसमें उसने बहुत जगहों से हिंदोस्तान, मिडिल ईस्ट वगैरा से उदाहरण ले यह साबित करने की कोशिश की कुछ मूलभूत प्रश्न-सरोकार आबोहवा, संस्कृति के भेद के बावजूद सारी दुनिया में समान हैं. बुद्ध, जीसस, महावीर, मोहम्मद ने भी यही सवाल उठाये.

भारतीयता पर इतना जोर नहीं देना चाहिये कि आप यह कहने लगें हमसा कोई नहीं. कहीं कुछ पहले आया, कहीं कुछ बाद में. हम अपने पतन की बात नहीं करते, उसे दूसरों के मत्थे डाल देते हैं. भारतीयता की बात करते वक्त हम हिंदू की ही बात करते हैं. मुसलमानों को लिये बगैर काम नहीं चलेगा. क्या पांच हजार साल पहले जाना ही भारतीयता है? कितना भी हिंदू की परिभाषा खुली कर दें, काम नहीं बनेगा. 



जो रचनाकार एक विस्तृत प्लाट  रचता है उसके लिये उस प्लाट  को पूर्णता तलक पहुँचाना ही अंत है. लेकिन आपके यहाँ  तो प्लाट गायब होता गया है फिर आप कहाँ  अंत करते हैं
मैंने पहले भी कहा था कि काला कोलाजऔर माया लोकके अंत बड़े आर्बिट्रैरी लग सकते हैं. यह सवाल उठाया जाये कि अंत यहाँ  क्यों हुआ, इससे दस मील बाद या पहले क्यों नहीं हुआ तो वह जायज सवाल होगा. इसलिये मैं इन्हें ओपन-एंडेड उपन्यास कहॅूगा. लेकिन मैंने इन्हें क्यों छोड़ दिया, मजाक में कहूँ  तो इसलिये कि मैं तंग आ गया उससे. खासतौर पर काला कोलाजसे. 

लेकिन नहीं. मैंने उसमें कुछ अंत करने की कोशिश की तो है. लेकिन फिर यह भी कहा जा सकता है कि मैंने उसे यूँही छोड़ दिया.

कुछ उपन्यासकार अंत करने के लिये बहुत सी मौत दिखा देते हैं. कट्टर यथार्थवादी तो बीमारी का भी हाल बतायेंगे. ई एम फोस्टर मसलन. वे अपने किरदार मार देते हैं या शादी कर देते हैं.

मेरे इन उपन्यासों को आप अनफिनिश्ड भी कह सकते हैं. आर्बिट्रैरी भी. लेखक को यह अधिकार हो सकता है कि अगर वह समझता है कि उसने इस उपन्यास की संभावनाओं को खत्म कर दिया है, इसमें और कुछ नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इसमें नायक तो नहीं है महज एक चेतना है, उस चेतना की कोई और परत अगर वह नहीं खोल पा रहा तो वह वहाँ  उसका अंत कर दे. 

आलोचक कह सकता है कि इसमें त्रुटि रह गयी है, इसका अंत अपरिहार्य नहीं है. लेकिन मैं बतौर लेखक तो यही कहूँगा कि मैं तो किसी भी अंत को इनएविटेबिल नहीं मानता. सभी अंत आर्बिट्रैरी लग सकते हैं. आप ऐसी फॉर्म  में काम कर रहे हैं कि उसके कई अंत हो सकते हैं. जिन्हें हम इनएविटेबिल अंत कहते हैं वे भी नहीं होते. एक क्षण को लग सकते हैं महज. लेकिन इतना ही काफी है. कुछ लोगों को लगते हैं तो भी ठीक है. अगर मुझे अनफिनिश्ड लगते हैं तो वह भी मुझे संतुष्ट करता है. मैंने एक निबंध लिखा था-- तथ्य, कथ्य, शिल्प. कहानीनुमा निबंध लिखने की कोशिश थी वह और जब मैंने वहाँ  देखा कि मैं एक अंधी गली में पड़ गया हॅू तो मैंने अंत कर दिया, कोष्ठक में लिखा असमाप्य, भविष्य में समाप्य. 

इसे मैं दोष नहीं मानता. इस फॉर्म  में यह गुंजाइश है कि आप अंत को ओपन-एंडैड रखें. 



लेकिन आपकी वो रचनायें जहाँ प्लाट है, घटनायें हैं? गुजराहुआजमानामसलन. उनका अंत?
वेकम ही हैं. कहानियां  तो शुरु की ही होंगी, बीच का दरवाजामेरी पहली कहानी. गुजरा हुआ जमानामें तो एपीसोड्स ही हैं. वहाँ प्लाट नहीं है. कॉज इफैक्ट नहीं है कि पिस्तौल रखी है तो उसका इस्तेमाल होना ही चाहिये. तमसमें प्लाट है कि सूअर को मारा गया फिर सब कुछ हुआ. यहाँ  कई कारण हैं, कई तत्व हैं. प्लाटनुमा अंत नहीं है. दंगों की पराकाष्ठा दिखा दी गयी है. मेमने की आवाज आती है, एक प्रतीकित चीख. क्राई ऑफ़  फ्यूटिलिटी. बस खत्म.


क्या यह तय था आपके जे़हन में कि यहीं अंत करना है?
हाँ. यहाँ  तो मुझे लिखते लिखते दिशा दिखाई दी कि मैं मरते हुये बच्चे की आवाज चुनूँ. यह मेरे दिमाग में था कि इसे क्लाइमेक्स बनाऊँ लेकिन यह प्लाट की तरह का क्लाइमेक्स नहीं है. 



कागज पर उतरते शब्द के साथ आपका क्या संबंध है? सुबह के बैठे जब आप दोपहर को उठते हैं तो सफेद कागज पर उतर आयी इबारत को देख, कि जो आपने चाहा एकदम वही शब्द मिल गया, कैसा महसूस करते हैं
स प्रक्रिया को शब्द देना आसान नहीं है क्योंकि यह एक ही प्रकार की नहीं होती. किसी भी लेखक की रचना प्रक्रिया हमेशा किन्हीं परिधियों में तो घूमती है लेकिन हरेक रचना के दौरान वही अमल नहीं होता जो कि पहले हो चुका है. परिवर्तन अपने आप होते रहते हैं.

दूसरे, शब्द के उतरने की प्रक्रिया भी अलग है. कई बार शब्द ढूँढने में कोई दिक्कत नहीं होती. कई बार कांट-छांट बहुत होती है. आप शब्द से संतुष्ट नहीं होते लेकिन उसे छोड़ देते हैं, बाद में कुछ और सूझ जाता है. मैं उन लेखकों में से हॅूं जो एक ही ड्राफ्ट में सब कुछ नहीं लिख पाते. जिस ड्राफ्ट में रवानी भी होती है उससे भी पूरी तरह संतुष्ट नहीं हो पाता. बहुत से लोग, मसलन अशोक वाजपेयी कवितायें भी एक ड्राफ्ट में लिखते हैं. जैनेंद्र बोल कर लिखवा देते थे. मैं ऐसे लेखकों की सराहना तो कर सकता हूँ लेकिन जब उन्हें गौर से पढ़ता हॅूं तो लगता है कहीं कुछ अधूरा रह गया है. 

जब कागज पर कोई शब्द उतरता है और जो मुझे ठीक भी लगता है तब भी जरूरी नहीं कि दस दिन बाद जब उसे देखूं तो उसे बदलने की कोशिश न करूँ . कभी कभी बदलने में बिगड़ भी जाता है, लेकिन यह गलती तो आप कर सकते हैं कि किसी लिखे को संवारने की कोशिश में उसे बिगाड़ दें. लेकिन हाँ , अंतिम वाक्य या अंतिम शब्द जैसा कुछ नहीं होता. दूसरे या तीसरे ड्राफ्ट में कई बदलाव लाता हूँ . मैंने कोशिश की है कि दुबारा न लिखूं, लेकिन अक्सर कहानियां  पूरी फिर से लिखता हॅूं. लिखते समय मुझे लगता है कि वो नर्वस इंटैंसिटी आती है तो उससे भी आलोक फूटता है, उससे भी कोई शब्द झर जाता है क्योंकि एकाग्रता बहुत जरूरी होती है और अगर आप बिल्कुल उसमें डूबे हुये हों तो इल्हाम की गुंजाइश ज्यादा रहती है. ऐसा कोई शब्द या दिशा मिले, कोई किरदार फूट पड़े या रोशनी मिले.

फिर भी हो सकता है मैंने इस प्रश्न का जवाब नहीं दिया हो. टका सा जवाब नहीं दे सकता मैं. हैरानी, खुशी होती है, झुंझलाहट भी होती है कभी कि पकड़ नहीं पा रहा हॅूं सही शब्द. कभी सस्पैंड कर देते हैं उस शब्द को कि प्रश्नचिन्ह लगा छोड़ दिया. 

शब्द हमेशा ही अकेला नहीं आता, कई अन्य शब्दों के साथ भी आ सकता है, पूरा पैराग्राफ भी कभी. 

मदाम बोवारी लिखते वक्त फ्लाबेयर को कभी कभी महज एक शब्द को ढूँढने में कई दिन लग जाते थे. यह एक सत्य का मुबालगा भी हो सकता है लेकिन इसमें सत्य जरूर है. कुछ लोग सही शब्द की तलाश में घंटों या दिनों तक तिलमिला सकते थे, फ्लाबेयर उन लोगों में थे. उस सीमा तक बहुत कम लेखक जाते हैं खासतौर पर गद्य लेखक. कवि तो कभी कभी एक शब्द के लिये बहुत छटपटाते हैं लेकिन गद्य तो लोग समझते हैं कि जो लिख दो ठीक है, महज जानकारी देनी है आपको. 




II अनवरत II
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इल्हाम कब, कहाँ  होता है आपको
ल्हाम के संदर्भ में बार बार डायरी में ज़िक्र किया है. दो शब्दों का ज़िक्र करता हूँ  जब लिखने का संकट सामने आता है कि इसमें आमद है या आवुर्द. आमद ज्यादा है या आवुर्द. आवुर्द जो चीज लायी गयी हो, आमद जो खुद आ जाये. आमदन. आवुर्दन. जिन्हें फारसी में मसधर कहते हैं.

फारसी का सौंदर्य शास्त्र जो मैंने पढ़ा किसी जमाने में वह यही था कि आमद पर जोर होना चाहिये. आमद में इल्हाम की गुंजाइश है. आमद यानी जो उतर रहा है. शास्त्रीय संगीत में भी आमद का जिक्र है, खासतौर पर कत्थक में क्योंकि उस पर मुसलमानों का असर था. फारसी का असर था. दरबारी विधा थी वह. 

आवुर्दन यानी जो कोशिश करके सायास लिखा जाये, आमुर्दन जो अनायास हो जाये. संपूर्ण आमद कभी-कभी ही उतरने पाता है किसी कृति में. मेरे भीतर बार-बार यह सवाल उठता रहता है कि किसी रचना में आमद है या आवुर्द. नर नारी लिखते समय मुझे हमेशा लगा कि इसमें आवुर्द पर ज्यादा जोर है. बिमल में आमद ज्यादा थी, उसके कुछ हिस्सों में आमद ही आमद है, आवुर्द की बहुत कम गुंजाइश है. 

उसका बचपनके पहले ड्राफ्ट में आवुर्द ज्यादा थी इसलिये मुझे बहुत पसंद नहीं आया था. और यहाँ मैं फुटनोट बतौर कह दूँ कि यथार्थवादी उपन्यासों में, बड़े से बड़े उपन्यासों में आवुर्द भी रहेगी काफी. वॉर एंड पीस के कई खंडों को हम उलट जाते हैं क्योंकि उनमें आवुर्द भरी हुई है. उन्हें नहीं पढ़ा जा सकता. बेकार की डिटेल्स, इतिहास की भरमार जिसे टॉलस्टाय जिला नहीं पाते. 

इल्हाम तक पहुँचने के लिये आमद का इंतजार जरूरी है. 

कुछ लोग कहते हैं कि किसी ने उनसे लिखवा दिया. आपको पता चल जाता है कि यह चीज लिखते समय मैं आमद के हवाले था. मुझे कोशिश ज्यादा नहीं करनी पड़ी. जरूरी नहीं कि वह चीज ज्यादा उत्कृष्ट हो ही.एक नौकरानी की डायरी. भले ही वह एक जगह तक ही पहुँचती है उससे आगे नहीं जाती, लेकिन उसमें ज्यादा कोशिश नहीं करनी पड़ी. उसमें भाव तो है, सरलता भी है और आमद भी. उसमें घटनाओं, किरदार के चुनाव इत्यादि में मुझे ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी.
आमद की भी कई किस्में हो सकती हैं.

इल्हाम वहीं होगा जब आप किसी ऐसी मनोस्थिति में हों कि आपको, जो आप लिख या सोच रहे हैं, उसमें ज्यादा मीनमेख न निकालने पड़े. उस स्थिति तक पहुँचने के लिये समाधि जरूरी है. इसलिये बिमल में मैंने मॉक सी समाधि, समाधि की पैरोडी का जिक्र किया है. वह कोशिश करता है कि आज समाधि लगाउॅंगा, कहीं नहीं जाउॅंगा लेकिन फिर भी उस मॉक समाधि में वह व्यंग्य तक तो पहुँच   जाता है--- हिंदी साहित्य की विषय सूची सी. एक खास किस्म की एकाग्रता उसमें आ जाती है.
इल्हाम का इंतजार घातक भी हो सकता है कि आप सारी उम्र इंतजार ही करते रहें. हेनरी जेम्स की जबरदस्त कहानी है, एक बाल्जाक की है. जेम्स बाल्जाक को बहुत महान मानते थे, उन्होंने बुढ़ापे में एक महान लैक्चर भी दिया था द लैसन ऑफ़  बाल्जाक. 
जेम्स की मैडोना ऑफ़  द फ्यूचर. इसमें इटली में रहता एक अमेरिकन कलाकार है. वह एक मास्टरपीस बना रहा है --- मैडोना. बूढ़ा हो जाता है. किसी ने उसको देखा नहीं है लेकिन ये लेजेंड मशहूर है कि वह कुछ रच रहा है. एक युवा कलाकार उसके पीछे पड़ जाता है कि मैं तो देखूंगा ही. फिर वह उसे अपने स्टूडियो में ले जाता है लेकिन वहाँ  कुछ नहीं है कैनवास पर. फिर वह बूढ़ा कलाकार उससे कहता है कि मैं सारी उम्र इल्हाम का इंतजार करता रहा मैडोना ऑफ़  द फ्यूचर बना सकूँ. अब तुम मुझसे सबक सीखो कि मैडोना बनाने के लिये काम करना बहुत जरूरी है. काम करते में ही मास्टरपीस की रचना संभव हो सकेगी. 
इसी तरह बाल्जाक की एक कहानी है द अननोन मास्टरपीस. उसमें भी एक कलाकार है. बाल्जाक जेम्स से एक कदम और आगे चले जाते हैं. वहाँ  भी यही दृश्य है. कलाकार पागल सा हो गया है. खुदकुशी कर लेता है. मरने के बाद उसके स्टूडियो से एक तस्वीर निकलती है--- आड़ी तिरछी लकीरें, कुछ समझ नहीं आता क्या है यह. उस कहानी में यह भी गुंजायश है कि शायद यह मास्टरपीस ही है शायद इसलिये ही किसी की समझ नहीं आ रही है. 
तो सार यह कि बैठना बहुत जरूरी है. आप चलते फिरते कहें कि इल्हाम आपको पकड़ लेगा तो नहीं, इल्हाम के लिये इबादत जरूरी है. रियाज़ जरूरी है. आमद के लिये आवुर्द जरूरी है.



किसी रचना में आमद की पहचान के क्या सूत्र हो सकते हैं
लेखक के लिये तो ज्यादा आसान है. उसे खुद ही पता चल जाता है कि ये आमद है या आवुर्द. आवुर्द में जिस किस्म का प्रयास करना पड़ता है, जिस किस्म की सायासता लानी पड़ती है वह सुखद नहीं होती. आप कन्ट्राइव कर रहे हैं, जोर दे रहे हैं, बाहरी चीजें भी आ जाती हैं, पाठक भी उसमें आ जायेगा कि उसे अच्छा लगेगा या नहीं. बेवजह जोर आजमायश होती है. बौद्धिक स्तर पर आप कुछ रौब खांटने की कोशिश कर सकते हैं. आप कृत्रिम हो जाते हैं और आपको पता भी चल जाता है कि आप कृत्रिम हैं. 

पाठक और आलोचक, अगर उत्कृष्ट हैं तो, वे भी कभी कभी जान जायेंगे. रचना में तरलता के स्तर को पहचान जायेगें कि ये शब्द सायास नहीं आये अपने आप उतरे या बरसे हैं. कभी कभी उनका ये अंदाजा गलत भी हो सकता है क्योंकि आर्ट लाइज इन कंसीलिंग द आर्ट ऑल्सो. कलाकार कितनी मेहनत करता है, उसे छुपा भी ले जाता है. 



क्या आप खुद अपनी कला, अपने आवुर्द लम्हे छुपाने का प्रयास करते हैं?
छुपाने का तो नहीं बल्कि उसे बाहर लाने का ही प्रयास होता है. उसे किसी खास तरीके से दिखाने का भी प्रयास नहीं होता. यह धारणा जो कुछ लोगों के मन में है कि जो भी कला या कलात्मकता पर ज्यादा जोर देता है वह चौंकाने की कोशिश भी करता है. चौंकाने या चमत्कार पैदा करने की कोशिश घटिया लेखक भी कर सकते हैं. कोशिश तो यही होती है कि रचना सहज दिखे. लेकिन सरलता या सहजता के भी कई पैमाने हो सकते हैं. हैंमिग्वे मसलन. उनकी महान रचनाओं में बड़े ऊँचे दर्जे की सादगी है. वह अनुपस्थिति की नहीं उपस्थिति की सादगी है. कई चीजों को बड़ी मेहनत से नकारने के बाद एक खास किस्म की उपस्थिति पैदा की उन्होंने अपने साहित्य में. उपमायें, विशेषण, रूपक जैसे तत्व जिनके बगैर मेरे जैसे लेखक नहीं चल पाते, वह चीजें उन्होंने हटायीं. 

एक सादगी विपन्नता की होती है कि कुछ है ही नहीं आपके पास. यह इकहरी सादगी है आप घटिया तरीके से सादा बनते हैं. 

सूत्र किसी भी चीज का ढूंढ़ना मुश्किल है.



आप उपन्यास, कहानियों का दूसरा-तीसरा ड्राफ्ट भी लिखते हैं. क्या कभी ऐसा भी हुआ है कि आपको पहला ड्राफ्ट कहीं बेहतर लगा हो. 
हाँ. कभी कभी. कुछ कहानियों के बारे में. उपन्यास के बारे में तो ऐसा कभी नहीं हुआ. मेरा तरीका ही ऐसा है कि कांट-छांट बड़ी जरूरी है. दूसरी बार भी ऐसी ही शिद्दत होती है. पहले से तो दूसरा लेखन बेहतर ही होता है. एक नौकरानी की डायरीमें भी ऐसा हुआ. 



एक बार में एक ही कृति पर काम करते हैं या एकाधिक चीजें चलती रहती हैं
शुरु शुरु में तो होता था कि एक चीज को खत्म करने के बाद ही दूसरी शुरु करता था. कम से कम पहला ड्राफ्ट खत्म किया, फिर उसे वक्त दिया ताकि दुबारा जब देखें कुछ समय बाद तो ताजा नजरों से देखें. यह चीज अब भी है. यह नहीं कि आज रात खत्म किया तो दूसरी रात फिर बैठ गये. उसके दौरान कोई और चीज शुरु कर लेते हैं जब आप तैयारी कर रहे होते हैं--- मानसिक या खुफिया तैयारी. लेकिन इधर यह भी हुआ है कि दो तीन चीजें साथ शुरु कर दीं. थोड़ा समय यह लिखी फिर वह. मायालोक जब लिख रहा था तब नर नारीभी शुरु कर दिया था. शुरु में ऐसा कम होता था अब अधिक होने लगा है. 



आपके जेहन में दोनों कृतियों के तार एक साथ घुमड़ते रहते हैं?
ह नहीं कहा जा सकता क्योंकि उन दोनों में से कोई तो बहुत गहरे, अचेतन, में घूम रही हो और चेतन में कोई दूसरी हो. लेकिन बिल्कुल शायद न मिटती हों क्योंकि अगर आप दो चीजों पर काम कर रहे हैं तो दोनों ही किसी न किसी रूप में चेतना के किसी स्तर, कोने में जरूर कुलबुलाती रहती हैं.



जीवन जीते वक्त क्या चीजों, घटनाओं में अपने लेखन के कुछ इंप्रैशंस, सूत्र टटोलते चलते हैं

सायास तो नहीं होता. मैं उन लोगों में से नहीं हॅूं कि मुझे फौरन ही पता चल जाये इसका इस्तेमाल कैसे होगा, वैसे बहुत से लोग, हेनरी जेम्स खुद एक मिसाल हैं, उन्होंने अपनी रचनात्मक प्रक्रिया, अपने संदर्भों का विस्तृत जिक्र किया कि कौन सा उपन्यास उन्हें कहाँ  सूझा. बहुत सी नोटबुक्स तो वे नष्ट कर गये थे लेकिन कुछ बच गयीं थीं. वे इन्हें भी नष्ट करना चाहते थे लेकिन बच गयीं थीं उनके कागजात में निकलीं थीं. वे फिर बाद में हार्वर्ड के प्रोफेसर मैट्यसन ने प्रकाशित करवायीं. उन्होंने हेनरी जेम्स पर बहुत बढ़िया किताब लिखी थी --- हेनरी जेम्सः द मेजर फेज़. उन्होंने उन डायरियों को संपादित किया. उन नोटबुक्स में कई रचनाओं के अलावाद अंबैसैडर्सका भी जिक्र था. उन्हें बहुत से आइडिया अपनी सामाजिक जिंदगी से सूझते थे. वे बार जाने के शौकीन थे. अपने जीवनकाल में ही वेमास्टरबन चुके थे. कई युवा लेखक उन्हें मास्टर बुलाते थे. वे हर किस्म की सोसायटी में, सिर्फ साहित्यिक समाज ही नहीं, जाते थे. क्लब में भी. वहाँ  कई बेवकूफ लोग भी होते थे जो उन्हें अपने बारे में कुछ न कुछ सुनाते रहते थे. उन चीजों का बीज उनके दिमाग में कभी-कभी पड़ जाता था. उसके लिये उन्होंने फ्रैंच लफ्ज donne (उपहार) इस्तेमाल किया. यह उपहार उनको मिलते थे सामाजिक जीवन से. घर आकर कभी कभी वे नोटबुक्स में उनको दर्ज कर लेते थे. बहुत सी कहानियां  उन्होंने इस तरीके से भी लीं और उनमें जान डाल दी. 

मुझे ऐसा सौभाग्य नहीं हुआ. एक तो शायद मेरा सामाजिक जीवन इतनी ज्यादा विस्तृत नहीं रहा या स्वभाव से मैं कान खुले नहीं रखता. कुछ लोग करते हैं लेकिन मैं नहीं कर पाता. 




फिर आपको आइडिया कैसे आते हैं?
वेआते रहते हैं. कभी पढ़ते हुये, अपने में डुबकी लगाते हुये. किसी ने कहा हो कुछ उसके चेहरे से भी आते हैं. कभी कभी स्वप्न से भी आते हैं. भले ही हूबहू न सही. 



आपके यहाँ  एक बूढ़ा लेखक, अपने में डूबा, समाधि में बैठा, अपने को कौंचता-नौंचता, बार बार आता है. यह नायक खुद आपकी कितनी प्रतिछवि है? आपसे कितना अधिक जुड़ता है?
(हॅंसते हैं) जुड़ती तो है, काफी जुड़ती है. मैं योग वगैरा तो नहीं करता. प्रार्थना भी नहीं. नास्तिक हॅूं. लेकिन यह सवाल उठते रहते हैं. दरवाजा बंद कर लिखता हॅूं. मैं शोर में नहीं लिख सकता. कैफे में बैठ कर नहीं लिख सकता जैसे सार्त्र ने कई किताबें लिखीं. कोशिश तो होती है डूबने की, ऐसी कैफ़ियत हो जिसमें डूबने का मन हो. 



मैं आपसे एकदम परिचित नहीं हूँ, लेकिन आपके लिखे को पढ़ते वक्त मेरा मानने को मन होता है, शायद मैं गलत हो सकता हूँ, बिमल, दूसरा न कोई, दर्द ला दवाका नायक--- इन सभी में आपका अंश बहुत अधिक है. 
होगा. बोर्हेस की एक पैराबल है जिसमें वे कहते हैं कि जो भी उन्होंने लिखा है कविताओं में, गल्प में, वहाँ  जो चेहरा है उन्हीं का है. चेहरे का लफ्ज प्रयोग किया है उन्होंने. जब पाठक या आलोचक इसे फूहड़ ढंग से लेते हैं तो उसमें लेखक के जीवन के तथ्य ढॅूंढ़ने लगते हैं. तथ्य के स्तर पर नहीं लेकिन आत्मा के स्तर पर कुछ कलाकार अपने ही माध्यम से दूसरों तक पहुँचते हैं, दूसरों के माध्यम से अपने तक नहीं. 




मेरा भी यही कहना था. बतौर लेखक नहीं, बतौर इंसान आपके रूहानी सरोकार आपकी कृतियों में दिखते हैं . 
बेशक दिख सकते हैं. उस तरह के रूहानियत सरोकार भले न हो जैसे लोग मजारों या मंदिरों में जाते हैं. मैं तो नहीं जाता, नास्तिक हॅूं. लेकिन आध्यात्मिक शब्द से कोई परहेज नहीं मुझे. नास्तिक भी आध्यात्मिक हो सकता है. डायरियों में यह जिक्र बार-बार आता है कि एक ऐसा नास्तिक जिसकी ईश्वर से मुक्ति न हो पाये. वह इसी उलझन में रहे कि ईश्वर है या नहीं और अगर है तो यह क्यों नहीं कर सकता. शुरु शुरु में तो यही होता था कि या तो विज्ञान को मानो या ईश्वर. लेकिन अब विज्ञान को मानते हुये भी ईश्वर को मान सकते हो. और ईश्वर को मानते हुये विज्ञान को भी.

लेकिन मैं उस स्थिति में नहीं पहुंचा हॅूं. रूहानियत का यह रहस्य मुझे अचंभित करता रहता है कि न था मैं तो खुदा था मैं ना होता तो खुदा होता. डुबोया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता. 



II अनंत II
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क्या ऐसे अंतराल भी आते हैं जब आप लिख पाने में खुद को असमर्थ पाते हैं.
हाँ, क्यों नहीं आते. आजकल आया हुआ है. 


लिख नहीं पा रहे?
लिख नहीं पा रहे या लिख नहीं रहे या सोच रहे हैं लिखा जाये या नहीं, जिसे अंग्रेजी मेंफैलो पीरियडकहते हैं. वे भी जरूरी हैं, काम करने के लिये काम न करना भी जरूरी है. जैसे जमीन को ख़ाली छोड़ा जाये तो उसकी उर्वरकता बढ़ती है. लेकिन इसमें खतरा यह भी हो सकता है कि आप कोई बहाना ढूंढ लें, उबर ही न पायें. ब्लॉक्स तो आते हैं, राइटर्स ब्लॉक. उसके कारण भी होते हैं जो अक्सर समझ नहीं आते. कई लोग तो, खासतौर पर बाहर के लेखक विश्लेषकों के पास चले जाते हैं ब्लॉक हटाने के लिये. बैकेट अपने आपको एनालायज ही कराते रहे.
ब्लॉक आते हैं, चले भी जाते हैं. 



इनके आने की तरह जाना भी अनायास होता है या सायास?
सायास तो नहीं. कभी कभी तो अगर अवधि ज्यादा लंबी हो जाये तो कष्ट तो होता है. इसलिये कुछ लोग कहते हैं अगर एक दिन भी नागा हो जाये और मैं भी मानता हॅूं कि एक नागा अपने साथ कई नागे लेकर आता है. कोशिश यही होनी चाहिये कि आप रोज बैठें. काम न हो तो भी. आप ऐसी कोई जगह बनायें जहाँ  काम की गुंजाइश बन सके. जगह भौतिक ही नहीं, मानसिक भी. इतनी एहतियात तो रखनी चाहिये. लेकिन एहतियात के बावजूद ब्लॉक भी आते हैं. 
लेकिन जिन लोगों ने बहुत अधिक और बहुत अच्छा लिखा है, बाल्जाक इसके सबसे महान उदाहरण हैं. उनकी मृत्यु उन्चास की उम्र में हो गयी थी. उन्होंने इतना उत्कृष्ट लिखा. जिस तरह वे लिखते रहे, जुआ खेलते रहे. उनके कई और शोशे थे, उलझनें थी. उन्हें कई और ऐब थे, व्यसन थे. दोस्तोयवस्की की तरह वे भी जुआ खेलते थे. 
टॉलस्टॉय भी इसकी बड़ी मिसाल हैं. वॉर एंडपीसउन्होंने सात साल में लिखा. कई ड्राफ्ट तैयार किये. 
कलाकारों में मार्शल दूशां. महान काम किया उन्होंने. दिशा बदल दी. लेकिन बरसों तक वे शतरंज खेलते रहे, लिखा कुछ नहीं. आर्ट डीलिंग करते रहे. पेंटिग्स की खरीद-फरोख्त में मिलने वाला कमीशन उनकी आजीविका का साधन था. 
उसके बरअक्स पिकासो हैं जो आखिर तक काम करते रहे. 
कोई एक पैमाना नहीं है किसी चीज का. 



आपकी भाषा में अजीब सी छटपटाहट, तड़प बसी रहती है. शब्द पृष्ठ को फाड़ बाहर आ जाना चाहते हैं. ये कितना आपके मिजाज का सूचक है?
मिजाज का तो पता नहीं कितना है, लेकिन.......... छटपटाहट है...... लेकिन....... दूसरा न कोईऔर दर्द ला दवा, इन दोनों मोनोलॉग में भी छटपटाहट के बावजूद उन चहेते संशयग्रस्त शब्दों के बावजूद जिनकी सूची दूसराकोईके अंत में दी गयी है…..इनके बावजूद कुछ और भी है. 
छटपटाहट का एक स्रोत तो नेति नेति की दृष्टि है. हर चीज पर संशय. प्रश्न. यह दृष्टि लेखन में प्रकट होती है कि आप दोटूक स्थापना नहीं कर पा रहे. जो स्थापना एक वाक्य में करते हैं उसे दूसरे वाक्य में मिटा देते हैं. ये भी नहीं, ये भी नहीं. हर चीज को शक की निगाह से देखना. चेतना अपने आप पर संदेह करती है. ऐसे लेखन का स्टाइल छटपटाता हुआ तो होगा ही. लेकिन आपकी मिसाल कि शब्द कागज को फाड़ बाहर आना चाहते हैं वह जरूरी नहीं है. छटपटाहट के बावजूद भी कहीं न कहीं एक लय आ जाती है. भले ही वह प्रलाप की लय हो या आलाप की या प्रार्थना की. छटपटाहट का दूसरा रुख एक अंतर्निहित लय भी है. दोनों चीजें एकदूसरे को शक्ति भी देती हैं और नियंत्रित भी करती हैं. एक चीज को पकड़ लेना गलत है.
आप दुबारा पढ़ें तो आपको लगेगा कि यह शैली छटपटाती हुई तो है, डिस्टर्ब भी करती है लेकिन कभी-कभी कहीं-कहीं यह एक स्थिरता भी हासिल कर लेती है. थोड़ी देर के लिये ही सही. बेशक वहाँ  जाकर बैठ नहीं जाती, हमेशा को नहीं रहती क्योंकि फिर से संदेह की प्रक्रिया शुरु हो जाती है. लेकिन इस तरह यह दो प्रक्रिया हैं. अगर दूसरी प्रक्रिया को नजरअंदाज करेंगे तो सिर्फ हिंसा ही नजर आयेगी उसे नियंत्रित करने वाली चीजें, आवाजें, या सही कहूँ तो खामोशियां सुनाई नहीं देगीं. इस शैली में खामोशी बहुत हैं, बेशक वो चैन की खामोशी न हो, चीखती हुई खामोशी हो. लेकिन खामोशी मेरी स्टाइल का एक तत्व है.
अमरीकी आलोचक इहाब हसन ने बड़ी अच्छी किताब लिखी है द लिट्रेचर ऑफ़  साइलेंस. आधी किताब हेनरी मिलर पर है, आधी सैमुअल बैकेट पर. वे यह स्थापित करते हैं कि ये दोनों लेखक खामोशी तक पहुँचने का प्रयास करते हैं. मिलर चिल्लाते हुये शब्दों से. 
मैं यह नहीं कर रहा कि मैं हेनरी मिलर के रास्ते पर चल रहा हूँ, नहीं मैं उस पर नहीं चल सकता. मिलर की सी वाक् शक्ति मुझमें नहीं है. 

काला कोलाज में भी कई खंड हैं. शुरु के ही हैं शायद. लाल तमन्नाशायद. मेरे दार्शनिक मित्र दयाकृष्ण लाठ ने दर्द ला दवा पर एक सेमिनार किया था जयपुर विश्वविद्यालय में. उनका मानना था कि यह एक महान दार्शनिक उपन्यास है. उन्होंनेकाला कोलाज पढ़कर भी कहा कि इसके लाल तमन्नाअंश में मैंने यह कल्पना करने की कोशिश की है कि सृष्टि कैसे उपजी, जबकि मेरे जेहन में यह नहीं था. 

उसमें छटपटाहट नहीं है, जबकि होनी चाहिये थी आखिर लाल लहू का रंग है. उसमें कोशिश यह थी कि आँख  खुलती है तो आँख  के सामने क्या दिखाई देता है. बिल्कुल अलग बैठी कोई चेतना धरती को देख रही है इसलिये शायद दया को लगा कि कोई तटस्थ चेतना यहाँ रची जा रही है. तो कई ऐसी चीजें हैं जो डिस्टर्ब करती हुई भी शांत रस में डूबने की कोशिश करती हैं. 

भारतीय दर्शन के प्रमुख विषयों से वाकिफ तो हॅूं—- अद्वैत, सगुण, निर्गुण. कर्म सिद्धांत 
मुझे प्रभावित करता है लेकिन झुंझलाहट भी उठती है. मार्क्स से भी प्रभावित रहा हॅूं. दयाकृष्ण से कई बार बात होती थी कि कर्म को अगर मान लिया जाये, और कर्म को मानने के कई कारण हो सकते हैं, तो altruism की कोई गुंजाइश नहीं रहती. क्योंकि विशुद्ध altruism किसी अन्य को ही केंद्रित होता है खुद अपने को नहीं. जबकि आपके प्रत्येक कर्म का फल खुद आपको ही भोगना पड़ता है. ऐसे में किसी चीज की कोई गुंजाइश नहीं रहती. अतीत पहले से ही तय है.

कर्म सिद्धांत आकर्षित इसलिये करता है कि जिन्होंने इसे गढ़ा, उन्होंने इसे समझने की कोशिश की होगी कि यह विविधता क्यों है, दुख, सुख इत्यादि में फर्क क्यों है.



क्या आप अपने लेखन के जरिये किसी बड़े सत्य को पाना चाहते हैं? किन्हीं बड़े मूल्यों की तलाश आपको लेखन की ओर ले जाती है?
मेरे जैसे संशयग्रस्त लेखन के जरिये उसे खोजा-खोदा तो जा सकता है, पाया नहीं जा सकता. तहकीद-तलाश की जा सकती है. पाने के लिये आस्था जरूरी है. लीप ऑफ़  फेथ. पाने के लिये अपने संशय को स्थगित करना जरूरी है. मैं संशय के माध्यम से सवाल उठा पाता हॅूं, हासिल नहीं कर पाता. पाने के लिये किसी न किसी अवस्था पर यह कहना पड़ता है कि कुछ चीजें जानी नहीं जा सकतीं.



संशय से शुरु कर आप संशय तक ही पहुँच पाते हैं या बीच में कहीं कुछ हासिल होता भी महसूस होता है?
संशय खुद ही एक उपलब्धि है. यह कुछ बड़े ही महत्वपूर्ण प्रश्न उठाता है भले ही उनके उत्तर नहीं दे पाता. सवाल सही होने चाहिये जवाब मिले न मिले. कलाकार, खासकर आधुनिक कलाकार के लिये यही काफी है कि वह लगातार सवाल उठाता है. गलत जवाब या ऐसे जवाब जिनमें गलती की संभावना रहती है स्वीकार कर लेने से कृत्रिम सी शांति मिलती है उससे बचना बहुत जरूरी है. 



कौन सी चीजें रचनाकार के लिये एकदम घातक होती हैं, जिनसे उसे बचना चाहिये
किसी सच्चे रचनाकार के लिये कोई भी चीज घातक नहीं होती क्योंकि वह भी उसके अनुभव का ही हिस्सा होती है. वह उनका भी इस्तेमाल कर सकता है, उनसे भी कुछ निकाल सकता है. बड़ा रचनाकार तो वही है जिसके लिये कोई भी चीज, अनुभव अप्रासंगिक न हो. सभी कुछ उसके काम आ सके. लेकिन फिर यहाँ  अनिर्लिप्तता भी चाहिये, क्योंकि अगर वह सिर्फ भोक्ता बन कर रह गया तो जो निस्संगता चाहिये उस भोग को रचनात्मक रूप देने के लिये वह फिर संभव नहीं हो पायेगा. निस्संगता के क्षण तो उसे चाहिये ही क्योंकि यही उसकी बुनियाद है. 


क्या आपने ऐसा महसूस किया है कि आप महज भोक्ता बनकर रह गये हों, निस्संगता बोध खत्म होता जा रहा हो? आप किसी दूसरी दिशा में खिंचे चले जा रहे हों, फिर आप सभी चीजों को पीछे छोड़ सहमे से वापस लौटे हों.
ई बार होता है ऐसा. कई बार आप छूट भी देते हैं अपने को. छूट कई बार जायज भी है नहीं तो आप संसार छोड़ ही देंगे. बड़े से बड़े संत, महात्मा भी हर वक्त निस्संग नहीं रहते थे, महात्मा गांधी भी नहीं. अनासक्ति आदर्श तो होती है लेकिन व्यवहार में पूरी तरह कहाँ आ पाती है. अगर आप ग्रहस्थ हैं तो आसक्ति से बच नहीं सकते. 
इसलिये ऐसा भी कहते हैं कि रचना के लम्हों में ही आप पूरी तरह अनासक्त हो पाते हैं. इसलिये कृति कृतिकार से बड़ी होती है. रचे जाने के लम्हों में कृतिकार को उठा लेती है. कृतिकार में कई खामियां हो सकती हैं--- जीने का, परिवार का मोह. कलाकार का द्वंद्व. 



यह द्वंद्व आपको कितना विचलित-विघटित करता है? वे कौन सी चीजें हैं जो आपको खींचती हैं?
ई चीजें हैं. सबसे पहले तो ईगो ही खींचता है, जो जिंदा रहने के लिये जरूरी भी है. बच्चों का मोह, सैक्स का मोह. यादों का, कीर्ति का मोह. इन पर कितना ही संशय कर लो लेकिन यह खींचते हैं. इनसे फिर दूर जाने के लिये कड़ा नियंत्रण करना पड़ता है. कुर्बानी देनी पड़ती है. दीदा दानिस्ता कोई ऐसी बेईमानी न की जाये. आप रोज अपने से प्रश्न करते हैं कोई समझौता तो नहीं कर रहे, और उन्हें रोकने के लिये क्या प्रयत्न कर रहे हैं. झूठ बोल रहे हैं तो क्यों बोल रहे हैं. इस प्रक्रिया में आप कई बार असामाजिक भी हो जाते हैं, हर किसी से बात भी नहीं करते. 

यह भी कोशिश रहती है कि आप सैल्फ राइचस न हो जायें. आपको यह गुमान न हो जाये कि आप सब दोषों से रहित हैं. गलती सबसे होती है और झूठ भी सबके भीतर है. 
सैल्फ-राइचस हो जाना, यह गुमान कि वह सर्वगुण संपन्न है रचनाकार के लिये बहुत बड़ा खतरा है. 


क्या यह खतरा आपके सामने आ खड़ा हुआ है कि आप इस गुमान में जीने लगे हों आप किसी शिखर हैं, बाकी लोग बहुत पीछे छूट गये
सा तो नहीं हुआ कभी. मुझे सबसे ज्यादा संशय तो खुद अपने पर ही होता है. बल्कि अपने कुछ दोस्तों, खासतौर पर निर्मल से, मुझे यह शिकायत होने लगी थी कि वे सैल्फ-राइचस होते जा रहे थे. निर्मल में शायद यह प्रवृत्ति शुरु में भी होगी लेकिन बाद में यह प्रबल होती गयी थी. उनके आखिरी दिनों में दो चीजों ने उन्हें बहुत गिराया, अपने पद से और मेरी नजर से, कि उनके जो दोष दूसरों को साफ दिखाई देते थे उनसे वे बेखबर रहने लगे थे. दूसरों की दृष्टि और विचारों में दोष निकालते हुये वे ऐसे इंसान की मुद्रा बना लेते थे जिसे यह शक जरा भी न हो कि उसमें भी ये दोष हो सकते हैं. जब वे दूसरों को ईमानदारी का उपदेश देने लगते थे तो अपनी बेईमानी को भूल जाते थे.  



लेखक मित्रों का संबंध. वे शुरु में तो अपनी रचनायें एकदूसरे को दिखाते हैं बाद में लेकिन कतराने लगते हैं. यह इसलिये भी कि आपने निर्मल और अपनी मित्रता के संदर्भ में इस खिंचाव कहीं जिक्र किया है.
शुरु-शुरु में जाहिर है आप गोष्ठियों में जाते हैं. एक फोरम होती थी करोल बाग में हम अपनी रचनायें पढ़ते थे-- मैं, निर्मल, भीष्म, देवेंद्र इस्सर, महेंद्र भल्ला, लेकिन तब भी ऐसा नहीं था कि हर रचना एकदूसरे को सुनाते थे. लेखकों की मित्रता में बीतते वक्त के साथ विकार आने लगते हैं. भारत में ही नहीं बाहर भी. काम्यू सार्त्र का झगड़ा तो मशहूर है. वैचारिक मतभेद, पर्सनल बातें भी आ जाती हैं. शुरुआत की सी घनिष्ठता आखिर के दिनों में नहीं रहती. जैनेंद्र और अज्ञेय में नहीं थी. उसका कुछ न कुछ अवशेष लेकिन आखिर तक भी रहता है जैसा निर्मल और मेरे साथ रहा. एक खास किस्म की निकटता थी जो किसी और के साथ उसकी भी शायद न थी, मेरी भी नहीं. लेकिन दूरियां भी थीं. बीच में कुछ बातें आने लगती हैं. ईगो कह लीजिये. अपना काम भी एकदूसरे को नहीं दिखाते.
कुछ लोग थोड़े गोपनीय भी होते हैं. मैं नहीं दिखाता हूँ  जब तक फिनिश्ड न हो. 



राय लेते हैं अपनी रचनाओं पर
हीं. मैं अपना कड़ा आलोचक हूँ . नहीं दिखाता किसी को. निर्मल ने भी राय ली हो तो मुझसे नहीं किसी और से ली हो राय. लिखने या छपने के बाद हाँ  पढ़ते थे एक दूसरे को लेकिन फिर वो भी कम होता गया. 


आपने एकदूसरे को पढ़ना ही बंद कर दिया?
हीं, मैं तो पढ़ता रहा लेकिन मेरा ख्याल है निर्मल ने बंद कर दिया.


हो सकता है वे भी आपको पढ़ते रहे हों लेकिन बताया नहीं हो आपको.
हाँ, हो सकता है यह भी. 
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(कृष्ण बलदेव वैद से यह संवाद उनके वसंत कुञ्ज के घर २०१० की जनवरी में हुआ था.)

मोहम्मद रफ़ी : तुम मुझे यूं भुला ना पाओगे : सुशील कृष्ण गोरे

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३१ जुलाई १९८० को महान पार्श्व गायक मोहम्मद रफ़ी हमसे हमेशा के लिए अलग हो गये पर इस महाद्वीप में आज भी उनकी आवाज़ गूंजती रहती है. उन्हें याद कर रहें हैं सुशील कृष्ण गोरे.


  
तुम मुझे यूं भुला ना पाओगे
सुशील कृष्ण गोरे




स आवाज को थमे आज 39 साल पूरे हो जाएंगे. एक ऐसी आवाज जिसके बारे में कहा जाता है कि अगर ख़ुदा की आवाज होगी तो हू-ब-हू ऐसी ही होगी. जब किसी आवाज में इस कदर कुदरत की रूह समाई हो; वो भला थम कैसे सकती है. आज भी रफ़ी अपने चाहने वाले करोड़ों दीवानों के दिलों पर हुकूमत कर रहे हैं.

आइए, इस पुरखुलूस आवाज के जादूगर रफ़ी साहब के ज़िंदगीनामा के कुछ खास पन्नों को पलट कर देखते हैं. कहा यह भी जाता है कि रफ़ी साहब बनावटी दुनिया के उसूलों से कोसों दूर रहने वाली शख्सियत थे. उन्हें शोहरत और दौलत की दुनिया की परवाह नहीं थी. पेशेवराना तरीके से वे आ जरूर गए थे ग्लैमर और चकाचौंध से भरी एक दुनिया में, लेकिन उनकी रूह में तो एक फकीर का पीर पैठा हुआ था. तभी तो वे कैफी आज़मी के अल्फाज़ों को बुलंदियों से कह पाए कि –ये दुनिया ये महफिल मेरे काम की नहीं .....

आपको जानकर हैरानी होगी कि मोहम्मद रफ़ी का काफी बचपन अपने बड़े भाई के साथ लाहौर में बीता था जिनकी वहाँ नाई की दुकान थी. यह वह दौर था जब उनका परिवार अमृतसर के पास अपना पैतृक गांव कोटला सुल्तान सिंह पीछे छोड़कर रोजी-रोटी कमाने की गरज़ से लाहौर आ गया था. वे छह भाइयों में पांचवें भाई थे. उनकी तीन बहने भी थीं. कहा जाता है कि रफ़ी साहब का गाने की तरफ झुकाव बचपन से था. उनके लंगोटिया यार बचपन से ही अपने इस दोस्त को गाते सुनकर अक्सर कहा करते थे कि तू और तेरी यह आवाज एक दिन दुनिया पर हुकूमत करेगी. तेरी आवाज तुझे खुदा की नेमत है.

रफ़ी का परिवार बहुत साधन संपन्न नहीं था और उनके पिता बिल्कुल नहीं चाहते थे कि वे गीत-संगीत की राह पकड़ें. केवल चंद दोस्तों और एक बड़े भाई मोहम्मद दीन के अलावा उनकी रूह में बसी मौशिकी की प्यास को कोई तवज्ज़ो नहीं दे रहा था. एक घटना ऐसी है जो इस बात की तसदीक करती है कि रफ़ी को अपने भीतर से उठती सूफीयाना आवाज की पहचान जरूर थी. उनको खुद पर ऐतबार भी था. उनके मोहल्ले से रोज़ एक सूफी फकीर एकतारा बजाते हुए पंजाबी लोकगीत गाते हुए गुजरा करते थे. रफ़ी उसकी आवाज पर फिदा थे और उसकी नकल किया करते थे. वे बिना नागा उस फकीर का इंतज़ार किया करते थे....और उसके पीछे-पीछे दूर तक चले जाते थे. इस छोटे से बच्चे की चाहत देखकर एक दिन उस फकीर का दिल भी आ गया. उसने रफ़ी को हौसला देकर गाने को कहा. फिर क्या था, रफ़ी गुनगुनाए और फकीर ने उन्हें दुआ दी कि एक दिन बेटा तेरी यह आवाज सारी दुनिया सुनेगी. इसमें तो कुदरत की रूह छिपी बैठी है.

इस तरह दिन बीतते गए. वर्ष 1937 था. रफ़ी सिर्फ़ तेरह साल के थे जब लाहौर में उस जमाने के मशहूर पार्श्वगायक कुंदनलाल सहगल का एक कार्यक्रम हो रहा था. मंच पर ऐन वक्त बिजली गुल हो गई और पेट्रोमैक्स जलाकर कार्यक्रम को आगे बढ़ाने का फैसला लिया गया. उस समय सहगल को सुनने के लिए बेताब़ भीड़ को थोड़ी देर संभालने के लिए बालक रफ़ी को मंच पर बुलाया गया. उन्होंने बिना माईक के ही अपनी जादुई आवाज में एक पंजाबी लोकगीत लोगों को सुनाया. रफ़ी के लिए किसी महफिल में सार्वजनिक तौर पर अपना गीत सुनाने का यह पहला मौका था. उनकी आवाज के फिज़ा में घुलते ही भीड़ मानों किसी जादू से बँध गई. शोर मचाती भीड़ अचानक खामोश हो गई. मंत्रमुग्ध जनता ने रफ़ी को सुनने के बाद खड़े होकर जोरदार तालियों से पूरे स्टेडियम को गुँजा दिया. उनकी आवाज को सुनकर मंच पर बैठे सहगल साहब भी आश्चर्य में पड़ गए और खुश होकर रफ़ी को आशीर्वाद दिया और कहा कि – तुम जरूर एक दिन बहुत बड़े गायक बनोगे. यह रफ़ी की जिंदगी का एक मक़बूल मौका था. इसके बाद उनको कुछ समय रेडियो लाहौर पर भी गाने का मौका मिला.

रेडियो लाहौर पर गाते सुनकर उस समय के बहुत ही पापुलर म्यूजिक डायरेक्टर श्याम सुंदर ने रफ़ी को एक पंजाबी फिल्म गुल बलोचमें पार्श्व गायक के रूप में गाने का मौका दिया. यह उनका पहला पंजाबी गाना था जिसे 28 फरवरी 1941 को रिकॉर्ड किया गया था. इसके बोल थे –शोणए नी, हिरिए नी, तेरी याद ने सताया. इस गाने ने भी रफ़ी को एक पहचान दिलाई जिसे सुनकर मशहूर अभिनेता और प्रोड्यूसर नसीर खान ने उनको मुंबई बुलाया. परंतु, रफ़ी साहब के घर वाले उन्हें इसके लिए इजाजत देने को तैयार नहीं थे. अंत में उनके बड़े भाई मोहम्मद दीन ने, जो हमेशा से ही रफ़ी के हुनर के ख़ैरख्वाह थे, उन्हें मुंबई भेजने का इंतजाम किया. यह 1942 का वर्ष था – मुंबई जाने के लिए लाहौर रेलवे स्टेशन से ट्रेन में बैठे रफ़ी को उनके अब्बा ने दिल पर पत्थर रखते हुए बड़ी मुश्किल से विदा किया और यह हिदायत भी दी कि – बेटा, जा तो रहे हो लेकिन याद रखना अगर कामयाब नहीं हुए तो वापस मुँह दिखाने मत आना. मैं यह भूल जाऊँगा कि रफ़ी नाम की मेरी कोई औलाद भी थी.

18 साल का एक बेहद सीधा-सादा, मासूम और शर्मीला मोहम्मद रफ़ी एक अनजान शहर मुंबई पहुँचता है. जिंदगी किसी की भी हो कभी आसान नहीं हुआ करती – रफ़ी के सामने रहने, खाने, सोने का इंतजाम करने का सवाल पहले था, गाने की तो बाद में देखी जाती.  लेकिन, उनके बड़े भाई के दोस्त हमीद भाई रफ़ी के इस शुरूआती संघर्ष में बहुत काम आए. उनकी कोशिशें रंग लाईं और दोनों को मोहम्मद अली रोड के प्रिसेंस बिल्डिंग में किराए का एक मकान मिल गया. इसके मालिक सिराजुद्दीन अहमद बारी खुद सपरिवार बिल्डिंग के टॉप माले पर रहते थे. इसे इत्तेफाक ही कहा जाएगा कि बाद में इन्हीं बारी साहब की बेटी बिलकिस सुरों के इस शंहशाह की हमसफ़र बनीं.

यह समय रफ़ी के लिए बहुत कठिन था. वे मुंबई की फिल्मी दुनिया की बेगानी गलियों में इस स्टुडियो से उस स्टुडियो के चक्कर काट रहे थे और अपने लिए गाने का मौका तलाश रहे थे. कई बार ऐसा भी हुआ था कि वे जब किसी स्टुडियो के बुलावे पर वहां पहुँचे नहीं कि उन्हें सुनने को मिला कि अब कल आओ. रफ़ी के वपास कल दोबारा घर से वहां आने के पैसे न होते थे. ऐसे में वे कई बार स्टुडियो के सबसे नजदीक के रेलवे स्टेशन पर ही सोकर रात गुजार लेते थे.

उन दिनों भी मुंबई में, वो भी फिल्म उद्योग में, अपनी जगह बनाना कोई हँसी-मज़ाक की बात नहीं थी. वह के.एल.सहगल, पंकज मलिक, खान मस्ताना, जी.एम.दुर्रानी जैसे नामी-गिरामी गायकों का दौर था – एक तरफ तो ऐसे दिग्गज खड़े थे.वहीं दूसरी तरफ़ की कतार में उनकी टक्कर के मुकेश, तलत महमूद, मन्ना डे, और थोड़े ही दिनों बाद किशोर कुमार भी अपने हुनर का लोहा मनवाने के लिए म्युजिक इंडस्ट्री में संघर्षरत थे. इसलिए रफ़ी के लिए मंजिल आसान न थी. उन्हें हिंदी फिल्म में गाने का पहला ब्रेक दिया प्रसिद्ध संगीत निर्देशक श्याम सुंदर ने, अपनी फिल्म गाँव की गोरीमें – जिसमें उन्होंने जी.एम दुर्रानी के साथ मिलकर गाया था. इसके बाद उस दौर के स्थापित म्युजिक डायरेक्टर नौशाद अली ने भी उन्हें एक फिल्म पहले आप के एक गाने के में कोरस के साथ कुछ लाइनें गाने का मौका दिया. गाने के बोल थे – हिंदुस्तान के हम हैं, हिंदुस्तान हमारा .....”
यह रफ़ी की पहला हिट गाना था. रफ़ी बचपन से के.एल. सहगल के मुरीद थे और उनको 1950 में अपने सपनों के गायक सहगल के साथ गाने का अवसर भी नौशाद जी ने ही दिया. फिल्म का नाम था –शाहजहाँ. लेकिन, उनको एक मुकम्मल पहचान मिली फिल्म जुगनूसे, जिसमें रफ़ी को सुरों की मल्लिका नूरजहां के साथ गाने का बेशकीमती मौका मिला.

रफ़ी के सामने केवल बाहरी जोड़तोड़ से मुठभेड़ ही नहीं थी – बल्कि उनको गायकी के स्तर पर भी नए प्रकार की चुनौतियां झेलनी पड़ रही थीं. इसकी वज़ह यह थी कि रफ़ी का फन लीक से हटकर था. वे अब तक के प्रतिमानों से भिन्न थे. उनकी अपनी शैली और अंदाजे-बयां था. अपने समकालीन गायकों में से किसी की नकल में वे नहीं गा रहे थे. वे अपने साथ एक बदलाव लेकर आए थे इसलिए तत्कालीन गायकी और मौशिकी की दुनिया उनको सहजता से अपना नहीं पा रही थी. अभी तक फिल्मी गीत एक सप्तक पर ही गाए जाते थे लेकिन रफ़ी साहब ने डेढ़ सप्तक की शैली शुरू की.

मोहम्मद रफ़ी के बारे में यह कहा जाता है कि उनकी सुरों में जितनी विविधता और विस्तार था उतना तब भी किसी में नहीं था और आज भी नहीं है. उनकी काबिलियत इतने कमाल की थी कि वे जिस अभिनेता के लिए गाते थे उनके गाने से बिना देखे पता चल जाता था कि यह गाना दिलीप कुमार गा रहे हैं या शम्मी कपूर गा रहे हैं. उनकी आवाज की नरमी और लरजिश में वो माद्दा था कि वह गुरुदत्त, भारत भूषण, प्रदीप कुमार, देव आनंद, जॉय मुखर्जी, संजय खान, विश्वजीत, जितेंद्र, राजेंद्र कुमार, राजकुमार, धर्मेंद्र, शशि कपूर, ऋषि कपूर, अमिताभ बच्चन जैसे सभी अभिनेताओं की विशेषताओं और ख़ास अदाओं को अपने गाने में उतार देते थे.

अपने बेमिसाल हुनर और बेशुमार शोहरत की बुलंदियों पर होने के बावजूद रफ़ी साहब को दिखावा, दंभ छू तक नहीं गया था. उनकी शराफ़त की मिसालें आज भी दी जाती हैं. वे एक नेक और दरियादिल इंसान थे. पैसे की लालची नहीं थे. ज़मीर के पक्के और खुद्दार थे. प्रसिद्ध अभिनेता जितेंद्र एक वाकया का जिक्र करते बताते हैं कि एक फिल्म के प्रोडक्शन के दौरान यह तय हुआ था कि गाने के लिए गायकों को चार हजार रुपए दिए जाएंगे. फिल्म के बनने में चार साल लग गए और जब रफ़ी साहब को अन्य गायकों के बराबर बढ़ाकर बीस हजार रुपए दिए गए तो वे बहुत नाराज हो गए थे. फोन पर मुझे पंजाबी में प्यार से डांटते हुए कहा था कि – अबे वो जित्ते, बहुत पैसे हो गए हैं क्या तेरे पास. उन्होंने 16 हजार रुपए वापस लौटाए. जितेंद्र कहते हैं कि आज पैसे की दुनिया में ऐसी मिसाल कहां मुमकिन है.

इसी तरह रफ़ी साहब के बारे में यह कभी सुनने को नहीं मिला कि किसी संगीतकार के साथ उनकी नहीं बनीं. उनके नाम की तूती बोलती थी फिर भी उन्होंने संगीत निर्देशकों को हमेशा अपना गुरु और मार्गदर्शक माना. कभी उनके काम में दखलअंदाजी नहीं की. नौशाद, मदन मोहन, रोशन, शंकर जयकिशन, खय्याम, ओ.पी. नैयर, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, चित्रगुप्त जैसे प्रतिष्ठित संगीतकारों के साथ उन्होंने काम किया. एक से एक गाने गाए जिनकी फ़ेहरिश्त बनाना मुमकिन नहीं है.

रफ़ी की ख़ासियत ये थी कि वे सारे हिन्दुस्तान की एक मुकम्मल आवाज थे. उनके गीतों में सिर्फ़ प्यार, मोहब्बत, इज़हारे-इश्क और नर्गिस-ए-मस्ताना की शोख अदाएं ही नहीं हैं बल्कि रफ़ी ने संगीत की शास्त्रीयता को भी पूरा निभाया है. उनकी यह क्षमता उनकी ग़ज़लों और भजनों में देखा जा सकता है. आप रफ़ी की यह ग़ज़ल याद करिए –ये इश्क-इश्क ये इश्क-इश्क. उनको मधुबन में राधिका नाचे रे, गिरधर की मुरलिया बाजे रे.. गाते हुए सुनें. या ओ दुनिया के रखवाले सुन दर्द भरे मेरे नालेका स्केल देखिए – कहा जाता है कि रफ़ी ने इस गाने का सुर इतना ऊँचा उठा दिया था कि उनका गले से खून आ गया था और उनका गला रुद्ध हो गया था. यह भी एक किस्सा मशहूर है कि एक कैदी, जिसे फांसी की सजा सुनाई गई थी उसने जेल अधिकारियों से अपनी आखिरी इच्छा के रूप में इस गाने को सुनने की फरमाइश की थी.

उन्होंने हिन्दुस्तान के हर हिस्से की संस्कृति और रीति-रिवाज, पर्व-त्योहारों को अपने गीतों से सजाया है. आज भी हिन्दुस्तान के किसी भी हिस्से में जब बारात निकलती है तो एक मात्र यही गाना बजता है –आज मेरे यार की शादी है, लगता है कि ये सारे संसार की शादी है..... तिरंगे को देखते हैं तो बरबस ज़हन में ... कर चले हम फ़िदा जानो तन साथियों, अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों गूंजने लगता है.

अपनी बहुमुखी प्रतिभा की बदौलत रफ़ी ने अपनी फ़नकारी के जिस भी आयाम छुआ उसमें कमाल हुआ. उनके सुरों में इतना देवत्व था कि वे जो गा देते थे वह ज़मीं से फलक तक नुमायां हो जाता था. उन्होंने इंसानी जज्बात के सभी रंगों और सब धड़कनों को अपनी पुरनम आवाज से सुनने वाले के खयालों में तामीर किया है. उनकी आवाज में दुनिया की हर चीज़ को बयां करने की ताकत थी. वे जब गाते थे तो दुनिया हर मंज़र आंखों में साया होने लगता था. हिंदी, उर्दू, पंजाबी, गुजराती, मैथिली, भोजपुरी, उड़िया, बांग्ला, मराठी, कोंकड़ी, सिंधी, असमी, तमिल, तेलुगु, इंगलिश, अरबी, फारसी, सिंहली आदि कई भाषाओं में रफ़ी ने 30 हजार से ज्यादा गाने गाए हैं.

आज भी एक तड़पते आशिक को मरहम रफ़ीके गीत ही लगाते हैं –तुम्हीं ने दर्द दिया है, तुम्हीं दवा देना, ग़रीब जान के. माशूका की ब़ेवफाई को जिस तल्खी से रफ़ी ने पेश की है, वह काबिले-तारीफ़ है –क्या हुआ तेरा वादा, वो कसम वो इरादा. रफ़ी ने रोमांस, मोहब्बत की हर शोख़ अदा को तरन्नुम के साथ गुनगुनाया है. आज तक इससे अधिक शोख़ और अल्हड़ प्यार का गीत दोबारा नहीं सुना गया –पूछे जो कोई मुझसे बहार कैसी होती है, नाम तेरा ले के कह दूँ कि यार ऐसी होती है  ..... वहीं गहरे अवसाद को भी उन्होंने क्या बेहतरीन स्वर दिए हैं –टूटे हुए ख्वाबों ने, हमको ये सिखाया है, दिल ने जिसे चाहा था, आंखों ने गँवाया है..... या याद न जाए, बीते दिनों की .... या फिर ... सौ बार जनम लेंगे, सौ बार फनां होंगे .....

1956 से 1965 तक का समय रफ़ी के करियर का सबसे बेहतरीन वक्त था. इस बीच उनको कुल छह फिल्म फेयर अवार्ड मिले और वे रेडियो सिलोन से प्रसारित होने वाले बिनाका गीतमाला कार्यक्रम में दो दशकों तक छाए रहे. वर्ष 1969 में फिल्म आराधनासे रफ़ी को पहली बार करियर में झटका लगा. इत्तेफ़ाक की बात है कि इस फिल्म के म्युजिक डायरेक्टर एस.डी बर्मन फिल्म के सारे गाने रफ़ी से गवाने वाले थे लेकिन वे फिल्म निर्माण के बीच में ही बुरी तरह बीमार पड़ गए. ऐसे में काम आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी उनके बेटे आर.डी. बर्मन के हाथ में आ गई. संयोग ऐसा था कि इधर रफ़ी साहब भी हज़ करने चले गए थे. आर.डी.बर्मन यानी पंचम नए जमाने के संगीतकार थे. वे नए प्रयोगों और वक्त के बदले हुए मयारों को संगीत में लाना चाहते थे. पंचम ने आराधनाके गीत किशोर कुमार को दिए. किशोर ने अपनी ख़ास अदा के साथ गाया और सारे गाने रातों-रात जबरदस्त हिट हो गए. किशोर ने बाजी मार ली. उनकी बढ़त कायम रही. रफ़ी पिछड़ने लगे थे. फिर एक बार रफ़ी की 1976 के ब्लॉक बस्टर लैला मजनूसे शानदार वापसी हुई. मदन मोहन और जयदेव के संगीत निर्देशन में इस फिल्म ने सफलता के सारे रिकॉर्ड तोड़ डाले. रफ़ी ने फिर से अपनी अहमियत का डंका बजा दिया था. उसके बाद कई यादगार फिल्मों के सुपर हिट गानों ने रफ़ी के कंठ से चारों तरफ धूम मचाया.

लंदन, अमेरिका, वेस्ट इडीज, जोहांसबर्ग, दुबई, श्रीलंका आदि कई देशों के कई शहरों में रफ़ी ने म्यूजिकल कंसर्ट में भी हिस्सा लिया और महफिलों में हरदिल अज़ीज सितारे की तरह छाए रहे. 1980 में श्रीलंका में जब वे वहां की सरकार के बुलावे पर गए थे तो उनको सुनने के लिए 12 लाख से ज्यादा लोगों का हुजूम उमड़ आया था. हिंदी उनके श्रीलंकाई चहेतों की भाषा तो नहीं थी; लेकिन रफ़ी की मेलॉडी के जादू का असर उन पर भी तारी था. रफ़ी की विशेषता थी कि जब वे कहीं गाने के लिए खड़े होते थे तो सबसे पहले वहां की स्थानीय भाषा में ही गाना शुरू करते थे.

1966 में भारत सरकार ने रफ़ी को पद्मश्रीसे सम्मानित किया. लेकिन, सुरों का यह बादशाह गाता चला जा रहा था कि अचानक 31 जुलाई 1980 का वह मनहूस दिन बहुत जल्दी आ गया. रफ़ी को जबरदस्त हार्ट अटैक हुआ और वे सबको हैरत में डालकररोता हुआ छोड़कर दुनिया से बहुत दूर चले गए. उसके बाद एक ही आवाज गूँजती रह गई –जाने वालों जरा मुड़के देखो मुझे, एक इंसान हूँ मैं तुम्हारी तरह.... 
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sushil.krishna24@gmail.com

सबद - भेद : विष्णु खरे : अप्रत्याशित का निर्वचन : ओम निश्चल

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कवि विष्णु खरे के दो संग्रह ‘प्रतिनिधि कविताएँ’ और ‘और अन्य कविताएँ’ २०१७ में एक साथ प्रकाशित हुईं. पहली की भूमिका केदारनाथ सिंह ने लिखी है दूसरे का फ्लैप कुँवर नारायण ने. अब ये तीनों बड़े कवि हमारे बीच नहीं हैं.
‘तफ़सील की गहन बारीक़ी‘ और ‘Narration या वर्णन-विवरण की अनेक विधियों का इस्तेमाल’ दोनों प्रस्तावकों ने इस बात को रेखांकित किया है.
विष्णु खरे की कविता पर आलोचक ओम निश्चल का यह सुदीर्घ लेख आपके लिए.


विष्‍णु खरे : अप्रत्‍याशित का निर्वचन                        




विष्‍णु खरे की कविता उनके व्‍यक्‍तित्‍व की तरह ही जटिल और संश्‍लेषी है. वह आसानी से भावविगलित होने वाली कविता नहीं है. वह संशयों,विश्‍वासों,तर्कों और स्‍थितियों के मनोविश्‍लेषणों से गुजरती हुई अपने नैरेटिव का विन्‍यास रचती है. वह इस हद तक प्रोजैक और गद्यात्‍मक है कि उसे बाजदफे कविता के रूप में स्‍वीकार करने में संकोच हो. किन्‍तु छंद के बंधनों से मुक्‍त होने के बाद जिस तरह कविता निराला के यहां और बाद में मुक्‍तिबोध,शमशेर,रघुवीर सहाय,विजेन्‍द्र,ज्ञानेन्‍द्रपति,राजेश जोशी,देवीप्रसाद मिश्र और गीत चतुर्वेदी तक विकसित होती और परवान चढ़ती है वह हिंदी कविता की एक दिलचस्‍प यात्रा है तथा इस यात्रा में कविता की दृष्‍टि अत्‍यंत समावेशी और विचार के रुप में सुदृढ़ व प्रतिबद्ध होती गयी है. यहां तक कि एक संकीर्णतावादी लोकतंत्रवादी समाज में भी जहां तमाम किस्‍म की भावुकताएं और रूढ़ियां सांस लेती दिखती हैं वहां भी कविता- एक सच्‍ची कविता अपने वक्‍त का क्रिटीक बन कर उभरती है. ऐसे नैरेटिव जिसमें आख्‍यान भी है,बयान भी,एक सार्थक वक्‍तव्‍य भी है एक प्रामाणिक किस्‍म की गवाही भी- कविता कवि का स्‍वैराचार होती हुई भी जहां एक ओर आधुनिकतावादी प्रयोगों से टकराती है वहीं विश्‍व कविता से होड़ लेती हुई विश्‍वसजग,आत्‍मचेतस,समाजचेतस होने का दायित्‍व भी निभाती है.

एक पत्रकार होने के नाते और भाषा,साहित्‍य व संस्‍कृति तथा विदेशी अनुवाद से जुड़े होने के कारण विष्‍ण खरे अपनी कविता को अपने समकालीनों से बहुत अलग ले जाते हैं. उनका नैरेटिव भी अपनी तरह का है. रघुवीर सहाय का नैरेटिव चौकस है सुघर(सुगढ़ के अर्थ में) है. वह लोकतंत्र,नागरिकता,संविधान,राष्‍ट्र राज्‍य के कार्यभार,जनता के सरोकारों की दृष्‍टि से जहां एक सजग राजनीतिक कवि की भूमिका निभाता है वहीं विष्‍णु खरे का नैरेटिव अपने समय की अनेक विडंबनाओं पर उंगली रखता हुआ अपनी विक्षुब्‍धता को छिपा नहीं पाता. जिस मानसिक उहापोह से एक पढ़ा लिखा नागरिक गुजरता है,विष्‍णु खरे में वे सारी बेचैनियां सांस लेती हैं. अचरज नहीं कि वे अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता को अक्‍सर छिपा नहीं पाते. अंतिम दिनों में तो उनमें यह बेचैनी किसी पार्टी कार्यकर्तासरीखी हो गयी थी कि वे किसी पार्टी के पक्ष में मतदान न करने का सीधा ऐलान कर सकते थे.

तथापि अपनी बहुज्ञता के चलते और समाज को कविता,पत्रकारिता,व सिने माध्‍यमों से देखने समझने की जो सिफत उनमें थी वह बहुधा उनके समकालीनों में नहीं है. वे न तो गतानुगतिक थे न किसी के पैरोकार. वे किसी वैचारिक आंधी में बह जाने वाले रचनाकार भी नहीं थे. उनकी राय कभी कभी बहुत अप्रत्‍याशित व चौंकाने वाली होती थी. अपने कवित्‍व के प्रति श्‍लाघा व दूसरे के कवित्‍व को छलनी कर दे सकने वाली प्रतिसंवेदी आलोचना से भी वे यदा कदा बच नहीं पाते थे . अत: साहित्‍य में उनकी बहुज्ञता का लोहा मानने वाले तो बहुत हैं पर उनके कवित्‍व के प्रति असंदिग्‍ध राय रखने वाले कम है. किन्‍तु  उनके किसी मत से कोई नाराज हो जाए,इसकी उन्‍हें चिंता कभी नहीं रही. वे अपनी कविताओं के निर्माण में भी इसी निर्भयता से काम लेते थे. बाहर से बहुत रूखी सूखी और कभी कभी भदेस-सी भी लगने वाली उनकी कविता में आखिर क्‍या बात है कि हम उसे झुठला नहीं सकते. उसकी उपेक्षा नहीं कर सकते. विष्‍णु खरे उस नैरेटिव के कवि हैं जिनकी कविता साठ के बाद के लोकतंत्र में आती हुई तब्‍दीलियों और मानवीय स्‍वभाव का अंकन भी है. उनके व्‍यक्‍तित्‍व में किसी तरह का पिछलगुआपन बेशक कम मिलता है पर वे कभी विचलन का शिकार होते हुए 'नई रोशनी'जैसी कविता भी लिख सकते हैं,इसमें संशय नहीं. पर यहां भी वे सीधे सादे ढंग से निपट तारीफ के पुल नहीं बांधते बल्‍कि अपनी विदग्‍ध व्‍यंजना का परिचय भी देते हैं.


(एक)
विष्‍णु खरे का रचनाकाल 1956-57 से 2018 तक फैला है. इस दौर में वे पत्रकार रहे,जनता की समस्‍याओं से उनका गहरा वास्‍ता रहा. साहित्‍य अकादेमी से जुडे,विभिन्‍न भाषाओं में अनुवाद के व्‍यापक कारोबार से जुड़े,सिने समीक्षा को एक नया रचनात्‍मक आयाम दिया,अनेक बार साहित्‍यक शैक्षणिक व पत्रकारीय प्रयोजनों से विदेश गए,सिने समारोहों का अंग बने---इन सबने उन्‍हें देश,विदेश,उसकी समस्‍याओं,सत्‍ता के मूलगामी चरित्र को पहचानने का अवसर दिया. उनकी कविता जिन तत्‍वों से बनी है वे सामान्‍य नहीं हैं. जिस तरह कुंवर नारायण के शुरुआती कविता संग्रह 'परिवेश:हम तुम'या केदारनाथ सिंह के पहले संग्रह 'अभी बिल्‍कुल अभी'की कविताएं हैं ---चित्‍ताकर्षक एवं प्रगीतात्‍मक --- उन अर्थों में विष्‍णु खरे की कविताएं न तो रोमैंटिक हैं न प्रगीतात्‍मक,पर वे किसी न किसी विडंबना को कविता के केंद्र में  रखते हैं. बल्‍कि कहें कि वे शुरु से ही अपनी एक राजनीतिक पहचान बनाने वाले कवियों में नजर आते हैं जैसे रघुवीर सहाय,सर्वेश्‍वरदयाल सक्‍सेना,ऋतुराज,विजेन्‍द्र व ज्ञानेन्‍द्रपति आदि.

विष्‍णु खरे के नैरेटिव में कोई न कोई वृत्‍तांत समाहित होता है. 'पिछला बाकी'की पहली ही कविता टेबलको देखें तो यह टेबल के बहाने मुरलीधर नाजिर,बेटे सुंदरलाल,पत्‍नी रामकुमारी व उनके भी बेटे की कहानी है. टेबल तीसरी पीढ़ी तक स्‍थानांतरित होती है और उससे जुड़ी बातें कवि तफसील से बयान करता है. यह अलग बात है कि टेबल तो निमित्‍त मात्र बनता है पर उस निम्‍न मध्‍यवर्गीयता की एक सांकेतिक तस्‍वीर जैसे जीवंत हो उठती है. अव्‍यक्‍त में कवि एक दिन छुट्टी के बाद स्‍कूल न लौट कर एक बागीचे की बेंच पर आ बैठता है और अपना ही किस्‍सा बयान करता है. गर्मियों की शाम भी अपने में अनूठी कविता है. इस कविता को केदारनाथ सिंह लिखते तो शायद इसकी तासीर कुछ अलग होती. विष्‍णु खरे गर्मियों की शाम को चार लड़कोंकी घुमक्‍कड़ी की शाम में बदल देते हैं जिसमें दो लड़कियां भी शामिलहोती हैं. जहां लालटेन सी मद्धिम पीली धूप नज़र आती है और उनकी बहनें या दोस्‍तों की बहनें उनके आने पर दरवाजें से सिमट कर पीछे हट जाती है जैसे शाम को सरसराते मैंदान पर गर्मी की आखिरी दिनों की पीली धूप. इसी तरह हँसी,प्रारंभ,अकेला आदमी,मुकाबला,कार्यकर्ता,ढाबे में देर से आने वाले लोग,गूँगा,अंधी घाटी कविताएं हैं. कहा जाए तो वे अकेला आदमी हो या कार्यकर्ता या ढाबेमें देर से आने वाले लोग ---वे क्‍या विस्‍तार से चित्र आंकते हैं कि उस शख्‍स या विषय वस्‍तु के सारे पहलू उभर कर सामने आ जाते हैं. यद्यपि चित्र कविता कोई उम्‍दा कोटि की कविता नहीं मानी जा सकती. संस्‍कृत में चित्र काव्‍य को अधम काव्‍य कहा ही गया है. आज के कवियों में चित्र ऑंकने में शायद ज्ञानेन्‍द्रपति सबसे ज्‍यादा कुशल कवियों में होंगे. पर कविता तो वह है जो केवल चित्र ने ऑंके,कुछ कहे. उसे पढ़ कर कोई अनूठी व्‍यंजना श्‍लेष या कुछ निराले कथ्‍य का आभास हो. इस दृष्‍टि से गूंगा कविता अंत में पहुंच कर करुणा-विगलित कर देती है.   

कविता में उन्‍हें लाने और स्‍थापित करने का श्रेय अशोक वाजपेयी को जाता है. पहचानसीरीज में उनकी पहली किताब उन्होंने ही छापी. बाद में उनकी कई पुस्‍तकें आई. पिछला बाकी,सबकी आवाज के पर्दे में,लालटेन जलाना,पाठांतर,खुद अपनी आंख से,काल और अवधि के                                                                                                                    दरमियानऔर अभी पिछले ही साल प्रकाशित और अन्‍य कविताएंजिस पर छपे कवर पर प्रदर्शित आलेन कुर्दी के शव की हिंदी हल्‍के में बहुत निंदा हुई. 'आलोचना की पहली किताब'में उनकी समीक्षाएं संकलित हैं तोसिनेमासमयनामक सिने समीक्षा की एक पुस्‍तक भी हाल ही में प्रकाशित हुई है. हिंदी में गुडी गुडी कहने का चलन बहुत है पर अपनी वाम पक्षधरता के लिए पहचाने जाने वाले विष्‍णु खरे ने किसी भी मुद्दे पर सदैव बेबाक राय रखी. उनकी कविताएं कविता में नैरेटिव का एक विरल उदाहरण हैं. उनके गद्य का पाट बेहद चौड़ा था. वह देश दुनिया के बड़े मुद्दों पर अपनी वैचारिक दृढता के लिए जाने जाते रहे. इसलिए उनकी कविताएं मुक्‍तिबोध की सी बीहड़ता लिए हुए दिखती हैं. बेशक उनका संघर्ष मुक्‍तिबोध जैसा नहीं रहा न कविता-कसावट ही,पर उन्‍हें वे अपना काव्‍यगुरु मानते थे. इसकी वजह शायद यह थी कि कभी नागपुर से प्रकाशित सारथीमें मुक्‍तिबोध ने उनकी पहली कविता छापी थी.

उनके भाषा सामर्थ्य और भीतर अंतर्निहित ठहरी गहराइयों की प्रशंसा कुंवर नारायण ने बहुत पहले की थी. यद्यपि उन्होंने यह भी पाया कि उनकी कुछ कविताओं में यथार्थ की ठसाठस कुछ कुछ उसी तरह है जैसे किसी दैनिक अखबार का पहला पेज. लेकिन इसमें भी कविता के मूलार्थ को बचाए रख पाना उनकी कला का परोक्ष आयाम है. वे इनमें यथार्थ की भीड़ में कंधे रगड़ते चलने का रोमांच पाते हैं तो अनुभवों की अधिक अमूर्त शक्तियों का अहसास कराने का सामर्थ्य भी. उनकी कविताएं बौद्धिकता और ज्ञानार्जन का प्रतिफल हैं. वे कमोबेश जिरहबाज़ लगती हैं. परन्तु इस जिरहबाज़ और संगतपूर्ण निष्कर्षों तक कविता को ले जाने की प्रवृत्ति उनमें कूट कूट कर भरी थी. कविताएं उनकी वैज्ञानिकता का लोहा मनवाती हैं पर बाजदफे लगता है कि उनकी कविता में साधारणता में जीने वालों के प्रति एक सहानुभूतिक रुझान भी है. यह कवि-कातरता है – करुणा है जिसके बिना कविता में वह भावदशा नहीं आ सकती जो आपको विगलित और विचलित कर सके. उनकी कविताओं में दृश्य की यथास्थितिशीलता के एक एक पल का बयान होता है---रेखाचित्र से लेकर उस पूरी मनोदशा भावदशा समाजदशा का अंकन. शोक सभा के मौन को लेकर लिखी पहली ही कविता इन्हीं दशाओं से होकर निरुपित हुई है. वह शोकशभा का रेखांकन भी है और दिवंगत आत्मा के प्रति पेश आने वाले पेशेवर हो चुके शोकार्त समाज का आईना भी. पर जहां उनके भीतर का यह कुतूहल बना रहता है हर विषय को अपनी तरह से स्कैनिंग कर लेने में प्रवीण और उत्सुक वहां वे अनेक स्थलों पर करुणासिक्त नजर आते हैं. वहां अपनी बौद्धिकता के आस्फालन को इस हद तक नियंत्रित करते हैं कि चकित कर देते हैं. 'उसी तरहमें अकेली औरतों और अकेले बच्चों को जमीन पर खाते न देखने का काव्यात्मक ब्यौरा कुछ इसी तरह का है. इसी तरह उनकी कविता ''तुम्हें'' है. सरेआम एक आदमी को मारे जाते देखने वालों पर यह कविता एक तंज की तरह है. जैसे वह बाकी बचे हुए लोगों को उनका हश्र बता रही हो. अकारण नहीं कि यहां मानबहादुर सिंह जैसे कवि याद आते हैं जो बुजदिल तमाशबीनों के बीच अकेले कर मार दिए गए और भीड़ अपनी कायरता के खोल में छिपी रही.


(दो)
विष्‍णु खरे हिंदी के एक ऐसे कवि,पत्रकार,अनुवादक,सिने समीक्षक एवं वक्‍ता थे जिनके भीतर हिंदी की उस जुझारु पीढी की अप्रत्‍याशित साहसिकता थी जो कभी अपने वक्‍त के निर्भीक पत्रकारों का आभूषण हुआ करती थी. हिंदी की सुभाषितोन्‍मुख हो चली दुनिया में जहां किसी वाजिब बात पर भी स्‍वीकार्य किस्‍म की प्रतिक्रियाओं का रिवाज़ चल पड़ा हो,विष्‍णु खरे अंतिम समय तक खरी-खरी बातें कहने के लिए जाने जाते रहे. उन पर इस बात का  कोई फर्क नहीं पड़ता था कि वह युवा है या अपने समय का प्रतिष्‍ठित कवि लेखक या राजनेता. इन दिनों वे इस स्‍तर पर मुखर हो उठे थे कि किसी सार्वजनिक साहित्‍यिक समारोह के ऐन धन्‍यवाद ज्ञापन में किसी एक खास राजनेता को वोट न देने की उद्धत अपील तक कर सकते थे. किन्‍तु हिंदी कविता के नैरेटिव में एक खास तरह आवेगी संवेदना के लिए वे जाने ही नहीं जाते,इस तरह के गद्य के वे आविष्‍कारक भी माने जाते रहे हैं.

अपने निज को प्राय: गौण रखते हुए भी और नाज़ मैं किस पर करुँजैसी कविता में उनका नास्‍टैल्‍जिया बोलता है. उनका छिंदवाड़ा का पारिवारिक परिवेश बोलता है. वे जीवन भर न केवल अपने समय से,अपने मित्रों और वैचारिक शत्रुओं से,बल्‍कि खुद से भी लड़ते व संघर्ष करते रहे. अपनी अनेक कविताओं में उन्होंने इस जद्दोजेहद का संकेत किया है. उन्होंने बहुत हुआकविता में लिखा है: नहीं मेरी आस्‍था किसी स्‍वर्ग में / किसी परमपद में/ किसी ब्रहृम में लीन होने में भी नहीं..........चाहा तो कितना था कि बहुत कुछ करके जाऊँ/ नहीं कर पाया तो उसके कई कारण थे/ जिनमें सबसे बड़ा कारण में ही था. 'यह कविता जैसे उनके जीवन में एक पाश्‍चात्‍ताप की तरह है---विक्षोभ के बोध से टकराता हुए एक आत्मस्वीकार जिसे वे प्राय: अभिमानवश धकियाते रहे.
वे इस सबके बावजूद हर वक्‍त लड़ाकू मुद्रा में ही नहीं,पढाकू मुद्रा में भी रहते थे. उनके नए संग्रह और अन्‍य कविताएंपर मैने समीक्षा लिख कर उन्‍हें पढने को भेजी तो उनकी नाराजगी की अपेक्षा रखते हुए भी उत्‍तर बहुत शालीन-सा आया. बस शीर्षक नहीं जँचा ---वृत्‍तांतप्रियता में झपकियां लेता गद्य,जिसे मैंने बदल कर वृत्तांतप्रियता में विश्रांतिकर दिया, जो उन्हें जँचा. उनकी आलोचना कभी कभी इतनी तीखी होती थी जितनी कि कभी कभी किसी कवि को शिखरत्व से मंडित कर देने में कुशल. उनके ब्लर्ब कवियों के लिए प्रमाणपत्र की तरह हैं जिनके लिए भी वे कभी लिखे गए हों. कविता में वे इतने चयनधर्मी रहे हैं कि कोई औसत या औसत से नीचे का कवि उनसे आंखें नहीं मिला सकता था. अपने कहे पर उन्होंने शायद ही कभी खेद जताया हो. पर इसका अर्थ यह नहीं कि उनके अंत:करण का आयतन कहीं संक्षिप्त था,बल्कि वह इतना विश्वासी,अडिग और प्रशस्‍त रहा है कि वह पीछे मुड़ कर नहीं देखता था. कविता में या जीवन में या समाज में वे कभी संशोधनवादी नहीं रहे. उन्हें साधना मुश्किल था. उनकी साधना जटिल थी. उनकी कविता को साधना और समझना और भी जटिल . क्योंकि अनेक ग्रंथिल परिस्थितियां उनकी कविता के निर्माण में काम करती दीखती हैं. वे मेगा डिस्‍कोर्स के कवि हैं और सदैव कवियों के बीच स्‍पृहा से पढ़े जाते रहेंगे. 
सनातन आस्थाओं के प्रति उनके क्रिटीक का एक चरम यह भी है कि वे सदियों से पूजित अभिनंदित सरस्‍वती को भी सरस्‍वती वंदनामें आड़े हाथो लेते हैं. वे कहते हैं कि अब न तुम श्‍वेतवसना रही न तुम्‍हारे स्‍वर सुगठित-- कमल विगलित हो चुका,ग्रंथ जीर्णशीर्ण,तुममे अब किसी की रक्षा की सामर्थ्‍य नहीं कि तुम किसी को जड़ता से उबार सको. वे यजमानों की आसुरी प्रवृत्‍तियों की याद दिलाते हुए उन्‍हें अपने पारंपरिक रूप और कर्तव्‍य को त्‍याग कर या देवी सर्वभूतेषु विप्‍लवरूपेषु तिष्‍ठिताके रूप में अवतरित होने का आहवान करते हैं. सरस्‍वती के आराधकों को खरे का यह खरापन कचोट सकता है पर विष्‍णु खरे का कवि ऐसी गतानुगतिकता पर समझौते नही करता. क्‍योंकि वह जानता है कि बाजार के इस महाउल्‍लास में सरस्‍वती भी बाजारनियंत्रित हो चुकी हैं. उनकी वंदना भी अब हमारे प्रायोजित विनय का ही प्रतिरूप है.


(तीन)
अचरज नहीं कि  अपने समय के वरिष्‍ठ कवि रघुवीर सहाय उनकी कविताओं में उनकी वस्‍तु योजना की प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि कहानी में कविता कहना विष्‍णु खरे की सबसे बड़ी शक्‍ति है. इस संग्रह में उनके रचना संसार की विविधता का पता हमें उनकी विविध शक्‍तियों के रूप में मिलता है. इसके लिए वे टेबलका उदाहरण प्रस्‍तुत करते हैं और कहते हैं कि टेबिल एक साथ कई जिन्‍दगियों को एक जगह पकाकर एक गहरी करुणा की कविता बनाती है. रघुवीर सहाय कहते हैं कि विष्‍णु खरे की भाषा तो हमें किसी रोमांटिक,रहस्‍यमय,गदगद् संसार में जाने से ठोकर मार कर बार बार रोकती है. वे निष्‍कर्षात्‍मक लहजे में कहते हैं कि ''उनकी वस्‍तुयोजना अदभुत धीरज और साहस के साथ,जो कि अपनी अनुभूतिको संप्रेषित हो जाने तक बचाए रखने के लिए कवि को चाहिए,एक शांत शक्‍ति वाली भाषा तैयार करती है.यह उपलब्‍धि आधुनिक कविता के प्रयत्‍न को संपूर्ण बनाती है और विष्‍णु खरे की कविता को अद्वितीय. '' 

आधुनिक उत्‍तरऔदयोगिक समय कविता के लिए कितनी उपेक्षा का समय है यह उनकी कविता रुदनबताती है. निरंतर यांत्रिक होता समय जैसे यंत्रमानवों का समाज निर्मित कर रहा है जहां कविता के लिए कोई संवेदना नहीं बची है. वे कितने क्षोभ से यह कहते हैं :
कविता के लिए अब अवकाश नहीं है
मशीनों और भूख के जंगल में
कविता की चीख गूंज कर डूब जाती है
किन्‍तु इस्‍पाती वृक्षों पर बैठे
रुपहले गुबरैले बीन कर खाते हुए कांस्‍यबनमानुस
एक उपेक्षामय दृष्‍टि नीचे डालकर
पुन: व्‍यस्‍त हो जाते हैं . (पिछला बाकी,पृष्‍ठ 88)     

यह कविता आज के समय में कविता की जगह कम होते जाने व आसपास के उत्‍तर औद्योगिक वातावरण में ग्रीस की उठती बू के बीच एक कोयल के कूकने तक की कितनी कम गुंजाइश बची है इस बात को लेकर चिंतित दिखती है. जाहिर है कि विष्‍णु खरे की निपट गद्य के वृत्‍तांत सरीखी ये कविताएं और उनका विन्‍यास भी उत्‍तरोत्‍तर गद्यमय होती वसुंधरा की गवाही देते हैं. वे प्रकृति और पारिस्‍थितिकी के उजाड़मय वातावरण में पेड़ों की अकिंचनता देखते हुए कहते हैं : पेड़ शाप देते हैं/ प्रतीक्षा करते हैं कि कट कर गिरने से पहले/ अपने शरीरों से उठती अंतिम गंध को नहीं कोई तो /सूख जाने वाली उनकी पत्‍तियां ही सूँघें/ बादल नदियां जानवर और चिड़ियां/ सुनते हैं पेड़ों की आखिरी सांसों को और मिल कर शाप देते हैं.(वही,शाप,पृष्‍ठ 87) 

उनके नैरेटिव में कोमलकांत न अनुभव हैं न पदावली. लड़की भी है तो करुणांध मां व कायर पिता के बारे में सोचती हुई है. घर लौटती है तो दफ्तर की अश्‍लीलताओं को उतार कर अरगनी पर टांग देती है और लालटेन की पीली रोशनी में किसी पीले खत की खोज में मशगूल हो जाती है.  उनके मुहल्‍ल्‍ेा विवर्ण हैं,संकरी सड़के हैं,मराहुआ ताजा कबूतर है,महिलाओं की आंख में दयादेख कर रोज नई जिन्‍दगी बख्‍शने वाले धीरोदात्‍त हैं,चिड़ियों, तोतों की आवाजें और हलचलें हैं,आखिरी उड़ान भरती चिड़ियां हैं,अकेला आदमी है बहुत रात गए लौटता हुआ जब बस्‍ती के ढाबे में रात गए अलुमिनियम के भगोने के मँजने की आवाज आ रही है,फटी एड़ियों व अपना आपा खो चुके इस आदमी के दिल में पैदल स्‍कूल जाती पांचवी क्‍लास की सांवली लड़की की यादें हैं,गर्मियों की शाम के कुछ अनूठे विवर्ण चित्र हैं और फूलों के नाम पर मेहदी के फूलों की गंध. उनकी कविताओं की टीका करते हुए गिरधर राठी उनके यहां व्‍यक्‍ति सत्‍ता,व्‍यंग्‍य,तल्‍खी,विडंबना,बचपन,कैशोर्य,जवानी,बुढापा,सफलता,रोग,दैन्‍य,छोटे शहरों की उदासी व उदास आकर्षण व बड़े शहरोंके दृश्‍य आते हैं. वे इस बात को लक्ष्‍य करते हैं कि उनकी कविताओं में कहानियां हैं पर शब्‍दों की कंजूसी है और कविता की दृष्‍टि से शब्‍दों की इफरात दिखती है. उनके नैरेटिव का जैसे यह सुविदित वैशिष्‍ट्य हो. कभी कभी तो बाणभट्ट की विंध्‍याटवी जैसे गद्य में विवरणात्‍मकता  का प्रभूत बोलबाला दिखता है जो अरुचि-सी पैदा करता है. सरसता की नमी शब्‍दों की जड़ों तक मुश्‍किल से पहुंच पाती है. पिछला बाकी जिस एक बहुत ही छोटी किन्‍तु प्रभावी रचना के लिए याद की जाती है वह है डरो. इसका शिल्‍प उनके आजमाए शिल्‍प व कहन से भिन्‍न है व पढ़ने में एक अदभुत अर्थ की सृष्‍टि करती है. कविता अपने कथ्‍य में वह समूचा यथार्थ कह देती है जिसके लिए वे नितांत अभिधा की राह अपनाते हैं --
कहो तो डरो कि हाय यह क्यों कह दिया
न कहो तो डरो कि पूछेंगे चुप क्यों हो

सुनो तो डरो कि अपना कान क्यों दिया
न सुनो तो डरो कि सुनना लाजिमी तो नहीं था

देखो तो डरो कि एक दिन तुम पर भी यह न हो
न देखो तो डरो कि गवाही में बयान क्या दोगे

सोचो तो डरो कि वह चेहरे पर न झलक आया हो
न सोचो तो डरो कि सोचने को कुछ दे न दें

पढ़ो तो डरो कि पीछे से झाँकने वाला कौन है
न पढ़ो तो डरो कि तलाशेंगे क्या पढ़ते हो

लिखो तो डरो कि उसके कई मतलब लग सकते हैं
न लिखो तो डरो कि नई इबारत सिखाई जाएगी

डरो तो डरो कि कहेंगे डर किस बात का है
न डरो तो डरो कि हुक़्म होगा कि डर

विष्‍णु खरे की कविता में लड़कियां तमाम तरह से आती हैं. उनके लिए उनके बीहड़ गद्य से भी करुणा टपकती है. जो मार खा रोई नहीं---में बाप से करुणा और उम्‍मीद की कातर निगाह से देखती हुई लड़कियां दिखती हैं तो लड़कियों के बाप में टाइपिंग का टेस्‍ट देने आई लड़कियों के पिताओं के बहाने उन लड़कियों की तालीम,उनके लिए हलाकान होते पिता दोनों की उम्‍दा तस्‍वीर अंकित है. यह वह कस्‍बाई दृश्‍य और देश काल है जब टाइपिंग के टेस्‍ट के लिए खुद की टाइपमशीन बांध कर ले जानी पड़ती थी. अत्‍यंत चित्रोपम कविता है यह.  इसी तरह लड़की कविता है जो करुणांध मां और कायर पिता की संतति है. बेटी कविता से इस बीहड़ से लगते कवि के भीतर करुणा की नम ज़मीन से परिचय होता है. एक लड़की जिसे वह नौकरी तो नही दिला पाता पर उसके मुंह से अपनी बेटी समझ कर ही मुझे रख लीजिए-- सुनने के बाद उसे अजीब सा अहसास होता है. इस कविता का अंत करते हुए वह एक भावुकताभरा संसार सामने खड़ा कर देता है:
हर शाम मेरी अजनबी बेटी लौटती है
मायूस होने से पहले कुछ नए रहमदिलों की बेटी बन कर
सुबह फिर निकल जाती हैं मेरी हजारों बेटियां
एक परेशान डरी हुई अपमानित उम्‍मीद लिए
अपने असली पिताओं से अलग उस पिता की तलाश में
जो उन्‍हें बेटी या क़ाबिल माने न माने रख तो ले. (कवि ने कहा,बेटी,पृष्‍ठ 70)


(चार)
वे अपने ब्‍यौरों में कितने अलग हैं,यह बात ब्‍यौरों के ही कवियों की कविता से तुलना करते हुए ही पता चलती है. यद्यपि उन्‍हें मुक्‍तिबोधी शिल्‍प का कवि कहा माना जाने लगा है. पर ऐसा यत्‍किंचित होते हुए भी मुक्‍तिबोध की कविताएं अपने विषयों से ऐसी संगति आद्यंत बनाए रखती थीं कि कुछ भी अवांतर विस्‍तार या नैरेशन वहां नहीं दिखता. प्राय: प्रदीर्घ कविताएं लिखने के बावजूद मुक्‍तिबोध की लक्ष्‍य पर निगाह होती थी. उनकी कविताओं के आदि और अंत में एक युक्‍तियुक्‍तता दिखती है. जैसे कोई गणितज्ञ अपना प्रमेय सिद्ध कर रहा हो. यह बात विष्‍णु खरे की कविताओं में कम है. कहीं कहीं वह अच्‍छे विषयों के बावजूद उसकी सार्थक निष्‍कृति के बजाय केवल ब्‍यौरों में उलझ कर रह गयी है. लालटेन जलानाकविता ऐसी ही है कि वह केवल लालटेन जलाने की प्रविधि में ही उलझी रह जाती है और बिना कोई सार्थक बात किए इति को प्राप्‍त होती है. प्रभूत विवरणात्‍मकता के बावजूद कवि का दायित्‍व यह है कि पूरी कविता में ताना बाना न टूटे,उसका तनाव अंत तक शिथिल न हो,अर्थ की निष्‍पत्‍ति बाधित न हो,यदि वह चरित्र चित्रण है तो केवल चित्रण बन कर न रह जाए.

उनके कविता संग्रहों में सबकी आवाज के पर्दे में ---तमाम कारणों से एक अलग संग्रह है. इसलिए भी कि इसकी अनेक कविताओं में व  और अन्‍य कविताएंकी आलैनकविता जैसी गहरी संवेदनात्‍मक भावुकता भी है,मार्मिकता भी है और कविता अंतत: कुछ कहती भी है,इसका ख्‍याल भी रखती है. विष्‍णु खरे में स्‍त्री संवेदना कितनी गहरी है उसका साक्ष्‍य आगकविता है. इसे पढ़ते हुए उदय प्रकाश की औरतेंकविता याद हो आती है.  एक स्‍त्री को विवाहोपरांत ससुराल वाले किस तरह जला कर मार डालते हैं एक एक वाक्‍य में यह कविता शीशे की तरह हमारी चेतना को विगलित करती है. यह समानुभूति में बदल देने वाली कविता है. जाहिर है कि यह कविता अखबारी यथार्थ से उपजी है पर इसमें केवल ब्‍यौरा नहीं,कवि की मेहनत दिखाई देती है. हर आज कितना लहूलुहान हो सकता है,कितना उत्‍सवी ,कितना निष्‍करुण,कितना शर्मनाक--आज भीकविता हमारी अंतश्‍चेतना को बेधती है. यहां खरे का ब्‍यौरा केवल ब्‍यौरा नहीं,वह आज के फलितार्थ का पूरा नक्‍शा उकेर देता है.  जुर्म का इक़बाल कितना तकलीफदेह होता है इसे वही जानता है जो इस प्रक्रिया से गुजरा हो. इक़बाल--ऐसी ही कविता है. सब कुछ ब्‍यौरेवार बतलाती हुई. उस जिल्‍लत से निजात पाने की गुहार भी कि 'बस सजा दो और रोज़ रोज़ की इस सॉंसत से मुक्‍त करो.'

यह विष्‍णु खरे की कवि संवेदना है कि वे पेड़ के नीचे टाट के पेबंद से एक घर बना लेने वाले गरीब परिवार की ओर ध्‍यान आकृष्‍ट करते हैं तो जो टेंपों में घर बदलते हैं,उनकी परेशानियों पर एक चित्रोपम कविता लिख डालते हैं. यह एक ऐसा देखा भाला दृश्‍य है कि कोई भला इसे क्‍योंकर कविता का विषय बनाएगा. पर विष्‍णु खरे की कविताएं ऐसे ही अप्रत्‍याशितों का निर्वचन है जहां कोई भी सुपरिचित,अलक्षित सी लगने वाली,अप्रत्‍याशित सी घटना,स्‍थिति,परिस्‍थिति या चीज़ या कोई प्रतीति एक नैरेटिव का आकार ले लेती है. वह जीवन की उस विराट दिनचर्या का भाष्‍य होती है जहां बहुत सी चीजें अनायास घटती हैं,प्राय: अलक्षित ही रही आती हैं पर विष्‍णु खरे जैसे कवि की निगाह ऐसे ही अप्रत्‍याशित से विषयों व मुद्दों पर पड़ती है और कविता बन जाती है. जो मार खा रोई नहीं का जिक्र पहले हो ही चुका है. ऐसी ही एक अन्‍य कविता है : दिल्‍ली में अपना फ्लैट बनवा लेने के बाद एक आदमी सोचता है---कविता ऐसी ही चीजों के मनोविज्ञान में उतरने की चेष्‍टा है जिनसे हर निम्‍नमध्‍यवर्गीय लगभग गुजरता है.

कविताएं कवि के कवि वैशिष्‍ट्य का साक्ष्‍य होती हैं तो उसके आत्‍म का भी. विष्‍णु खरे की इन कविताओं की एनाटॉमी से गुजरते हुए विष्‍णु खरे की एक दिग्‍गज व दबंग कवि की आभा प्रतिबिम्‍बित होती है. सहजता से वे दुर्लंघ्‍य न थे. सहजता से वे पराजेय न थे. क्रोध उनकी कविताओं में रचनात्‍मक रूप से प्रवाहित होता हुआ दिखता है. कुछ एक में तो वे इसका इजहार भी पूरे आत्‍मविश्‍वास से करते हैं. उदाहरणार्थ निवेदन कविता के अंश --
बुजुर्गों यह न बताओ मुझे
कि मेरी उम्र बढ़ रही है और मैं एक शरीफ आदमी हूँ
इसलिए अपने गुस्‍से पर काबू पाऊँ
क्‍योंकि जीवन की उस शाइस्‍ता सार्थकता का अब मैं क्‍या करूंगा
जो अपने क्रोध पर विजय प्राप्‍त कर एक पीढ़ी पहले आपने
हासिल कर ली थी

ग्रंथों मुझे अब प्रवचन न दो
कि मनुष्‍य को क्रोध नहीं करना चाहिए
न गिनाओ मेरे सामने वे पातक और नरक
जिन्‍हें क्रोधी आदमी अर्जित करता है
क्‍योंकि इहलोक में जो कुछ नारकीय व पापिष्‍ठ है
वह कम से कम सिर्फ गुस्‍सैल लोगों ने तो नहीं रचा है
ठंडे दिल और दिमाग से यह मुझे दिख चुका है (सब की आवाज़ के पर्दे से,सेतु समग्र कविता,विष्‍णु खरे)

कविता में नैरेटिव कई रूपों में दिखता है. अक्‍सर वह किस्‍सागोई के लहजे में होता है और उसका अंत किसी न किसी नैतिक संदेश के प्रतिकथन या इंगित में पर्यवसित होता है. कभी कवि एक कहानी की तरह कथ्‍य को सामने रखता है. संघर्ष और तनावों से गुजरते हुए किसी न किसी संकल्‍प से प्रतिश्रुत होता है. नैतिक संदेश स्‍पष्‍ट भी हो सकते हैं और अमूर्त व इंगित रूप में भी. कभी कभी कविता के कथ्‍य या उसके किसी चरित्र के कार्यकलापों से हम अर्थ की निष्‍पत्‍ति या कवि के इंगित तक पहुंचते हैं. नैरेटिव मिथकों के जरिए एक नया और समकालीन पाठ निर्मित करने के लिए भी हो सकता है. जैसे कुंवर नारायण की आत्‍मजयी,वाजश्रवा के बहाने जैसे लंबे काव्‍य या अंधेरे में (मुक्‍तिबोध),पटकथा(धूमिल),बलदेव खटिक(लीलाधर जगूड़ी ) आदि कविताएं. विष्‍णु खरे महाभारत के प्रसंगों को उठाते हैं, लापता,द्रौपदी,महाभारत के युद्ध के बाद लापता हुए 24165 लोग,सत्‍य,अग्‍निरथोवाचआदि में.  विष्‍णु खरे एक कवि के रुप में अनेक कथ्‍य को विजुअल्‍स के रूप में,नैरेशन के रूप में रखते हैं. बारीक से बारीक डिटेल्‍स में जाते हैं और कई बार कविता पढ़ते ही हम कवि दृष्‍टि से अभिभूत हो उठते हैं. हमें उद्दिष्‍ट इंगित मिल जाता है. कभी कभी केवल नैरेटिव तो हाथ लगता है पर कवि कह क्‍या रहा है और किसलिए कह रहा है यह नहीं पता चलता. यानी कविता का प्रयोजन भलीभांति पता नहीं चलता. इसीलिए जहां वे केवल वक्‍तव्‍य या कविता को बारीक से बारीक डिटेल्‍स में परिण्त करते हैं,वहॉं जरूरी नहीं कि कविता पूर्ण परिपाक पर पहुंचे. खरे की अनेक कविताओं के साथ ऐसा है जहां वे स्‍थितियां,दृश्‍य और तमाम पहलुओं की पड़ताल तो करते हैं पर कविता अतिशय वर्णनात्‍मकता से संवेदना की दृष्‍टि से च्‍युत नजर आती है. ऐसे वर्णन भले कवि की डिटेलिंग का लोहा मनवाएं पर वे ऊब का निर्माण भी करते हैं. जब कि ज्ञानेन्‍द्रपति की तमाम कविताएं सामयिक यथार्थ से जुड़ी होते हुए तथा पर्याप्‍त नैरेटिव का सहारा लेती हुई भी ऊब नहीं पैदा करतीं क्‍योंकि वे बीच बीच में गद्य को कविता जैसा दिखने के लिए शब्‍दयुग्‍म व अन्‍त्‍यानुप्रास जैसा भी गढ़ते हैं. धूमिल व मुक्‍तिबोध के नैरेटिव में वक्‍तव्‍य का स्‍थापत्‍य होते हुए भी उनमें अन्‍त्‍यनुप्रास की छटा ओझल नहीं होती जो उनके नैरेटिव को प्रोजैक होने से बचाती व कविता में एक विशेष गति पैदा करती है जो उसके वाचिक हो प्रभावमय बनाती है. 

विष्‍णु खरे छिंदवाड़ा के हैं,उनकी कई कविताएं इसे विस्‍मृत नहीं होने देती हैं. ऐसी ही दो कविताएं मन्‍सूबाऔर मिट्टीहैं. खरे को पत्रकारिता ने देश के मुद्दों को समझने का अचूक अवसर दिया है. वे छिंदवाड़ा को केंद्र में रखकर ये कविताएं जरूर लिखते हैं पर छिंदवाड़ा से छिनते रोजगार के अवसरों का जायज़ा भी लेते हैं,देश में राजनीति के करवटें बदलने का भी. इनमें कवि का आत्‍मधिक्‍कार भी बोलता है,आत्‍मस्‍वीकार भी. वे इतने राजनीतिक हैं कि पत्रकार रहते हुए तमाम दलों की कारगुजारियों को देखा है,देश को हौले हौले सांप्रदायिक होते देखा है,गुजरात को अयोध्‍या प्रसंग के बाद लहूलुहान होते देखा है,आपात्‍काल की निरंकुशता देखी है और बहुजन समाज के वे खामोश कार्यकर्ता भी देखे हैं जो किन्‍हीं रैलियों के लिए चुपचाप अशोक नगर स्‍टेशन पर चढते हुए चुपचाप भोपाल उतर जाते हैं. पर उनके बहाने कवि अपनी राजनैतिक मुखरता का इजहार करना नहीं भूलता --
मायावी राजनीति की काशी करवटों के असली चेहरे
शनाख्‍त करेंगे हर जगह छिपे हुए
मनु कुबेर और लक्ष्‍मी के दास-दासियों को अपने बीच भी
तुम्‍हारी द्विज राजनीति पिछले सौ वर्षों से सड़ चुकी है
और तुम उस मवाद को इनमें भी फैलती समझ कर सुख पाते हो
लेकिन इनकी आखों में और इनके चेहरों पर जो मैंने देखा है
उससे मैं जानता हूँ 
कि तुम्‍हारे पांच हजार वर्षों की करोड़ोंहत्‍याओं के बावजूद
वे मिटे नहीं हैं ओर अब भी तुम्‍हारे लिए पर्याप्‍त है(पाठांतर,सेतु समग्र: विष्‍णु खरे,पृष्‍ठ460)
                     
(पांच)
2003 में आया काल और अवधि के दरमियानउनका महत्‍वपूर्ण संग्रह है. इसमें शिविर में शिशु,न हन्‍यते,लाइब्रेरी में तब्‍दीलियां,हर शहर में एक बदनाम औरत होती है,वृंदावन की विधवाएं जैसी चर्चित कविताएं हैं तो पृथक छत्‍तीसगढ़ राज्‍य, 1991के एक दिन,और नाज़ मैं किस पर करूँ(और अन्‍य कविताएं) जैसी कविताएं भी जिसमें उनका नास्‍टैल्‍जिया भी बोलता है. जिस जीवन जिस बचपन जिस देश काल से उनका जुड़ाव रहा है वह उनकी कविताओं में एक नैरेटिव बन कर आता है एक खास तरह की बिलांगिगनेस के साथ जो खरे के कवित्‍व को उनके जीवनानुभवों को और सघनता से देखे जाने की मांग करता है.  लीलाधर मंडलोई उन्‍हें 'भीगे हुए सच'का कवि मानते हैं जैसे निराला की सरोज स्‍मृति का भीगा हुआ सच,जो आगे मुक्‍तिबोध,शमशेर और रघुवीर सहाय की कविताओं में उपस्‍थित है. और यह वे उनकी कुछ कविताओं के हवाले से कहते हैं,चौथे भाई के बारेमें,एक कम,लडकियोंकेबाप,शिविर में शिशु,ज़िल्‍लत और गूंगा आदि कविताएं जिनका जिक्र पहले हो चुका है. वे कविताओं के दृश्‍यालेखमें एक वृत्‍तचित्र जैसी सिनेमाई तकनीक व विजुअल्‍स के कट्स पाते हैं जिनमें तफसील के साथ वृत्‍तांत इंटेंस ढंग से सामने आते हैं. यह भीगा हुआ सच चंद्रकांत देवताले के यहां भी बहुत है. बल्‍कि स्‍त्रियों लड़कियों के इतने सघन संवेदनशील चित्र कम कवियों के यहां देखने को मिलते हैं जितने देवताले के यहॉं. मैं आता रहूंगा तुम्‍हारेलिए,मां पर नहीं लिख सकता कविता,बेटी के घर से लौटना,प्रेम पिता का दिखाई नहीं देता जैसी सैकड़ों कविताएं हैं जो देवताले के भीतर एक विपुल सजल संसार का निर्माण करती हैं. शिविर में शिशु दंगोंकेबाद शिविर में पैदा हुए बच्‍चों की दास्‍तान है. बच्‍चे जो अपने परिजनों को खो देने के बारे में अनजान हैं जो उस हादसे के बारेमेंअनजान हैं,जिन्‍हें देख कर किस धर्म जाति के हैं यह अहसास नहीं पैदा होता,जिन्‍हें लाशें बननेसे कैसे बचाया जा सका है और जो अपनी मनोहारी छवि से जैसे अपनेको गोद में ले लेनेकोकहते हों,इन बच्‍चों को बचा लिए जाने को जैसे कवि मानवीय सभ्‍यता को मरने से बचा लिये जाने जैसा उपक्रम मानता है. खरे ऐसी कविताओं के प्रणेता माने जाते हैं जैसे विनाशग्रस्‍त इलाके से एक सीधी टीवी रपट,एक प्रकरण: दो प्रस्‍ताविक कविता प्रारूप,हिटलर की वापसी,न हन्‍यते,ज़िल्‍लत,दिल्‍ली में अपना फ्लैट बनवा लेने के बाद एक आदमी सोचता है,सिर पर मैला ढोने की अमानवीय प्रथा,हर शहर में एक बदनाम औरत होती है,संकेत,दम्‍यत्,तत्र तत्र कृतमस्‍तकांजलि,सरस्‍वती वंदना,प्रत्‍यागमन आदि. न हन्‍यते तो एक शख्‍स का ऐसा कन्‍फेशन है कि इसे केवल विष्‍णु खरे लिख सकते थे तो ज़िल्‍लत हिजड़ों पर लिखा एक ऐसा मार्मिक वृत्‍तांत है जिससे गुजरते हुए मानवीय सभ्‍यता में एक खास वर्ग को किस तरह की उपेक्षा से गुजरना पड़ता है.

यद्यपि, विष्णु खरे की कविताओं से कभी वैसी आसक्ति नहीं बनी जैसे अन्यों से. पर सदा उन्हें स्पृहा और हिंदी कविता में एक अनिवार्यता की तरह देखता रहा. वे पहचान सीरीज़ के कवि रहे. पहले संग्रह 'खुद अपनी आंख से'ही उनके नैरेटिव को कविता में कुछ अनूठे ढंग से देखा पहचाना गया. वे कविता के नैरेटिव और गद्य को निरंतर अपने समय का संवाहक बनने देने के लिए उसे मॉंजते सँवारते रहे. पत्रकारिता, कविता, सिनेमा, कला, भाषा हर क्षेत्र में उनकी जानकारी इतनी विदग्ध और हतप्रभ कर देने वाली होती कि आप लाख प्रकाश मनु के अनुशीलन के अन्‍य पहलुओं से असहमत हों पर खरे को दुर्धर्ष मेधा का कवि कहने पर शायद ही असहमत हों. हालांकि कविता में अति मेधा का ज्यादा हाथ नहीं होता. औसत प्रतिभाएं भी कविता में कमाल करती हैं और खूब करती हैं.
'काल और अवधि के दरमियान'की कविताओं को पढते हुए लगा था कविता में वे जितने प्रोजैक हैं उतनी ही उनकी कविता अपनी तर्काश्रयिता से संपन्न. वे दुरूह से दुरूह विषय पर और आसान से आसान विषय पर कविता को जैसे कालचक्र की तरह घुमाते हैं. उनके अर्जित और उपचित ज्ञान का अधिकांश उनकी कविताओं में रंग-रोगन की तरह उतरता है तो यह अस्वाभाविक नहीं. उनकी आलोचना कभी कभी इतनी तीखी होती है जितनी कि कभी कभी किसी किसी कवि को शिखरत्व से मंडित कर देने में कुशल. उनके ब्लर्ब कवियों के लिए प्रमाणपत्र की तरह हैं जिनके लिए भी वे कभी लिखे गए हों. कविता में वे इतने चयनधर्मी रहे हैं कि कोई औसत से नीचे का कवि उनसे आंखें नहीं मिला सकता. भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार पाए कितने ही कवियों की धज्जियां उड़ाती उनकी आलोचना आज भी कहीं किसी वेबसाइट में विद्यमान होगी. हो सकता है,उसमें किंचित मात्‍सर्य का सहकार भी हो. पर अपने कहे पर विष्णु खरे ने शायद ही कभी खेद जताया हो. पर इसका अर्थ यही नहीं कि उनके अंत:करण का आयतन कहीं संक्षिप्त है बल्कि वह इतना विश्वासी,अडिग और प्रशस्‍त रहा है कि वह पीछे मुड़ कर देखना ही नहीं चाहता. कविता में या जीवन में या समाज में वे कभी संशोधनवादी नहीं रहे. उन्हें साधना मुश्किल है. उनकी साधना जटिल है. उनकी कविता को साधना और समझना और भी जटिल . क्योंकि अनेक ग्रंथिल परिस्थितियां उनकी कविता के निर्माण में काम करती दीखती हैं.
विष्‍णु खरे के आखिरी संग्रह 'और अन्‍य कविताएं'पर आलैन कुर्दीका चित्र है-- हमारे अंत:करण को झकझोर देने वाला कारुणिक चित्र. इस कारुणिक प्रसंग पर अनेक कवियों ने कविताएं लिखीं कि करुणा की बाढ़ एकाएक सोश्‍यल मीडिया पर छा गयी थी.  खरे ने भी इस पर आलैनशीर्षक से बहुत मार्मिक कविता लिखी है. आलेन अपने परिवार के साथ ग्रीस जाने के लिए एक नौका पर सवार था कि अपनी मां, भाई और कई लोगों के साथ डूब जाने से उसकी मौत हो गई. लहरों के साथ बह कर तट पर पहुंचे आलन के शव की तस्वीर ने पूरी दुनिया में हंगामा मचा दिया. इस दुर्घटना में आलेन के पिता अब्दुल्ला कुर्दी बच गए. जिन्‍होंने  कनाडा का शरण देने का प्रस्ताव ठुकरा दिया था. खरे की इस कविता की आखिरी पंक्‍तियां देखें ::

आ तेरे जूतों से रेत निकाल दूँ
चाहे तो देख ले एक बार पलट कर इस साहिल उस दूर जाते उफ़क को
जहां हम फिर नही लौटेंगे
चल हमारा इंतिजार कर रहा है अब इसी खा़क का दामन.(और अन्‍य कविताएं--आलेन,पृष्‍ठ 38)

(छह)
खरे का काव्‍य संसार अप्रत्‍याशित का निर्वचन है. कवि मन जिधर बहक जाए,वहीं कविता हो जाए. निरंकुशा: हि कवय:जिसने कहा होगा,सच ही कहा होगा. विष्‍णु खरे ऐसे ही निरंकुश कवियों में हैं. उनके यहां कविता के अप्रतिम अलक्षित विषय हैं,कभी कभी दुनिया जहान की चीजों को कविता में निमज्‍जित करते हुए हमें अखरते भी हैं पर हम उनसे उम्‍मीदें नहीं छोड़ते. यहां दज्‍जाल ;जा,और हम्‍मामबादगर्द की ख़बर ला,संकेत,तत्र तत्र कृतमस्‍तकांजलि,दम्‍यत्जैसी कविताएं हैं जिनके लिए खरे से कुछ समझने की दरकार भी हो सकती है.पर अब तो वे हैं नहीं किससे पूछें. ऐसी भी कुछ कविताएं हैं जहॉं लगता है कि वे अपनी स्‍थानीयता को बचाए हुए हैं : 'और नाज़ मैं किस पर करूँ',सरोज स्‍मृति,जैसी कुछ कविताओं में. प्रत्‍यागमनमें वे पुरा परंपरा में लौट कर कुछ नया बीनते बटोरते हैं तो 'सुंदरता'और 'कल्‍पनातीत'में वे तितलियों और बकरियों के दृश्‍य का बखान भी करते हैं. ----और दम्‍यत्तो एक ऐसे शख्‍स का रेखाचित्र है जो डायबिटीज से ग्रस्‍त होश खोकर कोमा में चला जाता है और उसकी अस्‍फुट सी अश्‍लील-सी बुदबुदाहट उस पूरी मन:स्‍थिति की यायावरी में तब्‍दील हो जाती है. इस कविता को लिखना भी एक अदम्‍य पीड़ा से गुज़रना है.

कविता अक्‍सर अपनी स्‍थूलता के बावजूद अभिप्रायों और प्रतीतियों में निवास करती है. वह सामाजिक विडंबनाओं के अतिरेक को पढती है. वह कोई उपदेश नही देती न किसी नैतिक संदेश का प्रतिकथन बन जाना चाहती है क्‍येांकि ऐसा करना कविता का लक्ष्‍य नही है खास कर आधुनिक कविताओं का. पर कविता की पूरी संरचना के पीछे उस विचार की छाया जरूर पकड़ में आती है जिसके वशीभूत होकर कवि कोई कविता लिखता है. यहां बढ़ती ऊँचाई जैसी कविता इसका प्रमाण है. दशहरे पर जलाए जाते रावण को लेकर हमारे मन में तमाम कल्‍पनाएं उठती हैं. वह अब इस त्‍योहार का एक शोभाधायक अंग बन चुका है. पुतले बनाने वालों के व्‍यापार का एक शानदार प्रतिफल. हर बार पहले से ज्‍यादा ऊॅचे रावण के पुतले बनाने की मांग और ख्‍वाहिश इस व्‍यापार को जिंदा रखे हुए है और लोगों की कामना में उसकी भव्‍यता का अपना खाका है. न व्‍यक्‍ति के भीतर के रावण को जलना है न बुराइयों का उपसंहार होना है पर रावण की ऊंचाई बढती रहे,यह लालसा कभी खत्‍म नही होती. ऐसे में कुंवर नारायण की एक कविता याद आती है,इस बार लौटा तो मनुष्‍यतर लौटूँगा. कृतज्ञतर लौटूँगा. पर यहां रावण को शिखरत्‍व देने वाला समाज है उसे जला कर प्रायोजित दहन पर खुश होने वाला समाज है. और रावण है कि उसका अपना एजेंडा है :

वह जानता है उसे आज फिर
अपना मूक अभिनय करना है
पाप पर पुण्‍य की विजय का
फिर और यथार्थता से जल जाना है
अगले वर्ष फिर अधिक उत्‍तुग भव्‍यतर बन कर
लौटने से पहले . (और अन्‍य कविताएं- बढ़ती ऊँचाई,पृष्‍ठ, 81)

इसी तरह संकल्‍पकविता समाज की नासमझी और मूर्खताओं का सबल प्रत्‍याख्‍यान है कि पढ कर भले अतियथार्थता का बोध हो पर कविता के भीतर से उठते निर्वचन से आप मुँह नहीं मोड़ सकते. इस बहुरूपिये समाज की ऐसी स्‍कैनिंग कि कहना ही क्‍या. कबीर ने तभी आजिज आकर कहा होगा,मैं केहिं समझावहुँ ये सब जग अंधा. कवि वही जो केवल सुभाषित का गान न करे समाज के सड़े गले अंश पर भी आघात करे भले ही वह गाते गाते कबीर की तरह अकेला हो जाए. इस कविता के अंश देखें--

सुअरों के सामने उसने बिखेरा सोना
गर्दभों के आगे परोसे पुरोडाश सहित छप्‍पन व्‍यंजन
चटाया श्‍वानों को हविष्‍य का दोना
कौओं उलूकों को वह अपूप देता था अपनी हथेली पर
उसने मधुपर्क-चषक भर-भर कर
किया शवभक्षियों का रसरंजन

सभी बहुरूपये थे सो उसने भी वही किया तय
जन्‍मांधों के समक्ष करता वह मूक अभिनय
बधिरों की सभा में वह प्राय: गाता विभास
पंगुओं के सम्‍मुख बहुत नाचा वह सविनय
किए जिह्वाहीन विकलमस्‍तिष्‍कों को संकेत भाषा सिखाने के प्रयास
केंचुओं से करवाया उसने सूर्य नमस्‍कार का अभ्‍यास
बृहन्‍नलाओं में बॉंटा शुद्ध शिलाजीत ला-लाकर
रोया वह जन अरण्‍यों में जाकर

स्‍वयं को देखा जब भी उसने किए ऐस जतन
उसे ही मुँह चिढाता था उसका दर्पन
अंदर झॉंकने के लिए तब उसने झुका ली गर्दन
वहां कृतसंकल्‍प खड़े थे कुछ व्‍यग्र निर्मम जन (और अन्‍य कविताएं--संकल्‍प,पृष्‍ठ 98)

विष्‍णु खरे का कवि-जीवन एक मिजाज की अनवरत यात्रा है. इतनी तरह की कविताएं उनके यहां हैं और ऐसे ऐसे वृत्‍तांत जो किसी भी वृत्‍तांतप्रिय कवि से तुलनीय नहीं . उनका गद्य वृत्‍तांतप्रियता में विश्रांति लेने वाला गद्य है. ऐसा गद्य जिसे पढ़ते हुए वास्‍तव में कविताओं के यथार्थ की भीड़ से कंधे रगड़ते चलने की की कुंवर नारायण जी की बात पुन: पुन: प्रमाणित होती हो. विष्‍णु खरे के कविता संसार की भाषा वक्‍तव्‍यप्रधान गद्य की भाषा जैसा ही है. बीच बीच में अंग्रेजी के शब्‍द भी बहुतायत में आते हैं. तत्‍समनिष्‍ठता उनकी कविता की पहचान नहीं है पर कुछ अप्रचलित से लगते पद उनके यहां जरूर आते हैं जिससे उनकी दुर्बोधता का अहसास होता है. जैसे दम्‍यत्,प्रत्‍यागमन,दज्‍जाल,तत्र तत्र कृत्‍मस्‍तकांजलि,जा,और हम्‍मादबादगर्द की खबर ला,ला दोल्‍वे वीता,अग्‍निरथोवाच आदि. सारांश यह कि जिस तरह विष्‍णु खरे का गद्य एक बहुपठित धाकड़ आदमी का गद्य लगता है चाहे वह साहितय के मूल्‍यांकन के निमित्‍त लिखा गया हो या किसी अग्रलेख के रुप में,उसी तरह उनकी कविताएं एक ज्ञानी कवि(लर्नेड पोएट) की कविताएं लगती हैं. ऊपर से देखने में उनका पाठ इतना प्रोजैक लगता है जैसे किसी असिंचित संवेदना की काव्‍यभूमि पर हम आ गए हों----पर उनके बारीक अन्‍वय एवं पाठ के उपरांत उनके नैरेटिव से कविता की रोशनी भी दीख पड़ती है. एक बड़े काव्‍यबोध और मुक्‍तिबोध के ज्ञानात्‍मक संवेदन एवं संवेदनात्‍मक ज्ञान के पथ पर चलते हुए विष्‍णु खरे एक बड़े कवि का रुतबा तो हासिल कर लेते हैं किन्‍तु उनकी कविता पर उतना ध्‍यान नहीं दिया गया जितना दिया जाना चाहिए था. लिहाजा,उन्‍हें वह लोकप्रियता व स्‍वीकृति नहीं मिल सकी जो कुंवर नारायण,केदारनाथ सिंह, विनोद कुमार शुक्‍ल,लीलाधर जगूड़ी,चंद्रकांत देवताले,मंगलेश डबराल,राजेश जोशी,अरुण कमल व ज्ञानेन्‍द्रपति जैसे कवियों को सहज ही प्राप्‍त है.

कहना न होगा कि विष्‍णु खरे की कविता मुक्‍तिबोध,नागार्जुन,त्रिलोचन,धूमिल,सर्वेश्‍वर व रघुवीर सहाय की तरह ही बेबाक रही है. न वे अपने राजनीतिक रुझान को छिपाते हैं न अपने कवित्‍व को किसी का यशोगान बनने के लिए पथ प्रशस्‍त करते हैं. आजादी के बाद नेहरु के सपनों के भारत की कवियों ने धज्‍जियां उड़ाई हैं तो आजादी के रंगों को थके हुए रंगों का नाम देकर धूमिल ने आजादी पर ही सवालिया निशान लगा दिया था. मोहभंग के इन स्‍वरों को श्रीकांत वर्मा व कैलाश वाजपेयी सघन बनाते हैं तो लोकतांत्रिक ताने बाने के छिन्‍न भिन्‍न होने की शिनाख्‍त रघुवीर सहाय अपनी कविताओं में करते हैं. नागार्जुन की तरह विष्‍णु खरे साठोत्‍तर व समकालीन राजनीतिक के विचलनों को खोल कर रख देने में बेबाकी बरतते हैं और एक ऐसे लोकतांत्रिक समाज की रचना के लिए व्‍यग्र दिखते हैं जो साठोत्‍तर दु:स्‍वप्‍नों,अयोध्‍योपरांत सांप्रदायिक शक्‍ल लेते हुए भारत के बावजूद शिथिल और विचारविवश नहीं हुई है. उनकी कविताओं की न्‍यायिक दीर्घा में गरीबों,मजलूमों की सुनवाई होती है तो राजनीतिक सामाजिक कुटिलताओं की हामी शक्‍तियों की लानत मलामत भी कम नही होती जो विष्‍णु खरे की काव्यात्‍मक दृढता का परिचायक है. 
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डॉ.ओम निश्‍चल
द्वारा डॉ गायत्री शुक्‍ल,
जी-1/506 ए,उत्‍तम नगर नई दिल्‍ली-110059
मेल: dromnishchal@gmail.cpm

फोन :  8447289976
ओम निश्‍चल

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