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परख : हिंदी आलोचना की सैद्धांतिक (विनोद शाही) : अंकित नरवाल

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हिंदी आलोचना की सैद्धांतिकी

 विनोद शाही
आधार प्रकाशन, पंचकूला (हरियाणा)
मूल्य : 250 रुपए









आचार्य रामचंद्र शुक्ल ‘ड्राइंग मास्टर’ थे, बाद में साहित्य के आलोचक हुए, विनोद शाही पेंटर हैं और आलोचक भी. रामचंद्र शुक्ल की ही तरह आलोचना की सैद्धांतिकी में उनकी रूचि है. ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ नाम से उनकी भी एक किताब प्रकाशित है.  

इधर आधार प्रकाशन से ‘हिंदी आलोचना की सैद्धांतिकी’ नाम से उनकी आलोचना कृति प्रकाशित हुई है जिसमें आलोचना से संदर्भित सिद्धांत आदि पर स्वतंत्र आलेख हैं. एक आलेख रामचंद्र शुक्ल पर भी है.

अंकित नरवाल इस किताब को देख परख रहें हैं. 




हिंदी आलोचना का अपना रास्ता                
अंकित नरवाल






विनोद शाही समकालीन हिन्दी आलोचना का मुखर नाम हैं, क्योंकि तमाम दूसरे बड़े आलोचक अब केवल मंचीय आलोचना तक ही सीमित होकर रह गए हैं.(अब इनके वक्तव्य/व्याख्यान ही संपादित होकर सामने आ रहे हैं.) हालाँकि इससे इत्तर उनके मुखर होने का दूसरा बड़ा कारण यह भी है कि वे न तो किसी गुरु के आशीर्वाद से पनपी दूसरी परंपरा को खोजने निकले हैं और न ही किसी लेखक की कालजयी परंपरा की शिनाख्त करने, बल्कि वे अधिकतर उन बीज-भूमियों की ही तलाश में रहे हैं, जहाँ से अपनी ज़मीन की आलोचनात्मक आधारभूमितलाश की जा सके. उनकी लेखनी के केन्द्र में उधार की मनोवृत्तिके प्रति एक गहरी खीज़ साफ महसूस की जा सकती है. इसी के बरअक्स जब वे रामकथा : एक पुनर्पाठलिखते हैं, तो अपने मिथकों को नए सृजनात्मक अर्थ देते हैं. आलोचना की ज़मीनका लेखन उन्हें मुख्य अर्थोंके पीछे गौण कर दिए गए अर्थोंको पुनः खोलने के देरीदायी विमर्श से जोड़ता है. उनका वारीस शाहबुल्ले शाहको हिन्दी-दुनिया से रूबरू कराने का प्रयास भी अपनी सांझी विरासत के प्रति एक स्वस्थ नज़रिये का ही प्रमाण माना जा सकता है. हालाँकि यह सूफी परंपरा में जायसी के पीछे गुमराह कर दिए गए इन अदीबों की कुछ चुभती वजहों को भी सामने लाता है.

विनोद शाही

उनकी हाल ही में प्रकाशित हुई पुस्तक हिन्दी आलोचना की सैद्धान्तिकीभी उनके भीतर अपनी वर्तमान आलोचना को लेकर लगातार उठती कशमकश को सामने लाती है. यह वही बेचैनी है, जो उन्होंने हिन्दी साहित्य का इतिहासलिखते हुए लगातार महसूस की है. उनके यहाँ सवालों की एक लंबी श्रृंखला है, जो इस बात का वाजिब उत्तर नहीं पाती कि आखिर भरतमुनि, भामह, वामन, आनंदवर्द्धन, अभिनवगुप्त, क्षेमेन्द्र, महिमभट्ट, मम्मट और पंडितराज जगन्नाथ के बाद का आलोचना-कर्म मौलिक सिद्धांत तलाशने की बजाय बहस और विवेचन पर ही केन्द्रित होकर क्यों रह गया है? यदि मैलिक आलोचना का कोई आखिरी उछाल दिखाई भी देता है, तो वह शंकराचार्य के द्वैतवाद में ही. हालाँकि बाद के आचार्यों द्वारा उनकी खींची यह लकीर इस कदर पीटी जाती है कि उनकी दार्शनिक महानता ही भारत के मैलिक चिंतन के विकास का गला घोंटने की वजह बनने लगती है. इसके बाद यदि कोई रास्ता रामचन्द्र शुक्ल के लोकमंगल की साधनावस्थामें दिखता भी है, तो वह रस-दर्शन की सुदीर्घ परंपरा के मोह में विलीन हो जाता है. खैर उनके बाद का तो तमाम रास्ता लंदन, न्यूयार्क व मास्कों से बरास्ते हवाई पट्टी पर खुलता है, जिसे अपना कहने की कितनी ही डींगे क्यों न भरी जाएँ, कितु वह बाहरी ही बना रहता है.


शाही इस सारी विवेचना के बीच इस बात के लिए भूमिका तैयार करते हैं कि क्या हम अंतर्ध्वनि-सिद्धांत या नव-रीतिवाद जैसे सिद्धांतों के सहारे अपनी विरासत से कुछ बीज-तत्त्व नहीं प्राप्त कर सकते? अपनी विवेचना के दौरान जब वे इस बात का जिक्र करते हैं कि हिन्दी को अपने मौलिक आलोचना-शास्त्र की जरूरत है, तो इसे हवा में लटकाकर छोड़ नहीं देते, बल्कि उसके वाजिब उत्तर भी देते हैं. उनका मानना है कि आज मानवजाति और उसका समाज उस दौर में पहुँच गए हैं, जहाँ हर राष्ट्र और उसकी भाषा व संस्कृति को, अपनी जड़ों में लौटकर उन रत्न-हीरों को अपनी खादानों से बटोरकर ज़मीन के ऊपर लाना होगा, जो उसे बहुराष्ट्रवादी, विश्ववादी और सही अर्थों में मानवतावादी बनाएँगे. शाही की चेतना इस बात के लिए भी लगातार बलवती हुई है कि अब वह समय आ गया है, जब हमें अपने संस्कृत काव्यशास्त्र के विखंडन के लिए प्रशस्त होना है.


कुल तीन खंडों आलोचना और सिद्धांत’, ‘आलोचना और विधा-विमर्शआलोचना और आधुनिक युग-धाराओंमें बँटी उनकी पुस्तक हिन्दी आलोचना की सैद्धांतिकीतेईस विभिन्न लेखों से अपनी हो सकने वाली आलोचना को विवेचना का विषय बनाती है. इसके प्रथम खंड में शामिल अधिकतर लेख कथादेशपत्रिका में स्तम्भ की तरह पहले प्रकाशित होकर अपनी छाप छोड़ चुके हैं. इस पुस्तक की भूमिका में वे रामचंद्र शुक्ल को मौलिक चिंतन को विकसित करने वाले पहले आधुनिक आचार्य मानते हैं, किंतु उन्हें इस बात के लिए भी कटघरे में खड़ा करते हैं कि उन्होंने कर्म, ज्ञान व भाव का सिद्धांत खड़ा तो किया, किंतु उसे अपनी मौलिकता में नहीं ला सके. मसलन वहाँ भाव का कोई व्यवस्थित सिद्धांत विवेचित नहीं हो सका, जिसके चलते स्थिति वापस रस-दर्शन की प्रशस्तिपरक ही बनकर रह गयी. बल्कि इसके विपरीत वहाँ से उसके विखंडन का रास्ता निकलना चाहिए था, जो नहीं निकल सका. दूसरी ओर उनके बाद आए आचार्य नंददुलारे वाजपेयी और नगेन्द्र रस-दर्शन के मोह को और अधिक बढ़ा देते हैं और उसमें गाँधीवादकी भूमिका तक ले आते हैं. यहाँ भी रस-दर्शन के विखंडन की बात फिर ज्यों-की-त्यों रह जाती है. बाद में यही मोह प्रयोगवाद मेंबौद्धिक रसऔर प्रगतिवाद में संघर्ष रसमें परिणत होता है.


वर्तमान के नए विमर्शों (स्त्री-दलित आदि) में भी यही क्रोध रस’, ‘प्रतिशोध रसऔर अस्मिता रसकी भाँति विवेचित होता देखा जा सकता है. हाल के वर्षों तक चला आया यही रास्ता सिद्धांत-निर्माण में परिणत नहीं हो सका है. शाही का मानना है कि अब हमें आवश्यकता है कि हम अपनी दृष्टि को अंतर्दृष्टि में बदलें और जितने अनुपात में प्रासंगिक होने की ओर बढ़ें उसी अनुपात में गहरे भी होते जाएँ.


उनका साहित्य के व्याकरण की भूमिकासंबंधी लेख हमें नव-ध्वनिवादीविकल्प को समझने का अवसर उपलब्ध कराता है. साहित्य की व्याख्या के लिए भाषा-पाठ किन आधारों पर तय होते हैं तथा वह धर्म-अध्यात्म से किन वजहों से से अलहदा बनते हैं? जैसे विभिन्न प्रश्न इस लेख को पढ़कर आसानी से हल होने लगते हैं. शाही मानते हैं कि साहित्य, तभी साहित्य होता है, जब वह भाषा के व्याकरण के भीतर अपने एक अलग व्याकरण की समांतर सृष्टि कर लेता है. वे इसे स्पष्ट करने के लिए पश्चिमी भाषा-चिंतकों अरस्तू, ई.डी. हर्ष, सस्यूर, फ्रेंज ब्रेंताना, एडमंड हर्सल, वर्टेंड रसल, जॉक लाकां व बेंजामिन के संदर्भों का हवाला देते हुए इस तथ्य तक पहुँचते हैं कि शब्दार्थ’, ‘भावार्थऔर दृश्यार्थतक एक लंबी प्रक्रिया हमें विभिन्न चीज़ों के संबंध में अपनी राय निर्मित करने के लिए तैयार करती है. यही हमें भाषा के अंतर्निहित अर्थों के विखंडन का रास्ता भी दिखाती है. हालाँकि शाही यह भी मानते हैं कि पश्चिमी साहित्य-चिंतन में भावार्थ-परंपरा विकसित नहीं हुई. भारतीय साहित्यशास्त्र से वे भरतमुनि, अभिनवगुप्त व रामचंद्र शुक्ल का हवाला देकर दृश्यार्थकी मनोवृत्ति को समझने का रास्ता थोड़ा और आसान कर देते हैं. इसी दृश्यार्थ के अन्यथाकरणऔर आत्मीयकरणके द्वन्द्वात्मक सिद्धांत के सहारे वे स्त्री-दलित विमर्शकी भाषागत विवेचना करते हैं. सृजन-भाषा के साधारणीकरण का विवेचन उन्हें इस निष्कर्ष तक ले आता है कि सृजन-भाषा हमें अन्यथाकृतकरके दृश्य के अन्य से आत्मीयरूप में पुनः जोड़नें में मदद करती है.


वे अंततः इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि यदि हम मैंकी तरह आत्मीय होते हैं, तो कविता हो जाती है. तुमकी तरह आत्मीय होते हैं, तो नाटक हो जाता है और वहकी तरह आत्मीय होने का मतलब है कथा. इस तरह हम सृजन-भाषा की मदद से, धर्म-अध्यात्म या दर्शन जैसे अपर्याप्त समाधानों से बचते हुए, सीधे दृश्यार्थ में उतर अपने आप को खोज पाने लायक हो जाते हैं.(पृष्ठ-46)



अपने बाज़ारवादी समय में साहत्यिकतासंबंधी लेख में उनकी इस विषय को लेकर बेचैनी उभरी है कि अब ऐसे हालात पैदा कर दिए गए हैं कि अच्छे और बुरे साहित्य के बीच का फर्क करने का मामला ही संदिग्ध हो गया है. गोया ऐसा होने से एक ऐसी दुनिया पैदा हुई है, जिसे प्रयोजनवादी जनतांत्रिक व्यवस्था और चेतना वाली दुनिया कहा जा सकता है. ऐसा होने से सबके अपने-अपने श्रेष्ठ साहित्य हो गए हैं. यहीं दूसरी ओर उनकी नज़र इस बात पर भी गई है कि जहाँ समाजविज्ञानों से लेकर संस्कृति और मानवविज्ञान तक बेशुमार विमर्श हो रहे हैं, वहीं साहित्यालोचन से साहित्यिकता की व्याख्या करने वाले विमर्श क्यों नदारद हैं? इस चुनौतीपूर्ण भूमिका के साथ जब वे भारतीय और पाश्चात्य साहित्यालोचन की विरासत में उतरते हैं, तो इस उत्तर के साथ पुनः लोटते हैं कि साहित्य की साहित्यिकता या रचनाशीलता को हमें सामाजिक यथार्थ, मनुष्य के इतिहासबोध और प्रकृति के रूपांतर से प्रकट होने वाली विकास और प्रगति की संभावनों के उसके सौंदर्यबोध या आनंदमय होने की ज़रूरत के साथ बनने वाले रिश्ते की मार्फत करनी होगी.(पृष्ठ-49) 


वे इसी विवेचना के दौरान इस बात को भी उठाते हैं कि हिन्दी में साहित्यिक-सिद्धांत के तौर पर जो एक बड़ा मौलिक-विमर्श पैदा हुआ था, वह इस बात पर केन्द्रित था कि साहित्य की व्याख्या ज्ञान के अन्य सामान्य विमर्शों की तरह नहीं करनी चाहिए. यह विमर्श साहित्य के भाषा-पाठ की ही भाँति है, जो विधिवत ढंग से भरतमुनि से लेकर रामचंद्र शुक्ल और मुक्तिबोध तक चला आता है. यहीं शाही यह सवाल भी खड़ा करते हैं कि क्या शुक्लजी का आलंबनत्व धर्मही मुक्तिबोध के ज्ञानात्मक संवेदनका रूप नहीं ले लेता? हालाँकि सिद्धांत-निर्माण की वर्तमान चुनौती का उत्तर वे इस बात में पाते हैं कि भारतमुनि से लेकर मुक्तिबोध तक की हमारी साहित्य-सैद्धांतिकी भाव-संवेदनामूलक आधार पर खड़ी नजर आती है, जिसे सामाजिक, लोकमंगलमूलक और जनधर्मी सभ्यातामूलक अंतर्विकास तक ले आना, हमारी समय की चुनौती है, जिसे हमें सामान्य ज्ञान-विमर्श वाले बौद्धिक ढांचों की तरह नहीं, अपितु कृतिमूलक या भाषापाठीय संरचनाओं की भीतरी दुनिया के उपादानों की मार्फत देखने-समझने लायक होना है.(पृष्ठ- 52) यही इस लेख का हासिल है कि हमें उन ज्ञानानुशासनों तक पहुँचना है, जिससे साहित्यालोचन का एक व्यवस्थित सिद्धांत निर्मित हो सके.


उनके आगामी दो लेख- प्रतिक्रियावादी रस से प्रगतिशील ध्वनि तकऔर अंतरअनुशासनात्मक दौर में अंतर्ध्वनि सिद्धांतएक-दूसरे के पूरक की भाँति पढ़े जा सकते हैं. यहीं उनकी यह बेचैनी व्यवस्थित ढंग से रेखांकित होती है कि हम अपनी आलोचना कैसे विकसित करें. वे अपनी पूर्वगत आलोचना के संबंध में लिखते हैं कि रामचंद्र शुक्ल परंपरागत रस-दर्शन करते हैं, किन्तु उस आधार पर किसी नयी आलोचना-पद्धति का गठन नहीं करते. हजारीप्रसाद द्विवेदी का रचनात्मक चिंतन इस दिशा में कुछ नये सूत्र ज़रूर गढ़ता है, परंतु वह पद्धति-मूलक न होकर, पद्धति-मुक्त पद्धति वाले चिंतन को आगे बढ़ाते हैं. नन्ददुलारे वाजपेयी रस और पाठवादी आलोचना पद्धतियों के परस्पर साहचर्य वाली दिशा में आगे बढ़ते हैं. पाठगत अंतर्विरोधों की समरसता-मूलक (या गाँधीवादी) परिणतियाँ उनके चिंतन की मंजिल लगती हैं, जिनके आधार पर वे एक राष्ट्रीय आलोचना पद्धति के विकास का दावा पेश करते हैं. इस आधार को ग्रहण करते हुए आलोचना का जनतंत्र (अशोक वाजपेयी) और आलोचना के स्वदेश (विजय बहादुर सिंह) की धारणाएँ सामने आयी हैं, परंतु वे अपर्याप्त विमर्श की तरह हैं.(पृष्ठ-54) हालाँकि यहीं वे मुक्तिबोध की आलोचनात्मक पद्धति को अधिक तर्क संगत पाते हैं, किंन्तु उससे वाजिब रास्ते की अनुपलब्धता उन्हें अखरती है.


वर्तमान समय में इस प्रकार की आलोचना पद्धति से संतोषजनक मार्ग न मिलने की वजह से वे वापस ध्वनि सिद्धांत के विखंडन से ही अंतर्ध्वनि सिद्धांत के निर्माण की ओर बढ़ते हैं. उनका मानना रहा है कि हमें ध्वनि सिद्धांत को ही अधिक रचनाशील बनाकर उसे साहित्यालोचन के टूल की तरह प्रयोग में लाना चाहिए. यहीं ध्वनि के इसी पाठगत अर्थ से एक श्रेष्ठ कृति की परिभाषा देते हुए वे लिखते हैं कि श्रेष्ठ कृति हम उसी को कहेंगे, जहाँ अंतर्वस्तु की अंतर्ध्वनि बेरोकटोक, सहज और एकाग्र रूप में, समस्त प्रतिध्वनियों को समेट ले. इस स्थिति के अवरोधक कृति के दोष कहे जाएँगे.(पृष्ठ- 67)


अपने लेख रस की समकालीनतामें वे रस के साधारणीकरण को नए अर्थों के साथ विवेचित करते हैं. भरतमुनि के रस-निष्पत्ति और रस-उत्पत्ति सूत्र में दर्ज मुख्य रस और उनसे निकलने वाले गौण रसों की अभिव्यक्ति वे समाजेतिहासिक दृष्टिकोण से करते हैं, जो हमें अपने इतिहास को नए ढंग से देखने-समझने का अवसर उपलब्ध कराती है. उनका मानना रहा है कि हमारे साहित्य-चिंतन में जिस सिद्धांत को बचाए जाने की ज्यादा जरूरत थी, वह साधारणीकरण का सिद्धांत था. यहीं वे इस सिद्धांत का उत्तरआधुनिक पाठ करने वाली दो पाश्चात्य पुस्तकोंलीज़ा जनशाइन की गैटिंग इनसाइड द माइंड एंड नावल : व्हाई दी रोड फिक्शनव नैंसी वरम्यूल की पुस्तक व्हाई वी केयर अबाउट लिटरेरी कैरेक्टर्जका हवाला देकर यह समझाने का प्रयास करते हैं कि अब इस बात को पश्चिम भी समझने लगा है, तो हमारे यहाँ इसकी सुदीर्घ परंपरा होने के बावजूद हमें इसे समझने में देर क्यों हो रही है? वे साधारणीकरण की प्रक्रिया में भरतमुनि के अन्तःसूत्रों से अभिनवगुप्त तक की परंपरा तक आते-आते इस बात की शिनाख्त कराते हैं कि जहाँ भरत से यह मार्ग सहज ढंग से चला था, वहीं अभिनवगुप्त तक आते-आते इतना जटिल बना दिया गया कि वह अपने रास्ते से ही भटक गया. हमें अब आश्यकता इस बात की है कि हम गुमराह या भटकाव के मार्गों से बचते हुए वहीं से एक अन्तर्दृष्टि विकसित करें, जो वर्तमान की व्याख्या का एक मौलिक चिंतन बन सके.


लेख विखंडन, व्यंजना और हममें शाही ने देरीदा के विखंडनवाद के आधार पर भाषा-पाठ की संरचना को समझने का प्रयास किया है. हमारे वर्तमान समय के दर्जन-भर विमर्शों के पीछे भाषा का विखंडन क्योंकर काम कर रहा है, यह इस लेख का मुख्य विवेचित विषय है. शाही विखंडन के बारे में मानते हैं कि विखंडन का प्रयोजन अव्यवस्था नहीं है. वह केवल एक के वर्चस्व को हटाकर दूसरे को जगह देने की वैकल्पिक व्यवस्था की ओर आना है. मसलन, जैसे आजकल यूरोप में स्त्री की जगह समलैंगिक व होमोसैक्सुअल को सामने लाया जा रहा है. यहीं उन्होंने इस बात की भी नोटिस लिया है कि हाशिये के समाजों का उभार पश्चिम के लिए फायदेमंद है, क्योंकि वह शेष दुनिया को अंतःविभाजित रखता हुआ अपने वर्चस्वी मुख्यार्थ को नव उपनिवेशवादी अर्थवृत्ति को एक मूर्त-ठोस संभावना बनाए रखता है.


शाही यहीं इस बात की ओर भी हमारा ध्यान ले जाते हैं कि विखंडन के देरीदायी दृष्टिकोण का लिखित पाठ से जोड़ने पर धर्म और आध्यात्मिक ग्रंथों का पाठ संकटों को लेकर उपस्थित हो उठता है. जैसे कुरान का सलमान रुसदी द्वारा किया गया पाठ व भारत में श्री गुरु ग्रंथ साहिब का शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधन कमेटी के पाठ से अलग पाठ करना विखंडन-भय को ही जन्म देता है. यहीं देरिदा को लक्ष्यार्थ संबंधी व्याख्या का हवाला देते हुए शाही की नजर इस बात पर भी रही है कि लक्ष्यार्थ के खेल में केवल अभिधार्थ ही अपदस्थ होते हैं, जो वर्चस्ववादी सत्ता के अनुसार ही होते हैं. जैसे आज पश्चिम मानवाधिकारों का हिमायती बन गया है और एक समय समस्त विश्व के मानवाधिकारों पर उसका शासन था. संक्षेप्ततः कहा जाए तो शाही का यह लेख देरीदा के सहारे हमरे लिए भारतीय भाषा-पाठ की एक नई व समकालीन भूमिका तैयार करता है.


उनका लेख नव-अर्थ मीमांसा’, औचिच्यवाद और हमक्षेमेन्द्र के औचित्यवाद से वर्तमान के लिए रास्ता निकालने की संभावना को सामने लाता है. शाही यहाँ हिन्दी द्वारा पश्चिमी साहित्यिक चिंतन का टूल की तरह प्रयोग करना उसके सांस्कृतिक पतन की तरह देखते हैं. उनका मानना रहा है कि इस आधुनिकता से बंधा हिंदी का हमारा जो नया-आलोचना-विमर्श था, उससे हमारा दोहरा नुकसान हुआ. एक ओर इसने जनसमाज में साहित्य के प्रति घोर अरुचि का माहौल पैदा किया और दूसरी तरफ जो सही मायने में हमारा अपना (सांस्कृतिक धरातल पर बेहद विकसित) साहित्य था, उसे धार्मिक-साम्प्रदायिक रंगत देकर, भिन्न-भिन्न धर्मानुयायी समुदायों की पठन-पाठन की रुचि की बजाय श्रद्धा-प्रेरित रुचियों का हेतु बना दिया. शाही का मानना रहा है कि ऐसा होने की वजह से हमारा साहित्य अपने सांस्कृतिक धरातल से कट गया. साथ ही उसकी आलोचना का टूल भी विदेशी होता चला गया. जिससे कारण आलोचना के स्तर पर हम सांस्कृतिक दृष्टि से लगातार पतन की ओर ही जाते रहे. 

उन्होंने साथ ही इस बात का भी ध्यान हमें दिलाया है कि अब उत्तर औपनिवेशिक, प्राच्यवादी, प्रवासी, सबाल्टर्न या तृतीय विश्ववादी विमर्श अब हमारी मदद बहुत दूर तक नहीं कर सकते. अब हमें अपने यहाँ मौजूद औचित्यवाद में ही नई अर्थ दृष्टियाँ पाने के लिए उतरना होगा, तभी हम आलोचना और साहित्य, दोनों की श्रेष्ठता की ओर बढ़ सकते हैं. क्योंकि श्रेष्ठ साहित्य, वही हो सकता है, जो किसी भी समाज के भीतर से उपजकर उसके सांस्कृतिक चित्त के मानवीय रूपांतर की वजह बनता है. यदि हम अपने टूल विकसित कर सके, तो निश्चित रूप से हम अपनी सांस्कृतिक जमीन से ऐसे सृजनात्मक साहित्य को विकसित करने की स्थिति में आस सकेंगे.


अपने लेख मार्क्सवाद, अस्तित्ववाद और हममें वे इस बात के लिए रास्ता तैयार करते हैं कि हम अपने यहाँ मोजीद ब्रह्म की परंपरा वाले दर्शनों से द्वन्द्वात्मकता के सहारे उक्त दर्शनों जैसा कोई रास्ता निकाल सकते हैं. उनका मानना है कि हमारे यहाँ तत्त्व और माया के बीच का द्वन्द्वात्मक रिश्ता अधिक कुटिल बनाकर छोड़ दिया गया, जिसे अब नये व्यवस्थित नजरिये से समझने की आवश्यकता है. हालाँकि इन पश्चिमी दर्शनों के बारे में वे यह जरूर स्वीकारते हैं कि अस्तित्ववाद और मार्क्सवाद के रूप में आधुनिक काल के दौरान जो दो दर्शन पश्चिम में प्रकट हुए थे, वे द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी नजरिये को केन्द्र में लाने की वजह से अतीत के दर्शनों से बेहतर हैं. वे इसलिए बेहतर हैं, क्योंकि चाहे जो वस्तुस्थिति हो, हमें यहाँ से ज्ञान तथा सत्य की खोज के रास्ता आरंभ करना पड़ता है. शाही ने यहाँ हमारे लिए अपने दर्शनों को भी इसी परिप्रेक्ष्य में देखने की सुझाव दिया है. उन्होंने अपनी एक अन्य पुस्तक पतंजलि : योग दर्शनमें इस रास्ते को विस्तृत ढंग से मुकम्मल शकल भी दी है. 


लेख हिन्दी आलोचना की बीज भूमियाँइस पुस्तक का वह बुनियादी बिन्दु है, जो हमें आलोचना के उस मुहाने तक ले आता है, जहाँ से हम नव-रीतिवाद व अंतर्ध्वनि जैसे मौलिक सिद्धांतों के गठन की भूमि का आधार पा सकते हैं. पश्चिमी साहित्यलोचन की भारतीय मानष पर तारी हो जाने की वजहों को भी यह लेख सार रूप में सामने लाता है. शाही मानते हैं कि हिन्दी आलोचना के पास अपने सृजन सिद्धांत का जो अभाव है, उसकी वजह यही है कि उससे उसकी जमीन छिन गयी है या वह किन्हीं कारणों से खो गई है. पश्चिमी साहित्य-चिंतन में भी अब जो अंतवादी और विखंडनवादी सिद्धांत सामने आये हैं, वे अनिश्चयात्मकता और अराजकता का बढ़ावा दे रहे हैं. यह भी इस बात का सूचक है कि कहीं-न-कहीं वहाँ भी जमीन को खो देने या जाने के हालात सामने आये हैं. अब हमें अपने पूर्व दर्शन की परंपरा में झाँकने की जरूरत है. हमारे यहाँ मौजूद ध्वनि सिद्धांत में पूरी गुंजाइश है कि उसके भीतर से भारतीय जमीन और हालात के मुताबिक कुछ नये विवेचन मार्ग और प्रतिमान सामने आएँ, हमें अब उसी कार्य की ओर बढ़ना है. इसके साथ-साथ क्षेमेन्द्र के औचित्य से भी हम कुछ नवीन मार्ग तलाश सकते हैं, जो न केवल काव्य के आचोतिय तक समीति रहें, बल्कि नव उपनिवेशिक दौर के प्राच्यवाद से हमें निजात दिला सकते हैं.


उत्तर-आधुनिक संस्कृति-विमर्श और आलोचनासंबंधी लेख साहित्य, धर्म और संस्कृति-
विमर्श की जरूरत का सारगर्भित विश्लेषण हमारे सामने लाता है. शाही मानते हैं कि मध्यकाल तक मानवजाति के पास लोक-संस्कृति  तो थी, परंतु धर्म और साहित्य अपनी अलहदगी बनाये रखने के लिए खुद को पवित्र, अद्वितीय और दैवी प्रेरणा से अद्भूत सिद्ध करने में दिलचस्पी रखते थे. हालाँकि तब भी ये बहुसंख्य खपत की वस्तुएँ ही थीं, पर वे खपतवार की पात्रता या योग्यता पर इतना जोर देते थे कि उनकी मौजूदगी संस्कृति की दुनिया के भीतर होते हुए भी अलहदा जान पड़ती थी. यहाँ शाही का मानना रहा है कि हमारे दौर के प्रमुख आलोचक वे ही हैं, जो सह-सामांतर तौर पर संस्कृति-विमर्शकार भी रहे हैं- जैसे लूकाच, एडोर्नो, अल्थूसे, ज्यां लाकां, वाल्टर बेंजाम, मिशेल फूको, हाब्साबाम या टेरी ईगल्टन. यदि इसी मनोवृत्ति को हम हिन्दी आलोचना के परिदृश्य में देखते हैं तो रामचन्द्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी और नंददुलारे वाजपेयी के पास पुख्ता संस्कृति-भूमि और गहरी अंतर्दृष्टि दिखायी देती है, लेकिन वह मौलिक संस्कृति-चिंतन की शक्ल नहीं ले पायी. बाद में अज्ञेय, मुक्तिबोध व निर्मल वर्मा ने इस संबंध में गहरी नजर का सबूत अवश्य दिया, किंतु वहाँ भी कोई व्यवस्थित सिद्धांत नहीं खड़ा हो सका. शाही माते हैं कि अब हमें विज्ञान और धर्म द्वारा अपने-अपने ढंग से विभ्रम की स्थिति तक पहुँचा दी गई सांस्कृतिक समझ को पुनर्जीवित करने की जरूरत है.


विधापरक मीमांसाऔर कथा का विमर्शनामक लेखों को एक-दूसरे के पूरक की तरह देखा जा सकता है. प्रथम लेख आधुनिक दौर में कथा को वर्तमान की सबसे सशक्त विधा के रूप विवेचित करता है और उसे अपने युग के निष्कर्ष के रूप में देखता है. यहाँ शाही मानते हैं कि अब काव्य परकाया प्रवेश द्वारा खुद को बचाने की कोशिश कर रहा है. यहीं वे मुक्तिबोध और निराला की कविताओं के बीच मौजूद इस कथा-अंश का हवाला देकर उन्हें कथा के विलयन का प्रयोग करने वाले कवियों के रूप में याद करते हैं. कथा-विमर्श के सहारे शाही हमें अपनी स्वयं की सर्वाधिक ऊर्जाशील विधा के शास्त्र को समझने की कुंजी देते हैं. उनका मानना है कि हम कथा को ब्रह्मांड की कथा की शक्ल देकर बचाना चाहत हैं. इस बात में बड़ा बौद्धिक ग्लैमर है जो आकर्षित करता है, परंतु कथा की जो असली जमीन है, वह खुद मनुष्य है और हम मनुष्यों को मनुष्य की कथा तब मिलती है, जब हम अपनी यानी जन का इतिहास खुद लिखने लायक हो जाते हैं. ऐसा कहते हुए शाही का उद्देश्य कथा-विमर्श की अपनी सैद्धांतिकी के लिए पुख्ता जमी तैयार करना है. उनका निबंध एक खोज संबंधी भी इसी भाँति पढ़ा जा सकता है कि वह एक ओर तो निबंध के भविष्य का तर्क आधारित विश्लेषण करता है, वहीं दूसरी ओर उनके आत्मकथात्मक परिचय से भी रूबरू कराता है. यहीं हम यह जानते हैं कि शाही निबंध को अपने रचनाधर्मिता के सर्वाधिक नजदीक पाते हैं.


उनका आत्मकथा : निबन्धोन्मुख जीवन-वृत्तसंबंधी लेख आत्मकथा की सैद्धांतिकी को सामने लाता है. इससे संबंध में शाही का मानना है कि आत्मकथाएँ मनुष्य के निजी संसार को सार्वजनिक बनाने के युगबोधक जरूरतों के दबाव में अपनी रचनाशीलता का नजरिया है. यह कथा और काव्य से अलग निबंध के विखंडन की प्रक्रिया होती है. इसमें मूलतः कथा रचने की बजाय उसके विखंडन की प्रक्रिया को काम में लाया जाता है. यहीं शाही अनेक समकालीन विमर्शपरक आत्मकथाओं को भी अपनी आलोचना का विषय बनाते हैं. उनका साक्षात्कार निबंधोन्मुख संवाद-नाट्य संबंधी लेख साक्षात्कार के रूप में कृति पाठ से उपजने वाले सवालों की संरचना को अभिव्यक्त करने की प्रक्रिया में साक्षात्कार विधा को देखता है. शाही मानते हैं कि कृति जो कहती है, वह तो अहम होना ही चाहिए, पर जितना वह उकसाती है और दूसरों को अपनी बात कहने के लिए मजबूर करती है, अतनी ही वह अहम होने का साथ-साथ महान होने लगती है. शाही मानते हैं कि एक अच्छा साक्षात्कार वही है, जहाँ दोनों ओर से केन्द्रों को छूने लायक सवालों-जवाबों की परीधियों का विस्तार संभव हो पा रहा हो.


उन्होंने अपने इस लेख में साक्षात्कार को संवाद की बहु-व्यवस्थापकों की साक्षी व्यवस्था के रूप में देखा है, जो कृति के लेखक को ऐसे बुनियादी सवालों के रूबरू ले जाती है, जहाँ से उसके पास अपने व्यवस्थित विमर्शों या सोच के पास से बाहर झांकने के सिवाय कोई विकल्प ही न बचे. कोई संवाद यदि ऐसी जमीन तैयार कर पाता है तो वह निश्चित रूप से एक बेहतर साक्षात्कार हो सकता है.यह कहा जा सकता है कि इस आलेख के सहारे साक्षात्कार की अंतःसंरचना को भी हम समझने लायक हो जाते हैं.


शाही के दो लेख हिन्दी आलोचना के तीन स्कूलऔर हिंदी आलोचना की आलोचनाहमारे सामने भारतीय आलचना के परिदृश्य को साफ करते हैं. शाही आलोचना के तीन स्कूलों का विश्लेषण करते हुए पहली तरह की आलोचना में उन्हें रखते हैं, जिनकी निगाह सामाजिक व्यवस्थापनों और उनकी संरचनाओं पर केन्द्रित रहती है. यह आलोचना पद्धति साहित्य की भाषा को यथासंभव सामाजिक व्यवहार वाली जनभाषा के निकट रखने का उद्योग करती है. दूसरी तरह की आलोचना पद्धति में वे उसे रखते हैं, जो साहित्य के भाषा-पाठीय प्रतिसंसार पर केन्द्रित रहती है. उनका मानना है कि यह आलोचना पद्धति हमेशा यह सवाल उठाती है कि साहित्य में साहित्यिकता कहाँ होती है?


जैसे हमारा संस्कृत का शास्त्रीय काव्यशास्त्र है- वह यही खोजता है कि साहित्य की आत्मा क्या है? तीसरी तरह की आलोचना पद्धति को वे साहित्य की आंतरिक ऊर्जा पर केन्द्रित मानते हैं. हालाँकि उनका मानना यह भी है कि इसमें ही अमूर्त्तन व दैवीकरण का खतरा सबसे अधिक रहता है. इसी परिप्रेक्ष्य में हिन्दी आलोचना का हवाला देते हुए उनकी दृष्टि इस बात पर भी गई है कि यहाँ की आलोचना में प्रतिनिधित्वमूलक अर्थविधान वाले स्कूल का ही अभी तक बोलबाला रहा है. इसकी भूमि भारतेन्दु और महावीर प्रसाद द्विवेदी ने निभाई है और रामचन्द्र शुक्ल द्वारा उसे मजबूती प्रदान की गई है. इसी को बाद में रामविलास शर्मा, नामवर सिंह, मुक्तिबोध और मैनेजर पाण्डेय द्वारा बढ़ावा दिया गया है. इस उपर्युक्त सारी बहस के बीच शाही इस बात के लिए काफी बेचैन नज़र आते हैं कि हिन्दी आलोचना को अब मुद्दों की बहस की ओर मुखातिब होना चाहिए, गुरु-आचार्यों की झंडेबरदारी के प्रति नहीं. दूसरी ओर हिन्दी आलोचना पर उनके विचार मीडियावादी दौर के बीच आलोचना के स्वरूप पर ही मंडराते खतरे के बीच के वास्तविक वजहों को सामने लाता है. उनका मानना है कि अब मीडिया का अच्छा प्रोस्तोता अच्छे आलोचक पर भारी पड़ रहा है, क्योंकि साहित्य को बाजार के नजरिये पर ला खड़ा किया गया है. उनका कहना है कि अब इस बात को ज्यादा गंभीरता से लिए जाने की आवश्यकता है कि आलोचना केवल साहित्य से सुनहरापन ही न ले, बल्कि उसकी रचनाशीलता के शामिल करते हुए उसे पढ़नीय हो सकने के मुहाने तक ले आए.


अपने लेख रचनाकार आलोचकमें उन्होंने रचनाकारों का निरंतर आलोचना की ओर स्थानांतरित होना विवेचित किया है. वे मानते हैं कि रचनाकारों का संकट यह होता है कि वे दरपेश चुनौतियों के समाधान सम्यक भाषिक अभिव्यक्तियों की नयी संभावनाओं को टटोलते हुए खोजना-पाना चाहते हैं. कायदे से यह काम आलोचकों को करना चाहिए था, परंतु हिन्दी आलोचना इस संदर्भ में लगातार इसीलिए अपंग होती जा रही है, क्योंकि अपने समाज की रचनाशीलता की जमीन व सामर्थ्य को समझने के लिए वप पराये विमर्शों व चिंतनधाराओं पर ज्यादा भरोसा करती आई है.(पृष्ठ-235) अब हमें इस बात को पुनः समझने की आवश्यकता है कि इस प्रकार से रचनाकार भी मुख्य वादों के उसी घेरे में सीमटता चला आ रहा है, जिसमें आलोचना अलझी हुई है. दरअसल हमें इससे बाहर निकले की आवश्यकता है.

(विनोद शाही की पेंटिग)

पुस्तक के अंत में उन्होंने रामचन्द्र शुक्ल, मुक्तिबोध, अज्ञेय, शिवदान सिंह चौहान व नामवर सिंहके आलोचना कर्म के सहारे हिन्दी आलोचना के मौलिक परिदृश्य को सामने लाने का महती व गंभीर काम किया गया है. यहाँ शुक्ल को शाही हिन्दी आलोचना के अंतिम मौलिक आलोचक की भाँति देखते हुए उनके ज्ञान, कर्म व भाव के सिद्धान्त के पीछे अन्तर्निहित अर्थों को सामने लाते हैं. मुक्तिबोध के आलोचना विवेक के पीछे काम करने वाली विचारधारा, विज्ञान और दर्शन से ताल्लुक रखने वाली ज्ञान-व्यवस्था भी यहाँ रेखांकित हुई है. शाही, मुक्तिबोध की आलोचना के बीज-शब्दों ज्ञान और संवेदना को रामचन्द्र शुक्ल के बोध और भावानुभूति के विस्तार व रूपांतर की तरह देखते हैं.

दूसरी ओर अज्ञेय को वे आलोचक की अपेक्षा साहित्य-चिंतक की तरह परिभाषित करते हैं. उनका मानना है कि अज्ञेय में हमें कहीं भी साहित्य के सिद्धांत-निरूपण वाला व्यवस्थित अनुशासन नजर नहीं आता, बल्कि उनकी प्रतिबद्धता केवल सृजन की बेचैनी के प्रति ही दिखती है. बंधना उनकी नजर में सीमित होना है. शिवदान सिंह चौहान को वे एक व्यवस्थित व संतुलित मार्क्सवादी आलोचक की तरह देखते हैं, जिन्होंने वाम की मौलिक सैद्धान्तिकी के निर्माण का महती काम किया. यही शाही ने मधुरेश के शिवदान सिंह पर किए गए कार्य को भी अपनी विवेचना का विषय बनाया है. नामवर सिंह के संबंध में श्रीप्रकाश शुक्ल की पुस्तक नामवर की धरती के हवाले से उनके द्वारा स्थापित मान्यताओं के पीछ अलक्षित रह गई आलोचना दृष्टियों को सामने लाने का काम किया गया है. यहाँ इस सारे विवेचन-विश्लेषण के बाद शाही इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि अब हमें आनन्दवर्धन के साथ खड़े होकर मुख्यार्थ को गौण बनाकर दमित अर्थों के संसार को नयी सैद्धान्तिकी के साथ विवेचित करने की ओर आगे बढ़ना चाहिए.

इस पुस्तक के आधार पर निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि यह अपनी आलोचना की हो सकने वाली सैद्धान्तिकी की एक विस्तृत भूमिका हमारे लिए तैयार करती है, जिससे नव-रीतिवादी व अंतर्ध्वनि जैसे सिद्धांत की एक बानगी हमारे सामने उपलब्ध होती है.यहाँ से हम उन बीज-बिन्दुओं को पकड़र अपनी संस्कृत काव्यशास्त्रीय आलोचना में उतर सकते हैं और अपने मौलिक आलोचना-शास्त्र को गढ़ सकते हैं. 

यदि हम अपनी आलोचना चाहते हैं, तो हम इस रास्ते को नज़रअंदाज नहीं कर सकते, हमें इस ओर ध्यान देना ही होगा.
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ankitnarwal1979@

सविता सिंह की ग्यारह कविताएं

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'मेरा चेहरा किसी फूल-सा हो सकता था
खिली धूप में चमकता हुआ !

वरिष्ठ कवयित्री सविता सिंह की कविताएँ भारतीय स्त्री की कविताएँ हैं, उनमें नारीवादी वैचारिकी का ठोस आधार है. उनका मानना है कि ‘स्त्री में अगर स्त्री की चेतना नहीं है तो उसके अन्दर पुरुष की चेतना है. क्योंकि ये दो ही तरह की चेतनाएँ हैं जो पूरी सृष्टि को चला रही हैं.’ उनके प्रकाशित तीनों संग्रहों में यह बात रेखांकित भी की गयी है.


प्रस्तुत ग्यारह कविताओं में सविता सिंह खुद से मुख़ातिब हैं. उदासी में लिपटी हुई कामनाएं बार-बार लौटती हैं, चटख लाल नहीं थिर पीले फूल यहाँ खिले हैं. सविता सिंह की काव्य-यात्रा आज जिस मोड़ पर है वहां से विचार, अनुभव और कला के संतुलन से हिंदी कविता का एक मुक्कमिल चेहरा बनता है. उनकी नई ग्यारह कविताएँ आपके लिए.      








सविता सिंह की ग्यारह कविताएं                                       






संसार एक इच्छा है
अभी जिस हाल में हूँ
उसमें बची रह गयी तो भी बच जाऊँगी
मगर बच्चों की आवाजें
कानों में पड़ रही हैं
अभी उनकी इच्छाएं मुझसे बात कर रही हैं
उनकी ज़िद मुझमे प्राण भर रही हैं
वे जो चाहते हैं
उन्हें ले देने को वचनबद्ध हूँ
इसी हाल में ही तो यह संसार भी है
कामनाओं से उपजा
उसी में लिथड़ी 
एक इच्छा

आज रात यदि सो सकी तो
दिन का प्रकाश दिखेगा ही
मैं भर जाऊँगी खुद से
मैं घर से बहार निकल
सूर्य को धन्यवाद कहूँगी

अभी जिस हाल में हूँ
इसी में बची रही
तो बच जाऊँगी
अपने बच्चों के लिए
इस जगत के लिए.



मछलियों की आंखें
यह क्या है जो मन को किसी परछाई-सा हिलाता है
यह तो हवा नहीं चिरपरिचित सुबह वाली
चिड़ियाँ जिसमें आ सुना जाती थीं प्रकृति का हाल
धूप जाड़े वाली भी नहीं
ले आती थी जो मधुमक्खियों के गुंजार
यह कोई और हक़ीक़त है
कोई आशंका खुद को एतवार की तरह गढ़ती
कि कुछ होगा इस समय में ऐसा
जिससे बदल जाएगा हवा धूप वाला यह संसार
मधुमक्खियां जिससे निकल चली जाएंगी बाहर
अपने अमृत छत्ते छोड़
हो सकता है हमें यह जगह ही छोड़नी पड़े
ख़ाली करनी पड़े अपनी देह
वासनाओं के व्यक्तिगत इतिहास से
जाना पड़े समुद्र तल में
खोजने मछलियों की वे आंखें
जो गुम हुईं हमीं में कहीं



ऐ शाम ऐ मृत्यु
नहीं मालूम वह कैसी शाम थी
आज तक जिसका असर है
पेड़ों-पत्तों पर
जिनसे होकर कोई सांवली हवा गुजरी थी

  बहुत दिनों बाद
वह शाम अपनी ही वासना-सी दिख रही थी
मंद-मंद एक उत्तेजना को पास  लाती हुई
वह मृत्यु थी मुझे लगा
मरने के अलावा उस शाम
और क्या-क्या हुआ
जीना कितना अधीर कर रहा था
मरने के लिए

एक स्त्री जो अभी-अभी गुजरी है
वह उसी शाम की तरह है
बिलकुल वैसी ही
जिसने मेरा क्या कुछ नहीं बिगाड़ दिया
फिर भी मैं कहती हूँ
तुम रहो वासना की तरह ही
ऐ शाम ऐ मृत्यु
मैं रहूंगी तुम्हें  सहने के लिए.



दुःख का साथ
मैंने मान लिया है
हमारे आस-पास हमेशा दुःख रहा करेंगे
और कहते रहेंगे
‘खुशियाँ अभी आने वाली हैं
वे सहेलियां हैं
रास्ते में कहीं रुक गयी होंगी
गपशप में मशगूल हो गयी होंगीं’
वैसे मैंने कब असंख्य खुशियाँ चाहीं थीं
मेरे लिए तो यही एक ख़ुशी थी
कि हम शाम ठंडी हवा के मध्य
उन फूलों को देखते
जो इस बात से प्रसन्न होते
कि उन्हें देखने के लिए
उत्सुक आँखे बची हुयी हैं इस पृथ्वी पर
मेरे लिए दुःख का साथ
कभी उबाऊ न लगा
वे बहुत दीन हीन खुद लगे
उन्हें संवारने की अनेक कोशिशें मैंने कीं
मगर वे मेरा ही चेहरा बिगाड़ने में लगे रहे

मेरा चेहरा किसी फूल-सा हो सकता था
खिली धूप में चमकता हुआ !



जाल
न प्रेम न नफ़रत एक बदरंग उदासी है
जो गिरती रहती है भुरभुराकर आजकल
एक दूसरे की सूरत किन्हीं और लोगों की लगती है
लाल-गुलाबी संसार का किस सहजता से विलोप हुआ
वह हमारी आँखे नहीं बता पाएंगी
ह्रदय की रक्त कोशिकाओं को ही इसका कुछ पता होगा

उन स्त्रियों को भी नहीं
जिन्हें उसे लेकर कई भ्रम थे
जो अब तक मृत्यु के बारे में बहुत थोड़ा जानती हैं
वे दरअसल स्वयं मृत्यु हैं
जो उस तक शक्ल बदल बदलकर आईं
सचमुच मौत ने बनाया था उससे फरेब का ही रिश्ता

न प्रेम न नफ़रत
कायनात दरअसल एक बदरंग जाल है
जिसमें सबसे ठीक से फंसी दिखती है उदासी ही.




बीत गया समय
अचानक आँख खुली तो आसमान में लाली थी
अभी-अभी पौ फटी थी
एक ठंडी हवा देह से लग-लग कर जगा रही थी
मेरा विस्तर एक नाव था अथाह जल में उतरा हुआ

मैं यहाँ कब और कैसे आई
यह कोई नदी है या समुद्र
सोच नहीं पा रही थी
लहरें दिखती थीं आती हुई
बीच में गायब हो जाती हुई
यह कोई साइबर-स्पेस था शायद
यहाँ सच और सच में फ़र्क इतना ही था
जितना पानी और पानी की याद में
कैसी दहला देने वाली यादें थीं पानी में डूबने की
हर दस  दिन में दिखती थीं मैं किस कदर डूबती हुई

यह अद्वितीय परिस्थिति थी

जिसमेंमैं अकेली नहीं थी
उसी की तरह मृत्यु मेरे भी साथ थी

कौन जान सकता है
हम दोनों ही सही वक्त का
इंतजार कर रहे थे
यह नाव को ही पता था उसे  कब पलटना था
और किसे जाना था पहले
यह भी ठीक से नहीं पता चला
कब वह इस नाव पर आ गया था
बेछोर आसमान के नीचे
पानी के ऊपर बगल में

मैंने आँखें तब बंद कर ली थीं

आसमान की हलकी लाली अब तक बची थी
जो मेरे गालों पर उतरने लगी थी
मैं सजने लगी थी
मुझे भी कहीं जाने की तैयारी करनी थी

वह जान गया था
और अफ़सोस में जम-सा गया था

हमारे पास कहने को कुछ नहीं था
कभी-कभी कहने को कुछ  नहींहोता
वह समय बीत चुका होता है





  नहीं-सा
कल मुझे किसी ने सपने में प्यार किया
वह एक अलग दुनिया जान पड़ी
अपनी नसों में खून का एक प्रवाह महसूस हुआ
आश्चर्य कि इस सपने में प्यार करने वाला नहीं दिखा
यह कुछ मछली के तड़पने के अहसास-सा था
उसकी आँखें मुझमें थिर होती-सी

पानी कहीं नहीं था यक़ीनन
पानी की तरह हवा थी
जिसमें बहुत कम आक्सीजन था
और वह प्यार वायुमंडल के दबाव की तरह
दूसरों पर भी ज्यों पड़ रहा था
यहाँ कोई और न था
बस सबके होने का एहसास था
वैसे ही जैसे प्यार था सपने में

जरा देर बाद मगर
एक गाड़ी जाती हुई दिखी
जिसमें शायद मैं ही बैठी थी
कार के बोनट पर
हवा में पंख लहराता एक बाज बैठा दिखा
जो बाज नहीं था
वह एक मछली थी शायद
जिसके पंख थे हवा में तैरते

सपने में ही सोचती रही
एक दूसरे से मिलती हुई
अभी कितनी ही चीजें मिलेंगी
जो दरअसल वे नहीं होंगी

अच्छा हुआ सपने में मुझे जिसने प्यार किया
वह नहीं दिखा
आखिर वह नहीं होता जो दिखता
जिसे पहचानने की आदत पड़ी हुयी थी
वह खर-पात से बना कोई जीव होता शायद
दूसरी तरह की हवा में जीने वाला
प्रकृति का कोई नया अविष्कार
जिसे पहले न देखा गया हो
वह मनुष्य से वैसे ही मिलता-जुलता होता
जैसे नहीं-सा



नक्षत्र नाचते हैं
हमारी आपस की दूरियों में ही
प्रेम निवास करता है आजकल
सत्य ज्यूँ कविता में

ये आंसू क्यों तुम्हारे
यह कोई आखिरी बातचीत नहीं हमारी
हम मिलेंगें ही जब सब कुछ समाप्त हो चुका होगा
इस पृथ्वी पर सारा जीवन

मिलना एक उम्मीद है
जो बची रहती है चलाती
इस सौर्य मंडल को
हमारी इस दूरी के बीच ही तो
सारे नक्षत्र नाचते हैं
हमें इन्हें साथ- साथ देखना चाहिए
हम अभी जहाँ भी हैं
वहीँ से.



न होने की कल्पना
इधर कितनी ही कवितायेँ पास आयीं
और चली गयीं
उनकी आँखों में जिज्ञासा रही होगी
क्या कुछ हो सकेगा उनका
इस उदास-सी हो गयी स्त्री पर
भरोसा करके
यह तो अब लिखना ही नहीं चाहती
कोई थकान इसे बेहाल किए रहती है
यह बताना नहीं चाहती किसी को
कि होने के पार कहीं है वह आजकल
जहाँ चीजें अलहदा हैं
उनमें आव़ाज नहीं होती
हवा वहां लगातार सितार-सी बजती रहती है
अपने न होने को पसंद करने वालों के लिए
ख़ुशनुमा वह जगह
जिसकी कल्पना ‘होने’ से संभव नहीं

कविता सोचती है शायद
यह स्त्री एक कल्पना हुई जाती है
पेड़ों पक्षियों की ज्यों अपनी कल्पना
मनुष्य जिसमें अंटते ही नहीं.




किसी और रंग में
यहां कहां से आती हुई आवाज है और किसकी
पीली पड़ी देह की रुग्णता हवा में ज्यों मिली हुई
आकर अपना पीलापन जो छोड़ जाती है
कितना कुछ महसूस करने में है
एक और देह की उन उदासियों को
वर्षों जो उससे लिपटी रहीं
जिन्हें कभी जाना था

किधर से यह आवाज आती है
अब बस करो कहीं ठहरो एक जगह
मत मिलाओ सारी खुशबुओं को एक में

जानना कितना मुश्किल हो जाएगा फिर
कौन सा स्पर्श किसका था
शब्दों पर से ऐतबार न उठे
इसलिए याद रखना जरूरी है उसका कहा हुआ
प्रेम में मरना सबसे अच्छी मृत्यु है
और यह भी कि संभोग भी आखिर एक मृत्य है, छोटी ही सही
जिसके बाद मनुष्य का दूसरा जन्म होता है
कई ऐसी ही बातें लगभग सांसों पर चलती हुई
आत्मा से उतारी गई होंगी उसकी ही तरह

किधर से फिर यह कौन सी आवाज आती है
जिससे पहचानी जाएगी एक स्त्री
जिसका पीला रंग बदलने से मना करता है
किसी और रंग में.


हवा संग रहूंगी
आज रविवार है
आज किसी का इंतजार नहीं करुँगी
आज मैं क्षमा करुँगी
आज मैं हवा संग रहूंगी
उसके स्पर्श से सिहरी एक डाल की तरह

बस अपनी जगह रहूंगी
अलबत्ता थोड़ी देर बाद
पास ही तालाब में तैरती मछली को
देखने जाऊँगी
जानूंगी वे क्या पसंद करती हैं
तैरते रहना लगातार या सुस्ताना भी जरा
मैं उनकी आँखों में झांकूंगी
बसी उनमें सुन्दरता के मारक सम्मोहन को
शामिल करुँगी जीवन के नए अनुभव में

आज पानी के पास रहूंगी
उसकी गंध को भीतर
उसके आस-पास के घास-पात के बहाने 
भीतर के खर-पात देखूंगी

आज रविवार है
आज किसी का इंतजार नहीं करुँगी
इस धरती पर रहूंगी
उसके तापमान की तरह
_____________________

सविता सिंह
5 फरवरी 1962 आरा (बिहार)

पी-एच.डी. (दिल्ली विश्वविद्यालय), मांट्रियाल (कनाडा) स्थित मैक्गिल विश्वविद्यालय में साढ़े चार वर्ष तक शोध व अध्यापन,
सेंट स्टीफेन्स कॉलेज से अध्यापन का आरम्भ करके डेढ़ दशक तक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाया. 
सम्प्रति इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय (इग्नू) में प्रोफेसर, स्कूल ऑव जेन्डर एंड डेवलेपमेंट स्टडीज़ की संस्थापक निदेशक रहीं.

पहला कविता संग्रह अपने जैसा जीवन (2001) हिन्दी अकादमी, दिल्ली द्वारा पुरस्कृत, दूसरे कविता संग्रह नींद थी और रात थी (2005) पर रज़ा सम्मान. दो द्विभाषिक काव्य-संग्रह रोविंग टुगेदर (अंग्रेज़ी-हिन्दी) तथा ज़ स्वी ला मेजों दे जेत्वाल (फ्रेंच-हिन्दी) 2008 में प्रकाशित. अंग्रेज़ी में कवयित्रियों के अन्तरराष्ट्रीय चयन सेवेन लीव्स, वन ऑटम (2011) का सम्पादन जिसमें प्रतिनिधि कविताएँ शामिल, 2012 में प्रतिनिधि कविताओं का चयन पचास कविताएँ : नयी सदी के लिए चयनशृंखला में प्रकाशित. 
फाउंडेशन ऑव सार्क राइटर्स ऐंड लिटरेचर के मुखपत्र बियांड बोर्डर्सका अतिथि सम्पादन.

कनाडा में रिहाइश के बाद दो वर्ष का ब्रिटेन प्रवास. फ्रांस, जर्मनी, बेल्जियम, हॉलैंड और मध्यपूर्व तथा अफ्रीका के देशों की यात्राएँ जिस दौरान विशेष व्याख्यान दिये.
savita.singh6@gmail.com 

एक रात का फ़ासला : सुभाष पंत

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वरिष्ठ कथाकार सुभाष पंत के लिखे जा रहे उपन्यास- एक रात का फ़ासलाका एक अंश यहाँ प्रस्तुत है.



ससुराल की पंचायत                  
सुभाष पंत





रीरिक और मानसिक रूप से अस्वस्थ और तीन घंटे बैलगाड़ी की यात्रा से थकी चम्पा अपने ससुराल की पंचायत में हाजिर हुई. वह अपने बड़े भाई के साथ आई थी, जिसकी जिम्मेदारी उसे यात्रा में संरक्षण देना था. वह गवाह नहीं था लेकिन चम्पा को नैतिक बल प्रदान करना और पंच फैसले को कार्यरूप में परिणित करना उसकी जिम्मेदारी थी.
  
वह सूती कमीज, लट्ठे का पैजामा और सिर पर गुलाबी पगड़ी पहने था. उसकी मूँछों की ऐंठ और आँखों की चमक वैसी नहीं थी जैसी अमूमन रहा करती थी. उसका आत्मविश्वास डिगा हुआ था क्योंकि सारी स्थिति का विश्लेषण करने के बाद वह इस नतीजे पर पहुँचा था कि दोष चम्पा का ही है. अपना ही सिक्का खोटा हो तो चाहने के बाद भी सिर उठा नहीं रह सकता.
  
चम्पा ने देखा. कई बुजुर्ग आसन पर बैठे थे. वे वक़्त से पिछड़े, लेकिन सम्मानित और ताक़तवर लोग थे जिनके हाथों उसके भाग्य का फैसला होना था. तप्पड़ में चार गाँवों के उत्सवप्रिय लोग एक ऐसे दिलचस्प मामले को सुनने आए थे जैसा मामला उनके सुने और देखे इतिहास में अनोखा था. वे पतन की पराकाष्ठा पर खड़ी उस स्त्री को देखने आए थे जिसने डोली से उतरते ही अपने पति को पति मानने से इनकार कर दिया. उन्हें उम्मीद थी कि पंचायत सजा के तौर पर उसे नंगा करके घुमाएगी. एक लड़की को, जिसके बारे मे चर्चा थी कि वह बहुत खूबसूरत है, सरेआम नंगा देेखने का उन्माद उनकी नसों में दौड़ रहा था.
  
वादी पक्ष दर्शकदीर्घा के दायीं ओर खड़ा था. भूरे, राजेसुरी और किसन. उनके पीछे कुछ और लोग भी थे जिन्हें चम्पा नहीं जानती थी. भूरे ने वे ही बाटा के पीटी शू पहन रखे थे जिन्हे विवाह के समय पहनने से उसे लगा था कि उसकी नाक कट गई है. अब वे उसे रास आ गए थे क्योंकि उनमें उछलना और भागना आसान था. राजेसुरी के सिर पर आधा पल्ला था. उसका चेहरा इतना सपाट था कि उस पर कुछ भी लिखा जा सकता था. किसन उसी पोशाक में था जो पोशाक उसने शादी में पहनी थी और उसकी कमर में वह तलवार लटक रही थी, जिस तलवार को लटकाकर वह उसे ब्याहकर लाया था. उसकी पंसली की टूटी हड्डियों की मरम्मत की जा चुकी थी और अब वह चाकचैबन्द था.
  
जनसमूह को देख कर चम्पा दहल गई, जो उसे सज़ा देने के लिए उत्सवभाव से वहाँ एकत्रित था. वक़्त के हर दौर में ऐसा ही हुआ है. अपराधियों ने सज़ाएँ तय की हैं और उन्होंने उसे भुगता है जिन्होंने कोई अपराध नहीं किया.
  
सारी आँँखें उसी पर टिकी हुई थी और सिर के ऊपर निष्ठुर आसमान तना हुआ था. हवा बेचैन थी और पेड़ों के पत्ते हताशा में लड़खड़ा रहे थे. राहत की बात बस यही थी कि उसका चेहरा घूँघट में था जिसने उसकी सारी दुर्बलताओं को सार्वजनीन होने से बचा रखा था.
  
मुकदमा शुरु भी नहीं हुआ था कि दर्शकदीर्घा से एक प्रबुद्ध किस्म के आदमी ने, जो नारी समथर््ाक व्यक्ति था और विरल था, चिल्लाकर व्यवस्था का प्रश्न खड़ा कर दिया, ‘वर की कमर में तलवार बंधी है....पंच परमेश्वर बताएँ कि क्या पंचायत में हथियार लाने की इजाजत है?’
  
दर्शकदीर्घा में हल्ला मच गया कि मुकदमा शुरु होने से पहले किसन को अपनी कमर में बंधी तलवार खोलकर पंचों के पास जमा कर देनी चाहिए ताकि कल कोई यह न कहे कि फ़ैसला हथियार से डरकर लिया गया.
  
इससे पहले कि पंच कमर से तलवार खोलने का हुक्म देते भूरे ने कहा, ‘यह हमारा रिवाज है कि कमर में तलवार बांधकर लड़का शादी करता है और वह तब तक कमर से नहीं खोली जाती जब तक दूल्हा मंढे की बत्ती खोल कर दुल्हन को सकुशल घर के भीतर नहीं पहुँँचा देता. मामला यही है, जिसके लिए हमने पंचायत में गुहार लगाई कि मंढे की बत्ती नहीं खुली और बहू ने घर में परवेस नहीं किया, इसलिए तलवार कमर से नहीं खोली गई. तब भी, जब किसन की पंसली की हड्डियाँ टूट गई और, यहाँ तक कि दिशा-मैदान के समय भी इसे नहीं खोला गया. पंचपरमेसुर से गुजारिश है कि जब तक कोई फैसला नहीं हो जाता इसे किसन की कमर में बंधे रहने की इजाजत दी जाए.
  
पंचायत उलझन में फँस गई दोनों ही तर्क सही थे. न्याय की आचार संहिता के लिए तलवार कमर में नहीं बंधी रहनी चाहिए और रिवाज के हिसाब से उसे कमर में बंधे रहना चाहिए.
  
एक पंच ने कहा, ‘पंचायत में हथियार लाने की इजाजत नहीं है, लेकिन यह रिवाज का मामला है और, रिवाज कैसा भी हो, उससे छेड़छाड़ नहीं की जानी चाहिए. फिर भी हम इसे स्त्री पक्ष पर छोड़ते हैं. अगर उसे ऐतराज न हो तो इस बार पंचायत वादी को कमर में तलवार बंधी रहने की इजाजत दे सकती है.
 
चम्पा घबराई हुई थी लेकिन जब उससे पूछा गया तो उसमें हौसला आ गया. उसने महसूस किया कि उसकी यातनाएँ अबूझ शक्ति में बदल गई हैं. एक ऐसी तलवार को, जो जंग खाई हो, म्यान से बाहर निकलती ही न और जो दूसरे पर नहीं खुद पर हमला करती हो, कमर में बंधे रहने देने में उसे क्या आपत्ति होती. उसने सिर हिला कर स्वीकृति प्रदान कर दी.
  
स्वीकृति के बाद वादी पक्ष से पंचायत से सामने अपनी बात रखने को कहा गया.
  
किसन को सभ्य समाज में बात करने का सलीका नहीं आता था. वह हड़बड़ा गया और दयनीय दृष्टि से अपने पिता की ओर देखने लगा जिसे उसने अपनी शादी के वक़्त बाटा का पेटेंट शू पहनने के काबिल भी नहीं समझा था.
  
बेटे की करुणा से विगलित भूरे ने गला खँखार कर कहा, ‘पंचपरमेसुरों को मेरी राम राम. मामला है कि सामने खड़ी यह लड़की, जिसने अपना मँू घूँघट में छिपा रखा है, बिरौड़ गाँव की चम्पा है. विधि-विधान के साथ मेरे बेटे किसन से इसका ब्याह हुआ. फेरे हुए. कन्यादान और पाणिग्रहण हुआ. गवाह वे साठ सज्जन हैं जो इस ब्याह में बाराती की तरह बिरौड़ गाँव गए, जिनमें से कुछ इस बखत यहाँ भी मौजूद हैं. इसके अलावा कन्या पक्ष का शाहपट्टा मेरे पास है जो इस ब्याह का दस्तावेज है. याने लड़की के साथ कोई जोरजबडदस्ती नहीं की गई. उसे बहकाया, फुसलाया या उठाया नहीं गया. विधिवत ब्याह किया गया. पंचपरमेसुर लड़की से मालूम कर सकते हैं कि मैने जो कहा वह सच है कि गलत है.
  
भूरे ने जो कहा क्या वह सच है?’ पंचों ने पूछा.
  
चम्पा ने जवाब दिया कि भूरे ने जो कहा वह सच है.
  
तुझे इस विवाह से कोई आपत्ति थी या तूने यह ब्याह अपने पिता के दबाव में किया?’
  
चम्पा ने जवाब दिया कि उसे इस विवाह से कोई आपत्ति नहीं थी और उसके पिता ने इस विवाह के लिए उस पर कोई दबाव नहीं डाला.
 
 ‘तो फिर जब चम्पा को विवाह से कोई ऐतराज नहीं?’
  
यहाँ तक गणेशजी की किरपा से सब ठीकठाक निबट गया,’ भूरे ने कहा,.
श्री गणेशाय नमः .
    
वक्रतुण्ड महाकाय सूर्य कोटि सम्प्रभः.
    
निर्विघ्न कुरु में देव सर्व कार्येषु सर्वदा.
  
लेकिन जब बहू की डोली हमारे आँगन में उतरी पंचपरमेसुरों तो सारा खेल बिगड़ गया. उसने डोली से उतरते ही ऐलान कर दिया कि किसन की माँ उसकी सास नहीं, किसन का घर उसका घर नहीं, और किसन उसका पति नहीं. उसे उसके घर वापिस भेज दो, नहीं तो वह खाई में कूदकर जान दे देगी. और बेहोश हो कर गिर पड़ी.
   ‘हमारे पास इसे उस बखत इसके घर वापस भेजने के अलावा कोई चारा नहीं रह गया था.
   ‘क्या यह सच है?’ पंचों ने चम्पा से पूछा.
   उसने सिर हिलाकर हामी जताई कि वह जो कह रहा है वह सच है.
   पंच परेशान हो गए और दर्शकदीर्घा हैरान रह गई.
   ‘तूने किसन को अपना पति मानने से क्यों इनकार किया जब कि इस ब्याह से तुझे कोई ऐतराज नहीं था?’
   ‘इसका जवाब इसके पास है.उसने अपनी थरथराती उंगली किसन की ओर उठाई.
   किसन बौखला गया, ‘मैं इसके मन की बात कैसे जान सकता हूँ पंचपरमेसुरों. कोई यार रहा होगा इसका. आसनाई होगी किसी के साथ....तिरिया चरित को तो बरमा, बिसनू, महेस भी नहीं जान सके. मैं तो सीधे-सच्चे इनसानों में भी सीधा-सच्चा हूँ. मुझे तो सिरफ हल जोतना, बीज डालना और फसल उगाना आता है....
   दर्शकदीर्घा फुसफुसाहट में बदल गई किसन ठीक कहता है. यह लड़की कोई खेल खेल रही है.
   ‘भला किसन कैसे जान सकता है कि तूने उसे अपना पति मानने से क्यों इनकार किया?’
   ‘क्योंकि इसे कमर में तलवार बांधना आता है लेकिन तलवार को म्यान से बाहर निकालना नहीं आता....
   ‘यह लड़की सबको भरमा रही है पंचपरमेसुरों.भूरे ने कहा, ‘ये भी कोई बात हुई....क्या कोई औरत अपने पति को इसलिए पति मानने से इनकार कर देगी कि उसे म्यान से तलवार निकालना नहीं आता? और जहाँ तक मैं समझता हूँ, किसन अगर कोशिश करे तो वह तलवार म्यान से बाहर निकाल सकता है. उसकी पीठ इतनी मजबूत है कि वह उस पर मणभर बोझ को एक फर्लांग तक ढो सके.
   ‘अब इसका कोई मतलब नहीं,’ चम्पा ने स्थिर स्वर में कहा, ‘इसने उस बखत तलवार म्यान से बाहर नहीं निकाली जब इसकी जरूरत थी....ये नामर्द है.
   अपने को नामर्द कहे जाने से किसन बौखलाकर उछला और चिल्लाया, ‘मेरे साथ सोई नहीं हरामजादी और मुझे नामर्द कह रही. अभी गला रेत दूँँगा, इसी बखत. सबके सामने फिर चाहे मुझे फन्दे पर लटकना पड़े. फन्दे की परवाह नहीं मुझे.और चम्पा की ओर दौड़ा.
   उधर चम्पा का भाई भी आस्तीने गुलटकर तैयार हो गया कि किसन चम्पा पर झपटे तो वह उसके हाथ-पैर तोड़ दे.
   पंचपरमेसुर घबराकर अपने आसनों से उठ कर खड़े हो गए.
   दर्शकदीर्घा के शान्तिप्रिय लोगों ने किसन और चम्पा के भाई को थाम लिया.
   आक्रामक क्षण टल गया तो पंचपरमेसुर यह कहते हुए अपने आसनों पर बैठ गए कि आगाह किया जाता है किसी ने कोई गड़बड़ की तो इसका नतीजा बुरा होगा. यह न्याय का मंदिर है, दंगल का अखाड़ा नहीं.
   इस चेतावनी के बाद लोग शान्त हो गए और आगे की कार्यवाई फिर शुरु हो गई.
   ‘चंूकि अब जमाना बदल रहा है. स्त्रियों का आचरण और लोकलाज भी बदल गया है. वे औरतें अब नहीं रही जो सबकुछ सहकर कभी मुँह नहीं खोलती थीं. ऐसी महान औरते भी रहीं हैं इस देश में, जो अपने कोढ़ी पति को कंधें पर उठाकर वेश्यालय ले गई क्योकि वह ऐसा चाहता था. उन्हें देवियों के आसन पर बैठाया जाता था. बदली हवा में पंचायत उस औरत पर दबाव नहीं डाल सकती कि वह उस आदमी को अपना पति मानें जो नामर्द हो. चम्पा को भी यह छूट है बशर्ते कि वह साबितकर सके कि किसन नामर्द है. हालांकि वह अपने पति के साथ सोई नहीं तो वह कैसे कह सकती है कि उसका पति नामर्द है. चम्पा को बताया जाता है कि अगर वो ये बात साबित नहीं कर सकी तो इसका नतीजा बहुत बुरा होगा.
   ‘ब्याह के बाद मेरी डोली जिस दिन पहुँचनी थी उससे एक दिन बाद पहुँची और यह आदमी चुपचाप देखता रहा. इससे साबित होता है....
   भूरे ने हवा में हाथ उछालकर कहा, ‘यह हमारे गाँव की रीत है, बहू की डोली एक दिन बाद आती है.
   पंचों के चेहरे बेचैन हो गए. उन्हें कतई उम्मीद नहीं थी कि कोई बहू भरी पंचायत में यह सवाल उठा सकती है. यह डोली के एक दिन बाद पहुँचने का मामला नहीं था. यह एक रवायत के खिलाफ़ खुला विद्रोह था.
   ‘अपनी ससुराल के सब रिवाजों को निभाना हर बहू का फरज है. इस बात से क्या फरक पड़ता है कि डोली एक दिन पहले आई की एक दिन बाद आई.
   ‘बहू की डोली एक दिन पहले आएगी तो उसे कोई बहू नहीं मानेगा और एक दिन बाद आएगी तो वह पति को पति कबूल नहीं करेगी.चम्पा ने मजबूती से कहा.
   ‘जब से यह गाँव बसा डोली एक दिन रुक कर आसीरवाद लेती है. इसी आसीरवाद से घर फलता फूलता है.भूरे ने कहा. इसी के साथ उसे बीड़ी पीने की हुड़क हुई लेकिन पंचायत के सम्मान में उसने बीड़ी नहीं सुलगाई और पंच परमेसुरों की ओर ऐसे भाव से देखा कि उन्हें पता चल जाए कि बीड़ी की तलब के बाद उसने बीड़ी नहीं पी.
   ‘लेकिन एक दिन की डोली की देर में औरत की जिंदगी में क्या हो जाता है....यह ठाकुर बताएगा. पंचों से हाथ जोड़कर बिनती है कि ठाकुर को पंचैत में बुलाया जाए.
   दर्शकदीघा में सन्नाटा फैल गया. यह ठाकुर की प्रजा थी. उसके बंधुआ मजदूर, हलिए, गुलाम, मातहत, कृपापात्र, कर्जदार, आतंकित, डरे, सहमें, कुचले, खरीदे हुए और वफादार....
   तप्पड़ जिसमें वे बैठे थे, पंचायतघर, पंच, बावड़ी, कुएं, स्कूल सब ठाकुर के थे. ठाकुुर के पास सिपाही थे, कारिन्दे थे. ठाकुर के हाथ में जिन्दगियाँ थीं, ठाकुर के हाथ में हत्याएँ थीं. देश आज़ाद हो चुका था लेकिन गाँव गु़लाम थे.
   ठाकुर को पंचायत में तलब नहीं किया जा सकता था.
   भूरे को ठाकुरों की ओर से तीन बीघे की माफी मिली थी और अब वह हलिया नहीं किसान था.
   ‘ठाकुर मालिक हैं. वे फैसले करते हैं उन्हें पंचैत में गवाह की हैसियत से नहीं बुलाया जा सकता.उसने कहा.  
   दर्शकदीर्घा से ठाकुर का कारिन्दा और उसके सिपाही चिल्लाए, ‘किसी ने भी ऐसी जुर्रत की तो उसे गोली से उड़ा दिया जाएगा. लड़की तू अपनी औकात में रह. और पंचैत भी पहले ही सँभल जाए.
   विरोध में खड़े जनसमूह ने चम्पा को चेता दिया कि उसे न्याय मिलने की उम्मीद नहीं करनी चाहिए. पंचायत नौटंकी है और उसकी सजा तय है. औरतों की सजाएँ तभी तय हो जाती हैं जब वे जन्म लेती हैं. जो चुपचाप उन्हें सह लेती हैं, वे देवियाँ हैं. जो नहीं सहती वे कुल्टाएँ हैं. देवी और कुल्ट के बीच औरत की कोई जगह नहीं. उसका उठा हुआ सिर किसी को बर्दाश्त नहीं होता.
   ‘ठाकुर पंचायत में नहीं बुलाया जाता तो वह फैसला सुना दिया जाए जो मेरे लिए तय है.चम्पा ने कहा.
   ‘तेरी बात सुने बिना कोई फैसला नहीं किया जाएगा. यह छूट का मामला है. ऐसी छूट जिसकी कोई वाजिब वजह भी नहीं है. किसन के साथ सोए बगैर उस पर नामर्दी का आरोप लगाया जाना सरासर गलत है.
   ‘छूट के अलावा यह मामला हत्या का भी है. मुझे मारने की कोशिश की गई.चम्पा ने कहा.
   ‘यह झूठी और बदजात औरत है,’ भीड़ में से कोई चिल्लाया, ‘मैं वाकए पर मौजूद था. वहाँ ऐेसा कुछ भी नहीं हुआ जैसा यह कह रही.....औरत की बात पर कभी यकीन मत करो. मरते हुए भी वह सच नहीं बोलेगी.
   ‘हल्लागुल्ला नहीं,’ पंचायत ने कहा, ‘चम्पा को अपनी बात कहने दो.
   ‘मैं डोली से उतरते ही गिर पड़ी और बेहोश हो गई,’ चम्पा ने कहा, ‘लेकिन मैं बीमार नहीं थी, टूटी हुई थी और वहाँ तक टूटी हुई थी जहाँ तक कोई लड़की टूट सकती है. बस एक जिन्दा लाश. इस गाँव की बहू बनने से मैंने इनकार किया और अब भी मैं इनकार करती हूँ. एक लाश क्या किसी घर की बहू बन सकती है?’
   उसकी बात किसी की समझ में नहीं आई. वह खड़ी थी, साँस ले रही थी, बोल रही थी और अकेले पंचायत का सामना कर रही थी. वह लाश कैसे हो सकती है.
   एक औरत कैसे लाश हो जाती है? कोई औरत ही यह समझ सकती थी.
   वहाँ औरतें नहीं थी, राजेसुरी के सिवा और वह दूसरी ओर खड़ी औरत थी.
   ‘और फिर उस लाश की भी हत्या करने की कोशिश की गई....
   ‘चम्पा तू पंचैत को गुमराह कर रही है. हमने किसी ऐसी लाश को नहीं देखा जो बोलती हो और फिर उसकी हत्या करने की कोशिश कैसे की जा सकती हो जो खुद एक लाश हो.
   ‘ठाकुर लाश बनाता है और, लाश कुछ बोलती है तो ठाकुर का सिखाया ओझा उसकी हत्या करता है. ओझा ने कहा मेरे भीतर परेत है. परेत भगाने के लिए मिर्चो की धुनि दी. कमची से मेरी पीठ की खाल उधेड़ी. मुझे गरम सलाख से दगने से बचा न लिया जाता तो मैं मार दी जाती. इसकी गवाह सामने खड़ी ये औरत है जिसने कहा कि वह मेरी सास है. और जिसे मैंने सास मानने से इनकार किया....
   चम्पा के दूसरी ओर खड़ी औरत को अपने गवाह के रूप में चुनने से लोगों को आश्चर्य हुआ और पंचायत को भी. उसकी गवाही एक निर्णायक मोड़ दे सकती थी. इधर या उधर.
   पंचों ने राजेसुरी से पूछा, चम्पा जो कह रही वह सही है. और राजेसुरी ने कहा, जिसे सबने दिल थामकर सुना, ‘चम्पा ने जो कहा, वह सही है. अगर मैं उसे बचा न लेती तो वह सुर्ख चिमटे से दाग दी जाती. और उस समय वह इतनी दुरबल थी कि मर भी सकती थी.
   ‘औरत के भीतर परेत बैठा हो तो उससे मुकति के लिए क्या औरत को दागा नहीं जाएगा.भूरे ने उछल कर कहा, ‘अब सुनलो इसकी बात....कितनी औरतें दागी गईं, सुना कि कभी कोई औरत दागने से मरी हो. इसे उस टैम दागने से बचाया न गया होता तो ये पंचैत में खड़े होने की जगह किसन की बगल में खाट पर सोई होती.’  
   
परेत मेरे भीतर नहीं, ठाकुर के भीतर है. ओझा से पूछो क्या वह ठाकुर को गरम सलाख से दाग सकता है. और क्या पंचैत में ठाकुर और ओझा को सजा देने की हिम्मत है. अगर वह उन्हें सजा नहीं दे सकती तो उसे कोई हक नहीं कि मुझे सजा दे.चम्पा ने ललकारती आवाज़ में कहा.
   
इसी के साथ दर्शकदीर्घा में खलबलाहट मच गई और उस खलबलाहट से पत्थर फेंके जाने लगे. एक पत्थर चम्पा के सिर पर लगा और खून के फव्वारे के साथ वह ज़मीन पर गिर पड़ी. उसके गिरते ही भगदड़ मच गई.
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चंद्रकांता की कविताएँ

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युवा चंद्रकांता की कविताएँ हैरत में डालती हैं, बहुत जल्दी ही उन्होंने शिल्पगत प्रौढ़ता और विविधता हासिल कर ली है. वे हिंदी कविता का नया चेहरा हैं. कविताएँ वाक्यों की हैं और उनमें डिटेल्स हैं. विष्णु खरे याद आते हैं. अगर वे होते तो ख़ुश जरुर होते.

इन कविताओं पर आलोचक बजरंग बिहारी तिवारी की टिप्पणी भी साथ में दी जा रही है.




चंद्रकांता की कविताएँ  



अछूत स्त्रियाँ चुप हैं 


अछूत स्त्रियाँ चुप हैं                            
अभिव्यक्ति की आज़ादी मिल जाने के बाद भी 
उनके दोनों हाथ जुड़े हैं, एक साथ 
आश्रय की मुद्रा में स्थिर
जैसे स्थिर हैं बुद्ध कांच के पीछे 
ड्राइंगरूम की रंगीन दीवाल के 
किसी रुआंसे कोने पर 
6x4 लकड़ी की चौखट में टंगे हुए. 


अनुसूचित स्त्री 
इस शब्द का प्रयोग करते ही, आपको
'फेयर एंड लवली', बबली या 
जीरो साइज औरतों की जगह 
किसी गठी हुई मांसल देह  
हिडिंबानुमा किसी स्थूल, भयानक 
या काली आकृति का बोध होता होगा !
इनकी पहचान अक्सर इसी रूप में दर्ज है . 


चूंकि, स्याम वर्ण की                            
इन स्थूलकाय युवतियों का अस्तित्व 
हमारे सामाजिक शब्दकोष में 
स्व-अधिकारका प्रश्न नहीं है
इसलिए उन्मांदी दबंगों द्वारा बलपूर्वक 
इनका शील भंग किया जाना 
बीच बाजार निर्वस्त्र घुमाना 
और हिंसक भीड़ का इन्हें जला दिया जाना आम बात है . 

इन स्त्रियों से हमारी व्यवस्था को              
एक अजीब किस्म की ल-ह-सु-नी 
सडांध आती है, किन्तु 
फिर भी हमारे देव 
इनकी योनि में हठात प्रवेश को 
व्यभिचार नहीं मानते 
क्यूंकि ये स्त्रियाँ सार्वजनिक संपत्तिहैं 
अर्थात लूट-खसोट का साझा परिसर हैं . 


अछूत स्त्रियों का                             
हमारे टट्टी-मलमूत्र अपने सिर पर ढोना
हमें अमानवीय नहीं लगता 
क्यूंकि हम और आप सेफ ज़ोनमें है 
हमारे प्रबुद्द टाक-शो’ 
मुनाफे की बातचीत में व्यस्त हैं
और हमारा समाज जाति के पीलियासे ग्रस्त है 
मानवाधिकार संस्थाएं राजनीति में लिप्त हैं 
फिर इस मुद्दे में आरक्षणजैसा चार्म भी नहीं है . 


अपने समाज की संवेदना में भी ये स्त्रियाँ 
सब्जेक्ट टू आनरनहीं बन पातीं 
एक तरफ गुदड़ी के कुछ लाल-पीले  लेखक 
स्त्रियों की अभियक्ति को लेकर सेलेक्टेडहैं  
दूसरी तरफ अपने ही साहित्य में ये स्त्रियाँ रिजेक्टेडहैं 
दरअसल, ये परजीवी किस्म के शोषक हैं 
जो अपने समाज की तो मुक्ति चाहते हैं 
किन्तु अपनी स्त्रियों की नहीं . 


इन स्त्रियों की आत्मकथाएं                                  
प्रणय का आरामदायक पालना नहीं है 
उसमें यथार्थ का क-ड-वा-प-न है
यह रोजनामचा नहीं, मार्मिक व्यथाएं हैं 
जो आपको विषाद से भर देंगी 
इनकी आत्म-वीथियाँ
अभेद्य साहित्यिक शिखरों और 
सड़क-छाप गुटबाजी से मिले यश को 
नि:संदेह एक दिवस गूंगा कर देंगी . 


पहचान के संकट और 
अशिक्षा की भारी-भरकम बेड़ियों नें 
इन स्त्रियों के घाव को सुजाकर 
इतना अधिक मोटा कर दिया है 
कि हमारी तंग व्यवस्था 
इन गजगामनियों के आवेश के नीचे दबकर 
निकट भविष्य में 
दम तोड़ देने को विवश होगी . 

यथार्थ की इन कठोर भाव-भंगिमाओं नें                             
आपका ध्यान आकर्षित किया या नहीं 
किन्तु, ‘अस्तित्व का प्रश्न’  
इनके लिए भी उतना ही जरूरी है 
जितना किसी अन्य वर्ग की स्त्री के लिए 
रेत की तरह चमकती ये स्त्रियाँ 
किसी विशाल सागर की तरह हैं 
जिन्हें बुहारने पर बेशकीमती मोती मिलेंगे . 

नि:संदेह एक सुबह आएगी 
जब इनमें से प्रत्येक स्त्री 
स्वयं में एक सरहद होगी 
और तब  इन स्त्रियों के अधिकारों की आवाज़ 
हमारे कान के परदों को फाड़ देंगी 
नगर-व्यवस्था की संरचना के बाहर                 
खदेड़ दी गयीं ये अछूत ललनाएँ  फट पड़ेंगी 
जैसे सहस्रों वर्षों से सुप्त कोई ज्वालामुखी फट पड़ता है . 


अछूत बना दी गयी इन स्त्रियों को सलाम. 







औरतों की बीमारी 

महीने भर से ज्वर था, दाँत कि-ट-कि-टा-ते        
पूरा आषाढ़ निकल गया शरीर को जुड़ाते 
खसम गया था दिल्ली कमाने दो आने 
ब्याह में जो लिया था कर्ज चुकाने 
लक्ष्मी को थी भावज 
भगिनी सी प्यारी 
देखकर उसकी पीली देह पर 
लाल गुलाबी चकते 
जाकर खबर दी माँ को, आहिस्ते.


अम्मा नें सुनकर बहू की बीमारी                 
आँखें तरेरीं दोनों बारी-बारी -
रामचंदर की बहू तो कभी बीमार नहीं होती!
अम्मा ! दस रोज से बदन तप रहा रामप्यारी का 
खाँसते-खाँसते बलगम से 
बुरा हाल था बेचारी का, कहती थी - 
'तकादा करूंगी तो लांछन लगेगा कामचोर है'
रामचंदर की बहू को शायद तपेदिक का ज़ोर है 
साल भर पहले ही तो चल बसी थी उसकी महतारी.


लो ! हमें तो ना होती थी बीमारी                     
ये आजकल की बहुएँ 'फैशन की मारी
दो बरतन क्या घिस लेती हैं 
पड़ जाती हैं खाट पर 
आग लगे, इन करमजलियों के ठाठ पर 
हम तो घास काटते थे, करते थे सानी
कोस भर दूर से ढोकर लाते थे पानी  
चूल्हा-चौका करके गोबर लीपते थे 
संध्या चढ़ने से पहले हल्दी-मिरच पीसते थे .


ओखली में जब मुख देता था अंधेरा              
हमारे लिए होता था वह दूजा सवेरा 
थके मांदे तेरे बापू घर आते थे 
पहले तेंदू पत्ता घिसते 
फिर महुआ चढ़ाकर बैठ जाते थे 
और हम चूल्हे पर सालन रखकर 
झूलती आँखों से अपनी थकान मिटाते थे 
अब तो इन बहुओं से आराम भी नहीं होता 
बैठे ठाले दे रही हैं बीमारियों को न्यौता .


अजी सुनते हो ! लक्ष्मी के बापू                    
देखो तो क्या कहती है बिटिया तुम्हारी 
बहू को लग गयी है कोई हवा-बीमारी 
कहो तो वैद्य बुलवा दूँ !
फाँककर तंबाकू का गोला 
बापू ने मुंह खोला -
'क्या दिमाग से पैदल है'जनकदुलारी   
अभी हाथ थोड़ा कड़क है 
झाड़-फूँक करवा देंगे जब आएगी बारी . 


और लक्ष्मी तू बड़ी मास्टरनी लगी है !       
दो किताब क्या पढ़ ली
गज भर की जबान खींचकर 
हमारे सर पर चढ़ी है 
कमबख्त ! औरतें तो ऐसे ही ठीक हो जाती हैं 
चक्की में गेहूं पीसते-पिसाते 
चूल्हे की आग में खटते-खटाते 
फिर अब तो उज्ज्वलाभी है
पहले की तरह धुएँ में नहीं रगड़नी पड़ती आँतें . 


खुजलाते हुए माथा बापू बोला - 
भई, सच कह गए हैं बड़े बुजुर्ग         
तुम लुगाइयों को खूब आता है 
बात का बतंगड़ करना  
राई को पहाड़ बनाना 
बात-बात पर बिस्तर पकड़ लेना 
फिर राशन पानी लेकर सर पर बैठ जाना
भला बुखार भी कोई बीमारी होती है 
औरतों की भी कोई दवा-दारू होती है ! 




रंडी की छोकरी

कल्लन भाऊ बोला 
मुझे आँखें दिखाती है 
हरामज़ादी !
किवाड़ खोल 
बहोत हुई मान-मुरव्वत, चल 
सोलह श्रृंगार कर 
और बैठ जा मंडी में

ज़बान चीर दूंगा
मुझे भड़वा कहती है 
साली, रंडी की छोकरी 
जिस सड़ांध में पैदा हुई है 
वहीँ, किसी के बिस्तर पर 
बिछा दी जाएगी एक दिन 
मोंगरे की कमसिन कली की माफ़िक

सुन बदज़ात !
अलिफ़-लाम की सीढ़ी पर नहीं 
तेरी चमड़ी के माप-तौल से 
बढ़ता है सूचकांक 
इस रंडीखाने का
ये किताबें भाड़ में डाल 
घुँघरू बाँध चल मयखाने में

ठहरो ! 
उसे जाने दो 
आवाज़ आई पार्श्व से 
एक नौजवान मर्द की
कल्लन मुड़ा और देखा 
दो अपरिचित सी आँखें
उसे टक-टक घूर रही थीं.

छोकरा रुका नहीं, बोला -
मैथिली की देह पर 
केवल उसका स्वत्व है 
तुम होते हो कौन, रखवाले 
उसकी मर्यादा लांघने वाले
मृतात्माओं की इस मंडी में 
सुनो ! वह नहीं बिकेगी

कल्लन मुंहफट, बोला - 
तू चुप कर बे छोकरे
तेरी सभ्य दुनिया के
ऊंचे सुसंस्कृत चोचले 
मंडी की द्यूत-क्रीड़ा में 
रोज लगाए जाते हैं दाँव पर 
और निर्वस्त्र होते हैं

अबे सुन ! शरीफज़ादे
तेरे बाप-दादाओं की 
कितनी ही अवैध संतानें 
जन्म लेती हैं इस रंडीखाने में 
और बना दी जाती हैं
एक भद्दी गाली 
क्या तू भी चुकाने आया है पितरों का ऋण ?

छोड़कर एक प्रश्नचिन्ह
छोकरे की ललाट पर 
कल्लन नें फिर ख-ट-ख-टा-ई 
मैथिली की बंद चौखट 
लंबी जद्दोजहद के बाद 
पकड़ा, खींच लाया हाथ 
भरी सभा में जल्लादों की उसे भींच लाया

और पल भर में 
सजा दी गयी मैथिली 
किसी अनमोल वस्तु की भांति 
वेश्यालय की नीड़ में 
दब गयी थीं सिसकियां
मधुशाला के गीतों 
नोटों की कडकडाती भीड़ में

अचानक !
शीश झुकाए बैठी 
मैथिली जागी उन्मुक्त 
सिकुड़ी देह में फूटी सहसा विद्युत
वह कुछ देर ठहरकर बोली - 
खबरदार ! मेरा जीवन 
मेरे चयन का प्रश्न है

मैं करती हूँ तिरस्कार 
तुम्हारी ध्यूत व्यवस्था और 
उन समस्त प्रतिमानों का 
जो करते हैं बाधित 
मेरे उन्मुक्त स्त्रीत्व को 
और छीनते हैं 
मुझ पर स्वत्व मेरा

और इस तरह
बरसों से जलती-सुलगती 
वह उपेक्षित लालबत्ती 
शब्-ए-मेराज के दिन
एक वारांगना के उद्घोष से छनकर
कुछ धवल हो गयी. 





स्त्री होना स्वराज का प्रश्न है

स्त्री की मुक्ति
और उस मुक्ति की आकांक्षा
अधिक अर्थवान है कि वह
मर्यादाओं को खोकर स्वयं को पाती है.


देह पर स्व-अधिकार तो
बाद का प्रश्न है, एक स्त्री को
पहले लड़ना-झगड़ना पड़ता है
अपने खाने-पहनने-ओढ़ने को लेकर
क्यूंकि उसके स्त्रीत्व पर
नैतिकता के अभेद्य बंधन है
जैसे सर्प की कुंडली में चंदन है.  


एक मूक-बधिर स्त्री
सद्जनो में प्रशंसनीय है, प्रिय है
एक स्त्री को पुरुष के अधिनायकत्व हेतु
ठीक वैसे ही तोड़ा जाता है
जैसे प्रकृति के तंतुओं को
मानव सभ्यता के विकास हेतु  
बेहद निर्ममता से उधेड़ा जाता है .


स्त्री समस्त कलेशों का मूल है ?
स्त्री नरक का द्वार है ??  
यह पितृसत्ता का सड़ा हुआ विचार है
इसे धरम के फादरचला रहे हैं   
और सुन्नत की तरह निभा रहे हैं   
दरअसल, स्त्री की अधीनता धरम के लिए   
सबसे उन्नत व्यापार है.


स्त्री देवी है ?
देवत्व की यह महानता
स्त्री के भावों-मनोभावों और
अनुभूति को स्पेस नहीं देती
धरम स्वयं को स्त्री पर मढ़ देता है
वह स्त्री की भूमिका को
एक नियत चरित्र में गढ़ देता है .


धर्म स्त्री को वस्तु मानता है
धर्म तासीर में पूंजीवादी है
धर्म धूर्त पंडा है  
धर्म बदचलन नमाज़ी है  
धर्म कुत्सित पुरुष है
वास्तव में धर्म अधर्म है  
धर्म की तबीयत मियादी (बुखार) है.


समाज स्त्री को डायन कहता है
टोने-टोटके की प्राक-शिक्षिका
समाज के ठेकेदार  
ऐसे मनगढ़त प्रस्ताव करते हैं  
क्यूंकी वे स्त्री की पहचान    
सत्ता में उसकी हिस्सेदारी  
और संकल्प चेतना से डरते हैं.

समाज के इस दोहरे चरित्र को
धर्म के अपवित्र-पवित्र को
शल्य चिकित्सा की जरूरत है
सनद रहे ! स्त्री होना टैबू का नहीं  
स्त्री होना स्वराज का प्रश्न है’  
क्यूंकी वह मर्यादाओं को खोकर स्वयं को पाती है


इसलिए एक स्त्री की मुक्ति अधिक अर्थवान है .



हाशिये का आदमी

वह देखो ! हाशिये का आदमी 
और उसके आगे वह काले रंग की लकीर 
जो हमारी व्यवस्था नें खींची है 
वह आदमी जड़ है, सिम्पटम से फ़कीर 
क्यूंकि जिस पायदान पर उसके पाँव ठहरे है 
वहाँ प्रशासन-व्यवस्था के सख़्त पहरे हैं. 


इस हाशिये के आदमी की कहानी बेहद रोचक है
राजनीति के लिए वह एक अदद वोट
और सत्ता के लिए एक आंकड़ा भर है 
सरकारी दस्तावेजों में वह 
किसी भयानक आपदा की माफिक दर्ज है. 


बे-ज़ुबान जिनावर, बे-गैरत साला !
धूल धक्काड़ से लदा हुआ पसीने वाला 
इसी पसीने में स्वयं को बोता है, काटता है
मेहरारू पर बल आजमाता है लेकिन 
जीवन भर मालिक के तलवे चाटता है. 


जरा सोचिये ! कहीं यह भूमिका अदल-बदल होती ?
तो आपकी दुनिया कितनी फक्कड़ होती
हमारे ख्वाब मर्सिडीज़ में पलते हैं 
और इनके इसके ख्वाब बहोत छोटे है
जितना छोटा गेंहू (के दाने) का अंकुर

वह देखो ! हाशिये का आदमी
फटी हुई कमीज़ को सिलना अपेक्षाकृत सरल है
किन्तु इस हाशिये को सिल पाना.. बेहद गरल I I






पटरीवाले

आज कई हफ़्तों के पश्चात्
हाट से खरीदी गुलाबी टोकरी हाथ में पकड़
एकदम पक्कावाला इरादा कर
आफ़िस और घर-बार की व्यस्तताओं से मुक्त होकर
साप्ताहिक बाज़ार गयी थी, कुछ सामान लाने
आज दिवाली या कोई त्यौहार तो नहीं था
प्रत्येक पखवाड़े रविवार को
मोहल्ले में होने वाली किट्टी पार्टी भी नहीं थी
फिर भी, मैंने माथे पर बड़ी सी बिंदी सजा ली थी
और ओठों पर गहरी लाली
मालूम नहीं क्यूँ !

बाज़ार भीड़ से पटा हुआ था
प्रत्येक व्यक्ति एक-दूसरे से सटा हुआ था
अभी जरुरत का कुछ एक सामान खरीदा ही था
अचानक ! मोटी-मोटी बूंदों वाली
झ-मा-झ-म बारिश शुरू हो गयी, मतवाली
मैं किसी तरह खुद को संभालती
गिरती-पड़ती, सैंडल की नोक से बूंदों को उछालती
स्ट्रीट-लाईट की रोशनी के नीचे सुस्ता रही
चार-पहियाँ गाड़ी में जा बैठीखुद से बोली
उफ्फ ! अब बरसात भी बे-मौसम आ जाया करती है
कमबख्त, बेवक्त आ गए महमान की तरह लगती है

खुद को बरसात से महफूज़ पाकर
गाड़ी की अगली सीट पर, भीतर आकर
मैंने एक गहरी लम्बी सांस ली और मुंह पौंछा
फिर अ-ना-या-स ही, खिड़की से बाहर झाँका
मेरी चार-पहियाँ से कोई तीन फीट आगा
देखा एक पटरीवाला सड़क फलांग कर भागा
वह भीजी हुई सड़क के उस पार
स्टेशनरी की दुकान के नीचे खड़ा हो गया
उसकी क-ठ-पु-त-लि-यों का दायरा कुछ बड़ा हो गया
क्योंकि उसे सामान के भीज जाने की फ़िक्र थी

मेरे सीधे हाथ पर लकड़ी के फाटक के पास
एक सब्जी वाली बाई सहमी खड़ी थी उ-दा-स
मेह के जोर से, किंकड़ी सी देह उसकी अकड़ी पड़ी थी
इधर, रेहड़ी पर सजी सब्जियां धुल रही थी
और उधर बाई के मन में कोई आशंका घुल रही था
माई की राह देखते बाल-बच्चे भूखे होंगे
बे-सबरी में आँखों से ढुलकते आंसू पीते होंगे
हे विधना ! कब होगा यह मेह खत्म ?
शायद, यही सोचती होगी !!

इसके बाद मन कोई और इ-मे-जि-ने-श-न नहीं कर पाया

बरसात की ब-ड़-ब-ड़ा-ती बूंदों के बीच
मैंने खुद को बेहद छोटा पाया
तुरंत-फुरंत चाबी घुमाई, सायरन बजाया
और चार-पहियाँ लेकर धीमी रफ़्तार से चल दी
बीच-बीच में कौंधती नीली बिजुरिया चमकती रही
रास्ते भर मेरे दिल-दिमाग में धमकती रही
बारिश की नरम बूँदें किसी के लिए सख्त भी हो सकती थीं
यही आ-वा-जा-ही विचारों में फुदकती रही
पटरीवालों की ठहरी हुई जिंदगी की वह पिक्चर रात भर
मेरी गीली आँखों में करवटें बदलती रहीं

सुबह-सवेरे आफ़िस जाने से पहले, नहाते हुए
बारिश की बूँदें कानों के अंदरूनी कोनों तलक ग्रामोफ़ोन की तरह बजती रहीं ..




हम सब अवसरवादी हैं 

उनके पसीने से आती
निर्मम सडांध
आपको इतनी तीखी लगती है, कि
उस गंध के बारे में सोचनें भर से ही
आपके मखमली नथुने
पैरों की बिवाईयों की भांति फट जाते हैं
दिमाग भि-न-भि-ना जाता है
और धमनियां लगभग काम करना बंद कर देती हैं

लेकिन फिर भी आप
फेसबुक-ट्विटर पर
और गली-मोहल्ले-कॉलेज की चर्चाओं में
'थर्ड -क्लास'के पक्ष में अपनी आवाज़ बुलंद करते हैं
प्रदर्शन के गंभीर पोज़
बेहद रो-मा-नि-य-त के साथ अपडेट करते हैं
प्रशंसा का और अधिक सुख लेने हेतु
कुछ चुनिन्दा 'फर्स्ट-क्लास'बुद्धि विक्रेताओं को टैग करते हैं

किन्तु आत्मतुष्टि की ये भंगिमाएं
स्व कर्तव्य बोध के अभाव में
उतनी ही बे-गैरत हैं, जितना 
गैर-जरूरी है प्रेस के लिए 
मजदूरों का किसी बंद पड़ी खदान में काम करते हुए
ठेकेदार-राज्य-प्रशासन की अव्यवस्था के मध्य 
दबकर, फंसकर, धंसकर अकेले मर जाना 

दरअसल, हम सब अवसरवादी हैं. 









गुब्बारे वाली 

गहन सांवली देह से 
चपला की भांति कौंधती 
उस पथिका की आँखों पर 
मेरी आँखें टिक गयीं 
जो भादो की उमस भरी दुपहरी में 
मोतीबाग फ़्लाईओवर के नीचे 
एयरपोर्ट की तरफ जाने वाली सड़क पर 
अपने सहोदर का हाथ पकड़ 
ट्रैफिक से बेफिक्र, गुब्बारे बेच रही थी 
सहोदर, जिसकी नाक लिसढ़ रही थी ... 


लाल बत्ती के रुकते ही वह स्टार्ट हो गयी     
और हमारी चौपहिया गाड़ी के शीशे पर 
अपना माथा सटाकर बोली - 'ले लो !'
मैंने इशारा किया -'दो पिंक वाले '
उसने झटपट गुब्बारे निकाले 
और मेरी तरफ बढ़ाते हुए बोली - 'आंटी बत्ती छूट रही है ! '
सोचिए  ! जिस लाल बत्ती पर 
एक मिनट भी काटना मुश्किल होता है 
कुछ लोगों का पूरा जीवन उसी पर भागते-दौड़ते 
ट्रैफिक की तरह गुजर जाता है. 

मैंने देखा, उसके दरदरे चेहरे पर         
दो खूबसूरत आँखें सुस्ता रहीं थी  
जिन्हें देखकर लगता था 
मेपल की सुर्ख लाल पत्तियों ने 
उसकी आइरिस से ही वह रंग सोखा होगा  
हफ्तों के गंदे उसके बाल 
एक लाल और दूसरे हरे रिब्बन में खोंसे हुए 
और उसके हाथों की वो मैल भरी पपड़ियां 
जो छूटने की तैयारी कर रही थीं 
जैसे गुब्बारे छूट जाना चाहते हैं मुक्ताकाश में ... 


हरी बत्ती होते ही वह लड़की 
कहीं पीछे छूट गई 
लेकिन वह छूटना तो कोई भ्रम था 
उसकी आँखों में तैरता वह बरगंडी रंग अब मेरी आँखों में जम चुका था. 



प्रेम एक पहेली 

प्रेम को परिभाषित करना 
ऐसा है जैसे अंनत के समक्ष 
एक रेडीमेड लकीर खींच देना
मेरे लिए प्रेम सृजन है
प्रेम 'रचने की प्रक्रिया'में होने वाली पीड़ा है

प्रेम प्रकृति की गंध है 
प्रेम मानव होने की भूख है
प्रेम का अभाव जीवन को 
अंधकारमय बनाता है
दरअसल, प्रेम मनुष्य के अर्थवान होने की कोशिश है

प्रेम आत्मा का उर्स है
प्रेम मन का उत्सव है
प्रेम देह का विस्तार है
प्रेम एकाधिकार माँगता है 
किंतु, वह ऐसे आग्रहों से मुक्त भी करता है. 

प्रेम मन का धीरज है 
प्रेम यौवन का अधीर है
प्रेम हिंसा का अभाव है 
इसलिए प्रेम से रिक्त मन 
इस सम्पूर्ण संसार को नष्ट कर देने को काफी है

प्रेम से रीता जीवन 
और प्रेम से खाली मृत्यु 
सबसे बड़ा अभिशाप है.





बारिश की बूँदें

बारिश बिल्कुल सीधी पड़ रही है
और मेह की यह सरसता
ह्रदय के उन्मांदी वातावरण में
मोती सी जड़ रही है

बूंदों की सफ़ेद झालर से झांकते
हवा के तेज़ झोंकों से कूदते-फांदते
तनी हुई शाख पर लदे
नीम के ये पंक्तिबद्द पत्ते
जैसे हरीतिमा के छोटे-छोटे छत्ते

और तेईस डिग्री के कोण पर झुकी
सामने दिख रही वह टहनी
किसी नवयौवना सी सहमी
फागुन के रंगों की तरह मनभावन लग रही है

मैनें बूंदों की देह में
झाँकने की एक असफल कोशिश की
क्यूंकि वहां कोई देह नहीं थी
किसी प्रकाश पुंज की भांति
प्रस्फुटित होता एक संवेदन था

घर से विदा होते सावन की
इस चमकीली-भड़कीली बारिश में
आज मेरा मन पसीजा था
वह कुछ और अधिक भीजा था

मन अब रिक्त नहीं था
उसकी प्राचीन दरारों से एक अंकुरण फूटा था
मेरे ह्रदय की तिलमिलाई हुई 
रणभूमि पर 
संस्कार की एक ताज़ा पौध खिली थी. 






विलाप  (डिप्रेशन)

दिमाग में घने अंधेरों नें 
कसकर पाँव जमा रखे हैं 
एक भी सुराख़ नहीं है 
जो छटांक भर रोशनी को भीतर आने दे
सांसे लगभग जम चुकी हैं
आत्मा ठि-ठ-की हुई है
आशाओं पर धूल की मोटी परत उग आई है
और फेफड़ों का मेकेनिज्म धीमा पड़ रहा है

कोई अनचाहा कलाकार
जिसकी उलझी हुई सी सूरत 
किसी घुसपैठिये की तरह मालूम होती है
वह मेरी समस्त संवेदनाओं की सूची बनाकर
उन पर बहुत बेफिक्री से कूची चला रहा है
और मेरे मस्तिष्क के शून्य का पोर-पोर 
अपने संवेदनहीन शुष्क रंगों से
ता-ब-ड़-तो-ड़ रंगता जा रहा है

बचपन वाले सिनेमास्कोप के काले डिब्बे में 
एक चलचित्र घिसट रहा है
जहाँ एक अजनबी के खुरदरे हाथ
मेरा 'फाहे सा मन'कुतर रहे हैं
मेरी देह किसी खुरदरी सड़क पर
लगातार रगड़ खा रही है
आह! मैं एक टूटी हुई जल-तरंग की भांति
अपने अंतर्मन में सिसक रही हूँ..

यह कौन है ?

जो मेरे प्रेम भरे हृदय में विलाप कर रहा है ??

______

चंद्रकांता की कविताएँ
बजरंग बिहारी तिवारी
    

कविता आत्मशोध है. आत्मशोध स्व की तलाश है और उसका शोधन भी. छानना या परिष्कार करना शोधन है. आत्म संधान बहुधा स्व के अर्जन में देखा-समझा जाता है. स्व का अर्जन देश-काल-परिस्थिति से गुजरते हुए होता है. कवि की सजगता अर्जित किए जा रहे स्व को देश-काल-परिस्थिति की विराटता और सातत्य से जोड़े रखती है तथा उसकी संकीर्णताओं व छद्मों से मुक्त करती है. असमानता आधारित व्यवस्थाएँ पहले स्व को हड़पती हैं फिर उसे गायब कर देती हैं. आत्मान्वेषण में लगे कवि को हम इसीलिए कोटरों, खोहों, कंदराओं में भटकता पाते हैं. वह यथार्थ की दीवारें पार करता है, दुःस्वप्नों की दुनिया में जूझता है और सत्तातंत्र की तरफ से प्रदान किए जा रहे चमकते, खोखले नकली आत्म से बावस्ता होता है, आगाह करता है. ऐसे आत्म का विलय वांछित है जो अहमन्यता उपजाए, अन्यों से विछिन्न कर दे और दोहरेपन की सीख दे.

संस्कृति में अस्मितावादी आंदोलन तथा साहित्य में अस्मितामूलक स्वर का उभार आत्मार्जन और आत्मपरिशोधन को अपना प्रमुख कार्यभार मानता है. वर्ण-जाति व्यवस्था ने असहज, अस्वस्थ, अतिवादी आत्म तैयार किए. एक आत्म का अधिमूल्यन किया तो दूसरे का अवमूल्यन. एक में दंभ भरा तो दूसरे में हीनता. दोनों ही रोगी आत्म थे. प्रेम करने और प्रेम पाने की पात्रता से रहित. संत कवियों ने इस रोग को पहचाना था तथा उसे सहज-स्वस्थ बनाने की कोशिश की थी.

दलित कवियों की पहली पीढ़ी में आत्म को लेकर जो चौकन्नापन है, अतिरिक्त आक्रामकता है वह इसी थोपी हुई न्यूनता से उबरने की चेष्टा का परिणाम है. निर्वासित आत्म के पुनर्वास की दो पूर्वशर्तें थीं- अवरुद्ध कंटकाकीर्ण जातिवादी मार्ग को पहचानते, उससे बचते हुए सम्यक आत्मबोध का पथ प्रशस्त करना और एकल आत्म को जाग्रत सामूहिक आत्म से जोड़ना. इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए राजनीतिक-सांस्कृतिक दलित मूवमेंट तथा दलित साहित्यान्दोलन ने मिलकर काम किया. दलित आत्मकथाएँ दलित आंदोलन की पीठिका पर ही लिखी जा सकती थीं. पहले फुले फिर आंबेडकर की सघन क्रियाशीलता और जागरण अभियान के बदौलत ही परवर्ती दलित आंदोलन इतना ऊर्जावान बनता है. आत्मकथाओं में जो दलित आत्म दिखते हैं वे बेहद मजबूत, मुखर तथा संघर्षशील हैं. इस मजबूती में कुछ तो लेखक की सर्जनात्मकता का योगदान है किंतु बहुत कुछ आंदोलन का.
    
तमाम दुश्वारियों से जूझते हुए दलित साहित्यान्दोलन ने अपने स्व को करीब-करीब हासिल किया. यह कहना कठिन है कि नवायत्त आत्म मनोवांछित स्व के कितना समीप पहुँच पाया. जिस वर्चस्ववादी परिवेश में वह आत्म इतनी लंबी अवधि तक रहा था उसका पीछा इतनी आसानी से कहाँ छूटने वाला था! वर्ण-जाति के लवालच्छ अभी निश्चिन्ह नहीं हुए थे. आत्म-परिशोधन की छननी को निरंतर बदले जाने, अद्यतन किए जाने की आवश्यकता थी. स्वार्जन और स्व-निर्माण की प्रक्रिया में मौजूद खामियों पर तब रोशनी पड़ी जब दलित स्त्रियों ने उस आत्म पर निगाह डाली. विशेषाधिकार के जिस दूषण से दलित आत्म को मुक्त होना था वह जेंडर के मामले में अभी तक ठहरा हुआ था. मर्द होने की ठसक उसे जातिबोध तथा वर्गबोध की तरफ ठेल दे रही थी. इस आत्म को अभी कई प्रक्रियाओं और पड़ावों से गुजरना शेष था लेकिन तात्कालिक मांग पुरुषत्व के दंभ से छुटकारा पाने की थी.

दलित स्त्रियों ने इस मांग को पूरी संवेदनशीलता तथा प्रामाणिकता के साथ उठाया. नवार्जित आत्म में मौजूद हिंसा की पहचान उन्होंने कराई.  ‘मैं, केवल मैं’ को आत्मबोध में विकृति उपजाने वाला तथा परिवर्तन अभियान हेतु घातक बताया. मैं-वाद के नतीजों को समाज के सामने लाते हुए हिंदी की प्रथम दलित स्त्रीवादी रचनाकार रजनी तिलक ने अपने संग्रह ‘हवा सी बेचैन युवतियाँ’ की पहली कविता ही इस समस्या को समर्पित की. इस कविता का शीर्षक ‘संवेदना’ है-

संवेदना
चेतना
प्रतिबद्धता
ख़ाक हो जाती है
जब मैं और मैं
खुद पर
हावी हो जाता है
वह हवा में
खुशबू की तरह
नहीं
गटर में बदबू की तरह
नष्ट कर देती है
संवेदना, चेतना, प्रतिबद्धता
    
चंद्रकांता कई कोणों से इस आत्म का परीक्षण करती हैं. हिंसा से छुटकारा पाने के क्रम में जिस आत्म को अस्मितावाद ने पाना चाहा था वह प्रोजेक्ट ठिठका हुआ है और दूषित आत्म ही अभी गतिशील है. ‘हाशिये का आदमी’ कविता में चंद्रकांता विभाजित आत्म का मुद्दा उठाती हैं. आक्रोश भरे शब्दों में वे बताती हैं-

बे-जुबान जिनावर, बे-गैरत साला!
धूल धक्काड़ से लदा हुआ पसीने वाला
इसी पसीने में स्वयं को बोता है, काटता है
मेहरारू पर बल आजमाता है लेकिन
जीवन भर मालिक के तलवे चाटता है.
.

वह देखो! हाशिये का आदमी
फटी हुई कमीज को सिलना अपेक्षाकृत सरल है
किंतु इस हाशिये को सिल पाना...

जेंडर असंवेदनशील आत्म सबसे ज्यादा प्रेम संबंध में नज़र आता, खलता है. उस स्त्री के लिए असहनीय जो जाग्रत आत्म वाली है. जिसने बहुत कुछ दाँव पर लगाकर यह आत्म अर्जित किया है-

मैंने तुमको क्यों चुना?
तुम मेरी दुनिया के सबसे आकर्षक मर्द नहीं थे
सबसे जवाँ भी नहीं
तुम्हें चुना था, क्योंकि
तुममें गंध महसूस की थी
एक औरत का सम्मान कर पाने की...

किंतु, तुम्हारे उन महफूज हाथों में
मैंने अपना आत्म-सम्मान खो दिया
वह आशाएं
खो दीं
जिन्हें एक औसत स्त्री
अपना सर्वस्व दाँव पर लगाकर
पाने की उम्मीद रखती है...
    
आत्मचेतस रचनाकार मात्र सामने वाले के स्व की छानबीन नहीं करता, वह अपने स्व को भी जाँचता, माँजता चलता है. जाँचने और माँजने की प्रक्रिया प्रेम संबंधों के बनने-बढ़ने के क्षणों में घनीभूत होती है. इसी दौरान परंपरा से मिले पूर्वग्रही संस्कार अपना सर उठाते हैं. इसी दौरान स्वार्थ और असुरक्षा की घेरेबंदी में दुबका आत्म (अन्यथा आत्मीय) ‘अन्य’ से सब कुछ माँगता है लेकिन स्वयं कुछ त्यागने को तैयार नहीं होता. चंद्रकांता प्रेम को एक अवसर के रूप में देखती हैं. ऐसा अवसर जब आत्म में छिपे अहम को पहचाना और फरियाया जा सकता है. जब तक यह अहम रहेगा तब तक स्व की सहजता बाधित रहेगी. चंद्रकांता आह्वान करती हैं-

आओ प्रीत की
एक कमसिन बूँद लेकर
शृंगार करें उन
उनींदे पलछिनों का
जो सदियों से
पराजित होते रहे हैं
तुम्हारे-मेरे अहम की द्यूत-क्रीड़ा में

अपने मैले हो चुके
स्व को टांग दें
समर्पण की खूँटी पर
और सुनहली धूप के
रेशमी धागों से
पुनः रचें एक नवजीवन.
    
ताजा-ताजा अर्जित दलित आत्म में खरोंचें कम न थीं. इन्हें पूरने में समय लगना था. खरोंच को घाव में बदलने की कोशिशें भी होती रहती थीं. अब भी हो रही हैं. इसका असर लेखन पर पड़ना था. युद्ध की शब्दावली का आधिक्य इसी असर में हुआ. एक तरफ हमलावर तेवर तो दूसरी तरफ उत्पीड़न का दर्द. एक सिरे पर संघर्ष का उच्च स्वर तो दूसरे सिरे पर विषाद की मद्धिम आवाज. इस साहित्य पर कन्नड़ के वरिष्ठ दलित लेखक मोगल्ली गणेश की टिप्पणी थी कि दलित लेखन मानों लंबा शिकायती पत्र है. शिकायती पत्र में प्रसन्नतासूचक अभिव्यक्तियाँ नहीं होतीं. सिर्फ अपनी पीड़ा का बयान किया जाता है.

मोगल्ली गणेश ने पूछा कि दलित जीवन में आनंद के क्षण गायब क्यों हैं? हम किससे सहानुभूति की आशा रख रहे हैं? ऐसा चयनधर्मी लेखन कब तक होगा? चयनधर्मी लेखन का यह सिलसिला उन्होंने और उनके जैसे कुछ अन्य रचनाकारों ने तोड़ना चाहा. उन्हें आंशिक सफलता भी मिली. मगर, इस सिलसिले को टूटने के लिए परिदृश्य में बड़े पैमाने पर दलित स्त्रियों का आना लाजिमी था.

चंद्रकांता की कविता में जीवनोत्सव की छवियाँ भरपूर हैं और उन्हें इस बायस से भी पढ़ा जा सकता है. सहज जीवनोल्लास की कविता वर्चस्ववादियों को असहज करती है. विजयोल्लास का गीत उन्हें असहज नहीं करता. चंद्रकांता की कवि दृष्टि मामूली चीजों में खुशियाँ तलाश लेती है, रोजमर्रा की साधारण घटनाओं से रससिक्त हो जा सकती है. किसी सखी का स्नेहिल स्पर्श, छोटी बच्चियों का आपसी लेन-देन, बूँद जैसे सपने, रसोईघर में प्रियतम की उपस्थिति, किसी आत्मीय की बेसबब आई याद ये सब जीवनानंद के हेतु हो सकते हैं. लेकिन, कवि के उल्लास का सबसे बड़ा हेतु प्रकृति है, नैसर्गिक दृश्य हैं. पहली पीढ़ी के दलित कवि की निगाह इस तरफ जाती भी थी तो उसमें कोई स्पंदन होता था, इसका साक्ष्य उसकी कविताएँ नहीं देतीं. चंद्रकांता ऐसी प्रसन्नताकारक दृश्यावली यों पेश करती हैं-

ये स्याह गुलाबी मौसम
नभचर मस्ती में झूमें
ये शोख उनीदीं शाखें
पाखी सी थिरकती बूँदें
कहीं हरीतिमा के छत्ते
नवयौवन पर इतराते
कहीं सूखे पीले पत्ते
वसुधा को अंग लगाते
फूलों से छिटकती रश्मि
सुर्ख पलाश म-न-ब-सि-या
मिट्टी नीरद का मरासिम
चाँदी सी निखरती शबनम
गुलशन सी महकती साँसें
बरखा संग झरती कलियाँ
व्योम पर खिलते किसलय
और चाँद की अल्हड़ साजिश
सावन का यह प्रथम बसंत
रेशम के धागे सा मन
पोर-पोर को भिगो रहा है
यह प्रीत का मूक निमंत्रण
    
दलित कविता से दलित स्त्री कविता जिन वजहों से भिन्न हुई उन्हें समझे बिना अब दोनों की ही ठीक से व्याख्या न की जा सकेगी. दलित स्त्री रचनाकारों ने यह कमी रेखांकित की थी कि दलित कवि उनके अनुभवों, उनकी व्यथाओं, उनकी प्राथमिकताओं को अपनी रचनाओं का विषय नहीं बना रहे हैं. एक तो उन पर दबाव अलग तरह के हैं दूसरे उनकी चिंताओं में भी दलित स्त्री मुख्य नहीं. वे बलात्कार को अपनी कविता का विषय बनाते अवश्य हैं लेकिन बलात्कार उनके लिए अस्मिताई या कौमी समस्या है. बलात्कृता स्त्री बतौर व्यक्ति उनकी चिंता के केन्द्र में नहीं होती. इसी तरह वे सामाजिक जनतंत्र की माँग करते हुए यह विस्मृत कर दे सकते हैं कि परिवार के ढाँचे में पसरी तानाशाही भी गंभीर मुद्दा है. स्त्री-पुरुष संबंधों में गुँथी हायरार्की कई बार अनदेखी चली जाती है. विवाहादि महत्त्वपूर्ण निर्णयों में दलित स्त्री का पक्ष उनसे उपेक्षित रह जाता है.

भाषा प्रयोगों में रची-बसी स्त्री अवमानना पर वे शायद ही आक्रोशित होते हों... दलित स्त्री कविता ने इन सब बिन्दुओं को न केवल रेखांकित किया अपितु उसे अपनी कविता में प्रमुखता दी. जातिगत भेदभाव का प्रश्न भी दलित स्त्री रचनाकारों ने पूरी शिद्दत से बराबर उठाया. चंद्रकांता की कविताएँ इसकी गवाही देती हैं.

वे स्त्री होने को स्वराज का प्रश्न मानती हैं. ‘मर्यादा’ संस्कृति का बड़ा लुभावना शब्द है, प्रत्यय है. चंद्रकांता कहती हैं कि जब तक ये मर्यादाएँ हैं, स्त्री अपना स्वत्व नहीं प्राप्त कर सकती. मर्यादा मुक्ति और मुक्ति की आकांक्षा- दोनों को संभव नहीं होने देती. देह पर अधिकार का सवाल महत्त्वपूर्ण है लेकिन यह तब हासिल होगा जब उसके पहले की चीजें हल हो जाएंगी और नैतिकता के अभेद्य बंधनों को तोड़कर खाने-पहनने-ओढ़ने का हक पा लिया जाएगा. धर्म स्त्री मुक्ति में कम बड़ी रुकावट नहीं. धर्म की ध्वजा उठाए सद् जन ऐसी स्त्री को ही मान्यता देते हैं जो न बोले और न प्रतिक्रिया दे-

“एक मूक-बधिर स्त्री
सद्जनों में प्रशंसनीय है, प्रिय है
एक स्त्री को पुरुष के अधिनायकत्व हेतु
ठीक वैसे ही तोड़ा जाता है
जैसे प्रकृति के तंतुओं को
मानव सभ्यता के विकास हेतु
बेहद निर्ममता से उधेड़ा जाता है.”

जो धर्म को दृढ़ता का पर्याय मानते हैं वे गलत हैं. धर्म अपने लिजलिजे लचीलेपन के कारण बना रहा है. वह हर युग के सत्ताधारियों से सांठ-गांठ करता आया है. न्याय-अन्याय के प्रश्नों में उलझने से ज्यादा उसे बलशाली की शरण में जाना, उनका मुखापेक्षी होना सुहाता है. सभी समाजों की स्त्रियों, सभी समाजों के वंचितों के प्रति धर्म का एक-सा रवैया रहा है-

धर्म स्त्री को वस्तु मानता है
धर्म तासीर में पूँजीवादी है
धर्म धूर्त पंडा है
धर्म बदचलन नमाजी है
धर्म कुत्सित पुरुष है...
    
पाषाण (देव प्रतिमा) को समर्पित पाषाणी (देवदासी) को संबोधित अपनी कविता ‘पाषाणी’ में चंद्रकांता पुनः धर्माधारित व्यवस्था की सड़ांध से मुखातिब होती हैं-

“ओढ़ी-बिछाई सुलगाई
जाती हो हर रजनी-प्रभात, बसंत
फिर उघाड़ी-उधेड़ी मैली कर
बना दी जाती हो पाषाण, निष्प्राण
सि-ल-सि-ले-वा-र अथक अनवरत
तुम्हारे पसीजे हुए, भीजे
अंतःवस्त्रों से आती यह सड़ांध
सांस्कृतिक षड्यंत्र के ये भग्न-अवशेष”.

पाषाणी से संवाद करते-करते कविता का स्वर प्रबोधन वाला हो जाता है, विद्रोह की सीख देता-

क्यों नहीं लांघ देती, वर्जना
के ये ऊँचे टीले, दरख़्त कंटीले
जिन्होंने तुम्हारे धवल स्त्रीत्व को
विजित-पराजित धूल-धूसरित
निःशक्त रेत कर दिया है
...     ...     ...
सुनो! ध्वस्त कर दो
उन सभी विधि-शब्दकोशों को
नियम-अधिनियमों को पराधीनता के
जो तुम्हें रचते हैं गढ़ते हैं बाँधते हैं, किंतु
तुम्हारी परिभाषा को उन्मुक्त, स्त्री नहीं होने देते.
    
बलात्कार की घटना को कविता में ढाल पाना खासा मुश्किल है. ऐसी कविताएँ अक्सर सपाट आक्रोश की भाषा में ही लिखी जाती हैं. दलित कविता में इसे अस्मिता के मान-मर्दन का मुद्दा बनाकर पेश किया जाता है जो स्वाभाविक है और वाजिब भी. इसमें सामुदायिक आक्रोश तो भलीभांति प्रकट हो जाता है लेकिन बलात्कृता के अंतर्मन की कोई टोह नहीं मिलती. चंद्रकांता की काव्य-संवेदना इसे चुनौती की तरह लेती प्रतीत होती है. वे क्रोध, करुणा और कविता का ऐसा रसायन तैयार करती हैं कि चित्र की स्थूलता गायब हो जाती है साथ ही मर्मांतक पीड़ा पर कला का आवरण भी नहीं पड़ता-

गीली उदास खिड़की
ताक रही थी
झोपड़ी के भीतर, सहमी सी
होकर प्राणहीन निःश्वास
उस अवरुद्ध मौन को, अपलक
जो मरजाद की कोख से जन्मा था

मेघों की
दूर तलक कोई
सुध सु-ग-बु-गा-ह-ट न थी
फिर भी ईंटों पर सीलन उभर आई थी
कल रात यहाँ तीसरे पहर
इक अल्हड़ नदी टूटी-फूटी जो थी
    
एक अन्य कविता ‘दुःस्वप्न’ में वे बलात्कार की विभीषिका दर्शाने के लिए अलग तरकीब अपनाती हैं. यहाँ दुष्कृत्य सपने में घटित होता है. प्रसंग की भयावहता क्षीण नहीं होने पाती और कविता का स्वभाव भी अक्षुण्ण रहता है-

रजनी की स्वप्न-बेला में, आज
मेरे हिस्से वह निर्वस्त्र औरत आयी
जिसके पंख कुक्कुट की तरह
उधेड़ दिए गए थे
बेतहाशा पड़ी थी वह
पछाड़ खाई सड़क के एक
दागदार, सीलन भरे कोने पर
मैंने काँपते हाथों से
उसकी अर्ध-नग्न देह को छुआ
उसमें कहीं कोई सिहरन न थी
...     ...     ...
छिड़कती रही नमक
नम-सी दीवारों पर
चुरा लेने को उस भीत की उमस
जिसे कभी मैंने अपने सपनों से लीपा था.
    



बतौर रचनाकार चंद्रकांता का रेंज बड़ा है. उन्हें किसी एक सरणि अथवा कोटि में सीमित करके देखना ठीक नहीं. वे हाशिए पर धकेल दी गई कराहती मानवता का दर्द सुनती हैं. वे यथार्थ की ऊपरी परत भेदकर सच के स्रोत तक पहुँचने का जतन करती हैं. जिन्हें हाशिए से भी बाहर रखा गया है उन समूहों, इंसानों तक उनकी निगाह जाती है. पटरी वाले, मजदूर तो उनके यहाँ हैं ही, गुब्बारे वाली, कूड़े वाली, भीख माँगने वाली भी उनके काव्य सरोकारों का हिस्सा हैं. उनकी कविताओं में आक्रोश को जितना स्पेस मिलता है उससे कहीं ज्यादा प्रेम को. और, ये दोनों भाव परस्पर असम्बद्ध होकर नहीं आए हैं. यही उनके काव्य-सामर्थ्य का सबूत है. अभी यह उनका पहला संग्रह है. उनकी तैयारी, सरोकार, धीरज और संलग्नता आश्वस्त कर रही है कि उनकी कविताएँ निरंतर बेहतरीन होती जाएँगी. नीचे उनके काव्य-शिल्प की कुछ बानगियाँ इस आश्वस्ति के आधार के तौर पर पढ़ी जा सकती हैं-

अलिफ़-लाम की सीढ़ी पर नहीं
तेरी चमड़ी के माप-तौल से
बढ़ता है सूचकांक
इस रंडीखाने का (‘रंडी की छोकरी’)

कल निशा के तीसरे पहर
नींद की खिड़की के उस पार
तकिए पर एक स्वप्न जाग रहा था (‘एक स्त्री का स्वप्न’)

धार्या! तुम्हारा अस्तित्व
योनि की निर्मम रक्त वाहिनियों और शिराओं के स्खलित संकुचन का
बंदी नहीं है
न ही वह पराश्रित है शिश्न के सेतु का (‘प्रकृति की नायिका’)

उसकी दियासलाई-सी आँखों से
गुमशुदा थे ख्वाब (‘भीख’)
ज्यों श्याम मेघों से
लड़ती-झगड़ती हो
कोई सूनी बावड़ी (‘स्मृत है! प्रिय’)
    
उम्मीद करता हूँ कि व्यापक पाठक-वर्ग तक चंद्रकांता की कविताएं पहुँचेंगी. पढ़ी जाएंगी. विमर्श का हिस्सा बनेंगी.

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चन्द्रकांता

दिल्ली में पैदाइश
इतिहास में विवेकानंद कॉलेज दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक, इंदिरा गाँधी ओपन यूनिवर्सिटी से समाजशास्त्र (एम. ए.) और ग्रामीण विकास व मानव अधिकार में स्नातकोत्तर डिप्लोमा.

कुछ कविताएँ यत्र-तत्र प्रकाशित.

पहले कविता संग्रह ‘एक दीवार की कथा’ के प्रकाशन की उम्मीद.
chandrakanta.80@gmail.com 

राही मासूम रज़ा और टोपी शुक्ला : ज़ुबैर आलम

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राही मासूम रज़ा का उपन्यास ‘आधा-गाँव’ हिंदी के श्रेष्ठ उपन्यासों में से एक है. उनका उपन्यास ‘टोपी शुक्ला’ भी चर्चित रहा है. शोध छात्र ज़ुबैर आलम इस उपन्यास की चर्चा कर रहें हैं.






राही मासूम रज़ा और टोपी शुक्ला”                             
(विभाजन और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविधालय के विशेष संदर्भ में)
ज़ुबैर आलम


राही मासूम रज़ा का नाम उर्दू-हिन्दी दोनों भाषाओं के लिखने वालों में सम्मान के साथ लिया जाता है. उनका जन्म गाज़ीपुर ज़िले के गंगौली गांव में हुआ था और प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा गंगा नदी के किनारे बसे गाज़ीपुर शहर के एक मुहल्ले में हुई थी. बचपन में पैर में पोलियो हो जाने के कारण उनकी पढ़ाई कुछ सालों के लिए छूट गयी, लेकिन इंटरमीडियट करने के बाद वह अलीगढ़ आ गये और यहीं से एम. ए. करने के बाद उर्दू साहित्य में दास्तान ‘तिलिस्म-ए-होशरुबा'पर पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की. पीएच.डी. करने के बाद राही अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग में प्राध्यापक हो गये और अलीगढ़ के ही एक मुहल्ले बदरबाग में रहने लगे. अलीगढ़ में रहते हुये ही राही साम्यवादी विचार धारा से प्रभावित हुये और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य हो गये थे.


लगभग 1967 से राही बम्बई में रहने लगे थे. वे अपनी साहित्यिक गतिविधियों के साथ-साथ फिल्मों के लिए भी लिखते थे जो उनकी जीविका का प्रश्न बन गया था. राही स्पष्टतावादी व्यक्ति थे और अपने धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रीय दृष्टिकोण के कारण अत्यन्त लोकप्रिय हो गए थे. आधा गाँव, नीम का पेड़, कटरा बी आरज़ू, टोपी शुक्ला वगैरह उनके प्रसिद्ध उपन्यास हैं.

राही मासूम रज़ा ने किस आधार पर उर्दू में लिखने के बजाये हिन्दी में लिखना पसंद किया इस बारे में मेरे पास कोई ठोस जानकारी नहीं पर यह अवश्य कहा जा सकता है कि बावजूद देवनागरी लिपि में लिखने के वह अपनी कहानियों में उर्दू के प्रभाव से बच नही सके. शायद यह मामला उनकी शिक्षा दीक्षा के माध्यम से संबंधित है. चूँकि अभी मुझे उनके देवनागरी में लिखे गये उपन्यास टोपी शुक्लापर बात करनी है इसलिये दूसरी बातों को जानबूझ कर छोड़ा जा रहा है.

टोपी शुक्लानाम के इस उपन्यास को पहली बार 1977 में प्रकाशित किया गया. अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविधालय को केन्द्र में रख कर लिखे गये इस उपन्यास में उपन्यासकार ने बनारस के रहने वाले बल भद्र नारायण शुक्ला नाम के एक छात्र को उपन्यास का हीरो बनाया है. इस नायक के ज़रिये से उपन्यासकार ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविधालय के वातावरण को उभारा है. साथ ही फ्लेश बैक की तकनीक के माध्यम से हीरो के जन्म स्थान, उसके बचपन और लड़कपन के दौरान घटित घटनाओं के माध्यम से आज़ादी से पहले के अविभाजित भारत के पूरे वातावरण को उपन्यास में समेट लिया है.

आइये देखते हैं कि बनारस के रहने वाले बल भद्र नारायण अलीगढ़ पहुँच कर किस प्रकार अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविधालय के वातावरण में टोपी शुक्लाबनते हैं:

बात यह है कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविधालय जहाँ मट्टी, मक्खी, मटरी के बिस्कुट, मक्खन और मोलवी के लिये प्रसिद्ध है वहीं तरह तरह के नाम रखने के लिये भी प्रसिद्ध है. एक साहब थे उस्ताद छुवारा (जो किसी निकाह में लुटाये नहीं गये शायद) एक थे इक़बाल हेडेक. एक थे इक़बाल हारामी. एक थे इक़बाल खाली. खाली इसलिये कि बाक़ी तमाम इक़बालों के साथ कुछ ना कुछ लगा हुआ था. अगर इनके नाम के साथ कुछ ना जोड़ा जाता तो यह बुरा मानते. इसलिये यह इक़बाल खाली कहे जाने लगे. भूगोल के एक टीचर का नाम बहरुल काहलरख दिया गया. यह टीचर कोई काम तेज़ी से नहीं कर सकते थे. इसलिये उन्हे काहली का सागर कहा गया. भूगोल के ही एक और टीचर सिगार हुसैन जैदी कहे गये कि उन्हे एक जमाने में सिगार का शौक् चर्राया था........बल भद्र नारायण शुक्ला भी इसी सिलसिले की एक कड़ी थे. यह टोपी कहे जाने लगे.बात यह है कि विश्वविधालय यूनियन में नंगे सर बोलने की परम्परा नहीं है. टोपी को ज़िद कि में तो टोपी नहीं पहनूंगा. इसलिये होता यह है कि यह जैसे ही बोलने खड़े होते हैं सारा यूनियन हाल एक साथ टोपी टोपी का नारा लगाने लगता है. धीरे धीरे टोपी और बल भद्र नारायण का रिश्ता गहरा होने लगा. नतीजा यह हुआ कि बल भद्र नारायण को छोड़ दिया गया और उन्हे टोपी शुक्ला कहा जाने लगा. फिर गहरे दोस्तों ने शुक्ला की पंख भी हटा दी और यह सिर्फ टोपी हो गये.” (1)

जीवनी के अंदाज़ में लिखा गया यह उपन्यास विभाजन के कुछ साल पहले से शुरू हो कर विभाजन के बाद की एक दहाई पर फैला हुआ है. कहानी कभी फ्लैश बैक में चलती है तो कभी वर्तमान में, इस प्रकार  वर्तमान से भूतकाल और भूतकाल से वर्तमान में आने जाने का सिलसिला चलता रहता है. उपन्यासकार ने उपन्यास के हीरो टोपी के आस-पास की घटनाओं से उपन्यास का सारा ताना बाना बुना है और प्रमुख्ता से हीरो के व्यक्तित्व के विकास में जो कारक ज़िम्मेदार रहे हैं उनको उभारा है. इस प्रयास में उसने हीरो के साथ दूसरे सहायक नायकों को भी उभारा है लेकिन उनकी हैसियत सिर्फ यह है कि वे घटनाओं और डायलाग के ज़रिये हीरो के नज़रिये को उभारें.

दूसरे शब्दो में कह सकते हैं कि बल भद्र नारायण उर्फ टोपी शुक्ला तो एक आईना है और आईने का काम यह है कि वह सामने वाले को उसका असली चेहरा दिखा दे. इस उपन्यास में राही मासूम रज़ा ने इस आईने की तकनीक की सारी संभावनाओ को काम में लाते हुये अपने उद्देश्य की ओर कदम बढ़ाया है.

उपन्यासकार ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविधालय को केन्द्र क्यों बनाया है? अगर इस सवाल को कुछ देर के लिये छोड़ भी दें तो क्या अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविधालय में उस समय एक हिन्दू वह भी ब्राह्मण छात्र को शिक्षा ग्रहण करते हुये दिखाया जाना और उसी को हीरो बनाने के पीछे उपन्यासकार का कोई उद्देश्य काम नहीं कर रहा है?

सच यह है कि उपन्यासकार ने इस के माध्यम से बीसवीं सदी की चौथी दहाई के अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविधालय की सारी गतिविधियों को क़ैद करने का प्रयास किया है क्योंकि इसका प्रभाव सीधे भारत की सियासत पर पड़ रहा था. यह कहा जाये तो सही होगा कि उस समय अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविधालय एक प्रकार का मिनिच्यर (Miniature) बन गया था जहां शिक्षा ग्रहण करने के लिए देश के अलग-अलग हिस्सों से आने वाले छात्र पूरे देश की नुमाइन्दगी कर रहे थे. अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविधालय से जुड़े हुये लोग अपने अपने स्तर पर देश में हो रही अलग अलग गतविधियों के सन्दर्भ में अपने विचार रख रहे थे और देश भर के आंदोलनों को भी ले कर मुखर थे. उस समय अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविधालय में मुस्लिम लीग से जुड़े छात्र अधिक थे तो कांग्रेसी छात्र भी मौजूद थे. वामपंथी छात्रो का भी दबदबा था. इसी संदर्भ में उपन्यासकार ने बल भद्र नारायण उर्फ टोपी शुक्ला के लड़कपन की और आज़ादी से पहले के भारत की एक और पार्टी का परिचय इस तरह कराया है:

इन्हीं दिनों वह कुछ नए लोगों से भी मिला. यह लोग सुबह सुबह लड़कों को इकट्ठा करके लकड़ी सिखलाते, कुश्ती लड़वाते,परेड करवाते और उनसे बातें करते. टोपी अचानक उनके पास चला गया. हाथों हाथ लिया गया. फिर जब उसे पता चला कि यह वह पार्टी है जिसने गांधी जी को मारा है तो उसे बड़ा डर लगा. लेकिन वह उन लोगों से मिलता रहा. उन्हीं लोगों से उसे पहले पहल पता चला कि मुसलमानों ने किस तरह देश को सत्यानाश किया है. देश भर में जितनी मस्जिदें हैं वो मंदिरों को तोड़ कर बनाई गयी हैं (टोपी को यह मानने में ज़रा शक था, क्योंकि शहर की दो मस्जिदें तो उसके सामने बनी थीं और कोई मंदिर वंदिर नहीं तोड़ा गया था) गौ हत्या तो मुसलमानों का ख़ास शौक है. फिर उन्होने देश का बटवारा कराया है. पंजाब और बंगाल में लाखों हिन्दू बूढ़ो और बच्चों को बेदर्दी से मारा. औरतों की इज़्ज़त लूटी और क्या क्या नहीं किया इन मुसलमनों ने. यह जब तक देश में हैं देश का कल्याण नहीं हो सकता. इसलिये मुसलमानों को अरब सागर में ढकेल देना हर हिन्दू नव युवक का कर्तब्य है.”(2)

विभाजन से पहले मोहम्मद अली जिन्नाह और दूसरे मुस्लिम लीगी नेता अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविधालय में बराबर आते रहते थे इसी तरह गांधी जी और दूसरे कांग्रेसी नेता भी लगातार दौरा करते थे. अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविधालय के वामपंथी लोग भी बराबर जलसा करते थे. इस तरह हम देखते हैं कि उस समय अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविधालय का पूरा केम्पस अलग अलग विचार रखने वालों का गढ़ बना हुआ था. उपन्यास का हीरो तो सीधे अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविधालय में इतिहास विभाग के शिक्षक और उसके बचपन के दोस्त सय्यद ज़र्गाम मुर्तोज़ा आब्दि उर्फ इफ़्फ़्न तथा दूसरे दोस्तों से जुड़ा हुआ था. यह सभी वामपंथ से प्रभावित थे. इन सभी से जुड़ी घटनायें और इनके करनामों से यह अंदाज़ा आसानी से लगाया जा सकता है कि आगे देश में किस प्रकार का परिवर्तन देखने को मिलेगा. राजनैतिक दलों के द्वारा छात्रों के अंदर भरी गयी जागरूकता क्या रंग लायेगी इसका भी अंदाज़ा लगाया जा सकता है.

उपन्यासकार ने उठा पटक और अफरा तफरी से भरे वातावरण की शिद्दत को उभारने में कोई कसर बाक़ी नहीं रखी है. अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविधालय के बदलते हुये माहोल के साथ साथ उसने देश में फैली हुयी बेचैनी को प्रमुख्ता से उभारा है. पाकिस्तान के रूप में उठने वाली आवाज़ के साथ देश में किस तरह दंगे होते हैं. सदियों से एक दूसरे के साथ रहते चले आये लोग किस प्रकार एक दूसरे से हर समय डरने लगे इसका भी विवरण दिया गया है. विभाजन से पहले के भारत की हवा में सांप्रदायिक ज़हर फैलने और नौजवानों में नफरत भर जाने के उदाहरण उपन्यास में बहुत जगह मौजूद हैं. यहाँ सिर्फ एक उदाहरण प्रस्तुत है:

देखिये बात यह है कि पहले ख्वाब सिर्फ तीन तरह के होते थे- बच्चों के ख्वाब,जवानों के ख्वाब और बूढ़ों के ख्वाब. फिर ख्वाबों की इस फेहरिस्त में आज़ादी के ख्वाब भी शामिल हो गये. और फिर ख्वाबों की दुनिया में बड़ा घपला हुआ. माता पिता के ख्वाब बेटे और बेटियों के ख्वाब से टकराने लगे. वालिद बेटे को डाक्टर बनाना चाहते हैं और बेटा वामपंथी पार्टी का होल टाइमर बन कर बैठ जाता है. सिर्फ यही घपला नहीं हुआ. बरसाती कीड़ों की तरह भाँति-भाँति के ख्वाब निकाल आये. कलर्कों के ख्वाब,मज़दूरों के ख्वाब,मिल मालिकों के ख्वाब,फिल्म स्टार बनने के ख्वाब,हिन्दी ख्वाब, उर्दू ख्वाब, हिंदुस्तानी ख्वाब,पाकिस्तानी ख्वाब,हिन्दू ख्वाब,मुसलमान ख्वाब. सारा देश ख्वाबों के दलदल में फंस गया. बच्चों,नोजवानों और बूढ़ों के ख्वाब, ख्वाबों की धक्कम पेल में तितर बितर हो गये. हिन्दू बच्चों,हिन्दू बुज़र्गों और हिन्दू नौजवानों के ख्वाब मुसलमान बच्चों,मुसलमान बूढ़ों और मुसलमान नोजवानों के ख्वाबों से अलग हो गये. ख्वाब बंगाली,पंजाबी और उत्तर प्रदेशी हो गये.” (3)

जैसा कि पहले कहा गया था कि बल भद्र नारायण उर्फ टोपी शुक्ला तो हीरो के रूप में उपन्यासकार के हाथ में एक औज़ार है, उपन्यासकार इसी हीरो के दिन रात की गतविधियों से हम लोगों को परिचित करवाता है लेकिन उसका उद्देश्य इतिहास के इस मोड़ पर टोपी शुक्ला के माध्यम  से उस वातावरण को उभारना है जिसका अन्त देश के विभाजन के रूप में नज़र आया और अपने साथ दंगे के रूप में मार काट और नफरत के तूफान को हमेशा के लिये हमारी हवा में छोड़ गया. आज भी इसका रौद्र रूप देखने के मिलता है. थोड़ी सी कोई बात सामने आयी और दंगे शुरू हो गये. आज के आधुनिक समय में भी इस तरह की घटनाओं का घटित होना हमारे समाज के लिये एक बड़ा सवाल है. राही मासूम रज़ा ने अपने इस उपन्यास के द्वारा उस समय के वातावरण को पाठकों तक पहुंचाने का सफल प्रयास किया है.

सन्दर्भ:
1-टोपी शुक्ला,राही मासूम रज़ा,राज कमल प्रकाशन,नई दिल्ली,1977,पेज नंबर 12
2-वही पेज नंबर 47
         3-वही.पेज नंबर 61-62





ज़ुबैर आलम 
(सीनियर रिसर्च फेलो)
भारतीय भाषा केंद्र, जेएनयू
नई दिल्ली - 110067
मोबाइल - 9968712850 

कथा- गाथा : साठ साल बाद बैल की वापसी : बटरोही

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साहित्य और सत्य के बीच कल्पना है, साहित्य को सार्वभौम बनाती हुई. कल्पना से यथार्थ और यथार्थ से जादुई होती कथा की दुनिया जटिल समय को अंकित करती चल रही है. कथा में वर्तमान, इतिहास, पौराणिक-जातीय आख्यान, सबाल्टर्न, नृ विज्ञान, आदि अब सब घुल मिल रहें हैं. 

राजनीतिक कथा की संरचना जटिल होती है, इसे कोई कथा-अनुभवी और अध्येता ही बुन सकता है. हिंदी के वरिष्ठ कथाकार बटरोही की इधर की कहानियों में यह प्रवत्ति रेखांकित की जा सकती है. उनकी नयी कहानी ‘साठ साल बाद बैल की वापसी’ इसी तरह की कथा कहती है.

आपके लिए ख़ास तौर पर यह कहानी.    




23 मई 2019
साठ साल बाद बैल की वापसी             
बटरोही




“बिस्मिल्ला ही गलत हो गई...”
वह अजीब-सा, गड्ड-मड्ड और लम्बा सपना था जिसका मैं ठीक से वर्णन नहीं सकता, मगर इतना अच्छी तरह याद है कि जिस वक़्त मेरी नींद खुली थी, मेरे मुँह से यही शब्द निकले थे.
वृहस्पतिवार, 23 मई, 2019 की सुबह साढ़े पांच बजे अपने बेडरूम में सोये हुए मेरे मुँह से गुस्से में, झटके के साथ यह वाक्य निकला था. मैं पसीने-पसीने था और समझ नहीं पा रहा था कि यह मुझे अचानक क्या हुआ? यह शब्द तो मैं कभी इस्तेमाल ही नहीं करता.
पत्नी मुझे झकझोर रही थीं, “कोई सपना देखा?”
मैं सपने को याद करने की कोशिश करने लगा, मगर सपने का इस वाक्य के साथ कोई सम्बन्ध नहीं बैठा सका.
“सुबह उठकर कभी भगवान का नाम तो लेते नहीं, आज ये मुसलमानों की जैसी पूजा क्या करने लग गए?”
हल्का-हल्का याद आया, दिन की शुरुआत या अभिवादन में मैं ऐसे शब्द कभी नहीं बोलता: न ‘ऐ मौला’ कहता, न ‘हे राम’!
अलबत्ता, कल रात सोने से पहले मैंने आने वाले दिन के ऐतिहासिक महत्व को ध्यान में रखते हुए आज को पूरी शिद्दत से याद किया. ऐसा भी नहीं था कि मुझे उस वक़्त भारतीय राजनीति के ‘मोदी-2’ का पूर्वाभास हो चुका था. राजनीतिक मामलों में मैं घोर अनाड़ी रहा हूँ, अमूमन मेरी राजनीतिक भविष्यवाणियाँ गलत साबित होती हैं. बावजूद इसके, मेरे लिए यह जबरदस्त पहेली थी कि मेरा वह सपना क्या था, जिसका उपसंहार ‘बिस्मिल्लाह’ के रूप में हुआ था.
मैं सपना याद करने लगा.

सपने में मैं गुमदेश के अपने पैतृक गाँव में था, जिसे करीब साठ साल पहले मैं छोड़ चुका था. जाहिर है, इस बीच गाँव का भूगोल भी पूरी तरह बदल गया रहा होगा, जिसकी भौतिक उपस्थिति की मेरे पास कोई स्मृति नहीं थी. दस-बारह साल की उम्र में उस गाँव को छोड़ चुका था, इसलिए आज के अपने गाँव के बारे में कयास भी नहीं लगा सकता था!... जरूर आज भी वह सुन्दर होगा, आकर्षक, हरा-भरा, रहस्यमय बनैली वनस्पतियों, पहाड़ों, नदियों, जल-स्रोतों और पत्थर-छाई छतों वाले मकानों वाला वैसा ही स्वप्निल पहाड़ी गाँव!... मगर कयास तो एक स्थिर आयाम है, उसे सच तो नहीं कहा जा सकता.  

जब हम छोटे थे, हमारे घर की खिडकियों से सुदूर हिमालय की अर्ध-चंद्राकार पर्वत-श्रृंखलाएं और उनके बीच बसा हुआ पहाड़ों की कुलदेवी नंदा का भरा-पूरा परिवार हमारी सुरक्षा के लिए हमेशा मुस्तैद रहता था... हजारों वर्षों से यह परिवार हम पहाड़-वासियों की उपस्थिति का साक्षी था... घूंघट में बैठी नंदा (‘नंदा घुंटी’, 6309 मी.), माँ नंदा के पति महाकाल शिव के बाएं हाथ में विराजमान ‘त्रिशूल’ (7045 मी.), नंदा देवी के पांच चूल्हे (‘पंचाचूली’ 6334 मी.), देवी नंदा का बिछौना (‘नंदाखाट’ 6611 मी.), माँ नंदा (7817 मी.), पूर्वी नंदा (7434 मी.), देवी नंदा का दुर्ग (‘नंदा कोट’, (6861 मी.) और नंदा देवी का खजाना (‘नंदा भनार’, 7000 मी.). यह हमारी सांस्कृतिक संपत्ति थी, जो मेरे मन से कभी अलग नहीं हुई.

गुमदेश का पुराना गाँव ‘बिशुंग’ उत्तराखंड की प्राचीन राजधानी चम्पावत और नंदादेवी शिखर के ठीक मध्य में घने जंगलों के बीच की घाटी में बसा हुआ सुन्दर इलाका था, जिसके बारे में हमारे इलाके के प्रसिद्ध इतिहासकार पंडित बद्री दत्त पांडेने अपनी किताब ‘कुमाऊँ का इतिहास’में लिखा है:

“देश (मैदान) से दो क्षत्रिय वीर काली कुमाऊँ में आए. राजा उस समय कुटौलगढ़ के किले में थे. उनकी रानी गर्भवती थी. बच्चा अवधि से ज्यादा पेट में रह गया. रानी कष्ट पाने लगी. राजा ने पंडितों से पूछा, तो उन्होंने मौजा भेटा के सांप का दोष बताया, जो एक विशाल शिला के नीचे था. पंडितों ने कहा, जब वह सांप मारा जाएगा, तब राजा के संतान पैदा होगी.
“राजा ने राजसभा में कहा कि ऐसा वीर कौन है जो उस सांप को मार राजा का काम सिद्ध करे? यह बात देश से आये दो क्षत्रिय भाइयों ने सुनी. उन्होंने कहा, यदि वे इस काम को करेंगे, तो क्या पुरस्कार मिलेगा? राजा ने कहा कि सांप को मारने पर राज्य का पद मिलेगा. तब बड़े भाई ने गदा मारकर शिला तोड़ डाली. किस्सा ही है, ‘शिला फोड़कर फर्त्याल नाम पाया’. छोटे भाई ने कटार से सांप मारा, इसलिए ‘मारा-मारा’ कहने के कारण ‘मारा’ या ‘महरा’ नाम पाया.”

संभव है, इसे आप मिथक-कथा समझकर कपोल-कल्पना समझें, मगर पूर्व-भारतीय क्रिकेट कप्तान, मानद लेफ्टिनेंट-कर्नल महेंद्र सिंह धौनी को तो काल्पनिक पात्र नहीं मानेंगे; न उनके द्वारा मैच खेलते हुए पहने गए ‘बलिदान’ ग्लब्ज को, जो पिछले दिनों सियासी हलकों में खासे चर्चित हुए. धौनी के पुरखे इसी बिशुंग के मूल निवासी थे, जिनके बारे में हमारे समकालीन इतिहासकार डॉ. राम सिंहने अपनी चर्चित पुस्तक ‘राग-भाग : काली-कुमाऊँ’में लिखा है:

“धौनी लोगों की एक ‘भाग’ (आत्म-स्वीकृति) के अनुसार ये लोग सबसे पहले कहीं बाहर से आकर आज के पिथौरागढ़-टनकपुर मार्ग पर के ‘धौन’ नामक गाँव में बसे. उनके पूर्वज दो भाई थे. दोनों भाई राजा के पास आते-जाते रहते थे. एक दिन एक ‘मौन’ (मधुमक्खी) का झुण्ड उड़ रहा था, बड़े भाई ने राजा से कहा, यह मेरा है. राजा को इस पर आश्चर्य हुआ और उसने कहा, यह कैसे हो सकता है? बड़े भाई ने एक ‘मौन’ के पैर में धागा बांध दिया. सायंकाल वह ‘मौन’ उसके पास आ गया. राजा को वह दिखाया गया. राजा उसकी सच्चाई पर प्रसन्न हुआ. तब से छोटा भाई ‘धौन’ में रहने के कारण धौनी और बड़ा भाई ‘मौनी’ कहे जाने लगे.
“धौनी लोगों की एक पुरखिन ‘भागा धौन्यानी’ के नाम से कुमाऊँ की लोकगाथाओं में खूब चर्चित रही है. उसके वीरतापूर्ण कृत्यों और शारीरिक बल से सम्बंधित गाथाओं को धान इत्यादि फसलों की गुड़ाई के समय ‘गुडोळ’ गीत में किसानों को उत्साहित करने के लिए गाया जाता है. धौन के वर्तमान बस-अड्डे के पास चार-पांच कुंतल भारी ग्रेनाईट की एक चपटी और आयताकार शिला पत्थरों के एक चबूतरे पर स्थापित है. इस पर प्रायः घसियारिनें अपनी दराती घिसकर उनकी धार तेज किया करती हैं. इसे ‘भागा धौन्यानी को उध्युनो’ (भागा धौन्यानी की दराती की धार तेज करने का पत्थर) कहा जाता है. कहते हैं कि वह इतनी शक्तिशाली थी कि इतने भारी ‘उध्यूने’ को, जो उसके लिए एक मामूली पत्थर का टुकड़ा-मात्र  था, अपनी घाघरी (लहंगे) के फेटे में लपेटकर घास काटने जाया करती थी.”


(एक)
23 मई की सुबह के सपने में मैं अपने पैतृक गाँव में था और पिछली पूरी रात वहाँ अपने पूर्वजों से भैंट करता रहा. वहाँ अलग-अलग कटे हुए बिम्बों की तरह देश भर में चुनावी यात्रा कर रहे तमाम राजनेताओं के साथ मैं गंभीर विमर्श करता रहा. उनमें यूपी के योगी उर्फ़ अजय सिंह बिष्ट थे, केदारनाथ के शिखर पर तपस्या में लीन वाराणसी के गंगा भक्त सांसद नमो मोदी थे, अमेठी के कुमार राहुल थे, बिहारी बाबू शत्रुघ्न सिन्हा थे, कोलकाता की ममता दीदी थीं, मध्य प्रदेश की चुलबुली साध्वी प्रज्ञा ठाकुर थीं... और भी अनेक-अनेक लोग थे, जिनके बारे में हम सब जानते हैं. सभी लोग राजनीति के धुरंधर थे, भारतीय संसद का हिस्सा बनने के लिए चुनाव लड़ रहे थे. और अपनी-अपनी जीत को लेकर पूरी तरह आश्वस्त थे. इसीलिए तो वातानुकूलित कमरों में रहने वाले हमारे भाग्य-विधाता उस दिन मई के महीने की लू झेल रहे थे. 

मेरे सपने में दिखाई देने वाले तमाम बिम्बों के बीच एक निराला बिम्ब और था, मेरे बचपन के प्यारे दोस्त ‘मोहनिया बहौड़िये’ का. बता दूँ, ‘बहौड़िया’ हमारे इलाके में किशोर उम्र के नर-बछड़े को कहते हैं, जिसे अभी बैल नहीं बनाया गया है, हालाँकि उसके जीवन में यह मौका कभी भी आ सकता है. इसलिए बधियाकरण की अपनी नियति से बेखबर बहौड़िया इस उम्र में ज्यादा ही चंचल और मस्त हो जाता है. मेरी और मोहनियां बहौड़िये की दोस्ती इन्हीं दिनों की है.

सपनों के पीछे कोई तर्क तो होते नहीं. सपने में मैंने जो घटना देखी, वह 6 अप्रैल, 1980 की थी, जो संयोग से वही तारीख थी जिस दिन भारतीय राजनीति में बीजेपी नामक एक ऐतिहासिक राजनीतिक पार्टी की स्थापना हुई थी और जिसे भविष्य की भारतीय राजनीति में बड़ा परिवर्तन लाना था. उन्हीं दिनों इसी राजनीतिक दल के एक भक्त ने संसार के प्रख्यात भविष्य-वक्ता नास्त्रदामस का उद्धरण सार्वजनिक किया था कि संसार के दक्षिण-पूर्वी भाग में स्थित एक देश के पश्चिमी अंचल में एक अपराजेय प्रतिभा का जन्म होगा, जो एकाएक दुनिया के रंगमंच में इस तरह छा जाएगा कि लोग सारे पुराने समीकरण भूल जायेंगे... मेरी कहानी का सम्बन्ध उस महान प्रतिभा के साथ नहीं, अपने दोस्त मोहनिया बहौड़िया के साथ है जिसने इसी दिन अपने जीवन का नया अवतार ग्रहण किया. कहानी का सम्बन्ध किसी राजनीतिक दल के साथ भी नहीं है; हो भी नहीं सकता क्योंकि राजनीति की मुझे जरा भी समझ नहीं है... मेरी भविष्यवाणियाँ हमेशा फ्लॉप होती हैं.

हाँ, यह तारीख मेरे मोहनिया बहौड़िये के लिए सबसे खास थी, क्योंकि इसी दिन मेरी और उसकी दोस्ती पक्की हुई थी और उस दिन मैं और वह दोनों मिलकर खूब रोये थे. कुछ ऐसा हुआ कि मैं और मोहनिया उसके बाद जब भी मिले, रोते हुए ही मिले. यहाँ तक कि 23 मई की रात को भी, जब वह मेरे बचपन के गाँव बिशुंग में मुझसे दुबारा मिला, उसी तरह दहाड़ मार-मार कर रो रहा था. मैं भी रो रहा था, मगर मेरा रुदन अलग तरह का था, और उसका अलग. मैं समझ रहा था कि उसकी रुलाई एक बैल की आवाज़ होगी क्योंकि तब वह बहौड़िया तो रहा नहीं, पक्का बैल बन चुका होगा. मैं उस आवाज़ को सुनकर हैरान रह गया क्योंकि वह बहौड़िये की ही आवाज़ थी. उसकी अस्पष्ट आवाज के शब्द मैं नहीं पकड़ पा रहा था, ठीक उसी तरह जैसे 23 मई, 2019 की सुबह साढ़े पांच बजे मैं अपनी ही आवाज ‘बिस्मिल्ला...’ को नहीं सुन पा रहा था... उसी वक़्त मेरा  सपना टूट गया था, मैं पूरी रात देखे गए घटनाक्रम को सिरे से भूल गया था. सुबह अपनी चारपाई पर सोये हुए ही मैंने रात भर देखे गए सिलसिले को आपस में जोड़ने की कोशिश की... कुछ घटनाएँ टुकड़ों में याद भी आती रहीं, मगर सिलसिला कभी जुड़ नहीं पाया.


(दो)
जिस साल भारत में नए दल का जन्म हुआ, उसी साल हिंदी के दो प्रकांड विद्वान-प्राध्यापक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से प्रोफ़ेसर नामवर सिंह और उज्जैन विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर राममूर्ति त्रिपाठी कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग का रीडर चुनने के लिए नैनीताल पधारे थे. दोनों ही जगह लिए गए निर्णय विवादास्पद बने. चयन समिति ने मुझे चुन तो लिया, हालाँकि मामला लम्बे समय तक इलाहाबाद उच्च न्यायालय के विचाराधीन रहा.

मेरी हालत उस दिन मोहनिया बहौड़िये की थी. उस दिन मैं न बछड़ा (प्रवक्ता) था और न बैल (प्रोफ़ेसर)! भारत भर के हिंदी प्राध्यापक मुझ पर व्यंग्य कर रहे थे, ‘तुम्हारा तो इस पद पर चयन होना ही है बन्धु, क्योंकि एक ठाकुर चयन समिति का अध्यक्ष बनकर आया है.’

एक बुद्धिजीवी होने के नाते मैं अपने समीकरण तय कर सकता था, मगर बेचारा मोहनिया बहौड़िया! उसे क्या मालूम था कि बधियाकरण के नाम पर उसकी चंचलता तो छीन ली जाएगी, मगर गौ-वंश संरक्षण की आकर्षक छाया के बावजूद उसे एक दिन दर-दर बेसहारा भटकने के लिए मजबूर होना पड़ेगा.


(तीन)
मोहनिया के साथ मेरी दोस्ती की शुरुआत का सिलसिला भी कम दहशत भरा नहीं था. मैं उस दिन अपने गाँव तो नहीं जा पाया था, मगर रिश्ते के मेरे एक चाचा ने मुझे मोहनिया के बहौड़िया से बैल बनने के उपलक्ष्य में होने वाले आयोजन का न्योता भेजा था. उन्होंने लिखा कि गाँव के पढ़े-लिखे लोगों में अकेले तुम ही तो हो, इसलिए यह काम निभा जाना. मोहनिया के लिए तुम्हारा आशीर्वाद उसे ताकत देगा और वह भविष्य में पक्के पुट्ठों वाला स्वामिभक्त बैल बन सकेगा. हमेशा की तरह इस बार भी मैं गाँव नहीं जा पाया, अलबत्ता चाचा ने मुझे उस आयोजन का आँखों देखा हाल विस्तार से भेज दिया था.

यह आयोजन एक बालक के नामकरण संस्कार से कम आकर्षक नहीं था. गांव के ही शिल्पकार परिवार के एक अधेड़ दलित लछिया को संस्कार का आयोजन करना था. उसे इसका पुश्तैनी अनुभव था, इसलिए सारी व्यवस्था उसी के निर्देशन पर चल रही थी. सारी सामग्री गाँव की एक चाची ने अपने पत्थर-बिछे आँगन में ओखल के पास सजाकर रख दी थी जिसके बाद वह अन्दर के कमरे में कैद हो गयी थी. इस कर्मकांड को देखना औरतों-बच्चों के लिए मना था, इसलिए सभी बिना बताये घटना-स्थल से दूर चले गए थे अलबत्ता कुछ शरारती बच्चे दरवाजों के छेद से सारे घटनाक्रम को आँखों में कैद करने के लिए बेहद उतावले दिखाई दे रहे थे.

अधेड़ लछिया ने सारी सामग्री पर अपनी अनुभवी आँखें डालीं और सारी चीजें तरतीबवार मौजूद पाकर संतोष की साँस ली. चाची को भी वर्षों का अनुभव था, इसलिए कोई कमी होना संभव ही नहीं था.

सबसे पहले लछिया ने मोहनिया के माथे पर तिलक लगाया, जिसे वह अपनी भाषा में ‘पिठ्याँ’ कहता था. फिर अपनी देहाती भाषा में ही मंत्र पढ़ते हुए पहले मोहनिया के माथे पर फूल छिडके और उसके बाद पूरे शरीर में ताज़ा पानी और अक्षत. मोहनिया के शरीर में जबरदस्त सिहरन हुई हालाँकि इस बारे में किसी ने नहीं सोचा कि यह सिहरन रोमांच की थी, भय की या आनंद की.

ओखल के पास मोहनिया के लिए पूरी, हलवा, बड़े और दूसरे पकवान सजाकर रखे गए थे, जो उसे इस कर्मकांड से पहले खिलाए जाने थे. गाँव के चार ताकतवर पुरुष मोहनिया को घेरे हुए खड़े थे और पूरी मुस्तैदी के साथ पुरोहित दलित लछिया के निर्देशों का इंतजार कर रहे थे.
कर्मकांड का जरूरी हिस्सा अभी बाकी था.

लगभग उसी तरह, जिस तरह संस्कार के वक़्त पुरोहित वैदिक मंत्रोच्चार के साथ जातक की समृद्धि और मंगल की कामना करता है, लछिया ने वैदिक पुरोहितों की अपेक्षा कहीं अधिक भाव-प्रवणता के साथ अपनी भाषा में मोहनिया के भविष्य की मंगल कामना के गीत गाये. उन गीतों के आशय को कमरे के अन्दर कैद चाचियाँ खूब समझती थीं, मोहनिया भी समझता था; मगर जानवर की भाषा तो आदमी नहीं समझ सकता है न! मोहनिया उस सारे आयोजन को अपनी फटी आँखों से निहार रहा था.

अब बारी थी मुख्य कार्यक्रम की. यह सारा उपक्रम बहुत तेजी से, बिजली की गति से होना था, इसलिए लछिया समेत सारे पुरुष एकदम तन कर खड़े हो गए. लछिया ने आँखों-ही-आँखों में इशारा किया तो चारों पुरुषों ने मोहनिया की एक-एक टांग पकड़कर उन्हें एक मोटी रस्सी से बांध दिया. इसके तत्काल बाद लछिया ने बगल में रक्खे सिलबट्टे की तरह के समतल पत्थर को मोहनिया के लेटे हुए अंडकोशों के नीचे रक्खा और उसी तेजी के साथ अपनी मजबूत कलाईयों से भारी गोल पत्थर से अनेक बार अंडकोशों पर प्रहार किया; इस तरह कि मानो वह सिल पर बिछी हुई अदरक कूट रहा हो.

इसके साथ ही मोहनिया की विशाल गर्जना, उसकी चीख चारों दिशाओं में फ़ैल गयी थी; मानो पृथ्वी ठहर गयी थी और चारों ओर सिर्फ और सिर्फ मोहनिया की करुण चीत्कार जीवित थी. सब कुछ सूर्य के ब्लैक होल में डूब गया था. चारों ओर शून्य छा गया था.

यह सब मोहनिया और उसके मालिक-परिवार के कल्याण के लिए हो रहा था, मगर मैं तो चाचा के द्वारा भेजे गए उस विवरण को पढ़ ही नहीं पा रहा था. मोहनिया की सारी पीड़ा मेरी बन गई थी, और यही वह क्षण था जब मेरी चेतना मोहनिया की सबसे अन्तरंग दोस्त बन गई थी.


(चार)
सपने के बिम्ब धीरे-धीरे मेरी चेतना में स्पष्ट हो रहे थे. इसी के साथ ही सारे चेहरे भी गड्ड-मड्ड होते हुए एक-दूसरे में प्रत्यावर्तित होते चले जाते थे. मैं उन्हें पहचानने और परिभाषित करने की कोशिश कर रहा था, मगर ज्यों ही वे पकड़ में आते, उसी क्षण मुझ पर अवसाद का जबरदस्त दौरा पड़ता और मैं सब कुछ भूल बैठता था. चारों ओर का शोर कभी शब्दहीन शून्य बन जाता था जो दूसरे ही पल भाषाविहीन शब्द की शक्ल ले लेता. शब्द को पकड़ने की कोशिश करता तो भाषा गायब हो जाती थी. भाषा के पीछे भागता तो शब्दों की बहुमंजिली इमारतें रास्ता रोककर खड़ी हो जाती थीं. मैं खुद का परिचय ही भूल बैठा था.

तेईस मई, 2019 को मैं दिन भर टीवी से चिपका रहकर नए भारत के प्रारूप की एक-एक डिटेल को मन पर बसा लेना चाहता था, मगर यह शायद नियति को मंजूर नहीं था. सपने के हैंग-ओवर से कुछ हद तक निबटा ही था कि साढ़े छह बजे एक दोस्त ने फोन पर याद दिलाया कि मुझे दिल्ली से आ रहे चार दोस्तों के साथ अपने भौतिक विज्ञानी गुरू स्वर्गीय डॉ. देवीदत्त पन्त की जन्म शतवार्षिकी के सिलसिले में उनके गाँव बेरीनाग जाना है. भारत के पहले नोबेल पुरस्कार विजेता सर सीवी रमण के शिष्य पन्त जी का मेरी जिंदगी में अविस्मरणीय  योगदान रहा है, मेरे लिए मना कर पाना संभव नहीं था, इसलिए एक घंटे के भीतर ही मैं ढाई सौ किलोमीटर की उस पहाड़ी यात्रा के लिए चल पड़ा था. चुनाव परिणाम जानने की जिज्ञासा अलबत्ता पहले की तरह मन में थी, मगर तभी ख्याल आया कि मोबाइल-फोन के जरिए पल-पल की जानकारी तो मिलती ही रहती है. शुरुआती एक घंटे के रुझानों से कौतूहल भी लगभग धूमिल पड़ता चला गया, इसी अनुपात में रात का सपना भी चेतना से हटता चला गया. मैंने भी यथास्थिति के साथ समझौता करने में अपनी भलाई समझी. जब सारा संसार उस चुनाव परिणाम से फूल कर कुप्पा हुआ जा रहा हो, मेरी अकेली असहमति से क्या फर्क पड़ना था.
हालाँकि फर्क पड़ा, और जल्दी ही पड़ा.

नैनीताल से डेढ़ सौ किलोमीटर दूर सोमेश्वर के पास पहुंचे ही थे, सूचना मिली, उत्तराखंड की पाँचों सीटें बीजेपी ने जीत ली हैं और जिस सांसद-प्रत्याशी को मैंने वोट दिया था, वो चुनाव हार गए हैं. समूचा भारतीय मीडिया एक स्वर में सत्ताधारी दल का पक्षधर बन गया था. बाईस और तेईस मई की अर्धरात्रि में पूरे देश ने गुपचुप तरीके से मानो एक नया संकल्प ले लिया था. असहमति और विवाद की कोई संभावना कहीं नहीं बची थी. पूरे देश का सोच एक सपाट सीधी रेखा में बुना जा चुका था. ऐसा लगा, राजनीति एक बना-बनाया वैज्ञानिक फार्मूला है, जिसका कोई दूसरा वैकल्पिक उत्तर नहीं होता. सचमुच यह भारत का नया प्रस्थान था, जिसमें एक देश, एक राष्ट्र और एक-सी सोच में ढले सब लोग सिर्फ अपने राष्ट्र के लिए काम करेंगे. संविधान की धारा 370 ख़त्म होगी, भारत अपने धुर अतीत की तरह आदर्श सपनों का मखमली राष्ट्र होगा.

गड़बड़ तब हुई जब तीसरे दिन हमने तय किया कि पुरखों के इलाके गुमदेश के अपने गाँव बिशुंग का दर्शन करते चलें. साठ साल से गाँव को देखा नहीं था, बुढ़ापे में नौस्तेल्जिया ऊँची उछाल मारता ही है, लगा, ज्ञान की ज्योति प्रदान करने वाले पुरखे प्रोफ़ेसर पंत की स्मृति के साथ ही अपने वास्तविक पुरखों की धरती की मिट्टी का स्पर्श भी कर आएँ. बिशुंग के पास से गुजरते हुए धौनी-मौनी भाइयों के किस्से और महेंद्र सिंह धौनी के ‘बलिदान-ग्लब्स’ पर चली चर्चा याद आ गयी. गाँव के पास पहुँचते ही बाकी तो कुछ नहीं मिला, अलबत्ता बगल के ही एक उजाड़ गाँव में मेरी मुलाकात थके-मांदे बदहवास मोहनिया बहौड़िया से हो गयी.

मैं चौंका! मोहनिया को तो मेरे गाँव का दलित लछिया बैल बना चुका था, मेरे चारों भाई-चाचा इस बात के गवाह थे. मेरी चाची ने उसके बधियाकरण से जुड़ा सारा सामान सिलसिलेवार सजाकर लछिया को अपने हाथों से दिया था. औरतों-बच्चों का इस दृश्य को देखना मना है, इसलिए वे सभी अन्दर के कमरे में कैद हो गए थे. उनके छिपते ही लछिया ने मोहनिया के अंडकोष को सिलबट्टे पर उसी तरह से कूटा था, जैसे ओखल पर औरतें अनाज कूटती हैं...

पहाड़ी औरतों को जिसने ओखल कूटते देखा है, जानता है कि कितनी आत्मीय लय और गति के साथ वो ओखल पर चोट करती हैं. आमने-सामने खड़ी दो औरतें मानो शास्त्रीय संगीत की किसी प्रतिस्पर्धा में हिस्सा ले रही हों!  

इसके बाद इस बात की गुंजाइश भला कहाँ बचती है कि मोहनिया बहौड़िया बना रहे. ये तो शिलंग की भागा धौन्यान का जैसा अविश्वसनीय किस्सा हो गया. क्या आज के ज़माने में भी धौनी-मौनी भाइयों के जैसे किस्से संभव हैं? मन हुआ कि रमण महर्षि के शिष्य प्रोफ़ेसर पंत जी से पूछूं कि क्या आज भी इस तरह के अजूबे संभव हैं? मगर हम दो दिन पहले ही तो उनका जन्म शताब्दी वर्ष मनाकर लौटे हैं. अब कहाँ खोजें उन्हें!

मेरी आँखों के आगे अजीब नजारा था. गुमदेश के सारे बैल गहरी करुणा भरी दहाड़ के साथ चारों दिशाओं में दौड़ रहे थे. वर्षों से बहौड़ियों का संस्कार नहीं हुआ था, इसलिए कोई बहौड़िया बैल नहीं बन पाया था. अब वे न बहौड़िए थे, न सांड और न बैल. वे पूरी तरह अनुपयोगी हो चुके थे. उनको खिलाने के लिए कहीं चारा नहीं बचा था, और वे सारे इलाके के खेतों में आवारा पशुओं की तरह फसलें नष्ट कर रहे थे. वहां अब सिर्फ बहौड़िए नहीं थे, उनकी बूढ़ी माएँ गौ-माता, नील गाएं, लाल-गुलाबी चेहरों वाले बन्दर, सभी एक-दूसरे की परवाह किये बिना भटक रहे थे.

गौ-वंश के संरक्षण के लिए नई संसद विधेयक पारित करने जा रही थी जिसमें उन्हें खुला छोड़ने पर सख्त दंड का प्रावधान करने का प्रस्ताव था. गायों-बैलों और बहौड़ियों के द्वारा किये गए उत्पात की सजा जब आदमियों को मिलने लगी तो लोग अपने पुश्तैनी घर वीरान छोड़कर मैदानों की ओर भाग रहे थे. गौवंश को आतंकवादी तो घोषित नहीं किया जा सकता था; धारा 370 को हटा भी दें, सवाल तो तब भी बना रहेगा कि कौन यहाँ का मूल निवासी है और कौन प्रवासी? कौन लौटेगा और कौन दण्डित होगा?...      

जीन और डीएनए के क्रम को क्या कोई अपने हिसाब से संयोजित कर सकता है? बहौड़ियों को बैल बनाने के लिए दलित लछिया के कर्मकांड के सिवा और कोई रास्ता नहीं है? बन भी गए बैल, तो वे कहाँ रहेंगे, क्या खायेंगे? बहौड़ियों की नई नस्ल का क्या होगा?...

इस जिज्ञासा के बारे में सोचते हुए मुझे एकदम साफ याद आ गया कि हाँ, मैंने सपना देखने के दौरान ही गुस्से में बिस्मिल्ला कहा था.


मुझे यह भी याद आ गया कि सुबह उठकर मैं कभी किसी देवता का नाम नहीं लेता, न ‘मेरे मौला’ कहता, न ‘हे राम’. मैंने सोचा था, ‘श्री गणेश’ कहने में तो जुबान लपटती है, ‘बिस्मिल्लाह’ कहना उसकी अपेक्षा आसान तो है ही.
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बटरोही
जन्म : 25  अप्रैल, 1946  अल्मोड़ा (उत्तराखंड) का एक गाँव

पहली कहानी 1960 के दशक के आखिरी वर्षों में प्रकाशित
हाल में अपने शहर के बहाने एक समूची सभ्यता के उपनिवेश बन जाने की त्रासदी पर केन्द्रित आत्मकथात्मक उपन्यास 'गर्भगृह में नैनीताल' प्रकाशित

अब तक चार कहानी संग्रहपांच उपन्यास. तीन आलोचना पुस्तकें और कुछ बच्चों के लिए किताबें प्रकाशित.

पता 
बटरोही, माउंट रोज, अपर माल, तल्लीताल, नैनीताल – 263002 (उत्तराखंड)
मोबाइल : 9412084322 मेल batrohi@gmail.com 

वाम बनाम दक्षिण की साहित्य परम्परा : विमल कुमार

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हिंदी साहित्यकारों और सेवियों को राजनीतिक आधार पर बांट कर क्या हम समग्र साहित्य को क्षति पहुंचा रहें हैं ?
स्वतंत्रता दिवस पर वरिष्ठ कवि पत्रकार विमल कुमार की यह टिप्पणी



वाम बनाम दक्षिण की साहित्य परम्परा
विमल कुमार





राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान  हिन्दी साहित्य की दुनिया में तीन तरह के लेखक हुए. पहली श्रेणी में वे लेखक  हुए जिन्होने खुद सृजनात्मक साहित्य लिखकर अपनी रचनाओं में    स्वतंत्रता  के व्यापक अर्थों की मीमांसा की और मनुष्य की मुक्ति तथा सभ्यता विमर्श भी खडा किया. इनमे प्रेमचन्दजयशंकर प्रसादनिराला, महादेवी  वर्मा और हजारीप्रसाद दिवेदी जैसे लेखक हुए. इन सबका लेखकीय व्यक्तित्व अलग तो है ही. भाषा और शिल्प भी अलग है तथा वैचारिक भाव भूमि एवं  रचनात्मक मनोदशा भी अलग फिर भी ये सब एक बड़े मानवीय मूल्यों के साथ एक दूसरे के के अभिन्न अंग भी हैं.

दूसरी श्रेणी के वे लेखक हुए जिन्होंने साहित्य सृजन तो किया ही, राजनीतिक सामाजिक आंदोलनों में खुल कर भाग लिया और आज़ादी की लड़ाई में भी हिस्सा  लिया और वे जेल भी गये. इनमे माखनलाल चतुर्वेदी, गणेशशंकर विद्यार्थी,राहुल सांकृत्यायन,बालकृष्ण शर्मा नवीन”,रामबृक्ष बेनीपुरी, सुभद्रा कुमारी चौहान जैसी लेखक लेखिकाएं शामिल हैं जो जेल गयीं.

तीसरे वे लेखक थे जो न तो जेल गये न ही उन्होंने प्रेमचंद, प्रसादनिराला की तरह कोई बहुत बड़ी कृति लिखी लेकिन हिन्दी भाषासाहित्य  एवं समाज  के निर्माण में ऐतिहासिक भूमिका निभायी और कई  महती  संस्थाओं को खड़ा किया, नई पीढी का निर्माण किया तथा साहित्य  के वांग्मय को समृद्ध  किया. इनमे महावीरप्रसाद द्विवेदी, श्यामसुन्दर दास, रायकृष्ण दास,रामचन्द्र वर्मा, वासुदेवशरण अग्रवाल, भगवतशरण उपाध्याय, बनारसीदास चतुर्वेदी,शिवपूजन सहाय, किशोरीदास वाजपेयी, जैसे अनेक लोग थे.

पहली श्रेणी के लेखकों की चर्चा साहित्य जगत और अकेडमिक जगत में अधिक हुई. एक श्रेणी उन लेखकों की है जिन्होंने राष्ट्रवादी साहित्य का निर्माण किया और राष्ट्र निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी  जिनमे मैथिलीशरण गुप्तरामधारी सिंह दिनकर, सोहनलाल दिवेदी   जैसे लेखक भी थे. हिन्दी शिक्षा जगत एवं साहित्य जगत में पहली श्रेणी के लेखकों की चर्चा अधिक हुई. उन पर शोध कार्य हुए,उनपर किताबें अधिक लिखी गईं उन पर अधिक  सेमीनार गोष्ठियां हुई,वे पाठ्यक्रमों में अधिक  रहे जिसका नतीजा यह हुआ कि नई पीढी उन्हें जानती रही. उनको उसने अपना पथ प्रदर्शक बनाया लेकिन. दूसरी श्रेणी के लेखकों का समुचित  मूल्यांकन नही हुआ. उनके अवदान की चर्चा कम हुई वे पाठ्यक्रमों में कम शामिल किये गये.

तीसरी श्रेणी के लेखकों को तो और भी कम तवज्जोह दी गयी,उनमे से कई का तो अभी मूल्यांकन ही नही हुआ. उनमे से कुछ की छवि दक्षिणपंथी बनाई गयी और उन्हें हिंदुत्व का पैरोकार भी बना दिया गया.

जिस तरह रामविलास शर्मा ने १९४१ में ही प्रेमचंद पर किताब लिखी और निराला की साहित्य साधना लिखी या अमृत राय ने कलम का सिपाही जैसी जीवनी प्रेमचन्द की लिखी वैसी कोई किताब दूसरी श्रेणी के लेखकों पर आज तक नही लिखी गयी जिससे बाद की पीढी को उनके बारे में सही जानकारी नही मिली और वास्तविक योगदान का पता नही रहा. जो माखनलाल  चतुर्वेदी आजादी की लड़ाई में बारह बार जेल गये, जिनके घर पर ६३ बार पुलिस की तलाशी हुई,जिनके गाँव महात्मा  गाँधी गये यह देखने के लिए कि आखिर किस तरह की मिट्टी ने माखनलाल जी को पैदा किया जो हिन्दी के श्रेष्ठ वक्ताओं में से एक माने गये. उन  पर आज तक एक अच्छी जीवनी नही,यहाँ तक की विद्यर्थी जी की कोई अच्छी जीवनी नही है.

जिस बेनीपुरी ने जयप्रकाश, मार्क्स और रोजा ल्क्जमवर्ग की जीवनी लिखी उनकी भी आज तक जीवनी नही. अगर उनकी रचनावली न छपी होती तो उनके विशाल योगदान के बारे में लोगों को नही पता चलता. रामविलास शर्मा ने उसे पढने के बाद लिखा कि हिन्दी पट्टी  में जिन तीन लेखकों ने युवकों में क्रांतिकारी चेतना फैलाई उनमे विद्यार्थी जी और माखनलाल जी के बाद बेनीपुरी ही थे. लेकिन शिवदान सिंह चौहान से लेकर चन्द्रबली सिंह, शिवकुमार मिश्र नामवर सिंह तक किसी वामपंथी आलोचकों ने दूसरी श्रेणी के लेखकों के योगदान पर कलम नही चलाई. उनका मूल्यांकन नहीं किया.

राहुल जी की चर्चा भी उनकी जन्मशती के बाद शुरू हुई. वे इस से पहले एक यायावर और यात्रा संस्मरणकार के रूप में ही जाने जाते रहे. लेकिन उनका जितना विशद योगदान है उसे देखते हुए उन पर अभी अधिक शोध कार्यों की जरुरत है. सुभद्रा कुमारी चौहान को अब तक “झांसी  की रानीकविता के लिए ही जाना जाता रहा लेकिन उन्होंने अन्य विधाओं में लिखा इसकी चर्चा कम हुई तथा एक स्वतंत्रता सेनानी के रूप में उनकी भूमिका की चर्चा भी बहुत कम हुई. अब जाकर रूपा गुप्ता ने सुभद्रा जी की रचनाओं के खंड निकाले तो उनकी तरफ ध्यान गया पर लेकिन एक अच्छी जीवनी या मूल्यांकन परक किताब आज तक सुभद्रा जी पर नही है. उनकी पुत्री एवं अमृत राय की लेखिका पत्नी सुधा चौहान ने एक विनिबंध उन पर  जरुर लिखा  और  साहित्य अकेडमी ने उसे प्रकाशित किया अन्यथा उनका पर्याप्त मूल्यांकन होना अभी  बाकी है. उनका जीवन कम रोमांचकारी और संघर्ष पूर्ण नही. निराला के संघर्ष की बहुत चर्चा हुई लेकिन सुभद्रा जी ने अपना लेखन भी जारी रखा, जेल की यात्रायें की और परिवार भी संभाला. यह कम बड़ी बात नही लेकिन हिन्दी समाज ने उनकी चर्चा कम हुई.


तीसरी श्रेणी के लेखकों की तो एक तरह से उपेक्षा हुई या उनके कार्यों पर कम ध्यान गया. उन पर  कम ही सेमिनार गोष्ठियां हुईं और पाठ्यक्रमों में कम स्थान दिया गया. उनपर किताबें बहुत कम निकली. आलम यह है कि अगर भारत यायावर नही होते तो महावीरप्रसाद दिवेदी की रचनावली नही निकलती जबकि उनसे पहले रामकुमार भ्रमर तक की रचनावलियां निकाल गईं. उनकी १५० वीं जयन्ती चुपचाप निकल गयी पर हिन्दी समाज सोया रहा. जिस दिवेदी जी ने हिन्दी को खड़ा किया बीस साल तक दौलत पुर में रहते हुए ‘सरस्वती’ निकाली उसका हाल यह है. तब दौलत पुर में बिजली, टेलीफोन की सुविधा नही थी लेकिन दिवेदी जी  हिन्दी की सेवा के लिए रेलवे की सरकारी  नौकरी छोड़कर सरस्वती के संपादक बने थे.

मैथिलीशरण गुप्त, प्रेमचंद, पन्त, निराला, प्रसाद को प्रकाशित कर उन्हें स्थापित किया. उनकी भी आज तक जीवनी नही और न कोई अच्छी मूल्यांकन परक किताब. रज़ा फाउंडेशन को पहले उनकी जीवनी निकालनी चाहिए थी उस जीवनी से पाठक साहित्य के इतिहास से परिचित होते. कमोबेश यही हाल शिवपूजन सहाय का रहा. जिस शिवपूजन बाबू ने अनेक लोगों  पर अभिनंदन ग्रन्थ निकाले. अनेक लेखकों की कृतियों का सम्पादन किया, उनके  संचयन निकाले उस शिवपूजन  बाबू पर अब जाकर  साहित्य अकेडमी ने  संचयन निकाला जबकि राहुल जी पर एक संचयन तक नही निकला जबकि उनके दो शिष्य नागार्जुन और विद्यानिवास मिश्र पर संचयन बहुत पहले निकल चुके थे. हिन्दी में उन पर एक मोनोग्राफ तक नही है,   फिल्म की बात तो  छोड ही दीजिये, जबकि साहित्य अकेडमी ने धर्मवीर भारती पर फिल्म बनाई. नामवर सिंह और केदार जी ने अपने शिष्य से एन.सी.आर.टी. से  अपने ऊपर फिल्म तक बनवाये लेकिन राहुल जी पर नही बनवाया.

किशोरीदास वाजपेयी को स्वाभीमानी होने का खामियाजा अपने जीवन काल में  ही नही बाद में भी भुगतना पडा. हिन्दी भाषा में शब्दानुशासन जैसी किताब लिखने वाले इस अक्खड़  लेखक   पर एक डाक टिकट तक नही निकल पाया जबकि अटल विहारी वाजपेयी तक ने इसकी मांग की. हमारे लेखक संगठनों ने भी इन लेखकों की याद में कोई ठोस कार्यक्रम नहीं किये. प्रगतिशील लेखक संघ ने राहुल जी की १२५ वीं जयंती मनाई लेकिन शिवपूजन सहाय की नही. वाम लेखक संगठनों के लिए ये हिन्दी सेवी अछूत लेखक हो गये. उनकी नज़र में राष्ट्रवादी लेखक हिंदुत्ववादी हैं. यहाँ तक कि प्रसाद भी दक्षिण पंथ के खाते में चले गये, उनके लिए बस प्रेमचंद, निराला और मुक्तिबोध ही प्रतीक पुरुष हैं. इसलिए वे भीष्म साहनी का उनकी जन्म शती के तीन साल बाद भी जन्मशती मनाएंगे  पर  अमृत लाल नगर का नही. उनके लिए यशपाल पूजनीय हैं लेकिन भगवती चरण वर्मा  और इला चन्द्र जोशी  अछूत लेखक हैं.

इस तरह वाम आलोचकों और संगठनों ने जनवाद के नाम पर  साहित्य की संकीर्ण परिभाषा बनायी, रचना का सरलीकरण किया. उसने कुजात लेखक बनाये और हमारी विशाल प्रगतिशील परम्परा को छोटा बनाया. आज इस परम्परा को मजबूत बनाने की जरुरत है लेकिन इस  संकीर्ण नजरिये  के कारण हिंदुत्ववादियों ने हमारे लेखकों को भी अपनी और खींच कर अपना प्रतीक पुरुष बनाया. हाल ही में संघ से जुड़े लेखकों पत्रकारों ने शिवपूजन सहाय की पुस्तकों का लोकार्पण आयोजित करवाया जबकि वाम संगठन जन्म शती वर्ष में भी एक आयोजन नही कर सके.

दिनकर,मैथिलीशरण गुप्त  को भी इन दक्षिणपंथियों ने अपना प्रतीक बनाया जबकि वाम प्रगतिशील आलोचना इन पर संदेह  करती रही. प्रधानमंत्री मोदी ने कुछ वर्ष  पूर्व विज्ञान भवन मे दिनकर पर एक कार्यक्रम को संबोधित किया और मन  की बात में प्रेमचन्द का जिक्र किया. इस तरह  वे प्रेमचन्द को भी अपने पाले में खींचने  में लगे हैं. इससे सतर्क रहने की जरुरत है. लेकिन यह तब ही होगा जब हम अपनी प्रगतिशील परम्परा को समझें उसकी लोकतान्त्रिक व्याख्या करें और सरलीकरण न करें.


आज मैथिलीशरण गुप्त, दिनकर, बालकृष्ण शर्मा नवीन, सियारामशरण गुप्त जैसे अनेक लेखको को गैर वामपंथी मानकर वामपंथी संगठनों ने उन्हें आलोचना से दूर ठेल दिया है, आखिर उन्होंने आज़ादी की लड़ाई में महात्मा गांधी से कंधा से कंधा मिलाकर लड़ा था तो क्या उनके भीतर गांधी के मूल्य और आदर्श नही थे और अगर थे तो वे किस तरह जनतंत्र विरोधी या प्रगतिशीलता के विरोधी हो गए. ये लेखक जेल गये, वहाँ उन्होंने साहित्यिक कृतियों की रचनाएं की,हिंदी की सेवा कर राष्ट्र की सेवा की.
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कथा- गाथा : ४७१४ नहीं बल्कि ४७११ : अम्बर पाण्डेय

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अम्बर पाण्डेय के कवि से हम सब परिचित हैं. अब कथाकार अम्बर पाण्डेय अपनी कहानी– ‘४७१४ नहीं बल्कि ४७११’ के साथ प्रस्तुत हैं. पिछले अंकों में बटरोही की कहानी के सन्दर्भ में यह बात उठी थी कि कहानियाँ निरी कथाएं नहीं रहीं, उनमें गाथा, इतिहास, मिथक, राजनीतिक-समय आदि-आदि का समिश्रण हो रहा है. काफ्का, हिटलर के यातना शिविर और ब्रिटिशकालीन भारत तक विस्तृत यह कहानी एकदम समकालीन भी है. भाषा और दिलचस्प बुनावट ने इस कहानी के पठन-अनुभव को मारक और सघन कर दिया है.

अद्भुत और अद्वितीय जैसे शब्द अब असरदार नहीं रहे. इस कहानी के विषय में जल्दी में कुछ कहना जल्दीबाजी होगी. यह ख़ास कहानी समालोचन पर आपके लिए.
  
४७१४ नहीं बल्कि ४७११
अम्बर पाण्डेय
(दादीबई शाओना हिलेल के लिए)




अंकज्योतिषी के अनुसार पन्द्रह मार्च १९३८ का दिन मेरे लिए सबसे शुभ होना था. छह मतलब शुक्र और पूरी तारीख़ का जोड़ तीन मतलब बृहस्पति. प्रितोम्नोश्ट के दफ़्तर में मुझे उसी दिन बुलाया गया था. उसी दिन मैंने मिलियना येसेंस्की को पहली बार देखा था. ऐसा नहीं है कि मेरा वह पहला प्रेम था या मुझे मिलियना येसेंस्की से पहली दृष्टि में प्रेम हो गया था. इस प्रेम को मैंने धीरे धीरे अपने अंदर विकसित किया था. यह प्रेम कैशोर उद्वेग नहीं बल्कि सत्रह साल के ज़ीनियस की प्रौढ़ कृति थी.

हो सकता है कि आपको मेरी कहानी जल्दी जल्दी में लिखी लगे. मेरे पास काग़ज़ नहीं है और इसे मैं अपने पासपोर्ट के पिछले पन्नों पर लिख रहा हूँ. मुझे पता है यहाँ से मैं कभी नहीं निकल पाऊँगा और न मैं निकलना चाहता हूँ. मिलियना येसेंस्की रवेन्सबर्क में है और मैं तरीन्सस्ताद्त्स जाने के लिए तैयार हूँ. मैं काफ़्का के जिस उपन्यास गोलम ऑफ़ स्ट्रीट नम्बर ४५१३ का चेक में अनुवाद करने के लिए पैदा हुआ था वह मैं कर चुका. मैं कितना चाहता था कि काफ़्का के उपन्यास गोलम ऑफ़ स्ट्रीट नम्बर ४५१३ का मेरा चेक में किया गया अनुवाद मिलियना येसेंस्की एक बार पढ़ सके. यह कभी नहीं हो सकेगा. अफ़वाह है कि मिलियना येसेंस्की रवेन्सबर्क में किसी मेडिकल परीक्षण के दौरान अंधी हो चुकी है.

आपको विश्वास नहीं होगा कई बार रातों को केवल उसकी आँखें सपने में देखते हुए मुझे स्वप्नदोष हुआ है. मैं मिलियना येसेंस्की की निर्वस्त्र कल्पना भी नहीं कर सकता. मेरे प्रिय लेखक काफ़्का की प्रेमिका मेरे लिए अपनी माँ के कम नहीं होना चाहिए मगर वासना के गोलम के मैं पूरी तरह नियंत्रण में था और शायद तरीन्सस्ताद्त्स के यातना शिविर में ख़ुद को तकलीफ़ देकर मैं अपने पापों से मुक्ति पा सकता था. येशीवा से मानदेय मिलना बंद हो चुका था और मेरा गुज़ारा घर की पुरानी चीज़ें बेच बेचकर हो रहा था. यहूदियों के लिए सोना या चाँदी बेचना वैसे भी बहुत मुश्किल हो गया था मगर बर्तन और रद्दी अच्छे बिकते थे. मैं भी नाज़ी पुलिस के आने की प्रतीक्षा करता रहता था. रूज़ेना मेरी सात साल की छोटी बहन को मैं हमेशा तलघर में बंद रखता था. मम्मी को वह तरीन्सस्ताद्त्स ले गए है या रवेन्सबर्क यह हमें नहीं पता था और यह भी नहीं कि वह जीवित है भी कि नहीं. एक बार पापा के नाम से एक पत्र हमें ज़रूर मिला था जिसमें दो नाख़ून थे. मुझे पहले लगा वह मम्मी के नाख़ून है. फिर मैंने ख़ुद को यह विश्वास दिलाना शुरू कर दिया कि यह मेरे किसी शैतान दोस्त की शरारत है हालाँकि नाख़ून किसी औरत के ही थे.

यह मेरे प्रेम की कहानी है न कि शोआ की त्रासदियों का बखान जो आपने जगह जगह बहुत पढ़ा होगा. मैं इस बात के लिए जाना नहीं जाना चाहता कि मैंने कितनी यंत्रणाएँ सही और जीवित रहा या मर गया बल्कि मैं इसलिए जाना जाना चाहता हूँ कि मैंने काफ़्का की एक प्रेमिका से एकतरफ़ा मगर किसी विक्षिप्त की तरह प्रेम किया. त्रासदी से कहीं ऊपर मेरे लिए प्रेम था जैसे अलमारी में मैं तो-रॉ के ऊपरवाले शेल्फ़ में काफ़्का की किताबें रखता था.

फिर एक दिन एक बुड्ढा हमारे घर एक चिट्ठी देने आया. मेरी माँ की हस्तलिपि थी, “प्यारे बेटे और प्यारी बिटिया रूज़ेना, जीवन में कभी ख़ुद को मेरे जाने के लिए दोष मत देना. दोष मेरा ही है कि मैंने उचित सावधानी नहीं बरती और मुझे पकड़ लिया गया. अब जब मैं तुम्हें यह अंतिम पत्र लिख रही हूँ तो ऐसा लगता है कि यह हमारा भाग्य ही है. दिन अच्छे नहीं रहे तो बुरे भी नहीं रहेंगे. तुम्हारी माँ.

जल्दी जल्दी में किसी तरह काग़ज़ पर घसीटकर माँ ने यह पत्र यातना शिविर के उस चौकीदार को दिया होगा. चौक़ीदार जर्मन था मगर अब भी पूरी तरह यहूदियों के ख़िलाफ़ नहीं था. असल में उसने बताया कि उसे स्तालिन बहुत पसंद था और नाज़ियों की तरह विचारविहीन हिंसा से उसे चिढ़ थी. उसके अनुसार यहूदियों को न्यायालयों से उनके अपराधों का दंड मिलना चाहिए और कार्यकारिणी का राष्ट्र के सभी निर्णय स्वयं लेना उसे असंवैधानिक लगता था. मैंने उस पत्र के बारे में कभी अपनी छोटी बहन को नहीं बताया. उसका कमरा मैंने गुड़ियों, खिलौनों और परीकथाओं की किताबों से भर दिया था.

हमारे जाने का समय किसी भी दिन आ सकता था इसलिए मैंने अपने अनुवाद की पांडुलिपि लंदन के एक यिडिश प्रकाशन को भेजने का निर्णय लिया जबकि मैं जानता था कि वह लोग चेक अनुवाद कभी नहीं छापेंगे. ब्रूनो के पापा अपने परिवार को लेकर फ़्रान्स होते हुए ब्रितानिया जानेवाले थे उन्हें ही मैं अपने अनुवाद की पांडुलिपि देने गया.

क्या हम आपके साथ नहीं चल सकते?” अपने अनुवाद की पांडुलिपि देते हुए मैंने ब्रूनो के पापा से पूछा. वह हमारे दूर के रिश्तेदार भी लगते थे.

शाम तक तैयार होकर यहीं आ जाओउन्होंने कहा और मैं पांडुलिपि छोड़कर अपने घर रूज़ेना को लेने निकल पड़ा. रास्ते में मुझे तरह तरह के विचार आते रहे. क्या जाना उचित होगा! माँ कभी लौटकर आई तो? ब्रूनो का तो पूरा परिवार जा रहा है. मिलियना येसेंस्की भी तो आ सकती है. ज़रूरी नहीं कि सब के सब मर जाएँ. आख़िर इतने लोग कभी एक साथ मरते है क्या. प्रेम के लिए तो प्राण दिए जाते है और मैं बचाकर भाग रहा था! यही सोचते सोचते जब मैं घर लौटा तो रूज़ेना घर पर नहीं थी. तलघर पर ताला वैसा का वैसा लगा था मगर अंदर कोई नहीं था.

मेरी बहुत सी किताबें भी या तो ग़ायब थी या अधजली यहाँ वहाँ पड़ी हुई थी. काफ़्का के उपन्यास गोलम ऑफ़ स्ट्रीट नम्बर ४५१३ की मूलप्रति भी ग़ायब थी. उस दिन पहली बार मुझे अनुभव हुआ कि मेरी बहन मेरे लिए किसी भी किताब से बढ़कर थी. दुनिया की कोई किताब या पुस्तकालय छोटे से छोटे जीवन से भी बढ़कर नहीं हो सकता. काफ़्का की किताब को मारो गोली मुझे बस मेरी छुटकी रूज़ेना किसी तरह मिल जाएमैं सोचता हुआ उसे हर जगह ढूँढता रहा. ट्रकों में बच्चे भरकर ले जाए जा रहे थे और मैं रूज़ेना रूज़ेना चिल्लाता उसे ढूँढता रहता. महीनेभर तक मैं यही करता रहा.

ब्रूनो का परिवार तरीन्सस्ताद्त्स भेज दिया गया. मेरे अनुवाद की पांडुलिपि पुलिस ने ज़ब्त कर ली थी. काफ़्का से नाज़ियों को वैसे भी चिढ़ थी मगर बस छोटे मोटे अफ़सरों को. बड़े अफ़सर तो उन्हें जानते भी नहीं थे. नाज़ी ज़्यादा पढ़ते लिखते नहीं थे. उनका साहित्य प्रॉपगैंडा, सुविधानुसार गढ़ा गया इतिहास और छद्मसमाचार होते थे. रोज़ नई नई अफ़वाहें वह उड़ाते थे जिसका मूल विचार यह होता कि कैसे यहूदियों ने उनपर इतने वर्षों तक अत्याचार किया. ईसा मसीह को सूली पर चढ़वा दिया और उनके धर्म को नष्ट करने की कोशिश की. कैसे यहूदी जर्मनों को समूल नष्ट करने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर षड्यंत्र कर रहे है.

फ़ील्ड मार्शल विल्हेम कीतल ने बारह सितम्बर १९४१ को घोषणा की, “बोलशेविकों के विरुद्ध संघर्ष सबसे अधिक यहूदियों के ख़िलाफ़ होगा क्योंकि यहूदी ही बोल्शेविक क्रान्ति के जनक है. इन लोगों के पृथ्वी से समूल नाश के लिए अब केवल एक निर्दय और ऊर्जस्वी आक्रमण आवश्यक हैं.

यहूदी बोल्शेविक क्रान्ति करके कैसे जर्मनी के न केवल बुर्ज़ुआवर्ग को बल्कि यूरोप की महान संस्कृति को नष्ट करनेवाले है ऐसे नए नए पैम्फ़्लेट रोज़ प्राग की दीवारों पर लगा दिए जाते. कम पढ़ेलिखे लोग जो मज़दूरी करते थे, छोटे मोटे कारोबार या क्लर्की करते थे ऐसे प्रॉपगैंडा के शिकार होते. उनके क्लब और अड्डे यहूदियों से व्यापार न करने की घोषणा करते थे तो कभी यहूदियों के पूर्ण आर्थिक बहिष्कार का माँग करने लगते.

सस्ते मीडियम वेव रेडियो के आने के बाद तो हमारा जीना ही मुहाल हो गया. फ़्यूरा (fuhrer) के भाषणों को स्कूलों, विश्वविद्यालयों और सरकारी संस्थाओं में सामूहिक रूप से सुनना आवश्यक था अन्यथा अधिकारी के विरुद्ध जाँच बैठा दी जाती और कभी कभी उसे भ्रष्टाचारी घोषित करके जेल तक दे दी जाती थी.

राष्ट्रवादी सिनेमा की बाढ़ आ गई थी. मरी मेरी पहली गर्लफ़्रेंड जिसे मैंने यीदिश सिनेमा देखते हुए चूमा था वैसी यीदिश टाकीज जर्मनों के आने के बाद बंद ही हो गई. लोग उन्हें स्त्रैण सिनेमा बताते क्योंकि उनमें रोना धोना बहुत होता था. स्त्रियों के पात्र अधिक होते थे और लड़ाई झगड़े बहुत कम. फिर दुश्मन देशों को जीतने, देश पर प्राणों के बलिदान की सिनेमा का दौर शुरू हुआ. कोमलता यदि थोड़ी भी सिनेमा में थी तो वह ख़त्म हो गई हालाँकि स्कर्ट उठा उठाकर नाचनेवाली हंगारी नर्तकियाँ की चड्डियाँ देख देखकर शराबी सिनेमाहाल में बहुत हस्तमैथुन करतें.

यहूदी और रोमानी जिप्सियों को बलात्कारी बताने का प्रॉपगैंडा भी बहुत चला. मेरे ईसाई दोस्त मुझे भी किसी छोटी बच्ची को देखते हुए देखते तो हँसते और मेरे लिंग की ओर इशारे करते. उन्हें लगता कि छोटी बच्चियों को देखकर मैं उत्तेजित हो जाता हूँ जबकि उन्हें देखकर मुझे केवल रूज़ेना की याद आती. मेरी छोटी बहन जो एक दोपहर अचानक ग़ायब हो गई थी. पता नहीं वह कौन सा पाप था जिसके कारण मैं अब भी प्राग में स्वतंत्र घूम रहा था क्योंकि मैं यातनाशिविर में जाकर जल्दी से जल्दी मर जाना चाहता था.

दूर भारत के नेता महात्मा गांधी का विचार कि यहूदियों को इससे पहले कि नाज़ी उन्हें मारे सामूहिक प्राणोत्सर्ग करके फ़्यूरा का क्रोध शान्त कर देना चाहिए मेरे मन में अनेक बार कौंधता था. अहिंसा का विचार उन दिनों मुझे आंदोलित किए रहता था और उसके पीछे था बीस वर्ष की भारतीय सुंदरी के पीछे मेरा पागल होना. क्या सच में हम यहूदी कामुक और अनैतिक होते है कभी कभी मैं सोचता था क्योंकि मिलियना येसेंस्की से पंद्रह मार्च १९३९ को मिलने से पूर्व मैं पिता जवाहरलाल नेहरु के संग भारत से प्राग आई इंदिरा नेहरु की अख़बार में छपी फ़ोटो देखकर उसके प्रेम में ज़बरदस्त रूप से पड़ गया था. मैं सोलह वर्ष का था और वह लगभग बीस वर्ष की लगती थी. इंदिरा के पिता जवाहरलाल नेहरु का म्यूनिखपैक्ट की निंदा करना भी इंदिरा के प्रति मेरे प्रेम के अनेक कारणों में से एक कारण था.

जिस कैफ़े में वह चाय पीने जाती वहाँ मैं येशीवा से छुट्टी मारकर उसे देखा करता. हल्की बरसात के कारण शाम से पहले ही अँधेरा हो जाता और अंदर बैरे बत्तियाँ जला देते. पीली रौशनी बाहर काँच और भीतर के दर्पणों में झलमलातीं. इतनी काली आँखें मैंने तब तक नहीं देखी थी. उसके बाद मैंने भारत के बारे में बहुत सी जानकारियाँ जमा करना आरम्भ किया. अंग्रेज़ी मैं समझ लेता था और भारत के बारे में ज़्यादातर किताबें अंग्रेज़ी में थी. एक यहूदी प्रोफ़ेसर (जिसकी नौकरी बारूद विशेषज्ञ होने के कारण अब तक नहीं गई थी) विश्वविद्यालय के पुस्तकालय से मुझे वह किताबें लाकर दे दिया करते थे. उन दिनों कोई यह नहीं पूछता था कि आप क्या और क्यों पढ़ रहे हो.

येशीवा में स्कॉलरशिप पर पढ़नेवाले एक यहूदी किशोर का दूसरे विश्वयुद्ध के समय में क्या भविष्य हो सकता था! मैंने कभी इंदिरा से बात करने की कोशिश भी नहीं की. एक बार वह मुझे कैफ़े के बाहर खड़ा देखकर मुस्कुराने लगी और उसने अपनी चेक सहेली से कुछ कहा. चेक सहेली ने पलटकर मेरी और देखा. उसने इन्दिरा को जवाब दिया. मुझे नहीं पता कि चेक सहेली ने क्या कहा मगर मुझे तुरंत मेरा यहूदी होना याद आ गया और मैं घर की ओर दौड़ा. मेरी किताबें और छतरी पाँवचलापथ पर गिर गई. मैंने पलटकर देखा इंदिरा और उसकी चेक सहेली मुझे देख रही थी. शर्म से मेरी आँखों में आँसू आ गये. मैंने अपनी टोपी अपनी पलकों पर चढ़ा ली. अँधेरा छा गया और शाम के मंद प्रकाश की एक कोमल किरण मेरे हृदय के भीतर आने लगी, उस आलोक में वहाँ कितना दुःख है केवल यही दिखाई पड़ता था.

संसार का सबसे अहिंसक आदमी महात्मा गांधी संसार के सबसे हिंसक फ़्यूर को प्रिय मित्र कहकर सम्बोधित करता था और फ़्यूर को तुरंत प्रभाव से देश में चलाए यहूदियों से देश को स्वच्छ करने के अभियान को बंद करने की प्रार्थना करता था. यहूदियों से उसकी प्रार्थना यह थी कि वे बिना प्रतिरोध सभी यंत्रणाएँ सहे क्योंकि इससे उनकी आत्मा शुद्ध होगी और यह एक प्रकार से यूडयेवाहे (Jehovah या YHWH) को धन्यवाद ज्ञापन या हमारा प्रायश्चित होगा. कौन से पापों का प्रायश्चित होगा यह मुझे अभी तक समझ नहीं आया था क्योंकि लालच, वासना और क्रोध यहूदियों में जर्मनों जितना ही था या शायद उनसे कम हालाँकि रेडियो, पैम्फ़्लेट और अख़बारों में पढ़ पढ़कर मैं ख़ुद भी विश्वास करने लगा था कि हम लोगों में बलात्कार, चोरियों और भ्रष्टाचार की प्रवृत्ति होती है. इंदिरा के देश से आनेवाले समाचार भी मुझे आनेवाले त्रासदियों के आभास से भर देते.

१९३९ में हिंदू महासभा में वीर सावरकर ने जो भाषण दिया था उसका अनुवाद लंदन से अंग्रेज़ी में प्रकाशित हुआ था, “भारतीय मुसलमान अपने हिंदू पड़ौसी से अधिक देश के बाहर केदुनियाभर के मुसलमानों को अपना मानते है; जैसे जर्मनी के यहूदी अपने जर्मन साथियों से अधिक अन्य देशों के यहूदियों को अपना अधिक मानते थेवीर सावरकर को यहूदियों के विषय में जो कुछ भी जानकरियाँ थी वह बिकी हुई प्रेस और छद्म इतिहास के कारण थी. हिन्दू, जो कि इंदिरा भी थी, यहूदियों के बारे में ऐसा सोचते है यह जानकर मेरा मन विषाद से भर जाता था क्योंकि मुझे लगता इंदिरा भी हमारे बारे में यही सोचती है. वह समय ही ऐसा था कि लोग समूह में सोचते थे और समूह के विचार को व्यक्ति अपना मानने पर मजबूर किया जाता था.

उस दिन हमारे मोहल्ले में गेस्टापो का छापा पड़ा था हालाँकि हम लोगों ने कभी छुपने का प्रयास नहीं किया था लेकिन हमें पुलिस भगोड़ा अपराधी घोषित कर रही थी. रातभर से पूछताछ हो रही थी. यदि मम्मी जीवित है तो शायद यातनाशिविर में कभी मिल सके और रूज़ेना! काश वह मर गई हो. रूज़ेना बहुत कोमल है उसे जल्दी ही मर जाना चाहिए क्योंकि वह इतनी यंत्रणाएँ नहीं सह सकती. हम यंत्रणाएँ सहते है तो ज़्यादा से ज़्यादा क्या हो सकता है? हम मर जाते है फिर मैं रूज़ेना के पहले ही मरने की प्रार्थना क्यों करता हूँ ? क्योंकि मृत्यु से यन्त्रणादायक कुछ और भी है- मानवीय गरिमा से च्युत होना.

१५ मार्च १९३९ की उस दोपहर मैं कितना प्रसन्न था और मूर्ख भी क्योंकि मुझे नहीं पता था कि प्राग पर जर्मन आधिपत्य हो चुका है. मैं मिलियना येसेंस्की पर मुग्ध उसकी आँखें देखे जा रहा था. उस दोपहर हमने ग्रीन टी पी थी और मैंने मिलियना येसेंस्की की चाय में शक्कर के पाँच क्यूब घोले थे. उसी दोपहर मिलियना येसेंस्की ने मुझे फ़्रांत्स काफ़्का का जर्मन उपन्यास गोलम ऑफ़ स्ट्रीट नम्बर ४५१३ चेक में अनुवाद करने के लिए दिया था. उसी दिन मिलियना येसेंस्की ने मुझे डाँटा भी था कि मैं क्यों उसे घूरे जा रहा हूँ जबकि वह उम्र में मुझसे बीस बाईस वर्ष बड़ी है.

उपन्यास गोलम ऑफ़ स्ट्रीट नम्बर ४५१३ उन्नीसवीं सदी के आरम्भिक दिनों में प्राग की कहानी है जहाँ एक जाँचकर्ता दल एक गोलम को पकड़ लेता है. गोलम स्थावर वस्तुओं में प्राण फूँकने पर बना एक प्रकार का कमतर जीव है अल्पसंख्यकों की तरह. जाँचकर्ता गोलम को गिरफ़्तार कर लेते है और शुरू होता है ब्यूरोक्रेसी का अनन्त चक्र. उपन्यास में न्यायव्यवस्था की सूक्ष्मता से पड़ताल की गई है. न्यायाधीश गोलम को कहता है कि वह गोलम साबित करे कि वह जीवित है. गोलम अंत तक यह साबित नहीं कर पाता कि वह जीवित प्राणी है. न्यायाधीश राजकीय क़ानून के अनुसार उसे मृत्युदण्ड देता है.

जीवित की गरिमा मृत से हमेशा अधिक होती है यह मुझे तरीन्सस्ताद्त्स यातना शिविर तेरेज़ीन पहुँचकर पता चला. वहाँ पर संगीत था, बग़ीचे और बच्चों को पढ़ाने के लिए शिक्षक भी. अधिकांश लोग बूढ़े या घायल थे और बच्चें थे.

तरीन्सस्ताद्त्स यातना शिविर यहूदियों द्वारा ही शासित था. मुझे बहुत भोजन दिया जाता था क्योंकि मुझे कठोर श्रम करना पड़ता था और बूढ़ों को बहुत कम भोजन दिया जाता. सभी को लगता था कि बच्चें और युवा ही यहूदियों का नया देश फ़िलीस्तीन बनाएँगे. बच्चों को पढ़ाने के लिए यहूदी वैज्ञानिक, लेखक और बहुत से बुद्धिजीवी थे. एक दिन एसएस के कुछ अधिकारी एक ट्रक भरकर बच्चें ले गए. माएँ पीछे पीछे दौड़ने लगी, वह पूछना चाहती थी कि बच्चों को कहाँ ले जा रहे है, ड्राइवर बड़बड़ाता रहा, “पूर्व पूर्व. उस दिन के बाद पूर्व का अर्थ हमारे लिए मृत्यु हो गया.

प्राग में जब मैं आज़ाद था तब मरना चाहता और यहाँ आकर मैं जीना चाहता था. एक दिन मेरा मोटा चश्मा मुझसे ले लिया गया और मोटा चश्मा लगाने के कारण मुझे आस्चवित्ज़ II बिर्ख़ेनाउ भेजने का आदेश हुआ. यात्रा के विषय में मुझे बहुत कुछ याद नहीं. मैं शायद बेहोश हो गया था.


आस्चवित्ज़ II बिर्ख़ेनाउ में तेरेज़ीन की तरह शोरशराबा नहीं था. किसी ने बताया कि कोई बड़ा अफ़सर वहाँ पड़ताल के लिए आया था. ट्रक से उतरते ही हमें कपड़े उतारने का आदेश दिया गया. प्यास और ठण्ड दोनों ही बहुत लग रही थी. एक लाल ईंटों की सुन्दर इमारत की तरफ़ सभी को लाइन बनाकर जाने का आदेश हुआ. रोगाणुनाशनइमारत के ऊपर लिखा था. मुझे बहुत ख़ुशी हुई क्योंकि मैं बहुत दिनों से नहाया नहीं था और यातनाशिविर में घुटने घुटने मल में खड़े होकर मलत्याग करने के कारण विचित्र सी बदबू और गन्दगी अनुभव होती रहती थी. आज सभी रोगाणुओं का नाश हो जाएगा और शरीर स्वच्छ हो जाएगा ऐसा सोचकर मैं अपनी प्यास भूलकर पंक्ति में खड़ा हो गया.

अंदर तो और भी गंदा था. चार पाँच यहूदी नौकर अंदर से शव उठा उठाकर ला रहे थे. एक बुड्ढा चिल्लाने लगा, “मैं नहीं जाऊँगा मैं नहीं जाऊँगा. एसएस अधिकारी गरिमा और शान्ति का बहुत ध्यान रख रहे थे. बुड्ढा चिल्लाकर उस गरिमा को भंग कर रहा था. एक औरत ने आकर उसके चूतड़ पर ऐसी लात मारी कि वह वहीं गिर गया और बर्फ़ पर फिसलता हुआ एक पिलर से टकराया. उसका एक पैर बिलकुल मुड़ गया और वह अचानक शांत हो गया. वह जीवित था और जीवित की गरिमा मृत से हमेशा अधिक होती है. वह घिसट घिसटकर चलता हुआ ख़ुद ही गैस चेम्बर में घुस गया.

वहाँ भीड़ बहुत थी. मुझे नहीं पता था कि मनुष्य मरने में इतना अधिक समय लेता है. हम लोग उस भीड़ में एक दूसरे से चिपक चिपककर बैठे मरने की प्रतीक्षा कर रहे थे मगर हम बेहोश भी नहीं हो पा रहे थे. मेरे पास बैठे एक कंकाल हो चुके व्यक्ति ने मुझसे पूछा, “आपका नाम क्या है?” जैसे अब भी उसे आशा थी कि वह जीवित बच जाएगा या हो सकता हो कि उसके सुसंस्कार उससे ऐसा कहलवा रहे हो. मैंने बहुत देर तक जवाब नहीं दिया. दूसरे लोग निर्लज्जों की भाँति जीवित रहने के लिए चिल्ला रहे थे. वह ईश्वर को बुला रहे थे. दीवार से सटकर खड़े लोग दीवार चाट रहे थे या शायद दीवार को काटने की कोशिश कर रहे थे. एक दूसरे के मुँह पर थूक उड़ाने और अपनी बचीकुची गरिमा खोने के अलावा वे कुछ भी नहीं कर पा रहे थे.

उसने फिर पूछा, “हेलो, प्लीज़ आपका नाम बताएँगे?” शायद वह समय काटना चाहता था.

मिलियना काफ़्कामेरे मुँह से अचानक निकला.
यह कैसा नाम है! यह तो लड़कियों का नाम हैउस आदमी ने आहत स्वर में कहा. उसे लगा मैं मज़ाक़ कर रहा हूँ और उसके लिए वह बिलकुल भी तैयार न था. वह कोई मज़ाक़ करने का समय नहीं था. मैंने जवाब देना चाहा मगर मेरा गला अकड़ चुका था. ऐसा लग रहा था श्वासनली में कोई पत्थर अटक गया हो. मेरा शरीर ज़ोर ज़ोर हिलने लगा जैसे मुझे मिरगी का पहला दौरा पड़ा हो. फिर दो मिनट के लिए कुछ शांति मिली तब मैंने उससे कहा, “अगर मिलियना की काफ़्का से शादी हो जाती तो...वह आदमी सो चुका था या शायद मर चुका था या केवल बेहोश था.

मिलियना येसेंस्की भी इसी समूह की थी. वे त्रोत्स्कायिस्त (trotskyists) थे और उनके विरुद्ध हमें कड़ा संघर्ष करना पड़ा. वे लोग छद्म इतिहास गढ़ते थे, अफ़वाहें फैलाते थे, राष्ट्र के विरुद्ध कुप्रचार करते थे और जर्मनी की महान परम्परा और यहाँ के महान ऐतिहासिक व्यक्तियों को कलंकित करते थे.”  रवेन्सबर्क यातना शिविर में मरनेवालों की सूची में इस तरह एसएस ने मिलियना येसेंस्की का परिचय दिया है.

जबकि शिविर की लड़कियाँ उसे ४७११ कहकर पुकारती थी जो जर्मनी का सबसे अच्छा और देर तक टिकनेवाला कोलोन है. बहुत समय तक मिलियना येसेंस्की को लोग काफ़्का की प्रेमिका की तरह ही याद करते रहे बल्कि लोग उसे केवल उसके प्रथम नाम मिलियना के नाम से पुकारते थे जैसे उसने केवल काफ़्का से साल दो साल तक प्रेम करने के अलावा जीवन में कुछ किया ही न हो. मिलियना येसेंस्की स्तालिन के ख़िलाफ़ थी. वह लोगों को दिखावे के मुक़दमों में फँसाकर, उनसे ज़बरदस्ती अपराधस्वीकृतियाँ लिखवाकर उन्हें गुलाग भेजने के ख़िलाफ़ थी. मिलियना येसेंस्की काफ़्का की पहली अनुवादक थी और मैं दूसरा जिसने काफ़्का के अब लुप्त उपन्यास गोलम ऑफ़ स्ट्रीट नम्बर ४५१३ का चेक में अनुवाद किया था. मैंने अंकज्योतिषी और कबाला पर भी एक छोटी सी किताब लिखी. मैं आपको अपना नाम बताना तो भूल ही गया. मेरा नाम था ८५८५.

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भीष्म : आशीष बिहानी की लम्बी कविता

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भीष्म                                                      
आशीष बिहानी


पूर्वार्द्ध

१.
किसी पेड़ के कोटर में झांकोगे
तो उसकी कालिख घिरी आँखों से ज़्यादा
जीवन वहाँ मिल जाएगा

उसके कानों ने दुनिया को सुनना
बंद कर दिया है
वो सुनता रहता है देशकाल
के बाशिंदों
को चिल्लाते हुए
वो शब्द जिन्हें वे नहीं समझते
और नहीं समझाना चाहते

हवा को चखता सिर्फ़
बेजान खुले मुँह से
सूंघता सवेरे की धुंध
जिसमें मिली है
विश्व के सारे युद्धों के बमों की गंध
और रेडियोएक्टिव विकिरण
वो छूता है सितारों की सतहों को
कोमलता से

सर्काडियन रिदम से उसके मस्तिष्क का
कोई लेना देना नहीं

२.
सेटेलाईट की तरह तैरता
अपने शरीर के इर्द-गिर्द
वो देखता है जीवन के कंगूरों को
इतिहासकारों-दार्शनिकों-समाजशास्त्रियों का 
पोसा-परोसा झूठ उसके मतलब का नहीं
वो जानता है कि अगर
एक धमाके से ये सब नष्ट हो जाए
तो इसकी जगह पर
देखने को होगा कुछ इतना ही नायाब

उसके आस-पास से लोग
अपने कुत्ते और प्रेमिकाएँ लेकर निकलते हैं
उनके लिए देशी-विदेशी पेड़ों और
कलाकृतियों की क़तार में
वह भी एक लगभग दर्शनीय नमूना है

३.
भयंकर हलचल उसके मस्तिष्क में
तुम सुन सकते हो
इलेक्ट्रिक डिस्चार्ज की आवाज़
उसके बगल में बैठने पर

आस-पास खेलते बच्चों को
उसे कोई क़िस्से नहीं कहने
किसी की खिलखिलाहट के बलों से उसका कोई वास्ता नहीं
वो लगातार प्रोसेस करता है डेटा
और परिणामों को
प्लग कर देता है किसी और प्रोग्राम में

ब्रह्माण्ड के किसी कोने से धुआं उठता है
तो वो करवा देता है चंद कल्पों में ही
वहाँ मुसलाधार बारिश 

हर परमाणु उसका एबेकस है
हर क्वांटम उसका स्टोरेज है

४.
उसकी छड़ी एक दमकता हुआ
पोर्टेबल न्युक्लिअर फ्यूज़न रीएक्टर है
जिसकी तरफ भागते आते हैं पतंगे
और स्क्रंSSSSSSSSच करके वाष्पित हो जाते हैं

लोग कौतूहल से देखते हैं उसकी ओर
कई नौसीखिए
कोशिश करते हैं वैसा ही दीखने की
पर शाम घिरते घिरते उन्हें
घर को लौटना पड़ता है

वो विचार करते हैं कि कहीं एक घर होगा उसका
भीगी ठंड में कोई औरत लालटेन लिए
देहरी पर बैठी होगी
एक दरवाज़ा होगा
लालटेन नहाई लकड़ी के पीछे
कहीं तो बंधी होगी इस वट की
दाढ़ी
कहीं तो होगा हेडक्वार्टर
इतनी सारी प्रोसेसिंग पॉवर का
कभी तो उसके फुसफुसाते पुर्जे रुकेंगे
असिमोव की कहानी के कंप्यूटर की तरह वो कहेगा
““देयर इज़ एज़ येट इनसफिशिएंट डेटा
फॉर अ मीनिंगफुल आंसर

उत्तरार्द्ध

१.
देखने में वो किसी पिल्ले सा निरीह भी लगता है
उसके ज़ेहन में लावारिस तैरते 
मिसाइलों के काम लिए हुए कोड
हैक किये हुए दिमाग़ों की बची खुची मेमोरीज़
जले हुए गांवों की
निर्जन शांति

एक दिन इंसान समझ कर
उसका शिकार करेंगे जानवर
उसके मर्तबान की चिन्दियाँ करके
खाने लायक कुछ न पाएंगे
पतझड़ के भुरभुरेपन में उसका शरीर
दिखेगा किसी इमारत की खिड़की से
धरती पर दाग़ सा

उसके मंसूबे बिछे होंगे धरती पर खुले में
फिर भी किसी को दिखाई नहीं देंगे
उसकी लगाई आग जलती रहेगी 
उसका दिमाग डाउनलोड करके
किसी और शरीर में
बढाया जाएगा तमाशा अपने पूर्व-निर्धारित रस्ते पर
आगे

२.
पहचान का कण
गिरता है
पहचानों की एक भीड़ पर
और उसका पहचान होना बंद हो जाता है
सैकड़ों अनकुचली परतों के अगुड़े-दिगुड़े विन्यास में
उनका भी व्यक्तिगत
और नगण्य योगदान है

किसी येति के कदमों तले उनका सामूहिक कुरकुरा प्रतिरोध
भुला दिया जायेगा कुछ क्षणों में
बूर दिया जायेगा
नयी नैसर्गिक परतों में
वो उम्मीद कर सकते हैं
कि किसी और एपोक़ में कोई खोदे उन्हें
पाए एवरेस्ट पर ट्रैफिक जाम
किलकारियों के कोरस में अकेली, असंपृक्त आवाज़ें
माचिस की डिबिया सी इमारत
की एक खिड़की से झांकता
एक अस्तित्व उनका भी
जिसको घड़ते वक़्त उनको बताया गया
कि वो नायाब होगा
अपनी तरह का अकेला
हिम का एक षट्कोणीय शल्क

३.
उनको चाहिए यज्ञ, उनको चाहिए आवाहन
निरुद्देश्य शून्य में किसी झंकार की तरह
क्षीण होते अनंत तक
वो ही रह सकते हैं
विरासतों के प्रवाहों में जीवित

फिर भी वो लिखते हैं ऐसे प्रोग्राम
जिन्हें समाधान या समाधान के अभाव पर पहुंचकर बंद हो जाना होता है
भंगूर कलाकृतियों के विपुल संग्रहालय
अधपके ज्ञान के सहारे लटके रिश्ते
अदूरदर्शी महत्वाकांक्षाएँ

चाहकर आनुवांशिकीय अमरत्व भी
वो बात करते हैं कुछ क्षणों में शोर बन जाने वाले संकेतों में
ताकि बची रहे एंट्रोपी
नया कचकड़ा बनाने को
आईने, ख़ुद को देखने को
घड़ने को संगमरमर

वो बचाकर रखते हैं आधा
अगले क्षण के लिए

४.
युग हुए इस उद्यान में बैठे-बैठे
उनके झूठ, उनके सच
उगलते-निगलते उसे हो गयी शताब्दियाँ
जनसँख्या बढ़ती गयी
व्यक्ति का क़द घटता गया

पर उनके होने का कुल जमा स्कोर उसे पता है
मुश्किल है तो समय के विशाल, धीमे, और धीमे होते डग
स्थानीय परिवर्तनों के ढिंढोरे
यदा-कदा तितलियों के पंख फड़फड़ाने के सिवाय
ब्रह्माण्ड के कथानक में
अर्थहीन

अगर कहीं कोई ईश्वर होता
तो यह सब ख़त्म कर दिया जाता
एक लम्बी अज़ान के बाद
लीवर खींच दिया जाता
आरोह-अवरोह झिलमिलाते रहते
बिना द्रव्यमान के
अवशेषों को भेज दिया जाता एक लिफ़ाफ़े में
किसी प्रयोगशाला को 

५.
ब्रह्ममुहूर्त के अनुष्ठानों के धुंए से लदी
ठिठुरन में जमा वो देखता है सूरज को उगते हुए
भंवर के साथ मंत्रोच्चार और मृदंगों की तड़तड़ गूँज भी पिघलती है
छायाएं छोटी हो जातीं हैं
इंसानों की दैनिक गतिविधि की आवाज़ें ढक लेतीं हैं
पानी की बूंदों का स्टील पर गिरना
शलभ की कुटर-कुटर
दूर किसी गाय का दीर्घ निश्वास

अलसाई धूप के आलोक में
मवेशी इतस्ततः घूमते हैं निर्व्याज
बिना दिशा के, बिना किसी लक्ष्य पर पहुंचे
उद्यान में लोग चक्कर लगाते हैं
अतिरिक्त ऊर्जा नष्ट करने को

वो उठता है उसके जोड़ रिरियाते हैं जंग के मारे
अपनी छड़ी को वो देखता है ग़ौर से अंतिम बार
और घुटने के दम से तोड़ देता है
बेजान होकर गिर पड़ता है
ओस भीगी तृण को कुचलते हुए

एक घरघराहट बंद होती है
एक घरघराहट शुरू होती है

बैकअप, डेटा ट्रान्सफर
रीइंस्टाल, रीकॉन्फ़िगर, रीबूट.
________________________________________

परख : पानी को सब याद था (अनामिका) : मीना बुद्धिराजा

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पानी को सब याद था : अनामिका
प्रकाशक- राजकमल प्रकाशननई दिल्ली
प्रथम संस्करण- 2019
मूल्य- रू- 150











वरिष्ठ कवयित्री अनामिका का नया कविता संग्रह ‘पानी को सब याद था’ इसी वर्ष राजकमल प्रकाशन से छप कर आया है. अब तक उनके ‘ग़लत पते की चिट्ठी’, बीजाक्षर’, समय के शहर में’, अनुष्टुप’, कविता में औरत’, खुरदुरी हथेलियाँ’तथा ‘दूब-धान’ कविता संग्रह प्रकाशित हैं. रूसी, अंग्रेज़ी, स्पेनिश, जापानी, कोरियाई, बांग्ला, पंजाबी, मलयालम, असमिया, तेलुगु आदि में भाषाओं में उनकी कविताओं के अनुवाद हुए हैं.

इस संग्रह को देख-परख रहीं हैं मीना बुद्धिराजा


       

पानी को सब याद था                 
मीना बुद्धिराजा






विता में स्त्री और स्त्री में कविता की बात अगर की जाए तो हिंदी कविता के समकालीन परिसर में स्त्रीवाद के वैचारिक और गंभीर अस्मिता विमर्श की दृष्टि से स्त्री के पक्ष में बोलने वाली कविता अपना विशेष महत्व रखती है. यह स्त्री-कविता स्त्री की पहचान के अनवरत संघर्ष में स्त्री मुक्ति की जिस उम्मीद को लेकर सजग-सचेत करती है उसका फलक बहुआयामी और लोकतांत्रिक है. इस समय की स्त्री कविता की मुक्ति का स्वर वृहद है जो मानव मुक्ति के विशाल स्वर में जाकर मिलता है.महज स्त्री पक्षधरता और आत्मसत्य की परिसीमा के बाहर अब स्त्री कविता का स्वरूप जनतात्रिंक है. वह देश, धर्म, वर्ग, वर्ण, जाति व समुदाय की सीमाओं को पार करके वैविध्यपूर्ण सामूहिक जीवन के विभिन्न पक्षों पर बोलती है. इस कविता की खसियत है कि इसमें स्त्री-अनुभवों का व्यापक साझा संसार है जो स्वाभाविक और समय से आबद्ध है. यह कविता स्त्री के संदर्भ में सामाजिक विमर्श के समायोजन और सह-अस्तित्व के मुक्ति स्वप्न को नये रूप से बुनती है.
 
हिंदी कविता के मानचित्र में अनामिका जी का अपना विशेष प्रतिष्ठित मुकाम है जिसमें उन्होनें कविता को स्त्रीत्व के सभी आयामों निजी और सामाजिक यातनाओं से जोड़ते हुए अंतर्वस्तु, भाषा और शिल्प का नया धरातल निर्मित किया है. कविता के लिये अनेक प्रमुख पुरस्कारों से सम्मानित होने के साथ कथा साहित्य, आलोचना,संस्मरण,अनुवाद और एक स्त्री-चिंतक के रूप में पब्लिक इंटलेक्चुअल के रूप में नारीवादी विमर्श के क्षेत्र में सक्रिय रहने और अंग्रेजी साहित्य के अध्यापन से लेकर अनामिका जी का कार्य फलक बहुत व्यापक है ,परंतु सबसे पहले और सबसे बाद में वे एक कवि ही हैं. उनके कविता-संग्रह- गलत पते की चिठ्ठी, बीजाक्षर, समय के शहर में , अनुष्टुप, कविता में औरत ,खुरदरी हथेलियाँ, दूब-धान, टोकरी में दिगंत जैसी प्रमुख रचनाएँ कोमल संवेदनाओं के साथ विवेकशील दृष्टि के कलात्मक संयोजन के कारण हिंदी कविता में अलग से पहचानी जाती हैं. स्त्री विमर्श के समकालीन दौर के संघर्ष का चित्रण तो अलग-अलग रूप से आज कविता में हो ही रहा है लेकिन हिंसक और क्रूर यथार्थ में अनामिका जी की कविता समाज और सृष्टि में प्रेम और करूणा को बचाए रखने की अनवरत यात्रा है. इस प्रयास में वे भारतीय समाज में पुरुष सत्ता और वर्चस्ववादी, सामंती संरचना से जूझ रही असंख्य स्त्रियों के दुख और पीड़ा का सरलीकरण कभी नहीं करती जो उनकी कविता की पहचान है. प्रख्यात आलोचक डॉ मैंनेजर पांडेय के अनुसार- भारतीय समाज और जनजीवन में जो घटित हो रहा है और इस घटित होने की प्रक्रिया में जो कुछ गुम हो रहा है, अनामिका की कविता में उसकी प्रभावी पहचान और अभिव्यक्ति देखने को मिलती है.इसी रचनात्मक पथ पर निरंतर उनकी सृजन यात्रा में अनामिका जी का नवीनतम कविता-संग्रह पानी को सब याद थाइसी वर्ष राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हो कर आना समकालीन कविता में और पाठकों के लिये एक नयी सार्थक उपलब्धि है.

अनामिकाएक अस्तित्व के रूप में स्त्री होने को कभी नकाराती नहीं बल्कि गरिमा के साथ स्त्री होने को स्वीकारती हैं क्योंकि एक रचनाकार के रूप में स्त्री का व्यक्तित्व अपनी अस्मिता के होने को सभी भेद-प्रभेदों के बीच से निकलकर गुजरकर अपनी पहचान पाता है और फिर एक विशिष्ट मनोविज्ञान को रचता है   जिसे समग्रता से अनुभव किए बिना न तो कोई अहसास होता है न विचार, न कल्पना न अतंर्दृष्टि. इसलिए एक कविता में अनामिका जी ने कहा था-

लोग दूर जा रहे हैं
और बढ़ रहा है
मेरे आसपास का स्पेस!
इस स्पेस का अनुवाद
विस्तार नहीं अंतरिक्ष करूंगी मैं
क्योंकि इसमें मैंने उड़नतश्तरी छोड़ रखी है.
समय का धन्यवाद
कि इस समय मुझमें सब हैं
सबमें मैं हूँ थोडी -थोड़ी
दरअसल इस पूरे घर का
किसी दूसरी भाषा में
अनुवाद चाहती हूँ मैं
पर यह भाषा मुझे मिलेगी कहाँ.

अनामिका स्त्री के जीवन को, घर को नकारती नहीं हैं बल्कि अपनी भाषा से उसे नयी पहचान देना चाहती हैं.वर्चस्व की सामाजिक व्यवस्था से दबी मुक्त होने की सहज आकांक्षा के लिए इस अनुवाद की भाषा जब वे ईजाद कर लेती हैं तो उन्हें स्त्री की वास्तविकस जमीन मिल जाती है जो उसकी अपनी हो सके. स्त्री अनुभवों की यातनाओं, दंश और संघर्ष को वे अपनी कविता में पूरी सच्चाई और तीव्रता के साथ व्यक्त करती हैं.

पानी को सब याद था संग्रह की कविताएँ स्त्री की साझी दुनिया की सगेपन की घनी बातचीत जैसी कविताएँ हैं जिनमे अद्भुत आत्मीयता और जीवंत संवाद है जो सीधे पाठकों तक संप्रेषित होता है. स्त्रियों का अपना समय इनमें मद्धम लेकिन स्थिर स्वर में अपने दु:ख-दर्द, कटु अनुभव और उम्मीदें बोलता है परंतु इनमें किसी भी तरह का काव्य चमत्कार पैदा करने का न कोई आग्रह है न इन कविताओं का उद्देश्य.अपने सहज संवेदनात्मक अभिप्राय में कवयित्री  की दृष्टि उन समवेत पीड़ाओं को संबोधित करती है जो स्त्री के साथ-साथ उपेक्षित, गुमनाम, वंचित हाशिये के लोगों की उन भीतरी-बाहरी यत्रंणाओं से भी गुजरती है जो उनके जीवन में इस पार से उस पार तक फैली हैं. यह एक स्त्री रचनाकार होकर समाज के एक जिम्मेदार नागरिक के रूप में अपने परिवेश को वास्तविकता में गढ़ने का संवेदनशील सार्थक प्रयास है.स्त्री को मात्र देह विमर्श तक सीमित न करके समाज में उसकी अस्मिता को पहचानने का बोध इन कविताओं की संवेदना को तरलता, सरोकारों को गहनता, सर्जना को उर्वरता और संघर्ष को स्वप्नों का सौंदर्य प्रदान करता है. यहाँ स्त्री क्षितिज का जो विस्तार है वह उनके  दायित्व और चिंताओं का व्यापक स्वरूप है औरवर्ण, जाति, धर्म, वर्ग से परे एक साझा अनुभव है, अटूट सम्बंध है जहाँ जीवन ठोस सच है और जीवन से स्पंदित है.

भारतीय स्त्रियों के जीवन संघर्ष, हास-परिहास और गीत-अनुष्ठान, रीति-रिवाज, सामूहिक क्रिया-कलापों के जरिये पीड़ा को सह पाने की उनकी परंपरागत युक्तिहीन युक्ति के व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने पर अनामिका की कविताओं के नये अर्थ खुलते हैं. जिन तक कविता को देखने-परखने के रूढ़ ढांचे को तोड़कर ही पहुँचा जा सकता है

काम के बोझ से कमर टूटी जिनकी
उनकी भी होती कमरधनियाँ
चाहे गिल्लट की होतीं, लेकिन होतीं
झनझन-झन बजतीं वे
मिल -जुलकर मूसल चलाते हुए!
दस रुनझुनें मिलकर
पूरी अंगनैया झनका देतीं
छत्तीस तोले कीथीं जिनकी
सत्तावन की जंग में
बेगमों की करधनियाँ भी
बेमोल ही बिक गईं !
अब करधनियाँ नहीं हैं
कमर अब कसी है इरादों से
और औरतों ने आवाज़ उठा ली है
दादियों की बात मानते हुए
कि ऐसा भी धीरे क्या बोलना
आप बोलें कमरधनी सुने!
बोलें, मुहँ खोलें जरा डटकर
इतनी बड़ी तो नहीं है न दुनिया की कोई भी जेल
कि आदमी की आबादी समा जाए
और जो समा भी गई तो
वहीं जेल के भीतर झन-झन-झन
बोलेंगी हथकड़ियाँ
ऐसे जैसे बोलती थीं कमरधनियाँ
मिल-जुलकर मूसल चलाते हुए.

परंपरा और संस्कृति में अंतर्निहित बड़ी-बजुर्ग स्त्रियों, दादियों-नानियों, मां की कथाओं और उनके मुहावरों-कहावतों में छिपे काल-सिद्ध सत्य का अन्वेषण अनामिका जी हमेशा अपने मौलिक तरीके और शैली में हमेशा करती आई हैं. ये कविताएँ भी लोक और जन-श्रुतियों की अनुभव संपन्न थाती में जीवन सत्य की और आत्म सत्य की अनेक धाराओं से अपने सरोकारों के मंतव्य को सींचती और पुष्ट करती चलती हैं. स्त्री क्योंकि अनामिका जी के लिए कोई जाति विशेष नही है, बल्कि एक केंद्रीय तत्व है जो प्राणि मात्र के अस्तित्व में मौजूद रहता है. वह मनुष्य के रूप में पुरुष में भी है, पेड़ में है, पानी में भी है जो सतत गतिशील है. यह स्त्री तत्व ही जीव को जन्म देता हैजीवन भीऔर उसे सार्थक करता है. इस संग्रह की अनूठी कविताएँ कवयित्री के लिए उसी तत्व को केंद्र में लाने का अप्रतिम दायित्व है तमाम चुनौतियों और प्रतिकूलताओं के बीच-

जो बातें मुझको चुभ जाती हैं
मैं उनकी सुई बना लेती हूँ
चुभी हुई बातों की ही सुई से मैंने
टाँकें हैं फूल सभी धरती पर.

इन कविताओं में स्त्री के विविधात्मक संसार को एक नये सिरे से गढ़्ने की उम्मीद है और इसके लिए अनामिका जी के पास एक संपन्न परतदार भाषा है जिसमें जातीय स्मृतियाँ हैं, जो निजी भी है सार्वभौम भी, उस भाषा में जीवन और समाज को देखने का एक बड़ा विज़न भी है. एक स्त्री रचनाकार के रूप में उनमें जो प्रेम और उम्मीद है उसे वे अपनी कविताओं में जीवनानुभवों में व्यक्त करती हैं क्योंकि उनके अनुसार अनुभव बांटने की चीज़ ही है. दुनिया में सब कुछ भी बांटने के लिये ही होताअ है अंदर बचा कर रखने के लिये नहीं. जो मानवीय अनुभव, सुख-दुख, तकलीफ, विडंबनाएँ हमने आत्मसात की वे साझा करने के लिए ही है. इसलिए उनकी कविता एक व्यैक्तिक रचना न होकर समूचे समाज की तरफ से एक सामूहिक प्रयास बन जाती है. अनामिका जी अपनी कविताओं में  उन तमाम भेद-भावों की संरचनाओं को तोड़्ती हैं जो वर्चस्व पूर्ण समाज में स्त्री के लिए निर्मित की गई हैं. सभ्यातगत इतिहास में वे स्त्री और पुरुष के आपसी विपर्यय पर अपना ध्यान रखती हैं और स्त्री-प्रश्नों को उठाने के लिए प्रदत्त और निर्धारित शब्द संरचना को बदलती हैं. उनकी अभिव्यक्ति में जीवन से जुड़े अनेक शब्द अपने नये संदर्भों के साथ आते हैं और प्रतीकात्मक बिंबों से सजी आत्मीय भाषा में व्यंजना के नये अर्थ प्रस्फुटित होतें हैं. उनकी संवेदना का फैलाव उन वंचित जनों तक भी है जिसमें एक स्त्री की करुणा सहज रूप से जुड़ जाती है इसलिये लोक-भाषा के शब्द सायास नहीं बल्कि उनके अनुभव का अनिवार्य हिस्सा बन कर आते हैं. क्षिति जलपावककविता में यह गहन संवेदना इसी तरह संप्रेषित होती है-

कहते हैं वैद्यराज
वैसे तो पाँच तत्वों की बनी है ये काया
लेकिन हर मन पर होती है अलग छाया
किसी एक महातत्व की.
ये ही होता है रिश्तों में भी
कुछ रिश्ते आकाश होते हैं
कुछ पानी
कहते हैं वैद्यराज-
मज़े-मज़े में होना आकाश
होना अगन-पवन-पानी
पर माटी में पैर गोड़ने हों तो
संभलना!
थोड़ा निहुर जाना
धानरोपनी में झुकी उस किसानिन की लय में
जिसे पीठ पर झेलनी है बहुत मार-
मौसम की हो या महँगाई की
हूक उठे, आँख में चुभे किरकिरी
फिर भी करनी है मेहनत लगातार.

साधारण जीवन की असाधारण जीवन स्थितियाँ, त्रासद विडंबनाएँ इन कविताओं में बिम्बों, चरित्रों, दृश्यों और संवादों का एक सजीव संसार उपस्थित कर देती हैं कि पाठक इन स्मृतियों को उसी अंतरंग मन:स्थिति के साथ ही संवेदना में दर्ज़ कर लेता है.शहर की मध्यवर्गीय स्त्री कीपीड़ा हो या गाँव-कस्बे की निर्धन स्त्री की अंतर्व्यथा, उसे सहज और आत्मीय रूप से उकेरने का कौशल अनामिका जी की काव्यात्मक विशिष्टता है. मानवीय संबधों में आते बदलाव और परिवेश की चुनौतियों से, परिवार और समाज की मर्यादाओंसे जूझती बेटी, बहन के रूप में स्त्री के अस्तित्व का संघर्ष अब ज्यादा जटिल और बहुआयामी है. परंपरा और आधुनिकता के इस विरोधाभास में अनामिका की कविताएँ मिथक और लोकश्रुतियों को भी नये सिरे से स्त्री पक्ष में पुनर्मूल्यांकित करती हैं जिनमें आज का यथार्थ शिद्दत से उभर कर आता है. ऑनर किलिंग और तथाकथित सम्मान के नाम पर उभरती जातीय खाप-संस्कृति की पर उनकी बारीक नज़र स्त्री -अस्मिता पर हुए शोषण के नये आघातों को देखती है जैसे –प्रेम के लिए फाँसीकविता में-
मीरा रानी , तुम तो फिर भी खुशकिस्मत थीं
खाप पंचायत के फैसले
तुम्हारे सगों ने तो नहीं किये.
राणाजी ने भेजा विष का प्याला-
कह पाना फिर भी आसान था
भैया ने भेजा’- ये कहते हुए जीभ कटती.
बचपन की स्मृतियाँ कशमकश मचातीं
और खड़े रहते ठगे हुए राह रोककर
हँसकर तुम यही सोचती-
भैया को इस बार मेरा ही
आखेट करने की सूझी!
वह सब संपदा: त्याग, धीरज, सहिष्णुता.
मेरे ही हिस्से कर दी
क्यों उसके नाम नहीं लिखी ?

अनामिका जी के लिए स्त्री-मुक्ति का विराट संदर्भ मूलत: समानता, आत्मसम्मान न्याय और मानवीय गरिमा के साथ अधिक सहज प्रेमपूर्ण संबंधों के लिए समाज में उसके स्वतंत्र अस्तित्व की स्थापना के लिये है. स्त्री मुक्ति के यथार्थ का यूटोपिया समूची मानवता के सभ्यातामूलक विकास के लिये वंचितों, शोषितों और पीडित जनों के व्यापक संघर्ष में हिस्सेदारी निभाने से ही संभव है. इसलिये उनकी कविता-भाषा बहुकेंद्रित और संवादधर्मी है और उसका आधार लोकतांत्रिक है. यह साझा स्त्री-विमर्श स्त्री को दैहिक-मानसिक-आर्थिक-सांस्कृतिक प्रताड़नाओं से मुक्त करने का निरतंर प्रयास है जिसमें अन्याय और क्रूरता के समानानंतर करुणा और न्याय दृष्टि है. इस संग्रह की कविताओं में साधारण स्त्री- छवियों का विविध संसार है जो बहुरंगी- बहुआयामी है. साधारण जीवन की असाधारणता जिसमें ज़िंन्दगी तरह-तरह के प्रभावों, रंग-रूप, सुख-दुख, विडंबनाएँ और बाधाओं को झेलते हुए तिल-तिल काटी जाती है. 

इतिहास की नायिकाओं से महादेवी वर्मा, सुभद्राकुमारी चौहान, मीराबाई,घनानंद की सुजानसे बेगम अख्तर तक और गाँव-कस्बे, शहर से लेकर झुग्गी-झोपड़ियों,गली-मोहल्लों, फुटपाथों, अनाथालायों, शिविरों, विस्थापित बस्तियों तक से खेत-खलिहान ,मजदूरी,घरेलू और अन्य बेगार के कार्यों से जुड़ी श्रमिक सर्वसाधारण स्त्रियाँ,इन कविताओं में जीवंत हो उठती है. परम्परा से रूढ़ि को अलग करती हुई नयी दृष्टि से सचेतन स्त्रियां जिनके जीवन का संघर्ष अंतहीन है और मुक्ति का रास्ता इतना आसान नहीं. मेरे मुहल्ले की राबिया फकीर,स्त्री सुबोधिनी: उत्तर कथा, अमरफल,रूसी औरतें, निगमबोध पर मामी, टैगोर को मेरा प्रेमपत्र, कस्बे में शेक्सपियर शिक्षक, चैन की साँस, हनूज दिल्ली दूर अस्त, प्लेटफॉर्म पर ग्रामवधुएँ,विस्थापन बस्ती कीकुछ पुरमज़ाक पद्मिनी नायिकाएँ, गायत्रीकौल:खोली नम्बर 55, कबाड़िन: खोली नम्बर 261ब्यूटी कल्चर: खोली नंबर 65, राबिया अनवर : खोली नंबर 73,डॉली सर्राफ: खोली नंबर 88, पासवर्ड: निर्भया की अम्मा: खोली नंबर 105 , नसीहत जैसी सशक्त कविताएँ जिनमें जाति और मजहब से परे प्रत्येक स्त्री का दुख साझा है –


मेकअप में
उस्ताद है शाज़िया
ईश्वर की भूलें भी
मनोयोग से सुधार देती है
उसका नन्हा पार्लर है घरौंदा
पीट कर निकाल दी गई औरतों का
धो देती है उनके चेहरों से
सदियों की धूल
दुनिया के सारे आस्वादों की खातिर
जब फिर से तैयार हो जाते हैं रंध्रकूप-
फिर दोनों साथ-साथ बैठी हुईं
चाय नहीं पीतीं
पीतीं हैं घूँट -घूँट अमृत वो
उस मगन आपसदारी का
जिसको कि कहते हैं बहनापा !

स्त्रीवाद की कठोर ज़मीन पर खड़े होकर अनामिका जी आज के परिवेश में स्त्री के उत्पीड़न और स्त्री-समाज के त्रासद यथार्थ के प्रति भी पूरी तरह सजग और सचेत हैं. बाज़ारवादी सभ्यता व उपभोगवादी संस्कृति में स्त्री का संघर्ष अब अधिक कठिन और चुनौतीपूर्ण हुआ है जिसमेंअत्याचार, यौन-हिंसा, अन्याय और शोषण के नये-नये तरीकों से टकराना भी नियति है.इन कविताओं  में समसामयिक परिवेश की तमाम अमानवीय और निर्मम विसंगतियों के प्रति चिंताएँ भी शामिल हैं. आधुनिक और विकसित कहे जाने वाले समाज में भी स्त्री के दुख,संत्रास और यातना की परतें पौरुषवादी व्यवस्था की मानसिकता में समाहित हैं. इस संग्रह की विशिष्ट लंबी कविता- एक ठो शहर था- और एक थी निर्भयाइस पूरी व्यवस्था के विरुद्ध स्त्री के सशक्त और प्रखर प्रतिरोध को दर्ज़ करती है.कुछ साल पहले दिल्ली में दिसंबर की एक रात में घटित निर्भया के जघन्य कांड और यौन हिसां के अमानवीय बर्बर संदर्भों में स्त्री-अस्तित्व के अनेक पहलुओं को मार्मिकता से उभारती है. पांच अंकों में विभक्त यह कविता कई उप-खंडो में विभाजित यह कविता विस्थापन बस्तियों में रहने वाली कई स्त्रियों के जीवन और अंतर्मन से गुजरती हुई निर्भया तक पहुँचती है और अप्ने तरीके से अनेक सबंधों और संदर्भों के साथ इस घटना के निहितार्थों की व्याख्या करती है. दिल्ली जो कितनी बार बसी और कितनी बार उजड़ी मानों इसकी गवाह बन जाती है. निर्भया की माँकी उससे जुड़ी अनेक स्मृतियाँ, एक वर्ष के अंतराल में कई मौसमों से गुजरते हुएस्त्री होने की त्रासदी को अपनी बेटी में और निरंतर अपनी पीड़ा में झेलते हुए,न्याय की अंतहीन प्रतीक्षा में संकल्प के साथ इस लड़ाई को लड़ते हुए उम्मीद को वह स्थगित नहीं करती जो एक स्त्री के साथ मानवता का सामूहिक संघर्ष बन जाती है-

दुनिया के साझा अलाव में
चिंगारियों की बिसात ही भला क्या
आखिर तो जीवन है
एक मशाल यात्रा !
और कुछ नहीं छूटता
छूटती है बस ये गाथा
कि कोई किसलिए जिया
और मरा तो वह मरा कौन सी धुन में
कौन आग तापता हुआ
अपनी राह गया
कौन ढहा भी तो
अपनी मशाल
किसी और को थमाता हुआ
जैसे निर्भया ने थमाई
यह कहते हुए-
देह भी एक देश है जैसे
यह देश भी देह है.

इस कविता में अनामिका जी क्रमिक रूप से स्त्री के अंतर्संघर्ष को, आक्रोश को, पीड़ा को जैसे अपनी आत्मानुभूति के मुश्किल असहनीय सफर की तरह महसूस करती हैं. स्त्री का संत्रास बहुत संज़ीदगी से इस कविता में बयान होता है किसी जो समस्याओं को घटनाओं को देखने का उनका अपना संवेदनशील दृष्टिकोण है जिसमें अभी निष्पाप बचपन है और जो संवेदना का साझा धरातल है. यह हिंस्त्र और बर्बर समय के उनके प्रतिरोध का अपना तरीका और विशिष्ट शैली है जो भारतीय स्त्री मन की गहरी समझ से उत्पन्न हुई है. इस पूरी व्यवस्था, समाज और सभ्यता से उनकी यही मांग है कि स्त्रीत्व को वर्चस्व का जरिया न बनाया जाए, उसके अधिकारों, सम्मान और गरिमा को स्वतंत्र अस्तित्व को मानवीय परिसर में देखा जाए. यह जेंडर समानता आज के समय की अतिवादी प्रवृत्ति नहीं बल्कि बहुत सी ऐतिहासिक और परंपरागत भूलों को सुधारने का स्त्री की अस्मिता का आंदोलन है.

इस दृष्टि से पानी को सब याद थासंग्रह की नयी कविताओं में अनामिका जी की काव्य-संवेदना और स्त्री-आकाक्षाओं का विस्तार स्त्री-जीवन से जुड़े अनेक पक्षों तक जाता है. स्त्री-मुक्ति के संदर्भ में ये कविताएँ बने-बनाए विमर्श के ढ़ांचे को तोड़ती है और स्त्रीवाद का नया पाठ तैयार करती हैं. उनके सरोकार संवेदनात्मक दिशा में अग्रसर होकर भी यथार्थ के प्रति सजग वैचारिक विवेक पर आधारित हैं. स्त्री के आत्मसम्मान का प्रश्न और उसकी स्वतंत्र वैचारिक जमीन की तलाश इस समय की कविता की केंद्रीय चिंता है जो सामाजिक व्यवस्था में अपनी पहचान और गरिमा के लिए संघर्षशील है. जहाँ स्त्री को अपने अधिकारों के लिए जागरूक होने के साथ परपंरागत यंत्रणाओं के दायरे से बाहर आने की बेचैनी और उसके लिए तय की गई त्रासदियों के विरोध में अनामिका जी का उभर कर आता है और सदियों से चले आ रहे सभी तरह के उत्पीड़न के खिलाफ उनका संज़ीदगी से प्रतिरोध भी व्यक्त होता है. स्त्री- अस्मिता के पक्ष में वस्तुत: यह स्वर पूरे समाज की सामंती मानसिकता और पितृसत्तात्मक व्यवस्था के विरुद्ध है जिसमें सबकी व्यापक भागीदारी होनी चाहिए.

अनामिका जी की कविता स्त्री-पक्ष में बोलने वाली कविता है जो आधी आबादी के बुनियादी अधिकारों और अस्तित्व का भी बड़ा प्रश्न है जिससे उनकी संवेदना और मानवीय चेतना कभी अछूती नहीं रह पाती. समय के निरंतर बदलाव की सामाजिक प्रक्रिया में स्त्री-यथार्थ की समसामयिक चुनौतियाँ-जटिलताएँ इन कविताओं के केंद्र मे हैं जो स्त्री की आत्मुनुभूति का भोगा हुआ यथार्थ है. ये कविताएँ स्त्री को सदैव समाज द्वारा परिधि पर रखने की परंपरागत सोच के प्रतिरोध में अनथकप्रयास हैं जिसके लिए एक नई स्त्री-भाषा का सार्थक जीवंत शिल्प भी इनकी विशिष्टता है. यह स्त्री के साझे स्वप्नों और आकांक्षाओं से और अपने सांस्कृतिक मूल्यों से जुड़ा होकर भी आधुनिक विमर्श है जो स्त्री की व्यैक्तिक मुक्ति को मानव-मुक्ति के विराट संदर्भों से जोड़ता है–

घर के पचास काम निबटाकर
मातृभाषा में अखबार बाँचती हैं जो-
उन मामियों, मौसियों, चाचियों और बुआओं की
राष्ट्रीय चेतना
गाँधी और टैगोर की
पालिता है
तंग दायरों में वह नहीं सोचती
और उड़ी जाती है
पंच प्राणों- सी
जात और मज़हब के
बाड़ों के पार !
________________________

मीना बुद्धिराजा
ऐसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, अदिति कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय.
संपर्क-9873806557 

निज घर : चंद्रकांत देवताले : एक सम्पूर्ण कवि : प्रफुल्ल शिलेदार

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(विष्णु खरे, चन्द्रकांत देवताले और प्रफुल्ल शिलेदार)





















प्रफुल्ल शिलेदार मराठी के कवि और अनुवादक हैं. हिंदी से मराठी तथा मराठी से हिंदी में अनुवाद का उनका विस्तृत कार्य है. चंद्रकांत देवताले पर उनका यह सुंदर आत्मीय संस्मरण सहेजने योग्य है. कवियों से प्यार करना हिंदी को लोगों को मराठी से सीखना चाहिए.




चंद्रकांत देवताले : एक सम्पूर्ण कवि                     
प्रफुल्ल शिलेदार





९९३ के आसपास की बात होगी. भोपाल में एक साहित्यिक गोष्ठी में शरीक होने मैं नागपुर से गया था.  चंद्रकांत पाटील, चंद्रशेखर जहागीरदार, भास्कर भोले, निशिकांत ठकार, सतीश कालसेकर आदि मराठी के जाने माने लेखक कवि जमा हुए थे. मैं और मेरा दोस्त भुजंग मेश्राम दोनों साथ-साथ थे और इन सबकी बातें हम दोनों बड़े ध्यान से सुन रहे थे.  कभी-कभार कुछ बोला भी किया करते थे; लेकिन सुनना ज्यादा. यशपाल, राजवाड़े, आंबेडकर, महात्मा फुले, विट्ठल रामजी शिंदे से लेकर आज के कई बड़े विदेशी विचारकों तक कोई भी विषय अछूता नहीं था वहां. जमकर वैचारिक बहस हो रही थी. इस जमावड़े में हिन्दी से चंद्रकांत देवताले भी शामिल थे. बीच बीच में वे हम दोनों की ओर देखते और मुस्कुराते रहते थे और फिर से चर्चा का आनंद लेने में जुट जाते थे.  थोड़ी देर बाद वे धीरे से उठ कर हम दोनों के पास आये और दोनों के कंधो पर हाथ रख कर बड़े प्यार से सहेजते हुए कोई गोपनीय बात बताने के ढंग में बोले ‘देखो प्रफुल्ल, हम कवि लोग है. ऐसी मगजमारी में हमने नहीं पड़ना चाहिए. ये हमारा काम नहीं है, समझ गए ना ?’ और एक जोरदार ठहाका लगाकर हम दोनों के साथ बैठक जमा दी. हम भी उनसे खुल कर बातें करने लगे.

चंद्रकांत पाटील जी के माध्यम से उनके साथ मेरी पहली मुलाकात हुई थी. पाटील जी ने ही उनसे मेरा परिचय करवा दिया था. एक स्नेह का धागा कविता के कारण भी जुड़ गया था. वह आखिर तक दिन-ब-दिन और भी मजबूत होता गया.

मैं देखते आया हूँ की देवताले जी अपने कवि होने को हमेशा खुलकर बयाँ करते रहे है. अपने कवि होने का अहसास दूसरों को देने में वे बिलकुल हिचकिचाते नही थे. उनकी कविताओं में भी एक ऐसा ठेठपन था जो मराठी कविता में विरला ही दिखाई देता था. निम्बू, रोटी, आग, चाकू, धूप, झाड़ू-पोछा, गोबर-कंडे, पत्थर, हवा जैसी उनकी कविताओं मे आने वाली अपनी जिन्दगी की सीधी सादी चीजें और उन बिम्बों का अलग अंदाज में कविता में आना, अलग अर्थ प्रेषित करना मोहित कर लेता था. उनसे और उनकी कविता से भाषा को लांघ कर मेरा ही नहीं तो मेरे जैसे कई मराठी पाठकों का एक नाता जुड़ गया था.         

नागपुर बुक फेअर के एक आयोजन में उनके साथ कविता पाठ करने का प्रसंग आया. मैं, कविता महाजन और देवताले जी. मैंने और कविता ने पहले अपनी कविताए पढ़ी. फिर देवताले जी ने करीब पौन घंटे तक  काव्यपाठ किया. पहले तो वे कह रहे थे कि तबियत कुछ ठीक नहीं है.  लेकिन हम उनका पाठ देख कर चकित हो रहे थे. उनके पाठ में इतनी एनर्जी और पकड़ थी के श्रोता भी दंग रह गए. एक एक शब्द मानो पूरी ताकत के साथ और पूरे आग्रह के साथ वे कहते थे. उनके शब्द सिर्फ अर्थ ही नहीं पूरे भाव को लेकर कानों तक पहुँच रहे थे. कहन का अंदाज कुछ और ही था. उनकी कविताओं में एक तरह की सम्वादात्मकता है जो उनके पाठ से छलक रही थी. सर्दी के दिन थे तो लाल रंग की उनी टोपी और स्वेटर पहनी उनकी छवि आज भी नज़र के सामने आती है. श्रोताओं में हिन्दी से ज्यादा मराठी श्रोता थे और वे सब देवताले जी को हिंदी के एक बड़े कवि के रूप में अच्छी तरह जानते थे. सभी को उनकी कई कविताएँ याद थी. हिन्दी की सीमायें लाँघ कर जो हिन्दी कवि मराठी भाषा के कवियों तक ही नहीं बल्कि सामान्य पाठकों तक पहुंचे है उन में चंद्रकांत देवताले जी का नाम सब से ऊपर आता है. इस का श्रेय अर्थात हिंदी-मराठी इन दोनों भाषाओँ में सेतु का काम कई सालों से करते आ रहे निशिकांत ठकार जी और चंद्रकांत पाटील जी का है.  उस वक्त वे करीब तीन दिन नागपुर में रहे. तो चंद्रकांत पाटील, विष्णु खरे के साथसाथ मेरी भी उनसे अखंड बातचीत होती रही.

देवताले जी से कई बार मुलाकातें होती गयी. फोन पर बातों का सिलसिला भी शुरू हुआ. वह अखिर तक चला. उनसे मिलने एक बार मैं उज्जैन गया था. वह २००३ साल चल रहा था.  १९५२ से देवताले जी कविता लिखते आ रहे थे. यानि उनके कविता लेखन को उस वक्त पचास साल पूरे हो चुके थे. पहले से ही उनसे बात कर के तय किया के इस बार आऊंगा तो अपनी बातचीत रेकोर्ड करूँगा. एक मराठी दीवाली अंक के लिए आपका इंटरव्यू देना चाहता हूँ. हमारी दिनभर लम्बी बातचीत हुई.  मैंने उनसे ऐसे कई सवाल पूछे जो एक कवि अपने से करीब चालीस साल पहले से लिखते आये वरिष्ठ कवि से राहगीर की तरह पूछता हो. उन्होंने बिना हिचकिचाए सभी के जवाब दिए. कविता में विचारधारा से लेकर नए बिम्ब विधानों तक कई मुद्दों के बारे में बात हुई. हिंदी-मराठी कविता की परंपरा की बात हुई, नई कविता के प्रतिमानों की बात हुई, कविता लिखने की प्रक्रिया के बारे में कुछ कहा गया, कवि कर्म क्या होता है, कवि और समाज के संबंधों के बारे में भी उन्होंने दो टूक राय दी. आज भी मैं उस इंटरव्यू को निकालकर पढने लगता हूँ तो अन्दर एक गर्माहट सी छा जाती है. बाद में यह इंटरव्यू हिन्दी में वसुधा में छपा और अंग्रेजी में भी आया.

मराठी कविता के परिदृश्य के बारे में वे बहुत सजग थे. उस वक्त की नामी पत्रिका ‘सत्यकथा’ वे नियमित रूप से पढ़ते थे. मराठी कविता की परंपरा से वे अच्छी तरह अवगत थे. मराठी में नया क्या लिखा जा रहा है इस के बारे में भी उन्हें अच्छी जानकारी रहती थी और वे नए मराठी कविता में खूब रूचि रखते थे. चंद्रकांत पाटील, निशिकांत ठकार, दिलीप चित्रे, नामदेव ढसाल, सतीश कालसेकर, श्याम मनोहर से लेकर भुजंग मेश्राम, कविता महाजन, श्रीधर नांदेडकर तक को वे अच्छी तरह जानते थे. अपने आप को उन्होंने मराठी भाषा के परिदृश्य से काफी नजदीकी तौर से जोड़ लिया था. मराठी को वे ‘मावस बोली’ मानते थे. मराठी में कहीं उनके अनुवाद आते तो उसके बारे में क्या प्रतिक्रिया है यह जरूर पूछते.   

दस बारह साल पुरानी बात होगी. किसी काम से वे वे वर्धा आये थे. नागपुर से वर्धा तो बहुत करीब है. आठ दस दिनों के लिए आये थे. फोन पर बात तो होती ही थी. मैं एक दिन उनसे मिलने वर्धा चला गया. उस दिन उनके साथ वहीं रुक गया.  शाम को हम सेवाग्राम के गाँधी आश्रम गए. साँझ का वक्त था. आश्रम में प्रार्थना की तैयारी हो रही थी. पूरा वातावरण गंभीर था. हम दोनों एक पेड़ के नीचे बैठ गए. काफी देर दोनों अपने आप में खो गए से थे.  कुछ बात नहीं की एक दूसरे से. बस, प्रार्थना के नेपथ्य में हम दोनों के बीच मौन छाया था. फिर देवताले जी अचानक बोलने लगे. ‘मैं यहाँ पर क्यों आया.  वहां कमा की तबियत ठीक नहीं है. मेरा वहां रहना जरूरी है. बस इनको हां कह दिया. जुबान दे बैठा तो के लिए यहाँ आना पड़ा. फंस गया मैं तो यहाँ आ कर.’ बहुत बेचैन हो उठे.  मानों उन्हें किसी ने वहां जंजीरों से जकड़कर रखा हो और वे छूटने की कोशिश कर रहे हो. यह प्रसंग बाद में मेरे मन में कई दिनों तक कांटे की तरह चुभता रहा. इस प्रसंग के कई दिनों (सालों) बाद मैंने एक कविता लिखी जिमसे यह प्रसंग आ गया. हालाँकि उस कविता में नामोल्लेख अर्थात किसी का नहीं था. कई दिन कविता पड़ी रही. फिर मेरे कविता संग्रह में आयी. मेरी हर किताब मैं चंद्रकांत जी को भेजता था. यह संग्रह भी भेज दिया.

अचानक एक दिन उनका फोन आया. बेचैन से थे. ‘प्रफुल्ल, यह कविता तूने किस पर लिखी जरा बता.’ मैं हक्का बक्का रह गया.  कुछ सूझ नहीं रहा था की क्या जवाब दूँ. समझ में नहीं आ रहा था कि उन्होंने इस कविता में रखी बात को, प्रसंग को पहचान कर वैयक्तिक तौर पर तो नहीं लिया और वे दुखी तो नहीं हुए. ‘हाँ, मेरे एक कवि मित्र है. जिनका जिक्र है यहाँ.’ ऐसा कह कर मैं टालते गया तो वे बात को पकड़ कर बैठे. मुझे लगा की उन्हें वह प्रसंग पूरा याद आया हो. गाँधी आश्रम की वह शाम, प्रार्थना, कमाभाभी की याद... लेकिन उनके सवाल से मैं बहुत अचंभित सा हो गया. उनके सवाल से मन आशंकित हुआ के यह प्रसंग- अलग तरह से क्यों न हो- कविता में आने के कारण मेरे हाथ से कोई गलत बात तो  नहीं हुई. कुछ जवाब नहीं दे पाया. क्यों की ऐसी बातों के कोई जबाब होते ही नहीं. कोई चीज कविता में क्यों आती है, किस तरह आती है, कोई बात अचानक कविता के केंद्र में क्यों आ जाती है, कोई बात चाहते हुए भी हाशिये पर ही क्यों रह जाती है इस के क्या जवाब हो सकते है. इतने साल के बाद, सारे सन्दर्भ बदल जाने के बावजूद कोई अकेला व्यक्ती इस तरह कविता के भीतर तक पहुँच कर, सारे शब्दों के पसारे को हटाकर, उस कविता के केंद्र में जो घटित था उस तक कैसे पहुँच सकता. मैं हैरान था. मेरी दिक्कत उन्हें फौरन समझ में आ गयी होगी. उन्होंने ही फिर मुझे थोडा सा आश्वस्त किया. कविता के बारे में और भी बाकी बहुत सारी बातें की. एक हैरानी को मन से निकाल दिया. आज भी जब मैं उस कविता की तरफ देखता हूँ तो चंद्रकांत जी ने पूछा हुआ वह सवाल याद आ जाता है.

चन्द्रकांत जी के स्वभाव में बच्चों जैसी मासूमियत थी. बहुत सीधे ढंग से वे किसी से पेश आते थे. उस में न कोई पोज रहती थी न कोई आडम्बर रहता था. हाँ.. वे अपने मित्रों में हलकी सी बदमाशी भी कर लेते लेकिन वह सब उनकी मासूमियत का ही एक अंदाज होता था.  कभी वे कोई बात मुझे बड़े गोपनीय ढंग में बताते और कहते के ये बात मैंने सिर्फ तुम्हे ही बतायी है. काका (चंद्रकांत पाटील) से बिलकुल मत कहना. मैं भी हामी भर देता. लेकिन मुझे असलियत पता रहती थी की वह बात वे मुझ से पहले ही ‘काका’ को बता चुके होते थे.

यह जो सरलता उनमे थी उस से कारण शायद उनकी कविता में एक तरह की पारदर्शिता भी आती थी. उनकी कविता कभी भी शब्दों के जंजाल में फंसी नहीं, न कभी अपने भीतर के तलघर में कोई गहन अर्थ छिपाती गयी. चंद्रकांत जी कभी किसी साहित्यिक सत्ता केंद्र के नज़दीक नहीं रहे, न अपने आप को कभी एक सत्ता केंद्र बनने दिया. मराठी हो या हिन्दी, सभी जगह आज सत्ता का घिनौना खेल दिख रहा है. पूरी कीमत अदा कर के उन्होंने इसके खिलाफ़ भूमिका ली है और कविताएँ लिखी हैं. इसीलिए वे अपने कविता संग्रह को ‘खुद पर निगरानी का वक्त’ जैसे शीर्षक दे पाये और इसीलिये वे ‘पत्थर फ़ेंक रहा हूँ’ यह भी ऊँचे आवाज में कह पाए. बिना नैतिकता से ऐसा लिखना भी किसी लेखक के लिए संभव नहीं है. मुक्तिबोध के प्रभाव के रूप में मार्क्सवाद तो उनके रगों में था ही लेकिन साथ ही गाँधी विचार धारा भी उनके लिए उतना ही महत्त्व रखती थी यह उनके लेखन से दिखाई देता है. उनकी कविता को आखरी सांस तक बचा कर रखने में यही बातें काम आयी होगी शायद.       

उनसे आखिरी मुलाकात उनके जाने से पहले उज्जैन में उन्ही के घर में ही हुई. कुमार अम्बुज के घर की शादी के लिए मैं और विष्णु खरे भोपाल गए थे. पहले से ही तय कर रखा था के भोपाल से हम उज्जैन में देवताले जी से मिलने जायेंगे. शादी के दूसरे दिन सुबह सुबह उज्जैन पहुँच गए तो चंद्रकांत जी स्टेशन पर गाडी-ड्राइवर लेकर हमारी राह देखते हाजिर थे. तबियत ठीक न होने के बावजूद काफ़ी उल्हासित थे. तीनों ने पूरा दिन गपशप में गुजारा. देवताले जी ने उस दिन भोजन के बाद दोपहर का आराम भी नहीं किया. विष्णुजी के आने से वे बहुत उत्तेजित थे. शाम को हमने उनसे विदा ली. वही आखरी मुलाकात रही. फोन पर तो बातें आगे भी चलती ही रहती थी. एक दूसरे से निरंतर संपर्क बना रहता था. मैं महीनाभर फोन न करूँ तो शिकायत करते थे. ताने मारने लगते थे. मिलने के वादे भी होते थे. लेकिन फिर से मिलना संभव नहीं हुआ.

मेरी कविता के लिए वे एक जमीन से थे. मैं हमेशा उनसे प्रेरित होता गया. बातें तो कई बार रोजमर्रा की होती थी, कविता की भी होती थी. उनके सहवास से, उनसे हुई बातों से एक उर्जा मिलती थी. विचारों से वे परिपूर्ण थे लेकिन उनका कवि-व्यक्तित्व भावनाशील था. उनका कुल व्यक्तित्व अपने आप एक कवि ने किस तरह होना चाहिए यह बखान करता था. मैं ऐसे बहुत कम साहित्यकारों से मिला हूँ जो सम्पूर्ण अंतर्बाह्य रूप से कवि होते है. उनके बातों में, व्यवहार में, कविता में, कभी अंतर नहीं होता. कोई भी प्रलोभन उनके कवि होने को एक टुच्चे आदमी में बदल नहीं सकते थे. हाँ... चंद्रकांत देवताले इस पृथ्वी के इन्ही विरला कवियों में से एक थे. 
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प्रफुल्ल शिलेदारमराठी के बहुचर्चित-बहुप्रकाशित कवि-अनुवादक-आलोचक है. हिंदी-मराठी की मिली-जुली संस्कृति के नगर नागपुर में ३० जून १९६२ को जन्म. विज्ञान, मराठी साहित्य तथा अंग्रेजी साहित्य में स्नातक. मराठी में तीन कविता संग्रह प्रकाशित. तीन किताबों का संपादन. तीन अनुवादित किताबें प्रकाशित. उनकी चुनिन्दा कविताओं के हिंदी अनुवादों का संकलन पैदल चलूँगाप्रकाशित. कविता के कई संकलनों में उनकी कविताओं का अंतर्भाव. कविता लेखन के अलावा उन्होंने कहानियाँ, संस्मरण, आलोचना आदि गद्य लेखन भी किया है. वह पिछले कई वर्षों से हिंदी से मराठी तथा मराठी से हिंदी में अनुवाद कर रहे हैं. विनोद कुमार शुक्ल और ज्ञानेंद्र पति की कविताओं का पुस्तकाकार अनुवाद प्रकाशित तथा चंद्रकांत देवताले का कविता संग्रह पत्थर फेंक रहा हूँका अनुवाद प्रकाश्य. हिंदी के साथ अन्य भारतीय भाषाएँ, लैटिन अमेरिकन तथा पूर्व यूरोपीय कवियों के मराठी अनुवाद प्रकाशित. उनकी कविताओं के अनुवाद हिंदी सहित कई भारतीय तथा अंग्रेज़ी सहित अन्य विदेशी भाषाओँ में हुए हैं. २०१८ के साहित्य अकादेमी अनुवाद पुरस्कार से सम्मानित. ब्रातिस्लावा, स्लोवाकिया में आयोजित पूर्व यूरोप के सुप्रतिष्ठित कविता-समारोह आर्स पोएतीका’  में २०१३ में आमन्त्रित वह पहले भारतीय कवि थे.  यूरोप, अमेरिका तथा मध्य पूर्व की यात्राएँ. देश विदेश के कई महत्वपूर्ण साहित्यिक आयोजनों में काव्यपाठ.

संपर्क :
मोबाईल : ९९७०१८६७०२
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संपर्क पता : ६ अ, दामोदर कॉलोनी, सुरेंद्रनगर, नागपुर ४०००१५    

विनय कुमार : अमरीका सीरीज़ की कुछ कविताएँ

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जिन्हें हम विकसित सभ्यताएं कहते हैं, वहाँ चमक, दमक. तेज़ी और तुर्शी के बावजूद बहुत कुछ फीका, उदास, थका और अँधेरा है. इसे न कोई देखना चाहता है न दीखाना. आज अमरीका धरती की सबसे काम्य जगह है पर किसके लिए ?  

विनय कुमार की अमरीका सीरीज़ की इन कविताएँ में प्रवासीओं की विडम्बना तो है ही जो इस व्यवस्था में फिसफिट हैं उनकी विद्रूपता भी समक्ष है. ये कविताएँ जेहन में बैठ जाती हैं और बेचैन करती हैं.  


  


  
विनय कुमार : अमरीका सीरीज़ की कविताएँ                                                 









ग़रीबी
ग़रीबी सिर्फ़ चीथड़े नहीं 
अ-फट जींस और पॉलिएस्टर की हाई नेक भी पहनती है
सस्ती ही सही मगर बीयर और सिगरेट भी पीती है 
उसे क़र्ज़ में डूबी हुई कार में चलने से भी परहेज़ नहीं 
किराए की पोशाक पहन महँगे क्लबों में भी जा घुसती 
नागरिकता भले अफ़्रीका और एशिया और दक्षिण अमेरिका की 
मगर यूरोप और उत्तरी अमेरिका में भी उसने ठिकाने जीत रखे हैं 
और हाँ, रंगभेद तो छू भी नहीं गया उसे 
गोरे, काले और पीले सबको एक भाव से चूमती और चूसती है! 






बिन रेडर्स

मॉल के बाहर ट्रैश बॉक्स के पास मँडराता झुण्ड 
उस खाने के लिए है 
जो नियमानुसार रात के नौ बजे अखाद्य हो जाएगा 
माना कि भंडारे और डोल करुणा से भरे कटोरे हैं 
मगर नकचढ़े नियम की छींक के छींटों का स्वाद भी बिलकुल वही है 
यक़ीन नहीं तो पूछ लो बेरोज़गार जैक और 
महँगी पढ़ाई कर रहे महेंद्र और अलताफ़ से

वक़्त से पहले पहुँच स्टोर के पके हुए खाने का सर्वे तैयारी का अहम हिस्सा है 
फिर बाहर निकल आते हैं और यूँ मँडराते हैं 
गोया सैर को आए हों 
मगर ऐन वक़्त पर तीन दिशाओं से हमला 
और अपनी पसंद का आइटम हासिल कर लेते हैं 

हर रेड के बाद 
तीनों अपने डब्बे उठाए एक ही दिशा में जाते हैं 
कुछ दूर चलकर 
बेघर जैक रेल्वे स्टेशन की तरफ़ मुड़ जाता है 
और बाक़ी दोनों यूनिवर्सिटी के कैंटीन की तरफ़ 
भला हो बिन का जो अन्न और धन से ठसाठस भरे 
अमेरिका में इन तिलंगों के पेट और दिमाग़ को पालता है 





अकेला
ग़रीबी जेब के ख़ालीपन से ही नहीं
जो चाहिए उसकी क़ीमत से भी तय होती है 
एक युवक मेनिया के एक एपिसोड में हॉस्पिटल क्या गया 
वह और उसका भाई दोनों कंगाल 
भाई ने क़र्ज़ लेकर किसी तरह उसे इंडिया भेज दिया 
जहाँ वह पहुँच तो गया मगर ... समझ रहे हैं न आप ..
वह इन दिनों भारत में रहता है 
और सालों से उदास है 
क्योंकि वह ज़िंदा है और अकेला!





बेबस
उम्र की ७२वीं पायदान से बोलता है एक मसीहा 
अमेरिका सिर्फ़ तीन तरह के लोगों के लिए है -
जवान, ख़ूबसूरत और ज़रखेज़ 
उस महफ़िल में तीनों तरह के लोग 
सबने मन ही मन अपने-अपने ईश्वर को धन्यवाद दिया 
और शीराज और शारडनी की चुस्कियाँ लेते रहे 

ऐसी ऊँची बातें भला वे कैसे कर सकते हैं 
जो न जी पा रहे 
न इस मुल्क और दुनिया से जा पा रहे 






चर्च
चर्च की भीड़ कम होती जा रही 
ज़्यादा से ज़्यादा संडे को पहुँच जाते कुछ लोग .. 
बाक़ी तो सन्नाटा 
क्या लोगों को पता चल गया 
कि ईसा मसीह नौकरी नहीं दिलवा सकते 
न कोई मुहमाँगी जीत ही 
शेयर मार्केट की लहरें और रेस के घोड़े भी 
उनके कहे में नहीं 

मगर अपने यहाँ तो मंदिरों में बड़ी भीड़ है 
प्रभु मिलते तो पूछता 
क्या पॉलिटिक्स है सर जी 
कि लगभग सारी पार्टियाँ एक ही गर्भगृह के आगे 
अलग-अलग लाइनों में खड़ी हैं 
जीतता राजा और हारती प्रजा 
दोनों के होंठों पर एक ही जयकारा !





वह फटीचर
कारें दौड़ती हैं 
किराए की टैक्सियाँ भी 
मगर इन सड़कों पर कोई बस नहीं 
इंद्रलोक का यह फटीचर
असमय बुझती हुईं आँखों 
और काँपती हुईं टाँगों के भरोसे 
बर्फ़ का बीहड़ कैसे पार करे 
ख़ाली हो चुकी जेब 
गहराती रात 
और दुर्गम दूरी पर किसका बस 
कॉस्को बंद हो चुका है 
और रेल्वे स्टेशन काफ़ी दूर है 

यूँ तो कहीं भी जाने में कोई डर नहीं 
मगर स्वयं को कैसे समझाए
कि रास्ते में मृत्यु का कोई टेंट कोई घर नहीं
वह फटीचर दरअसल इतिहास का बेरोज़गार टीचर है और जानता है 
कि जार्ज वॉशिंगटन की तलवार ने 
मृत्यु से आज़ादी की जंग नहीं लड़ी थी !






विकास
गिरते तो सभी हैं 
मगर मैं फूस की झोपड़ी 
और ख़ूब ऊँची इमारत से गिरने के फ़र्क़ को समझना चाह रहा हूँ 
छप्पर से कूद भी जाऊँ तो ख़ुदकुशी अधूरी रह जाएगी 
मगर क्या यही बात तुम अम्पायर स्टेट बिल्डिंग के पास बनी रिहायशी मीनार के बारे में कह सकते हो ?

देखते-देखते लाखों मर गए बंगाल के काल में 
मगर क्या इन्कार कर सकते हो 
कि वे जो महामंदी की घाटी में जीवित रहे 
वे मुर्दे नहीं थे 
और क्या इन्कार
कर सकते हो कि 
रूपसी बांग्ला के जल-वस्त्र दोनों विश्वयुद्धों के काँटों में नहीं उलझे 
और उस अन्नपूर्णा के गर्भ में नहीं फटे बेरहम बम ?





स्वतंत्रता
सबसे अधिक जीवन और स्वतंत्रता और सुख पंछियों के हिस्से 
क्या टापू और क्या सागर जी भर मँडराते 
जी करता तो क्रूज़ के कंधे पर बैठ 
न्यू जर्सी और न्यूयॉर्क भी घूम आते 
छेड़ती हवाओं के प्यार में डूबा पानी भी 
अपनी तरलता में प्रसन्न
कि जिसे भी गुज़रना है गुज़र जाओ 
मगर बेचारे मनुष्य मुर्दा चीज़ों के बीच 
सुखों के पीछे भागते-भागते ग़ुलाम
अगर यही जीवन है 
तो कहाँ है स्वतंत्रता मिस्टर जेफरसन
अचल टापू पर खड़ी अचल इस मूर्ति की तंबई उठान 
या लॉस वेगास के जुआघरों में डोलतीं परछाइयों के गुम होते जाने में ?





लिवर
एक हाथ में मज़ा 
दूसरे में आज़ादी 
सफ़र अच्छा था .. बहुत अच्छा 
मगर अब लिवर उस पुराने चीज़की तरह सड़ चुका है 
जिसे नए की आमद के बाद फ़्रीज़ के बाहर रख दिया गया था 
और जेब बीयर के उस आख़िरी केन की तरह ख़ाली 
जिसे उतरते नशे की फ़िक्र में निपटा दिया गया हो 

आती-जाती नौकरी से चीज़तो लाया जा सकता है
लिवर नहीं 
वह अपने संविधान से पूछना चाहता है 
कि जब सब कुछ तुम्हारे ही दायरे में किया तो 
मेरे और लिवर के नए टुकड़े के बीच 
बीमा वाले क्या कर रहे ?




गुफ़्तगू

स्टैचू अव लिबर्टी वाले टापू से 
वर्ल्ड ट्रेड सेंटर साफ़ दिखाई देता है 
ऊँचाई की वजह से क़रीब भी महसूस होता 
ऐसा लगता दो ऊँचे और मशहूर इंसान 
एक दूसरे के रू ब रू हैं 
इस ख़याल के साथ एक ख़याल यह भी आता 
कि रात के अंधेरे में जब कभी तन्हाई मयससर
गुफ़्तगू भी होती होगी 

सोचता हूँ कि धंधे की धुनों पर थिरकते 
वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के पास तो कहने को बहुत कुछ 
लिबर्टी के पास क्या 
थोड़ा सा इतिहास और सैलानियों की भीड़ की बातें ही तो 
इनमें उस १०२ मंज़िले की क्या दिलचस्पी 
जहाँ टुरिज़म की कमाई एक स्प्रेड शीट में एक कॉलम-भर 
मगर कान पक जाते होंगे लिबर्टी के जब शुरू हो जाता होगा वह 
फँस जाती होगी बेचारी जैसे कोई कवि 
व्यापारियों के क्लब में 
कभी-कभी बहस भी हो जाती होगी 
कि असली आज़ादी की रूह किस में 
लिबर्टी कहती होगी- इसमें क्या बहस 
और वह ठठाकर हँस देता होगा 
कि बड़ी रक़म ख़र्च हुई है तुझे बनाने में 
और छवियाँ तो तेरी भी बिकतीं 
मेरी प्यारी लिबर्टी दादी 
काश तुझे दिखा पाता कि 
मेरी १०१वीं मंज़िल से कितनी छोटी और कितनी कुहरीली दिखती है तू !





छोटी टाउनशिप 
रहना ही होता यहाँ इस मुल्क में 
तो किसी छोटी टाउनशिप में पनाह लेता 
जहाँ एक ही चौराहा एक ही पब एक ही कॉफ़ी शॉप 
और सिर्फ़ तीन रेस्तराँ - एक इंडियन, एक इटालियन और एक कोई भी 

वहाँ एक ही क्लबहाउस होता 
कम से कम सौ साल पुराना 
अँखरी ईंटें और सिर पर खपरैल 
सामने एक नदी होती साँवली और दुबली 
दाहिनी तरफ़ बड़ा मैदान 
नदी पर एक पुलिया भी 
ऐसी जगह जहाँ बैठो तो 
पानी में नहाता चाँद दिख जाए 
वह क्लब ज़रा ऑर्थोडॉक्स होता 
कम से कम एक मामले में 
लाल और उजली वाइन शहर की हद में बसी इकलौती वाइनरी से ही....और दोनों ज़रा तेज़ 
बस दो यूनिट और आत्मा के रोएँ गुनगुना उठें 

दिसम्बर की एक दोपहर जब बर्फ़ धूप की तरह बिछी होती
सुरूर की आँच में पार करता दूर तक फैला मैदान 
और कविता की पंक्तियाँ किरणों सी छिटकती रहतीं 

किसी और दिन जब तुम्हारे साथ 
तय कर रहा होता यही ट्रेल 
तो सर्द हवाओं के बावजूद दाहिने हाथ से दस्ताने निकाल थाम लेता कोट की जेब से खींचकर तुम्हारा हाथ
तुम उम्र का वास्ता देती और मैं कोई शेर सुना देता 

हम अक्सर इकलौते कॉफ़ी शॉप तक जाते 
जहाँ मानूस बेयरा सालों पुरानी मुस्कान के साथ वही दिलकश एस्प्रेसो और लाटे से हमें यूँ नवाज़ता गोया यह कॉफ़ी शॉप अपनी ख़ानदानी जागीर हो

छोटे बहर की ग्यारह मिसरों वाली इस ग़ज़ल को अलग-अलग सुरों में इतनी बार गाते हम 
कि हौले-हौले इसे अपनी रूह की हवेली में तब्दील कर देते !






पारले जी 
पारले जी 
एक बिस्किट का नहीं 
उस बिरवा का नाम है 
जो तुम्हारी हस्ती के आँगन में 
मिट्टी के तुलसी चौरे में उगा है 
वह बिरवा कितना ज़िद्दी है
कि घाट-घाट का ज़हर पीकर भी नहीं मुरझाया 
और आज तुम्हारी अठत्तरवीं किताब के जश्न के मौक़े पर 
समोसे के बग़ल में छोटे बच्चे-सा मुस्कुरा रहा है 
किसी मेहमान ने नहीं छुआ उसे 
फिर भी ..

सुना है, जब भी किसी मुबारक मौक़े पर 
इंडियन स्टोर में फोन करते तुम 
वे लोग बिना कहे भी पारले जी के कुछ डब्बे भेज ही देते हैं
किसके लिए 
यह वे जानते हैं या तुम !


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विनय कुमार
(९ जून १९६१), जहानाबाद , बिहार
एम. डी (मनोचिकित्सा)
dr.vinaykr@gmail.com

केदारनाथ सिंह : क़ब्रिस्तान की पंचायत में सरपंच : संतोष अर्श

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कवि केदारनाथ सिंह का गद्य ललित और रोचक है, उसमें जगह-जगह कविता दिख जाती है. क़ब्रिस्तान में पंचायतमें उनके आस-पास के लोग हैं, परिवेश है, बुद्ध हैं, कुशीनगर पर एक टुकड़ा है, चीना बाबा आते हैं जिस पर बाद में केदार जी ने एक लम्बी कविता लिखी थी. यह भी सुनने में आता रहा कि इसी चीना बाबा को केंद्र में रखकर कथाकार उदय प्रकाश उपन्यास लिखना चाहते थे.

संतोष अर्श का यह आलेख स्मरण भी है और एक सुंदर पठनीय गद्य भी, इसमें एक कवि के न होने शोक है.




क़ब्रिस्तान की पंचायत में सरपंच                 
संतोष अर्श 





मारे समय के प्रमुख कवियों में से एक रहे केदारनाथ सिंह की एक मीठे गद्य की पुस्तक है क़ब्रिस्तान में पंचायत. लेकिन यह कोई हॉरर कथानक वाली कहानी या उपन्यास न होकर कुछ छोटे-छोटे लेखों और आत्मपरक व साहित्यिक निबंधों का एक संग्रह है. इस क़िताब के परिचय में यह उल्लिखित है कि ये लेख क्रमिक रूप से दैनिक हिंदुस्तानमें प्रकाशित हुए थे. इस तरह से ये अख़बारी लेख हुए. लेकिन क्या सचमुच ये अख़बारी लेख हैं ?

केदारनाथ सिंह के कवि से गुज़र कर कोई यह मान ही नहीं सकता कि वे किसी तरह का हॉरर रच सकते हैं. यदि यह शीर्षक क़ब्रिस्तान में पंचायतन होकर क़ब्रिस्तान परया क़ब्रिस्तान कीपंचायत होता तो संभव था कि इसे सुनकर सामान्य पाठक के मन की सुई हॉरर की ओर न जाती. सुनने में यह शीर्षक किसी मनोरंजक कहानी अथवा गोपालराम गहमरी और आर्थर कानन डायल के दौर के उपन्यास जैसा लगता है. इसकी ज़रूरत पर वे लिखते हैं:


यह शीर्षक कुछ चौंकाने वाला लग सकता है. पर मेरी मजबूरी है कि जिस घटना का बयान करने जा रहा हूँ,उसके लिए इसके सिवा कोई शीर्षक हो ही नहीं सकता. क़ब्रिस्तान वह जगह है जहाँ सारी पंचायतें ख़त्म हो जाती हैं.

क़ब्रिस्तान की इस पंचायत पर वे रूसी कवयित्री अन्ना अख्मातोवाकी एक पंक्ति उद्धृत करते हैं,जो कवयित्री ने बमबारी से ध्वस्त लेनिनग्राद शहर के विषय में लिखी थी- इस शहर में अगर कहीं कोई ताजगी है तो सिर्फ क़ब्रिस्तान की उस मिट्टी में,जो अभी-अभी खोदी गई है.ख़ैर क़ब्रिस्तान में पंचायत शीर्षक लेख और किताब का नाम एक ही है. यह लेख कवि के जीवन की एक घटना पर आधारित है जिसमें क़ब्रिस्तान की ज़मीन पर कब्ज़े को लेकर दो संप्रदायों के लोगों के मध्य हुए विवाद में उसे समझौता कराने के लिए चुना गया था. समझौता कराने के इस घटनाक्रम में जो ख़ास बात है वह यह कि हिंदू-मुस्लिम दोनों ही पक्षों ने प्रशासनिक हस्तक्षेप के पश्चात जिस व्यक्ति पर विश्वास जताया था वे केदारनाथ सिंह थे. जो उन दिनों उस क्षेत्र के एक अध्यापक और हिंदी के कवि थे. यह कवि के लिए हैरानी की बात थी कि समझौते के लिए बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक दोनों ही पक्षों ने जो एक-एक पंच चुना,वे दो व्यक्ति और मस्तिष्क नहीं थे बल्कि एक अदद था. इस तरह केदारनाथ सिंह इस पूरे प्रकरण में सरपंच बन गए. यह घटना कवि को अभिभूत करने वाली थी. वास्तव में है भी. वे लिखते हैं:

मुझे जीवन में छोटे-बड़े कई सम्मान मिले हैं- हालाँकि मैं दावे के साथ नहीं कह सकता कि पुरस्कार को ठीक-ठीक सम्मानकहा जा सकता है या नहीं. पर कैसी विडम्बना है कि मुझे जीवन का सबसे बड़ा पुरस्कारएक क़ब्रिस्तान में मिला था,जिसके बारे में सोच कर मेरा माथा कृतज्ञता से झुक जाता है.

कवि का माथा कृतज्ञता से झुकता है तो किसके लिए ?उन अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक पक्षों के लिए जिन्होंने समझौता कराने के लिए कवि को चुना ?क़तई नहीं. कवि अपने लोकजीवन के गैर-सांप्रदायिक या राजनीतिक भाषा में सेकुलर सामाजिक विश्वास से अभिभूत है. वह विश्वास जो कभी था. जो अब शायद न रहा हो.

इस क़िताब के सभी लेखों में उसी लोक-संवेदना का सृजन है जिसके केदारनाथ सिंह कवि हैं. उस ज़मीन का घनत्व और गुरुत्व है जिस पर केदारनाथ सिंह का पूरा रचना-कर्म धरा हुआ है. उस जगह की उर्वरता है,जहाँ से वह उगा है और उसे काट-माँड़,चाल-ओसा कर उपज के रूप में जहाँ तरतीब से रखा हुआ देखा जाता है. ये लेख केदारनाथ सिंह के कवि से मुक्त नहीं है. एकाध को छोड़ दिया जाय तो राग सारा कविता का ही है. संवेदना सारी लोक ही की है. केदारनाथ सिंह का सारा काव्य अपनी देशजता और ओरिज़न के प्रति बेहद गंभीर है. यह देशजता एक सांस्कृतिक परिधि के भीतर न होकर वैश्विक विस्तार वाली है. इन लेखों में भी पाठक देखेंगे कि वे अपनी इंडिजेनिटी और आइडेंटिटी से विलग नहीं हो सकते. बल्कि वे उसे आजीवन सिरजना और बचाना चाहते हैं. एक प्रकार का नॉस्टेल्जिया (अतीतमोह) भी इनमें दिखता है किन्तु यह उस सांस्कृतिक अतीतजीविता का आग्रह नहीं है जो एक लिजलिजे क़िस्म के भूतजीवी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का उत्पादन कर फ़ासीवाद की पालकी में कांधा लगाता है. यह साहित्य और लोकजीवन के प्रति एक राग पैदा करता है. अत्यंत डांवाडोल करने वाले समय में बड़े धैर्य और संयम के साथ अपनी देशी ज़मीन पर स्थिर खड़े होने का सामर्थ्य देता है.

इन लेखों में निबन्धों का सा लालित्य है. ये कहीं आत्मपरक हैं तो कहीं वस्तुनिष्ठ. इनमें कहीं स्मृति है तो कहीं सामयिकता. इनमें आपको बौद्ध संस्कृति मिलेगी,पर्यावरण की चिंता मिलेगी. साहित्य के वैश्विक संदर्भ मिलेंगे. नदियाँ,नाव,पुल,हल और खेत मिलेंगे. कुशीनगर मिलेगा और मिलेगी कुशीनारा नदी जिसके किनारे बुद्ध ने निर्वाण प्राप्त किया था और जिसे नदी के रूप में अब लोग भूल रहे हैं. जिसके लिए कवि लिखता है बुद्ध की नदी मर रही है. मिलेगा बलिया जनपद और पूर्वी उत्तर प्रदेश का लोकसौंदर्य. भिखारी ठाकुर और भारतेन्दु भी मिलेंगे. लोकसंगीत, यात्रा वृत्तांत और संस्मरण मिलेंगे और इन सब के साथ मिलेगी साहित्य की फ़िक्रमंदी और कविता का नैरंतर्य. साहित्यिक दृष्टि से दक्षिण भारतीय भाषाओं के मध्यकालीन और आधुनिक कवियों पर लिखे गए उनके लेख अत्यंत महत्वपूर्ण हैं. ये क़ब्रिस्तान में पंचायतपुस्तक की पठनीयता को समूचे भारत की साहित्यिक आभा से दीप्त करते हैं. इनमें कन्नड़ कवयित्री अक्का महादेवी,कन्नड़ के ही भक्त कवि अल्लामा प्रभुऔर विद्रोही संत कवि वसवन्ना,मलयालम के कवि कुमारन आशान,तेलुगू की दलित कविता और भाषा के दलित कवि गुर्रम जाशुआ व कवि अजन्तापर लिखी गईं समीक्षात्मक टिप्पणियाँ बेहद प्रभावी हैं,जो भारतीय साहित्य की पूर्णता से तुष्ट करने वाली हैं. 

दक्षिण भारत की दलित कविता पर लिखते हुए केदारनाथ सिंह से ने जो टिप्पणियाँ की हैं वे इस बात से अवगत कराती हैं कि अपनी कविताओं में लोक-संवेदना को रचते हुए जो कवि दलित समस्याओं से विमुख होता या एस्केप करता हुआ नज़र आता है,वह इस समस्या पर बहुत गंभीर है. इस अंदेशे के साथ कि इन मसलों पर मुखर न होने की उसकी अपनी सामयिक,जाति-वर्णगत या अन्य प्रकार की विवशताएँ हो सकती हैं. कवि केदारनाथ सिंह का यह थोड़ा सा दलित विमर्शउनके अपने गाँव के बचपन के मित्र जगन्नाथ की मृत्यु पर लिखे गए संस्मरणात्मक आलेख में भी मिलता है,किन्तु आधुनिक भावबोध की सहानुभूति के साथ. उसमें उत्तर-आधुनिक मुखरता नहीं है,वह भी तब जब विपन्न मृतक दलित उनके बचपन का मित्र है. वे उसे अंत्यज और भारत की भीड़ का अंतिम नागरिक कहते हैं. अपने बचपन के दलित मित्र की मृत्यु पर वे लिखते हैं:


पर यहाँ मैं छोटी सी भूल-सुधार कर लूँ. मैं जिसे जगन्नाथ कह रहा हूँ,वह गाँव के लोगों की ज़बान पर असल में जगरनाथथा- यानी तत्सम से गिरा हुआ एक धूल सना तद्भव. आगे मैं उसे इसी नाम से पुकारूँगा. हमारी भाषा में वर्ण-व्यवस्था की जड़ें किस तरह घुसी हुई हैं,इस पर प्रायः विचार नहीं किया गया है. कभी किया जाएगा तो जगरनाथजैसे असंख्य मामूली जनों के नामों के भीतर से एक ऐसी दुनिया दिखाई पड़ेगी,जिसका सामना करने के लिए अतिरिक्त साहस की ज़रूरत होगी.

उनकी यह सहानुभूति उनके अपने कवि मित्र देवेन्द्र कुमार उर्फ बंगाली जी पर लिखे गए लेख में भी मिलती है. यह सहानुभूतिउत्तर-आधुनिक दलित विमर्शकारों के द्वारा किस दृष्टि से देखी जाती है,इसे अपने दलित कवि मित्र के बारे में लिखते हुए वे स्वयं बता जाते हैं,किंतु इस विकराल और जटिल सामाजिक समस्या पर वे कोई साहित्यिक चोट करने का ख़तरा जिसे अभिव्यक्ति का भी ख़तरा कहा जा सकता है,नहीं उठाते हैं. लेकिन इस मुद्दे पर उन्हें पढ़ते हुए ऐसा अनुभव होता है,कि जैसे वे कहना चाहते हैं कि दलित की समस्या दलित होना नहीं बल्कि समाज के एक हिस्से का सवर्ण होना है. वे अपने दलित कवि मित्र देवेंद्र कुमार बंगाली जी के विषय में लिखते हैं:

असल में,अपने शहर के जिस समाज में रह रहे थे,उसमें वर्ण-आधिपत्य का बोलबाला था. उनका प्रत्यक्ष टकराव किसी से नहीं था,उल्टे उन्हें सबसे गहरी सहानुभूति मिलती थी. पर मुझे लगता है कि यह संभ्रांत नेत्रों से टपकती हुई सहानुभूति ही थी,जो उन्हें सबसे अधिक बेचैन करती थी. एक अंत्यज कुल में पैदा होने वाले अति संवेदनशील कवि को यदि सड़क पर चलते हुए लगता हो कि कोई उसका पीछा कर रहा है,तो इसे उसकी विक्षिप्तता कह कर टाला नहीं जा सकता है. कई बार तथाकथित बड़ोंसे मिलने वाली सहानुभूति भी एक स्वाभिमानी मन को इस तरह लगती है,जैसे कोई पीछा कर रहा हो.

अपने उस दलित कवि मित्र के विषय में लिखते हुए,जिसके बारे में उनका स्वयं मानना है कि अनेक कृतियों के बावजूद जिसकी बहुत कम चर्चा हुई,वे दलित (सह)-अनुभूतियों से राब्ता क़ायम करने की कोशिश करते हैं. उनकी यह कोशिश दक्षिण भारतीय दलित कविता की समीक्षा में और अपने दलित कवि मित्र देवेंद्र कुमार बंगाली जी को निराला के बाद हिंदी का सबसे संभावनाशील और मौलिक गीतकार बताने में भी दिखाई देती है. तेलुगू दलित कविता पर चर्चा करते हुए वे यह भी लिखते हैं कि, दलित लेखन स्वाधीनता के बाद की शायद सबसे चर्चित सांस्कृतिक परिघटना है. और सबसे अहम है दक्षिण के काव्य पर बात करते हुए काव्य-पंक्तियों का उनका चुनाव. जिन्हें वे उद्धृत करते हुए चलते हैं. निश्चय ही इसमें हिंदी के एक बड़े प्रौढ़ कवि की संवेदनात्मक रुचि है. तेलुगू दलित कविता पर बात करने के क्रम में उन्होंने जो पंक्तियाँ उद्धृत की,वे इस तरह की हैं-

इस देह के साथ
इस देश में जीना भयानक है
इन चांडाल देहों के लिए
एक चांडाल देश चाहिए
ताकि कम से कम सिर के बालों को तो
बचाया जा सके.   

और इन पंक्तियों के ठीक नीचे वे लिखते हैं कि, क्या इस पर टिप्पणी करना ज़रूरी है ?ये पूरे स्नायुतंत्र को झकझोर देने वाली पंक्तियाँ हैं जो अपनी कहानी आप कहती हैं.इस चुनाव में हम केदारनाथ सिंह के कवि का एक अकृत्रिम सिरा उस छोर पर जुड़ा देखते हैं,जहाँ भारतीय समाज और संस्कृति की जाति और वर्णगत असंगतियाँ हैं. इस तरह केदारनाथ सिंह एक बड़ी तोहमत से भी बच गए हैं कि लोकजीवन को देखने की सूक्ष्म दृष्टि रखने के बावजूद वे इन असंगतियों से अछूते कैसे रह गए ? लिहाज़ा उनकी दृष्टि उधर भी गई है, लेकिन अपनी सीमाओं के साथ. सीमाएँ ये हैं कि लोकजीवन में दलित भी है और उनकी कविताओं में वह कहीं नज़र नहीं आता. अपनी कविताओं में केदारनाथ सिंह जिस गाँव के राग और अतीत व्यामोह में छटपटाते हैं,उसी गाँव को अंबेडकर ने जातीय भेदभाव का नर्ककहा था. 

बुद्ध के प्रति उनका आकर्षण उनके कुशीनगर को लेकर लिखे गए संस्मरणों में बड़ी प्रगाढ़ता के साथ दिखाई देता है. वे कुशीनगर में बसना चाहते थे,क्योंकि उन्हें बुद्ध से प्रेम था. इसके लिए उन्होंने कुशीनगर में एक ज़मीन का टुकड़ा भी देख रखा था. लेकिन कुशीनगर उनकी आँखों के सामने देखते ही देखते बदल गया था. वे उस पुराने कुशीनगर में बसना चाहते थे जहाँ शाल वन थे महँगे होटल नहीं. महँगे हो गए कुशीनगर के बहाने से वे लिखते हैं, आधुनिकता इतनी महँगी क्यों होती है ?क्या इसीलिए वह भारतीय जीवन की जो सामान्य धारा है,उसका हिस्सा आज तक नहीं बन पाई है ?ऐसे में उत्तर-आधुनिकता की चर्चा विडंबनापूर्ण लगती है- मानो एक पूरा समाज छलाँग मारकर किसी नए दौर में पहुँच गया हो.कुशीनगर के विषय में ही वे चीना बाबाका क़िस्सा याद दिलाते हैं. चीना बाबा चीन से अपनी किशोरावस्था में कुशीनगर एक पर्यटक के रूप में आए थे और कुशीनगर में बुद्ध के पास ही रह गए थे. उनका कोई घर नहीं था और वे वहीं एक विशाल बरगद के पेड़ पर मचान बना कर रहते थे. जिस पर कवि कहता है, मुझे कई बार लगता है कि पेड़ शायद आदमी का पहला घर है. इसीलिए जब उसे कहीं जगह नहीं मिलती,तो वह उसी घर में चला जाता है और यह कितना अद्भुत है कि उसका दरवाज़ा हमेशा खुला मिलता है.इन्हीं चीना बाबा को याद करते हुए कवि ने कवि-कथाकार उदय प्रकाश को समर्पित मंच और मचानशीर्षक एक कुछ लंबी कविता रची है. 1960 में जब नेहरू कुशीनगर का स्तूप देखने आए थे तब उस वटवृक्ष को काटने की क़वायद हुई थी. कवि बताता है कि स्तूप को बचाने के लिए जब बरगद को काटने का निर्णय हुआ तो चीना बाबा उस पेड़ को छोड़ने के लिए तैयार नहीं हो रहे थे क्योंकि वह उनका घर था. इस तरह कुशीनगर की विलक्षण बौद्ध संस्कृति और परिवेश को वे पुराने क़िस्सों को याद करते हुए प्रस्तुत करते हैं. इन सब बातों में उनका बुद्ध-प्रेम ध्वनित है. 

केदारनाथ सिंह को अपनी पुरबिहाआइडेंटिटी और भोजपुरी भाषा से जितना अनुराग है,उतना ही भिखारी ठाकुर और लोकसंगीत से भी है. भिखारी ठाकुर को लेकर एक घटना का उल्लेख भी कवि ने अपने एक संस्मरणात्मक आलेख में किया है. उन्होंने भोजपुरी के इस अनूठे लोकगायक को आयोजकों की ना-नुकुर के बावजूद नई कविता पर आयोजित एक संगोष्ठी के मंच पर बुला लिया था. इस संगोष्ठी में उनके साथ राजकमल चौधरी भी थे. कवि की ऐसी लोकानुरागी चित्तवृत्तियों की झलक उसके लेखों में यत्र-तत्र दिखाई देती है. रामनरेश त्रिपाठी के लोक-गीत संग्रहण कार्य का स्मरण करते हुए उन्होंने अपने पूरब की कई लोक-कलाओं का उल्लेख किया है जो लोकसंगीत पर आधारित हैं. इनके पीछे कवि के लोकानुरागी चित्त की वह बेचैनी है जो लोक कलाओं के धीरे-धीरे समाप्त होते जाने से उत्पन्न हुई है. इस संदर्भ में उन्होंने अपने क्षेत्र की समूहगायन की एक शैली झिंझरीका ज़िक्र छेड़ा है,जो नदी में बाढ़ आने पर नावों पर रात में आयोजित होती थी. ऐसी लोक-शैलियों के विलुप्त होने की चिंता में वे लिखते हैं:


मनुष्य द्वारा आविष्कृत एक कलारूप का खो जाना और हमेशा के लिए खो जाना एक ऐसी गहरी क्षति है,जिसकी कोई भरपाई नहीं. कभी-कभी सोचता हूँ,क्या प्रकृति और कलारूपों के सर्जन का कोई अनिवार्य संबंध है ?क्या ऐसा नहीं लगता कि औद्योगिक क्रान्ति के बाद से अब तक कलारूपों का यदि कोई इतिहास लिखा जाए (ऐसी कोशिशें थोड़ी बहुत की भी गई हैं) तो पाया जाएगा कि अर्जित कलारूपों का विलयन अधिक हुआ है और उसकी तुलना में नए कलारूपों का सर्जन शायद कम ?इस मान्यता के सत्यापन के लिए मेरे पास तथ्यों के आँकड़े नहीं हैं.

लोक-कलाओं के साथ-साथ कवि के मन में भाषा और साहित्य की चिंताएँ भी हैं. अपने कवि मित्र सूर्यप्रताप को याद करते हुए कवि ने भाषा पर अपने अगाध विश्वास को बताने के लिए कहा है कि, भाषा किसी अदृश्य फिल्टर से छानकर उस चीज़ को ज़रूर बचा लेती है,जो बचाने लायक होती है.भाषा की भाँति उसके शब्दों में भी उनकी बड़ी आस्था है. यह विचार उनकी कविताओं में काव्यात्मक गठन के साथ अभिव्यक्त हुए हैं. भारतीय भाषाओं में शब्दों के चक्रीय संतुलन और उनकी व्युत्पत्ति के विषय में वे उनका विचार है:

भारतीय जीवन में शब्द जिस टकसाल में ढलते हैं,उसकी नींव की गहराइयाँ खेतों-खलिहानों और सुदूर वनांचलों तक फैली हुई हैं. यदि मरे हुए शब्दों और नवजातक शब्दों की कोई बृहत सूची बनाई जाये तो हम पाएंगे कि शहर में यदि एक शब्द मर गया (यानी अपने अर्थ से च्युत हो गया) तो उसके भूगोल के सुदूर किन्हीं कोनों में- किसी पुराने शब्द में कोई सर्वथा नई ध्वनि से पैदा हो गई या एक मृत शब्द ने किसी अज्ञात जिह्वा पर फिर से जन्म ग्रहण कर लिया. मनुष्य का पुनर्जन्म होता है या नहीं,मैं नहीं जानता पर,शब्दों का जीवन-चक्र ऐसे ही चलता है और इस चक्र का संबंध मनुष्य के जीवन-चक्र से है,जो वस्तुतः जीवन की निरंतरता का दूसरा नाम है.

शब्दों के इस चक्रीय जीवन में आशा रखने के पीछे भाषा के प्रति कवि का विश्वास है. केदारनाथ सिंह की कविताओं में भाषा और शब्द को लेकर उनकी निष्ठा,उनके आशाजन्य विश्वास को देखा जाता है,जब वे कभी अपनी भाषा में लौटते हैं या शब्द और मनुष्य के टकराने से हुए धमाके को सुनने की आकांक्षा व्यक्त करते हैं. शब्द और भाषा के प्रति लेखक का यह विश्वास ही साहित्य को गौरव प्रदान करता है. गंभीर साहित्य रचने के लिए भाषा के प्रति न केवल गंभीर होना पड़ता है, बल्कि शब्दों से निरंतर,पूर्व से अधिक नज़दीकी बरतनी पड़ती है. 

साहित्य सदैव शब्द और भाषा में ही बचता है. क़ब्रिस्तान में पंचायत का जो अंतिम लेख है वह इसी प्रश्न को लेकर है कि क्या साहित्य बचेगा ?इस प्रश्न के उत्तर में कवि ने बड़े धैर्य से बताया है कि साहित्य बचेगा और उसे छोटे शहर बचाएंगे. आज जब साहित्य के केंद्र केवल बड़े शहर रह गए हैं और उच्च-आधुनिक सूचना तकनीक व दृश्य-श्रव्य माध्यमों के आतंकित करने वाले शोर में साहित्य को फालतू की वस्तु कहा-समझा जाने लगा है,ऐसे समय में कवि की एक बात साहित्य में निष्ठा रखने वालों को आश्वस्त करती है. वह यह कि, वे यह नहीं समझते कि इस ऊपरी तौर पर दिखने वाले फालतूपन में ही साहित्य की ताकत छिपी होती है.साहित्य में यह विश्वास भाषा की शक्ति के बोध से फलित होता है.

क़ब्रिस्तान में पंचायत में भारतीय भाषाओं के कवियों के साथ ही विदेशी कवियों या विश्व कविता पर भी सुगठित बातें की गई हैं. ब्रिटेन की हिंदी कविता पर एक पूरा लेख है. पुश्किन और एव्तुशेंकोपर लेख हैं. जापानी कवि तोगे संकिचीपर एक लेख है जिनकी कविताएँ हिरोशिमा और नागासाकी पर गिराए गए परमाणु बम की घटना से संबंधित हैं. ये लेख हमें सिखाते हैं कि विश्व कविता को पढ़ने के लिए दृष्टि को कैसा विस्तार चाहिए. कवि में कविता पढ़ने की और उसमें भरी अनुभूतियों को अपनी ही तरह दूसरे को महसूस कराने की जो तड़प है वह इन लेखों में दिखती है. कविता को बेहद गंभीर रचनात्मक और भाषिक कला माध्यम मानने वाले कवि के विचार भी कहीं-कहीं मिलते हैं. जैसे कि कविता आदमी और व्यवसाय के बीच की खाली जगहों का निर्माण करती है और इसीलिए ज़रूरी है. कविता के प्रति यह विश्वास उसे अपरिहार्यता में बदलता है. उनका यह विश्वास कि, कवि मृत्यु पर विजय अपनी कविताओं की बदौलत पाता है,उनके एक वाक्य से पता चलता है जो उन्होंने तेलुगू कवि अजंता के विषय में बात करते हुए लिखा है. और वह यह कि:


मृत्यु के बाद आखिर अपनी कविताओं से बेहतर कौन-सी जगह होती है एक कवि के लिए’ 
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poetarshbbk@gmail.com                                        

लमही का हमारा कथा समय -१ : निशांत

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स्त्री कथाकारों पर असाधारण अंक
निशांत




हिंदी कथा साहित्य चाँद,तारों,सितारों,ग्रहों,उपग्रहों से भरा पड़ा है. यह एक विशाल दुनिया है जहाँ हर किसी के पास अपनी कहानियाँ है. जिंदगी खत्म हो जाती है,जिंदगी की कहानियाँ कभी खत्म नहीं होती. वैसे भी कहानी एक खत्म न होने वाली विधा है. इसी न खत्म होने वाली विधा को केंद्र में रखकर लमहीके सम्पादक विजय रायने हमारा कथा समय : 1नाम से लमही का एक अन्य अंक निकाला है. यह कथा समय 1 है अर्थात् गिनती चालू हो गयी है,अभी 2 और 3 एवं आगे भी और अंक आयेंगे ; ऐसी उम्मीद बनती दिख रही है. फिलहाल तो तीन अंकों की योजना बनी हुई है,यह सम्पादकीय पढ़कर जाना जा सकता है.  

इस अंक में 47 स्त्री कथाकारों की प्रमुख कहानियों को आधार बनाकर हमारे समय के प्रमुख आलोचकों से लिखवाकर 220 पृष्ठों में इसे समेटा गया है. इसमें शामिल होने वाली महिला कथाकार है –

ममता कालिया, सूर्यबाला, मृदुला गर्ग,सुधा अरोड़ा, नासिरा शर्मा, शीला रोहेकर,नमिता सिंह,दीपक शर्मा,सुमति सक्सेना लाल,मैत्रेयी पुष्पा, उषा किरण खान, मधु कांकरिया,आशा प्रभात,सुषमा मुनींद्र,सारा राय, गीतांजलि श्री, अलका सरावगी, लवलीन,वंदना राग,मनीषा कुलश्रेष्ठ, महुआ माजी,जयश्री राय,जया जादवानी,वंदना देव शुक्ल,उर्मिला शिरीष,रजनी गुप्त,निर्मल भुराड़िया, अल्पना मिश्र, नीलाक्षी सिंह, प्रत्यक्षा,कविता,किरण सिंह,आकांक्षा पारे काशिव, ज्योति चावला,दूर्वा सहाय,उपासना, गीताश्री, पंखुरी सिन्हा, प्रज्ञा पाण्डेय, दिव्या शुक्ल,दया दीक्षित,प्रज्ञा, इंदिरा दागी,अंजली काजल,भूमिका द्विवेदी अश्क और सोनी पाण्डेय .

फिर भी कोई सूची अंतिम सूची नहीं होती. कवि विनोद कुमार शुक्ल की भाषा में कहा जाए तो सब कुछ होने के बाद भी सबकुछ होना बचा रहेगा. कोई न कोई कहानीकार छूट ही जाता है. यह छूटना कई कारणों पर निर्भर करता है,कभी-कभी सम्पादक से ज्यादा आलोचक-रचनाकार भी इस छूटने के लिए जिम्मेदार हो जाते हैं. एक उदाहरण इसी अंक में चित्रा मुद्गल जी के छूटने का है. फिलहाल छूटने से ज्यादा जो है,वह क्या है?यह देखना ज्यादा जरूरी  है.

स्त्री कथाकारों की एक सुदृढ़ और लंबी परम्परा रही है. आधुनिक हिंदी कहानी के जन्म से इंदुबाला घोष अर्थात् बंग महिला की दुलाई वाली कहानी से लेकर ज्योति चावला तक. यह परंपरा आजादी के बाद और मजबूत हुई है. खासकर के स्त्री लेखन के उभार के दौरान .
    
लेखन भी एक तरह से पुरूषों के एकाधिकार वाला क्षेत्र रहा है, कहानियाँ चाहे पुरूषों ने लिखीं हों,वे बची रहीं हैं एक स्त्री के कंठ में ही. स्त्री के कंठ में आकर ही वे अमर होती हैं. मुक्तिबोध ने सगर्व घोषणा की थी, ‘मेरी माँ ने मुझे प्रेमचंद का भक्त बनाया था.इस पुरूष प्रधान समाज और क्षेत्र में इंदुबाला घोष ने भारतीय कहानी के शुरुआती दौर में अपनी जगह सुनिश्चित कर ली थी. कृष्णा सोबती और मन्नू भण्डारी स्त्री लेखन को, खासकर कथा लेखन को आजादी के बाद नयी बुलंदियों की तरफ ले गईं. इन्हीं के बाद साठ के दशक के बाद की स्त्री कथाकारों की  कहानियों पर यह अंक विजय राय ने संपादित किया है. यह अंक इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि जब-जब कहानियों की मृत्यु की घोषणा हुई है, कहानियाँ थोड़ा और ज्यादा अमर हुई हैं.
    
कभी नामवर सिंह ने भारत में कहानी के जन्म देने और पालन-पोषण के संदर्भ में कहा था कि, “आजादी के साथ भारत में वह शिक्षित मध्य वर्ग स्थापित, विकसित और संवर्धित हुआ जो साहित्य के इतिहास में कहानी का जन्मदाता है .”जब से कहानी लिखित फार्म या मुद्रित रूप में आई,तब से ही पढ़ने-लिखने वाले तबकों ने इसे हाथों-हाथ लिया. वैसे भी कहानी पढ़नेवाला-सुननेवाला एक वर्ग हमेशा से रहा है,लिखने वालों की तुलना में. यह पाठक-श्रोता वर्ग,वही मध्यम वर्ग है,जिसकी तरफ नामवर जी ने इशारा किया है. मध्यवर्ग की अवधारणा अंग्रेजों के आने के बाद भारत में बनी,खासकर के शिक्षित मध्यवर्ग की. शिक्षित मध्यवर्ग की स्त्रियों ने ही लेखन के क्षेत्र में एकाधिकार जगाए पुरूषों को चुनौती ही नहीं दी,बल्कि सिक्का बदल गया,वापसी,मैं हार गयीजैसी कालजयी कहानियाँ भी दीं.    
    
कभी सिमोन द बोउवा ने कहा था कि स्त्री पैदा नहीं होती,स्त्री बनाई जाती है. इस स्त्री को बनाने में हमारे पितृसत्तात्मक समाज ने अपने सारे हथकंडों,औजारों और विचारों को लगा दिया. इस बनी हुई स्त्री ने जब अपने बनने का राज खोला तो द सेकेण्ड सेक्सजैसी कालजयी कृति आयी. वास्तव में स्त्री जीवन को जानना-समझना हो तो एक पुरूष कथाकार की कहानियों से ज्यादा एक स्त्री कथाकार के माध्यम से ही हम इसे समझ सकते हैं. पंकज पराशर ने अपने आलेख,जो इस पत्रिका का प्रथम आलेख भी है में इस तरफ सही इशारा किया है –
“मानव होते हुए भी स्त्री-पुरुष की मनोरचना अलग-अलग है. उनकी समाजीकरण की प्रक्रिया,व्यक्तित्व-निर्माण की प्रक्रिया हमारे समाज में नितांत भिन्न है. जाहिर है,लेखन भी भिन्न होगा. स्त्री जब लिखती है तो वह आत्मानुभव होता है. पुरूष जब स्त्री के बारे में लिखता है तो वह परानुभव होता है. स्त्री की भाषा और शैली भी भिन्न होती है . वह न केवल क्या हो रहा है लिखती है बल्कि क्या होना चाहिए यह भी लिखती है. उसका आवेग,उसकी लाल बिंदी का ओज, उसकी चूड़ियों की खनक,उसके बालों की उड़ान, उसके लिबास और उसके रंग,उसकी खुशबू उसके रचे साहित्य में इतने अनूठे ढंग से गुंफित होती है कि पाठक बरबस शब्दों को पकड़ मोहाविष्ट हो कहानी के साथ बहुत सरलता से यात्रा पर निकल पड़ता है . यही स्त्री-लेखन की लोकप्रियता का राज है. दूसरा फर्क यह है कि सेकेंड सेक्स होने के कारण सदियों की पीड़ा और संघर्ष जो कि स्त्री-जीवन का अनिवार्य हिस्सा है,वह निजी होते हुए भी सामाजिक होता है .”

एक स्त्री भिन्नता और निजीपन को कैसे सामाजिक में परिवर्तित करती है,बिना स्त्री रचनाकार को पढ़े नहीं जाना जा सकता है. उदाहरण के लिए इसी अंक में मानसरोवर खण्डके अंतर्गत अंजली देशपाण्डे और उमा झुनझुनवाला की कहानियों को देखा जा सकता है .
    
एक समय महादेवी वर्मा ने लिखा था– “पुरूष के द्वारा नारी का चरित्र अधिक आदर्श बन सकता है परंतु अधिक सत्य नहीं,विकृति के अधिक निकट पहुँच सकता है परंतु यथार्थ के अधिक समीप नहीं.”
पुरूष अंतत: पुरूष ही होता है. अब तो इस बात को टेलीविजन पर बड़े जोर-शोर से विज्ञापित भी किया जा रहा है. वह स्त्री को देवी, माँ,सहचरी,प्राणही बना सकता है,अपने जैसा इंसान नहीं. इसलिए संपादकीय में विजय राय ने पुरूषों के लेखन के बारे में एकदम सटीक लिखा है कि
“जब पुरूष स्त्रियों के बारे में लिखता है तो अपनी तमाम सहानुभूति और संवेदना के बावजूद वह पूरी तरह न्याय नहीं कर सकता है. दूसरा उसमें किसी या किन्हीं अंशों में पुरूषवादी सोच के आ जाने की संभावना बनी रहती है.”

पुरूष का लेखन वही परानुभव वाला लेखन है,जबकि आजादी के बाद हिंदी कथाकारों की दुनिया  में स्त्रियों के लेखन और विकास को “हिंदी में स्त्री-लेखन के विकास का अगर संक्षेप में समझाना हो तो अभिव्यक्ति,अस्मिता और अभिमान  का ये तीन सूत्र पर्याप्त हैं. विशेष कर कहानी के परिदृश्य में तो ये सूत्र और भी सटीक साबित होते हैं. स्वतंत्रता आंदोलन के समानांतर चली स्त्री अभिव्यक्ति की जद्दोजहद साठ और सत्तर के दशक के बाद की कहानी में स्त्री अस्मिता की पुरजोर वकालत के रूप में सामने आती है. मगर नब्बे के दशक में चली भूमंडलीकरण की बयार ने हिंदी में स्त्री कहानी की सूरत भी बदली. यह और अनुगामी समय ऐसा दौर है जिसमें हिंदी में स्त्री लेखन ने अ‍ॅसर्ट करना शुरू किया.”
इसी दौर में स्त्री कथाकारों ने अपनी पहचान को पुख्ता किया. उसे दुनिया के सामने मजबूती से रखा. उन्होंने बताया कि मजबूरी का नहीं,मजबूती का लेखन है स्त्री साहित्य .
    
नब्बे के बाद हिंदी में स्त्री-लेखन का दायरा काफी विस्तृत होता है. स्त्री-विमर्श,आदिवासी-विमर्श और दलित-विमर्श अर्थात् अस्मितामूलक विमर्शों का एक नया दौर चल पड़ता है. वास्तव में “विमर्शों का आरम्भ समानता की आवश्यकता के कारण ही हुआ है. चाहे अभिव्यक्ति का स्तर कोई भी हो- आत्म की हो या शिल्पगत या शब्दगत.”  

इन विमर्शों की आवाजों को भी पुनीता जैन ने दलित और आदिवासी स्त्री कथाकारों का रचना-संसारवाले आलेख में विस्तार से पकड़ा है. आज दलित और आदिवासी रचनाकार भी दया या उधार की संवेदना के बजाए अपने अनुभव और संवेदना को वाणी देने को तत्पर है. सुशीला टाकभोरे,रजनी दिसोदिया,अनिता भारती,पूनम तुषाभड़,एलिस एक्का, रोज केरकेट्टा,फ्रांसिस्का कुजूर और सुशीला ध्रुवेकी कहानियों के पड़ताल के बहाने पुनीता जैन ने एक विस्तृत संसार से हम पाठकों को परिचित करवाया है. इसी तरह का दो और आलेख प्रवासी कथा के भावनात्मक मानचित्र और वैश्विक साहित्य में हस्तक्षेप : पंखुरी सिन्हातथा प्रवासी महिला लेखन का विस्तृत क्षितिज : प्रांजल धरने लिखा है.
प्रवासी कथाकारों की यह शिकायत रही है कि उन्हें मुख्यधारा से अलग रख कर देखा जाता है . उनकी इस शिकायत को यह दो आलेख काफी कम कर देते हैं. यहाँ उषाराजे सक्सेना, इला नरेन, अर्चना पेन्युली,अनीता कपूर,सुषमा वेदी,सुधा ओम ढींगरा,दिव्या माथुर,नीना पाल,अनिल प्रभा कुमार, सुदर्शन प्रियदर्शिनी,कविता वाचकनवी और जाकिया जुबैरीकी कहानियों के बहाने एक दूसरी दुनिया से हमारा परिचय कराती हैं. वह दुनिया भी हमारी दुनिया से से किसी भी मायने में कम नहीं है. वहाँ भी स्त्रियाँ,स्त्रियाँ ही हैं. कथालोचक पंकज पराशर की जो चिंता है कि "गैर हिंदी भाषी कथा-भूमि से वावस्ता कहानियाँ बहुत कम मिलती हैं.”वो चिंता यहाँ कुछ कम हो सकती है. इसी कड़ी में एक और महत्वपूर्ण आलेख मुक्ता टंडन का है- 'उभरती कथा लेखिकाओं की दृष्टि में सामाजिक विमर्श'. इसमें रख्शंदा रूही महदी ,गजल जैगम,उषा,पूनम मनु राणा, प्रतिभा कटियार, मीना पाठक,सिनीवाला शर्मा,सोनाली मिश्रा,कंचन सिंह चौहान,रमा यादव,शोभा सिंह मिश्राऔर इंदु सिंहकी कहानियों के बहाने सामाजिक विमर्श पर ध्यान केंद्रित किया गया है. इस तरह कुल 72 महिला कथाकारों को यहाँ समेटा गया है,जिनमें 46 पर स्वतंत्र आलेख है.
    
यह अंक  साठ के बाद की महिला कहानीकारों को समझने के लिए मील का पत्थर साबित होगा, इसमें कोई संदेह नहीं है. आवरण पर नैना दलाल की लीथो कलाकृति अद्भुत है, करूणा और सौम्यता की प्रतिकृति. विजय राय के दो सालों के मेहनत का फल यहाँ 220 पृष्ठों पर फैला है,लेकिन इसी के साथ एक डर की तरफ भी संपादकीय में इशारा किया गया है
“लमही के सुधी पाठकों का यह जानना बेहद जरूरी है कि एसजीएसटी और सीजीएसटी के साथ-साथ कागज और छपाई में हुई अपार वृद्धि के कारण हम लगातार भारी घाटे में चल रहें हैं. स्थितियाँ बेहतर करने के लिए हम निरंतर संघर्ष और प्रयत्न कर रहें हैं,लेकिन यदि कामयाब नहीं हुए तो अक्टूबर-दिसम्बर 19 अंक से लमही का प्रिंट वर्जन बंद करके हम इसे सिर्फ ऑन लाइन ही जारी रख पायेंगे .”

एक पत्रिका,वह भी लमही जैसी लघु पत्रिका का बंद होना हिंदी समाज पर काले धब्बे की तरह दिखेगा. इतना बड़ा हिंदी समाज है. इसे बचाने,जिलाए रखने का दायित्व इसी हिंदी समाज पर है,होना चाहिए. आप सोचिए और कुछ करिए कि यह पत्रिका बंद न हो ताकि आपके माथे पर टीका शोभे,काला धब्बा नहीं.
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निज घर : मेरे बडके बाबू – सबके पुजारी बाबा : सत्यदेव त्रिपाठी

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उत्तर भारतीय ग्रामीण समाज को समझने के लिए राजनीतिक और सामजिक अध्ययन की कुछ कोशिशें हुईं हैं. साहित्य की आत्मकथा, जीवनी, संस्मरण आदि विधाएं इस सन्दर्भ में उपयोगी हैं. रंग-आलोचक सत्यदेव त्रिपाठी  इधर गाँव पर केन्द्रित संस्मरणों की श्रृंखला पर कार्य कर रहें हैं.

‘मेरे बडके बाबूसबके पुजारी बाबा’ ऐसा ही उद्यम है. गहनता और प्रमाणिकता से इसमें ग्राम्य समाज अंकित हुआ है.  



मेरे बडके बाबू – सबके पुजारी बाबा...      
अरे यायावर, आते हो बहुत याद...

सत्यदेव त्रिपाठी  



स्व. कुबेरनाथ त्रिपाठी थे तो मेरे बडके बाबू, पर चूँकि मेरे बाबूजी (पिता) चल बसे, जब मैं एक साल का ही था, तो दोनो बडी बहनों ने अपने बाबूजी के बडे भाई याने ‘बडके बाबू’ में से ‘बडके’ शब्द को निकाल के कब उन्हें सिर्फ़ ‘बाबू’ ही कहना शुरू कर दिया..., उन्हें भी नहीं मालूम. इस तरह मैंने उनको ही बाबू कहते हुए होश सँभाला...वो तो बहुत बाद में पता चला कि सचमुच में तो वो मेरे बडके बाबू हैं, जो सारी दुनिया में ‘पुजारी बाबा’ के नाम से जाने जाते.... और पूरे बचपन मैंने उन्हें बार-बार घर से जाते और काफी दोनों बाद आते देखा... इसीलिए आज भी यादों के दौरान जो उनकी छबि पहले उभरती है मन में, वह घुमंतू वेश की ही है... हाथ में सुता हुआ सुडौल सोंटा कॉफी के रंग का, जिसे अक्सर बीच से पकडकर झुलाते हुए चलते या फिर कभी-कभी ऊपरी सिरा पकडकर दो कदम आगे जमीन पर हल्का-सा टेके जैसा रखते और पिछला पैर झट से लम्बा डग भरते हुए आगे करते.... क़द उनका न लम्बा था, न नाटा. न दुबला, न मोटा. एकदम मध्यम मार्गी. सूती (कॉटन) साफे की पगडी बाँधते, जो कभी-कभी सिल्क की भी होती. कन्धे पर सादा-रंगीन गमछा, सफेद या हल्के सफेद (ऑफ व्हाइट) या हल्के पीले रंग के पूरी बाँह के कुर्त्ते पर घुटने से नीचे तक लटकती धोती तथा पैरों में किरमिच का बिना फीते वाला काला या भूरा (क्रीम) जूता.... सफर का गाढा व स्थायी साथी एक थोडे बडे आकार का झोला होता उनके पास, जिसमें चौपतकर रखे एक-दो कुर्त्ते व चुनियाई हुई लुडेरकर (गोलाई में लपेटकर) रखी एक-दो धोतियां होतीं.... झोला यूँ तो हाथ पीछे करके पीठ पर लटकाये हुए चलते, लेकिन कभी-कभी उसे सोंटे में लटका कर कंधे पर भी रख लेते. तब उनकी तेज चाल और तेज हो जाती - बल्कि तेज चलने के लिए ही ऐसा करते. झोले में पीतल की एक छोटी बाल्टी और डोरी होती, जो हर दो-तीन कोस पर कहीं कुएं पर रुककर मुँह-हाथ धोने और झोले में मौजूद गुड, गट्टा, बतासा, किसमिस में से कुछ खाके पानी पीने के काम आती.  

झोले के सामानों में बहुत ख़ास यह कि तरह-तरह की औषधियां – छोटी-छोटी गोलियां, भस्म-चूर्ण तथा आसव की शीशियां...आदि भरी होतीं. कुछ खरबिरैया चीजें (पत्ते-टहनियां-बीज-चिचुके फल... वगैरह) भी. वे हल्के-फुल्के वैद्य भी थे, लेकिन ‘नींम-हक़ीम ख़तरेजान’ बिल्कुल नहीं. उनकी बतायी-करायी कुछ दवाओं का सेवन मैं आज भी करता हूँ – बताता भी हूँ अपने लोगों को...और शफा सबको होता है.... इसी का विस्तार यह कि बीमारों की तीमारदारी व इलाज़ के प्रति पूर्ण समर्पित होते.... बुख़ार में प्यास बहुत लगती है और हर बीमार को पानी पिलाने के लिए उनके पास किसमिस जरूर होती. मैं बचपन में 8-9 साल का होने तक बहुत बीमार होता था, जिसे पण्डितजी कोई ग्रह-दशा बताते थे, लेकिन बाबूजी इतनी सँभाल करते थे कि उनके न रहने पर बीमार होता, तो ‘हम बाबू किहन जाब’ करके उनके लिए रोने लगता था - याने बचपने के बावजूद उनकी कमी खलती थी. माँ तो उनकी अनुज वधू थी. खाट के पास आके देख तक न सकते थे – छूके बुखार...आदि अन्दाज़ने का प्रश्न ही कहाँ था? लेकिन हर घण्टे चौखट पर आके किसी अनाम को पुकार-पुकार के पूछ्ते थे – “अरे अब कइसन तबियत हौ ‘सरोसती के माई’ (माँ के लिए उनका स्थाई सम्बोधन – बडी बहन सरस्वती के नाम पर) कै? बुखार कुछ उतरल...”? - याने पूरा व्योरा पूछते रहते...तरह-तरह की दवाएं तो सबके लिए लाते-देते. ठीक होने पर नीम की पत्ती डालके पानी गरम करते और मुझे पीढे पर बिठाकर अपने हाथ से नहलाते, बदन पोंछते...याने इंतहा थी बीमारों की देख-भाल, साज-सँभार की.... और खुद तो जाने क्या-क्या खाते - धोके, रात भर भिंगोके फिर सुबह उसे हाथ से गार के पीते रहते....

ख़ैर, उनके मूल भाव घुमक्कडी में मुझे उनके साथ चलने का अनुभव है. मारे लाड के वे कभी-कभी मुझे साथ ले जाते – प्राय: तब, जब 2-4 कोस जैसी कम दूरी पर आसपास के किसी यज्ञ-अनुष्ठान या शादी वगैरह में जाना होता. सो, होश सँभालने के बाद बचपन भर उनके साथ घूमने का ख़ूब मौका मिला, जो उनकी विरासत, तो क्या असर या निशानी के रूप में आज भी मुझमें मौजूद है - किसी भी वक़्त कहीं भी निकल लेने में और कहीं जाने की योजना बनाते रहने में.... सर्वाधिक याद है उनके ननिहाल याने अपने अजिअउरे (दादी के मायके) जाने की, जो हमारे घर से चार कोस पूरब है – भूपालपुर. बाबूजी वहाँ अक्सर जाते और दस-पन्द्रह दिन तो रहते ही – घर की तरह. उनका वहाँ मान-जान भी बहुत था और चुहल तो ऐसी होती कि वहाँ किसी बारात में बाबूजी के सर पर अँडसा के पत्ते सहित डण्ठल का मौर बाँधके दूल्हा बनाया गया था और असली शादी में शादी का स्वांग खेला गया था. ऐसे हँसी मज़ाक के लिए बाबू का प्रिय शब्द था – दिल्लगी. इसकी अद्भुत सन्धि भी मैंने उन्हीं के मुँह से सुनी थी – जहाँ तक दिल लगा रहे, वही दिल्लगी – याने मज़ाक की एक सीमा होनी चाहिए....

इस तरह जो याद आता है कि बडके बाबू महीने में औसतन 20 दिनों तो घर से बाहर रहते ही थे. थोडा बडे होने पर जाने के पहले बताते हुए सुनने लगा, पर आने का ठिकाना कभी रहता नहीं था.... सलूक उनके हथियानसीन अमीरों, बडे-बडे ज़मीन्दारों से थे...तो बडे-बडे विद्वान- पण्डितों से थे...फिर संतों-फ़कीरों-योगियों-जादूगरों से भी थे. साथ ही तमाम ऐसे गृहस्थों से भी, जो मुकदमा लडने जिले (आज़मगढ) आते-जाते अपने ‘पुजारी बाबा’ के घर रातों को ठहरते – पक्षी-प्रतिपक्षी के साथ कभी-कभी गवाहों को मिलाकर छह-छह, आठ-आठ लोग भी होते, क्योंकि उन्हें बस मिलती हमारे बाज़ार ठेकमा से ही, जो उनके घरों से 10-12 किमी है और तब पैदल के अलावा न साधन थे, न मार्ग. 8-9 में पढते हुए मुझे याद है - उनके अंग्रेजी में मिले अदालती काग़ज़ात को अटक-अटक कर पढने और भटक-भटक़र खींचते-तानते हुए उनके अर्थ –कभी अनर्थ भी- बताने की.... कभी कोई नागा बाबा लोग आते, तो तीन दिन मेरे यहाँ धूनी रमा लेते. ये इतने गन्दे होते कि उनके पास जाने में घिन आती, लेकिन बाबू को कुछ पडी न होती – नये गद्दे-चद्दर तक ले जाके बिछा देते, जो फिर फेंक या उन्हीं को दे दिये जाते. बडी खेती के अच्छी तरह होने के बावजूद पैसों की छूट न थी घर में. सो, ऐसी बर्बादियों पर कमाने व घर चलाने वाले जयनाथ काका आड में बहुत चिढते, पर बडे भाई के सामने कुछ कह न सकते थे – भाइयों को जूए में हार जाने वाले युधिष्ठिर की परम्परा जो थी...!!  एक जादूगर काका तो बार-बार आके हफ्तों रहते.... इन सबकी देख-भाल तो बाबूजी करते, पर सबके खाने-पीने, माँजने-धोने का इंतजाम माँ को करना ही था.... ये लोग तो बाबू के रहने पर ही रुकते, पर योगी-वृन्द आते फेरा लगाने, तो बाबू रहें, न रहें, दो महीने (वैशाख-ज्येष्ठ) मेरी ओसारी में ही अड्डा जमाते. लेकिन ये लोग सिर्फ़ रात को खाते और ख़ुद अपना बाहर ही बना लेते. सो, हमें उनकी कोई किट-किट न थी. दिन भर तो कई गाँवों मे घर-घर जाके गाते और जाते हुए कई-कई बोरे अनाज व कई बक्से भर के सामान ऊँटों या बैल-गाडियों में ले जाते, जो मेरी दालान व ओसारी में रोज़-रोज़ की आमद के रूप में जमा होते रहते थे.

देहात में आये किसी नये साधु महात्मा का पता लगे, तो वहाँ पहुँच जाते.... करीब रहकर उन्हें अन्दाज़ते भी. ऐसे दो पाखण्डियों के रहस्य सप्रमाण खोलने की भी मुझे सही याद है. एक ने अचानक आकर हमारे स्कूल-कॉलेज वाले गाँव बिजौली में बहुत बडा यज्ञ फान दिया– 17 दिन चला. पूरा देहात उमड भी पडा. ढेरों चढावा आया – नक़दी और उपहार-सामान...सब. खूब सफल रहा. बाबूजी एक दो दिनों के अन्दर ही पहुँच गये थे. महात्माजी लोगों का भविष्य भी बताते थे. ऐसे प्रमाण दे देते थे कि मजमा लग गया था. लौटने पर बाबूजी ने बताया कि वो सज़ायाफ्ता या भागा हुआ डाकू जैसा कोई बडा मुजरिम है. अपनी कलाइयों में पडे हथकडियों के निशानों को पूरे समय लिपटी मालाओं में छिपाये रहता था, जिसे वहाँ रहते हुए नहाने-धोने के समय खोजी नज़रों से बाबूजी ने देख लिया था. उन्होंने यह भी लक्ष्य किया कि एक दो दिनों पहले की घटनाओं को जानने की कोई विद्या उसने सीख ली थी, जिसके चलते लोग तुरत विश्वास में आ जाते थे. फिर सबको 20 दिनों से महीने बाद के परिणाम वाले उपाय बताता, क्योंकि तब वह मिलेगा नहीं– और किसी का होना-जाना कुछ है नहीं. यह सच भी निकला, पर पहले कहते, तो कोई विश्वास न करता.... 

इसी तरह हमारे घर से 6-7 किमी पश्चिम स्थित गाँव सोहौली की बडी कुटिया पर आके किसी संत-महात्मा ने अपने शौच न करने की घोषणा की. खूब मेला लगा. चर्चा सुन बाबूजी पहुँचे. दो रतजगे में पकडा गया. दो-ढाई बजे की निबिड रात को निकला और जहाँ आड दबाके बैठा कि बाबूजी ने टोका. पैरों पर गिर पडा. पेट की दुहाई दी. तीन दिन में सब समेट के भागने का वादा कराके लौट आये. हमारे पूछने पर निरी वैज्ञानिक बात कही– थाली भर खाते देखा, तो सोचा कि आख़िर इतना सब जायेगा कहाँ...? शौच तो करना ही पडेगा. फिर तो बस, देखना भर था कि कब और कहाँ...!!

एक तरफ यह सब था, दूसरी तरफ गाँव से उत्तर स्थित इरनी के बडे जमींदार किसुनदेव सिंह कभी पुरा काल में बाबूजी को कायम के लिए अपने साथ रखना चाहते थे. तो इधर मेरे देखे में हमारे गाँव से पश्चिम में स्थित लसडा के ठाकुर रामाश्रय सिंह और ठाकुर वासुदेव सिंह उन्हें लेने के लिए हाथी भेज देते .... उनके जलवे की बात कहूँ... वे दरवाजे के पश्चिम सोने-बैठने की बडी जगह में न सोके रातों को आदतन घर के सामने सोते, जो आम रास्ता था और इतना सँकरा कि खाट के बाद बैलगाडी या हाथी आये, तो निकल न सके.... लेकिन हाथी लेकर आने वाले सारे पिलवान (हाथी हाँकने वाले) अपने इस ‘पण्डितजी’ को सम्मान वश जगाते न थे. हाथी को आदेश देके उनके सहित खाट पश्चिम की ओर हटवा देते और चले जाते.... मैंने दस साल की उम्र के पहले ही उनके साथ दस-दस कोस की यात्रा हाथी पर की है, जो बडी उबाऊ-थकाऊ और त्रासद होती – ऊँट की यात्रा तो कमर ही तोड देती है.... 

पूरब तरफ बिजौली के जमींदार बाबू कोमल राय और संतन-संतोषी साहु (बनिया) घर तक आ जाते, क्योंकि हमारे गाँव की तरफ उनकी ही जमींदारी भी थी.... बडके बाबू के इस प्रताप का भी फायदा मुझे मिला, जब दर्ज़ा 7 से 12 तक मेरी फीस आधी माफ़ हो जाती, क्योंकि कोमल राय के बेटे बाबू राम सेवक राय ही मेरे बिजौली विद्यालय के प्रबन्धक थे और अपने पिता के समय अपने घर में पुजारी-बाबा की साख़ देख चुके थे. कुल मिलाकर बडके बाबू के ही शब्दों में ‘अपने तौहद (चहुँदिस 15-20 मील) में एक बेला भी रहूँ एक घर में, तो साल निकल जायेंगे...फिर दुहराने का मौका आ जायेगा’.... याने सालों-साल घर न आयें, तो भी जीवन चले.... लेकिन घर से भी लगाव उनका कम न था और ‘घर है, तो बाहर यह मान-जान है, वरना बेघर-बार को कोई न पूछे’, का पता भी था....     


ऐसे व्यक्ति को यायावर, घुमक्कड, फक्कड, साधु...आदि तो कहा जा सकता था, पर उन्हें गाँव ने ‘पुजारी बाबा’ क्यों कहा होगा, मुझे आज तक समझ में नहीं आया..., क्योंकि ज्यादा पूजा-पाठ करते तो मैंने उन्हें देखा नहीं– शायद मेरे होश सँभालने के पहले करते रहे हों.... हाँ, ऐसा एक वाक़या याद ज़रूर आता है कि जब ऐसी बारिश हुई कि हफ्ते भर तक थमी नहीं. जल-थल एक हो गया था और जीवन ऐसा अस्त-व्यस्त कि जीना दूभर.... संयोगवश बाबू उस वक्त घर ही थे. गाँव के लोगों -ख़ासकर बडके बाबू के हमउम्रों- ने ललकारा कि ‘क्या पुजारी बनते हो...बारिश तो रोक सकते नहीं’...!! ऐसे चुहल तब होते थे गाँवों में – बल्कि इन्हीं सबसे गुलजार रहते थे गाँव, जिनकी चर्चा यहाँ आगे भी आती रहेगी और जिनसे महरूम हो चुके आज के तथाकथित सुखी-समृद्ध व प्रगत कहे जाने वाले गाँवों के बीच बहुत तडपता है मन.... ख़ैर, तब बाबूजी ने अपने ठाकुरजी को मिट्टी की नयी हाँडी में डुबोकर रख दिया, जो टोटका या एक तरह का अनुष्ठान हुआ करता था- भगवान को पानी में डुबाकर बारिश के संकट का अहसास कराया जाता. यह भक्त की तरफ से भगवान को दी गयी भावात्मक यातना या ‘कै हमहीं कै तोहईं माधव...’ वाली चुनौती जैसा था. कहते हैं कि इससे बारिश रुक जाया करती थी....

लेकिन उस बार चार-छह दिनों रुकी नहीं...और बाबूजी में धीरज तो अमूमन था ही नहीं– यही हाल मेरे पूरे परिवार का है, जिसका ख़ामियाज़ा अपने पेशेवर से लेकर सामाजिक जीवन में भी मैंने ख़ुद बहुत भुगता है (काश, उदाहरण दे पाता), लेकिन ठाकुरजी के सामने जो भी थोडा-बहुत धीरज बाबूजी सँजो पाये, वह पाँच-छह दिनों में जवाब दे गया.... फिर तो क्या था...एक दिन दस-ग्यारह बजे के आसपास गोजी (लाठी) लेकर निकले दुआर पर और लगे फरी मारने याने गोजी फटकार कर उछलने-कूदने, पैंतरा लेकर आसमान की तरफ देख-देख गोजी चलाने, जो अंतत: ज़मीन पर ही गिरती.... यह तो सबके लिए हँसी और मनोरंजन का ही सबब था, पर वे सचमुच बहुत गुस्से में आ गये थे, अपने आप को भूल गये थे. जितना ही फरी मारते, उतना ही भगवान को भला-बुरा कहते-कहते दो-चार मिनट में अपनी पर उतर आये... 

‘दुष्ट-पाजी’ से ‘साले-हरामी’ तक होते हुए भदेस तक पहुँचना ही था. पूरा गाँव जुट गया– बच्चों-बूढों तक. बारिश में भींगने की परवाह किये बिना...जैसा कि किसी भी वाकये पर गाँवों में होता है. मेरा कयास है कि 6-7 मिनट तो चला होगा.... और खूब याद है कि न उनका शरीर वश में था, न ज़ुबान... गनगन काँपने लगा था पूरा बदन और फेंचकुर आने लगा था मुँह से.... आज समझ पाता हूँ कि मन से सच्चे पुजारी का भगवान को गालियां देना आसान न था – बहुत मानसिक दबाव (स्ट्रेस) व मन की गहरी पीडा में रहे होंगे !! पर गुस्सा ऐसा सर्वोपरि था कि सब कुछ भूल जाते– उस मिट्टी में जमे कंकर-ठीकरों वाली जमीन को भी, जिस पर हवाई उछल-कूद कर रहे थे और लहूलुहान हो चले तलवे-एडी-उंगलियों को भी. उस वक़्त उन्हें अपना होश न था. लोगबाग पहले चुहल समझ रहे थे, फिर मज़े लेने लगे थे... लेकिन मामला गम्भीर समझते-समझते कुछ कर पायें, कि तब तक बडके काका सर पे घास लिये आ पहुंचे. उन्हें देखकर सबको फटकारा- वे जान देने पर तुले हैं, तुम सब तमाशा देख रहे हो..!! और बडके बाबू की गोजी बचाके उन्हें पीछे से बाँहों में पकड ही तो लिया. तब तक दो-चार और लोगों ने भी थाम लिया.... बाबूजी का शरीर दस मिनट तक गनगनाता रहा, लोग उन्हें समझाते और काका उन पर बरसते रहे.... कई दिनों तक बहनें कडू तेल में चुराके हल्दी-प्याज बाँधती रहीं....

लेकिन गज़ब की बात यह कि बारिश उसी दिन बन्द हो गयी थी और गाँव के विश्वासु (क्या अन्ध?) मन ने इसे अपने ‘पुजारी बाबा का परताप’ व पुजारी बाबा को मिला ‘ठाकुरजी का परसाद’ समझा.... दोनो के गुणगान होते रहे कई दिनों तक...लेकिन मज़ा यह भी कि अब लगभग साठ सालों बाद गाँव में तब के बचे किसी को यह घटना याद नहीं!! क्या इसलिए भूल गये कि ऐसी घटनायें गाँवों में तब बहुत होती रहती थीं...या इसलिए कि अब ऐसा कुछ होता ही नहीं...या फिर इस कारण कि अपने रोज़ाना के कामों के साथ ‘गुर-चूँटा’ की तरह पिजे गँवईं लोगों की स्मृति इतनी स्थायी नहीं होती...!! लेकिन मुझे तो यह घटना कभी भूली ही नहीं... मौके-बेमौके बहुतों को सुनाता रहा हूँ..., पर यादों में भी उनकी गालियों से मन खट्टा हो जाता है.... लेकिन जब बतौर विद्यार्थी साहित्य से साबका पडा और जीवन को देखने की एक अलग नज़र मिली, ‘भाषाओं के वर्गोद्भूत (क्लास ओरिएण्टेड) होने की सचाई से पाला पडा, तो पाया कि गाँवों में बडे-बुज़ुर्ग लोग बात-बात में गाली बोलते- अपने घर की औरतों के सामने भी. अभी आज मेरे गाँव में शब्दश: अश्लील शब्द ‘चूतिया’ सयाने पुरुष-स्त्री अपनी सामान्य बातचीत में एक दूसरे के सामने बेधडक बोलते हैं. और उन्हें अश्लीलता का भान तक नहीं होता...याने गाँवों के समाज की भाषा ही यही रही है. धूमिल-काव्य में आये ढेरों शब्द इसी आधार पर पचाये-समझे गये. बाबूजी का मामला भी यही था फिर भी आज बाबूजी होते, तो मैं चाहता कि इतनी गन्दी गालियाँ बन्द करें. इससे बचकर भी तो लोक-समाज बन सकता है- बेहतर समाज.

सो, पुजारी बाबा के नाम से ख्यात बाबूजी कभी जटा-जूट बढाये दिखे नहीं...उस पीढी में सर के बाल सबके ही छोटे-छोटे रहते. मेरे गाँव में पुरुषों के लिए कंघी का रवाज ही हमारी पीढी में आके शुरू हुआ. पीला-लाल वेश कभी धारण किया नहीं. कभी लम्बी पूजा या बडा पाठ करते दिखे नहीं. पूजा के नाम पर मैंने बस, घर के ठाकुरजी को नहलाते और दोनो समय भोग लगाते देखा है. जब घर रहते, यह काम वही करते. वरना रुटीन-सा काम था, जो भी करता, होरसे पर चन्दन (की लकडी) घिसकर ठाकुरजी की मूर्त्तियों को अनामिका उँगली से गोल टीका लगाता और उच्छिष्ट-स्वरूप ख़ुद को भी. माँ-बहनें अपने गले पर लगातीं और हम लोग माथे पर....  बडके बाबू इस मायने में अलग थे कि अपने कलेजे और पेट के सन्धि-स्थल पर ठीक बीच में भी अर्ध चन्द्राकार चन्दन लगाते, जो उन्होंने अपने अयोध्या-निवासी पारिवारिक गुरु की वसीयत स्वरूप ग्रहीत कर लिया होगा. क्योंकि गुरु बाबा भी रोज़ लगाते. हाँ, अपने माथे पर बाबूजी चंदन का त्रिपुण्ड बनाते, जो उनका अपना था और वह उनकी पहचान भी था. यूँ हम वैष्णव लोग हैं, शायद इसीलिए वे त्रिपुण्ड के नीचे रोली (लाल) की छोटी-सी बिन्दी भी बनाते. पर थे शिवभक्त. ‘नम: शिवाय’ उनके जीवन का बीजमंत्र था. आज मैं बडा प्रमाण उसे कहूँगा कि जब भाँग खाके सोते थे, तो भीने-भीने नशे में उन्हें भोले बाबा ही दिखते थे और वे उसी सुरूर में उनसे चुहल करते थे– अरे भोलेनाथ, आना है, तो साफ-साफ सामने आइये...ये क्या कि चेहरा दिखा-दिखाके छुप-छुप जा रहे हो...आदि.

मुझे याद इसलिए है कि कई बार बहुत बचपन में ही मुझे भी भाँग पिला देते और मैं नशे में सो जाता उन्हीं के पास. तो रात में उनके संवाद सुनके डरने लगता.... भाँग का नशा वर्जित नहीं है– ब्राह्मणों के लिए भी. व्यवस्था की दाद देनी पडेगी कि नशे भी धवल-काले होते हैं. बाबू राजसी नशा बताते भाँग को. एक बार शाम को पिलाके लेके चल पडे भैंसकुर– 4-5 किमी. पर ही है. कोई बडी शादी थी, जिसमें वे आमंत्रित थे. मुझे अच्छे नाच का लालच दिया. रास्ते में मैं भाँग के प्रभाव में सोने लगा. मुँह धो-ओके, पानी पिला-विला के देख लिया. कुछ देर कोराँ भी उठाके चले. अंत में हारके एक पेड के नीचे गमछा बिछाके सुला दिया. 2-3 घण्टे बाद जागा, तो लेके गये. नाच शुरू हो गया था. मज़ा खूब आया. 4-5 में पढते हुए तक तो मुझे उनके भाँग पिलाने की याद है और छह में मैं ननिहाल पढने चला गया था. फिर उसके बाद छूट गया– शायद मैं भाग खडा हुआ. वे ख़ुद तो रोज़ पीते- यायावरी वृत्ति की पूरक है. भँगेडी तो वे पूरे थे. भांग के लिए उनका अलग सिल-लोढा बाहर ही होता था. अपने लिए तो प्राय: वे एक बार ही महीने भर के लिए पीस के गोलियां बनाके, सुखाके रख लेते थे. कहीं भी रहें, गुड के साथ खाके पानी गटक लेते थे – लोटा ऊपर करके गरदन पीछे लटका के बिना मुँह लगाये पानी पीने की उनकी सधी आदत थी. लेकिन जब कोई साथी-दोस्त होते थे, तो बाबूजी ताज़ा भाँग पीसते और बादाम वगैरह के साथ विधिवत.... यह उन्हें पसन्द था. ऊपर के कपडे निकाल देते और धोती खुँटिया के तल्लीनता से पीसने पिल पडते. देर तक पीसते – बार-बार लोढे से आगे-पीछे करके फेटियाते. कहते कि नशा भाँग में नहीं, उसकी पिसाई में है. और बचपन में मुझे बडा मजा आता, जब वे सिल पर से भाँग कटोरे में ले लेने के बाद सिल धोते थे. लोढे को सिल पर खडा रखके उस पर पानी गिराते हुए मंत्र की तरह दोहा बोलते- सस्वर और बुलन्द आवाज में, जिसे सुनने के लिए मैं देर तक वहाँ इर्द-गिर्द खेलता रहता और बोलते हुए सामने खडा हो जाता – ‘गंग-भंग दो बहिन हैं, रहें सदा सिव संग. मुर्दा तारन गंग हैं कि जिन्दा तारन भंग’..

जिस शाम मुझे पिलाते, सुबह माँ से उनकी कहा-सुनी भी खूब होती. पर बडा होने पर मैं जान पाया कि यह उनका प्यार था, जो अपना सर्वोत्तम वे अपने सबसे प्रिय (मुझ) को देते थे. फिर भी माँ तो उनसे अधिक ही सही थी– एक बच्चे के जीवन का सवाल था. खुद बडके बाबू भी अपनी इस आदत के लिए हमारी दयादी के अपने हरिहर काका को जिम्मेदार ठहराते, जो अच्छे विद्वान और सच्चे भंगड थे. उन्होंने अपने घर के पीछे के अहाते (बाउण्ड्री) में भाँग का एक पौधा भी लगा रखा था, जो हमारे बचपन तक था. जब कभी एकदम भाँग न होती, बाबू हमें भेजते– ‘चुपके से कहना संतिया (शांति) से’. ये शांति उस घर की हमारी बडकी काकी थीं– उसी हरिहर बाबा की बडी बहू. हम जाते, तो वे अहाते में जाके मिट्टी की एक बडी हौदी को थोडा-सा उठातीं और अन्दर से तोड के पत्ते में पुडिया बनाके दे देतीं. इस बाबा का बहुत बडा चेलाना था, जिसमें वे पूरे साल भ्रमण करते थे. और बडके बाबू अपनी किशोरावस्था में मज़े-मज़े में उनके साथ हो लेते.... इस तरह घुमक्कडी और भाँग की आदत धराने में उनका प्रमुख योगदान रहा.... बहुत बार जब पैसों की किल्लत होती, बाबूजी कोसते भी बाबा को – ऐसी आदत धरा के अपने तो ठाट से रहा और चला गया, मुझे मरने-तडपने के लिए छोड गया.... और ऐसे में अपशब्दों का प्रयोग तो उनकी आदत ही थी. लेकिन जब स्वस्थ मन से बात की रौ मे होते, तो मानते- ‘उन्होंने मेरे मुँह में ढरका (बैलो को पिलाने का साधन) तो दिया नहीं था – मेरी ही मति मारी गयी थी. अरे, बचवा ई भांग-सुर्ती न पीता-खाता, और इतने सब पैसे रखता, तो अठन्नी-चवन्नियों (जिसके जुगाड में वे हमेशा लगे रहते...) से अब तक पूरा घर भर गया होता’....

भाँग के साथ सुर्ती (सूखा) की भी बडी तगडी आदत थी उनकी. तब तो हमारी तरफ ‘पत्तहिया सुर्ती’ ही चलती - एक-डेढ फिट की डण्ठल में लगे मटमैले रंग के सूखे पत्ते वाली. उसका मिलना धीरे-धीरे बन्द हुआ और तब कच्ची के रूप में कटुइया सुर्ती का चलन चला.... महाराष्ट्र में शायद पहले से कटुइया ही चलती थी. अस्तु, अपने मुम्बई रहते हुए एक-दो किलो मैं हर दूसरे-तीसरे महीने भेज देता. इस तरह अठन्नी-चवन्नियों के जुगाड से बाबूजी मुक्त हो सके... और तब तक तो अठन्नी-चवन्नियां भी जाती रही थीं.... अपने सुर्ती खाने पर भी बाबूजी कभी कोफ्त करते – ‘बडी बुरी चीज़ है ससुरी... कितना भी बडा रईस हो, हाथ फैलाने से बच नहीं सकता...’. रवाज है कि सुर्ती बनाने वाला आसपास बैठे हर आदमी को पूछता है और खाने वाला लेने के लिए हाथ फैलाता ही है. बस, हमारे पडोसी बिसराम दादा अपवाद थे. उनसे पूछो, तो कहते अभी खाया है और माँगो, तो कहते– है ही नहीं. अपनी इस ‘ऊधौ का लेना, न माधव को देना’ की वृत्ति के लिए वे काफी कुख्यात भी थे. लेकिन सुर्ती के रसिया पूरे गाँव में तब बहुतेरे होते थे, जिनमें बाबू के ख़ास सुर्तिहा यार दो थे– अपने घर से पूर्वोत्तर दो-तीन घर दूर बासू दादा (मौर्य) और घर से सटे पश्चिम में बेचन बरई.

बासुदा सुर्ती खाने आते भी थे बाबू के पास और बाबू के पास न हो, तो ये उनके पास से मँगाते भी थे. दोनो हमउम्र थे, तो दोनो में खूब छनती.... खुर्पा-खाँची लेके घास के लिए निकलते बासू दादा, तो मेरे दरवाजे पर रुक जाते - जिन दिनों बाबू घर रहते. दिखाने के लिए तो मटर-अरहर दलने की मेरी टूट गयी चक्की के उपल्ले वाले पत्थर पर रगडकर अपना खुर्पा चोखारते (धार तेज करते), जिस पर ऐसा करने पूरा गाँव आता और झट से करके चला जाता, लेकिन बासू दादा आधे घण्टे तो रोज़ ही रुकते और इस दौरान दोनो में एक ही चुहल होती.... बतौर उदाहरण, देखते ही एक कहता– अरे खिलाओ सुर्ती, क्या लेके जाओगे अपने कफन के साथ...? तो दूसरा कहता – इस फेरे न रहना, तुम्हारी तेरहवीं की पूडी खाके ही जाऊँगा...और यही ‘सुर्ती से तेरहवीं की पूडी खाने-खिलाने की’ दिल्लगी तथा हाहा-हाहा रोज़ होती, जिससे वे दोनो तो नहीं ही ऊबते, हम सुनने वाले भी रोज़-रोज़ समान भाव से मज़े लेते– बल्कि जोहते कि कब यह चुहलबाजी शुरू हो...क्योंकि उनके तेवर, भाषा और लहज़े रोज़ बदलते रहते– इसे सबसे अधिक पुनर्पुर्नवा कर देती – उनकी दोस्ती की लताफत से लबरेज़ कहने-सुनाने के दोनो के उत्साह और उमंग.... लेकिन जब बासूदादा मरे और ख़बर पाकर बाबू कहीं से तेरहवीं में आ ही गये. तब तक मैं गाँव के आयोजनों में खाना बनवाने-खिलाने जितना बडा हो गया था. देखा था कि खाते हुए बाबू खाने से ज्यादा रोये जा रहे थे...और उनके भाव के अभाव को गिनाते हुए बिलख रहे थे. ऐसे निश्छल अपनापे और निस्वार्थ सम्बन्धों से अब रिक्त हो गये हैं गाँव....

भाँग तो बाबूजी मुझे स्वयं पिलाते, लेकिन धुर बचपन में सुर्ती के लिए एक बार मैंने ज़िद की थी. वे मुझे कोंरा में लिये नहाने-नहलाने पोखरे की तरफ जाते हुए सुर्ती मलते जा रहे थे. मैं छरिया गया- ‘तू खाल्या, त हमके काहें ना खिअवत्या? हमहूँ खाब’ (आप खाते हैं, तो मुझे क्यों नहीं खिलाते? मैं भी खाऊँगा). और उन्होंने ना-ना करते हुए भी मस्ती में हँसते हुए सरसो भर मुँह में डाल दिया...और मैं बेहोश..., क्योंकि कूचके घोंट गया. नहा रहे सारे लोग घिर आये. कोई मेरा सर-मुँह धोने लगा, कोई हाथ-पाँव.... बाद में सुन पडा कि बाबूजी पहले हिलाते-जगाते रहे, फिर दो-चार ही मिनटों बाद रोने लगे थे- ज़ोर-ज़ोर से विलाप कर-करके.... यह रोना  पश्चात्त्ताप वश उनके अंतस् से था, पर वैसे उनकी आदत भी थी – बात-बात में रो देते थे....  

और उनकी एक बडी ख़ासियत थी कि रोना उन्हें नकली भी आता था. इसका वे बहुधा उपयोग लडकियों की शादियां ठीक कराने में करते थे, जो उनकी घुमक्कडी के गौण उत्पादन के रूप में सिद्ध होने वाला एक बडा प्रयोजन था.... कितनी शादियां करायी होंगी उन्होंने यूँ ही बात-बात में, जिसकी कोई गिनती नहीं.... मेरे ननिहाल के पडोसी डिप्टी नाना (हरबंस सिंह) की अत्यंत दुलारी पोती चम्पा का व्याह अपने गाँव के लडके राणाप्रताप से करा दिया. डिप्टी नाना पुराने रईस थे. कुछ दिया नहीं, जिसे लेकर देबिया बहिनी (प्रताप भइया की बडी बहन राजदेवी सिंह) ने दाना भुँजाते हुए भडभूजे की भरसाँय में मेरी माँ से खूब कहा-सुनी की थी. एक वाक्य मुझे अब भी याद है – ‘कंगन झुलावत चलि आयल हमार सोना एस भाई, उन्हन के ए ठे घडियो मवस्सर ना भइल...!! (मेरा सोने जैसा भाई हाथ में कंगन झुलाते चला आया, उन सबों को एक घडी देना भी मयस्सर नहीं हुआ...!!) वह ननिहाल की मेरी ‘बहन चम्पा’ यहाँ आकर ‘चम्पा भाभी’ हो गयीं. बहुत दिनों तक तो बडा घपला रहा, पर धीरे-धीरे अनकहे रूप से यहाँ भाभी वहाँ बहन पर समझौता हो गया. दोनो रूपों में हमारी बहुत अच्छी छनी और निभी. संयोग से चम्पा भाभी-बहिनी ने जब अंतिम साँस ली, सिर्फ़ मैं ही मौजूद था. तब मैं काशी विद्यापीठ में आ गया था और उनके बेटे सुनील ने अपनी मरणासन्न माँ को इलाज के लिए मेरे सुपुर्द कर दिया था.

शादी कराने में बाबूजी के लिए जाति-पाँति, छोटे-बडे का कोई भेद नहीं होता. किसी ठाकुर-ब्राह्मण के घर काम करने वाले मज़दूरों के लडके दिख जाते, और उस उम्र की किसी अन्य मज़दूर जाति की लडकी उनके ख्याल में रहती, तो झट बात चला देते और मिल-मिला के डॉट-डपट के करा देते. यही काम बडों में रोके कराते...गरीब सवर्ण की लडकी की शादी के लिए कोई अमीर बाप हीला-हवाली करता, अनुनय-विनय से न मानता, तो उसके दरवाज़े भूख-हडताल की धमकी दे डालते.... धर्म-भीरु हुआ, तो स्वर्ग-नरक का भय दिखाते और जहाँ देखते कि ऐसे किसी हथकण्डे से काम बनने वाला नहीं, तो आंख में आँसू भरकर अपनी मज़बूरी, लडकी के अभागी और लडकी के बाप के पूर्वजन्म के दुष्कर्म...आदि को लपेटकर रोने का ऐसा छछन्न (पाखण्ड) रचते कि विवश दयार्द्र होकर सामने वाला ‘हाँ’ कर ही देता.... और वे तुरत आँसू पोंछके हँसने-असीसने भी लगते. देखी-सुनी कुछ कुरूप या अनदेखी-अजानी लडकी के भी रूप-गुण की ऐसी अकुण्ठ तारीफ करते कि वह अनिन्द्य रूपसी व सर्वगुण सम्पन्न कन्या हो जाती. बाद में चाहे जितने झोंकारे सुनें.... बडे होने पर मैंने बार-बार इस काम के लिए टोका– क्या मिलता है झूठ बोलके...? उनका एक ही जवाब होता – ‘लडकी बेचारी सुठहरे पहुँच गयी न...और क्या चाहिए? पुण्य का काम है. इसमें झूठ-साँच कुछ नहीं होता.... अरे, कुछ दिन ‘नराज’ रहेंगे, फिर ठीक हो जायेंगे.... फिर जायेंगे कहाँ...उनकी भी तो बेटी है, झख मारके आयेंगे’...आदि-आदि. कई जगहों से जिन्दगी भर उलाहना सुनते रहे, पर उन पर असर नहीं.

वह जमाना ‘डोली आती है, अर्थी जाती है’ का था. मुहावरा आज भी है – ‘भयल बिआह मोर करबे का’, पर मर रहा है. लेकिन बाबूजी की उसी युग में निकल गयी. कुल मिलाकर सचमुच नाम-पुण्य ही मिला. इस पुण्य और अपने प्रिय ‘नम: शिवाय’ के प्रताप का वे एक परथोक (सप्रमाण उदाहरण) भी देते – किसी लडकी की शादी देखने जाते हुए नौका से नदी पार कर रहे थे...और तूफान आ गया. नौका भँवर की ओर बढने लगी. मृत्यु निश्चित मानकर भी ‘नम: शिवाय’ जपने लगे और भँवर के पास पहुँचने के ठीक पहले तूफान ने अपनी दिशा बदल दी... नौका किनारे की ओर लग गयी. ये उस जमाने के विश्वास थे– मूल्य भी कह लें. सूर-तुलसी...आदि भक्त कवियों में ऐसे अनेक प्रसंग सुलभ हैं.... शादी कराने वाले ऐसे लोग आज भी हैं. डिग्री कॉलेज की अध्यापकी छोडकर इसी समाज-कार्य में लग गये एक ठाकुर साहेब से मैं अभी दो महीने पहले ही मिला वाराणसी जिले में नियार के पास. इसमें कुछ लोग आज पेशेवर जैसे भी हो गये हैं, जिन्हें कुछ मामूली खर्च भी दे दिया जाये, तो ले लेते हैं...पर बाबू के उस युग में ऐसे कुछ का नाम तक न था, बल्कि यह सब हराम था....

ऐसे घुमंतू बाबूजी का घरेलू जीवन भी कम स्पृहणीय नहीं. यायावरी के लिए गृहस्थी न बसायी, पर घरेलू बने रहे.... मुझे सबसे अधिक याद आती हैं बडके बाबू की विदीर्ण कराहें और धारासार आँसू, जो उन दिनों हम सबके दिल दहला देते.... करुण क्रन्दन की सुमिरनी बना उनका विलाप आज भी यूँ आँखों के सामने है, गोया कल की ही बात हो - ‘मेरे जैसा अभागा कौन होगा कि इन हाथों से चार भाइयों की अर्थी उठायी और पिता-माता तथा तीन-तीन भाइयों को मुखाग्नि दी...लेकिन मुझे मौत नहीं आयी...’. जी हाँ, मेरे पिता आठ भाई थे, जिनमें सबसे बडे थे सुमेर, दूसरे नम्बर पर थे कुबेर – यही बडके बाबू, इस लेख के नायक. फिर यह तुक बदला, तो नाथ आया – तीसरे दूधनाथ, फिर विश्वनाथ-राजनाथ व पहले वाले सुमेर ...बचपन में ही काल-कवलित हुए, जिनकी अर्थी को कन्धा दिया बडके बाबू ने. बाद में अपने पिता (पण्डित रामदीन) व बडे पिता (पण्डित नारायण) एवं अपनी मां (कुलवंता देवी) के दाह-संस्कार किये. शेष बचे तीनो भाइयों में भरी जवानी में मरे मेरे पिता रामनाथ व उसके दस साल बाद सबसे छोटे शालिग्राम और उक्त क्रन्दन बडके काका जयनाथ को मुखाग्नि देने - दाह करने के बाद क्रिया-कर्म के दौरान के हैं. तब मैं दसवीं में था. इस आख़िरी भाई की मौत से बडके बाबू सचमुच बहुत टूट गये थे, बहुत अकेले हो गये थे...फिर भी उनके कलेजे की बलिहारी...!! 17 साल जीवित रहे.... मेरे नौकर होने का यत्किंचित् सुख उन्होंने ही देखा...

घर के पीछे का हिस्सा वैसा ही पक्का हो गया देखा, जैसा उन चारो भाइयों ने कच्चा बनवाते हुए कल्पित किया था. सिलाप (स्लैब) लगते हुए उन्हें ऊपर ले गया, तो जितनी हसरत से कहा था... ‘बचवा, ई त पूरा गँउयें लौकत हौ...!!’ उतना जुडा गया था हमारा भी जी....

चकबन्दी हुई. सारे खेत के बदले दो जगह नये खेत मिले.... अच्छा चक पाने के लिए खूब घूस चली - बडे जुगाड लगे...और हर तरह से हीन 11वीं में पढता मैं कुढ-कुढ कर रह गया..., पर कुछ संयोग ऐसा बना कि खेत अच्छे मिल गये.... चकबन्दी के बाद पहली ही फसल की सिंचाई हो रही थी कि बडके बाबू कहीं से घर आये और खेत में पहुँच गये.... चारो तरफ नज़रें घुमाके ध्यान से निहारने के बाद एक बरहे (सिचाई के लिए खेत के बीच-बीच में बनी नाली) में मुरकुइंया (घुटने मोडके पंजे-तलवों के बल) बैठ के अघाते स्वर में बोले थे – ‘एइसन खेत मिलल हौ बचवा कि घर भरि जाई मारे अनाज के’!! छोटी छोटी बातों पर किसान की ऐसी बडी-बडी खुशियां...आज इतना कुछ होने पर भी जाने कहाँ खो गयी हैं ...!!

दो-दो कुर्त्ते-धोती –अक्सर यजमानी से मिले हुए - से ज्यादा कभी देखा न था बाबू-काका के पास और न कभी महसूस होते दिखी उन्हें अधिक की ज़रूरत...किंतु चेतना कॉलेज, मुम्बई में पढाते हुए ‘फिनले’ मिल की बनी तरह-तरह की धोतियां और अद्धी, मलमल, सिल्क व ऊनी... आदि कुर्त्ते एक-एक करके लाता, तो बडे चाव से चौपत के अपने झोले में रख लेते -कभी ना नहीं कहा. क्या ‘जानत हौं चार फल चार ही चनक के’ वाले बाबा तुलसी के मौका मिलते ही विपुल किस्म के व्यंजनों के वर्णनों जैसा कुछ दबा-तुपा था उनके भी मन में...या मेरा मन रखने के लिए ना नहीं कहते...मैं कभी समझ न सका...पर मौके-मौके से पहन के चलने में कुछ अलग-अलग से लगते थे बडके बाबू.... ख़ैर, आयें अपनी बात पर...

इतनी विपत्ति झेलने वाले बडके बाबू को अपने जीतेजी बडके काका व मेरे पिता (सबसे छोटके काका भी तो पहलवानी व आवारगी में घर से दूर ही रहे) ने अपने इस बडे भाई याने मेरे बडके बाबू को कभी ‘तिरुन उसकाने’ (तृण तक छूने) नहीं दिया – बाबा तुलसी की कौशल्या की भाषा में – ‘दीप-बाति नहिं टारन कहेऊँ’.... इसका पता हमारी पूरी दुनिया को था और बडके बाबू को सबने इसी रूप में मान भी लिया था. और इसी से माँ को लगा होगा कि अब आख़िरी वक़्त में इनके कन्धे पर जूआ क्या रखा जाये...!! लिहाजा तभी से खेती व घर के सारे काम में मुझे लगाने लगी.... शव-दाह से लेकर सारे क्रिया-कर्म तो बडके बाबू के हाथों ही सम्पन्न होने थे, पर आयोजन-प्रबन्धन का काम माँ की देखरेख में मुझसे होता रहा.... फिर भी काम-क्रिया खत्म होते ही बुवाई के लिए पहली बार खेत में पानी चलाना हुआ और मज़दूर के आने में देरी होते देख बडके बाबू ने नाली सुधारने के लिए फावडा उठाना चाहा...जिसे उनके हाथ से छीन कर जब मैं मिट्टी हटाने लगा, तो ‘यह दिन भी देखना बदा था मुझे’... कहते हुए वे पछाड खाकर नाली में गिर पडे थे.... कारण यह कि मैं तो घर का एकमात्र बच्चा (बेटा) बडके काका के राज व माँ तथा दो बडी बहनों की छत्रछाया में इतना दुलरुवा कि फिर बाबा के शब्दों में कहूँ, तो ‘जिअनमूरि जिमि जोगवति’ का परमान था.... इसमें इन बडके बाबू की शह भी होती, जब वे घर रहते.... और ऐसा मैं...फावडा लेकर खेत में काम करूं...!! उनसे देखा न गया....

ग़रज़ ये कि हमारे बडके बाबू निजांगर या अकर्मण्य न थे, बल्कि सम्मानित दुलरुवे थे, जिसका उदात्तीकरण उनकी सधुक्कडी व पुजारीपने में हो गया था, जिसके बिस्मिल्ला का अन्दाज़ा लगाना मुश्किल नहीं.... असल में चार बेटों के मरने से त्रस्त बडके बाबू के पिता अपने बचे हुए एक बच्चे (बडके बाबू) को कितनी छूटें व लाड देते होंगे, क्या बताने की चीज़ है!! फिर दादाजी अपनी गृहस्थी व यजमानी (जो तब बहुत बडी थी) में इतने व्यस्त भी रहते... उनके बडे भाई थे दोनो आँखों के ‘सूर’.... सो, इस सूरतेहाल में उन्मुक्त बडके बाबू का बचपना आवारग़ी में बीता – शब्दश: निरक्षर रह गये वे. मौके-मौके से ख़ुद पर ही कुढते– ‘पढने की बेला थी, तो स्कूल से भागके अठरहवा (अठारह छोटे बगीचों को मिलाकर एक बडा बागीचा) में साहु लोगों की गाडी पर भेली लादता था, आज भोग रहा हूँ...’. 

इसके बाद किशोरावस्था में अपने उक्त हरिहर काका एवं कुछ अन्य साधु-सवाधुओं का साथ...इधर घर के काम-काज का जिम्मा सँभाल लिया था मेरे पिता ने.... फलत: बडके बाबू को न खेती का काम आया, न यजमानी का. लेकिन अपने मन-माफिक करते वे दोनो.... यजमानी के लिए तो उनका वही ननिहाल काम आया, जहाँ वे बहुत जाते व रहते.... उनके बडे भाई (मामा के लडके) पण्डित राम बिलास तिवारी व्याकरण के ठीक-ठाक विद्वान भी थे और प्राइमरी विद्यालय के दबंग अध्यापक. उन्होंने इन दोनो गुणों के सहारे बाबू को सिखाया. उनकी बडी यजमानी थी, जिसमें मदद लेने का सदुद्देश्य भी था. लिहाज़ा डाँट-डाँट के और बोल-बोल के संकल्प, होम के मंत्र, सत्यनाराण व्रत-कथा की पूरी पोथी, अभिषेक एवं कुछ मशहूर मंगल श्लोक...आदि रटा दिये थे. और फिर तो अपने अति विश्वास के साथ बाबूजी अनपढ इलाकों (जो तब अधिकांश थे) में कोई भी किताब लिये धडल्ले से कथा बाँच आते थे. छोटे-मोटे होम-पाठ...आदि करा लेते थे. 

पैसे भी घर लाके काका को देते थे. एक बार जहाँ कथा बाँच रहे थे, वहाँ कोई पढा-लिखा लडका रिश्तेदारी में आया था, जिसने उस दिन इनके हाथ में पडी किताब पढ ली थी- गानों की थी. पूछ भी बैठा, लेकिन बाबू ने वो डाँट पिलायी कि सारे यजमान उसी को गलत मानकर वहाँ से हटा ले गये.... यह सारा वाक़या करुण व हास्य का ऐसा सम्मिलन है कि तब सहते बनता नहीं था, पर आज कहते जरूर बन गया.....

इसी तरह खेती के काम में अनाडी होने के बावजूद वे खडी फसल काटने के बेहद शौकीन थे.... जब घर होते, हँसिया लेकर पूरा सिवान घूम आते और जो खेत काटने लायक हो गया होता, उसे काट के गिरा देते. फिर घर आके कहते – ‘जैनाथ (बडे काका), चेता पर उत्तर वाले खेत का धान हो गया था. काट दिया है. जाके उठा लाना’. लेकिन काटने के जज़्बे में कभी कुछ कचखर फसल भी काट देते, जिसे लेकर जैनाथ काका को आड में भुसुराते व शिकायत करते हुए मैंने सुना था. इसलिए अपने समय में उनके आते ही मैं आगाह कर देता– ‘बाबू, अगर काटियेगा, तो लम्बी वाली चक के दक्खिनी तरफ वाला. बाकी सब अभी कच्चा है. या काटना हो, तो पन्द्रह दिनों बाद आइयेगा, अभी कुछ हुआ नहीं है’. वे मन में मसोसते, पर मान भी जाते.... खेती का एक और उपयोग भी वे करते, जो शायद न तब कोई पुरुष करता था, न आज करने की स्थिति रही. रबी (जौ-गेहूँ-मटर-चना) की फसल में खेतों से जाके बथुआ खोंट लाते, चने के पौधे से कोमल पत्तियां कुपुट लाते और घर के अन्दर जाके धोती के फाँड से किसी डलरी में गिराते हुए माँ से कहते – सरोसती के माई, इहे काटि के बनावा त आजु.... फिर जोडते – मक्के का आटा हो, तो लिट्टी (तवे के बाद सीधे आग पे सिंकी हुई मोटी रोटी) बना लो – मज़ा आ जाये जौन बा तौन से. यह ‘जौन बा तौन से’ उनका तक़िया कलाम था, जिसे ‘जो है, सो’ कह सकते हैं. खेतों से शाक लाने का यह काम वे रिश्तेदारियों–बहन की ससुराल जैसी नयी नताई- में भी करते और बाहर से चिल्लाके कहते – सरोसती (सरस्वती) बेटा, खेत से यही चना-बथुआ लाया हूँ, बनाओ तो आज झन्नाटेदार शाक.... मतलब यह कि वे व्यवहार में ढीठ (बोल्ड) और खाने के शौकीन थे – ‘ये बेबाक़ी नज़र की, ये मुहब्बत की ढिठाई है’.

लेकिन खाना बनाने के भी उस्ताद थे. हमारे यहाँ ब्राह्मणों को खाना बनाने अक्सर आता है. कहावत है कि अकबर के ‘पीर-बवर्ची-भिश्ती-खर’ माँगने पर वीरबल ने ब्राह्मण पेश कर दिया था. ये लोग अपनी रिश्तेदारियों के अलावा किसी अन्य (जाति) के घर खाते नहीं थे. इसलिए जहाँ भी जाते, अहरा फूंक दिया जाता– गोहरी (उपले) को गोल आकार में जोरिया (जोड) के बीच में आग रख दी जाती और उसी पे मिट्टी की हण्डियों (यही ‘हण्डी दाल’ वाली) में दाल-भात बनता. याने किसी के बर्तन में भी न खाते. भाजी की जगह आलू-बैगन आदि उसी आग में भूनकर चोखा (भुरता) बना लिया जाता और रोटी की स्थानापन्न होतीं भौरियां, जो बाटी के नाम से आज प्रचलन (फैशन) में हैं – ‘बाटी-चोखा’, ‘दाल-बाटी’ नाम से होटेल खुले हैं और बाटी-चोखा के भोज (पार्टियां) दिये जा रहे हैं. यह भी आज एक संस्कृति के रूप में विकसित हो रहा है, लेकिन तब तो ‘अहरा लगाने’ या ‘अहरा दगाने’ की पूरी संस्कृति थी. बारातों में ‘कितने लोगों का सिद्धा (राशन) चाहिए’ या ‘कितने नौंहडिया (नव हण्डिया – नयी हण्डी वाले) हैं’, पूछने-देने का अनिवार्य चलन था. बारात में गये गाँव-देहात के ब्राह्मण तो सब नौहंण्डिया होते ही, कुछ और लोग भी व्रती-नेमी (व्रत-नियम वाले) होते.... कुछ शौकिया भी इस खाने में अपना नाम जुडवा लेते, क्योंकि अहरे का भोजन होता है बडा मीठा – मीठा याने स्वादिष्ट.

और बडके बाबू इसमे थे एकदम कुशल. पचासों का खाना झट-पट बना-बनवा लेते. सारे काम में मदद करने वाले नाई-कहाँर...आदि होते. ऐसे जिस आयोजन में बाबू होते, यह काम वही करे-करायेंगे, अलिखित रूप से तय होता और वे करते भी सहर्ष. ऐसे ही एक बार कहीं खीर बना रहे थे. मात्रा ज्यादा व बटुला बडा था. तब औज़ार ज्यादा होते न थे. हस्तचालित (मैनुअल) ही होते काम. सो, सिर्फ़ हाथ में कपडा लेकर गरदन से पकड-उठा के उतारते हुए बटुला हाथ से छूट गया और सारी खीर घुटने से गरदन तक उछलकर चिपक गयी. मुँह बच गया संयोग से और कमर-जाँघे खुँटियाई हुई धोती के कारण. लाल-लाल झलके ऐसे पडे कि देखे न जाते थे. बडी पीडा हुई, बहुत दुख सहे बाबूजी ने. तीन महीने इलाज हुआ. सबकी बीमारी में बाबूजी ने जान-परान दिये थे. अब तो हम खूब संज्ञान थे. मैंने और बहनों ने खूब सेवा की – बडे मन से. माँ छू नहीं सकती थी, पर हमें निर्देश देने के लिए सदा मौजूद रहती और जरा भी चूक होते देखकर जोर से डाँटती....  बहरहाल, बाबूजी की पाक-कला की बडी ख्याति थी. उक्त उल्लिखित जमींदार किसुनसेवक सिंह यदि बाबूजी को अपने यहाँ स्थायी रूप से रखना चाहते थे, तो उसके पीछे वक्त-बेवत इच्छा मुताबिक स्वादिष्ट भोजन का भी एक बडा उद्देश्य निहित था. लेकिन बाबूजी ऐसे मोह में फँसते नहीं थे कभी – साफ निकल जाते थे – घर से भी.... इसी क्रम में जिन दिनों माँ घर न होती और वे होते, तो खाना बनाने का जिम्मा अपने सर खुद ले लेते और रोज़ कुछ नया-नया, नये तरह का बनाते. और माँ कई-कई बार लम्बे समय के लिए नहीं होती थी, क्योंकि नानी ने अपनी सारी सम्पत्ति माँ के नाम कर दी थी, तो उसे नानी को सँभालने के लिए वहाँ रहना पडता था. उन दिनों बाबूजी प्राय: घर रहते और रात का खाना सूरज डूबते-डूबते बना लेते. फिर गरम-गरम खाने-खिलाने के चक्कर में शाम को ही खिला देते.... खाते हुए हम यही सोचते कि काश, बाबू ही रोज़ खाना बनाते..., पर माँ भी यहीं रहती...की कामना भी करने लगते, जो होना न था – ‘दोउ कि होंहिं इक संग भुवालू’ – माँ के रहते खाना बाबू बनायें!!

जिस बात से मैं अब तक बच रहा था, उससे अब और त्राण नहीं – बाबूजी के गुस्से और झगडे से.... संसारेतर (भगवान) से उनके गुस्से व झगडे की बानग़ी तो शुरुआत में ही आ गयी, फिर उसका संसारी रूप कैसा होगा...!! उसी दौर की घटना है. तब जनसंघ और कांग्रेस का मुक़ाबला रहता था. हमारी पट्टीदारी के एक भाई थे - रामाश्रय. थोडे नेता, थोडे चिल्बिल्ले.... उन्हीं के चलते हमारा खानदान कंग्रेसी था और ठकुरान जनसंघी. एक दिन जमुना काका (ठाकुर) सायकल लिये आ रहे थे और रामाश्रय भाई ने छेड दिया– कांग्रेस जीत रही है. छेड का जवाब जमुना काका ने भी दिया– जनसंघ जीत रही है. लेकिन उनकी आवाज बहुत-बहुत तेज थी. जब वे भर हाँक गोहरा कर याने पूरे गले से चिल्लाकर अपने मज़दूर को बुलाते - परदेसी होओओओओ ...., तो स्कूल जाते हुए हमें ढाई किलोमीटर दूर केदलीपुर तक सुनायी देता. उनकी इस प्रकृति पर ध्यान न देकर बाबू को लगा कि उनके पोते (रामाश्रय) को दबा रहे हैं जमुना काका. और वे यहाँ अपनी ओसारी से चिल्ला पडे– ‘अरे देख लूंगा तुम्हारी जनसंघ को...कैसे जीतेगी? मुझसे बात करो’. कम तो जमुना काका भी न थे- ठाकुर ही ठहरे. बात-बात की बतबढ होती रही और वे अपने घर पहुँचकर सबको बोले – ‘उठाओ सब जन लाठी, चलो- कुबेर पण्डित अपने खानदान को लेकर लाठी के बल कांग्रेस को जिताने आ रहे हैं’....

इधर रामाश्रय भाई तो दरवाज़ा बन्द करके घर में छिप गये. लेकिन पगडी बाँध के लाठी लेकर बाबू अकेले फरी मारने लगे – ‘देख लूंगा आज – हो जाये वारा-न्यारा...’. बता दूँ कि मेरे दोनो काका पहलवान थे – छोटे काका तो नामी पहलवान थे, जो मुम्बई तक जाते थे दंगल मारने. दोनो अच्छी लाठी भी चलाते थे, लेकिन संग-साथ के चलते किशोरावस्था में बाबू भी हल्के-फुल्के लठैत रहे थे. उन दिनों कुछ मामले आ जाते थे, तो दिन-समय तय करके दो समूहों में लाठी-युद्ध होता था. रुद्रजी की ‘बहती गंगा’ में इसके साक्ष्य मौजूद हैं. तो बाबू की वो वृत्ति ताव आने पर उछाल मारती थी. और डर नाम की चीज़ तो उनके अन्दर थी नहीं. बात-बात पे कहा करते - ‘कालहु डरहिं न रन रघुबंसी’. वो तो ठाकुरों के मुहल्ले के पल्टू भैया (तेली) और हरकेस काका...आदि ने उधर समझाया और इधर हमार टोले के रामजन भैया, नेउरा दाई...आदि ने बाबू को. दोनो तरफ यही कहा गया कि सामने वालों को आने तो दो– उनके दरवज्जे चढ के क्यों जाते हो...? और इस तरह ‘दो बाँके’ अपने-अपने मुहल्ले में गरज के रह गये, वरना ऐसा लगा था कि आज लाशें बिछ जायेंगी. ऐसा तो था बाबूजी का सुभाव और ऐसे थे तब के लोग, जिन जैसों के लिए राजपूतों के मिस श्यामनारायण पाण्डेय ने कहा है - ‘असि धार देखने को उँगली कट जाती थी तलवारों से’...!! लेकिन उस वक्त तो मेरी दोनो बहनें रोने लगी थीं - मैं डर के मारे काँपने लगा था.... सब शांत होने के बाद रामाश्रय भाई आये और  ‘बिला वजह....’ भर बोले कि तब तक इस घटना से ऊबी-झल्लाई मेरी बडी बहन ने उन्हें कस के डाँट पिला दी – ‘हे रामासरे भइया, तू त कुछ बोला जिन...झगडा लगाय के केवाडी में बन्द हो गइला है आ अब आके ‘बिला वजह..’ करत हउआ...आज अब्बै कतल हो जात, तब...??

ग़रज़ ये कि बाबूजी के रिश्ते ऐसे तो सभी से मुहब्बत और लडाई के दरमियां ही चलते थे, लेकिन माँ के साथ तो उनका अजीब ही मामला था, जिसकी तुलना मैं थियेटर में मंच-परे हँस-हँस कर गलबहियां करते और मंच-पर आते ही तलवार-कटार लेकर एक दूसरे की जान के प्यासे हो जाते नायक-खलनायक से करना चाहूँगा. आड में गाँव-गिराँव से लेकर नताई-हिताई तक माँ का ढेरों बखान करते बाबूजी – सरोसती के माई बडी गिहथिन (गृहस्थन), बडी लायक, बडी करतबी, बडी इंतजामी, सबका ख्याल रखने वाली, बडी गवैया...आदि-आदि. लेकिन सामने तो कोई हफ्ता न जाता, जब जमके झगडा न हो जाता हो. लोगों ने बताया था कि शुरू में तो बहुत दिनों माँ चुप सहती रही थी– नारी सुलभ लज्जा व अनुजवधू होने के सांस्कृतिक अनुशासन.... लेकिन बाबूजी की अति ने धीरे-धीरे मुँह खुलवा दिया और जो खुला तो फिर बेटी तो थी उसी नानी की, जिससे पाधुर होकर पनाह माँग गये थे उसके तीन-तीन पट्टीदार.... तो माँ में से निकली वो नानी धीरे-धीरे...फिर तो हमारे होश में दोनो के झगडे बराबरी पर ही छूटते – या तो माँ मारे गुस्से में किसी काम के लिए चली जाती या कोई स्त्री हटा ले जाती...या बाबूजी झोला उठाके कहीं चल देते.... और जब ऐसा न होता, तो बाबूजी अलग होने पर उतारू हो जाते.... अलग होने की बोलबाज़ी तो बहुत बार हुई, पर ऐसे तीन वाक़ये हुए (या मुझे तीन ही याद आ रहे हैं), जब सचमुच अलगौझे की रस्म भी पूरी हुई.

पहली बार तो तब हुआ, जब बडके काका जीवित थे. ऐसा तूफान बरपा किया था बडके बाबू ने कि काका ने मज़बूर होके सारा अनाज निकाला और तौल के तीन हिस्सा लगा दिया अलग-अलग. बडके बाबू बडे संतुष्ट दिख रहे थे तीन हिस्सा देखकर कि काका भी अलग हो रहे हैं. लेकिन जब सारा अनाज बँट गया, तो काका ने अपना वाला कूरा माँ वाले में मिला दिया. देखते ही बडके बाबू एकदम पस्त होके आग्नेय नेत्रों से काका की ओर देखते रहे और दो मिनट के बाद खडे हुए, अपना हिस्सा भी पैरों से उसी में थोडा-सा मिलाया और झोला-सोंटा उठाके कहीं चल दिये.... फिर कब आये, किसी को याद नहीं. कैसे पहले की ही तरह रहने लगे, उन्हें भी पता नहीं. यहाँ तो बमुश्क़िल एक घण्टे में इतना ही हुआ, पर बात कैसे बडी बहन की ससुराल पहुँच गयी – भगवान ही जाने.... उन दिनों अच्छे घरों में अलगा वग़ैरह होना बेइज्जती की बात थी और फोन..आदि तो थे नहीं. सो, दूसरे दिन बहन के छोटे ससुर बटुकनाथ शास्त्री पता करने आ गये पैदल ही– सायकल वे चलाते न थे और ऐसे में किसी को लाना मुनासिब न था. गाँव के बाहर ही किसी से पूछा– भइया, सा-साफ बता दो, यदि कुबेर पण्डित के घरे अलगा हो गया हो, तो मैं यहीं से लौट जाऊँ.... सामने वाला ठठा के हँसा और उन्हें लिये-दिये घर आया. इस प्रकार बाबूजीजी की गुस्सैल वृत्ति नताइयों तक पहुँची.....

बाकी दो बार के अलगाने में अलग दरवाज़ा खोलने की पहलें हुईं.... मेरे घर का मुख्य द्वार उत्तर है और तब पश्चिम तरफ ओसारा था, जिसके सामने काफी जगह खाली थी. तो ओसारे में वे अलग दुआरि फोडने चले. एक बार आधी दीवाल कुदाल से काट चुके थे और एक बार तो आर-पार भी हो गयी थी. फिर अचानक ही रुक जाते. चुपचाप हाथ-पैर धोके सो जाते. कितने भी गुस्से में रहें, बडी बहन के मनाने से मान ही जाते और वो सभी को मनाके खिला देने में उस्ताद थी. बाबूजी दोनो ही बार दूसरे दिन उठके काटी गयी मिट्टी को अपने हाथों ही भिंगाते-सानते और कटी दीवार पर छोपते, दुआरि मूँदते.... वैसे बचपन में मुझे मालूम पडा था कि जब घर बन रहा था, पोखरे से मिट्टी बनाके ढोके लाते तो सब लोग थे, पर पलरे की मिट्टी सबके सर से थाम-थाम के सारी दीवालों पर रद्दे रखे थे बाबूजी के हाथों ने ही. बहरहाल, दुआरें मूँदते वक्त पूरे गाँव के लोग आते-जाते रुकते, उन्हें चिढाते और इसमें वे भी समान भाव से लुत्फ़ उठाते.... लिखते हुए अब मज़े-मज़े में शाब्दिक साम्य भर के लिए दुष्यंत याद आते हैं – ‘वो तो दीवार गिराने के लिए आये थे, वो दीवार उठाने लगे, ये तो हद है’ - बाबूजी की कोई हद न थी. 

इस उठाने-गिराने के बीच ही साबुत रहा मेरे बडके बाबू का गुस्सैल व्यक्तित्त्व.... वे ‘क्षणे रुष्टा’ तो थे, पर ‘क्षणे तुष्टा’ नहीं. तुष्ट होने में 4-6 घण्टे या एकाध रात लग जाते थे. पर वे ‘अव्यवस्थित चित्त’ नहीं थे, इसीलिए ‘प्रसादोपि भयंकर:’ कभी न हुए. कंभी किसी सम्बन्ध का मूल नहीं बिगडा, कोई अनिष्ट नहीं हुआ. मर्यादाओं में क्षणिक स्खलन हुए, पर सीमायें नहीं टूटीं. इन सबको साकार करता हुआ एक ही वाक़या सुनाना चाहूँगा – हैं तो ढेरों.... माँ के साथ झगडों के बीच उनके जिस ब्रह्मास्त्र से माँ पराजित तो नहीं, पर निरस्त्र हो जाती थी, वह था  - ‘आधी जैजात (जायदाद) मेरी है, मैं किसी को लिख दूंगा – हाथ मलके रह जाओगी’. इसे बार-बार सुनकर उनके उसी गुस्से के जलजले में एकांत पाकर जिसने मनचाही कीमत पर खेत लिखाने की बात एक बार बाबू से कही और हामी भरवा ली – शायद दिन भी तय कर लिया, वे थे मेरी बगल वाले मेरे अधियरा के पट्टीदार जगदीश त्रिपाठी, जो पद में मेरे भइया व वय में मेरे पिता के हम उम्र-सहपाठी हुआ करते थे. बाबू का स्वभाव जानते तो थे, पर शायद लोभवश उस एक दिन भूल गये थे. इधर वही हुआ - रात भर में बाबूजी की क्रोधाग्नि शांत हो गयी और सुबह होते ही वे पूरे गाँव को सुनाते हुए लगे बम देने... “अरे ई देखो, जगदिसवा बेइमान का, चला है मेरी जैजात लिखाने, मेरे बेटे के साथ घात करने...अरे हरामी, गडही में मुँह धोके आओ, तो भी तुम्हारी गदोरी पर पेशाब तक न करूँ...ससुर के नाती चले हैं खेत लिखाने...”. और इसके साथ जो उनके (अप)शब्द-भाण्डार से विषबुझे तीर चले कि कई दिनों तक जगदीश भइया सचमुच किसी को मुँह दिखाने से बचते रहे.... तब मौका पाकर मैंने उनसे कहा था – ‘भइया, पहले से कागद-पत्तर तैयार रखिये. उस ज़ोर वाले गुस्से में जब बाबू आयें, तो गुस्सा उतरने के पहले ही अंगूठा लगवा लीजिए, तब तो आपकी मंशा पूरी हो जायेगी...लेकिन यदि तहसील पहुँचने के पहले ही गुस्सा उतर गया, तो गरदन मरोडवाने के लिए भी तैयार रहियेगा...’.

लेकिन जिस बाबूजी को मैने कभी कुछ नहीं कहा, सिर्फ़ देखता-सुनता और यथासम्भव उनकी बात मानता रहा, एक बार अचानक ही उनके ब्रह्मास्त्र का तोड बन बैठा. तब तक चेतना कॉलेज में पढाने लगा था. छुट्टियों में घर आया था. झगडे में कुपित होकर ब्रह्मास्त्र छोड रहे थे बाबूजी...उसके सामने तो भीम को भी सर नवाना पडा था – माँ भी हमेशा की तरह वही कर रही थी...और मैं बीच में बोल पडा – “बाबूजी, आप अपना हिस्सा बेच दीजिए...चलिए, मैं गवाही करूँगा बैनामा पर, ताकि कभी दावा भी न कर सकूँ.... और तब भी हम यहीं साथ रहेंगे. क्योंकि हम साथ इसलिए नहीं हैं कि आपका आधा हिस्सा है, इसलिए हैं कि आप मेरे बाबूजी हैं, मैं भले बेटा आपके भाई का हूं, पर आप मुझे अपना बेटा कहते हैं, मानते हैं. खेत किसी और को लिख देंगे, तो क्या यह रिश्ता टूट जायेगा? नहीं न...? तो चलिये लिख दीजिए. यह झगडा तो खत्म हो...”. और भयहु-भसुर के सनातन झगडे में अपनी पहली दख़लन्दाज़ी के लिए मैं ख़ुद को कभी माफ़ नहीं कर पाऊंगा, क्योंकि विफल ब्रह्मास्त्र होकर मणिविहीन अश्वत्थामा की तरह बाबूजी भी श्रीहीन हो गये...जैसे उनका सब कुछ लुट गया हो.... इसके बाद भी गुस्सा तो कभी करते, झगडे भी कुछ होते, पर तब से कभी अपनी जैजात का नाम नहीं लिया....

लेकिन तब से उनका बीमार होना कुछ बढ गया.... बार-बार खाट पकड लेते, पर कोई मर्ज़ न था. नीचे के सामने वाले सिर्फ़ दो दाँत गये थे. आँखों में चश्मा बहुत दिनों से आ गया था.  सफेद डाँडी वाला पसन्द किया था. पहनते कभी-कभी ही थे. बाद में मोतिया के ऑपरेशन हुए – दोनो बार मैं मौजूद था. तब फ्रेम बदामी हो गया. बाकी तो सर्वांग दुरुस्त थे. मुझे बार-बार लगता, जो शायद मेरा अपराध-बोध भी रहा हो कि झगडे की ख़ुराक़ कम हो जाने और ब्रह्मास्त्र के कुण्ठित होने की क्षतिपूर्त्ति नहीं हो पा रही है... मैं ग्लानि से भर-भर जाता.... पछताता कि वैसा क्यों कह दिया.... दोनो काका के प्राण छूटते हुए मैं उनकी पाटी पर मौजूद था. बडी इच्छा थी कि बडे बाबू का प्रयाण भी अपनी आँख के सामने हो. इसलिए कह रखा था कि लटपटायें तो तुरत ख़बर की जाये. दीवाली-गर्मी की छुट्टियों के अलावा भी एक साल में तीन बार तो तार (टेलीग्राम) गये. तुरत गाडी पकड लेता. लेकिन मेरे आते ही दो दिन में ठीक हो जाते. पंतजी की काव्य-पंक्ति सार्थक तो थी ही, उसके साकार होने का साक्षात अनुभव भी मिला – ‘रोग का है उपचार – प्यार’ (उच्छ्वास). क्योंकि दवा तो वही होती...मैं सिर्फ़ शामों को उनके पैर दबाता, जो उन्हें बहुत प्रिय था. यह मैं मुम्बई जाने के पहले भी अक्सर करता. दबाते हुए वे खूब बतियाते – ढेरों पुरानी घटनायें बताते..., जिसे सुनने-जानने का प्रलोभन भी कम न होता....      

इस तरह उनके अंतिम दिन उतने अच्छे न रहे, तो बहुत खराब भी न रहे.... निरोग शरीर में उनके मन ने एक ही किस्म के दो रोग पैदा कर लिये थे. एक यह कि उन्हें अपने चारो तरफ ढेर सारे कीटाणु उडते दिखते..., जिन्हें वे अँगोछे से हरदम उडाते रहते.... और अपने सर में उन्हें  ढेर सारी रूसी (डैंड्रफ) भरी दिखती, जिसे वे उँगलियां फिरा-फिरा के नाखूनों से खुजा-खुजा के निकालते रहते.... सर में पैठी और बाहर गिरी उन्हें ढेरों रूसी दिखती, पर किसी और को न एक कीटाणु दिखते, न कोई रूसी.... सबसे बडा बदलाव मैंने यह लक्ष्य किया कि झगडे के साथ उनकी दिल्लगियां और बच्चों के साथ चुहल बन्द हो गयी. वरना बच्चे किसी के भी हों – राह चलते से भी, वे बोलौनी कर-करके मज़े लेते.... क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि बडी बहन अपने घर से नाराज़ होके बिना किसी सूचना के अचानक आ गयी थी. पूरा मुहल्ला सकते में आ गया – हाल जानने को बेताब हो गया और बाबूजी ने एक्का (ताँगा) रुकते ही आह्लाद से भरके ‘आजा आजा मेरी सुगनियां’ कहते हुए छोटी कुमुद को गोंद में लोका तथा बडे मुन्ना का हाथ पकड के ‘कूद जा बेटा’ कहके उतारा और एक तरफ ले जाके खेलने-खेलाने लगे....                

इन सारे लक्षणों से अन्दाज़ा तो लगता कि विदा-बेला आ रही है, लेकिन मेरे मन में एक अनुक्रम बन गया था कि पिता मरे थे सावन में, छोटे काका भादों में और बडे काका कुआर में तो अब बडके बाबू तो अवश्य कार्त्तिक में ही जायेंगे. इसलिए कार्त्तिक में सजग रहने के बाद निश्चिंत-सा हो जाता... लेकिन बडके बाबू ने क्रम तोडकर अंत में धोखा दे दिया – वह भी बिना चेतावनी के चटपट में.... गर्मी की छुट्टियों के बाद गया ही गया था कि ऐन आषाढ में तार आया – ‘बाबूजी एक्सपायर्ड, कम सून’. ‘धन देखै जात, त आधा लेय बाँटि’ के मुताबिक अंतिम साँस लेते न देख सका, पर मुखाग्नि तो दे सकूँ अपने हाथों, के निश्चय से जीवन में पहली बार हवाई-यात्रा की ठानी और प्रति तार भेज दिया – कमिंग इमीडिएटली. वेट, टिल आइ रीच. लेकिन मैंने हवाई यात्रा का उल्लेख नहीं किया और गाँव में किसी ने न इसकी कल्पना की, न रेल-गणना के अनुसार तीन दिनों का इंतजार किया. सीधी उडान तो अभी कुछ ही वर्ष पहले हुई है, तब तो बनारस के बदले दूनी दूरी पर स्थित गोरखपुर की जहाज मिली थी - वह भी दो-दो ठिकाने (इन्दौर-आगरा) से होकर. वहाँ से आरक्षित टैक्सी लेकर जब मैं दूसरे दिन 8 बजे रात को ठेकमा उतरा, तो बाज़ार से जाने वाले आख़िरी आदमी के रूप में राजमणि मिस्त्री सायकल पर सवार हो रहे थे. देखते ही रुआँसे होकर बताया कि शाम को ही दाह करके लोग घर पहुँचे हैं. क्या संयोग बना कि उसी भइया जगदीश ने मुखाग्नि दी, जो खेत लिखाने वाले थे.

नियमानुसार दाह के वक्त पहनी गयी कोरी धोती ओरी पर लटकायी गयी थी. उसे धोके पहनना था सारे विधान के दौरान. किसी ब्राह्मण-क्षत्रिय के मरने पर हम दोनो जातियों के छहो घरों के पुरुष-स्त्री रोज़ घाट नहाते हैं – पहले स्त्रियां नहाके आ जाती हैं, तब पुरुष जाते हैं. घर की औरत आगे-आगे जाती-आती है. माँ के बयान कढाके (गा-गाके) रोने में बाबूजी के गुस्से-झगडे तक के उल्लेख स्पृहणीय बनके आते..... इन विधानों और इनसे बने लोगों के मनों ने कैसे-कैसे संस्कार पनपाये थे, कैसी समरस संस्कृति बनायी थी कि हर रूप में स्वीकार्य हो गया था मनुष्य...!! नौ रोज़ घाट नहाने के बाद दसवें-ग्यारहवें-बारहवें की तो कोई चिंता न थी, लेकिन तेरहवीं पर चार-पाँच सौ लोगों का भोज होना था और गाढी बारिश का मौसम था. वही हुआ – खाना तो सब बन गया, पर थोडे लोग ही खा सके कि बारिश होने लगी. तब तो घर के सामने खुले में टाट बिछाके पंगत में खिलाने का चलन ही एकमात्र विकल्प था. खाने के लिए बचे हुए लोग पहुँच गये थे और बारिश से बचते हुए अगल-बगल के घरों में बैठे थे – सर्वाधिक लोग थे उसी जगदीश भैया की ओसारी में. 

अपने गाँव के तो अपने थे ही, बगल के गाँव मैनपुर के लोग अपने यजमान ही थे. तब आपसी अखलाख (अच्छे आचरण) बडे पक्के और गँवईं रिश्ते बडे गहरे हुआ करते थे. मुझे अच्छी तरह याद है कि भींगते हुए बाहर निकलकर मैंने गुहार लगायी थी - भाइयो, कोई बिना खाये जायेगा नहीं...मैं ओसारी में बिछाकर पचास-पचास लोगों को बारी-बारी खिलाऊंगा.... उधर से सामूहिक स्वर गूँजा – ‘आप चिंता मत कीजिए. अपने पुजारी बाबा की तेरहवीं की पंगत खाये बिना कोई जायेगा नहीं – चाहे भले भिनुसार हो जाये...’.

चालीस साल से ज्यादा हुए, पर कोई दिन शायद ही ऐसा जाता हो, जब वह यायावर किसी न किसी रूप में याद न आता हो....!!
___________________       

सम्पर्क – 
‘मातरम्’, 26-गोकुल नगर, कंचनपुर, डीएलडब्ल्यू, 
वाराणसी– 221004/ मोबा. 9422077006 

एक दिन का समंदर : हरजीत : प्रेम साहिल

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‘जिस से होकर ज़माने गुज़रे हों
बंद ऐसी गली नहीं करते.’

शायर हरजीत सिंह की यादें अधूरे प्रेम की तरह टीसती रहती है. उनके असमय निधन ने हिंदी ग़ज़ल की दुनिया को वीरान कर दिया. तेजी ग्रोवर हरजीत सिंह के व्यक्तित्व और कृतित्व पर एक पुस्तक के प्रकाशन की योजना पर कार्य कर रहीं हैं. यह आलेख उन्हीं के सौजन्य से मिला है जिसे लिखा है प्रेम सलिल ने. 
आप समालोचन पर ही हरजीत की ग़ज़लें और ख़त भी पढ़ सकते हैं.


  
एक दिन का समंदर : हरजीत                             
प्रेम साहिल

हरजीत ने ख़ुद को इतना फैला लिया था कि आज उसे लफ़्ज़ों में पकड़ने के लिए जद्दोजहद करनी पड़ रही है. ग़ज़ल कहने, रेखांकन, पत्रकारिता, फ़ोटोग्राफ़ी करने, कोलाज बनाने, दोस्ती निभाने, घर चलाने, आंगनवाड़ियों के लिए खिलौने तैयार कराने, हैंडमेड काग़ज़ के प्रयोग से ग्रीटिंग कार्ड तथा फ़ैंसी डिबियां बनाने, उन पर फूल-पत्ती चिपकाने, फूल-पत्तियां जुटाने, तैयार वस्तुयों को खपाने, साहित्यिक व सांस्कृतिक समारोह कराने, बच्चों को चित्रांकन सिखाने के अतिरिक्त अभी और भी न जाने वो क्या-क्या करता. उसने तो अपनी सीमाएँ ही पोंछ डालनी थीं अगर मुशाइरों में जाना उसने लगभग बंद ना कर दिया होता. फिर भी साल में एकाध बार अंजनीसैंण या कोटद्वार के मुशाइरों में चला ही जाता था.

कारोबार के सिलसिले में चण्डीगढ़, दिल्ली, जयपुर तो क्या मुम्बई तक हो आता था. इतनी मशक्कत, भागदौड़ और वो भी दमे के मर्ज़ में मुब्तिला रहते हुए हरजीत के ही बूते की बात थी. कोई और होता तो कभी का बिस्तर पकड़ चुका होता. लेकिन हरजीत न जाने किस मिट्टी का बना हुआ था कि दमे की खांसी को भी जब तक चाहता दबा लेता था. जबकि छाती उसकी बलगम से लबालब रहती थी. इसके बावजूद जो समेटने की बजाए वो ख़ुद को फैलाता ही चला गया उसकी भी ख़ास वजह थी :

ये सब कुछ यूं नहीं बेवजह फ़ैलाया हुआ हमने
ये सब कुछ क्यूं भला करते अगर राहत नहीं मिलती

सर खुजाने की फ़ुर्सत भी न पा सकने वाला हरजीत दोस्तों के बुलाने पर उनके कार्यों को अंजाम देने की गरज़ से तो ऐसे चल देता था जैसे कि उसके पास करने के लिए अपना कोई काम नहीं था.

बढ़ रही ज़रूरतों की पूर्ति  के लिए नये-नये साधनों की तलाश में कभी सप्ताह तो कभी माह भर के लिए भी घर से बाहर रहने लगा था. कहां जाता था, क्या लाता था इसकी चर्चा किसी से कभी अंतरंगता की रौ में ही करता था. उसमें ना प्रतिभा की कमी थी न परिश्रम का अभाव था. लेकिन अर्थ की विषमता उसे लील रही थी. इस में दोष इतना उसका नहीं था जितना कि उस व्यवस्था का जिस में गधा-घोड़ा एक समान आंका जा रहा है.

आमदनी के साधनों की तलाश ने कभी उसे चैन से बैठने ही नहीं दिया. बैठा वो नज़र तो आता था मगर बैठ कहां पाता था. व्याकुल आदमी चैन से बैठ ही नहीं सकता. ऐसा जो संभव होता तो वो ये क्यों कहता :

मुझको इतना काम नहीं है
हां फिर भी आराम नहीं है

न वो ख़ुद आराम करता था न उसके जो कुछ लगते थे उसे कभी चैन से रहने देते थे. आराम न करने की हद तक काम करने वाले हरजीत का उक्त शे'र पढ़ने-सुनने वालों को हैरत में डाल देता है. लेकिन उसके ऐसा कहने का तात्पर्य ये भी हो सकता है कि उसके पास कोई नियमित या स्थाई रोज़गार नहीं था. बावजूद इसके वो जितना व जो भी करता था उसे गर्व एवं स्वाभिमान की निगाह से देखता था :

अपना ही कारोबार करते हैं
हम कोई नौकरी नहीं करते

हरजीत निठल्ला नहीं था. फिर भी तंगदस्त रहा. जबकि एकआध को छोड़ कर उसके दायरे के अधिकांश लोगों की आर्थिक दशा अच्छी-ख़ासी थी. क्या वे लोग हरजीत से ज़ियादा प्रतिभा सम्पन्न थे ? क्या वे उस से अधिक परिश्रमी थे ? दरअसल तर्ज़े-बयान की तरह हरजीत का तर्ज़े-हयात भी दूसरों से भिन्न था:

वो अपनी तर्ज़ का मैक़श,हम अपनी तर्ज़ के मैक़श
हमारे जाम मिलते हैं मगर आदत नहीं मिलती......

कारीगरी उसे विरासत में मिली थी. जहां उसे कारीगर के महत्व का ज्ञान था वहां उसकी विषमताओं से भी अनभिज्ञ नहीं था :

फ़नकारों का नाम है लेकिन
कारीगर का नाम नहीं है.....

उसने कारीगरी की बजाय फ़नकारी को अपनाया. उस में उस ने नाम भी कमाया लेकिन दाम के लिए उसे और भी पापड़ बेलने पड़े. पापड़ तो उसने नाम कमाने के लिए भी ज़रूर बेले होंगे मगर इस प्रयास का आभास कभी सरेआम नहीं होने दिया. पर कौन नहीं जानता कि इस अंधे युग में फ़न का लोहा मनवाने के लिए भी लोहे के चने चबाने पड़ते हैं. दाम कमाने के लिए उसे कारीगरों की ख़ुशामद भी करनी पड़ती थी. स्वयं कारीगरों की पृष्ठभूमि से आए हरजीत के लिए कारीगरों के नखरे उठाना कोई हैरत की बात नहीं थी :

नक्शे नहीं बताते कैसे बने इमारत
होते हैं और ही कुछ कारीगरों के नक्शे

हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहीं लिखा है : "जो अभावों और संघर्षों में पले-बढ़े हैं उनका सब से बड़ा दुश्मन उनका सर होता है जो झुकना नहीं जानता और जो झुकता है वो सर भी तो उनका दुश्मन ही होता है."
उक्त कथन हरजीत और उसके जीवन पर भी कम सही नहीं बैठता.

एक शाइर के रूप में तो मैं हरजीत को उसकी ग़ज़लों के माध्यम से जानता था. कभी आमना-सामना नहीं हुआ था. इतना सुना था कि शाम के समय वो 'टिप-टॉप'में जाता है. मेरा चमोली (गढ़वाल) से देहरादून जाना साल में एक-दो बार ही हो पाता था. लेकिन जब से उसके अड्डे की भनक लगी थी मेरी इच्छा हो रही थी कि वो मुझे टिप-टॉप में मिल जाए तो सुबहानअल्लाह. ना भी मिले तो वहां से उसका सुराग तो मिल ही जाएगा. इस गरज़ से एक बार मैं चकरॉता रोड़ चला भी गया. लेकिन वहां टिपटॉप नाम का होटल मुझे नहीं मिला.. शाम का समय था. चालीस किलो मीटर दूर अपने ससुराल जाने की जल्दी में किसी से पूछने की ज़हमत भी नहीं उठाई. दूसरी बार गया तो ढूंढने के बावजूद वह होटल फिर कहीं नज़र नहीं आया. उस बार भी जल्दी में था. तीसरी बार एक दुकानदार से मैंने पूछ ही लिया. देखने के बाद मालूम हुआ कि उस होटल का साइन बोर्ड ही नदारद है. ख़ैर जब होटल मालिक से मैंने हरजीत के विषय में पूछा तो पता चला कि आजकल वो वहां दस बारह दिन में एक बार जा पाता है.

संयोग से जब मेरी पत्नी स्थानांत्रित होकर देहरादून में रहने लगी तब एक रोज़ किसी का स्कूटर मांग कर मैं हरजीत के घर चला गया. घर का पता उसकी पहली पुस्तक "ये हरे पेड़ हैं"जो कि बी मोहन नेगी की मार्फ़त मुझे बहुत पहले मिल चुकी थी में दर्ज था.

हरजीत के घर तशरीफ़ ले जाने का समय तो अब मुझे याद नहीं, लेकिन इतना याद है कि बताने पर जब मैंने उसके कमरे में प्रवेश किया था, वो रज़ाई ओढ़ कर बिस्तर पर लेटा हुआ था, कुछ देर पहले ही गैरसैण से लौटा था. थकान मिटाने या सुस्ताने की गरज़ से ही वो बिस्तर अपनाता था ऐसी बात नहीं थी. उसका तो कार्यस्थल ही बिस्तर था. अपना नाम बता कर मैं उसके पास ही कुर्सी पर बैठ गया, थकान के बावजूद वो भी उठ कर बैठ गया. लेकिन आलस्य का कोई शेड न उसके चेहरे पर था न उसकी आवाज़ से महसूस हुआ. हम दोनो की बात होने लगी. जब मैंने उस से उसकी नयी पुस्तक 'एक पुल'मांगी तो उसने कहा कि बाइण्डर के यहां से लानी पड़ेगी, इस समय मेरे पास एक भी प्रति नहीं है. उस ने मुझ से दूसरे दिन आने का आग्रह किया और मुझ से मेरा फ़ोन नंबर भी ले लिया.

उसे पीने का शौक था ना कि लत. एक बार अपनी तो अनेक बार दोस्तों की जेब से मंगाने, कभी उनके तो कभी अपने घर में बैठ कर पीने-पिलाने और उठने से पहले "वन फ़ॉर द रोड़ "वाला जुमला दोहराने का भी शौक ही था, ना कि लत. लत से तो दासता की बू आती है जबकि हरजीत किसी का दास नहीं था. शौक़ीन था. शौक़ में गौरव की ख़ुश्बू है. इस लिए उसे हरजीत सिंह उर्फ़ शौक़ीन सिंह तो कहा जा सकता था, मगर हरजीत दास हरगिज़ नहीं.

शौक़ और लत में जो बुनियादी फ़र्क है उसे समझना इस लिए लाज़मी है कि ऐसा ना करने से हरजीत का आचरण बदगुमानी का शिकार हो सकता है. मैं स्वयं उसके शौक़ को लत समझने की भूल कर चुका हूं. मुझ से कभी पैसे मांग लेता तो मैं सोचता था कि उसे मांगने की लत है. लेकिन वो मांगता कहां था, वो तो निकालता था मानो उसकी अपनी जेब सामने वाले की पैंट या शर्ट पर लगी हो. लेन-देन के मामले में हरजीत लगभग फ़ेयर था. वो अगर किसी से पैसे लेता था तो बदले में सेवाएँ देता था. जहां सेवाएँ लेता था वहां पैसे ही देता था. जहां तक खाने पीने की बात है अकेले में तो खर्च कर लेता था लेकिन दोस्तों की सभा में खर्च करने की ज़हमत उठाने का अवसर उसे चाहने पर भी नहीं मिल पाता था. बावजूद इसके अपनी जेब ढीली करने का अवसर लेने में संकोच भी नहीं करता था. अपने को इस काबिल बनाने के लिए ही तो इतना हलकान हो रहा था. ये दीगर बात है कि उतनी सफलता नहीं मिल पा रही थी जितने कि वह हाथ-पांव मार रहा था.

मैंने सुना है कि एक्सीडेंट के बाद से वो बहुत संभल और सिमट गया था, लेकिन मुझे इस बात का कतई इल्म नहीं है क्योंकि  हरजीत से मेरी मुलाकात ही एक्सीडेंट से बहुत बाद में हुई थी. उसके माज़ी की कंद्राओं में घुसपैठ का प्रयास भी मैंने नहीं किया. मैंने तो उसे महज़ वहां से उठाया जहां पर वो मुझे मिला था. इस लिए उसके सम्हलने और सिमटने की कहानी मेरे व्यक्तिगत अनुभव से बिलकुल भिन्न है. मैंने तो जब-जब देखा उसे पंख फ़ैलाए उड़ते हुए देखा. लहराते, गुनगुनाते और मुस्कुराते ही देखा.

दूसरों के काम आने के साथ-साथ दूसरों से काम लेने का भी उसे शऊर था. दो-एक मर्तबा मेरे काम से पेरे साथ वो जा चुका था. एक दिन शाम को अचानक मेरे घर आया, बैठा, खाया-पिया और अन्य बातें कर लेने के पश्चात उठ कर जाने से पहले कहने लगा, "कल सुबह तुम्हें मेरे साथ मसूरी जाना है. अब तक तू मुझे लेकर जाता रहा, कल को तू मेरे साथ जाएगा "और हँसने लगा.

मज़े की बात देखिए, काम से जाते समय भी वो लुत्फ़ लेना नहीं भूलता था. घर से बाहर शहर या शहर से बाहर कहीं भी जाता था तो शोल्डर-बैग या तो उसके कंधे पर लटका रहता था या स्कूटर के हैंडल पर. बैग में वो छोटी-बड़ी दो-तीन प्रकार की पानी की बोतलें, प्लास्टिक के दो-तीन गिलास, एक बलेडनुमा फोल्डिंग चाकू, सलाद का सामान, नमकीन की पुड़िया, एक फ़ाइल जिस में कभी कुछ फ़ोटो, कुछ नेगेटिव कुछ अन्य काग़ज़-पत्र आदि तो वो घर से ही लेकर चलता था. घर में उपलब्ध रहती तो एकाध पाव रम भी अलग से किसी बोतल में डाल कर बैग के किसी कोने में छुपा कर साथ ले लिया करता था. कोई दोस्त टकर जाता तो अतिरिक्त व्यवस्था बाज़ार से की जाती थी, कोई नहीं भी मिला तो अपना माल जय-गोपाल.

उस दिन जब उसके काम से हम मसूरी जा रहे थे तो रम का एक हाफ़ हमने देहरादून से ही रख लिया था. रास्ते में एक जगह स्कूटर रोक कर सड़क के किनारे एक पैराफिट पर बैठ गये थे. बैठते ही वो गुनगुनाने लगा और साथ ही जश्न का सामान भी सजाने बैठ गया था. मैंने कहा ना कि वो कारोबारी लम्हों को भी जशन के रंग में डुबो लेता था. दो-दो पेग मार लेने के उपरान्त पुन: जब खरामा खरामा मसूरी की ओर बढ़ने लगे तो मेरे पीछे बैठा हरजीत अचानक कहने लगा, "मैंने अभी चालीस साल और जीना है."उसकी बात सुन कर मुझे हैरत भी हुयी और डर भी लगा था. हैरत जीने की प्रबल इच्छा से छलक रहे उसके आत्मविश्वास पर और डर उसके मर्ज़ के कारण.

दबा कर रखने की उसकी लाख कोशिशों के बावजूद मैंने उसके मर्ज़ को जितनी गम्भीरता से लिया था उतनी गम्भीरता से कहने का कभी साहस नहीं जुटा पाया. उसकी छाती में बलगम इतनी तीव्र गति से बन रहा था कि खारिज करते रहने और दबा लेते रहने के बावजूद उसकी रफ़तार कम नहीं हो रही थी.

हरजीत को आराम की सख़्त ज़रूरत थी. लेकिन आराम तो उसका नंबर एक दुश्मन ठहरा. आराम लेने की बजाए उसने "विरासत निनियानवें"की दौड़-धूप और धूल ली. जिस समय हरजीत "विरासत"का ताम-झाम समेट रहा था, उसके खो जाने की घड़ी कार्य में उसका हाथ बटा रही थी. कार्य निपटा कर हरजीत ने अपने धूल-भरे हाथ अभी झाड़े ही थे कि दुष्ट घड़ी ने लपक कर उसे अपने शिकंजे में ले लिया.

हरजीत मेरी उपलब्धि था. लेकिन मेरी उपलब्धि की विडम्बना देखिए :

कुछ दिन पहले मैंने उसको ढूढ़ लिया
आने वाले वक़्त में जिसको खोना था

मुझे इस बात का मलाल नहीं कि मैंने डूब रहे सूरज से हाथ मिलाया था, बल्कि तसल्ली इस बात की है कि हाथ सूरज से मिलाया था. उसके हाथ की गरमी आज भी मेरे हाथ में है.

ग़ज़ल उसकी तमाम संवेदनाओं का केंद्र होने की वजह से उसकी अभिलाशाओं का आधार थी. इसको लेकर उसकी आँखों में जुगनू  चमक रहे थे. रतजगे उन आँखों को न जाने कहां कहां लिए फिरते रहे :

रतजगा दिन भर मेरी आँखें लिए फिरता रहा
शाम लौटा साथ लेकर वो बहुत से रतजगे

रतजगों का ये सिलसिला लंबा खिंच सकता था अगर हरजीत अपनी आँखें नहीं मूंद लेता.

आओ हम उस लहर के सीने पर जाकर विश्राम करें
देखो तो उस लहर को वो इक लहर किनारों जैसी है

अल्पायु में ही आँखें मूंद लेने वाला हरजीत बेशक एक दिन का समंदर था, जिसकी लहरों पर हम विश्राम तो कर सकते हैं लेकिन उसे समेट कर सीलबंद करने का हुनर हम में से किसी के पास नहीं है. उसने कहा था:

एक दिन के लिए समंदर हूँ
कल मुझे बादलों में मिलना तुम

समंदर आज बादल बन चुका है. हरजीत के मित्र कवि अवधेश कुमार के सिवाए अन्य कोई तौफ़ीक वाला ही आज हरजीत से हाथ मिला सकता है.
________________
प्रेम साहिल
47- शालीन एनक्लेव
बदरीपुर रोड
जोगीवाला, देहरादून - 248005

मोबाइल - 9410313590


मेघ-दूत :मार्केस : मैं सिर्फ़ एक फ़ोन करने आई थी (अनुवाद-विजय शर्मा)

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मार्केस की कहानियों का जादुई यथार्थ यथार्थ को उसकी सम्पूर्ण निर्ममता और विडम्बना के साथ प्रस्तुत करता है. चीजें जिस तरह से जटिल और क्रूर होती गयी हैं उन्हें व्यक्त करने का यह एक साहित्यिक तरीका था जिसे मार्कस ने तलाश किया था जो बाद में सभी भाषाओँ में लोकप्रिय हुआ. कभी अस्तित्ववादी लेखकों ने इसी तरह के प्रयोग किये थे.

एक स्त्री अपने पति को सिर्फ एक फोन करने के लिए घर से बाहर निकलती है और फिर जो उसके साथ होता है उसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता.

IOnly Came To Use The Phone’ मार्केस की प्रसिद्ध कहानियों में से एक है जिसका अनुवाद विजया शर्मा ने अंग्रेजी से हिंदी में किया है. विजया शर्मा का अनुवाद के क्षेत्र में बड़ा कार्य है. ‘अपनी धरती अपना आकाश : नोबेल के मंच से, ‘वॉल्ट डिज्नी: ऐनीमेशन का बादशाह’, ‘अफ़्रो-अमेरिकन स्त्री साहित्य’, ‘स्त्री, साहित्य और नोबेल पुरस्कार’, ‘क्षितिज के उस पार से’, ‘सात समुंदर पार से (प्रवासी साहित्य विश्लेषण), ‘देवदार के तुंग शिखर से’, ‘हिंसा, तमस एवं अन्य साहित्यिक आलेखआदि उनकी कृतियाँ हैं.


मैं सिर्फ़ एक फ़ोन करने आई थी
विजय शर्मा


वसंत की एक दोपहर खूब वर्षा हो रही थी जब मारिया डि ला लुज़ सर्वान्टेस अकेली बार्सीलोना लौट रही थी. उसकी किराए की कार मोनेग्रोस के रेगिस्तान में खराब हो गई. वह सत्ताइस साल की समझदार, सुंदर मैक्सिकन थी. जिसने कुछ साल पहले तक गायिका के रूप में खूब नाम कमाया था. उसका विवाह कैबरे जादूगर से हुआ था. अपने कुछ रिश्तेदारों से जरागोजा में मिलने के बाद शाम को वह अपने पति से मिलने वाली थी. तूफ़ान में एक घंटे तक उस रास्ते से तेजी से गुजरने वाली कार और ट्रक को रोकने के लिए उसने  इशारा किया और अंत में एक जर्जर बस ड्राइवर को उस पर दया आई. उसने पहले ही बता दिया कि वह बहुत दूर नहीं जा रहा था.
“कोई बात नहीं,” मारिया ने कहा, “मुझे केवल एक फ़ोन करना है.”

यह सत्य था, उसे केवल अपने पति को फ़ोन करके यह बताना था कि वह सात बजे से पहले घर नहीं पहुँच पाएगी. एप्रिल में छात्रों वाला कोट और तटीय जूते पहने वह एक भीगी हुई छोटी चिड़िया-सी लग रही थी. वह इतनी परेशान हो गई थी कि कार की चाभियाँ लेना भूल गई. सैनिक ढ़ंग से ड्राइवर की बगल सीट पर बैठी औरत ने मारिया को तौलिया और कंबल दिया. उसने सरक कर मारिया को बैठने के लिए जगह भी दी. मारिया ने तौलिए से स्वयं को पोंछा और कम्बल लपेट कर बैठ गई. उसने सिगरेट जलाने की कोशिश की पर उसकी माचिस भींग गई थी. जिस स्त्री ने उसे सीट दी थी, उसी ने उसे लाइट दी और अभी भी सूखी बची सिगरेटों में से एक माँगी. जब वे सिगरेट पी रही थीं मारिया को अपनी मुसीबत किसी से साझा करने की इच्छा हुई. वर्षा तथा बस की खड़खड़ाहट के कारण उसने ऊँचे स्वर में बोलने की कोशिश की. उस औरत ने अपने होंठों पर अँगुली रख कर उसे बरज दिया.

“वे सो रही हैं,” वह फ़ुसफ़ुसाई.
मारिया ने उसके कंधे के ऊपर से देखा. बस अलग-अलग उम्र की औरतों से भरी पड़ी थी और वे अलग-अलग मुद्राओं में उसी की तरह कंबल में लिपटी सो रही थीं. उनकी हवा उसे भी लग गई और वह भी गुड़ी-मुड़ी हो वर्षा के शोर में डूब गई. जब वह जगी, अंधेरा हो चुका था और तूफ़ान बर्फ़ीली रिमझिम में बदल गया था. उसे कुछ पता न चला कि वह कितनी देर सोई और दुनिया के किस छोर पर वे पहुँच गए थे. उसकी पड़ौसन सतर्क थी.

“हम कहाँ हैं?” मारिया ने पूछा.
“हम पहुँच गए हैं”, औरत ने उत्तर दिया.
बस कोबल स्टोन वाले आहाते में घुस रही थी, पेड़ों के जंगल से घिरी एक विशाल, धुँधली पुरानी इमारत जो देखने में पुराना कॉन्वेंट लग रही थी. आहाते की लैम्प की रोशनी में बस में निश्चल बैठे यात्री नाममात्र को दीख रहे थे, जब तक कि उस औरत ने उन्हें मिलिट्री ढ़ंग से बाहर निकलने का आदेश नहीं दिया. एक आदिम आदेश जैसा कि एलीमेंट्री स्कूल में दिया जाता है. वे सब उम्रदराज औरतें थीं. उनकी चाल इतनी धीमी थी कि आँगन के नीम अंधेरे में वे स्वप्न की परछाइयों की मानिन्द लग रही थीं. अंत में उतरने वाली मारिया ने सोचा कि वे सब धार्मिक बहनें (नन) थीं. वह पक्के तौर पर कुछ समझ न पाई जब उसने देखा कि उन औरतों को यूनीफ़ॉर्म पहनी बहुत सारी औरतों ने बस के दरवाजे से उतारा, उनको सूखा रखने के लिए उनके सिर पर कंबल खींच कर उढ़ा दिया और उन्हें एक लाइन से खड़ा कर दिया. यह सब कुछ बिना बोले बल्कि निश्चित, दबंग तालियों के इशारे पर किया गया. मारिया ने गुडबॉय कहा और जिस औरत की सीट उसने साझा की थी उसे कंबल लौटाना चाहा. लेकिन उस औरत ने उसे कहा कि जब तक वह आँगन पार करे कंबल से अपना सिर ढ़के रखे और बताया कि इसे पोर्टर ऑफ़िस में लौटा दे.

“क्या यहाँ टेलीफ़ोन है?” मारिया ने पूछा.
“है न,” उस औरत ने कहा. “वे तुम्हें दिखा देंगे.” उसने एक और सिगरेट माँगी, मारिया ने उसे पूरा भींगा पैकेट दे दिया. “ये रास्ते में सूख जाएँगी,” वह बोली. चलती गाड़ी में चढ़ते हुए उस औरत ने गुडबॉय लहराया और तकरीबन चिल्लाते हुए ‘गुड लक’ कहा. मारिया को बिना कुछ बोलने का मौका दिए बस रवाना हो गई.

मारिया बिल्डिंग के गेट की ओर दौड़ने लगी. एक मेट्रन ने जोर से ताली बजा कर उसे रोकना चाहा पर उसे दबंग आवाज में चिल्लाना पड़ा: ‘स्टॉप, आई सेड!” मारिया ने कंबल के नीचे से झाँका. उसे एक जोड़ी ठंडी आँखें और वर्जना करती एक तर्जनी, अपनी ओर लाइन में लगने को दिखाती नजर आई. उसने आज्ञा का पालन किया. एक बार बरामदे में पहुँचते ही वह झुंड से अलग हो गई. उसने पोर्टर से पूछा कि फ़ोन कहाँ है. एक मेट्रन ने व्यंग्यात्मक लहजे में “इस ओर, सुंदरी, टेलीफ़ोन इस ओर है” कहते हुए उसे कंधे पर थपका कर लाइन में वापस खड़ा कर दिया.

मारिया दूसरी औरतों के साथ एक धुँधले गलियारे में चलती हुई एक डॉरमेट्री में पहुँची जहाँ मेट्रन ने कंबल ले लिए और उन्हें उनके बिस्तर देने शुरु किए. मारिया को वह जरा दयालु और बड़े ओहदे वाली लगी, वह एक सूचि में लिखे नामों का मिलान नई आने वालियों के कपड़े पर सिले टैग से कर रही थी, जब वह मारिया के पास पहुँची उसे यह देख कर आश्चर्य हुआ कि वह अपनी पहचान पहने हुए नहीं है.

“मैं केवल फ़ोन करने आई हूँ,” मारिया ने उसे बताया.
उसने बड़ी बेताबी से बताया कि हाईवे पर उसकी कार खराब हो गई थी. उसका पति जो पार्टियों में जादू दिखाता है, बार्सीलोना में उसका इंतजार कर रहा है. आधी रात से पहले उसके तीन कार्यक्रम हैं. वह अपने पति को बताना चाहती है कि वह समय पर उसके पास नहीं पहुँच सकेगी. तकरीबन सात बज रहे थे. वह दस मिनट में घर छोड़ेगा और उसे डर है कि यदि वह समय से न पहुँची तो वह सारे कार्यक्रम रद्द कर देगा. लगा मेट्रन उसकी बातें ध्यान से सुन रही है.

“तुम्हारा नाम क्या है?” उसने पूछा.
मारिया ने चैन की साँस लेते हुए अपना नाम बताया. लेकिन कई बार लिस्ट देखने पर भी उसे वह न मिला. खतरा सूँघते हुए उसने दूसरी मेट्रन से पूछा, जिसके पास बताने को कुछ न था. उसने कंधे उचका दिए.

“लेकिन मैं सिर्फ़ फ़ोन करने आई हूँ,” मारिया ने कहा.
“श्योर, हनी,” सुपरवाइजर ने उससे कहा. वह उसे बहुत मिठास (जो सच्ची कदापि नहीं थी) के साथ उसके बिस्तर की ओर ले चली. “अगर तुम अच्छी तरह रहोगी तो तुम जिसे चाहो उसे बुला सकोगी. लेकिन अभी नहीं, कल.”

तब मारिया के दिमाग में कुछ खटका हुआ. वह समझ गई कि बस में स्त्रियाँ ऐसे क्यों थीं, मानो वे एक्वेरियम के तल में हों. असल में उन्हें शामक दे कर नीम बेहोश किया गया था. और मोटी पत्थरों की दीवालों तथा ठंडी सीढ़ियों वाला यह अंधेरा महल असल में मानसिक रोगी स्त्रियों का अस्पताल था. वह भयभीत हो डॉरमेट्री से बाहर भागी, पर इसके पहले कि वह गेट तक पहुँचती मेकेनिक के कपड़े पहने एक विशालकाय मेट्रन ने अपने हाथ के भयंकर छपाटे से उसे रोक दिया और अपनी बाजुओं में जकड़ कर फ़र्श पर निश्चल कर दिया. उसके नीचे दबी हुई अवश मारिया ने अपनी बगल में देखा.

“भगवान के लिए, मैं अपनी मरी हुई माँ की सौगंध खा कर कहती हूँ, मैं केवल एक फ़ोन करने आई थी.” उसने कहा.
उसके चेहरे पर एक नजर डालते ही मारिया को पता चल गया कि पूरी तरह से इस पागल, उन्मादी सनकी– जिसका नाम अपने असामान्य बल के कारण हरकुलीना था–– से कोई भी विनती व्यर्थ है. वह कठिन मामलों की इनचार्ज थी, उसकी विशालकाय ध्रुवीय भालू जैसी बाँहें –जो मारने की कला में निपुण थी– से दो रोगियों की मौत हो चुकी थी. यह माना जा चुका था कि पहला केस दुर्घटना था. दूसरा स्पष्ट नहीं था. और हरकुलीना को चेतावनी दे कर सावधान कर दिया गया था कि अगली बार पूरी तौर पर जाँच होगी. यह एक जानी-मानी बात थी कि एक पुराने कुलीन परिवार की इस ब्लैक शीप का इतिहास पूरे स्पेन के विभिन्न मेंटल अस्पतालों में संदिग्ध दुर्घटनाओं से भरा हुआ था.

पहली रात उन्हें मारिया को नशे का इंजक्शन दे कर सुलाना पड़ा. जब सिगरेट पीने की तलब से वह सूर्योदय के पूर्व जागी उसकी कलाइयाँ और टखने बिस्तर पर छड़ों से बँधे हुए थे. वह चीखी पर कोई आया नहीं. सुबह जब उसका पति बार्सीलोना में उसका कोई सुराग न पा सका, उसे अस्पताल ले जाना पड़ा क्योंकि उन लोगों ने उसे अपनी ही दुर्दशा में अचेत पड़ा पाया.

जब उसे होश आया, उसे नहीं मालूम था कि कितना समय बीत चुका था. पर अब दुनिया उसे प्रेम का सागर लग रही थी. उसके बिस्तर के बगल में एक प्रभावशाली वृद्ध नंगे पैर चल रहा था और उसके दो मजबूत हाथों तथा प्यारी-सी मुस्कान ने मारिया को जीवित रहने की खुशी दी. वह सैनीटोरियम का डॉयरेक्टर था.

बिना उससे कुछ कहे, बिना उसका अभिवादन किए हुए मारिया ने एक सिगरेट माँगी. उसने एक जला कर करीब पूरे भरे पैकेट के साथ उसे दे दी. मारिया अपने आँसू न रोक सकी.
“रो कर अपना हृदय हल्का कर लो,” डॉक्टर ने सहलाती आवाज में कहा. “आँसू सर्वोत्तम दवा हैं.”

मारिया ने बिना किसी शर्म के अपना पूरा हृदय उड़ेल दिया क्योंकि वह अपने प्रेमियों के साथ प्रेम के बाद बचे समय में यह कभी न कर पाई थी. सुनने के बीच डॉक्टर अपनी अँगुलियों से उसके बाल सहलाता रहा. उसकी सांस संतुलित रखने के लिए उसका तकिया ठीक करता रहा, उसे उसकी द्विविधा की भूलभुल्लैया से ऐसी मिठास और होशियारी से निकालता रहा जिसकी उसने कभी कल्पना न की थी. यह जादू उसके जीवन में पहली बार हो रहा था जब कोई पुरुष उसकी सारी बातें इतने मन से सुन रहा था, और बदले में उसके साथ हमबिस्तर होने की उम्मीद नहीं कर रहा था. एक लंबे समय के बाद जब वह अपना हृदय उड़ेल चुकी तब उसने अपने पति से फ़ोन पर बात करने की आज्ञा माँगी.

डॉक्टर अपने पेशे की पूर्ण गरिमा के साथ उठ खड़ा हुआ. “अभी नहीं प्रिंसेस,” उसने पहले से भी ज्यादा मुलामियत से उसके गाल थपथपाते हुए कहा. “सब काम समय पर होंगे.” दरवाजे से उसने उसे बिशप का आशीर्वाद दिया, उस पर विश्वास रखने के लिए कहा और सदैव के लिए गायब हो गया.
उसी दोपहर मारिया को एक क्रमांक और वह कहाँ से आई है, उसकी पहचान के रहस्य आदि के बारे में कुछ ऊपरी तथ्यों के साथ पागलखाने में भर्ती कर दिया गया. हाशिए पर डॉक्टर ने अपने हाथ से एक मूल्यांकन लिखा: विक्षुब्ध.
जैसा कि मारिया ने सोचा था, उसके पति ने तीनों कार्यक्रमों के लिए उनका होर्टा जिले के घर अपने समय से आधा घंटा देर से छोड़ा. उनके दो वर्ष के मुक्त और बेहद संतुलित संग रहने के दौरान यह पहला अवसर था जब वह लेट थी. और उसने अनुमान लगाया कि यह पूरे क्षेत्र में होने वाली मूसलाधार बारिश के कारण हुआ होगा. बाहर जाने से पहले उसने दरवाजे पर रात भर की अपनी योजना का एक नोट लगा दिया.
पहली पार्टी में जहाँ सारे बच्चे कंगारू की पोशाक पहने हुए थे उसने अपना सर्वोत्तम जादू अदृश्य मछली वाला कार्यक्रम छोड़ दिया. क्योंकि यह वह बिना मारिया के नहीं कर सकता था. उसका दूसरा कार्यक्रम व्हीलचेयर में बैठी तिरावने वर्ष की एक बुढ़िया के घर में था. जिसे गर्व था कि वह अपने पिछले तीस बर्थडे, हर बार एक अलग जादूगर के साथ मनाती है. वह मारिया की गैरहाजरी से इतना परेशान था कि सामान्य ट्रिक्स पर भी अपना ध्यान केंद्रित नहीं कर पा रहा था. अपना तीसरा प्रोग्राम फ़्रेंच पर्यटकों के एक ग्रुप को उसने कैफ़े रैमब्लास, जहाँ वह हर रात जाता था, में बड़े बेमन से दिया. पर्यटकों ने जो देखा उन्हें विश्वास नहीं हुआ क्योंकि उन लोगों ने जादू को नकारा हुआ था. हर शो के बाद उसने अपने घर टेलीफ़ोन किया और हताशा में मारिया के उत्तर की प्रतीक्षा करता रहा. अंतिम बार फ़ोन करने के बाद वह स्वयं पर नियंत्रण नहीं रख सका, उसे अवश्य कुछ हो गया है.

पब्लिक परफ़ॉमेंस के लिए मिली हुई वैन से घर लौटते हुए उसने पैसिओ द ग्रसिया के किनारे लगे हुए वसंत में खूबसूरत पॉम वृक्षों को देखा और इस अशुभ सोच से काँप गया कि मारिया के बिना शहर कैसा लगेगा. उसकी अंतिम आशा पर पानी फ़िर गया जब उसने दरवाजे पर लगे अपने नोट को ज्यों-का-त्यों देखा. वह इतना बेहाल हो गया कि बिल्ली को खाना देना भी भूल गया.

जब मैं यह लिख रहा हूँ मुझे भान हुआ कि उसका असली नाम कभी नहीं जाना, क्योंकि बार्सीलोना में हम उसे उसके पेशे के नाम: ‘सेटर्नो द मेजीशियन’ से ही जानते थे. वह एक अजीब किस्म का आदमी था और उसका सामाजिक अनाड़ीपन सुधार के बाहर था. परंतु उसकी कमी की भरपाई मारिया कुछ ज्यादा ही कर पाती थी. यह वही थी जिसने उसका हाथ पकड़ कर समुदाय के भयंकर रहस्यों में साथ दिया, जहाँ कोई आदमी आधी रात के बाद अपनी पत्नी को बुलाने की कल्पना नहीं कर सकता है. पहुँचने के बाद पहले सेटर्नो ने इस घटना को भूल जाना चाहा. अत: आराम से उस रात जारागोजा फ़ोन किया जहाँ बूढ़ी सोती हुई दादी ने उसे बिना किसी खतरे के बताया कि मारिया लंच के बाद विदा हो गई है. वह सूर्योदय के समय केवल एक घंटे सोया. उसने एक भ्रामक स्वप्न देखा जिसमें उसने मारिया को खून के छींटे वाले शादी के जोड़े में देखा, वह भयभीत करने वाले विश्वास के साथ जागा कि इस बड़ी दुनिया में बिना उसके ही झेलने के लिए वह उसे सदा के लिए छोड़ गई है.

पिछले पाँच सालों में उसके सहित वह तीन भिन्न लोगों को छोड़ चुकी थी. मिलने के छ: महीनों के भीतर ही जब वे एंजोरस जिले में नौकरानी के कमरे में प्यार करने के पागलपन के सुख से ऊब गए थे, उसने उसे भी मैक्सिको शहर में छोड़ दिया था. एक रात अकथनीय कामुकता के बाद सुबह मारिया जा चुकी थी. वह अपने पीछे सब कुछ छोड़ गई थी यहाँ तक कि अपनी शादी की अँगूठी भी, उस पत्र के साथ जिसमें उसने बताया था कि वह प्यार के वहशीपन की यंत्रणा सहने में असमर्थ है.सेटर्नो ने सोचा कि वह अपने पहले पति के पास लौट गई है. हाईस्कूल के साथी जिसने उससे छिपा कर शादी की थी, जब वह नाबालिग थी. और जिसने उसने दो साल के प्रेमविहीन जीवन के बाद एक दूसरे आदमी के लिए छोड़ दिया था. लेकिन वह अपने माता-पिता के घर गई थी. और सेटर्नो उसे किसी भी कीमत पर वापस लाने उसके पीछे-पीछे गया.उसकी याचना बेशर्त थी. उसने इतने वायदे किए जो उसके बस में न थे. मगर मारिया का अजेय निश्चय आड़े आ गया. “प्यार थोड़े समय के लिए होता है और प्यार लंबे समय के लिए होता है.” वह बोली. और उसने निर्दयता से अपनी बात समाप्त की, “यह एक अल्पकालीन प्यार था.” उसकी कठोरता के सामने वह हार गया. ऑल सेंट्स डे की भोर में जब वह जानबूझ कर एक साल से छोड़े अपने अनाथ कमरे में लौटा तो बैठक में सोफ़े पर उसने मारिया को क्वाँरी वधु द्वारा पहने जाने वाले नारंगी के फ़ूलों वाले मुकुट और लंबी पोशाक में सोए हुए पाया.

मारिया ने उसे सच्चाई बताई. जमी-जमाई जिंदगी वाला नि:संतान विधुर उसका नया मंगेतर कैथोलिक धर्म के अनुसार सदा के लिए विवाह का मन बनाए तैयार उसे विवाह की बेदी पर इंतजार करता छोड़ गया. उसके माता-पिता ने इसके बावजूद रिसेप्शन देने का निश्चय किया. वह उनके संग नाटक करती रही. उसने नृत्य किया, संगीतकारों के संग गाना गाया, खूब छक कर पीया और बाद में उदास हो उसी स्थिति में आधी रात को सेटर्नो को खोजने निकल पड़ी.
वह घर पर नहीं था पर जहाँ वे छिपते थे वहाँ हॉल के गमले में उसे चाभी मिल गई. इस बार उसका समर्पण बिना शर्त था. ‘‘इस बार कितने दिन?” उसने पूछा था. वह विनिशियस ड मोरियस की पंक्ति में बोली: “जब तक चले तब तक, शाश्वत है प्रेम.” दो साल के बाद भी वह शाश्वत था.

लगता है मारिया में प्रौढ़ता आ गई थी. उसने अभिनेत्री बनने के अपने ख्वाब को तिलांजलि दे दी थी. पति के लिए काम और बिस्तर में पूर्णत: समर्पित हो गई थी. पिछले वर्ष के अंत में उन्होंने पेरपीग्नान में जादूगरों के एक समागम में भाग लिया और घर लौटते हुए पहली बार बार्सीलोना देखने गए. वह उन्हें इतना अच्छा लगा कि लगा कि आठ महीनों से वे वहीं रह रहे थे. उन्हें वह इतना जँच गया कि होर्टा की बगल में काटालोनियन में उन्होंने एक घर खरीद लिया. यह बहुत कोलाहलपूर्ण था. उनके पास दरबान-नौकर भी नहीं था. पर वहाँ पाँच बच्चों के लिए काफ़ी स्थान था. कोई जितनी खुशी की आशा कर सकता है, उनकी खुशी आशातीत थी. तब तक जब तक कि उसने सप्ताह अंत में किराए की एक कार ली. और अपने रिश्तेदारों से मिलने ज़ारागोजा गई. सोमवार रात सात बजे तक वापस लौटने की बात कह कर. गुरुवार की सुबह तक उसकी कोई खबर न थी.

अगले सोमवार को किराए की कार के बीमा वालों का फ़ोन आया और उन्होंने मारिया के विषय में पूछा. “मुझे कुछ नहीं मालूम,” सैटर्नो ने कहा. “उसे ज़ारागोजा में खोजो.” उसने फ़ोन रख दिया. एक सप्ताह बाद एक पुलिस ऑफ़ीसर ने घर पर सूचना दी कि मारिया ने जहाँ कार छोड़ी थी वहाँ से नौ सौ किलोमीटर दूर कैंडिज़ में पूरी तरह उजाड़ अवस्था में कार मिल गई है. ऑफ़ीसर जानना चाहता था क्या उसे चोरी के बारे में कोई और जानकारी है. उस समय सेटर्नो अपनी बिल्ली को खाना खिला रहा था. वह ऊपर नहीं देख रहा था जब उसने पुलिस वाले को साफ़-साफ़ कहा कि वे अपना समय बेकार न गँवाएँ. उसकी पत्नी उसे छोड़ गई है और उसे नहीं मालूम कि वह कहाँ है और किसके साथ है. उसका विश्वास इतना पक्का था कि ऑफ़ीसर को असुविधा अनुभव हुई. उसने अपने प्रश्न के लिए माफ़ी माँगी. उन्होंने केस बंद करने की घोषणा कर दी.

कैडैक्यूज में पिछले ईस्टर के अवसर पर सेटर्नो के मन में यह शंका फ़िर हुई कि मारिया उसे छोड़ जाएगी, जहाँ रोजा रेगास ने उन्हें नौका विहार के लिए आमंत्रित किया था. उस दिन का सिगरेट का दूसरा पैकेट पीने के बाद उसकी माचिस समाप्त हो गई. भीड़ भरे शोरगुल वाले टेबल के बीच से एक पतला बालों भरा हाथ जिसमें रोमन काँसे का ब्रेसलेट था आगे बढ़ा और उसने आग दी. वह जिस व्यक्ति को धन्यवाद दे रही थी, उसकी ओर बिना देखे ही उसने धन्यवाद कहा, परंतु जादूगर सेटर्नो ने उसे देखा– कमर तक झूलती एक काली चोटी वाला हड़ियल, सफ़ाचट किशोर, इतना पीला मानो मृत्यु हो. बार की खिड़कियों के पल्ले किसी तरह वसंत की उत्तरी हवा को सह सके, लेकिन वह मात्र एक सूती पाजामा और किसानों वाली चप्पलें पहने हुए था.

उन्होंने उसे ला बार्सीलोना बार में उन्हीं सूती कपड़ों और पोनीटेल की जगह लंबी दाढ़ी में पतझड़ के अंत तक दोबारा नहीं देखा. उसने दोनों का अभिवादन किया मानो पुराने मित्र हों. और जैसे उसने मारिया का चुम्बन लिया और जैसे मारिया ने उसे चूमा, सेटर्नो को शक हुआ कि वे चुपचाप बराबर मिलते रहे हैं. कुछ दिनों के बाद उसने देखा कि उनके घर की टेलीफ़ोन बुक में मारिया ने एक नया नाम और फ़ोन नंबर लिख रखा है और बेदर्द जलन. ईर्ष्या ने स्पष्ट कर दिया कि वे किससे हैं. घुसपैठिए की पृष्ठभूमि इसका पक्का सबूत था: वह एक अमीर परिवार का बाइस साल का इकलौता वारिस था. नेबल दुकानों की खिड़कियों की सजावट का काम करता था. उसकी ख्याति कभी-कदा बाईसैक्सुअल के रूप में थी, जो शादीशुदा औरतों को पैसों के एवज में सुख पहुँचाने के लिए बदनाम था. जिस दिन गई रात तक मारिया घर नहीं लौटी सेटर्नो स्वयं को जब्त किए रहा. इसके बाद वह रोज फ़ोन करने लगा, सुबह छ: से अगली भोर तक. शुरु में हर दो-तीन घंटों पर, बाद में जब भी वह फ़ोन के करीब होता. इस वास्तविकता में कि कोई उत्तर नहीं देता सेटर्नोका शहीदीपन सघन होता गया. चौथे दिन वहाँ झाड़ू लगाने वाली एक एंडालुसीयन औरत ने फ़ोन उठाया. “वह चला गया है,” वह बोली, उसे पागल करने वाली अनिश्चितता के साथ. सेटर्नो यह पूछने से खुद को नहीं रोक पाया कि क्या वहाँ मारिया है?

“मारिया नाम का कोई नहीं रहता,” औरत ने उसे बताया. “वह क्वाँरा है.”
“मुझे मालूम है,” उसने कहा. “वह वहाँ नहीं रहती है लेकिन कभी-कभी आती है, ठीक?”
औरत चिढ़ गई.
“कौन है वह आखीर?”
सेटर्नो ने फ़ोन रख दिया. उस औरत के इंकार ने उसके शक को पक्का कर दिया. वह अपना संतुलन खो बैठा. आने वाले दिनों में बार्सीलोना में वह जिसको भी जानता था सबको उसने वर्णानुक्रम में फ़ोन किए. कोई उसे कुछ न बता सका. लेकिन हर काल ने उसकी बेचैनी और गहरी कर दी, क्योंकि उसकी ईर्ष्या ने उसे हँसी का पात्र बना दिया था. लोग उसे भड़काने के लिए कुछ-न-कुछ कह देते और वह सुलग उठता. और तब उसे पता चला कि स खूबसूरत, पागल शहर में वह कितना अकेला और बेचारा है. यहाँ वह कभी भी खुश नहीं रह पाएगा. भोर में उसने बिल्ली को खाना दिया और अपने हृदय को मजबूत किया और मारिया को भूल जाने की सोची.

दूसरी ओर उधर दो महीनों के बाद भी मारिया सैनीटोरियम की रुटीन से तालमेल नहीं बिठा पाई थी – उसकी दृष्टि सदैव भुतहे डाइनिंग रूम पर शासन कर रहे जनरल फ़्रैंसिस्को फ़्रैंको के लिथोग्राफ़ पर टिकी रहती. अनगढ़ लंबी टेबल से जंजीर में बँधी थाली में परोसे सुबह-शाम का बेस्वाद खाना खा जैसे-तैसे वह जिंदा थी. प्रारंभ में चर्च के रिवाज के अनुसार दिन भर चलने वाले कर्मकांडों – प्रशस्ति, प्रार्थना, शाम की उपासना – का उसने जम कर विरोध किया. मनोरंजन कक्ष में बॉल खेलना, वर्कशॉप में बैठ कर नकली फ़ूल बनाना भी उसे अच्छा न लगता. हालाँकि उसी की तरह आई दूसरी औरतें यह सब पूरे उत्साह से करतीं और वर्कशॉप जाने को लालायित रहतीं. लेकिन तीसरा सप्ताह बीतते-न-बीतते मारिया भी अन्य लोगों के साथ तालमेल बिठाने लगी. डॉक्टरों के अनुसार वहाँ भर्ती प्रत्येक औरत प्रारंभ में ऐसा प्रतिरोध करती ही है और जैसे-जैसे समय व्यतीत होता है, समूह में घुलने-मिलने लगती है.

कुछ ही दिनों में सिगरेट की कमी को वहाँ की एक मेट्रनने सुलझा दिया. वह उन्हें कीमत वसूल कर सिगरेट मुहैया कराती. मारिया के साथ भी प्रारंभ में उसका व्यवहार ठीक था लेकिन ज्यों पैसे खतम हुए वह उसे सताने लगी. बाद में वह भी दूसरी औरतों की भाँति कचड़े से सिगरेट के टुकड़ों से तम्बाखू निकाल कर कागज में लपेट कर सिगरेट बना कर अपनी तलब पूरी करने लगी. सिगरेट की उसकी तलब टेलीफ़ोन के पास जाने जैसी ही उत्कट थी. कुछ समय बाद बेमन से वह नकली फ़ूल बनाने लगी और उससे प्राप्त पैसों से उसकी समस्या कुछ हल हुई.

सर्वाधिक कठिन था रात का अकेलापन. धुँधली रोशनी में उसकी तरह कई अन्य औरतें जागती रहतीं. वे कुछ नहीं करतीं क्योंकि जंजीर से जकड़े और भारी ताले से बंद दरवाजे पर बैठी मेट्रन भी जागती रहती. एक रात यंत्रणा से बेचैन मारिया ने बगल के बिस्तर तक जाती जोरदार आवाज में पूछा:
“हम कहाँ हैं?”
कब्र में उसके बगल वाले बिस्तर से स्पष्ट आवाज आई:
“नरक के गढ़े में.”
“लोग कहते हैं कि यह अश्वेतों का देश है,” एक अन्य ने कहा, और यह सत्य है तभी तो गर्मियों में चाँद देख कर समुद्र की ओर मुँह करके कुत्ते भौंकते हैं.” एक अन्य ने यह बात इतने जोर से कही कि बात पूरे हॉल में गूँज गई. तालों के संग घिसटने वाली जंजीर की आवाज गैली जहाज जैसी थी. और दरवाजा खुला. पहरे पर तैनात एकमात्र सजीव उनकी निर्दयी अभिभाविका एक छोर से दूसरे छोर तक चहलकदमी करने लगी. मारिया भय से जकड़ गई जिसका कारण सिर्फ़ वही जानती थी.

सैनीटोरियम में दाखिल होने के पहले सप्ताह से ही रात्रि मेट्रन उसे गार्डरूम में अपने साथ सोने का प्रस्ताव दे रही थी. उसने स्पष्ट रूप से बिजनेस जैसी बात कही, सिगरेट, चॉकलेट या जो भी वह चाहे बदले में उसे मिलेगा. “तुम्हें सब कुछ मिलेगा,” मेट्रन ने काँपती हुई आवाज में कहा, “तुम रानी होओगी.” जब मारिया ने इंकार किया, उसने चाल बदली और वह छोटे-छोटे प्रेमपत्र उसके तकिए के नीचे, उसकी जेब और अप्रत्याशित स्थानों पर रखने लगी. उनमें लिखा पत्थर को पिघलाने वाला होता. मारिया को अपनी पराजय स्वीकार किए हुए डोरमेट्री की घटना के बाद एक महीने से ऊपर हो चुका है. जब उसे लगा कि बाकी मरीज सो चुकी हैं तो मेट्रन मारिया के बिस्तर के करीब आई और उसके कान में गंदी-अश्लील बातें फ़ुसफ़ुसाने लगी. साथ ही वह मारिया का चेहरा, भय से अकड़ी हुई गर्दन, कसी हुई बाँहें तथा बेजान टाँगे चूमने लगी. मेट्रन इतने आवेश में थी कि उसे मारिया की लकवाग्रस्त हालत भय का परिणाम नहीं वरन उसकी रजामंदी लगी और वह आगे बढ़ती गई. उसे तब पता चला जब मारिया ने उसे उल्टे हाथ का झन्नाटेदार झापड़ रसीद किया और मेट्रन बगल वाले बिस्तर पर जा गिरी.शोरगुल करती अन्य स्त्रियों के बीच से गुस्से से भरी मेट्रन उठ खड़ी हुई.

“कुतिया! जब तक तुझे अपने पीछे न घुमाया, हम यहीं सड़ेंगी.”
जून के पहले रविवार को बिना सूचना के गर्मियाँ आ पहुँचीं. आपातकाल की खबर हुई जब चर्च में प्रार्थना के दौरान पसीने से नहाई मरीज अपने बेडोल गाउन उतारने लगीं. थोड़े मजे के साथ मारिया देखने लगी, मेट्रन नंगी औरतों को अंधे चूजों की तरह ऊपर-नीचे दौड़ाती. इस हंगामें मे मारिया खुद को भयंकर चोटों से बचाती. उसने खुद को ऑफ़िस में अकेला पाया जहाँ मासूम टेलीफ़ोन की घंटी उसे पुकार रही थी. मारिया ने झटपट बिना कुछ सोचे-समझे रिसीवर उठा लिया, दूसरी ओर से मुस्कुराती हुई टेलीफ़ोन कंपनी की समय सेवा की आवाज आई:
“समय हुआ है पैंतालिस घंटे, बानवे मिनट और एक सौ सात सैकेंड.”

“धत्त,” मारिया ने कहा.
मजा लेते हुए उसने रिसीवर टाँग दिया. वह बाहर निकलने ही वाली थी कि उसे ज्ञान हुआ मानो उसके हाथ से एक अनोखा अवसर निकला जा रहा है. उसने बिना किसी तनाव के  छ: अंक डायल किए, हालाँकि हड़बड़ी के कारण उसे विश्वास न था कि उसे अपने नए घर का नंबर याद है. धड़कते दिल से वह इंतजार करने लगी. उसने अपने फ़ोन की चिर-परिचित उदास आवाज सुनी, एक, दो, तीन बार और अंत में बिना उसके वाले घर में उस आदमी की आवाज सुनी जिसे वह प्यार करती थी.
“हेलो?”
उसे आँसूओं से भरे अपने गले की अवरुद्धता के कारण थोड़ा रुकना पड़ा.
“बेबी, स्वीटहार्ट,” उसांस भर कर उसने कहा.

उसके आँसू उस पर हावी हो गए. लाइन के दूसरी ओर संक्षिप्त लेकिन डरावना सन्नाटा था और ईर्ष्या से भरी आवाज पीक की तरह बाहर निकली:
“रंडी!”
और उसने रिसीवर जोर से पटक दिया.
उस रात मारिया गुस्से की झोंक में आ गई और उसने खाने के कमरे में लगे हुए जनरल के फ़ोटो को खींच उतारा और गार्डेन की ओर खुलने वाली स्टेनग्लास की खिड़की पर दे मारा, खुद लहुलुआन फ़र्श पर गिर पड़ी. उसमें इतना क्रोध भरा हुआ था कि उसे काबू में करने आई मेट्रनकी कोशिशें बेकार हो गईं.अंतत: उसने देखा कि हरकूलीना हाथ बाँधे दरवाजे पर खड़ी उसे घूर रही थी. मारिया ने खुद को उनके हवाले कर दिया. शक नहीं कि वे उसे हिंसक मरीजों वाले वार्ड में घसीट ले गईं. उस पर पानी की मोटी बौछार डाल कर शांत किया, और टर्पेंटाइन की सूई उसके पैरों में घुसेड़ दी.टर्पेंटाइन से हुई सूजन ने उसे चलने-फ़िरने से लाचार कर दिया. मारिया को विश्वास हो गया कि वह चाहे कुछ भी कर ले इस नरक से छुटकारा नहीं पा सकती है. अगले सप्ताह जब वह डोरमेट्री में वापस आई, रात को वह चुपके से मेट्रन के कमरे में गई और दरवाजा खटखटाया.

दरवाजा खुलते ही उसने मेट्रन से उसके साथ सोने की अग्रिम कीमत माँगी, मेट्रन उसके पति को संदेश भेजे. मेट्रन राजी हो गई, लेकिन इस शर्त पर की यह सारा कुछ बिल्कुल गुप्त रहना चाहिए. उसने अपनी तर्जनी दिखाते हुए कहा.
“अगर उन्हें पता चला तो तुम मरोगी.”
अगले रविवार सेटर्नो जादूगर अपनी सर्कस वैन लिए हुए मारिया को वापस ले जाने स्त्रियों के मानसिक अस्पताल पहुँचा. उसने मारिया की वापसी के लिए अपनी वैन खूब सजाई हुई थी. डॉयरेक्टर ने खुद उसकाअपने ऑफ़िस में स्वागत किया, ऑफ़िस जो खूब साफ़-सुथरा और ऐसे करीने से सजा हुआ था मानो युद्धपोत हो. उसने बड़े प्रेम से उसकी पत्नी के बारे में रिपोर्ट पेश की. मालूम नहीं वह यहाँ कैसे और कहाँ से आई. उसने उससे बात करके दाखिले का फ़ॉर्म भरवाया. उसके दाखिले के दिन जो जाँच शुरु हुई वह अब भी जारी है. जो बात डॉयरेक्टर को हलकान कर रही थी वह थी कि सैटर्नो को उसकी पत्नी का पता कैसे मिला. सैटर्नो ने मेट्रन को बचाया.
“इंस्योरेंस कंपनी ने मुझे बताया,” उसने कहा.

डॉयरेक्टर ने संतोष से गर्दन हिलाई. “पता नहीं इंस्योरेंस कंपनी को कहाँ से सब कुछ पता चल जाता है,” उसने कहा. उसने अपने सामने पड़ी मारिया की फ़ाइल पर नजर गड़ाते हुए निष्कर्ष दिया:
“उसकी दशा बहुत गंभीर है.”
वह सैटर्नो जादूगर को उसकी पत्नी से मिलने की आज्ञा देने को राजी था बशर्ते वह पत्नी की दशा को देखते हुए नियमों का बिना कोई प्रश्न पूछे पालन करे. उसने मारिया के बर्ताव के बारे में बताया, सावधानी बरतनी होगी ताकि उसका गुस्सा फ़िर से न भड़क जाए, उसकी दशा दिन-पर-दिन खराब होती जा रही है.

“कितना आश्चर्य है,” सैटर्नो ने कहा. “वह सदा से तुनक मिजाज थी, लेकिन उसे खुद पर नियंत्रण था.”
डॉक्टर ने अनुभव का संकेत दिया. “व्यवहार बरसों-बरस सुप्त रहते हैं और एक दिन फ़ूट पड़ते हैं.” उसने कहा. उसकी किस्मत अच्छी थी कि वह यहाँ आ गई. हमें ऐसे मरीजों के साथ सख्ती के साथ इलाज की विशिष्टा हासिल है.” फ़िर उसने मारिया के टेलीफ़ोन के प्रति अतिरिक्त लगाव के बारे में बताया.
“उसे हँसाओ,” उसने कहा.
“चिंता मत करो डॉक्टर,” सैटर्नो खुश होते हुए कहा. “यह तो मेरी खासियत है.”

मुलाकातियों का कमरा जेल कोठरी और कन्फ़ेशन सेल का मिला-जुला रूप था, यह पहले कॉन्वेंत में बाहरी लोगों से मिलने-जुलने का स्थान था. जैसा कि दोनों इंतजार कर रहे थे सैटर्नो का प्रवेश खुशियों का उन्माद ले कर नहीं आया. मारिया कमरे के बीच में खड़ी थी, उसकी बगल में दो कुर्सियाँ और एक टेबल तथा एक बिना गुलदस्ते के गुलदान रखा था. यह स्पष्ट था कि वह वहाँ से जाने के लिए तैयार हो कर आई थी. उसने स्ट्राबेरी रंग का कोट और किसी के दयापूर्वक दिए हुए बेरंग जूते पहने हुए थे. हरकूलीना नजरों से ओझल कोने में हाथ बाँधे खड़ी थी.जब अपने पति को भीतर आते देखा तब भी मारिया हिली नहीं. उसके किरचों से घायल चेहरे पर कोई भाव नहीं था. उन्होंने औपचारिक ढ़ंग से एक-दूसरे को चूमा.
“कैसा लग रहा है?” उसने पूछा.
“बेबी, खुश हूँ कि आखीर में तुम यहाँ हो,” वह बोली. “यह तो मौत थी.”

उनके पास बैठने का समय न था. आँसुओं में डूबते हुए मारिया ने अपनी भयंकर अवस्था बताई, मेट्रन की क्रूरता-पशुता, खाना कुत्तों के भी लायक नहीं है, अंतहीन रातें जब दहशत से उसकी पलकें भी नहीं झपकती हैं.

“मुझे पता नहीं मैं कितने दिनों, महीनों या सालों से यहाँ हूँ, सिर्फ़ इतना मालूम है कि हर अगला दिन पिछले दिन से अधिक डरावना होता है.” उसने अपनी पूरी आत्मा से उसांस भरी. “मैं नहीं सोचती कि अब कभी पहले जैसी हो पाऊँगी.”
“अब वह सब खतम हो गया है,” उसके चेहरे के ताजा घाव को अपनी अँगुलियों की पोरों से सहलाते हुए उसने कहा. “मैं हर शनिवार को आऊँगा. अगार डॉयरेक्टर ने इजाजत दी तो उससे भी ज्यादा बार. तुम देखना, सब कुछ ठीक हो जाएगा.”

उसने अपनी दहशत भरी आँखें सैटर्नो पर जमा दीं. सैटर्नो अपनी लुभाने वाली हरकतें करता रहा. उसने चासनी में डुबो कर झूठे किस्से बना कर डॉयेक्टर की बात बताई. “इसका मतलब है,” उसने निष्कर्ष दिया, “कि तुम्हें अभी स्वस्थ होने के लिए यहाँ कुछ और दिन रहना होगा.” मारिया वास्तविकता समझ गई.
“भगवान के लिए, बेबी,” स्तंभित उसने कहा, “तुम तो मत कहो कि मैं पागल हूँ!”
क्या तुमको ऐसा लगता है!” बात को हँसी में उड़ाते हुए उसने कहा. “लेकिन यह सब के लिए अच्छा होगा अगर तुम कुछ और समय यहीं रहो, अच्छी स्थिति में.”
“मगर मैं तुम्हें बता चुकी हूँ कि मैं यहाँ केवल फ़ोन करने आई थी!” मारिया ने कहा.
उसे नहीं मालूम था कि उसके डरावने आवेश के साथ कैसा व्यवहार करे. उसने हरकूलीना की ओर देखा. उसने संकेत को ग्रहण करते हुए अपनी कलाई घड़ी की ओर इशारा करते हुए बता दिया कि मुलाकात का समय समाप्त हो रहा है.मारिया ने इशारा समझा, उसने पीछे देखा, हरकूलीना झपट्टा मारने को तैयार थी. तब वह अपने पति की गर्दन सेचिपक गई और सच की पागल औरत की तरह बुक्का फ़ाड़ कर रोने लगी.जितने प्यार से संभव था वह उसे खुद से दूर करने लगा, उसने उसे हरकूलीना की दया पर छोड़ दिया जो पीछे से कूद पड़ी. मारिया को कोई मौका दिए बिना हरकूलीना ने अपने बाँए हाथ से उसे अपनी गिरफ़्त में ले लिया तथा अपने लौह दाँए हाथ से उसने उसकी गर्दन जकड़ ली और सैटर्नो से चिल्ला कर कहा:
“जाओ!”
भयभीत हो कर सेटर्नो भागा.

लेकिन अगले शनिवार जब वह कुछ संभल गया तो वह बिल्ली के साथ सैनीटोरियम लौटा. बिल्ली जिसे उसने अपने जैसे कपड़े पहना रखे थे: लाल-पीला लियोटार्डो का चुस्त कपड़ा, हैट और उड़ने के लिए बना लबादा. वह अपनी सर्कस वैन भीतर तक ले आया, और वहाँ उसने करीब तीन घंटे तक मजेदार करतब किए. जिसे वहाँ के लोगों ने बालकनी से देखा और चिल्ला-चिल्ला कर तथा अश्लील बातें कह कर उसे खूब बढ़ावा दिया. मारिया के अलावा सब वहाँ जमा थे वो न केवल उससे मिलने नहीं आई वरन उसने बालकनी से उसे देखा भी नहीं. सैटर्नो बहुत आहत हुआ.
“यह एक सामान्य व्यवहार है,” डॉरेक्टर ने उसे सान्त्वना दी. “यह ठीक हो जाएगा.”
लेकिन यह कभी ठीक नहीं हुआ.
मारिया को देखने सैटर्नो कई बार आया लेकिन वह उससे नहीं मिली और न ही उसने उसका पत्र स्वीकार किया. उसने चार बार पत्र बिना खोले, बिना किसी टिप्पणी के वापस कर दिया.सैटर्नो हार गया लेकिन उसने पोर्टर के ऑफ़िस में सिगरेट देना जारी रखा बिना यह जाने कि वे मारिया तक पहुँचती भी हैं अथवा नहीं. अंत में उसने वास्तविकता के सामने हार मान ली.

उसके बारे में किसी ने और कुछ नहीं सुना सिवाय इसके कि उसने दोबारा शादी कर ली और अपने देश लौट गया. बार्सीलोना छोड़ने से पहले उसने भूख से अधमरी बिल्ली को अपनी एक सामान्य गर्लफ़्रैंड को दे दिया, जिसने मारिया को सिगरेट देते रहने का वायदा किया था. लेकिन वह भी गायब हो गई. करीब बारह साल पहले रोसा रेगास ने उसे कोर्टे इंग्लिस डिपार्टमेंटल स्टोर में देखा था, सिर मुड़ा हुआ, किसी पूर्वी संप्रदाय का गेरुआ चोंगा पहने और गर्भवती थी वह.उसने रोसा को बताया कि जितनी बार संभव हुआ वह मारिया के लिए सिगरेट ले जाती रही तब तक जब तक कि एक दिन उसने वहाँ केवल अस्पताल का खंडहर पाया, जिसे बुरी स्मृति के दिनों की तरह ढ़हाया जा चुका था. आखिरी मुलाकात के समय मारिया ठीक लग रही थी, थोड़ी मोटी और वहाँ रहते हुए शांत और संतुष्ट. उस दिन उसने बिल्ली भी मारिया को दे दी क्योंकि सैटर्नो ने उसके खाने के लिए जो रकम दी थी वह खर्च हो चुकी थी.

(अप्रिल 1978)
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कथा- गाथा : जाने भी दो पारो : प्रचण्ड प्रवीर

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उपन्यास ‘अल्पाहारी गृहत्यागी: आई आई टी से पहले’, तथा कहानी संग्रह ‘जाना नहीं दिल से दूर’ से चर्चित अध्येता, लेखक, अनुवादक प्रचण्ड प्रवीर की इधर की प्रकाशित कहानियों ने  शिल्प और कथ्य को लेकर बीहड़ प्रयोग किये हैं. उनके कथाकार के लिए कुछ भी त्याज्य नहीं है, ग्रह–नक्षत्र हों या भूत-प्रेत. 

‘जाने भी दो पारो’ प्रवीर की नयी कहानी है. इसमें आप देखेंगे कि देवदास (उपन्यास/ फिल्में) के पात्रों का नाम लेकर समकालीन कार्पोरेट संस्कृति की विद्रूपता को व्यंग्यात्मक लहजे में इस तरह निर्मित किया गया है कि यह कथा एक सहेजने लायक प्रतिपाठ में बदल जाती है.
पढ़ा जाये.



जाने भी दो पारो                                  
प्रचण्ड प्रवीर





किसी गुड़ जैसे गाँव में बहुत से राष्ट्रों में व्यापार करने वाली एक कंपनी बहुत से मंजिलों वाली इमारत में कई तल्लों में अपना काम काज करती है. उन्हीं इज्जतदार गलियारों में दिन रात परिश्रम करने वाले मेहनतकश कर्मचारियों में से एक है पारो. बचपन से ही पारो बड़ी अल्हड़ थी. न तो वो साड़ी पहनती थी, न चूड़ियाँ. न तो वो काजल लगाती थी, न कोई झुमका न बिंदी. बारह साल लगातार काम करते करते वह भूल भी गयी थी कि वह कभी बहुत खूबसूरत हुआ करती थी और कोई देवदास उसपे मरता भी था.

पारो ने देवदास से शादी क्यों नहीं की, वह तो शरतचंद्र चट्टोपाध्याय बता गये हैं. वही खानदानी आन-बान और शान का सवाल. और फिर अपने देवदास ने पारो को दिल से जुदा नहीं किया. कहते हैं कि एक दिन पारो को देवदास का फोन आया कि अपने वायदे के मुताबिक आखिरी बार उससे मिल कर पारो अपनी सेवा का मौका देना चाहता है. अब देवदास बेकार था और पारो के पास इतना समय तो था नहीं कि देवदास की सेवा करती. लिहाजा उसने देवदास को कहा कि उसकी कंपनी में नौकरी कर ले. जब काम से फुरसत मिलेगी तो देवदास की सेवा के बारे में सोचेगी.

इस तरह जब देवदास पारो की बॉस मैली कैशसे मिला, तब वह उसके मैले केशों को देखता रह गया जो कि हेयरबैंड से किसी तरह बंधे थे. मैली कैश एक विचित्र किन्तु बलशाली महिला थी. देवदास ने उसे देख कर यह सोचा कि कम से कम तीस साल पहले मैली कैश ने अखिल भारतीय स्तर पर भारोत्तोलन प्रतियोगिता के सत्तर किलो के वर्ग में कांस्य पदक अवश्य जीत रखा होगा. मैली कैश ने देवदास को डराते हुए पूछा, “क्या तुम वफादार आदमी हो?”

देवदास ने टका सा जवाब दिया, “मैं बेवफ़ा के साथ भी वफ़ा निभाता आया हूँ.मैली कैश को उसका मतलब समझ नहीं आया पर उसने देवदास को चुपचाप काम पर रख लिया. देवदास पारो को चाह कर भी बेवफ़ा पारो नहीं कह पाता था, हालांकि दिल में ऐसा ही सोचता था.

इस कंपनी की खास बात यह थी कि अधिकांश कर्मचारी एक ही कॉलोनी में रहा करते थे. देवदास और पारो भी एक ही कॉलोनी में रहने लगे, जहाँ मैली कैश पहले से रहती आयी थी. नौकरी के पहले ही दिन मैली कैश ने देवदास और पारो को बुला कर बहुत कुछ बताया. उन बातों का मजमून यह था कि कंपनी के निदेशक खीरा कालियाऔर उप-निदेशक निराश सोहनकंपनी के हित के खिलाफ़ काम कर रहे हैं. दरअसल ये दोनों ही इस बहुराष्ट्रीय कंपनी की गुप्त सूचनाएँ दूसरी प्रतिद्वंद्वी कंपनी को अलग-अलग बेच रहे हैं. देवदास ने आपत्ति की कि इससे निराशऔर खीराको क्या फायदा होगा? मैली कैश ने बताया कि इनसे उनका व्यक्तिगत फायदा है और कंपनी का नुकसान है. इसके भंडाफोड़ कर के निवेशकों को बता दिया जाएगा और खीरा कालिया’ – ‘निराश सोहनकी दुकान बंद कर दी जाएगी.

पारो ने पूछा कि इसके लिए उन दोनों को क्या करना होगा?

मैली कैश ने कहा, “तुम दोनों ऐसे भी किसी काम के हो नहीं. वैसे हमारी कम्पनी में फोटो लेना मना है, लेकिन तुम दोनों लुक-छिप कर अपने मोबाइल के कैमरे से फोटो खींच सकते हो. दरअसल इन कामों को अंजाम देने के लिए इतनी बड़ी कंपनी में इन दोनों के खास गुप्तचर हैं. खीरा कालिया ने यह काम बबली को, और निराश सोहन ने यह काम बंटी को दे रखा है. इसके अलावा खुफिया बात यह है कि हमारी कंपनी में आफिस में डेस्क और केबिन में खाना खाना भी मना है. अब यह बात कुछ ही लोग जानते हैं कि खीरा कालिया हर दिन चुपके से अपने केबिन में खीरा खाती है. अगर किसी तरह खीरा की खीरा खाते हुए तस्वीर खिंच जाए तो खामोशी से खलनायिका का खात्मा हो जाएगा. निवेशकों को पता चल जाएगा कि यहाँ नियमों का पालन नहीं होता है. फिर खीरा को बिना चीरा लगाए उसका खेल खत्म कर दिया जा सकता है.

यह सुन कर पारो ने कहा, “मैडम, आप समझिए कि खीरा कालिया ने अब खीरा खालिया.

मैली कैश ने आगे बताया, “निराश सोहन दुनिया में बहुत सी चीजों से निराश है. उसने अपनी जिन्दगी में बहुत सी चीजों से हाथ धोया है. जैसे शेयर बाज़ार में पैसा लगाया तो पैसे से, अनिर्मित इमारत के बनने वाले फ्लैट को खरीदा तो बिल्डर के भाग जाने से फ्लैट और पैसे दोनों से, बीवी के लिए कार ड्राइवर रखा तो कार, ड्राइवर और बीवी तीनों से, एक बार नौकरी में किसी छोकरी को छेड़ दिया तो नौकरी, छोकरी, जुर्माने के रुपये और इज्जत, चारों से हाथ धो बैठा. इतने हादसों के बाद उसने हाथ धोना ही बंद कर दिया है. मतलब हर जगह टिशु से ही काम चलाता है. वाशरुम में भी उसे आज तक किसी ने हाथ धोते नहीं देखा. यही कारण है कि विदेशी निवेशक उसे बहुत पसंद करते हैं. केवल बोलने का अंदाज, अंग्रेजीदां तलफ्फुज के अलावा अब तो आदतें भी मिलती है. अगर किसी तरह उसकी हाथ धोती तस्वीर मिल गयी तो समझो कि निवेशक उसे निकाल देंगे. यह सोचेंगे यह अब अंग्रेज नहीं रहा.

देवदास ने कहा, “यह तो बहुत मुश्किल है.

मैली कैश गुर्रायी, “अरे, फिर तुम नौकरी पर किसलिए हो?” पारो ने झट मामला सम्भालते हुए कहा, “हम दोनों देख लेंगे मैडम.

इस मीटिंग के बाद देवदास ने बड़ी मायूसी से कहा, “कौन कमबख्त तनख्वाह के लिए काम करता है, मैं तो सिर्फ़ इसलिए काम करता हूँ कि थोड़ी देर तुम्हें सेवा का मौका दे सकूँ.पारो ने समझाया, ‘अरे देवदास, मेरे पास अभी एकदम वक्त नहीं है.

देवदास ने कुछ उदास हो कहा, “जाने भी दो पारो. ये नौकरी नहीं हो पाएगी.



(दो)
पारो के बहुत समझाने पर देवदास ने बंटी पर नज़र रखनी शुरु की. पारो बिचारी और बहुत सा काम करती थी. अगले ही दिन  दुपहर के खाने के समय देवदास ने पारो से पूछा, “क्या तुमने बबली पर नज़र रखनी शुरु की?”

पारो ने कहा,” नहीं यार. समय नहीं मिला. तुमने?“

देवदास ने पारो को अपना मोबाइल पकड़ा कर दिखाया, “मैंने तुम्हारा भी काम कर दिया है.तस्वीरें देख कर पारो चकरा गयी. अरे यह क्या? बंटी और बबली आपत्तिजनक अवस्था में? पर... पर.. बबली तो शादीशुदा है.
बंटी से?” भोंदू देवदास ने पूछा.
नहीं रे. अपने पति से ....पारो ने सिर ठोंका. ये करमजली बंटी जैसे मासूम लड़के की जिन्दगी ख़राब कर देगी. इतने दिनों से हमारी आँखों में धूल झोंक रही थी.

जाने भी दो पारो.देवदास ने कहा, “वैसे बंटी कोई मासूम लड़का नहीं है. बबली उसके लिए उपलब्ध है इसलिए मौके का फायदा उठा रहा है. वैसे दोनों की मंजिल एक है.
अब चलो हम यह मैली कैश को बताते हैं.पारो ने कहा.

मैली कैश ने यह सुन कर कहा, “यह तो बड़ी मामूली ख़बर है. इसके बारे में मुझे पहले से ख़बर थी. अब मेरी बात गौर से सुनो. आज रात को कंपनी की खुफिया जानकारी खीरा कालिया और निराश सोहन दोनों ही प्रतिद्वंद्वी कंपनी को बेचना चाहते हैं. यह मीटिंग हमारी कॉलोनी के सामने वाली कॉलोनी के गेस्ट हाउस में मिस्टर डिमैलोके डेरे पर होगी. वह हमेशा वहीं रुका करता है. बंटीखुफिया जानकारी के फोटो का प्रिंट ले कर निराश सोहन को देगा. बबली अपने हिस्से की जानकारी खीरा को दे देगी. तुम्हें तो पता ही होगा कि सारी जानकारियाँ सीधे-सीधे निराश और खीरा को भी नहीं मिल सकती. बिना बंटी और बबली की मदद के यह काम असंभव है.

यह सुन कर देवदास ने पूछा, “हम मिस्टर डिमैलो के डेरे पर जा के यह डील कैसे रोक सकते हैं?“

मैली कैश ने दिमाग लगाया, “कुछ सोचना होगा. तुम दोनों रात के आठ बजे डिमैलो की खिड़की के पास मिलो.

मैली कैश के केबिन से बाहर आ कर पारो ने कहा, “यह पागल औरत पता नहीं क्या करेगी?”

जाने भी दो पारो.देवदास ने समझाया,“इसी बहाने रात में तुम मेरे साथ तो आओगी.यह सुन कर पारो शर्म से लाल हो गयी.



(तीन) 
रात को मैली कैश जब घर से बाहर आयी तब पारो और देवदास ने उसे बताया कि बंटी के फटीचर बैग के कागज़, बबली के महंगे हैंडबैग से निकले कागज़ से आपस में बदल दिये गये हैं. अब जब खीरा कालिया डिमैलो को इन जानकारी के बारे में बताएगी, तो वह एकदम गलत होगा. यही हाल निराश सोहन का भी होगा और उसे इस मौके से हाथ धोना ही पड़ जाएगा.
यह बातें हो ही रही थी कि मैली कैश के घर से एक डरावना साया निकला जिसका चेहरा काले रंग से रंगा था और उसने काले कपड़े पहन रखे थे. भयंकर बिखरे बालों वाली आकृति ने अट्टाहास किया तो पारो और देवदास दोनों की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी. आकृति ने मुस्कुरा कर कहा, “डरो नहीं, मैं मैली कैश ही हूँ. यह तो डिमैलो को डराने के लिए ऐसा भेस बना लिया है.यह सुन कर पारो और देवदास दोनों हँसने लगे.

डिमैलो के घर के बाहर पारो, देवदास और मैली कैश तीनों खिड़की के नीचे छुप कर हाल देख रहे थे. वहाँ खीरा कालिया और बबली आ चुके थे और बातें कर रहे थे.

डिमैलो ने तश्तरी में खीरा काट कर पेश करते हुए कहा, “खीरा खालिया, टुमको ये खीरा खाना माँगटा.

खीरा – “नो नो डिमैलो, ये कागज हम तुम्हारे वास्ते ले कर आया. अब तुम जल्दी से इसको देख कर हम को दस करोड़ रुपया देना माँगता.

डिमैलो ने पूछा – “इस कागज़ में और क्या हे?”

बबली ने कागज निकाल कर दिया और झट से बोली, “इसमें कंपनी के अगले चार महीने का कंज्यूमर डिवीजन का बिजनेस प्लान है. कहाँ कौन-कौन सा प्रोडक्ट कहाँ जाएगा और कंप्टिशन का कैसा बैंड बजेगा, यह सब उसमें है.

डिमैलो ने कागज उलट पलट कर देखा – “इसमें टो कंपनी के कोर डिवीज़न का बिजनेस प्लानहे, वो भी केवल तीन महीने का. ये टुम क्या बोलटा?”

खीरा कालिया यह देख कर चौंक कर बबली को आँखें तरेरी. फिर बात सम्भालते हुए बोली– “ डिमैलो, सब एक ही बात है न.

बाहर यह देख कर पारो ने मैली कैश से पूछा , “सब एक बात ही कैसे है?” देवदास ने समझाया, “जाने भी दो पारो.उसी समय एक शानदार लिमोजिन गाड़ी वहाँ आ कर रुकी. सबसे पहले उसमें निराश सोहन निकला फिर पीछे-पीछे बंटी भी निकल आया. गेस्ट हाउस की घंटी बजते ही डिमैलो ने खीरा कालिया को खीरा पकड़ा कर कहा, “जल्दी से टुम छुप जाओ. कोई आ गया है, हमको उसको इंटरटेन करना मांगटा.इस तरह खीरा कालिया और बबली दोनों को डिमैलो ने झट से एक अंधेरे कमरे में बंद कर दिया.

निराश सोहन डिमैलो के कमरे में आते ही कहा, “मुझे बड़ी नाउम्मीदी सी थी कि आपसे मुलाकात नहीं हो पाएगी. लेकिन मेरी किस्मत अच्छी थी कि आप मिल गए.

डिमैलो की तरह कागज बढ़ा कर बंटी ने कहा, “सर, यह कंपनी के कोर डिवीजन के तीन महीने का बिजनेस प्लान है. खास आपके लिए.

डिमैलो ने कागज को उलट पुलट कर देख कर कहा, “क्या बोलटा टुम, ये तो चार महीने का कंज्यूमर डिवीजन का बिजनेस प्लान हे. टुम हमको उल्लू बनाटा?“

निराश सोहन ने कागज देख कर कहा, “मैं जानता था कि मेरी किस्मत मुझे धोखा देगी. मुझे अब यहाँ से भी हाथ धोना पड़ेगा.

बाहर मैली कैश ने पारो और देवदास से कहा, “अब तुम दोनों मास्क लगा कर अंदर जाओ और सारे कागज की तस्वीरें ले लो. हम लोग सब का भंडा फोड़ देंगे.

देवदास ने कहा, “मैडम, आप चलिए न हमारे साथ. आप ही घंटी बजाइएगा.
ओकेमैली कैश ने कहा और दोनों के साथ हो ली.

मैली कैश ने दरवाजे की घंटी बजायी. यह सुन कर डिमैलो ने कहा, “निरास सोहन, टुम को छुपना पड़ेगा. कोई आया है हमको उसको इंटरटेन करना मांगटा.इस तरह डिमैलो ने बंटी और निराश सोहन को भी उसी अंधेरे कमरे में फौरन बंद कर के बाहर से सांकल लगा दिया.


जब मैली कैश ने दरवाजे की घंटी दुबारा बजायी तो डिमैलो आराम सेदरवाजे पर आया. दरवाजा खोलते ही उसके सामने मैली कैश ने ठहाका लगाया. उसके भयंकर लिबास और डरावनी आवाज का ऐसा असर हुआ कि डिमैलो वहीं गश खा कर गिर गया. मौके का फायदा उठा कर पारो और देवदास अंदर चले गये और झट-झट सारे कागज़ातकी तस्वीरें लेने लगे.

उधर अंदर बंद कमरे में बंटी की उँगलिया बबली की उँगलियों से मिली. मिलते ही बबली बंटी को उस तारीकी में पहचान लिया और खींच कर उसे सीधे गले से लगा लिया. इसी तरह जब निराश सोहन की उँगलियाँ खीरा कालिया से मिली, खीरा चीख पड़ी – “ओ माई गॉड, इतनी बदबूदार उँगलियाँ. क्या तुम निराश सोहन के भाई हो?”

निराश सोहन ने खीरा की महक से परेशान हो कर कहा, “खीरे की महक. क्या तुम खीरा कालिया हो?” घबराहट दोनों ने गलती से अंदर बिजली का स्विच चालू किया. पता चला कि सभी गुसलखाने में बंद थे. खीरा ने निराश सोहन से चिल्ला कर कहा, “तुम? निराश सोहन, तुम्हें यहाँ से भी हाथ धोना पड़ेगा. माई गॉड, वह रहा साबुन, तुम जल्दी से अब हाथ धो लो.

निराश भौचक्का था. खीरा ने बंटी और बबली को आलिंगन में देख कर कहा, “ये क्या? तुम दोनों आपस मे मिले हुए हो?”

बंटी और बबली दोनों ने एक स्वर में कहा, “प्यार करने वाले कभी डरते नहीं, कभी डरते नहीं. जो डरते हैं वो प्यार करते नहीं.यह सुन कर खीरा ने गुस्से में तश्तरी में रखा खीरा उठा कर चबा लिया.

तभी गुसलखाने का दरवाजा खुला ओर दो नकाबपोशों ने खीरा खाती खीरा कालिया की तस्वीर ले ली. एक ने हाथ धोते निराश सोहन की, फिर बंटी और बबली की आलिंगन में, फिर सब लोगों की एक साथ तस्वीर ले कर वे देखते ही देखते चम्पत हो लिये.



(चार)
अगले दिन आफिस में निराश सोहन और खीरा कालिया दोनों एक साथ मंत्रणा कर रहे थे. निराश ने निराश हो कर कहा, “बंटी-बबली ने गड़बड़ कर दिया. अगर उन नकाबपोशों ने यह खबर फैला दी हम लोग की और हमारी कम्पनी की बड़ी बदनामी होगी.खीरा कालिया ने कहा, “बहुत ही बदतमीज लोग हैं. शादी के बाहर प्यार कर रहे हैं.
निराश सोहन ने कहा, “प्यार तो हमेशा ही खत्म हो जाता है. अगर उन दोनों की शादी 

हो गयी तो प्यार भी खत्म हो जाएगा और बदनामी भी नहीं होगी.खीरा ने कहा, “ठीक कह रहे हो. मैं अभी बबली के पिताजी को फोन करती हूँ.खीरा ने बबली के पिताजी को फोन लगा कर बोला, “मैं बबली के आफिस से बोल रही हैं. .... क्या?... बबली ने सब सच बता दिया?.... क्या ... आप बंटी के साथ उसकी शादी करवा रहे हैं.... क्या ... बबली का पति भी राजी है... क्या ...? बंटी भी राजी है?”

फोन रख कर खीरा ने निराश से कहा, “यहाँ तो मामल पहले से ही सेट है. सभी राजी हैं. आज बंटी और बबली शादी करने जा रहे हैं.निराश सोहन ने निराश हो कर कहा, “आज कल मुहब्बत करने में कुछ मुश्किल नहीं है. हमारे ज़माने में आह भरने में बदनाम हो जाते थे, और वो कत्ल करते तो चर्चा भी नहीं होता था. मैं नज़्अ'में हूँ आएँ तो एहसान है उन का, लेकिन ये समझ लें कि तमाशा नहीं होता.

खीरा कालिया ने खुल्लमखुल्ला खीरा खाते हुए कहा, “अरे ये निराश होना छोड़ो. अखबार में यह खबर छपी है कि डिमैलो कल रात हार्ट अटैक में मारा गया. पोस्टमार्टम की रिपोर्ट आने तक हमारे पास समय है. वरना शक की सुई हमारे ऊपर भी उठेगी. तुम्हें किस पर शक है?”

निराश ने वहीं पड़ा अखबार उठा कर देखा, “डिमैलो की लाश की तस्वीर देखो. लगता है उसने कोई खौफनाक चीज़ देखी है.खीरा कालिया ने मेज पर पड़ी अपनी लेंस से फोटो को बड़ा कर के देखने की कोशिश की. निराश ने घबराते हुए कहा, “क्या हो सकती है इतनी भयंकर चीज?” फिर एकदम से उसके दिमाग की बत्ती जली, “हो न हो उसने काली रात में मैली कैश को देख लिया हो गया.

खीरा के दिमाग की भी बत्ती एकदम से जल उठी. हाँ, यह उसका ही काम होगा. हम दोनों के दस-दस करोड़, जमा बीस करोड़ ले कर वही चम्पत हो गयी होगी. नकाबपोश भी उसी के आदमी होंगे. उसे बुलाना होगा.


(पांच)

उसी समय आफिस में पारो और देवदास ने मैली कैश के केबिन में उस को बीस करोड़ का सूटकेस दे कर कहा, “मैडम यह पैसा हम पुलिस को दे देते हैं. चलिए हमारे साथ पुलिस स्टेशन.
मैली कैश ने ठहाका लगाया, “पुलिस में जाने में गड़बड़ हो जाएगी. डिमैलो तो मुझे दे खकर डर के मारे मर गया.
मैडम, गब्बर सिंह ये कह गया, जो डर गया सो मर गया.पारो ने याद दिलाया.
भोंदू देवदास ने पूछा, “अगर पुलिस को नहीं देंगे तो किस को देंगे?”
निवेशक को?” पारो ने भोलेपन से पूछा.
बेवकूफों. निवेशकों के पास बहुत पैसा है. ये पैसा हम रख लेंगे.मैली कैश ने कहा.
पारो ने आश्चर्य से कहा, “ये तो गलत होगा!
अच्छा, अब तुम्हें अपना हिस्सा चाहिए?” मैली कैश ने गुस्से में कहा. अपनी कीमत बोलो और वे सारे फोटो मेरे हवाले कर दो.
देवदास ने रोष में भर कर कहा, “मैडम, हम आपकी मदद कर रहे थे. मदद की कोई कीमत नहीं होती.पारो ने भी देवदास की हाँ में हाँ मिलायी, “हाँ मैडम, मदद की कोई कीमत नहीं होती.
देवदास ने कहा, “आपमें, खीरा कालिया और निराश सोहन में कोई अंतर नहीं है. हम जा रहे हैं यहाँ से.

पारो और देवदास दोनों गुस्से में निकलने ही वाले थे कि खीरा कालिया, निराश सोहन और दुल्हा-दुल्हन के भेस में बंटी-बबली ने मैली कैश के केबिन में आ गये.
देवदास ने बंटी-बबली को शादी की बधाई दी. पारो ने भी बबली को बधाई दी. खीरा कालिया ने मैली कैश से सूटकेस की तरफ इशारा करते हुए कहा, “मैली, नोटबंदी के बाद तुम्हारे पास इससे भी ज्यादा मैला कैश है. क्या तुम चाहती हो कि मैं तुम्हारा पर्दाफाश कर दूँ?“

मैली कैश ने गुर्राते हुए कहा, “खीरा, तुम्हारी खीरा खाते हुए तस्वीर मेरे पास है. निराश, आखिर तुमने हाथ धो ही लिया. क्या चाहते हो मैं निवेशकों सब बता दूँ? बता दूँ कि तुम अब अंग्रेज नहीं रहे?”

निराश सोहन ने खीरा से निराशा भरी आवाज़ में कहा, “मुझे पहले से ही नाउम्मीदी थी कि मैली का दिल एकदम मैला है. वो हमारी बात नहीं सुनेगी.

खीरा ने अपनी लीडरशिप दिखाते हुए कहा, “मैली, इस कंपनी के अंदर आया सारा कैश हमारा है. तुम्हें सीधे जेल भिजवा दूँगी. तुम्हारे पास मेरी बात मानने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है. पैसे देती हो या बुलाऊँ गार्ड को?“
 
यह कह के खीरा ने बंटी बबली, देवदास और पारो को एक मीटिंग रूम में बंद करवा दिया. जब खीरा कालिया और निराश मोहन ने मैली कैश से सुलह कर ली, तब यह तय किया गया कि देवदास और पारो को बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा. डिमैलो की मौत अचानक दिल का दौरा पड़ने से हुयी, इसलिए कत्ल का इल्जाम किसी पर नहीं आएगा.

पारो ने देवदास से पूछा, “अरे देवदास, अब क्या होगा?”
देवदास ने कहा,” जाने भी दो पारो! तुम्हें सेवा का एक और मौका जल्दी ही दूँगा.
उसी दिन जब पारो और देवदास को कंपनी से बाहर का रास्ता दिखाया गया उसी समय आल इंडिया रेडियो पर यह गाना बज रहा था -

होंगे कामयाब, होंगे कामयाब,
होंगे कामयाब एक दिन,
हो हो मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास,
हम होंगे कामयाब एक दिन
जय हिन्द
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prachand@gmail.com 

न तो मैं कुछ कह रहा था : रुस्तम सिंह की कविताएँ.

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आधुनिक हिंदी कविता में प्रकृति, पर्यावरण और मनुष्यइतर जीवन आते रहे हैं, पूरी कविता के रूप में भी. रुस्तम सिंह के के यहाँ ये संग्रह की शक्ल में आयें हैं. लगभग सभी कविताएँ अपने केंद्र में प्रकृति को धारण करती हैं. मनुष्यों द्वारा प्रकृति के विरूपण की दारुण कथा, जिसका कोई अंत नहीं है.

व्यवस्था से नाराज़ व्यक्ति की शक्ल हिंदी कविता में अक्सर हम देखते हैं  पर सम्पूर्ण मनुज संस्कृति का प्रतिपक्ष कैसा होता है इसे देखना हो तो रुस्तम की कविताएँ देखनी चाहिए. मनुष्यों ने कितना नाश किया है और किस तरह वे इसे और तेजी से करते जा रहें हैं, वे अब इस धरती के लिए किसी आपदा से कम नहीं. एक बेलाग,खरा व्यक्ति अपने ही लोगों द्वारा धरती को नष्ट करते हुए विवश देख रहा है वह नाराज़ है,वह गुस्से में है वह यह चाहता है कि यह धरती जल्दी ही मनुष्यों की अति और उनके अतिवाद से मुक्त हो.

जिस तरह से प्रकृति कुछ भी अतिरिक्त स्वीकार नहीं करती उसी तरह से ये कविताएँ भी शब्दों के न्यूनतम से अपना कार्य कर लेती हैं, मौन को और गहरा कर अर्थ तक पहुंच जाती हैं. ये देखती हुई कविताएँ हैं, देखने में से दृश्य बनाती हुई. अपनी ध्वनियों और आवृत्ति से अर्थ सृजित करती हुई. एक कविता ‘फँस गया मैं/जीवन के चक्कर में’ का बार-बार मुखरित होने किसी चक्करदार सीढ़ी की तरह है जहाँ त्रासद अँधेरा आपको विकल कर देता है. यह रुस्तम की शक्ति और हिंदी कविता की उड़ान है.

ये कविताएँ राजनीतिक उस अर्थ में नहीं है जिस अर्थ में हम अब तक कविताओं को पढ़ते रहें हैं. ये पृथ्वी को बचाने की वैश्विक रणनीति का हिस्सा हैं जो सार्वदेशिक है. यह संग्रह पृथ्वी के पक्ष में खड़े कवि की पुकार है, जो कई जगह चीख में बदल गयी है.

रुस्तम का नया कविता संग्रह ‘न तो मैं कुछ कह रहा था’ जल्दी ही सूर्य प्रकाशन मंदिर बीकानेर से प्रकाशित होने वाला है. इस पांडुलिपि को पढ़ते हुए मुझे इन कविताओं नें विचलित किया.



न तो मैं कुछ कह रहा था : रुस्तम की कविताएँ




उनके पाँवों के नीचे
उनके पाँवों के नीचे
तुम कभी भी दब जाती हो.
नन्ही चींटियो,
तुम्हारी पीड़ा की किसे परवाह है?




आज फिर उठना है
आज फिर उठना है.
आज फिर हगना है.
आज फिर नहाना है.
आज फिर काम पर जाना है.
आज फिर किसी से मिलना है, किसी से बोलना है, किसी को सुनना है.
आज फिर किसी को देखना है, किसी द्वारा देखा जाना है.
किसी को गाली देना है, किसी से गाली खाना है.
आज फिर कई बार पानी पीना है, कई बार मूतना है,
कुछ खरीदना है, कुछ बेचना है.
आज फिर पीटना है, पिट कर आना है.
आज फिर लौटना है.
शायद दुबारा हगना है.
आज फिर सोना है. सोने से पहले फिर मूतना है.



फँस गया मैं
फँस गया मैं
जीवन के चक्कर में.
फँस गया मैं
जीवन के चक्कर में.
फँस गया मैं
जीवन के चक्कर में.
फँस गया मैं
जीवन के चक्कर में.
फँस गया मैं
जीवन के चक्कर में.
फँस गया मैं
जीवन के चक्कर में.
फँस गया मैं
जीवन के चक्कर में.
फँस गया मैं
जीवन के चक्कर में.
फँस गया मैं
जीवन के चक्कर में.
फँस गया मैं
जीवन के चक्कर में.




लोग
1.
बहुत से लोग हैं मेरे चहुँ ओर. बहुत से लोग हैं. बहुत से लोग हैं मेरे चहुँ ओर. बहुत, बहुत, बहुत, बहुत. लोग, लोग, लोग, लोग. ऊपर, नीचे, अन्दर, बाहर. बहुत से लोग हैं. लोग बोलते हैं, बतियाते हैं. उनके मुँह रुक नहीं पाते हैं. बहुत से लोग हैं और बहुत से फोन हैं. इन फोनों से लोग आपस में जुड़े हुए हैं और बतियाते जाते हैं. कितनी सयानी-सयानी बातें उनके मुँहों में से निकलती हैं! कितनी बातें और कितने मुँह हैं मेरे चहुँ ओर! बहुत, बहुत, बहुत, बहुत. लोग, लोग, लोग, लोग.


2.
लोग ही लोग हैं. पर फिर भी कम हैं. पृथ्वी पर कुछ और जगह अभी बची हुई है! कुछ और लोग बन जायें, आपस में सट जायें, तो प्रेम पैदा होगा! मीठी-मीठी बातें होंगी! संवाद होगा! संवाद की कितनी कमी है! संवाद होगा तो सब ठीक हो जायेगा! सब जम जायेगा! कुछ और लोग बन जायें! आपस में सट जायें!


3.
मैं जिधर भी जाता हूँ वहाँ लोग मिलते हैं. जिस ओर भी कदम बढ़ाता हूँ वहाँ लोग मिलते हैं. वाह! मैं कितना खुश हूँ! कितना अच्छा जीवन ईश्वर ने मुझे दिया है कि हर जगह लोग उपस्थित हैं और वे कितने अच्छे हैं! मैं अच्छेपन से घिरा हुआ हूँ! दुकान में अच्छापन! सड़क पर अच्छापन! गली में अच्छापन! चौक पर अच्छापन! हर दफ़्तर में सब अच्छा ही अच्छा है, क्योंकि वहाँ लोग हैं, और वे सब मुझे प्रेम करते हैं! सब मुझसे सटे हुए हैं!




सब चाहते थे
सब चाहते थे
कि मैं अपना मुँह नहीं खोलूँ.
सब चाहते थे
कि वे ख़ुद तो बोलें
पर मैं नहीं बोलूँ.
उस वाचाल ज़माने में वे सब मुझे सिर्फ़ अपनी बात बताना चाहते थे.
तुमने उसे पैगम्बर कहा और उसे एक काली कोठड़ी में डाल दिया.
तुमने उसे
एक अन्धे कुएँ में धकेल दिया
क्योंकि उसका स्वर
कर्कश था
और वह
केवल सच बोलता था.
धीरे-धीरे उन्होंने
मेरे होंठ सिल दिए.






पूरा विश्व जल रहा है
पूरा विश्व जल रहा है.
जल रहा है मेरा हिया.
भीतर, बाहर
आग ही आग है
और धुआँ.
वो जो आग में से निकला था
वह जल रहा है.
वो जो बर्फ़ जैसा ठण्डा था
वह जल रहा है.
आग सुलग रही है.
आग भभक रही है.
उठ रहा है धुआँ.
जुट रहा है धुआँ.
नदियाँ.
जंगल.
समुद्र.
पर्वत.
हर चीज़ में से
आग निकल रही है.
जल रही है हवा.
पानी जल रहा है.
बुझ रहा है दिया.
यह तुमने क्या किया?
यह तुमने क्या किया?






अन्तिम मनुष्य
तुम अकेले ही मरोगे.
तुम्हारे चहुँ ओर मरु होगा.
सूर्य बरसेगा.
तुम मरीचिकाएँ देखोगे,
उनके पीछे दौड़ोगे,
भटकोगे.
पानी की एक बूँद के लिए भी तरसोगे.
ओह वह भयावह होगा!
एक मामूली जीव की तरह
मृत्यु से पहले
असहाय तुम तड़पोगे.
इतिहास में
सारे मनुष्यों के
सभी-सभी
कुकृत्यों का
जुर्माना भरोगे.
तुम अकेले ही मरोगे.





कल फिर एक दिन होगा
कल फिर एक दिन होगा.
कल फिर मैं चाहूँगा कि डूब जाये सूरज
अन्तिम बार.
पृथ्वी थम जाये
और धमनियों में बहता हुआ ख़ून
जम जाये अचानक.
गिर पड़े यह जीवन
जैसे गिर पड़ती है ऊँची एक बिल्डिंग
जब प्रलय की शुरुआत होती है
और समाप्ति भी उसी क्षण.
कल फिर एक दिन होगा.
कल फिर मैं चाहूँगा कि डूब जाये सूरज
अन्तिम बार.




जो मेरे लिए घृणित है
जो मेरे लिए घृणित है,
वही तुम्हें प्रिय है ---
दुःख क्यों है?
इसलिए नहीं कि इच्छा है,
बल्कि इसलिए कि जीवन है.
मैं चाहता हूँ कि जीवन ख़त्म हो जाये.
सिर्फ़ मिट्टी और चट्टानें और पत्थर यहाँ हों.
तथा पर्वत. और बर्फ़.
और ---
उफ़नता लावा.
मैं चाहता हूँ कि पृथ्वी अपने उद्गम की तरफ़ लौट जाये.
आग का
घुमन्तू गोला.
फिर बिखर जाये आसमान में.
फिर,
आसमान भी न रहे.



न जल जल था
न जल जल था, न हवा हवा थी, न नदियाँ नदियाँ थीं, न झीलें झीलें थीं, न समुद्र समुद्र था, न बादल बादल थे, न बारिश बारिश थी, न अन्न अन्न था, न फल फल थे, न प्रेम प्रेम था, न मनुष्य मनुष्य था, न मन्दिर मन्दिर थे, न ईश्वर ईश्वर था.
ऐसी दुनिया में मैं पैदा हुआ, रहा और फिर चला गया.




मैं पेड़ों का शुक्रगुज़ार हूँ
मैं पेड़ों का शुक्रगुज़ार हूँ.
मैं पौधों का शुक्रगुज़ार हूँ.
मैं फूलों का शुक्रगुज़ार हूँ.
मैं पशुओं का शुक्रगुज़ार हूँ.
मैं पक्षियों का शुक्रगुज़ार हूँ.
मैं कीड़ों और मकौडों का
शुक्रगुज़ार हूँ.
मैं नदियों, झीलों,
समुद्र और तालाबों का
शुक्रगुज़ार हूँ.
मैं पर्वतों का शुक्रगुज़ार हूँ.
मैं चट्टानों का शुक्रगुज़ार हूँ.
तथा हवा और मिट्टी का भी.
इन सबका अहसान है मुझ पर.
मैं कुछ इन्सानों का भी शुक्रगुज़ार हूँ.



भेड़िया भी मेरा नाम है
भेड़िया भी मेरा नाम है,
मात्र रुस्तम नहीं,
और शेर, घोड़ा, हाथी.
इसी तरह के और भी कई नाम मैंने रखे हुए हैं.
मैं रातों को दहाड़ता हूँ, गुर्राता हूँ, हऊँ-हऊँ करता हूँ,
दिन में भी.
मेरे तीखे दाँत और नाखून हैं.
गहन अन्धेरे में
चमकती हैं मेरी आँखें,
किसी टॉर्च की तरह जलती हैं.
अब तुम ---
क्या करोगे?
मुझसे डरोगे?
मुझसे दूर भागोगे?
मुझे मारने दौड़ोगे?
मुझे गुलाम बनाओगे?
मुझ पर
सवारी करोगे?
मेरा सींग काटोगे?
मेरी चमड़ी उधेड़ोगे?
मेरा घर उजाड़ोगे?
अब तुम
क्या करोगे?
क्योंकि भेड़िया भी मेरा नाम है,
और शेर, घोड़ा, हाथी.

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कथा-गाथा : प्रलय में नाव : तरुण भटनागर

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प्रलय में नाव
तरुण भटनागर


वह न तो नूह था और न ही मनु, पर वह नाव बना रहा था.
प्रलय होने में अभी देर थी.

यह ठीक-ठीक पता न था कि किस दिन प्रलय आयेगी. पर दुनिया का खत्म होना तय था. ईश्वर का आदेश था कि वह नाव बनाये, सो वह नाव बना रहा था. दुनिया में जीव जंतुओं की कई प्रजातियाँ खत्म हो चुकी थीं. कहते हैं हिंद महासागर के द्वीपों में पाये जाने वाले डोडो नाम के पंक्षियों को खत्म हुए तीन सौ साल बीत गय थे. ये पंक्षी इतने उत्सुक थे कि जब भी कोई आदमी इन द्वीपों पर आता वे उसके गिर्द इकठ्ठा हो जाते. इनका माँस स्वादिष्ट था और इनका शिकार करना आसान. इनकी उत्सुकता इनकी समूची प्रजाति के खत्म होने का बायस बनी थी.

जंगल के खौफनाक दीखने वाले जीवों को न तो शिकारी की नीयत का पता था और न ही यह बात कि धोखे से उन्हें मारे जाने को सभ्य समाज में बहादुरी कहा जाता है, इस तरह उनकी प्रजातियाँ भी विलुप्त हो गई थीं. बहुत से कीडे मकौडों की पूरी कौम खत्म थी. वे थे ही कीडे मकौडे, उनकी जरुरत ही कहाँ थी. पौधों और पेडों की बहुत सी जातियाँ गायब हो चुकी थीं. आधुनिक विकास के लिए उनका समूल नाश जरुरी था.

पर जो कुछ भी बच गया था उसे बचाना उसकी जिम्मेदारी थी. जो कुछ बच गया है वह भी बचा रहे. प्रलय के बाद भी कम से कम वह नष्ट न हो. ईश्वर का आदेश है. सबको बचाना ही है.

दुनिया मगन थी. वह अपने गुरुर में थी. प्रलय की बात पर उसे हँसी आती थी. कुछ वैज्ञानिक आकाश की ओर दूरबीन लगाये नये-नये ब्रम्हाण्ड खोज रहे थे. उनके मुताबिक धरती को खत्म होने में अभी पूरे चैंसठ हजार साल बचे थे. आसपास खत्म होती दुनिया से उनका कोई खास रिश्ता न था. जमीन सूख गई थी और जंगल खत्म हो रहे थे. समंदर के पानी को पीने योग्य बनाने की नई तकनीक इजाद कर ली गई थी. अब पीने के पानी के लिए नदियों, जमीन के नीचे के पानी या बारिश की जरुरत नहीं ही रह गई थी. वातावरण में नकली हवा थी. इस हवा को इजाद किया गया था और इसे असली हवा से ज्यादा स्वास्थ्यवर्द्धक बताया जा रहा था. वैज्ञानिकों को न तो प्रलय की बात का पता था और न ही उस आदमी के बारे में जो कि नाव बना रहा था. वे वैज्ञानिक थे. प्रलय की बात पर उन्हें हँसी आती थी. नाव बनाने का ख़याल एक रोमैण्टिक खयाल तो था,पर आज के अत्याधुनिक युग में लकडी की बडी नाव बनाने की बात कोई बेख़याल या सनकी ही कर सकता था- ऐसा वे सब मानते थे.

पहाडों की तलहटियों में एक मैदान था. उस मैदान के चारों ओर चीड और देवदार के पेडों का विशाल समुद्र था, उँचे पहाडों तक फैला हुआ. नीचे से देखने पर आसमान तक पेड ही पेड दीखते थे. अपने ऊँचे तनों और फुनगियों के साथ आकाश तक फैले. मैदान के ऊपर छोटा सा आकाश था. बाकी बचा आकाश पहाडों और जंगलों में दफन था. दुनिया में  कुछ गिनती के ही जंगल बच गये थे. उनमें से एक यह भी था और वह उसी जगह नाव बना रहा था. कोई नहीं जानता कि वह कब से नाव बना रहा था. बहुत कम लोग उसके बारे में जानते थे. कुछ लोग कहते कि वह सैंकडों बरसों से नाव बना रहा है. मीडिया में उसके बारे में खबर भी आई थी. खबर थी कि वह एक बेहद जीवट और सादगी पसंद आदमी है. न जाने क्यों वह नाव बना रहा है? पता नहीं क्यों? खबरिया चैनल ने उसे एक दैवीय पुरुष भी बताया.

अधेड उम्र के दीखते उस आदमी के तार-तार होते कपडों को खबरिया चैनल बार-बार दिखा रहा था. झुर्रियों से भरे नीली आँखों वाले उसके बेहद शांत चेहरे को बार-बार ज़ूम कर दिखाया जा रहा था. हवा में लहराती दाढी और हवा में पछाड खाती बिखरी उलझी लटों के साथ हाथ में एक बडी सी कुल्हाडी पकडे वह आदमी सचमुच में ऐसा लगता मानो किसी दूसरी दुनिया से आया हो. मानो यह बात सच हो कि वह बरसों से ऐसे ही, इसी तरह से नाव बनाता चला आ रहा है. कोई नहीं जानता कब से ?

उस खबरिया चैनल में उस आदमी पर यह खबर लगभग आधे घण्टे तक दिखाई गई थी. कौन है यह महामानुष, यह नाव बनाने वाला आदमी क्या सचमुच में ऐसा कोई आदमी है जिसने मौत को मात दे दी है और सैंकडों बरसों से जिंदा है, क्या है इसका रहस्य, क्या यह सच है कि यह आदमी बिना कुछ खाये पीये बरसों तक जिंदा रह सकता है- तमाम बातें चैनल बता रहा था. और जैसा कि होता है यह खबर दुबारा से एक बार और दिखाई गई. वही पूरी खबर शब्द-दर-शब्द एकदम वही. और फिर वह खबर खबरों की तरह ही खत्म हो गई.

उस खबर को सुनकर एक स्थानीय पत्रकार उस आदमी तक पहुँच गया था. पहाडों और जंगलों को पार कर वह पूरे तीन दिन बाद उस आदमी तक पहुँच पाया था. उसने उससे बात करने की कोशिश की थी. परवह आदमी बस चुपचाप उसे देखता रहा था. उस आदमी ने उस पत्रकार को पानी पिलाया था. इस दुनिया को बचाना है- उसे पानी पिलाते हुए उस आदमी ने कहा था और पानी पीते-पीते उस पत्रकार ने पल भर को उसे देखा था- तुम एक शानदार इंसान हो- पत्रकार ने उससे कहा और फिर उस आदमी की एक फोटो उतारी. आदमी को अच्छा लगा कि कोई आया और उसने उसके काम में रुचि ली. कोई जो जंगल पहाड पार कर तीन दिन की दुरुह यात्रा के बाद उसके पास तक आया. उसकी नाव को देखा. उसके काम की तारीफ की. उसे अच्छा लगा. पर उसे ईश्वर का आदेशभी याद था - किसी से मतलब न रखना. यह काम तुम्हें निर्लिप्त भाव से करना होगा.
पर मन तो मन होता है. उसे अगर कोई बात अच्छी लग जाये तो क्या किया जाये. दुनिया बचेगी.....जरुर- अपने कंधे पर कुल्हाडी को रखते हुए उस आदमी ने पत्रकार से साफ आवाज में कहा. पत्रकार ने चारों ओर नज़र दौडाई घने जंगल, बर्फ से ढंके ऊँचे पहाड, साफ नीला आसमान और चिडियों की चहचहाहट.....आदमी की कही बात उसके जेहन में गूँजी -दुनिया बचेगी.....जरुर.

खबरिया चैनल पर जो खबर चल रही थी उसमें गाँव का एक बुजुर्ग बता रहा था कि उसके पिता के पिता याने उसके पितामह ने भी इस आदमी को देखा था. इसी जगह पर. इसी तरह से नाव बनाते हुए. एक बार वे जंगल में रास्ता भटक गये थे और सात दिन बाद भटक कर जिस जगह पहुँचे उस जगह यही आदमी था. अपनी नाव के साथ. उसे बनाता हुआ. दरअसल हुआ यूँ था कि नाव बनाने वाले इस आदमी की तमाम पीढियाँ सैंकडों सालों से नाव बनाने का यह काम करती आ रही थीं. जब आदमी बूढा होता तो उसका बेटा या बेटी नाव बनाने का यह काम अपने जिम्मे ले लेते. उसके बाद उसका बेटा या बेटी यह काम करने लगते. इस तरह बरसों से यह काम चलता-चला आ रहा था. वे जंगल के इस इलाके को छोडकर कभी कहीं और नहीं गये. क्योंकी यहाँ उनकी बनाई नाव थी. वे नाव के पास ही रहते आये थे. दुनिया से कोई खास वास्ता उनका न था. जंगलों में बसी उनकी दुनिया बाहर की दुनिया से इतनी कटी थी कि उनके बीच बहुत कम आना जाना होता था. कहीं कोई संपर्क भी न रह जाता. फिर आज की मगरुर और मसरुफ दुनिया से संपर्क की कोई खास वजह भी न रह गई थी. आदमी के उन तमाम पुरखों के तमाम किस्से हैं जिन्होंने नाव बनाने का बीडा उठाया, इस काम की शुरुआत की  और इसे बनाते रहे.

(दो)
कहते हैं जब बुद्ध थे तब भी, उस दौर में भी इस आदमी का एक पुरखा नाव बना रहा था. बुद्ध कह रहे थे, बार-बार कह रहे थे - संसार में ऐसा कुछ भी नहीं जो दुःख से भरा न हो, एक कतरा भी नहीं....टटोलकर देखो हर जगह दुःख के शूल....डूबोकर देखो अपनी उंगलियाँ...हर जगह बस अविरल बहता दुःख...दुःख एक विशाल नदी है, जो हर शरीर से होकर बहती है....फूटती है आँसू, पसीना और रक्त होकर...हर खयाल में बहती है दुःख की एक पथरीली नदी....हर बस्ती, कस्बे और गाँव में दिखते हैं शैवालों और काइयों से भरी दुःख की नदी के निशान...हर छाती में दुःख का गहरा मंथर प्रवाह.....
उस वक्त इस आदमी का वह पुरखा जंगल के पेड काट रहा था लगातार, एक के बाद एक, बदन पर उसने कुल्हाडियाँ बाँध रखी थीं, पैर के घाव पर पट्टी और उसके ऊपर उसने टाट लपेटा हुआ था, पानी गिर रहा था, हवा बह रही थी, बिजली कडक रही थी, अंधेरा घिर आया था...लंगडाता, लडखडाता और पीडा से कराहता वह आदमी पेड काटता जा रहा था. उसको बुद्ध का और बुद्ध को उस आदमी के उस पुरखे का पता न था. पेड का एक मोटा तना उसके पैरों पर गिरा था. वह बिलबिला कर चीख पडा था. उसके चोट खाये पैर से रक्त बहता था. उसकी चीख, उसकी सिसकियाँ उन वीरान जंगलों में गूँजती थीं. प्रलय की बात पर लोग हँसते थे और रात की निपट भुतही निस्तब्धता में वह चोट खाये घायल पैर को पकडे रोता था.

उन दिनों से कुछ सौ सालों बाद उस इलाके के प्रमुख शासक जो कि उस राज्य का एक राजकुमार भी था और कुमारामात्य कहलाता था उसे राज्य के एक बडे मुलाजिम जिसे अकाराध्यक्ष कहा जाता था उसके साथ काम करने वाले एक कुलिकयाने क्लर्क ने यह जानकारी दी थी कि एक आदमी बर्फ से ढंके पहाडों के जंगलों में नाव बना रहा है. बहुत पहले उस रास्ते से गुजरते वक्त कुछ ग्रामीणों ने यह बात उस कुलिक को बताई थी. और फिर उस कुलिक ने अकाराध्यक्ष को और अकाराध्यक्ष ने कुमारामात्य को. हुआ यूँ था कि वह कुलिक और कुछ और लोग अकाराध्यक्ष के साथ स्वर्ण और कीमती रत्नों की खोज के लिए इस इलाके में गये थे. अकाराध्यक्ष खनिज वाले महकमे का सबसे बडा मुलाजिम था. अकाराध्यक्ष उसके पद का नाम था. जंगलों के इस इलाके में नाव एक बेहद अचरज की बात थी. नाव तो किसी नदी या जलाशय के किनारे बनाई जाती है. भला कोई पहाडों पर और जंगलों में भी नाव बनाता है ? - अपने आसन पर बैठे कुमारामात्य ने अपने पेट को खुजलाते हुए शंका जाहिर की थी -जरुर यह शत्रुओं का कोई गुप्तचर होगा- उसने आगे कहा था. जंगल में या तो आदिम लोग रहते हैं या अपराधी या गुप्तचर. हुलिये से यह कोई गुप्तचर लगता है. ऐसा उस कुमारामात्य का मानना था. उसने अपने महामात्यपर्सप याने गुप्तचरी के महकमे के बडे मुलाजिम को यह संदेश भिजवाया कि वह राजा को बताये कि इस इलाके में एक संदिग्द्ध आदमी देखा गया है. यह आदमी अचरज से लोगों को देखता है. विक्षिप्तों जैसी इसकी वेशभूषा है. कुछ पूछो तो कहता है कि ईश्वर के आदेश से वह इस जगह पर है. लगता है कोई बात है जिसे छिपाता है. कुछ दिनों बाद महामात्यपर्सप ने एक काबिल पतिवेदक याने गुप्तचरी कर जानकारी लाने वाला जासूस जिसका नाम जीवक था उसे सैनिकों के साथ इस मामले के भेद को पता करने और कार्यवाही करने के लिए भेजा था.

कहते हैं पूरे सात माह की यात्रा के बाद जीवक और उसके लोग जंगलों और बर्फीले पहाडों से घिरी उस जगह पर पहुँच पाये थे. रात को ही वे उस आदमी के पास पहुँचे थे. आगे-आगे घोडे पर जीवक और उसके पीछे उसके चार सैनिक. पीछे के दो सैनिकों के हाथों में मशालें थीं और आगे के दो के हाथों में तलवारें. जीवक अचरज से उस विशाल नाव को देखता रहा था जो जंगल के बीच पसरे विशाल मैदान में खडी थी. रात के अंधेरे में वह न दीखती थी. मशाल की रौशनी में भी वह पूरी न दीखती थी. पर उसके सामने के हिस्से को देखकर उसकी विशालता का अंदाज लगाया जा सकता था. अपने एक सैनिक के साथ जीवक ने उस नाव का मुआयना किया. आगे-आगे जीवक और पीछे-पीछे हाथ में मशाल थामे सैनिक और उसके पीछे बाकी तीन सैनिक. नाव को चारों ओर से देखने में उन्हें समय लगा. वे अचरज के साथ नाव को देखते जा रहे थे. लौटने के बाद उस आदमी के सामने खडा जीवक मुँह खोले हतप्रभ सा उसे देख रहा था. कभी वह नाव की तरफ देखता तो कभी नाव को बनाने वाले उस आदमी की तरफ. वह एक दो बार नावाध्यक्ष के साथ राज्य के सबसे बडे बंदरगाह तक गया है. तमाम नावें उसने देखी हैं. उन दिनों राज्य का जो पण्याध्यक्ष था उसका नाम अभिजात था. पण्याध्यक्ष याने व्यापार-वाणिज्य के महकमे का एक खास मुलाजिम. अभिजात और उसके लोगों के साथ वह सबसे बडे बंदरगाह तक भी जा चुका है. तमाम तरह की नावें उसने देखी हैं. पर इतनी बडी नाव ? इतनी विशाल ? वह भी इस वीरान जंगल में ?
                    
बताओ तुम्हारा लक्ष्य क्या है? महान राजा के राज्य में तुम यह काम क्यों कर रहे हो? अगर सही जवाब नहीं दोगे तो इसका परिणाम मृत्युदण्ड भी हो सकता है ?’- जीवक ने उस आदमी से साफ-साफ कहा.
                    
ईश्वर का आदेश है कि मैं यह काम करुँ.

उस आदमी का पुत्र भी वहाँ आ गया था. उसकी पत्नी झोंपडी में दरवाजे से लगी सब कुछ सुन रही थी. आदमी का जवाब सुनकर जीवक हक्का-बक्का सा इधर-उधर देखने लगा. फिर कडक आवाज में कहा - सही बताओ. झूठ न कहना. आदमी ने भी बेख़ौफ होकर कहा - ईश्वर का आदेश है - जीवक अपने सैनिकों की तरफ देखने लगा, सैनिकों में से दो सैनिक अब भी नाव को देखे जा रहे थे, एक सैनिक अचरज से उस आदमी को देख रहा था जो पूरे साहस से कह रहा था कि ईश्वर का आदेश है और जो सैनिक मशाल पकडे आगे खडा था उस सैनिक का हाथ काँप रहा था, वह एकटक नाव को देख रहा था और उसके हाथ में थमी मशाल काँप रही थी. काँपती मशाल से जलता तेल सूखी जमीन पर गिर रहा था. कभी बूँद-बूँद तो कभी आग की भभकती लकीर के साथ. किसी ने भी इस बात पर गौर न किया था कि भभकता, लपट भरा जलता तेल सूखी जमीन पर गिर रहा है. हर कोई भय और अचरज में था. अपने में मगन. हर कोई नाव और उसे बनाने वाले को देख रहा था.

जलते तेल से सूखी घास पर लपटें उठने लगी थीं. देखते-देखते लपटें तेजी से फैलने लगीं. घास, पैरा और सूखी लकडी के टुकडों पर आग साँप की तरह डोलने लगी. वह आदमी आग-आग चिल्लाता अपनी नाव की तरफ भागा. पर आग फैलती जा रही थी. जीवक और उसके सैनिक अपने-अपने घोडों पर चढकर पीछे को हट गये थे. आग नाव तक पहुँच रही थी. आग ने सूखी लकडियों के साथ-साथ उस आदमी की झोंपडी को भी अपनी चपेट में ले लिया था. मिट्टी के पात्रों में रखा सारा पानी उन्होंने आग पर डाल दिया था, पर पानी इतना कम था कि उसका आग पर कोई असर न हुआ था. वह आदमी जीवक की ओर इशारा करके चीख रहा था - चले जाओ, जालिमों चले जाओ.....तुम्हारा नाश होगा अवश्य ही. जलती आग से खुद को बचाने वह आदमी, उसकी पत्नी और बच्चा भी भाग खडे हुए थे. उसकी बद्दुआयें जीवक और उसके लोगों तक पहुँच रही थीं - चले जाओ, जालिमों चले जाओ.....तुम्हारा नाश होगा अवश्य ही. उसकी चीख में दर्द था और दुःख की तडप थी, उसमें बद्दुआओं के भयावह कांपते शब्द थे, उनमें कोई गाली न थी पर आसमान तक चीखती आवाज थी..... जीवक और उसके सैनिक लौटने लगे. लौटते हुए वे पलट-पलट कर जलती हुई नाव को देखते. जलती हुई विशाल नाव की लपटें आकाश तक उठ रही थीं.

यह निश्चय ही कोई गुप्तचर नहीं है - जीवक ने अपने एक सैनिक से कहा - सही कहा आपने- सैनिक ने उसकी बात को तस्दीक करते हुए कहा. यह बुरा हुआ, नाव का जलना ठीक नहीं- मशाल वाले एक सैनिक ने कहा. कहते हैं जीवक फिर कभी वापस न आया. न ही उसके सैनिकों को किसी ने देखा. कोई कहता है कि उस भयावह जंगल से लौटते वक्त रास्ते में लुटेरों से उनकी भिडंत हुई और वे सब मारे गये . तो कोई कहता है कि उन्हें इस बात का दुःख था कि उनकी वजह से एक बहुत बडी नाव जल गई. वह नाव जो सारे संसार को बचाने के लिए ईश्वर के आदेश पर बनाई जा रही थी. कोई नहीं जानता किवह नाव कब और कहाँ उन्होंने देखी थी . पर किसी ने यह कहानी बताई थी. शायद उन सैनिकों में से किसी ने और इस तरह उनका यह किस्सा जाना गया. कुछ लोग कहते हैं कि वे इतने आत्मग्लान हुए कि उन सबने प्रायश्चित करने के लिए सारे संसार को छोडकर सन्यास ग्रहण कर लिया. एक कहानी ऐसी भी है कि वे लौटे नहीं थे, वे उसी जंगल में फंस गये थे और फिर कभी उससे बाहर न निकल पाये. एक किस्सा यह भी है कि जंगल से लौटते समय जीवक ने कहा था - हमने इस आदमी को जिसने सारी जिंदगी एक नाव बनाने में लगा दी उसे गुप्तचर समझा. हमने उसे देश का दुश्मन समझा जो वीरान पहाडों और तन्हा जंगलों में एक विशाल नाव बना रहा था. हमने उस पर शक किया जो धुनी था और दीवाना था...और इस तरह हम गलत साबित हुए.
             
अगर नष्ट हो जाये, टूट जाये, खराब हो जाये तो इस नाव को तोडकर फिर से बनाना. याद रहे यह सारी दुनिया को बचायेगी. इसका मजबूत और सही सलामत रहना सबसे जरुरी है.
             
जलकर राख हो चुकी नाव के किनारे बैठे उस आदमी को ईश्वर का आदेश याद आ रहा था. उसकी पत्नी उसके पीछे खडी रो रही थी. पहाडों पर बर्फ पडनी शुरु हुई थी. बर्फ के गिरने की कोई आवाज नहीं होती. दुनिया को कभी जंगल में बनाई जा रही नाव की आवाज सुनाई नहीं देती. उसकी कोई आवाज उस तक नहीं पहुँचती.


(तीन)
एक किस्सा तब का है जब हिंदोस्तान की सल्तनत का मरकज़देहली में बसाई गई एक जगह देहली-ए-कुहना थी. उन दिनों देहली-ए-कुहना का जो सुल्तान था उसका नाम नासिरुद्दीन महमूद था. यह इतना सादगीपसंद, रहमदिल और इंसाफपसंद था कि लोग इस सुल्तान को औसाफ-इ-औलिया-वा-अखलाक-इ-अनबिया कहते थे. सुल्तान होकर भी ऐसी ग़ुरबत में बसर करता कि उसकी बीबी उसके लिए खुद खाना बनाती थी. एक रोज सुल्तान के लिए रोटी बनाते वक्त जब उसका हाथ जल गया तो उसने सुल्तान से कहा कि ठीक है, वह सबकुछ कर ले, सुल्तान की हर बंदिश, हर सादगी, हर वफादारी को सर माथे से लगा ले पर सुल्तान इतना तो कर ही सकता है कि रोटियाँ पकाने के लिए उसे एक नौकरानी दिला दे.

कहते हैं हिंदोस्तान के उस सुल्तान ने अपनी बीबी के आग से जले हाथों को देखते हुए कहा था, कि दुनिया उसे सुल्तान मानती है पर जो सुल्तान होता है वह हुकूमत का अमीन भर होता है, सल्तनत का एक ईमानदार रखवाला और यह उसका पुख़्ता ख़याल है, एक पुर-आज़म इरादा कि अपनी रोज की जरुरतों के लिए वह सल्तनत पर नाहक बोझ न डालेगा. आगे उसने अपनी बीबी से कहा कि वह इस बात का मुतासिर है कि वह अपनी रोज की जरुरतों और ज़िंदगी के तमाम फर्ज पूरे इत्मिनान के साथ पूरा करे. क्या ही अच्छा हो जो उसके इस इरादे को उसकी बीबी जान पाये. उसकी बातों पर यकीन कर पाये. उसे अपना पाये. सुल्तान का यकीन था कि ऐसा करने पर अंततः ख़ुदा उसे इनामो इकराम से जरुर नवाजेंगे. उसकी बीबी एक गुलाम की बेटी थी. उस गुलाम ने देहली-ए-कुहना में उसके दौर में एक इमारत बनवाई थी. उस इमारत को लोग हिफाज़त का घर कहते थे. उस दौर में आये एक सौदागर इब्न बतूता ने हिफाज़त के घर का ज़िक्र किया है. लगता है वह वहाँ गया था. वह बताता है कि इस हिफाज़त के घर में हर उस उधार का फैसला हो जाता था जिसे किसी ने गलत तरीके से लिया होता, हर कातिल को यहाँ सजा मिल जाती, हर ख़ौफज़दा को सरमाया.....वह बताता है कि कोई ऐसा न हुआ जो सुल्तान के दौर में उसके गुलाम के बनाये इस हिफाज़त के घर से गुजरे और उसकी तकलीफ का इलाज न हो पाये, उसे इंसाफ न मिले. कहते हैं सुल्तान नासिरुद्दिीन महमूद ने देहली-ए-कुहना में लगभग बीस साल हुकूमत की पर बहुत कम लोग ही उसे जान पाये.

इस सुल्तान को कुछ चीजें नापसंद थीं. धीरे-धीरे उसने यह बात सल्तनत के तमाम लोगों को बताई थीं. उसेशराब-इ-असीर से नफरत थी. भले यह अंगूर की बनती थी पर यह एक गलत चीज़ थी. उसे गन्ने के रस से बनी शराब-इ-नैशकार भी उतनी ही बुरी लगती थी. वह जौ और अंगूर से बनने वाले फुक्का से भी खासी नफरत करता था. किसी की हिम्मत न थी कि इनमें से कोई चीज़ पीकर सुल्तान के सामने हाजिर हो जाये. उसे तस्वीरें नापसंद थी. उसके दौर में देहली-ए-कुहना में गीत-संगीत सुनाई न देता था. उसकी नापसंदगी में मौसुकी भी शामिल थी. इसी सुल्तान के दौर में एक रंग साज हुआ. वह बहुत खूबसरत तस्वीरें बनाता था. उसका नाम अबू हसन था.

कहते हैं बर्फ से ढंके ऊँचे पहाडों के पास से कभी गुजरते हुए जंगलों में अबू हसन को एक विशाल नाव दिखाई दी थी. यह इतनी विशाल थी कि बहुत दूर से ही वह दीख पडती थी. उसके पाल आसमान की ओर उठे हुए थे. तीन विशाल चैकोर पाल जंगल के पेडों से बहुत ऊपर नाव की कुदास पर सीधे ऊपर उठे हुए आसमान के बीच तक फैले थे. मुख्य पालों से लगी हुईंछोटी पालें भी दूर से दीखती थीं. ये तिकोनी पालें किसी ऊँची इमारत सी मुख्य पाल के साथ-साथ सीधे ऊपर को खडी थीं. अपने विशाल मस्तूलों पर सभी पालें खुली हुईं थीं और हवा में लहरा रही थीं. उन्हें मस्तूल से बाँधने के रस्से छोड दिये गये थे और दानव की तरह दीखती ये विशाल पालें हवा में फरफरा रही थीं.ये इतनी विशाल थीं कि इन्हें देख अबू हसन एकबारगी डर गया था. नाव की विशाल दुंबास किसी विशाल दानव की तरह से जंगलों के भीतर से बाहर को मुँह उठाये खडी थी. हवा में फरफराती विशाल सफेद पालों और नाव की विशाल उठी हुई दुंबास को देखकर अबू हसन ने बहुत दूर ही अपना घोडा रोक दिया था. उसका अंदाज़ था कि नाव बहुत दूर है. उससे कोई चार दिन की दूरी पर. वह अचरज में था और थोडा डरा हुआ भी. फिर थोडा हिम्मत कर उसने उस विशाल नाव की तस्वीर बनाई. तस्वीर में बर्फ से ढंके विशाल पहाडों के नीचे छोटे-छोटे दीखते पेड थे. पेडों के बीच से आसमान तक उठी विशाल नाव थी.
            
देहली-ए-कुहना से लौटकर उसने वह तस्वीर सुल्ताननासिरुद्दीन महमूद को दिखानी चाही. वह उसे उस विशाल नाव के बारे में बताना चाहता था. उसे लगा था कि यह एक ऐसा मामला है जिसे सुल्तान को जरुर बताया जाना चाहिए. तस्वीर देखकर सुल्तान को अंदाज लग ही जायेगा कि वह नाव कितनी बडी है. पर सुल्तान के नायबों और सरवरों ने उसे सुल्तान के कौशुक से बहुत पहले ही रोक दिया था. हर कोई जानता था कि सुल्तान तस्वीरों से कितनी नफरत करता है. रंग साजअबू हसन सुल्तान के नायब को बता रहा था कि उसने क्या-क्या देखा? वह उस नाव की विशालता के बारे में उन्हें बताता रहा पर न तो नायब ने और न ही सरवर ने उसकी बातों को तवज्जो दी. उसी वक्त उस रास्ते से काजी-ए-लश्कर गुजरा. काजी-ए-लश्कर फौज का सबसे बडा मुंसिफ था. नायब और सरवर से हुज्जत करते रंग साजअबू हसन को देखकर वह रुक गया. काजी-ए-लश्कर के साथ-साथ उसके जल्लाद भी रुक गये. काजी-ए-लश्कर ने अबू हसन को हिकारत भरी नज़र से देखा और फिर सरवर को हुक्म दिया कि उसकी बनाईइस तस्वीर को जला दिया जाये. अबू हसन ने उससे रहम माँगी और तस्वीर वापस दे देने की गुजारिश भी की पर वह न माना. तस्वीर गैरकानूनी है, उसे बनाना एकदम गलत. अगर रंग साजअबू हसन न माने तो उसे फौरन देहली-ए-कुहना की सरहदों के पार भेज दिया जाये. अगर वह ऐसा न करे तो उसे कैदखाने में डाल दिया जाये. सुल्तान की इस अजीमोशान सल्तनत में किसी रंग साज या रंग साजी की कोई जगह नहीं.’ - उसने सरवर को फिर से हुक्म दिया. रंग साजअबू हसन वहाँ से चुपचाप चला गया.

सुल्तान की लश्कर के एक अदने से लडाके ने सरवर की नजरों के सामने उस तस्वीर को जलाया था. जलाने से पहले उसने एक बार उस तस्वीर को देखा था. पहाडों और जंगलों में खडी विशाल नाव को देखकर उसे जोर की हँसी आ गई. भला ऐसा भी कहीं होता है. ये रंग साज जाने क्या-क्या बनाते रहते हैं. जंगलों में खडी विशाल नाव. हुँह. ऐसी तस्वीरें जो होती ही नहीं. हाथ में तलवार थामे उस तस्वीर को उसने बडी हिकारत से देखा. फिर ठठा कर हँस दिया. उसे हँसता देख सरवर मुस्कुरा दिया.

बाद में अबू हसन ने इस वाकये से उबरने के लिए खुद को तसल्ली देने के लिए कई बातें सोचीं. एक बात उसे ठीक लगी. उस रोज लौटते हुए उसे पहाडों और जंगलों के बीच बसे एक अनजान से गाँव के एक बुजुर्ग की बात याद आई जो उस आदमी को जानने का दावा करता था जिसने वह विशाल नाव बनाई थी. वह कहता था कि वह आदमी कहता है कि वह न तो नूह है और न ही मनु, वह कोई किस्सा नहीं है, वह हकीकत है, दुनिया उसे देख सकती है, उसे जान सकती है, वह सच है और इस तरह वह नाव बना रहा है.....रंग साज अबू हसन को देहली-ए-कुहना की अजीमोशान कुतुब मीनार और उसके पास बनी ऊँची मेहराबें याद हो आईं जिनमें से किसी पर नूह वाली इबारत लिखी है जो उसके एक दोस्त ने उसे हिज्जे कर-कर के पढकर सुनाई थी. पत्थरों पर उकेरे गये अल्फ़ाजों को वह बहुत ध्यान से पढता था. अधूरे हर्फों की नोकें, उनके ख़म, पत्थरों पर तराशे गये लटकते से खूबसूरत अल्फाजों़ की लकीरों के नीचे नुक्ते की दिलकश तरतीब और हर्फों के नाज़ुक मोड, घेरे और गोल-गोल लकीरों को वह करीने से देखता और उनके मायने उसे बताता . उस मेहराब पर नूह की नाव वाली पूरी इबारत लिखी थी. जो उस रोज उसने उसे बडे इत्मिनान से पढकर सुनाई थी. उसे एक पण्डित का पता है जो तमाम धर्मपसंद लोगों को मनु की कथा सुनाता है. मनु की नाव वाली कथा. भगवान के मत्स्य अवतार की कथा. अबू हसन को लगता है कि शायद यह ठीक ही हुआ जो उसकी बनाई तस्वीर को काजी-ए-लश्कर के हुक्म से जला दिया गया. पता नहीं ऐसे मसले में पडने का और क्या अंजाम हो ?

इस तरह उस आदमी के पूर्वजों के तमाम किस्से हैं. तमाम बातें. वह सब जो इस दौरान उसके साथ होता रहा. उसके बाप दादाओं के साथ. उसके बाप दादाओं की औलादों के साथ.

(चार)
नाव बनाना आसान न था. जब कोई न हो और अकेले में यह काम करना हो तो यह बेहद दुरुह, उबाऊ और उदास कर देने वाला काम है. जब कोई हाथ नहीं बंटाता. जब कोई नहीं होता और खुद को ही करना होता है तब यह उदासी और सघन हो जाती है. आदमी की बात पर कोई यकीन नहीं करता. जो भी लोग मिले. बहुत कम लोग. यदा कदा. वे सब यही मानते कि यह कोई सनकी और संदिग्ध आदमी है. पहाडों और जंगलों में नाव बनाने वाला, जो न तो मछुआरा है और न ही समंदर के पार तिजारत करने जाने वाला कोई सौदागर, न ही नावाध्यक्ष या सुल्तान के पानी के जहाजों के महकमे का कोई मुलाजिम, न ही वे जिन्होंने देहली-ए-कुहना तक पहुँचने के लिए यमुना पर बनाया नावों का पुल, न ही वह मल्लाह जो मुसाफिरों को पार करवाते हैं कोई नदी.....यह आदमी इनमें से कोई भी नहीं. फिर यह नाव क्यों बनाता है? वह भी नदी या समंदर के किनारे नहीं बल्कि एक बहुत ऊँचे पहाड पर जंगलों के बीच ? जब-जब इससे पूछो कि इस जगह नाव बनाने की क्या जरुरत तो कहता है कि यह जगह इतनी ऊँची है कि जब प्रलय आयेगी तो इस जगह पानी सबसे बाद में आयेगा इसलिए वह इस जगह नाव बना रहा है. लोग अकेले में उसकी इस बात पर हँसते हैं.

वह आदमी अक्सर रात को रौशनी न करता था. तारों भरे आसमान को देखते हुए उसका वक्त गुजरता. अपनी औलाद के साथ बातें करना उसे अच्छा लगता. अपनी नाव को वह इस तरह निहारता जैसे कोई माँ अपने बच्चे को निहारती है. वह नाव की मरिया और दुंबाल को पास जाकर गौर से देखता. लकडी के फट्टों को एक के ऊपर एक कस कर तैयार की गई दुंबाल पर वह हाथ फेरता. कील से ठोंककर मजबूत किये गये हर जोड को वह कुल्हाडी के बट से ठोंककर जाँचता. वह अकेला था और यह बात उसे उदास करती थी . पर नाव बनाने और उसकी जाँच करने का ख़याल उसे चहकाता था, खुश करता था. उसे किसी की जरुरत न थी. वह खुद में मगन था. उसके सपनों में प्रलय के हहराते पानी में बेख़ौफ चलती नाव के दृश्य थे. ऊँची और खौफनाक लहरों के बीच सारी कायनात को अपने साथ महफूज रखने वाली विशाल नाव उसके ख़्वाबों में रोज आती थी. तेज बहती हवा से टकराती पालों का खयाल जब उसके मन में आता तो वह अपनी कुल्हाडी और हथौडा उठा लेता. फिर इत्मिनान से नाव के काम में भिड जाता. एक बार जंगल के उस बेहद वीरान इलाके से गुजरने वाले एक मुसाफिर ने उससे कहा था कि उसकी नाव बेहद शानदार है. उसे लगा कि वह उस मुसाफिर को गले लगा ले. परवह चुपचाप मुस्कुराता हुआ उसे देखता रहा. जंगल की बारिश में भीगती नाव को देखना उसे बेहद प्रीतिकर लगता. ऐसे में अपने बेटे के साथ वह दुंबाल के रास्ते सीढियों से नाव के ऊपर तक आ जाता. नाव की भीत पर चलते-चलते वे सबसे बीच वाली विशाल पाल के नीचे आ जाते. तेज हवा और पानी की बौछारों के बीच फडफडाती पाल के नीचे वे दोनों खडे रहते. वहाँ से सारा जंगल दीखता था और बर्फ से ढंके पहाड ऐसे लगते मानो पास ही हों.
            
वक्त बीतता गया.प्रलय के दिन का ठीक-ठीक पता न था. इसलिए नाव को हमेशा तैय्यार रखना जरुरी था. नाव पुरानी हो जाती तो वह आदमी उसकी फिर से मरम्मत करता. सैंकडों बरस पहले जल जाने के बाद उसने उसे फिर से बनाया था. वक्त के साथ तार-तार होते उसके पाल के कपडों को बदल दिया जाता. दीमक खाये पठान,मरिया और कुंबाल की लकडी बदल दी जाती. नये पटरे और बत्ते ठोंककर नाव की भीत और खोल को मजबूूत किया जाता. पतवारें बदल दी जातीं. पतवारों के लोहे के जंग खाये फाल बदल दिये जाते. नाव की धरन उसकी सबसे महत्वपूर्ण जगह थी. विशाल धरन में विशाल कोठरीनुमा जगहें थीं. उन्हें बंद करने के लिए मजबूत दरवाजे थे. इन धरनों में राशन रखा जाना था. ताकि प्रलय के बाद भी लंबे समय तक नाव में जीव जंतुओं के लिए भोजन उपलब्ध रहे. दुनिया में फिर से जीवन की शुरुआत करने के लिए यह बेहद जरुरी था. हर जीव के लिए उसकी जरुरत के हिसाब से राशन उपलब्ध हो. भोजन की शक्ल में यह राशन धरन की इन कोठियों में सुरक्षित रहे यह सबसे जरुरी था.
            
पाल के मुख्य खंभे को कई-कई बार बदला गया था. एक बार की बात है. उन दिनों ब्रिटेन में रानी एलीजाबेथ का राज था. रानी एलीजाबेथ ने थियेटर में रोमियो और जूलियटनाटक को देखने के बाद शैक्सपियर को कोई काॅमेडी लिखने को कहा था. उसने शैक्सपियर को काॅमेडी लिखने की बात ठीक उसी तरह से की थी जिस तरह से कोई राजा हुक्म देता है. उसके हुक्म को सुनने के बाद शैक्सपियर ने अपनी टोपी उतारकररानी एलीजाबेथ का अभिवादन करते हुए अबकी बारएक कामेडी लिखने का वादा किया था. शैक्सपियर ने रानी से वादा किया था कि अब जो वह लिखेगा वह एक कामेडी ही होगा. शैक्सिपियर के दिमाग में कई-कई खयाल एक साथ आते थे, भीतर कुछ धडकता था लगातार, बेचैन होकर वह लंदन की गलियों में निरुद्देश्य भटकता और उसे नींद न आती. गोधुली में धूसर धुँआ उगलती चिमनियों वाली ढालू छतों, उसकेे पीछे सूखे विलो और ओक के पेडों से अटे पडे जंगलों और कतारबद्ध घरों के सामने से गुजरती ईंट की रोड के दृश्य पर पिछले दो दिनों से गिर रहे हिम को वह खिडकी के किनारे बैठा अपलक घूरता. उसने अब तक कोई कामेडी न लिखी थी. पर ब्रिटेन की रानी का हुक्म था. एलीजाबेथ महान का हुक्म. उस हुक्म की तामीर करना शैक्सपियर का काम था. वह लेखक था. पर इससे क्या होता था. उसे भी महान रानी के हुक्म की तामीर करनी ही थी. इस तरह उसे काॅमेडी लिखनी ही थी. एक बेहद दुःख भरे नाटक रोमियो और जूलियटके बाद यह काम उसे करना ही था. नये नाटक की कथा अभी शैक्सपियर के मन में पूरी तरह से जज्ब नहीं हुई थी. अभी भी वह खदबदाती बह निकलती या उसके भीतर किसी गहरे खड्ड में झरती रहती. शैक्सपियर चैंककर नींद से जाग जाग जाता. वह बेचैन था. वह कामेडी लिखे तो कैसे ? पर उसे लिखना ही था. कोई और उपाय न था. ठीक उसी वक्त धरती के दूसरे छोर पर वह आदमी नाव की मुख्य मस्तूल को संभालने के लिए जंगलों में ऊँचे विशाल पेडों की तलाश में था. पुरानी मस्तूल खराब हो चुकी थी. उसे बदलना ही था. लगभग डेढ माह जंगल-जंगल भटकने के बाद वह खाली हाथ लौटा था. अब उसे दूसरी तरफ के जंगल जाना था.
                         
उस रात शैक्सपियर को सपने में नाटक के पात्र दिखाई दिये. उन पात्रों में उसकी प्रेमिका भी थी. धीरे-धीरे सारे पात्र नैपथ्य में चले गये सिर्फ प्रेमिका रह गई. उसकी नीली आँखों में आँसू थे और उसने अपनी बाहें फैला रखी थीं. बाहर जोर की गडगडाहट के साथ बारिश हो रही थी. शैक्सपियर उठ गया. वह नये नाटक को लिखने लगा. लिखने लगा कि एक विशाल समुद्र है और उसमें एक जहाज तूफान में फँसा है. जहाज में सवार लोग चीख रहे हैं, मदद को पुकार रहे हैं. जहाज टूट-टूट कर बिखर रहा है. धीरे-धीरे सारा जहाज टूट जाता है. ज्यादातर लोग डूब जाते हैं. बस कुछ लोग ही बच पाते हैं. उधर धरती के दूसरे छोर पर भोर होने लगी थी और विशाल तने को पहाड से लुढकाता वह आदमी दूर खडी नाव को देख रहा था. वह खुश था कि वह एक ऐसी नाव बना रहा था जो प्रचंडतम तूफान को भी सह लेगी. हर कोई बचेगा, कोई भी डूबेगा नहीं, यहाँ तक की हर जीव, हर वनस्पति भी बचेगी. कोई डूबेगा नहीं. कोई मरेगा नहीं.....
                     
रानी एलीजाबेथ के हुक्म पर शैक्सिपीयर को लिखनी थी काॅमेडी और ईश्वर के हुक्म परवह आदमी बना रहा था नाव. दोनों के इरादे नेक थे. पर दोनों के बीच खासा फासला था. आधी धरती का फासला. शैक्सपीयर के नाटक में डूबते जहाज में एक स्त्री है. यह स्त्री उसकी प्रेमिका है. वह अपनी प्रेमिका को बचाना चाहता है. साथ ही कुछ ऐसे पात्रों को भी बचाना चाहता है जिनके बिना नाटक लिखा नहीं जा सकता है. उसने बडी चतुराई से सोच लिया है कि इस डूबते जहाज के साथ किसको डूबो देना है और किसे बचाना है. पहाडों पर से लकडी के विशाल लठ्ठे को लुढकाता वह आदमी सोचता है कि उसकी नाव ऐसी होगी कि कोई भी न डूबेगा. हर कोई बच जायेगा. भले वह कीडा मकौडा ही क्यों न हो, क्यों न हो गधा या कुत्ता, क्यों न हो बीमार या बूढा, हो चाहे बेवजह ही, उसकी नाव उन सबको बचायेगी ही. उसे चुनकर किसी को डुबोने का कोई खयाल न आता था. वह दुःख के बाद किसी हुक्म पर काॅमेडी की रचना न कर सकता था. उसके जेहन में किसी कथा की नीयत पर भी कुछ को बचाने और मारने का खयाल न था. उसे उसके काम के लिए चुने हुए पात्रों की जरुरत न थी. इस तरह वह नाव बना रहा था. इस तरह वे दोनों धरती के दो अलग-अलग हिस्सों में थे. दोनों के बीच लगभग आधी धरती थी. एक तरफ दिन था तो दूसरी तरफ शाम और रात.

वक्त बीतता गया. दुनिया बदलती गई. बदलती दुनिया में सब कुछ नया था. ऊँची-ऊँची इमारतें थीं और भागती दौडती गाडियाँ. चारों ओर धुँआ था और नाक-मुँह पर मास्क लगाये लोग. घरों में साफ हवा की सप्लाई करने यंत्र लगे थे. खुले बाजार खत्म थे. उनकी जगह चारों ओर से बंद बाजार थे. बंद बाजारों में साफ हवा फेंकते यंत्र लगे होते. लोग बहुत कम दीखते. यूँ भी लोगों को दुनिया की बहुत जरुरत न रह गई थी. सबकुछ एक पैनल को टच करते ही मिल जाता था. पैनल को छूकर हर चीज खरीदी जा सकती थी.हर चीज बेची जा सकती थी. गरीबी कहीं नहीं थी. सारे गरीब मर-खप गये थे.सिर्फ पैसे वाले ही बचे थे. इस तरह हर तरफ शांति थी. कोई किसी से बात तक नहीं करता था. हर तरफ खुशियाँ थीं. लोगों के घर सामानों से भरे पडे थे. हर जगह आराम था. लोग सारा काम घर में रहे-रहे ही कर लेते थे. आसमान में रात को नकली चाँद निकल आता था. नकली चाँद के सामने असली चाँद की कोई बिसात न थी. जब जरुरत होती मौसम विभाग आसमान में बादलों का जमघट लगवा देता था और बारिश हो जाती थी. दुनिया की कुछ जगहें और भी ज्यादा बदल चुकी थीं. यहाँ घरों से बाहर निकलने पर कुछ खास ऐहतियातों का पालन करना पडता था. सूरज की किरणों से फैलने वाले रेडिएशन से बचने के लिए जो खास कपडे होते वह ही पहरे जाते थे और मुँह पर ऐसा मास्क पहरना होता जो बाहर की खराब हवा को खींचकर उसे साँस लेने के लिए माकूल हवा में बदल देता था और इस तरह उस हवा से साँस ली जाती. इंसान की उम्र और बढ गई थी. वह बेहद अकेला था और उसकी लंबी उम्र उसे खलती रहती थी. तापमान बहुत बढ गया था. ठण्ड का मौसम खत्म सा था. हरियाली बहुत कम रह गई थी.शहर में एक म्यूजियम था जहाँ तमाम किस्म के पेड-पौधे लगे थे. अतीत में दुनिया में पाये जाने वाले पेड-पौधे, जो अब बदल चुके मौसम में उग न पाते थे. म्यूजियम के बाहर एक बोर्ड लगा था - आइये जानें धरती का इतिहास. लोग इन पेड पौधों को देखने आते. इसे देखने उन्हें खासे पैसे खर्च करने पडते. पर फिर भी अभी प्रलय न आई थी. प्रलय एकदम से न आती थी. उसके किस्सों में वह अपने तरीके से आती रही. ईश्वर ने उस आदमी को बताया था कि प्रलय अपने तय वक्त पर आयेगी. वह अचानक न आयेगी.
                    
जिस जंगल में उस आदमी की बनाई नाव थी वे जंगल अब भी आबाद थे. कुछ जगहें अब भी महफूज थीं. वे धीरे-धीरे खत्म हो रहे थे. खबरिया चैनलों में उस आदमी की खबर सुनकर जंगल का एक ठेकेदार सतर्क हो गया था. एक रोज जब वह आदमी नाव की खराब हो चुकी धरनों को ठीक कर रहा था तभी वह आया था. उसने उसे चेताया था कि वह इस तरह से जंगल की लकडी नहीं ले सकता है. भले वह कहता रहे कि दुनिया को बचाने के लिए उसे इन लकडियों की जरुरत है. वह चाहे तो लकडियाँ खरीद सकता है. वह याने ठेकेदार और उसके लोग लकडियाँ बेचते हैं. यही कायदा भी है. पर वह हरे भरे पेडों को काट नहीं सकता. यह दुनिया के उसूलों के खिलाफ है.
                   
नाव बनाने वाले आदमी के पास खासे पैसे थे और वह लकडी खरीद सकता था. पर वह ऐसा करने से बचता था. उसे जो हिदायत ईश्वर ने दी थी उसमें एक हिदायत यह भी थी कि नाव बनाने का सारा काम उसे खुद करना है. वह किसी की मदद न ले. खुद ही जंगल में पेड छाँटे, खुद ही उनको काटे, उन्हें छीले, उनसे फट्टे और बत्ते तैय्यार करे और खुद ही उन्हें कीलों से ठोंके. अभी बहुत वक्त है और अगर वह भिडा रहा तो नाव बनाने और उसकी मरम्मत का सरा काम हो ही जायेगा. वह ईश्वर की इस हिदायत को सभी दूसरी हिदायतों की तरह से मानता रहा था. पर इधर कुछ दिनों से कई मुश्किलें आन पडी हैं. एक तो लकडी का मिलना बेहद मुश्किल हो गया है और दूसरा इसमें अलग तरह के खतरे भी हैं. सरकार ने पेडों को राष्ट्रीय संपदा घोषित कर दिया है. एक-एक पेड की कीमत लाखों रुपये में आँकी गई है. इन पहाडों पर ये जो जंगल हैं ये संसार के आखरी जंगलों में से एक हैं. इनकी कीमत बहुत है.

फिर एक और दिक्कत है. यह जगह अब पुराने दिनों की तरह से दुनिया की नजरों से दूर न रह गई है. इस तरफ सैलानियों की आवाजाही बढ गई है. तमाम तरह के लोग इन जंगलों में आते रहते हैं. संसार के खत्म होते जंगलों में से इस आखरी जंगल को देखने तमाम लोग इस तरफ आते ही हैं. इस विशाल नाव को देखकर वे कौतुहलवश खुश होते हैं. इसकी तस्वीरें लेते हैं. पाल वाली नाव बहुत पुराने दिनों की चीज है. किसी फिल्म या तस्वीर में देखी किसी चीज की तरह. अनजान समुद्रों और अचरज से भरे द्वीपों के किस्सों में ये पाल वाली नावें ही होती हैं. समुद्री लुटेरों और वाईकिंग लोगों की फिल्मों में पाल वाली नावें ही दीखती हैं. सौदागरों के किस्सों में और पुराने दिनों की समुद्र की लडाइयों में ये नावें ही नजर आती हैं. लोग बडे कौतुहल से इस नाव को देखते हैं. पर बहुत से लोग इस नाव को प्राकृतिक साधनों का दुरुपयोग भी मानते हैं. वे दुःखी होते हैं कि किस तरह एक नाव बनाने में जंगल के इतने सारे पेड काट डाले गये. ऐसे में उस आदमी को भी अब लगता है कि अब बहुत ज्यादा ईश्वर के बनाये कायदों के अनुसार नहीं चला जा सकता है. जिन लोगों को बचाने के लिए वह नाव बनाता आया है और जिसके लिए उसके पुरखे सैंकडों बरसों तक नाव बनाने में लगे रहे अगर वे सब ही नाव की बुराईयाँ करने लगें, बरसों से ईश्वर के आदेश पर चले आ रहे इस काम में कमियाँ निकालने लगें तो फिर क्या रह जाता है? यह ठीक है कि उसे दुनिया से कोई खास वास्ता नहीं. वह अकेले रह सकता है. पर वह जो काम कर रहा है वह तो दुनिया को बचाने के लिए ही है. ऐसे में संसार के इन तमाम लोगों को दुःखी कर कोई काम करना कहाँ तक ठीक है. वह भी अगर दुनिया के नियमों से ही चले और पेड न काटे और ठेकेदार से खरीदी गई लकडी से ही नाव की मरम्मत करे तो इससे क्या फर्क पड जायेगा. बस इतना ही न कि यह ईश्वर की एक हिदायत के अनुसार नहीं है. जब कोई भी पेड न कटेगा तब जरुर ही उसके ऐसे निर्णय पर सब लोग उसकी तारीफ करेंगे तो कितना अच्छा लगेगा.ऐसा सोचते उस आदमी को तनिक भी नहीं लगा कि ऐसा करके वह ईश्वर की हिदायत के ख़िलाफ जा रहा है. उसे लगता कि इससे कोई खास फर्क नहीं पडता. न नाव का काम रुकता है और न दुनिया को इससे कोई तकलीफ़ होती है और न दुनिया का कोई कायदा टूटता है. यह सबके लिए ठीक भी है ही.
               
आदमी के पास काफी पैसे थे. उसने ठेकेदार से लकडी खरीदने की बात सोच ही ली थी. ठेकेदार एक लालची ठेकेदार था. उसने यह भाँप लिया था कि इस आदमी के पास खासा पैसा है. उसने यह भी अंदाज लगा लिया था कि अधेड उम्र से बुढापे की ओर जाता यह आदमी काम करते-करते थक जाता है. इतनी बडी नाव को संभालना और उसकी मरम्मत करते रहना एक बेहद उबाऊ और थका देने वाला काम है. यह आदमी काम करते-करते थककर पसीना-पसीना हो जाता है. ऐसे लोगों को मदद की जरुरत तो होती ही है.
                   
ठेकेदार यह भी जान ही गया था कि यह आदमी थोडा सनकी, गुस्सैल और धुनी है. ऐसे लोगों को बेवकूफ बनाना भी आसान होता है. इस तरह उस ठेकेदार ने उस आदमी को एक आॅफर दिया. आॅफर यह था कि वह उसे लकडी से कहीं ज्यादा मजबूत बत्ते और फट्टे दे सकता है. ये एक किस्म के खास मटेरियल के बने होते हैं. कील से ठुक भी जाते हैं और खराब भी नहीं होते. आदमी उसे मना करते-करते रुक गया. उसने सोचा एक बार आजमा के देखने में क्या बुराई है. हो सकता है यह आदमी सही बात कर रहा हो.नाव बनाने वाले उस आदमी के अब तक के किस्से में, उसके पुरखों के किस्सों में कहीं भी ऐसी कोई बात न आई थी कि कभी किसी ने उन्हें धोखा दिया हो. विश्वास न करने की कोई दूसरी वजह भी न थी. ठेकेदार यह जानता है कि यह जो नाव है यह दुनिया को प्रलय से बचाने के लिए है. वह उन बहुत कम लोगों में से एक है जो उस आदमी की कहानी पर यकीन रखते हैं. जो मानते हैं कि प्रलय आयेगी और ऐसे में यह नाव इस सारे संसार को बचायेगी. उस आदमी को वह ठेकेदार उन बहुत कमतर लोगों में से एक लगता है जो उसकी बात पर यकीन रखते हैं. ऐसे में भला वह उसे धोखा क्यों देगा. हुआ यूँ था कि ठेकेदार ने उस आदमी से एक ऐसा रिश्ता बना लिया था कि उस रिश्ते में अविश्वास की कोई गुँजाइश न थी. दुनिया में रिश्तों के मतलब बदल चुके थे. सबसे विश्वसनीय रिश्ते पैसों के रिश्ते लगते थे. व्यापार और बाजार के रिश्तों से प्यार की खुशबू आती थी. सामान खरीदने और बेचने के विज्ञापनों में चाहतों का संसार था. पैसों के लिए सामान बेचता इंसान बहुत प्यार से पेश आता था. पर नाव बनाने वाले आदमी को यह सब बातें पता न थीं. वह एक अलहदा आदमी था. भले बाहर की दुनिया के लोगों से उसका कोई वास्ता न था, पर फिर भी वह उन पर ऐतबार करना चाहता था. वह विश्वास करने में विश्वास रखता था. यह उसके पुरखों के समय से चली आ रही परंपरा थी. यह विश्वास ही था कि वे आज तक इस नाव को बनाने का काम करते चले आये थे. विश्वास ही था कि निपट अकेलेपन में भी मन न घबराता था. वह क्यों अविश्वास करे? अविश्वास उसकी फितरत नहीं.
                  
ठेकेदार लालची था और उसने उसे जो फट्टे और बत्ते लाकर दिये थे वे लकडी के फट्टों और बत्तों से कहीं ज्यादा मजबूत लगते थे. दिक्कत बस एक थी कि उनके भीतर भूसे जैसा कुछ भरा था और ज्यादा दबाव में वे टूट जाते थे. पर उनमें एक शानदार चमक थी. एकबारगी उन्हें देख ऐसा लगता था कि वे लकडी से कहीं ज्यादा मजबूत हों. ठेकेदार यह जानता था कि कहीं कोई प्रलय नहीं आने वाली. नाहक ही यह आदमी ऐसी नाव बना रहा है. यह नाव इसी जंगल में पडी रहनी है. ऐसे में अगर ये फट्टे और बत्ते इसमें लग भी जायें ंतो इससे किसी को कोई नुकसान नहीं. उसने इनकी खासी कीमत भी उस आदमी से वसूल की थी. आदमी को भी उसे इतने पैसे देते कोई दिक्कत न हुई थी. इन फट्टों और बत्तों की खासियत यह थी कि इनमें दीमक न लगती थी. यह बात सच थी और नाव में एक बार लग जाने पर यह बरसों तक खराब न होते. दिक्कत बस यह थी कि इसके बाहर की मोटी परत ज्यादा दबाव में टूट जाती थी और उसके भीतर का बुरादा बाहर गिर जाता था. फट्टों और बत्तों को ठोंकने पर उनकी बाहरी परत के टूटने और भीतर का बुरादा बाहर गिरने की पूरी संभावना थी. पर ठेकेदार के पास इसका भी एक तोड था. उसने उस आदमी को सलाह दी कि उसका बढई इन फट्टों और बत्तों को नाव की धरन के भीतर बाहर लगा देगा और इससे नाव की पूरी धरन मजबूत हो जायेगी. आदमी उसकी बात पर राजी हो गया. ठेकेदार ने बढई का मेहनताना भी कम माँगा था और उस आदमी से कहा था कि यह तो एक सवाब का काम है, सारी दुनिया को बचाने का काम. ऐसे काम में मेहनताने से ज्यादा एक भी पैसा लेना ठीक नहीं. आदमी को यह न पता था कि ठेकेदार उसकी नाव देखने आने वाले सैलानियों से टिकिट के नाम पर खासा पैसा वसूलता था. दुनिया में इन जंगलों की जो शोहरत थी उसमें इन जंगलों में रखी इस नाव का खासा जिक्र होता था. रंग साज अबू हसन ने सुल्तान नासिरुद्दीन महमूद के वक्त इस नाव की जो तस्वीर बनाई थी इस नाव की उससे कहीं ज्यादा शानदार और चमकती दमकती तस्वीरें सारी दुनिया में थीं. कुछ लोग तो इन जंगलों में सिर्फ नाव देखने ही आते थे. इस सारे खेल के बारे में कुछ भी उस आदमी को पता न था.
              
बढई ड्रिल मशीन से फट्टों और बत्तों में छेद करता और फिर करीने से उन्हें नाव की धरन में लगाता जाता. धरन की सारी कोठरियाँ कुछ ही दिनों में दुरुस्त हो गई थीं. आदमी खुश था. उसने एक दिन बढई को गले से लगा लिया. दोनों को गले लगता देख ठेकेदार भी खुश हो गया.
प्रलय की जब शुरुआत हुई तब दुनिया में जंग छिडी हुई थी. हर जगह जंग की बातें थीं. खबरें जंग के किस्सों से भरी पडी थीं. लोगों की बातों में घृणा और नफरतों के लफ्ज बजबजा रहे थे. तभी उत्तर ध्रुव के हिमखण्ड तेजी से पिघलने शुरु हुए थे. ऊँची-ऊँची हिमशिलायें टूट-टूट कर गिर रही थीं. हजारों-लाखों साल पुरानी हल्की नीली बर्फ की मोटी-मोटी चट्टानें टूट-टूट कर समुद्र में गिर रही थीं. किसी सैटेलाइट के कैमरे ने इस नजारे को कैद किया था. पर किसी को फुरसत न थी. अभी जंग थी, नफरतें थीं, गालियाँ और कमीनपना था और इन सब चीजों की खबरें थीं. खून और लाशों के नजारे खबरों का मुख्य आईना थे. खण्डहरों में तब्दील होती बस्तियों के चित्र और वीडियो रोज के आम नजारों की तरह से दीखते थे. समुद्र में तैरती विशाल बर्फ की चट्टानें बढती जा रही थीं. रोज हजारों की संख्या में बडी-बडी बर्फ की शिलायें समुद्र में गिरती, तैरती, पिघलती जा रही थीं. खण्डहर होते शहरों को देखकर दुनिया खुश होती थी. लाशों के ढेर और रोते बिखलते लोगों को देखकर लोग खुश होते. राख में तब्दील होते शहरों को गिनकर हार जीत तय हो रही थी. लाशों के ढेर देखकर घृणा और नफरतों से भरी तमाम दीवानगियाँ बढती जाती थीं. धरती का तापमान बढता जा रहा था. समुद्र का पानी चढता जा रहा था. रासायनिक बमों और आणविक हथियारों के हमलों से बढता तापमान लगातार बढता ही जा रहा था. समुद्र का पानी अपनी सीमा पार कर शहरों और कस्बों में दाखिल हो रहा था. आसमान में काले बादलों के झुण्ड के झुण्ड तैर रहे थे. आसमान में छाये काले बादलों को देखकर यह चेतावनी जारी की गई थी कि आणविक हमले के बाद उत्पन्न यह रेडियेशन से भरे बादल हैं. इन बादलों से होने वाली बारिश कई दिनों तक चलेगी.

सिर्फ वह आदमी, नाव बनाने वाला आदमी ही यह जान पाया था कि यह बारिश पूरे दो सालों तक चलनी थी.उस समय तक जब तक कि सारी धरती जलमग्न न हो जाये. राख़ और गर्द में विलीन होते संसार पर बेतहाशा बारिश हो रही थी. अधजली लाशों और राख में दबी हड्डियों पर मूसलाधार पानी गिर रहा था और सिर्फ वह आदमी ही था जो जानता था कि यह प्रलय है....कि यह सिर्फ प्रलय है.... यह कोई रेडियेशन नहीं, यह कोई रासायनिक हथियारों का हमला नहीं, यह रेडियेशन से असीमित बढ गया तापमान नहीं, यह ओजोन की परत को निगल चुका हजारों परमाणु बमों का हमला नहीं, नहीं...नहीं.... नहीं है यह प्रचंण्ड विस्फोटों की आग में वायुमण्डल की आक्सीजन का जलकर खत्म होते जाना, नहीं है यह उच्च तापमान और रेडियेशन से जलकर भस्म हो गई लाशों का ढेर, नहीं है यह बढते तापमान से पिघलकर खत्म हो जाना धु्रवों की बर्फ का, न ही बढते जाना समंदर के पानी का, न ही है ये अपना संतुलन बनाते नये समंदर में उढती प्रचण्ड लहरें और न ही भयावह विस्फोटों से पानी से भरे परात की तरह काँपते समुद्र में उठती सैंकडों सुनामी लहरें, न ही है यह राख़ में बदल गये शहर और मिट्टी में तब्दील हो गई हजारों बरस पुरानी सभ्यता...... यह इनमें से कुछ भी नहीं यह सिर्फ और सिर्फ प्रलय है और इस बात को सिर्फ वह आदमी ही जानता था.

चारों ओर बस पानी ही पानी दीखता था जिनमें तैर रहे थे खत्म हो चुकी सभ्यता के निशान. ऊँची लहरों में पछाड खाता एक विशाल हहराता समुद्र था बस. सारे पहाड, सारी घाटियाँ....जमीन का हर कतरा दफ्न था इस हहराते समंदर के नीचे.
                     
आदमी ने नाव की धरन की कोठरियों को राशन के तमाम सामानों से भर लिया था. पेडों की तमाम किस्मों को उसने नाव के एक कोने में तरतीब से जमाया था. बहुत सी किस्में अब इस दुनिया में नहीं थीं. उनके इस नाव पर न होने का उसे अफसोस था. बर्फ के ऊँचे पहाडों से घिरी जंगलों की इस दुनिया में जंग का कोई खास असर न पडा था. यह जगह दुनिया से इतनी दूर थी कि इस जगह पर बम बरसाने या इसे खत्म कर डालने का खयाल किसी को न आया था. यह एक ऐसी जगह थी जिसकी किसी को जरुरत न थी. इस तरह कोई इस जगह को नष्ट न करना चाहता था. न जाने उस आदमी का वह कौन सा पुरखा था जिसने सैंकडों सालों पहले इस जगह का चुनाव किया था. दुनिया में होकर भी दुनिया से कटी और बेहद महफूज जगह. वह कहता था कि दुनिया को बचाने के लिए बनाई जाने वाली नाव दुनिया से सबसे दूर, सबसे ख़ामोश और अनजान जगह पर न बनाई जाये तो कहाँ बनाई जाये - वह कहता - जिन जगहों को कोई नहीं जानता, जिनकी किसी को जरुरत नहीं उन्हीं जगहों पर वह नाव बनाई जा सकती है जो किसी दिन सारी इंसानियत को बचायेगी ....

बहुत से जानवरों को भी उस आदमी ने अपनी नाव में बैठा लिया था. पहाड के ऊपर तक पानी आने में अभी देर थी. जिस रोज पानी आया उस दिन उस आदमी ने प्रार्थना की - मैं कोई नूह नहीं, न ही कोई मनु, मैं एक इंसान हूँ और ईश्वर के हुक्म पर यह नाव बनाता रहा हूँ.....ओ हवाओं, ओ समुद्र, ओ आसमान तुम सब मेरी मदद करना.....

चढते पानी को देखता ठेकेदार जब तक आया तब तक नाव पानी पर तैरती दूर जा चुकी थी. जोर का पानी गिर रहा था और तेज तूफानी हवा चल रही थी. ठेकेदार का घर पानी में बह चुका था. उसकी सारी दौलत पानी-पानी हो चुकी थी. बस वह आख़री बार उस आदमी से मिलना चाहता था. उससे कुछ कहना चाहता था. पर अब बहुत देर हो चुकी थी.
                 
लहरों पर थपेडे खाती वह नाव चली जा रही थी. न जाने कहाँ तो? उसमें सारी सृष्टि को फिर से बसाने का जतन था. तमाम प्रकार के बीज थे और तमाम प्रकार के जीव जन्तु. इन सबसे दुनिया की फिर से शुरुआत की जानी थी. उस नाव में एक बदहवास सा आदमी था. जो कभी लहरों पर डोलती अपनी नाव को तो कभी गरजते बरसते आसमान को देखता था. वह अकेला था. निपट अकेला. बिजली के कडकने और लहरों के गर्जन के साथ -साथ तमाम प्रकार के जानवरों की तरह-तरह की आवाजें उसकी नाव में गूँज रही थीं. जानवरों का चिल्लाना और आकाश का चीखना एक साथ गूँजता था. सूरज को निकले कई दिन बीत गये थे. काले आकाश ने सूरज को अपने भीतर दफन कर लिया था. दूर तक अंधेरे में हहराता और गरजता समंदर था. कहीं कुछ न दीखता था. नाव में रौशनी न हो पाती थी. तेज चलती हवायें रौशनी को बुझा देती थीं. अंधेरे में जानवरों की आँखें चमकती थीं. आसमान में बिजली चमकती थी.
             
ऐसी ही एक रात तेज लहरों के गर्जन के बीच धरन की किसी कोठी की दीवार के चटकने की जोर की आवाज आई थी. जैसे लकडी के फट्टे एक दूसरे से टूट कर अलग होते हैं, जैसे चडचडाता हुआ कोई पेड गिरता है ठीक वैसी ही. वह आदमी चैंक कर सीढियों से नीचे उतरता धरन की कोठियों की तरफ भागा था. नाव की लकडी की भीत पर भागते हुए किसी आशंका से उसका दिल घबरा उठा था. फडफडाते पालों की आवाज के बीच वह बदहवास सा नीचे की तरफ भागा था. सीढियों से नीचे उतरते ही उसका पैर घुटनों तक पानी में डूब गया. उसने एक मशाल जला ली थी. सामने धरन की कोठियाँ थीं. कोठियों का दरवाजा बंद था और दरवाजों की संद से पानी की धार नाव के पेंदे में भर रही थी. धरन की कोठियों के दरवाजे चरमरा रहे थे. उनके भीतर भरे पानी के छपाके और चिडचिडाती लकडियों की आवाज के साथ पानी की मोटी-मोटी धार पेंदे की जमीन पर गिर रही थी. धरन की कोठियों में राशन था. पर उन्हें खोलना अब मुनासिब न था. उसने मशाल को दीवार पर बने एक आले में लटकाया. अपने कपडे उतारे और जहाँ-जहाँ से पानी गिर रहा था उस पूरे में लकडी के बत्ते ठोंकने लगा. ऊपर भीत पर बैठे जानवर ऊँघ रहे थे. कोई आदमखोर गुर्रा रहा था. प्रचण्ड लहरों में नाव न जाने कहाँ तो बही जा रही थी. लहरों पर उछलती कूदती उस विशाल नाव के पेंदे में वह आदमी लडखडाता, गिरता-पडता, बदहवास सा धरन के दरवाजों की संद पर लकडी के बत्ते ठोंक रहा था. जिन कोठियों में राशन भरा था वे पानी में डूब चुकी थीं. उन्हें खोलने का कोई उपाय न था अब. ठेकेदार ने जो फट्टे और बत्ते उसे दिये थे वे कमजोर थे. पानी के दबाव से पहले तो वे मुड गये और या तो कील सहित उखड गये और जो न उखडे तो वे टूट गये. धरन में इतना पानी भर गया था कि नाव धरन की दिशा में थोडा झुक गई थी. आदमी ने धरन की कोठियों में पूरे साल भर का राशन रखा था. सभी प्रकार के जानवरों के लिए और खुद के लिए भी पर अब सब पानी में डूब गया था.

दो रोज बाद बादल छंटे थे और हल्का प्रकाश फैला था. दूर-दूर तक पानी ही पानी दीखता था. आकाश और समंदर मिल गये लगते थे. समंदर में बडी-बडी लहरें उठ रही थीं. किसी दानव की तरह गरजती वे लहरें नाव से टकरातीं, एक के बाद एक. उनके प्रहार से नाव तेज हिचकोले खाती और जब तक नाव लहर पर ऊपर उठकर नीचे आती तब तक दूसरी विशाल लहर उससे आ टकराती. आदमी को बार-बार उल्टियाँ हो रही थी. लहरों पर हिचकोले खाती उठती-गिरती नाव में जानवरों के रेंकने, गुर्राने, भौंकने की आवाज सारी रात आती रही थी. दूर तक दीखते लहरों में पछाड मारते समंदर में जगह-जगह बर्फ के बडे-बडे हिमखण्ड तैर रहे थे. दुनिया की तबाही का मलबा एक चैडी लंबी लकीर की शक्ल में इन लहरों पर नाच रहा था.  उनके साथ ही समंदर में तैरती लाशों का एक हुजूम भी लहरों के साथ ऊपर नीचे हो रहा था. आकाश के काले बादलों से आती रौशनी में समंदर का यह मंजर किसी नर्क सा दीखता.

आदमी ने मांसाहारी जानवरों को बडे-बडे पिंजरों में बंद कर रखा था. वे उन पिंजरों में गुर्राते, अपने दाँत दिखाते बेचैन इधर से उधर हो रहे थे. पिंजरे को तोडने के लिए पूरी रात वे उन पर अपने नाखून मारते रहे थे. पेडों और शाकाहारी जानवरों के बीच एक बागड थी. बागड नाव के हिलने डुलने से कमजोर हो गई थी. जानवरों को पिछले एक सप्ताह से खाना न मिला था. सारा राशन पानी में डूबकर खत्म हो गया था और उन्हें खिलाने को कुछ भी न था. भूख अपने चरम पर थी. वह खुद भूख से निढाल नाव की भीत के एक कोने में पडा था. लहरों पर डोलती नाव का कोई मुकान न था. हर तरफ पानी था. लहरें थीं. जमीन का हर कतरा पानी में दफ्न हो चुका था.

भीत पर पडे-पडे ही उसने देखा था कि किस तरह से तमाम जानवरों ने अपने सींग से पेड-पौधों और उनके बीच की बागड को गिरा दिया था. भूख से बदहवास जानवर उन पेड-पौधों पर टूट पडे थे. आदमी के भीतर जैसे कुछ दरक गया था. वह उन्हें रोकने की कोशिश में उनकी ओर लपका था, पर वे सैंकडों थे और वह अकेला. जानवरों को यह समझाना नामुमकिन था कि हो सकता है कुछ दिनों के बाद जमीन मिल जाये और जीवन की फिर से शुरुआत हो. इस तरह एक दूसरे को खाकर हम नई दुनिया नहीं बसा सकते. वे जानवर इतने भूखे थे कि उन्होंने तमाम वनस्पतियों पर हमला कर दिया था. कई पौधे उनके खुरों के नीचे कुचल गये थे. कई झाडियों को उन्होंने रौंद डाला था. इसी तरह की वह भी एक रात थी जब जानवरों की आवाज से वहआदमी जाग गया था. पर भूख और कमजोरी से निढाल वह वहीं नाव की भीत पर पडा रहा था. कुछ आदमखोर अपने पिंजरे से बाहर निकल आये थे और उन्होंने जानवरों पर हमला कर दिया था. नाव की भीत जानवरों के खून से रंग गई थी. कहीं किसी का सींग वाला सिर पडा था तो कहीं किसी का पैर. कुछ जानवर नाव से बाहर कूद गये थे और हहराते समंदर में समा गये थे.

वह एक दिन था. बादल छंट चुके थे. नाव की भीत मरे हुए जानवरों की लाशों और कटे फटे अंगों से भरी हुई थी. चारों ओर बदबू थी. खून और कटे फटे अंगों पर कीडे- मकौडे रेंग रहे थे. भूख से निढाल आदमी नाव के सबसे सामने के कोने में पडा था. तीन आदमखोर उसके ऊपर गुर्राते खडे थे. एक आदमखोर का खून से सना विशाल रदनक उसके सर के ऊपर था. एक ने उसकी छाती को अपने नाखूनों से खरोंच दिया था. आदमी के शरीर में ताकत न थी. वह पूरे दस दिनों से भूखा था. पर अबवह इन भूखे आदमखोरों के निवाले से ज्यादा कुछ न था. उसने डूबती आँखों से आसमान की ओर देखा था. बादलों के पीछे ईश्वर था. ईश्वर उससे नाराज था. ईश्वर उससे इस बात पर नाराज था कि उसने जमीन के एक इंसान पर भरोसा किया था. उसने ईश्वर की हिदायत का उल्लंघन किया था. उसने न सिर्फ उस इंसान पर भरोसा किया बल्कि उसी इंसान के दिये फट्टों और बत्तों से नाव की धरन बनाई थी. उसनेउसके लाये बढई से, नाव पर कीलों से उन फट्टों और बत्तों को ठुकवाया था. इंसान पर भरोसा करके उसने ईश्वर के कायदे को तोडा था और इस तरह दुनिया को फिर से बसाने के काम को मटियामेट कर दिया था. वह अब सिर्फ आदमखोरों का निवाला था और ईश्वर उससे बेतरह नाराज़ था.

               
                                                         तरुण भटनागर
                                                          9425191559



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